नारदसंहिता अध्याय-4
द्वीभा ऊर्जादिमासास्स्युः पंचांत्यैकादशस्त्रिभाः ॥
यद्धिष्ण्याभ्युदितो जीवस्तन्नक्षत्राह्रवत्सरः ॥१॥
कार्तिक आदि मास दो २ नक्षत्रोंसे होते हैं और पांचव बारहवाँ ग्यारहवाँ ये महीने तीन २ नक्षत्रोंसे होते हैं जिस नक्षत्रपर बृहस्पति उदय हो उसही नामका वर्ष होता है इसका भावार्थ यह है कि, कृत्तिका आदि दो दो नक्षत्रकरके कार्तिक आदि वर्ष होते हैं पाचवाँ ग्यारहवाँ बारहवाँ ये वर्ष तीन २ नक्षत्रोंकरके होते हैं जैसे कि, कृत्तिका वा रोहिणीपर स्थित बृहस्पति उदय हो उस वर्षको कार्तिक कहते हैं, मृगशिर आर्दामें मार्गशिर वर्ष, पुनर्वसु पुष्यमें पौष, आश्लेषा मघामें माघ, पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्तमें फाल्गुन, चित्रा स्वाविमें चैत्र, विशाखा अनुराधामें वैशाख, ज्येष्ठ मूलमें ज्येष्ठ, पूर्वाषाढा उत्तराषाढामें आषाढ, श्रवण, धनिष्ठामें श्रवण, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपदमें भाद्रपद, रेवती अश्विनी भरणीमें स्थित बृहस्पति उदय हो वह वर्षमें आश्विन कहाता है ॥१॥
पीडा स्यात्कार्तिके वर्षे रथगोग्न्युपजीविनाम् ॥
क्षुच्छस्राग्निभयं वृद्धिः पुष्पकौसुंभजीविनाम् ॥२॥
इस प्रकार कार्तिक वर्ष में बृहस्पति उदय हो तो रथ तथा गौ आदि पशुओंसे आजीविका करनेवाले, अग्निसे आजीविका करनेवाले, हलवाई आदि पुष्प वा कसुंभा आदिसे आजीविका करनेवाले इन्होंको पीडा हो और दुर्भिक्ष, युद्ध, अग्निभय हो ॥२॥
अनावृष्टिः सौम्यवर्षे मृगाशुशलभांडजैः ॥
सर्वसस्यवधो व्याधिर्वैरं राज्ञां परस्परम् ॥३॥
मार्गशिर वर्षमें वर्षा नहीं हो तो, मृग, मूसा, टीडी, तोते आदि पक्षी इन्होंसे खेतीका नाश हो संपूर्ण प्रजामें बीमारी राजाओंका परस्पर वैर होवे ॥ ३ ॥
निवृत्तवैरा क्षितिपा जगदानंदकारकाः ॥
पुष्टिकर्मरताः सर्वे पौषेब्देध्वरतत्पराः ॥४॥
पौषसंज्ञक वर्षमें राजाओंमें परस्पर मित्रता प्रजामें आनंद संपूर्ण मनुष्य सुखी तथा यज्ञकरनेमें तत्पर रहैं ॥४॥
माघेऽब्दै सततं सर्वे पितृपूजनतत्पराः ॥
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमता ॥५॥
माघ वर्षमें निरंतर सब मनुष्य पितरोंका पूजन करनेमें तत्पर रहें । सुभिक्ष हो क्षेम आरोग्य हो किसान लोगोंके मनके माफिक वर्षा होय ॥ ५ ॥
चौराश्च प्रबलास्त्रीणां दौर्भाग्यं स्वजनाः खलाः ॥
क्वचिदृष्टिः क्वचित्सस्यं क्वचिदृद्धिश्च फाल्गुने ॥६॥
फाल्गुन नामक वर्षमें चोर प्रबल हो । स्त्रियोंको दुःख स्वजनों में दुष्टता वर्षा कहीं २ हो खेती थोड़ी निपजे ॥६॥
चैत्रैब्दे मध्यमा वृष्टिरुत्तमान्नं सुदुर्लभम् ॥
सस्यार्घवृष्टयः स्वल्पा राजानः क्षेमकारिणः ॥७॥
चैत्रनामक वर्षमें मध्यम वर्षा हो उत्तम अन्न महंगा हो वर्षा थोडी हो राजाओंमें क्षेमकुशल रहे ॥७॥
वैशाखे धर्मनिरता राजानः सप्रजा भृशम् ॥
निष्पत्तिः सर्वसस्यानामध्वरोद्युक्तचेतसः ॥८॥
वैशाख वर्ष में राजालोग धर्ममें तत्पर रहें प्रजामें धर्मकी वृद्धि संपूर्ण खेतियाँ अच्छी निपजें सबके मनका भय निवृत्त हो ॥८॥
वृक्षगुल्मलतादीनां क्षेमं सस्यविनाशनम् ॥
ज्येष्ठेब्दे धर्मतत्त्वज्ञाः सन्नृपाः पीडिताः परैः ॥९॥
ज्येष्ठ वर्ष में वृक्ष गुच्छ बेल आदिक तथा खेतियोंका नाश हे धर्मतत्त्वको जाननेवाले राजालोग शत्रुओंसे पीडित होवें ॥९॥
क्वचिदृष्टिः क्वचित्सत्यं न तु सस्य क्वचित्कचित् ॥
आषाढेब्दे क्षितीशाः स्युरन्योन्यजयकाक्षिणः ॥१०॥
आषाढ वर्ष में राजालोग आपसमें युद्धकी इच्छा करें कहीं वर्षा हो कहीं खेती हो कहीं बिलकुल खेती नहीं हो ॥१०॥
अनेकसस्यसंपूर्णा सुरार्चनसमाकुला ॥
पापपाखंडहंत्री भूः श्रावणेब्दे विराजते ॥११॥
श्रावणनामक वर्षमें अनेक प्रकारकी खेतियोंसे शोभित तथा देवताओंके पूजनसे समाकुल पाप पाखंडरहित पृथ्वी होवे ॥११॥
पूर्वे तु सस्यसंपूर्तिनशं यात्यपरं तु यत् ॥
मध्यवृष्टिर्महत्सस्यं नृपाणां समरं महत् ॥१२॥
अब्दे भाद्रपदे लोके क्षेमाक्षेमं क्वचित्क्वचित् ॥
धनधान्यसमृद्धिश्च सुभिक्षमतिवृष्टयः ॥१३॥
भाद्रपद वर्षमें पहिली खेती ( सामणू ) अच्छी हो और पिछली खेती ( साढू ) नष्ट हो मध्यम वर्षा खेती अच्छी राजाओंका महान युद्ध हो और कहीं कुशल कहीं दुःख धन धान्यकी वृद्धि अत्यंत वर्षा यह फल होता है ॥१२-१३॥
सुवृष्टिः सर्वसस्यानि फलितानि भवंति च ॥
भवंत्याश्वयुजे वर्षे संतुष्टाः सर्वजंतवः ॥१४॥
आश्विननामक वर्ष में सुन्दर वर्षा संपूर्ण खेतियोंकी उत्पत्ति फल अच्छा सब प्राणी सुखी यह फल होता है ॥१४॥
सौम्यभागे चरन् भानां क्षेमारोग्यसुभिक्षकृत् ॥
विपरीतं गुरोर्याम्ये मध्ये च प्रतिमध्यमम् ॥१५॥
बृहस्पति अपने योगताराके उत्तरकी तरफ होकर जाय तो प्रजामें क्षेम आरोग्य सुभिक्ष हो दक्षिणकी तरफ गमन करे तो इससे विपरीत फल हो मध्यमें रहे तो मध्यम फल हो ॥१५॥
पीताग्निश्यामहरितरक्तवर्णोगिराः क्रमात् ॥
व्याध्यग्निरणचौरास्त्रभयकृत्प्राणिनां तदा ॥१६॥
बृहस्पतिका तारा पीला, अग्नि समान, श्याम, हरित, लालवर्ण होय तो यथाकमसे प्रजामें रोग, अग्निभय, युद्ध, चोर, शस्त्रभय होता है ॥१६॥
अनावृष्टिर्धूम्रनिभः करोति सुरपूजितः ॥
दिवा दृष्टो नृपवधस्त्वथवा राज्यनाशनम् ॥१७॥
धूमांसरीखा वर्ण होय तो वर्षा नहीं हो, दिनमें दर्शन होय तो राजाका नाश हो अथवा राज्य नष्टहो ॥१७॥
संवत्सरशरीरः स्यात् कृत्तिकारोहिणी उभे ॥
नाभिस्त्वाषाढद्वितयमार्द्रा हृत्कुसुमं मघा ॥१८॥
कृत्तिका रोहिणी ये दो नक्षत्र संवत्सरका शरीर हैं, पूर्वाषाढा उत्तराषाढा नाभि है, आर्द्रा हृदय, मघा पुष्प है ॥१८॥
दुर्भिक्षाग्निमहद्द्भीतिः शरीरै क्रूरपीडिते ॥
नाभ्यां तु क्षुद्भयं पुष्पे सम्यक् मूलफलक्षयम् ॥१९॥
शरीरके नक्षत्र अर्थात् कृत्तिका रोहिणी ये नक्षत्र क्रूर ग्रहोंकरके पीडित हावे तो दुर्भिक्ष हो अग्निभय और महान् भय हो नाभिके नक्षत्र क्रूरग्रहों से पीड़ित हो तो दुर्भिक्ष हो पुष्प पीडित हो तो मूल फलोंका नाशहो ॥१९॥
हृदये सस्यनिधनं शुभं स्यात् पीडितः शुभैः ॥
मेषराशिगते जीवे त्वीतिर्मेषविनाशनम् ॥२०॥
हृदयके नक्षत्र पीडित होवें तो खेतीका नाशहो और इसी प्रकार ये सब अंग शुभ ग्रहों से पीडित होवें तो शुभ फल हो मेष राशिार बृहस्पति होय तो टीडीआदि ईतिभय तथा मेंढाओका नाश हो ॥२०॥
सस्यवृद्धिः प्रजारोग्यं वृष्टिः कर्षकसंमता ॥
वृषराशिगते जीवे शिशुस्त्रीपशुनाशनम् ॥
मध्या वृष्टिः सस्यहानिनृपाणां समरं महत् ॥२१॥
खेतीकी वृद्धि प्रजामें कुशल रहे किसान लोगोंके मनकी माफिक वर्षा हो वृषराशिपर बृहस्पति होय तो बालक स्त्री पशु इन्होंका नाशहो मध्यम वर्षा हो खेतीकी हानि राजाओंका महान युद्ध हो ॥२१॥
जनानां भीतिरीतिश्च नृपाणां दारुणं रणम् ॥
विप्रपीडा मध्यवृष्टिः सस्यवृद्धिस्तृतीयभे ॥२२॥
मिथुनराशिपर बृहस्पति होय तो मनुष्योंको भय हो खेतीमें टीडीआदिकोंका भय हो राजाका दारुण युद्धहो ब्राह्मणों को पीडा मध्यमवर्षा खेतीकी वृद्धि हो ॥२२॥
प्रभूतपयसो गावः सुजनाः सुखिनः स्त्रियः ॥
मदोद्धताः कार्किणीज्ये सस्यवृद्धियुता धरा ॥२३॥
कर्कराशिका बृहस्पति होय तो गौ बहुत दूध देवें श्रेष्ठजनोंको सुख स्त्री मदोन्मत्त सुखी होवे पृथ्वीपर खेताकी वृद्धि हो ॥२३॥
सिंहराशिगते जीवे निःस्वा भूः सुरसत्तमाः ॥
अतिवृष्टिर्व्यालभयं नृपा युद्धे लयं ययुः ॥२४॥
सिंहराशिपर बृहस्पति होव तो पृथ्वीपर ब्राह्मण धनहीन होवें पृथ्वीपर सर्पोका भय हो वर्षा बहुत हो राजालोग युद्धमें मृत्युको प्राप्त होवें ॥२४॥
जीवे कन्यागते वृष्टिः हृष्टा स्वस्थाः क्षितीश्वराः ॥
महोत्सुकाःक्षितिसुराः स्वस्था:स्युर्निखिला जनाः ॥२५॥
बृहस्पति कन्याराशिपर आवे तब वर्ष हो राजा प्रसन्न होवें ब्राह्मणलोग बहुत प्रसन्नरहें सब मनुष्य स्वस्थ (प्रसन्न ) रहैं ॥२५॥
जीवे तुलागते सर्वधातुमूलातुलं जगत् ॥
तथापि धात्री संपूर्णा धनधान्यसुवृष्टिभिः ॥२६॥
तुलाराशिपर बृहस्पति होय तो जगतमें धातु मूल आदि सब द्रव्य बहुतहों पृथ्वीपर धन धान्य सुंदर वर्षा होवे ॥२६॥
मदोद्धतानां भूपानां युद्धे जनपक्षयः ॥
अतुष्टा वृष्टिरत्युग्रं डामरे कीटगे गुरौ ॥२७॥
वृश्चिकराशिका बृहस्पति होय तो मदोन्मत्त राजाओंके युद्धमें देशका क्षयहो वर्षा खराब हो दारुण युद्धहो ॥२७॥
जीवे चापगते भीतिरीतिर्भूपभयं महत् ॥
अतुष्टा वृष्टिरत्युग्रा पीडा निःस्वाः क्षितीश्वराः ॥२८॥
धनराशिपर बृहस्पति होय तब प्रजामें भय टीडी आदि उपद्रवका भय राजाओंका महा भय हो वर्षा अच्छी नहीं हो अत्यंत पीडा हो राजालोग निर्धन होवें ॥२८॥
अशत्रवो जना धात्री पूर्णा सस्यार्घवृष्टिाभः ॥
वीतरोगभयाः सर्वे मकरस्थे सुरार्चिते ॥२९॥
मकरका बृहस्पति होय तब पृथ्वीपर सब मनुष्योंकी मित्रता रहे वर्षा बहुतहो खेती बहुत निपजे सबलोग कुशलपूर्वक रहैं ॥२९॥
सुरस्पर्द्धिजिना धात्री फलपुष्पार्घवृष्टिाभः ॥
संपूर्णा कुंभगे जीवे वीतरोगयुता धरा ॥३०॥
कुंभका बृहस्पति होय तब पृथ्वीपर मनुष्य देवताओंकी बराबर रहैं फल पुष्प वर्षा बहुत हो पृथ्वीपर क्षेम आरोग्य रहैं ॥३०॥
धान्यार्घवृष्टिसंपूर्ण क्वचिद्रोगः क्वचिद्भयम् ॥
न्यायमार्गरता भूपाः सर्वे मीनस्थिते गुरौ ॥३१॥
मीनका बृहस्पति होय तब अन्न सस्ता हो, वर्षा बहुतहो, कहीं रोगहो, कहीं भयहो, संपूर्ण राजा न्यायमार्गमें स्थित रहैं ॥३१॥