नारदसंहिता अध्याय-23
श्रीप्रदं सर्वगीर्वाणस्थापनं चोत्तरायणे ॥
गीर्वाणपूर्वगीर्वाणमंत्रिणोर्द्दश्यमानयोः ॥१॥
उत्तरायण सूर्यमें संपूर्ण देवताओंका स्थापन करना शुभ है गुरु शुक्रका उदय होना शुभ है ॥१॥
विचैत्रेष्वेवमासेषु माघादिषु च पंचसु ॥
शुक्लपक्षेषु कृष्णेषु तदादि पंचसु स्मृतम् ॥२॥
चैत्रबिना माध आदि पांचमहीनों में देवप्रतिष्ठा करनी शुभ है शुक्ल पक्षमें अथवा कृष्णक्षमें पंचमीतक देवप्रतिष्ठा करनी शुभ है ॥२॥
दिनेषु यस्य देवस्य या तिथिस्तत्र तस्य च ॥
द्वितीयादिद्वयोः पंचम्यादितस्तसृषु क्रमात् ॥३॥
जिसदेवकी जो तिथि है उसी तिथिको प्रतिष्ठा करनी भी शुभ है और द्वितीया आदि दो तिथि पंचमी आदि तीन तिथि क्रमसे शुभ हैं ॥३॥
दशम्यादेश्चतसृषु पौर्णमास्यां विशेषतः ॥
त्रिरुत्तरादितिश्चांत्यहस्तत्रयगुरूडुषु ॥४॥
दशमी आदि चार तिथि पौर्णमासी विशेषतासे शुभ है तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, रेवती, हस्त आदि तीन, पुष्य इन नक्षत्रों में ॥४॥
साश्विधातृजलाधीशहरमित्रवसुष्वपि ॥
कुजवर्जितवारेषु कर्तुः सूर्यबलप्रदे ॥५॥
तथा अश्विनी, रोहिणी, शतिषा, श्रवण, अनुराधा, धनिष्ठा इन नक्षत्रोंमें तथा मंगल बिना अन्य वार कर्ताको सूर्य बलदायक होनेमें ॥५॥
चंद्रताराबलोपेते पूर्वाह्रे शोभने दिने ।
शुभलग्ने शुभांशे च कर्तुर्न निधनोदये ॥६॥
चंद्र ताराबल युक्त दुपहर पहिले शुभदिन, शुभलग्न में, शुभ नवांशकमें कर्ताको अष्टम राशि अष्टम लग्न शुद्ध होने समय ॥६॥
राशयः सकलाः श्रेष्ठाः शुभग्रहयुतक्षिताः ॥
शुभग्रहयुते लग्ने शुभग्रहयुतेक्षिते ॥७॥
सब ही राशि शुभग्रहोंकी दृष्टि होनेसे शुभ कही हैं। शुभ ग्रहसे युक्त तथा लग्न होना चाहिये ॥७॥
राशिः स्वभावजं हित्वा फलं ग्रहजमाश्रयेत् ॥
अनिष्टफलदः सोपि प्रशस्तफलदः शशी ॥८॥
सौम्यर्क्षगोधिमित्रेण गुरुणा वा विलोकितः ॥
पंचेष्टिके शुभे लग्ने नैधने शुद्धिसंयुते ॥९॥
लग्न राशि स्वभावज फलको त्यागकर ग्रहोंसे उत्पन्न हुआ फ़ल करती है और अशुभ चंद्रमाभी शुभ ग्रहके घरमें हो, मित्रसे गुरुसे दृष्ट होय तो शुभदायक है और पंचांग शुद्धियुक्त लग्न अष्टम स्थान शुद्ध होनेके समय प्रतिष्ठा करनी शुभ है ॥८॥९॥
लग्नस्थाः सूर्यचंद्रारराहुकेत्वर्कसूनवः ॥
कर्तुर्मृत्युप्रदाश्चान्ये धनधान्यसुखप्रदाः ॥१०॥
लग्नमें स्थित सूर्य, चंद्रमा, राहु, केतु, शनि ये कर्ताकी मृत्यु करते हैं अन्य ग्रह धन धान्य सुखदायक हैं ॥१०॥
द्वितीये नेष्टदाः पापाः शुभाश्चंद्रश्च वित्तदाः ॥
तृतीये निखिलाः खेटाः पुत्रपौत्रसुखप्रदाः ॥११॥
दूसरे घर पाप ग्रह शुभ नहीं हैं और शुभग्रह तथा चंद्रमा धन दायक है तीसरे वर संपूर्ण ग्रह पुत्र पौत्र सुखदायक हैं ॥११॥
चतुर्थे सुखदाः सौभ्याः शूराश्चंद्रश्च दुःखदाः ॥
हानिदाः पंचम क्रूराः सौम्याः पुत्रसुखदाः ॥१२॥
चौथे घर सौम्यग्रह शुभदायक हैं, क्रूर ग्रह और चंद्रमा दुःख दायक हैं, पांचवें क्रूरग्रह हानिदायक हैं शुभ ग्रह पुत्र सुखदायक हैं ॥१२॥
पूर्णः क्षीणः शशी तत्र पुत्रदः पुत्रनाशनः ॥
षष्ठे शुभाः शत्रुदाः स्युः पापाः शत्रुक्षयप्रदाः ॥१३॥
पूर्णचंद्रमा ५ हो तो पुत्रदायक, क्षीण हो तो पुत्रनाशक है, छठे घर शुभ ग्रह शत्रु उत्पन्न करते हैं और पापग्रह शत्रुको नष्ट करते हैं ॥१३॥
पूर्णः क्षीणोपि वा चंद्रः षष्ठेखिलरिपुक्षयम् ॥
करोति कर्तुरचिरादायुःपुत्रधनप्रदः ॥१४॥
छठे घर चंद्रमा प्रतिष्ठा करनेवालेके शत्रुओंको शीघ्र ही नष्ट करता है और आयु, पुत्र, धन दायक है ॥१४॥
व्याधिदाः सप्तमे पापाः सौम्याः सौम्यफलप्रदाः ॥
अष्टमस्थानगाः सर्वे कर्तुर्मृत्युप्रदा ग्रहाः ॥१५॥
सातवें घर पापग्रह व्याधिदायक है और शुभग्रह शुभफल दायक है प्रतिष्ठा लग्नसे अष्टमस्थानमें प्राप्त हुए सब ग्रह कर्ताकी मृत्यु करते हैं ॥१५॥
धर्मे पापा घ्नंति सौम्याः शुभदाः शुभः शशी ॥
भंगदाः कर्मगाः पापाः सौम्याश्चंद्रश्च कीर्तिदाः ॥१६॥
नवमें घर पापग्रह अशुभ हैं शुभ ग्रह और चंद्रमा शुभदायक हैं । दशव पापग्रह और चंद्रमा अशुभ हैं शुभग्रह कीर्त्तिदायक हैं ॥१६॥
लाभस्थानगताः सर्वे भूरिलाभप्रदा ग्रहाः ॥
व्ययस्थानगताः शश्वद्वहुव्ययकरा ग्रहाः ॥१७॥
लाभस्थानमें प्राप्त हुए सभी ग्रह बहुत लाभदायक हैं बारहवें घर सभी ग्रह निरंतर बहुत खर्च करवाते हैं ॥१७॥
गुणाधिकतरे लग्ने दोषाल्पत्वतरे यदि ॥
सुराणां स्थापनं तत्र कर्तुरिष्टार्थासद्धिदम् ॥१८॥
जिस लग्नमें गुण अधिक हों दोष थोडे होवें तिसमें देवताकी प्रतिष्ठा करनेवाले मनुष्यके मनोरथ सिद्ध होते हैं ॥१८॥
हंत्यर्थहीना कर्तारं मंत्रहीना तु ऋत्विजम् ॥
श्रियं लक्षणहीना तु न प्रतिष्ठासमो रिपुः ॥१९॥
द्रव्यहीन प्रतिष्ठा यजमानको नष्ट करती है, मंत्रहीन प्रतिष्ठा आचार्यको नष्ट करती है, लक्षणहीन प्रतिष्ठा लक्ष्मीको नष्ट करती है । इसलिये हीन रही प्रतिष्ठाके समान कोई शत्रु नहीं है ॥१९॥