Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-7

तत्तन्मासैर्द्धादशभिस्तत्तदब्दो भवेत्ततः ॥
गुरुचारेण संभूताः षष्ट्यब्दाः प्रभवादयः ॥१॥

तिन बारह महीनोंकरके तिसी २ नामवाला वर्ष होताहै तहां बृहस्पतिकी राशिक्रमसे प्रभवआदि साठ संवत्सर होते हैं ॥1॥

प्रभवो विभवः शुक्लः प्रमोदोथ प्रजापतिः ॥
अंगिराः श्रीमुखो भावो युवा धाता तथेश्वरः ॥२॥
बहुधान्यः प्रमाथी च विक्रमो वृषसंज्ञकः ॥
चित्रभानुः सुभानुश्च तारणः पार्थिवो व्ययः ॥३॥
सर्वजित सर्वधारी च विरोधी विकृतः खरः ॥
नंदनो विजयश्चैवजयो मन्मथदुर्मुखौ ॥४॥
हेमलंबो विलंबश्च विकारीशार्वरी प्वः ॥
शुभकृच्छोभनः क्रोधी विश्वावसुपराभवौ ॥५॥
प्लवंगः कीलकः सौम्यः साधरणो विरोधकृत् ॥
पारधावी प्रमादी च आनंदो राक्षसोनलः ॥६॥
पिंगलः कालयुक्तश्च सिद्धार्थी रौद्रदुर्मती ॥
दुन्दुभी रुधिरोद्गारी रक्ताशी क्रोधनः क्षयः ॥७॥

प्रभव १ विभव २ शुक्ल ३ प्रमोद ४ प्रजापति ५ अंगिरा ६ श्रीमुख ७ भाव ८ युवा ९ धाता १० ईश्वर ११ बहुधान्य १२ प्रमाथी १३ विक्रम १४ वृष १५ चित्रभानु १६ सुभानु १७ तारण १८ पार्थिव १९ व्यय २० सर्वजित २१ सर्वधारी २२ विरोधी २३ विकृत २४ खर२५ नंदन २६ विजय २७ जय २८ मन्मथ २९ दुर्मुख ३० हमलंब ३१ विलंब ३२ विकारी ३३ शार्वरी ३४ प्लव ३५ शुभकृत् ३६ शोभन ३७ क्रोधी ३८ विश्वावसु ३२ पराभव ४० प्लवंग ४१ कीलक ४२ सौम्य ४३ साधारण ४४ विरोधकृत ४५ परिधावी ४६ प्रमादी ४७ आनंद ४८ राक्षस ४९ अनल ५० पिंगल ५३ कालयुक्त ५२ सिद्धार्थी ५३ रौद्र ५४ दुर्मति ५५ दुंदुभि ५६ रुधिरोद्वारी ५७ रक्ताक्षी ५८ क्रोधन ५९ क्षय ६० ऐसे ये ६० वर्ष हैं ॥२-७॥

युगं स्यात्यंचभिर्वषैर्युगानि द्वादशैव ते ॥
तेपामीशा: क्रमाजज्ञेया विष्णुपुर्देवपुरोहितः ॥८॥
पुरंदरो लोहितश्च त्वष्टाहिर्बुध्न्यसंज्ञकः ॥
पितरश्च ततो विश्वेशशीन्द्राग्नी भगोऽश्विनौ ॥९॥

पांचवर्षों का युग होता है फिर वे बारह युग होते हैं उन्होंके स्वामी कमसे विष्णु ३ बृहस्पति २ इंद्र ३ भौम ४ त्वष्टा ५ अहिर्बुध्न्य ६ पितर ७ विश्वेदेवा ८ चंद्रमा ९ इंद्राग्नि १० भग ११ अश्विनीकुमार १२ ये बारह देवता कहे हैं ॥८-९॥

युगस्य पंचवर्षशा वह्रीनेद्वब्जजेश्वराः ॥
तेषां फलानि प्रोच्यन्ते वत्सराणां पृथक्पृथक् ॥१०॥

तहां एक युगके पांचवर्षेश कहे हैं । अग्नि १ सूर्य २ चंद्रमा ३ ब्रह्मा ४ शिव ५ ये पांच जानने ॥१०॥

क्वचिदृद्धि: क्वचिद्धानि: क्वचिद्धति: क्वचिद्रद: ॥
तथापि मोदते लोकः प्रभवाब्दे विमत्सरः ॥११॥

उन साठ ६० संवत्सरोके फल कहते हैं । प्रभवनामक वर्षमें कहीं हानि हो कहीं वृद्धि हो कहीं भय हो कहीं रोग हो तो भी संपूर्ण प्रजा वैररहित होकर सुखी रहै ॥११॥

आन्वीक्षिकीसु निरताः सुप्रजाः स्युः क्षितीश्वराः ॥
कर्षकाभिमता वृष्टिर्विभवाब्दे विवैरिणः ॥१२॥

विभवनाम वर्ष में राजा प्रजा नीतिमें प्रवृत्त रहें किसानलोगोंके मनके अनुसार वर्षाहो लोगों में आपसमें प्रीति बढे ॥१२॥

सकलत्रात्मजाञ्छश्वल्लालयंत्यला जनाः ॥
अमरस्पार्द्धिनः शुक्ले वत्सरे विगतारयः ॥१३॥

शुक्ल नामक वर्ष में पुरुष निरंतर स्त्रीपुत्रोंका सुख भोगें और स्त्रियां पुत्रका सुख भोगें देवताओंके समान आनन्दवृद्धि हो प्रजामें शत्रुता न रहै ॥१३॥

अतिव्याध्यर्दिता लोकाः क्षितीशाः कलहोत्सुकाः ॥
प्रमेदाब्दे प्रमोदंते तथापि निखिला जनाः ॥१४॥

प्रमोदनाम वर्षमें लोगों में अत्यंत बीमारी रहै राजाओंमें कलह रहे तौभी संपूर्ण प्रजा सुख भोगें ॥१४॥

क्लैशः क्वचिन्न प्रेक्ष्यंते स्वजनानामनामयः ॥
एवं वै मोदते लोका प्रजापतिशरद्युतः ॥१५॥

प्रजापतिनामक वर्ष में प्रजामें दुःख कभी नहीं हो स्वजनोंके साथ मित्रता बढे रोग नहीं हो ऐसे प्रजामें आनद रहै ॥१५॥

अतिथिस्वजनैस्सार्द्धमन्नं बोभुज्यते मधु ॥
पेपीयंते कामिनीभिरंगिराऽब्दे निरंतरम् ॥१६॥

अंगिरा नामक वर्षमें अतिथिजन तथा स्वजन मनुष्योंके साथ अन्न मिष्ट पदार्थ भोजन किया जाय स्त्रियाँ अच्छे प्रकार से रमण करें ॥१६॥

श्रीमुखेब्दे दुग्धपूर्णा गोकर्णवलयेव भूः ॥
सस्यपीता वरावारि गावस्तुंगपयोधराः ॥१७॥

श्रीमुखनामक वर्षमें पृथ्वीपर दूधदेनेवाली गौओंकी वृद्धि हो खेतियों में वर्षा बहुत अच्छी हो गौओंके दूधकी वृद्धिहो ॥१७॥

स्युर्भुभुजो प्रभाभाजः प्रभंजनभुजः परे ॥
भावाब्दे भूसुरग्राम भ्रमणं लोभतः सदा ॥१८॥

भाव नामक वर्ष में राजाओंके तेजकी वृद्धि, शत्रुओंको दुःखहो ब्राह्मण लोगों के समूह लोभके कारण प्रजामें भ्रमते रहैं ॥१८॥

मुदाऽजस्रं रमयति युवाब्दे युवतीजनः ॥
युवानो निखिला लोकाः क्षितिश्चापि फलोत्कटा ॥१९॥

युवा नामक वर्ष में स्त्रियां निरंतर रमणकरें और पृथ्वीपर फल बहुत उत्पन्न होवे ॥१९॥

धात्री धात्रीव लोकानामभया च फलप्रदा ॥
धात्रब्दे धरणीनाथाः परस्परजयोत्सुकाः ॥२०॥

धाता नामक वर्ष में पृथ्वी लोगोंको माताके समान सुखदेनेवाली हो, भय नहींहो, पृथ्वीपर फल बहुत हों राजालोग आपसमें युद्ध करनेकी इच्छा करें ॥२०॥

ईश्वराब्दे स्थिराः क्ष्मेशा जगदानंदिनी मही ॥
अध्वरे निरता विप्राः स्वस्वमार्गे रताः परे ॥२१॥

ईश्वरनामक वर्षमें राजालोग सुखी रहैं पृथ्वीपर सब मनुष्य बहुत खुशी रहैं ब्राह्मण लोग यज्ञकरनेमें तत्पर रहैं अन्य लोग अपने अपने काममें तत्पर रहैं ॥२१॥

बहुधान्ये च बहुभिर्धन्यैः पूर्णाखिला धरा ॥
प्रभूतपयसो गावो राजानः स्युर्विवैरिणः ॥२२॥

बहुधान्य नामक वर्षमें पृथ्वी बहुत धान्यसे परिपूर्ण होवे गौवें बहुत दूध देवें राजाओं में वैर नहीं रहै ॥२२॥

बलाहका न मुञ्चति कुत्रचित्प्रचुरं पयः ॥
प्रमाथ्यब्दे वीतरागास्तथापि निखिला जनाः ॥२३॥

प्रमाथी नामक वर्षमें मेघ कहीं विशेष वर्षा नहीं करें मनुष्योंमें आपसमें वैर होवे ॥२३॥

प्रवहंति जलं स्वच्छ स्रवंति प्रचुरं पयः ॥
विक्रमाब्देखिलाः क्ष्मेशा विक्रमाक्रांतभूमयः ॥२४॥

विक्रम नामक वर्षमें वर्षा बहुत हो सम्पूर्ण राजा लोग सेनाओसे भरपूरहोके पृथ्वी दबानेका उद्योग करें ॥२४॥

विविधैरन्नपानाद्येदृष्टपुष्टांगचेतसः ॥
मदोन्मत्ताखिला लोका वृषाब्दे वृषसन्निभाः ॥२५॥

वृष नामक वर्षमें अन्नादिकों के प्रभाव से सब मनुष्य हृष्टपुष्टशरीरवाले मदोन्मत्त होकर वृष (बैल) समान पुष्ट रहैं ॥२५॥

विचित्रा वसुधा चित्रपुष्पवृष्टिफलादिभिः ॥
चित्रभानुशरद्येषा भाति चित्रांगना यथा ॥२६॥

चित्रभानु वर्ष में विचित्र पुष्प फलादिकांके प्रावसे यह पृथ्वं ऐसी विचित्र शोभित होवे कि जैसे चित्रांगना ( सुंदरीनारी) शोभित हो ॥२६॥

नन्दन्तीह जनाः सर्वे भमिर्भुरिफलान्विता ॥
सुभानुवत्सरे भूमिर्भीमभूपालविग्रहा ॥२७॥

सुभानु नामक वर्षमें पृथ्वी बहुत फलोंसे भरपूर हो सब मनुष्य आनंद करें राजालोगोंका युद्ध हो ॥२७॥

प्रतरत्युंडुपोपायैः सरितार्थाय संततम् ॥
तारणाब्दे त्वतुलिता अर्थवंतो हि जंतवः ॥२८॥

तारण नामक वर्ष में प्रयोजनकेवास्ते निरंतर नौकाके उपायोंकरके सब मनुष्य नदियोंसे पार गमन करें और बहुत धनका संचय करें ॥२८॥

पतन्ति करकोपेताः पयोधारा निरंतरम् ॥
पापादपेतमनसः पार्थिवाब्दे तु पार्थिवाः ॥२९॥

पार्थिव नामक वषम ओला सहित निरंतर वर्षा हो राजालेग अपने मनमें पापका चितवन न करें ॥२९॥

दीप्यते वसुधा वीरभटवारणवाजिाभः ॥
व्यपेतव्याधयः सर्वे व्ययाब्दे तु व्ययान्विताः ॥३०॥

ब्ययनाम वर्ष में शूरवीर हस्ती घोडे इन्होंसे पृथ्वी परिपूर्ण, प्रजामें बीमारी नहीं हो सब मनुष्य द्रव्यको खर्च बहुत करें ॥३०॥

गीर्वाणपूर्वगीर्वाणान गर्वनिर्भरचेतसः ॥
सर्वाजद्वत्सरे सर्व उर्वीशान हंति भूमिपान् ॥३१॥

सर्वजित् नामक वर्षमें गर्व से भरपूर हुए संपूर्ण पृथ्वीके राजालोग देवता तथा दैत्यों को नष्ट करें अर्थात् पृथ्वीपर बहुत सुख बढे ॥३१॥

सर्वधारीवत्सरेस्मिन् जगदानंदिनी धरा ॥
प्रशांतवैरा राजानः प्रजापालनतत्पराः ॥३२॥

सर्वधारी नामक वर्ष में पृथ्वीपर सबजगह आनंद होवे राजालोग आपसमें वैरभाव नहीं करें अपनी २ प्रजापालनमें तत्पर रहैं ॥३२॥

विरोधं सततं कुर्वत्यन्योन्यं क्षितिपाः प्रजाः ॥
विरोधिवत्सरे भूमिर्भुरिवारिधरैर्वृता ॥३३॥

विरोधी नामक वर्ष में राजालोग आपसमें युद्ध करें पृथ्वीपर वर्षा बहुत हो ॥३३॥

विकृतिः प्रकृतिं याति प्रकृतिर्विकृति तथा ॥
तथापि मोदते लोकस्तस्मिन् विकृतवत्सरे ॥३४॥

विकृत नामक वर्ष में खराब नीच जन उत्तम पदवीको प्राप्तहोवे और अच्छे जन निरादरको प्राप्तहों परंतु सबलोग सुखी रहैं ॥३४॥

खराब्दे सततं सम्यग्बध्यन्ते पशवः प्रजाः ॥
राजानो विलयं यांति परस्परविरोधतः ॥३५॥

खर नामक वर्ष में संपूर्ण प्रजा तथा पशु बधनमें प्राप्त होवें राजालोग आपसमें युद्ध करके नष्टहोजायें ॥३५॥

आनंददा धराजस्र प्रजाभ्यः फलसंचयैः ॥
नंदनाब्दे स्वहानिः स्यात्कोशधान्यविनाशकृत् ॥३६॥

नंदन नामक वर्षः प्रजामें धान्य फल आदिकोंसे सब प्रजाको निरंतर आनंद रहै और सोना चांदी आदि धनकांव खजानाका नाश हो ॥३६॥

नश्यते वारिधाराभिः पूर्वकृष्यखिलं फलम् ॥
राजभिश्चापरं सर्व विजयाब्दे जयेप्सुभिः ॥३७॥

विजयनामक वर्षमें बहुत वर्षा होनेसे पहिली खेती ( सामणू ) का नाशहो और पिछली रखेतीके समय राजाओंके युद्धादिकका उपद्रव होवे ॥३७॥

शैलोद्यानवनारामफलैरतुलिता मही ॥
जेगीयते वेणुनादर्जयाब्दे च महाजलम् ॥३८॥

जय नामक वर्षमें पर्वत फुलवाड़ी वन बगीचा इन्होंमें सर्वत्र बहुत फलोंवाली पृथ्वी होवे और बहुत वर्षा होनेकी अत्यंत प्रशंसा होवे ॥३८॥

मन्मथाब्देखिला लोकास्तत्केलिपरलोलुयाः ॥
शालीक्षुयवगोधूमैर्नयनाभिनवा धरा ॥३९॥

मन्मथ नामक वर्षमें सब लोग काम क्रीडा करनेमें, तत्पर रहैं चावल आदि धान्य, ईख, जव, गेंहूँ इन्हों करके पृथ्वी बहुत मनोहर शोभित हो ॥३९॥

दुर्मुखाब्देग्निरोगाः स्युः प्रचुरान्नं तथा पयः ॥
राजानः सप्रजास्तुष्टा निःस्वाश्च द्विजसत्तमाः॥४०॥

दुर्मुख नामक वर्षमें अग्निभय तथा रोग हो अन्न बहुत हो दूधकी वृद्धि हो राजा प्रजामें आनंद रहे ब्राह्मण लोग दरिद्री होवें ॥४०॥

हेमलंबे नृपाः सर्वे परस्परविरोधिनः ॥
प्रजापींडात्वनर्घत्वं तथापि सुखिनो जनाः ॥४१॥

हेमलंब नामक वर्ष में सब राजालोग आपसमें वैरभाव करें प्रजामें पीडा अन्नादिकका भाव महँगा रहै तौ भी लोगों में सुख रहै ॥४१॥

विलंबवत्सरे राजविग्रहो भूरिवृष्टयः ॥
आतंकपीडिता लोकाः प्रभूतं चापरं फलम् ॥४२॥

विलंब नामक वर्ष में राजाओंका युद्ध हो वर्षा बहुत ही लोगोंमें रोगवृद्धि हो अन्य सब फल अच्छा हो ॥४२॥

विकारिणो विकार्यब्दे पित्तरोगादिभिर्नराः ॥
मेघो वर्षति संपूर्ण समुद्रवसनक्षितौ ॥४३॥

विकारी नामक वर्षमें मनुष्य पित्त आदि रोगोंसे पीडित होवें वर्षा बहुत हो पृथ्वीपर सर्वत्र जल फैल जावे ॥४३॥

शार्वरीवत्सरे सर्वसस्यवृद्धिरनुत्तमा ॥
चलिताचलसंकाशैः पयोदेरावृतं नभः ॥४४॥

शर्वरीनामक वर्षमें पृथ्वीपर सब खेतियोंकी बहुत अच्छी वृद्धि हो और चलित अचल ( पर्वत ) समान कांतिवाले मेघोंकरके आकाश आच्छादित रहै ॥४४॥

दीप्यते सततं भूपाः प्लवाब्दे प्लवगा जनाः ॥
राजते पृथिवी सर्वा सततं विविधत्सवैः ॥४५॥

प्लव नामक वर्षमें राजालोग निरंतर विराजमान होवें मनुष्य नौकामें स्थित हो गमन करें संपूर्ण पृथ्वी अनेक उत्सवों करके शोभित हो ॥४५॥

शुभकृद्धत्सरे सर्वसस्यानामतिवृद्धयः ॥
नृपाणाम स्नेहमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् ॥४६॥

शुभकृत् नामक वर्षमें संपूर्ण खेतियोंकी अत्यंत वृद्धि हो राजओंकी आपस में मित्रता बढे प्रजामें प्रीति बढे ॥४६॥

शोभूनाख्ये हायने तु शोभनं भूरि वर्तते ॥
नृपाश्चैवात्र निर्वैराः सर्वसम्पद्युता धरा ॥४७॥

शोभन नामक वर्ष में पृथ्वीपर बहुत शोभन हो, और राजा निर्वैरहों, पृथ्वी संपूर्ण संपत्से युक्तहो ॥४७॥

क्रोध्यब्दे सततं रोगाः सर्वसस्यसमृद्धयः॥
दंपत्यौवैरमन्योन्यं प्रजानां च परस्परम् ॥४८॥

क्रोधी नामक वर्षमें प्रजामें निरंतर रोग होवे और संपूर्ण खेतियोंकी वृद्धिहो स्त्रीपुरुषोंका आपसमें वैर हो ॥४८॥

शश्वद्विश्वावसावब्दे मध्यसस्यार्धवृष्टयः ॥
प्रचुरश्चौररोगाश्च नृपा लोभाभिभूतयः ॥४९॥

विश्वावसु नामक वर्षमें निरंतर मध्यम खेती उत्पन्न हों,मध्यम वर्षा तथा अन्नका भाव महंगा रहै रोग तथा चौरोकी वृद्धि हो राजालोग लोभी होवें ॥४९॥

पराभवाब्दे राजानः प्रामुवंति पराभवम् ॥
आमयः क्षुद्रधान्यानिप्रभूतानि सुवृष्टयः ॥५०॥

पराभवनाम वर्षमें राजा लोग तिरस्कारको मात्र होवें रोग होवे और मटरगोट आदि तुच्छ धान्यज्यादे निपजै वर्षाज्यादे हो ॥५०॥

प्लवंगाब्दे सस्यहानिश्चैौररोगदिता जनाः ॥
मध्यवृष्टिः क्षितीशानां विरोधं च परस्परम् ॥५१॥

प्लवंगनामक वर्षमें खेतीकी हानि चौरोंकी वृद्धि प्रजामें रोग मध्यमवर्षी राजाओंका अपसमें युद्ध होवे ॥५१॥

प्रचुराः पित्तरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् ।
कीलकाब्दे त्वीतिभयं प्रजाक्षोभः परस्परम् ॥५२॥

कीलक वर्षमें पित्तके रोग बहुत होवें मध्यम वर्षा हो सर्पोका भयहो टीडी आदिकोंका भयहो प्रजामें आपसमें वैर हो ॥५२॥

प्रचुराः शैत्यरोगाः स्युर्मध्या वृष्टिरहेर्भयम् ॥
सौम्याब्दे चैव सततं शतिवैरा:क्षितीश्वराः ॥५३॥

सौम्य वर्षमें राजालोग आपसमें निरंतर प्रसन्न रहें शरदीके रोग बहुत होवें वर्षा मध्यम हो सर्पोका भयहो ॥५३॥

साधारणेब्दे राजानः सुखिनो गतमत्सराः ॥
प्रजाश्च पशवः सर्वे वृष्टिः कर्षकसंमता ॥५४॥

साधारण नामक वषेमें राजा सुखी रहैं आपसमें वैरभाव नहीं करें प्रजामें आनंद पशुवृद्धि और किसान लोगोंके मनके माफिक वर्षा हो ॥५४॥

विरोधकृद्वत्सरे तु परस्परविरोधिनः ॥
राजानो मध्यमा वृष्टिः प्रजा स्वस्था निरंतरम् ॥५५॥

विरोधकत् नामक वर्ष में राजालोग आपसमें वैरभाव करें व मध्यम हो प्रजामें निरंतर आनंद रहै ॥५५॥

अनर्ध्यामयरोगेभ्यो भीतिरीतिर्निरंतरम् ॥
परिधावीवत्सरे तु नृणां वृष्टिस्तु मध्यमा ॥५६॥

परिधावी नामक वर्षमें अन्नादिकका भाव महँगा रोग टीडी आदि उपद्रवका निरंतर भथहो मध्यम वर्षांहो ॥५६॥

नृपसंक्षोभमत्युग्रं प्रजापीडा त्वनर्घता ॥
तथापि दुःखमाप्नोति प्रमादीवत्सरे जनः ॥५७॥

प्रमादी वर्ष में राजाओंका अत्यंत वैरभाव प्रजामें पीडा भाव महँगा हो सब जन दुःखको प्राप्त होवे ॥५७॥

आनंदवत्सरे सर्वजंतवः पशवः सदा ॥
आनंदयंति चान्योन्यमन्यथा तु क्वचित् क्वचित् ॥५८॥

आनंद नामक वर्षमें संपूर्ण जीव पशु आपसमें आनंद करें कहीं दुःख भी रहै ॥५८॥

प्रजायां मध्यमसुखं तदधीशाहवौन्वहम् ॥
निष्क्रिया राक्षसाब्दे तु राक्षसा इव जंतवः ॥५९॥

राक्षस नामक वर्षमें प्रजामें मध्यम सुख रहै राजाओंका हमेश युद्ध होवे सब जन राक्षसोंकी तरह क्रिया रहित होवें ॥५९॥

अनलाब्देऽनलभयं मध्यवृष्टिरनर्घता ।
नृपाः संक्षोभसंभूता भूरिभीकरभूमिपाः ॥६०॥

अंनल वर्षमें अग्निभय मध्यम वर्षा भाव महँगी राजाओंमें परस्पर बहुत भयंकर वैरभाव उत्पन्न हो ॥६०॥

पिंगलाब्दे तु सततं दिक्पूरितघनस्वनम् ॥
राजानः स्वभुजाक्रांता झुंजते क्ष्मामनुत्तमाम् ॥६१॥

पिंगल नामक वर्ष में निरंतर दिशाओंमें मेघवर्षनेका शब्द होताहै राजालोग अपनी भुजाके बलसे पृथ्वीको भोगें ॥६१॥

अतिवृष्टिः कालयुक्ते वत्सरे सुखिनो जनाः ॥
सततं सर्वसस्यानि संपूर्णाश्च तथा द्रुमाः ॥६२॥

कालयुक्त नामक वर्षमें वर्षा बहुत हो सब जन सुखी रहैं निरंतर संपूर्ण खेती निपजें और सब वृक्षोंके अच्छा फल लगे ॥६२॥

सिद्धार्थीवत्सरे भूपाश्चान्योन्य स्नेहकांक्षिणः ॥
संपूर्णसस्यां वसुधां दुदुहुर्गों यथा तथा ॥६३॥

तिद्धार्थी नामक वर्ष में राजालोग आपसमें मित्रता बढनेकी इच्छा करें और जैसे गौको दहते हैं ऐसे संपूर्ण खेतियों भरपूर हुई पृथ्वीका दोहन करें (भोगकरें ) ॥६३॥

अन्योन्यं नृपसंक्षोभं चौरव्याघ्रादिभिर्मयम् ॥
मध्यवृष्टिरनर्घत्वं रौद्राब्दे नैव गुर्जरे ॥६४॥

रौद्र नामक वर्ष में राजालोग आपसमें वैरभाव करें और चौर व्याघ्र आदिकोका भय हो मध्यम वर्षा हो अन्नादिकका भाव महँगा रहै परंतु गुर्जर ( गुजरात ) देशमें यह फल नहीं हो अर्थात् शुभफलहो ॥६४॥

दुर्मत्यब्दे दुर्मतयो भवंत्यखिलभूमिपाः ।।
तथापि सुखिनो लोकाः संग्रामे निर्जितारयः ॥६५॥

दुर्मति वर्ष में संपूर्ण राजालोगोंकी बुद्धि खराब रहै तोभी सब प्रजाके लोग युद्ध में शत्रुओंको जीतें और सुखी रहैं ॥६५॥

सर्वसस्यैश्च संपूर्ण धात्री दुंदुभिवत्सरे ॥
राजभिः पाल्यते पूर्वदेशेश्वरविनाशनम् ॥६५॥

दुदभि नामक वर्ष में पृथ्वी खेतियों से भरपूरहो राजालोग प्रजाकी पालना करें पूर्व देशका नाश हो ॥६५॥

आहवे निहताः सर्वे भूपा रोगैस्तथा जनाः॥
तथापि तत्र जीवंति रुधिरोद्गारिवत्सरे ॥६६॥

रुधिरोद्वारी नामक वर्षमें राजालोग युद्ध में मृत्युको प्राप्तहों और प्रजालोग बीमारीसे मरें कितेक लोग जीवते रहैं ॥६६॥

रक्ताक्षिवत्सरे सस्यवृद्धिवृष्टिरनुत्तमा ॥
प्रेक्षते सर्वदान्योन्यं राजानो रक्तलोचनाः॥६७॥

रक्ताक्षी नामक वर्षमें खेतीकी वृद्धिहो वर्षा बहुत अच्छी हो राजालोग सदा आपसमें क्रूर दृष्टिसे वैरभाव करें ॥६७॥

क्रोधनाब्दे मध्यवृष्टिः पूर्वसस्यं न तु क्वचित् ॥
संपूर्णमितरत्सस्यं सर्वे क्रोधपरा जनाः ॥६८॥

क्रोधन नामक वर्ष में मध्यम वर्षाहो पहली खेती ( सामणू) कहीं निपजे पिछली खेती अच्छी निपजे संपूर्ण जनक्रोधमें तत्पर रहैं ॥६८॥

कार्पासगुडतैलेक्षुमधुसस्यविनाशनम् ॥
क्षीयमाणाश्चापि नराः जीवंति क्षयवत्सरे ॥६९॥

क्षय नामक वर्षमें कपास गुड तेल ईख शहद खेती इन्होंका नाश हो क्षीण होते हुए मनुष्य जीवें ॥६९॥