Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-10

वह्रिर्विरिंचिर्गिरिजागणेशः फणी विशाखो दिनकृन्महेशः ॥
दुर्गान्तको विष्णुहरी स्मरश्च सर्वः शशी चेतिपुराणदृष्टः॥१॥

अथ प्रतिपदा आदि तिथियोंके स्वामी अग्नि १ ब्रह्मा २ गौरी ३ गणेश ४ सर्प ५ स्कंद ६ सूर्य ७ शिव ८ दुर्गा ९ यम १० विश्वेदेवा ३१ हरि १२ कामदेव १३ शिव १४ चंद्रमा १५ ये प्रतिपदा आदि पूर्णिमातक तिथियोंके स्वामी हैं ॥१॥

अमाया पितरः प्रोक्तास्तिथीनामधिपाः क्रमात् ॥२॥

अमावस्याके स्वामी पितर हैं ऐसे तिथियों के स्वामी यथाक्रम जानने चाहिये ॥२॥

तिथीनामपराः संज्ञाः कथ्यन्ते ता यथाक्रमात् ॥३॥

तिथियोंकी अन्यभी संज्ञा है सो यथा क्रममे नंदा, भद्रा, जया, रिक्ता, पूर्णा ऐसे जाननी ॥३॥

पर्यायत्वेन विज्ञेया नेष्टमध्येष्टदा सिते ॥
कृष्णपक्षेपीष्टमध्यनेष्टदाः क्रमशः सदा ॥४॥

ये तिथि अर्थात् प्रतिपदासे ५ तक फिर १० तक फिर १५ तक ऐसे शुक्लपक्षमें अशुभ, मध्यम, श्रेष्ठ, ऐसे फलदाय जाननी और कृष्णपक्षमें श्रेष्ठ मध्यम, अशुभ ऐसे क्रमसे जाननी ॥४॥

चित्रलेख्यासवक्षेत्रतैलशय्यासनादि यत् ॥
वृक्षच्छेदो मृदाश्मार्थं कर्मप्रतिपदीरितम् ॥५॥

चित्र लिखना, मदिरा निकालनी, खेतका काम, तेल मालिश, शय्या, आसन, वृक्षकाटना, घर पत्थरका काम. ये कर्म प्रतिपदा तिथिविष करने शुभ हैं ॥५॥

विवाहमौंजीयात्राश्च सुरस्थापनभूषणम् ॥
गृहं पुष्यखिलं कर्म द्वितीयायां विधीयते ॥६॥

विवाह, मौंजीबंधन, यात्रा, देवस्थापन, आभूषण, घर प्रारंभ, संपूर्ण पुष्टिके कर्म, ये सब द्वितीया तिथि विषे करने चाहियें ॥६॥

मौंजी प्रतिष्ठाश्च शिल्पविद्या निखिलमंगलम् ॥
पश्विभोष्टाबुयानोक्तं तृतीयायां विभूषणम् ॥७॥

मौंजीबंधन, प्रतिष्ठा, शिल्पविद्या, संपूर्ण मंगलकार्य, पशु, हाथी, ऊँट इनका खरीदना जलमें गमन करना ये कर्म तृतीया तिथि विषे करने शुभ हैं ॥७॥

अथर्वविद्याशस्राग्निबंधनोच्चाटनादिकम् ॥
मारणाद्यखिलं कर्म रिक्तास्वेव विधीयते ॥८॥

अथर्व विद्या अर्थात् गायन तथा मंत्रादि विद्या शस्त्र विद्या अग्नि बंधन उच्चाटन मारण आदि कर्म रिक्ता ४।९।१४ तिथियोंमें करने चाहियें ॥८॥

यानोपनयनोद्वाहग्रहशांतिकपौष्टिकम् ॥
चरस्थिराखिलं कर्म पंचम्यां मंगलोत्सवम् ॥९॥

सवारी करना, उपनयनकर्म, विवाह, ग्रहशांति, पौष्टिक कर्म, चर स्थिर मंगलोत्सव, ये कर्मपंचमी तिथिमें करने चाहियें ॥९॥

पशुवास्तुमहीसेवापण्यांबुक्रयविक्रये॥
भूषणं व्यवहारादि कर्म षष्ठयां विधीयते ॥१०॥

पशुकर्म, वास्तुकर्म, पृथ्वीके काम, सेवाकर्म, दूकान, जल, खरीदना, बेचना, आभूषण, व्यवहार ये कम षष्ठी तिथिमें करने चाहियें ॥१०॥

यानस्थापनवाहादि राजसेवादि कर्म यत् ॥
विवाहवास्तुभूषाद्य सप्तम्यां चोपनायनम् ॥११॥

गमन, स्थापन, वाहन, राजसेवा आदिकर्म, विवाह, वास्तु, आभूषण, उपनयनकर्म ये सप्तमीमें करने चाहिये ॥११॥

कृषिवाणिज्यधान्याश्मलोहसंग्रामभूषणम् ॥
शिवस्थापनखाताम्बुकर्माष्टम्यां विधीयते ॥१२॥

खेती वणिज धान्य पत्थर लोहा संग्राम आभूषण शिवस्थापन खोदनेका काम जलकर्म ये अष्टमी विषे करने चाहियें ॥१२॥

प्रासादस्थापनं यानमुद्वाहो व्रतबंधनम् ॥
शांतिपुष्ट्यादिकं कर्म दशम्यांतु प्रशस्यते ॥१३॥

देवमंदिरकी पूजा गमन विवाह व्रतबंधन शांतिपुष्टि आदिकर्म ये दशमीविषे करने श्रेष्ठ हैं ॥१३॥

व्रतोपवासवैवाहकृषिवाणिज्यभूषणम् ॥
शिल्पनृत्यं गृहं कर्म एकादश्यां विचित्रकम् ॥१४॥

व्रत उपवास विवाह खेती वणिज आभूषण शिल्पकर्म नृत्ये गृह कर्म विचित्रकर्म ये एकादशीतिथिमें करने चाहिये ॥१४॥

चरस्थिराखिलं कर्म दानशांतिकपौष्टिकम् ॥
यात्रान्नग्रहणं त्यक्त्वा द्वादश्यां निखिलं हितम् ॥१५॥

चर स्थिर सम्पूर्ण कर्म, दानशांति पौष्टिककर्म यात्रा अन्नसंग्रह इनकर्मीके बिना अन्यकर्म द्वादशी तिथिमें करने शुभ हैं ॥१५॥

अग्न्याधानं प्रतिष्ठा च विवाइव्रतबंधनम् ॥
निखिलं मंगलं यानं त्रयोदश्यां प्रशस्यते ॥१६॥

अग्निस्थापन, प्रतिष्ठा, विवाह, यज्ञोपवीत, संपूर्ण मंगलकर्म यात्रा ये त्रयोदशीको करने शुभ हैं ॥१६॥

बंधनाग्निप्रदानोग्रघातव्रणरणक्रिया ॥
शस्त्रास्त्रलोहकर्माणि चतुर्दश्यां विधीयते ॥१७॥

बंधन अग्निलाना उग्रघात रण शस्त्र अस्त्र लोहकर्म ये सब चतुर्दशीको करने शुभ हैं ॥१७॥

तैलस्रीसंगमं चैव दंतकाष्ठोपनायनम् ॥
सक्षौरं पौर्णमास्यां च विनान्यदखिलं हितम् ॥१८॥

तेलकी मालिश, स्त्रीसंग, दांतून करना, यज्ञोपवीत क्षौर इनके विना अन्यकर्म पौर्णमासी विषे करने शुभ हैं ॥१८॥

पितृकर्मत्वमावास्यामेकं मुक्त्वा कदाचन ॥
न विदध्यात्प्रयत्नेन यत्किचिन्मंगलादिकम् ॥१९॥

अमावास्या तिथिविषे एक पितृ कर्मविना अन्य कुछ मंगलकर्म कभी नहीं करना चहिये ॥१९॥

अष्टमी द्वादशी षष्टी चतुर्थी च चतुर्दशी ॥
तिथयः पक्षरंध्राख्या दुष्टास्ता अतिनिदिताः ॥२०॥

अष्टमी द्वादशी षष्ठी चतुर्थी चतुर्दशी ये तिथि पक्षरंधनामक अर्थात् पक्षमें छिद्ररूप कही हैं ये अशुभ अत्यंत निंदित हैं ॥२०॥

चतुर्थमनुरंध्रांकतत्त्वसंज्ञास्तुनाडिकाः ॥
त्याज्या दुष्टासु तिथिषु पंचस्वेतासु सर्वदा ॥२१॥

और ४-१४-७-९-५- इतनी प्रमाण घडी यथाक्रमसे इन आदि दुष्ट पांच तिथियोंमें सदा त्याग देनी चाहिये फिर अशुभ नहीं है ॥२१॥

अमावास्या च नवमी त्यक्त्वा विषमसंज्ञिकाः ॥
तिथयस्ताः प्रसस्ताः स्युर्मध्यमा प्रतिपत्तथा ॥२२॥

फिर अमावस्या नवमीको त्यागकर ये विषमसंज्ञक तिथि भी शुभदायक कही हैं और प्रतिपदा तिथि मध्यम है ॥२२॥

दर्शषष्ठयां प्रतिपदि द्वादश्यां प्रतिपर्वसु ॥
नवम्यां च न कुर्वीत कदाचिद्दमतधावनम् ॥२३॥

अमावस्या षष्ठी प्रतिपदा द्वादशी पूर्णमासी इनमें कभी दांतून नहीं करनी चाहिये ॥२३॥

षष्ठयां तैलं तथाष्टम्यां मांसं क्षौर तथा कलौ ।।
पूर्णिमादर्शयोर्नारीसेवनं परिवर्जयेत् ॥२४॥

षष्ठीमें तेल अष्टमीविषे मांस चतुर्दशी विषे क्षौर पूर्णमासी वा अमावस्या विषे स्त्रीरमण वर्जदेना चाहिये ॥२४॥

व्यतीपाते च संक्रांतौ एकादश्यां च पर्वसु ॥
अर्कभौमदिने षष्ठयां नाभ्यगं च न वैधृतौ ॥२५॥

व्यतीपात, संक्रान्ति, एकादशी, पूर्णमासी, अमावस्या, रविवार मंगल, षष्ठी, वैधृतियोग इन विषे तैल उबटना आदिकी मालिश नहीं करना ॥२५॥

यः करोति दशम्यां च स्नानमामलकैः सह ॥
पुत्रहानिर्भवेत्तस्य त्रयोदश्यां धनक्षयः ॥२६॥

दशमीके दिन जो आवलोंसे स्नान करता है उसके पुत्रकी हानि होती है और त्रयोदशी विषे करे तो धनका क्षय हो ॥२६॥

अर्थपुत्रक्षयं तस्य द्वितीयायां न संशयः ॥
अमायां च नवम्यां च सप्तम्यां च कुलक्षयः ॥२७॥

द्वितीया विषे धन और पुत्रका नाश हो अमावस्या नवमी सप्तमी इन विषे आंवलोंसे स्नान करे तो कुलका क्षय हो ॥२७॥

या पूर्णमास्यनुमतिर्निशि चंद्रवती यदा ॥
दिवा चंद्रवती राका ह्यमावास्या तथा द्विधा ॥२८॥

जिसमें रात्रिमें चंद्रमा प्राप्त हो अर्थात् चतुर्दशीमें पूर्णिमा आई हो वह अनुमति कही है और दिनमें भी चंद्रमाकी पूर्ण कलासे युक्त हो वह राकासंज्ञक पूर्णिमा तिथि कही है तैसे ही अमावस्या भी दो प्रकारकी कही है ॥२८॥

सिनीवाली सेंदुमती कुहूर्नेदुमती मता ॥
कार्तिके शुक्लनवमी त्वादिः कृतयुगस्य सा ॥२९॥

एक तो सिनीवाली है उसको चंद्रमा दीखजाता है और कुहू संज्ञक कही है उसको चंद्रमाकी सब कला क्षीण होजाती हैं और कार्तिक शुक्ल नवमी तिथी सत्ययुगादि तिथि कही है ॥२९॥

त्रेतादिर्माधवे शुक्ला तृतीया पुण्यसंज्ञिता ॥
कृष्णा पंचदशी माघे द्वापरादिरुदीरि ता ॥३०॥

वैशाख शुक्ला तृतीया त्रेताकी आदि तिथि कही है पवित्र है माघकी अमावस्या द्वापरकी आदि तिथि कही है ॥३०॥

कल्पादिस्यात्कृष्णपक्षे नभस्ये च त्रयोदशी ॥
द्वादश्यूर्जे शुक्लपक्षे नवम्याश्वयुजे सिते ॥३१॥

भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी कलियुगादि तिथि कही है और कार्तिक शुक्ला द्वादशी आश्विन शुक्ला नवमी ॥३१॥

चैत्रे भाद्रपदे चैव तृतीया शुक्लसंज्ञिता ॥
एकादशी सिता पौषेप्याषाढे दशमी सिता ॥३२॥

चैत्र शुक्ला तृतीया भाद्रपद शुक्ला तृतीया, पौष शुक्ला एकादशी आषाढ शुक्ला दशमी ॥३२॥

माघे च सप्तमी शुक्ला नभस्येप्यसिताष्टमी ॥
श्रावण मास्यमावास्या फाल्गुने मासि पूर्णिमा ॥३३॥

माघ शुक्ला सप्तमी, भाद्रपद कृष्णा अष्टमी, श्रावणकी अमावस्या, फाल्गुनकी पूर्णिमा ॥३३॥

आषाढे कार्तिके मासि चैत्रे ज्येष्ठे च पूर्णिमा ॥
मन्वादयः स्नानदानश्राद्धेष्वानंत्यपुण्यदा ॥३४॥

आषाढकी पूर्णीमा और कार्तिक, चैत्र, ज्येष्ठ इन्होंकी पूर्णिमा ये मन्वदिक तिथि कहीहैं स्नान दान श्राद्ध इन कर्मोंमें अनंत फल दायक हैं ॥३४॥

भाद्रकृष्ण त्रयोदश्यां मघास्विदुः करे रविः ॥
गजच्छाया तदा ज्ञेया श्राद्धेत्यंतफलप्रदा ॥३५॥

भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी विषे मघा नक्षत्रपर चन्द्रमा हो औ हस्तपर सूर्य होय तो गजच्छाया योग कहा है श्राद्धमें अत्यंत फल दायक है ॥३५॥

एकस्मिन्वासरे तिस्रस्तिथयः स्युः क्षयातिथिः ॥
तिथिर्वारत्रयेप्वेका त्वधिकात्यंतनिदिता ॥३६॥

एकवार निरंतर एक वार विषे तीन तिथि क्षय होवें अथवा निरंतर तीन उनही वारों में एक तिथि बढी हो वह अत्यंत निंदित कही है ॥३६॥

सूर्यास्तमनपर्यंतं यस्मिन् वारेपि या तिथिः ॥
विद्यते सा त्वखंडास्याद्दूनाचेत्खंडसंज्ञिता ॥३७॥

सूर्य अस्त हो तबतक एकही तिथि उस वारमें रहे तो वह अखंडा तिथि कहाती है जो ऊन ( अधूरी ) रह जावे तो वह खंडिता कहलाती है ॥३७॥

तिथेः पंचदशो भागः क्रमात्प्रतिपदादयः ॥
द्विघटीप्रमितं तत्र मुहूर्त कथितं बुधैः ॥३८॥

तिथिका पंद्रहवाँ भाग अर्थात् चंद्रमंडलका पंद्रहवाँ भाग प्रतिपदा आदि तिथि कही हैं और दो घडीका एक मुहूर्त होता है ॥३८॥