Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-35

चतुर्दशी तिथिर्नदा भद्रा शुक्रारवासरौ ॥
सितेज्ययोरस्तमयं व्द्यंघ्रिभं विषमांघ्रिभम् ॥ १ ॥
चतुर्दशी और नंदातिथि व भद्रातिथिविषे शुक और मंगल, गुरु, शुक्रका अस्त दोचरणका नक्षत्र और विषम चरणवाला नक्षत्र जैसे कत्तिकाका १ पाद मेषमें है यह विषमांघ्रि है और मृगशिर आधा वृषमें है यह दोचरणोंवाला है ऐसे सब जगह जानों ॥ १ ॥

शुक्लपक्षं च संत्यज्य पुनर्दहनमुत्तमम् ॥
वसूत्तरार्द्धतः पंच नक्षत्रेषु त्रिजन्मसु ॥ २ ॥
पौष्णब्रह्मर्क्षयोः पौनर्दहनं कुलनाशनम् ॥
दिनोत्तरार्द्ध तत्कर्तुश्चंद्रताराबलान्विते ॥ ३ ॥
और शुक्लपक्षको त्यागकर पुत्तलविधान आदिसे प्रेत दाहकरना श्रेष्ठ है और धनिष्ठाका उत्तरार्द्ध आदि पांच पंचकोमें तथा त्रिपुष्करयोगमें और रेवती तथा रोहिणीमें पुत्तलविधान आदिसे दाहकर्म कियाजाय तो कुलका नाश होवे किन्तु मध्याह्न पीछे और क्रिया करनेवालेको चंद्र ताराका बल होनेके दिन ॥ २ ॥ ३ ॥

पापग्रहे बलयुते शुक्रलग्नांशवर्जिते ।
तत्पुनर्दहनं चोक्तं श्राद्धकालमथोच्यते ॥ ४ ॥
तथा पापग्रह बलवंतहो शुक्र लग्नमें नहीं हो ऐसे मुहूर्तमें दाह कर्म करना शुभ है । अब श्राद्धकालको कहते हैं ॥ ४ ॥

सपिंडीकरणं कार्य वत्सरे वार्द्धवत्सरे ॥
त्रिमासे वा त्रिपक्षे वा मासि वा द्वादशेह्नि वा ॥६॥
सपिंडीकर्म वर्षदिनमें अथवा छह महीनों में करना तीन महीनों में अथवा डेढमहीनों में वा दाहकर्मसे बारहवें दिन सपिंडीकर्म करना शुभ है ॥ ५ ॥

एष्वेव कालेष्वेतानि ह्रोकोद्दिष्टानि षोडश ॥
कृत्तिकासु च नंदायां भृगोर्वारे त्रिजन्मसु ॥ ६ ॥
इनही समयमें एकद्दिष्ट षोडशश्राद्ध करने चाहिये और कृत्तिका नक्षत्र और नंदातिथि शुक्रवार, त्रिपुष्करयोग इन्होंमें ॥ ६ ॥

पिंडदानं न कर्तव्यं कुलक्षयकरं यतः ॥
त्रिजन्मसु त्रिपाद्भेषु नंदायां भृगुवासरे ॥ ७ ॥
पिंडदान नहीं करना चाहिये क्योंकि पिंडदान करनेवाले कुलका नाश होता है त्रिपुष्करयोग तीनचरणोंवाला नक्षत्र जैसे पुनर्वसु ( पादत्रयं मिथुनतो-तहां पुनर्वसु तीनचरणोंवाला जानना ) और शुक्रवार ॥ ७ ॥

धातृपौष्णभयोः श्राद्धं न कर्तव्यं कुलक्षयात् ॥
नंदासु च भृगोर्वारे कृत्तिकायां त्रिजन्मसु ॥ ८ ॥
रोहिण्यां च मघायां च कुर्यान्नापरपाक्षिकम् ॥
सकृन्महालये काम्यं न्यूनश्राद्धेऽखिलेषु च ॥ ९ ॥
रोहिणी रेवती, इनविषे श्राद्ध नहीं करना चाहिये श्राद्ध करनेसे कुलका नाश होता है । और नंदातिथि शुक्रवार कृत्तिका नक्षत्र, त्रिपुष्करयोग, रोहिणी व मघा नक्षत्रमें सापडी आदि श्राद्ध नहीं करना चाहिये परंतु महालय श्राद्ध अर्थात् कनागतोंमें पार्वण आद्ध तो करदेना चाहिये अन्यसम्पूर्ण न्यूनद्धोंमें ॥ ८ ॥ ९ ॥

अतीतविषये चैव ह्येतत्सर्वे विचिंतयेत् ॥
नभस्यमासे संप्राप्ते कृष्णपक्षे समागते ॥ १० ॥
साधरण कामनावाले श्राद्धोंमें यह पूर्वोक्त मुहूर्त्तविषय विचार लेना चाहिये भाद्रपद महीनेमें कृष्णपक्षमें ॥ १० ॥

तत्र श्राद्धं प्रकुर्वीत सकृद्धा चेदशक्तिमान् ॥
विशिष्टदिवसे कर्तुश्चंद्रताराबलान्विते ॥ ११ ॥
एकवार तो निर्धन पुरुषने भी श्राद्ध करना चाहिये और अन्य शुभमुहूर्त के दिन करनेवालेको चंद्रमा तथा ताराका पूर्ण बल होय तब श्राद्ध करना चाहिये ॥ ११ ॥

नंदाश्च तिथयो निंद्या भूतायां शस्त्रघातिनाम् ॥
द्वितीया मध्यमा ज्ञेया तृतीया भरणीयुता ॥ १२ ॥
नंदातिथियोंको वर्जदेवे और चतुर्दशीका शस्त्रघातसे मरने वालोंका श्राद्ध करना चाहिये । द्वितीया मध्यम तिथि है और भरणीनक्षत्र युक्त तृतीया ॥ १२ ॥

पूज्या यदि चतुर्थी वा श्रीप्रदा पितृकर्मणि ॥
आनंदयोगः पंचम्या याम्यर्क्षस्थे निशाकरे ॥ १३ ॥
अथवा चतुर्थी श्रेष्ठ है पितृकर्ममें लक्ष्मीदेनेवाली है पंचमीको चंद्रमा भरणीनक्षत्रपर हो तो पितृकर्ममें आनंदयोग जानना ॥ १३ ॥

भोजयेद्यः पितृस्तत्र पुत्रपौत्रधनं लभेत् ॥
यशस्करी सप्तमी स्यादष्टमी भोगदायिनी ॥ १४ ॥
तहां जो पुरुष पितरोंको भोजन कराताहै वह पुत्र पौत्र व धनको प्राप्त होता है सप्तमी तिथि श्राद्धकर्ममें यशकरनेवाली है और अष्टमी भोगदेनेवाली है ॥ १४ ॥

श्राद्धकर्तुश्च नवमी सर्वकामफलप्रदा ॥
सूर्ये कन्यागते चंद्रे रौद्रनक्षत्रगे यदा ॥ १५ ॥
और नवमी तिथि श्राद्धकरनेवालेके संपूर्ण मनोरथको सिद्धकरतीहै कन्याराशिपर सूर्य हो तब चंद्रमा आर्द्रानक्षत्रपर आवे उसदिन ॥ १५ ॥

सप्तम्यां च तथाष्टम्यां नवम्यां च तिथौ तथा ॥
योगोऽयं पितृकल्याणः पितृन्यस्मिन्प्रपूजयेत् ॥ १६ ॥
सप्तमी, अष्टमी, नवमी तिथि होय तो यह पितृकल्याणनामक योग कहा है इस योगविषे पितरोंका पूजन करना चाहिये ॥ १६ ॥

इह संपदमाप्नोति पश्चात्स्वर्गे ह्यवाप्यते ॥
दशम्यां पुष्यनक्षत्रे सुयोगोऽमृतसंज्ञकः ॥ १७ ॥
इमपूर्वोक्त योगमें पितरोंका पूजन करनेवाला मनुष्य इस लोकमें संपत्ति ( लक्ष्मी ) को प्राप्त होताहै और परलोकमें स्वर्गको प्राप्त होताहै। दशमी तिथिको पुष्यनक्षत्र आजाये तो सुंदर अमृतसंज्ञक योग होताहै ॥ १७ ॥

अर्चयेद्यः पितृस्तत्र नित्यं तृप्तास्तु तस्य ते ॥
सर्वसंपत्प्रदाःकर्तुर्द्रादशी तिथिरुत्तमा ॥ १८ ॥
इस योगमें जो पितरोंका पूजन करताहै उसके पितर नित्य तृप्त रहतेहैं । और कर्त्ता यजमानको संपूर्ण संपत्ति देनेवाली उत्तम द्वादशी तिथि कही है ॥ १८ ॥

त्रयोदश्यां चतुर्दश्यां हानिर्धनकलत्रयोः ॥
अनंतपुण्यफलदा गजच्छाया त्रयोदशी ॥ १९ ॥
त्रयोदशी वा चतुर्दशीको श्राद्ध करे तो धन स्त्रीकी हानि हो परंतु गजच्छाया योगवाली त्रयोदशी अनंत पुण्यफल देनेवाली है ॥ १९ ॥

श्राद्धकर्मण्यमावास्या पक्षश्राद्धफलप्रदा ॥ २० ॥
श्राद्धकर्ममें अमावस्या तिथि पक्षका फल देती है अर्थात् १५ दिनतक श्राद्ध करनेका पुण्य होता है ॥ २० ॥

पौष्णद्वये पुष्यचतुष्टये च हस्तत्रये मैत्रचतुष्टये च ॥
सौम्यद्वये च श्रवणत्रये च श्राद्धप्रदाता बहुपुत्रवान्स्यात् ॥ २१ ॥
और रेवती, अश्विनी, पुष्य, आदि चार नक्षत्र हस्त आदि ३ नक्षत्र अनुराधा आदि चार नक्षत्र, और मृगशिर आदि दो नक्षत्र श्रवण आदि ३ नक्षत्र इनमें श्राद्ध करनेवाला जन बहुत पुत्रोंबाला होताहै अर्थात् इन नक्षत्रोंके दिन श्राद्धकरना श्रेष्ठ है ॥ २१ ॥