Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-20

प्रसिद्धविषमे गर्भे तृतीये वाथ मासि च ॥
कुर्यात्पुंसवनं कर्म सीमंतं च यथा तथा ॥१॥

गर्भसे विषम मासम अथवा तीसरे महीनेमें पुंसवनकर्म तथा सीमंतकर्म करना चाहिये ॥१ ॥

चतुर्थे मासि षष्ठे वाप्यष्टमे वा तदीश्वरे ॥
बलसंपन्नदंपत्योचंद्रताराबलान्विते ॥२॥

चौथे महीनेमें, अथवा छठे महीनेमें, तथा आठवें महीनेमें अष्टम मासपति ग्रह बलयुक्त होय और स्त्रीपुरुषोंको चंद्रताराका पर्ण बल होय तब ॥२॥

अरिक्तापर्वदिवसे कुजजीवार्कवासरे ॥
तीक्ष्णमिश्रोग्रवर्जेषु पुंसंज्ञभांशके शशी ॥३॥

रिक्ता, अमावस्या, पूर्णिमा, मंगल, बृहस्पति, रवि, तीक्ष्ण, मिश्र, उग्र इन संज्ञाओंवाले नक्षत्र, इन सबको वर्जकर पुरुषसंज्ञक राशि के नवांशकपर चंद्रमा स्थित होय ॥३॥

शुद्धेऽष्टमे जन्मलग्नात्तयोर्लग्नेन नैधने ।
शुभग्रहयुते दृष्ठे पापखेट्युतेक्षिते ॥४॥

लग्नकी तथा अष्टमस्थानकी शुद्धि होवे इन दोनों स्थानोंपर शुभग्रहोंकी दृष्टि हो और पापग्रहों की दृष्टि नहीं होवे ॥४॥

मासेष्टके चतुर्भिर्वा दृष्टेर्के बाजपूरकैः ॥
स्त्रीणां तु प्रथमे गर्भे सीमंतोन्नयनं शुभम् ॥५॥

आठवां महीना हो तथा बलवीर्यको पूरण करनेवाले चार ग्रहों करके सूर्य दृष्ट होवे तब स्त्रियोंका प्रथम गर्भविषे सीमंत करना शुभ है ॥५॥

शुभग्रहेषु धीधर्मकेंद्रेष्वरिभवे त्रिषु ॥
पापेषु सत्सु चंद्रेत्यनिधनाद्यारिवर्जिते ॥६॥

शुभग्रह पांचवें, नवेमें तथा केंद्रस्थानमें होवें और पापग्रह छठे, ग्यारहवें, तीसरे होवें तब और बारहवें, आठवें लग्नमें चंद्रमा नहीं हो तब सीमंतकर्म करना चाहिये ॥६॥

क्ररग्रहाणामेकोपि लग्नादंत्यात्मजाष्टः ।
सीमंतिनीनां सद्रर्भ बली होति न संशयः ॥७॥

और कूरग्रहोंके मध्यमें एक भी ग्रह लग्नसे बारहवें, पांचवें, आठवें स्थान होय तो स्त्रियोंका उत्तम गर्भको नष्ट करताहै वह ग्रह बली है इसमें संदेह नहीं ॥७॥

तस्मिञ्जन्ममुहूर्तेपि सूतकांतपि वा शिशोः ॥
जातकर्म प्रकर्तव्यं पितृपूजनपूर्वकम् ॥८॥

बालकका जन्म हो उसी घडी अथवा सूतककेअंतमें पितरोंका पूजनकर (नांदीमुखश्राद्धकर ) जातकर्म करना चाहिये ॥८॥

सूतकांते नामकर्म विधेयं स्वकुलोचितम् ॥
नामपूर्व प्रशस्तं स्यान्मंगलैश्च शुभाक्षरैः ॥९॥

सूतकके अंतमें अपने कुलके योग्य नामकर्म करना चाहिये और नामके आदिमें शुभमंगलीक अक्षर होवे वह नाम श्रेष्ठ कहा है ॥९॥

देशकालोपयाताद्ये: कालातिक्रमणं यदि ॥
अनस्तगे भृगावीज्ये तत्कार्य चोत्तरायणे ॥१०॥

देशकालकी व्यवस्थाके अतिक्रमणसे सूतकके अंतमें बारहवें दिन नामकरण नहीं होसके तो गुरु शुक्रका अस्त नहीं हो और उत्तरायण सूर्य हो ॥१०॥

चरस्थिमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभवासरे ॥
चंद्रताराबलोपेते दिवसे च शिशोः पिता ॥११॥

चर, स्थिर, मृदु, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्र हो शुभ बार होवे और चंद्रमा तथा तारा बलसे युक्त दिन हो तब बालकका पिता ॥११॥

शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते ॥
लग्नत्यनैधने सौम्ये संयुते वा निरीक्षिते ॥१२॥

शुभ लग्नमें,शुभ राशिके नवांशकमें अष्टम स्थान शुद्ध होय और लग्न, द्वादश, अष्टमस्थानमें शुभग्रह स्थितहों अथवा शुभग्रहोंकी दृष्टि होवे तब नामकरण कर्म करना योग्य है ॥१२॥

षष्ठमास्यष्टमे वापि पुंसां स्त्रीणां तु पंचमे ॥
सप्तमे मासि वा कार्यं नवान्नप्राशनं शुभम् ॥१३॥

छठे महीनेमें अथवा आठवें महीनेमें पुरुषको (पुत्रोंको ) प्रथम अन्न खिलाना प्रारंभ करै और कन्याओंको प्रथम, पांचवें तथा सातवें महीनेमें अन्न खिलाना चाहिये ॥१३॥

रिक्ता दिनक्षयं नंदां द्वादशीमष्टमीममाम् ॥
त्यक्तान्यतिथयः श्रेष्ठाः प्राशने शुभवासरे ॥१४॥

रिक्तातिथि, तिथिक्षय, नंदातिथि, द्वादशी, अष्टमी, अमावस्या इनको त्यागकर अन्यतिथि और शुभवार अन्न प्राशनमें शुभदायक हैं ॥१४॥

चरस्थिमृदुक्षिप्रनक्षत्रे शुभनैधने ॥
दशमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके ॥१५॥

चर, स्थिर, मृदु, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रों में और लग्नसे अष्टमस्थान तथा दशमस्थानकी शुद्धि होनेम शुभलग्न आर शुभराशिका नवांभक होनेमें ॥१५॥

पूर्वाह्रे सौम्यखेटेन संयुक्ते वीक्षितेपि वा ॥
त्रिषष्ठलाभगैः करैः केंद्रधीधर्मगैः शुभैः ॥१६॥

पूर्वाह्र ( दुपहरा पहिल ) लग्न शुभग्रहसे दृष्ट हो अथवा युक्त हो । ३ । ६ । ११ इन स्थानोंमें क्ररग्रह होवें और केंद्र, पाँचव, वमें स्थानमें शुभ होवें तब ॥१६॥

व्ययारिनिधनस्थेन चंद्रेण प्राशनं शुभम् ॥
अन्नप्राशनलग्नस्थे क्षीणेदौ वास्तनीचगे ॥१७॥

और १२ । ६ । ८ इन स्थानों में चंद्रमा नहीं होवे तब अन्ना प्राशन शुभ है और लग्नमें क्षीण चंद्रमा नहीं हो चंद्रमा अस्त नहीं हो तथा नीचका नहीं हो ॥१७॥

नित्यं भोक्तुश्च दारिद्यं रिष्फषष्ठाष्टगोप वा ॥१८॥

जो १२ । ६ । ८ इन स्थानोंमें चंद्रमा हो एसे लग्नमें अन्न प्राशन कराया जाय तो भोजन करनेवाला जन दरिद्री हो ॥१८॥

तृतीये पंचमाब्द वा स्वकुलाचारतोपि वा ।
बालानां जन्मतः कार्य चौलमावत्सरत्रयात् ॥१९॥

तीसरे वा पांचवें वर्ष में अथवा अपने कुलाचारके अनुसार बालकोंका चौलकर्म (बालउतराने चाहियें ) शुभ है। विशेष करके तीन वर्षका बालक हुए पहिले करना ॥१९॥

सौम्यायनेनास्तगयोरसुरासुरमत्रिणोः ॥
अपर्वरिक्ततिथिषु शुक्रे ज्ञे ज्येंदुवासरे ॥२०॥

उत्तरायण सूर्य हो, गुरु शुक्रका अस्त नहीं होवे पूर्णमासी, रिक्ता तिथि इनको त्याग दे शुक्र, बुध, बृहस्पति, चंद्रवार ये शुभहैं ॥२०॥

दस्रादितज्यचंद्रेद्रपूषाभानि शुभान्यतः ॥
चौलकमणि हस्तर्क्षात्रिीणित्रीणि च विष्णुभात् ॥२१॥
पट्टबंधनचौलाग्नप्राशने चोपनायने ॥
शुभदं जन्मनक्षत्रशुभं त्वन्यकर्माणि ॥२२॥

अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिर,ज्येष्ठा, रेवती ये नक्षत्र शुभ हैं। और चौलकर्ममें हस्त नक्षत्र से तीन नक्षत्र अथवा श्रवणसे तीन नक्षत्रों तक जन्मनक्षत्र होय तो चौल कर्म, पट्टाबंधन, अन्नप्राशन, उपनयन कर्म इनमें शुभदायक है अन्यकर्ममें जन्मनक्षत्र अशुभ जानना ॥२१॥२२॥

अष्टमे शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके ॥
न नैधने भे शीतांशौ षष्ठेन्त्ये तु विवर्जयेत् ॥२३॥

शुभलग्न शुभ नवाशक अष्टमस्थान शुद्ध अर्थात् ८वें स्थानमें कोई ग्रह नहीं हो और ६ । ८ । १२ चंद्रमा नहीं हो ॥२३॥

धनत्रिकोणकेंद्रस्थैः शुभैस्त्र्यायारिगैः परैः ।।
अभ्यक्ते संध्ययोर्नाते निशि भोक्तुर्न चाहवे ॥२४॥

शुभग्रह २ । ९ । ५। १ । ४ । ७ । १० इन घरोंमें हों और क्रूर ग्रह ३ । ११ । ६ घरों में हों तब तेल आदिको मालिश करके क्षौरकर्म कराना शुभ है तथा संध्यासमय, भोजनका अंत, रात्रि, युद्ध इन्होंमें क्षौर नहीं कराना ॥२४॥

नोत्कटे भूषिते नैव न थाने नवमेह्रि च ॥
क्षौरकर्म महीशानां पंचमेपंचमेहनि ॥२५॥
कर्तव्यं क्षौरनक्षत्रे ह्यथवास्योदयेऽष्टम् ॥
नृपवित्राज्ञया यज्ञे मरण बंदिमोक्षणे ॥
उद्वाहेखिलवारर्क्षतिथिषु चौरमिष्टदम् ॥२६॥

अत्यंत विकराल होकर आभूषण धारणकरके तथा सवारीपर बैठके क्षौर नहीं कराना राजाओंने नवमें २ दिन तथा पांचवें दिन भी और नहीं कराना चाहिये । क्षौर करानेके योग्य नक्षत्रों में क्षौर कराना और मांगलीक जन्मोत्सवादिकमें कराना, राजा तथा ब्राह्मणकी आज्ञासे, यज्ञ, मरण, कैदसे छूटना, विवाह इन्होंविषे संपूर्ण तिथि बारों में क्षौर करालेवे कुछ मुहूर्च नहीं देखे ॥२५॥२६॥

कर्तव्यं मंगलेष्वादौ मंगलेष्वंकुरार्पणम् ॥
नवमे सप्तमे मासि पंचमे दिवसेपि वा ॥२७॥

मंगल कर्मोमें पहिले दुव आदि मंगलांकुर अर्पण करने चाहिये नवममें अथवा सातवां महीनेमें अथवा पांचवें दिन ॥२७॥

तृतीये बीजनक्षत्रे शुभवारे शुभोदये ॥
सम्यगृहाण्यकृत्य वितानध्वजतोरणैः ॥२८॥

तथा तीसरे महीनेमें गर्भाधानके नक्षत्रविषे शुभवार और शुभनक्षत्र विषे अच्छे लग्नविषे अच्छे प्रकारसे घरोंको मंडप, ध्वजा, तोरणआदिकों से विभूषितकर ॥२८॥

आशिषो वाचनं कार्यं पुण्यं पण्यांगनादिभिः ॥
महावादित्रनृत्याद्यैर्गता प्रागुत्तरां दिशम् ॥२९॥

स्वस्तिवाचन करवाना, सौभाग्यवती स्त्रियोंसे अच्छे प्रकार मंगल गायन करवाना, महान् बाजे नृत्यआदिकोंकी शोभासे युक्त होकर ईशान कोणमें जावे ॥२९॥

तत्र मृत्सिकतां श्लक्ष्णां गृहीत्वा पुनरागतः ॥
मृन्मयेष्वथवा वैणवेषु पात्रेषु पूरयेत् ॥
अनेकबीजसंयुक्तं तोयं पुष्पोपशोभितम् ॥३०॥

तहांसे बालूरेतको लाकर मृत्तिकाके पात्रमें अथवा बांस आदिके पात्रों में भरदेना चाहिये फिर तिसमें सब प्रकारके बीजोंको बोवे और जल छिडक देवे तथा सुंदर पुष्प डालकर शोभित करदेवे ॥३०॥

आधानाष्टमे वर्षे जन्मतो वाग्रजन्मनाम् ॥
राज्ञामेकादशे मौंजीबंधनं द्वादशे विशाम् ॥३१॥

गर्भाधानसे आठवें वर्ष में अथवा जन्मसे आठवें वर्ष में ब्राह्मण को उपनयन कर्म कराना और क्षत्रियोंके ग्यारहवें वर्षमें, वैश्यों के बारहवें वर्षमें यज्ञोपवीत संस्कार कराना चाहिये ॥३१॥

आजनेः पंचमे वर्षे वेदशास्त्रविशारदः ॥
उपनीतो यतः श्रीमान् कार्यं तत्रोपनायनम् ॥३२॥

जो ब्राह्मण वेदशास्त्र में निपुण होनेकी इच्छा करे वह जन्मसे पांचवेंही वर्षमें उपनयन संस्कार करवावे क्योंकि, पांचवें वर्ष संस्कार करानेवाला द्विज श्रीमान् वेदपाठी होता है ॥३२॥

बालस्य बलहीनोपि शांत्या जीवो बलप्रदः ॥
यथोक्तवत्सरे कार्यमनुक्तेनोपनायनम् ॥३३॥

बालकके बलहीन भी बृहस्पति शांति करवानेसे बलदायक होजाता है यथोक्त वर्षमें यज्ञोपवीत कराना। अनुक्त कालमें यज्ञोपवीत नहीं कराना ॥३३॥

दृश्यमाने गुरौ शुक्रे दिनेशे चोत्तरायणे ॥
वेदानामधिपा जीवशुक्रभौमबुधाः क्रमात् ॥३४॥

बृहस्पति तथा शुक्रका उदय हो सूर्य उत्तरायण हो तब उपनयन करावे । बृहस्पति, शुक्र, मंगल, बुध ये ग्रह क्रमसे अगू, यजु, साम, अथर्व इनके अधिपति हैं ॥३४॥

शरद्रीष्मवसंतेषु व्युत्क्रमातु द्विजन्मनाम् ॥
मुख्यं साधारणं तेषां तपोमासादि पंचसु ॥३५॥

शरदी, ग्रीष्म, वसंत इन ऋतुओंमें यथाक्रमसे द्विजातियोंने यज्ञोपवीत संस्कार कराना योग्य है ये ऋतु मुख्य हैं और साधारणता करके सब ही द्विजातियोंको माध आदि पांच महीनोंमें यज्ञोपवीत संस्कार करवाना ॥३५॥

स्वकुलाचारधर्मज्ञो माघमासे तु फाल्गुने ।
विधिज्ञो ह्रार्थवांश्चैत्रे वेदवेदांगपारगः ॥३६॥
वैशाखे धनवान्वेदशास्त्रविद्याविशारदः ॥
उपनीत बलाढ्यश्च ज्येष्ठे विधिविदांवरः ॥३७॥

धर्मज्ञ पुरुष अपने कुलाचारके अनुसार माघ महीनेमें उपनयन करवानेवाला होता है । फाल्गुनमें यज्ञोपवीत संस्कार करावे तो विधिको जाननेवाला धानाढ्य होवे, चैत्रमें वेदवेदांगको जाननेवाला पण्डितहो ॥३६॥
वैशाखमें धनवान् वेदशास्त्रको जाननेवाला पंडित हो, ज्येष्ठमें यज्ञोपवीत करानेसे बलवान् तथा सब विधियों को जाननेवाला होताहै ॥३७॥

शुक्लपक्षे द्वितीया च तृतीया पंचमी तथा ॥
त्रयोदशी च दशमी सप्तमी व्रतबंधने ॥३८ ॥
श्रेष्ठा त्वेकादशी षष्ठी द्वादश्येतास्तु मध्यमाः ॥
एका चतुर्थी संत्याज्या कृष्णपक्षे च मध्यमा ॥३९॥
आपंचम्यास्तु तिथयः पराः स्युरतिनिंदिताः ॥
श्रेष्ठान्यर्कत्रयांत्येज्यरुद्रादित्युत्तराणि च ॥४०॥

शुक्लपक्ष में द्वितीया, तृतीया, पंचमी, त्रयोदशी, दशमी, सप्तमी ये तिथि यज्ञोपवीत कराने में शुभ कही हैं और एकादशी पृष्टी, द्वादशी, ये मध्यमतिथि कही हैं। कृष्णपक्षमें एक चतुर्थी तो त्याज्य है और तिथि पंचमीतक मध्यम हैं। पंचमीसे आगे अन्य तिथि अत्यंत निंदित जाननी ।।३८॥३९॥४०॥

श्रेष्ठान्यर्कत्रयांत्येज्यरुद्रादित्युत्तराणि च ॥४१॥
विष्णुत्रयाश्वमित्राजयोनिभान्युपनायने ॥
जन्मभाद्दशमं कर्म संघातर्क्षे च षोडशम् ॥४२॥
अष्टादशं सामुदायं त्रयोविशं विनाशनम् ॥
मानस पंचविंश नाचरेच्छुभमेव तु ॥४३॥

हस्त आदि तीन नक्षत्र रेवती, पुष्य, आर्द्र, पुनर्वसु तीनों उत्तरा, श्रवण आदि तीन नक्षत्र, अश्विनी, अनुराधा, पूर्वाभाद्रपदा ये, नक्षत्र उपनयन संस्कारमें शुभ कहे हैं। जन्म नक्षत्रसे दशवाँ व सोलहवाँ नक्षत्र कर्मसंघात ऋक्ष कहा है ॥४१॥ अठारहवाँ नक्षत्र सामुदाय है, तेईसवाँ विनाशन है, पचीसवाँ नक्षत्र मानस संज्ञक है इन नक्षत्रों में किंचित् भी शुभकर्म नहीं करना चाहिये ॥४२-४३॥

आचार्यसौम्यकाव्यानां वाराः शस्ताः शशीनयोः ॥
वारौ तौ मध्यफलदावितरौ निंदितौ व्रते ॥४४॥

गुरु, बुध, शुक ये वार शुभदायक हैं, चंद्र, रविवार मध्यम हैं अन्य वार उपनयन संस्कारमें निदित कहे हैं ॥४४॥

त्रिधा विभज्य दिवस तत्रादौ कर्म दैविकम् ॥
द्वितीये मानुषे कार्य तृतीयांशे च पैतृकम् ॥४५॥

दिनमानके तीन विभागकरके तहाँ पहिले भागमें देवकर्म, दूसरे विभागमें मानुषकर्म,तीसरे विभागमें पितृकर्म करना योग्य है ।।४५॥

स्वनीचगे तदेशे वा स्वारिभे वा तदंशके ॥
गुरौ भृगौ च शाखेशे कुलशीलविवर्जितः ॥४६॥
स्वाधिशत्रुगृहस्थे वा तदंशस्थेथवा व्रती ॥
शाखेशे वा गुरौ शुक्रे महाघातककृद्भवेत् ॥४७॥

बृहस्पति, व शुक तथा शाखेश अर्थात् ऋगवेद आदिकोंके अधिपति बृहस्पति आदि ४ वार कहे हैं उनमें से जिस वेदका मत हो वही शाखेश है जैसे ऋगवेदियोंका गुरु, यजुर्वेदियोंका शुक्र, सामवेदियोंका मंगल, अथर्ववेदियोंका बुध जानना ऐसे इन ग्रहोंमेंमें यथाक्रमसे अपनी नीचराशिपर हो वा नीचांश अथवा शत्रुके घर में वा शत्रुराशिके नवांशकमें होवे तब उपयनसंस्कार करावे तो अपने पूर्ण शत्रुके घरमें स्थित अथवा शत्रुकी राशिके नवांशकमें स्थित शाखेश तथा गुरु, शुक्र होय तब उपनयन करावे तो महाघातकी पुरुष हो ॥४६॥४७॥

स्वोच्चसंस्थे तदंशै वा स्वराशौ राशिगे गणे ॥
शाखेशे वा गुरौ शुक्रे केंद्गे वा त्रिकोणगे ॥४८॥

अपनी उच्चराशिमें स्थित अथवा उच्चराशिके नवांशकमे अथवा अपनी राशिमें स्थित शाखेश होवे तथा बृहस्पति, शुक भी इसी प्रकार स्थित होवे अथवा लग्नसे केंद्रमें तथा त्रिकोण में (९ । १) गुरु शुक्र होवे तब उपनयन संस्कार करावे तो ॥४८॥

अतीव वलवांश्चैव वेदवेदांगपारगः ॥
परमोच्चमते जीवे शाखेशेवाथवा सिते ॥४९॥
वती शिशुर्धनाढ्यश्च वेदशास्त्रविशारदः ॥
मित्रराशिगते जीवे तदंशे वां स्वराशिगे ॥५०॥

अत्यंत बलवान् वेदवेदांगके पारको जाननेवाला पुरुष हो बृहस्पति, शुक्र, शाखेश इनमें से कोई परम उच्च अंशों में प्राप्त होवे तो । व्रती बालक धनाढ्य तथा वेदपाठी होवे बृहस्पति मित्रराशिपर हो अथवा तिसराशिके नवशिकमें हो अथवा अपनी राशिपर होय ॥४९॥५०॥

शुक्रे वाचार्यसंयुक्ते तदा तत्र व्रती शिशुः ॥
स्वस्वमित्रगृहस्थे वा तस्योच्चस्थे तदंशके ॥५१॥

शुक, बृहस्पति एक राशिपर स्थित हो तब उपनयन कराना शुभ है. बृहस्पति शुक्र शाखेश ये ग्रह अपने २ मित्रोंके घरमें स्थित हों अथवा मित्रग्रहकी उच्चराशिपर स्थित होवे अथवा उच्चराशिके नवांशकमें स्थित होवें तब उपनयन करवावे तो विद्या धन धान्यसे संयुक्त होवे ॥५१॥

गुरौ भृगौ वा शाखेशे विद्याधनसमन्वितः ॥
शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपबलं शिशोः ॥
शाखाधिपतिलग्नं च दुर्लभं त्रितयं व्रते ॥५२॥

शाखाधिपति ग्रहका वार, बालकको शाखाधिपतिका बल और शाखाधिपतिके राशिका लग्न ये तीन वस्तु उपनयन कर्ममें दुर्लभ हैं अर्थात बडी उत्तम हैं ॥५२॥

तस्माच्छुभांशगे चंद्रे व्रत विद्याविशारदः ॥
पापोऽष्टगे स्वांशगे वा दरिद्रो नित्यदुखितः ॥५३॥

इसीलिये शुभराशिके नवांशकमें चंद्रमा होवे तो व्रतीजन विद्यामें निपुण हो और पापग्रह अष्टमस्थानमें हो तथा अपनी राशिके नवांशकमें हो तो दरिद्री नित्य दुःखी होवे ॥५३॥

श्रवणादितिनक्षत्रे कर्क्यैशस्थे निशाकरे ॥
सदा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमान् ॥५४॥

श्रवण तथा पुष्य नक्षत्र हो,कर्क राशिके नवांशकपर चंद्रमा स्थि हो तब उपनयन संस्कार करानेवाला बालक वेदशास्त्र धनधान्यकी समृद्धिवाला होता है ॥५४॥

शुभलग्ने शुभांशे च नैधने शुद्धिसंयुते ॥
लग्ने त्वनैधने सौम्यैः संयुक्ते वा निरीक्षिते ॥५५॥

शुभलग्न शुभराशिका नवांशक हो आठवें घर कोई लग्नमें शुभग्रह स्थित हो अथवा शुभग्रहों की दृष्टि हो ॥५५॥

दृष्टेर्जीवार्कचंद्राद्यैः पंचभिर्वलिभिर्ग्रहैः ॥
स्थानादिबलसंपूर्णेश्चतुर्भिर्वा समन्वितैः ॥५६॥

बृहस्पति, सूर्य, चंद्रमा इत्यादि पांच ग्रहोंसे दृष्ट शुभस्थान होवें अथवा पंचम आदि स्थानोंमें चार बली शुभग्रह स्थित होवें ॥५६॥

ईक्षिते वा चैकविन्शन्महादोषविवर्जिते ॥
राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतेक्षिताः ॥५७॥

अथवा शुभ चार ग्रहोंसे दृष्ट लग्न होवे और २१ इक्कीस महादोष जो ग्रंथांतरोंमें तथा इसी अंथमें आगे कहे हैं । पंचागशुद्धिका अभाव १ उदयास्त शुद्धिका अभाव २ सूर्य संक्रांति ३ पाप षड्वर्ग ४ गंडांत ५ कर्त्तरीयोग ६ इत्यादि हैं ये नहीं होने चाहियें और शुभग्रहों से युक्त तथा दृष्ट संपूर्ण राशि श्रेष्ठ कही हैं ॥५७॥

शुभा नवांशाश्च तथा गृह्रास्ते शुभराशयः ॥
पापग्रहस्य लग्नांशः शुभेक्षितयुतोपि वा ॥५८॥

और जिनमें शुभराशिके नवांशक आगये हों वे राशि ग्रहण करने योग्य शुभ हैं और पाप ग्रहके लग्नका नवांशक शुभग्रहसे दृष्ट तथा युक्त होय तो शुभ है ॥५८॥

तस्माद्रोमिथुनांत्याश्च तुलाकन्यांशकाः शुभाः ॥
एवंविधे लग्नगते नवांशे व्रतमीरितम् ॥५९॥

इसलिये वृष, मिथुन, मीन, तुला, कन्या इन राशियों के नवांशक शुभ हैं ऐसे लग्नमें अथवा नवांशकमें यज्ञोपवीत कराना शुभ है ॥५९॥

त्रिषडायगतैः पापैः षडष्टांत्यविवर्जितैः ॥
शुभैः षष्ठाष्टलग्नांत्यवर्जितेन हिमांशुना ॥६०॥

पापग्रह ३ । ६ । ११ घरमें हों और शुभग्रह ६ । ८ । १२ इन घरों में नहीं हों और ६ । ८ लयमें चंद्रमा नहीं हो ॥६०॥

स्वोच्चसंस्थोपि शीतांशुर्व्रतिनो यदि लग्नगः ॥
तं करोति शिशुं निःस्वं सततं क्षयरोगिणम् ॥६१॥

उच्चराशिका भी चंद्रमा लग्नमें होय तो उपनयन संस्कारवाले बालकको निरंतर दरिद्री और क्षयी रोगयुक्त करता है ॥६१॥

स्फूर्जितं केंद्रगे भानौ व्रतिनो वंशनाशनम् ॥
कूजितं केंद्रगे भौमे शिष्याचार्यविनाशनम् ॥६२॥

केंद्रमें सूर्य होवे तब उपनयन संस्कार होनेसमय मेघ गर्ज पडे तो वंशका नाश होताहै और मंगल केंद्रमें होय ऐसे लग्नमें उपनयनसमय पक्षियों के कुजनेका शब्द होय तो शिष्य और आचार्य का नाश हो ॥६२॥

करोति रुदितं केंद्रसंस्थे मंदेऽतुलान् गदान ॥
लग्नात्केंद्रगते राहौ रंध्रे मातृविनाशनम् ॥६३॥
उग्रत्केंद्रगते केतौ तातवित्तविनाशनम् ॥
पंचदोषैर्युतं लग्नं शुभदं नोपनायने ॥६४॥

और केंद्र में शनि होवे ऐसे समय में रोनेको शब्द सुनजाय तो अत्यंत रोग होवे । लग्नसे केंद्रमें विशेष करके ७ में राहु होय तो माताको नष्ट करै, उग्र केंद्रमें केतु होय तो पिताको और धनको नष्ट करै इन पांच दोषों से युक्त लय उपनयन संस्कार में शुभ नहीं है ॥६३॥६४॥

विना वसंतऋतुना कृष्णपक्षे गलग्रहे ॥
अनाध्यायोपनीतश्च पुनः संस्कारमर्हति ॥६५॥

वसंतऋतुके विना कृष्णपक्षमें तथा गलग्रह योगमें उपनयन किया जाय तो फिर संस्कार करनेके योग्यहै अर्थात् इन योगों में संस्कार नहीं कराना ॥६५॥

त्रयोदश्यादिचत्वारि सप्तम्यादिदिनत्रयम् ॥
चतुर्थी चैकतः प्रोक्ता ह्राष्टावेते गलग्रहाः ॥६६॥

त्रयोदशी आदि चार तिथि और सप्तमी आदि ३ दिन एक चतुर्थी ऐसे ये ८ तिथि गलग्रह योगसंज्ञक हैं ॥६७॥