नारदसंहिता अध्याय-1
अणोरणुतरः साक्षादीश्वरो महतो महान् ।
आत्मा गुहायां निहितो जंतोर्जयत्यतीन्द्रियः ॥१॥
सूक्ष्मसेभी अत्यन्त सूक्ष्म और महानसे भी अत्यन्त महान ऐसे परमात्मा जो कि अतीन्द्रिय इंद्रियसे भी ग्रहण नहीं किये जाते हैं वे साक्षात् परमेश्वर जीवके अंतःकरणमें उत्कर्षतासे वर्तते हैं ॥१॥
ब्रह्माचार्योवसिष्टोऽत्रिर्मनुः पौलस्त्यलोमशौ ।
मरीचिरंगिरा व्यासो नारदः शौनको भूगुः ॥२॥
च्यवनो यवनो गर्गः कश्यपश्च पराशरः ।
अष्टादशैते गंभीरा ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तकाः ॥३॥
ब्रह्माजी, आचार्य, वसिष्ट, अत्रि, मनु, पौलस्त्य, लोमश, मरीचि, अंगिरा, वेदव्यास, नारद, शौनक, भृगु च्यवन, यवनाचार्य, गर्ग, कश्यप, पराशर, ये १८ गंभीर ज्योतिःशास्त्रको प्रवर्त्त करनेवाले भये हैं ॥२-३॥
सिद्धांतसंहिता होरा रूपं स्कंधत्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं चक्षुर्ज्योतिःशास्त्रमनुत्तमम् ॥४॥
अस्य शास्त्रस्य संबंधो वेदांगमिति कथ्यते ।
अभिधेयं च जगतः शुभाशुभनिरूपणम् ॥५॥
सिद्धांत, संहिता, होरारूप, तीन स्कंधों वाला वेदका निर्मल नेत्ररूप परमोत्तम ज्योतिःशास्त्र ऐसे यह ग्रंथ कहा है । यह ज्योतिःशास्त्र वेदांग कहलाता है जगतके शुभ अशुभ हालको वर्णन करताहै ॥४-५॥
यज्ञाध्ययनसंक्रांतिग्रहषोडशकर्मणाम् ।
प्रयोजनं च विज्ञेयं तत्तत्कालविनिर्णयात् ॥६॥
विनैतदखिलं श्रौतस्मार्तकर्म न सिध्यति ।
तस्माज्जगद्वितायेदं ब्रह्मणा रचितं पुरा ॥७॥
तं विलोक्याथ तत्सूनुर्नारद मुनिसत्तमः ।
उक्त्वा स्कंधद्वयं पूर्व संहितास्कंधमुत्तमम् ॥८॥
वक्ष्ये शुभाशुभफलज्ञप्तये देहधारिणीम् ।
होरास्कंधस्य शास्त्रस्य व्यवहारप्रसिद्धये ॥९॥
यज्ञ, अध्ययन, संक्रांतिका पुण्यकाल, ग्रह षोडशकर्म, इनके यथार्थ समयका निर्णय ज्योतिःशास्त्रसे ही होता है । इसके बिना संपूर्ण श्रुति स्मृतिमें कहा हुआ कर्म सिद्ध नहीं होवे इस लिये ब्रह्माजीने जगतकी सिद्धिके वास्ते पहिले ज्योतिःशास्त्र रचा है ॥७॥ जीसको देखकर ब्रह्माजीके पुत्र नारद मुनि पहिले दोस्कंध बनाकर ॥८॥ फिर देहधारयोंके शुभ अशुभ फलका ज्ञान होनेके वास्ते इस होरा स्कंध शास्त्रको व्यवहारकी सिद्धिके वास्ते कहते हैं ॥९॥
संज्ञा ह्रूक्ताः समस्ताश्च सम्यग् ज्ञात्वाSपृथक् पृथक् ।
शास्त्रोपनयनाध्यायो ग्रहचारोऽब्दुलक्षणम् ॥१०॥
तिथिर्वारश्च नक्षत्रं योग तिथ्वृक्षसंज्ञकम् ।
मुहूर्तीपग्रहोऽर्कस्य संक्रांतिर्गोचरस्तथा ॥११॥
चंद्रताराबलाध्यायः सर्वलग्नार्तवाह्वयः ।
आधानपुंससीमंता जातनामान्नभुक्तयः ॥१२॥
चौलांकुरार्पणं मौंजीछुरिकाबंधनं क्रमात ।
समावर्तनवैवाहप्रतिष्टासद्मलक्षणम् ॥१३॥
यात्रा प्रवेशनं सद्योवृष्टिकूर्मविलक्षणम् ।
उत्पातलक्षणं शांतिमिश्रकं श्राद्धलक्षणम् ॥१४॥
सप्तत्रिंशद्भिरध्यायैर्नारदीयाख्यसंहिता ।
य इमां पठते भक्त्या स दैवज्ञो हि दैववित् ॥१५॥
इसमें अच्छे प्रकार से अलग २ संज्ञा कही हैं शास्त्रोपनयनाध्याय अर्थात् इस शास्त्रका अभिप्राय वर्णन, ग्रहचार वर्णन, संवत्सरोंका फल, तिथी, वार, नक्षत्र, और तिथी तथा नक्षत्रसे शीघ्र हुआ योग, इन्हीका विचार, मुहूर्त प्रकरण, उपग्रह प्रकरण, सूर्य संक्रांति फल, ग्रहगोचर, ॥१०-११ ॥ चंद्र तारा बल देखनेका अध्याय, सब लग्नोंका विचार प्रथम रजस्वलाका विचार आधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नाम करण अन्नप्राशन ॥१२॥ चौलकर्म, मंगलाकुरांर्पण, मौंजी बंधन, छुरिका बंधन ये सब क्रमसे कहे हैं और समावर्तनकर्म विवाहकर्म प्रतिष्ठाकर्म, घरोंका लक्षण, ॥१३॥ यात्रा प्रकरण, प्रवेशमुहूर्त, सद्य वृष्टि, कूर्मलक्षण, उत्पात लक्षण, शांतिकर्म, मिश्रकाध्याय, श्राद्धलक्षण ॥१४॥ ऐसे इन प्रकरणों करके सैंतीस अध्यायोंसे यह नारद संहिता बनाई गई है जो भक्तिसे इसको पढता है वह दैवको जानने वाला ज्योतिषी होता है ॥१५॥
विस्कंधज्ञो दर्शनीयः श्रौतस्मार्तक्रियापरः ।
निर्दाभिकः सत्यवादी दैवज्ञो दैववित्स्थिरः ॥१६॥
तीनों स्कंधों को जानने वाला, दर्शन करने योग्य, श्रुतिस्मृति विहित कर्म करनेवाला पाखंडरहित सत्यवादी दैवको जानने वाला स्थिर दैवज्ञ होताहै ॥१६॥