नारदसंहिता अध्याय-34
अश्वशांतिं प्रवक्ष्यामि तेषां दोषापनुत्तये ॥
भानुवारे च संक्रांतावयने विषुवद्वये ॥ १ ॥
अब अश्वोंके दोष दूरहोनेके वास्ते अश्वशांतिको कहते हैं रविवार तथा संक्रांति विषे तथा उत्तरायण दक्षिणायन होनेके समय अथवा दिन रात्रि समान होवे उस दिन ॥ १ ॥
दिनक्षये व्यतीपाते द्वादश्यामश्विभेपि वा ॥
अथ वा भास्करे स्वातिसंयुक्ते च विशेषतः ॥ २ ॥
तिथिक्षयमें व्यतीपात योग वा द्वादशीके दिन अश्विनी नक्षत्रविषे अथवा स्वाति नक्षत्र युक्त रविवार विषे ॥ २ ॥
ईशान्या त्वष्टभिर्हस्तैश्चतुर्भिर्वाथ मंडपम् ॥
चतुर्द्वारवितानस्रक्तोरणाद्यैरलंकृतम् ॥ ३ ॥
ईशान कोणमें आठ हाथ प्रमाणका अथवा चारहाथ प्रमाणका मंडप बनावे तिसको चारद्वार बंदनवाल, माला, तारण इत्यादिकोंसे शोभित करे ॥ ३ ॥
तन्मध्ये वेदिका तस्य पंचविंशांशमानतः ॥
मंडपस्य बहिः कुंडं प्राच्य हस्तप्रमाणतः ॥ ४ ॥
तिसर्मपडके पच्चीसवें अंश ( भाग ) प्रमाण तिसके मध्य में वेदी बनावे और मंडपसे बाहिर पूर्वदिशामें एकहाथ प्रमाण अग्निकुंड बनावे ॥ ४ ॥
वरयेच्छ्रोत्रियान् विप्रान् स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
सूर्यपुत्रं हयारूढं पंचवक्रं त्रियंबकम् ॥ ५ ॥
फिर स्वस्तिवाचन पूर्वक वेदपाठी ब्राह्मणोंका वरणकरे और सूर्यके पुत्र, अश्वपर चढे हुए, पांचमुख और तीननेत्रोंवाले ॥ ५ ॥
शुक्लवर्णवसाखङ्ग रैवतं द्विभुजं स्मरेत् ॥
सूर्यपुत्र नमस्तेस्तु नमस्ते पंचवक्रक ॥ ६ ॥
शुक्लवर्ण ढाल तलवार धारण किये हुए दो भुजाओंवाले ऐसे रैवंत देवका स्मरणकरे हे सूर्यपुत्र ! हे पंचमुखवाले देव तुमको नमस्कार है ॥ ६ ॥
नमो गंधर्वदेवाय रैवंताय नमोनमः ॥
मंत्रेणानेन रैवतं वस्त्रगंधाक्षतादिभिः ॥
विधिवद्वेदिकामध्ये तंडुलोपरि पूजयेत् ॥ ७ ॥
गंधर्वदेव रैवतको नमस्कार है ऐसे इसमंत्रसे वस्त्र, गंध, अक्षत आदिकोंसे रैवतको विधिपूर्वक तिस वेदीपर चावलोंपर स्थापितकर पूजनकरे ॥ ७ ॥
कार्यास्तत्र गणाः पंच रौद्रशीक्राश्च वैष्णवाः ॥
सगाणपतिसौराश्च रैवंतस्य समंततः ॥ ८ ॥
तहां पांच प्रकारके गण स्थापित करने रौद्रगण, इंद्रके गण, वैष्णवगण, गणेशजीके गण और सूर्यके गण ऐसे रैवतके चारोतर्फ स्थापितकरने ॥ ८ ॥
ऋग्वेदादिचतुर्वेदान्यजेद्दारेषु पूर्वतः ॥
और ऋग्वेद आदिंचारोंवेदोंको पूर्व आदिद्वारों विषे पूजै ॥ ९ ॥
रक्तवर्णान्पूर्णकुंभान्वस्त्रगंधाद्यालंकृतान् ॥
पंचत्वक्पल्लवोपेतान्पंचामृतसमन्वितान् ॥ १० ॥
और लालवर्णवाले पूर्णकलशोंको वस्त्र गंध आदिकोंसे विभूषितकर पंचवल्कल, पंचपल्लव, पंचामृत इन्होंसे पूरितकर ॥ ९-१० ॥
द्वारेषु स्थाप्य ताल्लिंगैर्मत्रैर्विप्रान्प्रपूजयेत् ॥
एवं तु पूजामाचार्यः कृत्वा गृह्यविधानतः ॥ ११ ॥
तिन चारद्वारोंमें स्थापित कर तिसी २ वेदके मंत्रोंकरके तहां चार ब्राह्मणोंका पृथक् २ पूजन करे आचार्य इसप्रकार कुलकी मर्यादाके अनुसार पूजा कर ॥ ११ ॥
स्थापयेत्तु व्यात्द्दतिभिस्तस्मिन्कुंडे हुताशनम् ॥
ततस्तदाज्यभागांते मुख्याहुतिमतंद्रितः ॥ १२ ॥
फिर व्याहृतियोंकरके तिसकुंडमें अग्नि स्थापन करे। फिर साव्धान होकर आज्य भाग आहुति देकर मुख्य आहुति देना ॥ १२ ॥
अग्नये स्वाहेति हुत्वा घृतेनादौ प्रयत्नतः ॥
एवं तु पूजामंत्रेण ह्याद्यं तु प्रणवेन च ॥ १३ ॥
पलाशसमिदाज्यान्नैः शतमष्टोत्तरं हुनेत् ॥
प्रत्येकं जुहुयाद्भक्त्या तिलान्व्यात्द्दतिभिस्ततः ॥ १४ ॥
‘अग्नये स्वाहा’ इसमंत्रसे पहले यत्नसे घृतकरके होम करे ऐसे पूजाके मंत्रसे आद्यंतमें ॐकार कहके पलाशकी समिध, धृत, तिलादि अन्न इन्हों करके अष्टोत्तरशतं १०८ आहुति होमना फिर प्रत्येक मंत्रमें भूर्भुवः इत्यादि व्याहृति लगाकर तिलोंसे होम करना ॥ १३ ॥ १४ ॥
एकरात्रं त्रिरात्रं वा नवरात्रमथापि वा ॥
अनेन विधिना कुर्याद्यथाशक्त्या जितेंद्रियः ॥ १५ ॥
एक रात्रितक वा तीन रात्रितक वा नव रात्रितक इसविधिसे शक्तिके अनुसार जितेंद्रिय होकर हवन करे ॥ १५ ॥
जपादिपूर्वकं सम्यक्कर्ता पूर्णाहुतिं हुनेत् ॥
ततो मंगलघोंपैश्च नैवेद्यं च समर्पयेत् ॥ १६ ॥
यजमान जपादि पूर्वक अर्थात् सब जपोंकी दशांश आहुति कराके फिर पूर्णाहूति करे फिर मंगल शब्दोंकरके नैवेद्य अर्पणकरे ॥ १६ ॥
ततस्ते हुतशेषेण सम्यक्कंभोकैर्द्विजाः ॥
प्रादक्षिण्यव्रजंतोऽश्वाञ्जयंतबलिमुत्तमम् ॥ १७ ॥
फिर वे चार ब्राह्मण तिन चार कलशकी धारा अर्थोके दहिन तर्फ गमन करते हुऐ छोडकर हुतशेष पदार्थ से उत्तम जयंत वलिदेवे ॥ १७ ॥
जीमूतस्येत्यनूवाकाञ्चतुर्दिक्षु विनिःक्षिपेत् ॥
आचार्याय ततो दद्याद्दक्षिणां निष्कपंचकम् ॥ १८ ॥
और ‘जीमूतस्य’ ऐसे अनुवाक मंत्रपढकर चारों दिशाओं में बलि छोडना फिर पांच पल (२०)तोला सुवर्ण आचार्यको देवे ॥ १८ ॥
तदर्द्ध वा तदर्द्ध वा यथाशक्त्यनुसारतः ॥
ऋत्विग्भ्यो दक्षिणां दद्याद्धेनं वस्त्रं धनादिकम् ॥ १९ ॥
तिससे आधी अथवा तिससे भी आधी दक्षिणा अपनी शाक्तिके अनुसार देनी चाहिये और गौ, वस्त्र धन इन्होंकी दक्षिणी ऋत्विजोंके अर्थ देनी चाहिये ॥ १९ ॥
ब्राह्मणान्भोजयेत्पश्चाच्छांतिवाचनपूर्वकम् ॥
एवं यः कुरुते सम्यगश्वशांतिमनुत्तमाम् ॥ २० ॥
फिर स्वस्तिवाचनपूर्वक ब्राह्मणको भोजन करवावे ऐसे अच्छे प्रकारसे जो पुरुष उत्तम अश्वशांतिको करता है ॥ २० ॥
सोश्वाभिवृद्धिं लभते वीरलक्ष्मीं न संशयः ॥
यज्ञेनानेन संतुष्टा धातृविष्णुमहेश्वराः ॥२१ ॥
वह अश्वौकी समृद्धिको प्राप्त हो जाता है और शूरवीरोंकी लक्ष्मी को प्राप्त होता है इसमें संदेह नहीं और इस यज्ञसे ब्रह्मा, विष्णु, महादेव प्रसन्न होते हैं ॥ २१ ॥
आदित्याद्या ग्रहाः सर्वे प्रीताः स्युः पितरो गणाः ॥
लोकपालाश्च संतुष्टाः पिशाचा डाकिनीगणाः ॥ २२ ॥
और सूर्य आदि सवग्रह, पितरगण, लोकपाल, पिशाच, डाकिनी गण ये सब प्रसन्न होजाते हैं ॥ २२ ॥
भूतप्रेताश्च गंधर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ २३ ॥
भूत, प्रेत, गंधर्वगण, राक्षस, पन्नग ये भी सब प्रसन्न होजाते हैं ॥ २३ ॥