नारदसंहिता अध्याय-25
वास्तुपूजामहं वक्ष्ये नववेश्मप्रवेशने ॥
हस्तमात्रा लिखेद्रेखा दशपूर्वा देशोत्तराः ॥ १ ॥
अब नवीन घरमें प्रवेश होनेके समय वास्तुपूजाको कहते हैं । एक हस्तप्रमाण वेदीपर दश रेखा पूर्वको और दश रेखा उत्तरको खींचै ॥ १ ॥
गृहमध्ये तण्डुलोपर्य्येकाशीतिपदं भवेत् ॥
पंचोत्तरान्वक्ष्यमाणांश्चत्वारिंशत्सु वा न्यसेत् ॥ २॥
फिर तिन कोष्ठोंमें चावल रखकर ८१ कोष्टक बनावे तहां पांच और चौतालीस अर्थात् ४९ देवता भीतरके अलग हैं॥२॥
द्वात्रिंशद्वाह्रातः पूज्या स्तत्रांतःस्थास्रयोदश ॥
तेषां स्थानानि नामानि वक्ष्यामि क्रमशोऽधुना ॥ ३॥
और बत्तीस देवता बाहिर पूजने चाहिये तिनके भीतर भी तेरह देवता अलग अब क्रमसे तिनके नामोंको कहेंगे ॥ ३ ॥
ईशानकोणते बाह्रा द्वात्रिंशत्र्रीदशा अमी ॥
कृपीटयोनिः पर्जन्यो जयंतः पाकशासनः ॥ ४ ॥
सूर्यसत्यौ भृशाकाशौ वायुः पूषा च नैर्ऋतः ॥
गृहर्क्षतो दंडधरो गांधर्वो मृगराजकः ॥ ५ ॥
मृगपितृगणाधीशस्ततो दौवारिकाह्रयः ॥
सुग्रीवः पुष्पदंतश्च जलाधीशस्तथासुरः ॥ ६ ॥
शेषश्च पापरोगश्च भोगी मुख्यो निशाकरः ॥
सोमः सूर्योऽदितिदिती द्वात्रिंशत्रिदशः अमी ॥ ७॥
ईशानकोणमें ये बत्तीस ३२ बाह्रासंज्ञक देवता हैं कि अग्नि, पर्जन्य, जयंत, पाकशासन ॥ ४ ॥ सूर्य, सत्य, भृश, आकाश, वायु, पूषा, नैर्ऋत, गृहर्क्षत, दंडधर, गांधर्व, मृगराजक ॥ ५ ॥ मृग, पितरगणाधीश, दौवारिक, सुग्रीव, पुष्पदंतक, जलाधीश असुर ॥ ६ ॥ शेष; पापरोग, भोगी, मुख्य, निशाकर, सोम, सूर्य, अदिति, दिति ये बत्तीस देवता हैं ॥ ७ ॥
अथेशान्यादिकोणस्थाश्चत्वारस्तत्समीपगाः ॥
आपः सवितृसंज्ञश्च जयो रुद्रः क्रमादमी ॥ ८॥
और ईशानआदि कोणोंमें स्थित तिनके समीप चार देवता ये हैं कि आप, सविता, जय, रुद्र ये क्रमसे ४ दिशाओंमें जानने ॥ ८ ॥
मध्ये नव पदो ब्रह्रा तस्याष्टौ च समीपगाः ॥
एकांतराः स्युः प्रागाद्याः परितो ब्रह्राणः स्मृतः ॥ ९ ॥
मध्यमें नव कोष्ठमें ब्रह्मा और तितके समीप ८ हैं वे पूर्वआदि दिशाओंमें एक २ के अंतरसे ब्रह्माके चारोतर्फ स्थितहैं ॥ ९ ॥
अर्यमा सविता चैव विवस्वान्विबुधाधिपः॥
मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा पृथ्वीधराह्रयः ॥ १० ॥
अर्यमा, सविता, विवस्वान्, विबुधाधिप, मित्र, राजयक्ष्मा, धृथ्वाधर ॥ १० ॥
आपवत्सोष्टमः पंचचत्वारिंशत्सुरा अमी॥
आपश्चैवापवत्सश्च पर्जन्योऽग्निर्दितिः क्रमात् ॥११॥
पदिकानां च वर्गोयमेवं कोणेष्वशेषतः ॥
तन्मध्ये विंशतिर्बाह्रा द्विपदास्तेषु सर्वदा ॥ १२ ॥।
आपवत्स ये आठ हैं ऐसे ये सब मिलकर ४९ होतेहैं और आप, आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि, दिति ये कमसे चारोंकोणेमें रहते है ऐसे यह पदिकोंका वर्ग कहा है तिनके मध्यमें बीस देवता ब्रह्रमा हैं वे सदा द्विपद कहे हैं ॥ ११ ॥ १२ ॥
अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रः पृथ्वीधराह्रयः ॥
ब्रह्राणः परितो दिक्षु चत्वारस्त्रिदशाः स्मृताः ॥ १३ ॥
अर्यमा, विवस्वान्, मित्र, पृथ्वीधर ये ब्रह्मासे चारोतरफ त्रिपद – संज्ञक कहे हैं ॥ १३ ॥
ब्रह्राणं च तथैकाद्वित्रिपदानर्चयेत्सुरान् ॥
वास्तुमंत्रेण वास्तुज्ञो दूर्वादध्यक्षतादिभिः ॥ १४ ॥
सो वहां ब्रह्माको और एकपदिक, द्विपदिक, त्रिपदिक, देवताओंको पूजै वास्तुको जाननेवाला द्विज वास्तुमंत्र से दूर्वा, अक्षत, दही आदिकोंसे वास्तुका पूजन करै ॥ १४ ॥
ब्रह्रामंत्रेण वा श्वेतवस्त्रयुग्मं प्रदापयेत् ॥
तांबूलं च ततो दत्वा प्रार्थयेद्वास्तुपुरुषम् ॥ १५॥
ब्रह्माके मंत्रसे दो सफेद वस्त्र चढावे और तांबूल चढाकर वास्तुपुरुषकी प्रार्थना करै ॥ १५ ॥
आवाहनादिसर्वोपचारांश्च क्रमशस्तथा ॥
नैवेद्यं विविधान्नेन वाद्याद्यैयैश्च समर्पयेत् ॥ १६॥
आवाहन आदि सम्पूर्ण उपचार क्रमसे करने चाहियें । नैवेद्य अनेकप्रकारके भोजन चढाकर अनेक प्रकारके बाजे बजवाकर समपर्ण करै ॥ १६ ॥
वास्तुपुरुष नमस्तेस्तु भूशय्याभिरत प्रभो ॥
मद्वहं धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा ॥ १७ ॥
भूमिकी शय्यापर अभिरत रहनेवाले हे प्रभो ! तुमको नमस्कार है । मेरे घरको सदा धनधान्यसे भरपूर करो ॥ १७ ॥
इति प्रार्थ्य यथाशक्त्या दक्षिणामर्चकाय च ॥
दद्यात्तग्ने विप्रेभ्यो भोजनं च स्वशक्तितः ॥ १८ ॥
ऐसी प्रार्थना कर शक्तिके अनुसार पुजन करानेवाले ब्राह्मणको दक्षिणा देवे और तिन देवतोंके सन्मुख बिठाकर श्रद्धाके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन करावे ॥ १८ ॥
अनेन विधिना सम्यग्वास्तुपूजां करोति यः ॥
आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धान्यं लभेत सः ॥ १९ ॥
इस विधि से अच्छे प्रकार से जो पुरुष वास्तुपूजा करता है वह आरोग्य, पुत्र, धन धान्य, इन्हों को प्राप्त होता है ॥ १९ ॥sdadzxczxc अददा असद अड़
अकपाटमनाच्छन्नमदत्तबलिभोजनम् ॥
गृहं न प्रविशेदेव विपदामाकरं हि तत् ॥ २० ॥
बिना किवाड़ोंवाला, बिना ढका हुआ और जिसमें बलिदान तथा ब्रह्राभोज्य नहीं हुआ हो ऐसे स्थानमें प्रवेश नहीं करना चाहिये क्योंकि वह विपत्तियों का खजाना है ॥ २० ॥