- अध्याय-01 वसुदेव – देवकी का विवाह, भारपीडिता पृथ्वी का देवताओं के सहित क्षीरसमुद्रपर जाना और भगवान का प्रकट होकर उसे धैर्य बंधना, कृष्णावतार का उपक्रम
- अध्याय-02 भगवान का गर्भ – प्रवेश तथा देवगणद्वारा देवकी की स्तुति
- अध्याय-03 भगवानका आविर्भाव तथा योगमायाद्वारा कंस की वंचना
- अध्याय-04 वसुदेव – देवकी का कारागार से मोक्ष
- अध्याय-05 पूतना – वध
- अध्याय-06 शकटभज्जन, यमलार्जुन-उद्धार, व्रजवासियोंका गोकुलसे वृन्दावनमें जाना और वर्षा-वर्णन
- अध्याय-07 कालिय-दमन
- अध्याय-08 धेनुकासुर का वध
- अध्याय-09 प्रलम्ब का वध
- अध्याय-10 शरद वर्णन तथा गोवर्धन की पूजा
- अध्याय-11 इंद्र का कोप और श्रीकृष्ण का गोवर्धन को धारण करना
- अध्याय-12 शक्र-कृष्ण संवाद तथा कृष्ण की स्तुति
- अध्याय-13 गोपों द्वारा भगवान का प्रभाव का वर्णन तथा भगवान का गोपियों के साथ रासक्रीड़ा करना
- अध्याय-14 वृषभासुर वध
- अध्याय-15 कंस का श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अक्रूर को भेजना
- अध्याय-16 केशी का वध
- अध्याय-17 अक्रूर जी की गोकुल यात्रा
- अध्याय-18 भगवान का मथुरा को प्रस्थान, गोपियों की विरह की कथा और अक्रूर जी का मोह
- अध्याय-19 भगवान का मथुरा में प्रवेश, रजक का वध तथा माली पर कृपा
- अध्याय-20 कुब्जा पर कृपा, धनुभृग, कुवलयापीड, चाणूर आदि मल्लों का नाश तथा कंस वध
- अध्याय-21 उग्रसेनका राज्य अभिषेक तथा भगवान का विद्याध्ययन
- अध्याय-22 जरासंध की पराजय
- अध्याय-23 द्वारका का दुर्ग की रचना, कालयवन का भस्म होना तथा मुचुकुन्दकृत भागवत्सुति
- अध्याय-24 मुचुकुन्द का तपस्या के लिए प्रस्थान और बलराम जी की व्रजयात्रा
- अध्याय-25 बलभद्र जी का व्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण
- अध्याय-26 रुकमणि का हरण
- अध्याय-27 प्रधुम्न का हरण और शम्बर का वध
- अध्याय-28 रुक्मी का वध
- अध्याय-29 नरकासुर का वध
- अध्याय-30 पारिजात का हरण
- अध्याय-31 भगवान का सोलह हजार एक सौ कन्याओं से विवाह करना
- अध्याय-32 उषा का चरित्र
- अध्याय-33 श्रीकृष्ण और वाणासुर का युद्ध
- अध्याय-34 पौंड्रक का वध तथा काशी दहन
- अध्याय-35 साम्ब का विवाह
- अध्याय-36 द्विविद का वध
- अध्याय-37 ऋषियों का शाप, यदुवंश का विनाश, तथा श्रीकृष्ण का स्वधाम सिधारणा
- अध्याय-38 यादवों का अंत्येष्टि संस्कार परीक्षित का राज्य अभिषेक तथा पांडवों का स्वर्गारोहण
श्रीविष्णुपुराण पञ्चमअंश

अध्याय-01 वसुदेव – देवकी का विवाह, भारपीडिता पृथ्वी का देवताओं के सहित क्षीरसमुद्रपर जाना और भगवान का प्रकट होकर उसे धैर्य बंधना, कृष्णावतार का उपक्रम
श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवन ! आपने राजाओं के सम्पूर्ण वंशों का विस्तार तथा उनके चरित्रों का क्रमशः यथावत वर्णन किया ॥ १ ॥ अब, हे ब्रह्मर्षे ! यदुकुल में जो भग
श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! तुमने मुझसे जो पूछा है वह संसार में परम मंगलकारी भगवान विष्णु के अंशावतारका चरित्र सुनो ॥ ४ ॥ हे महामुने ! पूर्वकाल में देवक की महाभाग्यशालिनी पुत्री देवीस्वरूपा देवकी के साथ वसुदेवजी ने विवाह किया ॥ ५ ॥ वसुदेव और देवकी के वैवाहिक सम्बन्ध होने के अनन्तर भोजनंदन कंस सारथि बनकर उन दोनों का मांगलिक रथ हाँकने लगा ॥ ६ ॥ उसी समय मेघ के समान गंभीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंस को ऊँचे स्वर से सम्बोधन करके यों बोली ॥ ७ ॥ ‘अरे मूढ़ ! पति के साथ रथपर बैठी हुई जिस देवकी को तू लिये जा रहा है इसका आठवाँ गर्भ तेरे प्राण हर लेगा’ ॥ ८ ॥
श्रीपराशरजी बोले – यह सुनते ही महाबली कंस खंग निकालकर देवकी को मारने के लिये उद्यत हुआ । तब वसुदेवजी यों कहने लगे ॥ ९ ॥
‘हे महाभाग ! हे अनघ ! आप देवकी का वध न करें, मैं इसके गर्भ से उत्पन्न हुए सभी बालक आपको सौंप दूँगा’ ॥ १० ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे द्विजोत्तम ! तब सत्य के गौरवसे कंस ने वसुदेवजी से ‘बहुत अच्छा’ कह देवकी का वध नही किया ॥ ११ ॥ इसी समय अत्यंत भारसे पीड़ित होकर पृथ्वी गौ का रूप धारणकर सुमेरुपर्वतपर देवताओं के दल में गयी ॥ १२ ॥ वहाँ उसने ब्रह्माजी के सहित समस्त देवताओं को प्रणामकर खेदपूर्वक करुणस्वर से बोलती हुई अपना सारा वृतांत कहा ॥ १३ ॥
पृथ्वी बोली – जिसप्रकार अग्नि सुवर्ण का तथा सूर्य गो समूहका परमगुरु हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकों के गुरु श्रीनारायण मेरे गुरु हैं ॥ १४ ॥ वे प्रजापतियों के पति और पूर्वजों के पूर्वज ब्रह्माजी हैं तथा वे ही कला-काष्ठा-निमेष स्वरूप अव्यक्त मूर्तिमान काल है । हे देवश्रेष्ठगण ! आप सब लोगों का समूह भी उन्हीं का अंशस्वरूप हैं ॥ १५ – १६ ॥ आदित्य, मरुदगण, साध्यगण, रूद्र, वसु, अग्नि, पितृगण और अत्रि आदि प्रजापतिगण – ये सब अप्रमेय महात्मा विष्णु के ही रूप हैं ॥ १७ – १८ ॥ यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, सर्प, दानव, गन्धर्व और अप्सरा आदि भी महात्मा विष्णु के ही रूप है ॥ १९ ॥ ग्रह, नक्षत्र तथा तारागणों से चित्रित आकाश, अग्नि, जल, वायु, मैं और इन्द्रियों के सम्पूर्ण विषय – यह सारा जगत विष्णुमय ही है ॥ २० ॥ तथापि उन अनेक रूपधारी विष्णु के ये रूप समुद्र की तरंगों के समान रात-दिन एक-दूसरे के बाध्य-बाधक होते रहते हैं ॥ २१ ॥
इससमय कालनेमि आदि दैत्यगण मर्त्यलोकपर अधिकार जमाकर अहर्निश जनताको क्लेशित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ जिस कालनेमिको सामर्थ्यवान भगवान विष्णु ने मारा था, इससमय वही उग्रसेन के पुत्र महान असुर कंस के रूप में उत्पन्न हुआ हैं ॥ २३ ॥ अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्द, बलिका पुत्र अति भयंकर बाणासुर तथा और भी जो महाबलवान दुरात्मा राक्षस राजाओं के घर में उत्पन्न हो गये हैं उनकी मैं गणना नहीं कर सकती ॥ २४ – २५ ॥
हे दिव्यमुर्तिधारी देवगण ! इस समय मेरे ऊपर महाबलवान और गर्वीले दैत्यराजों की अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ है ॥ २६ ॥ हे अमरेश्वरो ! मैं आपलोगों को यह बतलाये देती हूँ कि अब मैं उनके अत्यंत भारसे पीड़ित होकर अपने को धारण करने में सर्वथा असमर्थ हूँ ॥ २७ ॥ अत: हे महाभागगण ! आपलोग मेरे भार उतारने का अब कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं अत्यंत व्याकुल होकर रसातल को न चली जाऊँ ॥ २८ ॥
पृथ्वी के इन वाक्यों को सुनकर उसके भार उतारने के विषय में समस्त देवताओं की प्रेरणासे भगवान ब्रह्माजी ने कहना आरम्भ किया ॥ २९ ॥
ब्रह्माजी बोले – हे देवगण ! पृथ्वी ने जो कुछ कहा है वह सर्वथा सत्य ही है, वास्तव में मैं, शंकर और आप सब लोग नारायणस्वरूप ही है ॥ ३० ॥ उनकी जो – जो विभूतियाँ हैं, उनकी परस्पर न्युनता और अधिकता ही बाध्य तथा बाधकरूपसे रहा करती है ॥ ३१ ॥ इसलिये आओ, अब हमलोग क्षीरसागर के पवित्र तटपर चले, वहाँ श्रीहरि की आराधना कर वह सम्पूर्ण वृतांत उनसे निवेदन कर दें ॥ ३२ ॥ वे विश्वरूप सर्वात्मा सर्वथा संसार के हित के लिये ही अपने शुद्ध सत्त्वांश से अवतीर्ण होकर पृथ्वी में धर्म की स्थापना करते हैं ॥ ३३ ॥
श्रीपराशरजी बोले – ऐसा कहकर देवताओं के सहित पितामह ब्रह्माजी वहाँ गये और एकाग्रचित्त से श्रीगरुडध्वज भगवान की इसप्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३४ ॥
ब्रह्माजी बोले – हे वेदवाणी के अगोचर प्रभो ! परा और अपरा – ये दोनों विद्याएँ आप ही है । हे नाथ ! वे दोनों आपही के मूर्त और अमूर्त रूप है ॥ ३५ । हे अत्यंत सूक्ष्म ! हे विराटस्वरूप ! हे सर्व ! हे सर्वज्ञ ! शब्दब्रह्म और परब्रह्म – ये दोनों आप ब्रह्ममय के ही रूप है ॥ ३६ ॥ आप ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं तथा आप ही शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छंद और ज्योतिष-शास्त्र हैं ॥ ३७ ॥ हे प्रभो ! हे अधोक्षज ! इतिहास, पुराण, व्याकरण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र – ये सब भी आप ही है ॥ ३८ ॥
हे आद्यपते ! जीवात्मा, परमात्मा, स्थूल-सूक्ष्म-देह तथा उनका कारण अव्यक्त – इन सबके विचार से युक्त जो अंतरात्मा और परमात्मा के स्वरूप का बोधक [ तत्त्वमसि ] वाक्य है , वह भी आपसे भिन्न नही हैं ॥ ३९ ॥
आप अव्यक्त, अनिर्वाच्य, नामवर्ग से रहित, हाथ-पाँव तथा रूपसे हीन, शुद्ध, सनातन और परसे भी पर हैं ॥ ४० ॥ आप कर्णहीन होकर भी सुनते हैं, नेत्रहीन होकर भी देखते हैं, एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, हस्तपादादि से रहित होकर भी बड़े वेगशाली और ग्रहण करनेवाले हैं तथा सबके अवेद्य होकर भी सबको जाननेवाले है ॥ ४१ ॥ हे परात्मन ! जिस धीर पुरुष की बुद्धि आपके श्रेष्ठतं रूपसे पृथक और कुछ भी नहीं देखती, आपके अणुसे भी अणु और दृश्य-स्वरूप को देखनेवाले उस पुरुष की आत्यन्तिक अज्ञाननिवृत्ति हो जाती है ॥ ४२ ॥ आप विश्व के केंद्र और त्रिभुवन के रक्षक हैं; सम्पूर्ण भूत आपही में स्थित हैं तथा जो कुछ भूत, भविष्यत और अणु से भी अणु है वह सब आप प्रकृति से परे एकमात्र परमपुरुष ही है ॥ ४३ ॥ आप ही चार प्रकार का अग्नि होकर संसार को तेज और विभूति दान करते अहिं । हे अनंतमूर्ते ! आपके नेत्र सब ओर हैं । हे धात: ! आप ही तीनों लोक में अपने तीन पग रखते हैं ॥ ४४ ॥ हे ईश ! जिसप्रकार एक ही अविकारी अग्नि विकृत होकर नाना प्रकार से प्रज्वलित होता है उसी प्रकार सर्वगतरूप एक आप ही अनंत रूप धारण कर लेते हैं ॥ ४५ ॥ एकमात्र जो श्रेष्ठ परमपद हैं; वह आप ही हैं, ज्ञानी पुरुष ज्ञानदृष्टि से देखे जाने योग्य आपको ही देखा करते हैं । हे परात्मन ! भूत और भविष्यत जो कुल स्वरूप है वह आपसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥ ४६ ॥ आप व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप है , समष्टि और व्यक्तिरूप हैं तथा आप ही सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, सर्वशक्तिमान एवं सम्पूर्ण ज्ञान, बल और ऐश्वर्य से युक्त हैं ॥ ४७ ॥ आप ह्रास और वृद्धि से रहित, स्वाधीन, अनादि और जितेन्द्रिय हैं तथा आपके अंदर श्रम, तन्द्रा, भय, क्रोध और काम आदि नहीं है ॥ ४८ ॥ आप अनिन्ध, अप्राप्य, निराधार और अव्याहत गति है, आप सबके स्वामी, अन्य ब्रह्मादि के आश्रय तथा सूर्यादि तेजों के तेज एवं अविनाशी है ॥ ४९ ॥
आप समस्त आवरणशून्य, असहायों के पालक और सम्पूर्ण महाविभुतियों के आधार है, हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है ॥ ५० ॥ आप किसी कारण, अकारण अथवा कारणाकारण से शरीर-ग्रहण नहीं करते, बल्कि केवल धर्म-रक्षा के लिये ही करते है ॥ ५१ ॥
श्रीपराशरजी बोले – इसप्रकार स्तुति सुनकर भगवान अज अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए ब्रह्माजी से प्रसन्नचित्त से कहने लगे ॥ ५२ ॥
श्रीभगवान बोले – हे ब्रह्मन ! देवताओं के सहित तुमको मुझसे जिस वस्तु की इच्छा हो वह सब कहो और उसे सिद्ध हुआ ही समझो ॥ ५३ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे सहस्त्रबाहों ! हे अनंतमुख एवं चरणवाले ! आपको हजारों बार नमस्कार हो । हे जगतकी उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करनेवाले ! हे अप्रमेय आपको बारम्बार नमस्कार हो ॥ ५५ ॥ हे भगवन ! आप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, गुरुसे भी गुरु और अति बृहत प्रमाण है, तथा प्रधान (प्रकृति) महत्तत्त्व और अहंकारादि में प्रधानभूत मूल पुरुष से भी परे हैं; हे भगवन ! आप हमपर प्रसन्न होइये ॥ ५६ ॥ हे देव ! इस पृथ्वी के पर्वतरूपी मूलबन्ध इसपर उत्पन्न हुए महान असुरों के उत्पातसे शिथिल हो गये हैं । अत: हे अपरिमितवीर्य ! यह संसार का भार उतारने के लिये आपकी शरण में आयी है ॥ ५७ ॥ हे सुरनाथ ! हम और यह इंद्र, अश्विनीकुमार तथा वरुण, ये रूद्रगण, वसुगण, सूर्य, वायु और अग्नि आदि अन्य समस्त देवगण यहाँ उपस्थित हैं, इन्हें अथवा मुझे जो कुछ करना उचित हो उन सब बातों के लिये आज्ञा कीजिये । हे ईश ! आपही की आज्ञा का पालन करते हुए हम सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त हो सकेंगे ॥ ५८ – ५९ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे महामुने ! इसप्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान परमेश्वर ने अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े ॥ ६० ॥ और देवताओं से बोले – मेरे ये दोनों केश पृथ्वीपर अवतार लेकर पृथ्वी के भाररूप कष्ट को दूर करेंगे ॥ ६१ ॥ सब देवगण अपने-अपने अंशों से पृथ्वीपर अवतार लेकर अपने से पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत दैत्यों के साथ युद्ध करें ॥ ६२ ॥ तब नि:संदेह पृथ्वीतलपर सम्पूर्ण दैत्यगण मेरे दृष्टिपात से दलित होकर क्षीण हो जायेंगे ॥ ६३ ॥ वसुदेवजी की जो देवी के समान देवकी नामकी भार्या है उसके आठवें गर्भ से मेरा यह [ श्याम] केश अवतार लेगा ॥ ६४ ॥ और इसप्रकार यहाँ अवतार लेकर यह कालनेगि के अवतार कंस का वध करेगा । ऐसा कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ६५ ॥ हे महामुने ! भगवान के अदृश्य हो जानेपर उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरुपर्वतपर चले गये और फिर पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए ॥ ६६ ॥
इसी समय भगवान नारदजीने कंस से आकर कहा कि देवकी के आठवें गर्भ में भगवान धरनीधर जन्म लेंगे ॥ ६७ ॥ नारदजी से यह समाचार पाकर कंस ने कुपित होकर वसुदेव और देवकी को कारागृह में बंद कर दिया ॥ ६८ ॥ हे द्विज ! वसुदेवजी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कह दिया था, अपने प्रत्येक पुत्र को कंस को सौंपते रहे ॥ ६९ ॥ ऐसा सुना जाता है कि पहले छ: गर्भ हिरण्यकशिपु के पुत्र थे । भगवान विष्णु की प्रेरणासे योगनिद्रा उन्हें क्रमश: गर्भ में स्थित करती रही ॥ ७० ॥ [ ये बालक पूर्वजन्म में हिरण्यकशिपु के भाई कालनेमि के पुत्र थे, इसीसे इन्हें उसका पुत्र कहा गया है । इन राक्षसकुमारों ने हिरण्यकशिपु का अनादर कर भगवान की भक्ति की थी; अत: उसने कुपित होकर इन्हें शाप दिया कि तुमलोग अपने पिटा के हाथ से ही मारे जाओंगे । यह प्रसंग हरिवंश में आया है । ] जिस अविद्या-रूपिणी से सम्पूर्ण जगत मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान विष्णु की महामाया है उससे भगवान श्रीहरि ने कहा ॥ ७१ ॥
श्रीभगवान बोले – हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञा से तू पाताल में स्थित छ: गर्भो को एक-एक करके देवकी की कुक्षि में स्थापित कर दे ॥ ७२ ॥ कंसद्वारा उन सबके मारे जानेपर शेष नामक मेरा अंश अपने अंशांशसे देवकी के वसुदेवजी की जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदर में उस सातवें गर्भ को ले जाकर तू इसप्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसीके जठरसे उत्पन्न हुए के समान जान पड़े ॥ ७४ ॥ उसके विषय में संसार यही कहेगा कि कारागार में बंद होने के कारण भोजराज कंस के भयसे देवकी का सातवाँ गर्भ गिर गया ॥ ७५ ॥ वह श्वेत शैलशिखर के समान वीर पुरुष गर्भ से आकर्षण किये जाने के कारण संसार में ‘संकर्षण’ नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ ७६ ॥
तदनन्तर, हे शुभे ! देवकी के आठवे गर्भ में मैं स्थित होऊँगा । उससमय तू भी तुरंत ही यशोदा के गर्भ में चली जाना ॥ ७७ ॥ वर्षाऋतू में भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रात्रि के समय मैं जन्म लूँगा और तू नवमी को उत्पन्न होगी ॥ ७८ ॥ हे अनिन्दिते ! उससमय मेरी शक्ति में अपनी मति फिर जानेके करण वसुदेवजी मुझे तो यशोदा के और तुझे देवकी के शयनगृह से ले जायँगे ॥ ७९ ॥ तब हे देवि ! कंस तुझे पकडकर पर्वत – शिलापर पटक देगा; उसके पटकते ही तू आकाश में स्थित हो जायगी ॥ ८० ॥
उससमय मेरे गौरव से शहस्त्रनयन इंद्र सिर झुकाकर प्रणाम करने के अनन्तर तुझे भगिनीरूप से स्वीकार करेगा ॥ ८१ ॥ तू भी शुम्भ, निशुम्भ आदि सहस्त्रों दैत्यों को मारकर अपने अनेक स्थानों से समस्त पृथ्वी को सुशोभित करेगी ॥ ८२ ॥ तू ही भूति, सन्नति, क्षान्ति और कान्ति है, तू ही आकाश, पृथ्वी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है; इनके अतिरिक्त संसार में और भी जो कोई शक्ति है वह सब तू ही है ॥ ८३ ॥
जो लोग प्रात:काल और सायंकाल में अत्यंत नम्रतापूर्वक तुझे आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे, उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपा से पूर्ण हो जायँगी ॥ ८४ – ८५ ॥ मदिरा और मांस की भेंट चढाने से तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोंद्वारा पूजा करने से प्रसन्न होकर तू मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण कर देगी ॥ ८६ ॥ तेरे द्वारा दी हुई वे समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे निस्संदेह पूर्ण होगी । हे देवि ! अब तू मेरे बतलाये हए स्थान को जा ॥ ८७ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः
अध्याय-02 भगवान का गर्भ – प्रवेश तथा देवगणद्वारा देवकी की स्तुति
श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! देवेदेव श्रीविष्णुभगवान ने जैसा कहा था उसके अनुसार जगद्धात्री योगमाया ने छ: गर्भो को देवकी के उदर में स्थित किया और सातवें को उसमें से निकाल लिया ॥ १ ॥ इसप्रकार सातवें गर्भ के रोहिणी के उदर में पहुँच जानेपर श्रीहरि ने तीनों लोकों का उद्धार करने की इच्छा से देवकी के गर्भ में प्रवेश किया ॥ २ ॥ भगवान परमेश्वर के आज्ञानुसार योगमाया भी उसी दिन यशोदा के गर्भ में स्थित हुई ॥ ३ ॥ हे द्विज ! विष्णु-अंश के पृथ्वी में पधारनेपर आकाश में ग्रहगण ठीक-ठीक गति से चलने लगे और ऋतूगण भी मंगलमय होकर शोभा पाने लगे ॥ ४ ॥ उससमय अत्यंत तेजसे देदीप्यमान देवकीजी को कोई भी देख न सकता था । उन्हें देखकर चित्त थकित हो जाते थे ॥ ५ ॥ तब देवतागण अन्य पुरुष तथा स्त्रियों को दिखायी न देते हुए, अपने शरीर में [ गर्भरूपसे ] भगवान विष्णु को धारण करनेवाली देवकीजी की अहर्निश स्तुति करने लगे ॥ ६ ॥
देवता बोले – हे शोभने ! तू पहले ब्रह्म-प्रतिबिम्बधारिणी मूलप्रकृति हुई थी और फिर जगद्विधाता की वेदगर्भा वाणी हुई ॥ ७ ॥ हे सनातने ! तू ही सृज्य पदार्थों को उत्पन्न करनेवाली और तू ही सृष्टिरूपा हैं; तू ही सबकी बीज-स्वरूपा यज्ञमयी वेदत्रयी हुई है ॥ ८ ॥ तू ही फलमयी यज्ञक्रिया और अग्निमयी अरणि है तथा तू ही देवमाता अदिति और दैत्यप्रसू दिति है ॥ ९ ॥ तू ही दिनकरी प्रभा और ज्ञानगर्भा गुरुशुश्रूषा है तथा तू ही न्यायमयी परमनिति और विनयसम्पन्ना लज्जा है ॥ १० ॥ तू ही काममयी इच्छा, संतोषमयी तुष्टि, बोधगर्भा प्रज्ञा और धैर्यधारिणी धृति है ॥ ११ ॥ ग्रह, नक्षत्र और तारागण को धारण करनेवाला तथा कारणस्वरूप आकाश तू ही है । हे जगद्धात्री ! हे देवि ! ये सब तथा और भी सहस्त्रों और असंख्य विभूतियाँ इस समय तेरे उदर में स्थित है ॥ १२ ॥
हे शुभे ! समुद्र, पर्वत, नदी, द्वीप, वन और नगरों से सुशोभित तथा ग्राम, खर्वट और खेटादि से सम्पन्न समस्त पृथ्वी, सम्पूर्ण अग्नि और जल तथा समस्त वायु, ग्रह, नक्षत्र एवं तारागणों से चित्रित तथा सैकड़ों विमानों से पूर्ण सबको अवकाश देनेवाला आकाश, भूर्लोक, भुवलोक, स्वर्लोक तथा मह, जन, तप और ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तथा उसके अन्तर्वर्ती देव, असुर, गन्धर्व, चारण, नाग, यक्ष, राक्षस, प्रेत, गुह्यक, मनुष्य, पशु और जो अन्यान्य जीव है, हे यशस्विनी ! वे सभी अपने अंतर्गत होने के करण जो श्रीअनंत सर्वगामी और सर्वभावन है तथा जिनके रूप, कर्म, स्वभाव तथा समस्त परिमाण परिच्छेद के विषय नहीं हो सकते वे ही श्रीविष्णु भगवान तेरे गर्भ में स्थित हैं ॥ १३ – १९ ॥ तू ही स्वाहा, स्वधा, विद्या, सुधा और आकाशस्थिता ज्योति हैं । सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये ही तूने पृथ्वी में अवतार लिया है ॥ २० ॥ हे देवि ! तू प्रसन्न हो । हे शुभे ! तू सम्पूर्ण जगत का कल्याण कर । जिसने इस सम्पूर्ण जगत को धारण किया है उस प्रभु को तू प्रीतिपूर्वक अपने गर्भ में धारण कर ॥ २१ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः
अध्याय-03 भगवानका आविर्भाव तथा योगमायाद्वारा कंस की वंचना
श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! देवताओं से इस प्रकार स्तुति की जाती हुई देवकीजी ने संसार की रक्षा के कारण भगवान पुण्डरीकाक्षको गर्भ में धारण किया ॥ १ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप कमल को विकसित करने के लिये देवकीरूप पूर्व संध्या में महात्मा अच्युतरूप सूर्यदेवका आविर्भाव हुआ ॥ २ ॥ चन्द्रमा की चाँदनी के समान भगवान् का जन्म-दिन सम्पूर्ण जगत को आल्हादित करनेवाला हुआ और उस दिन सभी दिशाएँ अत्यंत निर्मल हो गयी ॥ ३ ॥
श्रीजनार्दन के जन्म लेनेपर संतजनों को परम संतोष हुआ, प्रचंड वायु शांत हो गया तथा नदियाँ अत्यंत स्वच्छ हो गयी ॥ ४ ॥
समुद्रगण अपने घोष से मनोहर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वराज गान करने लगे और अप्सराएँ नाचने लगी ॥ ५ ॥ श्रीजनार्दन के प्रकट होनेपर आकाशगामी देवगण पृथ्वीपर पुष्प बरसाने लगे तथा शांत हुए यज्ञाग्नि फिर प्रज्वलित हो गये ॥ ६ ॥ हे द्विज ! अर्धरात्रि के समय सर्वाधार भगवान जनार्दन के आविर्भूत होनेपर पुष्पवर्षा करते हुए मेघगण मंद-मंद गर्जना करने लगे ॥ ७ ॥
उन्हें खिले हुए कमलदलकी-सी आभावाले, चतुर्भुज और वक्ष:स्थल में श्रीवत्स चिन्हसहित उत्पन्न हुए देख आनकदुन्दुभि वसुदेवजी स्तुति करने लगे ॥ ८ ॥ हे द्विजोत्तम ! महामति वसुदेवजी ने प्रसादयुक्त वचनों से भगवान की स्तुति कर कंस से भयभीत रहने के कारण इस प्रकार निवेदन किया ॥ ९ ॥
वसुदेवजी बोले – हे देवदेवेश्वर ! यद्यपि आप [साक्षात परमेश्वर] प्रकट हुए है, तथापि हे देव ! मुझपर कृपा करके अब अपने इस शंख-चक्र-गदाधारी दिव्य रूपक उपसंहार कीजिये ॥ १० ॥ हे देव ! यह पता लगते ही कि आप मेरे इस गृह में अवतीर्ण हुए है, कंस इसी समय मेरा सर्वनाश कर देगा ॥ ११ ॥
देवकीजी बोली – जो अनन्तरूप और अखिल विश्वस्वरूप है, जो गर्भ में स्थित होकर भी अपने शरीर से सम्पूर्ण लोकों को धारण करते हैं तथा जिन्होंने अपनी मायासे ही बालरूप धारण किया है वे देवदेव हमपर प्रसन्न हों ॥ १२ ॥ हे सर्वात्मन ! आप अपने इस चतुर्भुज रूप का उपसंहार किजिये । भगवन ! यह राक्षस के अंश से उत्पन्न कंस आपके इस अवतार का वृतांत न जानने पावे ॥ १३ ॥ (द्रुमिलनामक राक्षसने राजा उग्रसेन का रूप धारण कर उनकी पत्नी से संसर्ग किया था । उसीसे कंस का जन्म हुआ । यह कथा हरिवंश में आयी है ।)
श्रीभगवान बोले – हे देवि ! पूर्व-जन्म में तूने जो पुत्र की कामना से मुझसे [पुत्ररूपसे उत्पन्न होनेके लिये ] प्रार्थना की थी । आज मैंने तेरे गर्भ से जन्म लिया है – इससे तेरी वह कामना पूर्ण हो गयी ॥ १४ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर भगवान मौन हो गये तथा वसुदेवजी भी उन्हें उस रात्रि में ही लेकर बाहर निकले ॥ १५ ॥ वसुदेवजी के बाहर जाते समय कारागृहरक्षक और मथुरा के द्वारपाल योगनिद्रा के प्रभाव से अचेत हो गये ॥ १६ ॥ उस रात्रि के समय वर्षा करते हुए मेघों की जलराशि को अपने फणों से रोककर श्रीशेषजी आनकदुन्दुभि के पीछे-पीछे चले ॥ १७ ॥ भगवान विष्णु को ले जाते हुए वसुदेवजी नाना प्रकार के सैकड़ो भँवरों से भरी हुई अत्यंत गम्भीर यमुनाजी को घुटनोतक रखकर ही पार कर गये ॥ १८ ॥ उन्होंने वहाँ यमुनाजी के तटपर ही कंस को कर देनेके लिये आये हुए नन्द आदि वृद्ध गोंपों को भी देखा ॥ १९ ॥ हे मैत्रेय ! इसी समय योगनिद्रा के प्रभाव से सब मनुष्यों के मोहित हो जानेपर मोहित हुई यशोदाने भी उसी कन्या को जन्म दिया ॥ २० ॥
तब अतिशय कान्तिमान वसुदेवकी उस बालक को सुलाकर और कन्या को लेकर तुरंत यशोदा के शयन-गृह से चले आये ॥ २१ ॥ जब यशोदा ने जागनेपर देखा कि उसके एक नीलकमलदल के समान श्यामवर्ण पुत्र उत्पन्न हुआ है तो उसे अत्यंत प्रसन्नता हुई ॥ २२ ॥ इधर, वसुदेवजी ने कन्या को ले जाकर अपने महल में देवकी के शयन-गृह में सुला दिया और पूर्ववत स्थित हो गये ॥ २३ ॥
हे द्विज ! तदनन्तर बालक के रोने का शब्द सुनकर कारागृह-रक्षक सहसा उठ खड़े हुए और देवकी के सन्तान उत्पन्न होनेका वृतांत कंस को सुना दिया ॥ २४ ॥ यह सुनते ही कंस ने तुरंत जाकर देवकी के रुंधे हुए कंठ से ‘छोड़, छोड़’ – ऐसा कहकर रोकनेपर भी उस बालिकाको पकड़ लिया और उसे एक शिलापर पटक दिया । उसने पटकते ही वह आकाश में स्थित हो गयी और उसने शस्त्रयुक्त एक महान अष्टभुजरूप धारण कर लिया ॥ २५ – २६ ॥
तब उसने ऊँचे स्वर से अट्टहास किया और कंस से रोषपूर्वक कहा – ‘अरे कंस ! मुझे पटकने से तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? जो तेरा वध करेगा उसने तो जन्म ले लिया है; देवताओं के सर्वस्व वे हरि ही तुहारे पूर्वजन्म में भी काल थे । अत: ऐसा जानकर तू शीघ्र ही अपने हितका उपाय कर’ ॥ २७ – २८ ॥ ऐसा कह, वह दिव्य माला और चन्दनादि से विभूषित तथा सिद्धगणद्वारा स्तुति की जाती हुई देवि भोजराज कंस के देखते-देखते आकाशमार्ग से चली गयी ॥ २९ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः
अध्याय-04 वसुदेव – देवकी का कारागार से मोक्ष
श्रीपराशरजी बोले – तब कंस ने खिन्न-चित्तसे प्रलम्ब और केशी आदि समस्त मुख्य-मुख्य असुरों को बुलाकर कहा ॥ १ ॥
कंस बोला – हे प्रलम्ब ! हे महाबाहो केशिन ! हे धेनुक ! हे पूतने ! तथा हे अरिष्ट आदि अन्य असुरगन ! मेरा वचन सुनो ॥ २ ॥ यह बात प्रसिद्ध हो रही है कि दुरात्मा देवताओं ने मेरे मारने के लिये कोई यत्न किया है; किन्तु मैं वीर पुरुष अपने वीर्य से सतावे हुए इन लोगों को कुछ भी नहीं गिनता हूँ ॥ ३ ॥ अल्पवीर्य इंद्र, अकेले घूमनेवाले महादेव अथवा छिन्द्र (असावधानी का समय) ढूंढ़कर दैत्यों का वध करनेवाले विष्णु से उनका क्या कार्य सिद्ध हो सकता हैं ? ॥ ४ ॥ मेरे बाहुबल से दलित आदित्यों, अल्पवीर्य वसुगणों, अग्नियों अथवा अन्य समस्त देवताओं से भी मेरा क्या अनिष्ट हो सकता हैं ? ॥ ५ ॥
आपलोगोंने क्या देखा नहीं था कि मेरे साथ युद्धभूमि में आकर देवराज इंद्र, वक्ष:स्थल में नहीं, अपनी पीठपर बाणों की बौछार सहता हुआ भाग गया था ॥ ६ ॥ जिस समय इंद्र ने मेरे राज्य में वर्षाका होना बंद कर दिया था उससमय क्या मेघों ने मेरे बाणों से विन्धकर ही यथेष्ट जल नहीं बरसाया ? ॥ ७ ॥ हमारे गुरु (श्वशूर ) जरासंध को छोडकर क्या पृथ्वी के और सभी नृपतिगण मेरे बाहुबल से भयभीत होकर मेरे सामने सिर नहीं झुकाते ? ॥ ८ ॥
हे दैत्यश्रेष्ठगण ! देवताओं के प्रति मेरे चित्त में अवज्ञा होती है और हे वीरगण ! उन्हें अपने वध का यत्न करते देखकर तो मुझे हँसी आती है ॥ ९ ॥ तथापि हे दैत्येन्द्रो ! उन दुष्ट और दुरात्माओं के अपकारके लिये मुझे और भी अधिक प्रयत्न करना चाहिये ॥ १० ॥ अत: पृथ्वी में जो कोई यशस्वी और यज्ञकर्ता हों उनका देवताओं के अपकार के लिये सर्वथा वध कर देना चाहिये ॥ ११ ॥
देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुई बालिका ने यह भी कहा है कि, वह मेरा भूतपूर्व [प्रथम जन्मका] काल निश्चय ही उत्पन्न हो चूका है ॥ १२ ॥ अत” आजकल पृथ्वीपर उत्पन्न हुए बालकों के विषय में विशेष सावधानी रखनी चाहिये और जिस बालक में विशेष बल का उद्रेक हो उसे यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥ असुरों को इस प्रकार आज्ञा दे कंस से कारागृह में जाकर तुरंत ही वसुदेव और देवकी को बंधन से मुक्त कर दिया ॥ १४ ॥
कंस बोला – मैंने अबतक आप दोनों के बालकों की ति वृथा ही हत्या की, मेरा नाश करने के लिये तो कोई और ही बालक उत्पन्न हो गया है ॥ १५ ॥ परन्तु आपलोग इसका कूचा दुःख न मानें क्योंकि उन बालकों की होनहार ऐसी ही थी । आपलोगों के प्रारब्ध-दोष से ही उन बालकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा हैं ॥ १६ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! उन्हें इसप्रकार ढाँढस बंधा और बंधन से मुक्तकर कंस ने शंकित चित्तसे अपने अंत:पुरमें प्रवेश किया ॥ १७ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः
अध्याय-05 पूतना – वध
श्रीपराशरजी बोले – बंदीगृह से छूटते ही वसुदेवजी नन्दजी के छकड़े के पास गये तो उन्हें इस समाचार से अत्यंत प्रसन्न देखा कि ‘मेरे पुत्रका जन्म हुआ है’ ॥ १ ॥ तब वसुदेवजी ने भी उनसे आदरपूर्वक कहा – अब वृद्धावस्था में भी आपने पुत्र का मुख देख लिया यह बड़े ही सौभाग्य की बात है ॥ २ ॥ आपलोग जिसलिये यहाँ आगे थे वह राजा का सारा वार्षिक कर दे ही चुके है । यहाँ धनवान पुरुषों को और अधिक न ठहरना चाहिये ॥ ३ ॥ आपलोग जिसलिये यहाँ आये थे वह कार्य पूरा हो चूका, अब और अधिक किसलिये ठहरे हुए हैं ? अत: हे नंदजी ! आपलोग शीघ्र ही अपने गोकुल को जाइये ॥ ४ ॥ वहाँपर रोहिणी से उत्पन्न हुआ जो मेरा पुत्र हैं उसकी भी आप उसी तरह रक्षा कीजियेगा जैसे अपने इस बालक की ॥ ५ ॥
वसुदेवजी के ऐसा कहनेपर नन्द आदि महाबलवान गोपगण छकड़ों में रखकर लाये हुए भाण्डोंसे कर चुकाकर पूतना ने रात्रि के समय सोये हुए कृष्ण को गोद में लेकर उसके मुख में अपना स्तन दे दिया ॥ ७ ॥ रात्रि के समय पूतना जिस-जिस बालक के मुख में अपना स्तन दे देती थी उसीका शरीर तत्काल नष्ट हो जाता था ॥ ८ ॥ कृष्णचन्द्र ने क्रोधपूर्वक उसके स्तन को अपने हाथों से खून दबाकर पकड़ लिया और उसे उसके प्राणों के सहित पीने लगे ॥ ९ ॥ तब स्नायु-बन्धनों के शिथिल हो जाने से पूतना घोर शब्द करती हुई मरते समय महाभयंकर रूप धारणकर पृथ्वीपर गिर पड़ी ॥ १० ॥ उसके घोर नाद को सुनकर भयभीत हुए व्रजवासीगण जाग उठे और देखा कि कृष्ण पूतनाकी गोद में हैं और वह मारी गयी हैं ॥ ११ ॥
हे द्विजोत्तम ! तब भयभीता यशोदाने कृष्ण को गोद में लेकर उन्हें गौकी पूँछ से झाडकर बालक का ग्रह-दोष निवारण किया ॥ १२ ॥ नन्दगोप ने भी आगे के वाक्य कहकर विधिपूर्वक रक्षा करते हुए कृष्ण के मस्तकपर गोबरका चूर्ण लगाया ॥ १३ ॥
नन्दगोप बोले – जिनकी नाभि से प्रकट हुए कमल से सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है वे सम्पूर्ण भूतों के आदिस्थान श्रीहरि तेरी रक्षा करे ॥ १४ ॥ जिनकी दाढ़ों के अग्रभागपर स्थापित होकर भूमि सम्पूर्ण जगत को धारण करती है वे वराह-रूप-धारी श्रीकेशव तेरी रक्षा करें ॥ १५ ॥ जिन विभुने अपने नखाग्रों से शत्रु के वक्ष:स्थल को विदीर्ण कर दिया था वे नृसिंहरूपी जनार्दन तेरी सर्वत्र रक्षा करें ॥ १६ ॥ जिन्होंने क्षणमात्र से सशस्त्र त्रिविक्रमरूप धारण करके अपने तीन पगों से त्रिलोकी को नाप लिया था वे वामनभगवान तेरी सर्वदा रक्षा करें ॥ १७ ॥ गोविन्द तेरे सिरकी, केशव कण्ठ की, विष्णु गुह्यस्थान और जठर की तथा जनार्दन जंघा और चरणों की रक्षा करें ॥ १८ ॥ तेरे मुख, बाहू, प्रबाहू, मन और सम्पूर्ण इन्दिर्यों की अखंड-ऐश्वर्य से सम्पन्न अविनाशी श्रीनारायण रक्षा करें ॥ १९ ॥ तेरे अनिष्ट करनेवाले जो प्रेत, कुष्मांड और राक्षस हो वे शांगधनुष, चक्र और गदा धारण करनेवाले विष्णुभगवान की शंख-ध्वनि से नष्ट हो जायें ॥ २० ॥ भगवान वैकुण्ठ दिशाओं में, मधुसुदन विदिशाओ (कोणों) में, हृषिकेश आकाश में तथा पृथ्वी को धारण करनेवाले श्रीशेषजी पृथ्वीपर तेरी रक्षा करें ॥ २१ ॥
श्रीपराशरजी बोले – इसप्रकार स्वस्तिवाचन कर नन्दगोप ने बालक कृष्ण को छकड़े के नीचे एक खटोलेपर सुला दिया ॥ २२ ॥ मरी हुई पूतना के महान कलेवर को देखकर उन सभी गोपों को अत्यंत भय और विस्मय हुआ ॥ २३ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे पंचमोऽध्यायः
अध्याय-06 शकटभज्जन, यमलार्जुन-उद्धार, व्रजवासियोंका गोकुलसे वृन्दावनमें जाना और वर्षा-वर्णन
श्रीपराशरजी बोले-एक दिन छकड़ेके नीचे सोये हुए मधुसूदनने दूधके लिये रोते-रोते ऊपरको लात मारी॥१॥ उनकी लात लगते ही वह छकडा लोट गया, उसमें रखे हुए कुम्भ और भाण्ड आदि फूट गये और वह उलटा जा पड़ा॥२॥ हे द्विज ! उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपीगण वहाँ आ पहुँचे और उस बालकको उतान सोये हुए देखा ॥३॥ तब गोपगण पूछने लगे कि ‘इस छकड़ेको किसने उलट दिया, किसने उलट दिया?’ तो वहाँपर खेलते हुए बालकोंने कहा- “इस कृष्णने ही गिराया है॥४॥ हमने अपनी आँखोंसे देखा है कि रोते-रोते इसकी लात लगनेसे ही यह छकड़ा गिरकर उलट गया है। यह और किसीका काम नहीं है”॥५॥ यह सुनकर गोपगणके चित्तमें अत्यन्त विस्मय हुआ तथा नन्दगोपने अत्यन्त चकित होकर बालकको उठा लिया॥६॥ फिर यशोदाने भी छकड़ेमें रखे हुए फूटे भाण्डोंके टुकड़ोंकी और उस छकड़ेकी दही, पुष्प, अक्षत और फल आदिसे पूजा की॥७॥
इसी समय वसुदेवजीके कहनेसे गर्गाचार्यने गोपोंसे छिपे-छिपे गोकुलमें आकर उन दोनों बालकोंके [द्विजोचित] संस्कार किये॥८॥ उन दोनोंके नामकरण-संस्कार करते हुए महामति गर्गजीने बड़ेका नाम राम और छोटेका कृष्ण बतलाया॥९॥
हे विप्र! वे दोनों बालक थोड़े ही दिनोंमें गौओंके गोष्ठ में रेंगते-रेंगते हाथ और घुटनोंके बल चलनेवाले हो गये॥ १० ॥गोबर और राख-भरे शरीरसे इधर-उधर घूमते हुए उन बालकोंको यशोदा और रोहिणी रोक नहीं सकती थीं॥ ११॥ कभी वे गौओंके घोषमें खेलते और कभी बछड़ोंके मध्यमें चले जाते तथा कभी उसी दिन जन्मे हुए बछड़ोंकी पूँछ पकड़कर खींचने लगते ॥ १२॥ एक दिन जब यशोदा, सदा एक ही स्थानपर साथसाथ खेलनेवाले उन दोनों अत्यन्त चंचल बालकोंको न रोक सकी तो उसने अनायास ही सब कर्म करनेवाले कृष्णको रस्सीसे कटिभागमें कसकर ऊखलमें बाँध दिया और रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी- ॥१३-१४॥”अरे चंचल! अब तुझमें सामर्थ्य हो तो चला जा।” ऐसा कहकर कुटुम्बिनी यशोदा अपने घरके धन्धे में लग गयी ॥ १५ ॥
उसके गृहकार्यमें व्यग्र हो जानेपर कमलनयन कृष्ण ऊखलको खींचते-खींचते यमलार्जुनके बीचमें गये॥१६॥ और उन दोनों वृक्षोंके बीचमें तिरछी पड़ी हुई ऊखलको खींचते हुए उन्होंने ऊँची शाखाओंवाले यमलार्जुन वृक्षको उखाड़ डाला॥१७॥ तब उनके उखड़नेका कट-कट शब्द सुनकर वहाँ व्रजवासीलोग दौड़ आये और उन दोनों महावृक्षोंको तथा उनके बीचमें कमरमें रस्सीसे कसकर बँधे हुए बालकको नन्हें-नन्हें अल्प दाँतोंकी श्वेत किरणोंसे शुभ्र हास करते देखा। तभीसे रस्सीसे बँधनेके कारण उनका नाम दामोदर पड़ा॥१८-२०॥
तब नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोंने महान् उत्पातोंके कारण अत्यन्त भयभीत होकर आपसमें यह सलाह की- ॥२१॥ ‘अब इस स्थानपर रहनेका हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, हमें किसी और महावनको चलना चाहिये, क्योंकि यहाँ नाशके कारणस्वरूप, पूतना-वध, छकड़ेका लोट जाना तथा आँधी आदि किसी दोषके बिना ही वृक्षोंका गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी देने लगे हैं॥ २२-२३॥ अतः जबतक कोई भूमिसम्बन्धी महान् उत्पात व्रजको नष्ट न करे तबतक शीघ्र ही हमलोग इस स्थानसे वृन्दावनको चल दें’॥२४॥ इस प्रकारं वे समस्त व्रजवासी चलनेका विचारकर अपने-अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहने लगे—’शीघ्र ही चलो, देरी मत करो’ ॥ २५ ॥ तब वे व्रजवासी वत्सपाल दल बाँधकर एक क्षणमें ही छकड़ों और गौओंके साथ उन्हें हाँकते हुए चल दिये॥२६॥ हे द्विज! वस्तुओंके अवशिष्टांशोंसे युक्त वह व्रजभूमि क्षणभरमें ही काक तथा भास आदि पक्षियोंसे व्याप्त हो गयी॥ २७॥
तब लीलाविहारी भगवान् कृष्णने गौओंकी अभिवृद्धिकी इच्छासे अपने शुद्धचित्तसे वृन्दावन (नित्य-वृन्दावनधाम)-का चिन्तन किया॥ २८ ॥ इससे, हे द्विजोत्तम! अत्यन्त रूक्ष ग्रीष्मकालमें भी वहाँ वर्षाऋतुके समान सब ओर नवीन दूब उत्पन्न हो गयी॥ २९ ॥ तब चारों ओर अर्द्धचन्द्राकारसे छकड़ोंकी बाड़ लगाकर वे समस्त व्रजवासी वृन्दावनमें रहने लगे॥३०॥ तदनन्तर राम और कृष्ण भी बछड़ोंके रक्षक हो गये और एक स्थानपर रहकर गोष्ठमें बाललीला करते हुए विचरने लगे॥३१॥ वे काकपक्षधारी दोनों बालक सिरपर मयूर-पिच्छका मुकुट धारणकर तथा वन्यपुष्पोंके कर्णभूषण पहन ग्वालोचित वंशी आदिसे सब प्रकारके बाजोंकी ध्वनि करते तथा पत्तोंके बाजेसे ही नाना प्रकारकी ध्वनि निकालते, स्कन्दके अंशभूत शाख-विशाख कुमारोंके समान हँसते और खेलते हुए उस महावनमें विचरने लगे॥३२-३३॥ । कभी एक-दूसरेको अपने पीठपर ले जाते तथा कभी अन्य ग्वाल-बालोंके साथ खेलते हुए वे बछड़ोंको चराते साथ-साथ घूमते रहते ॥ ३४॥ इस प्रकार उस महाव्रजमें रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर वे निखिललोकपालक वत्सपाल सात वर्षके हो गये॥३५॥
तब मेघसमूहसे आकाशको आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वारिधाराओंसे दिशाओंको एकरूप करता हुआ वर्षाकाल आया॥३६॥ उस समय नवीन दूर्वाके बढ़ जाने और वीरबहूटियोंसे* व्याप्त हो जानेके कारण पृथिवी पद्मरागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी ॥ ३७॥जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त उच्छृखल हो जाता है, उसी प्रकार नदियोंका जल सब ओर अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा॥ ३८॥ जैसे मूर्ख मनुष्योंकी धृष्टतापूर्ण उक्तियोंसे अच्छे वक्ताकी वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघोंसे आच्छादित रहनेके कारण निर्मल चन्द्रमा भी शोभाहीन हो गया॥३९॥ जिस प्रकार विवेकहीन राजाके संगमें गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार आकाशमण्डलमें गुणरहित इन्द्र-धनुष स्थित हो गया॥४०॥ दुराचारी पुरुषमें कुलीन पुरुषकी निष्कपट शुभ चेष्टाके समान मेघमण्डलमें बगुलोंकी निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी॥४१॥ श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुर्जनकी मित्रताके समान अत्यन्त चंचला विद्युत् आकाशमें स्थिर न रह सकी॥४२॥ महामूर्ख मनुष्योंकी अन्यार्थिका उक्तियोंके समान मार्ग तृण और दूबसमूहसे आच्छादित होकर अस्पष्ट हो गये॥४३॥ उस समय उन्मत्त मयूर और चातकगणसे सुशोभित महावनमें कृष्ण और राम प्रसन्नतापूर्वक गोपकुमारोंके साथ विचरने लगे॥४४॥ वे दोनों कभी गौओंके साथ मनोहर गान और तान छेड़ते तथा कभी अत्यन्त शीतल वृक्षतलका आश्रय लेते हुए विचरते रहते थे॥ ४५ ॥ वे कभी तो कदम्बपुष्पोंके हारसे विचित्र वेष बना लेते, कभी मयूरपिच्छकी मालासे सुशोभित होते और कभी नाना प्रकारकी पर्वतीय धातुओंसे अपने शरीरको लिप्त कर लेते ॥ ४६॥ कभी कुछ झपकी लेनेकी इच्छासे पत्तोंकी शय्यापर लेट जाते और कभी मेघके गर्जनेपर ‘हा-हा’ करके कोलाहल मचाने लगते ॥४७॥ कभी दूसरे गोपोंके गानेपर आप दोनों उसकी प्रशंसा करते और कभी ग्वालोंकी-सी बाँसुरी बजाते हुए मयूरकी बोलीका अनुकरण करने लगते ॥४८॥ इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त प्रीतिके साथ नाना प्रकारके भावोंसे परस्पर खेलते हुए प्रसन्नचित्तसे उस वनमें विचरने लगे॥४९॥ सायंकालके समय वे महाबली बालक वनमें यथायोग्य विहार करनेके अनन्तर गौ और ग्वाल-बालोंके साथ व्रजमें लौट आते थे॥ ५० ॥ इस तरह अपने समवयस्क गोपगणके साथ देवताओंके समान क्रीडा करते हुए वे महातेजस्वी राम और कृष्ण वहाँ रहने लगे॥५१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः
अध्याय-07 कालिय-दमन
श्रीपराशरजी बोले- एक दिन रामको बिना साथ लिये कृष्ण अकेले ही वृन्दावनको गये और वहाँ वन्य पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित हो गोपगणसे घिरे हुए विचरने लगे॥१॥ घूमते-घूमते वे चंचल तरंगोंसे शोभित यमुनाके तटपर जा पहुँचे जो किनारोंपर फेनके इकट्ठे हो जानेसे मानो सब ओरसे हँस रही थी॥२॥ यमुनाजीमें उन्होंने विषाग्निसे सन्तप्त जलवाला कालियनागका महाभयंकर कुण्ड देखा॥३॥ उसकी विषाग्निके प्रसारसे किनारेके वृक्ष जल गये थे और वायुके थपेड़ोंसे उछलते हुए जलकणोंका स्पर्श होनेसे पक्षिगण दग्ध हो जाते थे॥४॥ मृत्युके अपर मुखके समान उस महाभयंकर कुण्डको देखकर भगवान् मधुसूदनने विचार किया- ॥५॥ ‘इसमें दुष्टात्मा कालियनाग रहता है जिसका विष ही शस्त्र है और जो दुष्ट मुझ [अर्थात् मेरी विभूति गरुड]-से पराजित हो समुद्रको छोड़कर भाग आया है॥६॥ इसने इस समुद्रगामिनी सम्पूर्ण यमुनाको दूषित कर दिया है, अब इसका जल प्यासे मनुष्यों और गौओंके भी काममें नहीं आता है॥७॥ अतः मुझे इस नागराजका दमन करना चाहिये, जिससे व्रजवासी लोग निर्भय होकर सुखपूर्वक रह सकें ॥८॥ ‘इन कुमार्गगामी दुरात्माओंको शान्त करना चाहिये, इसलिये ही तो मैंने इस लोकमें अवतार लिया है॥९॥ अतः अब मैं इस ऊँची-ऊँची शाखाओंवाले पासहीके कदम्बवृक्षपर चढ़कर वायुभक्षी नागराजके कुण्डमें कूदता हूँ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय! ऐसा विचारकर भगवान् अपनी कमर कसकर वेगपूर्वक नागराजके कुण्डमें कूद पड़े॥ ११॥ उनके कूदनेसे उस महाह्रदने अत्यन्त क्षोभित होकर दूरस्थित वृक्षोंको भी भिगो दिया॥१२॥ उस सर्पके विषम विषकी ज्वालासे तपे हुए जलसे भीगनेके कारण वे वृक्ष तुरन्त ही जल उठे और उनकी ज्वालाओंसे सम्पूर्ण दिशाएँ व्याप्त हो गयीं ॥ १३॥ तब कृष्णचन्द्रने उस नागकुण्डमें अपनी भुजाओंको ठोंका; उनका शब्द सुनते ही वह नागराज तुरंत उनके सम्मुख आ गया॥१४॥ उसके नेत्र क्रोधसे कुछ ताम्रवर्ण हो रहे थे, मुखोंसे अग्निकी लपटें निकल रही थीं और वह महाविषैले अन्य वायुभक्षी साँसे घिरा हुआ था॥ १५ ॥ उसके साथमें मनोहर हारोंसे भूषिता और शरीर-कम्पनसे हिलते हुए कुण्डलोंकी कान्तिसे सुशोभिता सैकड़ों नागपत्नियाँ थीं॥१६॥ तब सोने कुण्डलाकार होकर कृष्णचन्द्रको अपने शरीरसे बाँध लिया और अपने विषाग्नि-सन्तप्त मुखोंसे काटने लगे॥१७॥ तदनन्तर गोपगण कृष्णचन्द्रको नागकुण्डमें गिरा हुआ और सर्पोके फोंसे पीडित होता देख व्रजमें चले आये और शोकसे व्याकुल होकर रोने लगे॥१८॥
गोपगण बोले-आओ, आओ, देखो! यह कृष्ण कालीदहमें डूबकर मूछित हो गया है, देखो इसे नागराज खाये जाता है॥ १९॥ वज्रपातके समान उनके इन अमंगल वाक्योंको सुनकर गोपगण और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत ही कालीदहपर दौड़ आयीं ॥ २० ॥ ‘हाय! हाय! वे कृष्ण कहाँ गये?’ इस प्रकार अत्यन्त व्याकुलतापूर्वक रोती हुई गोपियाँ यशोदाके साथ शीघ्रतासे गिरती-पड़ती चलीं ॥ २१॥ नन्दजी तथा अन्यान्य गोपगण और अद्भुतविक्रमशाली बलरामजी भी कृष्णदर्शनकी लालसासे – शीघ्रतापूर्वक यमना-तटपर आये॥२२॥ वहाँ आकर उन्होंने देखा कि कृष्णचन्द्र सर्पराजके चंगुलमें फँसे हुए हैं और उसने उन्हें अपने शरीरसे लपेटकर निरुपाय कर दिया है।॥ २३ ॥ हे मुनिसत्तम! महाभागा यशोदा और नन्दगोप भी पुत्रके मुखपर टकटकी लगाकर चेष्टाशून्य हो गये॥ २४ ॥ अन्य गोपियोंने भी जब कृष्णचन्द्रको इस दशामें देखा तो वे शोकाकुल होकर रोने लगीं और भय तथा व्याकुलताके कारण गद्गदवाणीसे उनसे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं ॥ २५॥
गोपियाँ बोलीं-अब हम सब भी यशोदाके साथ इस सर्पराजके महाकुण्डमें ही डूबी जाती हैं, अब हमें व्रजमें जाना उचित नहीं है।॥ २६॥सूर्यके बिना दिन कैसा? चन्द्रमाके बिना रात्रि कैसी? साँड़के बिना गौएँ क्या? ऐसे ही कृष्णके बिना व्रजमें भी क्या रखा है? ॥ २७॥
कृष्णके बिना साथ लिये अब हम गोकुल नहीं जायँगी; क्योंकि इनके बिना वह जलहीन सरोवरके समान अत्यन्त अभव्य और असेव्य है॥२८॥ जहाँ नीलकमलदलकी-सी आभावाले ये श्यामसुन्दर हरि नहीं हैं उस मातृ-मन्दिरसे भी प्रीति होना अत्यन्त आश्चर्य ही है॥ २९॥ अरी! खिले हुए कमलदलके सदृश कान्तियुक्त नेत्रोंवाले श्रीहरिको देखे बिना अत्यन्त दीन हुई तुम किस प्रकार व्रजमें रह सकोगी? ॥ ३० ॥ जिन्होंने अपनी अत्यन्त मनोहर बोलीसे हमारे सम्पूर्ण मनोरथोंको अपने वशीभूत कर लिया है, उन कमलनयन कृष्णचन्द्रके बिना हम नन्दजीके गोकुलको नहीं जायँगी॥३१॥अरी गोपियो! देखो, सर्पराजके फणसे आवृत होकर भी श्रीकृष्णका मुख हमें देखकर मधुर मुसकानसे सुशोभित हो रहा है॥३२॥
श्रीपराशरजी बोले-गोपियोंके ऐसे वचन सुनकर तथा त्रासविह्वल चकितनेत्र गोपोंको, पुत्रके मुखपर दृष्टि लगाये अत्यन्त दीन नन्दजीको और मूर्छाकुल यशोदाको देखकर महाबली रोहिणीनन्दन बलरामजीने अपने संकेतमें कृष्णजीसे कहा- ॥३३-३४॥“हे देवदेवेश्वर! क्या आप अपनेको अनन्त नहीं जानते? फिर किसलिये यह अत्यन्त मानव भाव व्यक्त कर रहे हैं॥ ३५॥ पहियोंकी नाभि जिस प्रकार अरोंका आश्रय होती है उसी प्रकार आप ही जगत्के आश्रय, कर्ता, हर्ता और रक्षक हैं तथा आप ही त्रैलोक्यस्वरूप और वेदत्रयीमय हैं॥ ३६॥ हेअचिन्त्यात्मन्! इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वस, आदित्य, मरुद्गण और अश्विनीकुमार तथा समस्त योगिजन आपहीका चिन्तन करते हैं ॥ ३७॥ हे जगन्नाथ ! संसारके हितके लिये पृथिवीका भार उतारनेकी इच्छासे ही आपने मर्त्यलोकमें अवतार लिया है; आपका अग्रज मैं भी आपहीका अंश हूँ॥ ३८॥ हे भगवन् ! आपके मनुष्य-लीला करनेपर ये गोपवेषधारी समस्त देवगण भी आपकी लीलाओंका अनुकरण करते हुए आपहीके साथ रहते हैं॥३९॥ हे शाश्वत ! पहले अपने विहारार्थ देवांगनाओंको गोपीरूपसे गोकुलमें अवतीर्णकर पीछे आपने अवतार लिया है॥४०॥ हे कृष्ण! यहाँ अवतीर्ण होनेपर हम दोनोंके तो ये गोप और गोपियाँ ही बान्धव हैं; फिर अपने इन दःखी बान्धवोंकी आप क्यों उपेक्षा करते हैं॥४१॥ हे कृष्ण ! यह मनुष्यभाव और बालचापल्य तो आप बहुत दिखा चुके, अब तो शीघ्र ही इस दुष्टात्माका जिसके शस्त्र दाँत ही हैं, दमन कीजिये” ॥ ४२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर, मधुर मुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए श्रीकृष्णचन्द्रने उछलकर अपने शरीरको सर्पके बन्धनसे छुड़ा लिया॥४३॥ और फिर अपने दोनों हाथोंसे उसका बीचका फण झुकाकर उस नतमस्तक सर्पके ऊपर चढ़कर बड़े वेगसे नाचने लगे॥४४॥ कृष्णचन्द्रके चरणोंकी धमकसे उसके प्राण मुखमें आ गये, वह अपने जिस मस्तकको उठाता उसीपर कूदकर भगवान् उसे झुका देते॥ ४५ ॥ श्रीकृष्णचन्द्रजीकी भ्रान्ति (भ्रम), रेचक तथा दण्डपात नामकी [नृत्यसम्बन्धिनी] गतियोंके ताडनसे वह महासर्प मूर्छित हो गया और उसने बहुत-सा रुधिर वमन किया॥ ४६॥ इस प्रकार उसके सिर और ग्रीवाओंको झुके हुए तथा मुखोंसे रुधिर बहता देख उसकी पत्नियाँ करुणासे भरकर श्रीकृष्णचन्द्रके पास आयीं ॥४७॥
नागपत्नियाँ बोलीं-हे देवदेवेश्वर ! हमने आपको पहचान लिया; आप सर्वज्ञ और सर्वश्रेष्ठ हैं, जो अचिन्त्य और परम ज्योति है आप उसीके अंश परमेश्वर हैं॥४८॥ जिन स्वयम्भू और व्यापक प्रभुकी स्तुति करने में देवगण भी समर्थ नहीं हैं उन्हीं आपके स्वरूपका हम स्त्रियाँ किस प्रकार वर्णन कर सकती हैं? ॥ ४९ ॥ पृथिवी, आकाश, जल, अग्नि और वायुस्वरूप यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जिनका छोटे-से-छोटा अंश है, उसकी स्तुति हम किस प्रकार कर सकेंगी॥५०॥योगिजन जिनके नित्यस्वरूपको यत्न करनेपर भी नहीं जान पाते तथा जो परमार्थरूप अणुसे भी अणु और स्थूलसे भी स्थूल है उसे हम नमस्कार करती हैं॥५१॥ जिनके जन्ममें विधाता और अन्तमें काल हेतु नहीं हैं तथा जिनका स्थितिकर्ता भी कोई अन्य नहीं है उन्हें सर्वदा नमस्कार करती हैं॥५२॥ इस कालियनागके दमनमें आपको थोड़ा-सा भी क्रोध नहीं है, केवल लोकरक्षा ही इसका हेतु है; अतः हमारा निवेदन सुनिये॥५३॥ हे क्षमाशीलोंमें श्रेष्ठ ! साधु पुरुषोंको स्त्रियों तथा मूढ और दीन जन्तुओंपर सदा ही कृपा करनी चाहिये; अतः आप इस दीनका अपराध क्षमा कीजिये ॥५४॥ प्रभो! आप सम्पूर्ण संसारके अधिष्ठान हैं और यह सर्प तो [आपकी अपेक्षा] अत्यन्त बलहीन है। आपके चरणोंसे पीडित होकर तो यह आधे मुहूर्तमें ही अपने प्राण छोड़ देगा॥५५॥ हे अव्यय! प्रीति समानसे और द्वेष उत्कृष्टसे देखे – जाते हैं; फिर कहाँ तो यह अल्पवीर्य सर्प और कहाँ अखिलभुवनाश्रय आप? [इसके साथ आपका द्वेष कैसा?] ॥५६॥ अतः हे जगत्स्वामिन् ! इस दीनपर दया कीजिये। हे प्रभो! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ने ही चाहता है; कृपया हमें पतिकी भिक्षा दीजिये॥५७॥ हे भुवनेश्वर! हे जगन्नाथ! हे महापुरुष! हे पूर्वज! यह नाग अब अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; कृपया आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये। ५८॥ हे वेदान्तवेद्यदेवेश्वर! हे दुष्ट-दैत्य-दलन!! अब यह नाग अपने प्राण छोड़ना ही चाहता है; आप हमें पतिकी भिक्षा दीजिये ॥ ५९॥
श्रीपराशरजी बोले- नागपत्नियोंके ऐसा कहनेपर थका-माँदा होनेपर भी नागराज कुछ ढाँढस बाँधकर धीरे-धीरे कहने लगा “हे देवदेव! प्रसन्न होइये”॥६०॥
कालियनाग बोला-हे नाथ! आपका स्वाभाविक अष्टगुण विशिष्ट परम ऐश्वर्य निरतिशय है [अर्थात् – आपसे बढकर किसीका भी ऐश्वर्य नहीं है, अतः मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा? ॥६१॥ आप पर हैं, आप पर (मूलप्रकृति)-के भी आदिकारण हैं, हे परात्मक! परकी प्रवृत्ति भी आपहीसे हुई है,अत: आप परसे भी पर हैं फिर मैं किस प्रकार आपकी स्तुति कर सकूँगा?॥६२॥ जिनसे ब्रह्मा, रुद्र, चन्द्र, इन्द्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार, वसुगण और आदित्य आदि सभी उत्पन्न हुए हैं उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा? ॥ ६३ ॥ यह सम्पूर्ण जगत् जिनके काल्पनिक अवयवका एक सूक्ष्म अवयवांशमात्र है, उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा?॥ ६४॥ जिन सदसत् (कार्य-कारण) स्वरूपके वास्तविक रूपको ब्रह्मा आदि देवेश्वरगण भी नहीं जानते उन आपकी मैं किस प्रकार स्तुति कर सकूँगा?॥६५॥ जिनकी पूजा ब्रह्मा आदि देवगण नन्दनवनके पुष्प, गन्ध और अनुलेपन आदिसे करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ॥६६॥ देवराज इन्द्र जिनके अवताररूपोंकी सर्वदा पूजा करते हैं तथापि यथार्थ रूपको नहीं जान पाते, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ?॥६७॥ योगिगण अपनी समस्त इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींचकर जिनका ध्यानद्वारा पूजन करते हैं, उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ॥६८॥ जिन प्रभुके स्वरूपकी चित्तमें भावना करके योगिजन भावमय पुष्प आदिसे ध्यानद्वारा उपासना करते हैं उन आपकी मैं किस प्रकार पूजा कर सकता हूँ? ॥ ६९॥ हे देवेश्वर! आपकी पूजा अथवा स्तुति करनेमें मैं सर्वथा असमर्थ हूँ, मेरी चित्तवृत्ति तो केवल आपकी कृपाकी ओर ही लगी हुई है, अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ७० ॥ हे केशव! मेरा जिसमें जन्म हुआ है वह सर्पजाति अत्यन्त क्रूर होती है, यह मेरा जातीय स्वभाव है। हे अच्युत! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है॥ ७१॥ इस सम्पूर्ण जगत्की रचना और संहार आप ही करते हैं। संसारकी रचनाके साथ उसके जाति, रूप और स्वभावोंको भी आप ही बनाते हैं॥७२॥ हे ईश्वर! आपने मुझे जाति, रूप और स्वभावसे युक्त करके जैसा बनाया है उसीके अनसार मैंने यह चेष्टा भी की है॥७३॥ हे देवदेव! यदि मेरा आचरण विपरीत हो तब तो अवश्य आपके कथनानुसार मुझे दण्ड देना उचित है॥७४ ॥ तथापि हे जगत्स्वामिन् ! आपने मुझ अज्ञको जो दण्ड दिया है वह आपसे मिला हुआ दण्ड मेरे लिये कहीं अच्छा है, किन्तु दुसरेका वर भी अच्छा नहीं॥७५ ॥ हे अच्युत ! आपने मेरे पुरुषार्थ और विषको नष्ट करके मेरा भली प्रकार मानमर्दन कर दिया है। अब केवल मुझे प्राणदान दीजिये और आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ? ॥ ७६ ॥
श्रीभगवान् बोले-हेसर्प! अब तुझे इस यमुनाजलमें नहीं रहना चाहिये। तू शीघ्र ही अपने पुत्र और परिवारके सहित समुद्रके जलमें चला जा॥ ७७॥ तेरे मस्तकपर मेरे चरण-चिह्नोंको देखकर समुद्रमें रहते हुए भी सर्पोका शत्रु गरुड तुझपर प्रहार नहीं करेगा॥७८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-सर्पराज कालियसे ऐसा कह भगवान् हरिने उसे छोड़ दिया और वह उन्हें प्रणाम करके समस्त प्राणियोंके देखते-देखते अपने सेवक, पुत्र, बन्धु और स्त्रियोंके सहित अपने उस कुण्डको छोड़कर समुद्रको चला गया॥७९-८० ॥ सर्पके चले जानेपर गोपगण, लौटे हुए मृत पुरुषके समान कृष्णचन्द्रको आलिंगनकर प्रीतिपूर्वक उनके मस्तकको नेत्रजलसे भिगोने लगे॥८१॥ कुछ अन्य गोपगण यमुनाको स्वच्छ जलवाली देख प्रसन्न होकर लीलाविहारी कृष्णचन्द्रकी विस्मितचित्तसे स्तुति करने लगे॥ ८२॥ तदनन्तर अपने उत्तम चरित्रोंके कारण गोपियोंसे गीयमान और गोपोंसे प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्र व्रजमें चले आये ॥ ८३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः
अध्याय-08 धेनुकासुर का वध
श्रीपराशरजी बोले-एक दिन बलराम और कृष्ण साथ-साथ गौ चराते अति रमणीय तालवनमें आये॥१॥ उस दिव्य तालवनमें धेनुक नामक एक गधेके आकारवाला दैत्य मृगमांसका आहार करता हुआ सदा रहा करता था॥२॥ उस तालवनको पके फलोंकी सम्पत्तिसे सम्पन्न देखकर उन्हें तोड़नेकी इच्छासे गोपगण बोले ॥३॥
गोपोंने कहा- भैया राम और कृष्ण! इस भूमिप्रदेशकी रक्षा सदा धेनुकासुर करता है, इसीलिये यहाँ ऐसे पके-पके फल लगे हुए हैं॥४॥ अपनी गन्धसे सम्पूर्ण दिशाओंको आमोदित करनेवाले ये ताल-फल तो देखो; हमें इन्हें खानेकी इच्छा है; यदि आपको अच्छा लगे तो [थोड़े-से] झाड़ दीजिये॥५॥
श्रीपराशरजी बोले-गोपकुमारोंके ये वचन सुनकर बलरामजीने ‘ऐसा ही करना चाहिये’ यह कहकर फल गिरा दिये और पीछे कुछ फल कृष्णचन्द्रने भी पृथिवीपर गिराये॥६॥ गिरते हुए फलोंका शब्द सुनकर वह दुर्द्धर्ष और दुरात्मा गर्दभासुर क्रोधपूर्वक दौड़ आया और उस महाबलवान् असुरने अपने पिछले दो पैरोंसे बलरामजीकी छातीमें लात मारी। बलरामजीने उसके उन पैरोंको पकड़ लिया और आकाशमें घुमाने लगे। जब वह निर्जीव हो गया तो उसे अत्यन्त वेगसे उस तालवृक्षपर ही दे मारा॥७–९॥ उस गधेने गिरते-गिरते उस तालवृक्षसे बहुत-से फल इस प्रकार गिरा दिये जैसे प्रचण्ड वायु बादलोंको गिरा दे॥१०॥ उसके सजातीय अन्य गर्दभासुरोंके आनेपर भी कृष्ण और रामने उन्हें अनायास ही तालवृक्षोंपर पटक दिया॥११॥
हे मैत्रेय! इस प्रकार एक क्षणमें ही पके हुए तालफलों और गर्दभासुरोंके देहोंसे विभूषिता होकर पृथिवी अत्यन्त सुशोभित होने लगी॥ १२॥ हे द्विज! तबसे उस तालवनमें गौएँ निर्विघ्न होकर सुखपूर्वक नवीन तृण चरने लगीं जो उन्हें पहले कभी चरनेको नसीब नहीं हुआ था॥ १३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः
अध्याय-09 प्रलम्ब का वध
श्रीपराशरजी बोले-अपने अनुचरोंसहित उस गर्दभासुरके मारे जानेपर वह सुरम्य तालवन गोप और गोपियोंके लिये सुखदायक हो गया॥१॥ । तदनन्तर धेनुकासुरको मारकर वे दोनों वसुदेवपुत्र प्रसन्नमनसे भाण्डीर नामक वटवृक्षके तले आये॥२॥ कन्धेपर गौ बाँधनेकी रस्सी डाले और वनमालासे विभूषित हुए वे दोनों महात्मा बालक सिंहनाद करते, गाते, वृक्षोंपर चढ़ते, दूरतक गौएँ चराते तथा उनका नाम ले-लेकर पुकारते हुए नये सींगोंवाले बछड़ोंके समान सुशोभित हो रहे थे॥३-४॥ उन दोनोंके वस्त्र [क्रमश:] सुनहरी और श्याम रंगसे रँगे हुए थे अतः वे इन्द्रधनुषयुक्त श्वेत और श्याम मेघके समान जान पड़ते थे॥५॥ वे समस्त लोकपालोंके प्रभु पृथिवीपर अवतीर्ण होकर नाना प्रकारकी लौकिक लीलाओंसे परस्पर खेल रहे थे॥६॥ मनुष्यधर्ममें तत्पर रहकर मनुष्यताका सम्मान करते हुए वे मनुष्यजातिके गुणोंकी क्रीडाएँ करते हुए वनमें विचर रहे थे॥७॥ वे दोनों महाबली बालक कभी झूलामें झूलकर, कभी परस्पर मल्लयुद्धकर और कभी पत्थर फेंककर नाना प्रकारसे व्यायाम कर रहे थे॥८॥
इसी समय उन दोनों खेलते हुए बालकोंको उठा ले जानेकी इच्छासे प्रलम्ब नामक दैत्य गोपवेषमें अपनेको छिपाकर वहाँ आया॥९॥ दानवश्रेष्ठ प्रलम्ब मनुष्य न होनेपर भी मनुष्यरूप धारणकर निश्शंकभावसे उन बालकोंके बीच घुस गया॥१०॥ उन दोनोंकी असावधानताका अवसर देखनेवाले उस दैत्यने कृष्णको तो सर्वथा अजेय समझा; अतः उसने बलरामजीको मारनेका निश्चय किया॥११॥ तदनन्तर वे समस्त ग्वालबाल हरिणाक्रीडन* नामक खेल खेलते हुए आपसमें एक साथ दो-दो बालक उठे॥ १२॥ तब श्रीदामाके साथ कृष्णचन्द्र, प्रलम्बके साथ बलराम और इसी प्रकार अन्यान्य गोपोंके साथ और-और ग्वालबाल [होड़ बदकर] उछलते हुए चलने लगे॥१३॥ अन्तमें, कृष्णचन्द्रने श्रीदामाको, बलरामजीने प्रलम्बको तथा अन्यान्य कृष्णपक्षीय गोपोंने अपने प्रतिपक्षियोंको हरा दिया॥१४॥ उस खेलमें जो-जो बालक हारे थे, वे सब जीतनेवालोंको अपने-अपने कन्धोंपर चढ़ाकर भाण्डीरवटतक ले जाकर वहाँसे फिर लौट आये॥ १५ ॥
किन्तु प्रलम्बासुर अपने कन्धेपर बलरामजीको चढ़ाकर चन्द्रमाके सहित मेघके समान अत्यन्त वेगसे आकाशमण्डलको चल दिया॥१६॥ वह दानवश्रेष्ठ रोहिणीनन्दन श्रीबलभद्रजीके भारको सहन न कर सकनेके कारण वर्षाकालीन मेघके समान बढ़कर अत्यन्त स्थूल शरीरवाला हो गया॥ १७॥ तब माला और आभूषण धारण किये, सिरपर मुकुट पहने, गाड़ीके पहियोंके समान भयानक नेत्रोंवाले, अपने पादप्रहारसे पृथिवीको कम्पायमान करते हुए तथा दग्धपर्वतके समान आकारवाले उस दैत्यको देखकर उस निर्भय राक्षसके द्वारा ले जाये जाते हुए बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रसे – कहा-॥१८-१९॥ “भैया कृष्ण! देखो, छद्मपर्वक गोपवेष धारण करनेवाला कोई पर्वतके समान महाकाय दैत्य मुझे हरे लिये जाता है॥२०॥ हे मधुसूदन! अब मुझे क्या करना चाहिये, यह बतलाओ देखो, यह दुरात्मा बड़ी शीघ्रतासे दौड़ा जा रहा है” ॥ २१॥
श्रीपराशरजी बोले-तब रोहिणीनन्दनके बलवीर्यको जाननेवाले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्रने मधुरमुसकानसे अपने ओष्ठसम्पुटको खोलते हुए उन बलरामजीसे कहा ॥ २२॥
श्रीकृष्णचन्द्र बोले-हे सर्वात्मन्! आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थोंमें अत्यन्त गुह्यस्वरूप होकर भी यह स्पष्ट मानवभाव क्यों अवलम्बन कर रहे हैं? ॥ २३॥ आप अपने उस स्वरूपका स्मरण कीजिये जो समस्त संसारका कारण तथा कारणका भी पूर्ववर्ती है और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है॥२४॥ क्या आपको मालूम नहीं है कि आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें आये हैं॥२५॥ हे अनन्त! आकाश आपका सिर है, मेघ केश हैं, पृथिवी चरण हैं, अग्नि मुख है, चन्द्रमा मन है, वायु श्वास-प्रश्वास हैं और चारों दिशाएँ बाहु हैं॥ २६॥ हे भगवन्! आप महाकाय हैं, आपके सहस्र मुख हैं तथा सहस्रों हाथ, पाँव आदि शरीरके भेद हैं। आप सहस्रों ब्रह्माओंके आदिकारण हैं, मुनिजन आपका सहस्रों प्रकार वर्णन करते हैं॥ २७॥ आपके दिव्य रूपको [आपके अतिरिक्त] और कोई नहीं जानता, अतः समस्त देवगण आपके अवताररूपकी ही उपासना करते हैं। क्या आपको विदित नहीं है कि अन्तमें यह सम्पूर्ण विश्व आपहीमें लीन हो जाता है॥२८॥ हे अनन्तमूर्ते! आपहीसे धारण की हुई यह पृथिवी सम्पूर्ण चराचर विश्वको धारण करती है। हे अज! निमेषादि कालस्वरूप आप ही कृतयुग आदि भेदोंसे इस जगतका ग्रास करते हैं ॥ २९ ॥ जिस प्रकार बडवानलसे पीया हुआ जल वायुद्वारा हिमालयतक पहुँचाये जानेपर हिमका रूप धारण कर लेता है और फिर सूर्यकिरणोंका संयोग होनेसे जलरूप हो जाता है, उसी प्रकार हे ईश! यह समस्त जगत् [रुद्रादिरूपसे] आपहीके द्वारा विनष्ट होकर आप [परमेश्वर]-के ही अधीन रहता है और फिर प्रत्येक कल्पमें आपके [हिरण्यगर्भरूपसे] सृष्टि-रचनामें प्रवृत्त होनेपर यह [विराट्प से] स्थूल जगद्रूप हो जाता है॥३०-३१ ॥ हे विश्वात्मन्! आप और मैं दोनों ही इस जगतके एकमात्र कारण हैं। संसारके हितके लिये ही हमने भिन्न-भिन्न रूप धारण किये हैं॥३२॥ अतः हे अमेयात्मन्! आप अपने स्वरूपको स्मरण कीजिये और मनुष्यभावका ही अवलम्बन कर इस दैत्यको मारकर बन्धुजनोंका हित-साधन कीजिये ॥३३॥
श्रीपराशरजी बोले-हे विप्र! महात्म कृष्णचन्द्रद्वारा इस प्रकार स्मरण कराये जानेपर महाबलवान् बलरामजी हँसते हुए प्रलम्बासुरको पीडित करने लगे॥ ३४॥ उन्होंने क्रोधसे नेत्र लाल करके उसके मस्तकपर एक धूसा मारा, जिसकी चोटसे उस दैत्यके दोनों नेत्र बाहर निकल आये ॥ ३५ ॥ तदनन्तर वह दैत्यश्रेष्ठ मगज (मस्तिष्क) फट जानेपर मुखसे रक्त वमन करता हुआ पृथिवीपर गिर पड़ा और मर गया॥३६॥ अद्भुतकर्मा बलरामजीद्वारा प्रलम्बासुरको मरा हुआ देखकर गोपगण प्रसन्न होकर ‘साधु, साधु’ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे॥३७॥ । प्रलम्बासुरके मारे जानेपर बलरामजी गोपोंद्वारा प्रशंसित होते हुए कृष्णचन्द्रके साथ गोकुलमें लौट आये॥ ३८ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे नवमोऽध्यायः
अध्याय-10 शरद वर्णन तथा गोवर्धन की पूजा
श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार उन राम और कृष्णके व्रजमें विहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद्-ऋतु आ गयी॥१॥ जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं, उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढोंके जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥२॥ संसारकी असारताको जानकर जिस प्रकार योगिजन शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये॥३॥ विज्ञानिगण जैसे घरका त्याग कर देते हैं, वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया॥४॥विविध पदार्थों में ममता करनेसे जैसे देहधारियों के हृदय सारहीन हो जाते हैं वैसे ही शरत्कालीन सूर्यके तापसे सरोवर सूख गये॥५॥ निर्मलचित्त पुरुषों के मन जिस प्रकार ज्ञानद्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [स्वच्छताके कारण] कुमुदोंसे योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया॥६॥ जिस प्रकार साधु-कुलमें चरम-देह-धारी योगी सुशोभित होता है, उसी प्रकार तारका-मण्डल-मण्डित निर्मल आकाशमें पूर्णचन्द्र विराजमान हुआ॥७॥
जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममताको विवेकीजन शनैः-शनैः त्याग देते हैं, वैसे ही जलाशयोंका जल धीरे-धीरे अपने तटको छोड़ने लगा॥ ८॥ जिस प्रकार अन्तरायों* (विघ्नों)-से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया॥९॥ क्रमशः महायोग प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है, वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया॥१०॥ जिस प्रकार सर्वगत भगवान् विष्णुको जान लेनेपर मेधावी पुरुषोंके चित्त शान्त हो जाते हैं वैसे ही समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया॥११॥
योगाग्निद्वारा क्लेशसमूहके नष्ट हो जानेपर जैसे योगियोंके चित्त स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार शीतके कारण मेघोंके लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया॥१२॥ जिस प्रकार अहंकारजनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है, उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया॥ १३॥ प्रत्याहार जैसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाशसे मेघोंको, पृथिवीसे धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया॥१४॥ मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रियाद्वारा प्राणायामका अभ्यास कर रहे हैं॥१५॥
इस प्रकार व्रजमण्डलमें निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त व्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनानेके लिये तैयारी करते देखा॥१६॥ महामति कृष्णने उन गोपोंको उत्सवकी उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देखकर कुतूहलवश अपने बड़े-बूढ़ोंसे पूछा- ॥१७॥”आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्रयज्ञ क्या है?” इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछनेपर उनसे नन्दगोपने कहा- ॥१८॥
नन्दगोप बोले- मेघ और जलका स्वामी देवराज इन्द्र है। उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं॥ १९॥ हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षासे उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओंको भी तृप्त करते हैं॥ २० ॥ उस (वर्षा)से बढ़े हुए अन्नसे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती हैं॥२१॥ जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं, उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँके लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं ॥२२॥ यह पर्जन्यदेव (इन्द्र) पृथिवीके जलको सूर्यकिरणोंद्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धिके लिये उसे मेघोंद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं। इसलिये वर्षा ऋतुमें समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्यगण देवराज इन्द्रकी यज्ञोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं ॥ २३-२४॥
श्रीपराशरजी बोले-इन्द्रकी पूजाके विषयमें नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्रीदामोदर देवराजको कुपित करनेके लिये ही इस प्रकार कहने लगे- ॥ २५ ॥”हे तात! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं॥ २६॥आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र), त्रयी (कर्मकाण्ड), दण्डनीति और वार्ता-ये चार विद्याएँ हैं, इनमेंसे केवल वार्ताका विवरण सुनो॥२७॥ हे महाभाग! वार्ता नामकी विद्या कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियोंकी आश्रयभूता है॥ २८॥ वार्ताके इन तीनों भेदोंमेंसे कृषि किसानोंकी, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हमलोगोंकी उत्तम वृत्ति है॥ २९॥ जो व्यक्ति जिस विद्यासे युक्त है उसकी वही इष्टदेवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है॥३०॥ जो पुरुष एक व्यक्तिसे फल-लाभ करके अन्यकी पूजा करता है, उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता ॥ ३१ ॥खेतोंके अन्तमें सीमा है तथा सीमाके अन्तमें वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं ॥ ३२॥ हमलोग न तो किंवाड़ें तथा भित्तिके अन्दर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेतवाले किसान ही हैं, बल्कि [वन-पर्वतादिमें स्वच्छन्द विचरनेवाले] हमलोग चक्रचारी* मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं [अतः गृहस्थ किसानोंकी भाँति हमें इन्द्रकी पूजा करनेका कोई काम नहीं]”॥३३॥
“सुना जाता है कि इस वनके पर्वतगण कामरूपी (इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) हैं। वे मनोवांछित रूप धारण करके अपने-अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं॥३४॥ जब कभी वनवासीगण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुंचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं ॥ ३५ ॥ अतः आजसे [इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञका प्रचार होना चाहिये। हमें इन्द्रसे क्या प्रयोजन है? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं॥३६॥ ब्राह्मणलोग मन्त्र यज्ञ तथा कृषकगण सीरयज्ञ (हलका पूजन) करते हैं, अतः पर्वत और वनोंमें रहनेवाले हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये ॥३७॥
“अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी पूजा करें॥ ३८॥आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचकोंको भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच-विचार मत करो॥३९॥ गोवर्धनकी पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद्-ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें॥४०॥ हे गोपगण! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मतिके अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराज और मुझको अत्यन्त प्रसन्नता होगी”॥४१॥
श्रीपराशरजी बोले- कृष्णचन्द्रके इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि व्रजवासी गोपोंने प्रसन्नतासे खिले हुए मुखसे ‘साधु, साधु’ कहा ॥४२॥ और बोले-हे वत्स! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय॥४३॥
तदनन्तर उन व्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया तथा दही, खीर और मांस आदिसे पर्वतराजको बलि दी॥४४॥ सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा पुष्पार्चित गौओं और सजल जलधरके समान गर्जनेवाले साँड़ोंने गोवर्धनकी परिक्रमा की॥ ४५-४६ ॥ हे द्विज! उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपश्रेष्ठोंके चढ़ाये हुए विविध व्यंजनोंको ग्रहण किया॥४७॥ कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया॥४८॥ तदनन्तर उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-अपने गोष्ठोंमें चले आये॥४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे दशमोऽध्यायः
अध्याय-11 इंद्र का कोप और श्रीकृष्ण का गोवर्धन को धारण करना
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय! अपने यज्ञके रुक जानेसे इन्द्रने अत्यन्त रोषपूर्वक संवर्तक नामक मेघोंके दलसे इस प्रकार कहा- ॥१॥ “अरे मेघो! मेरा यह वचन सुनो और मैं जो कुछ कहूँ उसे मेरी आज्ञा सुनते ही, बिना कुछ सोचेविचारे तुरन्त पूरा करो॥२॥ देखो अन्य गोपोंके सहित दुर्बुद्धि नन्दगोपने कृष्णकी सहायताके बलसे अन्धा होकर मेरा यज्ञ भंग कर दिया है॥३॥ अतः जो उनकी परम जीविका और उनके गोपत्वका कारण है, उन गौओंको तुम मेरी आज्ञासे वर्षा और वायुके द्वारा पीडित कर दो॥४॥ मैं भी पर्वत शिखरके समान अत्यन्त ऊँचे अपने ऐरावत हाथीपर चढ़कर वायु और जल छोड़नेके समय तुम्हारी सहायता करूँगा”॥५॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज! इन्द्रकी ऐसी आज्ञा होनेपर गौओंको नष्ट करनेके लिये मेघोंने अति प्रचण्ड वायु और वर्षा छोड़ दी॥६॥ हे मुने! उस समय एक क्षणमें ही मेघोंकी छोड़ी हुई महान् जलधाराओंसे पृथिवी, दिशाएँ और आकाश एकरूप हो गये॥७॥ मेघगण मानो विद्युल्लतारूप दण्डाघातसे भयभीत होकर महान् शब्दसे दिशाओंको व्याप्त करते हुए मूसलाधार पानी बरसाने लगे॥८॥ इस प्रकार मेघोंके अहर्निश बरसनेसे संसारके अन्धकारपूर्ण हो जानेपर ऊपर नीचे और सब ओरसे समस्त लोक जलमय-सा हो गया॥९॥
वर्षा और वायुके वेगपूर्वक चलते रहनेसे गौओंके कटि, जंघा और ग्रीवा आदि सुन्न हो गये और काँपते-काँपते अपने प्राण छोड़ने लगीं [अर्थात् मूछित हो गयीं] ॥ १०॥ हे महामुने! कोई गौएँ तो अपने बछड़ोंको अपने नीचे छिपाये खड़ी रहीं और कोई जलके वेगसे वत्सहीना हो गयीं ॥ ११॥ वायुसे काँपते हुए दीनवदन बछड़े मानो व्याकुल होकर मन्दस्वरसे कृष्णचन्द्रसे ‘रक्षा करो, रक्षा करो’ ऐसा कहने लगे ॥१२॥
हे मैत्रेय! उस समय गो, गोपी और गोपगणके सहित सम्पूर्ण गोकुलको अत्यन्त व्याकुल देखकर श्रीहरिने विचारा॥१३॥ यज्ञ-भंगके कारण विरोध मानकर यह सब करतूत इन्द्र ही कर रहा है; अतः अब मुझे सम्पूर्ण व्रजकी रक्षा करनी चाहिये ॥ १४॥ अब मैं धैर्यपूर्वक बड़ी-बड़ी शिलाओंसे घनीभूत इस पर्वतको उखाड़कर इसे एक बड़े छत्रके समान व्रजके ऊपर धारण करूँगा॥ १५ ॥
श्रीपराशरजी बोले- श्रीकृष्णचन्द्रने ऐसा विचारकर गोवर्धनपर्वतको उखाड़ लिया और उसे लीलासे ही अपने एक हाथपर उठा लिया॥१६॥ पर्वतको उखाड़ लेनेपर शूरनन्दन श्रीश्यामसुन्दरने गोपोंसे हँसकर कहा। “आओ, शीघ्र ही इस पर्वतके नीचे आ जाओ, मैंने वर्षासे बचनेका प्रबन्ध कर दिया है॥ १७॥ यहाँ वायुहीन स्थानोंमें आकर सुखपूर्वक बैठ जाओ; निर्भय होकर प्रवेश करो, पर्वतके गिरने आदिका भय मत करो”॥१८॥
श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जलकी धाराओंसे पीडित गोप और गोपी अपने बर्तन-भाँड़ोंको छकड़ोंमें रखकर गौओंके साथ पर्वतके नीचे चले गये॥१९॥ व्रज वासियोंद्वारा हर्ष और विस्मयपूर्वक टकटकी लगाकर देखे जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र भी गिरिराजको अत्यन्त निश्चलतापूर्वक धारण किये रहे॥२०॥ जो प्रीतिपूर्वक आँखें फाड़कर देख रहे थे उन हर्षितचित्त गोप और गोपियोंसे अपने चरितोंका स्तवन होते हए श्रीकृष्णचन्द्र पर्वतको धारण किये रहे॥२१॥
हे विप्र! गोपोंके नाशकर्ता इन्द्रकी प्रेरणासे नन्दजीके गोकुलमें सात रात्रितक महाभयंकर मेघ बरसते रहे ॥ २२॥ किंतु जब श्रीकृष्णचन्द्रने पर्वत धारणकर गोकुलकी रक्षा की तो अपनी प्रतिज्ञा व्यर्थ हो जानेसे इन्द्रने मेघोंको रोक दिया॥ २३ ॥ आकाशके मेघहीन हो जानेसे इन्द्रकी प्रतिज्ञा भंग हो जानेपर समस्त गोकुलवासी वहाँसे निकलकर प्रसन्नतापूर्वक फिर अपने-अपने स्थानोंपर आ गये॥ २४॥ और कृष्णचन्द्रने भी उन व्रजवासियों के विस्मयपूर्वक देखते-देखते गिरिराज गोवर्धनको अपने स्थानपर रख दिया॥ २५ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे एकादशोऽध्यायः
अध्याय-12 शक्र-कृष्ण संवाद तथा कृष्ण की स्तुति
श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार गोवर्धनपर्वतका धारण और गोकुलकी रक्षा हो जानेपर देवराज इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा हुई॥१॥ अतः शत्रुजित् देवराज गजराज ऐरावतपर चढ़कर गोवर्धनपर्वतपर आये और वहाँ सम्पूर्ण जगतके रक्षक गोपवेषधारी महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते देखा ॥२-३॥ हे द्विज! उन्होंने यह भी देखा कि पक्षिश्रेष्ठ गरुड अदृश्यभावसे उनके ऊपर रहकर अपने पंखोंसे उनकी छाया कर रहे हैं॥४॥ तब वे ऐरावतसे उतर पड़े और एकान्तमें श्रीमधुसूदनकी ओर प्रीतिपूर्वक दृष्टि फैलाते हुए मुसकाकर बोले॥५॥
इन्द्रने कहा-हे श्रीकृष्णचन्द्र! मैं जिसलिये आपके पास आया हूँ, वह सुनिये-हे महाबाहो! आप इसे अन्यथा न समझें ॥६॥ हे अखिलाधार परमेश्वर! आपने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है॥७॥ यज्ञभंगसे विरोध मानकर ही मैंने गोकुलको नष्ट करनेके लिये महामेघोंको आज्ञा दी थी, उन्हींने यह संहार मचाया था॥८॥ किन्तु आपने पर्वतको उखाड़कर गौओंको बचा लिया। हे वीर! आपके इस अद्भुत कर्मसे मैं अति प्रसन्न हूँ॥९॥
हे कृष्ण! आपने जो अपने एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है, इससे मैं देवताओंका प्रयोजन सिद्ध हआ ही समझता हूँ॥१०॥ आपसे रक्षित गौओंसे प्रेरित होकर ही मैं आपका विशेष सत्कार करनेके लिये यहाँ आपके पास आया हूँ॥ ११॥ हे कृष्ण! अब मैं गौओंके वाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्रपदपर अभिषेक करूँगा तथा आप गौओंके इन्द्र हैं इसलिये आपका नाम ‘गोविन्द’ भी होगा ॥१२॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर इन्द्रने अपने वाहन गजराज ऐरावतका घण्टा लिया और उसमें पवित्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक किया॥१३॥ श्रीकृष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय गौओंने तुरन्त ही अपने स्तनोंसे टपकते हुए दुग्धसे पृथिवीको भिगो दिया॥१४॥
इस प्रकार गौओंके कथनानुसार श्रीजनार्दनको उपेन्द्र-पदपर अभिषिक्त कर शचीपति इन्द्रने पुनः प्रीति और विनयपूर्वक कहा- ॥ १५॥ “हे महाभाग! यह तो मैंने गौओंका वचन पूरा किया, अब पृथिवीके भार उतारनेकी इच्छासे मैं आपसे जो कुछ और निवेदन करता हूँ वह भी सुनिये ॥१६॥ हे पृथिवीधर! हे पुरुषसिंह! अर्जुन नामक मेरे अंशने पृथिवीपर अवतार लिया है; आप कृपा करके उसकी सर्वदा रक्षा करें॥ १७॥ हे मधुसूदन! वह वीर पृथिवीका भार उतारनेमें आपका साथ देगा, अतः आप उसकी अपने शरीरके समान ही रक्षा करें”॥ १८॥
श्रीभगवान् बोले- भरतवंशमें पृथाके पुत्र अर्जुनने तुम्हारे अंशसे अवतार लिया है-यह मैं जानता हूँ। मैं जबतक पृथिवीपर रहूँगा, उसकी रक्षा करूँगा॥१९॥ हे शत्रुसूदन देवेन्द्र ! मैं जबतक महीतलपर रहूँगा तबतक अर्जुनको युद्ध में कोई भी न जीत सकेगा॥२०॥ हे देवेन्द्र ! विशाल भुजाओंवाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टासुर, केशी, कुवलयापीड और नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्योंका नाश होनेपर यहाँ महाभारत-युद्ध होगा। हे सहस्राक्ष! उसी समय पृथिवीका भार उतरा हुआ समझना ॥ २१-२२॥ अब तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ, अपने पुत्र अर्जुनके लिये तुम किसी प्रकारकी चिन्ता मत करो; मेरे रहते हुए अर्जुनका कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा॥ २३ ॥ अर्जुनके लिये ही मैं महाभारतके अन्तमें युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंको अक्षत-शरीरसे कुन्तीको दूंगा ॥ २४॥
श्रीपराशरजी बोले- कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र उनका आलिंगन कर ऐरावत हाथीपर आरूढ हो स्वर्गको चले गये॥ २५ ॥ तदनन्तर कृष्णचन्द्र भी गोपियोंके दृष्टिपातसे पवित्र हुए मार्गद्वारा गोपकुमारों और गौओंके साथं व्रजको लौट आये ॥२६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे द्वादशोऽध्यायः
अध्याय-13 गोपों द्वारा भगवान का प्रभाव का वर्णन तथा भगवान का गोपियों के साथ रासक्रीड़ा करना
श्रीपराशरजी बोले- इन्द्रके चले जानेपर लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको बिना प्रयास ही गोवर्धन पर्वत धारण करते देख गोपगण उनसे प्रीतिपूर्वक बोले- ॥१॥ हे भगवन्! हे महाभाग! आपने गिरिराजको धारण कर हमारी और गौओंकी इस महान् भयसे रक्षा की है॥२॥ हे तात! कहाँ आपकी यह अनुपम बाललीला, कहाँ निन्दित गोपजाति और कहाँ ये दिव्य कर्म? यह सब क्या है, कृपया हमें बतलाइये॥३॥ आपने यमुनाजलमें कालियनागका दमन किया, धेनुकासुरको मारा और फिर यह गोवर्धनपर्वत धारण किया; आपके इन अद्भुत कर्मोंसे हमारे चित्तमें बड़ी शंका हो रही है॥४॥ हे अमितविक्रम! हम भगवान् हरिके चरणोंकी शपथ करके आपसे सच-सच कहते हैं कि आपके ऐसे बल-वीर्यको देखकर हम आपको मनुष्य नहीं मान सकते ॥५॥ हे केशव! स्त्री और बालकोंके सहित सभी व्रजवासियोंकी आपपर अत्यन्त प्रीति है। आपका यह कर्म तो देवताओंके लिये भी दुष्कर है॥६॥ हे कृष्ण! आपकी यह बाल्यावस्था, विचित्र बल-वीर्य और हम-जैसे नीच पुरुषोंमें जन्म लेना-हे अमेयात्मन्! ये सब बातें विचार करनेपर हमें शंकामें डाल देती हैं॥७॥ आप देवता हों, दानव हों, यक्ष हों अथवा गन्धर्व हों; इन बातोंका विचार करनेसे हमें क्या प्रयोजन है? हमारे तो आप बन्धु ही हैं, अतः आपको नमस्कार है॥८॥
श्रीपराशरजी बोले-गोपगणके ऐसा कहनेपर महामति कृष्णचन्द्र कुछ देरतक चुप रहे और फिर कुछ प्रणयजन्य कोपपूर्वक इस प्रकार कहने लगे- ॥९॥
श्रीभगवानने कहा-हे गोपगण! यदि आपलोगोंको मेरे सम्बन्धसे किसी प्रकारकी लज्जा न हो तो मैं आपलोगोंसे प्रशंसनीय हूँ इस बातका विचार करनेकी भी क्या आवश्यकता है? ॥ १०॥ यदि मुझमें आपकी प्रीति है और यदि मैं आपकी प्रशंसाका पात्र हूँ तो आपलोग मुझमें बान्धव-बुद्धि ही करें ॥११॥
मैं न देव हूँ, न गन्धर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव हूँ। मैं तो आपके बान्धवरूपसे ही उत्पन्न हुआ हूँ; आपलोगोंको इस विषयमें और कुछ विचार न करना चाहिये ॥१२॥
श्रीपराशरजी बोले-हे महाभाग! श्रीहरिके प्रणयकोपयुक्त होकर कहे हुए इन वाक्योंको सुनकर वे समस्त गोपगण चुपचाप वनको चले गये ॥१३॥
तब श्रीकृष्णचन्द्रने निर्मल आकाश, शरच्चन्द्रकी चन्द्रिका और दिशाओंको सुरभित करनेवाली विकसित कुमुदिनी तथा वन-खण्डीको मुखर मधुकरोंसे मनोहर देखकर गोपियोंके साथ रमण करनेकी इच्छा की॥१४-१५॥ उस समय बलरामजीके बिना ही श्रीमुरलीमनोहर स्त्रियोंको प्रिय लगनेवाला अत्यन्त मधुर, अस्फुट एवं मृदुल पद ऊँचे और धीमे स्वरसे गाने लगे॥१६॥ उनकी उस सुरम्य गीतध्वनिको सुनकर गोपियाँ अपने-अपने घरोंको छोड़कर तत्काल जहाँ श्रीमधुसूदन थे वहाँ चली आयीं॥१७॥
वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वर-में-स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी और कोई मन-ही-मन उन्हींका स्मरण करने लगी॥ १८॥ कोई ‘हे कृष्ण, हे कृष्ण’ ऐसा कहती हुई लज्जावश संकुचित हो गयी और कोई प्रेमोन्मादिनी होकर तुरन्त उनके पास जा खड़ी हुई ॥ १९॥ कोई गोपी बाहर गुरुजनोंको देखकर अपने घरमें ही रहकर आँख मूंदकर तन्मयभावसे श्रीगोविन्दका ध्यान करने लगी॥ २०॥ तथा कोई गोपकुमारी जगत्के कारण परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रका चिन्तन करतेकरते [मूर्छावस्थामें] प्राणापानके रुक जानेसे मुक्त हो गयी, क्योंकि भगवद्ध्यानके विमल आह्लादसे उसकी समस्त पुण्यराशि क्षीण हो गयी और भगवान्की अप्राप्तिके महान् दुःखसे उसके समस्त पाप लीन हो गये थे॥ २१-२२॥ गोपियोंसे घिरे हुए रासारम्भरूप रसके लिये उत्कण्ठित श्रीगोविन्दने उस शरच्चन्द्रसुशोभिता रात्रिको सम्मानित किया॥२३॥
उस समय भगवान् कृष्णके अन्यत्र चले जानेपर कृष्णचेष्टाके अधीन हुईं गोपियाँ यूथ बनाकर वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥ २४॥ कृष्णमें निबद्धचित्त हुई वे व्रजांगनाएँ परस्पर इस प्रकार वार्तालाप करने लगीं- “मैं ही कृष्ण हूँ; देखो, कैसी सुन्दर चालसे चलता हूँ; तनिक मेरी गति तो देखो।” दूसरी कहती-“कृष्ण तो मैं हूँ, अहा! मेरा गाना तो सुनो” ॥ २५-२६॥ कोई अन्य गोपी भुजाएँ ठोंककर बोल उठती-“अरे दुष्ट कालिय! मैं कृष्ण हूँ, तनिक ठहर तो जा” ऐसा कहकर वह कृष्णके सारे चरित्रोंका लीलापूर्वक अनुकरण करने लगती ॥२७॥ कोई और गोपी कहने लगती-“अरे गोपगण ! मैंने गोवर्धन धारण कर लिया है, तुम वर्षासे मत डरो, निश्शंक होकर इसके नीचे आकर बैठ जाओ” ॥ २८॥ कोई दूसरी गोपी कृष्णलीलाओंका अनुकरण करती हुई बोलने लगती-“मैंने धेनुकासुरको मार दिया है, अब यहाँ गौएँ स्वच्छन्द होकर विचरें”॥२९॥
इस प्रकार समस्त गोपियाँ श्रीकृष्णचन्द्रकी नाना प्रकारकी चेष्टाओंमें व्यग्र होकर साथ-साथ अति सुरम्य वृन्दावनके अन्दर विचरने लगीं ॥ ३० ॥ खिले हुए कमल जैसे नेत्रोंवाली एक सन्दरी गोपांगना सर्वांग पलकित हो पृथिवीकी ओर देखकर कहने लगी- ॥३१॥ अरी आली! ये लीलाललितगामी कृष्णचन्द्रके ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल आदिकी रेखाओंसे सुशोभित पदचिह्न तो देखो॥ ३२॥ और देखो, उनके साथ कोई पुण्यवती मदमाती युवती भी आ गयी है, उसके ये घने छोटे-छोटे और पतले चरणचिह्न दिखायी दे रहे हैं ॥ ३३॥ यहाँ निश्चय ही दामोदरने ऊँचे होकर पुष्पचयन किये हैं; इसी कारण यहाँ उन महात्माके चरणोंके केवल अग्रभाग ही अंकित हुए हैं॥३४॥ यहाँ बैठकर उन्होंने निश्चय ही किसी बड़भागिनीका पुष्पोंसे शृंगार किया है; अवश्य ही उसने अपने पूर्वजन्ममें सर्वात्मा श्रीविष्णभगवानकी उपासना की होगी॥ ३५॥ और यह देखो, पूष्पबन्धनके सम्मानसे गर्विता होकर उसके मान करनेपर श्रीनन्दनन्दन उसे छोड़कर इस मार्गसे चले गये हैं ॥३६॥ अरी सखियो! देखो,यहाँ कोई नितम्बभारके कारण मन्दगामिनी गोपी कृष्णचन्द्रके पीछे-पीछे गयी है। वह अपने गन्तव्य स्थानको तीव्रगतिसे गयी है, इसीसे उसके चरणचिह्नोंके अग्रभाग कुछ नीचे दिखायी देते हैं॥३७॥ यहाँ वह सखी उनके हाथमें अपना पाणिपल्लव देकर चली है, इसीसे उसके चरणचिह्न पराधीन-से दिखलायी देते हैं॥ ३८॥ देखो, यहाँसे उस मन्दगामिनीके निराश होकर लौटनेके चरणचिह्न दीख रहे हैं, मालूम होता है उस धूर्तने केवल कर-स्पर्श करके उसका अपमान किया है॥ ३९ ॥ यहाँ कृष्णने अवश्य उस गोपीसे कहा है मैं शीघ्र ही जाता हूँ, पुनः तेरे पास लौट आऊँगा। इसीलिये यहाँ उनके चरणोंके चिह्न शीघ्र गतिकेसे दीख रहे हैं’॥ ४०॥ यहाँसे कृष्णचन्द्र गहन वनमें चले गये हैं, इसीसे उनके चरण-चिह्न दिखलायी नहीं देते; अब सब लौट चलो; इस स्थानपर चन्द्रमाकी किरणें नहीं पहुँच सकतीं ॥ ४१ ॥
तदनन्तर वे गोपियाँ कृष्ण-दर्शनसे निराश होकर लौट आयीं और यमुनातटपर आकर उनके चरितोंको गाने लगीं ॥४२॥ तब गोपियोंने प्रसन्नमुखारविन्द त्रिभुवनरक्षक लीलाविहारी श्रीकृष्णचन्द्रको वहाँ आते देखा॥४३॥ उस समय कोई गोपी तो श्रीगोविन्दको आते देखकर अति हर्षित हो केवल ‘कृष्ण! कृष्ण!! कृष्ण!!!’ इतना ही कहती रह गयी और कुछ न बोल सकी॥४४॥ कोई अपनी भ्रूभंगीसे ललाट सिकोड़कर श्रीहरिको देखते हुए अपने नेत्ररूप भ्रमरोंद्वारा उनके मुखकमलका मकरन्द पान करने लगी॥ ४५ ॥ कोई गोपी गोविन्दको देख नेत्र मूंदकर उन्हींके रूपका ध्यान करती हुई योगारूढ-सी भासित होने लगी॥ ४६॥
तब श्रीमाधव किसीसे प्रिय भाषण करके, किसीकी ओर भ्रूभंगीसे देखकर और किसीका हाथ पकड़कर उन्हें मनाने लगे॥४७॥ फिर उदारचरित श्रीहरिने उन प्रसन्नचित्त गोपियोंके साथ रासमण्डल बनाकर आदरपूर्वक रमण किया॥४८॥ किन्तु उस समय कोई भी गोपी कृष्णचन्द्रकी सन्निधिको न छोड़ना चाहती थी; इसलिये एक ही स्थानपर स्थिर रहनेके कारण रासोचित मण्डल न बन सका॥४९॥ तब उन गोपियोंमेंसे एक-एकका हाथ पकड़कर श्रीहरिने रासमण्डलकी रचना की। उस समय उनके करस्पर्शसे प्रत्येक गोपीकी आँखें आनन्दसे मुँद जाती थीं ॥ ५० ॥ तदनन्तर रासक्रीडा आरम्भ हुई। उसमें गोपियोंके चंचल कंकणोंकी झनकार होने लगी और फिर क्रमश: शरवर्णन-सम्बन्धी गीत होने लगे॥५१॥ उस समय कृष्णचन्द्र चन्द्रमा, चन्द्रिका और कुमुदवन-सम्बन्धी गान करने लगे; किन्तु गोपियोंने तो बारम्बार केवल कृष्णनामका ही गान किया॥५२॥ फिर एक गोपीने नृत्य करते-करते थककर चंचल कंकणकी झनकारसे युक्त अपनी बाहुलता श्रीमधुसूदनके गलेमें डाल दी॥५३॥ किसी निपुण गोपीने भगवान्के गानकी प्रशंसा करनेके बहाने भुजा फैलाकर श्रीमधुसूदनको आलिंगन करके चूम लिया॥५४॥ श्रीहरिकी भुजाएँ गोपियोंके कपोलोंका चुम्बन पाकर उन (कपोलों)-में पुलकावलिरूप धान्यकी उत्पत्तिके लिये स्वेदरूप जलके मेघ बन गयीं॥ ५५ ॥
कृष्णचन्द्र जितने उच्चस्वरसे रासोचित गान गाते थे उससे दूने शब्दसे गोपियाँ “धन्य कृष्ण! धन्य कृष्ण!!” की ही ध्वनि लगा रही थीं॥५६॥ भगवानके आगे जानेपर गोपियाँ उनके पीछे जातीं और लौटनेपर सामने चलतीं, इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोमगतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं॥५७॥ श्रीमधुसूदन भी गोपियोंके साथ इस प्रकार रासक्रीडा कर रहे थे कि उनके बिना एक क्षण भी गोपियोंको करोड़ों वर्षों के समान बीतता था॥५८॥ वे रास-रसिक गोपांगनाएँ पति, माता-पिता और भ्राता आदिके रोकनेपर भी रात्रिमें श्रीश्यामसुन्दरके साथ विहार करती थीं॥ ५९॥ शत्रुहन्ता अमेयात्मा श्रीमधुसूदन भी अपनी किशोरावस्थाका मान करते हुए रात्रिके समय उनके साथ रमण करते थे॥६०॥ वे सर्वव्यापी ईश्वर श्रीकृष्णचन्द्र गोपियोंमें, उनके पतियोंमें तथा समस्त प्राणियोंमें आत्मस्वरूपसे वायुके समान व्याप्त थे॥६१॥ जिस प्रकार आकाश, अग्नि, पृथिवी, जल, वायु और आत्मा समस्त प्राणियोंमें व्याप्त हैं उसी प्रकार वे भी सब पदार्थों में व्यापक हैं॥६२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः
अध्याय-14 वृषभासुर वध
श्रीपराशरजी बोले- एक दिन सायंकालके समय जब श्रीकृष्णचन्द्र रासक्रीडामें आसक्त थे, अरिष्ट नामक एक मदोन्मत्त असुर [वृषभरूप धारणकर] सबको भयभीत करता व्रजमें आया॥१॥इस अरिष्टासुरकी कान्ति सजल जलधरके समान कृष्णवर्ण थी, सींग अत्यन्त तीक्ष्ण थे, नेत्र सूर्यके समान तेजस्वी थे और अपने खुरोंकी चोटसे वह मानो पृथिवीको फाड़े डालता था॥२॥ वह दाँत पीसता हुआ पुनः पुनः अपनी जिह्वासे ओठोंको चाट रहा था, उसने क्रोधवश अपनी पूँछ उठा रखी थी तथा उसके स्कन्धबन्धन कठोर थे॥३॥ उसके ककुद (कुहान) और शरीरका प्रमाण अत्यन्त ऊँचा एवं दुर्लङ्घ्य था, पृष्ठभाग गोबर और मूत्रसे लिथड़ा हुआ था। तथा वह समस्त गौओंको भयभीत कर रहा था॥४॥ उसकी ग्रीवा अत्यन्त लम्बी और मुख वृक्षके खोखलेके समान अति गम्भीर था। वह वृषभरूपधारी दैत्य गौओंके गर्भोको गिराता हुआ और तपस्वियोंको मारता हुआ सदा वनमें विचरा करता था॥५-६॥
तब उस अति भयानक नेत्रोंवाले दैत्यको देखकर गोप और गोपांगनाएँ भयभीत होकर कृष्ण, कृष्ण’ पुकारने लगीं ॥७॥ उनका शब्द सुनकर श्रीकेशवने घोर सिंहनाद किया और ताली बजायी। उसे सुनते ही वह श्रीदामोदरकी ओर फिरा॥ ८॥ दुरात्मा वृषभासुर आगेको सींग करके तथा कृष्णचन्द्रकी कुक्षिमें दृष्टि लगाकर उनकी ओर दौड़ा॥९॥ किन्तु महाबली कृष्ण वृषभासुरको अपनी ओर आता देख अवहेलनासे लीलापूर्वक मुसकराते हुए उस स्थानसे विचलित न हुए॥१०॥ निकट आनेपर श्रीमधुसूदनने उसे इस प्रकार पकड़ लिया जैसे ग्राह किसी क्षुद्र जीवको पकड़ लेता है; तथा सींग पकड़नेसे अचल हुए उस दैत्यकी कोखमें घुटनेसे प्रहार किया॥११॥
इस प्रकार सींग पकड़े हुए उस दैत्यका दर्प भंगकर भगवान् ने अरिष्टासुरकी ग्रीवाको गीले वस्त्रके समान मरोड़ दिया॥१२॥ तदनन्तर उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसपर आघात किया, जिससे वह महादैत्य मुखसे रक्त वमन करता हुआ मर गया॥१३॥ जम्भके मरनेपर जैसे देवताओंने इन्द्रकी स्तुति की थी उसी प्रकार अरिष्टासुरके मरनेपर गोपगण श्रीजनार्दनकी प्रशंसा करने लगे ॥१४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः
अध्याय-15 कंस का श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अक्रूर को भेजना
श्रीपराशरजी बोले-वृषभरूपधारी अरिष्टासुर, धेनुक और प्रलम्ब आदिका वध, गोवर्धनपर्वतका धारण करना, कालियनागका दमन, दो विशाल वृक्षोंका उखाड़ना, पूतनावध तथा शकटका उलट देना आदि अनेक लीलाएँ हो जानेपर एक दिन नारदजीने कंसको, यशोदा और देवकीके गर्भपरिवर्तनसे लेकर जैसा-जैसा हुआ था, वह सब वृत्तान्त क्रमशः सुना दिया॥१-३॥
देवदर्शन नारदजीसे ये सब बातें सुनकर दुर्बुद्धि कंसने वसुदेवजीके प्रति अत्यन्त क्रोध प्रकट किया॥४॥ उसने अत्यन्त कोपसे वसुदेवजीको सम्पूर्ण यादवोंकी सभामें डाँटा तथा समस्त यादवोंकी भी निन्दा की और यह कार्य विचारने लगा—’ये अत्यन्त बालक राम और कृष्ण जबतक पूर्ण बल प्राप्त नहीं करते हैं तभीतक मुझे इन्हें मार देना चाहिये; क्योंकि युवावस्था प्राप्त होनेपर तो ये अजेय हो जायँगे॥५-६॥ मेरे यहाँ महावीर्यशाली चाणूर और महाबली मुष्टिक-जैसे मल्ल हैं। मैं इनके साथ मल्लयुद्ध कराकर उन दोनों दुर्बुद्धियोंको मरवा डालूँगा॥७॥ उन्हें महान् धनुर्यज्ञके मिससे व्रजसे बुलाकर ऐसे-ऐसे उपाय करूँगा, जिससे वे नष्ट हो जायँ॥ ८॥ उन्हें लानेके लिये मैं श्वफल्कके पुत्र यादवश्रेष्ठ शूरवीर अक्रूरको गोकुल भेजूंगा॥९॥ साथ ही वृन्दावनमें विचरनेवाले घोर असुर केशीको भी आज्ञा दूंगा, जिससे वह महाबली दैत्य उन्हें वहीं नष्ट कर देगा॥ १०॥ अथवा [यदि किसी प्रकार बचकर] वे दोनों वसुदेवपुत्र गोप मेरे पास आ भी गये तो उन्हें मेरा कुवलयापीड हाथी मार डालेगा’॥११॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा सोचकर उस दुष्टात्मा कंसने वीरवर राम और कृष्णको मारनेका निश्चय कर अक्रूरजीसे कहा॥१२॥
कंस बोला-हे दानपते! मेरी प्रसन्नताके लिये आप मेरी एक बात स्वीकार कर लीजिये। यहाँसे रथपर चढ़कर आप नन्दके गोकुलको जाइये ॥१३॥ वहाँ वसुदेवके विष्णुअंशसे उत्पन्न दो पुत्र हैं। मेरे नाशके लिये उत्पन्न हुए वे दुष्ट बालक वहाँ पोषित हो रहे हैं॥१४॥ मेरे यहाँ चतुर्दशीको धनुषयज्ञ होनेवाला है; अत: आप वहाँ जाकर उन्हें मल्लयुद्धके लिये ले आइये ॥ १५॥ मेरे चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल युग्म-युद्ध में अति कुशल हैं, [उस धनुर्यज्ञके दिन] उन दोनोंके साथ मेरे इन पहलवानोंका द्वन्द्वयुद्ध यहाँ सब लोग देखें ॥ १६॥ अथवा महावतसे प्रेरित हुआ कुवलयापीड नामक गजराज उन दोनों दुष्ट वसुदेवपुत्र बालकोंको नष्ट कर देगा॥१७॥ इस प्रकार उन्हें मारकर मैं दुर्मति वसुदेव, नन्दगोप और इस अपने मन्दमति पिता उग्रसेनको भी मार डालूँगा॥ १८॥ तदनन्तर, मेरे वधकी इच्छावाले इन समस्त दुष्ट गोपोंके सम्पूर्ण गोधन तथा धनको मैं छीन लूँगा ॥ १९ ॥ हे दानपते! आपके अतिरिक्त ये सभी यादवगण मुझसे द्वेष करते हैं, अतः मैं क्रमश: इन सभीको नष्ट करनेका प्रयत्न करूँगा॥२०॥ फिर मैं आपके साथ मिलकर इस यादवहीन राज्यको निर्विघ्नतापूर्वक भोगूंगा, अतः हे वीर! मेरी प्रसन्नताके लिये आप शीघ्र ही जाइये ॥ २१॥ आप गोकुलमें पहुंचकर गोपगणोंसे इस प्रकार कहें जिससे वे माहिष्य (भैसके) घृत और दधि आदि उपहारोंके सहित शीघ्र ही यहाँ आ जायें ॥ २२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज! कंससे ऐसी आज्ञा पा महाभागवत अक्रूरजी ‘कल मैं शीघ्र ही श्रीकृष्णचन्द्रको देखुंगा’-यह सोचकर अति प्रसन्न हुए ॥ २३॥ माधव प्रिय अक्रूरजी राजा कंससे ‘जो आज्ञा’ कह एक अति सुन्दर रथपर चढ़े और मथुरापुरीसे बाहर निकल आये॥२४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे पञ्चदशोऽध्यायः
अध्याय-16 केशी का वध
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय! इधर कंसके दूतद्वारा भेजा हुआ महाबली केशी भी कृष्णचन्द्रके वधकी इच्छासे [घोड़ेका रूप धारण कर] वृन्दावनमें आया॥१॥ वह अपने खुरोंसे पृथिवीतलको खोदता, ग्रीवाके बालोंसे बादलोंको छिन्न-भिन्न करता तथा वेगसे चन्द्रमा और सूर्यके मार्गको भी पार करता गोपोंकी ओर दौड़ा ॥२॥ उस अश्वरूप दैत्यके हिनहिनानेके शब्दसे भयभीत होकर समस्त गोप और गोपियाँ श्रीगोविन्दकी शरणमें आये ॥ ३॥ तब उनके त्राहि-त्राहि शब्दको सुनकर भगवान् कृष्णचन्द्र सजल मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर वाणीसे बोले- ॥४॥”हे गोपालगण! आपलोग केशी (केशधारी अश्व)-से न डरें, आप तो गोप-जातिके हैं, फिर इस प्रकार भयभीत होकर आप अपने वीरोचित पुरुषार्थका लोप क्यों करते हैं? ॥५॥ यह अल्पवीर्य, हिनहिनानेसे आतंक फैलानेवाला और नाचनेवाला दुष्ट अश्व जिसपर राक्षसगण बलपूर्वक चढ़ा करते हैं, आपलोगोंका क्या बिगाड़ सकता है?”॥६॥
[इस प्रकार गोपोंको धैर्य बँधाकर वे केशीसे कहने लगे-] “अरे दुष्ट! इधर आ, पिनाकधारी वीरभद्रने जिस प्रकार पूषाके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार मैं कृष्ण तेरे मुखसे सारे दाँत गिरा दूँगा” ॥७॥ ऐसा कहकर श्रीगोविन्द उछलकर केशीके सामने आये और वह अश्वरूपधारी दैत्य भी मुँह खोलकर उनकी ओर दौड़ा॥८॥ तब जनार्दनने अपनी बाँह फैलाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्यके मुखमें डाल दी॥९॥ केशीके मुखमें घुसी हुई भगवान् कृष्णकी बाहुसे टकराकर उसके समस्त दाँत शुभ्र मेघखण्डोंके समान टूटकर बाहर गिर पड़े॥१०॥
हे द्विज! उत्पत्तिके समयसे ही उपेक्षा की गयी व्याधि जिस प्रकार नाश करनेके लिये बढ़ने लगती है, उसी प्रकार केशीके देहमें प्रविष्ट हुई कृष्णचन्द्रकी भुजा बढ़ने लगी॥११॥ अन्तमें ओठोंके फट जानेसे वह फेनसहित रुधिर वमन करने लगा और उसकी आँखें स्नायुबन्धनके ढीले हो जानेसे फूट गयीं ॥१२॥ तब वह मल-मूत्र छोड़ता हुआ पृथिवीपर पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीनेसे भरकर ठण्डा पड़ गया और वह निश्चेष्ट हो गया॥१३॥ इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजासे जिसके मुखका विशाल रन्ध्र फैलाया गया है वह महान् असुर मरकर वज्रपातसे गिरे हुए वृक्षके समान दो खण्ड होकर पृथिवीपर गिर पड़ा॥१४॥ केशीके शरीरके वे दोनों खण्ड दो पाँव, आधी पीठ, आधी मूंछ तथा एक-एक कान-आँख और नासिकारन्ध्रके सहित सुशोभित हुए॥१५॥
इस प्रकार केशीको मारकर प्रसन्नचित्त ग्वालबालोंसे घिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र बिना श्रमके स्वस्थचित्तसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे॥१६॥ केशीके मारे जानेसे विस्मित हुए गोप और गोपियोंने अनुरागवश अत्यन्त मनोहर लगनेवाले कमलनयन श्रीश्यामसुन्दरकी स्तुति की॥१७॥
हे विप्र! उसे मरा देख मेघषटलमें छिपे हुए श्रीनारदजी हर्षितचित्तसे कहने लगे- ॥ १८ ॥“हे जगन्नाथ! हे अच्युत!! आप धन्य हैं, धन्य हैं । अहा! आपने देवताओंको दुःख देनेवाले इस केशीको लीलासे ही मार डाला ॥१९॥ । मैं मनुष्य और अश्वके इस पहले और कहीं न होनेवाले युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वर्गसे यहाँ आया था॥ २०॥ हे मधुसूदन! आपने अपने इस अवतारमें जो-जो कर्म किये हैं उनसे मेरा चित्त अत्यन्त विस्मित और सन्तुष्ट हो रहा है॥ २१॥ हे कृष्ण! जिस समय यह अश्व अपनी सटाओंको हिलाता और हींसता हुआ आकाशकी ओर देखता था तो इससे सम्पूर्ण देवगण और इन्द्र भी डर जाते थे॥२२॥ हे जनार्दन! आपने इस दुष्टात्मा केशीको मारा है; इसलिये आप लोकमें ‘केशव’ नामसे विख्यात होंगे॥२३॥हे केशिनिषूदन! आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ। परसों कंसके साथ आपका युद्ध होनेके समय मैं फिर आऊँगा॥ २४॥ हे पृथिवीधर! अनुगामियों सहित उग्रसेनके पुत्र कंसके मारे जानेपर आप पृथिवीका भार उतार देंगे॥ २५ ॥ हे जनार्दन ! उस समय मैं अनेक राजाओंके साथ आप आयुष्मान् पुरुषके किये हुए अनेक प्रकारके युद्ध देखूगा॥२६॥ हे गोविन्द! अब मैं जाना चाहता हूँ। आपने देवताओंका बहुत बड़ा कार्य किया है। आप सभी कुछ जानते हैं [मैं अधिक क्या कहूँ?] आपका मंगल हो, मैं जाता हूँ”॥२७॥
तदनन्तर नारदजीके चले जानेपर गोपगणसे सम्मानित गोपियोंके नेत्रोंके एकमात्र दृश्य श्रीकृष्णचन्द्रने ग्वालबालोंके साथ गोकुलमें प्रवेश किया॥२८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे षोडशोऽध्यायः
अध्याय-17 अक्रूर जी की गोकुल यात्रा
श्रीपराशरजी बोले-अक्रूरजी भी तुरंत ही मथुरापुरीसे निकलकर श्रीकृष्ण-दर्शनकी लालसासे एक शीघ्रगामी रथद्वारा नन्दजीके गोकुलको चले ॥१॥ अक्रूरजी सोचने लगे ‘आज मुझ-जैसा बड़भागी और कोई नहीं है। क्योंकि अपने अंशसे अवतीर्ण चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान्का मुख मैं अपने नेत्रोंसे देखूगा॥२॥ आज मेरा जन्म सफल हो गया; आजकी रात्रि [अवश्य] सुन्दर प्रभातवाली थी, जिससे कि मैं आज खिले हुए कमलके समान नेत्रवाले श्रीविष्णुभगवान्के मुखका दर्शन करूँगा॥३॥ प्रभुका जो संकल्पमय मुखारविन्द स्मरणमात्रसे पुरुषोंके पापोंको दूर कर देता है, आज मैं विष्णुभगवान्के उसी कमलनयन मुखको देखूगा॥४॥ जिससे सम्पूर्ण वेद और वेदांगोंकी उत्पत्ति हुई है, आज मैं सम्पूर्ण तेजस्वियोंके परम आश्रय उसी भगवत्-मुखारविन्दका दर्शन करूँगा॥५॥ समस्त पुरुषोंके द्वारा यज्ञोंमें जिन अखिल विश्वके आधारभूत पुरुषोत्तमका यज्ञपुरुषरूपसे यजन (पूजन) किया जाता है, आज मैं उन्हीं जगत्पतिका दर्शन करूँगा॥६॥ जिनका सौ यज्ञोंसे यजन करके इन्द्रने देवराज-पदवी प्राप्त की है. आज मैं उन्हीं अनादि और अनन्त केशवका दर्शन करूँगा॥७॥ जिनके स्वरूपको ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसुगण, आदित्य और मरुद्गण आदि कोई भी नहीं जानते आज वे ही हरि मेरे नेत्रोंके विषय होंगे॥८॥ जो सर्वात्मा, सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप और सब भूतोंमें अवस्थित हैं तथा जो अचिन्त्य, अव्यय और सर्वव्यापक हैं, अहो! आज स्वयं वे ही मेरे साथ बातें करेंगे॥९॥ जिन अजन्माने मत्स्य, कूर्म, वराह, हयग्रीव और नृसिंह आदि रूप धारणकर जगत्की रक्षा की है, आज वे ही मुझसे वार्तालाप करेंगे॥१०॥
‘इस समय उन अव्ययात्मा जगत्प्रभूने अपने मनमें सोचा हुआ कार्य करनेके लिये अपनी ही इच्छासे मनुष्य-देह धारण किया है॥११॥ जो अनन्त (शेषजी) अपने मस्तकपर रखी हुई पृथिवीको धारण करते हैं, संसारके हितके लिये अवतीर्ण हुए वे ही आज मुझसे ‘अक्रूर’ कहकर बोलेंगे॥१२॥
‘जिनकी इस पिता, पुत्र, सुहृद्, भ्राता, माता और बन्धुरूपिणी मायाको पार करने में संसार सर्वथा असमर्थ है, उन मायापतिको बारम्बार नमस्कार है॥१३॥ जिनमें हृदयको लगा देनेसे पुरुष इस योगमायारूप विस्तृत अविद्याको पार कर जाता है, उन विद्यास्वरूप श्रीहरिको नमस्कार है॥१४॥ जिन्हें याज्ञिकलोग ‘यज्ञपुरुष’, सात्वत (यादव अथवा भगवद्भक्त)-गण ‘वासुदेव’ और वेदान्तवेत्ता ‘विष्णु’ कहते हैं उन्हें बारम्बार नमस्कार है॥१५॥ जिस (सत्य)-से यह सदसद्रूप जगत् उस जगदाधार विधातामें ही स्थित है उस सत्यबलसे ही वे प्रभु मुझपर प्रसन्न हों॥१६॥ जिनके स्मरणमात्रसे पुरुष सर्वथा कल्याणपात्र हो जाता है, मैं सर्वदा उन अजन्मा हरिकी शरणमें प्राप्त होता हूँ॥१७॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय! भक्तिविनम्रचित्त अक्रूरजी इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्का चिन्तन करते कुछ-कुछ सूर्य रहते ही गोकुलमें पहुँच गये॥१८॥ वहाँ पहुँचनेपर पहले उन्होंने खिले हुए नीलकमलकीसी कान्तिवाले श्रीकृष्णचन्द्रको गौओंके दोहनस्थानमें बछड़ोंके बीच विराजमान देखा ॥ १९॥ जिनके नेत्र खिले हुए कमलके समान थे, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न सुशोभित था, भुजाएँ लम्बी-लम्बी थीं, वक्षःस्थल विशाल और ऊँचा था तथा नासिका उन्नत थी॥ २० ॥ जो सविलास हासयुक्त मनोहर मुखारविन्दसे सुशोभित थे तथा उन्नत और रक्तनखयुक्त चरणोंसे पृथिवीपर विराजमान थे॥२१॥ जो दो पीताम्बर धारण किये थे, वन्यपुष्पोंसे विभूषित थे तथा जिनका श्वेत कमलके आभूषणोंसे युक्त श्याम शरीर सचन्द्र नीलाचलके समान सुशोभित था॥ २२॥ । हे द्विज! श्रीव्रजचन्द्रके पीछे उन्होंने हंस, कुन्द और चन्द्रमाके समान गौरवर्ण नीलाम्बरधारी यदुनन्दन श्रीबलभद्रजीको देखा ॥ २३॥ विशाल भुजदण्ड, उन्नत स्कन्ध और विकसित मुखारविन्द श्रीबलभद्रजी मेघमालासे घिरे हुए दूसरे कैलासपर्वतके समान जान पड़ते थे॥२४॥
हे मुने! उन दोनों बालकोंको देखकर महामति अक्रूरजीका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया तथा उनके सर्वांगमें पुलकावली छा गयी॥ २५॥ [और वे मन-ही मन कहने लगे-] इन दो रूपोंमें जो यह भगवान् वासुदेवका अंश स्थित है वही परमधाम है और वही परमपद है॥ २६॥ इन जगद्विधाताके दर्शन पाकर आज मेरे नेत्रयुगल तो सफल हो गये; किंतु क्या अब भगवत्कृपासे इनका अंगसंग पाकर मेरा शरीर भी कृतकृत्य हो सकेगा? ॥ २७॥ जिनकी अंगुलीके स्पर्शमात्रसे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हुए पुरुष निर्दोषसिद्धि (कैवल्यमोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं क्या वे अनन्तमूर्ति श्रीमान् हरि मेरी पीठपर अपना करकमल रखेंगे? ॥ २८॥
जिन्होंने अग्नि, विद्युत् और सूर्यकी किरणमालाके समान अपने उग्र चक्रका प्रहार कर दैत्यपतिकी सेनाको नष्ट करते हुए असुर-सुन्दरियोंकी आँखोंके अंजन धो डाले थे॥२९॥ जिनको एक जलबिन्दु प्रदान करनेसे राजा बलिने पृथिवीतलमें अति मनोज्ञ भोग और एक मन्वन्तरतक देवत्वलाभपूर्वक शत्रुविहीन इन्द्रपद प्राप्त किया था॥३०॥
वे ही विष्णुभगवान् मुझ निर्दोषको भी कंसके संसर्गसे दोषी ठहराकर क्या मेरी अवज्ञा कर देंगे? मेरे ऐसे साधुजनबहिष्कृत पुरुषके जन्मको धिक्कार है॥३१॥ अथवा संसारमें ऐसी कौन वस्तु है जो उन ज्ञानस्वरूप, शुद्धसत्त्वराशि, दोषहीन, नित्य-प्रकाश और समस्त भूतोंके हृदयस्थित प्रभुको विदित न हो? ॥ ३२॥
अतः मैं उन ईश्वरोंके ईश्वर, आदि, मध्य और अन्तरहित पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रके पास भक्ति-विनम्रचित्तसे जाता हूँ। [मुझे पूर्ण आशा है, वे मेरी कभी अवज्ञा न करेंगे] ॥ ३३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे सप्तदशोऽध्यायः
अध्याय-18 भगवान का मथुरा को प्रस्थान, गोपियों की विरह की कथा और अक्रूर जी का मोह
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय! यदुवंशी अक्रूरजीने इस प्रकार चिन्तन करते श्रीगोविन्दके पास पहुँचकर उनके चरणोंमें सिर झुकाते हुए ‘मैं अक्रूर हूँ’ ऐसा कहकर प्रणाम किया॥१॥ भगवानने भी अपने ध्वजावज्र-पद्मांकित करकमलोंसे उन्हें स्पर्शकर और प्रीतिपूर्वक अपनी ओर खींचकर गाढ़ आलिंगन किया॥२॥ तदनन्तर अक्रूरजीके यथायोग्य प्रणामादि कर चुकनेपर श्रीबलरामजी और कृष्णचन्द्र अति आनन्दित हो उन्हें साथ लेकर अपने घर आये॥३॥ फिर उनके द्वारा सत्कृत होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकनेपर अक्रूरने उनसे वह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे कि दुरात्मा दानव कंसने आनकदुन्दुभि वसुदेव और देवी देवकीको डाँटा था तथा जिस प्रकार वह दुरात्मा अपने पिता उग्रसेनसे दुर्व्यवहार कर रहा है और जिसलिये उसने उन्हें (अक्रूरजीको) वृन्दावन भेजा है॥४-६॥ भगवान् देवकीनन्दनने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनकर कहा-“हे दानपते! ये सब बातें मुझे मालूम हो गयीं॥७॥ हे महाभाग! इस विषयमें मुझे जो उपयुक्त जान पड़ेगा वही करूँगा। अब तुम कंसको मेरेद्वारा मरा हुआ ही समझो, इसमें किसी और तरहका विचार न करो॥८॥ भैया बलराम और मैं दोनों ही कल तुम्हारे साथ मथुरा चलेंगे, हमारे साथ ही दूसरे बड़े-बूढ़े गोप भी बहुतसा उपहार लेकर जायँगे॥९॥ हे वीर! आप यह रात्रि सुखपूर्वक बिताइये, किसी प्रकारकी चिन्ता न कीजिये। तीन रात्रिके भीतर मैं कंसको उसके अनुचरोंसहित अवश्य मार डालूँगा” ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर अक्रूरजी, श्रीकृष्णचन्द्र और बलरामजी सम्पूर्ण गोपोंको कंसकी आज्ञा सुना नन्दगोपके घर सो गये॥११॥ दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल होते ही महातेजस्वी राम और कृष्णको अक्रूरके साथ मथुरा चलनेकी तैयारी करते देख जिनकी भुजाओंके कंकण ढीले हो गये हैं वे गोपियाँ नेत्रोंमें आँसू भरकर तथा दुःखार्त्त होकर दीर्घ निश्श्वास छोड़ती हुई परस्पर कहने लगीं- ॥१२-१३॥ “अब मथुरापुरी जाकर श्रीकृष्णचन्द्र फिर गोकुलमें क्यों आने लगे? क्योंकि वहाँ तो ये अपने कानोंसे नगरनारियोंके मधुर आलापरूप मधुका ही पान करेंगे ॥१४॥
नगरकी [ विदग्ध ] वनिताओंके विलासयुक्त वचनोंके रसपानमें आसक्त होकर फिर इनका चित्त गँवारी गोपियोंकी ओर क्यों जाने लगा? ॥ १५ ॥ आज निर्दयी दुरात्मा विधाताने समस्त व्रजके सारभूत (सर्वस्वस्वरूप) श्रीहरिको हरकर हम गोपनारियोंपर घोर आघात किया है॥१६॥ नगरकी नारियोंमें भावपूर्ण मुसकानमयी बोली, विलासललित गति और कटाक्षपूर्ण चितवनकी स्वभावसे ही अधिकता होती है। उनके विलास-बन्धनोंसे बँधकर यह ग्राम्य हरि फिर किस युक्तिसे तुम्हारे [हमारे] पास आवेगा? ॥ १७-१८॥ देखो, देखो, क्रूर एवं निर्दयी अक्रूरके बहकावेमें आकर ये कृष्णचन्द्र रथपर चढ़े हुए मथुरा जा रहे हैं॥ १९॥ यह नृशंस अक्रूर क्या अनुरागीजनोंके हृदयका भाव तनिक भी नहीं जानता? जो यह इस प्रकार हमारे नयनानन्दवर्धन नन्दनन्दनको अन्यत्र लिये जाता है॥२०॥ देखो, यह अत्यन्त निष्ठुर गोविन्द रामके साथ रथपर चढ़कर जा रहे हैं; अरी! इन्हें रोकनेमें शीघ्रता करो”॥२१॥
“अरी! तू क्या कह रही है कि अपने गुरुजनोंके सामने हम ऐसा नहीं कर सकतीं?” भला अब विरहाग्निसे भस्मीभूत हुई हमलोगोंका गुरुजन क्या करेंगे? ॥ २२॥ देखो, यह नन्दगोप आदि गोपगण भी उन्हींके साथ जानेकी तैयारी कर रहे हैं। इनमेंसे भी कोई गोविन्दको लौटानेका प्रयत्न नहीं करता ॥२३॥ आजकी रात्रि मथुरावासिनी स्त्रियोंके लिये सुन्दर प्रभातवाली हुई है; क्योंकि आज उनके नयन-भंग श्रीअच्युतके मुखारविन्दका मकरन्द पान करेंगे॥ २४॥ जो लोग इधरसे बिना रोक-टोक श्रीकृष्णचन्द्रका अनुगमन कर रहे हैं वे धन्य हैं; क्योंकि वे उनका दर्शन करते हुए अपने रोमांचयुक्त शरीरका वहन करेंगे॥ २५ ॥ ‘आज श्रीगोविन्दके अंग-प्रत्यंगोंको देखकर मथुरावासियोंके नेत्रोंको अत्यन्त महोत्सव होगा ॥ २६॥ आज न जाने उन भाग्यशालिनियोंने ऐसा कौन शुभ स्वप्न देखा है जो वे कान्तिमय विशाल नयनोंवाली (मथुरापुरीकी स्त्रियाँ) स्वच्छन्दतापूर्वक श्रीअधोक्षजको निहारेंगी? ॥ २७॥ अहो! निष्ठुर विधाताने गोपियोंको महानिधि दिखलाकर आज उनके नेत्र निकाल लिये ॥ २८॥ देखो! हमारे प्रति श्रीहरिके अनुरागमें शिथिलता आ जानेसे हमारे हाथोंके कंकण भी तुरंत ही ढीले पड़ गये हैं॥२९॥
भला हम-जैसी दुःखिनी अबलाओंपर किसे दया न आवेगी? परन्तु देखो, यह क्रूर-हृदय अक्रूर तो बड़ी शीघ्रतासे घोड़ोंको हाँक रहा है!॥३०॥ देखो, यह कृष्णचन्द्रके रथकी धूलि दिखलायी दे रही है; किन्तु हा! अब तो श्रीहरि इतनी दूर चले गये कि वह धूलि भी नहीं दीखती’ ॥३१॥
श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार गोपियोंके अति अनुरागसहित देखते-देखते श्रीकृष्णचन्द्रने बलरामजीके सहित व्रजभमिको त्याग दिया ॥ ३२॥ तब वे राम कृष्ण और अक्रूर शीघ्रगामी घोड़ोंवाले रथसे चलतेचलते मध्याह्नके समय यमुनातटपर आ गये॥ ३३ ॥ वहाँ पहँचनेपर अक्ररने श्रीकष्णचन्द्रसे कहा-“जबतक मैं यमुनाजलमें मध्याह्नकालीन उपासनासे निवृत्त होऊँ तबतक आप दोनों यहीं विराजें”॥३४॥
श्रीपराशरजी बोले-हे विप्र ! तब भगवानके ‘बहुत अच्छा’ कहनेपर महामति अक्रूरजी यमुनाजलमें घुसकर स्नान और आचमन आदिके अनन्तर परब्रह्मका ध्यान करने लगे॥ ३५॥ उस समय उन्होंने देखा कि बलभद्रजी सहस्रफणावलिसे सुशोभित हैं, उनका शरीर कुन्दमालाओंके समान [शुभ्रवर्ण] है तथा नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल हैं॥३६॥ वे वासुकि और रम्भ आदि महासर्पोसे घिरकर उनसे प्रशंसित हो रहे हैं तथा अत्यन्त सुगन्धित वनमालाओंसे विभूषित हैं॥ ३७॥ वे दो श्याम वस्त्र धारण किये, सुन्दर कर्णभूषण पहने तथा मनोहर कुण्डली (गँडुली) मारे जलके भीतर विराजमान हैं॥३८॥
उनकी गोदमें उन्होंने आनन्दमय कमलभूषण श्रीकृष्णचन्द्रको देखा, जो मेघके समान श्यामवर्ण, कुछ लाल-लाल विशाल नयनोंवाले, चतुर्भुज, मनोहर अंगोपांगोंवाले तथा शंख-चक्रादि आयुधोंसे सुशोभित हैं; जो पीताम्बर पहने हुए हैं और विचित्र वनमालासे विभूषित हैं, तथा [उनके कारण] इन्द्रधनुष और विद्युन्मालामण्डित सजल मेघके समान जान पड़ते हैं तथा जिनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न और कानोंमें देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल विराजमान हैं॥ ३९-४१॥ [अक्रूरजीने यह भी देखा कि] सनकादि मुनिजन और निष्पाप सिद्ध तथा योगिजन उस जलमें ही स्थित होकर नासिकाग्र दृष्टिसे उन (श्रीकृष्णचन्द्र)। का ही चिन्तन कर रहे हैं॥४२॥
इस प्रकार वहाँ राम और कृष्णको पहचानकर अक्रूरजी बड़े ही विस्मित हुए और सोचने लगे कि ये यहाँ इतनी शीघ्रतासे रथसे कैसे आ गये? ॥४३॥ जब उन्होंने कुछ कहना चाहा तो भगवानने उनकी वाणी रोक दी। तब वे जलसे निकलकर रथके पास आये और देखा कि वहाँ भी राम और कृष्ण दोनों ही मनुष्य-शरीरसे पूर्ववत् रथपर बैठे हुए हैं॥ ४४-४५ ॥ तदनन्तर, उन्होंने जलमें घुसकर उन्हें फिर गन्धर्व, सिद्ध, मुनि और नागादिकोंसे स्तुति किये जाते देखा ॥ ४६॥ तब तो दानपति अक्रूरजी वास्तविक रहस्य जानकर उन सर्वविज्ञानमय अच्युत भगवानकी स्तुति करने लगे॥४७॥
अक्रूरजी बोले-जो सन्मात्रस्वरूप, अचिन्त्यमहिम, सर्वव्यापक तथा अनेक और एक रूप हैं उन परमात्माको नमस्कार है, नमस्कार है॥४८॥ हे अचिन्तनीय प्रभो! आप सर्वरूप एवं हवि:स्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। आप बुद्धिसे अतीत और प्रकृतिसे परे हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है॥४९॥आप भूतस्वरूप, इन्द्रियस्वरूप और प्रधानस्वरूप हैं तथा आप ही जीवात्मा और परमात्मा हैं। इस प्रकार आप अकेले ही पाँच प्रकारसे स्थित हैं ॥ ५० ॥हे सर्व! हे सर्वात्मन् ! हे क्षराक्षरमय ईश्वर! आप प्रसन्न होइये। एक आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि कल्पनाओंसे वर्णन किये जाते हैं॥५१॥ हे परमेश्वर! आपके स्वरूप, प्रयोजन और नाम आदि सभी अनिर्वचनीय हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥५२॥
हे नाथ! जहाँ नाम और जाति आदि कल्पनाओंका सर्वथा अभाव है आप वही नित्य अविकारी और अजन्मा परब्रह्म हैं ॥ ५३ ॥ क्योंकि कल्पनाके बिना किसी भी पदार्थका ज्ञान नहीं होता इसीलिये आपका कृष्ण, अच्युत, अनन्त और विष्णु आदि नामोंसे स्तवन किया जाता है ॥ ५४॥ हे अज! जिन देवता आदि कल्पनामय पदार्थोंसे अनन्त विश्वकी उत्पत्ति हुई है वे समस्त पदार्थ आप ही हैं तथा आप ही विकारहीन आत्मवस्तु हैं, अतः आप विश्वरूप हैं । हे प्रभो ! इन सम्पूर्ण पदार्थोंमें आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है।॥ ५५ ॥ आप ही ब्रह्मा, महादेव, अर्यमा, विधाता, धाता, इन्द्र, वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर और यम हैं। इस प्रकार एक आप ही भिन्न-भिन्न कार्यवाले अपनी शक्तियोंके भेदसे इस सम्पूर्ण जगतकी रक्षा कर रहे हैं॥५६॥
हे विश्वेश! सूर्यकी किरणरूप होकर आप ही विश्वकी रचना करते हैं, अतः यह गुणमय प्रपंच आपका ही रूप है। ‘सत्’ पद जिसका वाचक है वह ‘ॐ’ अक्षर आपका परम स्वरूप है, आपके उस ज्ञानात्मा सदसत्स्वरूपको नमस्कार है॥५७॥ हे प्रभो! वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धस्वरूप आपको बारम्बार नमस्कार है॥५८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः
अध्याय-19 भगवान का मथुरा में प्रवेश, रजक का वध तथा माली पर कृपा
श्रीपराशरजी बोले- यदुकुलोत्पन्न अक्रूरजीने श्रीविष्णुभगवानका जलके भीतर इस प्रकार स्तवनकर उन सर्वेश्वरका मन:कल्पित धूप, दीप और पुष्पादिसे पूजन किया॥१॥ उन्होंने अपने मनको अन्य विषयोंसे हटाकर उन्हींमें लगा दिया और चिरकालतक उन ब्रह्मभूतमें ही समाहितभावसे स्थित रहकर फिर समाधिसे विरत हो गये॥२॥ तदनन्तर महामति अक्रूरजी अपनेको कृतकृत्य सा मानते हुए यमुनाजलसे निकलकर फिर रथके पास चले आये॥३॥ वहाँ आकर उन्होंने आश्चर्ययुक्त नेत्रोंसे राम और कृष्णको पूर्ववत् रथमें बैठे देखा । उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने अक्रूरजीसे कहा॥४॥
श्रीकृष्णजी बोले-अक्रूरजी! आपने अवश्य ही यमुना-जलमें कोई आश्चर्यजनक बात देखी है, क्योंकि आपके नेत्र आश्चर्यचकित दीख पड़ते हैं॥५॥
अक्रूरजी बोले-हे अच्युत ! मैंने यमुनाजलमें जो आश्चर्य देखा है उसे मैं इस समय भी अपने सामने मर्तिमान देख रहा हूँ॥६॥हे कृष्ण! यह महान् आश्चर्यमय जगत् जिस महात्माका स्वरूप है उन्हीं परम आश्चर्यस्वरूप आपके साथ मेरा समागम हुआ है॥७॥ हे मधुसूदन ! अब उस आश्चर्यके विषयमें और अधिक कहनेसे लाभ ही क्या है? चलो, हमें शीघ्र ही मथुरा पहुँचना है; मुझे कंससे बहुत भय लगता है। दूसरेके दिये हुए अन्नसे जीनेवाले पुरुषोंके जीवनको धिक्कार है!॥ ८॥
ऐसा कहकर अक्रूरजीने वायुके समान वेगवाले घोड़ोंको हाँका और सायंकालके समय मथुरापुरीमें पहुँच गये॥९॥
मथुरापुरीको देखकर अक्रूरने राम और कृष्णसे कहा-“हे वीरवरो! अब मैं अकेला ही रथसे जाऊँगा, आप दोनों पैदल चले आवें ॥१०॥ मथुरामें पहुंचकर आप वसुदेवजीके घर न जायँ; क्योंकि आपके कारण ही उन वृद्ध वसुदेवजीका कंस सर्वदा निरादर करता रहता है” ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कह–अक्रूरजी मथुरापुरीमें चले गये। उनके पीछे राम और कृष्ण भी नगरमें प्रवेशकर राजमार्गपर आये ॥ १२ ॥ वहाँके नर-नारियोंसे आनन्दपूर्वक देखे जाते हुए वे दोनों वीर मतवाले तरुण हाथियों के समान लीलापूर्वक जा रहे थे॥१३॥
मार्गमें उन्होंने एक वस्त्र रँगनेवाले रजकको घूमते देख उससे रंग-विरंगे सुन्दर वस्त्र माँगे॥ १४ ॥ वह रजक कंसका था और राजाके मुँहलगा होनेसे बड़ा घमण्डी हो गया था. अत: राम और कष्णके वस्त्र माँगनेपर उसने विस्मित होकर उनसे बड़े जोरोंके साथ अनेक दुर्वाक्य कहे॥ १५ ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने क्रुद्ध होकर अपने करतलके प्रहारसे उस दुष्ट रजकका सिर पृथिवीपर गिरा दिया॥१६॥ इस प्रकार उसे मारकर राम और कृष्णने उसके वस्त्र छीन लिये तथा क्रमश: नील और पीत वस्त्र धारणकर वे प्रसन्नचित्तसे मालीके घर गये॥१७॥
हे मैत्रेय! उन्हें देखते ही उस मालीके नेत्र आनन्दसे खिल गये और वह आश्चर्यचकित होकर सोचने लगा कि ‘ये किसके पुत्र हैं और कहाँसे आये हैं?’ ॥ १८ ॥ पीले और नीले वस्त्र धारण किये उन अति मनोहर बालकोंको देखकर उसने समझा मानो दो देवगण ही पृथिवीतलपर पधारे हैं॥ १९ ॥ जब उन विकसितमुखकमल बालकोंने उससे पुष्प माँगे तो उसने अपने दोनों हाथ पृथिवीपर टेककर सिरसे भूमिको स्पर्श किया॥२०॥ फिर उस मालीने कहा-“हे नाथ! आपलोग बड़े ही कृपालु हैं जो मेरे घर पधारे । मैं धन्य हूँ , क्योंकि आज मैं आपका पूजन कर सकूँगा” ॥ २१ ॥ तदनन्तर उसने देखिये, ये बहुत सुन्दर हैं, ये बहुत सुन्दर हैं’- इस प्रकार प्रसन्नमुखसे लुभा-लुभाकर उन्हें इच्छानुसार पुष्प दिये ॥ २२ ॥ उसने उन दोनों पुरुषश्रेष्ठोंको पुनः-पुनः प्रणामकर अति निर्मल – और सुगन्धित मनोहर पुष्प दिये ॥ २३ ॥
तब कृष्णचन्द्रने भी प्रसन्न होकर उस मालीको यह वर दिया कि “हे भद्र ! मेरे आश्रित रहनेवाली लक्ष्मी तुझे कभी न छोड़ेगी ॥ २४॥ हे सौम्य! तेरे बल और धनका ह्रास कभी न होगा और जबतक दिन (सूर्य) की सत्ता रहेगी तबतक तेरी सन्तानका उच्छेद न होगा॥ २५ ॥ तू भी यावज्जीवन नाना प्रकारके भोग भोगता हुआ अन्तमें मेरी कृपासे मेरा स्मरण करनेके कारण दिव्य लोकको प्राप्त होगा॥२६॥ हे भद्र! तेरा मन सर्वदा धर्मपरायण रहेगा तथा तेरे वंशमें जन्म लेनेवालोंकी आयु दीर्घ होगी॥ २७॥ हे महाभाग! जबतक सूर्य रहेगा तबतक तेरे वंशमें उत्पन्न हुआ कोई भी व्यक्ति उपसर्ग (आकस्मिक रोग) आदि दोषोंको प्राप्त न होगा”॥२८॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ! ऐसा कहकर श्रीकृष्णचन्द्र बलभद्रजीके सहित मालाकारसे पूजित हो उसके घरसे चल दिये ॥ २९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे एकोनविंशोऽध्यायः
अध्याय-20 कुब्जा पर कृपा, धनुभृग, कुवलयापीड, चाणूर आदि मल्लों का नाश तथा कंस वध
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने राजमार्गमें एक नवयौवना कुब्जा स्त्रीको अनुलेपनका पात्र लिये आती देखा॥१॥ तब श्रीकृष्णने उससे विलासपूर्वक कहा-“अयि कमललोचने! तू सचसच बता यह अनुलेपन किसके लिये ले जा रही है?” ॥ २॥ भगवान् कृष्णके कामुक पुरुषकी भाँति इस प्रकार पूछनेपर अनुरागिणी कुब्जाने उनके दर्शनसे हठात् आकृष्टचित्त हो अति ललितभावसे इस प्रकार कहा- ॥३॥ “हे कान्त! क्या आप मुझे नहीं जानते? मैं अनेकवक्रा नामसे विख्यात हूँ, राजा कंसने मुझे अनुलेपन-कार्यमें नियुक्त किया है॥४॥ राजा कंसको मेरे अतिरिक्त और किसीका पीसा हुआ उबटन पसन्द नहीं है, अतः मैं उनकी अत्यन्त कृपापात्री हूँ”॥५॥
श्रीकृष्णजी बोले-हे सुमुखि! यह सुन्दर सुगन्धमय अनुलेपन तो राजाके ही योग्य है, हमारे शरीरके योग्य भी कोई अनुलेपन हो तो दो ॥६॥
श्रीपराशरजी बोले-यह सुनकर कुब्जाने कहा ‘लीजिये’ और फिर उन दोनोंको आदरपूर्वक उनके शरीरयोग्य चन्दनादि दिये ॥७॥ उस समय वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ पत्ररचनाविधिसे यथावत् अनुलिप्त होकर इन्द्रधनुषयुक्त श्याम और श्वेत मेघके समान सुशोभित हुए॥८॥ तत्पश्चात् उल्लापन विधिके जाननेवाले भगवान् कृष्णचन्द्रने उसकी ठोड़ीमें अपनी आगेकी दो अंगुलियाँ लगा उसे उचकाकर हिलाया तथा उसके पैर अपने पैरोंसे दबा लिये। इस प्रकार श्रीकेशवने उसे ऋजुकाय कर दी। तब सीधी हो जानेपर वह सम्पूर्ण स्त्रियोंमें सुन्दरी हो गयी॥९-१०॥
तब वह श्रीगोविन्दका पल्ला पकड़कर अन्तर्गर्भित प्रेम-भारसे अलसायी हुई विलासललित वाणीमें बोली ‘आप मेरे घर चलिये’ ॥ ११॥ उसके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उस कुब्जासे, जो पहले अनेक अंगोंसे टेढ़ी थी, परंतु अब सुन्दरी हो गयी थी, बलरामजीके मुखकी ओर देखकर हँसते हुए कहा- ॥ १२ ॥ हाँ, तुम्हारे घर भी आऊँगा’-ऐसा कहकर श्रीहरिने उसे मुसकाते हुए विदा किया और बलभद्रजीके मुखकी ओर देखते हुए जोर-जोरसे हँसने लगे ॥१३॥
तदनन्तर पत्र-रचनादि विधिसे अनुलिप्त तथा चित्रविचित्र मालाओंसे सुशोभित राम और कृष्ण क्रमश: नीलाम्बर और पीताम्बर धारण किये हुए यज्ञशालातक आये ॥ १४ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञरक्षकोंसे उस यजके उद्देश्यस्वरूप धनुषके विषयमें पूछा और उनके बतलानेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उसे सहसा उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा दी॥ १५ ॥ उसपर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह धनुष टूट गया, उस समय उसने ऐसा घोर शब्द किया कि उससे सम्पूर्ण मथुरापुरी गूंज उठी ॥ १६॥ तब धनुष टूट जानेपर उसके रक्षकोंने उनपर आक्रमण किया, उस रक्षक सेनाका संहार कर वे दोनों बालक धनुश्शालासे बाहर आये ॥१७॥
तदनन्तर अक्रूरके आनेका समाचार पाकर तथा उस महान धनुषको भग्न हआ सुनकर कंसने चाणर और मुष्टिकसे कहा ॥१८॥
कंस बोला-यहाँ दोनों गोपालबालक आ गये हैं । वे मेरा प्राण-हरण करनेवाले हैं, अतः तुम दोनों मल्लयुद्धसे उन्हें मेरे सामने मार डालो । यदि तुमलोग मल्लयुद्धमें उन दोनोंका विनाश करके मुझे सन्तुष्ट कर दोगे तो मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूंगा; मेरे इस कथनको तुम मिथ्या न समझना । तुम न्यायसे अथवा अन्यायसे मेरे इन महाबलवान् अपकारियोंको अवश्य मार डालो । उनके मारे जानेपर यह सारा राज्य तुम दोनोंका सामान्य होगा॥ १९–२१॥ मल्लोंको इस प्रकार आज्ञा दे कंसने अपने महावतको बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तू कुवलयापीड हाथीको मल्लोंकी रंगभूमिके द्वारपर खड़ा रख और जब वे गोपकुमार युद्धके लिये यहाँ आवें तो उन्हें इससे नष्ट करा दे ॥२२-२३॥ इस प्रकार उसे आज्ञा देकर और समस्त सिंहासनोंको यथावत् रखे देखकर, जिसकी मृत्यु पास आ गयी है वह कंस सूर्योदयकी प्रतीक्षा करने लगा ॥२४॥
प्रात:काल होनेपर समस्त मंचोंपर नागरिक लोग और राजमंचोंपर अपने अनुचरोंके सहित राजालोग बैठे ॥२५॥ तदनन्तर रंगभूमिके मध्यभागके समीप कंसने युद्धपरीक्षकोंको बैठाया और फिर स्वयं आप भी एक ऊँचे सिंहासनपर बैठा ॥२६॥ वहाँ अन्तःपुरकी स्त्रियोंके लिये पृथक् मचान बनाये गये थे तथा मुख्य-मुख्य वारांगनाओं और नगरकी महिलाओंके लिये भी अलग-अलग मंच थे ॥२७॥ कुछ अन्य मंचोंपर नन्दगोप आदि गोपगण बिठाये गये थे और उन मंचोंके पास ही अक्रूर और वसुदेवजी बैठे थे ॥२८॥ नगरकी नारियों के बीचमें ‘चलो, अन्तकालमें ही पुत्रका मुख तो देख लूँगी’ ऐसा विचारकर पुत्रके लिये मंगलकामना करती हुई देवकीजी बैठी थीं ॥२९॥
तदनन्तर जिस समय तूर्य आदिके बजने तथा चाणूरके अत्यन्त उछलने और मुष्टिकके ताल ठोंकनेपर दर्शकगण हाहाकार कर रहे थे, गोपवेषधारी वीर बालक बलभद्र और कृष्ण कुछ हँसते हुए रंगभूमिके द्वारपर आये ॥३०-३१॥ वहाँ आते ही महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामक हाथी उन दोनों गोपकुमारोंको मारनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ा ॥३२॥ हे द्विजश्रेष्ठ! उस समय रंगभूमिमें महान् हाहाकार मच गया तथा बलदेवजीने अपने अनुज कृष्णकी ओर देखकर कहा-“हे महाभाग! इस हाथीको शत्रुने ही प्रेरित किया है; अत: इसे मार डालना चाहिये” ॥३३-३४॥
हे द्विज! ज्येष्ठ भ्राता बलरामजीके ऐसा कहनेपर शत्रुसूदन श्रीश्यामसुन्दरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया ॥३५॥ फिर केशिनिषूदन भगवान् श्रीकृष्णने बलमें ऐरावतके समान उस महाबली हाथीकी सूंड अपने हाथसे पकड़कर उसे घुमाया ॥३६॥
भगवान् कृष्ण यद्यपि सम्पूर्ण जगतके स्वामी हैं तथापि उन्होंने बहुत देरतक उस हाथीके दाँत और चरणोंके बीचमें खेलते-खेलते अपने दाएँ हाथसे उसका बायाँ दाँत उखाडकर उससे महावतपर प्रहार किया । इससे उसके सिरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥३७-३८॥ उसी समय बलभद्रजीने भी क्रोधपूर्वक उसका दायाँ दाँत उखाड़कर उससे आस पास खड़े हुए महावतोंको मार डाला ॥३९॥ तदनन्तर महाबली रोहिणीनन्दनने रोषपूर्वक अति वेगसे उछलकर उस हाथीके मस्तकपर अपनी बायीं लात मारी ॥४०॥ इस प्रकार वह हाथी बलभद्रजीद्वारा लीलापूर्वक मारा जाकर इन्द्र-वज्रसे आहत पर्वतके समान गिर पड़ा ॥४१॥
तब महावतसे प्रेरित कुवलयापीडको मारकर उसके मद और रक्तसे लथपथ राम और कृष्ण उसके दाँतोंको लिये हुए गर्वयुक्त लीलामयी चितवनसे निहारते उस महान् रंगभूमिमें इस प्रकार आये जैसे मृगसमूहके बीचमें सिंह चला जाता है ॥४२-४३॥ उस समय महान् रंगभूमिमें बड़ा कोलाहल होने लगा और सब लोगोंमें ‘ये कृष्ण हैं, ये बलभद्र हैं’ ऐसा विस्मय छा गया ॥४४॥
“जिसने बालघातिनी घोर राक्षसी – पूतनाको मारा था, शकटको उलट दिया था और यमलार्जुनको उखाड़ डाला था वह यही है । जिस बालकने कालियनागके ऊपर चढ़कर उसका मान मर्दन किया था और सात रात्रितक महापर्वत गोवर्द्धनको अपने हाथपर धारण किया था वह यही है ॥४५-४६॥ जिस महात्माने अरिष्टासुर, धेनुकासुर और केशी आदि दुष्टोंको लीलासे ही मार डाला था; देखो, वह अच्युत यही हैं ॥४७॥ ये इनके आगे इनके बड़े भाई महाबाहु बलभद्रजी हैं जो बड़े लीलापूर्वक चल रहे हैं । ये स्त्रियोंके मन और नयनोंको बड़ा ही आनन्द देनेवाले हैं? ॥४८॥ पुराणार्थवेत्ता विद्वान् लोग कहते हैं कि ये गोपालजी डूबे हुए यदुवंशका उद्धार करेंगे ॥४९॥ ये सर्वलोकमय और सर्वकारण भगवान् विष्णुके ही अंश हैं, इन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही भूमिपर अवतार लिया है” ॥५०॥
राम और कृष्णके विषयमें पुरवासियोंके इस प्रकार कहते समय देवकीके स्तनोंसे स्नेहके कारण दूध बहने लगा और उनके हृदयमें बड़ा अनुताप हुआ ॥५१॥ पुत्रोंका मुख देखनेसे अत्यन्त उल्लास-सा प्राप्त होनेके कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जराको छोड़कर फिरसे नवयुवक-से हो गये ॥५२॥
राजाके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ तथा नगर निवासिनी महिलाएँ भी उन्हें एकटक देखते-देखते उपराम न हुईं ॥५३॥ “अरी सखियो! अरुणनयनसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रका अति सुन्दर मुख तो देखो, जो कुवलयापीडके साथ युद्ध करनेके परिश्रमसे स्वेद बिन्दुपूर्ण होकर हिम-कण-सिंचित शरत्कालीन प्रफुल्ल कमलको लज्जित कर रहा है । अरी! इसका दर्शन करके अपने नेत्रोंका होना सफल कर लो” ॥५४-५५॥
“हे भामिनि ! इस बालकका यह लक्ष्मी आदिका आश्रयभूत श्रीवत्सांकयुक्त वक्षःस्थल तथा शत्रुओंको पराजित करनेवाली इसकी दोनों भुजाएँ तो देखो!” ॥५६॥
“अरी! क्या तुमं नीलाम्बर धारण किये इन दुग्ध, चन्द्र अथवा कमलनालके समान शुभ्रवर्ण बलदेवजीको आते हुए नहीं देखती हो?” ॥५७॥
“अरी सखियो! चक्कर देकर घूमनेवाले चाणूर और मुष्टिकके साथ क्रीडा करते हुए बलभद्र तथा कृष्णका हँसना देख लो ” ॥५८॥
“हाय! सखियो! देखो तो चाणूरसे लड़नेके लिये ये हरि आगे बढ़ रहे हैं; क्या इन्हें छुड़ानेवाले कोई भी बड़े-बूढ़े यहाँ नहीं हैं?” ॥५९॥ ‘कहाँ तो यौवनमें प्रवेश करनेवाले सुकुमार-शरीर श्याम और कहाँ वज्रके समान कठोर शरीरवाला यह महान् असुर! ॥६०॥ ये दोनों नवयुवक तो बड़े ही सुकुमार शरीरवाले हैं, ये चाणूर आदि दैत्य मल्ल अत्यन्त दारुण हैं ॥६१॥ मल्लयुद्धके परीक्षकगणोंका यह बहुत बड़ा अन्याय है जो वे मध्यस्थ होकर भी इन बालक और बलवान् मल्लोंके बीच युद्ध करा रहे हैं ॥६२॥
श्रीपराशरजी बोले-नगरकी स्त्रियोंके इस प्रकार वार्तालाप करते समय भगवान् कृष्णचन्द्र अपनी कमर कसकर उन समस्त दर्शकोंके बीचमें पृथिवीको कम्पायमान करते हुए रंगभूमिमें कूद पड़े ॥६३॥ श्रीबलभद्रजी भी अपने भुजदण्डोंको ठोंकते हुए अति मनोहरभावसे उछलने लगे । उस समय उनके पदपदपर पृथिवी नहीं फटी, यही बड़ा आश्चर्य है ॥६४॥
तदनन्तर अमित-विक्रम कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ और द्वन्द्वयुद्धकुशल राक्षस मुष्टिक बलभद्रके साथ युद्ध करने लगे ॥६५॥ कृष्णचन्द्र चाणूर के साथ परस्पर भिड़कर, नीचे गिराकर, उछालकर, घुसे और वज्रके समान कोहनी मारकर, पैरोंसे ठोकर मारकर तथा एक-दूसरेके अंगोंको रगड़कर लड़ने लगे । उस समय उनमें महान् युद्ध होने लगा ॥६६-६७॥
इस प्रकार उस समाजोत्सवके समीप केवल बल और प्राणशक्तिसे ही सम्पन्न होनेवाला उनका अति भयंकर और दारुण शस्त्रहीन युद्ध हआ ॥६८॥ चाणर जैसे-जैसे भगवानसे भिड़ता गया वैसे-ही-वैसे उसकी प्राणशक्ति थोड़ी-थोड़ी करके अत्यन्त क्षीण होती गयी ॥६९॥ जगन्मय भगवान् कृष्ण भी, श्रम और कोपके कारण अपने पुष्पमय शिरोभूषणोंमें लगे हुए केशरको हिलानेवाले उस चाणूरसे लीलापर्वक लडने लगे ॥७०॥ उस समय चाणरकेबलका क्षय और कृष्णचन्द्रके बलका उदय देख कंसने खीझकर तूर्य आदि बाजे बन्द करा दिये ॥७१॥ रंगभूमिमें मृदंग और तूर्य आदिके बन्द हो जानेपर आकाशमें अनेक दिव्य तूर्य एक साथ बजने लगे ॥७२॥ और देवगण अत्यन्त हर्षित होकर अलक्षितभावसे कहने लगे- “हे गोविन्द! आपकी जय हो । हे केशव ! आप शीघ्र ही इस चाणूर दानवको मार डालिये।” ॥७३॥
भगवान् मधुसूदन बहुत देरतक चाणूरके साथ खेल करते रहे, फिर उसका वध करनेके लिये उद्यत होकर उसे उठाकर घुमाया ॥७४॥ शत्रुविजयी श्रीकृष्णचन्द्रने उस दैत्य मल्लको सैकड़ों बार घुमाकर आकाशमें ही निर्जीव हो जानेपर पृथिवीपर पटक दिया ॥७५॥ भगवानके द्वारा पृथिवीपर गिराये जाते ही चाणूरके शरीरके सैकड़ों टुकड़े हो गये और उस समय उसने रक्तस्रावसे पृथिवीको अत्यन्त कीचड़मय कर दिया। ॥७६॥ इधर, जिस प्रकार भगवान् कृष्ण चाणूरसे लड़ रहे थे, उसी प्रकार महाबली बलभद्रजी भी उस समय दैत्य मल्ल मुष्टिकसे भिड़े हुए थे ॥७७॥ बलरामजीने उसके मस्तकपर घूसोंसे तथा वक्षःस्थलमें जानुसे प्रहार किया और उस गतायु दैत्यको पृथिवीपर पटककर रौंद डाला ॥७८॥
तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने महाबली मल्लराज तोशलको बायें हाथसे घुसा मारकर पृथिवीपर गिरा दिया ॥७९॥ मल्ल श्रेष्ठ चाणूर और मुष्टिकके मारे जानेपर तथा मल्लराज तोशलके नष्ट होनेपर समस्त मल्लगण भाग गये ॥८०॥ तब कृष्ण और संकर्षण अपने समवयस्क गोपोंको बलपूर्वक खींचकर आलिंगन करते हुए हर्षसे रंगभूमिमें उछलने लगे ॥८१॥
तदनन्तर कंसने क्रोधसे नेत्र लाल करके वहाँ एकत्रित हुए पुरुषोंसे कहा-“अरे! इस समाजसे इन ग्वालबालोंको बलपूर्वक निकाल दो ॥८२॥ पापी नन्दको लोहेकी श्रृंखलामें बाँधकर पकड़ लो तथा वृद्ध पुरुषोंके अयोग्य दण्ड देकर वसुदेवको भी मार डालो ॥८३॥ मेरे सामने कृष्णके साथ ये जितने गोपबालक उछल रहे हैं इन सबको भी मार डालो तथा इनकी गौएँ और जो कुछ अन्य धन हो वह सब छीन लो” ॥८४॥ जिस समय कंस इस प्रकार आज्ञा दे रहा था, उसी समय श्रीमधुसूदन हँसते-हँसते उछलकर मंचपर चढ़ गये और शीघ्रतासे उसे पकड़ लिया ॥८५॥ भगवान् कृष्णने उसके केशोंको खींचकर उसे पृथिवीपर पटक दिया तथा उसके ऊपर आप भी कूद पड़े, इस समय उसका मुकुट सिरसे खिसककर अलग जा पड़ा ॥८६॥ सम्पूर्ण जगतके आधार भगवान् कृष्णके ऊपर गिरते ही उग्रसेनात्मज राजा कंसने अपने प्राण छोड़ दिये ॥८७॥ तब महाबली कृष्णचन्द्रने मृतक कंसके केश पकड़कर उसके देहको रंगभूमिमें घसीटा ॥८८॥ कंसका देह बहुत भारी था, इसलिये उसे घसीटनेसे जलके महान वेगसे हुई दरारके समान पृथिवीपर परिघा बन गयी ॥८९॥
श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा कंसके पकड़ लिये जानेपर उसके भाई सुमालीने क्रोधपूर्वक आक्रमण किया । उसे बलरामजीने लीलासे ही मार डाला ॥९०॥ इस प्रकार मथुरापति कंसको कृष्णचन्द्रद्वारा अवज्ञापूर्वक मरा हुआ देखकर रंगभूमिमें उपस्थित सम्पूर्ण जनता हाहाकार करने लगी ॥९१॥ उसी समय महाबाहु कृष्णचन्द्र बलदेवजी-सहित वसुदेव और देवकीके चरण पकड़ लिये ॥ ९२॥ तब वसुदेव और देवकीको पूर्वजन्ममें कहे हुए भगवद्वाक्योंका स्मरण हो आया और उन्होंने श्रीजनार्दनको पृथिवीपरसे उठा लिया तथा उनके सामने प्रणतभावसे खडे हो गये ॥९३॥
श्रीवसुदेवजी बोले- हे प्रभो! अब आप हमपर प्रसन्न होइये । हे केशव! आपने आर्त देवगणोंको जो वर दिया था, वह हम दोनोंपर अनुग्रह करके पूर्ण कर दिया ॥९४॥ भगवन्! आपने जो मेरी आराधनासे दुष्टजनोंके नाशके लिये मेरे घरमें जन्म लिया, उससे हमारे कुलको पवित्र कर दिया है ॥९५॥ आप सर्वभूतमय हैं और समस्त भूतोंके भीतर स्थित हैं । हे समस्तात्मन् ! भूत और भविष्यत् आपहीसे प्रवृत्त होते हैं ॥९६॥
हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय ! हे अच्युत ! समस्त यज्ञोंसे आपहीका यजन किया जाता है तथा हे परमेश्वर ! आप ही यज्ञ करनेवालोंके यष्टा और यज्ञस्वरूप हैं ॥९७॥ हे जनार्दन ! आप तो सम्पूर्ण जगतके उत्पत्तिस्थान हैं, आपके प्रति पुत्रवात्सल्यके कारण जो मेरा और देवकीका चित्त भ्रान्तियुक्त हो रहा है यह बड़ी ही हँसीकी बात है ॥९८-९९॥ आप आदि और अन्तसे रहित हैं तथा समस्त प्राणियोंके उत्पत्तिकर्ता हैं, ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी जिह्वा आपको ‘पुत्र’ कहकर सम्बोधन करेगी? ॥१००॥
हे जगन्नाथ ! जिन आपसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है वही आप बिना मायाशक्तिके और किस प्रकार हमसे उत्पन्न हो सकते हैं ॥१०१॥ जिसमें सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् स्थित है वह प्रभु कुक्षि और गोदमें शयन करनेवाला मनुष्य कैसे हो सकता है? ॥१०२॥
हे परमेश्वर ! वही आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने अंशावतारसे विश्वकी रक्षा कीजिये । आप मेरे पुत्र नहीं हैं । हे ईश ! ब्रह्मासे लेकर वृक्षादिपर्यन्त यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है, फिर हे पुरुषोत्तम ! आप हमें क्यों मोहित कर रहे हैं? ॥१०३॥ हे निर्भय ! ‘आप मेरे पुत्र हैं’ इस मायासे मोहित होकर मैंने कंससे अत्यन्त भय माना था और उस शत्रुके भयसे ही मैं आपको गोकुल ले गया था । हे ईश! आप वहीं रहकर इतने बड़े हुए हैं, इसलिये अब आपमें मेरी ममता नहीं रही है ॥१०४॥ अबतक मैंने आपके ऐसे अनेक कर्म देखे हैं जो रुद्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और इन्द्रके लिये भी साध्य नहीं हैं । अब मेरा मोह दूर हो गया है । हे ईश ! आप साक्षात् श्रीविष्णुभगवान् ही जगतके उपकारके लिये प्रकट हुए हैं ॥१०५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे विंशोऽध्यायः
अध्याय-21 उग्रसेनका राज्य अभिषेक तथा भगवान का विद्याध्ययन
श्रीपराशरजी बोले-अपने अति अद्भुत कर्मोंको देखनेसे वसुदेव और देवकीको विज्ञान उत्पन्न हुआ देखकर भगवानने यदुवंशियोंको मोहित करनेके लिये अपनी वैष्णवी मायाका विस्तार किया ॥१॥ और बोले- “हे मातः! हे पिताजी ! बलरामजी और मैं बहुत दिनोंसे कंसके भयसे छिपे हुए आपके दर्शनोंके लिये उत्कण्ठित थे, सो आज आपका दर्शन हुआ है ॥२॥ जो समय माता-पिताकी सेवा किये बिना बीतता है वह असाधु पुरुषोंकी ही आयुका भाग व्यर्थ जाता है ॥३॥ हे तात ! गुरु, देव, ब्राह्मण और माता-पिताका पूजन करते रहनेसे देहधारियोंका जीवन सफल हो जाता है ॥४॥ अतः हे तात ! कंसके वीर्य और प्रतापसे भीत हम परवशोंसे जो कुछ अपराध हुआ हो वह क्षमा करें” ॥५॥
श्रीपराशरजी बोले-राम और कृष्णने इस प्रकार कह माता-पिताको प्रणाम किया और फिर क्रमशः समस्त यदुवृद्धोंका यथायोग्य अभिवादन कर पुरवासियोंका सम्मान किया ॥६॥ उस समय कंसकी पत्नियाँ और माताएँ पृथिवीपर पड़े हुए मृतक कंसको घेरकर दु:खशोकसे पूर्ण हो विलाप करने लगीं ॥७॥ तब कृष्णचन्द्रने भी अत्यन्त पश्चात्तापसे विह्वल हो स्वयं आँखोंमें आँसू भरकर उन्हें अनेकों प्रकारसे ढाँढस बँधाया ॥८॥
तदनन्तर श्रीमधुसूदनने उग्रसेनको बन्धनसे मुक्त किया । और पुत्रके मारे जानेपर उन्हें अपने राज्यपदपर अभिषिक्त किया ॥९॥ श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा राज्याभिषिक्त होकर यदुश्रेष्ठ उग्रसेनने अपने पुत्र तथा और भी जो लोग वहाँ मारे गये थे, उन सबके और्ध्वदैहिक कर्म किये ॥१०॥ और्ध्वदैहिक कर्मोंसे निवृत्त होनेपर सिंहासनारूढ़ उग्रसेनसे श्रीहरि बोले । “हे विभो ! हमारे योग्य जो सेवा हो उसके लिये हमें निश्शंक होकर आज्ञा दीजिये ॥११॥ ययातिका शाप होनेसे यद्यपि हमारा वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दासके रहते हुए राजाओंको तो क्या, आप देवताओंको भी आज्ञा दे सकते हैं” ॥१२॥
श्रीपराशरजी बोले- उग्रसेनसे इस प्रकार कह कार्यसिद्धिके लिये मनुष्यरूप धारण करने वाले भगवान् कृष्णने वायुका स्मरण किया और वह उसी समय वहाँ उपस्थित हो गया। तब भगवानने उससे कहा- ॥१३॥
“हे वायो! तुम जाओ और इन्द्रसे कहो कि हे वासव ! व्यर्थ गर्व छोड़कर तुम उग्रसेनको अपनी सुधर्मा नामकी सभा दो ॥१४॥ कृष्णचन्द्रकी आज्ञा है कि यह सुधर्मा-सभा नामक सर्वोत्तम रत्न राजाके ही योग्य है इसमें यादवोंका विराजमान होना उपयुक्त है” ॥१५॥
श्रीपराशरजी बोले- भगवानकी ऐसी आज्ञा होनेपर वायुने यह सारा समाचार इन्द्रसे जाकर कह दिया और इन्द्रने भी तुरन्त ही अपनी सुधर्मा नामकी सभा वायुको दे दी ॥१६॥ वायुद्वारा लायी हुई उस सर्वरत्नसम्पन्न दिव्य सभाका सम्पूर्ण भोग वे यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंके आश्रित रहकर करने लगे ॥१७॥
तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञानसम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरुशिष्य-सम्बन्धको प्रकाशित करनेके लिये उपनयन संस्कारके अनन्तर विद्योपार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हए अवन्तिपुरवासी सान्दीपनि मुनिके यहाँ गये ॥१८-१९॥ वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनिका शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरुशुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे ॥२०॥ हे द्विज ! यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई कि उन्होंने केवल चौंसठ दिनमें रहस्य और संग्रहके सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद सीख लिया ॥ २१॥ सान्दीपनिने जब उनके इस असम्भव और अतिमानुष-कर्मको देखा तो यही समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा ही मेरे घर आ गये हैं ॥२२॥ उन दोनोंने अंगोंसहित चारों वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सब प्रकारकी अस्त्रविद्या एक बार सुनते ही प्राप्त कर ली और फिर गुरुजीसे कहा- “कहिये, आपको क्या गुरुदक्षिणा दें?” ॥२३-२४॥ महामति सान्दीपनिने उनके अतीन्द्रियकर्म देखकर प्रभासक्षेत्रके खारे समुद्रमें डूबकर मरे हुए अपने पुत्रको माँगा ॥२५॥ तदनन्तर जब वे शस्त्र ग्रहणकर समुद्रके पास पहुँचे तो समुद्र अर्घ्य लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ और कहा-“मैंने सान्दीपनिका पुत्र हरण नहीं किया ॥२६॥ हे दैत्यदवन ! मेरे जलमें ही पंचजन नामक एक दैत्य शंखरूपसे रहता है; उसीने उस बालकको पकड़ लिया था” ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले- समुद्रके इस प्रकार कहनेपर कृष्णचन्द्रने जलके भीतर जाकर पंचजनका वध किया और उसकी अस्थियोंसे उत्पन्न हुए शंखको ले लिया॥२८॥ जिसके शब्दसे दैत्योंका बल नष्ट हो जाता है, देवताओंका तेज बढ़ता है और अधर्मका क्षय होता है ॥२९॥ तदनन्तर उस पांचजन्य शंखको बजाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र और बलवान् बलराम यमपुरको गये और सूर्यपुत्र यमको जीतकर यमयातना भोगते हुए उस बालकको पूर्ववत् शरीरयुक्तकर उसके पिताको दे दिया ॥३०-३१॥
इसके पश्चात् वे राम और कृष्ण राजा उग्रसेनद्वारा परिपालित मथुरापुरीमें, जहाँके स्त्री-पुरुष आनन्दित हो रहे थे, पधारे ॥३२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः
अध्याय-22 जरासंध की पराजय
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! महाबली कंसने जरासन्धकी पुत्री अस्ति और प्राप्तिसे विवाह किया था, अतः वह अत्यन्त बलिष्ठ मगधराज क्रोधपूर्वक एक बहुत बड़ी सेना लेकर अपनी पुत्रियोंके स्वामी कंसको मारनेवाले श्रीहरिको यादवोंके सहित मारनेकी इच्छासे मथुरापर चढ़ आया ॥१-२॥ मगधेश्वर जरासन्धने तेईस अक्षौहिणी सेनाके सहित आकर मथुराको चारों ओरसे घेर लिया ॥३॥
तब महाबली राम और जनार्दन थोड़ी-सी सेनाके साथ नगरसे निकलकर जरासन्धके प्रबल सैनिकोंसे युद्ध करने लगे ॥४॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय राम और कृष्णने अपने पुरातन शस्त्रोंको ग्रहण करनेका विचार किया ॥५॥ हे विप्र ! हरिके स्मरण करते ही उनका शार्ङ्ग धनुष, अक्षय बाणयुक्त दो तरकश और कौमोदकी नामकी गदा आकाशसे आकर उपस्थित हो गये ॥६॥ हे द्विज ! बलभद्रजीके पास भी उनका मनोवांछित महान हल और सनन्द नामक मसल आकाशसे आ गये ॥७॥
तदनन्तर दोनों वीर राम और कृष्ण सेनाके सहित मगधराजको युद्धमें हराकर मथुरापुरीमें चले आये ॥८॥ हे महामुने ! दुराचारी जरासन्धको जीत लेनेपर भी उसके जीवित चले जानेके कारण कृष्णचन्द्रने अपनेको अपराजित नहीं समझा ॥९॥
हे द्विजोत्तम ! जरासन्ध फिर उतनी ही सेना लेकर आया, किन्तु राम और कृष्णसे पराजित होकर भाग गया ॥१०॥ इस प्रकार अत्यन्त दुर्धर्ष मगधराज जरासन्धने राम और कृष्ण आदि यादवोंसे अट्ठारह बार युद्ध किया ॥११॥ इन सभी युद्धोंमें अधिक सैन्यशाली जरासन्ध थोड़ी-सी सेनावाले यदुवंशियोंसे हारकर भाग गया ॥१२॥ यादवोंकी थोड़ी-सी सेना भी जो पराजित न हुई, यह सब भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रकी सन्निधिका ही माहात्म्य था ॥१३॥ उन मानवधर्मशील जगत्पतिकी यह लीला ही है जो कि ये अपने शत्रुओंपर नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र छोड़ रहे हैं ॥१४॥ जो केवल संकल्पमात्रसे ही संसारकी उत्पत्ति और संहार कर देते हैं, उन्हें अपने शत्रुपक्षका नाश करनेके लिये भला उद्योग फैलानेकी कितनी आवश्यकता है? ॥१५॥ तथापि वे बलवानोंसे सन्धि और बलहीनोंसे युद्ध करके मानव-धर्मोंका अनुवर्तन कर रहे थे ॥१६॥ वे कहीं साम, कहीं दान और कहीं भेदनीतिका व्यवहार करते थे तथा कहीं दण्ड देते और कहींसे स्वयं भाग भी जाते थे ॥१७॥ इस प्रकार मानवदेहधारियोंकी चेष्टाओंका अनुवर्तन करते हुए श्रीजगत्पतिकी अपनी इच्छानुसार लीलाएँ होती रहती थीं ॥१८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे द्वाविंशोऽध्यायः
अध्याय-23 द्वारका का दुर्ग की रचना, कालयवन का भस्म होना तथा मुचुकुन्दकृत भागवत्सुति
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! एक बार महर्षि गार्ग्यसे उनके सालेने यादवोंकी गोष्ठीमें नपुंसक कह दिया । उस समय समस्त यदुवंशी हँस पड़े ॥१॥ तब गार्ग्यने अत्यन्त कुपित हो दक्षिण-समुद्रके तटपर जा यादवसेनाको भयभीत करनेवाले पुत्रकी प्राप्तिके लिये तपस्या की ॥२॥ उन्होंने श्रीमहादेवजीकी उपासना करते हुए केवल लोहचूर्ण भक्षण किया तब भगवान् शंकरने बारहवें वर्षमें प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट वर दिया ॥३॥
एक पुत्रहीन यवनराजने महर्षि गार्ग्यकी अत्यन्त सेवाकर उन्हें सन्तुष्ट किया, उसकी स्त्रीके संगसे ही इनके एक भौंरेके समान कृष्णवर्ण बालक हुआ ॥४॥
वह यवनराज उस कालयवन नामक बालकको, जिसका वक्षःस्थल वज्रके समान कठोर था, अपने राज्यपदपर अभिषिक्त कर स्वयं वनको चला गया ॥५॥
तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवनने नारदजीसे पूछा कि पृथिवीपर बलवान् राजा कौन-कौनसे हैं ? इसपर नारदजीने उसे यादवोंको ही सबसे अधिक बलशाली बतलाया ॥६॥ यह सुनकर कालयवनने हजारों हाथी, घोड़े और रथोंके सहित सहस्रों करोड़ म्लेच्छसेनाको साथ ले बड़ी भारी तैयारी की ॥७॥ और यादवोंके प्रति क्रुद्ध होकर वह प्रतिदिन उन वाहनोंका त्याग करता हुआ अविच्छिन्न-गतिसे मथुरापुरीपर चढ़ आया ॥८॥
एक ओर जरासन्धका आक्रमणं और दूसरी ओर कालयवनकी चढाई देखकर श्रीकृष्णचन्द्रने सोचा “यवनोंके साथ युद्ध करनेसे क्षीण हुई यादव-सेना अवश्य ही मगधनरेशसे पराजित हो जायगी ॥९॥ और यदि प्रथम मगधनरेशसे लड़ते हैं तो उससे क्षीण हुई यादवसेनाको बलवान् कालयवन नष्ट कर देगा । हाय ! इस प्रकार यादवोंपर एक ही साथ यह दो तरहकी आपत्ति आ पहुँची है ॥१०॥ अतः मैं यादवोंके लिये एक ऐसा दुर्जय दुर्ग तैयार कराता हूँ जिसमें बैठकर वृष्णिश्रेष्ठ यादवोंकी तो बात ही क्या है स्त्रियाँ भी यद्ध कर सकें ॥११॥ उस दुर्गमें रहनेपर यदि मैं मत्त, प्रमत्त, सोया अथवा कहीं बाहर भी गया होऊँ तब भी, अधिक-से-अधिक दुष्ट शत्रुगण भी यादवोंको पराभूत न कर सकें” ॥१२॥
ऐसा विचारकर श्रीगोविन्दने समुद्रसे बारह योजन – भूमि माँगी और उसमें द्वारकापुरी निर्माण की ॥१३॥ जो इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान महान् उद्यान, गहरी खाईं, सैकड़ों सरोवर तथा अनेकों महलोंसे सुशोभित थी ॥१४॥ कालयवनके समीप आ जानेपर श्रीजनार्दन सम्पूर्ण मथुरानिवासियोंको द्वारकामें ले आये और फिर स्वयं मथुरा लौट गये ॥१५॥ जब कालयवनकी सेनाने मथुराको घेर लिया तो श्रीकृष्णचन्द्र बिना शस्त्र लिये मथुरासे बाहर निकल आये । तब यवनराज कालयवनने उन्हें देखा ॥१६॥ महायोगीश्वरोंका चित्त भी जिन्हें प्राप्त नहीं कर पाता उन्हीं वासुदेवको केवल बाहुरूप शस्त्रोंसे ही युक्त देखकर वह उनके पीछे दौड़ा ॥१७॥
कालयवनसे पीछा किये जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उस महा गुहामें घुस गये जिसमें महावीर्यशाली राजा मुचुकुन्द सो रहा था ॥१८॥ उस दुर्मति यवनने भी उस गुफामें जाकर सोये हुए राजाको कृष्ण समझकर लात मारी ॥१९॥ उसके लात मारनेसे उठकर राजा मुचुकुन्दने उस यवनराजको देखा । हे मैत्रेय ! उनके देखते ही वह यवन उसकी क्रोधाग्निसे जलकर भस्मीभूत हो गया ॥२०-२१॥
पूर्वकालमें राजा मुचुकुन्द देवताओंकी ओरसे देवासुर-संग्राममें गये थे; असुरोंको मार चुकनेपर अत्यन्त निद्रालु होनेके कारण उन्होंने देवताओंसे बहुत समयतक सोनेका वर माँगा था ॥२२॥ उस समय देवताओंने कहा था कि तुम्हारे शयन करनेपर तुम्हें जो कोई जगावेगा वह तुरन्त ही अपने शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर भस्म हो जायगा ॥२३॥
इस प्रकार पापी कालयवनको दग्ध कर चुकनेपर राजा मुचुकुन्दने श्रीमधुसूदनको देखकर पूछा-‘आप कौन हैं ?’ तब भगवानने कहा-“मैं चन्द्रवंशके अन्तर्गत यदुकुलमें वसुदेवजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ हूँ” ॥२४॥ तब मुचुकुन्दको वृद्ध गार्ग्य मुनिके वचनोंका स्मरण हुआ । उनका स्मरण होते ही उन्होंने सर्वरूप सर्वेश्वर श्रीहरिको प्रणाम करके कहा- “हे परमेश्वर ! मैंने आपको जान लिया है; आप साक्षात् भगवान् विष्णुके अंश हैं ॥२५-२६॥ पूर्वकालमें गार्ग्य मुनिने कहा था कि अट्ठाईसवें युगमें द्वापरके अन्तमें यदुकुलमें श्रीहरिका जन्म होगा ॥२७॥ निस्सन्देह आप भगवान् विष्णुके अंश हैं और मनुष्योंके उपकारके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं तथापि मैं आपके महान् तेजको सहन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥२८॥ हे भगवन् ! आपका शब्द सजल मेघकी घोर गर्जनाके समान अति गम्भीर है तथा आपके चरणोंसे पीडिता होकर पृथिवी झुकी हुई है ॥२९॥ हे देव ! देवासुरमहासंग्राममें दैत्य-सेनाके बड़े-बड़े योद्धागण भी मेरा तेज नहीं सह सके थे और मैं आपका तेज सहन नहीं कर सकता ॥३०॥ संसारमें पतित जीवोंके एकमात्र आप ही परम आश्रय हैं । हे शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले ! आप प्रसन्न होइये और मेरे अमंगलोंको नष्ट कीजिये ॥३१॥
आप ही समुद्र हैं, आप ही पर्वत हैं, आप ही नदियाँ हैं और आप ही वन हैं तथा आप ही पृथिवी, आकाश, वायु, जल, अग्नि और मन हैं ॥३२॥ आप ही बुद्धि, अव्याकृत, प्राण और प्राणोंका अधिष्ठाता पुरुष हैं; तथा पुरुषसे भी परे जो व्यापक और जन्म तथा विकारसे शून्य तत्त्व है वह भी आप ही हैं ॥३३॥ जो शब्दादिसे रहित, अजर, अमेय, अक्षय और नाश तथा वृद्धिसे रहित है, वह आद्यन्तहीन ब्रह्म भी आप ही हैं ॥३४॥
आपहीसे देवता, पितृगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध और अप्सरागण उत्पन्न हुए हैं । आपहीसे मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप और मृग आदि हुए हैं तथा आपहीसे सम्पूर्ण वृक्ष और जो कुछ भी भूत-भविष्यत् चराचर जगत् है वह सब हुआ है ॥३५-३६॥ हे प्रभो ! मूर्तअमूर्त, स्थूल-सूक्ष्म तथा और भी जो कुछ है वह सब आप जगत्कर्ता ही हैं,आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥३७॥
हे भगवन् ! तापत्रयसे अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार-चक्रमें भ्रमण करते हुए मुझे कभी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ॥३८॥ हे नाथ ! जलकी आशासे मृगतृष्णाके समान मैंने दु:खोंको ही सुख समझकर ग्रहण किया था; परन्तु वे मेरे सन्तापके ही कारण हुए ॥३९॥ हे प्रभो ! राज्य, पृथिवी, सेना, कोश, मित्रपक्ष, पुत्रगण, स्त्री तथा सेवक आदि और शब्दादि विषय इन सबको मैंने अविनाशी तथा सुख-बुद्धिसे ही अपनाया था; किन्तु हे ईश ! परिणाममें वे ही दुःखरूप सिद्ध हुए ॥४०-४१॥ हे नाथ ! जब देवलोक प्राप्त करके भी देवताओंको मेरी सहायताकी इच्छा हुई तो उसमें भी नित्य-शान्ति कहाँ है? ॥४२॥ हे परमेश्वर ! सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिके आदि-स्थान आपकी आराधना किये बिना कौन शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है? ॥४३॥ हे प्रभो ! आपकी मायासे मूढ हुए पुरुष जन्म, मृत्यु और जरा आदि सन्तापोंको भोगते हुए अन्तमें यमराजका दर्शन करते हैं ॥४४॥
आपके स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष नरकोंमें पड़कर अपने कर्मोंके फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण क्लेश पाते हैं ॥४५॥ हे परमेश्वर ! मैं अत्यन्त विषयी हूँ और आपकी मायासे मोहित होकर ममत्वाभिमानके गड़ेमें भटकता रहा हूँ ॥४६॥ वही मैं आज अपार और अप्रमेय परमपदरूप आप परमेश्वरकी शरणमें आया हूँ जिससे भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है और संसारभ्रमणके खेदसे खिन्न-चित्त होकर मैं निरतिशय तेजोमय निर्वाणस्वरूप आपका ही अभिलाषी हूँ” ॥४७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः
अध्याय-24 मुचुकुन्द का तपस्या के लिए प्रस्थान और बलराम जी की व्रजयात्रा
श्रीपराशरजी बोले- परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वभूतोंके ईश्वर अनादिनिधन भगवान् हरि बोले ॥१॥
श्रीभगवानने कहा-हे नरेश्वर ! तुम अपने अभिमत दिव्य लोकोंको जाओ; मेरी कृपासे तुम्हें अव्याहत परम ऐश्वर्य प्राप्त होगा ॥२॥ वहाँ अत्यन्त दिव्य भोगोंको भोगकर तुम अन्तमें एक महान् कुलमें जन्म लोगे, उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहेगा और फिर मेरी कृपासे तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे ॥३॥
श्रीपराशरजी बोले-भगवानके इस प्रकार कहनेपर राजा मुचुकुन्दने जगदीश्वर श्रीअच्युतको प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा कि लोग बहुत छोटे छोटे हो गये हैं ॥४॥ उस समय कलियुगको वर्तमान समझकर राजा तपस्या करनेके लिये श्रीनरनारायणके स्थान गन्धमादनपर्वतपर चले गये ॥५॥ इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपायपूर्वक शत्रुको नष्टकर फिर मथुरामें आ उसकी हाथी, घोड़े और रथादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारकामें लाकर राजा उग्रसेनको अर्पण कर दिया । तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे नि:शंक हो गया ॥६-७॥
हे मैत्रेय ! इस सम्पूर्ण विग्रहके शान्त हो जानेपर बलदेवजी अपने बान्धवोंके दर्शनकी उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ॥८॥ वहाँ पहुँचकर शत्रुजित् बलभद्रजीने गोप और गोपियोंका पहलेहीकी भाँति अति आदर और प्रेमके साथ अभिवादन किया ॥९॥ किसीने उनका आलिंगन किया और किसीको उन्होंने गले लगाया तथा किन्हीं गोप और गोपियोंके साथ उन्होंने हास-परिहास किया ॥१०॥ गोपोंने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा गोपियोंमेंसे कोई प्रणयकुपित होकर बोलीं और किन्हींने उपालम्भयुक्त बातें की ॥११॥
किन्हीं अन्य गोपियोंने पूछा-चंचल एवं अल्प प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियोंके प्राणाधार कृष्ण तो आनन्दमें हैं न? ॥१२॥ वे क्षणिक स्नेहवाले नन्दनन्दन हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हए क्या नगरकी महिलाओंके सौभाग्यका मान नहीं बढ़ाया करते ? ॥१३॥ क्या कृष्णचन्द्र कभी हमारे गीतानुयायी माहर स्वरका स्मरण करते हैं ? क्या वे एक बार अपनी माताको भी देखनके लिये यहाँ आवेंगे? ॥१४॥ अथवा अब उनकी बात करनेसे हमें क्या प्रयोजन है, कोई और बात करो । जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तो हम भी उनके बिना निभा ही लेंगी ॥१५॥ क्या माता, क्या पिता, क्या बन्धु, क्या पति और क्या कुटुम्बके लोग ? हमने उनके लिये सभीको छोड़ दिया, किन्तु वे तो अकृतज्ञोंकी ध्वजा ही निकले ॥१६॥ तथापि बलरामजी ! सच-सच बतलाइये क्या कृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी कोई बातचीत करते हैं ? ॥१७॥ हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दामोदर कृष्णका चित्त नागरी-नारियोंमें फँस गया है; हममें अब उनकी प्रीति नहीं है, अतः अब हमें तो उनका दर्शन दुर्लभ ही जान पड़ता है ॥१८॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर श्रीहरिने जिनका चित्त हर लिया है, वे गोपियाँ बलरामजीको कृष्ण और दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगीं और फिर उच्चस्वरसे हँसने लगीं ॥१९॥तब बलभद्रजीने कष्णचन्द्रका अति मनोहर और शान्तिमय, प्रेमगर्भित और गर्वहीन सन्देश सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी ॥२०॥ तथा गोपोंके साथ हास्य करते हुए उन्होंने पहलेकी भाँति बहुत-सी मनोहर बातें कीं और उनके साथ व्रजभूमिमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते रहे ॥२१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे चतुर्विशोऽध्यायः
अध्याय-25 बलभद्र जी का व्रज-विहार तथा यमुनाकर्षण
श्रीपराशरजी बोले-अपने कार्योंसे पृथिवीको विचलित करनेवाले, बड़े विकट कार्य करनेवाले, धरणीधर शेषजीके अवतार माया-मानवरूप महात्मा बलरामजीको गोपोंके साथ वनमें विचरते देख उनके उपभोगके लिये वरुणने वारुणी-से कहा-॥१-२॥ “हे मदिरे! जिन महाबलशाली अनन्तदेवको तुम सर्वदा प्रिय हो; हे शुभे! तुम उनके उपभोग और प्रसन्नताके लिये जाओ” ॥३॥ वरुणकी ऐसी आज्ञा होनेपर वारुणी वृन्दावनमें उत्पन्न हुए कदम्ब-वृक्षके कोटरमें रहने लगी ॥४॥
तब मनोहर मुखवाले बलदेवजीको वनमें विचरते हुए मदिराकी अति उत्तम गन्ध सूंघनेसे उसे पीनेकी इच्छा हुई ॥५॥ हे मैत्रेय! उसी समय कदम्बसे मद्यकी धारा गिरती देख हलधारी बलरामजी बड़े प्रसन्न हुए ॥६॥ तथा गाने-बजानेमें कुशल गोप और गोपियोंके मधुर स्वरसे गाते हुए उन्होंने उनके साथ प्रसन्नतापूर्वक मद्यपान किया ॥७॥
तदनन्तर अत्यन्त घामके कारण स्वेद-बिन्दुरूप मोतियोंसे सुशोभित मदोन्मत्त बलरामजीने विह्वल होकर कहा-“यमुने! आ, मैं स्नान करना चाहता हूँ” ॥८॥ उनके वाक्यको उन्मत्तका प्रलाप समझकर यमुनाने उसपर कुछ भी ध्यान न दिया और वह वहाँ न आयी । इसपर हलधरने क्रोधित होकर अपना हल उठाया ॥९॥ और मदसे विह्वल होकर यमुनाको हलकी नोकसे पकड़कर खींचते हुए कहा-“अरी पापिनि ! तू नहीं आती थी ! अच्छा अब इच्छानुसार अन्यत्र जा तो सही ॥१०॥” इस प्रकार बलरामजीके खींचनेपर यमुनाने अकस्मात् अपना मार्ग छोड़ दिया और जिस वनमें बलरामजी खड़े थे उसे आप्लावित कर दिया ॥११॥
तब वह शरीर धारणकर बलरामजीके पास आयी और भयवश डबडबाती आँखोंसे कहने लगी- “हे मुसलायुध ! आप प्रसन्न होइये और मुझे छोड़ दीजिये” ॥१२॥ उसके उन मधुर वचनोंको सुनकर हलायुध बलभद्रजीने कहा “अरी नदि ! क्या तू मेरे बल-वीर्यकी अवज्ञा करती है ? देख, इस हलसे मैं अभी तेरे हजारों टुकड़े कर डालूँगा” ॥१३॥
श्रीपराशरजी बोले- बलरामजीद्वारा इस प्रकार कही जानेसे भयभीत हुई यमुनाके उस भू-भागमें बहने लगनेपर उन्होंने प्रसन्न होकर उसे छोड़ दिया ॥१४॥ उस समय स्नान करनेपर महात्मा बलरामजीकी अत्यन्त शोभा हुई । तब लक्ष्मीजीने उन्हें एक सुन्दर कर्णफूल, एक कुण्डल, एक वरुणकी भेजी हुई कभी न कुम्हलानेवाले कमल-पुष्पोंकी माला और दो समुद्रके समान कान्तिवाले नीलवर्ण वस्त्र दिये ॥१५-१६॥ उन कर्णफूल, सुन्दर कुण्डल, नीलाम्बर और पुष्पमालाको धारणकर श्रीबलरामजी अतिशय कान्तियुक्त हो सुशोभित होने लगे ॥१७॥ इस प्रकार विभूषित होकर श्रीबलभद्रजीने व्रजमें अनेकों लीलाएँ की और फिर दो मास पश्चात् द्वारकापुरीको चले आये ॥१८॥ वहाँ आकर बलदेवजीने राजा रैवतकी पुत्री रेवतीसे विवाह किया; उससे उनके निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥१९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे पञ्चर्विशोऽध्यायः
अध्याय-26 रुकमणि का हरण
श्रीपराशरजी बोले- विदर्भदेशान्तर्गत कुण्डिनपुर नामक नगरमें भीष्मक नामक एक राजा थे। उनके रुक्मी नामक पुत्र और रुक्मिणी नामकी एक सुमुखी कन्या थी ॥१॥ श्रीकृष्णने रुक्मिणीकी और चारुहासिनी रुक्मिणीने श्रीकृष्णचन्द्रकी अभिलाषा की, किंतु भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके प्रार्थना करनेपर भी उनसे द्वेष करनेके कारण रुक्मीने उन्हें रुक्मिणी न दी ॥२॥ महापराक्रमी भीष्मकने जरासन्धकी प्रेरणासे रुक्मीसे सहमत होकर शिशुपालको रुक्मिणी देनेका निश्चय किया ॥३॥ तब शिशुपालके हितैषी जरासन्ध आदि सम्पूर्ण राजागण विवाहमें सम्मिलित होनेके लिये भीष्मकके नगरमें गये ॥४॥ इधर बलभद्र आदि यदुवंशियोंके सहित श्रीकृष्णचन्द्र भी चेदिराजका विवाहोत्सव देखनेके लिये कुण्डिनपुर आये ॥५॥
तदनन्तर विवाहका एक दिन रहनेपर अपने विपक्षियोंका भार बलभद्र आदि बन्धुओंको सौंपकर श्रीहरिने उस कन्याका हरण कर लिया ॥६॥ तब श्रीमान् पौण्ड्रक, दन्तवक्त्र, विदूरथ, शिशुपाल, जरासन्ध और शाल्व आदि राजाओंने क्रोधित होकर श्रीहरिको मारनेका महान् उद्योग किया, किन्तु वे सब बलराम आदि यदुश्रेष्ठोंसे मुठभेड़ होनेपर पराजित हो गये ॥७-८॥ तब रुक्मीने यह प्रतिज्ञाकर कि ‘मैं युद्ध में कृष्णको मारे बिना कुण्डिनपुरमें प्रवेश न करूँगा’ कृष्णको मारनेके लिये उनका पीछा किया ॥९॥ किन्तु श्रीकृष्णने लीलासे ही हाथी, घोड़े, रथ और पदातियोंसे युक्त उसकी सेनाको नष्ट करके उसे जीत लिया और पृथिवीमें गिरा दिया ॥१०॥
इस प्रकार रुक्मीको युद्ध में परास्तकर श्रीमधुसूदनने राक्षसविवाहसे मिली हुई रुक्मिणीका सम्यक् रीतिसे पाणिग्रहण किया ॥११॥ उससे उनके कामदेवके अंशसे उत्पन्न हुए वीर्यवान् प्रद्युम्नजीका जन्म हुआ, जिन्हें शम्बरासुर हर ले गया था और फिर जिन्होंने शम्बरासुरका वध किया था ॥१२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे षडर्विशोऽध्यायः
अध्याय-27 प्रधुम्न का हरण और शम्बर का वध
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे मुने ! वीरवर प्रद्युम्नको शम्बरासुरने कैसे हरण किया था ? और फिर उस महाबली शम्बरको प्रद्युम्नने कैसे मारा ? ॥१॥ जिसको पहले उसने हरण किया था उसीने पीछे उसे किस प्रकार मार डाला ? हे गुरो ! मैं यह सम्पूर्ण प्रसंग विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मुने ! कालके समान विकराल शम्बरासुरने प्रद्युम्नको, जन्म लेनेके छठे ही दिन ‘यह मेरा मारनेवाला है’ ऐसा जानकर सूतिकागृहसे हर लिया ॥३॥ उसको हरण करके शम्बरासुरने लवणसमुद्रमें डाल दिया, जो तरंगमालाजनित आवर्तोंसे पूर्ण और बड़े भयानक मकरोंका घर है ॥४॥ वहाँ फेंके हुए उस बालकको एक मत्स्यने निगल लिया, किन्तु वह उसकी जठराग्निसे जलकर भी न मरा ॥५॥
कालान्तरमें कुछ मछेरोंने उसे अन्य मछलियोंके साथ अपने जालमें फँसाया और असुरश्रेष्ठ शम्बरको निवेदन किया ॥६॥ उसकी नाममात्रकी पत्नी मायावती सम्पूर्ण अन्तःपुरकी स्वामिनी थी और वह सुलक्षणा सम्पूर्ण सूदों (रसोइयों)-का आधिपत्य करती थी ॥७॥ उस मछलीका पेट चीरते ही उसमें एक अति सुन्दर बालक दिखायी दिया जो दग्ध हुए कामवृक्षका प्रथम अंकुर था ॥८॥ ‘तब यह कौन है और किस प्रकार इस मछलीके पेटमें डाला गया’ इस प्रकार अत्यन्त आश्चर्यचकित हुई उस सुन्दरीसे देवर्षि नारदने आकर कहा- ॥९॥ “हे सुन्दर भृकुटिवाली ! यह सम्पूर्ण जगत्के स्थिति और संहारकर्ता भगवान् विष्णुका पुत्र है; इसे शम्बरासुरने सूतिकागृहसे चुराकर समुद्रमें फेंक दिया था । वहाँ इसे यह मत्स्य निगल गया और अब इसीके द्वारा यह तेरे घर आ गया है । तू इस नररत्नका विश्वस्त होकर पालन कर” ॥१०-११॥
श्रीपराशरजी बोले- नारदजीके ऐसा कहनेपर मायावतीने उस बालककी अतिशय सुन्दरतासे मोहित हो बाल्यावस्थासे ही उसका अति अनुरागपूर्वक पालन किया॥१२॥ हे महामते ! जिस समय वह नवयौवनके समागमसे सुशोभित हुआ तब वह गजगामिनी उसके प्रति कामनायुक्त अनुराग प्रकट करने लगी ॥१३॥
हे महामुने ! जो अपना हृदय और नेत्र प्रद्युम्नमें अर्पित कर चुकी थी उस मायावतीने अनुरागसे अन्धी होकर उसे सब प्रकारकी माया सिखा दी ॥१४॥ इस प्रकार अपने ऊपर आसक्त हुई उस कमललोचनासे कृष्णनन्दन प्रद्युम्नने कहा-“आज तुम मातृभावको छोड़कर यह अन्य प्रकारका भाव क्यों प्रकट करती हो ?” ॥१५॥ तब मायावतीने कहा- “तुम मेरे पुत्र नहीं हो, तुम भगवान् विष्णुके तनय हो । तुम्हें कालशम्बरने हरकर समुद्रमें फेंक दिया था; तुम मुझे एक मत्स्यके उदरमें मिले हो । हे कान्त ! आपकी पुत्रवत्सला जननी आज भी रोती होगी” ॥१६-१७॥
श्रीपराशरजी बोले- मायावतीके इस प्रकार कहनेपर महाबलवान् प्रद्युम्नजीने क्रोधसे विह्वल हो शम्बरासुरको युद्धके लिये ललकारा और उससे युद्ध करने लगे ॥१८॥ यादव श्रेष्ठ प्रद्युम्नजीने उस दैत्यकी सम्पूर्ण सेना मार डाली और उसकी सात मायाओंको जीतकर स्वयं आठवीं मायाका प्रयोग किया ॥१९॥ उस मायासे उन्होंने दैत्यराज कालशम्बरको मार डाला और मायावतीके साथ उड़कर आकाशमार्गसे अपने पिताके नगरमें आ गये ॥२०॥
मायावतीके सहित अन्तःपुरमें उतरनेपर श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंने उन्हें देखकर कृष्ण ही समझा ॥२१॥ किन्तु अनिन्दिता रुक्मिणीके नेत्रोंमें प्रेमवश आँसू भर आये और वे कहने लगीं-“अवश्य ही यह नवयौवनको प्राप्त हुआ किसी बडभागिनीका पुत्र है ॥२२॥ यदि मेरा पुत्र प्रद्युम्न जीवित होगा तो उसकी भी यही आयु होगी । हे वत्स ! तू ठीक-ठीक बता तूने किस भाग्यवती जननीको विभूषित किया है ? ॥२३॥ अथवा, बेटा ! जैसा मुझे तेरे प्रति स्नेह हो रहा है और जैसा तेरा स्वरूप है, उससे मुझे ऐसा भी प्रतीत होता है कि तू श्रीहरिका ही पुत्र है” ॥२४॥
श्रीपराशरजी बोले- इसी समय श्रीकृष्णचन्द्रके साथ वहाँ नारदजी आ गये । उन्होंने अन्त:पुरनिवासिनी देवी रुक्मिणीको आनन्दित करते हुए कहा- ॥२५॥ “हे सुभ्र ! यह तेरा ही पुत्र है । यह शम्बरासुरको मारकर आ रहा है, जिसने कि इसे बाल्यावस्थामें सूतिकागृहसे हर लिया था ॥२६॥ यह सती मायावती भी तेरे पुत्रकी ही स्त्री है; यह शम्बरासुरकी पत्नी नहीं है । इसका कारण सुन ॥२७॥ पूर्वकालमें कामदेवके भस्म हो जानेपर उसके पुनर्जन्मकी प्रतीक्षा करती हुई इसने अपने मायामयरूपसे शम्बरासुरको मोहित किया था ॥२८॥
यह मत्तविलोचना उस दैत्यको विहारादि उपभोगोंके समय अपने अति सुन्दर मायामय रूप दिखलाती रहती थी ॥२९॥ कामदेवने ही तेरे पुत्ररूपसे जन्म लिया है और यह सुन्दरी उसकी प्रिया रति ही है । हे शोभने ! यह तेरी पुत्रवधू है, इसमें तू किसी प्रकारकी विपरीत शंका न कर” ॥३०॥
यह सुनकर रुक्मिणी और कृष्णको अतिशय आनन्द हुआ तथा समस्त द्वारकापुरी भी ‘साधु-साधु’ कहने लगी ॥३१॥ उस समय चिरकालसे खोये हुए – पुत्रके साथ रुक्मिणीका समागम हुआ देख द्वारकापुरीके – सभी नागरिकोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥३२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे सप्तर्विशोऽध्यायः
अध्याय-28 रुक्मी का वध
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! रुक्मिणीके चारुदेष्ण, सुदेष्ण, वीर्यवान्, चारुदेह, सुषेण, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुविन्द, सुचारु और बलवानोंमें श्रेष्ठ चारु नामक पुत्र तथा चारुमती नामकी एक कन्या हुई ॥१-२॥ रुक्मिणीके अतिरिक्त श्रीकृष्णचन्द्रके कालिन्दी, मित्रविन्दा, नग्नजित्की पुत्री सत्या, जाम्बवान्की पुत्री कामरूपिणी रोहिणी, अतिशीलवती मद्रराजसुता सुशीला भद्रा, सत्राजित्की पुत्री सत्यभामा और चारुहासिनी लक्ष्मणा-ये अति सुन्दरी सात स्त्रियाँ और थीं, इनके सिवा उनके सोलह हजार स्त्रियाँ और भी थीं ॥३-५॥ महावीर प्रद्युम्नने रुक्मीकी सुन्दरी कन्याको और उस कन्याने भी भगवानके पुत्र प्रद्युम्नजीको स्वयंवरमें ग्रहण किया ॥६॥ उससे प्रद्युम्नजीके अनिरुद्ध नामक एक महाबलपराक्रमसम्पन्न पुत्र हुआ जो युद्धमें रुद्ध न होनेवाला, बलका समुद्र तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला था ॥७॥ कृष्णचन्द्रने उसके लिये भी रुक्मीकी पौत्रीका वरण किया और रुक्मीने कृष्णचन्द्रसे ईर्ष्या रखते हुए भी अपने दौहित्रको अपनी पौत्री देना स्वीकार कर लिया ॥८॥
हे द्विज ! उसके विवाहमें सम्मिलित होनेके लिये कृष्णचन्द्रके साथ बलभद्र आदि अन्य यादवगण भी रुक्मीकी राजधानी भोजकट नामक नगरको गये ॥९॥ जब प्रद्युम्नपुत्र महात्मा अनिरुद्धका विवाह-संस्कार हो चुका तो कलिंगराज आदि राजाओंने रुक्मीसे कहा- ॥१०॥ “ये बलभद्र द्यूतक्रीडा जानते तो हैं नहीं तथापि इन्हें उसका व्यसन बहुत है; तो फिर हम इन महाबली रामको जुएसे ही क्यों न जीत लें ?” ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले- तब बलके मदसे उन्मत्त रुक्मीने उन राजाओंसे कहा-‘बहुत अच्छा’ और सभामें बलरामजीके साथ द्यूतक्रीडा आरम्भ कर दी ॥१२॥ रुक्मीने पहले ही दाँवमें बलरामजीसे एक सहस्र निष्क जीते तथा दूसरे दाँवमें एक सहस्र निष्क और जीत लिये ॥१३॥
तब बलभद्रजीने दस हजार निष्कका एक दाँव और लगाया । उसे भी पक्के जुआरी रुक्मीने ही जीत लिया ॥१४॥ हे द्विज ! इसपर मूढ कलिंगराज दाँत दिखाता हुआ जोरसे हँसने लगा और मदोन्मत्त रुक्मीने कहा- ॥१५॥ “द्यूतक्रीडासे अनभिज्ञ इन बलभद्रजीको मैंने हरा दिया है; ये वृथा ही अक्षके घमण्डसे अन्धे होकर अक्षकुशल पुरुषोंका अपमान करते थे” ॥१६॥
इस प्रकार कलिंगराजको दाँत दिखाते और रुक्मीको दुर्वाक्य कहते देख हलायुध बलभद्रजी अत्यन्त क्रोधित हुए ॥१७॥ तब उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर करोड़ निष्कका दाँव लगाया और रुक्मीने भी उसे ग्रहणकर उसके निमित्त पाँसे फेंके ॥१८॥ उसे बलदेवजीने ही जीता और वे जोरसे बोल उठे, ‘मैंने जीता ।’ इसपर रुक्मी भी चिल्लाकर बोला-‘बलराम ! असत्य बोलनेसे कुछ लाभ नहीं हो सकता, यह दाँव भी मैंने ही जीता है ॥१९॥ आपने इस दाँवके विषयमें जिक्र अवश्य किया था, किंतु मैंने उसका अनुमोदन तो नहीं किया । इस प्रकार यदि आपने इसे जीता है तो मैंने भी क्यों नहीं जीता ?” ॥२०॥
श्रीपराशरजी बोले- उसी समय महात्मा बलदेवजीके क्रोधको बढ़ाती हुई आकाशवाणीने गम्भीर स्वरमें कहा- ॥२१॥ “इस दाँवको धर्मानुसार तो बलरामजी ही जीते हैं; रुक्मी झुठ बोलता है क्योंकि वचन न कहनेपर भी कार्यसे वह अनुमोदित ही माना जायगा” ॥२२॥
तब क्रोधसे अरुणनयन हए महाबली बलभद्रजीने उठकर रुक्मीको जुआ खेलनेके पाँसोंसे ही मार डाला ॥२३॥ फिर फड़कते हुए कलिंगराजको बलपूर्वक पकड़कर बलरामजीने उसके दाँत, जिन्हें दिखलाता हुआ वह हँसा था, तोड़ दिये ॥२४॥ इनके सिवा उसके पक्षके और भी जो कोई राजालोग थे, उन्हें बलरामजीने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णमय स्तम्भ उखाड़कर उससे मार डाला ॥२५॥ हे द्विज ! उस समय बलरामजीके कुपित होनेसे हाहाकार मच गया और सम्पूर्ण राजालोग भयभीत होकर भागने लगे ॥२६॥
हे मैत्रेय ! उस समय रुक्मीको मारा गया देख श्रीमधुसूदनने एक ओर रुक्मिणीके और दूसरी ओर बलरामजीके भयसे कुछ भी नहीं कहा ॥२७॥ तदनन्तर, हे द्विजश्रेष्ठ ! यादवोंके सहित श्रीकृष्णचन्द्र सपत्नीक अनिरुद्धको लेकर द्वारकापुरीमें चले आये ॥२८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे अष्टार्विशोऽध्यायः
अध्याय-29 नरकासुर का वध
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! एक बार जब श्रीभगवान् द्वारकामें ही थे त्रिभुवनपति इन्द्र अपने मत्त गजराज ऐरावतपर चढ़कर उनके पास आये ॥१॥ द्वारकामें आकर वे भगवानसे मिले और उनसे नरकासुरके अत्याचारोंका वर्णन किया ॥२॥ “हे मधुसूदन ! इस समय मनुष्यरूपमें स्थित होकर भी आप सम्पूर्ण देवताओंके स्वामीने हमारे समस्त दुःखोंको शान्त कर दिया है ॥३॥ जो अरिष्ट, धेनुक और केशी आदि असुर सर्वदा तपस्वियोंको क्लेशित करते रहते थे उन सबको आपने मार डाला ॥४॥ कंस, कुवलयापीड और बालघातिनी पूतना तथा और भी जो-जो संसारके उपद्रवरूप थे उन सबको आपने नष्ट कर दिया ॥५॥ आपके बाहुदण्डकी सत्तासे त्रिलोकीके सुरक्षित हो जानेके कारण याजकोंके दिये हुए यज्ञभागोंको प्राप्तकर देवगण तृप्त हो रहे हैं ॥६॥ हे जनार्दन ! इस समय जिस निमित्तसे मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ, उसे सुनकर आप उसके प्रतीकारका प्रयत्न करें ॥७॥
हे शत्रुदमन ! यह पृथिवीका पुत्र नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुरका स्वामी है; इस समय यह सम्पूर्ण जीवोंका घात कर रहा है ॥८॥ हे जनार्दन ! उसने देवता, सिद्ध, असुर और राजा आदिकोंकी कन्याओंको बलात् लाकर अपने अन्तःपुरमें बन्द कर रखा है ॥९॥ इस दैत्यने वरुणका जल बरसानेवाला छत्र और मन्दराचलका मणिपर्वत नामक शिखर भी हर लिया है ॥१०॥
हे कृष्ण ! उसने मेरी माता अदितिके अमृतस्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं और अब इस ऐरावत हाथीको भी लेना चाहता है ॥११॥ हे गोविन्द ! मैंने आपको उसकी ये सब अनीतियाँ सुना दी हैं; इनका जो प्रतीकार होना चाहिये, वह आप स्वयं विचार लें” ॥१२॥
श्रीपराशरजी बोले- इन्द्रके ये वचन सुनकर श्रीदेवकीनन्दन मुसकाये और इन्द्रका हाथ पकड़कर अपने श्रेष्ठ आसनसे उठे ॥१३॥ फिर स्मरण करते ही उपस्थित हए आकाशगामी गरुडपर सत्यभामाको चढ़ाकर स्वयं चढ़े और प्राग्ज्योतिषपुरको चले ॥१४॥ तदनन्तर इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर देवलोकको गये तथा भगवान् कृष्णचन्द्र सब द्वारकावासियोंके देखतेदेखते चले गये ॥१५॥
हे द्विजोत्तम ! प्राग्ज्योतिषपुरके चारों ओर पृथिवी सौ योजनतक मुर दैत्यके बनाये हुए छुरेकी धाराके समान अति तीक्ष्ण पाशोंसे घिरी हुई थी ॥१६॥ भगवानने उन पाशोंको सुदर्शनचक्र फेंककर काट डाला; फिर मुर दैत्य भी सामना करनेके लिये उठा तब श्रीकेशवने उसे भी मार डाला ॥१७॥ तदनन्तर श्रीहरिने मुरके सात हजार पुत्रोंको भी अपने चक्रकी धाररूप अग्निमें पतंगके समान भस्म कर दिया ॥१८॥ हे द्विज ! इस प्रकार मतिमान् भगवानने मुर, हयग्रीव एवं पंचजन आदि दैत्योंको मारकर बड़ी शीघ्रतासे प्राग्ज्योतिषपुरमें प्रवेश किया ॥१९॥ वहाँ पहुँचकर भगवानका अधिक सेनावाले नरकासुरसे युद्ध हुआ, जिसमें श्रीगोविन्दने उसके सहस्रों दैत्योंको मार डाला ॥२०॥ दैत्यदलका दलन करनेवाले महाबलवान् भगवान् चक्रपाणिने शस्त्रास्त्रकी वर्षा करते हुए भूमिपुत्र नरकासुरके सुदर्शनचक्र फेंककर दो टुकड़े कर दिये ॥२१॥ नरकासुरके मरते ही पृथिवी अदितिके कुण्डल लेकर उपस्थित हुई और श्रीजगन्नाथसे कहने लगी ॥२२॥
पृथिवी बोली- हे नाथ ! जिस समय वराहरूप धारणकर आपने मेरा उद्धार किया था, उसी समय आपके स्पर्शसे मेरे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था ।।२३॥ इस प्रकार आपहीने मुझे यह पुत्र दिया था और अब आपहीने इसको नष्ट किया है; आप ये कुण्डल लीजिये और अब इसकी सन्तानकी रक्षा कीजिये ॥२४॥ हे प्रभो ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर ही आप मेरा भार उतारनेके लिये अपने अंशसे इस लोकमें अवतीर्ण हुए हैं ॥२५॥ हे अच्युत ! इस जगत्के आप ही कर्ता, आप ही विकर्ता और आप ही हर्ता हैं; आप ही इसकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा आप ही जगत्रूप हैं । फिर हम आपकी स्तुति किस प्रकार करें ? ॥२६॥ हे भगवन् ! जब कि व्याप्ति, व्याप्य, क्रिया, कर्ता और कार्यरूप आप ही हैं, तब सबके आत्मस्वरूप आपकी किस प्रकार स्तुति की जा सकती है ? ॥ २७॥ हे नाथ ! जब आप ही परमात्मा, आप ही भूतात्मा और आप ही अव्यय जीवात्मा हैं, तब किस वस्तुको लेकर आपकी स्तुति हो सकती है ? ॥२८॥ हे सर्वभूतात्मन् ! आप प्रसन्न होइये और इस नरकासुरके सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिये । निश्चय ही आपने अपने पुत्रको निर्दोष करनेके लिये ही स्वयं मारा है ॥२९॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर भगवान् भूतभावनने पृथिवीसे कहा-“तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो” और फिर नरकासुरके महलसे नाना प्रकारके रत्न लिये ॥३०॥ हे महामुने ! अतुलविक्रम श्रीभगवानने नरकासुरके कन्यान्त:पुरमें जाकर सोलह हजार एक सौ कन्याएँ देखीं ॥३१॥ तथा चार दाँतवाले छ: हजार गजश्रेष्ठ और इक्कीस लाख काम्बोजदेशीय अश्व देखे ॥३२॥ उन कन्याओं, हाथियों और घोड़ोंको श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा तुरन्त ही द्वारकापुरी पहुँचवा दिया ॥३३॥
तदनन्तर भगवानने वरुणका छत्र और मणिपर्वत देखा, उन्हें उठाकर उन्होंने पक्षिराज गरुडपर रख लिया॥३४॥ और सत्यभामाके सहित स्वयं भी उसीपर चढ़कर अदितिके कुण्डल देनेके लिये स्वर्गलोकको गये ॥३५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे एकोनत्रिंशोऽध्यायः
अध्याय-30 पारिजात का हरण
श्रीपराशरजी बोले- पक्षिराज गरुड उस वारुणछत्र, मणिपर्वत और सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रको लीलासे-ही लेकर चलने लगे ॥१॥ स्वर्गके द्वारपर पहुँचते ही श्रीहरिने अपना शंख बजाया । उसका शब्द सुनते ही देवगण अर्घ्य लेकर भगवानके सामने उपस्थित हुए ॥२॥ देवताओंसे पूजित होकर श्रीकृष्णचन्द्रजीने देवमाता अदितिके श्वेत मेघशिखरके समान गृहमें जाकर उनका दर्शन किया ॥३॥ तब श्रीजनार्दनने इन्द्रके साथ देवमाताको प्रणामकर उसके अत्युत्तम कुण्डल दिये और उसे नरकवधका वृत्तान्त सुनाया ॥४॥ तदनन्तर जगन्माता अदितिने प्रसन्नतापूर्वक तन्मय होकर जगद्धाता श्रीहरिकी अव्यग्रभावसे स्तुति की ॥५॥
अदिति बोली- हे कमलनयन ! हे भक्तोंको अभय करनेवाले ! हे सनातनस्वरूप ! हे सर्वात्मन् ! हे भूतस्वरूप ! हे भूतभावन ! आपको नमस्कार है ॥६॥ हे मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके रचयिता ! हे गुणस्वरूप ! हे त्रिगुणातीत ! हे निर्द्वन्द्व ! हे शुद्धसत्त्व ! हे अन्तर्यामिन् ! आपको नमस्कार है ॥७॥ हे नाथ ! आप श्वेत, दीर्घ आदि सम्पूर्ण कल्पनाओंसे रहित हैं, जन्मादि विकारोंसे पृथक् हैं तथा स्वप्नादि अवस्थात्रयसे परे हैं; आपको नमस्कार है ॥८॥ हे अच्युत ! सन्ध्या, रात्रि, दिन, भूमि, आकाश, वायु, जल, अग्नि, मन, बुद्धि और अहंकार-ये सब आप ही हैं ॥९॥
हे ईश्वर ! आप ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक अपनी मूर्तियोंसे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और नाशके कर्ता हैं तथा आप कर्ताओंके भी स्वामी हैं ॥१०॥ देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, सिद्ध, पन्नग (नाग), कूष्माण्ड, पिशाच, गन्धर्व, मनुष्य, पशु, मृग, पतंग, सरीसृप (साँप), अनेकों वृक्ष, गुल्म और लताएँ, समस्त तृणजातियाँ तथा स्थूल मध्यम सूक्ष्म और सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म जितने देह-भेद पुर्गल (परमाणु)के आश्रित हैं वे सब आप ही हैं ॥११-१३॥
हे प्रभो ! आपकी माया ही परमार्थतत्त्वके न जाननेवाले पुरुषोंको मोहित करनेवाली है, जिससे मूढ पुरुष अनात्मामें आत्मबुद्धि करके बन्धनमें पड़ जाते हैं ॥१४॥
हे नाथ ! पुरुषको जो अनात्मामें आत्मबुद्धि और ‘मैं-मेरा’ आदि भाव प्राय: उत्पन्न होते हैं वह सब आपकी जगज्जननी मायाका ही विलास है ॥१५॥ हे नाथ ! जो स्वधर्मपरायण पुरुष आपकी आराधना करते हैं, वे अपने मोक्षके लिये इस सम्पूर्ण मायाको पार कर जाते हैं ॥१६॥ ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवगण तथा मनुष्य और पशु आदि सभी विष्णुमायारूप महान् आवर्तमें पड़कर मोहरूप अन्धकारसे आवृत हैं ॥१७॥ हे भगवन् ! [जन्म और मरणके चक्रमें पड़े हुए] ये पुरुष जीवके भव-बन्धनको नष्ट करनेवाले आपकी आराधना करके भी जो नाना प्रकारकी कामनाएँ ही माँगते हैं, यह आपकी माया ही है ॥१८॥ मैंने भी पुत्रोंकी जयकामनासे शत्रुपक्षको पराजित करनेके लिये ही आपकी आराधना की है, मोक्षके लिये नहीं । यह भी आपकी मायाका ही विलास है ॥१९॥ पुण्यहीन पुरुषोंको जो कल्पवृक्षसे भी कौपीन और आच्छादन-वस्त्रमात्रकी ही कामना होती है यह उनका कर्म-दोष-जन्य अपराध ही है ॥२०॥
हे अखिलजगन्माया-मोहकारी अव्यय प्रभो ! आप प्रसन्न होइये और हे भूतेश्वर ! ‘मैं ज्ञानवान् हूँ’ मेरे इस अज्ञानको नष्ट कीजिये ॥२१॥ हे चक्रपाणे ! आपको नमस्कार है । हे शाधर ! आपको नमस्कार है; हे गदाधर ! आपको नमस्कार है; हे शंखपाणे ! हे विष्णो ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥२२॥ मैं स्थूल चिह्नोंसे प्रतीत होनेवाले आपके इस रूपको ही देखती हूँ ; आपके वास्तविक परस्वरूपको मैं नहीं जानती; हे परमेश्वर ! आप प्रसन्न होइये ॥२३॥
श्रीपराशरजी बोले- अदितिद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् विष्णु देवमातासे हँसकर बोले । “हे देवि ! तुम तो हमारी माता हो; तुम प्रसन्न होकर हमें वरदायिनी होओ” ॥२४॥
अदिति बोली- हे पुरुषसिंह ! तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो । तुम मर्त्यलोकमें सम्पूर्ण सुरासुरोंसे अजेय होगे ॥२५॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर शक्रपत्नी शचीके सहित कृष्णप्रिया सत्यभामाने अदितिको पुनः पुनः प्रणाम करके कहा-“माता ! आप प्रसन्न होइये” ॥२६॥
अदिति बोली- हे सुन्दर भृकुटिवाली ! मेरी कृपासे तुझे कभी वृद्धावस्था या विरूपता व्याप्त न होगी । हे अनिन्दितांगि ! तेरा नवयौवन सदा स्थिर रहेगा ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर अदितिकी आज्ञासे देवराजने अत्यन्त आदर-सत्कारके साथ श्रीकृष्णचन्द्रका पूजन किया ॥२८॥ किन्तु कल्पवृक्षके पुष्पोंसे अलंकृता इन्द्राणीने सत्यभामाको मानुषी समझकर वे पुष्प न दिये ॥२९॥ हे साधुश्रेष्ठ ! तदनन्तर सत्यभामाके सहित श्रीकृष्णचन्द्रने भी देवताओंके नन्दन आदि मनोहर उद्यानोंको देखा ॥३०॥ वहाँपर केशिनिषूदन जगन्नाथ श्रीकृष्णने सुगन्धपूर्ण मंजरी-पुंजधारी, नित्याह्लादकारी और ताम्रवर्ण बाल पत्तोंसे सुशोभित, अमृत-मन्थनके समय प्रकट हुआ तथा सुनहरी छालवाला पारिजात वृक्ष देखा ॥३१-३२॥
हे द्विजोत्तम ! उस अत्युत्तम वृक्षराजको देखकर परम प्रीतिवश सत्यभामा अति प्रसन्न हुई और श्रीगोविन्दसे बोली- “हे कृष्ण ! इस वृक्षको द्वारकापुरी क्यों नहीं ले चलते ? ॥३३॥ यदि आपका यह वचन कि ‘तुम ही मेरी अत्यन्त प्रिया हो’ सत्य है तो मेरे गृहोद्यानमें लगानेके लिये इस वृक्षको ले चलिये ॥३४॥ हे कृष्ण ! आपने कई बार मुझसे यह प्रिय वाक्य कहा है कि ‘हे सत्ये ! मुझे तू जितनी प्यारी है उतनी न जाम्बवती है और न रुक्मिणी ही’ ॥३५॥ हे गोविन्द ! यदि आपका यह कथन सत्य है केवल मुझे बहलाना ही नहीं है तो यह पारिजातवृक्ष मेरे गृहका भूषण हो ॥३६॥ मेरी ऐसी इच्छा है कि मैं अपने केश कलापोंमें पारिजातपुष्प गूंथकर अपनी अन्य सपत्नियोंमें सुशोभित होऊँ” ॥३७॥
श्रीपराशरजी बोले- सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर श्रीहरिने हँसते हुए उस पारिजातवृक्षको गरुडपर रख लिया; तब नन्दनवनके रक्षकोंने कहा- ॥३८॥ । “हे गोविन्द ! देवराज इन्द्रकी पत्नी जो महारानी शची हैं यह पारिजातवृक्ष उनकी सम्पत्ति है; आप इसका हरण न कीजिये ॥३९॥ क्षीर-समुद्रसे उत्पन्न होनेके अनन्तर यह देवराजको दिया गया था; फिर हे महाभाग ! देवराजने कुतूहलवश इसे अपनी महिषी शचीदेवीको दे दिया है ॥४०॥ समुद्र-मन्थनके समय शचीको विभूषित करनेके लिये ही देवताओंने इसे उत्पन्न किया था; इसे लेकर आप कुशलपूर्वक नहीं जा सकेंगे ॥४१॥
देवराज भी जिसका मुँह देखते रहते हैं, उस शचीकी सम्पत्ति इस पारिजातकी इच्छा आप मूढताहीसे करते हैं; इसे लेकर भला कौन सकुशल जा सकता है ? ॥४२॥ हे कृष्ण ! देवराज इन्द्र इस वृक्षका बदला चुकानेके लिये अवश्य ही वज्र लेकर उद्यत होंगे और फिर देवगण भी अवश्य ही उनका अनुगमन करेंगे ॥४३॥ अतः हे अच्युत ! समस्त देवताओंके साथ रार बढ़ानेसे आपका कोई लाभ नहीं; क्योंकि जिस कर्मका परिणाम कटु होता है, पण्डितजन उसे अच्छा नहीं कहते” ॥४४॥
श्रीपराशरजी बोले- उद्यान-रक्षकोंके इस प्रकार कहनेपर सत्यभामाने अत्यन्त क्रुद्ध होकर कहा- “शची अथवा देवराज इन्द्र ही इस पारिजातके कौन होते हैं ? ॥४५॥ यदि यह अमृत-मन्थनके समय उत्पन्न हुआ है, तो सबकी समान सम्पत्ति है । अकेला इन्द्र ही इसे कैसे ले सकता है ? ॥४६॥ अरे वनरक्षको ! जिस प्रकार मदिरा, चन्द्रमा और लक्ष्मीका सब लोग समानतासे भोग करते हैं, उसी प्रकार पारिजातवृक्ष भी सभीकी सम्पत्ति है ॥४७॥ यदि पतिके बाहुबलसे गर्विता होकर शचीने ही इसपर अपना अधिकार जमा रखा है तो उससे कहना कि सत्यभामा उस वृक्षको हरण कराकर लिये जाती है, तुम्हें क्षमा करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥४८॥ अरे मालियो ! तुम तुरन्त जाकर मेरे ये शब्द शचीसे कहो कि सत्यभामा अत्यन्त गर्वपूर्वक कड़े अक्षरोंमें यह कहती है कि यदि तुम अपने पतिको अत्यन्त प्यारी हो और वे तुम्हारे वशीभूत हैं तो मेरे पतिको पारिजात हरण करनेसे रोकें ॥४९-५०॥ मैं तुम्हारे पति शक्रको जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि वे देवताओंके स्वामी हैं तथापि मैं मानवी ही तुम्हारे इस पारिजातवृक्षको लिये जाती हूँ” ॥५१॥
श्रीपराशरजी बोले- सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर वनरक्षकोंने शचीके पास जाकर उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्योंका-त्यों कह दिया । यह सब सुनकर शचीने अपने पति देवराज इन्द्रको उत्साहित किया ॥५२॥ हे द्विजोत्तम ! तब देवराज इन्द्र पारिजातवृक्षको छुड़ानेके लिये सम्पूर्ण देवसेनाकेसहित श्रीहरिसे लड़नेके लिये चले ॥५३॥ जिस समय इन्द्रने अपने हाथमें वज्र लिया उसी समय सम्पूर्ण देवगण परिघ, निस्त्रिंश, गदा और शूल आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो गये ॥५४॥ तदनन्तर देवसेनासे घिरे हुए ऐरावतारूढ इन्द्रको युद्धके लिये उद्यत देख श्रीगोविन्दने सम्पूर्ण दिशाओंको शब्दायमान करते हुए शंखध्वनि की और हजारों-लाखों तीखे बाण छोड़े ॥५५-५६॥ इस प्रकार सम्पूर्ण दिशाओं और आकाशको सैकड़ों बाणोंसे पूर्ण देख देवताओंने अनेकों अस्त्र-शस्त्र छोड़े ॥५७॥
त्रिलोकीके स्वामी श्रीमधुसूदनने देवताओंके छोड़े हुए प्रत्येक अस्त्र-शस्त्रके लीलासे ही हजारों टुकड़े कर दिये ॥५८॥ सर्पाहारी गरुडने जलाधिपति वरुणके पाशको खींचकर अपनी चोंचसे सर्पके बच्चेके समान उसके कितने ही टुकड़े कर डाले ॥५९॥ श्रीदेवकीनन्दनने यमके फेंके हुए दण्डको अपनी गदासे खण्ड-खण्ड कर पृथिवीपर गिरा दिया ॥६०॥ कुबेरके विमानको भगवानने सुदर्शनचक्रद्वारा तिल-तिल कर डाला और – सुर्यको अपनी तेजोमय दष्टिसे देखकर ही निस्तेज कर दिया ॥६१॥ भगवानने तदनन्तर बाण बरसाकर अग्निको शीतल कर दिया और वसुओंको दिशा-विदिशाओंमें भगा दिया तथा अपने चक्रसे त्रिशूलोंकी नोंक काटकर रुद्रगणको पृथिवीपर गिरा दिया ॥६२॥ भगवानके चलाये हुए बाणोंसे साध्यगण, विश्वेदेवगण, मरुद्गण और गन्धर्वगण सेमलकी रूईके समान आकाशमें ही लीन हो गये ॥६३॥ श्रीभगवान्के साथ गरुडजी भी अपनी चोंच, पंख और पंजोंसे देवताओंको खाते, मारते और फाड़ते फिर रहे थे ॥६४॥
फिर जिस प्रकार दो मेघ जलकी धाराएँ बरसाते हों उसी प्रकार देवराज इन्द्र और श्रीमधुसूदन एकदूसरेपर बाण बरसाने लगे ॥६५॥ उस युद्धमें गरुडजी ऐरावतके साथ और श्रीकृष्णचन्द्र इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके साथ लड़ रहे थे ॥६६॥ सम्पूर्ण बाणोंके चूक जाने और अस्त्र-शस्त्रोंके कट जानेपर इन्द्रने शीघ्रतासे वज्र और कृष्णने सुदर्शनचक्र हाथमें लिया ॥६७॥ हे द्विजश्रेष्ठ! उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकीमें इन्द्र और कृष्णचन्द्रको क्रमश: वज्र और चक्र लिये हुए देखकर हाहाकार मच गया ॥६८॥ श्रीहरिने इन्द्रके छोडे हए वज्रको अपने हाथोंसे पकड़ लिया और स्वयं चक्र न छोड़कर इन्द्रसे कहा-“अरे, ठहर !” ॥६९॥
इस प्रकार वज्र छिन जाने और अपने वाहन ऐरावतके गरुडद्वारा क्षत-विक्षत हो जानेके कारण भागते हुए वीर इन्द्रसे सत्यभामाने कहा- ॥७०॥”हे त्रैलोक्येश्वर ! तुम शचीके पति हो, तुम्हें इस प्रकार युद्धमें पीठ दिखलाना उचित नहीं है । तुम भागो मत, पारिजात-पुष्पोंकी मालासे विभूषिता होकर शची शीघ्र ही तुम्हारे पास आवेगी ॥७१॥
अब प्रेमवश अपने पास आयी हुई शचीको पहलेकी भाँति पारिजात-पुष्पकी मालासे अलंकृत न देखकर तुम्हें देवराजत्वका क्या सुख होगा ? ॥७२॥ हे शक्र ! अब तुम्हें अधिक प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं है, तुम संकोच मत करो; इस पारिजात-वृक्षको ले जाओ । इसे पाकर देवगण सन्तापरहित हों ॥७३॥ अपने पतिके बाहुबलसे अत्यन्त गर्विता शचीने अपने घर जानेपर भी मुझे कुछ अधिक सम्मानकी दृष्टिसे नहीं देखा था ॥७४॥ स्त्री होनेसे मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर नहीं है, इसलिये मैंने भी अपने पतिका गौरव प्रकट करनेके लिये ही तुमसे यह लड़ाई ठानी थी ॥७५॥ मुझे दूसरेकी सम्पत्ति इस पारिजातको ले जानेकी क्या आवश्यकता है ? शची अपने रूप और पतिके कारण गर्विता है तो ऐसी कौन-सी स्त्री है जो इस प्रकार गर्वीली न हो ?” ॥७६॥
श्रीपराशरजी बोले- हे द्विज ! सत्यभामाके इस प्रकार कहनेपर देवराज लौट आये और बोले- “हे क्रोधिते ! मैं तुम्हारा सुहृद् हूँ, अत: मेरे लिये ऐसी वैमनस्य बढ़ानेवाली उक्तियोंके विस्तार करनेका कोई प्रयोजन नहीं है? ॥७७॥ जो सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेवाले हैं, उन विश्वरूप प्रभुसे पराजित होनेमें भी मुझे कोई संकोच नहीं है ।।७८ ॥ जिस आदि और मध्यरहित प्रभुसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, जिसमें यह स्थित है और फिर जिसमें लीन होकर अन्तमें यह न रहेगा; हे देवि ! जगत्की उत्पत्ति, प्रलय और पालनके कारण उस परमात्मासे ही परास्त होने में मुझे कैसे लज्जा हो सकती है ? ॥७९॥ जिसकी अत्यन्त अल्प और सूक्ष्म मूर्तिको, जो सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाली है, सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले अन्य पुरुष भी नहीं जान पाते तथा जिसने जगत्के उपकारके लिये अपनी इच्छासे ही मनुष्यरूप धारण किया है उस अजन्मा, अकर्ता और नित्य ईश्वरको जीतने में कौन समर्थ है ?” ॥८०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे त्रिंशोऽध्यायः
अध्याय-31 भगवान का सोलह हजार एक सौ कन्याओं से विवाह करना
श्रीपराशरजी बोले- हे द्विजोत्तम ! इन्द्रने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान् कृष्णचन्द्र गम्भीर भावसे हँसते हुए इस प्रकार बोले- ॥१॥
श्रीकृष्णजी बोले- हे जगत्पते ! आप देवराज इन्द्र हैं और हम मरणधर्मा मनुष्य हैं । हमने आपका जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें ॥२॥ मैंने जो यह पारिजातवृक्ष लिया था इसे इसके योग्य स्थानको ले जाइये । हे शक्र ! मैंने तो इसे सत्यभामाके कहनेसे ही ले लिया था ॥३॥ और आपने जो वज्र फेंका था उसे भी ले लीजिये; क्योंकि हे शक्र ! यह शत्रुओंको नष्ट करनेवाला शस्त्र आपहीका है ॥४॥
इन्द्र बोले- हे ईश ! ‘मैं मनुष्य हूँ’ ऐसा कहकर मुझे क्यों मोहित करते हैं ? हे भगवन् ! मैं तो आपके इस सगुणस्वरूपको ही जानता हूँ, हम आपके सूक्ष्मस्वरूपको जाननेवाले नहीं हैं ॥५॥ हे नाथ ! आप जो हैं वही हैं, हे दैत्यदलन ! आप लोकरक्षामें तत्पर हैं और इस संसारके काँटोंको निकाल रहे हैं ॥६॥ हे कृष्ण ! इस पारिजातवृक्षको आप द्वारकापुरी ले जाइये, जिस समय आप मर्त्यलोक छोड़ देंगे, उस समय वह भूलॊकमें नहीं रहेगा ॥७॥ हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे महाबाहो ! हे शंखचक्रगदापाणी मेरी इस धृष्टताको क्षमा कीजिये ॥८॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर श्रीहरि देवराजसे ‘तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा ही सही’ ऐसा कहकर सिद्ध, गन्धर्व और देवर्षिगणसे स्तुत हो भूलॊकमें चले आये ॥९॥ हे द्विज ! द्वारकापुरीके ऊपर पहुंचकर श्रीकृष्णचन्द्रने शंख बजाकर द्वारकावासियोंको आनन्दित किया ॥१०॥ तदनन्तर सत्यभामाके सहित गरुडसे उतरकर उस पारिजातमहावृक्षको गृहोद्यानमें लगा दिया ॥११॥ जिसके पास आकर सब मनुष्योंको अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आता है और जिसके पुष्पोंसे निकली हुई गन्धसे तीन योजनतक पृथिवी सुगन्धित रहती है ॥१२॥
यादवोंने उस वृक्षके पास जाकर अपना मुख देखा तो उन्हें अपना शरीर अमानुष दिखलायी दिया ॥१३॥
तदनन्तर महामति श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा लाये हुए हाथी-घोड़े आदि धनको अपने बन्धु-बान्धवोंमें बाँट दिया और नरकासुरकी वरण की हुई कन्याओंको स्वयं ले लिया ॥१४-१५॥ शुभ समय प्राप्त होनेपर श्रीजनार्दनने उन समस्त कन्याओंके साथ, जिन्हें नरकासुर बलात् हर लाया था, विवाह किया ॥१६॥ हे महामुने ! श्रीगोविन्दने एक ही समय पृथक्-पृथक् भवनोंमें उन सबके साथ विधिवत् धर्मपूर्वक पाणिग्रहण किया ॥१७॥ वे सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं; उन सबके साथ पाणिग्रहण करते समय श्रीमधुसूदनने इतने ही रूप बना लिये ॥१८॥ हे मैत्रेय ! परंतु उस समय प्रत्येक कन्या ‘भगवान्ने मेरा ही पाणिग्रहण किया है’ । इस प्रकार उन्हें एक ही समझ रही थी ॥१९॥ हे विप्र ! जगत्स्रष्टा विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभीके घरोंमें रहते थे ॥२०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे एकत्रिंशोऽध्यायः
अध्याय-32 उषा का चरित्र
श्रीपराशरजी बोले- रुक्मिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए भगवानके प्रद्युम्न आदि पुत्रोंका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं; सत्यभामाने भानु और भौमेरिक आदिको जन्म दिया ॥१॥ श्रीहरिके रोहिणीके गर्भसे दीप्तिमान् और ताम्रपक्ष आदि तथा जाम्बवतीसे बलशाली साम्ब आदि पुत्र हुए ॥२॥ नाग्नजिती (सत्या)-से महाबली भद्रविन्द आदि और शैव्या (मित्रविन्दा)-से संग्रामजित् आदि उत्पन्न हुए ॥३॥ माद्रीसे वृक आदि, लक्ष्मणासे गात्रवान् आदि तथा कालिन्दीसे श्रुत आदि पुत्रोंका जन्म हुआ ॥४॥ इसी प्रकार भगवानकी अन्य स्त्रियोंके भी आठ अयुत आठ हजार आठ सौ (अट्ठासी हजार आठ सौ) पुत्र हुए ॥५॥
इन सब पुत्रोंमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न सबसे बड़े थे; प्रद्युम्नसे अनिरुद्धका जन्म हुआ और अनिरुद्धसे वज्र उत्पन्न हुआ ॥६॥ हे द्विजोत्तम ! महाबली अनिरुद्ध युद्ध में किसीसे रोके नहीं जा सकते थे । उन्होंने बलिकी पौत्री एवं बाणासुरकी पुत्री उषासे विवाह किया था ॥७॥ उस विवाहमें श्रीहरि और भगवान् शंकरका घोर युद्ध हुआ था और श्रीकृष्णचन्द्रने बाणासुरकी सहस्र भुजाएँ काट डाली थीं ॥८॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे ब्रह्मन् ! उषाके लिये श्रीमहादेव और कृष्णका युद्ध क्यों हुआ और श्रीहरिने बाणासुरकी भुजाएँ क्यों काट डालीं? ॥९॥ हे महाभाग ! आप मुझसे यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहिये; मुझे श्रीहरिकी यह कथा सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले- हे विप्र ! एक बार बाणासुरकी पुत्री उषाने श्रीशंकरके साथ पार्वतीजीको क्रीडा करती देख स्वयं भी अपने पतिके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥११॥ तब सर्वान्तर्यामिनी श्रीपार्वतीजीने उस सुकुमारीसे कहा “तू अधिक सन्तप्त मत हो, यथासमय तू भी अपने पतिके साथ रमण करेगी” ॥१२॥ पार्वतीजीके ऐसा कहनेपर उषाने मन-ही-मन यह सोचकर कि ‘न जाने ऐसा कब होगा ? और मेरा पति भी कौन होगा?’ [इस सम्बन्धमें] पार्वतीजीसे पूछा, तब पार्वतीजीने उससे फिर कहा- ॥१३॥
पार्वतीजी बोलीं- हे राजपुत्रि ! वैशाख शुक्ला द्वादशीकी रात्रिको जो पुरुष स्वप्नमें तुझसे हठात् सम्भोग करेगा वही तेरा पति होगा ॥१४॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर उसी तिथिको उषाकी स्वप्नावस्थामें किसी पुरुषने उससे, जैसा श्रीपार्वतीदेवीने कहा था, उसी प्रकार सम्भोग किया और उसका भी उसमें अनुराग हो गया ॥१५॥ हे मैत्रेय ! तब उसके बाद स्वप्नसे जगनेपर जब उसने उस पुरुषको न देखा तो वह उसे देखनेके लिये अत्यन्त उत्सुक होकर अपनी सखीकी ओर लक्ष्य करके निर्लज्जतापूर्वक कहने लगी- “हे नाथ! आप कहाँ चले गये ?” ॥१६॥
बाणासुरका मन्त्री कुम्भाण्ड था; उसकी चित्रलेखा नामकी पुत्री थी, वह उषाकी सखी थी, [उषाका यह प्रलाप सुनकर] उसने पूछा- “यह तुम किसके विषयमें कह रही हो ?” ॥१७॥ किन्तु जब लज्जावश उषाने उसे कुछ भी न बतलाया तब चित्रलेखाने [सब बात गुप्त रखनेका] विश्वास दिलाकर उषासे सब वृत्तान्त कहला लिया ॥१८॥
चित्रलेखाके सब बात जान लेनेपर उषाने जो कुछ श्रीपार्वतीजीने कहा था, वह भी उसे सुना दिया और कहा कि अब जिस प्रकार उसका पुनः समागम हो वही उपाय करो ॥१९॥
चित्रलेखाने कहा- हे प्रिये ! तुमने जिस पुरुषको देखा है उसे तो जानना भी बहुत कठिन है फिर उसे बतलाना या पाना कैसे हो सकता है ? तथापि मैं तुम्हारा कुछ-न-कुछ उपकार तो करूँगी ही ॥२०॥ तुम सात या आठ दिनतक मेरी प्रतीक्षा करना-ऐसा कहकर वह अपने घरके भीतर गयी और उस पुरुषको ढूँढनेका उपाय करने लगी ॥२१॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर [सात-आठ दिन पश्चात् लौटकर] चित्रलेखाने चित्रपटपर मुख्य-मुख्य देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्योंके चित्र लिखकर उषाको दिखलाये ॥२२॥ तब उषाने गन्धर्व, नाग, देवता और दैत्य आदिको छोड़कर केवल मनुष्योंपर और उनमें भी विशेषतः अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंपर ही दृष्टि दी ॥२३॥ हे द्विज ! राम और कृष्णके चित्र देखकर वह सुन्दर भृकुटिवाली लज्जासे जडवत् हो गयी तथा प्रद्युम्नको देखकर उसने लज्जावश अपनी दृष्टि हटा ली ॥२४॥ तत्पश्चात् प्रद्युम्नतनय प्रियतम अनिरुद्धजीको देखते ही उस अत्यन्त विलासिनीकी लज्जा मानो कहीं चली गयी ॥२५॥ [वह बोल उठी]— ‘वह यही है, वह यही है ।’ उसके इस प्रकार कहनेपर योगगामिनी चित्रलेखाने उस बाणासुरकी कन्यासे कहा- ॥२६॥
चित्रलेखा बोली- देवीने प्रसन्न होकर यह कृष्णका पौत्र ही तेरा पति निश्चित किया है; इसका नाम अनिरुद्ध है और यह अपनी सुन्दरताके लिये प्रसिद्ध है ॥२७॥ यदि तुझको यह पति मिल गया तब तो तूने मानो सभी कुछ पा लिया; किन्तु कृष्णचन्द्रद्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहले प्रवेश ही करना कठिन है ॥२८॥ तथापि हे सखि ! किसी उपायसे मैं तेरे पतिको लाऊँगी ही, तू इस गुप्त रहस्यको किसीसे भी न कहना ॥२९॥ मैं शीघ्र ही आऊँगी, इतनी देर तू मेरे वियोगको सहन कर । अपनी सखी उषाको इस प्रकार ढाढस बँधाकर चित्रलेखा द्वारकापुरीको गयी ॥३०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे द्वात्रिंशोऽध्यायः
अध्याय-33 श्रीकृष्ण और वाणासुर का युद्ध
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! एक बार बाणासुरने भी भगवान त्रिलोचनको प्रणाम करके कहा था कि हे देव ! बिना युद्धके इन हजार भुजाओंसे मुझे बड़ा ही खेद हो रहा है ॥१॥ क्या कभी मेरी इन भुजाओंको सफल करनेवाला युद्ध होगा ? भला बिना युद्धके इन भाररूप भुजाओंसे मुझे लाभ ही क्या है? ॥२॥
श्रीशंकरजी बोले- हे बाणासुर ! जिस समय तेरी मयूरचिह्नवाली ध्वजा टूट जायगी, उसी समय तेरे सामने मांसभोजी यक्ष-पिशाचादिको आनन्द देनेवाला युद्ध उपस्थित होगा ॥३॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर, वरदायक श्रीशंकरको प्रणामकर बाणासुर अपने घर आया और फिर कालान्तरमें उस ध्वजाको टूटी देखकर अति आनन्दित हआ ॥४॥ इसी समय अप्सराश्रेष्ठ चित्रलेखा अपने योगबलसे अनिरुद्धको वहाँ ले आयी ॥५॥ अनिरुद्धको कन्यान्त:पुरमें आकर उषाके साथ रमण करता जान अन्तःपुररक्षकोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त दैत्यराज बाणासुरसे कह दिया ॥६॥ तब महावीर बाणासुरने अपने सेवकोंको उससे युद्ध करनेकी आज्ञा दी; किंतु शत्रु-दमन अनिरुद्धने अपने सम्मुख आनेपर उस सम्पूर्ण सेनाको एक लोहमय दण्डसे मार डाला ॥७॥
अपने सेवकोंके मारे जानेपर बाणासुर अनिरुद्धको मार डालनेकी इच्छासे रथपर चढ़कर उनके साथ युद्ध करने लगा; किंतु अपनी शक्तिभर युद्ध करनेपर भी वह यदुवीर अनिरुद्धजीसे परास्त हो गया ॥८॥ तब वह मन्त्रियोंकी प्रेरणासे मायापूर्वक युद्ध करने लगा और यदुनन्दन अनिरुद्धको नागपाशसे बाँध लिया ॥९॥
इधर द्वारकापुरीमें जिस समय समस्त यादवोंमें यह चर्चा हो रही थी कि ‘अनिरुद्ध कहाँ गये ?’ उसी समय देवर्षि नारदने उनके बाणासुरद्वारा बाँधे जानेकी सूचना दी ॥१०॥ नारदजीके मुखसे योगविद्यामें निपुण युवती चित्रलेखाद्वारा उन्हें शोणितपुर ले जाये गये सुनकर यादवोंको विश्वास हो गया कि देवताओंने उन्हें नहीं चुराया ॥११॥ तब स्मरणमात्रसे उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर श्रीहरि बलराम और प्रद्युम्नके सहित बाणासुरकी राजधानीमें आये ॥१२॥ नगरमें घुसते ही उन तीनोंका भगवान् शंकरके पार्षद प्रमथगणोंसे युद्ध हुआ; उन्हें नष्ट करके श्रीहरि बाणासुरकी राजधानीके समीप चले गये ॥१३॥
तदनन्तर बाणासुरकी रक्षाके लिये तीन सिर और तीन पैरवाला माहेश्वर नामक महान् ज्वर आगे बढ़कर श्रीभगवानसे लड़ने लगा ॥१४॥ [उस ज्वरका ऐसा प्रभाव था कि] उसके फेंके हुए भस्मके स्पर्शसे सन्तप्त हुए श्रीकृष्णचन्द्रके शरीरका आलिंगन करनेपर बलदेवजीने भी शिथिल होकर नेत्र मुंद लिये ॥१५॥ इस प्रकार भगवान शंकरधरके साथ [उनके शरीरमें व्याप्त होकर] युद्ध करते हुए उस माहेश्वर ज्वरको वैष्णव ज्वरने तुरंत उनके शरीरसे निकाल दिया ॥१६॥ उस समय श्रीनारायणकी भुजाओंके आघातसे उस माहेश्वर ज्वरको पीड़ित और विह्वल हुआ देखकर पितामह ब्रह्माजीने भगवानसे कहा- ‘इसे क्षमा कीजिये ॥१७॥ तब भगवान् मधुसूदनने ‘अच्छा, मैंने क्षमा की’ ऐसा कहकर उस वैष्णव ज्वरको अपने में लीन कर लिया ॥१८॥
ज्वर बोला- जो मनुष्य आपके साथ मेरे इस युद्धका स्मरण करेंगे वे ज्वरहीन हो जायेंगे, ऐसा कहकर वह चला गया ॥१९॥
तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्रने पंचाग्नियोंको जीतकर नष्ट किया और फिर लीलासे ही दानवसेनाको नष्ट करने लगे ॥२०॥ तब सम्पूर्ण दैत्यसेनाके सहित बलि-पुत्र बाणासुर, भगवान् शंकर और स्वामिकार्तिकेयजी भगवान् कृष्णके साथ युद्ध करने लगे ॥२१॥ श्रीहरि और श्रीमहादेवजीका परस्पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, इस युद्ध में प्रयुक्त शस्त्रास्त्रोंके किरणजालसे सन्तप्त होकर सम्पूर्ण लोक क्षुब्ध हो गये ॥२२॥ इस घोर युद्धके उपस्थित होनेपर देवताओंने समझा कि निश्चय ही यह सम्पूर्ण जगत्का प्रलयकाल आ गया है ॥२३॥ श्रीगोविन्दने जृम्भकास्त्र छोड़ा जिससे महादेवजी निद्रितसे होकर जमुहाई लेने लगे; उनकी ऐसी दशा देखकर दैत्य और प्रमथगण चारों ओर भागने लगे ॥२४॥ भगवान् शंकर निद्राभिभूत होकर रथके पिछले भागमें बैठ गये और फिर अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध न कर सके ॥२५॥ तदनन्तर गरुडद्वारा वाहनके नष्ट हो जानेसे, प्रद्युम्नजीके शस्त्रोंसे पीड़ित होनेसे तथा कृष्णचन्द्रके हुंकारसे शक्तिहीन हो जानेसे स्वामिकार्तिकेय भी भागने लगे ॥२६॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा महादेवजीके निद्राभिभूत, दैत्य-सेनाके नष्ट, स्वामिकार्तिकेयके पराजित और शिवगणोंके क्षीण हो जानेपर कृष्ण, प्रद्युम्न और बलभद्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये वहाँ बाणासुर साक्षात् नन्दीश्वरद्वारा हाँके जाते हुए महान् रथपर चढ़कर आया ॥२७-२८॥ उसके आते ही महावीर्यशाली बलभद्रजीने अनेकों बाण बरसाकर बाणासुरकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर डाला; तब वह वीरधर्मसे भ्रष्ट होकर भागने लगी ॥२९॥ बाणासुरने देखा कि उसकी सेनाको बलभद्रजी बड़ी फुर्तीसे हलसे खींच-खींचकर मूसलसे मार रहे हैं और श्रीकृष्णचन्द्र उसे बाणोंसे बीधे डालते हैं ॥३०॥ तब बाणासुरका श्रीकृष्णचन्द्रके साथ घोर युद्ध छिड़ गया । वे दोनों परस्पर कवचभेदी बाण छोड़ने लगे । परंतु भगवान् कृष्णने बाणासुरके छोड़े हुए तीखे बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला, और फिर बाणासुर कृष्णको तथा कृष्ण बाणासुरको बींधने लगे ॥३१-३२॥ हे द्विज ! उस समय परस्पर चोट करनेवाले बाणासुर और कृष्ण दोनों ही विजयकी इच्छासे निरन्तर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र छोड़ने लगे ॥३३॥
अन्तमें, समस्त बाणोंके छिन्न और सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्रोंके निष्फल हो जानेपर श्रीहरिने बाणासुरको मार डालनेका विचार किया ॥३४॥ तब दैत्यमण्डलके शत्रु भगवान् कृष्णने सैकड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान अपने सुदर्शनचक्रको हाथमें ले लिया ॥३५॥
जिस समय भगवान् मधुसूदन बाणासुरको मारनेके लिये चक्र छोड़ना ही चाहते थे उसी समय दैत्योंकी विद्या (मन्त्रमयी कुलदेवी) कोटरी भगवानके सामने नग्नावस्थामें उपस्थित हुई ॥३६॥ उसे देखते ही भगवान्ने नेत्र मूंद लिये और बाणासुरको लक्ष्य करके उस शत्रुकी भुजाओंके वनको काटनेके लिये सुदर्शनचक्र छोड़ा ॥३७॥ भगवान् अच्युतके द्वारा प्रेरित उस चक्रने दैत्योंके छोड़े हुए अस्त्रसमूहको काटकर क्रमश: बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला [केवल दो भुजाएँ छोड़ दीं] ॥३८॥ तब त्रिपुरशत्रु भगवान् शंकर जान गये कि श्रीमधुसूदन बाणासुरके बाहुवनको काटकर अपने हाथमें आये हुए चक्रको उसका वध करनेके लिये फिर छोड़ना चाहते है ॥३९॥ अत: बाणासुरको अपने खण्डित भुजदण्डोंसे लोहूकी धारा बहाते देख श्रीउमापतिने गोविन्दके पास आकर सामपूर्वक कहा- ॥४०॥
श्रीशंकरजी बोले- हे कृष्ण ! हे कृष्ण !! हे जगन्नाथ!! मैं यह जानता हूँ कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर, परमात्मा और आदि-अन्तसे रहित श्रीहरि हैं ॥४१॥ आप सर्वभूतमय हैं । आप जो देव, तिर्यक् और मनुष्यादि योनियों में शरीर धारण करते हैं यह आपकी स्वाधीन चेष्टाकी उपलक्षिका लीला ही है ॥४२॥ हे प्रभो ! आप प्रसन्न होइये । मैंने इस बाणासुरको अभयदान दिया है । हे नाथ ! मैंने जो वचन दिया है उसे आप मिथ्या न करें ॥४३॥ हे अव्यय ! यह आपका अपराधी नहीं है; यह तो मेरा आश्रय पानेसे ही इतना गर्वीला हो गया है । इस दैत्यको मैंने ही वर दिया था, इसलिये मैं ही आपसे इसके लिये क्षमा कराता हूँ ॥४४॥
श्रीपराशरजी बोले- त्रिशूलपाणि भगवान् उमापतिके इस प्रकार कहनेपर श्रीगोविन्दने बाणासुरके प्रति क्रोधभाव त्याग दिया और प्रसन्नवदन होकर उनसे कहा- ॥४५॥
श्रीभगवान् बोले- हे शंकर ! यदि आपने इसे वर दिया है तो यह बाणासुर जीवित रहे । आपके वचनका मान रखनेके लिये मैं इस चक्रको रोके लेता हूँ ॥४६॥ आपने जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया । हे शंकर ! आप अपनेको मुझसे सर्वथा अभिन्न देखें ॥४७॥ आप यह भली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत्, देव, असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भिन्न नहीं हैं ॥४८॥ । हे हर ! जिन लोगोंका चित्त अविद्यासे मोहित है, वे भिन्नदर्शी पुरुष ही हम दोनोंमें भेद देखते और बतलाते हैं । हे वृषभध्वज ! मैं प्रसन्न हूँ, आप पधारिये, मैं भी अब जाऊँगा ॥४९-५०॥
श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार कहकर भगवान् कृष्ण जहाँ प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध थे वहाँ गये । उनके पहुँचते ही अनिरुद्धके बन्धनरूप समस्त नागगण गरुडके वेगसे उत्पन्न हुए वायुके प्रहारसे नष्ट हो गये ॥५१॥ तदनन्तर सपत्नीक अनिरुद्धको गरुडपर चढ़ाकर बलराम, प्रद्युम्न और कृष्णचन्द्र द्वाराकापुरीमें लौट आये ॥५२॥ हे विप्र ! वहाँ भू-भार-हरणकी इच्छासे रहते हुए श्रीजनार्दन अपने पुत्र-पौत्रादिसे घिरे रहकर अपनी रानियोंके साथ रमण करने लगे ॥५३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे त्रयस्त्रींशोऽध्यायः
अध्याय-34 पौंड्रक का वध तथा काशी दहन
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे गुरो ! श्रीविष्णुभगवानने मनुष्य-शरीर धारणकर जो लीलासे ही इन्द्र, शंकर और सम्पूर्ण देवगणको जीतकर महान् कर्म किये थे [वह मैं सुन चुका ] ॥१॥ इनके सिवा देवताओंकी चेष्टाओंका विघात करनेवाले उन्होंने और भी जो कर्म किये थे, हे महाभाग ! वे सब मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले- हे ब्रह्मर्षे ! भगवानने मनुष्यावतार लेकर जिस प्रकार काशीपुरी जलायी थी वह मैं सुनाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो ॥३॥ पौण्ड्रकवंशीय वासुदेव नामक एक राजाको अज्ञानमोहित पुरुष ‘आप वासुदेवरूपसे पृथिवीपर अवतीर्ण हुए हैं’ ऐसा कहकर स्तुति किया करते थे ॥४॥ अन्तमें वह भी यही मानने लगा कि ‘मैं वासुदेवरूपसे पृथिवीमें अवतीर्ण हुआ हूँ!’ इस प्रकार आत्मविस्मृत हो जानेसे उसने विष्णुभगवानके समस्त चिह्न धारण कर लिये ॥५॥ और महात्मा कृष्णचन्द्रके पास यह सन्देश लेकर दूत भेजा कि “हे मूढ़ ! अपने वासुदेव नामको छोड़कर मेरे चक्र आदि सम्पूर्ण चिह्नोंको छोड़ दे और यदि तुझे जीवनकी इच्छा है तो मेरी शरणमें आ” ॥६-७॥ दूतने जब इसी प्रकार कहा तो श्रीजनार्दन उससे हँसकर बोले- “ठीक है, मैं अपने चिह्न चक्रको तेरे प्रति छोडूंगा । हे दूत ! मेरी ओरसे तू पौण्ड्रकसे जाकर यह कहना कि मैंने तेरे वाक्यका वास्तविक भाव समझ लिया है, तुझे जो करना हो सो कर ॥८-९॥ मैं अपने चिह्न और वेष धारणकर तेरे नगरमें आऊँगा और निस्सन्देह अपने चिह्न चक्रको तेरे ऊपर छोडूंगा ॥१०॥ ‘और तूने जो आज्ञा करते हुए ‘आ’ ऐसा कहा है, सो मैं उसे भी अवश्य पालन करूँगा और कल शीघ्र ही तेरे पास पहुँचूँगा ॥११॥ हे राजन् ! तेरी शरणमें आकर मैं वही उपाय करूँगा जिससे फिर तुझसे मुझे कोई भय न रहे ॥१२॥
श्रीपराशरजी बोले- श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर जब दूत चला गया तो भगवान् स्मरण करते ही उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर तुरंत उसकी राजधानीको चले ॥१३॥
भगवानके आक्रमणका समाचार सुनकर काशीनरेश भी उसका पृष्ठपोषक (सहायक) होकर अपनी सम्पूर्ण सेना ले उपस्थित हुआ ॥१४॥ तदनन्तर अपनी महान सेनाके सहित काशीनरेशकी सेना लेकर पौण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णचन्द्रके सम्मुख आया ॥१५॥ भगवानने दूरसे ही उसे हाथमें चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष और पद्म लिये एक उत्तम रथपर बैठे देखा ॥१६॥ श्रीहरिने देखा कि उसके कण्ठमें वैजयन्तीमाला है, शरीरमें पीताम्बर है, गरुडरचित ध्वजा है और वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न हैं ॥१७॥ उसे नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित किरीट और कुण्डल धारण किये देखकर श्रीगरुडध्वज भगवान् गम्भीरभावसे हँसने लगे ॥१८॥ और हे द्विज ! उसकी हाथी-घोड़ोंसे बलिष्ठ तथा निस्त्रिंश खड्ग, गदा, शूल, शक्ति और धनुष आदिसे सुसज्जित सेनासे युद्ध करने लगे ॥१९॥ श्रीभगवानने एक क्षणमें ही अपने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए शत्रुओंको विदीर्ण करनेवाले तीक्ष्ण बाणों तथा गदा और चक्रसे उसकी सम्पूर्ण सेनाको नष्ट कर डाला ॥२०॥ इसी प्रकार काशिराजकी सेनाको भी नष्ट करके श्रीजनार्दनने अपने चिह्नोंसे युक्त मूढमति पौण्ड्रकसे कहा ॥२१॥
श्रीभगवान् बोले- हे पौण्ड्रक ! मेरे प्रति तूने जो दूतके मुखसे यह कहलाया था कि मेरे चिह्नोंको छोड़ दे सो मैं तेरे सम्मुख उस आज्ञाको सम्पन्न करता हूँ ॥२२॥ देख, यह मैंने चक्र छोड़ दिया, यह तेरे ऊपर गदा भी छोड़ दी और यह गरुड भी छोड़े देता हूँ, यह तेरी ध्वजापर आरूढ़ हों ॥२३॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कहकर छोड़े हुए चक्रने पौण्ड्रकको विदीर्ण कर डाला, गदाने नीचे गिरा दिया और गरुडने उसकी ध्वजा तोड़ डाली ॥२४॥ तदनन्तर सम्पूर्ण सेनामें हाहाकार मच जानेपर अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये खड़ा हुआ काशीनरेश श्रीवासुदेवसे लड़ने लगा ॥२५॥ तब भगवानने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े हुए एक बाणसे उसका सिर काटकर सम्पूर्ण लोगोंको विस्मित करते हुए काशीपुरीमें फेंक दिया ॥२६॥ इस प्रकार पौण्ड्रक और काशीनरेशको अनुचरोंसहित मारकर भगवान् फिर द्वारकाको लौट आये और वहाँ स्वर्ग सदृश सुखका अनुभव करते हुए रमण करने लगे ॥२७॥
इधर काशीपुरीमें काशिराजका सिर गिरा देख सम्पूर्ण नगरनिवासी विस्मयपूर्वक कहने लगे- ‘यह क्या हुआ ? इसे किसने काट डाला ?’ ॥२८॥
जब उसके पुत्रको मालूम हुआ कि उसे श्रीवासुदेवने मारा है तो उसने अपने पुरोहितके साथ मिलकर भगवान् शंकरको सन्तुष्ट किया ॥२९॥ अविमुक्त महाक्षेत्रमें उस राजकुमारसे सन्तुष्ट होकर श्रीशंकरने कहा—’वर माँग’ ॥३०॥ वह बोला- “हे भगवन् ! हे महेश्वर !! आपकी कृपासे मेरे पिताका वध करनेवाले कृष्णका नाश करनेके लिये (अग्निसे) कृत्या उत्पन्न हो’* ॥३१॥
श्रीपराशरजी बोले- भगवान् शंकरने कहा, ‘ऐसा ही होगा ।’ उनके ऐसा कहनेपर दक्षिणाग्निका चयन करनेके अनन्तर उससे उस अग्निका ही विनाश करनेवाली कृत्या उत्पन्न हुई ॥३२॥ उसका कराल मुख ज्वालामालाओंसे पूर्ण था तथा उसके केश अग्निशिखाके समान दीप्तिमान् और ताम्रवर्ण थे । वह क्रोधपूर्वक कृष्ण ! कृष्ण !!’ कहती द्वारकापुरीमें आयी ॥३३॥
हे मुने ! उसे देखकर लोगोंने भय-विचलित नेत्रोंसे जगद्गति भगवान् मधुसूदनकी शरण ली ॥३४॥ जब भगवान् चक्रपाणिने जाना कि श्रीशंकरकी उपासना कर काशिराजके पुत्रने ही यह महाकृत्या उत्पन्न की है तो अक्षक्रीडामें लगे हुए उन्होंने लीलासे ही यह कहकर कि ‘इस अग्निज्वालामयी जटाओंवाली भयंकर कृत्याको मार डाल’ अपना चक्र छोड़ा ॥३५-३६॥
तब भगवान् विष्णुके सुदर्शनचक्रने उस अग्निमालामण्डित जटाओंवाली और अग्निज्वालाओंके कारण भयानक मुखवाली कृत्याका पीछा किया ॥३७॥ उस चक्रके तेजसे दग्ध होकर छिन्न-भिन्न होती हुई वह माहेश्वरी कृत्या अति वेगसे दौड़ने लगी तथा वह चक्र भी उतने ही वेगसे उसका पीछा करने लगा ॥३८॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्तमें विष्णुचक्रसे हतप्रभाव हुई कृत्याने शीघ्रतासे काशीमें ही प्रवेश किया ॥३९॥ उस समय काशी-नरेशकी सम्पूर्ण सेना और प्रथमगण अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित होकर उस चक्रके सम्मुख आये ॥४०॥
तब वह चक्र अपने तेजसे शस्त्रास्त्र-प्रयोगमें कुशल उस सम्पूर्ण सेनाको दग्धकर कृत्याके सहित सम्पूर्ण वाराणसीको जलाने लगा ॥४१॥ जो राजा, प्रजा और सेवकोंसे पूर्ण थी; घोड़े, हाथी और मनुष्योंसे भरी थी; सम्पूर्ण गोष्ठ और कोशोंसे युक्त थी और देवताओंके लिये भी दुर्दर्शनीय थी, उसी काशीपुरीको भगवान् विष्णुके उस चक्रने उसके गृह, कोट और चबूतरोंमें अग्निकी ज्वालाएँ प्रकटकर जला डाला ॥४२-४३॥ अन्तमें, जिसका क्रोध अभी शान्त नहीं हुआ तथा जो अत्यन्त उग्र कर्म करनेको उत्सुक था और जिसकी दीप्ति चारों ओर फैल रही थी, वह चक्र फिर लौटकर भगवान् विष्णुके हाथमें आ गया ॥४४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे चतुर्दिशोऽध्यायः
अध्याय-35 साम्ब का विवाह
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे ब्रह्मन् ! अब मैं फिर मतिमान् बलभद्रजीके पराक्रमकी वार्ता सुनना चाहता हूँ, आप वर्णन कीजिये ॥१॥ हे भगवन् ! मैंने उनके यमुनाकर्षणादि पराक्रम तो सुन लिये; अब हे महाभाग ! उन्होंने जो और-और विक्रम दिखलाये हैं, उनका वर्णन कीजिये ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! अनन्त, अप्रमेय, धरणीधर शेषावतार श्रीबलरामजीने जो कर्म किये थे, वह सुनो- ॥३॥
एक बार जाम्बवतीनन्दन वीरवर साम्बने स्वयंवरके अवसरपर दुर्योधनकी पुत्रीको बलात् हरण किया ॥४॥ तब महावीर कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदिने क्रुद्ध होकर उसे युद्ध में हराकर बाँध लिया ॥५॥ यह समाचार पाकर कृष्णचन्द्र आदि समस्त यादवोंने दुर्योधनादिपर क्रुद्ध होकर उन्हें मारनेके लिये बड़ी तैयारी की ॥६॥ उनको रोककर श्रीबलरामजीने मदिराके उन्मादसे लड़खड़ाते हुए शब्दोंमें कहा-“कौरवगण मेरे कहनेसे साम्बको छोड़ देंगे, अत: मैं अकेला ही उनके पास जाता हूँ” ॥७॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर, श्रीबलदेवजी हस्तिनापुरके समीप पहुँचकर उसके बाहर एक उद्यानमें ठहर गये; उन्होंने नगरमें प्रवेश नहीं किया ॥८॥ बलरामजीको आये जान दुर्योधन आदि राजाओंने उन्हें गौ, अर्घ्य और पाद्यादि निवेदन किये ॥९॥ उन सबको विधिवत् ग्रहण कर बलभद्रजीने कौरवोंसे कहा- “राजा उग्रसेनकी आज्ञा है आपलोग साम्बको तुरन्त छोड़ दें” ॥१०॥
हे द्विजसत्तम ! बलरामजीके इन वचनोंको सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि राजाओंको बड़ा क्षोभ हुआ ॥११॥ और यदुवंशको राज्यपदके अयोग्य समझ बाह्निक आदि सभी कौरवगण कुपित होकर मूसलधारी बलभद्रजीसे कहने लगे- ॥१२॥ “हे बलभद्र ! तुम यह क्या कह रहे हो; ऐसा कौन यदुवंशी है जो कुरुकुलोत्पन्न किसी वीरको आज्ञा दे ? ॥१३॥ यदि उग्रसेन भी कौरवोंको आज्ञा दे सकता है तो राजाओंके योग्य कौरवोंके इस श्वेत छत्रका क्या प्रयोजन है ? ॥ १४ ॥ अत: हे बलराम ! तुम जाओ अथवा रहो, हमलोग तुम्हारी या उग्रसेनकी आज्ञासे अन्यायका साम्बको नहीं छोड़ सकते ॥१५॥ पूर्वकालमें कुकुर और अन्धकवंशीय यादवगण हम माननीयोंको प्रणाम किया करते थे सो अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही, किन्तु स्वामीको यह सेवककी ओरसे आज्ञा देना कैसा ? ॥१६॥ तुमलोगोंके साथ समान आसन और भोजनका व्यवहार करके तुम्हें हमहीने गर्वीला बना दिया है; इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है; क्योंकि हमने ही प्रीतिवश नीतिका विचार नहीं किया ॥१७॥ हे बलराम ! हमने जो तुम्हें यह अर्घ्य आदि निवेदन किया है यह प्रेमवश ही किया है, वास्तवमें हमारे कुलकी तरफसे तुम्हारे कुलको अर्ध्यादि देना उचित नहीं है” ॥१८॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कहकर कौरवगण यह निश्चय करके कि “हम कृष्णके पुत्र साम्बको नहीं छोड़ेंगे” तुरन्त हस्तिनापुरमें चले गये ॥१९॥ तदनन्तर हलायुध श्रीबलरामजीने उनके तिरस्कारसे उत्पन्न हुए क्रोधसे मत्त होकर घूरते हुए पृथिवीमें लात मारी ॥२०॥ महात्मा बलरामजीके पाद-प्रहारसे पृथिवी फट गयी और वे अपने शब्दसे सम्पूर्ण दिशाओंको गुंजाकर कम्पायमान करने लगे तथा लाल लाल नेत्र और टेढी भकटि करके बोले- ॥२१-२२॥ “अहो ! इन सारहीन दुरात्मा कौरवोंको यह कैसा राजमदका अभिमान है । कौरवोंका महीपालत्व तो स्वतःसिद्ध है और हमारा सामयिक-ऐसा समझकर ही आज ये महाराज उग्रसेनकी आज्ञा नहीं मानते; बल्कि उसका उल्लंघन कर रहे हैं ॥२३॥
आज राजा उग्रसेन सधर्मा-सभामें स्वयं विराजमान होते हैं, उसमें शचीपति इन्द्र भी नहीं बैठने पाते । परन्तु इन कौरवोंको धिक्कार है जिन्हें सैकड़ों मनुष्योंके उच्छिष्ट राजसिंहासनमें इतनी तुष्टि है ॥२४॥ जिनके सेवकोंकी स्त्रियाँ भी पारिजात-वृक्षकी पुष्प-मंजरी धारण करती हैं वह भी इन कौरवोंके महाराज नहीं हैं ? ॥२५॥ वे उग्रसेन ही सम्पूर्ण राजाओंके महाराज बनकर रहें । आज मैं अकेला ही पृथिवीको कौरवहीन करके उनकी द्वारकापुरीको जाऊँगा ॥२६॥ आज कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, बाह्निक, दुश्शासनादि, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल, भीम, अर्जुन, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तथा अन्यान्य समस्त कौरवोंको उनके हाथी-घोड़े और रथके सहित मारकर तथा नववधूके साथ वीरवर साम्बको लेकर ही मैं द्वारकापुरीमें जाकर उग्रसेन आदि अपने बन्धुबान्धवोंको देखूगा ॥२७–२९॥ अथवा समस्त कौरवोंके सहित उनके निवासस्थान इस हस्तिनापुर नगरको ही अभी गंगाजीमें फेंके देता हूँ” ॥३०॥
श्रीपराशरजी बोले- ऐसा कहकर मदसे अरुणनयन मुसलायुध श्रीबलभद्रजीने हलकी नोंकको हस्तिनापुरके खाईं और दुर्गसे युक्त प्राकारके मूलमें लगाकर खींचा ॥३१॥ उस समय सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता देख समस्त कौरवगण क्षुब्धचित्त होकर भयभीत हो गये ॥३२॥ “हे राम ! हे राम ! हे महाबाहो ! क्षमा करो, क्षमा करो । हे मुसलायुध ! अपना कोप शान्त करके प्रसन्न होइये ॥३३॥ हे बलराम ! हम आपको पत्नीके सहित इस साम्बको सौंपते हैं । हम आपका प्रभाव नहीं जानते थे, इसीसे आपका अपराध किया; कृपया क्षमा कीजिये” ॥३४॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर कौरवोंने तुरन्त ही अपने नगरसे बाहर आकर पत्नीसहित साम्बको श्रीबलरामजीके अर्पण कर दिया ॥३५॥ तब प्रणामपूर्वक प्रिय वाक्य बोलते हुए भीष्म, द्रोण, कृप आदिसे वीरवर बलरामजीने कहा- “अच्छा मैंने क्षमा किया” ॥३६॥ हे द्विज ! इस समय भी हस्तिनापुर कुछ झुका हुआ-सा दिखायी देता है, यह श्रीबलरामजीके बल और शूरवीरताका परिचय देनेवाला उनका प्रभाव ही है ॥३७॥ तदनन्तर कौरवोंने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन किया तथा बहुत-से दहेज और वधूके सहित उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया ॥३८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे पञ्चत्रिशोऽध्यायः
अध्याय-36 द्विविद का वध
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! बलशाली बलरामजीका ऐसा ही पराक्रम था । अब, उन्होंने जो और एक कर्म किया था वह भी सुनो ॥१॥ द्विविद नामक एक महावीर्यशाली वानरश्रेष्ठ देवविरोधी दैत्यराज नरकासुरका मित्र था ॥२॥ भगवान् कृष्णने देवराज इन्द्रकी प्रेरणासे नरकासुरका वध किया था, इसलिये वीर वानर द्विविदने देवताओंसे वैर ठाना ॥३॥ “मैं मर्त्यलोकका क्षय कर दूंगा और इस प्रकार यज्ञ-यागादिका उच्छेद करके सम्पूर्ण देवताओंसे इसका बदला चुका लूँगा” ॥४॥ तबसे वह अज्ञानमोहित होकर यज्ञोंको विध्वंस करने लगा और साधुमर्यादाको मिटाने तथा देहधारी जीवोंको नष्ट करने लगा ॥५॥ वह वन, देश, पुर और भिन्न-भिन्न ग्रामोंको जला देता तथा कभी पर्वत गिराकर ग्रामादिकोंको चूर्ण कर डालता ॥६॥ कभी पहाड़ोंकी चट्टान उखाड़कर समुद्रके जलमें छोड़ देता और फिर कभी समुद्रमें घुसकर उसे क्षुभित कर देता ॥७॥ हे द्विज ! उससे क्षुभित हुआ समुद्र ऊँचीऊँची तरंगोंसे उठकर अति वेगसे युक्त हो अपने तीरवर्ती ग्राम और पुर आदिको डुबो देता था ॥८॥ वह कामरूपी वानर महान् रूप धारणकर लोटने लगता था और अपने लुण्ठनके संघर्षसे सम्पूर्ण धान्योंको कुचल डालता था ॥९॥ हे द्विज ! उस दुरात्माने इस सम्पूर्ण जगत्को स्वाध्याय और वषट्कारसे शून्य कर दिया था, जिससे यह अत्यन्त दु:खमय हो गया ॥१०॥
एक दिन श्रीबलभद्रजी रैवतोद्यानमें मद्यपान कर रहे थे । साथ ही महाभागा रेवती तथा अन्य सुन्दर रमणियाँ भी थीं ॥११॥ उस समय यदुश्रेष्ठ श्रीबलरामजी मन्दराचलपर्वतपर कुबेरके समान रमण कर रहे थे ॥१२॥ इसी समय वहाँ द्विविद वानर आया और श्रीहलधरके हल और मूसल लेकर उनके सामने ही उनकी नकल करने लगा ॥१३॥ वह दुरात्मा वानर उन स्त्रियोंकी ओर देख-देखकर हँसने लगा और उसने मदिरासे भरे हुए घड़े फोड़कर फेंक दिये ॥१४॥
तब श्रीहलधरने क्रुद्ध होकर उसे धमकाया तथापि वह उनकी अवज्ञा करके किलकारी मारने लगा ॥१५॥ तदनन्तर श्रीबलरामजीने मुसकाकर क्रोधसे अपना मूसल उठा लिया तथा उस वानरने भी एक भारी चट्टान ले ली ॥१६॥ और उसे बलरामजीके ऊपर फेंकी, किन्तु यदुवीर बलभद्रजीने मूसलसे उसके हजारों टुकड़े कर दिये; जिससे वह पृथिवीपर गिर पड़ी ॥१७॥ तब उस वानरने बलरामजीके मूसलका वार बचाकर रोषपूर्वक अत्यन्त वेगसे उनकी छातीमें घुसा मारा ॥१८॥ तत्पश्चात् बलभद्रजीने भी क्रुद्ध होकर द्विविदके सिरमें घुसा मारा जिससे वह रुधिर वमन करता हुआ निर्जीव होकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥१९॥ हे मैत्रेय ! उसके गिरते समय उसके शरीरका आघात पाकर इन्द्र-वज्रसे विदीर्ण होनेके समान उस पर्वतके शिखरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥२०॥
उस समय देवतालोग बलरामजीके ऊपर फूल बरसाने लगे और वहाँ आकर “आपने यह बड़ा अच्छा किया” ऐसा कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥२१॥ “हे वीर ! दैत्यपक्षके उपकारक इस दुष्ट वानरने संसारको बड़ा कष्ट दे रखा था; यह बड़े ही सौभाग्यका विषय है कि आज यह आपके हाथों मारा गया।” ऐसा कहकर गुह्यकोंके सहित देवगण अत्यन्त हर्षपूर्वक स्वर्गलोकको चले आये ॥२२-२३॥
श्रीपराशरजी बोले- शेषावतार धरणीधर धीमान् बलभद्रजीके ऐसे ही अनेकों कर्म हैं, जिनका कोई परिमाण नहीं बताया जा सकता ॥२४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे षष्टत्रिशोऽध्यायः
अध्याय-37 ऋषियों का शाप, यदुवंश का विनाश, तथा श्रीकृष्ण का स्वधाम सिधारणा
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! इसी प्रकार संसारके उपकारके लिये बलभद्रजीके सहित श्रीकृष्णचन्द्रने दैत्यों और दुष्ट राजाओंका वध किया ॥१॥ तथा अन्तमें अर्जुनके साथ मिलकर भगवान् कृष्णने अठारह अक्षौहिणी सेनाको मारकर पृथिवीका भार उतारा ॥२॥ इस प्रकार सम्पूर्ण राजाओंको मारकर पृथिवीका भारावतरण किया और फिर ब्राह्मणोंके शापके मिषसे अपने कुलका भी उपसंहार कर दिया ॥३॥
हे मुने ! अन्तमें द्वारकापुरीको छोड़कर तथा अपने मानव-शरीरको त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्रने अपने अंशके सहित अपने विष्णुमय धाममें प्रवेश किया ॥४॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे मुने ! श्रीजनार्दनने विप्रशापके मिषसे किस प्रकार अपने कुलका नाश किया और अपने मानव-देहको किस प्रकार छोड़ा ? ॥५॥
श्रीपराशरजी बोले- एक बार कुछ यदुकुमारोंने महातीर्थ पिण्डारक क्षेत्रमें विश्वामित्र, कण्व और नारद आदि महामुनियोंको देखा ॥६॥ तब यौवनसे उन्मत्त हुए उन बालकोंने होनहारकी प्रेरणासे जाम्बवतीके पुत्र साम्बका स्त्री वेष बनाकर उन मुनीश्वरोंको प्रणाम करनेके अनन्तर अति नम्रतासे पूछा- “इस स्त्रीको पुत्रकी इच्छा है, हे मुनिजन ! कहिये यह क्या जनेगी ?” ॥७-८॥
श्रीपराशरजी बोले- यदुकुमारोंके इस प्रकार धोखा देनेपर उन दिव्य ज्ञानसम्पन्न मुनिजनोंने कुपित होकर कहा- “यह एक लोकोत्तर मूसल जनेगी, जो समस्त यादवोंके नाशका कारण होगा और जिससे यादवोंका सम्पूर्ण कुल संसारमें निर्मूल हो जायगा ॥९-१०॥ मुनिगणके इस प्रकार कहनेपर उन कुमारोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों राजा उग्रसेनसे कह दिया तथा साम्बके पेटसे एक मूसल उत्पन्न हुआ ॥११॥ उग्रसेनने उस लोहमय मूसलका चूर्ण करा डाला और उसे उन बालकोंने समुद्रमें फेंक दिया, उससे वहाँ बहुत-से सरकण्डे उत्पन्न हो गये ॥१२॥ यादवोंद्वारा चूर्ण किये गये इस मूसलके लोहेका जो भालेकी नोंकके समान एक खण्ड चूर्ण करनेसे बचा उसे भी समुद्रहीमें फिकवा दिया । उसे एक मछली निगल गयी । उस मछलीको मछेरोंने पकड़ लिया तथा चीरनेपर उसके पेटसे निकले हुए उस मूसलखण्डको जरा नामक व्याधने ले लिया ॥१३-१४॥ भगवान् मधुसूदन इन समस्त बातोंको यथावत् जानते थे तथापि उन्होंने विधाताकी इच्छाको अन्यथा करना न चाहा ॥१५॥
इसी समय देवताओंने वायुको भेजा । उसने एकान्तमें श्रीकृष्णचन्द्रको प्रणाम करके कहा- “भगवन् ! मुझे देवताओंने दूत बनाकर भेजा है ॥१६॥ “हे विभो ! वसुगण, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण और साध्यादिके सहित इन्द्रने आपको जो सन्देश भेजा है वह सुनिये ॥१७॥
हे भगवन् ! देवताओंकी प्रेरणासे उनके ही साथ पृथिवीका भार उतारनेके लिये अवतीर्ण हुए आपको सौ वर्षसे अधिक बीत चुके हैं ॥१८॥ अब आप दुराचारी दैत्योंको मार चुके और पृथिवीका भार भी उतार चुके, अत: अब देवगण सर्वदा स्वर्गमें ही आपसे सनाथ हों ॥१९॥ हे जगन्नाथ ! आपको भूमण्डलमें पधारे हुए सौ वर्षसे अधिक हो गये, अब यदि आपको पसन्द आवे तो स्वर्गलोक पधारिये ॥२०॥ हे देव ! देवगणका यह भी कथन है कि यदि आपको यहीं रहना अच्छा लगे तो रहें, सेवकोंका तो यही धर्म है कि यथासमय कर्तव्यका निवेदन कर दे” ॥२१॥
श्रीभगवान् बोले- हे दूत ! तुम जो कुछ कहते हो वह मैं सब जानता हूँ, इसलिये अब मैंने यादवोंके नाशका आरम्भ कर ही दिया है ॥२२॥ इन यादवोंका संहार हुए बिना अभीतक पृथिवीका भार हल्का नहीं हुआ है, अतः अब सात रात्रिके भीतर पृथिवीका भार उतारकर मैं शीघ्र ही वही करूँगा ॥२३॥ जिस प्रकार यह द्वारकाकी भूमि मैंने समुद्रसे माँगी थी इसे उसी प्रकार उसे लौटाकर तथा यादवोंका उपसंहार कर मैं स्वर्गलोकमें आऊँगा ॥२४॥ अब देवराज इन्द्र और देवताओंको यह समझना चाहिये कि संकर्षणके सहित मैं मनुष्य-शरीरको छोड़कर स्वर्ग पहुँच ही चुका हूँ ॥२५॥ पृथिवीके भारभूत जो जरासन्ध आदि अन्य राजागण मारे गये हैं, ये यदुकुमार भी उनसे कम नहीं हैं ॥२६ ॥ अत: तुम देवताओंसे जाकर कहो कि मैं पृथिवीके इस महाभारको उतारकर ही देवलोकका पालन करनेके लिये स्वर्गमें आऊँगा ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! भगवान् वासुदेवके इस प्रकार कहनेपर देवदूत वायु उन्हें प्रणाम करके अपनी दिव्य गतिसे देवराजके पास चले आये ॥२८॥ भगवान्ने देखा कि द्वारकापुरीमें रात-दिन नाशके सूचक दिव्य, भौम और अन्तरिक्ष-सम्बन्धी महान् उत्पात हो रहे हैं ॥२९॥ उन उत्पातोंको देखकर भगवान्ने यादवोंसे कहा- “देखो, ये कैसे घोर उपद्रव हो रहे हैं, चलो, शीघ्र ही इनकी शान्तिके लिये प्रभासक्षेत्रको चलें” ॥३०॥
श्रीपराशरजी बोले- कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर महाभागवत यादवश्रेष्ठ उद्धवने श्रीहरिको प्रणाम करके कहा- ॥३१॥ “भगवन् ! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब आप इस कुलका नाश करेंगे; क्योंकि हे अच्युत ! इस समय सब ओर इसके नाशके सूचक कारण दिखायी दे रहे हैं, अत: मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं क्या करूँ ?” ॥३२-३३॥
श्रीभगवान् बोले- हे उद्धव ! अब तुम मेरी कृपासे प्राप्त हुई दिव्य गतिसे नर-नारायणके निवासस्थान गन्धमादनपर्वतपर जो पवित्र बदरिकाश्रम क्षेत्र है वहाँ जाओ । पृथिवीतलपर वही सबसे पावन स्थान है ॥३४॥ वहाँपर मुझमें चित्त लगाकर तुम मेरी कृपासे सिद्धि प्राप्त करोगे । अब मैं भी इस कुलका संहार करके स्वर्गलोकको चला जाऊँगा ॥३५॥ मेरे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण द्वारकाको समुद्र जलमें डुबो देगा; मुझसे भय माननेके कारण केवल मेरे भवनको छोड़ देगा; अपने इस भवनमें मैं भक्तोंकी हितकामनासे सर्वदा निवास करता रहूँगा ॥३६॥
श्रीपराशरजी बोले- भगवान्के ऐसा कहनेपर उद्धवजी उन्हें प्रणामकर तुरन्त ही उनके बतलाये हुए तपोवन श्रीनरनारायणके स्थानको चले गये ॥३७॥ हे द्विज ! तदनन्तर कृष्ण और बलराम आदिके सहित सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथोंपर चढ़कर प्रभासक्षेत्रमें आये ॥३८॥ वहाँ पहुँचकर कुकुर, अन्धक और वृष्णि आदि वंशोंके समस्त यादवोंने कृष्णचन्द्रकी प्रेरणासे महापान और भोजन किया ॥३९॥ पान करते समय उनमें परस्पर कुछ विवाद हो जानेसे वहाँ कुवाक्यरूप ईंधनसे युक्त प्रलयकारिणी कलहाग्नि धधक उठी ॥४०॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे द्विज ! अपना-अपना भोजन करते हुए उन यादवोंमें किस कारणसे कलह अथवा संघर्ष हुआ, सो आप कहिये ॥४१॥
श्रीपराशरजी बोले- ‘मेरा भोजन शुद्ध है, तेरा अच्छा नहीं है ।’ इस प्रकार भोजनके अच्छे-बुरेकी चर्चा करते-करते उनमें परस्पर विवाद और हाथापाई हो गयी ॥४२॥ तब वे दैवी प्रेरणासे विवश होकर आपसमें क्रोधसे रक्तनेत्र हुए एक-दूसरेपर शस्त्रप्रहार करने लगे और जब शस्त्र समाप्त हो गये तो पासहीमें उगे हुए सरकण्डे ले लिये ॥४३-४४॥
उनके हाथमें लगे हुए वे सरकण्डे वज्रके समान प्रतीत होते थे, उन वज्रतुल्य सरकण्डोंसे ही वे उस दारुण युद्धमें एक-दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥४५॥
हे द्विज ! प्रद्युम्न और साम्ब आदि कृष्णपुत्रगण, कृतवर्मा, सात्यकि और अनिरुद्ध आदि तथा पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, चारुक और अक्रूर आदि यादवगण एक-दूसरेपर एरकारूपी वज्रोंसे प्रहार करने लगे ॥४६-४७॥ जब श्रीहरिने उन्हें आपसमें लड़नेसे रोका तो उन्होंने उन्हें अपने प्रतिपक्षीका सहायक होकर आये हुए समझा और [उनकी बातकी अवहेलनाकर] एक-दूसरेको मारने लगे ॥४८॥ कृष्णचन्द्रने भी कुपित होकर उनका वध करनेके लिये एक मुट्ठी सरकण्डे उठा लिये । वे मुट्ठीभर सरकण्डे लोहेके मूसल हो गये ॥४९॥ उन मूसलरूप सरकण्डोंसे कृष्णचन्द्र सम्पूर्ण आततायी यादवोंको मारने लगे तथा अन्य समस्त यादव भी वहाँ आ-आकर एक-दूसरेको मारने लगे ॥५०॥ हे द्विज ! तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्रका क्षेत्र नामक रथ घोड़ोंसे आकृष्ट हो दारुकके देखते-देखते समुद्रके मध्यपथसे चला गया ॥५१॥ इसके पश्चात् भगवान्के शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष, तरकश और खड्ग आदि आयुध श्रीहरिकी प्रदक्षिणा कर सूर्यमार्गसे चले गये ॥५२॥
हे महामुने ! एक क्षणमें ही महात्मा कृष्णचन्द्र और उनके सारथी दारुकको छोड़कर और कोई यदुवंशी जीवित न बचा ॥५३॥ उन दोनोंने वहाँ घूमते हुए देखा कि श्रीबलरामजी एक वृक्षके तले बैठे हैं और उनके मुखसे एक बहुत बड़ा सर्प निकल रहा है ॥५४॥ वह विशाल फणधारी सर्प उनके मुखसे निकलकर सिद्ध और नागोंसे पूजित हुआ समुद्रकी ओर गया ॥५५॥ उसी समय समुद्र अर्घ्य लेकर उसके सम्मुख उपस्थित हुआ और वह नागश्रेष्ठोंसे पूजित हो समुद्रमें घुस गया ॥५६॥
इस प्रकार श्रीबलरामजीका प्रयाण देखकर श्रीकृष्णचन्द्रने दारुकसे कहा-“तुम यह सब वृत्तान्त उग्रसेन और वसुदेवजीसे जाकर कहो” ॥५७॥ बलभद्रजीका निर्याण, यादवोंका क्षय और मैं भी योगस्थ होकर शरीर छोडूंगा-जाकर सुनाओ ॥५८॥ सम्पूर्ण द्वारकावासी और आहुक से कहना कि अब इस सम्पूर्ण नगरीको समुद्र डुबो देगा ॥५९॥ इसलिये आप सब केवल अर्जुनके आगमनकी प्रतीक्षा और करें तथा अर्जुनके यहाँसे लौटते ही फिर कोई भी व्यक्ति द्वारकामें न रहे; जहाँ वे कुरुनन्दन जायँ वहीं सब लोग चले जायँ ॥६०-६१॥ कुन्तीपुत्र अर्जुनसे तुम मेरी ओरसे कहना कि “अपने सामर्थ्यानुसार तुम मेरे परिवारके लोगोंकी रक्षा करना” ॥६२॥ और तुम द्वारकावासी सभी लोगोंको लेकर अर्जुनके साथ चले जाना । वज्र यदुवंशका राजा होगा ॥६३॥
श्रीपराशरजी बोले- भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके इस प्रकार कहनेपर दारुकने उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और उनकी अनेक परिक्रमाएँ कर उनके कथनानुसार चला गया ॥६४॥ उस महाबुद्धिने द्वारकामें पहुँचकर सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया और अर्जुनको वहाँ लाकर वज्रको राज्याभिषिक्त किया ॥६५॥
इधर भगवान् कृष्णचन्द्रने समस्त भूतोंमें व्याप्त वासुदेवस्वरूप परब्रह्मको अपने आत्मामें आरोपित कर उनका ध्यान किया तथा हे महाभाग ! वे पुरुषोत्तम लीलासे ही अपने चित्तको निष्प्रपंच परमात्मामें लीनकर तुरीयपदमें स्थित हुए ॥६६॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! दुर्वासाजीने जैसा कहा था उस द्विजवाक्यका* मान रखनेके लिये वे अपनी जानुओंपर चरण रखकर योगयुक्त होकर बैठे ॥६७॥ इसी समय, जिसने मूसलके बचे हुए तोमरके आकारवाले लोहखण्डको अपने बाणकी नोंकपर लगा लिया था; वह जरा नामक व्याध वहाँ आया ॥६८॥ हे द्विजोत्तम ! उस चरणको मृगाकार देख उस व्याधने उसे दूरहीसे खड़े-खड़े उसी तोमरसे बींध डाला ॥६९॥ किंतु वहाँ पहुँचनेपर उसने एक चतुर्भुजधारी मनुष्य देखा । यह देखते ही वह चरणोंमें गिरकर बारम्बार उनसे कहने लगा-“प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥७०॥ मैंने बिना जाने ही मृगकी आशंकासे यह अपराध किया है, कपया क्षमा कीजिये । मैं अपने पापसे दग्ध हो रहा हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये” ॥७॥
श्रीपराशरजी बोले- तब भगवान्ने उससे कहा-“लुब्धक ! तू तनिक भी न डर; मेरी कृपासे तू अभी देवताओंके स्थान स्वर्गलोकको चला जा ॥७२॥ इन भगवद्वाक्योंके समाप्त होते ही वहाँ एक विमान आया, उसपर चढ़कर वह व्याध भगवान्की कृपासे उसी समय स्वर्गको चला गया ॥७३॥
उसके चले जानेपर भगवान् कृष्णचन्द्रने अपने आत्माको अव्यय, अचिन्त्य, वासुदेवस्वरूप, अमल, अजन्मा, अमर, अप्रमेय, अखिलात्मा और ब्रह्मस्वरूप विष्णुभगवान्में लीन कर त्रिगुणात्मक गतिको पार करके इस मनुष्य-शरीरको छोड़ दिया ॥७४-७५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे सप्तत्रिशोऽध्यायः
अध्याय-38 यादवों का अंत्येष्टि संस्कार परीक्षित का राज्य अभिषेक तथा पांडवों का स्वर्गारोहण
श्रीपराशरजी बोले- अर्जुनने राम और कृष्ण तथा अन्यान्य मुख्य-मुख्य यादवोंके मृत देहोंकी खोज कराकर क्रमशः उन सबके और्ध्वदैहिक संस्कार किये ॥१॥ भगवान् कृष्णकी जो रुक्मिणी आदि आठ पटरानी बतलायी गयी हैं, उन सबने उनके शरीरका आलिंगन कर अग्निमें प्रवेश किया ॥२॥ सती रेवतीजी भी बलरामजीके देहका आलिंगन कर, उनके अंग-संगके आह्लादसे शीतल प्रतीत होती हुई प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयीं ॥३॥ इस सम्पूर्ण अनिष्टका समाचार सनते ही उग्रसेन, वसदेव, देवकी और रोहिणीने भी अग्निमें प्रवेश किया ॥४॥
तदनन्तर अर्जुन उन सबका विधिपूर्वक प्रेतकर्म कर वज्र तथा अन्यान्य कुटुम्बियोंको साथ लेकर द्वारकासे बाहर आये ॥५॥ द्वारकासे निकली हुई कृष्णचन्द्रकी सहस्रों पत्नियों तथा वज्र और अन्यान्य बान्धवोंकी रक्षा करते हुए अर्जुन धीरे-धीरे चले ॥६॥ हे मैत्रेय ! कृष्णचन्द्रके मर्त्यलोकका त्याग करते ही सुधर्मा सभा और पारिजातवृक्ष भी स्वर्गलोकको चले गये ॥७॥ जिस दिन भगवान् पृथिवीको छोड़कर स्वर्ग सिधारे थे, उसी दिनसे यह मलिनदेह महाबली कलियुग पृथिवीपर आ गया ॥८॥ इस प्रकार जनशून्य द्वारकाको समुद्रने डुबो दिया, केवल एक कृष्णचन्द्रके भवनको वह नहीं डुबाता है ॥९॥ हे ब्रह्मन् ! उसे डुबानेमें समुद्र आज भी समर्थ नहीं है; क्योंकि उसमें भगवान् कृष्णचन्द्र सर्वदा निवास करते हैं ॥१०॥
वह भगवदैश्वर्यसम्पन्न स्थान अति पवित्र और समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है; उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है ॥११॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अर्जुनने उन समस्त द्वारकावासियोंको अत्यन्त धन-धान्य-सम्पन्न पंचनद देशमें बसाया ॥१२॥ उस समय अनाथा स्त्रियोंको अकेले धनुर्धारी अर्जुनको ले जाते देख लुटेरोंको लोभ उत्पन्न हुआ ॥१३॥ तब उन अत्यन्त दुर्मद, पापकर्मा और लुब्धहृदय आभीर दस्युओंने परस्पर मिलकर सम्मतिकी ॥१४॥ देखो, यह धनुर्धारी अर्जुन अकेला ही हमारा अतिक्रमण करके इन अनाथा स्त्रियोंको लिये जाता है; हमारे ऐसे बलपुरुषार्थको धिक्कार है ! ॥१५॥ यह भीष्म, द्रोण, जयद्रथ और कर्ण आदिको मारकर ही इतना अभिमानी हो गया है, अभी हम ग्रामीणोंके बलको यह नहीं जानता ॥१६॥ हमारे हाथोंमें लाठी देखकर यह दुर्मति धनुष लेकर हम सबकी अवज्ञा करता है, फिर हमारी इन ऊँची-ऊँची भुजाओंसे क्या लाभ है ?’ ॥१७॥
ऐसी सम्मतिकर वे सहस्रों लुटेरे लाठी और ढेले लेकर उन अनाथ द्वारकावासियोंपर टूट पड़े ॥१८॥ तब अर्जुनने उन लुटेरोंको झिड़ककर हँसते हुए कहा- “अरे पापियो ! यदि तुम्हें मरनेकी इच्छा न हो तो अभी लौट जाओ” ॥१९॥ किन्तु हे मैत्रेय ! लुटेरोंने उनके कथनपर कुछ भी ध्यान न दिया और भगवान् कृष्णके सम्पूर्ण धन और स्त्रीधनको अपने अधीन कर लिया ॥२०॥ तब वीरवर अर्जुनने युद्ध में अक्षीण अपने गाण्डीव धनुषको चढ़ाना चाहा; किन्तु वे ऐसा न कर सके ॥२१॥ उन्होंने जैसे-तैसे अति कठिनतासे उसपर प्रत्यंचा चढा भी ली तो फिर वे शिथिल हो गये और बहुत कुछ सोचनेपर भी उन्हें अपने अस्त्रोंका स्मरण न हुआ ॥२२॥ तब वे क्रुद्ध होकर अपने शत्रुओंपर बाण बरसाने लगे; किन्तु गाण्डीवधारी अर्जुनके छोड़े हुए उन बाणोंने केवल उनकी त्वचाको ही बींधा ॥२३॥अर्जुनका उद्भव क्षीण हो जानेके कारण अग्निसे दिये हुए उनके अक्षय बाण भी उन अहीरोंके साथ लड़नेमें नष्ट हो गये ॥२४॥
तब अर्जुनने सोचा कि मैंने जो अपने शरसमूहसे अनेकों राजाओंको जीता था, वह सब कृष्णचन्द्रका ही प्रभाव था ॥२५॥ अर्जुनके देखते-देखते वे अहीर उन स्त्रीरत्नोंको खींच-खींचकर ले जाने लगे तथा कोई-कोई अपनी इच्छानुसार इधर-उधर भाग गयीं ॥२६॥
बाणोंके समाप्त हो जानेपर धनंजय अर्जुनने धनुषकी नोंकसे ही प्रहार करना आरम्भ किया, किन्तु हे मुने ! वे दस्युगण उन प्रहारोंकी और भी हँसी उड़ाने लगे ॥२७॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अर्जुनके देखते-देखते वे म्लेच्छगण वृष्टि और अन्धकवंशकी उन समस्त स्त्रियोंको लेकर चले गये ॥२८॥ तब सर्वदा जयशील अर्जुन अत्यन्त दुःखी होकर ‘हा ! कैसा कष्ट है ? कैसा कष्ट है ?’ ऐसा कहकर रोने लगे “अहो ! मुझे उन भगवानने ही ठग लिया ॥२९॥ देखो, वही धनुष है, वे ही शस्त्र हैं, वही रथ है और वे ही अश्व हैं, किन्तु अश्रोत्रियको दिये हुए दानके समान आज सभी एक साथ नष्ट हो गये ॥३०॥ अहो ! दैव बड़ा प्रबल है, जिसने आज उन महात्मा कृष्णके न रहनेपर असमर्थ और नीच अहीरोंको जय दे दी ॥३१॥ देखो ! मेरी वे ही भुजाएँ हैं, वही मेरी मुष्टि है, । वही स्थान है और मैं भी वही अर्जुन हूँ तथापि पुण्यदर्शन कृष्णके बिना आज सब सारहीन हो गये ॥३२॥ । अवश्य ही मेरा अर्जुनत्व और भीमका भीमत्व भगवान् कृष्णकी कृपासे ही था । देखो, उनके बिना आज महारथियोंमें श्रेष्ठ मुझको तुच्छ आभीरोंने जीत लिया” ॥३३॥
श्रीपराशरजी बोले- अर्जुन इस प्रकार कहते हुए अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थमें आये और वहाँ यादवनन्दन वज्रका राज्याभिषेक किया ॥३४॥ तदनन्तर वे विपिनवासी व्यासमुनिसे मिले और उन महाभाग मुनिवरके निकट जाकर उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम किया ॥३५॥ अर्जुनको बहुत देरतक अपने चरणोंकी वन्दना करते देख मुनिवरने कहा “आज तुम ऐसे कान्तिहीन क्यों हो रहे हो ? ॥३६॥ क्या तुमने भेड़ोंकी धूलिका अनुगमन किया है अथवा ब्रह्महत्या की है या तुम्हारी कोई सुदृढ़ आशा भंग हो गयी है ? जिसके दुःखसे तुम इस समय इतने श्रीहीन हो रहे हो ॥३७॥ तुमने किसी सन्तानके इच्छुकका विवाहके लिये याचना करनेपर निरादर तो नहीं किया अथवा किसी अगम्य स्त्रीसे रमण तो नहीं किया, जिससे तुम ऐसे तेजोहीन हो रहे हो ॥३८॥ हे अर्जुन ! तुम ब्राह्मणोंको बिना दिये मिष्टान्न अकेले तो नहीं खा लेते हो अथवा तुमने किसी कृपणका धन तो नहीं हर लिया है ॥३९॥ हे अर्जुन ! तुमने सूपकी वायुका तो सेवन नहीं किया ? क्या तुम्हारी आँखें दुखती हैं अथवा तुम्हें किसीने मारा है ? तुम इस प्रकार श्रीहीन कैसे हो रहे हो ? ॥४०॥ तुमने नखजलका स्पर्श तो नहीं किया ? तुम्हारे ऊपर घड़ेसे छलके हुए जलकी छीटें तो नहीं पड़ गयीं अथवा तुम्हें किसी हीनबल पुरुषने युद्धमें पराजित तो नहीं किया ? फिर तुम इस तरह हतप्रभ कैसे हो रहे हो ?” ॥४१॥
श्रीपराशरजी बोले- तब अर्जुनने दीर्घ नि:श्वास छोड़ते हुए कहा-“भगवन् ! सुनिये” ऐसा कहकर उन्होंने अपने पराजयका सम्पूर्ण वृत्तान्त व्यासजीको ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥४२॥
अर्जुन बोले- जो हरि मेरे एकमात्र बल, तेज, वीर्य, पराक्रम, श्री और कान्ति थे, वे हमें छोड़कर चले गये ॥४३॥ जो सब प्रकार समर्थ होकर भी हमसे मित्रवत् हँस-हँसकर बातें किया करते थे, हे मुने ! उन हरिके बिना हम आज तृणमय पुतलेके समान निःसत्त्व हो गये हैं ॥४४॥ जो मेरे दिव्यास्त्रों, दिव्यबाणों और गाण्डीव धनुषके मूर्तिमान् सार थे वे पुरुषोत्तम भगवान् हमें छोड़कर चले गये हैं ॥४५॥ जिनकी कृपादृष्टिसे श्री, जय, सम्पत्ति और उन्नतिने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, वे ही भगवान् गोविन्द हमें छोड़कर चले गये हैं ॥४६॥ जिनकी प्रभावाग्निमें भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि अनेक शूरवीर दग्ध हो गये थे, उन कृष्णचन्द्रने इस भूमण्डलको छोड़ दिया है ॥४७॥ हे तात ! उन चक्रपाणि कृष्णचन्द्रके विरहमें एक मैं ही क्या, सम्पूर्ण पृथिवी ही यौवन, श्री और कान्तिसे हीन प्रतीत होती है ॥४८॥ जिनके प्रभावसे अग्निरूप मुझमें भीष्म आदि महारथीगण पतंगवत् भस्म हो गये थे, आज उन्हीं कृष्णके बिना मुझे गोपोंने हरा दिया ! ॥४९॥ जिनके प्रभावसे यह गाण्डीव धनुष तीनों लोकोंमें विख्यात हुआ था उन्हींके बिना आज यह अहीरोंकी लाठियोंसे तिरस्कृत हो गया! ॥५०॥ हे महामुने ! भगवानकी जो सहस्रों स्त्रियाँ मेरी देख-रेखमें आ रही थीं उन्हें, मेरे सब प्रकार यत्न करते रहनेपर भी दस्युगण अपनी लाठियोंके बलसे ले गये ॥५१॥ हे कृष्णद्वैपायन ! लाठियाँ ही जिनके हथियार हैं उन आभीरोंने आज मेरे बलको कुण्ठितकर मेरे द्वारा साथ लाये हुए सम्पूर्ण कृष्ण-परिवारको हर लिया ॥५२॥ ऐसी अवस्थामें मेरा श्रीहीन होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; हे पितामह ! आश्चर्य तो यह है कि नीच पुरुषोंद्वारा अपमान-पंकमें सनकर भी मैं निर्लज्ज अभी जीवित ही हूँ ॥५३॥
श्रीव्यासजी बोले- हे पार्थ ! तुम्हारी लज्जा व्यर्थ है, तुम्हें शोक करना उचित नहीं है । तुम सम्पूर्ण भूतोंमें कालकी ऐसी ही गति जानो ॥५४॥ हे पाण्डव ! प्राणियोंकी उन्नति और अवनतिका कारण काल ही है, अतः हे अर्जुन! इन जय-पराजयोंको कालके अधीन समझकर तुम स्थिरता धारण करो ॥५५॥ नदियाँ, समुद्र, गिरिगण, सम्पूर्ण पृथिवी, देव, मनुष्य, पशु, वृक्ष और सरीसृप आदि सम्पूर्ण पदार्थ कालके ही रचे हुए हैं और फिर कालहीसे ये क्षीण हो जाते हैं, अत: इस सारे प्रपंचको कालात्मक जानकर शान्त होओ ॥५६-५७॥
हे धनंजय ! तुमने कृष्णचन्द्रका जैसा माहात्म्य बतलाया है वह सब सत्य ही है; क्योंकि कमलनयन भगवान् कृष्ण साक्षात् कालस्वरूप ही हैं ॥५८॥ उन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही मर्त्यलोकमें अवतार लिया था । एक समय पूर्वकालमें पृथिवी भाराक्रान्त होकर देवताओंकी सभामें गयी थी ॥५९॥ कालस्वरूपी श्रीजनार्दनने उसीके लिये अवतार लिया था । अब सम्पूर्ण दुष्ट राजा मारे जा चुके, अतः वह कार्य सम्पन्न हो गया ॥६० ॥ हे पार्थ ! वृष्णि और अन्धक आदि सम्पूर्ण यदुकुलका भी उपसंहार हो गया; इसलिये उन प्रभुके लिये अब पृथिवीतलपर और कुछ भी कर्तव्य नहीं रहा ॥६१॥ अतः अपना कार्य समाप्त हो चुकनेपर भगवान् स्वेच्छानुसार चले गये, ये देवदेव प्रभु सर्गके आरम्भमें सृष्टि-रचना करते हैं, स्थितिके समय पालन करते हैं और अन्तमें ये ही उसका नाश करनेमें समर्थ हैं-जैसे इस समय वे [राक्षस आदिका संहार करके] चले गये हैं ॥६२॥
अतः हे पार्थ ! तुझे अपनी पराजयसे दुःखी न होना चाहिये, क्योंकि अभ्युदय-काल उपस्थित होनेपर ही पुरुषोंसे ऐसे कर्म बनते हैं जिनसे उनकी स्तुति होती है ॥६३॥ हे अर्जुन ! जिस समय तुझ अकेलेने ही युद्धमें भीष्म, द्रोण और कर्ण आदिको मार डाला था वह क्या उन वीरोंका कालक्रमसे प्राप्त हीनबल पुरुषसे पराभव नहीं था ? ॥६४॥ जिस प्रकार भगवान् विष्णुके प्रभावसे तुमने उन सबोंको नीचा दिखलाया था, उसी प्रकार तुझे दस्युओंसे दबना पड़ा है ॥६५॥ वे जगत्पति देवेश्वर ही शरीरोंमें प्रविष्ट होकर जगत्की स्थिति करते हैं और वे ही अन्तमें समस्त जीवोंका नाश करते हैं ॥६६॥
हे कौन्तेय ! जिस समय तेरा भाग्योदय हुआ था उस समय श्रीजनार्दन तेरे सहायक थे और जब उसका अन्त हो गया तो तेरे विपक्षियोंपर श्रीकेशवकी कृपादृष्टि हुई है ॥६७॥ तू गंगानन्दन भीष्मपितामहंके सहित सम्पूर्ण कौरवोंको मार डालेगा; इस बातको कौन मान सकता था और फिर यह भी किसे विश्वास होगा कि तू आभीरोंसे हार जायगा ॥६८॥
हे पार्थ ! यह सब सर्वात्मा भगवानकी लीलाका ही कौतुक है कि तुझ अकेलेने कौरवोंको नष्ट कर दिया और फिर स्वयं अहीरोंसे पराजित हो गया ॥६९॥
हे अर्जुन ! तू जो उन दस्युओंद्वारा हरण की गयी स्त्रियों के लिये शोक करता है सो मैं तुझे उसका यथावत् रहस्य बतलाता हूँ ॥७०॥ एक बार पूर्वकालमें विप्रवर अष्टावक्रजी सनातन ब्रह्मकी स्तुति करते हुए अनेकों वर्षतक जलमें रहे ॥७१॥ उसी समय दैत्योंपर विजय प्राप्त करनेसे देवताओंने सुमेरु पर्वतपर एक महान् उत्सव किया । उसमें सम्मिलित होनेके लिये जाती हुई रम्भा और – तिलोत्तमा आदि सैकड़ों-हजारों देवांगनाओंने मार्गमें उन मुनिवरको देखकर उनकी अत्यन्त स्तुति और प्रशंसा की ॥७२-७३॥ वे देवांगनाएँ उन जटाधारी मुनिवरको कण्ठपर्यन्त जलमें डूबे देखकर विनयपूर्वक स्तुति करती हुई प्रणाम करने लगीं ॥७४॥ हे कौरवश्रेष्ठ ! जिस प्रकार वे द्विजश्रेष्ठ अष्टावक्रजी प्रसन्न हों उसी प्रकार वे अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं ॥७५॥
अष्टावक्रजी बोले- हे महाभागाओ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम्हारी जो इच्छा हो मुझसे वही वर माँग लो; मैं अति दुर्लभ होनेपर भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा ॥७६॥ तब रम्भा और तिलोत्तमा आदि वैदिकी अप्सराओंने उनसे कहा- “हे द्विज ! आपके प्रसन्न हो जानेपर हमें क्या नहीं मिल गया ॥७७॥ तथा अन्य अप्सराओंने कहा “यदि भगवान् हमपर प्रसन्न हैं तो हे विप्रेन्द्र ! हम साक्षात् पुरुषोत्तमभगवानको पतिरूपसे प्राप्त करना चाहती हैं” ॥७८॥
श्रीव्यासजी बोले- तब ‘ऐसा ही होगा’- यह कहकर मुनिवर अष्टावक्र जलसे बाहर आये । उनके बाहर आते समय अप्सराओंने आठ स्थानोंमें टेढ़े उनके कुरूप देहको देखा ॥७९॥ उसे देखकर जिन अप्सराओंकी हँसी छिपानेपर भी प्रकट हो गयी, हे कुरुनन्दन ! उन्हें मुनिवरने क्रुद्ध होकर यह शाप दिया- ॥८०॥ “मुझे कुरूप देखकर तुमने हँसते हुए मेरा अपमान किया है, इसलिये मैं तुम्हें यह शाप देता हूँ कि मेरी कृपासे श्रीपुरुषोत्तमको पतिरूपसे पाकर भी तुम मेरे शापके वशीभूत होकर लुटेरोंके हाथों में पड़ोगी” ॥८१-८२॥
श्रीव्यासजी बोले- मुनिका यह वाक्य सुनकर उन अप्सराओंने उन्हें फिर प्रसन्न किया, तब मुनिवरने उनसे कहा “उसके पश्चात् तुम फिर स्वर्गलोकमें चली जाओगी” ॥८३॥
इस प्रकार मुनिवर अष्टावक्रके शापसे ही वे देवांगनाएँ श्रीकृष्णचन्द्रको पति पाकर भी फिर दस्युओंके हाथमें पड़ी हैं ॥८४॥
हे पाण्डव ! तुझे इस विषयमें तनिक भी शोक न करना चाहिये क्योंकि उन अखिलेश्वरने ही सम्पूर्ण यदुकुलका उपसंहार किया है ॥८५॥ तथा तुमलोगोंका अन्त भी अब निकट ही है; इसलिये उन सर्वेश्वरने तुम्हारे बल, तेज, वीर्य और माहात्म्यका संकोच कर दिया है ॥८६॥ ‘जो उत्पन्न हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है, उन्नतका पतन अवश्यम्भावी है, संयोगका अन्त वियोग ही है तथा संचयके अनन्तर क्षय होना सर्वथा निश्चित ही है’- ऐसा जानकर जो बुद्धिमान् पुरुष लाभ या हानिमें हर्ष अथवा शोक नहीं करते उन्हींकी चेष्टाका अवलम्बन कर अन्य मनुष्य भी अपना वैसा आचरण बनाते हैं ॥८७-८८॥ इसलिये हे नरश्रेष्ठ ! तुम ऐसा जानकर अपने भाइयोंसहित सम्पूर्ण राज्यको छोड़कर तपस्याके लिये वनको जाओ ॥८९॥ अब तुम जाओ तथा धर्मराज युधिष्ठिरसे मेरी ये सारी बातें कहो और जिस तरह परसों भाइयोंसहित वनको चले जा सको वैसा यत्न करो ॥९०॥ मुनिवर व्यासजीके ऐसा कहनेपर अर्जुनने आकर पृथा-पुत्र तथा यमजोंसे उन्होंने जो कुछ जैसा-जैसा देखा और सुना था, सब ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥९१॥ उन सब पाण्डु-पुत्रोंने अर्जुनके मुखसे व्यासजीका सन्देश सुनकर राज्यपदपर परीक्षित्को अभिषिक्त किया और स्वयं वनको चले गये ॥९२॥
हे मैत्रेय ! भगवान् वासुदेवने यदुवंशमें जन्म लेकर जो-जो लीलाएँ की थीं, वह सब मैंने विस्तारपूर्वक तुम्हें सुना दीं ॥९३॥ जो पुरुष भगवान् कृष्णके इस चरित्रको सर्वदा सुनता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर अन्तमें विष्णुलोकको जाता है ॥९४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे पंचमेंऽशे अष्टत्रिशोऽध्यायः