Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-26

अथ यात्रा यथा नृणामभीष्टफलसिद्धये ॥
स्यात्तथा ता प्रवक्ष्यामि सम्यग्विज्ञातजन्मनाम् ॥ १ ॥
अज्ञातजन्मनांनृणां फलाप्तिर्धुणवर्णवत् ॥
प्रश्नोद्यनिमित्ताद्यैस्तेषामपि फलोदयः ॥ २ ॥
जिस प्रकार मनुष्योंको अभीष्ट फलदायी यात्रा होती है तिसको ज्ञानवान् द्विजातियोंके वास्ते अच्छे प्रकारसे कहते हैं ॥ १ ॥ और जो अज्ञातजन्मवाले मूर्ख जनहें तिनको घुणाक्षरन्यायस कभी सुखकी प्राप्ति हो जाती है तिन मूर्खोको भी प्रश्नोदय निमित्तआदिकोंसे ही फलका उदय होता है ॥ २ ॥ .

षष्ट्यष्टमी द्वादशी च रिक्तामा पूर्णिमासु च ॥
यात्रा शुक्लप्रतिपदि निधनायाधनाय च ॥ ३ ॥
षष्टी, अष्टमी, द्वादशी, रिक्तातिथि, अमावस्या, पूर्णिमा, शुक्लपक्षको प्रतिपदा इन्होंमें यात्रा करनी मृत्युके वास्ते और निर्धनताके वास्ते कही है ॥ ३ ॥

पौष्णर्केद्वश्विमित्राग्निहरितिष्यव सूडुषु ।
नव सप्त पंचायेषु यात्राभीष्टफलप्रदा ॥ ४ ॥
रेवती, हस्त, मृगशिर, अश्विनी, अनुराधा, कृत्तिका, श्रवण, पुष्य, धनिष्ठा इन नक्षत्रों में यात्रा करना शुभ है नवमां, पाँचवा, सातवां, ग्यारहवां चंद्रमा शुभ है ॥४॥

न मंदेन्दुदिने प्राचीं न ब्रजेद्दक्षिणां गुरौ ॥
सितार्कयोर्न प्रतीची नोदीचीं ज्ञारयोर्दिने ॥ ५ ॥
सोम तथा शनिवारको पूर्वदिशामें गमन नहीं करना, बृहस्पतिवारको दक्षिणमें गमन नहीं करना, शुक्र तथा रविवारको पश्चिमको गमन नहीं करना, बुध और मंगलवारको उत्तर दिशामें गमन नहीं करना ॥ ५.॥

इन्द्रोजपादचतुरास्यार्यमर्क्षाणि पूर्वतः ॥
शुलानि सर्वद्धाराणि मैत्रार्केज्याश्विभानि च ॥ ६ ॥
ज्येष्ठा १, पूर्वाषाढ २, रोहिणी ३, उत्तराफाल्गुनी ४ ये नक्षत्र यथाक्रमसे पूर्वआदि दिशामें शूलरूप हैं और अनुराधा, हस्त, पुष्य, अश्विनी ये नक्षत्र सब दिशाओं में शुभ हैं ॥ ६ ॥

क्रमाद्दिग्द्वारभानि स्युः सप्तसप्ताग्निधिष्ण्यतः ॥
वाय्वग्निदिग्गतं दंडम् परिधं तु न लंधयेत् ॥ ७ ॥
और कृत्तिका आदि सात २ नक्षत्र पूर्वआदि दिशाओं में यथाक्रमसे दिग्द्वार नक्षत्र कहे हैं । और वायु तथा अग्निकोणमें रेखादंड है अर्थात् पूर्व दिग्द्वारि नक्षत्रों में उत्तरको गमन करना और दक्षिण पश्चिमकी एकता करनी परंतु इस वायव्य अग्निकोणकी रेखाको उल्लंघन नहीं करना इस परिघमें गमन नहीं करना चाहिये ॥ ७ ॥

आग्नेय्यां पूर्वदिग्धिष्ण्यैर्विदिशश्चैवमेव हि ॥
दिग्राशयस्तु क्रमशो मेषाद्याश्च पुनःपुनः ॥ ८ ॥
और कोणोंमें गमनकरना हो तो यह व्यवस्था है कि पूर्व दिग्द्वारि नक्षत्रों में अग्निकोणमें गमन करना फिर इसी क्रमसे दक्षिणदिशाके नक्षत्रोंमें नैर्ऋतमें गमन करना । वायव्यके नक्षत्रों में पश्चिमके नक्षत्रों में गमन करना और मेषादिक राशि तीन वार आवृत्ति होकर पूर्वदिदिशाओं में रहती हैं जैसे १ । ५ । ९ पूर्वमें २ । ६ । १० दक्षिण० ३ । ७ । ११ पश्चि० ४ । ८ । १२ उत्तरमें यही चंद्रमाका वास है ॥ ८ ॥

दिगीशाः सूर्यशुक्रारराह्रार्कीन्दुज्ञसूरयः ॥
दिगीश्वरे ललाटस्थे यातुर्न पुनरागमः ॥ ९ ॥
सूर्य १, शुक्र २, मंगल ३, राहु ४, शनि ५, चंद्रमा ६, बुध ७, बृहस्पति ८ ये पूर्व आदि दिशाओके स्वामी हैं । दिगीश्वर ग्रह लालट ( मस्तक ) पर होय तब गमन करनेवालोंका फिर उलटा आगमन नहीं हो ॥ ९ ॥

लग्नस्थो भास्करः प्राच्यां दिशि यातुर्ललाटगः ।
द्वादशैकादशः शुक्र आग्नेय्यां तु ललाटगः ॥ १० ॥
जैसे कि लग्नमें सूर्य होवे तब पूर्वदिशामें जानेवालेको ललाट योग है और १२ । ११ घर शुक्र हो तब अग्निकोणमें ललाट योग है ॥ १० ॥

दशमस्थो कुजो लग्नाद्याम्यायांतु ललाटगः ॥
नवमोऽष्टमगो राहुर्नैऋत्यां तु ललाटगः ॥ ११ ॥
लग्नसे १० घर मंगल हो तब दक्षिणादशामें और लग्नसे नवमें तथा आठवें राहु होवे तब नैऋत कोणमें ललाट योग है ॥ ११ ॥

लग्नात्सप्तमगः सौरिः प्रतीच्यां तु ललाटगः ॥
पष्टपंचमगश्चंद्रो वायव्यां तु ललाटगः ॥ १२ ॥
लग्नसे ७ शनि हो तब पश्चिमदिशामें ललाटग योग है छठे और पांचवें चंद्रमा हो तब वायव्य कोणमें ललाटग है ॥ १२ ॥

चतुर्थस्थानगः सौम्य उत्तरस्यां ललाटगः ॥
द्वित्रिस्थानगत जीव ईशान्यां तु ललाटगः ॥१३॥
चौथे स्थान बुध हो तब उत्तर दिशामें ललाटयोग है, लग्नसे २ । ३ घर बृहस्पति हो तब ईशान कोणमें जानेवालेके मस्तकपर दिगीश्वर है ॥ ३३ ॥

ललाटगं तु संत्यज्य जीवितेच्छुर्व्रजेन्नरः ॥
विलोमगो ग्रहो यस्य यात्रालग्रोपगो यदि ।१४॥
जीवनेकी इच्छावाला मनुष्य इन ललाटप योगको त्यागकर गमन करै राजाको जो ग्रह जन्मलग्नमें नेष्टहो वह ग्रह यात्रालग्नमें हो तो उस उनमें ॥ १४ ॥

तस्य भंगप्रदो राज्ञस्तद्वर्गोपि विलग्नग: ॥
रवींद्वयनयोर्यानमनुकूलं शुभप्रदम् ॥ १५ ॥
राजा गमन करे तो मनोरथ भंग है और उस ग्रहकी राशिका नवांशक भी अशुभ है । और सूर्य चंद्रमाकी अयनके अनुकूल गमनकरना शुभ है जैसे सूर्य उत्तरायण हो चंद्रमा उत्तरायण हो तब उत्तर पूर्वमें गमन करना और सूर्य चंद्रम दक्षिणायन होवे तब दक्षिण पश्चिम में गमन करना ॥ १५ ॥

तदभावे दिवा रात्रौ यात्रा यातुर्वधोऽन्यथा ॥
मूढे शुक्रे कार्यहानिः प्रतिशुक्रे पराजयः ॥ १६॥
और जो सूर्य चंद्रमा भिन्न २ अयनमें होवें तो सूर्यकी अयनमें तो दिनमें गमन करना और चंद्रमाके अयनमें रात्रिमें गमन करना इससे अन्यथा गमन करनेवालेका वध होता है । शुक्रास्तमें गमनकरे तो कार्यकी हानि हो शुक्रकी सन्मुख गमन करे तो पराजय होवे ॥ १६ ॥

प्रतिशुक्रकृतं दोषं हंति शुक्रो ग्रहा न हि ॥
वसिष्ठः काश्यपेयोत्रिर्भरद्वाजः सगौतमः ॥ १७ ॥
शुक्रके सन्मुख गमनके दोषको शुक्रही दूर कर सकता है अन्यग्रह नहीं कर सकते और वसिष्ठ, कश्य,अत्रि,भरद्वाज गौतम् ॥ १७ ॥

एतेषां पंचगोत्राणां प्रतिशुक्रो न विद्यते ॥
एकग्रामे विवाहे च दुर्भिक्षे राजविप्लवे ॥ १८ ॥
इन पांच गोत्रवालको शुक्रके सुन्मुख जानेका दोष नही है और एक ग्राम, विवाह, दुर्भिक्ष, राजभंग ॥ १८ ॥

द्विजक्षोभे नृपक्षोभे प्रतिशुक्रो न विद्यते ॥
नीचगोsरिग्रहस्थो वा वक्रगो वा पराजितः ॥ १९ ॥
ब्राह्मणशाप, राजाका क्रोध इन कामोंमें शुक्रके सन्मुख जानेका दोष नहीं है । नचिराशिपर स्थित, शत्रुके घरमें स्थित, वक्री अश्वा पापग्रहों से आक्रांत ॥ १९ ॥

यातुर्भेगप्रदः शुक्रः स्वांशस्थे च जयप्रदः ॥
स्वेष्टलग्नेष्टराशौ वा शत्रुभात्यष्ठगोपि वा ॥ २० ॥
ऐसा शुक्र गमन करने वालेके मनोरथको नष्ट करता है और अपनी राशिके नवांशकमें स्थित होय तो विजय करता है स्वेष्टलग्नमें अथवा लग्नसे आठवीं राशिसे अथवा शत्रुकी राशिसे छठी राशिपर शुक्र हो ॥ २० ॥

तेपामीशस्य राशौ वा यातुर्मृत्युर्न संशयः ॥
जन्मेशाष्टमलग्नेशौ मिथो मित्रव्यस्थितौ ॥ २१ ॥
अथवा शत्रुओंकी राशि लग्नके स्वामीके घरमें हो तब गमन करने वालेकी मृत्यु होती है और जन्मलग्न तथा जन्मलग्नसे आठवें घरका पति इन दोनोंकी आपस में मित्रता होवे ॥ २१ ॥

जन्मराश्यष्टमर्क्षेषु दोषा नश्यंति भावतः ॥
क्रूरग्रहेक्षितो युक्तो द्विस्वभावोपि भंगदः ॥ २२ ॥
फिर वे जन्मलग्नमें तथा आठवें घरमें स्थित हावें तो स्वभाव में ही सब दोष नष्ट होजाते हैं और क्रूरग्रहसे युक्त तथा द्दष्ट पापग्रह कार्यको भंग करता है ॥ २२ ॥

याने शुभैरद्दष्टश्च शुभयुक्तेक्षितः शुभः ॥
वस्वंत्यार्द्धादिपंचर्क्षे संग्रहे तृणकाष्ठयोः ॥
याम्यदिग्गमनं शय्या कुर्यान्नो गृहगोपनम् ॥ २३॥
गमनसमय वह पापग्रह शुभग्रहों से दृष्ट नहीं हो तो अशुभ है और शुभग्रहों से युक्त तथा दृष्ट हो तो शुभ जानना और धनिष्ठाका अर्ध उत्तरभाग आदि, रेवतीपर्यंत पांच नक्षत्र पंचक कहलाते है तिनमें तृण काष्ठ आदिका संग्रह नहीं करना और दक्षिणदिशामें गमन नहीं करना, शय्या नहीं बनानी, घर नहीं छावना ॥ २३ ॥

जन्मोदये लग्नगते दिग्लग्ने लग्नगोपि वा ॥
शुभे चतुर्षु केंद्रेषु याते.शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २४ ॥
जन्मलग्न शुभग्रहों से युक्तहो तिस लग्नमें अथवा दिग्द्वार लग्नम तथा शुभग्रह चारों केंद्रोंमें प्राप्त होनके मुमय गमन करे ते शत्रु नष्ट होवें ॥ २४ ॥

शीर्षोंदये लग्नगते दिग्लग्ने लग्नतोपि वा ॥
शुभवर्गेथ वा लग्ने यातुः शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २५ ॥
शीर्षोदय कहिये ५ । ६ । ७ । ८ । ११ ये लग्न होवें अथवा दिग्द्वारि लग्न हो अथवा शुभग्रहकी राशिका लग्न हो तब गमन करने वालेको शुभफल होता है ॥ २५ ॥।

शीर्षोदये जन्मराशौ लग्नं शुभयुतं तथा ॥
तयो राशिस्थिते राशौ यातुः शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २६ ॥
शीर्षोदय लग्न विषे जन्मकी राशि हो अथवा शुभ ग्रहसे युक्त जन्मलग्न हो तब उसी राशिके लग्नविषे गमन करे तो शत्रु नष्ट हो ॥ २६ ॥

शत्रुजन्मोदये जन्म राशिश्च निधनं तयोः ।
यो राशिस्तत्र वै राशौ यातुः शत्रुक्षयो भवेत् ॥ २७ ॥
शत्रुको जन्मलग्न और जन्मराशिसे आठवीं राशिके लग्नमें गमन करे तो गमन करनेवालेका शत्रु नष्ट हो ॥ २७ ॥

वक्रे तथा मीनलग्ने यातुर्मीनांशकेऽपि वा ॥
निंद्यं निखिलयात्रासु घटलग्नं घटांशकः ॥ २८ ॥
मीन लग्नमें तथा मीनके नवांशकमें गमन करना अशुभ है। और कुंभलग्न तथा कुंभके नवांशक सब तर्फकी यात्रा करनी अशुभ है ॥ २८ ॥

जलोदये जलांशे वा जलजातेः शुभावहाः ॥
मूर्तिकोशोथ धानुष्कं वाहनं मंत्रसंज्ञकम् ॥ २९ ॥
शत्रुमार्गस्तथायुश्च भाग्यं व्यापारसंज्ञितः ॥
प्राप्तिरप्राप्तिरुदयाद्भावाः स्युर्द्वादशैव तु ॥ ३० ॥
जलचर राशिके लग्नमें तथा नवांशक जलजातिके कार्य करने शुभदायक हैं । अब स्थान संज्ञा कहते हैं मूर्ति १, कोश २, धानुष्क ३, वाहन ४, मंत्र ५, शत्रु ६, मार्ग ७, आयु ८, भाग्य ९, व्यापार १०, प्राप्ति ११, व्यय १२ ये प्रथम आदि बारह भावोंके नाम हैं ॥ २९ ॥ ३० ॥

हंति पापस्त्वायवर्ज भावात्सूर्यमहीसुतौ ॥
न निहंतोऽरिगेहं च सौम्याः पुर्ष्यत्वारिं विना ॥ ३१ ॥
पापग्रह ग्यारहवें घरविना अन्य घरको नष्ट करता है और सूर्य मंगल छठे घरमें अशुभ नहीं हैं और शुभ ग्रह छठे घरविना अन्य में शुभदायक हैं ॥ ३१ ॥

शुक्रोस्तं चापि पुष्टोपि मूर्तिमृत्युश्च चंद्रमाः ॥
याम्यदिग्रामनं रिक्ता सर्वकाष्ठासु यायिनाम् ॥ ३२ ॥
शुक्र सातवें अशुभ है और बली भी चंद्रमा लग्नमें तथा आठवें घर अशुभ है विशेषकरके दक्षिण दिशामें अशुभ है और रिक्तातिथि सब दिशाओं में वर्जित हैं ॥ ३२ ॥

अभिजित्क्षणयोगोयमभीष्टफलसिद्धिदः ॥
पंचांगशुद्धिरहिते दिवसेऽपि फलप्रदः ॥ ३३ ॥
ऎसे मुहूर्तमें अभिजित् क्षणयोग होता है तिसमें गमन करनसे मनोरथ सिद्ध होता है पचांगशुद्ध रहित देनमें भी यह योग संपूर्ण शुभदायक है ॥ ३३ ॥

यात्रा योगे विचित्रास्तान्येन वक्ष्ये इतस्ततः ॥
फलमिद्भिर्योगलग्नाद्राज्ञो विप्रस्य धिष्ण्यतः ॥ ३४ ॥
अच्छे ग्रहयोग होनेमें यात्रा अनेक प्रकार फल देनेवाली होती है । इसलिये तिन योगोंको कहते हैं । राजाओंकी योग लग्नमें सिद्धि होती है, ब्राह्मणोंकी शुभ नक्षत्रमें गमन करनेसे सिद्धि होती है ॥ ३४ ॥

मूर्तितः शक्तितोन्येषां शकुनैस्तस्करस्य च ॥
केंद्रत्रिकोणेष्वेकेन योगः शुक्रेण सूरिणा ॥ ३५ ॥
अतियोगो भवेद्दाभ्यां त्रिभिर्योगोधियोगकः ॥
योगे यियासतां क्षेममतियोगे जय भवेत् ॥ ३६ ॥
अन्य वैश्य आदिकोंकी लग्नसे तथा अच्छे शुभ मुहूर्त से सिद्ध होती है, चोर गमन करे तब अच्छा शुभ शकुन होनेसे ही सिद्धि होती है । केंद्रमें अथवा त्रिकोणमें अकेला शुक्र अथवा अकेला बृहस्पति होय तो एक अच्छा योग होता है और दोनों होतें तो अतियोग होता है, तीन गह्रोंका अच्छा योग हो तो अभियोग होता है एक अच्छा योगमें गमन करे तो क्षेम कुशल रहे । अतियोगमें जय हो ॥ ३५ ॥ ३६ ॥

योगातियोगे क्षेमं च विजयाय विभूतयः ॥ ३७ ॥
अधियोगमें गमन करे तो क्षेम विजय विभूति होती है ॥ ३७ ॥

व्यापारशत्रुमूर्तिस्थैश्चंद्रमंददिवाकरैः ॥
रणे गतस्य भूपस्य जयलक्ष्मीप्रमाणता ॥ ३८ ॥
दशवां तथा छठा घरमें वा लग्नमें चंद्रमा, शनि, सूर्य होवे तो रणमें प्राप्तहुए ( गमनकरनेवाले ) राजाको विजयलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है ॥ ३८ ॥

वित्तगतः शशिपुत्रो भ्रातरि वासरनाथः ॥
लग्नगते भृगुपुत्रे स्युः शलभा इव सर्वे ॥ ३९ ॥
अब चित्रपदा छंदसे अन्य योगको कहते हैं । बुध धनवरमें हो, सूर्य तीसरे घर हो, लग्नमें शुक्र हो तब गमन करने वाले राजाके आगे सब टीडीकी तरह नष्ट हो जावें ॥ ३९ ॥

लग्नस्थे त्रिदशाचार्ये धनायस्थे परे ग्रहे ॥
गतस्य राज्ञोऽरिसेना नियते यममंदिरे ॥ ४० ॥
बृहस्पति लग्नमें स्थित हो और अन्य ग्रह धनस्थान तथा ग्यारहवें स्थानमें होवें तो गमन करने वाले राजाके शत्रुकी सेन धर्मराजके स्थानमें पहुंचती है ॥ ४० ॥

लग्ने शुक्रे रवौ लाभे चंद्रे बंधुस्थिते तदा ॥
निहंति यातुः पृतनां केशवः पूतनामिव ॥ ४१ ॥
लग्नमें शुक हो, सूर्य ११ घर हो, चौथे घर चंद्रमा हो, ऐसे योगमें गमन करनेवाला राजा शत्रुकी सेनाको इस प्रकार नष्टकर देता है कि जैसे श्रीकृष्ण भगवानने पूतना नष्ट करदी थी ॥ ४१ ॥

त्रिकोणकेंद्रगाः सौम्याः क्रुरास्त्र्यायगता यदि ॥
यस्य यातुश्च लक्ष्मीच्छास्तमुपैत्यभिसारिका ॥ ४२ ॥
शुभग्रह नवमें पांचवें घर हों और क्रूरग्रह तीसरे तथा ग्यारहवें घर होवें तब गमन करनेवाले राजाके शत्रुकी लक्ष्मी व्यभिचारिणी होकर अस्त हो जाती है ॥ ४२ ॥

जीवार्कचंद्रलग्नारिरंध्रगा यदि गच्छत: ॥
तस्याग्रे स्वल्पमैत्री च न स्थिरा रिपुवाहिनी ॥४३ ॥
वृहस्पति, सूर्य, चंद्रमा, ये लग्नमें छठा घर व सातवां घरमें यथाक्रमसे स्थित होवें तब गमन करने वाले राजाकी सेना इस प्रकार नष्ट हो जाती है कि जैसे स्वल्प मित्रता शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ॥ ४३ ॥

स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चंद्रे लाभगते यदि ।
त्रिषडायेषु सौरारौ वलावांश्च शुभो यदि ॥
यात्रायां नृपतेस्तस्य हस्ते स्याच्छत्रुमेदिनी ॥ ४४ ॥

बृहस्पति उच्चका होकर लग्नमें स्थितहो और चंद्रमा ११ घर हो और ३ । ६ । ११ घरमें शनि मंगल होवे, शुभग्रह बलवान होवे तव गमन करनेवाला राजा शत्रुकी भूमिको ग्रहण कर लेता है ॥ ४४ ॥

स्वोच्चस्थे लग्नगे जीवे चंद्रे लाभगते यदि ॥
गतो राजा रिपून्हंति पिनाकी त्रिपुरं यथा ॥ ४५ ॥
उच्चका बृहस्पति लग्नमें और चंद्रमा ११ हो ऐसे इस योगमें गमन करने वाला राजा, जैसे शिवजीने त्रिपुर नष्ट किया ऐसे शत्रुओंको नष्ट करता है ॥ ४५ ॥

मस्तकोदयगे शुक्रे लग्नस्थे लाभगे गुरौ ॥
गतो राजा रिपून् हंति कुमारस्तारकं यथा ॥ ४६ ॥
शुक्र शीर्षोदय कहिये ५ । ६ । ७ । ८ । ११ इन लग्नोंपर स्थितहो और ३१ स्थान गुरु होवे तब गमन करने वाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट करता है कि जैसे स्वामि कार्तिकजीने तारकासुर नष्ट किया था ॥ ४६ ॥

जीवे लग्नगते शुक्रे केंद्रे वापि त्रिकोणगे ॥
गतो जयत्यरीन् राजा कृष्णवत्यां यथा व्रणम् ॥ ४७ ॥
बृहस्पति लग्नमें हो और शुक्र केंद्रमें अथवा त्रिकोण (९ । ५) घर हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुको ऐसे नष्ट कर देवे कि जैसे कृष्णवती नदीमें व्रण (घाव ) नष्ट हो जाता है ॥ ४७ ॥

लग्गे ज्ञे शुभे केंद्रे धिष्ण्ये चोपकुले गते ॥
नृपा मुष्णंत्यरीन्ग्रीष्मे ह्रदानीवार्करश्मयः ॥ ४८ ॥
बुद्ध लग्नमें हो, अन्य शुभग्रह केंद्र में होवें, बृहस्पति चौथे घरमें होय तक गमन करने वाले राजे शत्रुओंको ऐसे नष्ट करते हैं कि जैसे सूर्य की किरण सरोवरोंको ( जोहडोंको ) नष्ट करती है ॥ ४८ ॥

शुभ त्रिकोणकेंद्रस्थे लाभे चंद्रेऽथवा रवौ ॥
शत्रून्हंति गतो राजा त्वंधकारं यथा रविः ॥ ४९ ॥
नवमें पांचवें घर अथवा केंद्रमें शुभ ग्रह हों, ग्यारहवें घर चंद्रमा अथवा सूर्य हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट करता है जैसे सूर्य अंधकारको नष्ट करता है ॥ ४९ ॥

स्वक्षेत्रज्ञे शुभे चंद्रे त्रिकोणायगते गतः ॥
विनाशयत्यरीन् राजा तूलराशिमिवानलः ॥ ५० ॥
शुभग्रह अपने क्षेत्रमें हों और चंद्रमा त्रिकोणमें अथवा ग्यारहवें घर हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट करता है जैसे रुईके समूहको अग्नि भस्म कर देता है ॥ ५० ॥

इन्दौ खस्थे गुरौ केंद्रे मंत्री सप्तमगे गतः ॥
नृपो हंति रिपून्सर्वान्पापं पंचाक्षरी यथा ॥ ५१ ॥
चंद्रमा दशवें घर हो, बृहस्पति केंद्र हो, शुक्र सातवें हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुओं को ऐसे नष्ट करता है जैसे पंचाक्षरी मंत्र सब पापों को नष्ट कर देवे ॥ ५१ ॥

वर्गोत्तमगते शुक्रेप्येकस्मिन्नेव लग्नगे ॥
हरिस्मृतिर्यथा पपान्हंति शत्रून् गतो नृपः ॥ ५२ ॥
उच्चका अकेलाही शुक्र लग्नमें हो तो गमन करनेवाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट करे कि जैसे हरि स्मरणसे पाप नष्ट हो जावें ॥ ५२ ॥

शुभे केंद्रत्रिकोणस्थे चंद्रे वर्गोत्तमे गते ॥
सगोत्रान्हि रिपून् हंति यथा गोत्रांश्च गोत्रभित् ॥ ५३ ॥
शुभग्रह केंद्रमें हो अथवा त्रिकोणमें हो चंद्रमा उच्चका हो तब गमन करने वाला राजा कुटुंबसहित शत्रुओंको ऐसे नष्ट करता है जैसे इंद्र पर्वतोंको नष्ट करता भया ॥ ५३ ॥

मित्रभस्थे गुरौ केंद्रे त्रिकोणस्थेऽथवासिते ॥
शत्रून हंति गतो राजा भुजंगं गरुडो यथा ॥ ५४ ॥
मित्रग्रहके घरमें प्राप्त हुआ बृहस्पति केंद्रमें हो अथवा शुक्र त्रिकोणमें हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट कर देवे जैसे सूर्यको गरुड नंष्ट कर देता है ॥ ५४ ॥

शुभे केंद्रत्रिकोणस्थे वर्गोत्तमगते गतः ॥
विनाशयत्यरीन्राजा पापान् भागीरथी य ॥ ५५ ॥
शुभग्रह केंद्रमें अथवा त्रिकोणमें हो अथवा उच्चशिपर हो तब गमन करने वाला राजा शत्रुओंको ऐसे नष्ट कर देवे जैसे गंगाजी पापोंको नष्ट करती है ॥ ५५ ॥

ये नृपा यान्त्यरीज्ञजेतुं तत्र योगौ नृपाह्रयौ ॥
उपैति शांति कोपाग्नि: शत्रुयोषाश्रुबिंदुभिः ॥ ५६ ॥
ऐसे ये दो योग नृपनामक हैं इनमें गमन करनेवाले राजाकी क्रोधाग्नि, शुत्रुओंके स्त्रियोंकी आंसुवोंके पड़नेसे शांत होती है ॥ ५६ ॥

बलक्षयप्रदश्चंद्रः पूर्णः क्षीणप्रभावतः ॥
विजयस्तत्र यातृणां संधिः सर्वान् पराक्रमः ॥ ५७ ॥
पूर्ण चंद्रमा बलदायी है और क्षीणचंद्रमा क्षयकारक है तहां बली चंद्रमाहो तिन तिथियोंमें गमन करनेवाले राजाकी विजय, मिलाप और सर्वप्रकार पराक्रमसे वृद्धि होतीहै ॥ ५७ ॥

निमित्तशकुनादिभ्यः प्रधानेनोदयः स्मृतः ॥
तस्मात्प्रसवनायुः स्यात्फलहेतुर्मनादयः ॥ ५८ ॥
निमित्त ( मुहूर्त ) और शकुनआदिकोंसे भाग्योदय होना यह मुख्य बात नहीं है किंतु यात्राआदि संपूर्ण मंगलोंमें मनकी प्रसन्नता रहनी यह फलका हेतु है ॥ ५८ ॥

उत्सवोपनयोद्वाहशवस्य सुतकेषु च ॥
ग्रहणे च न कुर्वीत यात्रां मर्त्यः सदा बुधः ॥ ५९ ॥
उत्सव, उपनयन, विवाह, मुरदाका सृतक, ग्रहण इन विषे बुद्धिमान जन यात्रा नहीं करे ॥ ५९ ॥

महिषीमेषयोर्युद्धे कलत्रकलहांतरे ॥
वस्रादेस्रवलिते क्रोधे दुरुक्ते न व्रजेत्क्षुतौ ॥ ६० ॥ .
भैंसोंका और मीढोका युद्ध होनेमें, स्त्रियोंका युद्ध होने समय, वस्त्रादिक उतरपडना, क्रोध होना, खराब बचन कहना, छींकना ऐसे वक्तपर गमन नहीं करना ॥ ६० ॥

धृतान्नं तिलपिष्टान्नं मत्स्यान्नं घृतपायसम् ॥
प्रागादिक्रमशो भुक्ता याति राजा जयत्यरीन् ॥ ६१ ॥
घी अन्न, तिल पीठी, मत्स्य अन्न, घी खीर इन चार पदार्थोको खाकर यथा क्रमसे पूर्वआदि दिशाओंमें राजा गमन करे तो शत्रुओको नष्ट करे ॥ ६१ ॥

मार्ज्जितापरमान्नं च कांजिकं च पयो दधि ॥।
क्षौरं तिलोदनं भुक्ता भानुवारादिषु क्रमात् ॥ ६२ ॥
शिखरणि १ खीर २ कांजी ३ पकायादूध ४ दही ५ कच्चादुध ६ तिलओदन ७ इन पदार्थोंको रविआदि वारोंमें यथाक्रमसे भोजन करके गमन करना शुभ है ॥ ६२ ॥

कुल्माषांश्च तिलान्नं च दधि क्षौद्रं घृतं पयः ॥
मृगमांसं च तत्सारं पायसं चाषकं मृगम् ॥ ६३ ॥
शशमांसं च षष्ठिक्यं प्रियंगुकमपूपकम् ॥
चित्रांडजं फलं कूर्म सारीं गोधां च शल्लकम् ॥ ६४ ॥
हविष्यं कृसरान्नं च मुद्गान्नं यवपिष्टकम् ॥
मत्स्यान्नं चित्रितान्नं च दुध्यन्नं दस्रभाक्रमात ॥ ६५ ॥
और बाकली १ तिलपीठी २ दही ३ शहद ४ घी ५ दूध ६ मृगमांस ७ मृगका रक्त ८ खीर ९ पपैयाका मांस १० मृग ११ सूकरका मांस १२ सांठी चावल १३ मालकांगनी १४ पूडे १५ विचित्र अन्नसे उत्पन्न हुए पक्षियोंका मांस १६ फल १७ कछुवाका मांस १८ सारिकापक्षीका मांस १९ गोहका मांस २० सेहका मांस २१ हविष्यान्न २२ खिचडी २३ मूंग २४ जबोंकी पीठी २५ मत्स्यान्न २६ विचित्रितअन्न २७ दहीभात २८ इन पदार्थीको खाकर अश्विनी आदि २८ नक्षत्रोंमें यथाक्रमसे यात्रा करनी शुभ है ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ ६५ ॥

भुक्त्वा यायाज्जेयच्छुर्यो, भूमिनाथो जयत्यरीन् ।
हुताशंनं तिलैर्हुत्वा पूजयेत्तु दिगीश्वरम् ॥ ६६ ॥
इसप्रकार इन अश्विनी आदि नक्षत्रों में इन वस्तुओंको खाकर जो विजयकी इच्छा करनेवाला राजा गमन करता है वह शत्रुओंको जीतता है । गमनसमय तिलोंसे अग्निमें हवन कर जिस दिशामें गमन करना हो उस दिगीश्वरका पूजन करै ॥ ६६ ॥

प्रणम्य देवभूदेवानाशीर्वादैर्नृपो वदेत् ॥
कृत्वा होमं दारुणं च तन्मंत्रेण कृतं ब्रजेत् ॥ ६७ ॥
देवता तथा ब्राह्मणों को प्रणाम कर आशीर्वाद पाकर दिगीश्वरके मंत्रसे अच्छे प्रकार होमकरके गमन करना ॥ ६७ ॥

वस्त्रं तद्वर्णगंधाद्यैरेवं भक्त्या दिगीश्वरम् ॥
इंद्रमैवतारूढं शच्या सह विराजितम् ॥ ६८ ॥
दिगश्वरके वर्णका वस्त्र चढावे भक्तिसे गंध आदिको करके पूजन करना ऐरावत हस्तीपर सवार हुए इंद्राणीसे युक्त हुए इंद्रको पूजै ॥ ६८ ॥

वज्रपाणिं स्वर्णवर्ण दिव्याभरणभूषितम् ॥
सप्तहस्तं सप्तजिह्रं षडक्षं मेषवाहनम् ॥ ६९ ॥
हाथमें वज्र धारण किये हुए सुवर्णसरीखे वर्णवाले दिव्य आभूषणोंसे विभूषित ऐसे इंद्रका ध्यान करना और सात हाथोंवाला, सात जिह्वावाला, छह आखोंवाला, मीढाकी सवारी ॥ ६९ ॥


स्वाहाप्रियं रक्तवर्ण स्रुक्स्रुवायुधधारिणम् ॥ ७० ॥
स्वाहाको प्रियमाननेवाला, लालवर्ण, सुक् और स्रुवा आयुधको धारण करनेवाला ऐसे अग्निको पूजै ॥ ७० ॥

दंडायुधं लोहिताक्षं यमं महिषवाहनम् ॥
श्यामलासहितं रक्तवर्णमूर्द्धमुखं शुभम् ॥
खङ्गचर्मधरं नीलं निऋति नरवाहनम् ॥ ७१ ॥
दंडआयुधवाला, रक्तनेत्र, भैंसाकी सवारी करनेवाला, श्यामल दूतसहित ऊपरको मुख किये हुए शुभ, ऐसे धर्मराजका दक्षिणदिशामें ध्यान करना, खङ्ग और ढालको धारण किये हुए नीलवर्ण मनुष्यकी सवारी किये हुए ॥ ७१ ॥

उर्द्धकेशं विरूपाक्षं दीर्घग्रीवायुतं विभुम् ॥
नागपाशधरं पीतवर्णं मकर वाहनम् ॥ ७२ ॥
ऊपरको बाल उठाये हुए विकराल नेत्र, दीर्घग्रीवा, ऐसे समर्थ नैऋत ( राक्षस ) को पूजै । नागफांशधारी, पीलावर्ण, मगरमच्छकी सवारी ॥ ७२ ॥

वरुणं कालिनाथं च रत्नाभरणभूषितम् ॥
प्राणिनां प्राणरूपं च द्विबाहुं दंडपाणिनम् ॥ ७३ ॥
कालिनाथ, रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित ऐसे वरुणदेवका ध्यान करना । प्राणधारियोंका प्राण, दोभुजावाला हाथमें दंड लिये हुए ॥ ७३ ॥

वायुं कृष्णमृगासीनं पूजयेदंजनापतिम् ॥
अश्वातीनं कुंतपाणि द्विबाहुं स्वर्णसंनिभम् ॥ ७४ ॥
काले मृगपर सवार हुआ अंजनाके स्वामी, ऐसे वायुदेवको पूजन करना । घोडापर सवार हुआ, हाथमें भाला शस्त्र और दोभुजाओंवाला सुवर्णसमान कांतिवाला ॥ ७४ ॥

कुबेरं चित्रलेखेशं यक्षगंधर्वनायकम् ॥
पिनाकिनं वृषारूढं गौरीपतिमनुत्तमम् ॥ ७५ ॥
चित्रलेखका स्वामी, यक्ष गन्धर्वोका स्वामी ऐसे कुबेरका पूजन करना और पिनाक धनुषवाले बैलपर सवार हुए, पार्वतीके पति, परमोत्तम ॥ ७५ ॥

श्वेतवर्ण चंद्रमौलि नागयज्ञोपवीतिनम् ॥
अप्रयाणे स्वयं कार्याऽपेक्षया पूजनं तथा ॥ ७६ ॥
श्वेतवर्ण, चंद्रमाको मतकमें धारण करनेवाले सर्पका यज्ञापदीत धारण किये हुए ऐसे महादेवका ध्यान करना यह ईशानकोणके स्वामीका पूजन है । गमनसमयमें तो पूजन करना योग्य ही है और कहीं गमन नहीं करना हो तो भी कार्यकी अपेक्षा इन दिक्पालका इसी प्रकार पूजा करना ॥ ७६ ॥

कार्यं निर्गमनं छत्रध्वजाश्वाक्षतवाहनैः ॥
स्वस्थानान्निर्गमस्थानं धनुषां च शतद्वयम् ॥ ७७ ॥
ध्वजा, छत्र, अश्व, निर्विकार वाहन, इन्होंसे युक्त होकर गमन करना चाहिये और अपने घर दो सौ २०० धनुष प्रमाण अर्थात् ८०० हाथ प्रमाणके अंतरमें प्रस्थान करना योग्य है ॥ ७७ ॥

चत्वारिंशद्द्वादशैव प्रस्थितो हि स्वगेहतः ॥
दिनान्येकत्र न वसेत्सप्त भूपः परो जनः ॥ ७८ ॥
अथवा चालीस धनुष प्रमाण वा बारहनुष प्रमाण अंतर प्रमाणमें प्रस्थान करना अथवा अपने घरसे दूसरे घर में प्रस्थान करना यही गमन है गमन करके दूसरे घर में राजाने एक जगह सात दिनसे अधिक नहीं ठहरना और अन्य जन ॥ ७८ ॥

पंचरात्रं च परतः पुनर्लग्नांतरं व्रजेत् ॥
अकालजेषु नृपतिर्विद्युद्गर्जितवृष्टिषु ॥ ७९ ॥
प्रस्थानकी जगह पाँचदिनसे अधिक नहीं ठहरे जो अधिक स्थिति होजाय तो दूसरे लग्नमें गमन करना और बिना कालमें बिजली कड़कना, तथा वर्षा होना ॥ ७९ ॥

उत्पातेषु त्रिविधेषु सप्तरात्रं तु न व्रजेत् ॥
गमने तु शिवाकाककपोतानां गिरः शुभाः ॥ ८० ॥
इत्यादि उत्पातहोना तथा भकंप आदि तीन प्रकारके उत्पात होनेमें राजा तीन दिनतक गमन नहीं करे। और गमनसमय गीदडी, काग, कपोती इन्होंकी वाणी शुभ है ॥ ८० ॥

वामांगे कोकिला पल्ली पोतकी मूकरी रला ॥
वानरः काकऋक्ष: श्वा भासः स्युर्दक्षिणाः शुभाः ॥ ८१ ॥
और कोयल, छिपकली, पोतकी ( दुर्गापक्षी ) सूकरी, खातीचिड़ा, ये बायतर्फ आवे तो शुभहैं । और बानर, काग, रीछ, कुत्ता, भासपक्षी (पटबाजना ) ये दहिनीतर्फ शुभ हैं ॥ ८१ ॥

चाषं त्यक्त्वा चतुष्पात्तु शुभदो वामतो गमः ॥
कृष्णं त्यक्त्वा प्रयाते तु कृकलाशो ने वीक्षितः ॥ ८२ ॥
पपैया बिना चतुष्पादपक्षी बायाँतर्फ गमन करे तो शुभ है कालापपैया बिना चतुष्पाद पक्षी बायाँतर्फ गमन करे तो शुभ है काला बिना अन्य तरहका किरलकांट दीखना शुभ नहीं हैं ॥ ८२ ॥

वराहशशगोधानां सर्पाणां कीर्तनं शुभम् ।
दृष्टमात्रेण यात्रायां व्यस्तं सर्वं प्रवेशने ॥ ८३ ॥
सूकर, शशा, गोह, सांप इन्होंका उच्चारण करना शुभ हैं यह यात्राका शकुन है और प्रवेशसमयमें शकुन विपरीत जानना अर्थात् इन सर्पादिकाका दीखना अच्छा है और उच्चारण अच्छा नहीं ॥ ८३ ॥

यात्रासिद्धिर्भवेद्दष्टे शवे रोदनवर्जिते ॥
प्रवेशो रोदनयुते शवे स्याच्च शिवप्रदः ॥ ८४ ॥
रोनासे रहित मुरदाका दर्शन हो तो गमनकी सिद्धि होती है और रोनासहित मुरदाका दीखना प्रवेशसमय सुखदायी है ॥ ८४ ॥

पतितक्लीवजटिलोन्मत्तवांतौषधादिभिः ॥
अभ्यक्तकाष्ठान्यस्थीनि चर्मागारतुषाग्निभिः ॥ ८५ ॥
और जातिपतित, हीजडा, जटाधारी, बावला, गमन करता हुआ, औषधि, मालिश तेल आदि लगाना, काष्ठ, इड्डी, चांम, अंगार, तुष, धूमाकी अग्नि ॥ ८५ ॥

गुडकार्पासलवणवसातैलतृणोरगैः ॥
वंध्या व्यथितकाणौ च मुक्तकेशो बुभुक्षितः ॥ ८६ ॥
गुड़, कपास, लवण, चरबी, तेल, तृण, सर्प, वंध्यास्री, रोगीपुरुष, काणा, खुलेकेशवाला, भूखा ॥ ८६ ॥

प्रयाणसमये लग्ने दृष्टे सिद्धिर्न जायते ॥
प्रज्वलाग्निः शुभं वाक्यं कुसुमेक्षुसुरागणाः ॥ ८७ ॥
ये सब गमनसमयके लग्नविषे दीख जावें तो कार्य सिद्धि नहीं हो । और जलती हुई अग्नि शुभदायक वचन, पुष्प, ईख, मदिरा ॥ ८७ ॥

गंधपुष्पाक्षतच्छत्रचामरांदोलका नृपाः ॥
भक्ष्यं शुभफलं चैवेभोऽश्वाजौ दक्षिण वृषः ॥ ८८ ॥
गंधु, पुष्प, अक्षत, छत्र, चॉमरडोली, पिन्नस, राजा, भक्ष्यपदार्थ, शुभफल, हस्ती अश्व, दहिनीतर्फ, आयाहुआ वृष ॥ ८८ ॥

मत्स्यमांसं सुधौतं च वस्त्रं श्वेतवृषध्वजः ।।
पुण्यस्त्री पूर्णकलशरत्नशृंगारगोद्विजाः ॥ ८९ ॥
मत्स्यमांस,धोयाहुआ वस्त्र,सफेद बेल, ध्वजा, सौभाग्यवती स्त्री, जलका कलश, रत्न, श्रृंगार, गौ, ब्राह्मणः ॥ ८९ ॥

भेरीमृदंगपटहशंखरागादिनिस्वनाः ॥
वेदमंगलघोषः स्युर्यायिनां कार्यसिद्धिदाः ॥ ९० ॥
भेरी, मृदंग, ढोल, शंख, राग, गीत, गाना, वेदमंगलकी ध्वनि ये सब शकुन गमन करने वालोको सिद्धिदायक हैं ॥ ९० ॥

आदौ विरुद्धशकुनं दृष्ट्वा यायीष्टदेवताम् ॥
स्मृत्वा द्वितीये विप्राणां कृत्वा पूजां निवर्तयेत् ॥ ९१ ॥
गमनकरनेवाला जन प्रथम अपशकुन देखे तो इष्टदेवका ध्यान करके गमन करे फिर, दूसराभी अपशकुन दीखे तो ब्राह्मणोंका पूजन कर उलटा चला आवे फिर गमन करना ॥ ९१ ॥

सर्वेदिक्षु क्षुतं नेष्टं गोक्षुतं निधनप्रदम् ॥
अफलं यद्वालवृद्धरोगिपीनसवत्कृतम् ॥ ९२ ॥
सब दिशाओंमें छींक होना अशुभ है और गौकी छींक मृत्युदायक है बालक, वृद्ध, रोगी, शरदी रोगकी छींक कपटसे लाई हुई छीक इनका दोष नहीं है ॥ ९२ ॥