नारदसंहिता अध्याय-18
पट्टबंधनयानोग्रसंधिविग्रहभूषणम् ॥
धात्वाकराहवं कर्म मेषलग्ने प्रसिध्यति ॥१॥
पट्टाबंधन, सवारी, उग्रसंधि (मिलाप ) विग्रह, आभूषण, धातु, खजाना, युद्ध ये कर्म मेषलग्नमें सिद्ध होते ॥१॥
मंगलानि स्थिराण्येव वेश्मकर्मप्रवर्तनम् ॥
कृषिवाणिज्यपश्वादिवृषलग्ने प्रसिध्यति ॥२॥
मंगल, स्थिरकाम, घरप्रवेश आदि कर्म, खेती, वाणिज्य, पशु आदि कर्म ये वृषलग्नमें सिद्ध होते हैं ॥२॥
कलाविज्ञानसिद्धिश्च भूषणाहवसंश्रयम् ॥
गजोद्वाहाभिषेकाचं कर्तव्ये मिथुनोदये ॥३॥
कला, विज्ञान, सिद्धि, आभूषण, युद्ध, आश्रय होना, हाथी लेना देना,विवाह,अभिषेक इत्यादि कर्म मिथुनलयमें करने चाहियें ॥३॥
वापीकूपतडागादिवारिबंधनमोक्षणे ॥
पौष्टिकं लिपिलेखादि कर्तव्यं कर्कटोदये ॥४॥
बावड़ी, कुवा, तालाब, पुलबांधना, नहर चलाना, पुष्टिके काम, लेखक कर्म, लेखाहिसाब ये कर्म कर्कलग्नमें करने शुभहैं ॥४॥
इक्षुधान्यवणिकपण्यकृषिसेवादि यत्स्थिरम् ॥
साहसावहभूपाव्यं सिंहलग्ने प्रसिध्यति ॥५॥
ईख, धान्य, वाणिज्य, दुकान, खेती, सेवा आदि स्थिर काम, साहस ( बलहठका ) काम, युद्ध, राजकार्य ये काम सिंहलग्नमें करने शुभ हैं ॥५॥
विद्याशिल्पौषधकर्म भूषणं च चरं स्थिरम् ॥
कन्यालग्नविधेयं तत् पौष्टिकाखिलमंगलम् ॥६॥
विद्या, शिल्प, औषध, आभूषण, चर स्थिर काम, पौष्टिक तथा मांगलिक कर्म कन्यालग्नमें करने चाहिये ॥६॥
कृषिवाणिज्ययानाश्च पशूद्राहव्रतादिकम् ॥
तुलायामखिलं कर्म तुलाभांडाश्रितं च यत् ॥७॥
खेती, वाणिज्य, सवारी, पशु, विवाह, व्रतादिक, बरतन, ताखडी बाट इत्यादि कर्म तुला लग्नमें करने चाहियें ॥७॥
स्थिरकर्माखिलं कार्यं राजसेवाभिषेचनम् ॥
चौर्यकर्म स्थिरारंभाः कर्तव्या वृश्चिकोदये ॥८॥
संपूर्ण स्थिर काम, राजसेवा, अभिषेक, चोरीके काम, स्थिरकार्य प्रारंभ ये कार्य वृश्चिक लग्नमें करने चाहिये ॥८॥
व्रतोद्वाहप्रयाणञ्च ह्यंगशिल्पकलादिकम् ॥
चरं स्थिरं सशस्त्रास्त्र कर्त्तव्यं कार्मुकोदये ॥९॥
व्रत नियम लेना, विवाह, तीर्थादिकपर मरना, अंग, शिल्प, कलाचार, स्थिरकार्य, शस्त्र, अस्त्र, ये काम धनुर्लग्नमें करने चाहिये ॥९॥
तोयबंधनमोक्षास्रकृष्यं चोष्ट्रादिकर्म यत् ॥
प्रस्थानं पशुदासादिकर्तव्यं मकरोये ॥१०॥
पुल बांधना, नहर चलाना, शस्त्रकर्म, खेती, ऊंट आदि पशुके कार्य, गमन, पशुकर्म, दासादिकर्म ये सब मकरलग्नमें करने चाहिये ॥१०॥
कृषिवाणिज्यपश्र्वुमबु शिल्पकर्म कलादिकम् ॥
जलयात्रास्त्रशस्त्रादि कर्तव्यं कलशेदये ॥११॥
खेती, वाणिज्य, पशु, जलकर्म, शिल्पकर्म, कलादिकर्म जलमें यात्रा, शस्त्र अस्त्र कर्म ये सब कुंभलग्नमें करने चाहिये ॥११॥
व्रतोद्वाहाभिषेकांबुस्थापनं सन्निवेशनम् ॥
भूषणम् जलपात्रं च कर्म मीनोदये शुभम् ॥१२॥
व्रत, विवाह, अभिषेक, जलस्थापन, प्रवेशकर्म, आभूषण, जलपात्र ये कर्म मीनलग्नमें करने शुभ हैं ॥१२॥
गोयुग्मकर्ककन्यांत्यतुलाचापधराः शुभाः ॥
शुभग्रहास्पदत्वात्स्युरितरे पापराशयः ॥१३॥
और वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, मीन, तुला, धनुष ये लग्न शुभदायक हैं, क्योंकि ये शुभग्रहोंके स्थान हैं और अन्य लग्न पापग्रहों की राशि हैं ॥१३॥
क्षीणेंद्रर्कार्किभूपुत्राः पापाः स्युः संयुतो बुधः ॥
पूर्णचंद्रबुधाचार्यशुक्रास्तेस्युः शुभग्रहाः ॥१४॥
क्षीणचंद्रमा, सर्य, शनि, मंगल ये पापग्रह हैं और इनके साथ होनेसे बुध भी अशुभ है और पूर्ण चंद्रमा,बुध, बृहस्पति; शुक्र ये शुभग्रह हैं ॥१४॥
सौम्योग्रं तेषां राशीनां प्रकृत्येव फलं भवेत् ॥
योगेन सौम्यपापैश्च खचरैर्वीक्षितेन वा ॥१५॥
तिन राशियाका योग होनेसे शुभ अशुभ फल स्वभावसे ही होजाता है और शुभ अशुभ ग्रहों की दृष्टिहोनेसे भी शुभाऽशुभ फल होता है ॥१५॥
सैम्याश्रितत्वात्क्रूरो वा स राशिः शोभनः स्मृतः ॥
सौम्योपि राशिः क्रूरः स्यात्क्रूरग्रहयुतो यदि ॥१६॥
जिसपर शुभग्रह स्थित होय वह क्रूरराशि होय तो भी शुभद यक जाननी और कूरग्रहसे युक्त होय तो शुभराशि भी क्रूर जाननी ॥१६॥
ग्रहयोगावलोकाभ्यां शशी धत्ते ग्रहोद्भवम् ॥
फलं ताभ्यां विहीनसौ स्वं भावमुपसर्पति ॥१७॥
ग्रहका योग तथा दृष्टिकरके चंद्रमा उसग्रहके शुभ अशुभ फल को धारण करता है और उन दोनोंसे हीन होय तब चंद्रमा केवल अपना ही फल करता है ॥१७॥
आदौ संपूर्णफलदं मध्ये मध्यफलप्रदम् ॥
अन्ते तुच्छफलं लग्नं सर्वस्मन्नेवमेव हि ॥१८॥
लग्न, आदिमें संपूर्ण फल करता है मध्यमें मध्यफल और अंतमें लग्न बहुत थोड़ा फल करता है ॥१८॥
सर्वत्र प्रथमं लग्नं कर्तुचंद्रबलं ततः ॥
कन्यान्य इंदौ बलिनि संत्यन्यै वलिनो ग्रहाः ॥१९॥
सब जगह पहले लग्नबल देखना फिर कर्ताको चंद्रबल देखना कन्याके विना अन्यराशिका चंद्रमा बलवान होय तो सभी ग्रहबलवान जानने ॥१९॥
चंद्रस्य बलमाधाआधेयं चान्यखेटजम् ॥
आधरभूतेनाधेयं दीयते पारनिष्ठितम् ॥२०॥
चंद्रमाका बल आधार है और अन्यग्रहका बल आधेय है । अर्थात् चंद्रमाके बलके आश्रय है आधाररूप चंद्रबलसे आधेय की रक्षा की जाती है ॥२०॥
स चेंदुः शुभदः सर्वग्रहाः शुभफलप्रदाः ॥
अशुभश्चेदशुभदः वर्जयित्वा दिनाधिपम् ॥२१॥
चंद्रमा शुभदायक हो तो सब ग्रह शुभफल दायक जानने और अशुभ हो तो अशुभही परंतु सर्यकी यह व्यवस्था नहीं है ॥२१॥
लग्नह्यभ्युदयो येषां तेष्वशेषु स्थिता ग्रहाः ॥
लग्नोद्भवं फलं धत्ते चैवमेवं प्रकल्पयेत् ॥२२॥
जिन ग्रहोंका लग्नोंमें शुभफल है वे ग्रह उन लग्नोंके नवांशकमें भी लग्नके अनुसार शुभफल देते हैं ऐसे जानना ॥२२॥
लग्नं सर्वगुणोपेतं लभ्यते यदि तेन हि ॥
दोषोल्पत्वं गुणाधिक्यं बहुसंततमिष्यते ॥२३॥
जो सवगुणों से संयुक्त लग्न मिलजाय तो दोषका योग थोड़ा रहता है और गुण ( शुभ) बहुत विस्तृत होताहै ॥२३॥
दोषदुष्टोहि कालः स परिहार्यः पितामह ॥
अथ शक्त्या गुणाधिक्यं दोषाल्पत्वं ततो हितम् ॥२४॥
दोषसे दुष्ट हुआ वह काल सबसे बड़ा है इसलिये त्याग देना चाहिये और जो शक्ति करके लग्नमें अधिक गुण होय तो अन्य दोष थोड़े रहते हैं ॥२४॥