नारदसंहिता अध्याय-5
सौम्यमध्यमयाम्येषु मार्गेषु त्रित्रिवीथयः ॥
शुक्रस्य दस्रभायैश्च पर्यायश्च त्रिभिस्त्रिभिः ॥१॥
उत्तर, मध्यम,दक्षिण इन मार्गों में तीन२ वीथी कही हैं तहां अश्विनी आदि तीन २ नक्षत्रोंपर शुक्रके पर्याय करके यथाक्रमसे जानना ॥१॥
नागेभैरावताश्चैव वृषभो गोजरद्रवा: ॥
मृगाजदहनाख्यास्स्युर्याम्यांता वीथयो नव ॥२॥
जैसे कि नाग १ गज २ ऐरावत ३ वृषभ ४ गौ ५ जरद्रव ६ मृग ७ अज ८ दहन९ ये नव वीथी दक्षिणपंर्यत हैं ॥२॥
सौम्यमार्गेषु तिसृषु चरन वीथिषु भार्गवः ॥
धान्यार्घवृष्टिसस्यानां परिपूर्ति करोति सः ॥३॥
तहां उत्तरमार्गकी तीन वीथियों में विचरता हुआ शुक्र अन्न सस्ता वर्षा खेतीकी वृद्धि यह फल करता है ॥३॥
मध्यमार्गेषु तिसृषु करोत्येषां तु मध्यमः ॥
याम्यमार्गेषु तिसृषु तेषामेवाधमं फलम् ॥४॥
और मध्यमार्गकी तीन वीथियोमें विचरे तब सब वस्तु मध्यम फल होता है दक्षिणकी तीन वीथियोमें विचरे तब अन्नादिक सब वस्तु मँहिगी होवें ॥४॥
पूर्वस्यां दिशि जलदः शुभकृत् पितृपंचके ॥
स्वातित्रये पश्चिमायां सम्यक् शुक्रस्तथाविधः ॥५॥
मघा आदि पांच नक्षत्रोंपर प्राप्त हुआ शुक्र पूर्वदिशामें उदयहो वा अस्त होय वर्षा अच्छी हो स्वाति आदि तीन नक्षत्रोंपर प्राप्तहुआ पश्चिम दिशामें उदय वा अस्त हो तब भी ऐसा ही शुभफल जानना ॥५॥
विपरीते त्वनावृष्टिर्वरष्टिकृद्वधसंयुतः ॥
कृष्णाष्टम्यां चतुर्दश्याममावास्यां यदा सितः ॥६॥
उदयास्तमयं याति तदा जलमयी क्षितिः ॥
मिथः सप्तमराशिस्थौ पश्चात्प्राग्वीथिसंस्थितौ ॥७॥
गुरुशुक्रावनावृष्टिर्दुर्भिक्षमरणप्रदौ ॥
कुजज्ञजीवरविजाः शुक्रस्याग्रेसरा यदा ॥८॥
युद्धातिवायुदुर्भिक्षं जलनाशकरास्तदा ॥
कृष्णरक्तस्तनुः शुक्रो पवनानां विनाशकृत् ॥९॥
इससे विपरीत हो तो विपरीत फल जानना और बुधसहित शुक्र होय तब वर्षा होतीहै कृष्णपक्षकी अष्टमी चतुर्दशी तथा अमावास्याको शुक्र उदयहो अथवा अस्तहोय तो पृथ्वी पर वर्षा बहुतहो और बृहस्पति तथा शुक्र आपसमें सातवीं राशिपर स्थित होकर प्राग्वीथि और पश्चिमवीथि पर स्थितहोवें तो वर्षा नहीं हो दुर्भिक्षा तथा मरणहो और मंगल बुध बृहस्पति शनि ये शुक्र के आगे स्थितहोवें तो युद्धहो पवन बहुत चले दुभिक्ष होवे वर्षा नहीं हो शुक्रका तारा काला वर्ण तथा लाल वर्ण होय तो यवनों का नाशहो ॥६-९॥
श्रवणानिलहस्तार्द्राभरणीभाग्यभेषु च ॥
चरन्शनैश्चरो नृणां सुभिक्षारोग्यसस्यकृत् ॥१०॥
श्रवण, स्वाति, हस्त, आर्द्रा, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी इन नक्षत्रों पर विचरताहुआ शनि मनुष्योंको शुभ है सुभिक्ष कुशल करता है ॥१०॥
जलेशसार्पमाहेंद्रनक्षत्रेषु सुभिक्षकृत् ॥
क्षुच्छस्रावृष्टिदो मूलेहिर्बुन्ध्यान्त्यभयोर्भयम् ॥११॥
शतभिषा, आश्लेषा; ज्येष्ठा, इनपर होय तबनी सुभिक्षहो मूलपर होय तो दुर्भिक्ष, युद्ध, अनावृष्टि यह फलहो उत्तराभाद्रपदा तथा रेवती पर होय तब प्रजामें भयहो ॥११॥
मूर्ध्नि चैकं मुखे त्रीणि गुह्ये द्वे नयने द्वयम् ॥
हृदये पंच ऋक्षाणि वामहस्ते चतुष्टयम् ॥१२॥
जन्म के नक्षत्र से शनिके नक्षत्रतक गिनै फिर एक नक्षत्र मस्तकपर धेरै मुखपर तीन गुदापर दो नेत्रोंपर दो हृदयपर पांच और बायें हाथपर चार नक्षत्र रखे ॥१२॥
वामपादे तथा त्रीणि देया त्रीणि च दक्षिणे ॥
दक्षहस्ते च चत्वारि जन्मभाद्रविजः स्थितः ॥१३॥
बायें पैरपर तीन दहिने पैर में तीन दहिने हाथपर चार ऐसे जन्मके नक्षत्रसे शनिके नक्षत्रतक रखना ॥१३॥
रोगो लाभस्तथा हानिलार्भ: सौख्यं च बंधनम् ॥
आयासं चेष्टयात्रा च ह्यर्थलाभःक्रमात्फलम् ॥१४॥
इनका फल यथा क्रमसे रोग, लाज, हानि, लाभ, सौख्य, बंधन, दुःख, मनोवांछित यात्रा,द्रव्यप्राप्ति, यह फल जानना ॥१४॥
वक्रकृद्रविजस्येह तद्वक्रफलमीदृशम् ॥
करोत्येवं समः साम्यं शीघ्रगो व्युत्क्रमात्फलम् ॥१५॥
शनि वक्री होय तब अशुभ फल जानना मध्यम गतिपर रहे तब मध्यम फल जानना शीघ्रगति होय तो शुभ फल जानना ॥१५॥
अमृतास्वादनाद्राहुः शिरच्छन्नेपि सोऽमृतः ॥
विष्णुना तेन चक्रेण तथापि ग्रहतां गतः ॥१६॥
अमृत चषनेके कारणसे राहुका शिर विष्णु भगवानने सुदर्शनचक्रसे काटदिया था तौ भी अमृत पीकर अमर हो ग्रह होगया ॥१६॥
वरेण धातुरकैदू ग्रसते सर्वपर्वणि ॥
विक्षेपावननेर्वेशाद्राहुर्दूरं गतस्तयोः ॥१७॥
फिर ब्रह्मांजीके वरसे अमावस्या पूर्णिमा पर्वणीविषे सूर्यचंद्रमाको ग्रसताहे तहां विक्षेपहोनेसे और हीनवंश ( असुर ) होनेसे राहु तिन सूर्य चंद्रमासे दूर चलागया है ॥१७॥
षण्मासवृद्ध्या ग्रहणं शोधयेद्रविचंद्रयोः ॥
पर्वेशाःस्युस्तथा सप्त देवाः कल्पादितः क्रमात् ॥१८॥
छह २ महीनों के अंतरमें सूर्य चंद्रमाको ग्रहण होताहै तहां कल्पकी आदिसे इस मर्यादाके ग्रहणोंमें यथाक्रमसे सात देवता अधिपति होतेहैं ॥१८॥
ब्रह्मेद्विद्रधनाधीशवरुणाग्नियमाह्रयाः ॥
पशुसस्यद्विजातीनां वृद्धिर्ब्राह्रो च पर्वणि ॥१९॥
ब्रह्मा, इंद्र, चंद्रमा, कुबेर, वरुण, अग्नि,यम ये सात हैं तहां ब्राह्म संज्ञक ग्रहणमें अर्थात् जिसका अधिपति ब्रह्मा हो ऐसे ग्रहणमें पशु खेती, ब्राह्मण इन्होंकी वृद्धि हो ॥१९॥
तद्वदेव फलं सौम्ये बुधपीडा च पर्वणि ॥
विरोधो भूभुजां दुःखमैंद्रे सस्यविनाशनम् ॥२०॥
चंद्रसंज्ञक ग्रहण में भी यही फल हो परंतु पंडितजनोंको पीडाहो इंद्रसंज्ञक ग्रहणमें राजाओंका विरोध दुःख हो और खेतीका नाश हो ॥२०॥
अर्थेशानामर्थहानिः कौबेरे धान्यवर्धनम् ॥
नृपाणामशिवं क्षेममितरेषां तु वारुणे ॥२१॥
कुबेर संज्ञक ग्रहणमें साहूकारलोगोंके धनकी हानि हो और प्रजामें धान्यकी वृद्धि हो वरुणसंज्ञकग्रहणमें राजाओंको दुःख अन्य प्रजामें सुख हो ॥२१॥
प्रवर्षणं सस्यवृद्धिः क्षेमं होताशपर्वणि ॥
अनावृष्टिः सस्यहानिर्द्रुर्भिक्षं याम्यपर्वणि ॥२२॥
अग्निसंज्ञक ग्रहणमें वर्षा अच्छी हो खेतीकी वृद्धि हो प्रजामें कुशल हो याम्य पर्वमें वर्षा नहीं हो खेतीकी हानि दुर्भिक्ष हो ॥२२॥
वेलाहीने सस्यहानिनृपाणां दारुणं रणम् ॥
अतिवेले पुष्पहानिर्भयं सस्यविनाशनम् ॥२३॥
वेलाहीन अर्थात स्पष्टसमयसे पहले ही ग्रहण होने लगजाय तो खेतीकी हानि राजाओंका दारुण युद्ध हो अतिवेल उक्तसमयसे पीछे वा ज्यादै ग्रहण हो तो पुष्पोंकी हानि, भय, खेतीका नाश हो ॥२३॥
एकस्मिन्नेव मासे तुचंद्रार्कग्रहणं यदा ॥
विरोधं धरणीशानामर्थवृष्टिविनाशनम् ॥२४॥
जो एक ही महीनेमें चन्द्रमा सूर्य इन दोनोंका ग्रहण होय तो राजाओंका वैर हो धनका और वर्षाका नाश हो ॥२४॥
ग्रस्तोदितावस्तमितौ नृपधान्यविनाशदौ ॥
सर्वग्रस्ताविनेंदूभौ क्षुद्वाय्वग्निभयप्रदौ ॥२५॥
ग्रहण होताहुआ उदय हो अथवा अस्त होय तो राजाका तथा धान्यका नाशहो सूर्य चंद्रमा इन दोनों का सर्व ग्रहण होय तो दुर्भक्ष, वायु, अग्नि इन्होंका भय हो ॥२५॥
द्विजादींश्च क्रमाद्धति राहुदृष्टों दिगादितः ॥
दशैव ग्रासभेदाःस्युर्मोक्षभेदास्तथा दश ॥२६॥
पूर्वआदि दिशाओंमें क्रमसे जिसदिशामें ग्रास दीखे तहां ब्राह्मण आदि चारों वर्गोंको नष्ट करताहै जैसे पूर्व में ब्राह्मण,दक्षिण में राजा, इत्यादि ग्रासके दश भेदहैं और मोक्षके भी दश भेद है ॥२६॥
न शक्या लक्षितुं देवैः किं पुनः प्राकृतैर्जनैः ॥
आनीय खेटान सिद्धांतात्तेषां चार विचिंतयेत् ॥२७॥
वे सब भेद अच्छे प्रकार से तो देवताओं से भी नहीं देखेजातेहैं फिर साधारण मनुष्यों से क्या देखेजावेंगे सिद्धान्तशाखसे ग्रहों को स्पष्टकर तिनकर भेद विचारना चाहिये ॥२७॥
शुभाशुभाप्तेः कालस्य ग्रहचारो हि कारणम् ॥
तस्मादन्वेषणीयं तत्कालज्ञानाय धीमता ॥२८॥
समयकी शुभ अशुभ प्राति करने में ग्रहोंका चारही कारण है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यने कालज्ञानके वास्ते वह कारण देखलेना चाहिये ॥२८॥
उत्पातरूपाः केतूनामुदयास्तमया नृणाम् ॥
दिव्यंतरिक्षा भौमास्ते शुभाशुभफलप्रदाः ॥२९॥
केतुका उदय अस्त होना मनुष्योंको उत्पातरूप कहाहै सो स्वर्ग अंतरिक्ष भूमि इनमें शुभ अशुभ फलदायी उत्पात होने कहे हैं ॥२९॥
यज्ञध्वजास्त्रभवनरथवृक्षगजोपमाः ॥
स्तंभशूलगदाकारा अंतरिक्षाः प्रकीर्तिताः ॥३०॥
जैसे यज्ञध्वजा, अस्त्र, मंदिर, रथ, वृक्ष, हस्ती, शूल, स्तंभ, गदा, इनके आकार चिह्न किसीको आकाशमें दीखपड़े वह अंतरिक्ष उत्पात कहा है ॥३०॥
नक्षत्रसंस्थिता दिव्या भौमा ये भूमिसंस्थिताः ॥
एकोप्यमित्ररूपः स्याज्जंतूनामशुभाय वै ॥३१॥
नक्षत्रोंमें स्थित कोई उत्पात दीखें वे दिव्य उत्पात कहे हैं भूमिमें जो उत्पात दीखें वे भौम उत्पात कहे हैं इनमें से एकभी उत्पात शत्रुरूप है प्राणियोंको अशुभफलदायी जानना ॥३१॥
यावतो दिवसात्केतुर्दश्यते विविधात्मकः ॥
तावन्मसौः फलं वाच्यं मासैश्चैव तु वत्सराः ॥३२॥
जितनेदिनोंतक केतु ग्रह ( शिखावालातारा) उदय रहे उतने ही महीनोंतक फल जानना और जितने महीनोंतक दीखे उतनेही वर्षोंतक शुभ अशुभ फल जानना ॥३२॥
ये दिव्याः केतवस्तेपि शश्वत्तीव्रफलप्रदाः ॥
अंतरिक्षा मध्यफला भौमा मंदफलप्रदाः ॥३३॥
जो आकाशमें केतु दीखें वे निरंतर दारुण फल करते हैं और जो आकाशमें उत्पात दीखतेहैं वे मध्यम फलदायी हैं पृथ्वी उत्पात मंद फलदायी हैं ॥३३॥
ह्रस्वः स्निग्धः सुप्रसन्नः श्वेतकेतुः सुभिक्षकृत् ॥
क्षिप्रास्तमयं याति दीर्घकेतुः सुवृष्टिकृत् ॥३४॥
छोटासा चिकना स्वच्छ सफेद पूँछवाला ऐसा केतु शुभदायकहै। जो शीघ्रही छिपजाय ऐसा दीर्घ केतु भी शुभदायकहै ॥३४॥
१अनिष्टदो धूमकेतुः शक्रचापस्य सन्निभः ॥
द्वित्रिचतुःशूलरूपः स च राज्यांतकृत्तदा ॥३५॥
धूमासरीखा तथा इंद्रधनुषके वर्ण सरीखा केतु अशुभ है और दो, तीन, चार शूलोंका रूप होय तो राज्यको नष्ट करै ॥३५॥
मणिहारसुवर्णाभा दीप्तिमंतोर्कसूनवः ॥
केतवोभ्युदिताः पूर्वापरयोर्न्रपधातकाः ॥३६॥
मणि, हार, सुवर्ण, इन सरीखी कांतिवाले केतु उदय होयें तो पहिले और पिछले राजाओंको नष्ट करें वे सूर्यके पुत्र कहलाते हैं ॥३६॥
बंधूकबिंबक्षतजशुकतुंडाग्निसन्निभाः ॥
हुताशनप्रदास्तेपि केतवश्वाग्निसूनवः ॥३७॥
बंधूक याने दुपहरिया, नाम फूल सरीखे तथा लालवर्ण तथा तोता सरीखे हरेवर्ण, अग्नि समान वर्ण ये केतु अग्निभय करते हैं ये अग्निके पुत्र कहेहैं ॥३७॥
व्याधिप्रदा मृत्युसुता वक्रास्ते कृष्णकेतवः ॥
भूसुता जलतैलाभा वर्तुलाः क्षुद्भयप्रदाः ॥३८॥
टेढे आकारवाले कालेवर्ण केतु मृत्युके पुत्र हैं वे रोगदायक हैं जलके समान तथा तेल समान कांतिवाले गोलवर्ण केतु भूमिके पुत्र कहे हैं वे दुर्भिक्षका भय करते हैं ॥३८॥
क्षेमः सुभिक्षदाः श्वेताः केतवः सोमसूनवः ॥
पितामहात्मजः केतुः त्रिवर्णास्त्रिशिखान्विताः ॥३९॥
सफेद वर्णवाले केतु चन्द्रमाके पुत्र कहे हैं वे क्षेम कुशल और सुभिक्ष करनेवाले हैं ब्रह्माका पुत्र केतु तीन वर्णेवाला तथा तीन शिवाओंवाला कहा है ॥३९॥
ब्रह्मदंडाह्रयः केतुः प्रजानामंतकृत्सदा ॥
ऐशान्यां भार्गवसुताः श्वेतरूपास्त्वनिष्टदाः ॥४०॥
वह ब्रह्मदण्ड नामक केतु है सदा प्रजाको नष्ट करनेवाला है। सफेद रूपवाले केतु ईशान दिशामें उदय होते हैं वे शुक्रके पुत्र अशुभफलदायी हैं ॥४०॥
अनिष्टदाः पंगुसुताः द्विशिखाः कनकाह्रयाः ।
विकचाख्या गुरुसुता नेष्टा याम्यस्थिता अपि ॥४१॥
दो शिखाओंवाले सुवर्णसरीखे वर्णवाले केतु शनिके पुत्र हैं वे अशुभ कहे हैं। विकच नामक केतु दक्षिण दिशामें उदय होते हैं। वे बृहस्पतिके पुत्र अशुभ हैं ॥४१॥
सूक्ष्माः शुक्लाः बुधसुता घोराञ्चौरभयप्रदाः ॥
कुजात्मजाः कुंकुमाख्या रक्ताः शूलास्त्वनिष्टदाः ॥४२॥
सूक्ष्मरूप, श्वेतवर्ण, केतु बुधके पुत्र हैं वे घोर हैं चोरोंका भय करते हैं। लाल वर्णवाले कुंकुम नामक केतु मंगलके पुत्र कहे हैं वे अशुभ फलदायक हैं ॥४२॥
अग्निजा विश्वरूपाख्या अग्निवर्णाः शुभप्रदाः ॥
अरुणाः श्यामलाकाराः पापपुत्राश्च पापदाः ॥४३॥
विश्वरूप नामक केतु अग्निके पुत्रहैं वे अग्निसमान वर्णवाले शुभदायक हैं। लाल तथा श्यामवर्ण केतु पापके पुत्र हैं वे अशुभ फलदायक हैं ॥४३॥
शुक्रजा ऋक्षसदृशाः केतवः शुभदायकाः ॥
कंकाख्यव्राह्मजाः श्वेताः कष्टा वंशलतोपमाः ॥४४॥
नक्षत्र समान आकार वाले साधारण तारासमान केतु शुक्रके पुत्र शुभदायक हैं। कंकनामक श्वेतवर्ण केतु बांस तथा लतासमान आकार उदय होते हैं वे कष्टदायक कहे हैं ॥४४॥
कबंधाख्याः कालसुता भस्मरूपास्त्वनिष्टदाः ॥
विधिपुत्राह्रयाः शुक्लाः केतवो नेष्टदायकाः ॥४५॥
कबंधनामक कालके पुत्र हैं वे भस्मसमान वर्णवाले अशुभ कहे हैं और सफेद वर्ण केतु ब्रह्माके पुत्र हैं वे शुभदायक नहीं हैं ॥४५॥
कृत्तिकासु समुद्भुतो धूमकेतुः प्रजांतकृत् ॥
प्रासादशैलवृक्षेषु जातो राज्ञां विनाशकृत् ॥४६॥
कृत्तिका नक्षत्रोंके पास केतु उदय होय तो प्रजाका नाशकरे दैवमंदिर पर्वत बड़ावृक्ष इनके ऊपर केतु उदय हो तो राजाओंका नाश करे ॥४६॥
सुभिक्षकृत्कुमुदाख्यः केतुः कुमुदसन्निभः ॥
आदर्तकेतुः शुभदः श्वेतश्चावर्तसन्निभः ॥४७॥
कुमुद नामक केतु कुमोदिनी पुष्पसरीखा होता है वह सुभिक्ष फलदायक है भौंहरीदार सफेद केतु आवर्तसंज्ञक कहा है वह शुभदायक है ॥४७॥
संवर्तकेतुः संध्यायां त्रिशिरा नेष्टदारुणः ॥४८॥
सध्यासमयमें तीन शिखाओंवाला उदय हो वह संवर्त केतु कहा है सो दारुण अशुभ फलकारक है ॥४८॥