- अध्याय ५१ धन्यव्रत
- अध्याय ५२ कान्तिव्रत
- अध्याय ५३ सौभाग्य- व्रत
- अध्याय ५४ अविघ्नव्रत
- अध्याय ५५ शान्ति व्रत
- अध्याय ५६ काम-व्रत
- अध्याय ५७ आरोग्य-व्रत
- अध्याय ५८ पुत्रप्राप्ति व्रत
- अध्याय ५९ शौर्य एवं सार्वभौम व्रत
- अध्याय ६० राजा भद्राश्वका प्रश्न और नारदजीके द्वारा विष्णुके आश्चर्यमय स्वरूपका वर्णन
- अध्याय ६१ भगवान् नारायणसम्बन्धी आश्चर्यका वर्णन
- अध्याय ६२ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर आदिके गुणधर्म
- अध्याय ६३ कलियुगका वर्णन
- अध्याय ६४ प्रकृति और पुरुषका निर्णय
- अध्याय ६५ वैराज - वृत्तान्त
- अध्याय ६६ भुवन कोशका वर्णन
- अध्याय ६७ जम्बूद्वीपसे सम्बन्धित सुमेरुपर्वतका वर्णन
- अध्याय ६८ आठ दिक्पालोंकी पुरियोंका वर्णन
- अध्याय ६९ मेरुपर्वतका वर्णन
- अध्याय ७० मन्दर आदि पर्वतोंका वर्णन
- अध्याय ७१ मेरुपर्वतके जलाशय
- अध्याय ७२ मेरुपर्वतकी नदियाँ
- अध्याय ७३ देव - पर्वतोंपरके देव - स्थानोंका परिचय
- अध्याय ७४ नदियोंका अवतरण
- अध्याय ७५ नैषध एवं रम्यकवर्षोंके कुलपर्वत, जनपद और नदियाँ
- अध्याय ७६ भारतवर्षके नौ खण्डोंका वर्णन
- अध्याय ७७ शाक एवं कुशद्वीपोंका वर्णन
- अध्याय ७८ क्रौञ्च और शाल्मलिद्वीपका वर्णन
- अध्याय ७९ त्रिशक्ति- माहात्म्य * और सृष्टिदेवीका आख्यान
- अध्याय ८० त्रिशक्ति- माहात्म्यमें 'सृष्टि', 'सरस्वती' तथा 'वैष्णवी' देवियोंका वर्णन
- अध्याय ८१ महिषासुरकी मन्त्रणा और देवासुर संग्राम
- अध्याय ८२ महिषासुर का वध
- अध्याय ८३ त्रिशक्तिमाहात्म्यमें रौद्रीव्रत
- अध्याय ८४ रुद्रके माहात्म्यका वर्णन
- अध्याय ८५ सत्यतपाका शेष वृत्तान्त
- अध्याय ८६ तिलधेनुका माहात्म्य
- अध्याय ८७ जलधेनु एवं रसधेनु - दानकी विधि
- अध्याय ८८ गुड़धेनु - दानकी विधि
- अध्याय ८९ शर्करा तथा मधु- धेनुके दानकी विधि
- अध्याय ९० 'क्षीरधेनु' तथा 'दधिधेनु' - दानकी विधि
- अध्याय ९१ 'नवनीतधेनु' तथा 'लवणधेनु' की दानविधि
- अध्याय ९२ 'कार्पास' एवं 'धान्य- धेनु' की दानविधि
- अध्याय ९३ कपिलादानकी विधि एवं माहात्म्य
- अध्याय ९४ कपिला-माहात्म्य, ‘उभयतोमुखी' गोदान, हेम कुम्भदान और पुराणकी प्रशंसा
- अध्याय ९५ पृथ्वीद्वारा भगवान्की विभूतियोंका वर्णन
- अध्याय ९६ श्रीवराहावतारका वर्णन
- अध्याय ९७ विविध धर्मोकी उत्पत्ति
- अध्याय ९७ सुख और दुःखका निरूपण
- अध्याय ९८ भगवान्की सेवामें परिहार्य बत्तीस अपराध
- अध्याय ९९ पूजाके उपचार
- अध्याय १०० श्रीहरिके भोज्य पदार्थ एवं भजन- ध्यानके नियम
श्री वाराह पुराण 51-100 अध्याय
अध्याय ५१ धन्यव्रत
अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! इसके बाद अब उत्तम धन्यव्रत बताता हूँ, जिसके प्रभावसे निर्धन व्यक्ति भी यथाशीघ्र धन्यवादका पात्र हो सकता है। यह नक्तव्रत’ है। अगहनमासके शुक्लपक्षकी प्रतिपदा तिथिको यह व्रत करना चाहिये। इस व्रतमें अग्निस्वरूप भगवान् विष्णुकी पूजाका विधान है । ॐ वैश्वानराय नमः’, ‘ॐ अग्नये नमः’, ‘ॐ हविर्भुजाय नमः’, ‘ॐ द्रविणोदाय नमः, ॐ संवर्ताय नमः’ तथा – ‘ॐ ज्वलनाय नमः ‘ – इन मन्त्रवाक्योंका उच्चारण करके अग्निमय भगवान् श्रीहरिके चरण, उदर, वक्षःस्थल, भुजाएँ सिर तथा सर्वाङ्गकी क्रमशः पूजा करनी चाहिये। इस विधानसे देवाधिदेव भगवान् जनार्दनकी अर्चना करनेके पश्चात् उनके सामने एक हवनकुण्ड बनवानेकी विधि है। विद्वान् पुरुष इन्हीं उक्त मन्त्रोंद्वारा उस कुण्डमें हवन करे। इस व्रतमें यवान्न और घृतसे युक्त भोजन करनेकी बात कही गयी है। यह व्रत ऐसा ही कृष्णपक्षमें भी होता है। चार महीनेतक इसे करना चाहिये। चैत्रसे आषाढ़तक चार महीनोंमें घृतयुक्त खीर तथा श्रावणसे कार्तिकतक सत्तूका भोजन करनेका नियम है। इस प्रकार एक वर्षमें यह व्रत समाप्त होता है। व्रत पूरा हो जानेपर विद्वान् पुरुष अग्निदेवकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनवाये और दो लाल वस्त्रोंसे उसे आच्छादितकर लाल फूलसे पूजा करे और लाल चन्दन एवं कुकुमका अनुलेपन करे। फिर ब्राह्मणकी पूजा करे। उसे दो वस्त्र अर्पण करे और वह प्रतिमा उस ब्राह्मणको दे दे। तदनन्तर यह मन्त्र पढ़कर प्रार्थना करे – ‘भगवन्! इस ‘धन्य’ नामक व्रतको सम्पन्न करनेसे मैं धन्य हो गया, मेरा कर्म धन्य हो गया तथा मेरी चेष्टा धन्य हो गयी। अब मुझे सदा सुख-शान्ति सुलभ हो जाय।’ इस प्रकार कहकर वह श्रेष्ठ प्रतिमा एवं शक्तिके अनुसार धनराशि देनेका विधान है। जिसके पास भोग्य वस्तुका अत्यन्त अभाव है, वह पुरुष भी यदि इस धन्यव्रतको करता है, तो वह तुरंत धन्य होनेका अधिकारी हो जाता है। केवल इस व्रतके करनेसे ही व्यक्ति इस जन्ममें सौभाग्य एवं प्रचुर धन-धान्यसे सम्पन्न हो जीवन्मुक्त हो जाता है। जो भी व्यक्ति इस प्रसङ्गको सुनेगा अथवा भक्तिके साथ पढ़ेगा, वे दोनों इस लोकमें उसी क्षण धन्य हो जायेंगे। ऐसा सुना जाता है कि पूर्व कल्पमें महात्मा कुबेरका जन्म शूद्रयोनिमें हुआ था। उस समय उन्होंने इस व्रतको किया था और इसीके फलस्वरूप वे धनके स्वामी बन गये।
अध्याय ५२ कान्तिव्रत
अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! अब कान्ति नामक व्रतको बताता हूँ। पहले चन्द्रमाने यह व्रत किया था, जिसके फलस्वरूप उन्हें पुनः कान्ति सुलभ हो गयी। प्राचीन कालकी बात है। दक्ष प्रजापतिके शापसे चन्द्रमाको राजयक्ष्मा नामक रोग हो गया। तब उन्होंने यह व्रत किया और वे फिर तत्क्षण कान्तिमान् बन गये। राजेन्द्र ! यह नक्तव्रत है। इसे कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी द्वितीया तिथिके दिन करना चाहिये। इसमें बलराम और श्रीकृष्णकी पूजा होती है। इस तिथिमें ये दोनों देवता दो कलावाले चन्द्रमामें विराजते हैं। अतः चन्द्रमाको विष्णुका उत्तम रूप माना जाता है। बुद्धिमान् पुरुष ॐ बलदेवाय नमः’ कहकर उनके चरणोंकी तथा ‘ॐ केशवाय नमः ‘ से सिरकी अर्चना करे। सुव्रत ! फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रको पढ़कर उन्हें अर्घ्य देना चाहिये। भगवन्! आप अमृतस्वरूप हैं, ब्रह्माने आपका सम्मान किया है, यज्ञलोकके आप अध्यक्ष हैं। परमात्मन्! इस समय आप चन्द्रमाके रूपमें पधारे हैं। अतः आपको नमस्कार है।’ व्रती ब्राह्मण रातमें घृतसे युक्त यवान्न भोजन करे ।
(यह भी चौमासेका व्रत है) फाल्गुनसे लेकर चार महीनेतक इस व्रतको करनेवाला पुरुष पवित्रतापूर्वक रहकर खीर भोजन करे। कार्तिक- मासमें यवान्नके आहारपर रहे और अगहनी चावल से बने हुए हव्यद्वारा हवन करे। आषाढ़ आदि चार महीनों में तिलका हवन करना चाहिये। इसी प्रकार तिलका भोजन भी करना चाहिये। फिर वर्ष पूरा हो जानेपर चन्द्रमाकी एक सोनेकी प्रतिमा बनवाकर उसे दो सफेद वस्त्रोंसे आच्छादित करे । उसपर उजले फूल चढ़ाकर श्वेत चन्दनसे अनुलेपनकर तथा भलीभाँति से पूजा करके ब्राह्मणको दे दे, अथवा वर्षभर व्रतकर चन्द्रमाकी चाँदीकी ही मूर्ति बनवाये और दो श्वेत वस्त्रोंसे आच्छादितकर उसकी श्वेत पुष्पों एवं श्वेत चन्दनसे पूजा करे। ऐसे ही ब्राह्मणकी भी पूजाकर उसे वह प्रतिमा दान कर दे। ब्राह्मणको प्रतिमा अर्पण करते समय व्रती मन ही मन मन्त्र पढ़े- ‘नारायण! आप चन्द्रमाके रूपमें पधारे हैं। आपको मेरा नमस्कार। भगवन्! आपकी कृपासे मैं भी इस लोकमें कान्तिमान्, सर्वज्ञ एवं प्रियदर्शन बन जाऊँ।” राजन् ! उक्त प्रतिमाको दानकर मनुष्य तत्क्षण कान्ति प्राप्त कर लेता है। बहुत पहले स्वयं चन्द्रमाने यह व्रत किया था। व्रत पूर्ण हो जानेपर स्वयं भगवान् श्रीहरि उनपर संतुष्ट हो गये और उनका यक्ष्मा रोग दूरकर उन्हें ‘अमृता’ नामकी कला प्रदान की। महाभाग चन्द्रमाने उस कलाको द्वितीयाके बाद सदा अपनेमें स्थान दिया। उन्हें यह कला तपके प्रभावसे ही उपलब्ध हुई है। इतना ही नहीं, वे सोम और द्विजराज भी कहलाने लगे। शुक्लपक्षकी द्वितीया तिथिके दिन सोमरस पीनेवाले दोनों अश्विनीकुमारोंका कीर्तन करना चाहिये। ये दोनों शुक्लपक्षकी द्वितीयाके चन्द्रमामें शेष और विष्णु नामसे विख्यात होकर सुशोभित होते हैं – इसमें कोई संशय नहीं । राजेन्द्र ! भगवान् विष्णु परम पुरुष परमात्मा हैं। उनसे रिक्त कोई देवता नहीं है। वे ही अनेक नाम धारणकर सर्वत्र (सभी देवताओंके रूपमें) विराजित हैं।
अध्याय ५३ सौभाग्य- व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं — राजन् ! अब उस सौभाग्य- व्रतको सुनो, जिसके आचरणसे स्त्री एवं पुरुषोंको शीघ्र सौभाग्यकी प्राप्ति होती है- भाग्यका उदय हो जाता है। फाल्गुनमासके शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको नक्तव्रतके रूपमें कर्ताको पवित्र एवं सत्यवादी होकर उपवास करना चाहिये। इस व्रतमें लक्ष्मीसहित भगवान् श्रीहरिकी अथवा उमासहित महाभाग शंकरकी पूजाका विधान है। जो लक्ष्मी हैं, वही गिरिजा हैं और जो श्रीहरि हैं, वे ही तीन नेत्रवाले हर भी हैं – सम्पूर्ण वेदशास्त्रों एवं पुराणोंमें यही बात सुस्पष्ट निर्दिष्ट है। किंतु जो ग्रन्थ इसके विपरीत यह कहता है कि ‘विष्णुसे रुद्र भिन्न हैं, वह किसी अच्छे कविका प्रबन्ध हो सकता है, पर उसे ‘शास्त्र’ कदापि नहीं कहा जा सकता। अतः विष्णु रुद्रके ही स्वरूप हैं और लक्ष्मी गौरीकी ही अन्यतम प्रतिकृति हैं – यही कहना समुचित है। जो इन दोनोंमें भेद बतलाता है, वह निकृष्ट है।’ राजेन्द्र ! फिर व्रती पुरुष यत्नपूर्वक लक्ष्मीसहित श्रीहरिकी भलीभाँति पूजा करे। उन परम प्रभुके पूजनके मन्त्र यों हैं- ॐ गम्भीराय नमः, ॐ सुभगाय नमः, ॐ देवदेवाय नमः, ॐ त्रिनेत्राय नमः, ॐ वाचस्पतये नमः, ॐ रुद्राय नमः – इन मन्त्रोंके द्वारा क्रमशः उनके दोनों चरण, कटिभाग, उदर, मुख, सिर एवं सभी अङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये। इस विधिके अनुसार पूजाकर मेधावी मनुष्य लक्ष्मीसहित विष्णुकी और गौरीसहित शंकरकी पुष्प- चन्दन आदि उपचारोंद्वारा पूजा करे। तदनन्तर मूर्तिके सामने मधु एवं घृतसे हवन करना चाहिये। महाराज! यदि सर्वोत्तम सौभाग्य पानेकी कामना हो तो तिल और घृतसे हवन कराये। इस दिन बिना नमक तथा घृतके शुद्ध गेहूँसे तैयार किया हुआ भोजन पृथ्वीपर ही बैठकर करना चाहिये। कृष्णपक्षके लिये भी यही विधि बतायी जाती है। आषाढ़से लेकर आश्विनतकके चार महीनोंमें यह व्रत प्रतिपदा तिथिके दिन होता है और द्वितीयाको पारण करनेकी विधि है। इन महीनोंमें यह व्रत यावान्नसे करना चाहिये । राजन् ! इसके पश्चात् कार्तिकसे पुसतक – तीन मासोंमें व्रती पुरुष पवित्रतापूर्वक संयमसे रहकर श्यामाक (साँवा ) – का भोजनमें उपयोग करे। नरेश ! फिर माघमासके शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिके दिन बुद्धिमान् पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार पार्वती शंकर तथा लक्ष्मी-नारायणकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनवाकर किसी सत्पात्र एवं विद्वान् ब्राह्मणको अर्पण कर दे। जिसके पास अन्नका अभाव हो, वेदका जो पारगामी विद्वान् हो, जो सदा दूसरोंका उपकार करता हो, जिसके आचरण पवित्र हों तथा विशेष रूपसे विष्णुमें भक्ति रखता हो, ऐसे ब्राह्मणको वह प्रतिमा देनी चाहिये। साथ ही दानमें छः पात्र भी देनेकी विधि है। एकसे लेकर छः तक वे पात्र क्रमशः मधु, घृत, तिलका तैल, गुड़, लवण एवं गायके दूधसे पूर्ण हों। इन पात्रोंके दान करनेके प्रभावसे व्रत करनेवाला व्यक्ति स्त्री अथवा पुरुष – कोई भी हो, वह अन्य सात जन्मोंमें सुन्दर सद्भाग्यशाली और परम दर्शनीय हो जाता है।
अध्याय ५४ अविघ्नव्रत
अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! सुनो। अब मैं ‘विघ्नहर’ नामक व्रतको बतलाता हूँ। इसके विधिपूर्वक आचरण करनेसे पुरुष विघ्नोंद्वारा पराभूत- बाधित या तिरस्कृत नहीं होता। इसके प्रारम्भिक ग्रहणकी विधि इस प्रकार है। फाल्गुनमासकी चतुर्थीको दिनमें उपवास रहकर चार घड़ी रात बीतनेपर भोजन करे। प्रातः पारणामें तिल लेने चाहिये। उस दिन तिलसे ही हवन करे तथा तिल ही ब्राह्मणको दान भी दे। इसी प्रकार चार मासतक इसका अनुष्ठानकर पाँचवें महीनेमें (आषाढ़की) चतुर्थीको सुवर्णमयी गणेशकी प्रतिमाकी भलीभाँति पूजाकर खीर एवं तिलसे भरे हुए पाँच पात्रोंके साथ उसे ब्राह्मणको दे देनी चाहिये। इस प्रकार इस व्रतका अनुष्ठानकर मनुष्य सम्पूर्ण विघ्नोंसे छुटकारा पा जाता है। अपने अश्वमेध यज्ञमें विघ्न पड़नेपर राजा सगरने इसी व्रतका अनुष्ठानकर, अश्वको प्राप्तकर यज्ञ सम्पन्न किया था। त्रिपुरासुरसे युद्धके समय भगवान् रुद्रने भी इसी व्रतके प्रभावसे त्रिपुरासुरका वध किया था। मैंने भी समुद्रपानके समय यही व्रत किया था।
परंतप ! पूर्वसमयमें तप एवं ज्ञानकी इच्छावाले अन्य अनेक राजाओंने विघ्न दूर करनेके लिये इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके दिन पुण्यात्मा पुरुष विघ्न समाप्त होनेके निमित्त ॐ शूराय नमः, ॐ धीराय नमः, ॐ गजाननाय नमः, ॐ लम्बोदराय नमः, ॐ एकदंष्ट्राय नमः – इन मन्त्रोंका उच्चारण कर गणेशजीकी सम्यक् प्रकारसे पूजा करे और इन्हीं मन्त्रोंद्वारा हवन भी करे। केवल इसी व्रतके करनेसे मानव सभी विघ्नोंसे मुक्त हो जाता है। गणेशजीकी प्रतिमा दान करनेसे तो उसके जीवनकी सारी अभिलाषाएँ ही पूरी हो जाती हैं।
अध्याय ५५ शान्ति व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! अब तुम्हें’ शान्ति – व्रत’का उपदेश करता हूँ। इसके आचरणसे गृहस्थोंके घरमें सदा शान्ति-सन्मति बनी रहती है। सुव्रत ! कार्तिकमासके शुक्लपक्षको पञ्चमी तिथिके दिनसे आरम्भकर एक वर्षपर्यन्त व्रतीको अत्यन्त उष्ण भोजनका त्याग करना चाहिये तथा प्रदोषकालमेंशेषशायी श्रीहरिकी सम्यक् प्रकारसे पूजा करनी चाहिये। ॐ अनन्ताय नमः’, ‘ॐ वासुकये नमः’, ‘ॐ तक्षकाय नमः, ॐ कर्कोटकाय नमः’, ‘ॐ पद्माय नमः’, ‘ॐ महापद्माय नमः’, ‘ॐ शङ्खपालाय नमः’, ‘ॐ कुटिलाय नमः ‘ – इन मन्त्रोंके द्वारा भगवान् विष्णुके शय्यास्वरूप शेषनागके क्रमशः दोनों चरण, कटिभाग, उदर, छाती, कण्ठ, दोनों भुजाएँ, मुख एवं सिरकी विधि- पूर्वक पृथक्-पृथक् पूजा करनी चाहिये। फिर भगवान् विष्णुको लक्ष्यकर सभी अङ्गोंको दूधसे भी स्नान कराये । तत्पश्चात् श्रद्धालु साधकको भगवान् के सामने तिलमिश्रित दूधसे हवन करना चाहिये ।
इस प्रकार एक वर्ष पूराकर ब्राह्मणोंको भोजन कराये और सुवर्णमयी शेषनागकी प्रतिमा बनाकर ब्राह्मणको दान दे। राजन्! जो पुरुष इस प्रकार यह व्रत भक्तिपूर्वक करता है, उसे निश्चय ही शान्ति सुलभ हो जाती है, साथ ही उसे सर्पोंसे भी भय नहीं होता ।
अध्याय ५६ काम-व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं— राजेन्द्र ! अब मैं ‘काम व्रत’ कहता हूँ, सुनो। इस व्रतके प्रभावसे मनमें उठी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। यह व्रत पौष- मासके शुक्लपक्षमें होता है तथा यह व्रत एक वर्षपर्यन्त चलता है। इसमें पञ्चमी तिथिके दिन भोजनकर षष्ठीके दिन फलाहारपर रह जाय। अथवा यह भी नियम है कि बुद्धिमान् पुरुष षष्ठीके दिन दोपहरमें फलाहार करे और रातमें मौन होकर ब्राह्मणोंके साथ शुद्ध भात खाय या केवल फलाहारपर ही व्रत करे। षष्ठीको पूरा दिनभर उपवास रहकर सप्तमी तिथिमें पारणा करनी चाहिये। इसमें भगवान् कार्तिकेयकी पूजा-कर हवन करना चाहिये। इस प्रकार एक वर्ष- पर्यन्त व्रत करे। षडानन, कार्तिकेय, सेनानी, कृत्तिकासुत, कुमार और स्कन्द-इन नामोंसे विष्णु ही प्रतिष्ठित हैं। अतः उनके इन नामोंसे ही उनकी पूजा करनी चाहिये । व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको भोजन कराये और षण्मुखकी सुवर्णमयी प्रतिमा ब्राह्मणको दे। वस्त्रसहित प्रतिमा ब्राह्मणको देते समय व्रती इस प्रकार प्रार्थना करे –’भगवान् कार्तिकेय ! आपकी कृपासे मेरी सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो जायें।’ फिर ब्राह्मणको लक्ष्य कर कहे- ‘ब्राह्मण देवता ! मैं भक्तिपूर्वक यह प्रतिमा देता हूँ, आप कृपापूर्वक इसे स्वीकार करें।’ इस प्रकारके दानमात्रसे व्रतीके इस जन्मकी समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। संतानहीनको पुत्र, धनकी इच्छावालेको धन तथा राज्य छिन जानेवालेको राज्य सुलभ हो सकता है – इसमें कुछ भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। महाराज! इस व्रतका पूर्व समयमें ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए राजा नलने अनुष्ठान किया था।
उस समय वे ऋतुपर्णके राज्यमें निवास करते थे नृपवर ! प्राचीन कालके बहुत से अन्य प्रधान नरेशोंने भी हाथसे राज्य निकल जानेपर कामनासिद्धिके लिये इस व्रतका आचरण किया था ।
अध्याय ५७ आरोग्य-व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं— महाराज ! अब आरोग्य नामक एक दूसरा परमपवित्र व्रत बताता हूँ, जिसके प्रभावसे सम्पूर्ण पाप भस्म हो जाते हैं। इस व्रतमें आदित्य, भास्कर, रवि, भानु, सूर्य, दिवाकर एवं प्रभाकर – इन सात नामोंसे भगवान् सूर्यकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। इस व्रतमें षष्ठी तिथिके दिन भोजनकर सप्तमीको प्रातःकाल भगवान् भास्करकी पूजा करते हुए उपवास करना चाहिये। फिर अष्टमी तिथिको भोजन करे, यही इस व्रतकी विधि है। इस प्रकार पूरे एक वर्षतक जो भगवान् सूर्यकी पूजा करता हैं, उसे इस जन्ममें आरोग्य धन तथा धान्य सुलभ हो जाते हैं और परलोकमें वह उस पवित्र स्थानपर पहुँचता है, जहाँ जाकर पुनः संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता ।
प्राचीन समयकी बात है, अनरण्य नामके महान् प्रतापी राजा थे, जिनके वशमें सम्पूर्ण पृथ्वी थी। राजन् ! उन महाभाग नरेशने यह व्रत किया तथा उस दिन भगवान् भास्करकी पूजा भी की, जिसके फलस्वरूप भगवान् सूर्य उनपर प्रसन्न हो गये और राजा अनरण्यको उन्होंने उत्तम आरोग्य प्रदान कर दिया।
राजा भद्राश्वने पूछा- राजन् ! आपने राजाके आरोग्य होनेकी बात कही तो क्या इसके पूर्व वे रोगी थे ? भला, वे सार्वभौम राजा रोगग्रस्त कैसे हो गये ?
अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! राजा अनरण्य चक्रवर्ती सम्राट् थे; साथ ही वे अत्यन्त रूपवान् एवं यशस्वी भी थे। एक समयकी बात है – वे परम पराक्रमी राजा दिव्य मानसरोवरपर गये, जहाँ देवताओंका निवास है। वहाँ उन्हें सरोवरके बीचमें एक बड़ा-सा श्वेत कमल दीखा। उस कमलपर अँगूठेकी आकृतिके बराबर एक दिव्य पुरुष बैठे थे, जिनका शरीर बड़ा तेजः पूर्ण था। उनकी दो भुजाएँ थीं और वे लाल वस्त्रोंसे आच्छादित थे। उस कमलको देखकर राजा अनरण्यने अपने सारथिसे कहा- ‘तुम किसी प्रकार इस कमलको ले आनेका प्रयत्न करो। कारण, जब मैं इसे अपने सिरपर धारण करूँगा, तब संसारमें मेरी बड़ी प्रतिष्ठा होगी, अतः देर मत करो।’
राजन् ! अनरण्यके ऐसा कहनेपर सारथि उस सरोवरमें घुसा। फिर उस कमलको लेनेके लिये आगे बढ़ा और उसे स्पर्श करना चाहा, इतनेमें वहाँ बड़े उच्च स्वरसे हुंकारकी ध्वनि हुई। उस शब्दके प्रभावसे सारथिके हृदयमें आतङ्क छा गया। वह जमीनपर गिरा और उसके प्राण निकल गये तथा राजा भी कुष्ठग्रस्त, बलहीन एवं विवर्ण हो गये। अपनी ऐसी स्थिति देखकर राजा – ‘यह
क्या हुआ ?’ इस चिन्तामें पड़ गये और वहीं रुके रहे। इतनेमें ही महान् तपस्वी ब्रह्मपुत्र बुद्धिमान् वसिष्ठजी वहाँ आ गये और उन्होंने राजा अनरण्यसे पूछा—’राजन् ! तुम यहाँ कैसे पहुँचे तथा तुम्हारे शरीरकी ऐसी स्थिति कैसे हुई ? अब मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ? यह बताओ।’
राजन् ! वसिष्ठजीके इस प्रकार पूछनेपर अनरण्यने उनसे कमलसम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्तका वर्णन किया। राजाकी बात सुनकर मुनिने कहा— ‘राजन् ! तुम साधु थे, पर तुम्हारे मनमें असाधुता आ गयी। इसीलिये तुमपर कुष्ठरोगका आक्रमण हो गया है।’ मुनिके ऐसा कहनेपर राजाने हाथ जोड़कर काँपते हुए पूछा- ‘विप्रवर! मैं साधु या असाधु कैसे हूँ और मेरे शरीरमें यह कोढ़ कैसे हो गया ? यह सब आप बतानेकी कृपा करें।’ वसिष्ठजी बोले – राजन्! इस ‘ब्रह्मोद्भव’ कमलकी तीनों लोकोंमें प्रसिद्धि है। इसके दर्शनकी बड़ी भारी महिमा है। इससे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो सकते हैं। राजन्! छः महीनेके भीतर कभी भी जनता इस सरोवरमें यह कमल देख लिया करती है। जो मनुष्य केवल इसका दर्शन करके जलमें पैर रख देता है, उसके सम्पूर्ण पाप भाग जाते हैं तथा वह पुरुष निर्वाणपदका अधिकारी हो जाता है; क्योंकि जलमें दीखनेवाली यह ब्रह्माजीकी प्रारम्भिक मूर्ति है। इस मूर्तिका दर्शनकर जो जलमें प्रवेश करता है, उसकी संसारसे मुक्ति हो जाती है। राजन्! तुम्हारा सारथि इस विग्रहको देखकर जलमें चला गया और जानेपर उसने इसे लेनेकी भी चेष्टा की नरेश! इसका कारण यह था कि तुम्हारे मनमें लोभ उत्पन्न हो गया था एवं तुम्हारी बुद्धि नष्ट हो चुकी थी। इसीका परिणाम है कि तुम कोढ़ी बन गये हो। तुमने इनका दर्शन कर लिया है, जिसके कारण साधुकी श्रेणीमें आ गये। नरेश ! साथ ही इस कमलको पानेके लिये तुम्हारे मनमें जो मोह उत्पन्न हो गया, इस कारण मैंने तुम्हें असाधु कहा।
देवताओंका भी कथन है कि ‘मानसरोवरके ब्रह्मपद्म नामक कमलपर (ब्रह्मरूपमें) भगवान् श्रीहरि आकर विराजते हैं। उनका दर्शनकर हम उस ब्रह्मपदको पा जायँगे, जहाँसे पुनः संसारमें आना नहीं पड़ता है। राजन् ! यही कारण है कि तुम्हारे अङ्गमें कुष्ठ हो गया। इस कमलपर स्वयं भगवान् श्रीहरि सूर्यका रूप धारण करके विराजते हैं। वस्तुतः विचार किया जाय तो यह सनातन परब्रह्म परमात्माका ही रूप है। ‘मैं इसको अपने सिरपर धारण करूँ, जिससे मेरी प्रसिद्धि हो जाय’ तुमने ऐसी भावना लेकर इसे प्राप्त करनेके लिये सारथिको भेजा। यह बेचारा सारथि तो उसी क्षण अपने प्राणोंसे हाथ धो बैठा और तुम्हारी देह कुष्ठरोगसे व्याप्त हो गयी । अतएव महाराज ! तुम भी यह आरोग्य नामक व्रत करो। इस व्रतके करनेसे तुम कुष्ठरोगसे छुटकारा पा जाओगे।
ऐसा कहकर वसिष्ठजी राजाके पाससे चले गये। राजाने भी उनकी बात सुनकर प्रतिदिन उस सरोवरपर जाने और वहाँ ब्रह्माजीके दर्शन करनेका नियम बना लिया और फिर वे शीघ्र ही कुष्ठमुक्त होकर स्वस्थ एवं कृतार्थ हो गये ।
अध्याय ५८ पुत्रप्राप्ति व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं— महाराज ! अब संक्षेपमें एक कल्याणप्रद व्रत बताता हूँ, उसे सुनो! इसका नाम पुत्रप्राप्ति व्रत है। राजन्! भाद्रपदमासके कृष्णपक्षकी जो अष्टमी तिथि होती है, उस दिन उपवासपूर्वक व्रत करना चाहिये। सप्तमी तिथिके दिन संकल्प करके अष्टमी तिथिमें भगवान् श्रीहरिकी पूजाका विधान है। मनमें ऐसी भावना करे कि भगवान् नारायण कृष्णरूप धारण करके माताकी गोदमें बैठे हैं। माताओंका समुदाय उनकी सब ओर शोभा दे रहा है। अष्टमीकी प्रातः कालीन स्वच्छ वेलामें पहले कहे हुए विधानके अनुसार बड़े यत्नसे भगवान्का अर्चन करना चाहिये। इस विधिके साथ गोविन्दका पूजन करनेके पश्चात् यव, तिल एवं घृतमिश्रित हव्य पदार्थसे हवन करना चाहिये। फिर भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको दही भोजन कराये और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें दक्षिणा दे । तदनन्तर स्वयं भोजन करे। पहला ग्रास उत्तम तिलका होना चाहिये। फिर अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा अन्न खाया जा सकता है। भोज्य पदार्थ स्निग्ध एवं सरस वस्तुओंसे युक्त हो । साधक प्रतिमास इसी विधिके अनुसार व्रत करे। इसे कृष्णाष्टमीव्रत भी कहते हैं। इसके प्रभावसे जिसे पुत्र न हो, वह पुत्रवान् बन जाता है।
सुना जाता है – प्राचीन समयमें शूरसेन नामके एक प्रतापी राजा थे। उनके कोई पुत्र नहीं था । अतः उन्होंने हिमालय पर्वतपर जाकर तपस्या आरम्भ कर दी। परिणामस्वरूप उनके घर एक पुत्रकी उत्पत्ति हुई जिसका नाम वसुदेव हुआ। महाभाग वसुदेवने अनेक व्रत और यज्ञ किये। ऐसे पुत्रके प्राप्त हो जानेसे राजर्षि शूरसेनको उत्तम निर्वाणपद सुलभ हो गया ।
राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने कृष्णाष्टमी- व्रतका संक्षिप्त वर्णन किया। यह व्रत एक वर्षतक करना चाहिये। वर्ष पूरा हो जानेपर ब्राह्मणको दो वस्त्र देनेका विधान है। राजन्! इसका नाम पुत्रव्रत है। इसे कर लेनेपर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे निश्चय ही छूट जाता है।
अध्याय ५९ शौर्य एवं सार्वभौम व्रत
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! अब मैं एक दूसरे शौर्यव्रतका वर्णन करता हूँ; जिसे करनेसे अत्यन्त भीरु व्यक्तिमें भी तत्क्षण महान् शौर्यका प्राकट्य होता है। इस व्रतको आश्विनमासके शुक्लपक्षमें नवमी तिथिके दिन करना चाहिये। सप्तमी तिथिके दिन संकल्प करके अष्टमी तिथिके दिन भातका परित्याग करना चाहिये और नवमी तिथिके दिन पक्वान्न खानेका विधान है। राजन् ! सर्वप्रथम भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये। इस व्रतमें महातेजस्वी, महाभागा, इस प्रकार व्रत करनेपर राजा, जिसका राज्य भगवती महामाया दुर्गाकी भक्तिके साथ आराधना करनी चाहिये। इस प्रकार जबतक एक वर्ष पूरा न हो जाय, तबतक विधिपूर्वक यह व्रत करना उचित है। व्रत समाप्त हो जानेपर बुद्धिमान् पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार कुमारी कन्याओंको भोजन कराये। यदि अपने पास शक्ति हो तो सुवर्ण और वस्त्र आदिसे उन कन्याओंको अलंकृत- कर भोजन कराना चाहिये। इसके पश्चात् उन भगवती दुर्गासे क्षमा माँगे और प्रार्थना करे- ‘देवि! आप मुझपर प्रसन्न हो जायें।”
इस प्रकार व्रत करनेपर राजा, जिसका राज्य हाथसे निकल गया है, अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार मूर्खको विद्या और भीरु व्यक्तिको शौर्यकी प्राप्ति होती है।
अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! अब मैं संक्षेपमें सार्वभौम नामक व्रत बतलाता हूँ, जिसका सम्यक् प्रकार आचरण करनेसे व्यक्ति सार्वभौम राजा हो जाता है। इसके लिये कार्तिकमासके शुक्लपक्षकी दशमी तिथिको उपवास रहकर रातमें भोजन करना चाहिये। तदनन्तर दसों दिशाओंमें शुद्ध बलि दे, फिर चित्र-विचित्र फूलोंद्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी भक्तिके साथ पूजाकर दिशाओंकी ओर लक्ष्य करते हुए इस उत्तम व्रतका आचरण करनेवाला पुरुष इस प्रकार प्रार्थना करे, ‘देवियो! आप मेरे जन्म-जन्ममें सर्वार्थ सिद्धि प्रदान करें।’ ऐसा कहकर शुद्ध चित्तसे उन देवियोंके लिये बलि दे ।
तदनन्तर रातमें पहले भलीभाँति सिद्ध किया हुआ दधिमिश्रित अन्न भोजन करे। फिर बादमें इच्छानुसार गेहूँ या चावलसे बना हुआ भोजन करना चाहिये। राजन् ! इस प्रकार जो पुरुष प्रतिवर्ष व्रत करता है, वह दिग्विजयी होता है। फिर जो मनुष्य मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षमें एकादशी तिथिके दिन निराहार रहकर विधिके अनुसार व्रत करता है, उसे यह धन प्राप्त होता है, जिसके लिये कुबेर भी लालायित रहते हैं।
एकादशी तिथिके दिन निराहार रहकर द्वादशी तिथिके दिन भोजन करना – यह महान् वैष्णव-व्रत है। चाहे शुक्लपक्ष हो या कृष्णपक्ष – दोनोंका फल बराबर है। राजन्! इस प्रकार किया हुआ व्रत कठिन से कठिन पापोंको भी नष्ट कर देता है। त्रयोदशी तिथिको व्रत रहकर रातमें चार घड़ीके बाद भोजन करनेसे ‘धर्मव्रत’ होता है। चतुर पुरुषको फाल्गुन शुक्लपक्षको त्रयोदशी तिथिसे प्रारम्भकर चैत्र कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथितक रौद्रव्रत करना चाहिये। राजन् ! माघ माससे आरम्भकर वर्ष समाप्त होनेतक जो नक्तव्रत किया जाता है, उसका नाम पितृव्रत है। इस व्रतमें शुद्ध पञ्चमी तिथिके दिन तथा अमावास्याको रात्रिमें भोजन करनेका विधान है। नरेन्द्र! इस तिथिव्रतको जो पुरुष पंद्रह वर्षोंतक करता है, उसका फल उस फलका बराबरी कर सकता है, जो एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ राजसूय यज्ञ करनेसे मिलता है। राजेन्द्र ! मानो उस पुरुषने एक कल्पमें बताये हुए सभी व्रतोंको कर लिया। इनमेंसे एक-एक व्रतमें वह शक्ति है कि व्रतीके पापोंको सदा नष्ट करता रहता है। फिर यदि कोई श्रेष्ठ पुरुष इन सभी व्रतोंका आचरण कर सके तो राजन् ! वह पवित्रात्मा पुरुष सम्पूर्ण शुद्ध लोकोंको प्राप्त कर ले, इसमें क्या आश्चर्य है ?
अध्याय ६० राजा भद्राश्वका प्रश्न और नारदजीके द्वारा विष्णुके आश्चर्यमय स्वरूपका वर्णन
राजा भद्राश्वने कहा – मुने! यदि आपको कोई विशेष आश्चर्यजनक बात दीखी या विदित हुई हो तो वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये। इसके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्सुकता है।
अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! भगवान् जनार्दन ही आश्चर्यरूप (समस्त आश्चर्योंके भण्डार या भी मूर्तिमान् ) हैं। मैंने इनके अनेक आश्चयको देखा है। राजन् ! पूर्व समयकी बात है। एक बार नारदजी श्वेतद्वीपमें गये। वहाँ उन्हें ऐसे परम तेजस्वी पुरुषोंके दर्शन हुए, जिनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और कमल शोभा पा रहे थे। तो नारदजीके मुँह से सहसा ‘यही सनातन विष्णु हैं, यही विष्णु हैं, ये विष्णु हैं’ ये शब्द निकले। फिर नारदजीके मनमें यह विचार आया कि मैं प्रभुकी आराधना किस प्रकार करूँ? ऐसा विचार कर नारदजीने परम प्रभु भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। सहस्र दिव्य वर्षोंसे भी अधिक समयतक उनके ध्यान करनेपर भगवान् प्रसन्न होकर प्रकट हुए और बोले— ‘महामुने! तुम वर माँगो कहो, तुम्हें मैं क्या दूँ?’
नारदजी बोले – जगत्प्रभो! मैंने एक हजार दिव्य वर्षोंतक आपका ध्यान किया है। अच्युत! इतनेपर यदि आप मुझपर प्रसन्न हो गये हों तो मुझे कृपया अपनी प्राप्तिका उपाय बतलाइये ।
देवाधिदेव विष्णुने कहा- द्विजवर ! जो मनुष्य ‘पुरुषसूक्त’ तथा वैदिक संहिताका पाठ करते हुए मेरी उपासना करते हैं, वे मुझे शीघ्र ही प्राप्त करते हैं। पञ्चरात्रद्वारा निर्दिष्ट मार्गसे जो मानव मेरा यजन करते हैं, उन्हें भी मैं प्राप्त हो जाता हूँ। द्विजके लिये तो पञ्चरात्रका नियम बताया गया है, दूसरोंको मेरे नाम-लीला, धाम, क्षेत्र, तीर्थ, मन्दिरोंकी यात्रा एवं दर्शन करना चाहिये।
नारद! सत्त्वगुणवाले पुरुष मुझे पानेके अधिकारी हैं। कलियुगमें रजोगुण- तमोगुणकी ही विशेषता रहेगी। नारद ! यह दुर्लभ पञ्चरात्र शास्त्रका मेरी कृपासे ही ज्ञान होगा। द्विजवर ! वेदका अध्ययन, पञ्चरात्र-पाठ तथा यज्ञ एवं भक्ति- ये मुझे प्राप्त करानेके साधन हैं। मैं इनके द्वारा सुलभ होता हूँ, अन्यथा करोड़ वर्षोंतक यत्न करनेपर भी मनुष्य मुझे नहीं प्राप्त कर सकता।
इस प्रकार परम प्रभु भगवान् नारायणने नारदजीसे कहा और वे उसी क्षण अन्तर्धान हो गये । राजा भद्राश्वने पूछा – भगवन् ! पहले जिन गोरी एवं काली स्त्रियोंकी बात आयी है, वे कौन थीं? उनका सीता और कृष्णा कैसे नाम पड़ गया ? ब्रह्मन् ! सात प्रकारके पवित्र पुरुष कौन हुए? उस पुरुषने अपना बारह प्रकारका रूप कैसे बना लिया ? दो देह और छः सिरका क्या तात्पर्य है ?
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! जो गोरी और काली-ये दो देवियाँ थीं, इनका परस्पर बहनका नाता है। दोनोंके दो वर्ण हैं- एकका शुक्ल और दूसरीका कृष्ण। कृष्णाको रात्रिदेवी कहा जाता है। राजन् ! पुरुष एक होते हुए भी सात प्रकारके रूपोंसे सुशोभित हैं। जो बारह प्रकारके दो शरीर तथा छः सिरकी बात कही गयी है उनका तात्पर्य संवत्सरसे जानना चाहिये। उत्तरायण और दक्षिणायन – ये दो गतियाँ उनके शरीर तथा वसन्त आदि छः ऋतुएँ मुँह हैं। सूर्य दिनके और चन्द्रमा रात्रिके अधिष्ठाता हैं। राजन् ! इन्हीं विष्णुसे इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। अतएव उन भगवान् विष्णुको ही परमदेवता जानना चाहिये। वैदिक क्रियासे हीन व्यक्ति उन परम प्रभु परमात्माको देखनेमें सर्वथा असमर्थ है।
राजा भद्राश्वने पूछा- मुने! परमात्माका चारों युगोंमें कैसा स्वरूप जानना चाहिये ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- इन चारों वर्णोंका प्रत्येक युगमें कैसा आचार होता है ?
अगस्त्यजी कहते हैं – राजन् ! सत्ययुगमें वैदिक कर्म करके यज्ञोंद्वारा देवताओंकी पूजा करने- वाले दिव्य पुरुषोंसे पृथ्वी सुशोभित रहेगी। ऐसा ही समय त्रेतायुगमें भी रहेगा। महाराज ! द्वापरयुगमें सत्त्वगुण और रजोगुणकी बहुलता होगी। फिर महाराज युधिष्ठिर राजा होंगे। इसके पश्चात् कलिस्वरूप तमोगुणका विस्तार होगा । राजन्! कलियुगके आ जानेपर ब्राह्मण अपने मार्गसे च्युत हो जायँगे। राजेन्द्र ! क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन सबकी जाति प्रायः नष्ट-सी हो जायगी। इनमें सत्य और शौचका नितान्त अभाव हो जायगा। फिर तो संसार नष्टप्राय हो जायगा। वर्ण एवं धर्म सर्वदाके लिये दूर चले जायेंगे।
नरेन्द्र! बहुत समय से चिरकालार्जित पाप तथा वर्णसंकर जातिके पुरुषके साथ रहनेसे ब्राह्मणद्वारा जो पाप बनता है, इससे दस बार प्रणवसहित गायत्रीके जप करने तथा तीन सौ बार प्राणायाम करनेसे वह उस पाप से छुटकारा पा जाता है। प्रायश्चित्तोंसे ब्रह्महत्या जैसे पाप भी छूट जाते हैं, शेष पापोंसे छूटनेकी तो बात ही क्या है ? अथवा जो श्रेष्ठ ब्राह्मण सर्वोत्तम रूपधारी भगवान् श्रीहरिको जानकर ध्यान आदिसे उनकी पूजा करता है, वह उन पापोंसे लिप्त नहीं हो सकता। वेदका अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण सौ बार किये हुए पापोंसे भी लिप्त नहीं होता। जिसके द्वारा भगवान् विष्णुका स्मरण, वेदका अध्ययन, द्रव्यका दानरूपमें वितरण तथा भगवान् श्रीहरिका यजन होता रहता है, वह ब्राह्मण तो सदा शुद्ध ही है। वह तो विरुद्ध धर्मवालेका भी उद्धार कर सकता है। राजन्! तुमने जो पूछा था, वह सब मैंने बतला दिया। महाराज! मनु आदि महानुभावोंने जिसे बड़े विस्तारसे कहा है, उसीका मैंने यहाँ संक्षेप रूपसे वर्णन किया है।
अध्याय ६१ भगवान् नारायणसम्बन्धी आश्चर्यका वर्णन
राजा भद्राश्वने कहा- भगवन्! आप सभी ब्राह्मणोंमें प्रधान एवं दीर्घजीवी हैं। मैं यह जानना चाहता हूँ कि आपके शरीरकी यह विशेषता क्यों और कैसी है? महानुभाव ! आप मुझे यह बतलानेकी कृपा करें।
अगस्त्यजी बोले – राजन्! मेरा यह शरीर अनेक अद्भुत कुतूहलोंका भण्डार है। बहुत कल्प बीत चुके, किंतु अभी यह यों ही पड़ा है। वेद और विद्यासे इसका भलीभाँति संस्कार हुआ है। राजन्! एक समयकी बात है— मैं सम्पूर्ण भूमण्डलपर घूम रहा था। घूमते-घूमते मैं उस महान् ‘इलावृत’ नामक वर्षमें पहुँचा, जो सुमेरु- पर्वतके पार्श्वभागमें है। वहाँ मुझे एक सुन्दर सरोवर दिखायी दिया। उसके तटपर एक विशाल आश्रम था। उस आश्रममें मुझे एक तपस्वी दीख पड़े, जिनका शरीर उपवासके कारण शिथिल पड़ गया था तथा शरीरमें केवल हड्डियाँ ही शेष रह गयी थीं। वे वृक्षकी छाल लपेटे हुए थे। महाराज! उन तपस्वीको देखकर मैं सोचने लगा- ये कौन हैं? फिर मैंने उनसे कहा- ‘ब्रह्मन् ! मैं आपके पास आया हूँ। मुझे कुछ देनेकी कृपा करें।’ तब उन मुनिने मुझसे कहा- ‘द्विजवर ! आपका स्वागत है। ब्रह्मन् ! आप यहाँ ठहरिये, मैं आपका आतिथ्य करनेके लिये उद्यत हूँ।’
राजन् ! उन तपस्वीकी यह बात सुनकर मैं आश्रममें चला गया। इतनेमें देखता हूँ कि वे ब्राह्मणदेवता तेजसे मानो संदीप्त हो रहे हैं। मैं भूमिपर बैठ गया, अब उनके मुखसे हुंकारकी ध्वनि निकली, जिससे पातालका भेदनकर पाँच कन्याएँ निकल आयीं। उनमेंसे एकके हाथमें सुवर्णका पृष्ठासन (पीढ़ा ) था । उसने बैठनेके लिये वह आसन मुझे दे दिया। दूसरेके हाथमें जल था। वह उससे मेरे दोनों पैरोंको धोने लगी। अन्य दो कन्याएँ हाथमें पंखे लेकर मेरी दोनों ओर खड़ी होकर हवा करने लगीं। इसके पश्चात् उन महान् तपस्वीने फिर हुंकार किया। इस शब्दके होते ही तुरंत एक नौका सामने आ गयी जिसका विस्तार एक योजन था। राजन् ! सरोवरमें उस नावको एक कन्या चला रही थी। वह उसे लेकर आ गयी। उस नावमें सैकड़ों सुन्दर कन्याएँ थीं। सबके हाथमें सोनेके कलश थे राजन्! वे कन्याएँ आ गर्यो – यह देखकर उन तपस्वीने मुझसे कहा- ‘ब्रह्मन् ! यह सारी व्यवस्था आपके स्नानके लिये की गयी है। महाशय ! आप इस नावपर विराजकर स्नान करें।’
नरेन्द्र! फिर उन तपस्वीके कथनानुसार ज्यों ही मैंने नावमें प्रवेश किया कि इतनेमें ही वह नौका सरोवरमें डूब गयी। उस नावके साथ मैं भी जलमें डूब गया। तबतक सुमेरुगिरिके शिखरपर वे तपस्वी और उनका दिव्य पुर मुझे अपने-आप दिखायी पड़े। सात समुद्र, पर्वत-समूह तथा सात द्वीपोंसे युक्त यह पृथ्वी भी वहाँ दृष्टिगोचर हुई। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजन्! आज भी जब मैं यहाँ बैठा हूँ तो वह उत्तम लोक मुझे स्मरण हो रहा है। मेरे मनमें इस प्रकारकी चिन्ता हो रही है कि कब मैं उस उत्तम लोकमें पहुँचूँगा। राजन्! ऐसा परब्रह्म परमात्माका कौतुक हैं, जो मैंने तुम्हें सुना दिया। यही मेरे शरीरकी घटना है। अब तुम दूसरा क्या सुनना चाहते हो !
अध्याय ६२ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर आदिके गुणधर्म
राजा भद्राश्वने पूछा- मुने! उस दिव्य लोकको देख लेनेके बाद पुनः उसे पानेके लिये आपने कौन सा व्रत, तप अथवा धर्म किया ?
अगस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह भगवान् श्रीहरिकी भक्तिपूर्वक आराधना छोड़कर अन्य किन्हीं लोकोंकी कामना न करे; क्योंकि परम प्रभुकी आराधनासे सभी लोक अपने आप ही सुलभ हो जाते हैं। ऐसा सोचकर मैंने उन सनातन श्रीहरिकी आराधना आरम्भ कर दी और प्रचुर दक्षिणा देकर अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करता हुआ सौ वर्षोंतक मैं उनकी आराधनामें संलग्न रहा। नृपनन्दन ! एक समयकी बात है— देवाधिदेव यज्ञमूर्ति भगवान् जनार्दनकी इस प्रकार उपासना करते हुए बहुत दिन बीत चुके थे, तब मैंने एक यज्ञमें सभी देवताओंकी आराधना की और इन्द्रसहित सभी देवता एक साथ ही उस यज्ञमें पधारे तथा उन्होंने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। भगवान् शंकर भी पधारे और अपने निश्चित स्थानपर विराजमान हो गये। सम्पूर्ण देवता, ऋषि तथा नागगण भी आ गये। उन्हें आते देखकर सूर्यके समान तेजस्वी विमानपर चढ़कर भगवान् सनत्कुमार भी वहाँ पधारे और सिर झुकाकर भगवान् रुद्रको प्रणाम किया। राजेन्द्र ! उस समय समस्त देवता, ऋषि नारद, सनत्कुमार एवं भगवान् रुद्र जब अपने- अपने स्थानपर स्थित होकर बैठ गये, तब उनकी ओर दृष्टि डालकर मैंने यह बात पूछी- ‘आप सभी महानुभावोंमें कौन श्रेष्ठ हैं तथा किनकी (अग्र) पूजा होनी चाहिये ?’ मेरे यह पूछनेपर देव- समुदायके सामने ही भगवान् रुद्र मुझसे कहने लगे।
भगवान् रुद्र बोले- समस्त देवताओ, परम पवित्र देवर्षियो, प्रसिद्ध ब्रह्मर्षियो तथा महान् मेधावी अगस्त्यजी ! आप सभी लोग मेरी बात सुन लें- ‘जिनकी यज्ञोंद्वारा पूजा होती है, देवतासहित सम्पूर्ण संसार जिनसे उत्पन्न हुआ है तथा जिनमें लीन भी हो जाता है, वे भगवान् जनार्दन ही सर्वश्रेष्ठ हैं और सभी यज्ञोंद्वारा वे ही आराधित होते हैं। उन परम प्रभुमें सभी ऐश्वर्य विद्यमान हैं। उन्होंने ही अपने तीन प्रकारके रूप धारण कर लिये हैं । जब उनमें सर्वाधिक रजोगुण तथा स्वल्प सत्त्वगुण एवं तमोगुणका समावेश हुआ, तब वे ब्रह्मा नामसे प्रसिद्ध हुए। भगवान् नारायणने अपने नाभिकमलसे इन ब्रह्माकी सृष्टि की है। मुझे भी बनानेवाले वे परम प्रभु नारायण ही हैं। अतः भगवान् श्रीहरि ही सर्व प्रधान हैं।
जिनमें सत्त्वगुण और रजोगुणका आधिक्य हुआ और जिन्हें कमलका आसन मिल गया, वे ब्रह्मा कहलाये। जो ब्रह्मा एवं चतुर्मुख कहलाते हैं, वे भी भगवान् नारायण ही हैं। जो स्वल्प सत्त्व एवं रजोगुण और किंचित् अधिक तमोगुणसे युक्त हैं, वह मैं रुद्र हूँ – इसमें कोई संदेहकी बात नहीं है। सत्त्व, रज और तम ये तीन प्रकारके गुण कहे जाते हैं। सत्त्वगुणके प्रभावसे प्राणीको मुक्ति सुलभ हो जाती है; क्योंकि सत्त्वगुण भगवान् नारायणका स्वरूप है। जब रज और सत्त्वका सम्मिश्रण होता है और रजोगुणकी कुछ अधिकता होती है, तब सृष्टिका कार्य आरम्भ होता है यह ब्रह्माजीका स्वाभाविक गुण है। यह बात सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पढ़ी जाती है। जिसका वेदोंमें उल्लेख नहीं है, वह रौद्रकर्म मनुष्योंके लिये कदापि हितकर नहीं है। उससे लोक तथा परलोकमें भी मनुष्योंकी दुर्गति ही होती है।
सत्त्वका पालन करनेसे प्राणी जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाता है। कारण, सत्त्व भगवान् नारायणका स्वरूप है। वे ही प्रभु यज्ञका स्वरूप धारण कर लेते हैं। सत्ययुगमें भगवान् नारायण शुद्ध (ध्यानादिद्वारा) सूक्ष्मरूपसे सुपूजित होते हैं। त्रेतायुगमें वे यज्ञरूपसे तथा द्वापरयुगमें ‘पञ्चरात्र’ विधिसे की गयी पूजा स्वीकार करते हैं। और कलियुगमें तमोगुणी मानव मेरे बनाये हुए अनेक रूपवाले मार्गोंसे मनमें ईर्ष्यासहित उन परमात्मा श्रीहरिकी उपासना करते हैं।
मुनिवर ! उन भगवान् नारायणसे बढ़कर अन्य कोई देवता इस समय न है, न अन्य किसी कालमें होगा। जो विष्णु हैं, वही स्वयं ब्रह्मा हैं और जो ब्रह्मा हैं, वही मैं महेश्वर हूँ। तीनों वेदों, यज्ञों और पण्डितसमाजमें यही बात निर्णीत है। द्विजवर! हम तीनों में जो भेदकी कल्पना करता है, वह पापी एवं दुरात्मा है; उसकी दुर्गति होती है। अगस्त्य ! इस विषयमें एक प्राचीन वृत्तान्त कहता हूँ, तुम उसे सुनो। कल्पके आरम्भमें लोग भगवान् श्रीहरिकी भक्तिसे विमुख रहे। फिर उन सबका भूलोकमें वास हुआ। वहाँ उन्होंने भगवान् विष्णुकी आराधना की। फलस्वरूप उन्हें भुवर्लोकका वास सुलभ हो गया। फिर उस लोकमें रहकर वे भगवान् केशवकी उपासनामें तत्पर हो गये। इससे उन्हें स्वर्गमें स्थान मिल गया। यों क्रमशः संसारसे मुक्त होकर वे परमधाममें पहुँच गये ।
द्विजवर ! इस प्रकार जब सभी विरक्त एवं मुक्त होने लगे तो देवताओंने भगवान्का ध्यान किया। सर्वव्यापी होनेके कारण वे प्रभु वहाँ तुरंत ही प्रकट हो गये और बोले- ‘देवताओ! आप सभी श्रेष्ठ योगी हैं। कहें, मेरे योग्य आपलोगोंका कौन-सा कार्य सामने आ गया?’ तब उन देवताओंने परम प्रभु देवेश्वर श्रीहरिको प्रणाम किया और कहा- ‘भगवन्! आप हमलोगोंके आराध्यदेव हैं। इस समय सभी मानव मुक्ति- पदपर आरूढ़ हो गये हैं। अतः अब सृष्टिका क्रम सुचारुरूपसे कैसे चलेगा? नरकोंमें किसका वास हो?”
देवताओंके ऐसा पूछनेपर भगवान् ने उनसे कहा- ‘देवताओ! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर – इन तीन युगों में तो बहुत मनुष्य मुझे प्राप्त कर लेंगे। पर कलियुगमें विरले लोग ही मुझे प्राप्त कर सकेंगे; कारण, वेदोंको छोड़कर या वेदविरोधी अन्य शास्त्रोंद्वारा मेरा ज्ञान सम्भव नहीं। मैं वेदोंसे
विशेषकर – ब्राह्मणसमुदायद्वारा ही ज्ञेय हूँ। विप्र! मैं ब्रह्मा और विष्णु- ये तीन प्रधान देवता ही तीनों युग हैं। हम तीनों ही सत्त्व आदि तीनों गुण, तीनों वेद, तीनों अग्नियाँ तीनों लोक, तीनों सन्ध्याएँ, तीनों वर्ण और तीनों सवन हैं। इस प्रकार तीन प्रकारके बन्धनसे यह जगत् बँधा है। द्विजवर ! जो मुझे दूसरा नारायण या दूसरा ब्रह्म जानता है और ब्रह्माको अपर रुद्र मानता है, उसकी समझ ठीक है, क्योंकि गुण एवं बलसे हम तीनों एक हैं। हममें भेद-बुद्धि ही मोह है।’
अध्याय ६३ कलियुगका वर्णन
अगस्त्यजी कहते हैं— राजन् ! भगवान् रुद्रके ऐसा कहनेपर मैं, सभी देवता लोग तथा ऋषिगण उन प्रभुके चरणोंपर गिर पड़े। राजन्! फिर इतनेमें ही देखता क्या हूँ कि उनके श्रीविग्रहमें मैं, भगवान् नारायण और कमलासन ब्रह्मा भी स्थित हैं। ये सभी (त्रसरेणुके) समान सूक्ष्मरूपसे रुद्रके शरीरमें विराजमान थे। उनके शरीरकी दीप्ति प्रज्वलित भास्करके समान थी। ऐसी स्थितिमें उन भगवान् रुद्रको देखकर यज्ञके सदस्य एवं ऋषिगण सभी महान् आश्चर्यमें पड़ गये। सबके मुखसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी। वे लोग ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदका उच्चारण करने लगे। तब उन सभीने परस्पर कहा – ‘क्या ये रुद्र स्वयं परब्रह्म भगवान् नारायण हैं; क्योंकि एक ही मूर्तिमें ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र – ये तीनों महापुरुष मूर्तिमान् बनकर दर्शन दे रहे हैं।’
भगवान् रुद्रने कहा—क्रान्तदर्शी ऋषियो ! इस यज्ञमें तुम्हारे द्वारा मेरे उद्देश्यसे जिस हव्य पदार्थका हवन हुआ है, उस भागको हम तीनों व्यक्तियोंने ग्रहण किया है। मुनिवरो! हम तीनोंमें अनेक प्रकारके भाव नहीं हैं। समीचीन दृष्टिवाले हमें एक ही देखते हैं। विपरीत बुद्धिवाले अनेक समझते हैं।
राजन्! इस प्रकार रुद्रके कहनेपर वे सभी मुनि मोहशास्त्रकी व्यवस्था करनेवाले उन महाभाग (रुद्र) से पूछनेके लिये उद्यत हो गये।
ऋषियोंने पूछा- भगवन्! प्राणियोंको मोहमें डालनेके लिये आपके द्वारा जो भिन्न-भिन्न मोहकारक शास्त्र रचे गये हैं- इनका प्रयोजन ही क्या है? आपने इन्हें बनाया ही क्यों ? – यह हमें बतानेकी कृपा करें।
भगवान् रुद्र कहते हैं— ऋषियो ! भारतवर्षमें ‘दण्डकारण्य’ नामका एक वन है। वहाँ गौतम नामक ब्राह्मण महान् कठिन तपस्या कर रहे थे । उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी उनके पास पधारे और उनसे कहा – ‘तपोधन! वर माँगो ।’ जब संसारके सृजन करनेवाले ब्रह्माने ऐसा कहा, तब मुनिने प्रार्थना की- भगवन्! मुझे धान्योंकी ऐसी पंक्ति चाहिये, जो सदा फूल एवं फलोंसे सम्पन्न हो । ‘
इस प्रकार मुनिवर गौतमके माँगनेपर पितामह ब्रह्माने उन्हें इच्छित वर दे दिया । वर पाकर महर्षिने शतशृङ्ग पर्वतपर एक श्रेष्ठ आश्रम बनाया। वहाँ उन्होंने महान् श्रम किया, खेती तैयार हो गयी क्यारियाँ ऐसी बनी थीं कि प्रतिदिन प्रातःकाल नयी-नयी शालियाँ तैयार होतीं। ब्राह्मणवर्ग धान्य लाता। गौतमजी उसीसे मध्याह्नके समय भोजन सिद्ध कर लेते और उससे अतिथिसत्कार एवं ब्राह्मणोंको भोजन कराते थे। एक समयकी बात है— पूरे देशमें घोर अकाल पड़ गया।
द्विजवर । बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई, जिसके स्मरणमात्रसे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। ऐसी अनावृष्टि देखकर वनमें निवास करनेवाले सभी मुनि भूखसे पीड़ित हो गौतमजीके पास गये। उस समय अपने यहाँ आये हुए उन मुनियोंको देखकर ऋषिने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा – ‘महानुभावो ! आपलोग सुप्रसिद्ध मुनियोंके पुत्र हैं। आप सभी मेरे स्थानपर पधारिये और आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ।’ इस प्रकार गौतमजीके कहनेपर उन मुनियोंने वहाँ अपना स्थान ग्रहण किया। जबतक वर्षा नहीं हुई, तबतक अनेक प्रकारका भोजन करते हुए ठहरे रहे। कुछ समय बाद अनावृष्टि समाप्त हो गयी। इस प्रकार अवर्षण समाप्त हो जानेपर उन ब्राह्मणोंने तीर्थयात्राके निमित्त जानेका विचार किया। उनके समाजमें शाण्डिल्य नामके एक तपस्वी मुनि थे।
मारीचने पूछा – शाण्डिल्य ! मैं तुमसे बहुत अच्छी बात कहता हूँ। देखो, गौतम मुनि तुम सभीके लिये पिताके स्थानपर हैं। उनसे आज्ञा लिये बिना तपस्या करनेके लिये हमलोगोंका तपोवनमें चलना उचित नहीं है।
मारीच मुनिके इस प्रकार कहनेपर वे सभी हँस पड़े। फिर वे कहने लगे, ‘क्या गौतम मुनिका अन्न खाकर हमलोगोंने अपने शरीरको बेच दिया है।’ ऐसी बात कहकर उन लोगोंने जानेके लिये फिर छल करनेकी बात सोच ली। उन लोगोंने मायाके द्वारा एक गाय तैयार की। उसको उन्होंने गौतमजीकी यज्ञ शालामें छोड़ दिया और वह गाय वहाँ चरने लगी। उसपर गौतम मुनिकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने हाथमें जल ले लिया और कहा- आप भगवान् रुद्रको प्राणोंके समान प्यारी हैं।’ गौतम मुनिके मुँहसे यह बात निकलते तथा पानीके बूँदके टपकते ही वह गाय पृथ्वीपर गिरी और मर गयी। उधर मुनिलोग जानेके लिये तैयार हो गये। यह देखकर बुद्धिमान् गौतमजीने नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन मुनियोंसे कहा – ‘विप्रो ! आप यथाशीघ्र जानेका ठीक- ठीक कारण बतानेकी कृपा करें। मैं तो विशेषरूपसे आपमें सदा श्रद्धा रखता हूँ। ऐसे मुझ विनीत व्यक्तिको छोड़कर जानेका क्या कारण है?”
ऋषियोंने कहा – ‘ब्रह्मन् ! इस समय आपके शरीरमें यह गोहत्या निवास कर रही है। मुनिवर ! जबतक यह रहेगी, तबतक हमलोग आपका अन्न नहीं खा सकते।’ उनके ऐसा कहनेपर धर्मज्ञ गौतमजीने उन मुनियोंसे कहा—’तपोधनो ! आपलोग मुझे गोवधका प्रायश्चित्त बतानेकी कृपा करें।’
ऋषिगण बोले— ‘ब्रह्मन् ! यह गौ अभी मरी नहीं, बेहोश है। यदि इसपर गङ्गा-जल डाल दिया जाय तो अवश्य उठ जायगी। इसके लिये कर्तव्य है कि आप व्रत करें अथवा क्रोधका त्याग करें।’ ऐसा कहकर वे ऋषिलोग वहाँसे चलने लगे। उनके ऐसा कहनेसे बुद्धिमान् गौतमजी आराधना करनेके विचारसे महान् पर्वत हिमालयपर चले गये। उन महान् तपस्वीने तुरंत ही तप आरम्भ कर दिया और सौ वर्षोंतक वे मेरी आराधना करते रहे। तब प्रसन्न होकर मैंने गौतमसे कहा – ‘सुव्रत ! वर माँगो’ अतः उन्होंने मुझसे कहा- ‘आपकी जटामें तपस्विनी गङ्गा निवास करती हैं। उन्हें देनेकी कृपा कीजिये। इन पुण्यमयी नदीका नाम गोदावरी है। मेरे साथ चलनेकी ये कृपा करें ।’
(अब मुनिवर अगस्त्यजी राजा भद्राश्वसे कहते हैं- राजन्!) इस प्रकार गौतम मुनिके प्रार्थना करनेपर भगवान् शंकरने अपनी जटाका एक भाग उन्हें दे दिया। उसे लेकर मुनि भी उस स्थानके लिये प्रस्थित हो गये, जहाँ वह मृत गाय पड़ी थी। (उसके ऊपर गौतम मुनिने शंकरके दिये हुए जटा जाह्नवीके जलके छींटे दिये। फिर क्या था— ) उस जलसे भींग जानेपर वह सुन्दरी गौ उठकर चली गयी। साथ ही वहाँ उस गङ्गाजलके प्रभावसे पवित्र जलवाली एक विशाल नदीका प्रादुर्भाव हो गया। कुछ लोग उसे पुनीत तालाब कहने लगे। इस महान् आश्चर्यको देखकर परम पवित्र सप्तर्षि वहाँ आ गये। वे सभी विमानपर बैठे थे और उनके मुखसे ‘साधु साधु’ की ध्वनि निकल रही थी। साथ ही वे कहने लगे- ‘गौतम! तुम धन्य हो अथवा धन्यवादके पात्रोंमें भी तुम्हारे समान अन्य कौन है, जिसके प्रयाससे भगवती गङ्गा इस दण्ड- कारण्यमें आ सकी हैं।’
( भगवान् रुद्र ऋषियोंसे कहते हैं -) इस प्रकार जब सप्तर्षियोंने कहा, तब गौतमजी बोल पड़े – ‘अरे, यह क्या ? अकारण मुझपर गोवधका कलङ्क कहाँसे आ गया था ?’ फिर ध्यानपूर्वक देखनेसे उन्हें ज्ञात हो गया कि मेरे यहाँ ठहरे हुए उन ऋषियोंकी मायाका ही यह प्रभाव था, जिससे ऐसा दृश्य उपस्थित हो गया था। अब वे भलीभाँति विचार करके उन्हें शाप देनेको उद्यत हो गये। मिथ्या व्रतका स्वॉंग बनाये हुए वे ऋषिलोग ऐसे थे कि सिरपर जटा थी और ललाटपर भस्म ! मुनिने उन्हें यों शाप दिया— ‘तुम लोग तीनों वेदोंसे बहिष्कृत हो जाओगे। तुम्हें वेद विहित कर्म करनेका अधिकार न होगा।’ मुनिवर गौतमजीके कठोर शापको सुनकर सप्तर्षियोंने कहा – ‘द्विजवर ! ऐसा शाप उचित नहीं। वैसे तो आपकी बात व्यर्थ नहीं हो सकती, यह बिलकुल निश्चय है। किंतु इसमें थोड़ा सुधार कर दीजिये। उपकारके बदले अपकार करनेके दोषसे दूषित होनेपर भी आपकी ऐसी कृपा हो कि ये श्रद्धाके पात्र बन सकें। आपके मुँहकी वाणीरूपी अग्निसे दग्ध हुए ये ब्राह्मण कलियुगमें प्रायः क्रिया-हीन एवं वैदिक कर्मसे बहिष्कृत होंगे। यह जो गङ्गा यहाँ आयी हैं, इनका गौण नाम गोदावरी नदी होगा । ब्रह्मन् ! जो मनुष्य कलियुगमें इस गोदावरीपर आकर गोदान करेंगे तथा अपनी शक्तिके अनुसार दान देंगे, उन्हें देवताओंके साथ स्वर्गमें आनन्द मिलेगा। जिस समय सिंहराशिपर बृहस्पति जायेंगे, उस अवसरपर जो समाहितचित्त होकर गोदावरीमें पहुँचेगा और वहाँ स्नान करके विधिपूर्वक पितरोंका तर्पण करेगा, उसके पितर यदि नरक भोगते होंगे, तब भी स्वर्ग सिधार जायँगे। यदि पहलेसे ही वे पितर स्वर्गमें पहुँचे होंगे तो उनकी मुक्ति हो जायगी, यह बिलकुल निश्चित हैं। साथ ही गौतमजी! संसारमें आपकी बड़ी ख्याति होगी और अन्तमें आपको सनातन मुक्ति सुलभ हो जायगी।’
इस प्रकार गौतमजीसे कहकर सप्तर्षिगण उस कैलासपर्वतपर चले गये, जहाँ उमाके साथ सदा मैं रहता हूँ। उसी समय उन श्रेष्ठ मुनियोंने कलियुगमें होनेवाले ब्राह्मणोंका वृत्तान्त मुझे बताया । उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि ‘प्रभो! वे सभी ब्राह्मण कलियुगमें आपके रूपका अनुकरण करेंगे। उनका सिर जटामय मुकुटसे सम्पन्न होगा। वे अपनी इच्छासे प्रेतका वेष बना लेंगे। मिथ्या चिह्न धारण कर लेना उनका स्वभाव होगा । आपसे मेरी प्रार्थना है, उनपर अनुग्रहकर उन्हें कोई शास्त्र देनेकी कृपा करें। कलिके व्यवहारसे, इन्हें पीड़ा होगी, उस समय भी इनका निर्वाह करना आवश्यक है।’
द्विजवर अगस्त्यजी ! यह बहुत पहलेकी बात है – सप्तर्षियोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर वैदिक क्रियासे मिलती-जुलती संहिता मैंने बना दी। मेरे श्वाससे निकलनेके कारण वह शिवसंहिताके नामसे विख्यात होगी। मेरे और शाण्डिल्यशास्त्रके अनुयायी उसमें अवगाहन करेंगे। बहुत थोड़े अपराधसे ही वे दाम्भिक स्थितिमें पहुँच गये हैं, मैं भविष्यकी बात जानता हूँ। अतएव मेरे ही प्रयाससे मोहित होकर वे ब्राह्मण महान् लालची हो जायेंगे। कलिमें उन मनुष्योंके द्वारा अनेक नये शास्त्रोंकी रचना होगी। प्रमाणसे तो वे हमारी संहिताकी अपेक्षा भी अधिक बढ़ जायँगे। वह ‘पाशुपत ‘ दीक्षा कई प्रकारकी होगी। क्योंकि मैं पशुपति कहलाता हूँ और मुझसे उसका सम्बन्ध है। इस समय प्रचलित जो वेदका मार्ग है, इससे उसका सिद्धान्त अलग है। पवित्रतासे रहित उस रौद्र कर्मको क्षुद्र कर्म जानना चाहिये। जो मनुष्य रुद्रका आश्रय लेकर कलिमें अपनी जीविका चलायेंगे और वेदान्तके सिद्धान्तका मिथ्या प्रचार करेंगे, उनके रग-रगमें स्वार्थ भरा रहेगा। वे मनः कल्पित शास्त्रोंके सम्पादक होंगे। उनके उपास्य रुद्र बड़े ही उग्ररूपधारी हैं- ऐसा जानना चाहिये। मैं उन रुद्रोंमें नहीं हूँ। प्राचीन समयमें जब देवताओंके लिये कार्य उपस्थित हुआ था, तो भैरवका रूप धारण करके ऐसा नाच करनेमें मेरी तत्परता हुई थी। उन क्रूर कर्म करनेवाले रुद्रोंसे मेरा यही सम्बन्ध है । दैत्योंका विनाश करनेकी इच्छासे मेरे द्वारा यह हँसने योग्य घटना घट गयी। उस समय आँखोंसे जो बिन्दुएँ पृथ्वीपर पड़ीं, वे भविष्यकालके लिये असंख्य रुद्रके चिह्न (लिङ्ग) बन गयीं। उग्ररूपी रुद्रके उपासकोंमें रुद्रका स्वाभाविक गुण आ जानेसे मांस और मदिरापर उनकी सदा रुचि होगी। वे स्त्रियोंमें आसक्त होंगे, सदा पापकर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति होगी। भूतलपर ऐसे ब्राह्मणोंके होनेका कारण एकमात्र उनपर गौतममुनिका शाप ही है। उनमें भी जो मेरी आज्ञाका अनुसरण तथा सदाचारका पालन करेंगे, वे स्वर्गके अधिकारी होंगे। साथ ही यह भी कहा गया है कि जो संशयवश मुझसे विमुख हो वेदान्तका समर्थक बनेंगे, वे मेरे वंशज दोषके भागी होंगे। उन्हें नीचेके लोक अथवा नरकमें जाना होगा। पहले गौतमजीके वचनरूपी आगसे वे दग्ध तो हुए ही हैं, फिर मेरी आज्ञाका भी उन्होंने अनादर किया है, अतः उन ब्राह्मणोंको नरकमें जाना होगा, इसमें कुछ संदेह नहीं है।
भगवान् रुद्र कहते हैं— इस प्रकार मेरे कहनेपर वे ब्राह्मणकुमार जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। परम तपस्वी गौतमने भी अपने आश्रमका मार्ग पकड़ा। विप्रो ! मैंने यह कलि- धर्मका लक्षण तुम्हें बता दिया। जो इससे विपरीत मार्गका अनुसरण करता है, उसे पाखण्डी समझना चाहिये।
अध्याय ६४ प्रकृति और पुरुषका निर्णय
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! महाभाग रुद्र सर्वज्ञानी, सबकी सृष्टिके प्रवर्तक, परम प्रभु एवं सनातन पुरुष हैं। उन्हें प्रणाम करके प्रयत्नशील हो अगस्त्यजीने उनसे यह प्रश्न किया।
अगस्त्यजीने पूछा – महाभाग रुद्र! ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीन देवताओंके समुदायको सम्पूर्ण शास्त्रों में त्रयी कहा गया है। आप सभी महानुभाव सर्वव्यापी हैं। आपका तो ऐसा सम्बन्ध है, जैसे दीपक, अग्नि और दीपकको प्रज्वलित करनेवाला व्यक्ति। तीन नेत्रोंसे शोभा पानेवाले भगवन्! मेरी यह जिज्ञासा है कि किस समय आपकी प्रधानता रहती है? कब विष्णु प्रधान माने जाते हैं? अथवा किस समय ब्रह्माकी प्रधानता होती है? आप यह बात मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।
भगवान् रुद्रने कहा— द्विजवर ! वैदिक सिद्धान्त के अनुसार परब्रह्म परमात्मा विष्णु ही ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव- इन तीन भेदोंसे पठित एवं निर्दिष्ट हैं; पर माया – मोहित बुद्धिवाले इसे समझ नहीं पाते हैं। ‘विश प्रवेशने’ यह धातु है। इसमें ‘स्नु’ प्रत्यय लगा देनेसे ‘विष्णु’ शब्द निष्पन्न हो जाता है। इन विष्णुको ही सम्पूर्ण देवसमाजमें सनातन परमात्मा कहते हैं। महाभाग ! जो ये विष्णु हैं, वे ही आदित्य हैं। सत्ययुगसे सम्बन्धित श्वेतद्वीपमें उन दोनों महानुभावोंकी मैं निरन्तर स्तुति करता हूँ । सृष्टिके समय मेरे द्वारा ब्रह्माजीका स्तवन होता है और मैं कालरूपसे सुशोभित होता हूँ । ब्रह्मासहित सभी देवता और दानव सदा सत्ययुगमें मेरे स्तवनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। भोगकी इच्छा करनेवाला देवसमुदाय मेरी लिङ्ग मूर्तिका यजन करता है। मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले मानव सहस्र मस्तकवाले जिन प्रभुका मनसे यजन करते हैं, वे ही विश्वके आत्मा स्वयं भगवान् नारायण हैं। द्विजवर ! जो पुरुष ब्रह्मयज्ञके द्वारा निरन्तर यजन करते हैं, उनका प्रयास ब्रह्मको प्रसन्न करनेके लिये होता है। वेदको भी ‘ब्रह्म’ कहा जाता है। नारायण, शिव, विष्णु, शंकर और पुरुषोत्तम – इनमें केवल नामोंका ही भेद है। वस्तुतः इन सबको सनातन परब्रह्म परमात्मा कहते हैं। विप्र ! वैदिक कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषोंके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर- इन नामोंका पृथक् पृथक् उच्चारण होता है। हम तीनों मन्त्रके आदि देवता हैं, इसमें कुछ विचारनेकी आवश्यकता नहीं है। वैदिक कर्मके अवसरपर ही मेरा, विष्णुका तथा वेदोंका पार्थक्य है। वस्तुतः हम तीनों एक ही हैं। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि इसमें भेद-भावकी कल्पना न करे। उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले द्विजवर ! जो पक्षपातके कारण इसके विपरीत कल्पना करता है, वह पापी नरकमें जाता है। उसकी समझमें मैं रुद्र, ब्रह्मा और विष्णु तथा ऋग् यजुः और साम- इनमें ऐसी भेद-भावना होती है।
अध्याय ६५ वैराज - वृत्तान्त
भगवान् रुद्र कहते हैं-द्विजवर ! अब एक दूसरा प्रसङ्ग कहता हूँ, सुनो। मुनिश्रेष्ठ ! इसमें बड़े कौतूहलकी बात है। जिस समय मैं जलमें था, तब यह घटना घटी थी। विप्रवर! सर्वप्रथम ब्रह्माजीने मेरी सृष्टि करके कहा – ‘तुम प्रजाओंकी रचना करो’, किंतु इस कार्यकी जानकारी मुझे प्राप्त न थी। अतः मैं जलमें (तपस्या करनेके लिये) चला गया। जलमें गये अभी एक क्षण ही हुआ था – ज्यों ही मैं बैठता हूँ, त्यों ही परम प्रभु परमात्माकी मुझे झाँकी मिली। उन पुरुषकी आकृति केवल अँगूठेके बराबर थी। मैं मनको सावधान करके उनका ध्यान करने लगा। इतनेमें ही जलसे ग्यारह पुरुष निकल आये। उनकी ऐसी प्रतिभा थी मानो प्रलयकालकी अग्नि हो । वे अपनी किरणोंसे जलको संतप्त कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा – ‘ आपलोग कौन हैं, जो जलसे निकलकर अपने तेजसे इस पानीको अत्यन्त तप्त कर रहे हैं? साथ ही यह भी बतायें कि आप कहाँ जायेंगे ?”
इस प्रकार मेरे पूछनेपर उन आदरणीय पुरुषोंने कुछ भी न कहा। वे सभी परम प्रशंसनीय ब्राह्मण थे। बिना कुछ कहे ही वे चल पड़े। तदनन्तर उनके जानेके कुछ ही क्षण बाद एक अत्यन्त महान् पुरुष आये, जिनकी आकृति बहुत सुन्दर थी। उनके शरीरका वर्ण मेघके समान श्यामल था और आँखें कमलके तुल्य थीं। मैंने उनसे पूछा—’पुरुषप्रवर! आप कौन हैं तथा जो अभी गये हैं, वे पुरुष कौन हैं? आपके यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है? बतानेकी कृपा करें।’ पुरुषने कहा – ये पुरुष, जो पहले आकर चले गये हैं, इनका नाम आदित्य है। ये बड़े तेजस्वी हैं। ब्रह्माजीने इनका ध्यान किया है, अतः ये यहाँसे चले गये। कारण, इस समय ब्रह्माजी संसारकी रचना कर रहे हैं। इस अवसरपर उन्हें इनकी आवश्यकता है। देव! ब्रह्माके सृजन किये हुए जगत् की रक्षाका भार इनपर अवलम्बित होगा- इसमें कोई संशय नहीं है।
श्रीरुद्र बोले – भगवन्! आप महान् पुरुषोंके भी सिरमौर हैं। मैं आपको कैसे जानूँ! आप अपने नाम तथा स्वरूपका परिचय बताते हुए सभी प्रसङ्ग बतानेकी कृपा कीजिये; क्योंकि मुझे आपके सम्बन्धमें अभी कोई ज्ञान नहीं है।
इस प्रकार भगवान् रुद्रके पूछनेपर उस पुरुषने उत्तर दिया- ‘मैं भगवान् नारायण हूँ। मेरी सत्ता सदा सर्वत्र रहती है। मैं जलमें शयन करता हूँ। मैं आपको दिव्य आँखें दे रहा हूँ, आप मुझे अब देख सकते हैं। जब उन्होंने मुझसे ऐसी बात कही तब मैंने उनपर पुनः दृष्टि डाली। इतनेमें जिनकी आकृति केवल अँगूठेके बराबर थी, वे अब विराट्रूपमें दीखने लगे। उनका वह तेजस्वी विग्रह प्रदीप्त था। उनकी नाभिमें मैंने कमलका दर्शन किया। सूर्यके समान वहीं ब्रह्माजी भी दिखायी पड़े तथा उनके समीप ही मैंने स्वयं अपनेको भी देखा। उन परमात्माको देखकर मेरा मन आनन्दसे भर गया। विप्रवर! तब मेरे मनमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई कि इनकी स्तुति करूँ । सुव्रत ! फिर तो निश्चित विचार हो जानेपर मैं इस स्तोत्रसे उन विश्वात्मा परम प्रभुकी आराधना करने लगा – मुझमें तपस्याका बल था, इसीसे इस शुभ कर्मकी ओर मेरी बुद्धि प्रवृत्त हुई । ‘
मैं (रुद्र) ने कहा- जिनका अन्त नहीं है, जो विशुद्ध चित्तवाले, सुन्दर रूपधारी, सहस्र भुजाओंसे सुशोभित एवं अनन्त किरणोंके आकर हैं तथा जिनका कर्म महान् शुद्ध और देह परम विशाल है, उन परब्रह्म परमात्माके लिये मेरा नमस्कार है। अखिल विश्वका दुःख दूर करना जिनका सहजस्वभाव है, जो सहस्र सूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी हैं, सम्पूर्ण विद्याएँ जिनमें आश्रय पाती हैं तथा समस्त देवता जिन्हें निरन्तर नमस्कार करते हैं, उन चक्र धारण करनेवाले कल्याणके स्रोत प्रभुके लिये मेरा नमस्कार है। प्रभो ! अनादिदेव, अच्युत, शेषशायी, विभु, भूतपति, महेश्वर, मरुत्पति, सर्वपति, जगत्पति, भुवः पति और भुवनपति आदि नामोंसे भक्तजन आपको सम्बोधित करते हैं। ऐसे आप भगवान् के लिये मेरा नमस्कार है। नारायण! आप जलके स्वामी, विश्वके लिये कल्याणदाता, पृथ्वीके स्वामी, संसारके संचालक, जगत् के लोचनस्वरूप, चन्द्रमा एवं सूर्यका रूप धारण करनेवाले, विश्वमें व्याप्त, अच्युत एवं परम पराक्रमी पुरुष हैं। आपकी मूर्ति तर्कका विषय नहीं है और आप अमृत स्वरूप तथा अविनाशी हैं। नारायण ! प्रचण्ड अग्निकी लपटें आपके श्रीविग्रहकी समता करनेमें असफल हैं। आपके मुख चारों ओर हैं। आपकी कृपासे देवताओंका महान् दुःख दूर हुआ है। सनातन प्रभो! आपके लिये नमस्कार है, मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। विभो ! आपके अनेक स्वरूपोंका मुझे दर्शन हो रहा है। आपके भीतर जगत् का निर्माण करनेवाले सनातन ब्रह्मा तथा ईश दिखायी पड़ रहे हैं, उन आप परम पितामहके लिये मेरा नमस्कार है । संसाररूपी चक्रमें भटकनेवाले परम पवित्र अनेक साधक उत्तम मार्गपर चलते हुए भी आपकी आराधनामें जब कथंचित् (किसी प्रकार ) सफल होते हैं; तब आदिदेव ! ऐसे आप प्रभुकी आराधना करनेकी मुझमें शक्ति ही कहाँ है, अतः देवेश्वर! मैं आपको केवल प्रणाम करता हूँ। आदिदेव ! आप प्रकृतिसे परे एकमात्र पुरुष हैं। जो सौभाग्यशाली पुरुष आपके इस स्वरूपको जानता है, उसे सब कुछ जाननेकी क्षमता प्राप्त हो जाती है। आपकी मूर्ति बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी है। आपके स्वरूपोंमें जो गुण हैं, वे हठपूर्वक विभाजित नहीं किये जा सकते। भगवन्! आप वागिन्द्रियके मूलकारण, अखिल कर्मसे परे और विश्वात्मा हैं। आपका यह श्रेष्ठ शरीर विशुद्ध भावोंसे ओत-प्रोत है। आपकी उपासनामें संसारके बन्धन काटनेकी शक्ति है। उसीके द्वारा आपका सम्यक् ज्ञान सम्भव है। साधारण पुरुषकी बात तो दूर देवता भी आपको जान नहीं पाते। फिर भी तपस्याद्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जानेसे मैं आपको कवि, पुराण एवं आदिपुरुषके रूपमें जाननेमें सक्षम हुआ हूँ। मेरे पिता ब्रह्माजीने सृष्टिके अवसरपर बारंबार वेदोंकी सहायता ली है। अतएव उनका भी चित्त परम शुद्ध हो गया है। प्रभो ! मुझ जैसा व्यक्ति तो आपको पुकारनेमें भी असमर्थ है; क्योंकि आप ब्रह्मप्रभृति प्रधान देवताओंसे भी अगम्य कहे जाते हैं। अतएव वे देवताका रूप धारण करके आपको अनेकों बार प्रणाम करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप तपोरहित होनेपर भी उन्हें आपकी जानकारी प्राप्त हो जाती हैं। देवताओंमें भी बहुत से उदार कीर्तिवाले हैं। किंतु भक्तिका अभाव होनेसे आपको जाननेकी उनके मनमें इच्छा ही नहीं होती है। प्रभो! अभक्त वेदवादियोंको भी कई जन्मतक विवेक नहीं होता। आपकी कृपासे उन्हें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो जाय इसके लिये मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। जिसे आप प्राप्त हो जाते हैं, उसे किसी वस्तुकी अपेक्षा क्या है। यही नहीं, उसे देवता और गन्धर्वकी भी शरण नहीं लेनी पड़ती, वह स्वयं कल्याणस्वरूप हो जाता है। यह सारा संसार आपका ही रूप है। आप महान् सूक्ष्म तथा स्थूलस्वरूप हैं। आदिप्रभो ! यह जगत् आपका ही बनाया हुआ है।
भगवन्! आप कभी महान् रूप तथा कभी स्थूलरूप धारण कर लेते हैं और कभी आपका रूप अत्यन्त सूक्ष्म हो जाता है। आपके विषयमें भिन्न विचार होनेसे मानव मोह-क्लेशमें पड़ता है। अब जब आप स्वयं प्रत्यक्ष पधारे हैं तब अधिक कहना ही क्या है ? वसु, सूर्य, पवन एवं पृथ्वी सब आपमें ही स्थित हैं। आपका सदा समान रूप रहता है, आत्मारूपसे आप सर्वत्र विराजते हैं, व्यापकता आपका स्वभाव है। सत्त्वगुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं, आप अनन्त एवं सम्पूर्ण ऐश्वर्योंसे सम्पन्न हैं। आप मुझपर प्रसन्न होनेकी कृपा कीजिये ।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! अमित तेजस्वी महाभाग रुद्रने जब भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की तब वे संतुष्ट हो गये। फिर तो मेघके समान गम्भीर वाणीमें उन्होंने ये वचन कहे।
भगवान् विष्णु बोले- देवेश्वर! तुम्हारा कल्याण हो, उमापते ! तुम वर माँगो । भगवन्! हममें भेद तो औपचारिकमात्र है । तत्त्वतः हम दोनों एक हैं।
रुद्रने कहा— प्रभो ! पितामह ब्रह्माने सृष्टि करनेके लिये मेरी नियुक्ति की थी। मुझसे कहा था—’तुम प्रजाओंकी रचना करो।’ प्राणियोंकी उत्पत्ति करनेवाले प्रभो! इस विषयमें आपसे तीन प्रकारका ज्ञान प्राप्त करना मेरे लिये परम आवश्यक है।
भगवान् विष्णुने कहा- रुद्र ! तुम सनातन एवं सर्वज्ञ हो – इसमें कोई संदेह नहीं । तुम्हारे भीतर ज्ञानकी प्रभूत राशि है। तुम देवताओंके लिये सम्यक् प्रकारसे परम पूज्य बनोगे ।
इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरिने स्वयं अपना रूप मेघका बना लिया। वे जलसे बाहर निकले और महाभाग रुद्रसे उन्होंने ये वचन कहे — ‘ शम्भो ! वे जो ग्यारह प्राकृत पुरुष थे, उनका नाम वैराज है। उन्हींको आदित्य कहते हैं। वे इस समय पृथ्वीपर गये हैं। उन्हें मेरा अंश जानना चाहिये। धरातलपर विष्णु नामसे मैं ही बारह रूपोंमें अवतीर्ण होऊँगा । शंकरजी ! इस प्रकार अवतार ग्रहणकर वे सभी आपकी आराधना करेंगे।’ ऐसा कहकर वे भगवान् नारायण स्वयं अपने ही अंशसे एक दिव्य बादलकी रचनाकर आकाशसे अद्भुत शब्दकी तरह पता नहीं, कहाँ अन्तर्धान हो गये ।
भगवान् रुद्र कहते हैं- ऐसी शक्तिसे सम्पन्न, सर्वत्र विचरनेवाले तथा सम्पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि करनेमें परम कुशल श्रीहरिने उस समय मुझे इस प्रकारका वर दिया था। अतएव मैं देवताओंसे श्रेष्ठ हुआ । वस्तुतः भगवान् नारायणसे श्रेष्ठ कोई देवता न हुआ है और न होगा। सज्जन श्रेष्ठ ! पुराणों और वेदोंका यही रहस्य है। मैंने आपलोगोंके सामने यह सब प्रसङ्ग बता दिया, जिससे सुस्पष्ट हो जाता है कि इस जगत्में एकमात्र भगवान् श्रीहरिकी ही उपासना की जानी चाहिये।
अध्याय ६६ भुवन कोशका वर्णन
भगवान् वराह कहते हैं— वसुंधरे ! भगवान् रुद्र पुराणपुरुष, शाश्वत देवता, यज्ञस्वरूप, अविनाशी, विश्वमय, अज, शम्भु, त्रिनेत्र एवं शूलपाणि हैं। उन सनातन प्रभुसे सम्पूर्ण ऋषियोंने पुनः प्रश्न किया।
ऋषिगण बोले – देवेश्वर ! आप हम सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। अतः हम आपसे एक प्रश्न पूछ रहे हैं, इसे आप बतानेकी कृपा करें। उमापते ! पृथ्वीका प्रमाण, पर्वतोंकी स्थिति और उनका विस्तार क्या है। देवेश्वर ! कृपया इसका वर्णन करें।
भगवान् रुद्र कहते हैं- धर्मका पूर्ण ज्ञान रखनेवाले महाभाग ऋषियो! समस्त पुराणोंमें भूलोककी ही चर्चा की जाती है। यह लोक पृथ्वीतलपर है। मैं तुम्हारे सामने संक्षेपसे इसका वर्णन करता हूँ, इस प्रसङ्गको सुनो। जिन परब्रह्म परमेश्वरका प्रसङ्ग चला है, उनका ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंकी जानकारीसे ही सम्भव है। उन्हींका नाम परमात्मा है। उनमें पापका लेशमात्र भी नहीं है। वे परमाणु-जैसा सूक्ष्म तथा अचिन्त्यरूप भी धारण कर लेते हैं। उन्हीं सम्पूर्ण लोकोंमें व्याप्त रहनेवाले पीताम्बरधारीका नाम नारायण है। पृथ्वी उन्हींके वक्षःस्थलपर टिकी है। वे दीर्घ, ह्रस्व, कृश, लोहित आदि गुणोंसे रहित तथा समस्त प्रपञ्चसे परे हैं। बहुत पहलेसे ही उनका यह रूप है। उनका स्वरूप केवल ज्ञानका विषय है। सृष्टिके आदिमें उन प्रभुमें सत्त्व, रज और तमके निर्माण करनेकी इच्छा हुई, अतः उन्होंने जलकी सृष्टि करके योगनिद्राकी सहायतासे उसमें शयन किया। फिर उनकी नाभिपर एक कमल उग आया। तब उस कमलपर जो सम्पूर्ण वेदों एवं ज्ञानके भंडार, अचिन्त्य स्वरूप अत्यन्त शक्तिशाली तथा प्रजाओंके रक्षक कहे जाते हैं, वे ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- प्रभृति धर्मज्ञानी पुत्रोंको सर्वप्रथम उत्पन्न किया और फिर स्वायम्भुव मनु मरीचि आदि मुनियों तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंकी सृष्टि की। भगवन्! दक्षद्वारा सृष्ट स्वायम्भुव मनुसे इस भूमण्डलका विशेष विस्तार हुआ। उन महाभाग मनुमहाराजके भी दो पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः प्रियव्रत और उत्तानपाद थे। प्रियव्रतसे दस पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई वे थे – आग्नीध्र, अग्निबाहु, मेध, मेधातिथि, ध्रुव, ज्योतिष्मान्, द्युतिमान् हव्य, वपुष्मान् और सवन। उन प्रियव्रतने अपने सात पुत्रोंके लिये पृथ्वीके सात द्वीपोंके सात भाग बनाकर उनके रहनेकी व्यवस्था कर दी। उस समय महाभाग प्रियव्रतकी आज्ञासे आग्नीध्र जम्बूद्वीपके, मेधातिथि शाकद्वीपके, ज्योतिष्मान् क्रौञ्चद्वीपके, द्युतिमान् शाल्मलिद्वीपके, हव्य गोमेदद्वीपके, वपुष्मान् प्लक्षद्वीपके तथा सवन पुष्करद्वीपके शासक हुए। पुष्करद्वीपके शासक सवनसे दो पुत्रोंका जन्म हुआ। वे पुत्र महावीति (कुमुद) और धातक नामसे प्रसिद्ध रहे हैं। उनके लिये सवनने उन्हींके नामसे पुकारे जानेवाले दो देशोंका निर्माण किया। धातकका राज्यखण्ड ‘धातकीखण्ड’ के नामसे तथा कुमुदका राज्यखण्ड ‘कौमुदखण्ड’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । शाल्मलिद्वीपके स्वामी द्युतिमान् के तीन पुत्र हुए। उनके नाम कुश, वैद्युत और जीमूतवाहन थे । शाल्मलिद्वीपके देश भी उन्होंके नामोंसे विख्यात हुए। ज्योतिष्मान्के सात पुत्र हुए। उनके नाम कुशल, मनुगव्य, पीवर, अन्ध्र, अन्धकारक, मुनि और दुन्दुभि थे। उनके नामपर क्रौञ्चद्वीपमें सात महादेश हुए। कुशद्वीपके स्वामी कुश बड़े प्रतापी थे। उनके सात पुत्र हुए। वे उद्भिद्, वेणुमान् रथपाल, मनु धृति, प्रभाकर और कपिल नामसे प्रसिद्ध हुए । उस द्वीपमें उनके नामपर भी सात वर्ष (देश) हैं। शाकद्वीपके स्वामी मेधातिथिके सात पुत्र हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं- नाभि, शान्तभय, शिशिर, मुखोदम, नन्दशिव, क्षेमक और ध्रुव । इस द्वीपमें उन्हींके नामसे प्रसिद्ध उनके ये वर्ष भी हैं –
हेमवान्, हेमकूट, किम्पुरुष, नैषध, हरिवर्ष, मेरुमध्य, इलावृत, नील, रम्यक्, श्वेत, हिरण्मय और शृङ्गवान् । पर्वतके उत्तरी भागमें उत्तरकुरु, माल्यवान् हैं। भद्राश्व और गन्धमादनपर महाराज नाभिका शासन आरम्भ हुआ। केतुमालवर्षपर भी उन्हींका शासन हुआ । इसी प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें भूमण्डलकी व्यवस्था हुई है।
प्रत्येक कल्पके आरम्भमें प्रधान मनुओंद्वारा भूमण्डलके विभाजन एवं पालनका ऐसा ही प्रबन्ध होता आया है। कल्पकी यह स्वाभाविक व्यवस्था है और भविष्यमें भी सदा ऐसा ही होगा।
अब महाभाग! मैं नाभिकी संतानका वर्णन करता हूँ- नाभिकी धर्मपत्नीका नाम मेरुदेवी था । उन्होंने ऋषभ नामक पुत्रको जन्म दिया। ऋषभसे भरत नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भरत सबसे बड़े पुत्र हुए। अतएव उनके पिता ॠषभने हिमाद्रि पर्वतके दक्षिण भागमें भारत नामके इस महान् वर्षका उन्हें शासक बना दिया। भरतसे सुमतिका जन्म हुआ। सुमतिको अपना राज्य देकर भरत जंगलमें चले गये। सुमतिके तेज, तेजके सत्सुत, सत्सुतके इन्द्रद्युम्न, इन्द्रद्युम्नके परमेष्ठी, परमेष्ठी के प्रतिहर्ता, प्रतिहर्ताके निखात, निखातके उन्नेता, उन्नेताके अभाव, अभावके उद्गाता उद्गाताके प्रस्तोता प्रस्तोताके विभु विभुके पृथु पृथुके अनन्त, अनन्तके गय, गयके नय, नयके विराट्, विराट्के महावीर्य और महावीर्यके सुधीमान् पुत्र हुए। सुधीमान् से सौ पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई। इस प्रकार इन प्रजाओंकी निरन्तर वृद्धि होती गयी ।
उनसे सात द्वीपोंवाली यह पृथ्वी तथा भारतवर्ष सर्वथा व्याप्त हो गया। उनके वंशमें उत्पन्न हुए राजाओंसे यह भूमण्डल पालित होता आया है।
सत्ययुग, त्रेता आदि युगों एवं महायुगों से परिपूर्ण एकहत्तर चतुर्युगका एक मन्वन्तर कहा जाता है। भुवनके प्रसङ्गमें मैंने यह स्वायम्भुवमन्वन्तरकी बात कही।
अध्याय ६७ जम्बूद्वीपसे सम्बन्धित सुमेरुपर्वतका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं- विप्रवर! अब मैं जम्बूद्वीपका यथार्थ वर्णन करूँगा। साथ ही समुद्रों और द्वीपोंकी संख्या एवं विस्तारका भी वर्णन करूँगा । उन सब द्वीपोंमें जितने वर्ष और नदियाँ हैं, उनका तथा पृथ्वी आदिके विस्तारका प्रमाण, सूर्य एवं चन्द्रमाकी पृथक् गतियाँ, सातों द्वीपोंके भीतर वर्तमान हजारों छोटे द्वीपोंके नाम-रूपका वर्णन, जिनसे यह जगत् व्याप्त हैं, उनकी पूरी संख्या बतानेके लिये तो कोई भी समर्थ नहीं है। फिर भी मैं सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहोंके साथ उन सात द्वीपोंका वर्णन करूँगा, जिनके प्रमाणोंको मनुष्य तर्कद्वारा प्रतिपादन करते हैं।
वस्तुतः जो भाव सर्वथा अचिन्त्य हैं, उनको तर्कसे सिद्ध करनेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो वस्तु प्रकृतिसे परे है, वही अचिन्त्यका लक्षण है-उसे अचिन्त्य स्वरूप समझना चाहिये।
अब मैं जम्बू द्वीपके नौ वर्षोंका तथा अनेक योजनोंमें फैले हुए उसके मण्डलोंका यथार्थ वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो। चारों तरफ फैला हुआ यह जम्बूद्वीप लाख योजनोंका है। अनेक योजनवाले पवित्र बहुत-से जनपद इसकी शोभा बढ़ाते हैं। यह सिद्ध और चारणोंसे व्याप्त है तथा पर्वतोंसे इसकी शोभा अत्यन्त मनोहर जान पड़ती है। अनेक प्रकारकी सुन्दर धातुएँ इसका गौरव बढ़ा रही हैं। शिलाजीत आदिके उत्पन्न होनेसे इसकी महिमा चरम सीमापर पहुँच गयी है। पर्वतीय नदियोंसे चारों तरफ यह चमचमा रहा है। ऐसे विस्तृत एवं श्रीसम्पन्न भूमण्डलवाले जम्बूद्वीपमें नौ वर्ष चारों ओर व्याप्त हैं। यह ऐसा सुन्दर द्वीप है, जहाँ सम्पूर्ण प्राणियों को प्रकट करनेवाले भगवान् श्रीनारायण विराजते हैं। इसके विस्तारके अनुसार चारों ओर समुद्र हैं तथा पूर्वमें उतने ही लम्बे-चौड़े ये छः वर्ष पर्वत हैं। इसके पूर्व और पश्चिम- दो तरफ लवणसमुद्र हैं। वहाँ बर्फसे व्याप्त हुआ हिमालय, सुवर्णसे भरा हेमकूट तथा अत्यन्त सुख देनेवाला महान् निषध नामक पर्वत है। चार वर्णवाले सुवर्णयुक्त सुमेरु- पर्वतका वर्णन तो मैं पहले ही कर चुका हूँ, जो कमलके समान वर्तुलाकार है। उसके चारों भाग बराबर हैं और वह बहुत ऊँचा है। उसके पार्श्व भागोंमें परमब्रह्म परमात्माकी नाभिसे प्रकट हुए तथा प्रजापति नामसे प्रसिद्ध एवं गुणवान् ब्रह्माजी विराजते हैं।
इस जम्बूद्वीपके पूर्व भागमें श्वेतवर्ण- वाले प्राणी हैं, जो ब्राह्मण हैं। जो दक्षिणकी ओर पीतवर्ण हैं, उन्हें वैश्य माना जाता है। जो पश्चिमकी ओर भृङ्गराजके पत्रकी आभावाले हैं, उनको शूद्र कहा गया है। इस सुमेरुपर्वतके उत्तर भागमें संचय करनेके इच्छुक जो प्राणी हैं तथा जिनका वर्ण लाल है, उन्हें क्षत्रियकी संज्ञा प्राप्त हुई है। इस प्रकार वर्णोंकी बात कही जाती है।
स्वभाव, वर्ण और परिमाणसे इसकी गोलाईका वर्णन हुआ है। इसका शिखर नीलम एवं वैदूर्य मणिके समान हैं। वह कहीं श्वेत, कहीं शुक्ल और कहीं पीले रंगका है। कहीं वह धतूरेके रंगके समान हरा है और कहीं मोरके पंखकी भाँति चितकबरा । इन सभी पर्वतोंपर सिद्ध और चारणगण निवास करते हैं। इन पर्वतोंके बीचमें नौ हजार लम्बा-चौड़ा ‘विष्कम्भ’ नामका पर्वत कहा जाता है। इस महान् सुमेरुपर्वतके मध्य भागमें इलावृत वर्ष है। इसीसे उसका विस्तार चारों ओर फैला हुआ हजार योजन माना जाता है। उसके मध्यमें धूम्ररहित आगकी भाँति प्रकाशमान महामेरु है। सुमेरुकी वेदीके दक्षिणका आधा भाग और उत्तरका आधा भाग उसका ( महामेरुका) स्थान माना जाता है। वहाँ जो ये छः वर्ष हैं, उनकी वर्ष – पर्वतकी संज्ञा है। इन सभी वर्षोंके आगे एक योजनका अवकाश है। वर्षोंकी लम्बाई-चौड़ाई दो-दो हजार योजनकी है। उन्हींके परिमाणसे जम्बूद्वीपका विस्तार कहा जाता है। एक-एक लाख योजन विस्तारवाले नील और निषध नामके दो पर्वत हैं। उनके अतिरिक्त श्वेत हेमकूट, हिमवान् और शृङ्गवान् नामक पर्वत हैं। जम्बूद्वीपके प्रमाणसे निषधपर्वतका वर्णन किया गया है। हेमकूट निषधसे हीन है, वह उसके बारहवें भागके ही तुल्य है। वह हिमवान् पर्वत पूर्वसे पश्चिमतक फैला हुआ है। द्वीपके मण्डलाकार होनेसे कहीं कम और कहीं अधिक हो जानेकी बात कही जाती है। वर्षों और पर्वतोंके प्रमाण जैसे दक्षिणके कहे जाते हैं, वैसे ही उत्तरमें भी हैं। उनके मध्यमें जो मनुष्योंकी बस्तियाँ हैं, उनके नाम अनुवर्ष हैं। वे वर्ष विषम स्थानवाले पर्वतोंसे घिरे हुए हैं। उन अगम्य वर्षोंको अनेक प्रकारकी नदियोंने घेर रखा है। उन वर्षोंमें विभिन्न जातिवाले प्राणी निवास करते हैं। ये हिमालय सम्बन्धी वर्ष हैं, जहाँ भरतकी संतान सुशोभित होती है।
हेमकूटपर जो उत्तम वर्ष है, उसे किम्पुरुष कहते हैं। हेमकूटसे आगेके वर्षका नाम निषध और हरिवर्ष है। हरिवर्षसे आगे और हेमकूटके पासके भू-भागको इलावृतवर्ष कहा जाता है। इलावृतके आगेके वर्षोंका नाम नील और रम्यक सुना गया है। रम्यकसे आगे श्वेतवर्ष और हिरण्यमयवर्षोंकी प्रतिष्ठा है। हिरण्यमयवर्षसे आगे शृङ्गवन्त और कुरुवर्षोंका अवस्थान है। ये दोनों वर्ष धनुषाकार दक्षिण और उत्तरतक झुके हैं-ऐसा जानना चाहिये। इलावृतके चारों कोने बराबर हैं। यह प्रायः द्वीपके चतुर्थांश भागमें है।
निषधकी वेदीके आधे भागको उत्तर कहा गया है। इनके दक्षिण और उत्तर दिशाओंमें तीन-तीन वर्ष हैं। उन दोनों भागोंके मध्यमें मेरुपर्वत है। उसीको इलावृतवर्ष जानना चाहिये । प्रमाणमें वह चौंतीस हजार योजन बताया गया है। उसके पश्चिम गन्धमादन नामका प्रसिद्ध पर्वत है। ऊँचाई और लम्बाई-चौड़ाईमें प्रायः माल्यवान् पर्वतसे उसकी तुलना होती है। उक्त निषध और गन्धमादन- इन दोनों पर्वतोंके मध्यभागमें सुवर्णमय मेरुपर्वत है। सुमेरुके चारों भागोंमें समुद्रकी खानें हैं। इसके चारों कोण समान स्थितिमें हैं। वहाँ सभी धातुओंकी मेद एवं हड्डियाँ उनके अवतार लेनेमें सहयोगी नहीं हैं। छः प्रकारके योगैश्वर्योंके कारण वे विभु कहलाते हैं। सनातन कमलकी उत्पत्तिका निमित्तकारण वे ही हैं। उस कमलपर स्थित चतुर्मुख ब्रह्मा भी उन परब्रह्म परमात्माके ही रूप हैं, कोई अन्य शक्ति नहीं। कमलकी आकृति धारण करनेवाली तथा वनों एवं हदोंसे सम्पन्न पृथ्वी इन्हीं परब्रह्म परमात्मासे उत्पन्न हुई है।
जिसपर संसार स्थान पाता है, उस कमलके विस्तारका स्पष्ट रूपसे मैंने वर्णन किया। द्विजवरो! अब क्रमशः विभाग करके उनके विशेष गुणोंका वर्णन करता हूँ, सुनो।
सुमेरुपर्वतके पार्श्वभागोंमें पूर्वमें श्वेतपर्वत, दक्षिणमें पीत, पश्चिममें कृष्णवर्ण और उत्तरमें रक्तवर्णका पर्वत है। पर्वतोंका राजा मेरुपर्वत शुक्लवर्णवाला है, उसकी कान्ति प्रचण्ड सूर्यके समान है तथा वह धूमरहित अग्निकी भाँति प्रदीप्त होता रहता है एवं चौरासी हजार योजन ऊँचा है। वह सोलह हजार योजनतक नीचे गया है और सोलह हजार योजन ही उसका पृथ्वीपर विस्तार है। उसकी आकृति शराव (उभरे हुए ढकने ) – की भाँति गोल है। इसके शिखरका ऊपरी भाग बत्तीस योजनके विस्तारमें है और छानबे योजनकी दूरीमें चारों तरफ यह फैला है। यह उसके मण्डलका प्रमाण है। वह पर्वत महान् दिव्य ओषधियोंसे सम्पन्न तथा प्रशस्त रूपवाले सम्पूर्ण शोभनीय भवनोंसे आवृत है। इसपर सम्पूर्ण देवता, गन्धर्वो नागों, राक्षसों तथा अप्सराओंका समुदाय आनन्दका अनुभव करता है। प्राणियोंके सृजन करनेवाले ब्रह्माजीका भव्य भवन भी इसीपर शोभा पाता है। इसके पश्चिममें भद्राश्व, भारत और केतुमाल हैं। उत्तरमें पुण्यवान् कुरुओंसे सुशोभित कुरुवर्ष है। पद्मरूप उस मेरुपर्वतकी कर्णिकाएँ चारों ओर मण्डलाकार फैली हैं। योजनोंके प्रमाणसे मैं उसके दैर्घ्यका विस्तार बताता हूँ, उसके मण्डलकी लम्बाई-चौड़ाई हजारों योजनकी है। कमलकी आकृतिवाले उस मेरुपर्वतके केशर- जालोंकी संख्याएँ उनहत्तर कही गयी हैं। वह चौरासी हजार योजन ऊँचा है। वह लम्बाईमें एक लाख योजन और चौड़ाईमें अस्सी हजार योजन है। वहाँ चौदह योजनके विस्तारमें चार पर्वत हैं। कमल-पुष्पकी आकृतिवाले उस मेरुपर्वतके भी नीचे चार पंखुड़ियाँ हैं। उनका प्रमाण चौदह हजार योजन है। उस कमलकी सुप्रसिद्ध कर्णिकाओंका तुम्हारे सामने जो मैंने परिचय दिया है, अब संक्षेपसे मैं उसका वर्णन करता हूँ। तुम चित्तको एकाग्र करके सुनो।
द्विजवरो ! कमलकी आकृतिवाले उस मेरु- पर्वतकी कर्णिकाएँ सैकड़ों मणिमय पत्रोंसे विचित्र रूपसे सुशोभित हो रही हैं। उनकी संख्या एक हजार है। मेरुगिरिमें एक हजार कन्दराएँ हैं। इस पर्वतराजमें वृत्ताकार एवं कमलकर्णिकाओंकी तरह विस्तृत एक लाख पत्ते हैं। उसपर मनोवती नामकी श्रीब्रह्माजीकी रमणीय सभा है और अनेक ब्रह्मर्षि उसके सदस्य हैं। महात्मा ब्रह्मचारी, विनयी, सुन्दर व्रतोंके पालक, सदाचारी, अतिथिसेवी गृहस्थ, विरक्त और पुण्यवान् योगीपुरुष उस सभाके सभासद हैं। इसमें ही मेरा निवास है। इस सभा- मण्डलका परिमाण चौदह हजार योजन है। वह रत्न और धातुओंसे सम्पन्न होनेके कारण बड़ा सुन्दर और अद्भुत प्रतीत होता है। उसपर अनगिनत रत्न- मणिमय तोरणयुक्त मन्दिर हैं। ऐसे दिव्य मन्दिरोंसे वह पर्वत चारों तरफसे घिरा है। वहाँ तीस हजार योजन विस्तृत चक्रपाद नामसे विख्यात एक श्रेष्ठ पर्वत है। उस चक्रपाद नामक पर्वतसे दस योजन विस्तारवाली एक नदी, जिसे ऊर्ध्ववाहिनी कहते हैं, अमरावतीपुरीसे आकर उसकी उपत्यकाओं में प्रवाहित होती है। विप्रवरो! उस नदीकी प्रतिमाके सामने सूर्य एवं चन्द्रमाके ज्योतिपुञ्ज भी फीके पड़ जाते हैं। सायं और प्रातः कालकी संध्याके समय जो उसका सेवन करते हैं, उन्हें ब्रह्माजीकी प्रसन्नता प्राप्त होती है।
अध्याय ६८ आठ दिक्पालोंकी पुरियोंका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं— द्विजवरो! उस मेरुपर्वतका पूर्वी देश परम प्रकाशमय है। उसमें चक्रपाद नामका एक पर्वत है, जिसकी अनेक धातुओंसे विद्योतित होनेसे अद्भुत शोभा होती है। इस परम रमणीय चक्रपाद पर्वतको सम्पूर्ण देवताओंकी पुरी कहते हैं। वहाँ किसीसे पराजित न होनेवाले बलाभिमानी देवताओं, दानवों और राक्षसोंका निवास है । उस पुरीमें सोनेकी बनी हुई चहारदीवारियाँ तथा मनोहर तोरण शोभा बढ़ाते रहते हैं। उस पुरीके ईशानकोणमें एक तेज: पूर्ण स्थानपर इन्द्रकी अमरावतीपुरी है। उस परम रमणीय पुरीमें सभी दिव्य पुरुष निवास करते हैं। सैकड़ों विमानोंकी वहाँ पड़ियाँ लगी रहती हैं। बहुत-सी वापियाँ उसकी शोभा बढ़ाती हैं। वहाँ हर्षका कभी भी ह्रास नहीं होता। बहुत-से रंग- बिरंगे फूल उसकी मनोहरता बढ़ाते रहते हैं। पताकाएँ एवं ध्वजाएँ माला-सी बनकर उसे अत्यन्त मनोमोहक बनाती हैं। ऋद्धि-सिद्धियोंसे परिपूर्ण उस पुरीमें देवता, यक्षगण, अप्सराएँ और ऋषिसमुदाय निवास करते हैं। उस पुरीके मध्य भागमें हीरे एवं वैदूर्यमणिकी वेदीसे मण्डित ‘सुधर्मा’ नामकी सभा है, जो अपने गुणोंके कारण तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ समस्त सुरगण एवं सिद्ध समुदायोंसे घिरे शचीपति सहस्राक्ष इन्द्र विराजते हैं।
इस अमरावतीपुरीसे कुछ दूर दक्षिणमें महाभाग अग्निदेवकी पुरी है, जो ‘तेजोवती’ नामसे प्रसिद्ध है तथा जिसमें अग्निके समान गुण पाये जाते हैं। उसके दक्षिणमें यमराजकी ‘संयमनीपुरी’ है। अमरावतीके नैर्ऋत्य कोणमें विरूपाक्षकी ‘कृष्ण- बतीपुरी’ है। उसके पीछे पश्चिम दिशामें जलके स्वामी महात्मा वरुणकी ‘शुद्धवतीपुरी’ है। इसी प्रकार उसके वायव्य कोणमें वायु देवताकी ‘गन्धवतीपुरी’ है। इस ‘गन्धवती’ के पीछे अर्थात् उत्तर दिशामें गुह्यकोंके स्वामी कुबेरकी मनोहर ‘महोदयापुरी’ है। इस पुरीमें वैदूर्यमणिसे बनी हुई वेदियाँ है। इसी प्रकार ब्रह्मलोककी आठवीं कर्णिका या अन्तर्पटपर ईशानकोणमें महान् पुरुष भगवान् रुद्रकी पुरी शोभा पाती है, जो ‘मनोहरा’ नामसे प्रसिद्ध है। इसमें अनेक प्रकारके भूतसमुदाय, विविध भाँतिके पुष्प, ऊँचे भवन, वन और आश्रम हैं, जिनसे उसकी अद्भुत शोभा होती है। भगवान् रुद्रका यह लोक सबके लिये प्रार्थनाकी विषय – अभिलषणीय वस्तु है।
अध्याय ६९ मेरुपर्वतका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं— द्विजवरो ! मेरुपर्वतके मध्यभागमें कर्णिकाका मूल है। उसका परिमाण एक सहस्र योजन है। अड़तालीस हजार योजनकी गोलाईसे शोभा पानेवाले पर्वतराज मेरुका यह मूल भाग है। उसकी मर्यादाके व्यवस्थापक आठों दिशाओंमें आठ सुन्दर पर्वत हैं। जठर और देवकूट नामसे प्रसिद्ध पूर्व दिशामें सीमा निश्चित करनेवाले भी दो पर्वत हैं। मेरुके अग्रभागमें मर्यादाकी रक्षा करनेवाले चार पर्वतोंके आगे चौदह दूसरे पर्वत हैं जो सात द्वीपवाली पृथ्वीको अचल रखनेमें सहायक हैं। अनुमानतः उन पर्वतोंकी तिरछी होती हुई ऊपरतककी चौड़ाई दस हजार योजन होगी। इसपर जगह-जगह हरिताल, मैनशिला आदि धातुएँ तथा सुवर्ण एवं मणिमण्डित गुफाएँ हैं; जो इसकी शोभा बढ़ाती हैं। सिद्धोंके अनेक भवन तथा क्रीडास्थानसे सम्पन्न होनेके कारण इसकी प्रभा सदा दीप्त होती रहती है।
मेरुगिरिके पूर्वभागमें मन्दराचल, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें विपुल और पार्श्वभागमें सुपार्श्वपर्वत हैं। उन पर्वतोंके शिखरों पर चार महान् वृक्ष हैं। अत्यन्त समृद्धिशाली देवता, दैत्य और अप्सराएँ उनकी सुरक्षामें संनद्ध रहते हैं। मन्दर – गिरिके शिखरपर कदम्ब नामसे प्रसिद्ध एक वृक्ष है। उस कदम्बकी शाखाएँ शिखर जैसी ऊँची हैं और उसके फूल घड़े-जैसे विशाल हैं, जिनकी गन्ध बड़ी ही हृदयहारी है। वह कदम्ब सभी कालमें विराजमान रहकर शोभा पाता है। यह वृक्ष अपनी गन्धसे दिशाओंको सदा सुगन्धित करता रहता है। इसका नाम ‘भद्राश्व’ है। वर्षोंकी गणनामें केतुमालवर्षमें इसका प्रादुर्भाव हुआ था । यह विशाल वृक्ष कीर्ति रूप और शोभासे सम्पन्न है। यहाँ साक्षात् भगवान् नारायण भी सिद्धों एवं देवताओंसे सेवित होकर विराजते हैं। पहले भगवान् श्रीहरिने इस लोकके विषयमें पूछा था और देवताओंने उसके शिखरकी बार-बार प्रशंसा की। इससे सम्पूर्ण मनुष्योंके स्वामी भगवान् ने उस वर्षका अवलोकन किया।
इस मेरुपर्वतके दक्षिण ओर दो बड़े शिखर और हैं। वहाँ फलों, फूलों और महान् शाखाओंसे सुशोभित जम्बू- वृक्षोंका एक वन है। उस वृक्षसमूहसे पुराण- प्रसिद्ध, स्वादिष्ठ, गन्धयुक्त एवं अमृतकी तुलना करनेवाले बहुत से फल उस पर्वतकी चोटीपर प्रायः गिरते रहते हैं। इन फलोंके रससे उत्पन्न उस महान् श्रेष्ठ पर्वतसे एक विस्तृत नदी बहती हैं, जिससे अग्निके समान चमकीला जाम्बूनद नामक सुवर्ण बन जाता है। वह अत्यन्त सुन्दर सुवर्ण देवताओंके अनुपम आभूषणोंका काम करता है। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष- राक्षस और गुह्यकगण अमृतकी तुलना करनेवाले इन जम्बू-फलोंसे निकले हुए आसवको प्रसन्नतापूर्वक पीते हैं। इसीलिये दक्षिणके वर्षोंमें उस वर्षकी ‘जम्बूलोक’ संज्ञासे प्रसिद्धि है। मानव समाज इसे ही जम्बूद्वीप भी कहता है।
इस मेरुपर्वतके दक्षिणमें बहुत दूरतक फैला हुआ एक विशाल पीपलका वृक्ष है। उस वृक्षकी ऊँचाई अत्यन्त ऊपरतक फैली हुई है तथा उसकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हैं। वह अनेक प्राणियों तथा श्रेष्ठ गुणोंका आश्रय है, जिसका नाम ‘केतुमाल’ है। अब इस वृक्षकी विशेषताका वर्णन करता हूँ, सुनो। क्षीरसमुद्रके मन्थनके समय इन्द्रने इस वृक्षको चैत्य मानकर इसकी शाखाको मालाके रूपमें अपने गलेमें धारण कर लिया, तभीसे यह वृक्ष ‘केतुमाल’ नामसे विख्यात हो गया और इस वर्षकी भी ‘केतुमाल’ नामसे प्रसिद्धि हुई ।
सुपार्श्वनामक पर्वतके उत्तरशृङ्गपर एक महान् वट वृक्ष है। इस वृक्षकी शाखाएँ बड़ी विशाल हैं, जिनका विस्तार तीन योजनतक है। यह वृक्ष केतुमाल और इलावृतवर्षोंकी सीमापर है। इसके चारों ओर भाँति-भाँतिकी लम्बी शाखाएँ अलंकारके रूपमें विराजमान हैं तथा यह सिद्धगणोंसे सदा सुसेवित रहता है। ब्रह्माजीके मानस पुत्र वहाँ प्रायः आते तथा उसकी प्रशंसा करते हैं। वहाँ सात कुरुमहात्मा निवास करते हैं, जिनके नामसे यह ‘कुरुवर्ष’ प्रसिद्ध है। कुरुवर्षके स्वामी वे सातों महात्मा पुरुष भी स्वर्ग एवं वरुणादि देवलोकोंमें प्रसिद्ध हैं।
अध्याय ७० मन्दर आदि पर्वतोंका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं-द्विजवरो! अब उन पर्वतोंके पृष्ठभागमें स्थित अत्यन्त रम्य चार पर्वतोंका वर्णन करता हूँ। पक्षी अपने कलरवसे उनके शृङ्गोंकी शोभा बढ़ाते रहते हैं। ये पर्वत देवताओं एवं देवाङ्गनाओंके साथ-साथ विहार करनेके लिये मानो क्रीडास्थल हैं। शीतल तथा मन्दगतिसे प्रवाहित तथा सुगन्धपूर्ण पवनसे युक्त उन शिखरोंकी किंनरगण सदा सेवा करते हैं, इससे उनकी रमणीयता और बढ़ जाती है। इन चारों पर्वतोंके पूर्वमें चैत्ररथ वन और दक्षिणमें गन्धमादन पर्वत स्थित है। उन पर्वतोंपर स्वादिष्ठ जलसे परिपूर्ण कई सरोवर भी हैं, जिनका पर्वतके सभी भागोंसे सम्बन्ध है। यह वह रमणीय स्थान है, जहाँ देवसमुदाय अपनी रमणियोंके सहित अनेक दुर्गम वन प्रान्तोंको लाँघकर आता और बड़े हर्षका अनुभव करता है। परम पवित्र जल तथा रत्नोंसे पूर्ण बहुत-से सरोवर झील एवं जलाशय वहाँकी शोभा बढ़ाते हैं। खिले हुए नील, स्वच्छ एवं लाल कमलोंसे उन जलाशयोंकी सुन्दरता सीमा पार कर जाती है। ये सभी पर्वत विविध प्रकारके दिव्य गुणोंसे सम्पन्न हैं। इनके पूर्वमें अरुणोद, दक्षिणमें मानसोद, पश्चिममें असितोद और उत्तरमें महाभद्र नामक सरोवर हैं। श्वेत, कृष्ण एवं पीले रंगके कमलोंसे इन सरोवरोंकी अनुपम शोभा होती है। अरुणोद सरोवरके पूर्वी भागमें जो पर्वत प्रसिद्ध हैं, उनके नाम बतलाता हूँ, सुनो। वे हैं विकङ्क, मणिभृङ्ग, सुपात्र, महोपल, महानील, कुम्भ, सुविन्दु, मदन, वेणुनद्ध, सुमेदा, निषध और देवपर्वत। वे सभी पर्वत अपने समुदायमें सर्वोत्कृष्ट एवं पवित्र भी हैं।
अब मानससरोवरके दक्षिण भागमें जो महान् पर्वत बताये गये हैं, उनके नाम बतलाता हूँ, सुनो-तीन चोटियोंवाला त्रिशिखर, गिरिश्रेष्ठ शिशिर, कपि, शताक्ष, तुरग, सानुमान्, ताम्राह, विष, श्वेतोदन, समूल, सरल, रत्नकेतु, एकमूल, महाशृङ्ग, गजमूल, शावक, पञ्चशैल और कैलास-ये प्रधान और रमणीय पर्वत मानससरोवरके पश्चिमी भागमें हैं। विप्रो ! महाभद्र सरोवरके उत्तरमें जो पर्वत विद्यमान हैं, अब उनके नाम कहता हूँ, सुनो। हंसकूट, महान् पर्वत वृषहंस, कपिञ्जल, गिरिराज इन्द्रशैल, सानुमान्, नील, कनकशृङ्ग, शतशृङ्ग, पुष्कर, महान् एवं सर्वोत्कृष्ट विराज तथा पर्वतराज भारुचि। वे सभी पर्वत उत्तर- गिरि कहे गये हैं। उनके उत्तरीय भागमें कुछ ग्राम, नगर तथा जलाशय हैं।
अध्याय ७१ मेरुपर्वतके जलाशय
भगवान् रुद्र कहते हैं-द्विजवरो ! सीमान्त और कुमुदपर्वतोंके बीचकी अधित्यकामें अनेक पक्षी निवास करते हैं तथा वह विविध भौतिके प्राणियोंद्वारा सेवित हैं। उसकी लम्बाई तीन सौ योजन और चौड़ाई सौ योजन है। उसमें एक स्वादिष्ठ तथा स्वच्छ जलवाला श्रेष्ठ जलाशय है, जिसकी विशाल सुगन्धित कमल-पुष्प निरन्तर शोभा बढ़ाते रहते हैं। इन विशाल आकृतिवाले कमलोंमें एक-एक लाख पत्ते हैं। वह जलाशय देवताओं, दानवों, गन्धर्वों और महान् सर्पोंसे कभी रिक्त नहीं रहता। उस दिव्य एवं पवित्र जलाशयका नाम’ श्रीसरोवर’ है। सम्पूर्ण प्राणियोंको शरण देनेमें कुशल उस सरोवरमें सदा स्वच्छ जल भरा रहता है। उसके अन्तर्गत कमलवनके बीच एक बहुत बड़ा कमल है, जिसमें एक करोड़ पत्ते हैं। वह कमल मध्याह्न कालीन सूर्यकी भाँति सदा प्रफुल्लित एवं प्रकाशमान रहता है। उसके
सदा खिले रहनेसे मण्डलकी मनोहरता और अधिक बढ़ जाती है। सुन्दर केसरके खजानेकी तुलना करनेवाले उस कमलपर मतवाले भ्रमर निरन्तर गूँजते रहते हैं। इस कमलके मध्यभागमें साक्षात् भगवती लक्ष्मीका निवास है। इन देवीने अपने आवासके लिये ही उस कमलको अपना मन्दिर बना रखा है। इस सरोवरके तटपर सिद्धपुरुषोंके भी आश्रम हैं।
विप्रवरो ! उसके पावन तटपर एक बहुत बड़ा मनोहर बिल्वका भी वृक्ष है उसपर फूल और फल सदा लदे रहते हैं। वह सौ योजन चौड़ा और दो सौ योजन लम्बा है। उसके चारों ओर अन्य अनेक वृक्ष भी हैं, जिनकी ऊँचाई आधा कोस है। हजार शाखाओं और स्कन्धोंसे युक्त वह वृक्ष फलोंसे सदा परिपूर्ण रहता है। वे फल चमकीले, हरे और पीले रंगके हैं और उनका स्वाद अमृतके समान है। उनसे उत्कट गन्ध निकलती रहती है। वे विशाल आकारके फल जब पंककर गिरते हैं तो जमीनपर तितर-बितर हो जाते हैं। उस वनका नाम ‘श्री’वन या ‘लक्ष्मी’ वन है, जो सभी लोकोंमें विख्यात है। उसके आठों दिशाओं में देवता निवास करते हैं। ऐसे उस कल्याणप्रद बिल्व वृक्षके पास उसके फलोंको खानेवाले पुण्यकर्मा मुनि सुरक्षा करनेमें सदा उद्यत रहते हैं। उसके नीचे लक्ष्मीजी सदा विराजती हैं और सिद्ध समुदाय उसकी सेवामें सदा संलग्न रहता है।
विप्रवरो ! वहाँ मणिशैल नामका एक महान् पर्वत है। उसके भीतर भी एक स्वच्छ कमलका वन है। उस वनकी लम्बाई दो सौ योजन और चौड़ाई सौ योजनकी है। सिद्ध और चारण वहाँ रहकर उसकी सेवा करते हैं। इन फूलोंको भगवती लक्ष्मी धारण करती हैं, अतः ये सदा प्रफुल्लित एवं प्रकाशमान प्रतीत होते हैं। उसके चारों ओर आधे कोसतक अनेक पर्वत-शिखर फैले हुए हैं। वह कमलका वन फूले हुए पुष्पोंसे सम्पन्न होनेके कारण जान पड़ता है, मानो पक्षियोंके रहनेका पिंजरा हो। उस वनमें बहुत- से कमल खिले हुए हैं। उन फूलोंका परिमाण दो हाथ चौड़ा और तीन हाथ लम्बा है। कुछ खिले हुए पुष्प मैनशिलाकी भाँति लाल और बहुत-से केसरके रंगके से पीले हैं। वे तीव्र सुगन्धोंद्वारा देवताओंके मनको मुग्ध कर देते हैं। मतवाले भौरोंकी गुनगुनाहटसे सम्पूर्ण वनकी शोभा विचित्र होती है। देवताओं, दानवों, गन्धर्वो यक्षों, राक्षसों, किंनरों, अप्सराओं और महोरगोंसे सेवित उस वनमें प्रजापति भगवान् कश्यपजीका एक अत्यन्त दिव्य आश्रम है।
द्विजवरो ! महानील और ककुभ नामक पर्वतके मध्यभागमें भी एक बहुत बड़ा वन है। उसमें सिद्धों और साधुओंका समुदाय सदा निवास करता है। अनेक सिद्धोंके आश्रम वहाँ सुशोभित हैं महानील और ककुभ नामक पर्वतोंके मध्यमें ‘सुखा’ नामकी एक नदी है और उसीके तटपर यह महान् वन हैं, जो पचास योजन लम्बा तथा तीस योजन चौड़ा है। इस वनका नाम ‘ताल- वन’ है। वनकी छवि बढ़ानेवाले वृक्ष दृढ़, बड़े- बड़े फलोंसे युक्त तथा मीठी गन्धोंसे व्याप्त हैं, जिनसे वह पर्वत परिपूर्ण है। सिद्धलोग उसकी सेवा करते हैं। वहीं ऐरावत हाथीकी आकृतिवाली एक पर्वतीय भूमि है, जो ईरावान, रुद्रपर्वत एवं देवशील पर्वतोंके मध्य भागमें स्थित है, हजार योजन लम्बी और सौ योजन चौड़ी है। यहाँ बस केवल एक ही विशाल शिला है, जिसपर एक भी वृक्ष अथवा लता नहीं है। विप्रवरो! इस शिलाका चतुर्थांश भाग जलमें डूबा रहता है। इस प्रकार उपत्यकाओं तथा पर्वतोंका वर्णन किया गया है, जो मेरुपर्वतके आस-पासमें यथास्थान शोभा पाते हैं।
अध्याय ७२ मेरुपर्वतकी नदियाँ
भगवान् रुद्र कहते हैं— मेरुपर्वतके दक्षिण दिशामें बहुत-से पहाड़ एवं नदियाँ हैं । यह सिद्धोंकी आवासभूमि है शिशिर और पतङ्ग नामक पर्वतके मध्यभागमें एक स्वच्छ भूमि है। वहाँ दिव्य एवं मुक्त स्त्रियाँ रहती हैं और वहाँके वृक्ष भी गलित पत्र हो गये हैं। वहीं इक्षुक्षेप नामक शिखर है, जिसकी वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। उस शिखरपर बहुत सुन्दर गूलरके वृक्षोंका एक वन है, जिसकी पक्षी समुदाय सदा सेवा करता है। उस वनके’ वृक्षपर जब फल लगते हैं तो वे ऐसे सुशोभित होते हैं, मानो महान् कछुवे हों। सिद्धादि आठ प्रकारकी देवयोनियाँ उस वनमें सदा निवास करती और उस वनकी रक्षा करती हैं। उस स्थानपर स्वच्छ एवं स्वादिष्ठ जलवाली अनेक नदियाँ प्रवाहित होती हैं, जहाँ कर्दम- प्रजापतिका आश्रम है। वह सौ योजन परिमाणके एक वृत्ताकार वनसे घिरा है। वहीं ताम्राभ और पतङ्ग-पर्वतके मध्यभागमें एक महान् सरोवर हैं, जो दो सौ योजन लम्बा और सौ योजन चौड़ा है। उसके चारों ओर प्रातः कालीन सूर्यके तुल्य हजारों पत्तोंसे परिपूर्ण कमल उस सरोवरकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ अनेक सिद्ध और गन्धर्वोका निवास है। उसके बीचमें एक महान् शिखर है, जिसकी लम्बाई तीन सौ योजन और चौड़ाई सौ योजन है। अनेक धातु और रत्न उसको सुशोभित करते रहते हैं। उसके ऊपर एक बहुत लम्बी चौड़ी सड़क है, जिसके अगल-बगलमें रलोंसे बनी हुई चहारदीवारियाँ हैं उस सड़कके पास ही पुलोम विद्याधरका पुर है, जिसके परिवारके व्यक्तियोंकी संख्या एक लाख है। इसी प्रकार विशाख और वेतनामक पर्वतोंके मध्यभागमें भी एक नदी है, जिसके पूर्वीतटपर एक बड़ा विशाल आम्रका वृक्ष है। उस वृक्षको सोनेके समान चमकनेवाले, उत्तम गन्धोंसे युक्त तथा महान् घड़ेकी आकृतिवाले असंख्य फल सब ओरसे मनोहर बना रहे हैं। वहाँ देवताओं और गन्धर्वोका निवास है ।
वहाँ सुमूल और वसुधार – ये दो प्रसिद्ध पर्वत हैं। इनके बीचमें तीन सौ योजन चौड़ी और पाँच सौ योजन लम्बी रिक्त भूमि है, जहाँ एक बिल्वका वृक्ष है। इससे भी बड़े घड़ेकी आकृतिवाले असंख्य फल गिरते रहते हैं। उन फलोंके रससे उस भूमिकी मिट्टी गीली हो जाती है और बिल्वफल खानेवाले गुह्यक लोग उस स्थलकी रक्षा करते हैं।
इसी प्रकार वसुधार और रत्नधार पर्वतोंके मध्यभागमें एक किंशुक अर्थात् पलाशका दिव्य वन है। वह वन सौ योजन चौड़ा और तीन सौ योजन लम्बा है। जब वह गन्धयुक्त वन फूलता है तब उसके पुष्पोंकी सुगन्धसे सौ योजनकी भूमि सुवासित हो जाती है। वहाँ जलकी कभी कमी नहीं होती और सिद्ध लोग वहाँ सदा निवास करते हैं। वहाँ भगवान् सूर्यका एक विशाल मन्दिर है। प्रजाओंकी रक्षा करनेवाले तथा जगत् के जनक भगवान् सूर्य वहाँ प्रति- मास अवतरित होते हैं, अतः देवतालोग वहाँ पहुँचकर उनकी स्तुति – नमस्कार आदिद्वारा आराधना करते हैं।
इसी प्रकार पञ्चकूट और कैलासपर्वतोंके बीचमें ‘हंसपाण्डुर’ नामसे प्रसिद्ध एक भूमिखण्ड है, जिसकी लम्बाई हजार योजन और चौड़ाई सौ योजन है। क्षुद्र प्राणी उसे लाँघनेमें असमर्थ हैं। वह भूभाग मानो स्वर्गकी सीढ़ी है।
अब हम मेरुकी पश्चिम दिशाके पर्वतों एवं नदियोंका वर्णन करते हैं। सुपार्श्व और शिखिशैलसंज्ञक पर्वतोंके मध्यमें ‘भौमशिलातल’ नामक एक मण्डल है। वह चारों तरफ सौ योजनतक फैला है। वहाँकी भूमि सदा तपती रहती है, जिससे कोई इसे छू नहीं सकता। उसके बीचमें तीस योजनतक फैला हुआ अग्निदेवका स्थान है। वहाँ भगवान् नारायण लोकका संहार करनेके विचारसे ‘संवर्तक’ नामक अग्निका रूप धारणकर बिना लकड़ीके ही सर्वदा प्रज्वलित रहते हैं। यहीं कुमुद और अञ्जन- ये दोनों श्रेष्ठ शैल हैं। उनके बीचमें ‘मातुलुङ्गस्थली’ सुशोभित होती है। इसका विस्तार सौ योजन है। वहाँ जानेमें सभी प्राणी असमर्थ हैं। पीले रंगवाले फलोंसे उसकी बड़ी शोभा होती है। वहाँ सिद्ध पुरुषोंसे सम्पन्न एक पवित्र तालाब है। यहीं बृहस्पतिका भी एक वन है। ऐसे ही पिंजर और गौर नामवाले दो पर्वतोंके बीचमें छोटी-छोटी अनेक नदियाँ हैं। भँवरोंसे व्याप्त बड़े-बड़े कमल उन द्रोणियोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ भगवान् नारायणका देवमन्दिर है। इसी प्रकार शुक्ल तथा पाण्डुर नामसे विख्यात महान् पर्वतोंके बीचमें तीस योजन चौड़ा तथा नब्बे योजन लम्बा एक पर्वतीय भाग है, जिसमें एक ही शिला है और वृक्ष एक भी नहीं है। वहाँ एक ऐसी बावली है, जिसका जल कभी तनिक भी नहीं हिलता उसमें एक वृक्ष तथा एक स्थलपद्मिनी’ है, जो अनेक प्रकारके कमलोंसे आवृत है। वह वृक्ष उस वापीके मध्यभागमें है और वहीं पाँच योजन प्रमाणवाला एक बरगदका भी वृक्ष है। वहाँ भगवान् शंकर नीले वस्त्र धारण करके पार्वतीके साथ निवास करते हैं, जिनकी यक्ष, भूत आदि सदा आराधना करते हैं। ‘सहस्रशिखर’ और ‘कुमुद’ – इन दोनों पर्वतोंके बीचमें ‘इक्षुक्षेप’ नामक शिखर है, जो बीस योजन चौड़ा और पचास योजन लम्बा है। उस ऊँचे शिखरपर बहुत- से पक्षी निवास करते हैं। अनेक वृक्षोंके मधुर रसवाले फलोंसे उसकी विचित्र शोभा होती है। वहाँ चन्द्रमाका महान् आश्रम है, जिसका निर्माण दिव्य वस्तुओंसे हुआ है। ऐसे ही शङ्खकूट और ऋषभके मध्यभागमें ‘पुरुषस्थली’ है। इसी प्रकार कपिञ्जल और नागशैल नामसे प्रसिद्ध पर्वतोंके मध्यभागमें सौ योजन चौड़ी और दो सौ योजन लम्बी एक अधित्यका है, जहाँ बहुत से यक्ष निवास करते हैं। वह स्थली दाख और खजूरके वृक्षोंसे व्याप्त है। इसी प्रकार पुष्कर और महादेव- संज्ञक पर्वतोंके बीचमें साठ योजन चौड़ा और सौ योजन लम्बा एक बड़ा उपवन है, जिसका नाम ‘पाणितल’ है। वृक्षों और लताओंका यहाँ एक प्रकार सर्वथा अभाव-सा है।
अध्याय ७३ देव - पर्वतोंपरके देव - स्थानोंका परिचय
भगवान् रुद्र कहते हैं – अब पर्वतोंके अन्तर्वर्ती देवस्थलोंका वर्णन करता हूँ जिस सीतानामक पर्वतका वर्णन पहले आया है, उसके ऊपर देवराज इन्द्रकी क्रीडा-स्थली है। वहाँ उनका पारिजात नामके वृक्षोंका वन है। उसके पास ही पूर्व दिशामें ‘कुञ्जर’ नामक प्रसिद्ध पर्वत है, जिसके ऊपर दानवोंके आठ नगर हैं। इसी प्रकार ‘वज्रपर्वत’ पर राक्षसोंकी पुरियाँ हैं। उनके निवासी असुर ‘नालका’ नामसे प्रसिद्ध हैं और वे सभी कामरूपी भी हैं। ‘महानील ‘पर्वतपर पंद्रह सहस्र किन्नरोंके नगर हैं। वहाँ देवदत्त, चन्द्रदत्त आदि पंद्रह गर्वपूर्ण राजा शासन करते हैं ये पुरियाँ सुवर्णमयी हैं। ‘चन्द्रोदय’ पर्वतपर बहुत-सी बिलें और नगर हैं और वहाँ सपका निवास है। गरुडके राज्यशासनसे वे सर्प बिलोंमें छिपे रहते हैं। ‘अनुराग’ नामक पर्वतपर दानवेश्वरोंके रहनेकी व्यवस्था है। ‘वेणुमान्’ पर्वतपर विद्याधरोंके तीन नगर हैं। उनमें प्रत्येक नगरकी लम्बाई तीन सौ योजन और चौड़ाई सौ योजनकी है। उनमें विद्याधरोंके शासक उलूक, गरुड, रोमश और महावेत्र नियुक्त हैं। कुञ्जर तथा वसुधारपर्वतोंपर भगवान् पशुपतिका निवास है। करोड़ों भूतगण यहाँ शंकरकी सेवा करते हैं।
वसुधार और रत्नधार- इन दोनों पर्वतोंके ऊपर वसुओं एवं सप्तर्षियोंकी पुरियाँ हैं, जिनकी संख्या पंद्रह है। पर्वतोत्तम एकशृङ्ग पर्वतपर प्रजाओंकी रक्षा करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्माजीका निवासस्थान है। ‘गज ‘नामक पर्वतपर महान् भूत- समुदायसे घिरी स्वयं भगवती पार्वती विराजती हैं। पर्वतप्रवर वसुधारपर चौरासी योजनके विस्तारसे मुनियों, सिद्धों और विद्याधरोंका एक श्रेष्ठ नगर है। उसके चारों ओर चहारदीवारी तथा बीचमें तोरण है। युद्ध करनेमें निपुण, पर्वतनामवाले अनेक गन्धर्व वहाँ निवास करते हैं। उनके राजाका नाम पिंगल है। वे राजाओंके भी राजा हैं। देवता और राक्षस पञ्चकूटपर तथा दानव ‘शतशृङ्ग ‘पर्वतपर रहते हैं। दानवों और यक्षोंकी पुरियाँ सौकी संख्या में हैं। ‘प्रभेदक ‘पर्वतके पश्चिम भागमें देवताओं, दानवों और सिद्धोंकी पुरियाँ हैं। उस प्रभेदक गिरिके शिखरपर एक बहुत बड़ी शिला है। वहाँ प्रत्येक पर्वतपर चन्द्रमा स्वयं ही आते हैं। उसके पास ही उत्तर दिशामें त्रिकूट’ नामका एक पर्वत है। कभी-कभी ब्रह्माजीका वहाँ निवास होता है। ऐसे ही अग्निदेवका भी वहाँ निवास स्थान है। वहाँ अग्निदेवता मूर्तिमान् होकर रहते हैं और अन्य देवता उनकी उपासना करते हैं। उसके उत्तर शृङ्ग ‘पर्वतपर देवताओंके भवन हैं। इसके पूर्वमें भगवान् नारायणका, बीचमें ब्रह्माका तथा पश्चिममें भगवान् शंकरका निवास स्थान है। वहीं यक्ष आदिकोंके बहुत से नगर हैं। वहाँ तीस योजन विस्तारवाली एक नदी है, जिसका नाम ‘नन्दजल’ है। उसके उत्तर तटपर ‘जातुच्छ’ नामक एक ऊँचा पर्वत है। वहाँ सर्पोंका राजा, जो नन्द नामसे प्रसिद्ध है, निवास करता है। उसके सौ भयंकर फन हैं। इस प्रकार इन आठ दिव्य पर्वतोंको जानना चाहिये। सोना-चाँदी, रत्न, वैदूर्य और मैनशिल आदि रंगसे क्रमशः वे पर्वत वर्ण धारण करते हैं। यह पृथ्वी लाख कोटि अर्थात् अगणित पर्वतोंसे पूर्ण है। उनपर सिद्ध और विद्याधरोंके अनेक आलय हैं। इसी प्रकार मेरुपर्वतके पार्श्व- भागमें केसर, वलय, आलवाल और सिद्धलोक आदि हैं। यह पृथ्वी कमलकी आकृतिमें सुव्य- वस्थित हुई है। सामान्यरूपसे सभी पुराणों में इसी क्रमका प्रतिपादन होता है।
अध्याय ७४ नदियोंका अवतरण
भगवान् रुद्र कहते हैं- अब आपलोग नदियोंका अवतरण सुनें जिसे आकाश समुद्र कहते हैं, उसीसे आकाशगङ्गाका प्रादुर्भाव हुआ है। यह आकाश- समुद्र प्रायः निरन्तर इन्द्रके ऐरावत हाथीद्वारा (स्नानादि करनेसे) क्षुभित एवं बाधित होता रहता है। फिर वह आकाशगङ्गा चौरासी हजार योजन ऊपरसे मेरुपर्वतपर गिरती हैं । वहाँसे मेरुकूटकी उपत्यकाओंसे नीचे बहती हुई वह चार भागों में विभक्त हो जाती है। आश्रयहीन होनेके कारण चौंसठ हजार योजन दूरसे गिरती हुई वह नीचे उतरती है। यही नदी भूभागपर पहुँचकर सीता, अलकनन्दा, चक्षु एवं भद्रा आदि नामोंसे विख्यात होती है। इन नदियोंके बीचमें इक्यासी हजार पर्वतोंको लाँघती हुई ‘गो’ अर्थात् पृथ्वीपर गमन करनेके कारण इसे ही जनता ‘गां गता’ – ‘गङ्गा’ कहती है।
अब ‘गन्धमादन’ के पार्श्वभागमें स्थित अमर गण्डिकाका वर्णन करता हूँ। वह चार सौ योजन चौड़ी और तीस योजन लम्बी है। उसके तटपर केतुमाल नामसे प्रसिद्ध अनेक जनपद हैं । वहाँके निवासी पुरुष काले वर्णवाले एवं अत्यन्त पराक्रमी हैं । यहाँकी स्त्रियाँ कमलके समान नेत्रोंवाली परम सुन्दर होती हैं। वहाँ कटहलके वृक्ष विशेषतया बड़े-बड़े होते हैं। ब्रह्माजीके पुत्र ईशान – शिव ही वहाँके शासक हैं। उसका जल पीनेसे प्राणियोंके पास बुढ़ापा और रोग नहीं आ सकते तथा वे मनुष्य हजार वर्षकी आयुसे सम्पन्न और हृष्ट-पुष्ट रहते हैं माल्यवान् पर्वतके पूर्वी शिखरसे ‘पूर्वगण्डिका’ का प्रादुर्भाव हुआ है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई हजार योजन है। वहाँपर भद्राश्व नामसे प्रसिद्ध अनेक जनपद हैं। वहीं भद्ररसाल नामका एक वन है। कालाम्र नामक वृक्षोंकी संख्या तो अनगिनत है। वहाँके पुरुष श्वेतवर्णके और स्त्रियाँ कमल अथवा कुन्द- वर्णकी होती हैं उन सबकी आयु दस हजार वर्षकी है। वहाँ पाँच ‘कुल’ पर्वत हैं। वे पर्वत शैल वर्ण, मालाख्य, ‘कोरजस्क’ त्रिपर्ण और नील नामसे विख्यात हैं । वहाँसे झील-झरनों एवं सरोवरोंके तटवर्ती जनपदोंके नाम भी प्रायः वैसे ही हैं वहाँके देशवासी उन्हीं नदियोंके जल पीते हैं। उन नदियोंके नाम इस प्रकार हैं- सीता, सुवाहिनी, हंसवती, कासा, महावक्रा, चन्द्रवती, कावेरी, सुरसा, आख्यावती, इन्द्रवती, अङ्गारवाहिनी, हरित्तोया, सोमावर्ता, शतह्रदा, वनमाला, वसुमती, हंसा, सुपर्णा, पचगङ्गा, धनुष्मती, मणिवप्रा, सुब्रह्मभोगा, विलासिनी, कृष्णतोया, पुण्योदा, नागवती, शिवा, शैवालिनी, मणितटा, क्षीरोदा, वरुणताली और विष्णुपदी। जो इन पुण्यमयी नदियोंका जल पीते हैं, उनकी आयु दस हजार वर्षकी हो जाती है। यहाँ के निवासी सभी स्त्री- पुरुष भगवान् रुद्र और उमाके भक्त हैं।
अध्याय ७५ नैषध एवं रम्यकवर्षोंके कुलपर्वत, जनपद और नदियाँ
भगवान् रुद्र कहते हैं— मैंने आपलोगोंसे भद्राश्ववर्षका संक्षेपमें और केतुमालवर्षका कुछ विस्तारपूर्वक वर्णन किया। अब (निषधवर्षके) पर्वतराज नैषधके पश्चिममें रहनेवाले कुलपर्वतों, जनपदों और नदियोंका वर्णन करता हूँ। विशाख, कम्बल, जयन्त, कृष्ण, हरित, अशोक और वर्धमान – ये तो वहाँके सात कुल पर्वत हैं। इन पर्वतोंके बीच छोटे-छोटे पर्वतों एवं शिखरोंकी संख्या अनन्त है। वहाँके नगर जनपद आदि भी इन पर्वतोंके नामोंसे ही प्रसिद्ध हैं। ये पर्वत हैं— सौर, ग्रामान्तसातप, कृतसुराश्रवण, कम्बल, माहेय, कूटवास, मूलतप क्रौञ्च, कृष्णाङ्ग, मणिपङ्कज, चूडमल, सोमीय, समुद्रान्तक कुरकुञ्ज, सुवर्णतट, कुह, श्वेताङ्ग, कृष्णपाद, विद, कपिल, कर्णिक, महिष, कुब्ज, करनाट, महोत्कट, शुकनाक, सगज, भूम, ककुरञ्जन, महानाह, किकिसपर्ण, भौमक, चोरक, धूमजन्मा, अङ्गारज, जीवलौकित, वाचांसहांग, मधुरेय, शुकेय, चकेय, श्रवण, मत्तकाशिक, गोदावाय, कुलपंजाब, वर्जह और मोदशालक इन पर्वतीय जनपदों में निवास करनेवाली प्रजा जिन पर्वतीय नदियोंका ही जल पीती है, वे नदियाँ हैं – रत्नाक्षा, महाकदम्बा, मानसी, श्यामा, सुमेधा, बहुला, विवर्णा, पुङ्खा, माला, दर्भवती, भद्रनदी, शुकनदी, पल्लवा, भीमा, प्रभञ्जना, काम्बा, कुशावती, दक्षा, काशवती, तुङ्गा, पुण्योदा, चन्द्रावती, सुमूलावती, ककुपद्मिनी, विशाला, करंटका, पीवरी, महामाया, महिषी, मानषी और चण्डा। ये तो प्रधान नदियाँ हैं, छोटी-छोटी दूसरी नदियाँ भी हजारोंकी संख्या में हैं।
भगवान् रुद्र कहते हैं- विप्रो ! अब उत्तर और दक्षिणके वर्षोंमें जो जो पर्वतवासी कहे जाते हैं, उनका मैं क्रमसे वर्णन करता हूँ, आपलोग सावधान होकर सुनें। मेरुके दक्षिण और श्वेतगिरिसे उत्तर सोमरसकी लताओंसे परिपूर्ण ‘रम्यकवर्ष’ है। (इस सोमके प्रभावसे) वहाँके उत्पन्न हुए मनुष्य प्रधान बुद्धिवाले, निर्मल और बुढ़ापा एवं दुर्गतिके वशीभूत नहीं होते। वहाँ एक बहुत बड़ा वटका भी वृक्ष है, जिसका रंग प्रायः लाल कहा गया है। इसके फलका रस पीनेवाले मनुष्योंकी आयु प्रायः दस हजार वर्षोंकी होती है और वे देवताओंके समान सुन्दर होते हैं श्वेतगिरिके उत्तर और त्रिशृङ्गपर्वतके दक्षिणमें हिरण्मय नामक वर्ष है। वहाँ एक नदी है, जिसे हैरण्यवती कहते हैं। वहाँ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले कामरूपी पराक्रमी यक्षोंका निवास है। वहाँके लोगोंकी आयु प्रायः ग्यारह हजार वर्षोंकी होती हैं, पर कुछ लोग पन्द्रह सौ वर्षोंतक ही जीवित रहते हैं। उस देशमें बड़हर और कटहलके वृक्षोंकी बहुतायत है। उनके फलोंका भक्षण करनेसे ही वहाँके निवासी इतने दिनोंतक जीवित रहते हैं। त्रिशृङ्गपर्वतपर मणि, सुवर्ण एवं सम्पूर्ण रत्नोंसे युक्त शिखर क्रमशः उसके उत्तरसे दक्षिण समुद्रतक फैले हुए हैं । वहाँके निवासी उत्तरकौरव कहलाते हैं। वहाँ बहुत से ऐसे वृक्ष हैं जिनसे दूध एवं रस निकलते हैं। उन वृक्षोंसे वस्त्र और आभूषण भी पाये जाते हैं वहाँको भूमि मणियोंकी बनी है तथा रेतोंमें सुवर्णखण्ड मिले रहते हैं। स्वर्गसुख भोगनेवाले पुरुष पुण्यकी अवधि समाप्त हो जानेपर यहाँ आकर निवास करते हैं। इनकी आयु तेरह हजार वर्षोंकी होती है। उसी द्वीपके पश्चिम चन्द्रद्वीप है। देवलोकसे चार हजार योजनकी दूरी पार करनेपर यह द्वीप मिलता है। हजार योजनकी लम्बाई-चौड़ाईमें इसकी सीमा है। उसके बीचमें ‘चन्द्रकान्त’ और ‘सूर्यकान्त’ नामसे प्रसिद्ध दो प्रस्रवणपर्वत हैं। उनके बीचमें ‘चन्द्रावर्त्ता’ नामकी एक महान् नदी है, जिसके किनारे बहुसंख्यक वृक्ष हैं और जिसमें अनेक छोटी- छोटी नदियाँ आकर मिलती हैं। ‘कुरुवर्ष’ की उत्तरी अन्तिम सीमापर यह नदी है। समुद्रकी लहरें प्रायः यहाँ आती रहती हैं । यहाँसे पाँच हजार योजन आगे जानेपर ‘सूर्यद्वीप’ मिलता है। वह वृत्ताकारमें हजार योजनके क्षेत्रफलमें फैला हुआ है। उसके मध्यभागमें सौ योजन विस्तारवाला तथा उतना ही ऊँचा श्रेष्ठ पर्वत है। उस पर्वतसे ‘सूर्यावर्त’ नामको एक नदी प्रवाहित होती है। वहाँ भगवान् सूर्यका निवासस्थान है। वहाँकी प्रजा सूर्योपासक एवं दस हजार वर्ष आयुवाली तथा सूर्यके ही समान वर्णकी होती है। ‘सूर्यद्वीप’ से चार हजार योजनकी दूरीपर पश्चिममें भद्राकारनामक द्वीप है। यह द्वीप समुद्री देशमें है। इसका क्षेत्रफल एक सहस्र योजन है। वहाँ पवनदेवका रत्नजटित दिव्य मन्दिर है जिसे लोग ‘भद्रासन’ कहते हैं। पवनदेव अनेक प्रकारका रूप धारणकर यहाँ निवास करते हैं । यहाँकी प्रजा तपे हुए सुवर्णके समान वर्णवाली होती है और इनकी आयु प्रायः पाँच हजार वर्षोंकी होती है।
अध्याय ७६ भारतवर्षके नौ खण्डोंका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं—विप्रवरो ! यह भूमण्डल कमलकी भाँति गोलाकारमें व्यवस्थित है-ऐसा कहा गया है। अब इसके अन्तर्वर्ती नौ उपवर्षों या खण्डोंका वर्णन करता हूँ-सुनो। उनके नाम इस प्रकार हैं- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान्, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व, वारुण और भारत । ये सभी उपवर्ष समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। इनमेंसे एक एकका प्रमाण हजार योजन है। भारतवर्षमें सात ‘कुल’ संज्ञक पर्वत हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं- महेन्द्र, मलय, सह्य शुक्तिमान् ऋक्षगिरि, विन्ध्याचल और पारियात्र। इनके अतिरिक्त बहुत- से छोटे-छोटे पर्वत हैं, जिनके नाम यों बताये जाते हैं- मन्दर, शारद, दर्दुर, कैलास, मैनाक, वैद्युत, वारन्धम, पाण्डुर, तुङ्गप्रस्थ, कृष्णगिरि, जयन्त, ऐरावत, ऋष्यमूक, गोमन्त, चित्रकूट, श्रीपर्वत, चकोरकुट, श्रीशैल और कृतस्थल इनसे भी कुछ छोटे बहुत से दूसरे पर्वत हैं, जिनमें आर्य तथा म्लेच्छ लोगोंके जनपद हैं। भारतवासी जिन नदियोंका जल पीते हैं वे हैं गङ्गा, सिन्धु सरस्वती, शतद्रु, वितस्ता, विपाशा, चन्द्रभागा, सरयू, यमुना, इरावती देविका, कुहू, गोमती, धूतपापा, बाहुदा, दृषद्वती कौशिकी, निश्चीरा, गण्डकी, इक्षुमती और लोहिता आदि। ये सभी नदियाँ हिमालयसे प्रादुर्भूत हुई हैं।
‘परियात्र’ पर्वतसे निकली हुई नदियोंके नाम इस प्रकार हैं – वेदस्मृति, वेदवती, सिन्धु, पर्णाशा, चन्द्रनाभा, नर्मदा, सदानीरा, रोहिणीपारा, चर्मण्वती, विदिशा, वेत्रवती, शिप्रा, अवन्ती और कुन्ती । शोण, ज्योतीरथा, नर्मदा, सुरसा, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकूटा, तमसा, पिप्पला, करतोया, पिशाचिका, चित्रोत्पला, विमला, विशाला, वञ्जका, वालुवाहिनी, शुक्तिमती, विरजा, पङ्किनी और रात्री – ये नदियाँ ऋक्षमान्’ नामक पर्वतसे प्रकट हुई हैं। विन्ध्यपर्वतकी उपत्यकासे निकली हुई नदियोंके नाम ये हैं- मणिजाला, शुभा, तापी, पयोष्णी, निर्विन्ध्या, वेणा, पाशा, वैतरणी, वैदिपाला, कुमुद्वती, तोया, दुर्गा और अन्तः शिला । सह्य- पर्वतसे प्रकट हुई नदियाँ इन नामोंसे विख्यात हैं- गोदावरी, भीमरथी, कृष्णावेणी, वञ्जुला, तुङ्गभद्रा, सुप्रयोगा और बाह्यकावेरी । मलय- गिरिसे निकली हुई नदियाँ कृतमाला, ताम्रपर्णी, पुष्पावती और उत्पलावती नामोंसे विख्यात हैं । महेन्द्रपर्वतसे निकली हुई नदियाँ हैं— त्रिसामा, ऋषिकुल्या, इक्षुला, त्रिदिवा, लाङ्गूलिनी और वंशधरा। ऋषिका, सुकुमारी, मन्दगामिनी, कृपा और पलाशिनी – ये चार नदियाँ शुक्तिमान् पर्वतसे प्रवाहित हुई हैं। ये ही सब भारतके ‘कुल’ पर्वत और प्रधान नदियाँ मानी गयी हैं। इनके अतिरिक्त छोटी-छोटी बहुत-सी नदियाँ हैं । एक लाख योजनवाला यह समग्र भाग ‘जम्बूद्वीप’ कहलाता है।
अध्याय ७७ शाक एवं कुशद्वीपोंका वर्णन
भगवान् रुद्र कहते हैं- अब आपलोग शाकद्वीपका वर्णन सुनें। जम्बूद्वीप अपने दूने परिमाणके लवण समुद्रद्वारा आवृत है । गोलाईमें भी यही जम्बूद्वीपके दूने परिमाणमें है । यहाँके निवासी बड़े पवित्र और दीर्घजीवी होते हैं। दरिद्रता, बुढ़ापा और व्याधिका उन्हें पता नहीं रहता। इस शाकद्वीपमें भी सात ही कुलपर्वत हैं। इस द्वीपके दोनों ओर समुद्र हैं- एक लवणसमुद्र और दूसरी ओर क्षीरसमुद्र वहाँ पूर्वमें फैला हुआ महान् पर्वत उदयाचलके नामसे प्रसिद्ध है। उसके ऊपर (पश्चिम) भागमें जो पर्वत है, उसका नाम ‘जलधार’ है उसीको लोग ‘चन्द्रगिरि’ भी कहते हैं। इन्द्र वहींसे जल लेकर (संसारमें) वर्षा करते हैं। उसके बाद ‘श्वेतक’ नामक पर्वत है। उसके अन्तर्गत छः छोटे-छोटे दूसरे पर्वत हैं । वहाँकी प्रजा इन पर्वतोंपर अनेक प्रकारसे मनोरञ्जन करती है। उसके बाद रजतगिरि है । उसीको जनता शाकगिरि भी कहती है उसके बाद ‘आम्बिकेय’ पर्वत है, जिसे लोग ‘विभ्राजक’ तथा केसरी भी कहते हैं। वहींसे वायुका प्रवाह आरम्भ होता है। जो कुलपर्वतोंके नाम हैं, उन्हीं नामोंसे वहाँके वर्षों या खण्डोंकी भी प्रसिद्धि है। वे कुलपर्वत इस प्रकार हैं- उदय, सुकुमार, जलधार, क्षेमक और महाद्रुम। पर्वतोंके दूसरे दूसरे नाम भी हैं। उसके मध्यमें शाक नामका एक वृक्ष हैं। वहाँ सात बड़ी-बड़ी नदियाँ हैं। एक-एक नदीके दो-दो नाम हैं। ये हैं— सुकुमारी, कुमारी, नन्दा, वेणिका, धेनु, इक्षुमती और गभस्ति ।
भगवान् रुद्र कहते हैं— अब आपलोग कुश नामक तीसरे द्वीपका वर्णन सुनें। यह द्वीप विस्तारमें शाकद्वीपसे दूने परिमाणवाला है। क्षीरसमुद्रके चारों ओर कुशद्वीप है। यहाँ भी सात कुलपर्वत हैं। उन सभी पर्वतोंके एक-एकके दो-दो नाम हैं। जैसे – कुमुदपर्वत, इसीका दूसरा नाम ‘विद्रुम’ भी है। इसी प्रकार दूसरा पर्वत उन्नत भी हेम नामसे विख्यात है, तीसरा पर्वत द्रोण या पुष्पवान् नामसे विख्यात है, चौथा कङ्क या कुश है, पाँचवाँ पर्वत ईश या अग्निमान् है, छठा पर्वत महिष या हरि है। इसपर अग्निका निवास है और सातवाँ ककुभ्र या मन्दर है। ये पर्वत कुशद्वीपमें व्यवस्थित हैं।
इन पर्वतोंसे विभाजित भूभाग ही विभिन्न वर्ष या खण्ड हैं। उनमें एक-एक वर्षके दो-दो नाम हैं। जैसे- कुमुदपर्वतसे सम्बन्धित वर्ष श्वेत या उद्भिद् कहा जाता है। उन्नतगिरिका वर्ष लोहित या वेणुमण्डल नामसे विख्यात है। बलाहक- पर्वतका वर्ष जीमूत या रथाकर नामसे भी प्रसिद्ध है द्रोणगिरिके पासके वर्षको कुछ लोग हरिवर्ष कहते हैं और दूसरे बलाधन । यहाँ भी सात नदियाँ हैं। उनमें प्रत्येक नदीके भी दो-दो नाम हैं। जैसे-पहली नदी ‘प्रतोया’ है। उसीका दूसरा नाम ‘प्रवेशा’ हैं। दूसरी नदी ‘शिवा’ नामसे विख्यात है, जिसका एक नाम ‘यशोदा’ भी है। तीसरी नदीको ‘चित्रा’ कहते हैं उसीकी एक संज्ञा ‘कृष्णा’ है। चौथी ‘हादिनी’ को लोग ‘चन्द्रा’ भी कहते हैं। पाँचवीं नदी ‘विद्युल्लता’ नामसे प्रसिद्ध है। इसका दूसरा नाम ‘शुक्ला’ है। छठी नदी ‘वर्णा’ कहलाती है। उसका एक नाम ‘विभावरी’ भी है। सातवीं नदीकी संज्ञा ‘महती’ है। इसीको लोग ‘धृति’ भी कहते हैं। ये सभी नदियाँ अपना प्रधान स्थान रखती हैं। यहाँ अन्य छोटी-छोटी बहुत-सी नदियाँ हैं। यह कुशद्वीपके अवान्तर भागका वर्णन है। शाकद्वीप शास्त्रोंमें इसके दूने उपकरणोंसे युक्त है, प्रायः ऐसी बात कही जाती है। कुशद्वीपके मध्यमें एक बहुत बड़ी कुशकी झाड़ी है। इसलिये इसका नाम ‘कुशद्वीप’ पड़ा। अमृतकी तुलना करनेवाले दधिमण्डोद-समुद्रसे, जो मानमें ‘क्षीरसमुद्र’ का दुगुना है, घिरा हुआ है।
अध्याय ७८ क्रौञ्च और शाल्मलिद्वीपका वर्णन
[ अध्याय ८६-८७]
भगवान् रुद्र बोले- अब आपलोग क्रौञ्चद्वीपका वर्णन सुनें। द्वीपोंके क्रममें यह चौथा द्वीप है। इसका परिमाण कुशद्वीपसे दुगुना हैं। वहाँ एक समुद्र हैं, जिसे दुगुने परिमाण वाले इस क्रौञ्चद्वीपने घेर रखा है। उस द्वीपमें सात प्रधान पर्वत हैं। पहला जो क्रौञ्च है, उसे लोग ‘विद्युल्लता’, ‘रैवत’ और ‘मानस’ भी कहते हैं। अन्य पर्वतोंके दो-दो नाम हैं। जैसे- पावन-अन्धकार, अच्छोदक- देवावृत, सुराप देविष्ठ, काञ्चनशृङ्ग-देवनन्द, गोविन्द – द्विविन्द और पुण्डरीक- तोयासह । ये सातों रत्नमय पर्वत क्रौञ्चद्वीपमें स्थित हैं, जो एक-से-एक अधिक ऊँचे हैं।
अब वहाँके वर्षोंका वर्णन करता हूँ, उसे सुनो। इस क्रौञ्चद्वीपके वर्ष भी दो-दो नामोंसे पुकारे जाते हैं। जैसे— कुशल- माधव, वामक संवर्तक, उष्णवान्-सप्रकाश, पावनक सुदर्शन, अन्धकार – संमोह, मुनिदेश- प्रकाश और दुन्दुभि- अनर्थ आदि। वहाँ नदियाँ भी सात ही हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-गौरी, कुमुद्वती, संध्या, रात्रि, मनोजवा, ख्याति और पुण्डरीका । ये सातों नदियाँ विभिन्न स्थानोंपर भिन्न नामोंसे पुकारी जाती हैं। गौरीको कहीं पुष्पवहा, कुमुद्वतीको आर्द्रवती, रौद्राको संध्या, सुखावहाको भोगजवा, क्षिप्रोदाको ख्याति और बहुलाको पुण्डरीका कहते हैं। देशके वर्ण-वैचित्र्यसे प्रभावित अनेकों छोटी-छोटी नदियाँ हैं। इस क्रौञ्चद्वीपके चारों तरफ घृत- समुद्र है, जो शाल्मलिद्वीपसे घिरा है।
भगवान् रुद्र कहते हैं- इस प्रकार चार द्वीपोंका वर्णन हो चुका, अब आपलोग पाँचवें द्वीप तथा वहाँके निवासियोंका वर्णन सुनें। यह पाँचवाँ ‘शाल्मलिद्वीप’ परिमाणमें ‘क्रौञ्चद्वीप’ से दुगुना बड़ा है। यह द्वीप घृत- समुद्रके चारों ओर फैला हुआ है। घृत समुद्रसे विस्तारमें यह दूना है वहाँ सात प्रधान पर्वत और उतनी ही नदियाँ हैं। सभी पर्वत पीले सुवर्णमय हैं तथा उनके नाम हैं – सर्वगुण, सौवर्णरोहित, सुमनस, कुशल, जाम्बूनद और वैद्युत। ये कुलपर्वत कहलाते हैं। इन्हीं के नामसे यहाँके सात वर्ष या खण्ड प्रसिद्ध हैं। अब छठे गोमेदद्वीपका वर्णन किया जाता है। जिस प्रकार शाल्मलिद्वीप ‘सुरोद’ से घिरा हुआ है, वैसे ही ‘सुरोद’ भी अपने दुगुने परिमाणवाले ‘गोमेद’ से घिरा है। वहाँ दो ही प्रधान पर्वत हैं, जिनमें एकका नाम अवसर और दूसरेका नाम कुमुद है। यहाँ ईखके रसका समुद्र है। उस समुद्रसे दूने विस्तारमें पुष्करद्वीप है, जिससे वह घिर-सा गया है। वहाँ उस पुष्करपर ही मानस नामका एक पर्वत है। उसके भी दो भाग हो गये हैं। वे दोनों भाग बराबर-बराबर प्रमाणमें एक- एक वर्ष बन गये हैं। उसके सभी भागों में मीठा जल मिलता है। इसके बाद अब कटाहका वर्णन किया जाता है। यह पृथ्वीका प्रमाण हुआ। ब्रह्माण्डकी लम्बाई-चौड़ाई कटाह (कड़ाहे ) – की भाँति है। इस प्रकारके विधान किये हुए ब्रह्माण्ड- मण्डलोंकी संख्या सम्भव नहीं है। यह पृथ्वी महाप्रलयमें रसातलमें चली जाती है प्रत्येक कल्पमें भगवान् नारायण वराहका रूप धारणकर इसे अपने दाढ़की सहायतासे वहाँसे ऊपर ले आते हैं और उन्हींकी कृपासे यह पृथ्वी समुचित स्थानपर स्थित हो पाती है। द्विजवरो! पृथ्वीकी लम्बाई-चौड़ाईका मान मैंने| तुमलोगोंके सामने वर्णन कर दिया। तुम्हारा कल्याण हो । अब मैं अपने निवासस्थान कैलासको जा रहा हूँ।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! इस प्रकार कहकर महात्मा रुद्र उसी क्षण कैलासके लिये चल पड़े और सम्पूर्ण देवता और ऋषि भी जहाँसे आये थे, वहाँ जानेके लिये प्रस्थित हो गये।
अध्याय ७९ त्रिशक्ति- माहात्म्य * और सृष्टिदेवीका आख्यान
भगवती पृथ्वीने पूछा- भगवन्! कुछ लोग रुद्रको परमात्मा एवं पुण्यमय शिव कहते हैं, इधर दूसरे लोग विष्णुको ही परमात्मा कहते हैं। कुछ अन्य लोग ब्रह्माको सर्वेश्वर बताते हैं। वस्तुतः इनमें से कौन-से देवता श्रेष्ठ तथा कौन कनिष्ठ हैं ? देव! मेरे मनमें इसे जाननेका कौतूहल हो रहा है। अतः आप इसे बतानेकी कृपा कीजिये ।
भगवान् वराह कहते हैं- वरानने! भगवान् नारायण ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनके बाद ब्रह्माका स्थान है। देवि! ब्रह्मासे ही रुद्रकी उत्पत्ति है और वे रुद्र (तपः साधनाके प्रभावसे) सर्वज्ञ बन गये। उन भगवान् रुद्रके अनेक प्रकारके आश्चर्यमय कर्म हैं। सुन्दरि ! मैं उनके चरित्रोंका वर्णन करता हूँ, तुम उन्हें सुनो-
महान् रमणीय एवं नाना प्रकारके विचित्र धातुओंसे सुशोभित कैलास नामका एक पर्वत है, जो भगवान् शूलपाणि त्रिलोचन शिवका नित्य निवास स्थल है। एक दिनकी बात है— सम्पूर्ण प्राणिवर्गद्वारा नमस्कृत भगवान् पिनाकपाणि अपने सभी गणोंसे घिरे हुए उस कैलासपर्वतपर विराजमान थे और उनके पासमें ही भगवती पार्वती भी बैठी थीं। इनमेंसे किन्हीं गणोंका मुँह सिंहके समान था और वे सिंहकी ही भाँति गर्जना कर रहे थे। कुछ गण हाथीके समान मुखवाले थे तो कुछ गण घोड़ेकी मुखाकृतिके और कुछके मुख सूँस-जैसे भी थे। उनमेंसे कितने तो गाते, नाचते, दौड़ते और ताली ठोंकते हँसते- किलकिलाते, गरजते और मिट्टीके ढेलोंको उठाकर परस्पर लड़ रहे थे। कुछ बलके अभिमान रखनेवाले गण मल्लयुद्धके नियमसे लड़ रहे थे। भगवान् रुद्रका देवी पार्वतीके साथ हास- विलास भी चल रहा था, इतनेमें ही अविनाशी ब्रह्माजी भी देवताओंके साथ वहाँ पहुँच आये। उन्हें आया देखकर भगवान् शिवने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और उनसे पूछा- ‘ब्रह्मन् ! आप इस समय यहाँ कैसे पधारे ? और आपके मनमें यह घबड़ाहट कैसी है?”
ब्रह्माजीने कहा- ‘अन्धक’ नामके एक महान् दैत्यने सभी देवताओंको अत्यन्त पीड़ित कर रखा है। उससे त्राण पानेकी इच्छासे शरण खोजते हुए सभी देवता मेरे पास पहुँचे। तब मैंने इन लोगोंसे कहा कि ‘हम सब लोग भगवान् शंकरके पास चलें।’ देवेश! इसी कारण हम सभी यहाँ आये हुए हैं।
इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी पिनाकपाणि भगवान् रुद्रकी ओर देखने लगे। साथ ही उन्होंने उसी क्षण परम प्रभु भगवान् नारायणको भी अपने मनमें स्मरण किया। बस, तत्क्षण भगवान् नारायण – ब्रह्मा एवं रुद्र- इन दोनों देवताओंके बीचमें विराजमान हो गये। अब ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र – ये तीनों ही परस्पर प्रेमपूर्वक दृष्टिसे देखने लगे। उस समय उन तीनोंकी जो तीन प्रकारकी दृष्टियाँ थीं, अब एकरूपमें परिणत हो गयीं और इससे तत्काल एक कन्याका प्रादुर्भाव हुआ, जिसका स्वरूप परम दिव्य था। उसके अङ्ग नीले कमलके समान श्यामल थे तथा उसके सिरके बाल भी नीले घुँघुराले एवं मुड़े थे। उसकी नासिका, ललाट और मुखकी सुन्दरता असीम थी। विश्वकर्माने शास्त्रोंमें जो अग्निजिह्वके अङ्ग लक्षण बतलाये हैं, वे सभी लक्षण सुन्दर प्रतिष्ठा पानेवाली उस कुमारी कन्यामें एकत्र दिखायी देते थे। अब ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर- इन तीनों देवताओंने उस दिव्य कन्याको देखकर पूछा- ‘शुभे! तुम कौन हो ? और विज्ञानमयि ! देवि! तुम क्या करना चाहती हो ?’ इसपर शुक्ल, कृष्ण एवं रक्त- इन तीन वर्णोंसे सुशोभित उस कन्याने कहा – ‘देवश्रेष्ठो ! मैं तो आपलोगोंकी दृष्टिसे ही उत्पन्न हुई हूँ। क्या आपलोग अपनेसे ही उत्पन्न अपनी पारमेश्वरी शक्ति मुझ कन्याको नहीं जानते ?’
इसपर ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उस दिव्य कुमारीको वर दिया- ‘देवि! तुम्हारा नाम ‘त्रिकला’ होगा। तुम विश्वकी सर्वदा रक्षा करोगी। महाभागे ! गुणोंके अनुसार तुम्हारे अन्य भी बहुत से नाम होंगे और उन नामोंमें सम्पूर्ण कार्योंको सिद्ध करनेकी शक्ति होगी सुन्दर मुख एवं अङ्गोंसे शोभा पानेवाली देवि! तुममें जो ये तीन वर्ण दिखायी पड़ते हैं, तुम इनसे अपनी तीन मूर्तियाँ बना लो।’
देवताओंके इस प्रकार कहने पर उस कुमारीने अपने श्वेत रक्त और श्यामल रंगसे युक्त तीन शरीर बना लिये। ब्रह्माके अंशसे ‘ब्राह्मी’ (सरस्वती) नामक मङ्गलमयी सौम्यरूपिणी शक्ति उत्पन्न हुई, जो प्रजाओंकी सृष्टि करती है। सूक्ष्म कटिभाग, सुन्दररूप तथा लाल वर्णवाली जो दूसरी कन्या थी, वह ‘वैष्णवी’ कहलायी। उसके हाथमें शङ्ख एवं चक्र सुशोभित हो रहे थे। वह विष्णुकी कला कही जाती है तथा अखिल विश्वका पालन करती है, जिसे विष्णुमाया भी कहते हैं। जो काले रंगसे शोभा पानेवाली रुद्रकी शक्ति थी और जिसने हाथमें त्रिशूल ले रखा था तथा जिसके दाँत बड़े विकराल थे, वह जगत् का संहार कार्य करनेवाली ‘रुद्राणी’ है। ब्रह्मासे प्रकट हुई श्वेत वर्णवाली कन्या ‘विभावरी’ कहलाती है। उस कुमारीके नेत्र खिले हुए कमलके समान सुन्दर थे। वह ब्रह्माजीके परामर्शसे अन्तर्धान होकर सर्वज्ञता प्राप्त करनेकी अभिलाषासे श्वेतगिरिपर तपस्या करनेके लिये चली गयी और वहाँ पहुँचकर उसने तीव्र तप आरम्भ कर दिया। इधर जो कुमारी भगवान् विष्णुके अंशसे अवतरित हुई थी, वह भी अत्यन्त कठोर तपस्या करनेका संकल्प लेकर मन्दराचल पर्वतपर चली गयी। तीसरी जो श्यामलवर्णकी कन्या थी तथा जिसके नेत्र बड़े विशाल और दाढ़ भयंकर थे तथा जो रुद्रके अंशसे उत्पन्न हुई थी, वह कल्याणमयी कुमारी तपस्या करनेके उद्देश्यसे ‘नीलगिरि’ पर चली गयी।
कुछ समय पश्चात् प्रजापति ब्रह्माजी प्रजाओंकी सृष्टिमें तत्पर हुए, पर बहुत समयतक प्रयास करनेपर भी प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई। अब वे मन- ही मन सोचने लगे कि क्या कारण है कि मेरी प्रजा बढ़ नहीं रही है। (भगवान् वराह पृथ्वीसे कहते हैं) सुव्रते ! अब ब्रह्माजीने योगाभ्यासके सहारे अपने हृदयमें ध्यान लगाया तो श्वेतपर्वतपर स्थित ‘सृष्टि’ कुमारीकी तपस्याकी बात उनकी समझमें आ गयी। उस समय तपस्याके प्रभावसे उस कन्या के सम्पूर्ण पाप दग्ध हो चुके थे। फिर तो ब्रह्माजी कमलके समान नेत्रवाली वह दिव्य कुमारी जहाँ विराजमान थी, वहाँ पहुँचकर उस तपस्विनी दिव्य कुमारीको देखा और साथ ही वे ये वचन बोले- ‘कमनीय कान्तिवाली कल्याणि ! तुम प्रधान कार्यकी अवहेलना करके अब तपस्या क्यों कर रही हो ? विशाल नेत्रोंवाली कन्यके! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम वर माँग लो।’
‘सृष्टि’ देवीने कहा- ‘भगवन्! मैं एक स्थानपर नहीं रहना चाहती, इसलिये मैं आपसे यह वर माँगती हूँ कि मैं सर्वत्रगामिनी बन जाऊँ।’ जब सृष्टिदेवीने प्रजापति ब्रह्मासे ऐसी बात कही, तब उन्होंने उससे कहा- ‘देवि! तुम सभी जगह जा सकोगी और सर्वव्यापिनी होगी । ब्रह्माजीके ऐसा कहते ही कमलके समान नेत्रोंवाली वह ‘सृष्टि’ देवी उन्हींके अङ्कमें लीन हो गयी। अब ब्रह्माजीकी सृष्टि बड़ी तेजीसे बढ़ने लगी और फिर शीघ्र ही उनके सात मानसपुत्र हुए। उन पुत्रोंसे भी अन्य संतानोंकी उत्पत्ति हुई। फिर उनसे बहुत-सी प्रजाएँ उत्पन्न हुई। इसके बाद स्वेदज, उद्भिज्ज, जरायुज और अण्डज – इन चार प्रकारके प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई। फिर तो चर-अचर प्राणियोंकी सृष्टिसे यह सारा विश्व ही भर गया। यह सम्पूर्ण स्थावरजङ्गमात्मक जगत् तथा सारा वाड्मय विश्व- इन सबकी रचनायें उस ‘सृष्टि’ देवीका ही हाथ है। उसीने भूत, भविष्य और वर्तमान – इन तीनों कालोंकी भी व्यवस्था की।’
अध्याय ८० त्रिशक्ति- माहात्म्यमें 'सृष्टि', 'सरस्वती' तथा 'वैष्णवी' देवियोंका वर्णन
भगवान् वराह कहते हैं— सुन्दर अङ्गोंसे शोभा पानेवाली वसुंधरे ! उस ‘सृष्टिदेवी ‘का दूसरा विधान भी बहुत विस्तृत है, उसे बताता हूँ, सुनो-परमेष्ठी रुद्रके द्वारा जो वह तीन शक्तिवाली देवी बतायी गयी है, उसके प्रकरणमें सर्वप्रथम श्वेत वर्णवाली सृष्टिदेवीका प्रसङ्ग आया है। वह सम्पूर्ण अक्षरोंसे युक्त होनेपर भी ‘एकाक्षरा’ कहलाती है। यह देवी कहीं तो ‘वागीशा’ और कहीं ‘सरस्वती’ कही जाती है और कहीं वह ‘विश्वेश्वरी’ और ‘अमिताक्षरा’ नामसे भी प्रसिद्ध है। कुछ स्थलोंमें उसीको ‘ज्ञाननिधि’ अथवा ‘विभावरी’ देवी भी कहते हैं। अथवा वरानने! जितने भी स्त्रीवाची नाम हैं, वे सभी उसके नाम हैं, ऐसा समझना चाहिये।
विष्णु के अंशवाली ‘वैष्णवी’ देवीका वर्ण लाल है। उनकी आँखें बड़ी-बड़ी हैं तथा उनका रूप अत्यन्त मनोहर है। ये दोनों शक्तियाँ तथा तीसरी जो रुद्रके अंशसे अभिव्यक्त रौद्रीशक्ति है, भगवान् रुद्रको जाननेवालेके लिये एक साथ सिद्ध हो जाती है। देवी वसुंधरे ! यह सर्वरूपमयी देवी एक ही है, परंतु ( वह एक ही यहाँ इस प्रकार ) तीन भेदोंसे निर्दिष्ट है। सुन्दरि ! मैंने तुम्हारे सामने इसी सनातनी सृष्टि देवीका वर्णन किया है। स्थावर – जङ्गममय यह अखिल जगत् उस सृष्टि देवीसे ओतप्रोत है। जो यह सृष्टि देवी हैं, जिससे आदिकालमें अव्यक्त जन्मा ब्रह्माकी सृष्टिका सम्बन्ध हुआ था, उसकी (महिमाको जानकर ) पितामह ब्रह्माने उचित शब्दोंमें (इस प्रकार ) स्तुति की थी।
ब्रह्माजी बोले- देवि! तुम सत्यस्वरूपा, सदा अचल रहनेवाली, सबको आश्रय देनेमें कुशल, अविनाशी, सर्वव्यापी, सबको जन्म देनेवाली, अखिल प्राणियोंपर शासन करनेमें परम समर्थ, सर्वज्ञ, सिद्धि – बुद्धिरूपा तथा सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्रदान करनेवाली हो । सुन्दरि ! तुम्हारी जय हो ! देवि! ओंकार तुम्हारा स्वरूप है, तुम उसमें सदा विराजती हो, वेदोंकी उत्पत्ति भी तुमसे ही हुई है। मनोहर मुखवाली देवि! देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, पशु और वीरुध ( वृक्ष – लता आदि ) – इन सबका जन्म तुम्हारी ही कृपासे होता है। तुम्हीं विद्या, विद्येश्वरी, सिद्धा और सुरेश्वरी हो ।’
भगवान् वराह कहते हैं— वसुंधरे ! जो वैष्णवी देवी तपस्या करनेके लिये मन्दराचल पर्वतपर गयी थी, अब उसका वर्णन सुनो-उस देवीने कौमारव्रत धारणकर विशाल क्षेत्रमें एकाकी रहकर कठोर तप आरम्भ किया। बहुत दिनोंतक तपस्या करनेके पश्चात् उस देवीके मनमें विक्षोभ उत्पन्न हुआ, जिससे अन्य बहुत-सी कुमारियाँ उत्पन्न हो गयीं; उनके नेत्र बड़े सुन्दर एवं बाल काले और घुंघराले थे। उनके होठ बिम्बाफलके समान लाल थे और आँखें बड़ी-बड़ी थीं और उन कन्याओंके शरीरसे दिव्य प्रकाश फैल रहा था। ऐसी करोड़ों कुमारियाँ उस वैष्णवी देवीके शरीरसे प्रकट हुई थीं, फिर उस देवीने उन कुमारियोंके लिये सैकड़ों नगर और ऊँचे महलोंका निर्माण किया। उन भवनोंके भीतर मणियोंकी सीढ़ियाँ, अनेक जलाशय एवं छोटे-छोटे सुन्दर उपवन थे। उस मन्दराचलपर स्थित उन असंख्य भवनों में अब वे कन्याएँ निवास करने लगीं। शोभने ! उनमेंसे प्रधान प्रधान कुछ कन्याओंके नाम इस प्रकार हैं- विद्युत्प्रभा, चन्द्रकान्ति, सूर्यकान्ति, गम्भीरा, चारुकेशी, सुजाता, मुञ्जकेशिनी, उर्वशी, शशिनी, शीलमण्डिता, चारुकन्या, विशालाक्षी, धन्या, चन्द्रप्रभा, स्वयम्प्रभा, चारुमुखी, शिवदूती, विभावरी, जया, विजया, जयन्ती और अपराजिता । इन देवियोंने भगवती वैष्णवीके अनुचरियोंका स्थान ग्रहण कर लिया। इतनेमें ब्रह्माके पुत्र तपोधन नारदजी एक दिन वहाँ अचानक आ गये। उन्हें देखकर वैष्णवीदेवीने विद्युत्प्रभासे कहा- तुम इन्हें यह आसन दो तथा पैर धोने और आचमन करनेके लिये जल भी बहुत शीघ्र इनके पास उपस्थित कर दो।
इस प्रकार वैष्णवी देवीके कहनेपर विद्युत्प्रभाने मुनिवर नारदको आसन, पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया और वे भी देवीको नमस्कारकर आसनपर बैठ गये। अब वैष्णवीने उनसे कहा – ‘मुनिवर ! इस समय आप किस लोकसे यहाँ पधारे हैं और आपका क्या कार्य है ? नारदमुनिने कहा – ‘ कल्याणि ! मैं पहले ब्रह्मलोकमें गया था, फिर वहाँसे इन्द्रलोकमें और फिर कैलासपर्वतपर पहुँचा। देवेश्वरि ! पुनः मेरे मनमें आपके दर्शनकी इच्छा हुई, अतः यहाँ आ गया। इस प्रकार कहकर श्रीमान् नारद मुनि वैष्णवी देवीकी ओर देखने लगे। नारद आश्चर्यसे चकित हो गये। उन्होंने मनमें सोचा। ‘अहो ! इनका रूप तो बड़ा विचित्र है। इनकी सुन्दरता, धीरता एवं कान्ति कैसी आश्चर्यकारिणी है। फिर इतनेपर भी इनकी उपरति – निष्कामता तो और ही आश्चर्यदायिनी है। यह सब देख नारदजी फिर कुछ खिन्न से हो गये तथा सोचने लगे- ‘देवता, गन्धर्व, सिद्ध, यक्ष, किंनर और राक्षसोंकी स्त्रियोंमें भी कोई इतना सुन्दर नहीं है। विश्वकी अन्य स्त्रियोंमें भी कहीं ऐसा रूप नहीं दीखता ।
फिर नारदजी सहसा उठे और वैष्णवीदेवीको प्रणामकर आकाश मार्गद्वारा समुद्रमें स्थित महिषासुरकी राजधानीमें पहुँच गये। उसने ब्रह्माजीके वरप्रसादसे सारी देव – सेनाको पराजित कर दिया था। महिषासुरने सभी लोकोंमें विचरण करनेवाले नारदमुनिको आये देखकर बड़ी श्रद्धा-भक्तिसे पूजा की।
नारदमुनिने उस असुरसे कहा- असुरेन्द्र ! सावधान होकर सुनो। विश्वमें रत्नके समान एक कन्या प्रकट हुई है। तुमने तो वरदानके प्रभावसे चर-अचर तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया है। दैत्य ! मैं ब्रह्मलोकसे मन्दराचलपर गया, वहाँ मैंने देवीकी वह पुरी देखी, जो सैकड़ों कन्याओंसे व्याप्त है। उनमें जो सबसे प्रधान है वैसी देवताओं, दैत्यों और यक्षोंके यहाँ भी कोई सुन्दरी कन्या नहीं दिखायी देती । कहाँतक कहूँ, मैंने उसकी जैसी सुन्दरता देखी है तथा उसमें जितना सतीत्वका प्रभाव है, ऐसी कन्या समस्त ब्रह्माण्डमें भी कभी कहीं नहीं देखी देवता, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध, चारण तथा सब अन्य दैत्योंके अधिपति भी उसी कन्याकी उपासना करते हैं। पर देवताओं और गन्धर्वोपर जो विजय प्राप्त करनेमें समर्थ न हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति उस कन्याको जीतनेमें समर्थ नहीं है।
वसुंधरे ! इस प्रकार कहकर नारद मुनि क्षणभर वहाँ ठहरकर फिर महिषासुरसे आज्ञा लेकर तुरंत वहाँसे प्रस्थित हो गये और वे जिधरसे आये थे, उधर ही आकाशकी ओर चले गये।
अध्याय ८१ महिषासुरकी मन्त्रणा और देवासुर संग्राम
भगवान् वराह बोले— नारदजीके चले जानेपर महिषासुर सदा चकितचित्तसे उसी कन्याका ध्यान करने लगा। अतः उसे तनिक भी कहीं चैन न था। अब उसने अपने मन्त्रिमण्डलको बुलाया। उसके आठ मन्त्री थे, जो सभी शूरवीर, नीतिमान् एवं बहुश्रुत थे। वे थे – प्रघस, विघस, शङ्कुकर्ण, विभावसु, विद्युन्माली, सुमाली, पर्जन्य और क्रूर। वे महिषासुर के पास आकर बोले कि ‘हम लोगोंके लिये जो सेवाकार्य हो, आप उसकी तुरंत आज्ञा कीजिये।’ उनकी बात सुनकर दैत्योंका शासक पराक्रमी महिषासुर बोला- ‘नारदजीके कथनानुसार मैंने एक कन्याको पानेके लिये तुमलोगोंको यहाँ बुलाया है । मन्त्रियो! देवर्षि नारदने मुझे एक लड़कीकी बात बतायी है; किंतु देवताओंके स्वामी इन्द्रको जीते बिना उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। अब आप सब लोग विचारकर शीघ्र बतायें कि वह कन्या किस प्रकार सुलभ होगी और देवता कैसे पराजित होंगे ?’
महिषासुर के ऐसा कहनेपर सभी मन्त्री अपना- अपना मत बतलाने लगे। प्रघस बोला – ‘ दैत्यवर ! आपसे नारदमुनिने जिस कन्याकी बात कही है, वह महान् सती है। उसका नाम ‘वैष्णवी ‘देवी है। उस सुन्दर रूप धारण करनेवाली देवीको पराशक्ति कहा जाता है। जो गुरुकी पत्नी, राजाकी रानी तथा सामन्त, मन्त्री या सेनापतिकी स्त्रियोंके अपहरणकी इच्छा करता है, वह राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। प्रघसके इस प्रकार कहनेपर विघसने कहा- ‘राजन् ! उस देवीके विषयमें प्रघसने सत्य बात ही बतलायी है। यदि सब लोगोंका एक मत हो जाय और बुद्धि इस बातका समर्थन करे तो सर्वप्रथम हमें उस कन्याका वरण ही करना चाहिये। परंतु स्वच्छन्दतापूर्वक उसका बलात् अपहरण या अपकर्षण कदापि ठीक नहीं है मन्त्रिवरो ! यदि मेरी बात आपलोगोंको रुचे तो हम सभी मन्त्री उस देवीके पास चलकर प्रार्थना करें। पहले साम- नीति से ही काम लेना चाहिये। यदि इससे काम न बने तो हमलोगोंको दानका आश्रय लेना चाहिये। इतनेपर भी काम न बने तो भेद नीतिका सहारा लिया जाय और यदि इतनेपर भी काम न बने, तो अन्तमें दण्डका प्रयोग करना चाहिये। इस क्रमसे नीतियोंका प्रयोग करनेपर भी यदि वह कन्या न मिल सके तो हम सभी लोग अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर चलें और फिर बलपूर्वक उसे देवताओंसे छीन लें।
विघसके इस प्रकार कहनेपर अन्य मन्त्री बोले, उस सुन्दरी कन्याके विषयमें विघसने जो बात कही हैं, वह बहुत ही युक्त हैं। हमलोग यथाशीघ्र वही करें। अब शास्त्रोंके जानकार, नीतिज्ञ, पवित्र और शक्तिसम्पन्न एक दूतको वहाँ भेज दिया जाय। दूतके द्वारा उसके रूप, पराक्रम, शौर्य- गर्व, बल, बन्धुओंके सहयोग सामग्री, रहनेके साधन आदिकी जानकारी प्राप्तकर उस देवीको प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करना चाहिये। जब विघसने सभामें यह बात कही तो सब लोग उसे ‘साधु-साधु’ (बहुत ठीक) कहने लगे। सुन्दरि ! तदनन्तर सभी मन्त्रियोंने मन्त्रि श्रेष्ठ विघसकी प्रशंसा की और साथ ही उस देवीको देखनेके लिये सभी लक्षणोंसे युक्त ‘विद्युत्प्रभनामक’ दूतको भेजा। इधर महिषासुरके मन्त्रियोंने मन्त्रिमण्डलकी पुनः बैठक बुलायी और परस्पर परामर्शकर उसे उस कन्याको शीघ्र प्राप्त करनेके लिये देवताओंपर आक्रमणकर विजय प्राप्त करनेकी सलाह दी। महिषकी सेनामें उस समय नौ पद्मकी संख्यामें असुर योद्धा थे। उसने अपने सेनापति विरुपाक्षको ससैन्य युद्धके लिये प्रस्थान करनेकी आज्ञा दी।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! इस सारी सेनाके साथ इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला महान् पराक्रमी महिषासुर हाथीपर सवार होकर मन्दराचल पर्वतपर पहुँचा। उसके वहाँ पहुँचते ही देवसमुदायमें भगदड़ मच गयी। सभी असुरसैनिकोंने अपने-अपने शस्त्रों और वाहनोंके साथ गम्भीर गर्जना करते हुए देवताओं पर आक्रमण कर दिया। उनका तुमुल युद्ध देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। अञ्जनके समान काले नीलकुक्षि, मेघवर्ण, बलाहक, उदाराक्ष, ललाटाक्ष, सुभीम, भीमविक्रम और स्वर्भानु-इन आठ दैत्योंने मोर्चेपर वसुओंको मारना आरम्भ किया। इधर ध्वाइस, ध्वस्तकर्ण, शङ्कुकर्ण, वज्रके समान कठोर अङ्ग- वाला ज्योतिवीर्य, विद्युन्माली, रक्ताक्ष, भीमदंष्ट्र, विद्युज्जिह्न, अतिकाय, महाकाय, दीर्घबाहु और कृतकान्त – ये प्रधान गिने जानेवाले बारह दैत्य युद्ध भूमिमें आदित्योंकी ओर दौड़े। काल, कृतान्त, रक्ताक्ष, हरण, मृगहा, नल, यज्ञहा, ब्रह्महा, गोघ्न, स्त्रीघ्न और संवर्तक- इन ग्यारह दैत्योंने रुद्रोंपर चढ़ाई कर दी। महिषासुर भी उन देवताओंकी ओर बड़े वेगसे दौड़ा। इस प्रकार आदित्यों, वसुओं और रुद्रोंके साथ अगणित संख्या में असुर और राक्षस लड़ने लगे। उस युद्धभूमिमें असुरोंके द्वारा देवताओंके सैनिक बड़े परिमाणमें नष्ट हो गये। अन्तमें देवताओंकी सेना भग्न हो गयी और इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवता उस युद्ध भूमिमें ठहर न सके। दानवोंने उन्हें अनेक प्रकारके शस्त्रों, शूलों, पट्टिशों और मुद्गरोंसे अर्दित कर दिया था। अन्तमें दानवोंसे पीड़ित होकर ये सभी देवता ब्रह्माजीके लोकमें गये।
अध्याय ८२ महिषासुर का वध
भगवान् वराह बोले- वसुधे! अब इधर विद्युत्प्रभ नामक दैत्य भी महिषासुरको प्रणामकर चला और उसके दूतके रूपमें भगवती वैष्णवीके पास पहुँचा, जहाँ वे सैकड़ों अन्य कुमारियोंके साथ बैठी थीं। फिर बिना किसी शिष्टाचारके ही उसने उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया ।
विद्युत्प्रभ बोला – ” देवि! पूर्व समयकी बात है— सृष्टिके प्रारम्भमें सुपार्श्व नामक एक अत्यन्त ज्ञानी ऋषि थे। उनका जन्म सरस्वती नदीके तटवर्ती देशमें हुआ था । सिन्धुद्वीप नामसे प्रसिद्ध उनके मित्र भी उन्होंके समान तेजस्वी एवं प्रतापी थे। माहिष्मती नामकी उत्तम पुरीमें उन्होंने निराहारका नियम लेकर कठिन तपस्या प्रारम्भ कर दी। विप्रचित्ति नामक दैत्यकी माहिष्मती नामकी कन्या बड़ी ही सुन्दरी थी। एक बार वह सखियोंके साथ घूमती हुई पर्वतकी उपत्यकामें गयी; जहाँ उसे एक तपोवन दिखायी पड़ा। उस तपोवनके स्वामी एक ऋषि थे। जो मौनव्रत धारणकर तपस्या कर रहे थे। उन महात्माका वह पवित्र आश्रम रम्य वनखण्डोंके कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। जब विप्रचित्तिकुमारी माहिष्मतीने उसे देखा तो वह सोचने लगी- मैं इस तपस्वीको भयभीत कर क्यों न स्वयं इस आश्रममें रहूँ और सखियोंके साथ आनन्दसे विहार करूँ।’
“ऐसा सोचकर उस दानवकन्या माहिष्मतीने अपना रूप एक भैंसका बनाया। उसके सिरपर अत्यन्त तीक्ष्ण सींग सुशोभित हो रहे थे। विश्वेश्वरि ! वह राक्षसी अपनी सखियोंको साथ लेकर सुपार्श्व ऋषिके पास पहुँची। फिर तो सुन्दर मुखवाली उस दैत्यकन्याने सखियोंसहित वहाँ पहुँचकर ऋषिको डराना आरम्भ कर दिया। एक बार तो वे ऋषि अवश्य डर गये, पर पीछे उन्होंने ज्ञाननेत्रसे देखा तो बात उनकी समझमें आ गयी कि यह सुन्दर नेत्रवाली (भैंस नहीं) कोई राक्षसी है। अतः मुनिने क्रोधमें आकर उसे शाप दे दिया- ‘दुष्टे! तू भैंसका वेष बनाकर जो मुझे डरानेका प्रयास कर रही है, इसके फलस्वरूप तुझे सौ वर्षोंतक भैंसके रूपमें ही रहना पड़ेगा।’
” ऋषिके इस प्रकार कहनेपर दानवकन्या माहिष्मती काँप उठी और उनके पैरोंपर गिरकर रोती हुई कहने लगी- ‘मुने! आप कृपया अपने इस शापको समाप्त कर दें। माहिष्मतीकी प्रार्थनापर दयालु मुनिने उसके शापके अन्तका समय बता दिया और उससे कहा- ‘भद्रे ! इस भैंसके रूपसे ही तुम एक पुत्र उत्पन्नकर शापसे मुक्त हो जाओगी, मेरी बात सर्वथा असत्य नहीं हो सकती।’
” ऋषिके यों कहनेपर माहिष्मती नर्मदानदीके तटपर गयी, जहाँ तपस्वी सिन्धुद्वीप तपस्या कर रहे थे। वहीं कुछ समय पूर्व एक दैत्यकन्या इन्दुमती जलमें नंगे स्नान कर रही थी। उसका रूप अत्यन्त मनोहर था उसपर दृष्टि पड़ते ही मुनिका रेत शिलाखण्डपर स्खलित हो गया, जो एक सोते से होकर नर्मदामें आया। अब माहिष्मतीकी दृष्टि उसपर पड़ी। उसने अपनी सखियोंसे कहा- ‘मैं यह स्वादिष्ठ जल पीना चाहती हूँ।’ और ऐसा कहकर वह उस रेतको पी गयी, जिससे उसे गर्भ रह गया। समयानुसार उससे एक पुत्रकी उत्पत्ति हुई, जो बड़ा पराक्रमी, प्रतापी और बुद्धिमान् हुआ और वही ‘महिषासुर’ नामसे प्रसिद्ध हुआ है। देवि! देवताओंके सैनिकोंको रौंदनेवाला वही महिष आपका वरण कर रहा है। अनघे! वह महान् असुर युद्धभूमिमें देवसमुदायको भी परास्त कर चुका है। अब वह सारी त्रिलोकीको जीतकर आपको सौंप देगा। अतः आप भी उसका वरण करें।”
दूतके ऐसा कहनेपर भगवती वैष्णवीदेवी बड़े जोरोंसे हँस पड़ीं। उनके हँसते समय उस दूतको देवीके उदरमें चर और अचरसहित तीनों लोक दीखने लगे। वह उसी क्षण आश्चर्यसे घबराकर मानो चक्कर खाने लगा। अब उस दूतके उत्तरमें देवीकी प्रतिहारिणी (द्वारपालिका) – ने, जिसका नाम जया था, भगवती वैष्णवीके हृदयकी बात कहना प्रारम्भ किया।
जया बोली- ‘कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाले महिषने तुझसे जैसा कहा है, तुमने वैसी ही बात यहाँ आकर कही है। किंतु समस्या यह है कि इस वैष्णवीदेवीने सदाके लिये ‘कौमार – व्रत’ धारण कर रखा है। यहाँ इस देवीकी अनुगामिनी अन्य भी बहुत-सी वैसी ही कुमारियाँ हैं। उनमेंसे एक भी कुमारी तुम्हें लभ्य नहीं है। फिर स्वयं भगवती वैष्णवीके पानेकी तो कल्पना ही व्यर्थ है । दूत ! तुम बहुत शीघ्र यहाँसे चले जाओ। तुम्हारी दूसरी कोई बात यहाँ नहीं हो सकेगी।’
इस प्रकार प्रतिहारिणीके कहनेपर विद्युत्प्रभ वहाँसे चला गया। इतनेमें ही परम तपस्वी मुनिवर नारदजी उच्च स्वरसे वीणाकी तान छेड़ते हुए आकाशमार्गसे वहाँ पहुँचे। उन मुनिने ‘अहोभाग्य ! अहोभाग्य!’ कहते हुए उन कुमारीको प्रणाम किया और देवीद्वारा पूजित होकर वे सुन्दर आसनपर बैठ गये। फिर सम्पूर्ण देवियोंको प्रणामकर वे कहने लगे- ‘देवि ! देवसमुदायने बड़े आदरसे मुझे आपके पास भेजा है; क्योंकि महिषासुर संग्राम में उन्हें परास्त कर दिया है। देवि! यही नहीं, वह दैत्यराज आपको पानेके लिये भी प्रयत्नशील है। वरानने! देवताओंकी यह बात आपको बताने आया हूँ। देवेश्वरि ! आप डटकर उस दैत्यसे युद्ध करें तथा उसे मार डालें।’
भगवती वैष्णवीसे यों कहकर नारदजी तुरंत अन्तर्धान हो गये। वे इच्छानुसार वहाँसे कहीं अन्यत्र चले गये। अब देवीने सभी कन्याओंसे कहा- तुम सभी अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित हो जाओ’ तब वे समस्त परम पराक्रमी कन्याएँ देवीकी आज्ञासे भयंकर आकार धारणकर ढाल, तलवार और धनुष आदि शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्ज हो दैत्योंका संहार करने तथा युद्ध करनेके विचारसे डट गयीं। इतनेमें ही महिषासुरकी सेना भी देवसेनाको छोड़कर वहीं आ गयी। फिर क्या था, उन स्वाभिमानिनी कन्याओं तथा दानवोंमें युद्ध छिड़ गया। उन कन्याओंके प्रयाससे असुरोंकी वह चतुरङ्गिणी सेना क्षणभरमें समाप्त हो गयी। कितनोंके सिर कटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। अन्य बहुत-से दैत्योंकी छाती चीरकर क्रव्यादगण रक्त पीने लगे। अनेक प्रधान दानवोंके मस्तक कट गये और वे कबन्धरूपमें नृत्य करने लग गये। इस प्रकार एक ही क्षणमें पापबुद्धिवाले वे असुर युद्धभूमिसे भाग चले। कुछ दूसरे दैत्य भागते हुए महिषासुरके पास पहुँचे। निशाचरोंकी उस विशाल सेनामें हाहाकार मच गया उनकी ऐसी व्याकुलता देखकर महिषासुरने सेनापतिसे कहा – ‘सेनापते ! यह क्या? मेरे सामने ही सेनाका ऐसा संहार ?” तब हाथीके समान आकृतिवाले ‘यज्ञहनु’ ( विरुपाक्ष ) ने महिषासुरसे कहा – ‘स्वामिन्! इन कुमारियोंने ही चारों ओरसे हमारे सैनिकोंको भगा दिया है।’
अब क्या था ? महिषासुर हाथमें गदा लेकर उधर दौड़ पड़ा, जहाँ देवताओं एवं गन्धवसे सुपूजित भगवती वैष्णवी विराजमान थीं। उसे आते देखकर भगवती वैष्णवीने अपनी बीस भुजाएँ बना लीं और उनके बीसों हाथोंमें क्रमशः धनुष, ढाल, तलवार, शक्ति, वाण, फरसा, वज्र, शङ्ख, त्रिशूल, गदा, मूसल, चक्र, बरछा, दण्ड, पाश, ध्वज, घण्टा, पानपात्र, अक्षमाला एवं कमल-ये आयुध विराजमान हो गये। उन देवीने कवच भी धारण कर लिया और सिंहपर सवार हो गयीं। फिर उन्होंने देवाधिदेव प्रलयंकर भगवान् रुद्रको स्मरण किया। स्मरण करते ही साक्षात् वृषध्वज वहाँ तत्क्षण पहुँच गये। उन्हें प्रणामकर देवीने सूचित किया- ‘देवेश्वर! मैं सम्पूर्ण दैत्योंपर विजय प्राप्त करना चाहती हूँ। सनातन प्रभो ! बस, आप केवल यहाँ उपस्थित रहकर (रण-क्रीडा) देखते रहें।’
यों कहकर भगवती परमेश्वरी सारी आसुरी सेनाका संहारकर महिषकी ओर दौड़ीं। महिष भी अब उनपर बड़े वेगसे टूट पड़ा। वह दानवराज कभी लड़ता, कभी भागता और कभी पुनः मोर्चेपर डट जाता। शोभने! उस दानवका देवीके साथ देवताओंके वर्षसे दस हजार वर्षोंतक यह संग्राम चलता रहा। अन्तमें वह डरकर सारे ब्रह्माण्डमें भागने लगा। फिर देवीने शतशृङ्गपर्वतपर* उसे पैरोंसे दबाकर शूलद्वारा मार डाला और तलवारद्वारा उसका सिर काटकर धड़से अलग कर दिया। महिषासुरका जीव शरीरसे निकलकर देवीके शस्त्र-निपातके प्रभावसे स्वर्गमें चला गया। उस अजेय असुरको पराजित देखकर ब्रह्माजीसहित सम्पूर्ण देवता देवीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।
देवताओंने स्तुति की- महान् ऐश्वयसे सुसम्पन्न देवि! गम्भीरा, भीमदर्शना, जयस्था, स्थितिसिद्धान्ता, त्रिनेत्रा, विश्वतोमुखी, जया, जाप्या, महिषासुरमर्दिनी, सर्वगा, सर्वा, देवेशी, विश्वरूपिणी, वैष्णवी, वीतशोका, ध्रुवा, पद्मपत्रशुभेक्षणा, शुद्ध-सत्त्व-व्रतस्था, चण्डरूपा, विभावरी, ऋद्धि-सिद्धिप्रदा, विद्या, अविद्या, अमृता, शिवा, शाङ्करी, वैष्णवी, ब्राह्मी, सर्वदेवनमस्कृता, घण्टाहस्ता, त्रिशूलास्त्रा, उग्ररूपा विरूपाक्षी, महामाया और अमृतस्रवा – इन विशिष्ट नामोंसे युक्त हम आपकी उपासना करते हैं। आप परम पुण्यमयी देवीके लिये हमारा निरन्तर नमस्कार है। ध्रुवस्वरूपा देवि! आप सम्पूर्ण प्राणियोंकी हितचिन्तिका हैं। अखिल प्राणी आपके ही रूप हैं। विद्याओं, पुराणों और शिल्पशास्त्रोंकी आप ही जननी हैं। समस्त संसार आपपर ही अवलम्बित है। अम्बिके! सम्पूर्ण वेदोंके रहस्यों और सभी देहधारियोंके केवल आप ही शरण हैं। शुभे ! आपको सामान्य जनता विद्या एवं अविद्या नामसे पुकारती है। आपके लिये हमारा निरन्तर शतशः नमस्कार है। परमेश्वरि ! आप विरूपाक्षी, क्षान्ति, क्षोभितान्तर्जला और अमला नामसे भी विख्यात हैं। महादेवि ! हम आपको बारंबार नमस्कार करते हैं। भगवती परमेश्वरि ! रणसंकटके उपस्थित होनेपर जो आपकी शरण लेते हैं, उन भक्तोंके सामने किसी प्रकारका अशुभ नहीं आता। देवि! सिंह- व्याघ्रके भय, चोर-भय, राज-भय, या अन्य घोर भयके उपस्थित होनेपर जो पुरुष मनको सावधानकर इस स्तोत्रका सदा पाठ करेगा, वह इन सभी संकटोंसे छूट जायगा। देवि ! कारागारमें पड़ा हुआ मानव भी यदि आपका स्मरण करेगा तो बन्धनों से उसकी मुक्ति हो जायगी और वह आनन्दपूर्वक सुखसे स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करेगा।
भगवान् वराह कहते हैं – सुन्दरी पृथ्वि ! इस प्रकार देवताओंद्वारा स्तुति-नमस्कार किये जानेपर भगवती वैष्णवीने उनसे कहा – ‘देवतागण ! आपलोग कोई उत्तम वर माँग लें ।’
देवता बोले – पुण्यस्वरूपिणी देवि ! आपके इस स्तोत्रका जो पुरुष पाठ करेंगे, उनकी आप सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण करनेकी कृपा करें। यही हमारा अभिलषित वर है। इसपर सर्वदेवमयी देवीने उन देवताओंसे ‘एवमस्तु’ कहकर वहाँसे उनको विदा कर दिया और स्वयं वहीं विराजमान रहीं ।
धराधरे ! यह देवीके दूसरे स्वरूपका वर्णन हुआ। जो इसे जान लेता है, वह शोक – दुःख एवं दोषोंसे मुक्त होकर भगवतीके अनामयपदको प्राप्त करता है।
अध्याय ८३ त्रिशक्तिमाहात्म्यमें रौद्रीव्रत
भगवान् वराह कहते हैं- वसुंधरे ! जो रौद्रीशक्ति मनमें तपस्याका निश्चयकर ‘नीलगिरि’ पर गयी थीं और जिनका प्राकट्य रुद्रकी तमः शक्तिसे हुआ था, अब उनके व्रतकी बात सुनो। अखिल जगत् की रक्षाके निश्चयसे वे दीर्घकालतक तपस्याके साधनमें लगी रहीं और पञ्चाग्नि सेवनका नियम बना लिया। इस प्रकार उन देवीके तपस्या करते हुए कुछ समय बीत जानेपर ‘रुरु’ नामक एक असुर उत्पन्न हुआ। जो महान् तेजस्वी था। उसे ब्रह्माजीका वर भी प्राप्त था । समुद्रके मध्यमें वनोंसे घिरी ‘रत्नपुरी’ उसकी राजधानी थी। सम्पूर्ण देवताओंको आतङ्कितकर वह दानवराज वहीं रहकर राज्य करता था। करोड़ों असुर उसके सहचर थे, जो एक-से-एक बढ़-चढ़कर थे। उस समय ऐश्वर्यसे युक्त वह ‘रुरु’ ऐसा जान पड़ता मानो दूसरा इन्द्र ही हो। बहुत समय व्यतीत हो जानेके पश्चात् उसके मनमें लोकपालोंपर विजय प्राप्त करनेकी इच्छा उत्पन्न हुई। देवताओंके साथ युद्ध करनेमें उसकी स्वाभाविक रुचि थी, अतः एक विशाल सेनाका संग्रहकर जब वह महान् असुर रुरु युद्ध करनेके विचारसे समुद्रसे बाहर निकला, तब उसका जल बहुत जोरोंसे ऊपर उछलने लगा और उसमें रहनेवाले नक्र, घड़ियाल तथा मत्स्य घबड़ा गये। वेलाचलके पार्श्ववर्ती सभी देश उस जलसे आप्लावित हो उठे। समुद्रका अगाध जल चारों ओर फैल गया और सहसा उसके भीतरसे अनेक असुर विचित्र कवच तथा आयुधसे सुसज्जित होकर बाहर निकल पड़े एवं युद्धके लिये आगे बढ़े। ऊँचे हाथियों तथा अश्व रथ आदिपर सवार होकर वे असुर-सैनिक युद्धके लिये आगे बढ़े। उनके लाखों एवं करोड़ोंकी संख्यामें पदाति सैनिक भी युद्धके लिये निकल पड़े।
शोभने! रुरुकी सेनाके रथ सूर्यके रथके समान थे और उनपर यन्त्रयुक्त शस्त्र सुसज्ज थे। ऐसे असंख्य रथोंपर उसके अनुगामी दैत्य हस्तत्राणसे सुरक्षित होकर चल पड़े। इन असुर- सैनिकोंने देवताओंके सैनिकोंकी शक्ति कुण्ठित कर दी और वह अपनी चतुरङ्गिणी सेना लेकर इन्द्रकी नगरी अमरावतीपुरीके लिये चल पड़ा। वहाँ पहुँचकर दानवराजने देवताओंके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया और वह उनपर मुद्गरों, मुसलों, भयंकर वाणों और दण्ड आदि आयुधोंसे प्रहार करने लगा। इस युद्धमें इन्द्रसहित सभी देवता उस समय अधिक देरतक टिक न सके और वे आहत हो मुँह पीछेकर भाग चले। उनका सारा उत्साह समाप्त हो गया तथा हृदय आतङ्कसे भर गया। अब वे भागते हुए उसी नीलगिरि पर्वतपर पहुँचे, जहाँ भगवती रौद्री तपस्यामें संलग्न होकर स्थित थीं। देवीने देवताओंको देखकर उच्च स्वरसे कहा- ‘भय मत करो।’
देवी बोलीं- देवतागण ! आपलोग इस प्रकार भीत एवं व्याकुल क्यों हैं? यह मुझे तुरंत बतलाएँ ।
देवताओंने कहा—‘परमेश्वरि ! इधर देखिये यह ‘रुरु’ नामक महान् पराक्रमी दैत्यराज चला आ रहा है। इससे हम सभी देवता त्रस्त हो गये हैं, आप हमारी रक्षा कीजिये।’ यह देखकर देवी अट्टहासके साथ हँस पड़ीं। देवीके हँसते ही उनके मुखसे बहुत-सी अन्य देवियाँ प्रकट हो गयीं, जिनसे मानो सारा विश्व भर गया। वे विकृत रूप एवं अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित थीं और अपने हाथोंमें पाश, अङ्कुश, त्रिशूल तथा धनुष धारण किये हुए थीं। वे सभी देवियों करोड़ोंकी संख्यामें थीं तथा भगवती तामसीको चारों ओरसे घेरकर खड़ी हो गयीं। वे सब दानवोंके साथ युद्ध करने लगीं और तत्काल असुरोंके सभी सैनिकोंका क्षणभरमें सफाया कर दिया। देवता अब पुनः लड़ने लग गये थे। कालरात्रिकी सेना तथा देवताओंकी सेना अब नयी शक्तिसे सम्पन्न होकर दैत्योंसे लड़ने लगी और उन सभीने समस्त दानवोंके सैनिकोंको यमलोक भेज दिया। बस अब उस महान् युद्धभूमिमें केवल महादैत्य ‘रुरु’ ही बच रहा था। वह बड़ा मायावी था। अब उसने ‘रौरवी’ नामक भयंकर मायाकी रचना की, जिससे सम्पूर्ण देवता मोहित होकर नींदमें सो गये। अन्तमें देवीने उस युद्ध स्थलपर त्रिशूलसे दानवको मार डाला। शुभलोचने! देवीके द्वारा आहत हो जानेपर ‘रुरु’-दैत्यके चर्म (धड़) और मुण्ड- अलग-अलग हो गये। दानवराज ‘रुरु’ के चर्म और मुण्ड जिस समय पृथक् हुए, उसी क्षण देवीने उन्हें उठा लिया, अतः वे ‘चामुण्डा’ कहलाने लगीं। वे ही भगवती महारौद्री, परमेश्वरी, संहारिणी और ‘कालरात्रि’ कही जाती हैं।
उनकी अनुचरी देवियाँ करोड़ोंकी संख्या में बहुत- सी हैं युद्धके अन्तमें उन अनुगामिनी देवियोंने इन महान् ऐश्वर्यशालिनी देवीको सब ओरसे घेर लिया और वे भगवती रौद्रीसे कहने लगीं- हम भूखसे घबड़ा गयी हैं। कल्याणस्वरूपिणि देवि ! आप हमें भोजन देनेकी कृपा कीजिये।’
इस प्रकार उन देवियोंके प्रार्थना करनेपर जब रौद्री देवीके ध्यानमें कोई बात न आयी, तब उन्होंने देवाधिदेव पशुपति भगवान् रुद्रका स्मरण किया। उनके ध्यान करते ही पिनाकपाणि परमात्मा रुद्र वहाँ प्रकट हो गये। वे बोले-‘देवि ! कहो ! तुम्हारा क्या कार्य हैं ?”
देवीने कहा- देवेश! आप इन उपस्थित देवियोंके लिये भोजनकी कुछ सामग्री देनेकी कृपा करें; अन्यथा ये बलपूर्वक मुझे ही खा जायँगी।
रुद्रने कहा— देवेश्वरि महाप्रभे! इनके खानेयोग्य वस्तु वह है – जो गर्भवती स्त्री दूसरी स्त्रीके पहने हुए वस्त्रको पहनकर अथवा विशेष करके दूसरे पुरुषका स्पर्शकर पाकका निर्माण करती है, वह इन देवियोंके लिये भोजनकी सामग्री है। अज्ञानी व्यक्तियोंद्वारा दिया हुआ बलिभाग भी ये देवियाँ ग्रहण करें और उसे पाकर सौ वर्षोंके लिये सर्वथा तृप्त हो जायँ । अन्य कुछ देवियाँ प्रसव गृहमें छिद्रका अन्वेषण करें। वहाँ लोग उनकी पूजा करेंगे। देवेशि ! उस स्थानपर उनका निवास होगा। गृह, क्षेत्र, तडागों, वापियों और उद्यानोंमें जाकर निरन्तर रोती हुई जो स्त्रियाँ मनमारे बैठी रहेंगी, उनके शरीर में प्रवेशकर कुछ देवियाँ तृप्ति लाभ कर सकेंगी।
फिर भगवान् शंकरने इधर जब रुरुको मरा हुआ देखा, तब वे देवीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ।
भगवान् रुद्र बोले- देवि ! आपकी जय हो चामुण्डे ! भगवती भूतापहारिणि एवं सर्वगते परमेश्वरि! आपकी जय हो। देवि! आप त्रिलोचना, भीमरूपा, वेद्या, महामाया, महोदया, मनोजवा जया, जृम्भा, भीमाक्षी, क्षुभिताशया, महामारी, विचित्राङ्गा, नृत्यप्रिया, विकराला, महाकाली, कालिका, पापहारिणी, पाशहस्ता, दण्डहस्ता, भयानका, चामुण्डा, ज्वलमानास्या, तीक्ष्णदंष्ट्रा, महाबला, शतयानस्थिता, प्रेतासनगता, भीषणा, सर्वभूतभयंकरी, कराला, विकराला, महाकाला, करालिनी, काली, काराली, विक्रान्ता और कालरात्रि – इन नामोंसे प्रसिद्ध हैं; आपके लिये मेरा बारंबार नमस्कार है।
परमेष्ठी रुद्रने जब इस प्रकार देवीकी स्तुति की तब वे भगवती परम संतुष्ट हो गयीं। साथ ही उन्होंने कहा- ‘देवेश! जो आपके मनमें हो, वह वर माँग लें।
रुद्र बोले—‘ वरानने ! यदि आप प्रसन्न हैं तो इस स्तुतिके द्वारा जो व्यक्ति आपका स्तवन करें, देवि! आप उन्हें वर देनेकी कृपा करें। इस स्तुतिका नाम’ ‘त्रिप्रकार’ होगा। जो भक्तिके साथ इसका पाठ करेगा, वह पुत्र, पौत्र, पशु और समृद्धसे सम्पन्न हो जायगा। तीन शक्तियोंसे सम्बद्ध इस स्तुतिको जो श्रद्धा भक्तिके साथ सुने, उसके सम्पूर्ण पाप विलीन हो जायँ और वह व्यक्ति अविनाशी पदका अधिकारी हो जाय।”
ऐसा कहकर भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये। देवता भी स्वर्गको पधारे। वसुंधरे ! देवीकी तीन प्रकारकी उत्पत्ति युक्त ‘त्रिशक्ति माहात्म्य का यह प्रसङ्ग बहुत श्रेष्ठ है। अपने राज्यसे च्युत राजा यदि पवित्रतापूर्वक इन्द्रियोंको वशमें करके अष्टमी नवमी और चतुर्दशीके दिन उपवासकर इसका श्रवण करेगा तो उसे एक वर्षमें अपना निष्कण्टक राज्य पुनः प्राप्त हो जायगा ।
न्यायसिद्धान्तके द्वारा ज्ञात होनेवाली पृथ्वी देवि ! यह मैंने तुमसे ‘त्रिशक्ति-सिद्धान्त ‘की बात बतलायी। इनमें सात्त्विकी एवं श्वेत वर्णवाली ‘सृष्टि’ देवीका सम्बन्ध ब्रह्मासे है। ऐसे ही वैष्णवी शक्तिका सम्बन्ध भगवान् विष्णुसे है। रौद्रीदेवी कृष्ण-वर्णसे युक्त एवं तमः सम्पन्न शिवकी शक्ति हैं। जो पुरुष स्वस्थचित्त होकर नवमी तिथिके दिन इसका श्रवण करेगा, उसे अतुल राज्यकी प्राप्ति होगी तथा वह सभी भयोंसे छूट जायगा। जिसके घरपर लिखा हुआ यह प्रसङ्ग रहता है, उसके घरमें भयंकर अग्निभय, सर्पभय, चोरभय और राज्य आदिसे उत्पन्न भय नहीं होते। जो विद्वान् पुरुष पुस्तकरूपमें इस प्रसङ्गको लिखकर भक्तिके साथ इसकी पूजा करेगा, उसके द्वारा चर और अचर तीनों लोक सुपूजित हो जायँगे। उसके यहाँ ‘ बहुत-से पशु, पुत्र, धन-धान्य एवं उत्तम स्त्रियाँ प्राप्त हो जायेंगी। यह स्तुति जिसके घरपर रहती है, उसके यहाँ प्रचुर रत्न, घोड़े, गौएँ, दास और दासियाँ- आदि सम्पत्तियाँ अवश्य प्राप्त हो जाती हैं।
भगवान् वराह कहते हैं- भूतधारिणि ! यह रुद्रका माहात्म्य कहा गया है। मैंने पूर्णरूपसे तुम्हारे सामने इसका वर्णन कर दिया। चामुण्डाकी समग्र शक्तियोंकी संख्या नौ करोड़ है। वे पृथक्- पृथक् रूपसे स्थित हैं। इस प्रकार जो रुद्रसे सम्बन्ध रखनेवाली यह ‘तामसी शक्ति चामुण्डा’ कही गयी उसका तथा वैष्णवी शक्तिके सम्मिलित भेद अठारह करोड़ है। इन सभी शक्तियोंके अध्यक्ष सर्वत्र विचरण करनेवाले भगवान् परमात्मा रुद्र ही हैं। जितनी ये शक्तियाँ हैं, रुद्र भी उतने ही हैं। महाभाग ! जो इन शक्तियोंकी आराधना करता है, उसपर भगवान् रुद्र संतुष्ट होते हैं और वे साधककी मनः कल्पित सारी कामनाएँ सिद्ध कर देते हैं।
अध्याय ८४ रुद्रके माहात्म्यका वर्णन
भगवान् वराह कहते हैं— ‘सुमुखि पृथ्वि ! अब तुम रुद्रके व्रतकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग सुनो, जिसे जानकर प्राणी पापोंसे मुक्त हो जाता है। जिस समय ब्रह्माजीने पूर्वकालमें रुद्रका सृजन किया, उस समय उन रुद्रकी विभु, पिङ्गाक्ष और फिर तीसरी बार नीललोहित संज्ञा हुई। अव्यक्तजन्मा परमशक्तिशाली ब्रह्माने कौतूहलवश प्रकट होते ही रुद्रको कन्धेपर उठा लिया। उस अवसरपर ब्रह्माका जो जन्म सिद्ध पाँचवाँ सिर था, उससे आथर्वणमन्त्रका उच्चारण हो रहा था, जो इस प्रकार था-
कपालिन् रुद्र बभ्रोऽथ भव कैरात सुव्रत । पाहि विश्वं विशालाक्ष कुमार वरविक्रम ॥
अर्थात् ‘हे सुव्रत ! कपाली, बभ्रुभव, कैरात, विशालाक्ष, कुमार और वरविक्रम नामधारी रुद्र, आप विश्वकी रक्षा कीजिये।’
पृथ्वि! इस मन्त्र के अनुसार ये रुद्रके भविष्यके कर्मसूचक नाम थे पर ‘कपाली’ शब्द सुनकर रुद्रको क्रोध आ गया, अतः ब्रह्माजीके उस पाँचवें सिरको उन्होंने अपने बायें हाथके अँगूठेके नखसे काट डाला, पर कटा हुआ वह सिर उनके हाथमें ही चिपक गया। रुद्रने ब्रह्माजीकी शरण ली और बोले ।
रुद्रने कहा— उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले भगवन् ! कृपया यह बताइये कि यह कपाल मेरे हाथसे किस प्रकार अलग हो सकेगा तथा इस पापसे मैं कैसे मुक्त होऊँगा ?
ब्रह्माजी बोले – रुद्रदेव! तुम नियमपूर्वक कापालिक व्रतका अनुष्ठान करो। इसके आचरण करते रहनेपर जब अनुकूल समय आयेगा, तब स्वयं अपने ही तेजसे तुम इस कपालसे मुक्त हो जाओगे।
अव्यक्त-मूर्ति ब्रह्माजीने जब रुद्रसे इस प्रकार कहा तब महादेव पापनाशक महेन्द्रपर्वतपर चले गये। वहाँ रहकर उन्होंने उस सिरको तीन भागों में विभाजित कर दिया। तीन खण्ड हो जानेपर भगवान् रुद्रने उसके बालोंको भी अलग-अलग कर हाथमें लिया और उसका यज्ञोपवीत बना लिया। इस प्रकार सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीपर विचरते हुए वे प्रतिदिन तीर्थोंमें स्नान करते और फिर आगे बढ़ जाते थे। सर्वप्रथम उन्होंने समुद्रमें स्नान किया। इसके बाद गङ्गामें गोता लगाया। फिर वे सरस्वती, गङ्गा-यमुनाका सङ्गम, शतद्रु (सतलज), महानदी, देविका, वितस्ता, चन्द्रभागा, गोमती, सिन्धु तुङ्गभद्रा, गोदावरी, उत्तरगण्डकी, नेपाल, रुद्रमहालय, दारुवन, केदारवन, भद्रेश्वर होते हुए पवित्र क्षेत्र गयामें पहुँचे। वहाँ फल्गु नदीमें स्नान कर उन्होंने पितरोंका तर्पण किया। इस प्रकार भगवान् रुद्र सारे विश्व ब्रह्माण्डमें चक्कर लगाते रहे। इस प्रकार उन्हें भ्रमण करते छः वर्ष बीत गये, इसी बीच उनके परिधान, कौपीन और मेखला अलग हो गये। देवि! अब रुद्र नग्न और कापालिकरूपमें हाथमें कपाल लिये प्रत्येक तीर्थमें घूमते रहे, किंतु वह अलग न हुआ। इसके बाद वे दो वर्षोंतक भू-मण्डलके सभी पवित्र तीर्थोंमें पुनः भ्रमण करते रहे। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गये। फिर हरिहरक्षेत्रमें जाकर उन्होंने दिव्य नदी गङ्गा एवं देवाङ्गद- कुण्डमें स्नानकर भगवान् सोमेश्वरकी विधिवत् पूजा की। फिर वे ‘चक्रतीर्थ’ में गये और वहाँ स्नानकर ‘त्रिजलेश्वर महादेवकी आराधना की। तत्पश्चात् अयोध्या जाकर वे फिर वाराणसी पहुँचे और गङ्गामें स्नान करने लगे । सुन्दरि ! जब वे गङ्गामें स्नान कर रहे थे, उसी क्षण उनके हाथसे कपाल गिर गया। वसुंधरे ! तभीसे भूमण्डलपर वाराणसीपुरीमें यह उत्तम तीर्थ ‘कपालमोचन’ नामसे विख्यात हुआ। वहाँ मनुष्य यदि भक्तिपूर्वक स्नान करता है तो उसकी शुद्धि हो जाती है। अब ब्रह्माजी देवताओंके साथ वहाँ आये और इस प्रकार बोले ।
ब्रह्माजीने कहा – विशाल नेत्रोंवाले रुद्र! अब तुम लोकमार्गमें सुव्यवस्थित होओ। हाथमें कपाल होनेसे व्यग्र चित्त होकर तुम जो भ्रमण करते रहे, इससे तुम्हारा यह व्रत भूमण्डलपर जन- समाजमें ‘नग्नकापालिक व्रत’ नामसे विख्यात होगा। तुम जो पर्वतराज हिमालयपर भ्रमण करनेमें व्यस्त रहे, इसलिये देव! वह व्रत ‘वाभ्रव्य’ नामसे भी प्रसिद्ध होगा। अब इस तीर्थमें जो तुम्हारी शुद्धि हुई है, इसके कारण यह व्रत शुद्ध – शैव होगा और इसमें पापप्रशमन करनेकी शक्ति भरी रहेगी। देवसमुदायने आगे करके तुम्हें जो विधानके साथ पूज्य बनाया है, उस शास्त्रविधानकी सबके लिये व्याख्या करूँगा। इसमें कुछ अन्यथा विचार नहीं है। तुम्हारे द्वारा आचरित यह ‘वाभ्रव्यव्रत’ एवं ‘कापालिक’ व्रतका जो आचरण करेगा, वह तुम्हारी कृपासे ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, उस पापसे मुक्त हो जायगा। तुम जो नग्न, कपाली, पिङ्गल-वर्ण और पुनः शुद्ध-शैवव्रत पालन करते रहे, इसके कारण नग्न, कपाल, वाभ्रव्य और शुद्ध-शैवके नामसे यह व्रत प्रसिद्ध होगा। तुमने मुझे आगे करके विधिपूर्वक जिन मन्त्रोंके द्वारा पूजा की है, वे सम्पूर्ण शास्त्र ‘पाशुपतशास्त्र’ कहलायेंगे ।
अव्यक्तमूर्ति ब्रह्माजी जिस समय रुद्रसे इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय देवताओंने ‘जय- जयकार’ की ध्वनि लगायी। अब महाभाग रुद्र परम संतुष्ट होकर अपने स्थान कैलासपर चले गये। ब्रह्माजी भी देवताओंके साथ श्रेष्ठ स्वर्गलोकमें सिधारे । अन्य देवता भी जैसे आये थे, वैसे ही आकाशमार्गद्वारा अपने स्थानपर चले गये। वसुंधरे ! रुद्रके इस माहात्म्यका मैंने वर्णन किया। यह जो रुद्रका चरित्र है, इससे भूमण्डलपर स्थित कोई सम्पत्ति तुलना करनेमें समर्थ नहीं है।
अध्याय ८५ सत्यतपाका शेष वृत्तान्त
पृथ्वी बोली- भगवन्! सत्यतपा नामक व्याध, जो पीछे ब्राह्मण हो गया था और जिसने अपनी शक्तिद्वारा बाघके भयसे आरुणि मुनिकी रक्षा की थी और जो दुर्वासाजीसे वेद-पुराण सुनकर हिमालय पर्वतपर चला गया था, आपने उसके भविष्यमें कोई विचित्र घटना घटने की बात बतलायी थी। विभो ! मुझे उस घटनाको जाननेकी उत्सुकता हो रही है। कृपया आप उसे बतानेकी कृपा कीजिये।
भगवान् वराह बोले- वसुंधरे ! वास्तवमें बात यह है कि सत्यतपा भृगुवंशमें उत्पन्न शुद्ध ब्राह्मण ही था। उसी जन्ममें फिर उसका डाकुओंका साथ हो गया, जिसके कारण वह व्याध बन गया। बहुत दिन बीत जानेके पश्चात् ‘आरुणिऋषि’ का सङ्ग उसे सुलभ हुआ। अतः फिर उसमें ब्राह्मणत्व आ गया। दुर्वासाजीके द्वारा भलीभाँति उपदेश ग्रहणकर फिर वह पूर्ण ब्राह्मण बन गया। (अब आश्चर्यकी कथा आगे सुनो – )
पृथ्वीदेवि ! हिमालयपर्वतके उत्तरी भागमें ‘पुष्पभद्रा’ नामकी एक पवित्र नदी है। उस दिव्य नदीके तीरपर ‘चित्रशिला’ नामसे विख्यात एक शिला है। वहीं एक विशाल वटका वृक्ष हैं, जो ‘भद्र’ नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ रहकर सत्यतपा तप करने लगे।
एक दिनकी बात है, लकड़ी काटते समय कुल्हाड़ीसे उनके बायें हाथकी तर्जनी अँगुली कट गयी। वह अँगुली जड़से कटकर अलग हो गयी, तब उस कटे हुए स्थानसे भस्मका चूर्ण बिखर उठा। उस अँगुलीसे न रक्त गिरा, न मांस और न मज्जा ही दिखायी पड़ी। फिर उस ब्राह्मणने अपनी कटी हुई अँगुलीको पहले जैसे जोड़ भी दिया और वह जुड़ भी गयी। उसी भद्रवटके वृक्षके ऊपर एक किंनरदम्पतिका निवास था, जो उस समय वृक्षके ऊपर बैठा हुआ इन सब विचित्र कार्योंको देख रहा था। इस घटनासे उनके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। प्रातः काल वह इन्द्रलोकमें पहुँचा, जहाँ यक्ष, गन्धर्व, किंनर एवं इन्द्रके साथ सभी देवता विराजमान थे। वहाँ इन्द्रने उन सबसे कहा कि आप लोग कोई अपूर्व बात हुई हो तो बतलायें ।
रुद्र-सरोवरपर निवास करनेवाले उस किंनरदम्पतिने कहा – ‘पुष्पभद्राके पवित्र तटपर मैंने एक महान् आश्चर्य देखा है।’ शुभे! फिर उसने सत्यतपासम्बन्धी अँगुलीके कटने तथा उस स्थानसे भस्म बिखरनेकी बात बतलायी। उसकी बात सुनकर सभी आश्चर्यसे भर गये और उसकी प्रशंसा की। फिर इन्द्रदेवने भगवान् विष्णुसे कहा- ‘प्रभो! आइये हमलोग हिमालयकी उस उत्तम घाटीमें चलें। वहाँ एक बड़े आश्चर्यकी घटना हुई है जिसे इस किंनरदम्पतिने बतलाया है।’
इस प्रकार बातचीत होनेके पश्चात् भगवान् विष्णुने वराहका रूप धारण किया और इन्द्रने अपना वेष एक व्याधका बनाया और दोनों सत्यतपा ऋषिके पास पहुँचे। वराहवेषधारी विष्णु उन ऋषिके आश्रमके सामने आकर घूमने लगे। वे कभी दीखते और कभी अदृश्य हो जाते। इतनेमें धनुषवाण हाथमें लिये हुए वधिक वेषधारी इन्द्रने ऋषिके सामने आकर कहा-
‘भगवन्! आपने यहाँ एक बहुत विशाल शूकर अवश्य देखा होगा। आप कृपापूर्वक मुझे बतलायें तो मैं उसका वध कर डालूँ, जिससे अपने आश्रित जीवोंका भरण-पोषण कर सकूँ।’
वधिकके ऐसा कहनेपर सत्यतपा मुनि चिन्तामें पड़ गये और विचार करने लगे- ‘यदि मैं इस वधिकको सूअर दिखला दूँ तो यह उसे तुरंत मार डालेगा। यदि नहीं दिखाता तो इस वधिकका परिवार भूखसे महान् कष्ट पायगा, इसमें कोई संशय नहीं; क्योंकि यह वधिक अपनी स्त्री और पुत्रके साथ भूखसे कष्ट पा रहा है। इधर इस सूअरको वाण लग चुका है और वह मेरे आश्रममें आ गया है – ऐसी स्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये ?’ इस प्रकार सोचते हुए, जब वे कोई निश्चय नहीं कर पा रहे थे कि सहसा उनकी बुद्धिमें एक बात आ गयी – ‘ गतिशील प्राणी आँखोंसे ही देखते हैं – देखना नेत्रेन्द्रियका ही कार्य है। बात बतानेवाली जीभ कुछ नहीं देखती। इस प्रकार देखनेवाली इन्द्रिय आँख है, जिह्वा नहीं, और जो जिह्वाका विषय है, उसे नेत्र तत्त्वतः प्रकाशित करनेमें असमर्थ है।’ अतः इस विषयमें अब मैं निरुत्तर होकर चुप रहूँगा । सत्यतपाके मनके इस प्रकारके निश्चयको जानकर वधिकरूपी इन्द्र और सूअररूप बने हुए विष्णु- इन दोनोंके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई। अतः वे दोनों महापुरुष अपने वास्तविक रूपमें उनके सामने प्रकट हो गये। साथ ही सत्यतपा ऋषिसे यह वचन कहा – ‘ऋषिवर! हम दोनों तुमपर बहुत प्रसन्न हैं। तुम परम श्रेष्ठ वर माँग लो।’ यह सुनकर उस ऋषिने कहा- ‘देवेश्वरो ! इस समय मेरे सामने आपलोगोंने प्रत्यक्ष उपस्थित होकर साक्षात् दर्शन दिया, इससे बढ़कर पृथ्वीपर मुझे दूसरा कोई श्रेष्ठ वर नहीं दीखता। हाँ, यदि आप बलपूर्वक वर देकर मुझे कृतार्थ करना चाहते हैं तो मैं यही वर माँगता हूँ’ इस पर्वकालमें जो व्यक्ति यहाँ सदा ब्राह्मणोंकी भक्तिपूर्वक एक मासतक लगातार अर्चना करे उसके सभी पाप नष्ट हो जायें। यही नहीं, उसका संचित पाप भी भस्म हो जाय। साथ ही मुझे भी मोक्ष प्राप्त हो जाय।’
वसुंधरे ! विष्णु और इन्द्र – दोनों देवता ‘ऐसा ही होगा’ कहकर अन्तर्धान हो गये। वे ऋषि वर पाकर सर्वत्र परमात्माको देखते हुए वहीं स्थिर रहे। इसी समय उनके गुरु आरुणि आते दिखायी पड़े, जो तीर्थोंमें घूमते हुए भूमण्डलकी प्रदक्षिणा करके लौटे थे। मुनिवर आरुणिकी सत्यतपाने महान् भक्तिके साथ पूजा की, उनका चरण धोया और आचमन कराया तथा उन्हें गौएँ प्रदान कीं।
जब आरुणिजी आसनपर बैठ गये और भलीभाँति जान गये कि मेरा यह शिष्य सिद्ध हो गया है तथा तपस्यासे इसके पाप भस्म हो गये हैं तो उन्होंने सत्यतपासे कहा- ‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले पुत्र ! तपके प्रभावसे तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध हो गया है। तुममें ब्रह्मभावकी स्थिति हो गयी है। वत्स! अब उठो और मेरे साथ उस परम पदकी यात्रा करो, जहाँ जाकर फिर जन्म नहीं लेना पड़ता।’ तदनन्तर मुनिवर आरुणि और सत्यतपा— वे दोनों सिद्ध पुरुष भगवान् नारायणका ध्यान करके उनके श्रीविग्रहमें लीन हो गये। जो भी व्यक्ति इस विस्तृत पर्वाध्यायके एक पादका भी श्रवण करता है या किसी अन्यको सुनाता है, उसे भी अभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है।
अध्याय ८६ तिलधेनुका माहात्म्य
पृथ्वी बोलीं- भगवन्! अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके शरीरसे जो आठ भुजाओंवाली गायत्री नामकी माया प्रकट हुईं और जिन्होंने चैत्रासुरके साथ युद्धकर उसका वध किया, उन्हीं देवीने देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके विचारसे ‘नन्दा’ नाम धारण किया तथा उन्हीं देवीने महिषासुरका भी वध किया। वही देवी ‘वैष्णवी’ नामसे विख्यात हुईं। भगवन् ! यह सब कैसे क्या हुआ ? आप मुझे बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह कहते हैं – वसुंधरे ! स्वायम्भुव मन्वन्तरमें इन्हीं देवीने मन्दरगिरिपर महिषासुर नामक दैत्यका वध किया। फिर उनके द्वारा विन्ध्यपर्वतपर नन्दारूपसे चैत्रासुर मारा गया । अथवा ऐसा समझना चाहिये कि वे देवी ज्ञानशक्ति हैं और महिषासुर मूर्तिमान् अज्ञान है।
देवि ! अब मैं पाँच प्रकारके पातकोंका ध्वंस करनेवाला उपाय कहता हूँ, सुनो।
भगवान् विष्णु देवताओंके भी देवता हैं। उनका यजन करनेसे पुत्र और धन प्राप्त होते हैं। इस जन्ममें जो पुरुष दरिद्रता, व्याधि और कुष्ठ रोगसे दुःखी है, जिनके पास लक्ष्मी नहीं है, पुत्रका अभाव है, वह इस यज्ञके प्रभावसे तुरंत ही धनवान्, दीर्घायु, पुत्रवान् एवं सुखी हो जाता है। इसमें प्रधान कारण मण्डलमें विराजमान लक्ष्मीदेवीके साथ भगवान् नारायणका दर्शन ही है। भगवान् नारायण परम देवता हैं। देवि! विधानपूर्वक जो उनका दर्शन करता है और कार्तिक महीनेके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन आचार्य प्रदत्त मन्त्रका उच्चारण करते हुए उन देवताका यजन करता है, अथवा सम्पूर्ण द्वादशी तिथियोंके दिन या संक्रान्ति एवं सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहणके अवसरपर गुरुके आदेशानुसार जो उनकी पूजा एवं दर्शन करता है, उसपर श्रीहरि तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं। उसके पाप दूर भाग जाते हैं। साथ ही उसपर अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है।
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – तीनों वर्ण भक्तिके अधिकारी हैं। गुरुको चाहिये जाति, शौच और क्रिया आदिके द्वारा एक वर्षतक उनकी परीक्षा करे । एक वर्षतक शिष्य गुरुमें श्रद्धा रखते हुए उनमें भगवान् विष्णुकी भावना करके अचल भक्ति करे। वर्ष पूरा हो जानेपर वह गुरुसे प्रार्थना करे –’भगवन्! आप तपस्याके महान् धनी पुरुष विराजमान हैं और मेरे सामने प्रत्यक्ष हैं। हम चाहते हैं कि आपकी कृपासे संसाररूपी समुद्रको पार करानेवाला ज्ञान प्राप्त हो जाय। साथ ही संसारमें सुख देनेवाली लक्ष्मी भी हमें अभीष्ट हैं।’
विद्वान् पुरुष गुरुकी पूजा भी विष्णुके समान करे । श्रद्धालु पुरुष कार्तिकमासकी शुक्ला दशमी तिथिको दूधवाले वृक्षका मन्त्रसहित दन्तकाष्ठ ले और उससे मुँह धोये। फिर रात्रिभोजनके बाद साधक देवेश्वर भगवान् श्रीहरिके सामने सो जाय। रातमें जो स्वप्न दिखायी पड़े, उसे गुरुके सामने व्यक्त करना चाहिये और गुरुको भी इन स्वप्नोंमें कौन-सा शुभ है और कौन-सा अशुभ- इसपर विचार करना चाहिये। फिर एकादशीके दिन उपवास रहकर स्नान करके व्रती पुरुष देवालयमें जाय । वहाँ गुरुको चाहिये कि निश्चित की हुई भूमिपर मण्डल बनाकर उसपर सोलह पंखुड़ियोंवाला एक कमल तथा सर्वतोभद्र चक्र लिखे अथवा सफेद वस्त्रसे आठ पत्रवाला कमल बनाकर उसपर देवताओंको अङ्कित करे। उस चक्रको फिर यत्नसे उजले वस्त्रसे ऐसा आवेष्टित करे कि वह वस्त्र नेत्रबन्धका भी साधन बन जाय। वर्णके अनुक्रमसे शिष्योंको मण्डपमें प्रवेश करनेके लिये गुरु आज्ञा दें। शिष्यको हाथमें फूल लेकर प्रवेश करना चाहिये।
नौ भागोंवाले मण्डलमें क्रमश: पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैर्ऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और ईशान आदि दिशाओंमें लोकपालसहित इन्द्र, अग्निदेव, यमराज, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और रुद्रकी स्थापना तथा पूजा करे। मध्यभागमें परम प्रभु श्रीविष्णुकी अर्चना करनी चाहिये ।
पुनः कमलके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पत्रोंपर बलराम, प्रद्युम्न अनिरुद्ध तथा समस्त पातकोंकी शान्ति करनेवाले वासुदेवकी स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये। ईशानकोणमें शङ्खकी, अग्निकोणमें चक्रकी, दक्षिणमें गदाकी और वायव्यकोणमें पद्मकी स्थापना एवं पूजा करनी चाहिये। ईशानकोणमें मूसलकी एवं दक्षिणमें गरुडकी तथा देवेश विष्णुके वामभागमें बुद्धिमान् पुरुष लक्ष्मीकी स्थापना एवं पूजा करे। प्रधान देवताके सामने धनुष और खड्गकी स्थापना करे । नवें दलमें श्रीवत्स और कौस्तुभमणिकी कल्पना करनी चाहिये। फिर आठ दिशाओंमें विधानके अनुसार आठ कलश स्थापितकर बीचमें नवें प्रधान विष्णुकलशकी स्थापना करनी चाहिये । फिर उन कलशोंपर आठ लोकपालों तथा भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। साधकको यदि मुक्तिकी इच्छा हो तो विष्णुकलशसे, लक्ष्मीकी इच्छा हो तो इन्द्रकलशसे, प्रभूत संतानकी इच्छा हो तो अग्निकोणके कलशसे, मृत्युपर विजय पानेकी इच्छा हो तो दक्षिणके कलशसे, दुष्टोंका दमन करनेकी इच्छा हो तो निर्ऋतिकोणके कलशसे, शान्ति पानेकी इच्छा हो तो वरुणकलशसे, पाप नाशकी इच्छा हो तो वायव्यकोणके कलशसे, धन प्राप्तिकी इच्छा हो तो उत्तरके कलशसे तथा ज्ञानकी इच्छा एवं लोकपाल पद पानेकी कामना हो तो वह रुद्रकलशसे स्नान करे। किसी एक कलशके जलसे स्नान करनेपर भी मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यदि साधक ब्राह्मण है तो उसे अव्याहत ज्ञान होता है। नवों कलशोंसे स्नान करनेसे तो मनुष्य पापमुक्त होकर साक्षात् भगवान् विष्णुके तुल्य सर्वतः परिपूर्ण हो जाता है।
पूजाके अन्तमें गुरुकी आज्ञासे सबकी प्रदक्षिणा करे । फिर गुरुदेव प्राणायामसहित आग्नेयी एवं वारुणी- धारणाद्वारा विधिपूर्वक शिष्यका अन्तःकरण शुद्धकर उसे सोमरससे आप्यायितकर दीक्षाके प्रतिज्ञा वचन सुनायें। इस प्रकार ब्राह्मणों, वेदों, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, आदित्य, अग्नि, लोकपाल, ग्रहों, वैष्णव- पुरुषों और गुरुके सम्मान करनेवाले पुरुषको दीक्षाद्वारा शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है।
दीक्षाके अन्तमें प्रज्वलित अग्निमें – ‘ॐ नमो भगवते सर्वरूपिणे हुं फट् स्वाहा’ – इस सोलह अक्षरवाले मन्त्रद्वारा हवनकी विधि है। गर्भाधान आदि संस्कारोंमें जैसी हवनकी क्रियाएँ होती हैं, वैसी ही यहाँ भी कर्तव्य हैं। हवनके बाद यदि दीक्षा प्राप्त शिष्य किसी देशका राजा हो तो वह गुरुके लिये हाथी-घोड़ा, सुवर्ण, अन्न और गाँव आदि अर्पण करे। यदि दीक्षित साधक मध्यम श्रेणीका व्यक्ति है तो वह साधारण दक्षिणा दे ।
दीक्षाके अन्तमें साधक पुरुष यदि वराह पुराण सुनता है तो उससे सभी वेद, पुराण और सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल प्राप्त होता है।
पुष्कर-तीर्थ, प्रयाग, गङ्गा-सागर-सङ्गम, देवालय, कुरुक्षेत्र, वाराणसी, ग्रहण तथा विषुवयोगमें उत्तम जप करनेवालेको जो फल होता है, उससे दूना फल जो दीक्षित पुरुष इस वराहपुराणको सुनता है, उसे प्राप्त होता है।
प्राणियोंको धारण करनेवाली पृथ्वी देवि देवता लोग भी ऐसी कामना करते हैं कि कब ऐसा सुअवसर प्राप्त होगा, जब भारतवर्ष में हमारा जन्म होगा और हम दीक्षा प्राप्तकर किसी प्रकारसे षोडश- कलात्मक वराहपुराण सुन सकेंगे तथा इस देहका त्यागकर उस परम स्थानको जायँगे, जहाँसे पुनः वापस नहीं होना पड़ता ।
अन्न-दानके विषयमें महात्मा वसिष्ठ एवं श्वेतका संवादात्मक एक बहुत पुराना इतिहास- सच्ची कथा कही जाती है।
वसुंधरे ! इलावृतवर्ष में श्वेत नामके एक महान् तपस्वी राजा थे। उन नरेशने हरे-भरे वृक्षोंवाले वनसहित यह पृथ्वी दान करनेके विचारसे तपोनिधि वसिष्ठजीसे कहा- भगवन्! मैं ब्राह्मणोंको यह समूची पृथ्वी दान करना चाहता हूँ। आप मुझे आज्ञा देनेकी कृपा करें।’ इसपर वसिष्ठजीने कहा – ‘राजन् ! अन्न सभी समयमें सुख देनेवाला है। अत: तुम सदा अन्नदान करो। जिसने अन्नदान कर दिया, उसके लिये भूतलपर दूसरा दान कोई शेष न रहा । सम्पूर्ण दानोंमें अन्नदान ही श्रेष्ठ है। अन्नसे ही प्राणी जीवन धारण करते और बढ़ते हैं, अतः राजन् ! तुम प्रयत्नपूर्वक अन्नदान करो।’ किंतु राजा श्वेतने वैसा न कर बहुत-से हाथी घोड़े, रत्न, वस्त्र, आभूषण, धन- धान्यसे पूर्ण अनेक नगर एवं खजानेमें जो धन था, उसे ही ब्राह्मणोंको बुलाकर दान किया।
एक समयकी बात है— उत्तम धर्मके ज्ञाता राजा श्वेतने सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त करके अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे, जो जपकर्ताओंमें सर्वोत्तम माने जाते हैं, कहा- ‘भगवन्! मैं एक हजार अश्वमेध यज्ञ करना चाहता हूँ। फिर राजा श्वेतने उनकी अनुमतिसे यज्ञकर ब्राह्मणोंको बहुत-से सोना, चाँदी और रत्न दानमें दिये, किंतु उन राजाने उस समय भी अन्न और जलका दान नहीं किया; क्योंकि वे अन्न और जलको तुच्छ वस्तु समझते थे। अन्तमें कालधर्मके वश होकर जब वे परलोक पहुँचे तो वहाँ उन्हें भूख और विशेषकर प्यास सताने लगी। अतः वे अप्सराओंसहित स्वर्गको छोड़कर श्वेतपर्वतपर पहुँचे। उनके पूर्वजन्मका शरीर उस समय भस्म हो गया था। अत: भूखे राजा श्वेतने अपनी हड्डियोंको एकत्रकर चाटना प्रारम्भ किया। फिर विमानपर चढ़कर वे स्वर्ग में गये। इसी प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेके बाद उत्तम व्रती उन राजा श्वेतको महात्मा वसिष्ठने अपनी हड्डियाँ चाटते हुए देखा। उन्होंने पूछा – ‘राजन् ! तुम अपनी हड्डी क्यों चाट रहे हो ?’ महात्मा वसिष्ठके ऐसी बात कहनेपर राजा श्वेत उन मुनिवरसे ये वचन कहे- ‘भगवन्! मुझे क्षुधा सता रही है। मुनिवर ! पूर्वजन्ममें मैंने अन्न और जलका दान नहीं किया, अतः इस समय मुझे भूख-प्यास कष्ट दे रही है।’ राजा श्वेतके ऐसा कहनेपर मुनिवर वसिष्ठजीने पुनः उनसे कहा— ‘राजेन्द्र ! मैं तुम्हारे लिये क्या करूँ ? अदत्तदानका फल किसी प्राणीको नहीं मिलता। रत्न और सुवर्णका दान करनेसे मनुष्य सम्पत्तिशाली तो बन सकता है, पर अन्न और जल देनेसे उसकी सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं; वह सर्वथा तृप्त हो जाता है। राजन् ! तुम्हारी समझमें अन्न अत्यन्त तुच्छ वस्तु थी। अतः तुमने उसका दान नहीं किया।
राजा श्वेत बोले- अब मेरी, जिसने अन्नदान नहीं किया, तृप्ति कैसे होगी? यह मैं सिर झुकाकर आपसे पूछता हूँ, महामुने! बतानेकी कृपा कीजिये।
वसिष्ठजीने कहा – अनघ ! इसका एक उपाय हैं, उसे सुनो। पूर्वकल्पमें विनीताश्च नामके एक बड़े प्रसिद्ध राजा हो चुके हैं, उन नरेशने कई अश्वमेध यज्ञ किये। यज्ञोंमें ब्राह्मणोंको बहुत-सी गौएँ, हाथी और धन दिये, तुच्छ समझकर अन्नोका दान नहीं किया। इसके बाद बहुत समय बीत जानेपर वे मरकर स्वर्ग पहुँचे और वहाँ वे राजा भी तुम्हारी ही तरह भूखसे दुःखका अनुभव करने लगे। फिर सूर्यके समान प्रकाशमान विमानपर चढ़कर वे स्वर्गसे मर्त्यलोकमें नीलपर्वतपर गङ्गा नदीके तटपर, जहाँ उनका निधन हुआ था, पहुँचे और अपने शरीरको चाटने लगे। उन्होंने वहीं अपने ‘होता’ पुरोहितको देखकर पूछा- ‘भगवन् ! मेरी क्षुधा मिटनेका उपाय क्या है ?’ होताने उत्तर दिया- ‘राजन्! आप ‘तिलधेनु’, ‘जलधेनु’, ‘घृतधेनु’ तथा ‘रसधेनु’का दान करें- इससे क्षुधाका क्लेश तुरंत शान्त हो जायगा। जबतक सूर्य तपते हैं, चन्द्रमा प्रकाश पहुँचाते हैं, तबतकके लिये इससे आपकी क्षुधा शान्त हो जायगी।’ ऐसी बात कहनेपर राजाने मुनिसे फिर इस प्रकार पूछा।
विनीताश्च बोले- ब्रह्मन् ! ‘तिलधेनु’- दानका विधान क्या है ? विप्रवर! मैं यह भी पूछता हूँ कि उसका पुण्य स्वर्गमें किस प्रकार भोगा जाता है, आप कृपया यह सब हमें बतलायें ।
होता बोले- राजन् ! ‘तिलधेनु’ का विधान सुनो। चार कुडवका एक ‘प्रस्थ’ कहा गया है, ऐसे सोलह प्रस्थ तिलसे धेनुका स्वरूप बनाना चाहिये। इसी प्रकार चार ‘प्रस्थ’का एक बछड़ा भी बनाना चाहिये। चन्दनसे उस गायकी नासिकाका निर्माण करे और गुड़से उसकी जीभ बनायी जाय। इसी प्रकार उसकी पूँछ भी फूलकी बनाकर फिर घण्टा और आभूषणसे अलंकृत करना चाहिये। ऐसी रचना करके सोनेके सींग बनवाये। उसकी दोहनी काँसेकी और खुर सोनेके हों, जो अन्य धेनुओंकी विधिमें निर्दिष्ट है। तिलधेनुके साथ मृगचर्म वस्त्ररूपमें सर्वौषधिसहित मन्त्रद्वारा पवित्रकर उसका दान करना सर्वोत्तम है। दानके समय प्रार्थना करे-तिलधेनो! तुम्हारी कृपासे मेरे लिये अन्न- जल एवं सब प्रकारके रस तथा दूसरी वस्तुएँ भी सुलभ हों। देवि! ब्राह्मणको अर्पित होकर तुम हमारे लिये सभी वस्तुओंका सम्पादन करो।’
ग्रहीता ब्राह्मण कहे कि ‘देवि! मैं तुम्हें श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर रहा हूँ, तुम मेरे परिवारका भरण- पोषण करो। देवि! तुम मेरी कामनाओंको पूरी करो। तुम्हें मेरा नमस्कार है।’ राजन्! इस प्रकार प्रार्थनाकर तिलधेनुका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं। जो व्यक्ति श्रद्धाके साथ इस प्रसङ्गको सुनता या तिलधेनुका दान करता है अथवा दूसरेको दान करनेकी प्रेरणा करता है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विष्णुलोक में जाता है। गोमयसे मण्डल बनाकर गोचर्म * जितनी भूमिमें धेनुके आकारकी तिलधेनु होनी चाहिये।
अध्याय ८७ जलधेनु एवं रसधेनु - दानकी विधि
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजेन्द्र ! अब ‘जलधेनु’ – दानका विधान बताता हूँ। किसी पवित्र दिनमें सबसे पहले ‘गोचर्म’ के बराबर भूमिको गायके गोबर से लीपकर उसके मध्यभागमें जल, कपूर, अगरु और चन्दनयुक्त एक कलश स्थापित करे। फिर उस कलशमें जलधेनुकी धारणाकर इसी प्रकारके एक दूसरे कलशमें बछड़ेकी कल्पना करे। फिर वहीं एक मन्त्रपुष्पोंसे युक्त वर्द्धनीपात्र रखे। पूर्वोक्त कलशमें दूर्वाङ्कर, जटामासी, उशीर (खस) की जड़, कुष्ठसंज्ञक ओषधि, शिलाजीत, नेत्रबाला, पवित्र पर्वतकी रेणु, आँवलेके फल, सरसों तथा सप्तधान्य आदि वस्तुओंको डालकर उसे पुष्पमालाओंसे सजाना चाहिये। राजन् ! फिर चारों दिशाओंमें चार पात्रोंकी विशेषरूपसे कल्पना करे। इनमें एक पात्र घृतसे, दूसरा दहीसे, तीसरा मधुसे तथा चौथा शर्करासे पूर्ण होना चाहिये। इस कल्पित (कुम्भमयी) धेनुमें सुवर्णमय मुख एवं ताँबेके शृङ्ग, पीठ तथा नेत्रकी कल्पना करनी चाहिये। पासमें काँसेकी दोहनी रखे तथा उसके कुशके रोयें बनाये और सूत्रसे उसकी पूँछकी रचना करे । पुनः वस्त्र आभरण तथा घण्टिकासे उसे सजाकर शुक्तिसे दाँत एवं गुड़से मुखकी रचना करे। चीनीसे उस धेनुकी जीभ और मक्खनसे स्तनोंका निर्माणकर ईखके चरण बनाये तथा चन्दन एवं फूलोंसे उस धेनुको सुशोभितकर काले मृगचर्मपर स्थापित करे। फिर चन्दन और फूलोंसे भलीभाँति उसकी पूजा करके वेदके पारगामी ब्राह्मणको निवेदित कर दे।
राजन्! जो मानव इस धेनुदानको देखता और इस चर्चाको कहता – सुनता है तथा जो ब्राह्मण यह दान ग्रहण करता है – वे सभी सौभाग्यशाली पुरुष पापसे मुक्त होकर विष्णुलोक में जाते हैं। राजन् ! जिसने सदक्षिण अश्वमेध यज्ञ किया और जिसने एक बार ‘जलधेनु’का दान किया, उन दोनोंका फल समान होता है। इस प्रकार जलधेनुके दान करनेवाले व्यक्तिके सभी पाप समाप्त हो जाते हैं और वे जितेन्द्रिय पुरुष स्वर्गको जाते हैं।
पुरोहित होताजी कहते हैं – राजन् ! संक्षेपमें अब ‘रसधेनु’ का विधान कहता हूँ। लिपी हुई पवित्र भूमिपर काला मृगचर्म और कुश बिछाकर उसपर ईखके रससे भरा हुआ एक घड़ा रखे और फिर पूर्ववत् ही संकल्प करे। उस घड़ेके पास में उसके चौथाई हिस्सेके बराबर एक छोटा कलश
बछड़ेके निमित्त रखना चाहिये। उसके चारों पैरोंके स्थानपर ईखके चार डंडे रखे और उनमें चाँदीकी चार खुरियाँ लगा दे। उसकी सोनेकी सींग बनाकर श्रेष्ठ आभूषण पहना दे उसकी पूँछकी जगह वस्त्र और स्तनकी जगह घृत रखकर उसे फूल और कंबलसे सजाना चाहिये। उसका मुख और जीभ शर्करासे बनाये। दाँतकी जगहपर फल रखे। उस रसधेनुकी पीठ ताम्बेकी बनाये और रोयेंकी जगह फूल लगा दे तथा मोतीसे आँखोंकी रचनाकर चारों दिशाओंमें सात प्रकारके अन्न रखे। फिर उस धेनुको सब प्रकारके उपकरणोंसे सुसज्जित तथा अखिल गन्धोंसे सुवासित करना चाहिये। उसके चारों दिशाओं में तिलसे भरे हुए चार पात्र रखे। ऐसी धेनु समस्त लक्षणोंसे युक्त तथा परिवारवाले श्रोत्रिय ब्राह्मणको अर्पण कर दे जिसे स्वर्गमें जानेकी कामना हो, वह पुरुष नित्यप्रति ‘रसधेनु’का दान करे। इसके फलस्वरूप वह सम्पूर्ण पापोंसे रहित होकर स्वर्गलोकमें जानेका अधिकारी होता है। इसके दान देनेवाले और लेनेवाले- दोनोंको उस दिन एक ही समय भोजन करना चाहिये । ऐसा करनेसे उसे सोमरस पान करनेका फल सब जगह सुलभ हो सकता है। गोदानके समय जो उसका दर्शन करते हैं, उन्हें परम गति मिलती है। सबसे पहले धेनुकी पूजाकर गन्ध, धूप और माला आदिसे अलंकृत करना आवश्यक है। भक्तिके साथ विद्वान् पुरुष उस धेनुकी प्रार्थना करे। श्रद्धाके साथ श्रेष्ठ ब्राह्मणको वह ‘रसधेनु’ देनी चाहिये। इस दानके प्रभावसे दाताकी अपनी दस पीढ़ी पहलेकी और दस पीढ़ी बादकी तथा एक इक्कीसवाँ व्यक्ति स्वयं इस प्रकार इक्कीस पीढ़ियाँ स्वर्गको चली जाती हैं । वहाँसे पुनः संसारमें आना असम्भव है।
राजन् ! यह ‘रसधेनु’का दान सबसे उत्तम माना जाता है। इसका वर्णन मैंने तुम्हारे सामने कर दिया। महाराज ! तुम यह दान करो। इससे तुम्हें परम उत्तम स्थान प्राप्त होना अनिवार्य है। जो पुरुष भक्तिके साथ इस प्रसङ्गको सदा पढ़ता और सुनता है, उसके समस्त पाप दूर भाग जाते हैं और वह पुरुष विष्णुलोकको प्राप्त होता है।
अध्याय ८८ गुड़धेनु - दानकी विधि
पुरोहित होताजी कहते हैं – राजन् ! अब गुड़धेनुका प्रसङ्ग बताता हूँ, उसे सुनो। इसके दान करनेसे सभी कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं। लिपी हुई भूमिपर काला मृगचर्म और कुश बिछाकर उसपर वस्त्र फैला दे । फिर पर्याप्त गुड़ लेकर उससे धेनुकी आकृति तथा पासमें बछड़ेकी आकृति बनाये। फिर काँसेकी दोहनी रखकर उसका मुख सोनेका और उसका सॉंग सोने अथवा अगुरुकी लकड़ीसे एवं मणि तथा मोतियोंसे दाँत बनाये। गर्दनकी जगह रत्न स्थापित करना चाहिये। उस धेनुकी नासिका चन्दनसे निर्माण करे और अगुरु काष्ठसे उसके दोनों सींग बनाये। उसकी पीठ ताँबेकी होनी चाहिये। उस धेनुकी पूँछ रेशमी वस्त्रसे कल्पित करे और फिर सभी आभूषणोंसे उसे अलंकृत करे। उसके पैरोंकी जगह चार ईख हों और खुर चाँदीके, फिर कम्बल और पट्टसूत्रसे उस धेनुको ढककर घण्टा और चैवरसे अलंकृत तथा सुशोभित करना चाहिये । श्रेष्ठ पत्तोंसे उसके कान तथा मक्खनसे उस धेनुके थनकी रचना करे। अनेक प्रकारके फलोंसे उस धेनुको भलीभाँति सुशोभित करना `चाहिये। उत्तम गुड़धेनुका निर्माण चार भार गुड़के वजनसे बनाना चाहिये। अथवा इसके आधे भागसे भी उसका निर्माण सम्भव है। मध्य श्रेणीकी धेनु इसके आधे परिमाणकी मानी जाती है और एक भारमें अधम श्रेणीकी धेनुका निर्माण होता है। यदि पुरुष धनहीन हो तो वह अपनी शक्तिके अनुसार एक सौ आठ गुड़की डलियोंसे ही धेनु बना सकता है। घरमें सम्पत्ति हो तो उसके अनुसार इससे अधिक मात्रामें भी बनानेका विधान है। फिर चन्दन और फूल आदिसे उसकी पूजाकर उसे ब्राह्मणको दान कर दे। चन्दन, पुष्प आदिसे पूजा करनेके पश्चात् घृतसे बना हुआ नैवेद्य एवं दीपक दिखाना अति आवश्यक है। अग्निहोत्री और श्रोत्रिय ब्राह्मणको गुड़धेनु देना उत्तम है। महाराज ! एक हजार सोनेके सिक्कोंसहित अथवा इसके आधे या आधेके आधेके साथ गुड़धेनुका दान किया जाय अथवा अपनी शक्तिके अनुसार सौ या पचास सिक्कोंके साथ भी दान किया जा सकता है। चन्दन और फूलसे पूजा करके ब्राह्मणको अँगूठी और कानके आभूषण भी देना चाहिये। साथमें छाता और जूता दान देना चाहिये। दानके समय इस प्रकार प्रार्थना करे- ‘गुड़धेनो! तुममें अपार शक्ति है। शुभे ! तुम्हारी कृपासे सम्पत्ति सुलभ हो जाती है। देवि! मैं जो दान कर रहा हूँ, इससे प्रसन्न होकर तुम मुझे भक्ष्य और भोज्य पदार्थ देनेकी कृपा करो और लक्ष्मी आदि सभी पदार्थ मुझे सुलभ हो जायें।’
ऐसी प्रार्थना करनेके उपरान्त पहले कहे हुए मन्त्रोंका स्मरण करे। दाताको पूर्व मुख बैठकर ब्राह्मणको गुड़धेनुका दान करना चाहिये । पुनः प्रार्थना करे – ‘गुड़धेनो! मेरे द्वारा मन, वाणी और कर्मद्वारा अर्जित पाप तुम्हारी कृपासे नष्ट हो जायँ ।’ जिस समय गुड़धेनुका दान होता है, उस अवसरपर जो इस दृश्यको देखते हैं, उन्हें वह उत्तम स्थान प्राप्त होता है, जहाँ दूध तथा घृत एवं दही बहानेवाली नदियाँ हैं। जिस दिव्यलोकमें ऋषि, मुनि और सिद्धोंका समुदाय शोभा पाता है, वहाँ इस धेनुके दाता पुरुष पहुँच जाते हैं। गुड़धेनु सम्बन्धी दानके प्रभावसे दस पूर्वके, दस पीछे होनेवाले पुरुष तथा एक वह इस प्रकार इक्कीस पुरुष विष्णुलोकको यथाशीघ्र पहुँच जाते हैं। अयन, विषुवयोग, व्यतीपात और दिन- क्षय-ये इस दानमें साधन कहे गये हैं। इन्हीं अवसरोंपर गुड़धेनुके दानका विधान उत्तम है। महामते ! सुपात्र ब्राह्मणको देखकर ही इस धेनुका श्रद्धाके साथ दान करना चाहिये। इससे भोग एवं मोक्ष सब सुलभ हो जाता है और समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा दाता सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है। गुड़धेनुकी कृपासे अखिल सौभाग्य, इस लोकमें अतुल आयु एवं आरोग्य तथा ऐश्वर्य सुलभ हो जाते हैं। जो इस प्रसङ्गको पढ़ता है तथा कई योजन दूर रहकर भी इस गुणधेनु दानकी सम्मति देता है, वह इस संसारमें दीर्घकालतक वैभवसे सम्पन्न रहकर अन्तमें स्वर्गमें निवास करता है।
अध्याय ८९ शर्करा तथा मधु- धेनुके दानकी विधि
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजन्! अब शर्कराधेनुका वर्णन सुनो। लिपी हुई भूमिपर काला मृगचर्म और कुश बिछाना चाहिये। राजन्! चार भार शर्करासे बनी हुई धेनु उत्तम कही जाती है। उसके चौथाई भागसे उसका बछड़ा बनाये । यदि दानकर्ता राजा हो तो वह आठ सौ भारसे ऊपरतककी धेनु बना सकता है। दाता अपनी शक्तिके ही अनुसार धेनुका निर्माण कराये, जिससे स्वयं अपनी आत्माको न कष्ट पहुँचे, न धनका ही समूल संहार हो जाय। धेनुकी चारों दिशाओंमें बीज स्थापितकर उसके मुखाग्र और सींग सोनेके तथा आँखें मोतीकी बनाये। गुड़से उसका मुखान्तर भाग तथा पिष्टसे उसकी जीभका निर्माण करे। गलकम्बलका निर्माण रेशमी सूत्रसे करे । कण्ठके भूषणोंसे उस धेनुको भूषित करे। ईखसे चरण, चाँदीसे खुर तथा मक्खनसे थनकी रचना करे। श्रेष्ठ पत्रोंसे उसके कान बनाकर उसे श्वेत चँवरसे अलंकृत करना चाहिये। तत्पश्चात् उसके पासमें पश्चरत्न रखकर उसे वस्त्रसे ढक देना चाहिये। फिर चन्दन और फूलोंसे अलंकृत करके वह गाय ब्राह्मणको दे दे। ब्राह्मण श्रोत्रिय, दरिद्र और साधु स्वभाववाला हो। अयन, विषुव, व्यतीपात और दिनक्षय-इन पुण्य अवसरोंपर अपनी शक्तिके अनुसार इस प्रकारकी गौ बनाकर दान करना चाहिये । यदि सत्पात्र एवं श्रोत्रिय ब्राह्मण घरपर आया हुआ दीख जाय तो आये हुए उस ब्राह्मणको धेनुके पुच्छभागका स्पर्श करते हुए दान करनेकी विधि है। पूर्व अथवा उत्तरकी तरफ मुख करके दाता बैठे। गौका मुख पूर्व और बछड़ेका मुख उत्तर हो दान करते समय गोदानके मन्त्रोंको पढ़कर ही गौका दान करना चाहिये। दाता एक दिनतक शर्कराके आहारपर रहे और लेनेवाला ब्राह्मण भी इसी प्रकार तीन दिनतक रहे। यह शर्कराधेनु सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाली तथा अखिल कामनाओंको देनेमें पूर्ण समर्थ है। इस प्रकार दान करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं और ऐश्वयसे सम्पन्न हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं। शर्कराधेनुका दान करते समय जो लोग उसका दर्शन करते हैं, उन्हें परम गति मिलती है। जो मानव भक्तिपूर्वक इसे सुनता अथवा पढ़ता भी है, वह सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर विष्णुलोकको प्राप्त होता है।
पुरोहित होताजी कहते हैं – राजन् ! अब सम्पूर्ण पापोंके नाशक ‘मधुधेनु’ के दानकी विधि सुनो। लिपी हुई पवित्र भूमिपर काला मृगचर्म और कुशा बिछाकर सोलह घड़े मधुसे एक धेनु तथा उसके चौथाई भागसे बछड़ेकी आकृति बनाकर स्थापित करे। उस धेनुका मुख सोनेका, उसके शृङ्ग (सींग) अगुरु एवं चन्दनके, पीठ ताँबेकी और सास्ना (गलकम्बल) रेशमी सूतके बनाये। उसके चरण ईखके हों। फिर उजले कम्बलसे उस धेनुको ढककर गुड़से उसके मुखकी तथा शर्करासे जिह्वाकी आकृति बनानी चाहिये। उसके ओंठ पुष्पके और दाँत फलोंके बने हों। वह कुशके रोयें तथा चाँदीके खुरोंसे सुशोभित हो और उसके कान श्रेष्ठ पत्तोंसे बनाने चाहिये। फिर उसके चारों दिशाओंमें सप्तधान्यके साथ तिलसे भरे हुए चार पात्र रखने चाहिये। फिर दो वस्त्रोंसे उसको ढककर कण्ठके आभूषणसे उसे अलंकृत कर दे। काँसेकी दोहनी बनाकर चन्दन और फूलोंसे उस धेनुकी पूजा करनी चाहिये। अयन, विषुव, व्यतीपात दिनक्षय, संक्रान्ति और ग्रहणके अवसरपर इस धेनुके दानका विशेष महत्त्व है, अथवा अपनी इच्छासे इसे सभी कालमें सम्पादित किया जा सकता है। द्रव्य, ब्राह्मण और सम्पत्तिको देखकर दानका प्रतिपादन करना चाहिये। दान लेनेवाला ब्राह्मण दरिद्र, विद्याभ्यासी, अग्निहोत्री, वेद-वेदान्तका पारगामी तथा आर्यावर्तदेशमें उत्पन्न हुआ होना चाहिये। धेनुकी पूँछभागका स्पर्श करके हाथमें जल और दक्षिणा लेकर चन्दन और धूपसे पूजा- कर फिर दो वस्त्रोंसे ढककर अपनी शक्तिके अनुसार अन्नसहित उसका दान कर दे, कंजूसी न करे। सभी विधि जलपूर्वक होनी चाहिये।
ब्राह्मणको दान करनेके पूर्व दाता इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘मधुधेनो ! तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम्हारी कृपासे मेरे पितर और देवतागण प्रसन्न हो जायँ ।’ ग्रहीता कहे — ‘देवि ! मैं विशेष रूपसे कुटुम्बकी रक्षाके लिये तुम्हें ग्रहण करता हूँ। मधुधेनो! तुम कामदुहा हो। मेरी कामनाओंको पूर्ण करो। तुम्हें मेरा नमस्कार। ‘मधुवाता०’ (ऋक्संहि० १ । ९० । ६-८ ) इस मन्त्रको पढ़कर इस धेनुका दान करना चाहिये।
महाराज! दानके पश्चात् छाता और जूता भी देना चाहिये। राजन्! इस प्रकार भक्तिपूर्वक जो ‘मधुधेनु’ का दान करता है, वह एक दिन खीर और मधुके आहारपर रहे। दान लेनेवाले ब्राह्मणको मधु और खीरके आहार- पर तीन रातें व्यतीत करनी चाहिये। इसका दाता दस पूर्वजों और आगे होनेवाली दस पीढ़ियों एवं स्वयं आप इस प्रकार इक्कीस पीढ़ियोंको तारकर भगवान् विष्णुके स्थानमें पहुँचता है। जो मानव इस प्रसङ्गको श्रद्धाके साथ सुनता अथवा सुनाता है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विष्णुलोक में चला जाता है।’
अध्याय ९० 'क्षीरधेनु' तथा 'दधिधेनु' - दानकी विधि
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजन्! अब क्षीरधेनु दानकी विधि सुनो- राजेन्द्र ! गायकेगोबरसे लिपी गयी पवित्र भूमिपर ‘गोचर्म’ मात्र प्रमाणमें सब ओर कुशाएँ बिछा दे उसके ऊपर विवेकी पुरुष कृष्णमृगका चर्म रखे उसपर गायके गोबरसे एक विस्तृत कुण्डिकाका निर्माण करे और वहाँ दूधसे भरा हुआ एक घड़ा रखे। उसके चौथाई भागवाला कलश बछड़ेके स्थानमें रखे, जिसका मुख सोनेका एवं सींग चन्दन तथा अगुरुकाष्टके बने हों। कानोंके स्थानमें वृक्षके उत्तम पत्ते रखे। इस कुम्भके ऊपर तिलका पात्र रखने का विधान है। गुड़से उसके मुखकी, शर्करासे जिह्वाकी, उत्तम फलोंसे दाँतोंकी और मोतियोंसे आँखोंकी रचना करनी चाहिये। उसके ईखके चरण, कुशके रोयें और ताँबेकी पीठ बनायी जाय। सफेद कम्बलसे उसका गलकम्बल बनाये और काँसेकी दोहनी उसके पासमें रख दे। रेशमके सूतोंसे उसकी पूँछ तथा मक्खनसे उसका थन बनाये अथवा उसके सींग सोनेके एवं खुर चाँदीके हों। फिर पासमें पञ्चरत्न रखे। चारों दिशाओंमें तिलसे भरे हुए चार पात्र तथा सभी दिशाओंमें सप्तधान्य रखनेका नियम है। इस प्रकारके लक्षणोंसे सम्पन्न क्षीरधेनुकी कल्पना करनी चाहिये। फिर दो वस्त्रोंसे ढककर चन्दन और फूलोंसे उसकी पूजा करनी चाहिये । उसे वस्त्र आदिसे अलंकृत करके मुद्रिका और कानके कुण्डलसे भी सजाये। तत्पश्चात् धूप-दीप देकर वह क्षीरधेनु ब्राह्मणको अर्पण कर दे। दानके समय खड़ाऊँ, जूते और छाता भी दे। ‘आप्यायस्व०’ ( तै० आर०३ । १७) इस वेदोक्त मन्त्रसे प्रार्थना करनेका नियम है। राजन् ! पूर्वोक्त ‘आश्रयः सर्वभूतानाम्०’ तथा ‘आप्यायस्व ममाङ्गानि०’ इन मन्त्रोंको क्षीरधेनुका दान लेनेवाला ब्राह्मण भी पढ़े। यह इस दानकी विधि कही गयी है। इस प्रकार दी जानेवाली धेनुका जो दर्शन करते हैं, उन्हें भी परम गति प्राप्त होती है। इस दानके साथ अपनी शक्तिके अनुसार एक हजार अथवा सौ सोनेके सिक्के देने चाहिये। महाराज! ‘क्षीरधेनु’ देनेसे जो फल होता है, अब उसे सुनो – इसका दाता साठ हजार वर्षोंतक इन्द्रलोकमें स्थान पाता है । फिर वह उत्तम माला और चन्दनसे सुशोभित होकर अपने पिता पितामह आदिके साथ दिव्य विमानमें सवार होकर ब्रह्मलोकको जाता है। वहाँ वह बहुत दिनोंतक आनन्दका अनुभव करके फिर सूर्यके समान प्रकाशमान उत्तम विमानपर सवार होकर वह विष्णुलोकमें जाता है । जाते समय मार्गमें अप्सराएँ उसकी संगीत और वाद्योंसे सेवा करती हैं। वह विष्णुभवनमें बहुत दिनोंतक रहकर फिर श्रीविष्णुमें ही लीन हो जाता है। राजन्! जो पुरुष इस ‘क्षीरधेनु’ के प्रसङ्गको सुनता है अथवा भक्तिभावसे पढ़ता है, वह सब पापोंसे छूटकर विष्णुलोकमें चला जाता है।
पुरोहित होताजी कहते हैं – राजन् ! अब मैं तुम्हें ‘दधिधेनु’का विधान बताता हूँ, सुनो। पहले गोबरसे ‘ गोचर्म’ के प्रमाणयुक्त पृथ्वीको लीपकर उसे पुष्पोंसे सुशोभित कर ले और उसपर कुशा बिछा देना चाहिये। फिर उसपर काला मृगचर्म और कम्बल बिछाकर पृथ्वीपर सप्तधान्य बिखेर दे और उसके ऊपर दहीसे भरा
हुआ एक घड़ा रखे। उसके चौथाई भाग में बछड़ेके लिये छोटा कलश रखनेका विधान है। सोनेसे उसके मुखकी शोभा बनाये और दो वस्त्रोंसे आच्छादित करके फूल और चन्दनसे उसकी पूजा करे। तत्पश्चात् जो कुलीन एवं साधु स्वभावका हो तथा क्षमा आदि गुणोंसे युक्त हो- ऐसे बुद्धिमान् ब्राह्मणको वह दधिधेनु दान कर दे। धेनुके पुच्छभागमें बैठकर यह विधि सम्पन्न करनी चाहिये। अँगूठी और कानके भूषणोंसे अलंकृतकर खड़ाऊँ, जूता और छाता देकर ‘दधिक्राव्णोरकारिषं०’ (ऋक्० ४ । ३९ । ६) – यह मन्त्र पढ़कर भलीभाँति सुपूजित ‘दधिधेनु’का दान करे। राजेन्द्र ! जिस दिन यह दधिमयी धेनु दे, उस दिन दही खाकर ही रह जाय। राजन् ! यजमान एक दिन दहीके आहारपर रहे और ब्राह्मणको तीन रात्रियोंतक दहीके आहारपर रहना चाहिये। जो दधिधेनुके दान करते समय इस दृश्यको देखते हैं, उनको परम पदार्थ प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इस प्रसङ्गको सुनता अथवा किसी दूसरेको सुनाता है, वह भी अश्वमेध यज्ञके फलको प्राप्तकर विष्णुलोक में चला जाता है।
अध्याय ९१ 'नवनीतधेनु' तथा 'लवणधेनु' की दानविधि
पुरोहित होताजी बोले- राजन् ! अब ‘नवनीतधेनु’ के दानकी विधि सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट सकता है। ‘गोचर्मप्रमाण’- की भूमिको गोबर से लीपकर उसके ऊपर काला मृगचर्म बिछाकर ढाई सेर वजनका मक्खनसे भरा हुआ एक घड़ा वहाँ स्थापित करे। उसके उत्तर दिशामें चतुर्थांश भागवाला एक कलश बछड़ेके प्रतिनिधिस्वरूप रखे। राजन् ! उस घड़ेपर ही सोनेकी सींग और सुन्दर मुखकी रचना करनी चाहिये । मोतियोंसे उसके नेत्र तथा गुड़से जीभ बनाये। फूलोंद्वारा उसके होंठ, फलोंद्वारा दाँत तथा स्वच्छ सूत्रोंद्वारा उसका गलकम्बल बनाये अथवा शर्करासे उसकी जीभ एवं रेशमी सूत्रोंसे उसके गलकम्बलका निर्माण करे। राजन्! मक्खनसे उसका थन बनाये, ईखसे चरण, उसकी ताम्रमय पीठ, रौप्यमय खुरकी रचनाकर दर्भमय रोमोंसे उस धेनुको अलंकृत करे। पासमें पञ्चरत्न रखकर उसके चारों ओर तिलसे भरे हुए चार पात्र रख दिये जायें। उस कलश (-रूपी गौ) को दो वस्त्रोंसे ढककर चन्दन और फूलसे सुशोभित करे। फिर चारों दिशाओंमें दीपक प्रज्वलित कर वह गौ ब्राह्मणको अर्पण कर दे। पूर्वोक्त धेनुओंके विषयमें जो मन्त्र कहे गये हैं, उन्हीं मन्त्रोंका यहाँ भी जप करना चाहिये । साथमें इतना अधिक कहे – देवि ! पूर्व समयमें सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंने मिलकर समुद्रका मन्थन किया था। उस अवसरपर यह दिव्य अमृतमय पवित्र नवनीत निकला, जिससे सम्पूर्ण प्राणियोंकी तृप्ति होती है। ऐसे नवनीतको मेरा नमस्कार ! ऐसा कहकर परिवारवाले ब्राह्मणको वह गौ देना चाहिये। धेनु देनेके पश्चात् दोहनीपात्र और उसके उपकरण दे तथा उस गौको ब्राह्मणके घरतक पहुँचा दे। राजन्! इस धेनुका दान लेनेवाले ब्राह्मणको चाहिये कि उस दिन वह हविष्य तथा रसपर ही रह जाय और देनेवाला भी इसी प्रकार तीन दिनोंतक रहे। राजन् ! धेनुदान करते समय इस दृश्यको देखनेवाला भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्तहोकर भगवान् शिवके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है। वह मानव अपने पहले हुए पितरों तथा आगे होनेवाले संततियोंके साथ प्रलयपर्यन्त विष्णुलोकमें निवास करता है। जो भक्तिपूर्वक इस प्रसङ्गको सुनता तथा सुनाता है, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे शुद्ध होकर विष्णुलोक में सम्मानित होता है।
पुरोहित होताजी बोले- राजेन्द्र ! अब ‘लवणधेनु’ दानका प्रसङ्ग सुनो। मनुष्यको चाहिये कि वह एक मन वजनके नमकसे एक धेनु बनाकर लिपी हुई पवित्र भूमिपर मृगचर्मके ऊपर कुशा बिछाकर उसपर इस लवणमयी धेनुकी स्थापना करे। साथमें चार सेर नमकका एक बछड़ा भी बनाना चाहिये, जिसके चरण ईखसे बने हों। उसके मुँह और सींग सोनेके तथा खुर चाँदीके होने चाहिये। राजन् ! उसके मुखका अन्तर्भाग गुड़का, दाँत फलके, जीभ शर्कराकी, नासिका चन्दनकी आँखें रत्नकी, कान पत्तोंके, कोख श्रीखण्डकी, थन नवनीतके, पुच्छ सूत्रमय, पृष्ठ ताम्रमय और उसके रोयें कुशके हों। राजेन्द्र ! पासमें काँसेकी दोहनीपात्र भी रखना चाहिये । फिर घण्टा और आभूषणोंसे उस धेनुको भूषित करे। चन्दन, फूल और धूप आदिसे विधिपूर्वक उसकी पूजाकर दो वस्त्रोंसे ढककर फिर उसे ब्राह्मणको अर्पण कर दे। नक्षत्र और ग्रहोंद्वारा कष्ट होनेपर मनुष्य किसी भी समय लवणधेनुका दान कर सकता है। वैसे ग्रहण, संक्रान्तिकाल, व्यतीपात योग और अयन बदलते समय इसके दानकी विशेष विधि है। दान ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण साधु-स्वभावका शुद्ध कुलमें उत्पन्न, बुद्धिमान् वेद और वेदान्तका पूर्ण विद्वान्, श्रोत्रिय और अग्निहोत्री होना चाहिये तथा राजन् ! ऐसे ब्राह्मणको, जो अमत्सरी – ( किसीसे द्वेष न करता) हो, उसे यह गौ देनी चाहिये। इस प्रकार पूजा करके मन्त्र पढ़कर गौके पूँछकी ओर बैठकर गौका दान करना चाहिये। साथ ही छाता जूता भी दान करना चाहिये। फिर उसे दो वस्त्रोंसे ढककर अँगूठी, कानके कुण्डलोंसे पूजा करके दक्षिणा और कम्बल प्रदान करे। पहले कही हुई विधिका पालन करनेके साथ अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्णसे ब्राह्मणकी विधिवत् पूजाकर ब्राह्मणके हाथमें दक्षिणासहित गौकी पूँछ पकड़ा दे। साथ ही दान करते समय कहना चाहिये- ‘ब्राह्मणदेव ! आप इस रुद्ररूपी धेनुको स्वीकार करें। आपको मेरा नमस्कार है।’ फिर गौसे प्रार्थना करे – ‘परमवन्दनीये ! रुद्ररूपिणी गो! तुम्हें नमस्कार । तुम मेरा मनोरथ पूर्ण करो। लवणधेनु दानकर दाता एक दिन लवणके आहारपर रहे और लेनेवाले ब्राह्मणको तीन रातोंतक लवणके आहारपर रहना चाहिये। दाता इस दानके फलस्वरूप, जहाँ भगवान् शंकरका निवास है, उसे प्राप्त कर लेता है। जो भक्तिके साथ इसका श्रवण करता है अथवा दूसरेको सुनाता है, वह मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूटकर भगवान् रुद्रके लोकको प्राप्त करता है।
अध्याय ९२ 'कार्पास' एवं 'धान्य- धेनु' की दानविधि
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजन्! अब कर्पासमयी धेनुके दानकी विधि बताता हूँ जिसके प्रभावसे मनुष्य उत्तम इन्द्रलोकको प्राप्त करता है। विषुवयोग, अयनके परिवर्तनका समय, युगादितिथि, ग्रहणके अवसर, ग्रहोंकी पीड़ा दुःस्वप्न- – दर्शन तथा अरिष्टकी सम्भावना होनेपर मनुष्योंके लिये यह कर्पासधेनुका दान श्रेयोवह होता है। राजन् ! दानके लिये गायके गोबरसे लिपी भूमिपर कुश बिछाकर उसपर तिल बिखेरकर बीचमें वस्त्र और मालासे सुशोभित (कपाससे बनी) धेनुकी स्थापना करनी चाहिये। धूप, दीप और नैवेद्य आदिसे श्रद्धापूर्वक ( मात्सर्यरहित होकर) उसकी पूजा करनी चाहिये। कृपणताका त्यागकर चार भार कपाससे सर्वोत्तम गौकी रचना करे। दो भारसे गौकी रचना करना मध्यम तथा एक भारसे बनी हुई धेनु अधम श्रेणीकी कही गयी है। धनकी कंजूसीका सर्वथा त्याग करना अनिवार्य है। गायके चौथाई भागमें बछड़ेकी कल्पना करके उसका दान करना चाहिये। सोनेका सींग, चाँदीका खुर, अनेक फलोंके दाँत और रत्नगर्भसे युक्त धेनु होनी चाहिये । श्रद्धाके साथ ऐसी सर्वाङ्गपूर्ण कर्पासमयी धेनु बनाकर उसका मन्त्रोंके द्वारा आह्वान एवं प्रतिष्ठाकर उसे ब्राह्मणको निवेदित कर दे। श्रद्धाके साथ संयमपूर्वक गौको हाथसे स्पर्श करके दान करना चाहिये। पूर्वोक्त विधिका पालन करते हुए मन्त्र पढ़कर दान करे। मन्त्रका भाव इस प्रकार है- ‘देवि !
तुम्हारे अभावमें किसी भी देवताका कार्य नहीं चलता, यदि यह बात सत्य है तो देवि! तुम इस संसारसागरसे मेरी रक्षा करो ! मेरा उद्धार करो !”
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजन्! अब धान्यमयी धेनुका प्रसङ्ग सुनो, जिससे स्वयं पार्वतीजी भी संतुष्ट हो जाती हैं। विषुवयोग, अयनके परिवर्तनका समय अथवा कार्त्तिककी पूर्णिमाके शुभ समयमें इस दानका विशेष महत्त्व है। इसके दान करनेसे जैसे राहुसे चन्द्रमाका उद्धार होता है, वैसे ही मनुष्य पापसे छूट जाता है। अब उसी धेनुदानकी उत्तम विधि मैं कहता हूँ। राजेन्द्र ! दस धेनु दान करनेसे जो फल मिलता है, वह फल एक धान्यमयी धेनुके दानसे सुलभ हो जाता है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि पहलेकी भाँति गोबरसे लिपी हुई पवित्र भूमिपर काले मृगका चर्म बिछाकर उसपर इस धान्य- धेनुकी स्थापनाकर उसकी पूजा करे। चार दोन, छः मन वजनके अन्नसे बनी हुई धेनु उत्तम और दो दोन, तीन मन अन्नके बनी धेनु मध्यम मानी गयी है। सोनेके सींग, चाँदीके खुर, रत्न- गोमेद तथा अगुरु एवं चन्दनसे उस गायकी नासिका, मोतीसे दाँत तथा घी और मधुसे उस गायके मुखकी रचना करे। श्रेष्ठ वृक्षके पत्तोंसे कानकी रचनाकर काँसेका दोहनीपात्र उसके साथमें रखना चाहिये। उसके चरण ईखके और पूँछ रेशमी वस्त्रके बनाये। फिर रत्नोंसे भरे अनेक
प्रकारके फलोंको उसके पास रखे। खड़ाऊँ, जूता, छाता, पात्र तथा दर्पण भी वहाँ रखने चाहिये। पहलेके समान सभी अङ्गोंकी कल्पना करे और मधुसे उस गायका सुन्दर मुख बनाये । पुण्यकाल उपस्थित होनेपर पहले जैसे ही दीपक आदिसे पूजा करनेके पश्चात् सर्वप्रथम स्नान करके श्वेत वस्त्र धारण करे। फिर तीन बार उस गायकी प्रदक्षिणा करे और दण्डकी भाँति उसके सामने लेटकर उसे साष्टाङ्ग प्रणाम करना चाहिये। तत्पश्चात् ब्राह्मणसे प्रार्थना करे- ‘ब्राह्मणदेवता ! आप महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न, वेद और वेदान्तके पारगामी विद्वान् हैं। द्विजश्रेष्ठ ! मेरी दी हुई यह गाय प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। इस दानके प्रभावसे देवाधिदेव भगवान् मधुसूदन मुझपर प्रसन्न हो जायें। भगवान् गोविन्दके पास जो लक्ष्मी विराजती हैं, अग्निकी पत्नी स्वाहा इन्द्रकी शची, शिवकी गौरी, ब्रह्माजीकी पत्नी गायत्री, चन्द्रमाकी ज्योत्स्ना, सूर्यकी प्रभा, बृहस्पतिकी बुद्धि तथा मुनियोंकी जो मेधा है, वे सभी यहाँ धान्यमयी अन्नपूर्णादेवी धेनुरूपमें मेरे| पास विराजमान हैं।’ इस प्रकार कहकर वह धेनु ब्राह्मणको अर्पण कर दे
इस प्रकार गोदान करनेके बाद दाता व्यक्ति ब्राह्मणकी प्रदक्षिणाकर क्षमा माँगे। राजन् ! धन और रत्नोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीके दानसे अधिक पुण्यफल इस धान्यधेनुके दानसे मिलता है। राजेन्द्र ! इससे मुक्ति और भुक्तिरूप फल सुलभ हो जाते हैं। अतः इसका दान अवश्य करना चाहिये। इस दानके प्रभावसे संसारमें दाताके सौभाग्य, आयु और आरोग्य बढ़ते हैं और मरनेपर सूर्यके समान प्रकाशमान किङ्किणीकी जालियोंसे सुशोभित विमानद्वारा, अप्सराओंसे स्तुति किया जाता हुआ, वह भगवान् शिवके निवासस्थान कैलासको जाता है। जबतक उसे यह दान स्मरण रहता है, तबतक स्वर्गलोकमें उसकी प्रतिष्ठा होती है। फिर स्वर्गसे च्युत होनेपर वह जम्बूद्वीपका राजा होता है। ‘धान्यधेनु’ का यह माहात्म्य स्वयं भगवान्द्वारा कथित है। इसे सुनकर मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त एवं परम शुद्ध-विग्रह होकर रुद्रलोकमें पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त करता है।
अध्याय ९३ कपिलादानकी विधि एवं माहात्म्य
पुरोहित होताजी कहते हैं- राजन् ! अब परमोत्तम कपिला गौका वर्णन करता हूँ, जिसके दान करनेसे मनुष्य उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है। पूर्वनिर्दिष्ट विधिके अनुसार बछड़े सहित समस्त अलंकारोंसे अलंकृत तथा रत्नोंसे विभूषितकर कपिला- धेनुका दान करना चाहिये। ( भगवान् वराह पृथ्वीसे कहते हैं -) भामिनि कपिला गायके सिर और ग्रीवामें सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर कपिला गौके गले एवं मस्तकसे गिरे हुए जलको प्रेमपूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करता है, वह पवित्र हो जाता है और उसी क्षण उसके पाप भस्म हो जाते हैं। प्रातःकाल उठकर जिसने कपिला गाँकी प्रदक्षिणा की, उसने मानो सम्पूर्ण पृथ्वीको प्रदक्षिणा कर ली और उसके दस जन्मके किये हुए पाप उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। पवित्र व्रतके आचरण करनेवाले पुरुषको कपिला गौके मूत्रसे स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मानो गङ्गा आदि सभी तीर्थोंमें स्नान कर चुका । भक्तिपूर्वक उसके मूत्रसे स्नान करनेपर मनुष्य पवित्र हो जाता है। फिर जो जीवनपर्यन्त स्नान करता है, वह पापसे छूट जाय, इसमें तो संदेह ही क्या ? एक मनुष्य जो एक हजार साधारण गौ दान करता है और दूसरा व्यक्ति जो एक कपिला दान करता है- इन दोनोंका फल समान है। यदि कपिला गौ कहीं मर गयी हो तो उसकी हड्डीकी गन्धको भी मनुष्य जबतक सूँघता है तबतक उसके शरीरमें पुण्य व्याप्त होते रहते हैं। कपिलाके शरीरको खुजलाना और उसकी सेवा करना परम श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। भय एवं रोग आदिके अवसरपर इसकी सेवा करनेसे सौ गौके दानके तुल्य पुण्य होता है। जो प्रतिदिन भूखी हुई कपिला गौको एक भी तृण देता है, उसे ‘गोमेधयज्ञ’ का फल होता है और वह अग्निके समान देदीप्यमान होकर दिव्य विमानोंद्वारा भगवान् के लोकको जाता है।
सोनेके समान रंगवाली कपिला प्रथम श्रेणीकी है और पिङ्गलवर्णवाली द्वितीय श्रेणीकी लाल आँखवाली कपिला गौ तीसरी श्रेणीकी कपिला कही जाती हैं तथा वैडूर्यके समान पिङ्गलवर्णवाली चौथी कपिला है। अनेक वर्णोंवाली कपिला पाँचवीं, कुछ श्वेत और पीले रंगवाली छठी, सफेद एवं पीली आँखवाली सातवीं, काले और पीले रंगसे मिश्रित आठवीं, गुलाबी रंगवाली नवीं, पीली पूँछवाली दसवीं और सफेद खुरवाली ग्यारहवीं श्रेणीकी कपिला गौ कही गयी है। इन सम्पूर्ण लक्षणोंसे युक्त तथा अखिल अलंकारोंसे अलंकृत की हुई कपिला गौ भक्त ब्राह्मणको दान करनी चाहिये। इस गौके दान करनेपर भुक्ति और मुक्तिकी प्राप्ति होती है। साथ ही इस गौका दान करनेके प्रभावसे देनेवालेको भगवान् विष्णुका मार्ग सुलभ हो जाता है।
अध्याय ९४ कपिला-माहात्म्य, ‘उभयतोमुखी' गोदान, हेम कुम्भदान और पुराणकी प्रशंसा
पुरोहित होताजी कहते हैं – महाराज ! अब मैं कपिलाके भेद तथा उभयमुखी गोदानका वर्णन करता हूँ, जिसे पूर्वकालमें पृथ्वीके पूछनेपर ही भगवान् वराहने कहा था।
पृथ्वीने पूछा- प्रभो! आपने जिस कपिला गौकी बात कही है तथा आपके द्वारा जिसका उत्पादन हुआ है, वह हेमधेनु सदा पुण्यमयी है। प्रभो! उसके कितने और क्या लक्षण हैं तथा तथा स्वयम्भू ब्रह्माजीने स्वयं कितने प्रकारकी कपिलाएँ बतलायी हैं? माधव ! दान करनेपर यह कपिला गौ किस प्रकारका पुण्य प्रदान कर सकती है ? जगद्गुरो ! विस्तारपूर्वक यह प्रसङ्ग मैं आपसे सुनना चाहती हूँ।
भगवान् वराह कहते हैं-देवि ! यह प्रसङ्ग पवित्र एवं पापोंका नाश करनेवाला है। इसे भलीभाँति बतलाता हूँ, सुनो। इसके सुननेमात्रसे पुरुष अखिल पापोंसे मुक्त हो जाता है। वरानने! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने सम्पूर्ण तेजोंका सार एकत्रकर यज्ञोंमें अग्निहोत्रकी सम्पन्नताके लिये कपिला गौका निर्माण किया था। वसुंधरे ! कपिला गौ पवित्रोंको पवित्र करनेवाली, मङ्गलोंका मङ्गल पुण्योंमें परम पुण्यमयी है। तप इसीका रूप है, व्रतोंमें यह उत्तम व्रत, दानोंमें यह उत्तम दान तथा निधियोंमें यह अक्षय निधि है। पृथ्वीमें गुप्तरूपसे या प्रकटरूपसे जितने पवित्र तीर्थ हैं एवं सम्पूर्ण लोकोंमें ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य प्रभृति द्विजातियोंद्वारा सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र आदि हवनकी जो भी क्रियाएँ हैं, वे सभी कपिला गायके घृत, क्षीर तथा दहीसे होती हैं। विधिपूर्वक मन्त्रोंका उच्चारणकर इनमें व्याप्त घृतसे जो हवन करता या अतिथिकी पूजा करता है, वह सूर्यके समान प्रकाशमान विमानों पर चढ़कर सूर्यमण्डलके मध्यभागसे होते हुए विष्णुलोकमें जाता है। अनन्तरूपिणी कपिला धेनुमें सिद्धि और बुद्धि देनेकी पूर्ण योग्यता है। सम्पूर्ण लक्षणोंसे लक्षित जिन कपिला धेनुओंका पहले वर्णन किया गया है, वे सभी महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न हैं। उनकी कृपासे निश्चय ही मानवोंका उद्धार हो जाता है। जिनमें कपिलाके एक भी लक्षण घटित हो, ऐसी स्थितिमें सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली कपिलाधेनुको सर्वोत्तम कहा गया है। ऐसी कपिलाके पुच्छ, मुख और रोम सब अग्निके समान माने जाते हैं। वह अग्निमयी कपिलादेवी ‘सुवर्णाख्या’ बतायी जाती है। जो ब्राह्मण प्रबल इच्छाके कारण हीन व्यक्तिसे ऐसी कपिलाधेनु दानमें लेकर उसका दूध पीता है तो इस निन्दित कर्मके कारण उस अधम ब्राह्मणको पतितके समान समझना चाहिये जो ब्राह्मण हीन व्यक्तियोंसे कपिलाका दान लेता है उसके पितर उसी समय से अपवित्र स्थानमें पड़ जाते हैं। ऐसे ब्राह्मणसे बात भी नहीं करनी चाहिये और एक आसनपर भी नहीं बैठना चाहिये। वसुंधरे ब्राह्मण समाज दूरसे ही ऐसे प्रतिग्राही ब्राह्मणका त्याग कर दे। यदि ऐसे प्रतिग्राही ब्राह्मणसे वार्तालाप हो गया या एक आसनपर बैठ गया तो उस बैठनेवाले ब्राह्मणको प्राजापत्य एवं कृच्छ्र- व्रत करना चाहिये, तब उसकी शुद्धि होती है। अन्य करोड़ों विस्तृत दानोंकी क्या आवश्यकता ? एक कपिला गौका दान ही साधारण हजार गौओंके दानके समान है। श्रोत्रिय, दरिद्र, शुद्ध आचारवाले तथा अग्निहोत्री ब्राह्मणको एक भी कपिला गौ देना सर्वोत्तम है।
गृहाश्रमी पुरुषको चाहिये कि दान देनेके लिये जल्दी ही प्रसव करनेवाली धेनुका पालन करे । जिस समय वह कपिला धेनु आधा प्रसव करनेकी स्थितिमें हो जाय, उसी समय उसे ब्राह्मणको दान कर देना चाहिये। जब उत्पन्न होनेवाले बछड़ेका मुख योनिके बाहर दीखने लगे और शेष अङ्ग अभी भीतर ही रहे, अर्थात् अभी पूरे गर्भका उसने मोचन ( बाहर) नहीं किया, तबतक वह धेनु सम्पूर्ण पृथ्वीके समान मानी जाती है। वसुंधरे ! ऐसी गायका दान करनेवाले पुरुष ब्रह्मवादियोंसे सुपूजित होकर ब्रह्मलोकमें उतने करोड़ वर्षोंतक निवास करते हैं, जितनी कि धेनु और बछड़ेके रोमोंकी संख्याएँ होती हैं। सोनेके सींग, चाँदीके खुरसे सम्पन्न करके कपिला गौ ब्राह्मणके हाथमें दे। दान करते समय उस धेनुका पुच्छ ब्राह्मणके हाथपर रख दे। हाथपर जल लेकर शुद्ध वाणीमें ब्राह्मणसे संकल्प पढ़वावे। जो पुरुष इस प्रकार (उभयमुखी गौका) दान करता है, उसने मानो समुद्रसे घिरी हुई पर्वतों और वनोंसे तथा रत्नोंसे परिपूर्ण समूची पृथ्वीका दान कर दिया- इसमें कोई संशय नहीं। ऐसा मनुष्य इस दानसे निश्चय ही पृथ्वी दानके तुल्य फलका भागी होता है। वह अपने पितरोंके साथ आनन्दित होकर भगवान् विष्णुके परम धाममें पहुँच जाता है।
ब्राह्मणका धन छीननेवाला, गोघाती अथवा गर्भपात करनेवाला पापी, दूसरोंको ठगनेवाला, वेदनिन्दक, नास्तिक, ब्राह्मणोंका निन्दक और सत्कर्ममें दोषदृष्टि रखनेवाला महान् पापी समझा जाता है। किंतु ऐसा घोर पापी भी बहुतसे सुवर्णोंसे युक्त उभयमुखी गौके दानसे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।
श्रेष्ठ भावोंवाली पृथ्वी देवि! दाताको चाहिये कि उस दिन खीरका भोजन करे अथवा दूधके ही सहारे रहे। गोदानके समय ब्राह्मणसे प्रार्थना करे –’मैं यह उभय- मुखी गाय देता हूँ आप इसे स्वीकार करें। इसके प्रभावसे मेरा इस लोक तथा परलोकमें निश्चय ही कल्याण हो।’ फिर गायसे प्रार्थना करे – ‘ अपने वंशकी वृद्धिके लिये मैंने तुम्हें दानमें दिया। तुम सदा मेरा कल्याण करो।’ दान लेते समय ब्राह्मण उभयमुखी धेनुसे प्रार्थना करे – ‘ धेनो! अपने कुटुम्बकी रक्षाके लिये मैं दानरूपमें तुम्हें स्वीकार कर रहा हूँ। देवताओंकी धात्रि! तुम्हें नमस्कार । रुद्राणि ! तुम्हें बार-बार नमस्कार । तुम्हारी कृपासे मेरा निरन्तर कल्याण हो आकाश तुम्हारा दाता और पृथ्वी गृहीत्री है। आजतक कौन इसे किसके लिये देनेमें समर्थ हो सका है!’ वसुंधरे ! ऐसा कह लेनेपर दाता ब्राह्मणको विदा करे और ब्राह्मण उस धेनुको अपने घर ले जाय ।
वसुंधरे ! इस प्रकार प्रसवके समय गायका जो दान करता है, उसने मानो सात द्वीपोंवाली पृथ्वीका दान कर दिया, इसमें कोई संशय नहीं चन्द्रमाके समान मुखवाली, सूक्ष्म मध्य भागवाली, तपाये हुए सुवर्णवर्णकी कपिला गौकी प्रसव करते समय सम्पूर्ण देवसमुदाय निरन्तर स्तुति करता है। जो व्यक्ति प्रातः काल उठकर समाहितचित्तसे तीन बार भक्तिपूर्वक इस कल्प- ‘गोदान – विधान’ को पढ़ता है, उसके वर्षभरके किये हुए पाप उसी क्षण इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जैसे वायुके झोंकेसे धूलके समूह जो पुरुष श्राद्धके अवसरपर इस परम पावन प्रसङ्गका पाठ करता है, उस बुद्धिमान् पुरुषके अन्तरमें दिव्य संस्कार भर जाते हैं और पितर उसकी वस्तुओंको बड़े प्रेमसे ग्रहण करते हैं। अमावास्या तिथिमें ब्राह्मणोंके सम्मुख जो इसका पाठ करता है, उसके पितर सौ वर्षके लिये तृप्त हो जाते हैं। जो पुरुष मन लगाकर निरन्तर इसका श्रवण करता है, उसके सौ वर्षोंके भी किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं।
पुरोहित होताजी कहते हैं – राजेन्द्र ! इस परम प्राचीन गोदान महिमाके रहस्यको भगवान् वराहने पृथ्वीको सुनाया था । सम्पूर्ण पापोंको शान्त करनेवाला यह पूरा प्रसङ्ग मैंने तुम्हें सुना दिया। माघमासके शुक्लपक्षकी द्वादशीके दिन तिलधेनुका दान करना चाहिये। इसके फलस्वरूप दाता सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न होकर अन्तमें भगवान् विष्णुके पदको प्राप्त करता है। महाराज ! श्रावणमासके शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथिके दिन सुवर्णके साथ प्रत्यक्ष धेनुका दान करना चाहिये। राजेन्द्र ! ऐसे तो सभी समयमें सब प्रकारक धेनुओंका दान करना उत्तम है, पर इस दानसे सब प्रकारके पाप शान्त हो जाते हैं और दाताको भुक्ति-मुक्ति सुलभ हो जाती है। यह प्रसङ्ग बड़ा विस्तृत है, जिसे मैंने तुमसे संक्षेपमें ही बतलाया है। धेनुओंका दान मनुष्योंके लिये सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाला है। राजेन्द्र ! जो ऐसा कुछ भी नहीं करता, वह भूखसे अत्यन्त पीड़ित होता रहता है।
राजन् ! इस समय कार्त्तिकका महीना चल रहा है। इसमें भौतिक रत्नों और ओषधियोंसे युक्त ‘ब्रह्माण्ड का दान करना चाहिये। देवता, दानव और यक्ष सब ब्रह्माण्डके ही अन्तर्गत हैं। यह सम्पूर्ण बीजों और रसोंसे समन्वित है। इसे हेममय बताया गया है। कार्त्तिकमें शुक्लपक्षको द्वादशीके दिन अथवा विशेष करके पूर्णमासीके अवसरपर इस रत्नसहित ब्रह्माण्डाकृतिको श्रेष्ठ पुरोहितको भक्तिके साथ दान करे। राजन् ! ब्रह्माण्डभरमें जितने तीर्थ हैं तथा जितने दान हैं, वे सभी इस ब्रह्माण्डदाता पुरुषके द्वारा सम्पन्न हो गये- ऐसा समझना चाहिये। संक्षेपसे यह प्रसङ्ग तुम्हें बता दिया । राजन् ! जो पुरुष हजारों दक्षिणाओंसे सम्पन्न होनेवाला यज्ञ करता है, वह तो ब्रह्माण्डके किसी एक देशकी पूजा करता है, पर जो पुरुष इस सारे ब्रह्माण्डकी अर्चनाकर, सामग्री दान करता है, उसके द्वारा मानो सभी हवन, पाठ और कीर्तन विधिपूर्वक सम्पन्न हो गये।’
इस प्रकारकी बात सुनकर राजाने उसी समय एक सुवर्ण- कुम्भमें ब्रह्माण्डकी कल्पनाकर विधिपूर्वक उन ऋषिको ब्रह्माण्डका दान किया और उसके फलस्वरूप वह राजा सम्पूर्ण कामनाओंसे सम्पन्न हो स्वर्गको चला गया। अतएव राजेन्द्र ! तुम भी यह दान करके सुखी हो जाओ। वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर उस राजाने भी ऐसा ही किया। फिर उन्हें वह परम सिद्धि प्राप्त हुई, जिसे पाकर मनुष्य कभी सोच नहीं करता। *
भगवान् वराह कहते हैं— देवि ! यह संहिता सम्पूर्ण इच्छाओंको पूर्ण करनेवाली है। इसका तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया। वरारोहे! ‘वराह’ नामसे प्रसिद्ध इस संहितामें अखिल पातकोंको नष्ट करनेकी शक्ति है। सर्वज्ञ परम प्रभुसे ही इसका उद्भव हुआ था। तत्पश्चात् ब्रह्माजी इसके विशेषज्ञ हुए। ब्रह्माजीने इसे अपने पुत्र पुलस्त्यजीको बताया। पुलस्त्यजीने परशुरामजीको, परशुरामजीने अपने शिष्य उग्रको और उग्रने मनुको इसकी शिक्षा दी। यह तो पूर्वकल्पकी बात हुई। अब भविष्यकी बात सुनो। धराधरे ! तुम्हारी कृपासे कपिल आदि सिद्ध पुरुष तपस्या करके इसे जाननेमें समर्थ होंगे। इसी क्रमसे फिर इसका ज्ञान वेदव्यासको होगा। व्यासदेवके शिष्य रोमहर्षणि नामसे विख्यात होंगे। वे शुनकके पुत्र शौनकसे इसका कथन करेंगे, इसमें कुछ संदेह नहीं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यासजी सबके गुरु होंगे। वे अठारह पुराणोंके ज्ञाता हैं, जो इस प्रकार कहे गये हैं- पहला ब्रह्मपुराण, दूसरा पद्मपुराण, तीसरा वायुपुराण, चौथा शिवपुराण, पाँचवाँ भागवतपुराण, छठा नारदपुराण, सातवाँ मार्कण्डेयपुराण, आठवाँ अग्निपुराण, नवाँ भविष्यपुराण, दसवाँ ब्रह्मवैवर्तपुराण, ग्यारहवाँ लिङ्गपुराण, बारहवाँ वराहपुराण, तेरहवाँ स्कन्दपुराण, चौदहवाँ वामनपुराण, पंद्रहवाँ कूर्मपुराण, सोलहवाँ मत्स्यपुराण, सत्रहवाँ गरुडपुराण और अठारहवाँ ब्रह्माण्डपुराण । वसुंधरे ! जो पुरुष कार्तिकमासकी द्वादशी तिथिके दिन भक्तिपूर्वक इसका पठन एवं व्याख्यान करता है, वह यदि संतानहीन हो तो उसे अवश्य ही पुत्रकी प्राप्ति होती है।
प्राणियोंको आश्रय देनेवाली देवि ! जिसके घरमें यह लिखा हुआ प्रसङ्ग सदा पूजित होता है, उसके यहाँ स्वयं भगवान् नारायण विराजते हैं। जो भक्तिके साथ निरन्तर इसका श्रवण करता है तथा सुनकर भगवान् आदिवराहसे सम्बन्ध रखनेवाले इस ‘वराहपुराण’ की पूजा करता है, उसने मानो सनातन भगवान् विष्णुकी पूजा कर ली। वसुंधरे ! इसे सुनकर इस ग्रन्थ तथा भगवान्की गन्ध-पुष्पमाला और वस्त्रोंसे पूजन तथा भोजन-वस्त्रद्वारा ब्राह्मणोंका सम्मान करना चाहिये । यदि राजा हो तो अपनी शक्तिके अनुसार बहुतसे ग्राम देकर इस पुस्तक-वराहपुराणकी पूजा करे। ऐसा करनेवाला मानव सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर भगवान् विष्णुके सायुज्यको प्राप्त कर लेता है।
अध्याय ९५ पृथ्वीद्वारा भगवान्की विभूतियोंका वर्णन
नैमिषारण्यके ऋषिसत्रमें सूतजीने कहा कि एक बार श्रीसनत्कुमारजी भ्रमण करते हुए पृथ्वीसे आकर मिले और पूछा- देवि! जिनके आधारपर तुम अवलम्बित हो तथा जिन वराहभगवान् से तुमने पुराणका श्रवण किया है, उसे तत्त्वपूर्वक कहनेकी कृपा करो। ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारकी बात सुनकर पृथ्वीने उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया।
पृथ्वी बोली – विप्रेन्द्र ! भगवद्विभूतिका यह विषय अत्यन्त गोपनीय है। जिस समय संसारमें चन्द्रमा, अग्नि, सूर्य और नक्षत्र – इन सभीका अभाव था, सभी दिशाएँ स्तम्भित थीं, किसीको कुछ भी ज्ञान नहीं था, न पवनकी गति थी, न अग्नि और विद्युत् ही अपना प्रकाश फैला सकते थे, उस समय परम प्रभु परमात्माने मत्स्यका अवतार धारणकर रसातलसे वेदोंका उद्धार किया फिर उन्होंने कूर्मका अवतार धारणकर अमृत प्रकट किया। हिरण्यकशिपु वर पाकर दृप्त (गर्वीला ) हो गया था, उस समय भगवान् ने नरसिंहका अवतार धारणकर उसका संहार करके प्रह्लाद तथा विश्वकी रक्षा की। इसी प्रकार उन्होंने परशुराम तथा रामका अवतार धारणकर रावणादि दुष्टोंका संहार किया और भगवान् वामनद्वारा बलि बाँधे गये।
फिर सृष्टिके आरम्भमें जब मैं समुद्रमें डूबी जा रही थी, तब मैंने भगवान् से प्रार्थना की- ‘जगत्प्रभो! आप सम्पूर्ण विश्वके स्वामी हैं। देवेश ! आप मुझपर प्रसन्न होइये । माधव! भक्तिपूर्वक मैं आपकी शरणमें पहुँची हूँ, आप कृपा करें। सूर्य, चन्द्रमा, यमराज और कुबेर- इन रूपोंमें आप ही विराजमान हैं। इन्द्र, वरुण, अग्नि, पवन, क्षर-अक्षर, दिशा और विदिशा आप ही हैं। हजारों युग-युगान्तरोंके समाप्त हो जानेपर भी आप सदा एकरस स्थित रहते हैं। पृथ्वी- जल-तेज- वायु और आकाश – ये पाँच महाभूत तथा शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध- ये पाँच विषय आपके ही रूप हैं। ग्रहोंसहित सम्पूर्ण नक्षत्र तथा कला, काष्ठा और मुहूर्त आपके ही परिणाम हैं। सप्तर्षिवृन्द, सूर्य-चन्द्र आदि ज्योतिश्चक्र और ध्रुव-इन सबमें आप ही प्रकाशित होते हैं। मास-पक्ष, दिन-रात, ऋतु’ और वर्ष – ये सब भी आप ही हैं। नदियाँ, समुद्र, पर्वत तथा सर्पादि जीवोंके रूपमें परम प्रसिद्ध आप ही सत्तावान् हैं। मेरु-मन्दराचल, विन्ध्य, मलय-दर्दुर, हिमालय, निषध आदि पर्वत और प्रधान आयुध सुदर्शन चक्र- ये सब आपके ही रूप हैं। आप धनुषोंमें शिवजीके धनुष – ‘पिनाक’ हैं, योगोंमें उत्तम ‘सांख्य’ योग हैं। लोकोंके लिये आप परम परायण भगवान् श्रीनारायण हैं। यज्ञोंमें आप ‘महायज्ञ’ हैं और यूपों (यज्ञस्तम्भों ) – में आप स्थिर रहनेकी शक्ति हैं। वेदोंमें आपको ‘सामवेद’ कहा जाता है। आप महाव्रतधारी पुरुषके अवयव वेद और वेदाङ्ग हैं। गरजना, बरसना आपके द्वारा ही होता है। आप ब्रह्मा हैं। विष्णो! आपके द्वारा अमृतका सृजन होता है, जिसके प्रभावसे जनता जीवन धारण कर रही है। श्रद्धा-भक्ति, प्रीति, पुराण और पुरुष भी आप ही हैं। धेय और आधेय – सारा जगत्, जो कुछ इस समय वर्तमान है, वह आप ही हैं। सातों लोकोंके स्वामी भी आपको ही कहा जाता है। काल, मृत्यु, भूत, भविष्य, आदि-मध्य-अन्त, मेधा- बुद्धि और स्मृति आप ही हैं। सभी आदित्य आपके ही रूप हैं। युगोंका परिवर्तन करना आपका ही कार्य है। आपकी किसीसे तुलना नहीं की जा सकती, अतः आप अप्रमेय हैं। आप नागोंमें ‘शेष’ तथा सर्पोंमें ‘तक्षक’ हैं। उद्वह- प्रवह, वरुण और वारुणरूपसे भी आप ही विराजते हैं। आप ही इस विश्वलीलाके मुख्य सूत्रधार हैं। सभी गृहोंमें गृह देवता आप ही हैं। सबके भीतर विराजमान सबके अन्तरात्मा और मन आप ही हैं। विद्युत् और वैद्युत एवं महाद्युति- ये आपके ही अङ्ग हैं। वृक्षोंमें आप वनस्पति तथा आप सत्क्रियाओंमें श्रद्धा हैं। आप ही गरुड बनकर अपने आत्मरूप ( श्रीहरि ) को वहन करते हैं और उनकी सेवामें परायण रहते हैं। दुन्दुभि और नेमिघोषसे जो शब्द होते हैं, वे आपके ही रूप हैं। निर्मल आकाश आपका ही रूप है। आप ही जय और विजय हैं। सर्वस्वरूप, सर्वव्यापी, चेतन और मन भी आप ही हैं। ऐश्वर्य आपका स्वरूप है। आप पर एवं परात्मक हैं। विष एवं अमृत भी आपके ही रूप हैं। जगद्वन्द्य प्रभो! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। लोकेश्वर ! मैं डूबी जा रही हूँ, आप मेरी रक्षा करें।’
यह भगवान् केशवकी स्तुति है। व्रतमें दृढ़ स्थिति रखनेवाला जो पुरुष इसका पाठ करता है, वह यदि रोगोंसे पीड़ा पा रहा हो तो उसका दुःख दूर हो जाता है। यदि बन्धनमें पड़ा हो तो उससे उसकी मुक्ति हो जाती है। अपुत्री पुत्रवान् बन जाता है। दरिद्रको सम्पत्ति सुलभ हो जाती है । विवाहकी कामनावाले अविवाहित व्यक्तिका विवाह हो जाता है। कन्याको सुन्दर पति प्राप्त होता है। महान् प्रभु भगवान् माधवकी इस स्तुतिका जो पुरुष सायं और प्रातः पाठ करता है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें चला जाता है। इस विषयमें कुछ भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। भगवान्की कही हुई ऐसी वाणीकी जबतक परिचर्चा होती रहती है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोकमें सुख पाता है।
अध्याय ९६ श्रीवराहावतारका वर्णन
सूतजी कहते हैं- पृथ्वीने जब भगवान् नारायणकी इस प्रकार स्तुति की तो परम समर्थ भगवान् केशव उसपर प्रसन्न हो गये। फिर कुछ समयतक वे योगजनित ध्यान-समाधिमें स्थित रहे। तदनन्तर वे मधुर स्वरमें पृथ्वीसे कहने लगे- ‘देवि! मैं पर्वतों और वनोंसहित तुम्हारा शीघ्र ही उद्धार करूँगा, साथ ही पर्वतसहित सभी समुद्रों, सरिताओं और द्वीपोंको भी धारण करूँगा।’
इस प्रकार भगवान् माधवने पृथ्वीको आश्वासन देकर एक महान् तेजस्वी वराहका रूप धारण किया और छः हजार योजनकी ऊँचाई तथा तीन हजार योजनकी चौड़ाईमें- यों नौ हजार योजनके परिमाणमें अपना विग्रह बनाया। फिर अपने बायीं दाढ़ की सहायतासे पर्वत, वन, द्वीप और नगरोंसहित पृथ्वीको समुद्रसे ऊपर उठा लिया। कई विज्ञानसंज्ञक पर्वत जो पृथ्वीमें लगे हुए थे, वे समुद्रमें गिर पड़े। उनमें कुछ तो संध्याकालीन मेघोंकी तरह विचित्र शोभा प्राप्त कर रहे थे और कुछ निर्मल चन्द्रमाकी तरह भगवान् वराहके मुखके ऊपर लगे सुशोभित हो रहे थे। इनमें कुछ पर्वत भगवान् चक्रपाणिके हाथमें इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे, मानो कमल खिले हों।
इस प्रकार भगवान् वराह अपनी दाढ़पर एक हजार वर्षोंतक समुद्रसहित पृथ्वीको धारण किये रह गये। उस दाढ़पर ही कई युगोंके कालका परिमाण व्यतीत हो गया। फिर इकहत्तरवें कल्पमें कर्दमप्रजापतिका प्राकट्य हुआ। तबसे अविनाशी भगवान् विष्णु पृथ्वीके आराध्यदेव माने जाते हैं। परम्पराके अनुसार यही उत्तम’ वराह- कल्प’ कहलाया ।
तदनन्तर पृथ्वीने भगवान्से प्रश्न किया- ‘भगवन्! आपकी प्रसन्नताका आधार क्या और कैसा है ? प्रातः एवं सायंकालकी संध्याका स्वरूप क्या है ? भगवन्! पूजामें आवाहन, स्थापन और विसर्जन कैसे किये जाते हैं तथा अर्घ्य, पाद्य, मधुपर्क- स्नानकी सामग्री, अगुरु, चन्दन और धूप कितने प्रमाणमें ग्राह्य हैं ? शरद्, हेमन्त शिशिर वसंत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुओंमें आपकी आराधनाका क्या विधान है? उस समय उपयोग करने योग्य जो पुष्प और फल हैं तथा करने योग्य और न करने योग्य तथा शास्त्रसे निषिद्ध जो कर्म हैं, उन्हें भी बतानेकी कृपा करें। ऐश्वर्यवान् पुरुष कर्मोंका भोग करते हुए आपको कैसे प्राप्त करते हैं? कर्मों तथा इनके फलोंका दूसरेमें कैसे संक्रमण होता है, आप यह भी कृपाकर बतायें। पूजाका क्या प्रमाण है, प्रतिमाकी स्थापना किस प्रकार और किस प्रमाणमें होनी चाहिये ? भगवन्! उपवासकी क्या विधि है और उसे कब किया जाय ? शुक्ल, पीत और रक्त वस्त्रोंको किस प्रकार धारण करना चाहिये ? उन वस्त्रोंमें कौन वस्त्र किनके लिये हितकारक होता है? प्रभो! आपके लिये फल – शाक आदि कैसे अर्पण किये जायँ ? धर्मवत्सल ! मन्त्रके द्वारा आमन्त्रित करनेपर आये हुए देवताओंके लिये शास्त्रानुकूल कर्मका अनुष्ठान कैसे हो ? प्रभो ! भोजन कर लेनेके बाद कौन – सा धर्म-कर्म अनुष्ठेय है तथा जो लोग एक समय भोजनकर आपकी उपासना करते हैं, आपके मार्गका अनुसरण करनेवाले उन व्यक्तियोंको कौन सी गति प्राप्त होती है ? माधव ! कृच्छ्र और सांतपनव्रतके द्वारा जो आपकी उपासना करते हैं तथा जो वायुका आहार करके भगवान् श्रीकृष्णकी उपासना करनेवाले हैं, उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? प्रभो! आपकी भक्तिमें व्यवस्थित रहकर बिना लवणका भोजन करके जो आपकी आराधना करते हैं तथा जो आपकी भक्ति करते हुए पयोव्रत रखते हैं और माधव ! जो प्रतिदिन गौको ग्रास देकर आपकी शरणमें जाते हैं, प्रभो! उन्हें कौन सी गति मिलती है ?’
भिक्षापर जीविका चलाकर गृहस्थधर्मका पालन करते हुए जो आपकी ओर अग्रसर होते हैं तथा जो आपके कर्मोंमें परायण रहकर आपके क्षेत्रों में प्राण त्यागते हैं, वे महाभाग किन लोकोंमें जाते हैं? जो पञ्चाग्नि-साधनकर उसका फल भगवान् माधवको समर्पण करते हैं तथा जो पञ्चाग्निव्रतमें अथवा कण्टकमय शय्यापर रहकर भगवान् अच्युतका दर्शन करते हैं, वे किस उत्तम गतिको पाते हैं ? श्रीकृष्ण ! आपके भक्ति-परायण जो व्यक्ति गोशाला में शयन करके आपके शरणागत बने रहते हैं तथा शाकाहार करके आप भगवान् अच्युतकी ओर अग्रसर होते हैं, उनकी कौन-सी गति निश्चित है? भगवन्! जो मानव कण-भक्षण करके तथा पञ्चगव्य पानकर आप माधवकी शरण ग्रहण करते हैं, जो यवके आहारपर तथा गोमय पीकर आपकी उपासना करते हैं, नारायण! उनके लिये वेदोंमें कौन- सी गति एवं विधि निर्दिष्ट है ? जो यावक (जौसे बने पदार्थ) खाकर आपकी उपासना करते हैं तथा आपकी सेवामें सदा संलग्न रहकर दीपकको सिरसे प्रणाम करके आपकी अर्चना करते हैं एवं जो प्रतिदिन आपके चिन्तनमें संलग्न रहकर दुग्धाहारपर रहते हैं, वे कौन गति पाते हैं? आपके चिन्तनमें जो समय व्यतीत करनेवाले तथा ‘अश्माशन’ व्रत करके आपकी सदा उपासना करनेवाले हैं, उन्हें कौन गति सुलभ होती है ? भगवन् ! भक्ति परायण जो विद्वान् व्यक्ति दूर्वाका आहार करके आपकी उपासना करते हैं एवं अपने धर्म गुणका आचरण करते हुए प्रीतिपूर्वक घुटनेके बल बैठकर आपकी अर्चना करते हैं,
उन्हें कौन गति मिलती है ? यह सब आप बतानेकी कृपा करें। भगवन्! पृथ्वीपर सोनेवाला तथा पुत्र, स्त्री और घरसे सदा उदासीन होकर जो आपकी शरणमें चला जाता है, देवेश्वर ! उसे कौन – सी सिद्धि मिलती है ? यह बतानेकी कृपा कीजिये ।
माधव! आप सम्पूर्ण रहस्योंके ज्ञाता, विश्व पिता और सम्पूर्ण धर्मोके निर्णायक हैं, अतः योग और सांख्यमें निर्णीत सर्वहितावह यह निर्णययुक्त उपदेश आप ही कर सकते हैं। जो कृष्ण-नामका कीर्तन अथवा ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर आपकी उपासना करते हैं, उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? आप कृपापूर्वक यह भी बतायें।
भगवन्! मैं आपकी शिष्या और दासी हूँ। भक्तिभावसे आपकी शरणमें उपस्थित हूँ। जगद्गुरो ! मुझपर आपकी कृपा है, लोकमें धर्मके प्रचार- हेतु आप इस धर्मरहस्यको मुझसे कहनेकी कृपा करें – यह मेरी आकांक्षा है।
अध्याय ९७ विविध धर्मोकी उत्पत्ति
सूतजी कहते हैं— उस समय पृथ्वीकी बात सुनकर भगवान् नारायणने कहा- ‘जगत्को आश्रय देनेवाली देवि! मैं अब स्वर्गमें सुख देनेवाले साधनोंको तुम्हें बतलाऊँगा ।
मैं श्रद्धारहित प्राणीके सैकड़ों यज्ञों और हजारों प्रकारके दान आदि धर्मोंसे संतुष्ट नहीं होता और न मैं धनसे ही प्रसन्न होता हूँ। किंतु माधवि ! यदि कोई व्यक्ति चित्तको एकाग्र करके श्रद्धापूर्वक मेरा ध्यान स्मरण करता है, वह चाहे बहुत दोषोंसे युक्त भी क्यों न हो, मैं उसके व्यवहारसे सदा संतुष्ट रहता हूँ।
पृथ्वीदेवि जो अत्यन्त बुद्धिमान् पुरुष मुझे आधी रात, अन्धकारपूर्ण समय, मध्याह्न अथवा अपराह्नके समय निरन्तर नमस्कार करते हैं, मैं उनपर सदा संतुष्ट रहता हूँ।
मेरी भक्तिमें व्यवस्थित चित्तवाला भक्त कभी भक्तिसे विचलित नहीं होता। द्वादशी तिथिके दिन मेरी भक्तिमें तत्पर रहकर जो लोग उपवास करते हैं – मेरी भक्तिके परायण वे पुरुष मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त कर लेते हैं।
सुन्दरि ! जो ज्ञानवान् एवं गुणज्ञ हैं तथा जिनका हृदय भक्तिसे ओतप्रोत है, ऐसे मनुष्य इच्छानुसार स्वर्गमें वास करते हैं। सुमुखि ! मुझे पाना बड़ा कठिन है। थोड़े प्रयाससे मुझे कोई प्राप्त नहीं कर सकता।
माधवि ! भक्त जिन कर्मोंके फलस्वरूप मेरा दर्शन पाते हैं, अब उन कर्मोंका तुमसे वर्णन करता हूँ। जो श्रद्धालु व्यक्ति द्वादशी तिथिके दिन उपवास करते हैं, वे मेरा दर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जो उपवास करके हाथमें एक अञ्जलि जल लेकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर सूर्यकी ओर देखते हुए जलसे उन्हें अर्घ्य प्रदान करते हैं, उनकी अञ्जलिसे जलकी जितनी बूँदें गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं।
देवि ! जो धर्मात्मा पुरुष द्वादशी तिथिमें विधिके साथ यत्नपूर्वक मेरी उपासना करते हैं तथा पुष्पों एवं सुगन्धित धूपसे मेरी अर्चना करते हैं और मन्दिरमें मेरी स्थापनाकर पूजा करते हैं, उन्हें जो गति मिलती है, वह सुनो।
वसुंधरे ! उज्ज्वल वस्त्र धारणकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक मेरे सिरपर पुष्प अर्पण करना चाहिये । मन्त्रोंके भाव इस प्रकार हैं- ‘भगवान् श्रीहरि परम पूज्य एवं मान्य पुरुष हैं, वे पुष्पोंको स्वीकार करें एवं मुझपर प्रसन्न हो जायँ भगवान् विष्णु व्यक्त और अव्यक्त गन्धको स्वीकार करनेवाले हैं। ऐसे भगवान् विष्णुके लिये मेरा बारम्बार नमस्कार है।
वे सुगन्धों को पुनः पुनः स्वीकार करें। भगवान् अच्युत अपनी शरणमें आये हुए भक्तकी बातको सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं, उन्हें मेरा नमस्कार है। वे जगद्व्याप्त सूक्ष्म गन्ध तथा मेरे द्वारा अर्पित किये हुए धूपको ग्रहण करें।’ जो मेरा उपासक शास्त्रोंका श्रवण करके मेरे लिये ही कार्य सम्पादन करता है, वह मेरे लोकमें जानेका अधिकारी है। वहाँ वह चार भुजावाला होकर शोभा पाता है।
देवि ! जो मन्त्रोंद्वारा मेरी पूजा करता है, वह मुझे बड़ा प्रिय लगता है, तुम्हारी प्रसन्नताके लिये यह सब उत्तम प्रसङ्ग मैंने तुम्हें कह सुनाया।
साँवाँ, सत्तू, गेहूँ, मूँग, धान, यव, तीना और कंगुनी-ये परम पवित्र अन्न हैं। जो मेरे भक्त पुरुष इन्हें खाते हैं, उन्हें शङ्ख, चक्र, हल और मूसल आदिसहित मेरे चतुर्व्यूह स्वरूपका सदा दर्शन होता है।
वसुंधरे ! अब मोक्षकामी ब्राह्मणका कर्म बतलाता हूँ, उसे सुनो। मेरे उपासक ब्राह्मणको अध्यापनादि छः कर्मोंमें निरत रहकर अहंकारसे सदा दूर रहना चाहिये । उसे लाभ और हानिकी चिन्ता छोड़ इन्द्रियोंको वशमें रखकर भिक्षाके आहारपर जीवन बिताना चाहिये। उसे सदा मुझसे प्रीतिवाले कर्म करने चाहिये तथा पिशुनता आदिसे सर्वथा दूर रहना चाहिये। शास्त्रानुसरण करे, बालक, युवा और वृद्ध सबके लिये समान धर्म है।
वसुंधरे ! एकाग्रचित्त होना, इन्द्रियोंको वशमें रखना और इष्टापूर्त कर्म करना – वेदोक्त यज्ञोंका अनुष्ठान, बगीचा लगाना, कूप – तालाब आदिका निर्माण करना ब्राह्मणका स्वाभाविक गुण होना चाहिये। ऐसा करनेवाला ब्राह्मण मुझे प्राप्त कर लेता है।
अब मेरी उपासनामें तत्पर रहनेवाले मध्यम श्रेणीके क्षत्रियके कर्तव्य धर्मोका वर्णन सुनो। वह दान देनेमें शूर, कर्मकी जानकारी रखनेवाला, यज्ञोंमें परम कुशल, पवित्र क्षत्रिय मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मोंमें ज्ञानवान् तथा अहंकारसे शून्य हो। वह थोड़ा बोले, दूसरोंके गुणोंको समझे, भगवान् में सदा प्रीति रखे, विद्यागुरुसे किसी प्रकार मनमें द्वेष न करे तथा कभी कोई निन्दित कर्म न करे। उसे स्वागत-सत्कारादि करनेमें कुशल तथा कृपणतासे दूर रहना चाहिये। देवि ! इन गुणोंसे सम्पन्न क्षत्रिय भी मुझे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है।
वसुंधरे ! अब मैं अपनी उपासना या भक्तिमें संलग्न रहनेवाले वैश्योंके कर्म बतलाता हूँ। मेरे भक्तिमार्गका नित्य अवलम्बन वैश्यका धर्म है। उसके मनमें धनके प्रति विशेष लोभ, लाभ और हानिके भाव नहीं उठने चाहिये । वह ऋतुकालमें ही अपनी स्त्रीके पास जाय। वह अपने अन्तःकरणमें सदा शान्ति-संतोष बनाये रखे। वह मोहमें न पड़े, पवित्र एवं निपुण रहकर व्रतोंके अवसरपर उपवास करे और सदा मेरी उपासनामें रुचि रखे। वह नित्य गुरुकी पूजा करे तथा अपने सेवकोंपर दया रखे। इस प्रकारके लक्षणोंसे सम्पन्न जो वैश्य अपने कर्मोंका सम्पादन करता है, उसके लिये न तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और न वह कभी मेरे लिये; अर्थात् मेरा और उसका सदा साक्षात् सम्बन्ध बना रहता है।
माधवि ! अब मैं शूद्रके उन कर्मोंका वर्णन करता हूँ, जिनका सम्पादन करके वह मुझमें स्थित हो जाता है। जो शूद्र दम्पति – स्त्री और पुरुष दोनों मेरी उपासना सदा भक्तिभावसे करनेवाले हों, भागवत-मतानुयायी, देश और कालकी जानकारी रखते हों, रजोगुण और तमोगुणके प्रभावसे मुक्त हों, अहंकाररहित, शुद्ध हृदय, अतिथि- सेवी, विनम्र तथा सबके प्रति श्रद्धालु अति पवित्र, लोभ और मोहसे दूर और बड़ोंको सदा सादर नमस्कार करनेवाले एवं मेरे स्वरूपका ध्यान करनेवाले हों तो मैं हजारों ऋषियोंको छोड़कर उन्हींपर रीझ जाता हूँ देवि! तुमने जो चारों वर्णोंके कर्म पूछे थे, मैंने उनका वर्णन कर दिया।
देवि ! इस प्रकार मेरी उपासनासे सम्बन्ध रखनेवाले गुणोंका, जिसने भक्तिके साथ अनुष्ठान कर लिया, वह मुझे पानेका अधिकारी है।
अब क्षत्रियोंके लिये आचरणीय दूसरा कर्म बतलाता हूँ – उसे सुनो।
वसुंधरे ! यह ऐसा कर्म है, जिसके प्रभावसे उसे ‘योग’ सुलभ हो जाता है। वह लाभ और हानिका त्यागकर मोह और कामसे अलग होकर, शीत और उष्णमें निर्विकार रहकर, लाभ और हानिकी चिन्ता न करे । तिक्त-कटु-मधुर, खट्टा- नमकीन और कषाय स्वादवाले पदार्थोकी भी उसे स्पृहा नहीं करनी चाहिये। उत्तम सिद्धि प्राप्त हो, इसकी भी उसे अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। भार्या, पुत्र, माता-पिता- ये सब मुझे सेवाके लिये मिले हैं, वह मनमें ऐसा भाव रखे। पर इनमें भी आसक्ति न रखकर सदा मेरी भक्तिमें ही तत्पर रहे। वह धैर्यवान्, कार्यकुशल, श्रद्धालु एवं व्रतका पालन करनेवाला हो। उत्सुकताके साथ सदा कर्तव्य कर्ममें तत्पर रहनेवाला, निन्दित कर्मोंसे अलग रहनेवाला और जिसका बचपन, यौवन समानरूपसे धर्ममें बीता हो, जो भोजन थोड़ा करे, कुलीनतासे रहे, सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाला हो, प्रातः काल जगनेवाला, क्षमाशील, पर्वकालमें मौन रहनेवाला और जबतक कर्मकी समाप्ति न हो, तबतक इसे निरन्तर करनेवाला हो, ऐसा क्षत्रिय ‘योग’ का अधिकारी होता है। निश्चित धर्मके पथपर रहकर अखाद्य वस्तुका त्याग करे, धर्मके अनुष्ठानमें परायण रहे और अपना मन सदा मुझमें लगाये रखे। वह यथासमय मल-मूत्रका त्यागकर स्नान कर ले। पुष्प- चन्दन और धूपको मेरी पूजाकी सामग्री मानकर उनका संग्रह करनेमें सदा लगा रहे कभी कन्दमूल और फलसे ही अपने शरीरका निर्वाह करे। कभी दूध, कभी सत्तू और कभी केवल जलके ही आहारपर रहे। कभी छठी साँझ (तीसरे दिन ), कभी चौथी साँझ तथा कभी अनुकूल समयमें निर्दोष फल मिल जायँ तो उनका आहार कर ले। वसुंधरे ! दस दिन, एक पक्ष अथवा एक मासमें जो कुछ स्वतः मिल जाय, उसी आहारपर रह जाय। इस प्रकार जो सात वर्षोंतक मेरी आराधना करता है तथा पूर्वकथित कर्मोंमें जिसकी स्थिति बनी रहती है, ऐसा क्षत्रिय ‘योग’ का अधिकारी होता है तथा योगी लोग भी उसका दर्शन करने आते हैं।
अध्याय ९७ सुख और दुःखका निरूपण
भगवान् वराह कहते हैं— महाभागे ! मेरे द्वारा निर्दिष्ट विधानके अनुसार जो कर्म करता कराता है, उसे किस प्रकार सफलता प्राप्त होती है, अब मैं यह बतलाता हूँ, सुनो। मेरा भक्त एकाग्रचित्त, सुस्थिर होकर अहंकारका परित्याग कर दे एवं अपने चित्तको सदा मुझमें समाहितकर क्षमाशील, जितेन्द्रिय होकर रहे वह द्वादशी तिथिको फल मूल अथवा शाकका आहार करे, अथवा पयोव्रती एवं सर्वथा शाकाहारपर रहनेवाला हो। षष्ठी, अष्टमी, द्वादशी, अमावास्या, चतुर्दशी- इन तिथियोंमें वह संयमपूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन करे। इस प्रकार योगविधानपूर्वक मेरी उपासना करनेवाला दृढव्रती पवित्रात्मा व्यक्ति धर्मसे सम्पन्न होकर विष्णुलोकको जाता है। वहाँ उसकी अठारह भुजाएँ होती हैं और उनमें वह धनुष, तलवार, बाण तथा गदा धारणकर सारूप्य मोक्ष प्राप्त करता है। उसे ग्लानि, बुढ़ापा, मोह और रोग नहीं होते। वे छाछठ हजार वर्षोंतक मेरे लोकमें निवास करते हैं।
अब दुःखका स्वरूप बताता हूँ, उसे सुनो। उचित उपचार करनेसे दुःखसे मुक्ति अथवा उस क्लेशका विनाश सम्भव है। जो मानव सदा अहंकार एवं मोहसे आच्छादित है और मेरी शरणमें नहीं आता, अन्न सिद्ध हो जानेपर जो स्वयं पहले ‘बलिवैश्वदेव’ कर्म नहीं करता तथा जो सर्वभक्षी, सब कुछ बेचनेमें तत्पर तथा मुझे नमस्कार करनेसे भी विमुख है और मुझे प्राप्त करनेका प्रयत्न नहीं करता, भला इससे बढ़कर दूसरा दुःख और क्या होगा? जो बलिवैश्वदेवके समय आये हुए अतिथिको भोजन अर्पण न कर स्वयं खा लेता है, देवता उसके अन्नको ग्रहण नहीं करते। संसारकी विषम परिस्थितिमें यथाप्राप्त वस्तुसे जो असंतुष्ट रहकर दूसरेकी स्त्री आदिपर बुरी दृष्टि डालता है एवं दूसरोंको कष्ट पहुँचाता है, वह महान् मूर्ख है। जो मानव सत्कर्मोंका अनुष्ठान न करके घरमें ही आलस्यसे पड़ा रहता है, वह समयानुसार कालके चंगुलमें फँस जाता है, यह महान् दुःखका विषय है। कुछ पुरुष अपने कर्मोंके प्रभावसे सुन्दर रूप प्राप्त करते हैं और कुछ दूसरे कुरूप होते हैं। कुछ विद्वान् पुण्यात्मा, गुणोंके ज्ञाता और सम्पूर्ण शास्त्रों के पारगामी होते हैं और कितने बोलनेमें भी असमर्थ, सर्वथा गूँगे। कितनोंके पास धन है, परंतु वे किसीको न तो देते हैं और न स्वयं ही उसका उपभोग करते हैं – इस प्रकार वे दरिद्र ही बने रहते हैं, फिर भला उस दारिद्र्यकी तुलनामें और कोई दूसरा दुःख क्या हो सकता है।* किसी पुरुषकी दो स्त्रियाँ हैं, उन दोनोंमेंसे पति एककी तो प्रशंसा करता है और दूसरीको हीन मानता है, तो उस भाग्यहीना स्त्रीके लिये इससे बढ़कर अन्य दुःख क्या होगा ? यह सब पूर्वके ही कर्मोंका तो फल है।
सुमध्यमे ! ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इस प्रकार द्विजाति होकर भी जो पापकमोंमें ही सदा रचे- पचे रहें और जिन्हें पञ्चतत्त्वोंसे निर्मित मनुष्यशरीर प्राप्त हो फिर भी वे मुझे पानेमें असफल रहें तो इससे बढ़कर दुःख क्या होगा ? भद्रे ! तुमने जो पापका प्रसङ्ग मुझसे पूछा, वह पाप सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें बाधक है; अतः दुःखप्राप्ति करानेवाले प्राक्तन एवं तत्कालीन कर्मों और दुःखोंका स्वरूप मैंने तुम्हें बताया।
शुभ कर्मके विषयमें तुमने जो प्रश्न किया है, कल्याणि ! इस विषयमें निर्णीत तत्त्व मैं तुम्हें बताता हूँ, वह भी सुनो। जो शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करके उसका श्रेय मेरे भक्तोंको निवेदन कर देता है, उसके पास दुःखका आना सम्भव नहीं है। जो मेरी पूजा करके नैवेद्य अर्पण किये हुए अन्नको बाँटकर फिर बचे हुएको प्रसाद मानकर स्वयं ग्रहण करता है, उससे बढ़कर संसारमें सुखी कौन है ?
वसुंधरे ! मेरे कहे हुए नियमके अनुसार तीनों कालोंमें संध्या आदि उत्तम कर्म करके जो जीवन व्यतीत करता है, जगत् को आश्रय देनेवाली पृथ्वि ! जो देवता, अतिथि और दुःखी मानवोंके लिये अन्न देकर फिर स्वयं उसे ग्रहण करता है, जिसके यहाँ आया हुआ अतिथि कभी निराश नहीं लौटता अर्थात् जिस किसी प्रकारसे उसे कुछ-न-कुछ अर्पितकर उसे सत्कृत करता है, जो प्रत्येक मासमें एकादशीव्रत और अमावास्याको श्राद्धकर्म करता है, जिससे पितृगण परम तृप्त होते हैं, जो भोजन तैयार हो जानेपर उसमें हव्यान्न डालता है और उसे समान स्वादसे भक्षण करता है – भला उससे बढ़कर संसारमें कोई दूसरा सुख क्या हो सकता है?
देवि ! जिसकी दो भार्याएँ हैं और दोनोंमें जिसकी बुद्धि विकाररहित है, जो दोनोंको समान दृष्टिसे देखता है, जो पवित्रात्मा पुरुष सदा हिंसारहित कर्म करता है अर्थात् हिंसामें जिसकी कभी प्रवृत्ति नहीं होती, वह परम शुद्ध पुरुष मन्त्र – सुख भोगनेके लिये ही संसारमें आया है। दूसरेकी सुन्दर स्त्रीको देखकर जिसका चित्त चलायमान नहीं होता और जो मोती आदि रत्नों तथा सुवर्णको मिट्टीके ढेलेके समान देखता है, | भला उससे बढ़कर सुखी कौन है ? हाथी और घोड़ोंसे परिपूर्ण युद्धस्थलमें जो योद्धा अपने प्राणोंका परित्याग करता है, संयोग-वियोगमें सदा अनासक्त रहकर जो कुत्सित कर्मोंका परित्याग करता है एवं स्वयं भगवद्भजन करते हुए संतुष्ट रहकर जीवन धारण करता है, उससे बढ़कर भला संसारमें सुखी कौन है ?
वसुंधरे ! स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही व्रत है, ऐसा समझकर जो स्त्री अपने स्वामीको सदा संतुष्ट रखती है, धनी होकर भी जो पण्डित पुरुष जितेन्द्रिय और पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें रखे हुए है, जो अपमानको सहता है तथा दुःखमें उद्विग्न नहीं होता, इच्छा अथवा अनिच्छासे भी जो मेरे उत्तम क्षेत्रमें प्राणोंको छोड़ता है, जो पुरुष माता और पिताकी सदा पूजा करता है तथा देवताकी भाँति नित्यप्रति उनका दर्शन करता है, तो इस सुखसे बढ़कर संसारमें अन्य कोई सुख नहीं है। सम्पूर्ण देवताओंमें जो मेरी ही भावना करके पूजा करता है, उससे मैं तिरोहित नहीं होता हूँ और न वह मुझसे ही तिरोहित होता है। भद्रे ! तुमने जो सम्पूर्ण लोकोंके हितसाधनके लिये पूछा था, वह पवित्र एवं निर्णीत वस्तुतत्त्व मैंने तुम्हारे सामने व्यक्त कर दिया।
अध्याय ९८ भगवान्की सेवामें परिहार्य बत्तीस अपराध
भगवान् वराह कहते हैं— भद्रे ! आहारकी एक सुनिश्चित शास्त्रीय मर्यादा है। अतः मनुष्यको क्या खाना चाहिये और क्या नहीं खाना चाहिये, अब यह बताता हूँ, सुनो। माधवि ! जो भोजनके लिये उद्यत पुरुष मुझे अर्पित करके भोजन करता है, उसने अशुभ कर्म ही क्यों न किये हों, फिर भी वह धर्मात्मा ही समझा जाने योग्य है। धर्मके जाननेवाले पुरुषको प्रतिदिन धान, यव आदि –सब प्रकारके साधनमें सहायक (जीवनरक्षणीय) अन्नसे निर्मित आहारका ही सेवन करना चाहिये।
अब जो साधनमें बाधक हैं, तुम्हें उन्हें बताता हूँ।
## जो मुझे अपवित्र वस्तुएँ भी निवेदन करके खाता है, वह धर्म एवं मुक्ति परम्पराके विरुद्ध महान् अपराध करता है, चाहे वह महान् तेजस्वी ही क्यों न हो, यह मेरा पहला भागवत अपराध है। अपराधीका अन्न मुझे बिलकुल नहीं रुचता है। |
## जो दूसरेका अन्न खाकर मेरी सेवा या उपासना करता है, यह दूसरा अपराध है।
## जो मनुष्य स्त्री- सङ्ग करके मेरा स्पर्श करता है, उसके द्वारा होनेवाला यह तृतीय कोटिका सेवापराध है इससे धर्ममें बाधा पड़ती है।
वसुंधरे ! जो रजस्वला नारीको देखकर मेरी पूजा करता है, मैं इसे चौथा अपराध मानता हूँ।
जो मृतकका स्पर्श करके अपने शरीरको शुद्ध नहीं करता और अपवित्रावस्थामें ही मेरी सपर्या में लग जाता है, यह पाँचवाँ अपराध है, जिसे मैं क्षमा नहीं करता।
वसुंधरे ! मृतकको देखकर बिना आचमन किये मेरा स्पर्श करना छठा अपराध है।
पृथ्वि ! यदि उपासक मेरी पूजाके बीचमें ही शौचके लिये चला जाय तो यह मेरी सेवाका सातवाँ अपराध है।
वसुंधरे ! जो नीले वस्त्रसे आवृत होकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, यह उसके द्वारा आचरित होनेवाला आठवाँ सेवा – अपराध है।
जगत् को धारण करनेवाली पृथ्वि ! जो मेरी पूजाके समय अनुचित – अनर्गल बातें कहता है, यह मेरी सेवाका नवाँ अपराध है।
वसुंधरे ! जो शास्त्रविरुद्ध वस्तुका स्पर्श करके मुझे पानेके लिये प्रयत्नशील रहता है, उसका यह आचरण दसवाँ अपराध माना जाता है।
जो व्यक्ति क्रोधमें आकर मेरी उपासना करता है, यह मेरी सेवाका ग्यारहवाँ अपराध है, इससे मैं अत्यन्त अप्रसन्न होता हूँ।
वसुंधरे ! जो निषिद्ध कर्मोंको पवित्र मानकर मुझे निवेदित करता है, वह बारहवाँ अपराध है।
जो लाल वस्त्र या कौसुम्भ रंगके ( वनकुसुमसे रँगे) वस्त्र पहनकर मेरी सेवा करता है, वह तेरहवाँ सेवा अपराध है।
धरे ! जो अन्धकारमें मेरा स्पर्श करता है, उसे मैं चौदहवाँ सेवा अपराध मानता हूँ।
वसुंधरे ! जो मनुष्य काले वस्त्र धारणकर मेरे कर्मोंका सम्पादन करता है, वह पंद्रहवाँ अपराध करता है।
जगद्धात्रि ! जो बिना धोती पहने हुए मेरी उपचर्यामें संलग्न होता है, उसके द्वारा आचरित इस अपराधको मैं सोलहवाँ मानता हूँ।
माधवि ! अज्ञानवश जो स्वयं पकाकर बिना मुझे अर्पण किये खा लेता है, यह सत्तरहवाँ अपराध है।
वसुंधरे ! जो अभक्ष्य (मत्स्य- मांस) भक्षण करके मेरी शरणमें आता है, उसके इस आचरणको मैं अठारहवाँ सेवापराध मानता हूँ।
वसुंधरे ! जो जालपाद (बतख ) का मांस भक्षण करके मेरे पास आता है, उसका यह कर्म मेरी दृष्टिमें उन्नीसवाँ अपराध है।
जो दीपकका स्पर्श करके बिना हाथ धोये ही मेरी उपासनामें संलग्न हो जाता है, जगद्धात्रि! उसका वह कर्म मेरी सेवाका बीसवाँ अपराध है।
वरानने! जो श्मशानभूमिमें जाकर बिना शुद्ध हुए मेरी सेवामें उपस्थित हो जाता है, वह मेरी सेवाका इक्कीसवाँ अपराध है।
वसुंधरे ! बाईसवाँ अपराध वह है, जो पिण्याक (हींग ) – भक्षण कर मेरी उपासनामें उपस्थित होता है।
देवि ! जो सूअर आदिके मांसको प्राप्त करनेका यत्न करता है, उसके इस कार्यको मैं तेईसवाँ अपराध मानता हूँ।
जो मनुष्य मदिरा पीकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, वसुंधरे ! मेरी दृष्टिमें यह चौबीसवाँ अपराध है।
जो कुसुम्भ (करमी) – का शाक खाकर मेरे पास आता है, देवि! वह मेरी सेवाका पचीसवाँ अपराध है।
पृथ्वि ! जो दूसरेके वस्त्र पहनकर मेरी सेवामें उपस्थित होता है, उसके उस कर्मको मैं छब्बीसवाँ अपराध मानता हूँ।
वसुंधरे ! सेवापराधोंमें सत्ताईसवाँ अपराध वह है, जो नया अन्न उत्पन्न होनेपर उसके द्वारा देवताओं और पितरोंका यजन न कर उसे स्वयं खा लेता है।
देवि ! जो व्यक्ति जूता पहनकर किसी जलाशय या बावलीपर चला जाता है, उसके इस कार्यको मैं अट्ठाईसवाँ अपराध मानता हूँ।
गुणशालिनि! शरीरमें उबटन लगाकर जो बिना स्नान किये मेरे पास चला आता है, यह उन्तीसवाँ सेवा अपराध है,
जो पुरुष अजीर्णसे ग्रस्त होकर मेरे पास आता है, उसका यह कार्य मेरी सेवाका तीसवाँ अपराध है।
यशस्विनि ! जो पुरुष मुझे चन्दन और पुष्प अर्पण किये बिना पहले धूप देनेमें ही तत्पर हो जाता है, उसके इस अपराधको मैं इकतीसवाँ मानता हूँ ।
मनस्विनि ! भेरी आदिद्वारा मङ्गलशब्द किये बिना ही मेरे मन्दिरके फाटकको खोलना बत्तीसवाँ अपराध है।देवि! इस बत्तीसवें अपराधको महापराध समझना चाहिये।
वसुंधरे ! जो पुरुष सदा संयमशील रहकर शास्त्रकी जानकारी रखता हुआ मेरे कर्ममें सदा संलग्न रहता है, वह आवश्यक कर्म करनेके पश्चात् मेरे लोकको चला जाता है।
परम धर्म अहिंसामें परायण रहते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करना चाहिये। स्वयं अमानी, पवित्र और दक्ष रहकर सदा मेरे भजनके मार्गपर ही चलता रहे। साधक पुरुष इन्द्रियोंको जीतकर सेवा एवं नामादि अपराधोंसे निरन्तर बचा रहे । वह उदार हो और धर्मपर आस्था रखे, अपनी स्त्रीसे ही संतुष्ट रहे। शास्त्रज्ञ और सूक्ष्म बुद्धिसम्पन्न होकर मेरे मार्गपर आरूढ़ रहे। भद्रे! मेरी कल्पनामें चारों वर्णोंके लिये सन्मार्गमें रहनेकी यही व्यवस्था है।
वसुंधरे ! जो स्त्री आचार्यमें श्रद्धा रखती है, देवताओंकी भक्ति करती है, अपने स्वामीके प्रति निष्ठा एवं प्रीति रखती है और संसारमें भी उत्तम व्यवहार करती है, वह यदि पतिसे पहले मेरे लोकमें पहुँचती है, तो वह अपने स्वामीकी प्रतीक्षा करती है। यदि पुरुष मेरा भक्त है और अपनी पत्नीको छोड़कर मेरे धाममें पहले पहुँचता है, वह भी अपनी उस भार्याकी प्रतीक्षा करता है।
देवि ! अब कर्मोंमें दूसरे उत्तम कर्मको तुम्हारे सामने व्यक्त करता हूँ ।
सुमुखि ! ऋषिलोग भी मेरी उपासनामें स्थित रहते हुए भी मेरा दर्शन पानेमें असमर्थ हैं। ऐसी स्थितिमें मेरे कर्मपरायण अन्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या ?
माधवि ! जो अन्य देवताओंमें श्रद्धा रखते हैं, उनकी बुद्धि मारी गयी है। वे मूर्ख मेरी मायाके प्रभावसे मुग्ध हैं, उनके चित्तमें पाप भरा हुआ है। ऐसे व्यक्ति मुझे पानेके अधिकारी नहीं हैं।
भगवति! मोक्षकी इच्छा रखनेवाले जिन पुरुषोंद्वारा मैं प्राप्य हूँ, उन परम शुद्ध भाववाले पुरुषोंका विवरण सुनाता हूँ। देवि ! यह आख्यान धर्मसे ओत-प्रोत है। इसे तुम्हें सुना चुका । माधवि ! दुष्ट व्यक्तिको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। जो अश्रद्धालु व्यक्ति इसका अधिकारी नहीं है, जिसने दीक्षा नहीं ली है एवं जो कभी मेरे पास आनेका प्रयत्न नहीं करता, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये।
माधवि ! दुष्ट, मूर्ख और नास्तिक व्यक्ति इस उपदेशको सुननेके अधिकारी नहीं हैं। देवि! यह मेरा धर्म महान् एवं ओजस्वी है, इसका मैं वर्णन कर चुका। अब सम्पूर्ण प्राणियोंके हितके लिये तुम दूसरा कौन- सा प्रसङ्ग पूछना चाहती हो, वह बताओ।
अध्याय ९९ पूजाके उपचार
भगवान् वराह बोले- भद्रे ! अब मैं प्रायश्चित्तोंका तत्त्वपूर्वक वर्णन करता हूँ, तुम उसे सुनो!’ भक्तको चाहिये, मन्त्रविद्याकी सहायतासे यथावत् सभी वस्तु मुझे वा अन्य देवताओंको अर्पण करे। फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्रका उच्चारणकर दीवटका काष्ठ उठाना चाहिये। दीपकाष्ठका भूमिस्पर्श करना आवश्यक है, अतः जबतक वह पृथ्वीका स्पर्श न करे, तबतक दीपक जलाना निषिद्ध है। दीपक जलानेके पश्चात् हाथ धो लेना चाहिये । तत्पश्चात् पुनः इष्टदेवके पास उपस्थित होकर सर्वप्रथम उनके चरणोंकी वन्दना करनी चाहिये। फिर आगे कहे जानेवाले मन्त्र – भावसे भगवान्को दन्तधावन देना चाहिये। मन्त्रका भाव यह है- ‘भगवन्! प्रत्येक भुवन आपका स्वरूप है, आपके द्वारा सूर्यका तेज भी कुण्ठित रहता है, आप अनादि, अनन्त और सर्वस्वरूप हैं। यह दन्तधावन आप स्वीकार कीजिये।’ वसुंधरे ! तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब धर्मसे निर्णीत है। श्रीविग्रहके हाथमें दन्तधावन देकर पुनः यथावत् कर्म करना चाहिये । इष्टदेवके सिरसे निर्माल्य उतारकर उसे स्वयं अपने सिरपर रखे । सुन्दरि ! इसके बाद जलसे हाथको शुद्धकर मुख- प्रक्षालन आदि कर्म करना चाहिये। फिर शुद्ध जलसे इष्टदेवताके मुखका प्रक्षालन करे। सुन्दरि ! इसका मन्त्र इस प्रकार है। इस मन्त्रसे पूजा करनेके फलस्वरूप पूजक संसारसे मुक्त हो जाता है। मन्त्रका भाव यह है- ‘भगवन्! आत्म-स्वरूप इस जलको ग्रहण करें। इसी जलद्वारा अन्य देवताओंने भी सदा अपना मुख धोया है।’ फिर पञ्चरात्र – मन्त्रद्वारा सुन्दर चन्दन, धूप-दीप और नैवेद्य अर्पण करना चाहिये। इसके बाद हाथमें पुष्पाञ्जलि लेकर यह प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आप भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं। आप नारायणको मेरा नमस्कार है।’ पुनः प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आपकी कृपासे मन्त्रके जाननेवाले यज्ञ करनेमें सफल होते हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपकी ही कृपासे होती है।’ माधवि ! इस प्रकार प्रातः काल उठकर फिर अन्य फूल हाथमें ले मुझमें श्रद्धा रखनेवाला ज्ञानी पुरुष पवित्र होकर मुझ देवेश्वरकी पूजा करे। सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न हो जानेपर वह भूमिपर डण्डेकी भाँति पड़कर साष्टाङ्ग प्रणाम करे और प्रार्थना करे भगवन्! आप मुझपर प्रसन्न हो जायें। फिर सिरपर अञ्जलि रखकर निम्नलिखित प्रार्थना करनी चाहिये- ‘भगवन् ! शास्त्रोंके प्रभावसे आपकी जानकारी प्राप्त हो जानेपर साधककी यदि आपको पानेकी इच्छा और चेष्टा होती है तो आप उसे प्राप्त हो जाते हैं। योगियोंको भी आपकी कृपासे ही मुक्ति सुलभ हुई, अतएव मैं भी आपके उपासना-कार्य करनेमें संलग्न हो गया हूँ। आपकी शास्त्रीय आज्ञाका मैंने सम्पादन किया है, इससे आप मुझपर प्रसन्न हो जायें।’ फिर मेरी भक्तिमें संलग्न रहनेवाला साधक पुरुष इस प्रकार शास्त्रकी बिधिका पालनकर कुछ देरतक मेरी प्रदक्षिणा करे ।
मेरा भक्त कोई भी क्रिया उतावलेपनसे न करे। इस प्रकार सभी कार्य सम्पन्नकर मेरी भक्तिमें दृढ़ आस्था रखनेवाला पुरुष घृत तथा तेलसे मेरा अभ्यञ्जन करे। कार्य सम्पादन करनेवाला मन्त्रज्ञ व्यक्ति तेल, घृत आदि स्नेह-पदार्थोंकी ओर लक्ष्यकर एकाग्रचित्तसे इस प्रकार उच्चारण करे – ‘लोकनाथ ! प्रेमके साथ मैं यह स्निग्ध पदार्थ लेकर आपको अपने हाथसे अर्पण कर रहा हूँ। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण लोकोंमें मुझे आत्मसिद्धि प्राप्त हो । भगवन्! आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है। मेरे मुखसे जो अनुचित बात निकल गयी हो, उसे क्षमा कीजिये।’
इस प्रकार कहते हुए सर्वप्रथम मेरे मस्तकपर स्नेह-पदार्थ (तेल या घी) लगाना चाहिये। पहले उसे मेरे दाहिने अङ्गमें लगाकर फिर बायें अङ्गमें लगाये। इसके बाद पीठमें लगाकर कटिभागमें लगानेकी विधि है। भद्रे ! इसके पश्चात् अपने व्रतमें अटल रहनेवाला पुरुष गायके गोबरसे भूमिका उपलेपन करे। भद्रे गोमयद्वारा उपलेपन करते समय देखने तथा सुननेसे प्राणीको जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे मैं कहता हूँ, सुनो। साथ ही मैं अभ्यञ्जन करनेका पुण्य भी सुनाता हूँ। उनकी जितनी बूँदें इष्टदेवके ऊपर गिरती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह श्रद्धालु पुरुष स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठा पाता है। इसके पश्चात् उसे पुण्यात्माओंके लोक प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं, इस प्रकार जो भी मेरे गात्रोंमें तेल अथवा घृतसे अभ्यञ्जन करता है, वह एक-एक कणकी जितनी संख्याएँ होती हैं, उतने हजार वर्षोंतक स्वर्गलोकमें रहता है और मेरे उस लोकमें उसकी महान् प्रतिष्ठा होती है।
भद्रे ! अब जो उद्वर्तन (सुगन्धित वस्तुओंसे बना हुआ अनुलेप) मुझे प्रिय है, उसे बताता हूँ, जिससे मेरे अङ्ग तो शुद्ध होते ही हैं, मुझे प्रसन्नता भी प्राप्त होती है। कार्य सम्पादन करनेवाला शास्त्रज्ञानी पुरुष लोध, पीपर, मधु, मधूक (महुवा), अश्वपर्ण अथवा रोहिण एवं कर्कट आदिके चूर्णको एकत्र करके उपलेपन बनाये तो मुझे अधिक प्रिय है। यह अनुलेपन अथवा अन्य अन्नोंके चूर्णद्वारा भी अनुलेपन बनाया जा सकता है। जिसके हाथोंद्वारा मेरा अनुलेप होता है, उसपर मैं बहुत प्रसन्न होता हूँ। क्योंकि यह अनुलेपन मेरे शरीरको बहुत सुख देनेवाला है। अतः इसे अवश्य करना चाहिये। यदि मेरी भक्ति करनेवाला परम सिद्धि चाहता है तो इस प्रकार अनुलेपन लगाकर मेरा स्नान कराये। इसके बाद आँवला और सुगन्धित उत्तम पदार्थोंको एकत्र करे और दृढव्रती पुरुष उससे मेरे सम्पूर्ण गात्रोंको मले। तत्पश्चात् जलका घड़ा लेकर इस आशयका मन्त्र उच्चारण करे- ‘भगवन् ! आप देवताओंके भी देवता, अनादि, सर्वश्रेष्ठ पुरुष हैं। आपका स्वरूप अत्यन्त शुद्ध है, व्यक्तरूपसे पधारकर यह स्नान स्वीकार कीजिये।’ मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाला पुरुष इस प्रकार कहकर मेरा स्नान कराये। घड़ा सोने अथवा चाँदीका हो। यदि ये द्रव्य न उपलब्ध हो सकें तो कर्मका ज्ञान रखनेवाला पुरुष मेरा ताँबेके घड़ेसे स्नान करा सकता है। इस प्रकार सविधिकर्मसे स्नान कराकर मन्त्रोंको पढ़ते हुए चन्दन अर्पण करना चाहिये । मन्त्रार्थ यह है- ‘प्रभो! सम्पूर्ण गन्धोंसे आपके मनमें प्रसन्नता प्राप्त होती हैं। ये चन्दन कई प्रकारके होते हैं, यह शास्त्रकी सम्मति है। ये सभी देवादि लोकोंमें उत्पन्न होते हैं। आपकी कृपासे सत्कार्योंमें इनका उपयोग होता है। मैंने आपके अङ्गोंमें लगानेके लिये इन पवित्र चन्दनोंको प्रस्तुत किया है। भक्तिसे संतुष्ट भगवन् ! आप इन्हें कृपाकर स्वीकार करें।’
इस प्रकार चन्दन आदि सुगन्धयुक्त पदार्थ एवं माला आदि अर्पण करके पूजन करनेका विधान है । कर्ममें श्रद्धा रखनेवाला कर्मशील पुरुष ऐसी अर्चना करके यह कहते हुए पुष्पाञ्जलि – ‘अच्युत ! ये समयानुसार जलमें तथा स्थलमें उत्पन्न होनेवाले पवित्र पुष्प हैं। संसारसे मेरा उद्धार हो जाय, इसलिये यह पुष्प आप स्वीकार कीजिये ! स्वीकार कीजिये ! ‘
इस प्रकार मेरे भागवत सम्प्रदायोक्त विधिका पालन करते हुए मेरी अर्चना करनेके पश्चात् मुझे सुगन्धद्रव्योंसे बना हुआ धूप देना चाहिये। धूपसे मुझे बहुत प्रेम है। इसके प्रदानसे दाताके मातृ-पितृकुलोंकी आत्मा पवित्र हो जाती है। विधिके साथ धूप लेकर यह मन्त्र पढ़ना चाहिये- मन्त्रका भाव यह है—’भगवन् ! यह दिव्य धूप बहुत-से सुगन्धित द्रव्योंसे सम्पन्न है। इसमें वनस्पतिका रस भी सम्मिलित है। जन्म-मृत्युसे मुझे मोक्ष मिल जाय, इसलिये मैं आपको यह धूप निवेदित करता हूँ, आप इसे स्वीकार करनेकी कृपा कीजिये। ‘भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओं तथा प्राणियोंके लिये शान्ति सुलभ हो। मैं भी सदा शान्तिसे सम्पन्न रहूँ। ज्ञानियोंकी योगभावमयी शान्तिसे आप धूप ग्रहण करें। आपको मेरा नमस्कार है। जगद्गुरो ! आपके अतिरिक्त इस संसारसागरसे मेरा उद्धार करनेवाला दूसरा कोई नहीं है।’
इस प्रकार माला, चन्दन, अनुलेपन आदि सामग्रियोंसे पूजा करके रेशमी स्वच्छ वस्त्र, जिसका कुछ भाग पीले रंगका हो, निवेदित करना चाहिये। ऐसी अभ्यर्चना करनेके उपरान्त सिरपर अञ्जलि बाँधे हुए इस मन्त्रका पाठ करें। मन्त्रका भाव यह है— ‘सम्पूर्ण प्राणियोंकी रक्षा करनेवाले भगवन्! आप पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। लक्ष्मी आपके पास शोभा पाती हैं, आपका विग्रह आनन्दमय है। आप ही सबके रक्षक, रचयिता और अधिष्ठाता हैं। प्रभो! आप आदि पुरुष हैं, आपका रूप सर्वथा दुर्दर्श, दुर्ज्ञेय है। आपके दिव्य अङ्गको आच्छादित करनेके लिये यह कौशेय वस्त्र, जो कुछ पीले रंगसे सुशोभित एवं मनोहर है, मैं अर्पण करता हूँ। आप स्वीकार कीजिये।’
‘देवि ! फिर मुझे वस्त्रोंसे विभूषितकर हाथमें एक पुष्प ले और उससे आसनकी कल्पनाकर मुझे अर्पण करे। वस्त्र मेरे विग्रहके अनुसार होना चाहिये। पूजा करते समय प्रणव धर्म एवं पुण्यमय विचारसे पूजनको सम्पन्न करना चाहिये। आसन अर्पण करनेके मन्त्रका भाव यह है- ‘भगवन्! यह आसन बैठने योग्य, आपकी प्रीति उत्पन्न करनेवाला, प्राज्ञकी रक्षामें उपयुक्त, प्राणियोंके लिये श्रेयोवह आपके योग्य एवं सत्यस्वरूप है। इसे आप ग्रहण कीजिये ।’
इस प्रकार श्लाघ्य नैवेद्य आदि पदार्थोंको अर्पणकर मेरे मार्गका अनुसरण करनेवाला पुरुष यथाशीघ्र कल्पित मुख प्रक्षालन देनेके लिये उद्यत हो जाय । पुनः पवित्र होकर देवताओंके लिये स्तुति करे- आप सभी लोग भगवत्- परायण हों। फिर उत्तम जल लेकर अपनी शुद्धि करे । यों भगवान्को नैवेद्य अर्पण करके शेष प्रसाद हटा दे। इसके उपरान्त हाथमें ताम्बूल लेकर यह मन्त्र पढ़े। मन्त्रका भाव यह है- ‘जगत्प्रभो! यह ताम्बूल सम्पूर्ण सुगन्धयुक्त पदार्थोंसे संयुक्त है। देवताओंके लिये सम्यक् प्रकारसे यह अलंकारका कार्य देता है। आप इसे स्वीकार करें, साथ ही आपकी प्रतिमाके प्रभावसे हमारा भवन विशिष्ट हो जाय। भगवन्! आपकी प्रसन्नताके लिये मैंने श्रीमुखमें यह श्रेष्ठ अलंकार अर्पण किया है। इससे मुखकी शोभा बढ़ती है। अतः आप इसे ग्रहण करनेकी कृपा कीजिये।’ मेरा भक्त इन उपचारोंसे मेरी आराधना करे। इसके परिणामस्वरूप वह सदा मेरे महान् लोकोंको प्राप्तकर वहाँ नित्य निवास करता है।
अध्याय १०० श्रीहरिके भोज्य पदार्थ एवं भजन- ध्यानके नियम
पृथ्वीने कहा – माधव ! मैं आपके मुखारविन्दसेपूजनकी विधिका श्रवण कर चुकी । निश्चय ही इस कर्म (पूजा)-में संसारसे मुक्ति दिलानेकी सामर्थ्य है। भगवन्! अब मैं आपसे आपकी पूजाविधि एवं द्रव्योंके विषयमें कुछ जानना चाहती हूँ, आप इसे मुझे बतलानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह बोले- वसुंधरे ! जिस विधिसे पूजाकी वस्तु मुझको अर्पित करनी चाहिये, अब वह बताता हूँ, सुनो। सात प्रकारके अन्नोंको लेकर उनमें दूधका सम्मिश्रण करे। साथ ही मुझे मधूक और उदुम्बर आदिके शाक भी प्रिय हैं माधवि ! अब मेरे योग्य जो धान्य हैं, उन्हें कहता हूँ- अच्छे गन्धसे युक्त ‘धर्मचिल्लिक’ नामक शाक और लाल धानका चावल तथा अन्य उत्तम स्वादिष्ठ चावल मुझे प्रिय हैं। उत्तम कुङ्कुम और मधु भी मुझे प्रिय हैं। आमोदा, शिवसुन्दरी, शिरीष और आकुल संज्ञक धानके चावल भी मेरे लिये उपयुक्त हैं। यवसे बने अनेक प्रकारके अन्न तथा शाक भी मेरे पूजनमें उपयुक्त होते हैं। मूँग, माष (उड़द), तिल, कंगुनी, कुल्थी, गेहूँ, साँवाँ- ये सभी मुझे प्रिय हैं। जब ब्रह्मयज्ञ विस्तृतरूपसे चल रहा हो, वेदके पारगामी विद्वान् यज्ञ करा रहे हों, उस समय मेरी प्रसन्नताके लिये ये वस्तुएँ मुझे अर्पण करनी चाहिये। यज्ञमें बकरी, भैंस आदि पशुओंका दूध, दही और घृत सर्वथा निषिद्ध हैं।
वसुंधरे ! मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले कर्मोंमें जो वस्तुएँ योग्य हैं, उन्हें मैंने बतला दिया। मेरे भक्तोंको सुख पहुँचानेवाले उक्त पदार्थ भोज्य और कल्याणप्रद हैं। वसुंधरे ! जिसे उत्तम सिद्धि पानेकी इच्छा हो, उसे इस प्रकार मेरा यजन करना चाहिये। इस विधिसे जो यजन करेंगे, वे कर्ममें कुशल पुरुष मेरी परम सिद्धि पानेके पूर्ण अधिकारी होंगे।
भगवान् वराह कहते हैं— ‘वसुंधरे ! मेरा उपासक इन्द्रियोंको वशमें रखकर जो कुछ अन्न उपलब्ध हो, उसे ग्रहण करे। भामिनि ! मैं नीचे- ऊपर इधर-उधर, दिशाओं और विदिशाओंमें तथा सभी जीवोंमें सर्वत्र विराजमान हूँ । अतएव जिसे परम गति पानेकी इच्छा हो, उसे चाहिये कि सब प्रकारसे सभी प्राणियोंको मेरा ही रूप जानकर उनकी वन्दना करे। प्रात: काल एक अञ्जलि जल लेकर पूर्वाभिमुख हो मेरी उपासना करनी चाहिये। ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र जपना चाहिये। उसे यह भावना करनी चाहिये कि जो सम्पूर्ण संसारमें श्रेष्ठ हैं, जिनकी ‘ईशान’ संज्ञा है, जो आदि पुरुष हैं, जो स्वभावतया ही कृपालु हैं, उन भगवान् नारायणका हम संसारसे अपने उद्धारके लिये यजन करते हैं।’
इसके बाद पश्चिमाभिमुख होकर फिर अञ्जलि भर जल हाथमें ले। साथ ही द्वादशाक्षर वासुदेव- मन्त्र पढ़कर इस मन्त्रका उच्चारण करे- * ‘भगवन्! आप जिस प्रकार सर्वप्रथम संसारकी सृष्टि करनेवाले हैं, पुराण पुरुष हैं और परम विभूति हैं, वैसे ही आप आदि पुरुषके अनेक रूप भी हैं। आपका संकल्प कभी विफल नहीं होता। इस प्रकारअनन्तरूपसे विराजनेवाले आप (प्रभु) को मैं नमस्कार करता हूँ।’ इसके बाद उसी समयसे पुनः एक अञ्जलि जल हाथमें ले और उत्तरमुख खड़ा होकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ कहकर इस मन्त्रका उच्चारण करे जो परम दिव्य, पुराण पुरुष हैं, आदि, मध्य और अन्तमें जिनकी सत्ता काम करती है, जिनके अनन्त रूप हैं, जो संसारको उत्पन्न करते तथा जो शान्तस्वरूप हैं, संसार मुक्त करनेके लिये जो अद्वितीय पुरुष हैं, उन जगत्स्रष्टा प्रभुका हम यजन करते हैं। “
इसके पश्चात् उसी समयसे दक्षिणाभिमुख होकर ‘ॐ नमः पुरुषोत्तमाय’ यह मन्त्र पढ़कर ऐसी धारणा करनी चाहिये कि ‘जो यज्ञस्वरूप हैं, एवं जिनके अनन्त रूप हैं, सत्य और ऋत जिनकी अनादिकालसे संज्ञाएँ हैं, जो अनादिस्वरूप काल हैं तथा समयानुसार विभिन्न रूप धारण करते हैं, उन प्रभुको संसारसे मुक्त होनेके लिये हम भजते हैं।’ तदनन्तर काष्ठकी भाँति अपने शरीरको निश्चल बनाकर, इन्द्रियोंको वशमें करते हुए, मनको भगवान्में लगाकर इस प्रकार धारणा करे – ‘भगवन्! सूर्य और चन्द्रमा आपके नेत्र हैं, कमलके समान आपकी आँखें हैं, जगत्में आपकी प्रधानता है, आप लोकके स्वामी हैं, तीनों लोकोंसे उद्धार करना आपका स्वभाव है, ऐसे सोमरस पीनेवाले आप (प्रभु) का हम यजन करते हैं।’
वसुंधरे ! यदि उत्तम गति पानेकी इच्छा हो तो साधकको तीनों संध्याओंमें बुद्धि, युक्ति और मतिकी सहायता लेकर इसी प्रकारसे मेरी उपासना करनी चाहिये। यह प्रसङ्ग गोपनीयोंमें परम गोपनीय, योगोंकी परम निधि, सांख्योंका परम तत्त्व और कर्मोंमें उत्तम कर्म है।
देवि! मूर्ख, कृपण और दुष्ट व्यक्तिको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये । किंतु जो दीक्षित, उत्तम शिष्य एवं दृढव्रती है, उसे ही इसे बताना उचित है।
मुझ विष्णुके मुखारविन्दसे निकला हुआ यह गुह्य तत्त्व मरणकाल उपस्थित होनेपर भी बुद्धिमें धारण करने योग्य है। इसे कभी विस्मृत नहीं करना चाहिये। जो प्रातः काल उठकर सदा इसका पाठ करता है, वह दृढव्रती पुरुष मेरे लोकमें स्थान पानेका अधिकारी है, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं करना चाहिये। इस प्रकार जो व्यक्ति तीनों संध्याओंमें कर्मका सम्पादन करता है, वह हीन योनियों में कभी नहीं पड़ता ।