नारदसंहिता अध्याय-11
नृपाभिषेकमांगल्यसेवायानास्त्रकर्म यत् ॥
औषधाइवधान्यादि विधेयं रविवासरे ॥१॥
राज्याभिषेक, मंगलकर्म, सेवा, सवारी, अस्वकर्म, औषध, युद्ध, धान्य कर्म ये रविवार विषे करने चाहिये ॥१॥
शंखमुक्तांबुरजतवृक्षेक्षुस्त्रीविभूषणम् ॥
पुष्पगीतक्रतुक्षीरकृषिकर्मेन्दुवासरे ॥२॥
शंख मोती चांदी वृक्ष ईख स्त्रीका आभूषण पुष्प गीत यज्ञ दूध खेती ये कर्म सोमवार में करने चाहियें ॥२॥
विषाग्निबंधनस्तेयं संधिविग्रहमाहवे ॥
धात्वाकरप्रवालास्त्रकर्मभूमिजवासरे ॥३॥
विष अग्नि बंधन चोरी युद्धमें संधि या विग्रह धातु खजान मूंगा शस्त्रकर्म ये मंगलवारमें करने चाहिये ॥३॥
नृत्यशिल्पकलागीतलिपिभूरससंग्रहम् ॥
विवाहधातुसंग्रामकर्म सौम्यस्य वासरे ॥४॥
नृत्य शिल्पकला गीत लिखना पृथ्वीके रसोंका संग्रह विवाह धातु संग्राम ये कर्म बुधवारमें करने चाहिये ॥४॥
यज्ञपौष्टिकमागल्यं स्वर्णवस्त्रादिभूषणम् ॥
वृक्षगुल्मलतायानकर्म देवेज्यवासरे ॥५॥
यज्ञ पौष्टिक कर्म मांगल्यकर्म सुवर्ण वस्त्र आदिका श्रृंगार वृक्ष गुच्छा लता सवारी ये कर्म बृहस्पति वारमें करने चाहियें ॥५॥
नृत्यगीतादिवादित्रस्वर्णस्रीरत्नभूषणम् ॥
भूपण्योत्सवगोधान्यकर्म भार्गववासरें ॥६॥
नृत्य, गीत, बाजा, सुवर्ण, स्त्री, रत्न, आभूषण, भूमि दूकान, उत्सव, गौ,धान्य इन्होंके कार्य शुकवार विषे करने चाहिये ॥६॥
त्रपुसीसायसोऽश्मास्त्रविषपापासवानृतम् ॥
स्थिरकर्माखिलं वास्तुसंग्रह सौरिवासरे ॥७॥
राँग, सीसा, लोहा, पत्थर, शस्त्र, विष, पाप, मदिरा, झूठ, स्थिरकर्म, वास्तुकर्म ( घरमें प्रवेश ) संग्रह, ये कर्म शनिवारमें करने शुभ हैं ॥७॥
रविः स्थिरश्चरश्चंद्रः कुजः क्रूरो बुधोखिलः ॥
लघुरीज्यो मृदुः शुक्रस्तीक्ष्णो दिनकरात्मजः ॥८॥
सूर्य स्थिर है चंद्रमा चरहै मंगलक्रूर और बुध अच्छे प्रकार पूर्ण है बृहस्पति लघु (अच्छा हलका ) है शुक्र मृदु ( कोमल ) है शनि तीक्ष्ण कहा है ॥८॥
अभ्यक्तो भानुवारे यः स नरः क्लेशवान् भवेत् ॥
ऋक्षेशे कांतिभाग भौमे व्याधिः सौभाग्यमिदुजे ॥९॥
जो मनुष्य रविवारको तेल आदिकी मालिश करै वह दुःखी होवे चंद्रवारको तेल लगावे तो अच्छी कांति बदै मंगलको लगावे तो बीमारी हो बुधको सौभाग्य प्राप्त हो ॥९॥
जीवे नैःस्वं सिते हानिर्मदे सर्वसमृद्धयः ॥
उद्यादुदयं वांर इति पूर्वविनिश्चितम् ॥१०॥
बृहस्पतिको दरिद्रता शुक्रको हानि और शनिवारको तेल लगावे तो सब बातोंकी समृद्धिहो सूर्यके उदयप्रति वार लगता है यह पहिलेका निश्चय चला आता है ॥१०॥
लंकोदयात् स्याद्वारादिस्तस्मादूर्ध्वमधोपि वा ॥
देशान्तरचरार्द्धाभिर्नाडीभिरपरो भवेत् ॥११॥
लंकामें सूर्य उदय हो वह वारादि हैं और लंकासे ऊपरकों तथा नीचेको जो देशांतर हैं उनके चर खंडाओंकरके घटियोंके अंतर होते हैं. अर्थात् सब जगह सब समयमें एकवक्त वार नहीं लगता है शास्त्रोक्तविधिसे वारप्रवेश देखा जाता है ॥११॥
बलप्रदस्य खेटस्य वारे सिध्यति यत्कृतम् ॥
तत्कर्म बलहीनस्य दुःखेनापि न सिध्यति ॥१२॥
बलदायक ग्रहके वारमें जो कर्म किया जाय वह सिद्ध होता है। वही काम जो बलहीन ग्रहके वारमें किया जाय तो परिश्रम होकर भी कार्य सिद्ध नहीं होता ॥१२॥
बुधेदुजीवशुक्राणां वासराः सर्वकर्मसु ॥
सिद्धिदाः क्रूरवारेषु यदुक्तं कर्म सिध्यति ॥१३॥
बुध, चंद्र, बृहस्पति, शुक ये वार सब कामोंमें अच्छे हैं और क्रूरवारों में उग्र कर्म कहे हैं वेही सिद्ध होते हैं ॥१३॥
रक्तवर्णो रविश्चन्द्रो गौरो भौमस्तु लोहितः ॥
दूर्वावर्णो बुधो जीवः पीतः श्वेतस्तु भार्गवः ॥१४॥
सूर्य लालवर्ण है चंद्रमा गौरवर्ण है मंगल लालवर्ण है । बुध हरितवर्ण है बृहस्पतिका पीलावर्ण है शुक्र सफेदवर्ण है ॥१४॥
कृष्णः शौरिः स्ववारेषुस्वस्ववर्णा: क्रियाः शुभाः॥१५॥
शनैश्चर कालावर्ण है तहां अपने २ वर्णके कामकरने शुभ कहे हैं ॥१५॥
अद्रि ७ बाणा ५ व्धय ४ स्तर्क ६ तोयाकर ४ धराधराः ७ ॥
बाणा ५ ग्नि ३ लोचनानि २ स्युर्वेद ४ बाहु २ शिलीमुखाः ५ ॥१६॥
अब कुलिक आदि योग कहते हैं रविवारको ७-५-४ इन प्रहरोंमें और चंद्रवारको ६-४-७ इन प्रहरों में मंगलवारको ५-३-२- इन प्रहरोमें बुधको ४-२-५- इन प्रहरों में ॥१६॥
लोके ३ न्दु १ वसवो ८ नेत्र २ शैला ७ ग्नी ३ न्दु १ रसो ६ रसः६ ॥
कुलिका यमघंटाख्या अर्धप्रहरसंज्ञकाः ॥१७॥
बृहस्पतिको ३-१-८- इन प्रहरोंमें शुक्रको २-७-३-इन प्रहरोंमें शनिको १-६-६’इन प्रहरोंमें यथाक्रमसे कुलिक, यम घंटक, प्रहरार्द्ध अर्थात् वारवेला ये तीन योग होते हैं
प्रहरार्धप्रमाणास्ते विज्ञेया सूर्यवासात् ॥
यस्मिन्वारे क्षणो वार इष्टस्तद्वासराधिपः ॥१८॥
आद्यष्षष्ठो द्वितीयोऽस्मात्तस्मात्पष्टस्तृतीयकः ॥
षष्ठषष्ठश्चैतरेषां कालहोराधिपाः स्मृताः ॥१९॥
जिस वारके जो तीन प्रहर दिखाये हैं उनमें यथाकमसे आधे २ प्रहर तक ये योग रहते हैं जैसे रविवारमें ७ प्रहरमें आधे प्रहरतक कुलिकयोग फिर ५ प्रहरमें यमघंटक फिर ४ प्रहरमें ४ घडी अर्धप्रहर ( वारवेला) ऐसे सभीमें जानों ये शुभकर्म में निंदित हैं । जिसवारमें जिस वक्त जिसकी होरा आती है तब वह वार स्वामी होता है पहले तो वर्तमान वार फिर उससे छठा वार फिर तिससेभी छठा वार फिर तिससे छठा ऐसे छठे छटे वारकी काल होरा होती है ॥१८॥१९॥
सार्धनाडीद्वयेनैवं दिवा रात्रौ यथाक्रमात् ॥
यस्य खेटस्य यत्कर्म वारे प्रोक्तं विधीयते ॥
ग्रहस्य कर्म वारेऽपि तत्क्षणे तस्य सर्वदा ॥२०॥
दिनरात्रिमें यथाक्रमसे २॥ अढाई घडीकी काल होरा जाननीं जिसग्रहके वारमें जो काम करना कहा है वही काम उसी वारकी होरामें भी सदा करलेना चाहिये जैसे रविवारको चंद्रमाकी होरा आवै तब चंद्रवारके कार्य करने योग्य हैं ॥२०॥