Shree Naval Kishori

श्रीविष्णुपुराण तृतीयअंश

अध्याय-01 पहले सात मन्वन्तरों के मनु, इंद्र, देवता, सप्तर्षि और मनुपुत्रों का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे गुरुदेव ! आपने पृथ्वी और समुद्र आदि की स्थिति तथा सूर्य आदि ग्रहगण के संस्थान का मुझसे भलीप्रकार अति विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥ १ ॥ आपने देवता आदि और ऋषिगणों की सृष्टि तथा चातुर्वर्ण्य एवं तिर्यक – योनिगत जीवों की उत्पत्तिका भी वर्णन किया ॥ २ ॥ ध्रुव और प्रल्हाद के चरित्रों को भी आपने विस्तारपूर्वक सुना दिया । अत: हे गुरो ! अब मई आपके मुखार्विद से सम्पूर्ण मन्वन्तर तथा इंद्र और देवताओं के सहित मन्वन्तरों के अधिपति समस्त मनुओं का वर्णन सुनना चाहता हूँ ॥ ३ – ४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – भूतकाल में जितने मन्वन्तर हुए है तथा आगे भी जो – जो होंगे, उन सबका मैं तुमसे क्रमश: वर्णन करता हूँ ॥ ५ ॥ प्रथम मनु स्वायम्भुव थे । उनके अनन्तर क्रमश: स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत और चाक्षुस हुए ॥ ६ ॥ ये छ: मनु पूर्वकाल में हो चुकें हैं । इस समय सुर्यपुत्र वैवस्वत मनु हैं, जिनका यह सातवाँ मन्वन्तर वर्तमान है ॥ ७ ॥

कल्प के आदि में जिस स्वायम्भुव – मन्वन्तर के विषय में मैंने कहा है उसके देवता और सप्तर्षियों का तो मैं पहले ही यथावत वर्णन कर चूका हूँ ॥ ८ ॥ अब आगे मैं स्वारोचिष मनुके मन्वन्तराधिकारी देवता, ऋषि और मनुपुत्रों का स्पष्टतया वर्णन करूँगा ॥ ९ ॥ हे मैत्रेय ! स्वारोचिषमन्वन्तर में पारावत और तुषितगण देवता थे, महाबली विपश्चित देवराज इंद्र थे ॥ १० ॥ ऊर्ज्ज, स्तम्भ, प्राण, वात, पृषभ, निरय और परिवान – ये उस समय सप्तर्षि थे ॥ ११ ॥ तथा चैत्र और किम्पुरुष आदि स्वारोचिषमनुके पुत्र थे । इस प्रकार तुमसे द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन कर दिया । अब उत्तम-मन्वन्तर का विवरण सुनो ॥ १२ ॥

हे ब्रह्मन ! तीसरे मन्वन्तर में उत्तम नामक मनु और सुशान्ति नामक देवाधिपति इंद्र थे ॥ १३ ॥ उस समय सुधाम, सल्य, जप, प्रतर्दन और वशवर्ती – ये पाँच बारह – बारह देवताओं के गण थे ॥ १४ ॥ तथा वसिष्ठजी के सात पुत्र सप्तर्षिगण और अज, परशु एवं दीप्त आदि उत्तममनु के पुत्र थे ॥ १५ ॥

तामस – मन्वन्तर में सुपार, हरि, सत्य और सुधि – ये चार देवताओं के वर्ग थे और इनमेंसे प्रत्येक वर्ग में सत्ताईस – सत्ताईस देवगण थे ॥ १६ ॥ सौ अश्वमेध यज्ञवाला राजा शिबि इंद्र था तथा उस समय जो सप्तर्षिगण थे उनके नाम मुझसे सुनो ॥ १७ ॥ ज्योतिर्धामा, पृथु, काव्य, चैत्र, अग्नि, वनक और पीवर — ये उस मन्वन्तर के सप्तर्षि थे ॥ १८ ॥ तथा नर, ख्याति, केतुरूप और जानुजंग आदि तामसमनुके महाबली पुत्र ही उस समय राज्याधिकारी थे ॥ १९ ॥

हे मैत्रेय ! पाँचवे मन्वन्तर में रैवत नामक मनु और विभु नामक इंद्र हुए तथा उस समय जो देवगण हुए उनके नाम सुनो ॥ २० ॥ इस मन्वन्तर में चौदह – चौदह देवताओं के अमिताभ, भूतरय, वैकुण्ठ और सुमेधा नामक गण थे ॥ २१ ॥ हे विप्र ! इस रैवत – मन्वन्तर में हिरण्यरोमा, वेदश्री, ऊर्ध्वबाहू, वेद्बाहू, सुधामा, पर्जन्य और महामुनि – ये सात सप्तर्षिगण थे ॥ २२ ॥ हे मुनिसत्तम ! उस समय रैवतमनु के महावीर्यशाली पुत्र बलबन्धु, सम्भाव्य और सत्यक आदि राजा थे ॥ २३ ॥

हे मैत्रेय ! स्वारोचिष, उत्तम, तामस और रैवत – ये चार मनु, राजा प्रियव्रत के वंशधर कहे जाते हैं ॥ २४ ॥ राजर्षि प्रियव्रत ने तपस्याद्वारा भगवान विष्णु की आराधना करके अपने वंश में उत्पन्न हुए इन चार मन्वन्तराधियों को प्राप्त किया था ॥ २५ ॥

छठे मन्वन्तर में चाक्षुष नामक मनु और मनोजव नामक इंद्र थे । उस समय जो देवगण थे उनके नाम सुनो – ॥ २६ ॥ उस समय आप्य, प्रसुत, भव्य, पृथुक और लेख – ये पाँच प्रकार के महानुभाव देवगण वर्तमान थे और इनमेंसे प्रत्येक गण में आठ – आठ देवता थे ॥ २७ ॥

उस मन्वन्तरमें सुमेधा, विरजा, हविष्मान, उत्तम, मधु, अतिनामा और सहिष्णु – ये सात सप्तर्षि थे ॥ २८ ॥ तथा चाक्षुष के अति बलवान पुत्र ऊरू, पुरु और शतध्युम्र आदि राज्याधिकारी थे ॥ २९ ॥

हे विप्र ! इस समय इस सातवें मन्वन्तर में सूर्य के पुत्र महातेजस्वी और बुद्धिमान श्राद्धदेवजी मनु है ॥ ३० ॥ हे महामुने ! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु और रूद्र आदि देवगण हैं तथा पुरन्दर नामक इंद्र है ॥ ३१ ॥ इस समय वसिष्ठ , कश्यप, अत्रि, जगदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज – ये सात सप्तर्षि हैं ॥ ३२ ॥ तथा वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, नाभाग, अरिष्ट, करूष और पृषध – ये अत्यंत लोकप्रसिद्ध और धर्मात्मा नौ पुत्र हैं ॥ ३३ – ३४ ॥

समस्त मन्वन्तरों में देवरूप से स्थित भगवान विष्णु की अमुपम और सत्त्वप्रधाना शक्ति ही संसार की स्थिति में उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥ ३५ ॥ सबसे पहले स्वायम्भुव – मन्वन्तर में मानसदेव यज्ञपुरुष उस विष्णुशक्ति के अंश से ही आकूति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे ॥ ३६ ॥ फिर स्वारोचिष – मन्वन्तर के उपस्थित होनेपर वे मानसदेव श्रीअजित ही तुषित नामक देवगणों के साथ तुषितासे उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥ फिर उत्तम – मन्वन्तरमें वे तुषितदेव ही देवश्रेष्ठ सत्यगण के सहित सत्यरूप से सत्या के उदर से प्रकट हुए ॥ ३८ ॥ तामस – मन्वन्तर के प्राप्त होनेपर वे हरि- नाम देवगण के सहित हरिरूप से हर्या के गर्भ से उत्पन्न हुए ॥ ३९ ॥ तत्पश्चात वे देवश्रेष्ठ हरि, रैवत – मन्वन्तर में तत्कालीन देवगण के सहित सम्भूति के उदर से प्रकट होकर मानस नामसे विख्यात हुए ॥ ४० ॥ तथा चाक्षुष – मन्वन्तर में वे पुरुषोत्तम भगवान वैकुण्ठ नामक देवगणों के सहित विकुंठासे उत्पन्न होकर वैकुण्ठ कहलाये ॥ ४१ ॥ और हे द्विज ! इस वैवस्वत – मन्वन्तर के प्राप्त होनेपर भगवान विष्णु कश्यपजीद्वारा अदिति के गर्भ से वामनरूप होकर प्रकट हुए ॥ ४२ ॥ उन महात्मा वामनजी ने अपनी तीन डगोंसे सम्पूर्ण लोकों को जीतकर यह निष्कंटक त्रिलोकी इंद्र को दे दी थी ॥ ४३ ॥

हे विप्र ! इस प्रकार सातों मन्वन्तरों में भगवान की ये सात मूर्तियाँ प्रकट हुई, जिनसे (भविष्य में ) सम्पूर्ण प्रजाकी वृद्धि हुई ॥ ४४ ॥ यह सम्पूर्ण विश्व उन परमात्मा की ही शक्ति से व्याप्त है; अत: वे ‘विष्णु’ कहलाते हैं, क्योंकि ‘विश’ धातुका अर्थ प्रवेश करना है ॥ ४५ ॥ समस्त देवता, मनु, सप्तर्षि तथा मनुपुत्र और देवताओं के अधिपति इंद्रगण – ये सब भगवान विष्णु की ही विभूतियाँ है ॥ ४६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे प्रथमोऽध्यायः

अध्याय-02 सावर्णिमनु की उत्पत्ति तथा आगामी सात मन्वन्तरों के मनु, मनुपुत्र, देवता, इंद्र और सप्तर्षियों का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे विप्रर्षे ! आपने यह सात अतीत मन्वन्तरों की कथा कही, अब आप मुझसे आगामी मन्वन्तरों का भी वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मुने ! विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा सूर्य की भार्या थी उससे उनके मनु, यम और यमीतीन संताने हुई कालान्तर में पतिका तेज सहन कर सकने के कारण संज्ञा छाया को पति की सेवामें नियुक्त कर स्वयं तपस्या के लिये वन को चली गयी सूर्यदेव ने यह समझकर कि यह संज्ञा ही है, छाया से शनैश्वर, एक और मनु तथा तपतीये तीन संताने उत्पन्न कीं

एक दिन जब छायारूपिणी संज्ञाने क्रोधित होकर यम को शाप दिया तब सूर्य और यम को विदित हुआ कि यह तो कोई और है ॥ ५ ॥ तब छाया के द्वारा ही सारा रहस्य खुल जानेपर सूर्यदेव ने समाधि में स्थित होकर देखा कि संज्ञा घोड़ी का रूप धारण कर वनमें तपस्या कर रही है अत: उन्होंने भी अश्वरूप होकर उससे दो अश्विनीकुमार और रेत:स्त्राव के अनन्तर ही रेवंत को उत्पन्न किया

फिर भगवान सूर्य संज्ञा को अपने स्थानपर ले आये तथा विश्वकर्मा ने उनके तेजको शांत कर दिया ॥ ८ ॥ उन्होंने सूर्य को भ्रमियंत्र (सान) पर चढाकर उनका तेज छाँटा, किन्तु वे उस अक्षुण्ण तेज का केवल अष्टमांश ही क्षीण कर सके ॥ ९ ॥ हे मुनिसत्तम ! सूर्य के जिस जाज्वल्यमान वैष्णव-तेज को विश्वकर्मा ने छाँटा था वह पृथ्वीपर गिरा ॥ १० ॥ उस पृथ्वीपर गिरे हुए सूर्य तेज से ही विश्वकर्मा ने विष्णु भगवान का चक्र, शंकर का त्रिशूल, कुबेर का विमान, कार्तिकेय की शक्ति बनायी तथा अन्य देवताओं के भी जो – जो शस्त्र थे उन्हें उससे पुष्ट किया ॥ ११ – १२ ॥ जिस छायासंज्ञा के पुत्र दूसरे मनुका ऊपर वर्णन कर चुके हैं वह अपने अग्रज मनुका सवर्ण होने से सावर्णि कहलाया ॥ १३ ॥

हे महाभाग ! सुनो, अब मैं उनके इस सावर्णिकनाम आठवें मन्वन्तर का, जो आगे होनेवाला है, वर्णन करता हूँ ॥ १४ ॥ हे मैत्रेय ! यह सावर्णि ही उस समय मनु होंगे ततः सुतप, अमिताभ और मुख्यगण देवता होंगे ॥ १५ ॥ उन देवताओं का प्रत्येक गण बीस – बीस का समूह कहा जाता है । हे मुनिसत्तम ! अब मैं आगे होनेवाले सप्तर्षि भी बतलाता हूँ ॥ १६ ॥ उस समय दीप्तिमान, गालत, राम, कूप, द्रोण – पुत्र अश्वत्थामा, मेरे पुत्र व्यास और सातवे ऋष्यश्रुंग – ये सप्तर्षि होंगे ॥ १७ ॥ तथा पाताल – लोकवासी विरोचन के पुत्र बलि श्रीविष्णुभगवान की कृपासे तत्कालीन इंद्र और सावर्णिमनु के पुत्र विरजा, उर्वरीवान एवं निर्मोक आदि तत्कालीन राजा होंगे ॥ १८ – १९ ॥

हे मुने ! नवे मनु दक्षसावर्णि होंगे उनके समय पार, मरीचिगर्भ और सुधर्मा नामक तीन देववर्ग होंगे, जिनमे से पप्रत्येक वर्ग में बारह – बारह देवता होंगे; तथा हे द्विज ! उनका नायक महापराक्रमी अद्भुत नामक इंद्र होगा ॥ २० – २२ ॥ सवन, द्युतिमान, भव्य, वसु, मेधातिथि, ज्योतिष्मान और सातवें सत्य – ये उस समय के सप्तर्षि होंगे ॥ २३ ॥ तथा धृतकेतु, दीप्तीकेतु, पंचहस्त, निरामय और पृथुस्त्रवा आदि दक्षसावर्णिमनु के पुत्र होंगे ॥ २४ ॥

हे मुने ! दसवें मनु ब्रह्मसावर्णि होंगे उनके समय सुधामा और विशुद्ध नामक सौ – सौ देवताओं के दो गण होंगे ॥ २५ ॥ महाबलवान शान्ति उनका इंद्र होगा तथा उस समय जो सप्तर्षिगण होंगे उनके नाम सुनो ॥ २६ ॥ उनके नाम हविष्मान, सुकृत, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, अप्रतिमौजा और सत्यकेतु हैं ॥ २७ ॥ उस समय ब्रह्मसावर्णिमनु के सुक्षेत्र, उत्तमौजा और भूरिवेण आदि दस पुत्र पृथ्वी की रक्षा करेंगे ॥ २८ ॥

ग्यारहवाँ मनु धर्मसावर्णि होगा उस समय होनेवाले देवताओं के विहंगम, कामगम और निर्वाणरति नामक मुख्य गण होंगे – इनमें से प्रत्येक में तीस – तीस देवता रहेंगे और वृष नामक इंद्र होगा ॥ २९- ३० ॥ उस समय होनेवाले सप्तर्षियों के नाम नि:स्वर, अग्नितेजा, वपुष्मान, घृणी, आरुणि, हविष्मान और अनघ है ॥ ३१ ॥ तथा धर्मसावर्णि मनु के सर्वत्रग, सुधर्मा, और देवानीक आदि पुत्र उस समय के राज्याधिकारी पृथ्वीपति होंगे ॥ ३२ ॥

रूद्रपुत्र सावर्णि बारहवाँ मनु होगा उसके समय ऋतूधाम नामक इंद्र होगा तथा तत्कालीन देवताओं के नाम ये हैं सुनो ॥ ३३ ॥ हे द्विज ! उस समय दस-दस देवताओं के हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा अरु सुराप नामक पाँच गण होंगे ॥ ३४ ॥ तपस्वी, सुतपा, तपोमूर्ति, तपोरति, तपोधृति, तपोद्युति तथा तपोधन – ये सात सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रों के नाम सुनो ॥ ३५ ॥ उस समय उस मनु के देववाण, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि महावीर्यशाली पुत्र तत्कालीन सम्राट होंगे ॥ ३६ ॥

हे तेरहवाँ रूचि नामक मनु होगा इस मन्वन्तर में सुत्रामा, सुकर्मा और सुधर्मा नामक देवगण होंगे इनमें से प्रत्येक में तैतीस – तैतीस देवता रहेंगे; तथा महाबलवान दिवस्पति उनका इंद्र होगा ॥ ३७ – ३९ ॥ निर्मोह, तत्त्वदर्शी, निष्कम्प, निरुत्सुक, धृतिमान, अव्यय और सुतपा – ये तत्कालीन सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रों के नाम भी सुनो ॥ ४० ॥ उस मन्वन्तर में चित्रसेन और विचित्र आदि मनुपुत्र राजा होंगे ॥ ४१ ॥

हे मैत्रेय ! चौदहवाँ मनु भौम होगा उस समय शुचि नामक इंद्र और पाँच देवगण होंगे; उनके नाम सुनो – वे चाक्षुस, पवित्र, कनिष्ठ, भ्राजिक और वाचावृद्ध नामक देवता है । अब तत्कालीन सप्तर्षियों के नाम भी सुनो ॥ ४२ -४३ ॥ उस समय अग्रिबाहू, शुचि, शुक्र, मागध, अग्रिध, युक्त और जित – ये सप्तर्षि होंगे । अब मनुपुत्रों के विषय में सुनो ॥ ४४ ॥ हे मुनिशार्दुल ! कहते हैं, उस मनुके ऊरू और गम्भीरबुद्धि आदि पुत्र होंगे जो राज्याधिकारी होकर पृथ्वीका पालन करेंगे ॥ ४५ ॥

प्रत्येक चतुर्युग के अंत में वेदों का लोप हो जाता हैं, उस समय सप्तर्षिगण ही स्वर्गलोक से पृथ्वीमें अवतीर्ण होकर उनका प्रचार करते हैं ॥ ४६ ॥ प्रत्येक सत्ययुग के आदि में स्मृति-शास्त्र के रचयिता मनुका प्रादुर्भाव होता है; और उस मन्वन्तर अंत-पर्यन्त तत्कालीन देवगण यज्ञ-भागों को भोगते हैं ॥ ४७ ॥ तथा मनु के पुत्र और उनके वंशधर मन्वन्तर के अंततक पृथ्वी का पालन करते रहते हैं ॥ ४८ ॥ इस प्रकार मनु सप्तर्षि, देवता, इंद्र तथा मनु-पुत्र राजागण – ये प्रत्येक मन्वन्तर के अधिकारी होते है ॥ ४९ ॥

हे द्विज ! इन चौदह मन्वन्तरों के बीत जानेपर एक सहस्त्र युग रहनेवाला कल्प समाप्त हुआ कहा जाता है ॥ ५० ॥ हे साधूश्रेष्ठ ! फिर इतने ही समय की रात्रि होती है । उस समय ब्रह्मरूपधारी श्रीविष्णुभगवान प्रलयकालीन जल के ऊपर शेष –शय्यापर शयन करते हैं ॥ ५१ ॥ हे विप्र ! तब आदिकर्ता सर्वव्यापक सर्वभूत भगवान जनार्दन सम्पूर्ण त्रिलोकी का ग्रास कर अपनी माया में स्थित रहते हैं ॥ ५२ ॥ फिर [प्रलय-रात्रि का अंत होनेपर] प्रत्येक कल्प के आदि में अव्ययात्मा भगवान जाग्रत होकर रजोगुण का आश्रय कर सृष्टि की रचना करते हैं ॥ ५३ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! मनु, मनु-पुत्र राजागण, इंद्र देवता तथा सप्तर्षि – ये सब जगत का पालन करनेवाले भगवान के सात्त्विक अंश हैं ॥ ५४ ॥

हे मैत्रेय ! स्थितिकारक भगवान विष्णु चारों युगों में जिस प्रकार व्यवस्था करते हैं, सो सुनो ५५ समस्त प्राणियों के कल्याण में तत्पर वे सर्वभूतात्मा सत्ययुग में कपिल आदिरूप धारणकर परम ज्ञान का उपदेश करते हैं ॥ ५६ ॥ त्रेतायुग में वे सर्वसमर्थ प्रभु चक्रवर्ती भूपाल होकर दुष्टोंका दमन करके त्रिलोकी की रक्षा करते हैं ॥ ५७ ॥ तदनंतर द्वापरयुग में वे वेदव्यासरूप धारणकर एक वेद के चार विभाग करते है और सैकड़ो शाखाओं में बाँटकर उसका बहुत विस्तार कर देते हैं ॥ ५८ ॥ इस प्रकार द्वापर में वेदों का विस्तार कर कलियुग के अंत में भगवान कल्किरूप धारणकर दुराचारी लोगों को सन्मार्ग में प्रवृत्त करते है ॥ ५९ ॥ इसी प्रकार, अनंतात्मा प्रभु निरंतर इस सम्पूर्ण जगत के उत्पत्ति, पालन और नाश करते रहते हैं । इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो उनसे भिन्न हो ॥ ६० ॥ हे विप्र ! इहलोक और परलोक में भूत, भविष्यत और वर्तमान जितने भी पदार्थ है वे सब महात्मा भगवान विष्णु से ही उत्पन्न हुए है – यह सब मैं तुमसे कह चूका हूँ ॥ ६१ ॥ मैंने तुमसे सम्पूर्ण मन्वन्तरों और मन्वन्तराधिकारियों का वर्णन कर दिया । कहो, अब और क्या सुनाऊँ ? ॥ ६२ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे द्वितीयोऽध्यायः

अध्याय-03 चतुर्युगानुसार भिन्न – भिन्न व्यासों के नाम तथा ब्रह्म – ज्ञान के माहात्म्य का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे भगवन ! आपके कथन से मैं यह जान गया कि किस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत विष्णुरूप हैं, विष्णु में ही स्थित है, विष्णुसे ही उत्पन्न हुआ है तथा विष्णुसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ? ॥ १ ॥ अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भगवान ने वेदव्यासरूपसे युग-युगमें किस प्रकार वेदों का विभाग किया ॥ २ ॥ हे महामुने ! हे भगवन ! जिस – जिस युग में जो – जो वेदव्यास हुए उनका तथा वेदों के सम्पूर्ण शाखा – भेदों का आप मुझसे वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! वेदरूप वृक्ष के सहस्रों शाखा-भेद है, उनका विस्तार से वर्णन करने में तो कोई भी समर्थ नहीं हैं, अत: संक्षेप से सुनो ॥ ४ ॥ हे महामुने ! प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान विष्णु व्यासरूप से अवतीर्ण होते हैं और संसार के कल्याण के लिये एक वेद के अनेक भेद कर देते हैं ॥ ५ ॥ मनुष्यों के बल , वीर्य और तेजको अल्प जानकर वे समस्त प्राणियों के हित के लिये वेदों का विभाव करते हैं ॥ ६ ॥ जिस शरीर के द्वारा वे प्रभु एक वेद के अनेक विभाग करते हैं भगवान मधुसुदन की उस मुर्तिका नाम वेदव्यास हैं ॥ ७ ॥

हे मुने ! जिस – जसी मन्वन्तर में जो – जो व्यास होते हैं और वे जिस – जिस प्रकार शाखाओं का विभाग करते हैं – वह मुझसे सुनो ॥ ८ ॥ इस वैवस्वत – मन्वन्तर के प्रत्येक द्वापरयुग में व्यास महर्षियों ने अबतक पुन: – पुन: अठ्ठाईस बार वेदों के विभाग किये हैं ॥ ९ ॥ हे साधूश्रेष्ठ ! जिन्होंने पुन: – पुन: द्वापरयुग में वेदों के चार – चार विभाग किये हैं उन अट्ठाईस व्यासोंका विवरण सुनो ॥ १० ॥ पहले द्वापर में स्वयं भगवान ब्रह्माजी ने वेदोंका विभाग किया था । दूसरे द्वापर के वेदव्यास प्रजापति हुए ॥ ११ ॥ तीसरे द्वापर में शुक्राचार्यजी और चौथे में बृहस्पतिजी व्यास हुए, तथा पाँचवे में सूर्य और छठे में भगवान मृत्युव्यास कहलाये ॥ १२ ॥ सातवे द्वापर के वेदव्यास इंद्र, आठवे के वसिष्ठ, नवें के सारस्वत और दसवें के त्रिधामा कहे जाते हैं ॥ १३ ॥ ग्यारहवे में त्रिशिख, बारहवे में भरद्वाज, तेरहवें में अन्तरिक्ष और चौदहवे में वर्णी नामक व्यास हुए ॥ १४ ॥ पन्द्रहवें में त्रय्यारुण, सोलहवे में धनंजय, सत्रहवे में क्रतुन्जय और तदनंतर अठारहवे में जय नामक व्यास हुए ॥ १५ ॥ फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए, भरद्वाज के पीछे गौतम हुए और गौतम के पीछे जो व्यास हुए वे हर्यात्मा कहे जाते हैं ॥ १६ ॥ हर्यात्मा के अनन्तर वाजश्रवामुनि व्यास हुए तथा उनके पश्चात सोमशुष्मवंशी तृणबिंदु वेदव्यास कहलाये ॥ १७ ॥ उनके पीछे भृगुवंशी ऋक्ष व्यास हुए जो वाल्मीकि कहलाये, तदनन्तर हमारे पिता शक्ति हुए और फिर मैं हुआ ॥ १८ ॥ मेरे अनन्तर जातुकर्ण व्यास हुए और फिर कृष्णद्वैपायन – इस प्रकार ये अट्ठाईस व्यास प्राचीन हैं । उन्होंने द्वापरादि युगों में एक ही वेदके चार – चार विभाग किये हैं ॥ १९- २० ॥ हे मुने ! मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायन के अनन्तर आगामी द्वापरयुग में द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होंगे ॥ २१ ॥

यह अविनाशी एकाक्षर ही ब्रह्म हैं यह बृहत और व्यापक हैं इसलियेब्रह्मकहलाता हैं २२ भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकये तीनों प्रणवरूप ब्रह्म में ही स्थित हैं तथा प्रणव ही ऋक, यजु: साम और अर्थवरूप हैं; अत: उस ओंकाररूप ब्रह्म को नमस्कार हैं २३

जो संसार के उत्पत्ति और प्रलयका कारण कहलाता हैं तथा महत्तत्त्व से भी परम गुह्य (सूक्ष्म) हैं उस ओंकाररूप ब्रह्म को नमस्कार है २४ जो अगाध, अपार और अक्षय है, संसार को मोहित करनेवाले तमोगुण का आश्रय है, तथा प्रकाशमय सत्त्वगुण और प्रवृत्तिरूप रजोगुण के द्वारा पुरुषों के भोग और मोक्षरूप परमपुरुषार्थ का हेतु हैं २५ जो सांख्यज्ञानियों की परमनिष्ठा हैं, शमदमशालियों का गत्तव्य स्थान हैं, जो अव्यक्त और अविनाशी है तथा जो सक्रिय ब्रह्म होकर भी सदा रहनेवाला है २६ जो स्वयम्भू, प्रधान और अन्तर्यामी कहलाता है तथा जो अविभाग, दीप्तीमान, अक्षय और अनेक रूप है २७ और जो परमात्मस्वरूप भगवान वासुदेव का ही रूप है, उस ओंकाररूप परब्रह्म को सर्वदा बारंबार नमस्कार है २८ यह ओंकाररूप ब्रह्म अभिन्न होकर भी [अकार, उकार और मकाररूप से ] तीन भेदोंवाला हैं यह समस्त भेदों में अभिन्नरूप से स्थित है तथापि भेदबुद्धि से भिन्नभिन्न प्रतीत होता है २९ वह सर्वात्मा ऋकमय , सागमय और यजुर्मय है तथा ऋगयजु: – साम का साररूप वह ओंकार ही सब शरीरधारियों का आत्मा है ३० वह वेदमय हैं, वही ऋग्वेदादिरूप से भिन्न हो जाता है और वही अपने वेदरूप को नाना शाखाओं से विभक्त करता हैं तथा वह असंग भगवान ही समस्त शाखाओं का रचयिता और उनका ज्ञानस्वरूप है ३१

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे तृतीयोऽध्यायः

अध्याय-04 ऋग्वेद की शाखाओं का विस्तार

श्रीपराशरजी बोले सृष्टि के आदि में ईश्वर से आविर्भूत वेद ऋक – यजु: आदि चार पादों से युक्त और एक लाख मन्त्रवाला था । उसीसे समस्त कामनाओं को देनेवाले अग्निहोत्रादि दस प्रकार के यज्ञों का प्रचार हुआ ॥ १ ॥ तदनन्तर अठ्ठाइसवे द्वापरयुग में मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायन ने इस चतुष्पादयुक्त एक ही वेद के चार भाग किये ॥ २ ॥ परम बुद्धिमान वेदव्यास ने उनका जिस प्रकार विभाग किया है, ठीक उसी प्रकार अन्यान्य वेदव्यासों ने तथा मैंने भी पहले किया था ॥ ३ ॥ अत: हे द्विज ! समस्त चतुर्युगों में इन्हीं शाखाभेदों से वेदका पाठ होता है – ऐसा जानो ॥ ४ ॥ भगवान कृष्णद्वैपायन को तुम साक्षात नारायण ही समझो, क्योंकि हे मैत्रेय ! संसार में नारायण के अतिरिक्त और कौन महाभारत का रचयिता हो सकता हैं ? ॥ ५ ॥

हे मैत्रेय ! द्वापरयुग में मेरे पुत्र महात्मा कृष्णद्वैपायन ने जिस प्रकार वेदों का विभाग किया था वह यथावत सुनो जब ब्रह्माजी की प्रेरणा से व्यासजी ने वेदों का विभाग करने का उपक्रम किया, तो उन्होंने वेदका अंततक अध्ययन करनेमें समर्थ चार ऋषियों को शिष्य बनाया ॥ ७ ॥ उनमें से उन महामुनिने पैल को ऋग्वेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद और जैमिनि को सामवेद पढाया तथा उन मतिमान व्यासजी का सुमन्तु नामक शिष्य अथर्ववेद का ज्ञाता हुआ ॥ ८ – ९ ॥ इनके सिवा सूतजातीय महाबुद्धिमान रोमहर्षण को महामुनि व्यासजी ने अपने इतिहास और पुराण के विद्यार्थीरूप से ग्रहण किया ॥ १० ॥

पूर्वकालमें यजुर्वेद एक ही था उसके उन्होंने चार विभाग किये, अत: उसमें चातुर्होत्र की प्रवुत्ति हुई और इस चातुर्होत्र-विधिसे ही उन्होंने यज्ञानुष्ठान की व्यवस्था की ॥ ११ ॥ व्यासजी ने यजु:से अध्वर्यु के, ऋक से होता के, साम से उद्राता के तथा अथर्ववेद से ब्रह्मा के कर्म की स्थापना की ॥ १२ ॥ तदनन्तर उन्होंने ऋक तथा यजु:श्रुतियों का उद्धार करके ऋग्वेद एवं यजुर्वेद की और सामश्रुतियों से सामवेद की रचना की ॥ १३ ॥ हे मैत्रेय ! अथर्ववेद के द्वारा भगवान व्यासजी ने सम्पूर्ण राज-कर्म और ब्रह्मत्त्वकी यथावत व्यवस्था की ॥ १४ ॥ इस प्रकार व्यासजी ने वेदरूप एक वृक्ष के चार विभाग कर दिये फिर विभक्त हुए उस चारों से वेदरूपी वृक्षों का वन उत्पन्न हुआ ॥ १५ ॥

हे विप्र ! पहले पैल ने ऋग्वेदरूप वृक्ष के दो विभाग किये और उन दोनों शाखाओं को अपने शिष्य इंद्रप्रमिति और बाष्कल को पढाया ॥ १६ ॥ फिर बाष्कल ने भी अपनी शाखा के चार भाग किये और उन्हें बोध्य आदि अपने शिष्यों को दिया ॥ १७ ॥ हे मुने ! बाष्कलकी शाखाकी उन चारों प्रतिशाखाओं को उनके शिष्य बोध्य, आग्निमाढक, याग्यवल्क्य और पराशर ने ग्रहण किया ॥ १८ ॥ हे मैत्रेयजी ! इंद्रप्रमिति ने अपनी प्रतिशाखा को अपने पुत्र महात्मा माण्डुकेय को पढाया ॥ १९ ॥ इस प्रकार शिष्य – प्रशिष्य – क्रम से उस शाखा का टन के पुत्र और शिष्यों में प्रचार हुआ । इस शिष्य – परम्परा से ही शाकल्य वेदमित्र ने उस संहिता को पढ़ा और उसको पाँच अनुशाखाओं में विभक्त कर अपने पाँच शिष्यों को पढाया ॥ २० – २१ ॥ उसके जो पाँच शिष्य थे उनके नाम सुनो । हे मैत्रेय ! वे मुद्रल, गोमुख, वात्स्य और शालीय तथा पाँचवे महामति शरीर थे ॥ २२ ॥ हे मुनिसत्तम ! उनके एक दूसरे शिष्य शाकपूर्ण ने तीन वेदसंहिताओं की तथा चौथे एक निरुक्त-ग्रन्थ की रचना की ॥ २३ ॥ इन संहिताओं का अध्ययन करनेवाले उनके शिष्य – महामुनि क्रोंच, वैतालिक और बलाक थे तथा निरुक्त का अध्ययन करनेवाले – एक चौथे शिष्य वेद-वेदांग के पारगामी निरुक्तकार हुए ॥ २४ ॥ इस प्रकार वेदरूप वृक्ष की प्रतिशाखाओं से अनुशाखाओं की उत्पत्ति हुई । हे द्विजोत्तम ! बाष्कलने और भी तीन संहिताओं की रचना की । उनके शिष्य कालायनि, गार्ग्य तथा कथाजव थे । इसप्रकार जिन्होंने संहिताओं की रचना की वे बहवृच कहलाये ॥ २५ – २६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे चतुर्थोऽध्यायः

अध्याय-05 शुक्लयजुर्वेद तथा तैत्तिरीय यजु:शाखाओं का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – हे महामुने ! व्यासजी के शिष्य वैशम्पायन ने यजुर्वेदरूपी वृक्ष की सत्ताईस शाखाओं की रचना की; और उन्हें अपने शिष्यों को पढ़या तथा शिष्यों ने भी क्रमशः ग्रहण किया ॥ १ – २ ॥ हे द्विज ! उनका एक परम धार्मिक और सदैव गुरुसेवा में तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरात का पुत्र याज्ञवल्क्य था ॥ ३ ॥ जो कोई महामेरुपर स्थित हमारे उस समाज में सम्मिलित न होगा उसको सात रात्रियों के भीतर भी ब्रह्महत्या लगेगी ॥ ४ ॥ हे द्विज ! इसप्रकार मुनियों ने पहले जिस समय को नियत किया था उसका केवल एक वैशम्पायन ने ही अतिक्रमण कर दिया ॥ ५ ॥ इसके पश्चात उन्होंने प्रसादवश पैर से छुए हुए अपने भानजे की हत्या कर डाली; तब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा – ‘हे शिष्यगण ! तुम सब लोग किसी प्रकार का विचार न करके मेरे लिये ब्रह्महत्या को दूर करनेवाला व्रत करो’ ॥ ६ – ७ ॥

तब याज्ञवल्क्य बोले ‘भगवन ! ये सब ब्राह्मण अत्यंत निस्तेज हैं, इन्हें कष्ट देने की क्या आवश्यकता हैं ? मैं अकेला ही इस व्रत का अनुष्ठान करूँगा ‘ ॥ ८ ॥ इससे गुरु वैशम्पायनजी ने क्रोधित होकर महामुनि याज्ञवल्क्य से कहा – ‘अरे ब्राह्मणों का अपमान करनेवाले । तूने मुझसे जो कुछ पढ़ा है, वह सब त्याग दे ॥ ९ ॥ तू इन समस्त द्विजश्रेष्ठों को निस्तेज बताता हैं, मुझे तुझ-जैसे आज्ञा – भंगकारी शिष्य से कोई प्रयोजन नहीं हैं’ ॥ १० ॥ याज्ञवल्क्यने कहा – ‘हे द्विज ! मैंने तो भक्तिवश आपसे ऐसा कहा था, मुझे भी आपसे कोई प्रयोजन नहीं है, लीजिये, मैंने आपसे जो कुछ पढ़ा है वह यह मौजूद है ‘ ॥ ११ ॥

श्रीपराशरजी बोले – ऐसा कह महामुनि याज्ञवल्क्यजी ने रुधिर से भरा हुआ मूर्तिमान यजुर्वेद वाम करके उन्हें दे दिया; और स्वेच्छानुसार चले गये ॥ १२ ॥ हे द्विज ! याज्ञवल्क्यद्वारा वमन की हुई उन यजु:श्रुतियों को अन्य शिष्यों ने तित्तिर (तीतर) होकर ग्रहण कर लिया, इसलिये वे सब तैत्तिरीय कहलाये ॥ १३ ॥ हे मुनिसत्तम ! जिन विप्रगण ने गुरु की प्रेरणासे ब्रह्महत्या-विनाशक व्रत का अनुष्ठान किया था, वे सब व्रताचरण के कारण यजु:शाखाध्यायी चरकाध्वर्यु हुए ॥ १४ ॥ तदनन्तर, याज्ञवल्क्य ने भी यजुर्वेद की प्राप्ति की इच्छा से प्राणों का संयम कर संयतचित्त से सूर्यभगवान की स्तुति की ॥ १५ ॥

याज्ञवल्क्यजी बोले अतुलित तेजस्वी, मुक्ति के द्वारस्वरूप तथा वेदत्रयरूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक, यजु: तथा सामस्वरूप सवितादेव को नमस्कार है ॥ १६ ॥ जो अग्नि और चन्दमारूप, जगत के कारण और सुषुम्र नामक परमतेज को धारण करनेवाले हैं, उन भगवान भास्कर को नमस्कार है ॥ १७ ॥ कला, काष्ठा, निमेष आदि कालज्ञान के कारण तथा ध्यान करनेयोग्य परब्रह्मस्वरूप विष्णुमय श्रीसूर्यदेव को नमस्कार है ॥ १८ ॥ जो अपनी किरणों से चन्द्रमा को पोषित करते हुए देवताओं को तथा स्वधारूप अमृत से पितृगण को तृप्त करते है, उन तृप्तिरूप सूर्यदेव को नमस्कार है ॥ १९ ॥ जो हिम, जल और उष्णता के कर्ता [ अर्थात शीत, वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओं के कारण ] है और जगतका पोषण करनेवाले हैं, उन त्रिकालमूर्ति विधाता भगवान सूर्य को नमस्कार है ॥ २० ॥ जो जगत्पति इस सम्पूर्ण जगत के अन्धकार को दूर करते हैं, उन सत्त्वमुर्तिधारी-विवस्वान को नमस्कार है ॥ २१ ॥ जिनके उदित हुए विना मनुष्य सत्कर्म में प्रवृत्त नहीं हो सकते और जल शुद्धि का कारण नहीं हो सकता, उन भास्वान्देव को नमस्कार हैं ॥ २२ ॥

जिनके किरण-समूह का स्पर्श होनेपर लोक कर्मानुष्ठान के योग्य होता है, उन पवित्रता के कारण, शुद्धस्वरूप सूर्यदेव को नमस्कार है ॥ २३ ॥ भगवान सविता, सूर्य, भास्कर और विवस्थान को नमस्कार है, देवता आदि समस्त भूतों के आदिभूत आदित्यदेव को बारंबार नमस्कार है ॥ २४ ॥ जिनका तेजोमय रथ है, [ प्रज्ञारूप ] ध्वजाएँ हैं, जिन्हें [ छ्न्दोमय] अमर अश्वगण वहन करते है तथा जो त्रिभुवन को प्रकाशित करनेवाले नेत्ररूप है, उन सूर्यदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २५ ॥

श्रीपराशरजी बोले – उनके इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान सूर्य अश्वरूप से प्रकट होकर बोले – ‘तुम अपना अभीष्ट वर माँगो’ ॥ २६ ॥ तब याज्ञवल्क्यजी ने उन्हें प्रणाम करके कहा – आप मुझे उन यजु:श्रुतियों का उपदेश कीजिये जिन्हें मेरे गुरूजी भी न जानते हों ॥ २७ ॥ उनके ऐसा कहनेपर भगवान सूर्य ने उन्हें अयातयाम नामक यजु:श्रुतियों का उपदेश दिया जिन्हें उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नही जानते थे ॥ २८ ॥ हे द्विजोत्तम ! उन श्रुतियों को जिन ब्राह्मणों ने पढ़ा था वे वाजी-नामसे विख्यात हुए क्योंकि उनका उपदेश करते समय सूर्य भी अश्वरूप हो गये थे ॥ २९ ॥ हे महाभाग ! उन वाजिश्रुतियों की कान्व आदि पन्द्रह शाखाएँ हैं; वे सब शाखाएँ महर्षि याज्ञवल्क्यकी प्रवुत्त की हुई कही जाती हैं ॥ ३० ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे पंचमोऽध्यायः

अध्याय-06 सामवेद की शाखा, अठारह पुराण और चौदह विद्याओं के विभाग का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! जिस क्रमसे व्यासजी के शिष्य जैमिनि ने सामवेद की शाखाओं का विभाग किया था, वह मूझसे सुनो ॥ १ ॥ जैमिनिका पुत्र सुमन्तु था और उसका पुत्र सुकर्मा हुआ । उन दोनों महामति पुत्र-पौत्रों ने सामवेद की एक-एक शाखाका अध्ययन किया ॥ २ ॥ तदनन्तर सुमन्तु के पुत्र सुकर्मा ने अपनी सामवेदसंहिता के एक सहस्त्र शाखाभेद किये और हे द्विजोत्तम ! उन्हें उसके कौसल्य हिरण्यनाभ तथा पौष्पिंची नामक दो महाव्रती शिष्यों ने ग्रहण किया । हिरण्यनाभ के पाँच सौ शिष्य थे जो उदीच्य सामग कहलाये ॥ ३ – ४ ॥

इसी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमों ने इतनी ही संहिताएँ हिरण्यनाभ से और ग्रहण की उन्हें पंडितजन प्राच्य सामग कहते है ॥ ५ ॥ पौष्पिंचि के शिष्य लोकाक्षि, नौधमि, कक्षीवान और लांगलि थे । उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने अपनी-अपनी संहिताओं के विभाग करके उन्हें बहुत बढ़ा दिया ॥ ६ ॥ महामुनि कृति नामक हिरण्यनाभ के एक और शिष्य ने अपने शिष्यों को सामवेद की चौबीस संहिताएँ पढायी ॥ ७ ॥ फिर उन्होंने भी इस सामवेदका शाखाओंद्वारा खूब विस्तार किया । अब मैं अर्थववेद की संहिताओं के समुच्चय का वर्णन करता हूँ ॥ ८ ॥

अथर्ववेद को सर्वप्रथम अमिततेजोमय सुमन्तु मुनि ने अपने शिष्य कबंध को पढाया था फिर कबंध ने उसके दो भाग कर उन्हें देवदर्श और पथ्य नामक अपने शिष्यों को दिया ॥ ९ ॥ हे द्विजसत्तम ! देवदर्श के शिष्य मेध, ब्रह्मबलि, शौल्कायनि और पिप्पल थे ॥ १० ॥ हे द्विज ! पथ्य के भी जाबालि, कुमुदादि और शौनक नामक तीन शिष्य थे, जिन्होंने संहिताओं का विभाग किया ॥ ११ ॥ शौनक ने भी अपनी संहिता के दो विभाग करके उनमें से एक वभ्रुको तथा दूसरी सैन्धव नामक अपने शिष्य को दी ॥ १२ ॥ सैन्धव से पढकर मुच्चिकेश ने अपनी संहिता के पहले दो और फिर तीन विभाग किये । नक्षत्रकल्प, वेद्कल्प, संहिताकल्प, आंगिरसकल्प और शान्तिकल्पउनके रचे हुए ये पाँच विकल्प अथर्ववेद संहिताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं १३१४

तदनन्तर, पुराणार्थविशारद व्यासजी ने आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पशुद्धि के सहित पुराण संहिता की रचना की १५ रोमहर्षण सूत व्यासजी के प्रसिद्ध शिष्य थे महामति व्यासजी ने उन्हें पुराणसंहिता का अध्ययन कराया १६ उन सूतजी के सुमति, अग्निवर्चा, मित्रायु, शांसपायन, अकृतव्रण और सावर्णिये : शिष्य थे १७ काश्यपगोत्रीय अकृतव्रण, सावर्णि और शांसपायनये तीनों संहिताकर्ता हैं उन तीनों संहिताओं की आधार एक रोमहर्षणजी की संहिता है हे मुने ! इन चारों संहिताओं की सारभूत मैंने यह विष्णुपुराणसंहिता बनायी है १८१९ पुराणज्ञ पुरुष कुल अठारह पुराण बतलाते हैं; उन सबमें प्राचीनतम ब्रह्मपुराण है २०

प्रथम पुराण ब्राह्म है, दूसरा पाद्य, तीसरा वैष्णव, चौथा शैव, पाँचवाँ भागवत, छटा नारदीय और सातवाँ मार्कण्डेय हैं २१ इसी प्रकार आठवाँ आग्नेय, नवाँ भविष्यत, दसवाँ ब्रह्मवैवर्त्त और ग्यारहवाँ पुराण लैंग कहा जाता है २२ तथा बारहवाँ वाराह, तेरहवाँ स्कांद, चौदहवाँ वामन, पन्द्रहवाँ कौर्म तथा इनके पश्चात मात्स्य, गारुड और ब्रह्माण्डपुराण हैं हे महामुने ! ये ही अठारह महापुराण हैं २३२४ इनके अतिरिक्त मुनिजनों ने और भी अनेक उपपुराण बतलाये हैं इन सभी में सृष्टि, प्रलय, देवता आदिकों के वंश, मन्वन्तर और भिन्नभिन्न राजवंशों के चरित्रोंका वर्णन किया गया है २५

हे मैत्रेय ! जिस पुराण को मैं तुम्हें सुना रहा हूँ वह पाद्मपुराण के अनन्तर कहा हुआ वैष्णव नामक महापुराण है २६ हे साधुश्रेष्ठ ! इसमें सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करते हुए सर्वत्र केवल विष्णुभगवान् का ही वर्णन किया गया है ॥ २७ ॥

: वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्रये ही चौदह विद्याएँ हैं २८ इन्हीमें आयुर्वेद, धनुर्वेद और गान्धर्व इन तीनों को तथा चौथे अर्थशास्त्र को मिला लेने से कुल अठारह विद्या हो जाती है ऋषियों के तीन भेद हैंप्रथम ब्रह्मर्षि, द्वितीय देवर्षि और फिर राजर्षि २९३० इसप्रकार मैंने तुमसे वेदों की शाखा, शाखाओं के भेद, उनके रचयिता तथा शाखा-भेद के कारणों का भी वर्णन कर दिया ॥ ३१ ॥ इसी प्रकार समस्त मन्वन्तरों में एक-से शाखाभेद रहते हैं; हे द्विज ! प्रजापति ब्रह्माजी से प्रकट होनेवाली श्रुति तो नित्य है, ये तो उसके विकल्पमात्र हैं ॥ ३२ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे षष्ठोऽध्यायः

अध्याय-07 यमगीता

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे गुरो ! मैंने जो कुछ पूछा था वह सब आपने यथावत वर्णन किया । अब मैं एक बात और सुनना चाहता हूँ, वह आप मुझसे कहिये ॥ १ ॥ हे महामुने ! सातों द्वीप, सातों पाताल और सातों लोक – ये सभी स्थान जो इस ब्रह्मांड के अंतर्गत हैं, स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथा स्थूल और स्थूलतर जीवों से भरे हुए हैं ॥ २ -३ ॥ हे मुनिसत्तम ! एक अंगुल का आठवाँ भाग भी कोई ऐसा स्थान नहीं हैं जहाँ कर्म-बंधन से बँधे हुए जीव न रहते हो ॥ ४ ॥ किन्तु हे भगवन ! आयु के समाप्त होनेपर ये सभी यमराज के वशीभूत हो जाते हैं और उन्हीं के आदेशानुसार नरक आदि नाना प्रकार की यातनाएँ भोगते हैं ॥ ५ ॥ तदनन्तर पाप-भोग के समाप्त होनेपर वे देवादि योनियों में घूमते रहते हैं – सकल शास्त्रों का ऐसा ही मत है ॥ ६ ॥ अत: आप मुझे वह कर्म बताइये जिसे करने से मनुष्य यमराज के वशीभूत नहीं होता; मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥ ७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मुने ! यही प्रश्न महात्मा नकुलने पितामह भीष्म से पूछा था । उसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा था वह सुनो ॥ ८ ॥

भीष्मजी ने कहा – हे वत्स ! पूर्वकाल में मेरे पास एक कलिंगदेशीय ब्राह्मण मित्र आया और मुझसे बोला – मेरे पुछ्नेपर एक जातिस्मर मुनिने बतलाया था कि ये सब बातें अमुक – अमुक प्रकार ही होगी ।’ हे वत्स ! उस बुद्धिमान ने जो – जो बातें जिस-जिस प्रकार होने को कही थीं वे सब ज्यों – कीं – त्यों हुई ॥ ९ – १० ॥ इसप्रकार उसमें श्रद्धा हो जाने से मैंने उससे फिर कुछ और भी प्रश्न किये और उनके उत्तर में उस द्विजश्रेष्ठ ने जो- जो बातें बतलायीं उनके विपरीत मैंने कभी कुछ नहीं देखा ॥ ११ ॥ एक दिन, जो बात तुम मुझसे पूछते हो वही मैंने उस कालिंग ब्राह्मण से पूछी । उस समय उसने उस मुनि के वचनों को याद करके कहा कि उस जातिस्मर ब्राह्मण ने, यम और उनके दूतों के बीचमें जो संवाद हुआ था, वह अति गूढ़ रहस्य मुझे सुनाया था । वही मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १२ – १३ ॥

कालिंग बोला – अपने अनुचर को हाथमें पाश लिये देखकर यमराज ने उसके कानमें कहा – ‘भगवान मधुसुदन के शरणागत व्यक्तियों को छोड़ देना, क्योंकि मैं वैष्णवों से अतिरिक्त और सब मनुष्यों का ही स्वामी हूँ ॥ १४ ॥ देव-पूज्य विधाताने मुझे ‘यम’ नामसे लोकों के पाप-पुण्य का विचार करने के लिये नियुक्त किया है । मैं अपने गुरु श्रीहरि के वशीभूत हूँ, स्वतंत्र नहीं हूँ । भगवान विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करने में समर्थ हैं ॥ १५ ॥ जिस प्रकार सुवर्ण भेदरहित और एक होकर भी कटक, मुकुट तथा कर्णिका आदि के भेद से नानारूप प्रतीत होता है उसी प्रकार एक ही हरिका देवता, मनुष्य और पशु आदि नाना-विध कल्पनाओं से निर्देश किया जाता हैं ॥ १६ ॥

जिसप्रकार वायु के शांत होनेपर उसमें उड़ते हुए परमाणु पृथ्वी से मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार गुण-क्षोम से उत्पन्न हुए समस्त देवता, मनुष्य और पशु आदि उस सनातन परमात्मा से लीन हो जाते हैं ॥ १७ ॥ जो भगवान के सुरवरवन्दित चरण-कमलों की परमार्थ-बुद्धिसे वन्दना करता है, घृताहुति से प्रज्वलित अग्नि के समान-समस्त पाप-बंधन से मुक्त हुए उस पुरुष को तुम दुरहीसे छोडकर निकल जाना ॥ १८ ॥

यमराज के ऐसे वचन सुनकर पाशहस्त यमदूत ने उनसे पूछा – ‘प्रभो ! सबके विधाता भगवान हरिका भक्त कैसा होता है, यह आप मुझसे कहिये ॥ १९ ॥

यमराज बोले – जो पुरुष अपने वर्ण-धर्म से विचलित नहीं होता, अपने सुह्रद और विपक्षियों के प्रति समान भाव रखता हैं, किसीका द्रव्य हरण नहीं करता तथा किसी जीव की हिंसा नहीं करता उस अत्यंत रागादि-शून्य और निर्मलचित व्यक्ति को भगवान विष्णुका भक्त जानो ॥ २० ॥ जिस निर्मलमतिका चित्त कलि-कल्मषरूप मलसे मलिन नहीं हुआ और जिसने अपने ह्रदय में श्रीजनार्दन को बसाया हुआ है उस मनुष्यको भगवान का अतीव भक्त समझो ॥ २१ ॥

जो एकांत में पड़े हुए दूसरे के सोने को देखकर भी उसे अपनी बुद्धिद्वारा तृण के समान समझता हैं और निरंतर भगवान का अनन्यभाव से चिन्तन करता है उस नरश्रेष्ठ को विष्णुका भक्त जानो ॥ २२ ॥ कहाँ तो स्फटिकागिरीशिला के समान अति निर्मल भगवान विष्णु और कहाँ मनुष्यों के चित्त में रहनेवाले राग-द्वेषादि दोष ? हिमकर (चन्द्रमा) के किरण जालमें अग्नि-तेज की उष्णता कभी नहीं रह सकती है ॥ २३ ॥ जो व्यक्ति निर्मल-चित्त, मात्सर्यरहित, प्रशांत, शुद्ध-चरित्र, समस्त जीवों का सुह्रद, प्रिय और हितवादी तथा अभिमान एवं मायासे रहित होता है उसके ह्रदय में भगवान वासुदेव सर्वदा विराजमान रहते हैं ॥ २४ ॥ उन सनातन भगवान के ह्रदय में विराजमान होनेपर पुरुष इस जगत में सौम्यमूर्ति हो जाता हैं, जिसप्रकार नवीन शाल वृक्ष अपने सौन्दर्य से ही भीतर भरे हुए अति सुंदर पार्थिव रस को बतला देता हैं ॥ २५ ॥

हे दूत ! यम और नियम के द्वारा जिनकी पापराशि दूर हो गयी हैं, जिनका ह्रदय निरंतर श्रीअच्युत में ही आसक्त रहता हैं, तथा जिनमें गर्व, अभिमान और मात्सर्य का लेश भी नहीं रहा हैं उन मनुष्यों को तुम दुरही से त्याग देना ॥ २६ ॥ यदि खड्ग, शंख और गदाधारी अव्ययात्मा भगवान हरि ह्रदय में विराजमान हैं तो उन पापनाशक भगवान के द्वारा उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । सूर्य के रहते हुए भला अन्धकार कैसे ठहर सकता हैं ? ॥ २७ ॥ जो पुरुष दूसरों का धन हरण करता हैं, जीवों की हिंसा करता हैं तथा मिथ्या और कटुभाषण करता हैं उस अशुभ कर्मोंन्मत दुष्टबुद्धि के ह्रदय में भगवान अनंत नहीं टिक सकते ॥ २८ ॥ जो कुमति दूसरों के वैभव को नहीं देख सकता, जो दूसरों की निंदा करता है, साधुजनों का अपकार करता है तथा न तो श्रीविष्णुभगवान् की पूजा ही करता हैं और न दान ही देता हैं उस अधम के ह्रदय में श्रीजनार्दन का निवास कभी नहीं हो सकता ॥ २९ ॥

जो दुष्टबुद्धि अपने परम सुह्रद, बंधू-बान्धव, स्त्री, पुत्र, कन्या, पिता तथा भृत्यवर्ग के प्रति अर्थतृष्णा प्रकट करता हैं उस पापाचारी को भगवान का भक्त मत समझो ॥ ३० ॥ जो दुर्बुद्धि पुरुष असत्कर्मों में लगा रहता हैं, नीच पुरुषों के आचार और उन्हीं के संग में उन्मत्त रहता हैं तथा नित्यप्रति पापमय कर्मबंधन से ही बँधता जाता है वह मनुष्यरूप पशु ही है; वह भगवान वासुदेवका भक्त नहीं हो सकता ॥ ३१ ॥ यह सकल प्रपंच और मैं एक परमपुरुष परमेश्वर वासुदेव ही है, ह्रदय में भगवान अनंतके स्थित होने से जिनकी ऐसी स्थिर बुद्धि हो गयी हो, उन्हें तुम दुरही से छोडकर चले जाना ॥ ३२ ॥ ‘ हे कमलनयन ! हे वासदेव ! हे विष्णो ! हे धरणिधर ! हे अच्युत ! हे शंख – चक्र – पाणे ! आप हमें शरण दीजिये – जो लोग इस प्रकार पुकारते हों उन निष्पाप व्यक्तियों को तुम दूरसे ही त्याग देना ॥ ३३ ॥

जिस पुरुषश्रेष्ठ के अंत:करण में वे अव्ययात्मा भगवान विराजते हैं उसका जहाँतक दृष्टिपात होता हैं वहाँ तक भगवान के चक्र के प्रभाव से अपने बल-वीर्य नष्ट हो जानेके कारण तुम्हारी अथवा मेरी गति नहीं हो सकती । वह (महापुरुष) तो अन्य (वैकुंठादि ) लोकों का पात्र है ॥ ३४ ॥

कालिंग बोला – हे कुरुवर ! अपने दूत को शिक्षा देने के लिये सुर्यपुत्र धर्मराज ने उससे इस प्रकार कहा । मुझसे यह प्रसंग उस जातिस्मर मुनिने कहा था और मैंने यह सम्पूर्ण कथा तुमको सुना दी है ॥ ३५ ॥

श्रीभीष्मजी बोले – हे नकुल ! पूर्वकाल में कलिंगदेश में आये हुए उस महात्मा ब्राह्मण ने प्रसन्न होकर मुझे यह सब विषय सुनाया था ॥ ३६ ॥ हे वत्स ! वही सम्पूर्ण वृतांत, जिस प्रकार कि इस संसार-सागर में एक विष्णुभगवान को छोडकर जीव का और कोई भी रक्षक नहीं हैं, मैंने ज्यों – का – त्यों तुम्हे सुना दिया ॥ ३७ ॥ जिसका ह्रदय निरंतर भगवत्परायण रहता हैं उसका यम, यमदूत, यमपाश, यमदंड अथवा यम-यातना कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते ॥ ३८ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे सप्तमोऽध्यायः

अध्याय-08 विष्णुभगवान की आराधना और चातुर्वर्ण्य – धर्म का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले हे भगवन ! जो लोग संसार को जीतना चाहते हैं वे जिस प्रकार जगत्पति भगवान विष्णु की उपासना करते हैं, वह वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ और हे महामुने ! उन गोविन्द की आराधना करनेपर आराधन-परायण पुरुषों को जो फल मिलता है, वह भी मैं सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! तुम जो कुछ पूछते हो यही बात महात्मा सगर ने और्वसे पूछी थी । उसके उत्तर में उन्होंने जो कुछ कहा वह मैं तुमको सुनाता हूँ, श्रवण करो ॥ ३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सगरने भृगुवंशी महात्मा और्व को प्रणाम करके उनसे भगवान विष्णु की आराधना के उपाय और विष्णुकी उपासना करने से मनुष्य को जो फल मिलता है उसके विषयमें पूछा था । उनके पूछनेपर और्व ने यत्नपूर्वक जो कुछ कहा था वह सब सुनो ॥ ४ – ५ ॥

और्व बोले भगवान विष्णु की आराधना करने से मनुष्य भूमंडलसम्बन्धी समस्त मनोरथ, स्वर्ग, स्वर्गसे भी श्रेष्ठ ब्रह्मपद और परम निर्वाणपद भी प्राप्त कर लेता है हे राजेद्र ! वह जिसजिस फल की जितनीजितनी इच्छा करता है, अल्प हो या अधिक, श्रीअच्युत की आराधना से निश्चय ही यह सब प्राप्त कर लेता है और हे भूपाल ! तुमने जो पूछा कि श्रीहरि की आराधना किस प्रकार की जाय, सो सब मैं तुमसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ८ ॥ जो पुरुष वर्णाश्रमधर्म का पालन करनेवाला है वही परमपुरुष विष्णु की आराधना कर सकता है; उनको संतुष्ट करने का और कोई मार्ग नहीं है हे नृप ! यज्ञों का यजन करनेवाला पुरुष यन (विष्णु) ही का यजन करता है, जप करनेवाला उन्हीं का जप करता हैं और दूसरों की हिंसा करनेवाला उन्हीं की हिंसा करता है; क्योंकि भगवान हरि सर्वभूतमय है १०

अत: सदाचारयुक्त पुरुष अपने वर्ण के लिये विहित धर्म का आचरण करते हुए श्रीजनार्दन ही की उपासना करता हैं ११ हे पृथ्वीपते ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र अपनेअपने धर्म का पालन करते हुए ही विष्णुकी आराधना करते हैं अन्य प्रकार से नहीं १२

जो पुरुष दूसरों की निंदा, चुगली अथवा मिथ्याभाषण नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससे दूसरों को खेद हो, उससे निश्चय ही भगवान केशव प्रसन्न रहते हैं १३ हे राजन ! जो पुरुष दूसरों की स्त्री, धन और हिंसा में रूचि नही करता उससे सर्वदा ही भगवान केशव संतुष्ट रहते हैं १४ हे नरेंद्र ! जो मनुष्य ! किसी प्राणी अथवा [ वृक्षादि ] अन्य देहधारियों को पीड़ित अथवा नष्ट नहीं करता उससे श्रीकेशव संतुष्ट रहते हैं १५ जो पुरुष देवता, ब्राह्मण और गुरुजनों की सेवामें सदा तत्पर रहता हिं, हे नरेश्वर ! उससे गोविन्द सदा प्रसन्न रहते हैं १६ \ जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रों के समान ही समस्त प्राणियों का भी हितचिंतक होता है वह सुगमता से ही श्रीहरि को प्रसन्न कर लेता है १७ हे नृप ! जिसका चित्त रागादि दोषों से दूषित नहीं है उस विशुद्धचित्त पुरुष से भगवान विष्णु सदा संतुष्ट रहते हैं १८ हे नृपश्रेष्ठ ! शास्त्रों में जोजो वर्णाश्रमधर्म कहे हैं उनउनका ही आचरण करके पुरुष विष्णु की आराधना कर सकता हैं और किसी प्रकार नहीं १९

सगर बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण वर्णधर्म और आश्रमधर्मों को सुनना चाहता हूँ, कृपा करके वर्णन कीजिये ॥ २० ॥

और्व बोले – जिनका मैं वर्णन करता हूँ, उन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के धर्मों का तुम एकाग्रचित्त होकर क्रमश: श्रवण करो ॥ २१ ॥ ब्राह्मण का कर्तव्य है कि दान दे, यज्ञोंद्वारा देवताओं का यजन करें, स्वाध्यायशील हो, नित्य स्नान-तर्पण करें और अग्न्याधान आदि कर्म करता रहे ॥ २२ ॥ ब्राह्मण को उचित है कि वृत्ति के लिये दूसरों से यज्ञ करावे, औरोंको पढावे और न्यायोंपार्जित शुद्ध धनमें से न्यायानुकुल द्रव्य-संग्रह करे ॥ २३ ॥ ब्राह्मण को कभी किसीका अहित नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियों के हितमें तत्पर रहना चाहिये । सम्पूर्ण प्राणियों में मैत्री रखना ही ब्राह्मण क परम धन है ॥ २४ ॥ पत्थर में और पराये रत्न में ब्राह्मण को समान-बुद्धि रखनी चाहिये । हे राजन ! पत्नी के विषय में ऋतूगामी होना ही ब्राह्मण के लिये प्रशंसनीय कर्म है ॥ २५ ॥

क्षत्रिय को उचित है कि ब्राह्मणों को यथेच्छ दान दे, विविध यज्ञों का अनुष्ठान करे और अध्ययन करे ॥ २६ ॥ शस्त्र धारण करना और पृथ्वी की रक्षा करना ही क्षत्रिय की उत्तम आजीविका है; इनमें भी पृथ्वी-पालन ही उत्कृष्टतर है ॥ २७ ॥ पृथ्वी-पालन से ही राजालोग कृतकृत्य हो जाते हैं, क्योंकि पृथ्वी में होनेवाले यज्ञादि कर्मों का अंश राजाको मिलता है ॥ २८ ॥ जो राजा अपने वर्णधर्म को स्थिर रखता है वह दुष्टों को दंड देने और साधुजनों का पालन करने से अपने अभीष्ट लोकों को प्राप्त कर लेता है २९

हे नरनाथ ! लोकपितामह ब्रह्माजी ने वैश्यों को पशु-पालन, वाणिज्य और कृषि – ये जीविकारूप से दिये हैं ॥ ३० ॥ अध्ययन, यज्ञ, दान और नित्य-नैमित्तिकादि कर्मों का अनुष्ठान – ये कर्म उसके लिये भी विहित है ॥ ३१ ॥

शुद्र का कर्तव्य यही हैं कि द्विजातियों की प्रयोजन-सिद्धि के लिये कर्म करें और उसीसे अपना पालन-पोषण करें, अथवा वस्तुओं के लेने-बेचने अथवा कारीगरी के कामों से निर्वाह करे ॥ ३२ ॥ अति नम्रता, शौच, निष्कपट स्वामि-सेवा, मन्त्रहीन यज्ञ, अस्तेय, सत्संग और ब्राह्मण की रक्षा करना – ये शुद्र के प्रधान कर्म है ॥ ३३ ॥ हे राजन ! शुद्र को भी उचित हैं कि दान दे, बलिवैश्वदेव अथवा नमस्कार आदि अल्प यज्ञों का अनुष्ठान करे, पितृश्राद्ध आदि कर्म करे, अपने आश्रित कुटुम्बियों के भरण-पोषण के लिये सकल वर्णों से द्रव्य-संग्रह करे और ऋतूकाल में अपनी ही स्त्री से प्रसंग करे ॥ ३४ – ३५ ॥ हे नरेश्वर ! इनके अतिरिक्त समस्त प्राणियोंपर दया, सहनशीलता, अमानिता, सत्य, शौच, अधिक परिश्रम न करना, मंगलाचरण, प्रियवादिता, मैत्री, निष्कामता, अकृपणता और किसी के दोष न देखना – ये समस्त वर्णों के सामन्य गुण हैं ॥ ३६ – ३७ ॥

सब वर्णों के सामान्य लक्षण इसी प्रकार हैं । अब इन ब्राह्मणादि चारों वर्णों के आपधर्म और गुणों का श्रवण करो ॥ ३८ ॥ आपत्ति के समय ब्राह्मण को क्षत्रिय और वैश्य-वर्णों की वृत्तिका अवलम्बन करना चाहिये तथा क्षत्रिय को केवल वैश्ववृत्तिका ही आश्रय लेना चाहिये । ये दोनों शुद्र का कर्म (सेवा आदि) कभी न करें । ३९ ॥

हे राजन ! इन उपरोक्त वृत्तियों को भी सामर्थ्य होनेपर त्याग दे; केवल आपत्काल में ही इनका आश्रय ले, कर्म-संकरता (कर्मों का मेल) न करें ॥ ४० ॥ हे राजन ! इसप्रकार वर्णधमों का वर्णन तो मैं तुमसे कर दिया; अब आश्रम-धर्मों का निरूपण और करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ ४१ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे अष्टमोऽध्यायः

अध्याय-09 ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों का वर्णन

और्व बोलेहे भूपते ! बालक को चाहिये कि उपनयनसंस्कार के अनन्तर वेदाध्ययन में तत्पर होकर ब्रह्मचर्य का अवलम्बन कर सावधानतापूर्वक गुरुगृह में निवास करे वहाँ रहकर उसे शौच और आचार-व्रतका पालन करते हुए गुरु की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये तथा व्रतादिका आचरण करते हुए स्थिर-बुद्धिसे वेदाध्यायन करना चाहिये ॥ २ ॥ हे राजन ! दोनों संध्याओं में एकाग्र होकर सूर्य और अग्निकी उपासना करे तथा गुरुका अभिवादन करें ॥ ३ ॥ गुरु के खड़े होनेपर खड़ा हो जाय, चलनेपर पीछे-पीछे चलने लगे तथा बैठ जानेपर नीचे बैठ जाय । हे नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार कभी गुरु के विरुद्ध कोई आचरण न करे ॥ ४ ॥ गुरूजी के कहनेपर ही उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्त से वेदाध्ययन करें और उनकी आज्ञा होनेपर ही भिक्षान्न भोजन करे ॥ ५ ॥ जल में प्रथम आचार्य के स्नान कर चुकनेपर फिर स्वयं स्नान करे तथा प्रतिदिन प्रात:काल गुरूजी के लिये समिधा, जल, कुश और पुष्पादि लाकर जुटा दे ॥ ६ ॥

इसप्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त कर चुकनेपर बुद्धिमान शिष्य गुरूजी की आज्ञा से उन्हें गुरुदक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ॥ ७ ॥ हे राजन ! फिर विधिपूर्वक पाणिग्रहण कर अपनी वर्णानुकूल वृत्ति से द्रव्योंपार्जन करता हुआ सामर्थ्यानुसार समस्त गृहकार्य करता रहे ॥ ८ ॥ पिण्ड-दानादि से पितृगणकी, यज्ञादि से देवताओं की, अन्नदान से अतिथियों की, स्वाध्याय से ऋषियों की, पुत्रोत्पत्तिसे प्रजापति की, बलियों (अन्नभाग) से भूतगण की तथा वात्सल्यभावसे सम्पूर्ण जगतकी पूजा करते हुए पपुरुष अपने कर्मोद्वारा मिले हुए उत्तमोत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता है ॥ ९ – १० ॥

जो केवल भिक्षावृत्तिसे ही रहनेवाले परिव्राजक और ब्रह्मचारी आदि हैं उनका आश्रय भी गृहस्थाश्रम ही हैं, अत: यह सर्वश्रेष्ठ हैं ११ हे राजन ! विप्रगण वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और देश दर्शन के लिये पृथ्वी-पर्यटन किया करते हैं ॥ १२ ॥ उनमे से जिनका कोई निश्चित गृह अथवा भोजन-प्रबंध नहीं होता और जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीँ ठहर जाते हैं, उन सबका आधार और मूल गृहस्थाश्रम ही है ॥ १३ ॥ हे राजन ! ऐसे लोग जब घर आवें तो उनका कुशल-प्रश्न और मधुर वचनों से स्वागत करें तथा शय्या, आसन और भोजन के द्वारा उनका यथाशक्ति सत्कार करे ॥ १४ ॥ जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता हैं उसे अपने समस्त दुष्कर्म देकर वह अतिथि उसके पुण्यकर्मों को स्वयं ले जाता हाँ ॥ १५ ॥ ग्रहस्थ के लिये अतिथि के प्रति अपमान, अंहकार और दम्भ का आचरण करना, उसे देकर पछताना, उसपर प्रहार करना अथवा उससे कटुभाषण करना उचित नहीं है ॥ १६ ॥ इसप्रकार जो गृहस्थ अपने परम धर्मका पूर्णतया पालन करता है वह समस्त बन्धनों से मुक्त होकर अत्युत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता हैं ॥ १७ ॥

हे राजन ! इसप्रकार गृह्स्थोचित कार्य करते-करते जिसकी अवस्था ढल गयी हो उस गृहस्थ को उचित है कि स्त्री को पुत्रों के प्रति सौंपकर अथवा अपने साथ लेकर वनको चला जाय ॥ १८ ॥ वहाँ पत्र, मूल, फल आदिका आहार करता हुआ, लोभ, श्मश्रु (दाढ़ी-मूँछ) और जटाओं को धारण कर पृथ्वीपर शयन करें और मुनिवृत्ति का अवलम्बन कर सब प्रकार अतिथि की सेवा करें ॥ १९ ॥ उसे चर्म, काश और कुशाओं से अपना बिछौना तथा ओढने का वस्त्र बनाना चाहिये । हे नरेश्वर ! उस मुनि के लिये त्रिकाल-स्नान का विधान है ॥ २० ॥ इसीप्रकार देवपूजन, होम, सब अतिथियों का सत्कार, भिक्षा और बलिवैश्वदेव, भी उसके विहित कर्म है ॥ २१ ॥ हे राजेन्द्र ! वन्य तैलादि को शरीर में मलना और शीतोष्णका सहन करते हुए तपस्या में लगे रहना उसके प्रशस्त कर्म है ॥ २२ ॥ जो वानप्रस्थ मुनि इन नियत कर्मों का आचरण करता है वह अपने समस्त दोषोंको अग्नि के समान भस्म कर देता हैं और नित्य-लोकों को प्राप्त कर लेता हैं ॥ २३ ॥

हे नृप ! पंडितगण जिस चतुर्थ आश्रम को भिक्षु आश्रम कहते हैं अब मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ हे नरेन्द्र ! तृतीय आश्रम के अनन्तर पुत्र, द्रव्य और स्त्री आदि के स्नेह को सर्वथा त्यागकर तथा मात्सर्य को छोडकर चतुर्थ आश्रम में प्रवेश करे ॥ २५ ॥ हे पृथ्वीपते ! भिक्षुको उचित हैं कि अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गसम्बन्धी समस्त कर्मों को छोड़ दें, शत्रु-मित्रादि में समान भाव रखें और सभी जीवों का सुह्रद हो ॥ २६ ॥ निरंतर समाहित रहकर जरायुज, अंडज और स्व्देज आदि समस्त जीवों से मन, वाणी अथवा कर्मद्वारा कभी द्रोह न करें तथा सब प्रकार की आसक्तियों को त्याग दे ॥ २७ ॥ ग्राम में एक रात और पुर में पाँच रात्रितक रहें तथा इतने दिन भी तो इसप्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष न हो ॥ २८ ॥ जिस समय घरों में अग्नि शांत हो जाय और लोग भोजन कर चुके उस समय प्राणरक्षा के लिये उत्तम वर्णों में भिक्षा के लिये जाय ॥ २९ ॥ परिव्राजक को चाहिये कि काम, क्रोध तथा दर्प, लोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणों को छोडकर ममताशून्य होकर रहे ॥ ३० ॥ जो मुनि समस्त प्राणियों को अभयदान देकर विचरता है उसको भी किसीसे कबी कोई भय नहीं होता ३१ जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रम में अपने शरीर में स्थित प्राणादिसहित जठराग्नि के उद्देश्य से अपने मुख में भिक्षान्नरूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निहोत्र करके अग्निहोत्रियों के लोकों को प्राप्त हो जाता हैं ॥ ३२ ॥ जो ब्राह्मण [ ब्रह्म से भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत भगवान का ही संकल्प है ] बुद्धियोगी से युक्त होकर, यथाविधि आचरण करता हुआ उस मोक्शाश्रम का पवित्रता और सुखपूर्वक आचरण करता है, वह निरीबंधन अग्नि के समान शांत होता है और अंत में ब्रह्मलोक प्राप्त करता है ३३

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे नवमोऽध्यायः

अध्याय-10 जातकर्म, नामकरण और विवाह-संस्कार की विधि

सगर बोले हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने चारों आश्रम और चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन किया । अब मैं आपके द्वारा मनुष्यों के कर्मों को सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ हे भृगुश्रेष्ठ ! मेरा विचार हैं कि आप सर्वज्ञ है । अतएव आप मनुष्यों के नित्य-नैमित्तिक और काम्य आदि सब प्रकार के कर्मों का निरूपण कीजिये ॥ २ ॥

और्य बोले – हे राजन ! आपने जो नित्य-नैमित्तिक आदि क्रियाकलाप के विषय में पूछा सो मैं सबका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ ३ ॥

पुत्र के उत्पन्न होनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकांड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे ॥ ४ ॥ हे नरेश्वर ! पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा द्विजातियों के व्यवहार के अनुसार देव और पितृपक्ष की तृप्ति के लिये श्राद्ध करे ॥ ५ ॥ और हे राजन ! प्रसन्नतापूर्वक देवतीर्थ (अँगुलियों के अग्रभाग) द्वारा नांदीमुख पितृगण को दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे ॥ ६ ॥ अथवा प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल) द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्यों का दान करें । इसी प्रकार [ कन्या अथवा पुत्रों के विवाह आदि ] समस्त वृद्धिकालों में भी करे ॥ ७ ॥

तदनन्तर, पुत्रोत्पत्तिके दसवे दिन पिता नामकरण-संस्कार करे । पुरुष का नाम पुरुषवाचक होना चाहिये । उसके पूर्व में देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा आदि होने चाहिये ॥ ८ ॥ ब्राह्मण के नाम के अंतमे शर्मा, क्षत्रिय के अंत में वर्मा तथा वैश्य और शूद्रों के नामांत में क्रमश: गुप्त और दास शब्दों का प्रयोग करना चाहिये ॥ ९ ॥ नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, अमांगलिक और निंदनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये ॥ १० ॥ अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरों से युक्त नाम न रखे । जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछे के वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे ॥ ११ ॥

तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरुगृह में रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे ॥ १२ ॥ हे भूपाल ! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरु को दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले ॥ १३ ॥ यह दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रों की सेवा-शुश्रूषा करता रहे ॥ १४ ॥ अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले । हे राजन ! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे ॥ १५ ॥

यदि विवाह करना हो तो अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्या से विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पांडूवर्णा (भूरे रंगकी) स्त्री से सम्बन्ध न करे ॥ १६ ॥ जिसके जन्म से ही अधिक या न्यून अंग हो, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्री से पाणिग्रहण न करे ॥ १७ ॥ बुद्धिमान पुरुषको उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिता के अनुसार अंगहीना हो, जिसके श्मश्रु (मूँछों के ) चिन्ह हो, जो पुरुष के से आकारवाली हो अथवा घर्घर शब्द करनेवाले अतिमन्द या गोल नेत्रोवाली हो उस स्त्री से विवाह न करे ॥ १८ – १९ ॥ जिसकी जंघाओंपर रोम हो, जिसके गल्फ ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलों में गड्डे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे ॥ २० ॥ जिसकी कान्ति अत्यंत उदासीन न हो, नख पांडूवर्ण हों, नेत्र लाल हों तथा हाथ-पैर कुछ भारी हो, बुद्धिमान पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे ॥ २१ ॥ जो अति वामन अथवा अति दीर्घ हो, जिसकी भृकुटियाँ जुडी हुई हो, जिसके दाँतों में अधिक अंतर हो तथा जो दन्तुर (अंगों को दाँत निकले हुए) मुखवाली हो उस स्त्रीसे कभी विवाह न करे ॥ २२ ॥ हे राजन ! मातृपक्ष से पाँचवी पीढ़ीतक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुष को नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये ॥ २३ ॥ ब्राह्य, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच – ये आठ प्रकार के विवाह है ॥ २४ ॥ इनमें से जिस विवाह को जिस वर्ण के लिये महर्षियों ने धर्मानुकुल कहा है उसी के द्वारा दार-परिग्रह करे, अन्य विधियों को छोड़ दे ॥ २५ ॥ इसप्रकार सहधर्मिणी को प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्म का पालन करे, क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान फल देनेवाला होता है २६

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे दशमोऽध्यायः

अध्याय-11 गृहस्थसम्बन्धी सदाचार का वर्णन

और्व बोले – हे भूपते ! बालक को चाहिये कि उपनयन-संस्कार के अनन्तर वेदाध्ययन में तत्पर होकर ब्रह्मचर्य का अवलम्बन कर सावधानतापूर्वक गुरुगृह में निवास करे ॥ १ ॥ वहाँ रहकर उसे शौच और आचार-व्रतका पालन करते हुए गुरु की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये तथा व्रतादिका आचरण करते हुए स्थिर-बुद्धिसे वेदाध्यायन करना चाहिये ॥ २ ॥ हे राजन ! दोनों संध्याओं में एकाग्र होकर सूर्य और अग्निकी उपासना करे तथा गुरुका अभिवादन करें ॥ ३ ॥ गुरु के खड़े होनेपर खड़ा हो जाय, चलनेपर पीछे-पीछे चलने लगे तथा बैठ जानेपर नीचे बैठ जाय । हे नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार कभी गुरु के विरुद्ध कोई आचरण न करे ॥ ४ ॥ गुरूजी के कहनेपर ही उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्त से वेदाध्ययन करें और उनकी आज्ञा होनेपर ही भिक्षान्न भोजन करे ॥ ५ ॥ जल में प्रथम आचार्य के स्नान कर चुकनेपर फिर स्वयं स्नान करे तथा प्रतिदिन प्रात:काल गुरूजी के लिये समिधा, जल, कुश और पुष्पादि लाकर जुटा दे ॥ ६ ॥

इसप्रकार अपना अभिमत वेदपाठ समाप्त कर चुकनेपर बुद्धिमान शिष्य गुरूजी की आज्ञा से उन्हें गुरुदक्षिणा देकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे ॥ ७ ॥ हे राजन ! फिर विधिपूर्वक पाणिग्रहण कर अपनी वर्णानुकूल वृत्ति से द्रव्योंपार्जन करता हुआ सामर्थ्यानुसार समस्त गृहकार्य करता रहे ॥ ८ ॥ पिण्ड-दानादि से पितृगणकी, यज्ञादि से देवताओं की, अन्नदान से अतिथियों की, स्वाध्याय से ऋषियों की, पुत्रोत्पत्तिसे प्रजापति की, बलियों (अन्नभाग) से भूतगण की तथा वात्सल्यभावसे सम्पूर्ण जगतकी पूजा करते हुए पपुरुष अपने कर्मोद्वारा मिले हुए उत्तमोत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता है ॥ ९ – १० ॥

जो केवल भिक्षावृत्तिसे ही रहनेवाले परिव्राजक और ब्रह्मचारी आदि हैं उनका आश्रय भी गृहस्थाश्रम ही हैं, अत: यह सर्वश्रेष्ठ हैं ॥ ११ ॥ हे राजन ! विप्रगण वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और देश दर्शन के लिये पृथ्वी-पर्यटन किया करते हैं ॥ १२ ॥ उनमे से जिनका कोई निश्चित गृह अथवा भोजन-प्रबंध नहीं होता और जो जहाँ सायंकाल हो जाता है वहीँ ठहर जाते हैं, उन सबका आधार और मूल गृहस्थाश्रम ही है ॥ १३ ॥ हे राजन ! ऐसे लोग जब घर आवें तो उनका कुशल-प्रश्न और मधुर वचनों से स्वागत करें तथा शय्या, आसन और भोजन के द्वारा उनका यथाशक्ति सत्कार करे ॥ १४ ॥ जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता हैं उसे अपने समस्त दुष्कर्म देकर वह अतिथि उसके पुण्यकर्मों को स्वयं ले जाता हाँ ॥ १५ ॥ ग्रहस्थ के लिये अतिथि के प्रति अपमान, अंहकार और दम्भ का आचरण करना, उसे देकर पछताना, उसपर प्रहार करना अथवा उससे कटुभाषण करना उचित नहीं है ॥ १६ ॥ इसप्रकार जो गृहस्थ अपने परम धर्मका पूर्णतया पालन करता है वह समस्त बन्धनों से मुक्त होकर अत्युत्तम लोकों को प्राप्त कर लेता हैं ॥ १७ ॥

हे राजन ! इसप्रकार गृह्स्थोचित कार्य करते-करते जिसकी अवस्था ढल गयी हो उस गृहस्थ को उचित है कि स्त्री को पुत्रों के प्रति सौंपकर अथवा अपने साथ लेकर वनको चला जाय ॥ १८ ॥ वहाँ पत्र, मूल, फल आदिका आहार करता हुआ, लोभ, श्मश्रु (दाढ़ी-मूँछ) और जटाओं को धारण कर पृथ्वीपर शयन करें और मुनिवृत्ति का अवलम्बन कर सब प्रकार अतिथि की सेवा करें ॥ १९ ॥ उसे चर्म, काश और कुशाओं से अपना बिछौना तथा ओढने का वस्त्र बनाना चाहिये । हे नरेश्वर ! उस मुनि के लिये त्रिकाल-स्नान का विधान है ॥ २० ॥ इसीप्रकार देवपूजन, होम, सब अतिथियों का सत्कार, भिक्षा और बलिवैश्वदेव, भी उसके विहित कर्म है ॥ २१ ॥ हे राजेन्द्र ! वन्य तैलादि को शरीर में मलना और शीतोष्णका सहन करते हुए तपस्या में लगे रहना उसके प्रशस्त कर्म है ॥ २२ ॥ जो वानप्रस्थ मुनि इन नियत कर्मों का आचरण करता है वह अपने समस्त दोषोंको अग्नि के समान भस्म कर देता हैं और नित्य-लोकों को प्राप्त कर लेता हैं ॥ २३ ॥

हे नृप ! पंडितगण जिस चतुर्थ आश्रम को भिक्षु आश्रम कहते हैं अब मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २४ ॥ हे नरेन्द्र ! तृतीय आश्रम के अनन्तर पुत्र, द्रव्य और स्त्री आदि के स्नेह को सर्वथा त्यागकर तथा मात्सर्य को छोडकर चतुर्थ आश्रम में प्रवेश करे ॥ २५ ॥ हे पृथ्वीपते ! भिक्षुको उचित हैं कि अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गसम्बन्धी समस्त कर्मों को छोड़ दें, शत्रु-मित्रादि में समान भाव रखें और सभी जीवों का सुह्रद हो ॥ २६ ॥ निरंतर समाहित रहकर जरायुज, अंडज और स्व्देज आदि समस्त जीवों से मन, वाणी अथवा कर्मद्वारा कभी द्रोह न करें तथा सब प्रकार की आसक्तियों को त्याग दे ॥ २७ ॥ ग्राम में एक रात और पुर में पाँच रात्रितक रहें तथा इतने दिन भी तो इसप्रकार रहे जिससे किसीसे प्रेम अथवा द्वेष न हो ॥ २८ ॥ जिस समय घरों में अग्नि शांत हो जाय और लोग भोजन कर चुके उस समय प्राणरक्षा के लिये उत्तम वर्णों में भिक्षा के लिये जाय ॥ २९ ॥ परिव्राजक को चाहिये कि काम, क्रोध तथा दर्प, लोभ और मोह आदि समस्त दुर्गुणों को छोडकर ममताशून्य होकर रहे ॥ ३० ॥ जो मुनि समस्त प्राणियों को अभयदान देकर विचरता है उसको भी किसीसे कबी कोई भय नहीं होता ॥ ३१ ॥ जो ब्राह्मण चतुर्थ आश्रम में अपने शरीर में स्थित प्राणादिसहित जठराग्नि के उद्देश्य से अपने मुख में भिक्षान्नरूप हविसे हवन करता है, वह ऐसा अग्निहोत्र करके अग्निहोत्रियों के लोकों को प्राप्त हो जाता हैं ॥ ३२ ॥ जो ब्राह्मण [ ब्रह्म से भिन्न सभी मिथ्या है, सम्पूर्ण जगत भगवान का ही संकल्प है ] बुद्धियोगी से युक्त होकर, यथाविधि आचरण करता हुआ उस मोक्शाश्रम का पवित्रता और सुखपूर्वक आचरण करता है, वह निरीबंधन अग्नि के समान शांत होता है और अंत में ब्रह्मलोक प्राप्त करता है ॥ ३३ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे नवमोऽध्यायः

अध्याय-12 जातकर्म, नामकरण और विवाह-संस्कार की विधि

सगर बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! अपने चारों आश्रम और चारों वर्णों के कर्मों का वर्णन किया । अब मैं आपके द्वारा मनुष्यों के कर्मों को सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥ हे भृगुश्रेष्ठ ! मेरा विचार हैं कि आप सर्वज्ञ है । अतएव आप मनुष्यों के नित्य-नैमित्तिक और काम्य आदि सब प्रकार के कर्मों का निरूपण कीजिये ॥ २ ॥

और्य बोले – हे राजन ! आपने जो नित्य-नैमित्तिक आदि क्रियाकलाप के विषय में पूछा सो मैं सबका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ ३ ॥

पुत्र के उत्पन्न होनेपर पिताको चाहिये कि उसके जातकर्म आदि सकल क्रियाकांड और आभ्युदयिक श्राद्ध करे ॥ ४ ॥ हे नरेश्वर ! पूर्वाभिमुख बिठाकर युग्म ब्राह्मणों को भोजन करावे तथा द्विजातियों के व्यवहार के अनुसार देव और पितृपक्ष की तृप्ति के लिये श्राद्ध करे ॥ ५ ॥ और हे राजन ! प्रसन्नतापूर्वक देवतीर्थ (अँगुलियों के अग्रभाग) द्वारा नांदीमुख पितृगण को दही, जौ और बदरीफल मिलाकर बनाये हुए पिण्ड दे ॥ ६ ॥ अथवा प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूल) द्वारा सम्पूर्ण उपचारद्रव्यों का दान करें । इसी प्रकार [ कन्या अथवा पुत्रों के विवाह आदि ] समस्त वृद्धिकालों में भी करे ॥ ७ ॥

तदनन्तर, पुत्रोत्पत्तिके दसवे दिन पिता नामकरण-संस्कार करे । पुरुष का नाम पुरुषवाचक होना चाहिये । उसके पूर्व में देववाचक शब्द हो तथा पीछे शर्मा, वर्मा आदि होने चाहिये ॥ ८ ॥ ब्राह्मण के नाम के अंतमे शर्मा, क्षत्रिय के अंत में वर्मा तथा वैश्य और शूद्रों के नामांत में क्रमश: गुप्त और दास शब्दों का प्रयोग करना चाहिये ॥ ९ ॥ नाम अर्थहीन, अविहित, अपशब्दयुक्त, अमांगलिक और निंदनीय न होना चाहिये तथा उसके अक्षर समान होने चाहिये ॥ १० ॥ अति दीर्घ, अति लघु अथवा कठिन अक्षरों से युक्त नाम न रखे । जो सुखपूर्वक उच्चारण किया जा सके और जिसके पीछे के वर्ण लघु हों ऐसे नामका व्यवहार करे ॥ ११ ॥

तदनन्तर उपनयन-संस्कार हो जानेपर गुरुगृह में रहकर विधिपूर्वक विद्याध्ययन करे ॥ १२ ॥ हे भूपाल ! फिर विद्याध्ययन कर चुकनेपर गुरु को दक्षिणा देकर यदि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करनेकी इच्छा हो तो विवाह कर ले ॥ १३ ॥ यह दृढ़ संकल्पपूर्वक नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहणकर गुरु अथवा गुरुपुत्रों की सेवा-शुश्रूषा करता रहे ॥ १४ ॥ अथवा अपनी इच्छानुसार वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण कर ले । हे राजन ! पहले जैसा संकल्प किया हो वैसा ही करे ॥ १५ ॥

यदि विवाह करना हो तो अपनेसे तृतीयांश अवस्थावाली कन्या से विवाह करे तथा अधिक या अल्प केशवाली अथवा अति साँवली या पांडूवर्णा (भूरे रंगकी) स्त्री से सम्बन्ध न करे ॥ १६ ॥ जिसके जन्म से ही अधिक या न्यून अंग हो, जो अपवित्र, रोमयुक्त, अकुलीना अथवा रोगिणी हो उस स्त्री से पाणिग्रहण न करे ॥ १७ ॥ बुद्धिमान पुरुषको उचित है कि जो दुष्ट स्वभाववाली हो, कटुभाषिणी हो, माता अथवा पिता के अनुसार अंगहीना हो, जिसके श्मश्रु (मूँछों के ) चिन्ह हो, जो पुरुष के से आकारवाली हो अथवा घर्घर शब्द करनेवाले अतिमन्द या गोल नेत्रोवाली हो उस स्त्री से विवाह न करे ॥ १८ – १९ ॥ जिसकी जंघाओंपर रोम हो, जिसके गल्फ ऊँचे हों तथा हँसते समय जिसके कपोलों में गड्डे पड़ते हों उस कन्यासे विवाह न करे ॥ २० ॥ जिसकी कान्ति अत्यंत उदासीन न हो, नख पांडूवर्ण हों, नेत्र लाल हों तथा हाथ-पैर कुछ भारी हो, बुद्धिमान पुरुष उस कन्यासे सम्बन्ध न करे ॥ २१ ॥ जो अति वामन अथवा अति दीर्घ हो, जिसकी भृकुटियाँ जुडी हुई हो, जिसके दाँतों में अधिक अंतर हो तथा जो दन्तुर (अंगों को दाँत निकले हुए) मुखवाली हो उस स्त्रीसे कभी विवाह न करे ॥ २२ ॥ हे राजन ! मातृपक्ष से पाँचवी पीढ़ीतक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ीतक जिस कन्याका सम्बन्ध न हो, गृहस्थ पुरुष को नियमानुसार उसीसे विवाह करना चाहिये ॥ २३ ॥ ब्राह्य, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच – ये आठ प्रकार के विवाह है ॥ २४ ॥ इनमें से जिस विवाह को जिस वर्ण के लिये महर्षियों ने धर्मानुकुल कहा है उसी के द्वारा दार-परिग्रह करे, अन्य विधियों को छोड़ दे ॥ २५ ॥ इसप्रकार सहधर्मिणी को प्राप्तकर उसके साथ गार्हस्थ्यधर्म का पालन करे, क्योंकि उसका पालन करनेपर वह महान फल देनेवाला होता है ॥ २६ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे दशमोऽध्यायः

अध्याय-13 गृहस्थसम्बन्धी सदाचार का वर्णन

सगर बोले-हे मुने! मैं गृहस्थके सदाचारोंको सुनना चाहता हूँ, जिनका आचरण करनेसे वह इहलोक और परलोक दोनों जगह पतित नहीं होता॥१॥

और्व बोले-हे पृथिवीपाल! तुम सदाचारके लक्षण सुनो। सदाचारी पुरुष इहलोक और परलोक दोनोंहीको जीत लेता है॥२॥ ‘सत्’ शब्दका अर्थ साधु है, और साधु वही है जो दोषरहित हो। उस साधु पुरुषका जो आचरण होता है उसीको सदाचार कहते हैं॥३॥ हे राजन् ! इस सदाचारके वक्ता और कर्ता सप्तर्षिगण, मनु एवं प्रजापति हैं॥४॥

हे नृप! बुद्धिमान् पुरुष स्वस्थ चित्तसे ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर अपने धर्म और धर्माविरोधी अर्थका चिन्तन करे॥५॥ तथा जिसमें धर्म और अर्थकी क्षति न हो । ऐसे कामका भी चिन्तन करे। इस प्रकार दृष्ट और अदृष्ट अनिष्टकी निवृत्तिके लिये धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्गके प्रति समान भाव रखना चाहिये॥६॥

हे नृप! धर्मविरुद्ध अर्थ और काम दोनोंका त्याग कर दे तथा ऐसे धर्मका भी आचरण न करे जो उत्तरकालमें दुःखमय अथवा समाज-विरुद्ध हो॥७॥ हे नरेश्वर! तदनन्तर ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर प्रथम मूत्रत्याग करे। ग्रामसे नैर्ऋत्यकोणमें जितनी दूर बाण जा सकता है उससे आगे बढ़कर अथवा अपने निवास स्थानसे दूर जाकर मल-मूत्र त्याग करे। पैर धोया हुआ और जुठा जल अपने घरके आँगनमें न डाले॥८-१०॥अपनी या वृक्षकी छायाके ऊपर तथा गौ, सूर्य, अग्नि, वायु, गुरु और द्विजातीय पुरुषके सामने बुद्धिमान् पुरुष कभी मल-मूत्र त्याग न करे॥११॥ इसी प्रकार हे पुरुषर्षभ! जुते हुए खेतमें, सस्यसम्पन्न भूमिमें, गौओंके गोष्ठमें, जन-समाजमें, मार्गके बीचमें, नदी आदि तीर्थस्थानोंमें, जल अथवा जलाशयके तटपर और श्मशानमें भी कभी मल-मूत्रका त्याग न करे॥१२-१३॥

हे राजन्! कोई विशेष आपत्ति न हो तो प्राज्ञ पुरुषको चाहिये कि दिनके समय उत्तर-मुख और रात्रिके समय दक्षिण-मुख होकर मूत्रत्याग करे॥१४॥ मल-त्यागके समय पृथिवीको तिनकोंसे और सिरको वस्त्रसे ढाँप ले तथा उस स्थानपर अधिक समयतक न रहे और न कुछ बोले ही॥१५॥ हे राजन्! बाँबीकी, चूहोंद्वारा बिलसे निकाली हुई, जलके भीतरकी, शौचकर्मसे बची हुई, घरके लीपनकी, चींटी आदि छोटे-छोटे जीवोंद्वारा निकाली हुई और हलसे उखाड़ी हुई—इन सब प्रकारकी मृत्तिकाओंका शौच कर्ममें उपयोग न करे॥१६-१७॥ हे नृप! लिंगमें एक बार, गुदामें तीन बार, बायें हाथमें दस बार और दोनों हाथोंमें सात बार मृत्तिका लगानेसे शौच सम्पन्न होता है॥ १८॥ तदनन्तर गन्ध और फेनरहित स्वच्छ जलसे आचमन करे। तथा फिर सावधानतापूर्वक बहुत-सी मृत्तिका ले॥१९॥ उससे चरण-शुद्धि करनेके अनन्तर फिर पैर धोकर तीन बार कुल्ला करे और दो बार मुख धोवे॥२०॥ तत्पश्चात् जल लेकर शिरोदेशमें स्थित इन्द्रियरन्ध्र, मूर्द्धा, बाहु, नाभि और हृदयको स्पर्श करे ॥ २१ ॥ फिर भली प्रकार स्नान करनेके अनन्तर केश सँवारे और दर्पण, अंजन तथा दूर्वा आदि मांगलिक द्रव्योंका यथाविधि व्यवहार करे॥ २२॥

तदनन्तर हे पृथिवीपते! अपने वर्णधर्मके अनुसार आजीविकाके लिये धनोपार्जन करे और श्रद्धापूर्वक यज्ञानुष्ठान करे ॥ २३॥ सोमसंस्था, हविस्संस्था और पाकसंस्था-इन सब धर्म-कर्मोंका आधार धन ही है।* अतः मनुष्योंको धनोपार्जनका यत्न करना चाहिये॥२४॥

नित्यकर्मोंके सम्पादनके लिये नदी, नद, तडाग, देवालयोंकी बावड़ी और पर्वतीय झरनोंमें स्नान करना चाहिये॥ २५॥ अथवा कुएँसे जल खींचकर उसके पासकी भूमिपर स्नान करे और यदि वहाँ भूमिपर स्नान करना सम्भव न हो तो कुएँसे खींचकर लाये हुए जलसे घरहीमें नहा ले ॥२६॥ स्नान करनेके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर देवता, ऋषिगण और पितृगणका उन्हींके तीर्थोंसे तर्पण करे॥२७॥ देवता और ऋषियोंके तर्पणके लिये तीन-तीन बार तथा प्रजापतिके लिये एक बार जल छोड़े॥ २८॥ हे पृथिवीपते! पितृगण और पितामहोंकी प्रसन्नताके लिये तीन बार जल छोड़े तथा इसी प्रकार प्रपितामहोंको भी सन्तुष्ट करे । एवं मातामह (नाना) और उनके पिता तथा उनके पिताको भी सावधानतापूर्वक पितृ-तीर्थसे जलदान करे।

अब काम्य तर्पणका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥ २९-३०॥ _ ‘यह जल माताके लिये हो, यह प्रमाताके लिये हो, यह वृद्धाप्रमाताके लिये हो, यह गुरुपत्नीको, यह गुरुको, यह मामाको, यह प्रिय मित्रको तथा यह राजाको प्राप्त हो-हे राजन्! यह जपता हुआ समस्त भूतोंके हितके लिये देवादि तर्पण करके अपनी इच्छानुसार अभिलषित सम्बन्धीके लिये जलदान करे’॥३१-३२॥

‘देव, असुर, यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, कूष्माण्ड, पशु, पक्षी, जलचर, स्थलचर और वायु-भक्षक आदि सभी प्रकारके जीव मेरे दिये हुए इस जलसे तृप्त हों॥३३-३४॥ जो प्राणी सम्पूर्ण नरकोंमें नाना प्रकारकी यातनाएँ भोग रहे हैं उनकी तृप्तिके लिये मैं यह जलदान करता हूँ॥ ३५ ॥ जो मेरे बन्धु अथवा अबन्धु हैं, तथा जो अन्य जन्मोंमें मेरे बन्धु थे एवं और भी जो-जो मुझसे जलकी इच्छा रखनेवाले हैं वे सब मेरे दिये हुए जलसे परितृप्त हो ॥ ३६॥ क्षुधा और तृष्णासे व्याकुल जीव कहीं भी क्यों न हों मेरा दिया हुआ यह तिलोदक उनको तृप्ति प्रदान करे’॥३७॥

हे नृप! इस प्रकार मैंने तुमसे यह काम्य तर्पणका निरूपण किया, जिसके करनेसे मनुष्य सकल संसारको तृप्त कर देता है और हे अनघ! इससे उसे जगत्की तृप्तिसे होनेवाला पुण्य प्राप्त होता है॥ ३८॥ इस प्रकार उपरोक्त जीवोंको श्रद्धापूर्वक काम्यजल दान करनेके अनन्तर आचमन करे और फिर सूर्यदेवको जलांजलि दे॥३९॥

‘भगवान् विवस्वान्को नमस्कार है जो वेद वेद्य और विष्णुके तेजस्स्वरूप हैं तथा जगत्को उत्पन्न करनेवाले, अति पवित्र एवं कर्मोंके साक्षी हैं’॥ ४०॥

तदनन्तर जलाभिषेक और पुष्प तथा धूपादि निवेदन करता हुआ गृहदेव और इष्टदेवका पूजन करे॥४१॥ हे नृप! फिर अपूर्व अग्निहोत्र करे, उसमें पहले ब्रह्माको और तदनन्तर क्रमशः प्रजापति, गुह्य, काश्यप और अनुमतिको आदरपूर्वक आहुतियाँ दे॥४२-४३॥ उससे बचे हुए हव्यको पृथिवी और मेघके उद्देश्यसे उदकपात्रमें,* धाता और विधाताके उद्देश्यसे द्वारके दोनों ओर तथा ब्रह्माके उद्देश्यसे घरके मध्यमें छोड़ दे।

हे पुरुषव्याघ्र ! अब मैं दिक्पालगणकी पूजाका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो॥४४-४५ ॥ बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओंमें क्रमश: इन्द्र, यम, वरुण और चन्द्रमाके लिये हुतशिष्ट सामग्रीसे बलि प्रदान करे॥४६॥ पूर्व और उत्तर-दिशाओंमें धन्वन्तरिके लिये बलि दे तथा इसके अनन्तर बलिवैश्वदेव-कर्म करे॥४७॥ बलिवैश्वदेवके समय वायव्यकोणमें वायुको तथा अन्य समस्त दिशाओंमें वायु एवं उन दिशाओंको बलि दे, इसी प्रकार ब्रह्मा, अन्तरिक्ष और सूर्यको भी उनकी दिशाओंके अनुसार बलि प्रदान करे॥४८॥ फिर हे नरेश्वर! विश्वेदेवों, विश्वभूतों, विश्वपतियों, पितरों और यक्षोंके उद्देश्यसे बलि प्रदान करे ॥ ४९ ॥ तदनन्तर बुद्धिमान् व्यक्ति और अन्न लेकर पवित्र पृथिवीपर समाहित चित्तसे बैठकर स्वेच्छानुसार समस्त प्राणियोंको बलि प्रदान करे॥५०॥ ‘देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, सर्प, दैत्य, प्रेत, पिशाच, वृक्ष तथा और भी चींटी आदि कीट-पतंग जो अपने कर्मबन्धनसे बँधे हुए क्षुधातुर होकर मेरे दिये हुए अन्नकी इच्छा करते हैं, उन सबके लिये मैं यह अन्न दान करता हूँ। वे इससे परितृप्त और आनन्दित हों ॥५१-५२॥ जिनके माता, पिता अथवा कोई और बन्धु नहीं हैं तथा अन्न प्रस्तुत करनेका साधन और अन्न भी नहीं है उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीपर मैंने यह अन्न रखा है; वे इससे तृप्त होकर आनन्दित हों॥५३॥

सम्पूर्ण प्राणी, यह अन्न और मैं—सभी विष्णु हैं; क्योंकि उनसे भिन्न और कुछ है ही नहीं। अतः मैं समस्त भूतोंका शरीररूप यह अन्न उनके पोषणके लिये दान करता हूँ॥५४॥ यह जो चौदह प्रकारका* भूतसमुदाय है उसमें जितने भी प्राणिगण अवस्थित हैं उन सबकी तृप्तिके लिये मैंने यह अन्न प्रस्तुत किया है; वे इससे प्रसन्न हों॥५५॥ इस प्रकार उच्चारण करके गृहस्थ पुरुष श्रद्धापूर्वक समस्त जीवोंके उपकारके लिये पृथिवीमें अन्नदान करे, क्योंकि गृहस्थ ही सबका आश्रय है॥५६॥

हे नरेश्वर! तदनन्तर कुत्ता, चाण्डाल, पक्षिगण तथा और भी जो कोई पतित एवं पुत्रहीन पुरुष हों उनकी तृप्तिके लिये पृथिवीमें बलिभाग रखे॥ ५७॥ फिर गो-दोहनकालपर्यन्त अथवा इच्छानुसार इससे भी कुछ अधिक देर अतिथि ग्रहण करनेके लिये घरके आँगनमें रहे॥५८॥ यदि अतिथि आ जाय तो उसका स्वागतादिसे तथा आसन देकर और चरण धोकर सत्कार करे ॥ ५९॥ फिर श्रद्धापूर्वक भोजन कराकर मधुर वाणीसे प्रश्नोत्तर करके तथा उसके जानेके समय पीछे-पीछे जाकर उसको प्रसन्न करे॥६०॥

जिसके कुल और नामका कोई पता न हो तथा अन्य देशसे आया हो उसी अतिथिका सत्कार करे, अपने ही गाँवमें रहनेवाले पुरुषकी अतिथिरूपसे पूजा करनी उचित नहीं है॥ ६१॥

जिसके पास कोई सामग्री न हो, जिससे कोई सम्बन्ध न हो, जिसके कुल-शीलका कोई पता न हो और जो भोजन करना चाहता हो उस अतिथिका सत्कार किये बिना भोजन करनेसे मनुष्य अधोगतिको प्राप्त होता है॥६२॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि आये हुए अतिथिके अध्ययन, गोत्र, आचरण और कुल आदिके विषयमें कुछ भी न पूछकर हिरण्यगर्भ-बुद्धिसे उसकी पूजा करे॥६३॥

हे नृप! अतिथि-सत्कारके अनन्तर अपने ही देशके एक और पांचयज्ञिक ब्राह्मणको जिसके आचार और कुल आदिका ज्ञान हो पितृगणके लिये भोजन करावे॥६४॥ हे भूपाल! पहले ही निकालकर अलग रखे हुए हन्तकार नामक अन्नसे उस श्रोत्रिय ब्राह्मणको भोजन करावे॥६५॥ इस प्रकार [देवता, अतिथि और ब्राह्मणको] ये तीन भिक्षाएँ देकर, यदि सामर्थ्य हो तो परिव्राजक और ब्रह्मचारियोंको भी बिना लौटाये हुए इच्छानुसार भिक्षा दे॥६६॥तीन पहले तथा भिक्षुगण-ये चारों अतिथि कहलाते हैं। हे राजन् ! इन चारोंका पूजन करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥६७॥ जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है उसे वह अपने पाप देकर उसके शुभकर्मों को ले जाता है॥ ६८॥

हे नरेश्वर! धाता, प्रजापति, इन्द्र, अग्नि, वसुगण और अर्यमा–ये समस्त देवगण अतिथिमें प्रविष्ट होकर अन्न भोजन करते हैं॥६९॥अत: मनुष्यको अतिथि-पूजाके लिये निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये। जो पुरुष अतिथिके बिना भोजन करता है वह तो केवल पाप ही भोग करता है॥ ७० ॥

तदनन्तर गृहस्थ पुरुष पितृगृहमें रहनेवाली विवाहिता कन्या, दुखिया और गर्भिणी स्त्री तथा वृद्ध और बालकोंको संस्कृत अन्नसे भोजन कराकर अन्तमें स्वयं भोजन करे ॥७१॥ इन सबको भोजन कराये बिना जो स्वयं भोजन कर लेता है वह पापमय भोजन करता है और अन्तमें मरकर नरकमें श्लेष्मभोजी कीट होता है॥७२॥ जो व्यक्ति स्नान किये बिना भोजन करता है वह मल भक्षण करता है, जप किये बिना भोजन करनेवाला रक्त और पूय पान करता है, संस्कारहीन अन्न खानेवाला मूत्र पान करता है । तथा जो बालक- वृद्ध आदिसे पहले आहार करता है वह विष्ठाहारी है। इसी प्रकार बिना होम किये भोजन करनेवाला मानो कीड़ोंको खाता है और बिना दान किये खानेवाला विष-भोजी है॥ ७३-७४॥

अत: हे राजेन्द्र! गृहस्थको जिस प्रकार भोजन करना चाहिये-जिस प्रकार भोजन करनेसे पुरुषको पापबन्धन नहीं होता तथा इहलोकमें अत्यन्त आरोग्य, बल बुद्धिकी प्राप्ति और अरिष्टोंकी शान्ति होती है और जो शत्रुपक्षका ह्रास करनेवाली है-वह भोजनविधि सुनो ॥ ७५-७६ ॥

गृहस्थको चाहिये कि स्नान करनेके अनन्तर यथाविधि देव, ऋषि और पितृगणका तर्पण करके । हाथमें उत्तम रत्न धारण किये पवित्रतापूर्वक भोजन करे॥७७॥ हे नृप! जप तथा अग्निहोत्रके अनन्तर शुद्ध वस्त्र धारण कर अतिथि, ब्राह्मण, गुरुजन और अपने आश्रित (बालक एवं वृद्धों)-को भोजन करा सुन्दर सुगन्धयुक्त उत्तम पुष्पमाला तथा एक ही वस्त्र धारण किये हाथपाँव और मुँह धोकर प्रीतिपूर्वक भोजन करे। हे राजन् ! भोजनके समय इधर-उधर न देखे ॥ ७८-७९॥

मनुष्यको चाहिये कि पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके, अन्यमना न होकर उत्तम और पथ्य अन्नको प्रोक्षणके लिये रखे हुए मन्त्रपूत जलसे छिड़क कर भोजन करे॥८० ॥ जो अन्न दुराचारी व्यक्तिका लाया हुआ हो, घृणाजनक हो अथवा बलिवैश्वदेव आदि संस्कारशून्य हो उसको ग्रहण न करे। हे द्विज! गृहस्थ पुरुष अपने खाद्यमेंसे कुछ अंश अपने शिष्य तथा अन्य भूखे-प्यासोंको देकर उत्तम और शुद्ध पात्रमें शान्तचित्तसे भोजन करे॥८१-८२॥ हे नरेश्वर! किसी बेत आदिके आसन-पर रखे हुए पात्रमें, अयोग्य स्थानमें, असमय में अथवा अत्यन्त संकुचित स्थानमें कभी भोजन न करे। मनुष्यको चाहिये कि अग्रभाग अग्निको देकर भोजन करे॥८३ ॥ हे नृप! जो अन्न मन्त्रपूत और प्रशस्त हो तथा जो बासी न हो उसीको भोजन करे। परंतु फल, मूल और सूखी शाखाओंको तथा बिना पकाये हुए लेह्य (चटनी) आदि और गुड़के पदार्थोंके लिये ऐसा नियम नहीं है। हे नरेश्वर! सारहीन पदार्थोंको कभी न खाय ॥ ८४-८५ ॥ हे पृथिवीपते! विवेकी पुरुष मधु, जल, दही, घी और सत्तूके सिवा और किसी पदार्थको पूरा न खाय ॥८६॥

भोजन एकाग्रचित्त होकर करे तथा प्रथम मधुररस, फिर लवण और अम्ल (खट्टा)-रस तथा अन्तमें कटु और तीखे पदार्थों को खाय॥ ८७॥ जो पुरुष पहले द्रव पदार्थोंको, बीचमें कठिन वस्तुओंको तथा अन्तमें फिर द्रव पदार्थोंको ही खाता है वह कभी बल तथा आरोग्यसे हीन नहीं होता॥ ८८॥ इस प्रकार वाणीका संयम करके अनिषिद्ध अन्न भोजन करे। अन्नकी निन्दा न करे। प्रथम पाँच ग्रास अत्यन्त मौन होकर ग्रहण करे, उनसे पंचप्राणोंकी तृप्ति होती है॥ ८९॥ भोजनके अनन्तर भली प्रकार आचमन करे और फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके हाथोंको उनके मूलदेशतक धोकर विधिपूर्वक आचमन करे॥९०॥

तदनन्तर स्वस्थ और शान्त-चित्तसे आसनपर बैठकर अपने इष्टदेवोंका चिन्तन करे॥ ९१॥ पवनसे प्रज्वलित हुआ जठराग्नि आकाशके द्वारा अवकाशयुक्त अन्नका परिपाक करे और मेरे शरीरके पार्थिव धातुओंको पुष्ट करे जिससे मुझे सुख प्राप्त हो ॥९२ ॥ यह अन्न मेरे शरीरस्थ पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका बल बढ़ानेवाला हो और इन चारों तत्त्वोंके रूपमें परिणत हुआ यह अन्न ही मुझे निरन्तर सुख देनेवाला हो ॥९३॥ यह अन्न मेरे प्राण, अपान, समान, उदान और व्यानकी पुष्टि करे तथा मुझे भी निर्बाध सुखकी प्राप्ति हो॥९४॥ मेरे खाये हुए सम्पूर्ण अन्नका अगस्ति नामक अग्नि और बडवानल परिपाक करें, मुझे उसके परिणामसे होनेवाला सुख प्रदान करें और उससे मेरे शरीरको आरोग्यता प्राप्त हो॥ ९५॥ ‘देह और इन्द्रियादिके अधिष्ठाता एकमात्र भगवान् विष्णु ही प्रधान हैं’- इस सत्यके बलसे मेरा खाया हुआ समस्त अन्न परिपक्व होकर मुझे आरोग्यता प्रदान करे॥९६॥ भोजन करनेवाला, भोज्य अन्न और उसका परिपाक-ये सब विष्णु ही है’-इस सत्य भावनाके बलसे मेरा खाया हुआ यह अन्न पच जाय”॥९७॥ ऐसा कहकर अपने उदरपर हाथ फेरे और सावधान होकर अधिक श्रम उत्पन्न न करनेवाले कार्यों में लग जाय ॥९८॥ सच्छास्त्रोंका अवलोकन आदि सन्मार्गके अविरोधी विनोदोंसे शेष दिनको व्यतीत करे और फिर सायंकालके समय सावधानतापूर्वक सन्ध्योपासन करे॥९९॥

हे राजन्! बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सायंकालके समय सूर्यके रहते हुए और प्रात:काल तारागणके चमकते हुए ही भली प्रकार आचमनादि करके विधिपूर्वक सन्ध्योपासन करे॥१००॥ हे पार्थिव! सूतक (पुत्रजन्मादिसे होनेवाली अशुचिता), अशौच (मृत्युसे होनेवाली अशुचिता), उन्माद, रोग और भय आदि कोई बाधा न हो तो प्रतिदिन ही सन्ध्योपासन करना चाहिये॥१०१॥ जो पुरुष रुग्णावस्थाको छोड़कर और कभी सूर्यके उदय अथवा अस्तके समय सोता है वह प्रायश्चित्तका भागी होता है॥ १०२॥ अतः हे महीपते! गृहस्थ पुरुष सूर्योदयसे पूर्व ही उठकर प्रात:सन्ध्या करे और सायंकालमें भी तत्कालीन सन्ध्यावन्दन करे; सोवे नहीं॥१०३॥ हे नृप! जो पुरुष प्रात: अथवा सायंकालीन सन्ध्योपासन नहीं करते वे दुरात्मा अन्धतामिस्र नरकमें पड़ते हैं॥ १०४॥

तदनन्तर हे पृथिवीपते! सायंकालके समय सिद्ध किये हुए अन्नसे गृहपत्नी मन्त्रहीन बलिवैश्वदेव करे; उस समय भी उसी प्रकार श्वपच आदिके लिये अन्नदान किया जाता है॥१०५-१०६॥ बुद्धिमान् पुरुष उस समय आये हुए अतिथिका भी सामर्थ्यानुसार सत्कार करे। हे राजन् ! प्रथम पाँव धुलाने, आसन देने और स्वागतसूचक विनम्र वचन कहनेसे तथा फिर भोजन कराने और शयन करानेसे अतिथिका सत्कार किया जाता है॥ १०७॥ हे नृप! दिनके समय अतिथिके लौट जानेसे जितना पाप लगता है उससे आठगुना पाप सूर्यास्तके समय लौटनेसे होता है॥ १०८ ॥ अत: हे राजेन्द्र ! सूर्यास्तके समय आये हुए अतिथिका गृहस्थ पुरुष अपनी सामर्थ्यानुसार अवश्य सत्कार करे क्योंकि उसका पूजन करनेसे ही समस्त देवताओंका पूजन हो जाता है॥ १०९॥ मनुष्यको चाहिये कि अपनी शक्तिके अनुसार उसे भोजनके लिये अन्न, शाक या जल देकर तथा सोनेके लिये शय्या या घास-फूसका बिछौना अथवा पृथिवी ही देकर उसका सत्कार करे॥११०॥

हे नृप! तदनन्तर गृहस्थ पुरुष सायंकालका भोजन करके तथा हाथ-पाँव धोकर छिद्रादिहीन काष्ठमय शय्यापर लेट जाय॥१११॥ जो काफी बड़ी न हो, टूटी हुई हो, ऊँची-नीची हो, मलिन हो अथवा जिसमें जीव हों या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो उस शय्यापर न सोवे॥ ११२॥ हे नृप! सोनेके समय सदा पूर्व अथवा दक्षिणकी ओर सिर रखना चाहिये। इनके विपरीत दिशाओंकी ओर सिर रखनेसे रोगोंकी उत्पत्ति होती है। ११३॥

हे पृथ्वीपते! ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे संग करना उचित है। पुल्लिंग नक्षत्रमें युग्म और उनमें भी पीछेकी रात्रियों में शुभ समयमें स्त्रीप्रसंग करे॥११४॥ किन्तु यदि स्त्री अप्रसन्ना, रोगिणी, रजस्वला, निरभिलाषिणी, क्रोधिता, दुःखिनी अथवा गर्भिणी हो तो उसका संग न करे॥११५ ॥ जो सीधे स्वभावकी न हो, पराभिलाषिणी अथवा निरभिलाषिणी हो, क्षुधार्ता हो, अधिक भोजन किये हुए हो अथवा परस्त्री हो उसके पास न जाय; और यदि अपने में ये दोष हों तो भी स्त्रीगमन न करे॥११६॥ पुरुषको उचित है कि स्नान करनेके अनन्तर माला और गन्ध धारण कर काम और अनुरागयुक्त होकर स्त्रीगमन करे। जिस समय अति भोजन किया हो अथवा क्षुधित हो उस समय उसमें प्रवृत्त न हो ॥ ११७॥

हे राजेन्द्र ! चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या, पूर्णिमा और सूर्यकी संक्रान्ति-ये सब पर्वदिन हैं॥११८ ॥ इन पर्वदिनोंमें तैल, स्त्री अथवा मांसका भोग करनेवाला पुरुष मरनेपर विष्ठा और मूत्रसे भरे नरकमें पड़ता है॥ ११९॥ संयमी और बुद्धिमान् पुरुषोंको इन समस्त पर्वदिनोंमें सच्छास्त्रावलोकन, देवोपासना, यज्ञानुष्ठान, ध्यान और जप आदिमें लगे रहना चाहिये॥ १२० ॥ गौछाग आदि अन्य योनियोंसे, अयोनियोंसे, औषधप्रयोगसे अथवा ब्राह्मण, देवता और गुरुके आश्रमों में कभी मैथुन न करे॥१२॥ हे पथिवीपते । चैत्यवक्षके नीचे, आँगनमें, तीर्थमें, पशुशालामें, चौराहेपर, श्मशानमें, उपवनमें अथवा जलमें भी मैथुन करना उचित नहीं है॥ १२२ ॥ हे राजन् ! पूर्वोक्त समस्त पर्वदिनोंमें प्रात:काल और सायंकालमें तथा मल-मूत्रके वेगके समय बुद्धिमान् पुरुष मैथुनमें प्रवृत्त न हो॥१२३ ॥ हे नृप! पर्वदिनोंमें स्त्रीगमन करनेसे धनकी हानि होती है; दिनमें करनेसे पाप होता है, पृथिवीपर करनेसे रोग होते हैं और जलाशयमें स्त्रीप्रसंग करनेसे अमंगल होता है॥ १२४॥ परस्त्रीसे तो वाणीसे क्या, मनसे भी प्रसंग न करे, क्योंकि उनसे मैथुन करनेवालोंको अस्थि-बन्धन भी नहीं होता ॥ १२५ ॥ परस्त्रीकी आसक्ति पुरुषको इहलोक और परलोक दोनों जगह भय देनेवाली है; इहलोकमें उसकी आयु क्षीण हो जाती है और मरनेपर वह नरकमें जाता है॥ १२६ ॥ ऐसा जानकर बुद्धिमान् पुरुष उपरोक्त दोषोंसे रहित अपनी स्त्रीसे ही ऋतुकालमें प्रसंग करे तथा उसकी विशेष अभिलाषा हो तो बिना ऋतुकालके भी गमन करे ॥ १२७ ॥

अध्याय-14 ग्रहस्थसम्बन्धी सदाचार का वर्णन

और्व बोले – गृहस्थ पुरुष को नित्यप्रति देवता, गौ, ब्राह्मण, सिद्धगण, वयोवृद्ध तथा आचार्य की पूजा करनी चाहिये और दोनों समय संध्यावन्दन तथा अग्निहोत्रादि कर्म करने चाहिये ॥ १ ॥ गृहस्थ पुरुष सदा ही संयमपूर्वक रहकर बिना कहींसे कटे हुए दो वस्त्र, उत्तम औषधियाँ और गारुड (मरकत आदि विष नष्ट करनेवाले) रत्न धारण करे ॥ २ ॥ वह केशों को स्वच्छ और चिकना रखे तथा सर्वदा सुगंधयुक्त सुंदर वेष और मनोहर श्वेतपुष्प धारण करें ॥ ३ ॥ किसीका थोडा-सा भी धन हरण न करें और थोडा-सा भी अप्रिय भाषण न करे । जो मिथ्या हो ऐसा प्रिय वचन भी कभी न बोले और न कभी दूसरों के दोषों को ही कहे ॥ ४ ॥ हे पुरुषश्रेष्ठ ! दूसरों की स्त्री अथवा दूसरों के साथ वैर करने में कभी रूचि न करे, निन्दित सवारी में कभी न चढ़े और नदीतीर की छाया का कभी आश्रय न ले ॥ ५ ॥ बुद्धिमान पुरुष लोकविदिष्ट, पतित, उन्मत्त और जिसके बहुत-से शत्रु हों ऐसे परपीडक पुरुषों के साथ तथा कुलटा, कुलटा के स्वामी, क्षुद्र, मिथ्यावादी अति व्ययशील, निंदापरायण और दुष्ट पुरुषों के साथ कभी मित्रता न करे और न कभी मार्ग में अकेला चले ॥ ६ – ७ ॥ हे नरेश्वर ! जलप्रवाह के वेग में सामने पड़कर स्नान न करे, जलते हुए घरमे प्रवेश न करे और वृक्ष की चोटीपर न चढ़े ॥ ८ ॥ दाँतो को परस्पर न घिसे, नाक को न कुरेदे तथा मुख को बंद लिये हुए जमुहाई न ले और न बंद मुखसे खाँसे या श्वास करते हुए अधोवायु न छोड़े; तथा नखों को न चबावे, तिनका न तोड़ें और पृथ्वीपर भी न लिखे ॥ १० ॥

हे प्रभो ! विचक्षण पुरुष मूँछ-दाढ़ी के बालों को न चबावे, दो ढेलों को परस्पर न रगड़े और अपवित्र एवं निन्दित नक्षत्रों को न देखे ॥ ११ ॥ नग्न परस्त्री को और उदय अथवा अस्त होते हुए सूर्य को न देखे तथा शव और शव – गंध से घृणा न करे, क्योंकि शव – गंध सोम का अंश है ॥ १२ ॥ चौराहा, चैत्यवृक्ष, श्मशान, उपवन और दुष्टा स्त्री की समीपता – इन सबका रात्रि के समय सर्वदा त्याग करे ॥ १३ ॥ बुद्धिमान पुरुष अपने पूजनीय देवता, ब्राह्मण और तेजोमय पदार्थों की छाया को कभी न लाँघे तथा शून्य वनखंडी और शून्य घरमें कभी अकेला न रहे ॥ १४ ॥ प्राज्ञ पुरुष को चाहिये कि अनार्य व्यक्ति का संग न करे, कुटिल पुरुष में आसक्त न हो, सर्प के पास न जाय और जग पड़नेपर अधिक देरतक लेटा न रहे ॥ १३ ॥ हे नरेश्वर ! बुद्धिमान पुरुष जागने, सोने, स्नान करने, बैठने, शय्यासेवन करने और व्यायाम करने में अधिक समय न लगावे ॥ १७ ॥ हे राजेन्द्र ! प्राज्ञ पुरुष दाँत और सींगवाले पशुओं को, ओस को तथा सामनेकी वायु और धूप को सर्वदा परित्याग करे ॥ १८ ॥ नग्न होकर स्नान, शयन और आचमन न करे तथा केश खोलकर आचमन और देव-पूजन न करे ॥ १९ ॥ होम तथा देवार्चन आदि क्रियाओं में, आचमन में , पुण्याहवाचन में और जप में एक वस्त्र धारण करके प्रवृत्त न हो ॥ २० ॥ संशयशील व्यक्तियों के साथ कभी न रहे । सदाचारी पुरुषों का तो आधे क्षण का संग भी अति प्रशंसनीय होता है ॥ २१ ॥ बुद्धिमान पुरुष उत्तम अथवा अधम व्यक्तियों से विरोध न करे । हे राजन ! विवाह और विवाद सदा समान व्यक्तियों से ही होना चाहिये ॥ २२ ॥ प्राज्ञ पुरुष कलह न बढ़ावे तथा व्यर्थ वैर का भी त्याग करे । थोड़ी-सी हानि सह ले, किन्तु वैर से कुछ लाभ होता हो तो उसे भी छोड़ दे ॥ २३ ॥ स्नान करने के अनन्तर स्नान से भीगी हुई धोती अथवा हाथों से शरीर को न पोछे तथा खड़े-खड़े केशों को न झाडे और आचमन भी न करे ॥ २४ ॥ पैर के ऊपर पैर न रखे, गुरुजनों के सामने पैर न फैलावे और धृष्टतापूर्वक उनके सामने कभी उच्चासनपर न बैठे ॥ २५ ॥

देवालय, चौराहा, मांगलिक द्रव्य और पूज्य व्यक्ति – इन सबको बायीं ओर रखकर न निकले तथा इनके विपरीत वस्तुओं को दायीं ओर रखकर न जाय ॥ २६ ॥ चन्द्रमा, सूर्य, अग्नि, जल, वायु और पूज्य व्यक्तियों के सम्मुख पंडित पुरुष मल – मूत्र – त्याग न करे और न थूके ही ॥ २७ ॥ खड़े- खड़े अथवा मार्ग में मूत्र-त्याग न करे तथा श्लेष्मा (थूक), विष्ठा, मूत्र और रक्त को कभी न लाँघे ॥ २८ ॥ भोजन, देव-पूजा, मांगलिक कार्य और जप-होमादि के समय तथा महापुरुषों के सामने थूकना और छींकना उचित नहीं है ॥ २९ ॥ बुद्धिमान पुरुष स्त्रियों का अपमान न करे, उनका विश्वास भी न करे तथा उनसे ईर्ष्या और उनका तिरस्कार भी कभी न करे ॥ ३० ॥ सदाचार – परायण प्राज्ञ व्यक्तियों का अभिवादन किये बिना कभी अपने घरसे न निकले ॥ ३१ ॥ चौराहों को नमस्कार करे, यथासमय अग्निहोत्र करे, दीन-दु:खियों का उद्धार करे और बहुश्रुत साधू पुरुषों का सत्संग करे ॥ ३२ ॥

जो पुरुष देवता और ऋषियों की पूजा करता है, पितृगण को पिंडोदक देता है और अतिथि का सत्कार करता है वह पुण्यलोकों को जाता है ॥ ३३ ॥ जो व्यक्ति जितेन्द्रिय होकर समयानुसार हित, मित और प्रिय भाषण करता है, हे राजन ! वह आनंद के हेतुभूत अक्षय लोकों को प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ बुद्धिमान, लज्जावान, क्षमाशील, आस्तिक और विनयी पुरुष विद्वान और कुलीन पुरुषों के योग्य उत्तम लोकों में जाता है ॥ ३५ ॥ अकाल मेघगर्जना के समय, पर्व-दिनोंपर, अशौच काल में तथा चन्द्र और सूर्यग्रहण के समय बुद्धिमान पुरुष अध्ययन न करे ॥ ३६ ॥ जो व्यक्ति क्रोधित को शांत करता है, सबका बन्धु है, मत्सरशून्य है, भयभीत को सांत्वना देनेवाला है और साधू स्वभाव है उसके लिये स्वर्ग तो बहुत थोडा फल है ॥ ३७ ॥ जिसे शरीर-रक्षा की इच्छा हो वह पुरुष वर्षा और धुप में छाता लेकर निकले, रात्रि के समय और वन में दंड लेकर जाय तथा जहाँ कहीं जाना हो सर्वदा जूते पहनकर जाय ॥ ३८ ॥ बुद्धिमान पुरुष को कमर की ओर, इधर-उधर अथवा दूर के पदार्थों को देखते हुए नहीं चलना चाहिये, केवल युगमात्र (चार हाथ) पृथ्वी को देखता हुआ चले ॥ ३९ ॥

जो जितेन्द्रिय दोषके समस्त हेतुओं को त्याग देता है उसके धर्म, अर्थ और कामकी थोड़ी-सी भी हानि नहीं होती ॥ ४० ॥ जो विद्या-विनय-सम्पन्न, सदाचारी प्राज्ञ पुरुष पापी के प्रति पापमय व्यवहार नहीं करता, कुटिल पुरुषों से प्रिय भाषण करता हैं तथा जिसका अंत:करण मैत्री से द्रवीभूत रहता हैं, मुक्ति उसकी मुट्ठी में रहती है ॥ ४१ ॥ जो वीतरागमहापुरुष कभी काम, क्रोध और लोभादिके वशीभूत नहीं होते तथा सर्वदा सदाचार में स्थित रहते हैं उनके प्रभाव से ही पृथ्वी टिकी हुई है ॥ ४२ ॥ अत: प्राज्ञ पुरुष को वही सत्य कहना चाहिये जो दूसरों की प्रसन्नता का कारण हो । यदि किसी सत्य वाक्य के कहने से दूसरों को दुःख होता जाने तो मौन रहे ॥ ४३ ॥ यदि प्रिय वाक्य को भी अहितकर समझे तो उसे न कहे; उस अवस्था में तो हितकर वाक्य ही कहना अच्छा है, भले ही वह अत्यंत अप्रिय क्यों न हो ॥ ४४ ॥ जो कार्य इहलोक और परलोक में प्राणियों के हितका साधक हो मतिमान पुरुष मन, वचन और कर्म से उसीका आचरण करें ॥ ४५ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे द्वादशोऽध्यायः

अध्याय-15 आभ्युदयिक श्राद्ध, प्रेतकर्म तथा श्राद्धादिका विचार

और्व बोले-पुत्रके उत्पन्न होनेपर पिताको सचैल (वस्त्रोंसहित) स्नान करना चाहिये। उसके पश्चात् जातकर्म-संस्कार और आभ्युदयिक श्राद्ध करने चाहिये॥१॥ फिर तन्मयभावसे अनन्यचित्त होकर देवता और पितृगणके लिये क्रमशः दायीं और बायीं ओर बिठाकर दो-दो ब्राह्मणोंका पूजन करे और उन्हें भोजन करावे॥२॥ हे राजन्! पूर्व अथवा उत्तरकी ओर मुख करके दधि, अक्षत और बदरीफलसे बने हुए पिण्डोंको देवतीर्थ’ या प्रजापतितीर्थसे दान करे॥३॥ हे पृथिवीनाथ! इस आभ्युदयिक श्राद्धसे नान्दीमुख नामक पितृगण प्रसन्न होते हैं, अतः सब प्रकारकी अभिवृद्धिके समय पुरुषोंको इसका अनुष्ठान करना चाहिये॥ ४॥ कन्या और पुत्रके विवाहमें, गृहप्रवेशमें, बालकोंके नामकरण तथा चडाकर्म आदि संस्कारोंमें. सीमन्तोन्नयन-संस्कारमें और पुत्र आदिके मुख देखनेके समय गृहस्थ पुरुष एकाग्रचित्तसे नान्दीमुख नामक पितृगणका पूजन करे॥५-६॥ हे पृथिवीपाल! आभ्युदयिक श्राद्धमें पितृपूजाका यह सनातन क्रम तुमको सुनाया, अब प्रेतक्रियाकी विधि सुनो॥७॥

बन्धु-बान्धवोंको चाहिये कि भली प्रकार स्नान करानेके अनन्तर पुष्प-मालाओंसे विभूषित शवका गाँवके बाहर दाह करें और फिर जलाशयमें वस्त्रसहित स्नान कर दक्षिण-मुख होकर ‘यत्र तत्र स्थितायैतदमुकाय आदि वाक्यका उच्चारण करते हुए जलांजलि दें॥८-९॥ तदनन्तर गोधूलिके समय तारा-मण्डलके दीखने लगनेपर ग्राममें प्रवेश करें और कटकर्म (अशौच कृत्य) सम्पन्न करके पृथिवीपर तृणादिकी शय्यापर शयन करें॥१०॥ हे पृथिवीपते! मृत पुरुषके लिये नित्यप्रति पृथिवीपर पिण्डदान करना चाहिये और हे पुरुषश्रेष्ठ! केवल दिनके समय मांसहीन भात खाना चाहिये॥११॥ अशौच कालमें, यदि ब्राह्मणोंकी इच्छा हो तो उन्हें भोजन कराना चाहिये, क्योंकि – उस समय ब्राह्मण और बन्धवर्गके भोजन करनेसे मृत जीवकी तृप्ति होती है॥ १२॥ अशौचके पहले, तीसरे, सातवें अथवा नवें दिन वस्त्र त्यागकर और बहिर्देशमें स्नान करके तिलोदक दे॥१३॥

हे नृप! अशौचके चौथे दिन अस्थिचयन करना चाहिये; उसके अनन्तर अपने सपिण्ड बन्धुजनोंका अंग स्पर्श किया जा सकता है॥ १४॥ हे राजन् ! उस समयसे समानोदक पुरुष चन्दन और पुष्पधारण आदि क्रियाओंके सिवा [पंचयज्ञादि] और सब कर्म कर सकते हैं॥१५॥ भस्म और अस्थिचयनके अनन्तर सपिण्ड पुरुषोंद्वारा शय्या और आसनका उपयोग तो किया जा सकता है, किन्तु स्त्री-संसर्ग नहीं किया जा सकता॥ १६॥ बालक, देशान्तरस्थित व्यक्ति, पतित और तपस्वीके मरनेपर तथा जल, अग्नि और उद्बन्धन (फाँसी लगाने) आदिद्वारा आत्मघात करनेपर शीघ्र ही अशौचकी निवृत्ति हो जाती है २ ॥१७॥ मृतकके कुटुम्बका अन्न दस दिनतक न खाना चाहिये तथा अशौच कालमें दान, परिग्रह, होम और स्वाध्याय आदि कर्म भी न करने चाहिये ॥ १८॥ यह [दस दिनका] अशौच ब्राह्मणका है; क्षत्रियका अशौच बारह दिन और वैश्यका पन्द्रह दिन रहता है तथा शूद्रकी अशौच-शुद्धि एक मासमें होती है॥ १९॥

अशौचके अन्तमें इच्छानुसार अयुग्म (तीन, पाँच, सात, नौ आदि) ब्राह्मणोंको भोजन करावे तथा उनकी उच्छिष्ट (जूठन)-के निकट प्रेतकी तृप्तिके लिये कुशापर पिण्डदान करे॥२०॥ अशौच-शुद्धि हो जानेपर ब्रह्मभोजके अनन्तर ब्राह्मण आदि चारों वर्गों को क्रमश: जल, शस्त्र, प्रतोद (कोड़ा) और लाठीका स्पर्श करना चाहिये॥२१॥ तदनन्तर ब्राह्मण आदि वर्गों के जो-जो जातीय धर्म बतलाये गये हैं उनका आचरण करे; और स्वधर्मानुसार उपार्जित जीविकासे निर्वाह करे॥ २२॥ फिर प्रतिमास मृत्युतिथिपर एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे जो आवाहनादि क्रिया और विश्वेदेवसम्बन्धी ब्राह्मणके आमन्त्रण आदिसे रहित होने चाहिये ॥ २३ ॥ उस समय एक अर्घ्य और एक पवित्रक देना चाहिये, तथा बहुत-से ब्राह्मणोंके भोजन करनेपर भी मृतकके लिये एक ही पिण्डदान करना चाहिये ॥ २४॥ तदनन्तर यजमानके ‘अभिरम्यताम्’ ऐसा कहनेपर ब्राह्मणगण ‘अभिरताः स्मः’ ऐसा कहें और फिर पिण्डदान समाप्त होनेपर ‘अमुकस्य अक्षय्यमिदमुपतिष्ठताम्’ इस वाक्यका उच्चारण करें ॥२५॥ इस प्रकार एक वर्षतक प्रतिमास एकोद्दिष्टकर्म करनेका विधान है।

हे राजेन्द्र ! वर्षके समाप्त होनेपर सपिण्डीकरण करे; उसकी विधि सुनो ॥२६॥ हे पार्थिव! इस सपिण्डीकरण कर्मको भी एक वर्ष, छ: मास अथवा बारह दिनके अनन्तर एकोद्दिष्टश्राद्धकी विधिसे ही करना चाहिये ॥ २७॥ इसमें तिल, गन्ध और जलसे युक्त चार पात्र रखे। इनमें से एक पात्र मृतपरुषका होता है तथा तीन पितगणके होते हैं। फिर मतपुरुषके पात्रस्थित जलादिसे पितृगणके पात्रोंका सिंचन करे ॥ २८-२९॥ इस प्रकार मृत-पुरुषको पितृत्व प्राप्त हो जानेपर सम्पूर्ण श्राद्धधर्मोके द्वारा उस मत-पुरुषसे ही आरम्भ कर पितृगणका पूजन करे॥३०॥ हे राजन् ! पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतीजा अथवा अपनी सपिण्ड सन्ततिमें उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्धादि क्रिया करनेका अधिकारी होता है॥ ३१॥ यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदककी सन्तति अथवा मातृपक्षके सपिण्ड अथवा समानोदकको इसका अधिकार है॥३२॥ हे राजन् ! मातृकुल और पितृकुल दोनोंके नष्ट हो जानेपर स्त्री ही इस क्रियाको करे; अथवा [यदि स्त्री भी न हो तो] साथियोंमेंसे ही कोई करे या बान्धवहीन मृतकके धनसे राजा ही उसके सम्पूर्ण प्रेत-कर्म करे॥३३-३४॥

सम्पूर्ण प्रेत-कर्म तीन प्रकारके हैं-पूर्वकर्म, मध्यमकर्म तथा उत्तरकर्म। इनके पृथक्-पृथक् लक्षण सुनो॥ ३५ ॥ दाहसे लेकर जल और शस्त्र आदिके स्पर्शपर्यन्त जितने कर्म हैं उनको पूर्वकर्म कहते हैं तथा प्रत्येक मासमें जो एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया जाता है वह मध्यमकर्म कहलाता है॥३६॥ और हे नृप! सपिण्डीकरणके पश्चात् मृतक व्यक्तिके पितृत्वको प्राप्त हो जानेपर जो पितृकर्म किये जाते हैं वे उत्तरकर्म कहलाते हैं॥ ३७॥ माता, पिता, सपिण्ड, समानोदक, समूहके लोग अथवा उसके धनका अधिकारी राजा पूर्वकर्म कर सकते हैं; किंतु उत्तरकर्म केवल पत्र, दौहित्र आदि अथवा उनकी सन्तानको ही करना चाहिये॥ ३८-३९॥ हे राजन् ! प्रतिवर्ष मरणदिनपर स्त्रियोंका भी उत्तरकर्म एकोद्दिष्ट श्राद्धकी विधिसे अवश्य करना चाहिये॥ ४० ॥ अतः हे अनघ! उन उत्तरक्रियाओंको जिस-जिसको जिस-जिस विधिसे करना चाहिये, वह सुनो ॥४१॥

अध्याय-16 श्राद्ध-प्रशंसा, श्राद्धमें पात्रापात्रका विचार

और्व बोले-हे राजन्! श्रद्धासहित श्राद्धकर्म करनेसे मनुष्य ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, सूर्य, अग्नि, वसुगण, मरुद्गण, विश्वेदेव, पितृगण, पक्षी, मनुष्य, पशु, सरीसृप, ऋषिगण तथा भूतगण आदि सम्पूर्ण जगत्को प्रसन्न कर देता है॥१-२॥ हे नरेश्वर! प्रत्येक मासके कृष्णपक्षकी पंचदशी (अमावास्या) और अष्टका (हेमन्त और शिशिर ऋतुओंके चार महीनोंकी शुक्लाष्टमियों)- पर श्राद्ध करे। [यह नित्यश्राद्धकाल है] अब काम्यश्राद्धका काल बतलाता हूँ, श्रवण करो॥३॥

जिस समय श्राद्धयोग्य पदार्थ या किसी विशिष्ट ब्राह्मणको घरमें आया जाने, अथवा जब उत्तरायण या दक्षिणायनका आरम्भ या व्यतीपात हो तब काम्यश्राद्धका अनुष्ठान करे॥४॥ विषुवसंक्रान्तिपर, सूर्य और चन्द्रग्रहणपर, सूर्यके प्रत्येक राशिमें प्रवेश करते समय, नक्षत्र अथवा ग्रहकी पीडा होनेपर, दुःस्वप्न देखनेपर और घरमें नवीन अन्न आनेपर भी काम्यश्राद्ध करे॥५-६॥ जो अमावास्या अनुराधा, विशाखा या स्वातिनक्षत्रयुक्ता हो उसमें श्राद्ध करनेसे पितृगण आठ वर्षतक तृप्त रहते हैं॥७॥ तथा जो अमावास्या पुष्य, आर्द्रा या पुनर्वसु नक्षत्रयुक्ता हो उसमें पूजित होनेसे पितृगण बारह वर्षतक तृप्त रहते हैं॥८॥ जो पुरुष पितृगण और देवगणको तृप्त करना चाहते हों उनके लिये धनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा अथवा शतभिषानक्षत्रयुक्त अमावास्या अति दुर्लभ है॥९॥ हे पृथिवीपते! जब अमावास्या इन नौ नक्षत्रोंसे युक्त होती है उस समय किया हुआ श्राद्ध पितृगणको अत्यन्त तृप्तिदायक होता है। इनके अतिरिक्त पितृभक्त इलापुत्र महात्मा पुरूरवाके अति विनीत भावसे पूछनेपर श्रीसनत्कुमारजीने जिनका वर्णन किया था वे अन्य तिथियाँ भी सुनो॥१०-११॥

श्रीसनत्कुमारजी बोले- वैशाखमासकी शुक्ला तृतीया, कार्तिक शुक्ला नवमी, भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी तथा माघमासकी अमावास्या-इन चार तिथियोंको पुराणोंमें ‘युगाद्या’ कहा है। ये चारों तिथियाँ अनन्त पुण्यदायिनी हैं। चन्द्रमा या सूर्यके ग्रहणके समय, तीन अष्टकाओंमें अथवा उत्तरायण या दक्षिणायनके आरम्भमें जो पुरुष एकाग्रचित्तसे पितृगणको तिलसहित जल भी दान करता है वह मानो एक सहस्र वर्षके लिये श्राद्ध कर देता है-यह परम रहस्य स्वयं पितृगण ही कहते हैं॥ १२–१४॥

यदि कदाचित् माघकी अमावास्याका शतभिषानक्षत्रसे योग हो जाय तो पितृगणकी तृप्तिके लिये यह परम उत्कृष्ट काल होता है। हे राजन् ! अल्प पुण्यवान् पुरुषोंको ऐसा समय नहीं मिलता॥ १५ ॥ और यदि उस समय (माघकी अमावास्यामें) धनिष्ठानक्षत्रका योग हो तब तो अपने ही कुलमें उत्पन्न हुए पुरुषद्वारा दिये हुए अन्नोदकसे पितृगणकी दस सहस्र वर्षतक तृप्ति रहती है॥१६॥ तथा यदि उसके साथ पूर्वाभाद्रपदनक्षत्रका योग हो और उस समय पितृगणके लिये श्राद्ध किया जाय तो उन्हें परम तृप्ति प्राप्त होती है और वे एक सहस्र युगतक शयन करते रहते हैं॥ १७॥

गंगा, शतद्रू, यमुना, विपाशा, सरस्वती और नैमिषारण्यस्थिता गोमतीमें स्नान करके पितृगणका आदरपूर्वक अर्चन करनेसे मनुष्य समस्त पापोंको नष्ट कर देता है॥ १८॥

पितृगण सर्वदा यह गान करते हैं कि वर्षाकाल (भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी)-के मघानक्षत्रमें तृप्त होकर फिर माघकी अमावास्याको अपने पुत्र-पौत्रादिद्वारा दी गयी पुण्यतीर्थोंकी जलांजलिसे हम कब तृप्ति लाभ करेंगे’ ॥ १९॥ विशुद्ध चित्त, शुद्ध धन, प्रशस्त काल, उपर्युक्त विधि, योग्य पात्र औरपरम भक्ति-ये सब मनुष्यको इच्छित फल देते हैं॥२०॥

हे पार्थिव! अब तुम पितृगणके गाये हुए कुछ श्लोकोंका श्रवण करो, उन्हें सुनकर तुम्हें आदरपूर्वक वैसा ही आचरण करना चाहिये॥२१॥ [पितृगण । कहते हैं-] ‘हमारे कुलमें क्या कोई ऐसा मतिमान् धन्य पुरुष उत्पन्न होगा जो वित्तलोलुपताको छोड़कर हमें पिण्डदान देगा॥ २२॥ जो सम्पत्ति होनेपर हमारे उद्देश्यसे ब्राह्मणोंको रत्न, वस्त्र, यान और सम्पूर्ण भोगसामग्री देगा॥ २३॥ अथवा अन्न-वस्त्र मात्र वैभव होनेसे जो श्राद्धकालमें भक्ति-विनम्र चित्तसे उत्तम ब्राह्मणोंको यथाशक्ति अन्न ही भोजन करायेगा॥ २४॥ या अन्नदानमें भी असमर्थ होनेपर जो ब्राह्मणश्रेष्ठोंको कच्चा धान्य और थोड़ी-सी दक्षिणा ही देगा॥ २५॥ और यदि इसमें भी असमर्थ होगा तो किन्हीं द्विजश्रेष्ठको प्रणाम कर एक मुट्ठी तिल ही देगा॥ २६॥ अथवा हमारे उद्देश्यसे पृथिवीपर भक्ति-विनम्र चित्तसे सात-आठ तिलोंसे युक्त जलांजलि ही देगा॥ २७॥ और यदि इसका भी अभाव होगा तो कहीं-न-कहींसे एक दिनका चारा लाकर प्रीति और श्रद्धापूर्वक हमारे उद्देश्यसे गौको खिलायेगा॥२८॥ तथा इन सभी वस्तुओंका अभाव होनेपर जो वनमें जाकर अपने कक्षमूल (बगल) को दिखाता हुआ सूर्य आदि दिक्पालोंसे उच्च स्वरसे यह कहेगा॥२९॥ मेरे पास श्राद्धकर्मके योग्य न वित्त है, न धन है और न कोई अन्य सामग्री है, अतः मैं अपने पितृगणको नमस्कार करता हूँ, वे मेरी भक्तिसे ही तृप्ति लाभ करें। मैंने अपनी दोनों भुजाएँ आकाशमें उठा रखी हैं”॥३०॥

और्व बोले-हे राजन्! धनके होने अथवा न होनेपर पितृगणने जिस प्रकार बतलाया है वैसा ही जो पुरुष आचरण करता है वह उस आचारसे विधिपूर्वक श्राद्ध ही कर देता है॥३१॥

अध्याय-17 श्राद्ध-विधि

और्व बोले-हे राजन्! श्राद्धकालमें जैसे गुणशील ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये वह बतलाता हूँ, सुनो। त्रिणाचिकेत?, त्रिमधु२, त्रिसुपर्ण३, छहों वेदांगोंके जाननेवाले, वेदवेत्ता, श्रोत्रिय, योगी और ज्येष्ठसामग तथा ऋत्विक, भानजे, दौहित्र, जामाता, श्वशुर, मामा, तपस्वी, पंचाग्नि तपनेवाले, शिष्य, सम्बन्धी और माता-पिताके प्रेमी इन ब्राह्मणोंको श्राद्धकर्ममें नियुक्त करे। इनमेंसे [त्रिणाचिकेत आदि] पहले कहे हुओंको पूर्वकालमें नियुक्त करे और [ऋत्विक् आदि] पीछे बतलाये हुओंको पितरोंकी तृप्तिके लिये उत्तरकर्ममें भोजन करावे॥१-४॥ मित्रघाती, स्वभावसे ही विकृत नखोंवाला, नपुंसक, काले दाँतोंवाला, कन्यागामी, अग्नि और वेदका त्याग करनेवाला, सोमरस बेचनेवाला, लोकनिन्दित, चोर, चुगलखोर, ग्रामपुरोहित, वेतन लेकर पढ़ानेवाला अथवा पढ़नेवाला, पुनर्विवाहिताका पति, माता-पिताका त्याग करनेवाला, शूद्रकी सन्तानका पालन करनेवाला, शूद्राका पति तथा देवोपजीवी ब्राह्मण श्राद्धमें निमन्त्रण देनेयोग्य नहीं है॥५-८॥

श्राद्धके पहले दिन बुद्धिमान् पुरुष श्रोत्रिय आदि विहित ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और उनसे यह कह दे कि ‘आपको पितृ-श्राद्धमें और आपको विश्वेदेव-श्राद्धमें नियुक्त होना है’॥९॥ उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके सहित श्राद्ध करनेवाला पुरुष उस दिन क्रोधादि तथा स्त्रीगमन और परिश्रम आदि न करे, क्योंकि श्राद्ध करनेमें यह महान् दोष माना गया है॥१०॥ श्राद्धमें निमन्त्रित होकर या भोजन करके अथवा निमन्त्रण करके या भोजन कराकर जो पुरुष स्त्री-प्रसंग करता है वह अपने पितृगणको मानो वीर्यके कुण्डमें डुबोता है॥११॥ अतः श्राद्धके प्रथम दिन पहले तो उपरोक्त गुणविशिष्ट द्विज श्रेष्ठोंको निमन्त्रित करे और यदि उस दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घर आ जायँ तो उन्हें भी भोजन करावे॥१२॥

घर आये हुए ब्राह्मणोंका पहले पाद-शुद्धि आदिसे सत्कार करे; फिर हाथ धोकर उन्हें आचमन करानेके अनन्तर आसनपर बिठावे। अपनी सामर्थ्यानुसार पितृगणके लिये अयुग्म और देवगणके लिये युग्म ब्राह्मण नियुक्त करे अथवा दोनों पक्षोंके लिये एक-एक ब्राह्मणकी ही नियुक्ति करे॥१३-१५॥ और इसी प्रकार वैश्वदेवके सहित मातामह-श्राद्ध करे अथवा पितृपक्ष और मातामहपक्ष दोनोंके लिये भक्तिपूर्वक एक ही वैश्वदेव-श्राद्ध करे॥१६॥ देव-पक्षके ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाकर और पितृ-पक्ष तथा मातामह-पक्षके ब्राह्मणोंको उत्तरमुख बिठाकर भोजन करावे॥ १७ ॥ हे नृप! कोई तो पितृ-पक्ष और मातामह-पक्षके श्राद्धोंको अलग-अलग करनेके लिये कहते हैं और कोई महर्षि दोनोंका एक साथ एक पाकमें ही अनुष्ठान करनेके पक्षमें हैं॥१८॥ विज्ञ व्यक्ति प्रथम निमन्त्रित ब्राह्मणोंके बैठनेके लिये कुशा बिछाकर फिर अर्घ्यदान आदिसे विधिपूर्वक पूजा कर उनकी अनुमतिसे देवताओंका आवाहन करे॥१९॥ तदनन्तर श्राद्धविधिको जाननेवाला पुरुष यव-मिश्रित जलसे देवताओंको अर्घ्यदान करे और उन्हें विधिपूर्वक धूप, दीप, गन्ध तथा माला आदि निवेदन करे ॥ २० ॥ ये समस्त उपचार पितृगणके लिये अपसव्य भावसे* निवेदन करे; और फिर ब्राह्मणोंकी अनुमतिसे दो भागोंमें बँटे हुए कुशाओंका दान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितृगणका आवाहन करे, तथा हे राजन् ! अपसव्य-भावसे तिलोदकसे अर्ध्यादी दे॥ २१-२२॥

हे नृप! उस समय यदि कोई भूखा पथिक अतिथिरूपसे आ जाय तो निमन्त्रित ब्राह्मणोंकी आज्ञासे उसे भी यथेच्छ भोजन करावे॥२३॥ अनेक अज्ञात-स्वरूप योगिगण मनुष्योंके कल्याणकी कामनासे नाना रूप धारणकर पृथिवीतलपर विचरते रहते हैं॥२४॥ अत: विज्ञ पुरुष श्राद्धकालमें आये हुए अतिथिका अवश्य सत्कार करे। हे नरेन्द्र ! उस समय अतिथिका सत्कार न करनेसे वह श्राद्धक्रियाके सम्पूर्ण फलको नष्ट कर देता है॥ २५ ॥

हे पुरुषश्रेष्ठ! तदनन्तर उन ब्राह्मणोंकी आज्ञासे शाक और लवणहीन अन्नसे अग्निमें तीन बार आहुति दे॥२६॥ हे राजन्! उनमेंसे ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’ इस मन्त्रसे पहली आहुति, ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’ इससे दूसरी और ‘वैवस्वताय स्वाहा’ इस मन्त्रसे तीसरी आहुति दे। तदनन्तर आहुतियोंसे बचे हुए अन्नको थोड़ा-थोड़ा सब ब्राह्मणोंके पात्रोंमें परोस दे॥ २७-२८॥ फिर रुचिके अनुकूल अति संस्कारयुक्त मधुर अन्न सबको परोसे और अति मृदुल वाणीसे कहे कि ‘आप भोजन कीजिये’॥ २९॥ ब्राह्मणोंको भी तद्गतचित्त और मौन होकर प्रसन्नमुखसे सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये तथा यजमानको क्रोध और उतावलेपनको छोड़कर भक्तिपूर्वक परोसते रहना चाहिये॥३०॥ फिर ‘रक्षोघ्न’* मन्त्रका पाठ कर श्राद्धभूमिपर तिल छिड़के तथा अपने पितृरूपसे उन द्विजश्रेष्ठोंका ही चिन्तन करे ॥ ३१॥ [और कहे कि] ‘इन ब्राह्मणोंके शरीरोंमें स्थित मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें ॥ ३२॥ होमद्वारा सबल होकर मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह आज तृप्ति लाभ करें॥ ३३॥ मैंने जो पृथिवीपर पिण्डदान किया है उससे मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें॥ ३४॥ [श्राद्धरूपसे कुछ भी निवेदन न कर सकनेके कारण] मैंने भक्तिपूर्वक जो कुछ कहा है उस मेरे भक्तिभावसे ही मेरे पिता, पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें ॥ ३५ ॥ मेरे मातामह (नाना), उनके पिता और उनके भी पिता तथा विश्वेदेवगण परम तृप्ति लाभ करें तथा समस्त राक्षसगण नष्ट हों ॥३६॥ यहाँ समस्त हव्यकव्यके भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् हरि विराजमान हैं, अत: उनकी सन्निधिके कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँसे तुरन्त भाग जायँ’ ॥ ३७॥

तदनन्तर ब्राह्मणोंके तृप्त हो जानेपर थोड़ा-सा अन्न पृथिवीपर डाले और आचमनके लिये उन्हें एक-एक बार और जल दे॥ ३८॥ फिर भलीप्रकार तृप्त हुए उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा होनेपर समाहितचित्तसे पृथिवीपर अन्न और तिलके पिण्ड-दान करे ॥ ३९॥ और पितृतीर्थसे तिलयुक्त जलांजलि दे तथा मातामह आदिको भी उस पितृतीर्थसे ही पिण्ड-दान करे ॥ ४० ॥ ब्राह्मणोंके उच्छिष्ट (जूठन)-के निकट दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके बिछाये हुए कुशाओंपर पहले अपने पिताके लिये पुष्प-धूपादिसे पूजित पिण्डदान करे॥४१॥ तत्पश्चात् एक पिण्ड पितामहके लिये और एक प्रपितामहके लिये दे और फिर कुशाओंके मूलमें हाथमें लगे अन्नको पोंछकर [‘लेपभागभुजस्तृप्यन्ताम्’ ऐसा उच्चारण करते हुए ] लेपभोजी पितृगणको तृप्त करे॥४२॥ इसी प्रकार गन्ध और मालादियुक्त पिण्डोंसे मातामह आदिका पूजन कर फिर द्विजश्रेष्ठोंको आचमन करावे॥४३॥ और हे नरेश्वर! इसके पीछे भक्तिभावसे तन्मय होकर पहले पितृपक्षीय ब्राह्मणोंका ‘सुस्वधा’ यह आशीर्वाद ग्रहण करता हुआ यथाशक्ति दक्षिणा दे॥४४॥ फिर वैश्वदेविक ब्राह्मणोंके निकट जा उन्हें दक्षिणा देकर कहे कि ‘इस दक्षिणासे विश्वेदेवगण प्रसन्न हों’॥ ४५ ॥ उन ब्राह्मणोंके ‘तथास्तु’ कहनेपर उनसे आशीर्वादके लिये प्रार्थना करे और फिर पहले पितृपक्षके और पीछे देवपक्षके ब्राह्मणोंको विदा करे ॥ ४६॥ विश्वेदेवगणके सहित मातामह आदिके श्राद्धमें भी ब्राह्मण-भोजन, दान और विसर्जन आदिकी यही विधि बतलायी गयी है॥४७॥ पितृ और मातामह दोनों ही पक्षोंके श्राद्धोंमें पादशौच आदि सभी कर्म पहले देवपक्षके ब्राह्मणोंके करे; परन्तु विदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातामहपक्षीय ब्राह्मणोंकी ही करे॥४८॥ तदनन्तर प्रीतिवचन और सम्मानपूर्वक ब्राह्मणोंको विदा करे और उनके जानेके समय द्वारतक उनके पीछेपीछे जाय तथा जब वे आज्ञा दें तो लौट आवे॥४९॥फिर विज्ञ पुरुष वैश्वदेव नामक नित्यकर्म करे और अपने पूज्य पुरुष, बन्धुजन तथा भृत्यगणके सहित स्वयं भोजन करे॥५०॥ बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकार पैत्र्य और मातामहश्राद्धका अनुष्ठान करे। श्राद्धसे तृप्त होकर पितृगण । समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं॥५१॥

दौहित्र (लड़कीका लड़का), कुतप (दिनका आठवाँ मुहूर्त) और तिल-ये तीन तथा चाँदीका दान और उसकी बातचीत करना-ये सब श्राद्धकालमें पवित्र माने गये हैं॥५२॥ हे राजेन्द्र! श्राद्धकर्ताके लिये क्रोध, मार्गगमन और उतावलापन-ये तीन बातें वर्जित हैं; तथा श्राद्ध में भोजन करनेवालोंको भी इन तीनोंका करना उचित नहीं है॥५३॥ हे राजन्! श्राद्ध करनेवाले पुरुषसे विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन-सभी सन्तुष्ट रहते हैं ॥५४॥ हे भूपाल! पितगणका आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमाका आधार योग है, इसलिये श्राद्ध में योगिजनको नियुक्त करना अति उत्तम है॥ ५५॥ हे राजन्! यदि श्राद्धभोजी एक सहस्र ब्राह्मणोंके सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥५६॥

अध्याय-18 श्राद्ध-कर्ममें विहित और अविहित वस्तुओंका विचार

और्व बोले- हवि, मत्स्य, शशक (खरगोश), नकुल, शूकर, छाग, कस्तूरिया मृग, कृष्ण मृग, गवय (वनगाय) और मेषके मांसोंसे तथा गव्य (गौके दूध-घी आदि)-से पितृगण क्रमशः एक-एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं और वार्धीणस पक्षीके मांससे सदा तृप्त रहते हैं॥१-२॥ हे नरेश्वर ! श्राद्धकर्ममें गेंडेका मांस, कालशाक और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक हैं * ॥३॥

हे पृथिवीपते! जो पुरुष गयामें जाकर श्राद्ध करता है, उसका पितृगणको तृप्ति देनेवाला वह जन्म सफल हो जाता है॥ ४॥

हे पुरुषश्रेष्ठ ! देवधान्य, नीवार और श्याम तथा श्वेत वर्णके श्यामाक (सावाँ) एवं प्रधान-प्रधान वनौषधियाँ श्राद्धके उपयुक्त द्रव्य हैं॥५॥ जौ, काँगनी, मूंग, गेहूँ , धान, तिल, मटर, कचनार और सरसों-इन सबका श्राद्धमें होना अच्छा है॥६॥

हे राजेश्वर ! जिस अन्नसे नवान्न यज्ञ न किया गया हो तथा बड़े उड़द, छोटे उड़द, मसूर, कद्दू, गाजर, प्याज, शलजम, गान्धारक (शालिविशेष) बिना तुषके गिरे हुए धान्यका आटा, ऊसर भूमिमें उत्पन्न हुआ लवण, हींग आदि कुछ-कुछ लाल रंगकी वस्तुएँ, प्रत्यक्ष लवण और कुछ अन्य वस्तुएँ जिनका शास्त्रमें विधान नहीं है, श्राद्धकर्ममें त्याज्य हैं॥७–९॥

हे राजन् ! जो रात्रिके समय लाया गया हो, अप्रतिष्ठित जलाशयका हो, जिसमें गौ तृप्त न हो सकती हो ऐसे गड्ढेका अथवा दुर्गन्ध या फेनयुक्त जल श्राद्धके योग्य नहीं होता॥१०॥ एक खुरवालोंका, ऊँटनीका, भेड़का, मृगीका तथा भैंसका दूध श्राद्धकर्ममें काममें न ले ॥११॥

हे पुरुषर्षभ! नपुंसक, अपविद्ध (सत्पुरुषोंद्वारा बहिष्कत), चाण्डाल, पापी, पाषण्डी, रोगी, कुक्कुट, श्वान, नग्न (वैदिक कर्मको त्याग देनेवाला पुरुष) वानर, ग्राम्यशूकर, रजस्वला स्री, जन्म अथवा मरणके अशौचसे युक्त व्यक्ति और शव ले जानेवाले परुष—इनमेंसे किसीकी भी दष्टि पड जानेसे देवगण अथवा पितृगण कोई भी श्राद्ध में अपना भाग नहीं लेते॥१२-१३॥ अत: किसी घिरे हुए स्थानमें श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करे तथा पृथिवीमें तिल छिड़ककर राक्षसोंको निवृत्त कर दे॥१४॥

हे राजन् ! श्राद्ध में ऐसा अन्न न दे जिसमें नख, केश या कीड़े आदि हों या जो निचोड़कर निकाले हुए रससे युक्त हो या बासी हो ॥ १५ ॥ श्रद्धायुक्त व्यक्तियोंद्वारा नाम और गोत्रके उच्चारणपूर्वक दिया हुआ अन्न पितृगणको वे जैसे आहारके योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है॥१६॥ हे राजन् ! इस सम्बन्धमें एक गाथा सुनी जाती है जो पूर्वकालमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकुके प्रति पितृगणने कलाप उपवनमें कही थी॥१७॥ ‘क्या हमारे कुलमें ऐसे सन्मार्ग-शील व्यक्ति होंगे जो गयामें जाकर. हमारे लिये आदरपूर्वक पिण्डदान करेंगे?॥ १८॥ क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष होगा जो वर्षाकालकी मघानक्षत्रयुक्त त्रयोदशीको हमारे उद्देश्यसे मधु और घृतयुक्त पायस (खीर)-का दान करेगा? ॥ १९॥ अथवा गौरी कन्यासे विवाह करेगा, नीला वृषभ छोड़ेगा या दक्षिणासहित विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करेगा?’ ॥२०॥

अध्याय-19 नग्नविषयक प्रश्न, देवताओं का पराजय, उनका भगवान की शरण में जाना और भगवान का मायामोह को प्रकट करना

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! पूर्वकाल में महात्मा सगर से उनके पुछ्नेपर भगवान और्व ने इस प्रकार गृहस्थ के सदाचार का निरूपण किया था ॥ १ ॥ हे द्विज ! मैंने भी तुमसे उसका पूर्णतया वर्णन कर दिया । कोई भी पुरुष सदाचार का उल्लंघन करके सद्गति नहीं पा सकता ॥ २ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवन ! नपुंसक, अपविद्ध और रजस्वला आदि को तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ [ किन्तु यह नहीं जानता कि ‘नग्न’ किसको कहते हैं ] । अत: इस समय मैं नग्न के विषय में जानना चाहता हूँ ॥ ३ ॥ नग्न कौन है ? और किस प्रकार के आचरणवाला पुरुष नग्न-संज्ञा प्राप्त करता हैं ? हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ ! मैं आपके द्वारा नग्न के स्वरूप का यथावत वर्णन सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आपको कोई भी बात अविदित नहीं है ॥ ४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विज ! ऋक, साम और यजु: यह वेदत्रयी वर्णों का आवरणस्वरूप है । जो पुरुष मोहसे इसका त्याग कर देता है वह पापी ‘नग्न’ कहलाता हैं ॥ ५ ॥ हे ब्रह्मन ! समस्त वर्णों का संवरण (ढँकनेवाला वस्त्र) वेदत्रयी ही है; इसलिये उसका त्याग कर देनेपर पुरुष ‘नग्न’ हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं ॥ ६ ॥ हमारे पितामह धर्मज्ञ वसिष्ठजी ने इस विषय में महात्मा भीष्मजीसे जो कुछ कहा था वह श्रवण करो ॥ ७ ॥ हे मैत्रेय ! तुमने जो मुझसे नग्न के विषय में पूछा है इस सम्बन्ध में भीष्म के प्रति वर्णन करते समय मैंने भी महात्मा वसिष्ठजी का कथन सुना था ॥ ८ ॥

पूर्वकालमें किसी समय सौ दिव्यवर्षतक देवता और असुरों का परस्पर युद्ध हुआ । उसमें ह्लाद प्रभुति दैत्योंद्वारा देवगण पराजित हुए ॥ ९ ॥ अत: देवगणने क्षीरसागर के उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की और भगवान विष्णु की आराधना के लिये उस समय इस स्तवका गान किया ॥ १० ॥

देवगण बोले – हमलोग लोकनाथ भगवान विष्णु की आराधना के लिये जिस वाणी का उच्चारण करते हैं उससे वे आद्य-पुरुष श्रीविष्णुभगवान प्रसन्न हों ॥ ११ ॥ जिन परमात्मा से सम्पूर्ण भूत उत्पन्न हुए हैं और जिनमें वे सब अंत में लीन हो जायँगे, संसार में उनकी स्तुति करने में कौन समर्थ हैं ? ॥ १२ ॥ हे प्रभो ! यद्यपि आपका यथार्थ स्वरूप वाणीका विषय नहीं है तो भी शत्रुओं के हाथ से विध्वस्त होकर पराक्रमहीन जाने के कारण हम अभयप्राप्ति के लिये आपकी स्तुति करते हैं ॥ १३ ॥ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अंत:करण, मूल-प्रकृति और प्रकृति से परे पुरुष – ये सब आप ही है ॥ १४ ॥ हे सर्वभूतात्मन ! ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त स्थान और कालादि भेद्युक्त यह मुर्त्तामूर्त्त – पदार्थमय सम्पूर्ण प्रपंच आपही का शरीर है ॥ १५ ॥ आपके नाभि-कमल से विश्व उपकारार्थ प्रकट हुआ जो आपका प्रथम रूप है, हे ईश्वर ! उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है ॥ १६ ॥ इंद्र, सूर्य, रूद्र, वसु, अश्विनीकुमार, मरुद्रण और सोम आदि भेद्युक्त हमलोग भी आपही का एक रुप है; अत: आपके उस देवरूप को नमस्कार है ॥ १७ ॥ हे गोविन्द ! जो दम्भमयी, अज्ञानमयी तथा तितिक्षा और दम्भ से शून्य है आपकी उस दैत्य-मूर्ति को नमस्कार है ॥ १८ ॥ जिस मंदसत्त्व स्वरूप में ह्रदय की नाड़ियाँ अत्यंत ज्ञानवाहिनी नहीं होती तथा जो शब्दादि विषयों का लोभी होता हैं आपके उस यक्षरूप को नमस्कार है ॥ १९ ॥ हे पुरुषोत्तम ! आपका जो क्रूरता और मायासे युक्त घोर तमोमय रूप है उस राक्षसस्वरूप को नमस्कार है ॥ २० ॥ हे जनार्दन ! जो स्वर्ग में रहनेवाले धार्मिक जनों के यागादि सद्धर्मोंके फल की प्राप्ति करनेवाला आपका धर्म नामक रूप है उसे नमस्कार हैं ॥ २१ ॥ जो जल-अग्नि आदि गमनीय स्थानों में जाकर भी सर्वदा निर्लिप्त और प्रसन्न्तामय रहता है वह सिद्ध नामक रूप आपही का है; ऐसे सिद्धस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ २२ ॥ हे हरे ! जो अक्षमा का आश्रय अत्यंत क्रूर और कामोपभोग में समर्थ आपका द्विजिह्व (दो जीभवाला) रूप है, उन नागस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ २३ ॥ हे विष्णो ! जो ज्ञानमय, शांत, दोषरहित और कल्मषहीन है उस आपके मुनिमय स्वरूप को नमस्कार है ॥ २४ ॥ जो कल्पान्तमें अनिवार्यरूप से समस्त भूतोंका भक्षण कर जाता है, हे पुण्डरीकाक्ष ! आपके उस कालस्वरूप को नमस्कार है ॥ २५ ॥

जो प्रलयकाल में देवता आदि समस्त प्राणियों को सामान्य भावसे भक्षण करके नृत्य करता है आपके उस रूद्र-स्वरूप को नमस्कार है ॥ २६ ॥ रजोगुण की प्रवृत्ति के कारण जो कर्मों का करणरूप है, हे जनार्दन ! आपके उस मनुष्यात्मक स्वरूप को नमस्कार है ॥ २७ ॥ हे सर्वात्मन ! जो अट्ठाईस ‘वध-युक्त’ तमोमय और उन्मार्गगामी है आपके उस पशुरूप को नमस्कार है ॥ २८ ॥ जो जगत की स्थिति का साधन और यज्ञ का अंगभूत है तथा वृक्ष, लता, गुल्म, वीरूध, तृण और गिरि – इन छ: भेड़ों से युक्त हैं उन मुख्य रूप आपको नमस्कार है ॥ २९ ॥ तिर्यक मनुष्य तथा देवता आदि प्राणी, आकाशादि पंचभूत और शब्दादि उनके गुण – ये सब, सबके आदिभूत आपही के रूप है; अत: आप सर्वात्मा को नमस्कार है ॥ ३० ॥ हे परमात्मन ! प्रधान और मह्त्तत्त्वादिरूप इस सम्पूर्ण जगत से जो परे हैं, सबका आदि कारण है तथा जिसके समान कोई अन्य रूप नहीं है, आपके उस प्रकृति आदि करणों के भी कारण रुपको नमस्कार है ॥ ३१ ॥ हे भगवन ! जो शुक्लादि रूपसे, दीर्घता आदि परिमाण से ततः घंटा आदि गुणोंसे रहित है, इसप्रकार जो समस्त विशेषणों का अविषय है तथा परमर्षियों का दर्शनीय एवं शुद्धातिशुद्ध है आपके उस स्वरूप को हम नमस्कार करते है ॥ ३२ ॥ जो हमारे शरीरों में, अन्य प्राणियों के शरीरों में तथा समस्त वस्तुओं में वर्तमान है, अजन्मा और अविनाशी है तथा जिससे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है, उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते हैं ॥ ३३ ॥ परमपद ब्रह्म ही जिसका आत्मा है ऐसे जिस सनातन और अजन्मा भगवान का यह सकल प्रपंच रूप है, उस सबके बीजभूत, अविनाशी और निर्मल प्रभु वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं॥ ३४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! स्त्रोत्र के समाप्त हो जानेपर देवताओं ने परमात्मा श्रीहरि को हाथ में शंख, चक्र और गदा लिये तथा गरुडपर आरूढ़ हुए अपने सम्मुख विराजमान देखा ॥ ३५ ॥ उन्हें देखकर समस्त देवताओं ने प्रणाम करने के अनन्तर उनसे कहा – हे नाथ ! प्रसन्न होइये और हम शरणागतों की दैत्यों से रक्षा कीजिये ॥ ३६ ॥ हे परमेश्वर ! ह्लाद प्रभुति दैत्यगण ने ब्रह्माजी की आज्ञा का भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकी के यज्ञभागों का अपहरण कर लिया है ॥ ३७ ॥ यद्यपि हम और वे सर्वभूत आपही के अंशज है तथापि अविद्यावश हम जगत को परस्पर भिन्न-भिन्न देखते हैं ॥ ३८ ॥ हमारे शत्रुगण अपने वर्णधर्मका पालन करनेवाले, वेदमार्गावलम्बी और तपोनिष्ठ हैं, अत: वे हमसे नहीं मारे जा सकते ॥ ३९ ॥ अत: हे सर्वात्मन ! जिससे हम उन असुरोंका वध करने में समर्थ हो ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये ॥ ४० ॥

श्रीपराशरजी बोले – उनके ऐसा कहनेपर भगवान विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह को उत्पन्न किया और उसे देवताओं को देकर कहा ॥ ४१ ॥ यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यगण को मोहित कर देगा, तब वे वेदमार्ग का उल्लंघन करने से तुमलोगों से मारे जा सकेंगे ॥ ४२ ॥ हे देवगण ! जो कोई देवता अथवा दैत्य ब्रह्माजी के कार्य में बाधा डालते हैं वे सृष्टि की रक्षा में तत्पर मेरे बध्य होते है ॥ ४३ ॥ अत: हे देवगण ! अब तुम जाओ । डरो मत । यह मायामोह आगेसे जाकर तुम्हारा उपकार करेगा ॥ ४४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – भगवान की ऐसी आज्ञा होनेपर देवगण उन्हें प्रणाम कर जहाँ से आये थे वहाँ चले गये तथा उनके साथ मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ गया ॥ ४५ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः से सप्तदशोऽध्यायः

अध्याय-20 मायामोह और असुरों का संवाद तथा राजा शतधनु की कथा

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! तदनन्तर मायामोह ने जाकर देखा कि असुरगण नर्मदा के तटपर तपस्या में लगे हुए है ॥ १ ॥ तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डितकेश मायामोह ने असुरों से अति मधुर वाणी में इसप्रकार कहा ॥ २ ॥

मायामोह बोला – हे दैत्यपतिगण ! कहिये, आपलोग किस उद्देश्यसे तपस्या कर रहे हैं, आपको किसी लौकिक फल की इच्छा है या पारलौकिक की ? ॥ ३ ॥

असुरगण बोले – हे महामते ! हमलोगों ने पारलौकिक फल की कामना से तपस्या आरम्भ की है । इस विषय में तुमको हमसे क्या कहना है ? ॥ ४ ॥

मायामोह बोला – यदि आपलोगों को मुक्तिकी इच्छा है तो जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो । आपलोग मुक्ति के खुले द्वारपर इस धर्म का आदर कीजिये ॥ ५ ॥ यह धर्म मुक्ति में परमोपयोगी है । इससे श्रेष्ठ अन्य कोई धर्म नही है । इसका अनुष्ठान करने से आपलोग स्वर्ग अथवा मुक्ति जिसकी कामना करेंगे प्राप्त कर लेंगे । आप सबलोग महाबलवान है, अत: इस धर्मका आदर कीजिये ॥ ६ – ७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – इसप्रकार नाना प्रकार की युक्तियों से अतिरंजित वाक्योंद्वारा मायामोह ने दैत्यगण को वैदिक मार्ग से भ्रष्ट कर दिया ॥ ८ ॥ यह धर्मयुक्त हैं और यह धर्मविरुद्ध है, यह सत है और यह असत है, यह मुक्तिकारक है और इससे मुक्ति नहीं होती, यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है, यह दिगम्बरों का धर्म है और यह साम्बरों का धर्म है – हे द्विज ! ऐसे अनेक प्रकार के अनंत वादों को दिखलाकर मायामोह ने उन दैत्यों को स्वधर्म से च्युत कर दिया ॥ ९ – १२ ॥ मायामोह ने दैत्यों से कहा था कि आपलोग इस महाधर्म को ‘अर्हत’ अर्थात इसका आदर कीजिये । अत: उस धर्म का अवलम्बन करने से वे ‘आर्हत’ कहलाये ॥ १३ ॥

मायामोह ने असुरगण क त्रयीधर्म से विमुक्त कर दिया वे मोहग्रस्त हो गये; तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्यों को भी इसी धर्म में प्रवृत्त किया ॥ १४ ॥ उन्होंने दूसरे दैत्यों को, दूसरोने तीसरों को, तीसरों ने चौथों को तथा उन्होंने औरों को इसी धर्म में प्रवृत्त किए । इसप्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यगण ने वेदत्रयी का प्राय: त्याग कर दिया ॥ १५ ॥ तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोह ने रक्तवस्त्र धारणकर अन्यान्य असुरों के पास जा उनसे मृदु, अल्प और मधुर शब्दों में कहा ॥ १६ ॥ ‘हे असुरगण ! यदि तुमलोगों को स्वर्ग अथवा मोक्ष की इच्छा है तो पशुहिसा आदि दुष्टकर्मों को त्यागकर बोध प्राप्त करो ॥ १७ ॥

यह सम्पूर्ण जगत विज्ञानमाय है – ऐसा जानो । मेरे वाक्योंपर पूर्णतया ध्यान दो । इस विषय में युधजनों का पदार्थों की प्रतीतिपर ही स्थिर है तथा रागादि दोषों से दूषित हैं । इस संसारसंकट में जीव अत्यंत भटकता रहा है ॥ १८-१९ ॥ इसप्रकार ‘बुध्यत (जानो), बुध्यर्ध्व (समझो), बुध्यत (जानो)’ आदि शब्दों से बुद्धधर्म का निर्देश कर मायामोहने दैत्यों से उनका निजधर्म छुड़ा दिया ॥ २० ॥ मायामोह ने ऐसे नाना प्रकार के युक्तियुक्त वाक्य कहे जिससे उन दैत्यगण ने त्रयीधर्म को त्याग दिया ॥ २१ ॥ उन दैत्यगण ने अन्य दैत्यों से तथा उन्होंने अन्यान्यसे ऐसे ही वाक्य कहे । हे मैत्रेय ! इसप्रकार उन्होंने श्रुतिस्मृतिविहित अपने परम धर्म को त्याग दिया ॥ २२ ॥ हे द्विज ! मोह्कारी मायामोह ने और भी अनेकानेक दैत्यों को भिन्न-भिन्न प्रकार के विविध पाषण्डों से मोहित कर दिया ॥ २३ ॥ इसप्रकार थोड़े ही समय में मायामोह के द्वारा मोहित होकर असुरगण ने वैदिक धर्म की बातचीत करना भी छोड़ दिया ॥ २४ ॥

हे द्विज ! उनमें से कोई वेदों की, कोई देवताओं की, कोई याज्ञिक कर्म – कलापों की तथा कोई ब्राह्मणों की निंदा करने लगे ॥ २५ ॥ हिंसा में भी धर्म होता है – यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । अग्नि में हवि जलाने से फल होगा – यह भी बच्चोंकी –सी बात है ॥ २६ ॥ अनेकों यज्ञों के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इंद्र को शमी आदि काष्ठका ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है ॥ २७ ॥ यदि यज्ञ में बलि किये गये पशुको स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिताको ही क्यों नहीं मार डालता ? ॥ २८ ॥ यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुष की तृप्ति हो सकती है तो विदेशकी यात्रा के समय खाद्यपदार्थ ले जानेका परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है; पुत्रगण घरपर ही श्राद्ध कर दिया करें ॥ २९ ॥ अत: यह समझकर कि ‘यह (श्राद्धादि कर्मकांड) लोगों की अंध-श्रद्धा ही है’ इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये और अपने श्रेय:साधन के लिये जो कुछ मैंने कहा है उसमें रूचि करनी चाहिये ॥ ३० ॥ हे असुरगण ! श्रुति आदि आप्तवाक्य कुछ आकाश में नहीं गिरा करते । हम, तुम और अन्य सबको भी युक्तियुक्त वाक्यों को ग्रहण कर लेना चाहिये ॥ ३१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – इसप्रकार अनेक युक्तियों से मायामोह ने दैत्यों को विचलित कर दिया जिससे उनमें से किसीकी भी वेदत्रयी में रूचि नहीं रही ॥ ३२ ॥ इसप्रकार दैत्यों के विपरीत मार्ग में प्रवृत्त हो जानेपर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्ध के लिये उपस्थित हुए ॥ ३३ ॥

हे द्विज ! तब देवता और असुरों में पुन: संग्राम छिड़ा । उसमें सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओंद्वारा मारे गये ॥ ३४ ॥ हे द्विज ! पहले दैत्यों के पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसीसे उनकी रक्षा हुई थी । अबकी बार उसके नष्ट हो जानेसे वे भी नष्ट हो गये ॥ ३५ ॥ हे मैत्रेय ! इस समय से जो लोग मायामोहद्वारा प्रवर्तित मार्गका अवलम्बन करनेवाले हुए । वे ‘नग्न’ कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्त्र को त्याग दिया था ॥ ३६ ॥

ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – ये चार ही आश्रमी हैं । इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है ॥ ३७ ॥ हे मैत्रेय ! जो पुरुष गृहस्थाश्रम को छोड़ने के अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी भी नग्न ही है ॥ ३८ ॥

हे विप्र ! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन-रात में ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मों का क्षय हो जाता है ॥ ३९ ॥ हे मैत्रेय ! आपत्तिकाल को छोडकर और किसी समय एक पक्षतक नित्यकर्म का त्याग करनेवाला पुरुष महान प्रायश्चित्तसे ही शुद्ध हो सकता है ॥ ४० ॥ जो पुरुष एक वर्षतक नित्य-क्रिया नहीं करता उसपर दृष्टि पड जानेसे साधू पुरुष को सदा सूर्यका दर्शन करना चाहिये ॥ ४१ ॥ हे महामते ! ऐसे पुरुष का स्पर्श होनेपर वस्रसहित स्नान करने से शुद्धि हो सकती है और उस पापात्मा की शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती ॥ ४२ ॥

जिस मनुष्य के घर से देवगण, ऋषिगण, पितृगण और भूतगण विना पूजित हुए नि:श्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं, लोकमें उससे बढकर और कोई पापी नहीं हैं ॥ ४३ ॥ हे द्विज ! ऐसे पुरुष के साथ एक वर्षतक सम्भाषण, कुशलप्रश्न और उठने-बैठने से मनुष्य उसी के समान पापात्मा हो जाता हैं ॥ ४४ ॥ जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदि के नि:श्वास से निहत हैं उसके साथ अपने गृह, आसन और वस्त्र आदिको न मिलावे ॥ ४५ ॥ जो पुरुष उसके घर में भोजन करता है, उसका आसन ग्रहण करता है अथवा उसके साथ एक ही शय्यापर शयन करता है वह शीघ्र ही उसीके समान हो जाता है ॥ ४६ ॥ जो मनुष्य देवता, पितर, भूतगण और अतिथियों का पूजन किये बिना स्वयं भोजन करता हैं वह पापमय भोजन करता हैं; उसकी शुभगति नहीं हो सकती ॥ ४७ ॥

जो ब्राह्मणादि वर्ण स्वधर्म को छोडकर परधर्मों में प्रवृत्त होते हैं अथवा हीनवृत्तिका अवलम्बन करते हैं वे ‘नग्न’ कहलाते है ॥ ४८ ।\। हे मैत्रेय ! जिस स्थान में चारों वर्णों का अत्यंत मिश्रण हो उसमें रहने से पुरुष की साधूवृत्तियों का क्षय हो जाता है ॥ ४९ ॥ जो पुरुष ऋषि, देव, पितृ, भूत और अतिथिगण का पूजन किये बिना भोजन करता है उससे सम्भाषण करने से भी लोग नरक में पड़ते हैं ॥ ५० ॥ अत: वेदत्रयी के त्याग से दूषित इन नग्नोंके साथ प्राज्ञपुरुष सर्वदा सम्भाषण और स्पर्श आदिका भी त्याग कर दे ॥ ५१ ॥ यदि इनकी दृष्टि पद जाय तो श्रद्धावान पुरुषों का यत्नपूर्वक किया हुआ श्राद्ध देवता अथवा पितृपितामहगण की तृप्ति नहीं करता ॥ ५२ ॥

राजा शतधनु की कथा

सुना जाता है, पूर्वकाल में पृथ्वीतलपर शतधनु नामसे विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी शैव्या अत्यंत धर्मपरायणा थी ॥ ५३ ॥ वह महाभाग पतिव्रता, सत्य, शौच और दया से युक्त तथा विनय और निति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणों से सम्पन्न थी ॥ ५४ ॥ उस महारानी के साथ राजा शतधनु ने परम-समाधिद्वारा सर्वव्यापक, देवदेव श्रीजनार्दन की आराधना की ॥ ५५ ॥ वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभाव से होम, जप, दान, उपवास और पूजन आदिद्वारा भगवान की भक्तिपूर्वक आराधना करने लगे ॥ ५६ ॥ हे द्विज ! एक दिन कार्तिकी पूर्णिमा को उपवास कर उन दोनों पति-पत्नियों ने श्रीगंगाजी से एक साथ ही स्नान करने के अनन्तर बाहर आनेपर एक पाषण्डी को सामने आता देखा ॥ ५७ ॥ यह ब्राह्मण उस महात्मा राजा के धनुर्वेदाचार्य का मित्र था; अत: आचार्य के गौरववश राजाने भी उससे मित्रवत व्यवहार किया ॥ ५८ ॥ किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नीने उसका कुछ भी आदर नहीं किया; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता (उपवासयुक्त) हूँ उसे देखकर सूर्यका दर्शन किया ॥ ५९ ॥ हे द्विजोत्तम ! फिर उन स्त्री-पुरुषोंने यथारीति आकर भगवान् विष्णु के पूजा आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये ॥ ६० ॥

कालान्तर में वह शत्रुजित राजा मर गया । तब, देवी शैव्या ने भी चितारुढ महाराज का अनुगमन किया ॥ ६१ ॥ राजा शतधनु ने उपवास-अवस्थामें पाखण्डी से वार्तालाप किया था । अत: उस पाप के कारण उसने कुत्ते का जन्म लिया ॥ ६२ ॥ तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेश की कन्या हुई, जो सब प्रकार के विज्ञान से युक्त, सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा (पूर्वजन्म का वृतांत जाननेवाली ) थी ॥ ६३ ॥ राजाने उसे किसी वर को देने की इच्छा की, किन्तु उस सुन्दरी के ही रोक देनेपर वह उसके विवाहादि से उपरत हो गये ॥ ६४ ॥ तब उसने दिव्य दृष्टि से अपने पति को श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगर में जाकर उसे वहाँ कुत्ते की अवस्था में देखा ॥ ६५ ॥ अपने महाभाग पतिको श्वानरूप में देखकर उस सुन्दरी ने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया ॥ ६६ ॥ उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्नको खाकर वह अपनी जाति के अनुकूल नाना प्रकार की चाटुता प्रदर्शित करने लगा ॥ ६७ ॥ उसके चाटुता करने से अत्यंत संकुचित हो उस बालिकाने कुत्सित योनि में उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतम को प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा ॥ ६८ ॥ “महाराज ! आप अपनी उस उदारताका स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान-योनि को प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं ॥ ६९ ॥ हे प्रभो ! क्या आपको यह स्मरण नहीं हैं कि तीर्थस्नान के अनन्तर पाखण्डी से वार्तालाप करने के कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है ?” ॥ ७० ॥

श्रीपराशरजी बोले – काशिराजसुताद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्म का चिन्तन किया । तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ ॥ ७१ ॥ उसने अति उदास चित्तसे नगर के बाहर आकर प्राण त्याग दिये और फिर श्रुंगाल – योनि में जन्म लिया ॥ ७२ ॥ तब, काशिराज कन्या दिव्य दृष्टि से उसे दूसरे जन्म में श्रुंगाल हुआ जान उसे देखने के लिये कोलाहल-पर्वतपर गयी ॥ ७३ ॥ वहाँ भी अपने पतिको श्रुंगाल-योनि में उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्य उससे बोली ॥ ७४ ॥ “हे राजेन्द्र ! श्वान-योनि में जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्ड से वार्तालापविषयक पूर्वजन्म का वृतांत कहा था क्या वह आपको स्मरण हैं ?” ॥ ७५ ॥ तब सत्यनिष्ठों में श्रेष्ठ राजा शतधनु ने उसके इस प्रकार कहनेपर सारा सत्य वृतांत जानकर निराहार रह वन में अपना शरीर छोड़ दिया ॥ ७६ ॥

फिर वह एक भेड़िया हुआ; उस समय भी अनिंदिता राजकन्या ने उस निर्जन वन में जाकर अपने पतिको उसके पूर्वजन्म का वृतांत स्मरण कराया ॥ ७७ ॥ “हे महाभाग ! तुम भेड़िया नहीं हो, तुम राजा शतधनु हो । तुम अपने पूर्वजन्मों में क्रमश: कुकुर और श्रुंगाल होकर अब भेड़िया हुए हो” ॥ ७८ ॥ इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़िये के शरीर को छोड़ा तो गृध्र – योनि में जन्म लिया । उससमय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया ॥ ७९ ॥ “हे नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूप का स्मरण करो; इन गृध्र-चेष्टाओं को छोडो । पाखण्ड के साथ वार्तालाप करने के दोष से ही तुम गृध्र हुए हो” ॥ ८० ॥ फिर दूसरे जन्म में काक-योनि को प्राप्त होनेपर भी अपने पतिकी योगबल से पाकर उस सुन्दरी ने कहा ॥ ८१ ॥ “हे प्रभो ! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामंतगण नाना प्रकार की वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक-योनि को प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं” ॥ ८२ ॥ इसी प्रकार काक-योनि में भी पूर्वजन्म का स्मरण कराये जानेपर राजाने अपने प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर-योनि में जन्म लिया ॥ ८३ ॥ मयूरावस्था में भी काशिराज की कन्या उसे क्षण-क्षण में अति सुंदर मयुरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी ॥ ८४ ॥ उससमय राजा जनक ने अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान किया; उस यज्ञ में अवभृथ –स्नान के समय उस मयूर को स्नान कराया ॥ ८५ ॥ तब उस सुन्दरी ने स्वयं भी स्नान कर राजाको यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और श्रुंगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं ॥ ८६ ॥ अपनी जन्म – परम्परा का स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजी के यहाँ ही पुत्ररूप से जन्म लिया ॥ ८७ ॥

तब उस सुन्दरी ने अपने पिताको विवाह के लिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणा से राजाने उसके स्वयंवर का आयोजन किया ॥ ८८ ॥ स्वयंवर होनेपर उस राजकन्या ने स्वयंवर में आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभाव से वरण कर लिया ॥ ८९ ॥ उस राजकुमार ने काशिराजसुता के साथ नाना प्रकार के भोग भोगे और फिर पिता के परलोकवासी होनेपर विदेहनगर का राज्य किया ॥ ९० ॥ उसने बहुत-से यज्ञ किये, याचकों को नाना प्रकार से दान दिये, बहुत-से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओं के साथ अनेकों युद्ध किये ॥ ९१ ॥ इसप्रकार उस राजाने पृथ्वी का न्यायानुकुल पालन करते हुए राज्यभोग किया और अंत में अपन प्रिय प्राणों को धर्मयुद्ध में छोड़ा ॥ ९२ ॥ तब उस सुलोचना ने पहले के समान फिर अपने चितारुढ पतिका विधिपूर्वक प्रसन्न-मन से अनुगमन किया ॥ ९३ ॥ इससे वह राजा उस राजकन्या के सहित इन्द्रलोक से भी उत्कृष्ट अक्षय लोकों को प्राप्त हुआ ॥ ९४ ॥

हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग, अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पुर्वार्चित सम्पूर्ण पुण्य का फल प्राप्त कर लिया ॥ ९५ ॥

हे द्विज ! इसप्रकार मैंने तुमसे पाखण्डी से सम्भाषण करने का दोष और अश्वमेध-यज्ञ में स्नान करने का माहात्म्य वर्णन कर दिया ॥ ९६ ॥ इसलिये पाखण्डी और पापाचारियों से कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे; विशेषत: नित्य- नैमित्तिक कर्मों के समय और जो यज्ञादि क्रियाओं के लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यंत आवश्यक है ॥ ९७ ॥ जिसके घर में एक मासतक नित्यकर्मों का अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेनेपर बुद्धिमान मनुष्य सूर्यका दर्शन करे ॥ ९८ ॥ फिर जिन्होंने वेदत्रयी का सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डीयों का अन्न खाते और वैदिक मत का विरोध करते हैं उन पापात्माओं के दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥ ९९ ॥ इन दुराचारी पाखण्डियों के साथ वार्तालाप करने, सम्पर्क रखें और उठने – बैठने में महान पाप होता है; इसलिये इन सब बातों का त्याग करे ॥ १०० ॥ पाखण्डी, विकर्मी, विडाल-व्रतवाले [अर्थात छिपे – छिपे पाप करना वैडाल नामक व्रत है । जो वैसा करते हैं ‘वे विडाल-व्रतवाले’ कहलाते है । ], दुष्ट, स्वार्थी और बगुला – भक्त लोगों का वाणी से भी आदर न करे ॥ १०१ ॥ इन पाखण्डी, दुराचारी और अति पापियों का संसर्ग दूरी से त्यागने योग्य है । इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे ॥ १०२ ॥

इसप्रकार मैंने तुमसे नग्नों की व्याख्या की, जिनके दर्शनमात्र से श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करने से मनुष्य का एक दिन का पुण्य क्षीण हो जाता है ॥ १०३ ॥ वे पाखण्डी बड़े पापी होते हैं, बुद्धिमान पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण करने से उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता हैं ॥ १०४ ॥ जो बिना कारण ही जटा धारण करते अथवा मूँड मुड़ाते है, देवता, अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं, सब प्रकार से शौचहीन हैं तथा जल-दान और पितृ-पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं, उन लोगों से वार्तालाप करने से भी लोग नरक में जाते हैं ॥ १०५ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे तृतीयेऽशे अष्टोदशोऽध्यायः

॥ इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे तृतीयोंऽश: समाप्त: ॥

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