Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-29

देवता यत्र नृत्यंति पतंति प्रज्वलंति च ॥
मुहू रुदंति गायंति प्रस्विद्यंति हसंति च ॥ १ ॥
जहां देवता नृत्य करते हैं, पडते हैं या देवताओंकी मूर्ति जल उठती हैं, रोती हैं, कभी गाती हैं, मूर्तियों के पसीना आता है कभी हंसती हैं ॥ १ ॥

वमंत्याग्निं तथा धूमं स्नेहं रक्तं पयो जलम् ॥
अधोमुखाश्च तिष्ठंति स्थानात्स्थानं व्रजंति च ॥ २ ॥
मूर्तियोंके मुखसे अग्नि, धूमा, स्नेह ( तैलादिक) रक्त, दूध जल ये निकलते हैं अथवा मुख निचेको जाता है, एक जगहमे दूसरी जगहसे मूर्ति प्राप्त होती है ॥ २ ॥

एवमाद्या हि दृश्यंते विकाराः प्रतिमासु च ।
गंधर्वनगरं चैव दिवा नक्षत्रदर्शनम् ॥ ३ ॥
इत्यादिक विकार देवताओंकी मूर्त्तियोंसे दीखते हैं और आकाशमें गंधर्वनगर ( मकानात) दीखना, दिनमें तारे दीखने ॥ ३ ॥

महोल्कापतनं काष्ठतृणरक्तप्रवर्षणम् ॥
गंधर्वगेहे दिग्धूमं भूमिकंपं दिवा निशि ॥ ४ ॥
तारे टूटने, काष्ठ तृण रक्त इन्होंकी वर्षा होनी, आकाशमें व दिशाओंमें धूमां दीखना इत्यादि उत्पात दिनों तथा रात्रिमें भूकंप (भौंचाल ) होना ॥ ४ ॥

अनग्नौ च स्फुलिंगाश्च ज्वलनं च विनेंधनम् ॥
निशीन्द्रचापमंडूकशिखरं श्वेतवायसः ॥ ५ ॥
ईंधन विना अग्नि जल उठे, अग्निमें से किणके उडने लगे, रात्रिमें इंद्रधनुष दीखे, मीडक दीखें शिखर दीखे सफेद काग दीखे ॥ ५ ॥

दृश्यंते विस्फुलिंगाश्च गोगजाश्वौष्ट्रगात्रतः ॥
जंतवो द्वित्रिशिरसो जायते वा वियोनिषु ॥ ६ ॥
गौ, हस्ती, अश्व, ऊंट इन्होंके शरीरसे अग्निके किनके निकलते दीखें अथवा दो तीन शिरवाले बालकका जन्म होना, दूसरी योनिमें दूसरा बालक जन्मना ॥ ६ ॥

प्रतिसूर्याश्चतसृषुस्युर्दिक्षु युगपद्रवेः ॥
जंबुकग्रामसंवासः केतूनां च प्रदर्शनम् ॥ ७ ॥
सूर्यके सम्मुख दूसरा सूर्य दखिना एक ही बार चारों दिशाओंमें इंद्रधनुष दीखने, ग्रामके समीप बहुतसे गीदड़ इकठ्ठे होना, पूँछवाले तारे दीखें ऐसे उत्पात दीखें ॥ ७ ॥

काकानामाकुलं रात्रौ कंपोतानां दिवा यदि ॥
अकाले पुष्पिता वृक्षा दृश्यंते फलिता यदि ॥ ८ ॥
कार्यं तच्छेदनं तत्र ततः शांतिर्मनीषिभिः ॥
एवमाद्या महोत्पाता बहवःस्थाननाशदाः ॥ ९ ॥
और रात्रिमें कौओंका शब्द सुनें, दिनमें कपोतोंका शब्द सुनें, अकालमें वृक्षोंके फूल तथा फल दीखें तब ऐसे वृक्षोंका छेद न करना और पंडित जनोंसे इन उत्पातोंको दूरकरनेके वास्ते इन्होंकी शांति करनी चाहिये इत्यादि बहुत से महान् उत्पात स्थानको नष्ट करने वाले कहे हैं ॥ ८ ॥ ९ ॥

केचिन्मृत्युप्रदाः केचिच्छत्रुभ्यश्च भयप्रदाः ॥
मध्याद्भयं पशोर्मृत्युः क्षयेऽकीर्तिः सुखासुखम् ॥ १० ॥
कितेक उत्पात मृत्युदायक हैं, कितेक उत्पात शत्रुओंसे भन्न करते हैं तथा उदासीन पुरुषसे भय करते हैं, पशुको मृत्यु, क्षय, कीर्तिनाश, सुखमें दुःख ॥ १० ॥

अनैश्वर्यं चान्नहानिरुत्पातभयमादिशेत् ॥
देवालये स्वगेहे वा ईशान्यां पूर्वतोऽपि वा ॥ ११॥
ऐश्वर्यका नाश, अन्नकी हानि, इत्यादिक ये सब उत्पातोंके भय जानने । देवता मंदिरमें अथवा अपने घरमें ईशानकोणमें अथवा पूर्वमें ॥ ११ ॥

कुंड्म लक्षणसंयुक्तं कल्पयेन्मेखलायुतम् ॥
गृह्रोक्तविधिना तत्र स्थापयित्वा हुताशनम् ॥ १२॥
बहुत उत्तम अग्निकुंड बनावे कुंडपर मेखला बनावे फिर अपने कुलके अनुसार विवाहादि मंगलोक्तविधिसे अग्नि स्थापन करना ॥ १२ ॥

जुहुयादाज्यभागांते पृथगष्टोत्तरं शतम् ॥
यत इंद्रभयामहे स्वस्तिदाघोरमंत्रकैः ॥ १३ ॥
समिदाज्य चरुव्रीहितिलैर्व्यात्त्टतिभिस्तथा ॥
कोटीहोमं तदर्ध च लक्षहोममथापि वा ॥ १४ ॥
घृतसे आज्यभागसंज्ञक मंत्रोंसे १०८आहुति देना फिर “यतइंद्रभयामहे स्वस्तिदा”और अघोर, इन मंत्रों से आहुति देवे समिध, घृत, चरु, चावल, तिल इन्होंसे व्याहृतियोंके मंत्रसे आहुति देना कोटि होम कराना अथवा तिससे आधा अथवा लक्ष होम कराना ॥ १३ ॥ १४ ॥

यथा वित्तानुसारेण तन्न्यूनाधिककल्पना ॥
एकविंशतिरात्रं वा पक्षं पक्षार्द्धमेव वा ॥ १५ ॥
जैसा अपना वित्तहो उसके अनुसार होम कराना इक्कीस दिनों तक अथवा १५ दिनोंतक अथवा आधे पक्षतक होम कराना ॥ १५ ॥

पंचरात्रं त्रिरात्रं वा होमकर्म समाचरेत् ॥
दक्षिणां च ततो दद्यादाचार्याय कुटुंबिने ॥ १६॥
पांचरात्रितक वा तीनरात्रिक होमकर्म कराना योग्य है फिर कुटुंबवाले आचार्यके वास्ते दक्षिणा देवे ॥ १६ ॥

गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यंगदेवताः ॥
तासां प्रीत्यै जपः कार्यः शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥ १७ ॥
गणेश, क्षेत्रपाल, सूर्य, दुर्गा, चौंसठ योगिनी, अंगदेवता इन्होंकी प्रीतिके वास्ते इन मंत्रोंसे जप करावे अन्य होमादि कर्म पूर्वोक्तविधि से करना ॥ १७ ॥

ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्षोडशभ्यः स्वशक्तितः ॥ १८ ॥
सोलह ऋत्विजोंके वास्ते अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा देवे ॥ १८ ॥
उत्पातास्त्रिविधा लोके दिवि भौमांतरिक्षजाः ॥
तेषां नामानि शांतिं च सम्यग्वक्ष्ये पृथक्पृथक् ॥ १९ ॥
संसार में तीन प्रकारके उत्पात हैं स्वर्ग, भूमि, आकाश इन तीन जगह होनेवाले उत्पात हैं तिनके नामों को और शांतिको अलग २ कहते हैं ॥ १९ ॥

दिवा वा यदि वा रात्रौ यः पश्येत्काकमैथुनम् ॥
स नरो मृत्युमाप्नोति यदि वा स्थाननाशनम् ॥ २० ॥
दिनमें अथवा रात्रिमें जो पुरुष काकके मैथुनको देखता है । उस पुरुषकी मृत्युहो अथवा स्थान नष्ट होवे ॥ २० ॥

काकघातव्रतं चैव विदधीताथ वत्सरम् ॥
पितृदेवद्विजान्भक्त्या प्रत्यहं चाभिवादनम् ॥ २१ ॥
तिस पुरुषने वर्षदिनतक काकघात नामक व्रत करना और पितर देवता ब्राह्मण इन्होंको भक्तिसे दिन २ प्रति प्रणाम करना ॥ २१ ॥

जितेंद्रियः शुद्धमनाः सत्यधर्मपरायणः ॥
तद्दोषशमनायेत्थं शांतिकर्म समाचरेत् ॥ २२ ॥
जितेंद्रिय शुद्धमनवाला रहे, सत्यधर्ममें तत्पर रहै तिस दोषको शांत करने के वास्ते इस प्रकार शांति करे कि ॥ २२ ॥

गृहस्येशानकोणे तु होमस्थानं प्रकल्पयेत् ॥
स्वगृह्रोक्तविधानेन तत्र स्थाप्य हुताशनम् ॥ २३ ॥
घरमें ईशानकोणकी तर्फ अग्निस्थान कल्पितकर तहां अपने गृह्रोक्त विधिसे अग्निस्थापन करना ॥ २३ ॥

मुखांते समिदाज्यान्नैर्होमश्चाऽष्टोत्तरं शतम् ॥
प्रतिमंत्रं त्र्यंबकेन चाथ मृत्युंजयेन वा ॥ २४ ॥
व्याहृतिभिर्व्रीहितिलैर्जपाद्यंतं प्रकल्पयेत् ॥
पूर्णाहुतिं च जुहुयात्कर्ता शुचिरलंकृतः ॥ २५ ॥
फिर समिध, घृत, तिलादिक अन्न इन्होंसे ‘व्यंबकं यजामहे’ इस मंत्रसे अथवा महामृत्युंजयमंत्रसे अर्थात् भूर्भुवःस्वः’ इत्यादिक व्याहृतियोंसहित त्र्यंबकमंत्रसे चावलतिलोंसे जपकी संख्याके अनुसार होम करना और पवित्र विभूषितहुआ कर्ता यजमान होमके अंतमें पूर्णाहुति करै ॥ २४ ॥ २५ ॥

स्वर्णशृंगी रौप्यखुरीं कृष्णां धेनुं पयस्विनीम् ॥
वस्त्रालंकारसहितां निष्कद्वादशसंयुताम् ॥ २६ ॥
और सुवर्णकी सींगडी तथा चांदीके खुरोंसे विभूषत हुईका अच्छे दुधवाली कालीगौको वस्त्र आभूषणों से विभूषितकर बारह निष्क अर्थात् ४८ तोले सुवर्णसे युक्त ॥ २६ ॥

तदर्द्धेन तदर्द्धेन तदर्द्धेनाथ वा पुनः ॥
यथा वित्तानुसारेण तन्यूनाधिककल्पना ॥ २७ ॥
अथवा तिससे आधा अथवा तिससे भी आधा अथवा तिससे भी आधा सुवर्ण वा चांदी अपने वित्तके अनुसार कमज्यादै देना ॥ २७ ॥

आचार्याय श्रोत्रियाय गां च दद्यात्कुटुंबिने ।
ब्राह्मणेभ्यो विशिष्टेभ्यो यथाशक्त्या च दक्षिणाम् ॥ २८ ॥
वेदपाठी कुटुंबी आचार्यके वास्ते इस गौको दान देवे और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके वास्ते शक्तिके अनुसार दक्षिणा देनी ॥ २८ ॥

ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चात्स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
एवं यः कुरुते सम्यक्स तद्दोषात्प्रमुच्यते ॥ २९ ॥
फिर स्वस्तिवाचनपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन करवावे ऐसे जो अच्छेप्रकारसे करता है वह तिसदोषसे छूट जाता है ॥ २९ ॥

पल्लया: प्रपतने पूर्वे फलमुक्तं शुभाशुभम् ॥
शीर्षे राज्यं श्रियं प्राप्तिर्मौलौ त्वैश्वर्यवर्धनम् ॥ ३० ॥
छिपकली शरीरपर पडनेका फल पूर्वाचार्योंने कहा है । शिरपर पड़े तो राज्य तथा लक्ष्मीकी प्राप्ति हो मस्तकपर पडे तो ऐश्वर्यकी वृद्धि हो ॥ ३० ॥

पल्लाया: प्रपतने चैव सरटस्य प्ररोहणे ॥
शुभाशुभं विजानीयात्तत्तत्स्थाने विशेषतः ॥ ३१ ॥
शरीरपर छिपकलीके पडनेका और किरकाटके चढनेका तिस २ स्थानका शुभाशुभ फल विशेषतासे जानना ॥ ३१ ॥

सव्ये भुजे जयः प्रोक्तो ह्रापसव्ये महद्भयम् ॥
कुक्षौ दक्षिणभागस्य धनलाभस्तथैव च ॥ ३२ ॥
दहिनी भुजापर पडे तो जयप्राप्ति और बांयीं भुजापर महान् भय हो दहिनी कुक्षिपर धनका लाभहो ॥ ३२ ॥

वामकुक्षौ तु निधनं गदितं पूर्वसूरिभिः ॥
सव्यहस्ते मित्रलाभो वामहस्ते तु निस्वता ॥ ३३ ॥
बांयींकुक्षिपर मृत्यु, दहिने हाथपर मित्रका लाभ और बायें हाथपर दरिद्रताहो ऐसे पुरातन पंडितोंने कहा है ॥ ३३ ॥

उदरे सव्यभागे तु सुपुत्रावाप्तिरुच्यते ॥
वामभागे महारोगः कट्यां सव्ये महद्यशः ॥ ३४ ॥
उदरके दहिने भागपर पडे तो पुत्रकी प्राप्ति और उदरपर बायींतर्फ पडे तो महान् रोग हो दहिनीकटिपर पडे ते महान यश मिलै ॥ ३४ ॥

वामकट्यां तु निधनं मुनिभिस्तत्त्वर्शिभिः ॥
जान्वोरेवं विजानीयात्सव्यपादे शुभावहम् ॥ ३५ ॥
बांयीं कटिपर तत्त्वदर्शीमुनियोंने मृत्यु कही है और दोनों गोडोंपर भी मृत्यु जानना, दहिने पांवपर शुभ फल जानना ॥ ३५ ॥

वामपादे तु गमनमिति प्राहुर्महर्षयः ॥
स्त्रीणां तु सरटश्चैव व्यस्तमेतत्फलं वदेत् ॥ ३६ ॥
बायें पैरपर पडे तो गमन हो ऐसे महर्षि जनोंने कहा है इसीप्रकार किरलकाँटका फल जानना और स्त्रियों को यह फल विपरीत होता है अर्थात् पुरुषके जिस अंगपर शुभफल कहा है वहां अशुभ फल होता है ॥ ३६ ॥

फलं प्ररोहणे चैव सरटस्य प्रचारतः ॥
सर्वागेषु शुभं विद्याच्छांतिं कुर्यात्स्वशक्तितः ॥ ३७ ॥
किरलकाँट सब अंगों में जहां चढजाय उसी जगहके शुभफलक विचारै जो अशुभफल होय तो शक्तिके अनुसार शांति करवाने चाहिये ॥ ३७ ॥

शुभस्थाने शुभावाप्तिरशुभे दोषशांतये ॥
तत्स्वरूपं सुवर्णेन रुद्ररूपं तथैव च ॥ ३८ ॥
शुभ स्थानमें चढे तो शुभफलकी प्राप्ति हो और अशुभस्थान पर चढे तो शांति करवानी चाहिये तिस किलकाँटको सुवर्णका बनवाके रुद्ररूप जानकर पूजन करै ॥ ३८ ॥

मृत्युंजयेन मंत्रेण वस्त्रादिभिरथार्चयेत् ॥
अग्निं तत्र प्रतिष्ठाप्य जुहुयात्तिलपायसैः ॥ ३९ ॥
मत्युंजयमंत्रसे वस्त्रआदि समर्पणकरके पूजन करै अग्निस्थापन करके तिल और खीरसे होम करै ॥ ३९ ॥

आचार्यों वारुणैः सूक्तैः कुर्यात्तत्राभिषेचनम् ॥
आज्यावलोकनं कृत्वा शत्त्या ब्राह्मणभोजनम् ॥ ४० ॥
वरुणदेवताके मंत्रोंसे आचार्य तहां अभिषेक करै यजमान बृतमें मुख देखके (छायादान कर ) शक्तिके अनुसार ब्राह्मणों को भाजन करवावे ॥ ४० ॥

गणेशक्षेत्रपालार्कदुर्गाक्षोण्यंगदेवताः ॥
तासां प्रीत्यै जपः कार्यः शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥ ४१ ॥
गणेश, क्षेत्रपाल, सूर्य, दुर्गा, चौसठयोगिनी, अंगदेवता इन्होंकी भीतिके वास्ते इनके मंत्रोंका जप करै अन्य सब विधि पहिलेकी तरह करनी ॥ ४१ ॥

ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्यात्शोडशभ्यः स्वशक्तितः ॥ ४२ ॥
अपनी शक्तिके अनुसार सोलह ऋत्विजके अर्थ दक्षिणा देनी ॥ ४२ ॥
आरोहेत गृहं यस्य कपोतो वा प्रवेशयेत् ॥
स्थानहानिर्भवेत्तस्य यद्वानर्थपरंपरा ॥ ४३ ॥
जिसके घर में कपोत प्रवेश हो जाय अथवा घरके ऊपर बैठजाय उसके स्थानकी हानि हो अथवा कोई दुःख होवे ॥ ४३ ॥

दोषाय धनिनां गेहे दरिद्राणां शिवाय च ॥
तच्छांतिस्तु प्रकर्तव्या जपहोमविधानतः ॥ ४४ ॥
धनीपुरुषोंके घरमें प्रवेश होना यह अशुभफल है और दरिद्री पुरुषों के घरमें तथा शून्यवरमें शुभफल जानना तिसकी शांति जप होम विधिसे करनी चाहिये ॥ ४४ ॥

ब्राह्राणान्वयेत्तत्र स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
षोडशद्वादशाष्टौ वा श्रौतस्मार्तक्रियापरान् ॥ ४५ ॥
श्रुति स्मृतिकी क्रियामें तत्पर रहनेवाले सोलह वा आठ ब्राह्मणोंको स्वस्ति वाचन पूर्वक वरण करै ॥ ४५ ॥

देवाः कपोत इत्यादि ऋग्भिः स्यात्पंचभिर्जपः ॥
कुंडं कृत्वा प्रयत्नेन स्वगृह्रोक्तविधानतः ॥ ४६ ॥
“देवाः” कपोत, इत्यादि पांचऋचाओंसे जप करवाना और अपने वेदशाखाके अनुकूल अग्निकुंड बनवावे ॥ ४६ ॥

ईशान्यां स्थापयेद्वह्रि मुखांतेऽष्टोत्तरं शतम् ॥
प्रत्येकं समिदाज्यान्नैः प्रतिप्रणवपूर्वकम् ॥ ४७ ॥
ईशानकोणमें अग्निस्थापन कर समिध, घृत, अन्न इन्हों करके ओंकारपूर्वक अष्टोत्तर शत १०८ आहुति अग्निके मुख में करै ॥ ४७ ॥

यत इंद्रभयामहस्वस्ति तेनेति त्र्यंबकैः ॥
त्रिभिर्मत्रैश्च जुहुयात्तिलान्व्याहृतिभिः सह ॥ ४८ ॥
“यत इंद्रभयामहे” इस मंत्रसे अथवा “स्वस्तिन इन्द्रो” वा “त्र्यंबकं इन तीनमंत्रोंसे व्याहृतिपूर्वक तिलोंसे होम करै ॥ ४८ ॥

कुर्यादेव ततो भक्त्या कर्ता पूर्णाहुर्ति स्वयम् ॥
विप्रेभ्यो दक्षिणां दद्याद्दोषशांति ततो जपेत् ॥ ४९ ॥
फिर यजमान आप भक्तिपूर्वक पूर्णाहुति करे और ब्राह्मणांके वास्ते दक्षिणा बाँटै ऐसे करनेसे तिसदोषकी शांति होवे ॥ ४९ ॥

ब्राह्राणान्भेोजयेत्पश्चात्स्वयं भुजीत बंधुभिः ॥
एवं यः कुरुत भक्त्या तस्माद्दोषात्प्रमुच्यते ॥ ५० ॥
फिर ब्राह्मणको भोजन करवाके आप अपने बंधुजनों सहित भोजन करै ऐसे जो भक्तिसे करता है वह तिसदोषसे छुट जाता है ॥ ५० ॥

पिंगलायाः स्वरेप्येवं मधुवाल्मीकयोरपि ॥
संपूर्णमंगले हानिः शून्यसद्मान मंगलम् ॥ ५१ ॥
पिंगला (कोतरी ) के बोलनेमें तथा मधु वाल्मीक पक्षीके बोलेनमें भी ऐसे ही शांति कराना । संपूर्ण मंगलकी जगह इनका प्रचार होवे तो हानिहो और शून्यमकानमें बोलें तो शुभफल हो ॥ ५१ ॥

प्राकारेषु पुरद्वारे प्रासादाद्येषु वीथिषु ॥
तत्फलं ग्रामपस्यैव सीमा सीमाधिपस्य च ॥ ५२ ॥
किला, कोट, पुरका दरवाजा, मंदिर, राजभवन, गली इन्होंपर बोले तो वह फल प्राप्तके अधिपतिको ही होता है सीमापर बोले तो सीमाके मालिकको फल होता है ॥ ५२ ॥

शांतिकर्माखिलं कार्ये पूर्वोक्तेन क्रमेण तु ॥ ५३ ॥
इन कोतरी आदिकोंके बोलनेमें पूर्वोक्त क्रमकरके संपूर्ण शांति कर्म कराना चाहिये ॥ ५३ ॥

उत्पाता ह्राखिला नृणामगम्याः शुभसूचकाः ॥
तथापि सद्यः फलदं शिथिलीजननं महत् ॥ ५४ ॥
शुभसूचक संपूर्ण उत्पात, मनुष्योंको प्राप्त होने दुर्लभ हैं । परंतु शिथिलीजनन अर्थात् अचानकसे शिथिल होकर किसी वस्तुको गिरना उछडना आदि उत्पात तत्काल महान फल करते हैं ॥ ५४ ॥

शिथिलीज़ननं ग्रामे सेतौ वा देवतालये ॥
तत्फलं ग्रामपस्यैव सीम्नि सीमाधिपस्य च ॥ ५५ ॥
ग्राममें अथवा पुलपर वा देवताके मंदिर में जो यह पूर्वोक्त उत्पात होय तो ग्रामके स्वामीको अशुभ फल होता है सीमापर हो तो सीमाके मालिकको अशुभ फल होता है ॥ ५५ ॥

शिथिलीजनने हानिः सर्वस्थानेषु दिक्षु च ॥
तद्दोषशमनायैव शांतिकर्म समाचरेत् ॥ ५६ ॥
सबस्थानों में सब दिशाओं में जहां शिथिलजनन उत्पात (किसीवस्तुका रूपबिगडना अचानकसे ढीलाहोना) होता है वहां हानि होती है तिस दोषको शमन करनेके वास्ते शांति करनी चाहिये ॥ ५६ ॥

स्वर्णेन मृत्युप्रतिमां कृत्वा वित्तानुसारतः ॥
रक्तवर्णं चर्मदंडधरं महिषवाहनम् ॥ ५७ ॥
सुवर्णकरके वित्तके अनुसार मृत्युकी मूर्ति बनवावे लालवर्ण, गल तथा दंडको धारण किये, भैंसाकी सवारी ऐसी मूर्ति बनवानी वाहिये ॥ ५७ ॥

नववस्त्रं च संवेष्टय तंदुलोपारि पूजयेत् ॥
तल्लिंगेन च मंत्रेण नैवेद्यं तु यथाविधि ॥ ५८ ॥
तिस मूर्तिको नवीन वस्त्रसे लपेटकर चावालोंपर स्थापितकर तिसका पूजन करै तिस धर्मराजके मंत्रका उच्चारणकर यथार्थविधिसे नैवेद्य चढावे ॥ ५८ ॥

पूर्णकुंभे तदीशान्यां रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् ॥
पंचत्वक्पल्लवैर्युक्तं जलं मंत्रैः समर्पयेत् ॥ ५९ ॥
जलका पूर्णकलश ईशानकोणमें स्थापितकर तिसपर लालवस्त्र उढावे पंचपल्लव, पंचवल्कल, आदिकोंसे युक्तकर मंत्रों करके तिस कलशमें जल घालै ॥ ५९ ॥

अग्निसंस्थापनं प्राच्यां स्वगृह्रोक्तविधानतः ॥
प्रत्येकमष्टोत्तरशतमघोरेणैव होमयेत् ॥ ६० ॥
अपने कुलकी संप्रदायके अनुसार पूर्वदिशामें अग्नि स्थापनकरे अघारमंत्रसे अष्टोत्तरशत १०८ होम करै ॥ ६० ॥

मंत्रेण समिदाज्यान्नैः शेषं पूर्ववदाचरेत् ॥
द्विजाय प्रतिमां दद्यात्सर्वदोषापनुत्तये ॥ ६१ ॥
समिध, घृत, तिलादिक अन्न इन्होंसे होम करना अन्य सबविधि पहिलेकी तरह करना और संपूर्ण दोष मूर होनेके वास्ते उस सुवर्णकी मूर्तिको ब्राह्मणके अर्थ देवे ॥ ६१ ॥

जलमंत्रेण संप्रोक्ष्य तत्स्थानं तीर्थवारिभिः ॥
एवं यः कुरुते सम्यक्स तु दोषात्प्रमुच्यते ॥ ६२ ॥
वरुणका मंत्र उच्चारणकर तिस उत्पातवाले स्थानको गंगा आदि तीर्थके जलसे छिडकदेवे इस प्रकार जो पुरुष करता है वह उत्पादि दोषसे छूट जाता है ॥ ६२ ॥

श्रीरग्निर्बधुनाशश्च वित्तहानिर्महद्यशः ॥
बंधुलाभः पुत्रहानिः स्त्रीचिंता महतो गदः ॥ ६३ ॥
पूर्वादीनि फलान्येषामिद्रलुप्तं च मस्तके ॥
पंचत्वक्पल्लवैश्चैव पंचामृतफलोदकैः ॥ ६४ ॥
अभ्यंगमंत्रितैर्मत्रैः स्नानदोषं विमुचति ॥
एवमेवाग्निदाहेपि मस्तके मध्यदूषिते ॥ ६५ ॥
दंतच्छेदे काकहते सरटापत्तनेपि च ॥
आशिषो वाचनं कृत्वा ब्राह्मणान्भोजयेच्छुचिः ॥ ६६ ॥
किसीके शिरपर इंद्रलुप्त होजाय अर्थात् शिरपरसे किसी जगहके बाल उडजावे तो मस्तकमें पूर्वआदि दिशा कल्पित करके लक्ष्मीप्राप्ति १, अग्निभय २, बंधुनाश ३, द्रव्यकी हानि ४, महान यश ५, बंधुलाभ ६, पुत्रहानि ७, स्त्रीचिंता ८, महान् रोग ९ – यह फल पूर्वआदिदिशाओंका जानना और नवमां फल मस्तकमें मध्यभागका जानना तहां इसकी शांतिके वास्ते पंचवल्कल, पंचपल्लव, पंचामृत, फलोदक इन्होंकरके स्नानकरावे और अभिषेकके मंत्रोंका उच्चारण करे तब शुद्धि होती है । इसी प्रकार अग्निदाहादिसे मस्तकमध्यसे दूषित होजाय तथा दांत आदि कटजाय, काक चोंचमारदेवे तथा किरलकांट चढजाय तो उसस्थानका भी शुभाशुभ फल विचारकर स्वस्तिवाचन करवाके ब्राह्मण जिमायें पवित्र रहे ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ ६५ ॥ ६६ ॥

लाभदः स्त्रीजनानां त्वशुभदो व्यत्ययो व्ययः ॥
दक्षिणे स्फुरणं लाभं वामे स्फुरणमन्यथा ॥ ६७ ॥
जो शकुन पुरुषोंको लाभदायक हैं वह स्त्रियोंको अशुभ विपरीत तथा हानिदायक जानना । पुरुषोंका दहिना अंग स्फुरणा शुभ है । बायां अंग स्फुरणा अशुभ है ॥ ६७ ॥

स्वर्गच्युतानां रूपाणि यान्युकास्तानि वै भुवि ॥
धिष्ण्योल्काविद्युदशनिताराः पंचविधाः स्मृताः ॥ ६८ ॥
स्वर्गसे पतित हुई उल्काओंके जो रूप पृथ्वीपर होते हैं तिनको कहते हैं । धिष्ण्या, उल्का, विद्युत, अशनि, तारा ऐसे पांच प्रकारका उल्कापात जानना ॥ ६८ ॥

सम्यक्पञ्चविधानं च वक्ष्यते लक्षणं फलम् ॥
पाचयंति त्रिभिः पक्षेर्धिष्ण्योल्काशनिसंज्ञिताः ॥ ६९ ॥
अच्छे प्रकारसे इनपांचोंका विधान लक्षण फल कहते हैं । धिष्ण्या, उल्का, अशनि इन संज्ञाओवाली उल्का ४५ दिनमें करती हैं ॥ ६९ ॥

विद्युत्षडभिरहोभिश्च तारास्तद्वत्फलप्रदाः ॥
फलपाककरी तारा धिष्ण्याख्यार्द्धा फलप्रदा ॥ ७० ॥
विद्युत् छः दिनमें फलकरे, तारापात भी ६ दिनमें फलकरे तारापात पूराफल करता है । धिष्ण्या आधाफल करती है ॥ ७० ॥

उल्का विद्युशन्याख्याः संपूर्णफलदा नृणाम् ॥
अश्वेभोष्ट्रपशुनृषु वृक्षक्षोणीषु च क्रमात् ॥ ७१ ॥
विदारयंति पतितं स्वनेनं महता शनिः ॥
जनयित्री च संत्रासं विद्युव्द्योम्नि त्विव स्फुटम् ॥ ७२ ॥
उल्का, अशनि, विद्यु ये मनुष्योंको पूराफल देती हैं । अश्व, हाथी, ऊंट, पशु, मनुष्य, वृक्षोंकी पंक्ति इन सबोंपर यथाक्रमसे पडती हैं और तोड फोड डालती हैं बडाभारी कडकना शब्द करती हैं यह अशनिका लक्षण है । और बिजली आकाशमें बहुत चिमकती है बडा भय दिखाती है यह विद्युत्को लक्षण है ॥ ७१ ॥ ७२ ॥

चक्रा विशालज्वलिता पतंती वनराजिषु ॥
धिष्ण्यान्त्यपुच्छा पतति ज्वलितांगारसान्निभा ॥ ७३ ॥
चक्राकार विशाल ज्वलिता, वनमें बहुतदूरतक पडतीहुई जले हुए अगारसदृश, अंतमें पूंछसे आकारवाली ऐसी धिष्ण्या जाननी ॥ ७३ ॥

हस्तद्वयप्रमाणा सा दृश्यते च समीपतः ॥
ताराब्जतनुवच्छुक्ला हस्तदीर्घवुजारुणा ॥ ७४ ॥
वह दो हाथप्रमाणकी समीपमें ही दीखती है चंद्रमासरीखी सफेद दीखती है ऐसी तारा जाननी और एक हाथ लंबी लालकमल सरीखी लाल ॥ ७४ ॥

उद्धे वाप्यथवा तिर्यगधो वा गगनांतरे ॥
उल्काशिरो विशाला तु पतंती वर्द्धते तनुम् ॥ ७५ ॥
आकाशमें ऊपरको अथवा नीचेको तिरछी होती है पडती हुईका विस्तार होजाता है जिसका मस्तक चौडा होता है ऐसी उल्का जाननी चाहिये ॥ ७५ ॥

दीर्घपुच्छा भवेत्तस्या भेदाः स्युर्बहवस्तथा ॥
पीडाश्चोष्ट्राहिगोमायुखरगोगजदंष्टिकाः ॥ ७६ ॥
वह उल्का लंबी पूंछवाली होती है तिसके बहुतसे लक्षण हैं । वह ऊंट, सर्प, गीदड़, गधा, गौ, हाथी, कोजाड इन्होंके समान आकारवाली उल्का इन सबोंको पीडा करती है ॥ ७६ ॥

कपिगोधाधूमनिभा विविधा पापदा नृणाम् ॥
अश्वेभचंद्ररजतवृषहंसध्वजोपमाः ॥ ७७ ॥
बंदर, गोह, धूमा इन्होंके समान अनेक आकारवाली होय तो मनुष्योंको पाप (अशुभ ) फल करती है और, घोडा, हाथी चंद्रमा, चांदी, बैल, हंस, ध्वजा इन्हों के समान ॥ ७७ ॥

वज्रशंखशुक्तिकाब्जरूपाः शिवसुखप्रदाः ॥
पतंतीह स्वरा वह्रौ राजराष्ट्रक्षयाय च ॥ ७८ ॥
अथवा हीरा, शंख, सीपी, कमल इन्होंके सदृश उल्का पडे तो मंगल सुखदायक जाननी । अग्निमें उल्कापात होजाय तो राजाका और देशों का नाश हो ॥ ७८ ॥

यद्यंबरे निपतति लोकस्याप्यतिविभ्रमः ॥
यद्यर्केदू संस्पृशति तत्र भूपप्रकंपनम् ॥ ७९ ॥
और जो आकाशमें ही रहे तो लोगोंको अत्यंत श्रमकरे जो सूर्य चंद्रमाको स्पर्श करे तो राजाओंको कंपना हो ॥ ७९ ॥

परचक्रागमभयं जनानां क्षुज्जलाद्भयम् ॥
अर्केन्द्वोरपसव्योल्का पौरेतरविनाशदा ॥ ८० ॥
दूसरे राजाके आनेका भयहो मनुष्यों को दुर्भिक्षका तथा जलका भयहो, सूर्यचंद्रमाके दहिनीतर्फ होकर पड़े तो शहरसे अलग तुच्छ बाहरगावों में रहनेवाले जनोंको पीडा करती है ॥ ८१ ॥

उदयास्तमयेर्केद्वो: परतोल्का शुभप्रदा ॥
सितरक्ता पीतसिता सौल्का नेष्टा द्विजातिभिः ॥ ८२ ॥
सितादतोभये पार्श्चे पुच्छे दिक्षु विदिक्षु च ॥
विप्रादीनामनिष्टानि पतितोल्कादिभान्यपि ॥ ८३ ॥
सूर्यचंद्रमाके उदय अस्त होनेके बाद संधिमें पडे तो शुभदायक जानना और सफेदलाल, तथा पीलीसफेद उल्का पडे तो द्विजातियों को अच्छी नहीं है दोनों बराबरों में सफेद वर्णहों उल्काका पुच्छ भाग दिशाओंमें रहे अथवा अग्निकोणआदि विदिशाओंमें रहे तब पृथ्वीपर पड़े तो ऐसे टूटे हुए तारे ब्राह्मण आदि वर्णोको अशुभ हैं तिनको कहते हैं ॥ ८२ ॥ ८३ ॥

तारा कुंदनिभा स्निग्धा भूभुजां तु शुभप्रदा ॥
नलिा श्यामारुणा चाग्निवर्णोक्ता साशुभप्रदा ॥ ८४ ॥
कुंदपुष्प समान सफेद चिकना तारा टूटे तो राजाओंको शुभदायक है, नील, श्याम,लाल, अग्निसमान वर्णवाला तारा टूटे तो अशुभदायक जानना ॥ ८४ ॥

संध्यायां वह्रिपीडा च दलिता राजनाशिनी ॥
नक्षत्रग्रहणे देवस्तद्वर्णानामनिष्टदा ॥ ८५ ॥
संध्यासमयमें तारा टूटे तो अग्निकी पीडा करे खंडितहुआ तारा दीखे तो राजाको नष्टकरे और जिनके नक्षत्रोंका देवता गणहो पुरुषों को अशुभफल जानना ॥ ८४ ॥

स्थिरधिष्ण्येषु पतिता स्त्रीणां चोक्ता भयप्रदा ॥
क्षिप्रभेषु विशां पीडा भूपतीनां चरेषु च ॥ ८५ ॥
स्थिरसंज्ञक नक्षत्रोंमें पडे तो स्त्रियोंको अशुभ जानना, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रोंमें पड़ी हुई तारा वैश्योंको पीडाकरे चरसंज्ञक नक्षत्रोंमें पडे तो राजाओंको पीडाकरे ॥ ८५ ॥

मृदुभेषु द्विजातीनां दारुणं दारुणेषु च ॥
उग्रभेषु च शूद्राणां परेषां मिश्रभेषु च ॥ ८६ ॥
मृदुसंज्ञक नक्षत्रों में पड़े तो ब्राह्मणोंको पीडा करै, दारूण तीक्ष्ण नक्षत्रों में पड़े तो दारुण दुष्टपुरुषोंको पीड़ा करै, उग्रसंज्ञक नक्षत्रोंमें पडे तो शुद्रोंका पीडा करै, मिथुन नक्षत्रोंमें नीचजातियों को पीडा करै ॥ ८६ ॥

राजराष्ट्रस्वनाशाय प्रासादप्रतिमासु च ॥
गृहेषु स्वामिनां पीडा नृपाणां पर्वतेषु च ॥ ८७ ॥
राजाके भवनमें अथवा देवताओं की मूर्तियोंपर बिजली पडे तो राज्यको नष्ट करे, घरमें पड़े तो घरके मालिकको पीड़ा करै पर्वतोंपर पडेतो राजाओंको पीडाकरे ॥ ८७ ॥

दीक्षितानां दिगीशानां कर्षकाणां स्थलेषु च ॥
प्राकारे परिखायां वा द्वारि तत्पौरमध्यमे ॥ ८८ ॥
स्थलमें पडे तो दीक्षित ( ब्रह्मचारी आदि ) दिशाओंके स्वामी किसानलोग इन्होंको पीडाकरे और किला, कोट, खाही, शहरका दरवाजा, शहरका मध्यभाग ॥ ८८ ॥

परचक्रागमभयं राज्यं पौरजनक्षयः ॥
गोष्ठे गोस्वामिनां पीडा शिल्पकानां जलेषु च ॥ ८९ ॥
इन्होंमें पड़े तो दूसरा राज्य आनेका भय हो और शहरके लोगों का नाशहो, गोशालामें पड़े तो गौऑके स्वामियोंको पीडा हो, जलमें पडे तो ( शिल्पी ) कारीगरोंको पीडा हो ॥ ८९ ॥

राजहंत्री तंतुनिभा चेंद्रध्वजसमाथ वा ॥
प्रतीपगा राजपत्नी तिर्यगा च चमूपतिम् ॥ ९० ॥
तंतुसमान आकारवाली पडे तो राजाको नष्ट करै, इंद्रधनुष समान पडे तो भी राजाको नष्ट करे और उलटी होकर पड़े तो राजाकी रानीको नष्ट कुरै, तिरछी पडे तो सेनापतिको नष्टकरै ॥ ९० ॥

अधोमुखी नृपं हंति ब्राह्मणानुर्ध्वगा तथा ॥
वृक्षोपमा पुच्छनिभा जनसंक्षोभकारिणी ॥ ९१ ॥
नीचेको मुखवाली उल्का राजाको नष्टकरे, ऊपरको मुखवाली ब्राह्मणोंको नष्टकरे, वृक्षसमान तथा पूंछसमान आकारवाली उल्का मनुष्योंको त्रास देती है ॥ ९१ ॥

प्रसर्पिणी या सर्प्पवत्सा गणानामनिष्टदा ॥
वर्तुलोल्का पुरं हंति च्छत्राकारा पुरोहितम् ॥ ९२ ॥
सर्पकी तरफ फैलती हुई उल्का ( बिजली ) पडे तो किसी भी चाकर लोगों को अशुभ है। गोल उल्का पड़े तो पुरको नष्ट करे छत्राकार पडे तो राजाके पुरोहितको नष्ट करै ॥ ९२ ॥

वंशगुल्मलताकारा राष्ट्रविद्राविणी तथा ॥
सकरव्यालसदृशा खंडाकाराच पापदा ॥ ९३ ॥
बाँस, गुल्म, लता इनके समान आकारखाली पडे तो राज्यको नष्ट करै और सूकर सर्प तथा खंडित आकार वाली उल्का पडे तो पापदायक ( अशुभदायक ) है ॥ ९३ ॥

इंद्रचापनिभा राज्यं मूर्छिता हंति तोयदम् ॥ ९४ ॥
इंद्रधनुष समान आकारवाली पडे तो राज्यको नष्ट करै और मूच्छिता अर्थात् कांतिहीन उल्का ( बिजली) पडे तो जलका कामकरनेवाले जनोंको पीडा करै ॥ ९४ ॥