Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-33

असंक्रांतिर्द्विसंक्रांतिः संसर्पाहस्पती समौ ॥
मासौ तु बहवश्चांद्रास्त्वधिमासः परः क्षयः ॥ १ ॥
बिना संक्रांतिवाला तथा दोसंक्रांतिवाला ऐसे ये दोमहीने क्रमसे संसर्प तथा अहस्पतिनामवाले कहाते हैं और अधिमास तथा क्षयमास भी होता है ऐसे ये सब भेद चांद्रमासके जानने ॥ १ ॥

हिमाद्रिगंगयोर्मध्ये सुरार्चितवसुंधरा ॥
गोदावरी कृष्णवेण्योर्मध्ये काव्यवसुंधरा ॥ २ ॥
हिमालय और गंगाजीके मध्यमें बृहस्पतिकी भूमि जानना गोदावरी और कृष्णावेणी नदीके मध्यमें शुक्रकी भूमि जानना ॥ २ ॥

विंध्यगोदावरीमध्ये भूमिः सूर्यसुतस्य च ॥
विंध्याद्रिगंगयोर्मध्ये या भूमिः सा बुधस्य च ॥ ३ ॥
विंध्याचल और गोदावरीके मध्यमें शनिकी भूमि जानना विंध्याचल और गंगाजीके मध्यमें जो भूमि है वह बुधकी जाननी ॥ ३ ॥

या वेण्यालंकयोर्मध्ये धरात्मजवसुंधरा ॥
समुद्रयंत्रितक्षोणीनाथौ सूर्यहिमद्युती ॥ ४ ॥
और वेणी नदी तथा लंकाके मध्यमें मंगलकी भूमि जानना और समुद्र पासकी भूमिके मालिक सूय चंद्रमा कहे हैं ॥ ४ ॥

इषमासि चतुर्दश्यामिंदुक्षयतिथावपि ।
ऊर्जादौ स्वातिसंयुक्ते तदा दीपावली भवेत् ॥ ५ ॥
अश्विन वदि चतुर्दशी अथवा अमावास्याको और कार्तिककी चतुर्दशी तथा दीपमालिकाको ॥ ५ ॥

तैले लक्ष्मीर्जले गंगा दीपावल्यां तिथौ भवेत् ॥
अलक्ष्मीपरिहारार्थमभ्यंगस्नानमाचरेत् ॥ ६ ॥
तैलमें लक्ष्मी और जलमें गंगाजी रहती है इसलिये दीपमालिकाके दिन अलक्ष्मी दूरहोनेके वास्ते तेल लगाकर स्नान करना चाहिये ॥ ६ ॥

इंदुक्षये च संक्रान्तौ वारे पाते दिनक्षये ॥
तत्राभ्यंगे ह्रादोषाय प्रातः पापापनुत्तये ॥ ७ ॥
अमावास्या तथा संक्रांतिके दिन व्यतीपातके दिन, तिथि क्षयके दिन प्रातःकाल तेललगाकर स्नानकरे तो संपूर्ण पाप दूर होवें ॥ ७ ॥

मासि भाद्रपदे कृष्णे रोहिणीसहिताष्टमी ॥
जयंती नाम सा तत्र रात्रौ जातो जनार्दनः ॥ ८ ॥
भाद्रपद कृष्णा अष्टमीको रोहिणी नक्षत्रहो तब वह जयंतीनाम अष्टमी है उसदिन श्रीकृष्णभगवानको जन्म भया है ॥ ८ ॥

उपोष्य जन्मचिह्रानि कुर्याज्जागरणं च यः ॥
अर्द्धरात्रयुताष्टम्यां सोश्वमेधफलं लभेत् ॥ ९ ॥
उसदिन व्रतकर जन्मके चिह्रकर अर्द्धरात्रियुक्त अष्टमीमें जो जागरण करता है वह अश्वमेध यज्ञके फलको प्राप्त होता हैं ॥ ९ ॥

रोहिणीसहिताष्टम्यां श्रावणे मासि वा तयोः ॥
श्रावणे मासि वा कुर्याद्रोहिणीसहिता तयोः ॥ १० ॥
रोहिणी सहित अष्टमी श्रावणमें मिलजाय तो रोहिणीके योग होनेसे वह भी जयंती अष्टमी जाननी उसी दिन व्रतकरना ॥ १० ॥

मासि भाद्रपद शुक्ले पक्षे ज्येष्ठर्क्षसंयुते ॥
रात्रौ तस्मिन्दिने कुर्याज्येष्ठायाः परिपूजनम् ॥ ११ ॥
भाद्रपद शुक्ला अष्टमीको ज्येष्ठा नक्षत्र होय तो उस रात्रिमें अथवा दिनमें ज्येष्ठा नक्षत्रका पूजन करना चाहिये ॥ ११ ॥

अर्द्धरात्रयुता यत्र माघकृष्णचतुर्दशी ॥
शिवरात्रिव्रतं तत्र सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥ १२ ॥
और माघकृष्णा चतुर्दशी अर्द्धरात्रयुक्त हो उसदिन शिवरात्रि व्रत होता है वह अश्वमेधयज्ञका फल देती है ॥ १२ ॥

नक्तव्रतेषु सा ग्राह्या प्रदोषव्यापिनी तिथि: ॥
पूजाव्रतेषु सर्वेषु मध्याह्नव्यापिनी स्मृता ॥१३ ॥
वह तिथि रात्रिके व्रतोंमें प्रदोषव्यापिनी ग्रहण की है और संपूर्ण पूजा व्रतों में तो मध्याह्नव्यापिनी कही है ॥ १३ ॥

एकभुक्तोपवासेषु या विंशघटिकात्मिका ॥
पिष्टान्नप्राशनेष्वेव लवणाम्लविवर्जिता ॥ १४ ॥
एक भुक्तोपवास अर्थात् एकवार भोजन करनेके व्रतोंमें वीस २० घडीतक रहनेवाली तिथि गृहीत है पीठीके पदार्थ खानेमें नमक खटाईका त्याग करनेमें भी बीसबडी इष्टतक रहनेवाली तिथि ग्राह्य है ॥ १४ ॥

आषाढसितपंचम्यामसंप्राश्य उपोषितः ॥
अर्चयेत्षण्मुख देवमृणरोगविमुक्तये ॥ १५ ॥
आषाढ सुदी पंचमीको भोजन नहीं करना, उपवास व्रतकरके षण्मुखदेव स्वामिकार्तिकजीका पूजन करनेसे ऋण और रोग दूर होता है ॥ १५ ॥

तथैव श्रावणे शुक्लपंचम्यां नागपूजनम् ॥
पयःप्रदानं सर्पेभ्यो भयरोगविमुक्तये ॥ १६ ॥
तैसेही श्रावणशुक्ल पंचमीको नागपूजन होता है उसदिन रोग दूर होनेके वास्ते सर्पोको दूध पिलाना चाहिये ॥ १६ ॥

मासि भाद्रपदे शुक्लचतुर्थ्या गणनायकम् ॥
पूजयेन्मोदकाहारैः सर्वविध्नोपशांतये ॥ १७ ॥
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीको गणेशजीका पूजन करना और लड्डुवोसे पूजन करना तथा लड्डुवका भोजन करना ऐसे करनेसे संपूर्णविन्नोंकी शांति होती है ॥ १७ ॥

माघशुक्ले च सप्तम्यां योर्चयेद्भास्करं नरः ॥
आरोग्यं श्रियमाप्नोति घृतपायसभक्षणैः ॥ १८ ॥
माघशुक्ला सप्तमीको जो पुरुष सूर्यका पूजन करता है और धृत तथा खीरका भोजन करता है वह आरोग्य ( खुशी) रहता है ॥ १८ ॥

व्यंजनोपानहौ छत्रं दध्यमन्नकपात्रिकाम् ॥
वैशाखे विप्रमुख्येभ्यो धर्मप्रीत्यै प्रयच्छति ॥ १९ ॥
कनकांदोलिकाछत्रचामरैः स्वर्णभूषितैः ॥
सह दिव्यान्नपानाभ्यां दत्त्वा स्वर्गमवाप्नुयात् ॥ २० ॥
और जो पुरुष धर्महेतु वैशाखमहीनेमें बीजना जूती जोडा छत्री, दही, अन्न, थाली इन्होंका दान श्रेष्ठब्राह्मणों के वास्ते देता है और सुवर्ण, पालकी, छत्र, चमर, सुवर्णके आभूषण, दिव्य अन्नपान, दान करता है वह स्वर्ग में प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ २० ॥

अश्वयुङ्मासि शुक्लायां नवम्यां भक्तितोर्चयेत् ॥
लक्ष्मीं सरस्वतीं शस्त्रान्विजयी धनवान्भवेत् ॥ २१ ॥
आश्विनशुक्ला नवमीको भक्तिसे लक्ष्मी, सरस्वती, शस्त्र इन्होंका पूजनकरनेवाला पुरुष विजयी तथा धनवान होता है ॥ २१ ॥

कार्तिक्यामथ वैशाख्यामुपोष्य वृषमुत्सृजेत् ॥
शिवप्रीत्यै भक्तियुतः स नरः स्वर्गभाग्भवेत् ॥ २२ ॥
कार्तिकशुक्ल पूर्णिमाको अथवा वैशाखशुक्ला पूर्णिमाको उपवासव्रतकरके बैल छोडे (ओकिल छोडे ) भक्ति से युक्तहोकर शिवजीकी प्रीतिके वास्ते ऐसे करनेवाला पुरुष स्वर्गमें प्राप्त होता है ॥ २२ ॥

घटांत्यक्षे नृयुग्मेषु कन्या कीटतुलाधनुः ॥
कुलीरमृगासिंहाश्च चैत्राद्या: शून्यराशयः ॥ २३ ॥
और कुंभ, मीन, वृष, मिथुन, कन्या, वृश्चिक, तुला, धनु, कर्क, मकर, सिंह ये राशि यथाक्रमसे चैत्र आदि महीनों में शून्य जाननी जैसे चैत्रमें कुंभ, वैशाखमें मीन इत्यादि ॥ २३ ॥

तुलामृगौ प्रतिपदि तृतीयायां हरिमृगः ॥
पंचम्यां मिथुनं कन्या सप्तम्यां चापचांद्रभे ॥ २४ ॥
प्रतिपदा तिथिविषे तुला और मकर लग्न शून्य है तृतीयाविषे सिंह और मकर, पंचमीविषे मिथुनकन्या, सप्तमीविषे धन कर्क लग्न शून्य है ॥ २४ ॥

नवम्यां हरिकीटौ द्वावेकादश्यां गुरोर्गृहे ॥
त्रयोदश्यां झषवृषौ दिनदग्धाश्च राशयः ॥ २५ ॥
नवमीविषे सिंह वृश्चिक, एकादशीविषे धन मीन, त्रयोदशीविषे मीन वृष लग्न शून्य ( दग्ध ) कहे हैं ॥ २५ ॥

मासदग्धाह्वयात्राशीन्दिनदुग्धांश्च वर्जयेत् ॥ २६ ॥
इसप्रकार मासदग्ध राशियोंको और दिनदग्ध राशियों को वर्ज देवे ॥ २६ ॥

अष्टमी नवमी चैत्रे पक्षयोरुभयोरपि ॥
वैशाखे द्वादशी शून्या पक्षयोरुभयोरपि ॥ २७ ॥
चैत्रके दोनों पक्षों में अष्टमी नवमी तिथि शून्य जाननी और वैशाखमें दोनोंपक्षों में द्वादशी शून्य जाननी ॥ २७ ॥

ज्येष्ठे त्रयोदशी शुक्ला कृष्णपक्षे चतुर्दशी ॥
आषाढ कृष्णपक्षेपि षष्ठी शुक्लेऽथ सप्तमी ॥२८ ॥
ज्येष्ठमें शुक्लपक्षमें त्रयोदशी, कृष्णपक्षमें चतुर्दशी और आषाढमें कृष्णपक्षमें षष्ठी, शुक्लपक्षमें सप्तमी शून्यतिथि जाननी ॥ २८ ॥

श्रावणेपि द्वितीया च तृतीया पक्षयोर्द्वयोः ॥
प्रौष्ठपदे सिते कृष्णे द्वितीया प्रथमा तथा ॥ २९ ॥
श्रावणमें दोनों पक्षोंमें द्वितीया, तृतीया, शून्य जाननी भाद्रपद शुक्लपक्षमें वा कृष्णमें प्रथमा द्वितीया शून्य तिथि जाननी ॥ २९ ॥

सिते कृष्णेप्याश्वयुजि दशम्यैकादशी तथा ॥
कार्तिके च सिते पक्ष चतुर्दशी शराऽसिते ॥ ३० ॥
अश्विनमें दोनों पक्षों में दशमी एककादशी शून्य तिथि जाननी कार्तिकमें शुक्लपक्षमें चतुर्दशी और कृष्णपक्षमें पंचमी तिथि शून्य जाननी ॥ ३० ॥

मार्गेऽद्रिनागसंज्ञेऽपि पक्षयोरुभयोरपि ।
पौषे पक्षद्वये चैव चतुर्थी पंचमी तथा ॥ ३१ ॥
मार्गशीर्षमें दोनों पक्षोंमें सप्तमी अष्टमी शून्य जाननी पौषमें दोनों पक्षों में चतुर्थी पंचमी शून्य जाननी ॥ ३१ ॥

माघे तु पंचमी षष्ठी शुक्ले कृष्णे यथाक्रमम् ॥
तृतीया च चतुर्थी च फाल्गुने सितकृष्णयोः ॥ ३२ ॥
माधमें शुक्लपक्षमें पंचमी कृष्णमें षष्ठी शून्य तिथि जाननी और फाल्गुनमें शुक्लपक्षमें तृतीया कृष्णमें चतुर्थी शून्यतिथि जाननी ॥ ३२ ॥

अभुक्तमूलजं पुत्रं पुत्री वापि परित्यजेत् ॥
अथवाष्टाब्दकं तातस्तन्मुखं नावलोकयेत् ॥ ३३ ॥
अभुक्त मूलज पुत्रको अथवा पुत्रीको त्यागदेवे अथवा आठ वर्षका बालकहो तबतक पिता उसके मुखको नहीं देखे ॥ ३३ ॥

मूलाद्यपादजो हंति पितरं तु द्वितीयज़ः ॥
मातरं तु तृतीयोर्थं सर्वस्वं तु चतुर्थजः ॥ ३४ ॥
मूलनक्षत्रके प्रथम प्रहरमें बालक जन्मे तो पिताको नष्ट करै और दूसरे चरणमें जन्मे तो माताको, तीसरेमें धनको, चौथे चरणमें संपूर्णवस्तुको नष्ट करता है ॥ ३४ ॥

दिवा जातस्तु पितरं रात्रौ तु जननीं तथा ॥
आत्मान संध्यर्यार्हन्ति नास्ति गंडो निरामयः ॥ ३५ ॥
दिनमें बालक जन्मे तो पिताको नष्टकरे और रात्रिमें जन्मे तो माताको, दोनों संधियों में अपने आत्माको नष्ट करे ऐसे गंडांत नक्षत्रमें जन्माहुआ बालक निर्दोष नहीं है ॥ ३५ ॥

यो ज्येष्ठामूलयोरंतरालप्रहरजः शिशुः ॥
अभुक्तमूलजः सार्पमधानक्षत्रयोरपि ॥ ३६ ॥
जो बालक ज्येष्ठा और मूलनक्षत्रके मध्यके प्रहरमें जन्मता है। और जो आश्लेषा तथा मचाके मध्यके प्रहरमें जन्मता है वह अभुक्त मूलज कहा है ॥ ३६ ॥

विधेयं शांतिकं तत्र गंडे दोषापनुत्तये ॥
अरिष्टं शतधा यात सुकृते शांतिकर्मणि ॥ ३७ ॥
तहां गैडांत नक्षत्रमें जन्मनेकी शांति करनी चाहिये शांतिकर्म सुकृतकरनेसे अरिष्ट ( पीडा ) सैंकड़ों प्रकार से दूर होता है ॥ ३७ ॥

तस्माच्छांतिं प्रकुर्वीत प्रयत्नाद्विधिपूर्वकम् ॥
वत्सरात्पितरं हंति मातरं तु त्रिवर्षतः ॥ ३८ ॥
इसलिये यत्नसे विधिपूर्वक शांति करवानी चाहिये और शांति नहीं की जाय तो गंडांत नक्षत्र पिताको एकवर्ष में नष्टकरे और माताको तीनवर्षमें नष्टकरे ॥ ३८ ॥

धनं वर्षद्वये चैव श्वशुरं नववर्षके ॥
जातं बालं वत्सरेण वर्षेः पंचभिरग्रजम् ॥ ३९ ॥
धनको दोवर्षमें, श्वशुरको नववर्षमें नष्टकरे और जन्मे हुए उस बालकको एकवर्ष में और बालकके बडेभाईको पांचवर्षमें नष्टकरे ॥ ३९ ॥

श्यालकं चाष्टभिर्वर्षैरनुक्तान्हंति सप्तभिः ॥ ४० ॥
सालाको आठवर्ष में नष्टकरे ऐसे वह बालक जिसको अशुभ हो तिसकी अवधि कही और बिना कहे हुए कुटुंबके जनोंको सातवर्षमें नष्टकरे ॥ ४० ॥