Shree Naval Kishori

पद्यपुराण-3-स्वर्ग-खण्ड

अध्याय 77 आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन

नमामि गोविन्दपदारविन्दं सन्दिरानन्दनमुनाढ्यम्।

जगज्जनानां हृदि संनिविष्टं महाजनैकायनमुत्तमोत्तमम् ॥

ऋषि बोले- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले रोमहर्षणजी! आप पुराणोंके विद्वान् तथा परम बुद्धिमान् हैं। आजसे पहले हमलोग आपके मुँह पुराणोंकी अनेकों परम पावन कथाएँ सुन चुके हैं तथा इस समय भी भगवान्की कथा वार्तामें ही लगे हैं। जीवोंके लिये सबसे महान् धर्म वही है, जिससे उनकी भगवान्में भक्ति हो अतः सूतजी! आप फिर हमें श्रीहरिकी कथा सुनाइये; क्योंकि भगवच्चर्चाके अतिरिक्त दूसरी कोई वातचीत श्मशानभूमिके समान मानी गयी है। हमने सुना है तीर्थोंके रूपमें स्वयं भगवान् विष्णु ही इस भूतलपर विराजमान हैं; इसलिये आप पुण्य प्रदान करनेवाले तीर्थोंके नाम बताइये। साथ ही यह भी कहनेकी कृपा कीजिये कि यह चराचर जगत् किससे उत्पन्न हुआ है, किसके द्वारा इसका पालन होता है तथा प्रलयके समय किसमें यह लीन होता है। जगत्‌में कौन-कौन से पुण्यक्षेत्र हैं? किन-किन पर्वतोंके प्रति पूज्यभाव रखना चाहिये? और मनुष्योंके पाप दूर करनेवाली परम पवित्र नदियाँ कौन-कौन-सी हैं? महाभाग ! इन सबका आप क्रमशः वर्णन कीजिये।

सूतजीने कहा- द्विजवरो! पहले मैं आदि सर्गका वर्णन करता हूँ, जिसके द्वारा षड्विध ऐश्वर्यसे सम्पन्न सनातन परमात्माका ज्ञान होता है। प्रलयकालकेपश्चात् इस सृष्टिकी कोई भी वस्तु शेष नहीं रह गयी थी। उस समय केवल ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म ही शेष था, जो सबको उत्पन्न करनेवाला है। वह ब्रहा नित्य, निरंजन, शान्त, निर्गुण, सदा ही निर्मल, आनन्दधाग और शुद्धस्वरूप है। संसार बन्धन से मुक्त होनेकी अभिलाषा रखनेवाले साधु पुरुष उसीको जाननेकी इच्छा करते हैं। वह ज्ञानस्वरूप होनेके कारण सर्वज्ञ, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, अविनाशी, नित्यशुद्ध, अच्युत, व्यापक तथा सबसे महान् है। सृष्टिका समय आनेपर उस ब्रह्मने वैकारिक जगत्को अपनेमें लीन जानकर पुनः उसे उत्पन्न करनेका विचार किया। तब ब्रह्मसे प्रधान (मूल प्रकृति) प्रकट हुआ। प्रधानसे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई, जो सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है। यह महत्तत्त्व प्रधानके द्वारा सब ओरसे आवृत है। फिर महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), तैजस ( राजस) और भूतादिरूप तामस तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार प्रधानसे महत्तत्त्व आवृत है, उसी प्रकार महत्तत्त्वसे अहंकार भी आवृत है। तत्पश्चात् भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर भूत और तन्मात्राओंकी सृष्टि की।

इन्द्रियाँ तैजस कहलाती हैं-वे राजस अहंकारसे प्रकट हुई हैं। इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं-उनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहंकारसे हुई है। तत्त्वका विचार करनेवाले विद्वानोंने मनको ग्यारहवींइन्द्रिय बताया है। विप्रगण! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी- ये क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणोंसे युक्त हैं। ये पाँचोंभूत पृथक्-पृथक् नाना प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न हैं, किन्तु परस्पर संघटित हुए बिना वे प्रजाकी सृष्टि करनेमें समर्थ न हुए। इसलिये महत्तत्त्वसे लेकर पंचभूतपर्यन्त सभी तत्त्व परम पुरुष परमात्माद्वारा अधिष्ठित और प्रधानद्वारा अनुगृहीत होनेके कारण पूर्णरूपसे एकत्वको प्राप्त हुए। इस प्रकार एक-दूसरेसे संयुक्त होकर परस्परका आश्रय ले उन्होंने अण्डकी उत्पत्ति की। महाप्राज्ञ महर्षियो ! इस तरह भूतोंसे प्रकट हो क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुआ वह विशाल अण्ड पानीके बुलबुलेकी तरह सब ओरसे समान – गोलाकार दिखायी देने लगा। वह पानीके ऊपर स्थित होकर ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) – के रूपमें प्रकट हुए भगवान् विष्णुका उत्तम स्थान बन गया। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी अव्यक्त स्वरूप भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्माजीका रूप धारणकर उस अण्डके भीतर विराजमान हुए। उस समय मेरु पर्वतने उन महात्मा हिरण्यगर्भके लिये गर्भको ढकनेवाली झिल्लीका काम दिया, अन्य पर्वत जरायु – जेरके स्थानमें थे और समुद्र उसके भीतरका जल था। उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीप आदिके सहित समुद्र, ग्रहों और ताराओंके साथ सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्योंसहित सारी सृष्टि प्रकट हुई। आदि अन्तरहित सनातन भगवान् विष्णुकी नाभिसे जो कमल प्रकट हुआ था, वही उनकी इच्छासे सुवर्णमय अण्ड हो गया। परमपुरुष भगवान् श्रीहरि स्वयं ही रजोगुणका आश्रय ले ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं। वे परमात्मा नारायणदेव ही सृष्टिके समय ब्रह्मा होकर समस्त जगत्की रचना करते हैं, वे ही पालनकी इच्छासे श्रीराम आदिके रूपमें प्रकट हो इसकी रक्षामें तत्पर रहते हैं तथा अन्तमें वे ही इस जगत्का संहार करनेके लिये रुद्रके रूपमें प्रकट हुए हैं।

अध्याय 78 भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान

सूतजी कहते हैं— महर्षिगण ! अब मैं आपलोगों से परम उत्तम भारतवर्षका वर्णन करूँगा। राजा प्रियमित्र, देव, वैवस्वत मनु पृथु इक्ष्वाकु ययाति, अम्बरीष, मान्धाता नहुष, मुचुकुन्द, कुबेर, उशीनर, ऋषभ, पुरूरवा, राजा नृग, राजर्षि कुशिक, गाधि, सोम तथा राजर्षि दिलीपको, अन्यान्य बलिष्ठ क्षत्रिय राजाओंको एवं सम्पूर्ण भूतोंको ही यह उत्तम देश भारतवर्ष बहुत ही प्रिय रहा। इस देशमें महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान् ऋक्षवान् विन्ध्य तथा पारियात्र- ये सात कुल पर्वत हैं। इनके आसपास और भी हजारों पर्वत हैं। भारतवर्षके लोग जिन विशाल नदियोंका जल पीते हैं, उनके नाम ये हैं-गंगा, सिन्धु, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, बाहुदा, शतद्दु (सतलज), चन्द्रभागा, यमुना, दुष्टुती, विपाशा (व्यास), वेत्रवती (बेतवा, कृष्णा, वेणी, इरावती, (इरावदी), वितस्ता (झेलम), पयोष्णी, देविका, वेदस्मृति, वेदशिरा, त्रिदिया,सिन्धुलाकृमि, करीषिणी, चित्रवहा, त्रिसेना, गोमती, चन्दना, कौशिकी (कोसी), हृद्या, नाचिता, रोहितारणी, रहस्या, शतकुम्भा, सरयू, चर्मण्वती, हस्तिसोमा, दिशा, शरावती, भीमरथी, कावेरी, बालुका, तापी (ताप्ती), नीवारा, महिता, सुप्रयोगा, पवित्रा, कृष्णला, वाजिनी, पुरुमालिनी, पूर्वाभिरामा, वीरा, मालावती, पापहारिणी, पलाशिनी, महेन्द्रा, पाटलावती, असिक्नी, कुशवीरा, मरुत्वा, प्रवरा, मेना, होरा, घृतवती, अनाकती, अनुष्णी, सेव्या, कापी, सदावीरा, अधृष्या, कुशचीरा, रथचित्रा, ज्योतिरथा, विश्वामित्रा, कपिंजला, उपेन्द्रा, बहुला, कुवीरा, वैनन्दी, पिंजला, वेणा, तुंगवेगा, महानदी, विदिशा, कृष्णवेगा, ताम्रा, कपिला, धेनु, सकामा, वेदस्वा, हविः स्रावा, महापथा, क्षिप्रा (सिप्रा), पिच्छला, भारद्वाजी, कौर्णिकी, शोणा (सोन), चन्द्रमा, अन्तःशिला, ब्रह्ममेध्या, परोक्षा, रोही, जम्बूनदी (जम्मू), सुनासा, तपसा, दासी, सामान्या, वरुणा, असी, नीला, धृतिकरी,पर्णाशा, मानवी, वृषभा तथा भाषा द्विजवरो! ये तथा और भी बहुत-सी बड़ी-बड़ी नदियाँ है। अब जनपदोंका वर्णन करता हूँ, सुनिये। कुरु,
पांचाल, शाल्व, मात्रेय, जांगल, शूरसेन (मथुराके आसपासका प्रान्त), पुलिन्द, बौध, माल, सौगन्ध्य, चेदि, मत्स्य (जयपुरके आसपासका भूखण्ड), करूप, भोज, सिन्धु (सिंध), उत्तम, दशार्ण, मेकल, उत्कल, कोशल, नैकपृष्ठ युगंधर, मद, कलिंग, काशि, अपरकाशि जठर, कुकुर, कुन्ति, अवन्ति (उज्जैनके आसपासका देश), अपरकुन्ति, गोमन्त मल्लक, पुण्ड्र नृपवाहिक, अश्मक, उत्तर, गोपराष्ट्र, अधिराज्य, कुशट्ट, मल्लराष्ट्र, मालव (मालवा), उपवास्य, वक्रा, वक्रातप, मागध, सद्य, मलज, विदेह (तिरहुत), विजय, अंग (भागलपुरके आसपासका प्रान्त), वंग (बंगाल), यकृल्लोमा, मल्ल, सुदेष्ण, प्रह्लाद, महिष, शशक, बाह्निक (बलख), वाटधान, आभीर, कालतोयक, अपरान्त, परान्त, पंकल, चर्मचण्डक, अटवीशेखर, मेस्भूत, उपावृत अनुपावृत, सुराष्ट्र (सूरतके आसपासका देश), केकय, कुट्ट, माहेय, कक्ष, सामुद्र, निष्कुट, अन्ध, बहु, अन्तर्गिरि, बहिर्गिरि, मलद, सत्वतर, प्रावृषेय, भार्ग, भार्गव, भासुर, शक, निषाद, निषेध, आनर्त (द्वारकाके आसपासका देश) पूर्णत पूतिमत्स्य कुलक तीरग्रह, इंजिक, कल्पकारण, तिलभाग, मसार, मधुमत्त, ककुन्दक, काश्मीर, सिन्धुसौवीर गाथार (कंधार), दर्शक, अभीसार, कुद्रुत, सौरिल, दव, दर्वावात, जामरथ, उरग, बलरट्ट, सुदामा, सुमल्लिक, बन्ध, काँकर कुलिन्द गन्धिक बनायु दर पा कुशबिन्दु का गोपालका कुरुव, किरात, बर सिद्ध, ताम्रलिप्तिक, औड्रम्लेच्छ, सैरिन्द्र और पर्वतीय। ये सब उत्तर भारतके जनपद बताये गये हैं।

मुनिवरो! अब दक्षिण भारतके जनपदोंका वर्णन किया जाता है। द्रविड (तमिलनाड), केरल (मलावार), प्राच्य मूषिक बालकृषिक कर्णाटक, महिषक, किष्किन्ध झल्लिक, कुन्तल, सौहृद, नलकानन, कोकुट्टक, चोल,कोण, मणिवालय, सभंग, कनक, कुकुर, अंगार, मारिए ध्वजिनी, उत्सव, संकेत, त्रिगर्भ, माल्यसेनि, व्यूढक, कोरक, प्रोष्ठ, संगवेगधर, विन्द्य, रुलिक, बल्वल, मलर, अपरवर्तक, कालद, चण्डक, कुरट, मुशल, तनवाल, सतीर्थ, पूति, संजय, अनिदाय, शिवाट तपान, सूतप ऋषिक, विदर्भ (बरार), वंगण और परतंगण अब उत्तर एवं अन्य दिशाओंमें रहनेवाले म्लेच्छोंके स्थान बताये जाते हैं-यवन (यूनानी) और काम्बोज – ये बड़े क्रूर म्लेच्छ हैं। कृघृह, पुलट्य, हूण, पारसिक (ईरान) तथा दशमानिक इत्यादि अनेकों जनपद हैं। इनके सिवा क्षत्रियोंके भी कई उपनिवेश हैं वैश्यों और शूद्रोंके भी स्थान है शूरवीर आभीर, दरद तथा काश्मीर जातिके लोग पशुओंके साथ रहते हैं। खाण्डीक, तुषार, पद्माव, गिरिगहर, आत्रेय, भारद्वाज, स्तनपोषक, द्रोषक और कलिंग ये किरातोंकी जातियाँ हैं [ और इनके नामसे भिन्न-भिन्न जनपद हुए हैं] तोमर, हन्यमान और करभंजक आदि अन्य बहुत-से जनपद हैं। यह पूर्व और उत्तरके जनपदोंका वर्णन हुआ। ब्राह्मणो । इस प्रकार संक्षेपसे ही मैंने सब देशोंका परिचय दिया है। इस अध्यायका पाठ और श्रवण त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) – रूप महान् फलको देनेवाला है।

द्विजवरी प्राचीन कालमें राजा युधिष्ठिर के साथ जो देवर्षि नारदका संवाद हुआ था, उसका वर्णन करता है आपलोग श्रवण करें। महारथी पाण्डवोंके राज्यका अपहरण हो चुका था। वे द्रौपदीके साथ वनमें निवास करते थे। एक दिन उन्हें परम महात्मा देवर्षि नारदजीने दर्शन दिया। पाण्डवोंने उनका स्वागत-सत्कार किया। नारदजी उनकी की हुई पूजा स्वीकार करके युधिष्ठिरसे बोले- ‘धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ! तुम क्या चाहते हो?’ यह सुनकर धर्मनन्दन राजा युधिष्ठिरने भाइयों सहित हाथ जोड़ देवतुल्य नारदजीको प्रणाम किया और कहा ‘महाभाग आप सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित हैं आपके संतुष्ट हो जानेपर मैं अपनेको कृतार्थ मानता हूँ-मुझे किसी बातकी आवश्यकता नहीं है। मुनिश्रेष्ठ! जोतीर्थयात्रामें करता प्रवृत्त होकर समूची पृथ्वीको परिक्रमा है, उसको क्या फल मिलता है? ब्रह्मन्! इस को आप पूर्णरूपसे बताने की कृपा करें।” ll 3 ll

नारदजी बोले – राजन्! पहलेकी बात है, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप धर्मानुकूल व्रतका नियम लेकर गंगाजीके. आप मुनियोंकी भाँति निवास करते थे। कुछ कालके बाद एक दिन जब महामना दिलीप जप कर रहे थे, उसी समय उन्हें ऋषियोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठजीका दर्शन हुआ महर्षिको उपस्थित देख राजाने उनका विधिवत् पूजन किया और कहा – ‘उत्तम व्रतका पालन करने वाले मुनिश्रेष्ठ! मैं आपका दास दिलीप हूँ। आज आपका दर्शन पाकर मैं सब पापोंसे मुक्त हो गया।’

वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! तुम धर्मके ज्ञाता हो। तुम्हारे विनय, इन्द्रियसंयम तथा सत्य आदि गुणोंसे मैं सर्वधा संतुष्ट हूँ बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ?

दिलीप बोले- मुने। आप प्रसन्न हैं, इतनेसे ही मैं अपनेको कृतकृत्य समझता हूँ। तपोधन! जो (तीर्थ बजाके उद्देश्यसे सारी पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करता है, उसको क्या फल मिलता है? यह मुझे बताइये।

वसिष्ठजीने कहा – तात! तीर्थोंका सेवन करनेसे जो फल मिलता है, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो। तीर्थ ऋषियोंके परम आश्रय हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तीर्थसेवनका फल उसे ही मिलता है, जिसके हाथ, पैर और मन अच्छी तरह अपने वशमें हों जो विद्वान्, तपस्वी और कीर्तिमान् हो तथा जिसने दान लेना छोड़ दिया हो। जो संतोषी, नियमपरायण, पवित्र, अहंकारशून्य और उपवास (व्रत) करनेवाला हो; जो अपने आहार और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर चुका हो, जो सब दोषोंसे मुक्त हो तथा जिसमें क्रोधका अभाव हो। जो सत्यवादी, दृढप्रतिज्ञ तथा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति अपने जैसा भाव रखनेवाला हो, उसीको तीर्थका पूरा फल प्राप्त होता है। राजन्! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते; क्योंकि उसमें नाना प्रकारके साधन औरसामग्रीकी आवश्यकता होती है। कहीं कोई राजा या धनवान् पुरुष ही यज्ञका अनुष्ठान कर पाते हैं। इसलिये मैं तुम्हें वह शास्त्रोक्त कर्म बतला रहा हूँ, जिसे दरिद्र मनुष्य भी कर सकते हैं तथा जो पुण्यकी दृष्टिसे यज्ञफलोंकी समानता करनेवाला है; उसे ध्यान देकर सुनो। पुष्कर तीर्थमें जाकर मनुष्य देवाधिदेवके समान हो जाता है। महाराज! दिव्यशक्तिसे सम्पन्न देवता, दैत्य तथा ब्रह्मर्षिगण वहाँ तपस्या करके महान् पुण्यके भागी हुए हैं; जो मनीषी पुरुष मनसे भी पुष्कर तीर्थके सेवनकी इच्छा करता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं तथा वह स्वर्गलोकमें पूजित होता है। इस तीर्थमें पितामह ब्रह्माजी सदा प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। महाभाग ! पुष्करमें आकर देवता और ऋषि भी महान् पुण्यसे युक्त हो परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। जो वहाँ स्नान करके पितरों और देवताओंके पूजनमें प्रवृत्त होता है, उसके लिये मनीषी विद्वान् अश्वमेधसे दसगुने पुण्यकी प्राप्ति बतलाते हैं। जो पुष्करके वनमें जाकर एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, वह उसके पुण्यसे ब्रह्मधाममें स्थित अजित लोकोंको प्राप्त होता है। जो सायंकाल और प्रातः कालमें हाथ जोड़कर पुष्कर तीर्थका चिन्तन करता है, वह सब तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। पुष्करमें जानेमात्रसे स्त्री या पुरुषके जन्मभरके किये हुए सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके आदि हैं, उसी प्रकार पुष्कर भी समस्त तीर्थोंका आदि कहलाता है। पुष्करमें नियम और पवित्रतापूर्वक बारह वर्षतक निवास करके मनुष्य सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त कर लेता है और अन्तमें ब्रह्मलोकको जाता है। जो पूरे सौ वर्षोंतक अग्निहोत्रका अनुष्ठान करता है अथवा केवल कार्तिककी पूर्णिमाको पुष्करमें निवास करता है, उसके ये दोनों कर्म समान ही हैं। पहले तो पुष्करमें जाना ही कठिन है। जानेपर भी वहाँ तपस्या करना और भी कठिन है। पुष्करमें दान देना उससे भी कठिन है और सदा वहाँ निवास करना तो बहुत ही मुश्किल है।

अध्याय 79 जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा

वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! पृथ्वीकी परिक्रमा आरम्भ करनेवाले मनुष्यको पहले जम्बूमार्गमें प्रवेश करना चाहिये। वह पितरों, देवताओं तथा ऋषियोंद्वारा पूजित तीर्थ है। जम्बूमार्गमें जाकर मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है और अन्तमें विष्णुलोकको जाता है। जो मनुष्य प्रतिदिन उठे पहरमें एक बार भोजन करते हुए पाँच राततक उस तीर्थमें निवास करता है, उसकी कभी दुर्गति नहीं होती तथा वह परम उत्तम सिद्धिको प्राप्त होता है। जम्बूमार्गसे चलकर तुण्डलिकाश्रमकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ जानेसे मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता तथा स्वर्गलोकमें उसका सम्मान होता है। राजन्! जो अगस्त्याश्रममें जाकर देवताओं और पितरोंकी पूजा करता और वहाँ तीन रात उपवास करके रहता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है तथा जो शाक या फलसे जीवन-निर्वाह करते हुए वहाँ निवास करता है, वह परम उत्तम कार्तिकेयजीके धामको प्राप्त होता है। राजाओंमें श्रेष्ठ दिलोप। लक्ष्मीसे सेवित तथा समस्त लोकोंद्वारा पूजित कन्याश्रम तीर्थं धर्मारण्यके नामसे प्रसिद्ध है, वह पुण्यदायक और प्रधान क्षेत्र है; वहाँ पहुँचकर उसमें प्रवेश करनेमात्र से मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो नियमानुकूल आहार करके शौच संतोष आदि नियमों का पालन करते हुए वहाँ देवता तथा पितरोंका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाले यज्ञका फल पाता है। उस तीर्थको परिक्रमा करके ययातिपतन नामक स्थानको जाना चाहिये वहाँको यात्रा करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है।

तदनन्तर नियमानुकूल आहार और आचारका पालन करते हुए [उज्जैनमें स्थित] महाकाल तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ कोटितीर्थमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँसे धर्मज्ञ पुरुषको भद्रवट नामक स्थानमें जाना चाहिये, जो भगवान् उमापतिका तीर्थ है। वहाँकी यात्रा करनेसे एक हजारगोदानका फल मिलता है तथा महादेवजीकी कृपासे शिवगणोंका आधिपत्य प्राप्त होता है। नर्मदा नदीमें जाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता है। युधिष्ठिर बोले- द्विजश्रेष्ठ नारदजी मैं पुनः नर्मदाका माहात्म्य सुनना चाहता हूँ।

नारदजीने कहा- राजन्! नर्मदा सब नदियोंमें श्रेष्ठ है। वह समस्त पापका नाश करनेवाली तथा स्थावर-जंगम सम्पूर्ण भूतोंको तारनेवाली है। सरस्वतीका जल तीन सप्ताहतक स्नान करनेसे, यमुनाका जल एक सप्ताहतक गोता लगानेसे और गंगाजीका जल स्पर्शके समय ही पवित्र करता है; किन्तु नर्मदाका जल दर्शनमात्रसे पवित्र कर देता है। नर्मदा तीनों लोकोंमें रमणीय तथा पावन नदी है। महाराज! देवता, असुर, गन्धर्व और तपोधन ऋषि-ये नर्मदाके तटपर तपस्या करके परम सिद्धिको प्राप्त हो चुके हैं। युधिष्ठिर! वहाँ स्नान करके शौच संतोष आदि नियमोंका पालन करते हुए जो जितेन्द्रियभावसे एक रात भी उसके तटपर निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो मनुष्य जनेश्वर तीर्थमें स्नान करके विधिपूर्वक पिण्डदान देता है, उसके पितर महाप्रलयतक तृप्त रहते हैं। अमरकण्टक पर्वतके चारों ओर कोटि रुद्रोंकी प्रतिष्ठा हुई है; जो वहाँ स्नान करता और चन्दन एवं फूल-माला आदि चढ़ाकर रुद्रकी पूजा करता है, उसपर रुद्रकोटिस्वरूप भगवान् शिव प्रसन्न होते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वतके पश्चिम भागमें स्वयं भगवान् महेश्वर विराजमान हैं। वहाँ स्नान करके पवित्र हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए जितेन्द्रियभावसे शास्त्रीय विधिके अनुसार श्राद्ध करना चाहिये तथा वहीं तिल और जलसे पितरों तथा देवताओंका तर्पण भी करना चाहिये। पाण्डुनन्दन। जो ऐसा करता है, उसकी सातवीं पीढ़ीतकके सभी लोग स्वर्गमें निवास करते हैं। राजा युधिष्ठिर। सरिताओंमें श्रेष्ठ नर्मदाकी लंबाईसौ योजनसे कुछ अधिक सुनी जाती है तथा चौड़ाई दो योजनकी है। अमरकण्टक पर्वतके चारों ओर साठ करोड़ और साठ हजार तीर्थ है। वहाँ रहनेवाला पुरुष ब्रह्मचर्य का पालन करे, पवित्र रहे, क्रोध और इन्द्रियोंको काबूमें रखे तथा सब प्रकारकी हिंसाओंसे दूर रहकर अब प्राणियों के हित-साधनमें संलग्न रहे इस प्रकार समस्त सदाचारोंका पालन करते हुए क्षेत्रपालों (तीर्थ देवताओं) के दर्शनके लिये यात्रा करनी चाहिये। नर्मदाके दक्षिण-भागमें थोड़ी ही दूरपर एक कपिला नामकी बहुत बड़ी नदी है, जो अपने तटपर उगे हुए देवदारु एवं अर्जुनके वृक्षोंसे आच्छादित रहती है। यह परम सौभाग्यवती पावन नदी तीनों लोकोंमें विख्यात है। युधिष्ठिर उसके तटपर सौ करोड़से अधिक तीर्थ हैं। कपिलाके तीरपर जो वृक्ष कालचक्र प्रभावसे गिर जाते हैं, वे भी नर्मदाके जलसे संयुक्त होनेपर परम गतिको प्राप्त होते हैं एक दूसरी भी नदी है, जिसका नाम विशल्यकरणा है। उस शुभ नदीके किनारे स्नान करनेसे मनुष्य तत्काल शल्यरहित- शोकहीन हो जाता है। नर्मदा मिली हुई विशल्या नामकी नदी सब पापका नाश करनेवाली है। राजन् जो मनुष्य वहाँ स्नान करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जितेन्द्रियभावसे एक रात निवास करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंको तार देता है। महाराज! जो उस तीर्थमें उपवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर इन्द्रलोकको जाता है। नर्मदामें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। अमरकण्टक पर्वतपर जिसकी मृत्यु होती है, वह सौ करोड़ वर्षोंसे अधिक कालतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। फेन और लहरोंसे सुशोभित नर्मदाका पावन जल मस्तकपर चढ़ानेयोग्य है; ऐसा करनेसे सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। नर्मदा सब प्रकारके पुण्य देनेवाली और ब्रह्महत्याका पाप दूर करनेवाली है। जो नर्मदा तटपर एक दिन और एक रात उपवास करता है, वह ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। पाण्डुनन्दन! इस प्रकार नर्मदा परम पावन एवं रमणीय नदी है। यह महानदी तीनों लोकोंको पवित्र करती है।महाराज! अमरकण्टक पर्वत सब ओरसे पुण्यमय है जो चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके अवसरपर अमर कण्टककी यात्रा करता है, उसके लिये मनीषी पुरुष अश्वमेधसे दसगुना पुण्य बताते हैं। वहाँ महेश्वरका दर्शन करनेसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। जो लोग सूर्यग्रहणके समय समुदायके साथ अमरकण्टक पर्वतकी यात्रा करते हैं, उन्हें पुण्डरीक यज्ञका सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। उस पर्वतपर ज्वालेश्वर नामक महादेव हैं, वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकको प्राप्त होते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती हैं, वे पुनः जन्म-मरणके बन्धनमें नहीं पड़ते। मनुष्यके हृदयमें सकाम भाव हो या निष्काम, वह नर्मदाके शुभ जलमें स्नान करके सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और अन्तमें रुद्रलोकको जाता है।

सूतजी कहते हैं- युधिष्ठिर आदि सब महात्मा पुरुषोंने नारदजीसे पूछा- ‘भगवन्! सम्पूर्ण लोकोंके हितके उद्देश्यसे तथा हमलोगोंके ज्ञान एवं पुण्यकी वृद्धिके लिये आप [कृपापूर्वक नर्मदा-कावेरी संगमकी यथार्थ महिमाका वर्णन कीजिये।’

नारदजीने कहा- राजन्! लोक-विख्यात कावेरी नदी जहाँ नर्मदामें मिली हैं, उसी स्थानपर पहले कभी सत्यपराक्रमी कुबेर स्नान करके पवित्र हो तपस्या करते थे। उन्होंने सौ दिव्य वर्षोंतक भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर महादेवजीने उन्हें उत्तम वर प्रदान किया। वे बोले-‘महान् सत्त्वशाली यक्ष ! तुम इच्छानुसार वर माँगो; तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट कार्य हो, उसे बताओ।”

कुबेरने कहा- देवेश्वर! यदि आप संतुष्ट हैं और मुझे वर देना चाहते हैं तो ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सब यक्षोंका स्वामी बनूँ।

कुबेरकी बात सुनकर भगवान् महेश्वर बहुत प्रसन्न हुए, वे ‘एवमस्तु’ कहकर वहीं अन्तर्धान हो गये। वर पाकर कुबेर यक्षपुरी- अलकापुरीमें गये। वहाँ श्रेष्ठ यक्षोंने उनका बड़ा सम्मान किया और उन्हें ‘राजा’ के पदपर अभिषिक्त कर दिया। जहाँ कुबेरने तपस्या की थी, वहाँ कावेरी संगमका जलसब पापोंका नाश करनेवाला है। जो लोग उस संगमकी महिमाको नहीं जानते, वे बड़े भारी लाभसे वंचित रह जाते हैं। अतः मनुष्यको सर्वथा प्रयत्न करके वहाँ स्नान करना चाहिये। कावेरी और महानदी नर्मदा दोनों ही परम पुण्यदायिनी हैं। महाराज ! वहाँ स्नान करके वृषभध्वज भगवान् शंकरका पूजन करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष अश्वमेध यज्ञकाफल प्राप्त करके रुद्रलोकमें पूजित होता है। गंगा और यमुनाके संगममें स्नान करके मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वही फल उसे कावेरी नर्मदा-संगममें स्नान करनेसे भी मिलता है। राजेन्द्र ! इस प्रकार नर्मदा-कावेरी-संगमकी बड़ी महिमा है। वहाँ सब पापका नाश करनेवाला महान् पुण्यफल प्राप्त होता है।

अध्याय 80 नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! नर्मदाके उत्तर ‘तटपर ‘पत्रेश्वर’ नामसे विख्यात एक तीर्थ है, जिसका विस्तार चार कोसका है। वह सब पापका नाश करनेवाला उत्तम तीर्थ है। राजन्! वहाँ स्नान करके मनुष्य देवताओंके साथ आनन्दका अनुभव करता है। वहाँसे ‘गर्जन’ नामक तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ [रावणका पुत्र] मेघनाद गया था; उसी तीर्थके प्रभावसे उसको ‘इन्द्रजित्’ नाम प्राप्त हुआ था वहाँसे ‘मेघराव’ तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ मेघनादने मेघके समान गर्जना की थी तथा अपने परिकरोंसहित उसने अभीष्ट वर प्राप्त किये थे। राजा युधिष्ठिर! उस स्थानसे ‘ब्रह्मावर्त’ नामक तीर्थको जाना चाहिये, जहाँ ब्रह्माजी सदा निवास करते हैं। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है।

तदनन्तर अंगारेश्वर तीर्थमें जाकर नियमित आहार ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहे। ऐसा करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाता है। वहाँसे परम उत्तम कपिला तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको गोदानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् कुण्डलेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ भगवान् शंकर पार्वतीजीके साथ निवास करते हैं। राजेन्द्र वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य देवताओंके लिये भी अवध्य हो जाता है।वहाँसे पिप्पलेश्वर तीर्थकी यात्रा करे, वह सब पापका नाश करनेवाला तीर्थ है। वहाँ जानेसे रुद्रलोकमें सम्मानपूर्वक निवास प्राप्त होता है। इसके बाद विमलेश्वर तीर्थमें जाय; वह बड़ा निर्मल तीर्थ है; उस तीर्थमें मृत्यु होनेपर रुद्रलोककी प्राप्ति होती है। तदनन्तर पुष्करिणीमें जाकर स्नान करना चाहिये; वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य इन्द्रके आधे सिंहासनका अधिकारी हो जाता है। नर्मदा समस्त सरिताओंमें श्रेष्ठ है, वह स्थावर जंगम समस्त प्राणियोंका उद्धार कर देती है। मुनि भी इस श्रेष्ठ नदी नर्मदाका स्तवन करते हैं। यह समस्त लोकोंका हित करनेकी इच्छासे भगवान् रुद्रके शरीरसे निकली है। यह सदा सब पापका अपहरण करनेवाली और सब लोगोंके द्वारा अभिवन्दित है। देवता, गन्धर्व और अप्सरा- सभी इसकी स्तुति करते रहते हैं- ‘पुण्यसलिला नर्मदा ! तुम सब नदियोंमें प्रधान हो, तुम्हें नमस्कार है। सागरगामिनी! तुमको प्रणाम है। ऋषिगणोंसे पूजित तथा भगवान् शंकरके श्रीविग्रहसे प्रकट हुई नर्मदे ! तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं। सुमुखि तुम धर्मको धारण करनेवाली हो, तुम्हें प्रणाम है। देवताओंका समुदाय तुम्हारे चरणोंमें मस्तक झुकाता है तुम्हें नमस्कार है। देवि! तुम समस्त पवित्र वस्तुओंको भी परम पावन बनानेवाली हो, सम्पूर्ण संसार तुम्हारी पूजा करता है; तुम्हें बारंबार नमस्कार है।”जो मनुष्य प्रतिदिन शुद्धभावसे इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह ब्राह्मण हो तो वेदका विद्वान् होता है, क्षत्रिय हो तो युद्धमें विजय प्राप्त करता है, वैश्य हो। तो [ व्यापारमें] लाभ उठाता है और शूद्र हो तो उत्तम गतिको प्राप्त होता है। साक्षात् भगवान् शंकर भी नर्मदा नदीका नित्य सेवन करते हैं; अतः इस नदीको परम पावन समझना चाहिये। यह ब्रह्महत्याको भी दूर करनेवाली है।

शूलभद्र नामसे विख्यात एक परम पवित्र तीर्थ हैं। वहाँ स्नान करके भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये। इससे एक हजार गोदानका फल मिलता है। राजन्! जो उस तीर्थमें महादेवजीको पूजा करते हुए तीन राततक निवास करता है, उसका इस संसारमें फिर जन्म नहीं होता । तदनन्तर क्रमशः भीमेश्वर, परम उत्तम नर्मदेश्वर तथा महापुण्यमय आदित्येश्वरकी यात्रा कानी चाहिये। आदित्येश्वर तीर्थमें स्नान के पश्चात् भी और मधुसे शिवजीका पूजन करना उचित है। मल्लिकेश्वर तीर्थमें जाकर उसकी परिक्रमा करनेसे जन्मका पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है। वहाँसे वरुणेश्वरमें तथा वरुणेश्वरसे परम उत्तम नीराजेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। नीराजेश्वरके पंचायतन (पंचदेवमन्दिर) का दर्शन करनेसे सब तीर्थोंका फल प्राप्त हो जाता है। राजेन्द्र वहाँसे कोटितीर्थकी यात्रा करनी चाहिये; वह तीर्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। वहाँ भगवान् शिवने करोड़ों दानवोंका वध किया था; इसीलिये उन्हें कोटीश्वर कहा गया है। उस तीर्थका दर्शन करनेसे मनुष्य सशरीर स्वर्गको चला जाता है। वहाँ त्रयोदशीको महादेवजीकी उपासना करके स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्त हो जाता है। तत्पश्चात् परम शोभायमान और उत्तम तीर्थ अगस्त्येश्वरकी यात्रा करे, वह पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्यको ब्रह्महत्यासे कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको छुटकारा मिल जाता है। जो कार्तिक मासके उस तीर्थमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एकाग्रचित्त हो घृतसे भगवान् शिवको स्नान कराता है, वह इक्कीस पीड़ियोतक शिव-धानकी प्राप्तिसे वंचित नहीं होता जोवहाँ सवारी, जूते, छाता, घृतपूर्ण सुवर्णपात्र तथा भोजन-सामग्री ब्राह्मणोंको दान करता है, उसका वह सारा दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। राजेन्द्र ! अगस्त्येश्वर तीर्थसे चलकर रविस्तव नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य राजा होता है। नर्मदाके दक्षिण किनारे एक इन्द्र तीर्थ है, जो सर्वत्र प्रसिद्ध है; वहाँ एक रात उपवास करके स्नान करना चाहिये। स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक भगवान् जनार्दनका पूजन करे। ऐसा करनेसे उसे एक हजार गोदानका फल मिलता है तथा अन्तमें वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है। इसके बाद ऋषितीर्थमें जाना चाहिये; वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य शिवलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहीं परम कल्याणमय नारदतीर्थ भी है; वहाँ नहानेमात्रसे एक हजार गोदानका फल मिलता है। तदनन्तर देवतीर्थकी यात्रा करे, जिसे पूर्वकालमें साक्षात् ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था; वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें सम्मानित होता है।

महाराज! इसके बाद परम उत्तम वामनेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये; वहाँके मन्दिरका दर्शन करनेसे ब्रह्महत्याका पाप छूट जाता है। वहाँसे मनुष्यको निश्चय ही ईशानेश्वरकी यात्रा करनी चाहिये। तत्पश्चात् वटेश्वरमें जाकर भगवान् शिवका दर्शन करनेसे जन्म लेनेका सारा फल मिल जाता है। वहाँसे भीमेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये, वह सब प्रकारकी व्याधियोंका नाश करनेवाला है। उस तीर्थमें स्नानमात्र करके मनुष्य सब दुःखोंसे छुटकारा पा जाता है। तत्पश्चात् वारणेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे, वहाँ स्नान करनेसे भी सब दुःख छूट जाते हैं। उसके बाद सोमतीर्थ में जाकर चन्द्रमाका दर्शन करना चाहिये; वहाँ परम भक्तिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्य तत्काल दिव्य देह धारण करके शिवलोकको चला जाता है और वहाँ भगवान् शिवकी ही भाँति चिरकालतक आनन्दका अनुभव करता है। शिवलोकमें वह साठ हजार वर्षोंतक सम्मानपूर्वक निवास करता है। वहाँसे परम उत्तम पिंगलेश्वर तीर्थको जाय। वहाँ एक दिन रातके उपवाससे त्रिरात्र व्रतका फल मिलता है।राजन्! जो उस तीर्थमें कपिला गौका दान करता है, वह उस गौके तथा उससे होनेवाले गोवंशके शरीर में जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक रुद्रलोकमें सम्मानपूर्वक रहता है।

तदनन्तर नन्दितीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करे; इससे उसपर नन्दीश्वर प्रसन्न होते हैं और वह सोमलोक में सम्मानपूर्वक निवास करता है। इसके बाद व्यासतीर्थकी यात्रा करे व्यासतीर्थ एक तपोवनके रूपमें है। पूर्वकालमें वहाँ महानदी नर्मदाको व्यासजीके भयसे लौटना पड़ा था व्यासजीने हुंकार किया, जिससे नर्मदा उनके स्थानसे दक्षिण दिशाकी ओर होकर बहने लगी। राजन्! जो उस तीर्थकी परिक्रमा करता है, उसपर व्यासजी संतुष्ट होते और उसे मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। जो मनुष्य परम तेजस्वी भगवान् व्यासकी प्रतिमाको वेदीसहित सूत्रसे आवेष्टित करता है, वह शंकरजीकी भाँति अनन्त कालतक शिवलोकमें विहार करता है। इसके बाद एरण्डीतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, वह एक उत्तम तीर्थ है। वहाँ नर्मदा-एरण्डी संगमके जलमें स्नान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है। एरण्डी नदी तीनों लोकोंमें विख्यात और सब पापोंका नाश करनेवाली है। आश्विन मासमें शुक्लपक्षकी अष्टमी तिथिको यहाँ पवित्र भावसे स्नान करके उपवास करनेवाला मनुष्य यदि एक ब्राह्मणको भी भोजन करा दे तो उसे एक करोड़ ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। जो मनुष्य भक्तिभावसे युक्त होकर नर्मदा एरण्डी संगममें स्नान करता है अथवा मस्तकपर नर्मदेश्वरकी मूर्ति रखकर नर्मदा के जलसे मिले हुए एरण्डीके जलमें गोता लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। राजन्! जो उस तीर्थकी परिक्रमा करता है, उसके द्वारा सात द्वीपोंसे युक्त समूची पृथ्वीकी परिक्रमा हो जाती है।

तदनन्तर सुवर्णतिलक नामक तीर्थमें स्नान करके सुवर्ण दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सोनेके विमानपर बैठकर रुद्रलोक में जाता और सम्मानपूर्वक वहाँ निवास करता है उसके बाद नर्मदा और इनदीके संगममेंजाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य गणपति पदको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् स्कन्दतीर्थकी यात्रा करे। वह सब पापोंका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करनेमात्रसे जन्मभरका किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है। पुनः वहाँके आंगिरस तीर्थमें जाकर स्नान करे, इससे एक हजार गोदानका फल मिलता है तथा रुद्रलोकमें सम्मान प्राप्त होता है। आंगिरस तीर्थसे लांगल तीर्थमें जाना चाहिये। वह भी सब पापका नाश करनेवाला है। महाराज! वहाँ जाकर यदि मनुष्य स्नान करे तो सात जन्मके किये हुए पापोंसे छुटकारा पा जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे वटेश्वर तीर्थ और सर्वतीर्थकी यात्रा करे। सर्वतीर्थ अत्युत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। उसके बाद संगमेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। वह सब पापका अपहरण करनेवाला उत्तम तीर्थ है। वहाँसे भद्रतीर्थमें जाकर जो मनुष्य दान करता है, उसका वह सारा दान कोटिगुना अधिक हो जाता है। तत्पश्चात् अंगारेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करे। वहीं नहाने मनुष्य स्वलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जो अंगारक चतुर्थीको वहाँ स्नान करता है, वह भगवान् विष्णुके शासनमें रहकर अनन्त कालतक आनन्दका अनुभव करता है। अयोनिसंगम तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य गर्भमें नहीं आता। जो पाण्डवेश्वर तीर्थमें जाकर वहाँ स्नान करता है, वह अनन्त कालतक सुखी तथा देवता और असुरोंके लिये अवध्य होता है। उत्तरायण आनेपर कम्बोजकेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेसे मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वही उसे प्राप्त हो जाती है। तदनन्तर चन्द्रभागामें जाकर स्नान करे। वहाँ नहानेमात्रसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद शक्रतीर्थकी यात्रा करे। वह सर्वत्र विख्यात, देवराज इन्द्रद्वारा सम्मानित तथा सम्पूर्ण देवताओंसे भी अभिवन्दित है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके सुवर्ण दान करता है अथवा नीले रंगका साँड़ छोड़ता है, वह उस साँड़के तथा उससे उत्पन्न होनेवाले गोवंशके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं; उतने हजार वर्षोंतकभगवान् शिवके धाममें निवास करता है। 6। शक्रतीर्थसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी राजेन्द्र ! चाहिये। वह बड़ा ही उत्तम तीर्थ है। जो यहाँ स्नानके पश्चात् कपिला गौका दान करता है, उसे सम्पूर्ण पृथ्वीके दानका फल प्राप्त होता है। नर्मदेश्वर नामक हर्थ सबसे श्रेष्ठ है ऐसा तीर्थ आजतक न हुआ है न होगा। वहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा मनुष्य इस पृथ्वीपर सर्वत्र प्रसिद्ध राजाके रूपमें जन्म ग्रहण करता है। वह सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा समस्त व्याधियोंसे रहित होता है। नर्मदाके उत्तर तटपर एक बहुत ही सुन्दर तथा रमणीय तीर्थ है, उसका नाम है-आदित्यायतन उसे साक्षात् भगवान् शंकरने प्रकट किया है वहाँ स्नान करके यथाशक्ति दिया हुआ दान उस तीर्थके प्रभावसे अक्षय हो जाता है। दरिद्र, रोगी तथा पापी मनुष्य भी वहाँ स्नान करके सब पापोंसे मुक्त होते और भगवान् सूर्यके लोकमें जाते हैं वहाँसे मासेश्वर तीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये वहाँके जलमें डुबकी लगाने मात्रसे स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है तथा जबतक चौदह इन्द्रोंकी आयु व्यतीत नहीं होती, तबतक मनुष्य स्वर्गलोक में निवास करता है। तदनन्तर मासेश्वर तीर्थके पास ही जो नागेश्वर नामका तपोवन है, उसमें निवास करे और वहाँ एकाग्रचित्त हो स्नान करके पवित्र हो जाय। जो ऐसा करता है, वह अनन्त कालतक नाग कन्याओंके साथ विहार करता है। तत्पश्चात् कुबेरभवन नामक तीर्थकी यात्रा करे । वहाँसे कालेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाय, जहाँ महादेवजीने कुबेरको वर देकर संतुष्ट किया था। महाराज यहाँ स्नान करनेसे सब प्रकारकी सम्पत्ति प्राप्त होती है। उसके बाद पश्चिम दिशाकी ओर मारुतालय नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे और वहाँ स्नान करके पवित्र एवं एकाग्रचित होकर बुद्धिमान् पुरुष यथाशक्ति सुवर्ण और अन्नका दान करे ऐसा करनेसे वह पुष्पक विमानके द्वारा वायुलोकमें जाता है। युधिष्ठिर। माघ मासमें यमतीर्थकी यात्रा करनीचाहिये। माघकृष्ण चतुर्दशीको जो वहाँ स्नान करता और दिनमें उपवास करके रातमें भोजन करता है, उसे गर्भवासकी पीड़ा नहीं भोगनी पड़ती।

तदनन्तर सोमतीर्थ में जाकर स्नान करे। वहाँ गोता लगानेमात्र से मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। महाराज! जो उस तीर्थमें चान्द्रायण व्रत करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर सोमलोकमें जाता है। सोमतीर्थसे स्तम्भतीर्थमें जाकर स्नान करे। ऐसा करनेसे मनुष्य सोमलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद विष्णुतीर्थकी यात्रा करे। वह बहुत ही उत्तम तीर्थ है। और योधनीपुरके नामसे विख्यात है। वहाँ भगवान् वासुदेवने करोड़ों असुरोंके साथ युद्ध किया था। युद्धभूमिमें उस तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। वहाँ स्नान करनेसे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। जो वहाँ एक दिन-रात उपवास करता है, उसका ब्रह्महत्या जैसा पाप भी दूर हो जाता है। तत्पश्चात् तापसेश्वर नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये; वह अमोहक तीर्थके नामसे विख्यात है। वहाँ पितरोंका तर्पण तथा पूर्णिमा और अमावास्याको विधिपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ स्नानके पश्चात् पितरोंको पिण्डदान करना आवश्यक है। उस तीर्थमें जलके भीतर हाथीके समान आकारवाली बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं। उनके ऊपर विशेषतः वैशाख मासमें पिण्डदान करना चाहिये। ऐसा करनेसे जबतक यह पृथ्वी कायम रहती है, तबतक पितरोंको पूर्ण तृप्ति बनी रहती है। महाराज ! वहाँसे सिद्धेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य गणेशजीके निकट जाता है। उस तीर्थमें जहाँ जनार्दन नामसे प्रसिद्ध लिंग है, वहाँ स्नान करनेसे विष्णुलोक में प्रतिष्ठा होती है। सिद्धेश्वरमें अन्धोन तीर्थके समीप स्नान, दान, ब्राह्मण भोजन तथा पिण्डदान करना उचित है। उसके आधे योजनके भीतर जिसकी मृत्यु होती है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है। अन्धोनमें विधिपूर्वक विधिपूर्वक पिण्डदान देनेसे पितरोंको तबतक तृप्ति बनी रहती है, जबतक चन्द्रमा और सूर्यकी सत्ता है। उत्तरायण प्राप्तहोनेपर जो स्त्री या पुरुष वहाँ स्नान करते और पवित्रभावसे भगवान् सिद्धेश्वरके मन्दिरमें रहकर प्रातःकाल उनकी पूजा करते हैं, उन्हें सत्पुरुषोंकी गति प्राप्त होती है। वैसी गति सम्पूर्ण महायज्ञोंके अनुष्ठानसे भी दुर्लभ है।

नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर! तदनन्तर भक्तिपूर्वक भार्गवेश्वर तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। पाण्डुनन्दन ! अब शुक्लतीर्थकी उत्पत्तिका प्रसंग श्रवण करो। एक समयकी बात है, हिमालयके रमणीय शिखरपर भगवान् शंकर अपनी पत्नी उमा तथा पार्षदगणोंके साथ बैठे थे। उस समय मार्कण्डेयजीने उनसे -‘देवदेव पूछा – ” महादेव! मैं संसारके भयसे डरा हुआ हूँ। आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे सुख प्राप्त हो सके। महेश्वर ! जो तीर्थ सम्पूर्ण तीर्थोंमें श्रेष्ठ हो, उसका मुझे परिचय दीजिये ।

भगवान् शिव बोले- ब्रह्मन् ! तुम महान् पण्डित और सम्पूर्ण शास्त्रोंमें कुशल हो; मेरी बात सुनो। दिनमें या रातमें- किसी भी समय शुक्लतीर्थका सेवन किया जाय तो वह महान फलदायक होता है। उसके दर्शन और स्पर्शसे तथा वहाँ स्नान, ध्यान, तपस्या, होम एवं उपवास करनेसे शुक्लतीर्थ महान् फलका साधक होता है। नर्मदा नदीके तटपर स्थित शुक्लतीर्थ महान् पुण्यदायक है। चाणिक्य नामके राजर्षिने वहीं सिद्धि प्राप्त की थी। यह क्षेत्र चार कोसके घेरेमें प्रकट हुआ है। शुक्लतीर्थ परम पुण्यमय तथा सब पापका नाशक है। वहाँके वृक्षोंकी शिखाका भी दर्शन हो जाय तो ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। मुनिश्रेष्ठ! इसीलिये मैं यहाँ निवास करता हूँ। परम निर्मल वैशाख मासके कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको तो मैं कैलाससे भी निकलकर यहाँ आ जाता हूँ। जैसे धोबीके द्वारा जलसे धोया हुआ वस्त्र सफेद हो जाता है, उसी प्रकार शुक्लतीर्थ भी जन्मभरके संचित पापको दूर कर देता है। मुनिवर मार्कण्डेय! वहाँका स्नान और दान अत्यन्त पुण्यदायक है। शुक्लतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न तो हुआ है और न होगा ही ।मनुष्य अपनी पूर्वावस्थायें जो-जो पाप किये होता है, उन्हें वह शुक्लतीर्थमें एक दिन रातके उपवाससे नष्ट कर डालता है। वहाँ मेरे निमित्त दान देनेसे जो होता है, वह सैकड़ों यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो सकता। जो मनुष्य कार्तिक मासके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको वहाँ उपवास करके घीसे मुझे स्नान कराता है, यह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ मेरे लोकमें रहकर कभी वहाँसे भ्रष्ट नहीं होता। शुक्लतीर्थ अत्यन्त श्रेष्ठ है। ऋषि और सिद्धगण उसका सेवन करते हैं। वहाँ स्नान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता जिस दिन उत्तरायण या दक्षिणायनका प्रारम्भ हो, चतुर्दशी हो, संक्रान्ति हो अथवा विषुव नामक योग हो, उस दिन ने स्नान करके उपवासपूर्वक मनको वशमें रखकर समाहितचित्त हो यथाशक्ति वहाँ दान दे तो भगवान् विष्णु तथा हम प्रसन्न होते हैं। शुक्लतीर्थके प्रभावसे वह सब दान अक्षय पुण्यका देनेवाला होता है। जो अनाथ, दुर्दशाग्रस्त अथवा सनाथ ब्राह्मणका भी उस तीर्थमें विवाह कराता है, उस ब्राह्मणके तथा उसकी संतानोंके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार तक वह मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होता है।

नारदजी कहते हैं-राजा युधिष्ठिर। शुक्लतीर्थसे गोतीर्थमें जाना चाहिये। उसका दर्शन करने मात्रसे मनुष्य पापरहित हो जाता है। वहाँसे कपिलातीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह एक उत्तम तीर्थ है। राजन्! वहाँ स्नान करके मानव सहस्र गो-दानका फल प्राप्त करता है। ज्येष्ठ मास आनेपर विशेषतः चतुर्दशी तिथिको उस तीर्थमें उपवास करके जो मनुष्य भक्तिपूर्वक मौका दीपक जलाता भृतसे भगवान् शंकरको स्नान कराता, घीसहित श्रीफलका दान करता तथा अन्तर्गे प्रदक्षिणा करके घण्टा और आभूषणोंके सहित कपिला गौको दानमें देता है, वह साक्षात् भगवान् शिवके समान होता है तथा इस लोकमें पुनः जन्म नहीं लेता। राजेन्द्र वहाँसे परम उत्तम ऋषितीर्थकी यात्रा करे, उस तीर्थके प्रभावसे द्विज पापमुक्त हो जाता है।

अपितीर्थसे गणेश्वर तीर्थमें जाना चाहिये। वह बहुतउत्तम तीर्थ है। श्रावण मासके कृष्णपक्षको चतुर्दशीको वहीं स्नान करनेमात्रसे मनुष्य रुद्रलोकमें सम्मानित होता है। वहीं पितरोंका तर्पण करनेपर तीनों ऋणोंसे छुटकारा मिल जाता है। गयेश्वरके पास ही गंगावदन नामक उत्तम तीर्थ है; वहाँ निष्काम या सकामभावसे भी स्नान करनेवाला मानव जन्मभरके पापोंसे मुक्त हो जाता है इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पर्वके दिन वहाँ सदा स्नान करना चाहिये। उस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेपर मनुष्य तीनों ऋणोंसे मुक्त होता है। उसके पश्चिम और थोड़ी ही दूरपर दशाश्वमेधिक तीर्थ है: वहाँ भादोंके महीनेमें एक रात उपवास करके जो अमावास्याको स्नान करता है, वह भगवान् शंकरके धामको जाता है। वहाँ भी पर्वके दिनोंमें सदा ही स्नान करना चाहिये। उस तीर्थमें पितरोंका तर्पण करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है।

दशाश्वमेधसे पश्चिम भृगुतीर्थ है, जहाँ ब्राह्मणश्रेष्ठ भृगुने एक हजार दिव्य वर्षोंतक भगवान् शंकरकी उपासना की थी। तभीसे ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता और किन्नर भृगुतीर्थका सेवन करते हैं। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान् महेश्वर भृगुजीपर प्रसन्न हुए थे। उस तीर्थका दर्शन होनेपर तत्काल पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। जिन प्राणियोंकी वहीं मृत्यु होती है, उन्हें गुद्धातिगुह्य गतिकी प्राप्ति होती है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यह क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत तथा सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, ये फिर संसारमें जन्म नहीं लेते मुक्त हो जाते हैं। उस तीर्थमें अन्न, सुवर्ण, जूता और यथाशक्ति भोजन देना चाहिये। इसका पुण्य अक्षय होता है जो सूर्यग्रहणके समय वहाँ स्नान करके इच्छानुसार दान करता है, उसके तीर्थस्नान और दानका पुण्य अक्षय होता है। जो मनुष्य एक बार भृगुतीर्थका माहात्म्य श्रवण कर लेता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर रुद्रलोक में जाता है। राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम गौतमेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। जो मनुष्य वहाँ नहाकर उपवास करता है, वह सुवर्णमय विमानपरबैठकर ब्रह्मलोकमें जाता है। तदनन्तर धौतपाप नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे ब्रह्महत्या दूर होती है। इसके बाद हिरण्यद्वीप नामसे विख्यात तीर्थ में जाय वह सब पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य धनी तथा रूपवान् होता है। वहाँसे कनखलकी यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ गरुड़ने तपस्या की थी। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसकी रुद्रलोकमें प्रतिष्ठा होती है। तदनन्तर सिद्धजनार्दन तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ परमेश्वर श्रीविष्णु वाराहरूप धारण करके प्रकट हुए थे। इसीलिये उसे वाराहतीर्थ भी कहते हैं। उस तीर्थमें विशेषतः द्वादशीको स्नान करनेसे विष्णुलोकको प्राप्ति होती है।

राजेन्द्र ! तदनन्तर देवतीर्थमें जाना चाहिये, जो सम्पूर्ण देवताओंद्वारा अभिवन्दित है वहाँ स्नान करके मनुष्य देवताओंके साथ आनन्द भोगता है। तत्पश्चात् शिखितीर्थकी यात्रा करे, वह बहुत ही उत्तम तीर्थ है। वहाँ जो कुछ दान किया जाता है, वह सब का सब कोटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है जो कृष्णपक्ष अमावास्याको वहाँ स्नान करता और एक ब्राह्मणको भी भोजन कराता है, उसे कोटि ब्राह्मणोंके भोजन करानेका फल प्राप्त होता है।

राजा युधिष्ठिर। तदनन्तर नर्मदेश्वर तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह भी उत्तम तीर्थ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद पितामह – तीर्थमें जाना चाहिये, जिसे पूर्वकालमें साक्षात् ब्रह्माजीने उत्पन्न किया था। मनुष्यको उचित है कि वहाँ स्नान करके भक्तिपूर्वक पितरोंको पिण्डदान दे तथा तिल और कुशमिश्रित जलसे पितरोंका तर्पण करे। उस तीर्थके प्रभावसे वह सब कुछ अक्षय हो जाता है। जो सावित्री – तीर्थमें जाकर स्नान करता है, वह सब पापको धोकर ब्रह्मलोक में सम्मानित होता है। वहाँसे मानस नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् क्रतुतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वह बहुत ही उत्तम, तीनों लोकोंमें विख्यात और सम्पूर्ण पापका नाशकरनेवाला तीर्थ है। इसके बाद स्वर्गबिन्दु नामसे प्रसिद्ध तीर्थमें जाना उचित है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यको कभी दुर्गति नहीं देखनी पड़ती। वहाँसे भारभूत नामक तीर्थकी यात्रा करे और वहाँ पहुँचकर उपवासपूर्वक भगवान् विरूपाक्षकी पूजा करे। ऐसा करनेसे वह रुद्रलोकमें सम्मानित होता है। राजन्! जो उस तीर्थमें उपवास करता है, वह पुनः गर्भमें नहीं आता । वहाँसे परम उत्तम अटवी तीर्थमें जाय। वहाँ स्नान करके मनुष्य इन्द्रका आधा सिंहासन प्राप्त करता है। तदनन्तर सब पापका नाश करनेवाले शृंगतीर्थकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेमात्रसे निश्चय ही गणेशपदकी प्राप्ति होती है। पश्चिम समुद्रके साथ जो नर्मदाका संगम है, वह तो मुक्तिका दरवाजा ही खोल देता है। वहाँ देवता, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चारण तीनों सन्ध्याओंके समय उपस्थित होकर देवताओंके स्वामी भगवान् विमलेश्वरकी आराधना करते हैं। विमलेश्वरसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है न होगा। जो लोग वहाँ उपवास करके विमलेश्वरका दर्शन करते हैं, वे सब पापोंसे शुद्ध हो रुद्रलोकमें जाते हैं।

राजेन्द्र ! वहाँसे परम उत्तम केशिनी तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके एक रात उपवास करता है तथा मन और इन्द्रियोंको वशमें करकेआहारपर भी संयम रखता है, वह उस तीर्थके प्रभावसे ब्रह्महत्यासे मुक्त हो जाता है। जो सागरेश्वरका दर्शन करता है, उसे समस्त तीर्थोंमें स्नान करनेका फल मिल जाता है। केशिनी – तीर्थसे एक योजनके भीतर समुद्रके भँवरमें साक्षात् भगवान् शिव विराजमान हैं। उनको देखनेसे सब तीर्थोंके दर्शनका फल प्राप्त हो जाता है। तथा दर्शन करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो रुद्रलोकमें जाता है। महाराज! अमरकण्टकसे लेकर नर्मदा और समुद्रके संगमतक जितनी दूरी है, उसके भीतर दस करोड़ तीर्थ विद्यमान हैं। एक तीर्थसे दूसरे तीर्थको जानेके जो मार्ग हैं, उनका करोड़ों ऋषियोंने सेवन किया है। अग्निहोत्री, दिव्यज्ञानसम्पन्न तथा ज्ञानी – सब प्रकारके मनुष्योंने तीर्थयात्राएँ की हैं। इससे तीर्थयात्रा मनोवांछित फलको देनेवाली मानी गयी है। पाण्डुनन्दन ! जो पुरुष प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस अध्यायका पाठ या श्रवण करता है, वह समस्त तीर्थोंमें स्नानके पुण्यका भागी होता है। साथ ही नर्मदा उसके ऊपर सदा प्रसन्न रहती है। इतना ही नहीं, भगवान् रुद्र तथा महामुनि मार्कण्डेयजी भी उसके ऊपर प्रसन्न होते हैं। जो तीनों सन्ध्याओंके समय इस प्रसंगका पाठ करता है, उसे कभी नरकका दर्शन नहीं होता तथा वह किसी कुत्सित योनिमें भी नहीं पड़ता ।

अध्याय 81 विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन

युधिष्ठिर बोले- नारदजी! महर्षि वसिष्ठके बताये हुए अन्यान्य तीर्थोका, जिनका नाम श्रवण करनेसे ही पाप नष्ट हो जाते हैं, मुझसे वर्णन कीजिये । नारदजीने कहा- ‘धर्मज्ञ युधिष्ठिर! हिमालयके पुत्र अर्बुद पर्वतकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें पृथ्वी में छेद था। वहाँ महर्षि वसिष्ठका आश्रम हैं, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्मचर्यके पालनपूर्वक पिंगातीर्थमें आचमन करनेसे कपिला जातिकी सौ गौओंके दानका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् प्रभासक्षेत्रमें जाना चाहिये। वह विश्वविख्यात तीर्थ है।वहाँ साक्षात् अग्निदेव नित्य निवास करते हैं। उस श्रेष्ठ तीर्थमें शुद्ध एवं एकाग्रचित्त होकर स्नान करनेसे मानव अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल प्राप्त करता है। उसके बाद सरस्वती और समुद्रके संगममें जाकर स्नान करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानका फल पाता और स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो वरुण देवताके उस तीर्थमें स्नान करके एकाग्रचित्त हो तीन राततक वहाँ निवास तथा देवता और पितरोंका तर्पण करता है, वह चन्द्रमाके समान कान्तिमान् होता और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है।

भरतश्रेष्ठ ! वहाँसे वरदान नामक तीर्थकी यात्राकरनी चाहिये। वरदानमें स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानका फल प्राप्त करता है। तदनन्तर नियमपूर्वक रहकर नियमित आहारका सेवन करते हुए द्वारकापुरीमें जाना चाहिये। उस तीर्थमें आज भी कमलके चिह्नसे चिलित मुद्राएँ दृष्टिगोचर होती हैं। यह एक अद्भुत बात है। वहाँ कमलदलोंमें त्रिशूलके चिह्न दिखायी देते हैं। यहाँ महादेवजीका निवास है। जो समुद्र और सिन्धु नदीके संगमपर जाकर वरुण-तीर्थमें नहाता और एकाग्रचित्त हो देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह अपने तेजसे देदीप्यमान हो वरुणलोकमें जाता है। युधिष्ठिर। मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान् शंकुकर्णेश्वरकी पूजा करनेसे दस अश्वमेधोंका फल होता है। शंकुकर्णेश्वर तीर्थकी प्रदक्षिणा करके तीनों लोकोंमें विख्यात तिमि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वह सब पापको दूर करनेवाला तीर्थ है। वहाँ स्नान करके देवताओंसहित रुद्रको पूजा करनेसे मनुष्य जन्मभरके किये हुए पापोंको नष्ट कर डालता है। धर्मज्ञ तदनन्तर सबके द्वारा प्रशंसित वसुधारा तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ जानेमात्र से ही अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। कुरुश्रेष्ठ! जो मानव वहाँ स्नान करके एकाग्रचित्त हो देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ वसुओंका एक दूसरा तीर्थ भी है, जहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य वसुओंका प्रिय होता है। तथा ब्रह्मलुंग नामक तीर्थमें जाकर पवित्र, शुद्धचित्त, पुण्यात्मा तथा रजोगुणरहित पुरुष ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहीं रेणुकाका भी तीर्थ है, जिसका देवता भी सेवन करते हैं। वहाँ स्नान करके ब्राह्मण चन्द्रमाकी भाँति निर्मल होता है।

तदनन्तर पंचनद तीर्थमें जाकर नियमित आहार ग्रहण करते हुए नियमपूर्वक रहना चाहिये। इससे पंचयज्ञोंके अनुष्ठानका फल प्राप्त होता है। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् भीमा नदीके उत्तम स्थानपर जाना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी गर्भमें नहीं आता तथा एक लाख गोदानोंका फल प्राप्त करता है। गिरिकुंज नामकतीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर पितामहको नमस्कार करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। उसके बाद परम उत्तम विमलतीर्थकी यात्रा करनी चाहिये, जहाँ आज भी सोने और चाँदी जैसे मत्स्य दिखायी देते हैं। नरश्रेष्ठ! वहाँ स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है और मनुष्य सब पापोंसे शुद्ध हो परम गतिको प्राप्त होता है।

काश्मीरमें जो वितस्ता नामक तीर्थ है, वह नागराज तक्षकका भवन है। वह तीर्थ समस्त पापको दूर करनेवाला है। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करता है, वह निश्चय ही वाजपेय यज्ञका फल पाता है। उसका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम उत्तम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे मलद नामक तीर्थकी यात्रा करे। राजन्! वहाँ सायं-सन्ध्याके समय विधिपूर्वक आचमन करके जो अग्निदेवको यथाशक्ति चरु निवेदन करता है तथा पितरोंके निमित्त दान देता है, उसका वह दान आदि अक्षय हो जाता है—ऐसा विद्वान् पुरुषोंका कथन है। वहाँ अग्निको दिया हुआ चरु एक लाख गोदान, एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा एक सौ राजसूय यज्ञोंसे भी श्रेष्ठ है। धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर! वहाँसे दीर्घसत्र नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। शशयान – तीर्थ बहुत ही दुर्लभ है। उस तीर्थ प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमाको लोग सरस्वती नदीमें स्नान करते हैं। जो वहाँ स्नान करता है, वह साक्षात् शिवकी भाँति कान्तिमान् होता है; साथ ही उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। कुरुनन्दन ! जो कुमारकोटि नामक तीर्थमें जाकर नियमपूर्वक स्नान करता और देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें संलग्न होता है, उसे दस हजार गोदानका फल मिलता है तथा वह अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। महाराज चहाँसे एकाग्रचित होकर रुद्रकोटि तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें करोड़ ऋषियोंने भगवान् शिक्के दर्शनकी इच्छासे बड़े हर्षके साथ ध्यान लगाया था। वहाँ स्नान करके पवित्र हुआ मनुष्य अश्वमेधयज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार करता है। तदनन्तर लोकविख्यात संगम-तीर्थमें जाना चाहिये और वहाँ सरस्वती नदीमें परम पुण्यमय भगवान् जनार्दनकी उपासना करनी चाहिये। उस तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यका चित्त सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। और वह शिवलोकको प्राप्त होता है।

राजेन्द्र ! तदनन्तर कुरुक्षेत्रकी यात्रा करनी चाहिये। उसकी सब लोग स्तुति करते हैं। वहाँ गये हुए समस्त प्राणी पापमुक्त हो जाते हैं धीर पुरुषको उचित है कि वह कुरुक्षेत्रमें सरस्वती नदीके तटपर एक मासतक निवास करे। युधिष्ठिर ! जो मनसे भी कुरुक्षेत्रका चिन्तन करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह ब्रह्मलोकको जाता है। धर्मज्ञ ! वहाँसे भगवान् विष्णुके उत्तम स्थानको, जो ‘सतत नामसे प्रसिद्ध है, जाना चाहिये। वहाँ भगवान् सदा मौजूद रहते हैं। जो उस तीर्थमें नहाकर त्रिभुवनके कारण भगवान् विष्णुका दर्शन करता है, वह विष्णुलोकमें जाता है। तत्पश्चात् पारिप्लवमें जाना चाहिये। वह तीनों लोकोंमें विख्यात तीर्थ है। उसके सेवनसे मनुष्यको अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका फल मिलता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्यको शाल्विकिनि नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ दशाश्वमेध घाटपर स्नान करनेसे भी वही फल प्राप्त होता है। तदनन्तर पंचनदमें जाकर नियमित आहार करते हुए नियमपूर्वक रहे। वहाँ कोटि तीर्थमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। तत्पश्चात् परम उत्तम वाराह तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ पूर्वकालमें भगवान् विष्णु वराहरूपसे विराजमान हुए थे। उस तीर्थमें निवास करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तदनन्तर जयिनीमें जाकर सोमतीर्थमें प्रवेश करे। वहाँ स्नान करके मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। कृतशौच-तीर्थमें जाकर उसका सेवन करनेवाला पुरुष पुण्डरीक यज्ञका फल पाता है और स्वयं भी पवित्र हो जाता है। ‘पम्पा’ नामका तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है, वहाँ जाकर स्नान करनेसे मनुष्य अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। कायशोधन-तीर्थमें जाकर स्नान करनेवालेकेशरीरकी शुद्धि होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तथा जिसका शरीर शुद्ध हो जाता है, वह कल्याणमय उत्तम लोकोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् लोकोद्धार नामक तीर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें सबकी उत्पत्तिके कारणभूत भगवान् विष्णुने समस्त लोकोंका उद्धार किया था राजन् वहाँ पहुँचकर उस उत्तम तीर्थमें स्नान करके मनुष्य आत्मीय जनोंका उद्धार कर देता है। जो कपिला-तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर स्नान तथा देवता पितरोंका पूजन करता है, वह मानव एक सहस्र कपिला- दानका फल पाता है। जो सूर्यतीर्थमें जाकर स्नान करता और मनको काबूमें रखते हुए उपवास परायण होकर देवताओं तथा पितरोंकी पूजा करता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है तथा वह सूर्यलोकको जाता है। गोभवन नामक तीर्थमें जाकर स्नान करनेवालेको सहस्र गोदानका फल मिलता है।

तदनन्तर ब्रह्मावर्तकी यात्रा करे। ब्रह्मावर्तमें स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। वहाँसे अन्यान्य तीर्थोंमें घूमते हुए क्रमशः काशीश्वरके तीर्थों में पहुँचकर स्नान करनेसे मनुष्य सब प्रकारके रोगोंसे छुटकारा पाता और ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर शौच-सन्तोष आदि नियमोंका पालन करते हुए शीतवनमें जाय वहाँ बहुत बड़ा तीर्थ है, जो अन्यत्र दुर्लभ है वह दर्शनमात्रसे एक दण्डमें पवित्र कर देता है। वहाँ एक दूसरा भी श्रेष्ठ तीर्थ है, जो स्नान करनेवाले लोगोंका दुःख दूर करनेवाला माना गया है। वहाँ तत्त्वचिन्तन-परायण विद्वान् ब्राह्मण स्नान करके परम गतिको प्राप्त होते हैं। स्वर्णलोमापनयन नामक तीर्थमें प्राणायामके द्वारा जिनका अन्तःकरण पवित्र हो चुका है, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। दशाश्वमेध नामक तीर्थमें भी स्नान करनेसे उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है।

तत्पश्चात् लोकविख्यात मानुष – तीर्थकी यात्रा करे। राजन्। पूर्वकालमें एक व्याधके बाणोंसे पीड़ित हुए कुछ कृष्णमृग उस सरोवर में कूद पड़े थे और उसमें गोता लगाकर मनुष्य शरीरको प्राप्त हुए थे। [ तभीसे वह मानुष तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ।] इस तीर्थमें स्नानकरके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जो ध्यान लगाता है, उसका हृदय सब पापसे शुद्ध हो जाता है तथा वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है। राजन्। मानुष तीर्थसे पूर्व दिशामें एक कोसकी दूरीपर आपगा नामसे विख्यात एक नदी बहती है। उसके तटपर जाकर जो मानव देवता और पितरोंके उद्देश्यसे साँवाका बना हुआ भोजन दान देता है, वह यदि एक ब्राह्मणको भोजन ये तो एक करोड़ ब्राह्मणोंके भोजन करानेका फल प्राप्त होता है। वहाँ स्नान करके देवताओं और पितरोंके पूजन तथा एक रात निवास करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् उस तीर्थमें जाना चाहिये, जो इस पृथ्वीपर ब्रह्मानुस्वर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ सप्तर्षियोंके कुण्डोंमें तथा महात्मा कपिलके क्षेत्रमें स्नान करके जो ब्रह्माजीके पास जा उनका दर्शन करता है, वह पवित्र एवं जितेन्द्रिय होता है तथा उसका चित्त सब पापोंसे शुद्ध होनेके कारण वह अन्तमें ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।

राजन् शुक्लपक्षको दशमीको पुण्डरीक तीर्थमें प्रवेश करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँसे त्रिविष्टप नामक तीर्थको जाय, वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। यहाँ वैतरणी नामकी एक पवित्र नदी है, जो सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली है वहाँ स्नान करके शूलपाणि भगवान् शंकरका पूजन करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापसे शुद्ध हो जाता है तथा वह परम गतिको प्राप्त होता है। पाणिख्यात नामसे विख्यात तीर्थमें स्नान और देवताओंका तर्पण करके मानव राजसूय यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् विश्वविख्यात मिश्रक (मिश्रिख) मैं जाना चाहिये। नृपश्रेष्ठ। हमारे सुननेमें आया है कि महात्मा व्यासजीने द्विजातिमात्रके लिये वहाँ सब तीर्थोका सम्मेलन किया था, अतः जो मिश्रिखमें स्नान करता है. वह मानो सब तीर्थोंमें स्नान कर लेता है।

नरेश्वर ! जो ऋणान्त कूपके पास जाकर वहाँ एक सेर तिलका दान करता है, वह ऋणसे मुक्त हो परम सिद्धिको प्राप्त होता है। वेदीतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानका फल मिलता है। अहन् औरसुदिन ये दो तीर्थ अत्यन्त दुर्लभ हैं। उनमें स्नान करनेसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। मृगधूम तीर्थ तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ रुद्रपदमें स्नान और महात्मा शूलपाणिका पूजन करके मानव अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। कोटितीर्थमें स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। वामनतीर्थ भी तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर विष्णुपदमें स्नान और भगवान् वामनका पूजन करनेसे तीर्थयात्रीका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। कुलम्पुन-तीर्थमें स्नान करके मनुष्य अपने कुलको पवित्र करता है। शालिहोत्रका एक तीर्थ है, जो शातिसूर्य नामसे प्रसिद्ध है उसमें विधिपूर्वक स्नान करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। राजन् ! सरस्वती नदीमें एक श्रीकुंज नामक तीर्थ है। वहाँ स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। तत्पश्चात् ब्रह्माजीके उत्तम स्थान (पुष्कर) की यात्रा करनी चाहिये। छोटे वर्णका मनुष्य वहाँ स्नान करनेसे ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है और ब्राह्मण शुद्धचित्त होकर परमगतिको प्राप्त होता है।

कपालमोचन तीर्थ सब पापका नाश करनेवाला है। वहाँ स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है वहाँसे कार्तिकेयके पृथूदक तीर्थमें जाना चाहिये, वह तीनों लोकोंमें विख्यात है वहाँ देवता और पितरोंके पूजनमें तत्पर होकर स्नान करना चाहिये। स्त्री हो या पुरुष, वह मानवबुद्धिसे प्रेरित हो जान-बूझकर या बिना जाने जो कुछ भी अशुभ कर्म किये होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं, उसे अश्वमेध यज्ञके फल तथा स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। कुरुक्षेत्रको परम पवित्र कहते हैं, कुरक्षेत्रसे भी पवित्र है सरस्वती नदी, उससे भी पवित्र है यहाँ तीर्थ और उन तीथोंसे भी पावन है पृथूदक पृथूदक तीर्थमें जप करनेवाले मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। राजन्! श्रीसनत्कुमार तथा महात्मा व्यासने इस तीर्थकी महिमा गायी है। वेदमें भी इसे निश्चित रूपसे महत्त्व दिया गया है। अतः पृथूदक तीर्थमें अवश्य जाना चाहिये। पृथूदक तीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई परम पावन तीर्थ नहीं है।निस्सन्देह यही मेध्य, पवित्र और पावन है। वहीं मधुपुर नामक तीर्थ है, वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। नरश्रेष्ठ। वहाँसे सरस्वती और अरुणाके संगममें, जो विश्वविख्यात तीर्थ है, जाना चाहिये। वहाँ तीन राततक उपवास करके रहने और स्नान करनेसे ब्रह्महत्या छूट जाती है। साथ ही तीर्थसेवी पुरुषको अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञका फल मिलता है और वह अपनी सात पीढ़ियोंतकका उद्धार कर देता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। वहाँसे शतसहस्र तथा साहस्रक-इन दोनों तीर्थोंमें जाना चाहिये। वे दोनों तीर्थ भी वहीं हैं तथा सम्पूर्ण लोकोंमें उनकी प्रसिद्धि है उन दोनोंमें स्नान करनेसे मनुष्य सहस्त गोदानोंका फल पाता है। वहाँ जो दान या उपवास किया जाता है, वह सहस्रगुना अधिक फल देनेवाला होता है। तदनन्तर परम उत्तम रेणुकातीर्थमें जाना चाहिये और वहाँ देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर हो स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है तथा उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो क्रोध और इन्द्रियोंको जीतकर विमोचन तीर्थमें स्नान करता है, वह प्रतिग्रहजनित समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।

तदनन्तर जितेन्द्रिय हो ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए पंचवट तीर्थमें जाकर [स्नान करनेसे] मनुष्यको महान् पुण्य होता है तथा वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जहाँ स्वयं योगेश्वर शिव विराजमान हैं, वहाँ उन देवेश्वरका पूजन करके मनुष्य वहाँकी यात्रा करने मात्र से सिद्धि प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रमें इन्द्रिय-निग्रह तथा ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए स्नान करनेसे मनुष्यका हृदय सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है और वह रुद्रलोकको प्राप्त होता है। इसके बाद नियमित आहारका भोजन तथा शौचादि नियमोंका पालन करते हुए स्वर्गद्वारकी यात्रा करे। ऐसा करनेसे मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और ब्रह्मलोकको जाता है। महाराज नारायण तथा पद्मनाभके क्षेत्रों में जाकर उनका दर्शन करनेसे तीर्थसेवी पुरुष शोभायमान रूप धारण करके विष्णुधामको प्राप्तहोता है। समस्त देवताओंके तीर्थोंमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण दुःखोंसे मुक्त होकर श्रीशिवकी भाँति कान्तिमान् होता है। तत्पश्चात् तीर्थसेवी पुरुष अस्थिपुरमें जाय और उस पावन तीर्थमें पहुँचकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे उसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ। वहीं गंगाहद नामक कृप है जिसमें तीन करोड़ तीर्थोका निवास है। राजन् ! उसमें स्नान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। आपगामें स्नान और महेश्वरका पूजन करके मनुष्य परम गतिको पाता है और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात स्थाणुवट तीर्थमें जाना चाहिये यहाँ स्नान करके रात्रिमें निवास करनेसे मनुष्य रुद्रलोकको प्राप्त होता है। जो नियम परायण, सत्यवादी पुरुष एकरात्र नामक तीर्थमें जाकर एक रात निवास करता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। राजेन्द्र वहाँसे उस त्रिभुवनविख्यात तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ तेजोराशि महात्मा आदित्यका आश्रम है जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करके भगवान् सूर्यका पूजन करता है, वह सूर्यलोकमें जाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है।

युधिष्ठिर इसके बाद सन्निहिता नामक तीर्थको यात्रा करनी चाहिये, जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपोधन ऋषि महान् पुण्यसे युक्त हो प्रतिमास एकत्रित होते हैं। सूर्यग्रहण के समय सन्निहितायें स्नान करनेसे सौ अश्वमेध यज्ञोंके अनुष्ठानका फल होता है। पृथ्वीपर तथा आकाशमें जितने भी तीर्थ, जलाशय, कृष तथा पुण्य-मन्दिर हैं, ये सब प्रत्येक मासकी अमावास्याको निश्चय ही सन्निहितामें एकत्रित होते हैं। अमावास्या तथा सूर्यग्रहणके समय वहाँ केवल स्नान तथा श्राद्ध करनेवाला मानव सहस्र अश्वमेध अनुष्ठानका फल प्राप्त करता है। स्त्री अथवा पुरुषका जो कुछ भी दुष्कर्म होता है, वह सब वहाँ स्नान करनेमात्रसे नष्ट हो जाता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उस तीर्थमें स्नान करनेवाला पुरुष विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाता है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य पवित्र है तथा तीनोंलोकोंमें कुरुक्षेत्रको अधिक महत्त्व दिया गया है। हवासे उड़ायी हुई कुरुक्षेत्रकी धूलि भी यदि देहपर पड़ जाय तो वह पापीको भी परमगतिकी प्राप्ति करा देती है। कुरुक्षेत्र ब्रह्मवेदीपर स्थित है। वह ब्रह्मर्षियोंसे सेवित पुण्यमय तीर्थ है। राजन्! जो उसमें निवास करते हैं, वेकिसी तरह शोकके योग्य नहीं होते। तरण्डकसे लेकर अरण्डकतक तथा रामहद (परशुराम-कुण्ड) से लेकर मचक्रुकतकके भीतरका क्षेत्र समन्तपंचक कहलाता है । यही कुरुक्षेत्र है। इसे ब्रह्माजीके यज्ञकी उत्तर- वेदी कहा गया है।

अध्याय 82 धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन

नारदजी कहते हैं-धर्मके ज्ञाता युधिष्ठिर! कुरुक्षेत्रसे तीर्थयात्रीको परम प्राचीन धर्मतीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ महाभाग धर्मने उत्तम तपस्या की थी। धर्मशील मनुष्य एकाग्रचित्त हो वहाँ स्नान करके अपनी सात पीढ़ियाँतकको पवित्र कर देता है। वहाँसे उत्तम कलाप वनकी यात्रा करनी उचित है; उस तीर्थमें एकाग्रतापूर्वक स्नान करके मनुष्य अग्निष्टोम यज्ञका फल पाता और विष्णुलोकको जाता है। राजन् ! तत्पश्चात् मानव सौगन्धिक बनकी यात्रा करे। उस वनमें प्रवेश करते ही वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। उसके बाद नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती आती हैं, जिन्हें पलक्षा देवी भी कहते हैं। उनमें जहाँ वल्मीक (बाँबी) से जल निकला है, वहाँ स्नान करे। फिर देवताओं तथा पितरोंका पूजन करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। भारत! सुगन्धा, शतकुम्भा तथा पंचयज्ञकी यात्रा करके मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।

तत्पश्चात् तीनों लोकोंमें विख्यात सुवर्ण नामक तीर्थमें जाय; वहाँ पहुँचकर भगवान् शंकरकी पूजा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और गणपति पदको प्राप्त होता है। वहाँसे धूमवन्तीको प्रस्थान करे। वहीं तीन रात निवास करनेवाला मनुष्य मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवीके दक्षिणार्ध भागमें रथावर्त नामक स्थान है। वहाँ जाकर श्रद्धालु एवं जितेन्द्रिय पुरुष महादेवजीकी कृपासे परमगतिको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् महागिरिको नमस्कार करके गंगाद्वार(हरिद्वार) की यात्रा करे तथा वहाँ एकाग्रचित्त हो कोटितीर्थ स्नान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष पुण्डरीक यज्ञका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। वहाँ एक रात निवास करनेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। सप्तगंग, त्रिगंग और शक्रावर्त नामक तीर्थमें देवता तथा पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण करनेवाला पुरुष पुण्यलोक प्रतिष्ठित होता है। इसके बाद कनखल स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। वहाँसे ललितिका-(ललिता)-में, जो राजा शन्तनुका उत्तम तीर्थ है, जाना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यकी कभी दुर्गति नहीं होती।

महाराज युधिष्ठिर। तत्पश्चात् उत्तम कालिन्दी तीर्थकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य दुर्गतिमें नहीं पड़ता। नरश्रेष्ठ! पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, पृथूदक, अविमुक्त क्षेत्र (काशी) तथा सुवर्ण नामक तीर्थमें भी जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती, वह यमुनामें स्नान करनेसे मिल जाता है। निष्काम या सकाम भावसे भी जो यमुनाजीके जलमें गोता लगाता है, उसे इस लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखना पड़ता। जैसे कामधेनु और चिन्तामणि मनोगत कामनाओंको पूर्ण कर देती हैं, उसी प्रकार यमुनामें किया हुआ स्नान सारे मनोरथोंको पूर्ण करता है। सत्ययुगमें तप, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा कलियुगमें दान सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं; किन्तु कलिन्द कन्या यमुना सदा ही शुभकारिणी हैं। राजन्। यमुनाके जलमें स्नान करना सभी वर्णों तथासमस्त आश्रमोंके लिये धर्म है। मनुष्यको चाहिये कि वह भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नता, समस्त पापकी निवृत्ति तथा स्वर्गलोककी प्राप्ति के लिये यमुनाके जलमें स्नान करे। यदि यमुना स्नानका अवसर न मिला तो सुन्दर, सुपुष्ट, बलिष्ठ एवं नाशवान् शरीरकी रक्षा करनेसे क्या लाभ ।

विष्णुभकिसे रहित ब्राह्मण, विद्वान् पुरुषोंसे रहित ब्राद्ध ब्राह्मणभक्तिसे शून्य क्षत्रिय, दुराचारसे दूषित कुल, दम्भयुक्त धर्म, क्रोधपूर्वक किया हुआ तप, दृढ़तारहित ज्ञान, प्रमादपूर्वक किया हुआ शास्त्राध्ययन, परपुरुषमें आसक्ति रखनेवाली नारी, मदयुक्त ब्रह्मचारी, बुझी हुई आगमें किया हुआ हवन, कपटपूर्ण भक्ति, जीविकाका साधन बनी हुई कन्या, अपने लिये बनायी। हुई रसोई, शूद्र संन्यासीका साधा हुआ योग, कृपणका धन, अभ्यासरहित विद्या, विरोध पैदा करनेवाला ज्ञान, जीविकाके साधन बने हुए तीर्थ और व्रत, असत्य और चुगलीसे भरी हुई वाली छकानोंमें पहुंचा हुआ गुप्त मन्त्र, चंचल चित्तसे किया हुआ जप, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान, नास्तिक मनुष्य तथा अश्रद्धापूर्वक किया हुआ समस्त पारलौकिक कर्म-ये सब-के-सब जिस प्रकार नष्टप्राय माने गये हैं, वैसे ही यमुना स्नानके बिना मनुष्योंका जन्म भी नष्ट ही है। मन वाणी और क्रियाद्वारा किये हुए आर्द्र, शुष्क, लघु और स्थूल- सभी प्रकारके पापको यमुनाका स्नान दग्ध कर देता है; ठीक उसी तरह जैसे आग लकड़ीको जला डालती है। राजन्! जैसे भगवान् विष्णुकी भक्ति में सभी अधिकार है, उसी प्रकार मुनादेवी सदा सबके पापका नाश करनेवाली हैं। यमुनामें किया हुआ स्नान ही सबसे बड़ा मन्त्र, सबसे बड़ी तपस्या और सबसे बढ़कर प्रायश्चित है। यदि मथुराकी यमुना प्राप्त हो जायें तो वे मोक्ष देनेवाली मानी गयी हैं। अन्यत्रकी यमुना पुण्यमयी तथा महापातकोंका नाश करनेवाली हैं; किन्तु मथुरामें बहनेवाली यमुनादेवी विष्णुभक्ति प्रदान करती हैं।

राजन् इस विषय में तुमसे एक प्राचीनइतिहासका वर्णन करता हूँ। पूर्वकालके सत्ययुगकी बात है। निषेध नामक सुन्दर नगरमें एक वैश्य रहते थे। उनका नाम हेमकुण्डल था। वे उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेके साथ ही सत्कर्म करनेवाले थे। देवता, ब्राह्मण और अग्निकी पूजा करना उनका नित्यका नियम था। वे खेती और व्यापारका काम करते थे। पशुओंके पालन-पोषणमें तत्पर रहते थे। दूध, दही, मट्ठा, घास, लकड़ी, फल, मूल, लवण, अदरख, पीपल, धान्य, शाक, तैल, भाँति-भाँति के वस्त्र, धातुओंके सामान और ईखके रससे बने हुए खाद्य पदार्थ (गुड़, खाँड़, शक्कर आदि) – इन्हीं सब वस्तुओंको सदा बेचा करते थे। इस तरह नाना प्रकारके अन्यान्य उपायोंसे वैश्यने आठ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ पैदा की इस प्रकार व्यापार करते करते उनके कानोंतकके बाल सफेद हो गये। तदनन्तर उन्होंने अपने चित्तमें संसारको क्षणभंगुरताका विचार करके उस धनके छठे भागसे धर्मका कार्य करना आरम्भ किया। भगवान् विष्णुका मन्दिर तथा शिवालय बनवाये, पोखरा खुदवाया तथा बहुत-सी बावलियाँ बनवायें। इतना ही नहीं, उन्होंने बरगद, पीपल, आम, जामुन और नीम आदिके जंगल लगवाये तथा सुन्दर पुष्पवाटिका भी तैयार करावी सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक अन्न-जल बाँटनेकी उन्होंने व्यवस्था कर रखी थी। नगरके बाहर चारों ओर अत्यन्त शोभायमान पाँसले बनवा दिये थे। राजन्! पुराणोंमें जो-जो दान प्रसिद्ध हैं, वे सभी दान उन धर्मात्मा वैश्यने दिये थे। वे सदा ही दान देवपूजा तथा अतिथि सत्कारमें लगे रहते थे।

इस प्रकार धर्मकार्यमें लगे हुए वैश्यके दो पुत्र हुए । उनके नाम थे— श्रीकुण्डल और विकुण्डल। उन दोनोंके सिरपर परका भार छोड़कर हेमकुण्डल तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। वहाँ उन्होंने सर्वश्रेष्ठ देवता वरदायक भगवान् गोविन्दकी आराधनामें संलग्न हो तपस्याद्वारा अपने शरीरको क्षीण कर डाला। तथा निरन्तर श्रीवासुदेवमें मन लगाये रहनेके कारण वे वैष्णवधामको प्राप्त हुए, जहाँ जाकर मनुष्यको शोक नहीं करना पड़ता। तत्पश्चात् उस वैश्यके दोनों पुत्र जबतरुण हुए तो उन्हें बड़ा अभिमान हो गया। वे धनके गर्वसे उन्मत्त हो उठे। उनका आचरण बिगड़ गया। वे दुर्व्यसनोंमें आसक्त हो गये। धर्म-कर्मोंकी ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती थी। वे माताकी आज्ञा तथा वृद्ध पुरुषका कहना नहीं मानते थे। दोनों ही दुरात्मा और कुगामी हो गये। ये अधर्म हो लगे रहते थे। उन दुष्टोंने परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार आरम्भ कर दिया। वे गाने-बजानेमें मस्त रहते और सैकड़ों वेश्याओंको साथ रखते थे। चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर ‘हाँ-में-हाँ’ मिलानेवाले चापलूस ही उनके संगी थे। उन्हें मद्य पीनेका चस्का लग गया था। इस प्रकार सदा भोगपरायण होकर पिताके धनका नाश करते हुए वे दोनों भाई अपने रमणीय भवनमें निवास करते थे। धनका दुरुपयोग करते हुए उन्होंने वेश्याओं, गुंडों, नटों, मल्लों, चारणों तथा बन्दियोंको अपना सारा धन लुटा दिया। ऊसरमें डाले हुए बीजकी भाँति सारा धन उन्होंने अपात्रोंको ही दिया। सत्पात्रको कभी दान नहीं दिया, ब्राह्मणके मुखमें अन्नका होम नहीं किया तथा समस्त भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले सर्वपापनाशक भगवान् विष्णुकी कभी पूजा नहीं की।

इस प्रकार उन दोनोंका धन थोड़े ही दिनोंमें समाप्त हो गया। इससे उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उनके घरमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बची, जिससे वे अपना निर्वाह करते। द्रव्यके अभावमें समस्त स्वजनों, बान्धवों, सेवकों तथा आश्रितोंने भी उन्हें त्याग दिया। उस नगरमें उनकी बड़ी शोचनीय स्थिति हो गयी। इसके बाद उन्होंने चोरी करना आरम्भ किया। राजा तथा लोगोंके भयसे डरकर वे अपने नगरसे निकल गये और वनमें जाकर रहने लगे। अब वे सबको पीड़ा पहुँचाने लगे। इस प्रकार पापपूर्ण आहारसे उनकी जीविका चलने लगी। तदनन्तर एक दिन उनमेंसे एक तो पहाड़पर गया और दूसरेने वनमें प्रवेश किया। राजन्! उन दोनोंमें जो बड़ा था, उसे सिंहने मार डाला और छोटेको साँपने डस लिया। उन दोनों महामयिकी एक ही दिन मृत्यु हुई। इसके बाद यमदूत उन्हें पाशोंमें बाँधकर यमपुरीमें ले गये। वहाँजाकर वे यमराजसे बोले-‘धर्मराज! आपकी आज्ञासे हम इन दोनों मनुष्योंको ले आये हैं अब आप प्रसन्न होकर अपने इन किंकरोंको आज्ञा दीजिये, कौन-सा कार्य करें ?’ तब यमराजने दूतोंसे कहा- ‘वीरो ! एकको तो दुःसह पीड़ा देनेवाले नरकमें डाल दो और दूसरेको स्वर्गलोकमें, जहाँ उत्तम उत्तम भोग सुलभ हैं, स्थान दो।’ यमराजकी आज्ञा सुनकर शीघ्रतापूर्वक काम करनेवाले दूतोंने वैश्यके ज्येष्ठ पुत्रको भयंकर रौरव नरकमे डाल दिया। इसके बाद उनमेंसे किसी श्रेष्ठ | दूतने दूसरे पुत्रसे मधुर वाणीमें कहा-‘क्कुिण्डल! तुम मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें स्वर्गमें स्थान देता हूँ। तुम वहाँ अपने पुण्यकर्मद्वारा उपार्जित दिव्य भोगोंका उपभोग करो।’

यह सुनकर विकुण्डलके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। मार्गमें अत्यन्त विस्मित होकर उसने दूतसे पूछा ‘दूतप्रवर! मैं आपसे अपने मनका एक सन्देह पूछ रहा हूँ। हम दोनों भाइयोंका एक ही कुलमें जन्म हुआ। हमने कर्म भी एक-सा ही किया तथा दुर्मृत्यु भी हमारी एक-सी ही हुई; फिर क्या कारण है कि मेरे ही समान कर्म करनेवाला मेरा बड़ा भाई नरकमें डाला गया और मुझे स्वर्गकी प्राप्ति हुई? आप मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। बाल्यकालसे ही मेरा मन पापोंमें लगा रहा। पुण्य कर्मोंमें कभी संलग्न नहीं हुआ। यदि आप मेरे किसी पुण्यको जानते हो तो कृपया बतलाइये।’

देवदूतने कहा- वैश्यवर! सुनो। हरिमित्रके पुत्र स्वमित्र नामक ब्राह्मण वनमें रहते थे। वे वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। यमुनाके दक्षिण किनारे उनका पवित्र आश्रम था। उस वनमें रहते समय ब्राह्मणदेवताके साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी थी। उन्होंके संगसे तुमने कालिन्दीके पवित्र जलमें, जो सब पापको हरनेवाला और श्रेष्ठ है, दो बार माघ स्नान किया है। एक माघ स्नानके पुण्यसे तुम सब पापोंसे मुक्त हो गये और दूसरेके पुण्यसे तुम्हें स्वर्गकी प्राप्ति हुई है। इसी पुण्यके प्रभावसे तुम सदा स्वर्गमें रहकर आनन्दका अनुभव करो। तुम्हारा भाई नरकमें बड़ी भारी यातना भोगेगा। असिपत्र-वनकेपोंसे उसके सारे अंग छिद जायेंगे। मुगदरोंकी मारसे उसकी धज्जियाँ उड़ जायँगी। शिलाकी चट्टानोंपर पटककर उसे चूर-चूर कर दिया जायगा तथा वह दहकते हुए अंगारोंमें भूना जायगा दूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलको भाईके दुःखसे बड़ा दुःख हुआ। उसके सारे शरीरके रोंगटे खड़े हो गये। वह दीन और विनीत होकर बोला ‘साधो ! सत्पुरुषों में सात पग साथ चलनेमात्रसे मैत्री हो जाती है तथा वह उत्तम फल देनेवाली होती है; अतः आप मित्रभावका विचार करके मेरा उपकार करें। मैं आपसे उपदेश सुनना चाहता हूँ। मेरी समझमें आप सर्वज्ञ हैं; अतः कृपा करके बताइये, मनुष्य किस कर्मके अनुष्ठानसे यमलोकका दर्शन नहीं करते तथा कौन-सा कर्म करनेसे वे नरकमें जाते हैं?’

देवदूतने कहा- जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी किसी भी अवस्थामें दूसरोंको पीड़ा नहीं देते, वे यमराजके लोकमें नहीं जाते। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा ही श्रेष्ठ तपस्या है तथा अहिंसाको ही मुनियोंने सदा श्रेष्ठ दान बताया है। जो मनुष्य दयालु हैं वे मच्छर, साँप, डाँस, खटमल तथा मनुष्य-सबको अपने ही समान देखते हैं। जो अपनी जीविकाके लिये जलचर और थलचर जीवोंकी हत्या करते हैं, वे कालसूत्र नामक नरकमें पड़कर दुर्गति भोगते हैं। वहाँ उन्हें कुत्तेका मांस खाना तथा पीव और रक्त पीना पड़ता है। वे चर्बीकी कोचमें दुक्कर अधोमुखी कीड़ोंके द्वारा डँसे जाते हैं। अँधेरेमें पड़कर वे एक-दूसरेको खाते और परस्पर आघात करते हैं। इस अवस्थायें भयंकर चीत्कार करते हुए वे एक कल्पतक वहाँ निवास करते हैं। नरकसे निकलनेपर उन्हें दीर्घकालतक स्थावर योनिमें – रहना पड़ता है। उसके बाद वे क्रूर प्राणी सैकड़ों बारतिर्यग्योनियोंमें जन्म लेते हैं और अन्तमें योनिके भीतर जन्मसे अंधे, काने, कुबड़े, पंगु, दरिद्र तथा अंगहीन होकर उत्पन्न होते हैं। मनुष्य इसलिये जो दोनों लोकोंमें सुख पाना चाहता है, उस धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि इस लोक और परलोकमें मन, वाणी तथा क्रियाके द्वारा किसी भी जीवकी हिंसा न करे। प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले लोग दोनों लोकोंमें कहीं भी सुख नहीं पाते। जो किसी जीवकी हिंसा नहीं करते, उन्हें कहीं भी भय नहीं होता। जैसे नदियाँ समुद्रमें मिलती हैं, उसी प्रकार समस्त धर्म अहिंसामें लय हो जाते हैं- यह निश्चित बात है। वैश्यप्रवर! जिसने इस लोकमें सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान कर दिया है, उसीने सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान किया है तथा वह सम्पूर्ण यज्ञोंकी दीक्षा ले चुका है। वर्णाश्रमधर्ममें स्थित होकर शास्त्रोक्त आज्ञाका पालन करनेवाले समस्त जितेन्द्रिय मनुष्य सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं। जो इष्टरे और पूर्तमें 3 लगे रहते हैं, पंचयज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं, जिनके मनमें सदा दया भरी रहती है, जो विषयोंकी ओरसे निवृत्त, सामर्थ्यशाली, वेदवादी तथा सदा अग्निहोत्रपरायण हैं, वे ब्राह्मण स्वर्गगामी होते हैं। शत्रुओंसे घिरे होनेपर भी जिनके मुखपर कभी दीनताका भाव नहीं आता, जो शूरवीर हैं, जिनकी मृत्यु संग्राममें ही होती है; जो अनाथ स्त्रियों, ब्राह्मणों तथा शरणागतोंकी रक्षाके लिये अपने प्राणोंकी बलि दे देते हैं तथा जो पंगु, अन्ध, बाल-वृद्ध, अनाथ, रोगी तथा दरिद्रोंका सदा पालन-पोषण करते हैं, वे सदा स्वर्गमें रहकर आनन्द भोगते हैं। जो कीचड़ में फँसी हुई गाय तथा रोगसे आतुर ब्राह्मणको देखकर उनका उद्धार करते हैं, जो गौओंको ग्रास अर्पण करते, गौओंकी सेवा-शुश्रूषामें रहते तथा गौओंकी पीठपरकभी सवारी नहीं करते, वे स्वर्गलोकके निवासी होते. हैं। जो ब्राह्मण प्रतिदिन अग्निपूजा, देवपूजा, गुरुपूजा और द्विजपूजामें तत्पर रहते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं।

बावली, कुआँ और पोखरे बनवाने आदिके पुण्यका कभी अन्त नहीं होता: क्योंकि वहाँ जलचर और थलचर जीव सदा अपनी इच्छाके अनुसार जल पीते रहते हैं। देवता भी बावली आदि बनवानेवालेको नित्य दानपरायण कहते है वैश्यवर प्राणी जैसे-जैसे जवली आदिका जल पीते हैं, वैसे ही वैसे धर्मकी वृद्धि होनेसे उसके बनवानेवाले मनुष्यके लिये स्वर्गका निवास अक्षय होता जाता है। जल प्राणियोंका जीवन है। जलके ही आधारपर प्राण टिके हुए हैं। पातकी मनुष्य भी प्रतिदिन स्नान करनेसे पवित्र हो जाते हैं। प्रातःकालका स्नान बाहर और भीतरके मलको भी धो डालता है। प्रातः स्नानसे निष्पाप होकर मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता। जो बिना स्नान किये भोजन करता है, वह सदा मलका भोजन करनेवाला है। जो मनुष्य स्नान नहीं करता, देवता और पितर उससे विमुख हो जाते हैं। वह अपवित्र माना गया है। वह नरक भोगकर कोट-योनिको प्राप्त होता है।

जो लोग पर्वके दिन नदीकी धारामें स्नान करते हैं वे न तो नरकमें पड़ते हैं और न किसी नीच योनिमें ही जन्म लेते हैं। उनके लिये बुरे स्वप्न और बुरी चिन्ताएँ सदा निष्फल होती हैं। विकुण्डल ! जो पृथ्वी, सुवर्ण और गौ- इनका सोलह बार दान करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाकर फिर वहाँसे वापस नहीं आते। विद्वान् पुरुष पुण्य तिथियोंमें, व्यतीपात योगमें तथा संक्रान्तिके समय स्नान करके यदि थोड़ा-सा भी दान करे तो कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। जो मनुष्य सत्यवादी, सदा मौन धारण करनेवाले, प्रियवक्ता, क्रोधहीन, सदाचारी, अधिक बकवाद न करनेवाले, दूसरोंके दोष नदेखनेवाले, सदा सब प्राणियोंपर दया करनेवाले, दूसरोंकी गुप्त बातोंको प्रकट न करनेवाले तथा दूसरोंके गुणका बखान करनेवाले हैं; जो दूसरेके धनको तिनकेके समान समझकर मनसे भी उसे लेना नहीं चाहते, ऐसे लोगोंको नरक यातनाका अनुभव नहीं करना पड़ता। जो दूसरोंपर कलंक लगानेवाला, पाखण्डी, महापापी और कठोर वचन बोलनेवाला है, वह प्रलयकालतक नरकमें पकाया जाता है। कृतघ्न पुरुषका तीर्थोंके सेवन तथा तपस्यासे भी उद्धार नहीं होता। उसे नरकमें दीर्घकालतक भयंकर यातना सहन करनी पड़ती है जो मनुष्य जितेन्द्रिय तथा मिताहारी होकर पृथ्वीके समस्त तीर्थोंमें स्नान करता है, वह यमराजके घर नहीं जाता तीर्थमें कभी पातक न करे, तीर्थको कभी जीविकाका साधन न बनाये, तीर्थमें दान न ले तथा वहाँ धर्मको बेचे नहीं। तीर्थमें किये हुए पातकका क्षय होना कठिन है। तीर्थमें लिये हुए दानका पचाना मुश्किल है।

जो एक बार भी गंगाजीके जलमें स्नान करके गंगाजलसे पवित्र हो चुका है, उसने चाहे राशि राशि पाप किये हों, फिर भी वह नरकमें नहीं पड़ता। हमारे सुननेमें आया है कि व्रत, दान, तप, यज्ञ तथा पवित्रताके अन्यान्य साधन गंगाकी एक बूँदसे अभिषिक्त हुए पुरुषकी समानता नहीं कर सकते।” जो धर्मद्रव (धर्मका ही द्रवीभूतस्वरूप) है, जलका आदि कारण है, भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुआ है तथा जिसे भगवान् शंकरने अपने मस्तकपर धारण कर रखा है, वह गंगाजीका निर्मल जल प्रकृतिसे परे निर्गुण ब्रह्म ही है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है अतः ब्रह्माण्डके भीतर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो गंगाजलकी समानता कर सके। जो सौ योजन दूरसे भी ‘गंगा, गंगा’ कहता है, वह मनुष्य नरकमें नहीं पड़ता। फिर गंगाजीके समानकौन हो सकता है। नरक देनेवाला पापकर्म दूसरे किसी उपायसे तत्काल दग्ध नहीं हो सकता; इसलिये मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक गंगाजीके जलमें स्नान करना चाहिये।

जो ब्राह्मण दान लेनेमें समर्थ होकर भी उससे अलग रहता है, वह आकाशमें तारा बनकर चिरकालतक प्रकाशित होता रहता है। जो कीचड़से गौका उद्धार करते हैं, रोगियोंकी रक्षा करते हैं तथा गोशालामें जिनकी मृत्यु होती हैं, उन्हीं लोगोंके लिये आकाशमें स्थित तारामय लोक हैं। सदा प्राणायाम करनेवाले द्विज यमलोकका दर्शन नहीं करते। वे पापी हो तो भी प्राणायामसे ही उनका पाप नष्ट हो जाता है। वैश्यवर! यदि प्रतिदिन सोलह प्राणायाम किये जायँ तो वे साक्षात् ब्रह्मघातीको भी पवित्र कर देते हैं। जिन-जिन तपका अनुष्ठान किया जाता है, जो-जो व्रत और नियम कहे गये हैं, वे तथा एक सहस्र गोदान- ये सब एक साथ हों तो भी प्राणायाम अकेला ही इनकी समानता कर सकता है। जो मनुष्य सौसे अधिक वर्षोंतक प्रतिमास कुशके अग्रभागसे एक बूँद पानी पीकर रहता है, उसकी कठोर तपस्याके बराबर केवल प्राणायाम ही है प्राणायामके बलसे मनुष्य अपने सारे पातकोंको क्षणभरमै भस्म कर देता है जो नरश्रेष्ठ! परायी स्त्रियोंको माताके समान समझते हैं, वे कभी यम यातनामें नहीं पड़ते। जो पुरुष मनसे भी परायी स्त्रियाँका सेवन नहीं करता, उसने इस लोक और परलोकके साथ समूची पृथ्वीको धारण कर रखा है। इसलिये परस्त्री सेवनका परित्याग करना चाहिये। परायी स्त्रियाँ इक्कीस पीढ़ियोंको नरकोंमें ले जाती हैं।जो क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी कभी क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उस अक्रोधी पुरुषको इस पृथ्वीपर स्वर्गका विजेता समझना चाहिये। जो पुत्र माता-पिताकी देवताके समान आराधना करता है, वह कभी यमराजके घर नहीं जाता। स्त्रियाँ अपने शील सदाचारकी रक्षा करनेसे इस लोकमें धन्य मानी जाती हैं। शील भंग होनेपर स्त्रियोंको अत्यन्त भयंकर यमलोककी प्राप्ति होती है। अतः स्त्रियोंको दुष्टोंके संगका परित्याग करके सदा अपने शीलकी रक्षा करनी चाहिये। वैश्यवर ! शीलसे नारियोंको उत्तम स्वर्गकी प्राप्ति होती है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। 2

जो शास्त्रका विचार करते हैं, वेदोंके अभ्यासमें लगे रहते हैं, पुराण-संहिताको सुनाते तथा पढ़ते हैं, स्मृतियोंकी व्याख्या और धर्मोका उपदेश करते हैं तथा वेदान्तमें जिनकी निष्ठा है, उन्होंने इस पृथ्वीको धारण कर रखा है। उपर्युक्त विषयोंके अभ्यासकी महिमासे उन सबके पाप नष्ट हो जाते हैं तथा वे ब्रह्मलोकको जाते हैं, जहाँ मोहका नाम भी नहीं है। जो अनजान मनुष्यको वेद-शास्त्रका ज्ञान प्रदान करता है, उसकी वेद भी प्रशंसा करते हैं; क्योंकि वह भव-बन्धनको नष्ट करनेवाला है।

वैष्णव पुरुष यम, यमलोक तथा वहाँके भयंकर प्राणियोंका कदापि दर्शन नहीं करते—यह बात मैंने बिलकुल सच-सच बतायी है। यमुनाके भाई यमराज हमलोगों से सदा ही और बारंबार कहा करते हैं कि ‘तुमलोग वैष्णवोंको छोड़ देना; ये मेरे अधिकारमें नहीं हैं। जो प्राणी प्रसंगवश एक बार भी भगवान् केशवका स्मरण कर लेते हैं, उनकी समस्त पापराशि नष्ट हो जातीहै तथा वे श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। दुराचारी, पापी अथवा सदाचारी-कैसा भी क्यों न हो, जो मनुष्य भगवान् विष्णुका भजन करता है, उसे तुमलोग सदा दूरसे ही त्याग देना। जिनके घरमें वैष्णव भोजन करता हो, जिन्हें वैष्णवोंका संग प्राप्त हो, वे भी तुम्हारे लिये त्याग देने योग्य हैं; क्योंकि वैष्णवोंके संगसे उनके पाप नष्ट हो गये हैं।’ पापिष्ठ मनुष्योंको नरक – समुद्रसे पार जानेके लिये भगवान् विष्णुकी भक्तिके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव पुरुष चारों वर्णोंसे बाहरका हो तो भी वह तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है। मनुष्योंके पाप दूर करनेके लिये भगवान्के गुण, कर्म और नामोंका संकीर्तन किया जाय – इतने बड़े प्रयासकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि अजामिल-जैसा पापी भी मृत्युके समय ‘नारायण’ नामसे अपने पुत्रको पुकारकर भी मुक्ति पा गया। 2 जिस समय मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करते हैं, उसी समय उनके मातृकुल और पितृकुल दोनों कुलोंके पितर, जो चिरकालसे नरकमें पड़े होते हैं, तत्काल स्वर्गको चले जाते हैं। जो विष्णुभक्तोंके सेवक तथा वैष्णवोंका अन्न भोजन करनेवाले हैं, वे शान्तभावसे देवताओंकी गतिको प्राप्त होते हैं। अतः विद्वान् पुरुष समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये प्रार्थना और यत्नपूर्वक वैष्णवका अन्न प्राप्त करे; अन्नके अभावमें उसका जल माँगकर ही पी ले। यदि ‘गोविन्द’ इस मन्त्रका जप करते हुए कहीं मृत्यु हो जाय तो वह मरनेवाला मनुष्य न तो स्वयं यमराजको देखता है और न हमलोग ही उसकी ओर दृष्टि डालते हैं। अंग, मुद्रा, ध्यान, ऋषि,छन्द और देवतासहित द्वादशाक्षर मन्त्रकी दीक्षा लेकर उसका विधिवत् जप करना चाहिये। जो श्रेष्ठ मानव [‘ॐ नमो नारायणाय’ ] इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करते हैं, उनका दर्शन करके ब्राह्मणघाती भी शुद्ध हो जाता है तथा वे स्वयं भी भगवान् विष्णुकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं।

जो मनुष्य हृदय, सूर्य, जल, प्रतिमा अथवा वेदीमें भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे वैष्णवधामको प्राप्त होते हैं अथवा मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे शालग्राम शिलाके चक्रमें सर्वदा वासुदेव भगवान्का पूजन करें। वह श्रीविष्णुका अधिष्ठान है तथा सब प्रकारके पापका नाशक, पुण्यदायक एवं सबको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो शालग्राम शिलासे उत्पन्न हुए चक्रमें श्रीहरिका पूजन करता है, वह मानो प्रतिदिन एक सहस्र राजसूय यज्ञोंका अनुष्ठान करता है। जिन शान्त ब्रह्मस्वरूप अच्युतको उपनिषद् सदा नमस्कार करते हैं, उन्हींका अनुग्रह शालग्राम शिलाकी पूजा करनेसे मनुष्योंको प्राप्त होता है। जैसे महान् काष्ठमें स्थित अग्नि उसके अग्रभागमें प्रकाशित होती है, उसी प्रकार सर्वत्र व्यापक भगवान् विष्णु शालग्राम शिलामें प्रकाशित होते हैं। जिसने शालग्राम शिलासे उत्पन्न चक्रमें श्रीहरिका पूजन कर लिया उसने अग्निहोत्रका अनुष्ठान पूर्ण कर लिया तथा समुद्रसहित सारी पृथ्वी दान दे दी। जो नराधम इस लोकमें काम, क्रोध और लोभसे व्याप्त हो रहा है, वह भी शालग्राम शिलाके पूजनसे श्रीहरिके लोकको प्राप्त होता है। वैश्य ! शालग्राम शिलाकी पूजा करनेसे मनुष्य तीर्थ, दान, यज्ञ और व्रतोंके बिना हीमोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। शालग्राम शिलाकी पूजा करनेवाला मानव पापी हो तो भी नरक, गर्भवास, तिर्यग्योनि तथा कीटयोनिको नहीं प्राप्त होता गंगा, गोदावरी और नर्मदा आदि जो-जो मुक्तिदायिनी नदियाँ हैं, वे सब की सब शालग्राम शिलाके जलमें निवास करती हैं। शालग्राम शिलाके लिंगका एक बार भी पूजन करनेपर ज्ञानसे रहित मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं जहाँ शालग्राम शिलारूपी भगवान् केशव विराजमान रहते हैं, वहाँ सम्पूर्ण देवता, यज्ञ एवं चौदह भुवनोंके प्राणी वर्तमान रहते हैं। जो मनुष्य शालग्राम शिलाके निकट श्राद्ध करता है, उसके पितर सौ कल्पोंतक द्युलोक में तृप्त रहते हैं। जहाँ शालग्राम शिला रहती है, वहाँकी तीन योजन भूमि तीर्थस्वरूप मानी गयी है। वहाँ किये हुए दान और होम सब कोटिगुना अधिक फल देते हैं। जो एक बूँदके बराबर भी शालग्राम-शिलाका जल पी लेता है, उसे फिर माताके स्तनोंका दूध नहीं पीना पड़ता, वह मनुष्य भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है। जो शालग्राम शिलाके चक्रका उत्तम दान देता है, उसने पर्वत, वन और काननों सहित मानो समस्त भूमण्डलका दान कर दिया। जो मनुष्य शालग्राम शिलाको बेचकर उसकी कीमत उगाहता है, वह विक्रेता, उसकी बिक्रीका अनुमोदन करनेवाला तथा उसकी परख करते समय अधिक प्रसन्न होनेवाला- ये सभी नरकमें जाते हैं और जबतक सम्पूर्ण भूतोंका प्रलय नहीं हो जाता, तबतक वहीं बने रहते हैं।

वैश्य! अधिक कहनेसे क्या लाभ? पापसे डरनेवाले मनुष्यको सदा भगवान् वासुदेवका स्मरण करना चाहिये। श्रीहरिका स्मरण समस्त पापको हरनेवाला है। मनुष्य वनमें रहकर अपनी इन्द्रियोंका संयम करते हुए घोर तपस्या करके जिस फलको प्राप्तकरता है वह भगवान् विष्णुको नमस्कार करनेसे ही मिल जाता है।” मनुष्य मोहके वशीभूत होकर अनेकों पाप करके भी यदि सर्वपापापहारी श्रीहरिके चरणों में मस्तक झुकाता है तो वह नरकमें नहीं जाता। भगवान् विष्णुके नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्य भूमण्डलके समस्त तीर्थों और पुण्यस्थानोंके सेवनका पुण्य प्राप्त कर लेता है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी शरण में जा चुके हैं, वे शरणागत मनुष्य न तो यमराजके लोकमें जाते हैं और न नरकमें ही निवास करते हैं।

वैश्य! जो वैष्णव पुरुष शिवकी निन्दा करता है, वह विष्णुके लोकमें नहीं जाता; उसे महान् नरकमें गिरना पड़ता है। जो मनुष्य प्रसंगवश किसी भी एकादशीको उपवास कर लेता है, वह यमयातनामें नहीं पड़ता—यह बात हमने महर्षि लोमशके मुखसे सुनी है। एकादशीसे बढ़कर पावन तीनों लोकोंमें दूसरा कुछ भी नहीं है। एकादशी और द्वादशी- दोनों ही भगवान् विष्णुके दिन हैं और समस्त पातकोंका नाश करनेवाले हैं। इस शरीरमें तभीतक पाप निवास करते हैं, जबतक प्राणी भगवान् विष्णुके शुभ दिन एकादशीको उपवास नहीं करता। हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ एकादशीके उपवासकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं। मनुष्य अपनी ग्यारहों इन्द्रियोंसे जो पाप किये होता है, वह सब एकादशीके अनुष्ठानसे नष्ट हो जाता है। एकादशी व्रतके समान दूसरा कोई पुण्य इस संसारमें नहीं है। यह एकादशी शरीरको नीरोग बनानेवाली और स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली है। वैश्य ! एकादशीको दिनमें उपवास और रातमें जागरण करके मनुष्य पितृकुल, मातृकुल तथा पत्नीकुलकी दस-दस पूर्व पीढ़ियोंका निश्चय ही उद्धार कर देता है। मन, वाणी, शरीर तथा क्रियाद्वारा किसी भीप्राणके साथ द्रोह न करना, इन्द्रियोंको रोकना, दान देना, श्रीहरिकी सेवा करना तथा वर्णों और आश्रमोंके कर्तव्योंका सदा विधिपूर्वक पालन करना-ये दिव्य गतिको प्राप्त करानेवाले कर्म है। वैश्य स्वर्गार्थी मनुष्यको अपने तप और दानका अपने ही मुँहसे बखान नहीं करना चाहिये; जैसी शक्ति हो उसके अनुसार अपने हितकी इच्छासे दान अवश्य करते रहना चाहिये। दरिद्र पुरुषको भी पत्र, फल, मूल तथा जल आदि देकर अपना प्रत्येक दिन सफल बनाना चाहिये। अधिक क्या कहा जाय, मनुष्य सदा और सर्वत्र अधर्म करनेसे दुर्गतिको प्राप्त होते हैं और धर्मसे स्वर्गको जाते हैं। इसलिये बाल्यावस्थासे ही धर्मका संचय करना उचित है। वैश्य ये सब बातें हमने तुम्हें बता दीं, अब और क्या सुनना चाहते हो ?

वैश्य बोला – सौम्य ! आपकी बात सुनकर मेरा चित्त प्रसन्न हो गया। गंगाजीका जल और सत्पुरुयोंका वचन- ये शीघ्र ही पाप नष्ट करनेवाले हैं। दूसरोंका उपकार करना और प्रिय वचन बोलना – यह साधु पुरुषोंका स्वाभाविक गुण है। अतः देवदूत! आप कृपा करके मुझे यह बताइये कि मेरे भाईका नरकसे तत्काल उद्धार कैसे हो सकता है?

देवदूतने कहा- वैश्य! तुमने पूर्ववर्ती आठवें जन्ममें जिस पुण्यका संचय किया है, वह सब अपने भाईको दे डालो। यदि तुम चाहते हो कि उसे भी स्वर्गकी प्राप्ति हो जाय तो तुम्हें यही करना चाहिये ।।

विकुण्डलने पूछा- देवदूत वह पुण्य क्या है? हुआ? मेरे प्राचीन जन्मका परिचय क्या है ? ये कैसे सब बातें बताइये; फिर मैं शीघ्र ही वह पुण्य भाईको अर्पण कर दूँगा ।

देवदूतने कहा- पूर्वकालकी बात है, पुण्यमय मधुवनमें एक ऋषि रहते थे, जिनका नाम शाकुनि था, वे तपस्या और स्वाध्यायमें लगे रहते थे और तेजमें ब्रह्माजीके समान थे। उनके रेवती नामकी पत्नीके गर्भसे नौ पुत्र उत्पन्न हुए, जो नवग्रहोंके समान शक्तिशाली थे। उनमेंसे ध्रुव, शाली, बुध, तार और ज्योतिष्मान्-येपाँच पुत्र अग्निहोत्री हुए। उनका मन गृहस्थधर्मके अनुष्ठानमें लगता था। शेष चार ब्राह्मण कुमार-जो निर्मोह, जितकाम, ध्यानकाष्ठ और गुपाधिकके नामसे प्रसिद्ध थे-घरकी ओरसे विरक्त हो गये। वे सब सम्पूर्ण भोगोंसे निःस्पृह हो चतुर्थ आश्रम-संन्यासमें प्रविष्ट हुए। वे सब-के-सब आसक्ति और परिग्रहसे शून्य थे। उनमें आकांक्षा और आरम्भका अभाव था। वे मिट्टीके ठेले, पत्थर और सुवर्णमें समान भाव रखते थे। जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेते थे। जो कुछ भी खाकर पेट भर लेते थे जहाँ साँझ हुई, वहीं ठहर जाते थे। वे नित्य भगवान्‌का ध्यान किया करते थे। उन्होंने निद्रा और आहारको जीत लिया था। वे बात और शीतका कष्ट सहन करनेमें पूर्ण समर्थ थे। तथा समस्त चराचर जगत्‌को विष्णुरूप देखते हुए लीलापूर्वक पृथ्वीपर विचरते रहते थे। उन्होंने परस्पर मौनव्रत धारण कर लिया था। वे स्वल्प मात्रामें भी कभी किसी क्रियाका अनुष्ठान नहीं करते थे। उन्हें तत्त्वज्ञानका साक्षात्कार हो गया था। उनके सारे संशय दूर हो चुके थे और वे चिन्मय तत्त्वके विचारमें अत्यन्त प्रवीण थे।

वैश्य! उन दिनों तुम अपने पूर्ववर्ती आठवें जन्ममें एक गृहस्थ ब्राह्मणके रूपमें थे। तुम्हारा निवास मध्यप्रदेशमें था। एक दिन उपर्युक्त चारों ब्राह्मण संन्यासी किसी प्रकार घूमते-घामते मध्याहनके समय तुम्हारे घरपर आये। उस समय उन्हें भूख और प्यास सता रही थी। बलिवैश्वदेवके पश्चात् तुमने उन्हें अपने घरके आँगनमें उपस्थित देखा उनपर दृष्टि पड़ते ही तुम्हारे नेत्रों में आनन्द के आँसू छलक आये। तुम्हारी वाणी गद्गद हो गयी, तुमने बड़े वेगसे दौड़कर उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणाम किया। फिर बड़े आदर भावके साथ दोनों हाथ जोड़कर मधुर वाणीसे उन सबका अभिनन्दन करते हुए कहा- महानुभाव! आज मेरा जन्म और जीवन सफल हो गया। आज मुझपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हैं। मैं सनाथ और पवित्र हो गया। आज मैं, मेरा घर तथा मेरे सभी कुटुम्बी धन्य हो गये। आज मेरे पितर धन्य हैं, मेरी गौएँ धन्य हैं, मेरा शास्त्राध्ययनतथा धन भी धन्य है; क्योंकि इस समय आपलोगोंके इन चरणोंका दर्शन हुआ, जो तीनों तापका विनाश करनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भाँति आपलोगोंका दर्शन भी किसी धन्य व्यक्तिको ही होता है।’

इस प्रकार उनका पूजन करके तुमने अतिथियों के पाँव पखारे और चरणोदक लेकर बड़ी श्रद्धाके साथ अपने मस्तकपर चढ़ाया। फिर चन्दन, फूल, अक्षत, धूप और दीप आदिके द्वारा भक्ति भावके साथ उन यतियोंकी पूजा करके उन्हें उत्तम अन्न भोजन कराया। वे चारों परमहंस तृप्त होकर रातको तुम्हारे भवनमें विश्राम और सूर्य आदिके भी प्रकाशक परब्रह्मका ध्यान करते रहे। उनका आतिथ्य सत्कार करनेसे जो पुण्य तुम्हें प्राप्त हुआ है, उसका एक हजार मुखोंसे भी वर्णन करनेमें में असमर्थ हूँ। भूतोंमें प्राणधारी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी बुद्धिजीवी, बुद्धिजीवियोंमें भी मनुष्य और मनुष्योंमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं ब्राह्मणोंमें विद्वान् विद्वानोंमें पवित्र बुद्धिवाले पुरुष, उनमें भी कर्म करनेवाले व्यक्ति तथा उनमें भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष सबसे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार ब्रह्मज्ञानी तीनों लोकोंमें सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं, अतः सबके परमपूज्य हैं। उनका संग महान् पातकका नाशकरनेवाला है। यदि कभी किसी गृहस्थके घरपर ब्रह्म ज्ञानी महात्मा आकर संतोषपूर्वक विश्राम करें तो वे उसके जन्मभरके पापोंका अपने दृष्टिपातमात्रसे नाश कर डालते हैं। * एक रात गृहस्थके घरपर विश्राम करनेवाला संन्यासी उसके जीवनभरके सारे पापोंको भस्म कर देता है। वैश्य! वही पुण्य तुम अपने भाईको दे दो, जिसके द्वारा उसका नरकसे उद्धार हो जाय ।

देवदूतकी यह बात सुनकर विकुण्डलने तत्काल ही वह पुण्य अपने भाईको दे दिया। तब उसका भाई भी प्रसन्न होकर नरकसे निकल आया। फिर तो देवताओंने उन दोनोंपर पुष्पोंकी वृष्टि करते हुए उनका पूजन किया तथा वे दोनों भाई स्वर्गलोकमें चले गये। तदनन्तर दोनोंसे सम्मानित होकर देवदूत यमलोकमें लौट आया।

नारदजी कहते हैं- राजन्! देवदूतका वचन वेद-वाक्यके समान था, उसमें सम्पूर्ण लोकका ज्ञान भरा था, उसे वैश्यपुत्र विकुण्डलने सुना और अपने किये हुए पुण्यका दान देकर अपने भाईको भी तार दिया। तत्पश्चात् वह भाईके साथ ही देवराज इन्द्रके श्रेष्ठ लोकमें गया। जो इस इतिहासको पढ़ेगा या सुनेगा, वह शोकरहित होकर सहस्र गोदानका फल प्राप्त करेगा।

अध्याय 83 सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य

नारदजी कहते हैं-राजेन्द्र ! तदनन्तर तीर्थयात्री पुरुष विश्वविख्यात सुगन्ध नामक तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ सब पापोंसे चित्त शुद्ध हो जानेपर वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् रुद्रावर्त तीर्थमें जाय । वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। नरश्रेष्ठ! गंगा और सरस्वतीके संगममें स्नानकरनेवाला पुरुष अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँ कर्णहृदमें स्नान और भगवान् शंकरकी पूजा करके मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इसके बाद क्रमशः कुब्जाम्रक-तीर्थको प्रस्थान करना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है। राजन् ! इसके बाद अरुन्धतीवटमेंजाना चाहिये। वहाँ समुद्रके जलमें स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। तदनन्तर ब्रह्मावर्त तीर्थको यात्रा करे। वहाँ ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नान करने से अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है। उसके बाद यमुनाप्रभव नामक तीर्थमें जाय। वहाँ यमुनाजलमें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। दर्वीसंक्रमण नामक तीर्थ जीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ पहुँचकर स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञके फल और स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। भृगुतुंग-तीर्थमें जानेसे भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वीरप्रमोक्ष नामक तीर्थकी यात्रा करके मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। कृत्तिका और मघा दुर्लभ तीर्थमें जाकर पुण्य करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका फल पाता है।

तत्पश्चात् सन्ध्या-तीर्थमें जाकर जो परम उत्तम विद्या- तीर्थमें स्नान करता है, वह सम्पूर्ण विद्याओंमें पारंगत होता है। महाश्रम तीर्थ सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाला है। वहाँ रात्रिमें निवास करना चाहिये। जो मनुष्य वहाँ एक समय भी उपवास करता है, उसे उत्तम लोकोंमें निवास प्राप्त होता है। जो तीन दिनपर एक समय उपवास करते हुए एक मासतक महाश्रम तीर्थमें निवास करता है, वह स्वयं तो भवसागरके पार हो ही जाता है, अपने आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंको भी तार देता है। परमपवित्र देववन्दित महेश्वरका दर्शन करके मनुष्य सव कर्तव्योंसे उऋण हो जाता है। उसके बाद पितामहद्वारा सेवित वेतसिका तीर्थके लिये प्रस्थान करे। वहाँ जानेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परमगतिको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ब्राह्मणिका तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नानादि करनेसे मनुष्य कमलके समान रंगवाले विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकको जाता है। उसके बाद द्विजोंद्वारा सेवित पुण्यमय नैमिष दर्थको यात्रा करें। वहाँ ब्रह्माजी देवताओंके साथ सदानिवास करते हैं। नैमिष तीर्थमें जानेकी इच्छा करनेवालेका ही आधा पाप नष्ट हो जाता है तथा उसमें प्रविष्ट हुआ मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। भारत ! धीर पुरुषको उचित है कि वह तीर्थ सेवनमें तत्पर हो एक मासतक नैमिषारण्यमें निवास करे। भूमण्डलमें जितने तीर्थ हैं, वे सभी नैमिषारण्य में विद्यमान रहते हैं। जो वहाँ स्नान करके नियमपूर्वक रहते हुए नियमानुकूल आहार ग्रहण करता है, वह मानव राजसूय यज्ञका फल पाता है। इतना ही नहीं, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देता है।

गंगोद्भेद-तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और सदाके लिये ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। सरस्वतीके तटपर जाकर देवता और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष सारस्वत-लोकों में जाकर आनन्द भोगता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्पश्चात् बाहुदा नदीकी यात्रा करे। वहाँ एक रात निवास करनेवाला मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है और उसे देवसत्र नामक यज्ञका फल मिलता है। इसके बाद सरयू नदीके उत्तम तीर्थ गोप्रतार (गुप्तार) घाटपर जाना चाहिये। जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है। कुरुनन्दन ! गोमती नदीके रामतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहीं शतसाहस्रक नामका तीर्थ है; जो वहाँ स्नान करके नियमसे रहता और नियमानुकूल भोजन करता है, उसे सहस्र गोदानोंका पुण्य फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर। वहाँसे ऊर्ध्वस्थान नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ कोटितीर्थमें स्नान करके कार्तिकेयजीका पूजन करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है तथा वह तेजस्वी होता है। उसके बाद काशीमें जाकर भगवान् शंकरकी पूजा और कपिलाकुण्डमें स्नान करनेसे राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है। युधिष्ठिर बोले- मुने! आपने काशीका माहात्म्य बहुत थोड़ेमें बताया है, उसे कुछ विस्तारके साथ कहियेनारदजीने कहा- राजन्! मैं इस विषयमें एक संवाद सुनाऊँगा, जो वाराणसीके गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाला है। उस संवादके श्रवणमात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पापसे छुटकारा पा जाता है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् शंकर मेरुगिरिके शिखरपर विराजमान थे तथा पार्वती देवी भी वहीं दिव्य सिंहासनपर बैठी थीं। उन्होंने महादेवजीसे पूछा- ‘भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले देवाधिदेव मनुष्य शीघ्र ही आपका दर्शन कैसे पा सकता है? समस्त प्राणियों के हितके लिये यह बात मुझे बताइये।’

भगवान् शिव बोले- देवि! काशीपुरी मेरा परम गुह्यतम क्षेत्र है वह सम्पूर्ण भूतोंको संसार सागरसे पार उतारनेवाली हैं। वहाँ महात्मा पुरुष भक्तिपूर्वक मेरी भक्तिका आश्रय ले उत्तम नियमोंका पालन करते हुए निवास करते हैं। वह समस्त तीर्थों और सम्पूर्ण स्थानों में उत्तम है इतना ही नहीं, अविमुक्त क्षेत्र मेरा परम ज्ञान है वह समस्त ज्ञानोंमें उत्तम है। देवि! यह वाराणसी सम्पूर्ण गोपनीय स्थानों में श्रेष्ठ तथा मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरे भक्त वहाँ जाते तथा मुझमें ही प्रवेश करते हैं। वाराणसीमें किया हुआ दान, जप, होम, यज्ञ, तपस्या, ध्यान, अध्ययन और ज्ञान- सब अक्षय होता है। पहलेके हजारों जन्मोंमें जो पाप संचित किया गया हो, वह सब अविमुक्त क्षेत्रमें प्रवेश करते ही नष्ट हो जाता है। वरानने! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्रीजाति, म्लेच्छ तथा अन्यान्य मिश्रित जातियोंके मनुष्य, चाण्डाल आदि, पापयोनिमें उत्पन्न जीव, कीड़े, चींटियाँ तथा अन्य पशु-पक्षी आदि जितने भी जीव हैं, वे सब समयानुसार अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेपर मेरे अनुग्रहसे परम गतिको प्राप्त होते हैं। मोक्षको अत्यन्त दुर्लभ और संसारको अत्यन्त भयानक समझकर मनुष्यको काशीपुरीमें निवास करना चाहिये। जहाँ-तहाँ मरनेवालेको संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाली सद्गति तपस्यासे भी मिलनी कठिन है। [किन्तु वाराणसीपुरीमें बिना तपस्याके ही ऐसी गति अनायास प्राप्त हो जाती है।] जो विद्वान् सैकड़ों विघ्नोंसे आहत होनेपर भी काशीपुरीमेंनिवास करता है, वह उस परमपदको प्राप्त होता है। जहाँ जानेपर शोकसे पिण्ड छूट जाता है। काशीपुरीमें रहनेवाले जीव जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे रहित परमधामको प्राप्त होते हैं। उन्हें वही गति प्राप्त होती है, जो पुनः मृत्युके बन्धनमें न आनेवाले मोक्षाभिलाषी पुरुषोंको मिलती है तथा जिसे पाकर जीव कृतार्थ हो जाता है। अविमुक्त क्षेत्रमें जो उत्कृष्ट गति प्राप्त होती है वह अन्यत्र दान, तपस्या, यज्ञ और विद्यासे भी नहीं मिल सकती। जो चाण्डाल आदि घृणित जातियोंमें उत्पन्न हैं तथा जिनकी देह विशिष्ट पातकों और पापोंसे परिपूर्ण है, उन सबकी शुद्धिके लिये विद्वान् पुरुष अविमुक्त क्षेत्रको ही श्रेष्ठ औषध मानते हैं। अविमुक्त क्षेत्र परम ज्ञान है, अविमुक्त क्षेत्र परम पद है, अविमुक्त क्षेत्र परम तत्त्व है और अविमुक्त क्षेत्र परम शिव- परम कल्याणमय है। जो मरणपर्यन्त रहनेका नियम लेकर अविमुक्त क्षेत्रमें निवास करते हैं, उन्हें अन्तमें मैं परमज्ञान एवं परमपद प्रदान करता हूँ। वाराणसीपुरीमें प्रवेश करके बहनेवाली त्रिपथगामिनी गंगा विशेषरूपसे सैकड़ों जन्मोंका पाप नष्ट कर देती हैं। अन्यत्र गंगाजीका स्नान, श्राद्ध, दान, तप, जप और व्रत सुलभ हैं; किन्तु वाराणसीपुरीमें रहते हुए इन सबका अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। वाराणसीपुरीमें निवास करनेवाला मनुष्य जप, होम, दान एवं देवताओंका नित्यप्रति पूजन करनेका तथा निरन्तर वायु पीकर रहनेका फल प्राप्त कर लेता है। पापी, शठ और अधार्मिक मनुष्य भी यदि वाराणसीमें चला जाय तो वह अपने समूचे कुलको पवित्र कर देता है। जो वाराणसीपुरीमें मेरी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। देवदेवेश्वरि जो मेरे भक्तजन वाराणसीपुरीमें निवास करते हैं, वे एक ही जन्ममें परम मोक्षको पा जाते हैं। परमानन्दकी इच्छा रखनेवाले ज्ञाननिष्ठ पुरुषोंके लिये शास्त्रोंमें जो गति प्रसिद्ध है, वही अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेवालेको प्राप्त हो जाती है। अविमुक्त क्षेत्रमें देहावसान होनेपर साक्षात् परमेश्वर मैं स्वयं ही जीवको तारक ब्रह्म (राम-नाम) का उपदेश करता हूँ। वरणा और असी नदियोंके बीचमें वाराणसीपुरीस्थित है तथा उस पुरीमें ही नित्य-विमुक्त तत्त्वकी स्थिति है। वाराणसीसे उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ हैं और न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर मैं विराजमान हूँ। देवि ! जो महापातकी हैं तथा जो उनसे भी बढ़कर पापाचारी हैं, वे सभी वाराणसीपुरीमें जानेसे परमगतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषको मृत्युपर्यन्त नियमपूर्वक वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये। वहाँ मुझसे ज्ञान पाकर वह मुक्त हो जाता है। किन्तु जिसका चित्त पापसे दूषित होगा, उसके सामने नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित होंगे। अतः मन, वाणीऔर शरीरके द्वारा कभी पाप नहीं करना चाहिये । नारदजी कहते हैं- राजन् ! जैसे देवताओंमें पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरों में महादेवजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानों में यह काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरीका स्मरण और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और पूर्वजन्मका भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है; इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो अथवा पापी – प्रत्येक मनुष्यको पूर्ण प्रयत्न करके वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये ।

अध्याय 84 पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर। वाराणसीपुरीमें कपर्दीश्वरके नामसे प्रसिद्ध एक शिवलिंग है, जो अविनाशी माना गया है। वहाँ स्नान करके पितरोंका विधिवत् तर्पण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा भोग और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। काशीपुरीमें निवास करनेवाले पुरुषोंके काम, क्रोध आदि दोष तथा सम्पूर्ण विघ्न कपर्दीश्वरके पूजनसे नष्ट हो जाते हैं। इसलिये परम उत्तम कपर्दीश्वरका सदैव दर्शन करना चाहिये। यत्नपूर्वक उनका पूजन तथा वेदोक्त स्तोत्रोंद्वारा उनका स्तवन भी करना चाहिये। कपर्दीश्वरके स्थानमें नियमपूर्वक ध्यान लगानेवाले शान्तचित्त योगियोंको छः मासमें ही योगसिद्धि प्राप्त होती है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पिशाचमोचन कुण्डमें नहाकर कपर्दीश्वरके पूजनसे मनुष्यके ब्रह्महत्या आदि पाप नष्ट हो जाते हैं।पूर्वकालकी बात है, कपर्दीश्वर क्षेत्रमें उत्तम व्रतका पालन करनेवाले एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। उनका नाम था – शंकुकर्ण। वे प्रतिदिन भगवान् शंकरका पूजन, रुद्रका पाठ तथा निरन्तर ब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप करते थे। उनका चित्त योगमें लगा हुआ था वे मरणपर्यन्त काशीमें रहनेका नियम लेकर पुष्प, धूप आदि उपचार, स्तोत्र, नमस्कार और परिक्रमा आदिके द्वारा भगवान् कपर्दीश्वरकी आराधना करते थे। एक दिन उन्होंने देखा, एक भूखा प्रेत सामने आकर खड़ा है। उसे देख मुनिश्रेष्ठ शंकुकर्णको बड़ी दया आयी। उन्होंने पूछा- ‘तुम कौन हो ? और किस देशसे यहाँ आये हो?’ पिशाच भूखसे पीड़ित हो रहा था उसने शंकुकर्णसे कहा- ‘मुने! मैं पूर्वजन्ममें धन-धान्यसे सम्पन्न ब्राह्मण था मेरा घर पुत्र-पौत्रादिसे भरा था। किन्तु मैंने केवल कुटुम्बके भरण-पोषणमें आसक्तरहनेके कारण कभी देवताओं, गौओं तथा अतिथियोंका f पूजन नहीं किया। कभी थोड़ा-बहुत भी पुण्यका 2 कार्य नहीं किया। अतः इस समय भूख-प्यास से व्याकुल होनेके कारण मैं हिताहितका ज्ञान खो बैठा हूँ। प्रभो ! यदि आप मेरे उद्धारका कोई उपाय जानते हो तो कीजिये आपको नमस्कार है। मैं आपकी शरणमें आया हूँ।’

शंकुकर्णने कहा- तुम शीघ्र ही एकाग्रचित्त होकर इस कुण्डमें स्नान करो, इससे शीघ्र ही इस घृणित योनिसे छुटकारा पा जाओगे।

दयालु मुनिके इस प्रकार कहनेपर पिशाचने त्रिनेत्रधारी देववर भगवान् कपर्दीश्वरका स्मरण किया और चित्तको एकाग्र करके उस कुण्डमें गोता लगाया। मुनिके समीप गोता लगाते ही उसने पिशाचका शरीर त्याग दिया। भगवान् शिवकी कृपासे उसे तत्काल बोध प्राप्त हुआ और मुनीश्वरोंका समुदाय उसकी स्तुति करने लगा। तत्पश्चात् जहाँ भगवान् शंकर विराजते हैं, उस त्रयीमय श्रेष्ठ धाममें वह प्रवेश कर गया। पिशाचको इस प्रकार मुक्त हुआ देख मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मन ही मन भगवान् महेश्वरका चिन्तन करके कपर्दीश्वरको प्रणाम किया तथा उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे-‘भगवन्! आप जटाजूट धारण करनेके कारण कपर्दी कहलाते हैं; आप परात्पर, सबके रक्षक, एक अद्वितीय, पुराण पुरुष, योगेश्वर, ईश्वर, आदित्य और अग्निरूप तथा कपिल वर्णके वृषभ नन्दीश्वरपर आरूढ़ हैं; मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप सबके हृदयमें स्थित सारभूत ब्रह्म हैं, हिरण्यमय पुरुष हैं, योगी हैं तथा सबके आदि और अन्त हैं। आप ‘रु’–दुःखको दूर करनेवाले हैं, अतः आपको रुद्र कहते हैं; आप आकाशमें व्यापकरूपसे स्थित, महामुनि, ब्रह्मस्वरूप एवं परम पवित्र हैं; मैं आपकी शरण में आया हैं आप सहस्रों चरण, सहस्रों नेत्र तथा सहस्रों मस्तकोंसे युक्त हैं; आपके सहस्रों रूप हैं, आप अन्धकारसे परे और वेदोंकी भी पहुँचके बाहर हैं, कल्याणोत्पादक होनेसे आपको ‘शम्भु’ कहते हैं, आपहिरण्यगर्भ आदि देवताओंके स्वामी तथा तीन नेत्रोंसे सुशोभित हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। जिनमें इस जगत्की उत्पत्ति और लय होते हैं, जिन शिवस्वरूप परमात्माने इस समस्त दृश्य-प्रपंचको व्याप्त कर रखा है तथा जो वेदोंकी सीमासे भी परे हैं, उन भगवान् शंकरको प्रणाम करके मैं सदाके लिये उनकी शरण आ पड़ा हूँ जो लिंगरहित (किसीकी पहचान में न आनेवाले) आलोकशून्य (जिन्हें कोई प्रकाशित नहीं कर सकता जो स्वयंप्रकाश हैं), स्वयंप्रभु, चेतनाके स्वामी, एकरूप तथा ब्रह्माजीसे भी उत्कृष्ट परमेश्वर हैं; जिनके सिवा दूसरी कोई वस्तु है ही नहीं तथा जो वेदसे भी परे हैं, उन्हीं आप भगवान् कपर्दीश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। सबीज समाधिका त्याग करके निर्बीज समाधिको सिद्ध कर परमात्मरूप हुए योगीजन जिसका साक्षात्कार करते हैं और जो वेदसे भी परे है, वह आपका ही स्वरूप है; मैं आपको सदा प्रणाम करता हूँ। जहाँ नाम आदि विशेषणोंकी कल्पना नहीं है, जिनका स्वरूप इन चर्मचक्षुओंका विषय नहीं होता तथा जो स्वयम्भूकारणहीन तथा वेदसे परे हैं, उन्हीं आप भगवान् शिवकी मैं शरणमें हूँ और सदा आपको प्रणाम करता हूँ। जो देहसे रहित, ब्रह्म (व्यापक), विज्ञानमय, भेदशून्य और एक अद्वितीय है; तथापि वेदवादमें आसक्त मनुष्य जिसमें अनेकता देखते हैं, उस आपके वेदातीत स्वरूपको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। जिससे प्रकृतिको उत्पत्ति हुई है, स्वयं पुराणपुरुष आप जिसे तेजके रूपमें धारण करते हैं, जिसे देवगण सदा नमस्कार करते हैं तथा जो आपकी ज्योतिमें सन्निहित है, उस आपके स्वरूपभूत बृहत् कालको मैं नमस्कार करता हूँ। मैं सदाके लिये कार्तिकेयके स्वामीकी शरण जाता हूँ। स्थाणुका आश्रय लेता हूँ, कैलास पर्वतपर शयन करनेवाले पुराणपुरुष शिवकी सरणमें पड़ा हूँ। भगवन्! आप कष्ट हरनेके कारण ‘हर’ कहलाते हैं, आपके मस्तक में चन्द्रमाका मुकुट शोभा पा रहा है तथा आप पिनाक नामसे प्रसिद्ध धनुष धारण करनेवाले हैं; मैंआपकी शरण ग्रहण करता हूँ।*

इस प्रकार भगवान् कपर्दीकी स्तुति करके शंकुकर्ण प्रणवका उच्चारण करते हुए पृथ्वीपर दण्डकी प्रति पड़ गये। उसी समय शिवस्वरूप उत्कृष्ट लिंगका प्रादुर्भाव हुआ, जो ज्ञानमय तथा अनन्त आनन्दस्वरूप था। आगकी भाँति उससे करोड़ों लपटें निकल रही थीं। महात्मा शंकुकर्ण मुक्त होकर सर्वव्यापी निर्मल शिवस्वरूप हो गये और उस विमल लिंगमें समा गये। राजन्! यह मैंने तुम्हें कपर्दीका गूढ़ माहात्म्य बतलाया है। जो प्रतिदिन इस पापनाशिनी कथाका श्रवण करता है, वह निष्पाप एवं शुद्धचित्त होकर भगवान् शिवके समीप जाता है जो प्रातः काल और मध्यानके समय शुद्ध होकर सदा ब्रह्मपार नामक इस महास्तोत्रका पाठ करता है, उसे परम योगकी प्राप्ति होती है।

तदनन्तर गयामें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर स्नान करे। भारत! वहाँ जानेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। यहाँ अक्षयवट नामका वटवृक्ष है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। राजन् वहाँ पितरोंके लिये जो पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। उसके बाद महानदीमें स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य अक्षय लोकोंको प्राप्त होता तथा अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तत्पश्चात् ब्रह्मारण्यमें स्थित ब्रह्मसरकी यात्रा करे वहाँ जानेसे पुण्डरीक यज्ञका फल प्राप्त होता है।राजेन्द्र वहाँसे विश्वविख्यात धेनुक तीर्थको प्रस्थान करे और वहाँ एक रात रहकर तिलकी धेनु दान करे। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे शुद्ध हो निश्चय ही सोमलोकमें जाता है। वहाँ बछडेसहित कपिला गौके पदचिह्न आज भी देखे जाते हैं। उन पदचिह्नोंमेंसे जल लेकर आचमन करनेसे जो कुछ घोर पाप होता है, वह नष्ट हो जाता है वहाँसे गृध्रवटकी यात्रा करे। वह शूलधारी भगवान् शंकरका स्थान है। वहाँ शंकरजीका दर्शन करके भस्म-स्नान करे-सारे अंगोंमें भस्म लगाये। ऐसा करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे बारह वर्षोंतक व्रत करनेका फल प्राप्त होता है और अन्य वर्णके मनुष्योंका सारा पाप नष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् उदय पर्वतपर जाय यहाँ सावित्रीके चरणचिह्नोंका दर्शन होता है उस तीर्थमें सन्ध्योपासन करना चाहिये। इससे एक ही समयमें बारह वर्षोंतक सन्ध्या करनेका फल प्राप्त होता है। तत्पश्चात् वहीं योनिद्वारके पास जाय वह विख्यात स्थान है उसके पास जानेमात्रसे मनुष्य गर्भवासके कष्टसे छुटकारा पा जाता है। राजन् ! जो मनुष्य शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें गयामें निवास करता है, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

राजन् ! तत्पश्चात् तीर्थसेवी मनुष्य फल्गु नदीके किनारे जाय वहाँ जानेसे वह अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम सिद्धिको प्राप्त होता है। तदनन्तर एकाग्रचित्त हो धर्मपृष्ठकी यात्रा करे, जहाँ धर्मकाlनित्य-निवास है। वहाँ धर्मके समीप जानेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँसे ब्रह्माजीके उत्तम तीर्थको प्रस्थान करे और वहाँ पहुँचकर व्रतका पालन करते हुए ब्रह्माजीकी पूजा करे। इससे राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल मिलता है। इसके बाद मणिनाग तीर्थमें जाय। वहाँ सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त होता है। उस तीर्थमें एक रात निवास करनेपर सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है। इसके बाद ब्रह्मर्षि गौतमके वनमें जाय । वहाँ अहल्या कुण्डमें स्नान करनेसे परम गतिकी प्राप्ति होती है। उसके बाद राजर्षि जनकका कूप है, जो देवताओं द्वारा भी पूजित है वहाँ स्नान करके मनुष्य विष्णुलोकको प्राप्त कर लेता है। वहाँसे विनाशन तीर्थको जाय, जो सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है। वहाँकी यात्रासे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है। तत्पश्चात् सम्पूर्ण तीर्थोके जलसे प्रकट हुई गण्डकी नदीकी यात्रा करे। वहाँ जानेसे मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और सूर्यलोकको जाता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर। यहाँसे धुलके तपोवनमें प्रवेश करे। महाभाग ! वहाँ जानेसे मनुष्य यक्षलोकमें आनन्दका अनुभव करता है। तदनन्तर सिद्धसेवित कर्मदा नदीकी यात्रा करे। वहाँ जानेवाला मनुष्य पुण्डरीक यज्ञका फल पाता और सोमलोकको जाता है।

राजा युधिष्ठिर! तत्पश्चात् माहेश्वरी धाराके समीप जाना चाहिये। वहाँ यात्रीको अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है और वह अपने कुलका उद्धार कर देता है। देवपुष्करिणी तीर्थमें जाकर स्नानसे पवित्र हुआ मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और वाजपेय यज्ञका फल पाता है। इसके बाद ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो माहेश्वर पदकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। भरतश्रेष्ठ! माहेश्वर पदमें एक करोड़ तीर्थ सुने गये हैं; उनमें स्नान करना चाहिये, इससे पुण्डरीक यज्ञके फल और विष्णुलोककी प्राप्ति होती है, तदनन्तर भगवान् नारायणके स्थानको जाना चाहिये, जहाँ सदा ही भगवान् श्रीहरि निवास करते हैं। ब्रह्मा आदि देवता, तपोधन ऋषि,बारहों आदित्य, आठों वसु और ग्यारहों रुद्र वहाँ उपस्थित होकर भगवान् जनार्दनकी उपासना करते हैं। र वहाँ अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णुका विग्रह शालग्रामके नामसे विख्यात है, उस तीर्थमें अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले और भक्तोंको वर प्रदान करनेवाले न त्रिलोकीपति श्रीविष्णुका दर्शन करनेसे मनुष्य विष्णु लोकको प्राप्त होता है। वहाँ एक कुआँ है, जो सब पापको हरनेवाला है। उसमें सदा चारों समुद्रोंके जल मौजूद रहते हैं। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अविनाशी एवं महान् देवता वरदायक विष्णुके पास पहुँचकर तीनों ऋणोंसे मुक्त हो चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाता है। जातिस्मर तीर्थमें स्नान करके पवित्र एवं शुद्धचित्त हुआ मनुष्य पूर्वजन्मके स्मरणकी शक्ति प्राप्त करता है। वटेश्वरपुरमें जाकर उपवासपूर्वक भगवान् केशवकी पूजा करनेसे मनुष्य मनोवांछित लोकोंको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाले वामन तीर्थमें जाकर भगवान् श्रीहरिको प्रणाम करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिको नहीं प्राप्त होता । भरतका आश्रम भी सब पापको दूर करनेवाला है। वहाँ जाकर महापातकनाशिनी कौशिकी (कोसी) नदीका सेवन करना चाहिये। ऐसा करनेवाला मानव राजसूय यज्ञका फल पाता है।

तदनन्तर परम उत्तम चम्पकारण्य (चम्पारन) की यात्रा करे। वहाँ एक रात उपवास करनेसे मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है। तत्पश्चात् कन्यासंवेद्य नामक तीर्थमें जाकर नियमसे रहे और नियमानुकूल भोजन करे इससे प्रजापति मनुके लोकोंकी प्राप्ति होती है। जो कन्यातीर्थमें थोड़ा-सा भी दान करते हैं, उनका वह दान अक्षय होता है। निष्ठावास नामक तीर्थमें जानेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और विष्णुलोकको जाता है। नरश्रेष्ठ! जो मनुष्य निष्ठाके संगममें दान करते हैं. वे रोग-शोकसे रहित ब्रह्मलोक में जाते हैं। निष्ठा संगमपर महर्षि वसिष्ठका आश्रम है। देवकूट तीर्थको यात्रा करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहाँसे कौशिक मुनिकेकुण्डपर जाना चाहिये, जहाँ कुशिक गोत्रमें उत्पन्न महर्षि विश्वामित्रने परम सिद्धि प्राप्त की थी। भरतश्रेष्ठ ! वहाँ धीर पुरुषको कौशिकी नदीके तटपर एक मासतक निवास करना चाहिये। एक ही मासमें वहाँ अश्वमेध यज्ञका पुण्य प्राप्त हो जाता है। कालिका संगम एवं कौशिकी तथा अरुणाके संगममें स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला विद्वान् सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। सकृन्नदी नामक तीर्थमें जानेसे द्विज कृतार्थ हो जाता है तथा सब पापोंसे शुद्ध हो स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। मुनिजनसेवित औद्यानक तीर्थमें जाकर स्नान करना चाहिये; इससे सब पाप छूट जाते हैं। तदनन्तर चम्पापुरीमें जाकर गंगाजीके तटपर तर्पण करना चाहिये वहाँसे दण्डार्पणमें जाकर मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। तदनन्तर संध्यामें जाकर सद्विद्या नामक उत्तम तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य विद्वान् होता है। उसके बाद गंगा सागर-संगममें स्नान करना चाहिये। इससे विद्वान् लोग दस अश्वमेध यज्ञोंके फलकी प्राप्ति बतलाते हैं। तत्पश्चात् पाप दूर करनेवाली वैतरणी नदीमें जाकर विरज-तीर्थमें स्नान करे; इससे मनुष्य चन्द्रमाकी भाँति शोभा पाता है। प्रभाव क्षेत्रके भीतर कुल नामक तीर्थमें जाकर मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता है तथा सहस्र गोदानोंका फल पाकर अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। सोन नदी और ज्योतिरथीके संगमपर निवास करनेवाला पवित्र मनुष्य देवताओं और पितरोंका तर्पण करके अग्निष्टोम यज्ञका फल प्राप्त करता है। सोन और नर्मदा के उद्गम स्थानपर वंशगुल्म-तीर्थमें आचमन करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। कोशलाके। तटपर ऋषभ-तीर्थमें जाकर तीन रात उपवास करनेवालामनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। कोशलाके किनारे कालतीर्थमें जाकर स्नान करे तो ग्यारह बैल दान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। पुष्पवतीमें स्नान करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और अपने कुलका भी उद्धार कर देता है। तदनन्तर जहाँ परशुरामजी निवास करते हैं, उस महेन्द्र पर्वतपर जाकर रामतीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। वहीं मतंगका क्षेत्र है, जहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। उसके बाद श्रीपर्वतपर जाकर नदीके किनारे स्नान करे। वहाँ देवहदमें स्नान करनेसे मनुष्य पवित्र एवं शुद्धचित्त हो अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम सिद्धिको प्राप्त होता है। तदनन्तर कावेरी नदीकी यात्रा करे। वहाँ स्नान करके मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है। वहाँसे आगे समुद्रके तटवर्ती तीर्थमें, जिसे कन्यातीर्थ कहते हैं, जाकर स्नान करे। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तदनन्तर समुद्र-मध्यवर्ती गोकर्णतीर्थ में जा भगवान् शंकरकी पूजा करके तीन रात उपवास करनेवाला मनुष्य दस अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता और गणपति पदको प्राप्त होता है। बारह राततक वहाँ उपवास करनेवाला मनुष्य कृतार्थ हो जाता है-उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। उसी तीर्थमें गायत्री देवीका भी स्थान है, जहाँ तीन रात उपवास करनेवालेको सहस्र गोदानका फल मिलता है। तत्पश्चात् सदा सिद्ध पुरुषोंद्वारा सेवित गोदावरीकी यात्रा करनेसे मनुष्य गवामय यज्ञका फल पाता और वायुलोकको जाता है। वेणाके संगममें स्नान करनेसे वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त होता है और वरदा संगममें नहानेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।

अध्याय 85 ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! ब्रह्मस्थूणा नामक तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। कुब्जा – वनमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नान करके तीन रात उपवास करनेवालेको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है। इसके बाद देवदमें जहाँसे कृष्णवेणा नदी निकलती है, स्नान करे। फिर ज्योतिर्मात्र (जातिमात्र) हृदमें तथा कन्याश्रममें स्नान करे कन्याश्रममें जानेमात्र से सौ अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। सर्वदेवहदमें स्नान करनेसे सहस गोदानोंका फल प्राप्त होता है तथा जातिमात्र हृदमें नहानेसे मनुष्यको पूर्वजन्मका स्मरण हो जाता है। इसके बाद परम पुण्यमयी वाणी तथा नदियोंमें श्रेष्ठ पयोष्णी (मन्दाकिनी) में जाकर देवताओं तथा पितरोंका पूजन करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता है।

महाराज ! तदनन्तर दण्डकारण्यमें जाकर गोदावरीमें स्नान करना चाहिये। वहाँ शरभंग मुनि तथा महात्मा शुकके आश्रमकी यात्रा करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अपने कुलको पवित्र कर देता है। तत्पश्चात् सप्तगोदावरीमें स्नान करके नियमोंका पालन करते हुए नियमानुकूल भोजन करनेवाला पुरुष महान् पुण्यको प्राप्त होता और देवलोकको जाता है। वहाँसे देवपथकी यात्रा करे। इससे मानव देवसत्रका पुण्य प्राप्त कर लेता है। तुंगकारण्यमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए जितेन्द्रिय भावसे रहे। युधिष्ठिर। तुंगकारण्यमें प्रवेश करनेवाले पुरुष अथवा स्त्रीका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। धीर पुरुषको उचित है कि वह नियमोंका पालन तथा नियमानुकूल भोजन करते हुए एक मासतक वहाँ निवास करे इससे वह ब्रह्मलोकको जाता और अपने कुलको भी पवित्र कर देता है। मेधावनमें जाकर देवताओं और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। इससे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता तथास्मरणशक्ति और मेधाकी प्राप्ति होती है। वहीं कालंजर तीर्थमें जानेसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है।

महाराज! तत्पश्चात् पर्वतश्रेष्ठ चित्रकूटपर मन्दाकिनी नदीकी यात्रा करे। वह सब पापको दूर करनेवाली है। उसमें स्नान करके देवताओं तथा पितरोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परम गतिको प्राप्त होता है। वहाँसे परम उत्तम भर्तृस्थान नामक तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ जानेमात्रसे ही मनुष्यको सिद्धि प्राप्त होती है। उस तीर्थकी प्रदक्षिणा करके शिवस्थानकी यात्रा करनी चाहिये। वहाँ एक विख्यात कूप है, जिसमें चारों समुद्रोंका निवास है। वहाँ स्नान करके उस कूपकी प्रदक्षिणा करे; इससे पवित्र हुआ जितात्मा पुरुष परम गतिको प्राप्त होता है। तदनन्तर महान् शृंगवेरपुरकी यात्रा करे। वहाँ गंगामें स्नान करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाले पुरुषके पाप धुल जाते हैं और वह वाजपेय यज्ञका फल पाता है। वहाँसे परम बुद्धिमान् भगवान् शंकरके मुंजवट नामक स्थानकी यात्रा करे। वहाँ जाकर महादेवजीकी पूजा और प्रदक्षिणा करनेसे मनुष्य गणपति पदको प्राप्त होता है।

इसके बाद ऋषियोंद्वारा प्रशंसित प्रयागतीर्थकी यात्रा करे, जहाँ ब्रह्माजीके साथ साक्षात् भगवान् माधव विराजमान हैं। गंगा सब तीर्थोंके साथ प्रयागमें आयी हैं और वहाँ तीनों लोकोंमें विख्यात तथा सम्पूर्ण जगत्‌को पवित्र करनेवाली सूर्यनन्दिनी यमुना गंगाजीके साथ मिली हैं। गंगा और यमुनाके बीचकी भूमि पृथ्वीका जघन (कटिसे नीचेका भाग) मानी गयी है। और प्रयाग जघनके बीचका उपस्थ भाग है, ऐसी ऋषियोंकी मान्यता है। वहाँ प्रयाग, उत्तम प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नामक नागका स्थान, भोगवतीतीर्थ तथा प्रजापतिकी वेदी आदि पवित्र स्थान बताये गये हैं। वहाँ यज्ञ और वेद मूर्तिमान् होकर रहते हैं। प्रयागसे बढ़कर पवित्र तीर्थ तीनों लोकोंमें नहीं है। प्रयाग अपने प्रभावकेकारण सब तास बढ़कर है। प्रयागतीर्थ नामको सुनने, कीर्तन करने तथा उसे मस्तक झुकानेसे भी मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो उत्तम व्रतका पालन करते हुए वहाँ संगममें स्नान करता है, उसे महान पुण्यकी प्राप्ति होती है; क्योंकि प्रयाग देवताओंकी भी यज्ञभूमि है। वहाँ थोड़ेसे दानका भी महान् फल होता है। कुरुनन्दन। प्रयागमें साठ करोड़ और दस हजार तीर्थोंका निवास बताया गया है। चारों विद्याओंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है तथा सत्यवादी पुरुषोंको जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, वह वहाँ गंगा-यमुना संगममें स्नान करनेसे ही मिल जाता है। प्रयाग भगवती नामक उत्तम बावली है जो वासुकि नागका उत्तम स्थान माना गया है। जो वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वहाँ हंसप्रपतन तथा दशाश्वमेध नामक तीर्थ हैं। गंगामें कहीं भी स्नान
करनेपर कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेके समान पुण्य होता है। गंगाजीका जल सारे पापको उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे आग रूईके ढेरको जला डालती है। सत्ययुगमें सभी तीर्थ, त्रेतामें पुष्कर, द्वापरमें कुरुक्षेत्र तथा कलियुगमें गंगा ही सबसे पवित्र तीर्थ मानी गयी हैं। पुष्करमें तपस्या करे, महालयमें दान दे और भृगु-तुंगपर उपवास करे तो विशेष पुण्य होता है। किन्तु पुष्कर, कुरुक्षेत्र और गंगाके जलमें स्नान करनेमात्रसे प्राणी अपनी सात पहलेकी तथा सात पोछेकी पीढ़ियोंको भी तत्काल ही तार देता है। गंगाजी नाम लेनेमात्रसे पापको धो देती हैं, दर्शन करनेपर कल्याण प्रदान करती हैं तथा स्नान करने और जल पीनेपर सात पीढ़ियोतकको पवित्र कर देती हैं। राजन्! जबतक मनुष्यकी हड्डीका गंगाजलसे स्पर्श बना रहता है, तबतक वह पुरुष स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित रहता है। ब्रह्माजीका कथन है किगंगाके समान तीर्थ, श्रीविष्णुसे बढ़कर देवता तथा ब्राह्मणोंसे बढ़कर पूज्य कोई नहीं है। महाराज! जहाँ गंगा बहती हैं, वहाँ उनके किनारेपर जो जो देश और तपोवन होते हैं, उन्हें सिद्ध क्षेत्र समझना चाहिये।”

जो मनुष्य प्रतिदिन तीर्थोके इस पुण्य प्रसंगका श्रवण करता है, वह सदा पवित्र होकर स्वर्गलोकमें आनन्दका अनुभव करता है तथा उसे अनेकों जन्मोंकी बातें याद आ जाती हैं जहाँको यात्रा की जा सकती है और जहाँ जाना असम्भव है, उन सभी प्रकारके तीर्थोंका मैंने वर्णन किया है। यदि प्रत्यक्ष सम्भव न हो तो मानसिक इच्छाके द्वारा भी इन सभी तीर्थोंकी यात्रा करनी चाहिये। पुण्यकी इच्छा रखनेवाले देवोपम ऋषियोंने भी इन तीर्थोंका आश्रय लिया है।

वसिष्ठ मुनि बोले- राजा दिलीप तुम भी उपर्युक्त विधिके अनुसार मनको वशमें करके तीर्थोंकी यात्रा करो; क्योंकि पुण्य पुण्यसे ही बढ़ता है। पहले के बने हुए कारणोंसे, आस्तिकतासे और श्रुतियोंको देखनेसे शिष्ट पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले सज्जनोंको उन तीर्थोकी प्राप्ति होती है।

नारदजी कहते हैं-राजा युधिष्ठिर। इस प्रकार दिलीपको तीर्थोकी महिमा बताकर मुनि वसिष्ठ उनसे विदा ले प्रातः काल प्रसन्न हृदयसे वहीं अन्तर्धान हो गये। राजा दिलीपने शास्त्रोंके तात्विक अर्थका ज्ञान हो जाने और वसिष्ठजीके कहनेसे सारी पृथ्वीपर तीर्थ यात्राके लिये भ्रमण किया। महाभाग ! इस प्रकार सब पापोंसे छुड़ानेवाली यह परमपुण्यमयी तीर्थयात्रा प्रतिष्ठानपुर (झूसी) में आकर प्रतिष्ठित – समाप्त होती है। जो मनुष्य इस विधिसे पृथ्वीकी परिक्रमा करेगा, वह मृत्युके पश्चात् सौ अश्वमेध यज्ञौका फल प्राप्त करेगा, युधिष्ठिर। तुम ऋषियोंको भी साथ ले जाओगे, इसलियेतुम्हें औरोंकी अपेक्षा आठगुना फल होगा। सूतजी कहते हैं- समस्त तीर्थोंके वर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाले देवर्षि नारदके इस चरित्रका जो सबेरे उठकर पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । नारदजीने यह भी कहा-‘राजन् ! वाल्मीकि, कश्यप, आत्रेय, कौण्डिन्य, विश्वामित्र, गौतम, असित, देवल, मार्कण्डेय, गालव, भरद्वाज-शिष्य उद्दालक मुनि, शौनक, पुत्रसहित महान् तपस्वी व्यास, मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाऔर महातपस्वी जाबालि – इन सभी तपस्वी ऋषियोंकी तुम प्रतीक्षा करो तथा इन सबको साथ लेकर उपर्युक्त तीर्थोंकी यात्रा करो।’ राजा युधिष्ठिरसे यों कहकर देवर्षि नारद उनसे विदा ले वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाले धर्मात्मा युधिष्ठिरने बड़े आदरके साथ समस्त तीर्थोंकी यात्रा की। ऋषियो! मेरी कही हुई इस तीर्थयात्राकी कथाका जो पाठ या श्रवण करता है, वह सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।

अध्याय 86 मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना

सूतजी कहते हैं— महर्षियो। पापराशिका निवारण करनेके लिये तोथोंकी महिमाका श्रवण श्रेष्ठ है तथा तोथका सेवन भी प्रशस्त है जो मनुष्य प्रतिदिन यह कहता है कि मैं तीर्थोंमें निवास करूँ और तीर्थोंमें स्नान करूँ, वह परमपदको प्राप्त होता है। तीर्थोंकी चर्चा करनेमात्रसे उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं अतः तीर्थ धन्य हैं तीर्थसेवी पुरुषोंके द्वारा जगत्कर्ता भगवान् नारायणका सेवन होता है। ब्राह्मण, तुलसी, पीपल, तीर्थसमुदाय तथा परमेश्वर श्रीविष्णु-ये सदा ही मनुष्योंके लिये सेव्य हैं। पीपल, तुलसी, गौ तथा सूर्यकी परिक्रमा करनेसे मनुष्य सब तीर्थका फल पाकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसलिये विद्वान् पुरुष निश्चय ही पुण्यतीथका सेवन करे।

ऋषि बोले- सूतजी! हमने माहात्म्यसहित समस्त तीर्थोका श्रवण किया; किन्तु आपने प्रयागकी महिमाको पहले थोड़ेमें बताया है, उसे हमलोग विस्तारके साथ सुनना चाहते हैं। अतः आप कृपापूर्वक उसका वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले- महर्षियो! बड़े हर्षकी बात है। मैं अवश्य ही प्रयागकी महिमाका वर्णन करूँगा।पूर्वकालमें महाभारत-युद्ध समाप्त हो जानेपर जब कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको अपना राज्य प्राप्त हो गया, उस समय मार्कण्डेयजीने पाण्डुकुमारसे प्रयागकी महिमाका जो वर्णन किया था, वही प्रसंग मैं आपलोगोंको सुनाता हूँ। राज्य प्राप्त हो जानेपर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरको बारंबार चिन्ता होने लगी। उन्होंने सोचा- ‘राजा दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेनाका स्वामी था। उसने हमलोगोंको अनेकों बार कष्ट पहुँचाया। किन्तु अब वे सब-के सब मौतके मुँहमें चले गये। भगवान् वासुदेवका आश्रय लेनेके कारण हम पाँच पाण्डव शेष रह गये हैं। द्रोणाचार्य, भीष्म, महाबली कर्ण, भ्राता और पुत्रसहित राजा दुर्योधन तथा अन्यान्य जितने वीर राजा मारे गये हैं उन सबके बिना यह राज्य, भोग अथवा जीवन लेकर क्या करना है। हाय! धिक्कार है, इस सुखको; मेरे लिये यह प्रसंग बड़ा कष्टदायक है।’ यह विचारकर राजा व्याकुल हो उठे। वे उत्साहहीन होकर नीचे मुँह किये बैठे रहते थे। उन्हें बारंबार इस बातकी चिन्ता होने लगी कि ‘अब मैं किस योग, नियम एवं तीर्थका सेवन करूँ, जिससे महापातकोंकी राशिसे मुझे शीघ्र ही छुटकारा मिले। कौन-सा ऐसा तीर्थ है, जहाँ स्नान करके मनुष्यपरम उत्तम विष्णुलोकको प्राप्त होता है?’ इस प्रकार सोचते हुए धर्मपुत्र युधिष्ठिर अत्यन्त विकल हो गये। उस समय महातपस्वी मार्कण्डेयजी काशीमें थे।

उन्हें युधिष्ठिरकी अवस्थाका ज्ञान हो गया; इसलिये वे तुरंत ही हस्तिनापुरमें जा पहुँचे और राजमहलके द्वारपर खड़े हो गये। द्वारपालने जब उन्हें देखा तो शीघ्र ही महाराजके पास जाकर कहा- ‘राजन् ! मार्कण्डेय मुनि आपसे मिलनेके लिये आये हैं और द्वारपर खड़े हैं। यह

समाचार सुनते ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर तुरंत राजद्वारपर आ पहुँचे और उनके शरणागत होकर बोले ‘महामुने! आपका स्वागत है। महाप्राज्ञ! आपका स्वागत है। आज मेरा जन्म सफल हुआ। आज मेरा कुल पवित्र हो गया। आज आपका दर्शन होनेसे मेरे पितर तृप्त हो गये।’ यो कहकर युधिष्ठिरने मुनिको सिंहासनपर बिठाया और पैर धोकर पूजन सामग्रियोंसे उनकी पूजा की। तब मार्कण्डेयजीने कहा- ‘राजन्! तुम व्याकुल क्यों हो रहे हो ? मेरे सामने अपना मनोभाव प्रकट करो।’

युधिष्ठिर बोले- महामुने। राज्य के लिये हमलोगोंकी ओरसे जो बर्ताव हुआ है, उस सारेप्रसंगको जानकर ही आप यहाँ पधारे हैं [ फिर आपसे क्या कहना है]।

मार्कण्डेयजीने कहा- महाबाहो सुनो-जहाँ धर्मकी व्यवस्था है, उस शास्त्रमें संग्राममें युद्ध करनेवाले किसी भी बुद्धिमान् पुरुषके लिये पापकी बात नहीं देखी गयी है। फिर विशेषतः क्षत्रियके लिये जो राजधर्मके अनुसार युद्धमें प्रवृत्त हुआ है, पापकी आशंका कैसे हो सकती है। अतः इस बातको हृदयमें रखकर पापकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये। महाभाग युधिष्ठिर! तुम तीर्थकी बात जानना चाहते हो तो सुनो-पुण्य कर्म करनेवाले मनुष्योंके लिये प्रयागकी यात्रा करना सर्वश्रेष्ठ है।

युधिष्ठिरने पूछा भगवन् मैं यह सुनना चाहता है कि प्रयागको यात्रा कैसे की जाती है, वहाँ कैसा पुण्य होता है, प्रयागमें जिनकी मृत्यु होती है, उनकी क्या गति होती है तथा जो वहाँ स्नान और निवास करते हैं, उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है। ये सब बातें बताइये। मेरे मनमें इन्हें सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है।

मार्कण्डेयजीने कहा – वत्स! पूर्वकालमें ऋषियों और ब्राह्मणोंके मुँहसे जो कुछ मैंने सुना है, वह प्रयागका फल तुम्हें बताता हूँ। प्रयागसे लेकर प्रतिष्ठानपुर (झुसी) तक धर्मको हदसे लेकर वासुकि हृदतक तथा कम्बल और अश्वतर नागके स्थान एवं बहुमूलिक नामवाले नागोँका स्थान- यह सब प्रजापतिका क्षेत्र है, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है। वहीं स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर जन्म नहीं लेते। प्रयागमें ब्रह्मा आदि देवता एकत्रित होकर प्राणियोंकी रक्षा करते हैं। यहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले तथा कल्याणकारी हैं। उनका कई सौ वर्षोंमें भी वर्णन नहीं किया जा सकता। स्वयं इन्द्र विशेषरूपसे प्रवागतीर्थको रक्षा करते हैं तथा भगवान् विष्णु देवताओंके साथ प्रयागके सर्वमान्य मण्डलकी रक्षा करते हैं। हाथमें शूल लिये हुए भगवान् महेश्वर प्रतिदिन वहाँ वटवृक्ष (अक्षयवट) की रक्षा करते हैं तथादेवता समूचे तीर्थस्थानकी रक्षामें रहते हैं वह स्थान सब पापको हरनेवाला और शुभ है जो प्रयागका स्मरण करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तीर्थके दर्शन और नाम कीर्तनसे तथा वहाँकी मिट्टी प्राप्त करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। महाराज! प्रयागमें पाँच कुण्ड हैं, जिनके बीचसे होकर गंगाजी बहती हैं। प्रयागमें प्रवेश करनेवाले मनुष्यका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सहस्रों योजन दूरसे भी गंगाजीका स्मरण करता है, वह पापाचारी होनेपर भी परमगतिको प्राप्त होता है। मनुष्य गंगाका नाम लेनेसे पापमुक्त होता है, दर्शन करनेसे कल्याणका दर्शन करता है तथा स्नान करने और जल पीनेसे अपने कुलकी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो सत्यवादी, क्रोधजयी, अहिंसा-धर्ममें स्थित, धर्मानुगामी, तत्त्वज्ञ तथा गौ और ब्राह्मणोंके हितमें तत्पर होकर गंगा-यमुनाके बीचमें स्नान करता है, वह सारे पापोंसे छूट जाता है तथा मन-चीते समस्त भोगोंको पूर्णरूपसे प्राप्त कर लेता है। *

तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवताओंसे रक्षित प्रयागमें जाकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एक मासतक निवास करे और देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। इससे मनुष्य मनोवांछित पदार्थोंको प्राप्त करता है। बुधिष्ठिर प्रयागमें साक्षात् भगवान् महेश्वर सदा निवास करते हैं। वह परम पावन तीर्थ मनुष्योंके लिये दुर्लभ है। राजेन्द्र ! देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि सिद्ध और चारण वहाँ स्नान करके स्वर्गलोकमें जा सुख भोगते हैं।

प्रयाग में जानेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मनुष्य अपने देशमें हो या वनमें, विदेशमें हो या घरमें जो प्रयागका स्मरण करते हुए मृत्युको प्राप्त होता है, वह ब्रह्मलोकमें जाता है-यह श्रेष्ठ ऋषियोंका कथन है जो मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा सत्यधर्ममें स्थित हो गंगा-यमुनाकेबीचको भूमिमें दान देता है, वह सद्गतिको प्राप्त होता है। जो अपने कार्यके लिये या पितृकार्यके लिये अथवा देवताकी पूजाके लिये प्रयागमें सुवर्ण, मणि, मोती अथवा धान्यका दान ग्रहण करता है, उसका तीर्थ सेवन व्यर्थ होता है; वह जबतक दूसरेका द्रव्य भोगता है, तबतक उसके तीर्थ सेवनका कोई फल नहीं है।

अतः इस प्रकार तीर्थ अथवा पवित्र मन्दिरोंमें जाकर किसीसे कुछ ग्रहण न करे। कोई भी निमित्त हो, द्विजको प्रतिग्रहसे सावधान रहना चाहिये। प्रयागमें भूरी अथवा लाल रंगकी गायके, जो दूध देनेवाली हो, सींगोंको सोनेसे और खुरोंको चाँदीसे मदा दे; फिर उसके गलेमें वस्त्र लपेटकर श्वेतवस्त्रधारी, शान्त, धर्मज्ञ, वेदोंके पारगामी तथा साधु श्रोत्रिय ब्राह्मणको बुलाकर गंगा-यमुनाके संगममें वह गौ उसे विधिपूर्वक दान कर दे। साथ ही बहुमूल्य वस्त्र तथा नाना प्रकारके रत्न भी देने चाहिये। इससे उस गौके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने हजार वर्षोंतक मनुष्य स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। वह उस पुण्यकर्मके प्रभावसे भयंकर नरकका दर्शन नहीं करता। लाख गौओंकी अपेक्षा वहाँ एक ही दूध देनेवाली गौ देना उत्तम है। वह एक ही पुत्र, स्त्री तथा भृत्योंतकका उद्धार कर देती है। इसलिये सब दानोंमें गोदान ही सबसे बढ़कर है। महापातकके कारण मिलनेवाले दुर्गम, विषम तथा भयंकर नरकमें गौ ही मनुष्यकी रक्षा करती है। इसलिये ब्राह्मणको गोदान करना चाहिये।

कुरुश्रेष्ठ! जो देवताओंके जो देवताओंके द्वारा सेवित प्रयागतीर्थमें बैल अथवा बैलगाड़ीपर चढ़कर जाता है, वह पुरुष गौओंका भयंकर क्रोध होनेपर घोर नरकमें निवास करता है तथा उसके पितर उसका दिया जलतक नहीं ग्रहण करते जो ऐश्वर्यके लोभसे अथवा मोहवश सवारीसे तीर्थयात्रा करता है, उसके तीर्थसेवनका कोई फल नहींहोता; इसलिये सवारीको त्याग देना चाहिये। जो गंगा यमुनाके बीचमें ऋषियोंकी बतायी हुई विधि तथा अपनी सामर्थ्यके अनुसार कन्यादान करता है, वह उस कर्मके प्रभावसे यमराज तथा भयंकर नरकको नहीं देखता जिस मनुष्यकी अक्षयवटके नीचे मृत्यु होती हूँ वह सब लोकोंको लाँधकर लोकमें जाता है। वहाँ रुद्रका आश्रय लेकर बारह सूर्य तपते हैं और सारे जगत्को जला डालते हैं। परन्तु वटकी जड़ नहीं जला पाते। जब सूर्य, चन्द्रमा और वायुका विनाश हो जाता है और सारा जगत् एकार्णवमें मग्न दिखायी देता है, उस समय भगवान् विष्णु यहीं अक्षयवटपर शयन करते हैं। देवता, दानव, गन्धर्व, ऋषि, सिद्ध और चरण- सभी गंगा-यमुनाके संगममें स्थित तीर्थका सेवन करते हैं। वहाँ ब्रह्मा आदि देवता, दिशाएँ, दिक्पाल, लोकपाल, साध्य, पितर, सनत्कुमार आदि परमर्षि अंगिरा आदि ब्रह्मर्षि, नाग, सुपर्ण (गरुड़) पक्षी, नदियों, समुद्र, पर्वत, विद्याधर तथा साक्षात् भगवान् विष्णु प्रजापतिको आगे रखकर निवास करते हैं। उस तीर्थका नाम सुनने, नाम लेने तथा वहाँकी मिट्टीका स्पर्श करनेसे भी मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जो वहाँ कठोर व्रतका पालन करते हुए संगममें स्नान करता है, वह राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञोंके समान फल पाता है। योगयुक्त विद्वान् पुरुषको जिस गतिकी प्राप्ति होती है, वह गति गंगा और यमुनाके संगममें मृत्युको प्राप्त होनेवाले प्राणियोंकी भी होती है।

इस प्रकार परमपदके साधनभूत प्रयागतीर्थका दर्शन करके यमुनाके दक्षिण किनारे, जहाँ कम्बल और अश्वतर नागोंके स्थान हैं, जाना चाहिये। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य सब पातकोंसे छुटकारा पा जाता है। वह परम बुद्धिमान् महादेवजीका स्थान है वहाँकी यात्रा करनेसे मनुष्य अपने कुलकी दस पहलेकी और दस पीछेकी पीढ़ियाँका उद्धार कर देता है जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है तथा वह प्रलयकालतक स्वर्गलोकमें स्थान पाता है। भारत गंगाके पूर्वतटपर तीनों लोकोंमें विख्यात समुद्रकूप और प्रतिष्ठानपुर (झूसी) हैं। यदि कोईब्रह्मचर्य का पालन करते हुए क्रोधको जीतकर तीन रात वहाँ निवास करता है, तो वह सब पापोंसे शुद्ध होकर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। प्रतिष्ठानसे उत्तर और भागीरथीसे पूर्व हंसप्रपतन नामक तीर्थ है, उसमें स्नान करनेमात्रसे मनुष्यको अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है तथा जबतक सूर्य और चन्द्रमाकी स्थिति है, तबतक वह स्वर्गलोक प्रतिष्ठित होता है।

रमणीय अक्षयवटके नीचे ब्रहाचारी जितेन्द्रिय एवं योगयुक्त होकर उपवास करनेवाला मनुष्य ब्रह्मज्ञानको प्राप्त होता है। कोटितीर्थमें जाकर जिनकी मृत्यु होती है, वह करोड़ों वर्षतक स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। चारों वेदोंके अध्ययनसे जो पुण्य होता है, सत्य बोलनेसे जो फल होता है तथा अहिंसाके पालनसे जो धर्म होता है, वह दशाश्वमेध घाटकी यात्रा करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। गंगामें जहाँ कहीं भी स्नान किया जाय, वे कुरुक्षेत्र के समान फल देनेवाली हैं; किन्तु जहाँ वे समुद्रसे मिली हैं, वहाँ उनका माहात्म्य कुरुक्षेत्रसे दसगुना है। महाभागा गंगा जहाँ कहीं भी बहती हैं, वहाँ बहुत से तीर्थ और तपस्वी रहते हैं। उस स्थानको सिद्धक्षेत्र समझना चाहिये। इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। गंगा पृथ्वीपर मनुष्योंको, पातालमें नागौंको और स्वर्गमं देवताओंको तारती हैं इसलिये वे त्रिपथगा कहलाती हैं। किसी भी जीवकी हड्डियाँ जितने समयतक गंगामें रहती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोक में सम्मानित होता है। गंगा तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ, नदियोंमें उत्तम नदी तथा सम्पूर्ण भूतों-महापातकियों को भी मोक्ष देनेवाली हैं। गंगा सर्वत्र सुलभ हैं, केवल तीन स्थानोंमें वे दुर्लभ मानी गयी हैं- गंगाद्वार, प्रयाग तथा गंगा सागर संगममें। वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गको जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे फिर कभी जन्म नहीं लेते। जिनका चित्त पापसे दूषित है, ऐसे समस्त प्राणियों और मनुष्योंकी गंगाके सिवा अन्यत्र गति नहीं है। गंगा के सिवा दूसरी कोई गति है ही नहीं भगवान् शंकरके मस्तकसे निकली हुई गंगा सब पापको हरनेवाली और शुभकारिणी हैं। वे पवित्रोंको भी पवित्रकरनेवाली और मंगलमय पदार्थोंके लिये भी मंगलकारिणी हैं। *

राजन्! पुनः प्रयागका माहात्म्य सुनो, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। गंगाके उत्तर-तटपर मानस नामक तीर्थ है। वहाँ तीन रात उपवास करनेसे समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य गौ, भूमि और सुवर्णका दान करनेसे जिस फलको पाता है, वह उस तीर्थका बारंबार स्मरण करनेसे ही मिल जाता है जो गंगामै मृत्युको प्राप्त होता है, वह मृत व्यक्ति स्वर्गमें जाता है। उसे नरक नहीं देखना पड़ता। माघ मासमें गंगा और यमुनाके संगमपर छाछठ हजार तीर्थोंका समागम होता है। विधिपूर्वक एक लाख गौओंका दान करनेसे जो फल मिलता है, वह माघ मासमें प्रयागके भीतर तीन दिन स्नान करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। जो गंगा-यमुनाके बीचमें पंचाग्निसेवनकी साधना करता है, वह किसी अंगसे हीन नहीं होता; उसका रोग दूर हो जाता है तथा उसकी पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ सबल रहती हैं। इतना ही नहीं, उस मनुष्यके शरीरमें जितने रोमकूप होते हैं, उतने ही हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यमुनाके उत्तर-तटपर और प्रयागके दक्षिण भागमें ऋणप्रमोचन नामक तीर्थ है, जो अत्यन्त श्रेष्ठ माना गया है। वहाँ एक रात निवास करनेसे मनुष्य समस्त ऋणोंसे मुक्त हो जाता है। उसे सूर्यलोककी प्राप्ति होती है तथा वह सदाके लिये ऋणसे छूट जाता है। प्रयागका मण्डल पाँच योजन विस्तृत है, उसमें प्रवेश करनेवाले पुरुषको पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त होता है। जिस मनुष्यकी यहाँ मृत्यु होती है, वह अपनी पिछली सात पीढ़ियोंको और आगे आनेवाली चौदह पीढ़ियोंको तार देता है। महाराज ! यहजानकर प्रयागके प्रति सदा श्रद्धा रखनी चाहिये। जिनका चित्त पापसे दूषित है, वे अश्रद्धालु पुरुष उस स्थानको – देवनिर्मित प्रयागको नहीं पा सकते।

राजन्! अब मैं अत्यन्त गोपनीय रहस्यकी बात बताता हूँ, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है; सुनो। जो प्रयागमें इन्द्रियसंयमपूर्वक एक मासतक निवास करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका कथन है। वहाँ रहनेसे मनुष्य पवित्र, जितेन्द्रिय, अहिंसक और श्रद्धालु होकर सब पापोंसे छूट जाता और परमपदको प्राप्त होता है। वहाँ तीनों काल स्नान और भिक्षाका आहार करना चाहिये; इस प्रकार तीन महीनोंतक प्रयागका सेवन करनेसे वे मुक्त हो जाते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्त्वके ज्ञाता युधिष्ठिर! तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैंने इस धर्मानुसारी सनातन गुह्य रहस्यका वर्णन किया है।

युधिष्ठिर बोले- धर्मात्मन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरा कुल कृतार्थ हो गया। आज आपके दर्शनसे मैं प्रसन्न हूँ, अनुगृहीत हूँ तथा सब पातकोंसे मुक्त हो गया हूँ। महामुने! यमुनामें स्नान करनेसे क्या पुण्य होता है, कौन-सा फल मिलता है? ये सब बातें आप अपने प्रत्यक्ष अनुभव एवं श्रवणके आधारपर बताइये मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सूर्यकन्या यमुना देवी तीनों लोकोंमें विख्यात है। जिस हिमालयसे गंगा प्रकट हुई हैं, उसीसे यमुनाका भी आगमन हुआ है। सहस्रों योजन दूरसे भी नामोच्चारण करनेपर वे पापका नाश कर देती हैं। युधिष्ठिर। यमुना में नहाने जल पीने और उनके नामका कीर्तन करनेसे मनुष्य पुण्यका भागी होकर कल्याणका दर्शन करता है।यमुनामें गोता लगाने और उनका जल पीनेसे कुलकी सात पीढ़ियाँ पवित्र हो जाती हैं। जिसकी वहाँ मृत्यु होती है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। यमुनाके दक्षिण किनारे विख्यात अग्नितीर्थ है; उसके पश्चिम धर्मराजका तीर्थ है, जिसे हरवरतीर्थ भी कहते हैं वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जो यहाँ मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे फिर जन्म नहीं लेते।

इसी प्रकार यमुनाके दक्षिण तटपर हजारों तीर्थ हैं। अब मैं उत्तर-तटके तीर्थोका वर्णन करता है। युधिष्ठिर ! उत्तरमें महात्मा सूर्यका विरज नामक तीर्थ है जहाँ इन्द्र आदि देवता प्रतिदिन सन्ध्योपासन करते हैं। देवता तथा विद्वान् पुरुष उस तीर्थका सेवन करते हैं। तुम भी श्रद्धापूर्वक दानमें प्रवृत्त होकर उस तीर्थमें स्नान करो। वहाँ और भी बहुत-से तीर्थ हैं, जो सब पापको हरनेवाले और शुभ हैं। उनमें स्नान करके मनुष्य स्वर्गमें जाते हैं तथा जिनकी वहाँ मृत्यु होती है, वे मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। गंगा और यमुना- दोनों ही समान फल देनेवाली मानी गयी है: केवल श्रेष्ठता के कारण गंगा सर्वत्र पूजित होती हैं कुन्तीनन्दन। तुम भी इसी प्रकार सब तीर्थोंमें स्नान करो, इससे जीवनभरका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो मनुष्य सबेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ या श्रवण करता है, वह भी सब पापसे मुक्त होकर स्वर्गलोकको जाता है।

युधिष्ठिर बोले- मुने! मैंने ब्रह्माजीके कहे हुए पुण्यमय पुराणका श्रवण किया है उसमें सैकड़ों, हजारों और लाखों तीर्थोका वर्णन आया है। सभी तीर्थ पुण्यजनक और पवित्र बताये गये हैं तथा सबके द्वारा उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी गयी है। पृथ्वीपर नैमिषारण्य और आकाशमें पुष्करतीर्थ पवित्र है। लोकमें प्रयाग और कुरुक्षेत्र दोनोंको ही विशेष स्थान दिया गया है। आप उन सबको छोड़कर केवल एककी ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? आप प्रयागसे परम दिव्य गति तथा मनोवांछित भोगोंकी प्राप्ति बताते हैं। थोड़े-सेअनुष्ठानके द्वारा अधिक धर्मकी प्राप्ति बताते हुए प्रयागकी ही अधिक प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? यह मेरा संशय है। इस सम्बन्धमें आपने जैसा देखा और सुना हो, उसके अनुसार इस संशयका निवारण कीजिये।

मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! मैंने जैसा देखा और सुना है, उसके अनुसार प्रयागका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। प्रत्यक्षरूपसे, परोक्ष तथा और जिस प्रकार सम्भव होगा, मैं उसका वर्णन करूँगा। शास्त्रको प्रमाण मानकर आत्माका परमात्माके साथ जो योग किया जाता है, उस योगकी प्रशंसा की जाती है। हजारों जन्मोंके पश्चात् मनुष्योंको उस योगकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकार सहस्रों युगोंमें योगकी उपलब्धि होती है। ब्राह्मणोंको सब प्रकारके रत्न दान करनेसे मानवोंको योगकी उपलब्धि होती है। प्रयागमें मृत्यु होनेपर यह सब कुछ स्वतः सुलभ हो जाता है। जैसे सम्पूर्ण भूतोंमें व्यापक ब्रह्मकी सर्वत्र पूजा होती है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकोंमें विद्वानोंद्वारा प्रयाग पूजित होता है। नैमिषारण्य, पुष्कर, गोतीर्थ, सिन्धु-सागर संगम, कुरुक्षेत्र, गया और गंगासागर तथा और भी बहुत-से तीर्थ एवं पवित्र पर्वत – कुल मिलाकर तीस करोड़, दस हजार तीर्थ प्रयागमें सदा निवास करते हैं। ऐसा विद्वानोंका कथन है । वहाँ तीन अग्निकुण्ड हैं, जिनके बीच होकर गंगा प्रयागसे निकलती हैं। वे सब तीर्थोंसे युक्त हैं। वायु देवताने देवलोक, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें साढ़े तीन करोड़ तीर्थ बतलाये हैं। गंगाको उन सबका स्वरूप माना गया है। प्रयाग, प्रतिष्ठानपुर (झूसी), कम्बल और अश्वतर नागके स्थान तथा भोगवती-ये प्रजापतिकी वेदियाँ हैं। युधिष्ठिर! वहाँ देवता, मूर्तिमान् यज्ञ तथा तपस्वी ऋषि रहते और प्रयागकी पूजा करते हैं। प्रयागका यह माहात्म्य धन्य है, यही स्वर्ग प्रदान करनेवाला है, यही सेवन करनेयोग्य है, यही सुखरूप है, यही पुण्यमय है, यही सुन्दर है और यही परम उत्तम, धर्मानुकूल एवं पावन है। यह महर्षियोंका गोपनीयरहस्य है, जो सब पापोंका नाश करनेवाला है। इस प्रसंगका पाठ करनेवाला दिन सब प्रकारके पापोंसे रहित हो जाता है। कुरुनन्दन। तुम प्रयागके तीर्थोंमें स्नान करो। राजन्! तुमने विधिपूर्वक प्रश्न किया था, इसलिये मैंने तुमसे प्रयाग माहात्म्यका वर्णन किया है। इसे सुनकर तुमने अपने समस्त पितरों और पितामहाँका उद्धार कर दिया।

युधिष्ठिर बोले- महामुने! आपने प्रयागमाहात्म्यकी यह सारी कथा सुनायी इसी प्रकार और सब बातें भी बताइये, जिससे मेरा उद्धार हो सके। मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्! सुनो, बताता हूँ। ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी ये तीनों देवता सबके प्रभु और अविनाशी हैं। ब्रह्मा इस सम्पूर्ण जगत्की, यहाँके चराचर प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं और परमेश्वर विष्णु उन सबका, समस्त प्रजाओंका पालन करते हैं। फिर जब कल्पका अन्त उपस्थित होता है, तबभगवान् रुद्र सम्पूर्ण जगत्‌का संहार करते हैं। ये ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी प्रयागमें सदा निवास करते हैं। प्रयागमण्डलका विस्तार पाँच योजन (बीस कोस) है। उपर्युक्त देवता पापकमौका निवारण करते हुए उस मण्डलकी रक्षाके लिये यहाँ मौजूद रहते हैं। अतः प्रयाग किया हुआ थोड़ा-सा भी पाप नरकमें गिरानेवाला होता है।

सूतजी कहते हैं- तदनन्तर धर्मपर विश्वास करनेवाले समस्त पाण्डवोंने भाइयोंसहित ब्राह्मणोंको नमस्कार करके गुरुजनों और देवताओंको तृप्त किया। उसी समय भगवान् वासुदेव भी वहाँ आ पहुँचे। फिर समस्त पाण्डवोंने मिलकर भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया। तत्पश्चात् कृष्णसहित सब महात्माओंने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको स्वराज्यपर अभिषिक्त किया। इसके बाद भाइयोंसहित धर्मात्मा युधिष्ठिरने ब्राह्मणोंको बड़े-बड़े दान दिये। जो सवेरे उठकर इस प्रसंगका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें जाता है।

भगवान् वासुदेव बोले- राजा युधिष्ठिर! मैं आपके स्नेहवश कुछ निवेदन करता हूँ, आपको मेरी बात माननी चाहिये। महाराज! आप प्रतिदिन हमारे साथ प्रयागका स्मरण करनेसे स्वयं सनातन लोकको प्राप्त होंगे। जो मनुष्य प्रयागको जाता अथवा वहाँ निवास करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर दिव्यलोकको जाता है। जो किसीका दिया हुआ दान नहीं लेता, संतुष्ट रहता, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता, पवित्र रहता और अहंकारका त्याग कर देता है, उसीको तीर्थका पूरा फल मिलता है। राजेन्द्र जो क्रोधहीन, सत्यवादी, दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मभाव रखनेवाला है, वही तीर्थके फलका उपभोग करता है। ऋषियों और देवताओंने भी क्रमशः यज्ञौका वर्णन किया है, किन्तुमहाराज ! दरिद्र मनुष्य यज्ञ नहीं कर सकते। यज्ञमें बहुत सामग्रीकी आवश्यकता होती है। नाना प्रकारकी तैयारियाँ और समारोह करने पड़ते हैं। कहीं कोई धनवान् मनुष्य ही भाँति-भाँतिके द्रव्योंका उपयोग करके यज्ञ कर सकता है। नरेश्वर! जिसे विद्वान् पुरुष दरिद्र होनेपर भी कर सकें तथा जो पुण्य और फलमें यज्ञकी समानता करता हो, वह उपाय बताता हूँ; सुनिये । भरतश्रेष्ठ !यह ऋषियोंका गोपनीय रहस्य है; तीर्थयात्राका पुण्य यज्ञोंसे भी बढ़कर होता है। एक खरब, तीस करोड़से भी अधिक तीर्थ माघ मासमें गंगाजीके भीतर आकर स्थित होते हैं [अतः माघमें गंगा स्नान परम पुण्यका साधक होता है ] । * महाराज ! अब आप निश्चिन्त होकर अकण्टक राज्य भोगिये। अब फिर अश्वमेध यज्ञके समय मुझसे आपकी भेंट होगी ।

अध्याय 87 भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा

ऋषय ऊचुः

भवता कथितं सर्वं यत्किञ्चित् पृष्टमेव च ।

इदानीमपि पृच्छाम एकं वद महामते 1 ॥

ऋषियोंने कहा- महामते। हमलोगोंने जो कुछ पूछा था, वह सब आपने कह सुनाया। अब भी आपसे एक प्रश्न करते हैं, उसका उत्तर दीजिये।

एतेषां खलु तीर्थानां सेवनाद्यत् फलं भवेत् ।

सर्वेषां किल कृत्वैकं कर्म केन च लभ्यते

एतनो ब्रूहि सर्वज्ञ कर्मैवं यदि वर्तते ॥ 2 ॥

इन सभी तीर्थोके सेवनसे जो फल होता है, वही कौन-सा एक कर्म करनेसे प्राप्त हो सकता है ? सर्वज्ञ सूतजी। यदि ऐसा कोई कर्म हो तो उसे हमें बताइये ।

सूत उवाच

कर्मयोगः किल प्रोक्तो वर्णानां द्विजपूर्वशः ।

नानाविधो महाभागास्तत्र चैकं विशिष्यते ॥ 3 ॥

सूतजीने कहा – महाभाग महर्षिगण ! [ शास्त्रों में ] ब्राह्मणादि वर्णोंके लिये निश्चय ही नाना प्रकारके कर्मयोगका वर्णन किया गया है, परन्तु उसमें एक ही बात सबसे बढ़कर है।

हरिभक्तिः कृता येन मनसा कर्मणा गिरा ।

जितं तेन जितं तेन जितमेव न संशयः ॥ 4 ॥

जिसने मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीहरिकी भक्ति की है, उसने बाजी मार ली, उसने विजय प्राप्त कर ली, उसकी निश्चय ही जीत हो गयी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

हरिरेव समाराध्यः सर्वदेवेश्वरेश्वरः ।

हरिनाममहामन्त्रैर्नश्येत् पापपिशाचकम् ॥ 5 ॥

सम्पूर्ण देवेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी ही भलीभाँति आराधना करनी चाहिये। हरिनामरूपी महामन्त्रोंके द्वारा पापरूपी पिशाचोंका समुदाय नष्ट हो जाता है।

हरेः प्रदक्षिणां कृत्वा सकृदप्यमलाशयाः ।

सर्वतीर्थसमागाह्यं लभन्ते संशयः ॥ 6 ॥

एक बार भी श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करके मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका जो फल होता है, उसे प्राप्त कर लेते हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

यन्न प्रतिमां च हरेर्दृष्ट्वा सर्वतीर्थफलं लभेत् ।

विष्णुनाम परं जप्त्वा सर्वमन्त्रफलं लभेत् ॥ 7 ॥

मनुष्य श्रीहरिकी प्रतिमाका दर्शन करके सब तीर्थोंका फल प्राप्त करता है तथा विष्णुके उत्तम नामका जप करके सम्पूर्ण मन्त्रोंके जपका फल पा लेता है।

विष्णुप्रसादतुलसीमाघ्राय द्विजसत्तमाः ।

प्रचण्डं विकरालं तद् यमस्यास्यं न पश्यति ॥ 8 ॥

द्विजवरो ! भगवान् विष्णुके प्रसादस्वरूप तुलसीदलको सूँघकर मनुष्य यमराजके प्रचण्ड एवं विकराल मुखका दर्शन नहीं करता।

सकृत्प्रणामी कृष्णस्य मातुः स्तन्यं पिबेन्न हि ।

हरिपादे मनो येषां तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ 9 ॥

एक बार भी श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला मनुष्य पुनः माताके स्तनोंका दूध नहीं पीता-उसका दूसरा जन्म नहीं होता। जिन पुरुषोंका चित्त श्रीहरिके चरणों में लगा है, उन्हें प्रतिदिन मेरा बारंबार नमस्कार है।

पुल्कसः श्वपचो वापि ये चान्ये म्लेच्छजातयः ।

तेऽपि वन्द्या महाभागा हरिपादैकसेवकाः ॥ 10 ॥

पुल्कस, श्वपच (चाण्डाल) तथा और भी जो म्लेच्छ जातिके मनुष्य हैं, वे भी यदि एकमात्र श्रीहरिके चरणोंकी सेवामें लगे हों तो वन्दनीय और परम सौभाग्यशाली हैं।

किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।

हरौ भक्तिं विधायैव गर्भवासं न पश्यति ll 11 ॥

फिर जो पुण्यात्मा ब्राह्मण और राजर्षि भगवान्‌के भक्त हों, उनकी तो बात ही क्या है। भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करके ही मनुष्य गर्भवासका दुःख नहीं देखता ।

हरेरग्रे स्वनैरुच्चैर्नृत्यंस्तन्नामकृन्नरः ।

पुनाति भुवनं विप्रा गङ्गादि सलिलं यथा ॥ 12 ॥

ब्राह्मणो! भगवान्के सामने उच्चस्वरसे उनके नामोंका कीर्तन करते हुए नृत्य करनेवाला मनुष्य गंगा आदि नदियोंके जलकी भाँति समस्त संसारको पवित्र कर देता है।

दर्शनात् स्पर्शनात्तस्य आलापादपि भक्तितः ।

ब्रह्महत्यादिभिः पापैर्मुच्यते नात्र संशयः ॥ 13 ॥

उस भक्तके दर्शन और स्पर्शसे, उसके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उसके प्रति भक्तिभाव रखनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

हरे: प्रदक्षिणं कुर्वन्नुच्चैस्तन्नामकृन्नरः ।

करतालादिसंधानं सुस्वरं कलशब्दितम् ।

ब्रह्महत्यादिकं पापं तेनैव करतालितम् ॥ 14 ॥

जो श्रीहरिकी प्रदक्षिणा करते हुए करताल आदि बजाकर मधुर स्वर तथा मनोहर शब्दोंमें उनके नामोंका कीर्तन करता है, उसने ब्रह्महत्या आदि पापको मानो ताली बजाकर भगा दिया।

हरिभक्तिकथामुक्ताख्यायिकां शृणुयाच्च यः ।

तस्य संदर्शनादेव पूतो भवति मानवः ।। 15 ।।

जो हरिभक्ति-कथारूपी मुक्तामयी आख्यायिकाका श्रवण करता है, उसके दर्शनमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है।

किं पुनस्तस्य पापानामाशङ्का मुनिपुङ्गवाः ।

तीर्थानां च परं तीर्थं कृष्णनाम महर्षयः ll 16 ॥

मुनिवरो। फिर उसके विषयमें पापकी आशंका क्या रह सकती है। महर्षियो ! श्रीकृष्णका नाम सब तीर्थोंमें परम तीर्थ है। तीर्थीकुर्वन्ति जगतीं गृहीतं कृष्णनाम यैः तस्मान्मुनिवराः पुण्यं नातः परतरं विदुः ॥ 17 ॥

जिन्होंने श्रीकृष्ण नामको अपनाया है, वे पृथ्वीको तीर्थ बना देते हैं। इसलिये श्रेष्ठ मुनिजन इससे बढ़कर पावन वस्तु और कुछ नहीं मानते।

विष्णुप्रसादनिर्माल्यं भुक्त्वा धृत्या च मस्तके

विष्णुरेव भवेन्मर्त्यो यमशोकविनाशनः ।

अर्चनीयो नमस्कार्यो हरिरेव न संशयः ॥ 18 ॥

श्रीविष्णुके प्रसादभूत निर्माल्यको खाकर और मस्तकपर धारण करके मनुष्य साक्षात् विष्णु ही हो जाता है। वह यमराजसे होनेवाले शोकका नाश करनेवाला होता है; वह पूजन और नमस्कारके योग्य साक्षात् श्रीहरिका ही स्वरूप है—- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

ये ही विष्णुमव्यक्तं देवं वापि महेश्वरम्।

एकीभावेन पश्यन्ति न तेषां पुनरुद्भवः ॥ 19 ॥

जो इन अव्यक्त विष्णु तथा भगवान् महेश्वरको एक भावसे देखते हैं, उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता।

तस्मादनादिनिधनं विष्णुमात्मानमव्ययम्।

हरं चैकं प्रपश्यध्वं पूजयध्वं तथैव हि ॥ 20 ॥

अतः महर्षियो! आप आदि – अन्तसे रहितअविनाशी परमात्मा विष्णु तथा महादेवजीको एक ‘भावसे देखें तथा एक समझकर ही उनका पूजन करें।

येऽसमानं प्रपश्यन्ति हरिं वै देवतान्तरम् ।

ते यान्ति नरकान् घोरान्न तांस्तु गणयेद्धरिः ।। 21 ।।

जो ‘हरि’ और ‘हर’ को समान भावसे नहीं देखो श्रीहरिको दूसरा देवता समझते हैं, वे धोर नरकमे पड़ते हैं; उन्हें श्रीहरि अपने भक्तोंमें नहीं गिनते।

मूर्ख वा पण्डितं वापि ब्राह्मणं केशवप्रियम्

श्वपाकं वा मोचयति नारायणः स्वयं प्रभुः 22 ॥

पण्डित हो या मूर्ख, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, यदि वह भगवान्का प्यारा भक्त है तो स्वयं भगवान् नारायण उसे संकटोंसे छुड़ाते हैं।

नारायणात्परो नास्ति पापराशिदद्वानलः।

कृत्वापि पातकं घोरं कृष्णनाम्ना विमुच्यते 23 ॥

भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पापपुंजरूपी वनको जलानेके लिये दावानलके समान हो। भयंकर पातक करके भी मनुष्य श्रीकृष्ण नामके उच्चारणसे मुक्त हो जाता है।

स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः ।

आत्मनोऽभ्यधिकां शक्तिं स्थापयामास सुव्रताः ll 24 ll

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षियो! जगद्गुरु भगवान् नारायणने स्वयं ही अपने नाममें अपनेसे भी अधिक शक्ति स्थापित कर दी है।

अत्र ये विवदन्ते वा आयासलघुदर्शनात्

फलानां गौरवाच्चापि ते यान्ति नरकं बहु ।। 25 ।।

नाम-कीर्तनमें परिश्रम तो थोड़ा होता है, किन्तु फल भारी से भारी प्राप्त होता है—यह देखकर जो लोग इसकी महिमाके विषयमें तर्क उपस्थित करते हैं, वे अनेकों बार नरकमें पड़ते हैं।

तस्माद्धरी भक्तिमान् स्याद्धरिनामपरायणः

पूजकं पृष्ठतो रक्षेन्नामिनं वक्षसि प्रभु ।। 26 ।।

इसलिये हरिनामकी शरण लेकर भगवान्की भक्ति करनी चाहिये। प्रभु अपने पुजारीको तो पीछे रखते हैं; किन्तु नाम-जप करनेवालेको छाती से लगाये रहते हैं।

हरिनाममहावज्रं पापपर्वतदारणम्।

तस्य पादौ तु सफलौ तदर्थगतिशालिनौ ॥ 27 ॥

हरिनामरूपी महान् वज्र पापोंके पहाड़को विदीर्ण करनेवाला है। जो भगवान्की ओर आगे बढ़ते हों, मनुष्यके वे ही पैर सफल हैं।

तावेव धन्यावाख्यातौ यौ तु पूजाकरौ करौ ।

उत्तमाङ्गमुत्तमाङ्गं तद्धरौ नम्रमेव यत् ॥ 28 ॥

वे ही हाथ धन्य कहे गये हैं, जो भगवान्‌की पूजामें संलग्न रहते हैं। जो मस्तक भगवानके आगे झुकता हो, वही उत्तम अंग है।

सा जिह्वा या हरिं स्तौति तन्मनस्तत्पदानुगम् ।

तानि लोमानि चोच्यन्ते यानि तन्नाम्नि चोत्थितम् ॥ 29 ॥

कुर्वन्ति तच्च नेत्राम्बु यदच्युतप्रसङ्गतः

जीभ वही श्रेष्ठ है, जो भगवान् श्रीहरिकी स्तुति करती है। मन भी वही अच्छा है, जो उनके चरणोंका अनुगमन – चिन्तन करता है तथा रोएँ भी वे ही सार्थक कहलाते हैं, जो भगवान्‌का नाम लेनेपर खड़े हो जाते हैं। इसी प्रकार आँसू वे ही सार्थक हैं, जो भगवान्की चर्चाके अवसरपर निकलते हैं।

अहो लोका अतितरां दैवदोषेण वञ्चिताः ॥ 30 ॥

नामोच्चारणमात्रेण मुक्तिदं न भजन्ति वै।

अहो संसारके लोग भाग्यदोषसे अत्यन्त वंचित हो रहे हैं, क्योंकि वे नामोच्चारणमात्रसे मुक्ति देनेवाले भगवान्का भजन नहीं करते।

वञ्चितास्ते च कलुषाः स्वीणां सङ्गप्रसङ्गतः ॥ 31 ॥

प्रतिष्ठन्ति च लोमानि येषां नो

कृष्णशब्दने स्त्रियोंके स्पर्श एवं चर्चासे जिन्हें रोमांच हो आता है, श्रीकृष्णका नाम लेनेपर नहीं, वे मलिन तथा कल्याणसे वंचित हैं।

ते मूर्खा ह्यकृतात्मानः पुत्रशोकादिविह्वलाः ॥ 32 ॥

रुदन्ति बहुलालापैन कृष्णाक्षरकीर्तने

जो अजितेन्द्रिय पुरुष पुत्रशोकादिसे व्याकुल होकर अत्यन्त विलाप करते हुए रोते हैं, किन्तु श्रीकृष्णनामके अक्षरोंका कीर्तन करते हुए नहीं रोते, वे मूर्ख हैं।

जिह्वां लब्ध्वापि लोकेऽस्मिन्कृष्णनाम जपेन्न हि ॥ 33 ॥

लब्ध्वापि मुक्तिसोपानं हेलयैव च्यवन्ति ते ।

जो इस लोकमें जीभ पाकर भी श्रीकृष्णनामका जप नहीं करते, वे मोक्षतक पहुँचनेके लिये सीढ़ी पाकर भी अवहेलनावश नीचे गिरते हैं।

तस्माद्यत्नेन वै विष्णुं कर्मयोगेन मानवः ॥ 34 ॥

कर्मयोगार्चितो विष्णुः प्रसीदत्येव नान्यथा

तीर्थादप्यधिकं तीर्थं विष्णोर्भजनमुच्यते ॥ 35 ॥

इसलिये मनुष्यको उचित है कि वह कर्मयोगके द्वारा भगवान् विष्णुकी यत्नपूर्वक आराधना करे। कर्मयोगसे पूजित होनेपर ही भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं, अन्यथा नहीं। भगवान् विष्णुका भजन तीर्थोंसे भीअधिक पावन तीर्थ कहा गया है।

सर्वेषां खलु तीर्थानां स्नानपानावगाहनैः ।

यत्फलं लभते मर्त्यस्तत्फलं कृष्णसेवनात् ॥ 36 ॥

सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करने, उनका जल पीने और उनमें गोता लगानेसे मनुष्य जिस फलको पाता है, वह श्रीकृष्णके सेवनसे प्राप्त हो जाता है।

यजन्ते कर्मयोगेन धन्या एव नरा हरिम् ।

तस्माद्यजध्वं मुनयः कृष्णं परममङ्गलम् ॥ 37॥

भाग्यवान् मनुष्य ही कर्मयोगके द्वारा श्रीहरिका पूजन करते हैं। अतः मुनियो ! आपलोग परम मंगलमय श्रीकृष्णकी आराधना करें।

अध्याय 88 ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम

ऋषियोंने पूछा- सूतजी कर्मयोग कैसे किया जाता है, जिसके द्वारा आराधना करनेपर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं? महाभाग ! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं; अतः हमें यह बात बताइये। जिसके द्वारा मुमुक्षु पुरुष सबके ईश्वर भगवान् श्रीहरिकी आराधना कर सकें, वह समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाला धर्म क्या वस्तु है? उसका वर्णन कीजिये। उसके श्रवणकी इच्छासे ये ब्राह्मणलोग आपके सामने बैठे हैं।

सूतजी बोले- महर्षियों! पूर्वकालमें अग्निके समान तेजस्वी ऋषियोंने सत्यवतीके पुत्र व्यासजीसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा था, उसे आपलोग सुनिये।

व्यासजीने कहा— ऋषियो! मैं सनातन कर्मयोगका वर्णन करूँगा, तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। कर्मयोग ब्राह्मणोंको अक्षय फल प्रदान करनेवाला है। पहले की बात है, प्रजापति मनुने श्रोता बनकर बैठे हुए ऋषियोंके समक्ष ब्राह्मणोंके लाभ लिये वेदप्रसिद्ध सम्पूर्ण विषयोंका उपदेश किया था वह उपदेश सम्पूर्ण पापको हरनेवाला, पवित्र और मुनि समुदायद्वारा सेवित है; मैं उसीका वर्णन करता हूँ, तुमलोग एकाग्रचित्त होकरश्रवण करो। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह अपने गृह्यसूत्रमें बतायी हुई विधिके अनुसार गर्भ या जन्मसे आठवें वर्षमें उपनयन होनेके पश्चात् वेदोंका अध्ययन आरम्भ करे। दण्ड, मेखला, यज्ञोपवीत और हिंसारहितकाला मृगचर्म धारण किये मुनिवेषमें रहे, भिक्षाका अन्न ग्रहण करे और गुरुका मुँह जोहते हुए सदा उनके हितमें संलग्न रहे ब्रह्माजीने पूर्वकालमें यज्ञोपवीत बनानेके लिये ही कपास उत्पन्न किया था ब्राह्मणोंके लिये तीन आवृत्ति करके बनाया हुआ यज्ञोपवीत शुद्ध माना गया है। द्विजको सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहना चाहिये। अपनी शिखाको सदा बाँधे रखना चाहिये। इसके विपरीत बिना यज्ञोपवीत पहने और बिना शिखा बाँधे जो कर्म किया जाता है, वह विधिपूर्वक किया हुआ नहीं माना जाता । वस्त्र रूई जैसा सफेद हो या गेरुआ । फटा न हो, तभी उसे ओड़ना चाहिये तथा वहाँ पहननेके योग्य माना गया है। इनमें भी श्वेत वस्त्र अत्यन्त उत्तम है। उससे भी उत्तम और शुभ आच्छादन काला मृगचर्म माना गया है। जनेऊ गलेमें डालकर दाहिना हाथ उसके ऊपर कर ले और बायीं बाँह [अथवा कंधे ] पर उसे रखे तो वह ‘उपवीत’ कहलाता है। यज्ञोपवीतको सदा इसी तरह रखना चाहिये। कण्ठमें मालाकी भाँति पहना हुआ जनेऊ ‘निवीत’ कहा गया है। ब्राह्मणो बायीं बाँह बाहर निकालकर दाहिनी बाँह या कंधेपर रखे हुए जनेऊको ‘प्राचीनावीत’ (अपसव्य) कहते हैं। इसका पितृ कार्य (श्राद्ध-तर्पण आदि) में उपयोग करना चाहिये। हवन गृहमें, गोशालामें, होम और जपके समय, स्वाध्यायमें भोजनकालमें, ब्राह्मणोंके समीप रहनेपर, गुरुजनों तथा दोनों कालकी संध्याकी उपासना के समय तथा साधु पुरुषोंसे मिलने पर सदा उपवीतके ढंगसे ही जनेऊ पहननाचाहिये – यही सनातन विधि है। ब्राह्मणके लिये तीन आवृत्ति की हुई मूँजकी ही मेखला बनानी चाहिये। मूँज न मिलनेपर कुशसे भी मेखला बनानेका विधान है। मेखलामें गाँठ एक या तीन होनी चाहिये। द्विज बाँस अथवा पलाशका दण्ड धारण करे। दण्ड उसके पैरसे लेकर सिरके केशतक लंबा होना चाहिये। अथवा किसी भी यज्ञोपयोगी वृक्षका दण्ड, जो सुन्दर और छिद्र आदिसे रहित हो, वह धारण कर सकता है।

द्विज सबेरे और सायंकालमें एकाग्रचित्त होकर संध्योपासन करे। जो काम, लोभ, भय अथवा मोहवश संध्योपासन त्याग देता है, वह गिर जाता है। संध्या करनेके पश्चात् द्विज प्रसन्नचित्त होकर सायंकाल और प्रात: कालमें अग्निहोत्र करे। फिर दुबारा स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। इसके बाद पत्र, पुष्प, फल, जौ और जल आदिसे देवताओंकी पूजा करे। प्रतिदिन आयु और आरोग्यकी सिद्धिके लिये तन्द्रा और आलस्य आदिका परित्याग करके ‘मैं अमुक हूँ और आपको प्रणाम करता हूँ’ इस प्रकार अपने नाम, गोत्र आदिका परिचय देते हुए धर्मतः अपनेसे बड़े पुरुषोंको विधिपूर्वक प्रणाम करे और इस प्रकार गुरुजनोंको नमस्कार करनेका स्वभाव बना ले। नमस्कार करनेवाले ब्राह्मणको बदलेमें ‘आयुष्मान् भव सौम्य ! ‘ कहना चाहिये तथा उसके नामके अन्तमें प्लुताकारका उच्चारण करना चाहिये। यदि नाम हलन्त हो, तो अन्तिम हल्के आदिका अक्षर प्लुत बोलना चाहिये। * जोब्राह्मण प्रणामके बदले उक्तरूपसे आशीर्वाद देनेकी विधि नहीं जानता, वह विद्वान् पुरुषके द्वारा प्रणाम करनेके योग्य नहीं है। जैसा शूद्र है, वैसा ही वह भी है। अपने दोनों हाथोंको विपरीत दिशामें करके गुरुके चरणोंका स्पर्श करना उचित है अर्थात् अपने बायें हाथसे गुरुके बायें चरणका और दाहिने हाथसे दाहिने चरणका स्पर्श करना चाहिये। शिष्य जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करता है, उन गुरुदेवको वह पहले प्रणाम करे।

जल, भिक्षा, फूल और समिधा – इन्हें दूसरे दिनके लिये संग्रह न करे-प्रतिदिन जाकर आवश्यकताके अनुसार ले आये। देवताके निमित्त किये जानेवाले कार्योंमें भी जो इस तरहके दूसरे दूसरे आवश्यक सामान हैं, उनका भी अन्य समयके लिये संग्रह न करे। ब्राह्मणसे भेंट होनेपर कुशल पूछे, क्षत्रियसे अनामय, वैश्यसे क्षेम और शूद्रसे आरोग्यका प्रश्न करे। उपाध्याय (गुरु), पिता, बड़े भाई, राजा, मामा, श्वशुर, नाना, दादा, वर्णमें अपनेसे श्रेष्ठ व्यक्ति तथा पिताका भाई – ये पुरुषों में गुरु माने गये हैं। माता, नानी, गुरुपत्नी, बुआ, मौसी, सास, दादी, बड़ी बहिन और दूध पिलानेवाली धाय- इन्हें स्त्रियोंमें गुरु माना गया है। यह गुरुवर्ग माता और पिताके सम्बन्धसे है, ऐसा जानना चाहिये तथा मन, वाणी और शरीरकी क्रियाद्वारा इनके अनुकूल आचरण करना चाहिये। गुरुजनोंको देखते ही उठकर खड़ा हो जाय और हाथ जोड़कर प्रणाम करे। इनके साथ एक आसनपर न बैठे। इनसे विवाद न करे। अपने जीवनकी रक्षाके लिये भी गुरुजनोंके साथ द्वेषपूर्वक बातचीत न करें। अन्य गुणकेद्वारा ऊँचा उठा हुआ पुरुष भी गुरुजनोंसे द्वेष करनेके कारण नीचे गिर जाता है। समस्त गुरुजनोंमें भी पाँच विशेष रूपसे पूज्य हैं। उन पाँचोंमें भी पहले पिता, माता और आचार्य—ये तीन सर्वश्रेष्ठ हैं। उनमें भी माता सबसे अधिक सम्मानके योग्य है। उत्पन्न करनेवाला पिता, जन्म देनेवाली माता, विद्याका उपदेश देनेवाला गुरु, बड़ा भाई और स्वामी-ये पाँच परमपूज्य गुरु माने गये हैं। कल्याणकामी पुरुषको चाहिये कि अपने पूर्ण प्रयत्नसे अथवा प्राण त्यागकर भी इन पाँचोंका विशेष रूपसे सम्मान करे। जबतक पिता और माता-ये दोनों जीवित हों, तबतक सब कुछ छोड़कर पुत्र उनकी सेवामें संलग्न रहे। पिता-माता यदि पुत्रके गुणोंसे भलीभाँति प्रसन्न हों, तो वह पुत्र उनकी सेवारूप कर्मसे ही सम्पूर्ण धर्मोका फल प्राप्त कर लेता परन्तु यह है। माताके समान देवता और पिताके समान गुरु दूसरा नहीं है। उनके किये हुए उपकारोंका बदला भी किसी तरह नहीं हो सकता। अतः मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा उन दोनोंका प्रिय करना चाहिये; उनकी आज्ञाके बिना दूसरे किसी धर्मका आचरण न करे।” निषेध मोक्षरूपी फल देनेवाले नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर ही लागू होता है। [मोक्षके साधनभूत नित्य नैमित्तिक कर्म अनिवार्य हैं, उनका अनुष्ठान होना ही चाहिये; उनके लिये किसीकी अनुमति लेना आवश्यक नहीं है।] यह धर्मके सार तत्त्वका उपदेश किया गया है। यह मृत्युके बाद भी अनन्त फलको देनेवाला है। उपदेशक गुरुकी विधिवत् आराधना करके उनकी आज्ञासे घर लौटनेवाला शिष्य इस लोकमें विद्याका फल भोगता है और मृत्युके पश्चात् स्वर्गमें जाता है।ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान है; जो मूर्ख उसका अपमान करता है, वह उस पापके कारण मृत्युके बाद और नरकमें पड़ता है। सत्पुरुषोंके मार्गपर चलनेवाले पुरुषको स्वामीका सदा सम्मान करना चाहिये। इस संसारमें माताका अधिक उपकार है; इसलिये उसका अधिक गौरव माना गया है मामा, चाचा, श्वशुर, ऋत्विज् और गुरुजनोंसे ‘मैं अमुक हूँ’ ऐसा कहकर बोले और खड़ा होकर उनका स्वागत करे। यहमें दीक्षित पुरुष यदि अवस्थामें अपनेसे छोटा हो, तो भी उसे नाम लेकर नहीं बुलाना चाहिये। धर्मज्ञ पुरुषको उचित है कि वह उससे ‘भोः!’ और ‘भवत्’ (आप) आदि कहकर बात करे। ब्राह्मण और क्षत्रिय आदिके द्वारा भी वह सदा सादर नमस्कारके योग्य और पूजनीय है। उसे मस्तक झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। क्षत्रिय आदि यदि ज्ञान, उत्तम कर्म एवं श्रेष्ठ गुणोंसे युक्त होते हुए अनेक शास्त्रोंके विद्वान् हों, तो भी ब्राह्मणके द्वारा नमस्कारके योग्य कदापि नहीं हैं। ब्राह्मण अन्य सभी वर्णोंके लोगोंसे स्वस्ति कहकर बोले- यह श्रुतिकी आज्ञा है। एक वर्णके पुरुषको अपने समान वर्णवालोंको प्रणाम ही करना चाहिये। समस्त वर्णोंके गुरु ब्राह्मण हैं, ब्राह्मणोंके गुरु अग्नि हैं, स्त्रीका एकमात्र गुरु पति है और अतिथि सबका गुरु है। विद्या, कर्म, वय, भाई-बन्धु और कुल ये पाँच सम्मानके कारण बताये गये हैं। इनमें पिछलोंकी अपेक्षा पहले उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणादि तीन वर्णोंमें जहाँ इन पाँचोंमेंसे अधिक एवं प्रबल गुण होते हैं, वही सम्मानके योग्य समझा जाता है। दसवीं (90 वर्षसे ऊपरकी) अवस्थाको प्राप्त हुआ शूद्र भी सम्मानके योग्य होता है। ब्राह्मण, स्त्री, राजा, नेत्रहीन, वृद्ध, भारसे पीड़ित मनुष्य, रोगी तथा दुर्बलको जानेके लिये मार्ग देना चाहिये।”

ब्रह्मचारी प्रतिदिन मन और इन्द्रियोंको संयममेंरखते हुए शिष्ट पुरुषोंके घरोंसे भिक्षा ले आये तथा गुरुको निवेदन कर दे। फिर गुरु उसमेंसे जितना भोजनके लिये दें, उनकी आज्ञाके अनुसार उतना ही लेकर मौनभावसे भोजन करे। उपनयन संस्कारसे युक्त श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘भवत्’ शब्दका पहले प्रयोग करके अर्थात् ‘भवति भिक्षां मे देहि’ कहकर भिक्षा माँगे । क्षत्रिय ब्रह्मचारी वाक्यके बीचमें और वैश्य अन्तमें ‘भवत्’ शब्दका प्रयोग करे अर्थात् क्षत्रिय ‘भिक्षां भवति मे देहि’ और वैश्य ‘भिक्षां मे देहि भवति’ कहे। ब्रह्मचारी सबसे पहले अपनी माता, बहिन अथवा मौसीसे भिक्षा माँगे। अपने सजातीय लोगोंके घरोंमें ही भिक्षा माँगे अथवा सभी वर्णोंके घरसे भिक्षा ले आये भिक्षाके सम्बन्धमें दोनों ही प्रकारका विधान मिलता है। किन्तु पतित आदिके घरसे भिक्षा लाना वर्जित है। जिनके यहाँ वेदाध्ययन और यज्ञोंकी परम्परा बंद नहीं है, जो अपने कर्मके लिये सर्वत्र प्रशंसित हैं, उन्हींके घरोंसे जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षा ले आये। गुरुके कुलमें भिक्षा न माँगे। अपने कुटुम्ब, कुल और सम्बन्धियोंके यहाँ भी भिक्षाके लिये न जाय। यदि दूसरे घर न मिलें तो यथासम्भव ऊपर बताये हुए पूर्व पूर्व गृहका परित्याग करके भिक्षा ले सकता है। यदि पूर्वकथनानुसार योग्य घर मिलना असम्भव हो जाय तो समूचे गाँवमें भिक्षाके लिये विचरण करे। उस समय मनको काबू में रखकर मौन रहे और इधर-उधर दृष्टि न डाले।

इस प्रकार सरलभावसे आवश्यकतानुसार भिक्षाका संग्रह करके भोजन करे। सदा जितेन्द्रिय रहे। मौन रहकर एवं एकाग्रचित्त हो व्रतका पालन करनेवाला ब्रह्मचारी प्रतिदिन भिक्षाके अन्नसे ही जीवन-निर्वाह करे, एक स्थानका अन्न न खाय । भिक्षासे किया हुआ निर्वाह ब्रह्मचारीके लिये उपवासके समान माना गया है। ब्रह्मचारी भोजनको सदा सम्मानकी दृष्टिसे देखे। गर्वमेंआकर अन्नकी गर्हणा न करे। उसे देखकर हर्ष प्रकट करे। मनमें प्रसन्न हो और सब प्रकारसे उसका अभिनन्दन करे। अधिक भोजन आरोग्य, आयु और स्वर्गलोककी प्राप्तिमें हानि पहुँचानेवाला है वह पुण्यका नाशक और लोक-निन्दित है। इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। पूर्वाभिमुख होकर अथवा सूर्यकी ओर मुँह करके अन्नका भोजन करना उचित है। उत्तराभिमुख होकर कदापि भोजन न करे यह भोजनकी सनातन विधि है। भोजन करनेवाला पुरुष हाथ-पैर धो, शुद्ध स्थानमें बैठकर पहले जलसे आचमन करे फिर भोजनके पश्चात् भी उसे दो बार आचमन करना चाहिये।

भोजन करके, जल पीकर, सोकर उठनेपर और स्नान करनेपर, गलियोंमें घूमनेपर, ओठ चाटने या स्पर्श करनेपर, वस्त्र पहननेपर, वीर्य, मूत्र और मलका त्याग करनेपर अनुचित बात कहनेपर थूकनेपर, अध्ययन आरम्भ करनेके समय, खाँसी तथा दम उठनेपर, चौराहे या श्मशानभूमिमें घूमकर लौटनेपर तथा दोनों संध्याओंके समय श्रेष्ठ द्विज आचमन किये होनेपर भी फिर आचमन करे। चाण्डालों और म्लेच्छोंके साथ बात करनेपर, स्त्रियों, शुद्रों तथा जूठे मुँहवाले पुरुषोंसे वार्तालाप होनेपर, जूठे मुँहवाले पुरुष अथवा जूठे भोजनको देख लेनेपर तथा आँसू या रक्त गिरनेपर भी आचमन करना चाहिये। अपने शरीरसे स्त्रियाँका स्पर्श हो जानेपर अपने बालों तथा खिसककर गिरे हुए वस्त्रका स्पर्श कर लेनेपर धर्मकी दृष्टिसे आचमन करना उचित है। आचमनके लिये जल ऐसा होना चाहिये, जो गर्म न हो, जिसमें फेन न हो तथा जो खारा न हो पवित्रताकी इच्छा रखनेवाला पुरुष सर्वदा पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर ही आचमन करे। उस समय सिर अथवा गलेको ढके रहे तथा बाल और चोटीको खुला रखे। कहींसे आया हुआ पुरुष दोनों पैरोंको धोये बिना पवित्र नहीं होता। विद्वान् पुरुष सीढ़ीपर या जलमें खड़ा होकर अथवा पगड़ी बाँधे आचमन न करे। बरसती हुई धाराके जलसे अथवा खड़ा होकर या हाथसे उलीचे हुए जलके द्वारा आचमन करना उचित नहीं है। एक हाथसेदिये हुए जलके द्वारा अथवा बिना यज्ञोपवीतके भी आचमन करना निषिद्ध है। खड़ाऊँ पहने हुए अथवा घुटनोंके बाहर हाथ करके भी आचमन नहीं करना चाहिये। बोलते, हँसते, किसीकी ओर देखते तथा बिछौनेपर लेटे हुए भी आचमन करना निषिद्ध है। जिस जलको अच्छी तरह देखा न गया हो, जिसमें फेन आदि हों, जो शूद्रके द्वारा अथवा अपवित्र हाथोंसे लाया गया हो तथा जो खारा हो, ऐसे जलसे भी आचमन करना अनुचित है। आचमनके समय अँगुलियोंसे शब्द न करे, मनमें दूसरी कोई बात न सोचे। हाथसे बिलोड़े हुए जलके द्वारा भी आचमन करना निषिद्ध है। ब्राह्मण उतने ही जलसे आचमन करनेपर पवित्र हो सकता है, जो हृदयतक पहुँच सके। क्षत्रिय कण्ठतक पहुँचनेवाले आचमनके जलसे शुद्ध होता है। वैश्य जिह्वासे जलका आस्वादन मात्र कर लेनेसे पवित्र होता है और स्त्री तथा शूद्र जलके स्पर्शमात्रसे शुद्ध हो जाते हैं।

अँगूठेकी जड़के भीतरकी रेखामें ब्राह्मतीर्थं बताया जाता है। अँगूठे और तर्जनीके बीचके भागको पितृतीर्थ कहते हैं। कानी अँगुलीके मूलसे पीछेका भाग प्राजापत्यतीर्थ कहलाता है। अँगुलियोंका अग्रभाग देवतीर्थ माना गया है। उसीको आर्षतीर्थ भी कहते हैं। अथवा अँगुलियोंके मूलभागमें दैव और आर्षतीर्थ तथा मध्यमें आग्नेय तीर्थ है। उसीको सौमिक तीर्थ भी कहते हैं। यह जानकर मनुष्य मोहमें नहीं पड़ता। ब्राह्मण सदा ब्राह्मतीर्थसे ही आचमन करे बार अथवा देवतीर्थसे आचमनकी इच्छा रखे। किन्तु पितृ तीर्थसे कदापि आचमन न करे। पहले मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मतीर्थसे तीन आचमन करे। फिर अँगूठेके मूलभागसे मुँहको पोंछते हुए उसका स्पर्श करे। तत्पश्चात् अँगूठे और अनामिका अँगुलियोंसे दोनों नेत्रोंका स्पर्श करे। फिर तर्जनी और अँगूठेके योगसे नाकके दोनों छिद्रोंका, कनिष्ठा और अँगूठेके संयोगसे दोनों कानोंका, सम्पूर्ण अँगुलियोंके योगसे हृदयका, करतलसे मस्तकका और अँगूठेसे दोनों कंधोंका स्पर्श करे।द्विज तीन बार जो जलका आचमन करता है, उससे ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी तृप्त होते हैं-ऐसा हमारे सुननेमें आया है। मुखका परिमार्जन करनेसे गंगा और यमुनाको तृप्ति होती है। दोनों नेत्रोंके स्पर्शसे सूर्य और चन्द्रमा प्रसन्न होते हैं। नासिकाके दोनों छिद्रोंका स्पर्श करनेसे अश्विनीकुमारोंकी तथा कानोंके स्पर्शसे वायु और अग्निकी तृप्ति होती है। हृदयके स्पर्शसे सम्पूर्ण देवता प्रसन्न होते हैं और मस्तकके स्पर्शसे वह अद्वितीय पुरुष (अन्तर्यामी) प्रसन्न होता है। मधुपर्क, सोमरस, पान, फल, मूल तथा गन्ना- इन सबके खाने-पीनेमें मनुजीने दोष नहीं बताया है-उससे मुँह जूठा नहीं होता। अन्न खाने या जल पीनेके लिये प्रवृत्त होनेवाले मनुष्यके हाथमें यदि कोई वस्तु हो तो उसे पृथ्वीपर रखकर आचमनके पश्चात् उसपर भी जल छिड़क देना चाहिये। जिस-जिस वस्तुको हाथमें लिये हुए मनुष्य अपना मुँह जूठा करता है, उसे यदि पृथ्वीपर न रखे तो वह स्वयं भी अशुद्ध ही रह जाता है। वस्त्र आदिके विषयमें विकल्प है-उसे पृथ्वीपर रखा भी जा सकता है और नहीं भी। उसका स्पर्श करके आचमन करना चाहिये। रातके समय जंगलमें चोर और व्याघ्रोंसे भरे हुए रास्तेपर चलनेवाला पुरुष द्रव्य हाथमें लिये हुए भी मल-मूत्रका त्याग करके दूषित नहीं होता। यदि दिनमें शौच जाना हो तो जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ाकर उत्तराभिमुख हो मल-मूत्रका त्याग करे। यदि रात्रिमें जाना पड़े तो दक्षिणकी ओर मुँह करके बैठना चाहिये। पृथ्वीको लकड़ी, पत्ते, मिट्टी, ढेले अथवा घाससे ढककर तथा अपने मस्तकको भी वस्त्रसे आच्छादित करके मलमूत्रका त्याग करना चाहिये। किसी पेड़की छायामें, कुएँके पास, नदीके किनारे, गोशाला, देवमन्दिर तथा जलमें, रास्तेपर, राखपर, अग्निमें तथा श्मशान भूमिमें भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। गोबरपर, काठपर, बहुत बड़े वृक्षपर तथा हरी-भरी घासमें भी मल-मूत्र करना निषिद्ध है। खड़े होकर तथा नग्न होकर भी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये। पर्वतमण्डलमें, पुराने देवालयमें, बाँबीपर तथा किसी भी गड्ढे में मल-मूत्रका त्याग वर्जित है। चलते-चलते भी पाखाना और पेशाब नहीं करना चाहिये। भूसी, कोयले तथा ठीकरेपर, खेतमें, बिलमें, तीर्थमें, चौराहेपर अथवा सड़कपर, बगीचेमें, जलके निकट, ऊसर भूमिमें तथा नगरके भीतर – इन सभी स्थानोंमें मल मूत्रका त्याग मना है।

खड़ाऊँ या जूता पहनकर, छाता लगाकर, अन्तरिक्षमें, स्त्री, गुरु, ब्राह्मण, गौ, देवता, देवालय तथा जलकी ओर मुँह करके, नक्षत्रों तथा ग्रहोंको देखते हुए अथवा उनकी ओर मुँह करके तथा सूर्य, चन्द्रमा और अग्निकी ओर दृष्टि करके भी कभी मल-मूत्रका त्याग नहीं करना चाहिये शौच आदि होनेके पश्चात् कहीं किनारेसे लेप और दुर्गन्धको मिटानेवाली मिट्टी लेकर आलस्यरहित हो विशुद्ध एवं बाहर निकाले हुए जलसे हाथ आदिकी शुद्धि करे। ब्राह्मणको उचित है कि वह रेत मिली हुई अथवा कीचड़की मिट्टी न ले। रास्तेसे, ऊसर भूमिसे तथा दूसरोंके शौचसे बची हुई मिट्टीको भी काममें न ले। देवमन्दिरसे, कुएँसे, घरकी दीवारसे और जलसे भी मिट्टी न ले । तदनन्तर हाथ-पैर धोकर प्रतिदिन पूर्वोक्त विधिसे आचमन करना चाहिये ।

अध्याय 89 ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म

व्यासजी कहते हैं— महर्षियो! इस प्रकार दण्ड, मेखला, मृगचर्म आदिसे युक्त तथा शौचाचारसे सम्पन्न ब्रह्मचारी गुरुके मुँहकी ओर देखता रहे और जब वे बुलायें तभी उनके पास जाकर अध्ययन करे। सदा हाथ जोड़े रहे. सदाचारी और संयमी बने जब गुरु बैठनेकीआज्ञा दें, तब उनके सामने बैठे। गुरुकी बातका श्रवण और गुरुके साथ वार्तालाप – ये दोनों कार्य लेटे-लेटे न करे और भोजन करते समय भी न करे। उस समय न तो खड़ा रहे और न दूसरी ओर मुख ही फेरे । गुरुके समीप शिष्यकी शय्या और आसन सदा नीचे रहनेचाहिये। जहाँतक गुरुकी दृष्टि पड़ती हो, वहाँक मनमाने आसनपर न बैठे। गुरुके परोक्षमें भी उनका नाम न ले। उनकी चाल, उनकी बोली तथा उनकी चेष्टाका अनुकरण न करे। जहाँ गुरुपर लांछन लगाया जाता हो अथवा उनकी निन्दा हो रही हो, वहाँ कान मूँद लेने चाहिये अथवा वहाँसे अन्यत्र हट जाना चाहिये। दूर खड़ा होकर, क्रोधमें भरकर अथवा स्त्रीके समीप रहकर गुरुकी पूजा न करे गुरुकी वातका प्रत्युत्तर न दे यदि गुरु पास ही खड़े हों तो स्वयं भी बैठा न रहे। गुरुके लिये सदा पानीका घड़ा, कुश, फूल और समिधा लाया करे। प्रतिदिन उनके आँगनमें झाडू देकर उसे लीप-पोत दे। गुरुके उपभोगमें आयी हुई वस्तुओंपर, उनकी शय्या खड़ाऊँ, जूते, आसन तथा छाया आदिपर कभी पैर न रखे गुरुके लिये दान आदि ला दिया करें। जो कुछ प्राप्त हो, उन्हें निवेदन कर दे। उनसे पूछे बिना कहीं न जाय और सदा उनके प्रिय एवं हितमें संलग्न रहे गुरुके समीप कभी पैर न फैलाये। उनके सामने जँभाई लेना, हँसना, गला बँकना और अँगड़ाई लेना सदाके लिये छोड़ दे। समयानुसार गुरुसे, जबतक कि वे पढ़ानेसे उदासीन न हो जायँ, अध्ययन करे। गुरुके पास नीचे बैठे। एकाग्र चित्तसे उनकी सेवामें लगा रहे। गुरुके आसन, शय्या और सवारीपर कभी न बैठे। गुरु यदि दौड़ते हों तो उनके पीछे-पीछे स्वयं भी दौड़े। वे चलते हो तो स्वयं भी पीछे-पीछे जाव बैलगाड़ी, घोड़ागाड़ी, ऊँटगाड़ी, महलकी अटारी, कुशकी चटाई, शिलाखण्ड तथा नावपर गुरुके साथ शिष्य भी बैठ सकता है।

शिष्यको सदा जितेन्द्रिय, जितात्मा, क्रोधहीन और पवित्र रहना चाहिये। वह सदा मधुर और हितकारी वचन बोले। चन्दन, माला, स्वाद, श्रृंगार, सीपी, प्राणियोंकी हिंसा, तेलकी मालिश, सुरमा, शावंत आदि। पेय, छत्रधारण, काम, लोभ, भय, निद्रा, गाना-बजाना, दूसरोंको फटकारना, किसीपर लांछन लगाना, स्त्रीकी ओर देखना, उसका स्पर्श करना, दूसरेका घात करना तथा चुगली खाना-इन दोषोंका यत्नपूर्वक परित्याग करे। जलसे भरा हुआ पड़ा, फूल, गोबर, मिट्टी औरकुश – इन वस्तुओंका आवश्यकताके अनुसार संग्रह करे तथा अन्नको भिक्षा लेनेके लिये प्रतिदिन जाय । भी, नमक और वासी अन्न ब्रह्मचारीके लिये वर्जित हैं। वह कभी नृत्य न देखे। सदा संगीत आदिसे निःस्पृह रहे। न सूर्यकी ओर देखे न दातुन करे। उसके लिये स्त्रियाँके साथ एकान्तमें रहना और शूद्र आदिके साथ वार्तालाप करना भी निषिद्ध है। वह गुरुके उच्छिष्ट औषध और अन्नका स्वेच्छासे उपयोग न करे।

ब्राह्मण गुरुके परित्यागका किसी तरह विचार भी मनमें न लाये। यदि मोह या लोभवश वह उन्हें त्याग दें तो पतित हो जाता है। जिनसे लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उन गुरुदेवसे कभी द्रोह न करे। गुरु यदि घमंडी, कर्तव्य-अकर्तव्यको न जाननेवाला और कुमार्गगामी हो तो मनुजीने उसका त्याग करनेका आदेश दिया है। गुरुके गुरु समीप आ जायें तो उनके प्रति भी गुरुकी ही भाँति बर्ताव करना चाहिये। नमस्कार करनेके पश्चात् जब वे गुरुजी आज्ञा दें, तब आकर अपने गुरुओंको प्रणाम करना चाहिये जो विद्यागुरु हाँ, उनके प्रति भी यही बर्ताव करना चाहिये। जो योगी हो, जो अधर्मसे रोकने और हितका उपदेश करनेवाले हों, उनके प्रति भी सदा गुरुजनोचित वर्ताव करना चाहिये। गुरुके पुत्र, गुरुकी पत्नी तथा गुरुके बन्धु-बान्धवोंके साथ भी सदा अपने गुरुके समान ही बर्ताव करना उचित है। इससे कल्याण होता है। वालक अथवा शिष्य यज्ञकर्ममें माननीय पुरुषोंका आदर करे। यदि गुरुका पुत्र भी पढ़ाये तो गुरुके समान ही सम्मान पानेका अधिकारी है। किन्तु गुरुपुत्रके शरीर दबाने, नहलाने, उच्छिष्ट भोजन करने तथा चरण धोने आदिका कार्य न करे। गुरुको स्त्रियोंमें जो उनके समान वर्णकी हों, उनका गुरुकी भाँति सम्मान करना चाहिये तथा जो समान वर्णकी न हों, उनका अभ्युत्थान और प्रणाम आदिके द्वारा ही सत्कार करना चाहिये। गुरुपत्नीके प्रति तेल लगाने, नहलाने, शरीर दबाने और केशोंका श्रृंगार करने आदिकी सेवा न करे। यदि गुरुकी स्त्री युवती हो तो उसका चरण स्पर्श करकेप्रणाम नहीं करना चाहिये अपितु अमुक ह कहकर पृथ्वीपर ही मस्तक टेकना चाहिये। सत्पुरुषांक धर्मका निरन्तर स्मरण करनेवाले शिष्यको उचित है। कि वह बाहरसे आनेपर प्रतिदिन गुरुपत्नीका चरण स्पर्श एवं प्रणाम करे। मौसी, मामी, सास, बुआ-ये सब गुरुपत्नीके समान हैं। अतः गुरुपत्नीकी भाँति इनका भी आदर करना चाहिये। अपने बड़े भाइयोंकी सवर्ण स्त्रियोंका प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना उचित है। परदेशसे आनेपर अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियोंकी सभी श्रेष्ठ स्त्रियोंके चरणोंमें मस्तक झुकाना चाहिये। बुआ, मौसी तथा बड़ी बहिनके साथ माताकी ही भाँति बर्ताव करना चाहिये, इन सबकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है।

जो इस प्रकार सदाचारसे सम्पन्न, अपने मनको वशमें रखनेवाला और दम्भहीन शिष्य हो, उसे प्रतिदिन वेद, धर्मशास्त्र और पुराणका अध्ययन कराना चाहिये। जब शिष्य सालभरतक गुरुकुलमें निवास कर ले और उस समयतक गुरु उसे ज्ञानका उपदेश न करे तो वह अपने पास रहनेवाले शिष्यके सारे पापोंको हर लेता है। आचार्यका पुत्र सेवापरायण, ज्ञान देनेवाला, धर्मात्मा, पवित्र, शक्तिशाली, अन्न देनेवाला, पानी पिलानेवाला, साधु पुरुष और अपना शिष्य- ये दस प्रकारके पुरुष धर्मतः पढ़ानेके योग्य हैं। कृतज्ञ, द्रोह न रखनेवाला, मेधावी, गुरु बनानेवाला, विश्वासपात्र और प्रिय-ये छ प्रकारके द्विज विधिपूर्वक अध्ययन करानेके योग्य हैं। शिष्य आचमन करके संयमशील हो उत्तराभिमुख बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करे। गुरुके चरणोंमें प्रणाम करके उनका मुँह जोहता रहे। जब गुरु कहें सौम्य ! आओ, पढ़ो,’ तब उनके पास जाकर पाठ पढ़े और जब वे कहें कि ‘अब पाठ बंद करना चाहिये’, तब पाठ बंद कर दे। अग्निके पूर्व आदि दिशाओंमें कुश बिछाकर उनकी उपासना करे। तीन प्राणायामोंसे पवित्र होकर ब्रह्मचारी ॐ कारके जपका अधिकारी होता है।ब्रह्मणो विप्रको अध्ययनके आदि और अन्तमें भी विधिपूर्वक प्रणवका जप करना चाहिये प्रतिदिन पहले वेदको अंजलि देकर उसका अध्ययन कराना चाहिये। वेद सम्पूर्ण भूतोंके सनातन नेत्र हैं; अतः प्रतिदिन उनका अध्ययन करे अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। जो नित्यप्रति ऋग्वेदका अध्ययन करता है, वह दूधकी आहुतिसे जो यजुर्वेदका पाठ करता है, वह दहीसे; जो सामवेदका अध्ययन करता है, वह घीकी आहुतियोंसे तथा जो अथर्ववेदका पाठ करता है, वह सदा मधुसे देवताओंको तृप्त करता है। उन देवताओंके समीप नियमपूर्वक नित्यकर्मका आश्रय ले वनमें जा एकाग्रचित्त हो गायत्रीका जप करे। प्रतिदिन अधिक से अधिक एक हजार, मध्यम स्थितिमें एक सौ अथवा कम-से-कम दस बार गायत्री देवीका जप करना चाहिये; यह जपयज्ञ कहा गया है। भगवान्ने गायत्री और वेदोंको तराजूपर रखकर तोला था, एक ओर चारों वेद थे और एक ओर केवल गायत्री मन्त्र । दोनोंका पलड़ा बराबर रहा। द्विजको चाहिये कि वह श्रद्धालु एवं एकाग्रचित्त होकर पहले ओंकारका और फिर व्याहृतियोंका उच्चारण करके गायत्रीका उच्चारण करे पूर्वकल्पमें ‘भूः’, ‘भुवः’ और ‘स्व’ ये तीन सनातन महाव्याहृतियाँ उत्पन्न हुईं, जो सब प्रकारके अमंगलका नाश करनेवाली हैं ये तीनों व्याहृतियाँ क्रमशः प्रधान, पुरुष और कालका, विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीका तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका प्रतीक मानी गयी हैं। पहले ‘ऑ’ उसके बाद ‘ब्रह्म’ तथा उसके पश्चात् गायत्री मन्त्र – इन सबको मिलाकर यह महायोग नामक मन्त्र बनता है, जो सारसे भी सार बताया गया है। जो ब्रह्मचारी प्रतिदिन इस वेदमाता गायत्रीका अर्थ समझकर जप करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है गायत्री वेदोंकी जननी है गायत्री सम्पूर्ण संसारको पवित्र करनेवाली है। गायत्रीसे बढ़कर दूसरा कोई अपनेयोग्यमन्त्र नहीं है। यह जानकर मनुष्य मुक्त हो जाता है।” द्विजवरो! आषाढ़, श्रावण अथवा भादोंकी पूर्णिमाको

वेदोंका उपाकर्म बताया गया है अर्थात् उक्त तिथिसे वेदोंका स्वाध्याय प्रारम्भ किया जाता है। जबतक सूर्य दक्षिणायनके मार्गपर चलते हैं, तबतक अर्थात् साढ़े चार महीने प्रतिदिन पवित्र स्थानमें बैठकर ब्रह्मचारी एकाग्रतापूर्वक वेदोंका स्वाध्याय करे। तत्पश्चात् द्विज पुष्यनक्षत्रमें घरके बाहर जाकर वेदोंका उत्सर्ग स्वाध्यायकी समाप्ति करे। शुक्लपक्षमें प्रातः काल और कृष्णपक्षमें संध्याके समय वेदोंका स्वाध्याय करना चाहिये।

वेदोंका अध्ययन, अध्यापन प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाले पुरुषको नीचे लिखे अनध्यायोंके समय सदा ही अध्ययन बंद रखना चाहिये। यदि रातमें ऐसी तेज हवा चले, जिसकी सनसनाहट कानोंमें गूंज उठे तथा दिनमें धूल उड़ानेवाली आँधी चलने लगे तो अनध्याय होता है। यदि बिजलीकी चमक, मेघकी गर्जना, वृष्टि तथा महान् उल्कापात हो तो प्रजापति मनुने अकालिक अनध्याय बताया है-ऐसे अवसरोंपर उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक अध्ययन रोक देना उचित है। यदि अग्निहोत्रके लिये अग्नि प्रज्वलित करनेपर इन उत्पातोंका उदय जान पड़े तो वर्षाकालमें अनध्याय समझना चाहिये तथा वर्षासे भिन्न ऋतुमें यदि बादल दीख भी जाय तो अध्ययन रोक देना चाहिये। वर्षा ऋतुमें और उससे भिन्न कालमें भी यदि उत्पात सूचक शब्द, भूकम्प, चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिर्मय ग्रहोंके उपद्रव हों तो अकालिक (उस समयसे लेकर दूसरे दिन उसी समयतक) अनध्याय समझना चाहिये। यदि प्रातः कालमें होमाग्नि प्रज्वलित होनेपर बिजलीकी गड़गड़ाहट और मेघकी गर्जना सुनायी दे तो सज्योति अनध्याय होता है अर्थात् ज्योति-सूर्यके रहनेतक हीअध्ययन बंद रहता है। इसी प्रकार रातमें भी अग्नि प्रज्वलित होनेके पश्चात् यदि उक्त उत्पात हो तो दिनकी ही भाँति सज्योति-ताराओंके दीखनेतक अनध्याय माना जाता है। धर्मकी निपुणता चाहनेवाले पुरुषोंके लिये गाँवों, नगरों तथा दुर्गन्धपूर्ण स्थानोंमें सदा ही अनध्याय रहता है। गाँवके भीतर मुर्दा रहनेपर, शूद्रकी समीपता होनेपर, रोनेका शब्द कानमें पड़नेपर तथा मनुष्योंकी भारी भीड़ रहनेपर भी सदा ही अनध्याय होता है। जलमें, आधी रातके समय, मल-मूत्रका त्याग करते समय, जूठा मुँह रहनेपर तथा श्राद्धका भोजन कर लेनेपर मनसे भी वेदका चिन्तन नहीं करना चाहिये। विद्वान् ब्राह्मण एकोद्दिष्ट श्राद्धका निमन्त्रण लेकर तीन दिनोंतक वेदोंका अध्ययन बंद रखे। राजाके यहाँ 1 सूतक (जननाशौच) हो या ग्रहणका सूतक लगा हो, तो भी तीन दिनोंतक वेद-मन्त्रोंका उच्चारण न करे। एकोद्दिष्टमें सम्मिलित होनेवाले विद्वान् ब्राह्मणके शरीर में जबतक श्राद्धके चन्दनकी सुगन्ध और लेप रहे, तबतक वह वेद-मन्त्रका उच्चारण न करे। लेटकर, पैर फैलाकर, घुटने मोड़कर तथा शूद्रका श्राद्धान्न भोजन करके वेदाध्ययन न करे। कुहरा पड़नेपर, बाणका शब्द होनेपर, दोनों संध्याओंके समय, अमावास्या, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अष्टमीको भी वेदाध्ययन निषिद्ध है। वेदोंके उपाकर्मके पहले और उत्सर्गके बाद तीन राततक अनध्याय माना गया है। अष्टका तिथियोंको एक दिन-रात तथा ऋतुके अन्तकी रात्रियोंको रातभर अध्ययन निषिद्ध है। मार्गशीर्ष पौष और माघ मासके कृष्णपक्षमें जो अष्टमी तिथियों आती हैं. उन्हें विद्वान् पुरुषोंने तीन अष्टकाओंके नामसे कहा है। बहेड़ा, सेमल, महुआ, कचनार और कैथ-इन वृक्षोंकी छायामें कभी वेदाध्ययन नहीं करना चाहिये। अपने सहपाठी अथवा साथ रहनेवाले ब्रह्मचारी या आचार्यकीमृत्यु हो जानेपर तीन राततक अनध्याय माना गया है। ये अवसर वेदपाठी ब्राह्मणोंके लिये छिद्ररूप हैं, अतः अनध्याय कहे गये हैं। इनमें अध्ययन करनेसे राक्षस हिंसा करते हैं; अतः इन अनध्यायोंका त्याग कर देना चाहिये । नित्य कर्ममें अनध्याय नहीं होता । संध्योपासन भी बराबर चलता रहता है। उपाकर्ममें, उत्सर्गमें, होमके अन्तमें तथा अष्टकाकी आदि तिथियोंको वायुके चलते रहनेपर भी स्वाध्याय करना चाहिये । वेदांगों, इतिहास-पुराणों तथा अन्य धर्मशास्त्रोंके लिये भी अनध्याय नहीं । इन सबको अनध्यायकी कोटिसे पृथक् समझना चाहिये ।

यह मैंने ब्रह्मचारीके धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने शुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषियोंके सामने इस धर्मका प्रतिपादन किया था। जो द्विज वेदका अध्ययन न करके दूसरे शास्त्रोंमें परिश्रम करता है, वह मूढ़ और वेदबाह्य माना गया है। द्विजातियोंको उससेबात नहीं करनी चाहिये। द्विजको केवल वेदोंके पाठ मात्रसे ही संतोष नहीं कर लेना चाहिये। जो केवल पाठ मात्रमें लगा रह जाता है, वह कीचड़में फँसी हुई गौकी भाँति कष्ट उठाता है। जो विधिपूर्वक वेदका अध्ययन करके उसके अर्थका विचार नहीं करता, वह मूढ़ एवं शूद्रके समान है। वह सुपात्र नहीं होता। यदि कोई सदाके लिये गुरुकुलमें वास करना चाहे तो सदा उद्यत रहकर शरीर छूटनेतक गुरुकी सेवा करता रहे। वनमें जाकर विधिवत् अग्निमें होम करे तथा ब्रह्मनिष्ठ एवं एकाग्रचित्त होकर सदा स्वाध्याय करता रहे। वह भिक्षाके अन्नपर निर्भर रहकर योगयुक्त हो सदा गायत्रीका जप और शतरुद्रिय तथा विशेषतः उपनिषदोंका अभ्यास करता रहे। वेदाध्ययनके विषयमें जो यह परम प्राचीन विधि है, इसका भलीभाँति मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। पूर्वकालमें श्रेष्ठ महर्षियोंके पूछनेपर दिव्यशक्तिसम्पन्न स्वायम्भुव मनुने इसका प्रतिपादन किया था।

अध्याय 90 स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन

व्यासजी कहते हैं- ब्राह्मणो! श्रेष्ठ ब्रह्मचारी अपनी शक्तिके अनुसार एक, दो, तीन अथवा चारों वेदों तथा वेदांगोंका अध्ययन करके उनके अर्थको भलीभाँति हृदयंगम करके ब्रह्मचर्य व्रतकी समाप्तिका स्नान करे। गुरुको दक्षिणारूपमें धन देकर उनकी आज्ञा ले स्नान करना चाहिये। व्रतको पूरा करके मनको काबू में रखनेवाला समर्थ पुरुष स्नातक होनेके योग्य है। वह बाँसकी छड़ी, अधोवस्त्र तथा उत्तरीय (चादर) धारण करे। एक जोड़ा यज्ञोपवीत और जलसे भरा हुआ कमण्डलु धारण करे। बाल और नख कटाकर स्नान आदिसे शुद्ध हो उसे छाता साफ पगड़ी, खड़ाऊँ याजूता तथा सोनेके कुण्डल धारण करने चाहिये। ब्राह्मण सोनेकी मालाके सिवा दूसरी कोई लाल रंगकी माला न धारण करे। वह सदा श्वेत वस्त्र पहने, उत्तम गन्धका सेवन करे और वेश-1 – भूषा ऐसी रखे, जो देखने में प्रिय जान पड़े। धन रहते हुए फटे और मैले वस्त्र न पहने। अधिक लाल और दूसरेके पहने हुए वस्त्र, कुण्डल, माला, जूता और खड़ाऊँको अपने काममें न लाये। यज्ञोपवीत, आभूषण, कुश और काला मृगचर्म- इन्हें अपसव्य भावसे न धारण करे। अपने योग्य स्त्रीसे विधिपूर्वक विवाह करे। स्त्री शुभ गुणोंसे युक्त, रूपवती, सुलक्षणा और योनिगत दोषोंसे रहित होनी चाहिये।माताके गोत्रमें जिसका जन्म न हुआ हो, जो अपने गोत्र में उत्पन्न न हुई हो तथा उत्तम शील और पवित्रतासे युक्त हो, ऐसी भार्यासे ब्राह्मण विवाह करे। जबतक पुत्रका जन्म न हो, तबतक केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करे। इसके लिये शास्त्रोंमें जो निषिद्ध दिन है, उनका यत्नपूर्वक त्याग करे षष्ठी अष्टमी, पूर्णिमा, द्वादशी तथा चतुर्दशी तिथि स्त्री-समागमके लिये निषिद्ध हैं। उक्त नियमोंका पालन करनेसे गृहस्थ भी सदा ब्रह्मचारी ही माना जाता है। विवाह – कालकी अग्निको सदा स्थापित रखे और उसमें अग्निदेवताके निमित्त प्रतिदिन हवन करे। स्नातक पुरुष इन पावन नियमोंका सदा ही पालन करे। अपने [वर्ण और आश्रम के लिये विहित ] वेदोक्त कर्मका सदा आलस्य छोड़कर पालन करना चाहिये। जो नहीं करता, वह अत्यन्त भयंकर नरकोंमें पड़ता है। सदा संयमशील रहकर वेदोंका अभ्यास करे, पंच महायज्ञोंका त्याग न करे, गृहस्थोचित समस्त शुभ कार्य और संध्योपासन करता रहे। अपने समान तथा अपनेसे बड़े पुरुषोंके साथ मित्रता करे, सदा ही भगवान्की शरण में रहे। देवताओंके दर्शनके लिये यात्रा करे तथा पत्नीका पालन-पोषण करता रहे। विद्वान् पुरुष लोगोंमें अपने किये हुए धर्मकी प्रसिद्धि न करे तथा पापको भी न छिपाये। सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करते हुए सदा अपने हितका साधन करे। अपनी वय, कर्म, धन, विद्या, उत्तम कुल, देश, वाणी और बुद्धिके अनुरूप आचरण करते हुए सदा विचरण करता रहे। श्रुतियों और स्मृतियोंमें जिसका विधान हो तथा साधु पुरुषोंने जिसका भलीभाँति सेवन किया हो, उसी आचारका पालन करे; अन्य कार्योंके लिये कदापि चेष्टा न करे। जिसका उसके पिताने अनुसरण किया हो तथा जिसका पितामहोंने किया हो, उसी वृत्तिसे वह भी सत्पुरुषोंके मार्गपर चले; उसका अनुसरण करनेवाला पुरुष दोषका भागी नहीं होता। प्रतिदिन स्वाध्याय करे, सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहे तथा सर्वदा सत्य बोले क्रोधको जीते और लोभ-मोहका परित्याग कर दे। गायत्रीका जप तथा पितरोंका श्राद्ध करनेवाला गृहस्थ मुक्त हो जाता है। माता-पिताके हितमें संलग्न, ब्राह्मणोंके कल्याणमें तत्पर, दाता, याज्ञिक और वेदभक्त गृहस्थ ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। सदा ही धर्म, अर्थ एवं कामका सेवन करते हुए प्रतिदिन देवताओंका पूजन करे और शुद्धभावसे उनके चरणों में मस्तक झुकाये। बलिवैश्वदेवके द्वारा सबको अन्नका भाग दे। निरन्तर क्षमाभाव रखे और सबपर दयाभाव बनाये रहे। ऐसे पुरुषको ही गृहस्थ कहा गया है; केवल घरमें रहने से कोई गृहस्थ नहीं हो सकता।

क्षमा, दया, विज्ञान, सत्य, दम, शम, सदा अध्यात्मचिन्तन तथा ज्ञान- ये ब्राह्मणके लक्षण हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह विशेषतः इन गुणोंसे कभी च्युत न हो अपनी शक्तिके अनुसार धर्मका अनुष्ठान करते हुए निन्दित कर्मोंको त्याग दे। मोहरूपी कीचड़को धोकर परम उत्तम ज्ञानयोगको प्राप्त करके गृहस्थ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है – इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वधको तथा दूसरोंके क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको सह लेना ‘क्षमा’ है। अपने दुःखमें करुणा तथा दूसरोंके दुःखमें सौहार्द – स्नेहपूर्ण सहानुभूतिके होनेको मुनियोंने ‘दया’ कहा है, जो धर्मका साक्षात् साधन है। छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय – शास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र-ये चौदह विद्याएँ हैं। इन चौदह विद्याओंको यथार्थरूपसे धारण करना इसीको ‘विज्ञान’ समझना चाहिये। जिससे धर्मको वृद्धि होती है। विधिपूर्वक विद्याका अध्ययन करके तथा धनका उपार्जन कर धर्म-कार्यका अनुष्ठान करे इसे भी ‘विज्ञान’ कहते हैं। सत्यसे मनुष्यलोकपर विजय पाता है, वह सत्य ही परम पद है। जो बात जैसे हुई हो | उसे उसी रूपमें कहनेको मनीषी पुरुषोंने ‘सत्य’ कहा है। शरीरको उपरामताका नाम ‘दम’ है। बुद्धिकी निर्मलतासे ‘राम’ सिद्ध होता है। अक्षर (अविनाशी) पदको ‘अध्यात्म’ समझना चाहिये; जहाँ जाकर मनुष्य शोकमें नहीं पड़ता जिस विद्यासे विधऐश्वर्ययुक्त परम देवता साक्षात् भगवान् हृषीकेशका ज्ञान होता है, उसे ‘ज्ञान’ कहा गया है। जो विद्वान् ब्राह्मण उस ज्ञानमें स्थित, भगवत्परायण, सदा ही क्रोधसे दूर रहनेवाला, पवित्र तथा महायज्ञके ह अनुष्ठानमें तत्पर रहनेवाला है, वह उस उत्तम पदको प्राप्त कर लेता है। यह मनुष्य शरीर धर्मका आश्रय है, इसका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये; क्योंकि देहके बिना कोई भी पुरुष परमात्मा श्रीविष्णुका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । द्विजको चाहिये कि वह सदा नियमपूर्वक रहकर धर्म, अर्थ और कामके साधनमें लगा रहे। धर्महीन काम या अर्थका कभीमनसे चिन्तन भी न करे। धर्मपर चलनेसे कष्ट हो, तो भी अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि धर्म-देवता साक्षात् भगवान्‌के स्वरूप हैं; वे ही सब प्राणियोंकी गति हैं। द्विज सब भूतोंका प्रिय करनेवाला बने; दूसरोंके प्रति द्रोहभावसे किये जानेवाले कर्ममें मन न लगाये; वेदों और देवताओंकी निन्दा न करे तथा निन्दा करनेवालोंके साथ निवास भी न करे। जो ब्राह्मण प्रतिदिन नियमपूर्वक रहकर पवित्रताके साथ इस धर्माध्यायको पढ़ता, पढ़ाता अथवा सुनाता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। *

अध्याय 91 व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन

व्यासजी कहते हैं— ब्राह्मणो! किसी भी प्राणीकी हिंसा न करें। कभी झूठ न बोले अहित करनेवाला तथा अप्रिय वचन मुँहसे न निकाले। कभी चोरी न करे। किसी दूसरेकी वस्तु चाहे वह तिनका, साग, मिट्टी या जल ही क्यों न हो— चुरानेवाला मनुष्य नरकमें पड़ता है। राजासे, शूद्रसे, पतितसे तथा दूसरे किसीसे भी दान न ले। यदि विद्वान् ब्राह्मण असमर्थ हो उसका दान लिये बिना काम न चले, तो भी उसे निन्दित पुरुषोंको तो त्याग ही देना चाहिये। कभी याचक न बने; [याचना करे भी, तो] एक ही पुरुषसे दुबारा याचना न करे। इस प्रकार सदा या बारंबार माँगनेवाला याचक कभी-कभी दुर्बुद्धि दाताका प्राण भी ले लेता है। श्रेष्ठ द्विज विशेषतः देवसम्बन्धी द्रव्यका अपहरण न करे तथा ब्राह्मणका धन तो कभी आपत्ति पड़नेपर भी न ले। विषको विष नहीं कहते; ब्राह्मण और देवताका धन ही विष कहलाता है; अतः सर्वदा प्रयत्नपूर्वक उससे बचा रहे द्विजो! देवपूजाके लिये सदा एक ही स्थानसे मालिककी आज्ञा लिये बिना फूल नहीं तोड़ने चाहिये। विद्वान् पुरुष केवल धर्मकार्यके लिये दूसरेके घास, लकड़ी, फल और फूल ले सकता है; किन्तु इन्हें सबके सामने-दिखाकर ले जाना चाहिये। जो इस प्रकार नहीं करता, वह गिर जाता है। विप्रगण। जो लोग कहीं मार्गमें हो और भूखसे पीड़ित हों, वे ही किसी खेतसे मुद्रीभर तिल, मूंग या जी आदि ले सकते हैं अन्यथा जो भूखे एवं राही न हों, वे उन वस्तुओंको लेनेकेअधिकारी नहीं है- यही मर्यादा है जो वास्तवमें अलिंगी है-जिसने किसी आश्रमका चिह्न नहीं ग्रहण किया है, वह भी यदि दिखावेके तौरपर आश्रमविशेषका चिह्न – उसकी वेश-भूषा धारण करके जीविका चलाता है तो वह वास्तविक लिंगी (आश्रमचिह्नधारी) पुरुषके पापको ग्रहण करता है तथा तिर्यग्योनिमें जन्म लेता है। नीच पुरुषसे याचना, योनिसम्बन्ध, सहवास और बातचीत करनेवाला द्विज गिर जाता है; अत: इन सब बालोंसे यत्नपूर्वक दूर रहना चाहिये। देवद्रोह और गुरुद्रोह न करे; देवद्रोहसे भी गुरुद्रोह कोटि-कोटिगुना अधिक है तथा उससे भी करोड़गुना अधिक है दूसरे लोगोंपर लांछन लगाना और ईश्वर तथा परलोकपर अविश्वास करना । कुत्सित विचार, क्रियालोप, वेदोंके न पढ़ने और ब्राह्मणका तिरस्कार करनेसे उत्तम कुल भी अधम हो जाते हैं। असत्यभाषण, परस्त्रीसंगम, अभक्ष्यभक्षण तथा अपने कुलधर्मके विरुद्ध आचरण करनेसे कुलका शीघ्र ही नाश हो जाता है।

जो गाँव अधार्मिकोंसे भरा हो तथा जहाँ रोगोंकी अधिकता हो, वहाँ निवास न करे शूद्रके राज्यमें तथा पाखण्डियों से घिरे हुए स्थानमें भी न रहे। द्विज हिमालय और विन्ध्याचलके तथा पूर्व समुद्र और पश्चिम समुद्रके बीचके पवित्र देशको छोड़कर अन्यत्र निवास न करे। जिस देशमें कृष्णसार मृग सदा स्वभावतः विचरण करता है अथवा पवित्र एवं प्रसिद्ध नदियाँ प्रवाहित होती हैं, वहीं द्विजको निवास करना चाहिये। श्रेष्ठ द्विजको उचित है कि नदी तटसे आधे कोसकी भूमि छोड़कर अन्यत्रनिवास न करे। चाण्डालोंके गाँवके समीप नहीं रहना चाहिये। पतित, चाण्डाल, पुल्कस (निषादसे शूद्रामें उत्पन्न), मूर्ख, अभिमानी, अन्त्यज तथा अन्त्यावसायी (निषादकी स्त्रीमें चाण्डालसे उत्पन्न) पुरुषोंके साथ कभी निवास न करे। एक शय्यापर सोना, एक आसनपर स्थित होना, एक पंक्तिमें बैठना, एक बर्तनमें खाना, दूसरोंके पके हुए अन्नको अपने अन्नमें मिलाकर भोजन करना, यज्ञ करना, पढ़ाना, विवाह सम्बन्ध स्थापित करना, साथ बैठकर भोजन करना, साथ-साथ पढ़ना और एक साथ यज्ञ कराना ये संकरताका प्रसार करनेवाले ग्यारह सांकर्यदोष बताये गये हैं। समीप रहनेसे भी मनुष्योंके पाप एक-दूसरे में फैल जाते हैं। इसलिये पूरा प्रयत्न करके सांकर्यदोषसे बचना चाहिये। जो राख आदिसे सीमा बनाकर एक पंक्ति में बैठते और एक-दूसरेका स्पर्श नहीं करते, उनमें संकरताका दोष नहीं आता। अग्नि, भस्म, जल, विशेषतः द्वार, खंभा तथा मार्ग-इन छ: से पंक्तिका भेद (पृथक्करण) होता है।

अकारण वैर न करे, विवादसे दूर रहे, किसीकी चुगली न करे, दूसरेके खेतमें चरती हुई गौका समाचार कदापि न कहे। चुगलखोरके साथ न रहे, किसीको चुभनेवाली बात न कहे। सूर्यमण्डलका घेरा, इन्द्रधनुष, वाणसे प्रकट हुई आग, चन्द्रमा तथा सोना-इन सबकी और विद्वान् पुरुष दूसरेका ध्यान आकृष्ट न करे । बहुत-से मनुष्यों तथा भाई-बन्धुओंके साथ विरोध न करे। जो बर्ताव अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरोंके लिये भी न करे। द्विजवरो। रजस्वला स्त्री अथवा अपवित्र मनुष्यके साथ बातचीत न करे। देवता,गुरु और ब्राह्मणके लिये किये जानेवाले दानमें रुकावट न डाले। अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरेकी निन्दाका त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दाका यत्नपूर्वक त्याग करे। मुनीश्वरो ! जो द्विज देवताओं, ऋषियों अथवा वेदोंकी निन्दा करता है, शास्त्रोंमें उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं देखा गया है। जो गुरु, देवता, वेद अथवा उसका विस्तार करनेवाले इतिहास-पुराणकी निन्दा करता है, वह मनुष्य सौ करोड़ कल्पसे अधिक कालतक रौरव नरकमें पकाया जाता है। जहाँ इनकी निन्दा होती हो, वहाँ चुप रहे; कुछ भी उत्तर न दे। कान बंद करके वहाँसे चला जाय। निन्दा करनेवालेकी ओर दृष्टिपात न करे। विद्वान् पुरुष दूसरोंकी निन्दा न करे। अच्छे पुरुषोंके साथ कभी विवाद न करे, पापियोंके पापकी चर्चा न करे। जिनपर झूठा कलंक लगाया जाता है; उन मनुष्योंके रोनेसे जो आँसू गिरते हैं, वे मिथ्या कलंक लगानेवालोंके पुत्रों और पशुओंका विनाश कर डालते हैं। ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुपत्नीगमन आदि पापोंसे शुद्ध होनेका उपाय वृद्ध पुरुषोंने देखा है; किन्तु मिथ्या कलंक लगानेवाले मनुष्यकी शुद्धिका कोई उपाय नहीं देखा गया है । ll 3 ll

बिना किसी निमित्तके सूर्य और चन्द्रमाको उदयकालमें न देखे; उसी प्रकार अस्त होते हुए, जलमें प्रतिबिम्बित, मेघसे ढके हुए, आकाशके मध्यमें स्थित, छिपे हुए तथा दर्पण आदिमें छायाके रूपमें दृष्टिगोचर होते हुए सूर्य-चन्द्रमाको भी न देखे। नंगी स्त्री और नंगे पुरुषकी ओर भी कभी दृष्टिपात न करे। मल-मूत्रको न | देखे; मैथुनमें प्रवृत्त पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। विद्वान् पुरुष अपवित्र अवस्थामें सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रहोंकीओर न देखे। उच्छिष्ट अवस्थामें या कपड़ेसे अपने सारे बदनको ढककर दूसरेसे बात न करे। क्रोधमें भरे हुए गुरुके मुखपर दृष्टि न डाले तेल और जलमें अपनी परछाई न देखे। भोजन समाप्त हो जानेपर जूठी पंक्तिकी ओर दृष्टिपात न करे। बन्धनसे खुले हुए और मतवाले हाथीकी ओर दृष्टि न डाले। पत्नीके साथ भोजन न करे। भोजन करती, छींकती, जंभाई लेती और अपनी मौजसे आसनपर बैठी हुई भार्याकी ओर दृष्टिपात न करे। बुद्धिमान् पुरुष किसी शुभ या अशुभ वस्तुको न तो लाँघे और न उसपर पैर ही रखे। कभी क्रोधके अधीन नहीं होना चाहिये। राग और द्वेषका त्याग करना चाहिये तथा लोभ, दम्भ, अवज्ञा, दोषदर्शन, ज्ञाननिन्दा, ईर्ष्या, मद, शोक और मोह आदि दोषोंको छोड़ देना चाहिये। किसीको पीड़ा न दे। पुत्र और शिष्यको शिक्षाके लिये ताड़ना दे। नीच पुरुषोंकी सेवा न करे तथा कभी तृष्णामें मन न लगाये। दीनताको यत्नपूर्वक त्याग दे विद्वान् पुरुष किसी विशिष्ट व्यक्तिका अनादर न करे।

नखसे धरती न कुरेदे । गौको जबर्दस्ती न बिठाये। साथ-साथ यात्रा करनेवालेको कहीं ठहरने या भोजन करनेके समय छोड़ न दे । नग्न होकर जलमें प्रवेश न करे। अग्निको न लाँघे । मस्तकपर लगानेसे बचे हुए तेलको शरीरमें न लगाये। साँपों और हथियारोंसे खिलवाड़ न करे। अपनी इन्द्रियोंका स्पर्श न करे। रोमावलियों तथा गुप्त अंगोंको भी न छूए । अशिष्ट मनुष्यके साथ यात्रा न करे। हाथ, पैर, वाणी, नेत्र, शिश्न, उदर तथा कान आदिको चंचल न होने दे। अपने शरीर और नख आदिसे बाजेका काम न ले। अंजलिसे जल न पीये। पानीपर कभी पैर या हाथसे आघात न करे। ईंटें मारकर कभी फल या मूल न तोड़े। म्लेच्छोंकी भाषा न सीखे। पैरसे आसन न खींचे। बुद्धिमान् पुरुष अकारण नख तोड़ना, ताल ठोंकना, धरतीपर रेखा खींचना या अंगोंको मसलना आदि व्यर्थका कार्य न करे। खाद्यपदार्थको गोदमें लेकर न खाय । व्यर्थकी चेष्टा न करे। नाच-गान न करे। बाजे न बजाये। दोनों हाथ सटाकर अपना सिर न खुजलाये। जुआ न खेले। दौड़ते हुए न चले। पानीमें पेशाब या पाखाना न करे। जूठे मुँह बैठना या लेटना निषिद्ध है। नग्न होकर स्नान न करे। चलते हुए न पढ़े। दाँतोंसे नख और रोएँ न काटे। सोये हुएको न जगाये। सबेरेकी धूपका सेवन न करे। चिताके धुएँसे बचकर रहे। सूने घरमें न सोये। अकारण न थूके। भुजाओंसे तैरकर नदी पार न करे। पैरसे कभी पैर न धोये। पैरोंको आगमें न तपाये। काँसीके बर्तनमें पैर न धुलाये। देवता, ब्राह्मण, गौ, वायु, अग्नि, राजा, सूर्य तथा चन्द्रमाकी ओर पाँव न पसारे । अशुद्ध अवस्थामें शयन, यात्रा, स्वाध्याय, स्नान, भोजन तथा बाहर प्रस्थान न करे। दोनों संध्याओं तथा मध्याह्नके समय शयन, क्षौरकर्म, स्नान, उबटन, भोजन तथा यात्रा न करे। ब्राह्मण जूठे मुँह गौ, ब्राह्मण तथा अग्निका स्पर्श न करे । उन्हें पैरसे कभी न छेड़े तथा देवताकी प्रतिमाका भी जूठे मुँह स्पर्श न करे । अशुद्धावस्थामें अग्निहोत्र तथा देवता और ऋषियोंका कीर्तन न करे। अगाध जलमें न घुसे तथा अकारण न दौड़े। बायें हाथसे जल उठाकर या पानीमें मुँह लगाकर न पिये । आचमन किये बिना जलमें न उतरे। पानीमें वीर्य न छोड़े। अपवित्र तथा बिना लिपी हुई भूमि, रक्त तथा विषको लाँघकर न चले। रजस्वला स्त्रीके साथ अथवा जलमें मैथुन न करे। देवालय या श्मशानभूमिमें स्थित वृक्षको न काटे। जलमें न थूके। हड्डी, राख, ठीकरे, बाल, काँटे, भूसी, कोयले तथा कंडोंपर कभी पैर न रखे।

बुद्धिमान् पुरुष न तो अग्निको लाँघे और न कभी उसे नीचे रखे। अग्निकी ओर पैर न करे तथा मुँहसे उसे कभी न फूँके । पेड़पर न चढ़े। अपवित्रावस्थामें किसीकी ओर दृष्टिपात न करे। आगमें आग न डाले तथा उसे पानी डालकर न बुझाये। अपने किसी सुहकीमृत्युका समाचार स्वयं दूसरोंको न सुनाये। माल बेचते समय बेमोलका भाव अथवा झूठा मूल्य न बतावे विद्वान्‌को उचित है कि वह मुखके निःश्वाससे और अपवित्रावस्थामें अग्निको प्रज्वलित न करे। पहलेकी की हुई प्रतिज्ञा भंग न करे। पशुओं, पक्षियों तथा व्याघ्रोंको परस्पर न लड़ाये। जल, वायु और धूप आदिके द्वारा दूसरेको कष्ट न पहुँचाये। पहले अच्छे कर्म करवाकर बादमें गुरुजनोंको धोखा न दे। सबेरे और सायंकालको रक्षाके लिये घरके दरवाजोंको बंद कर दे। विद्वान् ब्राह्मणको भोजन करते समय खड़ा होना और बातचीत करते समय हँसना उचित नहीं है। अपने द्वारा स्थापित अग्निको हाथसे नछूए तथा देरतक जलके भीतर न रहे। अग्नि को पंखेसे, सूपसे, हाथसे अथवा मुँहसे न फूँके । विद्वान् पुरुष परायी स्त्रीसे वार्तालाप न करे। जो यज्ञकरानेयोग्य नहीं है, उसका यज्ञ न कराये। ब्राह्मण कभी अकेला न चले और समुदायसे भी दूर रहे। कभी देवालयको बायें रखकर न जाय, वस्त्रोंको कूटे नहीं और देवमन्दिरमें सोये नहीं। अधार्मिक मनुष्योंके साथ भी न चले। रोगी, शूद्र तथा पतित मनुष्योंके साथ भी यात्रा करना मना है। द्विज बिना जूतेके न चले। जल आदिका प्रबन्ध किये बिना यात्रा न करे। मार्गमें चिताको बायें करके न जाय। योगी, सिद्ध, व्रतधारी, संन्यासी, देवालय, देवता तथा याज्ञिक पुरुषोंकी कभी निन्दा न करे। जान-बूझकर गौ तथा ब्राह्मणकी छायापर पैर न रखे। झाडूकी धूलसे बचकर रहे। स्नान किया हुआ वस्त्र तथा घड़ेसे छलकता हुआ जल-इन दोनोंके स्पर्शसे बचना चाहिये। द्विजको उचित है कि वह अभक्ष्य वस्तुका भक्षण और नहीं पीनेयोग्य वस्तुका पान न करे।

अध्याय 92 गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन

व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो। ब्राह्मणको शुद्रका अन्न नहीं खाना चाहिये; जो ब्राह्मण आपत्तिकालके बिना ही मोहवश या स्वेच्छासे शूद्रान्न भक्षण करता है, वह मरकर शूद्र- योनिमें जन्म लेता है। जो द्विज छः मासतक शूद्रके कुत्सित अन्नका भोजन करता है. वह जीते-जी ही शूद्रके समान हो जाता है और मरनेपर कुत्ता होता है। मुनीश्वरो मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र-जिसके अन्नको पेटमें रखकर प्राण त्याग करता है, उसीकी योनिमें जन्म लेता है। नट, नाचनेवाला, चाण्डाल, चमार, समुदाय तथा वेश्या- इन छ: के अन्नका परित्याग करना चाहिये। तेली, धोबी, चोर, शराब बेचनेवाले, नाचने-गानेवाले, लुहार तथा मरणाशौचसे युक्त मनुष्यका अन्न भी त्याग देना चाहिये। कुम्हार, चित्रकार, सूदखोर, पतित, द्वितीय पति स्वीकार करनेवाली स्त्रीके पुत्र,अभिशापग्रस्त, सुनार, रंगमंचपर खेल दिखाकर जीवन निर्वाह करनेवाले, व्याध, वन्ध्या, रोगी, चिकित्सक (वैद्य या डॉक्टर), व्यभिचारिणी स्त्री, हाकिम, नास्तिक, देवनिन्दक, सोमरसका विक्रय करनेवाले, स्त्रीके वशीभूत रहनेवाले, स्त्रीके उपपतिको घरमें रखनेवाले, पुरुष परित्यक्त, कृपण, जूठा खानेवाले, महापापी, शस्त्रोंसे जीविका चलानेवाले, भयभीत तथा रोनेवाले मनुष्यका अन्न भी त्याज्य है। ब्रह्मद्वेषी और पापमें रुचि रखनेवालेका अन्न, मृतक के श्राद्धका अन्न, बलिवैश्वदेवरहित रसोईका अन्न तथा रोगीका अन्न भी नहीं खाना चाहिये। संतानहीन स्त्री, कृतघ्न, कारीगर और नाजिर तथा परिवेत्ता ( बड़े भाईको अविवाहित छोड़कर अपना विवाह करनेवाले) – का अन्न भी खानेयोग्य नहीं है। पुनर्विवाहिता स्त्री तथा दिधिषू-पतिका अन्न भी त्याज्य है। अवहेलना,अनादर तथा रोषपूर्वक मिला हुआ अन्न भी नहीं खाना चाहिये। गुरुका अन्न भी यदि संस्काररहित हो तो वह भोजन करनेयोग्य नहीं है क्योंकि मनुष्यका सारा पाप अन्नमें स्थित होता है जो जिसका अन्न खाता है, यह उसका पाप भोजन करता है।

आर्धिक (किसान), कुलमित्र (कुर्मी), गोपाल (ग्वाला), दास, नाई तथा आत्मसमर्पण करनेवाला पुरुष – इनका अन्न भोजन करनेके योग्य है। कुशीलव चारण और क्षेत्रकर्मक- (खेतमें काम करनेवाले) इनका भी अन्न खानेयोग्य है। विद्वान् पुरुष इन्हें थोड़ी कीमत देकर इनका अन्न ग्रहण कर सकते हैं। तेलमें पकायी हुई वस्तु, गोरस, सत्तू, तिलकी खली और तेल – ये वस्तुएँ द्विजातियोंद्वारा शूद्रसे ग्रहण करनेयोग्य हैं। भाँटा, कमलनाल, कुसुम्भ, प्याज, लहसुन, शुक्त और गोंदका त्याग करना चाहिये। छत्राक तथा यन्त्रसे निकाले हुए आसव आदिका भी परित्याग करना उचित है। गाजर, मूली, कुम्हड़ा, गूलर और लौकी खानेसे द्विज गिर जाता है। रातमें तेल और दहीका यत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। दूधके साथ मट्ठा और नमकीन अन्न नहीं मिलाना चाहिये।

जिस अन्नके प्रति दूषित भावना हो गयी हो, जो दुष्ट पुरुषोंके सम्पर्क में आ गया हो, जिसे कुत्तेने सूँघ लिया हो, जिसपर चाण्डाल, रजस्वला स्त्री अथवा पतितोंकी दृष्टि पड़ गयी हो, जिसे गायने सूँघ लिया हो, जिसे कौए अथवा मुर्गेने छू लिया हो, जिसमें कीड़े पड़ गये हों, जो मनुष्योंद्वारा सूँघा अथवा कोढ़ीसे छू गया हो, जिसे रजस्वला, व्यभिचारिणी अथवा रोगिणी स्त्रीने दिया हो, ऐसे अन्नको त्याग देना चाहिये। दूसरेका वस्त्र भी त्याज्य है। बिना बछड़ेकी गायका, ऊँटनीका, एक खुरवाले पशु-घोड़ी आदिका, भेड़का तथा हथिनीकादूध पीनेयोग्य नहीं है- यह मनुका कथन है मांस भक्षण न करे। द्विजातियोंके लिये मदिरा किसीको देना, स्वयं उसे पीना, उसका स्पर्श करना तथा उसकी और देखना भी मना है- पाप है; उससे सदा दूर ही रहना चाहिये यही सनातन मर्यादा है। इसलिये पूर्ण प्रयत्न करके सर्वदा मद्यका त्याग करे। जो द्विज मद्य पान करता है, वह द्विजोचित कर्मोंसे भ्रष्ट हो जाता है; उससे बात भी नहीं करनी चाहिये। अतः ब्राह्मणको सदा यत्नपूर्वक अभक्ष्य एवं अपेय वस्तुओंका परित्याग करना उचित है। यदि त्याग न करके उक्त निषिद्ध वस्तुओंका सेवन करता है तो वह रौरव नरकमें जाता है। ll 2 ll

अब मैं परम उत्तम दानधर्मका वर्णन करूंगा। इसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने ब्रह्मवादी ऋषियोंको उपदेश किया था। योग्य पात्रको श्रद्धापूर्वक धन अर्पण करना दान कहलाता है। ओंकारके उच्चारणपूर्वक किया हुआ दान भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला होता हैं। दान तीन प्रकारका बतलाया जाता है-नित्य, नैमित्तिक और काम्य एक चौथा प्रकार भी है, जिसे ‘विमल’ नाम दिया गया है। विमल दान सब प्रकारके दानोंमें परमोत्तम है। जिसका अपने ऊपर कोई उपकार न हो, ऐसे ब्राह्मणको फलकी इच्छा न रखकर प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है, वह ‘नित्यदान’ है जो पापकी शान्तिके लिये विद्वानोंके हाथमें अर्पण किया जाता है, उसे श्रेष्ठ पुरुषोंने ‘नैमित्तिक’ दान बताया है; वह भी उत्तम दान है जो सन्तान, विजय, ऐश्वर्य और सुखकी प्राप्तिके उद्देश्यसे दिया जाता है, उसे धर्मका विचार करनेवाले ऋषियोंने ‘काम्य’ दान कहा है तथा जो भगवान्‌को प्रसन्नताके लिये धर्मयुक्त चित्तसे ब्रह्मवेा पुरुषोंको कुछ अर्पण किया जाता है, वह कल्याणमय दान ‘विमल’ (सात्त्विक) माना गया है।सुयोग्य पात्रके मिलनेपर अपनी शक्तिके अनुसार दान अवश्य करना चाहिये। कुटुम्बको भोजन और वस्त्र देनेके बाद जो बच रहे, उसीका दान करना चाहिये; अन्यथा कुटुम्बका भरण-पोषण किये बिना जो कुछ दिया जाता है, वह दान दानका फल देनेवाला नहीं होता। वेदपाठी, कुलीन, विनीत, तपस्वी, व्रतपरायण एवं दरिद्रको भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये। जो अग्निहोत्री ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक पृथ्वीका दान करता है; वह उस परमधामको प्राप्त होता है जहाँ जाकर जीव कभी शोक नहीं करता। जो मनुष्य वेदवेत्ता ब्राह्मणको गन्नोंसे भरी हुई तथा जौ और गेहूँ की खेती लहलहाती हुई भूमि दान करता है, वह फिर इस संसारमें जन्म नहीं लेता। जो दरिद्र ब्राह्मणको गौके चमड़े बराबर भूमि भी प्रदान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। भूमिदानसे बढ़कर इस संसारमें दूसरा कोई दान नहीं है केवल अन्नदान उसकी समानता करता है और विद्यादान उससे अधिक है जो शान्त पवित्र और धर्मात्मा ब्राह्मणको विधिपूर्वक विद्यादान करता है, वह ब्रह्म लोकमें प्रतिष्ठित होता है। गृहस्थ ब्राह्मणको आन्नदान करके मनुष्य उत्तम फलको प्राप्त होता है। गृहस्थको अन्न ही देना चाहिये, उसे देकर मानव परमगतिको प्राप्त होता है। वैशाखकी पूर्णिमाको विधिपूर्वक उपवास करके शान्त, पवित्र एवं एकाग्रचित्त होकर काले तिलों और विशेषतः मधुसे सात या पाँच ब्राह्मणोंकी पूजा करे तथा इससे धर्मराज प्रसन्न हो ऐसी भावना करे। जब मनमें यह भाव स्थिर हो जाता है, उसी क्षण मनुष्य के जीवनभरके किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। काले मृगचर्मपर तिल, सोना, मधु और घी रखकर जो ब्राह्मणको दान देता है, वह सब पापोंसे तर जाता है। जो विशेषतः वैशाखकी पूर्णिमाको धर्मराजके उद्देश्यसेब्राह्मणोंको घी और अन्नसहित जलका घड़ा दान करता है, वह भयसे छुटकारा पा जाता है। जो सुवर्ण और तिलसहित जलके पात्रोंसे सात या पाँच ब्राह्मणोंको तृप्त करता है, वह ब्रह्महत्यासे छूट जाता है। माघ मासके कृष्णपक्ष में द्वादशी तिथिको उपवास करें और श्वेत वस्त्र धारण करके काले तिलोंसे अग्निमें हवन करे तत्पश्चात् एकाग्रचित्त हो ब्राह्मणोंको तिलोंका ही दान करे। इससे द्विज जन्मभरके किये हुए सब पापको पार कर जाता है। अमावास्या आनेपर देवदेवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु के उद्देश्यसे जो कुछ भी बन पड़े, तपस्वी ब्राह्मणको दान दे और सबका शासन करनेवाले इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न हो, यह भाव रखे। ऐसा करनेसे सात जन्मोंका किया हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाता है।

जो कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको स्नान करके ब्राह्मणके मुखमें अन्न डालकर इस प्रकार भगवान् शंकरकी आराधना करता है, उसका पुनः इस संसार में जन्म नहीं होता। विशेषतः कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथिको स्नान करके चरण धोने आदिके द्वारा विधिपूर्वक पूजा करनेके पश्चात् धार्मिक ब्राह्मणको ‘मुझपर महादेवजी प्रसन्न हों’ इस उद्देश्यसे अपना द्रव्य दान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होता है। भक्त द्विजोंको उचित है कि वे कृष्णपक्षकी चतुर्दशी, अष्टमी तथा विशेषतः अमावास्याके दिन भगवान् महादेवजीको पूजा करें। जो एकादशीको निराहार रहकर द्वादशीको ब्राह्मणके मुखमें अन्न दे इस प्रकार पुरुषोत्तमकी अर्चना करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है यह शुक्लपक्षको द्वादशी भगवान् विष्णुकी तिथि है। इस दिन भगवान् जनार्दनको प्रयत्नपूर्वक आराधना करनी चाहिये। भगवान् शंकर अथवा श्रीविष्णुके उद्देश्यसे जो कुछ भी पवित्र ब्राह्मणको दानदिया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। जो मनुष्य जिस देवताकी आराधना करना चाहे, उसके उद्देश्यसे ब्राह्मणोंका ही यत्नपूर्वक पूजन करे, इससे वह उस देवताको संतुष्ट कर लेता है। देवता सदा ब्राह्मणोंके शरीरका आश्रय लेकर ही रहते हैं। ब्राह्मणोंके न मिलनेपर वे कहीं-कहीं प्रतिमा आदिमें भी पूजित होते हैं। प्रतिमा आदिमें बहुत यत्न करनेपर अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। अतः सदा विशेषतः द्विजोंमें ही देवताओंका पूजन करना उचित है।

ऐश्वर्य चाहनेवाला मनुष्य इन्द्रकी पूजा करे। ब्रह्मतेज और ज्ञान चाहनेवाला पुरुष ब्रह्माजीकी आराधना करे। आरोग्यकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष सूर्यकी, धनकी कामनावाला मनुष्य अग्निकी तथा कर्मोकी सिद्धि चाहनेवाला पुरुष गणेशजीका पूजन करे। जो भग चाहता हो, वह चन्द्रमाकी, बल चाहनेवाला वायुकी तथा सम्पूर्ण संसार-बन्धनसे छूटनेकी अभिलाषा रखनेवाला मनुष्य यत्नपूर्वक श्रीहरिकी आराधना करे। जो योग, मोक्ष तथा ईश्वरीय ज्ञान- तीनोंकी इच्छा रखता हो, यत्न करके देवताओंके स्वामी महादेवजीकी अर्चना करे। जो महान् भोग तथा विविध प्रकारके ज्ञान चाहते हैं, वे भोगी पुरुष श्रीभूतनाथ महेश्वर तथा भगवान् श्रीविष्णुकी भी पूजा करते हैं। जल देनेवाले मनुष्यकी तृप्ति होती है; अतः जलदानका महत्त्व अधिक है। तेल दान करनेवालेको अनुकूल संतान और दीप देनेवालेको उत्तम नेत्रकी प्राप्ति होती है। भूमि-दान करनेवालोंको सब कुछ सुलभ होता है। सुवर्ण दाताको दीर्घ आयु प्राप्त होती है। गृह-दान करनेवालेको श्रेष्ठ भवन और चाँदी दान करनेवालेको उत्तम रूप मिलता है। वस्त्र दान करनेवाला चन्द्रमाके लोकमें जाता है। अश्व- दान करनेवालेको उत्तम सवारी मिलती है। अन्न-दाताको अभीष्ट सम्पत्ति और गोदान करनेवालेको सूर्यलोककी प्राप्ति होती है। सवारी और शय्या-दानकरनेवाले पुरुषको पत्नी मिलती है। अभय-दान करनेवालेको ऐश्वर्य प्राप्त होता है धान्य दाताको सनातन सुख और ब्रह्म (वेद) दान करनेवालेको शास्वत ब्रह्मलोकको प्राप्ति होती है।

जो वेदविद्याविशिष्ट ब्राह्मणोंको अपनी शक्तिके अनुसार अनाज देता है, वह मृत्युके पश्चात् स्वर्गका सुख भोगता है। गौओंको अन्न देनेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है; ईंधन दान करनेसे मनुष्यकी जठराग्नि दीप्त होती है। जो ब्राह्मणोंको फल, मूल, पीनेयोग्य पदार्थ और तरह-तरहके शाक-दान करता है, वह सदा आनन्दित होता है। जो रोगीके रोगको शान्त करनेके लिये उसे औषध, तेल और आहार प्रदान करता है, वह रोगहीन, सुखी और दीर्घायु होता है। जो छत्र और जूते दान करता है, वह नरकोंके अन्तर्गत असिपत्रवन, छूरेकी धारसे युक्त मार्ग तथा तीखे तापसे बच जाता है। संसारमें जो-जो वस्तु अत्यन्त प्रिय मानी गयी है तथा जो मनुष्यके घरमें अपेक्षित है, उसीको यदि अक्षय बनानेकी इच्छा हो तो गुणवान् ब्राह्मणको उसका दान करना चाहिये। अयन-परिवर्तनके दिन, विषुव’ नामक योग आनेपर, चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणमें तथा संक्रान्ति आदिके अवसरोंपर दिया हुआ दान अक्षय होता है। प्रयाग आदि तीर्थो, पुण्य-मन्दिरों, नदियों तथा वनोंमें भी दान करके मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है। प्राणियोंके लिये इस संसारमें दानधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। इसलिये द्विजातियोंको चाहिये कि वे श्रोत्रिय ब्राह्मणको अवश्य दान दें। ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले पुरुष स्वर्गको प्राप्ति के लिये तथा मुमुक्षु पुरुष पापकी शान्तिके लिये प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान देते रहे।

जो पापात्मा मानव गौ, ब्राह्मण, अग्नि और देवताके लिये दी जानेवाली वस्तुको मोहवश रोक देता है, उसे पशु-पक्षियोंकी योनिमें जाना पड़ता है। जो द्रव्यका उपार्जन करके ब्राह्मणों और देवताओंका पूजन नहींकरता, उसका सर्वस्व छीनकर राजा उसे राज्यसे बाहर निकाल दे। जो अकालके समय ब्राह्मणके मरते रहनेपर भी अन्न आदिका दान नहीं करता, वह ब्राह्मण निन्दित है। ऐसे ब्राह्मणसे दान नहीं लेना चाहिये तथा उसके साथ निवास भी नहीं करना चाहिये। राजाको उचित है वह उसके शरीरमें कोई चिह्न अंकित करके उसे अपने राज्यसे बाहर कर दे। द्विजोत्तमगण! जो ब्राह्मण स्वाध्यायशील, विद्वान्, जितेन्द्रिय तथा सत्य और संयमसे युक्त हों, उन्हें दान करना चाहिये। जो सम्मानपूर्वक देता और सम्मानपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों स्वर्गमें जाते हैं; इसके विपरीत आचरण करनेपर उन्हें नरकमें गिरना पड़ता है, यदि अविद्वान् ब्राह्मण चाँदी, सोना, गौ, घोड़ा, पृथिवी और तिल आदिका दान ग्रहण करे तो सूखे ईंधनकी भाँति भस्म हो जाता है। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह उत्तम ब्राह्मणोंसे धन लेनेकी इच्छा रखे। क्षत्रिय और वैश्योंसे भी वह धन ले सकता है; किन्तु शूद्रसे तो वह किसी प्रकार धन न ले।

अपनी जीविका-वृत्तिको कम करनेकी ही इच्छा रखे, धन बढ़ानेकी चेष्टा न करे; धनके लोभमें फँसा हुआ ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे ही भ्रष्ट हो जाता है। सम्पूर्ण वेदोंको पढ़कर और सब प्रकारके यज्ञोंका पुण्य पाकर भी ब्राह्मण उस गतिको नहीं पा सकता, जिसे वहसंतोषसे पा लेता है। दान लेनेकी रुचि न रखे। जीवन-निर्वाहके लिये जितना आवश्यक है, उससे अधिक धन ग्रहण करनेवाला ब्राह्मण अधोगतिको प्राप्त होता है। जो संतोष नहीं धारण करता, वह स्वर्गलोकको पानेका अधिकारी नहीं है। वह लोभवश प्राणियोंको उद्विग्न करता है; चोरकी जैसी स्थिति है, वैसी ही उसकी भी है। गुरुजनों और भृत्यजनोंके उद्धारकी इच्छा रखनेवाला पुरुष देवताओं और अतिथियोंका तर्पण करनेके लिये सब ओरसे प्रतिग्रह ले; किन्तु उसे अपनी तृप्तिका साधन न बनाये-स्वयं उसका उपभोग न करे। इस प्रकार गृहस्थ पुरुष मनको वशमें करके देवताओं और अतिथियोंका पूजन करता हुआ जितेन्द्रियभावसे रहे तो वह परमपदको प्राप्त होता है।

तदनन्तर गृहस्थ पुरुषको उचित है कि पत्नीको पुत्रोंके हवाले कर दे और स्वयं वनमें जाकर तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करके सदा एकाग्रचित्त हो उदासीन भावसे अकेला विचरे। द्विजवरो! यह गृहस्थोंका धर्म है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इसे जानकर नियमपूर्वक आचरणमें लाये और दूसरे द्विजोंसे भी इसका अनुष्ठान कराये। जो इस प्रकार गृहस्थधर्मके द्वारा निरन्तर एक, अनादि देव ईश्वरका पूजन करता है, वह सम्पूर्ण भूतयोनियोंका अतिक्रमण करके परमात्माको प्राप्त होता है, फिर संसारमें जन्म नहीं लेता।

अध्याय 93 वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन

व्यासजी कहते हैं— द्विजवरो! इस प्रकार आयुके दो भाग व्यतीत होनेतक गृहस्थ आश्रममें रहकर पत्नी तथा अग्निसहित वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे अथवा पत्नीका भार पुत्रोंपर रखकर या पुत्रके पुत्रको देख लेनेके पश्चात् जरा-जीर्ण कलेवरको लेकर वनके लिये प्रस्थान करे। उत्तरायणका श्रेष्ठ काल आनेपर शुक्लपक्षकेपूर्वाह्न भागमें वनमें जाय और वहाँ नियमोंका पालन करते हुए एकाग्रचित्त होकर तपस्या करे। प्रतिदिन फल मूलका पवित्र आहार ग्रहण करे। जैसा अपना आहार हो, उसीसे देवताओं और पितरोंका पूजन किया करे। नित्यप्रति अतिथि सत्कार करता रहे। स्नान करके देवताओंकी पूजा करे। घरसे लाकर एकाग्रचित्त हो आठग्रास भोजन करे। सदा जटा धारण किये रहे। नख और रोएँ न कटाये। सर्वथा स्वाध्याय किया करे। अन्य समयमें मौन रहे। अग्निहोत्र करता रहे तथा अपने आप उत्पन्न हुए भाँति-भाँतिके पदार्थों और शाक या मूल फलके द्वारा पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। सदा फटा पुराना वस्त्र पहने तीनों समय स्नान करे। पवित्रतासे रहे। प्रतिग्रह न लेकर सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करता रहे।

द्विजको चाहिये कि वह नियमपूर्वक दर्श एवं पौर्णमास नामक यज्ञोंका अनुष्ठान करे। ऋत्विष्टि, आग्रयण तथा चातुर्मास्य व्रतोंका भी आचरण करे। क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन यज्ञ करे। वसन्त और शरद् ऋतुओं में उत्पन्न हुए पवित्र पदार्थोंको स्वयं लाकर उनके द्वारा पुरोडाश और चरु बनाये और विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् देवताओंको अर्पण करे। परम पवित्र जंगली अन्नद्वारा निर्मित हविष्यका देवताओंके निमित्त हवन करके स्वयं भी यज्ञशेष अन्नका भोजन करे। मद्य-मांसका त्याग करे। जमीनपर उगा हुआ तृण, घास तथा बहेड़ेके फल न खाय हलसे जोते हुए खेतका अन्न किसीके देनेपर भी न खाय, कष्टमें पढ़नेपर भी ग्रामीण फूलों और फलोंका उपभोग न करे। श्रौत-विधिके अनुसार सदा अग्निदेवकी उपासना अग्निहोत्र करता रहे। किसी भी प्राणीसे द्रोह न करे। निर्द्वन्द्व और निर्भय रहे। रातमें कुछ भी न खाय, उस समय केवल परमात्माके ध्यानमें संलग्न रहे। इन्द्रियोंको वशमें करके क्रोधको काबूमें रखे तत्त्वज्ञानका चिन्तन करे। सदा ब्रह्मचर्य का पालन करता रहे। अपनी पत्नीसे भी संसर्ग न करे। जो पत्नीके साथ वनमें जाकर कामनापूर्वक मैथुन करता है, उसका वानप्रस्थ-व्रत नष्ट हो जाता है तथा वह द्विज प्रायश्चित्तका भागी होता है वहाँ उससे जो बच्चा पैदा होता है, वह द्विजातियोंके स्पर्श करनेयोग्य नहीं रहता। उस बालकका वेदाध्ययनमें अधिकार नहीं होता। यही बात उसके वंशमें होनेवाले अन्य लोगोंके लिये भी लागू होती है। वानप्रस्थीको सदा भूमिपर शयन करना और गायत्रीके जपमें तत्पर रहना चाहिये। वहसब भूतोंकी रक्षा तत्पर रहे तथा सत्पुरुषीका सदा अन्नका भाग देता रहे। उसे निन्दा, मिथ्या अपवाद, अधिक निद्रा और आलस्यका परित्याग करना चाहिये। वह एकमात्र अग्निका सेवन करे। कोई घर बनाकर न रहे भूमिपर जल छिड़ककर बैठे जितेन्द्रिय होकर मृगोंके साथ विचरे और उन्होंके साथ निवास करे। एकाग्रचित होकर पत्थर या कंकड़पर सो रहे वानप्रस्थ. आश्रमके नियममें स्थित होकर केवल फूल, फल और मूलके द्वारा सदा जीवन-निर्वाह करे। वह भी तोड़कर नहीं; जो स्वभावतः पककर अपने-आप झड़ गये हो, उन्हींका उपभोग करे पृथ्वीपर लोटता रहे अथवा पंजोंके बलपर दिनभर खड़ा रहे। कभी धैर्यका त्याग न करे।

गर्मी में पंचाग्निका सेवन करे। वर्षकि समय खुले मैदानमें रहे। हेमन्त ऋतु भीगा वस्त्र पहने रहे। इस प्रकार क्रमशः अपनी तपस्याको बढ़ाता रहे। तीनों समय स्नान करके देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। एक पैरसे खड़ा रहे अथवा सदा सूर्यकी किरणोंका पान करे। पंचाग्निके धूम, गर्मी अथवा सोमरसका पान करे। शुक्लपक्षमें जल और कृष्णपक्षमें गोबरका पान करे अथवा सूखे पत्ते चबाकर रहे अथवा और किसी क्लेशमय वृत्तिसे सदा जीवन निर्वाह करे योगाभ्यासमें तत्पर रहे। प्रतिदिन रुद्राष्टाध्यायीका पाठ किया करे। अथर्ववेदका अध्ययन और वेदान्तका अभ्यास करे। आलस्य छोड़कर सदा यम-नियमोंका सेवन करें। काला मृगचर्म और उत्तरीय वस्त्र धारण करे। श्वेत यज्ञोपवीत पहने। अग्नियों को अपने आत्मामें आरोपित करके ध्यानपरायण हो जाय अथवा अग्नि और गृहसे रहित हो मुनिभावसे रहते हुए मोक्षपरायण हो जाय। यात्राके समय तपस्वी ब्राह्मणोंसे ही भिक्षा ग्रहण करे अथवा वनमें निवास करनेवाले अन्य गृहस्थ द्विजोंसे भी वह भिक्षा ले सकता है। यह भी सम्भव न हो तो वह गाँवसे ही आठ ग्रास लाकर भोजन करे और सदा बनमें ही रहे। दोनेमें, हाथमें अथवा टुकड़ेमें लेकर खाय । आत्मज्ञानके लिये नाना प्रकारके उपनिषदोंका अभ्यासकरे। किसी विशेष मन्त्र, गायत्री मन्त्र तथा रुद्राष्टाध्यायीका जप करता रहे अथवा वह महाप्रस्थान आमरण यात्राआरम्भ करके निरन्तर उपवास करे अथवा ब्रह्मार्पण विधिमें स्थित होकर और कोई ऐसा ही कार्य करे।

अध्याय 94 संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन

व्यासजी कहते हैं—इस प्रकार आयुके तीसरे भागको वानप्रस्थ आश्रममें व्यतीत करके क्रमशः चतुर्थ भागको संन्यासके द्वारा बिताये। उस समय द्विजको उचित है कि वह अग्नियोंको अपनेमें स्थापित करके परिव्राजक संन्यासी हो जाय और योगाभ्यासमें तत्पर, शान्त तथा ब्रह्मविद्या परायण रहे। जब मनमें सब वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय, उस समय संन्यास लेनेकी इच्छा करे। इसके विपरीत आचरण करनेपर वह गिर जाता है। प्राजापत्य अथवा आग्नेयी इष्टिका अनुष्ठान करके मनकी वासना धुल जानेपर जितेन्द्रियभावसे ब्रह्माश्रम-संन्यासमें प्रवेश करे। संन्यासी तीन प्रकारके बताये गये हैं- कोई तो ज्ञानसंन्यासी होते हैं, कुछ वेदसंन्यासी होते हैं तथा कुछ दूसरे कर्मसंन्यासी होते हैं। जो सब ओरसे मुक्त, निर्द्वन्द्व और निर्भय होकर आत्मामें ही स्थित रहता है, उसे ‘ज्ञानसंन्यासी’ कहा जाता है। जो कामना और परिग्रहका त्याग करके मुक्तिकी इच्छासे जितेन्द्रिय होकर सदा वेदका ही अभ्यास करता रहता है, वह ‘वेदसंन्यासी’ कहलाता है। जो द्विज अग्निको अपनेमें लीन करके स्वयं ब्रह्ममें समर्पित हो जाता है, उसे महायज्ञपरायण ‘कर्मसंन्यासी’ जानना चाहिये। इन तीनोंमें ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ माना गया है। उस विद्वान्‌के लिये कोई कर्तव्य या आश्रम-चिह्न आवश्यक नहीं रहता। संन्यासीको ममता और भयसे रहित, शान्त एवं निर्द्वन्द्व होना चाहिये। वह पत्ता खाकर रहे, पुराना कौपीन पहने अथवा नंगा रहे। उसे ज्ञानपरायण होनाचाहिये। वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आहारको जीते और भोजनके लिये बस्तीसे अन्न माँग लाया करे। वह अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें अनुरक्त हो सब ओरसे निरपेक्ष रहे और भोग्य वस्तुओंका परित्याग कर दे। केवल आत्माको ही सहायक बनाकर आत्मसुखके लिये इस संसार में विचरता रहे। जीवन या मृत्यु किसीका अभिनन्दन न करे। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार संन्यासी कालकी ही प्रतीक्षा करे। उसे कभी अध्ययन, प्रवचन अथवा श्रवण नहीं करना चाहिये।

इस प्रकार ज्ञानपरायण योगी ब्रह्मभावका अधिकारी होता है। विद्वान् संन्यासी एक वस्त्र धारण करे अथवा केवल कौपीन धारण किये रहे। सिर मुँहाये रहे या बाल बढ़ाये रखे त्रिदण्ड धारण करे, किसी वस्तुका संग्रह न करे। गेरुए रंगका वस्त्र पहने और सदा ध्यानयोगमें तत्पर रहे। गाँवके समीप किसी वृक्षके नीचे अथवा देवालयमें रहे शत्रु और मित्रमें तथा मान और अपमानमें समानभाव रखे। सदा भिक्षासे ही जीवन निर्वाह करे। कभी एक स्थानके अन्नका भोजन न करे। जो संन्यासी मोहवश या और किसी कारणसे एक जगहका अन्न खाने लगता है, धर्मशास्त्रोंमें उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं देखा गया है। संन्यासीका चित्त राग-द्वेषसे रहित होना चाहिये। उसे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको एक-सा समझना चाहिये तथा प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहना चाहिये। वह मौनभावकाआश्रय ले सबसे निःस्पृह रहे संन्यासी भलीभाँति देख-भालकर आगे पैर रखे। वस्त्रसे छानकर जल पिये। सत्यसे पवित्र हुई वाणी बोले तथा मनसे जो पवित्र जान पड़े उसीका आचरण करे।”

संन्यासीको उचित है कि वह वर्षाकालके सिवा और किसी समय एक स्थानपर निवास न करे। स्नान करके शौचाचारसे सम्पन्न रहे। सदा हाथमें कमण्डलु लिये रहे ब्रह्मचर्य पालनमें संलग्न होकर सदा वनमें ही निवास करे। मोक्षसम्बन्धी शास्त्रोंके विचारमें तत्पर रहे। ब्रह्मसूत्रका ज्ञान रखे और जितेन्द्रियभावसे रहे। संन्यासी यदि दम्भ एवं अहंकारसे मुक्त, निन्दा और चुगलीसे रहित तथा आत्मज्ञानके अनुकूल गुणोंसे युक्त हो तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यति विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके पवित्र हो देवालय आदिमें प्रणव नामक सनातन देवताका निरन्तर जप करता रहे। वहयज्ञोपवीतधारी एवं शान्त-चित्त होकर हाथमें धारण करके धुला हुआ गेरुआ वस्त्र पहने, सारे शरीरमें भस्म रमाये, वेदान्तप्रतिपादित अधियज्ञ, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक ब्रह्मका एकाग्रभावसे चिन्तन करे। जो सदा वेदका ही अभ्यास करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। अहिंसा, सत्य, चोरीका अभाव, ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, क्षमा, दया और संतोष-ये संन्यासीके विशेष व्रत हैं। वह प्रतिदिन स्वाध्याय तथा दोनों संध्याओंके समय गायत्रीका जप करे। एकान्तमें बैठकर निरन्तर परमेश्वरका ध्यान करता रहे। सदा एक स्थानके अन्नका त्याग करे; साथ ही काम, क्रोध तथा संग्रहको भी त्याग दे। वह एक या दो वस्त्र पहनकर शिखा और यज्ञोपवीत धारण किये हाथमें कमण्डलु लिये रहे । इस प्रकार त्रिदण्ड धारण करनेवाला विद्वान् संन्यासी परमपदको प्राप्त होता है।

अध्याय 95 संन्यासीके नियम

व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार आश्रममें निष्ठा रखनेवाले तथा नियमित जीवन बितानेवाले संन्यासियोंके लिये फल-मूल अथवा भिक्षासे जीवन निर्वाहकी बात कही गयी। उसे एक ही समय भिक्षा माँगनी चाहिये। अधिक भिक्षाके संग्रहमें आसक्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि भिक्षामें आसक्त होनेवाला संन्यासी विषयोंमें भी आसक्त हो जाता है। सात घरोंतक भिक्षाके लिये जाय। यदि उनमें न मिले तो फिर न माँगे। भिक्षुको चाहिये कि वह एक बार भिक्षाका नाम लेकर चुप हो जाय और नीचे मुँह किये एक द्वारपर उतनी ही देरतक खड़ा रहे जितनी देरमें एक गाय दुही जाती है। भिक्षा मिल जानेपर हाथ-पैर धोकर विधिपूर्वक आचमन करे और पवित्र हो मौन भावसेभोजन करे। पहले वह अन्न सूर्यको दिखा ले; फिर पूर्वाभिमुख हो पाँच बार प्राणाग्निहोत्र करके अर्थात् ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ‘ – इन मन्त्रोंसे पाँच ग्रास अन्न मुँहमें डालकर एकाग्रचित्त हो आठ ग्रास अन्न भोजन करे। भोजनके पश्चात् आचमन करके भगवान् ब्रह्माजी एवं परमेश्वरका ध्यान करे। तूंबी, लकड़ी, मिट्टी तथा बाँस — इन्हीं चारोंके बने हुए पात्र संन्यासीके उपयोगमें आते हैं, ऐसा प्रजापति मनुका कथन है । रातके पहले पहरमें मध्यरात्रिमें तथा रातके पिछले पहरमें विश्वकी उत्पत्तिके कारण एवं विश्व-नामसे प्रसिद्ध ईश्वरको अपने हृदय – कमलमें स्थापित करके ध्यान-सम्बन्धी विशेष श्लोकों एवं मन्त्रोंके द्वारा उनका इस प्रकारचिन्तन करे। परमेश्वर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, अज्ञानमय अन्धकारसे परे विराजमान, सबके आधार, अव्यक्त स्वरूप, आनन्दमय, ज्योतिर्मय, अविनाशी, प्रकृति और पुरुषसे अतीत, आकाशकी भाँति निर्लेप, परम कल्याणमय, समस्त भावकी चरम सीमा, सबका शासन करनेवाले तथा ब्रह्मरूप हैं।

तदनन्तर प्रणव- जपके पश्चात् आत्माको आकाश स्वरूप परमात्मामें लीन करके उनका इस प्रकार ध्यान करे – ‘परमात्मदेव सबके ईश्वर, हृदयाकाशके बीच विराजमान, समस्त भावोंकी उत्पत्तिके कारण, आनन्द एकमात्र आधार तथा पुराणपुरुष श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाला पुरुष भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। जो समस्त प्राणियोंका जीवन है, जहाँ जगत्का लय होता है तथा मुमुक्षु पुरुष जिसे ब्रह्मका सूक्ष्म आनन्द समझते हैं, उस परम व्योमके भीतर केवल-अद्वितीय ज्ञानस्वरूप ब्रह्म स्थित है, जो अनन्त, सत्य एवं ईश्वररूप है।’ इस प्रकार ध्यान करके मौन हो जाय। यह संन्यासियोंके लिये गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय इनका वर्णन किया गया जो सदा इस ज्ञानमें स्थित रहता है, वह इसके द्वारा ईश्वरीय योगका अनुभव करता है। इसलिये संन्यासीको उचित है कि वह सदा ज्ञानके अभ्यासमें तत्पर और आत्मविद्यापरायण होकर ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका चिन्तन करे, जिससे भव-बन्धनसे छुटकारा मिले।पहले आत्माको सब ( दृश्य-पदार्थों) से पृथक्, केवल-अद्वितीय, आनन्दमय, अक्षर-अविनाशी एवं ज्ञानस्वरूप जान ले इसके बाद उसका ध्यान करे। जिनसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें जानकर मनुष्य पुनः इस संसारमें जन्म नहीं लेता, वे परमात्मा इसलिये ईश्वर कहलाते हैं कि वे सबसे परे स्थित हैं-सबके ऊपर अध्यक्षरूपसे विराजमान हैं। उन्हींके भीतर उस शाश्वत, कल्याणमय अविनाशी ब्रह्मका ज्ञान होता है, जो इस दृश्य जगत्के रूपमें प्रत्यक्ष और स्वस्वरूपसे परोक्ष हैं, वे ही महेश्वर देव हैं। संन्यासियोंके जो व्रत बताये गये हैं, वैसे ही उनके भी व्रत हैं। उन व्रतोंमेंसे एक-एकका उल्लंघन करनेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है।

संन्यासी यदि कामनापूर्वक स्त्रीके पास चला जाय तो एकाग्रचित्त होकर प्रायश्चित्त करे। उसे पवित्र होकर प्राणायामपूर्वक सांतपन – व्रत करना चाहिये। सांतपनके बाद चित्तको एकाग्र करके शौच-संतोषादि नियमों का पालन करते हुए वह कृच्छ्रव्रतका अनुष्ठान करे । तदनन्तर आश्रममें आकर पुनः आलस्यरहित हो भिक्षुरूपसे विचरता रहे। असत्यका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह झूठका प्रसंग बड़ा भयंकर होता है। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला संन्यासी यदि झूठ बोल दे तो उसे उसके प्रायश्चित्तके लिये एक रातउपवास और सौ प्राणायाम करने चाहिये । बहुत बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी संन्यासीको किसी दूसरेके यहाँसे चोरी नहीं करनी चाहिये। स्मृतियोंका कथन है कि चोरीसे बढ़कर दूसरा कोई अधर्म नहीं है’ हिंसा, तृष्णा और याचना-ये आत्मज्ञानका नाश करनेवाली हैं। जिसे धन कहते हैं, वह मनुष्योंका बाह्य प्राण ही है। जो जिसके धनका अपहरण करता है, वह मानो उसके प्राण ही हर लेता है। ऐसा करके दुष्टात्मा पुरुष आचारभ्रष्ट हो अपने व्रतसे गिर जाता है। यदि संन्यासी अकस्मात् किसी जीवकी हिंसा कर बैठे तो कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र अथवा चान्द्रायणव्रतका अनुष्ठान करे। यदि भिक्षुका उसकी अपनी इन्द्रियोंकी दुर्बलताके कारण किसी स्त्रीको देखकर वीर्यपात हो जाय तो उसे सोलह प्राणायाम करने चाहिये। विद्वानो ! दिनमें वीर्यपात होनेपर वह तीन रातका व्रत और सौ प्राणायाम करे। यदि वह एक स्थानका अन्न, मधु, नवीन श्राद्धका अन्न तथा खाली नमक खा ले तो उसकी शुद्धिके लिये प्राजापत्यव्रत बताया गया है। सदा ध्यानमें स्थित रहनेवाले पुरुषके सारे पातक नष्टहो जाते हैं। इसलिये महेश्वरका चिन्तन करते हुए सदा उन्हींके ध्यानमें संलग्न रहना चाहिये। जो परम ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म, सबका आश्रय, अक्षर, अव्यय, अन्तरात्मा तथा परब्रह्म हैं, उन्हींको भगवान् महेश्वर समझना चाहिये। ये महादेवजी केवल परम शिवरूप हैं। ये ही अक्षर, अद्वैत एवं सनातन परमपद हैं। वे दे स्वप्रकाशस्वरूप हैं, ज्ञान उनकी संज्ञा है, वे ही आत्मयोगरूप तत्त्व हैं, उनमें सबकी महिमा-प्रतिष्ठा होती है, इसलिये उन्हें महादेव कहा गया है। जो महादेवजीके सिवा दूसरे किसी देवताको नहीं देखता, अपने आत्मस्वरूप उन महादेवजीका ही अनुसरण करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। जो अपनेको उन परमेश्वरसे भिन्न मानते हैं, वे उन महादेवजीका दर्शन नहीं पाते; उनका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। एकमात्र परब्रह्म ही जानने योग्य अविनाशी तत्त्व हैं, वे ही देवाधिदेव महादेवजी हैं। इस बातको जान लेनेपर मनुष्य कभी बन्धनमें नहीं पड़ता। इसलिये संन्यासी अपने मनको वशमें करके नियमपूर्वक साधनमें लगा रहे तथा शान्तभावसे महादेवजीके शरणागत होकर ज्ञानयोगमें तत्पर रहे। “ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे संन्यासियोंके कल्याणमय आश्रम-धर्मका वर्णन किया। इसे मुनिवर भगवान् ब्रह्माजीने पूर्वकालमें उपदेश किया था । संन्यास धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला यह परम उत्तम कल्याणमय ज्ञान साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीका बताया हुआ है; अतः पुत्र,शिष्य तथा योगियोंके सिवा दूसरे किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने संन्यासियोंके नियमोंका विधान बताया है; यह देवेश्वर ब्रह्माजीके संतोषका एकमात्र साधन है। जो मन लगाकर प्रतिदिन इन नियमोंका पालन करते हैं, उनका जन्म अथवा मरण नहीं होता।

अध्याय 96 भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता

सूतजी कहते हैं— ब्राह्मणो! पूर्वकालमें अमित तेजस्वी व्यासजीने इस प्रकार आश्रम धर्मका वर्णन किया था। इतना उपदेश करनेके पश्चात् उन सत्यवती नन्दन भगवान् व्यासने समस्त मुनियोंको भलीभाँति आश्वासन दिया और जैसे आये थे, वैसे ही वे चले गये। वही यह वर्णाश्रम धर्मकी विधि है, जिसका मैंने आपलोगोंसे वर्णन किया है। इस प्रकार वर्ण-धर्म तथा आश्रम- धर्मका पालन करके ही मनुष्य भगवान् विष्णुका प्रिय होता है, अन्यथा नहीं। द्विजवरो! अब इस विषय में मैं आपलोगोंको रहस्यकी बात बताता हूँ, सुनिये। यहाँ वर्ण और आश्रमसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धर्म बताये गये हैं, वे सब हरि-भक्तिकी एक कलाके अंशके अंशकी भी समानता नहीं कर सकते। कलियुगमें मनुष्योंके लिये इस मर्त्यलोकमें एकमात्र हरि भक्ति ही साध्य है। जो कलियुगमें भगवान् नारायणका पूजन करता है, वह धर्मके फलका भागी होता है। अनेकों नामद्वारा जिन्हें पुकारा जाता है तथा जो इन्द्रियोंके नियन्ता हैं, उन परम शान्त सनातन भगवान् दामोदरको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य तीनों लोकोंपर विजय पा जाता है। जो द्विज हरिभक्तिरूपी अमृतका पान कर लेता है, वह कलिकालरूपी सौंपके हँसनेसे फैलेहुए पापरूपी भयंकर विषसे आत्मरक्षा करनेके योग्य हो जाता है। यदि मनुष्योंने श्रीहरिके नामका आश्रय ग्रहण कर लिया तो उन्हें अन्य मन्त्रोंके जपकी क्या आवश्यकता है। जो अपने मस्तकपर श्रीविष्णुका चरणोदक धारण करता है, उसे स्नानसे क्या लेना है। जिसने अपने हृदयमें श्रीहरिके चरणकमलोंको स्थापित कर लिया है, उसको यज्ञसे क्या प्रयोजन है। जिन्होंने सभामें भगवान्की लीलाओंका वर्णन किया है, उन्हें दानकी क्या आवश्यकता है। जो श्रीहरिके गुणोंका श्रवण करके बारंबार हर्षित होता है, भगवान् श्रीकृष्णमें चित्त लगाये रखनेवाले उस भक्त पुरुषको वही गति प्राप्त होती है, जो समाधिमें आनन्दका अनुभव करनेवाले योगीको मिलती है। पाखण्डी और पापासक्त पुरुष उस आनन्दमें विघ्न डालनेवाले बताये गये हैं। नारियाँ तथा उनका अधिक संग करनेवाले पुरुष भी हरिभक्तिमें बाधा पहुँचानेवाले हैं।

स्त्रियाँ नेत्रोंके कटाक्षसे जो संकेत करती हैं, उसका उल्लंघन करना देवताओंके लिये भी कठिन होता है। जिसने उसपर विजय पा ली है, वही संसारमें भगवान्का भक्त कहलाता है। मुनि भी इस लोकमें नारीके चरित्रपर लुभाकर मतवाले हो उठते हैं। ब्राह्मणो! जो लोगनारीकी भक्तिका आश्रय लेते हैं, उन्हें भगवान्की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है। द्विजो! बहुत-सी राक्षसियाँ कामिनीका वेष धारण करके इस संसार में विचरती रहती हैं, वे सदा मनुष्योंकी बुद्धि एवं विवेकको अपना ग्रास बनाया करती हैं।

विप्रगण! जबतक किसी सुन्दरी स्त्रीके चंचल नेत्रोंका कटाक्ष, जो सम्पूर्ण धर्मोका लोप करनेवाला है, मनुष्यके ऊपर नहीं पड़ता तभीतक उसकी विद्या कुछ करनेमें समर्थ होती है, तभीतक उसे ज्ञान बना रहता है। तभीतक सब शास्त्रोंको धारण करनेवाली उसकी मेधा शक्ति निर्मल बनी रहती है। तभीतक जप-तप और तीर्थसेवा बन पड़ती है। तभीतक गुरुकी सेवा संभव है और तभीतक इस संसार सागरसे पार होनेके साधनमें मनुष्यका मन लगता है। इतना ही नहीं, बोध, विवेक, सत्संगकी रुचि तथा पौराणिक बातोंको सुननेकी लालसा भी तभीतक रहती है।

जो भगवच्चरणारविन्दोंके मकरन्दका लेशमात्र भी पाकर आनन्दमग्न हो जाते हैं, उनके ऊपर नारियोंके चंचल कटाक्षपातका प्रभाव नहीं पड़ता। द्विजो! जिन्होंने प्रत्येक जन्ममें भगवान् हृषीकेशका सेवन किया है, ब्राह्मणोंको दान दिया है तथा अग्नि में हवन किया है, उन्हींको उन उन विषयोंकी ओरसे वैराग्य होता है। स्त्रियोंमें सौन्दर्य नामकी वस्तु ही क्या है? पीब, मूत्र, विष्ठा, रक्त, त्वचा, मेदा, हड्डी और मज्जा- इन सबसे युक्त जो ढाँचा है, उसीका नाम है शरीर भला इसमें सौन्दर्य कहाँसे आया उपर्युक्त वस्तुओंको पृथक्-पृथक् करके यदि छू लिया जाय तो स्नान करके ही मनुष्य शुद्धहोता है। किन्तु ब्राह्मणो! इन सभी वस्तुओंसे युक्त जो अपवित्र शरीर है, वह लोगोंको सुन्दर दिखायी देता है। अहो ! यह मनुष्योंकी अत्यन्त दुर्दशा है, जो दुर्भाग्यवश घटित हुई है। पुरुष उभरे हुए कुर्चीसे युक्त शरीर में स्त्री-बुद्धि करके प्रवृत्त होता है; किन्तु कौन स्त्री है? और कौन पुरुष ? विचार करनेपर कुछ भी सिद्ध नहीं होता। इसलिये साधु पुरुषको सब प्रकारसे स्त्रीके संगका परित्याग करना चाहिये। भला, स्त्रीका आश्रय लेकर कौन पुरुष इस पृथ्वीपर सिद्धि पा सकता है। कामिनी और उसका संग करनेवाले पुरुषका संग भी त्याग देना चाहिये। उनके संगसे रौरव नरककी प्राप्ति होती है, यह बात प्रत्यक्ष प्रतीत होती है। जो लोग अज्ञानवश स्त्रियोंपर लुभाये रहते हैं, उन्हें दैवने ठग लिया है। नारीकी योनि साक्षात् नरकका कुण्ड है। कामी पुरुषको उसमें पकना पड़ता है। क्योंकि जिस भूमिसे उसका आविर्भाव हुआ है, वहीं वह फिर रमण करता है। अहो ! जहाँसे मलजनित मूत्र और रज बहता है, वहीं मनुष्य रमण करता है! उससे बढ़कर अपवित्र कौन होगा। वहाँ अत्यन्त कष्ट है; फिर भी मनुष्य उसमें प्रवृत्त होता है! अहो! यह दैवकी कैसी विडम्बना है? उस अपवित्र योनिमें बारंबार रमण करना – यह मनुष्योंकी कितनी निर्लज्जता है! अतः बुद्धिमान् पुरुषको स्त्री – प्रसंगसे होनेवाले बहुतेरे दोषोंपर विचार करना चाहिये।

मैथुनसे बलकी हानि होती है और उससे उसको अत्यन्त निद्रा (आलस्य) आने लगती है। फिर नींदसे द बेसुध रहनेवाले मनुष्यकी आयु कम हो जाती है। द्व इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह नारीकोअपनी मृत्युके समान समझे और मनको प्रयत्नपूर्वक भगवान् गोविन्दके चरणकमलोंमें लगावे। श्रीगोविन्दके चरणोंकी सेवा इहलोक और परलोकमें भी सुख देनेवाली है। उसे छोड़कर कौन महामूर्ख पुरुष स्त्रीके चरणोंका सेवन करेगा। भगवान् जनार्दनके चरणोंकी सेवा मोक्ष प्रदान करनेवाली है तथा स्त्रियोंकी योनिका सेवन योनिके ही संकटमें डालनेवाला है। योनिसेवी पुरुषको बार-बार योनिमें ही गिरना पड़ता है; यन्त्रमें कसे जानेवालेको जैसा कष्ट होता है, वैसी ही यातना उसे भी भोगनी पड़ती है। परन्तु फिर भी वह योनिकी ही अभिलाषा करता है। यह पुरुषकी कैसी विडम्बना है। इसे जानना चाहिये। मैं अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर कहता हूँ, मेरी उत्तम बात सुनो- श्रीगोविन्दमें मन लगाओ, यातना देनेवाली योनिमें नहीं । ll 2 ll

जो स्त्रीकी आसक्ति छोड़कर विचरता है, वह मानव पग-पगपर अश्वमेध यज्ञका फल पाता है। यदि दैवयोगसे उत्तम कुलमें उत्पन्न सती-साध्वी स्त्रीसे मनुष्यका विवाह हो जाय तो उससे पुत्रका जन्म होनेके पश्चात् फिर उसके साथ समागम न करे। ऐसे पुरुषपर भगवान् जगदीश्वर संतुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धर्मज्ञ पुरुष स्त्रीके संगको असत्संग कहते हैं। उसके रहते भगवान् श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति नहीं होती। इसलिये सब प्रकारके संगका परित्याग करके भगवान्की भक्ति ही करनी चाहिये।मेरे विचारसे इस संसारमें श्रीहरिकी भक्ति दुर्लभ है। जिसकी भगवान्‌में भक्ति होती है, वह मनुष्य निस्सन्देह कृतार्थ हो जाता है। उसी उसी कर्मका अनुष्ठान करना चाहिये, जिससे भगवान् प्रसन्न हों। भगवान्‌के संतुष्ट और तृप्त होनेपर सम्पूर्ण जगत् संतुष्ट एवं तृप्त होता है। श्रीहरिकी भक्तिके बिना मनुष्योंका जन्म व्यर्थ बताया गया है। जिनकी प्रसन्नताके लिये ब्रह्मा आदि देवता भी यजन करते हैं, उन आदि अन्तरहित भगवान् नारायणका भजन कौन नहीं करेगा ? जो अपने हृदयमें श्रीजनार्दनके युगल चरणोंकी स्थापना करता है, उसकी माता परम सौभाग्यशालिनी और पिता महापुण्यात्मा हैं। ‘जगद्वन्द्य जनार्दन ! शरणागतवत्सल !’ आदि कहकर जो मनुष्य भगवान्‌को पुकारते हैं, उनको नरकमें नहीं जाना पड़ता । ll 2 ll

विशेषतः ब्राह्मणोंका, जो साक्षात् भगवान्‌के स्वरूप हैं, जो लोग यथायोग्य पूजन करते हैं, उनके ऊपर भगवान् प्रसन्न होते हैं। भगवान् विष्णु ही ब्राह्मणके रूपमें इस पृथ्वीपर विचरते हैं। ब्राह्मणके बिना कोई भी कर्म सिद्ध नहीं होता। जिन्होंने भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका चरणोदक पीकर उसे मस्तकपर चढ़ाया है, उन्होंने अपने पितरोंको तृप्त कर दिया तथा आत्माका भी उद्धार कर लिया। जिन्होंने ब्राह्मणोंके मुखमें सम्मानपूर्वक मधुर अन्न अर्पित किया है, उनके द्वारा साक्षात् श्रीकृष्णके ही मुखमें वह अन्न दिया गया है।इसमें सन्देह नहीं कि साक्षात् श्रीहरि ही उस अन्नको भोग लगाते हैं। ब्राह्मणोंके रहनेसे ही यह पृथ्वी धन्य मानी गयी है। उनके हाथमें जो कुछ दिया जाता है, वह भगवान् के हाथमें ही समर्पित होता है। उनको नमस्कार करनेसे पापका नाश होता है। ब्राह्मणकी वन्दना करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिये ब्राह्मण सत्पुरुषोंके लिये विष्णुबुद्धिसे आराधना करनेके योग्य हैं। भूखे ब्राह्मणके मुखमें यदि कुछ अन्न दिया जाय तो दाता मृत्युके पश्चात् परलोकमें जानेपर करोड़ कल्पोंतक अमृतकी धारासे अभिषिक्त होता है। ब्राह्मणोंका मुख ऊसर और काँटोंसे रहित बहुत बड़ा खेत हैं; वहाँ यदि कुछ बोया जाता है तो उसका कोटि-कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है। ब्राह्मणको घृतसहित भोजन देकर मनुष्य एक कल्पतक आनन्दका अनुभव करता है। जो ब्राह्मणको संतुष्ट करनेके लिये नाना प्रकारके सुन्दर मिष्टान्न दान करता है, उसे कोटि कल्पोंतक महान् भोगसम्पन्न लोक प्राप्त होते हैं।

ब्राह्मणको आगे करके ब्राह्मणके द्वारा ही कहीं हुईं पुराण कथाका प्रतिदिन श्रवण करना चाहिये। पुराण बड़े-बड़े पापोंके वनको भस्म करनेके लिये महान् दावानलके समान है। पुराण सब तीर्थोकी अपेक्षा श्रेष्ठ तीर्थ बताया जाता है, जिसके चतुर्थांशका श्रवण करनेसे श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं जैसे भगवान् श्रीहरि सम्पूर्ण जगत्‌को प्रकाश देने तथा सबको दृष्टि प्रदान करनेके लिये सूर्यका स्वरूप धारण करके विचरते हैं, उसी प्रकार श्रीहरि ही अन्तःकरणमें ज्ञानका प्रकाश फैलानेके लिये पुराणका रूप धारण करके जगत्‌में विचरते हैं । पुराण परम पावन शास्त्र है। अतः यदि श्रीहरिकी प्रसन्नता प्राप्त करनेका मन हो तो मनुष्योंको निरन्तर श्रीकृष्णरूपी परमात्मा के पुराणका श्रवण करना चाहिये। विष्णुभक्त पुरुषकोशान्तभावसे पुराण सुनना उचित है; क्योंकि वह अत्यन्त दुर्लभ है। पुराणकी कथा बड़ी निर्मल है. अन्तःकरणको निर्मल बनानेका उत्कृष्ट साधन है। व्यासरूपधारी श्रीहरिने वेदार्थोंका संग्रह करके पुराणकी रचना की है; अतः उसके श्रवणमें तत्पर रहना चाहिये। पुराणमें धर्मका निश्चय किया गया है और धर्म केशवका स्वरूप है; अतः विद्वान् पुरुष पुराण सुन लेनेपर विष्णुरूप हो जाता है। एक तो ब्राह्मण ही साक्षात् श्रीहरिका रूप है, दूसरे पुराण भी वैसा ही है; अतः उन दोनोंका संग पाकर मनुष्य विष्णुरूप ही हो जाता है।

इसी प्रकार गंगाजीके जलसे अभिषिक्त होनेपर मनुष्य अपने पापको दूर भगा देता है; भगवान् केशव ही जलके रूपमें इस भूमण्डलका पापसे उद्धार कर रहे हैं। यदि वैष्णव पुरुष विष्णुके भजनकी अभिलाषा रखता हो तो उसे गंगाजीके जलका निर्मल अभिषेक प्राप्त करना चाहिये; क्योंकि वह अन्तःकरणको शुद्ध करनेका उत्तम साधन है। इस पृथ्वीपर भगवती गंगा विष्णुभक्ति प्रदान करनेवाली बतायी जाती हैं। लोकोंका उद्धार करनेवाली गंगा वास्तवमें श्रीविष्णुका ही स्वरूप है। ब्राह्मणोंमें, पुराणोंमें, गंगामें, गौओंमें तथा पीपलके वृक्षमें नारायण बुद्धि करके मनुष्योंको उनके प्रति निष्काम भक्ति करनी चाहिये।” तत्त्वज्ञ पुरुषोंने इन्हें विष्णुका प्रत्यक्ष स्वरूप निश्चित किया है। अतः विष्णु-भक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सदा इनकी पूजा करनी चाहिये।

विष्णुमें भक्ति किये बिना मनुष्योंका जन्म निष्फल बताया जाता है। कलिकाल ही जिसके भीतर जल-राशि है, जो पापरूपी ग्रहोंसे भरा हुआ है, विषयासक्ति ही जिसमें भँवर है, दुर्बोध ही फेनका काम देता है, महादुष्टरूपी सर्पोंके कारण जो अत्यन्त भयानक प्रतीत होता है, उस दुस्तर भवसागरको हरिभक्तिकी नौकापरबैठे हुए मनुष्य पार कर जाते हैं। इसलिये लोगोंको हरिभक्तिकी सिद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये। लोग बुरी-बुरी बातोंको सुननेमें क्या सुख पाते हैं, जो अद्भुत लीलाओंवाले श्रीहरिकी लीलाकथामें आसक्त नहीं होते। यदि मनुष्योंका मन विषयमें ही आसक्त हो तो लोकमें नाना प्रकारके विषयोंसे मिश्रित उनकी विचित्र कथाओंका ही श्रवण करना चाहिये। द्विजो ! यदि निर्वाणमें ही मन रमता हो, तो भी भगवत्कथाओंको सुनना उचित है; उन्हें अवहेलनापूर्वक सुननेपर भी श्रीहरि संतुष्ट हो जाते हैं। भक्तवत्सल भगवान् हृषीकेश यद्यपि निष्क्रिय हैं, तथापि उन्होंने श्रवणकी इच्छावाले भक्तोंका हित करनेके लिये नाना प्रकारकी लीलाएँ की हैं। सौ वाजपेय आदि कर्म तथा दस हजार राजसूय यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी भगवान् उतनी सुगमतासे नहीं मिलते, जितनी सुगमतासे वे भक्तिके द्वारा प्राप्त होते हैं। जो हृदयसे सेवन करनेयोग्य, संतोंके द्वारा बारंबार सेवित तथा भवसागरसे पार होनेके लिये सार वस्तु हैं, श्रीहरिके उन चरणोंका आश्रय लो। रे विषयलोलुप पामरो! अरे निष्ठुर मनुष्यो! क्यों स्वयं अपने-आपको रौरव नरकमें गिरा रहे हो। यदि तुम अनायास ही दु:खोंके पार जाना चाहते हो तो गोविन्दके चारु चरणोंका सेवन किये बिना नहीं जा सकोगे। भगवान् श्रीकृष्णके युगल चरण मोक्षके हेतु हैं; उनका भजन करो। मनुष्य कहाँसे आया है और कहाँ पुनः उसे जाना है, इस बातका विचार करके बुद्धिमान् पुरुष धर्मका संग्रहकरे। क्योंकि नाना प्रकारके नरकोंमें गिरनेके पश्चात् यदि पुनः उत्थान होता है, तभी मनुष्यका जन्म मिलता है। वहाँ उसे गर्भवासका अत्यन्त दुःखदायी कष्ट तो भोगना ही पड़ता है। द्विजो! फिर कर्मवश जीव यदि इस पृथ्वीपर जन्म लेता है, तो बाल्यावस्था आदिके अनेक दोषोंसे उसे पीड़ा सहनी पड़ती है। फिर युवावस्थामें पहुँचनेपर यदि दरिद्रता हुई तो उससे बहुत कष्ट होता है। भारी रोगसे तथा अनावृष्टि आदि आपत्तियोंसे भी क्लेश उठाना पड़ता है। वृद्धावस्थामें मनके इधर-उधर भटकनेसे जो कष्ट उसे प्राप्त होता है, उसका वर्णन नहीं हो सकता। तदनन्तर व्याधिके कारण समयानुसार मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है। संसारमें मृत्युसे बढ़कर दूसरे किसी दुःखका अनुभव नहीं होता ।

तत्पश्चात् जीव अपने कर्मवश यमलोकमें पीड़ा भोगता है; वहाँ अत्यन्त दारुण यातना भोगकर फिर संसारमें जन्म लेता है। इस प्रकार वह बारंबार जन्मता और मरता तथा मरता और जन्मता रहता है। जिसने भगवान् गोविन्दके चरणोंकी आराधना नहीं की है, उसीकी ऐसी दशा होती है। गोविन्दके चरणोंकी आराधना न करनेवाले मनुष्यकी बिना कष्टके मृत्यु नहीं होती तथा बिना कष्टके उसे जीवन भी नहीं मिलता। यदि घरमें धन हो तो उसे रखनेसे क्या फल हुआ। जिस समय यमराजके दूत आकर जीवको खींचते हैं, उस समय धन क्या उसके पीछे-पीछे जाता है ? अतः ब्राह्मर्णोंके सत्कारमें लगाया हुआ धन ही सब प्रकारकेसुख देनेवाला है। दान स्वर्गकी सीढ़ी है, दान सब पापका नाश करनेवाला है। गोविन्दका भक्तिपूर्वक किया हुआ भजन महान् पुण्यकी वृद्धि करनेवाला है। यदि मनुष्य में बल हो तो उसे व्यर्थ ही नष्ट न करे। आलस्य छोड़कर भगवान् के सामने नृत्य करे और गीत गाये। मनुष्यके पास जो कुछ हो, उसे भगवान् श्रीकृष्णको समर्पित कर दे। श्रीकृष्णको समर्पित की हुई वस्तु कल्याणदायिनी होती है और किसीको दी हुई वस्तु केवल दुःख देनेवाली होती है। नेत्रोंसे श्रीहरिकी ही प्रतिमा आदिका दर्शन तथा कानोंसे श्रीकृष्णके गुण और नामौका ही अहर्निश अवण करे। विद्वान् पुरुषको अपनी जिह्वासे श्रीहरिके चरणोदकका आस्वादन करना चाहिये। नासिकासे श्रीगोविन्दके चरणारविन्दोंपर चढ़े हुए श्रीतुलसीदलको सुँधकर त्वचासे हरिभक्तका स्पर्श करतथा मनसे भगवान्‌के चरणोंका ध्यान करके जीव कृतार्थ हो जाता है— इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। विद्वान् पुरुष भगवान्‌में ही मन लगाये और हृदयमें उन्हींकी भावना करे; ऐसा करनेवाला मनुष्य अन्तमें भगवान्‌को ही प्राप्त होता है – इसमें कुछ विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। जो मनसे भी निरन्तर चिन्तन करनेपर भक्तको अपना पद प्रदान कर देते हैं, उन आदि-अन्तरहित भगवान् नारायणका कौन मनुष्य सेवन नहीं करेगा। जो श्रीविष्णुके चरणारविन्दोंमें निरन्तर चित्त लगाये रहता है, भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये अपनी शक्तिके अनुसार दान किया करता है तथा उन्हींके युगल चरणोंमें प्रणाम करता, मन लगाता और अनुराग रखता है, वह इस मनुष्यलोकमें निश्चय ही पूज्यभावको प्राप्त होता है। *

अध्याय 97 श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं- ब्राह्मणो! इस प्रकार संसारमें जिनकी महिमा समस्त लोकोंका उद्धार करनेवाली है, उन नानारूपधारी परमेश्वर विष्णुका एक विग्रह पुराण भी है। पुराणों में पद्मपुराणका बहुत बड़ा महत्त्व है। (1) ब्रह्मपुराण श्रीहरिका मस्तक है। (2) पद्मपुराण हृदय है। (3) विष्णुपुराण उनकी दाहिनी भुजा है। (4) शिवपुराण उन महेश्वरकी बायीं भुजा है।(5) श्रीमद्भागवतको भगवान्‌का ऊरुयुगल कहा गया है। (6) नारदीय पुराण नाभि है। (7) मार्कण्डेयपुराण दाहिना तथा (8) अग्निपुराण बायाँ चरण है। (9) भविष्यपुराण महात्मा श्रीविष्णुका दाहिना घुटना है। (10) ब्रह्मवैवर्तपुराणको बायाँ घुटना बताया गया है। (11) लिंगपुराण दाहिना और (12) वाराहपुराण बायाँ गुल्फ (घुट्ठी) है। (13) स्कन्दपुराण रोएँ तथा(14) वामनपुराण त्वचा माना गया है। (15) कूर्मपुराणको पीठ तथा (16) मत्स्यपुराणको मेदा कहा जाता है। (17) गरुडपुराण मज्जा बताया गया है और (18) ब्रह्माण्डपुराणको अस्थि (हट्टी) कहते हैं। इसी प्रकार पुराणविग्रहधारी सर्वव्यापक श्रीहरिका आविर्भाव हुआ है। उनके हृदय स्थानमै पद्मपुराण है, जिसे सुनकर मनुष्य अमृतपद- मोक्ष सुखका उपभोग करता। है। यह पद्मपुराण साक्षात् भगवान् श्रीहरिका स्वरूप है; इसके एक अध्यायका भी पाठ करके मनुष्य सब से मुक्त हो जाता है।

स्वर्गखण्डका श्रवण करके महापातकी मनुष्य भी केंचुलसे छूटे हुए सर्पकी भाँति समस्त पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। कितना ही बड़ा दुराचारी और सब धर्मोसे बहिष्कृत क्यों न हो, स्वर्गखण्डका श्रवण करके वह पवित्र हो जाता है- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। द्विजो! समस्त पुराणोंको सुनकर मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वह सब केवल पद्मपुराणको सुनकर ही प्राप्त कर लेता है। कैसी अद्भुत महिमा है! समूचे पद्मपुराणको सुननेसे जिस फलकी प्राप्ति होती हैं, वही फल मनुष्य केवल स्वर्गखण्डको सुनकर प्राप्त कर लेता है । माघमासमें मनुष्य प्रतिदिन प्रयागमें स्नान करके जैसे पापसे मुक्त हो जाता है, उसी प्रकार इस स्वर्गखण्डके श्रवणसे भी वह पापोंसे छुटकारा पा जाता है। जिस पुरुषने भरी सभामें इस स्वर्गखण्डको सुना और सुनायाहै, उसने मानो समूची पृथ्वी दानमें दे दी है, निरन्तर भगवान् विष्णुके सहस्र नामका पाठ किया है, सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन तथा उसमें बताये हुए भिन्न-भिन्न पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान कर लिया है, बहुत-से अध्यापकोंको वृत्ति देकर पढ़ानेके कार्यमें लगाया है, भयभीत मनुष्योंको अभयदान किया है, गुणवान् ज्ञानी तथा धर्मात्मा पुरुषोंको आदर दिया है, ब्राह्मणों और गौओंके लिये प्राणोंका परित्याग किया है तथा उस बुद्धिमान्ने और भी बहुतेरे उत्तम कर्म किये हैं। तात्पर्य यह कि स्वर्गखण्डके श्रवणसे उक्त सभी शुभकर्मोंका फल प्राप्त हो जाता है। स्वर्गखण्डका पाठ करनेसे मनुष्यको नाना प्रकारके भोग प्राप्त होते हैं तथा वह तेजोमय शरीर धारण करके ब्रह्मलोकमें जाता और वहीं ज्ञान पाकर मोक्षको प्राप्त हो जाता है। बुद्धिमान् मनुष्य उत्तम पुरुषोंके साथ निवास, उत्तम तीर्थमें स्नान, उत्तम वार्तालाप तथा उत्तम शास्त्रका श्रवण करे। उन शास्त्रोंमें पद्मपुराण महाशास्त्र है, यह सम्पूर्ण वेदोंका फल देनेवाला है। इसमें भी स्वर्गखण्ड महान् पुण्यका फल प्रदान करनेवाला है।

ओ संसारके मनुष्यो ! मेरी बात सुनो- गोविन्दको भजो और एकमात्र देवेश्वर विष्णुको प्रणाम करो । यदि कामनाकी उत्ताल तरंगोंको सुखपूर्वक पार करना चाहते हो तो एकमात्र हरिनामका, जिसकी कहीं तुलना नहीं है, उच्चारण करो।