- अध्याय-01 ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
- अध्याय-02 भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
- अध्याय-03 ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
- अध्याय-04 यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
- अध्याय-05 लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
- अध्याय-06 सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
- अध्याय-07 देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
- अध्याय-08 मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
- अध्याय-09 पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
- अध्याय-10 पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
- अध्याय-11 एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
- अध्याय-12 चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
- अध्याय-13 यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
- अध्याय-14 पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
- अध्याय-15 पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
- अध्याय-16 सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
- अध्याय-17 पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
- अध्याय-18 सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
- अध्याय-19 नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
- अध्याय-20 भीमद्वादशी व्रतका विधान
- अध्याय-21 आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
- अध्याय-22 तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
- अध्याय-23 सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
- अध्याय-24 मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
- अध्याय-25 ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
- अध्याय-26 श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
- अध्याय-27 महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
- अध्याय-28 दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
- अध्याय-29 श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
- अध्याय-30 भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
- अध्याय-31 मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
- अध्याय-32 तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
- अध्याय-33 पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
- अध्याय-34 गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
- अध्याय-35 उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
- अध्याय-36 अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
- अध्याय-37 ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
- अध्याय-38 द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
- अध्याय-39 पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
- अध्याय-40 पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
- अध्याय-41 तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
- अध्याय-42 पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
- अध्याय-43 रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
- अध्याय-44 तुलसी स्तोत्रका वर्णन
- अध्याय-45 श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
- अध्याय-46 गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
- अध्याय-47 संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
- अध्याय-48 भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
- अध्याय-49 भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
पद्यपुराण-1 सृष्टि खण्ड
अध्याय-01 ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
स्वच्छं चन्द्रावदातं करिकरमकरक्षोभसंजातफेनं
ब्रह्मोद्भूतिप्रसक्तैर्वतनियमपरैः सेवितं विप्रमुख्यैः
ॐकारालङ्कृतेन त्रिभुवनगुरुणा ब्रह्मणा दृष्टिपूतं
संभोगाभोगरम्यं जलमशुभहरं पौष्करं नः पुनातु ॥*
श्रीव्यासजीके शिष्य परम बुद्धिमान् लोमहर्षणजीने एकान्तमें बैठे हुए [अपने पुत्र] उग्रश्रवा नामक सूतसे कहा – “बेटा ! तुम ऋषियोंके आश्रमोंपर जाओ और उनके पूछनेपर सम्पूर्ण धर्मोंका वर्णन करो। तुमने मुझसे जो संक्षेपमें सुना है, वह उन्हें विस्तारपूर्वक सुनाओ। मैंने महर्षि वेदव्यासजीके मुखसे समस्त पुराणका ज्ञान प्राप्त किया है और वह सब तुम्हें बता दिया है; अतः अब मुनियोंके समक्ष तुम उसका विस्तारके साथ वर्णन करो। प्रयागमें कुछ महर्षियोंने, जो उत्तम कुलोंमें उत्पन्न हुए थे, साक्षात् भगवान्से प्रश्न किया था। वे [यज्ञ करनेके योग्य] किसी पावन प्रदेशको जानना चाहते थे। भगवान् नारायण ही सबके हितैषी हैं, वे धर्मानुष्ठानकी इच्छा रखनेवाले उन महर्षियोंके पूछनेपर बोले- ‘मुनिवरो! यह सामने जो चक्र दिखायी दे रहा है, इसकी कहीं तुलना नहीं है। इसकी नाभि सुन्दर और स्वरूप दिव्य है। यह सत्यकी ओर जानेवाला है। इसकी गति सुन्दर एवं कल्याणमयी है। तुमलोग सावधान होकर नियमपूर्वक इसके पीछे-पीछे जाओ। तुम्हें अपने लिये हितकारी स्थानकी प्राप्ति होगी। यह धर्ममय चक्र यहाँसे जा रहा है। जाते-जाते जिस स्थानपर इसकी नेमि जीर्ण-शीर्ण होकर गिर पड़े, उसीको पुण्यमय प्रदेश समझना।’उन सभी महर्षियोंसे ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और वह धर्म चक्र नैमिषारण्यके गंगावर्त नामक स्थानपर गिरा। तब ऋषियोंने निमि शीर्ण होनेके कारण उस स्थानका नाम ‘नैमिष’ रखा और नैमिषारण्यमें दीर्घकालतक चालू रहनेवाले यज्ञोंका अनुष्ठान आरम्भ कर दिया। वहीं तुम भी जाओ और ऋषियोंके पूछनेपर उनके धर्म-विषयक संशयोंका निवारण करो। “
तदनन्तर ज्ञानी उग्रश्रवा पिताकी आज्ञा मानकर उन मुनीश्वरोंके पास गये तथा उनके चरण पकड़कर हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया। सूतजी बड़े बुद्धिमान् थे,उन्होंने अपनी नम्रता और प्रणाम आदिके द्वारा महर्षियोंको सन्तुष्ट किया। वे यज्ञमें भाग लेनेवाले महर्षि भी सदस्यसहित बहुत प्रसन्न हुए तथा सबने एकत्रित होकर सूतजीका यथायोग्य आदर-सत्कार किया।
ऋषि बोले- देवताओंके समान तेजस्वी सूतजी ! आप कैसे और किस देशसे यहाँ आये हैं? अपने आनेका कारण बतलाइये।
सूतजीने कहा- महर्षियो! मेरे बुद्धिमान् पिता व्यास- शिष्य लोमहर्षणजीने मुझे यह आज्ञा दी है कि ‘तुम मुनियोंके पास जाकर उनकी सेवामें रहो और वे जो कुछ पूछें, उसे बताओ।’ आपलोग मेरे पूज्य हैं। बताइये, मैं कौन-सी कथा कहूँ? पुराण, इतिहास अथवा भिन्न-भिन्न प्रकारके धर्म- जो आज्ञा दीजिये, वही सुनाऊँ ।
सूतजीका यह मधुर वचन सुनकर वे श्रेष्ठ महर्षि बहुत प्रसन्न हुए। अत्यन्त विश्वसनीय, विद्वान् लोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवाको उपस्थित देख उनके हृदयमें पुराण सुननेकी इच्छा जाग्रत हुई। उस यज्ञमें यजमान थे महर्षि शौनक, जो सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ, मेधावी तथा [वेदके] विज्ञानमय आरण्यक भागके आचार्य थे। वे सब महर्षियोंके साथ श्रद्धाका आश्रय लेकर धर्म सुननेकी इच्छासे बोले शौनकने कहा- महाबुद्धिमान् सूतजी ! आपने इतिहास और पुराणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् व्यासजीकी भलीभाँति आराधना की है। उनकी पुराण विषयक श्रेष्ठ बुद्धिसे आपने अच्छी तरह लाभ उठाया है। महामते। यहाँ जो ये श्रेष्ठ ब्राह्मण विराजमान हैं, इनका मन पुराणोंमें लग रहा है। ये पुराण सुनना चाहते हैं। अतः आप इन्हें पुराण सुनानेकी ही कृपा करें। ये सभी श्रोता, जो यहाँ एकत्रित हुए हैं, बहुत ही श्रेष्ठ हैं। भिन्न-भिन्न गोत्रोंमें इनका जन्म हुआ है। ये वेदवादी ब्राह्मण अपने-अपने वंशका पौराणिक वर्णन सुनें। इस दीर्घकालीन यज्ञके पूर्ण आप मुनियोंको पुराण सुनाइये। महाप्राज्ञ। आप इन सब लोगोंसे पद्मपुराणकी कथा कहिये। पद्मकीउत्पत्ति कैसे हुई, उससे ब्रह्माजीका आविर्भाव किस प्रकार हुआ तथा कमलसे प्रकट हुए ब्रह्माजीने किस तरह जनाको सृष्टि की ये सब बातें इन्हें बताइये। उनके इस प्रकार पूछनेर लोमहर्षण-कुमार सूतजीने सुन्दर वाणीमें सूक्ष्म अर्थसे भरा हुआ न्याययुक्त वचन कहा—’महर्षियो! आपलोगोंने जो मुझे पुराण सुनानेकी आज्ञा दी है. इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है यह मुझपर आपका महान् अनुग्रह है। सम्पूर्ण धर्मोक पालनमें लगे रहनेवाले पुराणवेत्ता विद्वानोंने जिनकी भलीत व्याख्या की है उन पुराणोक्त विषयोंको मैंने जैसा सुना है, उसी रूपमें वह सब आपको सुनाऊँगा। सत्पुरुषोंकी दृष्टिमें सूत जातिका सनातन धर्म यही है कि वह देवताओं, ऋषियों तथा अमिततेजस्वी राजाओंकी वंश-परम्पराको धारण करे-उसे याद रखे तथा इतिहास और पुराणोंमें जिन ब्रह्मवादी महात्माओंका वर्णन किया गया है, उनकी स्तुति करे; क्योंकि जब बेनकुमार राजा पृथुका यज्ञ हो रहा था, उस समय सूत और मागधने पहले-पहल उन महाराजकी स्तुति ही की थी। उस स्तुतिसे सन्तुष्ट होकर महात्मा पृथुने उन दोनोंको वरदान दिया। वरदानमें उन्होंने सूतको सूत नामक देश और मागधको मगधका राज्य प्रदान किया था। क्षत्रियके वीर्य और ब्राह्मणीके गर्भसे जिसका जन्म होता है, वह सूत कहलाता है। ब्राह्मणोंने मुझे पुराण सुनानेका अधिकार दिया है। आपने धर्मका विचार करके ही मुझसे पुराणको बातें पूछी है इसलिये इस भूमण्डलमें जो सबसे उत्तम एवं ऋषियोंद्वारा सम्मानित पद्मपुराण है, उसकी कथा आरम्भ करता हूँ। श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी साक्षात् भगवान् नारायणके स्वरूप हैं। ये ब्रह्मवादी सर्वज्ञ सम्पूर्ण लोकों में पूजित तथा अत्यन्त तेजस्वी हैं। उन्होंसे प्रकट हुए पुराणोंका मैंने अपने पिताजीके पास रहकर अध्ययन किया है। पुराण सब शास्त्रोंके पहलेसे विद्यमान हैं। ब्रह्माजीने [कल्पके आदिमें] सबसे पहले पुराणोंका ही स्मरण किया था। पुराण त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और कामके साधक एवं परम पवित्र हैं। उनकी रचना सौ करोड़ श्लोकोंमें हुईहै। ? समयके अनुसार इतने बड़े पुराणोंका श्रवण और पठन असम्भव देखकर स्वयं भगवान् उनका संक्षेप करनेके लिये प्रत्येक द्वापरयुगमें व्यासरूपसे अवतार लेते हैं और पुराणोंको अठारह भागोंमें बाँटकर उन्हें चार लाख श्लोकोंमें सीमित कर देते हैं। पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही इस भूमण्डलमें प्रकाशित होता है। देवलोकोंमें आज भी सौ करोड़ श्लोकोंका विस्तृत पुराण मौजूद है।
अब मैं परम पवित्र पद्मपुराणका वर्णन आरम्भ करता हूँ। उसमें पाँच खण्ड और पचपन हजार श्लोक हैं। पद्मपुराणमें सबसे पहले सृष्टिखण्ड है। उसके बाद भूमिखण्ड आता है फिर स्वर्गखण्ड और उसके पश्चात्पातालखण्ड है । तदनन्तर परम उत्तम उत्तरखण्डका वर्णन आया है। इतना ही पद्मपुराण है । भगवान्की नाभिसे जो महान् पद्म (कमल) प्रकट हुआ था, जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, उसीके वृत्तान्तका आश्रय लेकर यह पुराण प्रकट हुआ है। इसलिये इसे पद्मपुराण कहते हैं। यह पुराण स्वभावसे ही निर्मल है, उसपर भी इसमें श्रीविष्णुभगवान्के माहात्म्यका वर्णन होनेसे इसकी निर्मलता और भी बढ़ गयी है। देवाधिदेव भगवान् विष्णुने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके प्रति जिसका उपदेश किया था तथा ब्रह्माजीने जिसे अपने पुत्र मरीचिको सुनाया था वही यह पद्मपुराण है। ब्रह्माजीने ही इसे इस जगत् में प्रचलित किया है।
अध्याय-02 भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
सूतजी कहते हैं— महर्षियो ! जो सृष्टिरूप मूल प्रकृतिके ज्ञाता तथा इन भावात्मक पदार्थोंके द्रष्टा हैं, जिन्होंने इस लोककी रचना की है, जो लोकतत्त्वके ज्ञाता तथा योगवेत्ता हैं, जिन्होंने योगका आश्रय लेकर सम्पूर्ण चराचर जीवोंकी सृष्टि की है और जो समस्त भूतों तथा अखिल विश्वके स्वामी हैं, उन सच्चिदानन्द परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। फिर ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, अन्य लोकपाल तथा सूर्यदेवको एकाग्रचित्तसे नमस्कार करके ब्रह्मस्वरूप वेदव्यासजीको प्रणाम करता हूँ। उन्होंसे इस पुराण विद्याको प्राप्त करके मैं आपके समक्ष प्रकाशित करता हूँ। जो नित्य सदसत्स्वरूप, अव्यक्त एवं सबका कारण है, वह ब्रह्म ही महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त विशाल ब्रह्माण्डकी सृष्टि करता है। यह विद्वानोंका निश्चित सिद्धान्त है। सबसे पहले हिरण्यमय (तेजोमय) अण्डमें ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ। वह अण्ड सब ओर जलसे घिरा है। जलके बाहर तेजका घेरा और तेजके बाहर वायुका आवरण है। वायु आकाशसे और आकाश भूतादि (तामस अहंकार) से घिरा है।अहंकारको महत्तत्त्वने घेर रखा है और महत्तत्त्व अव्यक्त – मूल प्रकृतिसे घिरा है। उक्त अण्डको ही सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिका आश्रय बताया गया है। इसके सिवा, इस पुराणमें नदियों और पर्वतोंकी उत्पत्तिका बारम्बार वर्णन आया है। मन्वन्तरों और कल्पोंका भी संक्षेपमें वर्णन है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महात्मा पुलस्त्यको इस पुराणका उपदेश दिया था। फिर पुलस्त्यने इसे गंगाद्वार (हरिद्वार)- में भीष्मजीको सुनाया था। इस पुराणका पठन, श्रवण तथा विशेषतः स्मरण धन, यश और आयुको बढ़ानेवाला एवं सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। जो द्विज अंगों और उपनिषदोंसहित चारों वेदोंका ज्ञान रखता है, उसकी अपेक्षा वह अधिक विद्वान् है जो केवल इस पुराणका ज्ञाता है। 2 इतिहास और पुराणोंके सहारे ही वेदकी व्याख्या करनी चाहिये; क्योंकि वेद अल्पज्ञ विद्वान्से यह सोचकर डरता रहता है कि कहीं यह मुझपर प्रहार न कर बैठे-अर्थका अनर्थ न कर बैठे। [तात्पर्य यह कि पुराणोंका अध्ययन किये बिना वेदार्थका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता ।] 3यह सुनकर ऋषियोंने सूतजीसे पूछा-‘मुने! भीष्मजी के साथ पुलस्त्य ऋषिका समागम कैसे हुआ ? पुलस्त्यमुनि तो ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। मनुष्योंको। उनका दर्शन होना दुर्लभ है। महाभाग ! भीष्मजीको जिस स्थानपर और जिस प्रकार पुलस्त्यजीका दर्शन हुआ, वह सब हमें बतलाइये।”
सूतजीने कहा- महात्माओ! साधुओंका हित करनेवाली विश्वपावनी महाभागा गंगाजी जहाँ पर्वत मालाओंको भेदकर बड़े वेगसे बाहर निकली हैं, वह महान् तीर्थ गंगाद्वारके नामसे विख्यात है। पितृभक्त भी वहीं निवास करते थे ये ज्ञानोपदेश सुननेको इच्छासे बहुत दिनोंसे महापुरुषोंके नियमका पालन करते थे। स्वाध्याय और तर्पणके द्वारा देवताओं और पितरोंकी तृप्ति तथा अपने शरीरका शोषण करते हुए भीष्मजीके ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे अपने पुत्र मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजीसे इस प्रकार बोले ‘बेटा! तुम कुरुवंशका भार वहन करनेवाले वीरवर देखतके, जिन्हें भीष्म भी कहते हैं समीप जाओ। उन्हें तपस्यासे निवृत्त करो और इसका कारण भी बतलाओ। महाभाग भीष्म अपनी पितृभक्तिके कारण भगवानुका ध्यान करते हुए गंगाद्वारमें निवास करते हैं। उनके मनमें जो-जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिये।’
पितामहका वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्यजी गंगाद्वारमें आये और भीष्मजीसे इस प्रकार बोले- ‘वीर! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो तुम्हारी तपस्यासे साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए हैं। उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है। मैं तुम्हें मनोवांछित वरदान दूँगा।’ पुलस्त्यजीका वचन मन और कानको सुख पहुँचानेवाला था उसे सुनकर भीष्म आँखें खोल दी और देखा पुलस्त्यजी सामने खड़े हैं। उन्हें देखते ही भीष्मजी उनके चरणोंपर गिर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीरसे पृथ्वीका स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठको साष्टांग प्रणाम किया और कहा “भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हो गया। यह दिन बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि आज आपके विश्वन्यचरणोंका मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है। आज आपने दर्शन दिया और विशेषतः मुझे वरदान देनेके लिये गंगाजीके तटपर पदार्पण किया; इतनेसे ही मुझे अपनी तपस्याका सारा फल मिल गया। यह कुशकी चटाई है, इसे मैंने अपने हाथों बनाया है और [ जहाँतक हो सका है] इस बातका भी प्रयत्न किया है कि यह बैठनेवालेके लिये आराम देनेवाली हो; अतः आप इसपर विराजमान हों। यह पलाशके दोनेमें अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है; इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दही, शहद, जौ और दूध भी मिले हुए हैं। प्राचीन कालके ऋषियोंने यह अष्टांग अर्घ्य ही अतिथिको अर्पण करनेयोग्य बतलाया है।’
अमिततेजस्वी भीष्मके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके पुत्र पुलस्त्यमुनि कुशासनपर बैठ गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ पाद्य और अर्ध्य स्वीकार किया। भीष्मजीके शिष्टाचारसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ। वे प्रसन्न होकर बोले ‘महाभाग ! तुम सत्यवादी, दानशील और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो। तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं। तुम अपने पराक्रमसेशत्रुओंको दमन करनेगें समर्थ हो साथ ही धर्मज्ञ, कृतज्ञ दयालु, मधुरभाषी, सम्मानके योग्य पुरुषोंको सम्मान देनेवाले, विद्वान् ब्राह्मणभक्त तथा साधुऑपर स्नेह रखनेवाले हो। वत्स तुम प्रणामपूर्वक मेरी शरण आये हो; अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो चाहो, पूछो मैं तुम्हारे प्रत्येक प्रश्नका उत्तर दूंगा।’
भीष्मजीने कहा- भगवन्। पूर्वकालमें भगवान् ब्रह्माजीने किस स्थानपर रहकर देवताओं आदिकी सृष्टि की थी, यह मुझे बताइये। उन महात्माने कैसे ऋषियों तथा देवताओंको उत्पन्न किया? कैसे पृथ्वी बनायी ? किस तरह आकाशकी रचना की और किस प्रकार इन समुद्रोंको प्रकट किया? भयंकर पर्वत, वन और नगर कैसे बनाये ? मुनियों, प्रजापतियों, श्रेष्ठ सप्तर्षियों और भिन्न-भिन्न वर्गोंको वायुको, गन्धवों, वक्षों, राक्षसों, तीथों, नदियों, सूर्यादि ग्रहों तथा तारोंको भगवान् ब्रह्माने किस तरह उत्पन्न किया? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- पुरुषश्रेष्ठ! भगवान् ब्रह्मा साक्षात् परमात्मा हैं। वे परसे भी पर तथा अत्यन्त श्रेष्ठ हैं। उनमें रूप और वर्ण आदिका अभाव है। वे यद्यपि सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि ब्रह्मरूपसे इस विश्वकी उत्पत्ति करनेके कारण विद्वानोंके द्वारा ब्रह्मा कहलाते हैं। उन्होंने पूर्वकालमें जिस प्रकार सृष्टि रचना की, वह सब मैं बता रहा हूँ सुनो, सृष्टिके प्रारम्भकालमें जब जगत्के स्वामी ब्रह्माजी कमलके आसनसे उठे तब सबसे पहले उन्होंने महत्तत्त्वको प्रकट किया; फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) तथा भूतादिरूप तामस तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ, जो कर्मेन्द्रियसहित पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा पंचभूतका कारण है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पाँच भूत हैं। इनमेंसे एक एकके स्वरूपका क्रमशः वर्णन करता हूँ। [ भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द तन्मात्राको उत्पन्न किया, उससे शब्द गुणवाले आकाशका प्रादुर्भाव हुआ।] भूतादि (तामस अहंकार) ने शब्द तन्मात्रारूपआकाशको सब ओरसे आच्छादित किया। [तब शब्दतन्मात्रारूप आकाशने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्राकी रचना की।] उससे अत्यन्त बलवान् वायुका प्राकट्य हुआ, जिसका गुण स्पर्श माना गया है। तदनन्तर आकाशसे आच्छादित होनेपर वायु तत्त्वमें विकार आया और उसने रूप तन्मात्राकी सृष्टि की। वह वायुसे अग्निके रूपमें प्रकट हुई रूप उसका गुण कहलाता है। तत्पश्चात् स्पर्श तन्मात्रावाले वायुने रूप तन्मात्रावाले तेजको सब ओरसे आवृत किया। इससे अग्नि तत्त्वने विकारको प्राप्त होकर रस- तन्मात्राको उत्पन्न किया। उससे जलकी उत्पत्ति हुई, जिसका गुण रस माना गया है। फिर रूप तन्मात्रावाले तेजने रस तन्मात्रारूप जल तत्त्वको सब ओरसे आच्छादित किया। इससे विकृत होकर जलतत्त्वने गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टि की, जिससे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई। पृथ्वीका गुण गन्ध माना गया है। इन्द्रियाँ तेजस कहलाती हैं [ क्योंकि वे राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं]। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं [ क्योंकि उनकी उत्पत्ति सात्विक अहंकारसे हुई है। इस प्रकार इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन ये वैकारिक माने गये हैं। त्वचा, चक्षु, नासिका, जि और श्रोत्र – ये पाँच इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंका अनुभव करानेके साधन हैं। अतः इन पाँचोंको बुद्धियुक्त अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाक् – ये क्रमशः मल त्याग, मैथुनजनित सुख, शिल्प निर्माण (हस्तकौशल), गमन और शब्दोच्चारण इन कमोंमें सहायक हैं। इसलिये इन्हें कर्मेन्द्रिय माना गया है।
वीर आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वीवे क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं अर्थात् आकाशका गुण शब्दः वायुके गुण शब्द और स्पर्श; तेजके गुण शब्द, स्पर्श और रूपः जलके शब्द, स्पर्श, रूप और रस तथा पृथ्वीके शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध-वे सभी गुण हैं। उक्त पौधों भूत शान्त, घोर और मूद हैं। अर्थात् सुख, दुःख और मोहसे युक्त हैं। अतःये विशेष कहलाते हैं। ये पाँच भूत अलग-अलग रहनेपर भिन्न-भिन्न प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अतः परस्पर संगठित हुए बिना पूर्णतया मिले बिना ये प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हो सके। इसलिये [परमपुरुष परमात्माने संकल्पके द्वारा इनमें प्रवेश किया। फिर तो ] महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व पुरुषद्वारा अधिष्ठित होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार परस्पर मिलकर तथा एक-दूसरेका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की । भीष्मजी ! उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और तारोंसहित सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यसहित समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं। वह अण्ड पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा दसगुने अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् तामस अहंकारसे आवृत है। भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा है तथा इन सबके सहित महत्तत्त्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत है।
भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं तथा जबतक कल्पकी स्थिति बनी रहती है, तबतक वे ही युग-युगमें अवतार धारणकरके समूची सृष्टिकी रक्षा करते हैं। वे विष्णु सत्त्वगुण धारण किये रहते हैं; उनके पराक्रमकी कोई सीमा नहीं है। राजेन्द्र ! जब कल्पका अन्त होता है, तब वे ही अपना तमः प्रधान रौद्र रूप प्रकट करते हैं और अत्यन्त भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियोंका संहार करते हैं। इस प्रकार सब भूतोंका नाश करके संसारको एकार्णवके जलमें निमग्न कर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं। फिर जागनेपर ब्रह्माका रूप धारण करके वे नये सिरे से संसारकी सृष्टि करने लगते हैं। इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करनेके कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं। * वे प्रभु स्रष्टा होकर स्वयं अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक होकर पालनीय रूपसे अपना ही पालन करते हैं और संहारकारी होकर स्वयं अपना ही संहार करते हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-सब वे ही हैं; क्योंकि अविनाशी विष्णु ही सब भूतोंके ईश्वर और विश्वरूप हैं। इसलिये प्राणियों में स्थित सर्ग आदि भी उन्हींके सहायक हैं।
अध्याय-03 ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन् ब्रह्माजी सर्वज्ञ एवं साक्षात् नारायणके स्वरूप हैं। वे उपचारसे आरोपद्वारा ही उत्पन्न हुए’ कहलाते हैं। वास्तवमें तो वे नित्य ही हैं। अपने निजी मानसे उनकी आयु सौ वर्षकी मानी गयी है। वह ब्रह्माजीकी आयु ‘पर’ कहलाती है, उसके आधे भागको परार्ध कहते हैं। पंद्रह निमेषको एक काष्ठा होती है। तीस काष्ठाओंकी एक कला और तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है। तीस मुहूतोंके कालको मनुष्यका एक दिन-रात माना गया है। तीस दिन रातका एक मास होता है। एक मासमें दो पक्ष होते हैं। छः महीनोंका एक अयन और दो अयनोंका एक वर्षहोता है। अयन दो है, दक्षिणायन और उत्तरायण। दक्षिणायन देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण उनका दिन है। देवताओंके बारह हजार वर्षोंके चार युग होते हैं, जो क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगके नामसे प्रसिद्ध हैं। अब इन युगोंका वर्ष-विभाग सुनो। पुरातत्त्वके ज्ञाता विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सत्ययुग आदिका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष हैं। प्रत्येक युगके आरम्भमें उतने ही सौ वर्षोंकी सन्ध्या कही जाती है और युगके अन्तमें सन्ध्यांश होता है। सन्ध्यांशका मान भी उतना ही है, जितना सन्ध्याका। नृपश्रेष्ठ! सन्ध्या और सन्ध्यांशके,बीचका जो समय है, उसीको युग समझना चाहिये वही सत्ययुग और त्रेता आदिके नामसे प्रसिद्ध है। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- ये सब मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं। ऐसे एक हजार चतुर्युगोंको ब्रह्माका एक दिन कहा जाता है। ll 1 ll
राजन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं। उनके समयका परिमाण सुनो। सप्तर्षि, देवता, इन्द्र, मनु और मनुके पुत्र – ये एक ही समयमें उत्पन्न होते हैं तथा अन्तमें साथ-ही-साथ इनका संहार भी होता है। इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक कालका एक मन्वन्तर होता है। 2 यही मनु और देवताओं आदिका समय है। इस प्रकार दिव्य वर्षगणनाके अनुसार आठ लाख, बावन हजार वर्षोंका एक मन्वन्तर होता है। महामते ! मानव-वर्षोंसे गणना करनेपर मन्वन्तरका कालमान पूरे तीस करोड़, सरसठ लाख, बीस हजार वर्ष होता है। इससे अधिक नहीं। 3 इस कालको चौदह गुना करनेपर ब्रह्माके एक दिनका मान होता है। उसके अन्तमें नैमित्तिक नामवाला ब्राह्म-प्रलय होता है। उस समय भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक-सम्पूर्ण त्रिलोकी दग्ध होने लगती है और महर्लोकमें निवास करनेवाले पुरुष आँचसे सन्तप्त होकर जनलोकमें चले जाते हैं।दिनके बराबर ही अपनी रात बीत जानेपर ब्रह्माजी पुनः संसारकी सृष्टि करते हैं। इस प्रकार [पक्ष, मास आदिके क्रमसे धीरे-धीरे] ब्रह्माजीका एक वर्ष व्यतीत होता है तथा इसी क्रमसे उनके सौ वर्ष भी पूरे हो जाते हैं। सौ वर्ष ही उन महात्माकी पूरी आयु है।
भीष्मजीने कहा- महामुने ! कल्पके आदिमें नारायणसंज्ञक भगवान् ब्रह्माने जिस प्रकार सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि की, उसका आप वर्णन कीजिये ।
पुलस्त्यजीने कहा – राजन्! सबकी उत्पत्तिके कारण और अनादि भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार प्रजावर्गकी सृष्टि की, वह बताता हूँ; सुनो। जब पिछले कल्पका अन्त हुआ, उस समय रात्रिमें सोकर उठनेपर सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त प्रभु ब्रह्माजीने देखा कि सम्पूर्ण लोक सूना हो रहा है। तब उन्होंने यह जानकर कि पृथ्वी एकार्णवके जलमें डूब गयी है और इस समय पानीके भीतर ही स्थित है, उसको निकालनेकी इच्छासे कुछ देरतक विचार किया। फिर वे यज्ञमय वाराहका स्वरूप धारणकर जलके भीतर प्रविष्ट हुए। भगवान्को पाताललोकमें आया देख पृथ्वीदेवी भक्तिसे विनम्र होगयीं और उनकी स्तुति करने लगीं।
पृथ्वी बोलीं- भगवन्! आप सर्वभूतस्वरूप परमात्मा हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। आप इस पाताललोकसे मेरा उद्धार कीजिये। पूर्वकालमें मैं आपसे ही उत्पन्न हुई थी। परमात्मन्! आपको नमस्कार है। आप सबके अन्तर्यामी हैं, आपको प्रणाम है। प्रधान (कारण) और व्यक्त (कार्य) आपके ही स्वरूप हैं। काल भी आप ही हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! जगत्की सृष्टि आदिके समय आप ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण करके सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति, पालन और संहार करते हैं, यद्यपि आप इन सबसे परे हैं। मुमुक्षु पुरुष आपकी आराधना करके मुक्त हो परब्रह्म परमात्माको प्राप्त हो गये हैं। भला, आप वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन मोक्ष पा सकता है। जो मनसे ग्रहण करनेयोग्य, नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा अनुभव करनेयोग्य तथा बुद्धिके द्वारा विचारणीय है, वह सब आपहीका रूप है। नाथ! आप ही मेरे उपादान हैं, आप ही आधार हैं, आपने ही मेरी सृष्टि की है तथा मैं आपहीकी शरणमें हूँ; इसीलिये इस जगत् के लोग मुझे ‘माधवी’ कहते हैं। पृथ्वीने जब इस प्रकार स्तुति की, तब उन परमकान्तिमान् भगवान् धरणीधरने घर स्वरमें गर्जना की। सामवेद ही उनकी उस ध्वनिके रूपमें प्रकट हुआ। उनके नेत्र खिले हुए कमलके समान शोभा पा रहे थे तथा शरीर कमलके पत्तेके समान श्याम रंगका था। उन महावराहरूपधारी भगवान्ने पृथ्वीको अपनी दाड़ोंपर उठा लिया और रसातलसे वे ऊपरकी और उठे। उस समय उनके मुखसे निकली हुई साँसके आघातसे उछले हुए उस प्रलयकालीन जलने जनलोकमें रहनेवाले सनन्दन आदि मुनियोंको भिगोकर निष्पाप कर दिया। [निष्पाप तो वे थे ही, उन्हें और भी पवित्र बना दिया।] भगवान् महावराहका उदर जलसे भीगा हुआ था जिस समय वे अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथ्वीको लेकर उठने लगे, उस समय आकाशमें स्थित महर्षिगण उनकी स्तुति करने लगे।
ऋषियोंने कहा- जनेश्वरोंके भी परमेश्वर केशव। आप सबके प्रभु हैं। गदा, शंख, उत्तम खड्ग और चक्र धारण करनेवाले हैं। सृष्टि, पालन और संहारके कारण तथा ईश्वर भी आप ही हैं। जिसे परमपद कहते हैं, वह भी आपसे भिन्न नहीं है। प्रभो! आपका प्रभाव अतुलनीय है पृथ्वी और आकाशके बीच जितना अन्तर है, वह सब आपके ही शरीरसे व्याप्त है। इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत् भी आपसे व्याप्त है। भगवन्! आप इस विश्वका हित साधन कीजिये। जगदीश्वर ! एकमात्र आप ही परमात्मा हैं, आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। आपकी ही महिमा है, जिससे यह चराचर जगत् व्याप्त हो रहा है। यह सारा जगत् ज्ञानस्वरूप है, तो भी अज्ञानी मनुष्य इसे पदार्थरूप देखते हैं; इसीलिये उन्हें संसार समुद्रमें भटकना पड़ता है। परन्तु परमेश्वर। जो लोग विज्ञानवेत्ता हैं, जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, वे समस्त संसारको ज्ञानमय ही देखते हैं, आपका स्वरूप ही समझते हैं। सर्वभूतस्वरूप परमात्मन्। आप प्रसन्न होइये आपका स्वरूप अप्रमेय है। प्रभो। भगवन्! आप सबके उद्भव के लिये इस पृथ्वीका उद्धार एवं सम्पूर्ण जगत्का कल्याण कीजिये।
राजन्! सनकादि मुनि जब इस प्रकार स्तुति कररहे थे, उस समय पृथ्वीको धारण करनेवाले परमात्मा महावराह शीघ्र ही इस वसुन्धराको ऊपर उठा लाये और उसे महासागरके जलपर स्थापित किया। उस जलराशिके ऊपर यह पृथ्वी एक बहुत बड़ी नौकाकी भाँति स्थित हुई। तत्पश्चात् भगवान्ने पृथ्वोके कई विभाग करके सात द्वीपोंका निर्माण किया तथा भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वलॉक और महलोंक-इन चारों लोकोंकी पूर्ववत् कल्पना की। तदनन्तर ब्रह्माजीने भगवान् से कहा-‘प्रभो! मैंने इस समय जिन प्रधान प्रधान असुरोंको वरदान दिया है, उनको देवताओंकी भलाई के लिये आप मार डालें में जो सृष्टि रखूंगा, उसका आप पालन करें।’ उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णु ‘तथास्तु’ कहकर चले गये और ब्रह्माजीने देवता आदि प्राणियोंकी सृष्टि आरम्भ की। महत्तत्त्वकी उत्पत्तिको ही ब्रह्माकी प्रथम सृष्टि समझना चाहिये। तन्मात्राओंका आविर्भाव दूसरी सृष्टि है, उसे भूतसर्ग भी कहते हैं। वैकारिक अर्थात् सात्विक अहंकारसे जो इन्द्रियोंकी उत्पत्ति हुई है, वह तीसरी सृष्टि है; उसीका दूसरा नाम ऐन्द्रिय सर्ग है। इस प्रकार यह प्राकृत सर्ग है, जो अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ है। चौथी सृष्टिका नाम है मुख्य सर्ग पर्वत और वृक्ष आदि स्थावर वस्तुओंको मुख्य कहते हैं। तिर्यखोत कहकर जिनका वर्णन किया गया है, वे (पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि) ही पांचवीं सृष्टिके अन्तर्गत है; उन्हें तिर्यक योनि भी कहते हैं। तत्पश्चात् ऊर्ध्वरेता देवताओंका सर्ग है, वही छठी सृष्टि है और उसीको देवसर्ग भी कहते हैं। तदनन्तर सातवीं सृष्टि अर्वाक्सोताओंकी है, वही मानव-सर्ग कहलाता है। आठवाँ अनुग्रह सर्ग है, वह सात्त्विक भी है और तामस भी इन आठ सर्गोमेंसे अन्तिम पाँच वैकृत-सर्ग माने गये हैं तथा आरम्भके तीन सर्ग प्राकृत बताये गये हैं। नवीं कौमार सर्ग है, यह प्राकृत भी है वैकृत भी इस प्रकार जगत्की रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके ये प्राकृत और वैकृत नामक नौ सर्ग तुम्हें बतलाये गये, जो जगत्के मूल कारण हैं। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ?भीष्मजीने कहा- गुरुदेव! आपने देवताओं आदिकी सृष्टि थोड़े ही बतायी है। मुनिश्रेष्ठ अब मैं उसे आपके मुखसे विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन् सम्पूर्ण प्रजा अपने पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मसे प्रभावित रहती है; अतः प्रलयकालमें सबका संहार हो जानेपर भी वह उन कमके संस्कारसे मुक्त नहीं हो पाती। जब ब्रह्माजी सृष्टिकार्यमें प्रवृत्त हुए, उस समय उनसे देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी प्रजा उत्पन्न हुई; वे चारों [ब्रह्माजीके मानसिक संकल्पसे प्रकट होनेके कारण] मानसी प्रजा कहलायीं। तदनन्तर प्रजापतिने देवता, असुर, पितर और मनुष्य-इन चार प्रकारके प्राणियोंकी तथा जलकी भी सृष्टि करनेकी इच्छासे अपने शरीरका उपयोग किया। उस समय सृष्टिकी इच्छावाले मुक्तात्मा मुक्तात्मा प्रजापतिकी जंघासे पहले दुरात्मा असुरोंकी उत्पत्ति हुई उनकी सृष्टिके पश्चात् भगवान् ब्रह्माने अपनी वयस् (आयु) से इच्छानुसार वयों (पक्षियों) को उत्पन्न किया। फिर अपनी भुजाओंसे भेड़ों और मुखसे बकरोंकी रचना की। इसी प्रकार अपने पेटसे गाय और भैंसौको तथा पैरोंसे घोड़े, हाथी, गदहे, नीलगाय, हरिन, ऊँट, खच्चर तथा दूसरे- दूसरे पशुओंकी सृष्टि की। ब्रह्माजीकी रोमावलियोंसे फल, मूल तथा भाँति-भाँति के अन्नोंका प्रादुर्भाव हुआ। गायत्री छन्द, ऋग्वेद, त्रिवृत्स्तोम, रथन्तर तथा अग्निष्टोम यज्ञको प्रजापतिने अपने पूर्ववर्ती मुखसे प्रकट किया। यजुर्वेद, त्रिष्टुप् छन्द, पंचदशस्तोम, बृहत्साम और उक्थकी दक्षिणवाले मुखसे रचना की। सामवेद जगती छन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रभागकी सृष्टि पश्चिम मुखसे की तथा एकविंशस्तोम, अथर्ववेद, आप्तोर्याम, अनुष्टुप् छन्द और वैराजको उत्तरवर्ती मुखसे उत्पन्न किया। छोटे-बड़े जितने भी प्राणी हैं, सब प्रजापतिके विभिन्न अंगोंसे उत्पन्न हुए। कल्पके आदिमें प्रजापति ब्रह्माने देवताओं, असुरों, पितरों और मनुष्योंकी सृष्टि करके फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर, राक्षस, सिंह, पक्षी, मृग और सपको उत्पन्न किया। नित्य और अनित्य जितनाभी यह चराचर जगत् है, सबको आदिकर्ता भगवान् ब्रह्माने उत्पन्न किया। उन उत्पन्न हुए प्राणियोंमेंसे जिन्होंने पूर्वकल्पमें जैसे कर्म किये थे, वे पुनः बारम्बार जन्म लेकर वैसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं। इस प्रकार भगवान् विधाताने ही इन्द्रियोंके विषयों, भूतों और शरीरोंमें विभिन्नता एवं पृथक् पृथक् व्यवहार उत्पन्न किया। उन्होंने कल्पके आरम्भमें वेदके अनुसार देवता आदि प्राणियोंके नाम, रूप और कर्तव्यका विस्तार किया। ऋषियोंतथा अन्यान्य प्राणियोंके भी वेदानुकूल नाम और उनके यथायोग्य कर्मोंको भी ब्रह्माजीने ही निश्चित किया। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न ऋतुओंके बारम्बार आनेपर उनके विभिन्न प्रकारके चिह्न पहलेके समान ही प्रकट होते हैं, उसी प्रकार सृष्टिके आरम्भमें सारे पदार्थ पूर्व कल्पके अनुसार ही दृष्टिगोचर होते हैं। सृष्टिके लिये इच्छुक तथा सृष्टिकी शक्तिसे युक्त ब्रह्माजी कल्पके आदिमें बारम्बार ऐसी ही सृष्टि किया करते हैं।
अध्याय-04 यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! आपने अर्वाक्त्रोत नामक सर्गका जो मानव सर्गके नामसे भी प्रसिद्ध है, संक्षेपसे वर्णन किया; अब उसीको विस्तारके साथ कहिये। ब्रह्माजीने मनुष्योंकी सृष्टि किस प्रकार की ? महामुने! प्रजापतिने चारों वर्णों तथा उनके गुणोंको कैसे उत्पन्न किया? और ब्राह्मणादि वर्णोंके कौन-कौन-से कर्म माने गये हैं? इन सब बातोंका वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टिकी इच्छा रखनेवाले ब्रह्माजीने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णोंको उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुखसे, क्षत्रिय वक्षःस्थलसे, वैश्य जाँघोंसे और शूद्र ब्रह्माजीके पैरोंसे उत्पन्न हुए। महाराज! ये चारों वर्ण यज्ञके उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानकी सिद्धिके लिये ही इन सबकी सृष्टि की। यज्ञसे तृप्त होकर देवतालोग जलको वृष्टि करते हैं, जिससे मनुष्योंकी भी तृप्ति होती है; अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याणका हेतु है। जो लोग सदा अपने वर्णोचित कर्ममें लगे रहते हैं, जिन्होंने धर्म विरुद्ध आचरणोंका परित्याग कर दिया है। तथा जो सन्मार्गपर चलनेवाले हैं, वे श्रेष्ठ मनुष्य ही यज्ञका यथावत् अनुष्ठान करते हैं। राजन्। [ यज्ञके द्वारा ] मनुष्य इस मानव-देहके त्यागके पश्चात् स्वर्ग और अपवर्ग भी प्राप्त कर सकते हैं तथा और भी जिस-जिस स्थानको पानेकी उन्हें इच्छा हो, उसी उसीमें वे जा सकते हैं। नृपश्रेष्ठ ब्रह्माजीके द्वारा चातुर्वर्ण्य व्यवस्थाके अनुसार रची हुई प्रजा उत्तमश्रद्धाके साथ श्रेष्ठ आचारका पालन करने लगी। वह इच्छानुसार जहाँ चाहती, रहती थी। उसे किसी प्रकारकी बाधा नहीं सताती थी । समस्त प्रजाका अन्तःकरण शुद्ध था। वह स्वभावसे ही परम पवित्र थी। धर्मानुष्ठानके कारण उसकी पवित्रता और भी बढ़ गयी थी। प्रजाओंके पवित्र अन्तःकरणमें भगवान् श्रीहरिका निवास होनेके कारण सबको शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था, जिससे सब लोग श्रीहरिके ‘परब्रह्म’ नामक कर लेते थे। परमपदका साक्षात्कार तदनन्तर प्रजा जीविकाके साधन उद्योग-धंधे और खेती आदिका काम करने लगी। राजन् ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कँगनी, ज्वार, कोदो, चेना, उड़द, मूँग, मसूर, मटर, कुलथी, अरहर, चना और सन- ये सत्रह ग्रामीण अन्नोंकी जातियाँ हैं। ग्रामीण और जंगली दोनों प्रकारके मिलाकर चौदह अन्न यज्ञके उपयोगमें आनेवाले माने गये हैं। उनके नाम ये हैं- धान, जौ, उड़द, गेहूँ, महीन धान्य, तिल, सातवीं कँगनी और आठवीं कुलथी- ये ग्रामीण अन्न हैं तथा साँवाँ, तिन्नीका चावल, जर्तिल (वनतिल), गवेधु, वेणुयव और मक्का-ये छ: जंगली अन्न हैं। ये चौदह अन्न यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं तथा यज्ञ ही इनकी उत्पत्तिका प्रधान हेतु है। यज्ञके साथ ये अन्न प्रजाकी उत्पत्ति और वृद्धिके परम कारण हैं; इसलिये इहलोक और परलोककेज्ञाता विद्वान् पुरुष इन्हींके द्वारा यहाँका अनुष्ठान करते रहते हैं। नृपश्रेष्ठ प्रतिदिन किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक तथा उन्हें शान्ति प्रदान करनेवाला होता है। [कृषि आदि जीविका साधनोंके सिद्ध हो जानेपर ] प्रजापतिने प्रजाके स्थान और गुणोंके अनुसार उनमें धर्म- मर्यादाकी स्थापना की। फिर वर्ण और आश्रमोंके पृथक्-पृथक् धर्म निश्चित किये तथा स्वधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाले सभी वर्णोंके लिये पुण्यमय लोकोंकी रचना की।
योगियोंको अमृतस्वरूप ब्रह्मधामकी प्राप्ति होती है, जो परम पद माना गया है। जो योगी सदा एकान्तमें रहकर यत्नपूर्वक ध्यानमें लगे रहते हैं, उन्हें वह उत्कृष्ट पद प्राप्त होता है, जिसका ज्ञानीजन ही साक्षात्कार कर पाते हैं। तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, घोर असिपत्रवन, कालसूत्र और अवीचिमान् आदि जो नरक हैं, वे वेदोंकी निन्दा, यज्ञोंका उच्छेद तथा अपने धर्मका परित्याग करनेवाले पुरुषोंके स्थान बताये गये हैं।
ब्रह्माजीने पहले मनके संकल्पसे ही बराबर प्राणियोंकी सृष्टि की; किन्तु जब इस प्रकार उनकी सारी प्रजा [पुत्र, पौत्र आदिके क्रमसे] अधिक न बढ़ सकी, तब उन्होंने अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया। उनके नाम हैं-भृगु, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठ पुराणमें ये नौ ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं। इन भृगु आदिके भी पहले जिन सनन्दन आदि पुत्रोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया था, उनके मनमें पुत्र उत्पन्न करनेकी इच्छा नहीं हुई; इसलिये वे सृष्टि रचनाके कार्यमें नहीं फँसे । उन सबको स्वभावतः विज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। वे मात्सर्य आदि दोषोंसे रहित और वीतराग थे। इस प्रकार संसारकी सृष्टिके कार्यसे उनके उदासीन हो जानेपर महात्मा ब्रह्माजीको महान् क्रोध हुआ, उनकी भौंहें तन गयीं और ललाट क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा। इसी समय उनके ललाटसे मध्याहनकालीन सूर्यके समान तेजस्वी रुद्र प्रकट हुए।उनका आधा शरीर स्त्रीका था और आधा पुरुषका। वे बड़े प्रचण्ड थे और उनका शरीर बड़ा विशाल था । तब ब्रह्माजी उन्हें यह आदेश देकर कि ‘तुम अपने शरीरके दो भाग करो’ वहाँसे अन्तर्धान हो गये। उनके ऐसा कहनेपर रुद्रने अपने शरीरके स्त्री और पुरुषरूप दोनों भागोंको पृथक्-पृथक् कर दिया और फिर पुरुषभागको ग्यारह रूपोंमें विभक्त किया। इसी प्रकार स्त्रीभागको भी अनेकों रूपोंमें प्रकट किया। स्त्री और पुरुष दोनों भागोंके वे भिन्न-भिन्न रूप सौम्य, क्रूर, शान्त, श्याम और गौर आदि नाना प्रकारके थे।
तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपनेसे उत्पन्न, अपने ही स्वरूपभूत स्वायम्भुवको प्रजापालनके लिये प्रथम मनु बनाया। स्वायम्भुव मनुने शतरूपा नामकी स्त्रीको, जो तपस्याके कारण पापरहित थी, अपनी पत्नीके रूपमें स्वीकार किया। देवी शतरूपाने स्वायम्भुव मनुसे दो पुत्र और दो कन्याओंको जन्म दिया। पुत्रोंके नाम थे प्रियव्रत और उत्तानपाद तथा कन्याएँ प्रसूति और आकूतिके नामसे प्रसिद्ध हुईं। मनुने प्रसूतिका विवाह दक्षके साथ और आकूतिका रुचि प्रजापतिके साथ कर दिया। दक्षने प्रसूतिके गर्भसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न कीं। उनके नाम हैं – श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, पुष्टि, तुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति। इन दक्ष कन्याओंको भगवान् धर्मने अपनी पत्नियोंके रूपमें ग्रहण किया। इनसे छोटी ग्यारह कन्याएँ और थीं, जो ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्नति, अनसूया, ऊर्जा, स्वाहा और स्वधा नामसे प्रसिद्ध हुई। नृपश्रेष्ठ! इन ख्याति आदि कन्याओंको क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा और मैंने (पुलस्त्य) तथा पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ, अग्नि तथा पितरोंने ग्रहण किया। श्रद्धाने कामको, लक्ष्मीने दर्पको, धृतिने नियमको, तुष्टिने सन्तोषको और पुष्टिने लोभको जन्म दिया। मेधाने श्रुतको, क्रियाने दण्ड, नय और विनयको, बुद्धिने बोधको, लज्जाने विनयको, वपुने अपने पुत्रव्यवसायको, शान्तिने क्षेमको, सिद्धिने सुखको और कीर्तिने यशको उत्पन्न किया। ये ही धर्मके पुत्र हैं। कामसे उसकी पत्नी नन्दीने हर्ष नामक पुत्रको जन्म दिया, यह धर्मका पौत्र था। भृगुकी पत्नी ख्यातिने लक्ष्मीको जन्म दिया, जो देवाधिदेव भगवान् नारायणकी पत्नी हैं। भगवान् रुद्रने दक्षसुता सतीको पत्नीरूपमें ग्रहण किया, जिन्होंने अपने पितापर खीझकर शरीर त्याग दिया। अधर्मकी स्त्रीका नाम हिंसा है। उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामवाली कन्याकी उत्पत्ति हुई। फिर उन दोनोंने भय और नरक नामक पुत्र और मायातथा वेदना नामकी कन्याओंको उत्पन्न किया। माया भयकी और वेदना नरककी पत्नी हुई। उनमेंसे मायाने समस्त प्राणियोंका संहार करनेवाले मृत्यु नामक पुत्रको जन्म दिया और वेदनासे नरकके अंशसे दुःखकी उत्पत्ति हुई। फिर मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोधका जन्म हुआ। ये सभी अधर्मस्वरूप हैं और दुःखोत्तर नामसे प्रसिद्ध हैं। इनके न कोई स्त्री है न पुत्र । ये सब-के-सब नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। राजकुमार भीष्म ! ये ब्रह्माजीके रौद्र रूप हैं और ये ही संसारके नित्य प्रलयमें कारण होते हैं।
अध्याय-05 लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
भीष्मजीने कहा- मुने! मैन तो सुना था लक्ष्मीजी क्षीरसमुद्रसे प्रकट हुई हैं, फिर आपने यह कैसे कहा कि वे भृगुको पत्नी ख्यातिके गर्भ से उत्पन्न हुई ?
पुलस्त्यजी बोले – राजन्। तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, उसका उत्तर सुनो। लक्ष्मीजीके जन्सका सम्बन्ध समुद्रसे है, यह बात मैंने भी ब्रह्माजीके मुखसे सुन रखी है। एक समयकी बात है, दैत्यों और दानवोंने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओंपर चढ़ाई की। उस युद्धमें दैत्योंके सामने देवता परास्त हो गये। तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्निको आगे करके ब्रह्माजीकी शरण में गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक-ठीक कह सुनाया। ब्रह्माजीने कहा- ‘तुमलोग मेरे साथ भगवान्को शरणमें चलो।’ यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले और सागरके उत्तर-तटपर गये और भगवान् वासुदेवको सम्बोधित करके बोले ‘विष्णो! शीघ्र उठिये और इन देवताओंका कल्याण कीजिये। आपकी सहायता न मिलनेसे दानव इन्हें बारम्बार परास्त करते हैं।’ उनके ऐसा कहनेपर कमलके समान नेत्रवाले भगवान् अन्तर्यामी पुरुषोत्तमते। देवताओंके शरीरकी अपूर्व अवस्था देखकर कहा “देवगण मैं तुम्हारे तेजकी वृद्धि करूँगा मैं जो उपाय बतलाता हूँ, उसे तुमलोग करो। दैत्योंके साथ मिलकर सब प्रकारकी ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीरसागरमेंडाल दो। फिर मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको नेती (रस्सी) बनाकर समुद्रका मन्थन करते हुए उससे अमृत निकालो। इस कार्यमें मैं तुमलोगोंकी सहायता करूँगा। समुद्रका मन्थन करनेपर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करनेसे तुमलोग बलवान् और अमर हो जाओगे।’देवाधिदेव भगवान्के ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता दैत्योंके साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्नमें लगगये। देव, दानव और दैत्य सब मिलकर सब प्रकारकी ओषधियों से आये और उन्हें क्षीर सागरमें डालकर मन्दराचलको मथानी एवं वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेगसे मन्थन करने लगे। भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे सब देवता एक साथ रहकर वासुकिकी पूँछकी ओर हो गये और दैत्योंको उन्होंने वासुकिके सिरकी ओर खड़ा कर दिया। भीष्मजी ! वासुकिके मुखकी साँस तथा विषाग्निसे झुलस जानेके कारण सब दैत्य निस्तेज हो गये। क्षीरसमुद्र के बीचमें ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेवजी कच्छप रूपधारी श्रीविष्णुभगवान्की पीठपर खड़े हो अपनी भुजाओंसे कमलकी भाँति मन्दराचलको पकड़े हुए थे तथा स्वयं भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके क्षीर सागर के भीतर देवताओं और दैत्योंके बीचमें स्थित थे। [वे मन्दराचलको अपनी पीठपर लिये डूबने से बचाते थे।] तदनन्तर जब देवता और दानवोंने क्षीरसमुद्रका मन्धन आरम्भ किया, तब पहले-पहल उससे देवपूजित सुरभि ( कामधेनु) का आविर्भाव हुआ, जो हविष्य (भी-दूध) की उत्पत्तिका स्थान मानी गयी है। तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली- ‘दानवो ! मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो।’ दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया। इसके बाद पुनः मन्यन आरम्भ होनेपर पारिजात (कल्पवृक्ष) उत्पन्न हुआ, जो अपनी शोभासे देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला था तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएँ प्रकट हुई, जो देवता और दानवोंकी सामान्यरूपसे भोग्या हैं। जो लोग पुण्यकर्म करके देवलोकमें जाते हैं, उनका भी उनके ऊपर समान अधिकार होता है। अप्सराओंके बाद शीतल किरणोंवाले चन्द्रमाका प्रादुर्भाव हुआ, जो देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाले थे। उन्हें भगवान् शंकरने अपने लिये माँगते हुए कहा-‘देवताओ! ये चन्द्रमा मेरी जटाओंके आभूषण होंगे, अतः मैंने इन्हें ले लिया।’ब्रह्माजीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर शंकरजीकी बातका अनुमोदन किया। तत्पश्चात् कालकूट नामक भयंकर विष प्रकट हुआ, उससे देवता और दानव सबको बड़ी पीड़ा हुई। तब महादेवजीने स्वेच्छासे उस विषको लेकर पी लिया। उसके पीनेसे उनके कण्ठमें काला दाग पड़ गया, तभीसे वे महेश्वर नीलकण्ठ कहलाने लगे। क्षीर सागरसे निकले हुए उस विषका जो अंश पीनेसे बच गया था, उसे नागों (सर्पों) ने ग्रहण कर लिया।
तदनन्तर अपने हाथमें अमृतसे भरा हुआ कमण्डलु लिये धन्वन्तरिजी प्रकट हुए। वे श्वेतवस्त्र धारण किये हुए थे। वैद्यराजके दर्शनसे सबका मन स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया। इसके बाद उस समुद्रसे उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नामका हाथी- ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए। इसके पश्चात् क्षीरसागरसे लक्ष्मीदेवीका प्रादुर्भाव हुआ, जो खिले हुए कमलपर विराजमान थीं और हाथमें कमल लिये थीं। उनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही थी। उस समय महर्षियोंने श्रीसूक्तका पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका स्तवन किया। साक्षात् क्षीरसमुद्रने [दिव्य पुरुषके रूपमें] प्रकट होकर लक्ष्मीजीको एक सुन्दर माला भेंट की, जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं थे विश्वकर्मानि उनके समस्त अंगोंमें आभूषण पहना दिये। स्नानके पश्चात् दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब वे सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हुई, तब इन्द्र आदि देवता तथा विद्याधर आदिने भी उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की। तब ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुसे कहा ‘वासुदेव! मेरे द्वारा दी हुई इस लक्ष्मीदेवीको आप ही ग्रहण करें। मैंने देवताओं और दानवोंको मना कर दिया है-वे इन्हें पानेकी इच्छा नहीं करेंगे। आपने जो स्थिरतापूर्वक इस समुद्र-मन्दन के कार्यको सम्पन्न किया है, इससे आपपर मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ।’ यो कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मीजीसे बोले-‘देवि तुम भगवान् केशवके पास जाओ। मेरे दिये हुए पतिको पाकर | अनन्त वर्षोंतक आनन्दका उपभोग करो।’
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीजी समस्तदेवताओंके देखते-देखते श्रीहरिके वक्षःस्थलमें चली गयीं और भगवान्से बोलीं- ‘देव ! आप कभी मेरा परित्याग न करें। सम्पूर्ण जगत्के प्रियतम ! मैं सदा आपके आदेशका पालन करती हुई आपके वक्षःस्थलमें निवास करूँगी।’ यह कहकर लक्ष्मीजीने कृपापूर्ण दृष्टिसे देवताओंकी ओर देखा, इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इधर लक्ष्मीसे परित्यक्त होनेपर दैत्योंको बड़ा उद्वेग हुआ। उन्होंने झपटकर धन्वन्तरिके हाथसे अमृतका पात्र छीन लिया। तब विष्णुने मायासे सुन्दरी M स्त्रीका रूप धारण करके दैत्योंको लुभाया और उनके निकट जाकर कहा- ‘यह अमृतका कमण्डलु मुझे दे दो।’ उस त्रिभुवनसुन्दरी रूपवती नारीको देखकर दैत्योंका चित्त कामके वशीभूत हो गया। उन्होंने चुपचाप वह अमृत उस सुन्दरीके हाथमें दे दिया और स्वयं उसका मुँह ताकने लगे। दानवोंसे अमृत लेकर भगवान्ने देवताओंको दे दिया और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस अमृतको पी गये। यह देख दैत्यगण भाँति-भाँतिके अस्त्र-शस्त्र और तलवारें हाथमें लेकर देवताओंपर टूट पड़े; परन्तु देवता अमृत पीकर बलवान् हो चुके थे, उन्होंने दैत्य-सेनाको परास्त कर दिया। देवताओंकी मार पड़नेपर दैत्योंने भागकर चारों दिशाओंकी शरण ली और कितने ही पातालमें घुस गये। तब सम्पूर्ण देवता आनन्दमग्नहो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुको प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये।
तबसे सूर्यदेवकी प्रभा स्वच्छ हो गयीं। वे अपने मार्गसे चलने लगे। भगवान् अग्निदेव भी मनोहर दीप्तिसे युक्त हो प्रज्वलित होने लगे तथा सब प्राणियोंका मन धर्ममें संलग्न रहने लगा। भगवान् विष्णुसे सुरक्षित होकर समस्त त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी। उस समय समस्त लोकोंको धारण करनेवाले ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा – ‘देवगण! मैंने तुम्हारी रक्षाके लिये भगवान् श्रीविष्णुको तथा देवताओंके स्वामी उमापति महादेवजीको नियत किया है; वे दोनों तुम्हारे योगक्षेमका निर्वाह करेंगे। तुम सदा उनकी उपासना करते रहना; क्योंकि वे तुम्हारा कल्याण करनेवाले हैं। उपासना करनेसे ये दोनों महानुभाव सदा तुम्हारे क्षेमके साधक और वरदायक होंगे।’ यों कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने धामको चले गये। उनके जानेके बाद इन्द्रने देवलोककी राह ली। तत्पश्चात् श्रीहरि और – वैकुण्ठ एवं कैलासमें शंकरजी भी अपने-अपने धाम जा पहुँचे। तदनन्तर देवराज इन्द्र तीनों लोकोंकी रक्षा करने लगे। महाभाग ! इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीरसागरसे प्रकट हुई थीं। यद्यपि वे सनातनी देवी हैं, तो भी एक समय भृगुकी पत्नी ख्यातिके गर्भसे भी उन्होंने जन्म ग्रहण किया था।
अध्याय-06 सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती तो बड़ी शुभलक्षणा थीं, उन्होंने अपने शरीरका त्याग क्यों किया? तथा भगवान् रुद्रने किस कारणसे दक्षके यज्ञका विध्वंस किया ?
पुलस्त्यजीने कहा- भीष्म प्राचीन कालकी बात है, दक्षने गंगाद्वारमें यज्ञ किया। उसमें देवता, असुर, पितर और महर्षि सब बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे। इन्द्रसहित देवता, नाग, यक्ष, गरुड, लताएँ, ओषधियाँ, कश्यप, भगवान् अत्रि, मैं, पुलह, ऋतु, प्राचेतस, होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन चारोंके द्वाराअंगिरा तथा महातपस्वी वसिष्ठजी भी उपस्थित हुए । वहाँ सब ओरसे बराबर वेदी बनाकर उसके ऊपर चातुर्होत्रकी * स्थापना हुई। उस यज्ञमें महर्षि वसिष्ठ होता, अंगिरा अध्वर्यु, बृहस्पति उद्गाता तथा नारदजी ब्रह्मा हुए। जब यज्ञकर्म आरम्भ हुआ और अग्निमें हवन होने लगा, उस समयतक देवताओंके आनेका क्रम जारी रहा। स्थावर और जंगम – सभी प्रकारके प्राणी वहाँ उपस्थित थे। इसी समय ब्रह्माजी अपने पुत्रोंके साथ आकर यज्ञके सभासद् हुए तथा साक्षात् भगवान्श्रीविष्णु भी यज्ञकी रक्षाके लिये वहाँ पधारे आठों वसु, बारहों आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, उनचासों मरुद्गण तथा चौदहों मनु भी वहाँ आये थे। इस प्रकार यज्ञ होने लगा, अग्निमें आहुतियाँ पड़ने लगीं। वहाँ भक्ष्यभोज्य सामग्रीका बहुत ही सुन्दर और भारी ठाट-बाट था। ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा दिखायी देती थी। चारों ओरसे दस योजन भूमि यज्ञके समारोहसे पूर्ण थी। वहाँ एक विशाल वेदी बनायी गयी थी, जहाँ सब लोग एकत्रित थे। शुभलक्षण सतीने इन सारे आयोजनोंको देखा और यज्ञमें आये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको लक्ष्य किया। इसके बाद वे अपने पितासे विनययुक्त वचन बोलीं।
सतीने कहा—पिताजी! आपके यज्ञमें सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे हैं। देवराज इन्द्र अपनी धर्मपत्नी शची के साथ ऐरावतपर चढ़कर आये हैं। पापियोंका दमन करनेवाले तथा धर्मात्माओंके रक्षक परमधर्मिष्ठ यमराज भी धूमोणकि साथ दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणदेव अपनी पत्नी गौरीके साथ इस यज्ञमण्डपमें सुशोभित हैं। यक्षोंके राजा कुबेर भी अपनी पत्नीके साथ आये हैं। देवताओंके मुखस्वरूप अग्निदेवने भी यज्ञ मण्डपमें पदार्पण किया है। वायु देवता अपने उनचास गणके साथ और लोकपावन सूर्यदेव अपनी भार्या संज्ञाके साथ पधारे हैं। महान् यशस्वी चन्द्रमा भी सपत्नीक आये हैं। आठों वसु और दोनों अश्विनीकुमार भी उपस्थित हैं। इनके सिवा वृक्ष, वनस्पति, गन्धर्व, अप्सराएँ, विद्याधर, भूतोंके समुदाय, बेताल, यक्ष, राक्षस, भयंकर कर्म करनेवाले पिशाच तथा दूसरे दूसरे प्राणधारी जीव भी यहाँ मौजूद हैं। भगवान् कश्यप, शिष्यों सहित वसिष्ठजी, पुलस्त्य, पुलह, सनकादि महर्षि तथा भूमण्डलके समस्त पुण्यात्मा राजा यहाँ पधारे हैं। अधिक क्या कहूँ, ब्रह्माजीको बनायी हुई सारी सृष्टि ही यहाँ आ पहुँची है। ये हमारी बहिनें हैं, ये भानजे हैं और ये बहनोई हैं। ये सब-के-सब अपनी-अपनी स्वी, पुत्र और बान्धवके साथ यहाँ उपस्थित दिखायी देते हैं। आपने दान-मानादिके द्वारा इन सबका यथावत् सत्कारकिया है। केवल मेरे पति भगवान् शंकर ही इस यज्ञमण्डपमें नहीं पधारे हैं; उनके बिना यह सारा आयोजन मुझे सूना-सा ही जान पड़ता है। मैं समझती हूँ आपने मेरे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है; निश्चय ही आप उन्हें भूल गये हैं। इसका क्या कारण है? मुझे सब बातें बताइये।
पुलस्त्यजी कहते हैं- प्रजापति दक्षने सतीके वचन सुने। सती उन्हें प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय थीं, उन्होंने पतिके स्नेहमें डूबी हुई परम सौभाग्यवती पतिव्रता सतीको गोदमें बिठा लिया और गम्भीर होकर कहा- ‘बेटी! सुनो; जिस कारणसे आज मैंने तुम्हारे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है, वह सब ठीक-ठीक बताता है। वे अपने शरीरमें राख लपेटे रहते हैं। त्रिशूल और दण्ड लिये नंग-धड़ंग सदा श्मशानभूमिमें ही विचरा करते हैं। व्याघ्रचर्म पहनते और हाथीका चमड़ा ओढ़ते हैं कंधेपर नरमुण्डौकी माला और हाथमें खट्वांग यही उनके आभूषण हैं। वे नागराज – वासुकिको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे सदा इस पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं। इसके सिवा और भी बहुत से घृणित कार्य तुम्हारे पति देवता करते रहते हैं। यह सब मेरे लिये बड़ी लज्जाकी बात है भला, इन देवताओंके निकट वे उस अभद्र वेषमें कैसे बैठ सकते हैं। जैसा उनका वस्त्र है, उसे पहनकर वे इस यज्ञमण्डपमें आनेयोग्य नहीं हैं। बेटी ! इन्हीं दोषोंके कारण तथा लोक लज्जाके भयसे मैंने उन्हें नहीं बुलाया। जब यज्ञ समाप्त हो जायगा, तब मैं तुम्हारे पतिको ले आऊँगा और त्रिलोकीमें सबसे बढ़-चढ़कर उनकी पूजा करूँगा; साथ ही तुम्हारा भी यथावत् सत्कार करूँगा। अतः इसके लिये तुम्हें खेद या क्रोध ‘नहीं करना चाहिये।’
भीष्म प्रजापति दक्षके ऐसा कहनेपर सतीको बड़ा शोक हुआ, उनकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे पिताकी निन्दा करती हुई बोलीं- ‘तात! भगवान् शंकर ही सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं, वे ही सबसे श्रेष्ठ माने गये हैं। समस्त देवताओंको जो ये उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त हुए हैं, ये सब परम बुद्धिमान् महादेवजीके ही दियेहुए हैं। भगवान् शिवमें जितने गुण हैं, उनका पूर्णतया वर्णन करनेमें ब्रह्माजीकी जिला भी समर्थ नहीं है। वे ही सबके धाता (धारण करनेवाले) और विधाता (नियामक) हैं। वे ही दिशाओंके पालक हैं। भगवान् रुद्रके प्रसादसे ही इन्द्रको स्वर्गका आधिपत्य प्राप्त हुआ है। यदि रुद्रमें देवत्व है, यदि वे सर्वत्र व्यापक और कल्याणस्वरूप हैं, तो इस सत्यके प्रभावसे शंकरजी आपके यज्ञका विध्वंस कर डालें।’
इतना कहकर सती योगस्थ हो गर्यो- उन्होंने ध्यान लगाया और अपने ही शरीरसे प्रकट हुई अग्निकेद्वारा अपनेको भस्म कर दिया। उस समय देवता, असुर, नाग, गन्धर्व और गुहाक ‘यह क्या! यह क्या!’ कहते ही रह गये; किन्तु क्रोधमें भरी हुई सतीने गंगाके तटपर अपने देहका त्याग कर दिया। गंगाजीके पश्चिमी तटपर वह स्थान आज भी ‘सौनक तीर्थ’ के नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् रुद्रने जब यह समाचार सुना, तब अपनी पत्नीकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उनके मनमें समस्त देवताओंके देखते-देखते उस को नष्ट कर डालनेका विचार उत्पन्न हुआ। फिर तो उन्होंने दक्षयज्ञका विनाश करनेके लिये करोड़ों गणकोआज्ञा दी। उनमें विनायक सम्बन्धी ग्रह, भूत, प्रेत तथा पिशाच-सब थे। डपमें पहुँचकर उन्होंने सब देवताओंको परास्त किया और उन्हें भगाकर उस यज्ञको तहस-नहस कर डाला। यज्ञ नष्ट हो जानेसे दक्षका सारा उत्साह जाता रहा। वे उद्योगशून्य होकर देवाधिदेव पिनाकधारी भगवान् शिवके पास डरते डरते गये और इस प्रकार बोले- ‘देव! मैं आपके प्रभावको नहीं जानता था; आप देवताओंके प्रभु और ईश्वर हैं। इस जगत् के अधीश्वर भी आप ही हैं आपने सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया। महेश्वर! अब मुझपर कृपा कीजिये और अपने सब गणको लौटाइये।’
दक्षप्रजापतिने भगवान् शंकरकी शरणमें जाकर जब इस प्रकार उनकी स्तुति और आराधना की, तब भगवान्ने कहा- ‘प्रजापते! मैंने तुम्हें यज्ञका पूरा-पूरा फल दे दिया। तुम अपनी सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये यज्ञका उत्तम फल प्राप्त करोगे।’ भगवान्के ऐसा कहनेपर दक्षने उन्हें प्रणाम किया और सब गणोंके देखते-देखते वे अपने निवास स्थानको चले गये। उस समय भगवान् शिव अपनी पत्नीके वियोगसे गंगाद्वारमें ही जाकर रहने लगे। ‘हाय! मेरी प्रिया कहाँ चली गयी।’ इस प्रकार कहते हुए वे सदा सतीके चिन्तनमें लगे रहते थे। तदनन्तर एक दिन देवर्षि नारद महादेवजीके समीप आये और इस प्रकार बोले- ‘देवेश्वर! आपकी पत्नी सती देवी, जो आपको प्राणोंके समान प्रिय थीं, देहत्यागके पश्चात् इस समय हिमवान्की कन्या होकर प्रकट हुई हैं। मेनाके गर्भसे उनका आविर्भाव हुआ है। वे लोकके तात्त्विक अर्थको जाननेवाली थीं। उन्होंने इस समय दूसरा शरीर धारण किया है।’
नारदजीकी बात सुनकर महादेवजीने ध्यानस्थ हो देखा कि सती अवतार ले चुकी हैं। इससे उन्होंने अपनेको कृतकृत्य माना और स्वस्थचित्त होकर रहने लगे। फिर जब पार्वतीदेवी यौवनावस्थाको प्राप्त हुईं, तब शिवजीने पुनः उनके साथ विवाह किया। भीष्म ! पूर्वकालमें जिस प्रकार दक्षका यज्ञ नष्ट हुआ था, उसका इस रूपमें मैंने तुमसे वर्णन किया है।
अध्याय-07 देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
भीष्मजीने कहा- गुरुदेव! देवताओं, दानवों, गन्धव, नागों और राक्षसोंकी उत्पत्तिका आप विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- कुरुनन्दन। कहते हैं पहले प्रजा वर्गकी सृष्टि संकल्पसे, दर्शनसे तथा स्पर्श करनेसे होती थी; किन्तु प्रचेताओंके पुत्र दक्षप्रजापतिके बाद मैथुनसे प्रजाकी उत्पत्ति होने लगी। दक्षने आदिमें जिस प्रकार प्रजाकी सृष्टि की, उसका वर्णन सुनो। जब वे [पहलेके नियमानुसार संकल्प आदिसे] देवता, ऋषि और नागौकी सृष्टि करने लगे किन्तु प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई, तब उन्होंने मैथुनके द्वारा अपनी पत्नी वीरिणीके गर्भसे साठ कन्याओंको जन्म दिया। उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस चन्द्रमाको चार अरिष्टनेमिको दो भृगुपुत्रको दो बुद्धिमान् कृशाश्वको तथा दो महर्षि अंगिराको व्याह दी। वे सब देवताओंकी जननी हुई। उनके वंश विस्तारका आरम्भसे ही वर्णन करता है, सुनो अस्थती, वसु, जामी, लंबा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा-ये दस धर्मकी पत्नियाँ बतायी गयी हैं। इनके पुत्रोंके नाम सुनो विश्वाके गर्भ से विश्वेदेव हुए। साध्याने साध्य नामक देवताओंको जन्म दिया। मरुत्वतीसे मरुत्वान् नामक देवताओंकी उत्पत्ति हुई। वसुके पुत्र आठ वसु कहलाये। भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्ताभिमानी देवता उत्पन्न हुए। लंबासे घोष, जामीसे नागवीथी नामकी कन्या तथा अरुन्धतीके गर्भ से पृथ्वीपर होनेवाले समस्त प्राणी उत्पन्न हुए। संकल्पसे संकल्पोंका जन्म हुआ। अब वसुकी सृष्टिका वर्णन सुनो। जो देवगण अत्यन्त प्रकाशमान और सम्पूर्ण दिशाओंमें व्यापक हैं, वे वसु कहलाते हैं; उनके नाम सुनो। आप, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास-ये आठ वसु हैं। ‘आप’ के चार पुत्र हैं—शान्त, वैतण्ड, साम्ब और मुनिव। ये सब यज्ञरक्षाके अधिकारी हैं। ध्रुवके पुत्र काल और सोमके पुत्र वर्चा हुए। धरके दो पुत्र हुए द्रविण और हव्यवाह। अनिलके पुत्र प्राण, रमण औरशिशिर थे। अनलके कई पुत्र हुए, जो प्रायः अग्निके समान गुणवाले थे। अग्निपुत्र कुमारका जन्म सरकंडों में हुआ। उनके शाख, उपशाख और नैगमेय-ये तीन पुत्र हुए। कृत्तिकाओंकी सन्तान होनेके कारण कुमारको कार्तिकेय भी कहते हैं। प्रत्यूषके पुत्र देवल नामके मुनि हुए। प्रभाससे प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ, जो शिल्पकलाके ज्ञाता हैं। वे महल, घर, उद्यान, प्रतिमा, आभूषण, तालाब, उपवन और कूप आदिका निर्माण करनेवाले हैं। देवताओंके कारीगर वे ही हैं। अजैकपाद्, अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, रैवत, हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, सावित्र, जयन्त, पिनाकी और अपराजित – ये ग्यारह रुद्र कहे गये हैं; ये गणके स्वामी हैं। इनके मानस संकल्पसे उत्पन्न चौरासी करोड़ पुत्र हैं, जो रुद्रगण कहलाते हैं वे श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किये रहते हैं। उन सबको अविनाशी माना गया है। जो गणेश्वर सम्पूर्ण दिशाओंमें रहकर सबकी रक्षा करते हैं, वे सब सुरभिके गर्भ से उत्पन्न उन्होंके पुत्र पौत्रादि हैं। अब मैं कश्यपजीकी स्त्रियोंसे उत्पन्न पुत्र पौत्रोंका वर्णन करूंगा अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू, खसा और मुनि-ये कश्यपजीकी पत्नियोंके नाम हैं। इनके पुत्रोंका वर्णन सुनो। चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामसे प्रसिद्ध देवता थे, वे ही वैवस्वत मन्वन्तरमें बारह आदित्य हुए। उनके नाम हैं-इन्द्र, धाता, भग, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान्, सविता, पूषा, अंशुमान् और विष्णु। ये सहस्रों किरणोंसे सुशोभित बारह आदित्य माने गये हैं। इन श्रेष्ठ पुत्रोंको देवी अदितिने मरीचिनन्दन कश्यपके अंशसे उत्पन्न किया था। कृशाश्व नामक ऋषिसे जो पुत्र हुए, उन्हें देव -प्रहरण कहते हैं। ये देवगण प्रत्येक मन्वन्तर और प्रत्येक कल्पमें उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। भीष्म ! हमारे सुननेमें आया है कि दितिने कश्यपजीसे दो पुत्र प्राप्त किये, जिनके नाम थे हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष हिरण्यकशिपुसे चार पुत्रउत्पन्न हुए-प्रह्लाद, अनुहाद, संहाद और हाद। प्रह्लादके चार पुत्र हुए- आयुष्मान् शिवि, वाष्कलि और चौथा विरोचन। विरोचनको बलि नामक पुत्रकी प्राप्ति हुई । बलिके सौ पुत्र हुए। उनमें बाण जेठा था। गुणोंमें भी वह सबसे बढ़ा चढ़ा था। बाणके एक हजार बाँहें थीं तथा वह सब प्रकारके अस्त्र चलानेकी कलामें भी पूरा प्रवीण था। त्रिशूलधारी भगवान् शंकर उसकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर उसके नगरमें निवास करते थे। बाणासुरको ‘महाकाल’ की पदवी तथा साक्षात् पिनाकपाणि भगवान् शिवकी समानता प्राप्त हुई वह महादेवजीका सहचर हुआ। हिरण्याक्षके उलूक, शकुनि, भूतसन्तापन और महाभीम-ये चार पुत्र थे। इनसे सत्ताईस करोड़ पुत्र-पौत्रोंका विस्तार हुआ। वे सभी महाबली, अनेक रूपधारी तथा अत्यन्त तेजस्वी थे। दनुने कश्यपजीसे सौ पुत्र प्राप्त किये। वे सभी वरदान पाकर उन्मत्त थे। उनमें सबसे ज्येष्ठ और अधिक बलवान् विप्रचित्ति था। दनुके शेष पुत्रोंके नाम स्वर्भानु और वृषपर्वा आदि थे। स्वर्भानुसे सुप्रभा और पुलोमा नामक दानवसे शची नामकी कन्या हुई। मपके तीन कन्याएँ हुई- उपदानवी मन्दोदरी और कुहू । वृषपर्वाके दो कन्याएँ थीं- सुन्दरी शर्मिष्ठा और चन्द्रा वैश्वानरके भी दो पुत्रियाँ र्थी – पुलोमा और कालका। ये दोनों ही बड़ी शक्तिशालिनी तथा अधिक सन्तानोंकी जननी हुई। इन दोनोंसे साठ हजार दानवोंकी उत्पत्ति हुई। पुलोमाके पुत्र पौलोम और कालकाके कालखंज (या कालकेय) कहलाये। ब्रह्माजीसे वरदान पाकर ये मनुष्योंके लिये अवध्य हो गये थे और हिरण्यपुरमें निवास करते थे फिर भी ये अर्जुनके हाथसे मारे गये।” विप्रचित्तिने सिंहिकाके गर्भसे एक भयंकर पुत्रको जन्म दिया, जो सैंहिकेय (राहु) के नामसे प्रसिद्ध था हिरण्यकशिपुको बहिन कुल तेरह पुत्र जिनके नाम ये हैं-कंस, शंख, नल, वातापि, इल्वल, नमुचि, खसृम, अंजन, नरक, कालनाभ, परमाणु,कल्पवीर्य तथा दनुवंशविवर्धन। संहाद दैत्यके वंशमें निवातकवचका जन्म हुआ। वे गन्धर्व, नाग, राक्षस एवं सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अवध्य थे। परन्तु वरवर अर्जुन संग्राम-भूमिमें उन्हें भी बलपूर्वक मार डाला। ताम्राने कश्यपजीके वीर्यसे छः कन्याओंको जन्म दिया, जिनके नाम हैं-शुकी, स्पेनी भासी सुश्री, गृधिका और शुचि। शुकीने शुक और उल्लू नामवाले पक्षियोंको उत्पन्न किया। स्पेन स्पेन (बाजों को तथा भासीने कुर नामक पक्षियोंको जन्म दिया। गृध्रीसे गृध्र और सुगृधीसे कबूतर उत्पन्न हुए तथा शुचिने हंस, सारस, कारण्ड एवं प्लव नामके पक्षियोंको जन्म दिया। यह ताम्राके वंशका वर्णन हुआ। अब विनताकी सन्तानोंका वर्णन सुनो पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड और अरुण विनताके पुत्र हैं तथा उनके एक सौदामनी नामकी कन्या भी है, जो वह आकार में चमकती दिखायी देती है। अरुणके दो पुत्र हुए- सम्पाति और जटायु। सम्पातिके पुत्रोंका नाम बभ्रु और शीघ्रग हैं। इनमें शीघ्रग विख्यात हैं। जटायुके भी दो पुत्र हुए-कर्णिकार और शतगामी। वे दोनों ही प्रसिद्ध थे। इन पक्षियोंके असंख्य पुत्र-पौत्र हुए।
सुरसाके गर्भसे एक हजार सपकी उत्पत्ति हुई तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाली कद्रूने हजार मस्तकवाले एक सहस्र नागोंको पुत्रके रूपमें प्राप्त किया। उनमें छब्बीस नाग प्रधान एवं विख्यात है-शेष वासुकि, कर्कोटक, शंख, ऐरावत, कम्बल, धनंजय, महानील, पद्य, अश्वतर, तक्षक, एलापत्र, महापद्म धृतराष्ट्र बलाहक, शंखपाल, महाशंख, पुष्पदन्त, सुभावन, शंखरोमा, नहुष, रमण, पाणिनि, कपिल, दुर्मुख तथा पतंजलिमुख इन सबके पुत्र-पौत्रोंकी संख्याका अन्त नहीं है। इनमेंसे अधिकांश नागपूर्वकालमें राजा जनमेजय – मण्डपमें जला दिये गये। क्रोधवशाने अपने ही नामके क्रोधवशसंज्ञक राक्षससमूहको उत्पन्न किया। उनको बड़ी-बड़ी दा थीं उनमें से दस लाखक्रोधवश भीमसेनके हाथसे मारे गये। सुरभिने कश्यपजीके अंशसे रुद्रगण, गाय, भैंस तथा सुन्दरी स्त्रियोंको जन्म दिया। मुनिसे मुनियोंका समुदाय तथा अप्सराएँ प्रकट हुईं। अरिष्टाने बहुत-से किन्नरों और गन्धर्वोंको जन्म दिया । इरासे तृण, वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ – इन सबकी उत्पत्ति हुई । खसाने करोड़ोंराक्षसों और यक्षोंको जन्म दिया। भीष्म ! ये सैकड़ों और हजारों कोटियाँ कश्यपजीकी सन्तानोंकी हैं। यह स्वारोचिष मन्वन्तरकी सृष्टि बतायी गयी है। सबसे पीछे दितिने कश्यपजीसे उनचास मरुद्गणोंको उत्पन्न किया, जो सब-के-सब धर्मके ज्ञाता और देवताओंके प्रिय हैं।
अध्याय-08 मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! दितिके पुत्र मरुद्गणकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? वे देवताओंके प्रिय कैसे हो गये? देवता तो दैत्योंके शत्रु हैं, फिर उनके साथ मरुद्गणोंकी मैत्री क्योंकर सम्भव हुई? पुलस्त्यजीने कहा- भीष्म ! पहले देवासुर संग्राममें भगवान् श्रीविष्णु और देवताओंके द्वारा अपने पुत्र पौत्रोंके मारे जानेपर दितिको बड़ा शोक हुआ। वे आर्त होकर परम उत्तम भूलोकमें आय और सरस्वतीके तटपर पुष्कर नामके शुभ एवं महान् तीर्थमें रहकर सूर्यदेवकी आराधना करने लगीं। उन्होंने बड़ी उग्र तपस्या की। दैत्य- माता दिति ऋषियोंके नियमोंका पालन करतीं और फल खाकर रहती थीं। वे कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि कठोर व्रतोंके पालनद्वारा तपस्या करने लगीं। जरा और शोकसे व्याकुल होकर उन्होंने सौ वर्षोंसे कुछ अधिक कालतक तप किया। उसके बाद वसिष्ठ आदि महर्षियोंसे पूछा—’मुनिवरो! क्या कोई ऐसा भी व्रत है, जो मेरे पुत्रशोकको नष्ट करनेवाला तथा इहलोक और परलोकमें भी सौभाग्यरूप फल प्रदान करनेवाला हो ? यदि हो तो, बताइये।’ वसिष्ठ आदि महर्षियोंने ज्येष्ठकी पूर्णिमा व्रत बताया तथा दितिने भी उस व्रतका सांगोपांग वर्णन सुनकर उसका यथावत् अनुष्ठान किया। उस व्रतके माहात्म्यसे प्रभावित होकर कश्यपजी बड़ी प्रसन्नताके साथ दितिके आश्रमपर आये। दितिका शरीर तपस्यासे कठोर हो गया था। किन्तु कश्यपजीने उन्हें पुनः रूप और लावण्यसे युक्त कर दिया और उनसे वर माँगनेका अनुरोध किया। तब दितिने वर माँगते हुए कहा- ‘भगवन्! मैं इन्द्रका वध करनेके लिये एक ऐसेपुत्रकी याचना करती हूँ, जो समृद्धिशाली, अत्यन्त तेजस्वी तथा समस्त देवताओंका संहार करनेवाला हो।”
कश्यपने कहा- ‘शुभे ! मैं तुम्हें इन्द्रका घातक एवं बलिष्ठ पुत्र प्रदान करूँगा। तत्पश्चात् कश्यपने दितिके उदरमें गर्भ स्थापित किया और कहा-‘देवि! तुम्हें सौ वर्षोंतक इसी तपोवनमें रहकर इस गर्भकी रक्षाके लिये यत्न करना चाहिये। गर्मिणीको सन्ध्याके समय भोजन नहीं करना चाहिये तथा वृक्षकी जड़के पास न तो कभी जाना चाहिये और न ठहरना ही चाहिये। वह जलके भीतर न घुसे, सूने घरमें न प्रवेश करे। बाँबीपर खड़ी न हो कभी मनमें उद्वेग न लाये। T सूने घरमें बैठकर नख अथवा राखसे भूमिपर रेखा न खींचे, न तो सदा अलसाकर पड़ी रहे और न अधिक परिश्रम ही करे, भूसी, कोयले, राख, हड्डी और खपड़ेपर न बैठे। लोगोंसे कलह करना छोड़ दे, अँगड़ाई न ले, बाल खोलकर खड़ी न हो और कभी भी अपवित्र न रहे। उत्तरकी ओर अथवा नीचे सिर करके कभी न सोये नंगी होकर, उद्वेगमें पड़कर और बिना पैर धोये भी शयन करना मना है। अमंगलयुक्त वचन मुँहसे न निकाले, अधिक हँसी-मजाक भी न करे गुरुजनोंके साथ सदा आदरका बर्ताव करे, मांगलिक कार्योंमें लगी रहे, सर्वौषधियोंसे युक्त जलके द्वारा स्नान करे। अपनी रक्षाका प्रबन्ध रखे। गुरुजनोंकी सेवा करे और वाणीसे सबका सत्कार करती रहे। स्वामीके प्रिय और हितमें तत्पर रहकर सदा प्रसन्नमुखी बनी रहे किसी भी अवस्थामें कभी पतिकी निन्दा न करे।’
यह कहकर कश्यपनी सब प्राणियोंके देखते-देखतेवहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर पतिकी बातें सुनकर दिति विधिपूर्वक उनका पालन करने लगीं। इससे इन्द्रको बड़ा भय हुआ ये देवलोक छोड़कर दितिके पास आये और उनकी सेवाकी इच्छासे वहाँ रहने लगे। इन्द्रका भाव विपरीत था, वे दितिका छिद्र ढूँढ रहे थे। बाहरसे तो उनका मुख प्रसन्न था, किन्तु भीतरसे वे भयके मारे विकल थे। वे ऊपरसे ऐसा भाव जताते थे, मानो दितिके कार्य और अभिप्रायको जानते ही न हों। परन्तु वास्तवमें अपना काम बनाना चाहते थे। तदनन्तर जब सौ वर्षको समाप्तिमें तीन ही दिन बाकी रह गये, तब दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अपनेको कृतार्थ मानने लगीं तथा उनका हृदय विस्मयविमुग्ध रहने लगा। उस दिन वे पैर धोना भूल गयीं और बाल खोले हुए ही सो गयीं। इतना ही नहीं, निद्राके भारसे दबी होनेके कारण दिनमें उनका सिर कभी नीचेकी ओर हो गया। यह अवसर पाकर शचीपति इन्द्र दितिके गर्भमें प्रवेश कर गये और अपने वज्रके द्वारा उन्होंने उस गर्भस्थ बालकके सात टुकड़े कर डाले। तब वे सातों टुकड़े सूर्यके समान तेजस्वी सात कुमारोंके रूपमें परिणत हो गये और रोने लगे। उस समय दानवशत्रु इन्द्रने उन्हें रोनेसे मना किया तथा पुनः उनमेंसे एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। इस प्रकार उनचास कुमारोंके रूपमें होकर वे जोर-जोरसे रोने लगे। तब इन्द्रने ‘मा रुदध्वम्’ (मत रोओ) ऐसा कहकर उन्हें बारम्बार रोनेसे रोका और मन-ही-मन सोचा कि ये बालक धर्म और ब्रह्माजीके प्रभावसे पुनः जीवित हो गये हैं। इस पुण्यके योगसे ही इन्हें जीवन मिला है, ऐसा जानकर वे इस निश्चयपर पहुँचे कि ‘यह पौर्णमासी व्रतका फल है। निश्चय ही इस व्रतका अथवा ब्रह्माजीकी पूजाका यह परिणाम है कि वज्रसे मारे जानेपर भी इनका विनाश नहीं हुआ। ये एकसे अनेक हो गये, फिर भी उदरकी रक्षा हो रही है। इसमें सन्देह नहीं कि ये अवध्य हैं, इसलिये ये देवता हो जायें। जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भके बालकोंको ‘मा रुदः’ कहकर चुप कराया है, इसलिये। ये ‘मस्तु’ नामसे प्रसिद्ध होकर कल्याणके भागी बनें।’ऐसा विचार कर इन्द्रने दितिसे कहा- ‘माँ ! मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने अर्थशास्त्रका सहारा लेकर यह दुष्कर्म किया है।’ इस प्रकार बारम्बार कहकर उन्होंने दितिको प्रसन्न किया और मरुद्गणों को देवताओंके समान बना दिया। तत्पश्चात् देवराजने पुत्रसहित दितिको विमानपर बिठाया और उनको साथ लेकर वे स्वर्गको चले गये। मरुद्गण यज्ञ-भागके अधिकारी हुए उन्होंने असुरोंसे मेल नहीं किया, इसलिये वे देवताओंके प्रिय हुए।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपने आदिसर्ग और प्रतिसर्गका विस्तारके साथ वर्णन किया। अब जिनके जो स्वामी हों, उनका वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्। जब पृथु इस पृथ्वीके सम्पूर्ण राज्यपर अभिषिक्त होकर सबके राजा हुए, उस समय ब्रह्माजीने चन्द्रमाको अन्न, ब्राह्मण, व्रत और तपस्याका अधिपति बनाया। हिरण्यगर्भको नक्षत्र, तारे, पक्षी, वृक्ष, झाड़ी और लता आदिका स्वामी बनाया। वरुणको जलका, कुबेरको धनका, विष्णुको आदित्योंका और अग्निको वसुओंका अधिपति बनाया। दक्षको प्रजापतियोंका, इन्द्रको देवताओंका प्रह्लादको दैत्यों और दानवोंका, यमराजको पितरोंका, शूलपाणि भगवान् शंकरको पिशाच, राक्षस, पशु, भूत, यक्ष और वेतालराजोंका, हिमालयको पर्वतोंका, समुद्रको नदियाँकार, चित्ररथको गन्धर्व विद्याधर और किन्नरोंका, भयंकर पराक्रमी वासुकिको नागका, तक्षकको सर्पोका, गजराज ऐरावतको दिनकर गरुड़को पक्षियोंका उच्चैःश्रवाको घोड़ोंका, सिंहको मृगोंका, साँड़को गौओंका तथा लक्ष (पाकड़ को सम्पूर्ण वनस्पतियोंका अधीश्वर बनाया। इस प्रकार पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इन सभी अधिपतियोंको भिन्न-भिन्न वर्गके राजपदपर अभिषिक्त किया था।
कौरवनन्दन ! पहले स्वायम्भुव मन्वन्तरमें याम्य नामसे प्रसिद्ध देवता थे। मरीचि आदि मुनि ही सप्तर्षि माने जाते थे। आग्नीध्र अग्निबाहु विभु, सवन, ज्योतिष् युतिमान् हव्य, मेघा, मेधातिथि औरवसु-ये दस स्वायम्भुव मनुके पुत्र हुए, जिन्होंने अपने वंशका विस्तार किया। ये प्रतिसर्गकी सृष्टि करके परमपदको प्राप्त हुए। यह स्वायम्भुव मन्वन्तरका वर्णन हुआ। इसके बाद स्वारोचिष मन्वन्तर आया। स्वारोचिष मनुके चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान तेजस्वी थे। उनके नाम हैं- नभ, नभस्य, प्रसृति और भावन इनमेंसे भावन अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाला था। दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, स्तम्ब, प्राण, कश्यप तथा बृहस्पति- ये सात सप्तर्षि हुए। उस समय तुषित नामके देवता थे। हवीन्द्र, सुकृत, मूर्ति, आप और ज्योतीरथ-ये वसिष्ठके पाँच पुत्र ही स्वारोचिष मन्वन्तरमें प्रजापति थे। यह द्वितीय मन्वन्तरका वर्णन हुआ। इसके बाद औत्तम मन्वन्तरका वर्णन करूँगा। तीसरे मनुका नाम था औत्तमि। उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं-ईष, ऊर्ज, तनूज, शुचि, शुक्र, मधु, माधव, नभस्य, नभ तथा सह। इनमें सह सबसे छोटा था। ये सब के-सब उदार और यशस्वी थे। उस समय भानुसंज्ञक देवता और ऊर्ज नामके सप्तर्षि थे। कौकिभिण्डि, कुतुण्ड, दाल्भ्य, शंख, प्रवाहित, मित और सम्मित ये सात योगवर्धन ऋषि थे। चौथा मन्वन्तर तामसके नामसे प्रसिद्ध है। उसमें कवि, पृथु, अग्नि, अकपि, कपि जन्य तथा धामा-ये सात मुनि ही सप्तर्षि थे। साध्यगण देवता थे। अकल्मष, तपोधन्वा, तपोमूल, तपोधन, तपोराशि, तपस्य, सुतपस्य, परन्तप, तपोभागी और तपोयोगी-ये दस तामस मनुके पुत्र थे। जो धर्म और सदाचारमें तत्पर तथा अपने वंशका विस्तार करनेवाले थे। अब पाँचवें रैवत मन्वन्तरका वृत्तान्त श्रवण करो। देवबाहु, सुबाहु, पर्जन्य, सोमप, मुनि, हिरण्यरोमा और सप्ताश्व-ये सात रैवत मन्वन्तरके सप्तर्षि माने गये हैं। भूतरजा तथा प्रकृति नामवाले देवता थे तथा वरुण तत्वदर्शी, चितिमान्, हव्यय, कवि, मुक्त, निरुत्सुक, सत्त्व, विमोह और प्रकाशक- ये दस रैवत मनुके पुत्र हुए, जोधर्म, पराक्रम और बलसे सम्पन्न थे। इसके बाद चाक्षुष मन्वन्तरमें भृगु सुधामा, विरज, विष्णु, नारद, विवस्वान् और अभिमानी-ये सात सप्तर्षि हुए उस समय लेख नामसे प्रसिद्ध देवता थे। इनके सिवा ऋभु, पृथग्भूत, वारिमूल और दिवौका नामके देवता भी थे। इस प्रकार चाक्षुष मन्वन्तरमें देवताओंकी पाँच योनियाँ थीं। चाक्षुष मनुके दस पुत्र हुए, जो रुरु आदि नामसे प्रसिद्ध थे।
अब सातवें मन्वन्तरका वर्णन करूँगा, जिसे वैवस्वत मन्वन्तर कहते हैं। इस समय [वैवस्वत मन्वन्तर ही चल रहा है, इसमें] अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, योगी भरद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्निसात ऋषि ही सप्तर्षि हैं। ये धर्मकी व्यवस्था करके परमपदको प्राप्त होते हैं। अब भविष्यमें होनेवाले सावर्ण्य मन्वन्तरका वर्णन किया जाता है। उस समय अश्वत्थामा, ऋष्यभुंग, कौशिक्य, गालव, शतानन्द, काश्यप तथा परशुराम-ये सप्तर्षि होंगे। धृति, वरीयान् यवसु, सुवर्ण, धृष्टि, चरिष्णु, आद्य, सुमति, वसु तथा पराक्रमी शुक्र-ये भविष्य में होनेवाले सावर्णि मनुके पुत्र बतलाये गये हैं। इसके सिवा रौच्य आदि दूसरे दूसरे मनुओंके भी नाम आते हैं। प्रजापति रुचिके पुत्रका नाम रौच्य होगा। इसी प्रकार भूतिके पुत्र भौत्य नामके मनु कहलायेंगे। तदनन्तर मेरुसावर्णि नामक मनुका अधिकार होगा। वे ब्रह्माके माने गये हैं। मेरुसावर्णिके बाद क्रमशः पुत्र ऋभु वीतधामा और विष्वक्सेन नामक मनु होंगे। राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें भूत और भविष्य मनुओंका परिचय दिया है। इन चौदह मनुओंका अधिकार कुल मिलाकर एक हजार चतुर्युगतक रहता है। अपने-अपने मन्वन्तरमें इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को उत्पन्न करके कल्पका संहार होनेपर ये ब्रह्माजीके साथ मुक्त हो जाते हैं। ये मनु प्रति एक सहस्र चतुर्युगीके बाद नष्ट होते रहते हैं तथा ब्रह्मा आदि विष्णुका सायुज्य प्राप्त करते हैं।
अध्याय-09 पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् सुना जाता है, पूर्वकालमें बहुत-से राजा इस पृथ्वीका उपभोग कर चुके हैं। पृथ्वीके सम्बन्धसे ही राजाओंको पार्थिव या पृथ्वीपति कहते हैं। परन्तु इस भूमिकी जो ‘पृथ्वी’ संज्ञा है, वह किसके सम्बन्धसे हुई है? भूमिको यह पारिभाषिक संज्ञा किसलिये दी गयी अथवा उसका ‘गौ’ नाम भी क्यों पड़ा, यह मुझे बताइये।
पुलस्त्यजीने कहा- स्वायम्भुव मनुके वंशमें एक अंग नामके प्रजापति थे। उन्होंने मृत्युकी कन्या सुनीथाके साथ विवाह किया था। सुनीथाका मुख बड़ा कुरूप था। उससे वेन नामक पुत्र हुआ, जो सदा अधर्ममें हो लगा रहता था। वह लोगोंकी बुराई करता और परायी स्त्रियोंको हड़प लेता था। एक दिन महर्षियोंने उसकी भलाई और जगत्के उपकारके लिये उसे बहुत कुछ समझाया बुझाया परन्तु उसका अन्तःकरण अशुद्ध होनेके कारण उसने उनकी बात नहीं मानी, प्रजाको अभयदान नहीं दिया। तब ऋषियोंने शाप देकर उसे मार डाला। फिर अराजकताके भयसे पीड़ित होकर पापरहित ब्राह्मणोंने वेनके शरीरका बलपूर्वक मन्थन किया। मन्थन करनेपर उसके शरीर से पहले म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुई, जिनका रंग काले अंजनके समान था। तत्पश्चात् उसके दाहिने हाथसे एक दिव्य तेजोमय शरीरधारी धर्मात्मा पुरुषका प्रादुर्भाव हुआ, जो धनुष, बाण और गदा धारण किये हुए थे तथा रत्नमय कवच एवं अंगदादि आभूषणोंसे विभूषित थे। वे पृथुके नामसे प्रसिद्ध हुए। उनके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही अवतीर्ण हुए थे। ब्राह्मणोंने उन्हें राज्यपर अभिषिक्त किया। राजा होनेपर उन्होंने देखा कि इस भूतलसे धर्म उठ गया है। न कहीं स्वाध्याय होता है, न वषट्कार (यज्ञादि)। तब वे क्रोध करके अपने वाणसे पृथ्वीको विदीर्ण कर डालनेके लिये उद्यत हो गये। यह देख पृथ्वी गौका रूप धारण करके भाग खड़ी हुई। उसे भागते देख पृथुने भी उसका पीछा किया। तब वह एक स्थानपर खड़ी होकर बोली- ‘राजन्! मेरे लिये क्या आज्ञा होती है?’पृथुने कहा – ‘सुव्रते ! सम्पूर्ण चराचर जगत्के लिये जो अभीष्ट वस्तु है, उसे शीघ्र प्रस्तुत करो।’ पृथ्वीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकृति दे दी तब राजाने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें पृथ्वीका दूध दुह वही दूध अन्न हुआ, जिससे सारी प्रजा जीवन धारण करती है। तत्पश्चात् ऋषियोंने भी भूमिरूपिणी गौका दोहन किया। उस समय चन्द्रमा ही बड़ा बने थे। दुहनेवाले थे वनस्पति, दुग्धका पात्र भा वेद और तपस्या ही दूध थी। फिर देवताओंने भी वसुधाको दुहा। उस समय मित्र देवता दोग्धा हुए, इन्द्र बछड़ा बने तथा ओज और बल ही दूधके रूपमें प्रकट हुआ। देवताओंका दोहनपात्र सुवर्णका था और पितरोंका चाँदीका पितरोंकी ओरसे अन्तकने दुहनेका काम किया, यमराज बछड़ा बने और स्वधा ही दूधके रूपमें प्राप्त हुई। नागने तूंबीको पात्र बनाया और तक्षकको बछड़ा। धृतराष्ट्र नामक नागने दोग्धा बनकर विषरूपी दुग्धका दोहन किया। असुरोंने लोहेके वर्तनमें इस पृथ्वीसे मायारूप दूध दुहा। उस समय प्रह्लादकुमार विरोचन बछड़ा बने थे और त्रिमूर्धाने दुहनेका काम किया था। यक्ष अन्तर्धान होनेकी विद्या प्राप्त करना चाहते थे; इसलिये उन्होंने कुबेरको बछड़ा बनाकर कच्चे वर्तनमें उस अन्तर्धान-विद्याको हो वसुधासे दुग्धके रूपमें दुरा। गन्धवों और अप्सराओंने चित्ररथको बछड़ा बनाकर कमलके पत्तेमें पृथ्वीसे सुगन्धोंका दोहन किया। उनकी ओरसे अथर्ववेदके पारगामी विद्वान् सुरुचिने दूध दुहनेका कार्य किया था। इस प्रकार दूसरे लोगोंने भी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार पृथ्वीसे आयु, धन और सुखका दोहन किया। पृथुके शासन कालमें कोई भी मनुष्य न दरिद्र था न रोगी, न निर्धन था न पापी तथा न कोई उपद्रव था न पीड़ा। सब सदा प्रसन्न रहते थे। किसीको दुःख या शोक नहीं था। महाबली पृथुने लोगोंके हितकी इच्छासे अपने धनुषकी नोकसे बड़े-बड़े पर्वतको उखाड़कर हटा दिया और पृथ्वीको समतल या पृथुके राज्यमें गाँव बसाने या किले बनवानेकी,आवश्यकता नहीं थी। किसीको शस्त्र धारण करनेका भी कोई प्रयोजन नहीं था। मनुष्योंको विनाश एवं वैषम्यका दुःख नहीं देखना पड़ता था अर्थशास्त्रमें किसीका आदर नहीं था। सब लोग धर्ममें ही संलग्न रहते थे। इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वीके दोहन पात्रोंका वर्णन किया तथा जैसा-जैसा दूध दुहा गया था, वह भी बता दिया। राजा पृथु बड़े विज्ञ थे; जिनकी जैसी संथ थी, उसीके अनुसार उन्होंने सबको दूध प्रदान किया। यह प्रसंग यज्ञ और श्राद्ध सभी अवसरोंपर सुनानेके योग्य हैं; इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। यह भूमि धर्मात्मा पृथुकी कन्या मानी गयी इसीसे विद्वान् पुरुष ‘पृथ्वी’ कहकर इसकी स्तुति करते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप तत्त्वके ज्ञाता हैं; अब क्रमशः सूर्यवंश और चन्द्रवंशका पूरा-पूरा एवं स्वार्थ वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! पूर्वकालमें कश्यपजीसे अदिति के गर्भ से विवस्वान् नामक पुत्र हुए। विवस्वानके तीन स्त्रियाँ थीं- संज्ञा, राज्ञी और प्रभा राज्ञीने रैवत नामक पुत्र उत्पन्न किया। प्रभासे प्रभातकी उत्पत्ति हुई। संज्ञा विश्वकर्माकी पुत्री थी। उसने वैवस्वत मनुको जन्म दिया। कुछ काल पश्चात् संज्ञाके गर्भसे यम और यमुना नामक दो जुड़वी सन्तानें पैदा हुई। तदनन्तर वह विवस्वान (सूर्य) के तेजोमय स्वरूपको न सह सकी, अतः उसने अपने शरीरसे अपने ही समान रूपवाली एक नारीको प्रकट किया। उसका नाम छाया हुआ छाया सामने खड़ी होकर बोली ‘देवि! मेरे लिये क्या आज्ञा है?’ संज्ञाने कहा- ‘छाया! तुम मेरे स्वामीकी सेवा करो, साथ ही मेरे बच्चोंका भी माताकी भाँति स्नेहपूर्वक पालन करना।’ ‘तथास्तु’ कहकर छाया भगवान् सूर्यके पास गयी। वह उनसे अपनी कामना पूर्ण करना चाहती थी। सूर्यने भी यह समझकर कि यह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली संज्ञा ही है, बड़े आदरके साथ उसकी कामना की छायाने सूर्यसे सावर्ण मनुको उत्पन्न किया। उनका वर्ण भी वैवस्वत मनुके समान होनेके कारण उनका नाम सावर्ण मनु पड़ गया। तत्पश्चात्भगवान् भास्करने छायाके गर्भसे क्रमशः शनैश्चर नामक पुत्र तथा तपती और विष्टि नामकी कन्याओंको जन्म दिया।
एक समय महायशस्वी यमराज वैराग्यके कारण पुष्कर तीर्थमें गये और वहाँ फल, फेन एवं वायुका आहार करते हुए कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने सौ वर्षोंतक तपस्याके द्वारा ब्रह्माजीकी आराधना की। उनके रूपके प्रभावसे देवेश्वर ब्रह्माजी सन्तुष्ट हो गये तब यमराजने उनसे लोकपालका पद अक्षय पितृलोकका राज्य तथा धर्माधर्ममय जगत्की देख-रेखका अधिकार माँगा। इस प्रकार उन्हें ब्रह्माजीसे लोकपाल पदवी प्राप्त हुई। साथ ही उन्हें पितृलोकका राज्य और धर्माधर्मके निर्णयका अधिकार भी मिल गया।
छायाके पुत्र शनैश्चर भी तपके प्रभावसे ग्रहोंकी समानताको प्राप्त हुए। यमुना और तपती- ये दोनों सूर्य कन्याएँ नदी हो गयीं। विष्टिका स्वरूप बड़ा भयंकर था; वह कालरूपसे स्थित हुई। वैवस्वत मनुके दस महाबली पुत्र हुए, उन सबमें ‘इल’ ज्येष्ठ थे। शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार हैं-इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करूष, महाबली शर्याति, पृषध तथा नाभाग। ये सभी दिव्य मनुष्य थे। राजा मनु अपने ज्येष्ठ और धर्मात्मा पुत्र ‘इल’ को राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं पुष्करके तपोवनमें तपस्या करनेके लिये चले गये। तदनन्तर उनकी तपस्याको सफल करनेके लिये वरदाता ब्रह्माजी आये और बोले—’मनो! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी इच्छाके अनुसार वर माँगो।’
मनुने कहा- स्वामिन्! आपकी कृपासे पृथ्वीके सम्पूर्ण राजा धर्मपरायण, ऐश्वर्यशाली तथा मेरे अधीन हो ‘तथास्तु’ कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर मनु अपनी राजधानीमें आकर पूर्ववत् रहने लगे। इसके बाद राजा इल अर्थसिद्धिके लिये इस भूमण्डलपर विचरने लगे। वे सम्पूर्ण द्वीपोंमें घूम-घूमकर वहाँके राजाओंको अपने वशमें करते थे। एक दिन प्रतापी इल रथमें बैठकर भगवान् शंकरके महान् उपवनमें गये, जो कल्पवृक्षकी लताओंसे व्याप्त एवं’शरवण’ के नामसे प्रसिद्ध था। उसमें देवाधिदेव चन्द्रार्धशेखर भगवान् शिव पार्वतीजीके साथ क्रीडा करते हैं। पूर्वकालमें महादेवजीने उमाके साथ ‘शरवण’ के भीतर प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही थी कि ‘पुरुष नामधारी जो कोई भी जीव हमारे वनमें आ जायगा, वह इस दस योजनके घेरेमें पैर रखते ही स्त्रीरूप हो जायगा।’ राजा इल इस प्रतिज्ञाको नहीं जानते थे, इसीलिये ‘शरवण’ में चले गये। वहाँ पहुँचनेपर वे सहसा स्त्री हो गये तथा उनका घोड़ा भी उसी समय घोड़ी बन गया रायके जो-जो पुरुषोचित अंग थे, वे सभी स्त्रीके आकारमें परिणत हो गये। इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अब वे ‘इला’ नामकी स्त्री थे।
इला उस वनमें घूमती हुई सोचने लगी, ‘मेरे माता-पिता और भ्राता कौन हैं?’ वह इसी उधेड़-बुनमें पड़ी थी, इतनेमें ही चन्द्रमाके पुत्र बुधने उसे देखा । [ इलाकी दृष्टि भी बुधके ऊपर पड़ी।] सुन्दरी इलाका मन बुधके रूपपर मोहित हो गया; उधर बुध भी उसे देखकर कामपीड़ित हो गये और उसकी प्राप्तिके लिये यत्न करने लगे। उस समय बुध ब्रह्मचारीके वेषमें थे। वे बनके बाहर पेड़ोंके झुरमुटमें छिपकर इलाको बुलाने लगे- ‘सुन्दरी! यह साँझका समय, विहारकी वेला है। जो बीती जा रही है; आओ, मेरे घरको लीप-पोतकर फूलोंसे सजा दो।’ इला बोली- ‘तपोधन! मैं यह सब कुछ भूल गयी हूँ। बताओ, मैं कौन हूँ? तुम कौन हो ? मेरे स्वामी कौन हैं तथा मेरे कुलका परिचय क्या है?’ बुधने कहा- ‘सुन्दरी! तुम इला हो, मैं तुम्हें चाहनेवाला बुध हूँ। मैं विद्या है। तेजस्वी कुलमें मेरा जन्म हुआ है। मेरे पिता ब्राह्मणोंके राजा चन्द्रमा हैं।’
बुधकी यह बात सुनकर इलाने उनके घरमें प्रवेश किया। वह सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न था और अपने वैभवसे इन्द्रभवनको मात कर रहा था। वहाँ रहकर इला बहुत समयतक बुधके साथ वनमें रमण करती रही। उधर इलके भाई इक्ष्वाकु आदि मनुकुमार अपने राजाकी खोज करते हुए उस ‘शरवण’ के निकट आ पहुँचे। उन्होंने नाना प्रकारके स्तोत्रोंसेपार्वती और महादेवजीका स्तवन किया। तब वे दोनों प्रकट होकर बोले—’राजकुमारो ! मेरी यह प्रतिज्ञा तो टल नहीं सकती; किन्तु इस समय एक उपाय हो सकता है। इक्ष्वाकु अश्वमेध यज्ञ करें और उसका फल हम दोनोंको अर्पण कर दें। ऐसा करनेसे वीरवर इस ‘किम्पुरुष’ हो जायेंगे इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।’
‘बहुत अच्छा, प्रभो!’ यह कहकर मनुकुमार लौट गये। फिर इक्ष्वाकुने अश्वमेध यज्ञ किया। इससे इला ‘किम्पुरुष’ हो गयी। वे एक महीने पुरुष और एक महीने स्वीके रूपमें रहने लगे। बुधके भवनमें [स्त्रीरूपसे] रहते समय इलने गर्भ धारण किया था। उस गर्भसे उन्होंने अनेक गुणोंसे युक्त पुत्रको जन्म दिया। उस पुत्रको उत्पन्न करके बुध स्वर्गलोकको चले गये। वह प्रदेश इलके नामपर ‘इलावृतवर्ष’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ। ऐल चन्द्रमाके वंशज तथा चन्द्रवंशका विस्तार करनेवाले राजा हुए। इस प्रकार इलाकुमार पुरूरवा चन्द्रवंशकी तथा राजा इक्ष्वाकु सूर्यवंशकी वृद्धि करनेवाले बताये गये हैं। ‘इल’ किम्पुरुष अवस्थामें ‘सुसुम्न’ भी कहलाते थे। तदनन्तर सुद्युम्नसे तीन पुत्र और हुए, जो किसीसे परास्त होनेवाले नहीं थे। उनके नाम उत्कल, गय तथा हरिताश्व थे। हरिताश्व बड़े पराक्रमी थे। उत्कलकी राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई और गयकी राजधानी गया मानी गयी है। इसी प्रकार हरिताश्वको कुरु प्रदेशके साथ-ही-साथ दक्षिण दिशाका राज्य दिया गयासुद्युम्न अपने पुत्र पुरुरवाको प्रतिष्ठानपुर (पैठन) के राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं दिव्य वर्षके फलोंका उपभोग करनेके लिये इलावृतवर्षमें चले गये।
[सुद्युम्न के बाद] इक्ष्वाकु हो मनुके सबसे बड़े पुत्र थे। उन्हें मध्यदेशका राज्य प्राप्त हुआ। इक्ष्वाकुके सौ पुत्रोंमें पंद्रह श्रेष्ठ थे। वे मेरुके उत्तरीय प्रदेशमें राजा हुए। उनके सिवा एक सौ चौदह पुत्र और हुए, जो मेरके दक्षिणवर्ती देशों के राजा बताये गये हैं। इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रसे ककुस्थ नामक पुत्र हुआ। ककुत्स्थका पुत्र सुयोधन था। सुयोधनका पुत्र पृथु औरपृथुका विश्वावसु हुआ। उसका पुत्र आर्द्र तथा आर्द्रका पुत्र युवनाश्व हुआ। युवनाश्वका पुत्र महापराक्रमी शावस्त हुआ, जिसने अंगदेशमें शावस्ती नामकी पुरी बसावी शावस्तसे बृहदश्व और बृहदश्वसे कुवलाश्वका जन्म हुआ। कुवलाश्व धुन्धु नामक दैत्यका विनाश करके धुन्धुमारके नामसे विख्यात हुए। उनके तीन पुत्र हुए- दृढाश्व, दण्ड तथा कपिलाश्व । धुन्धुमारके पुत्रोंमें प्रतापी कपिलाश्व अधिक प्रसिद्ध दृश्वका प्रमोद और प्रमोदका पुत्र हर्षश्व हर्वश्वसे निकुम्भ और निकुम्भसे संहताश्वका जन्म हुआ। संहताश्वके दो पुत्र हुए- अकृताश्व तथा रणाश्व । रणाश्वके पुत्र युवनाश्व और युवनाश्वके मान्धाता थे। मान्धाताके तीन पुत्र हुए- पुरुकुत्स, धर्मसेतु तथा मुचुकुन्द। इनमें मुचुकुन्दकी ख्याति विशेष थी। वे इन्द्रके मित्र और प्रतापी राजा थे। पुरुकुत्सका पुत्र सम्भूत था, जिसका विवाह नर्मदाके साथ हुआ था। सम्भूतसे सम्भूति और सम्भूतिसे त्रिधन्वाका जन्म हुआ। त्रिधन्वाका पुत्र त्रैधारुण नामसे विख्यात हुआ। उसके पुत्रका नाम सत्यव्रत था। उससे सत्यरथका जन्म हुआ। सत्यरथके पुत्र हरिश्चन्द्र थे । हरिश्चन्द्रसे रोहित हुआ। रोहितसे वृक और वृकसे बाहुकी उत्पत्ति हुई। बाहुके पुत्र परम धर्मात्मा राजा सगर हुए। सगरकी दो स्त्रियाँ थीं- प्रभा और भानुमती। इन दोनोंने पुत्रकी इच्छासे और्व नामक अग्निकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर और्वने उन दोनोंको इच्छानुसार वरदान देते हुए कहा – ‘एक रानी साठ हजार पुत्र पा सकती है और दूसरीको एक ही पुत्र मिलेगा, जो वंशकी रक्षा करनेवाला होगा [इन दो वरोंमेंसे जिसको जो पसंद आवे, वह उसे ले ले]!” प्रभाने बहुत से पुत्रोंको लेना स्वीकार किया तथा भानुमतीको एक ही पुत्र असमंजसकी प्राप्ति हुई। तदनन्तर प्रभाने जो यदुकुलकी कन्या थी, साठ हजार पुत्रोंको उत्पन्न किया, जोअश्वकी खोजके लिये पृथ्वीको खोदते समय भगवान् विष्णुके अवतार महात्मा कपिलके कोपसे दग्ध हो गये। असमंजसका पुत्र अंशुमान् के नामसे विख्यात हुआ। उसका पुत्र दिलीप था। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जिन्होंने तपस्या करके भागीरथी गंगाको इस पृथ्वीपर उतारा था। भगीरथके पुत्रका नाम नाभाग हुआ नाभागके अम्बरीष और अम्बरीषके पुत्र सिन्धुद्वीप हुए सिन्धुद्वीपसे अयुतायु और अयुतायुसे ऋतुपर्णका जन्म हुआ। ऋतुपर्णसे कल्माषपाद और कल्माषपादसे सर्वकर्माकी उत्पत्ति हुई। सर्वकर्माका आरण्य और आरण्यका पुत्र निघ्न हुआ। निघ्नके दो उत्तम पुत्र हुए अनुमित्र और रघु अनुमित्र शत्रुओंका नाश करनेके लिये वनमें चला गया। रघुसे दिलीप और दिलीपसे अज हुए। अजसे दीर्घबाहु और दीर्घबाहुसे प्रजापालकी उत्पत्ति हुई। प्रजापालसे दशरथका जन्म हुआ। उनके चार पुत्र हुए। वे सब-के-सब भगवान् नारायणके स्वरूप थे। उनमें राम सबसे बड़े थे, जिन्होंने रावणको मारा और रघुवंशका विस्तार किया तथा भृगुवंशियोंमें श्रेष्ठ वाल्मीकिने रामायणके रूपमें जिनके चरित्रका चित्रण किया। रामके दो पुत्र हुए-कुश और लव। ये दोनों ही इक्ष्वाकु वंशका विस्तार करनेवाले थे। कुशसे अतिथि और अतिथिसे निषधका जन्म हुआ। निषधसे नल, नलसे नभा, नभासे पुण्डरीक और पुण्डरीकसे क्षेमधन्वाकी उत्पत्ति हुई । क्षेमधन्वाका पुत्र देवानीक हुआ वह वीर और प्रतापी था। उसका पुत्र अहीनगु हुआ। अहीनगुसे सहस्राश्वका जन्म हुआ। सहस्राश्वसे चन्द्रावलोक, चन्द्रावलोकसे तारापीड, सरापीदमे चन्द्रगिरि, चन्द्रगिरिसे चन्द्र तथा चन्द्रसे श्रुतायु हुए, जो महाभारत युद्धमें मारे गये। नल नामके दो राजा प्रसिद्ध हैं-एक तो वीरसेनके पुत्र थे और दूसरे निषधके इस प्रकार इक्ष्वाकुवंशके प्रधान प्रधान राजाओंका वर्णन किया गया।
अध्याय-10 पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
भीष्मजीने कहा- भगवन्! अब मैं पितरोंके उत्तम वंशका वर्णन सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्। बड़े हर्षकी बात है; मैं तुम्हें आरम्भसे ही पितरोंके वंशका वर्णन सुनाता हूँ, सुनो स्वर्गमें पितरोंके सात गण हैं। उनमें तीन तो मूर्तिरहित हैं और चार मूर्तिमान्। ये सब-के-सब अमिततेजस्वी हैं। इनमें जो मूर्तिरहित पितृगण हैं, वे वैराज प्रजापतिको सन्तान हैं; अतः वैराज नामसे प्रसिद्ध हैं। देवगण उनका यजन करते हैं। अब पितरोंकी लोक-सृष्टिका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो। सोमपथ नामसे प्रसिद्ध कुछ लोक हैं, जहाँ कश्यपके पुत्र पितृगण निवास करते हैं। देवतालोग सदा उनका सम्मान किया करते हैं। अग्निष्वात्त नामसे प्रसिद्ध यज्वा पितृगण उन्हीं लोकोंमें निवास करते हैं। स्वर्गमें विभ्राज नामके जो दूसरे तेजस्वी लोक हैं, उनमें बर्हिषद्संज्ञक पितृगण निवास करते हैं। वहाँ मोरोंसे जुते हुए हजारों विमान हैं तथा संकल्पमय वृक्ष भी हैं, जो संकल्पके अनुसार फल प्रदान करनेवाले हैं। जो लोग इस लोकमें अपने पितरोंके लिये श्राद्ध करते हैं, वे उन विभ्राज नामके लोकोंमें जाकर समृद्धिशाली भवनोंमें आनन्द भोगते हैं तथा वहाँ मेरे सैकड़ों पुत्र विद्यमान रहते हैं, जो तपस्या और योगबलसे सम्पन्न, महात्मा, महान् सौभाग्यशाली और भक्तोंको अभयदान देनेवाले हैं। मार्तण्डमण्डल नामक लोकमें मरीचिगर्भ नामके पितृगण निवास करते हैं। वे अंगिरा मुनिके पुत्र हैं और लोकमें हविष्मान् नामसे विख्यात हैं; वे राजाओंके पितर हैं और स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाले हैं। तीथोंमें श्राद्ध करनेवाले श्रेष्ठ क्षत्रिय उन्होंके लोकमें जाते हैं। कामदुध नामसे प्रसिद्ध जो लोक हैं, वे इच्छानुसार भोगकी प्राप्ति करानेवाले हैं। उनमें सुस्वध नामके पितर निवास करते हैं। लोकमें वे आज्यप नामसे विख्यात हैं और प्रजापति कर्दमके पुत्र हैं। पुलहके बड़े भाईसे उत्पन्न वैश्यगण उन पितरोंकी पूजा करते हैं। श्राद्ध करनेवाले पुरुष उस लोकमें पहुँचनेपर एक ही साथ हजारों जन्मोंके परिचितमाता, भाई, पिता, सास, मित्र, सम्बन्धी तथा बन्धुओंका दर्शन करते हैं। इस प्रकार पितरोंके तीन गण बताये गये। अब चौथे गणका वर्णन करता है। ब्रह्मलोक के ऊपर मानस नामके लोक स्थित हैं, जहाँ सोमप नामसे प्रसिद्ध सनातन पितरोंका निवास है। वे सब के-सब धर्ममय स्वरूप धारण करनेवाले तथा ब्रह्माजीसे भी श्रेष्ठ हैं। स्वधासे उनकी उत्पत्ति हुई है। वे योगी हैं अतः ब्रह्मभावको प्राप्त होकर सृष्टि आदि करके सब इस समय मानसरोवरमें स्थित हैं। इन पितरोंकी कन्या नर्मदा नामकी नदी है, जो अपने जलसे समस्त प्राणियोंको पवित्र करती हुई पश्चिम समुद्रमें जा मिलती है उन सोमप नामवाले पितरोंसे ही सम्पूर्ण प्रजासृष्टिका विस्तार हुआ है, ऐसा जानकर मनुष्य सदा धर्मभावसे उनका श्राद्ध करते हैं। उन्होंके प्रसादसे योगका विस्तार होता है।
आदि सृष्टिके समय इस प्रकार पितरोंका श्राद्ध प्रचलित हुआ । श्राद्धमें उन सबके लिये चाँदीके पात्र अथवा चाँदीसे युक्त पात्रका उपयोग होना चाहिये। ‘स्वधा’ शब्दके उच्चारणपूर्वक पितरोंके उद्देश्यसे किया हुआ श्राद्ध-दान पितरोंको सर्वदा सन्तुष्ट करता है। विद्वान् पुरुषोंको चाहिये कि वे अग्निहोत्री एवं सोमपा ब्राह्मणोंके द्वारा अग्निमें हवन कराकर पितरोंको तृप्त करें। अग्निके अभाव में ब्राह्मणके हाथमें अथवा जलमें या शिवजीके स्थानके समीप पितरोंके निमित्त दान करे ये ही पितरोंके लिये निर्मल स्थान है। पितृकार्य दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है। यज्ञोपवीतको अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधेपर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा ‘स्वभा’ के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध-ये सदा पितरोंको तृप्त करते हैं। कुश, उड़द, साठी धानका चावल, गायका दूध, मधु, गायका घी, सावाँ, अगहनीका चावल, जौ, तीनाका चावल, मूँग, गन्ना और सफेद फूल-ये सब वस्तुएँ पितरोंको सदा प्रिय हैं।
अब ऐसे पदार्थ बताता हूँ, जो श्राद्धमें सर्वदा वर्जित हैं। मसूर, सन, मटर, राजमाष, कुलथी, कमल,बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूषक, भेड़-बकरीका दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी – ये सब निषिद्ध हैं। अपनी उन्नति चाहनेवाले पुरुषको श्राद्धमें इन वस्तुओंका उपयोग कभी नहीं करना चाहिये। जो भक्तिभावसे पितरोंको प्रसन्न करता है, उसे पितर भी सन्तुष्ट करते हैं। वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं। पितृकार्य देवकार्यसे भी बढ़कर है; अतः देवताओंको तृप्त करनेसे पहले पितरोंको ही सन्तुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है। कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तोंपर प्रेम रखते हैं और उन्हें सुख देते हैं। पितर पर्वोंके देवता हैं अर्थात् प्रत्येक पर्वपर पितरोंका पूजन करना उचित है। हविष्मान्संज्ञक पितरोंके अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्धके देवता माने गये हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ पुलस्त्यजी ! आपके मुँहसे यह सारा विषय सुनकर मेरी इसमें बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः अब मुझे श्राद्धका समय, उसकी विधि तथा श्राद्धका स्वरूप बतलाइये। श्राद्धमें कैसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये ? तथा किनको छोड़ना चाहिये ? श्राद्धमें दिया हुआ अन्न पितरोंके पास कैसे पहुँचता है? किस विधिसे श्राद्ध करना उचित है ? और वह किस तरह उन पितरोंको तृप्त करता है?
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! अन्न और जलसे अथवा दूध एवं फल- मूल आदिसे पितरोंको सन्तुष्ट करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। श्राद्ध तीन प्रकारका होता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य । पहले नित्य श्राद्धका वर्णन करता हूँ। उसमें अर्घ्य और आवाहनकी क्रिया नहीं होती। उसे अदैव समझना चाहिये- उसमें विश्वदेवोंको भाग नहीं दिया जाता। पर्वके दिन जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण कहतेहै। पार्वणश्राद्धमें जो ब्राह्मण निमन्त्रित करनेयोग्य हैं. उनका वर्णन करता हूँ; श्रवण करो! जो पंचाग्निका सेवन करनेवाला, स्नातक, त्रिसौपर्ण1, वेदके व्याकरण आदि छहों अंगोंका ज्ञाता श्रोत्रिय श्रोत्रियका पुत्र, वेदके विधिवाक्योंका विशेषज्ञ, सर्वज्ञ (सब विषयोंका ज्ञाता), वेदका स्वाध्यायी, मन्त्र जपनेवाला, ज्ञानवान्, त्रिणाचिकेत, त्रिमधुरे, अन्य शास्त्रोंमें भी परिनिष्ठित पुराणका विद्वान्, स्वाध्यायशील, ब्राह्मणभक्त, पिताकी सेवा करनेवाला, सूर्यदेवताका भक्त, वैष्णव, ब्रह्मवेत्ता, योगशास्त्रका ज्ञाता, शान्त, आत्मज्ञ, अत्यन्त शीलवान् तथा शिवभक्तिपरायण हो, ऐसा ब्राह्मण आद्धमें निमन्त्रण पानेका अधिकारी है। ऐसे ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक श्राद्धमें भोजन कराना चाहिये। अब जो लोग श्राद्धमें वर्जनीय हैं, उनका वर्णन सुनो। पतित, पतितका पुत्र, नपुंसक, चुगलखोर और अत्यन्त रोगी ये सब श्राद्धके समय धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा त्याग देनेयोग्य हैं। श्राद्धके पहले दिन अथवा श्राद्धके ही दिन विनयशील ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। निमन्त्रण दिये हुए ब्राह्मणोंके शरीरमें पितरोंका आवेश हो जाता है। वे वायुरूपसे उनके भीतर प्रवेश करते हैं और ब्राह्मणोंके बैठनेपर स्वयं भी उनके साथ बैठे रहते हैं।
किसी ऐसे स्थानको, जो दक्षिण दिशाकी ओर नीचा हो, गोबरसे लीपकर वहाँ श्राद्ध आरम्भ करे अथवा गोशालामें या जलके समीप श्राद्ध करे। आहिताग्नि पुरुष पितरोंके लिये चरु (खीर) बनाये और यह कहकर कि इससे पितरोंका श्राद्ध करूँगा, वह सब दक्षिण दिशामें रख दे। तदनन्तर उसमें घृत और मधु आदि मिलाकर अपने सामने की ओर तीन निर्वापस्थान (पिण्डदानकी वेदियाँ) बनाये। उनकी लम्बाई एक बित्ताऔर चौड़ाई चार अंगुलकी होनी चाहिये। साथ ही, खैरकी तीन दर्वी ( कलछुल) बनवावे, जो चिकनी हों तथा जिनमें चाँदीका संसर्ग हो उनकी लम्बाई एक एक रत्निकी? और आकार हाथके समान सुन्दर होना उचित है। जलपात्र, कांस्यपात्र, प्रोक्षण, समिधा, कुश, तिलपात्र, उत्तम वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन- ये सब वस्तुएँ धीरे-धीरे दक्षिण दिशामें रखे। उस समय जनेऊ दाहिने कंधेपर होना चाहिये। इस प्रकार सब सामान एकत्रित करके धरके पूर्व गोबरले लिपी हुई पृथ्वीपर गोमूत्रसे मण्डल बनावे और अक्षत तथा फूलसहित जल लेकर तथा जनेऊको क्रमशः बायें एवं दाहिने कंघेपर छोड़कर ब्राह्मणोंके पैर धोये तथा बारम्बार उन्हें प्रणाम करे। तदनन्तर विधिपूर्वक आचमन कराकर उन्हें बिछाये हुए दर्भयुक्त आसनोंपर बिठावे और उनसे मन्त्रोच्चारण करावे। सामर्थ्यशाली पुरुष भी देवकार्य (वैश्वदेव श्राद्ध) में दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको ही भोजन कराये अथवा दोनों श्राद्धों में एक-एक ब्राह्मणको ही जिमाये। विद्वान् पुरुषको श्राद्धमें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये। पहले विश्वेदेवसम्बन्धी और फिर पितृ-सम्बन्धी विद्वान् ब्राह्मणोंकी अर्घ्य आदिसे विधिवत् पूजा करे तथा उनकी आज्ञा लेकर अग्निमें यथाविधि हवन करे। विद्वान् पुरुष गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार घृतयुक्त चरुका अग्नि और सोमकी तृप्तिके उद्देश्यसे समयपर हवन करे। इस प्रकार देवताओंकी तृप्ति करके वह श्राद्धकर्ता श्रेष्ठ ब्राह्मण साक्षात् अग्निका स्वरूप माना जाता है। देवताके उद्देश्यसे किया जानेवाला हवन आदि प्रत्येक कार्य जनेऊको बायें कंघेपर रखकर ही करना चाहिये। तत्पश्चात् पितरोंके निमित्त करनेयोग्य पर्युक्षण (सेचन) आदि सारा कार्य विज्ञ पुरुषको जनेऊको दायें कंधेपर करके-अपसव्य भावसे करना उचित है। हवन तथा विश्वेदेवोंको अर्पण करनेसे बचे हुए अन्नको लेकर उसकेकई पिण्ड बनाये और एक-एक पिण्डको दाहिने हाथमें लेकर तिल और जलके साथ उसका दान करना चाहिये। संकल्पके समय जल-पात्रमें रखे हुए जलको बायें हाथकी सहायतासे दायें हाथमें ढाल लेना चाहिये। श्राद्धकालमें पूर्ण प्रयत्नके साथ अपने मन और इन्द्रियाँको काबूमें रखे और मात्सर्यका त्याग कर दे। (पिण्डदानकी विधि इस प्रकार है-] पिण्ड देनेके लिये बनायी हुई वेदियोंपर यत्नपूर्वक रेखा बनावे। इसके बाद अवनेजन-पात्रमें जल लेकर उसे रेखांकित वेदीपर गिरावे। [यह अवनेजन अर्थात् स्थान- शोधनकी क्रिया है।] फिर दक्षिणाभिमुख होकर वेदीपर कुश बिछावे और एक-एक करके सब पिण्डोंको क्रमशः उन कुशपर रखे उस समय [पिता पितामह आदिमैसे जिस-जिसके उद्देश्यसे पिण्ड दिया जाता हो, उस उस] पितरके नाम गोत्र आदिका उच्चारण करते हुए संकल्प पढ़ना चाहिये। पिण्डदानके पश्चात् अपने दायें हाथको पिण्डाधारभूत कुशोंपर पोंछना चाहिये। यह लेपभागभोजी पितरोंका भाग है। उस समय ऐसे ही मन्त्रका जप अर्थात् ‘लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु’ इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करना उचित है। इसके बाद पुनः प्रत्यवनेजन करे अर्थात् अवनेजनपात्रमें जल लेकर उससे प्रत्येक पिण्डको नहलावे। फिर जलयुक्त पिण्डौको नमस्कार करके श्राद्धकल्पोक्त वेदमन्त्रोंके द्वारा पिण्डोंपर पितरोंका आवाहन करे और चन्दन, धूप आदि पूजन सामग्रियोंके द्वारा उनकी पूजा करे। तत्पश्चात् आहवनीयादि अग्नियोंके प्रतिनिधिभूत एक-एक ब्राह्मणको जलके साथ एक-एक दवर प्रदान करे फिर विद्वान् पुरुष पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डोंके ऊपर कुश रखे तथा पितरोंका विसर्जन करे। तदनन्तर क्रमशः सभी पिण्डोंमेंसे थोड़ा-थोड़ा अंश निकालकर सबको एकत्र करे और ब्राह्मणोंको यत्नपूर्वक पहले वही भोजन करावे; क्योंकि उन पिण्डौका अंश ब्राह्मणलोग ही भोजन करतेहैं। इसीलिये अमावास्याके दिन किये हुए पार्वण आद्धको ‘अन्वाहार्य’ कहा गया है। पहले अपने हाथमें पवित्रीसहित तिल और जल लेकर पिण्डों के आगे छोड़ दे और कहे एषां स्वधा अस्तु’ (ये पिण्ड – स्वधा स्वरूप हो जायँ) । इसके बाद परम पवित्र और उत्तम अन्न परोसकर उसकी प्रशंसा करते हुए उन ब्रह्मको भोजन करावे उस समय भगवान् श्रीनारायणका स्मरण करता रहे और क्रोधी स्वभावको सर्वथा त्याग दे। ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर विकिरान्न दान करे; यह सवर्णोंके लिये उचित है विकिरान्न दानकी विधि यह है-तिलसहित अन्न और जल लेकर उसे कुशके ऊपर पृथ्वीपर रख दे। जब ब्राह्मण आचमन कर लें तो पुनः पिण्डोंपर जल गिरावे। फूल, अक्षत, जल छोड़ना और स्वधावाचन आदि सारा कार्य पिण्डके। ऊपर करे।’ पहले देवश्राद्धकी समाप्ति करके फिर पितृश्राद्धकी समाप्ति करे, अन्यथा श्राद्धका नाश हो जाता है। इसके बाद नतमस्तक होकर ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा करके उनका विसर्जन करे।
यह आहिताग्नि पुरुषोंके लिये अन्वाहार्य पार्वण श्राद्ध बतलाया गया। अमावास्याके पर्वपर किये जानेके कारण यह पार्वण कहलाता है। यही नैमित्तिक श्राद्ध है। श्राद्धके पिण्ड गाय या बकरीको खिला दे अथवा ब्राह्मणोंको दे दे अथवा अग्नि या जलमें छोड़ दे। यह भी न हो तो खेतमें बिखेर दें अथवा जलकी धारा बहा दे। [सन्तानकी इच्छा रखनेवाली ] पत्नी विनीत भावसे आकर मध्यम अर्थात् पितामहके पिण्डको ग्रहण करे और उसे खा जाय। उस समय ‘आधत्त पितरो गर्भम्’ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। श्राद्ध और पिण्डदान आदिकी स्थिति तभीतक रहती है, जबतक ब्राह्मणोंका विसर्जन नहीं हो जाता। इनके विसर्जनके पश्चात् पितृकार्य समाप्त हो जाता है। उसके बाद बलिवैश्वदेव करना चाहिये। तदनन्तर अपने बन्धु बान्धवके साथ पितरोंद्वारा सेवित प्रसादस्वरूप अन्न भोजन करे। श्राद्ध करनेवाले यजमान तथा श्राद्धभोजी ब्राह्मण दोनोंको उचित है कि वे दुबारा भोजन न करें,राह न चलें, मैथुन न करें; साथ ही उस दिन स्वाध्याय, कलह और दिनमें शयन इन सबको सर्वथा त्याग दें। इस विधिसे किया हुआ श्राद्ध धर्म, अर्थ और काम- तीनोंकी सिद्धि करनेवाला होता है। कन्या, कुम्भ और वृष राशिपर सूर्यके रहते कृष्णपक्ष में प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये। जहाँ जहाँ सपिण्डीकरणरूप श्राद्ध करना हो, वहाँ अग्निहोत्र करनेवाले पुरुषको सदा इसी विधिसे करना चाहिये।
अब मैं ब्रह्माजीके बताये हुए साधारण श्राद्धका वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। उत्तरायण और दक्षिणायनके प्रारम्भके दिन, विषुव नामक योग (तुला और मेषकी संक्रान्ति) में [ जब कि दिन और रात बराबर होते हैं], प्रत्येक अमावास्याको, प्रति संक्रान्तिके दिन, अष्टका (पौष, माघ, फाल्गुन तथा आश्विन मासके कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथि) में, पूर्णिमाको, आर्द्रा, मया और रोहिणी-इन नक्षत्रों के योग्य उत्तम पदार्थ और सुपात्र ब्राह्मणके प्राप्त होनेपर व्यतीपात, विष्टि और वैधृति योगके दिन वैशाखकी तृतीयाको, कार्तिककी नवमीको, माघकी पूर्णिमा तथा भाद्रपदकी त्रयोदशी तिथिको भी श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। उपर्युक्त तिथियाँ युगादि कहलाती हैं ये पितरोंका उपकार करनेवाली हैं। इसी प्रकार मन्वन्तरादि तिथियोंमें भी विद्वान् पुरुष श्राद्धका अनुष्ठान करे। आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक शुक्ला द्वादशी चैत्र तथा भाद्रपदकी शुक्ला तृतीया, फाल्गुनकी अमावास्या, पौषको शुक्ला एकादशी, आषाढ़ शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी श्रावण कृष्णा अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन और ज्येष्ठकी पूर्णिमा इन तिथियोंको मन्वन्तरादि कहते हैं। ये दिये हुए दानको अक्षय कर देनेवाली हैं। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वैशाखकी पूर्णिमाको, ग्रहणके दिन, किसी उत्सवके अवसरपर और महालय (आश्विन कृष्णपक्ष ) में तीर्थ, मन्दिर, गोशाला, द्वीप, उद्यान तथा घर आदिमें लिपे-पुते एकान्त स्थानमें श्राद्ध करे।’ [अब श्राद्धके क्रमका वर्णन किया जाता है-]पहले विश्वेदेवोंके लिये आसन देकर जौ और पुष्पोंसे उनकी पूजा करे। [विश्वेदेवोंके दो आसन होते हैं; एकपर पिता- पितामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका आवाहन होता है और दूसरेपर मातामहादिसम्बन्धी विश्वेदेवोंका ।] उनके लिये दो अर्घ्य पात्र (सिकोरे या दोने) जौ और जल आदिसे भर दे और उन्हें कुशकी पवित्रीपर रखे। ‘शंनो देवीरभिष्टय0’ इत्यादि मन्त्रसे जल तथा ‘यवोऽसि इत्यादिके द्वारा जौके दोनोंको उन पात्रोंमें छोड़ना चाहिये। फिर गन्ध-पुष्प आदिसे पूजा करके वहाँ विश्वेदेवोंकी स्थापना करे और ‘विश्वे देवास’ – इत्यादि दो मन्त्रोंसे विश्वेदेवोंका आवाहन करके उनके ऊपर जो छोड़े। जौ छोड़ते समय इस प्रकार कहे- ‘जौ ! तुम सब अन्नोंके राजा हो। तुम्हारे देवता वरुण हैं-वरुणसे ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; तुम्हारे अंदर मधुका मेल है। तुम सम्पूर्ण पापको दूर करनेवाले, पवित्र एवं मुनियोंद्वारा प्रशंसित अन्न हो।” फिर अर्घ्यपात्रको चन्दन और फूलोंसे सजाकर ‘या दिव्या आप इस मन्त्रको पढ़ते हुए विश्वेदेवोंको अर्घ्य दे। इसके बाद उनकी पूजा करके गन्ध आदि निवेदन कर पितृयज्ञ (पितृश्राद्ध) आरम्भ करे। पहले पिता आदिके लिये कुशके तीन आसनोंकी कल्पना करके फिर तीन अर्घ्यपात्रोंका पूजन करे उन्हें पुष्प आदि से सजाये प्रत्येक अर्घ्यपात्रको कुशकी पवित्रीसे युक्त करके ‘शंनो देवीरभिष्टय0 -‘ इस मन्त्रसे सबमें जल छोड़े। फिर ‘तिलोऽसि सोमदेवत्यो-‘ इस मन्त्रसे तिल छोड़कर [बिना मन्त्रके ही] चन्दन और पुष्प आदि भी छोड़े। अर्घ्यपात्र पीपल आदिकी लकड़ीका, पत्तेका या चौदीका बनवाये अथवा समुद्रसे निकले हुए शंख आदिसे अर्घ्यपात्रका काम ले। सोने, चाँदी और ताँबेका पात्र पितरोंको अभीष्ट होता है। चाँदीकी तो चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं। चाँदीका दर्शन अथवा चाँदीका दान उन्हें प्रिय है। यदि चाँदीके बने हुए अथवा चाँदीसे युक्त पात्रमें जल भी रखकरपितरोंको श्रद्धापूर्वक दिया जाय तो वह अक्षय हो जाता है। इसलिये पितरोंके पिण्डोंपर अर्घ्य चढ़ानेके लिये चाँदीका ही पात्र उत्तम माना गया है। चाँदी भगवान् श्रीशंकरके नेत्रसे प्रकट हुई है, इसलिये वह पितरोंको अधिक प्रिय है।
इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओंमेंसे जो सुलभ हो, उसके अर्घ्यपात्र बनाकर उन्हें ऊपर बताये अनुसार जल, तिल और गन्ध-पुष्प आदिसे सुसज्जित करे तत्पश्चात् ‘या दिव्या आप:’ इस मन्त्रको पढ़कर पिताके नाम और गोत्र आदिका उच्चारण करके अपने हाथमें कुश ले ले। फिर इस प्रकार कहे
‘पितॄन् आवाहयिष्यामि’- ‘पितरोंका आवाहन करूँगा।’ तब निमन्त्रणमें आये हुए ब्राह्मण ‘तथास्तु’ कहकर श्राद्धकर्ताको आवाहनके लिये आज्ञा प्रदान करें। इस प्रकार ब्राह्मणोंकी अनुमति लेकर ‘उशन्तस्त्वा नि धीमहि – ‘आ यन्तु नः पितरः ऋचाओंका पाठ करते हुए वह पितरोंका आवाहन करे। तदनन्तर ‘या दिव्या आप: इस मन्त्र पितरोंको अर्घ्य देकर प्रत्येकके लिये गन्ध-पुष्प आदि पूजोपचार एवं वस्त्र चढ़ावे तथा पृथक्-पृथक् संकल्प पढ़कर उन्हें समर्पित करे अर्घ्यदानकी प्रक्रिया इस प्रकार है-] पहले अनुलोमक्रमसे अर्थात् पिताके उद्देश्यसे दिये हुए अपात्रका जल पितामहके अर्घ्यपात्रमें इन दो डाले और फिर पितामहके अर्घ्यपात्रका सारा जल प्रपितामहके अर्घ्यपात्रमें डाल दे. फिर विलोमक्रमसे अर्थात् प्रपितामहके अर्घ्यपात्रको पितामहके अर्घ्यपात्रमें रखे और उन दोनों पात्रोंको उठाकर पिताके अर्घ्यपात्र में रखे। इस प्रकार तीनों अर्घ्यपात्रोंको एक-दूसरेके ऊपर करके पिता के आसनके उत्तरभागमें ‘पितृभ्यः स्थानमसि’ ऐसा कहकर उन्हें ढुलका दे-उलटकर रख दे। ऐसा करके अन्न परोसनेका कार्य करे। परोसने के समय भी पहले अग्निकार्य करना चाहिये।
अर्थात् थोड़ा-सा अन्न निकालकर ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा’ और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’- इन दो मन्त्रोंअग्नि और सोम देवताके लिये अग्निमें दो बार आहुति डाले। इसके बाद दोनों हाथोंसे अन्न निकालकर परोसे। परोसते समय ‘उशन्तस्त्वा नि धीमहि – ‘ इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करता रहे। उत्तम, गुणकारी शाक आदि तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंके साथ दही, दूध, गौका घृत और शक्कर आदिसे युक्त अन्न के लिये तृष्टिकारक होता है। मधु मिलाकर तैयार किया हुआ कोई भी पदार्थ तथा गायका दूध और घी मिलायी हुई खीर आदि पितरोंके लिये दी जाय तो वह अक्षय होती है—ऐसा आदि देवता पितरोंने स्वयं अपने ही मुखसे कहा है। इस प्रकार अन्न परोसकर पितृसम्बन्धी ऋचाओंका पाठ सुनाये इसके सिवा सभी तरहके पुराण; ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र-सम्बन्धी भाँति-भाँति के स्तोत्र; इन्द्र, रुद्र और सोमदेवताके सूक्त; पावमानी ऋचाएँ; बृहद्रथन्तर; ज्येष्ठसामका गौरवगान; शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण, मण्डलब्राह्मण तथा और भी जो कुछ ब्राह्मणको तथा अपनेको प्रिय लगे वह सब सुनाना चाहिये। महाभारतका भी पाठ करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। ब्राह्मणोंके भोजन कर लेनेपर जो अन्न और जल आदि शेष रहे, उसे उनके आगे जमीनपर बिखेर दे। यह उन जीवोंका भाग है, जो संस्कार आदिसे हीन होनेके कारण अधम गतिको प्राप्त हुए हैं।
ब्राह्मणोंको तृप्त जानकर उन्हें हाथ-मुँह धोनेके लिये जल प्रदान करे। इसके बाद गायके गोबर और गोमूत्र लिपी हुई भूमिपर दक्षिणा कुश बिछाकर उनके ऊपर यत्नपूर्वक पितृयज्ञकी भाँति विधिवत् पिण्डदान करे। पिण्डदानके पहले पितरोंके नाम गोत्रका उच्चारण करके उन्हें अवनेजनके लिये जल देना चाहिये। फिर पिण्ड देनेके बाद पिण्डोंपर प्रत्यवनेजनका जल गिराकर उनपर पुष्प आदि चढ़ाना चाहिये। सव्यापसव्यका विचार करके प्रत्येक कार्यका सम्पादन करना उचित है। पिताके श्राद्धकी भाँति माताका श्राद्ध भी हाथमें कुश लेकर विधिवत् सम्पन्न करे। दीप जलावे; पुष्प आदिसे पूजा करे। ब्राह्मणोंके आचमन कर लेनेपर स्वयं भी आचमनकरके एक-एक बार सबको जल दे। फिर फूल और अक्षत देकर तिलसहित अक्षय्योदक दान करे। फिर नाम और गोत्रका उच्चारण करते हुए शक्तिके अनुसार दक्षिणा दे। गौ, भूमि, सोना, वस्त्र और अच्छे अच्छे बिजीने दे कृपणता छोड़कर पितरोंकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए जो-जो वस्तु ब्राह्मणोंको, अपनेको तथा पिताको भी प्रिय हो, यही वही वस्तु दान करे। तत्पश्चात् स्वभावाचन करके विश्वेदेवोंको जल अर्पण करे और ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद ले विद्वान् पुरुष पूर्वाभिमुख होकर कहे- ‘अघोराः पितरः सन्तु (मेरे पितर शान्त एवं मंगलमय हों)।’ यजमान के ऐसा कहनेपर ब्राह्मणलोग ‘तथा सन्तु (तुम्हारे पितर ऐसे ही हॉ) – ऐसा कहकर अनुमोदन करें। फिर श्राद्धकर्ता कहे—’गोत्रं नो वर्धताम्’ (हमारा गोत्र बढ़े)। यह सुनकर ब्राह्मणोंको ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो ) इस प्रकार उत्तर देना चाहिये। फिर यजमान कहे ‘दातारो मेऽभिवर्धन्ताम्’ ‘वेदाः सन्ततिरेव च एता: सत्या आशिषः सन्तु (मेरे दाता बढ़ें, साथ ही मेरे कुलमें वेदोंके अध्ययन और सुयोग्य सन्तानकी वृद्धि हो— ये सारे आशीर्वाद सत्य हों)’ यह सुनकर ब्राह्मण कहें- ‘सन्तु सत्या आशिषः (ये आशीर्वाद सत्य हों) । इसके बाद भक्तिपूर्वक पिण्डोंको उठाकर सूंघे और स्वस्तिवाचन करे। फिर भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रके साथ प्रदक्षिणा करके आठ पग चले। तदनन्तर लौटकर प्रणाम करे। इस प्रकार श्राद्धकी विधि पूरी करके मन्त्रवेत्ता पुरुष अग्नि प्रज्वलित करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव तथा नैत्यिक बलि अर्पण करे। तदनन्तर भृत्य, पुत्र, बान्धव तथा अतिथियोंके साथ बैठकर वही अन्न भोजन करे, जो पितरोंको अर्पण किया गया हो। जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, ऐसा पुरुष भी इस श्राद्धको प्रत्येक पर्वपर कर सकता है। इसे साधारण [ या नैमित्तिक] श्राद्ध कहते हैं। यह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है राजन् स्त्रीरहित या विदेशस्थित मनुष्य भी भक्तिपूर्ण हृदयसे इस श्राद्धका अनुष्ठान करनेका अधिकारी है। यही नहीं, शूद्र भी इसी विधिसे श्राद्ध कर सकता है; अन्तर इतना ही है कि वहवेदमन्त्रोंका उच्चारण नहीं कर सकता । तीसरा अर्थात् काम्य श्राद्ध आभ्युदयिक है; इसे वृद्धि – श्राद्ध भी कहते हैं। उत्सव और आनन्दके अवसरपर, संस्कारके समय, यज्ञमें तथा विवाह आदि मांगलिक कार्योंमें यह श्राद्ध किया जाता है। इसमें पहले माताओंकी अर्थात् माता, पितामही और प्रपितामहीकी पूजा होती है। इनके बाद पितरों-पिता, पितामह और प्रपितामहका पूजन किया जाता है। अन्तमें मातामह आदिकी पूजा होती है। अन्य श्राद्धोंकी भाँति इसमें भी विश्वेदेवोंकी पूजा आवश्यक है। दक्षिणावर्तक क्रमसे पूजोपचार चढ़ाना चाहिये। आभ्युदयिक श्राद्धमें दही, अक्षत, फल और जलसे ही पूर्वाभिमुख होकर पितरोंकोपिण्डदान दिया जाता है। ‘सम्पन्नम्’ का उच्चारण करके अर्घ्य और पिण्डदान देना चाहिये। इसमें युगल ब्राह्मणोंको अर्घ्य दान दे तथा युगल (सपत्नीक) ब्राह्मणोंकी ही वस्त्र और सुवर्ण आदिके द्वारा पूजा करे। तिलका काम जौसे लेना चाहिये तथा सारा कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा सब प्रकारके मंगलपाठ करावे। इस प्रकार शूद्र भी कर सकता है। यह वृद्धिश्राद्ध सबके लिये सामान्य है। बुद्धिमान् शूद्र ‘पित्रे नमः’ इत्यादि नमस्कार – मन्त्रके द्वारा ही दान आदि कार्य करे। भगवान्का कथन है कि | शूद्रके लिये दान ही प्रधान है; क्योंकि दानसे उसकी | समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।
अध्याय-11 एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन्! अब मैं एकोद्दिष्ट श्राद्धका वर्णन करूँगा, जिसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने बतलाया था। साथ ही यह भी बताऊँगा कि पिताके मरनेपर पुत्रोंको किस प्रकार अशीचका पालन करना चाहिये। ब्राह्मणोंमें मरणाशौच दस दिनतक रखनेकी आज्ञा है, क्षत्रियोंमें बारह दिन, वैश्योंमें पंद्रह दिन तथा शूद्रोंमें एक महीनेका विधान है। यह अशौच सपिण्ड (सात पीढ़ीतक) के प्रत्येक मनुष्यपर लागू होता है। यदि किसी बालककी मृत्यु चूडाकरणके पहले हो जाय तो उसका अशीच एक रातका कहा गया है। उसके बाद उपनयनके पहलेतक तीन राततक अशौच रहता है। जननाशौचमें भी सब वर्णोंके लिये यही व्यवस्था है। अस्थि संचयनके बाद अशौचग्रस्त पुरुषके शरीरका स्पर्श किया जा सकता है। प्रेतके लिये बारह दिनोंतक प्रतिदिन पिण्ड दान करना चाहिये; क्योंकि वह उसके लिये पाथेय ( राहखर्च ) है, इसलिये उसे पाकर प्रेतको बड़ी प्रसन्नता होती है। द्वादशाहके बाद ही प्रेतको यमपुरीमें ले जाया जाता है; तबतक वह घरपर ही रहता है। अतः दस राततक प्रतिदिन उसके लिये आकाशमें दूध देना चाहिये; इससे सब प्रकारके दाहकी शान्ति होती है तथा मार्गके परिश्रमका भी निवारण होता है। दशाहकेबाद ग्यारहवें दिन, जब कि सूतक निवृत्त हो जाता है, अपने गोत्रके ग्यारह ब्राह्मणोंको ही बुलाकर भोजन कराना चाहिये। अशौचकी समाप्तिके दूसरे दिन एकोद्दिष्ट श्राद्ध करे। इसमें न तो आवाहन होता है न अग्नौकरण (अग्निमें हवन) । विश्वेदेवोंका पूजन आदि भी नहीं होता। एक ही पवित्री, एक ही अर्घ और एक ही पिण्ड देनेका विधान है। अर्ध और पिण्ड आदि देते समय प्रेतका नाम लेकर ‘तवोपतिष्ठताम्’, (तुम्हें प्राप्त हो) ऐसा कहना चाहिये। तत्पश्चात् तिल और जल छोड़ना चाहिये। अपने किये हुए दानका जल ब्राह्मणके हाथमें देना चाहिये तथा विसर्जनके समय ‘अभिरम्यताम्’ कहना चाहिये। शेष कार्य अन्य श्राद्धोंकी ही भाँति जानना चाहिये। उस दिन विधिपूर्वक शय्यादान, फल वस्त्रसमन्वित कांचनपुरुषकी पूजा तथा द्विज-दम्पतिका पूजन भी करना आवश्यक है।
एकादशाह श्राद्धमें कभी भोजन नहीं करना चाहिये । यदि भोजन कर ले तो चान्द्रायणव्रत करना उचित है। सुयोग्य पुत्रको पिताकी भक्तिसे प्रेरित होकर सदा ही एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये। एकादशाहके दिन वृषोत्सर्ग करे, उत्तम कपिला गौ दान दे और उसी दिनसे आरम्भ करके एक वर्षतक प्रतिदिन भक्ष्यभोज्यकेसाथ तिल और जलसे भरा हुआ घड़ा दान करना चाहिये। [इसीको कुम्भदान कहते हैं।] तदनन्तर वर्ष पूरा होनेपर सपिण्डीकरण श्राद्ध होना चाहिये। सपिण्डीकरणके बाद प्रेत [प्रेतत्वसे मुक्त होकर] पार्वणश्राद्धका अधिकारी होता है तथा गृहस्थके वृद्धि सम्बन्धी कार्योंमें आभ्युदयिक श्राद्धका भागी होता है। सपिण्डीकरण श्राद्ध देवश्राद्धपूर्वक करना चाहिये अर्थात् उसमें पहले विश्वेदेवोंकी, फिर पितरोंकी पूजा होती है। सपिण्डीकरणमें जब पितरोंका आवाहन करे तो प्रेतका आसन उनसे अलग रखे। फिर चन्दन, जल और तिलसे युक्त चार अर्घ्यपात्र बनावे तथा प्रेतके अर्घ्यपात्रका जल तीन भागोंमें विभक्त करके पितरोंके अर्घ्यपात्रोंमें डाले। इसी प्रकार पिण्डदान करनेवाला पुरुष चार पिण्ड बनाकर ‘ये समानाः ‘- इत्यादि दो मन्त्रोंके द्वारा प्रेतके पिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करे [ और एक-एक भागको पितरोंके तीन पिण्डोंमें मिला दे]। इसी विधिसे पहले अर्घ्यको और फिर पिण्डोंको संकल्पपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर वह चतुर्थ व्यक्ति अर्थात् प्रेत पितरोंकी श्रेणीमें सम्मिलित हो जाता है और अग्निष्वात आदि पितरोंके बीचमें बैठकर उत्तम अमृतका उपभोग करता है। इसलिये सपिण्डीकरण श्राद्धके बाद उस (प्रेत) को पृथक् कुछ नहीं दिया जाता। पितरोंमें ही उसका भाग भी देना चाहिये तथा उन्होंके पिण्डोंमें स्थित होकर वह अपना भाग ग्रहण करता है। तबसे लेकर जब-जब संक्रान्ति और ग्रहण आदि पर्व आवें, तब-तब तीन पिण्डोंका ही श्राद्ध करना चाहिये। केवल मृत्यु- तिथिको केवल उसीके लिये एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना उचित है। पिताके क्षयाहके दिन जो एकोद्दिष्ट नहीं करता, वह सदाके लिये पिताका हत्यारा और भाईका विनाश करनेवाला माना गया है। क्षयाह तिथिको [एकोद्दिष्ट न करके] पार्वणश्राद्ध करनेवाला मनुष्य नरकगामी होता है। मृत व्यक्तिको जिस प्रकार प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले और उसे स्वर्गादि उत्तमलोकोंकी प्राप्ति हो, इसके लिये विधिपूर्वक आमश्राद्ध’ करना चाहिये। कच्चे अन्नसे ही अग्नौकरणकी क्रिया करे और उसीसे पिण्ड भी दे। पहले या तीसरे महीने में भी जब मृत व्यक्तिका पिता आदि तीन पुरुषोंके साथ सपिण्डीकरण हो जाता है, तब प्रेतत्वके बन्धनसे उसकी मुक्ति हो जाती है। मुक्त होनेपर उससे लेकर तीन पीढ़ीतकके पितर सपिण्ड कहलाते हैं तथा चौथा सपिण्डकी श्रेणीसे निकलकर लेपभागी हो जाता है। कुशमें हाथ पोंछनेसे जो अंश प्राप्त होता है, वही उसके उपभोगमें आता है। पिता, पितामह और प्रपितामह ये तीन पिण्डभागी होते हैं; और इनसे ऊपर चतुर्थ व्यक्ति अर्थात् वृद्धप्रपितामहसे लेकर तीन पीढ़ीतकके पूर्वज लेपभागभोजी माने जाते हैं। [छः तो ये हुए, ] इनमें सातवाँ है स्वयं पिण्ड देनेवाला पुरुष। ये ही सात पुरुष सपिण्ड कहलाते हैं।
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! हव्य और कव्यका दान मनुष्योंको किस प्रकार करना चाहिये ? पितृलोकमें उन्हें कौन ग्रहण करते हैं? यदि इस मर्त्यलोकमें ब्राह्मण श्राद्धके अन्नको खा जाते हैं अथवा अग्निमें उसका हवन कर दिया जाता है तो शुभ और अशुभ योनियोंमें पड़े हुए प्रेत उस अन्नको कैसे खाते हैं—उन्हें वह किस प्रकार मिल पाता है ?
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! पिता वसुके, पितामह रुद्रके तथा प्रपितामह आदित्यके स्वरूप हैं-ऐसी वेदकी श्रुति है। पितरोंके नाम और गोत्र ही उनके पास हव्य और कव्य पहुँचानेवाले हैं। मन्त्रकी शक्ति तथा हृदयकी भक्तिसे श्राद्धका सार भाग पितरोंको प्राप्त होता है। अग्निष्वात्त आदि दिव्य पितर पिता-पितामह आदिके अधिपति हैं-वे ही उनके पास श्राद्धका अन्न पहुँचानेकी व्यवस्था करते हैं। पितरोंमेंसे जो लोग कहीं जन्म ग्रहण कर लेते हैं, उनके भी कुछ-न-कुछ नाम, गोत्र तथा देश आदि तो होते ही हैं; [दिव्य पितरोंको उनका ज्ञान होता है और वे उसी पतेपर सभी वस्तुएँपहुँचा देते हैं।] अतः यह भेंट-पूजा आदिके रूपमें दिया हुआ सब सामान प्राणियोंके पास पहुँचकर उन्हें तृप्त करता है। यदि शुभ कर्मों के योगसे पिता और माता दिव्ययोनिको प्राप्त हुए हों तो श्राद्धमें दिया हुआ अन्न अमृत होकर उस अवस्थामें भी उन्हें प्राप्त होता है। वही दैत्ययोनिमें भोगरूपसे, पशुयोनिमें तृपरूपसे, सर्पयोनिमें वायुरूपसे तथा यक्षयोनिमें पानरूपसे उपस्थित होता है। इसी प्रकार यदि माता पिता मनुष्य योनिमें हों तो उन्हें अन्न-पान आदि अनेक रूपों में श्राद्धान्नकी प्राप्ति होती है। यह श्राद्ध कर्म पुष्प कहा गया है, इसका फल है ब्रह्मकी प्राप्ति राजन्! श्राद्धसे प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं।
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! श्राद्धकर्ता पुरुष दिनके किस भागमें श्राद्धका अनुष्ठान करे तथा किन तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध अधिक फल देनेवाला होता है?
पुलस्त्यजी बोले- राजन्! पुष्कर नामका तीर्थ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठतम माना गया है। वहाँ किया हुआ दान, होम, [ श्राद्ध] और जप निश्चय ही अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता है। वह तीर्थ पितरों और ऋषियोंको सदा ही परम प्रिय है। इसके सिवा नन्दा, ललिता तथा मायापुरी (हरिद्वार) भी पुष्करके ही समान उत्तम तीर्थ हैं। मित्रपद और केदार-तीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। गंगासागर नामक तीर्थको परम शुभदायक और सर्वतीर्थमय बतलाया जाता है। ब्रह्मसर तीर्थ और शतद्रु (सतलज) नदीका जल भी शुभ है। नैमिषारण्य नामक तीर्थ तो सब तीर्थोंका फल देनेवाला है। वहाँ गोमती में गंगाका सनातन स्रोत प्रकट हुआ है। नैमिषारण्यमें भगवान् यज्ञवराह और देवाधिदेव शूलपाणि विराजते हैं। जहाँ सोनेका दान दिया जाता है, वहाँ महादेवजीकी अठारह भुजावाली मूर्ति है। पूर्वकालमें जहाँ धर्मचक्रकी नेमि जीर्ण-शीर्ण होकर गिरी थी, वही स्थान नैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध हुआ। वहाँ सब तीर्थोंका निवास है। जो वहाँ जाकर देवाधिदेव वराहका दर्शनकरता है, वह धर्मात्मा पुरुष भगवान् श्रीनारायणके धाममें जाता है। कोकामुख नामक क्षेत्र भी एक प्रधान तीर्थ है। यह इन्द्रलोकका मार्ग है। यहाँ भी ब्रह्माजी के पितृतीर्थका दर्शन होता है। वहाँ भगवान् ब्रह्माजी पुष्करारण्यमें विराजमान हैं। ब्रह्माजीका दर्शन अत्यन उत्तम एवं मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। कृत नामक महान् पुण्यमय तीर्थ सब पापोंका नाशक है। वहाँ आदिपुरुष नरसिंहस्वरूप भगवान् जनार्दन स्वयं ही स्थित हैं। इक्षुमती नामक तीर्थ पितरोंको सदा प्रिय है। गंगा और यमुनाके संगम (प्रयाग) में भी पितर सदा सन्तुष्ट रहते हैं। कुरुक्षेत्र अत्यन्त पुण्यमय तीर्थ है यहाँका पितृ तीर्थ सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है।
राजन् नीलकण्ठ नामसे विख्यात तीर्थ भी पितरोंका तीर्थ है। इसी प्रकार परम पवित्र भद्रसर तीर्थ, मानसरोवर, मन्दाकिनी, अच्छोदा, विपाशा (व्यास नदी), पुण्यसलिला सरस्वती, सर्वमित्रपद, महाफल दायक वैद्यनाथ, अत्यन्त पावन क्षिप्रा नदी, कालिंजर गिरि, तीर्थोद्भेद, हरोद्भेद, गर्भभेद, महालय, भद्रेश्वर, विष्णुपद, नर्मदाद्वार तथा गातीर्थ-ये सब पितृतीर्थ हैं। महर्षियोंका कथन है कि इन तीर्थोंमें पिण्डदान करनेसे समान फलकी प्राप्ति होती है। ये स्मरण करने मात्रसे लोगोंके सारे पाप हर लेते हैं; फिर जो इनमें पिण्डदान करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है। ओंकारतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगा नदीमें मिली हुई नदियोंके संगम तथा अमरकण्टक- ये सब पितृतीर्थ हैं। अमरकण्टकमें किये हुए स्नान आदि पुण्य-कार्य कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा दसगुना उत्तम फल देनेवाले हैं। विख्यात शुक्लतीर्थ एवं उत्तम सोमेश्वरतीर्थ अत्यन्त पवित्र और सम्पूर्ण व्याधियोंको हरनेवाले हैं। यहाँ श्राद्ध करने, दान देने तथा होम, स्वाध्याय, जप और निवास करनेसे अन्य तीर्थोकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक फल होता है।
इनके अतिरिक्त एक कायावरोहण नामक तीर्थ है, जहाँ किसी ब्राह्मणके उत्तम भवनमें देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान् शंकरका तेजस्वी अवतार हुआ था।इसीलिये वह स्थान परम पुण्यमय तीर्थ बन गया। चर्मण्वती नदी, शूलतापी, पयोष्णी, पयोष्णी-संगम, महौषधी, चारणा, नागतीर्थप्रवर्तिनी, पुण्यसलिला महावेगा नदी, महाशालतीर्थ, गोमती, वरुणा, अग्नितीर्थ, भैरवतीर्थ, भृगुतीर्थ, गौरीतीर्थ, वैनायकतीर्थ, वस्त्रेश्वरतीर्थ, पापहरतीर्थ, पावनसलिला वेत्रवती (बेतवा नदी, महारुद्रतीर्थ, महालिंगतीर्थ, दशार्णा महानदी, शतरुद्रा, शाद्ध, पितृपदपुर, अंगारवाहिका नदी, शोण (सोन) और घर्षर (घाघरा) नामवाले दो नद, परमपावन कलिका नदी और शुभदायिनी पितरा नदीये समस्त पितृतीर्थ स्नान और दानके लिये उत्तम माने गये हैं। इन तीर्थोंमें जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह अनन्त फल देनेवाला माना गया है। शतवटा नदी, ज्वाला, शरद्वी नदी, श्रीकृष्णतीर्थ-द्वारकापुरी, उदक्सरस्वती, मालवती नदी, गिरिकर्णिका, दक्षिण समुद्रके तटपर विद्यमान भूतपापतीर्थ, गोकर्णतीर्थ, गजकर्णतीर्थ, परम उत्तम चक्रनदी, श्रीशैल, शाकतीर्थ, नारसिंहतीर्थ, महेन्द्र पर्वत तथा पावनसलिला महानदी – इन सब तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध भी सदा अक्षय फल प्रदान करनेवाला माना गया है। ये दर्शनमात्र से पुण्य उत्पन्न करनेवाले तथा तत्काल समस्त पापको हर लेनेवाले हैं।
पुण्यमयी तुंगभद्रा, चक्ररथी, भीमेश्वरतीर्थ, कृष्णवेणा, कावेरी, अंजना, पावनसलिला गोदावरी, उत्तम त्रिसन्ध्यातीर्थ और समस्त तीर्थोंसे नमस्कृत त्र्यम्बकतीर्थ, जहाँ ‘भीम’ नामसे प्रसिद्ध भगवान् शंकर स्वयं विराजमान हैं, अत्यन्त उत्तम हैं। इन सबमें दिया हुआ दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला है। इनके स्मरण करनेमासे पापोंके सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। परम पावन श्रीपर्णा नदी, अत्यन्त उत्तम व्यासतीर्थ, मत्स्यनदी, राका, शिवधारा, विख्यात भवतीर्थ, सनातन पुण्यतीर्थ, पुण्यमय रामेश्वरतीर्थ, वेणायु, अमलपुर, प्रसिद्ध मंगलतीर्थ, आत्मदर्शतीर्थ, अलम्बुषतीर्थ, वत्सव्रातेश्वरतीर्थ, गोकामुखतीर्थ, गोवर्धन, हरिश्चन्द्र, पुरश्चन्द्र, पृथूदक, सहस्राक्ष, हिरण्याक्ष, कदली नदी,नामधेयतीर्थ, सौमित्रिसंगमतीर्थ, इन्द्रनील, महानाद तथा प्रियमेलक—ये भी श्राद्धके लिये अत्यन्त उत्तम माने गये हैं; इनमें सम्पूर्ण देवताओंका निवास बताया जाता है। इन सबमें दिया हुआ दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। पावन नदी बाहुदा, शुभकारी, सिद्धवट, पाशुपततीर्थ, पर्यटिका नदी- इन सबमें किया हुआ श्राद्ध भी सौ करोड़ गुना फल देता है। इसी प्रकार पंचतीर्थ और गोदावरी नदी भी पवित्र तीर्थ हैं। गोदावरी दक्षिण वाहिनी नदी है। उसके तटपर हजारों शिवलिंग हैं। वहीं जामदग्न्यतीर्थ और उत्तम मोदायतनतीर्थ हैं, जहाँ गोदावरी नदी प्रतीकके भयसे सदा प्रवाहित होती रहती हैं। इसके सिवा हव्यकव्य नामका तीर्थ भी है। वहाँ किये हुए श्राद्ध, होम और दान सौ करोड़ गुना अधिक फल देनेवाले होते हैं, सहस्रलिंग और राघवेश्वर नामक तीर्थका माहात्म्य भी ऐसा ही है। वहाँ किया हुआ श्राद्ध अनन्तगुना फल देता है। शालग्रामतीर्थ, प्रसिद्ध शोणपात (सोनपत ) – तीर्थ, वैश्वानराशयतीर्थ, सारस्वततीर्थ, स्वामितीर्थ, मलंदरा नदी, पुण्यसलिला कौशिकी, चन्द्रका, विदर्भा, वेगा, प्राङ्मुखा, कावेरी, उत्तरांगा और जालन्धर गिरि- इन तीर्थोंमें किया हुआ श्राद्ध अक्षय हो जाता है। लोहदण्डतीर्थ, चित्रकूट, सभी स्थानोंमें गंगानदीके दिव्य एवं कल्याणमय तट, कुब्जाम्रक, उर्वशी – पुलिन, संसारमोचन और ऋणमोचनतीर्थ – इनमें किया हुआ श्राद्ध अनन्त हो जाता है। अट्टहासतीर्थ, गौतमेश्वरतीर्थ, वसिष्ठतीर्थ, भारततीर्थ-ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, हंसतीर्थ, प्रसिद्ध पिण्डारकतीर्थ, शंखोद्धारतीर्थ, भाण्डेश्वरतीर्थ, बिल्वकतीर्थ, नीलपर्वत, सब तीर्थोंका राजाधिराज बदरीतीर्थ, वसुधारातीर्थ, रामतीर्थ, जयन्ती, विजय तथा शुक्लतीर्थ- इनमें पिण्डदान करनेवाले पुरुष परम पदको प्राप्त होते हैं।
मातृगृहतीर्थ, करवीरपुर तथा सब तीर्थोंका स्वामी सप्तगोदावरी नामक तीर्थ भी अत्यन्त पावन हैं। जिन्हें अनन्त फल प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उन पुरुषोंको इन तीर्थों में पिण्डदान करना चाहिये। मगध देशमें गयानामकी पुरी तथा राजगृह नामक वन पावन तीर्थ हैं। वहीं च्यवन मुनिका आश्रम, पुनः पुना (पुनपुन) नदी और विषयाराधनतीर्थ—ये सभी पुण्यमय स्थान हैं। राजेन्द्र लोगोंमें यह किंवदन्ती प्रचलित है कि एक समय सब मनुष्य यही कहते हुए तीर्थों और मन्दिरों में आये थे कि क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा, जो गयाकी यात्रा करेगा? जो वहाँ जायगा, वह सात पीढ़ीतकके पूर्वजोंको और सात पीढ़ीतककी होनेवाली सन्तानोंको तार देगा।’ मातामह आदिके सम्बन्धमें भी यह सनातन श्रुति चिरकालसे प्रसिद्ध है; वे कहते हैं- ‘क्या हमारे वंशमें एक भी ऐसा पुत्र होगा, जो अपने पितरोंकी हड्डियोंको ले जाकर गंगामें डाले, सात-आठ तिलोंसे भी जलांजलि दे तथा पुष्करारण्य, नैमिषारण्य और धर्मारण्यमें पहुँचकर भक्तिपूर्वक श्राद्ध एवं पिण्डदान करे?” गया क्षेत्रके भीतर जो धर्मपृष्ठ, ब्रह्मसर तथा गयाशीर्षवट नामक तीर्थोंमें पितरोंको पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। जो घरपर श्राद्ध करके गयातीर्थकी यात्रा करता है, वह मार्गमें पैर रखते ही नरकमें पड़े हुए पितरोंको तुरंत स्वर्गमें पहुँचा देता है। उसके कुलमें कोई प्रेत नहीं होता गयामें पिण्डदानके प्रभावसे प्रेतसे छुटकारा मिल जाता है। [गयामें] एक मुनि थे, जो अपने दोनों हाथोंके अग्रभागमें भरा हुआ ताम्रपात्र लेकर आर्मोकी जड़में पानी देते थे; इससे आमोंकी सिंचाई भी होती थी और उनके पितर भी तृप्त होते थे। इस प्रकार एक ही क्रिया दो प्रयोजनको सिद्ध करनेवाली हुई। गयामें पिण्डदानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है: क्योंकि वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे पितर तृप्त होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं। कोई-कोई मुनीश्वर अन्नदानको श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई वस्त्रदानको उत्तम कहते हैं। वस्तुतः गयाके उत्तम तीर्थों में मनुष्य जो कुछ भी दान करते हैं, वह धर्मका हेतु और श्रेष्ठ कहा गया है।यह तीर्थोंका संग्रह मैंने संक्षेपमें बतलाया है; विस्तारसे तो इसे बृहस्पतिजी भी नहीं कह सकते, फिर मनुष्यकी तो बात ही क्या है। सत्य तीर्थ है दया तीर्थ है और इन्द्रियोंका निग्रह भी तीर्थ है। मनको भी तीर्थ कहा गया है। सबेरे तीन मुहूर्त (छः घड़ी) तक प्रातः काल रहता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका समय संगव कहलाता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याहन होता है। उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्न रहता है। फिर तीन मुहूर्ततक सायाह्न होता है। सायाहन कालमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह राक्षसी वेला है, अतः सभी कर्मोंके लिये निन्दित है। दिनके पंद्रह मुहूर्त बतलाये गये हैं। उनमें आठवाँ मुहूर्त, जो दोपहरके बाद पड़ता है. ‘कुतप’ कहलाता है उस समयसे धीरे-धीरे सूर्यका ताप मन्द पड़ता जाता है। वह अनन्त फल देनेवाला काल है। उसीमें श्राद्धका आरम्भ उत्तम माना जाता है। खड्गपात्र, कुतप, नेपालदेशीय कम्बल, सुवर्ण, कुश, तिल, गौ तथा आठवाँ दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) – ये कुत्सित अर्थात् पापको सन्ताप देनेवाले हैं; इसलिये इन आठोंको ‘कुतप’ कहते हैं। कुतप मुहूर्तके बाद चार मुहूर्ततक अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधा वाचन (श्राद्ध) के लिये उत्तम काल है। कुश और काले तिल भगवान् श्रीविष्णुके शरीरसे उत्पन्न हुए हैं। मनीषी पुरुषोंने श्राद्धका लक्षण और काल इसी प्रकार बताया है। तीर्थवासियोंको तीर्थके जलमें प्रवेश करके पितरोंके लिये तिल और जलकी अंजलि देवी चाहिये। एक हाथमें कुश लेकर घरमें श्राद्ध करना चाहिये। यह तीर्थ श्राद्धका विवरण पुण्यदायक, पवित्र, आयु बढ़ानेवाला तथा समस्त पापका निवारण करनेवाला है। इसे स्वयं ब्रह्माजीने अपने श्रीमुखसे कहा है। तीर्थवासियोंको श्राद्धके समय इस अध्यायका पाठ करना चाहिये। यह सब पापकी शान्तिका साधन और दरिद्रताका नाशक है।
अध्याय-12 चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
भीष्मजीने पूछा— समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता पुलस्त्यजी चन्द्रवंशकी उत्पत्ति कैसे हुई? उस वंशमें कौन-कौन से राजा अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हुए?
पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महर्षि अत्रिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी। तब उन्होंने सृष्टिकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये अनुत्तर* नामका तप किया। वे अपने मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर होकर परमानन्दमय ब्रह्मका चिन्तन करने लगे। एक दिन महर्षिके नेत्रोंसे कुछ जलकी बूँदें टपकने लगीं,
जो अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण चराचर जगत्को प्रकाशित कर रही थीं दिशाओं [की अधिष्ठात्री देवियों ]-ने स्त्रीरूपमें आकर पुत्र पानेकी इच्छासे उस जलको ग्रहण कर लिया। उनके उदरमें वह जल गर्भरूपसे स्थित हुआ। दिशाएँ उसे धारण करनेमें असमर्थ हो गर्यो; अतः उन्होंने उस गर्भको त्याग दिया। तब उनके छोड़े हुए गर्भको एकत्रित करके उसे एक तरुण पुरुषके रूपमें प्रकट किया, जो सब प्रकारके आयुधोंको धारण करनेवाला था। फिर वे उस तरुण पुरुषको देवशक्ति- सम्पन्न सहस्र नामक रथपर बिठाकर अपने लोकमें ले गये। तब ब्रह्मर्षियोंने कहा—’ये हमारे स्वामी हैं। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं। उस समय उनका तेज बहुत बढ़ गया। उस तेजके विस्तारसे इस पृथ्वीपर दिव्य औषधियाँ उत्पन्न हुईं। इसीसे चन्द्रमा ओषधियोंके स्वामी हुए तथा द्विजोंमें भी उनकी गणना हुई। वे शुक्लपक्षमें बढ़ते और कृष्णपक्षमें सदा कुछ कालके बाद प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस कन्याएँ जो रूप और लावण्यसे युक्त तथा अत्यन्त तेजस्विनी थीं, चन्द्रमाको पत्नीरूपमें अर्पण कीं। तत्पश्चात् चन्द्रमाने केवल श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर होकर चिरकालतक बड़ी भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर परमात्माश्रीनारायणदेवने उनसे वर माँगनेको कहा। तब चन्द्रमाने यह वर माँगा—’मैं इन्द्रलोकमें राजसूययज्ञ करूँगा। उसमें आपके साथ ही सम्पूर्ण देवता मेरे मन्दिरमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर यज्ञभाग ग्रहण करें। शूलधारी भगवान् श्रीशंकर मेरे यज्ञकी रक्षा करें।’ ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् श्रीविष्णुने स्वयं ही राजसूययज्ञका समारोह किया। उसमें अत्रि होता, भृगु अध्वर्यु और ब्रह्माजी उद्गाता हुए। साक्षात् भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा बनकर यज्ञके द्रष्टा हुए तथा सम्पूर्ण देवताओंने सदस्यका काम सँभाला। यज्ञ पूर्ण होनेपर चन्द्रमाको दुर्लभ ऐश्वर्य मिला और वे अपनी तपस्याके प्रभावसे सातों लोकोंके स्वामी हुए चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्मर्षियोंके साथ ब्रह्माजीने बुधको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके उन्हें ग्रहोंकी समानता प्रदान की। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया, जिसने सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। वह पुरूरवाके नामसे विख्यात हुआ । सम्पूर्ण जगत् के लोगोंने उसके सामने मस्तक झुकाया । पुरूरवाने हिमालयके रमणीय शिखरपर ब्रह्माजीकी आराधना करके लोकेश्वरका पद प्राप्त किया। वे सातों द्वीपोंके स्वामी हुए। केशी आदि दैत्योंने उनकी दासता स्वीकार की। उर्वशी नामकी अप्सरा उनके रूपपर मोहित होकर उनकी पत्नी हो गयी। राजा पुरूरवा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी राजा थे; उन्होंने सातों द्वीप, वन, पर्वत और काननों सहित समस्त भूमण्डलका धर्मपूर्वक पालन किया। उर्वशीने पुरूरवाके वीर्यसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम ये हैं-आयु, दृढायु, वश्यायु, धनायु, वृत्तिमान्, वसु, दिविजात और सुबाहु-ये सभी दिव्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमेंसे आयुके पाँच पुत्र हुए- नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा । ये पाँचों वीर महारथी थे। रजिके सौ पुत्र हुए, जो राजेयके नामसे विख्यात थे। राजन् ! रजिनेतपस्याद्वारा पापके सम्पर्कसे रहित भगवान् श्रीनारायणकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर श्रीविष्णुने उन्हें वरदान दिया, जिससे रजिने देवता, असुर और मनुष्योंको जीत लिया।
अब मैं नहुषके पुरोका परिचय देता है। उनके सात पुत्र हुए और वे सब-के-सब धर्मात्मा थे। उनके नाम ये हैं-यति, ययाति संयाति, उद्भव, पर, वियति और विद्यसाति । ये सातों अपने वंशका यश बढ़ानेवाले थे। उनमें यति कुमारावस्थामें ही वानप्रस्थ योगी हो गये। ययाति राज्यका पालन करने लगे। उन्होंने एकमात्र धर्मकी ही शरण ले रखी थी। दानवराज वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्यकी पुत्री सती देवयानी ये दोनों उनकी पत्नियाँ थीं। ययातिके पाँच पुत्र थे। देवयानीने यदु और तुर्वसु नामके दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये। उनमें यदु और पूरु—ये दोनों अपने वंशका विस्तार करनेवाले हुए। यदुसे यादवोंकी उत्पत्ति हुई, जिनमें पृथ्वीका भार उतारने और पाण्डवका हित करनेके लिये भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं। यदुके पाँच पुत्र हुए, जो देवकुमारोंके समान थे। उनके नाम थे-सहस्रजित् क्रोष्टु, नील, अंजिक और रघु इनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ थे। उनके पुत्र राजा शतजित् हुए। शतजित्के हैहय, हव और उत्तालय – ये तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। हैहयका पुत्र धर्मनेत्रके नामसे विख्यात हुआ। धर्मनेत्रके कुम्भि, कुम्भिके संहत और संहतके माहिष्मान् नामक पुत्र हुआ। महिष्मान्से भद्रसेन नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो बड़ा प्रतापी था। वह काशीपुरीका राजा था। भद्रसेनके पुत्र राजा दुर्दर्श हुए। दुर्दर्शके पुत्र भीम और भीमके बुद्धिमान् कनक हुए। कनकके कृताग्नि, कृतवीर्य, कृतधर्मा और कृतीजा ये चार पुत्र हुए, जो संसारमें विख्यात थे। कृतवीर्यका पुत्र अर्जुन हुआ, जो एक हजार भुजाओंसे सुशोभित एवं सातों द्वीपोंका राजा था। राजा कार्तवीर्यने दस हजार वर्षोंतक दुष्कर तपस्या करके भगवान् दत्तात्रेयजीकी आराधना की। पुरुषोत्तम दत्तात्रेयजीने उन्हेंचार वरदान दिये। राजाओंमें श्रेष्ठ अर्जुनने पहले तो अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगी। दूसरे वरकद्वारा उन्होंने यह प्रार्थना की कि ‘मेरे राज्यमें लोगोंको अधर्मकी बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और के अधर्मके मार्गसे हट जायँ।’ तीसरा वरदान इस प्रकार मैं युद्धमें पृथ्वीको जीतकर धर्मपूर्वक बलका संग्रह करूँ।’ चौथे वरके रूपमें उन्होंने यह माँगा कि ‘संग्राममें लड़ते-लड़ते मैं अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ वीरके हाथसे मारा जाऊँ।’ राजा अर्जुनने सातों द्वीप और नगरोंसे युक्त तथा सातों समुद्रोंसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको क्षात्रधर्मके अनुसार जीत लिया था उस बुद्धिमान् नरेशके इच्छा करते ही हजार भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं। महाबाहु अर्जुनके सभी यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा बाँटी जाती थी। सबमें सुवर्णमय यूप (स्तम्भ) और सोनेकी ही वेदियाँ बनायी जाती थीं। उन यज्ञोंमें सम्पूर्ण देवता सज-धजकर विमानोंपर बैठकर प्रत्यक्ष दर्शन देते थे। महाराज कार्तवीर्यने पचासी हजार वर्षोंतक एकछत्र राज्य किया। वे चक्रवर्ती राजा थे। योगी होनेके कारण अर्जुन समय-समयपर मेघके रूपमें प्रकट हो वृष्टिके द्वारा प्रजाको सुख पहुँचाते थे। प्रत्यंचा आघात से उनकी भुजाओंकी त्वचा कठोर हो गयी थी जब वे अपनी हजारों भुजाओंके साथ संग्राममें खड़े होते थे, उस समय सहस्रों किरणोंसे सुशोभित शरत्कालीन सूर्यके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। परम कान्तिमान् महाराज अर्जुन माहिष्मतीपुरी निवास करते थे और वर्षाकालमें समुद्रका वेग भी रोक देते थे। उनकी हजारों भुजाओंके आलोडनसे समुद्र क्षुब्ध हो उठता था और उस समय पातालवासी महान् असुर लुक-छिपकर निश्चेष्ट हो जाते थे।
एक समयकी बात है, वे अपने | बाणोंसे अभिमानी रावणको सेनासहित मूर्च्छित करके पाँच माहिष्मतीपुरोर्गे से आये वहाँ ले जाकर उन्होंने रावणको कैदमें डाल दिया। तब मैं (पुलस्त्य) अर्जुनको प्रसन्न करनेके लिये गया राजन्! मेरी बात मानकर उन्होंने मेरे पौत्रको दिया और उसके साथ मित्रताकर ली। किन्तु विधाताका बल और पराक्रम अद्भुत है, जिसके प्रभावसे भृगुनन्दन परशुरामजीने राजा कार्तवीर्यकी हजारों भुजाओंको सोनेके तालवनकी भाँति संग्राममें काट डाला। कार्तवीर्य अर्जुनके सौ पुत्र थे; किन्तु उनमें पाँच महारथी, अस्त्रविद्यामें निपुण, बलवान्, शूर, धर्मात्मा और महान् व्रतका पालन करनेवाले थे। उनके नाम थे- शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण औरजयध्वज। जयध्वजका पुत्र महाबली तालजंघ हुआ । तालजंघके सौ पुत्र हुए, जिनकी तालजंघके नामसे ही प्रसिद्धि हुई। उन हैहयवंशीय राजाओंके पाँच कुल हुए वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, तुण्डकेर और विक्रान्त । ये सब-के-सब तालजंघ ही कहलाये । वीतिहोत्रका पुत्र अनन्त हुआ, जो बड़ा पराक्रमी था। उसके दुर्जय नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंका संहार करनेवाला था ।
अध्याय-13 यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजेन्द्र ! अब यदुपुत्र क्रोष्टुके वंशका, जिसमें श्रेष्ठ पुरुषोंने जन्म लिया था, वर्णन सुनो। क्रोष्टुके ही कुलमें वृष्णिवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णका अवतार हुआ है। क्रोष्टुके पुत्र महामना जिनीवान् हुए उनके पुत्रका नाम स्वाति था। स्वातिसे कुशंकुका जन्म हुआ। कुशंकुसे चित्ररथ उत्पन्न हुए, जो शशविन्दु नामसे विख्यात चक्रवर्ती राजा हुए। शशविन्दुके दस हजार पुत्र हुए। वे बुद्धिमान्, सुन्दर, प्रचुर वैभवशाली और तेजस्वी थे। उनमें भी सौ प्रधान थे। उन सौ पुत्रोंमें भी, जिनके नामके साथ ‘पृभु’ शब्द जुड़ा था, वे महान् बलवान् थे। उनके पूरे नाम इस प्रकार है-पृथुश्रवा पृथुयशा पृथुतेज, पृथूद्भव, पृथुकीर्ति और पृथुमति। पुराणोंके ज्ञाता पुरुष उन सबमें पृथुश्रवाको श्रेष्ठ बतलाते हैं। पृथुश्रवासे उशना नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंको सन्ताप देनेवाला था। उशनाका पुत्र शिनेयु हुआ, जो सज्जनोंमें श्रेष्ठ था। शिनेयुका पुत्र रुक्मकवच नामसे प्रसिद्ध हुआ, वह शत्रुसेनाका विनाश करनेवाला था। राजा रुक्मकवचने एक बार अश्वमेध यज्ञका आयोजन किया और उसमें दक्षिणाके रूपमें यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दे दी। उसके रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, परिघ और हरि-ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए, जो महान् बलवान् और पराक्रमी थे। उनमेंसे परिघ और हरिको उनके पिताने विदेह देशके राज्यपर स्थापित किया। स्वमेषु राजा हुआ और पृथुस्कम उसके अधीन होकर रहने लगा। उन दोनोंने मिलकर अपने भाई ज्यामघको घरसे निकाल दिया। ज्यामघ ऋक्षवान् पर्वतपर जाकर जंगली फलमूलों से जीवन-निर्वाहकरते हुए वहाँ रहने लगे। ज्यामघकी स्त्री शैब्या बड़ी सती-साध्वी स्त्री थी। उससे विदर्भ नामक पुत्र हुआ। विदर्भसे तीन पुत्र हुए – क्रथ, कैशिक और लोमपाद । राजकुमार क्रथ और कैशिक बड़े विद्वान् थे तथा लोमपाद परम धर्मात्मा थे। तत्पश्चात् राजा विदर्भने और भी अनेकों पुत्र उत्पन्न किये, जो युद्ध कर्ममें कुशल तथा शूरवीर थे। लोमपादका पुत्र बभ्रु और बभ्रुका पुत्र हेति हुआ। कैशिकके चिदि नामक पुत्र हुआ, जिससे चैद्य राजाओंकी उत्पत्ति बतलायी जाती है।
विदर्भका जो क्रथ नामक पुत्र था, उससे कुन्तिका जन्म हुआ, कुन्तिसे धृष्ट और धृष्टसे पृष्टकी उत्पत्ति हुई। पृष्ट प्रतापी राजा था। उसके पुत्रका नाम निर्वृति था। वह परम धर्मात्मा और शत्रुवीरोंका नाशक था। निर्वृतिके दाशार्ह नामक पुत्र हुआ, जिसका दूसरा नाम विदूरथ था। दाशार्हका पुत्र भीम और भीमका जीमूत हुआ। जीमूतके पुत्रका नाम विकल था । विकलसे भीमरथ नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भीमरथका पुत्र नवरथ, नवरथका दृढरथ और दृढरथका पुत्र शकुनि हुआ। शकुनिसे करम्भ और करम्भसे देवरातका जन्म हुआ। देवरातके पुत्र महायशस्वी राजा देवक्षत्र हुए। देवक्षत्रका पुत्र देवकुमारके समान अत्यन्त तेजस्वी हुआ। उसका नाम मधु था । मधुसे कुरुवशका जन्म हुआ। कुरुवशके पुत्रका नाम पुरुष था। वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ हुआ। उससे विदर्भकुमारी भद्रवतीके गर्भसे जन्तुका जन्म हुआ। जन्तुका दूसरा नाम पुरुद्वसु था। जन्तुकी पत्नीका नामवेत्रकी था। उसके गर्भसे सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतकी उत्पत्ति हुई। जो सात्वतवंशकी कीर्तिका विस्तार करनेवाले थे। सत्त्वगुणसम्पन्न सात्वतसे उनकी रानी कौसल्याने भजिन, भजमान, दिव्य राजा देवावृध, अन्धक, महाभोज और वृष्णि नामके पुत्रोंको उत्पन्न किया। इनसे चार वंशका विस्तार हुआ। उनका वर्णन सुनो। भजमानकी पत्नी संजयकुमारी सृजयीके गर्भसे भाज नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। भाजसे भाजकोंका जन्म हुआ। भाजकी दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंने बहुत से पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- विनय, करुण और वृष्णि। इनमें वृष्णि शत्रुके नगरोंपर विजय पानेवाले थे। भाज और उनके पुत्र- सभी भाजक नामसे प्रसिद्ध हुए; क्योंकि भजमानसे इनकी उत्पत्ति हुई थी।
देवावृधसे बभ्रु नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो सभी उत्तम गुणोंसे सम्पन्न था। पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् पुरुष महात्मा देवावृधके गुणोंका बखान करते हुए इस वंशके विषयमें इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट करते हैं— ‘देवावृध देवताओंके समान हैं और बभ्रु समस्त मनुष्योंमें श्रेष्ठ हैं। देवावृध और बभ्रुके उपदेशसे छिहत्तर हजार मनुष्य मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।’ बभ्रुसे भोजका जन्म हुआ, जो यज्ञ, दान और तपस्यामें धीर, ब्राह्मणभत्त, उत्तम व्रतोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले रूपवान् तथा महातेजस्वी थे। शरकान्तकी कन्या मृतकावती भोजकी पत्नी हुई। उसने भोजसे कुकुर, भजमान, समीक और बलबर्हिष- ये चार पुत्र उत्पन्न किये। कुकुरके पुत्र भूष्णुष्णुकेति धृतिम कपोतरोमा के नैमिति नैमित्तिके सुमृत और मुके पुत्र नरि हुए। नरि बड़े विद्वान् थे। उनका दूसरा नाम चन्दनोदक दुन्दुभि बतलाया जाता है। उनसे अभिजित् और अभिजित्से पुनर्वसु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। शत्रुविजयी पुनर्वसुसे दो सन्तानें हुई; एक पुत्र और एक कन्या पुत्रका नाम आहुक था और कन्याका आहुकी। भोजमें कोई असत्यवादी जन यज्ञ न करनेवाल हजारसे कम दान करनेवाला, अपवित्र और मूर्ख नहीं था। भोजसे बढ़कर कोई हुआ ही नहीं। यहभोजवंश आहुकतक आकर समाप्त हो गया। आयुकने अपनी बहिन आटुकीका व्याह अवन्ती देशमें किया था। आहुकको एक पुत्री भी थी, जिसने दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हैं- देवक और उग्रसेन वे दोनों देवकुमारों के समान तेजस्वी हैं। देवकके चार पुत्र हुए, जो देवताओंके समान सुन्दर और वीर हैं। उनके नाम हैं- देववान्, उपदेव, सुदेव और देवरक्षक। उनके सात बहिनें थीं, जिनका व्याह देवकने वसुदेवजीके साथ कर दिया। उन सातोंके नाम इस प्रकार हैं-देवकी, तदेवा, यशोदा, श्रुतिश्रव श्रीदेवा, उपदेवा और सुरूपा । उग्रसेनके नौ पुत्र हुए। उनमें कंस सबसे बड़ा था। शेषके नाम इस प्रकार हैं—न्यग्रोध, सुनामा, कंक, शंकु, सुभू, राष्ट्रपाल, बद्धमुष्टि और सुमुष्टिक। उनके पाँच बहिनें थीं कंसा कंसवती, सुरभी, राष्ट्रपाली और कंका ये सब की सब बड़ी सुन्दरी थीं। इस प्रकार सन्तानसहित उग्रसेनतक कुकुर- वंशका वर्णन किया गया।
[भोजके दूसरे पुत्र] भजमानके विदूरथ हुआ, वह रथियों में प्रधान था। उसके दो पुत्र हुए- राजाधिदेव और शूर राजाधिदेवके भी दो पुत्र हुए- शोणाश्व और श्वेतवाहन वे दोनों वीर पुरुषोंके सम्माननीय और क्षत्रिय धर्मका पालन करनेवाले थे। शोणाश्वके पाँच पुत्र हुए वे सभी शूरवीर और बुद्धकर्ममें कुशल थे। उनके नाम इस प्रकार है-शमी, गदवर्मा, निमूर्त चक्रजित् और शुचि शमीके पुत्र प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र के भोज और भोजके हृदिक हुए। हृदिकके दस पुत्र हुए, जो भयानक पराक्रम दिखानेवाले थे। उनमें कृतवर्मा सबसे बड़ा था। उससे छोटोंके नाम शतधन्वा, देवार्ड, सुभानु, भीषण, महाबल, अजात विजाद कारक और करम्भक हैं। देवार्हका पुत्र कम्बलबर्हिष हुआ, वह विद्वान् पुरुष था। उसके दो पुत्र हुए समौजा और असमौजा अजातके पुत्रसे भी समौजा नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। समौजाके तीन पुत्र हुए, जो परम धार्मिक और पराक्रमी थे। उनके नाम हैं सुदृश, सुरांश और कृष्ण । [सात्वतके कनिष्ठ पुत्र] वृष्णिके वंशमें अनमित्रनामके प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, वे अपने पिताके कनिष्ठ पुत्र थे उनसे शिनि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अनमित्रसे वृष्णिवीर युधाजित्का भी जन्म हुआ। उनके सिवा दो वीर पुत्र और हुए, जो ऋषभ और क्षत्रके नामसे विख्यात हुए। उनमेंसे ॠषभने काशिराजकी पुत्रीको पत्नीके रूपमें ग्रहण किया। उससे जयन्तकी उत्पत्ति हुई। जयन्तने जयन्ती नामकी सुन्दरी भार्याके साथ विवाह किया। उसके गर्भसे एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सदा यज्ञ करनेवाला, अत्यन्त धैर्यवान् शास्त्रज्ञ और अतिथियोंका प्रेमी था उसका नाम अक्रूर था। अक्रूर यज्ञकी दीक्षा ग्रहण करनेवाले और बहुत-सी दक्षिणा देनेवाले थे। उन्होंने रत्नकुमारी के साथ विवाह किया और उसके गर्भसे ग्यारह महाबली पुत्रोंको उत्पन्न किया। अकूरने पुनः शूरसेना नमकी पत्नीके गर्भसे देववान् और उपदेव नामक दो और पुत्रोंको जन्म दिया। इसी प्रकार उन्होंने अश्विनी नामकी पत्नीसे भी कई पुत्र उत्पन्न किये।
[विदूरथकी पत्नी] ऐक्ष्वाकीने मीढुष नामक पुत्रको जन्म दिया। उनका दूसरा नाम शूर भी था शूरने भोजाके गर्भसे दस पुत्र उत्पन्न किये। उनमें आनकदुन्दुभि नामसे प्रसिद्ध महाबाहु वसुदेव ज्येष्ठ थे। उनके सिवा शेष पुत्रोंके नाम इस प्रकार है-देवभाग, देवखवा, अनावृष्टि, कुनि, नन्दि, सकृयशाः श्याम समीढु और शंसस्यु। शूरसे पाँच सुन्दरी कन्याएँ भी उत्पन्न हुई, जिनके नाम हैं-श्रुतिकीर्ति, पृथा श्रुतदेवी, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी। ये पाँचों वीर पुत्रोंकी जननी थीं। श्रुतदेवीका विवाह वृद्ध नामक राजाके साथ हुआ। उसने कारूष नामक पुत्र उत्पन्न किया। श्रुतिकीर्तिने केकवनरेशके अंशसे सन्तर्दनको जन्म दिया। त दिनकी पत्नी थी। उसके गर्भ से सुनीथ (शिशुपाल) का जन्म हुआ। राजाधिदेवीके गर्भ से धर्मकी भाव अभिमर्दिताने जन्म ग्रहण किया। शूरकी राजा कुन्तिभोजके साथ मैत्री थी, अतः उन्होंने अपनी कन्यापृथाको उन्हें गोद दे दिया। इस प्रकार वसुदेवकी बहिन पृथा कुन्तिभोजकी कन्या होनेके कारण कुन्तीके नामसे प्रसिद्ध हुई। कुन्तिभोजने महाराज पाण्डुके साथ कुन्तीका विवाह किया। कुन्तीसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए- युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन। अर्जुन इन्द्रके समान पराक्रमी हैं। वे देवताओंके कार्य सिद्ध करनेवाले, सम्पूर्ण दानवोंके नाशक तथा इन्द्रके लिये भी अवध्य हैं। उन्होंने दानवोंका संहार किया है। पाण्डुकी दूसरी रानी माद्रवती (माद्री) के गर्भसे दो पुत्रोंकी उत्पत्ति सुनी गयी है, जो नकुल और सहदेव नामसे प्रसिद्ध हैं। वे दोनों रूपवान् और सत्त्वगुणी हैं। वसुदेवजीकी दूसरी पत्नी रोहिणीने, जो पुरुवंशकी कन्या हैं, ज्येष्ठ पुत्रके रूपमें बलरामको उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उनके गर्भसे रणप्रेमी सारण, दुर्धर, दमन और लम्बी ठोढ़ीवाले पिण्डारक उत्पन्न हुए। वसुदेवजीकी पत्नी जो देवकी देवी हैं, उनके गर्भसे पहले तो महाबाहु प्रजापतिके अंशभूत बालक उत्पन्न हुए। फिर [कंसके द्वारा उनके मारे जानेपर ] श्रीकृष्णका अवतार हुआ। विजय, रोचमान, वर्द्धमान और देवल- ये सभी महात्मा उपदेवीके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं। श्रुतदेवीने महाभाग गवेषणको जन्म दिया, जो संग्राममें पराजित होनेवाले नहीं थे।
[ अब श्रीकृष्णके प्रादुर्भावकी कथा कही जाती है।] जो श्रीकृष्णके जन्म और वृद्धिकी कथाका प्रतिदिन पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। * पूर्वकालमें जो प्रजाओंके स्वामी थे, वे ही महादेव श्रीकृष्ण लीलाके लिये इस समय मनुष्यों में अवतीर्ण हुए हैं। पूर्वजन्ममें देवकी और वसुदेवजीने तपस्या की थी, उसीके प्रभावसे वसुदेवजीके द्वारा देवकीके गर्भसे भगवान्का प्रादुर्भाव हुआ। उस समय उनके नेत्र कमलके समान शोभा पा रहे थे। उनके चार भुजाएँ थीं। उनका दिव्य रूप मनुष्योंका मन मोहनेवाला था। श्रीवत्ससे चिह्नित एवं शंख-चक्र आदि लक्षणोंसेयुक्त भगवान्के दिव्य विग्रहको देखकर वसुदेवजीबोले- ‘प्रभो! इस रूपको छिपा लीजिये। मैं कंससे डरा हुआ हूँ, इसीलिये ऐसा कहता हूँ। उसने मेरे छ; पुत्रोंको, जो देखनेमें बहुत ही सुन्दर थे, मार डाला है।’ वसुदेवजीकी बात सुनकर भगवान्ने अपने दिव्यरूपको छिपा लिया। फिर भगवान्की आज्ञा लेकर वसुदेवजी उन्हें नन्दके घर ले गये और नन्दगोपको देकर बोले ‘आप इस बालककी रक्षा करें; क्योंकि इससे सम्पूर्ण यादवोंका कल्याण होगा। देवकीका यह बालक जबतक कंसका वध नहीं करेगा, तबतक इस पृथ्वीपर भार बढ़ानेवाले अमंगलमय उपद्रव होते रहेंगे। भूतलपर जितने दुष्ट राजा हैं, उन सबका यह संहार करेगा। यह बालक साक्षात् भगवान् है। ये भगवान् कौरव पाण्डवों के युद्धमें सम्पूर्ण क्षत्रियोंके एकत्रित होनेपर अर्जुनके सारथिका काम करेंगे और पृथ्वीको क्षत्रियहीन करके उसका उपभोग एवं पालन करेंगे और अन्तमें समस्त यदुवंशको देवलोकमें पहुँचायेंगे।
भीष्मने पूछा- ब्रह्मन् ! ये वसुदेव कौन थे? यशस्विनी देवकीदेवी कौन थीं तथा ये नन्दगोप और उनकी पत्नी महाव्रता यशोदा कौन थीं? जिसने बालकरूपमें भगवान्को जन्म दिया और जिसने उनकापालन-पोषण किया, उन दोनों स्त्रियोंका परिचय दीजिये।
पुलस्त्यजी बोले– राजन् पुरुष वसुदेवजी कश्यप # और उनको प्रिया देवकी अदिति कही गयी हैं। कश्यप ब्रह्माजीके अंश हैं और अदिति पृथ्वीका। इसी प्रकार द्रोण नामक वसु ही नन्दगोपके नामसे विख्यात हुए हैं तथा उनकी पत्नी धरा यशोदा हैं। देवी देवकीने पूर्वजन्ममें अजन्मा परमेश्वरसे जो कामना की थी, उसकी वह कामना महाबाहु श्रीकृष्णने पूर्ण कर दी। यज्ञानुष्ठान बंद हो गया था, धर्मका उच्छेद हो रहा था; ऐसी अवस्थामें धर्मकी स्थापना और पापी असुरोंका संहार करनेके लिये भगवान् श्रीविष्णु वृष्णिकुलमें प्रकट हुए हैं। रुक्मिणी, सत्यभामा, नग्नजितकी पुत्री सत्या सुमित्रा शैब्या, गान्धार-राजकुमारी लक्ष्मणा सुभीमा, मद्रराजकुमारी कौसल्या और विरजा आदि सोलह हजार देवियाँ श्रीकृष्णकी पत्नियाँ हैं। रुक्मिणीने दस पुत्र उत्पन्न किये; वे सभी युद्धकर्ममें कुशल हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-महाबली प्रद्युम्न, रणशूर चारुदेष्ण, सुचारु चारुभद्र, सदश्व, ह्रस्व, चारुगुप्त, चारुभद्र, चारुक और चारुहास। इनमें प्रद्युम्न सबसे बड़े और चारुहास सबसे छोटे हैं। रुक्मिणीने एक कन्याको भी जन्म दिया, जिसका नाम चारुमती है। सत्यभामासे भानु, भीमरथ, क्षण, रोहित, दीप्तिमान्, ताम्रबन्ध और जलन्धम- ये सात पुत्र उत्पन्न हुए। इन सातोंके एक छोटी बहिन भी है। जाम्बवतीके पुत्र साम्ब हुए, जो बड़े ही सुन्दर हैं। ये सौर- शास्त्रके प्रणेता तथा प्रतिमा एवं मन्दिरके निर्माता हैं। मित्रविन्दाने सुमित्र, चारुमित्र और मित्रविन्दको जन्म दिया। मित्रबाहु और सुनीय आदि सत्याके पुत्र है। इस प्रकार श्रीकृष्णके हजारों पुत्र हुए प्रद्युम्नके विदर्भकुमारी रुक्मवती गर्भसे अनिरुद्ध नामक परम बुद्धिमान् पुत्र उत्पन्न हुआ । अनिरुद्ध संग्राममें उत्साहपूर्वक युद्ध करनेवाले वीर हैं। अनिरुद्धसे मृगकेतनका जन्म हुआ राजा सुपार्श्वकी पुत्री काम्याने साम्यसे तरस्वी नामक पुत्र प्राप्त किया। प्रमुख वीर एवं महात्मा यादवोंकी संख्या तीन करोड़ साठ लाखके लगभग है। वे सभी अत्यन्त पराक्रमी औरमहाबली हैं। उन सबकी देवताओंके अंशसे उत्पत्ति हुई है। देवासुर संग्राममें जो महाबली असुर मारे गये थे, वे इस मनुष्यलोकमें उत्पन्न होकर सबको कष्ट दे रहे थे; उन्हीं का संहार करनेके लिये भगवान् यदुकुलमें अवतीर्णहुए हैं। महात्मा यादवोंके एक सौ एक कुल हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ही उन सबके नेता और स्वामी हैं तथा सम्पूर्ण यादव भी भगवान्की आज्ञाके अधीन रहकर ऋद्धि-सिद्धिसे सम्पन्न हो रहे हैं। *
अध्याय-14 पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! मेरु-गिरिके शिखरपर श्रीनिधान नामक एक नगर है, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित, अनेक आश्चर्योंका घर तथा बहुतेरे वृक्षोंसे हरा-भरा है। भाँति-भाँतिकी अद्भुत धातुओंसे उसकी बड़ी विचित्र शोभा होती है। वह स्वच्छ स्फटिक मणिके समान निर्मल दिखायी देता है। वहाँ ब्रह्माजीका वैराज नामक भवन है, जहाँ देवताओंको सुख देनेवाली कान्तिमती नामकी सभा है। वह मुदाय सेवित तथा ऋषि महर्षियोंसे भरी रहती है। एक दिन देवेश्वर ब्रह्माजी उसी सभामें बैठकरजगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वरका ध्यान कर रहे थे ध्यान करते-करते उनके मनमें यह विचार उठा कि ‘मैं किस प्रकार यह करूँ? भूतलपर कहाँ और किस स्थानपर मुझे यज्ञ करना चाहिये? काशी, प्रयाग, तुंगा (तुंगभद्रा), नैमिषारण्य, पुष्कर, कांची भद्रा, देविका, कुरुक्षेत्र, सरस्वती और प्रभास आदि बहुत से तीर्थ हैं। भूमण्डलमें चारों ओर जितने पुण्य तीर्थ और क्षेत्र हैं, उन सबको मेरी आज्ञासे रुद्रने प्रकट किया है। जिससे मेरी उत्पत्ति हुई है, भगवान् श्रीविष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए उस कमलको ही वेदपाठी ऋषि पुष्कर तीर्थ कहते हैं (पुष्कर तीर्थ उसीका व्यक्तरूप है)। इस प्रकार विचार करते-करते प्रजापति ब्रह्माके मनमें यह बात आयी कि अब मैं पृथ्वीपर चलूँ यह सोचकर वे अपनी उत्पत्तिके प्राचीन स्थानपर आये और वहाँके उत्तम वनमें प्रविष्ट हुए, जो नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त एवं भाँति-भाँतिके फूलोंसे सुशोभित था वहाँ पहुँचकर उन्होंने क्षेत्रकी स्थापना की, जिसका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। चन्द्रनदीके उत्तर प्राची सरस्वतीतक और नन्दन नामक स्थानसे पूर्व क्रम्य या कल्प नामक स्थानतक जितनी भूमि है, वह सब पुष्कर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें लोककर्ता ब्रह्माजीने यज्ञ करनेके निमित्त वेदी बनायी। ब्रह्माजीने वहाँ तीन पुष्करोंकी कल्पना की। प्रथम ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ समझना चाहिये, जो तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला और विख्यात है,उसके देवता साक्षात् ब्रह्माजी हैं। दूसरा मध्यम पुष्कर है, जिसके देवता विष्णु हैं तथा तीसरा कनिष्ठ पुष्कर है, जिसके देवता भगवान् रुद्र हैं। यह पुष्कर नामक वन आदि, प्रधान एवं गुह्य क्षेत्र है। वेदमें भी इसका वर्णन आता है। इस तीर्थमें भगवान् ब्रह्मा सदा निवास करते हैं। उन्होंने भूमण्डलके इस भागपर बड़ा अनुग्रह किया है। पृथ्वीपर विचरनेवाले सम्पूर्ण जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही ब्रह्माजीने इस तीर्थको प्रकट किया है। यहाँकी यज्ञवेदीको उन्होंने सुवर्ण और हीरेसे मढ़ा दिया तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित करके उसके फर्शको सब प्रकारसे सुशोभित एवं विचित्र बना दिया। तत्पश्चात् लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे। साथ ही भगवान् श्रीविष्णु, रुद्र, आठों वसु, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण तथा स्वर्गवासी देवता भी देवराज इन्द्रके साथ वहाँ आकर विहार करने लगे। यह तीर्थ सम्पूर्ण लोकॉपर अनुग्रह करनेवाला है। मैंने इसकी यथार्थ महिमाका तुमसे वर्णन किया है। जो ब्राह्मण अग्निहोत्र-परायण होकर संहिताके क्रमसे विधिपूर्वक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए इस तीर्थमें वेदोंका पाठ करते हैं, वे सब लोग ब्रह्माजीके कृपापात्र होकर उन्हींके समीप निवास करते हैं।
भीष्मजीने पूछा- भगवन्! तीर्थनिवासी मनुष्योंको पुष्कर वनमें किस विधिसे रहना चाहिये ? क्या केवल पुरुषोंको ही वहाँ निवास करना चाहिये या स्त्रियोंको भी? अथवा सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोग वहाँ निवास कर सकते हैं?
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! सभी वर्णों एवं आश्रमोंके पुरुषों और स्त्रियोंको भी उस तीर्थमें निवास करना चाहिये। सबको अपने-अपने धर्म और आचारका पालन करते हुए दम्भ और मोहका परित्याग करके रहना उचित है। सभी मन, वाणी और कर्मसे ब्रह्माजीके भक्त एवं जितेन्द्रिय हों। कोई किसीके प्रति दोष-दृष्टि न करे। सब मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हों; किसीके भी हृदयमें खोटा भाव नहीं रहना चाहिये।
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् क्या करनेसे मनुष्यइस लोकमें ब्रह्माजीका भक्त कहलाता है? मनुष्योंमें कैसे लोग ब्रह्मभक्त माने गये हैं? यह मुझे बताइये।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्। भक्ति तीन प्रकारकी कही गयी है—मानस, वाचिक और कायिक। इसके सिवा भक्तिके तीन भेद और है-लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ध्यान-धारणापूर्वक बुद्धिके द्वारा वेदार्थका जो विचार किया जाता है, उसे मानस भक्ति कहते हैं। यह ब्रह्माजीकी प्रसन्नता बढानेवाली है। मन्त्र जप, वेदपाठ तथा आरण्यकोंके जपसे होनेवाली भक्ति वाचिक कहलाती है। मन और इन्द्रियाँको रोकनेवाले व्रत, उपवास, नियम, कृच्छ्र, सान्तपन तथा चान्द्रायण आदि भिन्न-भिन्न व्रतोंसे, ब्रह्मकृच्छ्र नामक उपवाससे एवं अन्यान्य शुभ नियमोंके अनुष्ठानसे जो भगवान्की आराधना की जाती है, उसको कायिक भक्ति कहते हैं। यह द्विजातियोंकी त्रिविध भक्ति बतायी गयी। गायके घी, दूध और दही, रत्न, दीप, कुरा जल, चन्दन, माला, विविध धातुओं तथा पदार्थ; काले अगरकी सुगन्धसे युक्त एवं घी और गूगुलसे बने हुए धूप, आभूषण, सुवर्ण और रत्न आदिसे निर्मित विचित्र-विचित्र हार, नृत्य, वाद्य, संगीत, सब प्रकारके जंगली फल-मूलोंके उपहार तथा भक्ष्यभोज्य आदि नैवेद्य अर्पण करके मनुष्य ब्रह्माजीके उद्देश्यसे जो पूजा करते हैं, वह लौकिक भक्ति मानी गयी है। ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदके मन्त्रोंका जप और संहिताओंका अध्यापन आदि कर्म यदि ब्रह्माजीके उद्देश्यसे किये जाते हैं, तो वह वैदिक भक्ति कहलाती है। वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक हविष्यकी आहुति देकर जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह भी वैदिक भक्ति मानी गयी है। अमावास्या अथवा पूर्णिमाको जो अग्निहोत्र किया जाता है, यज्ञोंमें जो उत्तम दक्षिणा दी जाती है तथा देवताओंको जो पुरोडाश और चरु अर्पण किये जाते हैं- ये सब वैदिक भक्तिके अन्तर्गत हैं। इष्टि, धृति, यज्ञ-सम्बन्धी सोमपान तथा अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, चन्द्रमा, मेघ और सूर्यके उद्देश्यसे किये हुए जितने कर्म हैं, उन सबके देवता ब्रह्माजी ही हैं।राजन्! ब्रह्माजीकी आध्यात्मिक भक्ति दो प्रकारकी मानी गयी है-एक सांख्यज और दूसरी योगज। इन दोनोंका भेद सुनो। प्रधान (मूल प्रकृति) आदि प्राकृत तत्त्व संख्यामें चौबीस हैं। वे सब-के-सब जड एवं भोग्य हैं। उनका भोक्ता पुरुष पचीसवाँ तत्त्व है, वह चेतन है। इस प्रकार संख्यापूर्वक प्रकृति और पुरुषके तत्त्वको ठीक-ठीक जानना सांख्यज भक्ति है। इसे सत्पुरुषोंने सांख्य-शास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक भक्ति माना है। अब ब्रह्माजीकी योगज भक्तिका वर्णन सुनो। प्रतिदिन प्राणायामपूर्वक ध्यान लगाये, इन्द्रियोंका संयम करे और समस्त इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे खींचकर हृदयमें धारण करके प्रजानाथ ब्रह्माजीका इस प्रकार ध्यान करे। हृदयके भीतर कमल है, उसकी कर्णिकापर ब्रह्माजी विराजमान हैं। वे रक्त वस्त्र धारण किये हुए हैं, उनके नेत्र सुन्दर हैं। सब ओर उनके मुख प्रकाशित हो रहे हैं। ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) कमरके ऊपरतक लटका हुआ है, उनके शरीरका वर्ण लाल है, चार भुजाएँ शोभा पा रही हैं तथा हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं। इस प्रकारके ध्यानकी स्थिरता योगजन्य मानस सिद्धि है; यही ब्रह्माजीके प्रति होनेवाली पराभक्ति मानी गयी है। जो भगवान् ब्रह्माजीमें ऐसी भक्ति रखता है, वह ब्रह्मभक्त कहलाता है।
राजन्! अब पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवाले पुरुषोंके पालन करनेयोग्य आचारका वर्णन सुनो। पूर्वकालमें जब विष्णु आदि देवताओंका वहाँ समागम हुआ था, उस समय सबकी उपस्थितिमें ब्रह्माजीने स्वयं ही क्षेत्रनिवासियोंके कर्तव्यको विस्तारके साथ बतलाया था। पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवालोंको उचित है कि वे ममता और अहंकारको पास न आने दें। आसक्ति और संग्रहकी वृत्तिका परित्याग करें। बन्धु बान्धवोंके प्रति भी उनके मनमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये। वे ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझें प्रतिदिन नाना प्रकारकेशुभ कर्म करते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय-दान दें। नित्य प्राणायाम और परमेश्वरका ध्यान करें। जपके द्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध बनायें। यति-धर्मके कर्तव्योंका पालन करें। सांख्ययोगकी विधिको जानें तथा सम्पूर्ण संशयोंका उच्छेद करके ब्रह्मका बोध प्राप्त करें। क्षेत्रनिवासी ब्राह्मण इसी नियमसे रहकर वहाँ यज्ञ करते हैं।
अब पुष्कर वनमें मृत्युको प्राप्त होनेवाले लोगोंको जो फल मिलता है, उसे सुनो। वे लोग अक्षय ब्रह्म सायुज्यको प्राप्त होते हैं, जो दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है। उन्हें उस पदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जानेपर पुनः मृत्यु प्रदान करनेवाला जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता। वे पुनरावृत्तिके पथका परित्याग करके ब्रह्मसम्बन्धिनी परा विद्यामें स्थित हो जाते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! पुष्कर तीर्थमें निवास करनेवाली स्त्रियाँ, म्लेच्छ, शूद्र, पशु-पक्षी, मृग, गूँगे, जड, अंधे तथा बहरे प्राणी, जो तपस्या और नियमोंसे दूर हैं, किस गतिको प्राप्त होते हैं—यह बतानेकी कृपा करें।
पुलस्त्यजी बोले- भीष्म ! पुष्कर क्षेत्रमें मरनेवाले म्लेच्छ, शूद्र, स्त्री, पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं। वे दिव्य शरीर धारण करके सूर्यके समान तेजस्वी विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोक की यात्रा करते हैं। तिर्यग्योनिमें पड़े हुए-पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, चींटियाँ, थलचर, जलचर, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज आदि प्राणी यदि पुष्कर वनमें प्राण त्याग करते हैं तो सूर्यके समान कान्तिमान् विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाते हैं! जैसे समुद्रके समान दूसरा कोई जलाशय नहीं है, वैसे ही पुष्करके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है।* अब मैं तुम्हें अन्य देवताओंका परिचय देता हूँ, जो इस पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान रहते हैं। भगवान् श्रीविष्णुके साथ इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता, गणेश, कार्तिकेय, चन्द्रमा, सूर्य औरदेवो ये सब सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये ब्रह्माजीके निवास स्थान पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान रहते हैं। इस तीर्थमें निवास करनेवाले लोग सत्ययुगमें बारह वर्षोंतक, त्रेतामें एक वर्षतक तथा द्वापरमें एक मासतक तीर्थ सेवन करनेसे जिस फलको पाते थे, उसे कलियुगमें एक दिन शतके तीर्थ सेवनसे ही प्राप्त कर लेते हैं।” यह बात देवाधिदेव ब्रह्माजीने पूर्वकालमें मुझसे (पुलस्त्यजीसे) स्वयं ही कही थी। पुष्करसे बढ़कर इस पृथ्वीपर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है; इसलिये पूरा प्रयत्न करके मनुष्यको इस पुष्कर वनका सेवन करना चाहिये। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी ये सब लोग अपने-अपने शास्त्रोक्त धर्मका पालन करते हुए इस क्षेत्रमें परम गतिको प्राप्त करते हैं।
धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको चाहिये कि वह अपनी आयुके एक चौथाई भागतक दूसरेकी निन्दासे बचकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु अथवा गुरुपुत्रके समीप निवास करे तथा गुरुकी सेवासे जो समय बचे, उसमें अध्ययन करे, श्रद्धा और आदरपूर्वक गुरुका आश्रय ले । गुरुके घरमें रहते समय गुरुके सोनेके पश्चात् शयन करे और उनके उठनेसे पहले उठ जाय। शिष्यके करनेयोग्य जो कुछ सेवा आदि कार्य हो, वह सब पूरा करके ही शिष्यको गुरुके पास खड़ा होना चाहिये यह सदा गुरुका किंकर होकर सब प्रकारकी सेवाएँ करे। सब कार्योंमें कुशल हो। पवित्र, कार्यदक्ष और गुणवान् बने गुरुको प्रिय लगनेवाला उत्तर दे। इन्द्रियोंको जीतकर शान्तभावसे गुरुकी ओर देखे गुरुके भोजन करनेसे पहले भोजन और जलपान करनेसे पहले जलपान न करे। गुरु खड़े हों तो स्वयं भी बैठे नहीं। उनके सोये बिना शयन भी न करे। उत्तान हाथोंके द्वारा गुरुके चरणोंका स्पर्श करे। गुरुके दाहिने पैर को अपने दाहिने हाथसे और बायें पैरको बायें हाथसे धीरे-धीरे दबाये और इस प्रकार प्रणाम करके गुरुसेकहे- ‘भगवन्! मुझे पढ़ाइये। प्रभो! यह कार्य मैंने पूरा कर लिया है और इस कार्यको मैं अभी करूँगा।’ इस प्रकार पहले कार्य करे और फिर किया हुआ सारा काम गुरुको बता दे। मैंने ब्रह्मचारीके नियमोंका यहाँ विस्तारके साथ वर्णन किया है; गुरुभक्त शिष्यको इन सभी नियमोंका पालन करना चाहिये। इस प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार गुरुकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए शिष्यको कर्तव्यकर्ममें लगे रहना उचित है। वह एक, दो, तीन या चारों वेदों को अर्थसहित गुरुमुखसे अध्ययन करे। भिक्षाके अन्नसे जीविका चलाये और धरतीपर शयन करे। वेदोक्त व्रतका पालन करता रहे और गुरु-दक्षिणा देकर विधिपूर्वक अपना समावर्तन संस्कार करे फिर धर्मपूर्वक प्राप्त हुई स्त्रीकेसाथ गार्हपत्यादि अग्नियोंकी स्थापना करके प्रतिदिन हवनादिके द्वारा उनका पूजन करे।
आयुका [ प्रथम भाग ब्रह्मचर्याश्रममें बितानेके पश्चात् ] दूसरा भाग गृहस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत करे। गृहस्थ ब्राह्मण यज्ञ करना, यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना तथा दान देना और दान लेना- इन छ कर्मोका अनुष्ठान करे। उससे भिन्न वानप्रस्थी विप्र केवल यजन, अध्ययन और दान- इन तीन कर्मोंका ही अनुष्ठान करे तथा चतुर्थ आश्रममें रहनेवाला ब्रह्मनिष्ठ संन्यासी जपयज्ञ और अध्ययन- इन दो ही कर्मोंसे सम्बन्ध रखे। गृहस्थके व्रतसे बढ़कर दूसरा तू कोई महान् तीर्थ नहीं बताया गया है। गृहस्थ पुरुष कभी केवल अपने खानेके लिये भोजन न बनाये [देवता और अतिथियोंके उद्देश्यसे ही रसोई करे]। पशुओंकी हिंसा न करे। दिनमें कभी नींद न 1 से रातके पहले और पिछले भागमें भी न सोये। दिन और रात्रिकी सन्धिमें (सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय) भोजन न करे। झूठ न बोले गृहस्थके रे घरमें कभी ऐसा नहीं होना चाहिये कि कोई ब्राह्मण अतिथि आकर भूखा रह जाय और उसकायथावत् सत्कार न हो। अतिथिको भोजन करानेसे देवता और पितर संतुष्ट होते हैं अतः गृहस्थ पुरुष सदा ही अतिथियोंका सत्कार करे। जो वेद-विद्या और हमें निष्णात श्रोत्रिय, वेदोंके पारगामी, अपने कर्मसे जीविका चलानेवाले, जितेन्द्रिय, क्रियावान् और तपस्वी है. उन्हीं श्रेष्ठ पुरुषोंके सत्कारके लिये हत्य और कव्यका विधान किया गया है। जो नश्वर पदार्थोंके प्रति आसक्त है, अपने कर्मसे भ्रष्ट हो गया है, अग्निहोत्र छोड़ चुका है, गुरुकी झूठी निन्दा करता है और असत्यभाषणमें आग्रह रखता है, वह देवताओं और पितरौको अर्पण करनेयोग्य अन्नके पानेका अधिकारी नहीं है। गृहस्थकी सम्पत्तिमें सभी प्राणियोंका भाग होता है जो भोजन नहीं बनाते, उन्हें भी गृहस्थ पुरुष अन्न दे। वह प्रतिदिन ‘विघस’ और ‘अमृत’ भोजन करे यज्ञसे (देवताओं और पितर आदिको अर्पण करनेसे) बचा हुआ अन्न हविष्यके समान एवं अमृत माना गया है तथा जो कुटुम्बके सभी मनुष्योंके भोजन कर लेनेके पश्चात् उनसे बचा हुआ अन्न ग्रहण करता है; उसे ‘विघसाशी’ (‘विघस’ अन्न भोजन करनेवाला) कहा गया है।
गृहस्थ पुरुषको केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखना चाहिये। वह मनको अपने वशमें रखे, किसीके गुणोंमें दोष न देखे और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबू रखे ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, शरणागत, वृद्ध, बालक, रोगी, वैद्य, कुटुम्बी, सम्बन्धी, बान्धव, माता, पिता, दामाद, भाई, पुत्र, स्त्री, बेटी तथा दास-दासियोंके साथ विवाद नहीं करना चाहिये। जो इनसे विवाद नहीं करता, वह सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो अनुकूल बर्तावके द्वारा इन्हें अपने वश कर लेता है, वह सम्पूर्ण लोकॉपर विजय पा जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। आचार्य हालोकका स्वामी है, पिता प्रजापति-लोकका प्रभु है, अतिथि सम्पूर्ण लोकोंका ईश्वर है, ऋल्पिक वेदोंका अधिन और प्रभु होता है। दामाद अप्सराओके लोकका अधिपति है। कुटुम्बी विश्वेदेवसम्बन्धी लोकोंके – अधिष्ठाता हैं। सम्बन्धी और बान्धव दिशाओंके तथामाता और मामा भूलोकके स्वामी हैं। वृद्ध, बालक और रोगी मनुष्य आकाशके प्रभु हैं। पुरोहित ऋषिलोकके और शरणागत साध्यलोकोंके अधिपति हैं। वैद्य अश्विनीकुमारीके लोकका तथा भाई वलोकका स्वामी है। पत्नी वायुलोककी ईश्वरी तथा कन्या अप्सराओंके घरकी स्वामिनी है। बड़ा भाई पिताके समान होता है पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं। दासवर्ग परछाईके समान हैं तथा कन्या अत्यन्त दीन दयाके योग्य मानी गयी है। इसलिये उपर्युक्त व्यक्ति कोई अपमानजनक बात भी कह दें तो उसे चुपचाप सह लेना चाहिये। कभी क्रोध या दुःख नहीं करना चाहिये। गृहस्थ धर्मपरायण विद्वान् पुरुषको एक ही साथ बहुत से काम नहीं आरम्भ करने चाहिये। धर्मज्ञको उचित है कि वह किसी एक ही काममें लगकर उसे पूरा करे।
गृहस्थ ब्राह्मणकी तीन जीविकाएँ हैं, उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ एवं कल्याणकारक हैं। पहली है- कुम्भधान्य वृत्ति, जिसमें एक घड़ेसे अधिक धान्यका संग्रह न करके जीवन निर्वाह किया जाता है। दूसरी उच्छशिल वृत्ति है, जिसमें खेती कट जानेपर खेतोंमें गिरी हुई अनाजकी बालें चुनकर लायी जाती हैं और उन्हींसे जीवन निर्वाह किया जाता है। तीसरी कापोती वृत्ति है, जिसमें खलिहान और बाजारसे अन्नके बिखरे हुए दाने चुनकर लाये जाते हैं तथा उन्हींसे जीविका चलायी जाती है जहाँ इन तीन वृत्तियोंसे जीविका चलानेवाले पूजनीय ब्राह्मण निवास करते हैं, उस राष्ट्रकी वृद्धि होती है। जो ब्राह्मण गृहस्थकी इन तीन वृत्तियोंसे जीवन निर्वाह करता है और मनमें कष्टका अनुभव नहीं करता, वह दस पीढ़ीतकके पूर्वजोंको तथा आगे होनेवाली सन्तानोंकी भी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है।
अब तीसरे आश्रम – वानप्रस्थका वर्णन करता हूँ, सुनो गृहस्थ पुरुष जब यह देख ले कि मेरे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, सिरके बाल सफेद हो गये हैं और पुत्रके भी पुत्र हो गया है, तब वह वनमें चला जाय। जिन्हें गृहस्थ आश्रमके नियमोंसे निर्वेद हो गया है, अतएव जो वानप्रस्थकी दीक्षा लेकर गृहस्थ आश्रमकात्याग कर चुकते हैं, पवित्र स्थानमें निवास करते हैं, जो बुद्धि-बलसे सम्पन्न तथा सत्य, शौच और क्षमा आदि सद्गुणोंसे युक्त हैं, उन पुरुषोंके कल्याणमय नियमोंका वर्णन सुनो। प्रत्येक द्विजको अपनी आयुका तीसरा भाग वानप्रस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत करना चाहिये। वानप्रस्थ आश्रममें भी वह उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, जिनका गृहस्थ आश्रममें सेवन करता था। देवताओंका पूजन करे, नियमपूर्वक रहे, नियमित भोजन करे, भगवान् श्रीविष्णुमें भक्ति रखे तथा यज्ञके सम्पूर्ण अंगोंका पालन करते हुए प्रतिदिन अग्निहोत्रका अनुष्ठान करे। धान और जौ वही ग्रहण करे, जो बिना जोती हुई जमीनमें अपने आप पैदा हुआ हो। इसके सिवा नीवार (तीना) और विघस अन्नको भी वह पा सकता है। उसे अग्निमें देवताओंके निमित्त हविष्य भी अर्पण करना चाहिये। वानप्रस्थी लोग वर्षांके समय खुले मैदानमें आकाशके नीचे बैठते हैं. हेमन्त ऋतु जलका आश्रय लेते हैं और ग्रीष्ममें पंचाग्नि सेवनरूप तपस्या करते हैं। उनमेंसे कोई तो धरतीपर लोटते हैं, कोई पंजोंके बल खड़े रहते हैं और कोई-कोई एक स्थानपर एक आसनसे बैठे रह जाते हैं। कोई दाँतों से ही ऊखलका काम लेते हैं-दूसरे किसी साधनद्वारा फोड़ी हुई वस्तु नहीं ग्रहण करते। कोई पत्थर से कूटकर खाते हैं, कोई जौके आटेको पानीमें उबालकर उसीको शुक्लपक्ष या कृष्णपक्षमें एक बार पी लेते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो समयपर अपने-आप प्राप्त हुई वस्तुको ही भक्षण करते हैं। कोई मूल, कोई फल और कोई फूल खाकर ही नियमित जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे न्यायपूर्वक वैखानस (वानप्रस्थियों) के नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं। वे मनीषी पुरुष ऊपर बताये हुए तथा अन्यान्य नाना प्रकारके नियमोंकी दीक्षा लेते हैं।
चौथा आश्रम संन्यास है। यह उपनिषदोंद्वारा प्रतिपादित धर्म है। गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम प्रायः साधारण- मिलते-जुलते माने गये हैं; किन्तु संन्यास इनसे भिन्न- विलक्षण होता है। तात! प्राचीन युगमें सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने संन्यास धर्मका आश्रय लिया था।अगस्त्य, सप्तर्षि, मधुच्छन्दा, गवेषण, सांकृति, सुदिव भाण्डि, यवप्रोथ, कृतश्रम, अहोवीर्य, काम्य, स्थाणु, मेधातिथि, बुध, मनोवक, शिनीवाक, शून्यपाल और अकृतश्रम-ये धर्म-तत्वके यथार्थ ज्ञाता थे। इन्हें धर्मके स्वरूपका साक्षात्कार हो गया था। इनके सिवा, धर्मकी निपुणताका ज्ञान रखनेवाले, उग्रतपस्वी ऋषियोंके जो यायावर नामसे प्रसिद्ध गण हैं, वे सभी विषयोंसे उपर हो मायाके बन्धनको तोड़कर वनमें चले गये थे। मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वस्व दक्षिणा देकर सबका त्याग करके सद्यस्करी (तत्काल आत्मकल्याण करनेवाला) बने। आत्माका ही यजन करे विषयोंसे उपरत हो आत्मामें ही रमण करे तथा आत्मापर ही निर्भर करे। सब प्रकारके संग्रहका परित्याग करके ‘भावनाके द्वारा गार्हपत्यादि अग्नियोंकी आत्मामें स्थापना करे और उसमें तदनुरूप यज्ञोंका सर्वदा अनुष्ठान करता रहे।
चतुर्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। वह तीनों आश्रमोंके ऊपर है। उसमें अनेक प्रकारके उत्तम गुणोंका निवास है। वही सबकी चरम सीमा-परम आधार है। ब्रह्मचर्य आदि तीन आश्रमों में क्रमशः रहनेके पश्चात् काषाय वस्त्र धारण करके संन्यास ले ले। सर्वस्व त्यागरूप संन्यास सबसे उत्तम आश्रम है। संन्यासीको चाहिये कि वह मोक्षकी सिद्धिके लिये अकेले ही धर्मका अनुष्ठान करे, किसीको साथ न रखे। जो ज्ञानवान् पुरुष अकेला विचरता है, वह सबका त्याग कर देता है; उसे स्वयं कोई हानि नहीं उठानी पड़ती। संन्यासी अग्निहोत्रके लिये अग्निका चयन न करे, अपने रहनेके लिये कोई घर न बनाये, केवल भिक्षा लेनेके लिये ही गाँवमें प्रवेश करे, कलके लिये किसी वस्तुका संग्रह न करे, मौन होकर शुद्धभावसे रहे तथा थोड़ा और नियमित भोजन करे। प्रतिदिन एक ही बार भोजन करे। भोजन करने और पानी पीनेके लिये कपाल (काठ या नारियल आदिका पात्रविशेष) रखना, वृक्षकी जड़में निवास करना, मलिन वस्त्र धारण करना, अकेले रहना तथा सब प्राणियोंकी ओरसे उदासीनता रखना ये भिक्षु (संन्यासी) के लक्षण है। जिस पुरुषके भीतरसबकी बातें समा जाती है-जो सबकी सह लेता है जिसके पाससे कोई बात लौटकर पुनः वक्ताके पास नहीं जाती- जो कटु वचन कहनेवालेको भी कटु उत्तर नहीं देता, वही संन्यासाश्रममें रहनेका अधिकारी है। कभी किसीको भी निन्दाको न तो करे और न सुने ही विशेषतः ब्राह्मणोंकी निन्दा तो किसी तरह न करे। ब्राह्मणका जो शुभकर्म हो, उसीकी सदा चर्चा करनी चाहिये जो उसके लिये निन्दाकी बात हो, उसके विषयमें मौन रहना चाहिये यही आत्मशुद्धिकी दवा है।
जो जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता है, जो कुछ मिल जाय उसीको खाकर भूख मिटा लेता है तथा जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) समझते हैं जो जन समुदायको साँप समझकर, स्नेह सम्बन्धको नरक जानकर तथा स्त्रियोंको मुर्दा समझकर उन सबसे डरता रहता है; उसे देवतालोग ब्राह्मण कहते हैं। जो मान या अपमान होनेपर स्वयं हर्ष अथवा क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। जो जीवन और मरणका अभिनन्दन न करके सदा कालकी ही प्रतीक्षा करता रहता है, उसे देवता ब्राह्मण मानते हैं। जिसका चित्त राग-द्वेषादिके वशीभूत नहीं होता, जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है तथा जिसकी बुद्धि भी दूषित नहीं होती, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंसे निर्भय है तथा समस्त प्राणी जिससे भय नहीं मानते, उस देहाभिमानसे मुक्त पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता। जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य समस्त पादचारी जीवोंके पदचिन समा जाते हैं, तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान चित्तमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सारे धर्म और अर्थअहिंसामें लीन रहते हैं। राजन्! जो हिंसाका आश्रय लेता है वह सदा ही मृतकके समान है।
इस प्रकार जो सबके प्रति समान भाव रखता है, भलीभाँति धैर्य धारण किये रहता है, इन्द्रियाँको अपने वशमें रखता है तथा सम्पूर्ण भूतोंको त्राण देता है, वह ज्ञानी पुरुष उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जिसका अन्तःकरण उत्तम ज्ञानसे परितृप्त है तथा जिसमें ममताका सर्वथा अभाव है, उस मनीषी पुरुषकी मृत्यु नहीं होती; वह अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है। ज्ञानी मुनि सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर आकाशकी भाँति स्थित होता है। जो सबमें विष्णुकी भावना करनेवाला और शान्त होता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं जिसका जीवन धर्मके लिये, धर्म आत्मसन्तोषके लिये तथा दिन-रात पुण्यके लिये हैं, उसे देवतालोग ब्राह्मण समझते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो कर्मोंके आरम्भका कोई संकल्प नहीं करता तथा नमस्कार और स्तुतिसे दूर रहता है, जिसने योगके द्वारा कमको क्षीण कर दिया है उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देना संसारमें समस्त दानोंसे बढ़कर है जो किसीकी निन्दाका पात्र नहीं है तथा जो स्वयं भी दूसरोंकी निन्दा नहीं करता, वहीं ब्राह्मण परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, जो इहलोक और परलोकमें भी किसी वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं करता, जिसका मोह दूर हो गया है, जो मिट्टीके ढेले और सुवर्णको समान दृष्टिसे देखता है, जिसने रोषको त्याग दिया है, जो निन्दा-स्तुति और प्रिय अप्रियसे रहित होकर सदा उदासीनकी भाँति विचरता रहता है, वही वास्तवमें संन्यासी है।
अध्याय-15 पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! आपके मुखसे यह सब प्रसंग मैंने सुना; अब पुष्कर क्षेत्रमें जो ब्रह्माजीका यज्ञ हुआ था, उसका वृत्तान्त सुनाइये। क्योंकि इसका श्रवण करनेसे मेरे शरीर [ और मन] की शुद्धि होगी।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! भगवान् ब्रह्माजीपुष्कर क्षेत्रमें जब यज्ञ कर रहे थे, उस समय जो-जो बातें हुईं उन्हें बतलाता हूँ सुनो। पितामहका यज्ञ आदि कृतयुगमें प्रारम्भ हुआ था। उस समय मरीचि, अंगिरा, मैं, पुलह, ऋतु और प्रजापति दक्षने ब्रह्माजीके पास जाकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। धाता, अर्यमा,सविता, वरुण, अंश, भग, इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, त्वष्टा, मित्र और पर्जन्य- आदि बारहों आदित्य भी वहाँ उपस्थित हो अपने जाज्वल्यमान तेजसे प्रकाशित हो रहे थे। इन देवेश्वरोंने भी पितामहको प्रणाम किया। मृगव्याध, शर्व, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, पिनाकी, अपराजित, विश्वेश्वर भव, कपर्दी, स्थाणु और भगवान् भग- ये ग्यारह रुद्र भी उस यज्ञमें उपस्थित थे। दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, महाबली मरुद्गण, विश्वेदेव और साध्य नामक देवता ब्रह्माजीके सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े थे। शेषजीके वंशज वासुकि आदि बड़े-बड़े नाग भी विद्यमान थे। तार्क्ष्य, अरिष्टनेमि, महाबली गरुड़, वारुणि तथा आरुणि-ये सभी विनताकुमार वहाँ पधारे थे। लोकपालक भगवान् श्रीनारायणने वहाँ स्वयं पदार्पण किया और समस्त महर्षियोंके साथ लोकगुरु ब्रह्माजीसे कहा – ‘जगत्पते ! तुम्हारे ही द्वारा इस सम्पूर्ण संसारका विस्तार हुआ है, तुम्हींने इसकी सृष्टि की है; इसलिये तुम सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर हो। यहाँ हमलोगोंके करनेयोग्य जो तुम्हारा महान् कार्य हो, उसे करनेकी हमें आज्ञा दो।’ देवर्षियोंके साथ भगवान् श्रीविष्णुने ऐसा कहकर देवेश्वर ब्रह्माजीको नमस्कार किया।
ब्रह्माजी वहाँ स्थित होकर सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित कर रहे थे तथा भगवान् श्रीविष्णु भी श्रीवत्स-चिह्नसे सुशोभित एवं सुन्दर सुवर्णमय यज्ञोपवीतसे देदीप्यमान हो रहे थे। उनका एक-एक रोम परम पवित्र है। वे सर्वसमर्थ हैं, उनका वक्षःस्थल विशाल तथा श्रीविग्रह सम्पूर्ण तेजोंका पुंज जान पड़ता है। [देवताओं और ऋषियोंने उनकी इस प्रकार स्तुति की- ] जो पुण्यात्माओंको उत्तम गति और पापियोंको दुर्गति प्रदान करनेवाले हैं; योगसिद्ध महात्मा पुरुष जिन्हें उत्तम योगस्वरूप मानते हैं; जिनको अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य नित्य प्राप्त हैं; जिन्हें देवताओंमें सबसे श्रेष्ठ कहा जाता है; मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले संयमी ब्राह्मण योगसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करके जिन सनातन पुरुषको पाकर जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं; चन्द्रमा और सूर्य जिनके नेत्र हैं तथा अनन्त आकाशजिनका विग्रह है; उन भगवान्की हम शरण लेते हैं। जो भगवान् सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाले हैं, जो ऋषियों और लोकोंके स्रष्टा तथा देवताओंके ईश्वर हैं, जिन्होंने देवताओंका प्रिय और समस्त जगत्का पालन करनेके लिये चिरकालसे पितरोंको कव्य तथा देवताओंको उत्तम हविष्य अर्पण करनेका नियम प्रवर्तित किया हूँ उन देवश्रेष्ठ परमेश्वरको हम सादर प्रणाम करते हैं।
तदनन्तर वृद्ध एवं बुद्धिमान् देवता भगवान् श्रीब्रह्माजी यज्ञशालामें लोकपालक श्रीविष्णुभगवान्के साथ बैठकर शोभा पाने लगे। वह यज्ञमण्डप धन आदि सामग्रियों और ऋत्विजोंसे भरा था। परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णु धनुष हाथमें लेकर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। दैत्य और दानवोंके सरदार तथा राक्षसोंके समुदाय भी वहाँ उपस्थित थे। यज्ञ – विद्या, वेद-विद्या तथा पद और क्रमका ज्ञान रखनेवाले महर्षियोंके वेद-घोषसे सारी सभा गूँज उठी। यज्ञमें स्तुति-कर्मके जानकार, शिक्षाके ज्ञाता, शब्दोंकी व्युत्पत्ति एवं अर्थका ज्ञान रखनेवाले और मीमांसाके युक्तियुक्त वाक्योंको समझनेवाले विद्वानोंके उच्चारण किये हुए शब्द सबको सुनायी देने लगे। इतिहास और पुराणोंके ज्ञाता, नाना प्रकारके विज्ञानको जानते हुए भी मौन रहनेवाले, संयमी तथा उत्तम व्रतोंका पालन करनेवाले विद्वानोंने वहाँ उपस्थित होकर जप और होममें लगे हुए मुख्य-मुख्य ब्राह्मणोंको देखा। देवता और असुरोके गुरु लोकपितामह ब्रह्माजी उस यज्ञभूमिमें विराजमान थे। सुर और असुर दोनों ही उनकी सेवामें खड़े थे प्रजापतिगण दक्ष, वसिष्ठ, पुलह, मरीचि, अंगिरा, भृगु, अत्रि, गौतम तथा नारद-ये सब लोग यहाँ भगवान् ब्रह्माजीको उपासना करते थे। आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, व्याकरण, छन्दःशास्त्र, निरुङ, कल्प, शिक्षा, आयुर्वेद, धनुर्वेद, मीमांसा, गणित, गजविद्या, अश्वविद्या और इतिहास इन सभी अंगोपांगोंसे विभूषित सम्पूर्ण वेद भी मूर्तिमान्होकर ओंकारयुक्त महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे। नय, क्रतु, संकल्प, प्राण तथा अर्थ, धर्म, काम, हर्ष, शुक्र, बृहस्पति संवर्त, बुध, शनैश्चर, राहु, समस्त ग्रह मरुद्गण, विश्वकर्मा, पितृगण, सूर्य तथा चन्द्रमा भी उद्याजीकी सेवामें उपस्थित थे। दुर्गम कष्टसे तारनेवाली गायत्री, समस्त वेद-शास्त्र, यम-नियम, सम्पूर्ण अक्षर, लक्षण, भाष्य तथा सब शास्त्र देह धारण करके वहाँ विद्यमान थे। क्षण, लव, मुहूर्त, दिन, रात्रि, पक्ष, मास और सम्पूर्ण ऋतुएँ अर्थात् इनके देवता महात्मा ब्रह्माजीकी उपासना करते थे।
इनके सिवा अन्यान्य श्रेष्ठ देवियाँ ह्री, कीर्ति, द्युति, प्रभा, धृति, क्षमा, भूति, नीति, विद्या, मति, श्रुति, स्मृति, कान्ति, शान्ति, पुष्टि, क्रिया, नाच-गानमें कुशल समस्त दिव्य अप्सराएँ तथा सम्पूर्ण देव माताएँ भी ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं। विप्रचित्ति, शिबि शंकु, केतुमान् प्रह्मद, बलि, कुम्भ, संहाद, अनुहाद, वृषपर्वा नमुचि, शम्बर, इन्द्रतापन, वातापि, केशी, राहु और वृत्र- ये तथा और भी बहुत-से दानव, जिन्हें अपने बलपर गर्व था, ब्रह्माजीकी उपासना करते हुए इस प्रकार बोले।
दानवोंने कहा- भगवन्! आपने ही हमलोगोंकी सृष्टि की है, हमें तीनों लोकोंका राज्य दिया है तथा देवताओंसे अधिक बलवान् बनाया है; पितामह! आपके इस यज्ञमें हमलोग कौन-सा कार्य करें ? हम स्वयं ही कर्तव्यका निर्णय करनेमें समर्थ हैं; अदिति के गर्भसे पैदा हुए इन बेचारे देवताओंसे क्या काम होगा; ये तो सदा हमारे द्वारा मारे जाते और अपमानित होते रहते हैं। फिर भी आप तो हम सबके ही पितामह हैं; अतः देवताओंको भी साथ लेकर यज्ञ पूर्ण कीजिये। यज्ञ समाप्त होनेपर राज्यलक्ष्मीके विषय हमारा देवताओंके साथ फिर विरोध होगा; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, किन्तु इस समय हम चुपचाप इस यज्ञको देखेंगे-देवताओंके साथ युद्ध नहीं जेहेंगे।
पुलस्त्यजी कहते हैं- दानवोंके ये गर्वयुक्त वचन सुनकर इन्द्रसहित महायशस्वी भगवान् श्रीविष्णुनेशंकरजीसे कहा।
भगवान् श्रीविष्णु बोले प्रभो! पितामहके यक्ष प्रधान प्रधान दानव आये हैं। ब्रह्माजीने इनको भी इस यज्ञमें आमन्त्रित किया है। ये सब लोग इसमें विघ्न डालनेका प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु जबतक यज्ञ समाप्त न हो जाय तबतक हमलोगको क्षमा करना चाहिये। इस यज्ञके समाप्त हो जानेपर देवताओंको दानवोंके साथ युद्ध करना होगा। उस समय आपको ऐसा न करना चाहिये, जिससे पृथ्वीपर से दानवोंका नामो-निशान मिट जाय आपको मेरे साथ रहकर इन्द्रकी विजयके लिये प्रयत्न करना उचित है। इन दानवोंका धन लेकर राहगीरों, ब्राह्मणों तथा दुःखी मनुष्यों बाँट दें।
भगवान् श्रीविष्णुकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीने कहा- ‘भगवन्! आपकी बात सुनकर ये दानव कुपित हो सकते हैं; किन्तु इस समय इन्हें क्रोध दिलाना आपको भी अभीष्ट न होगा। अतः रुद्र एवं अन्य देवताओंके साथ आपको क्षमा करना चाहिये। सत्ययुगके अन्तमें जब यह यज्ञ समाप्त हो जायगा, उस समय मैं आपलोगोंको तथा इन दानवोंको विदा कर दूंगा; उसी समय आप सब लोग सन्धि या विग्रह, जो उचित हो, कीजियेगा।’
पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर भगवान् ब्रह्माजीने पुनः उन दानवोंसे कहा- ‘तुम्हें देवताओंके साथ किसी प्रकार विरोध नहीं करना चाहिये। इस समय तुम सब लोग परस्पर मित्रभावसे रहकर मेरा कार्य सम्पन्न करो।’
दानवोंने कहा – पितामह! आपके प्रत्येक आदेशका हमलोग पालन करेंगे। देवता हमारे छोटे भाई हैं, अतः उन्हें हमारी ओरसे कोई भय नहीं है।
दानवोंकी यह बात सुनकर ब्रह्माजीको बड़ा सन्तोष हुआ। थोड़ी ही देर बाद उनके यज्ञका वृत्तान्त सुनकर ऋषियोंका एक समुदाय आ पहुँचा। भगवान् श्रीविष्णुने उनका पूजन किया। पिनाकधारी महादेवजीने उन्हें आसन दिया तथा ब्रह्माजीकी आज्ञासे वसिष्ठजीने उन सबको अर्घ्य निवेदित करके उनका कुशल- -क्षेम पूछाऔर पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा ‘आपलोग आरामसे यहीं रहें। तत्पश्चात् जटा और मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी यज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे। उनमें कुछ महात्मा वालखिल्य थे तथा कुछ लोग संप्रख्यान (एक समयके लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार करनेवाले थे। वे नाना प्रकारके नियमोंमें संलग्न तथा वेदीपर शयन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोंने पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे अत्यन्त रूपवान् हो गये। फिर एक-दूसरेकी ओर देखकर सोचने लगे-‘यह कैसी बात है ? इस तीर्थमें मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !’ ऐसा विचार कर तपस्वियोंने उसका नाम ‘मुखदर्शन तीर्थ’ रख दिया। तत्पश्चात् वे नहाकर अपने-अपने नियमोंमें लग गये। उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी। नरश्रेष्ठ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त शोभा पाने लगे। उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना प्रकारकी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके थे। वे सोचने लगे कि ‘यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है।’ ऐसा विचार करके उन द्विजातियोंने उस सरोवरका ‘श्रेष्ठ पुष्कर’ नाम रखा।
तदनन्तर ब्राह्मणोंको दानके रूपमें नाना प्रकारके पात्र देनेके पश्चात् वे सभी द्विज वहाँ प्राची सरस्वतीका नाम सुनकर उसमें स्नान करनेकी इच्छासे गये। तीर्थोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीके तटपर बहुत-से दिन निवास करते थे। नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह तीर्थ सभी प्राणियोंको मनोरम जान पड़ता था । अनेकों ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे। उन ऋषियोंसे कोई वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर कुछ लोग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर रहनेवाले थे।
सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शब्द गूँजता रहता था। मृगोंके सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते थे अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी अधिक शोभा हो रही थी। पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीसुप्रभा, कांचना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे प्रसिद्ध पाँच धाराओं में प्रवाहित होती हैं। भूतलपर विस्तृत यज्ञमण्डपमें जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियमोंका पालन करते हुए जब यह कार्य सम्पादनमें लग गये और पितामह ब्रह्माजी यज्ञकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन आरम्भ हुआ। राजेन्द्र ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण करते ही वहाँ आ जाते थे देव, गन्धर्व गान करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य बाजे बज उठे। उस यज्ञकी समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ । पुष्कर तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे आवाहन किया। पितामहका सम्मान करती हुई वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती ब्रह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये ही पुष्कर तीर्थमें प्रकट हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके उत्तर-तटपर अपने शरीरका परित्याग करता है तथा प्राची सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म – मृत्युको नहीं प्राप्त होता। सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेवालेको अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है। जो वहाँ नियम और उपवासके द्वारा अपने शरीरको सुखाता है, केवल जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका पृथक्-पृथक् पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थमें तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाला है- यह बात पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्मने कही थी। जो मनुष्य उस तीर्थमें श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुलकी इक्कीसपीढ़ियोंके साथ स्वर्गलोकमें जायेंगे। वह तीर्थ पितरोंको बहुत ही प्रिय है, वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे उन्हें पूर्ण कृप्त हो जाती है। वे पुष्करतीर्थ द्वारा उद्धार पाकर ब्रह्मलोकमें पधारते हैं। उन्हें फिर अन्न-भोगोंकी इच्छा नहीं होती, वे मोक्षमार्गमें चले जाते हैं। अब मैं सरस्वती नदी जिस प्रकार पूर्ववाहिनी हुई, वह प्रसंग बतलाता हूँ; सुनो।
पहलेकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त देवताओंकी ओरसे भगवान् श्रीविष्णुने सरस्वतीसे कहा ‘देवि! तुम पश्चिम समुद्रके तटपर जाओ और इस बयानको ले जाकर समुद्रमें डाल दो ऐसा करनेसे समस्त देवताओंका भय दूर हो जायगा। तुम माताकी भाँति देवताओंको अभय-दान दो।’ सबको उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी ओरसे यह आदेश मिलनेपर देवी सरस्वतीने कहा-‘भगवन्! मैं स्वाधीन नहीं हूँ आप इस कार्यके लिये मेरे पिता ब्रह्माजीसे अनुरोध कीजिये। पिताजीकी आज्ञाके बिना में एक पग भी कहीं नहीं जा सकती।’ सरस्वतीका अभिप्राय जानकर देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा- ‘पितामह! आपकी कुमारी कन्या सरस्वती बड़ी साध्वी है-उसमें किसी प्रकारका दोष नहीं देखा गया है; अतः उसे छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो बडवानलको से जा सके।
पुलस्त्यजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्माजीने सरस्वतीको बुलाया और उसे गोदमें लेकर उसका मस्तक सूँघा। फिर बड़े स्नेहके साथ कहा ‘बेटी! तुम मेरी और इन समस्त देवताओंकी रक्षा करो। देवताओंके प्रभावसे तुम्हें इस कार्यके करनेपर बड़ा सम्मान प्राप्त होगा। इस बडवानलको ले जाकर खारे पानी के समुद्रमें डाल दो।’ पिताके वियोगके कारण बालिकाके नेत्रोंमें आँसू छलछला आये। उसने ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा- ‘अच्छा, जाती हूँ।’ उस समय सम्पूर्ण देवताओं तथा उसके पिताने भी कहा-‘भय न करो।’ इससे वह भय छोड़कर प्रसन्न चित्तसे जानेको तैयार हुई। उसकी यात्राके समय शंखऔर नगारोंकी ध्वनि तथा मंगलघोष होने लगा, जिसकी आवाजसे सारा जगत् गूँज उठा। सरस्वती अपने तेजसे सर्वत्र प्रकाश फैलाती हुई चली। उस समय गंगाजी उसके पीछे हो लीं। तब सरस्वतीने कहा- ‘सखी! तुम कहाँ आती हो? मैं फिर तुमसे मिलूँगी।’ सरस्वतीके ऐसा कहनेपर गंगाने मधुर वाणीमें कहा- ‘शुभे! अब तो तुम जब पूर्वदिशामें आओगी तभी मुझे देख सकोगी। देवताओं सहित तुम्हारा दर्शन तभी मेरे लिये सुलभ हो सकेगा।’ यह सुनकर सरस्वतीने कहा- ‘शुचिस्मिते। तब तुम भी उत्तराभिमुखी होकर शोकका परित्याग कर देना।’ गंगा बोलीं ‘सखी मैं उत्तराभिमुखी होनेपर अधिक पवित्र मानी जाऊँगी और तुम पूर्वाभिमुखी होनेपर उत्तरवाहिनी गंगा और पूर्ववाहिनी सरस्वतीमें जो मनुष्य श्राद्ध और दान करेंगे, वे तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर मोक्षमार्गका आश्रय लेंगे-इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।’
इसपर वह सरस्वती नदीरूपमें परिणत हो गयी। देवताओंके देखते-देखते एक पाकरके वृक्षकी जड़से प्रकट हुई। वह वृक्ष भगवान् विष्णुका स्वरूप है। सम्पूर्ण देवताओंने उसकी वन्दना की है। उसकी अनेकों शाखाएँ सब ओर फैली हुई हैं। वह दूसरे ब्रह्माजीकी भाँति शोभा पाता है। यद्यपि उस वृक्षमें एक भी फूल नहीं है, तो भी वह डालियोंपर बैठे हुए शुक आदि पक्षियोंके कारण फूलोंसे लदा-सा जान पड़ता है सरस्वतीने उस पाकरके समीप स्थित होकर 1 देवाधिदेव विष्णुसे कहा- ‘भगवन्! मुझे बडवाग्नि समर्पित कीजिये: मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी।’ उसके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णु बोले- ‘शुभे ! तुम्हें इस बडवानलको पश्चिम समुद्रकी ओर ले जाते समय जलनेका कोई भय नहीं होगा।’
पुलस्त्यजी कहते हैं— तदनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने बडवानलको सोनेके घड़ेमें रखकर सरस्वतीको सौंप
दिया। उसने उस घड़ेको अपने उदरमें रखकर पश्चिमकी ओर प्रस्थान किया। अदृश्य गतिसे चलती हुई वह महानदी पुष्करमें पहुँची और ब्रह्माजीने जिन-जिन कुण्डोंमें हवन किया था, उन सबको जलसे आप्लावित करके प्रकट हुई। इस प्रकार पुष्कर क्षेत्रमें परम पवित्र सरस्वती नदीका प्रादुर्भाव हुआ जगत्को जीवनदान देनेवाली वायुने भी उसका जल लेकर वहाँके सब तीर्थोंमें डाल दिया। उस पुण्यक्षेत्रमें पहुँचकर पुण्यसलिला सरस्वती मनुष्योंके पापोंका नाश करनेके लिये स्थित हो गयी जो पुण्यात्मा मनुष्य पुष्कर तीर्थमें विद्यमान सरस्वतीका दर्शन करते हैं. वे नारकी जीवोंकी अधोगतिका अनुभव नहीं करते। जो मनुष्य उसमें भक्ति-भावके साथ स्नान करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें पहुँचकर ब्रह्माजीके साथ आनन्दका अनुभव करते हैं। जो मनुष्य ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करके पितरोंका तर्पण करता हैं, वह उन सबका नरकसे उद्धार कर देता है तथा स्वयं उसका भी चित्त शुद्ध हो जाता है। ब्रह्माजीके क्षेत्रमें पुण्यसलिला सरस्वतीको पाकर मनुष्य दूसरे किस तीर्थकी कामना करे-उससे बढ़कर दूसरा तीर्थ है ही कौन ? सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह सब का सब ज्येष्ठ पुष्करमें एक बार डुबकी लगानेसे मिल जाता है। अधिक क्या कहा जाय जिसने पुष्कर क्षेत्रका निवास, ज्येष्ठ कुण्डका जल तथा उस तीर्थमें मृत्यु- ये तीन बातें प्राप्त कर लीं, उसने परमगति पा ली। जो मनुष्य उत्तम काल, उत्तम क्षेत्र तथा उत्तम तीर्थमें स्नान और होम करके ब्राह्मणको दान देता है, वह अक्षय सुखका भागी होता है। कार्तिक और वैशाखके शुक्लपक्षमें तथा चन्द्रमा और सूर्य ग्रहणके समय स्नान करनेयोग्य कुरुजांगलदेशमें जितने क्षेत्र और तीर्थ मुनीश्वरोंद्वारा बताये गये हैं, उन सबमें यह पुष्कर तीर्थ अधिक पवित्र है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है।
जो पुरुष कार्तिककी पूर्णिमाको मध्यम कुण्ड (मध्यम पुष्कर) में स्नान करके ब्राह्मणको धन देता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। इसी प्रकार कनिष्ठ कुण्ड (अन्त्य पुष्कर)- में एकाग्रतापूर्वक स्नान करके जो ब्राह्मणको उत्तम अगहनीका चावल दान करता है, वह अग्निलोकमें जाता है तथा वहाँ इक्कीस पीढ़ियोंके साथरहकर श्रेष्ठ फलका उपभोग करता है। इसलिये पुरुषको उचित है कि वह पूरा प्रयत्न करके पुष्कर तीर्थकी प्राप्तिके लिये वहाँकी यात्रा करनेके लिये अपना विचार स्थिर करे। मति, स्मृति, प्रज्ञा, मेधा, बुद्धि और शुभ वाणी-ये छः सरस्वतीके पर्याय बतलाये गये हैं। जो पुष्करके वनमें, जहाँ प्राची सरस्वती है, जाकर उसके जलका दर्शन भर कर लेते हैं, उन्हें भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा जो उसके भीतर गोता लगाकर स्नान करता है, वह तो ब्राजीका अनुचर होता है जो मनुष्य वहाँ विधिपूर्वक श्राद्ध करते हैं, वे पितरोंको दुःखदायी नरकसे निकालकर स्वर्गमें पहुँचा देते हैं। जो सरस्वतीमें स्नान करके पितरोंको कुश और तिलसे युक्त जल दान करते हैं, उनके पितर हर्षित हो नाचने लगते हैं। यह पुष्कर तीर्थ सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि यह आदि तीर्थ है। इसीलिये इस पृथ्वीपर यह समस्त तीर्थोंमें विख्यात है यह मानो धर्म और मोक्षको क्रीडास्थली है, निधि है। सरस्वतीसे युक्त होनेके कारण इसकी महिमा और भी बढ़ गयी है। जो लोग पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदीका जल पीते हैं वे ब्रह्मा और महादेवजीके द्वारा प्रशंसित अक्षय लोकोंको प्राप्त होते हैं। धर्मके तत्त्वको जाननेवाले मुनियोंने जहाँ-जहाँ सरस्वतीदेवीका सेवन किया है, उन सभी स्थानोंमें वे परम पवित्ररूपसे स्थित हैं; किन्तु पुष्करमें ये अन्य स्थलोंको अपेक्षा विशेष पवित्र मानी गयी हैं। पुण्यमयी सरस्वती नदी संसारमें सुलभ है; किन्तु कुरुक्षेत्र, प्रभासक्षेत्र और पुष्करक्षेत्रमें तो वह बड़े भाग्यसे प्राप्त होती है। अतः वहाँ इसका दर्शन दुर्लभ बताया गया है। सरस्वती तीर्थ इस भूतलके समस्त तीर्थोंमें श्रेष्ठ होनेके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थीका साधक है। अतः मनुष्यको चाहिये कि वह ज्येष्ठ, मध्यम तथा कनिष्ठ- तीनों पुष्करोंमें यत्नपूर्वक स्नान करके उनकी प्रदक्षिणा करे। तत्पश्चात् पवित्र भावसे प्रतिदिन पितामहका दर्शन करे। ब्रह्मलोकमें जानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अनुलोमक्रमसे अर्थात् क्रमशः ज्येष्ठ मध्यम एवं कनिष्ठ पुष्करमेंतथा विलोमक्रमसे अर्थात् कनिष्ठ, मध्यम और ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करना चाहिये। इसी प्रकार वह उक्त तीनों पुष्करोंमेंसे किसी एक या सबमें नित्य स्नान करता रहे। पुष्कर क्षेत्रमें तीन सुन्दर शिखर और तीन ही स्रोत हैं। वे सब के सब पुष्कर नामसे ही प्रसिद्ध हैं। उन्हें ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर कहते हैं। जो मन और इन्द्रियोंको वशमें करके सरस्वतीमें स्नान करता और ब्राह्मणको एक उत्तम गौ दान देता है, वह शास्त्रीय आज्ञाके पालनसे शुद्धचित्त होकर अक्षय लोकोंको पाता है। अधिक क्या कहें- जो रात्रिके समय भी स्नान करके वहाँ याचकको धन देता है, वह अनन्तसुखका भागी होता है। पुष्करमें तिल-दानकी मुनिलोग अधिक प्रशंसा करते हैं तथा कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ सदा ही स्नान करनेका विधान है।
भीष्मजी ! पुष्कर वनमें पहुँचकर सरस्वती नदीके प्रकट होनेकी बात बतायी गयी। अब वह पुनः अदृश्य होकर वहाँसे पश्चिम दिशाकी ओर चली। पुष्करसे थोड़ी ही दूर जानेपर एक खजूरका वन मिला, जो फल और फूलोंसे सुशोभित था; सभी ऋतुओंके पुष्प उस वनस्थलीकी शोभा बढ़ा रहे थे, वह स्थान मुनियोंके भी मनको मोहनेवाला था । वहाँ पहुँचकर नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वतीदेवी पुनः प्रकट हुईं। वहाँ वे ‘नन्दा’ के नामसे तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुईं।
अध्याय-16 सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
सूतजी कहते हैं- वह सुनकर देवव्रत भीष्मने पुलस्त्यजीसे पूछा ” ब्रह्मन् सरिताओंगे श्रेष्ठ नन्दा कोई दूसरी नदी तो नहीं है? मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि सरस्वतीका नाम ‘नन्दा’ कैसे पड़ गया। जिस प्रकार और जिस कारणसे वह ‘चन्दा’ नामसे प्रसिद्ध हुई, उसे बतानेकी कृपा कीजिये।” भीष्मके इस प्रकार पूछनेपर पुलस्त्यजीने सरस्वतीका ‘नन्दा’ नाम क्यों पड़ा, इसका प्राचीन इतिहास सुनाना आरम्भ किया। वे बोले- भीष्म ! पहलेकी बात है, पृथ्वीपर प्रभंजन नामसे प्रसिद्ध एक महाबली राजा हो गये हैं। एक दिन मे उस वनमें मुगका शिकार खेल रहे थे। उन्होंने देखा, एक झाड़ीके भीतर मृगी खड़ी है। वह राजाके ठीक सामने पड़ती थी। प्रभंजनने अत्यन्त तीक्ष्ण वाण चलाकर मृगीको बाँध डाला। आहत हरिणीने चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात किया। फिर हाथमें धनुष-बाण धारण किये राजाको खड़ा देख वह बोली-‘ओ मूढ़! यह तूने क्या किया ? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुँह किये खड़ी थी और निर्भय होकर अपने बच्चेको दूध पिला रही थी। इसी अवस्थामें तूने इस वनके भीतर मुझ निरपराध हरिणीको अपने वज्रके समान बाणका निशानाबनाया है तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिये तू कच्चा तू मांस खानेवाले पशुकी योनिमें पड़ेगा। इस कण्टकाकीर्ण वनमें तू व्याघ्र हो जा।’ मृगीका यह शाप सुनकर सामने खड़े हुए राजाकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे हाथ जोड़कर बोले- ‘कल्याणी मैं नहीं जानता था कि तू बच्चेको दूध पिला रही है, अनजानमें मैंने तेरा वध किया है। अतः मुझपर प्रसन्न हो ! मैं व्याघ्रयोनिको त्यागकर पुनः मनुष्य शरीरको कब प्राप्त करूँगा ? अपने इस शापके उद्धारकी अवधि तो बता दो।’ राजाके ऐसा कहनेपर मृगी बोली- ‘राजन्। आजसे सौ वर्ष बीतनेपर यहाँ नन्दा नामकी एक गौ आयेगी। उसके साथ तुम्हारा वार्तालाप होनेपर इस शापका अन्त हो जायगा।’
पुलस्त्यजी कहते हैं- मृगीके कथनानुसार राजा प्रभंजन व्याघ्र हो गये। उस व्याघ्रकी आकृति बड़ी ही घोर और भयानक थी। वह उस वनमें कालके वशीभूत हुए मृर्गी, अन्य चौपायों तथा मनुष्योंको भी मार-मारकर खाने और रहने लगा। वह अपनी निन्दा करते हुए कहता था, ‘हाय! अब मैं पुनः कब मनुष्य शरीर धारण करूँगा ? अबसे नीच योनिमें डालनेवाला ऐसा निन्दनीय कर्म महान् पाप नहीं करूँगा। अब इस योनिमें मेरेद्वारा पुण्य नहीं हो सकता। एकमात्र हिंसा ही मेरी जीवन-वृत्ति है, इसके द्वारा तो सदा दुःख ही प्राप्त होता है किस प्रकार मृगी की कही हुई बात सत्य हो सकती है?’
जब व्याघ्रको उस वनमें रहते सौ वर्ष हो गये, तब एक दिन वहाँ गौओंका एक बहुत बड़ा झुंड उपस्थित हुआ वहाँ घास और जलकी विशेष सुविधा थी, वही गौओंके आनेमें कारण हुई। आते ही गौओंके विश्रामके लिये बाड़ लगा दी गयी। ग्वालोंके रहने के लिये भी साधारण घर और स्थानकी व्यवस्था की गयी। गोचर भूमि तो वहाँ थी ही सबका पड़ाव पड़ गया। वनके पासका स्थान गौओंके रंभानेकी भारी आवाजसे गूँजने लगा मतवाले गोप चारों ओरसे उस गो समुदायकी रक्षा करते थे।
गौओके झुंडमें एक बहुत ही हृष्ट-पुष्ट तथा सन्तुष्ट रहनेवाली गाय थी, उसका नाम था नन्दा। वही उस झुंडमें प्रधान थी तथा सबके आगे निर्भय होकर चला करती थी। एक दिन वह अपने झुंडसे बिछुड़ गयी और चरते चरते पूर्वोक व्याघ्रके सामने जा पहुँची। व्याघ्र उसे देखते ही ‘खड़ी रह खड़ी रह कहता हुआ उसकी ओर दौड़ा और निकट आकर बोला-‘आज विधाताने तुझेमेरा ग्रास नियत किया है, क्योंकि तू स्वयं यहाँ आकर उपस्थित हुई है।’ व्याघ्रका यह रोंगटे खड़े कर देनेवाला निष्ठुर वचन सुनकर उस गायको चन्द्रमाके समान कान्तिवाले अपने सुन्दर बछड़ेकी याद आने लगी। उसका गला भर आया वह गद्गद स्वरसे पुत्रके लिये हुंकार करने लगी। उस गौको अत्यन्त दुःखी होकर क्रन्दन करते देख व्याघ्र बोला-‘अरी गाय। संसारमें सब लोग अपने कर्मोंका ही फल भोगते हैं। तू स्वयं मेरे पास आ पहुँची है, इससे जान | पड़ता है तेरी मृत्यु आज ही नियत है। फिर व्यर्थ शोक क्यों करती है? अच्छा, यह तो बता तू रोयी किसलिये ?’
व्याघ्रका प्रश्न सुनकर नन्दाने कहा- ‘व्याघ्र ! तुम्हें नमस्कार है, मेरा सारा अपराध क्षमा करो। मैं जानती है तुम्हारे पास आये हुए प्राणीकी रक्षा असम्भव है; अतः मैं अपने जीवनके लिये शोक नहीं करती। मृत्यु तो मेरी एक न एक दिन होगी ही [फिर उसके [लिये क्या चिन्ता] किन्तु मृगराज! अभी नयी अवस्थामें मैंने एक बछड़ेको जन्म दिया है। पहली बियानका बच्चा होनेके कारण वह मुझे बहुत ही प्रिय है। मेरा बच्चा अभी दूध पीकर ही जीवन चलाता है। घासको तो वह पता भी नहीं इस समय वह गोष्ठमें बँधा है और भूखसे पीड़ित होकर मेरी राह देख रहा है। उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मेरे न रहनेपर मेरा बच्चा कैसे जीवन धारण करेगा? मैं पुत्र स्नेहके वशीभूत हो रही हूँ और उसे दूध पिलाना चाहती हूँ। मुझे थोड़ी देरके लिये जाने दो बछड़ेको पिलाकर प्यारसे उसका मस्तक चाहूँगी और उसे हिताहितकी जानकारीके लिये कुछ उपदेश करूँगी; फिर अपनी सखियोंकी देख-रेखमें उसे सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। उसके बाद तुम इच्छानुसार मुझे खा जाना।’
नन्दाकी बात सुनकर व्याघ्रने कहा- ‘अरी! अब तुझे पुत्रसे क्या काम है?’ नन्दा बोली- ‘मृगेन्द्र ! मैं पहले-पहल बछड़ा ब्यायी हूँ [ अतः उसके प्रति मेरी बड़ी ममता है, मुझे जाने दो]। सखियोंको, नन्हे बच्चेको, रक्षा करनेवाले ग्वालों और गोपियोंको तथा विशेषतःअपनी जन्मदायिनी माताको देखकर उन सबसे विदा लेकर आ जाऊँगी मैं शपथपूर्वक यह बात कहती हूँ। यदि तुम्हें विश्वास हो तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा माता-पिताका वध करनेसे होता है। व्याधों, म्लेच्छों और जहर देनेवालोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो गोशाला में विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणीको मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्याका घर करके फिर उसे दूसरेको देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलोंसे भारी बोझ उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो कथा होते समय विघ्न डालता है और जिसके घरपर आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकोंके भयसे मैं अवश्य आऊँगी।’
नन्दाकी ये शपथें सुनकर व्याघ्रको उसपर विश्वास हो गया। वह बोला- “गाय! तुम्हारी इन शपथोंसे मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि ‘स्त्रीके साथ हास-परिहासमें, विवाहमें, गौको संकटसे बचानेमें तथा प्राण संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षासे पाप नहीं लगता।’ किन्तु तुम इन बातोंपर विश्वास न करना। इस संसारमें कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपनेको पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धिको क्षणभर में भ्रममें डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञानका परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तोंसे दूसरोंको मोहमें डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धिमें यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथद्वारा व्याघ्रको उग लिया। तुमने ही मुझे धर्मका सारा मार्ग दिखाया है। 1 अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।”
नन्दा बोली- साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरोंको ठगना चाहता। है, वह तो अपने-आपको ही ठगता है।
व्याघ्रने कहा- गाय ! अब तुम जाओ। पुरवत्सले । अपने पुत्रको देखो, दूध पिलाओ, उसकामस्तक चाटो तथा माता, भाई, सखी, स्वजन एवं बन्धुबान्धवका दर्शन करके सत्यको आगे रखकर शीघ्र ही यहाँ लौट आओ।
पुलस्त्यजी कहते हैं- वह पुत्रवत्सला धेनु बड़ी सत्यवादिनी थी। पूर्वोक्त प्रकारसे शपथ करके जब वह व्याघ्रकी आज्ञा ले चुकी, तब गोष्ठकी ओर चली। उसके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वह अत्यन्त दीन भावसे काँप रही थी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख था । वह शोकके समुद्रमें डूबकर बारम्बार डॅकराती थी। नदीके किनारे गोष्ठपर पहुँचकर उसने सुना, बछड़ा पुकार रहा है। आवाज कानमें पड़ते ही वह उसकी ओर दौड़ी और निकट पहुँचकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगी। माताको निकट पाकर बछड़ेने शंकित होकर पूछा- ‘माँ! [आज क्या हो गया है ?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदयमें शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टिमें भी व्यग्रता है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।’
नन्दा बोली- बेटा! स्तनपान करो, यह हमलोगोंकी अन्तिम भेंट है; अबसे तुम्हें माताका दर्शन दुर्लभ हो जायगा। आज एक दिन मेरा दूध पीकर कल सबेरेसे किसका पियोगे ? वत्स! मुझे अभी लौट जानाहै, मैं शपथ करके यहाँ आयी हूँ। भूखसे पीड़ित बाघको मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।
बछड़ा बोला – माँ तुम जहाँ जाना चाहती हो; वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही अच्छा है तुम न रहोगी तो मैं अकेले भी तो मर ही जाऊँगा, [फिर साथ ही क्यों न मरूँ ?] यदि बाघ तुम्हारे साथ मुझे भी मार डालेगा तो निश्चय ही मुझको वह उत्तम गति मिलेगी, जो मातृभक्त पुत्रोंको मिला करती है। अतः मैं तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगा मातासे बिछुड़े हुए बालकके जीवनका क्या प्रयोजन है? केवल दूध पीकर रहनेवाले बच्चोंके लिये माताके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है। माताके समान रक्षक, माताके समान आश्रय, माताके समान स्नेह, माताके समान सुख तथा माताके समान देवता इहलोक और परलोकमें भी नहीं है। यह ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है। ll 1 ll
नन्दाने कहा- बेटा! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम वहाँ न आना। दूसरेकी मृत्युके साथ अन्य जीवोंकी मृत्यु नहीं होती [ जिसकी मृत्यु नियत है, उसीकी होती है] तुम्हारे लिये माताका यह उत्तम एवं अन्तिम सन्देश है मेरे वचनोंका पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बड़ी शुश्रूषा है। जलके समीप अथवा वनमें विचरते हुए कभी प्रमाद न करना; प्रमादसे समस्त प्राणी नष्ट हो जाते हैं। लोभवश कभी ऐसी घासको चरनेके लिये न जाना,जो किसी दुर्गम स्थानमें उगी हो; क्योंकि लोभसे इहलोक और परलोकमें भी सबका विनाश हो जाता है। लोभसे मोहित होकर लोग समुद्रमें, घोर वनमें तथा दुर्गम स्थानोंमें भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभके कारण विद्वान् पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा हर एकके प्रति विश्वास कर लेना- इन तीन कारणोंसे जगत्का नाश होता है; अत: इन तीनों दोषोंका परित्याग करना चाहिये। बेटा! सम्पूर्ण शिकारी जीवोंसे तथा म्लेच्छ और चोर आदिके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर सदा प्रयत्नपूर्वक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये। पापयोनिवाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्तका सहसा पता नहीं लगता। नखवाले जीवोंका, नदियोंका, सींगवाले पशुओंका, शस्त्र धारण करनेवालोंका, स्त्रियोंका तथा दूतोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुषपर तो विश्वास करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि [ अविश्वसनीयपर ] विश्वास करनेसे जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास करनेवालेका समूल नाश कर डालता है। औरोंकी तो बात ही क्या अपने शरीरका भी विश्वास नहीं करना चाहिये। भीरुस्वभाववाले बालकका भी विश्वास न करे; क्योंकि बालक डराने-धमकानेपर प्रमादवश गुप्त बात भी दूसरोंको बता सकते हैं। 2 सर्वत्र और सदा सूँघते हुएही चलना चाहिये; क्योंकि गन्धसे ही गौएँ भली-बुरी वस्तुकी परख कर पाती हैं। भयंकर वनमें कभी अकेला न रहे सदा धर्मका ही चिन्तन करे। मेरी मृत्युसे तुम्हें घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि एक न एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है। जैसे कोई पथिक छायाका आश्रय लेकर बैठ जाता है और विश्राम करके फिर वहाँसे चल देता है, उसी प्रकार प्राणियोंका समागम होता है। बेटा! तुम शोक छोड़कर मेरे वचनोंका पालन करो।
पुलस्त्यजी कहते हैं—यह कहकर नन्दा पुत्रका मस्तक सूपकर उसे चाटने लगी और अत्यन्त शोकके वशीभूत हो डबडबायी हुई आँखोंसे बारम्बार लम्बी साँस लेने लगी। तदनन्तर बारम्बार पुत्रको निहारकर वह अपनी माता, सखियों तथा गोपियोंके पास जाकर बोली- ‘माताजी मैं अपने झुंडके आगे चरती हुई चली जा रही थी। इतनेमें ही एक व्याघ्र मेरे पास आ पहुँचा। मैंने अनेकों सौगन्धें खाकर उसे लौट आनेका विश्वास दिलाया है; तब उसने मुझे छोड़ा है। मैं बेटेको देखने तथा आपलोगों से मिलनेके लिये चली आयी थी; अब फिर वहीं जा रही हूँ। माँ! मैंने अपने दुष्ट स्वभावके कारण तुम्हारा जो-जो अपराध किया हो, वह सब क्षमा करना। अब अपने इस नातीको लड़का करके मानना । [सखियोंकी ओर मुड़कर ] प्यारी सखियो! मैंने जानकर या अनजानमें यदि तुमसे कोई अप्रिय बात कह दी हो अथवा और कोई अपराध किया हो तो उसके लिये तुम सब मुझे क्षमा करना । तुम सब सम्पूर्ण सद्गुणोंसे युक्त हो। तुममें सब कुछ देनेकी शक्ति है। मेरे बालकपर सदा क्षमाभाव रखना। मेरा बच्चा दीन, अनाथ और व्याकुल है; इसकी रक्षा करना। मैं तुम्हीं लोगोंको इसे साँप रही हूँ अपने पुत्रकी ही भाँति इसका भी पोषण करना अच्छा, अब क्षमा माँगती हूँ। मैं सत्यको अपनाचुकी हूँ, अतः व्याघ्रके पास जाऊँगी। सखियोंको मेरे 1 लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये।’
नन्दाकी बात सुनकर उसकी माता और सखियोंको बड़ा दुःख हुआ। वे अत्यन्त आश्चर्य और विषादमें पड़कर बोलीं- ‘अहो ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि व्याघ्रके कहनेसे सत्यवादिनी नन्दा पुनः उस भयंकर स्थानमें प्रवेश करना चाहती है। शपथ और सत्यके आश्रयसे शत्रुको धोखा दे अपने ऊपर आये हुए महान् भयका यत्नपूर्वक नाश करना चाहिये। जिस उपायसे आत्मरक्षा हो सके, वही कर्तव्य है। नन्दे ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। अपने नन्हे-से शिशुको त्यागकर सत्यके लोभसे जो तू वहाँ जा रही है, यह तुम्हारे द्वारा अधर्म हो रहा है। इस विषयमें धर्मवादी ऋषियोंने पहले एक वचन कहा था, वह इस प्रकार है। प्राणसंकट उपस्थित होनेपर शपथोंके द्वारा आत्मरक्षा करनेमें पाप नहीं लगता। जहाँ असत्य बोलनेसे प्राणियोंकी प्राणरक्षा होती हो, वहाँ वह असत्य भी सत्य है और सत्य भी असत्य है। ‘ ll2 ll
नन्दा बोली- बहिनो ! दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मैं भी असत्य कह सकती हूँ। किन्तु अपने लिये-अपने जीवनकी रक्षाके लिये मैं किसी तरह झूठ नहीं बोल सकती। जीव अकेले ही गर्भमें आता है, अकेले ही मरता है, अकेले ही उसका पालन-पोषण होता है तथा अकेले ही वह सुख-दुःख भोगता है; अतः मैं सदा सत्य ही बोलूँगी। सत्यपर ही संसार टिका हुआ है, धर्मकी स्थिति भी सत्यमें ही है। सत्यके कारण ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता। राजा बलि भगवान् विष्णुको पृथ्वी देकर स्वयं पातालमें चले गये और छलसे बाँधे जानेपर भी सत्यपर ही डटे रहे। गिरिराज विन्ध्य अपने सौ शिखरोंके साथ बढ़ते-बढ़तेबहुत ऊँचे हो गये थे [ यहाँतक कि उन्होंने सूर्यका मार्ग भी रोक लिया था], किन्तु सत्यमें बँध जानेके कारण ही वे [महर्षि अगस्त्यके साथ किये गये] अपने नियमको नहीं तोड़ते। स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म-सब सत्यमें ही प्रतिष्ठित हैं; जो अपने वचनका लोप करता है, उसने मानो सबका लोप कर दिया। सत्य अगाध जलसे भरा हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण- ये दोनों यदि तराजूपर रखे जायँ तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंसे सत्यका ही पलड़ा भारी रहेगा। सत्य ही उत्तम तप है, सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सत्यभाषणमें किसी प्रकारका क्लेश नहीं है। सत्य ही साधु पुरुषोंकी परखके लिये कसौटी है। वही सत्पुरुषकी वंश-परम्परागत सम्पत्ति है। सम्पूर्ण आश्रयोंमें सत्यका ही आश्रय श्रेष्ठ माना गया है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका पालन करना अपने हाथमें है। सत्य सम्पूर्ण जगत् के लिये आभूषणरूप है। जिस सत्यका उच्चारण करके म्लेच्छ भी स्वर्गमें पहुँच जाता है, उसका परित्याग कैसे किया जा सकता है।*
सखियाँ बोलीं- नन्दे! तुम सम्पूर्ण देवताओं और दैत्योंके द्वारा नमस्कार करनेयोग्य हो; क्योंकि तुमपरम सत्यका आश्रय लेकर अपने प्राणोंका भी त्याग कर रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। कल्याणी ! इस विषयमें हमलोग क्या कह सकती हैं। तुम तो धर्मका बीड़ा उठा रही हो। इस सत्यके प्रभावसे त्रिभुवनमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् त्यागसे हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्रके साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारीका चित्त कल्याणमार्गमें लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ नहीं आतीं।
पुलस्त्यजी कहते हैं- तदनन्तर गोपियोंसे मिलकर तथा समस्त गो समुदायकी परिक्रमा करके वहाँके देवताओं और वृक्षोंसे विदा ले नन्दा वहाँसे चल पड़ी। उसने पृथ्वी, वरुण, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, दसों दिक्पाल, वनके वृक्ष, आकाशके नक्षत्र तथा ग्रह-इन सबको बारम्बार प्रणाम करके कहा- ‘इस वनमें जो सिद्ध और वनदेवता निवास करते हैं, वे वनमें चरते हुए मेरे पुत्रकी रक्षा करें।’ इस प्रकार पुत्रके स्नेहवश बहुत-सी बातें कहकर नन्दा वहाँसे प्रस्थित हुई और उस स्थानपर पहुँची, जहाँ वह तीखी दाढ़ों और भयंकर आकृतिवाला मांसभक्षी बाघ मुँह बाये बैठा था। उसके पहुँचने के | साथ ही उसका बछड़ा भी अपनी पूँछ ऊपरको उठाये अत्यन्त वेगसे दौड़ता हुआ वहाँ आ गया औरअपनी माता और व्याघ्र दोनोंके आगे खड़ा हो गया। पुत्रको आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर दृष्टि डालकर उस गौने कहा- ‘मृगराज! मैं सत्यधर्मका पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ; अब मेरे मांससे तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।’
व्याघ्र बोला- गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी निकली। कल्याणी! तुम्हारा स्वागत है। सत्यका आश्रय लेनेवाले प्राणियोंका कभी कोई अमंगल नहीं होता। तुमने लौटनेके लिये जो पहले सत्यपूर्वक शपथ की थी, उसे सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ था कि यह जाकर फिर कैसे लौटेगी। तुम्हारे सत्यकी परीक्षाके लिये ही मैंने पुनः तुम्हें भेज दिया था। अन्यथा मेरे पास आकर तुम जीती-जागती कैसे लौट सकती थी। मेरा वह कौतूहल पूरा हुआ। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे मिल गया। इस सत्यके प्रभावसे मैंने तुम्हें छोड़ दिया;आजसे तुम मेरी बहिन हुई और यह तुम्हारा पुत्र मेरा भानजा हो गया । शुभे ! तुमने अपने आचरणसे मुझ महान् पापीको यह उपदेश दिया है कि सत्यपर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्यके ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी! तृण और लताओंसहित भूमिके वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो । जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्मका फल पाया है। देवताओंने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओंमें ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवनसे अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करूँगा, जिसके द्वारा पापसे छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवोंको मारा और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकोंमें जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने पापोंसे शुद्ध होनेके लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, उसे संक्षेपमें बताओ; क्योंकि अब विस्तारपूर्वक सुननेका समय नहीं है।
गाय बोली- भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष सत्ययुगमें तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेतामें ज्ञान तथा उसके सहायक कर्मकी द्वापरमें यज्ञोंको ही उत्तम बतलाते हैं, किन्तु कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण दानोंमें एक ही दान सर्वोत्तम है। वह है- सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियोंको अभय-दान देता है, वह सब प्रकारके भयसे मुक्त होकर परब्रह्मको प्राप्त होता है। अहिंसाके समान न कोई दान है, न कोई तपस्या । जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसाके द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं। * योग एक ऐसा वृक्षहैं, जिसकी छाया तीनों तापका विनाश करनेवाली है। धर्म और ज्ञान उस वृक्षके फूल हैं। स्वर्ग तथा मोक्ष उसके फल हैं। जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक— इन तीनों प्रकारके दुःखोंसे सन्तप्त हैं, वे इस योगवृक्षकी छायाका आश्रय लेते हैं। वहाँ जानेसे उन्हें उत्तम शान्ति प्राप्त होती है, जिससे फिर कभी दुःखोंके द्वारा वे बाधित नहीं होते। यही परम कल्याणका साधन है, जिसे मैंने संक्षेपसे बताया है। तुम्हें ये सभी बातें ज्ञात हैं, केवल मुझसे पूछ रहे हो l
व्याघ्रने कहा- पूर्वकालमें मैं एक राजा था; किन्तु एक मृगीके शापसे मुझे बाघका शरीर धारण करना पड़ा। तबसे निरन्तर प्राणियोंका वध करते रहने के कारण मुझे सारी बातें भूल गयी थीं। इस समय तुम्हारे सम्पर्क और उपदेशसे फिर उनका स्मरण हो आया है, तुम भी अपने इस सत्यके प्रभावसे उत्तम गतिको प्राप्त होगी। अब मैं तुमसे एक प्रश्न और पूछता हूँ। मेरे सौभाग्यसे तुमने आकर मुझे धर्मका स्वरूप बताया, जो सत्पुरुषोंके मार्गमें प्रतिष्ठित है। कल्याणी! तुम्हारा नाम क्या है ?
नन्दा बोली- मेरे यूथके स्वामीका नाम ‘नन्द’ है; उन्होंने ही मेरा नाम ‘नन्दा’ रख दिया है।पुलस्त्यजी कहते हैं-नन्दाका नाम कानमें पढ़ते ही राजा प्रभंजन शापसे मुक्त हो गये। उन्होंने पुनः वल और रूपसे सम्पन्न राजाका शरीर प्राप्त कर लिया। इसी समय सत्यभाषण करनेवाली यशस्विनी नन्दाका दर्शन करनेके लिये साक्षात् धर्म वहाँ आये. और इस प्रकार बोले-‘नन्दे मैं धर्म है, तुम्हारी सत्य वाणी आकृष्ट होकर यहाँ आया है। तुम मुझसे कोई श्रेष्ठ वर माँग लो।’ धर्मके ऐसा कहनेपर नन्दाने यह वर माँगा ‘धर्मराज! आपकी कृपासे मैं पुत्रसहित उत्तम पदको प्राप्त होऊँ तथा यह स्थान मुनियोंको धर्मप्रदान करनेवाला शुभ तीर्थ बन जाय। देवेश्वर ! यह सरस्वती नदी आजसे मेरे ही नामसे प्रसिद्ध हो- इसका नाम ‘नन्दा’ पड़ जाय। आपने वर देने को कहा, इसलिये मैंने यही वर माँगा है।’
[पुत्रसहित) देवी नन्दा तत्काल ही सत्यवादियों के उत्तम लोकमें चली गयी। राजा प्रभंजनने भी अपने पूर्वोपार्जित राज्यको पा लिया। नन्दा सरस्वतीके तटसे स्वर्गको गयी थी, [तथा उसने धर्मराजसे इस आशयका वरदान भी माँगा था।] इसलिये विद्वानोंने यहाँ ‘सरस्वती’ का नाम नन्दा रख दिया। जो मनुष्य वहाँ आते समय सरस्वतीके नामका उच्चारणमात्र कर लेता है, वह जीवनभर सुख पाता है और मृत्युके पश्चात् देवता होता है। स्नान और जलपान करनेसे सरस्वती नदी मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सीढ़ी बन जाती है। अष्टमीके दिन जो लोग एकाग्रचित होकर सरस्वतीमें स्नान करते हैं, ये मृत्युके बाद स्वर्गमें पहुँचकर सुख भोगते हुए आनन्दित होते हैं। सरस्वती नदी सदा ही स्त्रियोंको सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। तृतीयाको यदि उसका सेवन किया जाय तो वह विशेष सौभाग्यदायिनी होती है। उस दिन उसके दर्शनसे भी मनुष्यको पाप-राशिसे छुटकारा मिल जाता है। जो पुरुष उसके जलका स्पर्श करते हैं, उन्हें भी मुनीश्वर समझना चाहिये। वहाँ चाँदी दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है। ब्रह्माकी पुत्री यह सरस्वती नदी परम पावन और पुण्यसलिला है, यही नन्दा नामसे प्रसिद्ध है। फिर जब यह स्वच्छ जलसे युक्त हो दक्षिण दिशाको ओर प्रवाहित होती है, तब विपुला या विशाला नामधारण करती है। वहाँसे कुछ ही दूर आगे जाकर यह पुनः पश्चिम दिशाकी ओर मुड़ गयी है। वहाँसे सरस्वतीकी धारा प्रकट देखी जाती है। उसके तटॉपर अत्यन्त मनोहर तीर्थ और देवमन्दिर हैं, जो मुनियों औरसिद्ध पुरुषोंद्वारा भलीभाँति सेवित हैं नन्दा तीर्थमें स्नान करके यदि मनुष्य सुवर्ण और पृथ्वी आदिका दान करे तो वह महान् अभ्युदयकारी तथा अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता है।
अध्याय-17 पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वेदवेत्ता ब्राह्मण तीनों पुष्करोंकी यात्रा किस प्रकार करते हैं तथा उसके करने से मनुष्योंको क्या फल मिलता है ?
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! अब एकाग्रचित्त होकर तीर्थ सेवनके महान् फलका श्रवण करो। जिसके हाथ, पैर और मन संयममें रहते हैं तथा जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् होता है, वही तीर्थ सेवनका फल प्राप्त करता है। जो प्रतिग्रहसे दूर रहता है किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, प्रारब्धवश जो कुछ प्राप्त हो जाय – उसीसे सन्तुष्ट रहता है तथा जिसका अहंकार दूर हो गया है, ऐसे मनुष्यको ही तीर्थ सेवनका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र ! जो स्वभावतः क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, उसे तीर्थ सेवनका फल प्राप्त होता है। * यह ऋषियोंका परम गोपनीय सिद्धान्त है।
राजेन्द्र ! पुष्कर तीर्थ करोड़ों ऋषियोंसे भरा है, उसकी लम्बाई बाई योजन (दस कोस) और चौड़ाई आधा योजन (दो कोस) है। यही उस तीर्थका परिमाण है। वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है, जहाँ अत्यन्त पवित्र सरस्वती नदीने ज्येष्ठ पुष्करमें प्रवेश किया है, यहाँ चैत्र शुक्ला चतुर्दशीको ब्रह्मा आदि देवताओं, ऋषियों, सिद्धों औरचारणोंका आगमन होता है, अतः उक्त तिथिको देवताओं और पितरोंके पूजनमें प्रवृत्त हो मनुष्यको वहाँ स्नान करना चाहिये। इससे वह अभय पदको प्राप्त होता है और अपने कुलका भी उद्धार करता है। वहाँ देवताओं और पितरोंका तर्पण करके मनुष्य विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। ज्येष्ठ पुष्करमें स्नान करनेसे उसका स्वरूप चन्द्रमाके समान निर्मल हो जाता है तथा वह ब्रह्मलोक एवं उत्तम गतिको प्राप्त होता है। मनुष्य लोकमें देवाधिदेव ब्रह्माजीका यह पुष्कर नामसे प्रसिद्ध तीर्थ त्रिभुवनमें विख्यात है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। पुष्करमें तीनों सन्ध्याओंके समय प्रातःकाल, मध्याह्न एवं सायंकालमें दस हजार करोड़ (एक खरब) तीर्थ उपस्थित रहते हैं तथा आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण, गन्धर्व और अप्सराओंका भी प्रतिदिन आगमन होता है। वहाँ तपस्या करके कितने ही देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षि दिव्य योगसे सम्पन्न एवं महान् पुण्यशाली हो गये। जो मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उस मनस्वीके सारे पाप नष्ट जाते हैं। महाराज ! उस तीर्थमें देवता और दानवोंके द्वारा सम्मानित भगवान् ब्रह्माजी सदा ही प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। वहाँ देवताओं और ऋषियोंने महान् पुण्यसे युक्त होकर इच्छानुसार सिद्धियाँ प्राप्त की हैं। जो मनुष्य देवताओं और पितरोंके पूजनमें तत्पर हो वहाँ स्नान करता है, उसके पुण्यको मनीषीपुरुष अश्वमेध यज्ञकी अपेक्षा दसगुना अधिक बतलाते। हैं। पुष्करारण्यमें जाकर जो एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसके उस अन्नसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको पूर्ण तृप्तिपूर्वक भोजन करानेका फल होता है तथा उस पुण्यकर्मके प्रभावसे वह इहलोक और परलोकमें भी आनन्द मनाता है। [ अन्न न हो तो ] शाक, मूल अथवा फल – जिससे वह स्वयं जीवन निर्वाह करता हो, वही – दोष- दृष्टिका परित्याग करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणको अर्पण करे। उसीके दानसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र- सभी इस तीर्थमें स्नान दानादि पुण्यके अधिकारी हैं। ब्रह्माजीका पुष्कर नामक सरोवर परम पवित्र तीर्थ है वह वानप्रस्थियों, सिद्धों तथा मुनियोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। परम पावन सरस्वती नदी पुष्करसे ही महासागरकी ओर गयी है। वहाँ महायोगी आदिदेव मधुसूदन सदा निवास करते हैं। वे आदिवराहके नामसे प्रसिद्ध हैं तथा सम्पूर्ण देवता उनकी पूजा करते रहते हैं। विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो पुष्कर तीर्थकी यात्रा करता है, वह अक्षय फलका भागी होता है-ऐसा मैंने सुना है।
कुरुनन्दन ! जो सायंकाल और सबेरे हाथ जोड़कर तीनों पुष्करोंका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें आचमन करनेका फल प्राप्त होता है। स्त्री हो या पुरुष, पुष्करमें स्नान करनेमात्रसे उसके जन्मभरका सारा पाप नष्ट हो जाता है जैसे सम्पूर्ण देवताओंमें ब्रह्माजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें पुष्कर ही आदि तीर्थ बताया गया है। जो पुष्करमें संयम और पवित्रताके साथ दस वर्षोंतक निवास करता हुआ ब्रह्माजीका दर्शन करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्र करता है और कार्तिककी एक ही पूर्णिमाको पुष्करमेंनिवास करता है, उन दोनोंका फल एक-सा ही होता है। पुष्करमें निवास दुर्लभ है, पुष्करमें तपस्याका सुयोग मिलना कठिन है। पुष्करमें दान देनेका सौभाग्य भी मुस्किलसे प्राप्त होता है तथा वहाँकी यात्राका सुयोग भी दुर्लभ है। वेदवेता ब्राह्मण ज्येष्ठ पुष्करमें जाकर स्नान करनेसे मोक्षका भागी होता है और श्राद्धसे वह पितरोंको तार देता है। जो ब्राह्मण वहाँ जाकर नाममात्रके लिये भी सन्ध्योपासन करता है, उसे बारह तक सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने स्वयं ही यह बात कही थी। जो अकेले भी कभी पुष्कर तीर्थमें चला जाय, उसको चाहिये कि झारीमें पुष्करका जल लेकर क्रमशः सन्ध्या-वन्दन कर ले; ऐसा करनेसे भी उसे बारह वर्षोंतक निरन्तर सन्ध्योपासन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। जो पत्नीको पास बिठाकर दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके गायत्री मन्त्रका जप करते हुए वहाँ तर्पण करता है, उसके उस तर्पणद्वारा बारह वर्षोंतक पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। फिर पिण्डदानपूर्वक श्राद्ध करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। इसीलिये विद्वान् पुरुष यह सोचकर स्त्रीके साथ विवाह करते हैं। कि हम तीर्थ में जाकर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान करेंगे। जो ऐसा करते हैं, उनके पुत्र, धन, धान्य और सन्तानका कभी उच्छेद नहीं होता यह निःसन्दिग्ध बात है।
राजन्! अब मैं तुमसे इस तीर्थके आश्रमोंका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। महर्षि अगस्त्यने इस तीर्थमें अपना आश्रम बनाया है, जो देवताओंके आश्रमकी समानता करता है। पूर्वकालमें यहाँ सप्तर्षियोंका भी आश्रम था ब्रह्मर्षियों और मनुओंने भी यहाँ आश्रम बनाया था। यज्ञ पर्वतके किनारे यहाँ नागौंको रमणीय पुरी भी है। महाराज! मैं महामना अगस्त्यजीके प्रभावका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ. ध्यान देकर सुनो। पहले की बात है-सत्ययुगमें कालकेयनामसे प्रसिद्ध दानव रहते थे। उनका स्वभाव अत्यन्त कठोर था तथा वे युद्धके लिये सदा उन्मत्त रहते थे। एक समय वे सभी दानव नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो वृत्रासुरको बीचमें करके इन्द्र आदि देवताओं पर चारों ओरसे चढ़ आये। तब देवतालोग इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये। उन्हें हाथ जोड़कर खड़े देख ब्रह्माजीने कहा- “देवताओ! तुमलोग जो कार्य करना चाहते हो, वह सब मुझे मालूम है। मैं ऐसा उपाय बताऊँगा, जिससे तुम वृत्रासुरका वध कर सकोगे। दधीचि नामके एक महर्षि हैं, उनकी बुद्धि बड़ी ही उदार है। तुम सब लोग एक साथ जाकर उनसे वर माँगो वे धर्मात्मा हैं, अतः प्रसन्नचित्त होकर तुम्हारी माँग पूरी करेंगे। तुम उनसे यही कहना कि ‘आप त्रिभुवनका हित करनेके लिये अपनी हड्डियाँ हमें प्रदान करें ।’ निश्चय ही वे अपना शरीर त्यागकर तुम्हें हड्डियाँ अर्पण कर देंगे। उनकी हड्डियोंसे तुमलोग अत्यन्त भयंकर एवं सुदृढ़ वज्र तैयार करो, जो दिव्य शक्तिसे सम्पन्न उत्तम अस्त्र होगा। उससे बिजलीके समान गड़गड़ाहट पैदा होगी और वह महान् से – महान् शत्रुका विनाश करनेवाला होगा। उसी वज्रसे इन्द्र वृत्रासुरका वध करेंगे।”पुलस्त्यजी कहते हैं— ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर समस्त देवता उनकी आज्ञा ले इन्द्रको आगे करके दधीचिके आश्रमपर गये। वह सरस्वती नदीके उस पार बना हुआ था। नाना प्रकारके वृक्ष और लताएँ उसे घेरे हुए थीं। वहाँ पहुँचकर देवताओंने सूर्यके समान तेजस्वी महर्षि दधीचिका दर्शन किया और उनके चरणोंमें प्रणाम करके ब्रह्माजीके कथनानुसार वरदान माँगा। तब दधीचिने अत्यन्त प्रसन्न होकर देवताओंको प्रणाम करके यह कार्य साधक वचन कहा- ‘अहो ! आज इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता यहाँ किसलिये पधारे हैं? मैं देखता हूँ आप सब लोगोंकी कान्ति फीकी पड़ गयी है, आपलोग पीड़ित जान पड़ते हैं। जिस कारणसे आपके हृदयको कष्ट पहुँच रहा है, उसे शान्तिपूर्वक बताइये ।’
देवता बोले—महर्षे ! यदि आपकी हड्डियोंका शस्त्र बनाया जाय तो उससे देवताओंका दुःख दूर हो सकता है।
दधीचिने कहा- देवताओ! जिससे आपलोगोंका हित होगा, वह कार्य मैं अवश्य करूँगा। आज आपलोगोंके लिये मैं अपने इस शरीरका भी त्याग करता हूँ।
ऐसा कहकर मनुष्यों में श्रेष्ठ महर्षि दधीचिने सहसा अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया। तब सम्पूर्ण देवताओंने आवश्यकताके अनुसार उनके शरीरसे हड्डियाँ निकाल लीं। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे विजय पानेके लिये विश्वकर्माके पास जाकर बोले- ‘आप इन हड्डियोंसे वज्रका निर्माण कीजिये ।’ देवताओंके वचन सुनकर विश्वकर्माने बड़े हर्षके साथ प्रयत्नपूर्वक उग्र शक्ति सम्पन्न वज्रास्त्रका निर्माण किया और इन्द्रसे कहा- ‘देवेश्वर ! यह वज्र सब अस्त्र-शस्त्रोंमें श्रेष्ठ है, आप इसके द्वारा देवताओंके भयंकर शत्रु वृत्रासुरको भस्म कीजिये।’ उनके ऐसा कहनेपर इन्द्रको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने शुद्ध भावसे उस वज्रको ग्रहण किया। तदनन्तर इन्द्र देवताओंसे सुरक्षित हो, वज्र हाथमें लिये, वृत्रासुरका सामना करनेके लिये गये, जोपृथ्वी और आकाशको घेरकर खड़ा था। कालकेय नामके विशालकाय दानव हाथोंमें शस्त्र उठाये चारों ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। फिर तो दानवोंके साथ देवताओंका भयंकर युद्ध प्रारम्भ हुआ। दो घड़ीतक तो ऐसी मार-काट हुई, जो सम्पूर्ण लोकको महान् भयमें डालनेवाली थी। वीरोंकी भुजाओंसे चलायी हुई तलवारें जब शत्रुके शरीरपर पड़ती थीं, तब बड़े जोरका शब्द होता था। आकाशसे पृथ्वीपर गिरते हुए मस्तक ताड़के फलोंके समान जान पड़ते थे उनसे वहाँकी सारी भूमि पटी हुई दिखायी देती थी। उस समय सोनेके कवच पहने हुए कालकेय दानव दावानलसे जलते हुए वृक्षोंके समान प्रतीत होते थे। वे हाथमें परिघ लेकर देवताओंपर टूट पड़े। उन्होंने एक साथ मिलकर बड़े वेगसे धावा किया था। यद्यपि देवता भी एक साथ संगठित होकर ही युद्ध कर रहे थे, तो भी वे उन दानवोंके वेगको न सह सके। उनके पैर उखड़ गये, वे भयभीत होकर भाग खड़े हुए। देवताओंको डरकर भागते और वृत्रासुरको प्रबल होते देख हजार आँखोंवाले इन्द्रको बड़ी घबराहट हुई। इन्द्रकी ऐसी अवस्था देख सनातन भगवान् श्रीविष्णुने उनके भीतर अपने तेजका संचार करके उनके बलको बढ़ाया। इन्द्रको श्रीविष्णुके तेजसे परिपूर्ण देख देवताओं तथा निर्मल अन्तःकरणवाले ब्रह्मर्षियोंने भी उनमें अपने-अपने तेजका संचार किया। इस प्रकार भगवान् श्रीविष्णु देवता तथा , महाभाग महर्षियोंके तेजसे वृद्धिको प्राप्त होकर इन्द्र अत्यन्त बलवान् हो गये।
देवराज इन्द्रको सवल जान वृत्रासुरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया। उसकी विकट गर्जनासे पृथ्वी, दिशाएँ, अन्तरिक्ष, द्युलोक और आकाशमें सभी काँप उठे। वह भयंकर सिंहनाद सुनकर इन्द्रको बड़ा सन्ताप हुआ। उनके हृदयमें भय समा गया और उन्होंने बड़ी उतावलीके साथ अपना महान् वज्रास्त्र उसके ऊपर छोड़ दिया। इन्द्रके वज्रका आघात पाकर वह महान् असुर निष्प्राण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता तुरंत आगे बढ़कर वृत्रासुरके वधसे सन्तप्त हुएशेष दैत्योंको मारने लगे। देवताओंकी मार पड़नेपर वे महान् असुर भयसे पीड़ित हो वायुके सम्मान वेगसे भागकर अगाध समुद्रमें जा छिपे। वहाँ एकत्रित होकर सब-के-सब तीनों लोकोंका नाश करनेके लिये आपसमें सलाह करने लगे। उनमें जो विचारक थे. उन्होंने नाना प्रकारके उपाय बतलाये-तरह तरहकी युक्तियाँ सुझार्थी । अन्ततोगत्वा यह निश्चय हुआ कि ‘तपस्यासे ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं, इसलिये उसीका क्षय करनेके लिये शीघ्रता की जाय। पृथ्वीपर जो कोई भी तपस्वी, धर्मज्ञ और विद्वान् हो, उनका तुरंत वध कर दिया जाय। उनके नष्ट हो जानेपर सम्पूर्ण जगत्का स्वयं ही नाश हो जायगा।
उन सबकी बुद्धि मारी गयी थी इसलिये उपर्युक्त प्रकारसे संसारके विनाशका निश्चय करके वे बहुत प्रसन्न हुए। समुद्ररूप दुर्गका आश्रय लेकर उन्होंने त्रिभुवनका विनाश आरम्भ किया। वे रातमें कुपित होकर निकलते और पवित्र आश्रमों तथा मन्दिरोंमें जो भी मुनि मिलते, उन्हें पकड़कर खा जाते थे। उन दुरात्माओंने वसिष्ठके आश्रम में जाकर आठ हजार आठ ब्राह्मणोंका भक्षण कर लिया तथा उस वनमें और भी जितने तपस्वी थे, उन्हें भी मौतके घाट उतार दिया। महर्षि च्यवनके पवित्र आश्रमपर, जहाँ बहुत-से द्विज निवास करते थे, जाकर उन्होंने फल-मूलका आहार करनेवाले सौ मुनियोंको अपना ग्रास बना लिया। इस प्रकार रातमें वे मुनियोंका संहार करते और दिनमें समुद्रके भीतर घुस जाते थे। भरद्वाजके आश्रमपर जाकर उन दानवने वायु और जल पीकर संयम नियमके साथ रहनेवाले बीस ब्रह्मचारियोंकी हत्या कर डाली इस तरह बहुत दिनोंतक उन्होंने मुनियोंका भक्षण जारी रखा, किन्तु मनुष्योंको इन हत्यारोंका पता नहीं चला। उस समय कालकेयोंके भयसे पीड़ित होकर सारा जगत् [ धर्म-कर्मको ओरसे] निरुत्साह हो गया। स्वाध्याय बंद हो गया। यज्ञ और उत्सव समाप्त हो गये। मनुष्योंकी संख्या दिनोदिन क्षीण होने सगी, वे भयभीत होकर आत्मरक्षा के लिये दस दिशाओंमें दौड़ने लगे; कोई द्विज गुफाओंमें छिप गये,दूसरों झरनोंकी शरण ली, कितनोंने भयसे व्याकुल होकर प्राण त्याग दिये। इस प्रकार यज्ञ और उत्सवोंसे रहित होकर जब सारा जगत् नष्ट होने लगा, तब इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता व्यथित होकर भगवान् श्रीनारायणक शरणमें गये और इस प्रकार स्तुति करने लगे।
देवता बोले- प्रभो! आप ही हमारे जन्मदाता और रक्षक हैं। आप ही संसारका भरण-पोषण करने जाते हैं। चर और अचर- सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि आपसे ही हुई है। कमलनयन। पूर्वकालमें यह भूमि नष्ट होकर रसातलमें चली गयी थी। उस समय आपने ही वराहरूप धारण करके संसारके हितके लिये इसका समुद्रसे उद्धार किया था। पुरुषोत्तम ! आदिदैत्य हिरण्यकशिपु बड़ा पराक्रमी था, तो भी आपने नृसिंहरूप धारण करके उसका वध कर डाला। इस प्रकार आपके बहुत से ऐसे [अलौकिक] कर्म हैं, जिनकी गणना नहीं हो सकती। मधुसूदन हमलोग भयभीत हो रहे हैं, अब आप ही हमारी गति हैं; इसलिये देवदेवेश्वर ! हम आपसे लोककी रक्षाके लिये प्रार्थना करते हैं। सम्पूर्ण लोकोंकी, देवताओंकी तथा इन्द्रकी महान् भयसे रक्षा कीजिये। आपकी ही कृपासे [अण्डज, स्वेदज, जरायुज एवं उद्भिज्ज] चार भागों में बंटी हुई सम्पूर्ण प्रजा जीवन धारण करती है। आपकी ही दयासे मनुष्य स्वस्थ होंगे और देवताओंकी हव्यकव्योंसे तृप्ति होगी। इस प्रकार देव मनुष्यादि सम्पूर्ण लोक एक दूसरेके आश्रित हैं आपके ही अनुग्रहसे इन सबका उद्वेग शान्त हो सकता है तथा आपके द्वारा ही इनकी पूर्णतया रक्षा होनी सम्भव है। भगवन्! संसारके ऊपर बड़ा भारी भय आ पहुंचा है। पता नहीं, कौन रात्रिमें जा-जाकर ब्राह्मणोंका वध कर डालता है। ब्राह्मणोंका क्षय हो जानेपर समूची पृथ्वीका नाश हो जायगा। अतः महाबाहो । जगत्पते। आप ऐसी कृपा करें, जिससे आपके द्वारा सुरक्षित होकर इन लोकोंका विनाश न हो।
भगवान् श्रीविष्णु बोले – देवताओ। मुझे प्रजाके विनाशका सारा कारण मालूम है। मैं तुम्हें भीबताता हूँ, निश्चिन्त होकर सुनो। कालकेय नामसे विख्यात जो दानवोंका समुदाय है, वह बड़ा ही निष्ठुर है। उन दानवोंने ही परस्पर मिलकर सम्पूर्ण जगत्को कष्ट पहुँचाना आरम्भ किया है। वे इन्द्रके द्वारा वृत्रासुरको मारा गया देख अपनी जान बचानेके लिये समुद्रमें घुस गये थे। नाना प्रकारके ग्राहोंसे भरे हुए भयंकर समुद्रमें रहकर वे जगत्का विनाश करनेके लिये रातमें मुनियोंको खा जाते हैं। जबतक वे समुद्र के भीतर छिपे रहेंगे, तबतक उनका नाश होना असम्भव है, इसलिये अब तुमलोग समुद्रको सुखानेका कोई उपाय सोचो।
पुलस्त्यजी कहते हैं– भगवान् श्रीविष्णुके ये वचन सुनकर देवता ब्रह्माजीके पास आकर वहाँसे महर्षि अगस्त्यके आश्रमपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मित्रावरुणके पुत्र परम तेजस्वी महात्मा अगस्त्य ऋषिको देखा। अनेकों महर्षि उनकी सेवामें लगे थे। उनमें प्रमादका लेश भी नहीं था। वे तपस्याकी राशि जान पड़ते थे। ऋषिलोग उनके अलौकिक कर्मोकी चर्चा करते हुए उनको स्तुति कर रहे थे।
देवता बोले- महर्षे! पूर्वकालमें जब राजा नहुषके द्वारा लोकोंको कष्ट पहुँच रहा था, उस समय आपने संसारके हितके लिये उन्हें इन्द्र-पदसे भ्रष्ट किया और इस प्रकार लोकका काँटा दूर करके आप जगत्के आश्रयदाता हुए। जिस समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ विन्ध्याचल सूर्यके ऊपर क्रोध करके बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था; उस समय आपने ही उसे नतमस्तक किया; तबसे आजतक आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ वह पर्वत बढ़ता नहीं। जब सारा जगत् अन्धकारसे आच्छादित था और प्रजा मृत्युसे पीड़ित होने लगी, उस समय आपको ही अपना रक्षक समझकर प्रजा आपकी शरणमें आयी और उसे आपके द्वारा परम आनन्द एवं शान्तिकी प्राप्ति हुई। जब-जब हमलोगोंपर भयका आक्रमण हुआ, तब-तब सदा ही आपने हमें शरण दी है; इसलिये आज भी हम आपसे एक वरकी याचना करते हैं। आप वरदाता हैं [ अतः हमारी इच्छा पूर्ण कीजिये ]भीष्मजीने पूछा- महामुने! क्या कारण था, जिससे विन्ध्य पर्वत सहसा क्रोधसे मूच्छित हो बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया था ?
पुलस्त्यजीने कहा- सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्तके समय सुवर्णमय महापर्वत गिरिराज मेरुकी परिक्रमा किया करते हैं। एक दिन सूर्यको देखकर विन्ध्याचलने उनसे कहा-‘भास्कर! जिस प्रकार आप प्रतिदिन मेरुपर्वतकी परिक्रमा किया करते हैं, उसी प्रकार मेरी भी कीजिये।’ यह सुनकर सूर्यने गिरिराज विन्ध्यसे कहा- ‘शैल! मैं अपनी इच्छासे मेरुकी परिक्रमा नहीं करता; जिन्होंने इस संसारकी सृष्टि की है, उन विधाताने ही मेरे लिये यह मार्ग नियत कर दिया है।’ उनके ऐसा कहनेपर विन्ध्याचलको सहसा क्रोध हो आया और वह सूर्य तथा चन्द्रमाका मार्ग रोकनेके लिये बढ़कर बहुत ऊँचा हो गया। तब इन्द्रादि सम्पूर्ण देवताओंने जाकर बढ़ते हुए गिरिराज विन्ध्याचलको रोका, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी। तब वे महर्षि अगस्त्यके पास जाकर बोले-‘मुनीश्वर! शैलराज विन्ध्य क्रोधके वशीभूत होकर सूर्य, चन्द्रमा तथा नक्षत्रोंका मार्ग रोक रहा है; उसे कोई निवारण नहीं कर पाता।’
देवताओंकी बात सुनकर ब्रह्मर्षि अगस्त्यजी विन्ध्यके पास गये और आदरपूर्वक बोले- ‘पर्वत श्रेष्ठ! मैं दक्षिण दिशामें जानेके लिये तुमसे मार्ग चाहता हूँ। जबतक मैं लौटकर न आऊँ, तबतक तुम नीचे रहकर ही मेरी प्रतीक्षा करो।’ [मुनिकी बात मानकर विन्ध्याचलने वैसा ही किया।] महर्षि अगस्त्य दक्षिण दिशासे आजतक नहीं लौटे; इसीसे विन्ध्य पर्वत अब नहीं बढ़ता। भीष्म ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यह प्रसंग मैंने सुना दिया अब देवताओंने जिस प्रकार कालकेय दैत्योंका वध किया, वह वृत्तान्त सुनो। देवताओंके वचन सुनकर महर्षि अगस्त्यने पूछा ‘आपलोग किसलिये यहाँ आये हैं और मुझसे क्या वरदान चाहते हैं ?’
उनके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने कहा— ‘महात्मन्! हम आपसे एक अद्भुत वरदान चाहते हैं। महर्षे! आप कृपा करके समुद्रको पीजाइये। आपके ऐसा करनेपर हमलोग देवद्रोही कालकेय नामक दानवों को उनके सगे-सम्बन्धियों सहित मार डालेंगे।’ महर्षिने कहा-‘बहुत अच्छा, देवराज मैं आपलोगों की इच्छा पूर्ण करूंगा।’ ऐसा कहकर ये देवताओं और तपःसिद्ध मुनियोंके साथ जलनिधि समुद्र के पास गये। उनके इस अद्भुत कर्मको देखनेकी इच्छासे बहुतेरे मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर भी उन महात्माके पीछे-पीछे गये। महर्षि सहसा समुद्रके तटपर जा पहुँचे। समुद्र भीषण गर्जना कर रहा था। वह अपनी उत्ताल तरंगोंसे नृत्य करता हुआ-सा जान पड़ता था । महर्षि अगस्त्यके साथ सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, नाग और महाभाग मुनि जब महासागरके किनारे पहुँच गये, तब महर्षिने समुद्रको पी जानेकी इच्छासे उन सबको लक्ष्य करके कहा – ‘देवगण! सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये इस समय मैं इस महासागरको पिये लेता हूँ; अब आपलोगोंको जो कुछ करना हो, शीघ्र ही कीजिये।’ यों कहकर वे सबके देखते-देखते समुद्रको पी गये। यह देखकर इन्द्र आदि देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ तथा वे महर्षिकी स्तुति करते हुए कहने लगे- ‘भगवन्! आप हमारे रक्षक और लोकोंको नयाजन्म देनेवाले हैं। आपकी कृपासे देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्का कभी उच्छेद नहीं हो सकता।’ इस प्रकार सम्पूर्ण देवता उनका सम्मान कर रहे थे। प्रधान प्रधान गन्धर्व हर्षनाद करते थे और महर्षिके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। उन्होंने समूचे महासागरको जलशून्य कर दिया। जब समुद्रमें एक बूँद भी पानी न रहा, तब सम्पूर्ण देवता हर्षमें भरकर हाथों में दिव्य आयुध लिये दानवोंपर प्रहार करने लगे। महाबली देवताओंका वेग असुरोंके लिये असह्य हो गया। उनकी मार खाकर भी वे भीमकाय दानव दो घड़ीतक घमासान युद्ध करते रहे; किन्तु वे पवित्रात्मा मुनियोंकी तपस्यासे दग्ध हो चुके थे, इसलिये पूर्ण शक्ति लगाकर यत्न करते रहनेपर भी देवताओंके हाथसे मारे गये। जो मरनेसे बच रहे, वे पृथ्वी फाड़कर पातालमें घुस गये। दानवोंको मारा गया देख देवताओंने नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यका स्तवन किया तथा इस प्रकार कहा
देवता बोले-महाभाग ! आपकी कृपासे संसारके लोगोंको बड़ा सुख मिला। कालकेय दानव बड़े ही क्रूर और पराक्रमी थे, वे सब आपकी शक्तिसे मारे गये। लोकरक्षक महर्षे! अब इस समुद्रको भरदीजिये। आपने जो जल पी लिया है, वह सब इसमें वापस छोड़ दीजिये ।
उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी बोले- ‘वह जल तो मैंने पचा लिया, अब समुद्रको भरनेके लिये आपलोग कोई दूसरा उपाय सोचें।’ महर्षिकी बात सुनकर देवताओंको विस्मय भी हुआ और विषाद भी । वहाँ इकट्ठे हुए सब लोग एक-दूसरेकी अनुमति ले मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम करके जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। देवतालोग समुद्रको भरनेके विषयमें परस्पर विचार करते हुए ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़ ब्रह्माजीको प्रणाम किया और समुद्रके पुनः भरनेका उपाय पूछा। तब लोकपितामह ब्रह्माने उनसे कहा-‘देवताओ! तुम सब लोग इच्छानुसार अपने-अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाओ, अब बहुत दिनोंके बाद समुद्र अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त होगा । महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनोंको तारनेके लिये गंगाजीको लायेंगे और उन्हींके जलसे पुनः समुद्रको भर देंगे।’ ऐसा कहकर ब्रह्माजीने देवताओं और ऋषियोंको भेज दिया।
अध्याय-18 सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन्! अब मैं तुम्हारे लिये सप्तर्षियोंके आश्रमका वर्णन करूँगा। अत्रि, वसिष्ठ, मैं, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, सुमति, सुमुख, विश्वामित्र, स्थूलशिरा संवर्त प्रतर्दन, रैभ्य बृहस्पति, च्यवन, कश्यप, भृगु, दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, उशना, भरद्वाज, यवक्रीत, स्थूलाक्ष, मकराक्ष, कण्व, मेधातिथि, नारद, पर्वत, स्वगन्धी, तृणाम्बु, शबल, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निकुमार परशुराम, अष्टक तथा कृष्णद्वैपायन- ये सभी ऋषि महर्षि अपने पुत्रों और शिष्यों के साथ पुष्करमें आकर सप्तर्षियोंके आश्रम में रह चुके हैं तथा सबने इन्द्रिय संयम और शौच-सन्तोपादि नियमोंके पालनपूर्वक पूरीचेष्टाके साथ तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप उनमें इन्द्रिय-जय, धैर्य, सत्य, क्षमा, सरलता, दया और दान आदि सद्गुणोंकी प्रतिष्ठा हुई है। पूर्वकालकी बात है, समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकपर विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखनेवाले सप्तर्षिगण तीर्थस्थानोंका दर्शन करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इसी बीचमें एक बार बड़ा भारी सूखा पड़ा, जिसके कारण भूखसे पीड़ित होकर सम्पूर्ण जगत् के लोग बड़े कष्टमें पड़ गये। उसी समय उन ऋषियोंको भी कष्ट उठाते देख तत्कालीन राजाने, जो प्रजाकी देख-भालके लिये भ्रमण कर रहे थे, दुःखी होकर कहा – ‘मुनिवरो! ब्राह्मणोंके लिये प्रतिग्रह उत्तम वृत्ति है; अतः आपलोग मुझसे दान ग्रहणकरें- अच्छे-अच्छे गाँव धान और जौ आदि अन्न, घृत दुग्धादि रस, तरह-तरहके रत्न, सुवर्ण तथा दूध देनेवाली गौएँ ले लें।’
ऋषियोंने कहा- राजन्। प्रतिग्रह बड़ी भयंकर वृत्ति है वह स्वादमें मधुके समान मधुर, किन्तु परिणाममें विषके समान घातक है। इस बातको स्वयं जानते हुए भी तुम क्यों हमें लोभमें डाल रहे हो ?’ दस कसाइयोंके समान एक चक्री (कुम्हार या तेली), दस चक्रियोंके समान एक शराब बेचनेवाला, दस शराब बेचनेवालोंके समान एक वेश्या और दस वेश्याओंके समान एक राजा होता है जो प्रतिदिन दस हजार हत्यागृहों का संचालन करता है, वह शौण्डिक है; राजा भी उसीके समान माना गया है। अतः राजाका प्रतिग्रह अत्यन्त भयंकर है। जो ब्राह्मण लोभसे मोहित होकर राजाका प्रतिग्रह स्वीकार करता है, वह तामिस्र आदि घोर नरकोंमें पकाया जाता है। अतः महाराज ! तुम अपने दानके साथ ही यहाँसे पधारो। तुम्हारा कल्याण हो। यह दान दूसरोंको देना ।
यह कहकर वे सप्तर्षि वनमें चले गये। तदनन्तर राजाकी आज्ञासे उसके मन्त्रियोंने गुलरके फलोंमें सोना भरकर उन्हें पृथ्वीपर बिखेर दिया। सप्तर्षि अन्नके दाने बीनते हुए वहाँ पहुँचे तो उन फलोंको भी उन्होंने हाथमें उठाया।
[ उन्हें भारी जानकर ] अत्रिने कहा- ‘ये फल ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। हमारी ज्ञानशक्तिपर मोहका पर्दा नहीं पड़ा है, हम मन्दबुद्धि नहीं हो गये हैं। हम समझदार हैं, ज्ञानी हैं, अतः इस बातको भलीभाँति समझते हैं। कि वे गूलरके फल सुवर्णसे भरे हैं। धन इसी लोकमें आनन्ददायक होता है, मृत्युके बाद तो वह बड़ेही कटु परिणामको उत्पन्न करता है; अतः जो सुख एवं अनन्त पदकी इच्छा रखता हो, उसे तो इसे कदापि नहीं लेना चाहिये। ll 2 ll
वसिष्ठजीने कहा- इस लोकमें धनसंचयकी अपेक्षा तपस्याका संचय ही श्रेष्ठ है। जो सब प्रकारके लौकिक संग्रहोंका परित्याग कर देता है, उसके सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं संग्रह करनेवाला कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो सुखी रह सके। ब्राह्मण जैसे जैसे प्रतिग्रहका त्याग करता है, वैसे-ही-वैसे सन्तोषके कारण उसके ब्रह्म तेजकी वृद्धि होती है। एक ओर अकिंचनता और दूसरी ओर राज्यको तराजूपर रखकर तोला गया तो राज्यकी अपेक्षा अकिंचनताका ही पलड़ा भारी रहा; इसलिये जितात्मा पुरुषके लिये कुछ भी संग्रह न करना ही श्रेष्ठ है।
कश्यपजी बोले- धन-सम्पत्ति मोहमें डालनेवाली होती है। मोह नरकमें गिराता है; इसलिये कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अनर्थके साधन अर्थका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जिसको धर्मके लिये धन संग्रहकी इच्छा होती है, उसके लिये उस इच्छाका त्याग ही श्रेष्ठ है; क्योंकि कीचड़को लगाकर धोनेकी अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है। धनके द्वारा जिस धर्मका साधन किया जाता है, वह क्षयशील माना गया है। दूसरेके लिये जो धनका परित्याग है, वही अक्षय धर्म है, वही मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है।
भरद्वाजने कहा- जब मनुष्यका शरीर जीर्ण होता है, तब उसके दाँत और बाल भी पक जाते हैं; किन्तु धन और जीवनकी आशा बूढ़े होनेपर भी जीर्ण नहीं होती वह सदा नवी ही बनी रहती है। जैसे दर्जी सूईसे वस्त्रमें सूतका प्रवेश करा देता है, उसी प्रकारतृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्रका विस्तार होता है। कहीं ओर-छोर नहीं है, उसका पेट भरना कठिन होता है; वह सैकड़ों दोषोंको ढोये फिरती है; उसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। अतः कृष्णाका तृष्णाका यही उचित है।
गौतम बोले- इन्द्रियोंके लोभग्रस्त होनेसे सभी सुष्य संकटमें पड़ जाते हैं। जिसके चित्तमें सन्तोष है, उसके लिये सर्वत्र धन-सम्पत्ति भरी हुई है; जिसके पैर जूतेमें हैं, उसके लिये सारी पृथ्वी मानो चमड़ेसे मढ़ी है। सन्तोषरूपी अमृतसे तृप्त एवं शान्त चित्तवाले पुरुषोंको जो सुख प्राप्त है, वह धनके लोभसे इधर उधर दौड़नेवाले लोगोंको कहाँसे प्राप्त हो सकता है। असन्तोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये। *
विश्वामित्रने कहा- किसी कामनाकी पूर्ति चाहनेवाले मनुष्यकी यदि एक कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी नयी उत्पन्न होकर उसे पुनः बाणके समान बाँधने लगती है। भोगोंकी इच्छा उपभोगके द्वारा कभी शान्त नहीं होती, प्रत्युत घी डालनेसे प्रज्वलित होनेवाली अग्निकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगेकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष मोहवश कभी सुख नहीं पाता।
जमदग्नि बोले- जो प्रतिग्रह लेनेकी शक्ति रखते हुए भी उसे नहीं ग्रहण करता, वह दानी पुरुषोंको मिलनेवाले सनातन लोकोंको प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण राजासे धन लेता है, वह महर्षियोंद्वारा शोक करनेके | योग्य है; उस मूर्खको नरक-यातनाका भय नहीं दिखायी देता। प्रतिग्रह लेनेमें समर्थ होकर भी उसमें प्रवृत्त नहीं, होना चाहिये; क्योंकि प्रतिग्रहसे ब्राह्मणोंका ब्रह्मतेजनष्ट हो जाता है।
अरुन्धतीने कहा— तृष्णाका आदि अन्त नहीं है, वह सदा शरीरके भीतर व्याप्त रहती है। दुष्ट बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोगके समान है, उस तृष्णाका त्याग करनेवालेको ही सुख मिलता है।
पशुसख बोले- धर्मपरायण विद्वान् पुरुष जैसा आचरण करते हैं, आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वान् पुरुषको वैसा ही आचरण करना चाहिये ।
ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका पालन करनेवाले वे सभी महर्षि उन सुवर्णयुक्त फलोंको छोड़ अन्यत्र चले गये। घूमते-घामते वे मध्य पुष्करमें गये, जहाँ अकस्मात् आये हुए शुनःसख नामक परिव्राजकसे उनकी भेंट हुई। उसके साथ वे किसी वनमें गये। वहाँ उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर दिखायी दिया, जिसका जल कमलोंसे आच्छादित था। वे सब-के-सब उस सरोवर के किनारे बैठ गये और कल्याणका चिन्तन करने लगे। उस समय शुनःसखने क्षुधासे पीड़ित उन समस्त मुनियोंसे इस प्रकार कहा – ‘महर्षियो! आप सब लोग बताइये, भूखकी पीड़ा कैसी होती है?’
ऋषियोंने कहा- शक्ति, खड्ग, गदा, चक्र, तोमर और बाणोंसे पीड़ित किये जानेपर मनुष्यको जो वेदना होती है, वह भी भूखको पीड़ाके सामने मात हो जाती है। दमा, खाँसी, क्षय, ज्वर और मिरगी आदि रोगोंसे कष्ट पाते हुए मनुष्यको भी भूखकी पीड़ा उन सबकी अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे पृथ्वीका सारा जल खींच लिया जाता है, उसी प्रकार पेटकी आगसे शरीरकी समस्त नाड़ियाँ सूख जाती हैं। शुभासे पीड़ित मनुष्यको आँखोंसे कुछ सूझ नहींपड़ता, उसका सारा अंग जलता और सूखता जाता है। भूखको आग प्रज्वलित होनेपर मनुष्य गूँगा, बहरा, जड, पंगु, भयंकर तथा मर्यादाहीन हो जाता है लोग क्षुधासे पीड़ित होनेपर पिता-माता, स्त्री, पुत्र, कन्या, भाई तथा स्वजनोंका भी परित्याग कर देते हैं भूखसे व्याकुल मनुष्य न पितरोंकी भलीभाँति पूजा कर सकता है न देवताओंकी, न गुरुजनोंका सत्कार कर सकता है न ऋषियों तथा अभ्यागतोंका।
इस प्रकार अन्न न मिलनेपर देहधारी प्राणियोंमें ये सभी दोष आ जाते हैं। इसलिये संसारमें अन्नसे बढ़कर न तो कोई पदार्थ हुआ है, न होगा। अन्न ही संसारका मूल है। सब कुछ अन्नके ही आधारपर टिका हुआ है पितर देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य और पिशाच- सभी अन्नमय माने गये हैं; इसलिये अन्नदान करनेवालेको अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती है। तप, सत्य, जप, होम, ध्यान, योग, उत्तम गति, स्वर्ग और सुखकी प्राप्ति ये सब कुछ अन्नसे ही सुलभ होते हैं। चन्दन, अगर, धूप और शीतकालमें ईंधनका दान अन्नदानके सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं हो सकता। अन्न ही प्राण, बल और तेज है। अन्न ही पराक्रम है, अन्नसे ही तेजकी उत्पत्ति और वृद्धि होती है जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूखेको अन्न देता है, वह ब्रह्मस्वरूप होकर ब्रह्माजीके साथ आनन्द मनाता है जो एकाग्रचित्त होकर अमावास्याको श्राद्धमें अन्नदानका माहात्म्यमात्र सुनाता है; उसके पितर आजीवन सन्तुष्ट रहते हैं।
इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रहसे युक्त ब्राह्मण सुखी एवं धर्मके भागी होते हैं। दम, दान एवं यम- ये तीनों तत्त्वार्थदर्शी पुरुषोंद्वारा बताये हुए धर्म हैं। इनमें भी विशेषतः दम ब्राह्मणोंका सनातन धर्म है। दम तेजको बढ़ाता है, दम परम पवित्र और उत्तम है। दमसे पुरुष पापरहित एवं तेजस्वी होता है। संसारमें जो कुछ नियम, धर्म, शुभ कर्म अथवा सम्पूर्ण यज्ञोंके फल हैं, उन सबकी अपेक्षा दमका महत्त्व अधिक है । दमके बिना दानरूपी क्रियाकी यथावत् शुद्धि नहीं हो सकती दमसे ही यज्ञ और दमसे ही दानको प्रवृत्ति होती है जिसनेइन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके बनमें रहनेसे क्या लाभ तथा जिसने मन और इन्द्रियोंका भलीभाँति जहाँ-जहाँ दमन किया है, उसको घर छोड़कर] किसी आश्रम रहनेकी क्या आवश्यकता है। जितेन्द्रिय पुरुष निवास करता है, उसके लिये वही वही स्थान वन एवं महान् आश्रम है। जो उत्तम शील और आचरणमें रत है जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबू कर लिया है तथा जो सदा सरल भावसे रहता है, उसको आश्रमोंसे क्या प्रयोजन ? विषयासक्त मनुष्योंसे वनमें भी दोष बन जाते हैं तथा घरमें रहकर भी यदि पाँचों इन्द्रियाँका निग्रह कर लिया जाय तो वह तपस्या ही है। जो सदा शुभ कर्ममें ही प्रवृत्त होता है, उस वीतराग पुरुषके लिये घर ही तपोवन है। केवल शब्द-शास्त्र-व्याकरणके चिन्तनमें लगे रहनेवालेका मोक्ष नहीं होता तथा लोगोंका मन बहलाने में ही जिसकी प्रवृत्ति है, उसको भी मुक्ति नहीं मिलती। जो एकान्तमें रहकर दृढ़तापूर्वक नियमों का पालन करता, इन्द्रियोंकी आसक्तिको दूर हटाता, अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें मन लगाता और सर्वदा अहिंसा व्रतका पालन करता है, उसीका मोक्ष निश्चित है। जितेन्द्रिय पुरुष सुखसे सोता और सुखसे जागता है। वह सम्पूर्ण भूतोंके प्रति समान भाव रखता है उसके मनमें हर्ष-शोक आदि विकार नहीं आते। छेड़ा हुआ सिंह, अत्यन्त रोषमें भरा हुआ सर्प तथा सदा कुपित रहनेवाला शत्रु भी वैसा अनिष्ट नहीं कर सकता, जैसा संयमरहित चित्त कर डालता है।
मांसभक्षी प्राणियों तथा अजितेन्द्रिय मनुष्योंसे लोगोंको सदा भय रहता है, अतः उनके निवारणके लिये ब्रह्माजीने दण्डका विधान किया है। दण्ड ही प्राणियोंकी रक्षा और प्रजाका पालन करता है। वही पापियोंको पाप से रोकता है। दण्ड सबके लिये दुर्जय होता है। वह सब प्राणियोंको भय पहुँचानेवाला है। दण्ड ही मनुष्योंका शासक है, उसीपर धर्म टिका हुआ है। सम्पूर्ण आश्रमों और समस्त भूतोंमें दम ही उत्तम व्रत माना गया है। उदारता, कोमल स्वभाव, सन्तोष, दोष दृष्टिका अभाव, गुरु-शुश्रूषा, प्राणियोंपर दया और चुगली न करनाइन्हींको शान्त बुद्धिवाले संतों और ऋषियोंने दम कहा है। धर्म, मोक्ष तथा स्वर्ग- ये सभी दमके अधीन हैं।। वो अपना अपमान होनेपर क्रोध नहीं करता और सम्मान होनेपर हर्षसे फूल नहीं उठता, जिसकी दृष्टि कुछ और सुख समान है, उस धीर पुरुषको प्रशान्त कहते हैं। जिसका अपमान होता है, वह साधु पुरुष तो सुखसे सोता और सुखसे जागता है तथा उसकी बुद्धि कल्याणमयी होती है। परन्तु अपमान करनेवाला मनुष्य स्वयं नष्ट हो जाता है। अपमानित पुरुषको चाहिये कि वह कभी अपमान करनेवालेकी बुराई न सोचे। अपने धर्मपर दृष्टि रखते हुए भी दूसरोंके धर्मकी निन्दा न करे। ll 1 ll
जो इन्द्रियोंका दमन करना नहीं जानते, वे व्यर्थ ही शास्त्रोंका अध्ययन करते हैं; क्योंकि मन और इन्द्रियोंका संयम ही शास्त्रका मूल है, वही सनातन धर्म है। सम्पूर्ण व्रतोंका आधार दम ही है। छहाँ अंगसहित पढ़े हुए वेद भी दमसे हीन पुरुषको पवित्र नहीं कर सकते जिसने इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके सांख्य, योग, उत्तम कुल, जन्म और तीर्थस्नान-सभी व्यर्थ हैं। योगवेत्ता द्विजको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान समझकर उससे प्रसन्नताका अनुभव करे और सम्मानको विषके तुल्य मानकर उससे घृणा को अपमानसे उसके तपकी वृद्धि होती है और सम्मान से क्षय पूजा और सत्कार पानेवाला ब्राह्मण दुही हुई गायकी तरह खाली हो जाता है। जैसे गौ घास और जल पीकर फिर पुष्ट हो जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मण जप और होमके द्वारा पुनः ब्रह्मतेजसे सम्पन्न जाता है। संसारमें निन्दा करनेवालेके समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि वह पापलेकर अपना पुण्य दे जाता है। निन्दा करने वालोंकी स्वयं निन्दा न करे। अपने मनको रोके। जो उस समय अपने चित्तको वशमें कर लेता है, वह मानो अमृत से स्नान करता है। वृक्षोंके नीचे रहना, साधारण वस्त्र पहनना, अकेले रहना, किसीकी अपेक्षा न रखना और ब्रह्मचर्य का पालन करना ये सब परमगतिको प्राप्त करानेवाले होते हैं। जिसने काम और क्रोधको जीत लिया, वह जंगलमें जाकर क्या करेगा? अभ्याससे शास्त्रकी, शीलसे कुलकी, सत्यसे क्रोधका तथा मित्रके द्वारा प्राणोंकी रक्षा की जाती है जो पुरुष उत्पन्न हुए क्रोधको अपने मनसे रोक लेता है, वह उस क्षमाके द्वारा सबको जीत लेता है जो क्रोध और भयको जीतकर शान्त रहता है, पृथ्वीपर उसके समान वीर और कौन है। यह ब्रह्माजीका बताया हुआ गूढ़ उपदेश है प्यारे ! हमने धर्मका हृदय – सार तत्त्व तुम्हें बतलाया है।
यज्ञ करनेवालोंके लोक दूसरे हैं, तपस्वियोंके लोक दूसरे हैं तथा इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह करनेवाले लोगोंके लोक दूसरे ही हैं। वे सभी परम सम्मानित हैं। क्षमा करनेवालेपर एक ही दोष लागू होता है, दूसरा नहीं; वह यह कि क्षमाशील पुरुषको लोग शक्तिहीन मान बैठते हैं। किन्तु इसे दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि बुद्धिमानोंका बल क्षमा ही है जो शान्ति अथवा क्षमाको नहीं जानता, वह इष्ट (यज्ञ आदि) और पूर्त (तालाब आदि खुदवाना) दोनोंके फलोंसे वंचित हो जाता है। क्रोधी मनुष्य जो जप, होम और पूजन करता है, वह सब फूटे हुए पड़ेसे जलकी भाँति नष्ट हो जाता है। जो पुरुष प्रातः काल उठकर प्रतिदिन इस पुण्यमय दमाध्यायका पाठ करता है, वह धर्मकी नौकापर आरूढ़ होकर सारी कठिनाइयोंको पार कर जाता है जो दिनसदा ही इस पुण्यप्रद दमाध्यायको दूसरोंको सुनाता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है तथा वहाँसे कभी नहीं गिरता धर्मका सार सुनो और सुनकर उसे धारण करो-जो बात अपनेको प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरोंके लिये भी काममें न लाये जो परायी स्त्रीको माताके समान, पराये धनको मिट्टीके ढेलेके समान और सम्पूर्ण भूतोंको अपने आत्माके समान जानता है, वही ज्ञानी है। जिसकी रसोई बलिवैश्वदेवके लिये और जीवन परोपकारके लिये है, यही विद्वान है। जैसे धातुओंमें सुवर्ण उत्तम है, वैसे ही परोपकार सबसे श्रेष्ठ धर्म है, वही सर्वस्व है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका ध्यान रखनेवाला पुरुष अमृतत्व प्राप्त करता है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार ऋषियोंने शुनःसखके सामने धर्मके सार तत्त्वका प्रतिपादन करके उसके साथ वहाँसे दूसरे वनमें प्रवेश किया। वहाँ भी उन्हें एक बहुत विस्तृत जलाशय दिखायी दिया, जो पद्म और उत्पलोंसे आच्छादित था। उस सरोवरमें उतरकर उन्होंने मृणाल उखाड़े और उन्हें ढेर के ढेर किनारे पर रखकर जलसे सम्पन्न होनेवाली पुण्यक्रिया सन्ध्या- तर्पण आदि करने लगे। तत्पश्चात् जब वे जलसे बाहर निकले तो उन मृणालोंको न देखकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे।
ऋषि बोले- हम सब लोग क्षुधासे कष्ट पा रहे हैं—ऐसी दशामें किस पापी और कूरने मृणालोको चुरा लिया ?
जब इस तरह कुछ पता न लगा तब सबसे पहले कश्यपजी बोले- जिसने मृणालको चोरी की हो, उसे सर्वत्र सब कुछ चुरानेवर, थाती रखी हुई वस्तुपर जी ललचानेका और झूठी गवाही देनेका पाप लगे। वह दम्भपूर्वक धर्मका आचरण और राजाका सेवन करने, मद्य और मांसका सेवन करने, सदा झूठ बोलने, सूदसे जीविका चलाने और रुपया लेकर लड़की बेचनेके पापका भागी हो ।
वसिष्ठजीने कहा- जिसने उन मृणालोकोचुराया हो, उसे ऋतुकालके बिना ही मैथुन करने दिनमें सोने, एक-दूसरे के यहाँ जाकर अतिथि बनने, जिस गाँवमें एक ही कुआँ हो यहाँ निवास करने, ब्राह्मण होकर शूद्रजातिकी स्त्रीसे सम्बन्ध रखनेका पाप लगे और ऐसे लोगोंको जिन लोकोंमें जाना पड़ता है. वहीं वह भी जाय।
भरद्वाज बोले- जिसने मृणाल चुराये हों, वह सबके प्रति क्रूर, धनके अभिमानी, सबसे डाह रखनेवाले, चुगलखोर और रस [बेचनेवालेकी गति प्राप्त करे।
गौतमने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह सदा शूद्रका अन्न खानेवाले, परस्त्रीगामी और घरमें दूसरोंको न देकर अकेले मिष्टान्न भोजन करनेवालेके समान पापका भागी हो ।
विश्वामित्र बोले- जो मृणाल चुरा ले गया हो, वह सदा काम-परायण, दिनमें मैथुन करनेवाले, नित्य पातकी, परायी निन्दा करनेवाले और परस्त्रीगामीकी गति प्राप्त करे।
जमदग्निने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह दुर्बुद्धि मनुष्य अपने माता-पिताका अपमान करनेके, अपनी कन्याके दिये हुए धनसे अपनी जीविका चलानेके, सदा दूसरेकी रसोईमें भोजन करनेके, परस्त्रीसे सम्पर्क रखनेके और गौओकी बिक्री करनेके पापका भागी हो
पराशरजी बोले- जिसने मृणाल चुराये हो, वह दूसरोंका दास एवं जन्म-जन्म क्रोधी हो तथा सब प्रकारके धर्मकमोंसे हीन हो
शुनःसखने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह न्यायपूर्वक वेदाध्ययन करे, अतिथियोंमें प्रीति रखनेवाला गृहस्थ हो, सदा सत्य बोले, विधिवत् अग्निहोत्र करे, प्रतिदिन करे और अन्तर्गे ब्रह्मलोकको जाय।
ऋषियोंने कहा- शुनःसख । तुमने जो शपथ की है, वह तो को अभीष्ट ही है; अत: तुम्होंने हम सबके मृणालोको चोरी की है।
शुनःसख बोले- ब्राह्मणो मैंने ही आप लोगोंके मुँह धर्म सुननेको इच्छासे ये मुणाल छिपादिये थे। मुझे आप इन्द्र समझें। मुनिवरो! आपने लोभके परित्यागसे अक्षय लोकोंपर विजय पायी है। अतः इस विमानपर बैठिये, अब हमलोग स्वर्गलोकको चलें। तब महर्षियोंने इन्द्रको पहचानकर उनसे इस प्रकार कहा।
ऋषि बोले- देवराज ! जो मनुष्य यहाँ आकर मध्यम पुष्करमें स्नान करे और तीन राततक यहाँउपवासपूर्वक निवास करे, उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वनवासी महर्षियोंके लिये जो बारह वर्षोंकी यज्ञ – दीक्षा बतायी गयी है, उसका पूरा-पूरा फल उस मनुष्यको भी मिल जाता है। उसकी कभी दुर्गति नहीं होती। वह सदा अपने कुलवालोंके साथ आनन्दका अनुभव करता है तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीके एक दिनतक (कल्पभर) वहाँ निवास करता है।
अध्याय-19 नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! ज्येष्ठ पुष्करमें दो मध्यम पुष्करमें भूमि और कनिष्ठ पुष्करमें सुवर्ण देना चाहिये। यही वहाँके लिये दक्षिणा है। प्रथम करके देवता श्रीब्रह्माजी, दूसरेके भगवान् श्रीविष्णु तथा तीसरेके श्रीरुद्र हैं। इस प्रकार तीनों देवता वहाँ पृथक्-पृथक् स्थित हैं। अब मैं सब व्रतोंमें उत्तम महापातकनाशन नामक व्रतका वर्णन करता हूँ। यह भगवान् शंकरका बताया हुआ व्रत है। रात्रिको अन्न तैयार करके कुटुम्बवाले ब्राह्मणको बुलावे और उसे भोजन कराकर एक गौ, सुवर्णमय चक्रसे युक्त त्रिशूल तथा दो वस्त्र धोती और चद्दर दान करे। जो मनुष्य इस प्रकार पुण्य करता है, वह शिवलोकमें जाकर आनन्दका अनुभव करता है। यही महापातकनाशन व्रत है। जो एक दिन एकभक्तव्रती रहकर एक ही अन्नका भोजन कर दूसरे दिन तिलमयी धेनु और वृषभका दान करता है, वह भगवान् शंकरके पदको प्राप्त होता है। यह पाप और शोकोंका नाश करनेवाला ‘रुद्रव्रत’ है। जो एक वर्षतक एक दिनका अन्तर दे रात्रिमें भोजन करता है तथा वर्ष पूरा होनेपर नील कमल, सुवर्णमय कमल और चीनीसे भरा हुआ पात्र एवं बैल दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह ‘नीलव्रत’ कहलाता है। जो मनुष्य आषाढ़से लेकर चार महीनोंतक तेलकी मालिश छोड़ देता है और भोजनकी सामग्री दान करता है, वह भगवान् श्रीहरिके धाममें जाता है। यह मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाला होनेके कारण ‘प्रीतिव्रत’कहलाता है। जो चैत्रके महीनेमें दही, दूध, घी और गुड़का त्याग करता और गौरीकी प्रसन्नताके उद्देश्यसे ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें महीन वस्त्र और रससे भरे पात्र दान करता है, उसपर गौरीदेवी प्रसन्न होती हैं। यह ‘गौरीव्रत’ भवानीका लोक प्रदान करनेवाला है। जो आषाढ़ आदि चातुर्मास्यमें कोई भी फल नहीं खाता तथा चौमासा बीतनेपर घी और गुड़के साथ एक घड़ा एवं कार्तिककी पूर्णिमाको पुन: कुछ सुवर्ण ब्राह्मणको दान देता है, वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। यह ‘शिवव्रत’ कहलाता है।
जो मनुष्य हेमन्त और शिशिरमें पुष्पोंका सेवन छोड़ देता है तथा अपनी शक्तिके अनुसार सोनेके तीन फूल बनवाकर फाल्गुनकी पूर्णिमाको भगवान् श्रीशिव और श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये उनका दान करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह ‘सौम्यव्रत’ कहलाता है। जो फाल्गुनसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको नमक छोड़ देता है और वर्ष पूर्ण होनेपर भवानीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके उन्हें शय्या और आवश्यक सामग्रियोंसहित गृह दान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है। इसे ‘सौभाग्यव्रत’ कहते हैं। जो द्विज एक वर्षतक मौनभावसे सन्ध्या करता है और वर्षके अन्तमें घीका घड़ा, दो वस्त्र धोती और चद्दर, तिल और घण्टा ब्राह्मणको दान करता है, वह सारस्वतलोकको प्राप्त होता है, जहाँसे फिर इस संसारमें लौटना नहीं पड़ता।यह रूप और विद्या प्रदान करनेवाला ‘सारस्वत’ नामक व्रत है। प्रतिदिन गोबरका मण्डल बनाकर उसमें अक्षतोंद्वारा कमल बनाये। उसके ऊपर भगवान् श्रीशिव या श्रीविष्णुकी प्रतिमा रखकर उसे घीसे स्नान कराये; फिर विधिवत् पूजन करे। इस प्रकार जब एक वर्ष बीत जाय, तब साम-गान करनेवाले ब्राह्मणको शुद्ध सोनेका बना हुआ आठ अंगुलका कमल और तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह ‘सामव्रत’ कहा गया है।
नवमी तिथिको एकभुक्त रहकर एक ही अन्नका भोजन करके कुमारी कन्याओंको भक्तिपूर्वक भोजन कराये तथा गौ सुवर्ण, सिला हुआ अंगा, धोती, चहर तथा सोनेका सिंहासन ब्राह्मणको दान करे; इससे वह शिवलोकको जाता है। अरबों जन्मतक सुरूपवान् होता है। शत्रु उसे कभी परास्त नहीं कर पाते। यह मनुष्योंको सुख देनेवाला ‘वीरव्रत’ नामका व्रत है। चैत्रसे आरम्भ कर चार महीनोंतक प्रतिदिन लोगोंको बिना माँगे जल पिलाये और इस व्रतकी समाप्ति होनेपर अन्न-वस्त्रसहित जलसे भरा हुआ माट, तिलसे पूर्ण पात्र तथा सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है। यह उत्तम ‘आनन्दव्रत’ है। जो पुरुष मांसका बिलकुल परित्याग करके व्रतका आचरण करे और उसकी पूर्तिके निमित्त गौ तथा सोनेका मृग दान करे, वह अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। इसका नाम ‘अहिंसाव्रत’ है। एक कल्पतक इसका फल भोगकर अन्तमें मनुष्य राजा होता है। माघके महीने में सूर्योदयके पहले स्नान करके द्विज-दम्पतीका पूजन करे तथा उन्हें भोजन कराकर यथाशक्ति वस्त्र और आभूषण दान दे। यह ‘सूर्यव्रत’ है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष एक कल्पतक सूर्यलोकमें निवास करता है। आषाढ़ आदि चार महीनों में प्रतिदिन प्रातः स्नान करे और फिर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराकर गोदान दे तो वह मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। यह ‘विष्णुव्रत’ है जो एक अयनसे दूसरे अयनतक पुष्प और घृतका सेवन छोड़ देता है औरव्रतके अन्तमें फूलोंका हार, घी और मृतमिश्रित खीर ब्राह्मणको दान करता है, वह शिवलोकमें जाता है। इसका नाम ‘शीलव्रत’ है। जो [नियत कालतक] प्रतिदिन सन्ध्याके समय दीप दान करता है तथा घी और तेलका सेवन नहीं करता, फिर व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको दीपक चक्र, शूल, सोना, धोती और चद्दर दान करता है, वह इस संसारमें तेजस्वी होता है – तथा अन्तमें रुद्रलोकको जाता है। यह ‘दीप्तिव्रत’ है। जो कार्तिकसे आरम्भ करके प्रत्येक मासकी तृतीयाको रातके समय गोमूत्रमें पकायी हुई जौको लप्सी खाकर रहता है और वर्ष समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह एक कल्पतक गौरीलोकमें निवास करता है तथा उसके बाद इस लोकमें राजा होता है। इसका नाम ‘रुद्रव्रत’ है। यह सदा कल्याण करनेवाला है। जो चार महीनोंतक चन्दन लगाना छोड़ देता है तथा अन्तमें सीपी, चन्दन, अक्षत और दो श्वेत वस्त्र- धोती और चद्दर ब्राह्मणको दान करता है, वह वरुणलोकमें जाता है। यह ‘दृढव्रत’ कहलाता है।
सोनेका ब्रह्माण्ड बनाकर उसे तिलकी ढेरीमें रखे तथा ‘मैं अहंकाररूपी तिलका दान करनेवाला हैं’ ऐसी भावना करके घीसे अग्निको तथा दक्षिणासे ब्राह्मणको तृप्त करे फिर माला, वस्त्र तथा आभूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीका पूजन करके विश्वात्माकी तृप्तिके उद्देश्यसे किसी शुभ दिनको अपनी शक्तिके अनुसार तीन तोलेसे अधिक सोना तथा तिलसहित ब्रह्माण्ड ब्राह्मणको दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुनर्जन्मसे रहित ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। इसका नाम ‘ब्रह्मव्रत’ है। यह मनुष्योंको मोक्ष देनेवाला है। जो तीन दिन केवल दूध पोकर रहता है और अपनी शक्तिके अनुसार एक तोलेसे अधिक सोनेका कल्पवृक्ष बनवाकर उसे एक सेर चावलके साथ ब्राह्मणको दान करता है, वह भी ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। यह ‘कल्पवृक्षव्रत’ है जो एक महीनेतक उपवास करके ब्राह्मणको सुन्दर गौ दान करता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है इसका नाम ‘भीमव्रत’ है। जो बीस तोलेसे अधिक सोनेकीपृथ्वी बनवाकर दान करता है और दिनभर दूध पीकर जाता है, वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यह ‘धनप्रद’ नामक व्रत है। यह सात सौ कल्पांतक अपना फल देता रहता है। माथ अथवा चैत्रको गुड़की गौ बनाकर दान करे। इसका नाम ‘गुडव्रत’ है। इसका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष गौरलोकमे सम्मान पाता है।
अब परम आनन्द प्रदान करनेवाले महाव्रतका वर्णन करता हूँ। जो पंद्रह दिन उपवास करके ब्राह्मणको दो कपिला गौएँ दान करता है, वह देवता और असुरोंसे पूजित हो ब्रह्मलोकमें जाता है तथा कल्पके अन्तमें सबका सम्राट् होता है। इसका नाम ‘प्रभावत’ भी है जो एक वर्षतक केवल एक ही अन्नका भोजन करता है और भक्ष्य पदार्थोंके साथ जलका घड़ा दान करता है, वह कल्पपर्यन्त शिवलोकमें निवास करता है। इसे ‘प्राप्तिव्रत’ कहते हैं। जो प्रत्येक अष्टमीको रात्रिमें एक बार भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है। इसे ‘सुगतिव्रत’ कहते हैं जो वर्षा आदि चार ऋतुओं में ब्राह्मणको ईंधन देता है और अन्तमें भी तथा गौका दान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त होता है। यह सब पापोंका नाश करनेवाला ‘वैश्वानरव्रत’ है।
जो एक वर्षतक प्रतिदिन खीर खाकर रहता है और व्रत समाप्त होनेपर ब्राह्मणको एक गाय और एक बैल दान करता है, वह एक कल्पतक लक्ष्मीलोक में निवास करता है। इसका नाम ‘देवीव्रत’ है। जो प्रत्येक सप्तमीको एक बार रात्रिमें भोजन करता है और वर्ष समाप्त होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह ‘भानुव्रत’ है। जो प्रत्येक चतुर्थीको एक बार रात्रिमें भोजन करता और वर्षके अन्तमें सोनेका हाथी दान करता है, उसे शिवलोककी प्राप्ति होती है। यह ‘वैनायकव्रत’ है। जो चौमासेभर बड़े-बड़े फलोंका परित्याग करके कार्तिकमें सोनेके फलका दान करता हवन कराकर उसके अन्तमें ब्राह्मणको गाय-बैल देता है, उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। यह ‘सौरव्रत’ है। जो बारह द्वादशियोंको उपवासकरके अपनी शक्तिके अनुसार गौ, वस्त्र और सुवर्णके द्वारा ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। यह ‘विष्णुव्रत’ है जो प्रत्येक चतुर्दशीको एक बार रातमें भोजन करता और वर्षकी समाप्ति होनेपर एक गाय और एक बैल दान करता है, उसे रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। इसे ‘त्र्यम्बकव्रत’ कहते हैं। जो सात रात उपवास करके ब्राह्मणको घीसे भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। इसका नाम ‘वरव्रत’ है। जो काशी जाकर दूध देनेवाली गौका दान करता है, वह एक कल्पतक इन्द्रलोकमें निवास करता है। यह ‘मित्रव्रत’ है जो एक वर्षतक ताम्बूलका सेवन छोड़कर अन्तमें गोदान करता है, वह वरुणलोकको जाता है। इसका नाम ‘वारुणव्रत’ है। जो चान्द्रायणव्रत करके सोनेका चन्द्रमा बनवाकर दान देता है, उसे चन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। यह ‘चन्द्रव्रत’ कहलाता है। जो ज्येष्ठ मासमें पंचाग्नि तपकर अन्तमें अष्टमी या चतुर्दशीको सोनेकी गौका दान करता है, वह स्वर्गको जाता है। यह ‘रुद्रव्रत’ कहलाता है। जो प्रत्येक तृतीयाको शिवमन्दिरमें जाकर एक बार हाथ जोड़ता हैं और वर्ष पूर्ण होनेपर दूध देनेवाली गौ दान करता है, उसे देवीलोककी प्राप्ति होती है। इसका नाम ‘भवानीव्रत’ है।
जो माघभर गीला वस्त्र पहनता और सप्तमीको गोदान करता है, वह कल्पपर्यन्त स्वर्गमें निवास करके अन्तमें इस पृथ्वीपर राजा होता है। इसे ‘तापकव्रत’ कहते हैं। जो तीन रात उपवास करके फाल्गुनकी पूर्णिमाको घरका दान करता है, उसे आदित्यलोककी प्राप्ति होती है। यह ‘धामव्रत’ है। जो व्रत रहकर तीनों सन्ध्याओंमें- प्रातः, मध्याहन एवं सायंकालमें भूषणोंद्वारा ब्राह्मण-दम्पतीकी पूजा करता है, उसे मोक्ष मिलता है। यह ‘मोक्षव्रत’ है। जो शुक्लपक्षकी द्वितीयाके दिन ब्राह्मणको नमकसे भरा हुआ पात्र, वस्त्रसे ढका हुआ काँसेका बर्तन तथा दक्षिणा देता है और व्रत समाप्त होनेपर गोदान करता है, वह भगवान् श्रीशिवके लोकमें जाता है तथा एक कल्पके बाद राजाओंका भी राजा होता है। इसका नाम ‘सोमव्रत’ है। जो हर प्रतिपदाकोएक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर कमलका दान करता है, वह वैश्वानरलोकमें जाता है। इसे ‘अग्निव्रत’ कहते हैं जो प्रत्येक दशमीको एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माण्डका स्वामी होता है। इसका नाम ‘विश्वव्रत’ है। यह बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। जो स्वयं कन्यादान करता तथा दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्यादानसे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। विशेषतः पुष्करमें और वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाको, जो कन्या दान करेंगे, उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा। जो मनुष्य जलमें खड़े होकर तिलकी पीठीके बने हुए हाथीको रत्नोंसे विभूषित करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम व्रतोंका वर्णन पढ़ता और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी होता है।
स्नानके बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी शुद्धिके लिये सबसे पहले स्नानका विधान है। घरमें रखे हुए अथवा तुरंतके निकाले हुए जलसे स्नान करना चाहिये। [किसी जलाशय या नदीका स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है। ] मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी कल्पना कर लेनी चाहिये। ‘ॐ नमो नारायणाय’ – यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमें कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नांकित वाक्योंद्वारा भगवती गंगाका आवाहन करे-गंगे! तुम भगवान् श्रीविष्णु के चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु हीतुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि! तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा करो! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता जाह्नवी! वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोकप्रसादिनी, जाह्नवी, शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम हैं। * जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गंगा उपस्थित हो जाती हैं। क्षेमा,
सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले । तीन, चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अंगोंमें लगाये। अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार है
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे
मृत्तिके हर मे पापं यन्मया दुष्कृतं कृतम् ॥
उद्घृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना ।
नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥
(20 । 155, 157)
‘वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक पैरसे नापा था मृत्तिके! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन सब पापोंको तुम हर लो। देवि! भगवान् श्रीविष्णुने सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो । सुव्रते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है।’इस प्रकार मृत्तिका लगाकर पुनः स्नान करे। फिर विधिवत् आचमन करके उठे और शुद्ध सफेद धोती एवं चद्दर धारण कर त्रिलोकीको तृप्त करनेके लिये वर्पण करे। सबसे पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और प्रजापतिका तर्पण करे। तत्पश्चात् देवता, यक्ष, नाग, गन्धर्व, श्रेष्ठ अप्सराएँ, क्रूर सर्प, गरुड़ पक्षी, वृक्ष, जम्भक आदि असुर, विद्याधर, मेघ, आकाशचारी जीव, निराधार जीव, पापी जीव तथा धर्मपरायण जीवोंको तृप्त करनेके लिये मैं जल देता हूँ-यह कहकर उन सबको जलांजलि दे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर डाले रहे. तत्पश्चात् उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और मनुष्यों, ऋषियों तथा ऋषिपुत्रों का भक्तिपूर्वक तर्पण करे। सनक, सनन्दन, सनातन, कपिल, आसुरि, वोढु और पंचशिखये सभी मेरे दिये जलसे सदा तृप्त हो।’ ऐसी भावना करके जल दे। इसी प्रकार मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता वसिष्ठ, भृगु, नारद तथा सम्पूर्ण देवर्षियों एवं ब्रह्मर्षियोंका अक्षतसहित जलके द्वारा तर्पण करे। इसके बाद यज्ञोपवीतको दायें कंधेपर करके बायें घुटनेको पृथ्वीपर टेककर बैठे; फिर अग्निष्वात्त, सौम्य हविष्मान्, ऊष्मप, सुकाली, बर्हिषद् तथा आज्यप नामके पितरोंका तिल और चन्दनयुक्त जलसे भक्तिपूर्वक तर्पण करे। इसी प्रकार हाथोंमें कुश लेकर पवित्रभावसे परलोकवासी पिता, पितामह आदि और मातामह आदिका, नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए तर्पण करे। इस क्रमसे विधि और भक्तिके साथ सबका तर्पण करके निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे
ये बान्धवा बान्धवा ये येऽन्यजन्मनि बान्धवाः ॥
ते तृप्तिमखिला यान्तु येऽप्यस्मत्तोयकांक्षिणः ।
(20169-170)
‘जो लोग मेरे बान्धव न हों, जो मेरे बान्धव हों तथा जो दूसरे किसी जन्ममें मेरे बान्धव रहे हों, वे सब मेरे दिये हुए जलसे तृप्त हों। उनके सिवा और भी जो कोई प्राणी मुझसे जलकी अभिलाषा रखते हों, वे भी तृप्ति लाभ करें।’ [ऐसा कहकर उनके उद्देश्यसे जल गिराये।]तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके अपने आगे पुष्प और अक्षतोंसे कमलकी आकृति बनाये। फिर यत्नपूर्वक सूर्यदेवके नामोंका उच्चारण करते हुए अक्षत, पुष्प और रक्तचन्दनमिश्रित जलसे अर्घ्य दे । अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है-
नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे
सहस्त्ररश्मये नित्यं नमस्ते सर्वतेजसे ॥
नमस्ते रुद्रवपुषे नमस्ते भक्तवत्सल ।
पद्मनाभ नमस्तेऽस्तु कुण्डलांगदभूषित ॥
नमस्ते सर्वलोकेषु सुप्तांस्तान् प्रतिबुध्यसे ।
सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्वं पश्यसि सर्वदा ॥
सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीद ममभास्कर ।
दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तु ते॥
(20 । 172 – 175)
‘भगवान् सूर्य ! आप विश्वरूप और ब्रह्मस्वरूप हैं, इन दोनों रूपोंमें आपको नमस्कार है। आप सहस्त्रों किरणोंसे सुशोभित और सबके तेजरूप हैं, आपको सदा नमस्कार है। भक्तवत्सल ! रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको बारम्बार नमस्कार है। कुण्डल और अंगद आदि आभूषणोंसे विभूषित पद्मनाभ ! आपको नमस्कार है। भगवन्! आप सम्पूर्ण लोकोंके सोये हुए जीवोंको जगाते हैं, आपको मेरा प्रणाम है। आप सदा सबके पाप-पुण्यको देखा करते हैं। सत्यदेव आपको नमस्कार है। भास्कर ! मुझपर प्रसन्न होइये। दिवाकर! आपको नमस्कार है। प्रभाकर! आपको नमस्कार है।’
इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके तीन बार उनकी प्रदक्षिणा करे फिर दिन गौ और सुवर्णका स्पर्श करके अपने घरमें जाय और वहाँ भगवान्की पावन प्रतिमाका पूजन करे। [तदनन्तर भगवान्को भोग लगाकर बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात् ] पहले ब्राह्मणोंको भोजन करा पीछे स्वयं भोजन करे। इस विधिसे नित्य कर्म करके समस्त ऋषियोंने सिद्धि प्राप्त की है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! पूर्वकालकी बात है— बृहत् नामक कल्पमें धर्ममूर्ति नामके एक राजा थे, जिनकी इन्द्रके साथ मित्रता थी। उन्होंने सहस्रों दैत्योंका वध किया था। सूर्य और चन्द्रमा भी उनके तेजके सामने प्रभाहीन जान पड़ते थे। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओंको परास्त किया था। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे मनुष्योंसे उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी। उनकी पत्नीका नाम था भानुमती वह त्रिभुवनमें सबसे सुन्दरी थी। उसने लक्ष्मीकी भाँति अपने रूपसे देवसुन्दरियों को भी मात कर दिया था। भानुमती ही राजाको पटरानी भी वे उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे। एक दिन राजसभायें बैठे हुए महाराज धर्ममूर्ति विस्मय-विमुग्ध हो अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम करके पूछा- ‘भगवन्! किस धर्मके प्रभावसे मुझे सर्वोत्तम लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है? मेरे शरीरमें जो सदा उत्तम और विपुल तेज भरा रहता है-इसका क्या कारण है?’
वसिष्ठजीने कहा- राजन्! प्राचीन कालमें एक लीलावती नामकी वेश्या थी, जो सदा भगवान् शंकरके भजनमें तत्पर रहती थी। एक बार उसने पुष्करमें चतुर्दशीको नमकका पहाड़ बनाकर सोनेकी बनी देवप्रतिमाके साथ विधिपूर्वक दान किया था। शुद्ध नामका एक सुनार था, जो लीलावतीके घरमें नौकरका काम करता था। उसीने बड़ी श्रद्धाके साथ मुख्य-मुख्य देवताओंकी सुवर्णमयी प्रतिमाएँ बनायी थीं, जो देखने मेंअत्यन्त सुन्दर तथा शोभासम्पन्न थीं। धर्मका काम समझकर उसने उन प्रतिमाओंके बनानेकी मजदूरी नहीं ली थी। उस नमक के पर्वतपर जो सोनेके वृक्ष लगाये गये थे, उन्हें उस सुनारकी स्त्रीने तपाकर देदीप्यमान बना दिया था। [सुनारकी पत्नी भी लीलावतीके घर परिचारिकाका काम करती थी।] उन्हीं दोनोंने ब्राह्मणोंकी सेवासे लेकर सारा कार्य सम्पन्न किया था। तदनन्तर दीर्घ कालके पश्चात् लीलावती वेश्या सब पापोंसे मुक्त होकर शिवजीके धामको चली गयी तथा वह सुनार, जो दरिद्र होनेपर भी अत्यन्त सात्त्विक था और जिसने वेश्यासे मजदूरी नहीं ली थी, आप ही हैं। उसी पुण्यके प्रभावसे आप सातों द्वीपोंके स्वामी तथा हजारों सूर्योके समान तेजस्वी हुए हैं। सुनारकी ही भाँति उसकी पत्नीने भी सोनेके वृक्षों और देवमूर्तियोंको कान्तिमान् बनाया था, इसलिये वही आपकी महारानी भानुमती हुई है। प्रतिमाओंको जगमग बनानेके कारण महारानीका रूप अत्यन्त सुन्दर हुआ है और उसी पुण्यके प्रभावसे आप मनुष्यलोकमें अपराजित हुए हैं तथा आपको आरोग्य और सौभाग्यसे युक्त राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है; इसलिये आप भी विधिपूर्वक धान्य पर्वत आदि दस प्रकारके पर्वत बनाकर उनका दान कीजिये।
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजा धर्ममूर्तिने ‘बहुत ‘अच्छा’ कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और अनाज आदिके पर्वत बनाकर उन सबका विधिपूर्वक दान किया। तत्पश्चात् वे देवताओंसे पूजित होकर महादेवजीके परम धामको चले गये। जो मनुष्य इस प्रसंगका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह भी पापरहित हो स्वर्गलोक में जाता है। राजन्! अन्नादि पर्वतोंके दानका पाठमात्र करनेसे दुःस्वप्नोंका नाश हो जाता है; फिर जो इस पुष्कर क्षेत्रमें शान्तचित्त होकर सब प्रकारके पर्वतोंका स्वयं दान करता है, उसको मिलनेवाले फलका क्या वर्णन हो सकता है।
अध्याय-20 भीमद्वादशी व्रतका विधान
भीष्मजीने कहा- विप्रवर! भगवान् शंकरने जिन वैष्णव धर्मोंका उपदेश किया है, उनका मुझसे वर्णन कीजिये। वे कैसे हैं और उनका फल क्या है?
पुलस्त्यजी बोले- राजन् ! प्राचीन रथन्तर कल्पकी बात है, पिनाकधारी भगवान् शंकर मन्दराचलपर विराजमान थे। उस समय महात्मा ब्रह्माजीने स्वयं ही उनके पास जाकर पूछा—’परमेश्वर! थोड़ी-सी तपस्यासे मोक्षको प्राप्ति कैसे हो सकती है?” ब्रह्माजी केइस प्रकार प्रश्न करनेपर जगत्की उत्पत्ति एवं वृद्धि करनेवाले विश्वात्मा उमानाथ शिव मनको प्रिय लगनेवाले वचन बोले।
महादेवजीने कहा – एक समय द्वारकाकी सभा में भगवान् श्रीकृष्ण वृष्णिवंशी पुरुषों, विद्वानों कौरवों और देव गन्धर्वोके साथ बैठे हुए थे। धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली पौराणिक कथाएँ हो रही थीं। इसी समय भीमसेनने भगवान् से परमपदकी प्राप्तिके उपाय पूछा । उनका प्रश्न सुनकर भगवान् श्रीवासुदेवने कहा-‘भीम! मैं तुम्हें एक पापविनाशिनी तिथिकापरिचय देता हूँ उस दिन निम्नांकित विधिसे उपवास करके तुम श्रीविष्णुके परम धामको प्राप्त करो। जिस दिन माघ मासकी दशमी तिथि आये, उस दिन समस्त शरीरमें घी लगाकर तिलमिश्रित जलसे स्नान करे तथा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्रसे भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे। ‘कृष्णाय नमः’ कहकर दोनों चरणोंकी और ‘सर्वात्मने नमः’ कहकर मस्तककी पूजा करे। ‘वैकुण्ठाय नमः’ इस मन्त्रसे कण्ठकी और ‘श्रीवत्सधारिणे नमः इससे हृदयकी अर्चा करे। फिर ‘शङ्खिने नमः’, ‘चक्रिणे नमः’, ‘गदिने नमः’, ‘वरदाय नमः’ तथा ‘सर्वं नारायणः’ (सब कुछ नारायण ही हैं) – ऐसा कहकर आवाहन आदिके क्रमसे भगवान्को पूजा करे। इसके बाद ‘दामोदराय नमः’ कहकर उदरका, ‘पञ्चजनाय नमः ‘ इस मन्त्रसे कमरका, ‘सौभाग्यनाथाय नम:’ इससे दोनों जाँघोंका, ‘भूतधारिणे नमः’ से दोनों घुटनोंका, ‘नीलाय नमः’ इस मन्त्रसे पिण्डलियों (घुटनेसे नीचेके भाग) का और ‘विश्वसृजे नमः’ इससे पुनः दोनों चरणोंका पूजन करे। तत्पश्चात् ‘देव्यै नमः’, ‘शान्त्यै नमः,’ ‘लक्ष्म्यै नमः’, ‘श्रियै नमः’, ‘तुष्ट्यै नमः’, ‘पुष्ट्यै नमः’, ‘व्युष्ट्यै नमः’ – इन मन्त्रोंसे भगवती लक्ष्मीकी पूजा करे इसके बाद ‘वायुवेगाय नमः’, ‘पक्षिणे नमः,’ ‘विषप्रमथनाथ नमः’, ‘विहङ्गनाथाय नमः ‘ – इन मन्त्रोंके द्वारा गरुड़की पूजा करनी चाहिये।
इसी प्रकार गन्ध, पुष्प, धूप तथा नाना प्रकारके पकवानों द्वारा श्रीकृष्णकी, महादेवजीकी तथा गणेशजीकी भी पूजा करे। फिर गौके दूधकी बनी हुई खीर लेकर घीके साथ मौनपूर्वक भोजन करे। भोजनके अनन्तर विद्वान् पुरुष सौ पग चलकर बरगद अथवा खैरेकी दातुन ले उसके द्वारा दाँतोंको साफ करे; फिर मुँह धोकर आचमन करे। सूर्यास्त होनेके बाद उत्तराभिमुख बैठकर सायंकालकी सन्ध्या करे। उसके अन्तमें यह कहे भगवान् श्रीनारायणको नमस्कार है। भगवन्।मैं आपकी शरण में आया हूँ।” [ इस प्रकार प्रार्थना करके रात्रिमें शयन करे ।]
दूसरे दिन एकादशीको निराहार रहकर भगवान् केशवकी पूजा करे और रातभर बैठा रहकर शेषशायी भगवान्की आराधना करे। फिर अग्निमें घीकी आहुति देकर प्रार्थना करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष ! मैं द्वादशीको श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके साथ ही खीरका भोजन करूँगा। मेरा यह व्रत निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण हो।’ यह कहकर इतिहास-पुराणकी कथा सुननेके पश्चात् शयन करे। सबेरा होनेपर नदीमें जाकर प्रसन्नतापूर्वक स्नान करे। पाखण्डियोंके संसर्ग दूर रहे विधिपूर्वक स्नान करके पितरोंका तर्पण करे। फिर शेषशायी भगवान्को प्रणाम करके घरके सामने भक्तिपूर्वक एक मण्डपका निर्माण कराये। उसके भीतर चार हाथकी सुन्दर वेदी बनवाये। वेदीके ऊपर दस हाथका तोरण लगाये। फिर सुदृढ़ खंभोंके आधारपर एक कलश रखे, उसमें नीचे की ओर उड़दके दानेके बराबर छेद कर दे। तदनन्तर उसे जलसे भरे और स्वयं उसके नीचे काला मृगचर्म बिछाकर बैठ जाय। कलशसे गिरती हुई धाराको सारी रात अपने मस्तकपर धारण करे। वेदवेत्ता ब्राह्मणोंने धाराओंकी अधिकता के अनुपातसे फलमें भी अधिकता बतलायी है; इसलिये व्रत करनेवाले द्विजको चाहिये कि प्रयत्नपूर्वक उसे धारण करे दक्षिण दिशाकी ओर अर्धचन्द्र के समान पश्चिमको ओर गोल तथा उत्तरकी ओर पीपलके पत्तेकी आकृतिका मण्डल बनवाये। वैष्णव द्विजको मध्यमें कमलके आकारका मण्डल बनवाना चाहिये। पूर्वकी ओर जो वेदीका स्थान है, उसके दक्षिण ओर भी एक दूसरी वेदी बनवाये भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर हो पूर्वोक्त जलकी धाराको बराबर मस्तकपर धारण करता रहे। दूसरी वेदी भगवान्की स्थापनाके लिये हो। उसके ऊपर कर्णिकासहित कमलकी आकृति बनाये और उसके मध्यभागमें भगवान् पुरुषोत्तमको विराजमान करे उनके निमित्त एक कुण्ड बनवाये, जो हाथभर लम्बा, उतना ही चौड़ा और उतना ही गहरा हो उसके ऊपरी किनारेपर तीन मेखलाएँ बनवाये। उसमें यथास्थान योनि और मुखके चिह्न बनवाये। तदनन्तर ब्राह्मण [ कुण्डमें अग्नि प्रज्वलित करके] जौ, घी और तिलोंका श्रीविष्णु सम्बन्धी मन्त्रद्वारा हवन करे। इस प्रकार वहाँ विधि पूर्वक वैष्णवयागका सम्पादन करे। फिर कुण्ड मध्यमें यत्नपूर्वक घीकी धारा गिराये, देवाधिदेव भगवान्के श्रीविग्रहपर दूधकी धारा छोड़े तथा अपने मस्तकपर पूर्वोक्त जलधाराको धारण करे। घीकी धारा मटरकी दालके बराबर मोटी होनी चाहिये। परन्तु दूध और जलकी धाराको अपनी इच्छाके अनुसार मोटी या पतली किया जा सकता है। ये धाराएँ रातभर अविच्छिन्न रूपसे गिरती रहनी चाहिये। फिर जलसे भरे हुए तेरह कलशोंकी स्थापना करे। वे नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थोंसे युक्त और श्वेत वस्त्रोंसे अलंकृत होने चाहिये। उनके साथ चंदोवा, उदुम्बर- पात्र तथा पंचरत्नका होना भी आवश्यक है। वहाँ चार ऋग्वेदी ब्राह्मण उत्तरकी ओर मुख करके हवन करें, चार यजुर्वेदी विप्र रुद्राध्यायका पाठ करें तथा चार सामवेदी ब्राह्मण वैष्णव सामका गायन करते रहें। उपर्युक्त चारों ब्राह्मणोंको वस्त्र, पुष्प, चन्दन, अंगूठी, कड़े, सोनेकी जंजीर, वस्त्र तथा शय्या आदि देकर उनका पूर्ण सत्कार करे। इस कार्यमें धनकी कृपणता न करे।
इस प्रकार गीत और मांगलिक शब्दोंके साथ रात्रि व्यतीत करे। उपाध्याय (आचार्य या पुरोहित) – को सब वस्तुएँ अन्य ब्राह्मणोंको अपेक्षा दूनी मात्रमें अर्पण करे। रात्रिके बाद जब निर्मल प्रभातका उदय हो, तब शयनसे उठकर [नित्यकर्मके पश्चात्] तेरह गौएँ दान करनी चाहिये। उनके साथकी समस्त सामग्री सोनेकी होनी चाहिये। वे सब की सब दूध देनेवाली और सुशीला हो। उनके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मँढ़े हुए हों तथा उन सबको वस्त्र ओढाकर चन्दनसे विभूषित किया गया हो। गौओंके साथ काँसीका दोहनपात्र भी होनाचाहिये। गोदानके पश्चात् ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक भक्ष्य भोज्य पदार्थोंसे तृप्त करके नाना प्रकारके वस्त्र दान करे। फिर स्वयं भी क्षार लवणसे रहित अन्नका भोजन करके ब्राह्मणोंको विदा करे। पुत्र और स्त्रीके साथ आठ पगतक उनके पीछे-पीछे जाय और इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘हमारे इस कार्यसे देवताओंके स्वामी भगवान् श्रीविष्णु, जो सबका क्लेश दूर करनेवाले हैं, प्रसन्न हों। श्रीशिवके हृदयमें श्रीविष्णु हैं और श्रीविष्णुके हृदयमें श्रीशिव विराजमान हैं। मैं इन दोनोंमें अन्तर नहीं देखता – इस धारणासे मेरा कल्याण हो।* यह कहकर उन कलशों, गौओं, शय्याओं तथा वस्त्रोंको सब ब्राह्मणोंके घर पहुँचवा दे। अधिक शय्याएँ सुलभ न हों तो गृहस्थ पुरुष एक ही शय्याको सब सामानोंसे सुसज्जित करके दान करे। भीमसेन! वह दिन इतिहास और पुराणोंके श्रवणमें ही बिताना चाहिये। अत: तुम भी सत्त्वगुणका आश्रय ले मात्सर्यका त्याग करके इस व्रतका अनुष्ठान करो। यह बहुत गुप्त व्रत है, किन्तु स्नेहवश मैंने तुम्हें बता दिया है। वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग ‘भीमद्वादशी’ कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको हरनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको ‘कल्याणिनी’ व्रत कहा जाता था इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे देवराज इन्द्रका सारा पाप नष्ट हो गया था। इसीके अनुष्ठानसे मेरी प्रिया सत्यभामाने मुझे पतिरूपमें प्राप्त किया। इस कल्याणमयी तिथिको सूर्यदेवने सहस्रों धाराओंसे स्नान किया था, जिससे उन्हें तेजोमय शरीरकी प्राप्ति हुई । इन्द्रादि देवताओं तथा करोड़ों दैत्योंने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया है। यदि एक मुखमें दस हजार करोड़ (एक खरब) जिह्वाएँ हाँ तो भी इसके फलका पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता।
महादेवजी कहते हैं— ब्रह्मन् ! कलियुगके पापको नष्ट करनेवाली एवं अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस कल्याणमयी तिथिकी महिमाका वर्णन यादवराजकुमार भगवान् श्रीकृष्ण अपने श्रीमुखसे करेंगे। जो इसके व्रतका अनुष्ठान करता हैं, उसके नरकमें पड़े हुए पितरोंका भी यह उद्धार करनेमें समर्थ है। जो अत्यन्त भक्तिके साथ इस कथाको सुनता तथा दूसरोंके उपकारके लिये पढ़ता है, वह भगवान् श्रीविष्णुका भक्त और इन्द्रका भी पूज्य होता है। पूर्व कल्पमें जो माघ मासकी द्वादशी परम पूजनीय कल्याणिनी तिथिके नामसे प्रसिद्ध थी, वही पाण्डुनन्दन भीमसेनके व्रत करनेपर अनन्त पुण्यदायिनी भीमद्वादशी’ के नामसे प्रसिद्ध होगी।
अध्याय-21 आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! जो अभ्यास न होनेके कारण अथवा रोगवश उपवास करनेमें असमर्थ है, किन्तु उसका फल चाहता है, उसके लिये कौन-सा व्रत उत्तम है- यह बताइये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जो लोग उपवास करनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये वहीं व्रत अभीष्ट हैं,जिसमें दिनभर उपवास करके रात्रिमें भोजनका विधान हो; मैं ऐसे महान् व्रतका परिचय देता हूँ, सुनो। उस व्रतका नाम है- आदित्य-शयन। उसमें विधिपूर्वक भगवान् शंकरकी पूजा की जाती है। पुराणोंके ज्ञाता महर्षि जिन नक्षत्रोंके योगमें इस व्रतका उपदेश करते हैं, उन्हें बताता हूँ। जब सप्तमी तिथिको हस्त नक्षत्रके साथ रविवार हो अथवा सूर्यकी संक्रान्ति हो, वह तिथि समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली होती है उस दिन सूर्यके नामोंसे भगवती पार्वती और महादेवजीकी पूजा करनी चाहिये। सूर्यदेवकी प्रतिमा तथा शिवलिंगका भी भक्तिपूर्वक पूजन करना उचित है। हस्त नक्षत्रमें ‘सूर्याय नमः’ का उच्चारण करके सूर्यदेवके चरणोंकी, चित्रा नक्षत्रमें ‘अर्काय नमः’ कहकर उनके गुल्फों (घुट्टियों) की स्वाती नक्षत्रमें ‘पुरुषोत्तमाय नमः’ से पिण्डलियोंकी, विशाखायें ‘धात्रे नमः’ से घुटनोंकी तथा अनुराधामें ‘सहस्वभानवे नमः’ से दोनों जाँघोंकी पूजा करनी चाहिये। ज्येष्ठा नक्षत्रमें ‘अनङ्गाय नमः’ से गुह्य प्रदेशकी मूलमें ‘इन्द्राय नमः’ और ‘भीमाय नमः’ से कटिभागकी, पूर्वाषाढा और उत्तराषाढामें ‘त्वष्ट्रे नमः’ और ‘सप्ततुरङ्गमाय नमः’ से नाभिकी, श्रवणमें ‘तीक्ष्णांशवे नमः’ से उदरकी, धनिष्ठामें ‘विकर्तनाय नमः’ से दोनों बगलोंकी और शतभिषा नक्षत्रमें ‘ध्वान्तविनाशनाय नमः’ से सूर्यके वक्षःस्थलकी पूजा करनी चाहिये। पूर्वा और उत्तराभाद्रपदामें ‘चण्डकराय नमः’ से दोनों भुजाओंका, रेवतीमें ‘साम्नामधीशाय नमः ‘ से दोनों हाथोंका, अश्विनीमें ‘सप्ताश्वधुरन्धराय नमः’ से नखोंका और भरणीमें ‘दिवाकराय नमः’ से भगवान् सूर्यके कण्ठका पूजन करे। कृत्तिकामें ग्रीवाकी, रोहिणी में ओठोंकी, मृगशिरामें जिह्वाकी तथा आर्द्रा ‘हरये नमः’ से सूर्यदेवके दाँतोंकी अर्चना करे। पुनर्वसुमें ‘सवित्रे नमः’ से शंकरजीकी नासिकाका, पुष्यमें ‘अम्भोरुहवल्लभाय नमः’ से ललाटका ‘वेदशरीरधारिणे नमः’ से बालोंका, आश्लेषामें ‘विबुधप्रियाय नमः’ से मस्तकका, मघामें दोनों कानोंका, पूर्वाफाल्गुनी में ‘गोब्राह्मणनन्दनाय नमः’ से शम्भुके सम्पूर्ण अंगोंका तथा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें ‘विश्वेश्वराय नमः’ से उनकी दोनों भौंहोंका पूजन करें। ‘पाश, अंकुश, कमल, त्रिशूल, कपाल, सर्प, चन्द्रमा तथा धनुष धारणकरनेवाले श्रीमहादेवजीको नमस्कार है। ‘2 ‘गयासुर कामदेव, त्रिपुर और अन्धकासुर आदिके विनाशके मूल कारण भगवान् श्रीशिवको प्रणाम है। ‘2 इत्यादि वाक्योंका उच्चारण करके प्रत्येक अंगकी पूजा करनेके पश्चात् ‘विश्वेश्वराय नमः’ से भगवान्के मस्तकका पूजन करना चाहिये। तदनन्तर अन्न भोजन करना उचित है। भोजनमें तेल और खारे नमकका सम्पर्क नहीं रहना चाहिये। मांस और उच्छिष्ट अन्नका तो कदापि सेवन न करे।
राजन् ! इस प्रकार रात्रिमें शुद्ध भोजन करके पुनर्वसु नक्षत्रमें दान करना चाहिये। किसी बर्तनमें एक सेर अगहनीका चावल, गूलरकी लकड़ीका पात्र तथा मृत रखकर सुवर्णके साथ उसे ब्राह्मणको दान करे। सातवें दिन के पारणमें और दिनोंकी अपेक्षा एक जोड़ा वस्त्र अधिक दान करना चाहिये। चौदहवें दिनके पारणमें गुड़, खीर और घृत आदिके द्वारा ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक भोजन कराये। तदनन्तर कर्णिकासहित सोनेका अष्टदल कमल बनवाये, जो आठ अंगुलका हो तथा जिसमें पद्मरागमणि (नीलम) की पत्तियाँ अंकित की गयी हों फिर सुन्दर शय्या तैयार करावे, जिसपर सुन्दर बिछौने बिछाकर तकिया रखा गया हो और ऊपरसे चैदोवा तना हो । शय्याके ऊपर पंखा रखा गया हो। उसके आस-पास खड़ाऊँ, जूता, छत्र, चँवर, आसन और दर्पण रखे गये हों। फल, वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणोंसे वह शय्या सुशोभित होनी चाहिये। ऊपर बताये हुए सोनेके कमलको उस शय्यापर रख दे। इसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक दूध देनेवाली अत्यन्त सीधी कपिला गौका दान करे। वह गौ उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे सुशोभित और बछड़ेसहित होनी चाहिये। उसके खुर चाँदीसे और सींग सोनेसे मॅढ़े होने चाहिये तथा उसके साथ कौसीकी दोहनी होनी चाहिये। दिनके पूर्व भागमें ही दान करना उचित है। समयका उल्लंघनकदापि नहीं करना चाहिये। शय्यादानके पश्चात् इस प्रकार प्रार्थना करे सूर्यदेव! जिस प्रकार आपकी शय्या कान्ति, धृति, श्री और पुष्टिसे कभी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी भी वृद्धि हो। वेदोंके विद्वान् आपके सिवा और किसीको निष्पाप नहीं जानते, इसलिये आप सम्पूर्ण दुःखोंसे भरे हुए इस संसार सागरसे मेरा उद्धार कीजिये।’ इसके पश्चात् भगवान्की प्रदक्षिणा करके उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विसर्जन करे। शय्या और श्री आदिको ब्राह्मणके घर पहुँचा दे।
भगवान् शंकरके इस व्रतकी चर्चा दुराचारी और दम्भी पुरुषके सामने नहीं करनी चाहिये जो गी. ब्राह्मण देवता, अतिथि और धार्मिक पुरुषोंको विशेषरूपसे निन्दा करता है, उसके सामने भी इसको प्रकट न करे। भगवान्के भक्त और जितेन्द्रिय पुरुषके समक्ष ही यह आनन्ददायी एवं कल्याणमय गूढ़ रहस्य प्रकाशित करने योग्य है। वेदवेता पुरुषोंका कहना है कि यह व्रत महापातकी मनुष्योंके भी पापोंका नाश कर देता है। जो पुरुष इस व्रतका अनुष्ठान करता है, उसका बन्धु, पुत्र, धन और स्त्रीसे कभी वियोग नहीं होता तथा वह देवताओंका आनन्द बढ़ानेवाला माना जाता है। इसी प्रकार जो नारी भक्तिपूर्वक इस व्रतका पालन करती है, उसे कभी रोग, दुःख और मोहका शिकार नहीं होना पड़ता। प्राचीन कालमें महर्षि वसिष्ठ, अर्जुन, कुबेर तथा इन्द्रने इस व्रतका आचरण किया था। इस व्रतके कीर्तनमात्रसे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो पुरुष इस आदित्यशयन नामक व्रतके माहात्म्य एवं विधिका पाठ या श्रवण करता है, वह इन्द्रका प्रियतम होता है तथा जो इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह नरकमें भी पड़े हुए समस्त पितरोंको स्वर्गलोकमें पहुँचा देता है। भीष्मजीने कहा—मुने! अब आप चन्द्रमाके व्रतका वर्णन कीजिये पुलस्त्यजी बोले- राजन्। तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। अब मैं तुम्हें वह गोपनीय व्रत बतलाता हूँ, जो अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला है तथा जिसेपुराणवेत्ता विद्वान् ही जानते हैं। इस लोकमें ‘रोहिणी चन्द्र-शयन’ नामक व्रत बड़ा ही उत्तम है। इसमें चन्द्रमाके नामद्वारा भगवान् नारायणकी प्रतिमाका पूजन करना चाहिये। जब कभी सोमवारके दिन पूर्णिमा तिथि हो अथवा पूर्णिमाको रोहिणी नक्षत्र हो, उस दिन मनुष्य सबेरे पंचगव्य और सरसोंके दानोंसे युक्त जलसे स्नान करे तथा विद्वान् पुरुष ‘आप्यायस्व0’ इत्यादि मन्त्रको आठ सौ बार जपे यदि शूद्र भी इस व्रतको करे तो अत्यन्त भक्तिपूर्वक ‘सोमाय नमः’, ‘वरदाय नमः’, ‘विष्णवे नमः ‘ – इन मन्त्रोंका जप करे और पाखण्डियोंसे-विधर्मियोंसे बातचीत न करे। जप करनेके पश्चात् घर आकर फल-फूल आदिके द्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजा करे। साथ ही चन्द्रमाके नामोंका उच्चारण करता रहे। ‘सोमाय शान्ताय नमः’ कहकर भगवान्के चरणोंका, ‘अनन्तधाम्ने नमः’ का उच्चारण करके उनके घुटनों और पिण्डलियोंका, ‘जलोदराय नमः’ से दोनों जाँघोंका, ‘कामसुखप्रदाय नमः’ से चन्द्रस्वरूप भगवान्के कटिभागका, ‘अमृतोदराय नमः’ से उदरका, ‘शशाङ्काय नमः’ से नाभिका, ‘चन्द्राय नमः’ से मुखमण्डलका, ‘द्विजानामधिपाय नमः’ से दाँतोंका, ‘चन्द्रमसे नमः ‘ से मुँहका, ‘कौमोदवनप्रियाय नमः’ से ओठोंका, ‘वनौषधीनामधिनाथाय नमः’ से नासिकाका, आनन्दबीजाय से दोनों भौंहोंका, ‘इन्दीवरव्यासकराय नमः’ से भगवान् श्रीकृष्णके कमल-सदृश नेत्रका, ‘समस्तासुरवन्दिताय दैत्यनिषूदनाय नमः’ से दोनों कानोंका, ‘उदधिप्रियाय नमः’ से चन्द्रमाके ललाटका, ‘सुषुम्नाधिपतये नमः’ से केशोंका, ‘शशाङ्काय नमः’ से मस्तकका और ‘विश्वेश्वराय नमः’ से भगवान् मुरारिके किरीटका पूजन करे। फि ‘रोहिणीनामधेयलक्ष्मी सौभाग्यसौख्यामृत सागराय पद्मश्रिये नमः’ (रोहिणी नाम धारण करने वाली लक्ष्मीके सौभाग्य और सुखरूप अमृतके समुद्र तथा कमलकी-सी कान्तिवाले भगवान्को नमस्कार है) – इस मन्त्रका उच्चारण करके भगवान्के सामनेमस्तक झुकाये। तत्पश्चात् सुगन्धित पुष्प, नैवेद्य और धूप आदिके द्वारा इन्दुपत्नी रोहिणी देवीका भी पूजन करे।
इसके बाद रात्रिके समय भूमिपर शयन करे और सबेरे उठकर स्नानके पश्चात् ‘पापविनाशाय नमः’ का उच्चारण करके ब्राह्मणको घृत और सुवर्णसहित जलसे भरा कलश दान करे। फिर दिनभर उपवास करनेके पश्चात् गोमूत्र पीकर मांसवर्जित एवं खारे नमकसे रहित अन्नके इकतीस ग्रास घीके साथ भोजन करे। तदनन्तर दो घड़ीतक इतिहास, पुराण आदिका श्रवण करे। राजन् ! चन्द्रमाको कदम्ब, नील कमल, केवड़ा, जाती पुष्प, कमल, शतपत्रिका बिना कुम्हलाये कुब्जके फूल, सिन्दुवार, चमेली, अन्यान्य श्वेत पुष्प, करवीर तथा चम्पा- ये ही फूल चढ़ाने चाहिये। उपर्युक्त फूलोंकी जातियोंमेंसे एक-एकको त्रावण आदि महीनों में क्रमशः अर्पण करे। जिस महीने में व्रत शुरू किया जाय, उस समय जो भी पुष्प सुलभ हों, उन्हींके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये।
इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिवत् अनुष्ठान करके समाप्तिके समय शयनोपयोगी सामग्रियोंके साथ शय्यादान करे। रोहिणी और चन्द्रमाकी सुवर्णमयी मूर्ति बनवाये। उनमें चन्द्रमा छः अंगुलके और रोहिणी चार अंगुलकी होनी चाहिये। आठ मोतियोंसे युक्त श्वेत नेत्रोंवाली उन प्रतिमाओंको अक्षतसे भरे हुए काँसीके पात्रमें रखकर दुग्धपूर्ण कलशके ऊपर स्थापित कर दे। फिर वस्त्र और दोहनीके साथ दूध देनेवाली गौ, शंख तथा पात्र प्रस्तुत करे। उत्तम गुणोंसे युक्त ब्राह्मण-दम्पतीको बुलाकर उन्हें आभूषणोंसे अलंकृत करे तथा मनमें यह भावना रखे कि ब्राह्मण-दम्पतीके रूपमें ये रोहिणीसहित चन्द्रमा ही विराजमान हैं। तत्पश्चात् इनकी इस प्रकार प्रार्थना करे- ‘चन्द्रदेव! आप ही सबको परम आनन्द और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। आपकी कृपासे मुझे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो।’ [ इस प्रकारविनय करके शय्या, प्रतिमा तथा धेनु आदि सब कुछ ब्राह्मणको दान कर दे।]
राजन्। जो संसारसे भयभीत होकर मोक्ष पानेकी इच्छा रखता है, उसके लिये यही एक व्रत सर्वोत्तम है। यह रूप और आरोग्य प्रदान करनेवाला है। यही पितरोंको सर्वदा प्रिय है। जो इसका अनुष्ठान करता है वह त्रिभुवनका अधिपति होकर इक्कीस सी कल्पोंतक चन्द्र-लोकमें निवास करता है। उसके बाद विद्युत् होकर मुक्त हो जाता है। चन्द्रमा नाम कीर्तनद्वारा भगवान् श्रीमधुसूदनकी पूजाका यह प्रसंग जो पढ़ता अथवा सुनता है, उसे भगवान् उत्तम बुद्धि प्रदान करते हैं तथा वह भगवान् श्रीविष्णुके धाममें जाकर देवसमूहके द्वारा पूजित होता है।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन्! अब मुझे तालाब, बगीचा कुआँ, बावली, पुष्करिणी तथा देवमन्दिरको प्रतिष्ठा आदिका विधान बतलाइये।
पुलस्त्यजी बोले- महाबाहो ! सुनो; तालाब आदिकी प्रतिष्ठाका जो विधान है, उसका इतिहास पुराणोंमें इस प्रकार वर्णन है। उत्तरायण आनेपर शुभ | शुक्लपक्षमें ब्राह्मणद्वारा कोई पवित्र दिन निश्चित करा ले। उस दिन ब्राह्मणोंका वरण करे और तालाबके समीप, जहाँ कोई अपवित्र वस्तु न हो, चार हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी चौकोर वेदी बनाये वेदी सब ओर समतल हो और चारों दिशाओंमें उसका मुख हो । फिर सोलह हाथका मण्डप तैयार कराये। जिसके चारों ओर एक-एक दरवाजा हो। वेदीके सब ओर कुण्ठोंका निर्माण कराये। कुण्डोंकी संख्या नी. सात या पाँच होनी चाहिये। कुण्डोंकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक रनिकी हो तथा वे सभी तीन-तीन मेखलाओंसे सुशोभित हो। उनमें यथास्थान योनि और मुख भी बने होने चाहिये। योनिको लम्बाई एक बित्ता और चौड़ाई छ: सात अंगुलकी हो । मेखलाएँ तीन पर्व 2 ऊँची और एक हाथ लम्बी होनीचाहिये। वे चारों ओरसे एक समान- एक रंगकी बनी हो। सबके समीप ध्वजा और पताकाएँ लगायी जायँ । पाकड़ मण्डपके चारों ओर क्रमशः पीपल, गूलर, उ और बरगदकी शाखाओंके दरवाजे बनाये जायें। वहाँ आठ होता, आठ द्वारपाल तथा आठ जप कानेवाले ब्राह्मणका वरण किया जाय वे सभी ब्राह्मण वेदोंके पारगामी विद्वान् होने चाहिये। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, मन्त्रोंक ज्ञाता, जितेन्द्रिय कुलीन, शीलवान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको ही इस कार्यमें नियुक्त करना चाहिये। प्रत्येक कुण्डके पास कलश, यज्ञ-सामग्री, निर्मल आसन और दिव्य एवं विस्तृत ताम्रपात्र प्रस्तुत रहें।
तदनन्तर प्रत्येक देवताके लिये नाना प्रकारकी बलि (दही, अक्षत आदि उत्तम भक्ष्य पदार्थ) उपस्थित करे। विद्वान् आचार्य मन्त्र पढ़कर उन सामग्रियोंके द्वारा पृथ्वीपर सब देवताओंके लिये बलि समर्पण करे। अलिके बराबर एक ग्रुप (यज्ञस्तम्भ) स्थापित किया जाय, जो किसी दूधवाले वृक्षकी शाखाका बना हुआ हो ऐश्वर्य चाहनेवाले पुरुषको यजमानके शरीरके बराबर ऊँचा यूप स्थापित करना चाहिये। उसके बाद पचीस ऋत्विजोंका वरण करके उन्हें सोनेके आभूषणोंसे विभूषित करे। सोनेके बने कुण्डल, बाजूबंद, कड़े, अंगूठी, पवित्री तथा नाना प्रकारके वस्त्र- ये सभी आभूषण प्रत्येक ऋत्विजको बराबर-बराबर दे और आचार्यको दूना अर्पण करे। इसके सिवा उन्हें शय्या तथा अपनेको प्रिय लगनेवाली अन्यान्य वस्तुएँ भी प्रदान करे सोनेका बना हुआ कछुआ और मगर, चाँदीके मत्स्य और दुन्दुभ, ताँबेके केंकड़ा और मेढक तथा लोहेके दो सूँस बनवाकर सबको सोनेके पात्रमें रखे इसके बाद यजमान वेद विद्वानोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार सर्वोषधि-मिश्रित जलसे स्नान करके श्वेत वस्त्र और श्वेत माला धारण करे। फिर श्वेत 1 चन्दन लगाकर पत्नी और पुत्र-पौत्र के साथ पश्चिमद्वारसे यह मण्डप प्रवेश करे। उस समय मांगलिक शब्द होने चाहिये और भेरी आदि बाजे बजने चाहिये।तदनन्तर विद्वान् पुरुष पाँच रंगके चूर्णोंसे मण्डल बनाये और उसमें सोलह अरोंसे युक्त चक्र चिह्नित करे। उसके गर्भमें कमलका आकार बनाये। चक्र देखनेमें सुन्दर और चौकोर हो। चारों ओरसे गोल होनेके साथ ही मध्यभागमें अधिक शोभायमान जान पड़ता हो। उस चक्रको वेदीके ऊपर स्थापित करके उसके चारों ओर प्रत्येक दिशामें मन्त्र – पाठपूर्वक ग्रहों और लोकपालोंकी स्थापना करे। फिर मध्यभागमें वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए एक कलश स्थापित करे और उसीके ऊपर ब्रह्मा, शिव, विष्णु, गणेश, लक्ष्मी तथा पार्वतीकी भी स्थापना करे। इसके पश्चात् सम्पूर्ण लोकोंकी शान्तिके लिये भूतसमुदायको स्थापित करे। इस प्रकार पुष्प, चन्दन और फलोंके द्वारा सबकी स्थापना करके कलशोंके भीतर पंचरत्न छोड़कर उन्हें वस्त्रोंसे आवेष्टित कर दे। फिर पुष्प और चन्दनके द्वारा उन्हें अलंकृत करके द्वार- रक्षाके लिये नियुक्त ब्राह्मणोंसे वेदपाठ करनेके लिये कहे और स्वयं आचार्यका पूजन करे। पूर्वद्वारकी ओर दो ऋग्वेदी, दक्षिणद्वारपर दो यजुर्वेदी, पश्चिमद्वारपर दो सामवेदी तथा उत्तरद्वारपर दो अथर्ववेदी विद्वानोंको रखना चाहिये। यजमान मण्डलके दक्षिण भागमें उत्तराभिमुख होकर बैठे और द्वार-रक्षक विद्वानोंसे कहे- ‘आपलोग वेदपाठ करें।’ फिर यज्ञ करानेवाले आचार्यसे कहे- ‘आप यज्ञ प्रारम्भ करायें।’ तत्पश्चात् जप करनेवाले ब्राह्मणोंसे कहे- ‘आपलोग उत्तम मन्त्रका जप करते रहें।’ इस प्रकार सबको प्रेरित करके मन्त्रज्ञ पुरुष अग्निको प्रज्वलित करे तथा मन्त्र पाठपूर्वक घी और समिधाओंकी आहुति दे । ऋत्विजोंको भी वरुण सम्बन्धी मन्त्रोंद्वारा सब ओरसे हवन करना चाहिये। ग्रहोंके निमित्त विधिवत् आहुति देकर उस यज्ञकर्ममें इन्द्र, शिव, मरुद्गण और लोकपालोंके निमित्त भी विधिपूर्वक होम करे।
पूर्वद्वारपर नियुक्त ऋग्वेदी ब्राह्मण शान्ति, रुद्र, पवमान, सुमंगल तथा पुरुषसम्बन्धी सूक्तोंका पृथक् पृथक् जप करे। दक्षिणद्वारपर स्थित यजुर्वेदी विद्वान् इन्द्र, रुद्र, सोम, कूष्माण्ड, अग्नि तथा सूर्य-सम्बन्धीकोंका जप करे पश्चिमद्वारपर रहनेवाले सामवेदी ब्राह्मण वैराजसाम, पुरुषसूक्त, सुपर्णसूक्त, रुद्रसंहिता, शिशु पंचनिधनत, गायत्रसाम, ज्येष्ठसाम वामदेव्यसाम, बृहत्साम, रौरवसाम, रथन्तरसाम, गोव्रत, विकीर्ण, रक्षोघ्न और यम सम्बन्धी सामोंका गान करें। उत्तरद्वारके अर्थवेदी विद्वान् मन-ही-मन भगवान् वरुणदेवकी शरण ले शान्ति और पुष्टि सम्बन्धी मन्त्रोंका जप करें। इस प्रकार पहले दिन मन्त्रद्वारा देवताओंकी स्थापना करके हाथी और घोड़ेके पैरोंके नीचेकी, जिसपर रथ चलता हो ऐसी सड़क, बाँबीकी, दो नदियोंके संगमकी, गोशालाकी तथा साक्षात् गौओके पैर नीचेकी मिट्टी लेकर कलोंमें छोड़ दे। उसके बाद सर्वौषधि, गोरोचन, सरसोंके दाने, चन्दन और गूगल भी छोड़े। फिर पंचगव्य (दधि, दूध, घी, गोबर और गोमूत्र) मिलाकर उन कलशोंके जलसे यजमानका विधिपूर्वक अभिषेक करे। अभिषेकके समय विद्वान् पुरुष वेदमन्त्रोंका पाठ करते रहें।
इस प्रकार शास्त्रविहित कर्मके द्वारा रात्रि व्यतीत करके निर्मल प्रभातका उदय होनेपर हवनके अन्तमें ब्राह्मणोंको सौ, पचास, छत्तीस अथवा पचीस गौ दान करे। तदनन्तर शुद्ध एवं सुन्दर लग्न आनेपर वेदपाठ, संगीत तथा नाना प्रकारके बाजकी मनोहर ध्वनिके साथ एक गौको सुवर्ण अलंकृत करके तालाबके जलमें उतारे और उसे सामगान करनेवाले ब्राह्मणको दान कर दे। तत्पश्चात् पंचरत्नोंसे युक्त सोनेका पात्र लेकर उसमें पूर्वोक्त मगर और मछली आदिको रखे और उसे किसी बड़ी नदीसे मँगाये हुए जलसे भर दे। फिर उस पात्रको दही- अक्षत से विभूषित करके वेद और वेदांगों के विद्वा चार ब्राह्मण हाथसे पकड़ें और यजमानकी प्रेरणासे उसे उत्तराभिमुख उलटकर तालाब जल डाल दें। इस प्रकार ‘आपो मयो0’ इत्यादि मन्त्रके द्वारा उसे जलमें डालकर पुनः सब लोग यज्ञ मण्डपमें आ जायें और यजमान सदस्योंकी पूजा करके सब ओर देवताओंके उद्देश्यसे बलि अर्पण करे। इसके बाद लगातार चार दिनोंतक हवन होना चाहिये। चौथे दिन चतुर्थी-कर्मकरना उचित है। उसमें भी यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये। चतुर्थी कर्म पूर्ण करके यज्ञ सम्बन्धी जितने पात्र और सामग्री हों, उन्हें ऋत्विजोंमें बराबर बाँट देना चाहिये। फिर मण्डपको भी विभाजित करे। सुवर्णपात्र और शय्या किसी ब्राह्मणको दान कर दे। इसके बाद अपनी शक्तिके अनुसार हजार, एक सौ आठ, पचास अथवा बीस ब्राह्मणोंको भोजन कराये। पुराणोंमें तालाबकी प्रतिष्ठा के लिये यही विधि बतलायी गयी है। कुआँ बावली और पुष्करिणीके लिये भी यही विधि है। देवताओंकी प्रतिष्ठामें भी ऐसा ही विधान समझना चाहिये। मन्दिर और बगीचे आदिके प्रतिष्ठा कार्यमें केवल मन्त्रोंका ही भेद है। विधि-विधान प्रायः एक से ही हैं। उपर्युक्त विधिका यदि पूर्णतया पालन करनेकी शक्ति न हो तो आधे व्ययसे भी यह कार्य सम्पन्न हो सकता है। यह बात ब्रह्माजीने कही है।
जिस पोखरेमें केवल वर्षाकालमें ही जल रहता है, वह सौ अग्निष्टोम यज्ञोंके बराबर फल देनेवाला होता है। जिसमें शरत्कालतक जल रहता हो, उसका भी यही फल है। हेमन्त और शिशिरकालतक रहनेवाला जल क्रमशः वाजपेय और अतिरात्र नामक यज्ञका फल देता है। वसन्तकालतक टिकनेवाले जलको अश्वमेध यज्ञके समान फलदायक बतलाया गया है तथा जो जल ग्रीष्मकालतक मौजूद रहता है, वह राजसूय यज्ञसे भी अधिक फल देनेवाला होता है।
महाराज ! जो मनुष्य पृथ्वीपर इन विशेष धर्मोका पालन करता है-विधिपूर्वक कुआँ, बावली, पोखरा आदि खुदवाता है तथा मन्दिर, बगीचा आदि बनवाता है, वह शुद्धचित्त होकर ब्रह्माजीके लोकमें जाता है और वहाँ अनेकों कल्पोंतक दिव्य आनन्दका अनुभव करता है। दो परार्द्ध (ब्रह्माजीकी आयु तक वहाँका मुख भोगनेके पश्चात् ब्रह्माजीके साथ ही योगबल से श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! अब आप मुझे विस्तारके साथ वृक्ष लगाने की यथार्थ विधि बतलाइये। विद्वानोंको किस विधिसे वृक्ष लगाने चाहिये ?पुलस्त्यजी बोले- राजन्! बगीचेमें वृक्षोंके लगानेकी अ विधि मैं तुम्हें बतलाता हूँ। तालाबकी प्रतिष्ठाकेद विषयमें जो विधान बतलाया गया है, उसीके समान सारी विधि पूर्ण करके वृक्षके पौधोंको सर्वोषधि मिश्रित जलसे सींचे फिर उनके ऊपर दही और अक्षत छोड़े। उसके बाद उन्हें पुष्प-मालाओंसे अलंकृत करके वस्त्रमें लपेट दे। वहाँ गूगलका धूप देना श्रेष्ठ माना गया है। वृक्षोंको पृथक्-पृथक् ताम्रपात्रमें रखकर उन्हें सप्तधान्यसे आवृत करे तथा उनके ऊपर वस्त्र और चन्दन चढ़ाये फिर प्रत्येक वृक्षके पास कलश स्थापन करके उन कलशोंकी पूजा करे और रात में द्विजातियोंद्वारा इन्द्रादि लोकपालों तथा वनस्पतिका विधिवत् अधिवास कराये। तदनन्तर दूध देनेवाली एक गौको लाकर उसे श्वेत वस्त्र ओढ़ाये। उसके मस्तकपर सोनेकी कलगी लगाये, सींगोंको सोनेसे मँझ दे। उसको दुहनेके लिये काँसेकी दोहनी प्रस्तुत करे। इस प्रकार अत्यन्त शोभासम्पन्न उस गौको उत्तराभिमुख खड़ी करके वृक्षोंके बीचसे छोड़े। तत्पश्चात् श्रेष्ठ ब्राह्मण बाजों और मंगलगीतोंकी ध्वनिके साथ अभिषेकके मन्त्र- तीनों वेदोंकी वरुणसम्बन्धिनी ऋचाएँ पढ़ते हुए उक्त कलशोंके जलसे यजमानका अभिषेक करें। अभिषेकके पश्चात् नहाकर यज्ञकर्ता पुरुष श्वेत वस्त्र धारण करे और अपनी सामर्थ्यके अनुसार गौ, सोनेकी जंजीर, कड़े, अँगूठी, पवित्री, वस्त्र, शय्या, शय्योपयोगी सामान तथा चरणपादुका देकर एकाग्र चित्तवाले सम्पूर्ण ऋत्विजोंका पूजन करे। इसके बाद चार दिनोंतक दूधसे अभिषेक तथा घी, जौ और काले तिलोंसे होम करे। होममें पलाश (ढाक) की लकड़ी उत्तम मानी गयी है। वृक्षारोपणके पश्चात् चौथे दिन विशेष उत्सव करे। उसमें अपनी शक्तिके । अनुसार पुनः दक्षिणा दे। जो-जो वस्तु अपनेको अधिक प्रिय हो, ईर्ष्या छोड़कर उसका दान करे। आचार्यको दूनी दक्षिणा दे तथा प्रणाम करके यड़की | समाप्ति करे। जो विद्वान् उपर्युक्त विधिसे वृक्षारोपणका उत्सव करता है, उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण होती है तथा वहअक्षय फलका भागी होता है। राजेन्द्र ! जो इस प्रकार वृक्षकी प्रतिष्ठा करता है, वह जबतक तीस हजार इन्द्र समाप्त हो जाते हैं, तबतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके शरीरमें जितने रोम होते हैं, अपने पहले और पीछेकी उतनी ही पीढ़ियोंका वह उद्धार कर देता है तथा उसे पुनरावृत्तिसे रहित परम सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंगको सुनता या सुनाता है, वह भी देवताओंद्वारा सम्मानित और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वृक्ष पुत्रहीन पुरुषको पुत्रवान् होनेका फल देते हैं। इतना ही नहीं, वे अधिदेवतारूपसे तीर्थोंमें जाकर वृक्ष लगानेवालोंको पिण्ड भी देते हैं। अतः भीष्म ! तुम यत्नपूर्वक पीपलके वृक्ष लगाओ। वह अकेला ही तुम्हें एक हजार पुत्रोंका फल देगा। पीपलका पेड़ लगानेसे मनुष्य धनी होता है। अशोक शोकका नाश करनेवाला है। पाकड़ यज्ञका फल देनेवाला बताया गया है। नीमका वृक्ष आयु प्रदान करनेवाला माना गया है। जामुन कन्या देनेवाला कहा गया है। अनारका वृक्ष पत्नी प्रदान करता है। पीपल रोगका नाशक और पलाश ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य बहेड़ेका वृक्ष लगाता है, वह प्रेत होता है। अंकोल लगानेसे वंशकी वृद्धि होती है। खैरका वृक्ष लगानेसे आरोग्यकी प्राप्ति होती है। नीम लगानेवालोंपर भगवान् सूर्य प्रसन्न होते हैं। बेलके वृक्षमें भगवान् शंकरका और गुलाबके पेड़में देवी पार्वतीका निवास है। अशोक वृक्षमें अप्सराएँ और कुन्द (मोगरे)-के पेड़में श्रेष्ठ गन्धर्व निवास करते हैं। बेंतका वृक्ष लुटेरोंको भय प्रदान करनेवाला है। चन्दन और कटहलके वृक्ष क्रमशः पुण्य और लक्ष्मी देनेवाले हैं। चम्पाका वृक्ष सौभाग्य प्रदान करता है। ताड़का वृक्ष सन्तानका नाश करनेवाला है। मौलसिरीसे कुलकी वृद्धि होती है। नारियल लगानेवाला अनेक स्त्रियोंका पति होता है। दाखका पेड़ सर्वांगसुन्दरी स्त्री प्रदान करनेवाला है। केवड़ा शत्रुका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार अन्यान्य वृक्ष भी जिनका यहाँ नाम नहीं लिया गया है, यथायोग्य फल प्रदान करते हैं। जो लोग वृक्ष लगाते हैं, उन्हें [परलोकमें] प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्! इसी प्रकार एक दूसरा व्रत बतलाता हूँ, जो समस्त मनोवांछित फलकों देनेवाला है। उसका नाम है- सौभाग्यशयन इसे पुराणोंके विद्वान् ही जानते हैं। पूर्वकालमें जब भूलोक, भुवर्लोक, स्वलॉक तथा महलोंक आदि सम्पूर्ण लोक दग्ध हो गये, तब समस्त प्राणियोंका सौभाग्य एकत्रित होकर वैकुण्ठमें जा भगवान् श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें स्थित हो गया। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् जब पुनः सृष्टि रचनाका समय आया, तब प्रकृति और पुरुषसे युक्त सम्पूर्ण लोकोंके अहंकारसे आवृत हो जानेपर श्रीब्रह्माजी तथा भगवान् श्रीविष्णुमें स्पर्धा जाग्रत् हुई। उस समय एक पीले रंगकी भयंकर अग्निज्वाला प्रकट हुई। उससे भगवान्का वक्षःस्थल तप उठा, जिससे वह सौभाग्यपुंज वहाँ गलित हो गया। श्रीविष्णु के वक्षःस्थलका वह सौभाग्य अभी रसरूप होकर धरतीपर गिरने नहीं पाया था कि ब्रह्माजीके बुद्धिमान् पुत्र दक्षने उसे आकाशमें ही रोककर पी लिया। दक्षके पीते ही वह अद्भुत रूप और लावण्य प्रदान करनेवाला सिद्ध हुआ। प्रजापति दक्षका बल और तेज बहुत बढ़ गया। उनके पीनेसे बचा हुआ जो अंश पृथ्वीपर गिर पड़ा वह आठ भागोंमें बँट गया। उनमेंसे सात भागोंसे सात सौभाग्यदायिनी ओषधियाँ उत्पन्न हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं- ईख, तरुराज, निष्पाव, राजधान्य (शालि या अगहनी), गोक्षीर (क्षीरजीरक), कुसुम्भ और कुसुम आठवाँ नमक है। इन आठोंकी सौभाग्याष्टक संज्ञा कहते हैं।
योग और जानके तत्वको जाननेवाले ब्रह्मपुत्र दक्षने पूर्वकालमें जिस सौभाग्य रसका पान किया था, उसके अंशसे उन्हें सती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। नील कमलके समान मनोहर शरीरवाली वह कन्या लोकमें ललिताके नामसे भी प्रसिद्ध है। पिनाकधारी भगवान् शंकरने उस त्रिभुवनसुन्दरी देवीके साथ विवाह किया। सती तीनों लोकोंकी सौभाग्यरूपा हैं। वे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं। उनकी आराधना करके नर या नारी क्या नहीं प्राप्त कर सकती।भीष्मजीने पूछा- मुने! जगद्धात्री सतीकी आराधना कैसे की जाती है? जगत्की शान्तिके लिये जो विधान हो, वह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले– चैत्र मासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको दिनके पूर्व भागमें मनुष्य तिलमिश्रित जलसे स्थान करे। उस दिन परम सुन्दरी भगवती सतीका विश्वात्मा भगवान् शंकरके साथ वैवाहिक मन्त्रोंद्वारा विवाह हुआ था अतः तृतीयाको सती देवी के साथ ही भगवान् शंकरका भी पूजन करे। पंचगव्य तथा चन्दन मिश्रित जलके द्वारा गौरी और भगवान् चन्द्रशेखरकी प्रतिमाको स्नान कराकर धूप, दीप, नैवेद्य तथा नाना प्रकारके फलोंद्वारा उन दोनोंकी पूजा करनी चाहिये। ‘पार्वतीदेव्यै नमः’, ‘शिवाय नमः’ इन मन्त्रोंसे क्रमशः पार्वती और शिवके चरणोंका ‘जयायै नमः’, ‘शिवाय नमः’ से दोनोंकी घुट्टियोंका; ‘त्र्यम्बकाय नमः’, ‘भवान्यै नमः’ से पिण्डलियोंका ‘भद्रेश्वराय नमः ‘ ‘विजयायै नमः’ से घुटनोंका ‘हरिकेशाय नमः’, ‘वरदायै नमः’ से जाँघोंका; ‘ईशाय शङ्कराय नमः’ “रत्यै नमः’ से दोनोंके कटिभागका; ‘कोटिन्यै नमः’, ‘शूलिने नमः’ से कुक्षिभागका; ‘शूलपाणये नमः’, ‘मंगलायै नमः’ से उदरका: ‘सर्वात्मने नमः’, ‘ईशान्यै नमः’ से दोनों स्तनोंका ‘चिदात्मने नमः’, ‘रुद्राण्यै नमः’ से कण्ठका: ‘त्रिपुरघ्नाय नमः’, ‘अनन्तायै नमः’ से दोनों हाथोंका ‘त्रिलोचनाय नमः’, ‘कालानलप्रियायै नमः’ से बाँहोंका ‘सौभाग्यभवनाय नमः’ से आभूषणोंका; ‘स्वधायै नमः’, ‘ईश्वराय नमः’ से दोनोंके मुखमण्डलका ‘अशोकवनवासिन्यै नमः ‘ – इस मन्त्रसे ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले ओठोंका; ‘स्थाणवे नमः’, ‘चन्द्रमुखप्रियायै नमः’ से मुँहका; ‘अर्द्धनारीश्वराय नमः’, ‘असितायै नमः’ से नासिकाका ‘उग्राय नमः’, ‘ललितायै नमः’ से दोनों भौहोका ‘शर्वाय नमः’, ‘वासुदेव्यै नमः’ से केशका; ‘श्रीकण्ठनाथाय नमः’ से केवल शिवके बालोंका तथा ‘भीमोग्ररूपिण्यै नमः’, ‘सर्वात्मने नमः’ से दोनों के मस्तकोंका पूजन करे। इस प्रकार शिव और पार्वतीकीविधिवत् पूजा करके उनके आगे सौभाग्याष्टक रखे। स निष्पाव, कुसुम्भ, क्षीरजीरक, तरुराज, इक्षु, लवण, कुसुम तथा राजधान्य – इन आठ वस्तुओंको देनेसे स सौभाग्यकी प्राप्ति होती है; इसलिये इनकी ‘सौभाग्याष्टक’ र संज्ञा है। इस प्रकार शिव-पार्वतीके आगे सब सामग्री निवेदन करके चैत्रमें सिंघाड़ा खाकर रातको भूमिपर शयन करे। फिर सबेरे उठकर स्नान और जप करके इ पवित्र हो माला, वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा ब्राह्मण दम्पतीका पूजन करे। इसके बाद सौभाग्याष्टकसहित शिव और पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमाओंको ललिता देवीकी प्रसन्नताके लिये ब्राह्मणको निवेदन करे। दानके समय इस प्रकार कहे- ‘ललिता, विजया, भद्रा, भवानी, कुमुदा, शिवा, वासुदेवा, गौरी, मंगला, कमला, सती और उमा—ये प्रसन्न हों।’
बारह महीनोंकी प्रत्येक द्वादशीको भगवान् श्रीविष्णुकी तथा उनके साथ लक्ष्मीजीकी भी पूजा करे। इसी प्रकार परलोकमें उत्तम गति चाहनेवाले पुरुषको प्रत्येक मासकी पूर्णिमाको सावित्रीसहित ब्रह्माजीकी विधिवत् आराधना करनी चाहिये तथा ऐश्वर्यकी कामनावाले मनुष्यको सौभाग्याष्टकका दान भी करना चाहिये। इस प्रकार एक वर्षतक इस व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान करके पुरुष, स्त्री या कुमारी भक्तिके साथ रात्रिमें शिवजीकी पूजा करे। व्रतकी समाप्तिके समय सम्पूर्ण ।सामग्रियोंसे युक्त शय्या, शिव-पार्वतीकी सुवर्णमयी प्रतिमा, बैल और गौका दान करे। कृपणता छोड़कर दृढ़ निश्चयके साथ भगवान्का पूजन करे। जो स्त्री इस प्रकार उत्तम सौभाग्यशयन नामक व्रतका अनुष्ठान करती है, उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं अथवा [ यदि वह निष्कामभावसे इस व्रतको करती है तो ] उसे नित्यपदकी प्राप्ति होती है। इस व्रतका आचरण करनेवाले पुरुषको एक फलका परित्याग कर देना चाहिये । प्रतिमास इसका आचरण करनेवाला पुरुष यश और कीर्ति प्राप्त करता है। राजन् ! सौभाग्यशयनका दान करनेवाला पुरुष कभी सौभाग्य, आरोग्य, सुन्दर रूप, वस्त्र, अलंकार और आभूषणोंसे वंचित नहीं होता। जो बारह, आठ या सात वर्षोंतक सौभाग्यशयन-व्रतका अनुष्ठान करता है, वह ब्रह्मलोकनिवासी पुरुषोंद्वारा पूजित होकर दस हजार कल्पोंतक वहाँ निवास करता है। इसके बाद वह विष्णुलोक तथा शिवलोकमें भी जाता है। जो नारी या कुमारी इस व्रतका पालन करती है, वह भी ललितादेवीके अनुग्रहसे ललित होकर पूर्वोक्त फलको प्राप्त करती है। जो इस व्रतकी कथाका श्रवण करता है अथवा दूसरोंको इसे करनेकी सलाह देता है, वह भी विद्याधर होकर चिरकालतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। पूर्वकालमें इस अद्भुत व्रतका अनुष्ठान कामदेवने, राजा शतधन्वाने, वरुणदेवने, भगवान् सूर्यने तथा धनके स्वामी कुबेरने भी किया था।
अध्याय-22 तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! अब मैं तीर्थोंका अद्भुत माहात्म्य सुनना चाहता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। आप विस्तारके साथ उसका वर्णन करो।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्! ऐसे अनेकों पावन तीर्थ हैं, जिनका नाम लेनेसे भी बड़े-बड़े पातकों का नाश हो जाता है। तीर्थोंका दर्शन करना, उनमें स्नान करना, वहाँ जाकर बार-बार डुबकी लगाना तथा समस्ततीर्थोंका स्मरण करना -ये मनोवांछित फलको देनेवाले हैं। भीष्म ! पर्वत, नदियाँ, क्षेत्र, आश्रम और मानस आदि सरोवर- सभी तीर्थ कहे गये हैं, जिनमें तीर्थयात्राके उद्देश्यसे जानेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध आदि यज्ञोंका फल होता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
भीष्मजीने पूछा- द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपसे भगवान् श्रीविष्णुका चरित्र सुनना चाहता हूँ। सर्वसमर्थ एवंसर्वव्यापक श्रीविष्णुने यज्ञ-पर्वतपर जा वहाँ अपने चरण रखकर किस दानवका दमन किया था? महामुने। ये सारी बातें मुझे बताइये।
पुलस्त्यजी बोले- वत्स! तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है, एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्राचीन सत्ययुगकी बात है-बलिष्ठ दानवोंने समूचे स्वर्गपर अधिकार जमा लिया था। इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर उनसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया था। उनमें बाष्कलि नामका दानव सबसे बलवान् था। उसने समस्त दानवको यज्ञका भोक्ता बना दिया। इससे इन्द्रको बड़ा दुःख हुआ। वे अपने जीवनसे निराश हो चले। उन्होंने सोचा- ‘ब्रह्माजीके वरदानसे दानवराज बाष्कलि मेरे तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये युद्धमें अवध्य हो गया है। अतः मैं ब्रह्मलोक में चलकर भगवान् ब्रह्माजीकी ही शरण लूँगा। उनके सिवा और कोई मुझे सहारा देनेवाला नहीं है।’ ऐसा विचार कर देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंको साथ ले तुरंत उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे।
इन्द्र बोले- देव! क्या आप हमारी दशा नहीं जानते, अब हमारा जीवन कैसे रहेगा? प्रभो! आपके वरदानसे दैत्योंने हमारा सर्वस्व छीन लिया। मैं दुरात्मा वाकलिकी सारी करतूतें पहले ही आपको बता चुका हूँ। पितामह आप ही हमारे पिता हैं। हमारी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय कीजिये। संसारसे वेदपाठ और यज्ञ-यागादि उठ गये। उत्सव और मंगलकी बातें जाती रहीं। सबने अध्ययन करना छोड़ दिया है। दण्डनीति भी उठा दी गयी है। इन सब कारणों से संसारके प्राणी किसी तरह साँसमात्र ले रहे हैं। जगत् पीडाग्रस्त तो था ही, अब और भी कष्टतर दशाको पहुँच गया है। इतने समयमें हमलोगोंको बड़ी ग्लानि उठानी पड़ी है।
ब्रह्माजीने कहा- देवराज! मैं जानता हूँ बाष्कलि बड़ा नीच है और वरदान पाकर घमंडसे भर गया है। यद्यपि तुमलोगोंके लिये वह अजेय है, तथापि मैं समझता हूँ भगवान् श्रीविष्णु उसे अवश्यठीक कर देंगे। पुलस्त्यजी कहते हैं— उस समय ब्रह्माजी समाधिमें स्थित हो गये। उनके चिन्तन करनेपर ध्यानमानसे चतुर्भुज भगवान् श्रीविष्णु थोड़े ही समयमें सबके देखते-देखते वहाँ आ पहुँचे।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- ब्रह्मन् ! इस ध्यानको छोड़ो। जिसके लिये तुम ध्यान करते हो, वही मैं साक्षात् तुम्हारे पास आ गया हूँ।
ब्रह्माजीने कहा- स्वामीने यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया, यह बहुत बड़ी कृपा हुई जगत्के लिये जगदीश्वरको जितनी चिन्ता है, उतनी और किसको हो सकती है। मेरी उत्पत्ति भी आपने जगत्के लिये ही की थी और जगत्को यह दशा है अतः उसके लिये भगवान्का यह शुभागमन वास्तवमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। प्रभो! विश्वके पालनका कार्य आपके ही अधीन है। इस इन्द्रका राज्य बाष्कलिने छीन लिया है। चराचर प्राणियोंके सहित त्रिलोकीको अपने अधिकारमें कर लिया है। केशव ! अब आप ही सलाह देकर अपने इस सेवककी सहायता कीजिये।
भगवान् श्रीवासुदेवने कह्य — ब्रह्मन् ! तुम्हारे वरदानसे – वह दानव इस समय अवध्य है, तथापि उसे बुद्धिके द्वारा बन्धनमें डालकर परास्त किया जा सकता है। मैं दानवोंका विनाश करनेके लिये वामनरूप धारण करूंगा। ये इन्द्र मेरे साथ बाष्कलिके पर चलें और वहाँ पहुँचकर मेरे लिये इस प्रकार वरकी याचना करें-‘राजन्! इस बौने ब्राह्मणके लिये तीन पग भूमिका दान दीजिये महाभाग इनके लिये मैं आपसे याचना करता हूँ।’ ऐसा कहनेपर वह दानवराज अपना प्राणतक दे सकता है। पितामह! उस दानवका दान स्वीकार करके पहले उसे राज्यसे वंचित करूँगा, फिर उसे बाँधकर पातालका निवासी बनाऊँगा।
यों कहकर भगवान् श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर कार्य साधनके अनुकूल समय आनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले देवाधिदेव भगवान्ने देवताओंका हित करनेके लिये अदितिका पुत्र होनेका विचार किया। भगवान् ने जिस दिन गर्भमें प्रवेश किया,उस दिन स्वच्छ वायु बहने लगी। सम्पूर्ण प्राणी बिना किसी उपद्रवके अपने-अपने इच्छित पदार्थ प्राप्त करने लगे। वृक्षोंसे फूलोंकी वर्षा होने लगी, समस्त दिशाएँ निर्मल हो गयीं तथा सभी मनुष्य सत्य-परायण हो गये देवी अदितिने एक हजार दिव्य वर्षांत भगवान्को गर्भ धारण किया। इसके बाद वे भूतभावन प्रभु वामनरूप प्रकट हुए। उनके अवतार लेते ही नदियोंका जल स्वच्छ हो गया। वायु सुगन्ध बिखेरने लगी। उस तेजस्वी पुत्रके प्रकट होनेसे महर्षि कश्यपको भी बड़ा आनन्द हुआ। तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले समस्त प्राणियोंके मनमें अपूर्व उत्साह भर गया। भगवान् जनार्दनका प्रादुर्भाव होते ही स्वर्गलोक में नगारे बज उठे। अत्यन्त हर्षोल्लासके कारण त्रिलोकीके मोह और दु:ख नष्ट हो गये। गन्धर्वोने अत्यन्त उच्च स्वरसे संगीत आरम्भ किया। कोई ऊँचे स्वरसे भगवान्की जय जयकार करने लगे, कोई अत्यन्त हर्षमें भरकर जोर-जोर गर्जना करते हुए बारम्बार भगवान्को साधुवाद देने लगे तथा कुछ लोग जन्म, भय, बुढ़ापा और मृत्युसे छुटकारा पानेके लिये उनका ध्यान करने लगे। इस प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् सब ओरसे अत्यन्त प्रसन्न हो उठा।
देवतालोग मन-ही-मन विचार करने लगे- ‘ये साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु हैं। ब्रह्माजीके अनुरोधसे जगत्की रक्षाके लिये इन जगदीश्वरने यह छोटा-सा शरीर धारण किया है। ये ही ब्रह्मा, ये ही विष्णु और ये ही महेश्वर हैं। देवता, यज्ञ और स्वर्ग-सब कुछ ये ही हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् भगवान् श्रीविष्णुसे व्याप्त है। ये एक होते हुए भी पृथक् शरीर धारण करके ब्रह्मके नामसे विख्यात है। जिस प्रकार बहुत-से रंगवाली वस्तुओंका सान्निध्य होनेपर स्फटिकमणि विचित्र सी प्रतीत होने लगती है, वैसे ही मायामय गुणके संसर्गसे स्वयम्भू परमात्माकी नाना रूपों में प्रतीति होती है। जैसे एक ही गार्हपत्य अग्नि दक्षिणाग्नि तथा आहवनीयानि आदि भिन्न-भिन्न संज्ञाओंको प्राप्त होती है, उसी प्रकार ये एक ही श्रीविष्णु ब्रह्मा आदि अनेक नाम एवं रूपों में उपलब्ध होते हैं। येभगवान् सब तरहसे देवताओंका कार्य सिद्ध करेंगे।’
शुद्ध चित्तवाले देवगण जब इस प्रकार सोच रहे थे, उसी समय भगवान् वामन इन्द्रके साथ बाष्कलिके घर गये। उन्होंने दूरसे ही बाष्कलिकी नगरीको देखा, जो परकोटेसे घिरी थी। सब प्रकारके रत्नोंसे सजे हुए ऊँचे-ऊँचे सफेद महल, जो आकाशचारी प्राणियोंके लिये भी अगम्य थे, उस पुरीकी शोभा बढ़ा रहे थे। नगरकी सड़कें बड़ी ही सुन्दर एवं क्रमबद्ध बनायी गयी थीं। कोई ऐसा पुष्प नहीं, ऐसी विद्या नहीं, ऐसा शिल्प नहीं तथा ऐसी कला नहीं, जो बाष्कलिकी नगरीमें मौजूद न रही हो। वहीं रहकर दानवराज बाष्कलि चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीका पालन करता था। वह धर्मका ज्ञाता, कृतज्ञ, सत्यवादी और जितेन्द्रिय था। सभी प्राणी उससे सुगमतापूर्वक मिल सकते थे। न्याय अन्यायका निर्णय करनेमें उसकी बुद्धि बड़ी ही कुशल थी। वह ब्राह्मणोंका भक्त, शरणागतोंका रक्षक तथा दीन और अनाथोंपर दया करनेवाला था। मन्त्र शक्ति, प्रभु शक्ति और उत्साह शक्ति- इन तीनों शक्तियोंसे वह सम्पन्न था सन्धि विग्रह यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय राजनीतिके इन छः गुणोंका अवसरके अनुकूल उपयोग करनेमें उसका सदा उत्साह रहता था। वह सबसे मुसकराकर बात करता था वेद और वेदांगोंके तत्त्वका उसे पूर्ण ज्ञान था। वह यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला, तपस्या परायण, उदार, सुशील, संयमी, प्राणियोंकी हिंसासे विरत, माननीय पुरुषको आदर देनेवाला, शुद्धहृदय, प्रसन्नमुख, पूजनीय पुरुषोंका पूजन करनेवाला, सम्पूर्ण विषयका ज्ञाता, दुर्दमनीय, सौभाग्यशाली, देखनेमें सुन्दर, अन्नका बहुत बड़ा संग्रह रखनेवाला, बड़ा धनी और बहुत बड़ा दानी था वह धर्म, अर्थ और काम- तीनोंके साधनमें संलग्न रहता था। बाष्कलि त्रिलोकीका एक श्रेष्ठ पुरुष था वह सदा अपनी नगरीमें ही रहता था उसमें देवता और दानवोंके भी घमंडको चूर्ण करनेकी शक्ति थी। ऐसे गुणोंसे विभूषित होकर वह त्रिभुवनकी समस्त प्रजाका पालन करता था। उस दानवराजके राज्यमें कोई भी अधर्म नहींहोने पाता था। उसकी प्रजामें कोई भी ऐसा नहीं था जो दीन, रोगी, अल्पायु, दुःखी, मूर्ख, कुरूप, दुर्भाग्यशाली और अपमानित हो ।
इन्द्रको आते देख दानवोंने जाकर राजा बाष्कलिसे कहा – ‘प्रभो! बड़े आश्चर्यकी बात है कि आज इन्द्र एक बौने ब्राह्मणके साथ अकेले ही आपकी पुरीमें आ रहे हैं। इस समय हमारे लिये जो कर्तव्य हो, उसे शीघ्र बताइये।’ उनकी बात सुनकर बाष्कलिने कहा ‘दानवो! इस नगरमें देवराजको आदरके साथ ले आना चाहिये। वे आज हमारे पूजनीय अतिथि हैं।’
पुलस्त्यजी कहते हैं- दानवराज बाष्कलि दानवोंसे ऐसा कहकर फिर स्वयं इन्द्रसे मिलनेके लिये अकेला ही राजमहलसे बाहर निकल पड़ा और अपने शोभा सम्पन्न नगरकी सातवीं ड्योढ़ीपर जा पहुँचा। इतनेमें ही उधरसे भगवान् वामन और इन्द्र भी आ पहुँचे। दानवराजने बड़े प्रेमसे उनकी ओर देखा और प्रणाम करके अपनेको कृतार्थ माना। वह हर्षमें भरकर सोचने लगा- ‘मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है, क्योंकि आज मैं त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर इन्द्रको याचकके रूपमें अपने घरपर आया देखता हूँ। ये मुझसे कुछ याचना करेंगे। घरपर आये हुए इन्द्रको मैंअपनी स्त्री पुत्र, महल तथा अपने प्राण भी दे डालूंगा; फिर त्रिलोकी के राज्यकी तो बात ही क्या है। यह सोचकर उसने सामने आ इन्द्रको अंकमें भरकर बड़े आदरके साथ गले लगाया और अपने राजभवनके भीतर ले जाकर अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उन दोनोंका यत्नपूर्वक पूजन किया। इसके बाद बाष्कलि बोला-‘ इन्द्र ! आज मैं आपको अपने घरपर स्वयं आया देखता हूँ; इससे मेरा जन्म सफल हो गया, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये। प्रभो ! मेरे पास आपका किस प्रयोजनसे आगमन हुआ? मुझे सारी बात बताइये। आपने यहाँतक आनेका कष्ट उठाया, इसे मैं बड़े आश्चर्यकी बात समझता हूँ।’
इन्द्रने कहा- बाष्कले ! मैं जानता हूँ, दानव वंशके श्रेष्ठ पुरुषोंमें तुम सबसे प्रधान हो। तुम्हारे पास मेरा आना कोई आश्वर्यकी बात नहीं है तुम्हारे घरपर आये हुए याचक कभी विमुख नहीं लौटते तुम याचकोंके लिये कल्पवृक्ष हो। तुम्हारे समान दाता कोई नहीं है। तुम प्रभामें सूर्यके समान हो। गम्भीरतामें सागरकी समानता करते हो। क्षमाशीलताके कारण तुम्हारी पृथ्वी के साथ तुलना की जाती है। ये ब्राह्मणदेवता वामन कश्यपजीके उत्तम कुलमें उत्पन्न हैं। इन्होंने मुझसे तीन पग भूमिके लिये याचना की है; किन्तु बाष्कले मेरा त्रिभुवनका राज्य तो तुमने पराक्रम करके छीन लिया है। अब मैं निराधार और निर्धन हैं। इन्हें देनेके लिये मेरे पास कोई भूमि नहीं है। इसलिये तुमसे याचना करता हूँ। याचक मैं नहीं, ये हैं। दानवेन्द्र! यदि तुम्हें अभीष्ट हो तो इन वामनजीको तीन पग भूमि दे दो।
बाष्कलिने कहा -देवेन्द्र! आप भले पधारे, आपका कल्याण हो। जरा अपनी ओर तो देखिये; आप ही सबके परम आश्रय हैं। पितामह ब्रह्माजी त्रिभुवनकी रक्षाका भार आपके ऊपर डालकर सुखसे बैठे हैं और ध्यान-धारणासे युक्त हो परमपदका चिन्तन करते हैं। भगवान् श्रीविष्णु भी अनेकों संग्रामोंसे थककर जगत्की चिन्ता छोड़ आपके ही भरोसे क्षीर सागरका आश्रय से सुखकी नींद सो रहे हैं। उमानाथ भगवान् शंकर भी आपको ही सारा भार सौंपकर कैलास पर्वतपरविहार करते हैं। मुझसे भिन्न बहुत-से दानवोंको, जो बलवानोंसे भी बलवान् थे, आपने अकेले हो मार गिराया। बारह आदित्य, ग्यारह रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठ वसु तथा सनातन देवता धर्म- ये सब लोग आपके ही बाहुबलका आश्रय ले स्वर्गलोकमें यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। आपने उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न सौ यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन किया है। वृत्र और नमुचि- आपके ही हाथसे मारे गये हैं। आपने ही पाक नामक दैत्यका दमन किया है। सर्वसमर्थ भगवान् विष्णुने आपकी ही आज्ञासे दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघपर बिठाकर मार डाला था। आप ऐरावतके मस्तकपर बैठकर वज्र हाथमें लिये जब संग्रामभूमिमें आते हैं. उस समय आपको देखते ही सब दानव भाग जाते हैं। पूर्वकालमें आपने बड़े-बड़े बलिष्ठ दानवोंपर विजय पायी है। देवराज! आप ऐसे प्रभावशाली हैं। आपके सामने मेरी क्या गिनती हो सकती है। आपने मेरा उद्धार करनेकी इच्छा ही यहाँ पदार्पण किया है। निस्सन्देह मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ, आपके लिये अपने प्राण भी दे दूंगा। देवेश्वर आपने मुझसे इतनी सी भूमिकी बात क्यों कही ? यह स्त्री, पुत्र, गौएँ तथा और जो कुछ भी धन मेरे पास है, वह सब एवं त्रिलोकीका सारा राज्य इन ब्राह्मणदेवताको दे दीजिये। आप ऐसा करके मुझपर तथा मेरे पूर्वजोंपर कृपा करेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है। क्योंकि भावी प्रजा कहेगी- ‘पूर्वकालमें राजा बाष्कलिने अपने घरपर आये हुए इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया था।’ [आप ही क्यों,] दूसरा भी कोई याचक यदि मेरे पास आये तो वह सदा ही मुझे अत्यन्त प्रिय होगा। आप तो उन सबमें मेरे लिये विशेष आदरणीय हैं; अतः आपको कुछ भी देनेमें मुझे कोई विचार नहीं करना है । परन्तु देवराज! मुझे इस बातसे बड़ी लज्जा हो रही है कि इन ब्राह्मणदेवताके विशेष प्रार्थना करनेपर आप मुझसे तीन ही पग भूमि माँग रहे हैं। मैं इन्हें अच्छे-अच्छे गाँव दूंगा और आपको स्वर्गका राज्य अर्पण कर दूँगा । वामनजीको स्त्री और भूमिदोनों दान करूँगा। आप मुझपर कृपा करके यह सब स्वीकार करें।
पुलस्त्यजी कहते हैं— राजन्! दानवराज बाष्कलिके – ऐसा कहनेपर उसके पुरोहित शुक्राचार्यने उससे कहा ‘महाराज तुम्हें उचित-अनुचितका बिलकुल ज्ञान नहीं है; किसको कब क्या देना चाहिये- इस बातसे तुम अनभिज्ञ हो अतः मन्त्रियोंके साथ भलीभाँति विचार करके युक्तायुक्तका निर्णय करनेके पश्चात् तुम्हें कोई कार्य करना चाहिये। तुमने इन्द्रसहित देवताओंको जीतकर त्रिलोकीका राज्य प्राप्त किया है। अपने वचनको पूरा करते ही तुम बन्धनमें पड़ जाओगे । राजन्! ये जो वामन हैं, इन्हें साक्षात् सनातन विष्णु ही समझो इनके लिये तुम्हें कुछ नहीं देना चाहिये; क्योंकि इन्होंने ही तो पहले तुम्हारे वंशका उच्छेद कराया है और आगे भी करायेंगे इन्होंने मायासे दानवोंको परास्त किया है और मायासे ही इस समय बौने ब्राह्मणका रूप बनाकर तुम्हें दर्शन दिया है; अतः अब बहुत कहनेकी आवश्यकता नहीं है। इन्हें कुछ न दो। [तीन पग तो बहुत है,] मक्खीके पैरके बराबर भी भूमि देना न स्वीकार करो। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो शीघ्र ही तुम्हारा नाश हो जायगा; यह मैं तुम्हें सच्ची बात कह रहा हूँ।’
बाष्कलिने कहा- गुरुदेव मैंने धर्मकी इच्छासे इन्हें सब कुछ देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। प्रतिज्ञाका पालन अवश्य करना चाहिये, यह सत्पुरुषोंका सनातन धर्म है। यदि ये भगवान् विष्णु हैं और मुझसे दान लेकर देवताओंको समृद्धिशाली बनाना चाहते हैं, तब तो मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं होगा। ध्यान-परायण योगी निरन्तर ध्यान करते रहनेपर भी जिनका दर्शन जल्दी नहीं पाते, उन्होंने ही यदि मुझे दर्शन दिया है, तब तो इन देवेश्वरने मुझे और भी धन्य बना दिया। जो लोग हाथमें कुश और जल लेकर दान देते हैं, वे भी ‘मेरे दानसे सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों’ इस वचनके कहनेपर मोक्षके भागी होते हैं। इस कार्यको निश्चित रूपसे करनेके लिये मेरा जो दृढ़ संकल्प हुआ है, उसमेंआपका उपदेश ही कारण है। बचपनमें आपने एक बार उपदेश दिया था, जिसे मैंने अच्छी तरह अपने हृदयमें धारण कर लिया था। वह उपदेश इस प्रकार था- ‘शत्रु भी यदि घरपर आ जाय तो उसके लिये कोई वस्तु अदेय नहीं है-उसे कुछ भी देनेसे इनकार नहीं करना चाहिये।” गुरुदेव! यही सोचकर मैंने इन्द्रके लिये स्वर्गका राज्य और वामनजीके लिये अपने प्राणतक दे डालनेका निश्चय कर लिया है। जिस दानके देनेमें कुछ भी कष्ट नहीं होता, ऐसा दान तो संसारमें सभी लोग देते हैं।
यह सुनकर गुरुजीने लज्जासे अपना मुँह नीचा कर लिया। तब बाष्कलिने इन्द्रसे कहा-‘देव! आपके माँगनेपर में सारी पृथ्वी दे सकता हूँ: यदि इन्हें तीन ही पग भूमि देनी पड़ी तो यह मेरे लिये लज्जाकी बात होगी।’
इन्द्रने कहा- दानवराज! तुम्हारा कहना सत्य है, किन्तु इन ब्राह्मणदेवताने मुझसे तीन ही पग भूमिकी याचना की है। इनको इतनी ही भूमिकी आवश्यकता है। मैंने भी इन्होंके लिये तुमसे याचना की है। अतः इन्हें यही वर प्रदान करो।
बाष्कलिने कहा- देवराज! आप वामनको मेरी ओरसे तीन पग भूमि दे दीजिये और आप भी चिरकालतक वहाँ सुखसे निवास कीजिये।
पुलस्त्यजी कहते हैं- यह कहकर बाष्कलिने हाथमें जल ले ‘साक्षात् श्रीहरि मुझपर प्रसन्न हों’ ऐसा कहते हुए वामनजीको तीन पग भूमि दे दी। दानवराजके दान करते ही श्रीहरिने वामनरूप त्याग दिया और देवताओंका हित करनेकी इच्छासे सम्पूर्ण लोकोंको नाप लिया। वे यज्ञ-पर्वतपर पहुँचकर उत्तरकी ओर मुँह करके खड़े हो गये। उस समय दानवलोक भगवान्के बायें चरणके नीचे आ गया। तब जगदीश्वरने पहला पग सूर्यलोकमें रखा और दूसरा ध्रुवलोकमें। फिर अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान्ने तीसरे पगसे ब्रह्माण्डपर आघात किया। उनके अँगूठेके अग्रभागसे लगकर ब्रह्माण्ड-कटाह फूट गया, जिससे बहुत-सा जल बाहरनिकला। उसे ही भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकटहोनेवाली वैष्णवी नदी गंगा कहते हैं। गंगाजी अनेक कारणवश भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हैं। उनके द्वारा चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकी व्याप्त है। तत्पश्चात् भगवान् श्रीवामनने बाष्कलिसे कहा- ‘मेरे तीन पग पूर्ण करो।’ बाष्कलिने कहा ‘भगवन्! आपने पूर्वकालमें जितनी बड़ी पृथ्वी बनायी थी, उसमेंसे मैंने कुछ भी छिपाया नहीं है। पृथ्वी छोटी है और आप महान् हैं। मुझमें सृष्टि उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। [जिससे कि दूसरी पृथ्वी बनाकर आपके तीन पग पूर्ण करूँ।] देव! आप जैसे प्रभुओंकी इच्छा-शक्ति ही मनोवांछित कार्य करनेमें समर्थ होती है।’
सत्यवादी बाष्कलिको निरूत्तर जानकर भगवान् श्रीविष्णु बोले- ‘दानवराज बोलो, मैं तुम्हारी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ? तुम्हारा दिया हुआ संकल्पका जल मेरे हाथमें आया है, इसलिये तुम वर पानेके योग्य हो। वरदानके उत्तम पात्र हो। तुम्हें जिस वस्तुकी इच्छा हो, माँगो, मैं उसे दूँगा।’बाष्कलिने कहा- देवेश्वर ! मैं आपकी भक्ति चाहता हूँ। मेरी मृत्यु भी आपके ही हाथसे हो, जिससे मुझे आपके परमधाम श्वेतद्वीपकी प्राप्ति हो, जो तपस्वियोंके लिये भी दुर्लभ है।
पुलस्त्यजी कहते हैं— बाष्कलिके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णुने कहा—’तुम एक कल्पतक ठहरे रहो। जिस समय वराहरूप धारण करके मैं रसातलमें प्रवेश करूँगा, उसी समय तुम्हारा वध करूँगा; इससे तुम मेरे रूपमें लीन हो जाओगे।’ भगवान्के ऐसे वचन सुनकर वह दानव उनके सामनेसे चला गया। भगवान् भी उससे त्रिलोकीका राज्य छीनकर अन्तर्धान हो गये। बाष्कलि पाताललोकका निवासी होकर सुखपूर्वक रहने लगा। बुद्धिमान् इन्द्र तीनों लोकोंका पालन करने लगे। यह जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुके वामन अवतारका वर्णन है, इसमें श्रीगंगाजीके प्रादुर्भावकी कथा भी आ गयी है। यह प्रसंग सब पापका नाश करनेवाला है। यह मैंने श्रीविष्णुके तीनों पगोंका इतिहास बतलाया है, जिसे सुनकर मनुष्य इस संसारमें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है। श्रीविष्णुके पगका दर्शन कर लेनेपर उसके दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता और घोर पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। पापी मनुष्य प्रत्येक युगमें यज्ञ-पर्वतपर स्थित श्रीविष्णुके चरणोंकादर्शन करके पापसे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! जो मनुष्य मौन होकर यज्ञ-पर्वतपर चढ़ता है अथवा तीनों पुष्करोंकी यात्रा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल | मिलता है। वह सब पापोंसे मुक्त हो मृत्युके पश्चात् श्रीविष्णुधाममें जाता है।
भीष्मजी बोले- भगवन्! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है कि वामनजीके द्वारा दानवराज बाष्कलि बन्धनमें डाला गया। मैंने तो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके मुखसे ऐसी कथा सुन रखी है कि भगवान्ने वामनरूप धारण करके राजा बलिको बाँधा था और विरोचनकुमार बलि आजतक पाताल-लोकमें मौजूद हैं। अतः आप मुझसे बलिके बाँधे जानेकी कथाका वर्णन कीजिये ।
पुलस्त्यजी बोले- नृपश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सब बातें बताता हूँ, सुनो। पहली बारकी कथा तो तुम सुन ही चुके हो। दूसरी बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरमें भी भगवान् श्रीविष्णुने त्रिलोकीको अपने चरणोंसे नापा था। उस समय उन देवाधिदेवने अकेले ही यज्ञमें जाकर राजा बलिको बाँधा और भूमिको नापा था। उस अवसरपर भगवान्का पुनः वामन अवतार हुआ तथा पुनः उन्होंने त्रिविक्रमरूप धारण किया था। वे पहले वामन होकर फिर अवामन (विराट्) गये।
अध्याय-23 सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! किस कर्मके परिणामसे मनुष्य प्रेत-योनिमें जाता है तथा किस कर्मके द्वारा वह उससे छुटकारा पाता है- यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।
पुलस्त्यजी बोले – राजन्! मैं तुम्हें ये सब बातें विस्तार से बतलाता हूँ, सुनो; जिस कर्मसे जीव प्रेत होता है तथा जिस कर्मके द्वारा देवताओंके लिये भी दुस्तर घोर नरकमें पड़ा हुआ प्राणी भी उससे मुक्त हो जाता है, उसका वर्णन करता हूँ। प्रेत-योनिमें पड़े हुए मनुष्य सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप तथा पुण्यतीर्थोंका बारम्बार कीर्तन करनेसे उससे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! सुना जाता है- प्राचीन कालमें कठिन नियमों का पालनकरनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो ‘पृथु’ नामसे सर्वत्र विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे। उन्हें योगका ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप यज्ञमें संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रिय संयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका भय मानते और सत्य भाषणमें रत रहते थे। सबसे मीठे वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लियेसदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था। इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थ यात्रा करूँ, तीर्थोके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्कर तीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा नमस्कार करके यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयंकर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका संचार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था, तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा – ‘विकराल मुखवाले प्राणियो! तुमलोग कौन हो? किसके द्वारा कौन सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत रूपकी प्राप्ति हुई है?”प्रेतोंने कहा- हम भूख और प्याससे पीड़ित हो सर्वदा महान् दुःखसे घिरे रहते हैं। हमारा ज्ञान और विवेक नष्ट हो गया है, हम सभी अचेत हो रहे हैं। हमें इतना भी ज्ञान नहीं है कि कौन दिशा किस ओर है। दिशाओंके बीचकी अवान्तर दिशाओंको भी नहीं पहचानते। आकाश, पृथ्वी तथा स्वर्गका भी हमें ज्ञान नहीं है। यह तो दुःखकी बात हुई। सुख इतना ही है कि सूर्योदय देखकर हमें प्रभात-सा प्रतीत हो रहा है। हममेंसे एकका नाम पर्युषित है. दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है।
ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या कारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं?
प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ठ भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युपित (बासी) अन्न देता था; इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके वाचना करनेपर भी [उसे कुछ देनेके भयसे] शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगों में सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवां प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको | सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पंगु हो गया है। सूची (हिंसा करनेवाले) – का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है। अपने पापके प्रभावसे मेरा अण्डकोष भी बढ़ गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है, जो सब मैंने तुम्हें बता दिया। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ और भी पूछो। पूछनेपर उस बातको भी बतायेंगे।ब्राह्मण बोले- इस पृथ्वीपर जितने भी जीव रहते हैं, उन सबकी स्थिति आहारपर ही निर्भर है। अत: मैं तुमलोगोंका भी आहार जानना चाहता हूँ। प्रेत बोले- विप्रवर। हमारे आहारकी बात सुनिये। हमलोगोका आहार सभी प्राणियोंके लिये निन्दित है। उसे सुनकर आप भी बारम्बार निन्दा करेंगे। बलगम, देश पाखाना और स्त्रीके शरीरका मेल- इन्हींसे हमारा भोजन चलता है। जिन घरोंमें पवित्रता नहीं है, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। जो घर स्त्रियोंके द्वारा दग्ध और छिन्न-भिन्न हैं, जिनके सामान इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं तथा मल-मूत्रके द्वारा जो घृणित अवस्थाको पहुँच चुके हैं, उन्हीं घरोंमें प्रेत भोजन करते हैं। जिन घरोंमें मानसिक लज्जाका अभाव है, पतितोंका निवास है तथा जहाँके निवासी लूट-पाटका काम करते हैं, वहीं प्रे भोजन करते हैं जहाँ बलिवैश्वदेव तथा वेद मन्त्रोंका उच्चारण नहीं होता, होम और व्रत नहीं होते, यहाँ प्रेत भोजन करते हैं जहाँ गुरुजनोंका आदर नहीं होता, जिन घरोंमें स्त्रियोंका प्रभुत्व है, जहाँ क्रोध और लोभने अधिकार जमा लिया है, वहीं प्रेत भोजन करते है। तात मुझे अपने भोजनका परिचय देते लगा हो रही है, अतः इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। तपोधन। तुम नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले हो, इसलिये प्रेतयोनिसे दुःखी होकर हम तुमसे पूछ रहे हैं। बताओ, कौन-सा कर्म करनेसे जीव प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता?
ब्राह्मणने कहा- जो मनुष्य एक रात्रिका, तीन रात्रीका तथा कृच्छ्रचान्द्रायण आदि अन्य व्रतोंका अनुष्ठान करता है, वह कभी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। जो प्रतिदिन तीन, पाँच या एक अग्निका सेवन करता है तथा जिसके हृदयमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई है यह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो मान और अपमानमें, सुवर्ण और मिट्टी के ढेलेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु थापितको पूजामें सदा प्रवृत रहनेवाला मनुष्य भी प्रेतयोनि नहीं पड़ता शुक्लपक्षमें मंगलवारके दिनचतुर्थी तिथि आनेपर उसमें जो श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जिसने क्रोधको जीत लिया है, जिसमें डाहका सर्वथा अभाव है, जो तृष्णा और आसक्तिसे रहित, क्षमावान् और दानशील हैं, वह प्रेतयोनिमें नहीं जाता। जो गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदी और देवताओंको प्रणाम करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता।
प्रेत बोले- महामुने! आपके मुखसे नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले; हम दुःखी जीव हैं, इसलिये पुनः पूछते हैं- जिस कर्मसे प्रेतयोनिमें जाना पड़ता है, वह हमें बताइये।
ब्राह्मणने कहा- यदि कोई द्विज और विशेषतः ब्राह्मण शूद्रका अन्न खाकर उसे पेटमें लिये ही मर जाय तो वह प्रेत होता है। जो आश्रमधर्मका त्याग करके मदिरा पीता, परायी स्त्रीका सेवन करता तथा प्रतिदिन मांस खाता है, उस मनुष्यको प्रेत होना पड़ता है। जो ब्राह्मण यज्ञके अनधिकारी पुरुषोंसे यज्ञ करवाता, अधिकारी पुरुषोंका त्याग करता और शूद्रकी सेवामें रत रहता है, वह प्रेतयोनिमें जाता है। जो मित्रकी धरोहरको हड़प लेता, शूद्रका भोजन बनाता, विश्वासघात करता और कूटनीतिका आश्रय लेता है, वह निश्चय ही प्रेत होता है। ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, शराबी, गुरुपत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा भूमि और कन्याका अपहरण करनेवाला निश्चय ही प्रेत होता है। जो पुरोहित नास्तिकतामें प्रवृत्त होकर अनेकों ऋत्विजोंके लिये मिली हुई दक्षिणाको अकेले ही हड़प लेता है, उसे निश्चय ही प्रेत होना पड़ता है।
विप्रवर पृथु जब इस प्रकार उपदेश कर रहे थे, उसी समय आकाशमें सहसा नगारे बजने लगे। हजारों देवताओंके हाथसे छोड़े हुए फूलोंकी वर्षा होने लगी। प्रेतोंके लिये चारों ओरसे विमान आ गये। आकाशवाणी हुई— ‘इन ब्राह्मणदेवताके साथ वार्तालाप और पुण्यकथाका कीर्तन करनेसे तुम सब प्रेतोंको दिव्यगति प्राप्त हुई है। [इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे उन प्रेतोंका उद्धार हो गया ।] गंगानन्दन ! यदि तुम्हें कल्याणसाधनकी आवश्यकता है तो तुम आलस्य छोड़कर पूर्ण प्रयत्न करके सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप सत्संग करो। यह पाँच प्रेतोंकी कथा सम्पूर्ण धर्मोका तिलक है। जो मनुष्य इसका एक लाख पाठ करता है, उसके वंशमें कोई प्रेत नहीं होता। जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिके साथ इस प्रसंगका बारम्बार श्रवण करता है, वह भी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता।
भीष्मजीने पूछा- ब्रहान्। पुष्करकी स्थिति अन्तरिक्षमें क्योंकर बतलायी जाती है? धर्मशील मुनि इस लोकमें उसे कैसे प्राप्त करते हैं और किस-किसने प्राप्त किया है?
पुलस्त्यजी बोले- राजन्! एक समयकी बात है-दक्षिणभारतके निवासी एक करोड़ ऋषि पुष्कर तीर्थमें स्नान करनेके लिये आये; किन्तु पुष्कर आकाशमें स्थित हो गया। यह जानकर वे समस्त मुनि प्राणायाममें तत्पर हो परब्रह्मका ध्यान करते हुए बारह वर्षोंतक वहीं खड़े रह गये। तब ब्रह्माजी, इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषि महर्षि आकाशमें अलक्षित होकर उन्हें [पुष्कर-प्राप्तिके लिये] अत्यन्त दुष्कर नियम बताते हुए बोले- ‘द्विजगण! तुमलोग मन्त्रद्वारा पुष्करका आवाहन करो । ‘आपो हि ष्ठा मयो0′ इत्यादि तीन ऋचाओंका जप करनेसे यह तीर्थ तुम्हारे समीप आ जायगा और अघमर्षण मन्त्रका जप करनेसे पूर्ण फलदायक होगा।’ उन ब्रह्मर्षियोंकी बात समाप्त होनेपर उन सब मुनियोंने वैसा ही किया। ऐसा करनेसे वे परम पावन बन गये उन्हें पुष्कर- प्राप्तिका पूरा-पूरा फल मिल गया। –
राजन्! जो कार्तिकको पूर्णिमाको पुष्कर में स्नान करता है, वह परम पवित्र हो जाता है। ब्रह्माजीके सहित पुष्कर तीर्थ सबको पुण्य प्रदान करनेवाला है। वहाँ आनेवाले सभी वर्णोंके लोग अपने पुण्यकी वृद्धि करते हैं। वे मन्त्रज्ञानके बिना ही ब्राह्मणोंके तुल्य हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र हो तो उसे स्नान-दानके लिये अत्यन्त उत्तम समझना चाहिये। यदि उस दिन भरणी नक्षत्र हो तो भी वह तिथिमुनियोंद्वारा परम पुण्यदायिनी बतलायी गयी है और यदि उस तिथिको रोहिणी नक्षत्र हो तो वह महाकार्तिकी पूर्णिमा कहलाती है। उस दिनका स्नान देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। यदि शनिवार, रविवार तथा बृहस्पतिवार इन तीनों दिनोंमेंसे किसी दिन उपर्युक्त तीन नक्षत्रोंमेंसे कोई नक्षत्र हो तो उस दिन पुष्करमें स्नान करनेवालेको निश्चय ही अश्वमेध यज्ञका पुण्य होता है। उस दिन किया हुआ दान और पितरोंका तर्पण अक्षय होता है। यदि सूर्य विशाखा नक्षत्रपर और चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्रपर हों तो पद्मक नामका योग होता है, यह पुष्करमें अत्यन्त दुर्लभ माना गया है जो आकाशसे उतरे हुए ब्रह्माजीके इस शुभ तीर्थमें स्नान करते हैं, उन्हें महान् अभ्युदयशाली लोकोंकी प्राप्ति होती है। महाराज ! उन्हें दूसरे किसी पुण्यके करने न करनेकी लालसा नहीं रहती। यह मैंने सच्ची बात कही है। पुष्कर इस पृथ्वीपर सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ बताया गया है। संसारमें इससे बढ़कर पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं है। कार्तिककी पूर्णिमाको यह विशेष पुण्यदायक होता है। वहाँ उदुम्बर वनसे सरस्वतीका आगमन हुआ है और उसीके जलसे मुनिजन-सेवित पुष्कर तीर्थ भरा हुआ है। सरस्वती ब्रह्माजीकी पुत्री है। वह पुण्यसलिला एवं पुण्यदायिनी नदी है। वंशस्तम्बसे विस्तृत आकार धारण करके वह उत्तरकी ओर प्रवाहित हुई है। इस रूपमें कुछ दूर जाकर वह फिर पश्चिमकी ओर बहने लगती है और वहाँसे प्राणियोंपर दया करनेके लिये अदृश्यभावका परित्याग करके स्वच्छ जलकी धारा बहाती हुई प्रकट रूपमें स्थित होती है। कनका सुप्रभा, नन्दा, प्राची और सरस्वती-ये पाँच स्रोत पुष्करमें विद्यमान हैं। इसलिये ब्रह्माजीने सरस्वतीको पंचस्त्रोता कहा है। उसके तटपर अत्यन्त सुन्दर तीर्थ और मन्दिर हैं, जो सब ओरसे सिद्धों और मुनियोंद्वारा सेवित हैं। उन सब तीर्थोंमें सरस्वती ही धर्मको हेतु है। वहाँ स्नान करने, जल पीने तथा सुवर्ण आदि दान करने से महानदी सरस्वती अक्षय फल उत्पन्न करती है। मुनीश्वरगण अन्न और वस्त्रका दान श्रेष्ठ बतलातेहैं; जो मनुष्य सरस्वती-तटवर्ती तीर्थोंमें उक्त वस्तुओंका दान करते हैं, उनका दान धर्मका साधक और अत्यन्त उत्तम माना गया है। जो स्त्री या पुरुष संयमसे रहकर प्रयत्नपूर्वक उन तीथोंमें उपवास करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाकर यथेष्ट आनन्दका अनुभव करते हैं। जो स्थावर या जंगम प्राणी प्रारब्ध कर्मका क्षय हो जानेपर सरस्वतीके तटपर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे सब हठात् यज्ञके सम्पूर्ण श्रेष्ठ फल प्राप्त करते हैं। जिनका चित्त जन्म और मृत्यु आदिके दुःखसे पीड़ित है, उन मनुष्योंके लिये सरस्वती नदी धर्मको उत्पन्न करनेवाली अरणीके समान है। अतः मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक उत्तम फल प्रदान करनेवाली महानदी सरस्वतीका सब प्रकारसे सेवन करना चाहिये। जो सरस्वतीके पवित्र जलका नित्य पान करते हैं, वे मनुष्य नहीं, इस पृथ्वीपर रहनेवाले देवता है द्विजलोग यह दान एवं तपस्यासे जिस फलको प्राप्त करते हैं, वह यहाँ स्नान करनेमात्रसे शूद्रोंको भी सुलभ हो जाता है। महापातकी मनुष्य भी पुष्कर तीर्थके दर्शनमात्रसे पापरहित हो जाते हैं और शरीर छूटनेपर स्वर्गको जाते हैं। पुष्करमें उपवास करनेसे पौण्डरीक यज्ञका फल मिलता है। जो यहाँ अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमास भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको तिलका दान करता है, वह वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य वहाँ शुद्ध वृत्तिसे रहकर तीन राततक उपवास करते हैं और ब्राह्मणोंको धन देते हैं, वे मरनेके पश्चात् ब्रह्माका रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हो ब्रह्माजीके साथ सायुज्य मोक्षको प्राप्त होते हैं।
पुष्करमें गंगोद्भेद तीर्थ है, जहाँ नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी सरस्वतीको देखनेके लिये आयी थीं। उस समय वहाँ आकर गंगाजीने कहा- ‘सखी! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। तुमने देवताओंका वह दुष्कर कार्य किया है, जिसे दूसरा कोई कभी नहीं कर सकता था। महाभागे ! इसीलिये देवता भी तुम्हारा दर्शन करने आये हैं। तुम मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा इनका सत्कार करो।’
पुलस्त्यजी कहते हैं— गंगाजीके ऐसा कहनेपरब्रह्मकुमारी सरस्वती उन सुरेश्वरोंकी पूजा करके फिर अपनी सखियोंसे मिली। ज्येष्ठ और मध्यम पुष्करके बीच उनका विश्वविख्यात समागम हुआ था। वहाँ सरस्वतीका मुख पश्चिम दिशाकी ओर और गंगाका उत्तरकी ओर है। तदनन्तर पुष्करमें आये हुए समस्त देवता सरस्वतीके दुष्कर कर्मका महत्त्व समझकर उसकी स्तुति करने लगे ।
देवता बोले- देवि! तुम्हीं धृति, तुम्हीं मति, तुम्हीं लक्ष्मी, तुम्हीं विद्या और तुम्हीं परागति हो । श्रद्धा, परानिष्ठा, बुद्धि, मेधा, धृति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सिद्धि हो, तुम्हीं स्वाहा और स्वधा हो तथा तुम्हीं परम पवित्र मत (सिद्धान्त) हो । सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा, सरस्वती, यज्ञविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या, सुन्दर आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), त्रयीविद्या (वेदत्रयी) और दण्डनीति- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं। समुद्रको जानेवाली श्रेष्ठ नदी! तुम्हें नमस्कार है। पुण्यसलिला सरस्वती! तुम्हें नमस्कार है। पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। वरांगने ! तुम्हें नमस्कार है।
देवताओंने जब इस प्रकार उस दिव्य देवीका स्तवन किया, तब वह पूर्वाभिमुख होकर स्थित हुई। ब्रह्माजीके कथनानुसार वही प्राची सरस्वती है। सम्पूर्ण देवताओंसे युक्त होनेके कारण देवी सरस्वती सब तीर्थोंमें प्रधान हैं। वहाँ सुधावट नामका एक पितामह सम्बन्धी तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे महापातकी पुरुष भी शुद्ध हो जाते हैं और ब्रह्माजीके समीप रहकर दिव्य भोग भोगते हैं। जो नरश्रेष्ठ वहाँ उपवास करते हैं, वे मृत्युके पश्चात् हंसयुक्त विमानपर आरूढ़ हो निर्भयतापूर्वक शिवलोकको जाते हैं। जो लोग वहाँ शुद्ध अन्तःकरण वाले ब्रह्मज्ञानी महात्माओंको थोड़ा भी दान करते हैं, उनका वह दान उन्हें सौ जन्मोंतक फल देता रहता है। जो मनुष्य वहाँ टूटे-फूटे तीर्थोंका जीर्णोद्धार करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाकर सुखी एवं आनन्दित होते हैं। जो मनुष्य वहाँ ब्रह्माजीकी भक्तिके परायण हो पूजा, जप और होम करते हैं, उन्हें वह सब कुछ अनन्त पुण्यफलप्रदान करता है। उस तीर्थमें दीप दान करनेसे ज्ञान नेत्रकी प्राप्ति होती है, मनुष्य अतीन्द्रिय पदमें स्थित होता है और धूप दानसे उसे ब्रह्मधाम प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, प्राची सरस्वती और गंगाके संगममें जो कुछ दिया जाता है, वह जीते-जी तथा मरनेके बाद भी अक्षयफल प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ स्नान, जप और होम करनेसे अनन्त फलकी सिद्धि होती है।
भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी उस तीर्थमें आकर मार्कण्डेयजीके कथनानुसार अपने पिता दशरथजीके लिये पिण्ड दान और श्राद्ध किया था। वहाँ एक चौकोर बावली है, जहाँ पिण्डदान करनेवाले मनुष्य हंसयुक्त विमानसे स्वर्गको जाते हैं। यज्ञवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने उस तीर्थके ऊपर उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त पितृमेध यज्ञ (श्राद्ध) किया था। उसमें उन्होंने वसुओंको पितर, रुद्रोंको पितामह और आदित्योंको प्रपितामह नियत किया था। फिर उन तीनोंको बुलाकर कहा- ‘आपलोग सदा यहाँ विराजमान रहकर पिण्डदान आदि ग्रहण ‘किया करें।’ वहाँ जो पितृकार्य किया जाता है, उसका अक्षय फल होता है। पितर और पितामह सन्तुष्ट होकर उन्हें उत्तम जीविकाकी प्राप्तिके लिये आशीर्वाद देते हैं। वहाँ तर्पण करनेसे पितरोंकी तृप्ति होती है और पिण्डदान करनेसे उन्हें स्वर्ग मिलता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर प्राची सरस्वती तीर्थमें तुम पिण्डदान करो।प्रत्येक पुत्रको उचित है कि वह वहाँ जाकर अपने समस्त पितरोंको यत्नपूर्वक तृप्त करे। वहाँ प्राचीनेश्वर भगवान्का स्थान है। उसके सामने आदितीर्थ प्रतिष्ठित है, जो दर्शनमात्रसे मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँके जलका स्पर्श करके मनुष्य जन्म-मृत्युके बन्धन से छुटकारा पा जाता है। उसमें स्नान करनेसे वह ब्रह्माजीका अनुचर होता है। जो मनुष्य आदितीर्थमें स्नान करके एकाग्रतापूर्वक थोडेसे अन्नका भी दान करता है, वह स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। जो विद्वान् वहाँ स्नान करके ब्रह्माजीके भक्तोंको सुवर्ण और खिचड़ी दान करता है, वह स्वर्गलोकमें सुखी एवं आनन्दित होता है। जहाँ प्राची सरस्वती विद्यमान हैं, वहाँ मनुष्य दूसरे साधनकी खोज क्यों करते हैं। प्राची सरस्वतीमें स्नान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीके लिये तो जप-तप आदि साधन किये जाते हैं। जो भगवती प्राची सरस्वतीका पवित्र जल पीते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं, देवता समझना चाहिये – यह मार्कण्डेय मुनिका कथन है। सरस्वती नदीके तटपर पहुँचकर स्नान करनेका कोई नियम नहीं है। भोजनके बाद अथवा भोजनके पहले, दिनमें अथवा रात्रिमें भी स्नान किया जा सकता है। वह तीर्थ अन्य सब तीर्थोकी अपेक्षा प्राचीन और श्रेष्ठ माना गया है। वह प्राणियोंके पापोंका नाशक और पुण्यजनक बतलाया गया है।
अध्याय-24 मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
भीष्मजीने पूछा- मुने! मार्कण्डेयजीने वहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको किस प्रकार उपदेश दिया तथा किस समय और कैसे उनका समागम हुआ? मार्कण्डेयजी किसके पुत्र हैं, वे कैसे महान् तपस्वी हुए तथा उनके इस नामका क्या रहस्य है? महामुने! इन सब बातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! तुम्हें मार्कण्डेयजीके जन्मकी उत्तम कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कल्पकी बात है; मृकण्डु नामसे विख्यात एक मुनि थे,जो महर्षि भृगुके पुत्र थे। वे महाभाग मुनि अपनी पत्नीके साथ वनमें रहकर तपस्या करते थे । वनमें रहते समय ही उनके एक पुत्र हुआ। धीरे-धीरे उसकी अवस्था पाँच वर्षकी हुई। वह बालक होनेपर भी गुणोंमें बहुत बढ़ा – चढ़ा था। एक दिन जब वह बालक आँगनमें घूम रहा था, किसी सिद्ध ज्ञानीने उसकी ओर देखा और बहुत देरतक ठहरकर उसके जीवनके विषयमें विचार किया। बालकके पिताने पूछा- ‘मेरे पुत्रकी कितनी आयु है ?” ‘सिद्ध बोला- ‘मुनीश्वर विधाताने तुम्हारे पुत्रकी जो आयु निश्चित की है, उसमें अब केवल छः महीने और शेष रह गये हैं। मैंने यह सच्ची बात बतायी है; इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये।’
भीष्म ! उस सिद्ध ज्ञानीकी बात सुनकर बालकके पिताने उसका उपनयन- संस्कार कर दिया और कहा ‘बेटा! तुम जिस किसी मुनिको देखो, प्रणाम करो । पिताके ऐसा कहनेपर वह बालक अत्यन्त हर्षमें भरकर सबको प्रणाम करने लगा। धीरे-धीरे पाँच महीने, पचीस दिन और बीत गये। तदनन्तर निर्मल स्वभाववाले सप्तर्षिगण उस मार्गसे पधारे। बालकने उन्हें देखकर उन सबको प्रणाम किया। सप्तर्षियोंने उस बालकको ‘आयुष्मान् भव, सौम्य!’ कहकर दीर्घायु होनेका आशीर्वाद दिया। इतना कहनेके बाद जब उन्होंने उसकी आयुपर विचार किया, तब पाँच ही दिनकी आयु शेषजानकर उन्हें बड़ा भय हुआ। वे उस बालकको लेकर ब्रह्माजीके पास गये और उसे उनके सामने रखकर उन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम किया। बालकने भी ब्रह्माजीके चरणोंमें मस्तक झुकाया तब ब्रह्माजीने ऋषियोंके समीप ही उसे चिरायु होनेका आशीर्वाद दिया। पितामहका वचन सुनकर ऋषियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। तत्पश्चात्ब्रह्माजीने उनसे पूछा- ‘तुमलोग किस कामसे यहाँ आये हो तथा यह बालक कौन है? बताओ।’ ऋषियोंने कहा – ‘यह बालक मृकण्डुका पुत्र है, इसकी आयु क्षीण हो चुकी है। इसका सबको प्रणाम करनेका स्वभाव हो गया है। एक दिन दैवात् तीर्थयात्राके प्रसंगसे हमलोग उधर जा निकले। यह पृथ्वीपर घूम रहा था। हमने इसकी ओर देखा और इसने हम सब लोगोंको प्रणाम किया। उस समय हमलोगोंके मुखसे बालकके प्रति यह वाक्य निकल गया- ‘चिरायुर्भव, पुत्र! (बेटा! चिरजीवी होओ।)’ [आपने भी ऐसा ही कहा है।] अतः देव आपके साथ हमलोग झूठे क्यों बनें ?’
ब्रह्माजीने कहा- ऋषियो! यह बालक मार्कण्डेय आयुमै मेरे समान होगा। यह कल्पके आदि और अन्तमें भी श्रेष्ठ मुनियोंसे घिरा हुआ सदा जीवित रहेगा।
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार सप्तर्षियोंने ब्रह्माजीसे वरदान दिलवाकर उस बालकको पुनः पृथ्वीतलपर भेज दिया और स्वयं तीर्थयात्राके लिये चले गये। उनके चले जानेपर मार्कण्डेय अपने घर आये और पितासे इस प्रकार बोले- ‘तात! मुझे ब्रह्मवादी मुनिलोग ब्रह्मलोकमें ले गये थे। वहाँ ब्रह्माजीने मुझे दीर्घायु बना दिया। इसके बाद ऋषियोंने बहुत-से वरदान देकर मुझे यहाँ भेज दिया। अतः आपके लिये जो चिन्ताका कारण था, वह अब दूर हो गया। मैं लोककर्ता ब्रह्माजीकी कृपासे कल्पके आदि और अन्तमें तथा आगे आनेवाले कल्पमें भी जीवित रहूँगा। इस पृथ्वीपर पुष्कर तीर्थ ब्रह्मलोकके समान है; अतः अब मैं वहीं जाऊँगा।’
मार्कण्डेयजीके वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुको बड़ा हर्ष हुआ। वे एक क्षणतक चुपचाप आनन्दकी साँस लेते रहे। इसके बाद मनके द्वारा धैर्य धारण कर इस प्रकार बोले-‘बेटा! आज मेरा जन्म सफल हो गया तथा आज ही मेरा जीवन धन्य हुआ है; क्योंकि तुम्हें सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीका दर्शन प्राप्त हुआ। तुम जैसे वंशधर पुत्रको पाकर वास्तवमें मैं पुत्रवान् हुआ हूँ। वत्स! जाओ, पुष्करमें विराजमान देवेश्वर ब्रह्माजीका दर्शन करो।उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता। उन्हें सभी प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय हो जाते हैं। तात! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने बिना यत्नके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श माने जाओगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है मेरा तो ऐसा आशीर्वाद है हो, तुम्हारे लिये और सब लोग भी यही कहते हैं कि ‘तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम लोकोंमें जाओगे।’ पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार ऋषियों और
गुरुजनोंका अनुग्रह प्राप्त करके मृकण्डुनन्दन मार्कण्डेयजीने पुष्कर तीर्थमें जाकर एक आश्रम स्थापित किया, जो मार्कण्डेय- आश्रमके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ स्नान करके पवित्र हो मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त करता है। उसका अन्तःकरण सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा उसे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। अब मैं दूसरे प्राचीन इतिहासका वर्णन करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीने जिस प्रकार पुष्कर तीर्थका निर्माण किया, वह प्रसंग आरम्भ करता हूँ। पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजी जब सीता और लक्ष्मणके साथ चित्रकूटसे चलकर महर्षि अत्रिके आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे पूछा महामुने। इस पृथ्वीपर कौन-कौन से पुण्यमय तीर्थ अथवा कौन सा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ जाकर मनुष्यको अपने बन्धुओंके वियोगका दुःख नहीं उठाना पड़ता? भगवन् यदि ऐसा कोई स्थान हो तो वह मुझे बताइये।’
अत्रि बोले- रघुवंशका विस्तार करनेवाले वत्स श्रीराम ! तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। मेरे पिता ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है, जो पुष्कर नामसे विख्यात है। वहाँ दो प्रसिद्ध पर्वत हैं, जिन्हें मर्यादा- पर्वत और यज्ञ-पर्वत कहते हैं। उन दोनोंके बीचमें तीन कुण्ड हैं, जिनके नाम क्रमशः ज्येष्ठ पुष्कर, मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर हैं। यहाँ जाकर अपने पिता दशरथको तुम पिण्डदानसे तृप्त करो। वह तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। रघुनन्दन। यहाँ अवियोगा नामकी एक चौकोर बावली है तथा एक दूसरा जलसे युक्त कुआँ है, जिसे सौभाग्य-कृप कहते हैं वहाँपर पिण्डदान करनेसे पितरोंकी मुक्ति हो जाती है। वह तीर्थ प्रलयपर्यन्त रहता है ऐसा पितामहका कथन है।
पुलस्त्यजी कहते हैं— ‘बहुत अच्छा!’ कहकर श्रीरामचन्द्रजीने पुष्कर जानेका विचार किया। वे ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती नदीको पार करके यज्ञपर्वतके पास जा पहुँचे। फिर बड़े वेगसे उस पर्वतको भी पार करके वे मध्यम पुष्करमें गये। वहाँ स्नान करके उन्होंने मध्यम पुष्करके ही जलसे समस्त देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसी समय मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अपने शिष्योंके साथ वहाँ आये। श्रीरामचन्द्रजीने जब उन्हें देखा तो सामने जाकर प्रणाम किया और बड़े आदरके साथ कहा-‘मुने! मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ, मुझे लोग राम कहते हैं। मैं महर्षि अत्रिकी आज्ञासे अवियोगा नामकी बावलीका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। विप्रवर! बताइये, वह स्थान कहाँ है ? ‘
मार्कण्डेयजीने कहा—रघुनन्दन ! इसके लिये मैं आपको साधुवाद देता हूँ, आपका कल्याण हो। आपने यह बड़े पुण्यका कार्य किया कि तीर्थ-यात्राके प्रसंग यहाँतक चले आये। यहाँसे अब आप आगे चलिये और ‘अवियोगा’ नामकी बावलीका दर्शन कीजिये। यहाँ सबका सभी आत्मीयजनोंके साथ संयोग होता है इहलोक या परलोकमें स्थित जीवित या मृत सभी प्रकारके बन्धुओंसे भेंट होती है। मुनीश्वर मार्कण्डेयजीके ये वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने महाराज दशरथ, भरत, शत्रुघ्न, माताओं तथा अन्य पुरवासीजनोंका स्मरण किया। इस प्रकारसबका चिन्तन करते-करते उन्हें सन्ध्या हो गयी। तब श्रीरघुनाथजीने मुनियोंके साथ सायंकालका सन्ध्योपासन किया। तत्पश्चात् रात्रिमें भाई और पत्नी के साथ यहाँ शयन किया। जब रात्रिका अन्तिम प्रहर व्यतीत होने तब रघुनाथजीने स्वप्न देखावे पिताजी तथा सम्बन्धियोंके साथ अयोध्यामें विराजमान हैं। अन्य वैवाहिक मंगल कार्य समाप्त करके वे बहुत-से बन्धुओंके साथ ऋषियोंसे घिरे बैठे हैं। साथमें पत्नी सीता भी मौजूद हैं।’ लक्ष्मण और सीताने भी इसी रूपमें श्रीरघुनाथजीको देखा। सबेरा होनेपर उन्होंने मुनियोंसे सारी बातें निवेदन कीं, जिन्हें सुनकर ऋषियोंने कहा—’ रघुनन्दन ! यह स्वप्न सत्य है; परन्तु पुरुषका जब स्वप्न में दर्शन हो तो उसके लिये श्राद्ध करना आवश्यक माना गया है। सन्तानके अभ्युदयकी कामना रखनेवाले तथा अन्न चाहनेवाले पितर ही भक्त सन्तानको स्वप्नमें दर्शन देते हैं। आपको पितासे तो वियोग था ही, माता और भरतके साथ भी चौदह वर्षोंतक वियोग रहेगा। वीर! अब आप राजा दशरथका श्राद्ध कीजिये ये सभी ऋषि महर्षि आपके एक है और आपके शुभ कार्यमें सहयोग देनेके लिये प्रस्तुत हैं। मैं (मार्कण्डेय), जमदग्नि, भरद्वाज, लोमश, देवरात और शमीक ये छः श्रेष्ठ दिन श्राद्ध उपस्थित रहेंगे। महाबाहो! आप केवल सामान जुटाइये। श्राद्धमें प्रधान वस्तु तो हैँ इंगुदी (लिसोड़े)-की खली, बेर और आँवले। इनके साथ पके हुए बेल तथा भाँति-भाँतिके मूल होने चाहिये। इन सब वस्तुओंसे तथा श्राद्ध-सम्बन्धी दानके द्वारा आप ब्राह्मणोंको तृप्त कीजिये सुव्रत। पुष्करके वनमें आकर जो नियमपूर्वक रहता और नियमित आहार करके [ श्राद्ध आदिके द्वारा] पितरोंको तृप्त करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। श्रीराम [आप श्राद्धकी सामग्री एकत्रित कराइये.] हमलोग स्नान करनेके लिये ज्येष्ठ करमें जा रहे हैं।”
श्रीरघुनाथजीसे ऐसा कहकर वे सभी ऋषि चले गये। तब श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे कहा- प्रियेनन्दन। अच्छे-अच्छे संतरे, कटहल, पारदमीठे बेल, शालूक, कसेरू, पीली काबरा, अच्छे-अच्छे कैर, शक्कर – जैसे सिंघाड़े, पके कैथ तथा और भी जो सामयिक फल हों, उन्हें श्राद्धके लिये शीघ्र ही ले आओ।’ श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा पाकर लक्ष्मणने सारा सामान एकत्रित कर दिया। जानकीजीने भोजन बनाया और तैयार हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजीको सूचित कर दिया। श्रीराम भी अवियोगा नामकी बावलीमें स्नान करके मुनियोंके आगमनकी प्रतीक्षा करने लगे। दुपहरीके बाद जब सूर्य ढलने लगे और कुतप नामकी बेला उपस्थित हुई, उस समय श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा निमन्त्रित सम्पूर्ण ऋषि वहाँ आ पहुँचे। मुनियोंको आया देख विदेहकुमारी सीता वहाँसे दूर हट गयीं और झाड़ियोंकी आड़में छिपकर बैठ गयीं। श्रीरामचन्द्रजीने स्मृतियोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा मनुष्योंके श्राद्धके लिये जो वैदिक क्रिया बतलायी गयी है, वह सब सम्पन्न की। फिर वैश्वदेव करके पुराणोक्त विधिका भी पालन किया । ब्राह्मणके भोजन कर चुकनेपर क्रमशः पिण्ड देनेके पश्चात् ब्राह्मणोंको विदा किया। उनके चले जानेपर श्रीरामचन्द्रजीने अपनी प्रिया सीतासे कहा-‘प्रिये! यहाँ आये हुए मुनियोंको देखकर तुम छिप क्यों गयीं?इसका सारा कारण मुझे शीघ्र बताओ।’ सीता बोलीं- नाथ! मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे [बताती हूँ, ] सुनिये। आपके द्वारा नामोच्चारण होते ही स्वर्गीय महाराज यहाँ आकर उपस्थित हो गये। उनके साथ उन्होंके समान रूप-रेखावाले दो पुरुष और आये थे, जो सब प्रकारके आभूषण धारण किये हुए थे। वे तीनों ही ब्राह्मणोंके शरीरसे सटे हुए थे। रघुनन्दन। ब्राह्मणोंके अंगोंमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए। उन्हें देखकर मैं लज्जाके मारे आपके पाससे हट गयी। इसीलिये आपने अकेले ही ब्राह्मणोंको भोजन कराया और विधिपूर्वक श्राद्धकी क्रिया भी सम्पन्न की। भला, मैं स्वर्गीय महाराजके सामने कैसे खड़ी होती। यह आपसे मैंने सच्ची बात बतायी है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- यह सुनकर श्रीरघुनाथजी बहुत प्रसन्न हुए और प्रिय वचन बोलनेवाली प्रियतमा सौताको बड़े आदरके साथ हृदयसे लगा लिया। तत्पश्चात् श्रीराम और लक्ष्मण दोनों वीरोंने भोजन किया। उनके बाद जानकीजीने स्वयं भी भोजन किया। इस प्रकार दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण तथा सीताने वह रात वहीं बितायी। दूसरे दिन सूर्योदय होनेपर सबने जानेका निश्चय किया। श्रीरामचन्द्रजी पश्चिमकी ओर चले और एक कोस चलकर ज्येष्ठ पुष्करके पास जा पहुँचे। श्रीरघुनाथजी ज्यों ही जाकर पुष्करके पूर्वमें खड़े हुए, त्यों ही उन्हें देवदूतके कहे हुए ये वचन सुनायी दिये- ‘ रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। यह तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ है। वीरवर! इस स्थानपर कुछ कालतक निवास कीजिये क्योंकि आपको देवताओंका कार्य सिद्ध करना – देवशत्रुओंका वध करना है।’ यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने लक्ष्मणसे कहा – ‘सुमित्रानन्दन। देवाधिदेव ब्रह्माजीने हमलोगोंपर अनुग्रह किया है। अतः मैं यहाँ आश्रम बनाकर एक मासतक रहना तथा शरीरकी शुद्धि करनेवाले उत्तम व्रतका आचरण करना चाहता हूँ।’ लक्ष्मणने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी बातका अनुमोदन किया तत्पश्चात् वहाँ अपना व्रत पूर्ण करकेवे दोनों भाई चले और पुष्कर क्षेत्रकी सीमा मर्यादा पर्वतके पास जा पहुँचे। वहाँ देवताओंके स्वामी पिनाकधारी देवदेव महादेवजीका स्थान था। वे वहाँ अवगन्धके नामसे प्रसिद्ध थे श्रीरामचन्द्रजीने वहाँ जाकर त्रिनेत्रधारी भगवान् उमानाथको साष्टांग प्रणाम किया। उनके दर्शनसे श्रीरघुनाथजीके श्रीविग्रहमें रोमांच हो आया। वे सात्त्विक भावमें स्थित हो गये। उन्होंने देवेश्वर भगवान् श्रीशिवको ही जगत्का कारण समझा और विनम्रभावसे स्थित हो उनकी स्तुति करने लगे।
श्रीरामचन्द्रजी बोले:-
कृत्स्नस्य योऽस्य जगतः सचराचरस्य
कर्ता कृतस्य च तथा सुखदुःखहेतुः ।
संहारहेतुरपि यः पुनरन्तकाले
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो चराचर प्राणियाँसहित इस सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करनेवाले हैं, उत्पन्न हुए जगत्के सुख-दुःखमें एकमात्र कारण हैं तथा अन्तकालमें जो पुनः इस विश्वके संहारमें भी कारण बनते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यं योगिनो विगतमोहतमोरजस्का
भक्तचैकतानमनसो विनिवृत्तकामाः
ध्यायन्ति निश्चलधियोऽमितदिव्यभावं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि
जिनके हृदयसे मोह, तमोगुण और रजोगुण दूर हो गये हैं, भक्तिके प्रभावसे जिनका चित भगवान्के ध्यानमें लीन हो रहा है, जिनको सम्पूर्ण कामनाएँ निवृत हो चुकी हैं और जिनकी बुद्धि स्थिर हो गयी है, ऐसे योगी पुरुष अपरिमेय दिव्यभावसे सम्पन्न जिन भगवान् शिवका निरन्तर ध्यान करते रहते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यश्चेन्दुखण्डममलं विलसन्मयूखं
बद्ध्वा सदा प्रियतमां शिरसा बिभर्ति ।
यश्चार्द्धदेहमददाद् गिरिराजपुत्र्यै
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो सुन्दर किरणोंसे युक्त निर्मल चन्द्रमाकी कला को जटाजूट में बाँधकर अपनी प्रियतमा गंगाजीको मस्तकपर धारण करते हैं, जिन्होंने गिरिराजकुमारी उमाको अपना आधा शरीर दे दिया है, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ ।
योऽयं सकृद्धिमलचारुविलोलतोयां
गां महोर्मिविषमां गगगात् पतन्तीम्।
मूर्ध्नाऽऽददे स्वजमिव प्रतिलोलपुष्पां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
आकाशसे गिरती हुई गंगाजीको, जो स्वच्छ सुन्दर एवं चंचल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
मूर्ध्नाऽऽददे स्त्रजमिव प्रतिलोलपुष्पां
सकृद्विमलचारुविलोलतोयां
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
आकाशसे गिरती हुई गंगाजीको, जो स्वच्छ, सुन्दर एवं चंचल जलराशिसे युक्त तथा ऊँची-ऊँची लहरोंसे उल्लसित होनेके कारण भयंकर जान पड़ती थीं, जिन्होंने हिलते हुए फूलोंसे सुशोभित मालाकी भाँति सहसा अपने मस्तकपर धारण कर लिया, शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
कैलासशैलशिखरं प्रतिकम्प्यमानं
कैलासशृङ्गसदृशेन दशाननेन ।
पादपद्मपरिवादनमादधान
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे शरीरवाले दशमुख रावणके द्वारा हिलायी जाती हुई कैलास गिरिकी चोटीको जिन्होंने अपने चरणकमलोंसे ताल देकर स्थिर कर दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
येनासकृद् दितिसुताः समरे निरस्ता
विद्याधरोरगगणाश्च वरैः समग्राः ।
संयोजिता मुनिवराः फलमूलभक्षा
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन्होंने अनेकों बार दैत्योंको युद्धमें परास्त किया है और विद्याधर, नागगण तथा फल-मूलका आहार करनेवाले सम्पूर्ण मुनिवरोंको उत्तम वर दिये हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
दग्ध्वाध्वरं च नयने च तथा भगस्य
पूष्णस्तथा दशनपङ्क्तिमपातयच्च ।
तस्तम्भ यः कुलिशयुक्तमहेन्द्रहस्तं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन्होंने दक्षका यज्ञ भस्म करके भग देवताकी आँखे फोड़ डाली और पृषाके सारे दाँत गिरा दिये तथा वज्रसहित देवराज इन्द्रके हाथको भी स्तम्भित कर दिया- जडवत् निश्चेष्ट बना दिया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
एनस्कृतोऽपि विषयेष्वपि सक्तभावा
ज्ञानान्वयगुणैरपि नैव युक्ताः ।
यं संश्रिताः सुखभुजः पुरुषा भवन्ति
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो पापकर्ममें निरत और विषयासक्त हैं, जिनमें उत्तम ज्ञान, उत्तम कुल, उत्तम शास्त्र ज्ञान और उत्तम गुणोंका भी अभाव है– ऐसे पुरुष भी जिनकी शरण में जानेसे सुखी हो जाते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
अत्रिप्रसूतिरविकोटिसमानतेजाः
संत्रासनं विबुधदानवसत्तमानाम् ।
यः कालकूटमपिवत् समुदीर्णवेगं
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो तेजमें करोड़ों चन्द्रमाओं और सूर्योके समान हैं; जिन्होंने बड़े-बड़े देवताओं तथा दानवोंका भी दिल दहला देनेवाले कालकूट नामक भयंकर विषका पान कर लिया था, उन प्रचण्ड वेगशाली शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुतां च सषण्मुखानां
योऽदाद् वरांश्च बहुशो भगवान् महेशः ।
नन्दिं च मृत्युवदनात् पुनरुज्जहार
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन भगवान् महेश्वरने कार्तिकेयके सहित ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र तथा मरुद्गणोंको अनेकों बार वर दिये हैं तथा नन्दीका मृत्युके मुखसे उद्धार किया, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ ।
आराधितः सुतपसा हिमवन्निकुञ्जे
धूम्रव्रतेन मनसाऽपि परैरगम्यः ।
सञ्जीवनीं समददाद् भृगवे महात्मा
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जो दूसरोंके लिये मनसे भी अगम्य हैं, महर्षि भृगुने हिमालय पर्वतके निकुंजमें होमका धुआँ पीकर कठोर तपस्याके द्वारा जिनकी आराधना की थी तथा जिन महात्माने भृगुको संजीवनी विद्या प्रदान की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
नानाविधैर्गजबिडालसमानवत्रै
दक्षाध्वरप्रमथनैर्बलिभिर्गणौघैः ।
योऽभ्यर्च्यते ऽमरगणैश्च सलोकपालै
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
हाथी और बिल्ली आदिकी-सी मुखाकृतिवाले तथा दक्ष यज्ञका विनाश करनेवाले नाना प्रकारके महाबली गणोंद्वारा जिनकी निरन्तर पूजा होती रहती है एवं लोकपालासहित देवगण भी जिनकी आराधना किया करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
क्रीडार्थमेव भगवान् भुवनानि सप्त
नानानदीविहगपादपमण्डितानि
सब्रह्मकानि व्यसृजत् सुकृताहितानि
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन भगवान्ने अपनी क्रीडाके लिये ही अनेकों नदियों, पक्षियों और वृक्षोंसे सुशोभित एवं ब्रह्माजीसे अधिष्ठित सातों भुवनोंकी रचना की है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण लोकोंको अपने पुण्यपर ही प्रतिष्ठित किया है, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यस्याखिलं जगदिदं वशवर्त्ति नित्यं
योऽष्टाभिरेव तनुभिर्भुवनानि भुङ्क्ते ।
यः कारणं सुमहतामपि कारणानां तं
शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
यह सम्पूर्ण विश्व सदा ही जिनकी आज्ञाके अधीन है, जो [जल, अग्नि, यजमान, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु और प्रकृति- इन] आठ विग्रहोंसे समस्त लोकोंका उपभोग करते हैं तथा जो बड़े-से बड़े कारण तत्त्वोंके भी महाकारण हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
शङ्खेन्दुकुन्दभवलं वृषभप्रवीर
मारुह्य यः क्षितिधरेन्द्रसुतानुयातः ।
यात्यम्बरे हिमविभूतिविभूषिताङ्
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि॥
जो अपने श्रीविग्रहको हिम और भस्मसे विभूषित करके शंख, चन्द्रमा और कुन्दके समान श्वेतवर्णवाले वृषभ- श्रेष्ठ नन्दीपर सवार होकर गिरिराजकिशोरी उमाके साथ आकाशमें विचरते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
शान्तं मुनिं वमनियोगपरायणं तै
भीमैर्यमस्य पुरुषैः प्रतिनीयमानम् ।
भक्त्या नतं स्तुतिपरं प्रसभं ररक्ष
तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
यमराजकी आज्ञा पालनमें लगे रहनेपर भी जिन्हें वे भयंकर यमदूत पकड़कर लिये जा रहे थे तथा जो भक्तिसे नम्र होकर स्तुति कर रहे थे, उन शान्त मुनिकी जिन्होंने बलपूर्वक यमदूतोंसे रक्षा की, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
यः सव्यपाणिकमलाग्रनखेन देव
स्तत् पञ्चमं प्रसभमेव पुरः सुराणाम्।
ब्राह्म शिरस्तरुणपद्मनिभं चकर्त
तं शङ्करं शरणादं शरणं व्रजामि ll
जिन्होंने समस्त देवताओंके सामने ही ब्रह्माजीके उस पाँचवें मस्तकको, जो नवीन कमलके समान शोभा पा रहा था, अपने बायें हाथके नखसे बलपूर्वक काट डाला था, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी मैं शरण लेता हूँ।
यस्य प्रणम्य चरणौ वरदस्य भक्त्या स्तुत्वा
च वाग्भिरमलाभिरतन्द्रिताभिः ।
दीपस्तमांसि दते स्वकरैर्विवस्वा नुदते
स्तं शङ्करं शरणदं शरणं व्रजामि ॥
जिन वरदायक भगवान्के चरणोंमें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तथा आलस्यरहित निर्मल वाणीके द्वारा जिनकी स्तुति करके सूर्यदेव अपनी उद्दीप्त किरणोंसे जगत्का अन्धकार दूर करते हैं, उन शरणदाता भगवान् श्रीशंकरकी में शरण लेता हूँ।
ये त्वां सुरोत्तम गुरुं पुरुषा विमूढा
जानन्ति नास्य जगतः सचराचरस्य ।
ऐश्वर्यमाननिगमानुशयेन पश्चा
त्ते यातनां त्वनुभवन्त्यविशुद्धचित्ताः ॥
देवश्रेष्ठ ! जो मलिनहृदय मूढ पुरुष ऐश्वर्य, मान-प्रतिष्ठा तथा वेदविद्याके अभिमानके कारण आपको इस चराचर जगत्का गुरु नहीं जानते, वे मृत्युके पश्चात् नरककी यातना भोगते हैं।
पुलस्त्यजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले वृषभध्वज भगवान् श्रीशंकरने सन्तुष्ट हो हर्षमें भरकर कहा ‘रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो। मैं आपके ऊपर बहुत सन्तुष्ट हूँ। आपने विमल वंशमें अवतार लिया आप जगत्के वन्दनीय हैं। मानव शरीरमें प्रकट होनेपर भी वास्तवमें आप देवस्वरूप हैं। आप जैसे रक्षकके द्वारा सुरक्षित हो देवता अनन्त वर्षोंतक सुखी रहेंगे। चिरकालतक उनकी वृद्धि होती रहेगी। चौदहवाँ वर्षबीतने पर जब आप अयोध्याको लौट जायँगे, उस समय इस पृथ्वीपर रहनेवाले जो-जो मनुष्य आपका दर्शन करेंगे, वे सभी सुखी होंगे तथा उन्हें अक्षय स्वर्गका निवास प्राप्त होगा। अतः आप देवताओंका महान् कार्य करके पुनः अयोध्यापुरीको लौट जाइये ।
यह सुनकर श्रीरघुनाथजी श्रीशंकरजीको प्रणाम करके शीघ्र ही वहाँसे चल दिये। इन्द्रमार्गा नदीके पास पहुँचकर उन्होंने अपनी जटा बाँधी । फिर सब लोग महानदी नर्मदाके तटपर गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मण और सीताके साथ स्नान किया तथा नर्मदाके जलसे देवताओं और अपने पितरोंका तर्पण किया। | इसके बाद उन दोनों भाइयोंने एकाग्र मनसे भगवान् सूर्य तथा अन्यान्य देवताओंको बारम्बार मस्तक झुकाया । जैसे भगवान् श्रीशंकर पार्वती और कार्तिकेयके साथ स्नान करके शोभा पाते हैं, उसी प्रकार सीता और लक्ष्मणके साथ नर्मदामें नहाकर श्रीरामचन्द्रजी भी सुशोभित हुए।
अध्याय-25 ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् लोकविधाता भगवान् ब्रह्माजीने किस समय यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ एकत्रित करके उनसे यज्ञ करना आरम्भ किया? वह यज्ञ जैसा और जिस प्रकार हुआ था, वह सब मुझे बताइये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! यह तो मैं पहले ही बता चुका हूँ कि जब स्वायम्भुव मनु भूलोकके राज्य-सिंहासनपर प्रतिष्ठित हुए, उस समय ब्रह्माजीने समस्त प्रजापतियोंको उत्पन्न करके कहा- ‘तुमलोग सृष्टि करो’ और स्वयं वे पुष्करमें जा यज्ञ-सामग्री एकत्रित करके अग्निशालामें स्थित हो यज्ञ करने लगे। ब्रह्माजी समस्त देवताओं, गन्धर्वी तथा अप्सराओंको भी वहाँ ले गये थे। ब्रह्मा, उद्गाता, होता और अध्वर्यु ये चार प्रधानरूपसे यज्ञके निर्वाहक होते हैं। इनमेंसेप्रत्येकके साथ अन्य तीन व्यक्ति परिवाररूपमें रहते हैं, जिन्हें ये स्वयं ही निर्वाचित करते हैं। ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, पोता तथा आग्नीध्र–इन चार व्यक्तियोंका एक समुदाय होता है। इन सबको ब्रह्माका परिवार कहते हैं। ये चारों व्यक्ति आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र) तथा वेदविद्यामें प्रवीण होते हैं। उद्गाता, प्रत्युद्गाता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य इन चार व्यक्तियोंका दूसरा समुदाय उद्गाताका परिवार कहलाता है। होता, मैत्रावरुणि, अच्छावाक और ग्रावस्तुत इन चार व्यक्तियोंका तीसरा समुदाय उद्गाताका परिवार होता है। अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा और उन्नेता- इन चारोंका चौथा समुदाय अध्वर्युका परिवार माना गया है। शन्तनुनन्दन ! वेदके प्रधान प्रधान विद्वानोंने ये सोलह ऋत्विज् बताये हैं । स्वयम्भू ब्रह्माजीने तीन सौ छाछठ यज्ञोंकी सृष्टि की है। उन सबमें इतने ही ब्राह्मण ऋत्विज् बतलाये गये हैं। कोई-कोई ऊपर बताये हुए ऋत्विजोंके अतिरिक्त एक सदस्य और दस चमध्यओंका निर्वाचन चाहते हैं। ब्रह्माजीके यज्ञमें देवर्षि नारदको ब्रह्मा बनाया गया। गौतम ब्राह्मणाच्छंसी हुए। देवरातको पोता और देवलको आग्नीध्रके पदपर प्रतिष्ठित किया गया। अंगिराका उद्गाताके रूपमें वरण हुआ। पुलह प्रस्तोता बनाये गये। नारायण ऋषि प्रतिहर्ता हुए और अत्रि सुब्रह्मण्य कहलाये। उस यज्ञमें भृगु होता, वसिष्ठ मैत्रावरुणि, ऋतु अच्छावाक तथा च्यवन ग्रावस्तुत बनाये गये। मैं ( पुलस्त्य) अध्वर्यु था और शिवि प्रतिष्ठाता बृहस्पति नेष्टा, सांशपावन उन्नेता और अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ धर्म सदस्य थे। भरद्वाज, शमीक, पुरुकुत्स्य, युगन्धर, एणक, ताण्डिक, कोण, कुतप, गार्ग्य और वेदशिरा- ये दस चमसाध्वर्यु बनाये गये। कण्व आदि अन्य महर्षि तथा मार्कण्डेय और अगस्त्य मुनि अपने पुत्र, पौत्र, शिष्य तथा बान्धवोंके साथ उपस्थित होकर रात-दिन आलस्य छोड़कर उस यज्ञमें आवश्यक कार्य किया करते थे। मन्वन्तर व्यतीत होनेपर उस यज्ञका अवभृथ (यज्ञान्त-स्नान) हुआ। उस समय ब्रह्माको पूर्व दिशा, होताको दक्षिण दिशा, अध्वर्युको पश्चिम दिशा और उद्गाताको उत्तर दिशा दक्षिणाके रूपमें दी गयी। ब्रह्माजीने समूची त्रिलोकी ऋत्विजोंको दक्षिणाके रूपमें दे दी। बुद्धिमान् पुरुषको यज्ञकी सिद्धिके लिये एक सौ दूध देनेवाली गौएँ दान करनी चाहिये। उनमेंसे यज्ञका निर्वाह करनेवाले प्रथम समुदायके ऋत्विजोंको अड़तालीस द्वितीय समुदायवालको चौबीस, तृतीय समुदायको सोलह और चतुर्थ समुदायको बारह गौएँ देनी उचित हैं। इस प्रकार आग्नीध्र आदिको दक्षिणा देनी चाहिये। इसी संख्या में गाँव, दास-दासी तथा भेड़-बकरियाँ भी देनी चाहिये अवभृथ स्नानके बाद ब्राह्मणोंको पट्स भोजन देना चाहिये। स्वायम्भुव मनुका कथन है कि यजमान यज्ञके अन्तमें अपना सर्वस्व दान कर दे अध्वर्यु और सदस्योंको अपनी इच्छाके अनुसार जितना हो सके दान देना चाहिये।तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् श्रीविष्णुके ए साथ यज्ञान्त-स्नान के पश्चात् सब देवताओंको वरदान दिये। उन्होंने इन्द्रको देवताओंका सूर्यको ग्रहों सहित समस्त ज्योतिर्मण्डलका चन्द्रमाको नक्षत्रोंका वरुणको रसौका, दक्षको प्रजापतियोंका समुद्रको नदियोंका धनाध्यक्ष कुबेरको यक्ष और राक्षसोंका, पिनाकधारी महादेवजीको सम्पूर्ण भूतगणोंका, मनुको मनुष्योंका, गरूड़को पक्षियोंका तथा वसिष्ठको ऋषियोंका स्वामी बनाया। इस प्रकार अनेकों वरदान देकर देवाधिदेव ब्रह्माजीने भगवान् विष्णु और शंकरसे आदरपूर्वक कहा- ‘आप दोनों पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें परम पूजनीय होंगे। आपके बिना कभी कोई भी तीर्थ पवित्र नहीं होगा। जहाँ कहीं शिवलिंग या विष्णुकी प्रतिमाका दर्शन होगा, वही तीर्थ परम पवित्र और श्रेष्ठ फल देनेवाला हो सकता है। जो लोग पुष्प आदि वस्तुओंकी भेंट चढ़ाकर आपलोगोंकी तथा मेरी पूजा करेंगे, उन्हें कभी रोगका भय नहीं होगा। जिन राज्यों में मेरा तथा आपलोगोंका पूजन आदि होगा, वहाँ भी क्रियाएँ सफल होंगी तथा और भी जिन-जिन फलोंकी प्राप्ति होगी, उन्हें सुनिये वहाँकी प्रजाको कभी मानसिक चिन्ता, शारीरिक रोग, दैवी उपद्रव और क्षुधा आदिका भय नहीं होगा। प्रियजनोंसे वियोग और अप्रिय मनुष्योंसे संयोगकी भी सम्भावना नहीं होगी।’ यह सुनकर भगवान् श्रीविष्णु ब्रह्माजीकी स्तुति करनेको उद्यत हुए।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- जिनका कभी अन्त नहीं होता, जो विशुद्धचित्त और आत्मस्वरूप हैं, जिनके हजारों भुजाएँ हैं, जो सहस्र किरणोंवाले सूर्यकी भी उत्पत्तिके कारण हैं, जिनका शरीर और कर्म दोनों अत्यन्त शुद्ध हैं, उन सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको नमस्कार है। जो समस्त विश्वकी पीड़ा हरनेवाले, कल्याणकारी सहसों सूर्य और अग्निके समान प्रचण्ड तेजस्वी, सम्पूर्ण विद्याओंके आश्रय, चक्रधारी तथा समस्त ज्ञानेन्द्रियोंको व्याप्त करके स्थित हैं. उन परमेश्वरको सदा नमस्कार है। प्रभो! आप अनादि देव हैं। अपनी महिमासे कभी च्युतनहीं होते। इसलिये ‘अच्युत’ हैं। आप शंकररूपसे शेषनागका मुकुट धारण करते हैं, इसलिये ‘शेषशेखर’ हैं। महेश्वर! आप ही भूत और वर्तमानके स्वामी हैं। सर्वेश्वर! आप मरुद्गणोंके, जगत्के, पृथ्वीके तथा समस्त भुवनोंके पति हैं। आपको सदा प्रणाम है। आप ही जलके स्वामी वरुण, क्षीरशायी नारायण, विष्णु, शंकर, पृथ्वीके स्वामी, विश्वका शासन करनेवाले, जगत्को नेत्र देनेवाले [अथवा जगत्को अपनी दृष्टिमें रखनेवाले], चन्द्रमा, सूर्य, अच्युत, वीर, विश्वस्वरूप, तर्कके अविषय, अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। प्रभो! आपने अपने तेज: स्वरूप प्रज्वलित अग्निकी ज्वालासे समस्त भुवनमण्डलको व्याप्त कर रखा है। आप हमारी रक्षा करें। आपके मुख सब ओर हैं। आप समस्त देवताओंकी पीड़ा हरनेवाले हैं अमृतस्वरूप और अविनाशी हैं। मैं आपके अनेकों मुख देख रहा आप शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंकी परमगति और पुराणपुरुष हैं। आप ही ब्रह्मा, शिव तथा जगत्के जन्मदाता हैं। आप ही सबके परदादा हैं। आपको नमस्कार है। आदिदेव संसारचक्रमें अनेकों बार चक्कर लगानेके बाद उत्तम मार्गके अवलम्बन और विज्ञानके द्वारा जिन्होंने अपने शरीरको विशुद्ध बना लिया है, उन्हींको कभी आपकी उपासनाका सौभाग्य प्राप्त होता है। देववर ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। भगवन्! जो आपको प्रकृतिसे परे, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप समझता है, वही सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ है। गुणमय पदार्थोंमें आप विराट्रूपसे पहचाने जा सकते हैं तथा अन्तःकरणमें [बुद्धिके द्वारा ] आपका सूक्ष्मरूपसे बोध होता है। भगवन्! आप जिस हाथ पैर आदि इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी पद्म धारण करते हैं। गति और कर्मसे रहित होनेपर भी संसारी हैं। देव इन्द्रियोंसे शून्य होनेपर भी आप सृष्टि कैसे करते हैं? भगवन्! विशुद्ध भाववाले याज्ञिक पुरुष संसार-बन्धनका उच्छेद करनेवाले यज्ञोंद्वारा आपका यजन करते हैं, परन्तु उन्हें स्थूल साधनसे सूक्ष्म परात्पर रूपका ज्ञान नहीं होता; अतः उनकी दृष्टिमें आपका यह चतुर्मुख स्वरूप ही रह जाताहै। अद्भुत रूप धारण करनेवाले परमेश्वर! देवता आदि भी आपके उस परम स्वरूपको नहीं जानते; अतः वे भी कमलासनपर विराजमान उस पुरातन विग्रहकी ही आराधना करते हैं, जो अवतार धारण करनेसे उग्र प्रतीत होता है। आप विश्वकी रचना करनेवाले प्रजापतियोंके भी उत्पत्ति स्थान हैं। विशुद्ध भाववाले योगीजन भी आपके तत्त्वको पूर्णरूपसे नहीं जानते। आप तपस्यासे विशुद्ध आदिपुरुष हैं पुराणमें यह बात बारम्बार कही गयी है कि कमलासन ब्रह्माजी ही सबके पिता हैं, उन्हींसे सबकी उत्पत्ति हुई है। इसी रूपमें आपका चिन्तन भी किया जाता है। आपके उसी स्वरूपको मूढ़ मनुष्य अपनी बुद्धि लगाकर जानना चाहते हैं। वास्तवमें उनके भीतर बुद्धि है ही नहीं। अनेकों जन्मोंकी साधनासे वेदका ज्ञान, विवेकशील बुद्धि अथवा प्रकाश (ज्ञान) प्राप्त होता है। जो उस ज्ञानकी प्राप्तिका लोभी है, वह फिर मनुष्य योनिमें नहीं जन्म लेता; वह तो देवता और गन्धर्वोका स्वामी अथवा कल्याणस्वरूप हो जाता है। भक्तोंके लिये आप अत्यन्त सुलभ हैं; जो आपका त्याग कर देते हैं आपसे विमुख होते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं। प्रभो ! आपके रहते इन सूर्य, चन्द्रमा, वसु, मरुद्गण और पृथ्वी आदिकी क्या आवश्यकता है; आपने ही अपने स्वरूपभूत तत्त्वोंसे इन सबका रूप धारण किया है। आपके आत्माका ही प्रभाव सर्वत्र विस्तृत है; भगवन् ! आप अनन्त हैं- आपकी महिमाका अन्त नहीं है। आप मेरी की हुई यह स्तुति स्वीकार करें। मैंने हृदयको शुद्ध करके, समाहित हो, आपके स्वरूपके चिन्तनमें मनको लगाकर यह स्तवन किया है। प्रभो! आप सदा मेरे हृदयमें विराजमान रहते हैं, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप सबके लिये सुगम-सुबोध नहीं है; क्योंकि आप सबसे पृथक्-सबसे परे हैं।
ब्रह्माजी बोले- केशव इसमें सन्देह नहीं कि आप सर्वज्ञ और ज्ञानकी राशि हैं। देवताओंमें आप सदा सबसे पहले पूजे जाते हैं। भगवान् श्रीविष्णुके बाद रुद्रने भी भक्तिसेनतमस्तक होकर ब्रह्माजीका इस प्रकार स्तवन किया ‘कमलके समान नेत्रोंवाले देवेश्वर! आपको नमस्कार है। आप संसारकी उत्पत्तिके कारण हैं और स्वयं कमलसे प्रकट हुए हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! आप देवता और असुरोंके भी पूर्वज है, आपको प्रणाम है । संसारकी सृष्टि करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर! आपको प्रणाम है। सबका मोह दूर करनेवाले जगदीश्वर! आपको नमस्कार है। आप विष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए हैं, कमलके आसनपर आपका आविर्भाव हुआ है। आप मूँगेके समान लाल अंगों तथा कर पल्लवोंसे शोभायमान हैं, आपको नमस्कार है।
“नाथ! आप किन-किन तीर्थस्थानोंमें विराजमान हैं तथा इस पृथ्वीपर आपके स्थान किस-किस नामसे प्रसिद्ध हैं?”
ब्रह्माजीने कहा- पुष्करमें मैं देवश्रेष्ठ ब्रह्माजीके नामसे प्रसिद्ध है। गयामें मेरा नाम चतुर्मुख है। कान्यकुब्जमें देवगर्भ [ या वेदगर्भ] और भृगुकक्ष (भृगुक्षेत्र) में पितामह कहलाता हूँ। कावेरीके तटपर सृष्टिकर्ता नन्दीपुरीमें बृहस्पति प्रभासमें पद्मजन्मा वानरी (किष्किन्धा) में सुरप्रिय, द्वारकामें ऋग्वेद, विदिशापुरीमें भुवनाधिए, पौण्ड्रकर्मे पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुरमें पिंगाक्ष, जयन्तीमें विजय, पुष्करावतमें जयन्त उग्रदेशमें पद्महस्त, श्यामलापुरीमें भवोद अहिच्छत्रमें जयानन्द, कान्तिपुरीमें जनप्रिय, पाटलिपुत्र (पटना) में ब्रह्मा ऋषिकुण्ड मुनि, महिलारोप्यमें कुमुद, श्रीनिवासमें श्रीकण्ठ, कामरूप (आसाम) – में शुभाकार, काशी में शिवप्रिय, मल्लिकामे विष्णु महेन्द्र पर्वतपर भार्गव, गोनर्द देशमें स्थविराकार, उज्जैनमें पितामह, कौशाम्बीमें महाबोध, अयोध्या में राघव, चित्रकूटमें मुनीन्द्र, विन्ध्यपर्वतपर वाराह, गंगाद्वार (हरिद्वार) में परमेष्ठी, हिमालयमें शंकर, देविकामें स्रुचाहस्त, चतुष्पथमें सुवहस्त, वृन्दावनमें पद्मपाणि, नैमिषारण्यमें कुशहस्त, गोप्लक्षमें गोपीन्द्र, यमुनातटपर सुचन्द्र, भागीरथीके तटपर पद्मतनु, जनस्थानमें जनानन्द,कोकण देशमें मद्राक्ष, काम्पिल्यमें कनकप्रिय, खेटकों अन्नदाता, कुशस्थलमें शम्भु, लंकामें पुलस्त्य, काश्मीरमें हंसवाहन अर्बुद (आम्) में वसिष्ठ, उत्पलावतमें नारद, मेधकमें श्रुतिदाता, प्रयागमें यजुषांपति, यज्ञ पर्वतपर सामवेद, मधुर मधुरप्रिय, अंकोलकर्म यज्ञगर्भ, ब्रह्मवाहमें सुतप्रिय गोमन्तमें नारायण, विदर्भ (बरार) में द्विजप्रिय ऋषिवेदमें दुराधर्ष, पम्पापुरीमें सुरमर्दन, विरजामें महारूप, राष्ट्रवर्द्धनमें सुरूप, मालवीमें पृथूदर, शाकम्भरीमें रसप्रिय, पिण्डारक क्षेत्रमें गोपाल, भोगवर्द्धनमें शुष्कन्ध कादम्बक प्रजाध्यक्ष, समस्थलमें देवाध्यक्ष, भद्रपीटमें गंगाधर, सुपीठमें जलमाली, त्र्यम्बकमें त्रिपुराधीश, श्रीपर्वतपर त्रिलोचन, पद्मपुरमें महादेव, कलापमें वैधस, श्रृंगवेरपुर में शौरि नैमिषारण्यमें चक्रपाणि, दण्डपुरीमें विरूपाक्ष धूतपातकमें गोतम, माल्यवान् पर्वतपर हंसनाथ, वालिकमें द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी (अमरावती) में देवनाथ, धूताषाढीमें धुरन्धर, लम्बामें हंसवाह, बण्डा गरुडप्रिय महोदयमें महायज्ञ यूपकेतनमें सुब पद्मवनमें सिद्धेश्वर, विभामें पद्मबोधन, देवदारुवनमें लिंग, उदकृपथमें उमापति, मातृस्थानमें विनायक, अलकापुरीमें धनाथिए, त्रिकूटमें गोनई, पातालमें कामुक केदारक्षेत्रमें पद्माध्यक्ष, कूष्माण्डमें सुरतप्रिय, भूतवापीमें शुभांग, सावलीमें भषक, अक्षरमें पापहर, अम्बिकामें सुदर्शन, वरदामें महावीर, कान्तारमें दुर्गनाशन, पर्णादमें अनन्त, प्रकाशामें दिवाकर, विरजामें पद्मनाभ, वृकस्थलमें सुवृद्ध वटकमै मार्कण्ड, रोहिणी में नागकेतन, पद्मावतीमें पद्मागृह तथा गगनमें पद्मकेतन नामसे मैं प्रसिद्ध हूँ। त्रिपुरान्तक! ये एक सौ आठ स्थान मैंने तुम्हें बताये हैं। इन स्थानोंमें तीनों सन्ध्याओंके समय मैं उपस्थित रहता हूँ। जो भक्तिमान् पुरुष इन स्थानोंमेंसे एकका भी दर्शन कर लेता है, वह परलोकमें निर्मल स्थान पाकर अनन्त वर्षोंतक आनन्दका अनुभव करता है। उसके मन, वाणी और शरीरके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं- इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। और जो इन सभी तीर्थोंकी यात्राकरके मेरा दर्शन करता है, वह मोक्षका अधिकारी होकर मेरे लोकमें निवास करता है। जो पुष्प, नैवेद्य एवं धूप चढ़ाता और ब्राह्मणोंको [भोजनादिसे] तृप्त करता है, साथ ही जो स्थिरतापूर्वक ध्यान लगाता है, वह शीघ्र ही परमेश्वरको प्राप्त कर लेता है। उसे श्रेष्ठ फल तथा अन्तमें मोक्ष प्राप्त होता है। पुण्यका पुष्कर जो इन तीर्थोंकी यात्रा करता या कराता है अथवा जो इस प्रसंगको सुनता है, वह भी समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है। शंकर! इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय – इन तीर्थोंकी यात्रा करनेसे अप्राप्य वस्तुकी प्राप्ति होती है और सारा पाप नष्ट हो जाता है। जिन्होंने तीर्थमें अपनी पत्नीके दिये हुए पुष्करके जलसे सन्ध्या करके गायत्रीका जप किया है, उन्होंने मानो सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन कर लिया।
पुष्कर तीर्थके पवित्र जलको झारी अथवा मिट्टीके करवेमें ले आकर सायंकालमें एकाग्र मनसे प्राणायामपूर्वक सन्ध्योपासन करना चाहिये। शंकर ! इस प्रकार सन्ध्या करनेका जो फल है, उसका अब श्रवण करो। उस पुरुषको एक ही दिनकी सन्ध्यासे बारह वर्षोंतक सन्ध्योपासन करनेका फल मिल जाता है। पुष्करमें स्नान करनेपर अश्वमेध यज्ञका फल होता है, दान करनेसे उसके दसगुने और उपवास करनेसे अनन्तगुने फलकी प्राप्ति होती है यह बात मैंने स्वयं [भलीभाँति सोच-विचारकर] कही है। तीर्थसे अपने डेरेपर आकर शास्त्रीय विधिके अनुसार पिण्डदानपूर्वक पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके पितर ब्रह्माके एक दिन (एक कल्प) तक तृप्त रहते हैं। शिवजी! अपने डेरेमें आकर पिण्डदान करनेवालोंको तीर्थकी अपेक्षा आठगुना अधिक पुण्य होता है; क्योंकि वहाँ द्विजातियोंद्वारा दिये। जाते हुए पिण्डदानपर नीच पुरुषोंकी दृष्टि नहींपड़ती। एकान्त और सुरक्षित गृहमें ही पितरोंके श्राद्धका विधान है; क्योंकि बाहर नीच पुरुषोंकी दृष्टिसे दूषित हो जानेपर यह पितरोंको नहीं पहुँचता । आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको गुप्तरूपसे ही पिण्डदान करना चाहिये। यदि श्राद्धमें दिया जानेवाला पक्वान्न साधारण मनुष्य देख लेते हैं तो उससे कभी पितरोंकी तृप्ति नहीं होती। मनुजीका कथन है कि तीर्थोंमें श्राद्धके लिये ब्राह्मणकी परीक्षा नहीं करनी चाहिये। जो भी अन्नकी इच्छासे अपने पास आ जाय, उसे भोजन करा देना चाहिये। श्राद्धके योग्य समय हो या न हो— तीर्थमें पहुँचते ही मनुष्यको सर्वदा स्नान, तर्पण और श्राद्ध करना चाहिये। पिण्डदान करना तो बहुत ही उत्तम है, वह पितरोंको अधिक प्रिय है। जब अपने वंशका कोई व्यक्ति तीर्थमें जाता है तब पितर बड़ी आशासे उसकी ओर देखते हैं, उससे जल पानेकी अभिलाषा रखते हैं; अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये। और यदि दूसरा कोई इस कार्यको करना चाहता हो तो उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। सत्ययुगमें पुष्करका, त्रेतामें नैमिषारण्यका, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गंगाजीका आश्रय लेना चाहिये । अन्यत्रका किया हुआ पाप तीर्थमें जानेपर कम हो जाता है; किन्तु तीर्थका किया हुआ पाप अन्यत्र कहीं नहीं छूटता। 2 जो सबेरे और शामको हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका स्मरण करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें आचमन करनेका फल प्राप्त हो जाता है। जो पुष्करमें इन्द्रिय-संयमपूर्वक रहकर प्रातः काल और सन्ध्याके समय आचमन करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त होता है तथा वह ब्रह्मलोकको जाता है। जो बारह वर्ष, बारह दिन, एक मास अथवा पक्षभर भी पुष्करमें निवास करता है, वह परम गतिको प्राप्तकरता है। इस पृथ्वीपर करोड़ों तीर्थ हैं। वे सब तीनों सन्ध्याओंके समय पुष्करमें उपस्थित रहते हैं। पिछले हजारों जन्मोंके तथा जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त वर्तमान जीवनके जितने भी पाप हैं, उन सबको पुष्करमें एक बार स्नान करके मनुष्य भस्म कर डालता है।
अध्याय-26 श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
पुलस्त्यजी बोले – राजन् ! पूर्वकालमें स्वयं भगवान्ने जब रघुवंशमें अवतार लिया था तब वहाँ वे श्रीराम नामसे विख्यात हुए तब उन्होंने लंकामें जाकर रावणको मारा और देवताओंका कार्य किया था। इसके बाद जब वे वनसे लौटकर पृथ्वीके राज्यसिंहासनपर स्थित हुए, उस समय उनके दरबारमें [ अगस्त्य आदि] बहुत से महात्मा ऋषि उपस्थित हुए। महर्षि अगस्त्यजीकी आज्ञासे द्वारपालने तुरंत जाकर महाराजको ऋषियोंके आगमन की सूचना दी। सूर्यके समान तेजस्वी महर्षियोंको द्वारपर आया जान श्रीरामचन्द्रजीने द्वारपालसे कहा- ‘तुम शीघ्र ही उन्हें भीतर ले आओ।”
श्रीरामकी आज्ञासे द्वारपालने उन मुनियोंको सुख पूर्वक महलके भीतर पहुँचा दिया। उन्हें आया देख रघुनाथजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये और उनके चरणों में प्रणाम करके उन्होंने उन सबको आसनोंपर बिठाया।तदनन्तर पुरोहित वसिष्ठजीने पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय निवेदन करके उनका आतिथ्य सत्कार किया। तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने जब उनसे कुशल- समाचार पूछा, तब वे वेदवेत्ता महर्षि [महर्षि अगस्त्यको आगे करके ] इस प्रकार बोले— ‘महाबाहो ! आपके प्रतापसे सर्वत्र कुशल है। रघुनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि शत्रुदलका संहार करके लौटे हुए आपको हमलोग सकुशल देख रहे हैं। कुलघाती, पापी एवं दुरात्मा रावणने आपकी पत्नीको हर लिया था। वह उन्हींके तेजसे मारा गया। आपने उसे युद्धमें मार डाला। रघुसिंह ! आपने जैसा कर्म किया है, वैसा कर्म करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है। राजेन्द्र ! हम सब लोग यहाँ आपसे वार्तालाप करनेके लिये आये हैं। इस समय आपका दर्शन करके हम पवित्र हो गये। आपके दर्शनसे हम वास्तवमें आज तपस्वी हुए हैं। आपने सबसे शत्रुता रखनेवाले रावणका वध करके हमारे आँसू पोंछे हैं और सब लोगोंको अभयदान दिया है। काकुत्स्थ! आपके पराक्रमकी कोई थाह नहीं है। आपकी विजयसे वृद्धि हो रही है, यह बड़े आनन्दकी बात है। हमने आपका दर्शन और आपके साथ सम्भाषण कर लिया, अब हमलोग अपने-अपने आश्रमको जायँगे। रघुनन्दन ! आप भविष्यमें कभी हमारे आश्रमपर भी आइयेगा।’
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! ऐसा कहकर वे मुनि उसी समय अन्तर्धान हो गये। उनके चले जानेपर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने सोचा- “अहो ! मुनि अगस्त्यने मेरे सामने जो यह प्रस्ताव रखा है कि ‘रघुनन्दन ! फिर कभी मेरे आश्रमपर भी आना’ तब अवश्य ही मुझे महर्षि अगस्त्यके यहाँ जाना चाहिये और देवताओंकी कोई गुप्त बात हो तो उसे सुनना चाहिये। अथवा यदि वे कोई दूसरा काम बतायें तो उसे भी करनाचाहिये।” ऐसा विचारकर महात्मा रघुनाथजी पुनः प्रजा पालनमें लग गये। एक दिन एक बूढ़ा ब्राह्मण, जो उसी प्रान्तका रहनेवाला था, अपने मरे हुए पुत्रको लेकर राजद्वारपर आया और इस प्रकार कहने लगा ‘बेटा! मैंने पूर्वजन्ममें ऐसा कौन सा पाप किया है, जिससे तुझ इकलौते पुत्रको आज मैं मौतके मुखमें पड़ा देख रहा हूँ । निश्चय ही यह महाराज श्रीरामका ही दोष है, जिसके कारण तेरी मृत्यु [ इतनी जल्दी] आ गयी। रघुनन्दन! अब मैं भी स्त्रीसहित प्राण त्याग दूँगा । फिर आपको बालहत्या, ब्रह्महत्या और स्त्रीहत्या तीन पाप लगेंगे।
रघुनाथजीने उस ब्राह्मणकी दुःख और शोकसे भरी सारी बात सुनी। फिर उसे चुप कराकर महर्षि वसिष्ठजीसे पूछा- ‘गुरुदेव! ऐसी अवस्थामें इस अवसरपर मुझे क्या करना चाहिये? इस ब्राह्मणकी कही हुई बात सुनकर मैं किस प्रकार अपने दोषका मार्जन करूँ – कैसे इस बालकको जीवन दान दूँ?’ [ इतनेमें ही देवर्षि नारद वहाँ आ पहुँचे।] वे वसिष्ठके सामने खड़े हो अन्य ऋषियोंके समीप महाराज श्रीरामसेपहले सत्ययुगमें सब ओर ब्राह्मणोंकी ही प्रधानता थी। कोई ब्राह्मणेतर पुरुष तपस्वी नहीं होता था उस समय सभी अकालमृत्युसे रहित और चिरजीवी होते थे। फिर त्रेतायुग आनेपर ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनोंकी प्रधानता हो जाती है— दोनों ही तपमें प्रवृत्त होते हैं। द्वापरमें वैश्योंमें भी तपस्याका प्रचार हो जाता है। यह तीनों युगोंके धर्मकी विशेषता है। इन तीनों युगों में शूद्रजातिका मनुष्य तपस्या नहीं कर सकता, केवल कलियुगमें शूद्रजातिको भी तपस्याका अधिकार होगा। राजन् ! इस समय आपके राज्यकी सीमापर एक खोटी बुद्धिवाला शूद्र अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। उसीके शास्त्रविरुद्ध आचरणके प्रभावसे इस बालककी मृत्यु हुई है। राजाके राज्य या नगरमें जो कोई भी अधर्म अथवा अनुचित कर्म करता है, उसके पापका चतुर्थांश राजाके हिस्से में आता है। अतः पुरुषश्रेष्ठ! आप अपने राज्यमें घूमिये और जहाँ कहीं भी पाप होता दिखायी दे. उसे रोकनेका प्रयत्न कीजिये। ऐसा करनेसे आपके धर्म, बल और आयुकी वृद्धि होगी। साथ ही यह बालक भी जी उठेगा।
नारदजीके इस कथनपर श्रीरघुनाथजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर लक्ष्मणसे बोले- ‘सौम्य ! जाकर उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको सान्त्वना दो और उस बालकके शरीरको तेलसे भरी नावमें रखवा दो। जिस प्रकार भी उस निरपराध बालकके शरीरकी रक्षा हो सके, वह उपाय करना चाहिये।’ उत्तम लक्षणोंसे युक्त सुमित्राकुमार लक्ष्मणको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् श्रीरामने पुष्पक विमानका स्मरण किया। रघुनाथजीका अभिप्राय जानकर इच्छानुसार चलनेवाला वह स्वर्णभूषित विमान एक ही मुहूर्तमें उनके समीप आ पहुँचा और हाथ जोड़कर बोला- ‘महाराज आपका आज्ञाकारी यह दास सेवामें उपस्थित है।’ पुष्पककी सुन्दर उक्ति सुनकर महाराज श्रीराम महर्षि वसिष्ठको प्रणाम करके विमानपर आरूढ़ हुए और धनुष, बाण एवं चमचमाता हुआ खड्ग लेकर तथा लक्ष्मण और भरतको नगरका भार सौप दक्षिण दिशाकी ओर चल दिये। [दण्डकारण्यके पास पहुँचनेपर] एक पर्वतके दक्षिण किनारे बहुत बड़ा तालाबदिखायी दिया। रघुनाथजीने देखा-उस सरोवरके तटपर एक तपस्वी नीचा मुँह किये लटक रहा है और बड़ी कठोर तपस्या कर रहा है। भगवान् श्रीराम उस तपस्वीके पास जाकर बोले- ‘तापस! मैं दशरथका पुत्र राम हूँ और कौतूहलवश तुमसे एक प्रश्न पूछता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ, तुम किसलिये तपस्या करते हो, ठीक-ठीक बताओ-तुम ब्राह्मण हो या दुर्जय क्षत्रिय ? तीसरे वर्णमें उत्पन्न वैश्य हो या शूद्र ? तपस्या सत्यस्वरूप और नित्य है। उसका उद्देश्य है-स्वर्गादि उत्तम लोकोंकी प्राप्ति। तप सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकारका होता है। ब्रह्माजीने जगत्के उपकारके लिये तपस्याकी सृष्टि की है। [अतः परोपकारके उद्देश्यसे किया हुआ तप ‘सात्त्विक’ होता है;] क्षत्रियोचित तेजकी प्राप्तिके लिये किया जानेवाला भयंकर तप ‘राजस’ कहलाता है तथा जो दूसरोंका नाश करनेके लिये [ अपने शरीरको अस्वाभाविक रूपसे कष्ट देते हुए ] तपस्या की जाती है, वह ‘आसुर’ (तामस ) कहीं गयी है। तुम्हारा भाव आसुर जान पड़ता है तथा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम द्विज नहीं हो।’
अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरघुनाथजीके उपर्युक्त वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ शुद्र उसी अवस्थामें बोला-‘नृपश्रेष्ठ आपका स्वागत है। रघुनन्दन । चिरकालके बाद मुझे आपका दर्शन हुआ है। मैं आपके पुत्रके समान हूँ, आप मेरे लिये पिताके तुल्य हैं। क्योंकि राजा तो सभीके पिता होते हैं। महाराज! आप हमारे पूजनीय हैं। हम आपके राज्यमें तपस्या करते हैं; उसमें आपका भी भाग है। विधाताने पहलेसे ही ऐसी व्यवस्था कर दी है। राजन् ! आप धन्य हैं, जिनके राज्यमें तपस्वीलोग इस प्रकार सिद्धिकी इच्छा रखते हैं। मैं शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ और कठोर तपस्यामें लगा हूँ। पृथ्वीनाथ! मैं झूठ नहीं बोलता; क्योंकि मुझे देवलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है। काकुत्स्थ! मेरा नाम शम्बूक है।’
वह इस प्रकार बातें कर ही रहा था कि श्रीरघुनाथजीने म्यानसे चमचमाती हुई तलवार निकाली और उसका उज्ज्वल मस्तक धड़से अलग कर दिया। उस शूद्रके मारे जानेपर इन्द्र और अग्नि आदि देवता ‘साधु-साधु’ कहकर बारम्बार श्रीरामचन्द्रजीकी प्रशंसा करने लगे। आकाशसे श्रीरामचन्द्रजीके ऊपर वायु देवताके छोड़े हुए दिव्य फूलोंकी सुगन्धभरी वृष्टि होने लगी। जिस क्षण यह शूद्र मारा गया, ठीक उसी समय वह बालक जी उठा ।
अध्याय-27 महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर देवतालोग अपने बहुत से विमानोंके साथ वहाँसे चल दिये। श्रीरामचन्द्रजीने भी शीघ्र ही महर्षि अगस्त्यके तपोवनकी ओर प्रस्थान किया। फिर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानसे उतरे और मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यको प्रणाम करनेके लिये उनके समीप गये।
श्रीराम बोले-मुनिश्रेष्ठ! मैं दशरथका पुत्र राम आपको प्रणाम करनेके लिये सेवामें उपस्थित हुआ हूँ। आप अपनी सौम्य दृष्टिसे मेरी ओर निहारिये। इतना कहकर उन्होंने बारम्बार मुनिके चरणों में प्रणाम किया और कहा- ‘भगवन्! मैं शम्बूक नामक शूद्रका वध करके आपका दर्शन करनेकी इच्छासे यहाँआया हूँ। कहिये, आपके शिष्य कुशलसे हैं न ? इस वनमें तो कोई उपद्रव नहीं है?’
अगस्त्यजी बोले – रघुश्रेष्ठ ! आपका स्वागत है। जगद्वन्द्य सनातन परमेश्वर ! आपके दर्शनसे आज मैं इन मुनियोंसहित पवित्र हो गया। आपके लिये यह अर्घ्य प्रस्तुत है, इसे स्वीकार करें। आप अपने अनेकों उत्तम गुणोंके कारण सदा सबके सम्मानपात्र हैं। मेरे हृदयमें तो आप सदा ही विराजमान रहते हैं, अतः मेरे परम पूज्य हैं। आपने अपने धर्मसे ब्राह्मणके मरे हुए बालकको जिला दिया। भगवन्! आज रातको आप यहाँ मेरे पास रहिये । महामते ! कल सबेरे आप पुष्पक विमानसे अयोध्याको लौट जाइयेगा। सौम्य ! यहआभूषण विश्वकर्माका बनाया हुआ है। यह दिव्य अमरण है और अपने दिव्य रूप एवं तेजसे जगमगा रहा है। राजेन्द्र ! आप इसे स्वीकार करके मेरा प्रिय कीजिये; क्योंकि प्राप्त हुई वस्तुका पुनः दान कर देनेसे महाफलकी प्राप्ति बतायी गयी है।
श्रीरामने कहा- ब्रह्मन् ! आपका दिया हुआ दान लेना मेरे लिये निन्दाकी बात होगी। क्षत्रिय जान बूझकर ब्राह्मणका दिया हुआ दान कैसे ले सकता है, यह बात आप मुझे बताइये। किसी आपत्तिके कारण मुझे कष्ट हो- ऐसी बात भी नहीं है; फिर दान कैसे लूँ। इसे लेकर मुझे केवल दोषका भागी होना पड़ेगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
अगस्त्यजी बोले- श्रीराम ! प्राचीन सत्ययुगमें जब अधिकांश मनुष्य ब्राह्मण ही थे, तथा समस्त प्रजा राजासे हीन थी, एक दिन सारी प्रजा पुराणपुरुष ब्रह्माजीके पास राजा प्राप्त करनेकी इच्छासे गयी और कहने लगी- ‘लोकेश्वर जैसे देवताओंके राजा देवाधिदेव इन्द्र हैं, उसी प्रकार हमारे कल्याणके लिये भी इस समय एक ऐसा राजा नियत कीजिये, जिसे पूजा और भेंट देकर सब लोग पृथ्वीका उपभोग कर सकें।’ तब देवताओं में श्रेष्ठ ब्रह्माजीने इन्द्रसहित समस्त लोकपालोंको बुलाकर कहा – ‘तुम सब लोग अपने-अपने तेजका अंश यहाँ एकत्रित करो।’ तब सम्पूर्ण लोकपालोंने मिलकर चार भाग दिये। वह भाग अक्षय था। उससे अक्षय राजाकी उत्पत्ति हुई। लोकपालोंके उस अंशको ब्रह्माजीने मनुष्योंके लिये एकत्रित किया। उसीसे राजाका प्रादुर्भाव हुआ, जो प्रजाओंके हित साधनमें कुशल होता है। इन्द्रके भागसे राजा सबपर हुकूमत चलाता है। वरुणके अंशसे समस्त देहधारियोंका करता है। कुबेरके अंशसे वह याचकोको धन देता है तथा राजामें जो यमराजका अंश है, उसके द्वारा वह प्रजाको दण्ड देता है। रघुश्रेष्ठ। उसी इसके भागसे आप भी मनुष्योंके राजा हुए हैं, इसलिये प्रभो! मेरा उद्धार करनेके लिये यह आभूषण ग्रहण कीजिये।पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! तब श्रीरघुनाथजीने महात्मा अगस्त्यके हाथसे वह दिव्य आभूषण ले लिया, जो बहुत ही विचित्र था और सूर्यकी तरह चमक रहा था। उसे लेकर वे निहारते रहे। फिर बारम्बार विचार करने लगे-‘ऐसे रत्न तो मैंने विभीषणकी लंकामें भी नहीं देखे।’ इस प्रकार मन-ही-मन सोच-विचार करनेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि अगस्त्यसे उस दिव्य आभूषणकी प्राप्तिका वृत्तान्त पूछना आरम्भ किया।
श्रीराम बोले- ब्रह्मन् । यह रत्न तो बड़ा अद्भुत है। राजाओंके लिये भी यह अलभ्य ही है। आपको यह कहाँसे और कैसे मिल गया ? तथा किसने इस आभूषणको बनाया है? अगस्त्यजीने कहा- रघुनन्दन ! पहले त्रेतायुगमें एक बहुत विशाल वन था। इसका व्यास सौ योजन का था। किन्तु उसमें न कोई पशु रहता था, न पक्षी। उस बनके मध्यभागमें चार कोस लम्बी एक झोल थी, जो हंस और कारण्डव आदि पक्षियोंसे संकुल थी। वहाँ मैंने एक बड़े आश्चर्य की बात देखी सरोवरके पास ही एक बहुत बड़ा आश्रम था, जो बहुत पुराना होनेपर भी अत्यन्त पवित्र दिखायी देता था, किन्तु उसमें कोई तपस्वी नहीं था और न कोई और जीव भी थे। मैंने उस आश्रम में रहकर ग्रीष्मकालकी एक रात्रि व्यतीत की। सबेरे उठकर जब तालाबकी ओर चला तो रास्तेमें मुझे एक बहुत बड़ा मुर्दा दीख पड़ा, जिसका शरीर अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट था। मालूम होता था किसी तरुण पुरुषकी लाश है। उसे देखकर मैं सोचने लगा-‘यह कौन है? इसकी मृत्यु कैसे हो गयी तथा यह इस महान् वनमें आया कैसे था ? इन सारी बातोंका मुझे अवश्य पता लगाना चाहिये।’ मैं खड़ा खड़ा यही सोच रहा था कि इतनेमें आकाशसे एक दिव्य एवं अद्भुत विमान उतरता दिखायी दिया। वह परम सुन्दर और मनके समान वेगशाली था। एक ही क्षणमें वह विमान सरोवरके निकट आ पहुँचा। मैंने देखा, उस विमानसे एक दिव्य मनुष्य उतरा और सरोवरमें नहाकर उस मुर्देका मांस खानेलगा भरपेट उस मोटे ताजे मुर्देका मांस खाकर वह फिर सरोवरमें उतरा और उसकी शोभा निहारकर फिर शीघ्र ही स्वर्गकी ओर जाने लगा। उस शोभा सम्पन्न देवोपम पुरुषको ऊपर जाते देख मैंने कहा- ‘स्वर्ग लोकके निवासी महाभाग [तनिक ठहरो] मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ तुम्हारी यह कैसी अवस्था है? तुम कौन हो ? देखने में तो तुम देवताके समान जान पड़ते हो; किन्तु तुम्हारा भोजन बहुत ही घृणित है। सौम्य । ऐसा भोजन क्यों करते हो और कहीं रहते हो?”
रघुनन्दन! मेरी बात सुनकर उस स्वर्गवासी पुरुषने हाथ जोड़कर कहा- “विप्रवर! मेरा जैसा वृत्तान्त है, उसे आप सुनिये पूर्वकालको बात है, विदर्भदेशमें मेरे महायशस्वी पिता राज्य करते थे। वे वसुदेवके नामसे त्रिलोकीमें विख्यात और परम धार्मिक थे। उनके दो स्त्रियाँ थीं। उन दोनोंसे एक एक करके दो पुत्र हुए। मैं उनका ज्येष्ठ पुत्र था। लोग मुझे श्वेत कहते थे। मेरे छोटे भाईका नाम सुरथ था। पिताको मृत्युके बाद पुरवासियोंने विदर्भदेशके राज्यपर मेरा अभिषेक कर दिया। तब मैं वहाँ पूर्ण सावधानीके साथ राज्य संचालन करने लगा। इस प्रकार राज्य और प्रजाका पालन करते मुझे कई हजार वर्ष बीत गये। एक दिन किसी निमित्तको लेकर मुझे प्रबल वैराग्य हो गया और मैं मरणपर्यन्त तपस्याका निश्चय करके इस तपोवनमें चला आया। राज्यपर मैंने अपने भाई महारथी सुरथका अभिषेक कर दिया था। फिर इस सरोवरपर आकर मैंने अत्यन्त कठोर तपस्या आरम्भ की। अस्सी हजार वर्षोंतक इस वनमें मेरी तपस्या चालू रही। उसके प्रभावसे मुझे भुवनोंमें सर्वश्रेष्ठ कल्याणमय ब्रह्मलोककी प्राप्ति हुई। किन्तु वहाँ पहुँचनेपर मुझे भूख और प्यास अधिक सताने लगी। मेरी इन्द्रियाँ तिलमिला उठीं मैंने त्रिलोकीके सर्वश्रेष्ठ देवता ब्रह्माजीसे पूछा-‘भगवन्! यह लोक तो भूख और प्याससे रहित सुना गया है; यह मुझे किस कर्मका फल प्राप्त हुआ है कि भूख और प्यास यहाँ भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़तीं ? देव शीघ्र बताइये, मेरा आहार क्या है?” महामुने। इसपर ब्रह्माजीने बहुत देरतकसोचनेके बाद कहा- ‘तात! पृथ्वीपर कुछ दान किये बिना यहाँ कोई वस्तु खानेको नहीं मिलती। तुमने उस जन्ममें भिखमंगेको कभी भीखतक नहीं दी। [जब तुम राजभवनमें रहकर राज्य करते थे,] उस समय भूलसे या मोहवश तुम्हारे द्वारा किसी अतिथिको भोजन नहीं मिला है। इसलिये यहाँ रहते हुए भी तुम्हें भूख और प्यासका कष्ट भोगना पड़ता है। राजेन्द्र भाँति-भाँति के आहारोंसे जिसको तुमने भलीभाँति पुष्ट किया था, वह तुम्हारा उत्तम शरीर पड़ा हुआ है; उसीका मांस खाओ, उसीसे तुम्हारी तृप्ति होगी।’
“ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर मैंने पुनः उनसे निवेदन किया-‘प्रभो! अपने शरीरका भक्षण कर लेनेपर भी फिर मेरे लिये दूसरा कोई आहार नहीं रह जाता है। जिससे इस शरीरकी भूख मिट सके तथा जो कभी चुकनेवाला न हो, ऐसा कोई भोजन मुझे देनेकी कृपा कीजिये।’ तब ब्रह्माजीने कहा- ‘तुम्हारा शरीर ही अक्षय बना दिया गया है। उसे प्रतिदिन खाकर तुम तृप्तिका अनुभव करते रहोगे। इस प्रकार अपने ही शरीरका मांस खाते जब तुम्हें सौ वर्ष पूरे हो जायेंगे, उस समय तुम्हारे विशाल एवं दुर्गम तपोवनमें महर्षि अगस्त्य पधारेंगे। उनके आनेपर तुम संकटसे छूट जाओगे राजर्षे वे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और असुरोंका भी उद्धार करनेमें समर्थ हैं, फिर तुम्हारे इस घृणित आहारको छुड़ाना उनके लिये कौन बड़ी बात है।’ भगवान् ब्रह्माजीका यह कथन सुनकर मैं अपने शरीरके मांसका घृणित भोजन करने लगा । विप्रवर! यह कभी नष्ट नहीं होता तथा इससे मेरी पूर्ण तृप्ति भी हो जाती है। न जाने कब वे मुनि इस वनमें आकर मुझे दर्शन देंगे, यही सोचते हुए मुझे सौ वर्ष पूरे हो गये हैं। ब्रह्मन्! अब अगस्त्य मुनि ही मेरे सहायक होंगे, यह बिलकुल निश्चित बात है।”
राजा श्वेतका यह कथन सुनकर तथा उनके उस घृणित आहारपर दृष्टि डालकर मैंने कहा-‘अच्छा, तो तुम्हारे सौभाग्यसे मैं आ गया, अब निःसन्देह तुम्हारा उद्धार करूँगा।’ तब वे मुझे पहचानकर दण्डकी भाँतिमेरे सामने पृथ्वीपर पड़ गये। यह देख मैंने उन्हें उठा लिया और कहा- ‘बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा उपकार करूँ ?’
राजा बोले- ब्रह्मन् ! इस घृणित आहारसे तथा जिस पापके कारण यह मुझे प्राप्त हुआ है, उससे मेरा आज उद्धार कीजिये, जिससे मुझे अक्षय लोककी प्राप्ति हो सके। ब्रह्मर्षे! अपने उद्धारके लिये मैं यह दिव्य आभूषण आपकी भेंट करता हूँ। इसे लेकर मुझपर कृपा कीजिये ।रघुनन्दन ! उस स्वर्गवासी राजाकी ये दुःखभरी बातें सुनकर उसके उद्धारकी दृष्टिसे ही वह दान मैंने स्वीकार किया, लोभवश नहीं। उस आभूषणको लेकर ज्यों ही मैंने अपने हाथपर रखा, उसी समय उनका वह मुर्दा शरीर अदृश्य हो गया। फिर मेरी आज्ञा लेकर वे राजर्षि बड़ी प्रसन्नताके साथ विमानद्वारा ब्रह्मलोकको चले गये। इन्द्रके समान तेजस्वी राजर्षि श्वेतने ही मुझे यह सुन्दर आभूषण दिया था और इसे देकर वे पापसे मुक्त हो गये ।
अध्याय-28 दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं— अगस्त्यजीके ये अद्भुत वचन सुनकर श्रीरघुनाथजीने विस्मयके कारण पुनः प्रश्न किया-‘महामुने! वह वन, जिसका विस्तार सौ योजनका था, पशु-पक्षियोंसे रहित, निर्जन, सूना और भयंकर कैसे हुआ ?”
अगस्त्यजी बोले – राजन्! पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है, वैवस्वत मनु इस पृथ्वीका शासन करनेवाले राजा थे। उनके पुत्रका नाम इक्ष्वाकु था। इक्ष्वाकु बड़े ही सुन्दर और अपने भाइयोंमें सबसे बड़े थे महाराज उनको बहुत मानते थे। उन्होंने इक्ष्वाकुको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके कहा- ‘तुम पृथ्वीके राजवंशोंके अधिपति (सम्राट्) बनो।’ रघुनन्दन! ‘बहुत अच्छा’ कहकर इक्ष्वाकुने पिताकी आज्ञा स्वीकार की। तब वे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर बोले- ‘बेटा! अब तुम दण्डके द्वारा प्रजाकी रक्षा करो। किन्तु दण्डका अकारण प्रयोग न करना। मनुष्योंके द्वारा अपराधियोंको जो दण्ड दिया जाता है, वह शास्त्रीय विधिके अनुसार [उचित अवसरपर] प्रयुक्त होनेपर राजाको स्वर्गमें ले जाता है। इसलिये महाबाहो ! तुम दण्डके समुचित प्रयोगके लिये सदा सचेष्ट रहना। ऐसा करनेपर संसारमें तुम्हारे द्वारा अवश्य परम धर्मका पालन होगा।’
इस प्रकार एकाग्र चित्तसे अपने पुत्र इक्ष्वाकुको बहुत-से उपदेश दे महाराज मनु बड़ी प्रसन्नताके साथब्रह्मलोकको सिधार गये। तत्पश्चात् राजा इक्ष्वाकुको यह चिन्ता हुई कि ‘मैं कैसे पुत्र उत्पन्न करूँ ?’ इसके लिये उन्होंने नाना प्रकारके शास्त्रीय कर्म (यज्ञ यागादि) किये और उनके द्वारा राजाको अनेकों पुत्रोंकी प्राप्ति हुई। देवकुमारके समान तेजस्वी राजा इक्ष्वाकुने पुत्रोंको जन्म देकर पितरोंको सन्तुष्ट किया। रघुनन्दन। इक्ष्वाकुके पुत्रोंमें जो सबसे छोटा था, वह [गुणोंमें] सबसे श्रेष्ठ था। वह शूर और विद्वान् तो था ही, प्रजाका आदर करनेके कारण सबके विशेष गौरवका पात्र हो गया था। उसके बुद्धिमान् पिताने उसका नाम दण्ड रखा और विन्ध्यगिरिके दो शिखरोंके बीचमें उसके रहनेके लिये एक नगर दे दिया। उस नगरका नाम मधुमत्त था। धर्मात्मा दण्डने बहुत वर्षोंतक वहाँका अकण्टक राज्य किया। तदनन्तर एक समय जब कि चारों ओर चैत्र मासकी मनोरम छटा छा रही थी, राजा दण्ड भार्गव मुनिके रमणीय आश्रमके पास गया। वहाँ जाकर उसने देखा-भार्गव मुनिकी परम सुन्दरी कन्या, जिसके रूपकी कहीं तुलना नहीं थी, वनमें घूम रही है उसे देखकर राजा दण्डके मनमें पापका उदय हुआ और वह कामबाणसे पीड़ित हो कन्याके पास जाकर बोला- ‘सुन्दरी! तुम कहाँ से आयी हो ? शोभामयी! तुम किसकी कन्या हो ? मैं कामसे पीड़ित होकर तुमसे ये बातें पूछ रहा हूँ। वरारोहे। मैं तुम्हारा दास हूँ। सुन्दरि ! मुझ भक्तको अंगीकार करो।’अरजा बोली- राजेन्द्र ! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं भार्गव वंशकी कन्या हूँ। पुण्यात्मा शुक्राचार्यकी में ज्येष्ठ पुत्री हैं, मेरा नाम अरजा है। पिताजी इस आश्रमपर ही निवास करते हैं। महाराज! शुक्राचार्य मेरे पिता हैं और आप उनके शिष्य हैं। अतः धर्मके नाते मैं आपकी बहिन हूँ। इसलिये आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि दूसरे कोई दुष्ट पुरुष भी मुझपर कुदृष्टि करें तो आपको सदा उनके हाथसे मेरी रक्षा करनी चाहिये मेरे पिता बड़े क्रोधी और भयंकर हैं। वे [अपने शापसे] आपको भस्म कर सकते हैं। अतः नृपश्रेष्ठ! आप मेरे महातेजस्वी पिताके पास जाइये और धर्मानुकूल बर्तावके द्वारा उनसे मेरे लिये याचना कीजिये। अन्यथा [ इसके विपरीत आचरण करनेपर] आपपर महान् एवं घोर दुःख आ पड़ेगा मेरे पिताका क्रोध उभड़ जानेपर वे समूची त्रिलोकीको भी जलाकर खाक कर सकते हैं। दण्ड बोला- सुन्दरी! तुम्हें पा लेनेपर चाहे मेरा वध हो जाय अथवा वधसे भी महान् कष्ट भोगना पड़े
[मुझे स्वीकार है]। भीरु! मैं तुम्हारा भक्त हूँ, मुझे स्वीकार करो।
ऐसा कहकर राजाने उस कन्याको बलपूर्वक बाहुपाशमें कस लिया और उस एकान्त वनमें, जहाँसे कहीं आवाज भी नहीं पहुँच सकती थी, उसे नंगा कर दिया। बेचारी अबला उसकी भुजाओंसे छूटनेके लिये बहुत छटपटायी, परन्तु फिर भी उसने स्वेच्छानुसार उसके साथ भोग किया। राजा दण्ड वह अत्यन्त कठोरतापूर्ण और महाभयानक अपराध करके तुरंत अपने नगरको चल दिया तथा भार्गव कन्या अरजा दीनभावसे रोती हुई अत्यन्त उद्विग्न हो आश्रमके समीप अपने देव-तुल्य पिताके पास आयी। उसके पिता अमित तेजस्वी देवर्षि शुक्राचार्य सरोवरपर स्नान करने गये थे। स्नान करके वे दो ही घड़ीमें शिष्यसहित आश्रमपर लौट आये। [आश्रमपर आकर] उन्होंने 2 देखा-अरजाकी दशा बड़ी दयनीय है, वह धूलमें सनी हुई है। [ तुरंत ही सारा रहस्य उनके ध्यानमें आगया। ] फिर तो शुक्रको बड़ा रोष हुआ, वे तीनों लोकोंको दग्ध-सा करते हुए अपने शिष्योंको सुनाकर बोले- ‘धर्मके विपरीत आचरण करनेवाले अदूरदर्शी दण्डके ऊपर प्रज्वलित अग्निशिखाके समान भयंकर विपत्ति आ रही है; तुम सब लोग देखना- वह खोटी बुद्धिवाला पापी राजा अपने देश, भृत्य, सेना और वाहनसहित नष्ट हो जायगा। उसका राज्य सौ योजन लम्बा-चौड़ा है, उस समूचे राज्यमें इन्द्र धूलकी बड़ी भारी वर्षा करेंगे। उस राज्यमें रहनेवाले स्थावर-जंगम जितने भी प्राणी हैं, उन सबका उस धूलकी वर्षासे शीघ्र ही नाश हो जायगा। जहाँतक दण्डका राज्य है, वहाँतकके उपवनों और आश्रमोंमें अकस्मात् सात राततक धूलकी वर्षा होती रहेगी।’
क्रोधसे संतप्त होनेके कारण इस प्रकार शाप दे महर्षि शुकने आश्रमवासी शिष्योंसे कहा-‘तुमलोग यहाँ रहनेवाले सब लोगोंको इस राज्यकी सीमासे बाहर ले जाओ।’ उनकी आज्ञा पाते ही आश्रमवासी मनुष्य शीघ्रतापूर्वक उस राज्यसे हट गये और सीमासे बाहर जाकर उन्होंने अपने डेरे डाल दिये। तदनन्तर शुक्राचार्य अरजासे बोले-‘ ओ नीय बुद्धिवाली कन्या! तू अपने चित्तको एकाग्र करके सदा इस आश्रमपर ही निवास कर। यह चार कोसके विस्तारका सुन्दर शोभासम्पन्न सरोवर है। अरजे! तू रजोगुणसे रहित सात्विक जीवन व्यतीत करती हुई सौ वर्षोंतक यहीं रह ।’ महर्षिका यह आदेश सुन अरजाने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की। उस समय वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। शुक्राचार्यने कन्यासे उपर्युक्त बात कहकर वहाँ दूसरे आश्रमके लिये प्रस्थान किया। ब्रह्मवादी महर्षिके कथनानुसार विन्ध्यगिरिके शिखरोंपर फैला हुआ राजा दण्डका समूचा राज्य एक सप्ताह के भीतर ही जलकर खाक हो गया। तबसे वह विशाल वन ‘दण्डकारण्य’ कहलाता है। रघुनन्दन। आपने जो मुझसे पूछा था, वह सारा प्रसंग मैंने कह सुनाया, अब सन्ध्योपासनका समय बीता जा रहा है। ये महर्षिगण सब ओर जलसे भरे पड़े लेकर अयं दे भगवान् सूर्यकी पूजा कर रहे हैं। आपभी चलकर सन्ध्यावन्दन करें।
ऋषिकी आज्ञा मानकर श्रीरघुनाथजी सन्ध्योपासन करनेके लिये उस पवित्र सरोवर के तटपर गये। आचमन एवं सायं सन्ध्या करके श्रीरघुनाथजी महात्मा कुम्भज के आश्रम में गये। वहाँ उन्होंने बड़े आदरके साथ अधिक गुणकारी फल मूल तथा रसीले साग भोजनके लिये अर्पण किये। नरश्रेष्ठ श्रीरामने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस अमृतके समान मधुर भोजनका भोग लगाया और पूर्ण तृप्त होकर रात्रिमें वहीं शयन किया। सबेरे उठकर
उन्होंने अपना नित्यकर्म किया और वहाँसे विदा होनेके लिये महर्षिके पास गये। वहाँ जाकर उन्होंने मुनिको प्रणाम किया और कहा- ‘ब्रह्मन् ! अब मैं आपसे विदा होना चाहता हूँ, आप आज्ञा देनेकी कृपा करें महामुने। आज मैं आपके दर्शनसे कृतार्थ और अनुगृहीत हुआ।’
श्रीरामचन्द्रजीके ऐसे अद्भुत वचन कहनेपर तपस्वी अगस्त्यजीने अत्यन्त प्रसन्न होकर कहा-‘श्रीराम ! कल्याणमय अक्षरोंसे युक्त आपका यह वचन बड़ा ही अद्भुत है। रघुनन्दन। यह सम्पूर्ण प्राणियोंको पवित्र करनेवाला है। जो मनुष्य आपको दो घड़ी भी देख लेतेहैं, वे समस्त प्राणियोंमें पवित्र हैं और देवता कहलाते हैं।” रघुश्रेष्ठ आप समस्त देहधारियोंके लिये परम पावन हैं आपका प्रभाव ऐसा ही है। जो लोग आपकी चर्चा करेंगे, उन्हें भी सिद्धि प्राप्त होगी। आप इस मार्गसे शान्त एवं निर्भय होकर जाइये और धर्मपूर्वक राज्यका पालन कीजिये; क्योंकि आप ही इस जगत्के एकमात्र सहारे हैं।’
महर्षिके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामचन्द्रजीने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया तथा अन्यान्य मुनिवरोंको भी, जो सब-के-सब तपस्याके धनी थे, सादर अभिवादन करके वे शान्तभावसे सुवर्णभूषित पुष्पक विमानपर चढ़ गये। यात्राके समय मुनिगणने सब ओरसे उनपर आशीर्वादोंकी वर्षा की समस्त पुरुषार्थोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजी दोपहर होते-होते अयोध्या में पहुँचकर सातवीं ड्योढ़ीमें उतरे। तत्पश्चात् उन्होंने इच्छानुसार चलनेवाले उस परम सुन्दर पुष्पक विमानको विदा कर दिया। फिर महाराजने द्वारपालोंसे कहा-‘तुमलोग फुर्तीसे जाकर भरत और लक्ष्मणको मेरे आगमनकी सूचना दो और उन्हें अपने साथ ही लिवा लाओ; विलम्बन करना।’ द्वारपाल आज्ञाके अनुसार जाकर दोनों कुमारोंको बुला ले आये। श्रीरघुनाथजी अपने प्रियबन्धु भरत और लक्ष्मणको देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें छातीसे लगाकर बोले- ‘मैंने ब्राह्मणके शुभकार्यका यथावत् सम्पादन किया है। अब मैं [ प्रतिमास्थापन, देवालय-निर्माण आदि] पूर्त-धर्मका अनुष्ठान करूँगा। वीरो ! मेरा कान्यकुब्ज देशमें जाकर भगवान् वामनकी प्रतिष्ठा करनेका विचार है।’
अध्याय-29 श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मर्षे ! श्रीरामचन्द्रजीने कान्यकुब्ज देशमें भगवान् श्रीवामनको प्रतिष्ठा किस प्रकार की, उन्हें श्रीवामनजीका विग्रह कहाँ प्राप्त हुआ- इन सब बातोंका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। भगवन्! श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा बड़ी ही मधुर, पावन तथा मनोरम होती है। आपने जो यह कथा सुनायी है, उससे मेरे हृदय और कानको बड़ा सुख मिला है। सारा संसार भगवान् श्रीरामको प्रेम और अनुरागसे देखता है; वे बड़े ही धर्मज्ञ थे। वे जब पृथ्वीका राज्य करते थे, उस समय सभी वृक्ष फल और रससे भरे रहते थे। पृथ्वी बिना जोते ही अन्न देती थी। उन महात्माका इस भूमण्डलपर कोई शत्रु नहीं था। अतः मुनिवर ! मैं उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का सारा चरित्र सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले- महाराज! धर्मके मार्गपर स्थित रहनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुछ कालके पश्चात् जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया, उसे एकाग्र मनसे सुनो। एक दिन श्रीरघुनाथजी मन-ही-मन इस बातका विचार करने लगे कि ‘राक्षस कुलोत्पन्न राजा विभीषण लंकामें रहकर सदा ही राज्य करते रहें-उसमें किसी प्रकारकी विघ्न-बाधा न पड़े, इसके लिये क्या उपाय हो सकता है। मुझे चलकर उन्हें हितकी बात बतानी चाहिये, जिससे उनका राज्य सदा कायम रहे।’ अमित तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय भरतजी वहाँ आये और श्रीरामको विचारमग्न देख र्यो बोले- ‘देव! आप क्या सोच रहे हैं? यदि कोई गुप्त बात न हो तो मुझे बतानेकी कृपा ‘करें। श्रीरघुनाथजीने कहा- ‘मेरी कोई भी बात तुमसे छिपानेयोग्य नहीं है। तुम और महायशस्वीलक्ष्मण मेरे बाहरी प्राण हो। मेरे मनमें इस समय सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि विभीषण देवताओंके साथ कैसा बर्ताव करते हैं; क्योंकि देवताओंके हितके लिये ही मैंने रावणका वध किया था। इसलिये वत्स! जहाँ विभीषण हैं, वहाँ मैं जाना चाहता हूँ। लंकापुरीको देखकर राक्षसराजको उनके कर्तव्यका उपदेश करूँगा।’
भगवान् श्रीरामके ऐसा कहनेपर हाथ जोड़कर खड़े हुए भरतने कहा- ‘मैं भी आपके साथ ‘चलूँगा।’ श्रीरघुनाथजी बोले-‘महाबाहो ! अवश्य चलो।’ फिर वे लक्ष्मणसे बोले- ‘वीर! तुम नगरमें रहकर हम दोनोंके लौटनेतक इसकी रक्षा करना।’ लक्ष्मणको इस प्रकार आदेश देकर कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने पुष्पक विमानका स्मरण किया।विमानके आ जानेपर वे दोनों भाई उसपर आरूढ़ हुए। सबसे पहले वह विमान गान्धार देशमें गया, वहाँ भगवान्ने भरतके दोनों पुत्रोंसे मिलकर उनकी राजनीतिका निरीक्षण किया। इसके बाद पूर्व दिशामें जाकर वे लक्ष्मण पुत्र मिले। उनके नगरोंमें राते व्यतीत | करके दोनों भाई राम और भरत दक्षिण दिशाकी ओर गंगा-यमुनाके संगम स्थान प्रयाग में जाकर महर्षि भरद्वाजको प्रणाम करके वे अत्रिमुनिके आश्रमपर ये यहाँ अत्रिमुनिसे बातचीत करके दोनों भाइयोंने स्थानकी यात्रा की [जनस्थानमें प्रवेश करते हुए] श्रीरामचन्द्रजी बोले-” भरत! यही वह स्थान है, जहाँ दुरात्मा रावणने गृधराज जटायुको मारकर सीताका हरण किया था। जटायु हमारे पिताजीके मित्र थे। इस स्थानपर हमलोगोंका दुष्ट बुद्धिवाले कबन्धके साथ महान् युद्ध हुआ था। कबन्धको मारकर हमने उसे आगमें जला दिया था। मरते समय उसने बताया कि सीता रावणके घरमें हैं। उसने यह भी कहा कि ‘आप यमूक पर्वतपर जाइये। वहाँ सुग्रीव नामके वानर रहते हैं, वे आपके साथ मित्रता करेंगे।’ यही वह पम्पा सरोवर है. जहाँ शबरी नामकी तपस्विनी रहती थी। यही वह स्थान है, जहाँ सुग्रीवके लिये मैंने वालिको मारा था वीर ‘वालिको राजधानी किष्किन्धापुरी यह दिखायी दे रही है। इसीमें धर्मात्मा वानरराज सुग्रीव अन्यान्य वानरोंके साथ निवास करते हैं।’ सुग्रीव उस समय अपने सभा भवनमें विराजमान थे। इतनेमें ही भरत और श्रीरामचन्द्रजी किष्किन्धापुरीमें जा पहुँचे। उन दोनों भाइयोंको उपस्थित देख सुग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर उन दोनों भाइयोंको सिंहासनपर बिठाकर सुग्रीवने अर्घ्य निवेदन किया और साथ ही अपने-आपको भी उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया। इस प्रकार जब परम धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी सभामें विराजमान हुए तब अंगद, हनुमान्, नल, नील, पाटल और ऋक्षराज जाम्बवान् आदि सभी वानर-वीर सेनाओं सहित वहाँ आये। अन्तःपुरकी सभी सिरमा और तारा आदि भी उपस्थित हुई। । अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। सब लोग भगवान्कोसाधुवाद देने लगे और सबने भगवान्का दर्शन करके प्रेमाश्रुओंसे गद्गद हो उन्हें प्रणाम किया।”
सुग्रीव बोले- महाराज आप दोनोंने किस कार्यसे यहाँ पधारनेकी कृपा की है, यह शीघ्र बताइये। सुग्रीवके इस प्रकार पूछनेपर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे भरतने लंकायात्राकी बात बतायी। तब सुग्रीवने कहा-‘मैं भी आप दोनोंके साथ राक्षसराज विभीषणसे मिलनेके लिये लंकापुरीमें चलूँगा।’ सुग्रीवके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने कहा- ‘चलो।’ फिर सुग्रीव, श्रीराम और भरत ये तीनों पुष्पक विमानपर बैठे। तुरंत ही वह विमान समुद्रके उत्तर- तटपर जा पहुँचा। उस समय श्रीरामने भरतसे कहा- ‘यही वह स्थान है, जहाँ राक्षसराज विभीषण अपने चार मन्त्रियोंको साथ लेकर प्राण बचानेके लिये मेरे पास आये थे उसी समय लक्ष्मणने लंकाके राज्यपर उनका अभिषेक किया था। यहाँ मैं समुद्रके इस पार तीन दिनतक इस आशासे ठहरा रहा कि यह मुझे दर्शन देगा और [सगरका पुत्र होनेके नाते ] अपना कुटुम्बी समझकर मेरा कार्य करेगा। किन्तु तबतक इसने मुझे दर्शन नहीं दिया। यह देखकर चौथे दिन मैंने बड़े वेगसे धनुष चढ़ाकर हाथमें दिव्यास्त्र लेलिया। यह देख समुद्रको बड़ा भय हुआ और वह शरणार्थी होकर लक्ष्मणके पास पहुँचा। सुग्रीवने भी बहुत अनुनय-विनय की और कहा-‘प्रभो! इसे क्षमा कर दीजिये।’ तब मैंने वह बाण मरुदेशमें फेंक दिया। इसके बाद समुद्रने मुझसे कहा- ‘रघुनन्दन ! आप मेरे ऊपर पुल बाँधकर जलराशिसे पूर्ण महासागरके पार चले जाइये।’ तब मैंने वरुणके निवास स्थान समुद्रपर यह महान् पुल बाँधा था। श्रेष्ठ वानरोंने मिलकर तीन ही दिनोंमें यह कार्य पूरा किया था। पहले दिन उन्होंने चौदह योजनतक पुल बाँधा, दूसरे दिन छत्तीस योजनतक और तीसरे दिन सौ योजनतकका पूरा पुल तैयार कर दिया। देखो, यह लंका दिखायी दे रही है। इसका परकोटा और नगरद्वार- सब सोनेके बने हुए हैं। यहाँ वानरवीरोंने बहुत बड़ा घेरा डाला था। यहाँ नीलने राक्षसश्रेष्ठ प्रहस्तका वध किया था। इसी स्थानपर हनुमानजीने धूम्राक्षको मार गिराया था। यहीं सुग्रीवने महोदर और अतिकायको मौतके घाट उतारा था। इसी स्थानपर मैंने कुम्भकर्णको और लक्ष्मणने इन्द्रजितको मारा था तथा यहीं मैंने राक्षसराज दशग्रीवका वध किया था। यहाँ लोकपितामह ब्रह्माजी मुझसे वार्तालाप करनेके लिये पधारे थे। उनके साथ पार्वतीसहित त्रिशूलधारी भगवान् शंकर भी थे हमारे पिता महाराज दशरथ भी स्वर्गलोकसे यहाँ पधारे थे। जानकीको शुद्धि चाहनेवाले उन सभी लोगोंके समक्ष सीताने इस स्थानपर अग्निमें प्रवेश किया था और वे सर्वथा शुद्ध प्रमाणित हुई थीं। लंकापुरीके अधिष्ठाता देवताओंने भी सीताकी अग्नि परीक्षा देखी थी पिताजीकी आज्ञासे मैंने सीताको स्वीकार किया। उसके बाद महाराजने मुझसे कहा- बेटा! अब अयोध्याको जाओ।”
श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार बात कर रहे थे, पुष्पक विमान वहीं ठहरा रहा। उसी समय प्रधान-प्रधान राक्षसोंने, जो वहाँ उपस्थित थे, तुरंत ही विभीषणके पास जा बड़े हर्षमें भरकर निवेदन किया-‘राक्षसराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं, उनके साथ उन्हीं की-सी आकृतिवाले एक दूसरे पुरुष भी हैं।’श्रीरामचन्द्रजी नगरके समीप आ गये हैं, यह समाचार सुनकर विभीषणने [प्रियं संवाद सुनानेवाले] उन दूतका विशेष सत्कार किया तथा उन्हें धन देकर उनके सभी मनोरथ पूर्ण किये। फिर लंकापुरीको सजानेकी आज्ञा देकर वे मन्त्रियोंके साथ बाहर निकले। मेरु पर्वतपर उदित हुए सूर्यकी भाँति भगवान् श्रीरामको विमानपर बैठे देख विभीषणने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और कहा-‘भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये; क्योंकि आज मुझे आपके विश्व वन्द्य चरणोंका दर्शन मिला है।’ इस प्रकार श्रीरघुनाथजीका अभिवादन करके वे भरत और सुग्रीवसे भी गले लगकर मिले। तदनन्तर उन्होंने स्वर्गसे भी बढ़कर सुशोभित लंकापुरीमें सबको प्रवेश कराया और सब प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित रावणके जगमगाते हुए भवनमें उन्हें ठहराया। जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हो गये, तब विभीषणने अयं निवेदन करके हाथ जोड़कर सुग्रीव और भरतसे कहा- ‘यहाँ पधारे हुए भगवान् श्रीरामको भेंट करनेयोग्य कोई वस्तु मेरे पास नहीं है। यह लंकापुरी तो स्वयं भगवान्ने ही त्रिलोकीके लिये कष्टकरूप पापी शत्रुको मारकर मुझेप्रदान की है। यह पुरी ही नहीं, ये स्त्रियाँ, वे पुत्र तथा स्वयं मैं – यह सब कुछ भगवान्की सेवामें अर्पित है। भगवन्! आपको नमस्कार है; आप इसे स्वीकार करें।’
तदनन्तर राजा विभीषणका मन्त्रिमण्डल और लंकाके निवासी श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये उत्सुक हो यहाँ आये और विभीषणसे बोले-‘प्रभो! हमें श्रीरामजीका दर्शन करा दीजिये।’ विभीषणने महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे उनका परिचय कराया और श्रीरामकी आज्ञासे भरतने उन राक्षस पतियोंके द्वारा भेंटमें दिये हुए धन और रत्नराशिको ग्रहण किया। इस प्रकार राक्षसराजके भवनमें श्रीरघुनाथजीने तीन दिनतक निवास किया। चौथे दिन जब श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें विराजमान थे, राजमाता कैकसीने विभीषणसे कहा-‘बेटा! मैं भी अपनी बहुओंके साथ चलकर श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करूँगी, तुम उन्हें सूचना दे दो ये महाभाग श्रीरघुनाथजी चार मूर्तियोंमें प्रकट हुए सनातन भगवान् श्रीविष्णु हैं तथा परम सौभाग्यवती सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं। तुम्हारा बड़ा भाई उनके स्वरूपको नहीं पहचान पाया था। तुम्हारे पिताने देवताओंके सामने पहले ही कह दिया था कि भगवान् श्रीविष्णु रघुकुलमें राजा दशरथके पुत्ररूपसे अवतार लेंगे। वे ही दशग्रीव रावणका विनाश करेंगे।’
विभीषण बोले- माँ तुम श्रीरघुनाथजीके समीप अवश्य जाओ। मैं पहले जाकर उन्हें सूचना देता हूँ। यों कहकर विभीषण जहाँ श्रीरामचन्द्रजी थे, वहाँ गये और वहाँ भगवान्का दर्शन करनेके लिये आये हुए सब लोगोंको विदा करके उन्होंने सभाभवनको सर्वथा एकान्त बना दिया। फिर श्रीरामके सम्मुख खड़े होकर कहा- ‘महाराज! मेरा निवेदन सुनिये रावणको, कुम्भकर्णको तथा मुझको जन्म देनेवाली मेरी माता कैकसी आपके चरणोंका दर्शन चाहती है; आप कृपा करके उसे दर्शन दें।’
श्रीरामने कहा- ‘राक्षसराज! [तुम्हारी माता मेरी भी माता ही हैं,] मैं माताका दर्शन करनेकी इच्छासे स्वयं ही उनके पास चलूँगा। तुम शीघ्र मेरे आगे-आगे चलो।’ऐसा कहकर वे सिंहासनसे उठे और चल पड़े। कैकसीके पास पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर अंजलि बाँध उसे प्रणाम करते हुए कहा-‘देवि मैं आपको प्रणाम करता है। [मित्रकी माता होनेके नाते] आप धर्मतः मेरी माता हैं। जैसे कौसल्या मेरी माता हैं, उसी प्रकार आप भी हैं।’
कैकसी बोली- वत्स तुम्हारी जय हो, तुम चिरकालतक जीवित रहो। वीर! मेरे पतिने कहा था कि ‘भगवान् श्रीविष्णु देवताओंका हित करनेके लिये रघुकुलमें मनुष्य रूपसे अवतार लेंगे। वे रावणका विनाश करके विभीषणको राज्य प्रदान करेंगे। वे दशरथनन्दन श्रीराम बालिका वध और समुद्रपर पुल बाँधने आदिका कार्य भी करेंगे!’ इस समय स्वामीके वचनोंका स्मरण करके मैंने तुम्हें पहचान लिया। सीता लक्ष्मी हैं, तुम श्रीविष्णु हो और वानर देवता हैं। अच्छा, बेटा! तुम्हें अमर यश प्राप्त हो।
[विभीषणकी पत्नी] सरमाने कहा- भगवन्। “यहीं अशोक वाटिकामें आपकी प्रिया श्रीजानकी देवीकी मैंने पूरे एक वर्षतक सेवा की थी, वे मेरी सेवासे यहाँ सुखपूर्वक रही हैं। परंतप में प्रतिदिन श्रीसीताके चरणोंका स्मरण करती हूँ रात दिन यही सोचती रहतीहूँ कि कब उनका दर्शन होगा। आप श्रीजनकनन्दिनीको अपने साथ ही यहाँ क्यों नहीं लेते आये ? उनके बिना अकेले आपकी शोभा नहीं हो रही है। आपके निकट सीता शोभा पाती हैं और सीताके समीप आप जब सरमा इस प्रकार बात कर रही थी, उस समय भरत मन ही मन सोचने लगे-‘यह कौन स्त्री है जो श्रीरघुनाथजीसे वार्तालाप कर रही है?’ श्रीरामचन्द्रजी भरतका अभिप्राय ताड़ गये, वे तुरंत ही बोले – ‘ये विभीषणकी पत्नी हैं, इनका नाम सरमा है। ये सीताकी प्रिय सखी हैं। वे इन्हें बहुत मानती हैं।’ इतना कहकर वे सरमासे बोले-‘कल्याणी! अब तुम भी जाओ और पतिके गृहकी रक्षा करो।’ इस प्रकार सीताकी प्यारी सखी सरमाको विदा करके श्रीरामने विभीषणसे कहा ‘निष्पाप विभीषण! तुम सदा देवताओंका प्रिय कार्य करना, कभी उनका अपराध न करना, तुम्हें देवराजके आज्ञानुसार ही चलना चाहिये। यदि लंकामें किसी तरह कोई मनुष्य चला आये तो राक्षसोंको उसका वध नहीं करना चाहिये, वरं मेरी ही भाँति उसका स्वागत सत्कार करना चाहिये।’
विभीषणने कहा— नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञाके अनुसार ही मैं सारा कार्य करूँगा।’ विभीषण जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वायुदेवताने आकर श्रीरामसे कहा— ‘महाभाग ! यहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी वामनमूर्ति है, जिसने पूर्वकालमें राजा बलिको बाँधा था। आप उसे ले जायँ और कान्यकुब्ज देशमें स्थापित कर दें।’ वायुदेवताके प्रस्तावमें श्रीरामचन्द्रजीकी सम्मति जान विभीषण श्रीवामनभगवान्के विग्रहको सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित किया और लाकर भगवान् श्रीरामको समर्पित कर दिया। फिर उन्होंने इस प्रकार कहा – ‘रघुनन्दन! जिस समय मेघनादने इन्द्रको परास्त किया था, उस समय विजय चिह्नके रूपमें वह इस वामनमूर्तिको (इन्द्रलोकसे] उठा लाया था देवदेव अब आप इन भगवान्को ले जाइये और यथास्थान इन्हें स्थापित कीजिये।’
‘तथास्तु’ कहकर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानपर आरूढ हुए। उनके पीछे असंख्य धन, रत्न और देवश्रेष्ठवामनजीको लेकर सुग्रीव और भरत भी विमानपर चढ़े। आकाशमें जाते समय श्रीरामने विभीषणसे कहा ‘तुम यहीं रहो।’ यह सुनकर विभीषणने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा – ‘प्रभो! आपने मुझे जो-जो आज्ञाएँ दी हैं, उन सबका मैं पालन करूँगा। परन्तु महाराज! इस सेतुके मार्गसे पृथ्वीके समस्त मानव यहाँ आकर मुझे सतायेंगे। ऐसी परिस्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये ?’ विभीषणकी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने हाथमें धनुष ले सेतुके दो टुकड़े कर दिये। फिर तीन विभाग करके बीचका दस योजन उड़ा दिया। उसके बाद एक स्थानपर एक योजन और तोड़ दिया। तदनन्तर वेलावन (वर्तमान रामेश्वरक्षेत्र) में पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीने श्रीरामेश्वरके नामसे देवाधिदेव महादेवजीकी स्थापना की तथा उनका विधिवत् पूजन किया।
भगवान् रुद्र बोले – रघुनन्दन। मैं इस समय यहाँ साक्षात् रूपसे विराजमान हूँ। जबतक यह संसार, यह पृथ्वी और यह आपका सेतु कायम रहेगा, तबतक मैं भी यहाँ स्थिरतपूर्वक निवास करूँगा।
श्रीरामने कहा- भक्तको अभय करनेवाले देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है-दक्ष यज्ञकाविध्वंस करनेवाले गौरीपते! आपको नमस्कार है। आप ही शर्व, रुद्र, भवरे और वरद आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। आपको नमस्कार है। आप पशुओंके स्वामी, नित्य उग्रस्वरूप तथा जटाजूट धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप ही महादेव, भीम’ और त्र्यम्बक कहलाते हैं, आपको नमस्कार है। प्रजापालक, सबके ईश्वर, भग देवताके नेत्र फोड़नेवाले तथा अन्धकासुरका वध करनेवाले भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलकण्ठ, भीम, वेधा, ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, कुमार कार्तिकेयके शत्रुका विनाश करनेवाले, कुमारको जन्म देनेवाले, विलोहित, धूम्र, शिव, क्रथन, नीलशिखण्ड, शूली, दिव्यशायी, उग्र और त्रिनेत्र आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। सोना और धन आपका वीर्य है। आपका स्वरूप किसीके चिन्तनमें नहीं आ सकता। आप देवी पार्वतीके स्वामी हैं। सम्पूर्ण देवता आपकी स्तुति करते हैं। आप शरण लेनेयोग्य, कामना करने योग्य और सद्योजात नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। आपकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है। आप मुण्डित भी हैं और जटाधारी भी। आप ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले, तपस्वी, शान्त, ब्राह्मणभक्त, जयस्वरूप, विश्वके आत्मा, संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं; आपको नमस्कार है। आप दिव्यस्वरूप, शरणागतका कष्ट दूर करनेवाले, भक्तोंपर सदा ही दया रखनेवाले तथा विश्वके तेज और मनमें व्याप्त रहनेवाले हैं; आपको बारम्बार नमस्कार है ।
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करनेपर देवाधिदेव महादेवजीने अपने सामने खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—’रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो । कमलनयन परमेश्वर ! आप देवताओंके भी आराध्य देव और सनातन पुरुष हैं। नररूपमें छिपे हुए साक्षात् नारायण हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही आपने अवतार ग्रहण किया था, सो अब इस अवतारका सारा कार्य आपने पूर्ण कर दिया है। आपके बनाये हुए मेरे इस स्थानपर समुद्रके समीप आकर जो मनुष्य मेरा दर्शन करेंगे, वे यदि महापापी होंगे तो भी उनके सारे पाप नष्ट हो जायँगे। ब्रह्महत्या आदि जो कोई भी घोर पाप हैं, वे मेरे दर्शनमात्रसे नष्ट हो जाते हैं, इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है । अच्छा, अब आप जाइये और गंगाजीके तटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना कीजिये । पृथ्वीके आठ भाग करके अपने परम धामको पधारिये। भगवन्! आपको नमस्कार है।”
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी भगवान् शंकरको प्रणाम करके वहाँसे चल दिये। ऊपर-ही-ऊपर जब वे पुष्कर तीर्थके सामने पहुँचे तो उनके विमानकी गति रुक गयी। अब वह आगे नहीं बढ़ पाता था। तब श्रीरामचन्द्रजीने कहा-‘सुग्रीव! इस निराधार आकाशमें स्थित होकर भी यह विमान कैसे आबद्ध हो गया है?’ इसका कुछ कारण अवश्य होगा, तुम नीचे जाकर पता लगाओ।’ श्रीरघुनाथजीके आज्ञानुसार सुग्रीव विमानसे उतरकर जब पृथ्वीपर आये तो क्या देखते हैं कि देवताओं, सिद्धों और ब्रह्मर्षियोंके समुदायके साथ चारों वेदोंसे युक्त भगवान् ब्रह्माजी विराजमान हैं। यह देख वे विमानपर जाकर श्रीरामचन्द्रजीसे बोले- ‘भगवन् ! यहाँ समस्त लोकोंके पितामह ब्रह्माजी लोकपालों, वसुओं, आदित्यों और मरुद्गणोंके साथ विराजमान हैं। इसीलिये पुष्पक विमान उन्हें लाँघकर नहीं जा रहा है।’ तब श्रीरामचन्द्रजी सुवर्णभूषित पुष्पक विमानसे उतरे और देवी गायत्रीके साथ बैठे हुए भगवान् ब्रह्माको साष्टांग प्रणाम किया। इसके बाद वे प्रणतभावसे उनकी स्तुति करने लगे।
श्रीरामचन्द्रजीने कहा- मैं प्रजापतियों और देवताओंसे पूजित लोककर्त्ता ब्रह्माजीको नमस्कार करता हूँ। समस्त देवताओं, लोकों एवं प्रजाओंके स्वामी जगदीश्वरको प्रणाम करता हूँ। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। देवता और असुर दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंके स्वामी हैं। आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आपके नेत्र भूरे रंगके हैं। आप ही बालक और आप ही वृद्ध हैं। गलेमें नीला चिह्न धारण करनेवाले महादेवजी तथा लम्बे उदरवाले गणेशजी भी आपके ही स्वरूप हैं। आप वेदोंके कर्ता, नित्य, पशुपति, अविनाशी, हाथोंमें कुश धारण करनेवाले, हंससे चिह्नित ध्वजावाले, भोक्ता, रक्षक, शंकर, विष्णु, जटाधारी, मुण्डित, शिखाधारी एवं दण्ड धारण करनेवाले महान् यशस्वी, भूतोंके ईश्वर, देवताओंके अधिपति, सबके आत्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक, सबका संहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता, जगद्गुरु, अविकारी, कमण्डलु धारण करनेवाले देवता, स्रुक् स्रुवा आदि धारण करनेवाले, मृत्यु एवं अमृतस्वरूप, पारियात्र पर्वतरूप, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, ब्रह्मचारी, व्रतधारी, हृदय-गुहामें निवास करनेवाले, उत्तम कमल धारण करनेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्यके समान अरुण कान्तिवाले, कमलपर वास करनेवाले, षड्विध ऐश्वर्यसे परिपूर्ण, सावित्रीके पति, अच्युत, दानवोंको वर देनेवाले, विष्णुसे वरदान प्राप्त करनेवाले, कर्मकर्ता, पापहारी, हाथमें अभय मुद्रा धारण करनेवाले, अग्निरूप मुखवाले, अग्निमय ध्वजा धारण करनेवाले, मुनिस्वरूप, दिशाओंके अधिपति, आनन्दरूप, वेदोंकी सृष्टि करनेवाले, धर्मादि चारों पुरुषार्थोंके स्वामी, वानप्रस्थ, वनवासी, आश्रमोंद्वारा पूजित, जगत्को धारण करनेवाले, कर्ता, पुरुष, शाश्वत, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, विरूपाक्ष, मनुष्योंके गन्तव्य मार्ग, भूतभावन, ऋक्, साम और यजुः- इन तीनों वेदोंको धारण करनेवाले, अनेक रूपोंवाले, हजारों सूर्योके समान तेजस्वी, अज्ञानियोंको विशेषतः दानवको मोह और बन्धनमें डालनेवाले, देवताओंके भी आराध्यदेव, देवताओंसे बढ़े- चढ़े, कमलसे चिह्नित जटा धारण करनेवाले, धनुर्धर, भीमरूप और धर्मके लिये पराक्रम करनेवाले लोककर्त्ता ब्रह्माजीको नमस्कार करता हूँ।
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीकी जब इस प्रकार स्तुति की गयी, तब वे विनीतभावसे खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीका हाथ पकड़कर बोले—’ रघुनन्दन ! आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं। देवताओंका कार्य करनेके लिये इस पृथ्वीपर मनुष्यरूपमें अवतीर्ण हुए हैं। प्रभो! आप देवताओंका सम्पूर्ण कार्य कर चुके हैं। अब गंगाजीके दक्षिण किनारे श्रीवामनभगवान्की प्रतिमाको स्थापित करके आप अयोध्यापुरीको लौट जाइये और वहाँसे परमधामको सिधारिये।’ ब्रह्माजीसे आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम किया और पुष्पक विमानपर चढ़कर वहाँसे मथुरापुरीकी यात्रा की। वहाँ पुत्र और स्त्रीसहित शत्रुघ्नजीसे मिलकर श्रीरामचन्द्रजी भरत और सुग्रीवके साथ बहुत सन्तुष्ट हुए। शत्रुघ्नने भी अपनेभाइयोंको उपस्थित देख उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर प्रणाम किया। उनके पाँचों अंग (दोनों हाथ, दोनों घुटने और मस्तक) धरतीका स्पर्श करने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने भाईको उठाकर छातीसे लगा लिया। तदनन्तर भरत और सुग्रीव भी शत्रुघ्नसे मिले। जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हुए, तब शत्रुघ्नने फुर्तीसे अर्घ्य निवेदन करके सेना मन्त्री आदि आठों अंगोंसे युक्त अपने राज्यको उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया। श्रीरामचन्द्रजीके आगमनका समाचार सुनकर समस्त मथुरावासी, जिनमें ब्राह्मणोंकी संख्या अधिक थी, उनके दर्शनके लिये आये। भगवान् ने समस्त सचिवों, वेदके विद्वानों और ब्राह्मणोंसे बातचीत करके, पाँच दिन मथुरामें रहकर वहाँसे जानेका विचार किया। उस समय श्रीरामने अत्यन्त प्रसन्न होकर शत्रुघ्नसे कहा – ‘तुमने जो कुछ मुझे अर्पण किया है, वह सब मैंने तुम्हें वापस दिया। अब मथुराके राज्यपर अपने दोनों पुत्रोंका अभिषेक करो।’ ऐसा कहकर भगवान् श्रीराम वहाँसे चल दिये और दोपहर होते-होते गंगातटपर महोदय तीर्थपर जा पहुँचे। वहाँ भगवान् वामनजीको स्थापित करके वे ब्राह्मणों एवं भावी राजाओंसे बोले ‘यह मैंने धर्मका सेतु बनाया है, जो ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करनेवाला है। समयानुसार इसका पालन करते रहना चाहिये। किसी प्रकार इसका उल्लंघन करना उचित नहीं है।’ इसके बाद भगवान् श्रीराम वानरराज सुग्रीवको किष्किन्धा भेजकर अयोध्या लौट आये और पुष्पक विमानसे बोले-‘अब तुम्हें यहाँ आनेकी आवश्यकता नहीं होगी; जहाँ धनके स्वामी कुबेर हैं, वहीं रहना।’ तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी सम्पूर्ण कार्योंसे निवृत्त हो गये। अब उन्होंने अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं समझा। भीष्म ! इस प्रकार मैंने श्रीरामकी कथाके प्रसंगसे भगवान् श्रीवामनके प्राकट्यकी वार्ता भी तुम्हें कह दी।
अध्याय-30 भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
भीष्मजी बोले- ब्रह्मन्! आपने भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको महिमाका वर्णन किया। अब पुनः उन्हीं श्रीविष्णुभगवान् के माहात्म्यका प्रतिपादन कीजिये । [उनकी नाभिसे] वह सुवर्णमय कमल कैसे उत्पन्न हुआ, प्राचीन कालमें वैष्णवी सृष्टि कमलके भीतर कैसे हुई ? धर्मात्मन् मैं श्रद्धापूर्वक सुननेके लिये बैठा हूँ, अतः आप मुझे भगवान् नारायणका यश अवश्य सुनायें।
पुलस्त्यजीने कहा— कुरुश्रेष्ठ! तुम उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हो; अतः तुम्हारे हृदयमें जो भगवान् श्रीनारायणके सुयशको सुननेको उत्कण्ठा हुई है, यह उचित ही है। पुराणोंमें जैसा वर्णन किया गया है, देवताओंके मुखसे जैसा सुना है तथा द्वैपायन व्यासजीने अपनी तपस्यासे देखकर जैसा बतलाया है, वह अपनी बुद्धिके अनुसार मैं तुमसे कहूँगा।
यह विश्व परम पुरुष श्रीनारायणका स्वरूप है, इसे मेरे पिता ब्रह्माजी भी ठीक-ठीक नहीं जानते, फिर दूसरा कौन जान सकता है। वे भगवान् नारायण ही महर्षियोंके गुप्त रहस्य, सब कुछ देखने और जाननेवालोंके परमतत्त्व, अध्यात्मवेत्ताओंके अध्यात्म, अधिदैव तथा अधिभूत हैं। वे ही परमर्षियोंके परब्रह्म हैं। वेदोंमें प्रतिपादित यज्ञ उन्होंका स्वरूप है। विद्वान् पुरुष उन्हींको तप मानते हैं। जो कर्ता, कारक, मन, बुद्धि, क्षेत्रज्ञ, प्रणव, पुरुष, शासन करनेवाले और अद्वितीय समझे जाते हैं, जो पाँच प्रकारके प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान), ध्रुव एवं अक्षर-तत्त्व हैं, वे ही परमात्मा नाना प्रकारके भावद्वारा प्रतिपादित होते हैं। वे ही परब्रह्म हैं तथा वे ही भगवान् सबकी सृष्टि और संहार करते हैं। उन्हीं आदि पुरुषका हमलोग यजन करते हैं। जितनी कथाएँ हैं, जो-जो श्रुतियाँ हैं, जिसे धर्म कहते हैं, जो धर्मपरायण पुरुष हैं और जो विश्व तथा विश्वके स्वामी हैं, वे सब भगवान् नारायणके ही स्वरूप माने गये हैं। जो सत्य है, जो मिथ्या है, जो आदि, मध्य और अन्तमें है, जो सीमारहित भविष्य है, जो कोई चर-अचर प्राणी हैं तथा इनके अतिरिक्त भी जोकुछ वस्तु है, वह सब पुरुषोत्तम नारायण ही हैं।
कुरुनन्दन! चार हजार दिव्य वर्षोंका सत्ययुग कहा गया है। उसकी सन्ध्या और सन्ध्यांश आठ सौ वर्षोंके माने गये हैं। उस युगमें धर्म अपने चारों चरणोंसे मौजूद रहता है और अधर्म एक ही पैरसे स्थित होता है। उस समय सब मनुष्य स्वधर्मपरायण और शान्त होते हैं। सत्ययुगमें सत्य, पवित्रता और धर्मकी वृद्धि होती है। श्रेष्ठ पुरुष जिसका आचरण करते हैं, वही कर्म उस समय सबके द्वारा किया और कराया जाता है।
राजन्! सत्ययुगमें जन्मतः धार्मिक अथवा नीच कुलमें उत्पन्न सभी मनुष्योंका ऐसा ही धर्मानुकूल बर्ताव होता है। त्रेतायुगका मान तीन हजार दिव्य वर्ष बतलाया जाता है। उसकी दोनों सन्ध्याएँ छः सौ वर्षोंकी होती हैं। उस समय धर्म तीन चरणोंसे और अधर्म दो पादोंसे स्थित रहता है। उस युगमें सत्य एवं शौचका पालन तथा यज्ञ-यागादिका अनुष्ठान होता है। त्रेतामें चारों वर्णोंके लोग केवल लोभके कारण विकारको प्राप्त होते हैं। वर्णधर्ममें विकार आनेसे आश्रमोंमें भी दुर्बलता आ जाती है। यह त्रेतायुगकी देवनिर्मित विचित्र गति है। द्वापर दो हजार दिव्य वर्षोंका होता है। इसकी सन्ध्याओंका मान चार सौं वर्षका बताया जाता है। उस समयके प्राणी रजोगुणसे अभिभूत होनेके कारण अधिक अर्थ-परायण, शठ, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाले तथा क्षुद्र होते हैं। द्वापरमें धर्म दो चरणोंसे और अधर्म तीन पादोंसे स्थित रहता है। दोनों सन्ध्याओंसहित कलियुगका मान एक हजार दो सौ दिव्य वर्ष है। यह क्रूरताका युग है। इसमें अधर्म अपने चारों पार्दोसे और धर्म एक ही चरणसे स्थित रहता है। उस समय मनुष्य कामी, तमोगुणी और नीच होते हैं। इस युगमें प्रायः कोई साधक, साधु और सत्यवादी नहीं होता। लोग नास्तिक होते हैं, ब्राह्मणोंके प्रति उनकी भक्ति नहीं होती। सब मनुष्य अहंकारके वशीभूत होते हैं। उनमें परस्पर प्रेम प्रायः बहुत ही कम होता है कलियुगमें ब्राह्मणोंके आचरण प्रायः शूद्रोंके से हो जाते हैं। आश्रमोंका ढंग भी बिगड़ जाता है। जब युगका अन्त होनेको आता है, उस समय तो वर्णोंके पहचानने में भी सन्देह हो जाता है-कौन मनुष्य किस वर्णका है, यह समझना कठिन हो जाता है। यह बारह हजार दिव्य वर्षोंका समय एक चतुर्युग कहलाता है। इस प्रकारके हजार चतुर्युग बीतनेपर ब्रह्माका एक दिन होता है।
इस प्रकार ब्रह्माकी भी आयु जब समाप्त हो जाती है, तब काल सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी आयु पूरी हुई जान जगत्का संहार करनेके लिये महाप्रलय आरम्भ करता है। योग-शक्ति-सम्पन्न सर्वरूप भगवान् नारायण सूर्यरूप होकर अपनी प्रचण्ड किरणोंसे समुद्रोंको सोख लेते हैं। तदनन्तर श्रीहरि बलवान् वायुका रूप धारणकर सारे जगत्को कँपाते हुए प्राण, अपान और समान आदिके द्वारा आक्रमण करते हैं। घ्राणेन्द्रियका विषय, घ्राणेन्द्रिय तथा पार्थिव शरीर- ये गुण पृथ्वीमें समा जाते हैं। रसनेन्द्रिय, उसका विषय रस और स्नेह आदि जलके गुण जलमें लीन हो जाते हैं। नेत्रेन्द्रिय, उसका विषय रूप और मन्दता, पटुता आदि नेत्रके गुण-ये अग्नि तत्त्वमें प्रवेश कर जाते हैं। वागिन्द्रिय और उसका विषय, स्पर्श और चेष्टा आदि वायुके गुण-ये वायुमें समा जाते हैं। श्रवणेन्द्रिय और उसका विषय शब्द तथा सुननेकी क्रिया आदि गुण आकाशमें विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार कालरूप भगवान् एक ही मुहूर्तमें सम्पूर्ण लोकोंकी जीवनयात्रा नष्ट कर देते हैं। मन, बुद्धि, चित्त और क्षेत्रज्ञ – ये परमेष्ठी ब्रह्माजीमें लीन हो जाते हैं और ब्रह्माजी भगवान् हृषीकेशमें लीन हो जाते हैं। पंच महाभूत भी उस अमित तेजस्वी विभुमें प्रवेश कर जाते हैं। सूर्य, वायु और आकाश नष्ट हो जाने तथा सूक्ष्म जगत्के भी लीन हो जानेपर अमितपराक्रमी सनातन पुरुष भगवान् श्रीविष्णु सबको दग्ध करके अपने में समेटकर अकेले ही अनेक सहस्त्र युगादितक एकार्णवके जलमें शयन करते हैं। उन अव्यक्त परमेश्वरके सम्बन्धमें कोई व्यक्त जीव यह नहीं जान पाता कि ये पुरुषरूप कौन हैं। उन देव श्रेष्ठके विषयमें उनके सिवा दूसरा कोई कुछ नहीं जानता।
भीष्म एक समयकी बात सुनो, महामुनि मार्कण्डेयको एकार्णवके जलमें शयन करनेवाले भगवान् कौतूहलवश अपने मुँहमें लील गये। कई हजार वर्षोंकी आयुवाले वे महर्षि भगवान्के ही उत्कृष्ट तेजसे उनके उदरमें तीर्थयात्राके प्रसंगसे विचरते हुए पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें घूमते फिरे अनेकों पुण्यतीर्थोके जलसे युक्त वन और नाना प्रकारके आश्रम उन्हें दृष्टिगोचर हुए। उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञद्वारा यजन करनेवाले यजमानों तथा यज्ञमें सम्मिलित सैकड़ों ब्राह्मणोंको भी उन्होंने भगवान्के उदरमें देखा वहाँ ब्राह्मण आदि सभी वर्णोंके लोग सदाचारमें स्थित थे। चारों ही आश्रम अपनी-अपनी मर्यादामें स्थित थे। इस प्रकार भगवान्के उदरमें समूची पृथ्वीपर विचरते बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीको सौ वर्षोंसे कुछ अधिक समय बीत गया। तदनन्तर वे किसी समय पुनः भगवान् के मुखसे बाहर निकले। उस समय भी सब ओर एकार्णवका जल ही दिखायी देता था। समस्त दिशाएँ कुहरेसे आच्छादित थीं। जगत् सम्पूर्ण प्राणियोंसे रहित था ऐसी अवस्थामें मार्कण्डेयजीने देखा-एक बरगदकी शाखापर एक छोटा-सा बालक सो रहा है। यह देखकर मुनिको बड़ाआश्चर्य हुआ। वे उस बालकका वृत्तान्त जाननेके लिये उत्सुक हो गये। उनके मनमें यह संदेह हुआ कि मैंने कभी इसे देखा है। यह सोचकर वे उस पूर्व परिचित बालकको देखनेके लिये आगे बढ़े। उस समय उनके नेत्र भयसे कातर हो रहे थे। उन्हें आते देख बालरूपधारी भगवान् ने कहा-‘मार्कण्डेय! तुम्हारा स्वागत है। तुम डरो मत, मेरे पास चले आओ।’
मार्कण्डेय बोले- यह कौन है, जो मेरा तिरस्कार करता हुआ मुझे नाम लेकर पुकार रहा है?
भगवान् ने कहा- बेटा ! मैं तुम्हारा पितामह, आयु प्रदान करनेवाला पुराणपुरुष हूँ। मेरे पास तुम क्यों नहीं आते तुम्हारे पिता आंगिरस मुनिने पूर्वकालमें पुत्रकी कामनासे तीव्र तपस्या करके मेरी ही आराधना की थी। तब मैंने उन अमिततेजस्वी महर्षिको तुम्हारे जैसा तेजस्वी पुत्र होनेका सच्चा वरदान दिया था।
यह सुनकर महातपस्वी मार्कण्डेयजीका हृदय प्रसन्नतासे भर गया, उनके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। वे मस्तकपर अंजलि बाँधे नाम-गोत्रका उच्चारण करते हुए भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करने लगे और बोले- ‘भगवन् मैं आपकी मायाको यथार्थरूपसे जानना चाहता हूँ; इस एकार्णवके बीच आप बालरूप धरकर कैसे सो रहे हैं?’
श्रीभगवान् ने कहा- ब्रह्मन् ! मैं नारायण हूँ। जिन्हें हजारों मस्तकों और हजारों चरणोंसे युक्त बताया जाता है, वह विराट परमात्मा मेरा ही स्वरूप है। मैं सूर्यके समान वर्णवाला तेजोमय पुरुष हूँ मैं देवताओंको हविष्य पहुँचानेवाला अग्नि हूँ और मैं ही सात घोड़ोंके रथवाला सूर्य हूँ। मैं ही इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित होनेवाला इन्द्र और ऋतुओंमें परिवत्सर हूँ। सम्पूर्ण प्राणी तथा समस्त देवता मेरे ही स्वरूप हैं। मैं सर्पोंमें शेषनाग और पक्षियोंमें गरुड़ हूँ। सम्पूर्ण भूतोंका संहार करनेवाला काल भी मुझे ही समझना चाहिये। समस्त आश्रमों में निवास करनेवाले मनुष्योंका धर्म और तप मैंहो हूँ। मैं दयापरायण धर्म और दूधसे भरा हुआ महासागर हूँ तथा जो सत्यस्वरूप परम तत्व है, वह भी मैं ही हूँ। एकमात्र में ही प्रजापति हूँ में ही सांख्य, मैं ही योग और मैं ही परमपद हूँ। यज्ञ, क्रिया और ब्राह्मणोंका स्वामी भी मैं ही हूँ। मैं ही अग्नि, मैं ही वायु में ही पृथ्वी में ही आकाश और में ही जल, समुद्र नक्षत्र तथा दसों दिशाएँ हूँ। वर्षा, सोम, मेघ और हविष्य इन सबके रूपमें मैं ही हूँ। क्षीरसागर के भीतर तथा समुद्रगत बडवाग्निके मुखमें भी मेरा ही निवास है। मैं ही संवर्तक अग्नि होकर सारा जल सोख लेता हूँ मैं ही सूर्य हूँ में ही परम पुरातन तथा सबका आश्रय हूँ। भविष्यमें भी सर्वत्र मैं ही प्रकट होऊंगा तथा भावी सम्पूर्ण वस्तुओंकी उत्पत्ति मुझसे ही होती है। विप्रवर! संसारमें तुम जो कुछ देखते हो, जो कुछ सुनते हो और जो कुछ अनुभव करते हो उन सबको मेरा ही स्वरूप समझो। मैंने ही पूर्वकालमें विश्वको सृष्टि की है तथा आज भी मैं ही करता हूँ। तुम मेरी ओर देखो। मार्कण्डेय! मैं ही प्रत्येक युगमें सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करता हूँ। इन सारी बातोंको तुम अच्छी तरह समझ लो । यदि धर्मके सेवन या श्रवणकी इच्छा हो तो मेरे उदरमें रहकर सुखपूर्वक विचरो मैं ही एक अक्षरका और मैं ही तीन अक्षरका मन्त्र हूँ। ब्रह्माजी भी मेरे ही स्वरूप हैं। धर्म-अर्थ-कामरूप त्रिवर्गसे परे ओंकारस्वरूप परमात्मा, जो सबको तात्विक दृष्टि प्रदान करनेवाले हैं, मैं ही हूँ।
इस प्रकार कहते हुए उन महाबुद्धिमान् पुराणपुरुष परमेश्वरने महामुनि मार्कण्डेयको तुरंत ही अपने मुँह में से लिया। फिर तो वे मुनिश्रेष्ठ भगवान् के उदरमें प्रवेश कर गये और नेत्रके सामने एकान्त स्थानमें धर्म श्रवण करनेकी इच्छासे बैठे हुए अविनाशी हंस भगवान् के पास उपस्थित हुए। भगवान् हंस अविनाशी और विविध शरीर धारण करनेवाले हैं। वे चन्द्रमा और सूर्यसे रहित प्रलयकालीन एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे विचरते तथा जगत् की सृष्टि करनेका संकल्प लेकर विहार करते हैं। तदनन्तर विमलमति महात्मा हंसने लोक- रचनाका विचार किया। उस विश्वरूप परमात्माने विश्वका चिन्तन किया एवं भूतोंकी उत्पत्तिके विषयमें सोचा। उनके तेजसे अमृतके समान पवित्र जलका प्रादुर्भाव हुआ। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले सर्वलोक विधाता महेश्वर श्रीहरिने उस महान् जलमें विधिवत् जलक्रीड़ा की। फिर उन्होंने अपनी नाभिसे एक कमल उत्पन्न किया, जो अनेकों रंगोंके कारण बड़ी शोभा पा रहा था। वह सुवर्णमय कमल सूर्यके समान तेजोमय प्रतीत होता था ।
अध्याय-31 मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
पुलस्त्यजी कहते हैं—तदनन्तर अनेक योजन ऊँचे विस्तारवाले उस सुवर्णमय कमलमें, जो सब प्रकारके – तेजोमय गुणोंसे युक्त और पार्थिव लक्षणोंसे सम्पन्न था, भगवान् श्रीविष्णुने योगियोंमें श्रेष्ठ, महान् तेजस्वी एवं समस्त लोकोंकी सृष्टि करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। महर्षिगण उस कमलको श्रीनारायणकी नाभिसे उत्पन्न बतलाते हैं। उस कमलका जो सारभाग है, उसे पृथ्वी कहते हैं तथा उस सारभागमें भी जो अधिक भारी अंश हैं, उन्हें दिव्य पर्वत माना जाता है। कमलके भीतर एक और कमल है, जिसके भीतर जलमें पृथ्वीको स्थिति मानी गयी है। इस कमलके चारों ओर चार समुद्र हैं। विश्वमें जिनके प्रभावको कहीं तुलना नहीं है, जिनकी सूर्यके समान प्रभा और वरुणके समान अपार कान्ति है तथा यह जगत् जिनका स्वरूप है, वे स्वयम्भू महात्मा ब्रह्माजी उस एकार्णवके जलमें धीरे-धीरे पद्मरूप निधिकी रचना करने लगे। इसी समय तमोगुणसे उत्पन्न मधु नामका महान् असुर तथा रजोगुणसे प्रकट हुआ कैटभ नामधारी असुर- ये दोनों ब्रह्माजीके कार्य में विघ्नरूप होकर उपस्थित हुए। यद्यपि वे क्रमशः तमोगुण और रजोगुणसे उत्पन्न हुए थे, तथापि तमोगुणका विशेष प्रभाव पड़नेके कारण दोनोंका स्वभाव तामस हो गया था। महान् बली तो वे थे ही, एकार्णवमें स्थित सम्पूर्ण जगत्को क्षुब्ध करने लगे। उन दोनोंके सब ओर मुख थे। एकार्णवके जलमें विचरते हुए जब वे पुष्करमें गये, तब वहाँ उन्हें अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्माजीका दर्शन हुआ।
तब से दोनों असुर ब्रह्माजी से पूछने लगे तुम कौन हो ? जिसने तुम्हें सृष्टिकार्यमें नियुक्त किया है, वह तुम्हारा कौन है? कौन तुम्हारा स्रष्टा है और कौन रक्षक? तथा वह किस नामसे पुकारा जाता है ?’
ब्रह्माजी बोले- असुरो। तुमलोग जिनके विषयमें पूछते हो, वे इस लोकमें एक ही कहे जाते हैं। जगत्में जितनी भी वस्तुएँ हैं उन सबसे उनका संयोग है-वे सबमें व्याप्त हैं। उनके अलौकिक कर्मोके अनुसार अनेक नाम हैं।
यह सुनकर वे दोनों असुर सनातन देवता भगवान् श्रीविष्णुके समीप गये, जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ था तथा जो इन्द्रियोंके स्वामी हैं। वहाँ जा उन दोनोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए कहा हम जानते हैं, आप विश्वकी उत्पत्तिके स्थान, अद्वितीय तथा पुरुषोत्तम हैं। हमारे जन्मदाता भी आप ही हैं। हम आपको ही बुद्धिका भी कारण समझते हैं। देव ! हम आपसे हितकारी वरदान चाहते हैं। शत्रुदमन! आपका दर्शन अमोघ है। अमर विजयी वीर! हम आपको नमस्कार करते हैं।’
श्रीभगवान् बोले- असुरो ! तुमलोग वर किसलिये माँगते हो? तुम्हारी आयु समाप्त हो चुकी है, फिर भी तुम दोनों जीवित रहना चाहते हो! यह बड़े आश्चर्यकी बात है।
मधु-कैटभने कहा—प्रभो! जिस स्थानमें किसीकी मृत्यु न हुई हो; वहीं हमारा वध हो हमें इसी वरदानकी इच्छा है।
श्रीभगवान् बोले- ‘ठीक है’ इस प्रकार उन महान् असुरोंको वरदान देकर देवताओंके प्रभु सनातन श्रीविष्णुने अंजनके समान काले शरीरवाले मधु और कैटभको अपनी जाँघोंपर गिराकर मसल डाला। तदनन्तर ब्रह्माजी अपनी बाँहें ऊपर उठाये घोर तपस्यामें संलग्न हुए। भगवान् भास्करकी भाँति अन्धकारका नाश कर रहे थे और सत्यधर्मके परायण होकर अपनी किरणोंसे सूर्यके समान चमक रहे थे। किन्तु अकेले होनेके कारण उनका मन नहीं लगा; अतः उन्होंने अपने शरीरके आधे भागसे शुभलक्षणा भार्याको उत्पन्न किया। तत्पश्चात् पितामहने अपने ही समान पुत्रोंकी सृष्टि की, जो सब के-सब प्रजापति और लोकविख्यात योगी हुए।
ब्रह्माजीने लक्ष्मी, साध्या, शुभलक्षणा विश्वेशा, देवी तथा सरस्वती-इन पाँच कन्याओंको भी उत्पन्न किया। ये देवताओंसे भी श्रेष्ठ और आदरणीय मानी जाती हैं। कर्मोंके साक्षी ब्रह्माजीने ये पाँचों कन्याएँ धर्मको अर्पण कर दीं। ब्रह्माजीके आधे शरीरसे जो पत्नी प्रकट हुई थी, वह इच्छानुसार रूप धारण कर लेती थी। वह सुरभिके रूपमें ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित हुई लोकपूजित ब्रह्माजीने उसके साथ समागम किया, जिससे ग्यारह पुत्र उत्पन्न हुए। पितामहसे जन्म ग्रहण करनेवाले वे सभी बालक रोदन करते हुए दौड़े। अतः रोने और दौड़नेके कारण उनकी ‘रुद्र’ संज्ञा हुई। इसी प्रकार सुरभिके गर्भ से गौ, यज्ञ तथा देवताओंकी भी उत्पत्ति हुई। बकरा, हंस और श्रेष्ठ ओषधियाँ भी सुरभिसे ही उत्पन्न हुई हैं। धर्मसे लक्ष्मीने सोमको और साध्याने साध्य नामक देवताओंको जन्म दिया। उनके नाम इस प्रकार हैं-भव, प्रभव, कृशाश्व, सुवह, अरुण, वरुण, विश्वामित्र, चल, ध्रुव, हविष्मान्, तनूज, विधान, अभिमत, वत्सर, भूति, सर्वासुरनिषूदन, सुपर्वा, बृहत्कान्तऔर महालोकनमस्कृत । देवीने वसु-संज्ञक देवताओंको उत्पन्न किया, जो इन्द्रका अनुसरण करनेवाले थे। धर्मकी चौथी पत्नी विश्वाके गर्भसे विश्वेदेव नामक देवता उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह धर्मकी सन्तानोंका वर्णन हुआ। विश्वेदेवोंके नाम इस प्रकार हैं— महाबाहु दक्ष, नरेश्वर पुष्कर, चाक्षुष मनु, महोरग, विश्वानुग, वसु, बाल, महायशस्वी निष्कल, अति सत्यपराक्रमी रुरुद तथा परम कान्तिमान् भास्कर। इन विश्वेदेव-संज्ञक पुत्रको देवमाता विश्वेशाने जन्म दिया है। मरुत्त्वतीने मरुत्त्वान् नामके देवताओंको उत्पन्न किया, जिनके नाम ये हैं-अग्नि, चक्षु, ज्योति, सावित्र, मित्र, अमर, शरवृष्टि, सुवर्ष, महाभुज, विराज, राज, विश्वायु, सुमति, अश्वगन्ध, चित्ररश्मि, निषध, आत्मविधि, चारित्र, पादमात्रग, बृहत् बृहद्रूप तथा विष्णुसनाभिग। ये सब मरुत्त्वतीके पुत्र मरुद्गण कहलाते हैं। अदितिने कश्यपके अंशसे बारह आदित्योंको जन्म दिया।
इस प्रकार महर्षियोंद्वारा प्रशंसित सृष्टि-परम्पराका क्रमशः वर्णन किया गया। जो मनुष्य इस श्रेष्ठ पुराणको सदा सुनेगा और पर्वोंके अवसरपर इसका पाठ करेगा, वह इस लोकमें वैराग्यवान् होकर परलोकमें उत्तम फलोंका उपभोग करेगा।
जो इस पौष्कर पर्वका – महात्मा ब्रह्माजीके प्रादुर्भावकी कथाका पाठ करता है, उसका कभी अमंगल नहीं होता। महाराज! श्रीव्यासदेवसे जैसे मैंने सुना है, उसी प्रकार तुम्हारे सामने मैंने इस प्रसंगका वर्णन किया है।
अध्याय-32 तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
भीष्मजीने पूछा— ब्रह्मन् ! अत्यन्त बलवान् तारक नामके दैत्यको उत्पत्ति कैसे हुई? कार्तिकेयजीने उस महान् असुरका संहार किस प्रकार किया ? भगवान् रुद्रको उमाको प्राप्ति किस प्रकार हुई ? महामुने! ये सारी बातें जिस प्रकार हुई हों, सब मुझे सुनाइये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्! जैसे अरणीसे अग्निप्रकट होती है, उसी प्रकार दितिके गर्भसे दैत्योंकी उत्पत्ति हुई है। पूर्वकालमें उसी शुभलक्षणा दितिको महर्षि कश्यपने यह वरदान दिया था कि ‘देवि! तुम्हें वज्रांग नामका एक पुत्र होगा, जिसके सभी अंग वज्रके समान सुदृढ़ होंगे।’ वरदान पाकर देवी दितिने समयानुसार उस पुत्रको जन्म दिया, जो वज्रके द्वारा भी अच्छेद्य था।वह जन्मते ही समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो गया। उसने बड़ी भक्तिके साथ मातासे कहा माँ मैं तुम्हारी किस आज्ञाका पालन करूँ?’ यह सुनकर दितिको बड़ा हर्ष हुआ वह दैत्यराजसे बोली-‘बेटा! इन्द्रने मेरे बहुत से पुत्रोंको मौत के घाट उतार दिया है। अतः उनका बदला लेनेके उद्देश्यसे तुम भी इन्द्रका वध करनेके लिये जाओ।’ महाबली वज्रांग ‘बहुत अच्छा!’ कहकर स्वर्गमें गया और अमोष तेजवाले पाशसे इन्द्रको बाँधकर अपनी माँके पास ले आया- ठीक उसी तरह, जैसे कोई व्याध छोटे-से मृगको बाँध लाये।
इसी समय ब्रह्माजी तथा महातपस्वी कश्यप मुनि उस स्थानपर आये, जहाँ वे दोनों माँ-बेटे निर्भय होकर खड़े थे उन्हें देखकर ब्रह्मा और कश्यपजीने कहा- ‘बेटा! इन्हें छोड़ दो, ये देवताओंके राजा है; इन्हें लेकर तुम क्या करोगे। सम्मानित पुरुषका अपमान ही उसका वध कहा गया है। यदि शत्रु अपने शत्रुके हाथमें आ जाय और वह दूसरेके गौरवसे छुटकारा पाये तो वह जीता हुआ भी प्रतिदिन चिन्तामग्न रहनेके कारण मृतकके ही समान हो जाता है।’
यह सुनकर वज्रांगने ब्रह्माजी और कश्यपजीके चरणोंमें प्रणाम करते हुए कहा ‘मुझे इन्द्रको बाँधनेसे कोई मतलब नहीं है। मैंने तो माताकी आज्ञाका पालन किया है। देव! आप देवता और असुरोंके भी स्वामी तथा मेरे माननीय प्रपितामह हैं; अतएव आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा। यह लीजिये, मैंने इन्द्रको मुक्त कर दिया। मेरा मन तपस्या में लगता है, अतः मेरी तपस्या ही निर्विघ्न पूरी हो – यह आशीर्वाद प्रदान कीजिये।’
ब्रह्माजी बोले- वत्स ! तुम मेरी आज्ञाके अधीन रहकर तपस्या करो। तुम्हारे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आ सकती। तुमने अपने इस शुद्ध भावसे जन्मका फल प्राप्त कर लिया।
यह कहकर ब्रह्माजीने बड़े-बड़े नेत्रोंवाली एक कन्या उत्पन्न की और उसे वज्रांगको पत्नीरूपमें अंगीकार करनेके लिये दे दिया। उस कन्याका नाम वरांगी बताकर ब्रह्माजी वहाँसे चले गये और वज्रांग उसेसाथ ले तपस्याके लिये वनमें चला गया। उस दैत्यराजके नेत्र कमलपत्रके समान विशाल एवं सुन्दर थे। उसकी बुद्धि शुद्ध थी तथा वह महान् तपस्वी था । उसने एक हजार वर्षोंतक बाँहें ऊपर उठाये खड़े होकर तपस्या की। तदनन्तर उसने एक हजार वर्षोंतक पानीके भीतर निवास किया। जलके भीतर प्रवेश कर जानेपर उसकी पत्नी वरांगी, जो बड़ी पतिव्रता थी, उसी सरोवर के तटपर चुपचाप बैठी रही और बिना कुछ खाये पिये घोर तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी। उसके शरीर में महान् तेज था। इसी बीचमें एक हजार वर्षोंका समय पूरा हो गया। तब ब्रह्माजी प्रसन्न होकर उस जलाशयके तटपर आये और बज्रांगसे इस प्रकार बोले- दितिनन्दन! उठो, मैं तुम्हारी सारी कामनाएँ पूरी करूँगा।’
उनके ऐसा कहनेपर वज्रांग बोला- ‘भगवन्! मेरे हृदयमें आसुर भाव न हो, मुझे अक्षय लोकोंकी प्राप्ति हो तथा जबतक यह शरीर रहे, तबतक तपस्यामें ही मेरा अनुराग बना रहे।’ ‘एवमस्तु’ कहकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और संयमको स्थिर रखनेवाला वज्रांग तपस्या समाप्त होनेपर जब घर लौटनेकी इच्छा करने लगा, तब उसे आश्रमपर अपनी स्त्री नहीं दिखायी दी। भूखसे आकुल होकर उसने पर्वतके घने जंगलमें फल मूल लेनेके लिये प्रवेश किया। वहाँ जाकर देखा – उसकी पत्नी वृक्षकी ओटमें मुँह छिपाये दीनभावसे रो रही है। उसे इस अवस्थामें देख दितिकुमारने सान्त्वना देते हुए पूछा- ‘कल्याणी किसने तुम्हारा अपकार करके यमलोकमें जानेकी इच्छा की है ?’
वरांगी बोली- प्राणनाथ! तुम्हारे जीते जी मेरी दशा अनाथकी-सी हो रही है। देवराज इन्द्रने भयंकर रूप धारण करके मुझे डराया है, आश्रमसे बाहर निकाल दिया है, मारा है और भूरि-भूरि कष्ट दिया है। मुझे अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था; इसलिये मैं प्राणत्याग देनेका निश्चय कर चुकी थी। आप एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मुझे इस दुःखके समुद्रसे तार दे।
वरांगीके ऐसा कहनेपर दैत्यराज वज्रांगके नेत्रक्रोधसे चंचल हो उठे। यद्यपि वह महान् असुर देवराजसे बदला लेनेकी पूरी शक्ति रखता था, तथापि उस महाबलीने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। उसका संकल्प जानकर ब्रह्माजी वहाँ आये और उससे पूछने लगे-‘बेटा! तुम फिर किसलिये तपस्या करनेको उद्यत हुए हो?’
वज्रांगने कहा- ‘पितामह! आपकी आज्ञा मानकर समाधिसे उठनेपर मैंने देखा इन्द्रने वरांगीको बहुत त्रास पहुंचाया है; अतः यह मुझसे ऐसा पुत्र चाहती है, जो इसे इस विपत्तिसे उबार दे। दादाजी! यदि आप मुझपर सन्तुष्ट हैं तो मुझे ऐसा पुत्र दीजिये।’
ब्रह्माजी बोले- वीर! ऐसा ही होगा। अब तुम्हें तपस्या करनेकी आवश्यकता नहीं है। तुम्हारे तारक नामका एक महाबली पुत्र होगा।
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर दैत्यराजने उन्हें प्रणाम किया और वनमें जाकर अपनी रानीको, जिसका हृदय दुःखी था, प्रसन्न किया। वे दोनों पति-पत्नी सफल मनोरथ होकर अपने आश्रममे गये सुन्दरी अपने पतिके द्वारा स्थापित किये हुए गर्भको पूरे एक हजार वर्षोंतक उदरमें ही धारण किये रही। इसके बाद उसने पुत्रको जन्म दिया। उस दैत्यके पैदा होते ही सारी पृथ्वी डोलने लगी- सर्वत्र भूकम्प होने लगा । महासागर विक्षुब्ध हो उठे। वरांगी पुत्रको देखकर हर्षसे भर गयी। दैत्यराज तारक जन्मते ही भयंकर पराक्रमी हो गया। कुजम्भ और महिष आदि मुख्य मुख्य असुरोंने मिलकर उसे राजाके पदपर अभिषिक्त कर दिया। दैत्योंका महान् साम्राज्य प्राप्त करके दानवश्रेष्ठ तारकने कहा- ‘महाबली असुरो और दानवो! तुम सब लोग मेरी बात सुनो देवगण हमलोगोंके वंशका नाश करनेवाले हैं। जन्मगत स्वभावसे ही उनके साथ हमारा अटूट वैर बढ़ा हुआ है। अतः हम सब लोग देवताओंका दमन करनेके लिये तपस्या करेंगे।’
पुलस्त्यजी कहते हैं– राजन्! यह सन्देश सुनाकर सबकी सम्मति ले तारकासुर पारियात्र पर्वतपर चला गया और वहाँ सौ वर्षोंतक निराहार रहकर, सौ वर्षोंतक पंचाग्नि सेवन कर, सौ वर्षोंतक केवल पते चबाकर तथा सौ वर्षोंतक सिर्फ जल पीकर तपस्या करता रहा। इस प्रकार जब उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल और तपका पुंज हो गया, तब ब्रह्माजीने आकर कहा- ‘दैत्यराज ! तुमने उत्तम व्रतका पालन किया है, कोई वर माँगो’ उसने कहा-‘किसी भी प्राणीसे मेरी मृत्यु न हो।’ तब ब्रह्माजीने कहा- ‘देहधारियोंके लिये मृत्यु निश्चित है इसलिये तुम जिस किसी निमित्तसे जिससे तुम्हें भय न हो, अपनी मृत्यु माँग लो।’ तब दैत्यराज तारकने बहुत सोच-विचारकर सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु माँगी। उस समय वह महान् असुर घमंडसे मोहित हो रहा था। ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने धामको चले और दैत्य अपने घर लौट गया।
वहाँ जाकर उसने अपने मन्त्रियोंसे कहा-‘तुमलोग शीघ्र ही मेरी सेना तैयार करो।’ ग्रसन नामका दानव दैत्यराज तारकका सेनापति था। उसने स्वामीकी बात सुनकर बहुत बड़ी सेना तैयार की। गम्भीर स्वरमें रणभेरी बजाकर उसने तुरंत ही बड़े-बड़े दैत्योंको एकत्रित किया, जिनमें एक-एक दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी होनेके साथ ही दस-दस करोड़ दैत्योंका यूथपति था। जम्भ नामक दैत्य उन सबका अगुआ था और कुजम्भ उसके पीछे चलनेवाला था। इनके सिवा महिष, कुंजर, मेघ, कालनेमि, निमि, मन्थन, जम्भक और शुम्भ भी प्रधान थे। इस प्रकार ये दस दैत्यपति सेनानायक थे। उनके अतिरिक्त और भी सैकड़ों ऐसे दानव थे, जो अपनी भुजाओंपर पृथ्वीको तोलनेकी शक्ति रखते थे। दैत्योंमें सिंहके समान पराक्रमी तारकासुरकी वह सेना बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। वह मतवाले गजराजों, घोड़ों और रथोंसे भरी हुई थी। पैदलोंकी संख्या भी बहुत थी और सेनामें सब ओर पताकाएँ फहरा रही थीं। इसी बीचमें देवताओंके दूत वायु असुरलोकमें आये और दानव सेनाका उद्योग देखकर इन्द्रको उसका समाचार देनेके लिये गये। देवसभायें पहुँचकर उन्होंने देवताओंके बीचमें इस नयी घटनाका हाल सुनाया। उसे सुनकर महाबाहु देवराजने आँखें बंद करके बृहस्पतिजीकहा – ‘गुरुदेव इस समय देवताओंके सामने दानवोंके साथ घोर संग्रामका अवसर उपस्थित होना चाहता है; इस विषयमें हमें क्या करना चाहिये। कोई नीतियुक्त बात बताइये।’
बृहस्पतिजी बोले- सुरश्रेष्ठ! सामनीति और चतुरंगिणी सेनाये ही दो विजयाभिलाषी वीरोंकी सफलता के साधन सुने गये हैं। ये ही सनातन रक्षा कवच हैं। नीतिके चार अंग हैं-साम, भेद, दान और दण्ड। यदि आक्रमण करनेवाले शत्रु लोभी हों तो उनपर सामनीतिका प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे एकमतके और संगठित हों तो उनमें फूट भी नहीं डाली जा सकती तथा जो बलपूर्वक सर्वस्व छीन लेनेकी शक्ति रखते हैं, उनके प्रति दाननीतिके प्रयोगसे भी सफलता नहीं मिल सकती; अतः अब यहाँ एक ही उपाय शेष रह जाता है। वह है- दण्ड । यदि आपलोगोंको जैसे हो दण्डका ही प्रयोग करें।
बृहस्पतिजीके ऐसा कहनेपर इन्द्रने अपने कर्तव्यका निश्चय करके देवताओंको सभामें इस प्रकार कहा ‘स्वर्गवासियो ! सावधान होकर मेरी बात सुनो-इस समय युद्धके लिये उद्योग करना ही उचित है; अतः मेरी सेना तैयार की जाय। यमराजको सेनापति बनाकर सम्पूर्ण देवता शीघ्र ही संग्राम के लिये निकलें।’ यह सुनकर प्रधान प्रधान देवता कवच बाँधकर तैयार हो गये।
मातलिने देवराजका दुर्जय रथ जोतकर खड़ा किया। यमराज भैंसेपर सवार हो सेनाके आगे खड़े हुए। वे अपने प्रचण्ड किंकरोंद्वारा सब ओरसे घिरे हुए थे। अग्नि, वायु, वरुण, कुबेर, चन्द्रमा तथा आदित्य सब लोग युद्धके लिये उपस्थित हुए। देवताओंकी वह सैना तीनों लोकोंके लिये दुर्जय थी। उसमें तैंतीस करोड़ देवता एकत्रित थे। तदनन्तर युद्ध आरम्भ हुआ। अश्विनीकुमार, मरुद्गण, साध्यगण, इन्द्र, यक्ष और गन्धर्वये सभी महाबली एक साथ मिलकर दैत्यराज तारकपर प्रहार करने लगे। उन सबके हाथोंमें नाना प्रकारके दिव्यास्त्र थे। परन्तु तारकासुरका शरीर वज्र एवं पर्वतके समान सुदृढ़ था। देवताओंके हथियार उसपरकाम नहीं करते थे। उन्हें प्रहार करते देख दानवराज तारक रथसे कूद पड़ा और करोड़ों देवताओंको उसने अपने हाथके पृष्ठभागसे ही मार गिराया। यह देख देवताओंकी बची-खुची सेना भयभीत हो उठी और युद्धकी सामग्री वहीं छोड़कर चारों दिशाओंमें भाग गयी। ऐसी परिस्थितिमें पड़ जानेपर देवताओंके हृदयमें बड़ा दुःख हुआ और वे जगद्गुरु ब्रह्माजीकी शरणमें जाकर सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वाक्योंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे।
देवता बोले- सत्त्वमूर्ते! आप प्रणवरूप हैं। अनन्त भेदोंसे युक्त जो यह विश्व है, उसके अंकुर आदिकी उत्पत्तिके लिये आप सबसे पहले ब्रह्मारूपमें प्रकट हुए हैं। तदनन्तर इस जगत्की रक्षाके लिये सत्त्वगुणके मूलभूत विष्णुरूपसे स्थित हुए हैं। इसके बाद इसके संहारकी इच्छासे आपने रुद्ररूप धारण किया। इस प्रकार एक होकर भी त्रिविध रूप धारण करनेवाले आप परमात्माको नमस्कार है। जगत्में जितने भी स्थूल पदार्थ हैं, उन सबके आदि कारण आप ही हैं; अतः आपने अपनी ही महिमासे सोच-विचारकर हम देवताओंका नाम-निर्देश किया है; साथ ही इस ब्रह्माण्डके दो भाग करके ऊर्ध्वलोकोंको आकाशमें तथा अधोलोकोंको पृथ्वीपर और उसके भीतर स्थापित किया है। इससे हमें यह जान पड़ता है कि विश्वका सारा अवकाश आपने ही बनाया है। आप देहके भीतर रहनेवाले अन्तर्यामी पुरुष हैं। आपके शरीरसे ही देवताओंका प्राकट्य हुआ है। आकाश आपका मस्तक, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र, सर्पोका समुदाय केश और दिशाएँ कानोंके छिद्र हैं। यज्ञ आपका शरीर, नदियाँ सन्धिस्थान, पृथ्वी चरण और समुद्र उदर हैं। भगवन्! आप भक्तोंको शरण देनेवाले, आपत्तिसे बचानेवाले तथा उनकी रक्षा करनेवाले हैं। आप सबके ध्यानके विषय हैं। आपके स्वरूपका अन्त नहीं है।
देवताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बायें हाथसे वरद मुद्राका प्रदर्शन करते हुए देवताओंसे कहा- ‘देवगण! तुम्हारा तेज किसने छीन लिया है? तुम आज ऐसे हो रहे हो मानो तुममें अब कुछ भी करनेकी शक्ति ही नहीं रह गयी है; तुम्हारी कान्ति किसने हर ली ?’
ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर देवताओंने वायुको उत्तर देनेके लिये कहा। उनसे प्रेरित होकर वायुने कहा- ‘भगवन्! आप चराचर जगत्की सारी बातें जानते हैं- आपसे क्या छिपा है। सैकड़ों दैत्योंने मिलकर इन्द्र आदि बलिष्ठ देवताओंको भी बलपूर्वक परास्त कर दिया है। आपके आदेशसे स्वर्गलोक सदा ही यज्ञभोगी देवताओंके अधिकारमें रहता आया है। परन्तु इस समय तारकासुरने देवताओंका सारा विमानसमूह छीनकर उसे दुर्लभ कर दिया है। देवताओंके निवासस्थान जिस मेरु पर्वतको आपने सम्पूर्ण पर्वतोंका राजा मानकर उसे सब प्रकारके गुणोंमें बढ़ा-चढ़ा, यज्ञोंसे विभूषित तथा आकाशमें भी ग्रहों और नक्षत्रोंकी गतिका सीमा- प्रदेश बना रखा था, उसीको उस दानवने अपने निवास और विहारके लिये उपयोगी बनानेके उद्देश्यसे परिष्कृत किया है, उसके शिखरों में आवश्यक परिवर्तन और सुधार किया है। इसप्रकार उसकी सारी उद्दण्डता मैंने बतायी है। अब आप ही हमारी गति हैं। ‘ यों कहकर वायुदेवता चुप हो गये।
ब्रह्माजीने कहा- ‘देवताओ! तारक नामका दैत्य देवता और असुर-सबके लिये अवध्य है। जिसके द्वारा उसका वध हो सकता है, वह पुरुष अभीतक त्रिलोकीमें पैदा ही नहीं हुआ। तारकासुर तपस्या कर रहा था। उस समय मैंने वरदान दे उसे अनुकूल बनाया और तपस्यासे रोका। उस दैत्यने सात दिनके बालकसे अपनी मृत्यु होनेका वरदान माँगा था। सात दिनका वही बालक उसे मार सकता है, जो भगवान् शंकरके वीर्यसे उत्पन्न हो । हिमालयकी कन्या जो उमादेवी होगी, उसके गर्भसे उत्पन्न पुत्र अरणिसे प्रकट होनेवाले अग्निदेवकी भाँति तेजस्वी होगा; अतः भगवान् शंकरके अंशसे उमादेवी जिस पुत्रको जन्म देगी, उसका सामना करनेपर तारकासुर नष्ट हो जायगा।’ ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवता उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चले गये।
अध्याय-33 पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
तदनन्तर जगत्को शान्ति प्रदान करनेवाली गिरिराज हिमालयकी पत्नी मेनाने परम सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें एक कन्याको जन्म दिया। उसके जन्म लेते ही समस्त लोकोंमें निवास करनेवाले स्थावर जंगम – सभी प्राणी सुखी हो गये। आकाशमें भगवान् श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, वायु और अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर बैठकर हिमालय पर्वतके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। गन्धर्व गाने लगे। उस समय संसारमें हिमालय पर्वत समस्त चराचर भूतोंके लिये सेव्य तथा आश्रय लेनेके योग्य हो गया-सब लोग वहाँ निवास और वहाँकी यात्रा करने लगे। उत्सवका आनन्द ले देवता अपने-अपने स्थानको चले गये। गिरिराजकुमारी उमाको रूप, सौभाग्य और ज्ञान आदि गुणोंने विभूषित किया। इस प्रकार वह तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी और समस्त शुभलक्षणोंसे सम्पन्न हो गयी। इसी बीचमें कार्य-साधन परायण देवराज इन्द्रने देवताओंद्वारा सम्मानित देवर्षि नारदका स्मरण किया। इन्द्रका अभिप्राय जानकर देवर्षि नारद बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके भवनमें आये। उन्हें देखकर इन्द्र सिंहासनसे उठ खड़े हुए और यथायोग्य पाद्य आदिके द्वारा उन्होंने नारदजीका पूजन किया। फिर नारदजीने जब उनकी कुशल पूछी तो इन्द्रने कहा – ‘मुने! त्रिभुवनमें हमारी कुशलका अंकुर तो जम चुका है, अब उसमें फल लगनेका साधन उपस्थित करनेके लिये मैंने आपकी याद की है। ये सारी बातें आप जानते ही हैं; फिर भी आपने प्रश्न किया है इसलिये मैं बता रहा हूँ। विशेषतः अपने सुहृदोंके निकट अपना प्रयोजन बताकर प्रत्येक पुरुष बड़ी शान्तिका अनुभव करता है। अतः जिस प्रकारभी पार्वतीदेवीका पिनाकधारी भगवान् शंकरके साथ संयोग हो, उसके लिये हमारे पक्षके सब लोगोंको शीघ्र उद्योग करना चाहिये।’
इन्द्रसे उनका सारा कार्य समझ लेनेके पश्चात् नारदजीने उनसे विदा ली और शीघ्र ही गिरिराज हिमालयके भवनके लिये प्रस्थान किया। गिरिराजके द्वारपर, जो विचित्र बैतकी लताओंसे हरा-भरा था, पहुँचनेपर हिमवान्ने पहले ही बाहर निकलकर मुनिको प्रणाम किया। उनका भवन पृथ्वीका भूषण था। उसमें प्रवेश करके अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारदजी एक बहुमूल्य आसनपर विराजमान हुए। फिर हिमवान्ने उन्हें यथायोग्य अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया और बड़ी मधुर वाणीमें नारदजीके तपकी कुशल पूछी। उस समय गिरिराजका मुखकमल प्रफुल्लित हो रहा था। मुनिने भी गिरिराजकी कुशल पूछते हुए कहा- ‘पर्वतराज! तुम्हारा कलेवर अद्भुत है। तुम्हारा स्थान धर्मानुष्ठानके लिये बहुत ही उपयोगी है। तुम्हारी कन्दराओंका विस्तार विशाल है। इन कन्दराओंमें अनेकों पावन एवं तपस्वी पुनियाने आश्रय ले तुम्हें पवित्र बनाया है। गिरिराज!तुम धन्य हो, जिसकी गुफामें लोकनाथ भगवान् शंकर शान्तिपूर्वक ध्यान लगाये बैठे रहते हैं।’
पुलस्त्यजी कहते हैं— देवर्षि नारदकी यह बात समाप्त होनेपर गिरिराज हिमालयको रानी मेना मुनिका दर्शन करनेकी इच्छासे उस भवनमें आयीं। वे लज्जा और प्रेमके भारसे झुकी हुई थीं। उनके पीछे-पीछे उनकी कन्या भी आ रही थी। देवर्षि नारद तेजकी राशि जान पड़ते थे, उन्हें देखकर शैलपत्नीने प्रणाम किया। उस समय उनका मुख अंचलसे ढका था और कमलके समान शोभा पानेवाले दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अमिततेजस्वी देवर्षिने महाभागा मेनाको देखकर अपने अमृतमय आशीर्वादोंसे उन्हें प्रसन्न किया। उस समय गिरिराजकुमारी उमा अद्भुत रूपवाले नारद मुनिकी ओर चकित चित्तसे देख रही थी देवर्षिने स्नेहमयी वाणीमें कहा- ‘बेटी! यहाँ आओ।’ उनके इस प्रकार बुलानेपर उमा पिताके गलेमें बाँहें डालकर उनकी गोदमें बैठ गयी। तब उसकी माताने कहा- ‘बेटी! देवर्षिको प्रणाम करो’ उमाने ऐसा ही किया। उसके प्रणाम कर लेनेपर माताने कौतूहलवश पुत्रीके शारीरिक लक्षणोंको जानने के लिये अपनी सखीके मुँहसे धीरेसे कहलाया- ‘मुने! इस कन्याके सौभाग्यसूचक चिह्नोंको देखनेकी कृपा करें।’ मेनाकी सखीसे प्रेरित होकर महाभाग मुनिवर नारदजी मुसकराते हुए बोले- ‘भद्रे ! इस कन्याके पतिका जन्म नहीं हुआ है, यह लक्षणोंसे रहित है। इसका एक हाथ सदा उत्तान (सीधा ) रहेगा। इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; किन्तु उनकी कान्ति बड़ी सुन्दर होगी। यही इसका भविष्यफल है।’
नारदजीकी यह बात सुनकर हिमवान् भयसे घबरा उठे, उनका धैर्य जाता रहा, वे आँसू बहाते हुए गद्गद कण्ठसे बोले-‘अत्यन्त दोषोंसे भरे हुए संसारकी गति दुर्विज्ञेय है-उसका ज्ञान होना कठिन है। शास्त्रकारोंने शास्त्रोंमें पुत्रको नरकसे त्राण देनेवाला बनाकर सदा पुत्र प्राप्तिकी ही प्रशंसा की है; किन्तु यह बात प्राणियोंको मोहमें डालनेके लिये है। क्योंकि स्त्रीके बिना किसी जीवकी सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु स्त्री जातिस्वभावसे ही दीन एवं दयनीय है। शास्त्रोंमें यह महान् फलदायक वचन अनेकों बार निःसन्देहरूपसे दुहराया गया है कि शुभलक्षणोंसे सम्पन्न सुशीला कन्या दस पुत्रोंके समान है। किन्तु आपने मेरी कन्याके शरीर में केवल दोषोंका ही संग्रह बताया है। ओह! यह सुनकर मुझपर मोह छा गया है, मैं सूख गया हूँ, मुझे बड़ी भारी ग्लानि और विषाद हो रहा है। मुने! मुझपर अनुग्रह करके इस कन्यासम्बन्धी दुःखका निवारण कीजिये। देवर्षे ! आपने कहा है कि इसके पतिका जन्म ही नहीं हुआ है।’ यह ऐसा दुर्भाग्य है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। यह अपार और दुःसह दुःख है। हाथों और पैरोंमें जो रेखाएँ बनी होती हैं, वे मनुष्य अथवा देवजातिके लोगोंको शुभ और अशुभ फलकी सूचना देनेवाली हैं; सो आपने इसे लक्षणहीन बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि ‘इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा। परन्तु उत्तान हाथ तो सदा याचकोंका ही होता है-वे ही सबके सामने हाथ फैलाकर माँगते देखे जाते हैं। जिनके शुभका उदय हुआ है, जो धन्य तथा दानशील हैं, उनका हाथ उत्तान नहीं देखा जाता। आपने इसकी उत्तम कान्ति बतानेके साथ ही यह भी कहा है कि इसके चरण व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त हैं; अतः मुने! उस चिह्नसे भी मुझे कल्याणकी आशा नहीं जान पड़ती।’
नारदजी बोले – गिरिराज! तुम तो अपार हर्षके स्थानमें दुःखकी बात कर रहे हो। अब मेरी यह बात सुनो। मैंने पहले जो कुछ कहा था, वह रहस्यपूर्ण था। इस समय उसका स्पष्टीकरण करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर श्रवण करो। हिमाचल ! मैंने जो कहा था कि इस देवीके पतिका जन्म नहीं हुआ है, सो ठीक ही है। इसके पति महादेवजी हैं। उनका वास्तवमें जन्म नहीं हुआ है-वे अजन्मा हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान जगत्की उत्पत्तिके कारण ये ही हैं। वे सबको शरण देनेवाले एवं शासक, सनातन, कल्याणकारी और परमेश्वर हैं। यह ब्रह्माण्ड उन्हींके संकल्पसे उत्पन्न हुआ है। ब्रह्माजीसे लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार है, वह जन्म, मृत्यु आदिके दुःखसे पीड़ित होकर निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। किन्तु महादेवजी अचल और स्थिर हैं। जात नहीं, जनक हैं- पुत्र नहीं, पिता हैं उनपर बुढ़ापेका आक्रमण नहीं होता। वे जगत्के स्वामी और आधि-व्याधिसे रहित हैं। इसके सिवा जो मैंने तुम्हारी कन्याको लक्षणोंसे रहित बताया है, उस वाक्यका ठीक-ठीक विचारपूर्ण तात्पर्य सुनो शरीरके अवयवोंमें जो चिह्न या रेखाएँ होती हैं, वे सीमित आयु, धन और सौभाग्यको व्यक्त करनेवाली होती हैं; परन्तु जो अनन्त और अप्रमेय है, उसके अमित सौभाग्यको सूचित करनेवाला कोई चिह्न या लक्षण शरीरमें नहीं होता। महामते। इसीसे मैंने बतलाया है कि इसके शरीरमें कोई लक्षण नहीं है। इसके अतिरिक्त जो यह कहा गया है कि इसका एक हाथ सदा उत्तान रहेगा, उसका आशय यह है-वर देनेवाला हाथ उत्तान होता है देवीका यह हाथ वरद मुद्रासे युक्त होगा। यह देवता, असुर और मुनियोंके समुदायको वर देनेवाली होगी तथा जो मैंने इसके चरणोंको उत्तम कान्ति और व्यभिचारी लक्षणोंसे युक्त बताया है, उसकी व्याख्या भी मेरे मुँह से सुनो- ‘गिरिश्रेष्ठ! इस कन्याके चरण कमलके समान अरुण रंगके हैं। इनपर नखोंकी उज्ज्वल कान्ति पड़नेसे स्वच्छता (श्वेत कान्ति) आ गयी है। देवता और असुर जब इसे प्रणाम करेंगे, तब उनके किरीटमें जड़ी हुई मणियोंकी कान्ति इसके चरणों में प्रतिबिम्बित होगी। उस समय ये चरण अपना स्वाभाविक रंग छोड़कर विचित्र रंगके दिखायी देंगे। उनके इस परिवर्तन और विचित्रताको ही व्यभिचार कहा गया है । महीधर! यह जगत्का भरण-पोषण करनेवाले वृषभध्वज महादेवजीकी पत्नी है यह सम्पूर्ण लोकोंकी जननी तथा भूतोंको उत्पन्न करनेवाली है। इसकी कान्ति परम पवित्र है। यह साक्षात् शिवा है और तुम्हारे कुलको पवित्र करनेके लिये ही इसने तुम्हारी पत्नीके गर्भ से जन्म लिया है। अतः जिस प्रकार यह शीघ्र ही पिनाकधारी भगवान् शंकरका संयोग प्राप्त करे, उसी उपायका तुम्हें विधिपूर्वक अनुष्ठान चाहिये। ऐसा करनेसे देवताओंका एक महान् कार्य सिद्ध होगा।
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन्। नारदजीके मुँहसे ये सारी बातें सुनकर मैनाके स्वामी गिरिराज हिमालयने अपना नया जन्म हुआ माना। वे अत्यन्त हर्षमें भरकर बोले- ‘प्रभो! आपने घोर और दुस्तर नरकसे मेरा उद्धार कर दिया। मुने! आप जैसे संतोंका दर्शन निश्चय ही अमोघ फल देनेवाला होता है। इसलिये इस कार्य में मेरी कन्याके विवाहके सम्बन्धमें आप समय-समयपर योग्य आदेश देते रहें ।’
गिरिराजके ऐसा कहनेपर नारदजी हर्षमें भरकर बोले- ‘शैलराज ! सारा कार्य सिद्ध ही समझो। ऐसा करनेसे ही देवताओंका भी कार्य होगा और इसीमें तुम्हारा भी महान् लाभ है।’ यों कहकर नारदजी देवलोकमें जाकर इन्द्रसे मिले और बोले- ‘देवराज । आपने मुझे जो कार्य सौंपा था, उसे तो मैंने कर ही दिया; किन्तु अब कामदेवके बाणसे सिद्ध होने योग्य कार्य उपस्थित हुआ है।’ कार्यदर्शी नारद मुनिके इस प्रकार कहनेपर देवराज इन्द्रने आमकी मंजरीको ही अस्त्रके रूपमें प्रयोग करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। उसे सामने प्रकट हुआ देख इन्द्रने कहा ‘रतिवल्लभ! तुम्हें बहुत उपदेश देनेकी क्या आवश्यकता है; तुम तो संकल्पसे ही उत्पन्न हुए हो, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंके मनकी बात जानते हो। स्वर्गवासियोंका प्रिय कार्य करो। मनोभव! गिरिराजकुमारी उमाके साथ भगवान् शंकरका शीघ्र संयोग कराओ। इस मधुमास चैत्रको भी साथ लेते जाओ तथा अपनी पत्नी रतिसे सहायता लो।’
कामदेव बोला- देव! यह सामग्री मुनियों और दानवोंके लिये तो बड़ी भयंकर है, किन्तु इससे भगवान् शंकरको वशमें करना कठिन है।
इन्द्रने कहा – ‘रतिकान्त ! तुम्हारी शक्तिको मैं जानता हूँ, तुम्हारे द्वारा इस कार्यके सिद्ध होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है।’
मधुमासको लेकर रतिके साथ तुरंत ही हिमालयके इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेव अपने सखा शिखरपर गया। वहाँ पहुँचकर उसने कार्यके उपायका विचार करते हुए सोचा कि ‘महात्मा पुरुष निष्कम्प अविचल होते हैं। उनके मनको वशमें करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है। उसे पहले ही क्षुब्ध करके उसके ऊपर विजय पायी जाती है। पहले मनका संशोधन कर लेनेपर ही प्रायः सिद्धि प्राप्त होती है। मैं महादेवजीके अन्तःकरणमें प्रवेश करके इन्द्रिय समुदायको व्याप्त कर रमणीय साधनोंके द्वारा अपना कार्य सिद्ध करूँगा।’ यह सोचकर कामदेव भगवान् भूतनाथके आश्रमपर गया। वह आश्रम पृथ्वीका सारभूत स्थान जान पड़ता था वहाँकी वेदी देवदारुके वृक्षसे सुशोभित हो रही थी। कामदेवने, जिसका अन्तकाल क्रमशः समीप आता जा रहा था, धीरे-धीरे आगे बढ़कर देखा भगवान् शंकर ध्यान लगाये बैठे हैं। उनके अधखुले नेत्र अर्ध-विकसित कमलदलके समान शोभा पा रहे हैं। उनकी दृष्टि सीधी एवं नासिकाके अग्रभागपर लगी हुई है। शरीरपर उत्तरीयके रूपमें अत्यन्त रमणीय व्याघ्रचर्म लटक रहा है। कानोंमें धारण किये हुए सर्पोंके फनसे निकली हुई फुफकारकी आँचसे उनका मुख पिंगल वर्णका हो रहा है हवासे हिलती हुई लम्बी-लम्बी जटाएँ उनके कपोल-प्रान्तका चुम्बन कर रही हैं। वासुकि नागका यज्ञोपवीत धारण करनेसे उनकी नाभिके मूल भागमें वासुकिका मुख और पूँछ सटे हुए दिखायी देते हैं। वे अंजलि बाँधे ब्रह्मके चिन्तनमें स्थिर हो रहे हैं और साँपके आभूषण धारण किये हुए हैं।
तदनन्तर वृक्षकी शाखासे भ्रमरकी भाँति झंकार करते हुए कामदेवने भगवान् शंकरके कानमें होकर हृदयमें प्रवेश किया। कामका आधारभूत वह मधुर झंकार सुनकर शंकरजीके मनमें रमणकी इच्छा जाग्रत् हुई और उन्होंने अपनी प्राणवल्लभा दक्षकुमारी सतीका स्मरण किया। तब स्मरण-पथमें आयी हुई सती उनकी निर्मल समाधि भावनाको धीरे-धीरे लुप्त करके स्वयं ही लक्ष्य स्थानमें आ गयीं और उन्हें प्रत्यक्ष रूपमें उपस्थित सी जान पड़ीं। फिर तो भगवान् शिव उनकी सुधमें तन्मय हो गये। इस आकस्मिक विघ्नने उनके अन्तःकरणको आवृत्त कर लिया। देवताओंके अधीश्वरशिव क्षणभरके लिये कामजनित विकारको प्राप्त हो गये। किन्तु यह अवस्था अधिक देरतक न रही, कामदेवका कुचक्र समझकर उनके हृदयमें कुछ क्रोधका संचार हो आया। उन्होंने धैर्यका आश्रय लेकर कामदेवके प्रभावको दूर किया और स्वयं योगमायासे आवृत होकर दृढ़तापूर्वक समाधिमें स्थित हो गये।
उस योगमायासे आविष्ट होनेपर कामदेव जलने लगा, अतः वह वासनामय व्यसनका रूप धारण करके उनके हृदयसे बाहर निकल आया बाहर आकर वह एक स्थानपर खड़ा हुआ। उस समय उसकी सहायिका रति और सखा वसन्त- इन दोनोंने भी उसका अनुसरण किया। फिर मदनने आमकी मौरका मनोहर गुच्छ लेकर उसमें मोहनास्त्रका आधान किया और उसे अपने पुष्पमय धनुषपर रखकर तुरंत ही महादेवजीकी छाती में मारा । इन्द्रियोंके समुदायरूप हृदयके बिंध जानेपर
भगवान् शिवने कामदेवकी ओर दृष्टिपात किया। फिर तो उनका मुख क्रोधके आवेगसे निकलते हुए घोर हुंकारके कारण अत्यन्त भयानक हो उठा। उनके तीसरे नेत्रमें आगकी ज्वाला प्रज्वलित हो उठी। रौद्र शरीरधारीभगवान् रुद्रका वह नेत्र ऐसा भयंकर दिखायी देने लगा, मानो संसारका संहार करनेके लिये खुला हो । मदन पास ही खड़ा था। महादेवजीने उस नेत्रको फैलाकर मदनको ही उसका लक्ष्य बनाया। देवतालोग ‘त्राहि-त्राहि’ कहकर चिल्लाते ही रह गये और मदन उस नेत्रसे निकली हुई चिनगारियोंमें पड़कर भस्म हो गया। कामदेवको दग्ध करके वह आग समस्त जगत्को जलानेके लिये बढ़ने लगी। यह जानकर भगवान् शिवने उस कामाग्निको आमके वृक्ष, वसन्त, चन्द्रमा, पुष्पसमूह, भ्रमर तथा कोयलके मुखमें बाँट दिया। महादेवजी बाहर और भीतर भी कामदेवके बाणोंसे विद्ध थे, इसलिये उपर्युक्त स्थानोंमें उस अग्निका विभाग करके वे उनमेंसे प्रत्येकको प्रज्वलित कामाग्निके ही रूपमें देखने लगे। वह कामाग्नि सम्पूर्ण लोकको क्षोभमें डालनेवाली है; उसके प्रसारको रोकना कठिन होता है।
कामदेवको भगवान् शिवके हुंकारकी ज्वालासे भस्म हुआ देख रति उसके सखा वसन्तके साथ जोर-जोरसे रोने लगी। फिर वह त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें गयी और धरतीपर घुटने टेककर स्तुति करने लगी।
रति बोली- जो सबके मन हैं, यह जगत् जिनका स्वरूप है और जो अद्भुत मार्गसे चलनेवाले हैं, उन कल्याणमय शिवको नमस्कार है। जो सबको शरण देनेवाले तथा प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, उन भगवान् शंकरको नमस्कार है। नाना लोकोंमें समृद्धिका विस्तार करनेवाले शिवको नमस्कार है। भक्तोंको मनोवांछित वस्तु देनेवाले महादेवजीको प्रणाम है। कर्मोंको उत्पन्न करनेवाले महेश्वरको नमस्कार है। प्रभो! आपका स्वरूप अनन्त है; आपको सदा ही नमस्कार है। देव! आप ललाटमें चन्द्रमाका चिह्न धारण करते हैं; आपको नमस्कार है। आपकी लीलाएँ असीम हैं। उनके द्वारा आपकी उत्तम स्तुति होती रहती है वृषभराज नन्दी आपका वाहन है। आप दानवोंके दोनों पुरोका अन्त करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप सर्वत्र प्रसिद्ध हैं और नाना प्रकारके रूप धारण किया करते हैं आपकोनमस्कार है। कालस्वरूप आपको नमस्कार है। कलसंख्यरूप आपको नमस्कार है तथा काल और कल दोनोंसे अतीत आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप चराचर प्राणियोंके आचारका विचार करनेवालों में सबसे बड़े आचार्य हैं। प्राणियोंकी सृष्टि आपके ही संकल्पसे हुई हैं। आपके ललाटमें चन्द्रमा शोभा पाते हैं। मैं अपने प्रियतमकी प्राप्तिके लिये सहसा आप महेश्वरकी शरण में आयी हूँ। भगवन्! मेरी कामनाको पूर्ण करनेवाले और यशको बढ़ानेवाले मेरे पतिको मुझे दे दीजिये। मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती। पुरुषेश्वर! प्रियाके लिये प्रियतम ही नित्य सेव्य है, उससे बढ़कर संसारमें दूसरा कौन है। आप सबके प्रभु, प्रभावशाली तथा प्रिय वस्तुओंकी उत्पत्तिके कारण हैं। आप ही इस भुवनके स्वामी और रक्षक हैं। आप परम दयालु और भक्तोंका भय दूर करनेवाले हैं।
पुलस्त्यजी कहते हैं— कामदेवकी पत्नी रतिके इस प्रकार स्तुति करनेपर मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट धारण करनेवाले भगवान् शंकर उसकी ओर देखकर मधुर वाणीमें बोले— ‘सुन्दरी! समय आनेपर यह कामदेव शीघ्र ही उत्पन्न होगा। संसारमें इसको अनंगके नामसे प्रसिद्धि होगी। भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर कामवल्लभा रति उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर हिमालयके दूसरे उपवनमें चली गयी।
उधर नारदजीके कथनानुसार हिमवान् अपनी कन्याको वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके उसकी दो सखियोंके साथ भगवान् शंकरके समीप ले आ रहे थे। मार्ग में रतिके मुखसे मदन दहनका समाचार सुनकर उनके मनमें कुछ भय हुआ। उन्होंने कन्याको लेकर अपनी पुरीमें लौट जानेका विचार किया। यह देख संकोचशीला पार्वतीने अपनी सखियोंके मुखसे पिताको कहलाया ‘तपस्यासे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है। तप करनेवालेके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। संसारमें तपस्या जैसे साधनके रहते लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार ढोते हैं। अतः अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छासे मैं तपस्या ही करूंगी।’ यह सुनकर हिमवान् ने कहा- ‘बेटी । ‘उ’ ‘मा’ – ऐसा न करो। तुम अभी चपल बालिका हो। तुम्हारा शरीर तपस्याका कष्ट सहन करनेमें समर्थ नहीं है। बाले! जो बात होनेवाली होती है, वह होकर ही रहती है। इसलिये तुम्हें तपस्या करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अब घरको हो चलूँगा और वहीं इस कार्यकी सिद्धिके लिये कोई उपाय सोचूँगा।’ पिताके ऐसा कहनेपर भी जब पार्वती घर जानेको तैयार नहीं हुई, तब हिमवान्ने मन-ही-मन अपनी पुत्रीके दृढ़ निश्चयकी प्रशंसा की। इसी समय आकाशमें दिव्य वाणी प्रकट हुई, जो तीनों लोकोंमें सुनायी पड़ी। वह इस प्रकार थी- गिरिराज! तुमने ‘उ’ ‘मा’ कहकर अपनी पुत्रीको तपस्या करनेसे रोका है; इसलिये संसारमें इसका नाम उमा होगा। यह मूर्तिमती सिद्धि है। अपनी अभिलषित वस्तुको अवश्य प्राप्त करेगी।’ यह आकाशवाणी सुनकर हिमवान् ने पुत्रीको तप करनेकी आज्ञा दे दी और स्वयं अपने भवनको चले गये।
पार्वती अपनी दोनों सखियोंके साथ हिमालयके उस प्रदेशमें गयी, जहाँ देवताओंका भी पहुँचना कठिन था वहाँका शिखर परम पवित्र और नाना प्रकारकी धातुओंसे विभूषित था। सब ओर दिव्य पुष्प और लताएँ फैली थीं, वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे वहाँ पार्वतीने अपने वस्त्र और आभूषण उतारकर दिव्य वल्कल धारण कर लिये कटिमें कुशोंकी मेखला पहन ली। वह प्रतिदिन तीन बार स्नान करती और गुलाब के फूल चबाकर रह जाती थी। इस प्रकार उसने सौ वर्षोंतक तपस्या की। तत्पश्चात् सौ वर्षोंतक हिमवान् कुमारी प्रतिदिन एक पत्ता खाकर रही। तदनन्तर पुनः सौ वर्षोंतक उसने आहारका सर्वथा परित्याग कर दिया। इस तरह वह तपस्याकी निधि बन गयी। उसके तपकी आँचसे समस्त प्राणी उद्विग्न हो उठे। तब इन्द्रने सप्तर्षियोंका स्मरण किया। वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ एक ही समय वहाँ उपस्थित हुए। इन्द्रने उनका स्वागत सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने अपने बुलाये जानेका प्रयोजन पूछा तब इन्द्रने कहा-महात्माओ! आपलोगोंके आवाहनका प्रयोजन सुनिये। हिमालय पर पार्वतीदेवी घोर तपस्या कर रही हैं आपलोग संसारके हितके लिये शीघ्रतापूर्वक वहाँ जाकर उन्हें अभिमत वस्तुकी प्राप्तिका विश्वास दिला तपस्या बंद करा दीजिये।’ ‘बहुत अच्छा!’ कहकर सप्तर्षिगण उस सिद्ध सेवित शैलपर आये और पार्वतीदेवीसे मधुर वाणीमें बोले-‘बेटी तुम किस उद्देश्यसे यहाँ तप कर रही हो?’
पार्वतीदेवीने मुनियोंके गौरवका ध्यान रखकर आदरपूर्वक कहा-‘महात्माओ आपलोग समस्त प्राणियों के मनोरथको जानते हैं। प्रायः सभी देहधारी ऐसी ही वस्तुकी अभिलाषा करते हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ होती है। मैं भगवान् शंकरको पतिरूपमें प्राप्त करनेका उद्योग कर रही हूँ। वे स्वभावसे ही दुराराध्य हैं। देवता और असुर भी जिनके स्वरूपको निश्चित रूपसे नहीं जानते, जो पारमार्थिक क्रियाओंके एकमात्र आधार हैं, जिन वीतराग महात्माने कामदेवको जलाकर भस्म कर डाला है, ऐसे महामहिम शिवको मेरी जैसी तुच्छ अबला किस प्रकार आराधनाद्वारा प्रसन्न कर सकती है।’
पार्वतीके यों कहनेपर मुनियोंने उनके मनकी दृढ़ता जाननेके लिये कहा – ‘बेटी! संसारमें दो तरहका सुख देखा जाता है- एक तो वह है, जिसका शरीरसे सम्बन्ध होता है और दूसरा वह, जो मनको शान्ति एवं आनन्द प्रदान करनेवाला होता है। यदि तुम अपने शरीर के लिये नित्य सुखकी इच्छा करती हो तो तुम्हें घृणित वेषमें रहनेवाले भूत-प्रेतोंके संगी महादेवसे वह सुख कैसे मिल सकता है। अरी वे फुफकारते हुए भयंकर भुजंगोंको आभूषणरूपमें धारण करते हैं, श्मशानभूमिमें रहते हैं और रौद्ररूपधारी प्रमथगण सदा उनके साथ लगे रहते हैं। उनसे तो लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णु कहीं अच्छे हैं। वे इस जगत्के पालक हैं। उनके स्वरूपका कहीं ओर-छोर नहीं है तथा वे यज्ञभोगी देवताओंके स्वामी हैं। तुम उन्हें पानेकी इच्छा क्यों नहीं करतीं? अथवा दूसरे किसी देवताको पानेसे भी तुम्हें मानसिक सुखकी प्राप्ति हो सकती है। जिस वरको तुम चाहती हो, उसके पानेमें ही बहुत क्लेश है; यदि कदाचित् प्राप्त भी हो गया तो वह निष्फल वृक्षके समान है-उससे तुम्हेंसुख नहीं मिल सकता।’ उन श्रेष्ठ मुनियोंके ऐसा कहनेपर पार्वतीदेवी कुपित हो उठीं, उनके ओठ फड़कने लगे और वे क्रोधसे लाल आँखें करके बोलीं- ‘महर्षियो! दुराग्रहीके लिये कौन-सी नीति है। जिनकी समझ उलटी है, उन्हें आजतक किसने राहपर लगाया है। मुझे भी ऐसी ही जानिये। अतः मेरे विषय में अधिक विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप सब लोग प्रजापतिके समान हैं, सब कुछ देखने और समझनेवाले हैं; फिर भी यह निश्चय है कि आप उन जगत्प्रभु सनातन देव भगवान् शंकरको नहीं जानते। वे अजन्मा, ईश्वर और अव्यक्त हैं। उनकी महिमाका माप-तौल नहीं है। उनके अलौकिक कर्मोंका उत्तम रहस्य समझना तो दूर रहा, उनके स्वरूपका बोध भी आवृत है। श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वर भी उन्हें यथार्थरूपसे नहीं जानते। ब्रह्मर्षियो! उनका आत्म-वैभव समस्त भुवनोंमें फैला हुआ है, सम्पूर्ण प्राणियोंके सामने प्रकट है; क्या उसे भी आपलोग नहीं जानते ? बताइये तो, यह आकाश किसका स्वरूप है? यह अग्नि, यह वायु किसकी मूर्ति हैं? पृथ्वी और जल किसके विग्रह हैं ? तथा ये चन्द्रमा और सूर्य किसके नेत्र हैं?’
पार्वतीदेवीकी बात सुनकर सप्तर्षिगण वहाँसे उस स्थानपर गये, जहाँ भगवान् शिव विराजमान थे। उन्होंने भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भगवान् से कहा – ‘स्वर्गके अधीश्वर महादेव! आप दयालु देवता हैं। गिरिराज हिमालयकी पुत्री आपके लिये तपस्या कर रही है। हमलोग उसका मनोरथ जानकर आपके पास आये हैं। आप योगमाया, महिमा और गुणोंके आश्रय हैं। आपको अपने निर्मल ऐश्वर्यपर गर्व नहीं है। शरीरधारियोंमें हमलोग अधिक पुण्यवान् हैं जो कि ऐसे महिमाशाली आपका दर्शन कर रहे हैं।’ ऋषियोंके रमणीय एवं हितकर वचन सुनकर वागीश्वरोंमें श्रेष्ठ भगवान् शंकर मुसकराते हुए बोले- ‘मुनिवरो! मैं जानता हूँ लोक रक्षाकी दृष्टिसे वास्तवमें यह कार्य बहुत उत्तम है; किन्तु इस विषयमें मुझे हिमवान् पर्वतसे ही आशंकाहै- शायद वे मेरे साथ अपनी कन्याके विवाहकी बात स्वीकार न करें। इसमें सन्देह नहीं कि जो लोग कार्यसिद्धिके लिये उद्यत होते हैं, वे सभी उत्कण्ठित रहा करते हैं। उत्कण्ठा होनेपर बड़े-बड़े महात्माओंके चित्तमें भी उतावली पड़ जाती है। तथापि विशिष्ट व्यक्तियोंको लोक मर्यादाका अनुसरण करना ही चाहिये। क्योंकि इससे धर्मकी वृद्धि होती है और परवर्ती लोगोंके लिये भी आदर्श उपस्थित होता है।’
भगवान् के ऐसा कहनेपर सप्तर्षिगण तुरंत हिमालयके भवनमें गये। वहाँ हिमवान् ने बड़े आदर के साथ उनका पूजन किया। उससे प्रसन्न होकर वे मुनिश्रेष्ठ उतावलीके कारण संक्षेपसे बोले-‘गिरिराज तुम्हारी पुत्रीके लिये साक्षात् पिनाकधारी भगवान् शंकर तुमसे याचना करते हैं। अत: तुम अपनी पुत्री भगवान् श्रीशंकरको समर्पित करके अपनेको पावन बनाओ। यह देवताओंका कार्य है। जगत्का उद्धार करनेके लिये ही यह उद्योग किया जा रहा है।’ उनके ऐसा कहनेपर हिमवान् आनन्द विभोर हो गये। तब वे हिमवान् को साथ ले पार्वतीके आश्रमपर गये। उमा तपस्याके कारण तेजोमयी दिखायी दे रही थी उसने अपने तेजसे सूर्य और अग्निकी ज्वालाको भी परास्त कर दिया था। मुनियोंने जब स्नेहपूर्वक उसका मनोगत भाव पूछा तो उस मानिनीने यह सारगर्भित वचन कहा- ‘मैं पिनाकधारी भगवान् रुद्रके सिवा दूसरे किसीको नहीं चाहती। वे ही छोटे बड़े सब प्राणियों में स्थित हैं, वे ही सबको समृद्धि प्रदान करनेवाले हैं। धीरता और ऐश्वर्य आदि गुण उन्होंमें शोभा पाते हैं; वे तुलनारहित महान् प्रमाण हैं, उनके सिवा दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं। यह सारा जगत् उन्हींसे उत्पन्न होता है। जिनका ऐश्वर्य आदि, अन्तसे रहित है, उन्हीं भगवान् शंकरकी शरणमें मैं आयी हूँ।’
पार्वतीदेवीके ये वचन सुनकर वे मुनिश्रेष्ठ बहुत प्रसन्न हुए उनके नेत्रोंमें आनन्द के आँसू उमड़ आये और उन्होंने तपस्विनी गिरिजाको प्रशंसा करते हुए मधुर वाणीमें कहा-‘अहो ! बड़ी अद्भुत बात है। बेटी!तुम निर्मल ज्ञानकी मूर्ति सी जान पड़ती हो और श्रीशंकरजीमें दृढ़ अनुराग रखनेके कारण हमारे अन्तःकरणको अत्यन्त प्रसन्न कर रही हो। हम भगवान् शिवके अद्भुत ऐश्वर्यको जानते हैं, केवल तुम्हारे निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये थे अब तुम्हारी यह कामना शीघ्र ही पूरी होगी अपने इस मनोहर रूपको तपस्याकी आगमें न जलाओ। कल प्रातःकाल भगवान् शंकर स्वयं आकर तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। हमलोग पहले आकर तुम्हारे पिताजीसे भी प्रार्थना कर चुके हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर जाओ, हम भी अपने आश्रमको जाते हैं।’ उनके इस प्रकार कहने पर पार्वती यह सोचकर कि तपस्याका यथार्थ फल प्राप्त हो गया, तुरंत ही पिताके शोभासम्पन्न दिव्य भवनमें चली गयीं। वहाँ जानेपर गिरिजाके हृदयमें भगवान् शंकरके दर्शनकी प्रबल उत्कण्ठा जाग्रत हुई। अतः उसे वह रात एक हजार वर्षोंके समान जान पड़ी। तदनन्तर ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर सखियोंने पार्वतीका मांगलिक कार्य करना आरम्भ किया। क्रमशः नाना प्रकारके मंगल विधान यथार्थरूपसे सम्पन्न किये गये। सब प्रकारकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाली ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गिरिराज हिमालयकी उपासना करने लगीं। सुखदायिनी वायु झाड़ने बुहारनेके काममें लगी थी। चिन्तामणि आदि रत्न, तरह-तरहकी लताएँ तथा कल्पतरु आदि बड़े-बड़े वृक्ष भी वहाँ सब ओर उपस्थित थे। दिव्य ओषधियोंके साथ साधारण ओषधियाँ भी दिव्य देह धारण करके सेवामें संलग्न थीं। रस और धातुएँ भी वहाँ दास-दासीका काम करती थीं। नदियाँ, समुद्र तथा स्थावर-जंगम सभी प्राणी मूर्तिमान् होकर हिमवान्की महिमा बढ़ा रहे थे।
दूसरी ओर निर्मल शरीरवाले देवता, मुनि, नाग, यक्ष, गन्धर्व और किन्नरगण श्रीशंकरजीके श्रृंगारकी सारी सामग्री सजाये गन्धमादन पर्वतपर उपस्थित हुए। ब्रह्माजीने श्रीशंकरजीके जटाजूटमें चन्द्रमाकी कला सजायी। भगवान् श्रीविष्णु रत्नके बने कर्णभूषण, उज्वल कण्ठहार और भुजंगमय आभूषण लेकर श्रीशंकरजी के सामने उपस्थित हुए अन्य देवताओंने मनके समान वेगवाले शिववाहन नन्दीको भी विभूषित किया। भांति-भाँतिकी श्रृंगार सामग्रियोंसे श्रीशंकरजीको सुसज्जित करके उन्हें सुन्दर आभूषण पहनाकर भी देवताओंकी व्यग्रता अभी दूर नहीं हुई-वे शीघ्र-से शीघ्र वैवाहिक कार्य सम्पन्न कराना चाहते थे। पृथ्वीदेवी भी सर्वथा व्यग्र थीं। वे मनोरम रूप धारण करके उपस्थित हुई और नूतन तथा सुन्दर रस और ओषधियाँ प्रदान करने लगीं। साक्षात् वरुण रत्न, आभूषण तथा भाँति-भाँति के रत्नोंके बने हुए विचित्र-विचित्र पुष्प लेकर उपस्थित हुए। समस्त देहधारियोंके भीतर रहकर सब कुछ जाननेवाले अग्निदेव भी परम पवित्र सोनेके दिव्य आभूषण लेकर विनीत भावसे सामने आये। वायु सुगन्ध बिखेरती हुई मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होने लगी, जिससे उसका स्पर्श भगवान् शंकरको सुखद प्रतीत हो वज्रसे सुसज्जित देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने हाथोंमें भगवान् शिवका छत्र ग्रहण किया। वह छत्र अपने उज्ज्वल प्रकाशसे चन्द्रमाकी किरणावलियोंका उपहास कर रहा था। गन्धर्व और किन्नर अत्यन्त मधुर बाजोंकी ध्वनि करते हुए गान करने लगे। मुहूर्त और ऋतुएँ मूर्तिमान् होकर गान और नृत्य करने लगीं। भगवान् शंकर हिमवान्के नगरमें पहुँचे। उनके चंचल प्रमचगण हिमालयका आलोडन करते हुए वहाँ स्थित हुए। तत्पश्चात् विश्वविधाता ब्रह्माजी तथा भगवान् शंकर क्रमशः विवाहमण्डपमें विराजमान हुए। शिवने अपनीपत्नी उमाके साथ शास्त्रोक्त रीतिसे वैवाहिक कार्य सम्पन्न किया। गिरिराजने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओंने विनोदके द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। शिवने पत्नीके साथ वह रात्रि वहीं व्यतीत की। सबेरे देवताओंके स्तवन करनेपर वे उठे और गिरिराजसे विदा ले वायुके समान वेगशाली नन्दीपर सवार हो पत्नीसहित मन्दराचलको चले गये। उमाके साथ भगवान् नीललोहितके चले जानेपर हिमवान्का मन कुछ उदास हो गया। क्यों न हो, कन्याकी विदाई हो जानेपर भला, किस पिताका हृदय व्याकुल नहीं होता ।
अध्याय-34 गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
पुलस्त्यजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर भगवान् शंकर पार्वती देवीके साथ नगरके रमणीय उद्यानों तथा एकान्त वनोंमें विहार करने लगे। देवीके प्रति उनके हृदयमें बड़ा अनुराग था। एक समयकी बात है— गिरिजाने सुगन्धित तेल और चूर्णसे अपने शरीरमें उबटन लगवाया और उससे जो मैल गिरा, उसे हाथमें उठाकर उन्होंने एक पुरुषकी आकृति बनायी, जिसका मुँह हाथीके समान था; फिर खेलकरते हुए भगवती शिवाने उसे गंगाजीके जलमें डाल दिया। गंगाजी पार्वतीको अपनी सखी मानती थीं। उनके जलमें पड़ते ही वह पुरुष बढ़कर विशालकाय हो गया। पार्वती देवीने उसे पुत्र कहकर पुकारा। फिर गंगाजीने भी पुत्र कहकर सम्बोधित किया। देवताओंने गांगेय कहकर सम्मानित किया। इस प्रकार गजानन देवताओंके द्वारा पूजित हुए । ब्रह्माजीने उन्हें गणोंका आधिपत्य प्रदान किया। तत्पश्चात् परम सुन्दरी शिवा देवीने खेलमें ही एक वृक्ष बनाया। उससे अशोकका मनोहर अंकुर फूट निकला। सुन्दर मुखवाली पार्वतीने उसका मंगल संस्कार किया तब इन्द्रके पुरोहित बृहस्पति आदि ब्राह्मणों, देवताओं तथा मुनियोंने कहा-‘देवि बताइये, वृक्षोंके पौधे लगानेसे क्या फल होगा?’ यह सुनकर देवीका शरीर हर्षसे पुलकित हो उठा, वे अत्यन्त कल्याणमय वचन बोलीं- ‘जो विज्ञ पुरुष ऐसे गाँव जहाँ जलका अभाव हो, कुआँ बनवाता है, वह उसके जलकी जितनी बूँदें हों उतने वर्षतक स्वर्गमें निवास करता है। दस कुओंके समान एक बावली, दस बावलियोंके समान एक सरोवर, दस सरोवरोंके समान एक कन्या और दस कन्याओंके समान एक वृक्ष लगानेका फल होता है। यह शुभ मर्यादा नियत हैं। यह लोकको उन्नतिके पथपर ले जानेवाली है।’ माता पार्वती देवीके यों कहनेपर बृहस्पति आदि ब्राह्मण उन्हें प्रणाम करके अपने-अपने निवासस्थानको चले गये। उनके जानेके पश्चात् भगवान् शंकर पार्वतीके साथ अपने भवनमें गये। उस भवनमें चित्तको प्रसन्न करनेवाले ऊँचे-ऊँचे चौबारे, अटारियाँ और गोपुर बने थे वेदियोंपर मालाएँ शोभा पा रही थीं। सब ओर सोना जड़ा था। महलमें पुष्प बिखेरे हुए थे, जिनकी सुगन्धसे उन्मत्त होकर भ्रमरगण गुंजार कर रहे थे। उस भवनमें भगवान् श्रीशंकरको पार्वतीजी के साथ निवास करते एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये। तब देवताओंने उतावले होकर अग्निदेवको श्रीशंकरजीकी चेष्टा जाननेके लिये भेजा अग्निने तोतेका रूप धारण करके, जिससे पक्षी आते-जाते थे, उसी छिद्रके द्वारा शंकरजीके महलमें प्रवेश किया और उन्हें गिरिजाके साथ एक शय्यापर सोते देखा। तत्पश्चात् देवी पार्वती शय्यासे उठकर कौतूहलवश एक सरोवरके तटपर गयीं, जो सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित था। वहाँ जाकर उन्होंने जलविहार किया। तदनन्तर वे सखियोंके साथ सरोवरके किनारे बैठीं और उसके निर्मल पंकजसे सुशोभित स्वादिष्ट जलको पीनेकी इच्छा करने लगीं। इतनेमें ही उन्हें सूर्यके समान तेजस्विनी छः कृतिकाएँ दिखायी दीं। वे कमलके पत्तेमें उस सरोवरका जल लेकर जब अपने घरको जाने लगीं, तब पार्वती देवीने कहा – ‘देवियो! कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको मैं भी देखना चाहती हूँ।’ ये बोलीं- ‘सुमुखि । हम तुम्हें इसी शर्तपर जल दे सकती हैं कि तुम्हारे प्रिय गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हो, वह हमारा भी पुत्र माना जाय एवं हममें भी मातृभाव रखनेवाला तथा हमारा रक्षक हो। वह पुत्र तीनों लोकोंमें विख्यात होगा।’ उनकी बात सुनकर गिरिजाने कहा- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ यह उत्तर पाकर कृतिकाओंको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने कमल-पत्रमें स्थित जलमेंसे थोड़ा पार्वतीजीको भी दे दिया। उनके साथ पार्वतीने भी क्रमशः उस जलका पान किया।
जल पीनेके बाद तुरंत ही रोग-शोकका नाश करनेवाला एक सुन्दर और अद्भुत बालक भगवती पार्वतीकी दाहिनी कोख फाड़कर निकल आया। उसका शरीर सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाश-पुंजसे व्याप्त था। उसने अपने हाथमें तीक्ष्ण शक्ति, शूल और अंकुश धारण कर रखे थे। वह अग्निके समान तेजस्वी और सुवर्णके समान गोरे रंगका बालक कुत्सित दैत्योंको मारनेके लिये प्रकट हुआ था; इसलिये उसका नाम ‘कुमार’ हुआ। वह कृत्तिकाके दिये हुए जलसे शाखाओंसहित प्रकट हुआ था। वे कल्याणमयी शाखाएँ छहाँ मुखोंके रूपमें विस्तृत थीं; इन्हीं सब कारणोंसे वह तीनों लोकोंमें विशाख, षण्मुख, स्कन्द षडानन और कार्तिकेय आदि नामोंसे विख्यात हुआ। ब्रह्मा, श्रीविष्णु, इन्द्र और सूर्य आदि समस्त देवताओंने चन्दन, माला, सुन्दर धूप, खिलौने, छत्र, चंवर, भूषण और अंगराग आदिके द्वारा कुमार षडाननको सावधानी के साथ विधिपूर्वक सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया। भगवान् श्रीविष्णुने सब तरहके आयुध प्रदान किये। धनाध्यक्ष कुबेरने दस लाख यक्षोंकी सेना दी। अग्निने तेज और वायुने वाहन अर्पित किये। इस प्रकार देवताओंने प्रसन्न चित्तसे सूर्यके समान तेजस्वी स्कन्दको अनन्त पदार्थदिये । तत्पश्चात् वे सब पृथ्वीपर घुटने टेककर बैठ गये और स्तोत्र पढ़कर वरदायक देवता पहाननकी स्तुति करने लगे। स्तुति पूर्ण होनेके पश्चात् कुमारने कहा-‘देवताओ! आपलोग शान्त होकर बताइये, मैं आपकी कौन-सी इच्छा पूरी करूँ? यदि आपके मनमें चिरकालसे कोई असाध्य कार्य करनेकी भी इच्छा हो तो कहिये।’
देवता बोले- कुमार! तारक नामसे प्रसिद्ध एक दैत्योंका राजा है, जो सम्पूर्ण देवकुलका अन्त कर रहा है। वह बलवान्, अजेय, तीखे स्वभाववाला, दुराचारी और अत्यन्त क्रोधी है। सबका नाश करनेवाला और दुर्दमनीय है। अतः आप उस दैत्यका वध कीजिये। यही एक कार्य शेष रह गया है, जो हमलोगोंको बहुत ही भयभीत कर रहा है।
देवताओंके यों कहनेपर कुमारने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और जगत्के लिये कण्टकरूप तारकासुरका वध करनेके लिये वे देवताओंके पीछे पीछे चले। उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। तदनन्तर कुमारका आश्रय मिल जानेके कारण इन्द्रने दानवराज तारकके पास अपना दूत भेजा।
वहाँ जाकर दूतने उस भयानक आकृतिवाले दैत्यसे निर्भयतापूर्वक कहा- ‘तारकासुर! देवराज इन्द्रने तुम्हें यह कहलाया है कि देवता तुमसे युद्ध करने आ रहे हैं, तुम अपनी शक्तिभर प्राण बचानेकी चेष्टा करो।’ यों कहकर जब दूत चला गया, तब दानवने सोचा, हो न हो, इन्द्रको कोई आश्रय अवश्य मिल गया है, अन्यथा वे ऐसी बात नहीं कह सकते थे। इन्द्र मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं। वह सोचने लगा, ‘ऐसा कौन अपूर्व योद्धा होगा, जिसे मैंने अबतक परास्त नहीं किया है।’ तारकासुर इसी चिन्तामें व्याकुल हो रहा था, इतनेमें ही उसे सिद्ध वन्दियोंके द्वारा गाया जाता हुआ किसीका यशोगान सुनायी पड़ा, जो हृदयको दुःखद प्रतीत होता था, जिसके अक्षर कड़वे जान पड़ते थे। बन्दीगण कह रहे थे महासेन! आपकी जय हो आपके मस्तककी चंचल शिखाएँ बड़ी सुन्दर दिखायी देती हैं विग्रहको कान्ति नूतन एवं निर्मल कमलदलके समान मनोरम जान पड़ती है। आप दैत्यवंशके लिये दुःसह दावानलके समान हैं। प्रभो! विशाख! आपकी जय हो। तीनों लोकोंके शोकको शमन करनेवाले सात दिनकी अवस्थाक बालक! आपकी जय हो। सम्पूर्ण विश्वकी रक्षाका भार वहन करनेवाले दैत्यविनाशक स्कन्द! आपकी जय हो।
देववन्दियद्वारा उच्चारित यह विजयघोष सुनकर तारकासुरको ब्रह्माजीके वचनका स्मरण हो आया। बालकके हाथसे वध होनेकी बात याद करके वह दैत्य शोकाकुल हृदयसे अपने महलके बाहर निकला। उस समय बहुत से वीर उसके पीछे पीछे चल रहे थे। कालनेमि आदि दैत्य भी थर्रा उठे। उनका हृदय भयभीत हो गया। वे अपनी-अपनी सेनामें खड़े होकर व्यग्रता के कारण चकित हो रहे थे तारकासुरने कुमारको सामने देखकर कहा – ‘बालक! तू क्यों युद्ध करना चाहता है? जा, गेंद लेकर खेल। तेरे ऊपर जो यह महान् बुद्धकी विभीषिका लादी गयी है, यह तेरे साथ बड़ा अन्याय किया गया है। तू अभी निरा बच्चा है इसीलिये तेरी बुद्धि इतनी अल्प समझ रखनेवाली है।’
कुमार बोले- तारक सुनो, यहाँ शास्त्रार्थ नहीं करना है। भयंकर संग्राममें शस्त्रोंके द्वारा ही अर्थकी सिद्धि होती है । तुम मुझे शिशु समझकर मेरी अवहेलना न करो। साँपका नन्हा सा बच्चा भी मौतका कष्ट देनेवाला होता है। बाल-सूर्यकी ओर देखना भी कठिन होता है। इसी प्रकार मैं बालक होनेपर भी दुर्जव हूँ-मुझे परास्त करना कठिन है। दैत्य क्या थोड़े अक्षरोंवाले मन्त्रमें अद्भुत शक्ति नहीं देखी जाती ?
कुमारकी यह बात समाप्त होते ही दैत्यने उनके ऊपर मुद्गरका प्रहार किया। परन्तु उन्होंने अमोघ तेजवाले चक्रके द्वारा उस भयंकर अस्त्रको नष्ट कर दिया। तब दैत्यराजने लोहेका भिन्दिपाल चलाया, किन्तु कार्तिकेयने उसको अपने हाथसे पकड़ लिया। इसकेबाद उन्होंने भी दैत्यको लक्ष्य करके भयानक आवाज करनेवाली गदा चलायी; उसकी चोट खाकर वह पर्वताकार दैत्य तिलमिला उठा। अब उसे विश्वास हो । गया कि यह बालक दुःसह एवं दुर्जय वीर है। उसने बुद्धिसे सोचा, अब निःसन्देह मेरा काल आ पहुँचा है। उसे कम्पित होते देख कालनेमि आदि सभी दैत्यपति संग्राममें कठोरता धारण करनेवाले कुमारको मारने लगे। परन्तु महातेजस्वी कार्तिकेयको उनके प्रहार और विभीषिकाएँ छू भी नहीं सकीं। उन्होंने दानव सेनाको अस्त्र-शस्त्रोंसे विदीर्ण करना आरम्भ किया। उनके अस्त्रोंका कोई निवारण नहीं हो पाता था। उनकी मार खाकर कालनेमि आदि देवशत्रु युद्धसे विमुख होकर भाग चले।
इस प्रकार जब दैत्यगण आहत होकर चारों ओर भाग गये और किन्नरगण विजय गीत गाने लगे. उस समय अपना उपहास जानकर तारकासुर क्रोधसे अचेत-सा हो गया। उसने तपाये हुए सोनेकी कान्तिसे सुशोभित गदा लेकर कुमारपर प्रहार किया और विचित्र बाणोंसे मारकर उनके वाहन मयूरको युद्धसे भगा दिया। अपने वाहनको रक्त बहाते हुए भागते देख कार्तिकेयने सुवर्णभूषित निर्मल शक्ति हाथमें ली और दानवराज तारकसे कहा- ‘खोटी बुद्धिवाले दैत्य । खड़ा रह, खड़ा रह; जीते-जी इस संसारको भर आँख देख ले। अब मैं अपनी शक्तिके द्वारा तेरे प्राण ले रहा हूँ, तू अपने कुकर्मोंको याद कर।’ यों कहकर कुमारने दैत्यके ऊपर शक्तिका प्रहार किया। कुमारकी भुजासे छूटी हुई वह शक्ति केयूरकी खनखनाहटके साथ चली और दैत्यकी छातीमें, जो वज्र तथा गिरिराजके समान कठोर थी, जा लगी। उसने तारकासुरके हृदयको चीर डाला और वह दैत्य निष्प्राण होकर प्रलयकालीन पर्वतके समान धरतीपर गिर पड़ा। दानवोंके धुरन्धर वीर दैत्यराज तारकके मारे जानेपर सबका दुःख दूर हो गया। देवतालोग कार्तिकेयजीकी स्तुति करते हुए क्रीडामें मग्न हो गये, उनके मुखपर मुसकान छा गयी। वे अपनी मानसिक चिन्ताका परित्याग करके हर्षपूर्वक अपने-अपने लोकमें गये। सबने कार्तिकेयजीको वरदान दिये।
देवता बोले- जो परम बुद्धिमान् मनुष्य कार्तिकेयजीसे सम्बन्ध रखनेवाली इस कथाको पढ़ेगा, सुनेगा अथवा सुनायेगा, वह यशस्वी होगा। उसकी आयु बढ़ेगी; वह सौभाग्यशाली, श्रीसम्पन्न, कान्तिमान्, सुन्दर, समस्त प्राणियोंसे निर्भय तथा सब दुःखोंसे मुक्त होगा।
अध्याय-35 उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
भीष्णजीने पूछा- विप्रवर। मनुष्यको भी देवत्व, सुख, राज्य, धन, यश, विजय, भोग, आरोग्य, आयु, विद्या, लक्ष्मी, पुत्र, बन्धुवर्ग एवं सब प्रकारके मंगलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? यह बतानेकी कृपा कीजिये।
पुलस्त्यजीने कहा- राजन्। इस पृथ्वीपर ब्राह्मण सदा ही विद्या आदि गुणोंसे युक्त और श्रीसम्पन्न होता है तीनों लोकों और प्रत्येक युगमें ब्राह्मण देवता नित्य पवित्र माने गये हैं। ब्राह्मण देवताओंका भी देवता है । संसारमें उसके समान दूसरा कोई नहीं है। वह साक्षात् धर्मकी मूर्ति है और इस पृथ्वीपर सबको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। ब्राह्मण सब लोगोंका गुरु, पूज्य और तीर्थस्वरूप मनुष्य है। ब्रह्माजीने उसे सब देवताओंका आश्रय बनाया है। पूर्वकालमें नारदजीने इसी विषयको ब्रह्माजीसे इस प्रकार पूछा था-‘ब्रह्मन् किसकी पूजा करनेपर भगवान् लक्ष्मीपति प्रसन्न होते हैं?’
ब्रह्माजी बोले- जिसपर ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, उसपर भगवान् श्रीविष्णु भी प्रसन्न हो जाते हैं। अतः ब्राह्मणकी सेवा करनेवाला मनुष्य परब्रह्म परमात्माको प्राप्त होता है। ब्राह्मणके शरीरमें सदा ही श्रीविष्णुका निवास है जो दान, मान और सेवा आदिके द्वारा प्रतिदिन ब्राह्मणोंकी पूजा करता है, उसके द्वारा मानो शास्त्रीय विधिके अनुसार उत्तम दक्षिणासे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान हो जाता है। जिसके घरपर आया हुआ विद्वान् ब्राह्मण निराश नहीं लौटता, उसके सम्पूर्ण पापका नाश हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गको प्राप्त होता है। पवित्र देश-कालमें सुपात्र ब्राह्मणको जो धन दान किया जाता है, उसे अक्षय जानना चाहिये; वह जन्म-जन्मान्तरों में भी फल देता रहता है। ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाला मनुष्य कभी दरिद्र, दुःखी और रोगी नहींहोगा जिस घर आँगन ब्राह्मणोंकी चरणधूलिप पवित्र एवं शुद्ध होते रहते हैं, वे पुण्यक्षेत्रके समान हैं। उन्हें यज्ञ कर्मके लिये श्रेष्ठ माना गया है। भीष्म पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे पहले ब्राह्मणका प्रादुर्भाव हुआ; फिर उसी मुखसे जगत्की सृष्टि और पालनके हेतुभूत वेद प्रकट हुए। अत: विधाताने समस्त लोकोंकी पूजा ग्रहण करनेके लिये और समस्त यज्ञोंकि अनुष्ठान के लिये ब्राह्मणके ही मुखमें वेदोंको समर्पित किया। पितृयज्ञ, विवाह, अग्निहोत्र, शान्तिकर्म तथा सब प्रकारके मांगलिक कार्योंमें ब्राह्मण सदा उत्तम माने गये हैं। ब्राह्मणके ही मुखसे देवता हव्यका और पितर कव्यका उपभोग करते हैं। ब्राह्मणके बिना दान, होम और बलि – सब निष्फल होते हैं। जहाँ ब्राह्मणको भोजन नहीं दिया जाता, वहाँ असुर, प्रेत, दैत्य और राक्षस भोजन करते हैं। अतः दान- होम आदिमें ब्राह्मणको बुलाकर उन्हींसे सब कर्म कराना चाहिये। उत्तम देश-कालमें और उत्तम पात्रको दिया हुआ दान लाखगुना अधिक फलदायक होता है। ब्राह्मणको देखकर श्रद्धापूर्वक उसको प्रणाम करना चाहिये। उसके आशीर्वादसे मनुष्यकी आयु बढ़ती है, वह चिरजीवी होता है। ब्राह्मणको देखकर उसे प्रणाम न करनेसे, ब्राह्मणके साथ द्वेष रखनेसे तथा उसके प्रति अश्रद्धा करनेसे मनुष्योंकी आयु क्षीण होती है, उनके धन-ऐश्वर्यका नाश होता है तथा परलोकमें उनकी दुर्गति होती है। ब्राह्मणका पूजन करनेसे आयु, यश, विद्या और धनकी वृद्धि होती है तथा मनुष्य श्रेष्ठ दशाको प्राप्त होता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जिन घरोंमें ब्राह्मणके चरणोदकसे कीच नहीं होती, जहाँ वेद और शास्त्रोंकी ध्वनि नहीं सुनायी देती, जो यह, तर्पण और ब्राह्मणोंके आशीर्वादसे वंचित रहते हैं. वे श्मशानके समान हैं।
नारदजीने पूछा- पिताजी! कौन ब्राह्मण अत्यन्त पूजनीय है? ब्राह्मण और गुरुके लक्षणका यथावत् वर्णन कीजिये।
ब्रह्माजीने कहा- वत्स! श्रोत्रिय और सदाचारी ब्राह्मणकी नित्य पूजा करनी चाहिये। जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला और पापोंस मुक्त है, वह मनुष्य तीर्थस्वरूप है। उत्तम श्रोत्रियकुलमें उत्पन्न होकर भी जो वैदिक कर्मका अनुष्ठान नहीं करता, वह पूजित नहीं होता तथा असत् क्षेत्रमें जन्म लेकर भी जो वेदानुकूल कर्म करता है, वह पूजाके योग्य है-जैसे महर्षि वेदव्यास और ऋष्यश्रृंग । विश्वामित्र यद्यपि क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हैं, तथापि अपने सत्कर्मोके कारण वे मेरे समान हैं; इसलिये बेटा! तुम पृथ्वीके तीर्थस्वरूप श्रोत्रिय आदि ब्राह्मणोंके लक्षण सुनो, इनके सुननेसे सब पापों का नाश होता है।
ब्राह्मणके बालकको जन्मसे ब्राह्मण समझना चाहिये। संस्कारोंसे उसकी ‘द्विज’ संज्ञा होती है तथा विद्या पढ़नेसे वह ‘विप्र’ नाम धारण करता है। इस प्रकार जन्म संस्कार और विद्या – इन तीनोंसे युक्त होना श्रोत्रियका लक्षण है। जो विद्या, मन्त्र तथा वेदोंसे शुद्ध होकर तीर्थस्नानादिके कारण और भी पवित्र हो गया है, वह ब्राह्मण परम पूजनीय माना गया है। जो सदा भगवान् श्रीनारायणमें भक्ति रखता है, जिसका अन्तःकरण शुद्ध है, जिसने अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीत लिया है, जो सब लोगोंके प्रति समान भाव रखता है, जिसके हृदयमें गुरु, देवता और अतिथिके प्रति भक्ति है, जो पिता-माताकी सेवामें लगा रहता है, जिसका मन परायी स्त्रीमें कभी सुखका अनुभव नहीं करता, जो सदा पुराणोंकी कथा कहता और धार्मिक उपाख्यानोंका प्रसार करता है, उस ब्राह्मणके दर्शनसे प्रतिदिन अश्वमेध आदि यज्ञका फल प्राप्त होता है। जो प्रतिदिन स्नान, ब्राह्मणोंका पूजन तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करनेसे पवित्र हो गया है तथा जो गंगाजीके जलका सेवन करता है, उसके साथ वार्तालाप करनेसे ही उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। जो शत्रु और मित्र दोनोंके प्रति दयाभाव रखता है, सब लोगोंके साथ समताका बर्ताव करता है, दूसरेका धन-जंगलमें पड़ा हुआ तिनका भी नहीं चुराता, काम और क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त है, जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं होता, यजुर्वेद में वर्णित चतुर्वेदमयी शुद्ध तथा चौबीस अक्षरोंसे युक्त त्रिपदा गायत्रीका प्रतिदिन जप करता है तथा उसके भेदोंको जानता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।
नारदजीने पूछा- पिताजी! गायत्रीका क्या लक्षण है, उसके प्रत्येक अक्षरमें कौन-सा गुण है तथा उसकी कुक्षि, चरण और गोत्रका क्या निर्णय है-इस बातको स्पष्टरूपसे बताइये।
ब्रह्माजी बोले- वत्स ! गायत्री मन्त्रका छन्द गायत्री और देवता सविता निश्चित किये गये हैं। गायत्री देवीका वर्ण शुक्ल, मुख अग्नि और ऋषि विश्वामित्र हैं। ब्रह्माजी उनके मस्तकस्थानीय हैं। उनकी शिखा रुद्र और हृदय श्रीविष्णु हैं। उनका उपनयन-कर्ममें विनियोग होताहै। गायत्री देवी सांख्यायन गोत्रमें उत्पन्न हुई हैं। तीनों लोक उनके तीन चरण हैं। पृथ्वी उनके उदरमें स्थित है। पैरसे लेकर मस्तकतक शरीरके चौबीस स्थानों में गायत्रीके चौबीस अक्षरोंका न्यास करके द्विज ब्रह्म लोकको प्राप्त होता है तथा प्रत्येक अक्षरके देवताका ज्ञान प्राप्त करनेसे विष्णुका सायुज्य मिलता है। अब मैं गायत्रीका दूसरा निश्चित लक्षण बतलाता हूँ। वह अठारह अक्षरोंका यजुमन्त्र है। ‘अग्नि’ शब्दसे उसका आरम्भ होता है और ‘स्वाहा’ के हकारपर उसकी समाप्ति। जलमें खड़ा होकर इस मन्त्रका सौ बार जप करना चाहिये। इससे करोड़ों पातक और उपपातक नष्ट हो जाते हैं तथा जप करनेवाले पुरुष ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकको प्राप्त होते हैं। यह मन्त्र इस प्रकार है –
ॐ अग्नेर्वाक्पुंसि यजुर्वेदेन जुष्टा सोमं पिब स्वाहा’।
इसी प्रकार विष्णु- मन्त्र, माहेश्वर महामन्त्र, देवीमन्त्र, सूर्यमन्त्र, गणेश-मन्त्र तथा अन्यान्य देवताओंके मन्त्रोंका जप करनेसे भी मनुष्य पापरहित होकर उत्तम गति पाता है। जिस किसी कुलमें उत्पन्न हुआ ब्राह्मण भी यदि जप-परायण हो तो वह साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है; उसका यत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये। ऐसे ब्राह्मणको प्रत्येक पर्वपर विधिपूर्वक दान देना चाहिये। इससे दाताको करोड़ों जन्मोंतक अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जो ब्राह्मण स्वाध्यायपरायण होकर स्वयं पढ़ता, दूसरोंको पढ़ाता और संसारमें द्विजातियों यहाँ धर्म, सदाचार, श्रुति, स्मृति, पुराणसंहिता तथा धर्मसंहिताका श्रवण कराता है, वह इस पृथ्वीपर भगवान् श्रीविष्णुके समान है। मनुष्यों और देवताओंका भी पूज्य है उस तीर्थस्वरूप और निष्पाप ब्राह्मणका बल अक्षय होता है। उसका आदरपूर्वक पूजन करके मनुष्य श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। जो द्विज गायत्रीके प्रत्येक अक्षरका उसके देवतासहित अपने शरीरमें न्यास करके प्रतिदिन प्राणायामपूर्वक उसका जप करता है, वह करोड़ों जन्मोंके किये हुए सम्पूर्ण पापोंसे छुटकारा पाजाता है। इतना ही नहीं, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होकर प्रकृति से परे हो जाता है इसलिये नारद तुम प्राणायामसहित गायत्रीका जप किया करो।
नारदजीने पूछा- ब्रह्मन् ! प्राणायामका क्या स्वरूप है, गायत्रीके प्रत्येक अक्षरके देवता कौन-कौन हैं तथा शरीरके किन-किन अवयवों में उनका न्यास किया जाता है? तात! इन सभी बातोंका क्रमशः वर्णन कीजिये।
ब्रह्माजी बोले- प्रत्येक देहधारीके गुदादेशमें अपान और हृदयमें प्राण रहता है; इसलिये गुदाको संकुचित करके पूरक क्रियाके द्वारा अपान वायुको के साथ संयुक्त करे। तत्पश्चात् वायुको रोका कुम्भक करे। द्विजको तीन प्राणायाम करके गायत्रीका जप करना उचित है। इस प्रकार जो जप करता है, उसके महापातकोंकी राशि भस्म हो जाती है। तथा दूसरे दूसरे पातक भी एक ही बारके मन्त्रोच्चारणसे नष्ट हो जाते हैं। जो प्रत्येक वर्णके देवताका ज्ञान प्राप्त करके अपने शरीरमें उसका न्यास करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है; उसे मिलनेवाले फलका वर्णन नहीं किया जा सकता। बेटा! प्रत्येक अक्षरके जो-जो देवता हैं, उनका वर्णन करता हूँ, सुनो – प्रथम अक्षरके देवता अग्नि, दूसरेके वायु, तीसरेके सूर्य, चौथेके वियत् (आकाश), पाँचवेंके यमराज, छठेके वरुण, सातवेंके बृहस्पति, आठवेंके पर्जन्य, नवेंके इन्द्र, दसवेंके गन्धर्व, ग्यारहवेंके पुषा बारहवेंके मित्र. तेरहवेंके त्वष्टा, चौदहवेंके वसु, पंद्रहवेंके मरुद्गण, सोलहवेंके सोम, सत्रहवेंके अंगिरा, अठारहवेंके विश्वेदेव, उन्नीसवें अश्विनीकुमार, बीसवेंके प्रजापति इक्कीसवेंके सम्पूर्ण देवता, बाईसवें रुद्र, तेईसवें ब्रह्मा और चौबीसवेंके श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार चौबीसअक्षरोंके ये चौबीस देवता माने गये हैं। गायत्री मन्त्रके इन देवताओंका ज्ञान प्राप्त कर लेनेपर सम्पूर्ण वाङ्मय का बोध हो जाता है। जो इन्हें जानता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।
विज्ञ पुरुषको चाहिये कि अपने शरीरके पैरसे लेकर सिरतक चौबीस स्थानोंमें पहले गायत्रीके अक्षरोंका ‘न्यास करे। ‘तत्’ का पैरके अँगूठेमें, ‘स’ का गुल्फ (घुट्ठी)-में, ‘वि’ का दोनों पिंडलियोंमें, ‘तु’ का घुटनोंमें, ‘र्व’ का जाँघोंमें, ‘रे’ का गुदामें, ‘ण्य’ का अण्डकोषमें, ‘म्’ का कटिभागमें, ‘भ’ का नाभिमण्डलमें, ‘र्गो’ का उदरमें, ‘दे’ का दोनों स्तनोंमें, ‘व’ का हृदयमें, ‘स्य’ का दोनों हाथोंमें, ‘धी’ का मुँहमें, ‘म’ का तालुमें, ‘हि’ का नासिकाके अग्रभागमें, ‘धि’ का दोनों नेत्रोंमें, ‘यो’ का दोनों भौंहोंमें, ‘यो’ का ललाटमें ‘नः’ का मुखके पूर्वभागमें, ‘प्र’ का दक्षिण भागमें, ‘चो’ का पश्चिम भागमें और ‘द’ का मुखके उत्तर भागमें न्यास करे। फिर ‘यात्’ का मस्तक में न्यास करके सर्वव्यापी स्वरूपसे स्थित हो जाय। धर्मात्मा पुरुष इन अक्षरोंका न्यास करके ब्रह्मा, विष्णु और शिवका स्वरूप हो जाता है। वह महायोगी और महाज्ञानी होकर परम शान्तिको प्राप्त होता है।
नारद! अब सन्ध्या-कालके लिये एक और न्यास बतलाता हूँ, उसका भी यथार्थ वर्णन सुनो। ‘ॐ भूः ‘ इसका हृदयमें? न्यास करके, ‘ॐ भुवः’ का सिरमें रेन्यास करे। फिर ‘ॐ स्वः’ का शिखामे ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्’ का समस्त शरीरमें ‘ॐ भर्गो देवस्य धीमहि’ इसका नेत्रोंमें तथा ‘ॐ धियो यो नः प्रचोदयात् ‘का ‘दोनों हाथोंमें न्यास करे। तत्पश्चात् ‘ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ‘ का उच्चारण करके जल-स्पर्श मात्र करनेसे द्विज पापसे शुद्ध होकर श्रीहरिको प्राप्त होता है।
इस प्रकार व्याहृति और बारह ॐ कारोंसे युक्त गायत्रीका सन्ध्याके समय कुम्भक क्रियाके साथ तीन बार जप करके सूर्योपस्थानकालमें जो चौबीस अक्षरोंकी गायत्रीका जप करता है, वह महाविद्याका अधीश्वर होता है और ब्रह्मपदको प्राप्त करता है।
व्याहृतियाँसहित इस गायत्रीका पुनः न्यास करना चाहिये। ऐसा करनेसे द्विज सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। न्यास- विधि यह है-‘ॐ भूः पादाभ्याम्’ का उच्चारण करके दोनों चरणोंका स्पर्श करे। इसी प्रकार ‘ॐ भुवः जानुभ्याम्’ कहकर दोनों घुटनोंका, ॐ स्वः कट्याम्’ बोलकर कटिभागका, ॐ महः नाभी’ का उच्चारण करके नाभिस्थानका, ॐ जनः हृदये कहकर हृदयका, ॐ तपः करयोः’ बोलकर दोनों हाथोंका, ॐ सत्य ललाटे’ का उच्चारण करके ललाटका तथा गायत्री मन्त्रका पाठ करके शिखाका स्पर्श करना चाहिये। सब बीजोंसे युक्त इस गायत्रीको जो जानता है, वह मानो चारों वेदोंका, योगका तथा तीनों प्रकारके जपका ज्ञान रखता है जो इस गायत्रीको नहीं जानता, वह शुद्रसे भी अधम माना गया है। उस अपवित्र ब्राह्मणको पितरोंके निमित्त किये हुए पार्वण श्राद्धका दान नहीं देना चाहिये। उसे कोई भी तीर्थ स्नानका फल नहीं देता। उसका किया हुआ समस्त शुभ कर्म निष्फल हो जाता है। उसकी विद्या, धन-सम्पत्ति, उत्तम जन्म, द्विजत्व तथा जिस पुण्यके कारण उसे यह सब कुछ मिला है, वह भी व्यर्थ होता है। ठीक उसी तरह, जैसे कोई पवित्र पुष्प किसी गंदे स्थानमें पड़ जानेपर काममें लेनेयोग्य नहीं रह जाता। मैंने पूर्वकालमें चारों वेद और गायत्रीकी तुलना की थी, उस समय चारों वेदोंकी अपेक्षा गायत्री ही गुरुतर सिद्ध हुई क्योंकि गायत्री मोक्ष देनेवाली मानी गयी है। गायत्री दस बार जपनेसे वर्तमान जन्मके, सौ बार जपनेसे पिछले जन्मके तथा एक हजार बार जपनेसे तीन युगों के पाप नष्ट कर देती हैं जो सवेरे और शामको रुद्राक्षकी मालापर गायत्रीका जप करता है, वह निःसन्देह चारों वेदोंका फल प्राप्त करता है। जो द्विज एक वर्षतक तीनों समय गायत्रीका जप करता है, उसके करोड़ों जन्मोंके उपार्जित पाप नष्ट हो जाते हैं। गायत्रीके उच्चारणमात्रसे पापराशिसे छुटकारा मिल जाता है-मनुष्य शुद्ध हो जाता है। तथा जो द्विजश्रेष्ठ प्रतिदिन गायत्रीका जप करता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। जो नित्यप्रति वासुदेवमन्त्रका जप और भगवान्श्रीविष्णु के चरणोंमें प्रणाम करता है, वह मोक्षका अधिकारी हो जाता है। जिसके मुखमें भगवान् वासुदेवके स्तोत्र और उनकी उत्तम कथा रहती है, उसके शरीर में पापका लेशमात्र भी नहीं रहता। वेदशास्त्रोंका अवगाहन करने— उनके विचारमें संलग्न रहनेसे गंगा स्नानके समान फल होता है। लोकमें धार्मिक ग्रन्थोंका पाठ करनेवाले मनुष्योंको करोड़ों यज्ञोंका फल मिलता है। नारद मुझमें ब्राह्मणोंके गुणोंका पूरा-पूरा वर्णन करनेकी शक्ति नहीं है। ब्राह्मणके सिवा, दूसरा कौन देहधारी है, जो विश्वस्वरूप हो। ब्राह्मण श्रीहरिका मूर्तिमान् विग्रह है। उसके शापसे विनाश होता है और वरदानसे आयु, विद्या, यश, धन तथा सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। ब्राह्मणोंके ही प्रसादसे भगवान् श्रीविष्णु सदा ब्रह्मण्य कहलाते हैं जो ब्रह्मण्य (ब्राह्मणौके प्रति अनुराग रखनेवाले) देव हैं, गौ और ब्राह्मणोंके हितकारी हैं तथा संसारकी भलाई करनेवाले हैं, उन गोविन्द श्रीकृष्णको बारम्बार नमस्कार है । जो सदा इस मन्त्रसे श्रीहरिका पूजन करता है, उसके ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं तथा वह श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है। जो इस धर्मस्वरूप पवित्र आख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मान्तरोंके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। जो इसे पढ़ता, पढ़ाता तथा दूसरे लोगोंको उपदेश करता है, उसे पुन: इस संसारमें नहीं आना पड़ता। वह इस लोकमें धन, धान्य, राजोचित भोग, आरोग्य, उत्तम पुत्र तथा शुभ-कीर्ति प्राप्त करता है।
अध्याय-36 अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
नारदजीने कहा- देवेश्वर! आपकी कृपासे मुझे परम पवित्र उत्तम ब्राह्मणका परिचय तो मिल गया: अब जिस प्रकार मैं कर्मसे अधम ब्राह्मणको भी पहचान सकूँ, वह बात बताइये।
ब्रह्माजी बोले- बेटा! जो दस प्रकारके स्नान, सन्ध्योपासन और तर्पण आदि नहीं करता, जिसमें इन्द्रियसंयमका अभाव है, वहीं अधम ब्राह्मण है। जो देवताओंकी पूजा, व्रत, वेद-विद्या, सत्य, शौच, योग, ज्ञान तथा अग्निहोत्रका त्यागी है, वह भी ब्राह्मणों में अधम हो है। महर्षियोंने ब्राह्मणोंके लिये पाँच स्नान बताये हैं-आग्नेय, वारुण, ब्राह्म, वायव्य और दिव्य । सम्पूर्ण शरीरमें भस्म लगाना आग्नेय-स्नान है; जलसे जो स्नान किया जाता है, उसे वारुण-स्नान कहते हैं; ‘आपो हि ष्ठा0’ इत्यादि ऋचाओंसे जो अपने ऊपर अभिषेक किया जाता है, वह ब्राह्म स्नान है। शरीरपर हवासे उड़कर जो गौके चरणोंकी धूलि पड़ती है, उसे वायव्य स्नान माना गया है तथा धूप रहते हुए जो आकाशसे जलकी वर्षा होती है, उससे नहानेको दिव्य स्नान कहते हैं। उपर्युक्त वस्तुओंके द्वारा मन्त्रपाठपूर्वक स्नान करनेसे तीर्थ स्नानका फल प्राप्त होता है। तुलसीके पत्तेसे लगा हुआ जल, शालग्राम शिलाको नहलाया हुआ जल, गौओंके सींगसे स्पर्श कराया हुआ जल, ब्राह्मणका चरणोदक तथा मुख्य-मुख्य गुरुजनोंका चरणोदक- ये पवित्रसे भी पवित्र माने गये हैं। ऐसा स्मृतियोंका कथन है। [इन पाँच तरहके जलसे मस्तकपर अभिषेक करना पुनः पाँच प्रकारका स्नान है-इस तरह पहले के पाँच स्नानोंके साथ मिलकर यह दस प्रकारका स्नान माना गया है।] त्याग, तीर्थ-स्नान, यज्ञ, व्रत और होम आदिके द्वारा जो फल मिलता है, वही फल धीर पुरुष उपर्युक्त स्नानोंसे प्राप्त कर लेता है।
जो प्रतिदिन पितरोंका तर्पण नहीं करता, वह पितृघातक है, उसे नरकमें जाना पड़ता है। सन्ध्या नहीं करनेवाला द्विज ब्रह्महत्यारा है जो ब्राह्मण, मन्त्र, व्रत,वेद, विद्या, उत्तम गुण, यज्ञ और दान आदिका त्याग कर देता है, वह अधमसे भी अधम है। मन्त्र और संस्कारसे हीन, शौच और संयमसे रहित, बलिवैश्व किये बिना ही अन्न भोजन करनेवाले, दुरात्मा, चोर, मूर्ख, सब प्रकारके धर्मोसे शून्य, कुमार्गगामी, श्राद्ध आदि कर्म न करनेवाले, गुरु सेवासे दूर रहनेवाले, मन्त्रज्ञानसे वंचित तथा धार्मिक मर्यादा भंग करनेवाले ये सभी ब्राह्मण अधमसे भी अधम हैं। उन दुष्टोंसे बात भी नहीं करनी चाहिये। वे सब-के-सब नरकगामी होते हैं। उनका आचरण दूषित होता है; अतएव वे अपवित्र और अपूज्य होते हैं जो द्विज तलवारसे जीविका चलाते, दासवृत्ति स्वीकार करते, बैलोंको सवारीमें जोतते, बढ़ईका काम करके जीवन-निर्वाह करते, ऋण देकर ब्याज लेते, बालिका और वेश्याओंके साथ व्यभिचार करते, चाण्डालोंके आश्रयमें रहते, दूसरोंके उपकारको नहीं मानते और गुरुकी हत्या करते हैं, वे सबसे अधम माने गये हैं। इनके सिवा दूसरे भी जो आचारहीन, पाखण्डी, धर्मकी निन्दा करनेवाले तथा भिन्न-भिन्न देवताओंपर दोषारोपण करनेवाले हैं, वे सभी द्विज ब्रह्मद्रोही हैं। नारद! अधम होनेपर भी ब्राह्मणका कभी वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसको मारनेसे मनुष्यको ब्रह्महत्याका पाप लगता है।
नारदजीने पूछा— सम्पूर्ण लोकोंके पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसे-ऐसे दुष्कर्म करनेके पश्चात् फिर पुण्यका अनुष्ठान करे तो वह किस गतिको प्राप्त होता है?
ब्रह्माजीने कहा- वत्स! जो सारे पाप करनेके पश्चात् भी इन्द्रियोंको वशमें कर लेता है, वह उन पापोंसे छुटकारा पा जाता है तथा पुनः ब्राह्मणत्व प्राप्त करनेके योग्य बन जाता है। इस विषयमें एक प्राचीन कथा सुनो, जो बड़ी सुन्दर और विचित्र है। पूर्वकालमें किसी ब्राह्मणका एक नौजवान पुत्र था। उसने जवानीकी उमंगमें मोहके वशीभूत होकर एक बार चाण्डालीकेसाथ समागम किया। चाण्डालीके गर्भसे उसने अनेकों पुत्र और कन्याएँ उत्पन्न कीं तथा अपना कुटुम्ब छोड़कर वह चिरकालतक उसीके घरमें रहा। किन्तु घृणाके कारण न तो वह दूसरा कोई अभक्ष्य पदार्थ खाता और न कभी शराब ही पीता था। चाण्डाली उससे सदा ही कहा करती थी कि ‘ये सब चीजें खाओ और शराब पियो।’ किन्तु वह उसे यही उत्तर देता- ‘प्रिये ! तुझे ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिये। शराबका तो नाम सुननेमात्रसे मुझे ओकाई आती है। ‘ एक दिनकी बात है-वह थका-माँदा होनेके कारण दिनमें भी घरपर ही सो रहा था। चाण्डालीने शराब उठायी और हँसकर उसके मुँहमें डाल दी। मदिराको बूँद पड़ते ही उस ब्राह्मणके मुँहसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी; उसकी ज्वालाने फैलकर कुटुम्बसहित उस चाण्डालीको जलाकर भस्म कर दिया तथा उसके घरको भी फूँक डाला। उस समय वह ब्राह्मण ‘हाय ! हाय!’ करता हुआ उठा और बिलख-बिलखकर रोने लगा। विलापके बाद उसने पूछना आरम्भ किया – ‘कहाँसे आग प्रकट हुई और कैसे मेरा घर जला ?’ तब आकाशवाणीने उससे कहा- ‘तुम्हारे ब्रह्मतेजने चाण्डालीके घरमें आग लगायी है।’ इसके बाद उसने ब्राह्मणके मुँहमें शराब डालने आदिका ठीक-ठीक वृत्तान्त कह सुनाया। यह सब सुनकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ। उसने इस विषयपर भलीभाँति विचार करके अपने-आपको उपदेश देनेके लिये यह बात कही- ‘विप्र ! तेरा तेज नष्ट हो गया, अब तू पुनः धर्मका आचरण कर।’ तदनन्तर उस ब्राह्मणने बड़े-बड़े मुनियोंके पास जाकर उनसे अपने हितकी बात पूछी। मुनियोंने कहा- ‘तू दान-धर्मका आचरण कर। ब्राह्मण नियम और व्रतोंके द्वारा सब पापोंसे छूट जाते हैं। अतः तू भी अपनी पवित्रताके लिये शास्त्रोक्त नियमोंका आचरण कर चान्द्रायण, कृच्छ्र, तप्तकृच्छ्र, प्राजापत्य तथा दिव्य व्रतोंका बारम्बार अनुष्ठान कर ये व्रत समस्त दोषोंका तत्काल शोषण कर लेते हैं। तू पवित्र तीर्थोंमें जा और वहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना कर। ऐसाकरनेसे तेरे सारे पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायेंगे। पुण्यतीचों और भगवान श्रीगोविन्दके प्रभावसे पापका क्षय होगा और तू ब्रह्मत्वको प्राप्त होगा। तात! इस विषयमें हम तुझे एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं। पूर्वकालमें विनतानन्दन गरुड़ जब अंडा फोड़कर बाहर निकले, तब नवजात शिशुकी अवस्थामें ही उन्हें आहार ग्रहण करने की इच्छा हुई। वे भूखसे व्याकुल होकर मासे बोले-‘माँ! मुझे कुछ खानेको दो।’
पर्वतके समान शरीरवाले महाबली गरुड़को देखकर परम सौभाग्यवती माता विनताके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। वे अपने पुत्रसे बोली-‘बेटा! मुझमें तेरी भूख मिटानेकी शक्ति नहीं है। तेरे पिता धर्मात्मा कश्यप साक्षात् ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हैं। वे सोन नदीके उत्तर तटपर तपस्या करते हैं। वहीं जा और अपने पितासे इच्छानुसार भोजनके विषयमें परामर्श कर।
तात उनके उपदेशसे तेरी भूख शान्त हो जायगी।’ ऋषि कहते हैं-माताकी बात सुनकर मनके समान वेगवाले महाबली गरुड़ एक ही मुहूर्तमें पिताके समीप जा पहुँचे वहाँ प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी अपने पिता मुनिवर कश्यपजीको देखकर उन्हें मस्तक झुका प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ‘प्रभो! मैं आपका पुत्र हूँ और आहारकी इच्छासे आपके पास आया हूँ। भूख बहुत सता रही है, कृपा करके मुझे कुछ भोजन दीजिये।’
कश्यपजीने कहा- वत्स! उधर समुद्रके किनारे विशाल हाथी और कछुआ रहते हैं। वे दोनों बहुत बड़े जीव है। उनमें अपार बल है। वे एक-दूसरेको मारने की घातमें लगे हुए हैं। तू शीघ्र ही उनके पास जा, उनसे तेरी भूख मिट सकती है।
उनकी बात सुनकर महान् वेगशाली और विशाल आकारवाले गरुड़ उड़कर वहाँ गये तथा उन दोनोंको नखोंसे विदीर्ण करके चोंच और पंजोंमें लेकर विद्युत्के समान वेगसे आकाशमें उड़ चले। उस समय मन्दराचल आदि पर्वत उन्हें धारण नहीं कर पाते थे। तब वे वायुवेगसे दो लाख योजन आगे जाकर एक जामुनकेवृक्षको बहुत बड़ी शाखापर बैठे। उनके पंजा रखते ही वह शाखा सहसा टूट पड़ी। उसे गिरते देख महाबली पक्षिराज गरुड़ने गौ और ब्राह्मणोंके वधके भयसे तुरंत पकड़ लिया और फिर बड़े वेगसे आकाशमें उड़ने लगे। उन्हें बहुत देरसे आकाशमें मँडराते देख भगवान् श्रीविष्णु मनुष्यका रूप धारण कर उनके पास जा इस प्रकार बोले-‘पक्षिराज! तुम कौन हो और किसलिये यह विशाल शाखा तथा ये महान् हाथी एवं कछुआ लिये आकाशमें घूम रहे हो ?’ उनके इस प्रकार पूछने पर पक्षिराजने नररूपधारी श्रीनारायणसे कहा ‘महाबाहो ! मैं गरुड़ हूँ। अपने कर्मके अनुसार मुझे पक्षी होना पड़ा है। मैं कश्यप मुनिका पुत्र हूँ और माता विनताके गर्भ से मेरा जन्म हुआ है देखिये इन बड़े बड़े जीवोंको मैंने खानेके लिये पकड़ रखा है। वृक्ष और पर्वत- कोई भी मुझे धारण नहीं कर पाते। अनेकों योजन उड़नेके बाद मैं एक विशाल जामुनका वृक्ष देखकर इन दोनोंको खानेके लिये उसकी शाखापर बैठा था किन्तु मेरे बैठते ही यह भी सहसा टूट गयी, अतः सहस्रों ब्राह्मणों और गौओंके वधके डरसे इसे भी लिये डोलता हूँ अब मेरे मनमें बड़ा विषाद हो रहा है कि क्या करूँ कहाँ जाऊँ और कौन मेरा वेग सहन करेगा।’
श्रीविष्णु बोले- अच्छा, मेरी बाँहपर बैठकर तुम इन दोनों— हाथी और कछुएको खाओ।
गरुड़ने कहा- बड़े-बड़े पर्वत भी मुझे धारण करनेमें असमर्थ हो रहे हैं; फिर तुम मुझ जैसे महाबली पक्षीको कैसे धारण कर सकोगे? भगवान् श्रीनारायणके सिवा दूसरा कौन है, जो मुझे धारण कर सके। तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो मेरा भार सह लेगा।
श्रीविष्णु बोले- पक्षिश्रेष्ठ! बुद्धिमान् पुरुषको अपना कार्य सिद्ध करना चाहिये, अतः इस समय तुम अपना काम करो। कार्य हो जानेपर निश्चय ही मुझे जान लोगे।
गरुड़ने उन्हें महान् शक्तिसम्पन्न देख मन-ही-मन कुछ विचार किया, फिर ‘एवमस्तु’ कहकर वे उनकी विशाल भुजापर बैठे। गरुड़के वेगपूर्वक बैठनेपर भी उनकी भुजा काँपी नहीं। वहाँ बैठकर गरुड़ने उस शाखाको तो पर्वतके शिखरपर डाल दिया और हाथी तथा कछुएको भक्षण किया। तत्पश्चात् वे श्रीविष्णुसे बोले- ‘तुम कौन हो ? इस समय तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?’
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- मुझे नारायण समझो, मैं तुम्हारा प्रिय करनेके लिये यहाँ आया हूँ।
यह कहकर भगवान् ने उन्हें विश्वास दिलानेके लिये अपना रूप दिखाया। मेघके समान श्याम विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। चार भुजाओंके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोरम जान पड़ती थी। हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये सर्वदेवेश्वर श्रीहरिका दर्शन करके गरुड़ने उन्हें प्रणाम किया और कहा – ‘पुरुषोत्तम! बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?’
श्रीविष्णु बोले- सखे! तुम बड़े शूरवीर हो, अतः हर समय मेरा वाहन बने रहो। यह सुनकर पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुड़ने भगवान् से कहा-‘देवेश्वर! आपका दर्शन करके मैं धन्य हुआ,मेरा जन्म सफल हो गया। प्रभो! मैं पिता-मातासे आज्ञा लेकर आपके पास आऊंगा।’ तब भगवान् ने प्रसन्न होकर कहा – ‘पक्षिराज! तुम अजर-अमर बने रहो, किसी भी प्राणीसे तुम्हारा वध न हो। तुम्हारा कर्म और तेज मेरे समान हो। सर्वत्र तुम्हारी गति हो। निश्चय ही तुम्हें सब प्रकारके सुख प्राप्त हो तुम्हारे मनमें जो जो इच्छा हो, सब पूर्ण हो जाय। तुम्हें अपनी रुचिके अनुकूल यथेष्ट आहार बिना किसी कष्टके प्राप्त होता रहेगा। तुम शीघ्र ही अपनी माताको कष्टसे मुक्त करोगे।’ ऐसा कहकर भगवान् श्रीविष्णु तत्काल अन्तर्धान हो गये। गरुड़ने भी अपने पिताके पास जाकर सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
गरुड़का वृत्तान्त सुनकर उनके पिता महर्षि कश्यप मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए और अपने पुत्रसे इस प्रकार बोले- ‘खगश्रेष्ठ! मैं धन्य हूँ, तुम्हारी कल्याणमयी माता भी धन्य है। माताकी कोख तथा यह कुल, जिसमें तुम्हारे जैसा पुत्र उत्पन्न हुआ-सभी धन्य हैं। जिसके कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न होता है; वह धन्य है, वह वैष्णव पुत्र पुरुषोंमें श्रेष्ठ है तथा अपने कुलका उद्धार करके श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त करता है। जो प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा करता, श्रीविष्णुका ध्यान करता, उन्हींके यशको गाता, सदा उन्होंके मन्त्रको जपता, श्रीविष्णुके ही स्तोत्रका पाठ करता, उनका प्रसाद पाता और एकादशीके दिन उपवास करता है, वह सब पापका क्षय हो जानेसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। जिसके हृदयमें सदा ही श्रीगोविन्द विराजते हैं, वह नरश्रेष्ठ विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जलमें, पवित्र स्थानमें, उत्तम पथपर, गौमें, ब्राह्मणमें, स्वर्गमें, ब्रह्माजीके भवनमें तथा पवित्र पुरुषके घरमें सदा ही भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। इन सब स्थानोंमें जो भगवान् का जप और चिन्तन करता है, वह अपने पुण्यके द्वारा पुरुषोंमें श्रेष्ठ होता है और सब पापका क्षय हो जानेसे भगवान् श्रीविष्णुका किंकर होता है जो विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर ले, वही मानव संसारमें धन्य है। बड़े-बड़े देवता जिनकी पूजा करते हैं, जो इसजगत्के स्वामी, नित्य, अच्युत और अविनाशी हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु जिसके ऊपर प्रसन्न हो जाय, वही पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। नाना प्रकारको तपस्या तथा भाँती- भाँतीके धर्म और यज्ञोंका अनुष्ठान करके भी देवतालोग भगवान् श्रीविष्णुको नहीं पाते; किन्तु तुमने उन्हें प्राप्त कर लिया। तुम्हारी माता सौतके द्वारा घोर संकटमें डाली गयी है, उसे छुड़ाओ। माताके दुःखका प्रतीकार करके देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णुके पास जाना।’
इस प्रकार श्रीविष्णुसे महान् वरदान पा और पिताकी आज्ञा लेकर गरुड़ अपनी माताके पास गये और हर्षपूर्वक उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो उन्होंने पूछा—’माँ! बताओ, मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? कार्य करके मैं भगवान् विष्णुके पास जाऊँगा।’ यह सुनकर सती विनताने गरुड़से कहा- ‘बेटा! मुझपर महान् दुःख आ पड़ा है, तुम उसका निवारण करो। बहिन कद्रू मेरी सौत है। पूर्वकालमें उसने मुझे एक बातमें अन्यायपूर्वक हराकर दासी बना लिया। अब मैं उसकी दासी हो चुकी हूँ। तुम्हारे सिवा कौन मुझे इस दुःखसे छुटकारा दिलायेगा। कुलनन्दन ! जिस समय मैं उसे मुँहमाँगी वस्तु दे दूँगी, उसी समय दासीभावसे मेरी मुक्ति हो सकती है।’
गरुड़ने कहा- माँ ! शीघ्र ही उसके पास जाकर पूछो, वह क्या चाहती है? मैं तुम्हारे कष्टका निवारण करूँगा। तब दुःखिनी विनताने कद्रूसे कहा- ‘कल्याणी! तुम अपनी अभीष्ट वस्तु बताओ, जिसे देकर मैं इस कष्टसे छुटकारा पा सकूँ।’ यह सुनकर उस दुष्टाने कहा- ‘मुझे अमृत ला दो।’ उसकी बात सुनकर विनता धीरे-धीरे लौटी और बेटेसे दुःखी होकर बोली- ‘तात! वह तो अमृत माँग रही है, अब तुम क्या करोगे ?’
गरुड़ने कहा—‘माँ! तुम उदास न हो, मैं अमृत ले आऊँगा।’ यों कहकर मनके समान वेगवान पक्षी गरुड़ सागरसे जल ले आकाशमार्गसे चले। उनके पंखोंकी हवासे बहुत-सी धूल भी उनके साथ-साथउड़ती गयी। वह धूलराशि उनका साथ न छोड़ सकी। गन्तव्य स्थानपर पहुँचकर गरुड़ने अपनी चोंचमें रखे हुए जलसे वहाँके अग्निमय प्राकारको बुझा दिया तथा अमृतकी रक्षाके लिये जो देवता नियुक्त थे, उनकी आँखोंमें पूर्वोक्त धूल भर गयी, जिससे वे गरुड़जीको देख नहीं पाते थे। बलवान् गरुड़ने रक्षकोंको मार गिराया और अमृत लेकर वे वहाँसे चल दिये। पक्षीको अमृत लेकर आते देख ऐरावतपर चढ़े हुए इन्द्रने कहा- ‘अहो ! पक्षीका रूप धारण करनेवाले तुम कौन हो, जो बलपूर्वक अमृतको लिये जाते हो ? सम्पूर्ण देवताओंका अप्रिय करके यहाँसे जीवित कैसे जा सकते हो।’
गरुड़ने कहा- देवराज! मैं तुम्हारा अमृत लिये जाता हूँ, तुम अपना पराक्रम दिखाओ। यह सुनकर महाबाहु इन्द्रने गरुड़पर तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी, मानो मेरुगिरिके शिखरपर मेघ जलकी धाराएँ बरसा रहा हो। गरुड़ने अपने वज्रके समान तीखे नखोंसे ऐरावत हाथीको विदीर्ण कर डाला तथा मातलिसहित रथ और चक्कोंको हानि पहुँचाकर अग्रगामी देवताओंको भी घायल कर दिया। तब इन्द्रने कुपित होकर उनके ऊपर वज्रका प्रहार किया । वज्रकी चोट खाकर भी महापक्षी गरुड़ विचलित नहीं हुए। वे बड़े वेग से भूतलकी ओर चले। तब इन्द्रने सब देवताओंके आगे स्थित होकर कहा- ‘निष्पाप गरुड़! यदि तुम नागमाताको इस समय अमृत दे दोगे तो सारे साँप अमर हो जायँगे; अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इस अमृतको वहाँसे हर लाऊँगा ।’
गरुड़ बोले- मेरी साध्वी माता विनता दासीभावके कारण बहुत दुःखी है। जिस समय वह दासीपनसे मुक्त हो जाय और सब लोग इस बातको जानलें, उस समय तुम अमृतको हर ले आना।
यों कहकर महाबली गरुड़ माताके पास जा इस प्रकार बोले-‘माँ मैं अमृत ले आया हूँ, इसे नागमाताको दे दो।’ अमृतसहित पुत्रको आया देख विनताका हृदय हर्षसे खिल उठा। उसने कटुको बुलाकर अमृत दे दिया और स्वयं दासीभावसे मुक्त हो गयी। इसी बीचमें इन्द्रने सहसा पहुँचकर अमृतका घड़ा चुरा लिया और वहाँ विषका पात्र रख दिया। उन्हें ऐसा करते कोई देख न सका। कद्रूका मन बहुत प्रसन्न था। उसने पुत्रोंको वेगपूर्वक बुलाया और उनके मुखमें अमृत जैसा दिखायी देनेवाला विष दे दिया। नागमाताने पुत्रोंसे कहा- तुम्हारे कुलमें होनेवाले सभी सर्पोंके मुखमें ये अमृत की बूँदें नित्य निरन्तर उत्पन्न होती रहें तथा तुमलोग इनसे सदा सन्तुष्ट रहो। इसके बाद गरुड़ अपने पिता-मातासे वार्तालाप करके देवताओंकी पूजा कर अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुके पास चले गये। जो गरुड़के इस उत्तम चरित्रका पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर देवलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
ब्रह्माजी कहते हैं- ऋषियोंके मुखसे यह उपदेश और गरुड़का प्रसंग सुनकर वह पतित ब्राह्मण नाना प्रकारके पुण्य कर्मोंका अनुष्ठान करके पुनः ब्राह्मणत्वको प्राप्त हुआ और तीव्र तपस्या करके स्वर्गलोकमें चला गया। सदाचारी मनुष्यका पाप प्रतिदिन क्षीण होता है और दुराचारीका पुण्य सदा नष्ट होता रहता है। अनाचारसे पतित हुआ ब्राह्मण भी यदि फिर सदाचारका सेवन करे तो वह देवत्वको प्राप्त होता है। अतः द्विज प्राणोंके कण्ठगत होनेपर भी सदाचारका त्याग नहीं करते। नारद! तुम भी मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा सदाचारका पालन करो।
अध्याय-37 ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
नारदजीने पूछा- प्रभो। उत्तम ब्राह्मणोंकी पूजा करके तो सब लोग श्रेष्ठ गति प्राप्त करते हैं; किन्तु जो उन्हें कष्ट पहुँचाते हैं, उनकी क्या गति होती है?
ब्रह्माजी बोले- सुधासे संतप्त हुए उत्तम ब्राह्मणोंका जो लोग अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक सत्कार नहीं करते, वे नरकमें पड़ते हैं। जो क्रोधपूर्वक कठोर शब्दों में ब्राह्मणकी निन्दा करके उसे द्वारसे हटा देते हैं, वे अत्यन्त घोर महारौरव एवं कृच्छ्र नरकमें पड़ते हैं तथा नरकसे निकलनेपर कीड़े होते हैं। उससे छूटनेपर चाण्डालयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर रोगी एवं दरिद्र होकर भूखसे पीड़ित होते हैं। अत: भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए ब्राह्मणका कभी अपमान नहीं करना चाहिये जो देवता, अग्नि और ब्राह्मणके लिये नहीं दूंगा’ ऐसा वचन कहता है, वह सौ बार नीचेकी योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें चाण्डाल होता है। जो लात उठाकर ब्राह्मण, गौ, पिता-माता और गुरुको मारता है, उसका रौरव नरकमें वास निश्चित है; वहाँसे कभी उसका उद्धार नहीं होता। यदि पुण्यवश जन्म हो भी जाय तो वह पंगु होता है। साथ ही अत्यन्त दीन, विषादग्रस्त और दुःखशोकसे पीड़ित रहता है। इस प्रकार तीन जन्मोंतक कष्ट भोगनेके बाद ही उसका उद्धार होता है। जो पुरुष मुक्कों, तमाच और कीलोंसे ब्राह्मणको मारता है, वह एक कल्पतक तापन और रौरव नामक घोर नरकमें निवास करता है और पुनः जन्म लेनेपर कुत्ता होता है। उसके बाद चाण्डालयोनिमें जन्म लेकर दरिद्र और उदरशूलसे पीड़ित होता है। माता, पिता, ब्राह्मण, स्नातक, तपस्वी और गुरुजनोंको क्रोधपूर्वक मारकर मनुष्य दीर्घकालतक कुम्भीपाक नरक में पड़ा रहता है। इसके बाद वह कीट योनिमें जन्म लेता है। बेटा नारद! जो ब्राह्मणोंके विरुद्ध कठोर वचन बोलता है, उसकेशरीरमें आठ प्रकारकी कोढ़ होती है-खुजली दाद, मण्डल (त), (सफेद), मि (आ) काली को सफेद कोढ़ और तरुण कुष्ठइनमें काली कोढ़, सफेद को और आपना दारुण तरुण कुष्ठ—ये तीन महाकुष्ठ माने गये हैं। जो जान-बूझकर महापातकमें प्रवृत्त होते हैं अथवा महापातकी पुरुषोंका संग करते हैं अथवा अतिपातकका आचरण करते हैं, उनके शरीरमें ये तीनों प्रकारके कुष्ठ होते हैँ। संसर्गसे अथवा परस्पर सम्बन्ध होनेसे मनुष्योंमें इस रोगका संक्रमण होता है। इसलिये विवेकी पुरुष कोढ़ीसे दूर ही रहे। उसका स्पर्श हो जानेपर तुरंत स्नान कर ले। पतित, कोड़ी, चाण्डाल, गोभक्षी, कुत्ता, रजस्वला स्त्री और भीलका स्पर्श हो जानेपर तत्काल स्नान करना चाहिये।
जो ब्राह्मणकी न्यायोपार्जित जीविका तथा उसके धनका अपहरण करते हैं, वे अक्षय नरकमें पड़ते हैं। जो चुगलखोर मनुष्य ब्राह्मणोंका छिद्रा करता है. उसे देखकर या स्पर्श करके वस्त्रसहित जलमें गोता लगाना चाहिये। ब्राह्मणके धनका यदि कोई प्रेमसे उपभोग कर ले, तो भी वह उसकी सात पीढ़ियोंतकको जला डालता है और जो पराक्रमपूर्वक छीनकर उसका उपभोग करता है, वह तो दस पीढ़ी पहले और दस पीढ़ी पीछेतकके पुरुषोंको नष्ट करता है। विषको विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन ही विष कहलाता है। विष तो केवल उसके खानेवालेको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धन पुत्र-पौत्रोंका भी नाश कर डालता है। जो मोहवश माता, ब्राह्मणी अथवा गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करता है, वह घोर रौरव नरकमें पड़ता है। वहाँसे पुनः मनुष्ययोनिमें आना कठिन होता है।
नारदजीने पूछा-पिताजी! सभी ब्राह्मणोंकी हत्यासे बराबर ही पाप लगता है अथवा किसीमें कुछअधिक या कम भी? यदि न्यूनाधिक होता है तो क्यों? इसको यथार्थ रूपसे बताइये ।
ब्रह्माजीने कहा- ‘बेटा! ब्रह्महत्याका जो पाप बताया गया है, वह किसी भी ब्राह्मणका वध करनेपर अवश्य लागू होता है। ब्रह्महत्यारा घोर नरकमें पड़ता है। इस विषयमें कुछ और भी कहना है, उसे सुनो। वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणकी हत्या करनेपर करोड़ों ब्राह्मणोंके वधका दोष लगता है। तथा वैष्णव ब्राह्मणको मारनेपर उससे भी दसगुना अधिक पाप होता है। अपने वंशके ब्राह्मणका वध करनेपर तो कभी नरकसे उद्धार होता ही नहीं तीन वेदोंके ज्ञाता स्नातककी हत्या करनेपर जो पाप लगता है उसकी कोई सीमा ही नहीं है श्रोत्रिय, सदाचारी तथा तीर्थ स्नान और वेदमन्त्रसे पवित्र ब्राह्मणके वघसे होनेवाले पापका भी कभी अन्त नहीं होता। यदि किसीके द्वारा अपनी बुराई होनेपर ब्राह्मण स्वयं भी शोकवश प्राण त्याग दे तो वह बुराई करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्यारा ही समझा जाता है। कठोर वचनों और कठोर बर्तावोंसे पीड़ित एवं ताड़ित हुआ ब्राह्मण जिस अत्याचारी मनुष्यका नाम ले-लेकर अपने प्राण त्यागता है, उसे सभी ऋषि मुनि, देवता और ब्रह्मवेत्ताओंने ब्रह्महत्यारा बताया है। ऐसी हत्याका पाप उस देशके निवासियों तथा राजाको लगता है। अतः वे ब्रह्महत्याका पाप करके अपने पितरोंसहित नरकमें पकाये जाते हैं। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह मरणपर्यन्त उपवास (अनशन) करनेवाले ब्राह्मणको मनाये-उसे प्रसन्न करके अनशन तोड़नेका प्रयत्न करे। यदि किसी निर्दोष पुरुषको निमित्त बनाकर कोई ब्राह्मण अपने प्राण त्यागता है तो वह स्वयं ही ब्रह्महत्याके घोर पापका भागी होता है। जिसका नाम लेकर मरता है, वह नहीं जो अधम ब्राह्मण अपने कुटुम्बीका वध करता है, उसको भीब्रह्महत्याका पाप लगता है। यदि कोई आततायी ब्राह्मण युद्धके लिये अपने पास आ रहा हो और प्राण लेनेकी चेष्टा करता हो, तो उसे अवश्य मार डाले इससे वह ब्रह्महत्याका भागी नहीं होता। जो घरमें आग लगाता है, दूसरेको जहर देता है, धन चुरा लेता है, सोते हुएको मार डालता है; तथा खेत और स्त्रीका अपहरण करता है-ये आततायी माने गये हैं। संसारमें ब्राह्मणके समान दूसरा कोई पूजनीय नहीं है। वह जगत्का गुरु है। ब्राह्मणको मारनेपर जो पाप होता है, उससे बढ़कर दूसरा कोई पाप है ही नहीं।
नारदजीने पूछा- सुरश्रेष्ठ! पापसे दूर रहनेवाले द्विजको किस वृत्तिका आश्रय लेकर जीवन निर्वाह करना चाहिये? इसका यथावत् वर्णन कीजिये ।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! बिना माँगे मिली हुई भिक्षा उत्तम वृत्ति बतायी गयी है उससे भी उत्तम है। वह सब प्रकारकी वृत्तियोंमें श्रेष्ठ और कल्याणकारिणी है श्रेष्ठ मुनिगण उच्छवृत्तिका आश्रय लेकर ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं। यज्ञमें आये हुए ब्राह्मणको यज्ञकी समाप्ति हो जानेपर यजमानसे जो दक्षिणा प्राप्त होती है, वह उसके लिये ग्राह्य वृत्ति है। द्विजोंको पढ़ाकर या यज्ञ कराकर उसकी दक्षिणा लेनी चाहिये। पठन-पाठन तथा उत्तम मांगलिक शुभ कर्म करके भी उन्हें दक्षिणा ग्रहण करनी चाहिये। यही ब्राह्मणोंकी जीविका है। दान लेना उनके लिये अन्तिम वृत्ति है। उनमें जो शास्त्र के द्वारा जीविका चलाते हैं, वे धन्य हैं। वृक्ष और लताओंके सहारे जिनकी जीविका चलती है, वे भी धन्य हैं।
ब्राह्मणोचित वृत्तिके अभावमें ब्राह्मणोंको क्षत्रियवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना चाहिये। उस अवस्थामें न्याययुक्त युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर युद्ध करना उनका कर्तव्य है। उन्हें उत्तम वीरव्रतकाआचरण करना चाहिये। ब्राह्मण क्षत्रियवृत्तिके द्वारा राजासे जो धन प्राप्त करता है, वह श्राद्ध और यज्ञ आदिमें दानके लिये पवित्र माना गया है। उस ब्राह्मणको सदा पापसे दूर रहकर वेद और धनुर्वेद दोनोंका अभ्यास करना चाहिये। जो ब्राह्मण न्यायोचित युद्धमें सम्मिलित होकर संग्राममें शत्रुका सामना करते हुए मारे जाते हैं, वे वेदपाठियोंके लिये भी दुर्लभ परमपदको प्राप्त होते हैं।
धर्मयुद्धका जो पवित्र बर्ताव है, उसका यथार्थ वर्णन सुनो धर्मयुद्ध करनेवाले योद्धा सामने लड़ते हैं, कभी कायरता नहीं दिखाते तथा जो पीठ दिखा चुका हो, जिसके पास कोई हथियार न हो और जो युद्धभूमिसे भागा जा रहा हो ऐसे शत्रुपर पीछे की ओरसे प्रहार नहीं करते जो दुराचारी सैनिक विजयकी इच्छासे डरपोक, युद्धसे विमुख पतित, मूच्छित, असत्-शूद्र, स्तुतिप्रिय और शरणागत शत्रुको युद्धमें मार डालते हैं, वे नरकमें पड़ते हैं।
यह क्षत्रियवृत्ति सदाचारी पुरुषोंद्वारा प्रशंसित है। इसका आश्रय लेकर समस्त क्षत्रिय स्वर्गलोकको प्राप्त करते हैं। धर्मयुद्धमें शत्रुका सामना करते हुए मृत्युको प्राप्त होना क्षत्रियके लिये शुभ है। वह पवित्र होकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और एक कल्पतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। उसके बाद सार्वभौम राजा होता है। उसे सब प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं। उसका शरीर नीरोग और कामदेव के समान सुन्दर होता है। उसके पुत्र धर्मशील, सुन्दर, समृद्धिशाली और पिताको रुचिके अनुकूल चलनेवाले होते हैं। इस प्रकार क्रमशः सात जन्मोंतक वे क्षत्रिय उत्तम सुखका उपभोग करते हैं। इसके विपरीत जो अन्यायपूर्वक युद्ध करनेवाले हैं, उन्हें चिरकालतक नरकमें निवास करना पड़ता है। इस तरह ब्राह्मणोंको श्रेष्ठ क्षत्रियवृत्तिका सहारा लेना उचित है।
उत्तम ब्राह्मण आपत्तिकालमें वैश्यवृत्तिसे एवं खेती आदिसे भी जीविका चला सकता है। उसे चाहिये कि वह दूसरोंके द्वारा खेती और व्यापारका काम कराये, स्वयं ब्राह्मणोचित कर्मका त्याग न करे। | वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर यदि ब्राह्मण झूठ बोलता या किसी वस्तुकी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा करे तो वह दुर्गतिको प्राप्त होता है। भीगे हुए द्रव्यके व्यापारसे बचा रहकर ब्राह्मण कल्याणका भागी होता है। तौलमें कभी असत्यपूर्ण बर्ताव नहीं करना चाहिये, क्योंकि तुला धर्मपर ही प्रतिष्ठित है। जो तराजूपर तोलते समय छल करता है, वह नरकमें पड़ता है। जो द्रव्य तराजूपर चढ़ाये बिना ही बेचा जाता है, उसमें भी झूठ-कपटका त्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार मिथ्या बर्ताव नहीं करना चाहिये; क्योंकि मिथ्या व्यवहारसे पापकी उत्पत्ति होती है। ‘सत्यसे बढ़कर धर्म और झूठसे बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है’ अतः सब कार्योंमें सत्यको ही श्रेष्ठ माना गया है। यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और दूसरी ओर सत्यको तराजूपर रखकर तोला जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होता है। जो समस्त कार्योंमें सत्य बोलता और मिथ्याका परित्याग करता है, वह सब दुःखोंसे पार हो जाता है और अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है।
ब्राह्मण व्यापारका काम करा सकता है; किन्तु उसे झूठका त्याग करना ही चाहिये उसे चाहिये कि जो मुनाफा हो उसमेंसे पहले तीर्थोंमें दान करे; जो शेष बचे, उसका स्वयं उपभोग करे। यदि ब्राह्मण वाणिज्यवृत्तिसे न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धनकोपितरों, देवताओं और ब्राह्मणोंके निमित्त यत्नपूर्वक दान देता है; तो उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है।
वाणिज्य लाभकारी व्यवसाय है। किन्तु दो उसमें बहुत बड़े दोष आ जाते हैं—लोभ न छोड़ना और झूठ बोलकर माल बेचना । विद्वान् पुरुष इन दोनों दोषका परित्याग करके धनोपार्जन करे। व्यापारमें कमाये हुए धनका दान करनेसे वह अक्षय फलका भागी होता है।
नारद! पुण्यकर्ममें लगे हुए ब्राह्मणको इस प्रकार खेती करानी चाहिये। वह आधे दिनतक चार बैलोंको हलमें जोते। चारके अभावमें तीन बैलोंको भी जोता जा सकता है। बैलोंसे इतना काम न ले कि उन्हें दिनभर विश्राम करनेका मौका ही न मिले। प्रतिदिन बैलोंको चोर और व्याघ्र आदिसे रहित स्थानमें, जहाँकी घास काटी न गयी हो, ले जाकर चराये। उन्हें यथेष्ट घास खानेको दे और स्वयं उपस्थित रहकर उनके खाने-पीनेकी व्यवस्था करे। उनके रहनेके लिये गोशाला बनवावे, जहाँ किसी प्रकार उपद्रव न हो। वहाँसे गोबर, मूत्र और बिखरी हुई घास आदि हटाकर गोशालाको सदा साफ रखे। गोशाला सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है, अतः वहाँ कूड़ा नहीं फेंकना चाहिये। विद्वान् पुरुषको उचित है कि वह अपने शयनगृहके समान गोशालाको साफ रखे। उसकी फर्शको समतल बनाये तथा यत्नपूर्वक ऐसी व्यवस्था करे, जिससे वहाँ सर्दी, हवा और धूल-धक्कड़से बचाव हो। गौको अपने प्राणोंके समान समझे। उसके शरीरको अपने ही शरीरके तुल्य माने। अपनी देहमें जैसेसुख-दुःख होते हैं, वैसे ही गौके शरीरमें भी होते हैं- ऐसा समझकर गौके कष्टको दूर करने और उसे सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे।
जो इस विधिसे खेतीका काम कराता है, वह बैलको जोतनेके दोषसे मुक्त और धनवान् होता है। जो दुर्बल, रोगी, अत्यन्त छोटी अवस्थाके और अधिक बूढ़े बैलसे काम लेकर उसे कष्ट पहुँचाता है, उसे गोहत्याका पाप लगता है जो एक ओर दुर्बल और दूसरी ओर बलवान् बैलको जोड़कर उनसे भूमिको जुतवाता है, उसे गोहत्याके समान पापका भागी होना पड़ता है – इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो बिना चारा खिलाये ही बैलको हल जोतने काममें लगाता है तथा घास खाते और पानी पीते हुए बैलको मोहवश हाँक देता है, वह भी गोहत्याके पापका भागी होता है।
अमावास्या, संक्रान्ति तथा पूर्णिमाको हल जोतनेसे दस हजार गोहत्याओंका पाप लगता है जो उपर्युक्त तिथियोंको गौओंके शरीरमें सफेद और रंग-बिरंगी रचना करके काजल, पुष्प और तेलके द्वारा उनकी पूजा करता है, वह अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जो प्रतिदिन दूसरेकी गायको मुट्ठीभर घास देता है, उसके समस्त पापका नाश हो जाता है तथा वह अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। जैसा ब्राह्मणका महत्त्व है, वैसा ही गौका भी महत्त्व है; दोनोंकी पूजाका फल समान ही है। विचार करनेपर मनुष्योंमें ब्राह्मण प्रधान है और पशुओं में गौ ।
नारदजीने पूछा- नाथ आपने बताया है कि ब्राह्मणकी उत्पत्ति भगवान्के मुखसे हुई है; फिर गौओंकीउससे तुलना कैसे हो सकती है? विधाता! इस विषयको लेकर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! पहले भगवान् के मुखसे महानू तेजोमय पुंज प्रकट हुआ। उस तेजसे सर्वप्रथम वेदकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् क्रमशः अग्नि, गौ और ब्राह्मण- ये पृथक् पृथक् उत्पन्न हुए। मैंने सम्पूर्ण लोकों और भुवनोंकी रक्षाके लिये पूर्वकालमें एक वेदसे चारों वेदोंका विस्तार किया। अग्नि और ब्राह्मण देवताओंके लिये हविष्य ग्रहण करते हैं और हविष्य गौओसे उत्पन्न होता है; इसलिये ये चारों ही इस जगत् के जन्मदाता हैं। यदि ये चारों महत्तर पदार्थ विश्वमें नहीं होते तो यह सारा चराचर जगत् नष्ट हो जाता। ये ही सदा जगत्को धारण किये रहते हैं; जिससे स्वभावतः इसकी स्थिति बनी रहती हैं। ब्राह्मण, देवता तथा असुरोंको भी गौकी पूजा करनी चाहिये; क्योंकि गौ सब कार्योंमें उदार तथा वास्तवमें समस्त गुणोंकी खान है। वह साक्षात् सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप है। सब प्राणियोंपर उसकी दया बनी रहती है। प्राचीन कालमें सबके पोषणके लिये मैंने गौकी सृष्टि की थी। गौओंकी प्रत्येक वस्तु पावन है और समस्त संसारको पवित्र कर देती है। गौका मूत्र, गोबर, दूध, दही और घी-इन पंचगव्योंका पान कर लेनेपर शरीरके भीतर पाप नहीं ठहरता। इसलिये धार्मिक पुरुष प्रतिदिन गौके दूध, दही और घी खाया करते हैं। गव्य पदार्थ सम्पूर्ण द्रव्यों में श्रेष्ठ, शुभ और प्रिय है। जिसको गायका दूध, दही और घी खानेका सौभाग्य नहीं प्राप्त होता, उसका शरीर मलके समान है। अन्न आदि पाँच रात्रितक, दूध सात रात्रितक, दही बीस रात्रितक और घी एक मासतक शरीरमें अपना प्रभाव रखता है। जो लगातार एक मासतक बिना गव्यका भोजन करता है, उस मनुष्यके भोजनमें प्रेतोंको भाग मिलता है; इसलिये प्रत्येक युगमें सब कार्योंकेलिये एकमात्र गौ ही प्रशस्त मानी गयी है। गौ सदा और सम समय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाली है।
जो गौकी एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। जैसे देवताओंके आचार्य बृहस्पतिजी वन्दनीय हैं, जिस प्रकार भगवान् लक्ष्मीपति सबके पूज्य हैं, उसी प्रकार गौ भी वन्दनीय और पूजनीय है। जो मनुष्य प्रातः काल उठकर गौ और उसके घीका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। गौएँ दूध और भी प्रदान करनेवाली हैं। वे घृतकी उत्पत्ति स्थान और घीकी उत्पत्ति में कारण हैं। वे धीकी नदियाँ हैं, उनमें चौकी भैरें उठती हैं। ऐसी गौएँ सदा मेरे घरपर मौजूद रहें। घी मेरे सम्पूर्ण शरीर और मनमें स्थित हो ‘गौएँ सदा मेरे आगे रहें। वे ही मेरे पीछे रहें। मेरे सब अंगोंको गौओंका स्पर्श प्राप्त हो। मैं गौओंके बीचमें निवास करूँ।”इस मन्त्रको प्रतिदिन सन्ध्या और सबेरेके समय शुद्ध भावसे आचमन करके जपना चाहिये। ऐसा करनेसे उसके सब पापका क्षय हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक में पूजित होता है जैसे गौ आदरणीय है वैसे ब्राह्मण; जैसे ब्राह्मण हैं वैसे भगवान् श्रीविष्णु जैसे भगवान् श्रीविष्णु हैं वैसी ही श्रीगंगाजी भी हैं। ये सभी धर्मके साक्षात् स्वरूप माने गये हैं। गौएँ मनुष्योंकी बन्धु हैं और मनुष्य गौओंके बन्धु हैं। जिस घरमें गौ नहीं है, वह बन्धुरहित गृह है। छहों अंगों, पदों और क्रमसहित सम्पूर्ण वेद गौओंके मुखमें निवास करते हैं। उनके सींगोंमें भगवान् श्रीशंकर और श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं। गौओंके उदरमें कार्तिकेय, मस्तकमें ब्रह्मा, ललाटमें महादेवजी, सींगोंके अग्रभागमें इन्द्र, दोनों कानोंमें अश्विनीकुमार, नेत्रोंमें चन्द्रमा और सूर्य, दाँतों में गरुड़, जिसमें सरस्वती देवी, अपान (गुदा) -मेंसम्पूर्ण तीर्थ, मूत्रस्थानमें गंगाजी, रोमकूपोंमें ऋषि, मुख और पृष्ठभागमें यमराज, दक्षिण पार्श्वमें वरुण और कुबेर, वाम पार्श्वमें तेजस्वी और महाबली यक्ष, मुखके भीतर गन्धर्व, नासिकाके अग्रभागमें सर्प, खुरॉके पिछले भागमें अप्सराएँ, गोवरमें लक्ष्मी, गोमूत्रमें पार्वती, चरणोंके अग्रभागमें आकाशचारी देवता, रंभानेकी आवाजमें प्रजापति और थनोंमें भरे हुए चारों समुद्र निवास करते हैं। जो प्रतिदिन स्नान करके गौका स्पर्श करता है, वह मनुष्य सब प्रकारके स्थूल पापोंसे भी मुक्त हो जाता है जो गौओंके खुरसे उड़ी हुई धूलको सिरपर धारण करता है, वह मानो तीर्थके जलमें स्नान कर लेता है और सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है।
नारदजीने पूछा- गुरुश्रेष्ठ परमेष्ठिन् ! विभिन्न रंगोंकी गौओंमें किसके दानसे क्या फल होता है? इसका तत्त्व बतलाइये।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! ब्राह्मणको श्वेत गौका दान करके मनुष्य ऐश्वर्यशाली होता है सदा महलमें निवास करता है तथा भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर सुख-समृद्धिसे भरा-पूरा रहता है। भूरे समान रंगवाली गौ स्वर्ग प्रदान करनेवाली तथा भयंकर संसारमें पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है। कपिला गौका दान अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। कृष्णा गौका दान देकर मनुष्य कभी कष्टमें नहीं पड़ता। भूरे रंगकी गौ संसारमें दुर्लभ है। गौर वर्णकी धेनु समूचे कुलको आनन्द प्रदान करनेवाली होती है। लाल नेत्रोंवाली गौ रूपकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको रूप प्रदान करती है। नीली गौ धनाभिलाषी पुरुषकी कामना पूर्ण करती है। एक ही कपिला गौका दान करके मनुष्य सारे पापोंसे मुक्त: हो जाता है। बचपन, जवानी और बुदापेमें जो पाप किया गया है, क्रियासे, वचनसे तथा मनसे भी जो पाप बन गये हैं, उन सबका कपिला गौके दानसे क्षय हो जाता है और दाता पुरुष विष्णुरूप होकर वैकुण्ठमें निवास करता है। जो दस गौएँ दान करता है तथा जो भार ढोनेमें समर्थ एक ही बैल दान करता है, उन दोनोंका फल ब्रह्माजीने समान ही बतलाया है। जो पुत्र पितरोंके उद्देश्यसे साँड़ छोड़ता है, उसके पितर अपनी इच्छाके अनुसार विष्णुलोकमें सम्मानित होते हैं। छोड़े हुए साँड़ या दान की हुई गौओके जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गका सुख भोगते हैं। छोड़ा हुआ सौड़ अपनी पूँछसे जो जल फेंकता है, वह एक हजार वर्षोंतक पितरोंके लिये तृप्तिदायक होता है। वह अपने खुरसे जितनी भूमि खोदता है, जितने ढेले और कीचड़ उछालता है, वे सब लाखगुने होकर पितरोंके लिये स्वधारूप हो जाते हैं। यदि पिताके जीते जी माताकी मृत्यु हो जाय तो उसकी स्वर्ग-प्राप्तिके लिये चन्दन चर्चित धेनुका दान करना चाहिये। ऐसा करनेसे दाता पितरोंके ऋणसे मुक्त हो जाता है तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भाँति पूजित होकर अक्षय स्वर्गको प्राप्त करता है। सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे युक्त, प्रतिवर्ष बच्चा देनेवाली नयी दुधार गाय पृथ्वीके समान मानी गयी है। उसके दानसे भूमि दानके समान फल होता है। उसे दान करनेवाला मनुष्य इन्द्रके तुल्य होता है और अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो गौका हरण करके उसके बछड़ेकी मृत्युका कारण बनता है, वह महाप्रलयपर्यन्त कीड़ोंसे भरे हुए कुएँमें पड़ा रहता है। गौओंका वध करके मनुष्य अपने पितरोंके साथ घोर रौरव नरकमें पड़ता है तथा उतने ही समयतक अपने पापका दण्ड भोगता रहता है। जो इस पवित्र कथाको एक बार भी दूसरोंको सुनाता है, उसके सब पापका नाश हो जाता है तथा वह देवताओंके साथ आनन्दका उपभोग करता है जो इस परम पुण्यमय प्रसंगका श्रवण करता है, वह सात जन्मोंके पापोंसे तत्काल मुक्त हो जाता है।
अध्याय-38 द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
नारदजीने पूछा- पिताजी! किस आचरणसे ब्राह्मणके ब्रह्मतेजकी वृद्धि होती है ?
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि वह प्रतिदिन कुछ रात रहते ही बिस्तरसे उठ जाय और गोविन्द, माधव, कृष्ण, हरि, दामोदर, नारायण, जगन्नाथ वासुदेव, वेदमाता सावित्री, अजन्मा, विभु, सरस्वती, महालक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर, शिव, शम्भु, ईश्वर, महेश्वर, सूर्य, गणेश, स्कन्द, गौरी, भागीरथी और शिवा आदि नामोंका कीर्तन करे। जो मनुष्य सबेरे उठकर इन सबका स्मरण करता है, वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे निःसन्देह मुक्त हो जाता है। तात! एक बार भी इन नामोंका उच्चारण करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका तथा लाखों गोदानका फल मिलता है।
इस प्रकार उपर्युक्त नामोंका उच्चारण करके गाँवसे बाहर दूर जाकर साफ-सुथरे स्थानमें मल मूत्रका परित्याग करे। यदि रातका समय हो तो दक्षिण दिशाको ओर मुँह करके और दिनमें उत्तर दिशाको ओर मुँह करके शौच होना चाहिये। इसके बाद [हाथ मुँह धो, कुल्ला करके] गूलर आदिकी लकड़ीसे दाँत साफ करना चाहिये। तत्पश्चात् द्विजको स्नान आदि करके संयमपूर्वक बैठकर सन्ध्योपासन करना चाहिये। पूर्वाह्नकालमें रक्तवर्णा गायत्री, मध्याहनकालमें शुक्लवर्णा सावित्री और सायंकालमें श्यामवर्णा सरस्वतीका विधिपूर्वक ध्यान करना उचित है।
प्रतिदिनके स्नानकी विधि इस प्रकार है। अपने ज्ञानके अनुसार यत्नपूर्वक स्नान विधिका पालन करना चाहिये। पहले शरीरको जलसे भिगोकर फिर उसमें मिट्टी लगाये। मस्तक, ललाट, नासिका, हृदय, भौंह, बाहु, पसली, नाभि, घुटने और दोनों पैरोंमें मृत्तिका लगाना उचित है। मनुष्यको शुद्धिकी इच्छासे [शौच होकर ] एक बार लिंगमें, तीन बार गुदामें, दस बार बायेंहाथमें तथा पुनः सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगानी चाहिये। ‘घोड़े, रथ और भगवान् श्रीविष्णुद्वारा आक्रान्त होनेवाली मृत्तिकामयी वसुन्धरे! मेरे द्वारा जो दुष्कर्म या पाप हुए हों, उन्हें तुम हर लो।” इस मन्त्रसे जो अपने शरीरमें मिट्टीका लेप करता है, उसके सब पापका क्षय होता है तथा वह मनुष्य सर्वथा शुद्ध हो जाता है। तदनन्तर विद्वान् पुरुष नद, नदी, पोखरा, सरोवर या कुएँपर जाकर वेदमन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक स्नान करे। उसे नदी आदिकी जल-राशिमें प्रवेश करके स्नान करना चाहिये और कुएँपर नहाना हो तो किनारे रहकर घड़ेसे स्नान करना उचित है। मनुष्यको अपने समस्त पापोंका नाश करनेके लिये विधिवत् स्नान करना चाहिये। सबेरेका स्नान महान् पुण्यदायक और सब पापका नाश करनेवाला है। जो ब्राह्मण सदा प्रातःकाल स्नान करता है, वह विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। प्रातः सन्ध्याके समय चार दण्डतक जल अमृतके समान रहता है, वह पितरोंको सुधाके समान तृप्तिदायी होता है उसके बाद दो घड़ीतक अर्थात् कुल एक पहरतक जल मधुके समान रहता है; वह भी पितरोंकी प्रसन्नता बढ़ानेवाला होता है। तत्पश्चात् डेढ़ पहरतकका जल दूधके समान माना गया है। उसके बाद चार दण्डतकका जल दुग्ध-मिश्रित-सा रहता है।
नारदजीने कहा- देवेश्वर ! अब मुझे यह बताइये कि जलके देवता कौन हैं तथा जिस प्रकार मैं तर्पणकी विधि ठीक-ठीक जान सकूँ, ऐसा उपदेश कीजिये।
ब्रह्माजीने कहा- बेटा। सम्पूर्ण लोकोंमें भगवान् श्रीविष्णु ही जलके देवता माने गये हैं; अतः जो जलसे स्नान करके पवित्र होता है, उसका भगवान् श्रीविष्णु कल्याण करते हैं। एक घूँट जल पीकर भी मनुष्य पवित्र हो जाता है। विशेष बात यह है किकुशके संसर्गसे जल अमृतसे भी बढ़कर होता है। कुश सम्पूर्ण देवताओंका निवासस्थान है; पूर्वकालमें मैंने ही उसे उत्पन्न किया था। कुशके मूलमें स्वयं मैं (ब्रह्मा) उसके मध्यभागमें श्रीविष्णु और अग्रभागमें भगवान् श्रीशंकर विराजमान हैं; इन तीनोंके द्वारा कुशकी प्रतिष्ठा है। अपने हाथोंमें कुश धारण करनेवाला द्विज सदा पवित्र माना गया है; वह यदि किसी स्तोत्र या मन्त्रका पाठ करे तो उसका सौगुना महत्त्व बतलाया गया है। वही यदि तीर्थमें किया जाय तो उसका फल हजारगुना अधिक होता है। कुश, काश, दूर्वा, जौका पत्ता, धानका पत्ता, बल्वज और कमल-ये सात प्रकारके कुरा बताये गये हैं। इनमें पूर्व-पूर्व कुश अधिक पवित्र माने गये हैं। ये सभी कुश लोकमें प्रतिष्ठित हैं।
तिलके सम्पर्कसे जल अमृतसे भी अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। जो प्रतिदिन स्नान करके तिलमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने दोनों कुलौका (पितृकुल एवं मातृकुलका) उद्धार करके ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वर्षकि चार महीनों में दीपदान करनेसे पितरोंके ऋणसे छुटकारा मिलता है जो एक वर्षतक प्रति अमावास्याको तिलोंके द्वारा पितरोंका तर्पण करता है, वह विनायक पदवीको प्राप्त होता है और सम्पूर्ण देवता उसकी पूज करते हैं। जो समस्त युगादि तिथियाँको तिलोद्वारा पितरोंका तर्पण करता है, उसे अमावास्याकी अपेक्षा सौगुना अधिक फल प्राप्त होता है। अयन आरम्भ होनेके दिन, विषुव योग में, पूर्णिमा तथा अमावास्याको पितरोंका तर्पण करके मनुष्य स्वर्ग-लोकमें प्रतिष्ठित होता है। मन्वन्तरसंज्ञक तिथियोंमें तथा अन्यान्य पुण्यपर्व के अवसरपर भी तर्पण करनेसे यही फल होता है। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें गया आदि पुण्य तीर्थोंक भीतर पितरोंका तर्पण करके मनुष्यवैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। इसलिये कोई पुण्यदिवस प्राप्त होनेपर पितृसमुदायका तर्पण करना चाहिये। एकाग्रचित्त होकर पहले देवताओंका तर्पण करनेके पश्चात् विद्वान् पुरुष पितरोंका तर्पण करनेका अधिकारी होता है। श्राद्धमें भोजनके समय एक ही हाथसे अन्न परोसे, किन्तु तर्पणके समय दोनों हाथोंसे जल दे; यही सनातन विधि है। दक्षिणाभिमुख होकर पवित्र भावसे ‘तृप्यताम्’ इस वाक्यके साथ नाम गोत्रका उच्चारण करते हुए पितरोंका तर्पण करना चाहिये।
जो मोहवश सफेद तिलोंके द्वारा पितृवर्गका तर्पण करता है, उसका किया हुआ तर्पण व्यर्थ होता है। यदि दाता स्वयं जलमें स्थित होकर पृथ्वीपर तर्पणका जल गिराये तो उसका वह जलदान व्यर्थ हो जाता है, किसीके पास नहीं पहुँचता । इसी प्रकार जो स्थलमें खड़ा होकर जलमें तर्पणका जल गिराता है, उसका दिया हुआ जल भी निरर्थक होता है; वह पितरोंको नहीं प्राप्त होता जो जलमें नहाकर भीगे वस्त्र पहने हुए ही तर्पण करता है, उसके पितर देवताओंसहित सदा तृप्त रहते हैं। विद्वान् पुरुष धोबीके धोये हुए वस्त्रको अशुद्ध मानते हैं। अपने हाथसे पुनः धोनेपर ही वह वस्त्र शुद्ध होता है। 2 जो सूखे वस्त्र पहने हुए किसी पवित्र स्थानपर बैठकर पितरोंका तर्पण करता है, उसके पितर दी तृप्ति लाभ करते हैं जो अपनी तर्जनी अंगुलीमें चाँदीको अंगूठी धारण करके पितरोंका तर्पण करता है, उसका सब तर्पण लाखगुना अधिक फल देनेवाला होता है। इसी प्रकार विद्वान् पुरुष यदि अनामिका अँगुलीमें सोनेकी अंगूठी पहनकर पितृवर्गका तर्पण करे तो वह करोड़ोंगुना अधिक फल देनेवाला होता है।
जो स्नान करनेके लिये जाता है, उसके पीछे प्याससे पीड़ित देवता और पितर भी वायुरूप होकरजलकी आशासे जाया करते हैं; किन्तु जब वह नहाकर धोती निचोड़ने लगता है, तब वे निराश लौट जाते हैं; अतः पितृतर्पण किये बिना धोती नहीं निचोड़नी चाहिये। मनुष्य के शरीरमें जो साढ़े तीन करोड़ रोएँ हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थोके प्रतीक हैं। उनका स्पर्श करके जो जल धोतीपर गिरता है, वह मानो सम्पूर्ण तीर्थोंका ही जल गिरता है; इसलिये तर्पणके पहले धोये हुए बस्वको निचोड़ना नहीं चाहिये। देवता स्नान करनेवाले व्यक्तिके मस्तक से गिरनेवाले जलको पीते हैं, पितर मूँछ-दाढ़ीके जलसे तृप्त होते हैं, गन्धर्व नेत्रोंका जल और सम्पूर्ण प्राणी अधोभागका जल ग्रहण करते हैं। इस प्रकार देवता, पितर, गन्धर्व तथा सम्पूर्ण प्राणी स्नानमात्रसे संतुष्ट होते हैं। स्नानसे शरीरमें पाप नहीं रह जाता। जो मनुष्य प्रतिदिन स्नान करता है, वह पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। देवता और महर्षि तर्पणतक स्नानका ही अंग मानते हैं। तर्पणके बाद विद्वान् पुरुषको देवताओंका पूजन करना चाहिये।
जो गणेशकी पूजा करता है, उसके पास कोई विघ्न नहीं आता। लोग धर्म और मोक्षके लिये लक्ष्मीपति भगवान् श्रीविष्णुकी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये शंकरकी, आरोग्यके लिये सूर्यकी तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये भवानीको पूजा करते हैं। देवताओंकी पूजा करनेके पश्चात् बलिवैश्वदेव करना चाहिये। पहले अग्निकार्य करके फिर ब्राह्मणको तृप्त करनेवाला अतिथियज्ञ करे। देवताओं और सम्पूर्ण प्राणियोंका भाग देकर मनुष्य स्वर्गलोकको जाता है। इसलिये प्रतिदिन पूरा प्रयत्न करके नित्यकमौका अनुष्ठान करना चाहिये। जो स्नान नहीं करता, वह मल भोजन करता है। जो जप नहीं करता, वह पीब और रक्तपान करता है। जो प्रतिदिन तर्पण नहीं करता, वह पितृघाती होता है। देवताओंकी पूजा न करनेपर ब्रह्महत्या के समान पाप लगता है। सन्ध्योपासन न करके पापी मनुष्य सूर्यकी हत्या करता है।
नारदजीने पूछा- पिताजी! ब्राह्मणादि वर्णोंकेसदाचार और उनके कर्तव्योंका क्रम बतलाइये, साथ ही समस्त प्रवृत्तिप्रधान कमका वर्णन कीजिये।
ब्रह्माजीने कहा- वत्स! मनुष्य आचारसे आयु, धन तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करता है। आचार अशुभ लक्षणोंका निवारण करता है। आचारहीन पुरुष संसारमें निन्दित, सदा दुःखका भागी, रोगी और अल्पायु होता है। अनाचारी मनुष्यको निश्चय ही नरकमें निवास करना पड़ता है तथा आचारसे श्रेष्ठ लोककी प्राप्ति होती है; इसलिये तुम आचारका यथार्थरूपमें वर्णन सुनो।
प्रतिदिन अपने घरको गोबरसे लीपना चाहिये। उसके बाद काठका पीढ़ा, बर्तन और पत्थर धोने चाहिये । काँसेका बर्तन राखसे और ताँबा खटाईसे शुद्ध होता है। सोने और चाँदी आदिके वर्तन जलमात्रसे धोनेपर शुद्ध हो जाते हैं। लोहेका पात्र आगके द्वारा तपाने और धोनेसे शुद्ध होता है अपवित्र भूमि खोदने जलाने, लीपने तथा धोनेसे एवं वर्षासे शुद्ध होती है। धातुनिर्मित पात्र, मणिपात्र तथा सब प्रकारके पत्थर से बने हुए पात्रकी भस्म और मृत्तिकासे शुद्धि बतायी गयी है। शय्या, स्त्री, बालक, वस्त्र, यज्ञोपवीत और कमण्डलु ये अपने हों तो सदा शुद्ध हैं और दूसरेके हों तो कभी शुद्ध नहीं माने जाते। एक वस्त्र धारण करके भोजन और स्नान न करे। दूसरेका उतारा हुआ वस्त्र कभी न धारण करे। केशों और दाँतोंकी सफाई सबेरे ही करनी चाहिये। गुरुजनोंको नित्यप्रति नमस्कार करना नित्यका कर्तव्य होना चाहिये। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-इन पाँचों अंगोंको धोकर विद्वान् पुरुष भोजन आरम्भ करे। जो इन पाँचोंको धोकर भोजन करता है, वह सौ वर्ष जीता है। देवता, गुरु, स्नातक, आचार्य और यज्ञमें दीक्षित ब्राह्मणकी छायापर जान-बूझकर पैर नहीं रखना चाहिये। गौओंके समुदाय, देवता, ब्राह्मण, घी, मधु, चौराहे तथा प्रसिद्ध वनस्पतियोंको अपने दाहिने करके चलना चाहिये। गौ-ब्राह्मण, अग्नि-ब्राह्मण, दो ब्राह्मण तथा पति-पत्नीके बीचसे होकर नहीं निकलना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह स्वर्गमें रहता हो तो भी नीचे गिर जाता है। जूठे हाथसे अग्नि, ब्राह्मण, देवता,गुरु, अपने मस्तक, पुष्पवाले वृक्ष तथा यज्ञोपयोगी पेड़का स्पर्श नहीं करना चाहिये। सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र- इन तीन प्रकारके तेजोंकी ओर जूठे मुँह कभी दृष्टि न डाले। इसी प्रकार ब्राह्मण, गुरु, देवता, राजा, श्रेष्ठ संन्यासी, योगी, देवकार्य करनेवाले तथा धर्मका उपदेश करनेवाले द्विजकी ओर भी जूठे मुँह दृष्टिपात न करे।
नदियों और समुद्र के किनारे, यज्ञ-सम्बन्धी वृक्षकी जड़के पास, बगीचेमें, फुलवारीमें, ब्राह्मणके निवास स्थानपर, गोशालामें तथा साफ-सुथरी सुन्दर सड़कोंपर तथा जलमें कभी मल-त्याग न करे। धीर पुरुष अपने हाथ, पैर, मुख और केशोंको रूखे न रखे। दाँतोंपर मैल न जमने दे। नखको मुँहमें न डाले। रविवार और मंगलको तेल न लगाये। अपने शरीर और आसनपर ताल न दे। गुरुके साथ एक आसनपर न बैठे। श्रोत्रियके धनका अपहरण न करे। देवता और गुरुका भी धन न ले। राजा, तपस्वी, पंगु, अंधे तथा स्त्रीका धन भी न ले। ब्राह्मण, गौ, राजा, रोगी भारसे दबा हुआ मनुष्य, गर्भिणी स्त्री तथा अत्यन्त दुर्बल पुरुष सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे होकर उन्हें जानेके लिये रास्ता दे । राजा, ब्राह्मण तथा वैद्यसे झगड़ा न करे। ब्राह्मण और गुरु- पत्नीसे दूर ही रहना चाहिये। पतित, कोढ़ी, चाण्डाल, गोमांस-भक्षी और समाजबहिष्कृतको दूरसे ही त्याग दे। जो स्त्री दुष्टा, दुराचारिणी, कलंक लगानेवाली, सदा ही कलहसे प्रेम करनेवाली, प्रमादिनी, निडर, निर्लज्ज, बाहर घूमने-फिरनेवाली, अधिक खर्च करनेवाली और सदाचारसे हीन हो, उसको भी दूरसे ही त्याग देना चाहिये।
बुद्धिमान् शिष्यको उचित है कि वह रजस्वला अवस्थामें गुरुपत्नीको प्रणाम न करे, उसका चरण स्पर्श न करे; यदि उस अवस्थामें भी वह उसे छू ले तो पुनः स्नान करनेसे ही उसकी शुद्धि होती है। शिष्य गुरु- पत्नीके साथ खेल-कूदमें भी भाग न ले। उसकी। बात अवश्य सुने; किन्तु उसकी ओर आँख उठाकर देखे नहीं। पुत्रवधू, भाईकी स्त्री, अपनी पुत्री, गुरुपत्नी तथाअन्य किसी युवती स्त्रीकी ओर न तो देखे और न उसका स्पर्श करे। उपर्युक्त स्त्रियोंकी ओर भ मटकाकर देखना, उनसे विवाद करना और अश्लील वचन बोलना सदा ही त्याज्य हैं। भूसी, अंगारे, हड्डी, राख, रुई निर्माल्य (देवताको अर्पण की हुई वस्तु), चिताकी लकड़ी, चिता तथा गुरुजनोंके शरीरपर कभी पैर न रखे अपवित्र, दूसरेका उच्छिष्ट तथा दूसरेकी रसोई बनानेके लिये रखा हुआ अन्न भोजन न करे। धीर पुरुष किसी दुष्टके साथ एक क्षण भी न तो ठहरे और न यात्रा ही करे। इसी प्रकार उसे दीपककी छायामें तथा बहेड़े वृक्षके नीचे भी खड़ा नहीं होना चाहिये।
अपनेसे छोटेको प्रणाम न करे। चाचा और मामा आदिके आनेपर उठकर आसन दे और उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा रहे। जो तेल लगाये हो [ किन्तु स्नान न किये हो], जिसके मुँह और हाथ जूठे हों, जो भीगे वस्त्र पहने हो, रोगी हो, समुद्रमें घुसा हो, उद्विग्न हो, भार ढो रहा हो, यज्ञ-कार्यमें लिप्त हो, स्त्रियोंके साथ क्रीड़ामें आसक्त हो, बालकके साथ खेल कर रहा हो तथा जिसके हाथोंमें फूल और कुश हों, ऐसे व्यक्तिको प्रणाम न करे। मस्तक अथवा कानोंको ढककर, जलमें खड़ा होकर, शिखा खोलकर, पैरोंको बिना धोये अथवा दक्षिणाभिमुख होकर आचमन नहीं करना चाहिये। यज्ञोपवीतसे रहित या नग्न होकर, कच्छ खोलकर अथवा एक वस्त्र धारण करके आचमन करनेवाला पुरुष शुद्ध नहीं होता। पहले तर्जनी, मध्यमा और अनामिका तीन अँगुलियोंसे मुखका स्पर्श करे, फिर अँगूठे और तर्जनीके द्वारा नासिकाका, अँगूठे और अनामिकाके द्वारा दोनों का कनिष्ठिका और अंगूठेके द्वारा दोनों कानोका केवल अँगूठेसे नाभिका करतलसे हृदयका, सम्पूर्ण अँगुलियोंसे मस्तकका तथा अँगुलियोंके अग्रभागसे दोनों बाहुओंका स्पर्श करके मनुष्य शुद्ध होता है। इस विधिसे आचमन करके मनुष्यको संयमपूर्वक रहना चाहिये। ऐसा करनेसे वह सब पापोंसे मुक्त होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। भीगे पैर सोना, सूखे पैर भोजन करना और अँधेरेमें शयन तथा भोजन करनानिषिद्ध है। पश्चिम और दक्षिणकी ओर मुँह करके दन्तधावन न करे। उत्तर और पश्चिम दिशाकी ओर सिरहाना करके कभी न सोये; क्योंकि इस प्रकार शयन करनेसे आयु क्षीण होती है। पूर्व और दक्षिण दिशाकी ओर सिरहाना करके सोना उत्तम है। मनुष्यके एक बारका भोजन देवताओंका भाग, दूसरी बारका भोजन मनुष्योंका, तीसरी बारका भोजन प्रेतों और दैत्योंका तथा चौथी बारका भोजन राक्षसोंका भाग होता है । ll 1 ll
जो स्वर्ग में निवास करके इस लोकमें पुनः उत्पन्न हुए हैं, उनके हृदयमें नीचे लिखे चार सद्गुण सदा मौजूद रहते हैं— उत्तम दान देना, मीठे वचन बोलना, देवताओंका पूजन करना तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट रखना ।इनके विपरीत कंजूसी, स्वजनोंकी निन्दा, मैले-कुचैले वस्त्र पहनना, नीच जनोंके प्रति भक्ति रखना, अत्यन्त क्रोध करना और कटुवचन बोलना-ये नरकसे लौटे हुए मनुष्योंके चिह्न हैं । 2 नवनीतके समान कोमल वाणी और करुणासे भरा कोमल हृदय-ये धर्मबीजसे उत्पन्न मनुष्योंकी पहचानके चिह्न हैं। दयाशून्य हृदय और आरीके समान मर्मस्थानोंको विदीर्ण करनेवाला तीखा वचन – ये पापबीजसे पैदा हुए पुरुषोंको पहचाननेके लक्षण हैं। जो मनुष्य इस आचार आदिसे युक्त प्रसंगको सुनता या सुनाता है, वह आचार आदिका फल पाकर पापसे शुद्ध हो स्वर्गमें जाता है और वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता।
अध्याय-39 पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! जो कर्म सबसे अधिक पुण्यजनक हो, जो संसारमें सदा और सबको प्रिय जान पड़ता हो तथा पूर्व पुरुषोंने जिसका अनुष्ठान किया हो, ऐसा कर्म आप अपनी इच्छाके अनुसार सोचकर बताइये।
पुलस्त्यजी बोले – राजन् ! एक समयकी बात है, व्यासजीकी शिष्यमण्डलीके समस्त द्विज आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम करके धर्मकी बात पूछने लगे-ठीक इसी तरह, जैसे तुम मुझसे पूछते हो।
द्विजोंने पूछा— गुरुदेव ! संसारमें पुण्यसे भी पुण्यतम और सब धर्मोंमें उत्तम कर्म क्या है? किसका अनुष्ठान करके मनुष्य अक्षय पदको प्राप्त करते हैं? मर्त्यलोकमें निवास करनेवाले छोटे-बड़े सभी वर्णोंके लोग जिसका अनुष्ठान कर सकें।
व्यासजी बोले- शिष्यगण मैं तुमलोगोंकोपाँच धर्मोके आख्यान सुनाऊँगा। उन पाँचोंमेंसे एकका भी अनुष्ठान करके मनुष्य सुयश, स्वर्ग तथा मोक्ष भी पा सकता है।
माता-पिताकी पूजा, पतिकी सेवा, सबके प्रति समान भाव, मित्रोंसे द्रोह न करना और भगवान् श्रीविष्णुका भजन करना – ये पाँच महायज्ञ हैं।
ब्राह्मणो ! पहले माता-पिताकी पूजा करके मनुष्य जिस धर्मका साधन करता है, वह इस पृथ्वीपर सैकड़ों यज्ञों तथा तीर्थयात्रा आदिके द्वारा भी दुर्लभ है। पिता धर्म है, पिता स्वर्ग है और पिता ही सर्वोत्कृष्ट तपस्या है। पिताके प्रसन्न हो जानेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जिसकी सेवा और सद्गुणोंसे पिता-माता सन्तुष्ट रहते हैं, उस पुत्रको प्रतिदिन गंगास्नानका फल मिलता है।
माता सर्वतीर्थमयी है और पिता सम्पूर्ण देवताओंका स्वरूप है; इसलिये सब प्रकारसे यत्नपूर्वक माता-पिताका पूजन करना चाहिये। जो माता-पिताकी प्रदक्षिणा करता है,उसके द्वारा सातों द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। माता-पिताको प्रणाम करते समय जिसके हाथ, घुटने और मस्तक पृथ्वीपर टिकते हैं, वह अक्षय स्वर्गको प्राप्त होता है। जबतक माता पिताके चरणोंकी रज पुत्रके मस्तक और शरीरमें लगती रहती है, तभीतक वह शुद्ध रहता है। जो पुत्र माता-पिताके चरणकमलोंका जल पीता है, उसके करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं। वह मनुष्य संसारमें धन्य है।
जो नीच पुरुष माता-पिताकी आज्ञाका उल्लंघन करता है, वह महाप्रलयपर्यन्त नरकमें निवास करता है जो रोगी, वृद्ध, जीविकासे रहित, अंधे और बहरे पिताको त्यागकर चला जाता है वह रौरव नरकमें पड़ता है। इतना ही नहीं, उसे अन्त्यजों, म्लेच्छों और चाण्डालोंकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। माता पिताका पालन-पोषण न करनेसे समस्त पुण्योंका नाश हो जाता है। माता-पिताकी आराधना न करके पुत्र यदि तीर्थ और देवताओंका सेवन भी करे तो उसे उसका फल नहीं मिलता।
ब्राह्मणो! इस विषयमें मैं एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ, यत्नपूर्वक उसका श्रवण करो। इसका श्रवण करके भूतलपर फिर कभी तुम्हें मोह नहीं व्यापेगा। पूर्वकालकी बात है— नरोत्तम नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण था वह अपने माता-पिताका अनादर करके तीर्थसेवनके लिये चल दिया। सब तीर्थोंमें घूमते हुए उस ब्राह्मणके वस्त्र प्रतिदिन आकाशमें ही सूखते थे।इससे उसके मनमें बड़ा भारी अहंकार हो गया। वह समझने लगा, मेरे समान पुण्यात्मा और महायशस्वी दूसरा कोई नहीं है। एक दिन वह मुख ऊपरकी ओर करके यही बात कह रहा था, इतनेमें ही एक बगलेने उसके मुँहपर बीट कर दी तब ब्राह्मणने क्रोधमें आकर उसे शाप दे दिया। बेचारा बगला राखकी ढेरी होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बगलेकी मृत्यु होते ही नरोत्तमके भीतर महामोहने प्रवेश किया। उसी पापसे ब्राह्मणका वस्त्र अब आकाशमें नहीं ठहरता था। यह जानकर उसे | बड़ा खेद हुआ। तदनन्तर आकाशवाणीने कहा’ब्राह्मण तुम परम धर्मात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ वहाँ जानेसे तुम्हें धर्मका ज्ञान होगा। उसका वचन तुम्हारे लिये कल्याणकारी होगा।’
यह आकाशवाणी सुनकर ब्राह्मण मूक चाण्डालके घर गया। वहाँ जाकर उसने देखा, वह चाण्डाल सब प्रकारसे अपने माता-पिताकी सेवामें लगा है। जाड़के दिनोंमें वह अपने माँ-बापको स्नानके लिये गरम जल देता, उनके शरीरमें तेल मलता, तापनेके लिये अँगीठी जलाता, भोजनके पश्चात् पान खिलाता और रूईदार कपड़े पहननेको देता था। प्रतिदिन मिष्टान्न भोजनके लिये परोसता और वसन्तऋतु में महुएकी सुगन्धित माला पहनाता था। इनके सिवा और भी जो भोग सामग्रियाँ प्राप्त होतीं, उन्हें देता और भाँति-भाँतिकी आवश्यकताएँ पूर्ण किया करता था। गर्मी मौसम प्रतिदिन माता-पिताको पंखा झलता था। इस प्रकार नित्यप्रति उनकी परिचर्या करके ही वह भोजन करता था। माता-पिताकी थकावट और कष्टका निवारण करना उसका सदाका नियम था। इन पुण्यकमोंके कारण चाण्डालका घर बिना किसी आधार और खंभेके हीआकाशमें स्थित था। उसके अंदर त्रिभुवनके स्वामी भगवान् श्रीहरि मनोहर ब्राह्मणका रूप धारण किये नित्य क्रीड़ा करते थे। वे सत्यस्वरूप परमात्मा अपने महान् सत्त्वमय तेजस्वी विग्रहसे उस चाण्डाल-मन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे यह सब देखकर ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ उसने मूक चाण्डालसे कहा- तुम मेरे पास आओ, मैं तुमसे सम्पूर्ण लोकोंके सनातन हितकी बात पूछता है उसे ठीक-ठीक बताओ।”
मूक चाण्डाल बोला- विप्र ! इस समय मैं माता-पिताकी सेवा कर रहा हूँ, आपके पास कैसे आऊँ ? इनकी पूजा करके आपकी आवश्यकता पूर्ण करूँगा; तबतक मेरे दरवाजेपर ठहरिये, मैं आपका अतिथि सत्कार करूँगा।
चाण्डालके इतना कहते ही ब्राह्मण देवता आगबबूला हो गये और बोले- ‘मुझ ब्राह्मणकी सेवा छोड़कर तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य बड़ा हो सकता है।’
चाण्डाल बोला- बाबा! क्यों व्यर्थ कोप करते हैं, मैं बगला नहीं हूँ। इस समय आपका क्रोध बगलेपर ही सफल हो सकता है, दूसरे किसीपर नहीं। अब आपकी धोती न तो आकाशमें सूखती है और न ठहर ही पाती है। अतः आकाशवाणी सुनकर आप मेरे घरपर आये हैं। थोड़ी देर ठहरिये तो मैं आपके प्रश्नका उत्तर दूँगा; अन्यथा पतिव्रता स्त्रीके पास जाइये। द्विजश्रेष्ठ! पतिव्रता स्त्रीका दर्शन करनेपर आपका अभीष्ट सिद्ध होगा।
व्यासजी कहते हैं—तदनन्तर चाण्डालके घरसे ब्राह्मणरूपधारी भगवान् श्रीविष्णुने निकलकर उस द्विजसे कहा-‘चलो, मैं पतिव्रता देवीके घर चलता हूँ।’ द्विजश्रेष्ठ नरोत्तम कुछ सोचकर उनके साथ चल दिया। उसके मनमें बड़ा विस्मय हो रहा था । उसने रास्तेमें भगवान्से पूछा- ‘विप्रवर! आप इस चाण्डालके घरमें जहाँ रहती है. किसलिये निवास करते हैं?’
ब्राह्मणरूपधारी भगवान् ने कहा- विप्रवर इस समय तुम्हारा हृदय शुद्ध नहीं है; पहले पतिव्रताआदिका दर्शन करो, उसके बाद मुझे ठीक-ठीक जान सकोगे।
ब्राह्मणने पूछा- तात! पतिव्रता कौन है? उसका शास्त्रज्ञान कितना बड़ा है? जिस कारण मैं उसके पास जा रहा हूँ, वह भी मुझे बतलाइये।
श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन्! नदियोंमें गंगाजी, स्त्रियोंमें पतिव्रता और देवताओंमें भगवान् श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं। जो पतिव्रता नारी प्रतिदिन अपने पतिके हितसाधनमें लगी रहती है, वह अपने पितृकुल और पतिकुल दोनों कुलकी सौ-सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है।
ब्राह्मणने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! कौन स्त्री पतिव्रता होती है? पतिव्रताका क्या लक्षण है? मैं जिस प्रकार इस बातको ठीक-ठीक समझ सकूँ, उस प्रकार उपदेश कीजिये।
श्रीभगवान् बोले- जो स्त्री पुत्रकी अपेक्षा सौगुने स्नेहसे पतिकी आराधना करती है, राजाके समान उसका भय मानती है और पतिको भगवान् का स्वरूप समझती है, वह पतिव्रता है जो गृहकार्य करनेमें दासी, रमणकालमें वेश्या तथा भोजनके समय माताके समान आचरण करती है और जो विपत्ति में स्वामीको नेक सलाह देकर मन्त्रीका काम करती है, यह स्त्री पतिव्रता मानी गयी है जो मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा कभी पतिकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करती तथा हमेशा पतिके भोजन कर लेनेपर ही भोजन करती है, उस स्त्रीको पतिव्रता समझना चाहिये। जिस-जिस शय्यापर पति शयन करते हैं। यहाँ जो प्रतिदिन यत्नपूर्वक उनकी पूजा करती है, पतिके प्रति कभी जिसके मनमें डाह नहीं पैदा होती, कृपणता नहीं आती और जो मान भी नहीं करती, पतिकी ओरसे आदर मिले या अनादर दोनोंमें जिसकी समान बुद्धि रहती है, ऐसी स्त्रीको पतिव्रता कहते हैं। जो साध्वी स्त्री सुन्दर वेषधारी परपुरुषको देखकर उसे भ्राता, पिता अथवा पुत्र मानती है, वह भी पतिव्रता है।”
द्विजश्रेष्ठ! तुम उस पतिव्रताके पास जाओ और उसे अपना मनोरथ कह सुनाओ। उसका नाम शुभा है। वह रूपवती युवती है, उसके हृदयमें दया भरी है। वह बड़ी यशस्विनी है। उसके पास जाकर तुम अपने हितकी बात पूछो।
व्यासजी कहते हैं- यों कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उन्हें अदृश्य होते देख ब्राह्मणको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पतिव्रताके घर जाकर उसके विषयमें पूछा। अतिथिकी बोली सुनकर पतिव्रता स्त्री वेगपूर्वक घरसे निकली और ब्राह्मणको आया देख दरवाजेपर खड़ी हो गयी। ब्राह्मणने उसे देखकर प्रसन्नतापूर्वक उससे कहा-‘देवि! तुमने जैसा देखा और समझा है, उसके अनुसार स्वयं ही सोचकर मेरे लिये प्रिय और हितकी बात बताओ।’पतिव्रता बोली- ब्रह्मन् इस समय मुझे पतिदेवकी पूजा करनी है, अतः अवकाश नहीं है; इसलिये आपका कार्य पीछे करूँगी। इस समय मेरा आतिथ्य ग्रहण कीजिये।
ब्राह्मण बोला- कल्याणी! मेरे शरीरमें इस समय भूख, प्यास और थकावट नहीं है। मुझे अभीष्ट बात बताओ, नहीं तो तुम्हें शाप दे दूँगा।
पतिव्रताने कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ ! मैं बगला नहीं हूँ, आप धर्म तुलाधार के पास जाइये और उन्हींसे अपने हितकी बात पूछिये।’ यों कहकर वह महाभागा पतिव्रता घरके भीतर चली गयी। तब ब्राह्मणने चाण्डालके घरकी भाँति वहाँ भी विप्ररूपधारी भगवान्को उपस्थित देखा। उन्हें देखकर वह बड़े विस्मयमें पड़ा और कुछ सोच-विचारकर उनके समीप गया । घरमें जानेपर उसे हर्षमें भरे हुए ब्राह्मण और उस पतिव्रताके भी दर्शन हुए।
उन्हें देखकर नरोत्तम ब्राह्मणने कहा- ‘तात! देशान्तरमें जो घटना घटी थी, उसे इस पतिव्रता देवीने भी बता दिया और चाण्डालने तो बताया ही था। ये लोग उस घटनाको कैसे जानते हैं? इस बातको लेकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। इससे बढ़कर महान् आश्चर्य और क्या हो सकता है।
श्रीभगवान् बोले- तात! महात्मा पुरुष अत्यन्त पुण्य और सदाचारके बलपर सबका कारण जान लेते हैं, जिससे तुम्हें विस्मय हुआ है। मुने। बताओ, इस समय उस पतिव्रताने तुमसे क्या कहा है?
ब्राह्मणने कहा- वह तो मुझे धर्म- तुलाधारसे प्रश्न करनेके लिये उपदेश देती है।
श्रीभगवान बोले- ‘मुनिश्रेष्ठ आओ, मैं उसके पास चलता हूँ।’ यों कहकर भगवान् जब चलने लगे, तबब्राह्मणने पूछा- ‘तुलाधार कहाँ रहता है?” श्रीभगवान्ने कहा- जहाँ मनुष्योंकी भीड़ एकत्रित है और नाना प्रकारके द्रव्योंकी बिक्री हो रही है, उस बाजारमें तुलाधार वैश्य इधर-उधर क्रय-विक्रय करता है। उसने कभी मन, वाणी या क्रियाद्वारा किसीका कुछ बिगाड़ नहीं किया, असत्य नहीं बोला और दुष्टता नहीं की। वह सब लोगोंके हितमें तत्पर रहता है। सब प्राणियों में समान भाव रखता तथा ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझता है। लोग जौ, नमक, तेल, घी, अनाजकी ढेरियाँ तथा अन्यान्य संगृहीत वस्तुएँ उसकी जबानपर ही लेते-देते हैं। वह प्राणान्त उपस्थित होनेपर भी सत्य छोड़कर कभी झूठ नहीं बोलता । इसीसे वह धर्म-तुलाधार कहलाता है।
श्रीभगवान् के यौं कहनेपर ब्राह्मणने नाना प्रकारके रसौको बेचते हुए तुलाधारको देखा वह विक्रीकी वस्तुओंके सम्बन्धमें बातें कर रहा था। बहुत से पुरुष -से और स्त्रियाँ उसे चारों ओरसे घेरकर खड़ी थीं। ब्राह्मणको उपस्थित देख तुलाधारने मधुर वाणीमें पूछा- ‘ब्रह्मन् ! यहाँ कैसे पधारना हुआ ?’ ब्राह्मणने कहा- मुझे धर्मका उपदेश करो, मैं इसीलिये तुम्हारे पास आया हूँ।
तुलाधार बोला- विप्रवर! जबतक लोग मेरे पास रहेंगे, तबतक मैं निश्चिन्त नहीं हो सकूँगा। पहरभर राततक यही हालत रहेगी। अतः आप मेरा उपदेश मानकर धर्माकरके पास जाइये। बगलेकी मृत्युसे होनेवाला दोष और आकाश धोती सुखानेका रहस्य ये सभी बातें आगे आपको मालूम हो जायँगी। धर्माकरका नाम अद्रोहक है। वे बड़े सज्जन हैं। उनके पास जाइये। वहाँ उनके उपदेशसे आपकी कामना सफल होगी।यों कहकर तुलाधार खरीद-बिक्रीमें लग गया। सोत्तमने विप्ररूपधारी भगवान् से पूछा-‘तात। अब मैं तुलाधारके कथनानुसार सज्जन अद्रोहकके पास जाऊँगा। परन्तु मैं उनका घर नहीं जानता।’
श्रीभगवान् बोले – चलो, मैं तुम्हारे साथ उनके घर चलूँगा।
तदनन्तर मार्गमें जाते हुए भगवान् ब्राह्मणने पूछा- ‘तात! तुलाधार न तो देवताओं एवं ऋषियोंका और न पितरोंका ही तर्पण करता है। फिर देशान्तरमें संघटित हुए मेरे वृत्तान्तको वह कैसे जानता है? इससे मुझे बड़ा विस्मय होता है। आप इसका सब कारण बताइये।
श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् उसने सत्य और समतासे तीनों लोकोंको जीत लिया है; इसीसे उसके ऊपर पितर देवता तथा मुनि भी सन्तुष्ट रहते हैं। धर्मात्मा तुलाधार उपर्युक्त गुणोंके कारण ही भूत और भविष्यको सब बातें जानता है। सत्यसे बढ़कर कोई धर्म और झूठसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है। * जो पुरुष पापसे रहित और समभावमें स्थित है, जिसका चित्त शत्रु, मित्र और उदासीनके प्रति समान है, उसके सब पापका नाश हो जाता है और वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है समता धर्म और समता ही उत्कृष्ट तपस्या है। जिसके हृदयमें सदा समता विराजती है, वही पुरुष सम्पूर्ण लोकोंमें श्रेष्ठ, योगियोंमें गणना करनेके योग्य और निर्लोभ होता है। जो सदा इसी प्रकार समतापूर्ण बर्ताव करता है, वह अपनी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। उस पुरुषमें सत्य, इन्द्रिय-संयम, मनोनिग्रह, धीरता, स्थिरता, निलभता और आलस्य होनता- ये सभी गुण प्रतिष्ठित होते हैं। समताके प्रभावसे धर्मज्ञ पुरुष देवलोक और मनुष्य लोकके सम्पूर्ण वृतान्तोंको जान लेता है। उसकी देहकेभीतर भगवान् श्रीविष्णु विराजमान रहते हैं। सत्य और सरलता आदि गुणोंमें उसकी समानता करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं होता। वह साक्षात् धर्मका स्वरूप होता है और वहीं इस जगत्को धारण करता है।
ब्राह्मणने कहा- विप्रवर! आपकी कृपासे मुझे तुलाधारके सर्वज्ञ होनेका कारण ज्ञात हो गया; अब अद्रोहकका जो वृत्तान्त हो, वह मुझे बताइये।
श्रीभगवान् बोले- विप्रवर! पूर्वकालकी बात है, एक राजपुत्रकी कुलवती स्त्री बड़ी सुन्दरी और नयी अवस्थाकी थी। वह कामदेवकी पत्नी रति और इन्द्रकी पत्नी शचीके समान मनको हरनेवाली थी। राजकुमार उसे अपने प्राणोंके समान प्यार करते थे। उस सुन्दरी भार्याका नाम भी सुन्दरी ही था। एक दिन राजकुमारको राजकार्यके लिये ही अकस्मात् बाहर जानेके लिये उद्यत होना पड़ा। उन्होंने मन-ही-मन सोचा- ‘मैं प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारी अपनी इस भार्याको किस स्थानपर रखूँ, जिससे इसके सतीत्वकी रक्षा निश्चितरूपसे हो सके।’ इस बातपर खूब विचार करके राजकुमार सहसा अद्रोहकके घरपर आये और उनसे अपनी पत्नीकी रक्षाका प्रस्ताव करने लगे। उनकी बात सुनकर अद्रोहकको बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले-‘तात ! न तो मैं आपका पिता हूँ, न भाई हूँ, न बान्धव हूँ, न आपकी पत्नीके पिता-माताके कुलका ही; तथा सुहृदोंमेंसे भी कोई नहीं हूँ, फिर मेरे घरमें इसको रखनेसे आप किस प्रकार निश्चिन्त हो सकेंगे ?’
राजकुमार बोले- महात्मन्! इस संसारमें आपके समान धर्मज्ञ और जितेन्द्रिय पुरुष दूसरा कोई नहीं है। यह सुनकर अद्रोहकने उस विज्ञ राजकुमारसे कहा- ‘भैया! मुझे दोष न देना। इस त्रिभुवन मोहिनी भार्याकी रक्षा करनेमें कौन पुरुष समर्थ हो सकता है।
राजपुत्रने कहा- मैं सब बातोंका भलीभाँति विचार करके ही आपके पास आया हूँ। यह आपके घरमें रहे, अब मैं जाता हूँ। राजकुमारके यों कहनेपर वे फिर बोले-
भैया! इस शोभासम्पन्न नगरमें बहुतेरे कामी पुरुष भरे पड़े हैं। यहाँ किसी स्त्रीके सतीत्वकी रक्षा कैसे हो सकती है।’ राजकुमार पुनः बोले-‘जैसे भी हो, रक्षा कीजिये। मैं तो अब जाता हूँ।’ गृहस्थ अद्रोहकने धर्मसंकटमें पड़कर कहा- ‘तात! मैं उचित और हितकारी समझकर इसके साथ सदा अनुचित बर्ताव करूँगा और उसी अवस्थामें ऐसी स्त्री सदा मेरे घरमें सुरक्षित रह सकती है अन्यथा इस अरक्ष्य वस्तुकी रक्षाके लिये आप ही कोई अनुकूल और प्रिय उपाय बतलाइये। इसे मेरी शय्यापर मेरे एक और मेरी स्त्रीके साथ शयन करना होगा। फिर भी यदि आप इसे अपनी वल्लभा समझें, तब तो यह रह सकती है; नहीं तो यहाँसे चली जाय।’ यह सुनकर राजकुमारने एक क्षणतक कुछ विचार किया; फिर बोले—’तात! मुझे आपकी बात स्वीकार है। आपको जो अनुकूल जान पड़े, वही कीजिये।’ ऐसा कहकर राजकुमार अपनी पत्नीसे बोले- ‘सुन्दरी । तुम इनके कथनानुसार सब कार्य करना, तुमपर कोई दोष नहीं आयेगा। इसके लिये मेरी आज्ञा है’ यों कहकर वे अपने पिता महाराजके आदेशसे गन्तव्य स्थानको चले गये। तदनन्तर रातमें अद्रोहकने जैसा कहा था, वैसा ही किया। वे धर्मात्मा नित्यप्रति दोनों स्त्रियोंके बीचमें शयन करते थे। फिर भी वे अपनी और परायी स्त्रीके विषयमें कभी धर्मसे विचलित नहीं होते थे। अपनी स्त्रीके स्पर्शसे ही उनके मनमें कामोपभोगकी इच्छा होती थी। इधर राजकुमारकी स्त्रीके स्तन भी बार बार उनकी पीठमें लग जाते थे; किन्तु उसका उनके प्रति वैसा ही भाव होता था, जैसा बालक पुत्रका माताके स्तनोंके प्रति होता है। वे प्रतिदिन उसके प्रति मातृभावको ही दृढ़ रखते थे। क्रमशः उनके हृदयसे स्त्री-संभोगकी इच्छा ही जाती रही। इस प्रकार छः मास व्यतीत होनेपर राजकुमारीके पति अद्रोहकके नगरमें आये। उन्होंने लोगोंसे अद्रोहक तथा अपनी स्त्रीके बर्तावके सम्बन्धमें पूछा। लोगोंने भी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उत्तर दिया। कोई राजकुमारके प्रबन्धको उत्तम बताते थे। कुछ नौजवान उनकी बात सुनकर आश्चर्यमें पड़ जाते थे और कुछ लोग इस प्रकार उत्तर देते थे-‘भाई! तुमने अपनी स्त्री उसे साँप दी है और वह उसीके साथ शयन करता है। स्त्री और पुरुषमें एकत्र संसर्ग होनेपर दोनोंके मन शान्त कैसे रह सकते हैं।’ अद्रोहकने अपने धर्माचरणके बलसे लोगोंकी कुत्सित चर्चा सुन ली तब उनके मनमें लोकनिन्दासे मुक्त होनेका शुभ संकल्प प्रकट हुआ। उन्होंने स्वयं लकड़ी एकत्रित करके एक बहुत बड़ी चिता बनायी और उसमें आग लगा दी। चिता प्रज्वलित हो उठी। इसी समय प्रतापी राजकुमार अद्रोहकके घर आ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अद्रोहक तथा अपनी पत्नीको भी देखा। पत्नीका मुख प्रसन्नतासे खिला हुआ था और अद्रोहक अत्यन्त विषादयुक्त थे। उन दोनोंकी मानसिक स्थिति जानकर राजकुमारने कहा- ‘भाई! मैं आपका मित्र हूँ और बहुत दिनोंके बाद यहाँ लौटा हूँ। आप मुझसे बातचीत क्यों नहीं करते ?
‘अहकने कहा- मित्र मैंने आपके हितके लिये जो दुष्कर कर्म किया है, वह लोक-निन्दाके कारण व्यर्थ सा हो गया है। अतः अब मैं अग्निमें प्रवेश करूँगा। सम्पूर्ण देवता और मनुष्य मेरे इस कार्यको देखें।
श्रीभगवान् कहते हैं- ऐसा कहकर महाभाग अोहक अग्निमें प्रवेश कर गये। किन्तु अग्नि उनके शरीर, वस्त्र और केशको जला नहीं सका। आकाशमें खड़े समस्त देवता प्रसन्न होकर उन्हें साधुवाद देने लगे।
सबने चारों ओरसे उनके मस्तकपर फूलोंकी वर्ष की जिन-जिन लोगोंने राजकुमारकी पत्नी और अद्रोह के सम्बन्धमें कलंकपूर्ण बात कही थी, उनके मुँहपर नाना प्रकारकी कोढ़ हो गयी। देवताओंने वहाँ उपस्थित हो अद्रोहकको आगसे खींचकर बाहर निकाला और प्रसन्नतापूर्वक दिव्य पुष्पोंसे उनका पूजन किया। उनका चरित्र सुनकर मुनियोंको भी बड़ा विस्मय हुआ। समस्त मुनिवरों तथा विभिन्न वर्णोंके मनुष्योंने उन महातेजस्वी महात्माका पूजन किया और उन्होंने भी सबका विशेष आदर किया। उस समय देवताओं, असुरों और मनुष्योंने मिलकर उनका नाम सज्जनाद्रोहक रखा। उनके चरणोंकी भूलिसे पवित्र हुई भूमिके ऊपर खेतीकी उपज अधिक होने लगी। देवताओंने राजकुमारसे कहा- ‘तुम अपनी इस स्त्रीको स्वीकार करो। इन अद्रोहकके समान कोई मनुष्य इस संसारमें नहीं हुआ है। इस समय इस पृथ्वीपर दूसरा कोई ऐसा पुरुष नहीं है, जिसे काम और लोभने परास्त न किया हो। देवता, असुर, मनुष्य, राक्षस, मृग, पक्षी और कीट आदि सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये यह काम दुर्जय है। काम, लोभ और क्रोधके कारण ही प्राणियोंको सदा जन्म लेना पड़ता है। काम ही संसार-बन्धनमें डालनेवाला है। प्राय: कहीं भी कामरहित पुरुषका मिलना कठिन है। इन अद्रोहकने सबको जीत लिया है; चौदहों भुवनोंपर ‘विजय प्राप्त की है। इनके हृदयमें भगवान् श्रीवासुदेव बड़ी प्रसन्नताके साथ नित्य विराजमान रहते हैं। इनका स्पर्श और दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और निष्पाप होकर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं।’यों कहकर देवता विमानोंपर बैठ आनन्दपूर्वक स्वर्गलोकको पधारे। मनुष्य भी सन्तुष्ट होकर अपने अपने स्थानको चल दिये तथा वे दोनों स्त्री-पुरुष भी अपने राजमहलको चले गये। तबसे अद्रोहकको दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गयी है। ये देवताओंको भी देखते हैं और तीनों लोकोंकी बातें अनायास ही जान लेते हैं। व्यासजी कहते हैं- तदनन्तर अद्रोहककी गली में जाकर द्विजने उनका दर्शन किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ उनसे धर्ममय उपदेश तथा हितकी बातें पूछौं ।
सज्जनाद्रोहकने कहा- धर्मज्ञ ब्राह्मण! आप पुरुषोंमें श्रेष्ठ वैष्णवके पास जाइये उनका दर्शन करनेसे इस समय आपका मनोरथ सफल होगा। बगलेकी मृत्यु तथा आकाशमें वस्त्रके न सूखने आदिका कारण आपको विदित हो जायगा। इसके सिवा आपके हृदयमें और भी जो-जो कामनाएँ हैं, उनकी भी पूर्ति हो जायगी।
यह सुनकर वह ब्राह्मण द्विजरूपधारी भगवान्के साथ प्रसन्नतापूर्वक वैष्णवके यहाँ आया। वहाँ पहुँचकर उसने सामने बैठे हुए शुद्ध हृदयवाले एक तेजस्वी पुरुषको देखा, जो समस्त शुद्ध लक्षणोंसे सम्पन्न एवं अपने तेजसे देदीप्यमान थे। धर्मात्मा द्विजने ध्यानमग्न हरिभक्तसे कहा- ‘महात्मन्! मैं बहुत दूरसे आपके पास आया हूँ। मेरे लिये जो-जो कर्तव्य उचित हो, उसका उपदेश कीजिये।’
वैष्णवने कहा- देवताओंमें श्रेष्ठ भगवान् श्रीविष्णु तुमपर प्रसन्न हैं। इस समय तुम्हें देखकर मेरा हृदय उल्लसित-सा हो रहा है। अतः तुम्हें अनुपम कल्याणकी प्राप्ति होगी। आज तुम्हारा मनोरथ सफल होगा। मेरे घरमें भगवान् श्रीविष्णु विराजमान हैं।
वैष्णवके यों कहनेपर ब्राह्मणने पुन: उनसे कहा- ‘भगवान् श्रीविष्णु कहाँ हैं, आज कृपा करके मुझे उनका दर्शन कराइये।’
वैष्णवने कहा- इस सुन्दर देवालयमें प्रवेश करके तुम परमेश्वरका दर्शन करो। ऐसा करनेसे तुम्हें जन्म और मृत्युके बन्धनमें डालनेवाले घोर पापसे छुटकारा मिल जायगा।उनकी बात सुनकर जब ब्राह्मणने देवमन्दिरमें प्रवेश किया तो देखावे ही विप्ररूपधारी भगवान् कमलके आसनपर विराजमान हैं। ब्राह्मणने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके दोनों चरण पकड़कर कहा- ‘देवेश्वर ! अब मुझपर प्रसन्न होइये। मैंने पहले आपको नहीं पहचाना था। प्रभो। इस लोक और परलोकमें भी मैं आपका किंकर बना रहूँ। मधुसूदन! मुझे अपने ऊपर आपका प्रत्यक्ष अनुग्रह दिखायी दिया है। यदि मुझपर कृपा हो तो मैं आपका साक्षात् स्वरूप देखना चाहता हूँ।’
भगवान् श्रीविष्णु बोले- भूदेव तुम्हारे ऊपर मेरा प्रेम सदा ही बना रहता है। मैंने स्नेहवश ही तुम्हें पुण्यात्मा महापुरुषोंका दर्शन कराया है। पुण्यवान् महात्माओंके एक बार भी दर्शन, स्पर्श, ध्यान एवं नामोच्चारण करनेसे तथा उनके साथ वार्तालाप करनेसे मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। महापुरुषका नित्य संग करनेसे सब पापका नाश हो जाता है तथा मनुष्य अनन्त सुख भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन होता है। जो मनुष्य पुण्य तीर्थोंमें स्नान करके शंकरजी तथा पुण्यात्मा पुरुषोंके आश्रमका दर्शन करता है, वह भी मेरे शरीरमें लीन हो जाता है। एकादशी तिथिको जो मेरा ही दिन (हरिवासर) है-उपवास करके जो लोगों के सामने पुण्यमयी कथा कहता है, वह भी मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है। मेरे चरित्रका श्रवण करते हुए जो रात्रिमें जागता है, उसका भी मेरे शरीरमें लय होता है। विप्रवर! जो प्रतिदिन ऊँचे स्वरसे गीत गाते और बाजा बजाते हुए मेरे नामोंका स्मरण करता है, उसका भी मेरी देहमें लय होता है। जिसका मन तपस्वी, राजा और गुरुजनोंसे कभी द्रोह नहीं करता, वह भी मेरे स्वरूपमेंलीन होता है। तुम मेरे भक्त और तीर्थस्वरूप हो; किन्तु तुमने बगलेकी मृत्युके लिये जो शाप दिया था, उसके दोषसे छुटकारा दिलानेके लिये मैंने ही वहाँ उपस्थित होकर कहा कि ‘तुम पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ और तीर्थस्वरूप महात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ।’ तात ! उस महात्माका दर्शन करके तुमने देखा ही था कि वह किस प्रकार अपने माता-पिताका पूजन करता था। उन सभी महात्माओंके दर्शनसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे और मेरा सम्पर्क होनेसे आज तुम मेरे मन्दिरमें आये हो करोड़ों जन्मोंके बाद जिसके पापका क्षय होता है, वह धर्मज्ञ पुरुष मेरा दर्शन करता है, जिससे उसे प्रसन्नता प्राप्त होती है। वत्स! मेरे ही अनुग्रहसे तुमको मेरा दर्शन हुआ है। इसलिये तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे वरदान माँग लो।
ब्राह्मण बोला – नाथ! मेरा मन सर्वथा आपके ही ध्यानमें स्थित रहे, सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी माधव! आपके सिवा कोई भी दूसरी वस्तु मुझे कभी प्रिय न लगे।
श्रीभगवान्ने कहा – निष्पाप ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धिमें सदा ऐसा उत्तम विचार जाग्रत् रहता है; इसलिये तुम मेरे धाममें आकर मेरे ही समान दिव्य भोगोंका उपभोग करोगे किन्तु तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर नहीं पा रहे हैं; अतः पहले माता-पिताको पूजा करो, इसके बाद मेरे स्वरूपको प्राप्त हो सकोगे! उनके दुःखपूर्ण उच्छ्वास और क्रोधसे तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन नष्ट हो रही है। जिस पुत्रके ऊपर सदा ही माता पिताका कोप रहता है, उसको नरकमें पड़नेसे में, ब्रह्मा तथा महादेवजी भी नहीं रोक सकते। इसलिये तुम माता-पिताके पास जाओ और यत्नपूर्वक उनकी पूजा करो फिर उन्हींकी कृपासे तुम मेरे पदको प्राप्त होगे।व्यासजी कहते हैं- जगद्गुरु भगवान्के ऐसा कहनेपर द्विजश्रेष्ठ नरोत्तमने फिर इस प्रकार कहा ‘नाथ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने स्वरूपका दर्शन कराइये।’ तब सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र कर्ता एवं ब्राह्मण हितैषी भगवान्ने नरोत्तमके प्रेमसे प्रसन्न होकर उस पुण्यकर्मा ब्राह्मणको शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये अपने पुरुषोत्तम रूपका दर्शन कराया। उनके तेजसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा था। ब्राह्मण दण्डकी भाँति धरतीपर गिरकर भगवान्को प्रणाम किया और कहा- ‘जगदीश्वर! आज मेरा जन्म सफल हुआ; आज मेरे नेत्र कल्याणमय हो गये। इस समय मेरे दोनों हाथ प्रशस्त हो गये। आज मैं भी धन्य हो गया। मेरे पूर्वज सनातन ब्रह्मलोकको जा रहे हैं। जनार्दन ! आज आपकी कृपासे मेरे बन्धुबान्धव आनन्दित हो रहे हैं! इस समय मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हो गये। किन्तु नाथ! मूक चाण्डाल आदि जारी महात्माओंकी बात सोचकर मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। भला वे लोग देशान्तरमें होनेवाले मेरे वृत्तान्तको कैसे जानते हैं? मूक चाण्डालके घरमें आप अत्यन्त सुन्दर ब्राह्मणका रूप धारण किये।विराजमान थे; इसी प्रकार पतिव्रताके घरमें तुलाधारके यहाँ, मित्राद्रोहकके भवनमें तथा इन वैष्णव महात्माके मन्दिरमें भी आपका दर्शन हुआ है। इन सब बातोंका यथार्थ रहस्य क्या है? मुझपर अनुग्रह करके बताइये।’
श्रीभगवान्ने कहा- विप्रवर! मूक चाण्डाल सदा अपने माता-पितामें भक्ति रखता है। शुभा देवी पतिव्रता है। तुलाधार सत्यवादी है और सब लोगोंके प्रति समान भाव रखता है। अद्रोहकने लोभ और कामपर विजय पायी है तथा वैष्णव मेरा अनन्य भक्त है। इन्हीं सद्गुणोंके कारण प्रसन्न होकर मैं इन सबके घरमें सानन्द निवास करता हूँ। मेरे साथ सरस्वती और लक्ष्मी भी इन लोगोंके यहाँ मौजूद रहती हैं। मूक चाण्डाल त्रिभुवनमें सबका कल्याण करनेवाला है। चाण्डाल होनेपर भी वह सदाचारमें स्थित है; इसलिये देवता उसे ब्राह्मण मानते हैं। पुण्य कर्मद्वारा मूक चाण्डालको समानता करनेवाला इस संसार में दूसरा कोई नहीं है। वह सदा माता-पिताकी भक्तिमें संलग्न रहता है। उसने [अपनी इस भक्तिके बलसे] तीनों लोकोंको जीत लिया है। उसकी माता-पिताके प्रति भक्ति देखकर मैं बहुत सन्तुष्ट रहता हूँ और इसीलिये उसके घरके भीतर आकाशमें सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्राह्मणरूपसे निवास करता है। इसी प्रकार मैं उस पतिव्रता, तुलाधारके, अद्रोहरूके और इस वैष्णवके घरमें भी सदा निवास करता हूँ। धर्मज्ञ! एक मुहूर्तके लिये भी मैं इन लोगोंका घर नहीं छोड़ता । जो पुण्यात्मा हैं, वे ही मेरा प्रतिदिन दर्शन पाते हैं; दूसरे पापी मनुष्य नहीं तुमने अपने पुण्यके प्रभावसे और मेरे अनुग्रहके कारण मेरा दर्शन किया है; अब मैं क्रमशः उन महात्माओंके सदाचारका वर्णन करूँगा, तुम ध्यान देकर सुनो। ऐसे वर्णनोंको सुनकर मनुष्य जन्म और मृत्युके बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाता है। देवताओं में भी, पिता और मातासे बढ़कर तीर्थ नहीं है। जिसने माता-पिताकी आराधना की है, वही पुरुषोंमें श्रेष्ठ है। वह मेरे हृदयमें रहता है और मैं उसके हृदयमें हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता। इहलोक और परलोकमें भी वह मेरे ही समान पूज्य है। वहअपने समस्त बन्धु बान्धवोंके साथ मेरे रमणीय धाममें पहुँचकर मुझमें ही लीन हो जाता है माता-पिताकी आराधनाके बलसे ही वह नरश्रेष्ठ मूक चाण्डाल तीनों लोकोंकी बातें जानता है। फिर इस विषयमें तुम्हें विस्मय क्यों हो रहा है?
ब्राह्मणने पूछा- जगदीश्वर! मोह और अज्ञानवश पहले माता-पिताकी आराधना न करके फिर भले बुरेका ज्ञान होनेपर यदि मनुष्य पुनः माता-पिताकी सेवा करना चाहे तो उसके लिये क्या कर्तव्य है ?
श्रीभगवान् बोले- विप्रवर एक वर्ष, एक मास, एक पक्ष, एक सप्ताह अथवा एक दिन भी जिसने माता-पिताकी भक्ति की है, वह मेरे धामको प्राप्त होता है। * तथा जो उनके मनको कष्ट पहुँचाता है, वह अवश्य नरकमें पड़ता है। जिसने पहले अपने माता-पिताकी पूजा की हो या न की हो, यदि उनकी मृत्युके पश्चात् वह साँड़ छोड़ता है, तो उसे पितृभक्तिका फल मिल जाता है। जो बुद्धिमान् पुत्र अपना सर्वस्व लगाकर माता-पिताका श्राद्ध करता है, वह जातिस्मर (पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाला) होता है और उसे पितृ-भक्तिका पूरा फल मिल जाता है। श्राद्धसे बढ़कर महान् यज्ञ तीनों लोकोंमें दूसरा कोई नहीं है। इसमें जो कुछ दान दिया जाता है, वह सब अक्षय होता है। दूसरोंको जो दान दिया जाता है; उसका फल दस हजारगुना होता है। अपनी जातिवालोंको देनेसे लाख गुना पिण्डदानमें लगाया हुआ धन करोड़गुना और ब्राह्मणको देनेपर वह अनन्त गुना फल देनेवाला बताया गया है। जो गंगाजीके जलमें और गया, प्रयाग, पुष्कर, काशी, सिद्धकुण्ड तथा गंगासागर संगम तीर्थ के लिये अन्नदान करता है, उसकी मुक्ति निश्चित है तथा उसके पितर अक्षय स्वर्ग प्राप्त करते हैं। उनका जन्म सफल हो जाता है। जो विशेषतः गंगाजीमें तिलमिश्रित जलके द्वारा तर्पण करता है, उसे भी मोक्षका मार्ग मिल जाता है। फिर जो पिण्डदान करता है, उसकेलिये तो कहना ही क्या है अमावास्या और युगादि तिथियोंको तथा चन्द्रमा और सूर्य ग्रहणके दिन जो पार्वण श्राद्ध करता है, वह अक्षय लोकका भागी होता है। उसके पितर उसे प्रिय आशीर्वाद और अनन्त भोग प्रदान करके दस हजार वर्षोंतक तृप्त रहते हैं। इसलिये प्रत्येक पर्वपर पुत्रोंको प्रसन्नतापूर्वक पार्वण श्राद्ध करना चाहिये। माता-पिताके इस श्राद्ध-यज्ञका अनुष्ठान करके मनुष्य सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है।
जो श्राद्ध प्रतिदिन किया जाता है, उसे नित्य श्राद्ध माना गया है। जो पुरुष श्रद्धापूर्वक नित्य श्राद्ध करता है, वह अक्षय लोकका उपभोग करता है। इसी प्रकार कृष्णपक्ष में विधिपूर्वक काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करके मनुष्य मनोवांछित फल प्राप्त करता है। आषाढ़की पूर्णिमाके बाद जो पाँच पक्ष आता है, [जिसे महालय या पितृपक्ष कहते हैं] उसमें पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये। उस समय सूर्य कन्याराशिपर गये हैं या नहीं – इसका विचार नहीं करना चाहिये। जब सूर्य कन्याराशिपर स्थित होते हैं, उस समयसे लेकर सोलह दिन उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न यज्ञोंके समान महत्त्व रखते हैं। उन दिनोंमें इस परम पवित्र काम्य श्राद्धका अनुष्ठान करना उचित है। इससे श्राद्धकर्ताका मंगल होता है। यदि उस समय श्राद्ध न हो सके तो जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित हों, उसी समय कृष्णपक्ष आदिमें उक्त श्राद्ध करना उचित है।
चन्द्रग्रहणके समय सभी दान भूमिदानके समान होते हैं, सभी ब्राह्मण व्यासके समान माने जाते हैं और समस्त जल गंगाजलके तुल्य हो जाता है। चन्द्रग्रहणमें दिया हुआ दान और समयकी अपेक्षा लाखगुना तथा सूर्यग्रहणका दस लाखगुना अधिक फल देनेवाला बताया गया है। और यदि गंगाजीका जल प्राप्त हो जाय, तब तो चन्द्रग्रहणका दान करोड़गुना और सूर्यग्रहणमें दिया हुआ दान दस करोड़गुना अधिक फल देनेवाला होता है। विधिपूर्वक एक लाख गोदान करनेसे जो फल प्राप्तहोता है, वह चन्द्रग्रहणके समय गंगाजीमें स्नान करनेसे मिल जाता है। जो चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहण में गंगाजीके जलमें डुबकी लगाता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त होता है। यदि रविवारको सूर्यग्रहण और सोमवारको चन्द्रग्रहण हो तो वह चूड़ामणि नामक योग कहलाता है; उसमें स्नान और दानका अनन्त फल माना गया है। उस समय पुण्य तीर्थमें पहले उपवास करके जो पुरुष पिण्डदान, तर्पण तथा धन-दान करता है वह सत्यलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
ब्राह्मणने पूछा- देव! आपने पिताके लिये किये जानेवाले श्राद्ध नामक महायज्ञका वर्णन किया। अब यह बताइये कि पुत्रको पिताके जीते जी क्या करना चाहिये; कौन-सा कर्म करके बुद्धिमान् पुत्रको जन्म-जन्मान्तरोंमें परम कल्याणकी प्राप्ति हो सकती है। ये सब बातें यत्नपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये ।
श्रीभगवान् बोले- विप्रवर पिताको देवताके समान समझकर उनकी पूजा करनी चाहिये और पुत्रको भाँती उनपर स्नेह रखना चाहिये। कभी मनसे भी उनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। जो पुत्र रोगी पिताकी भलीभाँति परिचर्या करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है और वह सदा देवताओं द्वारा पूजित होता है। पिता जब मरणासन्न होकर मृत्युके लक्षण देख रहे हों, उस समय भी उनका पूजन करके पुत्र देवताओंके समान हो जाता है। विधिपूर्वक उपवास करनेसे जो लाभ होता है, अब उसका वर्णन करता हूँ; सुनो। हजार अश्वमेध और सी राजसूय यज्ञ करनेसे जो पुण्य होता है, वही पुण्य उपवास करनेसे प्राप्त होता है। वही उपवास यदि तीर्थमें किया जाय तो उन दोनों यज्ञोंसे कोगुना अधिक फल होता है। जिस श्रेष्ठ पुरुषके प्राप्त गंगाजीके जलमें छूटते हैं, वह पुनः माताके दूधका पान नहीं करता, वरं मुक्त हो जाता है। जो अपने इच्छानुसारकाशीमें रहकर प्राण त्याग करता है, वह मनोवांछित फल भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन हो जाता है। योगयुक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी मुनियोंको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, यही गति ब्रह्मपुत्र नदीकी सात धाराओंमें प्राणत्याग करनेवालेको मिलती है। विशेषतः जो सोन नदीके उत्तर तटका आश्रय लेकर विधिपूर्वक प्राण त्याग करता है, वह मेरी समानताको प्राप्त होता है। जिस मनुष्यकी मृत्यु घरके भीतर होती है, उस घरके छप्पर में जितनी गाँठ बँधी रहती हैं, उतने ही बन्धन उसके शरीरमें भी बंध जाते हैं। एक-एक वर्षके बाद उसका एक एक बन्धन खुलता है। पुत्र और भाई-बन्धु देखते रह जाते हैं। किसीके द्वारा उसे उस बन्धनसे छुटकारा नहीं मिलता। पर्वत, जंगल, दुर्गम भूमि या जलरहित स्थानमें प्राणत्याग करनेवाला मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त होता है। उसे कीड़े आदिकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। जिस मरे हुए व्यक्तिके शवका दाह संस्कार मृत्युके दूसरे दिन होता है, वह साठ हजार वर्षोंतक कुम्भीपाक नरकमें पड़ा रहता है। जो मनुष्य अस्पृश्यका स्पर्श करके या पतितावस्थामें प्राण त्याग करता है, वह चिरकालतक नरकमें निवास करके म्लेच्छयोनिमें जन्म सेता है। पुण्यसे अथवा पुण्य-कमका अनुष्ठान करनेसे मर्त्यलोकनिवासी सब मनुष्योंकी मृत्युके समय जैसी बुद्धि होती है, वैसी ही गति उन्हें प्राप्त होती है। पिताके मरनेपर जो बलवान् पुत्र उनके शरीरको कंधे पर ढोता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। पुत्रको चाहिये कि वह पिताके शयको चितापर रखकर विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए पहले उसके मुखमें आग दे, उसके बाद सम्पूर्ण शरीरका दाह करे। [ उस समय इस प्रकार कहे-] ‘जो लोभ-मोहसे तथा पाप-पुण्य आच्छ उन पिताजीके इस शवका, इसके सम्पूर्ण अंगोंका मैं दाह करता हूँ। ये दिव्य लोकोंमें जायें। इस प्रकार दाहकरके पुत्र अस्थि-संचयके लिये कुछ दिन प्रतीक्षा में व्यतीत करे। फिर यथासमय अस्थि-संचय करके दशाह (दसवाँ दिन) आनेपर स्नान कर गीले वस्त्रका परित्याग कर दे। फिर विद्वान् पुरुष ग्यारहवें दिन एकादशाह – श्राद्ध करे और प्रेतके शरीरकी पुष्टिके लिये एक ब्राह्मणको भोजन कराये। उस समय वस्त्र, पीढ़ा और चरणपादुका आदि वस्तुओंका विधिपूर्वक दान करे। दशाहके चौथे दिन किया जानेवाला श्राद्ध (चतुर्थाह), तीन पक्षके बाद किया जानेवाला (त्रैपाक्षिक अथवा सार्धमासिक), छः मासके भीतर होनेवाला (ऊनषाण्मासिक) तथा वर्षके भीतर किया जानेवाला (ऊनाब्दिक) श्राद्ध और इनके अतिरिक्त बारह महीनोंके बारह श्राद्ध-कुल सोलह श्राद्ध माने गये हैं। जिसके लिये ये सोलह श्राद्ध यथाशक्ति श्रद्धापूर्वक नहीं किये जाते, उसका पिशाचत्व स्थिर हो जाता है। अन्यान्य सैकड़ों श्राद्ध करनेपर भी प्रेतयोनिसे उसका उद्धार नहीं होता। एक वर्ष व्यतीत होनेपर विद्वान् पुरुष पार्वण श्राद्धकी विधिसे सपिण्डीकरण नामक श्राद्ध करे।
ब्राह्मणने पूछा – केशव ! तपस्वी, वनवासी और गृहस्थ ब्राह्मण यदि धनसे हीन हो तो उसका पितृ कार्य कैसे हो सकता है?
श्रीभगवान् बोले – जो तृण और काष्ठका उपार्जन करके अथवा कौड़ी-कौड़ी माँगकर पितृ कार्य करता है, उसके कर्मका लाखगुना अधिक फल होता है। कुछ भी न हो तो पिताकी तिथि आनेपर जो मनुष्यकेवल गौओंको घास खिला देता है, उसे पिण्डदानसे भी अधिक फल प्राप्त होता है। पूर्वकालकी बात है, विराटदेशमें एक अत्यन्त दीन मनुष्य रहता था। एक दिन पिताकी तिथि आनेपर वह बहुत रोया। रोनेका कारण यह था कि उसके पास [ श्राद्धोपयोगी] सभी वस्तुओंका अभाव था। बहुत देरतक रोनेके पश्चात् उसने किसी विद्वान् ब्राह्मणसे पूछा- ‘ब्रह्मन् ! आज मेरे पिताजीकी तिथि है, किन्तु मेरे पास धनके नामपर कौड़ी भी नहीं है; ऐसी दशामें क्या करनेसे मेरा हित होगा? आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं धर्ममें स्थित रह सकूँ ।’
विद्वान् ब्राह्मणने कहा – तात ! इस समय ‘कुतप’ नामक मुहूर्त बीत रहा है, तुम शीघ्र ही वनमें जाओ और पितरोंके उद्देश्यसे घास लाकर गौको खिला दो।
तदनन्तर ब्राह्मणके उपदेशसे वह वनमें गया और घासका बोझा लेकर बड़े हर्षके साथ पिताकी तृप्तिके लिये उसे गौको खिला दिया। इस पुण्यके प्रभावसे वह देवलोकको चला गया। पितृयज्ञसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके अपनी शक्तिके अनुसार मात्सर्यभावका त्याग करके श्राद्ध करना चाहिये। जो मनुष्य लोगोंके सामने इस धर्मसन्तान (धर्मका विस्तार करनेवाले) अध्यायका पाठ करता है, उसे प्रत्येक लोकमें गंगाजीके जलमें स्नान करनेका फल प्राप्त होता है। जिसने प्रत्येक जन्ममें महापातकोंका संग्रह किया हो, उसका वह सारा संग्रह इस अध्यायका एक बार पाठ या श्रवण करनेपर नष्ट हो जाता है।
अध्याय-40 पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
नरोत्तमने पूछा- नाथ पतिव्रता स्त्री मेरे बीते हुए वृत्तान्तको कैसे जानती है? उसका प्रभाव कैसा है? यह सब बताने की कृपा करें।
श्रीभगवान् बोले- वत्स में यह बात तुम्हें पहले अता चुका हूँ। किन्तु फिर यदि सुननेका कौतूहल हो रहा है तो सुनो तुम्हारे मनमें जो कुछ प्रश्न है, सबकाउत्तर दे रहा हूँ। जो स्त्री पतिव्रता होती है, पतिको प्राणकि समान समझती है और सदा पतिके हित साधनमें संलग्न रहती है, वह देवताओं और ब्रह्मवादी मुनियोंकी भी पूज्य होती है। जो नारी एक ही पुरुषकी सेवा स्वीकार करती है-दूसरेकी ओर दृष्टि भी नहीं डालती, वह संसारमें परम पूजनीय मानी जाती है।तात प्राचीन कालकी बात है, मध्यदेशमें एक अत्यन्त शोभायमान नगरी थी। उसमें एक पतिव्रता ब्राह्मणी रहती थी, उसका नाम था शैब्या। उसका पति पूर्वजन्मके पापसे कोढ़ी हो गया था। उसके शरीर में अनेकों घाव हो गये थे, जो बराबर बहते रहते थे। शैब्या अपने ऐसे पतिकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी। पतिके मनमें जो-जो इच्छा होती, उसे वह अपनी शक्तिके अनुसार अवश्य पूर्ण करती थी। प्रतिदिन देवताकी भाँति स्वामीको पूजा करती और दोषबुद्धि त्यागकर उसके प्रति विशेष स्नेह रखती थी। एक दिन उसके पतिने सड़कसे जाती हुई एक परम सुन्दरी वेश्याको देखा उसपर दृष्टि पड़ते ही यह अत्यन्त मोहके वशीभूत हो गया। उसकी चेतनापर कामदेवने पूरा अधिकार कर लिया। वह दीर्घ कालतक लम्बी साँस खींचता रहा और अन्तमें बहुत उदास हो गया। उसका उच्छ्वास सुनकर पतिव्रता घरसे बाहर आयी और अपने पतिसे पूछने लगी- ‘नाथ! आप उदास क्यों हो गये? आपने लम्बी साँस कैसे खींची? प्रभो! आपको जो प्रिय हो वह कार्य मुझे बताइये। वह करनेयोग्य हो या न हो, मैं आपके प्रियकार्यको अवश्य पूर्ण करूंगी। एकमात्र आप ही मेरे गुरु हैं, प्रियतम हैं।”
पत्नीके इस प्रकार पूछनेपर उसके पतिने कहा “प्रिये! उस कार्यको न तुम्हीं पूर्ण कर सकती हो और न मैं ही; अतः व्यर्थ बात करनी उचित नहीं है।’
पतिव्रता बोली- नाथ! मैं आपका मनोरथ जानकर उस कार्यको सिद्ध कर सकूँगी, आप मुझे आज्ञा दीजिये। जिस किसी उपायसे हो सके मुझे आपका कार्य सिद्ध करना है। यदि आपके दुष्कर कार्यको मैं यत्न करके पूर्ण कर सकूँ तो इस लोक और परलोकमें भी मेरा परम कल्याण होगा।
कोढ़ीने का साध्वि! अभी-अभी इस मार्गसे एक परम सुन्दरी वेश्या जा रही थी। उसका शरीर सब ओरसे मनोरम था। उसे देखकर मेरा हृदय कामाग्निसे दग्ध हो रहा है। यदि तुम्हारी कृपासे मैं उस नवयौवनाको प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म सफल हो जायगा। देवि!तुम उसे मिलाकर मेरा हितसाधन करो। पतिकी कही हुई बात सुनकर पतिव्रता बोली ‘प्रभो! इस समय धैर्य रखिये। मैं यथाशक्ति आपका कार्य सिद्ध करूँगी।’
यह कहकर पतिव्रताने मन-ही-मन कुछ विचार किया और रात्रिके अन्तिम भाग – उषः कालमें उठकर वह गोबर और झाड़ू ले तुरंत ही चल दी। जाते समय उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। वेश्याके घर पहुँचकर उसने उसके आँगन और गली-कूचेमें झाडू लगायी तथा गोबर से लीप-पोतकर लोगोंकी दृष्टि पड़नेके भयसे वह शीघ्रतापूर्वक अपने घर लौट आयी। इस प्रकार लगातार तीन दिनोंतक पतिव्रताने वेश्याके घरमें झाड़ू देने और लीपनेका काम किया। उधर वह वेश्या अपने दास-दासियोंसे पूछने लगी- आज आँगनकी इतनी बढ़िया सफाई किसने की है? सेवकोंने परस्पर विचार करके वेश्यासे कहा- ‘भद्रे! घरकी सफाईका यह काम हमलोगोंने तो नहीं किया है।’ यह सुनकर वेश्याको बड़ा विस्मय हुआ । उसने बहुत देरतक इसके विषयमें विचार किया और रात्रि बीतनेपर ज्यों ही वह उठी तो उसकी दृष्टि उस पतिव्रता ब्राह्मणीपर पड़ी। वह पुनः टहल बजानेके लिये आयी थी। उस परम साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणीको देखकर ‘हाय! हाय! आप यह क्या करती हैं। क्षमा कीजिये, रहने दीजिये।’ यह कहती हुई वेश्याने उसके पैर पकड़ लिये और पुनः कहा- ‘पतिव्रते ! आप मेरी आयु, शरीर, सम्पत्ति, यश तथा कीर्ति- इन सबका विनाश करनेके लिये ऐसी चेष्टा कर रही हैं। साध्वि ! आप जो-जो वस्तु माँगें, उसे निश्चय दूँगी – यह बात मैं दृढ़ निश्चयके साथ कह रही हूँ। सुवर्ण, रत्न, मणि, वस्त्र तथा और भी जिस किसी वस्तुकी आपके मनमें अभिलाषा हो, उसे माँगिये।’
तब पतिव्रताने उस वेश्यासे कहा- ‘मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है, तुम्हींसे कुछ काम है; यदि करो तो उसे बताऊँ। उस कार्यकी सिद्धि होनेपर ही मेरे हृदयमें सन्तोष होगा और तभी मैं यह समझँगी कि तुमने इस समय मेरा सारा मनोरथ पूर्ण कर दिया।’वेश्या बोली पतिव्रते। आप जल्दी बताइये। मैं सच-सच कहती हूँ आपका अभीष्ट कार्य अवश्य करूँगी। माताजी! आप तुरंत ही अपनी आवश्यकता बतायें और मेरी रक्षा करें।
पतिव्रताने लजाते-लजाते वह कार्य, जो उसके पतिको श्रेष्ठ एवं प्रिय जान पड़ता था, कह सुनाया। उसे सुनकर वेश्या एक क्षणतक अपने कर्तव्य और उसके पतिकी पीड़ापर कुछ विचार करती रही। दुर्गन्धयुक्त कोढ़ी मनुष्यके साथ संसर्ग करनेकी बात सोचकर उसके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वह पतिव्रतासे इस प्रकार बोली- ‘देवि! यदि आपके पति मेरे घरपर आयें तो मैं एक दिन उनकी इच्छा पूर्ण करूंगी।’
पतिव्रताने कहा – सुन्दरी! मैं आज ही रातमें अपने पतिको लेकर तुम्हारे घरमें आऊँगी और जब वे अपनी अभीष्ट वस्तुका उपभोग करके सन्तुष्ट हो जायेंगे, तब पुनः उनको अपने घर ले जाऊँगी।
वेश्या बोली- महाभागे ! अब शीघ्र ही अपने घरको पधारो। तुम्हारे पति आज आधी रातके समय मेरे महलमें आयें।
यह सुनकर वह पतिव्रता स्त्री अपने घर चली आयी। वहाँ पहुँचकर उसने पतिसे निवेदन किया ‘प्रभो! आपका कार्य सफल हो गया। आज ही रातमें आपको उसके घर जाना है।’
कोढ़ी ब्राह्मण बोला-देवि ! मैं कैसे उसके घर जाऊँगा, मुझसे तो चला नहीं जाता। फिर किस प्रकार वह कार्य सिद्ध होगा ?
पतिव्रता बोली- प्राणनाथ। मैं आपको अपनी पीठपर बैठाकर उसके घर पहुँचाऊँगी और आपका मनोरथ सिद्ध हो जानेपर फिर उसी मार्गसे लौटा ले आऊँगी।
ब्राह्मणने कहा- कल्याणी तुम्हारे करनेसे ही मेरा सब कार्य सिद्ध होगा। इस समय तुमने जो काम किया है, वह दूसरी स्त्रियोंके लिये दुष्कर है।
श्रीभगवान् कहते हैं—उस नगरमें किसी धनीके घरसे चोरोंने बहुत सा धन चुरा लिया। यह बात जबराजाके कानोंमें पड़ी, तब उन्होंने रातमें घूमनेवाले समस्त गुप्तचरोंको बुलाया और कुपित होकर कहा – ‘यदि तुम्हें जीवित रहनेकी इच्छा है तो आज चोरको पकड़कर मेरे हवाले करो।’ राजाकी यह आज्ञा पाकर सभी गुप्तचर व्याकुल हो उठे और चोरको पकड़नेकी इच्छासे चल दिये। उस नगरके पास ही एक घना जंगल था, जहाँ एक वृक्षके नीचे महातेजस्वी मुनिवर माण्डव्य समाधि लगाये बैठे थे। वे योगियोंमें प्रधान महर्षि अग्निके समान देदीप्यमान हो रहे थे। ब्रह्माजीके समान तेजस्वी उन महामुनिको देखकर दुष्ट गुप्तचरोंने आपसमें कहा- ‘यही चोर हैं। यह धूर्त अद्भुत रूप बनाये इस जंगलमें निवास करता है।’ यों कहकर उन पापियोंने मुनिश्रेष्ठ माण्डव्यको बाँध लिया। किन्तु उन कठोर स्वभाववाले मनुष्योंसे न तो उन्होंने कुछ कहा और न उनकी ओर दृष्टिपात ही किया। जब गुप्तचर उन्हें बाँधकर राजाके पास ले गये तो राजाने कहा- ‘आज मुझे चोर मिला है। तुमलोग इसे नगरके निकटवर्ती प्रवेशद्वारके मार्गपर ले जाओ और चोरके लिये जो नियत दण्ड है, वह इसे दो।’ उन्होंने माण्डव्य मुनिको वहाँ ले जाकर मार्गमेंगड़े हुए शूलपर रख दिया। वह शूल मुनिके गुदाद्वारसे प्रविष्ट होकर मस्तकके पार हो गया। उनका सारा शरीर शूलसे बिंध गया, इसी बीचमें आधी रातके घोर अन्धकारमें, जब कि आकाशमें घटाएँ घिरी हुई थीं, वह पतिव्रता ब्राह्मणी अपने पतिको पीठपर बिठाकर वेश्याके घर जा रही थी। वह मुनिके निकटसे होकर निकली, अतः उस कोढ़ीका शरीर माण्डव्य मुनिके शरीरसे छू गया। कोढ़ीके संसर्गसे उनकी समाधि भंग हो गयी।
वे कुपित होकर बोले-‘जिसने इस समय मुझे गाढ़ वेदनाका अनुभव करानेवाली कष्टमय अवस्था में पहुँचा दिया, वह सूर्योदय होते-होते भस्म हो जाय।’
माण्डव्यके इतना कहते ही वह कोढ़ी पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब पतिव्रताने कहा-‘आजसे तीन दिनोंतक सूर्यका उदय ही न हो।’ यों कहकर वह अपने पतिको घर ले गयी और एक सुन्दर शय्यापर सुला स्वयं उसे थामकर बैठी रही। उधर मुनिश्रेष्ठ माण्डव्य उस कोढ़ीको शाप दे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये।
संसारमें तीन दिनोंके समयतक सूर्यका उदय होना रुक गया। चराचर प्राणियाँसहित सम्पूर्ण त्रिलोकी व्यथित हो उठी यह देख समस्त देवता इन्द्रको आगे करके ब्रह्माजीके पास गये और सूर्योदय न होनेका समाचार निवेदन करते हुए बोले- ‘भगवन् सूर्यके उदय न होनेका क्या कारण है, यह हमारी समझमें नहीं आता इस समय आप जो उचित हो, करें।’ उनकी बात सुनकर ब्रह्माजीने पतिव्रता ब्राह्मणी और माण्डव्य मुनिका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । तदनन्तर देवता विमानोंपर आरूढ़ हो प्रजापतिको आगे करके शीघ्र ही पृथ्वीपर उस कोढ़ी ब्राह्मणके घरके पास गये। उनके विमानोंकी कान्ति तथा मुनियोंके तेजसे पतिव्रता घरके भीतर सैकड़ों सूर्योका सा प्रकाश छा गया; उस समय हंसके समान तेजस्वी विमानोंद्वारा आये हुए देवताओंको पतिव्रताने देखा वह लेटी हुई थी।
ब्रह्माजीने उसे सम्बोधित करके कहा— ‘माता ! सम्पूर्ण देवताओं, ब्राह्मणों और गौ आदि प्राणियोंकी जिससे मृत्यु होनेकी सम्भावना है-ऐसा कार्य तुम्हें क्योंकर पसंद आया ? सूर्योदयकेविरुद्ध जो तुम्हारा क्रोध है, उसे त्याग दो।’
पतिव्रता बोली- भगवन्! एकमात्र पति ही मेरे गुरु हैं। ये मेरे लिये सम्पूर्ण लोकोंसे बढ़कर हैं। सूर्योदय होते ही मुनिके शापसे उनकी मृत्यु हो जायगी। इसी हेतुसे मैंने सूर्यको शाप दिया है। क्रोध, मोह, लोभ, मात्सर्य अथवा कामके वश होकर मैंने ऐसा नहीं किया है।
ब्रह्माजीने कहा- माता! जब एकको मृत्युसे तीनों लोकोंका हित हो रहा है, ऐसी दशामें तुम्हें बहुत अधिक पुण्य होगा।
पतिव्रता बोली- पतिका त्याग करके मुझे आपका परम कल्याणमय सत्यलोक भी अच्छा नहीं लगता।
ब्रह्माजीने कहा- देवि सूर्योदय होनेपर जब सारी त्रिलोको स्वस्थ हो जायगी, तब तुम्हारे पतिके भस्म हो जानेपर भी मैं तुम्हारा कल्याण साधन करूँगा। हमलोगोंके आशीर्वादसे यह कोढ़ी ब्राह्मण कामदेव के समान सुन्दर हो जायगा ।
ब्रह्माजीके यों कहनेपर उस सतीने क्षणभर कुछ विचार किया; उसके बाद ‘हाँ’ कहकर उसने स्वीकृतिदे दी। फिर तो तत्काल सूर्योदय हुआ और मुनिके शापसे पीड़ित ब्राह्मण राखका ढेर हो गया। फिर उस राखसे कामदेवके समान सुन्दर रूप धारण किये वह ब्राह्मण प्रकट हुआ। यह देखकर समस्त पुरवासी बड़े विस्मयमें पड़े। देवता प्रसन्न हो गये। सब लोगोंका चित्त पूर्ण स्वस्थ हुआ। उस समय स्वर्गलोकसे सूर्यके समान तेजस्वी एक विमान आया और वह साध्वी अपने पतिके साथ उसपर बैठकर देवताओंके साथ स्वर्गको चली गयी।
शुभा भी ऐसी ही पतिव्रता है; इसलिये वह मेरे समान है। उस सतीत्वके प्रभावसे ही वह भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंकी बातें जानती है। जो मनुष्य इस परम उत्तम पुण्यमय उपाख्यानको लोकमें सुनावेगा, उसके जन्म-जन्मके किये हुए पाप नष्ट हो l
ब्राह्मणने पूछा – भगवन्! माण्डव्य मुनिके शरीर में शूलका आघात कैसे लगा ? तथा पतिव्रता स्त्रीके पतिको कोढ़का रोग क्यों हुआ ?
भगवान् श्रीविष्णु बोले- माण्डव्य मुनि जब बालक थे, तब उन्होंने अज्ञान और मोहवश एक झींगुरके गुदादेशमें तिनका डालकर छोड़ दिया था। यद्यपि उन्हें उस समय धर्मका ज्ञान नहीं था, तथापि उस दोषके कारण उन्हें एक दिन और रात वैसा कष्ट भोगना पड़ा। किन्तु माण्डव्य मुनिने समाधिस्थ होनेके कारण शूलापातजनित वेदनाका पूरी तरह अनुभव नहीं किया। इसी प्रकार पतिव्रताके पतिने भी पूर्वजन्म में एक कोढ़ी ब्राह्मणका वध किया था, इसीसे उसके शरीरमें दुर्गन्धयुक्त कोढ़का रोग उत्पन्न हो गया था। किन्तु उसने ब्राह्मणको चार गौरीदान और तीन कन्यादान किये थे; इसीसे उसकी पत्नी पतिव्रता हुई। उस पत्नीके कारण ही वह मेरी समताको प्राप्त हुआ।
ब्राह्मणने कहा – नाथ! यदि पतिव्रताका ऐसा माहात्म्य है; तब तो जिस पुरुषकी भी स्त्री व्यभिचारिणी न हो उसे स्वर्गकी प्राप्ति निश्चित है। सती स्त्रीसे सबका कल्याण होना चाहिये।
भगवान् श्रीविष्णु बोले- ठीक है। संसारमें कुछ स्त्रियाँ ऐसी कुलटा होती हैं, जो सर्वस्व अर्पण करनेवाले पुरुषके प्रतिकूल आचरण करती हैं; उनमें जो सर्वथा अरक्षणीय हो जिसकी दुराचारसे रक्षा करना असम्भव हो, ऐसी स्त्रीको तो मनसे भी स्वीकार नहीं करना चाहिये जो नारी कामके वशीभूत हो जाती है, वह निर्धन, कुरूप, गुणहीन तथा नीच कुलके नौकर पुरुषको भी स्वीकार कर लेती है। मृत्युतकसे सम्बन्ध जोड़नेमें उसे हिचक नहीं होती। वह गुणवान्, कुलीन, अत्यन्त धनी, सुन्दर और रतिकार्यमें कुशल पतिका भी परित्याग करके नीच पुरुषका सेवन करती है।
विप्रवर! इस विषयमें उमा – नारद-संवाद ही दृष्टान्त है; क्योंकि नारदजी स्त्रियोंकी बहुत-सी चेष्टाएँ जानते हैं। नारद मुनि स्वभावसे ही संसारकी प्रत्येक बात जाननेकी इच्छा रखते है। एक बार वे अपने मनमें कुछ सोच-विचारकर पर्वतों में उत्तम कैलासगिरिपर गये। वहाँ उन महात्मा मुनिने पार्वतीजीको प्रणाम करके पूछा- ‘देवि! मैं कामिनियोंकी कुचेष्टाएँ जानना चाहता हूँ। मैं इस विषयमें बिलकुल अनजान हूँ और विनीत भावसे प्रश्न कर रहाहूँ। अतः आप मुझे यह बात बताइये।’
पार्वती देवीने कहा- नारद। युवती स्त्रियोंका चित्त सदा पुरुषोंमें ही लगा रहता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। नारी घीसे भरे हुए घड़ेके समान है और पुरुष दहकते हुए अँगारेके समान; इसलिये घी और अग्निको एक स्थानपर नहीं रखना चाहिये। जैसे मतवाले हाथीको महावत अंकुश और मुगदरकी सहायतासे अपने वशमें करता है, उसी प्रकार स्त्रियोंका रक्षक उन्हें दण्डके बलसे ही काबूमें रख सकता है। बचपनमें पिता, जवानीमें पति और बुढ़ापेमें पुत्र नारीकी रक्षा करता है; उसे कभी स्वतन्त्रता नहीं देनी चाहिये। सुन्दरी स्त्रीको यदि उसकी इच्छाके अनुसार स्वतन्त्र छोड़ दिया जाय तो पर-पुरुषकी प्रार्थनासे अधीर होकर वह उसके आदेश के अनुसार व्यभिचारमें प्रवृत्त हो जाती है। जैसे तैयार की हुई रसोईपर दृष्टि न रखनेसे उसपर कौए और कुत्ते अधिकार जमा लेते हैं, उसी प्रकार युवती नारी स्वच्छन्द होनेपर व्यभिचारिणी हो जाती है। फिर उस कुलटाके संसर्गसे सारा कुल दूषित हो जाता है। पराये बीजसे उत्पन्न होनेवाला मनुष्य वर्णसंकर है। सदाचारिणी स्त्री पितृकुल और पतिकुल- दोनों सम्मान बढ़ाती हुई उन्हें कायम रखती है। साध्वी नारी अपने कुलका उद्धार करती और दुराचारिणी उसे नरकमें गिराती है।
कहते हैं-संसारमें स्त्रीके ही अधीन स्वर्ग, कुल, कलंक, यश, अपयश, पुत्र, पुत्री और मित्र आदिकी स्थिति है। इसलिये विद्वान् पुरुष सन्तानकी इच्छासे विवाह करे।
जो पापी पुरुष मोहवश किसी साध्वी स्त्रीको दूषित करके छोड़ देता है, वह उस स्त्रीकी हत्याका पाप भोगता हुआ नरकमें गिरता है। जो परायीस्त्रीके साथ बलात्कार करता अथवा उसे धनका लालच देकर फँसाता है, वह इस संसारमें स्त्री-हत्यारा कहलाता है और मरनेके पश्चात् घोर नरकमें पड़ता है। परायी स्त्रीका अपहरण करके मनुष्य चाण्डाल कुलमें जन्म लेता है। इसी प्रकार पतिके साथ वंचना करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री चिरकालतक नरक भोगकर कौएकी योनिमें जन्म लेती है और उच्छिष्ट एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थ खा-खाकर जीवन बिताती हैं। तदनन्तर मनुष्य योनिमें जन्म लेकर विधवा होती है। जो माता, गुरुपत्नी, ब्राह्मणी, राजाकी रानी या दूसरी किसी प्रभु पत्नीके साथ समागम करता है, वह अक्षय नरकमें गिरता है। बहिन, भानजेकी स्त्री, बेटी, बेटेकी बहू, चाची, मामी, बुआ तथा मौसी आदि अन्यान्य स्त्रियोंके साथ समागम करनेपर भी कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। यही नहीं, उसे ब्रह्महत्याका पाप भी लगता है तथा वह अंधा, गूँगा और बहरा होकर निरन्तर नीचे गिरता जाता है; उस अधःपतनसे उसका कभी बचाव नहीं हो पाता।
ब्राह्मणने पूछा – भगवन्! ऐसा पाप करके मनुष्यका उससे किस प्रकार उद्धार हो सकता है ?
श्रीभगवान्ने कहा- उपर्युक्त स्त्रियोंके साथ समागम करनेवाला पुरुष लोहेकी स्त्री-प्रतिमा बनवाकर उसे आगमें खूब तपाये; फिर उसका गाढ़ आलिंगन करके प्राण त्याग दे और शुद्ध होकर परलोककी यात्रा करे। जो मनुष्य गृहस्थाश्रमका परित्याग करके मुझमें मन लगाता है और प्रतिदिन मेरे ‘गोविन्द’ नामका स्मरण करता है, उसके सब पापका नाश हो जाता है। उसके द्वारा की हुई हजारों ब्रह्महत्याएँ, सौ बार किया हुआ गुरुपत्नी-समागम, लाख बार किया हुआ पैष्टी मदिराकासेवन, सुवर्णकी चोरी, पापियोंके साथ चिरकालतक संसर्ग रखना – ये तथा और भी जितने बड़े-बड़े पाप एवं पातक हैं, वे सब मेरा नाम लेनेसे तत्काल नष्ट हो जाते हैं ठीक उसी तरह जैसे अग्निके पास पहुँचनेपर रूईके ढेर जल जाते हैं। अतः मनुष्यको उचित है कि वह मेरे ‘गोविन्द’ नामका स्मरण करके पवित्र हो जाय [परन्तु जो नामके भरोसे पाप करता है, नाम उसकी रक्षा कभी नहीं करता।] अथवा जो प्रतिदिन मुझ गोविन्दका कीर्तन और पूजन करते हुए गृहस्थाश्रममें निवास करता है, वह पापसे तर जाता है। तात! गंगाके रमणीय तटपर चन्द्रग्रहणकी मंगलमयी बेलामें करोड़ों गोदान करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है, उससे हजारगुना अधिक फल ‘गोविन्द’ का कीर्तन करनेसे प्राप्त होता है। कीर्तन करनेवाला मनुष्य मेरे वैकुण्ठधाममें सदा निवास करता है।” पुराणमें मेरी कथा सुननेसे मानव मेरी समानता प्राप्त करता है। जो पुराणकी कथा सुनाता है, उसे मेरा सायुज्य प्राप्त होता है; अतः प्रतिदिन पुराणका श्रवण करना चाहिये। पुराण धर्मोका संग्रह है।
विप्रवर! अब मैं सती स्त्रियोंमें जो अत्यन्त उत्कृष्ट गुण होते हैं, उनका वर्णन करता हूँ। सती स्त्रीका वंश शुद्ध होता है। वहाँ सदा लक्ष्मी निवास करती हैं। सतीके पितृकुल और पतिकुल दोनों कुलोको तथा उसके स्वामीको भी स्वर्गलोकको प्राप्ति होती है। जो स्त्रिय अपने जीवनका पूर्वकाल पुण्यपापभित्रित कमोंमें व्यतीत करके पीछे भी पतिव्रता होती हैं. उन्हें भी मेरे लोककी प्राप्ति हो जाती है। जो स्त्री अपने स्वामीका अनुगमन करती है, वह शराबी, ब्रह्महत्यारे तथा सबप्रकारके पापोंसे लदे हुए पतिको भी करके अपने साथ स्वर्गमें ले जाती है। जो मरे हुए पतिके पीछे प्राण त्याग करके जाती है, उसे स्वर्गकी प्राप्ति निश्चित है। जो नारी पतिका अनुगमन करती है, वह मनुष्यके शरीरमें जितने (साढ़े तीन करोड़) रोम होते हैं, इतने ही वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करती है। यदि पतिकी मृत्यु कहीं दूर हो जाय तो उसका कोई चिह्न पाकर जो स्त्री चिताकी अग्निमें प्राण त्याग करती हैं, वह अपने पतिका पापसे उद्धार कर देती है। जो स्त्री पतिव्रता होती है, उसे चाहिये कि यदि पतिको मृत्यु परदेशमें हो जाय तो उसका कोई चिह्न प्राप्त करे और उसे ही ले अग्निमें शयन करके स्वर्गलोककी यात्रा करे। यदि ब्राह्मण जातिकी स्त्री मरे हुए पतिके साथ चिताग्निमें प्रवेश करे तो उसे आत्मघातका दोष लगता है, जिससे न तो वह अपनेको और न अपने पतिको ही स्वर्गमें पहुँचा पाती है। इसलिये ब्राह्मण जातिकी स्त्री अपने मरे हुए पतिके साथ जलकर न मरे-यह ब्रह्माजीकी आज्ञा है ब्राह्मणी विधवाको वैधव्य-व्रतका आचरण करना चाहिये। जो विधवा एकादशीका व्रत नहीं रखती, वह दूसरे जन्ममें भी विधवा ही होती है तथा प्रत्येक जन्ममें दुर्भाग्यसे पीड़ित रहती है। मछली-मांस खाने और व्रत न करनेसे वह चिरकालतक नरकमें रहकर फिर कुत्तेकी योनिमें जन्म लेती है। जो कुलनाशिनी विधवा दुराचारिणी होकर मैथुन कराती है, वह नरक यातना भोगनेके पश्चात् दस जन्मोंतक गीधिनी होती है। फिर दो जन्मोंतक लोमड़ी होकर पीछे मनुष्य योनिमें जन्म लेती है। उसमें भी बाल-विधवा होकर दासीभावको प्राप्त होती है।ब्राह्मणने कहा- भगवन्! यदि आपका मुझपर अनुग्रह हैं तो अब कन्यादानके फलका वर्णन कीजिये । साथ ही उसकी यथार्थ विधि भी बतलाइये श्रीभगवान् बोले
– ब्रह्मन् ! रूपवान्, गुणवान्, कुलीन, तरुण, समृद्धिशाली और धन-धान्यसे सम्पन्न वरको कन्यादान करनेका जो फल होता है, उसे श्रवण करो। जो मनुष्य आभूषणोंसे युक्त कन्याका दान करता है, उसके द्वारा पर्वत, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीका दान हो जाता है। जो पिता कन्याका शुल्क लेकर खाता है, वह नरकमें पड़ता है। जो मूर्ख अपनी पुत्रीको बेच देता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। जो लोभवश अयोग्य पुरुषको कन्यादान देता है, वह रौरव नरकमें पड़कर अन्तमें चाण्डाल होता है। * इसीसे विद्वान् पुरुष दामादसे शुल्क लेनेका कभी विचार भी मनमें नहीं लाते। अपनी ओरसे दामादको जो कुछ दिया जाता है, वह अक्षय हो जाता है। पृथ्वी, गौ, सोना, धन-धान्य और वस्त्र आदि जो कुछ दामादको दहेजके रूपमें दिया जाता है, सब अक्षय फलका देनेवाला होता है। जैसे कटी हुई डोर घड़ेके साथ स्वयंभी कुएँ में डूब जाती है, उसी प्रकार यदि दाता संकल्प किये हुए दानको भूल जाता है और दान लेनेवाला पुरुष | फिर उसे याद दिलाकर माँगता नहीं तो वे दोनों नरकमें पड़ते हैं। सात्त्विक पुरुषको उचित है कि वह जामाताको दहेज में देनेके लिये निश्चित की हुई सभी वस्तुएँ अवश्य दे डाले। न देनेपर पहले तो वह नरकमें पड़ता है; फिर प्रतिग्रह लेनेवालेके दासके रूपमें जन्म ग्रहण करता है।
जो बहुत खाता हो, अधिक दूर रहता हो, अत्यधिक धनवान् हो, जिसमें अधिक दुष्टता हो, जिसका कुल उत्तम न हो तथा जो मूर्ख हो – इन छः मनुष्योंको कन्या नहीं देनी चाहिये। इसी प्रकार अतिवृद्ध, अत्यन्त दीन, रोगी, अति निकट रहनेवाले, अत्यन्त क्रोधी और असन्तुष्ट-इन छः व्यक्तियोंको भी कन्यादान नहीं करना चाहिये । इन्हें कन्या देकर मनुष्य नरकमें पड़ता है। धनके लोभसे या सम्मान मिलनेकी आशासे जो कन्या देता या एक कन्या दिखाकर दूसरीका विवाह कर देता है, वह भी नरकगामी होता है। जो प्रतिदिन इस परम उत्तम पुण्यमय उपाख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मके पाप नष्ट हो जाते हैं।
अध्याय-41 तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
ब्राह्मणने कहा- प्रभो! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो अब तुलाधारके चरित्र और अनुपम प्रभावका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये।
श्रीभगवान् बोले- जो सत्यका पालन करते हुए लोभ और दोषबुद्धिका त्याग करके प्रतिदिन कुछ दान करता है, उसके द्वारा मानो नित्यप्रति उत्तम दक्षिणासे युक्त सौ यज्ञोंका अनुष्ठान होता रहता है। सत्यसे सूर्यका उदय होता है, सत्यसे ही वायु चलती रहती है, सत्यकेही प्रभावसे समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता और भगवान् कच्छप इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण किये रहते हैं। सत्यसे ही तीनों लोक और समस्त पर्वत टिके हुए हैं। जो सत्यसे भ्रष्ट हो जाता है, उस प्राणीको निश्चय ही नरकमें निवास करना पड़ता है। जो सत्य वाणी और सत्य कार्यमें सदा संलग्न रहता है, वह इसी शरीरसे भगवान्के धाममें जाकर भगवत्स्वरूप हो जाता है। सत्यसे ही समस्त ऋषि-मुनि मुझे प्राप्त होकरशाश्वत गतिमें स्थित हुए हैं। सत्यसे ही राजा युधिष्ठिर सशरीर स्वर्गमें चले गये। उन्होंने समस्त शत्रुओंको जीतकर धर्मके अनुसार लोकका पालन किया। अत्यन्त दुर्लभ एवं विशुद्ध राजसूय यज्ञका अनुष्ठान किया। वे प्रतिदिन चौरासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराते और उनको इच्छाके अनुसार पर्याप्त धन दान करते थे। जब यह जान लेते कि इनमेंसे प्रत्येक ब्राह्मणकी दरिद्रता दूर हो चुकी है, तभी उस ब्राह्मण समुदायको विदा करते थे। यह सब उनके सत्यका ही प्रभाव था। राजा हरिश्चन्द्र सत्यका आश्रय लेनेसे ही वाहन, परिवार तथा अपने विशुद्ध शरीरके साथ सत्यलोकमें प्रतिष्ठित हैं। इनके सिवा और भी बहुत-से राजा, सिद्ध, महर्षि, ज्ञानी और यज्ञकर्ता हो चुके हैं, जो कभी सत्यसे विचलित नहीं हुए। अतः लोकमें जो सत्यपरायण है, वही संसारका उद्धार करनेमें समर्थ होता है। महात्मा तुलाधार सत्यभाषणमें स्थित हैं। सत्य बोलनेके कारण ही इस जगत्में उनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। ये तुलाधार कभी झूठ नहीं बोलते। महँगी और सस्ती सब प्रकारकी वस्तुओंके खरीदने बेचनेमें ये बड़े बुद्धिमान् हैं।
विशेषतः साक्षीका सत्य वचन ही उत्तम माना गया है। कितने ही साक्षी सत्यभाषण करके अक्षय स्वर्गको प्राप्त कर चुके हैं। जो वक्ता विद्वान् सभामें पहुँचकर सत्य बोलता है, वह ब्रह्माजीके धामको, जो अन्यान्य महोद्वारा दुर्लभ है, प्राप्त होता है जो सभामें सत्यभाषण करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। लोभ और द्वेषवश झूठ बोलनेसे मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। तुलाधार सबके साक्षी हैं. वे मनुष्यों में साक्षात् सूर्य ही हैं। विशेष बात यह है कि लोभका परित्याग कर देनेके कारण मनुष्य स्वर्गमें देवता होता है।एक महान् भाग्यशाली शूद्र था, जो कभी लोभमें नहीं पड़ता था। वह साग खाकर, बाजारसे अन्नके दाने चुनकर तथा खेतोंसे धानकी बालें बीनकर बड़े दुःखसे जीवन-निर्वाह करता था। उसके पास दो फटे-पुराने वस्त्र थे तथा वह अपने हाथोंसे ही सदा पात्रका काम लेता था। उसे कभी किसी वस्तुका लाभ नहीं हुआ, तथापि वह पराया धन नहीं लेता था। एक दिन मैं उसकी परीक्षा करनेके लिये दो नवीन वस्त्र लेकर गया और नदीके तौरपर एक कोनेमें उन्हें आदरपूर्वक रखकर अन्यत्र जा खड़ा हुआ। शूद्रने उन दोनों वस्त्रोंको देखकर भी मनमें लोभ नहीं किया और यह समझकर कि ये किसी औरके पड़े होंगे चुपचाप घर चला गया। तब यह सोचकर कि बहुत थोड़ा लाभ होनेके कारण ही उसने इन वस्त्रोंको नहीं लिया होगा, मैंने गूलरके फलमें सोनेका टुकड़ा डालकर उसे वहीं रख दिया। मगध प्रदेश, नदीका तट और कोनेका निर्जन स्थान – ऐसी जगह पहुँचकर उसने उस अद्भुत फलको देखा। उसपर दृष्टि पड़ते ही वह बोल उठा ‘बस, बस; यह तो कोई कृत्रिम विधान दिखायी देता है। इस समय इस फलको ग्रहण कर लेनेपर मेरी अलोभवृत्ति नष्ट हो जायगी। इस धनकी रक्षा करनेमें बड़ा कष्ट होता है। यह अहंकारका स्थान है। जितना ही लाभ होता है, उतना ही लोभ बढ़ता जाता है। लाभसे ही लोभको उत्पत्ति होती है। लोभसे ग्रस्त मनुष्यको सदा ही नरकमें रहना पड़ता है। यदि यह गुणहीन द्रव्य मेरे घरमें रहेगा तो मेरी स्त्री और पुत्रोंको उन्माद हो जायगा। उन्माद कामजनित विकार है। उससे बुद्धिमें भ्रम हो जाता है, भ्रमसे मोह और अहंकारकी उत्पत्ति होती है। उनसे क्रोध और लोभका प्रादुर्भाव होता है। इन सबकी अधिकता होनेपर तपस्याका नाश हो जायगा। तपस्याका क्षय हो जानेपर चित्तको मोहमेंडालनेवाला मालिन्य पैदा होगा। उस मलिनतारूप साँकलमें बंध जानेपर मनुष्य फिर ऊपर नहीं उठ सकता।’
यह विचारकर वह शूद्र उस फलको वहीं छोड़ घर चला गया। उस समय स्वर्गस्थ देवता प्रसन्नताके साथ ‘साधु-साधु’ कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब मैं एक क्षपणकका रूप धारण करके उसके घरके पास गया और लोगोंको उनके भाग्य की बातें बताने लगा। विशेषतः भूतकालकी बात बताया करता था। फिर लोगोंके बारम्बार आने-जानेसे यह समाचार सब ओर फैल गया। यह सुनकर उस शूद्रकी स्त्री भी मेरे पास आयी और अपने भाग्यका कारण पूछने लगी ।। तब मैंने तुरंत ही उसके मनकी बात बता दी और एकान्तमें स्थित होकर कहा – ‘महाभागे ! विधाताने आज तेरे लिये बहुत धन दिया था, किन्तु तेरे पतिने मूर्खकी भाँति उसका परित्याग कर दिया है। तेरे घरमें धनका बिलकुल अभाव है। अतः जबतक तेरा पति जीवित रहेगा, तबतक उसे दरिद्रता ही भोगनी पड़ेगी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता! तू शीघ्र ही अपने घर जा और पतिसे उस धनके विषयमें पूछ।’ इस मंगलमय वचनको सुनकर वह अपने पतिके पास गयी और उस दुःखद वृत्तान्तकी चर्चा करने लगी। उसकी बातको सुनकर शुद्रको बड़ा विस्मय हुआ वह कुछ सोचकर पत्नीको साथ लिये मेरे पास आया और एकान्तमें मुझसे बोला-‘क्षपणक! बताओ, तुम क्या कहते थे ?’
क्षपणक बोला- तात! तुम्हें प्रत्यक्ष धन प्राप्त हुआ था फिर भी तुमने अवज्ञापूर्वक तिनकेकी भाँति उसका त्याग कर दिया। ऐसा क्यों किया? जान पड़ता है तुम्हारे भाग्य में भोग नहीं बदा है। धनके अभाव में तुम्हें जन्मसे लेकर मृत्युतक अपने और बन्धु अन्धवोंके दुःख देखने पड़ेंगे; प्रतिदिन मृतककी-सी अवस्था भोगनी पड़ेगी। इसलिये शीघ्र ही उस धनको ग्रहण करो और निष्कण्टक भोग भोगो।
शूद्रने कहा— क्षपणक ! मुझे धनकी इच्छा नहीं है। धन संसार-बन्धनमें डालनेवाला एक जाल है।उसमें फँसे हुए मनुष्यका फिर उद्धार नहीं होता। इस लोक और परलोकमें भी धनके जो दोष हैं, उन्हें सुनो। धन रहनेपर चोर, बन्धु बान्धव तथा राजासे भी भय प्राप्त होता है। सब मनुष्य [उस धनको हड़प लेनेके लिये] धनी व्यक्तिको मार डालनेकी अभिलाषा रखते हैं; फिर धन कैसे सुखद हो सकता है? धन प्राणोंका घातक और पापका साधक है। धनीका घर काल एवं काम आदि दोषका निकेतन बन जाता है। अतः धन दुर्गतिका प्रधान कारण है।
क्षपणक बोला- जिसके पास धन होता है, उसीको मित्र मिलते हैं। जिसके पास धन है, उसके सभी भाई-बन्धु हैं। कुल, शील, पाण्डित्य, रूप, भोग, यश और सुखये सब धनवान्को ही प्राप्त होते हैं। धनहीन मनुष्यको तो उसके स्त्री-पुत्र भी त्याग देते हैं; फिर उसे मित्रोंकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। जो जन्मसे दरिद्र हैं, वे धर्मका अनुष्ठान कैसे कर सकते हैं। स्वर्गप्राप्तिमें उपकारक जो सात्त्विक यज्ञकार्य तथा पोखरे खुदवाना आदि कर्म हैं, वे भी धनके अभावमें नहीं हो सकते। दान संसारके लिये स्वर्गकी सीढ़ी है: किन्तु निर्धन व्यक्तिके द्वारा उसकी भी सिद्धि होनी असम्भव है। व्रत आदिका पालन, धर्मोपदेश आदिका श्रवण, पितृ-यज्ञ आदिका अनुष्ठान तथा तीर्थ सेवन ये शुभकर्म धनहीन मनुष्यके किये नहीं हो सकते। रोगोंका निवारण, पथ्यका सेवन, औषधोंका संग्रह, अपने शरीरकी रक्षा तथा शत्रुओं पर विजय आदि कार्य भी धनसे ही सिद्ध होते हैं, इसलिये जिसके पास बहुत धन हो, उसीको इच्छानुसार भोग प्राप्त हो सकते हैं धन रहनेपर तुम दानसे ही शीघ्र स्वर्गकी प्राप्ति कर सकते हो।
शूद्रने कहा- कामनाओंका त्याग करनेसे ही समस्त व्रतोंका पालन हो जाता है। क्रोध छोड़ देनेसे तोर्थो का सेवन हो जाता है। दया ही जपके समान है। सन्तोष ही शुद्ध धन है, अहिंसा ही सबसे बड़ी सिद्धि है, शिलोच्छवृत्ति ही उत्तम जीविका है। सागका भोजन ही अमृतके समान है। उपवास ही उत्तम तपस्या है। सन्तोष ही मेरे लिये बहुत बड़ा भोग है। कौड़ीका दानही मुझ जैसे व्यक्तिके लिये महादान है। परायी स्त्रियाँ माता और पराया धन मिट्टीके ढेलेके समान है। परस्त्री सर्पिणीके समान भयंकर है। यही सब मेरा यज्ञ है। गुणनिधे! इसी कारण मैं उस धनको नहीं ग्रहण करता यह मैं सच-सच बता रहा हूँ। कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा दूरसे उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है। श्रीभगवान् कहते हैं- नरश्रेष्ठ! उस शूद्रके इतना कहते ही सम्पूर्ण देवता उसके शरीर और मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। देवताओंके नगारे बज उठे। गन्धर्वोका गान होने लगा। तुरंत ही आकाशसे विमान उतर आया। देवताओंने कहा- ‘धर्मात्मन्! इस विमानपर बैठे और सत्यलोकमें चलकर दिव्य भोगोंका उपभोग करो। तुम्हारे उपभोग-कालका कोई परिमाण नहीं है-अनन्त कालतक तुम्हें पुण्यों का फल भोगना है।’ देवगणोंके यों कहनेपर शूद्र बोला- ‘इस क्षपणकको ऐसा ज्ञान, ऐसी चेष्टा और इस प्रकार भाषणकी शक्ति कैसे प्राप्त हुई है? इसके रूपमें भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, शुक्र अथवा बृहस्पति इनमेंसे तो कोई नहीं है? अथवा मुझे जलनेके लियेसाक्षात् धर्म ही तो यहाँ नहीं आये हैं?’ शूद्रके ऐसे वचन सुनकर क्षपणकके रूपमें उपस्थित हुआ मैं हँसकर बोला- ‘महामुने! मैं साक्षात् विष्णु हूँ, तुम्हारे धर्मको जाननेके लिये यहाँ आया था। अब तुम अपने परिवारसहित विमानपर बैठकर स्वर्गको जाओ।’
तदनन्तर वह शूद्र दिव्य आभूषण और दिव्य वस्त्रोंसे सुशोभित हो सहसा परिवारसहित स्वर्गलोकको चला गया। इस प्रकार उस शूद्रपरिवारके सब लोग लोभ त्याग देनेके कारण स्वर्ग सिधारे बुद्धिमान् तुलाधार धर्मात्मा हैं। वे सत्यधर्ममें प्रतिष्ठित हैं। इसीलिये देशान्तरमें होनेवाली बातें भी उन्हें ज्ञात हो जाती हैं। तुलाधारके समान प्रतिष्ठित व्यक्ति देवलोकमें भी नहीं है। जो मनुष्य सब धर्मोंमें प्रतिष्ठित होकर इस पवित्र उपाख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म जन्मके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। एक बारके पाठसे उसे सब यज्ञोंका फल मिल जाता है। वह लोकमें श्रेष्ठ और देवताओंका भी पूज्य होता है।
व्यासजी कहते हैं—तदनन्तर मूक चाण्डाल आदि सभी धर्मात्मा परमधाम जानेकी इच्छासे भगवान्के पास आये। उनके साथ उनकी स्त्रियाँ तथा अन्यान्य परिकर भी थे। इतना ही नहीं, उनके घरके आस-पास जो छिपकलियाँ तथा नाना प्रकारके कीड़े-मकोड़े आदि थे, वे देवस्वरूप होकर उनके पीछे-पीछे जानेको उपस्थित थे। उस समय देवता, सिद्ध और महर्षिगण ‘धन्य धन्य’ के नारे लगाते हुए फूलोंकी वर्षा करने लगे। विमानों और वनोंमें देवताओंके नगारे बजने लगे। वे सब महात्मा अपने-अपने विमानपर आरूढ़ हो विष्णुधामको पधारे। ब्राह्मण नरोत्तमने यह अद्भुत दृश्य देखकर श्रीजनार्दनसे कहा- ‘देवेश! मधुसूदन !! मुझे कोई उपदेश दीजिये।’
श्रीभगवान् बोले- तात! तुम्हारे माता-पिताका चित्त शोकसे व्याकुल हो रहा है; उनके पास जाओ। उनकी यत्नपूर्वक आराधना करके तुम शीघ्र ही मेरे धाममें जाओगे। माता-पिताके समान देवता देवलोक भी नहीं है। उन्होंने शैशवकालमें तुम्हारे घिनौने शरीरका सदा पालन किया है। उसका पोषण करके बढ़ाया है। तुम अज्ञान- दोषसे युक्त थे, माता-पिताने तुम्हें सज्ञान बनाया है। चराचर प्राणियसहित समस्त त्रिलोकीमें भी उनके समान पूज्य कोई नहीं है।
व्यासजी कहते हैं- तदनन्तर देवगण मूक चाण्डाल, पतिव्रता शुभा, तुलाधार वैश्य, सज्जनाद्रोहक और वैष्णव संत- इन पाँचों महात्माओंको साथ ले प्रसन्नतापूर्वक भगवान्की स्तुति करते हुए वैकुण्ठधाम में पधारे। वे सभी अच्युतस्वरूप होकर सम्पूर्ण लोकोंकेऊपर स्थित हुए। नरोत्तम ब्राह्मणने भी यत्नपूर्वक माता पिताकी आराधना करके थोड़े कालमें ही कुटुम्ब सहित भगवद्धामको प्राप्त किया। शिष्यगण । यह पाँच महात्माओंका पवित्र उपाख्यान मैंने तुम्हें सुनाया है। जो इसका पाठ अथवा श्रवण करेगा, उसकी कभी दुर्गति नहीं होगी। वह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे कभी लिप्त नहीं हो सकता। मनुष्य करोड़ों गोदान करनेसे जिस फलको प्राप्त करता है, पुष्कर तीर्थ और गंगानदीमें स्नान करनेसे उसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही फल एक बार इस उपाख्यानके सुनने मात्रसे मिल जाता है।
अध्याय-42 पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
ब्राह्मणोंने कहा- मुनिश्रेष्ठ! यदि हमलोगोंपर आपका अनुग्रह हो तो उन श्रेष्ठ कर्मोका वर्णन कीजिये, जिनसे संसारमें कीर्ति और धर्मकी प्राप्ति होती है।
व्यासजीने कहा- जिसके खुदवाये हुए पोखरेमें अथवा वनमें गौएँ एक मास या सात दिनोंतक तृप्त रहती हैं, वह पवित्र होकर सम्पूर्ण देवताओंद्वारा पूजित होता है। विशेषत: प्रतिष्ठाके द्वारा पवित्र हुई पोखरीके जलका दान करनेसे जो फल होता है, वह सब सुनो। पोखरेमें जब मेघ वर्षा करता है, उस समय जलके जितने छोटे उछलते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक पोखरा बनवानेवाला मनुष्य स्वर्गलोकका सुख भोगता है। जलसे खेती पकती है, जिससे मनुष्यको प्रसन्नता होती है। जलके बिना प्राणोंका धारण करना असम्भव है। पितरोंका तर्पण, शौच, सुन्दर रूप और दुर्गन्धका नाश ये सब जलपर ही निर्भर हैं। इस जगत् में संग्रह किये हुए सम्पूर्ण बीजोंका आधार जल ही है। कपड़े धोना और बर्तनोंको मौज-धोकर चमकीला बनाना भी जलके ही अधीन है। इससे प्रत्येक कार्यमें जलको पवित्र माना गया है। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके सारा बल और सारा धन लगाकर बावली, कुआँ तथा पोखरा बनवाने चाहिये। जो निर्जल प्रदेशमें जलाशय बनवाता है, उसे प्रतिदिनइतना पुण्य प्राप्त होता है, जिससे वह एक-एक दिनके पुण्यके बदले एक-एक कल्पतक स्वर्गमें निवास करता है जो पुरुष प्रतिदिन दूसरोंके उपकारके लिये चार हाथ कुआँ खोदता है, वह एक-एक वर्षके पुण्यका एक-एक कल्पतक स्वर्गमें रहकर उपभोग करता है। जलाशय बनानेका उपदेश देनेवालेको एक करोड़ वर्षोंतक स्वर्गका निवास प्राप्त होता है तथा जो स्वयं जलाशय बनवाता है, उसका पुण्य अक्षय होता है।
पूर्वकालको बात है, किसी धनीके पुत्रने एक विख्यात जलाशयका निर्माण कराया, जिसमें उसने दस हजार सोनेकी मुहरें व्यय की थीं धनीने अपनी पूरी शक्ति लगाकर प्राणपण से चेष्टा करके बड़ी श्रद्धाके साथ सम्पूर्ण प्राणियोंके उपकारके लिये वह कल्याणमय जलाशय तैयार कराया था। कुछ कालके पश्चात् वह निर्धन हो गया। उसके बाद एक दूसरा धनी उसके वनवाये हुए जलाशयका मूल्य देनेको उद्यत हुआ और कहा- ‘मैं इस जलाशयके लिये दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ दूँगा। इसे खुदवानेका पुण्य तो तुम्हें मिल ही चुका है। मैं केवल मूल्य देकर इसके ऊपर अपना अधिकार करना चाहता हूँ। यदि तुम्हें लाभ जान पड़े तो मेरा प्रस्ताव स्वीकार करो।’ धनीके ऐसा कहनेपर जलाशयनिर्माण करानेवालेने उसे इस प्रकार उत्तर दिया ‘भाई! दस हजारका पुण्यफल तो इस जलाशयसे मुझे रोज ही प्राप्त होता है। पुण्यवेत्ताओंने जलाशय निर्माणका ऐसा ही पुण्य माना है इस निर्जल प्रदेशमें मैंने यह कल्याणमय सरोवर निर्माण कराया है, इसमें सब लोग अपनी इच्छाके अनुसार स्नान और जलपान आदि कार्य करते हैं।’
उसकी यह बात सुनकर लोगोंने खूब हँसी उड़ायी तब वह लज्जासे पीड़ित होकर बोला-‘हमारी यह बात सच है; विश्वास न हो तो धर्मानुसार इसकी परीक्षा कर लो।’ धनीने ईष्यांपूर्वक कहा-‘बाबू मेरी बात सुनो। मैं पहले तुम्हें दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ देता हूँ। इसके बाद मैं पत्थर लाकर तुम्हारे जलाशय में डालूँगा। पत्थर स्वाभाविक ही पानीमें डूब जायगा। फिर यदि वह समयानुसार पानीके ऊपर आकर तैरने लगेगा तो मेरा रुपया मारा जायगा। नहीं तो इस जलाशयपर धर्मतः मेरा अधिकार हो जायगा।’ जलाशय बनवानेवालेने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उससे दस हजार मुद्राएँ ले लीं और अपने घरको बल दिया। धनीने कई गवाह बुलाकर उनके सामने उस महान् जलाशयमें पत्थर गिराया। उसके इस कार्यको मनुष्यों, देवताओं और असुरोंने भी देखा। तब धर्मके साक्षीने धर्मतुलापर दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ और जलाशयके जलको तोला, किन्तु वे मुद्राएँ जलाशय से होनेवाले एक दिनके जल-दानकी भी तुलना न कर सकीं। अपने धनको व्यर्थ जाते देख धनीके हृदयको बड़ा दुःख हुआ। दूसरे दिन वह पत्थर भी द्वीपकी भाँति जलके ऊपर तैरने लगा। यह देख लोगोंमें बड़ा कोलाहल मचा। इस अद्भुत घटनाकी बात सुनकर धनी और जलाशयका स्वामी दोनों ही प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आये। पत्थरको उस अवस्थामें देख धनीने अपनी दस हजार मुद्राएँ उसीकी मान लीं तत्पश्चात् जलाशयके स्वामीने ही वह पत्थर उठाकर दूर फेंक दिया।
नष्ट होते हुए जलाशयको पुनः खुदवाकर उसका उद्धार करनेसे जो पुण्य होता है, उसके द्वारा मनुष्य स्वर्गमें निवास करता है तथा प्रत्येक जन्ममें वह शान्तऔर सुखी होता है। अपने गोत्रके मनुष्य, माताके कुटुम्बी, राजा, सगे-सम्बन्धी, मित्र और उपकारी पुरुषोंके खुदवाये हुए जलाशयका जीर्णोद्धार करने अक्षय फलकी प्राप्ति होती है तपस्वियों, अनाथों और विशेषतः ब्राह्मणोंके लिये जलाशय खुदवानेसे भी मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। इसलिये ब्राह्मणो! जो अपनी शक्तिके अनुसार जलाशय आदिका निर्माण कराता है, वह सब पापके क्षय हो जानेसे [अक्षय] पुण्य तथा मोक्षको प्राप्त होता है। जो धार्मिक पुरुष लोकमें इस महान् धर्ममय उपाख्यानको सुनाता हैं, उसे सब प्रकारके जलाशय-दान करनेका फल होता है। सूर्यग्रहण के समय गंगाजीके उत्तम तटपर एक करोड़ गोदान करनेका जो फल होता है; वही इस प्रसंगको सुननेसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है।
अब मैं सम्पूर्ण वृक्षोंके लगानेका अलग-अलग फल कहूँगा। जो जलाशयके तटपर चारों ओर पवित्र वृक्षोंको लगाता है, उसके पुण्यफलका वर्णन नहीं किया जा सकता। अन्य स्थानोंमें वृक्ष लगानेसे जो फल प्राप्त होता है, जलके समीप लगानेपर उसकी अपेक्षा करोड़ोंगुना अधिक फल होता है। अपने बनवाये हुए पोखरेके किनारे वृक्ष लगानेवाला मनुष्य अनन्त फलका भागी होता है।
जलाशयके समीप पीपलका वृक्ष लगाकर मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह सैकड़ों यज्ञोंसे भी नहीं मिल सकता। प्रत्येक पर्वके दिन जो उसके पत्ते जलमें गिरते हैं, वे पिण्डके समान होकर पितरोंको अक्षय तृप्ति प्रदान करते हैं तथा उस वृक्षपर रहनेवाले पक्षी अपनी इनके अनुसार जो फल खाते हैं, उसका ब्राह्मण भोजनके समान अक्षय फल होता है। गर्मी समयमें गौ, देवता और ब्राह्मण जिस पीपलकी छायामें बैठते हैं, उसे लगानेवाले मनुष्यके पितरोंको अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके पीपलका वृक्ष लगाना चाहिये। एक वृक्ष लगा देनेपर भी मनुष्य स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। रसोंके क्रय-विक्रयके लिये नियत रमणीय स्थानपर, मार्ग में और जलाशयके किनारे जोवृक्ष लगाता है, वह मनोरम स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राह्मणो! पीपल के वृक्षको पूजा करनेसे जो पुण्य होता है, उसे बतलाता हूँ; सुनो। जो मनुष्य स्नान करके पीपल के वृक्षका स्पर्श करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो बिना नहाये पीपलका स्पर्श करता है, उसे स्नानजन्य फलकी प्राप्ति होती है। अश्वत्थके दर्शनसे पापका नाश और स्पर्शसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, उसकी प्रदक्षिणा करनेसे आयु बढ़ती है। अश्वत्व को हविष्य, दूध, नैवेद्य, फूल, धूप और दीपक अर्पण करके मनुष्य स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। पीपलकी जड़के पास बैठकर जो जप, होम, स्तोत्र पाठ और यन्त्र – मन्त्रादिके अनुष्ठान किये जाते हैं, उन सबका फल करोड़गुना होता है। जिसकी जड़में श्रीविष्णु, तनेमें भगवान् शंकर तथा अग्रभागमें साक्षात् ब्रह्माजी स्थित हैं, उसे संसारमें कौन नहीं पूजेगा सोमवती अमावास्याको मौन होकर स्नान और एक हजार गौओंका दान करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वही फल अश्वत्थ वृक्षको प्रणाम करनेसे मिल जाता है। अश्वत्थकी सात बार प्रदक्षिणा करनेसे दस हजार गौओंके और इससे अधिक अनेकों बार परिक्रमा करनेपर करोड़ों गौओंके दानका फल प्राप्त होता है। अतः पीपल वृक्षकी परिक्रमा सदा ही करनी चाहिये।
विप्रगण! पीपल के वृक्षके नीचे जो फल, मूल और जल आदिका दान किया जाता है, वह सब अक्षय होकर जन्म-जन्मान्तरोंमें प्राप्त होता रहता है। पीपलके समान दूसरा कोई वृक्ष नहीं है। अश्वत्थ वृक्षके रूपमें साक्षात् श्रीहरि ही इस भूतलपर विराजमान हैं। जैसे संसारमें ब्राह्मण, गौ तथा देवता पूजनीय होते हैं, उसी प्रकार पीपलका वृक्ष भी अत्यन्त पूजनीय माना गया है। पीपलको रोपने, रक्षा करने, छूने तथा पूजनेसे वह क्रमशः धन, पुत्र, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करता है। जो मनुष्य अश्वत्थ वृक्षके शरीरमें कहीं कुछ चोट पहुँचाता है—उसकी डाली या टहनी काट लेता है, वह एक कल्पतक नरक भोगकर चाण्डाल आदिकी योनिमें जन्म ग्रहण करता है। और जो कोई पीपलको जड़से काट देता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। यही नहीं, उसकी पहली कई पीढ़ियाँ भयंकर रौरव नरकमें पड़ती हैं। बेलके आठ, बरगदके सात और नीमके दस वृक्ष लगानेका जो फल होता है, पीपलका एक पेड़ लगानेसे भी वही फल होता है।
अब मैं पाँसले (प्याऊ) का लक्षण बताता हूँ। जहाँ जलका अभाव हो, ऐसे मार्गमें पवित्र स्थानपर एक मण्डप बनाये। वह मार्ग ऐसा होना चाहिये, जहाँ बहुत-से पथिकोंका आना-जाना लगा रहता हो । वहाँ मण्डपमें जलका प्रबन्ध रखे और गर्मी, बरसात तथा शरद् ऋतुमें बटोहियाँको जल पिलाता रहे। तीन वर्षोंतक इस प्रकार पसलेको चालू रखनेसे पोखरा खुदवानेका पुण्य प्राप्त होता है जो जलहीन प्रदेशमें ग्रीष्मके समय एक मासतक पाँसला चलाता है, वह एक कल्पतक स्वर्गमें सम्मानपूर्वक निवास करता है। जो पोखरे आदिके फलको पढ़ता अथवा सुनाता है, वह पापसे मुक्त होता है और उसके प्रभावसे उसकी सद्गति हो जाती है। अब ब्रह्माजीने सेतु बाँधनेका जैसा फल बताया है, वह सुनो। जहाँका मार्ग दुर्गम हो, दुस्तर कीचड़ भरा हो तथा जो प्रचुर कण्टकोंसे आकीर्ण हो, वहाँ पुल बँधवाकर मनुष्य पवित्र हो जाता है तथा देवत्वको प्राप्त होता है। जो एक बित्तेका भी पुल बँधवा देता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। अतः जिसने पहले कभी एक बित्तेका भी पुल बँधवाया है, वह राजवंशमें जन्म ग्रहण करता है और अन्तमें महान् स्वर्गको प्राप्त होता है।
इसी प्रकार जो गोचर भूमि छोड़ता है, वह कभी स्वर्गसे नीचे नहीं गिरता। गोदान करनेवालेकी जो गति होती है, वही उसकी भी होती है। जो मनुष्य यथाशक्ति गोचरभूमि छोड़ता है, उसे प्रतिदिन सौसे भी अधिक ब्राह्मणोंको भोजन करानेका पुण्य होता है। जो पवित्र वृक्ष और गोचरभूमिका उच्छेद करता है, उसकी इक्कीस पीढ़ियाँ रौरव नरकमे पकायी जाती हैं। गाँवके गोपालकको चाहिये कि गोचरभूमिको नष्ट करनेवाले मनुष्यका पता लगाकर उसे दण्ड दे।
जो मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमाके लिये तीनया पाँच खंभोंसे युक्त, शोभासम्पन्न और सुन्दर कलशसे विभूषित मन्दिर बनवाता है अथवा इससे भी बढ़कर जो मिट्टी या पत्थरका देवालय निर्माण कराता है, उसके खर्चके लिये धन और वृत्ति लगाता है तथा मन्दिरमें अपने इष्टदेवकी, विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुकी प्रतिमा स्थापित करके शास्त्रोक्त विधिसे उसकी प्रतिष्ठा कराता है, वह नरश्रेष्ठ भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। श्रीविष्णु या श्रीशिवकी प्रतिमा बनवाकर उसके साथ अन्य देवताओंकी भी मनोहर मूर्ति निर्माण करानेसे मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह इस पृथ्वीपर हजारों यज्ञ, दान और व्रत आदि करनेसे भी नहीं मिलता। अपनी शक्तिके अनुसार श्रीशिवलिंगके लिये मन्दिर बनवाकर धर्मात्मा पुरुष वही फल प्राप्त करता है, जो श्रीविष्णु प्रतिमाके लिये मन्दिर बनवानेसे मिलता है। [ वह शिव सायुज्यको प्राप्त होता है।] जो मनुष्य अपने घरमें भगवान् श्रीशंकरकी सुन्दर प्रतिमा स्थापित करता है, वह एक करोड़ कल्पोंतक देवलोकमें निवास करता है। जो मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक श्रीगणेशजीका मन्दिर बनवाता है, वह देवलोकमें पूजित होता है। इसी प्रकार जो नरश्रेष्ठ भगवान् सूर्यका मन्दिर बनवाता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है। सूर्य प्रतिमाके लिये पत्थरका मन्दिर बनवाकर मनुष्य सौ करोड़ कल्पतक स्वर्ग भोगता है।
जो इष्टदेवके मन्दिरमें एक मासतक अहर्निश घीका दीपक जलाता है, वह उत्तम देवताओंसे पूजित होकर दस हजार दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है। तिलके अथवा दूसरे किसी तेलसे दीपक जलानेका फल घीकी अपेक्षा आधा होता है। एक मासतक जल चढ़ानेसेजो फल मिलता है, उससे मनुष्य ईश्वर-भावको प्राप्त होता है। शीत कालमें देवताको रुईदार कपड़ा चढ़ाकर मनुष्य सब दुःखोंसे मुक्त हो जाता है। देव विग्रहको ढकनेके लिये चार हाथका सुन्दर वस्त्र अर्पण करके मनुष्य कभी स्वर्णसे नहीं गिरता उन्नतिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको स्वयम्भू शिवलिंगोंकी पूजा करनी चाहिये। जो विद्वान् एक बार भी शिवलिंगकी परिक्रमा करता है, वह सौ दिव्य वर्षोंतक स्वर्गलोकका सुख भोगता है। इसी प्रकार क्रमशः स्वयम्भू लिंगको नमस्कार करके मनुष्य विश्ववन्द्य होकर स्वर्गलोकको जाता है; इसलिये प्रतिदिन उन्हें प्रणाम करना चाहिये।
जो मनुष्य लिंगस्वरूप भगवान् श्रीशंकरके धनका अपहरण करता है, वह रौरव नरककी यातना भोगकर अन्तमें कीड़ा होता है। जो शिवलिंग अथवा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजाके लिये मिले हुए दाताके द्रव्यको स्वयं ही हर लेता है, यह अपने कुलकी करोड़ों पीढ़ियोंके हड़प साथ नरकसे उद्धार नहीं पाता। जो जल, फूल और धूप-दीप आदिके लिये धन लेकर फिर लोभवश उसे उस कार्यमें नहीं लगाता, वह अक्षय नरकमें पड़ता है। भगवान् शिवके अन्न-पानका भक्षण करनेसे मनुष्यकी बड़ी दुर्गात होती है। अतः जो ब्राह्मण शिवमन्दिरमें पूजाको वृत्तिसे जीविका चलाता है, उसका कभी नरकसे उद्धार नहीं होता। अनाथ, दीन और विशेषतः श्रोत्रिय ब्राह्मणके लिये सुन्दर घर निर्माण कराकर मनुष्य कभी स्वर्गलोकसे नहीं गिरता। जो इस परम उत्तम पवित्र उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, उसे अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है तथा मन्दिर निर्माण आदिका फल भी प्राप्त हो जाता है।
अध्याय-43 रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
ब्राह्मणोंने पूछा— द्विजश्रेष्ठ। इस मर्त्यलोकमें कौन ऐसा मनुष्य है, जो पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ परम पवित्र, सबके लिये सुलभ, मनुष्योंके द्वारा पूजन करनेयोग्यतथा मुनियों और तपस्वियोंका भी आदरपात्र हो ?
व्यासजी बोले- विप्रगण ! रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाला पुरुष सब प्राणियोंमें श्रेष्ठ है। उसकेदर्शनमात्र लोगोंकी पाप राशि विलीन हो जाती है। रुद्राक्षके स्पर्शसे मनुष्य स्वर्गका सुख भोगता है और उसे धारण करनेसे वह मोक्षको प्राप्त होता है। जो मस्तकपर तथा हृदय और बाँहमें भी रुद्राक्ष धारण करता है, वह इस संसारमें साक्षात् भगवान् शंकरके समान है। रुद्राक्षधारी ब्राह्मण जहाँ रहता है, वह देश पुण्यवान् होता है। रुद्राक्षका फल तीर्थोंमें महान् तीर्थके समान हैं। ब्रह्म-ग्रन्थिसे युक्त मंगलमयी रुद्राक्षकी माला लेकर जो जप-दान स्तोत्र, मन्त्र और देवताओंका पूजन तथा दूसरा कोई पुण्य कर्म करता है, वह सब अक्षय हो जाता है तथा उससे पापका क्षय होता है।
श्रेष्ठ द्विजगण ! अब मैं मालाका लक्षण बतलाता हूँ, सुनो। उसका लक्षण जानकर तुमलोग मोक्ष-मार्ग प्राप्त कर लोगे। जिस रुद्राक्षमें योनिका चिह्न न हो जिसमें कोड़ोंने छेद कर दिया हो, जिसका लिंगचिह्न मिट गया हो तथा जिसमें दो बीज एक साथ सटे हुए हों, ऐसे रुद्राक्षके दानेको मालामें नहीं लेना चाहिये। जो माला अपने हाथसे गूँथी हुई और ढीली-ढाली हो, जिसके दाने एक-दूसरे से सटे हुए हो अथवा शूद्र आदि नीच मनुष्योंने जिसे गूँथा हो ऐसी माला अशुद्ध होती है। उसका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जो सर्पके समान आकारवाली ( एक ओरसे बड़ी और क्रमशः छोटी), नक्षत्रोंकी-सी शोभा धारण करनेवाली, सुमेरसे युक्त तथा सटी हुई ग्रन्थिके कारण शुद्ध है, वही माला उत्तम मानी गयी है। विद्वान् पुरुषको वैसी ही मालापर जप करना चाहिये। उपर्युक्त लक्षणोंसे शुद्ध रुद्राक्षको माला हाथमें लेकर मध्यमा अंगुलिसे लगे हुए दानोंको क्रमश: अँगूठेसे सरकाते हुए जप करना चाहिये। मेरुके पास पहुँचनेपर मालाको हाथसे बार-बार घुमा लेना चाहिये मेरुका उल्लंघन करना उचित नहीं है। वैदिक, पौराणिक तथा आगमोक्त जितने भी मन्त्र हैं, सब रुद्राक्षमालापर जप करनेसे अभीष्ट फलके उत्पादक और मोक्षदायक होते हैं। जो रुद्राक्षमालासे चूते हुए जलको मस्तकपर धारण करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अक्षयपुण्यका भागी होता है। रुद्राक्षमालाका एक-एक बीज एक-एक देवताके समान है। जो मनुष्य अपने शरीर में रुद्राक्ष धारण करता है, वह देवताओंमें श्रेष्ठ होता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- गुरुदेव ! रुद्राक्षकी उत्पत्ति कहाँसे हुई है ? तथा वह इतना पवित्र कैसे हुआ ?
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो! पहले किसी सत्ययुगमें एक त्रिपुर नामका दानव रहता था, वह देवताओंका वध करके अपने अन्तरिक्षचारी नगरमें छिप जाता था। ब्रह्माजीके वरदानसे प्रबल होकर वह सम्पूर्ण लोकोंके विनाशकी चेष्टा कर रहा था। एक समय देवताओंके निवेदन करनेपर भगवान् शंकरने यह भयंकर समाचार सुना। सुनते ही उन्होंने अपने आजगव नामक धनुषपर विकराल बाण चढ़ाया और उस दानवको दिव्य दृष्टिसे देखकर मार डाला। दानव आकाशसे टूटकर गिरनेवाली बहुत बड़ी लूकाके समान इस पृथ्वीपर गिरा। इस कार्यमें अत्यन्त श्रम होनेके कारण रुद्रदेवके शरीरसे पसीने की बूँदै टपकने लगीं। उन बूँदोंसे तुरंत ही पृथ्वीपर रुद्राक्षका महान् वृक्ष प्रकट हुआ। इसका फल अत्यन्त गुप्त होनेके कारण साधारण जीव उसे नहीं जानते। तदनन्तर एक दिन कैलासके शिखरपर विराजमान हुए देवाधिदेव भगवान् शंकरको प्रणाम करके कार्तिकेयजीने कहा- ‘तात! मैं रुद्राक्षका यथार्थ फल जानना चाहता हूँ। उसपर जप करने तथा उसका धारण, दर्शन अथवा स्पर्श करनेसे क्या फल मिलता है?’
भगवान् शिवने कहा- रुद्राक्षके धारण करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे छूट जाता है। यदि कोई हिंसक पशु भी कण्ठमें रुद्राक्ष धारण करके मर जाय तो रुद्रस्वरूप हो जाता है, फिर मनुष्य आदिके लिये तो कहना ही क्या है। जो मनुष्य मस्तक और हृदयमें रुद्राक्षकी माला धारण करके चलता है, उसे पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है [ रुद्राक्षमें एकसे लेकर चौदहतक मुख होते हैं।] जो कितने भी मुखवाले रुद्राक्षको धारण करता है, वह मेरे समान होता है; इसलिये पुत्र! तुम पूरा प्रयत्न करके रुद्राक्ष धारण करोजो रुद्राक्ष धारण करके इस भूतलपर प्राण त्याग करता है; वह सब देवताओंसे पूजित होकर मेरे रमणीय धामको जाता है। जो मृत्युकालमें मस्तकपर एक रुद्राक्षको माला धारण करता है, वह शैव, वैष्णव, शाक्त, गणेशोपासक और सूर्योपासक सब कुछ है जो इस प्रसंगको पढ़ता-पढ़ता, सुनता और सुनाता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर सुखपूर्वक मोक्ष-लाभ करता है।
कार्तिकेयजीने कहा- जगदीश्वर! मैं अन्यान्य फलोंकी पवित्रताके विषयमें भी प्रश्न कर रहा हूँ। सब लोगोंके हितके लिये यह बतलाइये कि कौन-कौन से फल उत्तम हैं।
ईश्वरने कहा- बेटा आँवलेका फल समस्त लोकोंमें प्रसिद्ध और परम पवित्र है। उसे लगानेपर स्त्री और पुरुष सभी जन्म-मृत्युके बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। यह पवित्र फल भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाला एवं शुभ माना गया है, इसके भक्षणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। आंवला खानेसे आयु बढ़ती है, उसका जल पीनेसे धर्म-संचय होता है और उसके द्वारा स्नान करनेसे दरिद्रता दूर होती है तथा सब प्रकारके ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। कार्तिकेय ! जिस परमें आँवला सदा मौजूद रहता है, वहाँ दैत्य और राक्षस नहीं जाते। एकादशीके दिन यदि एक ही आँवला मिल जाय तो उसके सामने गंगा, गया, काशी और पुष्कर आदि तीर्थ कोई विशेष महत्त्व नहीं रखते। जो दोनों पक्षको एकादशीको आँवलेसे स्नान करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीविष्णुलोक में सम्मानित होता है। षडानन जो आँवले के रससे सदा अपने केश साफ करता है, वह पुनः माताके स्तनका दूध नहीं पीता। आँवलेका दर्शन, स्पर्श तथा उसके नामका उच्चारण करनेसे सन्तुष्ट होकर वरदायक भगवान् श्रीविष्णु अनुकूल हो जाते हैं जहाँ आँवलेका फल मौजूद होता है, वहाँ भगवान् श्रीविष्णु सदा विराजमान रहते हैं तथा उस घरमें ब्रह्मा एवं सुस्थिर लक्ष्मीका भी वास होता है। इसलिये अपने घरमें आँवला अवश्य रखना चाहिये। जो आँवलेका बना मुरब्बा एवं बहुमूल्य नैवेद्य अर्पणकरता है, उसके ऊपर भगवान् श्रीविष्णु बहुत सन्तुष्ट होते हैं। उतना सन्तोष उन्हें सैकड़ों यज्ञ करनेपर भी नहीं हो सकता।
स्कन्द ! योगी, मुनियों तथा ज्ञानियोंको जो गति प्राप्त होती है, वही आँवलेका सेवन करनेवाले मनुष्यको भी मिलती है तीथोंमें वास एवं तीर्थ यात्रा करनेसे तथा नाना प्रकारके व्रतोंसे मनुष्यको जो गति प्राप्त होती है, वही आँवलेके फलका सेवन करनेसे भी मिल जाती है तात प्रत्येक रविवार तथा विशेषतः सप्तमी तिथिको आँवलेका फल दूरसे ही त्याग देना चाहिये। संक्रान्तिके दिन, शुक्रवारको तथा षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी और अमावास्याको आँवलेका दूरसे ही परित्याग करना उचित है। जिस मृतकके मुख, नाक, कान अथवा बालोंमें आँवलेका फल हो, वह विष्णुलोकको जाता है। आँवलेके सम्पर्कमात्रसे मृत व्यक्ति भगवद्धामको प्राप्त होता है जो धार्मिक मनुष्य शरीरमें आँवलेका रस लगाकर स्नान करता है, उसे पद-पदपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। उसके दर्शन मात्रसे जितने भी पापी जन्तु हैं, वे भाग जाते हैं तथा कठोर एवं दुष्ट ग्रह पलायन कर जाते हैं।
स्कन्द ! पूर्वकालकी बात है- एक चाण्डाल शिकार खेलनेके लिये वनमें गया। वहाँ अनेकों मृगों और पक्षियोंको मारकर जब वह भूख-प्याससे अत्यन्त पीड़ित हो गया, तब सामने ही उसे एक आँवलेका वृक्ष दिखायी दिया। उसमें खूब मोटे-मोटे फल लगे थे। चाण्डाल सहसा वृक्षके ऊपर चढ़ गया और उसके उत्तम उत्तम फल खाने लगा। प्रारब्धवश वह वृक्षके शिखरसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और वेदनासे व्यथित होकर इस लोकसे चल बसा। तदनन्तर सम्पूर्ण प्रेत, राक्षस, भूतगण तथा यमराजके सेवक बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ आये; किन्तु उसे ले न जा सके। यद्यपि वे महान् बलवान् थे, तथापि उस मृतक चाण्डालकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते थे। जब कोई भी उसे पकड़कर ले जा न सका, तब वे अपनी असमर्थता देख मुनियोंके पास जाकर बोले-‘ज्ञानी महर्षियो !चाण्डाल तो बड़ा पापी था; फिर क्या कारण है कि हमलोग तथा ये यमराजके सेवक उसकी ओर देख भी न सके ?’ ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ कहते हुए हमलोग झगड़ा कर रहे हैं, किन्तु उसे ले जानेको शक्ति नहीं रखते क्यों और किसके प्रभावसे वह सूर्यको भौति दुष्प्रेक्ष्य हो रहा है-उसकी ओर दृष्टिपात करना भी कठिन जान पड़ता है।’
मुनियोंने कहा- प्रेतगण इस चाण्डालने आँवलेके पके हुए फल खाये थे उसकी डाल टूट जानेसे उसके सम्पर्क में ही इसकी मृत्यु हुई है। मृत्युकालमें भी इसके आस-पास बहुत से फल बिखरे पड़े थे। इन्हीं सब कारणोंसे तुमलोगोंका इसकी ओर देखना कठिन हो रहा है। इस पापीका आँवलेसे सम्पर्क रविवारको या और किसी निषिद्ध वेलामें नहीं हुआ है; इसलिये यह दिव्य लोकको प्राप्त होगा ।
प्रेत बोले- मुनीश्वरो! आपलोगोंका ज्ञान उत्तम है, इसलिये हम आपसे एक प्रश्न पूछते हैं। जबतक यहाँ श्रीविष्णुलोक से विमान नहीं आता, तबतक आपलोग हमारे प्रश्नका उत्तर दे दें। जहाँ वेदों और नाना प्रकारके मन्त्रोंका गम्भीर घोष होता है, जहाँ पुराणों और स्मृतियोंका स्वाध्याय किया जाता है, वहाँ हम एक क्षणके लिये भी नहीं ठहर सकते। यज्ञ, होम, जप तथा देवपूजा आदि शुभ कार्योंके सामने हमारा ठहरना असम्भव है; इसलिये हमें यह बताइये कि कौन-सा कर्म करके मनुष्य प्रेतयोनियोंको प्राप्त होते हैं। हमें यह सुनने की भी इच्छा है कि उनका शरीर विकृत क्योंकर हो जाता है।
ब्रह्मर्षियोंने कहा- जो झूठी गवाही देते तथा वध और बन्धनमें पड़कर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे नरकमें पड़े हुए जीव ही प्रेत होते हैं। जो ब्राह्मणोंके दोष ढूँढ़ने में लगे रहते हैं और गुरुजनोंके शुभ कर्मोंमें बाधा पहुँचाते हैं तथा जो श्रेष्ठ ब्राह्मणको दिये जानेवाले दानमें रुकावट डाल देते हैं, वे चिरकालतक प्रेतयोनिमें पड़कर नरकसे कभी उद्धार नहीं पाते जो मूर्ख अपने और दूसरेके बैलोंको 11 कष्ट दे उनसे बोझ ढोनेका काम लेकर उनकीरक्षा नहीं करते, जो अपनी प्रतिज्ञाका त्याग करते, असत्य बोलते और व्रत भंग करते हैं तथा जो कमलके पत्तेपर भोजन करते हैं, वे सब इस पृथ्वीपर कर्मानुसार प्रेत होते हैं। जो अपने चाचा और मामा आदिकी सदाचारिणी कन्या तथा साध्वी स्त्रीको बेच देते हैं, वे भूतलपर प्रेत होते हैं।
प्रेतोंने पूछा- ब्राह्मणो! किस प्रकार और किस कर्मके आचरणसे मनुष्य प्रेत नहीं होते ?
ब्राह्मणोंने कहा- जिस बुद्धिमान् पुरुषने तीर्थोंके जलमें स्नान तथा शिवको नमस्कार किया है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो एकादशी अथवा द्वादशीको उपवास करके विशेषतः भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करते हैं तथा जो वेदोंके अक्षर, सूक्त, स्तोत्र और मन्त्र आदिके द्वारा देवताओंके पूजनमें संलग्न रहते हैं, उन्हें भी प्रेत नहीं होना पड़ता। पुराणोंके धर्मयुक्त दिव्य वचन सुनने, पढ़ने और पढ़ानेसे तथा नाना प्रकारके व्रतोंका अनुष्ठान करने और रुद्राक्ष धारण करनेसे जो पवित्र हो चुके हैं एवं जो रुद्राक्षकी मालापर जप करते हैं, वे प्रेतयोनिको नहीं प्राप्त होते। जो आँवलेके फलके रससे स्नान करके प्रतिदिन आँवला खाया करते हैं तथा आँवलेके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुका पूजन भी करते हैं, वे कभी पिशाचयोनिमें नहीं जाते।
प्रेत बोले- महर्षियो ! संतोंके दर्शनसे पुण्य होता है – इस बातको पौराणिक विद्वान् जानते हैं। हमें भी आपका दर्शन हुआ है; इसलिये आपलोग हमारा कल्याण करें। धीर महात्माओ! जिस उपायसे हम सब लोगोंको प्रेतयोनिसे छुटकारा मिले, उसका उपदेश कीजिये। हम आपलोगोंकी शरणमें आये हैं।
ब्राह्मण बोले- हमारे वचनसे तुमलोग आँवलेका भक्षण कर सकते हो। वह तुम्हारे लिये कल्याणकारक होगा। उसके प्रभावसे तुम उत्तम लोकमें जानेके योग्य बन जाओगे।
महादेवजी कहते हैं – इस प्रकार ऋषियोंसे सुनकर पिशाच आँवलेके वृक्षपर चढ़ गये और उसका फल ले-लेकर उन्होंने बड़ी मौजके साथ खाया। तब देवलोक से तुरंत ही एक पीले रंगका सुवर्णमय विमान उतरा, जो परम शोभायमान था। पिशाचोंने उसपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोककी यात्रा की बेटा अनेक व्रतों और यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी जो अत्यन्त दुर्लभ है, वही लोक उन्हें आँवलेका भक्षण करने मात्रसे मिल गया।
कार्तिकेयजीने पूछा- पिताजी! जब आँवलेके फलका भक्षण करने मात्रसे प्रेत पुण्यात्मा होकर स्वर्गको चले गये, तब मनुष्य आदि जितने प्राणी हैं, वे भी आंवला खानेसे क्यों नहीं तुरंत स्वर्गमें चले जाते ? महादेवजीने कहा- बेटा स्वर्गकी प्राप्ति तो उन्हें भी होती है; किन्तु] तुरंत ऐसा न होनेमें एक कारण है उनका ज्ञान लुप्त रहता है, वे अपने हित और अहितकी बात नहीं जानते। [इसलिये आँवलेके महत्त्वमे उनकी श्रद्धा नहीं होती।]
जिस घरकी मालकिन सहज ही काबू न आने वाली, पवित्रता और संयमसे रहित, गुरुजनोद्वारा निकाली हुई तथा दुराचारिणी होती है, वहाँ प्रेत रहा करते हैं। जो कुल और जातिसे नीच, बल और उत्साहसे रहित, बहरे, दुर्बल और दीन हैं, वे कर्मजनित पिशाच हैं। जो माता, पिता, गुरु और देवताओंकी निन्दा करते हैं. पाखण्डी और वाममार्गी हैं, जो गलेमें फाँसी लगाकर, पानीमें डूबकर तलवार या छुरा भोंककर अथवा जहर खाकर आत्मघात कर लेते हैं, वे प्रेत होनेके पश्चात् इस लोकमें चाण्डाल आदि योनियोंके भीतर जन्म ग्रहण करते हैं। जो माता-पिता आदिसे द्रोह करते, ध्यान और अध्ययनसे दूर रहते हैं, व्रत और देवपूजा नहीं करते, मन्त्र और स्नानसे होन रहकर गुरुपत्नी- गमनमें प्रवृत्त होते हैं तथा जो दुर्गतिमें पड़ी हुई चाण्डाल आदिको स्त्रियोंसे समागम करते हैं, ये भी प्रेत होते हैं। म्लेच्छों के देशमें जिनको मृत्यु होती है, जो म्लेच्छोंके समान आचरण करते और स्त्रीके धनसे जीविका चलाते हैं, जिनके द्वारा स्त्रियोंकी रक्षा नहीं होती, वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं जो सुधासे पीड़ित थके-माँदै, गुणवान् और पुण्यात्मा अतिथिके रूपमें घरपर आये हुए ब्राह्मणको लौटा देते हैं-उसका यथावत् सत्कार नहीं करते, जो गोभक्षी म्लेच्छोंहाथ गौएँ बेच देते हैं, जो जीवनभर स्नान, सन्ध्या, वेद-पाठ, यज्ञानुष्ठान और अक्षरज्ञानसे दूर रहते हैं, जो लोग जूठे शकोरे आदि और शरीरके मल-मूत्र तीर्थ भूमिमें गिराते हैं वे निस्सन्देह प्रेत होते हैं जो स्त्र पतिका परित्याग करके दूसरे लोगोंके साथ रहती हैं, वे चिरकालतक प्रेतलोकमें निवास करनेके पश्चात् चाण्डालयोनिमें जन्म लेती हैं जो विषय और इन्द्रियोंसे मोहित होकर पतिको धोखा देकर स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती हैं, वे पापाचारिणी स्त्रियं चिरकालतक इस पृथ्वीपर प्रेत होती हैं जो मनुष्य बलपूर्वक दूसरेकी वस्तुएँ लेकर उन्हें अपने अधिकारमें कर लेते हैं और अतिथियोंका अनादर करते हैं, वे प्रेत होकर नरकमें पड़े रहते हैं।
इसलिये जो आँवला खाकर उसके रससे स्नान करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होते हैं। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके तुम आँवलेके कल्याणमय फलका सेवन करो। जो इस पवित्र और मंगलमय उपाख्यानका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे शुद्ध होकर भगवान् श्रीविष्णु लोकमें सम्मानित होता है जो सदा ही लोगोंमें, विशेषतः वैष्णवोंमें आँवलेके माहात्म्यका श्रवण कराता है, वह भगवान् श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है-ऐसा पौराणिकोंका कथन है।
कार्तिकेयजीने कहा- प्रभो! रुद्राक्ष और आँवला इन दोनों फलोंकी पवित्रताको तो मैं जान गया। अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि कौन सा ऐसा वृक्ष है, जिसका पत्ता और फूल भी मोक्ष प्रदान करनेवाला है। महादेवजी बोले- बेटा! सब प्रकारके पत्तों और पुष्पोंकी अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गयी है। वह परम मंगलमयी, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, शुद्ध, श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय तथा ‘वैष्णवी’ नाम धारण करनेवाली है। वह सम्पूर्ण लोकमें श्रेष्ठ, शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भगवान् श्रीविष्णुने पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये तुलसीका वृक्ष रोपा था। तुलसीके पत्ते और पुष्प सब धर्मोमेंप्रतिष्ठित हैं। जैसे भगवान् श्रीविष्णुको लक्ष्मी और मैं दोनों प्रिय हैं, उसी प्रकार यह तुलसीदेवी भी परम प्रिय है। हम तीनके सिवा कोई चौथा ऐसा नहीं जान पड़ता, जो भगवान्को इतना प्रिय हो। तुलसीदलके बिना दूसरे दूसरे फूलों, पत्तों तथा चन्दन आदिके पोंसे भगवान् श्रीविष्णुको उतना सन्तोष नहीं होता। जिसने तुलसीदलके द्वारा पूर्ण श्रद्धाके साथ प्रतिदिन भगवान् श्रीविष्णुका पूजन किया है, उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिये। तुलसीदलसे भगवान्की पूजा कर लेनेपर कान्ति, सुख, भोगसामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, शील, पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, राज्य, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदांग, शास्त्र, पुराण, तन्त्र और संहिता – सब कुछ मैं करतलगत समझता हूँ। जैसे पुण्यसलिला गंगा मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं, उसी प्रकार यह तुलसी भी कल्याण करनेवाली है। स्कन्द ! यदि मंजरीयुक्त तुलसीपत्रोंके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की जाय तो उसके पुण्यफलका वर्णन करना असम्भव है। जहाँ तुलसीका बन है, वहीं भगवान् श्रीकृष्णकी समीपता है तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मीजी भी सम्पूर्ण देवताओंके साथ विराजमान हैं। इसलिये अपने निकटवर्ती स्थानमें तुलसीदेवीको रोपकर उनकी पूजा करनी चाहिये। तुलसीके निकट जो स्तोत्र-मन्त्र आदिका जप किया जाता है, वह सब अनन्तगुना फल देनेवाला होता है। प्रेत, पिशाच, कुष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसीके वृक्षसे दूर भागते हैं। ब्रह्महत्या आदि पाप तथा पाप और खोटे विचारसे उत्पन्न होनेवाले रोग—ये सब तुलसीवृक्षके समीप नष्ट हो जाते हैं। जिसने श्रीभगवान्की पूजाके लिये पृथ्वीपर तुलसीका बगीचा लगा रखा है, उसने उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त सी यहाँका विधिवत् अनुष्ठान पूर्ण कर लिया है। जो श्रीभगवान्की प्रतिमाओं तथा शालग्रामशिलाओंपर चढ़े हुए तुलसीदलको प्रसादके रूपमें ग्रहण करता है, वह श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। जो श्रीहरिकी पूजा करके उन्हें निवेदन किये हुए तुलसीदलको अपने मस्तकपर धारण करता है, वह पापसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। कलियुगमें तुलसीका पूजन, कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करनेसे वह पापको जलाती और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है। जो तुलसीके पूजन आदिका दूसरोंको उपदेश देता और स्वयं भी आचरण करता है, वह | भगवान् श्रीलक्ष्मीपतिके परम धामको प्राप्त होता है। * जो वस्तु भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय जान पड़ती है, वह मुझे भी अत्यन्त प्रिय है। श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्योंमें तुलसीका एक पत्ता भी महान् पुण्य प्रदान करनेवाला है। जिसने तुलसीकी सेवा की है, उसने गुरु, ब्राह्मण, देवता और तीर्थ -सबका भलीभाँति सेवन कर लिया। इसलिये षडानन ! तुम तुलसीका सेवन करो। जो शिखामें तुलसी स्थापित करके प्राणोंका परित्याग करता है, वह पापराशिसे मुक्त हो जाता है। राजसूय आदि यज्ञ, भाँति-भाँतिके व्रत तथा संयमके द्वारा धीर पुरुष जिस गतिको प्राप्त करता है, वही उसे तुलसीकी सेवासे मिल जाती है। तुलसीके एक पत्रसे श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य वैष्णवत्वको प्राप्त होता है। उसके लिये अन्यान्य शास्त्रोंके विस्तारकी क्या आवश्यकता जिसने तुलसीकी शाखा तथा कोमल पत्तियोंसे भगवान् श्रीविष्णुकी पूजा की है, वह कभी माताका दूध नहीं पीता – उसका पुनर्जन्म नहीं होता। कोमल तुलसीदलोंके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिकी पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियोंको पवित्र कर सकता है। तात ! ये मैंने तुमसे तुलसीके प्रधान प्रधान गुण बतलाये हैं। सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो बहुत अधिक समय लगानेपर भी नहीं हो सकता। यह उपाख्यानपुण्यराशिका संचय करनेवाला है। जो प्रतिदिन इसका श्रवण करता है, वह पूर्वजन्मके किये हुए पाप तथा जन्म-मृत्युके बन्धन से मुक्त हो जाता है। बेटा! इसअध्यायके पाठ करनेवाले पुरुषको कभी रोग नहीं सताते, अज्ञान उसके निकट नहीं आता। उसकी सदा विजय होती है।
अध्याय-44 तुलसी स्तोत्रका वर्णन
ब्राह्मणोंने कहा- गुरुदेव हमने आपके मुखसे तुलसीके पत्र और पुष्पका शुभ माहात्म्य सुना, जो भगवान् श्रीविष्णुको बहुत ही प्रिय है। अब हमलोग तुलसीके पुण्यमय स्तोत्रका श्रवण करना चाहते हैं। व्यासजी बोले- ब्राह्मणो पहले स्कन्दपुराण मैं जो कुछ बतला आया हूँ, वही यहाँ कहता हूँ। शतानन्द मुनिके शिष्य कठोर व्रतका पालन करनेवाले थे। उन सबने एक दिन अपने गुरुको प्रणाम करके परम पुण्य और हितकी बात पूछी।
शिष्योंने कहा – नाथ! ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! आपने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके मुखसे तुलसीजीके जिस स्तोत्रका श्रवण किया था, उसको हम आपसे सुनना चाहते हैं। शतानन्दजी बोले – शिष्यगण ! तुलसीका नामोच्चारण करनेपर असुरोंका दर्प दलन करनेवाले भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। मनुष्यके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जिसके दर्शनमात्रसे करोड़ों गोदानका फल होता है, उस तुलसीका पूजन और वन्दन लोग क्यों न करें। कलियुगके संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जिनके घरमें शालग्राम-शिलाका पूजन सम्पन्न करनेके लिये प्रतिदिन तुलसीका वृक्ष भूतलपर लहलहाता रहता है। जो कलियुगमें भगवान् श्रीकेशनकी पूजाके लिये पृथ्वीपर तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, उनपर यदि यमराज अपने किंकरोंसहित रुष्ट हो जायें तो भी वे उनका क्या कर सकते हैं। ‘तुलसी तुम अमृत उत्पन्न हो और केशवको सदा ही प्रिय हो। कल्याणी। मैं भगवान्कीपूजाके लिये तुम्हारे पत्तोंको चुनता हूँ। तुम मेरे लिये वरदायिनी बनो। तुम्हारे श्रीअंगोंसे उत्पन्न होनेवाले पत्रों और मंजरियोंद्वारा मैं सदा ही जिस प्रकार श्रीहरिका पूजन कर सकूँ, वैसा उपाय करो। पवित्रांगी तुलसी! तुम कलि-मलका नाश करनेवाली हो।” इस भावके मन्त्रोंसे जो तुलसीदलोंको चुनकर उनसे भगवान् वासुदेवका पूजन करता है, उसकी पूजाका करोड़ोंगुना फल होता है।
देवेश्वरी ! बड़े-बड़े देवता भी तुम्हारे प्रभावका गायन करते हैं। मुनि, सिद्ध, गन्धर्व, पाताल निवासी साक्षात् नागराज शेष तथा सम्पूर्ण देवता भी तुम्हारे प्रभावको नहीं जानते; केवल भगवान् श्रीविष्णु ही तुम्हारी महिमाको पूर्णरूपसे जानते हैं। जिस समय क्षीरसमुद्रके मन्थनका उद्योग प्रारम्भ हुआ था, उस समय श्रीविष्णुके आनन्दांशसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ था। पूर्वकालमें श्रीहरिने तुम्हें अपने मस्तकपर धारण किया था। देवि ! उस समय श्रीविष्णुके शरीरका सम्पर्क पाकर तुम परम पवित्र हो गयी थीं। तुलसी मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तुम्हारे श्रीअंगसे उत्पन्न पत्रोंद्वारा जिस प्रकार श्रीहरिकी पूजा कर सकूँ, ऐसी कृपा करो, जिससे मैं निर्विघ्नतापूर्वक परम गतिको प्राप्त होऊँ । साक्षात् श्रीकृष्णने तुम्हें गोमतीतटपर लगाया और बढ़ाया था। वृन्दावनमें विचरते समय सम्पूर्ण जगत् और गोपियोंके हितके लिये तुलसीका सेवन किया। जगत्-प्रिया तुलसी ! पूर्वकालमें वसिष्ठजीके कथनानुसार श्रीरामचन्द्रजीने भी राक्षसोंका वध करनेके उद्देश्यसे सरयूके तटपर तुम्हें लगाया था। तुलसीदेवी!मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीसे वियोग हो जानेपर अशोकवाटिकामें रहते हुए जनककिशोरी सीताने तुम्हारा ही ध्यान किया था, जिससे उन्हें पुनः अपने प्रियतमका समागम प्राप्त हुआ। पूर्वकालमें हिमालय पर्वतपर भगवान् शंकरकी प्राप्तिके लिये पार्वतीदेवीने तुम्हें लगाया और अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये तुम्हारा सेवन किया था। तुलसीदेवी! मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ। सम्पूर्ण देवांगनाओं और किन्नरोंने भी दुःस्वप्नका नाश करनेके लिये नन्दनवनमें तुम्हारा सेवन किया था। देवि! तुम्हें मेरा नमस्कार है। धर्मारण्य गयामें साक्षात् पितरोंने तुलसीका सेवन किया था। दण्डकारण्यमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने अपने हित साधनकी इच्छासे परम पवित्र तुलसीका वृक्ष लगाया तथा लक्ष्मण और सीताने भी बड़ी भक्तिके साथ उसे पोसा था। जिस प्रकार शास्त्रोंमें गंगाजीको त्रिभुवनव्यापिनी कहा गया है, उसी प्रकार तुलसीदेवी भी सम्पूर्ण चराचर जगत्में दृष्टिगोचर होती हैं। तुलसीका ग्रहण करके मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। और तो और, मुनीश्वरो ! तुलसीके सेवनसे ब्रह्महत्या भी दूर हो जाती है। तुलसीके पत्तेसे टपकता हुआ जल जो अपने सिरपर धारण करता है, उसे गंगा- स्नान और दस गोदानका फल प्राप्त होताहै। देवि! मुझपर प्रसन्न होओ। देवेश्वरि ! हरिप्रिये ! मुझपर प्रसन्न हो जाओ। क्षीरसागरके मन्थनसे प्रकट हुई तुलसीदेवि ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ।
द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके जो इस तुलसी स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् श्रीविष्णु उसके बत्तीस अपराध क्षमा करते हैं। बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी और बुढ़ापेमें जितने पाप किये होते हैं, वे सब तुलसी स्तोत्रके पाठसे नष्ट हो जाते हैं। तुलसीके स्तोत्रसे सन्तुष्ट होकर भगवान् सुख और अभ्युदय प्रदान करते हैं। जिस घरमें तुलसीका स्तोत्र लिखा हुआ विद्यमान रहता है, उसका कभी अशुभ नहीं होता, उसका सब कुछ मंगलमय होता है, किंचित् भी अमंगल नहीं होता। उसके लिये सदा सुकाल रहता है । वह घर प्रचुर धन-धान्यसे भरा रहता है तुलसी स्तोत्रका पाठ करनेवाले मनुष्यके हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुके प्रति अविचल भक्ति होती है तथा उसका वैष्णवोंसे कभी वियोग नहीं होता। इतना ही नहीं, उसकी बुद्धि कभी अधर्ममें नहीं प्रवृत्त होती। जो द्वादशीकी रात्रिमें जागरण करके तुलसी स्तोत्रका पाठ करता है, उसे करोड़ों तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त होता है।
अध्याय-45 श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
ब्राह्मण बोले- गुरुदेव ! अब आप हमें कोई ऐसा तीर्थ बतलाइये, जहाँ डुबकी लगानेसे निश्चय ही समस्त पाप तथा दूसरे दूसरे महापातक भी नष्ट हो जाते हैं।
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो! अविलम्ब सद्गतिका उपाय सोचनेवाले सभी स्त्री-पुरुषोंके लिये गंगाजी ही एक ऐसा तीर्थ हैं, जिनके दर्शनमात्रसे सारा पाप नष्ट हो जाता है। गंगाजीके नामका स्मरण करनेमात्रसे पातक,कीर्तनसे अतिपातक और दर्शनसे भारी-भारी पाप (महापातक) भी नष्ट हो जाते हैं। गंगाजीमें स्नान, जलपान और पितरोंका तर्पण करनेसे महापातकोंकी राशिका प्रतिदिन क्षय होता रहता है। जैसे अग्निका संसर्ग होनेसे रूई और सूखे तिनके क्षणभरमें भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार गंगाजी अपने जलका स्पर्श होनेपर मनुष्योंके सारे पाप एक ही क्षणमें दग्ध कर देती हैं। * जो विधिपूर्वक संकल्पवाक्यका उच्चारण करते हुएगंगाजीके जलमें पितरोंके उद्देश्यसे पिण्डदान करता है, उसे प्रतिदिन सौ यज्ञोंका फल होता है। जो लोग गंगाजीके जलमें अथवा तटपर आवश्यक सामग्रियोंसे तर्पण और पिण्डदान करते हैं, उन्हें अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो अकेला भी गंगाजीकी यात्रा करता है, उसके पितरोंकी कई पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। एकमात्र इसी महापुण्यके बलपर वह स्वयं भी तरता है और पितरोंको भी तार देता है। ब्राह्मणो! गंगाजीके सम्पूर्ण गुणका वर्णन करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं। इसलिये मैं भागीरथीके कुछ ही गुणोंका दिग्दर्शन कराता हूँ।
मुनि, सिद्ध, गन्धर्व तथा अन्यान्य श्रेष्ठ देवता गंगाजीके तीरपर तपस्या करके स्वर्गलोकमें स्थिर भावसे विराजमान हुए हैं। आजतक वे वहाँसे इस संसारमें नहीं लौटे। तपस्या, बहुत-से यज्ञ, नाना प्रकारके व्रत तथा पुष्कल दान करनेसे जो गति प्राप्त होती है, गंगाजीका सेवन करके मनुष्य उसी गतिको पा लेता है।
पिता पुत्रको, पत्नी प्रियतमको सम्बन्धी अपने सम्बन्धीको तथा अन्य सब भाई-बन्धु भी अपने प्रिय बन्धुको छोड़ देते हैं, किन्तु गंगाजी उनका परित्याग नहीं करतीं। जिन श्रेष्ठ मनुष्योंने एक बार भी भक्तिपूर्वक गंगामें स्नान किया है, कल्याणमयी गंगा उनकी लाख पीढ़ियोंका भवसागरसे उद्धार कर देती हैं। संक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण और पुष्य नक्षत्रमें गंगाजीमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलकी करोड़ पीढ़ियोंका उद्धार कर सकता है। जो मनुष्य [अन्तकालमें] अपने हृदयमें भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए उत्तरायणके शुक्लपक्षमें दिनको गंगाजीके जलमें देह त्याग करते हैं, वे धन्य हैं। जो इस प्रकार भागीरथीके शुभ जलमें प्राण त्याग करते हैं, उन्हें पुनरावृत्तिरहित स्वर्गकी प्राप्ति होती है। गंगाजी में पितरोंको पिण्डदान तथा तिलमिश्रित जलसे तर्पणकरनेपर वे यदि नरकमें हों तो स्वर्गमें जाते हैं और स्वर्गमें हों तो मोक्षको प्राप्त होते हैं।
पर-स्त्री और पर-धनका हरण करने तथा सबसे द्रोह करनेवाले पापी मनुष्योंको उत्तम गति प्रदान करनेका साधन एकमात्र गंगाजी ही हैं। वेद-शास्त्रके ज्ञानसे रहित, गुरु-निन्दापरायण और सदाचारशून्य मनुष्यके लिये गंगाके समान दूसरी कोई गति नहीं है। गंगाजीमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्योंके अनेक जन्मोंकी पापराशि नष्ट हो जाती है तथा वे तत्काल पुण्यभागी होते हैं।
प्रभासक्षेत्रमें सूर्यग्रहणके समय एक सहस्र गोदान करनेपर जो फल मिलता है, वह गंगाजीमें स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। गंगाजीका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे छूट जाता है और उसके जलका स्पर्श करके स्वर्ग पाता है। अन्य कार्यके प्रसंगसे भी गंगाजीमें गोता लगानेपर वे मोक्ष प्रदान करती हैं। गंगाजीके दर्शनमात्रसे पर धन और पर स्त्रीकी अभिलाषा तथा पर-धर्म-विषयक रुचि नष्ट हो जाती है। अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसीमें सन्तोष करना, अपने धर्ममें प्रवृत्त रहना तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति समान भाव रखना – ये सद्गुण गंगाजीमें स्नान करनेवाले मनुष्य के हृदयमें स्वभावतः उत्पन्न होते हैं। जो मनुष्य गंगाजीका आश्रय लेकर सुखपूर्वक निवास करता है, वही इस लोकमे जीवन्मुक्त और सर्वश्रेष्ठ है। उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता। गंगाजी में या उनके तटपर किया हुआ यज्ञ, दान, तप, जप श्राद्ध और देवपूजन प्रतिदिन कोटि-कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। अपने जन्म नक्षत्रके दिन गंगाजीके संगममें स्नान करके मनुष्य अपने कुलका उद्धार कर देता है। जो बिना श्रद्धाके भी पुण्यसलिला गंगाजीके नामका कीर्तन करता है, वह निश्चय ही स्वर्गका अधिकारी है। वे पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागोको और स्वर्गमें देवताओंको तारती हैं। जानकर या अनजानमें इच्छासे याअनिच्छासे गंगामें मरनेवाला मनुष्य स्वर्ग और मोक्षको भी प्राप्त करता है। सत्त्वगुणमें स्थित योगयुक्त मनीषी पुरुषको जो गति मिलती है, वही गंगाजीमें प्राण त्यागनेवाले देहधारियोंको प्राप्त होती है। एक मनुष्य अपने शरीरका शोधन करनेके लिये हजारों चान्द्रायण व्रत करता है और दूसरा मनचाहा गंगाजीका जल पीता है— उन दोनोंमें गंगाजलका पान करनेवाला पुरुष ही श्रेष्ठ है। मनुष्यके ऊपर तभीतक तीर्थो, देवताओं और वेदोंका प्रभाव रहता है, जबतक कि वह गंगाजीको नहीं प्राप्त कर लेता।
भगवती गंगे! वायु देवताने स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं; वे सब तुम्हारे जलमें विद्यमान हैं। गंगे! तुम श्रीविष्णुका चरणोदक होनेके कारण परम पवित्र हो। तीनों लोकोंमें गमन करनेसे त्रिपथगामिनी कहलाती हो। तुम्हारा जल धर्ममय है; इसलिये तुम धर्मद्रवीके नामसे विख्यात हो । जाह्नवी! मेरे पाप हर लो। भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम श्रीविष्णुद्वारा सम्मानित तथा वैष्णवी हो। मुझे जन्मसे लेकर मृत्युतकके पापोंसे बचाओ। महादेवी! भागीरथी! तुम श्रद्धासे, शोभायमान रज:कर्णोसे तथा अमृतमय जलसे मुझे पवित्र करो । इस भावके तीन श्लोकोंका उच्चारण करते हुए जो गंगाजीके जलमें स्नान करता है, वह करोड़ जन्मोंके पापसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। अब मैं गंगाजीके मूल मन्त्रका वर्णन करूँगा, जिसे साक्षात् श्रीहरिने बतलाया है। उसका एक बार भी जप करके मनुष्य पवित्र हो जाता तथा श्रीविष्णुके श्रीविग्रहमें प्रतिष्ठित होता है। वह मन्त्र इस प्रकार है-‘ॐ नमो गङ्गायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः ।’ (भगवान्श्रीनारायणसे प्रकट हुई विश्वरूपिणी गंगाजीको बारंबार नमस्कार है।)
जो मनुष्य गंगातीरकी मिट्टी अपने मस्तकपर धारण करता है, वह गंगामें स्नान किये बिना ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। गंगाजीकी लहरोंसे सटकर बहनेवाली वायु यदि किसीके शरीरका स्पर्श करती है, तो वह घोर पापसे शुद्ध होकर अक्षय स्वर्गका उपभोग करता है। मनुष्यकी हड्डी जबतक गंगाजीके जलमें पड़ी रहती है, उतने ही हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। माता-पिता, बन्धु-बान्धव, अनाथ तथा गुरुजनोंकी हड्डी गंगाजीमें गिरानेसे मनुष्य कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। जो मानव अपने पितरोंकी हड्डियोंके टुकड़े बटोरकर उन्हें गंगाजीमें डालनेके लिये ले जाता है, वह पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। गंगा तीरपर बसे हुए गाँव, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े तथा चर-अचर – सभी प्राणी धन्य हैं। विप्रवरो ! जो गंगाजीसे एक कोसके भीतर प्राण त्याग करते हैं, वे मनुष्य देवता ही हैं; उससे बाहरके मनुष्य ही इस पृथ्वीपर मानव हैं। गंगास्नानके लिये यात्रा करता हुआ यदि कोई मार्गमें ही मर जाता है, तो वह भी स्वर्गको प्राप्त होता है। ब्राह्मणो! जो लोग गंगाजीकी यात्रा करनेवाले मनुष्योंको वहाँका मार्ग बता देते हैं, उन्हें भी परमपुण्यकी प्राप्ति होती है और वे भी गंगास्नानका फल पा लेते हैं। जो पाखण्डियोंके संसर्गसे विचारशक्ति खो बैठनेके कारण गंगाजीकी निन्दा करते हैं, वे घोर नरकमें पड़ते हैं तथा वहाँसे फिर कभी उनका उद्धार होना कठिन है। जो सैकड़ों योजन दूरसे भी ‘गंगा-गंगा’ कहता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको प्राप्त होता है। जो मनुष्य कभी गंगाजीमें स्नानके लियेनहीं गये हैं, वे अंधे और पंगुके समान हैं। उनका इस संसार जन्म लेना व्यर्थ है जो गंगाजीके नामका कीर्तन नहीं करते, वे नराधम जड़के समान हैं। जो लोग बद्धके साथ गंगाजीके माहात्म्यका पठन-पाठन करते हैं, वे धीर पुरुष स्वर्गको जाते और पितरों तथा गुरुओंका उद्धार कर देते हैं जो पुरुष गंगाजीकी यात्र करनेवाले लोगोंको राह खर्चके लिये अपनी शक्तिके अनुसार धन देता है, उसे भी गंगाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। दूसरेके खर्चसे जानेवालेको स्नानका जितना फल मिलता है, उससे दूना फल खर्च देकर भेजनेवालोंको प्राप्त होता है इच्छासे या अनिच्छासे, किसीके भेजने या दूसरेकी सेवाके मिससे भी जो परम पवित्र गंगाजीकी यात्रा करता है, वह देवताओंके लोकमें जाता है।
ब्राह्मणोंने पूछा- व्यासजी। हमने आपके मुँहसे गंगाजीके गुणोंका अत्यन्त पवित्र कीर्तन सुना। अब हम यह जानना चाहते हैं कि गंगाजी कैसे इस रूपमें प्रकट हुई, उनका स्वरूप क्या है तथा वे क्यों अत्यन्त पावन मानी जाती हैं।
व्यासजी बोले- द्विजवरी सुनो, मैं एक परम पवित्र प्राचीन कथा सुनाता हूँ। प्राचीन कालकी बात है, मुनिश्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्मलोकमें जाकर त्रिलोकपावन ब्रह्माजीको नमस्कार किया और पूछा—’तात! आपने ऐसी कौन-सी वस्तु उत्पन्न की है, जो भगवान् शंकर और श्रीविष्णुको भी अत्यन्त प्रिय हो तथा जो भूतलपर सब लोगों का हित करनेके लिये अभीष्ट मानी गयी हो ?’
ब्रह्माजीने कहा- बेटा! पूर्वकालमें सृष्टि आरम्भ करते समय मैंने मूर्तिमती प्रकृतिसे कहा-‘देवि! तुम सम्पूर्ण लोकोंका आदि कारण बनी। मैं तुमसे ही संसारकी सृष्टि आरम्भ करूँगा।’ यह सुनकर परा प्रकृति सात स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुई गायत्री, वाग्देवी (सरस्वती), सब प्रकारके धन-धान्य प्रदान करनेवाली लक्ष्मी, ज्ञान-विद्यास्वरूप उमादेवी शक्तिबीज तपस्विनी और धर्म ही सात परा प्रकृतिके स्वरूप है। इनमें गायत्री सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और वेदसे सारे जगत्की स्थिति है। स्वस्ति, स्वाहा स्वधा औरदीक्षा- ये भी गायत्रीसे ही उत्पन्न मानी गयी हैं। अतः यज्ञमें मातृका आदिके साथ सदा ही गायत्रीका उच्चारण करना चाहिये। भारती (सरस्वती) सब लोगोंके मुख और हृदयमें स्थित हैं तथा वे ही समस्त शास्त्रों में धर्मका उपदेश करती हैं। तीसरी प्रकृति लक्ष्मी हैं, जिनसे वस्त्र और आभूषणोंकी राशि प्रकट हुई है। सुख और त्रिभुवनका राज्य भी उन्हींकी देन है इसीसे वे भगवान् श्रीविष्णुकी प्रियतमा हैं। चौथी प्रकृति उमाके द्वारा ही संसारमें भगवान् शंकरके स्वरूपका ज्ञान होता है। अतः उमाको ज्ञानकी जननी (ब्रह्मविद्या) समझना चाहिये। वे भगवान् शिवके आधे अंगमें निवास करती हैं। शक्तिबीजा नामकी जो पांचवीं प्रकृति है, वह अत्यन्त उग्र और समूचे विश्वको मोहमें डालनेवाली है । समस्त लोकोंमें वही जगत्का पालन और संहार करती है। [तपस्विनी तपस्याकी अधिष्ठात्री देवी है ।] सातवीं प्रकृति धर्मद्रवा है, जो सब धर्मो में प्रतिष्ठित है। उसे सबसे श्रेष्ठ देखकर मैंने अपने कमण्डलुमें धारण कर लिया। फिर परम प्रभावशाली भगवान् श्रीविष्णुने बलिके यज्ञके समय इसे प्रकट किया। उनके दोनों चरणोंसे सम्पूर्ण महीतल व्याप्त हो गया था। उनमेंसे एक चरण आकाश एवं ब्रह्माण्डको भेदकर मेरे सामने स्थित हुआ। उस समय मैंने कमण्डलुके जलसे उस चरणका पूजन किया। उस चरणको धोकर जब मैं पूजन कर चुका, तब उसका धोवन हेमकूट पर्वतपर गिरा। वहाँसे भगवान् शंकरके पास पहुँचकर वह जल गंगाके रूपमें उनकी जटामें स्थित हुआ। गंगा बहुत कालतक उनकी जटामें ही भ्रमण करती रहीं। तत्पश्चात् महाराज भगीरथने भगवान् शंकरकी आराधना करके गंगाको पृथ्वीपर उतारा वे तीन धाराओंमें प्रकट होकर तीनों लोकोंमें गर्यो; इसलिये संसारमें त्रिस्रोताके नामसे विख्यात हुईं। शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु-तीनों देवताओंके संयोगसे पवित्र होकर वे त्रिभुवनको पावन करती हैं। भगवती भागीरथीका आश्रय लेकर मनुष्य सम्पूर्ण धर्मो का फल प्राप्त करता है। पाठ, यज्ञ मन्त्र, होम और देवार्चन आदि समस्त शुभ कर्मोंसे भी जीवको वह गति नहींमिलती, जो श्रीगंगाजीके सेवनसे प्राप्त होती है। गंगाजीके सेवनसे बढ़कर धर्म-साधनका दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिये नारद! तुम भी गंगाजीका आश्रय लो। हड्डियोंमें गंगाजीके जलका स्पर्श होनेसे राजा सगरके पुत्र अपने पितरों तथा वंशजोंके साथ स्वर्गलोक में पहुँच गये।
व्यासजी कहते हैं— मुनिश्रेष्ठ नारद ब्रह्माजीके मुखसे यह बात सुनकर गंगाद्वार (हरिद्वार)- में गये और वहाँ तपस्या करके ब्रह्माजीके समान हो गये। गंगाजी सर्वत्र सुलभ होते हुए भी गंगाद्वार, प्रयाग और गंगा सागर-संगम – इन तीन स्थानोंमें दुर्लभ हैं-वहाँ इनकी प्राप्ति बड़े भाग्यसे होती है। वहाँ तीन रात्रि या एक रात निवास करनेसे भी मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है; इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मणो! सब प्रकारसे प्रयत्न करके तुमलोग परम कल्याणमयी भगवती भागीरथीके तीरपरजाओ । विशेषतः इस कलिकालमें सत्त्वगुणसे रहित मनुष्योंको कष्टसे छुड़ाने और मोक्ष प्रदान करनेवाली गंगाजी ही हैं। गंगाजीके सेवनसे अनन्त पुण्यका उदय होता है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! तदनन्तर वे ब्राह्मण व्यासजीकी कल्याणमयी वाणी सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और गंगाजीके तटपर तपस्या करके मोक्षमार्गको पा गये। जो मनुष्य इस उत्तम परम पवित्र उपाख्यानका श्रवण करता है, वह समस्त दुःख-राशिसे पार हो जाता है तथा उसे गंगाजीमें स्नान करनेका फल मिलता है। एक बार भी इस प्रसंगका पाठ करनेपर सम्पूर्ण यज्ञोंका फल मिल जाता है। जो गंगाजीके तटपर ही दान, जप, ध्यान, स्तोत्र, मन्त्र और देवार्चन आदि कर्म कराता है, उसे अनन्त फलकी प्राप्ति होती है।
अध्याय-46 गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! इसके बाद एक दिन व्यासजी के शिष्य महामुनि संजयने अपने गुरुदेवको प्रणाम करके प्रश्न किया।
संजयने पूछा- गुरुदेव ! आप मुझे देवताओंके पूजनका सुनिश्चित क्रम बतलाइये। प्रतिदिनको पूजामें सबसे पहले किसका पूजन करना चाहिये ?
व्यासजी बोले- संजय ! विघ्नोंको दूर करनेके लिये सर्वप्रथम गणेशजीकी पूजा करनी चाहिये। पार्वतीदेवीने पूर्वकालमें भगवान् शंकरजीके संयोगसे स्कन्द (कार्तिकेय) और गणेश नामके दो पुत्रोंको जन्म दिया। उन दोनोंको देखकर देवताओंको पार्वतीजीपर बड़ी श्रद्धा हुई और उन्होंने अमृतसे तैयार किया हुआएक दिव्य मोदक (लड्डू) पार्वतीके हाथमें दिया । मोदक देखकर दोनों बालक मातासे माँगने लगे। तब पार्वतीदेवी विस्मित होकर पुत्रोंसे बोलीं- ‘मैं पहले इसके गुणोंका वर्णन करती हूँ, तुम दोनों सावधान होकर सुनो। इस मोदकके सूँघनेमात्रसे अमरत्व प्राप्त | होता है; जो इसे सूँघता या खाता है, वह सम्पूर्ण शास्त्रोंका मर्मज्ञ, सब तन्त्रोंमें प्रवीण, लेखक, चित्रकार, विद्वान्, ज्ञान-विज्ञानके तत्त्वको जाननेवाला और सर्वज्ञ होता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पुत्रो ! तुममेंसे जो धर्माचरणके द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसीको मैं यह मोदक दूँगी। तुम्हारे पिताकी भी यही सम्मति है । ‘ माताके मुखसे ऐसी बात सुनकर परम चतुर स्कन्दमयूरपर आरूढ़ हो तुरंत ही त्रिलोकीके तीर्थोंकी यात्राके लिये चल दिये। उन्होंने मुहूर्तभरमें सब तीर्थोंमें स्नान कर लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी स्कन्दसे भी बढ़कर बुद्धिमान् निकले। वे माता-पिताकी परिक्रमा करके बड़ी प्रसन्नताके साथ पिताजीके सम्मुख खड़े हो गये। फिर स्कन्द भी आकर पिताके सामने खड़े हुए और बोले, ‘मुझे मोदक दीजिये।’ तब पार्वतीजीने दोनों पुत्रोंकी ओर देखकर कहा- ‘समस्त तीर्थोंमें किया हुआ स्नान, सम्पूर्ण देवताओंको किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञोंका अनुष्ठान तथा सब प्रकारके व्रत, मन्त्र, योग और संयमका पालन- ये सभी साधन माता-पिताके पूजनके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकते। इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणोंसे भी बढ़कर है। अतः देवताओंका बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेशको ही अर्पण करती हैं। माता-पिताकी भक्तिके कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञमें सबसे पहले पूजा होगी।”
महादेवजी बोले- इस गणेशके ही अग्रपूजनसे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।
व्यासजी कहते हैं— अतः द्विजको उचित है कि वह सब में पहले गणेशजीका हो पूजन करे। ऐसा करनेसे उन यज्ञोंका फल कोटि-कोटि गुना अधिक होगा। सम्पूर्ण देवी-देवताओंका कथन भी यही है। देवाधिदेवी पार्वतीने पवित्र मोदक गणेशजीको ही दिया तथा बड़ी प्रसन्नताके साथ सम्पूर्ण देवताओंके सामने ही उन्हें समस्त गणका अधिपति बनाया इसलिये विस्तृत वह स्तोत्रपाठ तथा नित्यपूजनमें भी पहले गणेशजीकी पूजा करके ही मनुष्यसम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त कर सकता है। चतुर्थीको दिनभर उपवास करके श्रीगणेशजीका पूजन करे और रातमें अन्न ग्रहण करे। गणेशजीकी स्तुति इस प्रकार करनी चाहिये-‘श्रीगणेशजी! आपको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विघ्नोंकी शान्ति करनेवाले हैं। उमाको आनन्द प्रदान करनेवाले परम बुद्धिमान् प्रभो। भवसागरसे मेरा उद्धार कीजिये। आप भगवान् शंकरको आनन्दित करनेवाले हैं। अपना ध्यान करनेवालोंको ज्ञान और विज्ञान प्रदान करते हैं। विघ्नराज! आप सम्पूर्ण दैत्योंके एकमात्र संहारक हैं, आपको नमस्कार है। आप सबको प्रसन्नता और लक्ष्मी देनेवाले हैं, सम्पूर्ण यज्ञोंके एकमात्र रक्षक तथा सब प्रकारके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। गणपते ! मैं प्रेमपूर्वक आपको प्रणाम करता हूँ।” जो मनुष्य उपर्युक्त भावके मन्त्रोंसे गणेशजीका पूजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। अब मैं गणेशजीके बारह नामोंका कल्याणमय स्तोत्र सुनाता हूँ। उनके बारह नाम ये हैं―गणपति, विघ्नराज, लम्बतुण्ड, गजानन, द्वैमातुर, हेरम्ब, एकदन्त, गणाधिप, विनायक, चारुकर्ण, पशुपाल और भवात्मज। जो प्रातः काल उठकर इन बारह नामका पाठ करता है, सम्पूर्ण विश्व उसके वशमें हो जाता है तथा उसे कभी विघ्नका सामना नहीं करना पड़ता।
उपनयन, विवाह आदि सम्पूर्ण मांगलिक कार्यों में जो श्रीगणेशजीका पूजन करता है, वह सबको अपने वशमें कर लेता है और उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। जो मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञके कलशोंमें ‘गणानां त्वा-‘ इस मन्त्रसे श्रीगणेशजीका आवाहन करके उनकी पूजाकरता है, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा वह स्वर्ग और मोक्षको भी पा लेता है। विद्वान् पुरुषको चाहिये वह मिट्टीकी दीवारोंमें, प्रतिमा अथवा चित्रके रूपमें पत्थरपर, दरवाजेकी लकड़ीमें तथा पात्रोंमें श्रीगणेशजीकी मूर्ति अंकित करा ले। इनके सिवा दूसरे- दूसरे स्थानमें भी, जहाँ हमेशा दृष्टि पड़ सके, श्रीगणेशजीकी स्थापना करके अपनी शक्तिके अनुसार उनका पूजन करे। जो ऐसा करता है उसके समस्त प्रिय कार्य सिद्ध होते हैं। उसके सामने कोई विघ्न नहीं आतातथा वह तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लेता है। सम्पूर्ण देवता अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये जिनका पूजन करते हैं, समस्त विघ्नोंका उच्छेद करनेवाले उन श्रीगणेशजीको नमस्कार है। * जो भगवान् श्रीविष्णुको प्रिय लगनेवाले पुष्पों तथा अन्यान्य सुगन्धित फूलोंसे, फल, मूल, मोदक और सामयिक सामग्रियोंसे, दही और दूधसे, प्रिय लगनेवाले बाजोंसे तथा धूप और दीप आदिके द्वारा गणेशजीकी पूजा करता है, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
अध्याय-47 संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
संजयने पूछा- ब्रह्मन् सात्विक पुरुष मनुष्यों में आदिके लक्षणोंको कैसे जान सकते हैं? नाथ! असुर मेरे इस संशयको दूर कीजिये।
व्यासजी बोले- द्विजों तथा अन्य जातियोंमें अपने पूर्वकृत पापके अनुरूप असुर, राक्षस और प्रेत भी जन्म ग्रहण करते हैं; किन्तु वे अपना स्वभाव नहीं छोड़ते। मनुष्योंमें जो असुर जन्मते हैं, वे सदा ही लड़ाई-झगड़ा करनेको उत्सुक रहते हैं। जो मायावी, दुराचारी और क्रूर हो, उन्हें इस पृथ्वीपर राक्षस समझना चाहिये।
इसके विपरीत एक भी बुद्धिमान् एवं सुयोग्य पुत्र हो तो उसके द्वारा समूचे कुलकी रक्षा होती है। एक भी वैष्णव पुत्र अपने कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो पुण्यतीर्थों और मुक्तिक्षेत्र में ज्ञानपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे संसारसागरसे तर जाते हैं। और जो ब्रह्मज्ञानी होते हैं, वे स्वयं तो तरते ही हैं, दूसरोंको भी तार देते हैं। एक पतिव्रता स्त्री अपने कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है। इसी प्रकार द्विज और देवताओंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला धर्मात्मा जितेन्द्रिय पुरुष भी अपने कुलका उद्धार करता है। कलियुगके अन्तमें जब शहर और गाँवोंमें धर्मका नाश हो जाता है, तब एक ही धर्मात्मा पुरुषसमस्त पुर, ग्राम, जनसमुदाय और कुलकी रक्षा करता है।
जो मनुष्य अपवित्र एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थोंके भक्षणमें आनन्द मानता है, बराबर पाप करता है और रातमें घूम-घूमकर चोरी करता रहता है, उसे विद्वान् पुरुषोंको वंचक समझना चाहिये। जो सम्पूर्ण कर्तव्य कार्योंसे अनभिज्ञ तथा सब प्रकारके कर्मोंसे अपरिचित है, जिसे समयोचित सदाचारका ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख वास्तवमें पशु ही है। जो हिंसक, सजातीय मनुष्योंको उद्वेजित करनेवाला, कलह-प्रिय, कायर और उच्छिष्ट भोजनका प्रेमी है, वह मनुष्य कुत्ता कहा गया है। जो स्वभावसे ही चंचल, भोजनके लिये सदा लालायित रहनेवाला, कूद-कूदकर चलनेवाला और जंगलमें रहनेका प्रेमी है, उस मनुष्यको इस पृथ्वीपर बंदर समझना चाहिये। जो वाणी और बुद्धिद्वारा अपने कुटुम्बियों तथा दूसरे लोगोंकी भी चुगली खाता और सबके लिये उद्वेगजनक होता है, वह पुरुष सर्पके समान माना गया है। जो बलवान्, आक्रमण करनेवाला, नितान्त निर्लज्ज, दुर्गन्धयुक्त मांसका प्रेमी और भोगासक्त होता है, वह मनुष्योंमें सिंह कहा गया है। उसकी आवाज सुनते ही दूसरे भेड़िये आदिकी श्रेणीमें गिनेजानेवाले लोग भयभीत और दुःखी हो जाते हैं। जिनकी दृष्टि दूतक नहीं जाती, ऐसे लोग हाथी माने जाते हैं। इसी क्रमसे मनुष्योंमें अन्य पशुओंका विवेक कर लेना चाहिये।
अब हम नररूपमें स्थित देवताओंका लक्षण बतलाते हैं। जो द्विज, देवता, अतिथि, गुरु, साधु और तपस्वियोंके पूजनमें संलग्न रहनेवाला, नित्य तपस्यापरायण, धर्मशास्त्र एवं नीति में स्थित, क्षमाशील, क्रोधजयी, सत्यवादी जितेन्द्रिय लोभहीन, प्रिय बोलनेवाला, शान्त धर्मशास्त्रप्रेमी, दयालु, लोकप्रिय, मिष्टभाषी, वाणीपर अधिकार रखनेवाला, सब कार्योंमें दक्ष, गुणवान्, महाबली, साक्षर, विद्वान्, आत्मविद्या आदिके लिये उपयोगी कार्योंमें संलग्न, घी और गायके दूध दही आदिमें तथा निरामिष भोजनमें रुचि रखनेवाला, अतिथिको दान देने और पार्वण आदि कर्मोंमें प्रवृत्त रहनेवाला है, जिसका समय स्नान-दान आदि शुभ कर्म, व्रत, यज्ञ, देवपूजन तथा स्वाध्याय आदिमें ही व्यतीत होता है, कोई भी दिन व्यर्थ नहीं जाने पाता, वही मनुष्य देवता है। यही मनुष्योंका सनातन सदाचार है। श्रेष्ठ मुनियोंने मानवोंका आचरण देवताओंके ही समान बतलाया है। अन्तर इतना ही है कि देवता सत्वगुणमें बड़े-बड़े होते हैं [इसलिये निर्भय होते हैं.] और मनुष्योंमें भय अधिक होता है। देवता सदा गम्भीर रहते हैं और मनुष्योंका स्वभाव सर्वदा मृदु होता है। इस प्रकार पुण्यविशेषके तारतम्यसे सामान्यतः सभी जातियोंमें विभिन्न स्वभाव मनुष्योंका जन्म होता है; उनके प्रिय अप्रिय पदार्थोंको जानकर पुण्य पाप तथा गुण-अवगुणका निश्चय करना चाहिये।
मनुष्यों में यदि पति-पत्नीके अंदर जन्मगत संस्कारोंका भेद हो तो उन्हें तनिक भी सुख नहीं मिलता। सालोक्य आदि मुक्तिकी स्थितिमें रहना पड़े अथवा नरकमें, सजातीय संस्कारवालोंमें ही परस्पर प्रेम होता है। शुभ कार्यमें संलग्न रहनेवाले पुण्यात्मा मनुष्योंको अत्यन्त पुण्यके कारण दीर्घायुकी प्राप्ति होती है तथा जो दैत्य आदिकी श्रेणीमें गिने जानेवाले पापात्मा मनुष्य हैं,उनको मृत्यु जल्दी होती है। सत्ययुगमें देवजातिके मनुष्य ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। दैत्य अथवा अन्य जातिके नहीं। त्रेतामें एक चौथाई, द्वापरमें आधा तथा कलियुगकी सन्ध्यामें समूचा भूमण्डल दैत्य आदिसे व्याप्त हो जाता है। देवता और असुर जातिके मनुष्योंका समान संख्यामें जन्म होनेके कारण ही महाभारतका युद्ध छिड़नेवाला है। दुर्योधनके योद्धा और सेना आदि जितने भी सहायक हैं, वे दैत्य आदि ही हैं। कर्ण आदि वीर सूर्य आदिके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। गंगानन्दन भीष्म वसुओंमें प्रधान हैं। आचार्य द्रोण देवमुनि बृहस्पतिके अंशसे प्रकट हुए हैं। नन्दनन्दन श्रीकृष्णके रूपमें साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु हैं। विदुर साक्षात् धर्म हैं। गान्धारी, द्रौपदी और कुन्ती- इनके रूपमें देवियाँ हो धरातलपर अवतीर्ण हुई हैं।
जो मनुष्य जितेन्द्रिय, दुर्गुणोंसे मुक्त तथा नीतिशास्त्रके तत्वको जाननेवाला है और ऐसे ही नाना प्रकारके उत्तम गुणोंसे सन्तुष्ट दिखायी देता है, वह देवस्वरूप है। स्वर्गका निवासी हो या मनुष्यलोकका – जो पुराण और तन्त्रमें बताये हुए पुण्यकमका स्वयं आचरण करता है, वही इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है। जो शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेशका उपासक हैं, वह समस्त पितरोंको तारकर इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है। विशेषतः जो वैष्णवको देखकर प्रसन्न होता और उसकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो इस भूतलका उद्धार कर सकता है। जो ब्राह्मण यजनयाजन आदि छः कर्मोंमें संलग्न, सब प्रकारके यज्ञोंमें प्रवृत्त रहनेवाला और सदा धार्मिक उपाख्यान सुनानेका प्रेमी है, वह भी इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है।
जो लोग विश्वासघाती, कृतघ्न, व्रतका उल्लंघन करनेवाले तथा ब्राह्मण और देवताओंके द्वेषी हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीका नाश कर डालते हैं। जो माता पिता, स्त्री, गुरुजन और बालकोंका पोषण नहीं करते, देवता, ब्राह्मण और राजाओंका धन हर लेते हैं तथा जो मोक्षशास्त्रमें श्रद्धा नहीं रखते, वे मनुष्य भी इस पृथ्वीकानाश करते हैं। जो पापी मदिरा पीने और जुआ खेलने में आसक्त रहते और पाखण्डियों तथा पतितोंसे वार्तालाप करते हैं, जो महापातकी और अतिपातकी हैं, जिनके द्वारा बहुत से जीव-जन्तु मारे जाते हैं, वे लोग इस भूतलका विनाश करनेवाले हैं। जो सत्कर्मसे रहित, सदा दूसरोंको उद्विग्न करनेवाले और निर्भय हैं, स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रोंमें बताये हुए शुभकर्मोंका नाम सुनकर जिनके हृदयमें उद्वेग होता है, जो अपनी उत्तम जीविका छोड़कर नीच वृत्तिका आश्रय लेते हैं तथा द्वेषवश गुरुजनोंकी निन्दामें प्रवृत्त होते हैं, वे मनुष्य इस भूलोकका नाश करडालते हैं। जो दाताको दानसे रोकते और पापकर्मकी ओर प्रेरित करते हैं तथा जो दीनों और अनाथोंको पीड़ा पहुँचाते हैं, वे लोग इस भूतलका सत्यानाश करते हैं। ये तथा और भी बहुत-से पापी मनुष्य हैं, जो दूसरे लोगोंको पापोंमें ढकेलकर इस पृथ्वीका सर्वनाश करते हैं।
जो मानव इस प्रसंगको सुनता है, उसे इस भूतलपर दुर्गति, दुःख, दुर्भाग्य और दीनताका सामना नहीं करना पड़ता । उसका दैत्य आदिके कुलमें जन्म नहीं होता तथा वह स्वर्गलोकमें शाश्वत सुखका उपभोग करता है।
अध्याय-48 भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
वैशम्पायनजीने पूछा- विप्रवर! आकाशमें प्रतिदिन जिसका उदय होता है, यह कौन है? इसका क्या प्रभाव है? तथा इस किरणोंके स्वामीका प्रादुर्भाव कहाँसे हुआ है? मैं देखता हूँ-देवता, बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण, दैत्य, राक्षस तथा ब्राह्मण आदि समस्त मानव इसकी सदा ही आराधना किया करते हैं।
व्यासजी बोले- वैशम्पायन ! यह ब्रह्मके स्वरूपसे प्रकट हुआ ब्रह्मका ही उत्कृष्ट तेज है। इसे साक्षात् ब्रह्ममय समझो। यह धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है। निर्मल किरणोंसे सुशोभित यह तेजका पुंज पहले अत्यन्त प्रचण्ड और दुःसह था। इसे देखकर इसकी प्रखर रश्मियोंसे पीड़ित हो सब लोग इधर-उधर भागकर छिपने लगे। चारों ओरके समुद्र, समस्त बड़ी-बड़ी नदियाँ और नद आदि सूखने लगे। उनमें रहनेवाले प्राणी मृत्युके ग्रास बनने लगे। मानव समुदाय भी शोकसे आतुर हो उठा। यह देख इन्द्र आदि देवता ब्रह्माजीके पास गये और उनसे यह सारा हाल कह सुनाया। तब ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा- ‘देवगण! यह तेज आदि ब्रह्मके स्वरूपसे जलमें प्रकट हुआ है। यह तेजोमय पुरुष उस ब्रह्मके ही समान है।इसमें और आदि ब्रह्ममें तुम अन्तर न समझना । ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त चराचर प्राणियोंसहित समूची त्रिलोकीमें इसीकी सत्ता है। ये सूर्यदेव सत्त्वमय हैं। इनके द्वारा चराचर जगत्का पालन होता है। देवता, जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज आदि जितने भी प्राणी हैं – सबकी रक्षा सूर्यसे ही होती है। इन सूर्य देवताके प्रभावका हम पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर सकते। इन्होंने ही लोकोंका उत्पादन और पालन किया है। सबके रक्षक होनेके कारण इनकी समानता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है। पौ फटनेपर इनका दर्शन करनेसे राशि राशि पाप विलीन हो जाते हैं। द्विज आदि सभी मनुष्य इन सूर्यदेवकी आराधना करके मोक्ष पा लेते हैं। सन्ध्योपासनके समय ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण अपनी भुजाएँ ऊपर उठाये इन्हीं सूर्यदेवका उपस्थान करते हैं और उसके फलस्वरूप समस्त देवताओंद्वारा पूजित होते हैं। सूर्यदेवके ही मण्डलमें रहनेवाली सन्ध्यारूपिणी देवीकी उपासना करके सम्पूर्ण द्विज स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस भूतलपर जो पतित और जूठन खानेवाले मनुष्य हैं, वे भी भगवान् सूर्यकी किरणोंके स्पर्शसे पवित्र हो जाते हैं। सन्ध्याकालमें सूर्यकी उपासना करनेमात्रसे द्विज सारे पापोंसे शुद्धहो जाता है। * जो मनुष्य चाण्डाल, गोघाती (कसाई), पतित, कोड़ी, महापातकी और उपपातकीके दीख जानेपर भगवान् सूर्यका दर्शन करते हैं, वे भारी-से भारी पापसे मुक्त हो पवित्र हो जाते हैं। सूर्यकी उपासना करने मात्र से मनुष्यको सब रोगों से छुटकारा मिल जाता है। जो सूर्यकी उपासना करते हैं, वे इहलोक और परलोकमें भी अंधे, दरिद्र, दुःखी और शोकग्रस्त नहीं होते श्रीविष्णु और शिव आदि देवताओंके दर्शन सब लोगोंको नहीं होते, ध्यानमें ही उनके स्वरूपका साक्षात्कार किया जाता है; किन्तु भगवान् सूर्य प्रत्यक्ष देवता माने गये हैं।
देवता बोले- ब्रह्मन् ! सूर्य देवताको प्रसन्न करनेके लिये आराधना, उपासना अथवा पूजा तो दूर रहे, इनका दर्शन ही प्रलयकालकी आगके समान है। भूतलके मनुष्य आदि सम्पूर्ण प्राणी इनके तेजके प्रभावसे मृत्युको प्राप्त हो गये। समुद्र आदि जलाशय नष्ट हो गये। हमलोगोंसे भी इनका तेज सहन नहीं होता; फिर दूसरे लोग कैसे सह सकते हैं। इसलिये आप ही ऐसी कृपा करें, जिससे हमलोग भगवान् सूर्यका पूजन कर सकें। सब मनुष्य भक्तिपूर्वक सूर्यदेवकी आराधना कर सकें इसके लिये आप ही कोई उपाय करें।
व्यासजी कहते हैं-देवताओंके वचन सुनकर ब्रह्माजी ग्रहोंके स्वामी भगवान् सूर्यके पास गये और सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये उनकी स्तुति करने लगे।
ब्रह्माजी बोले- देव तुम सम्पूर्ण संसारके नेत्रस्वरूप और निरामय हो। तुम साक्षात् ब्रह्मरूप हो । तुम्हारी ओर देखना कठिन है। तुम प्रलयकालकी अग्निके समान तेजस्वी हो । सम्पूर्ण देवताओंके भीतर तुम्हारी स्थिति है। तुम्हारे श्रीविग्रहमें वायुके सखा अग्नि निरन्तर विराजमान रहते हैं। तुम्हींसे अन्न आदिका पाचन तथा जीवनकी रक्षा होती है। देव! तुम्हींसे उत्पत्ति और प्रलय होते हैं। एकमात्र तुम्हींसम्पूर्ण भुवनोंके स्वामी हो। तुम्हारे बिना समस्त संसारका जीवन एक दिन भी नहीं रह सकता। तुम्हीं सम्पूर्ण लोकोंके प्रभु तथा चराचर प्राणियोंके रक्षक, पिता और माता हो। तुम्हारी ही कृपासे यह जगत् टिका हुआ है। भगवन् ! सम्पूर्ण देवताओंमें तुम्हारी समानता करनेवाला कोई नहीं है। शरीरके भीतर, बाहर तथा समस्त विश्वमें – सर्वत्र तुम्हारी सत्ता है। तुमने ही इस जगत्को धारण कर रखा है। तुम्हीं रूप और गन्ध आदि उत्पन्न करनेवाले हो। रसोंमें जो स्वाद है, वह तुम्हींसे आया है। इस प्रकार तुम्हीं सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर और सबकी रक्षा करनेवाले सूर्य हो । प्रभो ! तीर्थों, पुण्यक्षेत्रों, यज्ञों और जगत्के एकमात्र कारण तुम्हीं हो। तुम परम पवित्र, सबके साक्षी और गुणोंके धाम हो। सर्वज्ञ, सबके कर्ता, संहारक, रक्षक, अन्धकार, कीचड़ और रोगोंका नाश करनेवाले तथा दरिद्रताके दुःखोंका निवारण करनेवाले भी तुम्हीं हो। इस लोक तथा परलोकमें सबसे श्रेष्ठ बन्धु एवं सब कुछ जानने और देखनेवाले तुम्हीं हो। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो सब लोकोंका उपकारक हो
आदित्यने कहा- महाप्राज्ञ पितामह! आप विश्वके स्वामी तथा स्रष्टा हैं, शीघ्र अपना मनोरथ बताइये। मैं उसे पूर्ण करूँगा।
ब्रह्माजी बोले- सुरेश्वर! तुम्हारी किरणें अत्यन्त प्रखर हैं। लोगोंके लिये वे अत्यन्त दुःसह हो गयी हैं। अतः जिस प्रकार उनमें कुछ मृदुता आ सके, वही उपाय करो।
आदित्यने कहा – प्रभो ! वास्तवमें मेरी कोटि-कोटि किरणें संसारका विनाश करनेवाली ही हैं। अतः आप किसी युक्तिद्वारा इन्हें खरादकर कम कर दें।
बाजीने सूर्यके कहने विश्वकर्माको बुलाया और वज्रकी सान बनवाकर उसीके ऊपर प्रलयकालके समान तेजस्वी सूर्यको आरोपित करके उनके प्रचण्ड तेजको छाँट दिया। उस छँटे हुए तेजसे ही भगवान्श्रीविष्णुका सुदर्शनचक्र बनाया गया। अमोघ यमदण्ड, शंकरजीका त्रिशूल, कालका खड्ग, कार्तिकेयको आनन्द प्रदान करनेवाली शक्ति तथा भगवती दुर्गाके विचित्र शूलका भी उसी तेजसे निर्माण हुआ। ब्रह्माजीकी आज्ञासे विश्वकर्माने उन सब अस्त्रोंको फुर्तीसे तैयार किया था। सूर्यदेवकी एक हजार किरणें शेष रह गयीं, बाकी सब छाँट दी गयीं। ब्रह्माजीके बताये हुए उपायके अनुसार ही ऐसा किया गया।
कश्यपमुनिके अंश और अदिति के गर्भ से उत्पन्न होनेके कारण सूर्य आदित्यके नामसे प्रसिद्ध हुए । भगवान् सूर्य विश्वकी अन्तिम सीमातक विचरते और मेरु गिरिके शिखरोंपर भ्रमण करते रहते हैं। ये दिन रात इस पृथ्वीसे लाख योजन ऊपर रहते हैं। विधाताकी प्रेरणासे चन्द्रमा आदि ग्रह भी वहीं विचरण करते हैं। सूर्य बारह स्वरूप धारण करके बारह महीनोंमें बारह राशियोंमें संक्रमण करते रहते हैं। उनके संक्रमणसे ही संक्रान्ति होती है, जिसको प्रायः सभी लोग जानते हैं।
मुने! संक्रान्तियोंमें पुण्यकर्म करनेसे लोगोंको जो फल मिलता है, वह सब हम बतलाते हैं। धनु, मिथुन, मीन और कन्या राशिकी संक्रान्तिको षडशीति कहते हैं तथा वृष, वृश्चिक, कुम्भ और सिंह राशिपर जो सूर्यकी संक्रान्ति होती है, उसका नाम विष्णुपदी है। षडशीति नामकी संक्रान्तिमें किये हुए पुण्यकर्मका फल छियासी हजारगुना, विष्णुपदीमें लाखगुना और उत्तरायण या दक्षिणायन आरम्भ होनेके दिन कोटि कोटिगुना अधिक होता है। दोनों अयनोंके दिन जोकर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है। मकरसंक्रान्तिमें सूर्योदयके पहले स्नान करना चाहिये। इससे दस हजार गोदानका फल प्राप्त होता है। उस समय किया हुआ तर्पण, दान और देवपूजन अक्षय होता है। विष्णुपदी नामक संक्रान्तिमें किये हुए दानको भी अक्षय बताया गया है । दाताको प्रत्येक जन्ममें उत्तम निधिकी प्राप्ति होती है। शीतकालमें रूईदार वस्त्र दान करनेसे शरीर में कभी दुःख नहीं होता। तुला दान और शय्या – दान दोनोंका ही फल अक्षय है । माघमासके कृष्णपक्षकी अमावास्याको सूर्योदयके पहले जो तिल और जलसे पितरोंका तर्पण करता है, वह स्वर्गमें अक्षय सुख भोगता है। जो अमावस्याके दिन सुवर्णजटित सींग और मणिके समान कान्तिवाली शुभलक्षणा गौको, उसके खुरोंमें चाँदी मँढ़ाकर काँसेके बने हुए दुग्धपात्रसहित श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिये दान करता है, वह चक्रवर्ती राजा होता है। जो उक्त तिथिको तिलकी गौ बनाकर उसे सब सामग्रियों सहित दान करता है, वह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें अक्षय सुखका भागी होता है। ब्राह्मणको भोजनके योग्य अन्न देनेसे भी अक्षय स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जो उत्तम ब्राह्मणको अनाज, वस्त्र, घर आदि दान करता है, उसे लक्ष्मी कभी नहीं छोड़ती। माघमासके शुक्लपक्षकी तृतीयाको मन्वन्तर – तिथि कहते हैं; उस दिन जो कुछ दान किया जाता है, वह सब अक्षय बताया गया है। अतः दान और सत्पुरुषोंका पूजन- ये परलोकमें अनन्त फल देनेवाले हैं।
अध्याय-49 भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
व्यासजी कहते हैं- कैलासके रमणीय शिखरपर भगवान् महेश्वर सुखपूर्वक बैठे थे। इसी समय स्कन्दने उनके पास जा पृथ्वीपर मस्तक टेककर उन्हें प्रणाम किया और कहा- ‘नाथ! मैं आपसे रविवार आदिका यथार्थ फल सुनना चाहता हूँ।”
महादेवजीने कहा- बेटा! रविवारके दिन मनुष्य त रहकर सूर्यको लाल फूलोंसे अर्घ्य दे औररातको हविष्यान्न भोजन करे। ऐसा करनेसे वह कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होता। रविवारका व्रत परम पवित्र और हितकर है। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला, पुण्यप्रद, ऐश्वर्यदायक, रोगनाशक और स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यदि रविवारके दिन सूर्यकी संक्रान्ति तथा शुक्लपक्षकी सप्तमी हो तो उस दिन किया हुआ व्रत, पूजा और जप – सब अक्षय होता है।शुक्लपक्षके रविवारको ग्रहपति सूर्यको पूजा करनी चाहिये। हाथमें फूल ले, लाल कमलपर विराजमान, सुन्दर ग्रोवासे सुशोभित, रक्तवस्त्रधारी और लाल रंगके आभूषणोंसे विभूषित भगवान् सूर्यका ध्यान करे और फूलोंको सूचकर ईशान कोणकी ओर फेंक दे। इसके बाद ‘आदित्याय विग्रहे भास्कराय धीमहि तन्नो भानुः प्रचोदयात्’ इस सूर्य गायत्रीका जप करे तदनन्तर गुरुके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पूजा करे। भक्तिके साथ पुष्प और केले आदिके सुन्दर फल अर्पण करके जल चढ़ाना चाहिये। जलके बाद चन्दन, चन्दनके बाद धूप, धूपके बाद दोप, दीपके पश्चात् नैवेद्य तथा उसके बाद जल निवेदन करना चाहिये। तत्पश्चात् जप, स्तुति, मुद्रा और नमस्कार करना उचित है। पहली मुद्राका नाम अंजलि और दूसरीका नाम धेनु है। इस प्रकार जो सूर्यका पूजन करता है, वह उन्होंका सायुज्य प्राप्त करता है।
भगवान् सूर्य एक होते हुए भी कालभेदसे नाना रूप धारण करके प्रत्येक मासमें तपते रहते हैं। एक ही सूर्य बारह रूपोंमें प्रकट होते हैं। मार्गशीर्षम मित्र, पौष में सनातन विष्णु, माघमें वरुण, फाल्गुनमें सूर्य चैत्रमें भानू, वैशाखमें तापम्, ष्ठ इन्द्र आषाढ़में रवि श्रवणमें गभस्ति भादप्रम आश्विनमें हिरण्यरेता और कार्तिकमें दिवाकर तपते हैं। इस प्रकार बारह महीनोंमें भगवान् सूर्य बारह नामोंसे 1 पुकारे जाते हैं। इनका रूप अत्यन्त विशाल, महान् तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्निके समान देदीप्यमान है। जो इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, उसके शरीर में पाप नहीं रहता। उसे रोग, दरिद्रता और अपमानका कष्ट भी कभी नहीं उठाना पड़ता। वह क्रमशः यश, राज्य, सुख तथा अक्षय स्वर्ग प्राप्त करता है।
अब मैं सबको प्रसन्नता प्रदान करनेवाले सूर्यके उत्तम महामन्त्रका वर्णन करूंगा। उसका भाव इस प्रकारहै—’सहस्र भुजाओं (किरणों) से सुशोभित भगवान् आदित्यको नमस्कार है। हाथमें कमल धारण करनेवाले वरुणदेवको बारंबार नमस्कार है। अन्धकारका विनाश करनेवाले श्रीसूर्यदेवको अनेक बार नमस्कार है। रश्मिमयी सहस्रों जिाएँ धारण करनेवाले भानुको नमस्कार है। भगवन्! तुम्हीं ब्रह्मा, तुम्हीं विष्णु और तुम्हीं रुद्र हो; तुम्हें नमस्कार है। तुम्हीं सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर अग्नि और वायुरूपसे विराजमान हो; तुम्हें बारंबार प्रणाम है तुम्हारी सर्वत्र गति और सब भूतोंमें स्थिति है, तुम्हारे बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता नहीं है। तुम इस चराचर जगत्में समस्त देहधारियोंके भीतर स्थित हो।” इस मन्त्रका जप करके मनुष्य अपने सम्पूर्ण अभिलषित पदार्थों तथा स्वर्ग आदिके भोगको प्राप्त करता है। आदित्य, भास्कर, सूर्य, अर्क, भानु, दिवाकर, सुवर्णरता, मित्र, पूषा, त्वष्टा, स्वयम्भू और तिमिराश-ये सूर्यके बारह नाम बताये गये हैं। जो मनुष्य पवित्र होकर सूर्यके इन बारह नामका पाठ करता है, वह सब पापों और रोगोंसे मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होता है।
षडानन! अब मैं महात्मा भास्करके जो दूसरे दूसरे प्रधान नाम हैं, उनका वर्णन करूँगा। तपन, तापन, कर्ता, हर्ता, महेश्वर, लोकसाक्षी, त्रिलोकेश, व्योमाधिप, दिवाकर, अग्निगर्भ, महावित्र, खग, सप्ताश्ववाहन, पद्महस्त, तमोभेदी, ऋग्वेद, यजुः सामग, कालप्रिय, पुण्डरीक, मूलस्थान और भावित जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इन नामका सदा स्मरण करता है, उसे रोगका भय कैसे हो सकता है। कार्तिकेय तुम यत्नपूर्वक सुनो। सूर्यका नाम-स्मरण सब पापको हरनेवाला और शुभ है। महामते! आदित्यकी महिमा विषयमें तनिक भी सन्देह नहीं करना चाहिये। ‘ॐ इन्द्राय नमः स्वाहा’, ‘ॐ विष्णवे नमः’ – इन मन्त्रोंका जप, होम और सन्ध्योपासन करना चाहिये। ये मन्त्र सब प्रकारसे शान्तिदेनेवाले और सम्पूर्ण विघ्नोंके विनाशक हैं। ये सब रोगोंका नाश कर डालते हैं।
अब महात्मा भास्करके मूलमन्त्रका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण कामनाओं एवं प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाला तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वह मन्त्र इस प्रकार है – ॐ ह्रां ह्रीं सः सूर्याय नमः।’ इस मन्त्रसे सदा सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है—यह निश्चित बात है। इसके जपसे रोग नहीं सताते तथा किसी प्रकारके अनिष्टका भय नहीं होता। यह मन्त्र न किसीको देना चाहिये और न किसीसे इसकी चर्चा करनी चाहिये अपितु प्रयत्नपूर्वक इसका निरन्तर जप करते रहना चाहिये। जो लोग अभक्त, सन्तानहीन, पाखण्डी और लौकिक व्यवहारोंमें आसक्त हों, उनसे तो इस मन्त्रकी कदापि चर्चा नहीं करनी चाहिये। सन्ध्या और होमकर्ममें मूलमन्त्रका जप करना चाहिये। उसके जपसे रोग और क्रूर ग्रहोंका प्रभाव नष्ट हो जाता है। वत्स ! दूसरे दूसरे अनेकों शास्त्रों और बहुतेरे विस्तृत मन्त्रोंकी क्या आवश्यकता है; इस मूलमन्त्रका जप ही सब प्रकारकी शान्ति तथा सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाला है। देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले नास्तिक पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो प्रतिदिन एक, दो या तीन समय भगवान् सूर्यके समीप इसका पाठ करता है, उसे अभीष्ट फलको प्राप्ति होती है। पुत्रकी कामनावालेको पुत्र, कन्या चाहनेवालेको कन्या, विद्याकी अभिलाषा रखनेवालेको विद्या और धनार्थीको धन मिलता है। जो शुद्ध आचार-विचारसे युक्त हो संयम तथा भक्तिपूर्वक इस प्रसंगका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो सूर्यलोकको जाता है। सूर्य देवताके व्रतके दिन तथा अन्यान्य व्रत, अनुष्ठान, यज्ञ, पुण्यस्थान और तीर्थोंमें जो इसका पाठ करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है।
व्यासजी कहते हैं—मध्यदेशमें भद्रेश्वर नामसे प्रसिद्ध एक चक्रवर्ती राजा थे। वे बहुत-सी तपस्याओं तथा नाना प्रकारके व्रतोंसे पवित्र हो गये थे। प्रतिदिन देवता, ब्राह्मण, अतिथि और गुरुजनोंका पूजन करते थे। उनका बर्ताव न्यायके अनुकूल होता था। वे स्वभावकेसुशील और शास्त्रोंके तात्पर्य तथा विधानके पारगामी विद्वान् थे सदा सद्भावपूर्वक प्रजाजनोंका पालन करते थे। एक समयकी बात है, उनके बायें हाथमें श्वेत कुष्ठ हो गया। वैद्योंने बहुत कुछ उपचार किया; किन्तु उससे कोढ़का चिह्न और भी स्पष्ट दिखायी देने लगा। तब राजाने प्रधान प्रधान ब्राह्मणों और मन्त्रियोंको बुलाकर कहा- ‘विप्रगण! मेरे हाथमें एक ऐसा पापका चिह्न प्रकट हो गया है, जो लोकमें निन्दित होनेके कारण मेरे लिये दुःसह हो रहा है। अतः मैं किसी महान् पुण्यक्षेत्रमें जाकर अपने शरीरका परित्याग करना चाहता हूँ।’
ब्राह्मण बोले- महाराज! आप धर्मशील और बुद्धिमान् हैं। यदि आप अपने राज्यका परित्याग कर देंगे तो यह सारी प्रजा नष्ट हो जायगी। इसलिये आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। प्रभो हमलोग इस रोगको दबानेका उपाय जानते हैं; वह यह है कि आप यत्नपूर्वक महान् देवता भगवान् सूर्यकी आराधना कीजिये।
राजाने पूछा- विप्रवरो किस उपायसे मैं भगवान् भास्करको सन्तुष्ट कर सकूँगा ?
ब्राह्मण बोले- राजन्! आप अपने राज्यमें ही रहकर सूर्यदेवकी उपासना कीजिये; ऐसा करनेसे आप भयंकर पापसे मुक्त हो स्वर्ग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकेंगे। यह सुनकर सम्राट्ने उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रणाम किया और सूर्यकी उत्तम आराधना आरम्भ की वे प्रतिदिन मन्त्रपाठ, नैवेद्य, नाना प्रकारके फल, अर्घ्य, अक्षत, जपापुष्प, मदारके पते, लाल चन्दन, कुंकुम, सिन्दूर, कदलीपत्र तथा उसके मनोहर फल आदिके द्वारा भगवान् सूर्यकी पूजा करते थे। राजा गूलरके पात्रमें अर्घ्य सजाकर सदा सूर्यदेवताको निवेदन किया करते थे। अर्घ्य देते समय वे मन्त्री और पुरोहितोंके साथ सदा सूर्यके सामने खड़े रहते थे। उनके साथ आचार्य, रानियाँ, अन्तःपुरमै रहनेवाले रक्षक तथा उनकी पलियाँ, दासवर्ग तथा अन्य लोग भी रहा करते थे वे सब लोग प्रतिदिन साथ ही साथ अर्घ्य देते थे सूर्यदेवताके अंगभूत जितने व्रत थे, उनका भी उन्होंने एकाग्रचित्त होकरअनुष्ठान किया। क्रमशः एक वर्ष व्यतीत होनेपर राजाका रोग दूर हो गया। इस प्रकार उस भयंकर रोग नष्ट हो जानेपर राजाने सम्पूर्ण जगत्को अपने यक्ष करके सबके द्वारा प्रभातकालमें सूर्यदेवताका पूजन और व्रत कराना आरम्भ किया। सब लोग कभी हविष्यान्न खाकर और कभी निराहार रहकर सूर्यदेवताका पूजन करते थे। इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गोंके द्वारा पूजित होकर भगवान् सूर्य बहुत सन्तुष्ट हुए और कृपापूर्वक राजाके पास आकर बोले- ‘राजन्। तुम्हारे मनमें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे वरदानके रूपमें माँग लो। सेवकों और पुरवासियोंसहित तुम सब लोगोंका हित करने के लिये मैं उपस्थित हूँ।’
राजाने कहा- सबको नेत्र प्रदान करनेवाले भगवन्! यदि आप मुझे अभीष्ट वरदान देना चाहते हैं, तो ऐसी कृपा कीजिये कि हम सब लोग आपके पास रहकर ही सुखी हों।
सूर्य बोले- राजन् ! तुम्हारे मन्त्री, पुरोहित, ब्राह्मण, स्त्रियाँ तथा अन्य परिवारके लोग सभी शुद्ध होकर कल्पपर्यन्त मेरे रमणीय धाममें निवास करें।
व्यासजी कहते हैं—यों कहकर संसारको नेत्र प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर राजा भद्रेश्वर अपने पुरवासियोंसहित दिव्यलोकमें आनन्दका अनुभव करने लगे। वहाँ जो कीड़े-मकोड़े आदि थे, आदि थे, वे भी अपने पुत्र आदिके साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको सिधारे। इसी प्रकार राजा, ब्राह्मण, कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले मुनि तथा क्षत्रिय आदि अन्य वर्ण सूर्यदेवताके धाममें चले गये। जो मनुष्य पवित्रतापूर्वक इस प्रसंगका पाठ करता है, उसके सब पापका नाश हो जाता है तथा वह रुद्रकी भाँति इस पृथ्वीपर पूजित होता है जो मानव संयमपूर्वक इसकाश्रवण करता है, उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। इस अत्यन्त गोपनीय रहस्यका भगवान् सूर्यने यमराजको उपदेश दिया था। भूमण्डलपर तो व्यासके द्वारा ही इसका प्रचार हुआ है।
ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! इस तरह नाना प्रकारके धर्मोका निर्णय सुनाकर भगवान् व्यास शम्याप्राशमें चले गये। तुम भी इस तत्त्वको श्रद्धापूर्वक जानकर सुखसे विचरो और समयानुसार भगवान् श्रीविष्णुके सुयशका सानन्द गान करते रहो। साथ ही जगत्को धर्मका उपदेश देते हुए जगद्गुरु भगवान्को प्रसन्न करो।
पुलस्त्यजी कहते हैं- भीष्म ! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर देवर्षि नारद मुनिवर श्रीनारायणका दर्शन करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर बदरिकाश्रम तीर्थमें चले गये।
महाराज ! इस प्रकार यह सारा सृष्टिखण्ड मैंने क्रमशः तुम्हें सुना दिया। यह सम्पूर्ण वेदार्थोंका सार है, इसे सुनकर मनुष्य भगवान्का सान्निध्य प्राप्त करता है। यह परम पवित्र, यशका निधान तथा पितरोंको अत्यन्त प्रिय है। यह देवताओंके लिये अमृतके समान मधुर तथा पापी पुरुषोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य ऋषियोंके इस शुभ चरित्रका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। सत्ययुगमें तपस्या, त्रेता में ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमें एकमात्र दानकी विशेष प्रशंसा की गयी है। सम्पूर्ण दानोंमें भी समस्त भूतोंको अभय देना- यही सर्वोत्तम दान है; इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। * तीर्थ और श्राद्धके वर्णनसे युक्त यह पुराण खण्ड कहा गया। यह पुण्यजनक, पवित्र, आयुवर्धक और सम्पूर्ण पापोंका नाशक है। जो मनुष्य इसका पाठ या श्रवण करता है, वह श्रीसम्पन्न होता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो लक्ष्मीसहित भगवान् श्रीविष्णुको प्राप्त कर लेता है।