Shree Naval Kishori

नारदपुराण पूर्वभाग तृतीयपाद

अध्याय ५८ शैवदर्शनके अनुसार पति, पशु एवं पाश आदिका वर्णन तथा दीक्षाकी महत्ता

शौनकजी बोले- साधु सूतजी ! आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके विज्ञ पण्डित हैं | विद्वन ! आपने हमलोगोंको श्रीकृष्णकथारूपी अमृतका पान कराया है | भगवानके प्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने सनन्दके मुखसे मोक्षधर्मोंका वर्णन सुनकर पुनः क्या पूछा?  ब्रह्माजीके मानस-पुत्र सनकादि मुनीश्वर उत्तम सिद्धपुरुष हैं | वे लोगों के उद्धारमें तत्पर होकर सम्पूर्ण जगतमें विचरते रहते हैं | महाभाग ! श्रीनारदजी भी सदा कृष्ण के भजनमें सलग्न रहते हैं और उन्हींके शरणागत भक्त हैं | उन सनकादि और नारदका समागम होनेपर सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाली कौन-सी कल्याणमयी कथा हुई, यह बतानेकी कृपा करें?

   सूतजीने कहा-भृगुश्रेष्ठ ! सनन्दनजीके द्वारा प्रतिपादित सनातन मोक्षधर्मोंका वर्णन सुनकर नारदजीने पुनः उन  मुनियोंसे पूछा ।

   नारदजी बोलेमुनिश्र्वरो ! किन मन्त्रोंसे भगवान् विष्णुकी आराधना की जानी चाहिये । श्रीविष्णुके चरणोविन्दोंकी शरण लेनेवाले भक्तजनोंको किन देवताओंकी पूजा करनी चाहिये । विप्रवरो ! भागवततन्त्रका तथा गुरु और शिष्यके सम्बन्धको स्थापित करके उन्हें अपने-अपने कर्तव्यके पालनकी प्रेरणा देनेवाली दीक्षाका वर्णन कीजिये । तथा साधकोंद्वारा पालन करने योग्य प्रातःकाल आदिके जो-जो कृत्य हों, उन सबको भी हमें बताइये । जिन महीनोंमें जप, होम आदि जिन-जिन कर्मोंके अनुष्ठानसे परमात्मा श्रीहरी प्रसन्न होते हैं, उनका आपलोग मुझसे वर्णन करें |

वसिष्ट                                                                                                                         

   सूतजी कहते है-महात्मा नारदका यह वचन सुनकर सनत्कुमारजी बोले ।

   सनत्कुमारजी कहते हैंनारद ! सुनो, मैं तुमसे भागवततन्त्रका वर्णन करूँगा | जिसे जानकर साधक निर्मल भक्तिके द्वारा अविनाशी भगवान विष्णुको प्राप्त कर लेता है । (अब पहले शैवतन्त्रका वर्णन करते हैं ।) शैव-महातन्त्रमें तीन पदार्थ और चार पादोंका वर्णन है, ऐसा विद्वान पुरुष कहते हैं । भोग, मोक्ष, क्रिया और चर्या-यह शैवमहातन्त्रमें चार पाद (साधन) कहे गये हैं । पदार्थ तीन ही हैं-पशुपति, पशु तथा पाश; इनमें एकमात्र शिवस्वरूप परमात्मा ही ‘पशुपति’ हैं और जीवोको ‘पशु’ कहा गया है । नारद ! देखो, जबतक स्वरुपके अज्ञानको सूचित करनेवाले मोह आदिसे सम्बन्ध बना रहता है, तबतक इन सब जीवोंकी ‘पशु’ संख्या मानी गयी है । उनका पशुत्व दैवतभावसे युक्त है । इन पशुओंके जो पाश अर्थात् बन्धन हैं, वह पाँच प्रकार के माने गए हैं । उनमेंसे प्रत्येकका लक्षण बताया जाएगा । पशुके तीन भेद हैं-‘विज्ञानाकल’, ’प्रलयाकल’ और ‘सकल’ । इनमें प्रथम अर्थात् ‘विज्ञानाकल पशु’ ‘मल’ संयुक्त (मलरूप पाशसे आबद्ध) होता है । दूसरा ‘प्रलयाकल पशु’ ‘मल’ और ‘कर्म’-इन दो पाशोंसे संयुक्त (बद्ध) होता है । तीसरा अर्थात ‘सकल पशु’ ‘मल’, ’माया’ तथा ‘कर्म’-इन तीन पाशोंसे बाँधा हुआ कहा गया है । उक्त त्रिविध पशुओंमें जो पहला-विज्ञानाकल है, उसके दो भेद होते हैं-‘समाप्त-कलुष’ और ‘असमाप्तकुलुष’ | दूसरे-प्रलयाकल पशुके दो भेद कहे गये हैं- ‘पक्व-मल’ और ‘अपक्व-मल’ (अर्थात पक्वपाशद्वय और अपक्वपाशद्वय) । विज्ञानकल और प्रलयाकल ये दोनों जीव (पशु) शुद्ध मार्गपर स्थित होते हैं और सकल जीव कला आदि तत्वोंके अधीन होकर विभिन्न लोकमें क्रमानुसार प्राप्त हुए तिर्यक्-मनुष्यदि शरीरोंमें भ्रमण करता है । पाश पाँच प्रकारके बताये गये हैं-‘मलज’, ’कर्मज’, ’मायेय’ (मायाजन्य), ‘तिरोधानशक्तिज’ और ‘विन्दुज’ । जैसे भूसी चावलको ढके रहती है, उसी प्रकार एक भी ‘मल’ पुरुषकी अनेक शक्ति-दृक्-शक्ति (ज्ञान) और क्रियाशक्तिका आच्छादन कर लेता है यही जीवात्माओंके लिये देहान्तरकी प्राप्तिमें कारण होता है । धर्म और अधर्मका नाम है कर्म, जो विचित्र फल-भोग प्रदान करने वाला है । यह ‘कर्म’ प्रवाहरूपसे नित्य है । बीजाङ्कर-न्यायसे इसकी स्थिति अनादि मानी गई है । इस प्रकार ये प्रथम दो (मलज और कर्मज) पाश बताए गये हैं । ब्राह्मन ! अब ‘मायेय’ आदि पाशोंका वर्णन सुनो ।

 (‘विंदुज पाश’ अपरामुक्ति-स्वरूप है और शिव-स्वरूपकी प्राप्ति करानेवाले हैं, उसका स्वरूप यह है-) सत्, चित् और आनन्द जिनका स्वरूपभूत वैभव है, वे एकमात्र सर्वव्यापी सनातन परमात्मा ही सबके कारण तथा सम्पूर्ण जीवोके प्रतिरूपसे विराज रहे हैं । जो मनमें तो आता है, किंतु प्रकट नहीं होता और संसारसे निवृती (वैराग्य) प्रदान करता है; तथा दृक-शक्ति और क्रियाशक्तिके रूपमें जो स्वयं ही विद्यमान है, वह उत्कृष्ट शैव तेज है । इसके सिवा, जिस शक्तिसे समर्थ होकर जीव परमात्माके समीप दिव्य भोगसे सम्पन्न होता और पशु-समुदायकी कोटीसे सदाके लिए मुक्त हो जाता है । परमात्माकी उस एकान्तस्वरूपा आद्या शक्तिको चिद्रुपा कहते हैं । उस चिद्रूपा शक्तिसे उत्कर्षको प्राप्त हुआ ‘विन्दु’ दृक (ज्ञान) और क्रिया-स्वरुप होकर शिव-नामसे प्रतिपादित होता है, उसीको सम्पूर्ण तत्वोंका कारण बताया गया है । वह सर्वत्र व्यापक तथा अविनाशी है । उसीमें संनीहीत हुई इच्छा आदि सम्पूर्ण शक्तियाँ उसके सकाशसे अपना-अपना कार्य करती हैं । मूने ! इसलिए यह सबपर अनुग्रह करनेवाला है । जड और चेतनपर अनुग्रह करनेके लिये विश्वकी सृष्टि करते समय इसका प्रथम उन्मेष नादके रुपमें हुआ है, जो शान्ति आदिसे युक्त तथा भुवन-स्वरूप है । विप्रवर ! वह शक्ति-तत्व सावयव बताया गया है । इससे ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्तिका तथा उत्कर्ष और अपकर्षका प्रसार एवं अभाव होता है; अतः यह तत्व सदा शिवरूप है । जहां दृक्-शक्ति तिरोहित होती है और क्रियाशक्ति बढ़ जाती है, वह ईश्वर नामक तत्व गया है; जो समस्त मनोरथोंका साधक है, जहां क्रियाशक्तिका तिरोभाव और ज्ञानशक्तिका उद्रेक होता है, वह विद्यातत्व कहलाता है । जो ज्ञानस्वरूप एवं प्रकाशक है । नाद, विंदु और सकल-ये सत्-नामक तत्वके आश्रित हैं । आठ विद्येश्वरगण ईशतत्वके और सात करोड ‘मन्त्र’ गण विद्यातत्वके आश्रित है । यह सब तत्व शुद्धमार्गके नामसे कहे गये हैं । यहाँ ईश्वर साक्षात् निमित्त कारण हैं । वे ही विन्दुरूपसे सुशोभित हो यहाँ उपादानकारण बनते हैं । पाँच प्रकारके जो पाश हैं, उनका कोई समय न होनेके कारण उनका कोई निश्चित क्रम नहीं है; उनका व्यापार देखकर ही उनकी कल्पना की जाती है । वास्तवमें विचित्र शक्तियोंसे युक्त एक ही शिव नामक तत्व विराजमान है । वह शक्तियुक्त होनेसे ‘शाक्त’ कहा गया है । अन्तःकरणकी वृतियोंके भेदसे ही अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ की गई हैं, प्रभु शिव जड-चेतनपर अनुग्रह करने के लिए विविधरूप धारण करके अनादि मलसे आबद्ध जीवोंपर कृपा करते हैं । सबपर दया करनेवाले शिव सम्पूर्ण जीवोंको भोग और मोक्ष तथा जडवर्गको अपने व्यापारमें लगनेकी शक्ति-सामर्थ्य देते हैं । भगवान् शिवके समान रूपका हो जाना ही मोक्ष है, यही चेतन जीवोंपर ईश्वरका अनुग्रह है । कर्म अनादि होनेके कारण सदा वर्तमान रहते हैं; अतः उनका भोग किये बिना भी भगवत्कृपासे मोक्ष हो जाता है । इसलिए भगवान् शङ्करको अनुग्राहक (कृपा करनेवाला) कहा गया है । अविनाशी प्रभु जीवोंके भोगके लिए सूक्ष्म करणोंद्वारा अनायास ही जगतकी उत्पत्ति करते हैं । कोई भी कर्ता किसी भी कार्यमें उपादान और करणोंके बिना नहीं देखा जाता |

   (अब ‘मायापाश’ का प्रसङ्ग है-) यहाँ शक्तियाँ ही करण हैं । मायाको उपादान माना गया है । वह नित्य, एक और कल्याणमयी है । उसका न आदि है न अन्त; वह माया अपनी शक्तिद्वारा मनुष्यों और लोकोंकी उत्पत्तिका सामान्य कारण है । माया अपने कर्मोंद्वारा स्वभावतः मोहजनक होती है । उससे भिन्न ‘परा माया’ है, जो सूक्ष्म एवं व्यापक   है । इन विकारयुक्त कार्योंसे वह सर्वथा परे मानी गयी है । विद्याके स्वामी भगवान् शिव जीवके कर्मोंको देखकर अपनी शक्तियोंसे मायाको क्षोभमें डालते और जीवोंके भोगके लिए मायाके द्वारा ही शरीर एवं इन्द्रियोंकी सृष्टि करते हैं । अनेक शक्तियोंसे सम्पन्न माया पहले कालतत्वकी सृष्टि करते है । भूत, भविष्य और वर्तमान जगतका संकलन तथा लय करती है । तदन्तर माया नियमन-शक्तिस्वरूपा नियतिकी सृष्टि करती हैं । यह सबको नियममें रखती है; इसलिए नियति कही गयी है । तत्पश्चात् सम्पूर्ण विश्वको मोहमें डालनेवाली आदि-अन्तरहित नित्य माया ‘कला’-तत्वको जन्म देती है; क्योंकि एक ओरसे मनुष्योंके मलकी कलना करके वह उनमें कर्तृत्व-शक्ति प्रकट करती है; इसलिए इसका नाम कला है । यह कला ही ‘काल’ और ‘नियति’ के सहयोगसे पृथ्वीपर्यन्त अपना सारा व्यापार करती है । वही पुरुषको विषयोंका दर्शन अनुभव करानेके लिये प्रकाशस्वरूप ‘विद्या’ नामक तत्व उत्पन्न करती है । विद्या अपने कर्मसे ज्ञानशक्तिके आवरणका भेदन करके जीवात्माओंको विषयोंका दर्शन कराती है, इसलिये वह कारण मानी गयी है; क्योंकि वह विद्या भोग्य उत्पन्न करती है, जिससे पुरुष उद्धद्धशक्ति होकर परम करणके महत्-तत्व आदिको प्रेरित करके भोग्य, भोग और भोक्ताकी उद्भावना करता है । अतः वह विद्या परम करण है । भोक्ता पुरुषको भोग्य वस्तुकी प्रतीति करानेसे विद्याको ‘करण’ कहा गया है । बुद्धिके द्वारा जो चेतन-जीवको विषयका अनुभव होता है, उसीको ‘भोग’ कहते हैं । संक्षेपसे विषयाकारा बुद्धि ही सुख-दु:ख आदिके रूपमें परिणत होती है । भोक्ता को भोग्य वस्तुका अनुभव अपन-आप ही होता है । विद्या उसमें सहायकमात्र होती है । यद्यपि बुद्धि सूर्यकी भाँति प्रकाशमात्र करनेवाली है, तथापि कर्मरूप होनेके कारण उसमें स्वयं कर्तृत्व नहीं है । वह करणान्तरोंकी अपेक्षासे ही पुरुषको विषयोंका अनुभव करानेमें समर्थ होती है । पुरुष स्वयं ही करण आदि से संबंध स्थापित करता है और भोगोंकी उत्कण्ठासे स्वयं ही बुद्धि आदिको प्रेरित करता है । साथ ही उन बुद्धि आदिकी शुभाशुभ चेष्टाओंसे प्राप्त होनेवाले फलका उसीको भोग करना पड़ता है । इसलिए पुरुषका कर्तृत्व सिद्ध होता है । यदि उसमें कर्तृत्व न स्वीकार किया जाये तो उसके भोगकृतत्वका कथन भी व्यर्थ होता है । इसके सिवा, प्रधान पुरुषके द्वारा आचरित सब कर्म निष्फल हो जाता है । यदि पुरुष करण आदिका प्रेरक न हो और उसमें कर्तृत्वका अभाव हो तो उसके द्वारा भोग भी असम्भव ही है । इसलिये पुरुष ही यहाँ प्रवर्तक है । उसका कारण आदिका प्रेरक होना विद्याके द्वारा ही सम्भ्व माना गया है |

   तदन्तर कला दृढ़ वज्रलेपके सदृश रागको उत्पन्न करती है, जिससे उस वज्रलेप-रागयुक्त पुरुषमें भोग्य वस्तुके लिये क्रियाप्रवृत्ति उत्पन्न होती है, इसलिए इसका नाम राग है । इन सब तत्वोंसे जब यह आत्मा भोक्तृत्व-दशाको पहुँचाया जाता है, तब वह पुरुष नाम धारण करता है । तत्पश्चात् कला ही अव्यक्त प्रकृतिको जन्म देती है । जो पुरुषके लिये भोग उपस्थित करती है, वह अव्यक्त ही गुणमय सप्तग्रन्थि१-विधानका कारण है । इसमें गुणोंका विभाग नहीं है; जैसे आधारमें पृथ्वी आदिके भागका विभाग नहीं होता । उनका जो आधार है, वह भी अव्यक्त ही कहलाता   है । गुण तीन ही हैं । उनका अव्यक्तसे ही प्रकट्य होता है । उनके नाम है-सत्व, रज और तम । गुणोंसे ही बुद्धि इन्द्रिय-व्यापारका नियमन और विषयोंका निश्चय करती है । गुणसे त्रिविध कर्मोंके अनुसार बुद्धि भी सात्विक, राजस और तामस-भेदसे तीन प्रकारकी कही गई है । महत्-तत्वसे अहंकार उत्पन्न होता है, जो अहंभावकी वृत्तीसे युक्त होता है । इस अहंकारके ही सम्भेद (इन्द्रिय और देवता आदिके रूपमें परिणति)-से विषय व्यवहारमें आते हैं । अहंकार सत्त्वादि गुणोंके भेदसे तीन प्रकारका होता है । उन तीनोंके नाम हैं-तैजस, राजस और तामस अहंकार । उनमें तैजस अहंकारसे मनसहित ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकट हुई है । जो सत्त्वगुणके प्रकाशसे युक्त होकर विषयोंका बोध कराती हैं । क्रियाके हेतुभूत राजस अहंकारसे कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं । तामस असहंकारसे पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं, जो पाँचों भूतोंकी उत्पत्तिमें कारण हैं । इनमें मन इच्छा और संकल्पके व्यापारवाला है । अतः वह दो विकारोंसे युक्त है । वह बाह्य इन्द्रियोंका रूप धारण करके, जो उसके लिए सर्वथा उचित है, सदा भोक्ताके लिए भोगका उत्पादक है । मन अपने संकल्पसे हृदयके भीतर स्थित रहकर इन्द्रियोंमें विषय-ग्रहणकी शक्ति उत्पन्न करता है; इसलिए उसे अन्तःकरण कहते हैं | मन, बुद्धि और अहंकार-ये अन्तःकरणके तीन भेद है । इच्छा, बोध और संरम्भ (गर्व या अहंभाव)-ये क्रमशः इनकी तीन वृतीयाँ है ।

   कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका-ये ज्ञानेंद्रियाँ है । मुने ! शब्द आदि इनके ग्राह्य-विषय जानने चाहिये । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये शब्दादि विषय माने गये है । वाणी, हाथ, पैर, गुदा तथा लिङ्ग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ  है । ये बोलने, ग्रहण करने, चलने, माल-त्याग करने और मैथुनजनित आनन्दकी उपलब्धिरूपी कर्मोकी सिद्धिके करण है; क्योंकि कोई भी क्रिया कारणोंके बिना नहीं हो सकती । कार्यमें लगाकर दस प्रकारके कारणोंद्वारा चेष्टा की जाती  है । व्यापक होनेके कारण कार्यका आश्रय लेकर सब इन्द्रियाँ चेष्टा करती है, इसलिये उनका नाम करण है । आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँच तन्मात्राएँ हैं | इन तन्मात्राओंसे ही आकाश आदि पाँच भूत प्रकट होते है, जो एक-एक विशेष गुणके कारण प्रसिद्ध है । शब्द आकाशका मुख्य गुण है; किन्तु पाँचों भूतोमें सामान्य रूपसे उपलब्ध होता  है । स्पर्श वायुका विशेष गुण है; किन्तु वह वायु आदि चारों भूतोंमें विद्यमान है । रूप तेजका विशेष गुण है, जो तेज आदि तीनों भूतोंमें उपलब्ध है । रस जलका विशेष गुण है, जो जल और पृथ्वी दोनोंमें विद्यमान है तथा गन्ध नामक गुण केवल पृथ्वीमें ही उपलब्ध होता है । इन पाँचों भूतोंके कार्य क्रमशः इस प्रकार हैं-अवकाश, चेष्टा, पाक, संग्रह और धारण । वायुमें न शीत स्पर्श है न उष्ण, जलमें शीतल स्पर्श है, तेजमें उष्ण स्पर्श है, अग्निमें भास्वर शुक्लरूप है और जलमें आभास्वर शुक्ल । पृथ्वीमें शुक्ल आदि अनेक वर्ण है । रूप केवल तीन भूतोंमें है । जेलमें केवल मधुर-रस है और पृथ्वी में छः प्रकारका रस है । पृथ्वीमें दो प्रकारकी गन्ध कही गयी है-सुरभि और असुरभि । तन्मात्राओंमें उनके भूतोंके ही गुण है । करण और पोषण यह भूतसमुदायकी विशेषता है । परमात्मतत्व निर्विशेष है । ये पाँचों भूत सब और व्याप्त है । सम्पूर्ण चराचर जगत् पंचभूतमय है । शरीरमें जो इन  पाँचों भूतोंका संनिवेश है, उसका निरूपण किया जाता है । देहके भीतर जो हड्डी, मांस, केश, त्वचा, नख और दांत आदि हैं, वे पृथ्वीके अंश है । मूत्र, रक्त, कफ, स्वेद और शुक्र आदिमें जलकी स्थिति है, ह्रदयमें, नेत्रोंमें और पितमें तेजकी स्थिति है; क्योंकि वहाँ उसके उष्णत्व और प्रकाश आदि धर्मोका दर्शन होता है । शरीरमें प्राण आदि वृत्तीयोंके भेदसे वायुकी स्थिति मानी गयी है । सम्पूर्ण नाड़ियों तथा गर्भाशयमें आकाशतत्व व्याप्त है । कलासे लेकर पृथ्वीपर्यन्त यह तत्वसमुदाय सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका साधन है । प्रत्येक शरीरमें भी यह नियत है । भोग-भेदसे इसका निश्चय किया जाता है । इस प्रकार प्रत्येक पुरुषमें नियति-कला आदि तत्व कर्मवश प्राप्त हुए सम्पूर्ण शरीरोंमें विचरते हैं । यह ‘मायेय पाश’ कहलाता है । जिससे यह सम्पूर्ण जगत् आवृत है । पृथ्वीसे लेकर कलापर्यन्त संपूर्ण तत्व-समुदाय अशुद्धमार्ग माना गया है ।

   (अब ‘निरोध-शक्तीज’ पाशका वर्णन है-) भूमण्डलमें वह स्थावर-जङ्गरुपसे विद्यमान है । पर्वत और वृक्ष आदिको स्थावर कहते हैं । जङ्गमके तीन भेद हैं-स्वदेज, अण्डज और जरायुज । चराचर भूतोंमें चोरसी लाख योनियाँ हैं । उन सबमें भ्रमण करता हुआ जीव कभी कर्मवश मनुष्य-शरीर प्राप्त कर लेता है, जो सबसे उत्तम और सम्पूर्ण पुरुषार्थोंका साधक है । उसमें भी भारतवर्षमें ब्राह्मण अधिक द्विजोंके कुलमें तो महान पुण्यसे ही जन्म होता है । ऐसा जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । जन्म इस प्रकार होता है । पहले स्त्री-पुरुषका संयोग होता है, फिर रज-वीर्यके योगसे एक विन्दु गर्भाशयमें प्रवेश करता है । यह विन्दु द्वयात्मक होता है-इसमें स्त्री और पुरुष-दोनों के रज वीर्यका सम्मिश्रण होता   है । उस समय रजकी अधिकता होनेपर कन्याका जन्म होता है और वीर्यकी मात्रा अधिक होनेपर पुत्रकी उत्पत्ति होती है । उसमें मल, कर्म आदि पाशसे बाँधा हुआ कोई आत्मा जीवभावको प्राप्त होता है, वह (मल, माया और कर्म त्रिविध पाशसे युक्त होनेके कारण ) ‘सकल’ कहा गया है । गर्भमें माताके खाये हुए अन्न-पान आदिसे पोषित होकर उसका शरीर पक्ष-मास आदि कालसे बढ़ता रहता है । उसका शरीर जरायुसे ढका होता है और अनेक प्रकारके दु:ख आदिसे उसे पीड़ा पहुँचती रहती है । इस प्रकार गर्भमें स्थित जीव अपने पूर्वजन्मके शुभाशुभ कर्मोंका स्मरण करके बार-बार दु:खमग्न एवं पीड़ित होता रहता है । फिर समयानुसार वह बालक स्वयं पीड़ित होकर माता को भी पीड़ा देता हुआ नीचे मुह किये योनियन्त्र से बाहर निकलता है । बाहर आकर वह क्षणभर निश्चेष्ट रहता है । फिर रोना चाहता है । तदन्तर क्रमशः प्रतिदिन बढ़ता हुआ बाल, पौगण्ड आदि अवस्थाओंको पार करता हुआ युवावस्थामें जा पहुँचता है । इस लोकमें देहधारियोंके शरीरका इसी क्रमसे प्रादुर्भाव होता है । जो सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाला दुर्लभ मानव-जीवनको पाकर अपने आत्माका उद्धार नहीं करता, उससे बढ़कर पापी यहाँ कौन है? आहार, निद्रा, भय और मैथुन-यह सम्पूर्ण पशु आदि जीवोके लिए सामान्य कहा गया है । जो मूर्ख इन्हीं चार बातोंमें फँसा हुआ है, वह आत्महत्यारा है । अपने बन्धनका उच्छेद करना यह मनुष्योंका विशेष धर्म है ।

                       बंधननाशका उपाय                                                        

   पाशबन्धनका विच्छेद दीक्षासे ही होता है, अतः बन्धनका विच्छेद करनेके लिये मन्त्रदीक्षा ग्रहण करनी चाहिये । दीक्षा एवं ज्ञान-शक्तिसे अपने बन्धनका नाश करके शुद्ध आत्मा नामसे स्थित हुआ पुरुष निर्वाणपद (मोक्ष)-को प्राप्त होता है । जो अपनी शक्तिस्वरूपा दृष्टिसे भगवान शिवका ध्यान एवं दर्शन करता है और शिवमन्त्रों से उनकी आराधनामें तत्पर रहता है, वह अपना और दूसरोंका हितकारी है । शिवरूपी सूर्यकी शक्तिरूपी किरणसे समर्थ हुई चैतन्यदृष्टिके द्वारा पुरुष आवरणको अपनेमें लीन करके शक्ति आदिके साथ शिवका साक्षात्कार करता है । अंतःकरणकी जो बोध नामक वृत्ति है, वह निगड (बेड़ी) आदिके भाँति पाशरूप होनेके कारण माहेश्वरको प्रकाशित करनेमें समर्थ नहीं होती । दीक्षा ही पाशका उच्छेद करनेमें सर्वोत्तम हेतु है, अतः शास्त्रोक्त विधिसे मन्त्रदीक्षाका आचरण करना चाहिये । दीक्षा लेकर अपने वर्णके अनुरूप सदाचारमें तत्पर रहकर नित्य-नैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये । अपने वर्ण तथा आश्रम-सम्बन्धी आचारोंका मनसे भी लङ्गन न करे । जो मानव जिस आश्रममें दीक्षित होकर दीक्षा ले, वह उसीमें रहे और उसीके धर्मोंका निरन्तर पालन करे । इस प्रकार किये हुए कर्म भी बन्धनकारक नहीं होते । मन्त्रानुष्ठानजनित एक ही कर्म फलदायक होता है । दीक्षित पुरुष जिन-जिन लोकोंके भोगोंकी इच्छा करता है, मन्त्राराधनकी सामर्थ्यसे वह उन सबका उपभोग करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य दीक्षा ग्रहण करके नित्य और नैमित्तिक कर्मोंका पालन नहीं करता, उसे कुछ कालतक पिशाचयोनीमें रहना पड़ता है । अतः दीक्षित पुरुष नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म अवश्य करे । नित्य-नैमित्तिक आचारका पालन करनेवाले मनुष्यको उसकी दीक्षामें त्रुटि न आनेके कारण तत्काल मोक्ष प्राप्त होता है । दीक्षाके द्वारा गुरुके स्वरुपमें स्थित होकर भगवान शिव सबपर अनुग्रह करते हैं । जो लोक-परलोकके स्वार्थमें आसक्त होकर कृत्रिम गुरुभक्तिका प्रदर्शन करता है, वह सब कुछ करनेपर भी विफलताको ही प्राप्त होता है और उसे पग-पगपर प्रायशचित्तका भागी होना पड़ता है । जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा गुरूभाक्तिमें तत्पर है, उसे प्रायश्चित्त नहीं प्राप्त होता और पग-पगपर सिद्धि लाभ होता है | यदि शिष्य गुरुभक्तिसे सम्पन्न और सर्वस्व समर्पण करनेवाला हो तो उसके प्रति मिथ्या मन्त्रका प्रयोग करनेवाला गुरु प्रायश्चित्तका भागी होता है१ । (पूर्व० ६३ अध्याय)

अध्याय ५९ मन्त्रके सम्बन्धमें अनेक ज्ञातव्य बातें, मन्त्रके विविध दोष, तथा उत्तम आचार्य एवं शिष्यके लक्षण

   सनत्कुमारजी कहते हैं अब मैं जीवोंके पाश-समुदायका उच्छेद करनेके लिये अभीष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली दीक्षा विधिका वर्णन करूँगा, जो मन्त्रोंको शक्ति प्रदान करनेवाली है | दीक्षा दिव्य भाव को देती है और पापोंको क्षय करती है | इसलिये सम्पूर्ण आगमोंके विद्वानोंने उसे दीक्षा कहा है | मननका अर्थ है सर्वज्ञता और त्राणका अर्थ है संसारी जीवपर अनुग्रह करना | इस मनन और त्राणधर्मसे युक्त होनेके कारण मन्त्रका मन्त्र नाम सार्थक होता है |

                                      मन्त्रोंके लिंगभेद

   मंत्र तीन प्रकार के होते हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक | स्त्री-मन्त्र वे हैं जिनके अन्तमें दो ‘ठ’ अर्थात् ‘स्वाहा’ लगे हों | जिनके अन्तमें ‘हूम्’ और ‘फट्’ है वे पुरुष मन्त्र कहे गये हैं | जिनके अन्त में ‘नमः’ लगा होता है, वह मन्त्र नपुंसक है इस प्रकार मन्त्रोंकी जातियाँ बतायी गयी है | सभी मन्त्रों के देवता पुरुष हैं और सभी विद्याओं की स्त्री देवता मानी गयी है | वे त्रिविध मन्त्र छः कर्मोंमें१ प्रयुक्त होते हैं | जिसमें प्राणवान्त रेफ (रां) और स्वाहाका प्रयोग हो, वे मन्त्र  आग्नेय (अग्निसम्बन्धी) कहे गये हैं | मुने ! जो मन्त्र भृगुबीज (सं) और पीयूष-बीज (वं)-से युक्त है,  वे सौम्य (सोमसम्बन्धी) कहे गये हैं | इस प्रकार मनीषी पुरुषोंको सभी मन्त्र अग्निषोमात्मक जानने चाहिये | जब श्वास पिङ्गला नाड़ीमें स्थित हो अर्थात दाहिनी साँस चलती हो तो आग्नेय मन्त्र जाग्रत् होते हैं और जब श्वास इडा नाड़ीमें स्थित हो अर्थात बायीं साँस चलती हो तो सोम-सम्बन्धी मन्त्र जागरुक होते हैं | जब इडा और पिङ्गला दोनों नाड़ीयोंमें साँस चलती हो अर्थात बायाँ और दाहिना दोनों स्वर समानभावसे चलते हों तो सभी मन्त्र जाग्रत् होते हैं | यदि मन्त्र के सोते समय उसका जप किया जाये तो वह अनर्थरूप फलदेनेवाला है | प्रत्येक मन्त्रका उच्चारण करते समय उनका श्वास रोककर उच्चारण न करे | अनुलोमक्रममें बिंदु (अनुस्वार) युक्त और विलोमक्रममें विसर्गसंयुक्त मन्त्रोंका उच्चारण करे | यदि जपा हुआ मन्त्र देवताको जाग्रत् कर सका तो वह शीघ्र सिद्धि देनेवाला होता है उस मालासे जपा हुआ दुष्ट मन्त्र भी सिद्ध होता है | क्रूर कर्ममें आग्नेय मन्त्र का उपयोग होता है और सोमसम्बन्धी मन्त्र  सौम्य फल देनेवाले होते है | शान्त, ज्ञान और अत्यन्त रौद्र-ये मन्त्रोंकी तीन जातियाँ हैं | शान्तिजातिसमन्वित शान्त मन्त्र भी ‘हुं फट्’ यह पल्लव जोड़नेसे रौद्र भाव धारण कर लेता है |

                                         मंत्रोंके दोष

   छिन्नता आदि दोषोंसे युक्त मन्त्र साधककी रक्षा नहीं कर पाते | छिन्न, युद्ध शक्तिहीन, पराङ्मुख, कर्णहीन, नेत्रहीन, कीलित, स्तम्भित, दग्ध, त्रस्त, भीत, मलिन, तिरस्कृत, भेदित, सुषुप्त, मदोन्मत्त, मूर्च्छित, हतवीर्य, भ्रान्त, प्रध्वस्त, बालक, कुमार, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, निस्त्रिंशक, निर्बीज, सिद्धिहीन, मन्द, कूट, निरंशक, सत्त्वहीन, केकर, बीजहीन, धूमित, आलिङ्गित, मोहित, क्षुधार्त्त, अतिदीप्त, अङ्गहीन, अतिक्रुद्ध, अतिक्रूर, व्रिडित (लज्जित), प्रशान्तमानस, स्थानभ्रष्ट, विकल, अतिवृद्ध, अतिनिःस्नेह तथा पीड़ित–ये (४९) मन्त्रके दोष बताये गये हैं | अब मैं इनके लक्षण बतलाता हूँ | जिस मन्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें संयुक्त, वियुक्त या स्वरसहित तीन-चार अथवा पाँच बार अग्निबीज (रं)-का प्रयोग हो, वह मन्त्र ‘छिन्न’ कहलाता है | जिसके आदि, मध्य और अन्तमें दो बार भूमिबीज (लं)- उच्चारण होता हो उस मन्त्रको ‘रुद्ध’ जानना चाहिये | वह बड़े क्लेशसे सिद्धिदायक होता है | प्रणव और कवच (हुं) ये तीन बार जिस मन्त्रमें आये हों वह लक्ष्मीयुक्त होता है | ऐसी लक्ष्मीसे हीन जो मन्त्र है उसे ‘शक्तिहीन’ जानना चाहिये | वह दीर्घकालके बाद फल देता है | जहाँ आदिमें कामबीज, (क्लीं), मध्यमें मायाबीज (ह्रीं) और अन्तमें अङ्कुश बीज (क्रों) हो, वह मंत्र ‘पराङ्मुख’ जानना चाहिये | वह साधकोंको चिरकालमें सिद्धि देनेवाला होता है | यदि आदि, मध्य और अन्तमें सकार देखा जाये, तो वह मन्त्र ‘बधिर’ (कर्णहीन) कहा गया है | वह बहुत कष्ट उठानेपर थोड़ा फल देनेवाला है | यदि पञ्चाक्षर-मन्त्र हो, किंतु उसमें रेफ, मकार और अनुस्वार न हो तो उसे ‘नेत्रहीन’ जानना चाहिये | वह क्लेश उठानेपर भी सिद्धिदायक नहीं होता | आदि, मध्य और अन्तमें हंस (सं), प्रसाद तथा वागबीज (ऐं) हो अथवा हंस और चन्द्रबिन्दु या सकार, फकार अथवा हुं हो तथा जिसमें मा, प्रा और नमामि पद न हो वह मन्त्र  ‘कीलित’ माना गया है | इसी प्रकार मध्यमें और अन्तमें भी वे दोनों पद न हों तथा जिसमें फट् और लकार न हों,  वह मन्त्र ‘स्तम्भित’ माना गया है, जो सिद्धिमें रुकावट डालनेवाला है | जिस मन्त्रके अन्तमें अग्नि (रं) बीज वायु (य) बीजके साथ हो तथा जो सात अक्षरोंसे युक्त१ दिखायी देता हो वह ‘दग्ध’ संज्ञक मंत्र है | जिसमें दो, तीन, छः, या आठ अक्षरोंके साथ अस्त्र (फट्) दिखायी दे, उस मन्त्रको ‘त्रस्त’ जानना चाहिये | जिसके मुखभागमें प्रणवरहित हकार अथवा शक्ति हो, वही मन्त्र ‘भीत’ कहा गया है | जिसके आदि मध्य और अन्तमें चार ‘म’ हों मन्त्र ‘मलिन’ माना गया है | वह अत्यन्त क्लेशसे सिद्धिदायक होता है | जिस मन्त्रके मध्यभागमें द अक्षर और अन्तमें दो क्रोध (हुं हुं) बीज हो और उनके साथ अस्त्र (फट्) भी हो, तो वह मन्त्र ‘तिरस्कृत’ कहा गया है | जिसके अन्तमें ‘म’ और ‘य’ तथा ‘हृदय’ हो और मध्यमें वषट् एवं वौषट् हो वह मन्त्र ‘भेदित’ कह गया है | उसे त्याग देना चाहिये; क्योंकि वह बड़े क्लेशसे फल देनेवाला होता है | जो तीन अक्षरों युक्त तथा हंसहीन है, उस मन्त्र को ‘सुषुप्त’ कहा गया है | जो विद्या अथवा मन्त्र सतरह अक्षरोंसे युक्त हो तथा जिसके आदिमें पाँच बार फट्का प्रयोग हुआ हो उसे ‘मदोन्मत्त’ माना गया है | जिसके मध्य भागमें फट्का प्रयोग हो उस मन्त्रको ‘मूर्छित’ कहा गया है | जिसके विरामस्थानमें अस्त्र (फट्)-का प्रयोग हो वह हाथ ‘हतवीर्य’ कहा जाता है | मन्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें चार अस्त्र (फट्)-का प्रयोग हो तो उसे ‘भ्रान्त’ जानना चाहिये | जो मन्त्र अठारह अथवा बीस अक्षरवाला होकर कामबीज (क्लीं)-से युक्त होकर साथ ही उसमें हृदय, लेख अङ्कुशके भी बीज हों तो उसे ‘प्रध्वस्त’ कहा गया है | सात अक्षरवाला मन्त्र ‘बालक’, आठ अक्षरवाला मन्त्र ‘कुमार’, सोलह अक्षरोंवाला ‘युवा’, चौबीस अक्षरोंवाला ‘प्रौढ़’ तथा बीस, चौसठ, सौ और चार सौ अक्षरोंका मन्त्र ‘वृद्ध’ कहा गया है | प्रणवसहित नवार्ण-मन्त्रको ‘निस्त्रिंश’ कहते हैं | जिसके अन्तमें ह्रदय (नमः) कहा गया हो, मध्यमें शेरोमन्त्र (स्वाहा)-का उच्चारण होता हो और अन्तमें शिखा (वषट्), वर्म (हुं), नेत्र (वौषट्) और अस्त्र (फट्) देखे जाते हों तथा जो शिव एवं शक्ति अक्षरों हीन हो, उस मन्त्रको ‘निर्बीज’ मन गाया है | जिसके आदि, मध्य और अन्तमें छः बार फट्का प्रयोग देखा जाता हो, वह मन्त्र ‘सिद्धिहीन’ होता है | पाँच अक्षरके मन्त्रको ‘मन्द’ एकाक्षर मन्त्रको ‘कूट’ कहते हैं | उसीको ‘निरंशक’ भी कहा गया है | दो अक्षरका मन्त्र ‘सत्त्वहीन’, चार अक्षरका मन्त्र ‘केकर’ और छः या साढ़े सात अक्षरका मन्त्र ‘बीजहीन’ कहा गया है | साढ़े बारह अक्षरके मन्त्रको ‘धूमित’ माना गया है | वह निन्दित है | साढ़े तीन बीजसे युक्त बीस, तीस तथा इक्कीस अक्षरका मन्त्र ‘आलिङ्गित’ कहा गया है | जिसमें दन्तस्थानीय अक्षर हों वह मन्त्र ‘मोहित’ बताया गया है | चौबीस या सत्ताईस अक्षरके मन्त्रको ‘क्षुधार्त’ जानना  चाहिये | वह मन्त्र सिद्धिसे रहित होता है | छब्बीस, छत्तीस तथा उनतीस अक्षरके मन्त्रको ‘हीनाङ्ग’ माना गाय है | अट्ठाईस और इकतीस अक्षरका मन्त्र ‘अत्यन्त क्रूर’ (और ‘अतिक्रुद्ध’) जानना चाहिये, वह सम्पूर्ण कर्मोंमें निन्दित माना गया है | चालीस अक्षरसे लेकर तिरसठ अक्षरोंतकका जो मन्त्र है, उसे ‘व्रीडित’ (लज्जित) समझना चाहिये | वह सब कार्योंकी सिद्धिमें समर्थ नहीं होता | पैंसठ अक्षरके मन्त्रोंको ‘शान्तमानस’ जानना चाहिये | मुनेश्वर ! पैंसठ अक्षरोंसे लेकर निन्यानबे अक्षरोंतकके जो मन्त्र है, उन्हें ‘स्थानभ्रष्ट’ जानना चाहिये | तेरह या पंद्रह अक्षरोंके जो मन्त्र हैं, उन्हें सर्वतन्त्र-विशारद विद्वानोंने ‘विकल’ कहा है | सौ, डेढ़ सौ, दो सौ, दो सौ इक्यानबे अथवा तीन सौ अक्षरोंके जो मन्त्र होते हैं, वे ‘नि:स्नेह’ कहे गये है | ब्राह्मन् ! चार सौसे लेकर एक हजार अक्षरतकके मन्त्र प्रयोगमें ‘अत्यन्त वृद्ध’ माने गये हैं | उन्हें शिथिल कहा गया है | जिनमें एक हजारसे भी अधिक अक्षर हों, उन मन्त्रोंको ‘पीडित’ बताया गया है | उनसे अधिक अक्षरवाले मन्त्रोंको स्त्रोत्ररूप माना गया है | इस प्रकारके मन्त्र दोषयुक्त कहे गए हैं | अब मैं ‘छिन्न’ आदि दोषोसे दूषित मन्त्रोंका साधन बताता हूँ | जो योनिमुद्रासनसे बैठकर एकाग्रचित हो जिस किसी भी मन्त्रका जप करता है, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं | बायेँ पैरकी एड़ीको गुदाके सहारे रखकर दाहिने पैरकी एड़ीकों  ध्वज (लिङ्ग)-के ऊपर रखे तो इस प्रकार योनिमुद्राबन्ध नामक उत्तम आसन होता है |

आचार्य और शिष्यके लक्षण

   जो कुलपरम्पराके क्रमसे प्राप्त हुआ हो, नित्य मन्त्र-जपके अनुष्ठानमें तत्पर हो, गुरुकी आज्ञाके पालनमें अनुरक्त हो तथा अभिषेकयुक्त हो; शान्त, कुलीन और जितेन्द्रिय हो, मन्त्र और तन्त्रके तात्विक अर्थका ज्ञाता तथा निग्रहानुग्रहमें समर्थ हो; किसीसे किसी वस्तुकी अपेक्षा न रखता हो, मननशील, इन्द्रियसंयमी, हितवचन बोलनेवाला, विद्वान्, तत्व निकालनेमें चतुर, विनयी हो; किसी-न-किसी आश्रमकी मर्यादामें स्थित, ध्यानपरायण, संशय-निवारण करनेवाला, परम बुद्धिमान् और नित्या सत्यकर्मोंके अनुष्ठानमें संलग्न रहनेवाले हो, उसे ही ‘आचार्य’ कहा गया है | जो शान्त, विनयशील, शुद्धत्मा, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त, शम आदि साधनोंसे सम्पन्न, श्रद्धालु, सुस्थिर विचार या हृदयवाला, खाना-पानमें शारीरिक शुद्धिसे युक्त, धार्मिक, शुद्धचित, सुदृढ़, व्रत एवं सुस्थिर आचारसे युक्त, कृतज्ञ एवं पापसे डरानेवाले हो, गुरुकी सेवामें जिसका मन लगता हो, ऐसे शील-स्वभावका पुरुष आदर्श शिष्य हो सकता है; अन्यथा वह गुरुको दु:ख देनेवाला होता है | (पूर्व० ६४ अध्याय)

अध्याय ६० मन्त्र— शोधन, दीक्षाविधि, पंचदेवपूजा, तथा जपपूर्वक इष्टदेव और आत्मचिंतनका विधान

सनत्कुमारजी कहते हैं गुरुको चाहिये कि वह शिष्य की परीक्षा लेकर मन्त्र का शोधन करे | पूर्वसे पश्चिम और दक्षिणसे उत्तर (रंगमें डुबोये हुए) पाँच-पाँच सुत गिरावे (तात्पर्य यह है कि पाँच खड़ी रेखाएँ खींचकर उनके ऊपर पाँच  पड़ी रेखाएँ खींचे) | इस प्रकार चार-चार कोष्ठोंके चार समुदाय बनेंगे | उनमेंसे फासले चौकेका प्रथम कोष्ठमें एक, दूसरेके प्रथममें दो, तीसरेके प्रथममें तीन और चौथेके प्रथममें चार लिखे | (इसी क्रमसे आगेकी संख्याएँ भी लीख ले |)   प्रथममें कोष्ठमें ‘अ’ लिखकर उसके आग्नेय कोणोमें उससे पाँचवाँ अक्षर लिखे | इस प्रकार सभी कोष्ठोंमें क्रमश: अक्षरोंको लिखकर बुद्धिमान् पुरुष मन्त्रक संशोधन करे | साधकके नामका आदि-अक्षर जिस कोष्ठोंमें हो, वहाँसे लेकर जहाँ मन्त्रका आदि-अक्षर हो उस कोष्ठतक प्रदक्षिणक्रमसे गिनना चाहिये | यदि उसी चौक में मन्त्रका आदि अक्षर हो, जिसमें नामका आदि-अक्षर है तो वह ‘सिद्ध’ चौक कहा जायगा | उससे प्रदक्षिणक्रम से गिरनेपर यदि द्वितीय चौकमें मन्त्रका आदिअक्षर हो तो वह ‘साध्य’ कहा गया है | इसी प्रकार तीसरा चौक ‘सुसिद्ध’ और चौथा चौक ‘अरि’ नामसे प्रसिद्ध है | यदि साधकके नामसम्बन्धी और मन्त्रसम्बन्धी आदिअक्षर प्रथम चौकके पहले ही कोष्ठमें पड़े हों तो वह मन्त्र ‘सिद्धसुसिद्ध’ माना गया है | यदि मन्त्रवर्ण प्रथम चौकके द्वितीय कोष्ठमें पड़ा हो तो वह ‘सिद्धसाध्य’ कहा गया है | प्रथम के तृतीय कोष्ठमें हो तो ‘सिद्धसुसिद्ध’ होगा और चौथेमें हो तो ‘सिद्धारि’ कहलायेगा | नामक्षरयुक्त चौकसे दूसरे चौकमें यदि मन्त्रका अक्षर हो, तो पहले जहाँ नामका अक्षर था वहाँके उसको कोष्ठसे आरम्भ करके क्रमशः पूर्ववत् गणना करे | द्वितीय चौकके प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ कोष्ठमें मन्त्राक्षर होनेपर उसकी क्रमश: ‘साध्य-सिद्धि’, ‘साध्यसाध्य’, साध्यसुसिध्य’ तथा ‘साध्य-अरि’ संज्ञा होगी | तीसरे चौकमें मन्त्रका अक्षर हो तो मनीषी पुरुषोंको पूर्वोक्त रीतिसे गणना करनी चाहिये | तृतीय चौकके प्रथम आदि कोष्ठोंके अनुशर क्रमशः उस मन्त्रकी ‘सुसिद्धिसिद्धि’, ‘सुसिद्धि-साध्य’, ‘सुसिद्धिसुसिद्धि’ तथा मन्त्राक्षर हो तो भी विद्वान पुरुष इसी प्रकार गणना करे | चतुर्थ चौकके प्रथम आदि कोष्ठोंके अनुसार उस यन्त्रकी ‘अरिसिद्ध’, ‘अरिसाध्य’, ‘अरिसुसिद्ध’ तथा ‘अरि-अरि’ यह संज्ञा होगी | सिद्धसिद्ध मन्त्र शास्त्रोक्त विधिसे उतनी ही संख्यामें जप करनेपर सिद्ध हो जायगा | परंतु सिद्धसाध्य मन्त्र शास्त्रोक्त संख्यासे आधा जा करनेपर ही सिद्ध हो जायगा | परंतु सिद्धारि मन्त्र कुटुम्बीजनोंका नाश करता है | साध्यसिद्ध मन्त्र दूनी संख्यामें जप करनेसे सिद्ध होता है | साध्यसाध्य मन्त्र बहुत विलम्बसे सिद्ध होता है |  साध्यसुसिद्ध भी द्विगुण जपसे सिद्ध होता है; किंतु साध्यारि मन्त्र बन्धु-बान्ध्वोंका हनन करता है | सुसिद्धिसिद्ध आधे ही जपसे सिद्ध हो जाता है |    सुसिद्धसाध्य द्विगुण जप से सिद्ध होता है | सुसिद्धसिद्ध मन्त्र प्राप्त होते ही सिद्ध हो जाता है और सुसिद्धारि मन्त्र सारे कुटुम्बका नाश करता है | अरिसिद्ध पुत्रनाशक है तथा अरिसाध्य कन्याका नाश करनेवाला होता है | अरिसुसिद्ध स्त्रीका नाश करता है और अरि-अरि मन्त्र साधकका ही नाश करनेवाले माना गया है | मुने ! यहाँ  मन्त्रशोधनके और भी बहुत प्रकार हैं, किंतु यह अकथह नामक चक्र सबमें प्रधान है; इसलिये यही  तुम्हें बताया गया है१ |

   इस प्रकार मन्त्रका भलीभाँति शोधन करके शुद्ध समय और पवित्र स्थानमें गुरु शिष्यको दीक्षा दे | अब दक्षिणा विधान बताया जाता है | प्रातःकाल नित्यकर्म करके पहले गुरुचरणोंकी पादुकाको प्रणाम करे | तत्पश्चात् आदरपूर्वक वस्त्र आदिके द्वारा भक्तिभावसे सद्गुरुकी पोज करके उनसे अभीष्ट मन्त्रके लिये प्रार्थना करे | तदन्तर गुरु संतुष्टचित हो स्वस्तिवाचनपूर्वक मण्डल आदि विधान करके शिष्यके साथ पवित्र हो यज्ञमण्डपमें प्रवेश करें | फिर सामान्य अर्ध्य जलसे द्वारका अभिषेक करके अस्त्र-मन्त्रोंसे दिव्य विघ्नोंका निवारण करे; इसके बाद आकाशमें स्थित विघ्नोंको तीन बार ताली बजाकर हटावे, तत्पश्चात् कार्य प्रारम्भ करे | भिन्न-भिन्न रंगोंद्वारा शास्त्रोक्तविधिसे सर्वतोभद्रमण्डलकी रचना करके उसमें बह्रिमण्डल और उसकी कलाओंका पूजन करे | तत्पश्चात् अस्त्र­­-मन्त्रका उच्चारण करके धोये हुए यथाशक्तिनिर्मित कलशकी वहाँ विधिपूर्वक स्थापना करके सूर्यकी कलाका यजन करे | विलोममातृकाके मूलका उच्चारण करते हुए शुद्ध जलसे कलशको भरे और उसके भीतर सोमकी कलाओंका विधिपूर्वक पूजन करे | ध्रुमा, अर्चि, ऊष्मा, ज्वालिनी, ज्वालिनी, विस्फुलीङ्गिनी, सुश्री, स्वरूपा, कपिला तथा हव्य-क्व्यवाहा-ये अग्निकी दस कलाएँ कही गयी हैं | अब सूर्यकी बारह कलाएँ बतायी जाती हैं-तपिनी, तापिनी, ध्रुमा, मरीचि ज्वालिनी, रुचि, सुषम्णा, भोगदा, विश्वा, बोधिनी, धारिणी तथा क्षमा | चन्द्रमाकी, कलाओंके नाम इस प्रकार जानने चाहिये-अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चन्द्रिका, कान्ति, ज्योत्स्त्रा, श्री, प्रीति, अङ्गदा, पूर्णा और पुरणामृता-ये सोलह चन्द्रमकी कलाएँ काही गयी हैं |

   कलशको दो वस्त्रोंसे लपेट करके उसके भीतर सर्वोषधि डाले | फिर नौ रत्न छोड़कर पञ्चपल्लव डाले | कटहल, आम, बड़, पीपल और वकुल-इन पाँच वृक्षोंके पल्लवोंको यहाँ पञ्चपल्लव माना गया है | मोती, माणिक्य, वैदूर्य, गोमेद, व्रज विद्रुम (मूँगा), पद्यराग, मरकत तथा नीलमणि-इन नौ रत्नोंको क्रमश: कलशमें छोड़कर उसमें इष्ट देवताका आवाहन करे और मन्त्रवेता आचार्य विधिपूर्वक देवपूजाका कार्य सम्पन्न करके वास्त्राभूषणोंसे विभूषित शिष्यको वेदीपर बिठावे और प्रोक्षणीके जलसे उसका अभिषेक करे | फिर उसके शरीरमें विधिपूर्वक भूतशुद्धि आदि करके न्यासोंके द्वारा शरीरशुद्धि करे और मस्तकमें पल्लव मन्त्रोंका न्यास करके एक सौ आठ मूलमन्त्रद्वारा अभिमन्त्रित जलसे प्रिय शिष्यका अभिषेक करे | उस समय मन-ही-मनमूलमन्त्रका जप करते रहना चाहिये | अवशिष्ट जलसे आचमन करके शिष्य दूसरा वस्त्र धारण करे और गुरुको विधिपूर्वक प्रणाम करके पवित्र हो उनके सामने बैठे | तदनन्तर गुरु शिष्यके मस्तकपर हाथ देकर जिस मन्त्रकी दीक्षा देनी हो, उसका विधिपूर्वक एक सौ आठ बार जप करे | ‘सम:अस्तु’ (शिष्य मेरे समान हो) इस भावसे शिष्यको अक्षर-दान करे | तब शिष्य गुरुकी पूजा करे | इसके बाद गुरु शिष्यके मस्तकपर चन्दनयुक्त हाथ रखकर एकाग्रचित हो, उसके कानमें आठ बार मन्त्र कहे | इस प्रकार मन्त्रका उपदेश पाकर शिष्य भी गुरुके चरणोंमें गिर जाय | उस समय गुरु इस प्रकार कहे, ‘बेटा ! उठो | तुम बन्धनमुक्त हो गये | विधिपूर्वक सदाचारी बनो | तुम्हें सदा कीर्ति, श्री, कान्ति, पुत्र, आयु, बल और आरोग्य प्राप्त हो |’ तब शिष्य उठकर गन्ध आदिके द्वारा गुरुजी पूजा करे और उनके लिये दक्षिणा दे | इस प्रकार गुरुमन्त्र पाकर शिष्य उसी समयसे गुरुसेवामें लग जाय | बीचमें अपने इष्टदेवका पूजन करे और उन्हें पुष्पाञ्जलि देकर अग्नि, निर्रिति और वागीशका क्रमश: पूजन करे | जब मध्यमें भगवान विष्णुका पूजन करे तो उनके चरों ओर क्रमश: गणेश, सूर्य, देवी तथा शिवकी पूजा करे और जब मध्यमें भगवान शंकरकी पूजा करे तो उनके पूर्वादी दिशाओंमें क्रमश: सूर्य, गणेश, देवी तथा विष्णुका पूजन करे | जब मध्यमें देवीकी पूजा करे तो उनके चरों ओर क्रमशः शिव, देवी, सूर्य और विष्णुका पूजा करे और जब मध्यभागमें सूर्यकी पूजा करे तो पूर्वादी दिशाओंमें क्रमश: गणेश, विष्णु, देवी और शिवकी पूजा करे | इस प्रकार प्रतिदिन आदरपूर्वक पञ्चदेवोंका पूजन करना चाहिये |

   विद्वान पुरुषको चाहिये कि ब्राहमुहूर्तमें उठकर लघुशंका आदि आवश्यक कार्य कर ले और यदि लघुशंका आदि न लगी हो तो श्य्यापर बैठे-बैठे ही अपने गुरुदेवको नमस्कार करे-तदनन्तर पादुकामन्त्रका दस बार जप और समर्पण करके गुरुदेवको पुनः प्रणाम और उनका स्तवन करे ।

   फिर मूलाधारसे ब्रह्मरन्ध्रतक मूलविद्याका चिन्तन करे । मूलाधारसे निम्नभागमें गोलाकार वायुमण्डल है, उसमें वायुका बीज ‘या’ कार स्थित है । उस बीजसे वायु प्रवाहित हो रही है । उससे ऊपर अग्निका त्रिकोणमण्डल है । उसमें जो अग्निका बीज ‘र’ कार है, उससे आग प्रकट हो रही है । उक्त वायु तथा अग्निके साथ मूलाधारमें स्थित शरीरवाली कुलकुण्डलिनीका ध्यान करे, जो सोये हुए सर्पके समान आकारवाली है । वह स्वयं भूलिड्गको आवेष्टित करके सो रही है । देखनेमें वह कमलकी नालके समान जान पड़ती है । वह अत्यन्त पतली है और उसके अङ्गोंसे करोड़ों विद्युतोंकी-सी प्रभा छिटक रही है । इस प्रकार कुलकुण्डलिनीका ध्यान करके भावनात्मक कूर्च (कूँची)-के द्वारा उसे जगाकर उठाये और सुषुम्णा नाड़ीके मार्गसे क्रमशः छः: चक्रोंका भेदन करनेवाली उस कुण्डलिनीको गुरुकी बतायी हुई विधिके अनुसार विद्वानू पुरुष ब्रह्मरध्रतक ले जाय और वहाँके अमृतमें निमग्र करके आत्माका चिन्तन करे । मानो आत्मा उसके प्रभापुल्जसे व्याप्त है । वह निर्मल, चिन्मय तथा देह आदि से परे है । फिर उस कुण्डलिनीको अपने स्थानपर पहुँचाकर हृदयमें इष्टदेवका चिन्तन करे और मानसिक उपचारों से  उनका पूजन करके निमनाङ्कित मन्त्रसे प्रार्थना करे-

त्रैलोक्यचैतन्यमयादिदेव

श्रीनाथ वैष्णो भवदाज्ञयैव |

प्रातः समुत्थाय तव प्रियार्थ

संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये ||

   ‘आदिदेव ! लक्ष्मोकान्त ! विष्णो ! त्रिलोकीका चैतन्य आपका स्वरूप है । आपकी आज्ञासे ही प्रात:काल उठकर आपका प्रिय कार्य करनेके लिये मैं संसारयात्राका अनुसरण करूँगा । ‘ ब्रह्मन् ! यदि इष्टदेव कोई दूसरा देवता हो तो पूर्वोक्त मन्त्रमें ‘विष्णो’ आदिके स्थानमें ऊहाद्वारा उसके वाचक शब्द या नामका प्रयोग कर लेना चाहिये ।  तत्पश्चात्‌ सम्पूर्ण सिद्धिकि लिये अजपा जप निवेदन करे । दिन-रातमें जीव ‘इक्कीस हजार छः सौ’ बार सदा अजपा नामक गायत्रीका जप करता है । इस अजपा मन्त्रके ऋषि हंस हैं, अव्यक्त गायत्री छन्द कहा गया है । परमहंस देवता हैं । आदि (हं)  बीज और अन्त (स:) शक्ति है, तत्पश्चात् षडङ्गन्यास करे । सूर्य, सोम, निरञ्जन, निराभास, धर्म और ज्ञान-ये छः अङ्ग हैं । क्रमश: इनके पूर्वमें ‘हंस:’ और अन्तमें  ‘आत्मने’ पद जोड़कर श्रेष्ठ साधक इनका छः अङ्गोंमें न्यास करे । हकार सूर्यके समान तेजस्वी होकर शरीरसे बाहर निकलता है और सकार वैसे ही तेजस्वी रूपसे प्रवेश करता है । इस प्रकार हकार और सकारका ध्यान कहा गया है, इस तरह ध्यान करके बुद्धिमान्‌ पुरुष वह्नि और अर्कमण्डलमें विभागपूर्वक जप अर्पण करे ।

   मूलाधारचक्रमें चार दलका कमल है, जो बन्धूकपुष्पके समान लाल है । उसके चारों दलोंमें क्रमश: ‘व श ष स’-ये अक्षर अङ्कित् हैं । उसमें अपनी शक्तिके साथ गणेशजी विराजमान हैं । वे अपने चारों हाथोंमें क्रमश: पाश, अङ्कुश, सुधापात्र तथा मोदक लेकर उल्लसित हैं । ऐसे वाकपति गणेशजीको छ: सौ जप अर्पण करे । स्वाधिष्ठान- चक्रमें छः दलोंका कमल है । वह चक्र मूँगेके समान रंगका है । उसके छः दलोंमें क्रमश: ‘ब भ म य र ल’ ये अक्षर अङ्कित हैं । उसमें कमलजन्मा ब्रह्माजी हंसारुढ होकर विराजमान हैं | उनके वामङ्ग-भागमें उनकी ब्रह्मीशक्ति सुशोभित हैं | वे विद्याके अधिपति हैं | ऐसे ब्रह्माजीको छः हजार जप निवेदन करे | मणिपूर चक्रमें दशदल कमल विद्यमान है | उसके प्रत्येक दलपर क्रमशः ‘ड ढ ण त थ द ध न प फ’ ये अक्षर अङ्कित हैं | उसकी प्रभा विद्युद्विलसित मेघके समान है | उसमें शङ्ख, गदा और पद्य धारण करनेवाले भगवान विष्णु लक्ष्मीसहित विराजमान हैं | उसमें शूल, अभय, वर, और अमृतकलश धारण करनेवाले वृषभारूढ़ भगवान रुद्र विराज रहे हैं | उनके वामङ्ग-भागमें उनकी शक्ति पार्वतीदेवी विद्यमान हैं | वे विद्याके अधिपति हैं | विद्वान पुरुष उन रुद्रदेवको छः हाजर जप निवेदन करे | विशुद्ध चक्र षोडशदल कमलसे युक्त है | उसके प्रत्येक दलपर क्रमशः स्वरवर्ण (अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लृ ए ऐ ओ औ अं अ:) अङ्कित हैं | वह चक्र शुक्ल वर्णका है | उसमें महाज्योतिसे प्रकाशित होनेवाले इन्द्रियाधिपति ईश्वर विराजमान हैं, जो प्राणशक्तिसे युक्त हैं | उन्हें एक सहस्त्र जप अर्पण करे | आज्ञाचक्रमें दो दलोंवाला कमल है, उसके दलोंमें क्रमश: ‘ह’ और ‘क्ष’ अङ्कित हैं; उसमें पराशक्तिसे युक्त जगदगुरु सदाशिव विराजमान हैं; उन्हें एक सहस्त्र जप अर्पण करे | सहस्त्रार-चक्रमें सहस्त्र दलोंसे युक्त महाकमल विद्यमान है, उसमें नाद-बिन्दुसहित समस्त मातृकावर्ण विराजमान हैं | उसमें स्थित वर और अभययुक्त हाथोंवाले परम आदिगुरुको एक सहस्त्र जप निवेदन करे | फिर चुल्लूमें जल लेकर इस प्रकार कहे-‘स्वभावत: होते रहनेवाले इक्कीस हजार छः सौ अजपा जपका पूर्वोक्तरूपसे विभागपूर्वक संकल्प करनेके कारण मोक्षदाता भगवान विष्णु मुझपर प्रसन्न हों |’ इस अजपा गायत्रीके संकल्पमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है | ‘मैं ब्रह्म ही हूँ संसारी जीव नहीं हूँ | नित्यमुक्त हूँ, शोक मेरा स्पर्श नहीं कर सकता | मैं सच्चिदानन्द-स्वरूप हूँ |’ इस दैहिक कृत्य और देवार्चन करे | उसका विधान और सदाचारका लक्षण मैं बताऊँगा | (पूर्व० ६५ अध्याय)

अध्याय ६१ शौचाचार, स्नान, संध्या तर्पण, पूजागृहमें देवताओंका पूजन, केशव— कित्यार्यदी मातृका— न्यास, श्रीकंठमातृका, गणेशमातृका, कला— मातृका आदि न्यासोंका वर्णन

   सनत्कुमारजी कहते हैंतदन्तर बायीं या दाहिनी जिस ओरकी साँस चलती हो, उसी ओरका बायाँ अथवा दाहिना पैर पृथ्वीपर उतारे और इस प्रकार प्रार्थना करे-

समुद्रमेंखले देवी पर्वतस्तनमंडले ।

विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमास्व में ॥६६॥१-२

   ‘पृथ्वी देवी ! समुद्र तुम्हारी मेंखला (कटिबंध) और पर्वत स्तनमंडल है । विष्णुपत्नी ! तुम्हें नमस्कार है, मैंने जो तुम्हें चरणोंसे स्पर्श किया है, मेरे इस अपराधको क्षमा करो ।’

   इस प्रकार भूदेवीसे क्षमा-प्रार्थना करके विधिपूर्वक विचरण करें । तदन्तर गाँव नैऋत्य कोणमें जाकर इस मन्त्रका उच्चारण करें-

गछन्तु ऋषयो देवाः पिशाचा चे च गुह्यकाः

पितृभूतगणाः सर्वे करिष्ये मलमोचनम् ॥३-४

   ‘यहां जो ऋषि, देवता, पिशाच, गुहयक, पितर तथा भूतगण हों, वे चले जाय, मैं यहाँ मल-त्याग करूँगा ।’

   ऐसा कहकर तीन बार ताली बजावे और सिरको वस्त्रसे आच्छादित करके मल-त्याग करें । रात हो तो दक्षिणकी ओर मुँह करके बैठे और दिनमें उत्तरकी ओर मुँह करके मलत्याग करें । तत्पश्चात मिट्टी और जलसे शुद्धि करें । लिङ्गमें एक बार, गुदामें तीन बार, बायें हाथमें दस बार, फिर दोनों हाथोंमें सात बार तथा पैरोंमें तीन बार मिट्टी  लगावे । इस प्रकार शौच-सम्पादन करके बारह बार जलसे कुल्ला करें । उसके बाद दाँतुनके लिये निम्नाङकित मन्त्रसे  वनस्पतिकी प्रार्थना करें-

आयुर्बलं यशो र्चः प्रजाः पशुवसुनि च

श्रियं प्रज्ञं च मेंधं च त्वं नो देहि वनस्पते ॥८

   ‘वनस्पति ! तुम हमें आयु, बल, यश, तेज, संतान, पशु, धन, लक्ष्मी, प्रज्ञा, (ज्ञानशक्ति) तथा मेधा  (धारणशक्ति) दो- ।’

   इस प्रकार प्रार्थना करके मन्त्रका साधक बारह अंगुलकी दाँतुन लेकर एकाग्रचित हो उससे दाँत और मुखकी शुद्धि   करें । तत्पश्चात नदी आदिमें नहानेके लिये जाय, उस समय देवताके गुणोंका कीर्तन करता रहे । जलाशयमें जाकर उसको नमस्कार करके स्नानोपयोगी वस्तु-वस्त्र आदिको तटपर रखकर मूल (इष्ट) मन्त्रसे अभिमंत्रित मिट्टी लेकर उसे कटिसे से पैरतकके अङ्गोंमें लगावे और फिर जलाशयके जलसे उसे धो डालें । तदन्तर पाँच बार पैरोंको धोकर जलके भीतर प्रवेश करें और नाभीतकके जलमें पहुंचकर खड़ा हो जाय । उसके बाद जलाशय की मिट्टी लेकर बाएँ हाथकी कलाई, हथेली पर उसके अग्रभागमें लगावे और अंगुलीसे जलाशयकी मिट्टी लेकर मन्त्रज्ञ विद्वान अस्त्र (फट)-के उच्चारण उसे अपने ऊपर घुमाकर छोड़ दे । फिर हथेलीकी मिट्टीको छ: आङ्गोंमें उनके मंत्रोंद्वारा लगावे । तदन्तर  डुबकी लगाकर भलीभाँति उन अङ्गोंको धो डालें । यह जल-स्नान बताया गया है । इसके बाद संपूर्ण जगतको अपने इष्टदेवका स्वरूप मानकर आंतरिक स्नान करें । अनन्त सूर्यके समान तेजस्वी तथा अपने आभूषण और आयुधोंसे संपन्न मंत्रमूर्ति भगवानका चिंतन करके यह भावना करे कि उनके चरणोंदकसे प्रकट हुई दिव्य धारा ब्रह्मरध्रसे मेरे शरीरमें प्रवेश कर रही है । फिर उस धारासे शरीरके भीतरका सारा मल भावनाद्वारा ही धो डालें । ऐसा करनेसे मंत्रका साधक तत्काल रजोगुणसे रहित हो स्वच्छ स्फटिकके समान शुद्ध हो जाता है । तत्पश्चात मंत्रसाधक शास्त्रोंक्तविधिसे स्नान करके एकाग्रचित हो मंत्र-स्नान करें । उसका विधान बताया जाता है । पहले देश-कालका नाम लेकर संकल्प करें, फिर प्राणायाम और षडङ्ग-न्यास करेंके दोनों हाथोंसे मुष्टिकी मुद्रा बनाकर सूर्यमंडलसे आते हुए तीर्थों का आवाहन करें-

ब्रह्माण्डोदरतीर्थानि करेः स्पृष्टानि ते रवे ।

तेसत्येन में देव देही तीर्थं दिवाकर ॥

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति

नर्मदे सिंधुकावेरी जलेअस्मिन् सनिधिं कुरु ॥

( ना० पुर्व० ६६ । २५-२७ )

   ‘सूर्यदेव ! ब्रह्मांडके भीतर जितने तीर्थ है, उन सबका आपकी किरने स्पर्श करती है । दिवाकर ! इस सत्यके अनुसार मेंरे लिए यही सब तीर्थ प्रदान कीजिए । गंगे, यमुने, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदे, सिंधु, कावेरी ! आप इस जलमें निवास करें ।’

   इस प्रकार जलमें सब तीर्थोंका आवाहन करके उन्हे सुधाबीज (वं)-से युक्त करे । फिर गोमुद्रासे उनका अमृतिकरण करके उन्हें कवचसे अवगुण्ठित  करे । फिर अस्त्रमुद्राद्वारा संरक्षण करके चक्रमुद्राका प्रदर्शन करे । तत्पश्चात उस जलमें विद्वान पुरुष अग्रि, सूर्य और चंद्रमाके मंडलोंका चिंतन करे । फिर सूर्यमंत्र और अमृतबीजके द्वारा उस जलको अभिमंत्रित करे । तदन्तर मूल-मंत्रसे ग्यारह बार अभिमंत्रित करके उसके मध्यभागमें पुजा-यंत्रकी भावना करे और ह्रदयसे देवताका आवाहन करके स्नान कराकर मानसिक उपचारसे उनकी पूजा करे । इष्टदेव सिंहासनपर विराजमान   हैं , इस भावनासे उन्हें नमस्कार करके विद्वान पुरुष उस जलको प्रणाम करके-

आधारः सर्वभूतानां विष्णोरतुलतेजसः

तद्रूपाशच ततो जाता आपस्ताः प्रणमाम्यहम्

(३२ । ३३)

   ‘जल संपूर्ण भूतोंका और अतुल तेजस्वी भगवान विष्णुका आधार है । अतः वह विष्णुस्वरूप है; इसलिए मैं उसे प्रणाम करता हूं।’

   इस प्रकार नमस्कार करके साधक अपने शरीरके सात छिद्रोंको बंद करके जलमें डुबकी लगावे और उसमें मूलमंत्रका इष्टदेवके स्वरुपमें ध्यान करें । तीन बार डुबकी लगावे और ऊपर आवे । तत्पश्चात दोनों हाथोंको घड़ेकी मुद्रामें रखकर उसके द्वारा सिरको सींचे ।

   फिर श्रीशालिग्रामशिलाका जल (भगवतच्र्णामृत) पान करें । कभी इसके विरुद्ध आचरण न करें । यह शास्त्रका नियत विधान है । तदन्तर मंत्रका साधक अपने इष्टदेवका सूर्यमंडलमें विसर्जन करके तटपर आवे और यत्नपूर्वक वस्त्र धोकर दो शुद्ध वस्त्र (धोती और अंगोछा) धारण करके विद्वान पुरुष संध्या आदि करें । रोगादिके कारण स्नानादिमें असमर्थ हो, वह वहाँ जलसे स्नान न करके और अघमर्षण करे अथवा आशक्त मनुष्य भस्म धूलसे स्नान करे । तदन्तर शुभ आसनपर बैठकर संध्यादि कर्म करे । ॐ केशवाय नमः नारायणाय नमः ॐ माधवाय नमः इन मंत्रोंसे तीन बार जलका आचमन करके ॐ गोविंदाय नमः ॐ विष्णवे नमः-इन मंत्रोंका उच्चारण करके दोनों हाथ धो ले । फिर मधुसूदन नमः त्रिविक्रमाय नमः से दोनों ओष्ठोंका मार्जन करें । तत्पश्चात वामनाय नमः श्रीधराय नमः से मुख और दोनों हाथोंका स्पर्श करें। हृषिकेशाय नमः पद्यनाभाय नमः से दोनों चरणोंका स्पर्श करें । दामोदराय नमः से मूर्धा (मस्तक) का, संकर्षनाय नमः से मुखका वासुदेवाय नमः प्रद्युमनाय नमः से क्रमशः दाएं-बाएं नासिकाका स्पर्श करे । अनिरुद्धाय नमः पुरुषोत्तमाय नमः से पूर्ववत दोनों नेत्रोंका तथा अधोक्षजाय नमः’, नृसिंहाय नमः से दोनों कानोंका स्पर्श करें । अच्युताय नमः से नाभिका, ‘ जनार्दनाय नमः’ वक्षःस्थलका तथा हरये नमः’, ॐ विष्णवे नमः से दोनों कंधोंका स्पर्श करें । यह वैष्णव आचमनकी विधि है । आदिमें प्रणाम और अंतमें चतुर्थीका एकवचन तथा नमः पद जोड़कर पूर्वोक्त केशव आदि नामोंद्वारा मुख आदिका स्पर्श करना चाहिये । मुख और नासिकाका स्पर्श तर्जनी अंगुलीसे करें । नेत्रों तथा कानोंका स्पर्श अनामिकाद्वारा करे तथा नाभिदेशका स्पर्श कनिष्ठा  अंगुलिसे करे । अङ्गुष्ठका स्पर्श सभी अंगोंमें करना   चाहिये । स्वाहा पद अंतमें जोड़कर चतुर्थ्यन्त आत्मतत्व, विद्यातत्व और शिवतत्वका उच्चारण करके जो आचमन किया जाता है, उसे शेव आचमन कहा गया है।  आदिमें क्रमशः दीर्घत्रय, अनुस्वार और ह अर्थात- हां हीं हूं में जोड़कर स्वाहान्त आत्मतत्व विद्यातत्व और शिवतत्व शब्दोंके उच्चारणपूर्वक किए हुए आचमनको तो शैव कहते हैं और आदि में क्रमशः ‘ऐं, ह्री, श्री’ इस बीचके साथ स्वाहान्त उक्त नामोंका उच्चारण करके किए हुए आचमनको शक्त आचमन कहा गया है। ब्रह्मण ! वाग्बीज (एं), लज्जाबिज (ह्री) और श्रीबीज (श्रीं)-का प्रारंभमें प्रयोग करनेसे वह आचमन अभीष्ट अर्थको देने वाला होता है।

    तदन्तर ललाटमें सुंदर गदाकी-सी आकृतिवाला तिलक लगावे । ह्रदयमें नंदक नामक खडकी और दोनों बाहोपर क्रमशः शङ्ख और चक्रकी आकृति बनाने उत्तम बुद्धि वाला वैष्णव पुरुष क्रमशः मस्तक, कर्णमूल, पार्श्व भाग, पीठ, नाभि तथा कुकुदमें भी शार्ङ्ग नामक धनुष तथा बाणका न्यास करे । इस प्रकार वैष्णव पुरुष तीर्थ जनहित मृतिका (गोपीचंदन) आदिसे तिलक करे । अथवा शैवजन त्र्यंबकमंत्रसे अग्रिहोत्रका भस्म लेकर ‘अग्रिरिती भस्म’  इत्यादि मंत्रसे अभिमंत्रित करके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान-इन नामों द्वारा क्रमशः ललाट, कंधे, उदर, भुजा और हृदयमें पांच जगह त्रिपुंड लगावेके उपासकको त्रिकोणकी आकृतिका  अथवा स्त्रियाँ जैसे बेंदी लगाती है, उस तरह का तिलक करना चाहिये | वैदिक संध्या करने के बाद मंत्रका साधक विधिवत आचमन करके तांत्रिक संध्या करे | पूर्ववत  जलमें तीर्थोंका आह्वान करे ले | तत्पश्चात कुशासे तीन बार पृथ्वीपर जल छिड़के | फिर उसी जल से सात बार अपने मस्तक पर अभिषेक करें फिर प्राणायाम और षडअंगन्यास करके बायें हाथमें जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक ले | और मंत्रज्ञ पुरुष आकाश, वायु, अग्नि जल तथा पृथ्वीके बीजमंत्रोंद्वारा उसे अभिमंत्रित करके तत्वमुद्रापूर्वक हाथसे चूते हुए जलविंदुओंद्वारा मूलमंत्रसे अपने मस्तकको सात बार सिंचे,  फिर शेष जलको मन्त्रका साधक बीजाक्षरोंसे अभिमन्त्रित करके नासिकाके समीप ले आवे | उस तेजोमय जलको भावनाद्वारा इडा नाडीसे भीतर खींचकर उसके अन्तरके सारे मलोंको धो डाले, फिर कृष्णवर्णमें परिणत हुए उस जलको पिङगला नाड़िसे बाहर निकाले और अपने आगे व्रजमय प्रस्तरकी कल्पनाकरके अस्त्रमन्त्र (फट) का उच्चारण करते हुए उस जलको नाश करनेवाला अघमर्षण कहा गया है | फिर मन्त्रवेता पुरुष हाथ-पैर धोकर पूर्ववत आचमन करके खड़ा हो ताँबेके पात्रमें पुष्प-चन्दन आदि डालकर मूलान्त मन्त्रका उच्चारण करते हुए सूर्यमण्डलमें विराजमान इष्टदेवको अर्घ्य दे | इस प्रकार तीन बार अर्घ्य देकर रविमण्डलमें स्थित आराध्यदेवका ध्यान करे | तत्पश्चात अपने-अपने कल्पमें बतायी हुई गायत्रीका एक सौ आठ या अट्ठाईस बार जप करे | जपके अन्तमें गुहयातिगुह्यगोप्वी त्वंइत्यादि मन्त्रसे व्हा जप समर्पित करे, तदन्तर गायत्रीका ध्यान करे |

   फिर विधिज्ञ पुरुष देवताओं, ऋषियों तथा अपने पितरोंका तर्पण करके कल्पोक्त पद्धतिसे अपने इष्टदेवका भी तर्पण करे | तत्पश्चात गुरुपङक्तिका तर्पण करके अङ्गों, आयुधों और आवरणोंसहित विनतानन्दन गरुड़का साङगं सावरणं सायुधं वैनतेयं तर्पयामि ऐसा कहकर तर्पण करे । इसके बाद नारद, पर्वत, जिष्णु, निशठ, उद्धव, दारुक, विष्वक्सेन तथा शैलेयका वैष्णव पुरुष तर्पण करे । विपेन्द्र ! इस प्रकार तर्पण करके विवस्वान्‌ सूर्यको अर्घ्य दे पूजाघरमें आकर हाथ-पैर धोकर आचमन करे । फिर अग्निहोत्रमें स्थित गार्हपत्य आदि अग्रियोंकी तृप्तिके लिये हवन करके यत्रपूर्वक उनकी उपासना करके पूजाके स्थानमें आकर द्वारपूजा प्रारम्भ करे । द्वारकी ऊपरी शाखामें गणेशजीकी, दक्षिण भागमें महालक्ष्मीकी, वाम भागमें सरस्वतीकी, दक्षिणमें पुन: विघ्नराज गणेशकी, वाम भागमें क्षेत्रपालकी, दक्षिणमें गंगाकी, वाम भागमें यमुनाकी, दक्षिणमें धाताकी, वाम भागमें विधाताकी, दक्षिणमें शडखनिधिकी तथा वाम-भागमें पद्मनिधिकी पूजा करे । तत्पश्चात्‌ विद्वान्‌ पुरुष तत्तत्कल्पोक्त, द्वारपालोंकी पूजा करे । नन्द, सुनन्द, चण्ड, प्रचण्ड, प्रचल, बल, भद्र तथा सुभद्र ये वैष्णव द्वारपाल हैं । नन्दी, भृङ्गी, रिटि, स्कन्द, गणेश, उमामहेश्वर, नन्दीवृषभ तथा महाकाल-ये शैव द्वारपाल हैं । ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी आदि जो आठ मातृका शक्तियाँ हैं, वे स्वयं हो द्वारपालिका हैं । इन सबके नामके आदि-अक्षरमें अनुस्वार लगाकर उसे नामके पहले बोलना चाहिये । नामके चतुर्थी विभक्त्यन्त रूपके बाद नम: लगाना चाहिये | यथा-‘ नं नन्दाय नम:’ इत्यादि । इन्हीं नाममन्त्रोंसे इन सबकी पूजा करनी चाहिये ।

वैष्णव-मातृका-न्यास

   इसके बाद बुद्धिमान्‌ पुरुष पवित्र हो मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक आसनपर बैठकर आचमन करे और यत्नपूर्वक स्वर्ग, अन्तरिक्ष तथा पृथ्वीके विघनोंका निवारण करनेके अनन्तर श्रेष्ठ वैष्णव पुरूष केशव-कीर्त्यादि मातृका-न्यास   करे । कीर्तिसहित केशव, कान्तिसहित नारायण, तुष्टिक साथ माधव, पुष्टिके साथ गोविन्द, धृतिके साथ विष्णु, शान्तिके साथ मधुसूदन, क्रियाके साथ त्रिविक्रम, दयाके साथ वामन, मेधाके साथ श्रीधर, हर्षाके साथ हषीकेश, पदयनाभके साथ श्रद्धा, दामोदरके साथ लज्जा, लक्ष्मीसहित वासुदेव, सरस्वतीसहित संकर्षण,  प्रीतिके साथ प्रद्युम्न, रतिके साथ अनिरुद्ध, जयाके साथ चक्री, दुर्गाके साथ गदी, प्रभाके साथ शाङ्र्गी, सत्याके साथ खङ्गी, चण्डाके साथ शड्खी, वाणीके साथ हली, विलासिनीके साथ मुसली, विजयाके साथ शूली, विरजाके साथ पाशी, विशवाके साथ अङ्कुशी, विनदाके साथ मुकुन्द, सुनन्दाके साथ नन्दज, स्मृतिके साथ नन्दी, वृद्धिके साथ नर, समृद्धिकि साथ नरकजित्‌, शुद्धिके साथ हरि, बुद्धिके साथ कृष्ण, भुक्तिके साथ सत्य, मुक्तिके साथ सात्वत, क्षमासहित सौरि,  रमासहित सूर, उमासहित जनार्दन (शिव), कलेदिनीसहित भूधर, क्लिन्नाके साथ विश्वमूर्ति, वसुधाके साथ वैकुण्ठ, वसुदाके साथ पुरुषोत्तम, पराके साथ बली, परायणाके साथ बलानुज, सुक्ष्माके साथ बाल, संध्याके साथ वृषहन्ता, प्रज्ञोके साथ वृष, प्रभाके साथ हंस, निशाके साथ वराह, धाराके साथ विमल तथा विद्युतके साथ नृसिंहका न्यास करे । इस केशवादि मातृका-न्यासके नारायण ऋषि, अमृताद्या गायत्री छन्द और विष्णु देवता हैं । भगवान्‌ विष्णु चक्र आदि आयुधोंसे सुशोभित हैं, उन्होंने हाथोंमें कलश और दर्पण ले रखा है, वे श्रीहरि श्रीलक्ष्मीजीके साथ शोभा पा रहे हैं, उनकी अङ्गकान्ति विद्युत्‌के समान प्रकाशमान है और वे अनेक प्रकारके दिव्य आभधूषणोंसे विभूषित हैं; ऐसे भगवान्‌ विष्णुका मैं भजन करता हूँ । इस प्रकार ध्यान करके शक्ति (हीं), श्री (श्री) तथा काम (क्लीं) बीजसे सम्पुटित ‘अ’ आदि एक-एक अक्षरका ललाट आदिमें न्यास करे । उसके साथ आदिमें प्रणव लगाकर श्रीविष्णु और ‘उनकी शक्तिके चतुर्थ्यन्त नाम बोलकर अन्तमें ‘नम:’ पद जोड़कर बोले |१

   एक अक्षर ‘अ’ का ललाटमें, फिर एक अक्षर ‘आ’ का मुखमें, दो अक्षर ‘इ’ और ‘ई’-का क्रमश: दाहिने और बाँयें नेत्रमें और दो अक्षर ‘उ’ ‘ऊ’ का क्रमश: दाहिने-बायें कानमें न्यास करे । दो अक्षर ‘ऋ’ ‘ॠ’ का दायीं-बायीं नसिकामें, दो अक्षर ‘लृ’ ‘लॄ’ का दायें-बायें कपोलमें, दो अक्षर ‘ए’ ‘ऐ’ का ऊपर-नीचेके औष्ठमें, दो अक्षर ‘ओ’ ‘औ’ का ऊपर-नीचेकी दन्तपंक्तिमें, एक अक्षर ‘अं’ का जिह्वामूलमें तथा एक अक्षर ‘अ:’ का ग्रीवामें न्यास करे । दाहिनी बाँहमें कवर्गका और बायीं बाँहमें चवर्गका न्यास करे । टवर्ग और तवर्गका दोनों पैरोंमें तथा ‘प’ और ‘फ’ का दोनों कुक्षियोंमें न्यास करे । पृष्ठवंशमें ‘ब’ का, नाभिमें ‘भ’ का और हृदयमें ‘म’ का न्यास करे । ‘य’ आदि सात अक्षरोंका शरीरकी सात धातुओंमें, ‘ह’ का प्राणमें तथा ‘ळ’ का आत्मामें न्यास करे। ‘क्ष’ का क्रोधमें न्यास करना चाहिये | इस प्रकार क्रमसे मातृका वर्णोंका न्यास करके मनुष्य भगवान्‌ विष्णुकी पूजामें समर्थ होता है ।

शैव-मातृका-न्यास

   [भगवान्‌ शिवके उपासकको केशव-किर्त्यादि मातृका-न्यासकी भाँति श्रीकण्ठेशादि मातृका-न्यास करना चाहिये ।] पूर्णादरीके साथ श्रीकण्ठेशका, विरजाके साध अनन्तेशका, शाल्मलीके साथ सृक्ष्मेशका, लोलाक्षीके साथ त्रिमूर्तीशका, वर्तुलाक्षीके साथ महेशका और दीर्घघोणाके साथ अर्घीशका न्यास करे । दीर्घमुखीके साथ भारभूतीशका, गोमुखीके साथ तिथीशका, दीर्घजिह्वासाथ स्थाण्वीशका, कुण्डोदरीके साथ हरेशका, ऊर्ध्वकेशीके साथ झिण्टीशका, विकृतास्याके साथ भौतिकेशका, ज्वालामुखीके साथ सद्योजातेशका, उल्कामुखीके साथ अनुग्रहेशका, आस्थाके साथ अक्रूरका, विद्याके साथ महासेनका, महाकालीके साथ क्रोधीशका, सरस्वतीके साथ चण्डेशका, सिद्धगौरीके साथ पञ्चाकेशका, त्रैलोक्यविद्याके साथ शिवोत्तमेशका, मन्त्र-शक्तिके साथ एकरुद्रेशका, कमठीके साथ कूर्मेशका, भूतमाताके साथ एकनेत्रेशका, लम्बोदरीके साथ चतुर्वक्त्रेशका, द्राविणीके साथ अजेशका, नगरीके साथ सर्वेशका, खेचरीके साथ सोमेशका, मर्यादाके साथ लाङगलीशका, दारुकेशके साथ रूपिणीका तथा वीरिणीके साथ अर्धनारीशका न्यास करना चाहिये । काकोदरीके साथ उमाकान्त (उमेश)-का और पूतनाके साथ आपाढ़ीशका न्यास करे। भद्रकालीके साथ दण्डीशका, योगिनीके साथ अत्रीशका, शड़्खिनीके साथ मीनेशका, तर्जनीके साथ मेपेशका, कालयत्रिके साथ लोहितेशका, कुब्जनीके साथ शिखीशका, कपर्दिनीके साथ छलगण्डेशका, व्रजाके साथ के साथ द्विरण्डेशका, जयाके साथ महाबलेशका, सुमुखेश्वरीके साथ बलीशका, रेवतीके साथ भुजङ्गेशका, माध्वीके साथ पिनाकीशका, वारुणीके साथ खङ्गीशका, वायवीके साथ विदारणीके साथ श्वेतोरस्केशका, सहजाके साथ् भृग्वीशका, लक्ष्मीके साथ लकुलीशका, व्यापिनीके शिवेशका तथा महामायाके साथ संवर्तकेशका न्यास करे । यह श्रीकण्ठमातृका कही गयी है । जहाँ ‘ईश’ पद न कहा गया हो, वहाँ सर्वत्र उसकी योजना कर लेनी चाहिये । इस श्रीकण्ठमातृका-न्यासके दक्षिणामूर्ति ऋषि और गायत्री छन्द कहा गया है । अर्धनारीश्वर देवता है और सम्पूर्ण मनोरथोंकी प्राप्तिकि लिये इसका विनियोग कहा गया है । इसके हल् बीज और स्वर शक्तियाँ हैं । भृगु (स)-में स्थित आकाश (ह)-की छः दीघोंसे युक्त करके उसके द्वारा अङ्गन्यास करे१ । इसके बाद भगवान्‌ शङ्करका इस प्रकार ध्यान करे । उनका श्रोविग्रह बन्धूकमुष्प एवं सुवर्णके समान है । वे अपने हाथोंमें वर, अक्षमाला, अङ्कुश और पाश धारण करते हैं । उनके मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट सुशोभित है । उनके तीन नेत्र हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनके चरणोंकी वन्दना करते हैं ।

गाणपत्य-मातृका-न्यास

 

   इस प्रकार शिवशक्तिका ध्यान करके अन्तमें चतुर्थी विभक्ति और नम: पद जोड़कर तथा आदिमें गणेशजीका अपना बीज लगाकर मातृकास्थलमें एक-एक मातृका वर्णके साथ शक्तिसहित गणेशजोका न्यास करे । ह्रीके साथ विघ्रश तथा श्रीके साथ विध्नराजका न्यास करे२ । पुष्टिक साथ विनायक, शान्तिके साथ शिवोत्तम, स्वस्तिसहित विघ्नकृत्‌ सरस्वतीसहित विघ्रहर्ता, स्वाहासहित गणनाथ, सुमेधासहित एकदन्त, कान्तिसहित द्विदन्त, गजमुख मोहिनीसहित निरञ्जन, नटीसहित कपर्दी, पार्वतीसहित दीर्घजिह्वा, ज्वालिनीसहित शङ्कुकर्ण, नन्दासहित वृषध्वज, सुरेशीसहित गणनायक, कामरूपिणीके साथ गजेन्द्र; उमाके साथ शूर्पकर्ण, तेजोवतीके साथ विरोचन, सतीके साथ लम्बोदर, विश्नेशीके साथ महानन्द, सुरूपिणीसहित चतुर्मूर्ति कामदासहित सदाशिव, मदजिह्वासहित आमोद, भूतिसहित दुर्मुख, भौतिकीके साथ सुमुख, सिताके साथ प्रमोद, रमाके साथ एकपाद, महिषीके साथ द्विजिहल, जम्भिनीके साथ शुर, विकर्णाकि साथ वीर, भ्रुकुटीसहित षण्मुख, लज्जाके साथ वरद, दीर्घघोणाके साथ वामदेवेश, धनुर्धरीके साथ वक्रतुण्ड, यामिनीके साथ द्विरण्ड, रात्रिसहित सेनानी, ग्रामणीसहित कामान्ध, शशिप्रभाके साथ मत्त, लोलनेत्राके साथ विमत्त, चकलाके साथ मत्तवाह, दीप्तिके साथ जटी, सुभगाके साथ मुण्डी, दुर्भगाके साथ खङ्गी, शिवाके साथ वरेण्य, भगाके साथ वृषकेतन, भगिनीके साथ भक्त-प्रिय, भोगिनीके साथ गणेश, सुभगाके साथ मेघनाद, कालयात्रिसहित व्यापी तथा कालिकाके साथ गणेशका अपने अङ्गोमें न्यास करना चाहिये । इस प्रकार विघ्रेश-मातृकाका वर्णन किया गया है । गणेशमातृकाके गण ऋषि कहे गये हैं । निचृद्‌ गायत्री छन्द है तथा शक्तिसहित गणेश्वर देवता हैं । छ: दीर्घ स्वरोंसे युक्त गणेशबीज (गां गीं गूं गैं गौँ ग:) के द्वारा अङ्गन्यास करके उनका इस प्रकार ध्यान करे-

   गणेशजी अपने चारों भुजाओंमें क्रमश: पाश, अङ्कुर, अभय और वर धारण किये हुए हैं, उनकी पत्नी सिद्धि हाथमें कमल ले उनसे सटकर बैठी हैं, उनका शरीर रक्तवर्णका है तथा उनके तीन नेत्र हैं, ऐसे गणपतिका मैं भजन करता   हूँ । इस प्रकार ध्यान करके स्वकीय बीजको पूर्वाक्षरके रूपमें रखकर उक्त मातृका-न्यास करना चाहिये ।

कला-मातृका-न्यास

 

   (अब कला-मातृका-न्यास बताया जाता है-) निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शान्ति, इन्धिका, दीपिका, रोचिका, मोचिका, परा, सूक्ष्मा, असूक्ष्मा, अमृता, ज्ञानामृता, आप्यायिनी, व्यापिनी, व्योमरूपा, अनन्ता, सृष्टि, समृद्धिका, स्मृति, मेधा, क्रान्ति, लक्ष्मी, धृति, स्थिरा, स्थिति, सिद्धि, जरा, पालिनी, क्षान्ति, ईश्वरी, रति, कामिका, वरदा, ह्वादिनी, प्रीति, दीर्घा, तीक्ष्णा, रद्रा, निद्रा, तन्द्रा, क्षुधा, क्रोधिनी, क्रियाकारी, मृत्यु, पीता, श्वेता, अरुणा, असिता और अनन्ता-इस प्रकार कलामातृका कही गयी है । भक्त पुरुष उन-उन मातृकाओंका न्यास करे । इस कलामातृकाके प्रजापति ऋषि कहे गये  हैं । इसका छन्द गायत्री और देवता शारदा हैं । ह्रस्व और दीर्घ स्वरके बीचमें प्रणव रखकर उसीके द्वारा षडङ्गन्यास करे (यथा-अं ॐ आं हृदयाय नम: इं ॐ ईं शिरसे स्वाहा, उँ ऊँ शिखायै वषट्‌, एँ ऐं कवचाय हुम्‌, ओं ॐ औं  नेत्रत्रयाय वौषट्, अं अ: अस्वाय फट) । विद्वान पुरुष मोतियोंकि आभूपणोंसे विभूषित पञ्चमुखी शारदादेवीका भजन (ध्यान) करे । उनके तीन नेत्र हैं तथा वे अपने हाथोंमें पद्य, चक्र, गुण (त्रशूल अथवा पाश) तथा एण (मृगचर्म) धारण करती हैं । इस प्रकार ध्यान करके ॐ पूर्वक चतुर्थ्यन्त कलायुक्त मातृकाका न्यास करे (यथा-ॐ अं निवृतत्यै नम: ललाटे, 3० आं प्रतिप्ठायै नम: मुखवृत्ते इत्यादि) । तदनन्तर मूलमन्त्रके छहों

अङ्गोका न्यास करना चाहिये । ‘हदय’ आदि चतुर्थ्यन्त पदमें अङ्गन्यास-सम्बन्धी जातियोंका योग करके न्यास करे । ‘नम:’, ‘स्वाहा’, ‘वषट’, ‘हुम’, ‘वौषद्‌’ और ‘फट’ ये छः जातियाँ कही गयी हैं (अर्थात्‌ ह्रदयाय नमः, शिरसे स्वाहा, शिखायै वषट, कवचाय हुम, नेत्रत्रयाय वौषट, अस्त्राय ‘फट-इस प्रकार संयोजना करे) । तत्पश्चात्‌ आयुध और आभूषणोंसहित इष्टदेवका ध्यान करके उनकी मूर्तिमें छ: अङ्गोंका न्यास करनेके पश्चात्‌ पूजन प्रारम्भ करे । (पूर्व० ६६ अध्याय)   

अध्याय ६२ देवपूजनकी विधि

सनत्कुमारजी कहते हैं— अब मैं साधकोंका अभीष्ट मनोरथ सिद्ध करनेवाली देवपुजाका वर्णन करता हूँ | अपने वाम भागमें त्रिकोण अथवा चतुष्कोणकी रचना करके उसकी पूजा करे और अस्त्र-मंत्रद्वारा उसपर जल छिड़के | तत्पश्चात हृदयसे आधारशक्तिकी भावना करके उसमें अग्रिमण्डलका पूजन करे | फिर अस्त्रबीजसे पात्र धोकर आधारस्थानमें चमस रखकर उसमें सूर्यमण्डलकी भावना करे | विलोम मातृका मूलका उच्चारण करते हुए उस फाको जलसे भरे | फिर उसमें चन्द्रमण्डलकी पूजा करके पूर्ववत उसमें तिथिका आवाहन करे | तदनन्तर धेनुमुद्रासे अमृतिकरण करके कवचसे उसको आच्छादित करे | फिर अस्त्रसे उसका संक्षालन करके उसके ऊपर आठ बार प्रणवका जप करे | यह मनुष्योंके लिये सर्वसिद्धिदायक सामान्य अर्ध्य बताया गया है | श्रेष्ठ साधक उस जलमेंसे किंचित निकालकर उसको अपने आपपर तथा सम्पूर्ण पूजन-सामग्रियोंपर पृथक-पृथक छिड़के | अपने वाम भागमें आगेकी ओर एक त्रिकोण मण्डल अंकित करे | उस त्रिकोणको षट्कोणसे आवृत करके उस सबको गोल रेखासे घेर दे, फिर सबको चतुष्कोण रेखासे आवृत करके अर्ध्य जलसे अभिषेक करे | तत्पश्चात श्रेष्ठ साधक शङ्खमुद्रासे स्तम्भन करे | आग्नेय आदि चार कोणोंमें हृदय, सिर, शिखा, और कवच (भुजमूल)—इन चार अङ्गोकी पूजा करके म्ध्यभागमें नेत्रकी तथा दिशाओंमें अस्त्रकी (पुष्पाक्षत आदिसे ) पूजा करे | फिर त्रिकोण मण्डलके मध्यमें स्थिति आधारशक्तिका मूलखण्डत्रयसे पूजन करे | इस प्रकार विधिवत पूजन करके अस्त्र (फट)-के उच्चारणपूर्वक प्रक्षालित की हुई त्रिपादिका (तिरपाई) स्थापित करके निम्नाकित मन्त्रसे उसकी पूजा करे | ‘ मं वह्रिमण्डलाय दशकलात्मने ’ ‘देवतार्ध्यपात्रासनाय नमः’ आधारपूजनके लिये यह चौबीस अक्षरोंका मन्त्र है | तत्पश्चात शङ्खको तत्सम्बन्धि मन्त्रद्वारा धोकर उसे स्थापित करनेके अनन्तर उसकी पूजा करे | शङ्खके स्थापनका मन्त्र इस प्रकार है, पहले तार (ॐ) है, फिर काम (क्लीं) है, उसके बद ‘महा’ शब्द है, तत्पश्चात        ‘जलचराय’ है | फिर वर्म (हुम्), ‘फट्’ ‘स्वाहा’ ‘पाञ्चजन्याय’ तथा हृदय (नमः पद) है | पूरा मन्त्र इस प्रकार समझना चाहिये—’ ॐ क्लीं महाजलचराय हुं फट् स्वाहा पाञ्चजन्याय नमः | इसके बाद ‘ॐ अर्कममण्डलाय द्वादशकलात्मने देवर्ध्यपात्राय नमः’ इस तेईसअक्षरवाले मन्त्रसे शङ्खकी पूजा करनी चाहिये | (इष्टदेवका नाम जोड़नेसे अक्षर-संख्या पूरी होती है | उस मन्त्रसे पूजन करके अनन्तर उसमें सूर्यकी बारह कलाओंका क्रमश: पूजन करे | तत्पश्चात विलोमक्रमसे मूलमातृका वर्णोका उच्चारण करते हुए शुद्ध जलसे शङ्खको भर दे और उसकी निम्राङ्गकित मन्त्रसे पुजा करे—’ॐ सोममण्डलाय षोडशकलात्मने देवर्ध्यामृताय नमः’ अर्ध्यपूजनके लिये यही मन्त्र है | फिर उस जलमें चन्द्रमाकी सोलह कलाओंकी पुजा करे | तदनन्तर पहले बताये अनुसार ‘गङ्गे च यमुने चैव’ इत्यादि मन्त्रसे सब तिथोंका उसमें आवाहन करके धनुमुद्राद्वारा उसे आच्छादित करे | फिर कवच (हुं बीज) द्वारा  करके पुनः अस्त्र (फट) द्वारा उसकी रक्षा करे | तदनन्तर इष्टदेवका चिन्तन करके मुद्रा प्रदर्शन करे | शङ्ख,   मुसल, चक्र, परमीकरण, महामुद्रा, तथा योनिमुद्राका विद्वान पुरुष क्रमश: प्रदर्शन करावे | गारुड़ी और गालिनी—ये दो मुद्राएँ मुख्य कही गयी हैं | गन्ध-पुष्प आदि से वहाँ देवताका पूजन स्मरण करे | आठ बार मूल मन्त्रका तथा आठ बार प्राणवका जप करे | शङ्खसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रोक्षणीपात्र रखे | शङ्खका थोड़ा-सा जल प्रोक्षणीपात्रमें डालकर उससे अपने ऊपर तीन बार अभिषेक करे | उस समय क्रमशः इन तीन मंत्रोका उच्चारण करे-’ ॐ आत्मतत्वातमाने नमः, ॐ विदयातत्वातमाने नमः, ॐ शिवतत्वातमाने नमः ।विद्वान पुरुष इन मंत्रोद्वारा अपने साथ ही उस मण्डलका भी विधिवत प्रोक्षण करे और उसमें पुष्प तथा अक्षत भी बिखेरे अथवा मूलगायत्रीसे पोजद्रव्योका प्रोक्ष्ण करे। फिर किसी आधार ( चोकी )-पर पद्य, अर्घ्य, आचमनीय तथा मधुपर्कके लिए अपने आगे अनेक पत्र विधिवत रख ले। श्यमाक ( सावाँ ), दूर्वा, कमल, विष्णुक्रांता नमक औषधि और जल-इनके मेंलसे भगवानके लिए पाद्य बनाता है। फूल, अक्षत, जो, कुशाग्र, तिल, सरसों, गन्ध तथा दुर्वादल, इनके द्वारा भगवानके लिए अर्घ्य देनेकी विधि है। आचमनके लिए सुध जलमें जायफल, कंकोल और लवङ्ग मिलकर रखना चाहिए। मधु, घी और दहीके मेंलसे मधुपर्क बंता है। अथवा एक पात्रमें पाद्य आदिकी व्यवस्था करे। भगवान शंकर और सूर्यदेवके पूजनमें शङ्खमय पात्र आछ नहीं माना गया है। श्वेत, कृष्ण, अरुण, पीत, श्याम, रक्त, शुक्ल, असित ( काली ), लाल वस्त्र धरण करनेवाली और हथमें अभयकी मुद्रासे युक्त पीठ-शक्तियोंका ध्यान करना चाहिए। सुवर्ण आदिके पत्रपर लिखे हुए यन्त्रमें, शालग्राम-शिलामें, मनीमें अथवा विधिपूर्वक स्थापित की हुई प्रतिमामें इष्टदेवकी पूजा करनी चाहिए। घरमें प्रतिदिन पूजके लिए वही प्रतिमा कल्याणदायिनी होती है जो सवर्ण आदि धातुओकी बनी हो और कम-से-कम अंगूठेके बराबर तथा अधिक-से-अधिक एक बीतेकी हो। जो टेढ़ी हो, जाली हुई हो, खंडित हो, जिसका मटक या आँख फूटी हुई हो अथवा जिसे चांडाल आदि अस्पृश्य मनुष्योने छू दिया हो, वैसी प्रतिमकी पूजा नहीं करनी चाहिए। आथवा समस्त शुभ लक्षणोसे सुशोभित बाण आदि लिङ्गमें पूजा करे या मूलमंत्रके उच्चारणपूर्वक मूर्तिका निर्माण करके इष्टदेवके शास्त्रोक्त स्वरूपका ध्यान करे। फिर उसमें देवताका परिवारसहित आवाहन करके पूजा करे। शालग्रामशीलामें तथा पहले स्थापित की हुए देवप्रतिमामें आवाहन और विसर्जन नहीं किये जाते।

   तदनंतर पुष्पांजलि लेकर इष्टदेव का ध्यान करते हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे-

आत्मसंस्थमजं शुद्धं त्वम्हं परमेंश्वर

अरण्यामिव हव्यन्शं मूर्तावावाहयाम्यहम

तवेयं हि महामुर्तिस्तस्यां त्वाम् सर्वगं प्रभो

भक्तस्नेहसमाकृष्टं   दीपवतस्थाप्यम्य्ह्म

सर्वान्तय्रमिणे देव सर्वबीजमयं शुभम्

स्वात्मस्थाय परं शुद्धमासनं कल्पयाम्यहम

अनन्या तव देवेश मुर्तिशक्तिरियं प्रभो

सानिध्यं कुरु तस्यां त्वं भक्तानुग्रहकारक

अज्ञानादूत मतत्वाद् वेकल्यात्साधनास्य च

यद्यपुर्नं भवेत् कल्पं तथाप्यभिमुखो भव

दृशा पियुश्वर्षिण्या पूरयन् यज्ञविस्टरे

मूर्तो वा यज्ञसम्पुत्ये स्थितो भव महेश्वर

अभक्तवाडमनश्र्चक्षुःश्रोत्रदुरायितद्रुते

स्वतेजःपन्चरेणाशु वेष्टितो भव सर्वतः

यस्य दर्शनमिच्छन्ति देवाः स्वाभिषटसिद्धये

तस्मै ते पर्मेशाय स्वगातं स्वगातं च में

कृतर्थोअनुग्रिहीतोअस्मि सफलं जीवितं मम

आगतो देवदेवशः सुखागतमिदं पुनः

( ना० पुर्व० ६७। ३७-४५ )                                           

   परमेंश्र्वर ! अपने-आपमें स्तिथ, अजन्मा एवं शुद्ध –बुद्ध-स्वरूप है। जैसे अरणीमें अग्री छिपि हुई है, उसी प्रकार इस मूर्तिमें आप गूढरूपसे व्याप्त है, मै अपका आवाहन करता हू। प्रभो ! यह आपकी महामुर्ति है, मै इसके भीतर आप सर्वव्यापि परमात्मको, जो की भक्तके प्रति स्नेह्वश स्वयं खिच आये है, दीपकी भाँतिस्थापित करता हू। देव ! अपने अन्तःकरणमें स्थित आप सर्वांतर्यामी प्रभुके लिए मै सर्वबीजमय, शुभ एवं शुद्ध आसन प्रस्तुत करता हू। देवेश ! यह आपकी अनन्य मूर्ति-शक्ति है। भक्तोपर अनुग्रह करनेवाले प्रभों ! आप इसमें निवास कीजिये। अज्ञानसे, प्रमादसे अथवा साधनहिनताके कारण यदि मेंरा यह अनुस्थान अपूर्ण रेह जय तो भी आप अवशय सम्मुख हो। महेश्वर ! आप अपनी सुधवर्षीणि दृष्टिद्वारा सब त्रुटियोको पूर्ण करते हुए यज्ञकी पूर्णताके लिए इस यज्ञासानपर अथवा मूर्तिमें स्थित होइये। आपका प्रकाश या तेज अभक्त जनोके मन, वचन, नेत्र और कानसे कोसों दूर है। भगवन !आप सब ओर अपने तेजःपुञ्ज्से शीघ्र आवृत हो जाइए। देवतलोग अपने अभीष्ट मनोरथकी सिद्धिके लिए सदा जिंका दर्शन चाहते है, उन्ही आप परमेंश्वरके लिए सदा बारम्बार स्वागत है, स्वागत है। देवदेवेशवर प्रभु आ गए। में कृतार्थ हो गया। मुझपर बड़ी कृपा हुई। आज मेंरा जीवन सफल हो गया। मई पुनः इस शुभागमनके लिए प्रभूका स्वागत करता हूँ |

पाद्द

यद्धक्तिलेशसंपर्कात परमानन्दसमभ्वः

तस्मै ते चरनाब्जाय पाद्यं शुद्धाय कल्प्यते॥४६॥

   जिनकी लेशमात्र भक्तिका संपर्क होनेसे उन परमानंदका समुद्र उमड़ आता है, आपके उन शुद्ध चरण-कमलोके लिए पाद्य प्रस्तूत किया जाता है।

अर्घ्य

तापत्रयहरं दिव्यं परमानन्दलक्षनम्

तापत्रयविनिर्मुक्त्ये तवार्ध्य कल्पयाम्य्ह्म॥४८॥

   देव ! मै तीन प्रकारके तापोसे छुटकारा पानेके लिये आपकी सेवामें त्रितापहरी परमानन्द-स्वरूप दिव्य अर्ध्य अर्पण करता हूँ |

आचमनीय

वेदनामपी वेदया देवनां देव्तात्मने | 

आचामं कल्प्यामीश शुद्धानां शुद्धिहेतवे || ४७ ||

   भगवन् आप वेदोंके भी वेद और देवताओंके भी देवता हैं | शुद्ध पुरुषोंकी भी परम शुद्धिके हेतु हैं | मैं आपके आचमनीय प्रस्तुत करता हूँ |                                                                                                                                                  

मधुपर्क 

सर्वकालुव्यहीनाय   परिपूर्णसुखात्मने | 

मधुपर्कमिदं देव कल्पयामि प्रसीद में || ४९ ||                                                                                                       

   देव ! आप सम्पूर्ण कलुषतासे रहित तथा परिपूर्ण सुखस्वरूप हैं, मैं आपके लिये मधुपर्क अर्पण करता हूँ | मुझपर प्रसन्न होइये |

पुनराचमनिय

उच्छिष्टोअप्यशुचिर्वापि यस्य स्मरणमात्रतः |

शुद्धिमाप्नोति तस्मै ते पुनराचमनीयकम || ५० ||

   जिनके स्मरण करनेमात्रसे जूंठा या अपवित्र मनुष्य भी शुद्धि प्राप्त कर लेता है, उन्हीं आप परमेंश्वरेके लिये पुनः आचमनार्थ (जल) उपस्थित करता हूँ |

स्नेह (तैल)

स्नेहं गृहाण स्त्रेहेन लोकनाथ महाशय |

सर्वलोकेषु शुधात्मन् ददामि स्नेहमुतमम् || ५१ ||

   जगदीश्वर ! आपका अन्तःकरण विशाल है | सम्पूर्ण लोकोंमें आप ही शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं, मैं आपको यह उत्तम स्नेह (तैल) अर्पण करता हूँ, आप इस स्नेहको स्नेहपूर्वक ग्रहण कीजिये |

स्नान 

परमानन्दबोधाबिधनिमग्रनिजमूर्तये | 

साङ्गोपाङ्गमिदं स्नानं कल्पयाम्यहमीश ते || ५२ ||

      ईश ! आपका निज स्वरुप तो निरन्तर परमानन्दमय ज्ञानके अगाध महासागरमें निम्रग रहता है, (आपके लिये ब्रम्हा स्नानकी क्या आवश्यकता है?) तथापि मैं आपके लिये यह साङ्गोपाङ्ग स्नानकी व्यवस्था करता हूँ |

अभिषेक

सहस्त्रं वा शतं वापि यथाशक्त्यादरेण च |

गन्धपुष्पादिकैरीश मनुना चाभिषियच्ये || ५३ ||

   ईश ! मैं आदरपूर्वक यथाशक्ति गन्ध-पुष्प आदिसे तथा मन्त्रद्वारा सहस्त्र आथवा सौ बार आपका अभिषेक करता  हूँ |

वस्त्र

मायाचित्रपतच्छत्रनिज गुहयोरुतेजसे |

निरावरणविज्ञान वासस्ते कल्पयाम्याहम || ५४ ||

   निरावृतविज्ञानस्वरूप परमेंश्वर ! आपने मायारूप विचित्र पटके द्वारा अपने महान तेजको छिपा रखा है | मैं आपके लिये वस्त्र अर्पण करता हूँ |

उत्तरीय

यमाश्रित्य महामाया जगत्स्म्मोहिनी सदा |

तस्मै ते परमेंशाय कल्पयाम्युत्तरीयकम || ५५ ||

   जिनके आश्रित रहकर भगवती महामाया सदा सम्पूर्ण जगतको मोहित किया करती है, उन्हीं आप परमेंश्वरके लिये मैं उत्तरीय अर्पण करता हूँ |

   दुर्गा देवी, भगवान सूर्य तथा गणेशजीके लिये लाल वस्त्र अर्पण करना चाहिये | भगवान विष्णुको पीत वस्त्र और भगवान शिवको श्वेत वस्त्र चढ़ाना चाहिये | तेल आदिसे दूषित फटे-पुराने मलिन वस्त्रको त्याग दे |

यज्ञोपवित

यस्य शक्तित्रयेणेदं सम्प्रीतमाखिलं  जगत |

यज्ञसुत्राय तस्मै ते यज्ञसूत्र प्रकल्पये || ५७ ||

    जिनकी त्रिविध शक्तियोंसे यह सम्पूर्ण जगत सदा तृप्त रहता है, जो स्वयं ही यज्ञसूत्ररूप हैं, उन्हीं आप प्रभुको मैं यज्ञसूत्र अर्पण करता हूँ |

भूषण

स्वभावसुन्दराअङ्गाय नानाशक्त्याश्रयाय ते |

भूषणानि विचित्राणि कल्पयाम्यमरार्चित || ५४ ||

   देवपूजित प्रभो ! आपके श्रीअङ्ग स्वभावसे ही परम सुन्दर हैं | आप नाना शक्तियोंके आश्रय हैं, मैं आपको ये विचित्र आभुषण अर्पण करता हूँ |

गन्ध

परमानन्दसौरभ्यपरीपूर्णदिगन्तरम् |

गृहाण परमं गन्धं कृपया परमेंश्वर || ५९ ||

   परमेंश्वर ! जिसने अपनी पमनन्दमयी सुगन्धसे सम्पूर्ण दिशाओंको भर दिया है, उस परम उत्तम दिव्य गन्धको आप कृपापूर्वक स्वीकार करें |

पुष्प

तुरीयवनसभुतं नानागुणमनोहरम् |

अमन्दसौरभं पुष्पं गृह्यतामिदमुत्तमम् || ६० ||

   प्रभो ! तीनों अवस्थाओंसे परे तुरीयरूपी वनमें प्रकट हुए इस परम उत्तम दिव्य पुष्पको ग्रहण कीजिये | यह अनेक प्रकारके गुणोंके कारण अत्यन्त मनोहर है, इसकी सुगन्ध कभी मन्द नहीं होती |

   केतकी, कुटज, कुन्द, बन्धूक (दुपहरिया), नागकेसर, जवा तथा मालती-ये फूल भगवान शंकरको नहीं चढ़ाने चाहिये | मातुलिङ्ग (विजौरा नीबू) और मदार-ये सब दुर्गाजीको अर्पण न करे तथा गणेश-पूजनमें तुलसीको सर्वथा त्याग दे | कमल, दौना, मरुआ, कुश, विष्णुक्रान्ता, पान, दूर्वा, अपामार्ग, अनार, आंवला और अगस्त्यके पुत्रोंसे देवपुजा करनी चाहिये | केला, बेर, आंवला, इमली, बिजौरा, आम, अनार, जंबीर,जामुन और कटहल नामाक वृक्षके फलोंसे विद्वान पुरुष देवताकी पुजा करे | सूखे पत्तों, फूलों और फलोंसे कभी देवताका पूजन न करे | मुने ! आंवला, खैर, बिल्व और तमालके पत्र यदि छिन्न-भिन्न भी हो तो विद्वान पुरुष  उन्हें दूषित नहीं कहते | कमल और आंवला तीन दिनोंतक शुद्ध रहता है | तुलसीदल और बिल्वपत्र-ये सदा शुद्ध होते हैं | पलाश और कासके फूलोंसे तथा तमाल, तुलसी, आंवला और दूर्वाके पत्तोंसे कभी जगदम्बा दुर्गाजीकी पुजा न करे | फूल, फल और पत्रको देवतापर अधोमुख करके न चढ़ावे | ब्रम्ह्न ! पत्र-पुष्प आदि जिस रूपमें उत्पन्न हो, उसी रूपमें उन्हें देवतापर चढ़ाना चाहिये |

 धूप

वनस्पतीरसं दिव्यं गन्धढयं सुमनोहरम् |

आघ्रेयं देवदेवेश धूपं भक्त्या गृहाण में || ७९ ||

   देवदेवेश्वर ! यह सूँघने योग्य धूप भक्तिपूर्वक आपकी सेवामें अर्पित हैं, इसे ग्रहण करें | यह वनस्पतिका सुगन्धयुक्त परम मनोहर दिव्य रस है |

दीप

सुप्रकाशं महादिपं सर्वदा तिमिरापहम् |

घृतवर्तिसमायुक्तं गृहाण मम सत्कृतम् || ७२ ||

भगवन ! यह घीकी बत्तीसे युक्त महान दीप सत्कारपूर्वक आपकी सेवामें समर्पित है | यह उत्तम प्रकाशसे युक्त और सदा अन्धकार दूर करनेवाला है | आप इसे स्वीकार करें |

नैवेद्य

अन्नं चतुर्विधं स्वादु रसैः षड्भिः समन्वितम् |

भक्त्या गृहाण में देव नैवेद्यं तुष्ठिदं सदा || ७३ ||

   देव ! यह छः रसोंसे संयुक्त चार प्रकारका स्वादिष्ट अन्न भक्तिपूर्वक नैवेद्यके रुपमें समर्पित है, यह सदा संतोष प्रदान करनेवाला है | आप इसे ग्रहण करें |

ताम्बूल

नागवल्लीदलं श्रेष्ठं पुगखदिरचूर्णयुक् |

कर्पुरादिसुगन्धाढयं अद्यतं तद् गृहाण में || ७४ ||

   प्रभो ! यह उत्तम पान सुपारी, कत्था और चूनासे संयुक्त है, इसमें कपूर आदि सुगन्धित वस्तु डाली गयी है; यह जो आपकी सेवामें अर्पित है, इसे मुझसे ग्रहण करें |

   तत्पश्चात् पुष्पांजलि दे और आवरण पूजा करे | जिस दिशाकी और मुह करके पूजन करे उसीको पूर्व दिशा समझे और उससे भिन्न दसों दिशाओंका निश्चय करे | कमलके केशरोंमें अग्रिकोण आदिसे आरम्भ करके हृदय आदि अङ्गोकी पूजा करे | अपने आगे नेत्रकी और सब दिशाओंमें अस्त्रकी अङ्ग-मन्त्रोंद्वारा क्रमशः पूजा करे | क्रमशः शुक्ल, श्वेत, सित, श्याम, कृष्ण, तथा रक्त वर्णवाली अङ्गशक्तियोंका अपनी-अपनी दिशाओंमें ध्यान करना चाहिये | उन सबके हाथमें वर और अभ्यकी मुद्रा सुशोभित है | ‘अमुक आवरणके अन्तर्वार्ति देवताओंकी पूजा करता हूँ’ ऐसा कहे | तत्पश्चात् अलंकार, अङ्ग, परिचारक, वाहन तथा आयुधोंसहित समस्त देवताओंकी पूजा करके यह कहे ‘उपर्युक्त सब देवता पूजित तथा पर्पित होकर वरदायक हो’ | मूलमन्त्रके अन्तमें निम्राङ्कित वाक्यका उच्चारण करके इष्टदेवको पूजा समर्पित करे—

 अभीष्टसिद्धि में देहि शरणागतवत्सल |

 भक्त्या समर्प्ये तुभ्यममुकावरणार्चनं  || ८१-८२ ||

          ‘शरणागत्वत्सल ! मुझे अभीष्टसिद्धि प्रदान कीजिये | मै आपको भक्तिपूर्वक अमुक आवरणकी पूजा समर्पित करता हूँ | ( अमुकके स्थानपर ‘प्रथम’ या ‘द्वितीय’ आदि पद बोलना चाहिए ) |’

    ऐसा कहकर इष्टफल मस्तकपर पुष्पांजलि बिखेरे | तदन्तर कल्पोक्त आवरणोंकी क्रमशः पूजा करनी चाहिए | आयुध और वाहनों सहित इन्द्र आदि ही आवरण देवता है | उनका अपनी-अपनी दिशाओं में पूजन करे | इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, सोम, ईशान, ब्रह्मा तथा नागराज  अनंत- ये दस देवता अथवा दिक्पाल प्रथम आवरणके देवता है | ऐरावत, भेड़, भैंसा, प्रेत, तिमि (मगर), मृग, अश्व, वृषभ, हंस, और कच्छप – ये विद्वानोद्वारा इंद्रादि देवताओंके वाहन माने गए है, जो द्वितीय आवरण में पूजित होते है | वज्र, शक्ति, दंड, खड्ग, पाश, अंकुश, गदा, त्रिशूल, कमल, और चक्र – ये क्रमशः इंद्रादिके आयुध है (जो तृतीय आवरणमें पूजित होते है ) | इस प्रकार आवरणपूजा समाप्त करके भगवानकी आरती करे | फी शंखका जल चारों ओर छिड़ककर ऊपर बाँह उठाए हुए भगवानका नाम लेकर नृत्य करे और दंडकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर साष्टांग प्रणाम करे | उसके बाद उठकर अपने इष्टदेव की प्रार्थना करे | प्रार्थनाके पश्चात दक्षिण भागमें वेदी बनाकर उसका संस्कार करे | मूलमंत्रसे ईक्षण, अस्त्र (फट्) – द्वारा प्रोक्षण और कुशोंसे ताड़ना (मार्जन) करके कवच (हुम्) के द्वारा पुनः करके उसपर अगणिकी स्थापना करे | फिर अग्निको प्रज्वलित करके उसमें इष्टदेवका ध्यान करते हुए आहुति दे | समस्त महाव्याहृतियोंसे चार बार घीकी आहुती देकर उत्तम साधक भात, तिल अथवा घृतयुक्त खीरद्वारा पच्चीस आहुति करे | फिर व्याहृतिसे होम करके गंध आदिके द्वारा पुनः इष्टदेवकी पूजा करे | भगवानकी मूर्तिमें

अग्निके लीन होने की भावना करे | उसके बाद निम्नांकित प्रार्थना पढ़कर अग्निका विसर्जन करे –

भो भो वह्ने महाशक्ते सर्वकर्मप्र्साधाक |

कर्मान्तरेअपि सम्प्राप्ते सान्निध्यं कुरु सादरं ||९३||

   हे अग्निदेव ! आपकी शक्ति बहुत बडी है | आप सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धि करनेवाले है | कोई दूसरा कार्य प्राप्त                                           

होने पर भी आप यहाँ सादर पधारें |

   इस प्रकार विसर्जन करके अग्निदेवताके लिए आचमानार्थ जल दे | फिर बचे हुए हविष्यसे इष्टदेवको, पूर्वोक्त पार्षदोंको भी गंध, पीएसएचपी और अक्षतसहित बलि अर्पण करे |                                    

ये रौद्रा रौद्रकर्माणो रौद्र्स्थाननिवासिनः |

योगिन्यो ह्युग्ररुपाश्च गणानामधिपाश्च ये ||

विघ्नभूतास्तुथा चान्ये दिग्विदिक्षु समाश्रिताः|

सर्वे ते प्रीतमनसः प्रतिगृह्णन्त्विमं बलिम् ||        

   जो भयङ्कर है, जिनके कर्म भयङ्कर है, जो भयङ्कर स्थानोमें निवास करते है, जो उग्र रूपवाली योगिनियाँ

है, जो गुणोंके स्वामी तथा विघ्नस्वरुप है और प्रत्येक दिशा तथा विदिशामें स्टीथ है, वे सब प्रसन्नचित्त होकर यह बाली ग्रहण करें |

   इस प्रकार आठों दिशाओंमें बाली अर्पण करके पनः भूतबलि दे | तत्पश्चात धेनुमुद्राद्वारा जलका अमृतीकरण करके ईष्टदेवता हाथमें पुनः आचमनीयके लिये जल दे | फिर मूर्तिमें स्थित देवताका विसर्जन करके पुनः उस मूर्तिमें ही उनको प्रतिष्ठित करे | तत्पश्चात भवत्प्रासादभोजी प्रार्षदको नैवेद्य दे | महादेवजीके ‘चण्डेश’ भगवान विष्णुके ‘विष्वक्सेन’ सूर्यके ‘चण्डाशु, गणेशजीके ‘वक्रतुण्ड’ और भगवती दुर्गाकी ‘उच्छिष्ट चण्डाली’-ये सब् उच्चिष्टभोजी कहे गये हैं |

   तदनन्तर मूलमन्त्रके ऋषि आदिका स्मारण करके मूलसे ही षडङ्ग-न्यास करे और यथाशक्ति मन्त्रका जप  करके देवताको अर्पित करे |

गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं गृहणास्म्त्कृतं जपम् |

सिद्धिर्भवतु में देव त्वत्प्रसादात्त्वयि स्थिता || १०२ ||

   ‘देव ! आप गुह्या आतिगुह्य वस्तुकी भी रक्षा करनेवाले हैं | आप मेंरेद्वारा किये गये इस जपको ग्रहण करें | आपके प्रसादसे आपके प्रसादसे आपके भीतर रहनेवाली सिद्धि मुझे प्राप्त हो |’

   इसके बाद पराङ्मुख       

  अर्ध्य देकर फुलोंसे पूजा करे | पूजनके पश्चात प्रणाम करना चाहिये | दोनों हाथोंसे, दोनों पैरोंसे, दोनों घुट्नोंसे, छातीसे, मस्तकसे, नेत्रोंसे, मनसे और वाणीसे जो नमस्कार किया जाता है, वह ‘पन्चाङ्ग प्रणाम’ है | पूजामें ये दोनों अष्टाङ्ग और प्रमाण श्रेष्ठ माने गए है | मंत्रका साधक दंडवत-प्रमाण करके भगवान्की परिक्रमा करे | भगवान् विष्णुकी चार बार, भगवान् शंकरकी आधी बार, भगवती दुर्गाकी एक बार, सूर्यकी सात बार और गणेशजीकी तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए | तत्पश्चात मंत्रोंपासक भक्ति-पूर्वक स्तोत्र- पाठ करे | इसके बाद इस प्रकार कहे-

    ‘ॐ इतः पूर्वं प्राणबुद्धिदेहधर्माधिकारतो जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यवस्थासु मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्भ्यामुदरेण शिश्नेन यत्स्मृतं यदुक्तं यत्कृतं तत्सर्वं ब्रह्मार्पणं भवतु स्वाहा | मां मदीयं च सकलं विष्णवे ते समर्पये ॐ तत्सत् |१  

    यह विद्वानोंने ‘ब्रह्मार्पण मन्त्र’ कहा है | इसके आदिमें प्रणव है, उसके बाद बयासी अक्षरोंका यह मन्त्र है, इसीसे भगवानको आत्म-समर्पण करना चाहिये | इसके बाद नीचे लिखे अनुसार क्षमा-प्रार्थना करे—

अज्ञानाद्वा प्रमादादव वैकल्यात साधनस्य च |

यन्न्यूनमतिरिक्तं वा तत्सर्व क्षन्तुमर्हसि ||

द्रव्यहीनं क्रियहीनं मन्त्रहीनं मयान्यथा |

कृतं यत्तत् क्षमस्वेश कृपया त्वं दयानिधे ||

यन्मया क्रियते कर्म जाग्रत्स्वप्रसुषुप्तिषु: |

तत्सर्व तावकी पूजा भूयाद् भूत्यै च में प्रभो ||

भूमौ स्खलितपादानां भुमिरेवावल्बनम् |

त्वयि जातापराधानां त्वमेंव शरणं प्रभो ||

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेंव शरणं मम |

तस्मात् कारुण्यभावने क्षमस्व परमेंश्वर ||

अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेअहर्निश मया |

दासोअयमिति मां मत्वा क्षमस्व जगतां पते ||

आवाहर्न न जानामि न जानामि विसर्जनम् |

पूजां चैव न जानामि त्वं गतिः परमेंश्वर ||

(ना० पु० ६७ | ११०-११७ )

   भगवन् ! अज्ञानसे, प्रमादसे तथा साधनकी कमीसे मेंरेद्वारा जो न्यूनता या अधिक्ताका दोष बन गया हो, उसे आप क्षमा करेंगे | ईश्वर ! दयानिधे ! मैंने जो द्रव्यहीन,क्रियाहीन, तथा मन्त्रहीन विधिविपरीत कर्म किया है, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा करें | प्रभो ! मैंने जाग्रत, स्वप्र और सुषुप्ति-अवस्थाओंमें जो कर्म किया है, वह सब आपकी पूजारुप हो जाय और मेंरे लिये कल्याणकारी हो | धरतीपर जो लड़खड़ाकर गिरते हैं, उनको सहारा देनेवाली भी धरती ही है, उसी प्रकार आपके प्रति अपराध करनेवाले मनुष्योंके लिये भी आप ही शरणदाता हैं, परमेंश्वर ! आपके सिवा दूसरा कोई शरण नहीं है | आप ही मेंरे शरणदाता हैं | अतः करुणापूर्वक मेंरी त्रुटियोंको क्षमा करें | जगत्पते? मेंरेद्वारा रात-दिन सहस्त्रों अपराध बनते हैं | अतः ‘यह मेंरा दास है | ‘ऐसा समझकर क्षमा करें | परमेंश्वर ! मैं आवाहन करना नहीं जानता विसर्जन भी नहीं जानता और पुजा करना भी अच्छी तरह नहीं जानता, अब आप ही मेंरी गति हैं-सहारे हैं |’

   इस प्रकार प्रार्थना मन्त्रका साधक मूलमन्त्र पढ़कर विसर्जनके लिये नीचे लिखे श्लोकका पाठ करे और पुष्पान्यजलि दे –

गच्छ गच्छ परं स्थानं जगदीश जगन्मय |

यत्र ब्रम्हादयो देवा जानन्ति च सदाशिवः || ३१८ ||

   ‘जगदीश ! जगन्मय ! आप अपने उस परम धामको पधारिये, जिसे ब्रम्हा आदि देवता तथा भगवान शिव भी नहीं जानते हैं |’

   इस प्रकार पुष्पन्यजली देकर संहार-मुद्राके द्वारा भगवानको उनके अङ्गभूत पार्षदोंसहित सुषुम्णा नाडीके मार्गसे अपने हृदयकमलमें स्थापित करके पुष्प सूँघकर विद्वान पुरुष भगवानका विसर्जन करे | दो शङ्ख, दो चक्रशिला (गोमतीचक्र), दो शिवलिङ्ग, दो गणेशमूर्ति, दो सूर्यप्रतिमा और दुर्गाजीकी तीन प्रतिमाओंका पूजन एक घरमें नहीं करना चाहिये; अन्यथा दु:खकी प्राप्ति होती है | इसके बाद निम्राङ्कित मन्त्र पढ़कर भगवानका चरणामृत पान करे-

 

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् |

सर्वपापक्षयकरं विष्णुपादोदकं शुभम् || १२१-१२२ ||

   ‘भगवान् विष्णुका शुभ चरणामृत अकालमृत्युका अपहरण, सम्पूर्ण व्याधियोंका नाश तथा समस्त पापोंका संहार करनेवाला है |’

   भिन्न-भिन्न देवताओंके भक्तोंको चाहिये कि वे अपने आराध्यदेवको निवेदित किये हुए नैवेद्य-प्रसादको ग्रहण करें | भगवान शिवको निवेदित निर्माल्य-पत्र, पुष्प, फल और जल ग्रहण करने योग्य नहीं है, किन्तु शालग्राम-शिलाका स्पर्श होनेसे वह सब पवित्र (ग्राह्या) हो जाता है |

पूजाके पाँच प्रकार

   नारद ! सबने पाँच प्रकारकी पूजा बतायी है-आतुरी, सौतिकी, त्रासी, साधनाभाविनी तथा दौर्वोधी | इनके लक्षणोंका मुझसे क्रमश: वर्णन सुनो-रोग आदिसे युक्त मनुष्य न स्नान करे, न जप करे और न पूजन ही करे | आराध्यदेवकी पूजा, प्रतिमा अथवा सूर्यमण्डलका दर्शन एवं प्रणाम करके मन्त्र-स्मरणपूर्वक उनके लिये पुष्पान्यजलि दे |फिर जब रोग निवृत हो जाय तो स्नान और नमस्कार करके गुरुकी पुजा करे तथा उनसे प्रार्थना करे- ‘जगन्नाथ ! जगत्पूज्य ! दयानिधे ! आपके प्रसादसे मुझे पूजा छोड़नेका दोष न लगे |’ तत्पश्चात यथाशक्ति ब्राम्हणोंका भी पूजन करके उन्हें दक्षिणा आदिसे संतुष्ट करे और उनसे आशीर्वाद लेकर पूर्ववत भगवानकी पूजा कारे | यह ‘आतुरी पूजा’ कही गयी है | अब सौतिकी पूजा बतायी जाती है | सूतक दो प्रकारका कहा गया है- जातसूतक और मृतसूतक | दोनों ही सूतकोंमें एकाग्रचित हो मानसो संध्या करके मनसे ही भगवानका पूजन और मृतसूतक | दोनों ही सूतकोंमें एकाग्रचित हो मनसो  संध्या करके मनसे ही भगवानका पूजन और मनसे ही मन्त्रका जप करे |फिर सूतक बीत जानेपर पूर्ववत गुरु और ब्राहमणोंका पूजन करके उनसे आशीर्वाद लेकर सदाकी भाँति पूजाका क्रम प्रारम्भ कर दे | यह ‘सौतिकी पूजा, कही  गयी | अब त्रासी पूजा बतायी जाती है | दुष्टोसे त्रासको प्राप्त हुआ मनुष्य यथाप्राप्त उपचारोंसे अथवा मानसिक उपचारोंसे भगवानकी पूजा करे | यह ‘त्रासी पूजा’ कही गयी है | पूजा-साधन-सामाग्री जुटानेकी शक्ति न होनेपर यथाप्राप्त पत्र, पुष्प और फलका संग्रह करके उन्हींके द्वारा या मानसोपचारसे  भगवानका पोजन करे | यह ‘ साधनाभाविनी पूजा कही गयी है | नारद ! अब दौर्बोधी पूजका परिचय सुनो-स्त्री वृद्ध, बालक और मूर्ख मनुष्य अपने स्वल्प ज्ञानके अनुसार जिस किसी क्रमसे जो भी पूजा करते हैं, उसे ‘दौर्बोधी पूजा’ कहते हैं | इस प्रकार साधकको जिस किसी तरह भी सम्भव हो, देवपूजा करनी चाहिये | देवपूजाके बादबालीवैश्वदेव आदि करके श्रेष्ठ ब्रह्माणोंको भोजन कराये | तत्पश्चात भगवानको अर्पित किया हुअ प्रसाद स्वयं स्वजनोंके साथ भोजन करे | फिर आचमन एवं मुख-शुद्धि करके कुच देर विश्राम करे | फिर स्वजनोंके साथ बैठकर पुराण तथा इतिहास सुने | जो सब् कल्पों (सम्पूर्ण पूजा-विधियों)-के सम्पादनमें समर्थ होकर भी अनुकल्प (पीछे बताये हुए अपूर्ण विधान)-का अनुष्ठान करता है, उस उपासकको सम्पूर्ण फलकी प्राप्ति नहीं होती है |

(पुर्व० ६७ अध्याय)    

अध्याय ६३ श्रीमहाविष्णुसम्बन्धी अष्टाक्षर, द्वादशाक्षर आदि विविध मन्त्रोंके अनुष्ठानकी विधि

सनत्कुमारजी कहते हैं नारद ! अब मैं महाविष्णुके मंत्रोंका वर्णन करता हूँ, जो लोकेमें अत्यंत दुर्लभ है । जिन्हें पाकर मनुष्य शीघ्र ही अपने अभीष्ट वस्तुओंको प्राप्त कर लेता है । जिनके उच्चारणमात्रसे ही राशि-राशि पाप नष्ट हो जाते हैं । ब्रह्मा आदि भी जिन मंत्रोंका ज्ञान प्राप्त करके ही संसारकी सृष्टि में समर्थ होते हैं । प्रणव और नमःपूर्वक डें विभक्तयनत ‘ नारायण ‘ पद हो तो ॐ नमो नारायणाय यह अष्टाक्षर मंत्र होता है । साध्य नारायण इसके ऋषि हैं, गायत्री छंद है, अविनाशी भगवान विष्णु देवता है, ॐ बीज है, नमः शक्ति है तथा संपूर्ण मनोरथोंकी प्राप्तिके लिए इसका विनियोग किया जाता है । इसका पंचांग-न्यास इस प्रकार है—क्रुधोल्काय हृदयाय   नमः, महोल्काय शिरसे स्वाहा, विरोल्काय शिखये वषट्, अत्युल्काय कावचाय हुं, सहस्त्त्रोल्काय अस्त्राय फट् । इस प्रकार पंचांगकी कल्पना करनी चाहिए। फिर मंत्रके छ: वर्णोंसे षडंग-न्यास करके शेष दो मंत्राअक्षरोंका कुक्षी तथा पृष्ठभाग में न्यास करें । इसके बाद सुदर्शन-मंत्रसे दीगबंध करना चाहिये । ॐ नमः सुदर्शनाय अस्त्राय फट यह बारह अक्षरोंका मंत्र ‘सुदर्शन मंत्र’ कहा गया है |

   अब मैं विभूतिपञ्चर नामक दशावृतीमय न्यासका वर्णन करता हूँ । मूल मंत्रके अक्षरोंका अपने शरीरके मूलाधार हृदय, मुख, दोनों भुजा तथा दोनों चरणोंके मूलभाग तथा नासिकामें न्यास करे । यह प्रथम आवृत्ती कहीं गई है । कंठ, नाभि, ह्रदय, दोनों स्तन, दोनों पार्श्वभाग तथा पृष्ठभागमें पुनः मंत्राक्षरोंका न्यास करें । यह द्वितीय आवृत्ति बतायी गई है । मुर्धा, मुख, दोनों नेत्र, दोनों श्रवण तथा नासिका-छिद्रोंमें मंत्राक्षरों का न्यास करें । यह तृतीय आवृत्ति  है ।  दोनों भुजाओं और दोनों पैरोंकी सटी हुई अंगूलियाँमें चौथी आवृत्तिका न्यास करें । धातु, प्राण और ह्रदय में पांचवी आवृत्तिका न्यास करें । सिर, नेत्र, मुख और हृदय, कुक्षी उरू, जंघा तथा दोनों पैरोंमें विद्वान पुरुष एक-एक करके क्रमशः मंत्र-वर्णों का निवास करें । (यह छठी, सातवीं, आठवीं आवृत्ति है) हृदय, कंधा, ऊरु तथा चरणोंमें मंत्रके चार वर्णोंका न्यास करें । शेष वर्णोंका चक्र, शंख, गदा और कमलकी मुद्रा बनाकर उनमें न्यास करें (यह नवम दशम आवृत्ति है ) ।  यह सर्वश्रेष्ठ न्यास विभूति-पञ्चर नाम से विख्यात है । मूलके एक-एक अक्षरोंको अनुस्वारसे युक्त करके उसके दोनों और प्रणव का संपुट लगाकर न्यास करें अथवा आदिमें प्रणव और अंत में नमः लगाकर मंत्राक्षरों का न्यास करें । ऐसा दूसरे विद्वानों का कथन है ।

   तत्पश्चात बारह आदित्योंसहित द्वादश मूर्तियोंका न्यास करें।  यह बारह मूर्तियाँ आदिमें द्वादशाक्षरके एक-एक मंत्र से युक्त होती है और इनके साथ बारह आदित्योंका संयोग होता है । यह अष्टाक्षर-मंत्र अष्टप्रकृति रूप बताया गया   है । इनके साथ चार आत्माका योग होनेसे द्वादशाक्षर होता है । ललाट, कुक्षी, ह्रदय, कंठ, दक्षिण पार्श्व, दक्षिण अंस, गल दक्षिणभाग, वाम पार्श्व, वाम अंस, गल वाम, पृष्टभाग तथा ककूद—इन बारह अंगोंमें मंत्रसाधक क्रमशः बारह मूर्तियोंका न्यास करें । केशवका धाताके साथ ललाटमें न्यास करके नारायणका अर्यमाके साथ कुक्षीमें माधवका मित्रके साथ ह्रदयमें तथा गोविंदका वरुणके साथ कंठकूपमें न्यास करें । विष्णुका अंशुके साथ, मधुसूदनका भगके साथ, त्रिविक्रमका विवस्वानके साथ, वामनका इंद्रके साथ, श्रीधरका पूषाके साथ और ह्रीषिकेशका पर्जन्यके साथ न्यास करें । पद्यनाभका त्वषटाके साथ तथा दामोदर का विष्णु के साथ न्यास करें । तत्पश्चात द्वादशाक्षर-मंत्रका संपूर्ण सिरमें न्यास करें ।  इसके बाद विद्वान पुरुष कीरीट मंत्रके द्वारा व्यापकन्यास करें । किरीट मंत्र प्रणवके अतिरिक्त पैसठ अक्षरका बताया गया है—ॐ किरीटकेयूरहारमकर-कुंडलशंखचक्रगदाम्भो जहस्तपीताबरधरश्रीवत्साअंगितवक्षःस्थल श्रीभूमिसहितस्वात्म ज्योति -मर्यादीप्तकराय सहस्त्रादित्यतेजसे नमः इस प्रकार न्यासविधि करके सर्वव्यापी भगवान नारायणका ध्यान करें ।

उद्यत्कोट्यर्कसदृशं शःङ्खं चक्रं गदाम्बुजं |

दधतं च  करैर्भूमिश्रीभ्यां  पार्श्वयान्चितम् ||

श्रीवत्सवक्ष्सं  भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम् |

हारकेयूरवलयाङ्गदं    पीताम्बरं   स्मरेत् ||

(ना० पुर्व० तृ० ७० | ३२-३३ )

    जिनकी दिव्य कांति उदय-कालके कोटि-कोटि सूर्योंके सदृश है, जो अपने चार भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और कमल धारण करते हैं, भूदेवी तथा श्रीदेवी जिनके उभय पार्श्वकी शोभा बढ़ा रही है, जिनका वक्षस्थल श्रीवत्सचिन्हसे सुशोभित है, जो अपने गलेमें चमकीले कोस्तुभमणि धारण करते हैं और हार, केयुर, वलय तथा अंगद आदि दिव्य आभूषण जिनके श्री अंगों में पड़कर धन्य हो रहे हैं, उन पीतांबरधारी भगवान विष्णु का चिंतन करना चाहिये ।

   इंद्रियोंको वशमें रखकर मंत्रमें जितने वर्ण है, उतने लाख मंत्रका विधिवत जप करें । प्रथम लाख मंत्रके जपसे निश्चय ही आत्मशुद्धि होती है । दो लाख जप पूर्ण होनेपर साधकको मंत्र सिद्धि प्राप्त होती है । तीन लाख के जपसे ज्यादा स्वर्गलोक प्राप्त होता है । चार लाखके जपसे मनुष्य भगवान विष्णुके समीप जाता है । पाँच लाखके जपसे निर्मल ज्ञान प्राप्त होता है । छ्ठे लाखके जपसे मंत्र-साधक की बुद्धि भगवान विष्णुमें स्थिर हो जाती है । सात लाख जपसे मंत्रोंपासक श्रीविष्णुका सरुप्य प्राप्त कर लेता है। आठ लाखका जप पूर्ण कर लेने पर मंत्र-जप करने वाला पुरुष निवारण (परम शांति एवं मोक्ष) को प्राप्त होता है । इस प्रकार जप करके विद्वान पुरुष मधुराक्त कमलोंद्वारा मंत्रसंस्कृत अग्रिमें दशांश होम करें । मंडुकसे लेकर परतत्वपर्यंत सबका पीठपर यत्नपूर्वक पूजन करें । विमला, उत्करशिनी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वि, सत्या, ईशाना तथा नवीं अनुग्रहा— नौ पीठशक्तियाँ है । (इन सब का पूजन करना चाहिये ।) इसके बाद ॐ नमो भगवते वैष्णवे सर्वभू सर्वभूतात्मने वासुदेवाय सर्वात्मसयोगयोगविद्यापीठाय नमःयह छतीश अक्षरका पीठमंत्र है, इससे भगवान को आसन देना चाहिये । मूलमंत्रसे मूर्ति-निर्माण कराकर उसमें भगवानका आवाहन करके पूजा करें । पहले कमलके केसरोमें मंत्रसंबंधि छह अंगोंका पूजन करना चाहिये । इसके बाद अष्टदल कमलके पूर्व आदि दलों में क्रमशः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युमन तथा अनिरुद्धका और आग्नेय आदि कोनो क्रमशः उनकी शक्तियोंका पूजन करें । उनके नाम इस प्रकार है— शांति, श्री, रति तथा सरस्वती । इनकी क्रमशः पूजा करनी चाहिए। वासुदेवकी अंगकांति स्वर्ण के समान है । संकर्षण पीत वर्णके हैं। प्रद्युमन तमाल के समान श्याम और अनिरुद्ध इंद्रनील मणिके सदृश है । ये सब-के-सब पितांबर धारण करते हैं, इनके चार भुजाएं हैं। यह शंख, चक्र, गदा और कमल धारण करने वाले हैं । शांतिका वर्ण श्वेत, श्रीका वर्ण सुवर्ण-गौर, सरस्वतीका रंग गोदुध के समान उज्ज्वल तथा रतिका वर्णन दूर्वादलके समान श्याम है । इस प्रकार ये शब्द शक्तियाँ है । कमलदलोंके अग्रभागमें चक्र, शंख, गदा, कमल, कोस्तूभमणि, मुसल, खड़ग, और वनमालाका क्रमशः पूजन करे । चक्र का रंग लाल, शंखका रंग चंद्रमाके समान श्वेत, गदाका पीला, कमलका सुवर्णके समान, कोस्तुभका श्याम, मुसलका काला, तलवारका श्वेत और वनमालाका उज्वल है । इनके बाह्य भागमें भगवानके समुख हाथ जोड़कर खड़े हुए कुमकुम वर्ण वाले पक्षीराज गरुड़ का पूजन करें। तत्पश्चात क्रमशः दक्षिण पार्श्वमें शंखनिधि और वाम पार्श्वमें पद्यनिधि की पूजा करें । इनका वर्ण क्रमशः मोती और माणिक्य के समान है । पश्चिममें ध्वजकी पूजा करें । अग्निकोणमें रक्तवर्णके (गणेश)-, नैऋत्य कोणमें श्यामवर्ण वाले आर्यका, वायव्यकोणमें श्यामवर्ण दुर्गाका तथा ईशान कोणमें पीतवर्णका सेनानी पूजन करना चाहिये । इनके बाह्यभागमें विद्वान पुरुष इन्द्र आदि लोकोपालोका उनके आयुधोंसहित पूजन करें । जो इस प्रकार आवरणोंसहित भगवान विष्णु का पूजन करता है, वह इस लोक में संपूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान विष्णुके धामको जाता है । खेत, धान्य और सुवर्णकी प्राप्तिके लिए धरणीदेवीका चिंतन करें । उनकी कांति दूर्वादलके समान श्याम है और वे अपने हाथोंमें धानकी बाल लिए रहती है । देवाधिदेव भगवानके दक्षिण भागमें पूर्ण चंद्रमाके समान वीणा-पुस्तकधारिणी सरस्वतीदेवीका चिंतन करें । वे क्षीरसागरके फेनपुन्नजकी भांतिउज्जवल वस्त्र धारण करती है । जो सरस्वतीदेवीके साथ परात्पर भगवान विष्णुका ध्यान करता है, वह वेद और वेदांगोंका तत्वज्ञ और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ होता है |

   जो प्रतिदिन प्रातःकाल पच्चीस बार (ॐ नमो  नारायण) इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करके जल पीता है, वह पापोंसे मुक्त, ज्ञानवान तथा निरोग होता है चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृतका स्पर्श करके उक्त मन्त्र का आठ हजार बार जप करनेके पश्चात ग्रहण शुद्ध होनेपर श्रेष्ठ साधक घृतको पी ले । ऐसा करनेसे वह मेंधा (धारणशक्ति) कवित्वशक्ति तथा वाक्सिद्धि प्राप्त कर लेता है । यह नारायणमंत्र सब मंत्रोंमें उत्तम-से-उत्तम है । नारद !यह सम्पूर्ण सिद्धियोंका घर है;  अतः मैंने तुम्हें इसका उपदेश किया है । नारायणाय पदके अंतमें ‘विद्यहे पदका उच्चारण करे । फिर ‘डे’ वी भक्त्यनत ‘वासुदेव’ पद (वासुदेवाय)-का उच्चारण करे, उसके बाद धीमही यह पद बोले । अंतमें ‘तन्नो विष्णु प्रचोदयात्’ इन अक्षरों का उच्चारण करे । यह (ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि तन्नो विष्णु: प्रचोदयात्) इन अक्षरोंका उच्चारण करे । विष्णुगायत्री बतायी गयी है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है।

   तार (ॐ), ह्रदय (नमः) भगवत शब्द का चतुर्थी विभक्तिमें एकवचनानत रूप (भगवते) तथा ‘वासुदेवाय’यह द्वादशाक्षर (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) महामंत्र कहा गया है, जो भोग और मोक्ष देनेवाला है । स्त्री और शूद्रोंको बिना प्रणवके यह मंत्र जपना चाहिये और द्विजातियोंके लिये प्रणवसहित इसके जपका विधान है । इस मंत्रके प्रजापति ऋषि, गायत्री छंद, वासुदेव देवता, ॐ बीज और नमः शक्ति है । इस मंत्रके एक, दो, चार, और पांच अक्षरों तथा संपूर्ण मंत्रद्वारा पंचांग-न्यास करना चाहिये ।      

   यहां भी पूर्वोक्तरूपसे ही ध्यान करना चाहिये । इस मंत्र के बारह लाख जपका विधान है घीसे सने हुए तिलसे जप के दशांशका हवन करना चाहिये । पूर्वोक्त पीठपर मूलमंत्रसे मूर्तिकी कल्पना करके मंत्रसाधक उस मूर्तिमें देवेश्वर वासुदेव का आवाहन और पूजन करे । पहले अंगोंकी पूजा करके वासुदेव आदि व्यूहोकी पूजा करनी चाहिये । तदनंतर शांति आदि शक्तियोंका पूजन करना उचित है । वासुदेव आदिका पूर्व आदी दिशाओमें और शांति आदि शक्तियोंका अग्नि आदि कोणोंमें पूजन करना चाहिये । तृतीय आवरणमें केशव आदि द्वादश मूर्तियोंकी पूजा बतायी गयी है । चतुर्थ और पंचम आवरणमें इन्द्रादि डिकपलो और उनके आयुधोंकी पूजा करे । इनकी पूजाका स्थान भूपुर है । इस प्रकार पांच आवरणोंसहित अविनाशी भगवान विष्णुकी पूजा करके मनुष्य संपूर्ण मनोरथोको पाता और अंतमें भगवान विष्णुके लोकमें जाता है ।

अध्याय ६४ भगवान श्रीराम, सीता, लक्षमण, भरत, तथा शत्रुघ्न— सम्बन्धी विविध मन्त्रोंके अनुष्ठानकी संक्षिप्त विधि

सनत्कुमारजी कहते हैं- नारद ! अब भगवान श्रीरामके मन्त्र बताये जाते हैं, जो सिद्धि प्रदान करने वाले हैं और जिनकी उपासना में मनुष्य भवसागर के पार हो जाता हैं । सब उत्तम मन्त्रोंमें वैष्णव-मन्त्र श्रेष्ठ बताया जाता  हैं ।  गणेश, सूर्य, दुर्गा और शिव-सम्बन्धी मन्त्रोंकी अपेक्षा वैष्णव-मन्त्र शीघ्र अभीष्ट सिद्ध करनेवाला है । वैष्णव मन्त्रोंमें भी राम-मन्त्रोंके फल अधिक हैं । गणपति आदि मन्त्रोंकी अपेक्षा राम मन्त्र कोटि-कोटिगुने अधिक महत्व रखते हैं । विष्णुशय्या (आ) के ऊपर विराजमान अग्नि (र) का मस्तक यदि चन्द्रमा (अनुस्वार) से विभूषित हो और उसके आगे रामाय नमः ये तो पद हो तो यह (रां रामाय नमः) मन्त्र महान पापोंकी राशिका नाश करनेवाला है । श्रीरामसम्बन्धी सम्पूर्ण मन्त्रमें यह षदक्षर मन्त्र अत्यन्त श्रेष्ठ है । जानकर और बिना जाने किये हुए महापातक एवं उपपादक सब इस मन्त्र के उच्चारणमात्रसे तत्काल नष्ट हो जाते हैं इसमें संशय नहीं है । इस मन्त्रके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, श्रीराम देवता, रां बीज और नमः शक्ति है । सम्पुर्ण मनोरथोकी प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है । छ: दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजमन्त्रद्वार षडङ्गन्यास करे । फिर पीठन्यास आदि करके हृदयमें रघुनाथजीका इस प्रकार ध्यान करे-

कलम्भोधकारन्तं च वीरासनसमस्थितम्

ज्ञानमुद्रां दक्षहस्ते दधतं जानुनितरम्

सरोरुहकरां सीतां विद्युदाभां च पार्श्वगाम् |

पश्यन्तीं रामवक्त्राब्जं विविधाकल्पभूषिताम् ||

   ‘भगवान् श्रीरामकी अङ्गकान्ति मेंघकी काली घटाके समान श्याम है । वे वीरासन लगाकर बैठे हैं । दाहिने हाथमें ज्ञानमुद्रा धारण करके उन्होंने अपने बायें हाथको बायें घुटनेपर रख छोड़ा है । उनके वामपार्श्वमें विद्युत्के समान कान्तिमती और नाना प्रकारके वस्त्राभूषणोंसे विभूषित सीतादेवी विराजमान हैं । उनके हाथोंमें कमल और वे अपने प्राणवल्लभ श्रीरामचन्द्रजीका मुखारविन्द निहार रही है ।’

इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक छः लाख जप करे और कमलोंद्वारा प्रज्वलित अग्निमें दशांश होम करे । तत्पश्चात् ब्राह्मण-भोजन करावे । मूलमन्त्रसे इष्टदेवकी मूर्ति बनाकर उसमें भगवानका आवाहन और प्रतिष्ठा करके विमलादि शक्तियोंसे संयुक्त वैष्णवपीठपर उनकी पूजा करे । भगवान श्रीरामके वामभागमें बैठी हुई सीतादेवीकी उन्हींके मन्त्रसे पूजा करनी चाहिये । श्रीसीतायै स्वाहा यह जानकी-मन्त्र है | भगवान् श्रीरामके अग्रभागमें शाङ्गधनुषकी पूजा करके दोनों पाशर्वभागोंमें बाणोंकी अर्चना करे | केसरोंमें छ: अङ्गोंकी पूजा करके दलोंमें हनुमान् आदिकी अर्चना करे | हनुमान्, सुग्रीव, भरत, विभीषण, लक्ष्मण, अङ्गद, शत्रुध्न तथा जाम्बवान्-इनका क्रमशः पूजन करना चाहिये | हनुमानजी भगवानके आगे पुस्तक लेकर बाँच रहे हैं | श्रीरामके दोनों पार्श्वमें भरत और शत्रुधन चँवर लेकर खड़े हैं | लक्ष्मणजी पीछे खड़े होकर दोनों हाथोंमें भगवानके ऊपर छत्र लगाये हुए हैं |इस प्रकार धायनपूर्वक उन सबकी पूजा करनी चाहिये | तदान्तर अष्टदालोंके आगराभागमें सृष्टि, जयन्, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रपाल (अथवा राष्ट्रवर्धन), अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्रकी पूजा करके उनके बाह्यभागमें इन्द्र आदि  देवताओंका आयुधोंसहित पोजन करे | इस प्रकार भगवान श्रीरामकी आराधना करके मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है | घृताप्त शतपर्वीसे आहुती करनेवाला पुरुष दीर्घआयु तथा नीरोग होता है | लाल कमलोंके होमसे मनोवानञ्छित धन प्राप्त होता है | पलाशके फूलोंसे हवन करके मनुष्य मेंधावी होता है | जो प्रतिदिन प्रातःकाल पूर्वोक्त षडक्षरमन्त्रसे अभिमंत्रित जल पीता है, वह एक वर्षमें कविसम्राट हो जाता है | श्रीरामकेमन्त्रसे अभिमंत्रित अन्न भोजन करे | इससे बड़े-बड़े रोग शान्त हो जाते हैं | रोगके लिये बतायी हुई ओषधिक उक्त मन्त्रद्वारा हवन करनेसे मनुष्य क्षणभरमें रोगमुक्त हो जाता है | प्रतिदिन दूध पीकर नदीके तटपर या गोशालामें एक लाख जप करे और घृतयुक्त खीरसे आहुति करे तो वह मनुष्य विद्यानिधि होता है | जिसका अधीप्त्य (प्रभुत्व) नष्ट हो गया है, ऐसा मनुष्य यदि शाकाहारी होकर जलके भीतर एक लाख जप करे और बेलके फूलोंकी दशांश आहुति दे तो उसी समय वह अपनी खोयी हुई प्रभुता पुनः प्राप्त कर लेता है | इसमें संशय नहीं है | गङ्गातटके समीप उपवासपूर्वक रहकर मनुष्य यदि एक लाख जप करे और त्रिमधुयुक्त कमलों अथवा बेलके फूलोंसे दशांश आहुति करे तो राज्यलक्ष्मी प्राप्त कर लेता है | मार्गशीर्षमासमें कन्द-मूल-फुलके आहारपर रहकर जलमें खड़ा होकर एक लाख जप करे और प्रज्वलित अग्निमें खीरसे दशांश होम करे तो उस मनुष्यको भगवान श्रीरामचन्द्रजीके समान पुत्र एवं पौत्र प्राप्त होता है |

   इस मन्त्रराजके और भी बहुत-से प्रयोग हैं | पहले षटकोण बानवे | उसके बाह्यभागमें द्वादशदल कमल लिखे | छः कोणोंमें विद्वान पुरुष मन्त्रके छः अक्षरोंका उल्लेख करे | अष्टदल कलममें भी प्रणवसम्पुटित उक्त मन्त्रके आठ अक्षरोंका उल्लेख करे | द्वादशदल कमलमें कामबीज (क्लीं) लिखे | मध्यभागमें मन्त्रसे आवृत नामका उल्लेख करे | बाह्यभागमें सुदर्शन मन्त्रसे और      दिशाओमें युग्मबीज (रां श्री)-से यन्त्रको आवृत करे | उसका भूपुर वज्रसे सुशोभित   हो | कोण कन्दर्प, अङ्गश, पाश और भूमिसे सुशोभित हो | यह यन्त्रराज माना गया है | भोजपत्रपर अष्टगन्धसे ऊपर बताये अनुसार यन्त्र लिखकर छः कोणोंके ऊपर दलोंका आवेष्टन रहे | अष्टदल कमालके केसरोंमें विद्वान पुरुष युग्म बीजसे आवृत दो-दो स्वरोंका उल्लेख करे | यन्त्र बाह्यभागमें मातृकावार्णों उल्लेख करे | साथ ही प्राण-प्रतिष्ठाका मन्त्र भी लिखे | मन्त्रोपासक किसी शुभ दिनको कण्ठमें,दाहिनी भुजामें अथवा मस्तकपर इस यन्त्रको धारण करे | इसमें वह सम्पूर्ण पातकोंसे मुक्त हो जाता है | स्व बीज (रां), काम (क्लीं), सत्य (ह्री), वाक (ऐं), लक्ष्मी (श्री), तार (ॐ) इन छः प्रकारके बीजोंसे पृथक-पृथक जुडनेपर पाँच वार्णोंका ‘रामय नमः’ मन्त्र छः भेदोंसे युक्त षडक्षर होता है | (यथा- रां रामाय नमः, क्लीं रामाय नमः, ह्री रामय नमःइत्यादि) यह छः प्रकारका षडक्षर-मन्त्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चरों फलोंको देनेवाला है | इन छहोके क्रमश: ब्रम्हा, सम्मोहन, सत्य, दक्षिणामूर्ति, अगसत्य तथा श्रीशिव-ये ऋषि बताये गये हैं | इनका छन्द गायत्री है, देवता श्रीरामचन्द्रजी हैं, आदिमें लगे हुए रां, क्लीं आदि बीज हैं और अन्तिम नमः पद शक्ति है | मन्त्रके छः अक्षरोंसे पडङ्ग-न्यास करना चाहिये | अथवा छः दीर्घ स्वरोंसे युक्त बीजाक्षरोंद्वारा न्यास करे | मन्त्रके अक्षरोंका पूर्ववत न्यास करना चाहिये |

ध्यान

ध्यायेतकल्पतरोर्मूले सुवर्णमयमण्डपे |

पुष्पकाख्यविमानान्त: सिंहासनपरिच्छेद ||

पद्ये वसुदले देवमिन्द्रनीलसमप्रभ्म् |

वीरासनसमासीनं ज्ञानमुद्रोपशोभितम् ||

वामोरुन्यस्ततद्धस्तं सीतालक्ष्मणसेवितम् ||

रत्नाकल्पं विभुं ध्यात्वा वर्णलक्षं जपेन्मनुम् ||

यद्वा स्मारादिमन्त्राणां जयाभं च हरिं स्मरेत् |  

(५९-६२)                                                                                                                                                           

   भगवानका इस प्रकार ध्यान करे । कल्पवृक्ष के नीचे एक सुवर्णका विशाल मण्डप बना हुआ है ।उसके भीतर पुष्पक विमान है, सिंहासन बिछा हुआ है | उस पर अष्टदल कमलका आसन है जिसके ऊपर इन्द्रनील मणिके समान श्याम कान्तिवाले भगवान् श्री रामचन्द्र वीरासनसे बैठे हुए हैं | उनका दाहिना हाथ ज्ञानमुद्रासे सुशोभित है और बाये हाथ को उन्होंने बायी जाँघपर रख छोड़ा है | भगवती सीता तथा सेवाव्रती लक्ष्मण उनकी सेवामें जुटे हुए हैं | सर्वव्यापी भगवान्  रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित हैं | इस प्रकार ध्यान करके छः अक्षरोंकी संख्याके अनुसार छः लाख मन्त्र जप करे अथवा क्लीं आदिसे युक्त मन्त्रोंके साधनमें जयाभ श्रीहरिका चिन्तन करे |

   पूजन तथा लौकिक प्रयोग सब पूर्वोक्त षडक्षर-मन्त्रके ही समान कारने चाहिये | ‘ॐ रामचन्द्राय नमः’ ‘ रामभद्राय नमः | ये दो अष्टाक्षर मन्त्र हैं | इनके अन्तमें भी ‘ॐ’ जोड़ दिया जाय तो ये नवाक्षर हो जाते हैं | इनका सब पूजनादि कर्म मन्त्रोपासक षडक्षर-मन्त्रकी ही भाँति करे | हूं जानकीवल्लभाय स्वाहा यह दस अक्षरोंवाला महामन्त्र है | इसके वासिष्ट ऋषि, स्वराट शक्ति है (इनका सबका यथास्थान न्यास करना चाहिये) | क्लीं बीजसे क्रमश: षडङ्गन्यास करे | मन्त्रके दस अक्षरोंका क्रमश: मस्तक, ललाट, भ्रूमध्य, तालु, कण्ठ, हृदय, नाभि,ऊरु, जानु और चरण-इन दस अङ्गोमें न्यास करे |      

ध्यान

अयोध्यानगरे रत्नचित्रसौवर्णमण्डपे |

मन्दारपुष्पैराबध्दविताने तोरणान्विते ||

सिंहासनसमासीनं पुष्पकोपरी राघवम् |

रक्षोभिर्हरिभिर्देवै: सुविमानगतै: शुभैः ||

संस्तूयमानं मुनिभिः प्रह्रैश्च परिसेवितम् |

सीतालंकृतवामाङ्ग लक्ष्मणेनोपशोभितम् ||

श्यामं प्रसन्नवदनं सर्वाभरणभूषितम् |

(६३-७१)

   दिव्य अयोध्या-नगरमें रत्नोंसे चित्रत एवं सुवर्णमय मण्डप है, जिनमें मन्दारके फुलोंसे चंदोवा बनाया गया है | उसमें तोरण लगे हुए हैं | उसके भीतर पुष्पक विमानपर एक दिव्य सिंहासनके ऊपर राघवेन्द्र श्रीराम बैठे हुए है | उस सुन्दर विमानमें एकत्र हो शुभस्वरूप देवता, वानर, राक्षस और विनीत महर्षिगण भगवानकी स्तुति और परिचर्या करते हैं | श्रीराघवेन्द्र वाम भागमें भगवती सीता विराजमान हो उस वामाङ्गकी शोभा बढ़ती हैं | भगवान दाहिना भाग लक्ष्मणजीसे सुशोभित है, श्रीरघुनाथजीकी कान्ति श्याम है, उनका मुख प्रसन्न है तथा वे समस्त आभूषणोंसे विभूषित है |

   इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक एकाग्रचित हो दस लाख जप करे | कमल-पुष्पोंद्वारा दशांश होम और पूजन षडक्षर-मन्त्रके समान है | रामाय धनुष्पानणये स्वाहा |’ यह दशाक्षर मन्त्र है | इसके ब्रम्हा ऋषि है, विराट छन्द है तथा राक्षसमर्दन श्रीरामचन्द्रजी देवता कहे गये है | मन्त्रका आदि अक्षर अर्थात ‘रां’ यह बीज है और स्वाहा शक्ति है | बीजकेद्वारा षडङ्ग-न्यास करे | वर्णन्यास, ध्यान, पुरश्चरण तथा पूजन आदि कार्य दशाक्षर-मन्त्रके लिये पहले बताये अनुसार करे | इसके जपमें धनुष-बाण धारण करनेवाले भगवान् श्रीरामका ध्यान करना चाहिये | तार (ॐ)- के पश्चात् ‘नमो भगवते रामचन्द्राय’ अथवा ‘रामभद्राय’ ये दो प्रकारके द्वादशाक्षर–मन्त्र हैं इनके ऋषि और ध्यान आदि पर्ववत्   है | श्रीपूर्वक, जयपुर्वक, तथा जय-जयपूर्वक ‘राम’ नाम हो१ | यह (श्रीराम जय राम जय जय राम) तेरह अक्षरोंका मन्त्र है | इसके ब्रम्हा ऋषि विराट छन्द तथा पाप-रशिका नाश करनेवाले भगवान् श्रीराम देवता कहे गये है | इसके तीन पदोंके दो-दो आवृति करके षडङ्ग-न्यास करे२ | ध्यान-पूजन आदि सब कार्य दशाक्षर मन्त्रके समान करे |

   ‘ॐ नमो भगवते रामाय महापुरुषाय नमः’ यह अठारह अक्षरोंका मन्त्र है | इसके विश्वामित्र ऋषि धृति छन्द, श्रीराम देवता, ॐ बीज और ‘नमः’ शक्ति है | मन्त्रके एक, दो, चार, तीन छः और दो अक्षरोंवाले पदोंद्वारा एकाग्रचित हो षडङ्ग-न्यास करे |

 

ध्यान

निःशाणभेरीपटहशङ्खतुर्यादिनि: स्वनैः ||

प्रवृत्तनृत्ये परितो जयमङ्गलभाषिते |

चन्दनागुरुकस्तुरीकर्पुरादिसु वासिते ||

सिंहासने समासीनं पुष्पकोपरि राधवम् | 

सौमित्रिसीतासहितं जटामुकुटशोभितम् ||

चापबाणथरं श्यामं ससुग्रीवविभीषणम् |

हत्वा रावणमायान्तं कृतत्रैलोक्यरक्षणम् ||

   भगवान् राघवेन्द्र रावणको मारकर त्रिलोकीकी रक्षा करके लौट रहे हैं | वे सीता और लक्ष्मणके साथ पुष्पक-विमानमें सिंहासनपर बैठे है | उनका मस्तक जटाओंके मुकुटसे सुशोभित है | उनका वर्ण श्याम है और उनहोने धनुष-बाण धारण कर रखा है | उनकी विजयके उपलक्षमें निशान, भेरी, पटह, शङ्ख और तुरही आदिकी ध्वनियोंके साथ-साथ नृत्य आरम्भ हो गया है | चरों ओर जय-जयकार तथा मङ्गल-पाठ हो रहा है | चन्दन, अगुरु, कस्तुरी और कपूर आदिकी मधुर गन्ध छा रही है |

   इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक मन्त्रकी अक्षर-संख्याके अनुसार अठारह लाख जप करे घृतमिश्रित खीरकी दशांश  आहुति करके पूर्ववत् पूजन करे |

ॐ रां श्रीं रामभद्र महेष्वास रघुवीर नृपोत्तम |

दशस्यान्तक मां रक्ष देहि में परमां श्रियम् ||१

   यह पैंतीस अक्षरोंका मन्त्र है | बीजाक्षरोंसे विलग होनेपर बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र होता है | यह अभिष्ट फल देनेवाल है | इसके विश्वामित्र ऋषि, अनुष्टुप छन्द, रामभद्र देवता, रां बीज और श्रीं शक्ति है | मन्त्रके चार पादोंके आदिमें तीनों बीज लगाकर उन पादों तथा सम्पूर्ण मन्त्रके द्वारा मंत्राज्ञ पुरुष पंचाङ्ग-न्यास करके मन्त्रके एक-एक अक्षरका क्रमश: समस्त अङ्गोमें न्यास करे | इसके ध्यान और पूजन आदि सब कार्य पूर्ववत् करे | इस मन्त्रका पुरश्चरण तीन लाखका है | इसमें खीरसे हवन करनेका विधान है | पीतवर्णवाले श्रीरामका ध्यान करके एकाग्रचितहो एक लाख जप करे, फिर कमलके फोलोंसे दशांश हवन करके मनुष्य धन पाकर अत्यन्त धनवान् हो जाता है |

‘ॐ ह्रीं श्रीं श्रीं दाशरथाय नमः’ यह ग्यारह अक्षरोंका मन्त्र है | इसके ऋषि आदि तथा पूजन आदि पूर्ववत हैं | त्रैलोक्यनाथाय नमः यह आठ अक्षरोंका मन्त्र है | इसके भी न्यास, ध्यान और पूजन आदि सब कार्य पूर्ववत् हैं | ‘रामाय नमः’ यह पञ्चाक्षर-मन्त्र है | इसके ऋषि, ध्यान और पूजन आदि सब कार्य षडक्षर-मन्त्रकी ही भाँति होते हैं | रामचन्द्राय स्वाहा, रामभद्राय स्वाहा– ये दो मन्त्र कहे गये हैं | इसके ऋषि और पूजन आदि पूर्ववत्  हैं | अग्रि (र) शेष (आ)-से युक्त हो और उसका मस्कत चन्द्रमा (-)-से विभूषित हो तो वह रघुनाथजीका एकाक्षर-मन्त्र (रां) है | जो दवितीय कल्पवृक्षके समान है | इसके ब्रम्हा ऋषि, गायत्री छन्द और श्रीराम देवता हैं |छः दीर्घ स्वरोसे युक्त मन्त्रद्वारा षडङ्ग-न्यास करे |

सरयूतीरमन्दारवेदिकापङ्क्जासने ||

श्यामं वीरासनासीनं ज्ञानमुद्रोपशोभीतम् | 

वामरु न्यस्ततद्धस्तं सीतालक्ष्मणसंयुतम् || 

अवेक्षमाणमात्मानं मन्मथामिततेजसम् |

शुद्धस्फटिकसंकाशं केवलं मोक्षकाडक्षया ||  

चिन्तयेत् परमात्मान्मृतुलक्षं जपेन्मुम् |

(१०५-१०८)

   ‘सरयूके तटपर मन्दार (कल्पवृक्ष)-के नीचे एक वेदिका बनी हुई है और उसके ऊपर एक कमलका आसन बिछा हुआ है | जिसपरश्यामवर्णवाले भगवान् श्रीराम वीरासनसे बैठे है | उनका दाहिना हाथ ज्ञानमुद्रासेसुशोभित है | उनहोने अपने बायें ऊरुपर बायाँ हाथ रख छोड़ा है | उनके वामभागमें सीता और दाहिने भागमें लक्ष्मणजी हैं | भगवान् श्रीराम अमित तेज कामदेवसे भी अत्यधिक सुन्दर है | वे शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल तथा अद्वितीय आत्माका ध्यानद्वारा साक्षात्कार कर रहे हैं | ऐसे परमात्मा | श्रीरामका केवल मोक्षकी इच्छासे चिन्तन करे और छः लाख मन्त्र का जप  करे |’

   इसके होम और नित्य-पूजन आदि सब कार्य षडकर-मन्त्रकी ही भाँति जीभ हैं | वह्रि (र), शेष (आ)- के आसनपर विराजमान हो और उसके बाद भान्त (म) हो तो केवल दो अक्षरका मन्त्र दो अक्षर मन्त्र (राम) होता है | इसके ऋषि, ध्यान और पूजन आदि सब कार्य एकाक्षर जानने चाहिये | तार (ॐ), माया (ह्री) रमा (श्री), अनङ्ग (क्लीं),अस्त्र (फट) तथा स्व बीज (रां) इनके साथ पृथक-पृथक जुड़ा हुआ द्वयक्षर मन्त्र (राम) छः भेदोंसे युक्त त्र्यक्षर मन्त्रराज होता है | यह सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थोको देनेवाले है द्वयक्षर मन्त्रके अन्तमें ‘चन्द्र’ और ‘भद्र’ शब्द जोड़ा जाय तो दो प्रकारका चतुरक्षर मन्त्र होता है | इन सबके ऋषि, ध्यान और पूजन आदि एकाक्षरमन्त्रमें बताये अनुसार हैं | तार (ॐ) चतुर्थ्यन्त राम शब्द (रामाय) वर्म (हुं), अस्त्र (फट), वह्रिवल्लभा (स्वाहा)- यह (ॐ रामय हुं फट स्वाहा ) आठ अक्षरोंका महामन्त्र है | इसके ऋषि और पूजन आदि षडक्षर-मन्त्रके समान हैं | तार (ॐ) ह्रत् (नमः) ब्रह्मण्यसेव्याय रामायाकुण्ठतेजसे | उत्तमश्लोकधुर्याय स्व (न्य) भृगु (स्) कामिका (त) दण्डार्पिताङ्घ्रये |’ यह (ॐ नमः ब्रम्हण्यसेव्याय रामायाकुण्ठतेजसे | उत्तमश्लोक-धुर्याय न्यस्तदण्डार्पिताङ्घ्रये’) तैतिस अक्षरोंका मन्त्र कह गाय है | इसके शुक ऋषि, अनुष्टुपछन्द और श्रीराम देवता है | इस मन्त्रके चारों पदों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे पंचाङ्ग-न्यास करना चाहिये | शेप सब कार्य षडक्षर-मन्त्रकी भाँति करे | जो साधक मन्त्र सिद्ध कर लेता है, उसे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते है | उसके सब पापोंका नाश हो जाता है | ‘दाशरथाय विज्ञहे |सीतावल्लभाय धीमहि | तन्नो रामः प्रचोदयात् |’ यह राम-गायत्री कही है, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाली है |

पद्या (श्री) ङेविभक्त्यन्त सीता शब्द (सीतायै) और अन्तमें ठद्वय (स्वहा)-यह (श्री सीतायै स्वाहा) षडक्षर सीता-मन्त्र है | इसके वाल्मीकि ऋषि, गायत्री छन्द, भगवति सीता देवता, श्रीं बीज तथा ‘स्वाहा’ शक्ति है | छः दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजाक्षरद्वारा षडङ्ग-न्यास करे | 

ततो ध्यायेन्महादेवीं सीतां त्रैलोक्यपूजिताम |

तप्तहाटकवर्णाभां पद्ययुग्मं करद्वये ||

सद्ररत्नभूषणस्फुर्जददिव्यदेहां शुभात्मिकाम् |

नानावस्तत्रां शशिमुखीं पद्यक्षीं मुदितान्तराम् ||

पश्यन्तीं राघवं पुण्य शय्यायाँ षड्गुणेश्वरीम् |

(ना० पुर्व० १३३-१३५ )

‘तदनन्तर त्रिभुवनपूजित महादेवि सीताका ध्यान करे | तपाये हुए सुवर्णके समान उनकी कान्ति है | उनके दोनों हाथोंमें दो कमलपुष्प शोभा पा रहे है | उनका दिव्य शरीर उत्तम रत्नमय आभूषणोंसे प्रकाशित हो रहा है | वे मङ्गलमयी सीता भाँतिके वस्त्रोंसे सुशोभित हैं | उनका मुख चन्द्रमाको लज्जित कर रहा है | नेत्र कमलोंकी शोभा धारण करते है | अन्त:करण आनन्दसे उल्लसित है | वे ऐश्वर्य आदि छ: गुणोंकी अधिश्वरी हैं और शय्यापर अपने प्राणवल्लभ पुष्पमय श्रीराघवेन्द्रको अनुरागपूर्ण दृष्टिसे निहार रही हैं |’

इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोंपासक छ: लाख मन्त्रका जप करे और खिले हुए कमलोंद्वारा दशांश आहुति दे | पूर्वोक्त पीठपर उनकी पूजा करनी चाहिये | मूलमन्त्रसे मूर्ति निर्माण करके उसमें जनकनन्दिनि किशोरीजीका आवाहन और स्थापन करे | फिर विधिवत पूजन करके उनके दक्षिणभागमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी अर्चना करेत्  | तत्पश्चात् अग्रभागमें हनुमान्जीकी और पृष्ठभागमें लक्ष्मीजीकी पूजा करके छः कोणोंमें हृदयादि अङ्गोका पूजन करे | फिर आठ दलोंमें मुख्य मन्त्रियोंका उनके बाह्मभागमें वज्र आदि आयुधोंका पूजन करके मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंका स्वामी हो जाता है | अधिक कहनेसे क्या लाभ? श्रीकिशोरीजीकी आराधनासे मनुष्य सौभाग्य, पुत्र-पौत्र, परम सुख, धन-धान्य तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है |

इन्दु (-अनुस्वार), युक्त शक्र (ल) तथा ‘लक्ष्मणाय नमः’ यह (लं लक्ष्मणाय नमः) सात अक्षरोंका मन्त्र है | इसके अगस्त्य ऋषि, गायत्री छन्द, महावीर लक्ष्मण देवता, ‘लं’ बीज और ‘नमः’ शक्ति है | छः दीर्घ स्वरोंसे युक्त बीजद्वारा षडङ्ग-न्यास करे |

ध्यान

द्विभुजं स्वर्णरुचिरतनुं पद्यनिभेक्षणम् | 

धनुर्बाणकरं रामं सेवासंसक्तमानसम् || १४४ ||

   ‘जिनके दो भुजाएँ हैं, जिनकी अङ्गकान्ति सुवर्णके समान सुन्दर है | नेत्र कमलदलके सदृश हैं | हाथोंमें धनुष-बाण हैं तथा श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें जिनका मन सदा संलगन रहता है (उन श्रीलक्ष्मणजीकी मैं आराधना करता हूँ) | ’इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक सात लाख जप करे और मधुसे सींची हुई खीरसे आहुति देकर श्रीरामपीठपर श्रीलक्ष्मणजीका पूजन करे | श्रीरामजीकी ही भाँति श्रीलक्ष्मणजीका भी पूजन किया जाता है | यदि श्रीरामचन्द्रजीके पूजन किया जाता है | यदि श्रीरामचन्द्रके पूजनका सम्पूर्ण फल प्रपट करनेकी निश्चित इच्छा हो तो यत्नपूर्वक श्रीलक्ष्मणजीका आदरसहित पूजन करना चाहिये | श्रीरामचन्द्रजीके बहुत-से भिन्न-भिन्न मन्त्र हैं, जो सिद्धि देनेवाले हैं | अतः उनके साधकोंको सदा श्रीलक्ष्मणजीकी शुभ आराधना करनी चाहिये | मुक्तिकी इच्छावाले मनुष्यको एकाग्रचित होर आलस्यरहित हो लक्ष्मणजीके मन्त्रका एक हजार आठ या एक सौ आठ बार जप करना चाहिये | जो नित्या एकान्तमें बैठकर लक्ष्मणजीके मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है | यह लक्ष्मण-मन्त्र जयप्रधान है | राज्यकी प्राप्तिका एकमात्र साधन है | जो नित्यकर्म करके शुद्ध भावसे तीनों समय लक्ष्मणजीके मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है | जो विधिपूर्वक मन्त्रकी दीक्षा लेकर सदगुणोंसे युक्त पापरहित हो अपने आचारका नियमपूर्वक पालन करता, मनको बशमें रखता और घरमें रहते हुए भी जितेन्द्रिय होता है, इहलोकके भागोंकी इच्छा न रखकर निष्कामभावसे भगवान् लक्ष्मणका पूजन करता है, वह समस्त पुण्य-पापके समुदायको दग्ध करके शुद्धचित हो पुनरागमनके चक्करमें न पड़कर सनातनपदको प्राप्त होता है | सकाम भाववाला परूष और मनके अनुरूप भोगोंका उपभोग करके दीर्घ कालतक पूर्वजन्मोंकी स्मृतिसे युक्त रहकर भगवान् विष्णुके परम धाममें जाता है | निद्रा (भ),चन्द्र (अनुस्वार)-से युक्त हो और उसके बाद ‘भरताय नमः’ ये दो पद हो तो सात अक्षरका मन्त्र होता है | इस ‘भं भरताय नमः’ मन्त्र के ऋषि और पूजन आदि पूर्ववत् हैं | वक (श), इन्दु (अनुसार)-से युक्त हो उसके बाद ड़े विभक्त्यन्त शत्रुघ्र शब्द हो और अन्तमें हृदय (नमः) हो तो ‘शं शत्रुघ्राय नमः’ यह सात अक्षरोंका शत्रुघ्न मन्त्र होता है, जो सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि प्रदान करनेवाले है | (ना० पुर्व० अध्याय ७३)

अध्याय ६५ विविध मन्त्रोंद्धारा श्रीहनुमानजीकी उपासना, दीपदानविधि, और कामनाशक भूतविद्रावन— मन्त्रोंका वर्णन

सनत्कुमारजी कहते हैं विप्रवर ! अब हनुमानजीके मन्त्रोंका वर्णन किया जाता है, जो समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देने वाला है और जिनकी आराधना करके मनुष्य हनुमानजीके ही समान आचरणवाले हो जाते हैं। मनुस्वर ( औ ) तथा इन्दु (अनुस्वार)- से युक्त गगन ( ह ) अर्थात ‘हौं’  यह प्रथम बीज है। ह् स् फ् र् और अनुस्वार ये भग (ए)-से युक्त हो अर्थात ‘हस्फ्रें’ यह दूसरा बीज है | ख् फ् र् ये भग (ए) और इन्दु (अनुस्वार)-से युक्त हो ‘ख्फ्रें’ यह तीसरा बीज कहा गाय है | वियत् (ह्), भृगु (स्), अग्नि (र्), मनु (औ) और इन्दु (अनुस्वार) इन सबका संयुक्त रूप ‘ह्स्रों’ यह चौथा बीज है | भग (ए) और चंद्र (अनुस्वार)- से युक्त वियत् (ह्) भृगु (स्) ख् फ् तथा अग्नि (र्) हो अर्थात् ‘ह्स्ख्फ्रें’ यह पाँचवाँबीज है | मनु (औ) और इन्दु (अनुस्वार)- से युक्त ह् स् अर्थात ‘ह्सौं’ यह छठा बीज है | तदान्तर ङे विभक्त्यन्त हनुमत् शब्द (हनुमते) और अन्तमें हृदय (नमः) यह (हौं हस्फ्रें ख्फ्रें ह्स्रों ह्स्ख्फ्रें ह्सौं हनुमते नमः) बारह अक्षरोंवाला महामन्त्रराज कहा गया है | इस मंतर्के श्रीरंचन्द्रजी ऋषि है और जगती छन्द खा गया है | इसके देवता हनुमानजी है | ‘ह्स्रों’ बीज है, ‘हस्फ्रें’ शक्ति है | छः बीजों से षडङ्ग-न्यास करना चाहिए | मस्तक, लालट, दोनों नेत्र, मुख, कंठ, दोनों बाहु, हृदय, कुक्षि, नाभि, लिङ्ग, दोनों जानु, दोनों चरण इनमें क्रमशः मंत्रके बारह अक्षरोंका न्यास करे | छः बीज और दो पद इन आठोंका क्रमशः मस्तक, लालट, मुख, हृदय, नाभि, ऊरु, जांघ और चरणोमें न्यास करे | तदान्तर अंजनीनन्दन कपीश्वर हनुमानजीका इस प्रकार ध्यान करे –

उद्यत्कोत्यर्कसंकाशं जगत्प्रक्षोभकारकं |

श्रीरामङ्घ्रिध्याननिष्ठं सुग्रीवप्रमुखार्चितं ||

वित्रासयन्तं नादेन राक्षसान् मारुतिं भजेत् |

(९-१०)     

उदयकालीन करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी हनुमानजी सम्पूर्ण जगतको क्षोभमें डालने वालेकी शक्ति रखते है, सुग्रीव आदि प्रमुख वानर वीर उनका समादर कराते है | वे राघवेन्द्र श्रीराम के चरणारविंदोंके निरंतर संलग्न है और अपने सिंहनादसे सम्पूर्ण राक्षसोंको भयभीत कर रहे है | ऐसे पवंकुमार हनुमानजीका भजन करना चाहिए |

   इस प्रकार ध्यान करके जितेंद्रिय पुरुष बारह हजार मंत्र-जप करे | फिर दही, दूध और घी मिलाये हुए धानकी दशांश आहुति दे | पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर मूलमंत्रसे मूर्तिकी कल्पन करके उसमें हनुमानजीका आवाहन-स्थापनपुर्वक पाद्यादि उपचारोंसे पूजन करे | केसरोमें हृदयादी अंगोंकी पूजा करके अष्टदाल कमाल दलोंमें हानुमानजीके निम्नांकित आठ नामोंकी पूजा करे-रामभक्त, महातेजा, कापीराज, महाबल, द्रोणाद्रिहारक, मेंरूपीठार्चनकारक, दक्षिणाशाभास्कर तथा सर्वविघ्नविनाशक | (रामभक्ताय नमः, महातेजसे नमः, कपिराजाय नमः, महाबलाय नमः, द्रोणाद्रिहारकाय नमः, मेंरुपीठार्चनकारकाय नमः, दक्षिणाशाभास्कराय नमः, सर्वविघ्नविनाशकाय नमः ) इस प्प्र्कार नामोंकी पूजा करके दलोंके अग्रभागमें क्रमश: सुग्रीव,अङ्गद, नील, जाम्बवान, नल, सुषेण, द्विविद तथा मैन्दकी पूजा करे | तत्पश्चात् लोकपालों तथा उनके वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे । ऐसा करनेसे मन्त्र सिद्ध हो जाता है । जो मानव लगातार दस दिनोंतक रातमें नौ सौ मन्त्र-जप करता है, उसके राजभय और शत्रुभय नष्ट हो जाते हैं । एक सौ आठ बार मन्त्र से अभिमन्त्रित किया हुआ जल विषका नाश करनेवाला होता है। भूत अपस्मार (मिरगी) और कृत्या (मारण आदिके प्रयोग)-से ज्वर उत्पन्न हो तो उक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्म अथवा जलसे क्रोधपूर्वक ज्वरग्रस्त पुरुषपर प्रहार करे | ऐसा करनेपर वह मनुष्य तीन दिनमें ज्वरसे छूट जाता और सुख पाता है । हनुमानजीके उक्त मन्नसे अभिमन्त्रित औषध या जल खा-पीकर मनुष्य सब रोगोंको मार भगाता और तत्क्षण सुखी हो जाता हैं । उक्त मन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्मको अपने अङ्गोमें लगाकर अथवा उससे अभिमन्त्रित जलको पीकर जो मन्त्रोपासक युद्धके लिये जाता है, वह शस्त्रोंके समुदायसे पीड़ित नहीं होता । किसी शास्त्रसे कटकर घाव हुआ हो या फोड़ा फूटकर बहता हो, लूता (मकरी) रोग फूटा हो, तीन बार मन्त्र जपकर अभिमन्त्रित किये हुए भस्मसे उनपर स्पर्श कराते ही वे सभी घाव सूख जाते हैं, इसमें संशय नहीं है | ईशान कोणोंमें स्थित करंज नामक वृक्षकी जड़को ले आकार उसके द्वारा हनुमानजीकी अँगूठे बराबर प्रतिमा बनावे; फिर उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करके सिन्दूर आदिसे उसकी पूजा करे | तत्पश्चात् उस प्रतिमाका मुख घरकी ओर करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक  उसे दरवाजेपर गाड़ दे | उससे ग्रह, अभिचर, रोग, अग्रि, विष, चोर तथा राजा आदिके उपद्रव कभी उस घरमें नहीं आते और वह घर दीर्घकालतक प्रतिदिन धन-पुत्र आदिसे अभ्युदयको प्राप्त होता  है |  

   विशुद्ध अन्तःकरणवाला पुरुष अष्टमी या चतुर्दशीको मंगलवार या रविवारके दिन किसी तख्तेपर तैलयुक्त उड़दके बेसनसे हनुमानजीकी सुन्दर तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित एक प्रतिमा बनावे | वामभागमें तेलका और दाहिने भागमें घीका दीपक जलाकर रखे | फिर मन्त्रज्ञ पुरुष मूलमन्त्रसे उक्त प्रतिमामें हनुमानजीका आवाहन करे | आवाहनके पश्चात प्राणप्रतिष्ठा करके उन्हें पाद्य, अर्ध्य आदि अर्पण करे | लाल चन्दन, लाल फूल तथा लाल सिन्दूर आदिसे उनकी पूजा करे | धूप और दीप देकर नैवेद्य निवेदन करे | मन्त्रवेता उपासक मूलमन्त्रसे पुआ, भात, साग, मिठाई, बड़े, पकोड़ी आदि भोज्य पदार्थोको घृतसहित समर्पित करके फिर सत्ताईस पानेके पत्तोंको तीन-तीन आवृत्ति मोड़कर  उनके भीतर सुपारी आदि रखकर मुख-शुद्धिके लिये मूलमन्त्रसे ही अर्पण करे | मन्त्रज्ञसाधक इस प्रकार भली-भाँति  पूजा करके एक हजार मन्त्रका जप करे | तत्पश्चात् विद्वान पुरुष कपूरकी आरती करके नाना प्रकारसे हनुमानजीकी स्तुति करे और अपना अभीष्ट मनोरथ उनसे निवेदन करके विधिपूर्वक उनका विसर्जन करे | इसके बाद नैवेद्य लगाये  हुए अन्नद्वारा सात ब्रामहणोंको भोजन करावे और चढ़ाये हुए पानके पत्ते उन्हींको बांटकर दे दे | विद्वान पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार उन ब्राह्मणोंको दक्षिणाभी देकर विदा करे | तत्पश्चात इष्ट बन्धुजनोंके साथ स्वयं भी मौन होकर भोजन करे | उस दिन पृथ्वीपर शयन और ब्रह्मचार्य का पालन करे | जो मानव इस प्रकार आराधना करता है, वह कपीश्वर हनुमानजीके प्रसादसे शीघ्र ही सम्पूर्ण कामनाओंको अवश्य प्राप्त कर लेता है |

   भूमिपर हनुमानजीका चित्र अङ्कित करे और उनके अग्रभागमें मन्त्रका उल्लेख करे । साथ ही साध्यवस्तु या व्यक्तिका द्वितीयान्त नाम लिखकर उसके आगे विमोचय विमोचय लिखे, लिखकर उसे बायें हाथसे मिटा दे, उसके बाद फिर लिखे । इस प्रकार एक सौ आठ बार लिख-लिखकर उसे पुनः मिटावे । ऐसा करनेपर महान् कारागारसे वह शीघ्र मुक्त हो जाता है । ज्वरमें द्रुवा, गुरुचि, दही, दूध अथवा घृतसे होम करे । शूल रोग होने पर करंज या वातारि (एरंड) )-की समिधाओंको तैलमें डुबोकर उनके द्वारा होम करे अथवा शफालिका (सिंदुवार)-की तैलासिक्त समिधाओंसे प्रयत्नपूर्वक होम करना चाहिये । सौभाग्यसिद्धि के लिए चन्दन, कपूर, रोचना, इलाइची और लवंगकी आहुति दे । वस्त्रकी प्राप्तिके लिये सुगन्धित पुष्पोंसे हवन करे । विभिन्न धान्योंकी प्राप्तिके लिये उन्हीं धान्योंसे होम करना चाहिये । धान्यके होमसे धान्य प्राप्त होता है और अन्नके होमसे अन्न की वृद्धि होती है । तिल, घी, दूध और मधुकी आहुति देने से देनेसे गाय-भैंसकी वृद्धि होती है । अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता है?  विष और व्याधिके निवारणमें, शान्तिकर्म, भूतजनित भय और संकटमें, युद्धमें, दैवी क्षति प्राप्त होनेपर, बन्धनसे छूटनेमें और महान् वनमें पड़ जानेपर आदि सभीमें यह सिद्ध किया हुआ मन्त्र मनुष्योंको निश्चय ही कल्याण प्रदान करता है ।

   द्वादशाक्षर-मन्त्रमें जो अन्तिम छ: अक्षर (हनुमते नमः) हैं इनको और आदि बीज (हौं)-को छोड़कर शेष बचे हुए पाँच बीजोंका जो पञ्चक्षर-मन्त्र बनता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है । इसके श्रीरामचन्द्रजी ऋषि, गायत्री छन्द और हनुमान देवता के कहे गये है । सम्पूर्ण  कामनाओंकी प्राप्तिके लिए इसका विनियोग किया जाता है । इसके पाँच बीजों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे षडङ्ग-न्यास करे । रामदूत, लक्ष्मण-प्राणदाता, अञ्जनीसुत, सीतशोक-विनाशन तथा लङ्काप्रसादभञ्जन-ये पाँच नाम हैं, इनके पहले ‘हनुमत्’ यह नाम और है | हनुमत् आदि पाँच नमोंके आदिमें पाँच बीज और अन्तमें ड़े विभक्ति लगायी जाती है । अन्तिम नाम साथ उक्त पाँचों बीज जुड़ते हैं, ये ही षडङ्ग-न्यासके छः मन्त्र हैं१ । इसके ध्यान-पूजन आदि कार्य पूर्वोक्त द्वादशाक्षर मन्त्रके समान ही हैं ।

   प्रणव (ॐ), वाग्भव (ऐं), पद्या (श्रीं) तीन दीर्घ स्वरोंसे युक्त मायाबीज (ह्रां ह्रीं ह्रं) तथा पाँच कूट (ह्स्फ्रें, ख्फें, ह्स्त्रौमं, ह्स्ख्फ्रें, ह्सौं) यह ग्यारह अक्षरोंका मन्त्र सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है | इसके भी ध्यान-पूजन आदि सब कार्य पूर्ववत होते हैं । इस मन्त्रकी आराधना की जाय तो यह अभीष्ट मनोरथोंको देने वाला है । नमो भगवते अञ्जनेयाय  महाबलाय स्वाहा । यह अठारह अक्षरोंका मन्त्र है ।इसके ईश्वर ऋषि, अनुष्टुप छ्न्द, पवनकुमार हनुमान देवता, हं बीज और स्वाहा शक्ति है, ऐसा मनीषी पुरुषों का कथन है । अञ्जनेयाय नमः का हृदयमें, रुद्रमूर्तये  नमः का सिरमें, वायुपुत्राय नमः का शिखामें, अग्निगर्भाय नमः का कवचमें, रामदूताय नमः का नेत्रोंमें तथा ब्रह्मास्त्राय नमः के अस्त्रस्थानमें न्यास करे । इस प्रकार न्यास-विधि कही गयी है ।

ध्यान

तप्त्चामीकरनिभं भिघ्नं संविहिताञ्जलिम् |

चलत्कुण्डलदीप्तास्यं पद्याक्षं मारुतिं स्मरेत् ||

     जिनकी दिव्य कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान है, जो भयका नाश करनेवाले हैं, जिन्होंने अपने प्रभु (श्री राम)-का चिन्तन करके उनके लिये अञ्जलि बाँध रखी है, चंद्रमुखी जिनका सुन्दर मुख हिलते हुए कुण्डलोंसे उभ्दासित हो रहा है तथा जिनके नेत्र कमलके समान शोभायमान हैं, उन पवनकुमार हनुमानजीका ध्यान करे |

   इस प्रकार ध्यान करके दस हजार मन्त्र-जप करे | तत्पश्चात घृतमिश्रित तिलसे दशांश होम करे | पूर्वोक्त रीतिसे वैष्णव-पीठपर पूजन करे | प्रतिदिन केवल रातमें भोजनका नियम लेकर जितेन्द्रियभावसे एक सौ आठ बार जप करे तो मनुष्य छोटे-मोटे रोगोंसे छूट जाता है, इसमें संशय नहीं है | बड़े भारी रोगोंसे मुक्त होनेके लिये तो प्रतिदिन एक बार जप करना चाहिये | सुग्रीवके साथ श्रीरामकी मित्रता कराते हुए हनुमानजीका ध्यान करके जो दस हजार मन्त्र-जप करता है, वह परस्पर द्वेष रखनेवाले दो विरोधियोंमें संधि करा सकता है |

   जो यात्राके समय हनुमानजीका स्मरण करते हर मन्त्र-जप करता है, उसके बाद यात्रा करता है, वह शीघ्र ही अपना अभीष्ट-साधन करके घर लौट आता है | जो अपने घरमें मन्त्र-जप करते हुए सदा हनुमानजीकी आराधना करता है, वह आरोग्य, लक्ष्मी तथा कान्ति पाता है और किसी प्रकारके उपद्रवमें नहीं पड़ता | वनमें यदि इस मन्त्रका स्मरण किया जाय तो यह व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं तथा चोर-डाकुओंसे रक्षा करता है | सोते समय शय्यापर एकाग्रचित होकर इस मन्त्रका स्मरण करना चाहिये | जो ऐसा करता है, उसे दु:स्वप्न और चोर आदिक भय कभी नहीं होता |

   वियत (ह) इन्दु (अनुस्वार)-से युक्त हो, उसके बाद हनुमते रुद्रात्मकाय ये दो पद हो फिर वर्म (हुं) और अस्त्र (फट) हो तो (हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट) यह बारह अक्षरोंका महामन्त्र होता है, जो अणिमा आदि अष्ट सिद्धियोंको देनेवाला है | इसके श्रीरामचन्द्रजी ऋषि, जगती छन्द, श्रीहनुमानजी देवता, हं बीज और ‘हुम्’ शक्ति कही गयी है | छः दीर्घसवारोंसे युक्त बीज (हां हीं हूं हैं हौं हः)-के द्वारा षडङ्ग-न्यास करे |

ध्यान

महाशैलं समुत्पाटय धावन्तं रावणं प्रति ||

लाक्षारसारणं रौद्र कालान्तकयमोपमम |

ज्वलदग्निसमं जैत्रं सूर्यकोटिसमप्रभम् |

अङ्गदाद्यैर्महावीरैव्रेष्टितं रुद्ररुपिणम् |

तिष्ठ तिष्ठ रणे दुष्ट सृजन्तं घोरानि: स्वरनम् ||

शैवरुपिणमभ्यचर्य ध्यात्वा लक्षं जपेन्मनुम् |

(७४ | १२२-१२५ )

 

हनुमानजी एक बहुत बड़ा पर्वत उखाड़कर रावणकी ओर दौड़ रहे हैं ~ वे लाक्षा (महावर)-के रंगके समान अरुणवर्ण हैं ~ काल, अन्तक तथा यमके समान भयंकर जान पड़ते हैं ~ उनका तेज प्रज्वलित अग्निके समान है ~ वे विजयशील तथा करोड़ों सूर्योंके समान तेजजस्वि हैं ~ अंगद आदि महावीर उन्हें चारों ओरसे घेरकर चलते हैं ~ वे साक्षात रुद्रस्वरूप हैं ~ ‘अरे ओ दुष्ट ! युद्धमें खड़ा रह !’ इस प्रकार शिवावतार भगवान हनुमानजीका ध्यान और पूजन करके एक लाख मन्त्रका जाप करे ~

   तदनन्तर दुध, दही, घी मिलाये चावलसे दशांश होम करे | विमालदी शक्तियोंसे युक्त पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर मूल मन्त्र मूर्ति-कल्पना करके हनुमानजीकी पूजा करनी चाहिये | एकमात्र ध्यान करनेसे भी मनुष्यों सिद्धि प्राप्त होती है | इसमें संशय नहीं है | अब मैं लोकहितकी इच्छासे इस मन्त्रका साधन बतलाता हूँ | हनुमानजीका साधन पुण्यमय है, वह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है | यह लोकमें अत्यन्त गुह्यतम रहस्य है और शीघ्र उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाला है | इसके प्रसासे मन्त्र-साधक पुरूष तीनों लोकोंमें विजयी होता है | प्रातःकाल स्नान करके नदीके तटपर कुशासनपर बैठे और सूल-मन्त्रसे प्राणायाम तथा षडङ्ग-न्यास सब कार्य करे | फिर सीतासहित भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका ध्यान करके उन्हें आठ बार पुष्पाञ्जलि अर्पित करे | तत्पश्चात् घिसे हुए लाल चन्दनसे उसीकी शलाकद्वारा ताम्र-पात्रमें अष्टदल कमल लिखे | कमलकी कर्णिकामें मन्त्र लिखे | उसमें कपीश्वर हनुमान्जीका आवहन करे | मूल-मन्त्रसे मूर्ति-निर्माण करके ध्यान तथा आवहनपूर्वक पाद्य आदि उपचार अर्पण करे | गन्ध, पुष्प आदि सब सामग्री मूल-मन्त्रसे ही निवेदन करके कमलके केसरोंमें छः अङ्गो (हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र तथा अस्त्र)-का पूजन करके आठ दलोंमें सुग्रीव आदिका पूजन करे | सुग्रीव, लक्ष्मण, अंगद, नल, नील, जाम्बवान, कुमुद और केसरीका एक-एक दलमें पूजन करना चाहिये | तदनन्तर इन्द्र आदि दिक्पालों तथा वज्र आदि आयुधोंका पूजन करे | इस प्रकार मन्त्र सिद्ध कर सकता है  |

   नदीके तटपर, किसी वनमें, पर्वतपर अथवा कहीं भी एकान्त प्रदेशमें श्रेष्ठ साधक भूमि-ग्रहणपूर्वक साधन प्रारम्भ करे | आहार, स्वास, वाणी और इन्द्रियोंपर संयम रखे | दिग्बन्ध आदि करके न्यास और ध्यान आदिका सम्यक सम्पादन करनेके पश्चात पूर्ववत पूजन करके उक्त मन्त्रराजका एक लाख जप करे । एक लाख जप पूर्ण हो जानेपर दूसरे दिन सबेरे साधक महान पूजन करे । उस दिन एकाग्रचितसे पवननन्दन हनुमानजीका सम्यक ध्यान करके दिन-रात जपमें लगा रहे  । तबतक जप करता रहे, जबतक दर्शन न हो जाय-साधकको सुदृढ़ जानकर आधी रातके समय पवननन्दन हनुमानजी अत्यन्त प्रसन्न हो उसके सामने जाते हैं | कपीश्वर हनुमानजी उस साधकको इच्छानुसार वर देते हैं; वह पाकर वह श्रेष्ठ साधक अपनी मौजसे इधर-उधर विचरता रहता है | यह पुण्यमय साधन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; क्योंकि गूढ रहस्यरूप है | मैंने सम्पूर्ण लोकोंके हितकी इच्छासे यहाँ प्रकाशित किया है |

   इसी प्रकार साधक अपने लिए हितकर अन्यान्य प्रयोगोंका भी अनुष्ठान करे | इन्दु (अनुस्वार)-युक्त वियत (ह) अर्थात हं के पश्चात ड़े विभक्त्यन्त पवननन्दन शब्द हो और अन्तमें वह्रीप्रिया (स्वाहा) हो तो (हं पवननन्दनाय स्वाहा) यह दस अक्षर का मन्त्र होता है, जो सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला है | इसके ऋषि आदि भी पहले बताये अनुसार हैं | षडङ्ग-न्यास भी पूर्ववत करने चाहिये |

ध्यान

ध्यायेद्रणे हनुमन्तं सूर्यकोटिसमप्रभम् |

धावन्तं रावणं जेतुं दृष्टा सत्वरमुत्थित्मिथतम् |

लक्ष्मण च महावीरं पतितं रणभूतले | 

गुरुं च क्रोधमुत्पाद्य ग्रहीतुं गुरुपर्वतम् || 

हाहाकारै: सदर्पैश्च कम्पयन्तं जगत्र्यम् |

आब्रम्हाण्डम समाव्याप्य कृत्वा भीमं कलेवरम् ||                                                                                                 

(७४ | १४५-१४७)

  लङ्काकी रणभूमिमें महावीर लक्ष्मणको गिरा देख हनुमानजी तुरन्त उठ खड़े हुए हैं, वे हृदयमें महान् क्रोध भरकर एक विशाल एवं भारी पर्वतको उठाने तथा रावणको मार गिरानेके लिये वेगसे दौड़ पड़े हैं |  उनका तेज करोड़ों सूर्योंकी प्रभाको लज्जित कर रहा है | वे ब्रह्माण्डव्यापी भयंकर एवं विराट शरीर धारण करके दर्पपूर्ण हुंकारसे तीनों लोकोंको कम्पित किये देते हैं | इस प्रकार युद्ध-भूमिमें हनुमानजीका चिन्तन करना चाहिये |

   ध्यानके पश्चात विद्वान साधक एक लाख जप और पूर्ववत दशांश हवन करे | इस मन्त्रका भी विधिवत पूजन पहले-जैसा ही बताया गया है | इस प्रकार मन्त्र सिद्ध होनेपर मन्त्रोपासक अपना हित-साधन कर सकता है | इस श्रेष्ठ मन्त्रका साधन भी गोपनीय रहस्य ही है | सब तन्त्रोंमें इसे अत्यन्त गोप्य बताया गया है इसका उपदेश हर एकको नहीं देना चाहिये | ब्रह्म मुहूर्तमें उठकर शौचादि नित्यकर्म करके पवित्र हो नदीके तटपर जाकर तीर्थके आवाहनपूर्वक स्नान करे | स्नानके समय आठ बार मूलमन्त्रकी आवृत्ति करे | तत्पश्चात बारह  बार मन्त्र पढ़कर अपने ऊपर जल छिड़के इस प्रकार स्नान, संध्या, तर्पण आदि करके गंगाजी के तटपर, पर्वतपर अथवा वनमें भूमिग्रहणपूर्वक अकारादि स्वरवर्णोंका उच्चारण करके पूरक, ‘क’ से लेकर ‘म’ तकके पाँचवर्गके अक्षरोंसे कुम्भक तथा ‘य’ से लेकर वशेष वर्णोंका उच्चारण करके रेचक करना चाहिये | इस प्रकार प्राणायाम करके भूत-शुद्धिसे लेकर पीठन्यासतकके सब कार्य करे | फिर पूर्वोकत रीतिसे कपीश्वर हनुमानजी का ध्यान और पूजन करके उनके आगे बैठकर साधक प्रतिदिन आदरपूर्वक दस हजार मन्त्र-जप करे | सातवें दिन विशेषरूपसे पूजन करे | उस दिन मन्त्र साधक एकाग्रचितसे दिन-रात जप करे |  रात के तीन पहर बीत जानेपर चौथे पहरमें महान् भय दिखाकर कपिश्वर पवननन्दन हनुमानजी अवश्य साधकके सम्मुख पधारते हैं और उसे अभीष्ट वर देते हैं | साधक अपनी रुचिके अनुसार विद्या, धन, राज्य अथवा विजय तत्काल प्राप्त कर लेता है | यह सर्वथा सत्य है, इसमें संशयका लेश भी नहीं है | वह इहलोकमें सम्पूर्ण कामनाओंका उपभोग करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है |

   सद्योजात (ओ)-सहित दो वायु (य् य्-यो यो) ‘हनुमन्त’ का उच्चारण करे | फिर ‘फल’ के अन्तमें ‘फ’ तथा नेत्र (इ) युक्त क्रिया (ल) एवं कामिका (त)-का उच्चारण करे | तत्पश्चात् ‘धग्गधगित’ बोलकर ‘आयुराष’ पादका उच्चारण करे, तदनन्तर लोहित (प) तथा ‘रुडाह’ का उच्चारण करना चाहिये | (पुरा मन्त्र इस प्रकार हैं-’ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धग्गधगित आयुराष परुडाह’) यह पचीस अक्षरका मन्त्र है | ‘प्लीहा’ रोग दुर करनेवाले वानरराज हनुमानजी इसके देवता कहे गये हैं | ‘प्लीहा’ रोगसे युक्त पेटपर पानका पत्ता रखे, उनके ऊपर आठ पर्व लपेटा हुआ वस्त्र रखकर उसे ढक    दे | तत्पश्चात् श्रेष्ठ साधक हनुमानजीका स्मरण करके उस वस्त्रके ऊपर एक बौंसका टुकड़ा डाल दे | इसके बाद बेरके वृक्षकी लकड़ीसे बनी हुई छड़ी लेकर उसे जंगली पत्थरसे प्रकट हुई आगमें मन्त्रसे सात बार तपावे, फिर उस छड़ीसे पेटपर रखे हुए बाँसके टुकड़ेपर सात बार प्रहार करे | इससे मनुष्योंका प्लीहा रोग अवश्य ही नष्ट हो जाता है |

ॐ नमो भगवतेआञ्जनेयाय अमुकस्य श्रीङ्खलांत्रोटय त्रोटय बन्धमोक्षं कुरु कुरु स्वाहा |’

   यह एक मन्त्र है | इसके ईश्वर ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, श्रीङ्खलामोचक पवनपुत्र श्रीमान् हनुमान् देवता, हं बीज और स्वाहा शक्ति है | बन्धनसे छुटनेके लिये इसका विनियोग किया जाता है | छः दीर्घ स्वर तथा रेफयुक्त बीजमन्त्रसे षडङ्ग-न्यास करे (यथा-ह्रां हृदयाय नमः, ह्रीं शिरसे स्वाहा इत्यादि) |

ध्यान

वामें शैलं वैरभिदं विशुद्धं टङ्कमन्यत: |

दधानं स्वर्णवर्ण च ध्यायेत् कुण्डलिनं हरिम् ||

(७४ | १६९-१७०)           

   ‘बायें हाथमें वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला पर्वत तथा दायें हाथमें विशुद्ध टंक धारण करनेवाले, सुवर्णके समान कान्तिमान्, कुण्डल-मण्डित वानरराज हनुमानजीका ध्यान करे |’

   इस प्रकार ध्यान करके एक लाख मन्त्रका जप तथा आम्र-पल्ल्वसे दर्शाश हवन करे | विद्वानोंने इसके पूजन आदिकी विधि पूर्ववत् बतायी है | महान् कारागारमें पड़ा हुआ मनुष्य दस हजार जप करे | इससे वह कारागारसे मुक्त हो अवश्य सुखका भागी होता है |

   अब मैं बन्धनसे छुड़ानेवाले शुभ हनुमत्-मन्त्रका वर्णन करता हूँ | अष्टदल कमलके भीतर षटकोण बानवे | उसकी कर्णिकामें साध्य पुरुषका नाम लिखे | छः कोणोंमें ‘ॐ आञ्जनेयाय’ का उल्लेख करे | आठों दलोंमें ‘ॐ वातु-वातु लिखे | गोरोचन और कुङ्कुमसे यह उत्तम मन्त्र लिखकर मस्तकपर धारण करके बन्धन छूटनेके लिये उक्त मन्त्रका दस हजार जप करे | इस मन्त्रको प्रतिदिन मिट्टपर लिखकर मन्त्रज्ञ पुरुष दाहिने हाथसे मिटावे | बारह बार लिखने और मिटानेसे मन्त्राराधक महान् कारागारसे छूटकारा पा जाता है | गगन (ह) नेत्र (इ)-युक्त ज्वलन (र) अर्थात् ‘हरि’ पदके पश्चात् दो बार ‘मर्कट’ शब्द बोलकर शेष (आ)-सहित तोय (व) अर्थात् ‘वा’ का उच्चारण करके ‘मकरे’ पाद बोले | फिर ‘परिमुञ्जति मुञ्जति श्रीङ्खलिकाम्’ का उच्चारण करे | (पूरा मन्त्र इस प्रकार है-हरी मर्कट मर्कट वाम करे परिमुञ्जति मुञ्जति श्रीङ्खलिकाम्) यह चौबीस अक्षरोंका मन्त्र है | विद्वान पुरुष इस मन्त्रको दायें हाथमें बायें हाथसे लिखकर मिटा दे और एक सौ आठ बार इसका जप करे | ऐसा करनेपर कैदमें पड़ा हुआ मनुष्य तीन सप्ताहमें छूट जाता है | इसमें संशय नहीं है | इसके ऋषि आदि पूर्ववत् करे | इसका एक लाख जप और शुभ द्रव्योंसे दशांश हवन करना चाहिये | मन्त्रसाधक पुरुष इस प्रकार कपीश्वर वायुपुत्र हनुमानजीकी आराधना करता है, वह उन सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ हैं | अञ्जनीनन्दन हनुमानजीकी उपासना की जाय तो वे धन, धन्य, पुत्र, पौत्र, अतुल सौभाग्य, यश, मेंधा, विद्या, प्रभा, राज्य तथा विवादमें विजय प्रदान करते हैं |सिद्धि तथा विजय देते हैं |

   सनत्कुमरजी कहते हैं- अब मैं हनुमानजीके लिये रहस्यसहित दीपदान-विधिका वर्णन करता हूँ | जिसको जान लेनेमात्रसे साधक सिद्ध हो जाता है | दीपपात्रका प्रमाण, तैलका मान, द्रव्य-प्रमाण तथा तन्तु (बत्ती)-का मान-इस सबका क्रमश: वर्णन किया जायगा | स्थानभेद-मन्त्र, पृथक्-पृथक् दीपदान-मन्त्र आदिका भी वर्णन होगा | पुष्पसे वासित तैलके द्वारा दिया हुआ दीपक सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला माना गया है | किसी पथिकके आनेपर उसको सेवाके लिये तिलका तैल अर्पण किया जाय तो वह लक्ष्मीप्राप्तिका कारण होता है सरसोंका तेल रोग नाश करनेवाला है, ऐसा कर्मकुशल विद्वानों का कथन है | गहूँ, तिल, उड़द, मूँग और चावल-ये पञ्जधान्य कहे गये हैं | हनुमानजीके लिये सदा इनका दीप देना चाहिये | पञ्जधान्यका आटा बहुत सुन्दर होता है | वह दीपदानमें सदा सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाला कहा गया है |

   सन्धिमें तीन प्रकारके आटेका दीप देना उचित है, लक्ष्मीप्राप्तिके लिये कस्तुरीका दीप विहित है, कन्याप्राप्तिके लिये इलायची, लौंग, कपूर और कस्तुरीका दीपक बताया गया है | सख्य सम्पादन करनेके लिये भी इन्हीं वस्तुओंका दीप देना चाहिये | इन सब वस्तुओंके न मिलनेपर पञ्जधान्य श्रेष्ठ माना गया है | आठ मुट्ठीका एक किञ्चित् होत है, आथ किञ्चित्का एक पुष्कल होता है | चार पुष्कलका एक आढक बताया गया है, चार आढ़कका द्रोण और चार द्रोणकी खारी होती है | चार खारीको प्रस्थ कहते है अथवा यहाँ दूसरे प्रकारसे मान बताया जाता है | दो पलका एक प्रसृत होता है, दो प्रसृतका कुडव माना गया है, चार कुडव माना गया है, चार कुडवका एक प्रस्थ और चारप्रस्थका आढक होता है | चार आढकका द्रोण और चार द्रोणकी खारी होती है | इस क्रमसे षटकर्मोपयोगी पात्रमें ये मान समझने चाहिये | पाँच, सात, तथा नौ-ये क्रमश: दीपकके प्रमाण हैं, सुगन्धित तेलसे जलनेवाले दीपकका कोई मान नहीं है | उसका मान अपनी रुचिके अनुसार ही माना गया है | तैलोंके नित्य पात्रमें केवल बत्तीका विशेष नियम होता है | सोमवारको धान्य लेकर उसे जलमें डुबोकर रखे | फिर प्रमाणके अनुसार कुमारी कन्याके हाथसे उसको पिसनाचाहिये | पीसे हुएको शुद्ध पात्रमें रखकर नदीके जलसे उसकी पिणडी बनानी चाहिये | उसीसे शुद्ध एवं एकाग्रचित होकर दीपपात्र बनावे | जिस समय दीपक जलाया जाता हो, हनुमात्कवचका पाठ करे | कूट बीज ग्यारह बताये गये हैं, अतः उतने ही तन्तु ग्राह्य हैं | पात्रके लिये कोई नियम नहीं है | म्रार्गमें जो दीपक जलाये जाते हैं, उनकी बत्तीमें इक्कीस तन्तु होने चाहिये | हनुमानजीके दीपदानमें लाल सूत ग्राह्य बताया गया है | कुटिकी जितनी संख्या हो उतना ही पल तेल दीपकमें डालना चाहिये | गुरुकार्यमें ग्यारह पलसे लाभ होता है | नित्यकर्ममें पाँच पल तेल आवश्यक बताया गया है | अथवा अपने मनकी जैसी रुचि हो उतना ही तेलका मान रखे | नित्य-नैमित्तिक कर्मोके अवसरपर हनुमानजीकी प्रतिमाके समीप अथवा शिवमन्दिरमें दीपदान करना चाहिये |

   हनुमानजीके दीपदानमें जो कोई विशेष बात है उसे मैं यहाँ बता रहा हूँ | देव-प्रतिमाके आगे, प्रतिमाके आगे, प्रमोदके अवसरपर, ग्रहोके निमित, भूतोंके निमित, गृहोमें और चौराहोपर-इन छः स्थलोंमें दीप दिलाना चाहिये |

   हनुमानजीके दीपदानमें जो कोई विशेष बात है उसे मैं यहाँ बता रहा हूँ | देव-प्रतिमाके आगे, प्रमोदके अवसर, ग्रहोके निमित, भूतोंके निमित, गृहोमें और चौराहोपर-इन छः स्थलोंमें दीप दिलाना चाहिये | स्फटिकमय शिवलिङ्गके समीप, शालग्रामशिलाके निकट हनुमानजीके लिये किया हुआ दीपदान नाना प्रकारके भोग और लक्ष्मीकी प्राप्तिका हेतु कहा गया है | विघ्र तथा महान् संकटोंका नाश करनेके लिये गणेशजीके निकट हनुमानजी के उद्धेश्यसे दीपदान करे | भयंकर विष तथा व्याधिका भय उपस्थित होनेपर हनुमद्विग्रहके समीप दीपदानका विधान है | व्याधिनाशके लिये तथा दुष्ट ग्रहोकी दृष्टिसे रक्षाके लिये चौराहेपर दीप देना चाहिये | बन्धनसे छूटनेके लिये राजद्वारपर अथवा कारागारके समीप दीप देना उचित है | सम्पूर्ण कार्योकी सिद्धिके लिये पीपल और बड़के मूलभागमें दीप देना चाहिये | भयनिवारण और विवाद-शान्तिके लिये, निवृतिके लिये तथा विष, व्याधि और ज्वरको उतारनेके लिये, भूतग्रहका निवारण करने, कृत्यासे छुटकारा पाने तथा, कटे हुएको जोड़नेके लिये, दुर्गम एवं भरी वनमें व्याघ्र,हाथी तथा सम्पूर्ण जीवोंके आक्रमणसे बचनेके लिये, सदाके लिये बन्धनसे छूटनेके लिये, पथिकके आगमनमें, आने-जानेके मार्गमें तथा राजद्वारपर हनुमानजीके लिये दीपदान आवश्यक बताया गया है | ग्यारह, इक्कीस और-पिण्ड-तीन प्रकारका मण्डलमान होता है | पाँच, सात अथवा नौ-इन्हें लघुमान कहा गया है | दीपदानके समय दूध, दही, माखन अथवा गोबरसे हनुमानजीकी प्रतिमा बनानेका विधान किया गया है | सिंहके समान पराक्रमी वीरवर हनुमानजीको दक्षिणाभिमुख करके उनके पैरको रीछपर रखा हुआ दिखावे | उनका मस्तक किरीटसे सुशोभित होना चाहिये | सुन्दर वस्त्र,पीठ अथवा दीवारपर हनुमानजीकि प्रतिमा अङ्कित  करनी चाहिये | कुटादिमें तथा नित्य दीपमें द्वादशाक्षर- मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये |

गोबरसे लिपि हुई भूमिपर एकाग्रचित हो षडकोण अङ्कित करे | उसके बाह्यभागमें अष्टदल कमल बानवे तथा उसके भि बाह्यभागमें भूपुर रेखा खींचे | उस कमलमें दीपक रखे | शैव अथवा वैष्णव पीठकर अञ्जनीनन्दन हनुमानजीकी पूजा करे | छ: कोणोंके अन्तरालमें ‘हौं हस्फें ख्फें हस्त्रौं हसख्फें हसौं, ‘इन छ: अङ्गोको लिखे | मध्यमें सौम्यका उल्लेख करे उसीमें पवननन्दन हनुमानजीकी पूजा करके छः कोणोंमें छः अङ्गों तथा छः नामोंकी पहले बताये अनुसार पूजा करे | कमलके अष्टदलोंमें क्रमश: इन वानरोंकी पूजा करनी चाहिये-’सुग्रीवाय नमः’ अङ्गदाय नमः, सुषेणाय नमः, नलाय नमः, सुवेषाय नमः|’ तत्पश्चात् षडङ्ग देवताओंका पूजन करे | ‘अञ्जनापुत्राय नमः, रुद्रमुर्तये नमः’ वायुसुताय नमः, जानकीजीवनाय नमः, रामदूताय नमः, ब्रह्यास्व्रनिवारणाय नमः |’ पञ्जोपचार (गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य)-से इन सबका पूजन करके कुश और जल हाथमें लेकर देश-कालके उच्चारणपूर्वक दीपदानका संकल्प करे | उसके बाद दीप-मन्त्र बोले | श्रेष्ठ साधक उतराभिमुख हो उस मन्त्रको कुट संख्याके बराबर (छः बार) जप कर हाथमें लिये हुए जलको भूमिपर गिरा दे | तदन्तर दोनों हाथ जोड़कर यथाशक्ति मन्त्र-जप करे | फिर इस प्रकार कहे-’हनुमानजी ! उतराभीमुख अर्पित किए हुऐ इस श्रेष्ठ दीपकसे प्रसन्न होकर आप ऐसी कृपा करें, जिससे मेंरे सारे मनोरथ पूर्ण हो जाय |’

   इस प्रकार ये तेरह द्रव्य उपयुक्त होते हैं-गोबर, मिट्टी, मषी, आलता, सिंदूर, लाल चन्दन, श्वेत चन्दन, मधु, कस्तुरी, दही, दूध, मक्खन और घी | गोबर दो प्रकारके बताये गए हैं-गायका और भैंसका | खोये हुए द्रव्य पुनः प्राप्तिके लिये दीपदान करना हो तो उसमें भैंसके गोबरका उपयोग आवश्यक मान गया है | मुने ! दूर देशमें गये हुए पथिकके आगमन, महादुर्गकी रक्षा, बालक आदिकी रक्षा, चोर आदिके भयका नाश आदि कायोंमें गायका गोबर उत्तम कहा गाया है | वह भी भूमिपर पड़ा हो तो नहीं लेना चाहिये | जब गायका गोबर उत्तम कहा गया है | वह भूमिपर पड़ा हो तो किसी पात्रमें आकाशमेंसे ही उसे रोक लेना चाहिये |

   मिट्टी चार प्रकारकी बतायी गयी है-सफेद, पीली, लाल और काली | उनमें गोपीचन्दन, हरिताल, गेरू आदि ग्राह्य हैं: अन्य सब द्रव्य प्रसिद्ध एवं सबके लिये सुपरिचित हैं | विद्वान पुरुष गोपीचन्दनसे चौकोरे मण्डल बनाकर उसके मध्यभागमें भैंसेके गोबरसे हनुमानजीकी मूर्ति बनावे | मन्त्रोपासक एकाग्रचित हो बीज और क्रोध (ह्र)- उनकी पुंछ अङ्कित करे | तेलसे मूर्तिको नहलाये और गुडसे तिलक करे | कमलके समान रंगवाला धूप, जो शालवृक्षकी गोंदसे  बना हो, निवेदन करे | पाँच बत्तियोंके साथ तेलका दीपक जलाकर अर्पण करे | इसके बाद (हाथ धोकर) श्रेष्ठ साधक दही-भातका नैवेद्य निवेदन करे | उस समय वह तीन बार शेष (आ)-सहित विष (म्)-का उच्चारण करे | ऐसा करनेपर खोयी हुई भैंसों, गौओं तथा दास-दासियोंकी भी प्राप्ति हो जाती है | चोर आदि दुष्ट जीवों तथा सर्प आदिका भय प्राप्त होनेपर ‘ताल’ से चार दरवाजेका सुन्दर गृह बनावे | पूर्वके द्वारपर व्याघ्र स्थापित करे | इसी प्रकार क्रमसे पूर्वादि द्वारोंपर खड्ग, छुरी, दण्ड और मुद्रर अङ्कित करके मध्य भागमें भैंस के गोबरसे मूर्ति वनावे | उसके हाथमें डमरू धारण करावे और यत्नपूर्वक यह चेष्टा करे कि मूर्तिसे ऐसा भाव प्रकट हो मानो वह चकित नेत्रोंसे देख रही है | उसे दूधसे नहलाकर उसके ऊपर लाल चन्दन लगाये | चमेंलीके फूलोंसे उसकी पूजा करके शुद्ध धूपकी गन्ध दे | घीका दीपक देकर खीरका नैवेद्य अर्पण करे | गगन (ह), दीपिका (ऊ) और इन्दु (अनुस्वार) अर्थात् ‘हुं’ और शस्त्र (फट्) यह आराध्यदेवताके आगे जपे |  इस प्रकार सात दिन करके मनुष्य भारी भयसे मुक्त हो जाता है | उक्त दोनों प्रयोगोंका प्रारम्भ मङ्गलवार के दिन आदरपूर्वक करना चाहिये | शत्रुसेनासे भय प्राप्त होनेपर गेरूसे मण्डल बनाकर उसके भीतर थोंड़ा झुका ताड़का वृक्ष अङ्गकिट करे | उसपरसे लटकती हुई हनुमानजीकी प्रतिमा गोबरसे बनावे | उनके बायें हाथमें तालका आगराभाग और दाहिनेमें ज्ञान-मुद्रा हो | ताड़की जडसे एक हाथ दूर अपनी दिशामें एक चौकोरे मण्डल बनावे | उसके मध्यभागमें मूर्ति अङ्कित करे | उसका मुख दक्षिणकी ओर हो, वह हनुमन्मूर्ति बहुत सुन्दर बनी हो, हृदयमें अञ्जलि बांधे बैठी हो | जलसे उसको स्नान कराकर यथासम्भव गन्ध आदि उपचार आदि अर्पण करे |फिर घृतमिश्रित खिचड़ीका नैवेद्य निवेदन करे और उसके आगे ‘किलि-किलि’ का जप बताया गया है | प्रतिदिन ऐसा ही करे | ऐसा करनेपर पथिकोंका शीघ्र समागम होता है |

   जो प्रतिदिन विधिपूर्वक हनुमानजीको दीप देता है, उसके लिये तीनों लोकोंमें कुछ भी असाध्य नहीं है | जिसके हृदयमें दुष्टताका ही चिन्तन करती हो, जो शिष्य होकर भी विनशून्य और चुगला हो, ऐसे मनुष्यको कभी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये | कृतघ्रको कदापि इस रहस्यका उपदेश न दे | जिसके शील-स्वभावकी भलीभाँति परीक्षा कर ली गयी हो, उस साधु पुरुषको ही इसका उपदेश देना चाहिये |

   अब मैं तत्वज्ञान प्रदान करनेवाले दूसरे मन्त्रका वर्णन करूंगा | ‘तार (ॐ) नमो हनुमते इतना कहकर तीन बार जाठर (म)-का उच्चारण करे | फिर ‘दनक्षोभम्’ कह-कहकर दो बार ‘संहर’ यह क्रियापद बोले | उसके बाद ‘आत्म-तत्वम्, बोलकर दो बार ‘प्रकाशय’ का उच्चारण करे | उसके बाद वर्म (हुं),अस्त्र (फट) और वह्रिजाया (स्वाहा)-का उच्चारण करे | (पूरा मन्त्र यों है-यों है-ॐ नमो हनुमते मम मदनक्षोंभं संहर संहर आत्मतत्त्वं प्रकाशय हुं फट स्वाहा) यह साढ़े छत्तीस अक्षरोंका मन्त्र है | इसके वसिष्ठ मुनि, अनुष्टुप् छन्द और हनुमान् देवता हैं | सात-सात, छः, चार, आठ तथा चार मन्त्राक्षरोंद्वारा षडङ्ग-न्यास करके कपीश्वर हनुमानजीका इस प्रकार ध्यान करे-

जानुस्थवामबाहुं च ज्ञानमुद्रापरं ह्रदि |

अध्यात्मचित्तमासीनं कदलिवनमध्यगम् ||

बालार्ककोटिप्रतिमं ध्यायेञ्ज्ञानप्रदं हरिम् |

(७५ | ९५-९६)

   ‘हनुमानजीका बायाँ हाथ घुटनेपर रखा हुआ है | दाहिने हाथ ज्ञानमुद्रामें स्थित हो हृदयसे लगा है | वे अध्यात्मततत्वका चिन्तन करते हुए कदलीवनमें बैठे हुए है | उनकी कान्ति उदयकालके कोटि-कोटि सूर्योंके समान है | ऐसे ज्ञानदाता श्रीहनुमानजीका ध्यान करना चाहिये |’

   इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप करे और घृतसहित तिलकी दशांश आहुती दे, फिर पूर्वोक्त पीठपर पूर्ववत प्रभु श्रीहनुमानजीका पूजन करे | यह मन्त्र-जप किये जानेपर निश्चय ही कामविकारका नाश करता है और साधक कपीश्वर हनुमानजीके प्रसादसे तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेता है |

अब मैं भूत भागनेवाले दूसरे उतकृष्ट  मन्त्रका वर्णन करता हूँ | ॐ श्री महाञ्जनाय पवनपुत्रवेशयावेशय ॐ श्रीहनुमते फट |’ यह पचीस अक्षरका मन्त्र है | इस मन्त्रके ब्रह्मा ऋषि’ गायत्री छन्द,हनुमान् देवता, श्री बीज और फट् शक्ति कही गयी है | छः दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजद्वारा षडङ्ग-न्यास करे |                                                    

ध्यान

आञ्जनेयं पाटलास्यं स्वर्णाद्रिसमविग्रहम् |

पारिजातद्रुमूलस्थं चिन्तयेत साधकोत्त्म ||

(७५ | १०२)

   ‘जिसका मुख लाल और शरीर सुवर्णगिरिके सदृश कान्तिमान् है, जो पारिजात (कल्पवृक्ष)-के नीचे उसके मुलभागमें बैठे हूर हैं, उन अञ्जनीनन्दन हनुमानजीका श्रेष्ठ साधक चिन्तन करे |’

   इस प्रकारध्यान एक लाख जप हुए तिलसे दशांश होम करे | विद्वान पुरुष पूर्वोक्त पीठपर पूर्वोक्त रीतिसे पूजन करे | मन्त्रोपासक इस मन्त्रद्वारा यदि ग्रहग्रस्त पुरुषोको झाड़ दे तो वह ग्रह चीखता-चिल्लाता हुआ उस पुरुषको छोड़कर भाग जाता है | इन मन्त्रोंको सदा गुप्त रखना चाहिये | जहाँ-तहाँ सबके सामने इन्हें प्रकाशमें नहीं लाना चाहिये | खूब जाँचे-बुझे हुए शिष्यको अथवा अपने पुत्रको ही इनका उपदेश करना चाहिये | (ना० पूर्व० ७४-७५)

अध्याय ६६ भगवान श्रीकृष्ण— समबन्धी मन्त्रोंकी अनुष्ठान— विधि तथा विविध प्रयोग

सनत्कुमारजीने कहा-नारद ! अब मैं भोग और मोक्षरूप फल देनेवाले श्रीकृष्ण-मन्त्रोंका वर्णन करूँगा; काम (क्लीं) ‘ड़े’ विभक्त्यन्त कृष्ण और गोविन्द पद (कृष्णाय गोविनदाय) फिर गोपीजनवल्लभाय स्वाहा (क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा) यह अठारह अक्षरोंका मन्त्र है, जिसकी अधिष्ठात्री देवी दुर्गाजी हैं | इस मन्त्रके नारद ऋषि, गायत्री छन्द, परमात्मा श्रीकृष्ण देवता, क्लीं बीज और स्वाहा शक्तिका चरणोंमें न्यास करें१ | मन्त्रके चार, चार, चार, चार और दो अक्षरोंसे पञ्चाङ्ग-न्यास२ करके फिर तत्व-न्यास करे | तत्पश्चात् हृदयकमलमें क्रमशः द्वादशकलाव्याप्त सूर्यमण्डल, षोडशकलाव्याप्त चन्द्रमण्डल तथा दशकालव्याप्त अग्निमण्डलका न्यास करे | साथ ही मन्त्रके पदोंमें स्थित आठ, आठ और दो अक्षरोंका भी क्रमश: उन मण्डलोंके साथ योग करके उन सबका हृदयमें न्यास करे (यथा-क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय अं द्वादशकला-व्याप्तसूर्यमण्डलात्मने नमः, गोपीजनवल्लभाय ॐ षोडशकलाव्याप्तचन्द्रमण्डलात्मने नमः स्वाहा, मं दशकलाव्याप्तवह्रिमण्डलात्मने नमःहृत्पुण्डरीके) | तत्पश्चात् आकाशादिके स्थ्लोंमें अर्थात् मूर्द्धा, मुख, हृदय, गुह्य तथा चरणोंमें क्रमशः वासुदेव आदिका न्यास करे | वासुदेव, सङ्कर्पण, प्रद्युम्र, अनिरुद्ध तथा नारायण-ये वासुदेव आदि कहलाते हैं | ये क्रमश: परमेंष्ठी आदिसे युक्त हैं | परमेंष्ठि पुरुष, शौच, विश्व, निवृति तथा सर्व-ये परमेंष्ठयादि कहे गये हैं | परमेंष्ठि पुरुष आदि क्रमश: श्वेतवर्ण, अनिलवर्ण, अग्निवर्ण, अम्बुवर्ण तथा भूमिवर्णके हैं | इन सबका पूर्ववत न्यास करे | (यथा- श्वेतवर्णपामेंष्ठिपुरुषात्मने वासुदेवय नमः मुर्द्धनि | अनिलवर्णशौचात्मने सङ्कर्षणाय नमः मुखे | अग्निवर्णविश्वात्मने प्रद्युम्राय नमः हृदये | अम्बुवर्णनिवृत्यात्मनेअनिरुद्धाय नमः गुह्ये | भूमिवर्णसर्वात्मने नारायणाय नमः पादयो: |) ॐ क्षों कोपतत्वात्मेन नृसिंहाय नमः इति सर्वाङ्गे | इस प्रकार सम्पूर्ण अङ्गमें न्यास करे | यह तत्व-न्यास कहा गया है | इसी प्रकार श्रेष्ठ साधकोंको यह जानना चाहिये की वासुदेव आदि नामोंका ‘ड़े’ विभक्त्यन्त रूप ही न्यासमें ग्राहय है | तदन्तर मन्त्रज्ञ पुरुष मूलमन्त्रको चार बार पढ़कर पूरक, छः बार पढ़कर कुभ्भक और दो बार पढ़कर रेचक करते हुए प्राणायाम सम्पन्न करे | कुछ आचार्योका यहाँ यह कथन है कि प्राणायमके पश्चात् पीठन्यास करके दुसरे न्यसोंका अनुष्ठान करे | आगे बतायी जानेवाली विधिके अनुसार दशतत्वादि न्यास करके विद्यान पुरुष मूर्तिपञ्चर नामक न्यास करे | फिर किरीटमन्त्रद्वारा बुद्धिमान् साधक सर्वाङ्गमें व्यापक न्यास करके प्राणवसम्पुटित मन्त्रको तीन बार दोनों हाथोंकी पाँचों अंगुलियोंमें व्यात (विन्यस्त) करे | उसके बाद तीन बार पञ्चाङ्ग-न्यास करे | तदन्तर मूलमन्त्रको पढ़कर सिरसे लेकर पैरतक व्यापक-न्यास करे | फ़िर केवल प्रणवद्वार एक बार व्यापक-न्यास करके मन्त्र-न्यास करे। इसके बाद पुन: नेत्र, मुख, हृदय, गुद्दा और चरणद्वय-इनमें क्रमश: मन्त्रके पाँच पदोंका अन्तमें ‘नम:’ लगाकर न्यास करे (यथा-कलीं नम: नेत्रद्वये। कृष्णाय नम: मुखे। गोविन्दाय नम: हृदये। गोपीजनवल्लभाय नमः गुह्ये। स्वाहा नम: पादयो:) । पुन: ऋषि आदि न्यास करके पूर्वोक्त पञ्चाङ्ग-न्यास करे ।

   अब मैं सब न्यासोंमें उत्तमोत्तम परमगुह्यन्यासका वर्णन करता हूँ, जिसके विज्ञान मात्रसे मनुष्य जीवन्मुक्त तथा अणिमा आदि आठों सिद्धियोंका अधीश्वर हो जाता है, जिसकी आराधनासे मन्त्रोपासक श्रीकृष्णका सान्निध्य प्राप्त कर लेता है । प्रणवादि व्याहृतियोंसे सम्पुटित मन्त्रका और मन्त्रसे सम्पुटित प्रणवादिका तथा गायतत्रीसे सम्पुटित मन्त्रका और मन्त्रसे सम्पुटित गायत्रीका मातृकास्थलमें न्यास करे। मातृका-सम्पुटित मूलका और मूलसे सम्पुटित मातृका वर्णोका श्रेष्ठ साधक क्रमश: न्यास करे। विद्धान् पुरुष पहले मातृका वर्णोका नियतस्थलमें न्यास कर ले। उसके बाद पूर्वोक्त न्यास करने चाहिये। इस तरह उपर्युक्त छः प्रकारके न्यास करे । यह षोढान्यास कहा गया है । इस श्रेष्ठ न्यासके अनुष्ठानसे साधक साक्षात्‌ भगवान्‌ श्रीकृष्णके समान हो जाता है | न्याससे सम्पुटित पुरुषोको देखकर सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर और देवता भी उसे नमस्कार करते हैं| फिर इस भूतलपर मनुष्योंके लिये तो कहना ही क्या है? तत्पश्चात् ‘ॐ नमः सुदर्शनाय अस्त्राय फट्’ इस मन्त्रसे दिग्बन्ध करे | इसके बाद अपने हृदयमें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाले इष्टदेवका इस प्रकार ध्यान करे-

उत्फुल्लकुसुमव्रातनम्रशाखैर्वरद्रुमै:|

सस्मेरमञ्जरीवृन्दबल्लरीवेष्टितै: शुभै: ||

गलत्परागधुलीभि: सुरभीकृतदिङ्मुखै: |

स्मेच्छिशिरितं वृन्दावनं मन्त्री समाहित: ॥

उन्मीलन्नवकञ्जालि विगलन्मधुसञ्चयै: ।

लुब्धान्त: करणैर्गुञ्जदद्विरेफपटलै: शुभम्‌ ॥

मरालपरभृत्कीरकपोतनिकरैर्मुह:|

मुखरीकृतमानृत्यन्मायूरकुलमञ्जुलम् || 

कालिन्द्या लोलकल्लोलविप्रुषैर्मन्दवाहिभि: |

उन्निद्राम्बुरुहव्रातरजोभिर्धूसरै: शिवै: ||

प्रदीपितस्मरैगोंष्ठसुन्दरीमृदुवाससाम्‌ ।

विलोलनपरै: संसेवितं वा तैर्निरन्तरम्‌ ॥

स्मरेत्तदन्ते गीर्वाणभूरूहं सुमनोहरम्‌

तदध: स्वर्णवेद्यां च रत्नपीठमनुत्तमम्‌ ॥

रत्नकुट्टिमपीठेपस्मिशन्नरुणं कमलं स्मरेत्‌।

अष्टपन्र॑ च तन्मध्ये मुकुन्दं संस्मरेत्स्थितम्‌ ॥

फुल्लेन्दीवरकान्तं च केकियहावितंसकम्‌।

पीतांशुकं चन्द्रमुखं सरसीरुहनेत्रकम्‌ ॥

कोस्तुभोद्धासिताङ्गं च श्रीत्साङ्कं सुभूषितम्‌।

व्रजस्त्रीनेत्रकलाभ्यर्चितं गोगणावृतम्‌ ॥

गोपवृन्दयुतं वंशीं वादयन्तं स्मरेत्सुधी: ।

(४०-५०)

   ‘मन्त्रोपासक एकाग्रचित्त होकर श्रीवृन्दावनक चिन्तन करे, जो शुभ एवं सुन्दर हरे-भरे वृक्षोंसे परिपूर्ण तथा शीतल है । उन वृक्षोंकी शाखाएँ खिले हुए कुसुम-समूहोके भारसे झुकी हुई हैं । उनपर प्रफुल्ल मञ्जरियोंसे युक्त विकसित लतावल्लरियाँ फैली हुई हैं | वे वृक्ष झड़ते हुए पुष्परागरूप धूमिकणोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको सुवासित करते रहते हैं, वहाँ खिलते हुए नूतन कमल-वनोंसे निकलती मधुधाराओंके संचयसे लुभाये अन्त: करणवाले भ्रमरोंका समुदाय मनोहर गुञ्जार करता रहता है | हंस, कोकिला, शुक और पारावत आदि पक्षियोंका समूह बारम्बार कलरव करते हुए वृन्दावनको कोलाहलपूर्ण किये रहता है | चरों ओर नृत्य करते मोरोंके झुंडसे वह वन अत्यन्त मनोरम जान पड़ता है | कालिन्दीकी चञ्च्ल लहरोंसे नीर-विन्दुओंको लेकर मन्द-मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली शीतल सुखद वायु प्रफुल्ल पङ्कजोंके पराग-पुञ्जसे धूसर हो रही है। व्रजसुन्दरियोंके मृदुल वसनाञ्चलोंको वह चञ्चल किये देती हैं और इस प्रकार मनमें प्रेमोन्‍्मादका उद्दीपन करती हुई वह मन्द वायु वृत्दावनका निरन्तर सेवन करती रहती है । उस वनके भीतर एक अत्यन्त मनोहर कल्पवृक्षका चिन्तन करे, जिसके नीचे सुवर्णमयी वेदीपर परम उत्तम रत्नमय पीठ शोभा पाता है । वहाँकी प्राङ्गण-भूमि भी रत्नोंसे आबद्ध है । उस रत्नमय पीठपर लाल रंगके अष्टदलकमलकी भावना करे, जिसके मध्यभागमें श्रीमुकुन्द विराजमान हैं। उनके स्वरूपका इस प्रकार ध्यान करे-उनकी अङ्ग-कान्ति विकसित नील कमलके समान श्याम है। वे मोर-पङ्खका मुकुट पहने हुए हैं, कटिभागमें पीताम्बर शोभा पा रहा है। उनका मुख चन्द्रमाको लज्जित कर रहा है, नेत्र खिले हुए कमलोंकी शोभा छीने लेते हैं, उनका सम्पूर्ण अङ्ग कोस्तुभमणिकी प्रभासे उभ्दासित हो रहा है, वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है। वे परम सुन्दर दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं, व्रजसुन्दरियाँ मानो अपने नेत्रकमलोंके उपहारसे उनकी पूजा करती हैं, गौएँ उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़ी हैं । गोपवृन्द उनके साथ हैं और वे वंशी बजा रहे हैं । विद्वान्‌ पुरुष भगवानका चिन्तन करे।’

   बुद्धिमानू साधक इस तरह ध्यान करके पहले बीस हजार मत्र-जप करे। फिर एकाप्रचित्त हो अरुण कमल-कुसुमोंकी दशांश आहुति दे। तत्पश्चात्‌ समाहित होकर मत्र-सिद्धिके लिये पाँच लाख जप करे। लाल कमलोंकी आहुति देकर साधक सम्पूर्ण सिद्धियोंका स्वामी हो जाता है । पूर्वोक्त वैष्णव पीठपर मूलमन्त्रसे मूर्ति-निर्माण करके उसमें गोपीजनमनोहर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका आवाहन और पूजन करे। मुखमें वेणुकी पूजा करके, वक्ष:स्थलमें वनमाला, कोस्तुभ तथा श्रीवत्सका पूजन करे। इसके बाद पुष्पाज्लि चढ़ावे । तत्पश्चात्‌ बुद्धिमान्‌ उपासक देवेश्वर श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए उनके दक्षिणभागमें श्वेतचन्दनचर्चित श्वेत तुलसीको तथा वामभागमें रक्तचन्दनचर्चित लाल तुलसीको समर्पित करे। इसके बाद दो अश्वमार (कनेर) पुष्पोंसे उनके हृदय और मस्तककी पूजा करे । रतदनन्त शीर्षभागमें विधिपूर्वक दो कमलपुष्प समर्पित करे। तत्पश्चात्‌ उनके सम्पूर्ण अङ्गोंमें दो तुलसीदल, दो कमलपुष्प और दो अश्वमार (श्रेत-रक्त कनेर) कुसुम चढ़ाकर फिर सब प्रकारके पुष्प अर्पण करे। गोपाल श्रीकृष्णके दक्षिणभागमें अविनाशी निर्मल चैतन्यस्वरूप भगवान्‌ वासुदेवका तथा वामभागमें रजोगुणस्वरूपा नित्य अनुरक्ता रुक्मिणी देवीका पूजन करे। इस प्रकार गोपाल श्रीकृष्णके भलीभाँति पूजन करके आवरण देवताओंकी पूजा करे । दाम, सुदाम, वसुदाम और किंकिणी-इनका क्रमश: पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरमें पूजन करे। दाम आदि शब्दोंके आदिमें प्रणव और अन्तमें ‘डे’ विभक्ति तथा ‘नम:’ पद जोड़ने चाहिये । (यथा—ॐ दामाय नम; इत्यादि, यदि दाम शब्द नान्त हो तो दम्रे नम: यह रूप होगा) अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य तथा ईशान कोणोंमें क्रमश: हृदय, सिर, शिखा तथा कवचका पूजन करके सम्पूर्ण दिशाओमें अस्त्रोंका पूजन करे। फिर आठों दलोंमें रुक्मिणी, आदि पटरानियोंकी पूजा करे । रुक्मिणी, सत्यभामा, नाग्रिजिती, सुविन्दा, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा, जाम्बवती तथा सुशीला१ । ये सब-की-सब सुन्दर, सुरम्य एवं विचित्र वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हैं। तदनन्तर अष्टदलोंके अग्रभागमें वसुदेव-देवकी, नन्द-यशोदा, बलभद्र-सुभद्रा तथा गोप और गोपियोंका पूजन करे। इन सबके मन, बुद्धि तथा नेत्र गोविन्दमें ही लगे हुए हैं। दोनों पिता वसुदेव और नन्द क्रमश: पीत और पाण्डु वर्णके हैं। माताएँ (देवकी और यशोदा) दिव्य हार, दिव्य वस्त्र, दिव्याङ्गराग तथा दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। दोनोंने चरु तथा खीरसे भरे हुए पात्र ले रखे हैं। देवकीका रंग लाल है और यशोदाका श्याम। दोनोंने सुन्दर हार और मणिमय कुण्डलोंसे अपनेको विभूषित किया है। बलरामजी शङ्ख तथा चन्द्रमाके समान गौरवर्णके हैं। वे मूसल और हल धारण करते हैं। उनके श्रीअङ्गोंपर नीले रंगका वस्त्र सुशोभित होता है। हलधरके एक कानमें कुण्डल शोभा पाता है। भगवान्‌की जो श्यामला कला है, वही भद्रस्वरूपा सुभद्रा है। उसके आभूषण भी भद्र (मङ्गल)-रूप हैं। सुभद्राजीके एक हाथमें वर और दूसरेमें अभय है। वे पीताम्बर धारण करती हैं। गोपगणोंके हाथमें वेणु, वीणा, सोनेकी छड़ी, शङ्ख और सींग आदि हैं। गोपियोके करकमलोमें नाना प्रकारके खाद्य पदार्थ हैं। इन सबके बाहयभागमें मन्दार आदि कल्पवृक्षोंकी पूजा करे। मन्दार, सन्तान, पारिजात, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन (ये ही उन वृक्षेकि नाम हैं)। उक्त पाँच वृक्षोंसे चारकी चारों दिशाओंमें और एककी मध्यभागमें पूजा करके उनके बाहयभागमें इन्द्र आदि दिक्पालों और उनके वज्र आदि अस्त्रोंकी पूजा करे। तत्पश्चात्‌ श्रीकृष्णके आठ नामोंद्वारा उनका यजन करना चाहिये। वे नाम इस प्रकार हैं-कृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नारायण, यदुश्रेष्ठ, वार्ष्णेय, धर्मपालक तथा असुराक्रान्त-भूभारहारी । विद्वान्‌ पुरुषोंको सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्तिक लिये तथा संसार-सागरसे पार होनेके लिये इन आवरणोंसहित असुरारि श्रीकृष्णकी आराधना करनी चाहिये।

अब मैं भगवान्‌ श्रीकृष्णके त्रिकाल पूजनका वर्णन करता हूँ, जो समस्त मनोरथोंकी सिद्धि प्रदान करनेवाला है।

प्रात:कालिक ध्यान

श्रीमदुद्यानसंवीतहेमभूरल्रमण्डपे ॥

लसत्कल्पद्रुमाध:स्थरल्राब्जपीठसंस्थितम्‌ ।

सुत्रामरत्नसंकाशं गुडसिन्नग्धालकं शिशुम्‌ ॥

चलत्कनककुण्डलोल्लसितचारुगण्डस्थलंसुघोणधरमद्भुतस्मितमुखाम्बुजं सुन्दरमू।

स्फुरद्विमत्नरत्नयुक्कनकसूत्रनद्धं दधत्‌-सुवर्णपरिमण्डितं सुभगपौण्डरीकं नखम्‌ ॥

समुद्धुसरोर: स्थले धेनुधूल्या सुपुष्टाङ्गमष्टापदाकल्पदीप्तम् ।

कटीरस्थले चारुजङ्गान्तयुग्मंपिनद्धं क्वत्किङ्किणीजालदाम्ना ॥

हसन्तंहसद्वन्धुजीवप्रसून-प्रभापाणिपादाम्बुजोदारकान्त्या |

दधानं करे दक्षिण पायसान्नंसुहैयंगवीनं तथा वामहस्ते ||

लसद्रोपगोपीगवां वृन्दमध्येस्थितं वासवाद्यै: सुरैरर्चिताङ्घ्रिम् |

महीभारभूतामरारातियूथां-स्त्त: पूतनादीन्‌ निहन्तुं प्रवृत्तम् ॥

(ना० पुर्व०८० | ७५- ८०)

   ‘एक सुन्दर उद्यानसे घिरी हुई सुवर्णमयी भूमिपर रत्नमय मण्डप बना हुआ है। वहाँ शोभायमान कल्पवृक्षके नीचे स्थित रत्ननिर्मित कमलयुक्त पीठपर एक सुन्दर शिशु विराजमान है; जिसकी अङ्गकान्ति इन्द्रनीलमणिके समान श्याम है । उसके काले-काले केश चिकने और घुँघराले हैं । उसके मनोहर कपोल हिलते हुए स्वर्णमय  कुण्डलोंसे अत्यन्त सुन्दर लगते हैं, उसकी नासिका बड़ी सुघड़ है । उस सुन्दर बालकके मुखारविन्दपर  सुकार्तस्वराभाम्बर दिव्यभूष मन्द मुसकानकी अद्भुत छटा छा रही है। वह सोनेके तारमें गूँथा और सोनेसे ही मंढ़ा  हुआ सुन्दर वघनखा धारण करता है, जिसमें परम उज्वल चमकीले रत्न जड़े हुए हैं । गोधूलिसे धूसर वक्ष:स्थलपर धारण किये हुए स्वर्णमय आभूषणोंसे उसकी दीप्ति बहुत बढ़ी हुई है । उसका एक-एक अङ्ग अत्यन्त पुष्ट है । उसकी दोनों पिण्डलियोंका अन्तिम भाग अत्यन्त मनोहर है । उसने अपने कटिभागमें घुंघरूदार  करधनीकी लड़ बाँध रखी है, जिससे मधुर झनकार होती रहती है । खिले हुए बन्धुजीव (दुपहरिया)-के फूलकी अरुण प्रभासे युक्त करारविन्द और चरणारविन्दोंकी उदार कान्तिसे सुशोभित वह शिशु मन्द-मन्द हँस रहा है। उसने दाहिने हाथमें खीर और वायें हाथमें तुरन्तका निकाला हुआ माखन ले रखा है। ग्वालों गोपसुन्दरियों और गौओंकी मण्डलीमें स्थित होकर वह बड़ी शोभा पा रहा है । इन्द्र आदि देवता उसके चरणोंकी समाराधना करते   हैं । वह पृथ्वीके भारभूत दैत्यसमुदाय पूतना आदिका संहार करनेमें लगा है ।

‘इस प्रकार ध्यान करके पूर्ववत् एकाग्रचित्त हो भगवानका पूजन करे । दही और गुड़का नैवेद्य लगाकर मध्य एक हजार मन्त्र-जप करे । इसी प्रकार मध्याहकालमें नारदादी मुनिगुणों और देवताओंसे पूजित विशिष्ट रूपधारी भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करे |

मध्याह्रकालिक ध्यान

लसद्रोपगोपीवां वृन्दमध्य-स्थितं सान्द्रमेघप्रभं सुन्दराङ्गम् |

शिखणिडच्छदापीडमब्जायताक्षंलसच्चिल्लिकं पूर्णचन्द्राननं व ||

चलत्कुण्डलोल्लासिगण्डस्थलश्री-भरं सुन्दरं मन्दहासं सुनासम् |

सुकार्तस्वराभाम्बरं दिव्यभुषंव्कत्किङ्किणीजालमात्तानुलेपम् ||

वेणुं धमन्तं स्वकरे दधानंस्वये दरं यष्टिमुदारवेषम् |

दक्षे तथैवेप्सितदानदाक्षंध्यात्वार्चयेत्रन्दजमिन्दिराप्त्यै ||

(ना० पुर्व० ८० | ८३-८५)

 

   ‘जो सुन्दर गोप, गोपाङ्गनाओं तथा गौओंके मध्य विराजमान हैं, स्त्रिग्ध मेघके समान जिनकी छबि है, जिनका एक-एक अङ्ग बहुत सुन्दर है, जो मयूरपिच्छका मुकुट धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलदलके समान विशाल हैं, भौंहोका मध्यभाग शोभासम्पन्न है और मुख पूर्ण चन्द्रमाको भी लज्जित कर रहा है, हिलते और झलमलाते सायंकालिक ध्यान हुए कमनीय कुण्डलोंसे उल्लसित कपोलोंपर जो शोभाको राशि धारण करते हैं, जिनकी नासिका सुन्दर मनोहर है, जो मन्द-मन्द हंसते हुए बड़े सुन्दर | जान पड़ते हैं, जिनका वस्त्र तपाये हुए सुवर्णके गृहोसे निर्मल समान कान्तिमान और आभूषण दिव्य हैं, कटिभागमें धारण किया है, जो अपने हाथमें लेकर मुरली बजा रहे, जिनके बायें हाथों शङ्ख और दाहिने हाथमें छड़ी है, जिनकी वेश-भूषासे उदारता टपक रही है, जो मनोवाच्छित वस्तु प्रदान करनेमें दक्ष हैं, उन नन्दनन्दन श्रीकृष्णका ध्यान करके लक्ष्मीप्राप्तिके लिये उनका पूजन करे।

‘इस प्रकार ध्यान करके श्रेष्ठ वैष्णव पुरुष पूर्ववत् भगवान् श्रीकृष्णको पूजा करे । पूआ, खीर तथा अन्य भक्ष- भोज्य पदार्थोंका नैवेद्य अर्पण करे । घृयुक्त खीरकी एक सौ आठ आहुति देकर प्रत्येक दिशामें उसीसे बलि अर्पण करे। तत्पश्चात् आचमन करे । इसके बाद एक हजार आठ बार उत्तम मन्त्र-जप करे । जो उत्तम वैष्णव मध्याह्रकालमें इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करता है, उसे सब देवता प्रणाम करते हैं और वह मनुष्य  सब लोगोंका प्रिय होता है । वह मेधा, आयु, लक्ष्मी तथा सुन्दर कान्तिसे सुशोभित होकर पुत्र-पौत्रोंके साथ अभ्युदयको प्राप्त होता है । तीसरे समयकी पूजामें कौन-सा काल है, इस विषयमें मतभेद है । कुछ विद्वान् इस पूजाको सायंकालमें करने योग्य बताते हैं और कुछ रात्रिमें । दशाक्षर-मन्त्रसे पूजा करनी हो तो रातमें करे । अष्टादशाक्षरसे करनी हो तो सायंकालमें करे । कुछ दूसरे विद्वान् ऐसा भी कहते हैं की दोनों प्रकारके मन्त्रोंसे दोनों ही समय पूजा करनी चाहिये |  

सायंकालिक ध्यान

   सायंकाल भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकापुरीमें एक सुन्दर भवन भीतर विराजमान हैं, जो विचित्र उद्यानसे सुशोभित        है | वह श्रेष्ठ भवन आठ हजार ग्रहोंसे अलंकृत है | उसके चारों ओर निर्मल जलवाले सरोवर सुशोभित हैं | हंस, सारस आदि पक्षीयोंसे व्याप्त कमल और उत्पल आदि पुष्प उन सरोवरोंकी शोभा बढ़ाते हैं | उक्त भवनमें एक शोभासम्पन्न मणिमय मण्डप है, जो उदयकालीन सूर्यदेवके समान अरुण प्रकाशसे प्रकाशीत हो रहा है | उस मण्डपके भीतर सुवर्णमय कमलकी आकृतिका सुन्दर सिंहासन है, जिसपर त्रिभुवनमोहन श्रीकृष्ण बैठे हैं | उसे आत्मतत्वका निर्णय करने लिये मुनियोंके समुदायने उन्हें सब ओरसे घेर रखा है | भगवान् श्यामसुन्दर उन मुनियोंको अपने अविनाशी परम धामका उपदेश दे रहे हैं | उनकी अङ्गकान्ति विकसित नीलकमलके समान श्याम है | दोनों नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल हैं । सिरपर स्न्निग्ध अलकावलियोंसे संयुक्त सुन्दर किरीट सुशोभित है । गलेमें वनमाला शोभा पा रही है । प्रसन्न मुखारविन्द मनको मोहे लेता है । कपोलोंपर मकराकृति कुण्डल झलमला हैं । वक्ष:स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है । वहीं कौस्तुभमणि अपनी प्रभा बिखेरे रही है | उनका स्वरूप अत्यन्त मनोहर है | उनका वक्ष:स्थल केसरके अनुलेपसे सुनहली प्रभा धारण करता है | वे रेशमी पीताम्बर पहने हुए हैं, विभिन्न अङ्गोंमें हार, बाजूबंद, कड़े और करधनी आदि आभूषण उन्हें अलंकृत कर रहा   हैं | उनहोंने पृथ्वीका भारी भार उतार दिया | उनका हृदय परमानन्दसे परपूर्ण है तथा उनके चरों हाथ शङ्ख, चक्र, गदा और पद्य से सुशोभित है१ |

   इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक भगवानकी पूजा करे | हृदय, सिर शिखा, कवच, नेत्र, और अस्त्र-इनके द्वारा प्रथम आवरण बनता है | रुक्मिणी आदि पटरानियोंद्वारा द्वितीय आवरण सम्पन्न होता है | तृतीय आवरणमें नारद, पर्वत, विष्णु, निशठ, उद्धव, दारूक, विष्व्क्सेन तथा सात्यकी हैं, इनका आठ दिशाओंमें और विनतानन्दन गरुड़का भगवानके सम्मुख पूजन करे | चौथे आवरणमें लोकपालोंके साथ और पाँचवें आवरणमें वज्र आदि आयुर्धोंके साथ उत्तम वैष्णव भगवत्पुजन कार्य सम्पन्न करे | इस प्रकार विधिपूर्वक पूजा करके खीरका नैवेद्य अर्पण करे | फिर जलमें खाँड़मिश्रित दूधकी भावना करके उस जलद्वारा तर्पण करे | उसके बाद मन्त्रोपासक पुरषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए मुलमन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे | तीनों कालकी पूजाओंमें अथवा केवल मध्याह्रकलमें ही होम करे | आसानसे लेकर विशेषार्ध्यपर्य सम्पूर्ण पूजा पूरी करके विद्यान पुरुष भगवानकी स्तुति और नमस्कार करे | फिर भगवानको आत्मसमर्पण करके उनका विसर्जन करनेके पश्चात् अपने हृदयकमलमें उनकी स्थापना करे और तन्मय होकर पुनः आत्मस्वरूप भगवानकी पूजा करे | जो प्रतिदिन इस प्रकार सायंकालमें भगवान् वासुदेवकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पाकर अन्तमें परम गतिको प्राप्त होता है |

रात्रिकालिक ध्यान

रात्रौ चेन्मदनाक्रान्तचेतसं नन्दनन्दनम् |

यजेद्रासपरिश्रान्तं गोपीमण्डलमध्यगम् ||

विकसतकुन्द्कह्रारमल्लिकाकुसुमोद्रतै: |

रजोभिर्धूसरैर्मन्दमारुतै: शिशिरिकृते ||

उन्मीलन्नवकैरवालिविगलन्माध्वीकलब्धान्तर-भ्राम्यन्मत्तमिलीन्दगीतललितेसन्मल्लिकोज्जृम्भिते|

पीयुषांशुकरैर्विशालितहरित्प्रान्ते स्मरोद्दीपनेकालिन्दीपुलिनाङ्गणे स्मितमुखं वेणुं रणन्तं मुहु: ||

अन्तस्तोयलसन्न्वाम्बुदघटासंघट्टकारत्विषंचञ्चच्चिल्लिकमम्बुजायतदृशं बिम्बाधरं सुन्दरम् |

मायूरच्छदबद्धमौलिविलसद्दम्मिल्लमालंचलद्-दीप्यत्कुण्डलरत्नरश्मिविलसद्रण्डद्वयोभ्दासितम्||

काञ्चीनृपुरहारकङ्णलसतकेयूरभुषान्वितंगोपीनांद्वितयान्तरेसुललितंवन्यप्रसूनस्त्रजम्|

अन्योन्यं विनिबद्धगोपदयितादोर्वल्लिवीतं लस-द्रासक्रीडनलोलुपं मनसिजाक्रान्तं मुकुन्दं भजेत्||

विविधश्रुतिभिन्नमनोज्ञरस्वरसप्तकमुर्छनतानगणै: |

भ्रममाणममूभिरुदारमनिस्फुटमण्डनशिञ्चितचारुतनुम् ||

इतरेतरबद्धकरप्रमदागणकल्पितरासविहारविधौ|

मणिशङ्कुगमप्यमुनावपूषा यहुधाविहितस्वकदिव्यतनुम् ||

(ना० पुर्व० ८० | १०७-११३)

   ‘रात्रिमें पूजन करना हो तो भगवानका ध्यान इस प्रकार करे-भगवान् नन्दनन्दनने अपने हृदयमें प्रेमको आश्रय दे रखा है | वे रासक्रीड़ामें संलन्ग हो मानो थक गये हैं और गोपाङ्गनाओंकी मण्डलीके मध्यभागमें विराज रहे   हैं | उस समय यमुनाजीका पुलिन-प्राङ्गण अमृतमय किरणोंवाले चन्द्रदेव धवल ज्योत्स्त्रासे उभ्दासित हो रहा है | वहाँका प्रान्त अत्यन्त हरा-भरा एवं भगवत्प्रेम उद्दीपक हो रहा है | खिले हुए कुन्द, कह्रार और मल्लिका आदि कुसुमोंके परागपुञ्जसे धूसरित मन्द-मन्द वायु प्रवाहित होकर उस पुलिन-प्राङ्गणको शीतल बना रही है | खिले हुए नूतन कुमुदोंके मादक मकरन्दका पान करके उन्मत हृदयवाले भ्रमर इधर-उधर भ्रमण करते हुए मधुर गुञ्जारव फैला रहे हैं; जिससे वह वनप्रान्त अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता है | वहाँ सब ओर सुन्दर चमेलीकी सुगन्ध फैल रही है | ऐसे मनोहर कालिन्दीतटपर श्यामसुन्दर मुखसे मन्द-मन्द मुसकानकी प्रभा बिखेरते हुए बारम्बार मुरली बजा रहे हैं | उनकी अङ्गकान्ति भीतर जलसे भरे हुए नूतन मेघोंकी श्याम घटासे टक्कर ले रही है | भौहोंका मध्यभाग कुछ चञ्चल हो उठा है | दोनों नेत्र विकसित कमलदलके समान विशाल हैं | लाल-लाल अधर बिम्बफलको लजा रहे हैं | भगवानकी वह झाँकी बड़ी ही सुन्दर है | माथेपर मोरपंखका मुकुट है, जिससे उनके बँधे हुए केशोंकी चोटी बड़ी सुहावनी लग रही है | उनके दोनों कपोल हिलते हुए चमकीले कुण्डलोंमें जटित रत्नोंकी किरणोंसे उभ्दासित हो रहे हैं और उन कपोलोंसे श्यामसुन्दरका सौन्दर्य और भी बढ़ गया है | वे करधनी, नुपुर,हार, कंगन और सुन्दर भुजबंद आदि आभूषणोंसे विभूषित हहों प्रत्येक दो गोपीके बीचमें खड़े होकर अपनी मनमोहनी झाँकी दिखा रहे हैं | गलेमें वन्यपुष्पोंका हार सुशोभित है | एक-दूसरीसे अपनी बाहोंको मिलाये हुए नृत्य करनेवाली गोपाङ्गनाओंकी बाहु-वल्लरियोंसे वे घिरे हुए हैं | इस प्रकार परम सुन्दर शोभामयी दिव्य रासलीलाके लिये सदा उत्सुक रहनेवाले प्रेमके आश्रयभूत भगवान् मुकुन्दका भजन करे | वे नाना प्रकारकी श्रुतियोंके१ भेदसे युक्त परम मनोहर सात स्वरोंकी मूर्च्छना२ और तीनोंके१ साथ-साथ गोपाङ्गनाओंसेसहित थिरक रहे हैं | सुन्दर मणिमय स्वच्छ आभूषणोंके मधुर शिञ्जनसे भगवानका सम्पूर्ण मनोहर अङ्ग ही झनकामय हो उठा है | एक दूसरीसे हाथ बाँधकर मण्डलाकार खड़ी हुई गोपाङ्गनाओंके समूहसे कल्पित रासलीलामण्डलकी रचनामें यद्यपि भगवान श्यामसुन्दर बीचमें मणिमय मेखकी भाँति स्थित हैं तथापि इसी शरीरसे उनहोंने अपने बहुत-से दिव्य स्वरूप प्रकट कर लिये हैं (और बहुत-से दिव्य स्वरूप प्रकट कर लिये हैं (और उन स्वरूपोंसे प्रत्येक दो गोपीके बीचमें स्थित हैं) |’

   इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक भगवानकी पूजा करे | हृद्यादि अङ्गोंद्वारा प्रथम आवरणकी पूजा होती  है | धन-सम्पत्तिकी इच्छा रखनेवाला श्रेष्ठ वैष्णव पूर्वोक्त केशव-कीर्ति आदि सोलह जोड़ोकी कमलपुष्पोंद्वारा पूजा करे | उन सबके नामके आदिमें क्रमश: सोलह स्वरोंको संयुक्त करे१ | तदन्तर इन्द्र आदि दिकपालों और वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे | एक मोटा, गोल और चिकना खूँटा जिसकी ऊँचाई एक बित्तेकी हो, पृथ्वीमें गाड़ दे और उसे पैरोंसे दबाकर एक-दूसरेसे हाथ मिलाकार उसके चारों ओर चक्कर देना रासगोष्ठी काही गयी है | इस प्रकार पूजा करके दूध घी और मिश्री मिलाकर भगवानको नैवेद्य अर्पण करे और सोलह प्याले लेकर उनमें मिश्री मिलायी हुई खीर परोसे और पूर्वोक्त जोड़ोको क्रमश: अर्पण करे | फिर शेष कार्य पूर्ववत् करके मन्त्रोपासक एक हजार मन्त्र-जप करे | तत्पश्चात् स्तुति, नमस्कार और प्रार्थना करके पूजनका शेष कार्य भी समाप्त करे | इस प्रकार जो उपासक भगवान् श्रीकृष्णका पूजन करता है, वह समृद्धिका आश्रय होता है तथा अणिमा आदि आठ सिद्धियोंका स्वामी हो जाता है; इसमें संशय नहीं है | इहलोकमें वह विविध भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके धाममें जाता है | इस तरह पूजा आदिके द्वारा मन्त्रके सिद्धि होनेपर अभीष्ट मनोरथोंकी सिद्धि करे | अथवा विद्वान पुरुष अट्ठाईस बार मन्त्र-जपपूर्वक तीनों समय भगवानकी पूजा करे | उस-उस कालमें कथित परवारों (आवरण देवताओं)-का भी तर्पण करे | प्रातःकाल गुड़मिश्रित दहीसे, मध्याह्रकालमें मक्खनयुक्त दूधसे और सायंकालमें मिश्री मिलाये हुए दूधसे और सायंकालमें मिश्री मिलाये हुए दूधसे श्रेष्ठ वैष्णव तर्पण करे | मन्त्रके अन्तमें तर्पणीय देवताओंके नामोंमें द्वितीया विभक्ति जोड़कर अन्तमें ‘तर्पयामि’ पादका प्रयोग करे | त्त्पश्चात् शेष पूजा पूरी करे | भगवत्प्रसादस्वरुप जलसे अपने-आपको सींचकर उस जलको पीये | उससे तृप्त होकर देवताका विसर्जन करके तन्मय हो मन्त्र-जप करे |

   अब सकामभावसे किये जानेवाले तर्पणोंमें आवश्यक द्रव्य बताये जाते हैं | शास्त्रोक्त विधानसम्बन्धी उन वस्तुओंका आश्रय लेकर उनमेंसे किसी एकका भी सेवन करे | खीर, दही बड़ा, घी, गुड़ मिला हुआ अन्न, खिचड़ी, दूध, दही, केला, मोचा, चिंचा (इमली), चीनी, पुआ, मोदक, खिल (लाजा), चावल, मक्खन-ये सोलह द्रव्य ब्रह्मा आदिके द्वारा तर्पणोयोगी बताये गये हैं | जो प्रातःकाल अन्तमें लाजा और पहले चावल तथा मिश्री अर्पित करके चौहत्तर बार तर्पण करता है, साथ ही भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका ध्यान करता है, वह मन्त्रोपासक अभीष्ट वस्तुको प्राप्त कर लेता है | धारोष्ण तथा पके हुए दूधसे-मक्खन, दही, दूध और आमके रस, घी, मोटी चीनी, मधु और किलल (शर्बत)-इन नौ द्रवयोंमेंसे प्रत्येकके द्वारा बाराह बार तर्पण करे | इस प्रकार जो श्रेष्ठ वैष्णव एक सौ आठ बार तर्पण करता है, वह पूर्वोकत्त फलका भागी होता है | बहुत कहनेसे क्या लाभ? वह तर्पण सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है | मिश्री मिलाये हुए धारोष्ण दुग्धकी भावनासे जलद्वारा साधक वहाँ अपने पारिवारिक लोगोंके साथ धन, वस्त्र एवं भोज्य पदार्थ प्राप्त कर लेता है | मन्त्रोपासक जितनी बार तर्पण करे, उतनी ही संख्यामें जप करे | वह तर्पणसे ही सम्पूर्ण कार्य सिद्ध कर लेता है |

   अब मैं साधकोंके हितके लिये सकाम होमका वर्णन करता हूँ | उत्तम श्रीकी अभिलाषा रखनेवाला मन्त्रोपासक बेलके फूलोंसे होम करे | घृत और अन्नकी वृद्धिके लिये घृतयुक्त अन्नकी आहुती दे |

   अब मैं एक उत्तम रहस्यका वर्णन करता हूँ, जो मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले है | साधक अपने हृदयकमलमें भगवान् देवकीनन्दनका इस प्रकार ध्यान करे-

श्रीमत्कुन्देन्दुगौरं सरसिजनयनं शङ्खचक्रे गदाब्जेबिभ्राणं हस्तपद्यैर्नवनलिनलसनमालया दीप्यमानम् ||

वन्देवेद्यंमुनीन्द्रै:कणिकमणिलसद्दिव्यभूषाभीरामंदिव्याङ्गालेभासं सकलभयहमं पीतवस्त्रं मुरारिम् ||

(ना० पुर्व० ८० | १५०)      

‘जो कुन्द और चन्द्रमाके समान सुन्दरगौरवर्णके हैं, जिनके नेत्र कमलकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं, जो अपने करारविन्दोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं, नूतन कमलोंकी सुन्दर मालासे सुशोभित हैं, छोटी-छोटी मणियोंसे जटित सुन्दर दिव्य आभूषण जिनके अनुपम सौन्दर्य-माधुर्यको और बढ़ा रहे हैं तथा जिनके श्रीङ्गोंमें दिव्य अङ्गराग शोभा पा रहा है, उन मुनीन्द्रवेद्य, सकल भयहारी, पीताम्बरधारी मुरारिकी मैं वन्दना करता हूँ ।’

इस प्रकार ध्यान करके आदिपुरुष श्रीकृष्णको अपने विकसित हृदयकमलके आसनपर विराजमान देखे और यह भावना करे कि वे घनीभूत मेघोंकी श्याम घटा तथा अद्भुत सुवर्णकी-सी नील एवं पीत प्रभा धारण करते हैं । इस चिन्तनके साथ साधक बारह लाख मन्त्रका जप करे । दो प्रकारके मन्त्रोंमेंसे एकका, जो प्रणवसम्पुटित है, जप करना चाहिये। फिर दूधवाले वृक्षोंकी समिधाओंसे बारह हजार आहुति दे अथवा मधु-घृत एवं मिश्रीमिश्रित खीरसे होम करे । इस प्रकार मन्त्रोपासक अपने हृदयकमलमें लोकेश्वरोंके भी आराध्यदेव भगवान्‌ श्रीकृष्णका ध्यान करते हुए प्रतिदिन तीन हजार मन्त्रका जप करे । फिर सायंकालके लिये बतायी हुई विधिसे भलीभाँति पूजा करके साधक भगवत्‌-चिन्तनमें संलग्न हो पुन: पूर्वोक्त रीतिसे हवनकरे । जो विद्वान्‌ इस तरह गोपालनन्दन श्रीकृष्णका नित्य भजन करता है, वह भवसागरसे पार हो परमपदको प्राप्त होता है ।

   पहले दो त्रिभुज अङ्कित करे; जिसमें एक ऊर्ध्वमुख और दूसरा अधोमुख हो । एकके ऊपर दूसरा त्रिकोण होना चाहिये । इस प्रकार छः कोण हो जायँगे। कोण बाह्म भागमें होंगे। उनके बीचमें जो षट्कोण चक्र होगा, उसे अग्निपुर

कहते हैं । उस अग्निपुरकी कर्णिका (मध्यभाग)-में ‘क्लीं’ यह बीजमन्त्र अङ्कित करे । उसके साथ साध्य पुरुष एवं कार्यका भी उल्लेख करे ।

बहिर्गत कोणोंके विवरमें षडक्षर-मन्त्र लिखे । छः कोणोंके ऊपर एक गोलाकार रेखा खींचकर उसके बाह्मभागमें दस-दल कमल अङ्कित करे । उन दस दलोंके केसरोंमें एक-एकमें दो-दो अक्षरके क्रमसे ‘ हीं’ और ‘श्रीं’ पूर्वक अष्टादशाक्षर-मन्त्रके अक्षरोंका उल्लेख करे । तदनन्तर दलोंके मध्यभागमें दशाक्षर-मन्त्रके एक-एक अआक्षरोंको लिखे । इस प्रकार लिखे हुए दस-दल चक्रको भूपुरसे (चौकोर रेखासे) आवृत करे । भूपुरमें अस्त्रोंके स्थानमें कामबीज (क्लीं)-का उल्लेख करे । इस यन्त्रको सोनेके पत्रपर सोनेकी ही शलाकासे गोरोचनद्वारा लिखकर उसकी गुटिका बना ले । यही गोपाल-यन्त्र है । यह सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला कहा गया है । जो रक्षा, यश, पुत्र, पृथ्वी, धन-धान्य, लक्ष्मी और सौभाग्यकी इच्छा रखनेवाले हों उन श्रेष्ठ पुरुषोंको निरन्तर यह यन्त्र धारण करना चाहिये । इसका अभिषेक करके मन्त्र-जपपूर्वक इसे धारण करना उचित है। यह तीनों लोकोंको वशमें करनेके लिये एकमात्र कुशल (अमोघ) उपाय है । इसको महती शक्ति अवर्णनीय है ।

   स्मर (क्लीं), त्रिविक्रम (ऋ) युक्त चक्री (क्) अर्थात्‌ कृ, इसके पश्चात्‌ ष्णाय तथा ह्रत्‌ (नमः) यह (क्लीं कृष्णाय नमः) षडक्षर-मन्त्र कहा गया है, जो सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है । वाराह (ह्), अग्रि (र्), शान्ति (ई) और इन्दु (-अनुस्वार)-ये सब मिलकर मायाबीज ‘ह्रीं’ कहे गये हैं । मृत्यु (श्‌), वह्रि (र्), गोविन्द (ई) और चन्द्र (-अनुस्वार) -से युक्त हो तो श्रीबीज-‘श्री’ कहा गया है | इन दोनों बीजोंसे युक्त होनेपर अष्टादशाक्षर-मन्त्र (ह्रीं श्रीं क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा) बीस अक्षरोंका हो जाता है । शालग्राममें, मणिमें, यन्त्रमें, मण्डलमें तथा प्रतिमाओंमें ही सदा श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये; केवल भूमिपर नहीं । जो इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी आराधना करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। बीस अक्षरवाले मन्त्रके ब्रह्मा ऋषि हैं | छन्दका नाम गायत्री है । श्रीकृष्ण देवता हैं; क्लीं बीज है और विद्वान्‌ पुरुषोंने स्वाहाको शक्ति कहा है । तीन, तीन, चार, चार, चार तथा दो मन्त्राक्षरोंद्वारा षडड़-न्यास करे । मूलमन्त्रसे व्यापक न्यास करके मन्त्रसे सम्पुटित मातृका वर्णोका उनके नियत स्थानोंमें एकाग्रतापूर्वक की न्यास करे । फिर दस तत्त्वोंका न्यास करके मुल्मन्त्रद्वारा व्यापक करे । तदनन्तर देवभावकी सिद्धि (इष्टदेवके साथ तन्मयता) प्राप्त करनेके लिये मन्त्र-न्यास करे । मूर्तिपञ्जर नामक न्यास पूर्ववत्‌  करे । फिर षडङ्ग-न्यास करके हृदयकमलमें भगवान्‌ श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करे ।

   द्वारकापुरीमें सहस्त्रों सूर्योके समान प्रकाशमान सुन्दर महलों और बहुतेरे कल्पवृक्षोंसे घिरा हुआ एक मणिमय मण्डप है, जिसके खंभे अग्रिके समान जाज्वल्यमान रत्नोंके बने हुए हैं । उसके द्वार, तोरण और दीवारें सभी प्रकाशमान मणियोंद्वारा निर्मित हैं । वहाँ खिले हुए सुन्दर पुष्पोंके चित्रोंसे सुशोभित चँदोवोंमें मोतियोंकी झालरें लटक रही हैं । मण्डपका मध्यभाग अनेक प्रकारके रत्नोंसे निर्मित हुआ है, जो पद्यराग मणिमयी भूमिसे सुशोभित है । वहाँ एक कल्पवृक्ष है, जिससे निरन्तर दिव्य रत्नोंकी धारावाहिक वृष्टि होती रहती है । उस वृक्षके नीचे प्रज्वलित रत्नमय प्रदीपोंकी पड़क्तियोंसे चारों ओर दिव्य प्रकाश छाया रहता है । वहीं मणिमय सिंहासनपर दिव्य कमलका आसन है, जो उदयकालीन सुर्यके समान अरुण प्रभासे उद्धासित हो रहा है । उस आसनपर विराजमान भगवान्‌ श्रीकृष्णका चिन्तन करे, जो तपाये हुए सुवर्णके समान तेजस्वी हैं । उनका प्रकाश समानरूपसे सदा उदित रहनेवाले कोटि-कोटि चन्द्रमा, सूर्य और विद्युतके समान है । वे सर्वाङ्गसुन्दर, सौम्य तथा समस्त आभूषणोंसे विभूषित हैं । उनके श्रीअङ्गोंपर पीताम्बर शोभा पाता है | उनके चार हाथ क्रमश: शङ्ख, चक्र, गदा और पद्यसे सुशोभित हैं । वे पल्लवकी छविको छीन लेनेवाले अपने बायें चरणारविन्दके अग्रभागसे कलशका स्पर्श कर रहे हैं; जिससे बिना किसी आघातके रत्नमयी धाराएँ उछलकर गिर रही हैं | उनके दाहिने भागमें रुक्मिणी और वामभागमें सत्यभामा खड़ी होकर अपने हाथोंमें दिव्य कलश ले उनसे निकलती हुई रत्नराशिमयी जलधाराओंसे उन (भगवान्‌ श्रीकृष्ण)-के मस्तकपर अभिषेक कर रही हैं | निग्रजिती (सत्या) और सुनन्दा ये उक्त देवियोंके समीप खड़ी हो उन्हें एकके बाद दूसरा कलश अर्पण कर रही हैं | इन दोनोंको क्रमश: दायें और वामभागमें खड़ी हुई मित्रविन्दा और लक्ष्मणा कलश दे रही हैं और इनके भी दक्षिण वामभागमें खड़ी जाम्बवती और सुशीला रत्नमयी नदीसे रत्नपूर्ण कलश भरकर उनके हाथोंमें दे रही हैं । इनके बाह्मभागमें चारों ओर खड़ी हुई सोलह सहस्त्र श्रीकृष्णवल्लभाओंका ध्यान करे, जो सुवर्ण एवं रत्नमयी धाराओंसे युक्त कलशोंसे सुशोभित होरही हैं । उनके बाह्यभागमें आठ निधियाँ हैं, जो धनसे वहाँ वसुधाको भरपूर किये देती हैं । उनके बाह्यभाग में सब वृष्णिवंशी विद्यमान हैं और पहलेकी भाँति स्वर आदि भी हैं ।

   इस प्रकार ध्यान करके पाँच लाख जप करे और लाल कमलोंद्वारा दशांश होम करके पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर भगवान्‌का पूजन करे।

   पूर्ववत्‌ पीठकी पूजा करनेके पश्चात्‌ मूलमन्त्रसे मूर्तिकी कल्पना करके उसमें भक्तिपूर्वक भगवान्‌ श्रीकृष्णका आवाहन करे और उसमें पूर्णताकी भावनासे पूजा करे । आसनसे लेकर आभूषणतक भगवान्‌को अर्पण करके फिर न्यासक्रमसे आराधना करे | सृष्टि, स्थिति, षडङ्ग, किरीट, कुण्डलद्वय, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्य, वनमाला, श्रीवस्त  तथा कौस्तुभ-इन सबका गन्ध-पुष्पसे पूजन करके श्रेष्ठ वैष्णव मूलमन्त्रद्वारा छः कोणोंमें छः अङ्गोंका और पूर्वादि दलोंमें क्रमश: वासुदेव आदि तथा कोणोंमें शान्ति आदिका क्रमश: पूजन करे । तत्पश्चात्‌ श्रेष्ठ साधक दलोंके अग्रभागमें आठों पटरानियोंका पूजन करे । तदनन्तर सोलह हजार श्रीकृष्णपत्नियोंकी एक ही साथ पूजा करे । इसके बाद इन्द्र, नील, मुकुन्द, कराल, आनन्द, कच्छप, शङ्ख और पद्म-इन आठ निधियोंका क्रमश: पूजन करे । उनके बाह्मभागमें इन्द्र आदि आयुधोंकी पूजा करे इस प्रकार सात आवरणोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण आदरपूर्वक पूजन करके दही, खाड़ और घी मिले हुए दुग्धमिश्रित अन्नका नैवेद्य लगाकर उन्हें तृप्त करे | तदन्तर दिव्योपचार समर्पित करके स्तुति और नमस्कारके पश्चात् परिवारगणों (आवरण देवताओं)-के सतः भगवान् केशवका अपने हृदयमें विसर्जन करे । भगवानको अपनेमें बिठाकर भगवत्स्वरूप आत्माका पूजन विद्वान् पुरुष तन्मय होकर विचरे । रत्नाभिषेकयुक्त ध्यानमें  वर्णित भगवत्स्वरुपकी पूजा बीस अक्षरवाले मन्त्रके आश्रित है । इस प्रकार जो मन्त्रकी आराधना करता है, वह समृद्धिका आश्रय होता है। जो जप, होम, पूजन और ध्यान करते हुए उक्त मन्त्रका जप करता है, उसका घर रत्नों, सुवर्णों तथा धन-धान्योंसे निरन्तर परिपूर्ण होता रहता है । यह विशाल पृथ्वी उसके हाथमें आ जाती है और वह सब  प्रकारके शस्योंसे सम्पन्न होती है । साधक पुत्रों और मित्रोंसे भरा-पूरा रहता है और अन्तमें परमगतिको प्राप्त होता   है । उक्त मन्त्रसे साधक इस प्रकारके अनेक प्रयोगोंका साधन कर सकता है । अब मैं सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाले मन्त्रराज दशाक्षरका वर्णन करता हूँ ।

   स्मृति (ग्) यह सद्य (ओ)-से युक्त हो और लोहित (प्) वामनेत्र (ई)-से संलग्न हो | इसके बाद ‘जनवल्लभा’ ये अक्षरसमुदाय हों । तत्पश्चात् पवन (य) हो और अन्तमें अग्निप्रिया (स्वाहा) हो तो यह (गोपीजनवल्लभाय स्वाहा) दशाक्षर मन्त्र कहा गया हैं | इसके नारद ऋषि, विराट छन्द, श्रीकृष्ण देवता, क्लीं बीज और स्वाहा शक्ति है । यह बात मनीषि पुरुषोंने बतायी है | आचक्र, विचक्र, सुचक्र, त्रैलोक्यरक्षणचक्र तथा असुरान्तकचक्र-इन शब्दों के अन्तमें ‘ड़े’ विभक्ति और स्वाहा पद जोड़कर इन पञ्चविध चक्रोंद्वारा पञ्चाङ्ग-न्यास करे१ | तदन्तर प्रणव-सम्पुटित मन्त्र पढ़कर तीन बार हाथोंमें व्यापक-न्यास करे | तत्पश्चात् मन्त्रके प्रत्येक अक्षरको अनुस्वारयुक्त करके उनके आदिमें प्रणव और अन्तमें नम: जोड़कर उनका दाहिने अंगूठेसे लेकर बायें अंगूठेतक अंगुलि-पर्वोमें न्यास करे१ । यह सृष्टिन्यास बताया गया है । अब स्थितिन्यास कहा जाता है। विद्वान्‌ पुरुष स्थितिन्यासमें बायीं कनिष्ठासे लेकर दाहिनी कनिष्ठातक पूर्वोक्तरूपसे मन्त्राक्षरोंका न्यास करे । संहारन्यासमें बायें अंगूठेसे दाहिने अंगूठेतक उक्त मन्त्राक्षरोंका न्यास करना चाहिये। यह संहारन्यास दोषसमुदायका नाश करनेवाला कहा गया है । शुद्धचेता ब्रह्मचारियोंको चाहिये कि वे स्थिति और संहारन्यास पहले करके अन्तमें सृष्टिन्यास करें; क्योंकि वह विद्या प्रदान करनेवाला है । गृहस्थोंके लिये अन्तमें स्थितिन्यास करना उचित है । (उन्हें सृष्टि और संहारन्यास पहले कर लेना चाहिये।) क्योंकि स्थितिन्यास काम्यादिस्वरूप (कामनापूरक) है । विरक्त मुनीश्वरोंको सर्वदा अन्तमें संहारन्यास करना चाहिये । तदनन्तर साधक पुन: स्थितिक्रमसे मन्त्राक्षरोंका अंगुलियोंमें न्यास करे । तत्पश्चात्‌ पुनः पूर्वोक्त-चक्रोंद्वारा हाथोंमें पञ्चाङ्ग-न्यास करे । (यथा-ॐ आचक्राय स्वाहा अङ्गुष्टाभ्यां नम: । ॐ विचक्राय स्वाहा तर्जनीभ्यां नम: । ॐ  सुचक्राय स्वाहा मध्यमाध्यां नम: । ॐ त्रैलोक्यरक्षणचक्राय स्वाहा अनामिकाभ्यां नम: । ॐ असुरान्तकचक्राय स्वाहा कनिष्ठिकाभ्यां नम:) तदनन्तर विद्वान्‌ पुरुष मूलमन्त्रसे सम्पुटित अनुस्वारयुक्त मातृका वर्णोंका मातृकान्यासके स्थलोंमें विनीतभावसे न्यास करे । उसके बाद प्रणवसम्पुटित मूलमन्त्रका उच्चारण करके व्यापक न्यास करे। तत्पश्चात्‌ पूर्वोक्त मूर्तिपञ्जर नामक न्यास करे । उसके बाद क्रमश: दशाङ्ग-न्यास और पञ्चाङ्ग-न्यास करे । दशाङ्ग-न्यासको विधि इस प्रकार है-हृदय, मस्तक, शिखा, सर्वाङ्ग, सम्पूर्ण दिशा, दक्षिणापार्श्व, वामपार्श्व, कटि, पृष्ठ तथा मूर्धा-इन अङ्गोंमें श्रेष्ठ वैष्णवमन्त्रके एक-एक अक्षरका न्यास करे । फिर एकाप्रचित्त हो पूर्वोक्त चक्रोंद्वारा पुन: पूर्ववत्‌ पञ्चाङ्ग-न्यास करे । इसके सिवा अष्टादशाक्षरमन्त्रके लिये बताये हुए अन्य प्रकारके न्यासोंका भी यहाँ संग्रह कर लेना चाहिये । तदनन्तर विद्वान पुरुष किरीट मन्त्रसे व्यापक-न्यास करे । फिर श्रेष्ठ साधक वेणु और बिल्व आदिकी मुद्रा दिखाये । फिर सुदर्शन मन्त्रसे दिग्बन्ध करे। अङ्गुष्ठको छोड़कर शेष अंगुलियाँ यदि सीधी रहें तो यह हृदयमुद्रा कही गयी है । शिरोमुद्रा भी ऐसी ही होती है। अङ्गुष्ठको नीचे करके जो मुट्ठी बाँधी जाती है, उसका नाम शिखामुद्रा है । हाथकी अंगुलियोंको फैलाना यह वरुणमुद्रा कही गयी है । वाणकी मुट्ठीकी तरह उठी हुई दोनों भुजाओंके अङ्गुष्ठ और तर्जनीसे चुटकी बजाकर उसकी ध्वनिको सब ओर फैलाना, इसे अस्त्रमुद्रा कहा गया है । तर्जनी और मध्यमा-ये दो अंगुलियाँ नेत्रमुद्रा हैं। (जहाँ तीन नेत्रका न्यास करना हो, वहाँ तर्जनी, मध्यमाके साथ अनामिका अंगुलिको भी लेकर नेत्रत्रयका प्रदर्शन कराया जाता है ।) बायें हाथका औँगूठा ओष्ठमें लगा हो । उसकी कनिष्टिका अंगुली दाहिने हाथके अंगूठेसे सटी हो, दाहिने हाथकी कनिष्ठिका फैली हुई हो और उसकी तर्जनी, मध्यमा और अनामिका अंगुलियाँ कुछ सिकोड़कर हिलायी जाती हों तो यह वेणुमुद्रा कही गयी है । यह अत्यन्त गुप्त होनके साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत प्रिय है। वनमाला, श्रीवत्स और कौस्तुभ नामक मुद्राएँ प्रसिद्ध हैं; अत: उनका वर्णन नहीं किया जाता है । बायें अंगूठेको ऊर्ध्वमुख खड़ा करके उसे दाहिने हाथके अंगूठेसे बाँध ले और उसके अग्रभागको दाहिने हाथकी अंगुलियोंसे दबाकर फिर उन अंगुलियोंको वायें हाथकी अंगुलियोंसे खूब कसकर बाँध ले और उसे अपने हृदयकमलमें स्थापित करे । साथ ही कामबीज (क्लीं)-का उच्चारण करता रहे । मुनीश्वरोंने उसे परम गोपनीय बिल्वमुद्रा कहा हैं। यह सम्पूर्ण सुखोंकी प्राप्ति करानेवाली है। मन, वाणी और शरीरसे जो पाप किया गया हो, वह सब इस मुद्राके ज्ञानमात्रसे नष्ट हो जायगा । मन्त्रका ध्यान, जप और पूर्वोक्तरूपसे त्रिकाल पूजन करना चाहिये । दशाक्षर तथा अष्टादशाक्षर आदि सब मन्त्रोंमें एक  एक ही क्रम बताया गया है । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध होनेपर मन्त्रोपासक उससे नाना प्रकारके लौकिक अथवा पारलौकिक प्रयोग कर सकता है ।

   चेचक, फोड़े या ज्वर आदिसे जब जलन और मुर्च्छां हो रही हो तो उक्तरूपसे ही श्रीकृष्णका ध्यान करके रोगीके मस्तकके समीप मन्त्र-जप करे । इससे ज्वरग्रस्त मनुष्य निश्चय ही उस ज्वरसे मुक्त हो जाता है । इसी प्रकार पूर्वोक्त ध्यान करके अग्रिमें भगवान्‌की पूजा करे और गुरुचिके चार-चार अंगुलके टुकड़ोंद्वारा दस हजार आहुति दे तो ज्वरकी शान्ति हो जाती है । ज्वरसे पीड़ित मनुष्यके ज्वरसे शान्तिके लिये वाणोंसे छिदे हुए भीष्मपितामहका तथा संताप दूर करनेवाले श्रीहरिका ध्यान करके रोगीका स्पर्श करते हुए मन्त्रजप करे। सान्दीपनि मुनिको पुत्र देते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करके पूर्वोक्त रूपसे गुरुचिके टुकड़ेसे दस हजार आहुति दे। इससे अपमृत्युका निवारण होता हैं । जिसके पुत्र मर गये थे ऐसे ब्राह्मणकों उसके पुत्र अर्पण करते हुए अर्जुनसहित श्रीकृष्णका ध्यान करके एक लाख मन्त्र-जप करे । इससे पुत्र-पौत्र आदिकी वृद्धि होती है । घी, चीनी और मधुमें मिलाये हुए पुत्रजीवके फलोंसे उसीकी समिधाद्वारा प्रज्वयलित हुई अग्निमें दस हजार आहुति देनेपर मनुष्य दीर्घायु पुत्र पाता है । दुधैले वृक्षके काढ़ेसे भरे हुए कलशकी रातमें पूजा करके प्रात:काल दस हजार मन्त्र जपे और उसके रसके जलसे स्त्रीका अभिषेक करे । बारह दिनोंतक ऐसा करनेपर वन्ध्या स्त्री भी दीर्घायु पुत्र प्राप्त कर लेती हैं । पुत्रकी इच्छा रखनेबाली स्त्री प्रात:काल मौन होकर पीपलके पत्तेके दोनेमें रखे हुए जलको एक सौ आठ बार मन्त्र जपसे अभिमन्त्रिति कराकर पीये । एक मासतक ऐसा करके बन्ध्या स्त्री भी समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न पुत्र प्राप्त कर लेती है । बेरके वृक्षोंसे भरे हुए शुभ एवं दिव्य आश्रममें स्थित हो अपने करकमलोंसे घंटाकर्णके शरीरका स्पर्श करते हुए श्रीकृष्णका ध्यान करके घी, चीनी और मधु मिलाये हुए तिलोंसे एक लाख आहुति दे । ऐसा करनेसे महान्‌ पापी भी तत्काल पवित्र हो जाता है । पारिजात-हरण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णका ध्यान करके एक लाख मन्त्र जपे । जो ऐसा करता है, उसकी सर्वत्र विजय होती है । पराजय कभी नहीं होती है । श्रेष्ठ मनुष्यको चाहिये कि वह पार्थको गीताका उपदेश करते हुए हाथमें व्याख्यानकी मुद्रासे युक्त रथारूढ़ श्रीकृष्णका ध्यान करे । उस ध्यानके साथ मन्त्र जपे। इससे धर्मकी वृद्धि होती है । मधुमें सने हुए पलाशके फूलोंसे एक लाख आहुति दे । इससे विद्याकी प्राप्ति होती है । राष्ट्र, पुर, ग्राम, वस्तु तथा शरीरकी रक्षाके लिये विश्वरूपधारी श्रीकृष्णका ध्यान करे-उनकी कान्ति उदयकालीन करोड़ों सूर्योंके समान प्रकाशमान है । वे अग्नि एवं सोमस्वरूप हैं, सच्चिदानन्दमय हैं, उनका तेज तपाये हुए स्वर्णके समान है, उनके तेज तपाये हुए स्वर्णके समान है, उनके मुख और चरणारविन्द सूर्य और अग्रिके सदृश प्रकाशित हो रहे हैं, वे दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं । उन्होंने नाना प्रकारके आयुध धारण कर रखे हैं । सम्पूर्ण आकाशको वे ही अवकाश दे रहे हैं । इस प्रकार ध्यान करके एकापग्रचित हो एक लाख मन्त्र-जप करे । इससे पूर्वोक्त सब वस्तुओंकी रक्षा होती है । जो श्रेष्ठ वैष्णव सद्गुरुसे दीक्षा लेकर उक्त विधिसे श्रीकृष्णका पूजन करता है, वह अणिमा आदि आठ सिद्धियोंका स्वामी होता है । उसके दर्शनमात्रसे वादी हस्तप्रतिभ हो जाते हैं । वह घरमें हो या सभामें उसके मुखमें सदा सरस्वती निवास करती हैं । वह इस लोकमें नाना प्रकारके भोगोंका उपभोग करके अन्तमें श्रीकृष्णधामको जाता है। (ना० पूर्व० अध्याय ८०)

श्रीकृष्ण— सम्बन्धी विविध मन्त्रों तथा व्यास सम्बन्धी मन्त्रकी अनुष्ठानविधि

श्रीसनत्कुमारजी कहते हैं-मुनीश्वर ! अब मैं श्रीकृष्णसम्बन्धी मन्त्रोंके भेद बतलाता हूँ,  जिनकी आराधना करके मनुष्य अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेते हैं । दशाक्षर मन्त्रके तीन नूतन भेद हैं- हीं श्रीं क्लीं-इन तीन बीजोंके  साथ गोपीजनवल्लभाय स्वाहा यह प्रथम भेद है । श्रीं हीं क्लीं-इस क्रमसे बीज जोड़नेपर दूसरा भेद होता है ।       क्लीं हीं श्रीं-इस क्रमसे बीज-मन्त्र जोड़नेपर तीसरा भेद बनता है । इसके नारद ऋषि और गायत्री छन्द हैं तथा मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले गोविन्द श्रीकृष्ण इसके देवता हैं । इन तीनों मन्त्रोंका अङ्गन्यास  पूर्ववत्‌ चक्रोंद्वारा करना चाहिये । तत्पश्चात्‌ किरीटमन्त्रसे व्यापक-न्यास करे, फिर सुदर्शन-मन्त्रसे दिग्बन्ध करे । आदि मन्त्रमें बीस अक्षरवाले मन्त्रकी ही भाँति ध्यान-पूजन आदि करे । द्वितीय मन्त्रमें दशाक्षर-मन्त्रके लिये कहे हुए ध्यान-पूजन आदिका आश्रय ले । तृतीय मन्त्रमें विद्वान् पुरुष एकाग्रचित होकर श्रीहरिका इस प्रकार ध्यान करे-भगवान्‌ अपनी छ: भुजाओंमें क्रमश: शङ्ख, चक्र, धनुष, वाण, पाश तथा अड्कश धारण करते हैं और शेष दो भुजाओमें वेणु लेकर बजा रहे हैं । उनका वर्ण लाल है । वे श्रीकृष्ण साक्षात्‌ सूर्यरूपसे प्रकाशित होते हैं । इस प्रकार ध्यान करके बुद्धिमान् पुरुष पाँच लाख जप करे और घृतयुक्त खीरसे दशांश आहुति दे। इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर मन्त्रोपासक पुरुष उसके द्वारा पूर्ववत्‌ सकाम प्रयोग कर सकता है । श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णा गोविन्दाय स्वाहा यह बारह अक्षरोंका मन्त्र है। इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द और श्रीकृष्ण देवता हैं । पृथक्‌-पृथक् तीन बीजों तथा तीन, चार एवं दो मन्त्राक्षरोंसे षडङ्ग-न्यास करे । बीस अक्षरोंवाले मन्त्रकी भाँति इसके भी ध्यान, होम और पूजन आदि करने चाहिये । यह मन्त्र सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है ।

   दशाक्षर मन्त्र (गोपीजनवल्लभाय स्वाहा)-के आदिमें श्रीं हीं क्लीं तथा अन्तमें क्लीं हीं श्रीं जोड़नेसे षोडशाक्षर-मन्त्र बनता है । इसी प्रकार केवल आदिमें हो श्रीं जोड़नेसे बारह अक्षरोंका मन्त्र होता है । पूर्वोक्त चक्रोंद्वारा  इनका अङ्गन्यास करे, फिर भगवानका ध्यान करके दस लाख जप करे और घीसे दशांश होम करे । इससे ये दोनों मन्त्रराज सिद्ध हो जाते हैं । सिद्ध होनेपर ये मनुष्यों लिये सम्पूर्ण कामनाओं, समस्त सम्पदाओं तथा सौभाग्यको देनेवाले हैं । अष्टादशाक्षर-मन्त्रके अन्तमें क्लीं जोड़ दिया जाय तो वह पुत्र तथा धन देनेवाला होता   है । इस मन्त्रके नारद ऋषि, गायत्री छन्द और श्रीकृष्ण देवता हैं । क्लीं बीज कहा गया है और स्वाहा शक्ति मानी गयी है । छ: दीर्घ स्वरोंसे युक्त बीजमन्त्रद्वारा षडङ्ग-न्यास करे । ‘दायें हाथमें खीर और बायें हाथमें मक्खन लिये हुए दिगम्बर गोपीपुत्र श्रीकृष्ण मेरी रक्षा करें ।’  इस प्रकार ध्यान करके बत्तीस लाख मन्त्र जपे और प्रज्वलित अग्रिमें मिश्री मिलायी हुई खीरसे दशांश आहुति दे, तत्पश्चात्‌ पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर अष्टादशाक्षर-मन्त्रकी भाँति पूजन करे । कमलके आसनपर विराजमान श्रीकृष्णकी पूजा करके उनके मुखारविन्दमें खीर, पके केले, दही और तुरंतका निकाला हुआ माखन देकर तर्पण करे। पुत्रकी इच्छा रखनेवाला पुरुष यदि इस प्रकार तर्पण करे तो वह वर्षभरमें पुत्र प्राप्त कर लेता है । वह जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है,  वह सब उसे तर्पणसे ही प्राप्त हो जाती है ।

   वाक (ऐं), काम (क्लीं) ड़े विभक्त्यन्त कृष्ण शब्द (कृष्णाय) तत्पश्चात् माया (ह्रीं), उसके बाद गोविन्दाय  फिर रमा (श्रीं) तदनन्तर दशाक्षर मन्त्र (गोपीजनवल्लभाय स्वाहा) उद्धृत करे, फिर ह् और स् ये दोनों ओकार और विसर्गसे संयुक्त होकर अन्तमें जुड़ जाएँ तो (ऐं कलीं कृष्णाय ह्रीं गोविन्दाय श्रीं गोपीजनवल्लभाय स्वाहा ह्सों) बाईस अक्षरका मन्त्र होता है, जो वागीशत्व प्रदान करनेवाला है । इसके नारद ऋषि, गायत्री छन्द, विद्यादाता गोपाल देवता, क्लीं बीज और ऐं शक्ति है । विद्याप्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है । इसका ध्यान इस प्रकार है-जो वाम भागके ऊपरवाले हाथोंमें स्फटिक मणिकी मातृकामयी अक्षमाला धारण करते हैं । इसी प्रकार नीचेके दोनों शब्दब्रह्ममयी मुरली लेकर बजाते हैं, जिनके श्रीअङ्गोंमें गायत्री-छन्दमय पीताम्बर सुशोभित है, जो श्याम वर्ण कोमल-कान्तिमान्‌ मयूरपिच्छमय मुकुट धारण करनेवाले,  सर्वज्ञ तथा मुनिवरोंद्वारा सेवित हैं, उन श्रीकृष्णका चिन्तन करे । इस प्रकार लीला करनेवाले भुवनेश्वर श्रीकृष्णका ध्यान करके चार लाख मन्त्र जप करे और पलासके फूलोंसे दशांश आहुति देकर मन्त्रोपासक बीस अक्षरवाले मन्त्रके लिये कहे हुए विधानके अनुसार पूजन करे। इस प्रकार जो मन्त्रको उपासना करता है, वह वागीश्वर हो जाता है । उसके बिना देखे हुए शास्त्र भी गङ्गाकी लहरोंके समान स्वत: प्रस्तुत हो जाते हैं ।

   कृष्ण कृ ष्ण महाकृष्ण सर्वज्ञ त्वं प्रसीद मे । रमारमण विद्येश विद्यामाशु प्रयच्छ मे ॥ (हे कृष्ण ! हे कृष्ण! हे महाकृष्ण ! आप सर्वज्ञ हैं । मुझपर प्रसन्न होइये । हे रमारमण ! हे विद्येश्वर ! मुझे शीघ्र विद्या           दीजिये ।) यह तैंतीस अक्षरोंवाला महाविद्याप्रद मन्त्र है । इसके नारद ऋषि, अनुष्टुप् छन्द और श्रीकृष्ण देवता   हैं । मन्त्रके चारों चरणों और सम्पूर्ण मन्त्रसे पञ्चाङ्ग-न्यास करके श्रीहरिका ध्यान करे ।

ध्यान

दिव्योद्याने विवस्वत्प्रतिममणिमये मण्डपे योगपीठेमध्ये य: सर्ववेदान्तमयसुरतरो: संन्निविष्टो मुकुन्द: ।

वेदै: कल्पद्रुरूपै: शिखरिशतसमालम्बिकोशै श्चतुर्भि-र्न्यास्तर्कै: पुराणैः स्मृतिभिरभिवृतस्तादृशश्चामराद्यै: ||

दद्याद्विभ्रत्कराग्रैरपि दरमुरलिपुष्पबाणेक्षुचापा-नक्षस्पकपूर्णकुम्भौ  स्मरललितवपुर्दिव्यभूषाराग: ||

व्याख्यांवामे वितनन्‌ स्फुटरुचिरपदो वेणुना विश्वमात्रे शब्दब्रमहोभ्दवेन श्रियमरुणचिर्वल्ल्वीवल्लभो न: ||

(ना० पूर्व० ८२ | ३४-३५)

   एक दिव्य उद्यान है, उसके भीतर सूर्यके समान प्रकाशमान मणिमय मण्डप है, जहाँ सर्व वेदान्तमय कल्पवृक्षके  नोचे योगपीठ नामक दिव्य सिंहासन है, जिसके मध्यभागमें भगवान्‌ मुकुन्द विराजमान हैं । कल्पवृक्षरूपी चार वेद जिसके कोष सौ पर्वतोंको सहारा देनेवाले हैं, उन्हें घेरकर स्थित है । छत्र, चँवर आदिके रूपमें सुशोभित न्याय, तर्क, पुराण तथा स्मृतियोंसे भगवान्‌ आवृत  हैं | वे अपने हाथोंके अग्रभागमें शङ्ख, मुरली, पुष्पमय बाण और ईखके धनुष धारण करते हैं । अक्षमाला और भरे हुए दो कलश उन्होंने ले रखे  हैं; उनका दिव्य विग्रह कामदेवसे भी अधिक मनोहर है । वे दिव्य आभूषण तथा दिव्य अङ्गराग धारण करते हैं । शब्दब्रह्मसे प्रकट हुई तथा बायें हाथमें ली हुई वेणुद्वारा स्पष्ट एवं रुचिर पदका उच्चारण करते हुए विश्वमात्रमें विशद व्याख्याका विस्तार करते हैं । उनकी अङ्ग-कान्ति अरुण वर्णकी है, ऐसे गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण हमें लक्ष्मी प्रदान करें ।

   इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप कर और खीरसे दशांश आहुति दे । मन्त्रज्ञ पुरुष इसका पूजन आदि अष्टादशाक्षर मन्त्रकी भाँति करे।  नमो भगवते नन्दपुत्राय आनन्दवपुषे  गोपीजनवल्लभाय स्वाहा। यह अट्ठाईस अक्षरोंका मन्त्र है । जो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है ।

   नन्दपुत्राय श्यामलाङ्गाय बालवपुषे कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा। यह बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र है । इन दोनों मन्त्रोंके नारद ऋषि हैं, पहलेका उण्णिक्‌, दूसरेका अनुष्टुप्‌ छन्द है । देवता नन्दनन्दन श्रीकृष्ण   हैं । समस्त कामनाओंको प्राप्तिके लिये इसका विनियोग किया जाता है । चक्रोंद्वारा पञ्चाङ्ग-न्यास करे तथा हृदयादि अङ्गों, इन्द्रादि दिक्पालों और उनके वज्र आदि आयुधोंसहित भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये | फिर ध्यान करके एक लाख मन्त्र-जप और खीरसे दशांश हवन करे । इन सिद्ध मन्त्रोंद्वारा मन्त्रोपासक अपने अभीष्टकी सिद्धि कर सकता हैं । लीलादण्ड गोपीजनसंसक्तदोर्दण्ड बालरूप मेघश्याम भगवन्‌ विष्णो स्वाहा यह उन्तीस अक्षरेंका मन्त्र है । इसके नारद ऋषि, अनुष्टपू छन्द और ‘लीलादण्ड हरि’ देवता कहे गये हैं। चौदह, चार, चार, तीन तथा चार मन्त्राक्षरोंद्वारा क्रमश: पञ्चाङ्ग-न्यास करे ।

ध्यान

सम्मोहयंश्च निजवामकरस्थलीला-दण्डेन गोपयुवती:  परसुन्दरीश्

दिश्यात्रिजप्रियसखांसगदक्षहस्तोदेव: श्रीयं निहतकंस उरुक्रमो न: ॥

(ना० पूर्व ० ८१ | ५५)

   ‘जो अपने बायें हाथमें लिये हुए लीलादण्डसे भाँति-भाँतिके खेल दिखाकर परम सुन्दरी गोपाङ्गनाओंका मन मोहे लेते हैं, जिनका दाहिना हाथ अपने प्रिय सखाके कंधेपर है, वे कंसविनाशक महापराक्रमी भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमें लक्ष्मी प्रदान करें।’

   इस प्रकार ध्यान करके एक लाख जप और घी, चीनी, तथा मधुमें सने हुए तिल और चावलोंसे द्शांश होम करे । तत्पश्चात्‌ पूर्वोक्त पीठपर अङ्ग, दिक्पाल तथा आयुधोंसहित श्रीहरिका पूजन करे । जो प्रतिदिन आदरपूर्वक ‘लीलादण्ड हरि’ की आराधना करता है, वह सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित होता है और उसके घरमें लक्ष्मीका स्थिर निवास होता है । सद्य (ओ)-पर स्थित स्मृति (ग्) अर्थात्‌ ‘गो’, केशव (अ) युक्त तोय (व्) अर्थात्‌ ‘व’, धरायुग (ल्ल), भाय’, अग्रिवल्लभा (स्वाहा)-यह (गोवल्लभाय स्वाहा) मन्त्र सात अक्षरोंका है और सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है । इसके नास्द ऋषि, उण्णिक्‌ छन्द तथा गोवल्लभ श्रीकृष्ण देवता हैं । पूर्ववत्‌ चक्र-मन्त्रोंद्वारा  पञ्चङ्ग-न्यास करे ।

ध्यान

ध्येयो हरि: स कपिलागणमध्यसंस्थ-स्ता आह्रयन्‌ दधददक्षिणदो: स्थवेणुम्‌ ।

पाशं सयष्टिमपरत्र पयोदनील:पीताम्बरोअहिरिपुपिच्छकृतावतंस: ॥

(ना पूर्व० ८१। ६०)

   ‘जो कपिला गायोंके बीचमें खड़े हो उनको पुकारते हैं, बायें हाथमें मुरली और दायें हाथमें रस्सी और लाठी लिये हुए हैं, जिनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम है, जो पीतवस्त्र और मोर-पंखका मुकुट धारण करते हैं,  उन श्यामसुन्दर श्रीहरिका ध्यान करना चाहिये।’

   ध्यानके बाद, सात लाख मन्त्र-जप और गोदुग्धसे दशांश हवन करे । पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर पूजन करे । अङ्गोंद्वारा प्रथम आवरण होता है । द्वितीय आवरणमें-सुवर्ण-पिङ्गला, गौर-पिङ्गला, रक्त-पिङ्गला, गुड-पिङ्गला,वभ्रु-वर्णा, उत्तमा कपिला, चतुष्क-पिङ्गला तथा शुभ एवं उत्तम पीत-पिङ्गला-इन आठ गायोंके समुदायकी पूजा करके तीसरे और चौथे आवरणोंमें इन्द्रादि लोकेशों तथा वज्र आदि आयुधोंका पूजन करे |

   इस प्रकार पूजन करके मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर मन्त्रज्ञ पुरुष उसके द्वारा कामना-पूर्तिके लिये प्रयोग करे । जो प्रतिदिन गोदुग्धसे एक सौ आठ आहुति देता है, वह पंद्रह दिनमें ही गोसमुदायसहित मुक्त हो जाता है । दशाक्षर मन्त्रमें भी यह विधि है । नमो भगवते श्रीगोविन्दाय यह द्वादशाक्षर  मन्त्र कहा गया है । इसके नारद ऋषि माने गये हैं । छन्द गायत्री है और गोविन्द देवता कहे गये हैं । एक, दो, चार और पाँच अक्षरों तथा सम्पूर्ण  मन्त्रसे पञ्चाङ्ग-न्यास करे ।

ध्यान

ध्यायेत्‌  कल्पदुपूलाश्रितमणिविलसदिव्यसिंहासनस्थंमेघश्यामं पिशड्ञांशुकमतिसुभगं श्भुचेत्रे कराभ्याम्‌।

बिध्नाणं. गोसहस्रैवृंतममरपतिं  प्रौवहस्तैककुम्भ-प्रश्च्योतत्सौधधारास्त्रपितमश्िनवाम्भोजपत्राधनेत्रभू ॥

    ‘दिव्य कल्पवृक्षके नीचे मूलभागके समीप नाना प्रकारकी मणियोंसे सुशोभित दिव्य सिंहासनपर भगवान्‌ श्रीकृष्ण विराज रहे हैं । उनकी अङ्गकान्ति मेघके समान श्याम है, वे पीताम्बर धारण किये अत्यन्त सुन्दर लग रहे है | अपने दोनों हाथोंमें शङ्ख और बेंत ले रखे हैं | सहस्त्रों गायें उन्हें घेरकर खड़ी हैं | वे सम्पूर्ण देवताओंके प्रतिपालक हैं | एक प्रौढ़ व्यक्तिके हाथोंमें एक कलश है, उससे अमृतकी धारा झर रही है और उसीसे भगवान स्नान कर रहे हैं; उनके नेत्र नूतन विकासीत कमल-दलके समान विशाल एवं सुन्दर हैं | ऐसे श्रीहरिका ध्यान करना चाहिये |

   तत्पश्चात् बारह लाख मन्त्र जपे | फिर गोदुग्धसे दशांश होम करके पूर्ववत गोशालामें स्थित भगवानका पूजन करे | अथवा प्रतिमा आदिमें भी पूजा कर सकते हैं | पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर आवाहन और प्रतिष्ठा करे | तत्पश्चात् पहले गुरुदेवकी पूजा करके भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा करे | भगवानके पार्श्वभागमें रुक्मिणि औए सत्याभामाका, सामने इन्द्रका तथा पृष्ठभागमें सुरभीदेवका पूजन करके केसरोंमें अङ्गपूजा करे | फिर आठ दलोंमें कालिन्दी आदि आठ पटरनियोंकी पूजा करके पीठके कोणोंमें किङ्किणी और दाम१ (रस्सी) कि अर्चना करे | पृष्ठभागमें वेणुकी तथा सम्मुख श्रीवस्त एवं कौस्तुभकी पूजा करे | आठ दिशाओंमें स्थित पाञ्चजन्य, गदा, चक्र, वसुदेव, देवकी, नन्दगोप, यशोदा तथा गौओं और ग्वालोंसहित गोपिका-इन सबकी पूजा करे | उनके बाह्यभागमें इन्द्र आदि दिक्पाल तथा उनके भी वाह्यभागमें वज्र आदि आयुध हैं | फिर पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमश: कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शङ्कुकर्ण, सर्वनेत्र, समुख तथा सुप्रतिष्ठित-इन दिग्गजोंका पूजन करके विश्वक्-सेन तथा आत्माका पूजन करना चाहिये | जो मनुष्य एक या तीनों समय श्रीगोविन्दका पूजन करता है, वह चिरायु, निर्भय तथा धन-धान्यका स्वामी होत है | सद्य (ओ) सहित स्मृति (ग्) अर्थात् ‘गो’, दक्षिण कर्ण (उ) युक्त चक्री (क्) अर्थात् ‘कु’, धरा (ल)-इन अक्षरोंके पश्चात् ‘नाथाय’ पद और अन्तमें हृदय (नमः) यह-‘गोकुलनाथाय नमः, महामन्त्र आठ अक्षरोंका है | इसके ब्रम्हा ऋषि, गायत्री छन्द तथा श्रीकृष्ण देवता हैं | इसके दो-दो अक्षरों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे पञ्चाङ्गन्यास करे |

ध्यान

पञ्चवर्षमतिलोलमङ्गनेधावमानमतिचञ्चलेक्षणम् |

किङ्किणीबलयहारनूपुरैरज्जितं नमत गोपबालकम् || ८० ||

   ‘बाल गोपालकी पाँच वर्ष अवस्था है, वे अत्यन्त चपल गतिसे आँगनमें दौड़ रहे हैं, उनके नेत्र भी बड़े चञ्चल  हैं,  किङ्गणी, वलय, हार और नूपुर आदि आभूषण विभिन्न ङ्गोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं, ऐसे सुन्दर गोपबालकको  नमस्कार करो |’

   इस प्रकार ध्यान करके मन्त्रोपासक आठ लाख जप और पलाशकी समिधाओं अथवा खीरसे दशांश हवन करे । पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर मूलमन्त्रसे मूर्तिका संकल्प करके उसमें मन्त्रसाधक स्थिरचित हो भगवान्‌ श्रीकृष्णका आवाहन और पूजन करे । चारों दिशा-विदिशाओंमें जो केसर हैं, उनमें अङ्गोंकी पूजा करे । फिर दिशाओंमें वासुदेव, बलभ्द्र, प्रद्युम्र और अनिरुद्धका तथा कोणोंमें रुक्मिणी, सत्यभामा, लक्ष्मणा और जाम्बवतीका पूजन  करे | इनके बाह्यभागोंमें लोकेशों और आयुधोंकी पूजा करनी चाहिये | ऐसा करनेसे मन्त्र सिद्ध हो जाता है |

   तार (ॐ), श्री (श्रीं), भुवना (ह्रीं), काम (क्लीं), ड़े विभक्त्यन्त श्रीकृष्ण शब्द अर्थात् ‘श्रीकृष्णाय’ ऐसा ही गोविन्द पद (गोविन्दाय), फिर ‘गोपीजनवल्लभाय’ तत्पश्चात् तीन पद्या (श्रीं श्रीं श्रीं)-यह (ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय श्रीं श्रीं श्रीं) तेईस अक्षरोंका मन्त्र है | इसके ऋषि आदि भी पुर्वोक्त ही   हैं | सिद्ध गोपालका स्मरण करना चाहिये।

ध्यान

माधवीमण्डपासीनौ गरूडेनाभिपालितौ ।

दिव्यक्रीडासु निरतै रामकृणौ स्मरञ जपेत् ॥ ८७ ॥

 

   जो माधवीलतामय मण्डपमें बैठकर दिव्य क्रीडाओंमें तत्पर हैं, श्रीगरूडजी जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन श्रीबलराम तथा श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए मन्त्र-जप करना चाहिये।

   श्रेष्ठ वैष्णवोंको पूर्ववत्‌ पूजन करना चाहिये । चक्री (क्‌) आठवें स्वर (ऋ)-से युक्त हो और उसके साथ विसर्ग भी हो तो ‘कृ:’ यह एकाक्षर मन्त्र होता है। ‘कृष्ण’ यह दो अक्षरोंका मन्त्र है । इसके आदिमें क्लीं जोड़नेपर क्लीं कृष्ण यह तीन अक्षरोंका मन्त्र बनता है। वही ड़े विभक्त्यन्त होनेपर चार अक्षरेंका क्लीं कृष्णाय मन्त्र होता है । कृष्णाय नमःयह पञ्चाक्षर-मन्त्र है | ‘क्लीं सम्पुटित कृष्ण पद भी अपर पञ्चाक्षर-मन्त्र है; यथा-क्लीं कृष्णाय क्लीं | ‘गोपालाय स्वाहा यह पडक्षर-मन्त्र कहा गया है | क्लीं कृष्णाय स्वाहायह भी दूसरा षडक्षर-मन्त्र है | कृष्णाय गोविन्दाययह सप्ताक्षर-मन्त्र सम्पूर्ण सिद्धियोंकों देनेवाला हैं | श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय क्लीं’  यह दूसरा सप्ताक्षर-मन्त्र है । ‘श्रीं ह्रीं क्लीं कृष्णाय क्लीं’ यह दुसरा सप्ताक्षर-मन्त्र है | ‘कृष्णाय गोविन्दाय नमः’ यह दुसरा नवाक्षर-मन्त्र है | ‘क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय क्लीं’ यह भी इतर नवाक्षर-मन्त्र है | क्लीं ग्लौं क्लीं श्याममलाङ्गाय नमः’ यह दशाक्षर सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाला है | बालवपुशे कृष्णाय स्वाहा यह दूसरा दशाक्षर मन्त्र है | तदन्तर गोपीजनमनोहर श्रीकृष्णाका इस प्रकार ध्यान करे-

श्रीवृन्दाविपिनप्रतोलिषु नमत्संफुल्लवल्लीतती-प्व्न्तर्जालविघट्टनै: सुरभिणा वातेन संसेविते |

कालिन्दीपुलिने विहारिणमथो राधैकजीवातुकंवन्दे नन्दकिशोरमिन्दुवदनं स्त्रिग्धाम्बुदाडम्बरम् ||

(ना० पुर्व० ८१ | ९६)

   श्रीवृन्दावनकी गलियोंमें झुकी और फुली हुई लतावेलोंकी पङ्क्तियाँ फैली हुई हैं | उनके भीतर घुसकर लोट-पोट  करनेसे शीतल-मन्द वायु सुगन्धसे भरी गयी है | वह सुगन्धित वायु उस यमुना-पुलिनको सब ओरसे सुवासीट कर  रही है, जहाँ श्रीराधारानीके एकमात्र जीवनधन नागर नन्दकिशोर विचरण कर रहे हैं | उनका मुख चन्द्रमासे से भी अधिक मनोहर हिय और उनकी अङ्गकान्ति स्त्रिग्ध मेघोंकी श्याम मनोहर छविको छीने लेती है | मैं उन्हीं नटवर नन्दकिशोरकी वन्दना करता हूँ |

   मुनीश्वर ! इन मन्त्रोंकी पूजा पूर्वोक्त पद्धतिसे ही होती है, यहा जानना चाहिये |     

देवकीसुत गोविन्द वासुदेव जगत्पते |

देहि मे तनयं कृष्ण त्वामहं शरणं गतः ||१

(ना० पुर्व० ८१ | ९७-९८)

   यह बत्तीस अक्षरोंका मन्त्र है | इसके बाद ऋषि, गायत्री और अनुष्टुप् छन्द तथा पुत्रप्रदाता श्रीकृष्ण देवता   हैं | चरों पादों तथा सम्पूर्ण मन्त्रसे इसका अङ्ग–न्यास करे |

ध्यान

विजयेन युतो रथस्थित: प्रसमानीय समुद्रमध्यत: |

प्रददत्तनयान् द्विजन्मने स्मरणीयो वसुदेवनन्दन: ||

(ना० पुर्व० ८१ | १००)

   ‘जो अर्जुनके साथ रथपर बिठे हैं और क्षीरसागरसे लेकर ब्राहमणके मारे पुत्रको उन्हें वापस दे रहे हैं, उन वासुदेवनन्दन श्रीकृष्णका चिन्तन करना चाहिये |’

   इसका एक लाख जप और घी, चीनी तथा मधु-मेवा आदि मधुर पदार्थोंमें सने हुए तिलोंसे दस हजार होम  करे | पूर्वोक्त वैष्णवपीठपर अङ्ग, दिक्पाल तथा आयुधोंसहित श्रीकृष्णकी पूजा कर लेनेपर वनध्या स्त्रीके भी पुत्र उत्पन्न हो सकता है | ह्रीं हसः सोअहं स्वाहा’ यह  दुसरा अष्टाक्षर-मन्त्र है | इस पञ्चब्रह्मात्मक मन्त्रके ब्रहमा ऋषि, परमा गायत्री छन्द तथा ज्योति:स्वरुप परब्रह्म देवता कहे गये हैं | प्रणव बीज है और स्वाहा शक्ति कहि गयी है | ‘स्वाहा हृदयाय नमः | सोअहं शिरसे स्वाहा | हंस: शिखायै वषट् | हल्लेखा कवचाय हुम् | ॐ  नेत्राभ्यां वौषट् | ‘हरिहर’ अस्त्राय फट् | इस प्रकार अङ्ग-न्यास करे |

स ब्रह्मा स शिवो विप्र स हरिः सैव देवराट् |

स सर्वरूपः सर्वाख्य: सोअक्षर: परमः स्वराट् ||

(ना० पूर्व० ८१ | १०७)

   ‘विप्रवर ! वे श्रीकृष्ण ही ब्रह्मा हैं, वे ही शिव हैं, वे ही विष्णु और वे ही देवराज इन्द्र हैं । वे ही सब रूपोंमें हैं तथा सब नाम उन्हींके हैं । वे ही स्वयं प्रकाशमान अविनाशी परमात्मा हैं ।’

   इस प्रकार ध्यान करके आठ लाख जप और दशांश होम करे । इनकी पूजा प्रणवात्मक पीठपर अङ्ग और आवरणदेवताओंके साथ करनी चाहिये । नारद ! इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर साधक-शिरोमणि पुरूषकों ‘तत्वमसि’ आदि महावाक्योंका विकल्परहित ज्ञान प्राप्त होता है ।

   ‘क्लीं हृषीकेशाय नम: यह अशाक्षर-मन्त्र है । इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द और हृषीकेश देवता हैं । सम्पूर्ण मनोरथोंकी प्राप्तिक लिये इसका विनियोग किया जाता है । ‘क्लीं’ बीज है तथा ‘आय’ शक्ति कही गयी  है । बीजमन्त्रसे ही षडङ्ग-न्यास करके ध्यान करे । अथवा पुरुषोत्तमन मन्त्रके लिये कही हुई सब बातें इसके लिये भी समझनी चाहिये । इसका एक लाख जप तथा घृतसे दस हजार होम करे।  संमोहिनी कुसुमोंसे तर्पण करना सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्ति करानेवाला कहा गया है । श्रीं श्रीधराय त्रैलोक्यमोहनाय नम:यह चौदह अक्षरोंका मन्त्र है । इसके ब्रह्मा ऋषि, गायत्री छन्द, श्रीधर देवता, श्रीं बीज और ‘आय’ शक्ति है । बीजसे ही पडड़-न्यास करे । इसमें भी पुरुषोत्तम मन्त्रकी ही भाँति ध्यान-पूजन आदि कहे गये हैं । एक लाख जप और घीसे ही दशांश होमका विधान है । सुगन्धित श्वेत पुष्पोंसे पूजा और होम आदि करे । विप्रन्द्र ! ऐसा करनेपर वह साक्षात्‌ श्रीधरस्वरूप हो जाता हैअच्युतानन्त-गोविन्दाय नम: यह एक मन्त्र है और अच्युताय नम:‘, अनन्ताय नम:‘, गोविन्दाय नम:-ये तीन मन्त्र हैं । प्रथमके शौनक ऋषि और विराट छन्द है । शेष तीन मन्त्रोंके क्रमश: पराशर, व्यास और नारद ऋषि हैं । छन्द इनका भी विराट ही है । परब्रह्मस्वरूप श्रीहरि इन सब मन्त्रोंकें देवता हैं । साधक इनके बीज और शक्ति भी पूर्वोक्त ही समझे ।

ध्यान

शङ्खचक्रथरं देवं चतुर्बाहुं किरीटिनम्‌॥

सर्वैरप्यायुधैयुक्तिं गरुडोपरि  संस्थितम्‌ ।

सनकादिमुनीन्द्रैस्तु सर्वदेवैरुपासितम्‌ ॥

श्रीभूमिसहितं देवमुदयादित्यसब्रिभम्‌।

प्रातरुदयत्सहस्त्त्रांशुमण्डलोपमकुण्डलम्‌  ॥

सर्वलोकस्य रक्षार्थमनन्तं नित्यमेव हि ।

अभयं वरदं देवं प्रयच्छन्तं मुदान्वितम्‌ ॥

(ना० पूर्व० ८६। २०-२३)

   भगवान्‌ अच्युत शङ्ख और चक्र धारण करते हैं । वे दयुतिमान्‌ होनेसे ‘देव’ कहे गये हैं । उनके चार बाहें हैं । वे किरीटसे सुशोभित हैं । उनके हाथोंमें सब प्रकारके आयुध हैं । वे गरुड़की पीठपर बैठे हैं । सनक आदि मुनीश्वर तथा सम्पूर्ण देवता उनकी उपासना करते हैं । उनके उभय पाशर्वमें श्रीदेवी तथा भूदेवी हैं । वे उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी हैं । उनके कानोंके कमनीय कुण्डल प्रात:काल उगते हुए सूर्यदेवके मण्डलके समान अरुण प्रकाशसे सुशोभित हैं । वे वरदायक देवता हैं, सदा परमानन्दसे परिपूर्ण रहते हैं और सम्पूर्ण विश्वको रक्षाके लिये सदा ही सबको अभय प्रदान करते हैं । उनका कहीं किसी कालमें भी अन्त नहीं होता।’

   ‘इस प्रकार ध्यान करके एकाप्रचित्त वैष्णवपीठपर भगवान्‌की पूर्ववत्‌ पूजा करें । इनका प्रथम आवरण अङ्गोंद्वारा सम्पन्न होता हैं । चक्र, शङ्ख, गदा, खङ्ग, मुसल, धनुष, पाश तथा अङ्कुश-इनसे द्वितीय आवरण बनता है । सनकादि चार महात्मा तथा पराशर, व्यास, नारद और शौनकसे तृतीय आवरण होता है | लोकपालोंद्वारा चौथा आवरण पूरा होता है । (पाँचवें आवरणमें व्रज आदि आयुधोंकी पूजा होती हैं ।) इस मन्त्रका एक लाख जप और घृतसे दशांश हवन किया जाता है । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध हो जानेपर मन्त्रोपासक कामनापूर्तिके लिये मन्त्रका प्रयोग भी कर सकता है । बेलके पेड़के नोचे उसकी जड़के समीप बैठकर देवेश्वर भगवान्‌ विष्णुका ध्यान करते हुए रोगीका स्मरण करे और उसका स्पर्श करके दस हजार मन्त्र जपे । ब्रह्मन् ! वह स्पर्श करके, जप करके अथवा साध्यका मन-ही-मन स्मरण करके या मण्डल बनाकर रोगियोंकों रोगसे मुक्त कर सकता है ।

   बाल (व्‌), पवन (य्) ये दोनों अक्षर दीर्घ आकार और अनुस्वारसे युक्त हों और झिंटीश (एकार)-से युक्त जल (ब्) हो, तत्पश्चात्‌ अत्रि अर्थात्‌ दकार हो और उसके बाद ‘व्यासाय पदके अन्तमें हदय (नम:)-का प्रयोग हो तो यह (व्यां वेदव्यासाय नम:) अष्टाक्षर-मन्त्र बनता है । यह मन्त्र सबकी रक्षा करे। इसके ब्रह्मा ऋषि, अनुष्टपू छन्द, सत्यवतीनन्दन व्यास देवता, व्यां बीज और नम: शक्ति है। दीर्घस्वरोंसे युक्त बीजाक्षर ( व्यां व्यीं व्यूं व्यैं व्यौं व्यः)-द्वारा अङ्ग-न्यास करना चाहिये।

ध्यान

व्याख्यामुद्रिकया लसत्करतलं सद्योगपीठस्थितं

वामे जानुतले दधानमपरं हस्तं सुविद्यानिधिम्‌ ।

विप्रव्रातवृतं प्रसब्रपनसं. पाथोरुहाङ्गद्युतिं

पाराशर्यमतीव पुण्यचरितं व्यासं स्मरेत्सिद्धये                                                                                      

(ना पूर्व० ८१ ६३६)                                                                                                          

   ‘जिनका दाहिना हाथ व्याख्याकी मुद्रासे सुशोभित है, जो उत्तम योगपीठासनपर विराजमान हैं, जिन्होंने अपना बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रख छोड़ा है, जो उत्तम विद्याके भण्डार, ब्राह्मणसमूहसे घिरे हुए तथा प्रसन्नचित्त हैं, जिनकी अङ्गकान्ति कमलके समान तथा चरित्र अत्यन्त पुण्यमय है, उन पराशलन्दन वेदव्यासका सिद्धिके लिये चिन्तन करे । आठ हजार मन्त्र-जप और खीरसे दशांश होम करे । पूर्वोक्त पीठपर व्यासका पूजन करे । पहले अङ्गोंकी पूजा करनी चाहिये । पूर्व आदि चार दिशाओंमें क्रमश: पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तका तथा ईशान आदि कोणोंमें क्रमश: श्रीशुकदेव, रोमहर्षण, उम्रश्नवा तथा अन्य मुनियोंका पूजन करे । इनके बाहाभागमें इन्द्र आदि दिक्पालों और वज्र आदि आयुधोंकी पूजा करे । इस प्रकार मन्त्र सिद्ध कर लेनेपर मन्त्रोपासक पुरुष कवित्वशक्ति, सुन्दर संतान, व्याख्यान-शक्ति, कीर्ति तथा सम्पदाओंकी निधि प्राप्त कर लेता है |

अध्याय ६८ श्रीनारदजीको भगवान शंकरसे प्राप्त हुय युगक— शरणागति— मन्त्र, राधाकृष्ण युगलसहस्त्र— नाम— स्त्रोतका वर्णन

   सनत्कुमारजी कहते हैं-नारद ! क्या तुम जानते हो कि पूर्व-जन्ममें तुमने साक्षात्‌ भगवान्‌ शंकरसे युगल-मन्त्रका उपदेश प्राप्त किया था। श्रोकृष्ण-मन्त्रका रहस्य, जिसे तुम भूल चुके हो, स्मरण तो करो ।

   सूतजी कहते हैं-ब्राह्मणो ! परम बुद्धिमान्‌ सनत्कुमारजीके द्वारा ऐसा कहनेपर देवर्षि नारदने ध्यानमें स्थित हो अपने पूर्व-जन्मके चिरन्तन चरित्रको शीघ्र जान लिया । तब उन्होंने मुखसे आन्तरिक प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा-‘भगवन्‌ ! पूर्व-कल्पका और वृत्तान्त तो मुझे स्मरण हो आया है; परंतु युगल-मन्त्रका लाभ किस प्रकार हुआ, यह याद नहीं आता । ‘ महात्मा नारदका यह वचन सुनकर भगवान्‌ सनत्कुमारने सब बातें यथावत्‌-रूपसे बतलाना आरम्भ किया ।

   सनत्कुमारजी बोले-ब्रह्मन ! सुनो, इस सारस्वत कल्पसे पच्चीसवें कल्प पूर्वकी बात है, तुम कश्यपजीके पुत्र होकर उत्पन्न हुए थे । उस समय भी तुम्हारा नाम नारद ही था । एक दिन तुम भगवान्‌ श्रीकृष्णका परम तत्व पूछनेके लिये कैलास पर्वतपर भगवान् शिवके समीप गये । वहाँ तुम्हारे प्रश्न करनेपर, महादेवजीने स्वयं जिसका साक्षात्कार किया था, श्रीहरिकी नित्य-लीलासे सम्बन्ध रखनेवाले उस परम रहस्यका तुमसे यथार्थरूपमें वर्णन किया । तब तुमने श्रीहरिकी नित्य-लीलाका दर्शन करनेके लिये भगवान्‌ शंकरसे पुन: प्रार्थना की । तब भगवान्‌ सदाशिव इस प्रकार बोले-गोपीजनवल्लभचरणाञ्छरणंप्रपद्ये यह मन्त्र है । इस मन्त्रके सुरभि ऋषि, गायत्री छ्न्द और गोपीवल्ल्भ भगवान् श्रीकृष्ण देवता कहे गये हैं, ’प्रपन्नोअस्मि’ ऐसा कहकर भगवानकी शरणगतिरूप भक्ति प्राप्त करनेके लिये इसका विनियोग बताया गया है । विप्रवर ! इसका सिद्धादि-शोधन नहीं होता है । इसके लिये न्यासकी कल्पना भी नहीं की गयी है । केवल इस मन्त्रका चिन्तन ही भगवान्‌की नित्य लीलाको तत्काल प्रकाशित कर देता है । गुरुसे मन्त्र ग्रहण करके उनमें भक्तिभाव रखते हुए अपने धर्मपालनमें संलग्न हो गुरुदेवकी अपने ऊपर पूर्ण कृपा समझे और सेवाओसे गुरुको संतुष्ट करे। साधुपुरुषोंके धर्मोकी, जो शरणागतोंके भयको दूर करनेवाले हैं, शिक्षा ले । इहलोक और परलोककी चिन्ता छोड़कर उन सिद्धिदायक धर्मांको अपनावे । ‘इहलोकका सुख, भोग और आयु पूर्वकर्मोंके अधीन हैं, कर्मानुसार उनकी व्यवस्था भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ही करेंगे।’, ऐसा दृढ़ विचार कर अपने मन और बुद्धिके द्वारा निरन्तर नित्यलीलापरायण श्रीकृष्णका चिन्तन करे । दिव्य अर्चाविग्रहोंके रूपमें भी भगवान्‌का आवतार होता है । अत: उन विग्रहोंकी सेवा-पूजा-द्वारा सदा श्रीकृष्णकी आराधना करे । भगवान्‌की शरण चाहनेवाले प्रपन्न भक्तोंको अनन्यभावसे उनका चिन्तन करना चाहिये और विद्वानोंकों भगवानका आश्रय रखकर देह-गेह आदिकी ओरसे उदासीन रहना चाहिये । गुरुकी अवहेलना, साधु-महात्माओंकी निन्‍दा, भगवान्‌ शिव और विष्णुमें भेद करना, वेदनिन्दा, भगवन्नामके बलपर पापाचार करना, भगवन्नामकी महिमाकों अर्थवाद समझना, नाम लेनेमें पाखण्ड फैलाना, आलसी और नास्तिककों भगवन्नामका उपदेश देना, भगवन्नामकों भूलना अथवा नाममें आदरबुद्धि न होना-ये (दस) बड़े भयानक दोष हैं । वत्स! इन दोषोंको दूरसे ही त्याग देना चाहिये१ । मैं भगवान्‌की शरणमें हूँ, इस भावसे सदा हृदयस्थित श्रीहरिका चिन्तन करे और यह विशास रखे कि वे भगवान्‌ ही सदा मेरा पालन करते हैं और करेंगे । भगवान्‌से यह प्रार्थना करे-‘राधानाथ ! मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा आपका हूँ । श्रीकृष्णवल्लभे ! मैं तुम्हारा ही हूँ । आप ही दोनों मेरे आश्रय हैं । ‘मुनिश्रेष्ठ ! श्रीहरिके दास, सखा, पिता-माता और प्रेयसियाँ-सब-के-सब नित्य हैं; ऐसा महात्मा पुरुषोंको चिन्तन करना चाहिये । भगवान्‌ श्यामसुन्दर प्रतिदिन वृन्दावन तथा व्रजमें आते-जाते और सखाओंके साथ गौएँ चराते हैं । केवल असुर-विध्वंसकी लीला सदा नहीं होती । श्रीहरिके श्रीदामा आदि बारह सखा कहे गये हैं तथा श्रीराधा-रानीकी सुशीला आदि बत्तीस सखियाँ बतायी गयी हैं । वत्स ! साधकको चाहिये वह अपनेको श्यामसुन्दरकी सेवाके सर्वधा अनुरूप समझे और श्रीकृष्णसेवाजनित सुख एवं आनन्दसे अपनेकों अत्यन्त संतुष्ट अनुभव करे । प्रात: काल ब्राह्ममुहूर्तसे लेकर आधी राततक समयानुरूप सेवाके द्वारा दोनों प्रिया-प्रियतमकी परिचर्या करे । प्रतिदिन एकाग्रचित्त होकर उन युगल सरकारके सहस्र नामोंका पाठ भी करे । मुनीश्वर ! यह प्रपन्न भक्तोंके लिये साधन बताया गया है। यह मैंने तुम्हारे समक्ष गूढ तत्व प्रकाशित किया है |

   सनत्कुमारजी कहते हैं-नारद ! तब तुमने पुन: भगवान्‌ सदाशिवसे पूछा-‘प्रभो ! युगलसहस्रनाम कौन-से हैं?   महामुने ! पूछनेपर भगवान्‌ शिवने युगलसहस्त्रनाम भी बतलाया । वह सब मुझसे सुनो । रमणीय वृन्दावनमें यमुनाजीके तटसे लगे हुए कल्पवृक्षका सहारा लेकर श्यामसुन्दर श्रीराधारानीके साथ खड़े हैं । महामुने ! ऐसा ध्यान करके युगलसहस्त्रनामका पाठ करे ।

   १. देवकीनन्दन:=देवकीको आनन्दित करनेवाले, २. शौरि:=शूरसेनके वंशज, ३. वासुदेव:=वसुदेव-पुत्र अथवा सबके भीतर निवास करनेवाले देवता, ४. बलानुज:=बलरामजीके छोटे भाई, ५. गदाग्रज:=गदके बड़े भाई, ६. कंसमोह:=अपनी अलौकिक शौर्यपूर्ण लीलाओंसे कंसको मोहित करनेवाले, ७. कंससेवकमोहन:=कंसकी सेवामें तत्पर असुर वीरोंको मोहित करनेवाले ।

   ८. भित्रार्गल:=जन्म लेनेके पश्चात्‌ गोकुल-गमनकी इच्छासे कंसके कारागारमें लगे हुए किंवाड़ोंकी अर्गला (सिटकिनी)-का भेदन करनेवाले, ९. भित्रलोह:=पिताके हाथों और पैरोंमें बँधी हुई लोहेकी हथकड़ी और बेड़ीको संकल्पमात्रसे तोड़ देनेवाले, १०. पितुवाह्म:=पिता वसुदेवके द्वाता सिरपर वहन करने योग्य शिशुरूप श्रीकृष्ण, ९९. पितृस्तुत:=अवतारकालमें पिताके द्वारा जिनकी स्तुति की गयी, वे श्रीकृष्ण, १२. मातृस्तुत:=माता देवकीके द्वारा जिनकी स्तुति की गयी वे, १३. शिवध्येय:=भगवान्‌ शंकरके ध्यानके विषय, १४. यमुनाजलभेदन:=गोकुल जाते समय वसुदेवजीको मार्ग देनेके लिये यमुनाजीके जलका भेदन करनेवाले ।

   १५. व्रजवासी=व्रजमें निवास करनेवाले, १६. व्रजानन्दी:=अपने शुभागमनसे सम्पूर्ण व्रजका आनन्द बढ़ानेवाले, १७. नन्दबाल:=नन्दजीके पुत्र, १८. दयानिधि:=दयाके समुद्र, १९. लीलाबाल:=लीलाके लिये बालरूपमें प्रकट, २०. पद्यनेत्र:=कमलसदृश नेत्रवाले, २१. गोकुलोत्सव:=गोकुलके लिये उत्सवरूप अथवा अपने जन्मसे गोकुलमें आनन्दोत्सवको बढ़ानेवाले, २२. ईश्वर:=सब प्रकारसे समर्थ ।

   २३. गोपिकानन्दन:=अपनी शैशवसुलभ चेष्टाओंसे यशोदा आदि गोपियोंको आनन्दित करनेवाले, २४. कृष्ण:=सच्चिदानन्दस्वरूप अधवा सबको अपनी ओर खींचनेवाले, २५. गोपानन्द:=गोपोंके लिये मूर्तिमान् आनन्द, २६. सताङ्गति:=साधु-महात्माओं तथा भक्तजनोंके आश्रय, २७. वकप्राणहर:=वकासुरके प्राण लेनेवाले, २८. विष्णु:=सर्वत्र व्यापक, २९. वकमुक्तिप्रद:= वकासुरको मोक्ष देनेवाले, ३०. हरि:=पाप, दुःख और अज्ञानको हर लेनेवाले ।

    ३१. बलदोलाशयशय:=शेषस्वरूप बलरामरूपी हिंडोलेपर शयन करनेवाले, ३२. श्यामल:=श्यामवर्ण, ३३. सर्वसुन्दर:=पूर्ण सौन्दर्यके आश्रय, ३४. पद्यनाभ:=जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ वे भगवान्‌ विष्णु, ३५. ह्रषीकेश:= इन्द्रियोंके नियन्ता और प्रेरक, ३६. क्रीडामनुजबालक:=लीलाके लिये मनुष्य-बालकका रूप धारण किये हुए ।

   ३७. लीलाविध्वस्तशकट:=अनायास ही चरणोंकि स्पर्शसे छकड़ेको उलटकर उसमें स्थित असुरका नाश करनेवाले, ३८. वेदमन्त्राभिषेचित:=यशोदा मैयाकी प्रेरणासे बालारिष्टनिवारणके लिये ब्राह्मणोंद्वारा वेद-मन्त्रसे अभिषिक्त, ३९. यशोदानन्दन:=यशोदा मैयाको आनन्द देनेवाले, ४०. कान्त:=कमनीय स्वरूप, ४१. मुनिकोटिनिषेवित:=करोड़ों मुनियोंद्वारा सेवित ।

   ४२. नित्यं मधुवनवासी:=मधुवनमें नित्य निवास करनेवाले, ४३. वैकुण्ठ:=वैकुण्ठधामके अधिपति विष्णु, ४४. सम्भव:= सबकी उत्पत्तिके स्थान, ४५॰ क्रतु:=यज्ञस्वरूप, ४६.रमापति:=लक्ष्मीपति, ४७. यदुपति:=युदवंशियोंके स्वामी, ४८. मुरारि:=मुर दैत्यके नाशक, ४९. मधुसूदन:=मधु नामक दैत्यको मारनेवाले |

   ५०. माधवः=यदुवंशान्त्गर्त मधुकुलमें प्रकट, ५१. मानहारी=अभिमान और अहंकारका नाश करनेवाले, ५२. श्रीपति:=लक्ष्मीके स्वामी, ५३. भूधर:=शेषनागरूपसे पृथ्वीको धारण करनेवाले, ५४. प्रभु:=सर्वसमर्थ, ५५. बृहद्वनमहालील:=महावनमें बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले, ५६. नन्दसूनु:=नन्दजीके पुत्र, ५७. महासनः=अनन्त शेषरूपी महान् आसनपर विराजनेवाले |

   ५८. तृणावर्तप्राणहारी=तृणावर्त नामक दैत्यको मारनेवाले, ५९. यशोदाविस्मयप्रदः=अपनी अभ्दुत लीलाओंसे यशोदा मैयाको आश्चर्यमें डाल देनेवाला, ६०. त्रैलोक्यवक्त्र:=अपने मुखमें तीनों लोकोंको दिखानेवाले, ६१. पद्याक्ष:=विकसित कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाले, ६२.पद्यहस्त:=हाथमें कमल धारण करनेवाले, ६३. प्रियङ्कर:=सबका प्रिय कार्य करनेवाले |

   ६४. ब्रह्मण्य:=ब्राह्मण-हितकारी, ६५. धर्मगोप्ता=धर्मकी रक्षा करनेवाले, ६६. भूपति:=पृथ्वीके स्वामी, ६७. श्रीधर:=वक्ष: स्थलमें लक्ष्मीको धारण करनेवाले, ६८.स्वराट्=स्वयंप्रकाश, ६९. अजाध्यक्ष:=ब्रह्माजीके स्वामी, ७०. शिवाध्य्क्ष:=भगवान् शिवके स्वामी, ७१.धर्माध्यक्ष:=धर्मके अधिपति, ७२. महेश्वर:=परमेश्वर |         

   ७३. वेदान्तवेद्य:=उपनिषदोंद्वारा जानने योग्य परमात्मा, ७४.ब्रह्मास्थः=वेदमें स्थित, ७५.प्रजापति:=स्मपूर्ण जीवोंके पालक, ७६.अमोघदृक्=जिनकी दृष्टि कभी चुकती नहीं ऐसे सर्वसाक्षी, ७७.गोपीकरावलम्बी=गोपियोंके हाथको पकड़कर नाचनेवाले, ७८. गोपबालाकसुप्रिय:=गोपबालकोंके अत्यन्त प्रियतम |

   ७९. बलानुयायि=बलरामजीका अनुकरण करनेवाले, ८०. बलवान्=बली, ८९. श्रीदामप्रिय:=श्रीदामाके प्रिय सखा, ८२. आत्मवान्=मनको वशमें करनेवाले, ८३. गोपीगृहाङ्गणरतिः= गोपियोंके घर और आगनमें खेलनेवाले, ८४. भद्र:=कल्याणस्वरुप, ८५. सुश्लोकमङ्गल:=अपने लोकपावन सुयशसे सबका मङ्गल करनेवाले |

   ८६. नवनीतहर:=माखनका हरण करनेवाले, ८७. बालः=बाल्यावस्थासे विभूषित, ८८. नवनीत-प्रियाशनः=मक्खन इनक प्यारा भोजन है, ८९. बालवृन्दी=गोप-बालकोंके समुदायको साथ रखनेवाले, ९०.मर्कवृन्दी=वानरोंके झुंडके साथ खेलनेवाले, ९१. चकिताक्ष:=आश्चर्ययुक्त चञ्चल नेत्रोंसे देखनेवाले, ९२. पलायित:=मैयाकी साँटीके भयसे भाग जानेवाले |

   ९३. यशोदातर्जित:=यशोदा मैयाकी डांट सहनेवाले, ९४. कम्पी=मैया मारेगी इस भयसे काँपनेवाले,                   ९५. मायारुदितशोभन:=लीलाकृत रुद्रनसे सुशोभित, ९६.दामोदर:=मैयाद्वारा रस्सीसे कमरमें बाँधे जानेवाले, ९७. अप्रमेयात्मा=जिसकी कोई माप नहीं ऐसे स्वरुपसे युक्त, ९८. दयालु:=सबपर दया करनेवाले,                  ९९. भक्तवत्सल:=भक्तोंसे प्यार करेनेवाले |

   १००. उलूखले सुबद्ध:=ऊखलमें अच्छी तरह बंधे हुए, १०१. नम्रशिरा=झुके मस्तकवाले, १०२. गोपीकदर्थित:=गोपीयोंद्वारा यशोदा मैयाके पास जिनके बालचापल्यकी शिकायत की गयी है वे, १०३. वृक्षभङ्गी=यमलार्जुन नामक वृक्षोंको भङ्ग करनेवाले, १०४. शोकभङ्गी=स्वयं सुरक्षित रहकर स्वजनोंका शोक भङ्ग करनेवाले, १०५. धनदात्मज-मोक्षण:=कुबेरपुत्रोंका उद्धार करनेवाले |

   १०६. देवर्षिवचनश्लाघी=देवर्षि नारदके वचनका आदर करनेवाले, १०७. भक्तवात्सल्यसागर:=भक्तवत्सलताके समुद्र, १०८. व्रजकोलाहलकर:=अपनी बालोचित क्रीड़ाओंसे व्रजमें कोलाहल मचा देनेवाले, १०९. व्रजानन्दविवर्धन:=व्रजवासियेंकि आनन्दकी वृद्धि करनेवाले ।

   ११०. गोपात्मा=गोपस्वरूप, १११. प्रेरक:=इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिको प्रेरणा देनेवाले, ११२. साक्षी=अनन्त विश्वके सम्पूर्ण पदार्थों और भावोंके द्रष्टा, ११३. वृन्दावननिवासकृत्‌=वृन्दावनमें निवासकरनेवाले, ११४. वत्सपाल:=बछड़ोंको पालनेवाले, ९१५. वत्सपति:=बछड़ोंके स्वामी एवं रक्षक, ९९६. गोपदारकमण्डन:=गोपबालकोंकी मण्डलीको सुशोभित करनेवाले ।

   १९७. बालक्रीड:=बालोचित खेल खेलने-वाले, ११८. बालरति:=गोपबालकोंसे प्रेम करने-वाले, ११९. बालक:=बालरूपधारी गोपाल, १२०. कनकाङ्गदी=सोनेका बाजूबंद पहननेवाले, १२९. पीताम्बर:=पीताम्बर पहननेवाले, १२२. हेममाली=सुवर्णमालाधारी, १२३. मणिमुक्ताविभूषण:=मणियों और मोतियोंके आभूषण धारण करनेवाले ।

   १२४. कि्ङ्कीणीकटकी=कटिमें क्षुद्र घण्टिका और हाथोंमें कड़े पहननेवाले, १२५. सूत्री=बाल्यावस्थामें सूतकी करधनी और बड़े होनेपर यज्ञोपवीत धारण करनेवाले; १२६. नूपुरी=पैरोंमें नूपुर पहननेवाले, १२७. मुद्रिकान्वित:=हाथकी अंगुलियोंमें अंगूठी धारण करनेवाले, १२८. वत्सासुर-प्रतिध्वंसी=वत्सासुरका विनाश करनेवाले, १२९. वकासुरविनाशन:=वकासुरका विनाश करनेवाले ।

   १३०. अघासुरविनाशी=अघासुर नामक सर्परूपघारी दैत्यका विनाश करनेवाले, १३९. विनिद्रीकृतबालक:=सर्पके विषसे मूर्च्छित गोपबालकोंको अपनी अमृतमयी दृष्टिसे जीवित करके जगानेवाले, १३२.आद्य:=सबके आदिकारण; १३३. आत्मप्रद:=प्रेमी भक्तोंके लिये अपने आत्मातकको दे डालनेवाले, १३४. सङ्गी=गोप-बालकोंकि सङ्ग रहनेवाले, १३५. यमुनातीरभोजन:=यमुनाजीके तटपर ग्वालबालोंके साथ भोजन करनेवाले ।

   १३६. गोपालमण्डलीमध्य:=ग्वालबालोंकी मण्डलीके बीचमें बैठनेवाले, ९३७. सर्वगोपाल-भूषण:=सम्पूर्ण ग्वालबालोंको विभूषित करनेवाले, १३८. कृतहस्ततलग्रास:=हथेलीमें अन्नका ग्रास लेनेवाले, ९३९. व्यञ्जनाश्रितशाखिक:=वृक्षोंपर भोजन-सामग्री एवं व्यञ्जन रखनेवाले ।

   १४०. कृतबाहुशृङ्गयष्टि:=हाथोंमें सींग और छड़ी धारण करनेवाले, १४४. गुञ्जालंकृतकण्ठक:=गुञ्जाकी मालासे अपने कण्ठको विभूषित करनेवाले, १४२. मयूरपिच्छमुकुट:=मोरपंखका मुकुट धारण करनेवाले, १४३.  वनमालाविभूषित:=वनमालासे अलंकृत ।

   १४४. गैरिकाचित्रितवपु:=गेरूसे अपने शरीरमें चित्रोंकी रचना करनेवाले, १४५. नवमेघवपुः=नवीन मेघ-घटाके समान श्याम शरीरवाले, ९४६. समर:=कामदेवस्वरूप, १४७. कोटिकन्दर्पलावण्य:=करोड़ों कामदेवोंके समान सौन्दर्यशाली, १४८. लसन्मकरकुण्डल:=सुन्दर मकराकृति कुण्डल धारण करनेवाले ।

   १४९. आजानुबाहु:=घुटनेतक लंबी भुजावाले, १५०. भगवान्=ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य-इन छहों ऐश्वर्योंसे पूर्णतया युक्त, १५१. निद्रारहितलोचन:=निद्राशून्य नेत्रोंवाले, १५२. कोटिसागरगाम्भीर्य:=करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, १५३. कालकाल:=कालके भी महाकाल, १५४. सदाशिव:=नित्य कल्याणस्वरूप |

    १५५. विरञ्चिमोहनवपु:=अपने अभ्दुतरूपसे ब्रह्माजीको भी मोहमें डालनेवाले, १५६. गोप- वत्सवपुर्धर:=ग्वालबालों और बछड़ोंका रूप धारण करनेवाले, १५७. ब्रह्माण्डकोटिजनक:=करोड़ों ब्रह्माण्डोंके उत्पादक, १५८.ब्रह्ममोहविनाशक:=ब्रह्माजीके मोहका नाश करनेवाले ।

   १५९. ब्रह्मा=स्वयं ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट, १६०. ब्रह्मेडित:=ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, १६९. स्वामी=सबके अधिपति, १६२. शक्रदर्पादिनाशन:=इन्द्रके घमंड आदिको नष्ट करनेवाले, १६३. गिरिपूजोपदेष्टा:=गोवर्धन पर्वतकी पूजाका उपदेश देनेवाले,१६४. धृतगोवर्धनाचल:=गोवर्धन पर्वतकों धारण करनेवाले ।

   १६५.पुरन्दरेडित:=इन्द्रके द्वारा स्तुत, १६६.पूज्य:=सबके लिये पूजनीय, १६७.कामधेनुप्रपूजित:=कामधेनुद्वारा पूजित, १६८. सर्वतीर्थाभिषिक्त:=सुरभिद्वारा सम्पूर्ण तीर्थोंके जलसे इन्द्रपदपर अभिषिक्त, १६९. गोविन्द:=गौओंके इन्द्र होनेपर गोविन्द नामसे प्रसिद्ध, ९७०. गोपरक्षक:=गोपोंकी रक्षा करनेवाले ।

   १७१.कालियार्तिकेर:=कालिय नागका दमनकरनेवाले, १७२. क्रूर:=दुष्टोंको दण्ड देनेके लिये कठोर, १७३. नागपत्नीरित:=नागपत्नियोंद्वारा स्तुत, १७४. विराट्=विराट पुरुष, १७५. धेनुकारि:=धेनुकासुरके शत्रु, १७६. प्रलम्बारि:=बलभद्ररूपसे प्रलम्ब नामक असुरका नाश करनेवाले, १७७. वृषासुरविमर्दन:=वृपभरूपधारी अरिष्टासुरका मर्दन करनेवाले ।

   १७८.मयासुरात्मजध्वंसी=मयासुरके पुत्र व्योमासुस्का नाश कलेवाले, १७९. केशिकण्ठविदास्क:=केशीका कण्ठ विदीर्ण करनेवाले, १८०. गोपगोप्ता=ग्वालोंकि रक्षक, १८१. दावाग़िपरिशोषक:=दावानलका शोषण करनेवाले ।

   १८२. गोप्कन्यावस्त्रहारी=गोपकुमारियोंके चीर हरण करनेवाले, १८३. गोपकन्यावरप्रद:=गोपकन्याओंकों वर देनेवाले, १८४. यज्ञपत्न्यन्नभोजी=यज्ञपत्नियोंके अन्न भोजन करनेवाले, ९८५. मुनिमानापहारक:=अपनेको मुनि माननेवाले ब्राह्मणोंके अभिमानको दूर करनेवाले ।

   १८६. जलेशमानमथन:=जलके स्वामी वरुणका मान मर्दन करनेवाले, १८७.नन्दगोपालजीवन:=अजगरसे छुड़ाकर नन्दगोपको जीवन देनेवाले, १८८. गन्धर्वशापमोक्ता=अजगररूपमें आये हुए गन्धर्व  (विद्याधर)-को शापसे छुड़ानेवाले, १८९. शङ्खडशिरोहर:=शङ्खचूड नामक गुह्कका मस्तक काट लेनेवाले ।

   १९०. वंशीवटी=वंशीवटके समीप लीला करनेवाले, १९१. वेणुबादी=वंशी बजानेवाले, १९२. गोपीचिन्तापहारक: गोपियोंको चिन्ताकों दूर करनेवाले, १९३. सर्वगोप्ता=सबके रक्षक, १९४. समाह्रान:=सबके द्वारा पुकारे जानेवाले, १९५. सर्वगोपीमनोरथ:=सम्पूर्ण गोपाङ्गनाओंके अभीष्ट ।

   १९६. व्यड्ग्यधर्मप्रवक्ता=व्यड्ग्योक्तिद्वारा धर्मका उपदेश देनेवाले, १९७. गोपीमण्डलमोहन:=गोपसुन्दरियोंके समुदायको मोहित करनेवाले, १९८. रासक्रीडारसास्वादी=रासक्रीडाके रसका आस्वादन करनेवाले, १९९. रसिक:=रसका अनुभव करनेवाले, २००. राधिकाधव:=श्रीराधाके प्राणनाथ ।

   २०१.किशोरीप्राणनाथ:=श्रीकिशोरी जी के प्राणवल्ल्भ, २०२. वृषभानुसुताप्रिय:=वृषभानु-नन्दिनीके प्यारे, २०३. सर्वगोपीजनानन्दी=सम्पूर्ण गोपीजनोंको आनन्द देनेवाले, २०४. गोपीजन विमोहन:=गोपाङ्गनाओंके मनको मोह लेनेवाले ।

   २०५. गोपिकागीतचरित:=गोपाङ्गनाओंद्वारा गाये हुए पावन चरित्रवाले, २०६. गोपीनर्तनलालस:=गोपियोंके  रासनृत्यकी अभिलाषा रखनेवाले, २०७. गोपीस्कन्धाश्रितकर:=गोपीके कंधेपर हाथ रखकर चलनेवाले, २०८. गोपिकाचुम्बनप्रिय:=यशोदा आदि मातृस्थानीय वात्सल्यवती गोपियोंके द्वारा किया जानेवाला मुखचुम्बन जिन्हें प्रिय है वे श्यामसुन्दर । 

   २०९. गोपिकामार्जितमुख:=गोपाज़नाएँ अपने अंश्वलसे जिनका मुख पोंछती हैं वे, २१०. गोपीव्यजनवीजित:=गोपियाँ जिन्हें पंखा डुलाकर आराम पहुँचाती हैं वे, २११.गोपिकाकेशसंस्कारी=गोपिकाके केशोंको सँबारनेवाले, २१२. गोपिकापुष्पसंस्तर:=गोपिकाका फूलोंसे शृङ्गार करनेवाले । २१३. गोपिकाह्रदयालम्बी=गोपीके हृदयका आश्रय लेनेवाले, २१४. गोपीवहनतत्पर:=गोपी (श्रीराधा)-को कंधेपर बिठाकर ढोनेके लिये प्रस्तुत, २१५. गोपिकामदहारी=गोपाड्नाओंके अभिमानको चूर्ण कसेवाले, २१६. गोपिकापरमार्जित:=गोपाङ्गनाओकों परम फलके रूपमें प्राप्त |

   २१७. गोपिकाकृतसल्लील:=रासलीलामें अन्तर्धान हो जानेपर गोपिकाओंने जिनकी पवित्र लीलाओंका अनुकरण किया था वे श्रीकृष्ण, २१८. गोपिकासंस्मृतप्रिय:=गोपिकाओंद्वारा निरन्तर चिन्तन किये जानेवालेम, प्रियतम, २१९. गोपिकावन्दितपद:=गोपाङ्गणाओंद्वारा वन्दित चरणोंवाले, २२०. गोपिकावशवर्तन:=गोपसुन्दरियोंकि वशमें   रहनेवाले ।

   २२१. राधापराजित:=श्रीराधारानीसे हार मान लेनेवाले, २२२. श्रीमान्‌=शोभाशाली, २२३. निकुञ्जेसुविहारवान्‌=वृन्दावनके कुञ्जमें सुन्दर लीला करनेवाले, २२४. कुञ्जप्रिय:=निकुञ्जके प्रेमी, २२५. कुञ्जवासी=कुञ्जमें निवास करनेवाले, २२६. वृन्दावनविकाशन:=वृन्दावनको प्रकाशित करनेवाले ।

   २२७. यमुनाजलसिक्ताङ्ग:=यमुनाजीके जलसे अभिषिक्त अङ्गोंवाले, २२८. यमुनासौख्यदायक:=यमुनाजीकों सुख देनेवाले, २२९. शशिसंस्तम्भन:=रासलीलाकी रात्रिमें चन्द्रमाकी गतिको रोक देनेवाले, २३०. शूर:=अखण्ड शौर्यसम्पन्न, २३१. कामी=प्रेमी भक्तोंसे मिलनेकी कामनावाले, २३२. कामबिमोहन:=अपनी दिव्य लोलाओंसे कामदेवकों विमोहित कर देनेवाले ।

   २३३. कामाद्य:=कामदेवके आदिकारण, २३४. कामनाथ:=कामके स्वामी, २३५. काममानसभेदन:=कामदेवके भी ह्रदयका भेदन करनेवाले, २३६. कामद:=इच्छानुरूप भोग देनेवाले, २३७. कामरूप:=भक्तजनोंको कामनाके अनुरूप रूप धारण करनेवाले, २३८. कामिनीकामसंचय:=गोपकामिनियोंके प्रेमका संग्रह करनेवाले ।

   २३९. नित्यक्रीड:=नित्य खेल करनेवाले, २४०. महालील:=महती लीला करनेवाले, २४९. सर्व:=सर्वस्वरूप, २४२. सर्वगत:=सर्वत्र व्यापक, २४३. परमात्मा=पखह्स्वरुप, २४४. पराधीश:=परमेश्वर, २४५. सर्वकारणकारण:=समस्त कारणोंकि भी कारण ।

   २४६. गृहीतनारदवचा:=नारदजीके वचनमाननेवाले, २४७. अक्रूरपरिचिन्तित:=ब्रजमें जाते हुए अक्रूरजीके द्वारा मार्गमें जिनका विशेषरूपसे चिन्तन किया गया, वे श्रीकृष्ण, २४८. अक्रूरबन्दितपद:=अक्रूरजीके द्वारा वन्दित चरणोंवाले, २४९. गोपिकातोषकारक:=भावी विरहसे व्याकुल हुई गोपाङ्गनाओंको सान्त्वना देनेवाले।

   २५०. अक्रूरवाक्यसंग्राही=अक्रूरजीके वचनोंको स्वीकार करनेवाले, २५१. मधुरावासकारण:=मथुरामें निवास करनेवाले, २५२. अक्रूरतापशमन:=अक्रूरजीका दु:ख दूर करनेवाले, २५३. रजकायु:=प्रणाशन:=कंसके धोबीकी आयुको नष्ट करनेवाले ।

   २५४. मथुरानन्ददायी=मथुरावासियोंको आनन्द देनेवाले, २५५. कंसवस्त्रविलुण्ठन:=कंसके कपड़ोंको लूट लेनेवाले, २५६. कंसवस्त्रपरीधान:=कंसके वस्त्र पहननेवाले, २५७. गोपवस्त्रप्रदायक:=ग्वालबालोंको वस्त्र देनेवाले ।

   २५८. सुदामगृहगामी=सुदामा मालीके घर जानेवाले, २५९. सुदामपरिपूजित:=सुदामा मालीके द्वारा पूजित, २६०. तन्तुवायकसम्प्रीत:=दर्जीके ऊपर प्रसन्न, २६१. कुब्जाचन्दनलेपन:=कुब्जाके घिसे हुए चन्दनको अपने श्रीअङ्गोमें लगानेवाले ।

   २६२. कुब्जारूपप्रद:=कुब्जाको सुन्दर रूप देनेवाले, २६३. विज्ञ:=विशिष्ट ज्ञानवान्, २६४. मुकुन्द:=मोक्ष देनेवाले, २६५. विष्टरश्रवा:=विस्तृत सुयश एवं कानोंवाले, २६६. सर्वज्ञ:=सब कुछ जाननेवाले, २६७. मथुरालोकी=मथुरानगरीका दर्शन करनेवाले, २६८. सर्वलोकाभिनन्दन:=सब लोगोंसे अभिनन्दन (सम्मान) पानेवाले ।

   २६९. कृपाकटाक्षदर्शी=कृपापूर्ण कटाक्षसे सबकी ओर देखनेवाले, २७०. दैत्यारि:=दैत्योंके शत्रु, २७१. देवपालक:=देवताओंके रक्षक, २७२. सर्वदु:खप्रशमन:=सबके सम्पूर्ण दु:खोंका नाश करनेवाले, २७३. धनुर्भङ्गी=धनुष तोड़नेवाले, २७४. महोत्सव:=महान्‌ उत्सवरूप ।

   २७५. कुवलयापीडहन्ता=कुबलयापीड नामक हाथीका वध करनेवाले, २७६. दन्तस्कन्ध:=हाथीके तोड़े हुए दाँतोंको कंधेपर धारण करनेवाले, २७७. बलाग्रणी=बलरामजीकों आगे करके चलनेवाले, २७८. कल्परूपधर:=विभिन्न लोगोंके लिये उनकी भावनाके अनुसार रूप धारण करनेवाले, २७९. धीर:=अविचल धैर्यसे सम्पन्न, २८०. दिव्यवस्त्रानुलेपन:= दिव्य वस्त्र तथा दिव्य अद्भराग धारण करनेवाले ।

   २८१. मल्लरूप:=कंसके अखाड़ेमें पहलवानके रूपमें उपस्थित, २८२. महाकाल:=महान्‌ कालरूप, २८३. कामरूपी=इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, २८४. बलान्वित:=अनन्त बलसम्पन्न, २८५. कंसत्रासकर:=कंसको भयभीत कर देनेवाले, २८६. भीम:=कंसके लिये भयंकर, २८७. मुष्टिकानत:=बलभद्ररूपसे मुष्टिकके जीवनका अन्त कर देनेवाले, २८८. कंसहा=कंसका वध करनेवाले ।

   २८९. चाणूरघ्न:=चाणूरका नाश करनेवाले, २९०. भयहर:=भय हर लेनेवाले, २९१. शलारि:=शलके शत्रु, २९२. तोशलान्तक:=तोशलका अन्त करनेवाले, २९३. वैकुण्ठवासी=विष्णुरूपसे वैकुण्ठधाममें निवास करनेवाले, २९४. कंसारि:=कंसके शत्रु, २९५. सर्वदु्ष्टनिषूदन:=सब दुष्टोंका संहार करनेवाले ।

   २९६. देवदुन्दुभिनिधोंषि=देव-दुन्दुभिघोषके कारण, २९७. पितृशोकनिवारण:=पिता-माता (वसुदेव-देवकी)-का शोक दूर करनेवाले, २९८. यादवेन्द्र:=यदुकुलके स्वामी, २९९. सतां नाथ:=सत्पुरुषोंके रक्षक, ३००. यादवारिप्रमर्दन:=यादवोंके शत्रुओंका मर्दन करनेवाले ।

   ३०९. शौरिशोकविनाशी=वसुदेवजीके शोकका नाश करनेवाले, ३०२. देवकीतापनाशन:=देवकीका संताप नष्ट करनेवाले, ३०३. उग्रसेनपरित्राता=उप्रसेनके रक्षक, ३०४. उग्रसेनाधिपूजीत:=उग्रसेनद्वारा पूजित ।

   ३०५. उग्रसेनाभिषेकी=उग्रसेनका राज्याभिषेक, ३०६. उग्रसेनदयापर:=उग्रसेनके प्रति दयाभाव बनाये रखनेवाले, ३०७. सर्वसात्वतसाक्षी=सम्पूर्ण यदुवंशियोंकी देख-भाल करनेवाले, ३०८. यदूनामभिनन्दन:=यदुवंशियोंको आनन्दित करनेवाले ।

   ३०९. सर्वमाथुरसंसेव्य:=सम्पूर्ण मथुरावासियोंद्वारा सेवन करने योग्य, ३१०. करुण:=दयालु, ३११. भक्तबान्धव:=भक्तोंके भाई-बन्धु, ३१२. सर्वगोपालधनद:=सम्पूर्ण ग्वालोंको धन देनेवाले, ३१३. गोपीगोपाललालस=गोपियों और ग्वालोंसे मिलनेके लिये उत्सुक रहनेवाले ।

   ३१४. शौरिदत्तोपवीती=वसुदेवजीके द्वारा उपनयन-संस्कारमें दिये हुए यज्ञोपवीतको धारण करनेवाले, ३१५. उग्रसेनदयाकर:=उग्रसेनपर दया करनेवाले, ३१६. गुरूभक्ता:=गुरु सान्दीपनिके प्रति भक्तिभावसे युक्त, ३९७. ब्रह्मचारी=गुरुकुलमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले, ३१८. निगपाध्ययने रत:=वेदाध्ययनपरायण ।

   ३१९. संकर्षणसहाध्यायी:=बलरामजीके सहपाठी, ३२०. सुदामसुहृत्‌=सुदामा ब्राह्मणके सखा, ३२१. विद्यानिधि:=विद्याके भण्डार, ३२२. कलाकोष:=सम्पूर्ण कलाओंके कोषागार, ३२३. मृतपुत्रप्रद:=मरे हुए गुरुपुत्रोंको यमलोकसे जीवित लाकर गुरुकी सेवामें अर्पित करनेवाले ।

   ३२४. चक्री=सुदर्शन चक्रधारी, ३२५. पाञ्जजनी=पाञ्चजन्य शङ्ख धारण करनेवाले, ३२६. सर्वनारकि-मोचन:=सम्पूर्ण नरकवासियोंका उद्धार करने-वाले, ३२७. यमार्चित:=यमराजद्वारा पूजित, ३२८. पर:= सर्वोत्कृष्ट, ३२९. देव:=द्युतिमान्‌, ३३०. नामोच्चारवश:=अपने नामके उच्चारणमात्रसे वशमें हो जानेवाले, ३३१. अच्युत:=अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले ।

   ३३२. कुब्जाविलासी=कुब्जाके कुबड़ेपनको मिटानेकी लीला करनेवाले, ३३३. सुभग:=पूर्ण सौभाग्यशाली, ३३४. दीनबन्धु:=दीन-दु:खियों और असहायोंके बन्धु, ३३५. अनूपम:=जिनके समान दूसरा कोई नहीं, ३३६. अक्रूरगृहगोप्ता:=अक्रूरके गृहकी रक्षा करनेवाले, ३३७. प्रतिज्ञापालक:=प्रतिज्ञाका पालन करनेवाले, ३३८. शुभ:= शुभस्वरूप ।

   ३३९. जरासन्धजयी=सत्रह बार जरासन्धको जीतनेवाले, ३४०. विद्वान्=सर्वज्ञ, ३४९. यवनान्त:=कालयवनका अन्त करनेवाले, ३४२. द्विजाश्रय:=द्विजोंके आश्रय, ३४३. मुचुकुन्दप्रियकर:=मुचुकुन्दका प्रिय करनेवाले, ३४४. जरासन्धपलायित:=अठारहवीं बारके युद्धमें जरासन्धके सामनेसे युद्ध छोड़कर भाग जानेवाले ।

   ३४५. द्वारकाजनक:=द्वारकापुरीको प्रकट करनेवाले, ३४६. गूढ:=मानवरूपमें छिपे हुए परमात्मा, ३४७. ब्रह्मण्य:=ब्राह्मणभक्त, ३४८. सत्यसंगर:=सत्यप्रतिज्ञ, ३४९. लीलाधर:=लीलाधारी, ३५०. प्रियकर:=सबका प्रिय करनेवाले, ३५१. विश्वकर्मा=बहुत प्रकारके कर्म करनेवाले, ३५२. यशप्रद:=दूसरोंको यश देनेवाले ।

   ३५३. रुक्मिणीप्रियसंदेश:=रुक्मिणीको प्रिय संदेश देनेवाले, ३५४. रुक्मिशोकविवर्धन:=रुक्मीका शोक बढ़ानेवाले, ३५५. चैद्यशोकालय:=शिशुपालके लिये शोकके भण्डार, ३५६. श्रेष्ठ:=उत्तम गुणसम्पन्न, ३५७. दुष्टराजन्यनाशन:=दुष्ट राजाओंका नाश करनेवाले |

   ३५८. रुक्मिवैरूप्यकरण:=रुक्मीके आधे बाल मुड़ाकर उसे कुरूप बना देनेवाले, ३५९. रुक्मिणीवचने रत:= रुक्मिणीके वचनका पालन करनेमें तत्पर, ३६०. बलभद्रवचोग्राही=बलभद्रजीकी आज्ञा माननेवाले, ३६१. मुक्तरुक्मी=रुक्मीको जीवित छोड़ देनेवाले, ३६२. जनार्दन:=भक्तोंद्वारा याचित । 

   ३६३. रुक्मिणीप्राणनाथ:=रुक्मिणीके प्राणवल्ल्भ, ३६४. सत्यभामापति:=सत्यभामाके स्वामी, ३६५. स्वयं भक्तपक्षी=स्वयं ही भक्तोंका पक्ष लेनेवाले, ३६६. भक्तिवश्य:=भक्तिसे वशमें हो जानेवाले, ३६७. अकूरमणिदायक:= अक्रूरजीको स्यमन्तकमणि देनेवाले ।

   ३६८. शतधन्वप्राणहारी=शतधन्वाके प्राण लेनेवाले, ३६९. ऋक्षराजसुताप्रिय:=रीछोंकि राजा जाम्बवान्‌की पुत्रीके प्रियतम पति, ३७०. सत्राजिततनयाकान्त:=सत्राजितकी सुपुत्री सत्यभामाके प्राणवल्लभ, ३७९. मित्रविन्दापहारक:=मित्रविन्दाका अपहरण करनेवाले ।

   ३७२, सत्यापति:=नग्रजितकी पुत्री सत्याके स्वामी, ३७३. लक्ष्मणाजित्‌=स्वयंवरमें लक्ष्मणाको जीतनेवाले, ३७४. पूज्य:=पूजाके योग्य, ३७५. भद्राप्रियङ्कर:=भद्राका प्रिय करनेवाले, ३७६. नरकासुरघाती=नरकासुरका वध करनेवाले, ३७७, लीलाकन्याहर:=लीलापूर्वक षोडश सहस्र कन्याओंको नरकासुरकी कैदसे छुड़ाकर अपने साध ले जानेवाले, ३७८. जयी=विजयशील |

   ३७९. मुरारि:=मुर दैत्यका नाश करनेवाले, ३८०. मदनेश:=कामदेवपर भी शासन करनेवाले, ३८१. धरित्रीदुःखनाशन:=धरतीका दु:ख दूर करनेवाले, ३८२. वैनतेयी=गरुड़के स्वामी, ३८३. स्वर्गगामी=पारिजातके लिये स्वर्गलोककी यात्रा करनेवाले, ३८४. अदित्या:=कुण्डलप्रद अदितिको कुण्डल देनेवाले ।

३८५. इन्द्रार्चित:=इन्द्रके द्वारा पूजित, ३८६, रमाकान्त:=लक्ष्मीके प्रियतम, ३८७. वज्रिभार्याप्रपूजित:=इन्द्रपत्नि  शचीके द्वारा पूजित, ३८८. पारिजातापहारी=पारिजात वृक्षका अपहरण करनेवाले, ३८९, शक्रमानापहारक:=इन्द्रका अभिमान चूर्ण करनेवाले ।

   ३९०. प्रद्युम्रजनक:=प्रद्युम्रके पिता, ३९९. साम्बतात:=साम्बके पिता, ३९२. बहुसुत:=अधिक पुत्रोंवाले, ३९३. विधु:= विष्णुस्वरूप, ३९४. गर्गाचार्य:=गर्गमुनिको आचार्य बनानेवाले, ३९५. सत्यगति:=सत्यसे ही प्राप्त होनेवाले, ३९६. धर्माधार:=धर्मके आश्रय, ३९७. धराधर:=पृथ्वीको धारण करनेवाले ।

   ३९८. द्वारकामण्डन:=द्वारकाको सुशोभित करनेवाले, ३९९. श्लोक्य:=यशोगानके योग्य, ४००. सुश्लोक:=उत्तम यशवाले, ४०१. निगमालय:=वेदोंके आश्रय, ४०२. पौण्ड्रकप्राणहारी=मिथ्या वासुदेवनामधारी पौण्ड्रकके प्राण लेनेवाले, ४०३. काशिराजशिरोहर:=काशिराजका सिर काटनेवाले । ४०४. अवैष्णवविप्रदाही=अवैष्णव ब्राह्मणोंको, जो यदुवंशियोंके प्रति मारणका प्रयोग कर रहे थे, दगर्ध करनेवाले, ४०५. सुदक्षिणभयावह:=काशिराजके पुत्र सुदक्षिणको भय देनेवाले, ४०६. जरासन्धविदारी=भीमसेनके द्वारा जरासन्धको चीर डालनेवाले, ४०७. धर्मनन्दनयज्ञकृत्‌=धर्मपुत्र युधिष्टिरका यज्ञ पूर्ण करनेवाले ।

   ४०८. शिशुपालशिरश्छेदी=शिशुपालका सिर काटनेवाले, ४०९. दन्तवक्त्रविनाशन:=दन्तवक्‍्त्रका नाश करनेवाले, ४१०. विदूरशान्तक:=विदूरथके काल, ४११. श्रीश:=लक्ष्मीके स्वामी, ४१२. श्रीद:=सम्पत्ति देनेवाले, ४१३. द्विविदनाशन:=बलभद्ररूपसे द्विविद वानरका नाश करनेवाले ।

   ४९४. रक्मिणीमानहारी=रुक्मिणीका अभिमान दूर करनेवाले, ४१५. रुक्मिणीमानवर्धन:=रुक्मिणीका सम्मान बढ़ानेवाले, ४९६. देवर्षिशापहर्ता=देवर्षि नारदका शाप दूर करनेवाले, ४१७. द्रौपदीवाक्य-पालक:=द्रौपदीके वचनोंका पालन करनेवाले ।

   ४१८. दुर्वासोभयहारी=दुर्वासाका भय दूर करनेवाले, ४१९. पाञ्चालीस्मरणागत:=द्रौपदीके स्मरण करते ही आ पहुँचनेवाले, ४२०. पार्थदूत:=कुन्तीपुत्रोंके दूत, ४२१. पार्थमन्त्री=कुन्तीपुत्रोंके मन्त्री (सलाहकार), ४२२. पार्थदु:खौघनाशन:=कुन्तीपुत्रोंके दु:खसमुदायका नाश करनेवाले ।

   ४२३. पार्थमानापहारी=कुन्तीपुत्रोंका अभिमान दूर करनेवाले, ४२४. पार्थजीवनदायक:=कुन्तीपुत्रोंको जोवन देनेवाले, ४२५. पाञ्चालीवस्त्रदाता=कौरवोंकी सभामें द्रौपदीको वस्त्रराशि अर्पण करनेवाले, ४२६. विश्वपालकपालक:=विश्वकी रक्षा करनेवाले देवताओंके भी रक्षक |

   ४२७. श्वेताश्वसारथि:=श्वेत घोड़ों वाले अर्जुनके साध, ४२८. सत्य:=सत्यस्वरूप, ४२९. सत्यसाध्य:=सत्यसे ही प्राप्त होने योग्य, ४३०. भयापह:=भक्तोंके भयका नाश करनेवाले, ४३९. सत्यसन्ध:=सत्यप्रतिज्ञ,  ४३२. सत्यरति:=सत्यमें रत, ४३३. सत्यप्रिय:=सत्य जिनको प्यारा है, ४३४. उदारधी:=उदार बुद्धिवाले ।

   ४३५. महासेनजयी=शोणितपुरमें बाणासुरके पक्षमें युद्धके लिये आये हुए स्वामिकार्तिकेयको भी परास्त करनेवाले, ४३६. शिवसैन्यविनाशन:=भगवान्‌ शिवकी सेनाको मार भगानेताले ४३७. बाणासुरभुजच्छेत्ता=बाणासुरको भुजाओंको काटनेवाले, ४३८. बाणबाहुबरप्रद:=बाणासुरको चार भुजाओंसे युक्त रहनेका वर देनेवाले ।

   ४३९. तार्क्ष्यमानापहारी=गरुड़का अभिमान चूर्ण करनेवाले, ४४०. तार्क्ष्यजोविवर्धन:=गरुड़के तेजको बढ़ानेवाले, ४४९. रामस्वरूपधारी=श्रीरामका स्वरूप धारण करनेवाले, ४४२. सत्यभामामुदावह:=सत्यभामाको आनन्द देनेवाले |

   ४४३. रत्नाकरजलक्रीड:=समुद्रके जलमें क्रीडा करनेवाले, ४४४. वज्रजलीलाप्रदर्शक:=अधिकारी भक्तोंको व्रजलीलाका दर्शन करनेवाले, ४४५. स्वप्रतिज्ञा-परिध्वांसी=भीष्मजीकी प्रतिज्ञा रखनेके लिये अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देनेवाले, ४४६. भीष्माज्ञापरिपालक:=भीष्मकी आज्ञाका पालन करनेवाले ।

   ४४७. वीरायुधहर:=वीरोंके अस्त्र-शस्त्र हर लेनेवाले, ४४८. काल:=कालस्वरूप, ४४९. कालि-केश:=कालिकाके स्वामी, ४५०. महावल:=महाशक्तिसम्पत्र, ४५१. बर्बरीकशिरोहारी=बर्बरीकका सिर काटनेवाले, ४५२. बर्वरीकशिरप्रद:=बर्बरीकका                                                                सिर देनेवाले ।

   ४५३. धर्मपुत्रजयी=धर्मपुत्र युधिष्टिको जय दिलानेवाले, ४५४. शूरदुर्योधनमदान्तक:=शूरवीर दुर्योधनके मदका नाश करनेवाले, ४५५. गोपिकाप्रीतिनिर्बन्धनित्यक्रीड:=गोपाड़नाओंकि प्रेमपूर्ण आग्रहसे वृन्दावनमें नित्य लीला करनेवाले, ४५६. व्रजेश्वर:=व्रजके स्वामी ।

   ४५७. राधाकुण्डरति:=राधाकुण्डमें खेल करनेवाले, ४५८. धन्य:=धन्यवादके योग्य, ४५९. सदान्दोलसमाश्रित:=सदा झूलेपर झूलनेवाले, ४६०. सदामधुवनानन्दी=सदा मधुवनमें आनन्द लेनेवाले, ४६१. सदावृन्दावनप्रिय:=वृन्दावनके शाश्वत प्रेमी ।

   ४६२. अशोकवनसन्नद्ध:=अशोकवनमें लीलाके लिये सदा प्रस्तुत, ४६३. सदातिलकसङ्गत:=सदैव तिलक लगानेवाले, ४६४. सदागोवर्धनरति:=गिरिराज गोवर्धनपर सदा क्रीडा करनेवाले, ४६५. सदागोकुलवल्ल्भ:=सदैव गोकुल ग्राम एवं गो-समुदायके प्रिय ।

   ४६६. भाण्डीरवटसंवासी=भाण्डीर वटके नीचे निवास करनेवाले, ४६७. नित्यं वंशीवटस्थित:=वंशीवटपर सदा स्थित रहनेवाले, ४६८. नन्दग्राम-कृताबास:=नन्दगाँवमें निवास करनेवाले, ४६९. वृषभानुगृहप्रिय:=वृषभानुजीके गृहको प्रिय माननेवाले |

   ४७०. गृहीतकामिनीरूप:=मोहिनीका रूप धारण करनेवाले,  ४७१. नित्यं रासविलासकृत्‌=नित्य रासलीला करनेवाले, ४७२. वल्लवीजनसंगोपा=गोपाङ्गनाओंके रक्षक, ४७३. वल्लवीजनवल्लभ:=गोपीजनोंके प्रियतम ।

    ७४४.  देवशर्मकृपाकर्ता=देवशर्मापर कृपा करनेवाले, ४७५. कल्पपादपसंस्थित:=कल्पवृक्षके नीचे रहनेवाले, ४७६.  शिलानुगन्धनिलय:=शिलामय सुगन्धित भवनमें निवास करनेवाले, ४७७. पादचारी=पैदल चलनेवाले, ४७८. घनच्छवि:=मेघके समान श्यामकान्तिवाले ।

   ४७९. अतसीकुसुमप्रख्य:=तीसीके फूलके-से वर्णवाले,  ४८०. सदा लक्ष्मीकृपाकर:=लक्ष्मीजीपर सदा कृपा करनेवाले, ४८१. त्रिपुरारिप्रियकर:=महादेवजीका प्रिय करनेवाले, ४८२. उम्रधन्वा=भयङ्कर धनुषवाले, ४८३. अपराजित:=किसीसे भी परास्त न होनेवाले ।

   ४८४. षड्धुरध्वसकर्ता=षडधुरका नाश करनेवाले, ४८५. निकुम्भप्राणहारक:=निकुम्भके प्राणोंको हरनेवाले, ४८६. वज्रनाभपुरध्वंसी=वज्रनाभपुरका ध्वंस करनेवाले, ४८७. पौण्ड्रकप्राणहारक:=पौण्ड्रकके प्राणोंका अन्त करनेवाले ।

   ४८८. बहुलाश्वप्रीतिकर्ता=मिथिलाके राजा बहुलाश्वपर प्रेम करनेवाले, ४८९. द्विजवर्यप्रियङकर:=श्रेष्ठ ब्राह्मण भक्तशिरोमणि श्रुतदेवका प्रिय करनेवाले, ४९०. शिवसंकटहारी=भगवान्‌ शिवका संकट टालनेवाले, ४९१. वृकासुरविनाशन:=वृकासुरका नाश करनेवाले ।

   ४९२. भृगुसत्कारकारी=भृगुजीका सत्कार करनेवाले, ४९३. शिवसात्त्विकताप्रद:=भगवान्‌ शिवको सात्विकता देनेवाले, ४९४. गोकर्णपूजक:=गोकर्णकी पूजा करनेवाले, ४९५. साम्बकुछ्ठविध्वंस-कारण:=साम्बकी कोढ़का नाश करनेवाले ।

   ४९६. वेदस्तुत:=वेदोंके द्वारा स्तुत, ४९७. वेदवेत्ता:=वेदज्ञ, ४९८. यदुवंशाववर्धन:=यदुकुलको बढ़ानेवाले, ४९९. यदुवंशविनाशी=यदुकुलका संहार करनेवाले, ५००. उद्धवोद्धास्कारक:=उद्धवका उद्धार करनेवाले ।

   ५०१. राधा=श्रीकृष्णकी आराध्या देवी, उन्हींकी आह्वादिनी शक्ति, ५०२. राधिका=श्रीकृष्णकी आराधना करनेवाली वृषभानुपुत्री, ५०३. आनन्दा=आनन्दस्वरूपा, ५०४. वृषभानुजा=वृषभानुगोपकी कन्या, ५०५. वृन्दावनेश्वरी=वृन्दावनकी स्वामिनी, ५०६. पुण्या=पुण्यमयी, ५०७. कृष्णमानसहारिणी=श्रीकृष्णका चित्त चुरानेवाली ।

   ५०८. प्रगल्भा=प्रतिभा, साहस, निर्भयता और उदार बुद्धिसे सम्पन्न, ५०९. चतुरा=चतुराईसे युक्त, ५१०. कामा= प्रेमस्वरूपा, ५१९. कामिनी=एकमात्र श्रीकृष्णको चाहनेवाली, ५१२. हरिमोहिनी=श्रीकृष्णको मोहित करनेवाली, ५१३. ललिता=मनोहर सौन्दर्यसे सुशोधित, ५१४. मधुरा=माधुर्यभावसे युक्त, ५१५. माध्वी=मधुमयी, ५१६. किशोरी=नित्यकिशोरावस्थासे युक्त, ५१७. कनकप्रभा:=सुवर्णके समान कान्तिवाली ।

   ५१८. जितचन्द्रा=मुखके सौन्दर्यसे चन्द्रमाको भी परास्त करनेवाली, ५१९. जितमृगा=चञ्चल चकित नेत्रोंकी शोभासे मृगको भी मात करनेवाली, ५२०. जितसिंहा=सूक्ष्म कटि-भागकी कमनीयतासे मृगराज सिंहके भी मदकों चूर्ण करनेवाली, ५२१. जितद्विपा=मन्द-मन्द गतिसे गजेन्द्रका भी गर्व खर्व करनेवाली, ५२२. जितरम्भा=ऊरुओंकी स्त्रिधतासे कदलीको भी तिरस्कृत करनेवाली, ५२३. जितपिका=अपने मधुर कण्ठस्वरसे कोयलको भी तिरस्कृत करनेवाली, ५२४. गोविन्दहृदयोद्धवा=श्रीकृष्णके हृदयसे प्रकट हुई ।

   ५२५. जितविम्बा=अपने अधरकी अरुणिमासे विम्बफलकों भी तिरस्कृत करनेवाली, ५२६. जितशुका=नुकीली नासिकाकी शोभासे तोतेको भी लजा देनेवाली, ५२७. जितपद्मा=अपने अनिर्वचनीय रूप-लावण्यसे लक्ष्मीको भी लज्जित करनेवाली, ५२८. कुमारिका=नित्य कुमारी, ५२९. श्रीकृष्णाकर्षणा=श्रीकृष्णको अपनी ओर खींचनेवाली, ५३०. देवी=दिव्यस्वरूपा, ५३१. नित्ययुग्मस्वरूपिणी=नित्य युगलरूपा ।

   ५३२. नित्यं विहारिणी=श्यामसुन्दरके साथ नित्य लीला करनेवाली, ५३३. कान्ता=नन्दनन्दनकी प्रियतमा, ५३४. रसिका=प्रेमरससका आस्वादन करनेवाली, ५३५. कृष्णवल्ल्भ=श्री कृष्णप्रिया, ५३६. आमोदिनी=श्रीकृष्णको आमोद प्रदान करनेवाली, ५३७, मोदवती=मोदमयी, ५३८. नन्दनन्दनभूषिता=नन्दनन्दन श्रीकृष्णके द्वारा जिनका श्रृङ्गार किया गया है ।   

   ५३९. दिव्याम्बरा=दिव्य वस्त्र धारण करनेवाली, ५४०. दिव्यहारा=दिव्य हार धारण करनेवाली, ५४१. मुक्तामणिविभूषिता=दिव्य मुक्तामणियों से विभूषित, ५४२. कुञ्जप्रिया=वृन्दावनके कुञ्जोंसे प्यार करनेवाली, ५४३. कुञ्जवासा=कुञ्जमें निवास करनेवाली, ५४४. कुञ्जनायकनायिका=कुञ्जनायक श्रीकृष्णकी नायिका ।

   ५४५. चारुरूपा=मनोहर रूपवाली, ५४६. चारुवक्त्रा=परम सुन्दर मुखवाली, ५४७. चारुहेमाङ्गदा=सुन्दर सुवर्णके  भुजबंद धारण करनेवाली, ५४८. शुभा=शुभस्वरूपा, ५४९. श्रीकृष्णवेणुसङ्गीता=श्रीकृष्णद्वारा मुरलीमें जिनके नाम और यशका गान किया जाता हैं, ५५०. मुरलीहारिणी=विनोदके लिये श्रीकृष्णकी मुरलीका हरण करनेवाली, ५५१. शिवा=कल्यापस्वरूप ।

   ५५२. भद्रा=मङ्गलमयी, ५५३. भगवती=षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न, ५५४. शान्ता=शान्तिमयी, ५५५. कुमुदा=पृथ्वीपर आनन्दोल्लास  वितीर्ण करनेवाली, ५५६. सुन्दरी=अनन्त सौन्दर्यकी निधि, ५५७. प्रिया=सखियों तथा श्यामसुन्दरको अत्यन्त प्रिय, ५५८. कृष्णक्रीडा=श्रीकृष्णके साथ लीला करनेवाली, ५५९. कृष्णरति:=श्रीकृष्णके प्रति प्रगाढ़ प्रेमववाली, ५६०. श्रीकृष्णसहचारिणी=वृन्दावनमें श्रीकृष्णके साथ विचरनेवाली ।

   ५६९. वंशीवटप्रियस्थाना=वंशीवट जिनका प्रिय स्थान है, ५६२. युग्मायुग्मस्वरूपिणी=युगलरूपा और एक रूपा, ५६३. भाण्डीरवासिनी=भाण्डीर वनमें निवास करनेवाली, ५६४. शुभ्रा=गौरवर्णा, ५६५. गोपीनाथप्रिया=गोपीवल्लभ श्रीकृष्णकी प्रियतमा, ५६६. सखी=श्रीकृष्णकी सखी ।

   ५६७. श्रुतिनि:श्वसित:=श्रुतियाँ जिनके नि:श्वाससे प्रकट होती हैं, ५६८. दिव्या=दिव्यस्वरूपा ५६९. गोविन्दरसदायिनी=गोविन्दको माधुर्यरस प्रदान करनेवाली, ५७०. श्रीकृष्णप्रार्थिनी=केवल श्रीकृष्णको चाहनेवाली, ५७१. ईशाना=ईश्वरी, ५७२. महानन्दप्रदायिनी=परमानन्द प्रदान करनेवाली ।

   ५७३. वैकुण्ठजनसंसेव्या=वैकुण्ठवासियोंद्वारा सेवन करने योग्य, ५७४. कोटिलक्ष्मीसुखावहा=कोटि-कोटि लक्ष्मीसे भी अधिक सुख देनेवाली, ५७५. कोटिकन्दर्पलावण्या=करोड़ों कामदेवोंसे अधिक रूपलावण्यसे सम्पत्र,  ५७६. रतिकोटिरतिप्रदा=करोड़ों रतियोंसे भी अधिक प्रगाढ़ प्रीतिरस प्रदान करनेवाली ।

   ५७७. भक्तिग्राह्मा=भक्तिसे प्राप्त होने योग्य, ५७८. भक्तिरूपा=भक्तिस्वरूपा, ५७९. लावण्यसरसी=सौन्दर्यकी पुष्करिणी, ५८०. उमा=योगमाया एवं ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ५८१. ब्रह्मरुद्रादिसंराध्या=ब्रह्मा तथा रुद्रादिके द्वारा आराधना करने योग्य, ५८२. नित्य कौतूहलान्विता=नित्य कौतुकवुक्त ।

   ५८३. नित्यलीला=नित्य लीलापरायणा, ५८४. नित्यकामा=नित्य श्रीकृष्ण-मिलनको चाहनेवाली,  ५८५. नित्यशृङ्गारभूषिता=नित्य नूतन शृङ्गारसे विभूषित, ५८६. नित्यवृन्दावनरसा=वृन्दावनके माधुर्यरसका सदा आस्वादन करनेवाली, ५८७. नन्दनन्दनसंयुता=नन्दनन्दन श्रीकृष्णके साथ रहनेवाली ।

   ५८८. गोपिकामण्डलीयुक्ता=गोपियोंकी मण्डलीसे घिरी हुई, ५८९. नित्यं गोपालसङ्गता=सदा गोपाल श्रीकृष्णसे मिलनेवाली, ५९०. गोरसक्षेपिणी=गोरस फेंकने या लुटानेवाली, ५९१, शूरा=शौर्यसम्पन्न, ५९२. सानन्दा=आनन्दयुक्त, ५९३. आनन्ददायिनी=आनन्द देनेवाली ।

   ५९४. महालीलाप्रकृष्टा=श्रीकृष्णको महालीलाकी सर्वश्रेष्ठ पात्र, ५९५. नागरी=परम चतुरा, ५९६. नगवारिणी=गिरिराज गोवर्धनपर विचरनेवाली, ५९७. नित्यपाघूर्णिता=श्रीकृष्णकी खोजमें नित्य घूमनेवली, ५९८. पूर्णा=समस्त सदगुणों से परिपूर्ण, ५९९. कस्तूरीतिलकान्विता=कस्तूरीकी बेंदीसे सुशोभित ।

   ६००. पद्या=लक्ष्मीस्वरूपा,  ६०१. श्यामाः=सौन्दर्यसे सम्पन्न, ६०२. मृगाक्षी=मृगके समान विशाल एवं चञ्चल  नेत्रोंवाली, ६०३. सिद्धिरूपा=सिद्धिस्वरूपा, ६०४. रसावहा=श्रीकृष्णको माधुर्यसरसका आस्वादन करानेवाली, ६०५. कोटिचन्द्रानना=करोड़ों चन्द्रमाओंके समान सुन्दर मुखवाली, ६०३. गौरी=गौरवर्णा, ६०७. कोटिकोकिलसुस्वरा=करोड़ों कोकिलोंके समान मधुर स्वरवाली ।

   ६०८. शीलसौन्दर्यनिलया=उत्तम शील तथा अनन्त सौन्दर्यकी आधारभूता, ६०९. नन्दनन्दन-लालिता= नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे दुलार पानेवाली, ६१०. अशोकवनसंवासा=अशोकवनमें निवास करनेवाली, ६१९. भाण्डीरवनसङ्गता=भाण्डीरवनमें मिलनेवाली ।

   ६९२. कल्पद्रुमतलाविष्टा=कल्पवृक्षके नीचे बैठी हुई, ६१३. कृष्णा=कृष्णस्वरूपा, ६१४. विश्वा=विश्वस्वरूपा, ६१५. हरिप्रिया=श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ६१६. अजागम्या=ब्रह्माजीके लिये अगम्य, ६१७. भवागम्या=महादेवजीके लिये अगम्य, ६१८. गोवर्धनकृतालया=गोवर्धन पर्वतपर निवास करनेवाली ।

   ६१९. यमुनातीरनिलया=यमुनातटपर रहनेवाली, ६२०. शश्वदगोविन्दजल्पिनी=सदा श्रीकृष्ण गोविन्दकी रट लगानेवाली, ६२१. शश्वन्मानवती=नित्य मानिनी, ६२२. स्त्रिग्धा=स्त्रेहमयीं,  ६२३. श्रीकृष्णपरिवन्दिता=श्रीकृष्णके द्वारा नित्य वन्दित ।

   ६२४. कृष्णस्तुता=श्री कृष्णके द्वारा जिनका गुणगान किया गया है, ६२५. कृष्णव्रता=श्रीकृष्णपरायणा, ६२६. श्रीकृष्णहृदयालया=श्रीकृष्णके हृदयमें निवास करनेवाली, ६२७. देवद्रुमफला=कल्पवृक्षके समान मनोवाञ्चित फल देनेवाली, ६२८. सेव्या=सेवन करने योग्य, ६२९. वृन्दावन-रसालया=वृन्दावनके रसमें निमग्र रहनेवाली ।

   ६३०. कोटितीर्थमयी=कोटितीर्थस्वरूपा, ६३१. सत्या=सत्यस्वरूपा, ६३२. कोटितीर्थफलप्रदा=करोड़ों तिर्थोका फल देनेवाली, ६३३. कोटियोग-सुदुष्प्राप्या=करोड़ों योगसाधनोंसे भी दुर्लभ, ६३४. कोटियज्ञदुराश्रया=कोटि यज्ञोंसे भी जिनकी शरणागति प्राप्त होनी कठिन है । ६३५. मनसा=मनसा नामसें प्रसिद्ध, ६३६. शशिलेखा=श्रीकृष्णरूपी चन्द्रमाकी कला, ६३७. श्रीकोटिसुभगा=कोटि लक्ष्मीके समान सौभाग्यवती, ६३८. अनघा=पापशून्य, ६३९. कोटिमुक्तसुखा=करोड़ों मुक्तात्माओंके समान सुखी, ६४०. सौम्या=सौम्यस्वरूपा, ६४१. लक्ष्मीकोटिविलासिनी=करोड़ों लक्ष्मियोंके समान विलासवती ।

   ६४२. तिलोत्तमा=ठोढ़ीमें तिलके आकारकी बेंदी या चिन्ह होनेके कारण अतिशय उत्तम सौन्दर्ययुक्त, ६४३. त्रिकालस्था=भूत, भविष्य, वर्तमान-तीनों कालोंमें विद्यमान, ६४४. त्रिकालज्ञा=तीनों कालोंकी घटनाओंको जाननेवाली, ६४५. अधीश्वरी=स्वामिनी, ६४६. त्रिवेदज्ञा=तीनों वेदोंको जाननेवाली, ६४७. त्रिलोकज्ञा=तीनों लोकोंको जाननेवाली, ६४८. तुरीयान्तनिवासिनी=जाग्रतसे लेकर तुरीयापर्यन्त सब अवस्थाओंमें निवास करनेवाली ।

   ६४९. दुर्गाराध्या=उमाके द्वारा आराध्य, ६५०. रमाराध्या=लक्ष्मीकी आराध्य देवी, ६५९. विश्वाराध्या=सम्पूर्ण जगत्‌के लिये आराधनीया, ६५२. चिदात्मिका=चेतनस्वरूपा, ६५३. देवाराध्या=देवताओंकी आराध्य देवी, ६५४. पराराध्या=परम आराध्य देवी, ६५५. ब्रह्माराध्या=ब्रह्माजीके द्वारा उपास्य, ६५६. परात्मिका=परमात्मस्वरूपा ।

   ६५७. शिवाराध्या=भगवान् शिवके लिये आराध्य, ६५८. प्रेमसाध्या=प्रेमसे प्राप्त होने योग्य, ६५९. भक्ताराध्या=भक्तोंकी उपास्य देवी, ६६०. रसात्मिका=रसस्वरूपा, ६६१. कृष्णप्राणार्पिणी=श्रीकृष्णको जीवन देनेवाली, ६६२. भामा=मानिनी, ६६३. शुद्धप्रेमविलासिनी=विशुद्ध प्रेमसे सुशोभित होनेवाली ।

   ६६४. कृष्णाराध्या=श्रीकृष्णकी आराध्य देवी, ६६५. भक्तिसाध्या=अनन्य भक्तिसे प्राप्त होनेवाली, ६६६. भक्तवृन्दनिषेविता=भक्त-समुदायसे सेविता, ६६७. विश्वाधारा=सम्पूर्ण जगत्‌को आश्रय देनेवाली, ६६८. कृपाधाय=कृपाकी आधारभूमि, ६६९. जीवाधारा=सम्पूर्ण जीवोंको आश्रय देनेवाली, ६७०. अतिनायिका=सम्पूर्ण नायिकाओंसे उत्कृष्ट ।

   ६७१. शुद्धप्रेममयी=विशुद्ध अनुरागस्वरूपा, ६७२. लज्जा=मूर्तिमती लज्जा, ६७३. नित्यसिद्धा=सदा, विना किसी साधनके, स्वत:सिद्ध, ६७४. शिरोमणि:=गोपाङ्गनाओंकी शिरोमणि, ६७५. दिव्यरूपा=दिव्य रूपवाली, ६७६. दिव्यभोगा=दिव्यभोगोंसे सम्पन्न, ६७७. दिव्यवेषा=अलौकिक वेशभूषाओंसे सुशोभित, ६७८. मुदान्वितानसदा= आनन्दमग्र रहनेवाली ।

   ६७९. दिव्याङ्गीवृन्दसारा=दिव्य युवतियोंके समुदायकी सार-सर्वस्वरूपा, ६८०. नित्यनूतनयौवना=नित्य नवीन यौवनसे युक्त,  ६८१. परब्रह्मावृता=परब्रह्म परमात्पासे आवृत, ६८२. ध्येया=ध्यान करने योग्य, ६८३. महारूपा=परम सुन्दर रूपवाली, ६८४. महोज्वला=परमोज्वल प्रकाशमयी ।

   ६८५. कोटिसूर्यप्रभा=करोड़ों सूर्योकी प्रभासे उभ्दासित, ६८६. कोटिचन्द्रविम्बाधिकच्छवि:=कोटि चन्द्रमण्डलसे अधिक छविवाली, ६८७. कोमलामृतवाक्=कोमल एवं अमृतके समान मधुर वचनवाली, ६८८. आद्या=आदिदेवी, ६८९. वेदाद्या=वेदोंकी आदिकारणस्वरूपा, ६९०. वेददुर्लभा=वेदोंकी भी पहुँचसे परे ।

   ६९१. कृष्णासक्ता=श्रीकृष्णमें अनुरक्त, ६९२. कृष्णभक्ता=श्रीकृष्णके प्रति भक्तिभावसे परिपूर्ण, ६९३. चन्द्रावलिनिषेविता=चन्द्रावली नामकी सखीसे सेवित, ६९४. कलाषोडशसम्पूर्णा=सोलह कलाओंसे पूर्ण, ६९५. कृष्णदेहार्धधारिणी=अपने आधे शरीरमें श्रीकृष्णके स्वरूपको धारण करनेवाली ।

   ६९६. कृष्णबुद्धि:=श्रीकृष्णमें बुद्धिको अर्पित कर देनेवाली, ६९७. कृष्णसारा=श्रीकृष्णको ही जीवनका सारसर्वस्व  माननेवाली, ६९८. कृष्ण-रूपविहारिणी=श्रीकृष्णरूपसे विचरनेवाली, ६९९. कृष्णकान्ता=श्रीकृष्णप्रिया, ७००. कृष्णधना= श्रीकृष्णको ही अपना परम धन माननेवाली, ७०१. कृष्णमोहनकारिणी=अपने अनुपम प्रेमसे श्रीकृष्णको मोहित करनेवाली ।

   ७०२. कृष्णदृष्टि=एकमात्र श्रीकृष्णपर ही दृष्टि रखनेवाली,  ७०३. कृष्णगोत्रा=श्रीकृष्णके गोत्रवाली, ७०४. कृष्णदेवी=श्रीकृष्णकी आराध्यदेवी, ७०५. कुलोद्वहा=कुलमें सर्वश्रेष्ठ, ७०६. सर्वभूत-स्थितात्मा=सम्पूर्ण भूतोंमें विद्यमान आत्मस्वरूपा, ७०८. सर्वलोकनमस्कृता=सम्पूर्ण लोकोंद्वारा अभिवन्दित ।

   ७०८. कृष्णदात्री=उपासकोंको श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाली, ७०९. प्रेमधात्री=भावुकोंके हृदयमें श्रीकृष्णप्रेमको प्रकट करनेवाली, ७१०. स्वर्णगात्री=सुवर्णके समान गौर शरीरवाली, ७११. मनोरमा=श्रीकृष्णके मनको रमानेवाली, ७९२. नगधात्री=पर्वतोंकि अधिष्ठातृ देवताकों उत्पन्न करनेवाली, ७१३. यशोदात्री=यश देनेवाली, ७१४. महादेवी=सर्वश्रेष्ठ देवी, ७१५. शुभङ्गरी=कल्याण करनेवाली |

   ७१६. श्रीशेषदेवजननी=लक्ष्मी जी, शेषजी और देवताओंको उत्पन्न करनेवाली, ७९७. अवतारगणप्रसू:= अवतारगणोंको उत्पन्न करनेवाली, ७१८. उत्पलाङ्का=हाथ-पैरोंमें नील कमलके चिह्न धारण करनेवाली, ७१९. अरविन्दाङ्का=कमलके चिह्नसे युक्त, ७२०. प्रासादाङ्का=मन्दिरके चिह्से युक्त, ७२९. अद्वितीयका=जिसके समान दूसरी कोई नहीं है ऐसी । 

   ७२२. रथाङ्का=रथके चिन्हसे युक्त, ७२३. कुञ्जराङ्का=हाथीके चिह्नसे युक्त, ७२४. कुण्डलाङ्कदस्थिता= चरणोंमें कुण्डलके चिह्नसे युक्त, ७२५. छत्राङ्का=छत्रके चिह्नसे युक्त, ७२६. विद्युदङ्का=व्रजके चिह्नसे युक्त, ७२७. पुष्पमालाङ्किता=पुष्पमालाके चिह्नसे युक्त ।

   ७२८. दण्डाङ्का=दण्डके चिह्नसे युक्त, ७२९. मुकुटाङ्का=मुकुटके चिह्नसे युक्त, ७३०. पूर्णचन्द्रा=पूर्णचन्द्रके सदृश शोभासम्पन्न, ७३९. शुकाङ्किता=शुकके चिह्नसे युक्त, ७३२. कृष्णाणआहारपाका=श्रीकृष्णको भोजन करानेके लिये भाँति=भाँतिकी रसोई तैयार करनेवाली, ७३३. वृन्दाकुञ्जविहारिणी=वृन्दावनके कुञ्जमें विचरनेवाली ।

   ७३४. कृष्णप्रबोधनकरी=कृष्णको शयनसे जगानेवाली, ७३५. कृष्णशेषान्नभोजिनी=श्री कृष्णके आरोगनेसे बचे हुए प्रसादरूप अन्नको ग्रहण करनेवाली, ७३६. पद्यकेसरमध्यस्था=कमलकेसरोंके मध्यमें विराजमान, ७३७. सङ्गीतागमवेदिनी=सङ्गीतशास्त्रको जाननेवाली ।

   ७३८. कोटिकल्पान्तभ्रूभङ्गा=अपने भ्रूभङ्गमात्रसे करोड़ों कल्पोंका अन्त करनेवाली, ७३९. अप्राप्तप्रलया=कभी प्रलयको प्राप्त न होनेवाली, ७४०. अच्युता=अपनी महिमासे कभी विचलित न होनेवाली, ७४१. सर्वसत्त्वनिधि:=पूर्ण  सत्त्वगुणकी निधि, ७४२. पद्मशङ्खदिनिधिसेविता=पद्य-शङ्ख आदि निधियोंसे सेवित ।

   ७४३. अणिमादिगुणैश्चर्या=अणिमा आदि अष्टविध गुणोंके ऐश्वर्योसे युक्त, ७४४. देववृन्दविमोहिनी= देवसमुदायको मोहित करनेवाली, ७४५. सर्वानन्दप्रदा=सबको आनन्द देनेवाली, ७४६. सर्वा=सर्वस्वरूपा, ७४७. सुवर्णलतिकाकृति:=स्वर्णमयी लताके समान आकृतिवाली ।

   ७४८. कृष्णाभिसारसंकेता=श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये संकेतस्थानमें स्थित, ७४९. मालिनी=मालासे अलंकृत, ७५०. नृत्यपणिडता=नृत्यकलाकी विदुषी, ७५१. गोपीसिन्धुसकाशाप्या=गोपीसमुदायरूपी सिन्धुमें प्राप्त होनेवाली, ७५२. गोपमण्डपशोधिनी=वृषभानुगोपके मण्डपमें शोभा पानेवाली ।

   ७५३. श्रीकृष्णप्रीतिदा=श्रीकृष्णके प्रेमको प्रदान करनेवाली, ७५४. भीता=श्रीकृष्णके वियोगके भयसे  भीत, ७५५. प्रत्यङ्गपुलकाश्चिता=प्रत्येक अङ्गमें श्रीकृष्ण-प्रेमजनित रोमाञ्चसे युक्त, ७५६. श्रीकृष्णालिङ्गनरता=श्री कृष्णका स्पर्श करनेमें तत्पर, ७५७. गोविन्दविरहाक्षमा=श्रीकृष्णका वियोग सहन करनेमें असमर्थ ।

   ७५८. अनन्तगुणसम्पन्ना=अनन्त गुणोंसे युक्त, ७५९. कृष्णकीर्तनलालसा=श्रीकृष्णके नाम और गुणोंके कीर्तन करनेकी रुचिवाली, ७६०. वीजत्रयपयीमूर्ति:=श्रीं, हीं, क्लीं-इन तीन बीजोंसे संयुक्तरूपवाली, ७६१. कृष्णानुग्रहवाञ्छिनी=श्रीकृष्णके अनुग्रहको चाहनेवाली ।

   ७६२. विमलादिनिषेव्या=विमला, उत्कर्षिणी आदि सखियोंद्वारा सेव्य, ७६३. ललिताद्यर्चिता=ललिता आदि सखियोंसे पूजित, ७६४. सती=उत्तम शील और सदाचारसे सम्पन्न, ७६५. पद्मवृन्दस्थिता=कमलवनमें निवास करनेवाली, ७६६. हुष्टा=हर्षसे युक्त, ७६७. त्रिपुरापरिसेविता=त्रिपुरसुन्दरीके द्वारा सेवित ।

   ७६८. वृन्दावत्यर्चिता=वृन्दावती देवीके द्वारा पूजित, ७६९. श्रद्धा=श्रद्धास्वरूपा, ७७०. दुर्ज्ञेया=बुद्धिकी पहुँचसे परे, ७७१. भक्तवल्लभा=भक्तप्रिया, ७७२. दुर्लभा=दुष्प्राप्य, ७७३. सान्द्रसौख्यात्मा=घनीभूत सुखस्वरूपा, ७७४. श्रेयोहेतु:= कल्याणकी प्रापतिमें हेतु, ७७५. सुभोगदा=मुक्तिप्रद भोग देनेवाली ।

   ७७६. सारङ्गा=श्रीकृष्णप्रेमकी प्यासी चातकी, ७७७. शारदा=सरस्वतीस्वरूपा, ७७८. बोधा=ज्ञानमयी, ७७९. सद्वृन्दावनचारिणी=सुन्दर वृन्दावनमें विचरनेवाली, ७८०. ब्रह्मानन्दा=ब्रह्मानन्दस्वरूपा, ७८१. चिदानन्दा= चिदानन्दमयी, ७८२. ध्यानानन्दा=श्रीकृष्ण-ध्यानजनित आनन्दमें मग्र, ७८३. अर्धमात्रिका=अर्धमात्रास्वरूपा ।

 ७८४.  गन्धर्वा=गानविद्यामें प्रवीण, ७८५. सुरतज्ञा=सुरतकलाको जाननेवाली, ७८६. गोविन्दप्राणसङ्गमा=गोविन्दके साथ एक प्राण होकर रहनेवाली, ७८७. कृष्णाङ्गभूषणा=श्रीकृष्णके अङ्गोंको विभूषित करनेवाली, ७८८. रत्नभूषणा=रत्नमय आभूषण धारण करनेवाली, ७८९. स्वर्णभूषिता=सोनेके आभूषणोंसे विभूषित ।

   ७९०. श्रीकृष्णहृदयावासा=श्रीकृष्णके हृदय-मन्दिरमें निवास करनेवाली, ७९१. मुक्ताकनकनासिका=नासिकामें मुक्तायुक्त सुवर्णके आभूषण धारण करनेवाली, ७९२. सद्रत्नकङ्कणयुता=हाथों में सुन्दर रत्नजटित कंगन पहननेवाली, ७९३. श्रीमब्नीलगिरिस्थिता=शोभाशाली नीलाचलपर विराजमान ।

   ७९४. स्वर्णनूपुरसम्पत्न्ना=सोनेके नूपुरोंस सुशोभित, ७९५. स्वर्णकिङ्किणिमण्डिता=सुवर्णकी किङ्किणी (करधनी)-से अलंकृत, ७९६. अशेषरासकुतुका=महाराजाके लिये उत्कण्ठित सहनेवाली, ७९७. रम्भोरु:=केलेके समान जंघावाली, ७९८. तनुमध्यमा=क्षीण कटिवाली ।

   ७९९. पराकृति:=सर्वोत्कृष्ट आकृतिवाली, ८००. परानन्दा=परमानन्दस्वरूपा, ८०१. परस्वर्ग-विहारिणी=स्वर्गसे भी परे गोलोक धाममें विहार करनेवाली, ८०२. प्रसूनकबरी=वेणीमें फूलोंके हार गूँथनेवाली, ८०३. चित्रा=विचित्र शोभामयी, ८०४. महासिन्दूरसुन्दरी=उत्तम सिन्दूरसे अति सुन्दर प्रतीत होनेवाली ।

   ८०५. कैशोरवयसा=किशोरावस्थासे युक्त, ८०६. बाला=मुग्धा, ८०७. प्रमदाकुलशेखरा=रमणीकुलशिरोमणि, ८०८. कृष्णधरासुधास्वादा=श्रीकृष्णनामरूपी सुधाका अधरोंके द्वारा नित्य आस्वादन करनेवाली, ८०९. श्यामप्रेमविनोदिनी= श्रीकृष्णप्रेमसे ही मनोरञ्जन करनेवाली ।

   ८१०. शिखिपिच्छलसच्चूडा=मयूर-पंखसे सुशोभित केशोंवाली, ८१४. स्वर्णचम्पकभूषिता=स्वर्णचम्पाके आभूषणोंसे विभूषित, ८१२. कुङ्कुमालक्त-कस्तूरीमणिडता=रोली, महावर और कस्तुरीके शृङ्गारसे सुशोभित, ८१३. अपराजिता=कभी परास्त न होनेवाली ।

   ८१४. हेमहारान्विता=सुवर्णके हारसे अलंकृत, ८१५. पुष्पहाराढया=पुष्पमालासे मण्डित, ८१६. रसवती=प्रेमरसमयी, ८१७. माधुर्यमधुरा=माधुर्य भावके कारण मधुर, ८१८. पद्मा=पद्मानामसे प्रसिद्ध, ८१९. पद्यहस्ता=हाथमें कमल धारण करनेवाली, ८२०. सुविश्रुता=अति विख्यात ।

   ८२९. भूभङ्गाभङ्गकोदण्डकटाक्षसरसन्धिनी=श्रीकृष्णके प्रति तिरछी भौंहरूपी सुदृढ़ धनुषपर कटाक्षरूपी बाणोंका  संधान करनेवाली, ८२२. शेषदेवशिर:स्था=शेषजीके मस्तकपर पृथ्वीके रूपमें स्थित, ८२३. नित्यस्थलविह्वारिणी=नित्य लीला-स्थलियोंमें विचरनेवाली ।

   ८२४. कारुण्यजलमध्यस्था=करुणारूपी जलराशिके मध्य विराजमान, ८२५. नित्यमत्ता=सदा प्रेममें मतवाली, ८२६. अधिरोहिणी=उन्नतिकी साधनरूपा, ८२७. अष्टभाषावती=आठ भाषाओंको जाननेवाली, ८२८. अष्टनायिका=ललिता आदि आठ सखियोंकी स्वामिनी, ८२९. लक्षणान्विता=उत्तम लक्षणोंसे युक्त ।

   ८३०. सुनीतिज्ञा=अच्छी नीतिको जाननेवाली, ८३१. श्रुतिज्ञा=श्रुतिको जाननेवाली, ८३२. सर्वज्ञा=सब कुछ जाननेवाली, ८३३. दुःखहारिणी=दुःखोंको हरण करनेवाली, ८३४. रजोगुणेश्वरी=रजोगुणकी स्वामिनी, ८३५. शरच्चन्द्रनिभानना=शरद्‌ ऋतुके चन्द्रमाकी भाँति मनोहर मुखवाली ।

   ८३६. केतकीकुसुमाभासा=केतकी के पुष्पकी-सी आभावाली, ८३७. सदासिन्धुवनस्थिता=सदा सिन्धु-वनमें रहनेवाली, ८३८. हेमपुष्पाधिककरा=सुवर्ण-पुष्पसे अधिक कमनीय  हाथवाली, ८३९. पञ्चशक्तिमयी=पञ्चविदधशक्तिसे सम्पन्न, ८४०.हिता=हितकारिणी ।

   ८४२. स्तनकुम्भी=कुम्भके समान स्तनवाली, ८४२. नराढया=पुरुषोत्तम श्रीकृष्णसे संयुक्त, ८४३. क्षीणापुण्या=पापरहित, ८४४. यशस्विनी=कीर्तिमती, ८४५. वैराजसूर्यजननी=विराट ब्रह्माण्डके प्रकाशक सूर्यको जन्म देनेवाली, ८४६. श्रीशा=लक्ष्मीकी भी स्वामिनी, ८४७. भुवनमोहिनी=सम्पूर्ण भुवनोंको मोहित करनेवाली ।

   ८४८. महाशोभा=परम शोभाशालिनी, ८४९. महामाया=महामायास्वरूपा, ८५०. महाकान्ति:=अनन्त कान्तिसे सुशोभित, ८५९.  महास्मृति:=महती स्मरणशक्तिस्वरूपा, ८५२. महामोहा=महामोहमयी, ८५३, महाविद्या=भगवत्प्राप्ति   करानेवाली श्रेष्ठ विद्या, ८५४. महाकीर्ति:=विशाल कीर्तिवाली, ८५५. महारति:=अत्यन्तानुरागस्वरूपा |

   ८५६. महाधैर्या=अत्यन्त धीर स्वभाववाली, ८५७. महावीर्या=महान्‌ पराक्रमसे सम्पन्न, ८५७. महाशक्ति:= महाशक्ति, ८५९. महाद्युति:=परम-प्रकाशवती, ८६०. महागौरी=अत्यन्त गौर वर्णवाली, ८६१. महासम्पत्‌=परम सम्पत्तिरूपा, ८६२. महाभोगविलासिनी=महान्‌ भोग-विलाससे युक्त ।

   ८६३. समया=अत्यन्त निकटवर्तिनी, ८६४. भक्तिदा=भक्ति देनवाली, ८६५. अशोका=शोकरहित, ८६६. वात्सल्यरसदायिनी=वात्सल्यरस देनेवाली, ८६७. सुहृदभक्तिप्रदा=सुहद्‌ जनोंको भक्ति देनेवाली, ८६८. स्वच्छ=निर्मल, ८६९. माधुर्यरसवर्षिणी=माधुर्यरसकी वर्षा करनेवाली ।

   ८७०. भावभक्तिप्रदा=भावभक्ति प्रदान करनेवाली, ८७१. शुद्धप्रेमभक्तिविधायिनी=शुद्ध प्रेमलक्षणा भक्तिका विधान करनेवाली, ८७२. गोपरामा=गोपकुलकी रमणी, ८७३. अभिरामा=सर्व-सुन्दरी, ८७४. क्रीडारामा=श्यामसुन्दरके साथ लीलामें रत रहनेवाली, ८७५. परेश्वरी=परमेश्वरी ।

   ८७६. नित्यरामा=नित्य वस्तुमें रमण करनेवाली, ८७७. आत्मरामा=आत्मामें रमण करनेवाली, ८७८. कृष्णरामा= श्रीकृष्णके चिन्तनमें रमण करनेवाली, ८७९. रमेश्वरी=लक्ष्मीकी अधीश्वरी, ८८०. एकानेकजगद्वयाप्ता=एक होकर भी अनेक रूपसे जगतमें व्याप्त, ८८१. विश्वलीलाप्रकाशिनी=सम्पूर्ण विश्वके रूपमें बाह्यलीलाको प्रकाशित करनेवाली ।

   ८८२. सरस्वतीशा=सरस्वतीकी स्वामिनी, ८८३. दुर्गेशा=दुर्गाकी स्वामिनी, ८८४. जगदीशा=जगत्‌की स्वामिनी, ८८५. जगद्विधि:=संसारकों रचनेवाली, ८८६. विष्णुवंशनिवासा=वैष्णववंशरमें निवास करनेवाली, ८८७. विष्णुवंशसमुद्धवा=वैष्णववंशमें प्रकट हुई ।

   ८८८. वैष्णववंशस्तुता=वैष्णवकुलके द्वार स्तुत, ८८९, कर्त्री=स्वतन्त्र कर्तृत्वशक्तिसे सम्पन्न, ८९०. सदाविष्णुवंशावनी=सदा वैष्णवकुलकी रक्षा करनेवाली, ८९१. आरामस्था=उपबनमें रहनेवाली, ८९२. वनस्था=वृन्दावनमें निवास करनेवाली, ८९३. सूर्यपुत्यवगाहिनी=यमुनामें स्नान करनेवाली ।

    ८९४. प्रीतिस्था=प्रेममें निवास करनेवाली, ८९५. नित्ययन्त्रस्था=नित्य-यन्त्रमें स्थित रहनेवाली, ८९६, गोलोकस्था=गोलोकधाममें स्थित, ८९७. विभूतिदा=ऐश्वर्य देनेवाली, ८९८. स्वानुभूतिस्थिता=केवल अपनी अनुभूतिमें प्रकट होनेवाली, ८९९. अव्यक्ता=अव्यक्तस्वरूपा, ९००. सर्वलोकनिवासिनी=सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाली ।

   ९०९. अमृता=अमृतस्वरूपा, ९०२. अद्भुता=अद्भुत रूप और भावसे सम्पन्न, ९०३. श्रीमन्नारायणसमीरिता=लक्ष्मीसहित भगवान्‌ नारायणके द्वारा स्तुत, ९०४. अक्षरा=अक्षरस्वरूपा, ९०५. कूटस्था=एकरस परमात्मस्वरूपा, ९०६. महापुरुष-सम्भवा=महापुरुषोंको प्रकट करनेवाली ।

   ९०७, औदार्यभावसाध्या=औदार्यपूर्ण भक्तिभावसे प्राप्त होनेवाली, ९०८. स्थूलसूक्मातिरूपिणी=स्थूल-सुक्ष्मसे विलक्षण चिदानन्दमय स्वरूपवाली, ९०९. शिरीषपुष्पमृदुला=सिरसके फूलोंसे भी अधिक कोमल, ९१०. गाङ्गेयमुकुरप्रभा=गङ्गाजल एवं दर्पणके समान निर्मल कान्तिवाली ।

   ९९१. नीलोत्पलजिताक्षी=कजरारे नेत्रोंकी शोभासे नीलकमलको परास्त  करनेवाली, ९१२. सद्ररत्नबरान्विता=सुन्दर रत्नोंसे अलंकृत चोटीवाली, ९१३. प्रेमपर्यङ्कनिलया=प्रेमरूपी पर्यङ्कपर शयन  करनेवाली, ९१४. तेजोमण्डलमध्यगा=तेजपुञ्जके भीतर विराजमान ।

   ९१५. कृष्णाङ्गगोपनाभेदा=श्रीकृष्णके अङ्गोंको छिपानेके लिये उनसे अभिन्नरूपमें स्थित, ९९६. लीलावरणनायिका=विभिन्न लीलाओंको स्वीकार करनेवाली प्रधान नायिका, ९९७. सुधासिन्धु-समुल्लसा=प्रेमसुधाके समुद्रको समुल्लसित करनेवाली, ९१८. अमृतस्यन्दविधायिनी=अमृतरसका स्रोत बहानेवाली ।

   ९१९. कृष्णचित्ता=अपना चित्त श्रीकृष्णको समर्पित कर देनेवाली, ९२०. रासचित्ता=श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये रासमें मन लगानेवाली, ९२१. प्रेमचित्ता=श्रीकृष्णप्रेममें मनको  निमग्र रखनेवाली, ९२२. हरिप्रिया=श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ९२३. अचिन्तनगुणग्रामा=अचित्त्य गुण-समुदायवाली, ९२४. कृष्णलीला=श्रीकृष्णलीलास्वरूपा, ९२५. मलापहा=मनकी मलिनता एवं पाप-तापको धो बहानेवाली ।

   ९२६. राससिन्धुशशाङ्का=रासरूपी समुद्रको उल्लसित करनेके लिये पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति प्रकाशित, ९२७. रासमण्डलमणिडनी=अपनी उपस्थितिसे रासमण्डलकी अत्यन्त शोभा बढ़ानेवाली, ९२८. नतब्रता=विनम्रस्वभाववाली, ९२९. श्रीहरीच्छासुमूर्ति:=श्रीकृष्णइच्छाकी सुन्दर मूर्ति, [1183 ] सं० ना० पु० १७— ९३०. सुरवन्दिता=देवताओंद्वारा वन्दित ।

   ९३१. गोपीचूडामणि:=गोपाङ्गनाशिरोमणि, ९३२. गोपीगणेड्या=गोपियोंके समुदायद्वारा स्तुत, ९३३. विरजाधिका=गोलोकमें विरजासे अधिक सम्मानित पदपर स्थित, ९३४. गोपप्रेष्ठा=गोपाल श्यामसुन्दरकी प्रियतमा, ९३५. गोपकन्या=वृषभानुगोपकी पुत्री, ९३६. गोपनारी=गोपकी वधू, ९३७. सुगोपिका=श्रेष्ठ गोपी ।

   ९३८. गोपधामा=गोलोक धाममें विराजमान, ९३९. सुदामाम्बा=सुदामागोपके प्रति मातृ-स्रेह रखनेवाली, ९४०. गोपाली=गोपी, ९४१. गोपमोहिनी=गोपाल श्रीकृष्णको मोहनेवाली, ९४२. गोपभूषा=गोपाल श्यामसुन्दर ही जिनके आभूषण हैं, ९४३. कृष्णभूषा=श्रीकृष्णको विभूषित करनेवाली, ९४४. श्रीवृन्दावनचन्द्रिका=श्रीवृन्दावनकी चाँदनी ।

   ९४५. वीणादिधोषनिरता=वीणा आदिको बजानेमें संलग्न, ९४६. रासोत्सवविकासिनी=रासोत्सवका विकास करनेवाली, ९४७. कृष्णचेष्टा=श्रीकृष्णके अनुरूप चेष्टा करनेवाली, ९४८. अपरिज्ञाता=पहचानमें न आनेवाली, ९४९. कोटिकन्दर्पमोहिनी=करोड़ों कामदेवोंको मोहित करनेवाली ।

   ९५०. श्रीकृष्णगुणगानाढय:=श्रीकृष्णके गुणोंका गान करनेमें तत्पर, ९५९. देवसुन्दरिमोहिनी=देवसुन्दरियोंको मोहनेवाली, ९५२. कृष्णचन्द्रमनोज्ञा=श्रीकृष्णचन्द्रके मनोभावको जाननेवाली, ९५३. कृष्णदेव-सहोदरी=योगमाया रूपसे श्रीयशोदाके गर्भसे उत्पन्न होनेवाली ।

   ९५४.  कृष्णाभिलाषिणी=श्रीकृष्ण-मिलनकी इच्छा रखनेवाली, ९५५. कृष्णप्रेमानुग्रहवाञ्छिनी=श्रीकृष्णके प्रेम और अनुग्रहको चाहनेवाली, ९५६. क्षेमा=क्षेमस्वरूपा, ९५७. मधुरालापा=मीठे वचन बोलनेवाली, ९५८. भ्रुवोमाया=भौहोंसे मायाको प्रकट करनेवाली, ९५९. सुभद्रिका=परम कल्याणमयी ।

   ९६०. प्रकृति:=श्री कृष्णकी स्वरूपभूता ह्रादिनी शक्ति, ९६१. परमानन्दा=परमानन्दस्वरूपा, ९६२. नीपद्रुमतलस्थिता=कदम्बवृक्षके नीचे खड़ी होनेवाली, ९६३. कृपाकटाक्षा=कृपापूर्ण कटाक्षवाली, ९६४. विम्बोष्ठी= विम्बफलके समान लाल ओठवाली, ९६५. रम्भा=सर्वाधिक सुन्दरी होनेके कारण रम्भा नामसे प्रसिद्ध, ९६६. चारुनितम्बिनी=मनोहर नितम्बवाली ।

   ९६७. स्मरकेलिनिधाना=प्रेमलीलाकी निधि, ९६८. गण्डताटङ्कमण्डिता=कपोलोंपर कर्णभूषणोंसे अलंकृत, ९६९. हेमाद्रिकान्तिरुचिरा=सुवर्णगिरि मेरुकी कान्तिके समान सुनहरी कान्तिसे सुशोभित परम सुन्दरी, ९७०. प्रेमाढया=प्रेमसे परिपूर्ण, ९७९. मदमन्धरा=प्रेममदसे मन्द गतिवाली ।

   ९७२. कृष्णचिन्ता=श्रीकृष्णका चिन्तन करनेवाली, ९७३. प्रेमचिन्ता=श्रीकृष्ण-प्रेमका चिन्तन करनेवाली, ९७४. रतिचिन्ता=श्रीकृष्णरतिका चिन्तन करनेवाली, ९७५. कृष्णदा=श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाली, ९७६. रासचिन्ता=श्रीकृष्णके साथ रासका चिन्तन करनेवाली, ९७७. भावचिन्ता=प्रेम-भावका चिन्तन करनेवाली, ९७८. शुद्धचिन्ता=विशुद्ध चिन्तनवाली, ९७९. महारसा=अतिशय प्रेमस्वरूपा ।

   ९८०. कृष्णादृष्टित्रुटियुगा=श्रीकृष्णको देखे बिना क्षणभरके विलम्बको भी एक युगके समान माननेवाली, ९८१. दृष्टिपक्मविनिन्दिनी=श्रीकृष्णका दर्शन करते समय बाधा देनेवाली आँखकी पलकोंकी निन्दा करनेवाली, ९८२. कन्दर्पजननी=कामदेवको जन्म देनेवाली, ९८३. मुख्या=सर्वप्रधाना, ९८४. वैकुण्ठगतिदायिनी=वैकुण्ठ धामकी प्राप्ति करनेवाली ।

   ९८५. रासभावा=रासमण्डलमें आविर्भूत होनेवाली, ९८६. प्रियाशिलष्टा=प्रियतम श्यामसुन्दरके द्वारा आश्लिष्ट, ९८७. प्रेष्ठा=श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ९८८. प्रथमनायिका=श्रीकृष्णकी प्रधान नायिका, ९८९. शुद्धा=शुद्धस्वरूपा, ९९०. सुधादेहिनी=प्रेमामृतमय शरीरवाली, ९९१. श्रीरामा=लक्ष्मीके समान सुन्दर, ९९२. रसमञ्जरी=श्रीकृष्णप्रेम-रसको प्रकट करनेके लिये मञ्जरीके समान ।

   ९९३. सुप्रभावा=उत्तम प्रभावसे युक्त, ९९४. शुभाचारा=शुभ आचरणवाली, ९९५. स्वर्नदीनर्मदाग्बिका=गङ्गा तथा नर्मदाकी जननी, ९९६. गोमतीचन्द्रभागेडया=गोमती और चन्द्रभागाके द्वारा स्तवनीय, ९९७. सरयूताप्रपर्णिसू:=सरयू तथा ताम्रपर्णी नदीको प्रकट करनेवाली ।

   ९९८. निष्कलङ्कचरित्रा=कलङ्कशून्य चरित्रवाली, ९९९. निर्गुणा=गुणातीत, १०००. निरञ्जना=निर्मलस्वरूपा । नारद ! यह राधाकृष्णयुगलरूप भगवान्‌का सहस्त्रनाम स्तोत्र है । इसका प्रयत्नपूर्वक पाठ करना चाहिये । यह वृन्दावनके रसकी प्राप्ति करानेवाला है । बड़े-से-बड़े पापोंको शान्त कर देता है । अभिलषित भोगोंको देनेवाला महान्‌ साधन हैं । यह राधा-माधवकी भक्ति देनेवाला है । जिनकी मेधाशक्ति कभी कुण्ठित नहीं होती तथा जो श्रीराधा-प्रेमरूपी सुधासिन्धुमें नित्य विहार-सतत अवगाहन करते हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्णको नमस्कार है । श्रीराधादेवी संसारकी सृष्टि करती हैं । वे ही जगत्‌के पालनमें तत्पर रहती हैं और वे ही अन्तकालमें जगत्‌का संहार करनेवाली हैं । वे सबकी अधीश्वरी तथा सबकी जननी हैं । मुनीश्वर ! यह उन्हीं श्रीराधाकृष्णका सहस्त्रनाम मैंने तुम्हें बताया है । यह दिव्य सहस्रनाम भोग और मोक्ष देनेवाला है ।

                                                           (नारदपुराण पूर्वभाग अध्याय ८२)