Shree Naval Kishori

नारदसंहिता अध्याय-9

आद्यब्देशचमूनाथसस्यपानांबलाबलम् ॥
तत्कालग्रहचारं च सम्यग् ज्ञात्वा फलं वदेत् ॥१॥

प्रथम वर्षेश, सेनापति सस्यपति इन्होंका बलाबल विचारके तत्काल ग्रहोंका चार विचारके अच्छे प्रकारसे संवत्का फल कहै ॥१॥

सौम्यायनं मासषटकम मृगाद्यं भानुभुक्तितः ॥
अहः सुराणां तद्रात्रिः कर्काद्यं दक्षिणायनम् ॥२॥

मकर आदि छः राशियोंपर सूर्य रहै तबतक उत्तरायण कहता है वह देवताओंका दिन और कर्क आदि छह संक्रातियोंमें जो दक्षिणायन कहा है वह देवताओंकी रात्रि है ॥२॥

गृहप्रवेशवैवाहप्रतिष्ठा मौंजिबंधनम् ॥
यज्ञादिमंगलं कर्म कर्तव्यं चोत्तरायणे ॥
याम्यायनेऽशुभ कर्म मासप्राधान्यमेव च ॥३॥

गृह प्रवेश, विवाह, प्रतिष्ठा, मौंजीबंधन, यज्ञादि मैगल, ये कर्म उत्तरायण सूर्य हो तब करने चाहिये और दक्षिणायनमें अशुभ कर्म तथा मासप्रशान्य महीनाके योगमें होनेवाले कर्म करने चाहियें ॥३॥

क्रमाच्छिशिरवासंतग्रीष्माः स्युश्चोत्तरायणे।
वर्षा शरच्च हेमंत ऋतवो दक्षिणायने ॥४॥

उत्तरायण सूर्यमें क्रममसे शिशिर, वसंत, ग्रीष्म ये तीन ऋतु होती हैं, दक्षिणायनमें वर्षा शरद हेमंत ये ऋतु होती हैं ॥४॥

माधादिमासौ द्वौद्वौच ऋतवः शिशिरादयः ॥
चांद्रो दर्शावधिः सौरः संक्रांत्या सावनो दिनैः ॥५॥
त्रिशद्भिश्चंद्रभगणो मासो नाक्षत्रसंज्ञकः ॥
मधुश्च माधवः शुक्रः शुचिश्चापि नभाह्रयः ॥६॥

माध आदि दो २ महीने ये शिशिर आदि ऋतु यथाक्रसे जानने । चांद्रमास अमावस्याको समाप्त होता है सौरमास संक्रातिपर पूरा होता है सावनमास पूरे तीसदिनमें समाप्त होता है और नक्षत्रमास चंद्रमाके नक्षत्रोंका क्रमसे होताहै मधु १ माधव २ शुक्र ३ शुचि ४ नभ ५ ॥५-६॥

नभस्य इष ऊर्जश्च सहाख्यश्च सहस्यकः ॥
तपः स्तपस्यः क्रमशश्चैत्रादीनां तु संज्ञकाः ॥७॥

नभस्य, ६ इष ७ ऊर्ज ८ सह ९ सहस्यक १० तपा ११ तपस्य १२ ये बारह चैत्र आदि महीनोंके नाम जानने ॥७॥

यस्मिन्मासे पौर्णमासी येन धिष्ण्येन संयुता ॥
तन्नक्षत्राह्रयो मासः पौर्णमासी तथाह्रया ॥८॥

जिस महीनेमें जिस नक्षत्रसे युक्त पौर्णमासी होय उसी नक्षत्रके नामसे महीना होता है और उसी नामसे पूर्णमासी होतीहै जैसे चित्रानक्षत्र होनेसे चैत्रमास चैत्री पौर्णमासी विशाखा होने से वैशाखमास वैशाखी पौर्णमासी इत्यादि ॥८॥

तत्पक्षौ दैवषैत्राख्यौ शुक्लकृष्णैः च तावुभौ ॥
शुभाशुभे कर्मणि च प्रशस्तौ भवतः सदा ॥९॥

तिसके शुक्ल और कृष्णसे दो पक्ष दैव पैत्रनामसे प्रसिद्ध हैं शुभ अशुभ कर्ममें प्रशस्त कहे हैं अर्थात शुक्ल पक्षमें शुभकर्म शुभ हैं ॥९॥