नारदसंहिता अध्याय-12
नक्षत्रेशाः क्रमाद्दस्रयमवह्रिपितामहाः ॥
चंद्रेशाऽदितिजीवाहिपितरो भगसंज्ञिताः ॥१॥
दस्र ( अश्विनीकुमार ) १ यम २ वह्रि ३ ब्रह्मा ४ चंद्रमा ५ शिवजी ६ अदिति ७ बृहस्पति ८ सर्प ९ पितर १० भग ११ ॥१॥
अर्यमार्कत्वष्टमरुच्छक्राग्निमित्रवासवाः ॥
निर्ऋत्युदग्विश्वविधि गोविंदवसुतोयपाः ॥२॥
अर्यमा १२ सूर्य १३ त्वष्टा १४ वायु १५ इंद्राग्नि १६ मित्र १७ इंद्र १८ निति १९ जल २० विश्वेदेवा २१ ब्रह्मा २२ विष्णु २३ वसु २४ वरुण २५ ॥२॥
ततोऽजपादहिर्बुध्न्य: पूषा चेति प्रकीर्तिताः ॥
वस्रोपनयनं क्षौरः सीमंताभरणक्रिया ॥३॥
अजैकपाद् २६ अहिर्बुध्न्य २७ पूषा २८ ऐसे ये २७ देवता आश्विनी आदि २७ नक्षत्रोंके स्वामी कहे हैं । अब इन नक्षत्रों में करने योग्य कार्योंको कहते हैं वस्त्र यज्ञोपवीत क्षौर सामंत आभूषण कर्म ॥३॥
स्थापनाश्वादियानं च कृषिविद्यादयोऽश्विभे ॥
वापीकूपतडागादि विषशस्त्रोग्रदारुणम् ॥४॥
प्रतिष्ठा, घोड़ा आदि सवारी, खेती विद्या पढना इत्यादि काम अश्विनी नक्षत्र में करने शुभ हैं और बावड़ी कुँवा तलाव कराना विष शस्त्र उग्र दारुण काम ॥४॥
बिलप्रवेशगणितनिक्षेपा याम्यभे शुभाः ॥
अग्न्याधानास्त्रशस्रोग्रसन्धिविग्रहदारुणाः ॥५॥
गुफामें प्रवेश होना गणित विद्या धरोहड़ जमा करना ये कार्य भरणी नक्षत्रमें करने शुभ हैं अग्निस्थापन अस्त्र शस्त्र उग्रकर्म संधि दारुण विग्रह ॥५॥
संग्रामौषधवादित्रक्रियाः शस्ताश्च बह्रिभे ॥
सीमंतोपनयनोद्वाहवस्त्रभूषास्थिरक्रियाः ॥
गजवास्त्वभिषेकाश्च प्रतिष्ठा ब्रह्मभे शुभाः ॥६॥
संग्राम औषध बाजा ये काम कृत्तिका नक्षत्रमें करने शुभ हैं, और सीमंतकर्म, यज्ञोपवीत, विवाह, वस्त्रपहिनना, आभूषण, स्थिरक्रिया, व हाथी लेना, वास्तुकर्म, अभिषेक, प्रतिष्ठा ये कर्म रोहिणी नक्षत्रमें शुभ हैं ॥६॥
प्रतिष्ठाभूषणोद्वाहसीमंतोपनयनक्रियाः ॥
क्षौरवास्तुगजोष्ट्राश्च यात्रा शस्ता च चंद्रभे ॥७॥
प्रतिष्ठा, आभूषण, विवाह, सीमंतकर्म, उपनयन, क्षौर, वास्तुकर्म, हाथी, ऊँटका काय, यात्रा ये मृगशिरा नक्षत्रमें शुभ हैं ॥७॥
ध्वजतोरणुसंग्रामप्रकारास्त्रक्रियाःशुभाः ॥
संधिविग्रहवैतानरसाद्याःशवभे शुभाः ॥८॥
ध्वजा, तोरण, संग्राम, किला, (कोट) शस्त्र क्रिया, संधि, विग्रह मंडप, रसक्रिया, ये कर्म आर्द्रा नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥८॥
प्रतिष्ठा यानसीमंतवस्रवास्तूपनायनम् ॥
क्षौरास्त्रकर्मादितिभे विधेयं धान्यभूषणम् ॥९॥
प्रतिष्ठा, गमन, सीमंतकर्म, वस्त्रकर्म, वास्तु, उपनयन, भौरकर्म, अस्त्रकर्म, धान्य, आभूषण, ये कार्य पुनर्वसु नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥९॥
यात्राप्रतिष्ठासीमंतव्रतबंधप्रवेशनम् ॥
करग्रहं विना सर्व कर्म देवेज्यभे शुभम् ॥१०॥
यात्रा, प्रतिष्ठा, सीमंत, यज्ञोपवीत, गृहप्रवेश ये कर्म तथा विवाह कर्म विना अन्य सब कार्य पुष्य नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥१०॥
अनृतव्यसनद्यूतक्रोधाग्निविषदाहकम् ॥
विवादरसवाणिज्यं कर्म कद्रुजभे शुभम् ॥११॥
झूठ, व्यसन, जूवा, क्रोध, अग्नि, विष, दाह, विवाद, रस, वाणिज्य ये कर्म आश्लेषा नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥११॥
कृषिवाणिज्यगोधान्यरणोपकरणादिकम् ॥
विवाहनृत्यगीताचं निखिलं कर्म पैत्रभे ॥१२॥
खेती, वाणिज्य, गौ, धान्य, रण, कोई वस्तुसंचय तैयारी, विवाह, नत्य, गीत ये सब कर्म मघा नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥१२॥
विवादविषशस्त्रग्निदारुणोग्राहवादिकम् ॥
पूर्वोत्रयेऽखिलं. कर्म कर्तव्यं मांसविक्रयम् ॥१३॥
विवाद विष शस्त्र अग्नि दारुण उग्रकर्म युद्ध मांस बेचना इत्यादि कर्म तीनों पूर्वीओंमें करने शुभ हैं ॥१३॥
वस्त्राभिषेकलोहाश्मविवाहव्रतबंधनम् ॥
प्रवेशस्थापनाश्वेभवास्तुकर्म्मोत्तरात्रये ॥१४ ॥
वस्त्र अभिषेक लोहा पत्थर विवाह यज्ञोपवीत प्रवेश प्रतिष्ठाकर्म घोडा हाथी वास्तुकर्म ये सब कार्य तीनों उत्तराओंमें करने शुभ हैं ॥१४॥
प्रतिष्ठोद्रासीमंतयानवस्रोपनायनम् ॥
क्षौरवास्त्वभिषेकाश्च भूषणं कर्म भानुभे ॥१५॥
प्रतिष्ठा विवाह सीमंतकर्म सवारी वस्त्र उपनयनकर्म क्षौर वास्तुकर्म अभिषेक आभूषण ये कर्म हस्त नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥१५॥
प्रवेशवस्त्रसीमंतप्रतिष्ठाव्रतवंधनम् ॥
त्वाष्ट्रभे वास्तुविद्या च क्षौरभूषणकर्म यत् ॥१६॥
प्रवेश वस्त्र सीमंत प्रतिष्ठा यज्ञोपवीत वास्तुविद्या क्षौर आभूषण ये कर्म चित्रा नक्षत्रमें करने शुभ हैं ॥१६॥
प्रतिष्ठोपनयोद्वाहवस्त्रसीमंतभूषणम् ॥
प्रवेशाश्वेभकृष्यादिक्षौरकर्म समीरभे ॥१७॥
प्रतिष्ठा उपनयन विवाह वस्र सीमंतकर्म आभूषण प्रवेश घोडा हाथी खरीदना खेती क्षौरकर्म ये स्वाति नक्षत्रमें करने शुभहैं ॥१७॥
वस्त्रभूषणवाणिज्यवस्तुधान्यादिसंग्रहः ॥
इंद्राग्निभे नृत्यगीतशिल्पलोहाश्मलेखनम् ॥१८॥
वस्व आभूषण वणिज वस्तु व धान्य आदिका संग्रह, नृत्य गीत शिल्पकर्म लोहा पत्थर लिखना ये कर्म विशाखा नक्षत्र में करने शुभ हैं ॥१८॥
प्रवेशस्थापनोद्वाहव्रतबंधाष्टमंगलाः ॥
वास्तुभूषणवस्त्राश्वा मैत्रभे संधिविग्रहः ॥१९॥
प्रवेश प्रतिष्ठा विवाह ब्रतबन्ध अष्ट प्रकारके मंगल, वास्तुकर्म, आभूषण वस्र अश्वा संधि विग्रह ये कार्य अनुराधा नक्षत्रमें करने शुभ है ॥१९॥
क्षौरास्त्रशास्त्रवाणिज्यगोमहिष्यबुकर्म यत् ॥
इंद्रभे गीतवादित्रशिल्पलोहाश्मलेखनम् ॥२०॥
क्षौरकर्म, अस्त्रकर्म, शस्त्रकर्म, वणिज, गौ, महिषी, जल, गीत, बाजा, शिल्प, लोहा, पत्थर, लिखना, ये कर्म ज्येष्ठा नक्षत्रमें करने शुभहैं ॥२०॥
विवाहकृषिवाणिज्यदारुणाहवभेषजम् ॥
नैर्ऋते नृत्यशिल्पास्रशस्त्रलोहाश्मलेखनम् ॥२१॥
विवाह, खेती, वणिज, दारुण, युद्ध, औषध, नृत्य, शिल्प, अस्त्र, शस्र, लोहा, पत्थर, लिखना ये कर्म मूल नक्षत्रमें करने शुभहैं ॥२१॥
प्रतिष्ठाक्षौरसीमंतयानोपनयनौषधम् ॥
पुराणे स्तु गृहारंभो विष्णुभे च समीरितम् ॥२२॥
प्रतिष्ठा, क्षौर, सीमंत, सवारी; उपनयन; औषध पुराना घर चिनना इन कामोंमें श्रवण नक्षत्र शुभहै। तीनों पूर्वी तीनों उत्तराओं का फल एकत्र कह चुकेहैं ॥२२॥
वस्रोपनयनं क्षौर मौंजीबंधनभेषजम् ॥
वसुभे वास्तुसीमंतप्रवेशाश्च विभूषणः ॥२३॥
वस्त्र,उपनयनकर्म, क्षौर, मौंजीबंधन, औषध, वास्तुकर्म, सीमंत; गृहप्रवेश, आभूषण ये कर्म धनिष्ठानक्षत्रमें करने शुभहैं ॥२३॥
वेशस्थापनं क्षौरमौंजीबंधनभेषजम् ॥
अश्वारोहणसीमंतवास्तुकर्म जलेशभे ॥२४॥
गृहप्रवेश, प्रतिष्ठा, क्षौर, मौंजीबंधन, औषध घोडेकी सवारी करना, सीमंत, वास्तुकर्म ये शतभिषा नक्षत्रमें करने शुभहैं ॥२४॥
विवाहव्रतबंधाश्च प्रतिष्ठायानभूषणम् ॥
वेशवस्त्रसीमंतक्षौरभेषजमंत्यभे ॥२५ ॥
विवाह, व्रतबंध, प्रतिष्ठा, सवारी, आभूषण, प्रवेश, वस्त्र, सीमंत, क्षौर, औषध, ये रेवती नक्षत्रमें करने शुभहैं ॥२५॥
पूर्वात्रयाग्निमूलाहिद्विदैवत्यमघांतकम् ॥
अधोमुखं तु नवकं भानां तत्र विधीयते ॥२६॥
तीनों पूर्वा, कृत्तिका, मूल, आश्लेषा, विशाखा,मधा, भरणी ये नव नक्षत्र अधोमुख संज्ञक हैं ॥२६॥
विलप्रवेशगणितभूतसाधनलेखनम् ॥
शिल्पकर्म लताकूपनिक्षेपोद्धारणादि यत् ॥२७॥
इन अधोमुख नक्षत्रोंमें गुफामें प्रवेश होना गणित मंत्र यंत्र साधन, लिखना शिल्पकर्म लता ( बेल ) लगाना कुँवामें गिरी हुई वस्तु निकालना शुभ है ॥२७॥
मित्रेंदुत्वाष्ट्रहस्तार्द्रादितिभांत्योश्ववायुभम् ॥
तिर्यङ्मुखाख्यं नवकं भानां तत्र विधीयते ॥२८॥
अनुराधा, मृगशिर, चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, पुनर्वसु रेवती अश्विनी स्वाति ये नव नक्षत्र तिर्यङ्मुख संज्ञक हैं ॥२८॥
हलप्रवाहगमनं गंत्री यंत्रगजोष्ट्रकम् ॥
अजादिग्रहणं चैव हयकर्म यतस्ततः ॥२९॥
इन नक्षत्रोंमें हल जोतना, गमन, गाडी बनाना, हाथी ऊंट, बकरी आदि खरीदना घोडा खरीदना ये शुभ हैं ॥२९॥
खरगोरथनौयानं लुलायहयकर्म च ॥
शकटग्रहणं चैव तथा पश्वादिकर्म च ॥३०॥
और गधा, बैल,रथ, नौका इन्होंकी सवारी करना भैंस, घोडाका कार्य गाडीका कार्य ऊंट खरीदना तथा अन्य पशुका कार्य शुभ है ॥३०॥
ब्रह्मविष्णुमहेशार्यशततारावसूत्तराः ॥
उर्ध्वास्यं नवकं भानां प्रोक्तं चैव विधीयते ॥३१॥
रोहिणी, श्रवण, आद्र, पुष्य, शतभिषा, धनिष्ठा, तीनों उत्तरा ये नव नक्षत्र ऊर्द्धमुखसंज्ञक कहे हैं ॥३१॥
पुरहर्म्यगृहारामवारणध्वजकर्म च ॥
प्रासादभित्तिकोद्यानप्राकाराश्चैव मण्डपम् ॥३२॥
इन नक्षत्रों में शहर,हवेली, घर, बगीचा, हाथी, ध्वजा, इन्होंके कार्य, देवमंदिर, दीवाल,बाग, कोट, मंडप ये कार्य शुभ हैं ॥३२॥
स्थिरं रोहिण्युत्तराभं क्षिप्रं सूर्याश्विपुष्यभम् ॥
साधारणं द्विदैवत्यं वह्रिभं चरसंज्ञितम् ॥३३॥
रोहिणी तीनों उत्तरा ये स्थिर संज्ञक नक्षत्र हैं हस्त, अश्विनी पुष्य ये क्षिप्रसंज्ञक हैं विशाखा, भरणी, कृत्तिका ये साधारण संज्ञक नक्षत्र हैं ॥३३॥
वस्वादित्यंबुपस्वातिविष्णुभं मृदुसंज्ञितम् ॥
चित्रांत्यमित्रशशिभमुग्रं पूर्वीमघांतकम् ॥
मूलेंद्राह्यार्द्रभं तीक्ष्णं स्वनामसदृशं फलम् ॥३४॥
धनिष्ठा, पुनर्वसु,शतभिषा, स्वाती, श्रवण ये नक्षत्र चरसंज्ञक हैं और चित्रा रेवती, अनुराधा मृगशिर ये मृदुसंज्ञक हैं ॥ मूल ज्येष्ठ आश्लेषा आर्द्रा ये तीक्ष्णसंज्ञक नक्षत्र ये अपने नामके सदृश फल देनेवाले हैं। ये संज्ञा मुहूर्त देखनेमें काम आती हैं ॥३४॥
चित्रादित्याश्विविष्ण्वंत्यरविमित्रवसूडषु ॥
स मृगेषु च बालानां कर्णवेधक्रिया हिता ॥३५॥
दुस्रेंद्वदितितिष्येषु करादित्रितये तथा ॥
गजकर्माखिलं यत्तद्विधेयं स्थिरभेषु च ॥३६॥
चित्रा पुनर्वसु अश्विनी, श्रवण, रेवती हस्त, अनुराधा, धनिष्ठा, मृगशिर इन नक्षत्रों में बालकोंके कान बिंधवाने चाहियें अश्विनी, मृगशिर, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति इन नक्षत्रोंमें हाथीको लेना देना शुभहै । और स्थिरसंज्ञक नक्षत्रोंमें भी लेना देना शुभ है ॥३५॥३६॥
सुदिने चरभे क्षिप्रे मृदुभे स्थिरभेषु च ॥
वाजिकर्माखिलं कर्म सूर्यवारे विशेषतः ॥३७॥
चंद्रबल आदि से शुभवार हो और चरसंज्ञक, क्षिप्र मृदु और स्थिरसंज्ञक नक्षत्र होवें तब सब प्रकारसे घोडोंका कार्य ( बेचन खरीदना आदि ) करना रविवार विषे शुभ कहा है ॥३७॥
चित्राश्रवणवैरिचित्र्युत्तरासु गमागमम् ॥
दर्शाष्टम्यां चतुर्दश्यां पशूनां न कदाचन ॥३८॥
चित्रा श्रवण रोहिणी तीनों उत्तरा इन नक्षत्रों में तथा अमावस्या अष्टमी चतुर्दशी इन तिथियों में गौ बैल आदि पशुओंको खरीदके घरमें नहीं लावे और घरसे बाहर भी नहीं निकालै ॥३८॥
मृदुध्रुवक्षिप्रचरविशाखापतृभेषु च ॥
हलप्रवाहं प्रथमं विदध्यान्मूलेभ वृषैः॥३९॥
मृदु ध्रुव क्षिप्र चर इन संज्ञावाले तथा विशाखा और मघा नक्षत्र व मूल नक्षत्रमें खेतमें पहिले बैलोंकरके हल जोतना शुभदायक है ॥३९॥
हलादौ वृषनाशाय भत्रयं सूर्यभुक्तभात् ॥
अग्रे यच्चैव वै लक्ष्म्यै सौम्यं पार्श्वे च पंचकम् ॥४०॥
और हलचक्रकी आदिमें सूर्यके नक्षत्रसे तीन नक्षत्र हैं वे बैलोंका नाश करते हैं फिर ३ नक्षत्र अग्रभागमें हैं उनमें लक्ष्मी प्राप्ति हो बराबरमें ५ नक्षत्र शुभदायक कहे हैं ॥४०॥
शूलत्रयेऽपि नवकं मरणायान्यपंचकम् ॥
श्रियै पुच्छे त्रयं श्रेष्ठं स्याच्चक्रे लांगले शुभम् ॥४१॥
त्रिशूलके ऊपर नौ नक्षत्र मरणदायक हैं अन्य पांच नक्षत्र लक्ष्मीदायक हैं फिर पूँछके ऊपर तीन नक्षत्र श्रेष्ठ हैं। ऐसे हलचक्रपर २८ नक्षत्र रखकर शुभ अशुभ फल विचारना चाहिये ॥४१॥
मृदुध्रुवक्षिप्रभेषु पितृवायुवसूडुषु ॥
समूलभेषु बीजोप्तिरत्युत्कृष्टफलप्रदा ॥४२॥
और मृदुसंज्ञक ध्रुवसंज्ञक क्षिप्रसंज्ञक तथा मघा स्वाति धनिष्ठा मूल इन नक्षत्रों में बीज बोवना अत्यंत शुभदायक है ॥४२॥
भवेद्भत्रितयं मूर्ध्नि धान्यनाशाय राहुभात् ॥
गले त्रयं कज्जलाय वृद्ध्यै च द्वादशोदरे ॥४३॥
राहुके नक्षत्रसे तीन नक्षत्र मस्तक पर धरने वे धान्यका नाश करने वाले हैं और गलपर तीन नक्षत्र हैं उनमें जल थोड़ा वर्षे अथवा अन्नके कौवा लगजाता है उदरपर बारह नक्षत्र वृद्धिदायक हैं ॥४३॥
निस्तंडुलत्व लांगूले भचतुष्टयमीरितम् ॥
नाभौ वह्रि: पंचकं यद्वीजोप्ताविति चिंतयेत् ॥४४॥
पूछपर चार नक्षत्र हैं उनमें दाना कमपडता है फिर पांच – नक्षत्रनाभिपर हैं उनमें अग्निका भय हो ऐसे बीज बोनेमें यह राहुचक्र भी विचारा जाताहै ॥४४॥
स्थिरेष्वदितिसर्पात्यपितृमारुतभेषु च ॥
न कुर्याद्रोगमुक्तश्च स्रानं वारेंदुशुक्रयो: ॥४५॥
स्थिरसंज्ञक नक्षत्र और पुनवसु, आश्लेषा, रेवती, मघा, स्वाति इन नक्षत्रोंमें तथा चंद्र शुक्रवार विषे रोगसे छुटा हुआ पुरुषने स्नान नहीं करना चाहिये ॥४५॥
उत्तरात्रयमित्रेनद्रवसुवारुणभेषु च ॥
पुष्यार्कपौष्णधिष्ण्येषु नृत्यारंभः प्रशस्यते ॥४६॥
तीनों उत्तरा अनुराधा, ज्येष्ठा धनिष्ठा शतभिषा पुष्य हस्त रेवती इन नक्षत्रोंमें नाचना प्रारंभ करना शुभहै ॥४६॥
पूर्वार्धयुंजि षङ्कानि पौष्णभाद्रभात्ततः ॥
मध्ययुंजि द्वादशर्क्षाणीन्द्रभन्निवभानि च ॥४७॥
रेवती आदि छह नक्षत्र पूर्वार्ध युंजा संज्ञक कहे हैं फिर आर्दा आदि बारह नक्षत्र मध्य युंजासंज्ञक कहे हैं और ज्येष्ठा आदि नव नक्षत्र परार्ध युजासंज्ञकहैं ॥४७॥
परार्धयुजि क्रमशः संप्रीतिंर्दपतेर्मिथ: ॥४८॥
ये नक्षत्र वरकन्याके विचारने चाहियें जो एक युंजा होय तो स्त्रीपुरुषोंकी आपसमें प्रीति रहै ॥४८॥
जघन्यास्तोयमार्द्राहिपावनांतकतारकाः ॥
ध्रुवादितिद्विदैवत्यो बृहत्ताराः पराः समाः ॥४९॥
शतभिषा, आर्द्रा, आश्लेषा,स्वाति, रेवती ये जघन्यसंज्ञकतारे हैं। और ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र तथा पुनर्वसु, विशाखा ये बृहत् संज्ञक तारे हैं अन्य सम कहे हैं ॥४९॥
क्रमादभ्युदिते चंद्रे त्वनर्धार्घसमानि च ॥
अश्यग्नींदुभ नैऋत्यभाग्यभत्वाष्ट्रत्र्युत्तराः ॥५०॥
तह क्रमसे अर्थात जंघन्यसंज्ञक नक्षत्रोंमें चंद्रमा उदय होय तो अन्नादिकका भाव मंहिगारहै बृहत संज्ञक नक्षत्रोंमें उदय होय तो सस्ताभाव होय सम नक्षत्रोंमें समानभाव जानना । अश्विनी कृत्तिका मृगशिर, मूल, पूर्वाफाल्गुनी चित्रा तीनों उत्तरा ॥५०॥
पितृद्विदैवताख्यातास्ताराःस्युः कुलसंज्ञकाः ॥
घातृज्येष्ठाऽदितिस्वाती पौष्णार्कहरिदेवताः ॥५१॥
अजपांतकभौजंगताराश्चोपकुलाह्रायाः ॥
शेषाः कुलाकुलास्तारास्तासां मध्ये कुलोडषु ॥५२॥
गम्यते यदि भूपालैः पराजयमवाप्यते ॥
भेषूपकुलसंज्ञेषु जयं प्राप्नोति भूमिपः ॥५३॥
संधिर्भवेत्तयोः साम्यं तदा कुलकुलोडषु ॥
अर्काकिंभौमवारे चेद्भद्राया विषमांत्रिभे ॥५४॥
मघा, विशाखा ये कुलसंज्ञक तारा हैं रोहिणी’ ज्येष्ठा, पुनर्वसु, स्वाति, रेवती, हस्त, श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, भरणी, आश्लेषा ये उपकुलसंज्ञक नक्षत्र हैं तिनके मध्यमें कुलसंज्ञक नक्षत्रों विषे राजालोग युद्धके वास्ते गमन करें तो पराजय(हार)होतीहै और उपकुलसंज्ञक नक्षत्रों में जय ( जीत ) होती है। कुलाकुल नक्षत्रोंमें गमन करे तो दोनों राजा समान रहैं आपसमें मिलाप रहै रवि, शनि, भौमवारविषे विषमांघि नक्षत्रविषे ॥५१॥५२॥५३॥५४॥
त्रिपुष्करे त्रिगुणदं द्विगुणं यमलांघ्रिभम् ॥
दद्यात्तद्दोषनाशाय गोत्रयं मूल्यमेव वा ॥५५॥
त्रिपुष्करयोगका तिगुना फल है और यमलांघियोग दुगुना दोषकी शांतिके वास्ते तीन गौओंका दान करे ॥५५॥
त्रिपुष्करे द्वयं दद्यान्न दोषो ऋक्षमात्रतः ॥
पुष्यः परकृतं हेतुं शक्तोऽनिष्टं च यत्कृतम् ॥५६॥
दोषं परो न शक्तस्तु चंद्रप्यष्टमगेपि वा ॥
क्रूरो विधुयुतो वापि पुष्यो यदि बलान्वितः ॥५७॥
विना शनिगृहं सर्वमंगलेष्विष्टद: सदा ॥५८॥
और त्रिपुष्करयोगमें राजा गमन करे तो राजाने उस दोषकी शान्तिके वास्ते दो गौओंका दान करना चाहिये । अथवा गोमुल्य देना चाहिये और त्रिपुष्करयोगके फकत् नक्षत्र मात्रसे दोष न । हो होसक्ता पुष्य नक्षत्रमें जो यात्रा आदि शुभकर्म किया जाय तहां कोई अनिष्ट योग होय तो पुष्य नक्षत्र उस दोषको दूर करसकता है और जो किसीप्रकारसे पुष्य नक्षत्र ही अशुभ दायक हो तो उसको कोई अन्य शुभयोग नहीं हटा सकता है और जो पुष्य बलयुक्त होय तो आठवें चंद्रमा हो अथवा चंद्रमा कूरग्रहसे युक्त हो इत्यादि सब दोषोंको नष्टकरता है संपूर्ण मंगल कार्यों को सिद्धकरता है ॥५६॥५७॥५८॥
रामा ३ ग्नि ३ ऋतु ६ बाणा ५ ग्नि ३
भू १ वेदा ५ ग्निशरे ५ षवः ५॥
नेत्र २ वाहु २ शरे ५ द्वि ३ दु १ वेद ४ वह्रय ३ ग्निशंकराः ॥५९॥
अश्विनीके ३ तारे हैं भरणीके ३ कृत्तिका० ६ रोहिणी ०५ मृगशिर० ३ आर्द्रा० १ पुनर्वसु ० ४ पुष्य ०३ आश्लेषा० ५ मधा०५ पूर्वा फाल्गुनी०२ उत्तरा फाल्गुनी ० २ हस्त० ५ चित्रा ० १ स्वाती० १ विशाखा० ४. अनुराधा ० ३ ज्येष्ठा ० ३ मूलके ११ तारे हैं ॥५९॥
वेद ४ वेदा ४ ग्नि ३ वह्रय ३ ब्धि ४ शत १०० द्वि २ द्वि २ रदाः ३२ क्रमात् ॥
तारासंख्यास्तु विज्ञेया दुस्रादीनां पृथक्पृथक् ॥६०॥
या दृश्यते दीप्ततारा भगणे योगतारका ॥६१॥
पूर्वाषाढके ४ उत्तराषाढके ४ अभिजितके ३ श्रवण ० ३ धनिष्ठा० ४ शतभिषा० १०० पूर्वाभाद्रपदाके २ तारे उत्तर भाद्रपदाके २ रेवतीके ३२ तारे हैं ऐसे अश्विनी आदि नक्षत्रोंके अलग २ तारे आकाशमें जानने चाहिये शिशुमार चक्र में जो प्रकाशमान तारा दीखते हैं वे योग तारा कहे हैं ॥६०॥६१॥
वृषवृक्षोऽश्विभाद्याम्यधिष्ण्यात्पुरूषकस्ततः॥
उदुंबरो ह्यग्निधिष्ण्या द्रोहिण्या जंबुकस्तरुः ॥६२॥
आश्वनी नक्षत्रसे बांसा उत्पन्न हुआ है, भरणी नक्षत्रसे फालसा और कृत्तिकासे गूलर, रोहिणीसे जामन वृक्ष उत्पन्न हुआ ॥६२॥
इंदुभात्खदिरो जातः कलिवृक्षश्च रौद्रभात् ॥
संभूतो दितिभाद्रंशः पिप्पलः पुष्यसंभवः ॥६३॥
मृगशिर नक्षत्रसे खैर उत्पन्न भया, आद्रसे बहेडाका वृक्ष उत्पन्न भयाहै, पुनर्वसुसे बांस उत्पन्न भया, पुष्यसे पीपल उत्पन्न भया है ॥६३॥
सर्पधिष्ण्यान्नागवृक्षो वटः पितृभसंभवः ॥
पालाशो भाग्यजातश्च प्लक्षश्चार्यमसंभवः ॥६४॥
आश्लेषासे नाग वृक्ष (गंगेरन) उत्पन्न भई है,मघासे बड उत्पन्न भया, पूर्वाफाल्गुनीसे ढाक, उत्तराफाल्गुनीसे पिलखन ॥६४॥
अरिष्टवृक्षो रविभाच्छ्रीवृक्षस्त्वाष्टसंभवः ॥
स्वात्यृक्षार्जुनो वृक्षो द्विदैवात्पाकिस्ततः ॥६५॥
हस्तसे रिठडा वृक्ष, चित्रासे नारियल वृक्ष, स्वातिसे अर्जून वृक्ष, विशाखासे पाहवृक्ष ॥६५॥
मित्रभाद्रकुलो जातो विष्टिः पौरंदरर्क्षज: ॥
सर्जवृक्षो मूलभाच्च बंजुलो वारिधिष्ण्यजः ॥६६॥
पनसो विश्वभाज्जातो ह्यर्कवृक्षस्तु विष्णुभात् ॥
वसुधिष्ण्याच्छमी जाता कदंबो वारुणर्क्षजः ॥६७॥
अजैकपाच्चुतवृक्षोऽहिर्बुन्ध्यपिचुमंदकः ॥
मधुवृक्षः पौष्णधिष्ण्यादेवं वृक्षं प्रपूजयेत् ॥६८॥
अरियोनिभवो वृक्षो पीडनीयः प्रयत्नतः ॥६९॥
अनुराधासे बकुल, ज्येष्ठासे देवदारु वृक्ष उत्पन्न भया है, मूलसे रालका वृक्ष, पूर्वाषाढासे जलवेत उत्पन्न भया, उत्तराषाढासे फालसा उत्पन्न भया, श्रवणसे आक उत्पन्न भया, धनिष्ठासे जाँट उत्पन्न भयो, शतभिषासे कदंब, पूर्वाभाद्रपदासे आम्रवृक्ष, उत्तरा भाद्रपदास नींव ३, रेवतीसे महुवा वृक्ष उत्पन्न भया है इस प्रकार इन नक्षत्रोंकी शांतिके वास्ते इन वृक्षोंका पूजन करना चाहिये और इन नक्षत्रोंका शत्रु संज्ञक योनिवाला जो नक्षत्र हो उस नक्षत्रके वृक्षको पीडित करै ॥६६॥६७॥६८॥६९॥