नारदसंहिता अध्याय-24
निर्माणे पत्तनग्रामगृहादीनां समासतः ॥
क्षेत्रमादौ परीक्षेत गंधवर्णरसप्लवैः ॥१॥
शहर, ग्राम, घर इन्होंके रचने ( चिनने ) के समयके संक्षेपमात्रसे पहिले गंध, वर्ण, रसप्लव ( ढुलाई) इन्हों करके क्षेत्रकी अर्थात् भूमिस्थलकी शुद्धि करनी चाहियें ॥१॥
मधुपुष्पाम्लपिशितगंधान् विप्रानुपूर्वकम् ॥
सितरक्तेशहरितकृष्णवर्ण यथाक्रमात् ॥२॥
ब्राह्मणके वास्ते मधु ( शहद ) समान सुगंधिवाली, क्षत्रियोंको “पुष्प समान सुगंधिवाली, वैश्यको खट्टी (काँजी) समान सुगंधिवाली, शुद्रको मांससमान सुगंधिवाली भूमि शुभहै और श्वेत, लाल, हरा, काला ये भूमिके रंग ब्राह्मणादिकोंको यथा कमसे शुभ हैं ॥२॥
मधुरं कटुकं तिक्तं कषायश्च रसाः क्रमात् ॥
अत्यंतं वृद्धिदं नृणामीशानप्रागुदक्प्लवम् ॥३॥
और मधुर, चर्चरा, कडुवा, कसैला ये भूमिके स्वाद ब्राह्मण आदिकों को शुभ हैं। और जिस पृथ्वी की ढुलाई ईशान कोण तथा पूर्व व उत्तरको तर्क होवे तो सब जातियों को अत्यंत वृद्धिदायक जाननी ॥३॥
अन्यदिक्षु प्लवं तेषां शश्वदत्यंतहानिदम् ॥
तत्र कर्ता हस्तमात्रं खनित्वा तत्र पूरयेत् ॥४॥
अन्य दिशाओं में ढुलान रहे तो निरंतर तिन सब जातियोंको अशुभ है । पृथ्वीकी अन्य परीक्षा कहते हैं कि, कर्ता पुरुष अपने हाथ प्रमाण भूमिको खोदकर फिर उसही मिट्टीसे उस खढेको भरै ॥४॥
अत्यंतवृद्धिरधिके हीने हानिः समे समम् ॥
तथा निशादी कृत्वा तु पानीयेन पूरयेत् ॥५॥
प्रातर्द्दष्टे चले वृद्धिः समं पंके व्रणे क्षयः ॥
एवं लक्षणसंयुक्ते क्षेत्रे सम्यक्समीकृते ॥६॥
जो मिट्टी बढजाय तो घर चिननेवालेकी अत्यंत वृद्धि रहे हीन मृत्तिका रहे अर्थात् वह खढा नहीं भरे तो हानि हो,समान मृत्तिका रहे तो समान फल जानना और एक हाथ खडा खेादकर रात्रि में पानी से भरदेवे प्रातःकाल देखे तब जलसे वह गर्त कुछ ऊंचा बढा दीखे तो वृद्धि जानना और समान कीच रहे तो समान फल जानना कीचमें छिद्र दीखे तो क्षयकारक भूमि जानना ऐसे लक्षणसे देखे हुए भूमि स्थलको समान बनालेवे ॥५॥६॥
दिक्साधनाय तन्मध्ये समे मंडलमालिखेत् ॥
पूर्वोक्तक्षणसंयुक्ते तन्मध्ये स्थापयेत्ततः ॥७॥
फिर दिक्साधन करनेके वास्ते तिस भूमिके मध्यमें समान भागमें मंडल लिखना चाहिये । पूर्वोक्त लग्नमें तहां यंत्रको स्थापित करे ॥७॥
ततछायां स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापराह्रयोः ॥
तत्र कार्यावुभौ बिंदू वृत्ते पूर्वापराविधौ ॥८॥
फिर जहां दुपहर पहले और दुपहर पछिकी छाया आती हो तहां छायाकी पिछानके वास्ते पूर्व पश्चिममें दो बिंदु कर देनी ॥८॥
रेखा या सोत्तरा साध्या तन्मध्येतिमिना स्फुटा ॥
तन्मध्येतिमिना रेखा कर्तव्या पूर्वपश्चिमा ॥९॥
इसप्रकार रेखा करके उत्तर दिशाका साधन करना । उत्तर दिशाका दिक्साधन करके तिसके बीच मत्स्यसमान तिरछीसे पूर्वपश्चिमकी तर्फ रेखा खींचनी चाहिये ॥९॥
तन्मध्यमत्स्यैर्विदिशः साध्या सूचीमुखास्तदा ॥
मध्याद्विनिर्गतैः सूत्रैश्चतुरस्त्रं लिखेद्वहिः ॥१०॥
फिर मध्यमें मत्स्याकार सूईके मुखसदृश बारीक रेखा खींच कर विदिशा (कोणका ) साधन करना चाहिये, मध्यभागसे निकले हुए सूत्रों करके बाहिर चतुरस्र चौंकूटा स्थल बनावे ॥१०॥
चतुरस्रीकृते क्षेत्रे षड्वर्गपरिशोधिते ॥
रेखामार्गे च कर्तव्यं प्राकारं सुमनोहरम् ॥११॥
फिर चतुरस्र स्थल विषे षड्वार्ग विधिसे शोधन कर रेखामार्ग विषे चौगिर्द एक गोलाकार रेखा खींच लेवे ॥११॥
आयामेषु चतुर्दिक्षु प्रागादिषु च सत्त्वापि ॥
अष्टाष्टौ च प्रतिदिशं द्वाराणि स्युर्यथाक्रमात् ॥१२॥
प्रदक्षिणक्रमात्तेषाममूनि च फलानि वै ॥
हानिर्नै:स्वं धनप्राप्तिर्नृपपूजामहद्धनम् ॥१३॥
उस विस्तारमें चारों दिशाओंके विभाग करलेना, फिर पूर्व आदि दिशाओंमें आठ २ द्वार यथाक्रमसे . बनाने चाहिये । पूर्वदिशामें प्रदक्षिण क्रमसे आठ ८ द्वार लगते हैं, तिनके फल कहते हैं ( ईशानके समीपही पूर्वके प्रथमभागमें हानि, दुसरे भागमें दरिद्रता, फिर ३ धन प्राप्ति, ४ राज्यसे लाभ, ५ में बड़ा भारी धन लाभ ) ॥१२॥१३॥
अतिचौर्यमतिक्रोधो भीतिर्दिशि शचीपतेः ॥
निधनं बंधनं भीतिरर्थाप्तिर्धनवर्द्धनम् ॥१४॥
फिर ६ भागमें अत्यंत चोरी, ७ में अत्यंत क्रोध, ८ में भय ये पूर्व दिशामें ८ द्वारोंके फल हैं। और दक्षिण दिशामें यथाक्रमसे मृत्यु १, बंधन २, भय ३, द्रव्यप्राप्ति ४,द्रव्य वृद्धि ५ ॥१४॥
अनातंकं व्याधिभयं निःसत्त्वं दक्षिणादिशि ॥
पुत्रहानिः शत्रुवृद्धिर्लक्ष्मीप्राप्तिर्धनागमः ॥१५॥
आरोग्य ६, व्याधिभय ७, दारिद्रता ८ ये फल दक्षिणदिशामें आठ द्वारोंके हैं। और पुत्रहानि १, शत्रुवृद्धि २, लक्ष्मीप्राप्ति ३, धनागम ४ ॥१५॥
सौभाग्यमतिदौर्भाग्यं दुःखं शोकश्च पश्चिमे ॥
कलत्रहानिर्निःसत्त्वं हानिर्धान्यं धनागमः ॥१६॥
सौभाग्य ५, अतिदौर्भाग्य ६, दुःख ७, शोक ८ ये फल पश्चिमदिशामें ८ द्वारोंके हैं । और स्त्रीहानि १, दरिद्रता २, हानि ३, धान्य ४, धनागम ५, ॥१६॥
संपबृद्धिर्महाभीतिरामया दिशि शीतगोः ॥
एवं गृहादिषु द्वारं विस्ताराद्विगुणोच्छ्रितम् ॥१७॥
संपत्तिकी वृद्धि ६, महाभय ७, रोग ८ ये फल उत्तर दिशामें आठ द्वार करनेके हैं, ऐसे घर आदिकों में द्वार करने चाहिये द्वारकी चौडाईसे दूनी उंचाई करनी शुभ है ॥१७॥
इति प्रदक्षिणं द्वारं फलमीशानकोणतः ॥
मूलद्वारस्य चोक्तानि नान्यत्रैवं वियोजयेत् ॥१८॥
ऐसे ईशानकोणसे दहिने क्रमसे द्वार करनेके सब दिशाओंके फल कहे हैं। मूलद्वार अर्थात् मुख्य द्वारका यह फल है खिड़की आदिका फल नहीं है ॥१८॥
पश्चिमे दक्षिणे वापि कपाटं स्थापयेद्धहे ॥
प्राकारतां क्षितिं कुर्यादेकाशीतिपदं यथा ॥१९॥
घरसे पश्चिमकी तर्फ अथवा दक्षिणकी तर्फ किवाड़ स्थापन करने और घरमें ८१ पदका वास्तु होता है अर्थात् वास्तुमें ८१ देवते स्थित कहे हैं ॥१९॥
मध्ये नवपदं ब्रह्रास्थानं तदतिनिदितम् ॥
द्वात्रिंशदंशाः प्राकाराः समीपांशाः समंत : ॥२०॥
तहां मध्यमें ९ पद (९ कोष्ट ) ब्रह्मस्थान कहा है वह जगह प्रतिनिदित जानो और चारोतर्फ किलाकी तरह भाग करके बत्तीस अंश ( भाग ) हैं ॥२०॥
पिशाचांशा गृहारंभे दुःखशोकभयप्रदाः ॥
शेषाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रपौत्रधनप्रदाः ॥२१॥
वे गृहारंभमें पिशाचोंके अंशहैं तिस जगहमें पहिले घर चिनना प्रारंभ करे तो दुःख, शोक, भय हो अन्य जगह किसीठौरसे घर चिनना प्रारंभ किया जावे तो पुत्र, पौत्र, धनकी प्राप्तिहोय ॥२१॥
शिरस्यर्वाक्तना रेखा दिग्विदिङ्मध्यसंभवाः ॥
ब्रह्राभागपिशाचांशाः शिशूनां यत्र संहतिः ॥२२॥
मध्यमें चलीहुई रेखा दिशा और कोणों में प्राप्त है तहां वास्तु पुरुषके शिरसे उरली तर्फ रेखा होती है तहां ब्रह्मभाग और पिशाचांशके शिशुओंके समूहकी स्थिति है ॥२२॥
तत्र तत्र विजानीयाद्वसतो मर्मसंधयः ॥
मर्माणि संधयो नेष्टास्तेष्वेव विनिवेशने ॥२३॥
तहां २ निवास करे तो वास्तुके मर्म और संधि जानना तहां प्रथम निवास करना अशुभ है ॥२३॥
सौम्यफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः॥
मासाः स्युर्तृहनिर्माणे पुत्रारोग्यधनप्रदाः ॥२४॥
मार्गशिर, फाल्गुन, वैशाख, माध, श्रावण, कार्तिक इन महीनोंमें घर चिनवाना प्रारंभ करे तो पुत्र, आरोग्य, धनकी प्राप्ति हो ॥२४॥
अकारादिषु वर्गेषु दिक्षु प्रागादिषु क्रमात् ॥
खगेशौ तु हरीशाख्यसर्पाखुगजसूकराः ॥२५॥
वर्गेशाः क्रमतो ज्ञेयाः स्ववर्गात्पंचमो रिपुः ॥
स्ववर्गे परमा प्रीतिः कथ्यते गणकोत्तमैः ॥२६॥
पूर्व आदि दिशाओमें क्रमसे अकारादि वर्गोंविषे गरुड़ १, बिलाव २, सिंह ३, श्वान ४, सर्प ५, मूषक ६, गज ७, सूकर ८ ये आठ वर्ग पूर्व आदि दिशाओंके जानने तहां अपने में पांचवें वर्गको शत्रु जाने ऐसे ज्योतिषी जनोंने कहा है ॥२५॥२६॥
स्ववर्गे द्विगुणं कृत्वा परवर्गेण योजयेत् ॥
अष्टभिस्तु हरेद्भागं योऽधिकः स ऋणी भवेत् ॥२७॥
और दूसरा प्रकार यह है कि अपने वर्गको दूना कर परवर्गमें मिलादेवे फिर आठका भाग देना तहां जो अंक बाकी रहे उसको फलरूप जाने इसी प्रकार पराये वर्गको भी दना कर अपने वर्गमें मिला ८ का भाग देना अंक बँचे सो देखना इन बँचेहुए अंकोंमें जिसका अंक अधिक बँच जाय वह ऋणी जानना यहां घरके वर्गका अंक ऋणी होना ठीक है ॥२७॥
विस्तारगुणितं दैर्ध्य गृहक्षेत्रफलं भवेत् ॥
तत्पृथक् वसुभिर्भक्तं शेषमायो ध्वजादिकः ॥२८॥
घरकी चौडाईको लंबाईसे गुणा करदेना वह क्षेत्रफल होता है, फिर आठका भाग देना बाकी रहा ध्वज आदिक आय जानना ॥२८॥
ध्वजो धूमोऽथ सिंहः श्वा सौरभेयः खरो गजः ॥
ध्वांक्षश्चैव क्रमेणैतदायाष्टकमुदीरितम् ॥२९॥
ध्वज १, धूम २, सिंह ३, श्वान ४, वृष ५, खर ६, गज ७, ध्वांक्ष ८ ऐसे क्रमसे ये ८ आय कहे हैं ॥२९॥
ब्राह्मणस्य ध्वजो ज्ञेयः सिंहो वै क्षत्रियस्य च ॥
वृषभश्चैव वैश्यस्य सर्वेषां तु गजः स्मृतः ॥३०॥
तहां ब्राह्मणको ध्वज आय शुभ है, क्षत्रियको सिंह शुभ है, वैश्यको वृष शुभ है, गज आय सब वर्गोंको शुभ है ॥३०॥
कीर्तिः शोको जयो वैरं धनं निर्धनता सुखम् ॥
रोगश्चैते गृहारंभे ध्वजादीनां फलं क्रमात् ॥३१॥
और ध्वज १ आय आवे तो कीर्ति, फिर धूम २ हो तो शो क, फिर ३ जय, ४ वैर, ५ धन, ६ निर्धनता, ७ सुख, ८ रोग ऐसे इन आठ ध्वज आदिकोका फल जानना ॥३१॥
द्विर्द्धादशं निर्धनाय त्रिकोणं कलहाय च ॥
षडष्टकं मृत्यवे स्याच्छुभदा राशयः परे ॥३२॥
घरकी राशि व स्वामीकी राशि परस्पर दूसरे बारहवें स्थान हो तो निर्धनता फल कहना, नवमें पांचवें होवे तो कलह कहना, छठे आठवें हो तो मृत्यु कहना, अन्यराशि शुभदायक जानना ॥३२॥
सुर्यागारकवारांशा वैश्वानरभयप्रदाः ॥
इतरे ग्रहवारांशाः सर्वकामार्थसिद्धये ॥३३॥
सूर्य तथा मंगलकी राशिके नवांशकमें घर चिनना प्रारंभ करे तो अग्निका भय हो और अन्यवारोंके नवांशकमें करे तो सब कामना सिद्ध होवे ॥३३॥
नभस्यादिषु मासेषु त्रिषु त्रिपु यथक्रमात् ॥
यदिङ्मुखं वास्तु पुमान्कुर्यात्तद्दीङ्मुखं गृहम् ॥३४॥
भाद्रपद आदि तीन २ महीनोंमें पूर्वदि दिशाओमें वास्तुका मुख रहता है जिस दिशामें वास्तुका मुख हो तिसही दिशामें घरका द्वार करना शुभहै ॥३४॥
प्रतिकूलमुखो गेहो रोगशोकभयप्रदः ॥
सर्वतोमुखगेहानामेष दोषो न विद्यते ॥३५॥
तिस्से विपरीत द्वार लगावे तो रोग शोक भय हो और जिन घरोंके चारोतर्फ चौखट लगाई जातीहैं उन घरों में यह दोष नहीं होता है ॥३५॥
मृत्पेटिका स्वर्णरत्नधान्यशैवालसंयुता ॥
गृहमध्ये हस्तमात्रे गर्त्ते न्यासाय विन्यसेत् ॥३६॥
वास्त्वायामदलं नाभिस्तस्मादब्ध्यंगुलत्रयम् ॥
कुक्षिस्तस्मित्र्यसेच्छंकुं पुत्रपौत्रप्रवर्द्धनम् ॥३७॥
मृत्तिकाकी पिटारी, सुवर्ण,रत्न,धान्य,शिंवाल इन सबको इकट्ठे कर बरके बीच एक हाथ खडा खोदकर तिसमें रखदेवे वास्तुके विस्तारुदलमें नाभि है तिस नाभिसे ७ अंगुलतक कुक्षि जानना तहां शंकु रोपै तो पुत्र, पौत्र, धनकी प्राप्ति हो ॥३६॥३७॥
चतुर्विशत्रयोविंशत्षोडशद्वादशांगुलैः ॥
विप्रादीनां शंकुमानं स्वर्णवस्त्राद्यलंकृतम् ॥३८॥
चौवीस अंगुल, तेईस अंगुल, सोलह अंगुल, बारह अंगुल ऐसे ब्राह्मण आदि वर्षों के क्रमसे शंकका प्रमाण करना चाहिये । सुवर्ण तथा वस्त्रादिकसे शंकुको विभूषित करे ॥३८॥
खदिरार्जुनशालोत्थं पूगपत्रतरूद्भवम् ॥
रक्तचंदनपालाशरक्तशालविशालजम् ॥३९॥
खैर, अर्जुन वृक्ष, शाल, सुपारीवृक्ष, तेजपातवृक्ष, लाल चंदन, ढाक, लाल सुंदर शाल ॥३९॥
नीपकारं च कुटजं वैपावं बिल्ववृक्षजम् ॥
शंकु त्रिधा विभज्याथ चतुरस्रं ततः परम् ॥४०॥
कटज, वृक्ष, कदंब वृक्ष, बाँस, बेलवृक्ष इन्होंका शंकु बनाना चाहिये । शंकुमें तीन विभाग करलेवे अथवा चौंकूटा शंकु करना ॥४०॥
अष्टांशं च तृतीयांशमनस्त्रमृजुमव्रणम् ॥
एवं लक्षणसंयुक्तं परिकल्प्य शुभे दिने ॥४१॥
आठ दलका अथवा तीन दलका करना अथवा दलरहित साफ गोल करलेना ऐसे लक्षणसे युक्त शंकु बनाय शुभदिनमें इष्ट साधनकर गृहारंभ करना ॥४१॥
व्यर्कारवारलग्नेषु चापे चाष्टमवार्जते ।
नैधने शुद्धिसंयुक्ते शुभलग्ने शुभांशके ॥४२॥
तहां रवि मंगलके लग्न नहीं हों, अष्टमस्थानमें धनु लग्न नहीं हो, अष्टम घरमें कोई ग्रह नहीं हो, शुभलग्न तथा शुभाराशिका नवांशक होवे तब ॥४२॥
शुभेक्षितेऽथ वा युक्ते लग्ने शंकुं विनिःक्षिपेत् ॥
पुण्याहवाचैर्वादित्रै” पुण्यैः पुण्यांगनादिभिः ॥४३॥
शुभग्रहों की दृष्टि हो,शुभग्रहयुक्त हो,ऐसे लग्नमें शंकुको स्थापितकरै पुण्याहवाचन बाजा, गीत, स्त्रीमंगलगीत इन्होंसे मंगल कराना ।।४३।।
स्वकेंद्रस्थैस्त्रिकोणस्थैः शुभैस्त्र्यायारिगैः परैः ॥
लग्नात्षष्ठायचंद्रेण दैवज्ञार्चनपूर्वकम् ॥४४॥
शुभग्रह धनस्थान तथा केंद्रमें होवे अथवा ९।५ घरमें हो और पापग्रह ३।११।६ घरमें हो, चंद्रमा ६ तथा ११ होवे ऐसे लग्नमें ज्योतिषीके पूजन पूर्वक घर चिनवाना प्रारंभ करै ॥४४॥
एकाद्वित्रिचतुःशालाः सप्तशालाह्रयाः स्मृताः ॥
ताः पुनः षड्विधाः शालाः प्रत्येकं दशषङ्विधाः ॥४५॥
एक शालासे युक्त घर, दो शालावा तीन, चार, सात शालाका घर होता है तिनके भी छह भेदहैं सोलहप्रकारके घर होते हैं। तिनके नाम ॥४५॥
ध्रुवं धान्यं जयं नंदं खरं कांतं मनोरमम् ॥
सुमुखं दुर्मुखं क्रूरं शत्रुस्वर्णप्रदं क्षयम् ॥४६॥
आक्रंदं विपुलाख्यं च विजयं षोडशं गृहम् ॥
गृहाणि षण्णवत्येव तेषां प्रस्तारभेदतः ॥४७॥
ध्रुव १ धान्य २ जय ३ नंद ४ खर ५ कांत ६ मनोरम ७ सुमुख ८ दुर्मुख ९ क्रूर १० शत्रप्रद ११ स्वर्णपद १२ क्षयप्रद१३ आक्रंद १४ विपुल १५ विजय १६ ऐसे ये सोलह प्रकारके घर होतेहैं इनके प्रस्तारका भेदसे ९६ प्रकारके भेद होते हैं ॥४६॥४७॥
गुरोरधो लघुः स्थाप्यः पुरस्ताद्वर्ध्ववन्यसेत् ॥
गुरुभिः पूजयेत्पश्चात्सर्वलब्धविधिर्विधिः ॥४८ ॥
गुरुस्थानके नीचे लघु स्थापित करना तिसके आगे ऊपरके क्रमसे लिखे फिर बडे छोटे स्थानों का भेद करना ऐसे एक घरके छह २ भेदहोनेसे ९६ भेद होवेंगे ॥४८॥
दिक्षु पूर्वादितः शालाध्रुवा भूर्द्वौ कृता गजाः॥
शालाध्रुवांकसंयोगः सैको वेश्म धुवादिकम् ॥४९ ॥
अब सोलह नामवाले इन घरोंके भेद कहते हैं। पूर्वद्वारवाले मकानको ध्रुवांक १ है । दक्षिणद्वारवाले मकानका ध्रुवांक २ पश्चिमद्वारवाले मकानका ध्रुवांक ८ है। उत्तरद्वारवाले मकानका ध्रुवांक ८ है इस ध्रुवांकमें १ मिलाकर जितनी संख्या हो वह ध्रुव धान्यआदि संज्ञावाला मकान जानना जैसे पूर्वपश्चिम दो द्वारोंवाला मकान होवे तो पूर्वका धवांक १ पश्चिमका ४ जोड हुआ १ मिला ६ हुआ तो यह कांतनामक स्थान जानना ॥४९॥
स्नानागारं दिशि प्राच्यामाग्नेय्यां पचनालयम् ॥
याम्यायां शयनागारं नैर्ऋत्यां शस्त्रमंदिरम् ॥५०॥
मकानकी पूर्वदिशामें स्नानकरनेका स्थान, अग्निकोणमें रसोई पकानेका स्थान, दक्षिणमें सोनेका मकान, नैर्ऋमें शस्त्रस्थान करना ॥५०॥
एवं कुर्यादिदं स्थानं क्षीरपानाज्यशालिकाः ॥
शय्यामूत्रास्त्रतद्विद्याभोजनामंगलाश्रयाः ॥५१॥
और दूध, जलपान, व्रत इन्होंके स्थान ईशानकोणमें शय्या, मूत्र, शस्त्र, भोजन इनके स्थान अग्निकोणमें, ॥५१॥
धान्यस्त्रीभोगवित्तं च शृंगारायतनानि च ॥
ईशान्यादिक्रमस्तेषां गृहनिर्माणकं शुभम् ॥५२॥
धान्य, स्त्रीभोग, धन ये स्थान नैनैर्ऋतमें, शृंगारादिकके स्थान वायव्य कोणमें ऐसे ईशानादिकः कोणोंमें ये भी स्थान कहेहैं ॥५२॥
एते स्वस्थानशस्तानि स्वस्वायस्वस्वदिश्यपि ॥
प्लक्षोदुंबरचूताख्या निंबस्नुहीविभीतकाः ॥५३॥
ये अपने २ कर्मविस्तारके योग्य स्थान अपनी २ कोणमें होनेसे शुभ जैसे अग्निस्थान अग्निकोणमें होना शुभहै और मकानके आगे पिलखन, गलर, आम, नींव, थोहर, बहेडा ॥५३॥
ये कंटका दुग्धवृक्षा वटाश्वत्थकपित्थकाः ॥
अगस्त्यशिग्रुतालाख्यतिंतिणीकाश्च निंदिताः ॥५४॥
ये वृक्ष तथा कांटेवाले वृक्ष, जलेहुए वृक्ष, बड, पीपल, कैथ, अगास्तिवृक्ष, सहजना वृक्ष, ताडवृक्ष, अमलीवृक्ष ये वृक्ष अत्यंत निंदित कहे हैं घरके आगे नहीं लाने चाहिये ॥५४॥
पितृवत्स्वाग्रजं गेहं पश्चिमे दक्षिणेऽपि वा॥
गृहपादा गृहस्तंभाः समाः शस्तश्च ना समाः ॥५५॥
पिताका तथा बडे भाईका घर अपने घरसे पश्चिम तथा दक्षिण दिशामें कराना योग्य है घरके पाद और स्तंभ समान होने चाहिये ऊँचे नीचे नहीं होने चाहियें ॥५५॥
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं कुड्योत्सेधं यथारुचि ॥
गृहोपरि गृहादीनामेवं सर्वत्र चितयेत् ॥५६॥
भितिकी उंचाई ज्यादै ऊंची नहीं और ज्यादै नीची नहीं करनी सुंदर करनी और घरके ऊपर उतनीही ऊँची भीत उसी जगह द्वार आदि नहीं करने ॥५६॥
गृहादीनां गृहे स्राव्यं क्रमशो विविधं स्मृतम् ॥
पंचालमानं वैदेहं कौरवं चैव कन्यकाम् ॥५७॥
घर आदिकोंमें जल गिरनेके पतनाल अनेक विधिसे करने शुभहैं और पंचाल, वैदेह; कुरु, कान्यकुब्ज इन देशों का मानना हस्तादिक कहा हुआ परिमाण ठीक है ॥५७॥
मागंधं शूरसेनं च वंगमेवं क्रमः स्मृतः ॥
तं चतुर्भागविस्तारं संशोधय तदुच्यते ॥५८॥
मागध, शूरसेन, बंगाला इन्होंके मानसे अपने मानविस्तार चौगुना शुभहै ॥५८॥
पंचालमानमतुलमुत्तरोत्तरवृद्धितः ॥
वैदेहादीनि शेषाणि मानानि स्युर्यथाक्रमात् ॥५९॥
पंचाल देशका मान ठीक अन्यदेशोंके मानसे उत्तरोत्तर बढाकर मान लेना चाहिये ॥५९॥
पंचालमानं सर्वेषां साधारणमतः परम् ॥
अवंतिमानं विप्राणां गाँधार क्षत्रियस्य च ॥६०॥
पांचालदेशका मान साधारणतासे सभी देशों में मानना योग्य है और अवंतीका मान ब्राह्मणोंको शुभहै क्षत्रियको गांधार देशका ।६०॥
कौजन्यमानं वैश्यानां विप्रादीनां यथोत्तरम् ॥
यथोदितजलस्राव्यं द्वित्रिभूमिकवेश्मनः ॥६१॥
वैश्योंको कौजन्यदेशका मान ग्रहण करना । ब्राह्मण आदिकोंने यथोत्तर वृद्धिभागसे परिमाण लेना जिस मकानमें दो तीन शाला होवें उसमें जल पडनेका स्थान यथायोग्य करना चाहिये ॥६१॥
उष्ट्रकुंजरशालानां ध्वजायोऽप्यथवा गजे ॥
पशुशालाश्वशालानां ध्वजायोऽप्यथवा वृषे ॥
द्वारे शय्यासना मंत्रे ध्वजसिंह वृषाः शुभाः ॥६२॥
ऊंट हाथि आदिकोंकी शालामें पूर्वोक्त ध्वज आय अथवा गजसंज्ञक आय रहना शुभ है और गौआदि पशुओंकी शाला तथा अश्वोंकी शालामें ध्वज अथवा वृष आय शुभहै और शव्या, आसन, मैत्र इन्होंकी शालाके द्वारमें ध्वज,सिंह,वृष ये आय शुभ कहे हैं ॥६२॥