Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-22

युग्मेब्दे जन्मतः स्त्रीणां प्रीतिदं पाणिपीडनम् ॥
एतत्पुंसामयुग्मेब्दे व्यत्यये नाशनं तयोः ॥१॥

जन्मसे पूरे सम वर्षमें कन्याका विवाह करना शुभ है और वरको अयुग्म (ऊरा ) वर्ष होना चाहिये इससे विपरीत होवे तो तिन्हों का नाश होता है ॥१॥

माघफाल्गुनवैशाखज्येष्ठमासाः शुभप्रदाः ॥
मध्यमः कार्तिको मार्गशीर्षों वै निंदिताः परे ॥२॥

माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ इन महीनों में विवाह करना शुभ है। और कार्तिक,मार्गशिर मध्यम हैं अन्यमहीने विवाहमें अशुभ हैं ॥२॥

न कदाचिदद्शर्क्षेषु भानोरार्द्राप्रवेशनात् ॥
विवाहं देवतानां च प्रतिष्ठा चोपनायनम् ॥३॥

आर्द्रा आदि दश नक्षत्रोंपर सूर्य प्रवेश होवे तव ( चातुर्मासमें) कभी विवाह, देवताओं की प्रतिष्ठा, यज्ञोपवीत ये नहीं करने चाहिये ॥३॥

नास्तंगते सिते जीवे न तयोर्बालवृद्धयोः ॥
न गरौ सिंहराशिस्थे सिंहांशकगतेपि वा ॥४॥

बृहस्पति व शुक्रके अस्त होने में तथा तिन्होंकी बाल और वृद्ध अवस्था होनेके समय और सिँहके बृहस्पतिविषे अथवा सिंहराशके नवांशमें बृहस्पति होवे तब भी ये विवाहादिक नहीं करने चाहिये ॥४॥

पश्चात प्रागुदितः शुक्र: पंचसप्तदिनं शिशुः ॥
अस्तकाले तु वृद्धत्वं तद्वद्देवगुरोरपि ॥५॥

पूर्वमें तथा पश्चिममें शुक्र उदय हो तब सात दिन तथा पांच दिन बाल संज्ञक रहता है और अस्त कालसे पांच सात दिन पहले वृद्ध संज्ञा होजाती है तैमेही वृहस्पतिकी भी संज्ञा जाननी चाहिये ॥५॥

अप्रबुद्धो हृषीकेशो यावत्तावन्न मंगलम् ॥
उत्सवे वासुदेवस्य दिवसे नान्यमंगलम् ॥६॥

जबतक देव नहीं उठे तबतक मंगल कार्य नहीं करना और देव उठनी एकादशीको विवाहादि मंगल करना शुभदायक नही है ॥६॥

न जन्ममासे जन्मर्क्षे न जन्मदिवसेपि च ॥
नाद्यगर्भसुतस्याथ दुहितुर्वा करग्रहम् ॥७॥

प्रथम संतान (जेठी संतान) का विवाह जन्ममास तथा जन्मनक्षत्र तथा जन्मतिथि विषे नहीं करना चाहिये ॥७॥

नैवोद्धाहो ज्येष्ठपुत्रीपुत्रयोश्च परस्परम् ॥
ज्यैष्ठमासजयोरेकज्यैष्ठे मासे हि नान्यथा ॥८॥

ज्येष्ठ वर और जेठी संतानकी कन्या इन दोनोंका तथा ज्येष्ठमासमें उत्पन्न हुए वरकन्याओं का विवाह ज्येष्ठमास नहीं करना चाहिये ॥८॥

उत्पातग्रहणादूर्ध्व सप्ताहमखिलग्रहे ॥
नाखिले त्रिदिनं चर्क्षें तदा नेष्टमृतुत्रयम् ॥९॥

वज्रपात आदि उत्पात तथा सर्व ग्रहणके अनंतर सात दिन तक विवाहादि मंगलकार्य करना शुभ नहीं है। सर्व ग्रहण नहीं हो तो तीन दिन पीछेतक और ऋतुकालके उत्पातमेंभी तीन दिन पीछेतक शुभ कार्य नहीं करना ॥९॥

ग्रस्तास्ते त्रिदिनं पूर्वे पश्चात् ग्रस्तोदये तथा ॥
संध्याकाले त्रित्रिदिनं निःशेषे सप्तसप्त च ॥१०॥

ग्रस्तास्त ग्रहणसे पहिले तीन दिन और ग्रस्तोदय ग्रहणसे पीछे तीन दिन और संध्याकालमें उत्पात होय तो तीन २ दिन बाकी सर्व दिनमें सात २ दिन वर्जित जानो ॥१०॥

मासांते पंचदिवसांस्त्यजेद्रिक्तां तथाष्टमीम् ॥
षष्ठीं च परिघाद्यर्द्ध व्यतीपातं सवैधृतिम् ॥११॥

मासांतमें पांच दिन, रिक्ता तिथि, अष्टमी षष्ठी परिघ योग के आदिका आधा भाग वैधृति, व्यतीपात संपूर्ण, इनको विवाहदिक संपूर्ण कार्यों में वर्ज देवे ॥११॥

पौष्णभत्र्युत्तरामैत्रमरुच्चंद्रार्कपैतृभम् ॥
समूलभं विधेर्भे च स्रीकरग्रह इष्यते ॥१२॥

रेवती, तीनों उत्तरा, अनुराधा, स्वाति, मृगशिर, हस्त, मघा, रोहिणी, मूल इन नक्षत्रोंमें विवाह करना चाहिये ॥१२॥

विवाहे वलमावश्यं दंपत्योगुरुसूर्ययोः ।
तत्पूजा यत्नतः कार्या दुष्फलप्रदयोस्तयोः ॥१३॥

विवाहमें वर कन्याको सूर्य बृहस्पतिका बल अवश्य देखना चाहिये और ज़ो ये अशुभ फलदायक हों तो यत्न करके इन्हीकी पूजा अवश्य करनी चाहिये ॥१३॥

गोचरं वा वेधजं चाष्टवर्गरूपजं बलम् ॥
यथोत्तरं बलाधिक्यं स्थूलं गोचरमार्गजम् ॥१४॥

गोचर बल, वेघरहितका बल, अष्टवर्गबल ये सब बल यथोत्तर क्रमसे बलाधिक्य हैं और गोचर मार्गमे स्थुल बल है ॥१४॥

चंद्रताराबलं वीक्ष्य ग्रहपश्वांगजं बलम् ॥
तिथिरेकगुणा वारो द्विगुणस्त्रिगुणं च भम् ॥१५॥

चंद्र ताराबल, ग्रहबल, पशुके शकुनका बल तथा अंगस्फुरणकाभी बल कहाहै । तिथि एकगुणा बल करती है, वार दुगुना बल और नक्षत्र तिगुना बल करता है ॥१५॥

योगश्चतुर्गुणः पंचगुणं तिथ्यर्धसंज्ञकम् ॥
ततो मुहूर्तो बलवाँस्ततो लग्नं बलाधिकम् ॥१६॥

योग चार गुना, तिथ्यर्द्ध ( करण ) पांचगुना बल करता है, इससे अधिक दुघड़िया मुहूर्त, तिससे अधिक बली लग्न है ॥१६॥

ततोतिबलिनी होरा द्रेष्काणोतिबली ततः ॥
ततो नवांशो बलवान् द्वादशांशो बली ततः ॥१७॥

तिसस बली होरा, तिससे बली द्रेष्काण है, द्रेष्काणसे बली नवांशक है, नवांशकसे बली द्वादशांश है ॥१७॥

त्रिशांशो बलवांस्तस्माद्वीक्ष्यते तद्धलाबलम् ॥
शुभयुक्तेक्षिताः शस्ता विवाहेऽखिलराशयः ॥१८॥

द्वादशांश से बली त्रिंशांश है, ऐसे बलावल विचारना चाहिये विवाहमें संपूर्ण राशि शुभग्रहों से युक्त और दृष्ट होनेसे शुभदायक होती हैं ॥१८॥

चंद्रार्केज्यादयः पंच यस्य राशेस्तु खेचराः ॥
इष्टास्तच्छुभदं लग्नं चत्वारोपि बलान्विताः ॥१९॥

चंद्रमा, सूर्य, बृहस्पति आदि पांच ग्रह जिस राशिके स्वामी हैं, वह लग्न शुभदायक है, और बलान्वित हुए चार ग्रह शुभ होवें वहभी लग्न शुभ दायक है ॥१९॥

जामित्रशुद्धयेकविंशन्महादोषविवर्जितम् ॥
एकविंशतिदोषाणां नामरूपफलानि च ॥२०॥
पितामहोक्तान्यावीक्ष्य वक्ष्ये तानि समासतः ।
पंचांगशुद्धिरहितो दोषस्त्वाद्यः प्रकीर्तितः ॥२१॥

यामित्र दोषकी शुद्धि करना और इक्कीस महादोषोंको वर्ज इक्कीस दोषके नाम रूप फलको ब्रह्माजीसे कहे हुएको पमात्रसे कहते हैं । पंचांगशुद्धि नहीं होना यह प्रथम ॥२०॥२१॥

उद्यास्तशुद्धिहीनो द्वितीयः सूर्यसंक्रमः ॥
तृतीयः पापषड्वर्गो भृगुः षष्ठे कुजोष्टमे ॥२२॥
गंडांतकर्तरीरिःफषडष्टेदुश्च संग्रहः ॥
दंपत्योरष्टमं लग्नं राशिर्विषघटीभवः ॥२३॥
दुर्मुहूर्तो वारदोषः खार्जुरीकः समांघ्रिजः ॥
ग्रहणोत्पातभं क्रूरविद्धर्क्षे क्रूरसंयुतम् ॥२४॥
कुनवांशो महापातो वैधृतिश्चैकविंशतिः ॥
तिथिवारर्क्षयोगानां करणस्य च मेलनम् ॥२५॥
पंचांगमस्य संशुद्धिः पंचांग समुदाहृतम् ॥
यस्मिन्पंचांगदोषोस्ति तस्मिल्लग्नं निरर्थकम् ॥२६॥

उदयास्तशुद्धिहीन यह दूसरा दोष है सूर्यसंक्रम ३, पाप षड्गं ४, छठे घर शुक्र हो यह ५ दोष है। आठवें मंगल हो यह ६ दोष है गंडांत दोष ७, कर्तरी योग ८, और १२।६।८ इन घरों में चंद्रमा हो यह ९, दोष है और स्त्रीपुरुषका अष्टमलग्न १०,संग्रह दोष ११, राशिदोष १२, विषवटी १३, दुष्ट मुहूर्त १४, वारदोष १५, खार्जुरीक समाघ्रिज अर्थात् एकार्गल दोष १६, ग्रहणनक्षत्र तथा उत्पातका नक्षत्र १७,पापग्रहवेध १८,पापग्रहयुक्त १९, दुष्टनवांशक २०,वैधृति तथा व्यतीपात ये २१ इक्कीस महादोष कहे हैं तहां तिथी १ वार २ नक्षत्र ३ योग ४ करण ५ इन्होंका मेल करना इन्होंकी शुद्धि देखना यह पंचांग कहाता है। जिसमें पंचांगदोष हो उस दिन विवाह लग्न करना निरर्थक है ! यह एक पंचांग दोषका लक्षण कहा और बाकी रहे २० दोषों केभी लक्षण कहते हैं । ॥२२॥२३॥२४॥२५॥२६॥

लग्नलग्नांशकौ स्वस्वपतिना वीक्षितौ शुभौ ॥
न चेद्वान्योन्यपतिना शुभमित्रेण वा तथा॥ ॥२७॥
वरस्य मृत्युः परमो लयद्यूननवांशकौ ॥
नैवं तैर्वीक्षितयुतौ मृत्युर्वध्वाः करग्रहे ॥२८॥

लग्न और लग्नका नवांशक ये दोनों अपने २ स्वामी से दृष्ट होवे तथा युक्त होवें तो शुभ है अथवा आपसमें परस्पर पतिसे तथा शुभ मित्र ग्रहसे दृष्टयुक्त होवें तोभी शुभ है, और लग्न तथा लग्नमें सप्तम घर तथा इन घरोंके नवांशकों के स्वामी लग्न तथा सप्तम घरको देखते नहीं हो और दृष्टिभी नहीं करते हों तथा इनके शुभ मित्रभी दृष्टि नहीं करते हो तो उसलग्नमें विवाह किया जाय तो वरकी तथा कन्याकी मृत्यु होती है। लग्नकी शुद्धि नहीं होने से वरकी मृत्यु और सप्तमकी शुद्धि नहीं होने से कन्याकी मृत्यु होती हैं ऐसे यह उदयास्त शुद्धि रहित दोषका लक्षण है ॥२७॥२८॥

त्याज्या सूर्यस्य संक्रांतिः पूर्वतः परतः सदा ॥
विवाहादिषु कार्येषु नाड्यः षोडशषोडश ॥२९॥

सूर्यकी संक्रांति अर्के उससे १६ घडी पहली और १६ घडी पीछेकी त्याग देनी चाहिये यह विवाहादिकोंमें अशुभ कही हैं यह संक्रांति दोपका लक्षण है ॥२९॥

त्रिंशद्धागात्मकं लग्नं होरा तस्यार्धमुच्यते ॥
लग्नत्रिभागो द्रेष्काणो नवमांशो नवांशकः ॥३०॥

लग्न तीस अंशका होता है तिसको आधा भाग ( १५ अंश) को होरा कहते हैं । लग्नके तीसरे भागकी द्रेष्काण संज्ञा है लग्नके नवमांशको नवांशक कहते हैं ॥३०॥

द्वादशांशो द्वादशांशः त्रिशांशस्त्रिशदंशकः ॥
सिंहस्याधिपतिर्भानुश्चंद्रः कर्केटकेश्वरः ॥३१॥

बारहवें अंश करलेनको द्वादशांश, त्रिंशांश तीसवेही अंशका होता है इनके देखनेकी विधि आगे चक्र में स्पष्ट लिखतेहैं । सिंहका स्वामी सूर्य और कर्कका स्वामी चंद्रमा है ॥३१॥

मेषवृश्चिकयोर्भौमः कन्यामिथुनयोर्बुधः ॥
धनुर्मीनद्वयोमैत्री शुक्रो वृषतुलेश्वरः ॥३२॥

मेष और वृश्चिकका मालिक मंगल है, कन्या और मिथुनका स्वामी बुध, धनु और मीनका स्वामी बृहस्पति, वृष और तुलाका स्वामी शुक्र है ॥३२॥

शनिर्मकरकुंभेश इत्येते राशिनायकाः॥
होरेनविध्वोरोजराशौ समभे चंद्रसूर्ययोः ॥३३॥

मकर कुंभका स्वामी शनिहै ऐसे येराशियोंके स्वामी कहे हैं तहाँ विषम राशिमें पहले १५ अंशतक सूर्यकी होरा, पीछे चंद्रमाकी होरा और समराशिमें पहले चंद्रमाकी पीछे सूर्यकी होरा होती है ॥३३॥

स्युर्द्रेष्काणे लग्नपंचनंदराशीश्वराः क्रमात् ॥
आरभ्य लग्नराशेस्तु द्वादशाशेश्वराः क्रमात् ॥३४॥

राशिके १० अंशतक लग्नस्वामी फिर २० अंशतक लग्नसे ५ घरका स्वामी फिर ३० अंशतक लग्नसे ९ घरके स्वामीका द्रेष्काण होता है ऐसा क्रम जानना.और लग्न राशिसे लेकर द्वादशांश् अर्थात् २॥ अंशका पति ग्रह यथाक्रमसे जानना जैसे मेष २॥ अंशतक मंगलका फिर ५ अंशतक शुक्रका द्वादशांश है ॥३४॥

कुजार्कीज्यज्ञशुक्राणां बाणेष्वष्टाद्रिमार्गणाः ॥
भागाः स्युर्विषमे ते तु समराशौ विपर्ययात् ॥३५॥

राशिके ५ अंशों तक मंगल, फ़िर ५ अंशोंतक शनि, फ़िर ८ अंशोंतक बृहस्पति, फ़िर ७ अंशोंतक बुध, फ़िर ५ अंशोंतक शुक्र – ये विषमराशिमें त्रिंशशपति होते हैं और समराशिमें इतनेही अंशों के क्रमसे विपर्यय होते हैं अर्थात् शुक्र, बुध, गुरु, शनि, मंगल ये त्रिंशांशपति होते हैं ॥३५ ॥

भृगुः षष्ठाह्रयो दोषो लग्नात्पष्ठगते सिते ॥
उच्चगे शुभसंयुक्ते तल्लग्नं सर्वदा त्यजेत् ॥३६॥

लग्नसे छठे स्थान राहु होवे वह भृगु षष्ठाह्रयनामक दोष होता है वह लग्न उच्चग्रहसे युक्त तथा शुभग्रहसे युक्त हो तो भी सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥३६॥

कुजाष्टमे महादोष लग्नादृष्टमग कुजे ॥
शुभत्रययुतं लग्नं त्यजेत्तुंगगते यदि ॥३७॥

लग्नसे आठवें स्थान मंगल हो वहभी महादोष कहा है वह लग्न तीन शुभग्रहों से युक्त तथा उच्चग्रहसे युक्त हो तौभी त्याग देना चाहिये ॥३७॥

पूर्णानंदाख्ययोस्तिथ्योः संधिर्नाडीद्वयं सदा ॥
गंडांतं मृत्युदं जन्म यात्रोद्वाहव्रतादिषु ॥३८॥

पूर्णा नंदा इन तिथियोंकी सांधमें दो बड़ी अर्थात् पूर्णिमाके अंतकी एक घडी और प्रतिपदाकी आदिकी १ घडी गंडांत कही है वह जन्म, यात्रा, विवाह आदिकोमें मृत्युदायक जाननी पंचम आदि सब पूर्णा और संपूर्ण नंदा तिथियोंकी घटी जानलेनी ॥३८॥

कुलीरसिंहयाः कीटचापयोर्मीनमेषयोः ।
गंडान्तमंतरालं स्याद्धटिकार्धै मृतिप्रदम् ॥३९॥

और कर्क, सिंह, वृश्चिक, धन, मीन, मेष इन लग्नोकी संधिकी गंडांत संज्ञक जाननी वहभी मृत्युकारक हैं ॥३९॥

सार्पेन्द्रपौष्णभेष्वंत्यं नाडीयुग्मं तथैव च ॥
तदग्रभेष्वाद्यपादभानां गंडांतसंज्ञिकाः ॥४०॥

और आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती इन्होंके अंतकी दो घडी और इनसे अगले नक्षत्रोंके प्रथमचरणोंकी दो घडी ऐसे ये नक्षत्रोंकी ४ घडी गंडांत संज्ञक हैं ॥४०॥

उग्रं च संवित्रितयं गंडांतद्वितयं महत् ॥
मृत्युप्रदं जन्मयानविवाहस्थापनादिषु ॥४१॥

ऐसे यह तीन प्रकारका गंडांत दारुण खराब है जन्म, यात्रा, विवाह इन्होंमें अशुभ कहा है ॥४१॥

लग्नस्य पृष्ठाग्रगायोरसाध्वोः सा कर्तरी स्यादृजुवक्रगत्योः ॥
तावेव शीध्रं यदि वक्रचारौ नो कर्तरीति न्यगदमुनींद्रः ॥४२॥

लग्नसे बारहवें स्थान मार्गी कोई क्रूर ग्रह होवे और दूसरे स्थानमें वक्रगतिवाला कोई क्रूरग्रह होय तो कर्तरी नामक अशुभ योग होता है यदि वे दोनों ग्रह शीघ्र गतिवाले तथा वक्रगतिही होवें तो कर्तरी योग नहीं होता ऐसा यह वसिष्ठ जी मुनिका मत है ॥४२॥

लग्नाभिमुखयोः पार्श्वग्रहयोरुभयस्थयोः ॥
सा कर्तराति विज्ञेया दंपत्योर्मुतिकर्तरी ॥४३॥

लग्न से आगे पीछे दोनों बराबरोंमें पापग्रह होवें वह कर्त्तरीयोग है स्त्रीपुरुषकी मृत्यु करता है ॥४३॥

अपि सौम्यग्रहैर्युक्तं गुणैः सर्वैः समन्वितम् ॥
व्ययाष्टरिपुगे चंद्रे लग्नदोषः स संज्ञितः ॥४४॥

और सौम्य ग्रहोसे युक्त तथा सब गुणोंसे युक्त लग्न हो भी कर्तरी योगमें विवाह नहीं करना और १२।८।६ चंद्रमा हो तो भी लग्नमें दोष कहा है ॥४४॥

तल्लग्नं वर्जयेद्यत्नाज्जीवशुक्रसमन्वितम् ॥
उच्चगे नीचगे वापि मित्रगे शत्रुराशिगे ॥४५॥

वह लग्न बृहस्पति शुक्रसे युक्त होय तौ भी यत्नसे दर्ज देना चाहिये उच्चका हो अथवा नीच ग्रहसे युक्त मित्रराशिका अथवा शत्रुराशिका कैसाही चंद्रमा हो परंतु इन स्थानों में वर्ज देना चाहिये ॥४५॥

अपि सर्वगुणोपेतं दंपत्योर्निधनप्रदम् ॥
शशांके पापसंयुक्ते दोषः संग्रहसंज्ञकः ॥४६॥

जो सब गुणोंसे युक्त लग्न हो तो भी स्त्री पुरुषोंकी मृत्यु करता है और चंद्रमा पापग्रहों से युक्त हो वह संग्रह दोष कहा है ॥४६॥

तस्मिन्संग्रहदोषे तद्विवाहं नैव कारयेत् ॥
सूर्येण संयुते चंद्रे दारिद्यं भवति ध्रुवम् ॥४७॥

तिस संग्रह दोषमें विवाह नहीं करना सूर्यके साथ चंद्रमा हो तो निश्वय दारिद्य हो ।४७॥

कुजेन मरणं व्याधिर्बुधेन त्वनपत्यता ॥
दौर्भाग्यं गुरुणा चैव सापत्न्यं भार्गवेन तु ॥४८॥

मंगलका साथ हो तो मरण वा रोग,बुधकी साथ हो तो संतान नहीं हो,बृहस्पतिका साथ हो तो दुर्भाग्य, शुक्रका साथ हो तो शत्रुका दुःख हो ॥४८॥

प्रव्रज्या रविपुत्रेण राहुणा कलहः सदा ॥
केतुना संयुते चंद्रे नित्यं कष्टं दरिद्रता ॥४९॥

शनिका साथ हो तो संन्यास धारण हो, राहुका साथ हो तो कलह, केतुके साथ चंद्रमा हो तो सदा कष्ट दारिद्रता होवे ॥४९॥

पापद्वययुते चंद्रे दंपत्योर्मरणं भवेत् ॥
पापग्रहयुते चंद्रे नीचस्थे राहुराशिगे ॥५०॥

दो पापग्रहों से युक्त चंद्रमा हो तो कन्या वरकी मृत्यु होवे चंद्रमा पापग्रहोंसे युक्त हो नीचका हो राहुकी राशिपर हो तो ॥५०॥

दोषायनं भवेल्लग्नं दंपत्यार्मरणप्रदम् ॥
स्वक्षेत्रगः स्वोच्चगो वा मित्र्रग्रहगतो विधुः ॥५१॥

वह लग्न दोषोंका स्थान होजाता है स्त्री पुरुषकी मृत्यु करता है और अपने क्षेत्रमें चंद्रमा हो तथा अपनी उच्चराशिका अथवा अपने मित्रके घरमें हो तो ॥५१॥

युतिदोषाय न भवेद्दंपत्योः श्रेयसे तदा ॥
दंपत्योः षष्ठगं लग्नं त्वष्टमो राशिरेव च ॥५२॥
यदि लग्नंगतः सोपि दंपत्योर्मरणप्रदः ॥
स राशिः शुभयुक्तोपि लग्नं वा शुभसंयुतम् ॥५३॥

युतिदोष नहीं होता स्त्री पुरुषको शुभदायक है स्त्री पुरुषकी लग्नसे आठवी राशिका लग्न हो अथवा स्त्री पुरुषकी राशिसे आठवें राशिका लग्न हो तो स्त्री पुरुषकी मृत्यु होती है वह राशि तथा लग्न शुभ ग्रहों से युक्त हो तोभी अशुभ है ॥५२॥५३॥

१लग्नं विवर्जयेद्यत्नात्तदंशांश्च तदीश्वरान् ॥
दंपत्योर्द्वादशं लग्नं राशिर्वा यदि लग्नगम् ॥५४॥

उस लग्नको यत्नसे वर्ज देवे तिसके नवांश और तिसके स्वामी भी अशुभ होते हैं स्त्री पुरुषकी राशिका लग्न हो अथवा उनके जन्म लग्नसे १२ राशि लग्न होवे तो ॥५४॥

अर्थहानिस्तयोर्यस्मात्तदंशस्वामिनं त्यजेत् ॥
जन्मराश्युद्रमे चैव जन्मलग्रोदये शुभा ॥५५॥
तयोरुपचयस्थाने यदा लग्नं गतं शुभम् ॥
खमार्गणा वेदपक्षाः खरामाः शून्यसागराः ॥५६॥
वार्द्धिचंद्रा रूपदस्राः खरामा व्योमबाहवः ॥
द्विरामाः खाग्नय: शून्यदस्रकुंजरभूमयः ॥५७॥

द्रव्यकी हानि होतीहै इसलिये तीन लग्नोके नवांशकके स्वामी ग्रहों को लग्नमें त्याग देवे और जन्मकी राशिपर तथा जन्मलग्नपर शुभ ग्रह होवें और तिन्होंसे उपचय स्थानमें ( ३।११।५) लग्न हो तो शुभ है यह राशिदोष कहा है अब विषघटी दोष कहते हैं अश्विनीनक्षत्रमें ५० घडी, भरणीमें २४, कृत्तिकामें ३०, रोहिणीमें, ४० घडी, मृगशिरमें १४, आर्द्रामें २१, पुनवर्सुमें ३०, पुष्यमें २०, आश्लेषामें ३२, मघामें ३०, पूर्वाफा० २०, उत्तराफा० १८ घडी ॥५५॥५६॥५७॥

रूपपक्षा व्योमदस्रा वेदचंद्राश्चतुर्दश ॥
शून्यचंद्रा वेदचंद्राः षटूपंच वेदबहवः ॥५८॥
शून्यदस्राः शून्यचंद्राश्शून्यचंद्रा गजेंदवः ॥
तर्कचंद्रा वेदपक्षाः खरामाश्चाश्विनीक्रमात् ॥५९॥

हस्तमें २१, चित्रा २०, स्वाति १४, विशाखामें १४, अनुराधा १०, ज्येष्ठा १४, मूल ५६, पूर्वाषाढ़में २४, उत्तराषाढ़में २०, श्रवण० १०, धनिष्ठामें १०, शतभिषा० १८, पूर्वाभाद्र०१६, उत्तराभा० २४, रेवतीमें ३० घड़ी ऐसे अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी ये घड़ी कही हैं ॥५८॥५९॥

आभ्यः पराःस्युश्चतस्रो नाडिका विषसंज्ञिकाः ॥
विवाहादिषु कार्येषु वर्ज्यास्ता विषनाडिकाः ॥६०॥

सो इन घड़ियोंसे परली चार घड़ी विषसंज्ञक हैं जैसे रेवतीकी ३० घड़ी कही तो तीससे आगे ३४ तक चार घड़ी विषघटी जानों ऐसेही सब नक्षत्रोंमें जानलेना ये विषघटी विवाहादिक कार्यों में वर्जित हैं ॥६०॥

ऋक्षाद्यंतघटिमितं विषमानेन ताडितः ॥
षष्टिभिर्हरते लब्धं पूर्वऋक्षेण योजयेत् ॥६१॥

जो नक्षत्र परी साठ ६०घड़ीका नहीं होवे तहां ऐसे करना कि नक्षत्रके ध्रुवांककी घड़ियोंको नक्षत्रके भोगकी घड़ियोंसे गुन लेवे फिर साठ ६०का भाग देवे फिर जितनी घड़ी लब्ध हों उतनीकेही उपरांत विषघटी प्राप्त हुई जाननी ॥६१॥

भास्करादिषु वारेषु ये मुहूर्ताश्च निंदिताः ॥
विवाहादिशुभे वर्ज्या अपि लग्नगुणैर्युताः ॥६२॥

सूर्यादिकवारोंमें जो निंदित मुहूर्त कहे हैं वे लग्नके गुणों से युक्त होवें तौ भी विवाहादिक शुभ कार्योंमें वर्ज देने चाहिये ॥६२॥

ते वर्ज्या यदि तल्लग्नग्गुणैर्युक्ताश्च निंदिताः ॥६३॥

वे वारोंके दुष्टमुहूर्त वर्जनेही योग्य हैं जो वह लग्न गुणों से युक्त हो तौ भी वे दुष्ट मुहूर्त तो निंदितही कहे हैं ॥६३॥

वारमध्ये तु ये दोषाः सूर्यवारादिषु क्रमात् ॥
अपि सर्वगुणोपेतास्ते वर्ज्या सर्वमंगले ॥६४॥

और सूर्यवारादिकोंमें क्रमसे जो वारदोष कहे हैं वे संपूर्ण गुणोंसे युक्त हों तौ भी सब मंगलकममें वर्ज देने चाहिये ॥६४॥

एकार्गलः समांघ्रिश्चेत्तत्र लग्नं विवर्जयेत् ॥६५॥

और खार्जुरिक योग एकार्गल दोष को कहते हैं वह समांघ्रिज होवे अर्थात् सूर्य चंद्रमाके योगसे सम अंकमें देखना कहा है उसमें एकार्गल दोष आता होवे तो उस नक्षत्रमें विवाह लग्न नहीं करना ॥६५॥

अपि शुक्रेज्यसंयुक्ता विषसंयुक्तदुग्धवत् ॥
ग्रहणोत्पातभं त्याज्यं मंगलेषु त्रिधाऽशुभम् ॥६६॥

तहां शुक्र बृहस्पतिसे युक्त लग्न हो तो भी विषसे मिला हुआ दुधकी तरह त्याज्य हो जाता है और ग्रहणका नक्षत्र तथा आकाश भूकंप आदि तीन प्रकारके उत्पातके नक्षत्रको भी त्याग देवे ॥६६॥

यावच्चरणकं भुक्तं शेषं च दग्धकाष्ठवत् ॥
मंगलेषु त्यजेत्क्रुरं विद्धं भं क्रूरसंयुतम् ॥६७॥

और विवाह आदि मंगलमें क्रूर ग्रहसे विद्ध हुए तथा क्रूर ग्रहसे युक्त हुए नक्षत्रको त्याग देवे एक चरण भोगा तो तो भी शेषको भी दग्धकाष्ठकी समान जानना ॥६७॥

अखिलर्क्षे पंचगव्यं सुराबिंदुयुतं तथा ॥
पादमेव शुभैर्विद्धमशुभं नैव कृत्स्नभम् ॥६८॥

मंगलीक कामोंमें एक चरणगत विद्ध होनेसे संपूर्ण नक्षत्र ऐसे त्याज्य होजाते हैं कि जैसे मदिराकी बूंद लगनेसे पंचगव्य अशुद्ध होजाता है और शुभग्रहका वेध चरणगत ही अशुद्ध होता है संपूर्ण नक्षत्रका वेध नहीं होसक्ता ॥६८॥

क्रूरविद्धयुतं धिष्ण्यं निखिलं चैव पादतः ॥
तुलामिथुनकन्यांशं धनुरंशैश्च संयुताः ॥६९॥
एते नवांशाः संग्राह्रा अन्ये तु कुनवांशकाः ॥
कुनवांशकलग्नं यत्त्याज्यं सर्वगुणान्वितम् ॥७०॥

क्रूर नक्षत्रका चरण गत वेध तथा क्रूर ग्रहका योगसे संपूर्ण ही नक्षत्र अशुभ होता है और तुला, मिथुन, कन्या, धनु इनके नवांशक शुभ कहे हैं और अन्य कुनवांशक हैं । कुनवांशकका लग्न सब गुणोंसे युक्त हो तो भी त्याग देना चाहिये ॥६९॥७०॥

स्मिन्दिने महापातस्तद्दिनं वर्जयेद्बुधः ॥
अपि सर्वगुणोपेतं दंपत्यार्मृत्युदं यतः ॥७१॥

सिदिन व्यतीपात योग हो वह दिन त्यागदेना चाहिये वह दिन गुणों से युक्त हो तौभी स्त्री पुरुषकी मृत्यु करनेवाला है ॥७१॥

अनुक्ताः स्वल्पदोषाः स्युर्विद्युन्नीहारवृष्टयः ॥
प्रत्यर्कपरिवेषेद्रचापांबुघनगर्जनम् ॥७२॥

और बिजली पडना, बर्फ ओले पडना इत्यादिक विना कहे हुए स्वल्प दोष हैं तथा सूर्यके सन्मुख बादलमें दूसरा सूर्य देखना, मंडल, मेघ गर्जना, इंद्रधनुष ॥७२॥

एवमाद्यास्ततस्तेषां व्यवस्था क्रियतेऽधुना ॥
अकाले संभवंत्येते विद्युन्नीहारवृष्टयः ॥७३॥
प्रत्यर्कपरिवेषेद्रचापाभ्रघनयोर्यदि ॥
दोषाय मंगले नूनमदोषायैव कालजाः ॥७४॥

इत्यादि दोष हैं उनकी व्यवस्था करते हैं ये बिजली आदि उत्पात, धमर पडना, दूसरा सर्य तथा सूर्यके मंडल दीखना इंद्रधनुष दीखना, मेघ गर्जना ये उत्पात वर्षाकालके विना अकालमें होवें तो विवाहादिक मंगलमें निश्चय दोष है और कालमें होवें तो कुछ दोप नहीं है ॥७३॥७४॥

बृहस्पतिः केंद्रगतः शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥
एकोपि दोषविलयं करोत्येवं सुशोभनम् ॥७५॥

बृहस्पति अथवा शुक्र, बुध, एक भी कोई केंद्रमें होय तो दोषोंको नष्ट करता है शुभ फल होता है ।७५॥

तिर्यक्पंचोर्द्धगाः पंच रेखे द्वेद्वे च कोणयोः ॥
द्वितीयं शंभुकोणेग्निभचक्रं तत्र विन्यसेत् ॥७६॥

पांच रेखा तिरछी और पांच रेखा ऊपरको खींचे दो दो रेखा कोणोंमें खींचनी फिर ईशानकोणमें जो दो रेखा हैं तहां कृत्तिका नक्षत्र धरना और सभी नक्षत्र यथा क्रमसे लिखने ॥७६॥

भान्यतः साभिजित्येकरेखा खेटेन विद्धभम् ॥
पुरतः पृष्ठतोर्काद्या दिनर्क्षे लत्तयंति च ॥७७॥

अभिजित सहित संपूर्ण नक्षत्र लिखने पीछे एक रेखापर दो ग्रहोंके नक्षत्र आजावें वह वेध होताहै ऐसा यह वेधदोष कहाहै । और सूर्य आदि ग्रह आगे तथा पीछेके नक्षत्रको ताडित करते हैं वह लत्तादोष होता है उसका क्रम कहते हैं ॥७७॥

ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि ॥
संलत्तयन्तेर्कशनीज्यभौमा सूर्याष्टतर्काग्नि मितं पुरस्तात् ॥७८॥

बुध,राहु,पूर्ण चंद्रमा,शुक्र ये,अपने पछिके नक्षत्रोंको यथाक्रमसे सातवां, नवमां, बाईसाँ, पांचवां नक्षत्रको ताडित करतेहैं जैसे अश्विनीपर राहु होवे तो आश्लेषाको ताडित करेगा और सूर्य शनि बृहस्पति मंगल ये आगेके नक्षत्रको यथाक्रमसे १२।८।६।३ इनको ताडित करेंगे । जैसे सूर्य अश्विनीपर हो तो अपने आगेके बारहवें नक्षत्र उत्तराफाल्गुनीको ताडित करेगा शनि ८ को नाडित करेगा ऐसे यथाक्रम जानो ॥७८॥

सौराष्ट्रशाल्वदेशेषु लत्तितं भं विवर्जयेत् ॥
कालिंगवंगदेशेषु पातितं भमुपग्रहम् ॥७९॥

सौराष्ट्र व शाल्वदेशमें लत्ता दोषवर्जित है और कलिंग तथा बंगालादेशमें पातदोष वार्जत है और उपग्रह दोष ॥७९॥

बाह्रिके कुरुदेशे च यस्मिन्देशे न दूपणम् ॥
तिथयो मासदग्धाख्या दग्धुलग्नानि तान्यपि ॥८०॥

बाह्रिक तथा कुरुदेशमें वर्जित है तहाँ ही दोषहै और मास दग्धा तिथि, तथा दग्धलग्न ॥८०॥

मध्यदेशे विवर्ज्याणि न दूष्याणीतरेषु च ॥
पंग्वंधकाणलग्नानि मासशून्याश्च राशयः ॥८१॥

इनको मध्यदेशमें वर्जदेवे अन्य जगह दोष नहीं है और पंगु, अंधा, काणा, लग्न मासशून्य, राशि ॥८१॥

गौडमालवयोस्त्याज्याश्चान्यदेशे न गर्हिताः ॥
दोषदुष्टः सदा काले वर्जनीयः प्रयत्नतः ॥८२॥

ये गौड तथा मालवा देशमें त्याज्य हैं अन्यजगह दोष नहीं है। दोषसे दूषित हुआ समय सदा यत्नसे वर्जदेना चाहिये ॥८२॥

अपि भारगुणोऽन्यार्थे दोषाल्पत्वं गुणोदयः॥
परित्यज्य महादोषान्छेषयोर्गुणदोषयोः ॥८३॥

और कहीं बहुत गुण होवे तथा दोष थोडा होवे तहां गुण दोषोंके महान दोषोंको त्याग कर ॥८३॥

गुणाधिकः स्वल्पदोषः सकलो मंगलप्रदः ॥
दोषो न प्रभवत्येको गुणानां परिसंचये ॥८४ ॥

गुण अधिक रहैं और दोष थोडे रहजायें तो वह मुहूर्त संपूर्ण मंगलदायक है बहुतगणोंके बीच एक दोष अपना बल नहीं कर सुकता ॥८४॥

एको यथा तोयबिंदुरुदचिर्षि हुताशने ॥
एवं संचिंत्य गणितशास्त्रोक्तं लग्नमानयेत् ॥८५॥

जैसे एकही जलकी बंद बहुत बढी हुई अग्निको नहीं बुझा सकती तैसे ही गणितशास्त्रको लग्नका बलाबल देखके विचार करना चाहिये ॥८५॥

तल्लग्नं जलयंत्रेण दद्याज्जोतिषिकोत्तमः ॥
षडम्गुलमितत्सेधं द्वादशांगुलमायतम् ॥८६॥
कुर्यात्कपालवत्ताम्रपात्रं तद्दशभिः पलैः ॥
पूर्णे षष्टिर्जलपलैः षष्टिर्मज्जति वासरे ॥८७॥

उत्तमज्योतिषी जलयंत्रसे घटी बनाकर लग्नका निश्चय करै । छह अंगुल ऊंचा और बारह अंगुल विस्तारवाला दशपल ( ४० तोले ) तांबाका कपालसरीखा पात्र बनावे जो कि साठपल (२४० तोले) जलसे भरजावे ऐसे पात्रको जलमें गेरनेसे अहोरात्रमें ६० वार जलमें डूबेगा ॥८६॥८७॥

माषमात्रत्र्यंशयुतं स्वर्णवृत्तशलाकया ॥
चतुर्भिरंगुलैरापः तथा विद्धं परिस्फुटम् ॥८८॥

तहां सोनाकी शलाईसे उडदप्रमाण छिद्रका स्थान बनावे तहां बीचमें छिद्रकरै और चार अंगुल ऊपरतक जलभरदेना ॥८८॥

कार्येणाभ्यधिकः षङ्गिः पलैस्ताम्रस्य भाजनम् ॥
द्वादशं मुखविष्कंभ उत्सेधः षड्रिंगुलैः ॥८९॥
स्वर्णमासेन वै कृत्वा चतुरंगुलकात्मकः ॥
मध्यभागे तथा विद्धा नाडिका घटिका स्मृता ॥९०॥

और छहपल प्रमाणका भी ताम्रपत्र बनता है उसमें बारह अंगुलका विस्तारकरना, छह अंगुल ऊंचा करना, चार अंगुल प्रमाण बीचमें सुवर्णका मासा लगावे मध्यभागमें जलकी नाडी बाँधै वह घटिकायंत्र जानो ॥८९॥९०॥

ताम्रपत्रे जलैः पूर्णे मृत्पात्रे वाथ वा शुभे ॥
गंधपुष्पाक्षतैः सार्द्धैरलंकृत्य प्रयत्नतः ॥९१॥
तंदुलस्थे स्वर्णयुते वस्त्रयुग्मेन वेष्टिते ॥
मंडलार्द्धोदयं वीक्ष्य रवेस्तत्र विनिःक्षिपेत् ॥९२॥

फिर जलसेभरे हुए तांबाके पात्रमें अथवा मिट्टीके पात्रमें गंधपुष्पादिकोंसे पूजनकर शोभितकर तेंदुल सुवर्णसे युक्तकर दो वस्त्रों से आच्छादितकर (ऐसे जलके भरे हुए पात्रमें) इस घटीयंत्रको आधा सूर्योदय होनेके समय छोड देवे ॥९१॥९२॥

मंत्रेणानेन पूर्वोक्तलक्षणं यंत्रमुत्तमम् ॥
मुख्यं त्वमसि यंत्राणां ब्रह्मणा निर्मितं पुरा ॥९३॥
भाव्याभव्याय दंपत्यो: कालसाधनकारणम् ॥
द्वादशोंगुलकं प्रोक्तमिति शंकुप्रमाणकम् ॥९४॥

पूर्वोक्त लक्षणवाले तिस यंत्रको इस मंत्रसे छोडै “तुम सवयंत्रोंके बीचमुख्य हो पहले ब्रह्माजीने ये वरकन्याके सुखदुःखके वास्ते कालसाधनके कारण कहे हो ”और यह यंत्र नहीं बने तो बारह अंगुलका शकु बनाकर इष्टका निश्चयकरना ॥९३॥९४॥

अन्ययंत्र प्रयोगा ये दुर्लभाः कालसाधने ॥
एवं सुलग्ने दंपत्योः कारयेत्सम्यगीक्षणम् ॥९५॥

अन्य यंत्रोंके प्रयोग इष्टसाधनमें दुर्लभ कहे हैं ऐसे सुंदरलग्नमें वरकन्याका विवाह करना चाहिये ॥९५॥

इस्तोच्छ्रितां चतुर्हस्तैश्चतुरस्त्रां समेततः ॥
स्तंभैश्चतुर्भिः श्लक्ष्णैर्वा वामभागे स्वसद्मनः ॥९६॥

तहां एक हाथ ऊंचे चौकटी चार सुंदरस्तंभोंसे शोभित वेदी घरकी बाँयीतर्फ बनानी चाहिये ॥९६॥

समंडलं चतुर्दिक्षु सोपानैरतिशोभनम् ॥
प्रागुदक्प्रवणारंभास्तंभा हयशुकादिभिः ॥९७॥

चारों दिशाओंमें मंडल परिधियोंकरके शोभित बनाने चाहिये। पूर्व और उत्तरकी तर्फ मंडपका विस्तार करना स्तंभोंपर अश्व, तोते आदि चित्रामोंकी शोभा करनी ॥९७॥

विचित्रितां चित्रकुंभैर्विविधैस्तोरणांकुरैः ॥
भृंगारपुष्पनिचयैर्वर्णकैः समलंकृताम् ॥९८॥
विप्राशीर्वचनैः पुण्यस्त्रीभिर्दीपैर्मनोरमाम् ॥
वादित्रनृत्यगीताद्यैर्त्द्ददयानंदिनीं शुभाम् ॥९९॥

विचित्र कलशोंकरके शोभित और अनेक प्रकारकी तोरण, अंकर, मंगलीक पूर्णकुंभ पुष्पोंके समह तथा सुंदर रंगोंकरके शोभित, ब्राह्मणोंके पवित्र आशीर्वादोंसे युक्त, सौभाग्यवती स्त्रियोंके गीतोंसे शोभित, दीपकोंकी पंक्तियोंसे मनोहर, बाजा नृत्य गीत आदिकों से हृदयको आनंद देनेवाली शुभवेदी बनानी चाहिये ॥९८॥९९॥

एवंविधां तामारोहोन्मिथुनं साग्निवेदकम् ॥
त्रिषडायगताः पापाः षष्ठाष्टमं विना विधुः ॥१००॥

ऐसी तिस वेदीके पास अग्नि और वेदकी साक्षीसे विवाह विधि करना। विवाह समय पापग्रह ३।६।११घरमें होवे चंद्रमा छठे आठवें नहीं होवे तो ॥१००॥

कुर्वत्यायुर्धनारोग्यं पुत्रपौत्रसमन्विताः ॥
त्रिकोणकेंद्रखत्र्याये शुभं कुवैति खेचराः ॥१०१॥

आयु, धन, आरोग्य पुत्रपौत्रोंकी समृद्धि करते हैं और ९॥५॥ १०1३।११ इन घरामें सबग्रह शुभफल करते हैं ॥१०१॥

छूनकेंद्रभगं शुक्रं हित्वा पुत्रधनान्विताम् ॥
धनत्रिबंधुतनयधर्मखायेषु चंद्रमाः ॥१०२॥

और सातवें घरबिना अन्यकेंद्रमें शुक्र शुभ है पुत्र धनवती कन्या होती है और २।३।४।५।९।१०।११ इन घरोंमें चंद्रमा शुभ है ॥१०२॥

करोति सुतसौभाग्यभोगयुक्तां विवाहिताम् ॥
अस्तगा नीचगाः शत्रुराशिगाश्च पराजिताः ॥१०३॥

विवाहिता कन्याको पुत्रवती व सौभाग्य भोगवती करता है। और अस्तहुए नीचराशिके शत्रुकी राशिमें प्राप्तहुए ग्रह पराजित ( हारे हुए ) हैं ॥१०३॥

नाशक्तास्ते फलं दातुं दानमश्रोत्रिये यथा ॥
गुरुरेकोपि लग्नस्थः सकलं दोषसंचयम् ॥१०४॥
विनाशयति घर्माशुरुदितस्तिमिरं यथा ॥
एकोपि लग्नगः काव्यो बुधो वा यदि लग्नगः ॥१०५॥

वे इसप्रकार फल देनेको समर्थ नहीं हैं कि जैसे मूर्ख ब्राह्मणको दान देनेका फल नहीं है, अकेलाभी गुरु लग्नमें स्थित हो तो संपूर्ण दोषको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे सर्य अंधेरेको नष्टकरता है और लग्नमें प्राप्तहुआ अकेला शुक्र अथवा बुध ॥१०४॥१०५॥

नाशयत्यखिलान्दोषंस्तूलराशिमिवानलः ॥
गुरुरेकोपि केन्द्रस्थः शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥१०६॥

संपूर्ण दोषोंको ऐसे नष्ट करताहै कि जैसे रूईकी राशिको अग्नि नष्ट करदेवे अकेला बृहस्पति वा बुध तथा शुक्र केंद्रमें होवे तो ॥१०६॥

दोषसंघान्निहंत्येव केसरीवेभसंहतिम् ॥
दोषाणां शतकं हेति बलवान केंद्रगो बुधः ॥१०७॥
शुक्रोऽपहाय वै द्युनं द्विगुणं लक्षमंगिराः ॥
लग्नदोषाश्च दोषा ये दोषा षडर्गजाश्च ये ॥१०८॥

दोषोंके समुहोंको ऐसे नष्टकरता है जैसे सिंह हथियोंके समूहको नष्टकर देता है तैसेही बलवान केंद्र में प्राप्त हुआ बुध सैंकडों दोषोंको नष्ट करता है शुक्र सातवें घरके बिना अन्यकेंद्रमें होवे तो बुधेस दूना शुभ फल करता है । और बृहस्पति लाख दोषोंको नष्ट करता है जो लग्नके दोष हैं और षड्वर्गसे उत्पन्नहुए दोष हैं ॥१०७॥१०८॥

हंति तांल्लग्नगो जीवो मेघसंघमिवानिलः ॥
केंद्रत्रिकोणगे जीवे शुक्रो वा यदि वा बुधः ॥१०९॥

तिन सवदोषोंको लग्नमें प्राप्तहुआ बृहस्पति ऐसे नष्ट करता है कि जैसे बादलोंके समूहको वायु खंडित करदेती है । बृहस्पति अथवा शुक्र तथा बुध केंद्रमें तथा नवमें पांचवें घर होवे तो ॥१०९॥

दोषा विनाशमायांति पापानीव हरिस्मृतेः ॥
गुरुर्बली त्रिकोणस्थः सर्वदोषविनाशकृत् ॥११०॥

सब देष ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे विष्णुके स्मरण करनेसे पाप नष्ट होजाते हैं। बली गुरु नवमें पांचवें घर में होय तो संपूर्ण दोषों को नष्ट करता है ॥११०॥

निहंति निखिलं पापं प्रणाममिव शूलिनः ॥
मुहूर्तपापषड्वर्गकुनवांशग्रहोत्थिताः ॥१११॥

जैसे शिवजीको प्रणाम करनेसे संपूर्ण पाप नष्ट होते हैं और मुहूर्त दोष, पापषङ्घर्ग,कुनवांशक ग्रह इनसे उत्पन्न हुए दोष ॥१११॥

ये दोषास्तान्निहत्येव यत्रैकादशगः शशी ॥
नाशयंत्यखिलान्दोषान्यत्रैकादशगो रविः ॥११२॥

तिन संपूर्ण दोषोंको लग्नसे ग्यारहवें स्थानसे प्राप्तहुआ चंद्रमा दूर करता है अथवा ग्यारहवें स्थानमें प्राप्तहुआ सूर्यभी संपूर्ण दोषों को नष्ट करता है ॥११२॥

गंगायाः स्रानतो भक्त्या सर्वपापानिवाचिरात् ॥
वायूपसूर्यनीहारमेघगर्जनसंभवाः ॥११३॥
दोषा नाशं ययुः सर्वे केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ ॥
ये दोषा मासदग्धास्तिथिलग्नसमुद्भवाः ॥११४॥

और वाय,प्रतिसूर्य,धूम,रज,मेघगर्जना इत्यादि दोष केंद्रस्थानमें बृहस्पति होनेसे ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे भक्ति से गंगाजीमें स्नान करने से शीघही पाप नष्ट होजाते हैं और जो मासदग्ध, तिथि दग्ध तथा लग्नदग्ध अदिदोष हैं ॥११३॥११४॥

ते सर्वे विलयं यांति केंद्रस्थाने बृहस्पतौ ॥
बलवान् केंद्रगो जीवः परिवेषोत्थदोषहा ॥११५॥

वे संपूर्ण केंद्रस्थानमें बृहस्पति प्राप्त होनेसे नष्ट होते हैं और केंद्र में प्राप्तहुआ बृहस्पति सूर्यमंडल आदि उत्पात दोषको नष्ट करता है ॥११५॥

एकादशस्थः शुक्रो वा बलवाञ्छुभवीक्षितः ॥
त्रिविधोत्पातजान् दोषान् हंति केंद्रगतो गुरुः ॥११६॥

ग्यारहवें स्थानमें प्राप्तहुआ शुभग्रहसे दृष्ट बलवान् शुक्र वा केंद्रगत बृहस्पति तीन प्रकारके उत्पातसे उत्पन्नहुए दोषको नष्ट करता है ॥११६॥

स्थानादिबलसंपूर्णः पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥
लग्नलग्नांशसंभूतान् बलवान्केंद्रगो गुरुः ॥११७॥

स्थानादि बलसे पूर्णहुआ बलवान् तथा केंद्रमें प्राप्तहुआ बृहस्पति लग्न और लग्नके नवांशकसे उत्पन्न हुए दोषोंको ऐसे नष्टकरता है कि जैसे शिवजीने त्रिपुर भस्म कियाथा ॥११७॥

भस्मीकरोति तान्दोषानिधनानीव पावकः ॥
अब्दायनर्तुमासोत्था ये दोषा लग्नसंभवाः ॥
सर्वे ते विलयं यांति केंद्रस्थाने वृहस्पतौ ॥११८॥

और केंद्रस्थानमें बृहस्पति होवे तो वर्ष, अयन, ऋतु,मास, लग्न इनसे उत्पन्न हुए दोष ऐसे नष्ट होजाते हैं कि जैसे अग्नि इंधनको भस्म करदेती है ॥११८॥

उक्तानुक्ताश्च ये दोषास्तान्निहंति बली गुरुः ॥
केंद्रसंस्थः सितो वापि भुजंगं गरुडो यथा ॥११९॥

केंद्रमें स्थित हुआ बली गुरु अथवा शुक्र कहे हुए अथवा विनाकहे हुए छोटे मोटे दोषोको ऐसे नष्ट कर देता है कि जैसे गरुड सर्पको नष्ट करता है ॥११९॥

वर्गोत्तमगते लग्ने सर्वे दोषा लयं ययुः ॥
परमाक्षरविज्ञाने कर्माणीव न संशयः ॥१२०॥

लग्न वर्गोत्तममें प्राप्तहोवे तो सब दोष ऐसे नष्ट होजावें कि जैसे ब्रह्मज्ञानसे कर्मवासना नष्ट होजाती है ॥१२०॥

दुःस्थानस्थग्रहकृताः पापखेटसमुद्भवाः ॥
ते सर्वे लयमायांति केन्द्रस्थाने बृहस्पतौ ॥१२१॥

दुष्ट स्थानमें स्थित हुए ग्रहों के किये हुए दोष तथा पापग्रहोंके किये हुए सब दोष केंद्रस्थानमें बृहस्पति स्थित होनेसे नष्ट होजाते हैं ॥१२१॥

उच्चस्यो गुरुरेकोपि लग्नगो दोषसंचयम् ॥
हंति दोषान् हरिदिने चोपवासव्रतं यथा ॥१२२॥

उच्चराशिपर स्थितहुआ बृहस्पति अकेलाही जो लग्नमें प्राप्त होय तो दोषोंके समुहको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे एकादशीका व्रत करनेमे पाप नष्ट होजाते हैं ॥१२२॥

अष्टधा राशिकूटं च स्त्रीदूरगणराशयः ॥
राशीशयोनिवर्णाख्यशुद्धाश्चेत् पुत्रपौत्रदाः ॥१२३॥

आठप्रकारको राशिकूट स्त्रीदुर, गणराशि, राशिस्वामी, योनि, वर्ण ये शुद्ध होवें तो पुत्र पौत्रदायक कहे हैं ॥१२३॥

एकराशौ पृथग् धिष्ण्ये दंपत्योः पाणिपीडनम् ॥
उत्तम मध्यमं भिन्नराश्यैकर्क्षजयोस्तयोः ॥१२४॥

एकराशि हों और जुदा २ नक्षत्र हो तो कन्या वरका विवाह करना ( योग्य है) उत्तमहै और राशि जुदी २ हो नक्षत्र एक ही हो तो मध्यम जानना ॥१२४॥

एकर्क्षे त्वेकराशौ च विवाहः प्राणहानिदः ॥
स्त्रीधिष्ण्यादाद्यनवके स्त्रीदूरमतिनिदितम् ॥१२५॥

और एक ही नक्षत्र तथा एकही राशि हो तो विवाह करनेमें प्राणहानि होती है स्त्रीके नक्षत्रसे नव नक्षत्रोंके भीतर ही पुरुषक नक्षत्र होय तो वह स्त्री दूर, अति निंदित है ॥१२५॥

द्वितयि मध्यमं श्रेष्ठं तृतीये नवके भृशम् ॥
तिस्रः पूर्वोत्तर धातृयाम्यमाहेशतारकाः ॥१२६॥

और उसमें आगेके नव ९ नक्षत्रों में द्वितीय नवकमें पुरुषका नक्षत्र हो तो मध्यम फल जानना। तिसके आगेके नव नक्षत्रों में हो तो अत्यंत शुभफल जानना । और तीनों पूर्वा,तीनों उत्तरा,रोहिणी भरणी ॥१२६॥

इति मर्त्यगणो ज्ञेयः स्यादमर्त्यगणः परः ॥
हयादित्यर्कवाय्विज्यमित्रेन्दुविष्णु चान्त्यभम् ॥१२७॥

ये मनुष्यगण जानने और आश्विनी, पुनर्वसु, हस्त, स्वाति, पुष्य, अनुराधा, मृगशिर, श्रवण, रेवती देवतागण है ॥१२७॥

रक्षोगणः पितृत्वाष्ट्रद्विदैवानींद्रतारकाः ॥
वसुतीयेशमूलाहितारकाभिर्युतोऽनलः ॥१२८॥

मघा, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, आश्लेषा, कृत्तिका ये राक्षसगण हैं ॥१२८॥

दंपत्योर्जन्मभमेकगणे प्रीतिरनेकधा ॥
मध्यमा देवमर्त्यांनां राक्षसानां तयोर्मुतिः ॥१२९॥

स्त्री पुरुषका एक गण होय तो अनेक प्रकार उत्तम प्रीति रहै। देवता तथा मनुष्यको मध्यम प्रीत रहे । राक्षस तथा देवगणका कलह रहे । राक्षस और मनुष्यगण होय तो दोनोंकी मृत्यु हो ॥१२९॥

मृत्युः षष्ठाष्टके पंच नवमे त्वनपत्यता ॥
नेष्टं द्विर्द्वादशेन्येषु दंपत्योः प्रीतिरुत्तमा ॥१३०॥

स्त्री पुरुषकी राशि परस्पर छठे आठवें होवे तो मृत्यु हो, पांचवें नवमें स्थानपर हो तो संतान नहीं हो और परस्पर दूसरे बारहवें राशि होय तौ भी शुभ नहीं है अन्यराशि शुभ है । अन्यराशियों स्त्री पुरुषकी उत्तम प्रीति रहती है ॥१३०॥

एकाधिपे मित्रभावे शुभदं पाणिपीडनम् ॥
द्विर्द्वादशे त्रिकोण च न कदाचित् षडष्टके ॥१३१॥
शत्रुषष्ठाष्टके कुंभकन्ययोर्घटमीनयोः ॥
वामोक्षयोर्न्युक्कीटभयोः कुंभकुलारयोः ॥१३२॥
पंचास्यमृगयोश्चैव निंदितं तदतीव तु ॥
सितार्कीज्येंदूभौमसो रिपुमित्रसमा रवेः ॥१३३॥

शत्रु षडाष्टकमें प्राप्त तथा अशुभराशियोंको कहते हैं । कुंभकन्या, कुंभमीन, कन्यावृष, मिथुनवृश्चिक, कुंभकर्क, सिंहमकर, ये राशि कन्यावरकी परस्पर होवे तो अत्यंत निंदित हैं और शुक्र शनि सूर्यके शत्रु हैं । बृहस्पति, चंद्रमा, मंगल मित्र हैं तथा बुध सम है ॥१३१॥१३२॥१३३॥

इन्दोर्न शत्रुरर्कज्ञौ कुजेज्यभृगुसूर्यजाः ॥
कुजस्य ज्ञोर्कचंद्रेज्याः शुक्रसूर्यसुतौ क्रमात् ॥१३४॥

चंद्रमाके शत्रु कोई नहीं है सूर्य बुध मित्र हैं । और मंगल, गुरु शुक्र, सूर्य ये सम हैं मंगलका बुध शत्रु है । सूर्य, चंद्र, गुरु ये मित्र हैं । शुक्र शनि सम हैं ॥१३४॥

ज्ञस्येंदुरर्कशुक्रौ च कुजजीवशनैश्चराः ॥
गुरोर्ज्ञशुक्रौ सूर्येन्दुकुजाः स्युर्भास्करात्मजः ॥१३५॥

बुधका चंद्रमा शत्रु है, सूर्य शुक्र मित्र और मंगल, गुरु, शनि ये सम हैं। बृहस्पतिका बुध तथा शुक्र शत्रु हैं। सूर्य, चंद्रमा, मंगल, ये मित्र हैं शनि सम है ॥१३५॥

शुक्रस्येंदुरवी ज्ञार्की कुजदेवेशपूजितौ ॥
शनेरर्केन्दुभूपत्रा ज्ञशुक्रौ देवपूजितः ॥१३६॥

शुक्रके चंद्रमा सुर्य शत्रु हैं, बुध शनि मित्र और मंगल बृहस्पति सम हैं । शनिके सूर्य, चंद्रमा ये शत्रु हैं, बुध शुक्र मित्र हैं, बृहपति सम है ॥१३६॥

अश्वेभमेषसपहिश्रोतुमेषोतुमूषकाः ॥
आखुर्गोंमहिषव्याघ्रः श्वद्विड् व्याघ्रो मृगद्वयम् ॥१३७॥
श्वानोःकपिबंधुयुग्मं कपिसिंहतुरंगमाः ॥
सिंहगोहस्तिनो भानामेषां योनिर्यथाक्रमात् ॥१३८॥

अश्व १ हस्ती २ मेष ३ सर्प ४ सर्प ५ श्वान ६ मार्जार ७ मेष ८ मार्जार ९ मेष १० मषक मूषक ११ गौ १२ महिष १३ व्याघ्र १४ महिष १५ व्याघ्र १६ मृग १७ मृग १८ श्वान १९ वानर २० नकुल २१ नकुल २२ वानर २३ सिंह २४ अश्व २५ सिंह २६ गौ २७ हस्ती २८ ऐसे ये अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी योनि यथाक्रमसे जाननी ॥१३७॥१३८॥

वैरं बभ्रूरंगमेषवानरं सिंहदंतिनम् ॥
गोव्याघ्रमाखुमार्जारं महिषाश्चं च शात्रवम् ॥१३९॥

तहां नकल सर्पका वैर है, और मेष वानरका वैर है, सिंह हस्तीका वैर है, गौ व्याघका और मषक मार्जार तथा महिष अश्वका वैर है ॥१३९॥

मीनालिकर्कटा विप्राः क्षत्री मेषो हरिर्धनुः ॥
शूद्रो युग्मं तुलाकुंभौ वैश्यः कन्या वृषो मृगः ॥१४० ॥

मीन वृश्चिक कर्क ये ब्राह्मणवर्ण हैं, मेष सिंह धनु क्षत्रीवर्ण हैं, मिथुन तुला कुंभ, शूद्रवर्ण हैं कन्या, वृष, मकर वैश्यवर्णहैं। ॥१४०॥

( नोत्तमामुद्वहेत्कन्यां हीनर्णो वरः सदा ॥
आद्यमध्यान्त्यचरममध्याद्या ह्राश्विनीमात् । )
गणयेत्संख्यया चैकनाड्यां मृत्युर्न पार्श्वयोः॥
प्राजापत्यव्राह्रादैवा विवाहार्षकसंयुताः ॥१४१॥

उत्तमवर्ण कन्यासे हीनवर्ण वाले वरको विवाह नहा करना चाहिये । और अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी क्रमसे आद्य मध्य अंत्य, अंत्य मध्य आद्य, आद्य मध्य अत्य, ऐसे नाड़ी होती हैं तहां एक नाड़ीमें विवाहकरे तो मृत्यु होवे । पृथक् नाड़ी रहनेमें कुछ दोष नहीं है और प्राजापत्य, ब्राह्म, दैव, आर्ष ये विवाह श्रेष्ठ कहेहैं ॥१४१॥

उक्तकाले तु कर्तव्याश्चत्वारः फलदायकाः ॥
आसुरो द्रविणादानात्पैशाचः कन्यकाछलात् ॥१४२॥

ये चार प्रकारके विवाह उक्तकाल में ( शुभ मुहूर्तमें ) करनेसे अच्छा फल प्राप्त होता है जो द्रव्यलेकर कन्याका पिता विवाहकरै वह आसुरविवाह है। जो वर छलसे कन्याको हर लेजाय वह पैशाच विवाह है ॥१४२॥

राक्षसो युद्धहरणाद्गांधर्वः समयान्मिथः ॥
गांधर्वांसुरपैशाचराक्षसाख्यास्तु नोत्तमाः ॥१४३॥

युद्धमें जीतकर कन्याको लेजाय वह राक्षस विवाह, वर कन्या आपसमें बतलाकर विवाह करलें वह गंधर्व विवाह है, गांधर्व, आसुर, पैशाच, राक्षस ये विवाह पहलोंके समान उत्तम नहीं हैं ॥१४३॥

चतुर्थमभिजिल्लग्नमुदयर्क्षात्तु सप्तमम् ॥
गोधूलिकं तदुभयं विवाहे पुत्रपौत्रदम् ॥१४४॥

सूर्यके उदयलग्नसे चौथालग्न अभिजित संज्ञकहै और सातवां लग्न गोधूलिक संज्ञक है ये दोनों लग्न विवाहमें पुत्र पौत्रदायकहैं ॥१४४ ॥

प्राच्यानां च कलिंगानां मुख्यं गोधूलिकं स्मृतम् ॥
अभिजित्सर्वदेशेषु मुख्यं दोषविनाशकृत् ॥१४५॥

पूर्ववासी तथा कलिंगदेश निवासी जनोंको गोधूलिक लग्न शुभकहा है अभिजित् लग्न सबदेशोंमें मुख्य है सब दोषों को नष्ट करने वाला है ॥१४५॥

मध्यंदिनगते भानौ मुहूर्तोभिजिताह्रयः ॥
नाशयत्यखिलान्दोषान्पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥१४६॥

मध्याह्रसमयमें अभिजित् नामक मुहूर्त आता है वह संपूर्ण दोषोंको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे महादेवजीने त्रिपुर दग्धकिया था ॥१४६॥

मध्यंदिनगते भानौ सकलं दोषसंचयम् ॥
करोति दोषमभिजित्तूलराशिमिवानलः ॥१४७॥

मध्याह्रसमयमें प्राप्त हुआ अभिजित् संपूर्ण दोषोंको ऐसे नष्ट करताहै कि जैसे रूईकी राशिको अग्नि नष्ट करदेता है ॥१४७॥

हंत्येकश्च महादोषो गुणलक्षमपीह सः ॥
पावने पंचगव्यं तु पूर्णकुंभे सुरालयम् ॥१४८॥

और जो एकभी कोई महान् दोष होवे तो वह लाखों गुणों को ऐसे नष्ट करताहै कि जैसे पवित्र पंचगव्य कलशको मदिराका कणका अशुद्ध करदेवे ॥१४८॥

पुत्रोद्वाहात्परं पुत्रीविवाहो न ऋतुत्रये ॥
न तयोर्व्रतमुद्वाहान्मंगले नान्यमंगलम् ॥१४९॥

पुत्रके विवाहसे पीछे छहमहीनेतक पुत्रीका विवाह नहीं करना तीन पुत्र पुत्रियोंके विवाहसे पीछे छह महीनोंतक कोई व्रत तथा अन्यमंगलभी नहीं करना चाहिये ॥१४९॥

विवाहश्चैकजन्यानां षण्मासाभ्यंतरे यदि ॥
असंशयं त्रिभिर्वर्षैस्तत्रैका विधवा भवेत् ॥१५०॥

एक उदरवाली बहनोंका विवाह छहमहीनोंके भीतर होय तो तीनवर्ष भीतर एकजनी विधवा होवे ॥१५०॥

प्रत्युद्वाहो नैव कार्यो नैकस्मै दुहितुर्द्वयम् ॥
न चैकजन्मनोः पुंसोरेकजन्ये तु कन्यके ॥१५१॥

विवाहमें दूसरा विवाह नहीं करना एकवरके वास्ते दो कन्या साथही नहीं विवाहनी और एक उदरके दो भाइयोंको एकउदरकी दो बहनें नहीं विवाहनी ॥१५१॥

नैवं कदाचिदुद्वाहो नैकदा मुंडनद्वयम् ॥
दिवाजातस्तु पितरं रात्रौ तुजननीं तथा ॥१५२॥
आत्मानं संध्योर्हति नास्ति गंडे विपर्ययः ॥
सुतः सुता वा नियतं श्वशुरं हंति मूलजाः ॥१५३॥

एकवार दोविवाह, एकवार दोओंका मुंडन, नहीं कराना अब गंडांत जन्मका विचार कहतेहैं । दिनमें जन्म होय तो पिताको नष्ट करे रात्रिमें जन्म होय तो माताको नष्ट करे संधियोंमें जन्म हो तो आत्माको [आपको]नष्ट करै गंडांत नक्षत्रमें अन्य विपर्यय नहीं है मूलनक्षत्रमें उत्पन पुत्री अथवा पुत्र अपने श्वशुरको नष्ट करते हैं ॥१५२॥१५३॥

तदंत्यपादजो नैव तथाश्लेषाद्यपादजः ॥
ज्येष्ठांत्यपादजो ज्येष्ठं हेति बालो न बालिका ॥१५४॥

मूलनक्षत्रके अंत्यचरणमें जन्मे तो दोष नहीं है और आश्लेषाके अद्यचरणमें दोष नहीं हैं, ज्येष्ठा नक्षत्रके अत्यचरणमें जन्माहुआ पुत्र बडेभाईको नष्ट करता है और कन्या जन्में तो यह दोष नहीं है ॥१५४॥

बालिका मूलऋक्षे तु मातरं पितरं तथा ।
ऐन्द्री धवाग्रजं हंति देवरं तु द्विदैवजा ॥१५५॥

मूलनक्षत्रमें कन्या जन्में तो माता पिताको नष्ट करती है और ज्येष्ठानक्षत्रमें जन्में तो अपने ज्येष्ठको नष्ट करती है विशाखामें जन्में तो देवरको नष्ट करै ॥१५५॥

स्वस्थे नरे सुखासीने यावत्स्पंदति लोचनम् ॥
तस्य त्रिंशत्तमो भागस्तत्परः परिकीर्तितः ॥१५६॥

स्वस्थसुखमे बैठे हुए मनुष्यकी आंखिझिपै ऐसा पलसंज्ञक काल है तिसका तीसवाँ हिस्सा तत्परसंज्ञक कहा है ॥१५६॥

तत्पराच्छतगो भागस्त्रटिरित्यभिधीयते ॥
त्रुटेः सहस्रगो योंशो लग्नकालः स उच्यते ॥१५७॥
देवोपि तन्न जानाति किं पुनः प्राकृतो जनः ॥
स कालोथान्यकालो वा पूर्वकर्मवशाद्भवेत् ॥१५८॥

तत्परसे सौमाँ हिस्सा त्रुटि है, त्रुटिसे हजारवाँ हिस्सा लग्नकाल कहा है उसको देवता भी नहीं जाने फिर प्राकृत मनुष्य तो क्या जानसके वह लग्नकाल अथवा अन्यकाल पूर्वकर्म वशसे आपही प्राप्त होजाता है ॥१५७॥१५८॥

निमित्तमात्रं दैवज्ञस्तद्वशान्न शुभाशुभम् ॥
न्यग्रोधखदिराश्वत्थरक्तचंदनवृक्षजाः ॥१५९॥
श्रीखंडागरुदंतोत्थं शुभशंकुमकल्मषम् ॥
द्वादशांगुलमुत्सेधं परिणाहे षडंगुलम् ॥१६०॥

वहां ज्योतिषी तो निमित्तमात्र है तिसके वशसे कुछ शुभ अशुभ फल नहीं होता तहां बड़, खैर, पीपल, लालचंदन, नारियल, अगर इनवृक्षका अथवा हस्तीदंतका शुभ पवित्र शंकु बारह अंगुलका ऊंचा और छह अंगुल मोटाईका बनावे ॥१५९॥१६०॥

एवं लक्षणसंयुक्तं कल्पयेत्कालसाधने ॥
आरभ्योद्धाहदिवसात्षष्ठे वाप्यष्टमे दिने ॥१६१॥

ऐसे लक्षणयुक्त शंकुको कालसाधनमें बनावे विवाहदिनसे छठे दिन वा आठवें दिन ॥१६१॥

वधूप्रवेशः संपत्त्यै दशमेथ समे दिने ।
व्धयनं द्वितयं जन्ममासाग्र दिवसानपि ॥
संत्यज्य प्रतिशुक्रोपि यात्रा वैवाहिकी शुभा ॥१६२॥

वधूप्रवेश करना दशवें दिन अथवा समदिनमें शुभ है और दोनों अयन वरकन्याके जन्मका मास व दिन सन्मुख शुक्र इनको त्यागकर विवाहकर बहू लानेकी यात्रा शुभ कही है ॥१६२॥