Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-30

किरणा वायुनिहता उच्छ्रिता मंडलीकृताः ॥
नानावर्णाकृतयस्ते परिवेषाः शशीनयोः ॥ १ ॥
वायुसे निहतहुई सूर्य व चंद्रमाकी किरण ऊपरको होके मंडलाकार होजाती हैं उनके अनेक वर्ण और अनेक आकार होते हैं तिनको सूर्यचंद्रमाके परिवेष ( मंडल ) कहते हैं ॥ १ ॥

ते रक्तनीलपांडूरकपोताभ्राश्च कापिलाः ॥
सपीतशुकवर्णाश्च प्रागादिदिक्षु वृष्टिदाः ॥ २ ॥
मुहुर्मुहुः प्रलीयंते न संपूर्णफलप्रदाः ॥
शुभास्तु कपिलाः स्निग्धाः क्षीरतैलांबुसन्निभाः ॥ ३ ॥
वे मंडल लाल,नील,पांडुरवणे (गुलाबी) कपोतसरीखे तथा बादल सरीखे वर्णवाले तथा कपिल वर्णवाले पीले तथा हरे इनके होते हैं । ये वर्ण यथा क्रमसे पूर्वाद दिशाओं में होवे ते वर्षाहोवे और जो मंडलके वर्ण बारंबार हो होकर नष्ट होजावे तो पूरा फल नहीं करते हैं कपिलवर्ण, चिकने दूध तथा तेल व जलसरीखी कांतिवाले ॥ २ ॥ ३ ॥

चापशृंगाटकरथक्षतजाभारुणाः शुभाः ॥
अनेकवृक्षवर्णाश्च परिवेषा नृपांतकृत् ॥ ४ ॥
धनुष, चौपट, रथ इनके आकार तथा रक्तसमान लाल ऐसे कुंडल शुभदायक कहे हैं अनेक दरखतोंके समान आकार हरेकुंडल राजाओंको नष्ट करते हैं ॥ ४ ॥

अहर्निशं प्रतिदिनं चंद्रार्कवरुणो यदा ॥
परिविष्टो नृपवधं कुरुतो लोहितो यदा ॥ ५ ॥
जो दिनरात नियम करके अर्थात दिनमें सूर्यके और रात्रि में चंद्रमाके इस प्रकार सूर्यचंद्रमाके लालवर्ण मंडल बना रहे तो राजाकी मृत्यु हो ॥ ५ ॥

द्विमंडलश्चमूनाथं नृपध्नोऽथ त्रिमंडलम् ॥
परिवेषगतः सौरिः क्षुद्रधान्यविनाशकृत् ॥ ६ ॥
दो मंडल होवें तो सेनापतिको नष्ट करै, तीनमंडल होवें तो राजाको नष्ट करै, मंडलके मध्यमें शनि प्राप्त होते तो तुच्छधान्यों का नाश हो ॥ ६ ॥

रणकृद्भुमिजो जीवः सर्वेषामभयप्रदः ॥
ज्ञः सस्यहानिदः शुक्रो दुर्भिक्षकलहप्रदः ॥ ७ ॥
मंगल मंडल में आजाय तो युद्ध करावे बृहस्पति हो तो सबको अभय करै, बुध हो तो खेतीका नाशकरे, शुक मंडलमें प्राप्तहो तो दुर्भिक्ष तथा कलह करे ॥ ७ ॥

परिवेषगतः केतुर्दुर्भिक्षकलहप्रदः ॥
पीडां नृपवधं राहुर्गर्भच्छेदं करोति च ॥ ८ ॥
केतु सूर्यमंडलमें आजाय तो दुर्भिक्ष तथा कलह करे, राहू मंडलमें आजाय तो पीड़ा, राजाकी मृत्यु, गर्भच्छेद यह फल करता है ॥ ८ ॥

द्वौ ग्रहौ परिवेषस्थौ क्षितीशकलहप्रदौ ।
कुर्वत कलहानर्ध परिवेषगतास्त्रयः ॥ ९ ॥
दो ग्रह मंलडमें प्राप्तहोवे तो राजाओंका युद्धहो, तीन ग्रह होवें तो कलह तथा अन्नको भाव महँगा करे ॥ ९ ॥

चत्वारः परिवेषस्था नृपस्य मरणप्रदाः ॥
परिवेषगताः पंच बलप्रबलदा ग्रहाः ॥ १० ॥
चारग्रह होवें तो राजाकी मृत्यु करें और मंडलमें पांचग्रह होवें तो बलदायक ( शुभफलदायक ) जानने ॥ १० ॥

एवं वक्रग्रहास्तेषामेवं फलनिरूपणम्॥
नृपहानिः कुजादीनां परिवेषे पृथक् पृथक् ॥ ११ ॥
इसी प्रकार दो चार वक्रीग्रह हों उनका भी फल जानना मंगल आदि पृथक् २ ग्रह चंद्रमंडलमें होतें तो राजाकी हानि हो ॥ ११ ॥

परिवेषोपि धिष्ण्यानां फलमेवं द्वयोस्त्रिषु ॥
परिवेषो द्विजातीनां नेष्टः प्रतिपदादिषु ॥ १२ ॥
इसीतरह अन्य भी दो वा तीन तारे चंद्रमडलमें होवें तो उनका फल जानना और प्रतिपदा आदि चारतिथियोंमें सूर्यके वा चंद्रमाके मंडलमें होय तो ब्राह्मणोंको अशुभ फल जानना ॥ १२ ॥

पंचम्यादिषु तिसृषु ह्राशुभो नृपतेस्तथा ॥
अष्टम्यां युवराजस्य परिवेषोप्यभीष्टदः ॥ १३ ॥
पंचमी आदि तीनतिथियोंमें मंडल होय तो राजाको अशुभ जानना अष्टमीके दिन मंडल हो तो युवराजको शुभदायक जानना ॥ १३ ॥

ततस्तिसृषु तिथिषु नृपाणामशुभप्रदः ॥
पुरोहितस्य द्वादश्यां विनाशाय भवेदसौ ॥ १४ ॥
सैन्यक्षोभस्त्रयोदश्यां नृपरोधमथापि वा ॥
राजपत्न्यश्चतुर्दश्यां परिवेषो गदप्रदः ॥ १५ ॥
नवमीआदि तीनतिथियोंमें राजाओंको अशुभ जानना । द्वादशीको मंडल होय तो राजाके पुरोहितका नाश हो, त्रयोदशीके दिन हो तो सेनाका कोप हो अथवा राजाका अवरोध हो चतुर्दशीके दिन हो तो रानीके रोग होवे ॥ १४ ॥ १५ ॥

परिवेषः पंचदश्यां क्षितीशानामनिष्टदः ॥
थरिवेषस्य मध्ये वा बाह्रो रेखा भवेद्यदि ॥ १६ ॥
स्थायिनां मध्यमा नेष्टा यायिनां पार्श्वसंस्थिता ॥
प्रावृड्रितौ च शरदि परिवेपो जलप्रदः ॥ १७ ॥
पूर्णिमाको मंडल होय तो राजाओंको अशुभ है मंडलके मध्यमें अथवा बाहिरकी तर्फ रेखा होय तो स्थायी (अपने किलामें स्थितरहनेवाले ) राजाओंको मध्यम जानना और बराबरोंमें रेखा होय तो गमन करनेवाले राजाओंको अशुभ जानना, प्रावृट ऋतुमें तथा शरदऋतुमें मंडल होय तो वर्षा करे ॥ १६ ॥ १७ ॥

प्रायेणान्येषु ऋतुषु तदुक्तफलदायिनः ॥ १८ ॥
और विशेषकरके अन्य ऋतुओंमें सूर्य व चंद्रमाके मंडल होय तो जैसा पूर्व कहा है वही फल जानना ॥ १८ ॥

नानावर्णाशवो भानोः साभ्रवायुविघट्टिताः ॥
यव्द्योम्नि चापसंस्थानमिंद्रचापं प्रदृश्यते ॥ १९ ॥
सुर्यकी किरण बादल और वायुके संयोगले अनेक प्रकारके रेगोंवाली होकर आकाशमें धनुषके आकारकी होजाती हैं वह इंद्रधनुष कहलाता है ॥ १९ ॥

अथवा शेषनागेंद्रदीर्घनिश्वाससंभवम् ॥
विदिक्षुजं दिक्षुजं च तद्दिडननृपविनाशनम् ॥ २० ॥
अथवा सर्पराज शेषनागके उच्च श्वास लेने से इंद्रधनुष हो जाता है वह जिस दिशामें अथवा जिसकोणमें होय तिप्तीदेशके स्वामी राजाको नष्ट करे ॥ २ ॥

पीतपाटलनीलैश्च वह्रिशस्त्रास्त्रभीतिदम् ॥
वृक्षजं व्याधिदं चापं भूमिजं सस्यनाशदम् ॥ २१ ॥
अवृष्टिदं जलोद्भूतं वल्मीके युद्धभीतिदम् ॥
अवृष्टौ वृष्टिदं चैंद्यां दिशि वृष्ट्यामवृष्टिदम् ॥ २२ ॥
पीला, पाडलवर्ण, नीलवर्ण इंद्रधनुष होय तो अग्नि तथा युद्धका भयकरे वृक्षके ऊपर किरणोंकी क्रांति पड़के धनुषाकार दीखे तो प्रजामें रोग हो तथा भूमिपर दीखे तो खेतीको नष्टकरे जलमें क्रांति पडके धनुष दीखे तो वर्षा नहीं होवे । बमईमें बिलमें धनुषकी क्रांति पडे तो प्रजामें युद्धका भयहो, पूर्वदिशामें इंद्रधनुष होय तो वर्षा नहीं होवे तो वर्षा होने लगे और वर्षा होतेहुए पूर्वदिशामें इन्द्रधनुष दीखे तो वर्षांहोनी बंद होजाय ॥ २१ ॥ २२ ॥

सदैव वृष्टिदं पश्चाद्दिशोरितरयोस्तथा ॥
रात्र्यामिंद्रधनुः प्राच्यां नृपहानिर्भवेद्यदि ॥ २३ ॥
पश्चिमदिशामें इंद्रधनुष दीखे तो सदा वर्षा करता है अन्यदिशाओंमें (उत्तरदक्षिणमें) हो तो भी वर्षाकरे, रात्रि में पूर्वदिशामें इंद्रधनुष दीखे तो राजाकी हानि करे ॥ २३ ॥

याम्यां सेनापति हंति पश्चिमे नायकोत्तमम् ॥
मंत्रिणं सौम्यदिग्भागे सचिवं कोणसंभवम् ॥ २४ ॥
दक्षिणदिशामें दीखे तो सेनापतिको नष्ट करे पश्चिममें हो तो बडे हाकिम सरदारको नष्ट करे, उत्तर तथा ईशान आदि कोणोंमें दीखे तो राजाके मंत्रीको नष्ट करे ॥ २४ ॥

रात्र्यामिद्रधनुः शुक्लवर्णाढयं विप्रपूर्वकम् ॥
हंति याद्दिग्भवं स्पष्टं तद्दिगीशनृपोत्तमम् ॥२ ५ ॥
रात्रिमें पूर्वदिशामें सफेदवर्ण इंद्रधनुष दीखे तो ब्राह्मणोंकों नष्ट कर और जिस दिशामें स्पष्ट इंद्रधनुष दीखे उसी दिशाका राजा नष्ट होताहै ॥ २५ ॥

अवनीगाढमच्छिन्नं प्रतिकूलं धनुर्द्वयम् ॥
नृपांतकृद्यदि भवेदानुकूल्यं न तच्छुभम् ॥ २६ ॥
विना कटाहुआ धनुष पृथ्वीपर शुभफल करताहै दो धनुष अशुभफल करते हैं, राजाको नष्ट करते हैं अनुकूल शुभफल नहीं करते ॥ २६ ॥

गंधर्वनगरं दिक्षु दृश्यतेऽनिष्टदं क्रमात् ॥
भूभुजां वा चमूनाथसेनापतिपुरोधसाम् ॥ २७ ॥
दिशाओं में गंधर्वनगर दीखना यथाक्रमसे राजा, सेनापति, मंत्री पुरोहित इन्होंको अशुभफल करता है ॥ २७ ॥

सितरक्तपीतकृष्णं विप्रादीनामनिष्टदम् ॥
रात्रौ गंधर्वनगरं धराधीशविनाशनम् ॥ २८ ॥
और सफेद, लाल, पीला, काला, ये वर्ण दीखने यथाक्रमसे ब्राह्मणआदिकोंको अशुभ है रात्रिमें गंधर्वनगर दीखे तो राजाको नष्ट करे ॥ २८ ॥

इंद्रचापाग्निधूमाभं सर्वेषामशुभप्रदम् ॥
चित्रवर्ण चित्ररूपं प्राकारध्वजतोरणम् ॥ २९ ॥
इंद्रधनुष, अग्नि, धुमा इन्होंके सदृश गंधर्वनगर दीखे तो सभी को अशुभ फलदायक है विचित्रवर्ण, विचित्ररूप, कोटका आकार, ध्वजा, तोरण ॥ २९ ॥

दृश्यते चेन्महायुद्धमन्योन्यं धरणीभुजाम् ॥ ३० ॥
इन्होंके आकार दीखें तो राजाओंका आपसमें महान् युद्ध हो ॥ ३० ॥

प्रतिसूर्यनिभः स्निग्धः सूर्यः पार्श्वे शुभप्रदः ॥
वैडूर्यसदृशस्वच्छः शुक्लो वापि सुभिक्षकृत् ॥ ३१ ॥
सूर्यके तेजसे बादलमें दूसरा सूर्य दीख जाता है वह स्निग्धवर्ण तथा बराबरमें दिखे तो शुभ है वैडूर्य मणिके समान स्वच्छ सफेद दीखे तो सुभिक्ष करता है ॥ ३१ ॥

पीताभो व्याधिदः कृष्णो मृत्युदो युद्धदारुणः ॥
माला चेत्प्रतिसूर्याणां शवच्चौरभयप्रदा ॥ ३२ ॥
पीलावर्ण प्रतिसूर्य दीखे तो प्रजामें बीमारी हो, कालावणे होय तो मृत्युदायक तथा दारुण युद्ध होता है, बादलमें प्रतिसुर्याकी माला दीखे तो निरंतर चोरोंका भयहो ॥ ३२ ॥

जलदोदक्प्रतिसूर्यो भानोर्याम्येनिलप्रदः ॥
उभयस्थोंबुभयदो नृपहोपर्यधो नृहा ॥ ३३ ॥
उत्तरदिशामें प्रतिसूर्य दीखे तो वर्षा होवे, दक्षिणदिशामें दीखे तो वायु चले, दोनोंतर्फ बराबरोंमें प्रतिसूर्य दीखे तो वर्षाको बंदकरे, सूर्यके ऊपर प्रतिसूर्य दीखे तो राजाको नष्ट करे, सूर्यके नीचे प्रतिसूर्य दीखे तो प्रजाको नष्ट करे ॥ ३३ ॥

पराभवंति तीक्ष्णांशोः प्रतिसूर्याः समततः ॥
जगद्विनाशमाप्नोति तथा शीतद्युतेरपि ॥ ३४ ॥
सूर्यके चारों तर्फ प्रतिसूर्य होकर साक्षात् सूर्यकी क्रांतिको ही, नकर देवे तो जगत् का नाशहो इसी प्रकार चंद्रमाको भी फल जानना ॥ ३४ ॥