नारदसंहिता अध्याय-16
घोराध्वांक्षीमहोदर्यों मंदाकिनी नंदा मता ॥
मिश्रा राक्षसिका नाम सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥१॥
घोरा, ध्वांक्षी, महोदरी, मंदाकिनी, नंदा, मिश्रा, राक्षसिका इन्द्र नामोंवाली संक्राति रविवारादिकों में अर्क होनेसे जानना जैसे रविवारमें सक्रांति अर्क होय तो बोरा नामवाली जानना ॥१॥
शूद्रविटतस्करक्ष्मापभूदेवपशुनीचजाः ॥
अनुक्तानां च सर्वेषां घोराद्याः सुखदाः स्मृताः ॥२॥
घोरा सक्रांति शूद्रोंको सुख देती है, ध्वांक्षी वैश्योंको, महोदरी चोरोको, मंदाकिनी राजाओंको, नंदा ब्राह्मण तथा पंडितों को, मिश्रा पशुवोंको, राक्षसी चांडाल आदि संपूर्ण नीचजातियों को सुख देतीहै ॥२॥
पूर्वाह्ने नृपतीन्हति विप्रान्मध्यदिने विशः ॥
अपराहेऽस्तगे शूद्रान्प्रदोषे च पिशाचकान् ॥३॥
दुपहरपहले सक्रांति अर्क तो राजाओंको नष्टकैरै मध्याह्नमें ब्राह्मणोंको तीसरे प्रहरमें वैश्योंको सायकालमें शूद्रोंको प्रदोषसमयमें पिशाचोंको ॥३॥
निशि रात्रिचरान्नाटयकारानपररात्रिके ॥
गोमाहिषेति संध्यायां लिंगिनोनिशि संक्रमः ॥४॥
रात्रीमें राक्षसोंको आधीरात पीछे नाचनेवाले और तमासा करनेवालोंको पीड़ा करे प्राप्तःकाल संध्यामें अकें तो गोमहिष्या दिकोंको और उससेभी पीछे बिलकुल प्रभातसमय अर्के तो सन्यासी आदिकोंको पीडा करै ॥४॥
दिवा चेन्मेषसंक्राँतिरनर्थकलहप्रदा ॥
रात्रौ सुर्भिक्षमतुलं संध्ययोवृष्टिनाशनम् ॥५॥
दिनमें मेषकी सक्रांति अर्के तो अशुभफल तथा प्रजामें वैरभाव करै रात्रिमें अकें तो अत्यंतसुभिक्ष हो दोनों संध्याओंमें अकें तो वर्षाका नाशकरै ॥५॥
हारशार्दूलवाराहखरकुंजरमाहिषाः ॥
अश्वश्वाजवृषाः पादायुधाःकरणवाहनाः ॥६॥
वव आदि जौनसा करण वर्त्तमान हो तिसके क्रमसे सिंहव्याघ्र वाराह गधा हस्ती भैंसा अश्व श्वान बकरा वृष मुरगा ये वाहन कहे हैं यहां ववमें सिंह वाहन होता है और यह ११ करण यथाकमसे देख लेने ॥६॥
खशबाह्रिकवंगेषु संक्रांतिर्धिष्ण्यवाहना ॥
अन्यदेशेषु तिथ्यर्द्धवाहना स्याद्ववादितः ॥७॥
खश बाह्रिक वंग इन देशोंमें नक्षत्रोंके क्रमसे सक्रांतिका वाहन जानना और अन्यदेशोंमें वद आदिकरणोंके कमसे संक्रांतिका वाहन होताहै ॥७॥
भुशुंडीभिदिपालासिदंडकोदंडतोमरान् ।
कुंतपाशांकुशास्त्रेषुन्बिभर्ति करणेष्विनः ॥८॥
भुशुंडी भिदिपाल खङ्ग दंड धनुष तोमर भाला फास अंकुश अस्र ( तेगा )बाण ये शख बव आदि करणोंके क्रमसे, संक्रतिके कहे हैं ॥८॥
अन्नं च पायसं भैक्ष्यमपूपं च पयो दधि ॥
चित्रान्नं गुडमध्वाज्यशर्करा ववतो हविः ॥९॥
और अन्न पायस भिक्षा पूड़ा दूध दही चित्रान्न गुड मधु घृत शर्करा ये संक्रांतिके भोजन, वव आदिकरणोंके यथाक्रमसे जानने चाहियें ॥९॥
निविष्टी वणिजे विष्टयां बालवे च गरे ववे ॥
कौलवेशकुने भानुः किंस्तुघ्ने चोर्ध्वसंस्थिता ॥१०॥
और वणिज विष्टि बालव गर वव इन करणोंमें संक्रांति अर्क तो बैठी जानना, कौलव शकुनि किंस्तुन्न इनमें खडी जानना ॥१०॥
चतुष्पात्तैतिले नागें सुप्तक्रांति करोति सा ॥
धान्यार्घवृष्टिसु भवेदनिष्टक्रमशस्तदा ॥११॥
चतुष्पाद तैतिल नाग इनमें अर्के तो सूती हुई संक्रांति जानना बैठी हुई संक्रांतिमें अन्न सस्ता खडीमें वर्षा और सूतीमें अशुभ फल जानना ॥११॥
आयुधं वाहनाहारो यज्जातीयजनस्य च ॥
स्वापोपविष्टतिष्ठंतस्ते लोकाः क्षयमानुयुः ॥१२॥
शस्त्र वाहन भोजन ये सब संक्रांतिके जिसजातिके जनके होवें तथा सूती बैठी खडी जैसी हो तिसही प्रकारके जनोंका व पदार्थोंका नाश हो ॥१२॥
अन्धको मंदसंज्ञश्च मध्यसंज्ञः सुलोचनः ॥
पर्यायाद्वगणयेद्भानि रोहिण्यादि चतुर्विधम् ॥१३॥
अंध, मंदलोचन, मध्यसंज्ञक, सुलोचन, इस प्रकार रोहिणी आदि नक्षत्रोंको क्रमसे जानना तहांचार २ नक्षत्रोंकी ७ आवृति करलेनी रोहिणी अंधा मृगशिर मैदलोचन इत्यादि ॥१३॥
स्थिरभेष्वर्कसंक्रांतिज्ञेया विष्णुपदाह्रया ॥
षडशीतिमुखी ज्ञेया द्विस्वभावेषु राशिषु ॥१४॥
वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ, इन स्थिर राशियोंपर सूर्य संक्रांति होय तो विष्णुपदानामक संक्रांति जानना और मिथुन आदि द्विःस्वभावराशियों पर अर्क होय तब षडशीतिमुखी संक्रांति जानना ॥१४॥
सौम्ययाम्यायने नूनं भवेतां मृगकर्किणोः ॥
तुलाधराजयोर्ज्ञयो विषुवत्सूर्यसंक्रमः ॥१५॥
मकर की संक्रांति अर्के तब उत्तरायण प्रवृत्त होता है और कर्ककी संक्रांति के उस दिन दक्षिणायन प्रवृत्त होताहै और तुला तथा मेषकी संक्रांति अर्को उसदिन विषुवत् अर्थात दिनरात्रि समान काल होताहै ॥१५॥
अहःसंक्रमणे कृत्स्नं महत्पुण्यं प्रकीर्तितम् ॥
रात्रौ संक्रमणे भानोर्यवस्था सर्वसंक्रमे ॥१६॥
दिनमें संक्रांति अर्के तो सारे दिनमें महान पुण्य कहाहै और रात्रि में संक्राति अर्के तो सब संक्रांतियों में व्यवस्था कहीहै ॥१६॥
सूर्यस्योदयसंध्यायां यदि याम्यायनं भवेत् ॥
तदोदयादहः पुण्यं पूर्वाहः परतो यदि ॥१७ ॥
जैसे कि सूर्य उदय होनेकी संधिमें दक्षिणायन अर्थात् कर्ककी संक्रांति अर्के तो उदय होनेवाले दिनमेंही पुण्यकाल जानना और जो उदयकालकी संधिसे पहलेही संक्रांति अकें तो पहलेही दिन पुण्यकाल है यह कर्ककी संक्रांतिकी व्यवस्थाहै ॥१७॥
सूर्यास्तमनवेलायां यदि सौम्यायनं भवेत् ॥
तदोपेयादहः पुण्यं पराह्नः परतो यदि ॥१८॥
और सूर्य अस्तहोनेकी संधिमें मकरकी संक्रांति अर्के तो उसी दिन पुण्यकाल जानना संधिसे पीछे रात्रिमें अगले दिन पुण्यकाल जानना ॥१८॥
अर्धार्कास्तमनात्संध्यासंघटिकात्रयसंमिता ॥
तथैवार्धोद्यात्प्रातर्घटिकात्रयसंमिता ॥१९॥
सूर्यका आधा मंडल अस्त होनेके बाद तीन घडीतक सायंसंध्या रहती है और आधा मैडल उदय होनेसे पहिले प्रातःकाल तीन घडी प्रभातकी संध्या कही है ॥१९॥
प्रागर्धरात्रात्पूर्वाह्ने पूर्ववद्विष्णुपादयोः ॥
षडशीतिमुखी चैव परतश्रेत्परेऽहनि ॥२०॥
कर्क मकरकी संक्रांतिका यह पुण्यकाल जानना पूर्वोक्त विष्णुपदा नामक संक्रांति षडशीतिमुखी नामवाली संक्रांति आधीरातसे पहिले दिन पुण्यकाल और आधीरात पीछे अर्के तो पिछले दिन पुण्यकाल जानना ॥२०॥
पश्चात्पराहः संक्रांतिः षडशीतिविपर्ययात् ॥
यादृशेनेंदुना भानोः संक्रांतिस्तादृशं फलम् ॥२१॥
नरः प्राप्नोति तद्राशौ शीतांशो: साध्वसाधुवा ॥
संक्रांतिग्रहणर्क्षे वाः पूर्वभाद्गणनाक्रमः ॥२२॥
रवेरयनसंक्रांतिस्तदा तद्राशिसंक्रमः ।
संक्रांतिग्रहणर्क्षे वा जन्मभावधि गण्यताम् ॥२३॥
और षडशीति नामवाली संक्रांतिका पुण्यकाल इन विष्णुपदा नामवली संक्रातियोंसे विपर्यय जानना जैसा चंद्रमामें संक्रांति अर्के वैसाही फल होताहै संक्रांति अर्कके दिन जिस मनुष्यको अच्छा चंद्रमा हो उसको श्रेष्ठ फल होता है । संक्रांति अर्के उस दिन से पहले दिन के नक्षत्रसे गिननेका क्रम होताहै । सूर्यके अयनकी संक्रांति वा अन्य राशिको संक्रांति जिस दिन अर्के उसी दिनके नक्षत्रसे भी जन्मके नक्षत्रतक गिना जाताहै अब इन दोनोंका फल कहते हैं ॥२१॥२२॥२३॥
नेष्टं त्रयं षट् च शुभं पर्यायाच्च पुनः पुनः ॥
हानिर्वृद्धिः स्थानहानिस्तत्प्राप्तिर्भानुतः क्रमात् ॥२४॥
पहिले तीन नक्षत्र शुभ नहीं हैं फिर छह नक्षत्र शुभदायक हैं पीछे ३ नक्षत्र हानिकारक, फिर ६ वृद्धि, फिर ३ स्थानहानि, फिर ३ नक्षत्र स्थानप्राप्ति करते हैं ऐसे सूर्यसंक्रांति चंद्रनक्षत्रसे विचारी जातीहै ॥२४॥
तिलोपरि लिखेचक्रं त्रिशूलं च त्रिकोणकम् ॥
तत्र हैमं विनिक्षिप्य दद्यात्तदोषशांतये ॥२५॥
जो अशुभदायक संक्रांति हो तो उस दोषकी शांतिके वास्ते तिलके ऊपर चक्र लिख त्रिकोण त्रिशूल लिखकर तिसपर सुवर्ण रखकर तिसका दान करे ॥२५॥
ताराबलेन शीतांशुबैलवस्तद्रशाद्रवः ॥
ससंक्रमणतस्तद्वद्वशातखेटबलाधिकः ॥२६॥
ताराके बलसे चंद्रमा बलवान है और चंद्रमाके बलसे सूर्य बलवान होता है और वह सूर्य संक्रांतिके बलसे अन्यग्रहोंका बल पाकर बलवान है ॥२६॥