नारदसंहिता अध्याय-21
छुरिकावंधनं वक्ष्ये नृपाणां प्राक्करग्रहात् ॥
विवाहोक्तेषु मासेषु शुक्लपक्षेप्यनस्तगे ॥१॥
शुक्रे जीवे च भूपुत्रे चंद्रताराबलान्विते ॥
मौंजीबंधर्क्षतिथिषु कुजवर्जितवासरे ॥२॥
अब छुरिकाबंधन मुहूर्तको कहते हैं । राजाओंने विवाहसे पहिले छुरिका ( कटारी ) बांधनी चाहिये सो विवाह कर्ममें कहेहुए महीनोंमें और शुक्लपक्षमें तथा गुरु शुक्रके उद्यमें और मंगलके उद्यमें और चंद्रमा तथा ताराका बल होय, यज्ञोपवीतमें कहे हुए नक्षत्र तिथि वार हों, मंगल विना अन्यवार होवें ॥१॥२॥
तेषां लग्नोदये कर्तुरष्टमोद्यवर्जिते ॥
शुद्धेऽष्टमे विधौ लग्नात्षडष्टांत्यविवर्जिते ॥३॥
तिन शुभ ग्रहोंकी राशिका लग्न हो और कर्ताकी जन्मराशिसे आठवें कोई ग्रह नहीं हो तथा वर्तमान लग्नसे आठवें कोई ग्रह नहीं हो लग्नसे ६ । ८ । १२ इन घरोंमें चंद्रमा नहीं हो ॥३॥sdadzxczxc अददा असद अड़
धनत्रिकोणकेंद्रस्थैः शुभैरुयायरिगैः परैः ॥
छुरिकाबंधनं कार्यमर्चयित्वामरान्पितॄन् ॥४॥
धन, त्रिकोण ( ९ । ५) केंद्र इन स्थानों में शुभ ग्रह होवें और ३ । ११ । ६ इनमें पाप ग्रह होवे ऐसे मुहूर्तमें देवता तथा पितरोंका पूजन कर छुरिकाबंधन (कटारी बांधना ) शुभ है ॥४॥
अर्चयेच्छुरिकां सम्यग्देवतानां च सन्निधौ ॥
ततः सुलग्ने बन्नीयात्कटयां लक्षणसंयुताम् ॥५॥
देवताओंकी मूर्तियोंके सन्मुख छुरिका ( कटारी ) का पूजन करै फिर अच्छे लग्नमें अच्छे लक्षणवाली छुरिका ( खड़ ) को कटिकै बांधना चाहिये ॥५॥
तस्यास्तु लक्षणं वक्ष्ये यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा ॥
संमितं छुरिकायामविस्तारेणैव ताडयेत् ॥६॥
अब जो पहिले ब्रह्माजीने कहाहै ऐसा खङ्गका लक्षण कहते हैं । खङ्गकी लंबाईके बराबरके निशानेको उस नवीन खङ्गसे ताड़ित करै ॥६॥
भाजितं गजसंख्यैश्च ह्रांगुलीः परिकल्पयेत् ॥
आयामार्द्धाग्रविस्तारप्रमाणेनैव छेदयेत् ॥७॥
फिर उस लंबे चिह्रमें आठका भाग दे अंगुल कल्पित करै अर्थात् अंगुलोंसे नांपकर आठसे कम तक रहैं इतने चिह्रको ग्रहण कर पीछे खङ्गकी लंबाईके आधे विस्तारके अग्रभागसे उस चिंहित वस्तुको काट देवे ॥७॥
तच्छेदखंडान्यायाः स्युर्ध्वजाये रिपुनाशनम् ॥
धूम्राये मरणं सिंहे जयश्चाये निरोगिता ॥
धनलाभो वृषेत्यंतं दुःखी भवति गर्दभे ॥८॥
फिर उस कटेहुए टुकडेके आय होतेहैं अर्थात् जितनी अंगुलका होय उसका फल कहतेहैं । एक अंगुलका होय तो ध्वज आय जाने शत्रुको नष्ट करताहै । और २ अंगुल धम्रआय होय तो मरण, ३ सिंह होय तो जय (जीत) हो,चौथा श्वान आय होय तो आराग्यता हो,फिर ५ वृष आय हो, तो धनका लाभ,६ गर्दभ आयमें अत्यंत दुःखी होवे ॥८॥
गजायेऽत्यंतसंप्रीतिर्ध्वाक्षे वित्तविनाशनम् ॥
खङ्गपुत्रिकयोर्मानं गणयेत्स्वांगलेन तु ॥९॥
मानांगुले तु पर्यायानेकादशमितांस्त्यजेत् ॥
शेषाणामंगुलानां च फलानि स्युर्यथाक्रमात् ॥१०॥
पुत्रलाभः शत्रुवृद्धि: स्त्रीलाभो गमनं शुभम् ॥
अर्थहानिश्वार्थवृद्धिः प्रीतिः सिद्धिर्जयः स्तुतिः ॥११॥
सातवाँ गजआयमें सम्यक् प्रीतिहो और आठवाँ ध्वांक्ष आयमें धनका नाश हो खङ्गके मानको और छरिकाके मानको अपनी अंगुलोंसे नापकरे फिर उनमें ११ अंगुल प्रमाण त्याग देवे अर्थात ग्यारहका भागदेकर बाकी रखलेवे तलचारकी अंगुल और मतिमें जितने अंगुलतक घात भयाहो उनको अंगुल करके जोडकर ११ का भागदेना,फिर १ बँचे तो पुत्रलाभ, २बँचे तो शत्रुवृद्धि, ३ बँचे तो स्त्रीलाभ,४ बँचे तो गमन,५ बँचे तो शुभ फल, ६ बँचे तो द्रव्यहानि, ७ बँचे तो द्रव्यवृद्धि, ८ बँचे तो प्रीति, ९ बँचे तो सिद्धि,१० बँचे तो विजय, ११ बँचे तो स्तुति ( यश ) ऐसा फल जानना ॥९॥१०॥११॥
अथोत्तरायणे शुक्रजीवयोद्देश्यमानयोः ॥
द्विजातीनां गुरोर्गेहान्निवृत्तानां यतात्मनाम् ॥१२॥
उत्तरायण सूर्य हो, बृहस्पति तथा शुक्रका उदय हो तब नियम रखनेवाले अर्थात् ब्रह्मचर्यमें रहनेवाले द्विजातियोंने गुरुके घरसे निवृत्त होना चाहिये ॥१२॥
चित्रोत्तरादितीज्यांत्यहरिमैत्रेंदुभात्रिषु ॥
भेष्वर्केंद्विज्यशुक्रज्ञवारलग्नांशकेष्वपि च ॥१३॥
अथवावस्थानक्षत्रवारलग्नांशकेष्वपि ॥
प्रतिपत्सर्वरिक्तामा सप्तमीतो दिनत्रयम् ॥१४॥
हित्वान्यदिवसे कार्ये समावर्तनमंडनम् ॥१५॥
चित्रा, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, श्रवण, अनुराधा, मृगशिर आदि तीन नक्षत्र, रवि, चंद्र, बृहस्पति, शुक्र, बुध इन वारोंविषे और इनहीकी राशियोंके लग्न तथा नवांशको विषे अथवा यात्राके नक्षत्र वार लग्न नवांशकों विषे समावर्तन कम करना चाहिये और प्रतिपदा, संपूर्ण रिक्तातिथि, अमावस्या, सप्तमी आदि तीनदिन इनको त्यागकर समावर्तन कर्म करना चाहिये ( गृहस्थाश्रममें प्राप्त होना चाहिये) ॥१३॥१४॥१५॥
सर्वाश्रमाणामाश्रेयो गृहस्थाश्रम उत्तमः ॥
यतःसोऽपि च योषायां शीलवत्यां स्थितस्ततः ॥१६॥
संपूर्ण आश्रमका आश्रयरूप गृहस्थाश्रम कहा है वह गृहस्थाश्रम भी अच्छी शीलवतीस्त्रीके आश्रयास्थित रहता है ॥१६॥
तस्यास्तच्छीललब्धिस्तु सुलग्नवशतः खलु ॥
पितामहोक्तां संवीक्ष्य लग्नशुद्धिं प्रवच्म्यहम् ॥१७॥
और तिस स्त्रीके शील स्वभावकी प्राप्ति अच्छे लग्नके प्रभावसे होती है इसलिये मैं ब्रह्माजीसे कहीहुई लग्नशुद्धिको कहताहूं ॥१७॥
पुण्येह्रि लक्षणोपेतं सुखासीनं सुचेतसम् ॥
प्रणम्य देववत्पृच्छेदैवज्ञम् भक्तिपूर्वकम् ॥१८॥
पवित्र शुभदिनविषे सुंदर लक्षणोंसे युक्त सुखपूर्वक स्वस्थ चित्तसे बैठे हुए जोतिषीको भक्तिपूर्वक प्रणाम कर देवताकी तरह सत्कार करके पूछे. ॥१८॥
तांबूलफलपुष्पाद्यैः पूर्णांजलिरुपाग्रतः ॥
कर्ता निवेद्य दंपत्योर्जन्मराशि स जन्मभम् ॥१९॥
तांबूल, फल, पुष्प आदिकोंसे हाथोंको पूणकर ( भेंट चढाकर) वह पृच्छक वरकन्याओंके जन्मके नक्षत्रको और जन्मकी राशिको उस ज्योतिषीके आगे बतलादेवे ॥१९॥
पृच्छकस्य भवेल्लादिंदुः षष्ठाष्टकोपि वा ॥
दंपत्योर्मरणं वाच्यमष्टमर्क्षेतरे यदि ॥२०॥
तहां प्रश्नसमयके लग्नसे छठे आठवें स्थानपर चंद्रमा हो अथवा लग्नके नक्षत्रसे आठवें नक्षत्रपर होय तो स्त्रीपुरुषोंका (वर कन्याओका ) मरण होगा ऐसा कहना चाहिये ॥२०॥
यदि लग्नगतश्चंद्रस्तस्मात्सप्तमगः कुजः ॥
विज्ञेयं भर्तृमरणं त्वष्टमेब्दे न संशयः ॥२१॥
जो चंद्रमा प्रश्नलग्नमें हो और तिस चंद्रमासे सातवें स्थानपर मंगल हो तो आठवें वर्ष में निश्चय पतिका मरण होता है ॥२१॥
लग्नात्पंचमगः पापः शत्रुद्दष्टः स्वनीचगः ॥
मृतपुत्रा तु सा कन्या कुलटा न तु संशयः ॥२२॥
लग्नसे पांचवें स्थान पापग्रह शत्रुग्रहसे दृष्ट तथा अपनी नीचराशिपर स्थित होवे तो वह कन्या मृतवत्सा हो और व्यभिचारिणी हो इसमें संदेह नहीं ॥२२॥
तृतीयपंचसप्तायकर्मगश्च निशाकरः ॥
लग्नात्करोति संबंधं देपत्योर्गुरुवक्षितः ॥२३॥
तीसरे, पांचवें, सातव, ग्यारहवें तथा दशवें स्थानपर चंद्रमा हो और बृहस्पतिकरके दृष्ट हो तो स्त्री पुरुषका संबंध (मेल) करताहै ॥२३॥
तुलागो कर्कटे लग्ने संस्थाः शुक्रेंदुसंयुताः ॥
वीक्षिताः स्त्रीग्रहा नृणां कन्यालाभो भवेत्तदा ॥२४॥
प्रश्नसमय तुला, वृष, कर्क, लग्नमें स्त्रीग्रह स्थित होवें और शुक्र चंद्रमासे युक्त होवें तो तथा दृष्ट होवें तो मनुष्योंको कन्याको लाभ जरूर कहना ॥२४॥
शुक्रेंदू युग्मराशिस्थौ युग्मांशकगतौ तदा ॥
वलिनौ पश्यतो लग्नं कन्यालाभो भवेत्तदा ॥२५॥
प्रश्नसमय शुक्र और चंद्रमा युग्मराशिपर स्थित होवे अथवा युग्मराशिके नवाशकपर स्थित बली होकर लग्नको देखते होवें तो वरको कन्याका लाभ कहना ॥२५॥
अयुग्मराशिगौ चेत्तौ शुक्रेंदू वलिनौ तथा ॥
पश्यतो लग्नमेतौ चेद्वरलाभो भवेत्तदा ॥२६॥
जो वे दोनों चंद्रमा शुक्र बली होकर लग्न को देखतेहों और विषम राशि पर स्थित होवें तो कन्याको अच्छे वरका लाभ कहना ॥२६॥
एवं स्त्रीणां भर्तृलब्धिः पुंग्रहैरवलोकिते ॥
कृष्णपक्षे प्रश्नलग्नाद्युग्मराशौ शशी यदि ॥
यापद्दष्टेथ वा रंध्रे न संबंधो भवेत्तदा ॥२७॥
ऐसेही पुरुष ग्रहोंकरके लग्न इष्ट होय तेभी कन्याओको वरकी प्राप्ति कहना कृष्णपक्षमें प्रश्नलग्नसे युग्मराशिपर चंद्रमा स्थित हो पापग्रहोंसे दृष्ट अथवा सातवें स्थान होवे तो संबंध नहीं हो अर्थात् विवाहू नहीं होगा ॥२७॥
पुण्यैर्निमित्तशकुनैः प्रश्नकाले तु मंगलम् ॥
दंपत्योरशुभैरेतैरशुभं सर्वतो भवेत् ॥२८॥
प्रश्नसमय शुभशकुन होवे तो मंगल जानना और अशुभशकुन होवे तो वरकन्याओंको अशुभ फल होगा ऐसा कहना ॥२८॥
पंचांगशुद्धिदिवसे चंद्रताराबलान्विते ॥
विवाहभस्योदये वा कन्यावरणमिष्यते ॥२९॥
पंचांगशुद्धिके दिन चंद्रताराका बल होनेके दिन विवाहके नक्षत्र और लग्नविषे कन्यावरण ( संबंध ) करना चाहिये ॥२९॥
भूषणैः पुष्पतांबूलैः फलगंधाक्षतादिभिः ॥
शुक्लांबरैर्गीतवाद्यैर्विप्राशीर्वचनैः सह ॥३०॥
कारयेत्कन्यकागेहे वरणं प्रीतिपूर्वकम् ॥
तदा कुर्यात् पिता तस्याः प्रदानं प्रीतिपूर्वकम् ॥३१॥
आभूषण, पुष्प, तांबूल, फल, गंध, अक्षत, श्वेतवस्त्र इन्हों से युक्त हो गीतबाजा आदि मंगल तथा ब्राह्मणों के आशीर्वादोंसे युक्त कन्याके घर में उत्सव कर कन्याका पिता वरण करै तब पीछे तिस कन्याका पिता प्रीतिपूर्वक कन्याका प्रदान (वाग्दान) करै ॥३०॥३१॥
कुलशीलवयोरूपवित्तविद्यायुताय च ॥
वराय रूपसंपन्नां कन्यां दद्याद्यवीयसीम् ॥३२॥
कुल, शील, अवस्था, रूप, धन, विद्या इन्होंसे युक्त वर के वास्ते वरसे छोटी उमरवाली सुरूपवती कन्याको देवे ॥३२॥
संपूज्य प्रार्थयित्वा तां शची देवीं गुणाश्रयाम् ॥
त्रैलोक्यसुंदरीं दिव्यां गंधमाल्यांबरावृताम् ॥३३॥
गुणोंकी आधाररूप, इंद्राणी देवीको पूजकर तिसकी प्रार्थना कर त्रैलोक्य सुंदरी, दिव्य गंध मालाओंवाली सुंदरवस्त्रोंको धारण किये हुए ॥३३॥
सर्वलक्षणसंयुक्तां सर्वाभरणभूषिताम् ॥
अनर्ध्यमणिमालाभिर्भासयंती दिगंतरान् ॥३४॥
संपूण लक्षणोंसे युक्त, संपूर्ण आभूषणोंसे विभूषित, बहुत उत्तम मणियोंकी मालाओंसे दिशाओंको प्रकाशित करती हुई ॥३४॥
विलासिनीसहस्राद्यैः सेव्यमानामहर्निशम् ॥
एवंविधां कुमारीं तां पूजांते प्रार्थयेदिति ॥३५॥
हजारों स्त्रियोंसे सेवित ऐसी कमारी इंद्राणी देवीको पूजिके अंत में ऐसी प्रार्थना करै ॥३५॥
देवींद्राणि नमस्तुभ्यं देवेंद्रप्रियभाषिाण ॥
विवाहं भाग्यमारोग्यं पुत्रलाभं च देहि मे ॥३६॥
हे देवि! हे इंद्राणि! हे देवेंद्रप्रियभाषिणी! तुमको नमस्कार है विवाह सौभाग्य, आरोग्य, पुत्रलाभ ये मुझको देवो ॥३६॥