नारदसंहिता अध्याय-17
शुभोर्को जन्मतस्त्र्यायशषट्सु न विध्यते ॥
जन्मतो नवपंचांबुव्ययगैर्व्यभिस्तदा ॥१॥
जन्मराशिसे ३ । ११ । १० । ६ इन स्थानोंपर सूर्य हो तो शुभहै परन्तु जन्म राशिसे ९ । ५। ४ । १२ इन स्थानोंमें कोई ग्रह नहीं हो तो वेध नहीं होता अर्थात् ३ सूर्य शुभ है परन्तु ९ स्थानमें अन्य कोई ग्रह होय तो वेध हो जाता है ११ शुभ है परन्तु ५ में कोई ग्रह नहीं होना चाहिये । १० सूर्यहो तब ४ स्थान और ६ सूर्य हो तब जन्मराशिसे १२ स्थानमें कोई ग्रह नहीं होना चाहिये । यदि इन स्थानोंपर शनि विना कोई ग्रह होवेगा तो सूर्यवेध हो जायगा फिर शुभफल नहीं रहेगा ऐसे इन वेधके सबही स्थानों का यथाक्रम लगा लेना । इसी प्रकार चंद्र आदि ग्रहों को भी कहते हैं ॥१॥
विध्यते जन्मतो नंदुर्द्योनायारिखत्रिषु ॥
खेष्वष्टांत्यबुधर्मस्थैर्विबुधैर्जन्मतः शुभः ॥२॥
जन्म राशिसे ७ । १ । ११ । ६। १० । ३ इन स्थानोंपर चंद्रमा वेध नहीं करता है याने शुभहै परंतु जन्मराशिसे २ । ५ । ८। १२ । ४ । ९ इन स्थानोंपर बुध विना अन्य कोई यह नहीं होना चाहिये । बुध चंद्रमाका पुत्र है इसलिये वेध नहीं करता है इन वेधके स्थानोंका परस्पर यथाक्रम देखलेना चाहिये ॥२॥
त्र्याऽऽयारिषु कुजः श्रेष्ठो जन्मराशेर्न विध्यते ॥
व्ययेष्वर्कग्रहे साररप्यसूर्येण जन्मतः ॥३॥
और ३ । ११ । ६ । इन स्थानोंपर मंगल श्रेष्ठ है वेध नहीं करता है परंतु १२ । ५ । ९ इन स्थानों पर कोई ग्रह नहीं होना चाहिये और इस मंगल के ही समान शनिका फल जानना परंतु शनिके उक्तस्थानों में सूर्य वेध नहीं करता है ॥३॥
ज्ञोवद्यब्ध्यऽर्यष्टखायेषु जन्मतश्च न विध्यते ॥
धीत्र्यंकघाऽष्टांत्यखेटैर्जन्मतो व्यब्जकैः शुभः ॥४॥
जन्मराशिसे २।४।६।८।१०।११ इन स्थानोंपर बुध शुभहै वेधित नहीं है परंतु ५ । ३ । ९ । १ । ८ । १२ । इन स्थानोंपर चंद्रमा बिना अन्य कोई यह नहीं होना चाहिये ॥४॥
जन्मतः स्वायगोक्षास्तेष्वत्याष्टायजलत्रिगैः ॥
जन्मराशेर्गुरुः श्रेष्ठो ग्रहैयदि न विध्यते ॥५॥
जन्मशिसे २ । ११ । ९ । ५ । ७ इन स्थानपर बृहस्पति श्रेष्ठ है । परंतु जन्म राशिसे ही १२ । ८ । ११ । ४ । ३ इन स्थानों पर कोई ग्रह नहीं होना चाहिये ॥५॥
कुवद्यग्न्याब्धिसुताष्टांकांत्याये शुक्रो न विध्यते ॥
जन्मभान्मृत्युसप्ताद्यखांकेष्वायारिपुत्रगैः ॥६॥
और जन्मराशिसे १ । २ । ३ । ४ । ५ । ८ । ९ । १२ । ११ इन स्थानोंपर शुक वेधित नहीं है अर्थात् शुभ है । परंतु जन्मराशिसे ८ । ७ । १ । १० । ९ । ५। ११ । ६। ५ स्थानों पर कोई ग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात १ के शुक्रको ८ और २ को ७ । ३ को १ ऐसे सव स्थानका यथाक्रम वेध समझना चाहिये ॥६॥
न ददाति शुभं किंचिद्गोचरे वेधसंयुते ॥
तस्माद्वेधं विचार्याथ कथ्यते तच्छुभाशुभम् ॥७॥
वेधसे युक्तहुआ यह कुछभी शुभफल नहीं देता इसलिये ग्रहको वेध विचारके शुभ अशुभ फल कहना चाहिये ॥७॥
वामवेधविधानेनाप्यशुभोपि ग्रहो शुभः ॥
अतस्तान्विविधान्वेधान्विचार्याथ वदेत्फलम् ॥८॥
और वामवेधके विधानसे अशुभ ग्रह भी शुभदायक होजाताहै अर्थात् जैसे १२ सूर्य अशुभ है तहां जन्मराशिसे छठे स्थानमें स्थित हुए ग्रहोंकरके वेधको प्राप्त होजाय तो शुभहै इसी प्रकार विपरीततासे वेध होनेको वाम वेध कहते हैं इसलिये तिन अनेक प्रकारके वेधोंको विचारकर फल कहना चाहिये ॥८॥
अज्ञात्वा विविधान्वेधान्यो ग्रहज्ञो फलं वदेत् ॥
स मृषावचनाभाषी हास्यं याति नरः सदा ॥९॥
जो ज्योतिषी अनेकप्रकारके वेधोंको जाने विना फल कहता है वह झूठा वचन कहनेवाला है हास्यको प्राप्त होता है ॥९॥
सौम्येक्षितो नेष्टफलः शुभदो पापवीक्षितः ॥
निष्फलौ तौ ग्रहौ स्वेन शत्रुणाच विलोकितः ॥१०॥
अशुभ दायक ग्रह भी शुभग्रहोंकरके देखागया हो तो शुभफल करता है और शुभदायक ग्रह पापग्रहों से दृष्टहो तथा शत्रुग्रहसे देखागया हो तो ये दोनों ही यह निष्फल कहे हैं ॥१०॥
नीचराशिगतः स्वस्य शत्रुक्षेत्रगतोपि वा ॥
शुफाशुभफलं. नैवे दद्यादस्तमितोपि वा ॥११॥
नीचराशिपर स्थित हुआ अथवा अपने शत्रुके घर में प्राप्त हुआ तथा अस्तहुआ यह कुछ भी शुभअशुभ फल नहीं देता है ॥११॥
ग्रहेषु विषमस्थेषु शांतिं यत्नात्समाचरेत् ॥
हानिर्वृद्धिर्ग्रहाधीना तस्मात्पूज्यतमा ग्रहाः ॥१२॥
विषम कहिये अशुभस्थानमें ग्रह स्थित होवे तो यत्नसे उन्होंकी शांति करानी चाहिये । हानि तथा वृद्धि ग्रहों के अधीन है इसलिये ग्रह सदा पूजने चाहिये ॥१२॥
मणिमुक्ताफलं विद्रुमाख्यं गारुत्मकाह्रयम् ॥
पुष्परागं त्वथो वज्रं नीलगोमेदसंज्ञकम् ॥
वैडूर्य भास्करादीनां तुष्टयै धार्यं यथाक्रमम् ॥१३॥
माणिक्य, मोती, मूंगा, गरुत्मक ( हरीजातका रत्न ) पुषराज, हीरा, नीलमणि ( लहसुनियां) गोमेद, वैडूर्य ये रत्न यथाक्रमसे धारण करनेसे सूर्य आदि ग्रहों की प्रसन्नता होती है ॥१३॥
शुक्लपक्षादिदिवसे चंद्रो यस्य शुभप्रदः ॥
स पक्षस्तस्य शुभदः कृष्णपक्षोऽन्यथा शुभः ॥१४॥
शुक्लपक्षादिदिनों में जिसके चंद्रमा बलवान होता है वह पक्ष उसको शुभदायक होता है और कृष्णपक्ष अन्यथा शुभहै अर्थात कृष्णपक्षमें ताराबल देखना शुभहै ॥१४॥
शुक्लपक्षे शुभचंद्रो द्वितीयनवपंचके ॥
रिपुमृत्यंबुसंस्थश्च न विद्रो गगनेचरैः ॥१५॥
शुक्लपक्षमें दूसरा नवमां पांचवाँ चंद्रमा शुभहै परंतु छठे आठवें चौथे कोई ग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात् जन्मराशिसे इन स्थानों में बुध बिना कोई ग्रह होय तो चंद्रमाका वेध हो जाता है ॥१५॥
जन्मसंपद्विपक्षेमप्रत्यरिस्साधको वधः ॥
मित्रं परममित्रं च जन्मभाच्च पुनः पुनः ॥१६॥
जन्म १ संपत् २ विपत् ३ क्षेम ४ प्रत्यरि ५ साधक ६ वध ७ मित्र ८ परममित्र ९ ये नव तारे कहे हैं। तहां यथाक्रमसे जन्मके नक्षत्रसे गिनलेने चाहिये ९ से अधिक होंय तो ९ का भाग देना ॥१६॥
जन्मत्रिपंचसप्ताख्या तारा नेष्टफलप्रदाः ॥
अनिष्टपरिहाराय दद्यादेतद्विजातये ॥१७॥
तहां जन्म, तीसरा, पांचवां, सातवां ये तारा शुभ नहीं हैं अशुभ ताराकी शांतिके वास्ते यह आगे कएहुए दान ब्राह्मणके वास्ते देना चाहिये ॥१७॥
शाकं गुडं च लवणं सतिलं कांचनंक्रमात् ॥
कृष्णे बलवती तारा शुक्लपक्षे बली शशी ॥१८॥
शाक, गुड, लवण, तिल, सुवर्ण ये यथाक्रमसे देने योग्य हैं। कृष्णपक्षमें तारा बलवान होताहै और शुक्लपक्षमें चंद्रमा बलवान होताहै ॥१८॥
चंद्रस्य द्वादशावस्था दिवा रात्रौ यथाक्रमात् ॥
यत्रोद्वाहादिकार्येषु संज्ञा तुल्यफलप्रदा ॥१९॥
दिनरात्रिमें यथाक्रमसे चंद्रमाकी बारह अवस्था कही तहां विवाह आदि कार्यों में संज्ञाके तुल्य फल जानना ॥१९॥
पष्टिघ्नं चंद्रनक्षत्रं तत्कालघटिकान्वितम् ॥
वेदध्नमिषुवेदाप्तमवस्थाभानुभाजिताः ॥२०॥
अश्विनीआदि गत नक्षत्रोंको साठसे गुनाकरलेवे फिर वर्तमान नक्षत्रकी घटी मिलादेवे फिर उनको चारगुना करके तिसमें पैंतालीस ४५ का भाग देना तहां १२ से ज्यादै बचें तो बारहका भाग देना ॥२१॥
प्रवासनष्ठाख्यमृता जया हास्या रतिर्मुदा ॥
सुप्तिर्भुक्तिज्वराकंपसुस्थितिर्नामसंनिभाः ॥२२॥
फिर प्रवास १ नष्ट २ मरण ३ जया ४ हास्या ५ रति ६ मुदी ७ सुप्ति ८ भुक्ति ९ ज्वर १० कंप ११ सुस्थिति १२ ये बारह अवस्था नामके सदृश फलदायक जानना। तहां मेषराशिवाले पुरुषको प्रवासआदि संज्ञा और वृषराशिवालेको नष्टआदि संज्ञा मिथुनराशिवालेको मरणआदि ऐसे गिनलेना चाहिये ॥२२॥