Shree Naval Kishori

पद्यपुराण-5-पाताल-खण्ड

अध्याय 148 नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।

चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥

ऋषियोंने कहा – वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूतजी! आपके द्वारा वर्णित नाना प्रकारके उपाख्यानोंसे युक्त परमानन्ददायक पातालखण्डका हमलोगोंने श्रवण किया; अब भगवद्भक्तिको बढ़ानेवाला जो पद्मपुराणका शेष अंश है, उसे हम सुनना चाहते हैं। गुरुदेव ! कृपा करके उस अंशका वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले- मुनियो ! भगवान् शंकरने देवर्षि नारदके प्रश्न करनेपर जिस पापनाशक विज्ञानकाश्रवण कराया था, उसीको मैं कहता हूँ; आप सब लोग सुनें। एक समयकी बात है, भगवान्के प्रिय भक्त देवर्षि नारदजी लोक-लोकान्तरोंमें भ्रमण करते हुए मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ भगवान् शंकरसे अपनी कुछ मनोगत बातोंको पूछना ही उनकी यात्राका उद्देश्य था। भगवान् उमानाथ उस पर्वतपर विराजमान थे। नारदजीने उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञासे उन्हींके सामने वे एक आसनपर बैठ गये। महात्माओ ! उस समय उन्होंने भगवान् शिवसे यही प्रश्न किया, जिसे आपलोग मुझसे पूछ रहे हैं।

नारदजीने कहा- भगवन्! देवदेवेश्वर ! पार्वतीपते ! जगद्गुरो ! जिससे भगवत्तत्त्वका ज्ञान हो, उस विषयका आप मुझे उपदेश कीजिये

महादेवजी बोले- नारद! सुनो मैं वेदोंकी समानता करनेवाले पुराणका वर्णन आरम्भ करता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। इस पृथ्वीपर एक लाख पचीस हजार पर्वत हैं, उन सबमें बदरिकाश्रम महान् पुण्यदायक एवं उत्तम है, जहाँ भगवान् नर-नारायण विराजमान हैं। नारदजी! मैं इस समय उन्हींके तेज और स्वरूपका वर्णन करूँगा। ब्रह्मन्! हिमालय पर्वतपर दो पुरुष हैं, जो क्रमशः नर नारायणके नामसे विख्यात हैं; उनमें एक तो गौर वर्णके हैं और दूसरे श्याम वर्णके । श्याम वर्णवाले पुरुष ही ‘नारायण’ हैं; ये इस जगत्के आदि कारण और महान् प्रभु हैं। इनके चार भुजाएँ हैं। ये बड़े ही शोभासम्पन्न हैं। इनके दो रूप हैं-व्यक्त और अव्यक्त (साकारऔर निराकार)। ये सनातन पुरुष हैं। सुव्रत । उत्तरायण में ही इनकी महती पूजा होती है । प्रायः छ: महीनोंतक इनकी पूजा नहीं होती; क्योंकि जबतक दक्षिणायन रहता है, इनका स्थान हिमसे आच्छादित रहा करता है। अतः इनके जैसा देवता न अबतक हुआ है और न आगे होगा। बदरिकाश्रममें देवगण निवास करते हैं। वहाँ ऋषियोंके भी आश्रम हैं। अग्निहोत्र और वेदपाठकी ध्वनि वहाँ सदा श्रवण-गोचर होती रहती है। भगवान् नारायणका दर्शन करना चाहिये। उनका दर्शन करोड़ों हत्याओंका नाश करनेवाला है। वहाँ ‘अलकनन्दा’ नामवाली गंगा बहती हैं, उनमें स्नान करना चाहिये। वहाँ स्नान करके मनुष्य महान् पापसे मुक्त हो जाता है। उस तीर्थमें सम्पूर्ण जगत्के स्वामीभगवान् नारायण सदा ही विराजमान रहते हैं।

एक समयकी बात है, मैंने एक वर्षतक वहाँ बड़ी कठोर तपस्या की थी। उस समय भक्तोंपर कृपा करनेवाले भगवान् नारायण, जो अविनाशी, अन्तर्यामी, साक्षात् परमेश्वर तथा गरुड़के से चिह्नवाली ध्वजासे युक्त हैं, बहुत प्रसन्न हुए और मुझसे बोले – ‘सुव्रत ! कोई वर माँगो; देव! तुम जो-जो चाहोगे, वह सभी मनोरथ मैं पूर्ण करूँगा; तुम कैलासके स्वामी, साक्षात् रुद्र तथा विश्वके पालक हो ।

तब मैंने कहा- जनार्दन ! यदि आप वर देना चाहते हैं तो मुझे दो वर प्रदान कीजिये – मेरे हृदयमें सदा ही आपके प्रति भक्ति बनी रहे और देवेश्वर ! मैं आपके प्रसादसे मुक्तिदाता होऊँ ।

अध्याय 149 गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य

महादेवजी कहते हैं- देवर्षियोंमें श्रेष्ठ नारद! अब तुम परम पुण्यमय हरिद्वारका माहात्म्य श्रवण करो। जहाँ भगवती गंगा बहती हैं, वहाँ उत्तम तीर्थ बताया गया है। वहाँ देवता, ऋषि और मनुष्य निवास करते हैं। वहाँ साक्षात् भगवान् केशव नित्य विराजमान रहते हैं। विद्वन्! राजा भगीरथ उसी मार्गसे भगवती गंगाको लाये थे तथा उन महात्माने गंगाजलका स्पर्श कराकर अपने पूर्वजोंका उद्धार किया था।

नारद! अत्यन्त सुन्दर गंगाद्वारमें जो जिस प्रकार गंगाजीको ले आये थे, वह सब प्रसंग मैं क्रमशः सुनाता हूँ। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामके एक राजा हो चुके हैं, जो त्रिभुवनमें सत्यके पालक विख्यात थे। उनके रोहित नामक एक पुत्र हुआ, जो भगवान् विष्णुकी भक्ति में तत्पर था। रोहितका पुत्र वृक था, जो बड़ा ही धर्मात्मा और सदाचारी था। उसके सुबाहु नामक पुत्र हुआ। सुबाहुसे ‘गर’ नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। एक समय गरको कालयोगसे दुःखी होना पड़ा अनेक राजाओंने चढ़ाई करके उनके देशको अपने अधीन कर लिया। गर कुटुम्बको साथ ले भृगुनन्दन और्वके आश्रमपर चलेगये। और्वने कृपापूर्वक वहाँ उनकी रक्षा की। वहीं उनके सगर नामक पुत्रका जन्म हुआ। महात्मा भार्गवसे रक्षित होकर वह उसी आश्रमपर बढ़ने लगा। मुनिने उसके यज्ञोपवीत आदि सब क्षत्रियोचित संस्कार कराये। अस्त्र-शस्त्रों तथा वेद-विद्याका भी उसको अभ्यास कराया।

तदनन्तर महातपस्वी राजा सगरने और्व मुनिसे आग्नेयास्त्र प्राप्त किया और समूची पृथ्वीपर भ्रमण करके अपने शत्रु तालजंघ, हैहय, शक तथा पारदवंशियोंका वध कर डाला। इस प्रकार सबको जीतकर उन्होंने धर्म-संचय करना आरम्भ किया। राजाने अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये अश्व छोड़ा। वह अश्व पूर्व दक्षिण समुद्रके तटपर हर लिया गया और पृथ्वीके भीतर पहुँचा दिया गया। तब राजाने अपने पुत्रोंको लगाकर सब ओरसे उस स्थानको खुदवाया। महासागर खोदते समय वे अश्वको तो नहीं पा सके, किन्तु वहाँ तपस्या करनेवाले आदि पुरुष महात्मा कपिलपर उनकी दृष्टि पड़ी। वे उतावलीके साथ उनके निकट गये और जगत्प्रभु कपिलको लक्ष्य करके कहने लगे-‘यह चोर है।कोलाहल सुनकर भगवान् कपिल समाधिसे जाग उठे। उस समय उनके नेत्रोंसे आग प्रकट हुई, जिससे साठ हजार सगर- पुत्र जलकर भस्म हो गये। महायशस्वी राजाने समुद्रसे उस आश्वमेधिक अश्वको प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान पूर्ण किया।

नारदजीने पूछा- विज्ञानेश्वर ! सगरके साठ हजार पुत्र बड़े बलवान् और पराक्रमी थे, उन वीरोंकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? यह बताइये महादेवजी बोले-नारद! राजा सगरकी दो पलियाँ थीं, वे दोनों ही तपस्याके द्वारा अपने पाप दग्ध कर चुकी थीं। इससे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ और्वने उन्हें वरदान दिया। उनमें से एक रानीने साठ हजार पुत्र माँगे और दूसरीने एक ही ऐसे पुत्रके लिये प्रार्थना की, जो वंश चलानेवाला हो। पहली रानीने तूंबीमें बहुत-से शूरवीर पुत्रको जन्म दिया; उन सबको धाइयोंने ही क्रमशः पाल-पोसकर बड़ा किया। घीसे भरे हुए घड़ों रखकर उन कुमारोंका पोषण किया गया। कपिला गायका दूध पीकर वे सब के सब बड़े हुए दूसरी रानीके गर्भ से पंचजन नामक पुत्र हुआ, जो राजा बना।पंचजनके अंशुमान् नामक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुआ। अंशुमान के दिलीप और दिलीपके भगीरथ हुए, जो उत्तम व्रत (तपस्या) – का अनुष्ठान करके नदियों में श्रेष्ठ गंगाजीको पृथ्वीपर ले आये तथा जिन्होंने गंगाको समुद्रतक ले जाकर उन्हें अपनी कन्याके रूपमें अंगीकार किया।

नारदजीने पूछा- भगवन्! राजा भगीरथ गंगाको किस प्रकार लाये थे? उन्होंने कौन-सी तपस्या की थी, ये सब बातें मुझे बताइये।

महादेवजी बोले- नारद! राजा भगीरथ अपने पूर्वजोंका हित करनेके लिये हिमालय पर्वतपर गये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षोंतक भारी तपस्या की। इससे आदिदेव भगवान् निरंजन श्रीविष्णु प्रसन्न हुए। उन्हींके आदेश से गंगाजी आकाशसे चलीं और जहाँ विश्वेश्वर श्रीशिव नित्य विराजमान रहते हैं, उस कैलास पर्वतपर उपस्थित हुईं। मैंने गंगाजीको आया देख उन्हें अपने जटाजूटमें धारण कर लिया और दस हजार वर्षोंतक उसी रूपमें स्थित रहा। इधर राजा भगीरथ | गंगाजीको न देखकर विचार करने लगे-गंगा कहाँ चलीगयीं? ध्यान करके जब उन्होंने यह निश्चितरूपसे जान लिया कि उन्हें महादेवजीने ग्रहण कर लिया है, तब वे कैलास पर्वतपर गये। मुनिश्रेष्ठ वहाँ पहुँचकर वे तीव्र तपस्या करने लगे। उनके आराधना करनेपर मैंने अपने मस्तकसे एक बाल उखाड़ा और उसीके साथ त्रिपथगा गंगाजीको उन्हें अर्पण कर दिया। गंगाको लेकर वे पातालमें, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, गये। उस समय भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई गंगा जब हरिद्वारमें आयीं, तब वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान तथा विशेषरूपसेश्रीहरिका दर्शन करके उनकी परिक्रमा करते हैं, वे दुःखके भागी नहीं होते। ब्रह्महत्या आदि पापोंकी अनेक राशियाँ ही क्यों न हों, वे सब सर्वदा श्रीहरिके दर्शनमात्रसे नष्ट हो जाती हैं। एक समय मैं भी हरिद्वारमें श्रीहरिके स्थानपर गया था, उस समय उस तीर्थके प्रभावसे मैं विष्णुस्वरूप हो गया। सभी मनुष्य वहाँ श्रीहरिका दर्शन करनेमात्रसे वैकुण्ठलोकको प्राप्त होते हैं। परम सुन्दर हरिद्वार – तीर्थ मेरी दृष्टिमें सबसे अधिक महत्त्वशाली है। वह समस्त तीर्थोंमें श्रेष्ठ और धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है।

अध्याय 150 गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति

महादेवजी कहते हैं-मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं श्रीगंगाजीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करूंगा, जिसके श्रवणमात्रसे तत्काल पापोंका नाश हो जाता है। जो मनुष्य सैकड़ों योजन दूरसे भी ‘गंगा-गंगा’ का उच्चारण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होता और अन्तमें विष्णुलोकको जाता है।” नारद! श्रीहरिके चरणकमलोंसे प्रकट हुई ‘गंगा’ नामसे विख्यात नदी पापकी स्थूल राशियोंका भी नाश करनेवाली है। नर्मदा, सरयू वेत्रवती (बेतवा), तापी, पयोष्णी (मन्दाकिनी), चन्द्रा, विपाशा (व्यास), कर्मनाशिनी, पुष्पा, पूर्णा, दीपा, विदीपा तथा सूर्यतनया यमुना- इनमें स्नान करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब पुण्य गंगा स्नानसे मनुष्य प्राप्त कर लेते हैं। जो मनीषी पुरुष समुद्रसहित पृथ्वीका दान करते हैं, उनको मिलनेवाला फल भी गंगा स्नानसे प्राप्त हो जाता है। सहस्र गोदान, सौ अश्वमेध यज्ञ तथा सहस्र वृषभ- दानसे जिस अक्षय फलकी प्राप्ति होती है, वह गंगाजीके दर्शनसे क्षणभरमें प्राप्त हो जाता है। वह गंगा नदी महान् पुण्यदायिनी है, विशेषतः ब्रह्महत्यारोंके लिये परम पावन है। वे नरकमें पड़नेवाले हों तो भी गंगाजी उनके पाप हर लेती है तात जैसे सूर्योदय होनेपरअन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार गंगाके प्रभावसे पातक नष्ट हो जाते हैं। ये माता गंगा संसारमें सदा पवित्र मानी गयी हैं। इनका स्वरूप परम कल्याणमय है। माता जाह्नवीका स्वरूप दिव्य है। जैसे देवताओंमें श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार नदियोंमें गंगा उत्तम हैं। जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती हैं, उन तीर्थोंमें स्नान और आचमन करके मनुष्य मोक्षका भागी होता है इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

[ भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें जानेपर भगवान् श्रीविष्णु

तथा यमुना, गंगा आदि नदियोंका किस प्रकार स्तवन करना चाहिये, यह बताया जाता है- ]

त्वद्वार्तां प्रयतो ब्रवीमि यदहं सास्तु स्तुतिस्ते प्रभो

यद् भुजे तव सन्निवेदनमथो यद्यामि सा प्रेष्यता ।

यच्छ्रान्तः स्वपिमि त्वदङ्घ्रियुगले दण्डप्रणामोऽस्तु मे

स्वामिन् यच्च करोमि तेन स भवान् विश्वेश्वरः प्रीयताम् ॥

प्रभो ! मैं शुद्धभावसे आपके सम्बन्धमें जो कुछ भी चर्चा करता हूँ, वही आपके लिये स्तुति हो । जो कुछ भोजन करता हूँ, वह आपके लिये नैवेद्यका काम दे। जो चलता-फिरता हूँ, वही आपकी सेवा-टहल समझी जाय। जो थककर सो जाता हूँ, वही आपके लियेसाष्टांग प्रणाम हो तथा स्वामिन्! मैं जो कुछ करता हूँ, उससे आप जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न हों।

दृष्टेन वन्दितेनापि स्पृष्टेन च धृतेन च । नरा येन विमुच्यन्ते तदेतद् यामुनं जलम् ॥ जिसके दर्शन, वन्दन, स्पर्श तथा धारण करनेसे मनुष्य भव-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं, वही यह यमुनाजीका जल है।

तावद् भ्रमन्ति भुवने मनुजा भवोत्थ

दारिद्र्यरोगमरणव्यसनाभिभूताः

यावज्जलं महानदि नीलनीलं

पश्यन्ति नो दधति मूर्धसु सूर्यपुत्रि ॥

सूर्यपुत्री महानदी यमुनाजी ! मनुष्य इस जगत्में प्राप्त होनेवाले दरिद्रता, रोग और मृत्यु आदि दुःखोंसे पीड़ित होकर तभीतक संसारमें भटकते रहते हैं, जबतक वे नीलमणिके सदृश आपके नीले जलका दर्शन नहीं करते अथवा उसे अपने मस्तकपर नहीं चढ़ाते ।

यत्संस्मृतिः सपदि कृन्तति दुष्कृतौघं

पापावलीं जयति योजनलक्षतोऽपि

यन्नाम नाम जगदुच्चरितं पुनाति

दिष्ट्या हि सा पथि दृशोर्भविताद्य गङ्गा ॥

जिनकी स्मृति पापराशिका तत्काल नाश कर देती है, जो लाख योजन दूरसे भी पापोंके समूहको परास्त करती हैं, जिनका नाम उच्चारण किये जानेपर सम्पूर्ण जगत्को पवित्र कर देता है, वे गंगाजी आज सौभाग्यवश मेरे दृष्टिपथमें आयेंगी।

आलोकोत्कण्ठितेन प्रमुदितमनसा वर्त्म यस्याः प्रयातं

सद् यस्मिन् कृत्यमेतामथ प्रथमकृती जज्ञिवान् स्वर्गसिन्धुम्

स्नानं सन्ध्या निवापः सुरयजनमपि श्राद्धविप्राशनाद्यं

सर्वं सम्पूर्णमेतद् भवति भगवतः प्रीतिदं नात्र चित्रम् ॥

मनुष्य दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा प्रसन्नचित्त होकर जिसके पथका अनुसरण करता है, जिसके समस्त शास्त्रविहित कर्म उत्तमतापूर्वक सम्पन्न होते हैं, उन गंगाजीको आदि सृष्टिके रचयिता ब्रह्माजीने पहले स्वर्गगाके रूपमें उत्पन्न किया था। उनके तटपर किया हुआ स्नान, सन्ध्या, तर्पण, देवपूजा, श्राद्ध और ब्राह्मण भोजन आदि सब कुछ परिपूर्ण एवं भगवान्‌को प्रसन्नताप्रदान करनेवाला होता है— इसमें कोई आश्चर्यकी
बात नहीं है।

द्रवीभूतं परं ब्रह्म परमानन्ददायिनि

अर्घ्यं गृहाण मे गङ्गे पापं हर नमोऽस्तु ते ॥

परमानन्द प्रदान करनेवाली गंगाजी ! आप जल रूपमें अवतीर्ण साक्षात् परब्रह्म हैं। आपको नमस्कार है। आप मेरा दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण कीजिये और मेरे पाप हर लीजिये।

साक्षादधर्मद्रवौघं मुररिपुचरणाम्भोजपीयूषसारं

दुःखस्वाब्धेस्तरित्रं सुरदनुजनुतं स्वर्गसोपानमार्गम्।

सर्वांहोहारि वारि प्रवरगुणगणं भासि या संवहन्ती

तस्यै भागीरथ श्रीमति मुदितमना देवि कुर्वे नमस्ते ॥

श्रीमती भागीरथी देवी! जो जलरूपमें परिणत साक्षात् धर्मकी राशि है, भगवान् विष्णुके चरणारविन्दोंसे प्रकट हुई सुधाका सार है, दुःखरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाज है तथा स्वर्गलोकमें जानेके लिये सीढ़ी है, जिसे देवता और दानव भी प्रणाम करते हैं, जो समस्त पापका संहार करनेवाला, उत्तम गुणसमूहसे युक्त और शोभा सम्पन्न है, ऐसे जलको आप धारण करती हैं। मैं प्रसन्नचित्त होकर आपको नमस्कार करता हूँ।

स्वः सिन्धो दुरिताब्धिमग्नजनतासंतारणि प्रोल्लसत्

कल्लोलामलकान्तिनाशिततमस्तोमे जगत्पावनि ।

गङ्गे देवि पुनीहि दुष्कृतभयक्रान्तं कृपाभाजनं

मातम शरणागतं शरणदे रक्षाद्य भो भीषितम् ॥

स्वर्गलोककी नदी भगवती गंगे! आप पापके समुद्रमें डूबी हुई जनताको तारनेवाली हैं, अपनी उठती हुई शोभायुक्त लहरोंकी निर्मल कान्तिसे पापरूपी अन्धकार राशिका नाश करती हैं तथा जगत्को पवित्र करनेवाली हैं; मैं पापके भयसे ग्रस्त और आपका कृपा-भाजन हूँ। शरणदायिनी माता ! आपकी शरणमें आया हूँ; आज मुझ भयभीतकी रक्षा कीजिये।

हं हो मानस कम्पसे किमु सखे त्रस्तो भयान्नारकात्

किं ते भीतिरिति श्रुतिर्दुरितकृत् संजायते नारकी ।

मा भैषीः शृणु मे गतिं यदि मया पापाचलस्पर्धिनी

प्राप्ता ते निरयः कथं किमपरं किं मे न धर्मो धनम् ॥

ऐ मेरे चित्त! ओ मित्र! तुम नरकके भयसे त्रस्त होकर काँप क्यों रहे हो ? क्या तुम्हें यह सोचकर भय हो रहा है कि पापी मनुष्य नरकमें श्रुतिका कथन है। सखे! इसके लिये भय न करो; मेरी क्या गति होगी- यह बताता हूँ, सुनो; यदि मुझे पापके पहाड़से भी टक्कर लेनेवाली भगवती गंगा प्राप्त हो। नयी हैं तो तुम्हें नरककी प्राप्ति कैसे हो सकती है अथवा दूसरी कोई दुर्गति भी क्यों होगी। क्या मेरे पास धर्मरूपी धन नहीं है?

स्वर्वासाधिप्रशंसामुदमनुभवितुं मज्जनं यत्र चोक्तं

स्वर्नार्यो वीक्ष्य हृष्टा विबुधसुरपतिप्राप्तिसंभावनेन ।

नीरे श्रीजनुकन्ये यमनियमरताः स्नान्ति ये तावकीने

देवत्वं ते लभन्ते स्फुटमशुभकृतोऽप्यत्र वेदाः प्रमाणम् ॥

जिस गंगाजीके जलमें किया हुआ स्नान स्वर्ग लोकके निवास तथा प्रशंसाके आनन्दको अनुभूतिका कारण बताया गया है, वहाँ किसीको स्नान करते देख स्वर्गलोककी देवियाँ एक नूतन देवता अथवा इन्द्रके मिलने की संभावनासे बहुत प्रसन्न होती हैं जल्नुपुत्री गंगे जो लोग यम-नियमोंका पालन करते हुए आपके जलमें स्नान करते हैं, वे पहलेके पापी होनेपर भी निश्चय ही देवत्व प्राप्त कर लेते हैं-इस विषयमें वेद प्रमाण हैं।

बुद्धे सद्बुद्धिरेवं भवतु तव सखे मानस स्वस्ति तेऽस्तु

आस्तां पादौ पदस्थौ सततमिह युवां साधुदृष्टी च दृष्टी

वाणि प्राणप्रियेऽधिप्रकटगुणवपुः प्राप्नुहि प्राणपुष्टिं

यस्मात् सर्वर्भवद्भिः सुखमतुलमहं प्राप्नुयां तीर्थपुण्यम् ॥

बुद्धे! सदा इसी प्रकार तुम्हारी सदबुद्धि बनी रहे। सखे मन! तुम्हारा भी कल्याण हो । चरणो ! तुम भी इसी प्रकार योग्य पद (स्थान) पर स्थित रहो। नेत्रो ! तुम दोनों भी उत्तम दृष्टिसे सम्पन्न रहो। वाणी ! तुम प्राणोंकी प्रिया हो तथा प्रकट हुए उत्तम गुणोंसे युक्त शरीर तुम्हारी प्राणशक्तिका पोषण हो क्योंकि तुम सब लोगोंके साथ आज अतुलित सुख प्रदान करनेवाले तीर्थजनित पुण्यको प्राप्त करूँगा ।

श्रीजाह्नवीरविसुतापरमेष्ठिपुत्री

सिन्धुत्रयाभरण तीर्थवर प्रयाग

सर्वेश मामनुगृहाण नयस्व चोर्ध्व

मन्तस्तमोदशविधं दलय स्वधाम्ना ॥

गंगा, यमुना और सरस्वती- इन तीनों नदियोंको आभूषणरूपमें धारण करनेवाले तीर्थराज प्रयाग! सर्वेश्वर ! मुझपर अनुग्रह करो, मुझे ऊँचे उठाओ तथा मेरे अन्तःकरणके दस प्रकारके अविद्यान्धकारको अपने तेजसे नष्ट करो।

वागीशविष्ण्वीशपुरन्दराद्याः

पापप्रणाशाय विदां विदोऽपि

भजन्ति यत्तीरमनीलनीलं

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा इन्द्र आदि देवता और विद्वानोंमें श्रेष्ठ विद्वान् (ऋषि महर्षि) भी जिसके श्वेत-कृष्णजलसे शोभित तटका सेवन करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो ।

कलिन्दजासङ्गमवाप्य यत्र

प्रत्यागता स्वर्गधुनी धुनोति

अध्यात्मतापत्रितयं जनस्य

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

जहाँ आयी हुई गंगा कलिन्दनन्दिनी यमुनाका संगम पाकर मनुष्योंके आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक इन तीनों तापका नाश करती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो ।

श्यामो वटो श्यामगुणं वृणोति

स्वच्छायया श्यामलया जनानाम्

श्यामः श्रमं कृन्तति यत्र दृष्टः

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

जहाँ श्यामवट उज्ज्वल गुण धारण करता है तथा दर्शन करनेपर अपनी श्यामल छायासे मनुष्योंके जन्म-मरणरूप श्रमका नाश कर डालता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

ब्रह्मादयोऽप्यात्मकृतिं विहाय

भजन्ति पुण्यात्मकभागधेयम् ।

यत्रोज्झता दण्डधरः स्वदण्ड

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

ब्रह्मा आदि देवता भी अपना काम छोड़कर जिस पुण्यमय सौभाग्यसे युक्त तीर्थका सेवन करते हैं तथा जहाँ दण्डधारी यमराज भी अपना दण्ड त्याग देते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

यत्सेवया देवन्देवतादि

देवर्षयः प्रत्यहमामनन्ति

स्वर्ग च सर्वोत्तमभूमिराज्यं

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

देवता, मनुष्य, ब्राह्मण तथा देवर्षि भी प्रतिदिन जिसके सेवनसे स्वर्ग एवं सर्वोत्तम भूमण्डलका राज्य प्राप्त करते हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

एनांसि हन्तीति प्रसिद्धवार्ता

नामप्रतापेन दिशो द्रवन्ती

यस्य त्रिलोकी प्रतता यशोभिः

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

प्रयाग अपने नामके प्रतापसे समस्त पापका नाश कर डालता है, यह प्रसिद्ध वार्ता सम्पूर्ण दिशाओंमें फैली हुई है। जिसके सुयशसे सारी त्रिलोकी आच्छादित है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

धत्तोऽभितश्चामरचारुकान्ती

सितासिते यत्र सरिद्वरेण्ये

आद्यो वटश्छत्रमिवातिभाति

स तीर्थराजो जयति प्रयागः

जहाँ दोनों किनारे श्याम और श्वेत सलिलसेसुशोभित दो श्रेष्ठ सरिताएँ यमुना और गंगा चैवरकी मनोहर कान्ति धारण कर रही हैं और आदि वट (अक्षयवट) छत्रके समान सुशोभित होता है, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

ब्राह्मीनपुत्रीप्रियथास्त्रिवेणी

समागमेनाक्षतयागमात्रान्

यत्राप्लुतान् ब्रह्मपदं नयन्ति

स तीर्थराजो जयति प्रयागः ॥

सरस्वती, यमुना और गंगा-ये तीन नदियाँ जहाँ डुबकी लगानेवाले मनुष्योंको, जो त्रिवेणी संगमके सम्पर्क से अक्षत यागफलको प्राप्त हो चुके हैं, ब्रह्मलोकमें पहुंचा देती हैं, उस तीर्थराज प्रयागकी जय हो।

केषाञ्चिज्जन्मकोटिर्व्रजति सुवचसा यामि यामीति

यस्मिन् केात्प्रोषितानां नियतमतिपतेद् वर्षवृन्दं वरिष्ठम्।

यः प्राप्तो भाग्यलक्षैर्भवति भवति नो वा स वाचामवाच्यो

दिष्ट्या वेणीविशिष्टो भवति दूगतिथिः किं प्रयागः प्रयागः ॥

‘मैं प्रयागमें जाऊँगा, जाऊँगा’ इन सुन्दर बातोंमें ही कितने ही लोगोंके करोड़ों जन्म बीत जाते हैं [ और प्रयागकी यात्रा सुलभ नहीं होती]। कुछ लोग घरसे चल तो देते हैं, पर मार्गमें ही फँस जानेके कारण उनके अनेकों वर्ष समाप्त हो जाते हैं। लाखों बार भाग्यकी सहायता होनेपर भी जो कभी प्राप्त होता है और कभी नहीं भी होता, वह त्रिवेणी संगम विशिष्ट उत्तम यज्ञभूमि प्रयाग वाणीसे परे है। क्या मेरा ऐसा भाग्य है कि वह मेरे नेत्रोंका अतिथि हो सके ?

लोकानामक्षमाणां मखकृतिषु कली स्वर्गकामैर्जपस्तु

त्यादिस्तोत्रैर्वचोभिः कथममरपदप्राप्तिचिन्तातुराणाम् ।

अग्निष्टोमाश्वमेधप्रमुखमखफलं सम्यगालोच्य साई

ब्रह्माद्यैस्तीर्थराजोऽभिमतद उपदिष्टोऽयमेव प्रयागः ॥

कलियुगमें मनुष्य स्वर्गको इच्छा होते हुए भी यज्ञ-यागादि करनेमें असमर्थ होनेके कारण जप, स्तुति, स्तोत्र एवं पाठ आदिके द्वारा किस प्रकार अमरपदकी प्राप्ति हो इस चिन्तासे आतुर होंगे उनको अंगसहित अग्निष्टोम और अश्वमेध आदि यज्ञका फल कैसे मिले इसकी भलीभाँति आलोचना करके ब्रह्मा आदि देवताओंने इस तीर्थराज प्रयागको ही सब प्रकारके अभीष्ट फलोंका दाता बताया है।

मया प्रमादातुरतादिदोषतः

संध्याविधिनों समुपासितोऽभूत् ।

चेदत्र संध्यां चरतोऽप्रमादतः

संध्यास्तु पूर्णाखिलजन्मनोऽपि मे ॥

यदि मैंने प्रमाद और आतुरता आदि दोषोंके कारण भलीभाँति संध्योपासना नहीं की है तो यहाँ सावधानतापूर्वक संध्या करनेसे मेरे सम्पूर्ण जन्मकी संध्योपासना पूर्ण हो जाय।

अन्यापि प्रगर्जन्यमिनि तपसि प्रेमिभिर्विप्रकृष्ट

र्थ्यातः संकीर्तितो योऽभिमतपदविधातानिशं निर्व्यपेक्षम् ।

श्रीमत्पांशुं त्रिवेणीपरिवृढमतुलं तीर्थराज प्रयागं

गोऽलंकारप्रकाशं स्वयममरवरैश्चार्चितं तं नमामि

जो माघमासमें अपनी महिमाके विषयमें अन्यत्र भी गर्जना करता है, प्रेमीजनोंके दूरसे भी अपना ध्यान और कीर्तन करनेपर जो बिना किसीकी सहायताके निरन्तर अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला है, जिसकी धूलिराशि शोभासे सम्पन्न है, जो त्रिवेणीका स्वामी है, जिसकी संसारमें कहीं भी तुलना नहीं है तथा जिसका दिव्य स्वरूप अंशुमाली सूर्यके समान प्रकाशमान है, उस श्रेष्ठ देवताओंद्वारा पूजित तीर्थराज प्रयागको मैं प्रणाम करता हूँ।

अस्माभिः सुतपोऽन्वतापि किमोऽबन्धन्त किं वाध्वराः

पात्रे दानमदायि किं बहुविधं किं वा सुराश्चार्चिताः

किं सत्तीर्थमसेवि किं द्विजकुलं पूजादिभिः सत्कृतं

येन प्राप सदाशिवस्य शिवदा सा राजधानी स्वयम् ॥

अहो! हमलोगोंने क्या कोई उत्तम तपस्या की थी? अथवा यज्ञोंका अनुष्ठान किया था? या किसी सुपात्रको नाना प्रकारकी वस्तुओंका दान दिया था ? अथवा देवताओंकी पूजा की थी? या किसी उत्तम तीर्थका सेवन किया था? अथवा ब्राह्मणवंशका पूजा आदिके द्वारा सत्कार किया था, जिससे भगवान् सदाशिवकी यह कल्याणदायिनी राजधानी काशी हमें स्वयं ही प्राप्त हो गयी !

भाग्यैर्मेऽधिगता ह्यनेकजनुषां सर्वाघविध्वंसिनी

सर्वाश्चर्यमयी मया शिवपुरी संसारसिन्धोस्तरी ।

लब्धं तज्जनुषः फलं कुलमलंचक्रे पवित्रीकृतः स्वात्मा

चाप्यखिलं कृतं किमपरं सर्वोपरिष्टात् स्थितम् ॥

मेरे बड़े भाग्य थे, जो अनेक जन्मोंकी पापराशिका विध्वंस करनेवाली संसार-समुद्रके लिये नौकारूपा यह सर्वाश्चर्यमयी शिवपुरी मुझे प्राप्त हुई। इससे जन्म लेनेका फल मिल गया। मेरे कुलकी शोभा बढ़ गयी। मेरी अन्तरात्मा पवित्र हो गयी तथा मेरे सम्पूर्ण कर्तव्य पूर्ण हो गये। अधिक क्या कहूँ, अब मैं सर्वोपरि पदपर प्रतिष्ठित हो गया।

जीवन्नरः पश्यति भट्टलक्षमेवं वदन्तीति मृषा न यस्मात् ।

तस्मान्मया वै वपुषेदृशेन प्राप्तापि काशी क्षणभङ्गुरेण ॥

मनुष्य जीवित रहे तो वह लाखों कल्याणकी बातें देखता है-ऐसी जो किंवदन्ती है, वह झूठी नहीं है; इसीलिये मैंने इस क्षणभंगुर शरीरसे भी काशी जैसी पुरीको प्राप्त कर लिया।

काश्यां विधातुममरैरपि दिव्यभूमौ

सत्तीर्थलिङ्गगणनार्चनतो न शक्या

यानीह गुप्तविवृतानि पुरातनानि

सिद्धानि योजितकरः प्रणमामि तेभ्यः ॥

काशीपुरीकी दिव्य भूमिमें कितने उत्तम तीर्थ और लिंग हैं, उनकी पूजनपूर्वक गणना करना देवताओंके लिये भी असंभव है। यहाँ गुप्त और प्रकटरूपसे जो-जो पुरातन सिद्धपीठ हैं, उन्हें मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

किं भीत्या दुरितात्कृतात् किमु मुदा पुण्यैरगण्यैः कृतः

किं विद्याभ्यसनान्यदेन जडवादोषाद विषादेन किम्।

किं गर्वेण धनोदयादधनतातापेन किं भो जनाः

स्नात्वा श्रीमणिकर्णिकापयसि चेद् विश्वेश्वरो दृश्यते ।।

मनुष्यो। यदि श्रीमणिकर्णिकाके जलमें स्नान करके भगवान् विश्वनाथजीका दर्शन किया जाता हो तो पूर्वकृत पापोंसे भयकी क्या आवश्यकता है। अथवा किये हुए अगणित पुण्योंद्वारा प्राप्त होनेवाले आनन्दसे भी क्या लेना है। विद्याभ्यासको लेकर घमंड या मूर्खताके लिये खेद करनेसे क्या लाभ है? धनकी प्राप्तिसे होनेवाले गर्व तथा निर्धनता के कारण होनेवाले संतापसे भी क्या प्रयोजन है।

अल्पस्फीतिनिरामयापि तनुताप्रव्यक्तशक्त्यात्मता

प्रोत्साहाढ्यबलेन केवलमनोरागद्वितीयेन यत् ।

अप्राप्यापि मनोरथैरविषया स्वप्नप्रवृत्तेरपि

प्राप्ता साथि गदाधरस्य नगरी सद्यो ऽपवर्गप्रदा ॥

जो स्वल्प समृद्धिसे युक्त होनेपर भी निरामय (नाशरहित) है, सूक्ष्मताके द्वारा ही जो अपनी शक्तिशालिता सूचित कर रही है, अप्राप्य होनेपर भी जो उत्साहयुक्त बल तथा विशुद्ध अनुरागसे प्राप्त होती है, मनोरथोंकी भी जहाँतक पहुँच नहीं है, जो स्वप्नमें भी सुलभ नहीं होती, वह तत्काल मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवान् गदाधरकी नगरी गया आज मुझे प्राप्त हुई है।

मन्ये नात्मकृतिर्न पूर्वपुरुषप्राप्तेर्बलं चात्र

नापीदं स्वजनप्रमाणमचलं किं शापतापादिकम्

या दुष्प्रापगयाप्रयागयमुनाकाशीषु पर्वागमात्

प्राप्तिस्तत्र महाफलो विजयते श्रीशारदानुग्रहः ॥

कोई पुण्यपर्व आनेपर जो गया, प्रयाग, यमुना और काशी आदि दुर्लभ तीर्थोंमें आनेका सौभाग्य प्राप्त होता है, उसमें महान् फलदायक भगवती शारदाका अनुग्रह ही एकमात्र कारण है; उसीकी विजय है। मैं इसे अपना पुरुषार्थ नहीं मानता। पूर्वजोंने जो यहाँ आकर पुण्योपार्जन किया है, उसका बल भी इसमें सहायक नहीं है तथा स्वजनवर्गकी अविचल शक्ति भी इसमें कारण नहीं है। इन तीर्थोंमें आनेपर शाप-ताप आदि क्या कर सकते हैं l

यः श्राद्धसमये दूरात्स्मृतोऽपि पितृमुक्तिदः ।

तं गवायां स्थितं साक्षान्नमामि श्रीगदाधरम् ॥

जो श्राद्ध कालमें दूरसे स्मरण करनेपर भी पितरोंको मोक्ष प्रदान करते हैं, गयामें स्थित उन साक्षात् भगवान् श्रीगदाधरको मैं प्रणाम करता हूँ।

पन्थानं समतीत्य दुस्तरमिमं दूराद्दवीयस्तरं

क्षुद्रव्याघ्रतरक्षुकण्टकफणिप्रत्यर्थिभिः संकुलम

आगत्य प्रथमं ह्ययं कृपणवाग् याचेज्जनः कं परं

श्रीमद्वारि गदाधर प्रतिदिनं त्वां द्रष्टुमुत्कण्ठते ॥

भगवान् गदाधर! यह आपका दास मक्खी, मच्छर, बाघ, चीते, काँटे, सर्प तथा लुटेरोंसे भरे हुए इस दुस्तर मार्गको, जो दूरसे भी दूर पड़ता है, तै करके पहले-पहल यहाँ आया है और दीन वाणीमें आपसे याचना करता है। भला आपके सिवा और किसके सामने यह हाथ फैलाये। भगवन्! यह सेवक प्रतिदिन आपके शोभासम्पन्न द्वारपर आकर दर्शनके लिये उत्कण्ठित रहता है।

सर्वात्मनिदर्शनेन च गया श्राद्धेन वै देवतान्

प्रीणन् विश्वमनीहवत् कथमिहौदासीन्यमालम्बसे ।

किं ते सर्वद निर्दयत्वमधुना किं वा प्रभुत्वं कलेः

किं वा सत्त्वनिरीक्षणं नृषु चिरं किं वास्य सेवारुचिः ॥

सर्वात्मन्। आप अपने दर्शनसे तथा गयामें किये जानेवाले श्रद्धसे देवताओं सहित सम्पूर्ण विश्वको तृप्त करते हैं; फिर मेरे सामने क्यों निश्चेष्ट से होकर उदासीन भाव धारण कर रहे हैं? भक्तको सर्वस्व देनेवाले दयामय! क्या इस समय आपने निर्दयता धारण कर ली है ? या यह कलियुगका प्रभाव है? अथवा देर लगाकर आप मनुष्यों के सत्य (शुद्ध भाव एवं धैर्य) की परीक्षा ले रहे हैं या इस दासकी भगवत्सेवामें कितनी रुचि है, इसका निरीक्षण कर रहे हैं?

गदाधर मया श्राद्धं यच्चीर्णं त्वत्प्रसादतः ।

अनुजानीहि मां देव गमनाय गृहं प्रति ॥

गदाधर! आपकी कृपासे मैंने यहाँ श्राद्धका अनुष्ठान किया है; [इसे स्वीकार कीजिये और ] देव! अब मुझे घर जानेकी आज्ञा दीजिये ।

एवं हि देवतानां च स्तोत्रं स्वर्गार्थदायकम् ।

श्राद्धकाले पठेन्नित्यं स्नानकाले तु यः पठेत् ॥

सर्वतीर्थस स्नानं श्रवणात्पठनाज्जपात् ॥

प्रयागस्य च गङ्गाया यमुनायाः स्तुतेर्द्विज ।

श्रवणेन विनश्यन्ति दोषाश्चैव तु कर्मजाः ॥

(23 । 51, 53, 54)

इस प्रकार यह देवताओंका स्तोत्र स्वर्ग एवं अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाला है जो मनुष्य श्राद्धकालमें तथा प्रतिदिन स्नान के समय इसका पाठ करता है, उसे सब तीर्थोंमें स्नानके समान पुण्य होता है। इसके श्रवण, पाठ तथा जपसे उक्त फलकी सिद्धि होती है। ब्रह्मन् प्रयाग, गंगा तथा यमुनाकी स्तुतिका श्रवण करनेसे कर्मजन्य दोष नष्ट हो जाते हैं।

अध्याय 151 तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य

शिवजी बोले- नारद । सुनो; अब में तुलसीका माहात्म्य बताता हूँ, जिसे सुनकर मनुष्य जन्मसे लेकर मृत्युपर्यन्त किये हुए पापसे छुटकारा पा जाता है। तुलसीका पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पावन हैं। जिनका मृत शरीर तुलसी-काष्ठकी आग से जलाया जाता है, वे विष्णुलोकमें जाते हैं। मृत पुरुष यदि अगम्यागमन आदि महान् पापोंसे ग्रस्त हो तो भी तुलसी काष्ठकी अग्निसे देहका दाह संस्कार होनेपर वह शुद्ध हो जाता है। जो मृत पुरुषके सम्पूर्ण अंगोंमें तुलसीका काष्ठ देकर पश्चात् उसका दाह संस्कार करता है, वह भी पापसे मुक्त हो जाता है। जिसकी मृत्युके समय श्रीहरिका कीर्तन और स्मरण हो तथा तुलसीकी लकड़ीसे उसके शरीरका दाह किया जाय, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। यदि दाह-संस्कारके समय अन्य लकड़ियोंके भीतर एक भी तुलसीका काष्ठ हो तो करोड़ों पापोंसे युक्त होनेपर भी मनुष्यकी मुक्ति हो जाती है। तुलसीकी लकड़ीसे मिश्रित होनेपर सभी काष्ठ पवित्र हो जाते हैं। तुलसी-काष्ठकी अग्निसे मृत मनुष्यका दाह होता देख विष्णुदूत ही आकर उसे वैकुण्ठमें ले जाते हैं; यमराजके दूत उसे नहीं ले जा सकते। वह करोड़ों जन्मोंके पापसे मुक्त हो भगवान् विष्णुको प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी-काष्ठकी अग्निमें जलाये जाते हैं, उन्हें विमानपर बैठकर वैकुण्ठमें जाते देख देवता उनके ऊपर पुष्पांजलि चढ़ाते हैं। ऐसे पुरुषको देखकर भगवान् विष्णु और शिव संतुष्ट होते हैं तथा श्रीजनार्दन उसके सामने जा हाथ पकड़कर उसे अपने धाममें ले जाते हैं। जिस अग्निशाला अथवा श्मशानभूमिमें घीके साथ तुलसी- काष्ठकी अग्नि प्रचलित होती है, वहाँ जानेसे मनुष्यों का पातक भस्म हो जाता है।जो ब्राह्मण तुलसी- काष्ठकी अग्निमें हवन करते हैं, उन्हें एक-एक सिक्थ (भातके दाने) अथवा एक एक तिलमें अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है। जो भगवान्‌को तुलसी- काष्ठका धूप देता है, वह उसके फलस्वरूप सौ यज्ञानुष्ठान तथा सौ गोदानका पुण्य प्राप्त करता है। जो तुलसीकी लकड़ीकी आँचसे भगवान्का नैवेद्य तैयार करता है, उसका वह अन्न यदि थोड़ा-सा भी भगवान् केशवको अर्पण किया जाय तो वह मेरुके समान अन्नदानका फल देनेवाला होता है। जो तुलसी-काष्ठकी आगसे भगवान्के लिये दीपक जलाता है, उसे दस करोड़ दीप दानका पुण्य प्राप्त होता है। इस लोकमें पृथ्वीपर उसके समान वैष्णव दूसरा कोई नहीं दिखायी देता। जो भगवान् श्रीकृष्णको तुलसी-काष्ठका चन्दन अर्पण करता तथा उनके श्रीविग्रहमें उस चन्दनको भक्तिपूर्वक लगाता है। वह सदा श्रीहरिके समीप रमण करता है। जो मनुष्य अपने अंगमें तुलसीकी कीचड़ लगाकर श्रीविष्णुका पूजन करता है, उसे एक ही दिनमें सौ दिनोंके पूजनका पुण्य मिल जाता है। जो पितरोंके पिण्डमें तुलसीदल मिलाकर दान करता है, उसके दिये हुए एक दिनके पिण्डसे पितरोंको सौ वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है। तुलसीकी जड़की मिट्टीके द्वारा विशेषरूपसे स्नान करना चाहिये। इससे जबतक वह मिट्टी शरीरमें लगी रहती है, तबतक स्नान करनेवाले पुरुषको तीर्थ स्नानका फल मिलता है। जो तुलसीकी नयी मंजरीसे भगवान्‌की पूजा करता है, उसे नाना प्रकारके पुष्पोंद्वारा किये हुए पूजनका फल प्राप्त होता है। जबतक सूर्य और चन्द्रमा हैं, तबतक वह उसका पुण्य भोगता है। जिस घरमें तुलसी- वृक्षका बगीचा है, उसके दर्शन और स्पर्शसे भी ब्रह्महत्या आदि सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।जिस-जिस घर, गाँव अथवा वनमें तुलसीका वृक्ष हो, वहाँ-वहाँ जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्नचित्त होकर निवास करते हैं। उस घरमें दरिद्रता नहीं रहती और बन्धुओंसे वियोग नहीं होता। जहाँ तुलसी विराजमान होती हैं, वहाँ दुःख, भय और रोग नहीं ठहरते । याँ तो तुलसी सर्वत्र ही पवित्र होती हैं, किन्तु पुण्यक्षेत्रमें वे अधिक पावन मानी गयी हैं। भगवान्के समीप पृथ्वी तलपर तुलसीको लगानेसे सदा विष्णुपद (वैकुण्ठ धाम ) की प्राप्ति होती है। तुलसीद्वारा भक्तिपूर्वक पूजित होनेपर शान्तिकारक भगवान् श्रीहरि भयंकर उत्पात रोगों तथा अनेक दुर्निमित्तका भी नाश कर डालते हैं। जहाँ तुलसीकी सुगन्ध लेकर हवा चलती है, वहाँकी दसों दिशाएँ और चारों प्रकारके जीव पवित्र हो जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ! जिस गृहमें तुलसीके मूलकी मिट्टी मौजूद है, वहाँ सम्पूर्ण देवता तथा कल्याणमय भगवान् श्रीहरि सर्वदा स्थित रहते हैं। ब्रह्मन् ! तुलसीवनकी छाया जहाँ-जहाँ जाती हो, वहाँ वहाँ पितरोंकी तृप्तिके लिये तर्पण करना चाहिये।

नारद । जहाँ तुलसीका समुदाय पड़ा हो, वहाँ किया हुआ पिण्डदान आदि पितरोंके लिये अक्षय होता है तुलसीको जड़में ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् जनार्दन तथा मंजरीमें श्रीरुद्रदेवका निवास है; इसीसे वह पावन मानी गयी है। विशेषतः शिवमन्दिरमें यदि तुलसीका वृक्ष लगाया जाय तो उससे जितने बीज तैयार होते हैं, उतने ही युगोंतक मनुष्य स्वर्गलोकमें निवास करता है। जो पार्वण श्राद्धके अवसरपर श्रावणमासमें तथा संक्रान्तिके दिन तुलसीका पौधा लगाता है, उसके लिये वह अत्यन्त पुण्यदायिनी होती है। जो प्रतिदिन तुलसीदलसे भगवान्की पूजा करता है, वह यदि दरिद्र हो तो धनवान् हो जाता है। तुलसीकी मूर्ति सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली होती है; वह श्रीकृष्णकी कीर्ति प्रदान करती है। जहाँ शालग्रामको शिला होती है, यहाँ श्रीहरिका सांनिध्य बना रहता है। वहाँ किया हुआ स्नान और दान काशीसे सौगुना अधिक महत्त्वशाली है। शालग्रामकी पूजासे कुरुक्षेत्र, प्रयाग तथा नैमिषारण्यकी अपेक्षाकोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है। जहाँ कहीं शालग्राममयी मुद्रा हो, वहाँ काशीका सारा पुण्य प्राप्त हो जाता हैं। मनुष्य ब्रह्महत्या आदि जो कुछ पाप करता है, वह सब शालग्रामशिलाको पूजासे शीघ्र नष्ट हो जाता है।

महादेवजी कहते हैं— नारद! अब मैं वेदोंमें कही हुईं प्रयागतीर्थकी महिमाका वर्णन करूँगा। जो मनुष्य पुण्य-कर्म करनेवाले हैं, वे ही प्रयागमें निवास करते हैं। जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती – तीनों नदियोंका संगम है, वही तीर्थप्रवर प्रयाग है; वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। इसके समान तीर्थ तीनों लोकोंमें न कोई हुआ है न होगा जैसे ग्रहोंमें सूर्य और नक्षत्रोंमें चन्द्रमा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब तीर्थोंमें प्रयाग नामक तीर्थ उत्तम है। विद्वन्! जो प्रातःकाल प्रयागमें स्नान करता है, वह महान् पापसे मुक्त हो परमपदको प्राप्त होता है। जो दरिद्रताको दूर करना चाहता हो, उसे प्रयागमें जाकर कुछ दान करना चाहिये। जो मनुष्य प्रयागमें जाकर वहाँ स्नान करता है, वह धनवान् और दीर्घजीवी होता है। वहाँ जाकर मनुष्य अक्षयवटका दर्शन करता है, उसके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्याका पाप नष्ट होता है। उसे आदिवट कहा गया है। कल्पान्तमें भी उसका दर्शन होता है। उसके पत्रपर भगवान् विष्णु शयन करते हैं; इसलिये वह अविनाशी माना गया है। विष्णुभक्त मनुष्य प्रयागमें अक्षयवटका पूजन करते हैं। उस वृक्षमें सूत लपेटकर उसकी पूजा करनी चाहिये।

वहाँ ‘माधव’ नामसे प्रसिद्ध भगवान् विष्णु नित्य विराजमान रहते हैं; उनका दर्शन अवश्य करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष महापापोंसे छुटकारा पा जाता है। देवता, ऋषि और मनुष्य-सभी वहाँ अपने-अपने योग्य स्थानका आश्रय लेकर नित्य निवास करते हैं। गोहत्यारा, चाण्डाल, दुष्ट, दूषितहृदय बालघाती तथा अज्ञानी मनुष्य भी यदि वहाँ मृत्युको प्राप्त होता है तो चतुर्भुजरूप धारण करके सदा ही वैकुण्ठधाममें निवास करता है। जो मानव प्रयागमें माघ स्नान करता है, उसे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलकी कोई गणना नहीं है। भगवान् नारायण प्रयागमें स्नान करनेवाले पुरुषोंको भोग औरमोक्ष प्रदान करते हैं। जैसे ग्रहोंमें सूर्य और नक्षत्रोंमें चन्द्रमा श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार महीनोंमें माघमास श्रेष्ठ है। यह सभी कर्मोंके लिये उत्तम है। विद्वन्! यह माघ- मकरका योग चराचर त्रिलोकीके लिये दुर्लभ है। जो इसमें यत्नपूर्वक सात, पाँच अथवा तीन दिन भी प्रयाग-स्नान कर लेता है, उसका अभ्युदय होता है। मनुष्य आदि चराचर जीव प्रयागतीर्थका सेवन करके वैकुण्ठलोकको प्राप्त होते हैं। दिव्यलोकमें रहनेवाले जो वसिष्ठ और सनकादि ऋषि हैं, वे भी प्रयागतीर्थका बारंबार सेवन करते हैं। विष्णु, रुद्र और इन्द्र भी तीर्थप्रवर प्रयागमें निवास करते हैं। प्रयागमें दान और नियमोंके पालनकी प्रशंसा होती है। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे पुनर्जन्म नहीं होता ।

अध्याय 152 त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा

नारदजी बोले – भगवन्! आपकी कृपासे मैंने तुलसीके माहात्म्यका श्रवण किया। अब त्रिरात्र तुलसी व्रतका वर्णन कीजिये।

महादेवजीने कहा- विद्वन्! तुम बड़े बुद्धिमान् हो, सुनो; यह व्रत बहुत पुराना है। इसका श्रवण करके मनुष्य निश्चय ही सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। नारद! व्रत करनेवाला पुरुष कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको नियम ग्रहण करे। पृथ्वीपर सोये और इन्द्रियाँको काबू रखे त्रिराव्रत करनेके उद्देश्य से वह शौच स्नानसे शुद्ध हो मनको संयममें रखते हुए प्रतिदिन रातको नियमपूर्वक तुलसीवन के समीप शयन करे। मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें स्नान करके विधिपूर्वक देवताओं और पितरोंका तर्पण करे। इस व्रतमें पूजाके लिये लक्ष्मी और श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमा बनवानी चाहिये तथा उनके लिये दो वस्त्र भी तैयार करा लेने चाहिये। वस्त्र पीत और श्वेत वर्णके हों। व्रतके आरम्भमें विधिपूर्वक नवग्रह शान्ति कराये, उसके बाद चरु पकाकर उसके द्वारा श्रीविष्णु देवताकी प्रीतिके लिये हवन करे। द्वादशीके दिन देवदेवेश्वर भगवान्‌की यत्नपूर्वक पूजा करके विधिके अनुसार कलश स्थापन करे। कलश शुद्ध हो और फूटा-टूटा न हो। उसमें पंचरत्न, पंचपल्लव तथा ओषधियाँ पड़ी हों। कलशके ऊपर एक पात्र रखे और उसके भीतर लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णुको प्रतिमाको विराजमान करे। फिर वैदिक और पौराणिक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए तुलसीवृक्षके मूलमें भगवत्प्रतिमाकी स्थापना करे। तुलसीकी वाटिकाको केवल जलसे सींचे। फिर देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान्‌को पंचामृत से स्नान कराकर इस प्रकार प्रार्थना करे प्रार्थना – मन्त्र

योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो गर्भोदके

लोकविधिं बिभर्ति प्रसीदतामेष स देवदेवो

यो मायया विश्वकृदेव रूपी

‘जिनके रूपका कहीं अन्त नहीं है, सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो गर्भरूप (आधारभूत) जलमें स्थित होकर लोकसृष्टिका भरण-पोषण करते हैं और मायासे ही रूपवान् होकर समस्त संसारकी सृष्टि करते हैं, वे देवदेव परमेश्वर मुझपर प्रसन्न हों। ‘

आवाहन – मन्त्र

आगच्छाच्युत देवेश तेजोराशे जगत्पते

सदैव तिमिरध्वंसिंस्त्राहि मां भवसागरात् ॥

‘हे अच्युत ! हे देवेश्वर ! हे तेज:पुंज जगदीश्वर ! यहाँ पधारिये; आप सदा ही अज्ञानान्धकारका नाश करनेवाले हैं, इस भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये।’

स्नान-मन्त्र

पञ्चामृतेन सुस्नातस्तथा गन्धोदकेन

गङ्गादीनां च तोयेन स्नातोऽनन्तः प्रसीदतु ॥

पंचामृत और चन्दनयुक्त जलसे भलीभाँति नहाकर गंगा आदि नदियोंके जलसे स्नान किये हुए भगवान् अनन्त मुझपर प्रसन्न हों।’

विलेपन मन्त्र

श्रीखण्डागुरुकर्पूरकुङ्कुमादिविलेपनम्

भक्त्या दत्तं मयाऽऽधेयं लक्ष्म्या सह गृहाण वै ॥

‘भगवन्! मैंने चन्दन, अगरजा, कपूर और केसर आदिका सुगन्धित अंगराग भक्तिपूर्वक अर्पण किया है; आप श्रीलक्ष्मीजीके साथ इसे स्वीकार करें।’

वस्त्र-मन्त्र

नारायण नमस्तेऽस्तु नरकार्णवतारण।

त्रैलोक्याधिपते तुभ्यं ददामि वसनं शुचि ll

‘नरकके समुद्रसे तारनेवाले नारायण! आपको नमस्कार है। त्रिलोकीनाथ! मैं आपको पवित्र वस्त्र अर्पण करता हूँ।’

यज्ञोपवीत-मन्त्र

दामोदर नमस्तेऽस्तु प्राहि मां भवसागरात् ।

ब्रह्मसूत्रं मया दत्तं गृहाण पुरुषोत्तम ॥

‘दामोदर! आपको नमस्कार है, भवसागरसे मेरी रक्षा कीजिये। पुरुषोत्तम! मैंने ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) अर्पण किया है, आप इसे ग्रहण करें।’

पुष्प-मन्त्र

पुष्पाणि च सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।

मया दत्तानि देवेश प्रीतितः प्रतिगृह्यताम् ॥

‘प्रभो! मैंने मालती आदिके सुगन्धित पुष्प सेवामें प्रस्तुत किये हैं, देवेश्वर ! आप इन्हें प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें।’

नैवेद्य-मन्त्र

नैवेयं गुह्यतां नाथ भक्ष्यभोज्यैः समन्वितम्।

सर्वं रसैः सुसम्पन्नं गृहाण परमेश्वर ॥

‘नाथ! भक्ष्यभोज्य पदार्थोंसे युक्त नैवेद्य स्वीकार कीजिये; परमेश्वर ! यह सब रसोंसे सम्पन्न है, इसे ग्रहण करें।’

ताम्बूल मन्त्

पूगानि नागपत्राणि कर्पूरसहितानि

मया दत्तानि देवेश ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥

‘देवेश्वर! मैंने सुपारी, पानके पत्ते और कपूरआपकी सेवामें भेंट किये हैं। आप यह बीड़ा स्वीकार करें।”

तत्पश्चात् भक्तिपूर्वक धूप, अगर तथा थी मिलाया हुआ गुग्गुल इनकी आहुति देकर भगवान्‌को सुँघाये। इस प्रकार पूजा करनी चाहिये। घीका दीपक जलाना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ एकाग्रचित्त हो भगवान् श्रीलक्ष्मीनारायणके सामने तथा तुलसीवनके समीप नाना प्रकारका दीपक सजाना चाहिये। चक्रधारी देवाधिदेव विष्णुको प्रतिदिन अर्घ्य भी देना चाहिये। पुत्र- प्राप्तिके लिये नवमीको नारियलका अर्घ्य देना उत्तम है। धर्म, काम तथा अर्थ-तीनोंकी सिद्धिके लिये दशमीको बिजरिका अर्घ्य अर्पण करना उचित है तथा एकादशीको अनारसे अर्घ्य देना चाहिये; इससे सदा दरिद्रताका नाश होता है। नारद! बाँसके पात्रमें सप्तधान्य रखकर उसमें सात फल रखे; फिर तुलसीदल, फूल एवं सुपारी डालकर उस पात्रको वस्त्रसे ढक दे। तत्पश्चात् उसे भगवान्‌के सम्मुख निवेदन करे। विप्रेन्द्र! अर्घ्यं निम्नांकित मन्त्रसे देना चाहिये; इसे एकाग्रचित्त होकर सुनो

अर्घ्य मन्त्र

तुलसीसहितो देव सदा शङ्खेन संयुतम् ।

गृहाणा मया दत्तं देवदेव नमोऽस्तु ते ॥

‘देव! आप तुलसीजीके साथ मेरे दिये हुए इस शंखयुक्त अर्घ्यको ग्रहण करें। देवदेव! आपको नमस्कार है।’

इस प्रकार लक्ष्मीसहित देवेश्वर भगवान् विष्णुकी पूजा करके व्रतकी पूर्तिके निमित्त उन देवदेवेश्वरसे प्रार्थना करे

उपोषितोऽहं देवेश कामक्रोधविवर्जितः ।

व्रतेनानेन देवेश त्वमेव शरणं

गृहीतेऽस्मिन् व्रते देव यदपूर्णं कृतं मया ।

सर्वं तदस्तु सम्पूर्णं त्वत्प्रसादाज्जनार्दन ॥

कमलपत्राक्ष नमस्ते जलशायिने ।

इदं व्रतं मया चीर्णं प्रसादात्तव केशव ॥

अज्ञानतिमिरध्वंसिन् व्रतेनानेन केशव

प्रसादसुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥

‘देवेश्वर ! मैंने काम-क्रोधसे रहित होकर इस व्रतके द्वारा उपवास किया है। देवेश! आप ही मेरे शरणदाता हैं। देव! जनार्दन! इस व्रतको ग्रहण करके मैंने इसके जिस अंगकी पूर्ति न की हो, वह सब आपके प्रसादसे पूर्ण हो जाय। कमलनयन ! आपको नमस्कार है। जलशायी नारायण! आपको प्रणाम है। केशव ! आपके ही प्रसादसे मैंने इस व्रतका अनुष्ठान किया है। अज्ञानान्धकारका विनाश करनेवाले केशव ! आप इस व्रतसे प्रसन्न होकर मुझे ज्ञान दृष्टि प्रदान करें ।’

तदनन्तर रातमें जागरण, गान तथा पुस्तकका स्वाध्याय करे। गानविद्या तथा नृत्यकलामें प्रवीण पुरुषोंद्वारा संगीत और नृत्यकी व्यवस्था करे। अत्यन्त सुन्दर एवं पवित्र उपाख्यानोंके द्वारा रात्रिका समय व्यतीत करे। निशाके अन्तमें प्रभात होनेपर जब सूर्यदेवका उदय हो जाय, तब ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करके भक्तिपूर्वक वैष्णव श्राद्ध करे । यज्ञोपवीत, वस्त्र, माला तथा चन्दनदेकर वस्त्राभूषण एवं केसरके द्वारा पूजनपूर्वक तीन ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन कराये। घृत-मिश्रित खीरके द्वारा यथेष्ट भोजन करानेके पश्चात् दक्षिणासहित पान, फूल और गन्ध आदि दान करे। अपनी शक्तिके अनुसार बाँसके अनेक पात्र बनवाकर उन्हें पके हुए नारियल, पकवान, वस्त्र तथा भाँति-भाँतिके फलोंसे भरे। सपत्नीक आचार्यको वस्त्र पहनाये । दिव्य आभूषण देकर चन्दन और मालासे उनका पूजन करे। फिर उन्हें सब सामग्रियोंसे युक्त दूध देनेवाली गौ दान करे। गौके साथ दक्षिणा, वस्त्र, आभूषण, दोहनपात्र तथा अन्यान्य सामग्री भी दे। श्रीलक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा भी सब सामग्रियोंसहित आचार्यको दे। सब तीर्थोंमें स्नान करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब इस व्रतके द्वारा देवदेव विष्णुके प्रसादसे प्राप्त हो जाता है। व्रत करनेवाला पुरुष इस लोकमें मनको प्रिय लगनेवाले सम्पूर्ण पदार्थों और प्रचुर भोगोंका उपभोग करके अन्तमें श्रीविष्णुकी कृपासे भगवान् विष्णुके परमधामको प्राप्त होता है।

अध्याय 153 अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा

नारदजीने पूछा – भगवन्! गुणोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको देनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य इस लोकमें किन किन वस्तुओंका दान करे? यह सब बताइये।

महादेवजी बोले- देवर्षिप्रवर! सुनो-लोकमें तत्त्वको जानकर सज्जन पुरुष अन्नदानकी ही प्रशंसा करते हैं; क्योंकि सब कुछ अन्नमें ही प्रतिष्ठित हैं। अतएव साधु महात्मा विशेषरूपसे अन्नका ही दान करना चाहते हैं। अन्नके समान कोई दान न हुआ है न होगा। यह चराचर जगत् अन्नके ही | आधारपर टिका हुआ है। लोकमें अन्न ही बलवर्धक है। अन्नमें ही प्राणोंकी स्थिति है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह अपने कुटुम्बको कष्ट देकर भी अन्नकी भिक्षा माँगनेवाले महात्मा ब्राह्मणको अवश्य दान दे। नारद! जो याचना करनेवाले पीड़ित ब्राह्मणको अन्न दे, वही विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। यह दान आत्माके पारलौकिक सुखका साधन है। रास्तेका थका-माँदा गृहस्थ ब्राह्मण यदि भोजनके समय घरपर आकर उपस्थित हो जाय तो कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको अवश्य उसे अन्न देना चाहिये। अन्नदाता इहलोक और परलोकमें भी सुख उठाता है। थके-माँदे अपरिचित राहगीरको जो बिना क्लेशके अन्न देता है, वह सब धर्मोंका फल प्राप्त करता है। अतिथिकी न तो निन्दा करे और न उससे द्रोह ही रखे। उसे अन्न अर्पण करे। उस दानकी विशेष प्रशंसा है। महामुने! जो मनुष्य अन्नसे देवताओं, पितरों,ब्राह्मणों तथा अतिथियोंको तृप्त करता है, उसे अक्षय पुण्यकी प्राप्ति होती है। महान् पाप करके भी जो याचकको – विशेषतः ब्राह्मणको अन्न-दान करता है, वह पापसे मुक्त हो जाता है। ब्राह्मणको दिया हुआ दान अक्षय होता है। शूद्रको भी किया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला है। अन्न-दान करते समय याचकसे यह न पूछे कि वह किस गोत्र और किस शाखाका है तथा उसने कितना अध्ययन किया है? अन्नका अभिलाषी कोई भी क्यों न हो, उसे दिया हुआ अन्न-दान महान् फल देनेवाला होता है। अतः मनुष्योंको इस पृथ्वीपर विशेषरूपसे अन्नका दान करना चाहिये।

जलका दान भी श्रेष्ठ है; वह सदा सब दानोंमें उत्तम है। इसलिये बावली, कुआँ और पोखरा बनवाना चाहिये। जिसके खोदे हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण और साधु पुरुष सदा पानी पीते हैं, वह अपने कुलको तार देता है। नारद! जिसके पोखरेमें गर्मी के समयतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। पोखरा बनवानेवाला पुरुष तीनों लोकोंमें सर्वत्र सम्मानित होता है। मनीषी पुरुष धर्म, अर्थ और कामका यही फल बतलाते हैं कि देशमें खेतके भीतर उत्तम पोखरा बनवाया जाय, जो प्राणियोंके लिये महान् आश्रय हो। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, पितर, नाग, राक्षस तथा स्थावर प्राणी भी जलाशयका आश्रय लेते हैं। जिसके पोखरेमें केवल वर्षा ऋतु ही जल रहता है, उसे अग्निहोत्रका फल मिलता है। जिसके तालाब में हेमन्त और शिशिर कालतक जल ठहरता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। यदि वसन्त तथा ग्रीष्म ऋतुतक पानी रुकता हो तो मनीषी पुरुष अतिरात्र और अश्वमेध यज्ञोंका फल बतलाते हैं।अब वृक्ष लगानेके जो लाभ हैं, उनका वर्णन सुनो। महामुने। वृक्ष लगानेवाला पुरुष अपने भूतकालीन पितों तथा होनेवाले वंशजोंका भी उद्धार कर देता है। इसलिये वृक्षको अवश्य लगाना चाहिये। वह पुरुष परलोकमें जानेपर वहाँ अक्षय लोकोंको प्राप्त करता है। वृक्ष अपने फूलोंसे देवताओंका पत्तोंसे पितरोंका तथा छायासे समस्त अतिथियोंका पूजन करते हैं। किन्नर, यक्ष, राक्षस, देवता, गन्धर्व, मानव तथा ऋषि भी वृक्षोंका आश्रय लेते हैं। वृक्ष फूल और फलोंसे युक्त होकर इस लोकमें मनुष्योंको तृप्त करते हैं। वे इस लोक और परलोकमें भी धर्मतः पुत्र माने गये हैं। जो पोखरेके किनारे वृक्ष लगाते, यज्ञानुष्ठान करते तथा जो सदा सत्य बोलते हैं, वे कभी स्वर्गसे भ्रष्ट नहीं होते।

सत्य ही परम मोक्ष है, सत्य ही उत्तम शास्त्र है, सत्य देवताओंमें जाग्रत् रहता है तथा सत्य परम पद है तप, यज्ञ, पुण्यकर्म, देवर्षि-पूजन, आद्यविधि और विद्या- ये सभी सत्यमें प्रतिष्ठित हैं। सत्य ही यज्ञ दान, मन्त्र और सरस्वती देवी हैं: सत्य ही व्रतचर्या है तथा सत्य ही ॐकार है। सत्यसे ही वायु चलती है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यके प्रभावसे ही आग जलती है तथा सत्यसे ही स्वर्ग टिका हुआ है। लोकमें जो सत्य बोलता है, वह सब देवताओंके पूजन तथा सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करनेका फल निस्संदेह प्राप्त कर लेता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञका पुण्य और सत्य- इन दोनोंको यदि तराजूपर रखकर तौला जाय तो सम्पूर्ण यज्ञोंको अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर और ऋषि सत्यमें ही विश्वास करते हैं। सत्यको ही परम धर्म और सत्यको ही परम पद कहते हैं। सत्यकोपरब्रह्मका स्वरूप बताया गया है; इसलिये मैं तुम्हें सत्यका उपदेश करता हूँ। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके सत्यधर्मका पालन करते हुए इस लोकसे स्वर्गको प्राप्त हुए हैं सदा सत्य ही बोलना चाहिये, सत्यसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विस्तृत एवं पवित्र हृद (कुण्ड) से युक्त है; योगयुक्त पुरुषोंको उसमें मनसे स्नान करना चाहिये। यही स्नान उत्तम माना गया है। जो मनुष्य अपने पराये अथवा पुत्रके लिये भी असत्य भाषण नहीं करते, वे स्वर्गगामी होते हैं ब्राह्मणोंमें वेद, यज्ञ तथा मन्त्र नित्य निवास करते हैं; किन्तु जो ब्राह्मण सत्यका परित्याग कर देते हैं, उनमें वेद आदि शोभा नहीं देते; अतः सत्य भाषण करना चाहिये।

नारदजीने कहा- भगवन्! अब मुझे विशेषतःतपस्याका फल बताइये, क्योंकि प्रायः सभी वर्णोंका तथा मुख्यतः ब्राह्मणोंका तपस्या ही बल है।

महादेवजी बोले- नारद! तपस्याको श्रेष्ठ बताया गया है। तपसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है जो सदा तपस्या में संलग्न रहते हैं, वे सदा देवताओंके साथ आनन्द भोगते हैं। तपसे मनुष्य मोक्ष पा लेता है, तपसे ‘महत्’ पदकी प्राप्ति होती है। मनुष्य अपने मनसे ज्ञान-विज्ञानका खजाना, सौभाग्य और रूप आदि जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब उसे तपस्यासे मिल जाती है। जिन्होंने तपस्या नहीं की है, वे कभी ब्रह्मलोकमें नहीं जाते। पुरुष जिस किसी कार्यका उद्देश्य लेकर तप करता है, वह सब इस लोक और परलोकमें उसे प्राप्त हो जाता है। शराबी, परस्त्रीगामी, ब्रह्महत्यारा तथा गुरुपत्नीगामी – जैसा पापी भी तपस्याके बलसे सबसे पार हो जाता है-सब पापोंसे छुटकारा पा लेता है। तपस्याके प्रभावसे छियासी हजार ऊर्ध्वरेतामुनि स्वर्गमें रहकर देवताओंके साथ आनन्द भोग रहे हैं। तपस्यासे राज्य प्राप्त होता है। इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवता और असुरोंने तपस्यासे ही सदा सबका पालन किया है। तपस्यासे ही वे वृत्तिदाता हुए हैं। सम्पूर्ण लोकोंके हितमें लगे रहनेवाले दोनों देवता सूर्य और चन्द्रमा तपसे ही प्रकाशित होते हैं। नक्षत्र और ग्रह भी तपस्यासे ही कान्तिमान् हुए हैं। तपस्यासे मनुष्य सब कुछ पा लेता है, सब सुखोंका अनुभव करता है। मुने! जो जंगलमें फल-मूल खाकर तपस्या करता है तथा जो पहले केवल वेदका अध्ययन ही करता है – वे दोनों समान हैं। वह अध्ययन तपस्याके ही तुल्य है। श्रेष्ठ द्विज वेद पढ़ानेसे जो पुण्य प्राप्त करता है, स्वाध्याय और जपसे इसकी अपेक्षा दूना फल पा जाता है। जो सदा तपस्या करते हुए शास्त्रके अभ्याससे ज्ञानोपार्जन करता है और लोकको उस ज्ञानका बोध कराता है, वह परम पूजनीय गुरु है। पुराणवेत्ता पुरुष दानका सबसे श्रेष्ठ पात्र है। वह पतनसे त्राण करता है, इसलिये पात्र कहलाता है। जो लोग सुपात्रको धन, धान्य, सुवर्ण तथा भाँति-भाँति के वस्त्र दान करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्रेष्ठ पात्रको गौ, भैंस, हाथी और सुन्दर-सुन्दर घोड़े दान करता है, वह सम्पूर्ण लोकोंमें अश्वमेधके अक्षय फलको प्राप्त होता है। जो सुपात्रको जोती- बोयी एवं फलसे भरी हुई सुन्दर भूमि दान करता है, वह अपने दस पीढ़ी पहलेके पूर्वजों और दस पीढ़ी बादतककी संतानोंको तार देता है तथा दिव्य विमानसे विष्णुलोकको जाता है। देवगण पुस्तक बाँचनेसे जितना संतुष्ट होते हैं, उतना संतोष उन्हें यज्ञोंसे, प्रोक्षण (अभिषेक) से तथा फूलोंद्वारा की हुई पूजाओंसे भी नहीं होता। जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें धर्म-ग्रन्थका पाठ कराता है तथा देवी, शिव, गणेश और सूर्यकेमन्दिरमें भी उसकी व्यवस्था करता है, वह मानव राजसूय और अश्वमेध यज्ञोंका फल पाता है। इतिहास पुराणके ग्रन्थोंका बाँचना पुण्यदायक है। ऐसा करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है तथा अन्तमें सूर्यलोकका भेदन करके ब्रह्मलोकको चला जाता है। वहाँ सौ कल्पोंतक रहनेके पश्चात् इस पृथ्वीपर जन्म ले राजा होता है। एक हजार अश्वमेधयज्ञोंका जो फल बताया गया है, उसे वह मनुष्य भी प्राप्त कर लेता है, जो देवताके आगे महाभारतका पाठ करता है। अतः सब प्रकारका प्रयत्न करके भगवान् विष्णुके मन्दिरमें इतिहास – पुराणके ग्रन्थोंका पाठ करना चाहिये। वह शुभकारक होता है। विष्णु तथा अन्य देवताओंके लिये दूसरा कोई साधन इतना प्रीतिकारक नहीं है।

अध्याय 154 मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा

महादेवजी कहते हैं— नारद! इस विषयमें विज्ञ पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। यह इतिहास अत्यन्त पुरातन, पुण्यदायक सब पापको हरनेवाला तथा शुभकारक है। देवर्षे ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारने लोक पितामह ब्रह्माजीको नमस्कार करके मुझे यह उपाख्यान सुनाया था।

सनत्कुमार बोले- एक दिन मैं धर्मराजसे मिलने गया था। वहाँ उन्होंने बड़ी प्रसन्नता और भक्तिकेसाथ नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा मेरा सत्कार किया। तत्पश्चात् मुझे सुखमय आसनपर बैठनेके लिये कहा। बैठनेपर मैंने वहाँ एक अद्भुत बात देखी। एक पुरुष सोनेके विमानपर बैठकर वहाँ आया। उसे देखकर धर्मराज बड़े वेग से आसनसे उठ खड़े हुए और आगन्तुकका दाहिना हाथ पकड़कर उन्होंने अर्घ्य आदिके द्वारा उसका पूर्ण सत्कार किया। तत्पश्चात् वे उससे इस प्रकार बोले ।

धर्मने कहा— धर्मके द्रष्टा महापुरुष! तुम्हारा स्वागत है! मैं तुम्हारे दर्शनसे बहुत प्रसन्न हूँ। मेरे पास बैठो और मुझे कुछ ज्ञानकी बातें सुनाओ। इसके बाद | उस धाममें जाना, जहाँ श्रीब्रह्माजी विराजमान हैं।

सनत्कुमार कहते हैं— धर्मराजके इतना कहते ही एक दूसरा पुरुष उत्तम विमानपर बैठा हुआ वहाँ आ पहुँचा। धर्मराजने विनीत भावसे उसका भी विमानपर ही पूजन किया तथा जिस प्रकार पहले आये हुए मनुष्यसे सान्त्वनापूर्वक वार्तालाप किया था, उसी प्रकार इस नवागन्तुकके साथ भी किया। यह देखकर मुझे बड़ा विस्मय हुआ मैंने धर्मसे पूछा-‘ इन्होंने कौन-सा ऐसा कर्म किया है, जिसके ऊपर आप अधिक संतुष्ट हुए हैं? इन दोनोंके द्वारा ऐसा कौन-सा कर्म बन गया है, जिसका इतना उत्तम पुण्य है? आप सर्वज्ञ हैं, अतः बताइये किस कर्मके प्रभावसे इन्हें दिव्य फलकी प्राप्ति हुई है?’ मेरी बात सुनकर धर्मराजने कहा- ‘इनदोनोंका किया हुआ कर्म बताता हूँ, सुनो। पृथ्वीपर वैदिश नामका एक विख्यात नगर है। वहाँ धरापाल नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जिन्होंने भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाकर उसमें उनकी स्थापना की। उस नगरमें जितने लोग रहते थे, उन सबको उन्होंने भगवान्का दर्शन करनेके लिये आदेश दिया। गाँवके भीतर बना हुआ श्रीविष्णुका वह सुन्दर मन्दिर लोगोंसे ठसाठस भर गया। तब राजाने पहले ब्राह्मण आदिके समुदायका पूजन किया, फिर उन महाबुद्धिमान् नरेशने इतिहास – पुराणके ज्ञाता एक श्रेष्ठ द्विजको, जो विद्यामें भी श्रेष्ठ थे, वाचक बनाकर उनकी विशेष रूपसे पूजा की। फिर क्रमशः गन्ध-पुष्प आदि उपचारोंसे पुस्तकका भी पूजन करके राजाने वाचक ब्राह्मणसे विनयपूर्वक कहा – ‘द्विजश्रेष्ठ ! मैंने जो यह भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाया है, इसमें धर्म श्रवण करनेकी इच्छासे चारों वर्णोंका समुदाय एकत्रित हुआ है अतः आप पुस्तक बाँचिये। इस समय ये सौ स्वर्णमुद्राएँ उत्तम जीविकावृत्तिके रूपमें ग्रहण कीजिये और एक वर्षतक प्रतिदिन कथा कहिये। वर्ष समाप्त होनेपर पुनः औरधन दूँगा।’

मुनिश्रेष्ठ इस प्रकार राजाके आदेशसे वहाँ पुण्यमय कथा – वार्ताका क्रम चालू हो गया। वर्ष बीतते-बीतते आयु क्षीण हो जानेके कारण राजाकी मृत्यु हो गयी। तब मैंने तथा भगवान् विष्णुने भी इनके लिये द्युलोकसे विमान भेजा था। ये जो दूसरे ब्राह्मण यहाँ आये थे, इन्होंने सत्संगके द्वारा उत्तम धर्मका श्रवण किया था श्रवण करनेसे श्रद्धावश इनके हृदयमें परमात्माकी भक्तिका उदय हुआ। मुनिश्रेष्ठ! फिर इन्होंने उन महात्मा बाचककी परिक्रमा की और उन्हें एक माशा सुवर्ण दान दिया। सुपात्रको दान देनेसे इन्हें इस प्रकारके फलकी प्राप्ति हुई है। मुने! इस प्रकार यह कर्म, जिसे इन दोनोंने किया था, मैंने कह सुनाया।

महादेवजी कहते हैं— जो मनीषी पुरुष इस पुण्य-प्रसंगका माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनकी किसी जन्ममें कभी दुर्गति नहीं होती। देवर्षिप्रवर! अब दूसरी बात सुनाता हूँ, सुनो। गोपीचन्दनका माहात्म्य जैसा मैंने देखा और सुना है, उसका वर्णन करता हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शुद्र-कोई भी क्यों न हो, जो विष्णुका भक्त होकर उनके भजनमें तत्पर रहकर अपने अंगोंमें गोपीचन्दन लगाता है, वह गंगाजल से नहाये हुएकी भाँति सब दोषोंसे मुक्त हो जाता है। कल्याणकी इच्छा रखनेवाले वैष्णव ब्राह्मणोंके लिये गोपीचन्दनका तिलक धारण करना विशेष रूपसे कर्तव्य है। ललाटमें दण्डके आकारका, वक्ष:स्थलमें कमलके सदृश, बाहुओंके मूलभागमें बाँसके पत्तेके समान तथा अन्यत्र दीपकके तुल्य चन्दन लगाना चाहिये अथवा जैसी रुचि हो, उसीके अनुसार भिन्न भिन्न अंगोंमें चन्दन लगाये, इसके लिये कोई खास नियम नहीं है। गोपीचन्दनका तिलक धारण करनेमात्रसे ब्राह्मणसे लेकर चाण्डालतक सभी मनुष्य शुद्ध हो जाते हैं जो वैष्णव ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर हो, उसमें तथा विष्णुमें भेद नहीं मानना चाहिये; वह इस लोकमें श्रीविष्णुका ही स्वरूप होता है। तुलसीके पत्र अथवा काष्ठकी बनी हुई मालाधारण करनेसे ब्राह्मण निश्चय ही मुक्तिका भागी होता है।” मृत्युके समय भी जिसके ललाटपर गोपीचन्दनका तिलक रहता है, वह विमानपर आरूढ हो विष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। नारद ! कलियुगमें जो नरश्रेष्ठ गोपीचन्दनका तिलक धारण करते हैं, उनकी कभी दुर्गतिनहीं होती। ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर जो शराबी, स्त्री और बालकोंकी हत्या करनेवाले तथा अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेवाले देखे जाते हैं, वे भगवद्भक्तोंके दर्शनमात्रसे पापमुक्त हो जाते हैं। मैं भी भगवान् विष्णुकी भक्तिके प्रसादसे वैष्णव हुआ हूँ।

अध्याय 155 संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा

नारदजी बोले – भगवन्। अब मुझे सब व्रतोंमें प्रधान ‘संवत्सरदीप’ नामक व्रतकी उत्तम विधि बताइये, जिसके करनेसे सब व्रतोंके अनुष्ठानका फल निस्संदेह प्राप्त हो जाय, सब कामनाओंकी सिद्धि हो तथा सब पापोंका नाश हो जाय। महादेवजीने कहा- देवर्षे। मैं तुम्हें एक पापनाशक रहस्य बताता हूँ, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा, गोघाती, मित्रहन्ता, गुरुस्त्रीगामी, विश्वासघाती तथा क्रूर हृदयवाला मनुष्य भी शाश्वत मोक्षको प्राप्त होता है तथा अपनी सौ पौड़ियोंका उद्धार करके विष्णुलोकको जाता है। वह रहस्य संवत्सरदीप व्रत है, जो बहुत ही श्रेयस्कर व्रत है। मैं उसकी विधि और महिमाका वर्णन करूँगा। हेमन्त ऋतुके प्रथम मास अगहनमें शुभ एकादशी तिथि आनेपर ब्राह्ममुहूर्तमें उठे और काम-क्रोधसे रहित हो नदीके संगम, तीर्थ, पोखरे या नदीमें जाकर स्नान करे अथवा मनको वशमें रखते हुए घरपर ही स्नान करे। स्नान करनेका मन्त्र इस प्रकार है

स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु गर्ने प्रस्त्रवणेषु च।

नदीषु सर्वतीर्थेषु तत्स्नानं देहि मे सदा ॥

‘मैं सम्पूर्ण तीचों, कुण्डों, झरनों तथा नदियोंमें स्नान कर चुका जल! तुम मुझे उन सबमें स्नान करनेका फल प्रदान करो।’

तदनन्तर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके जप करनेके अनन्तर जितेन्द्रिय पुरुष देवदेव भगवान् लक्ष्मी नारायणका पूजन करे। पहले पंचामृतसे नहलाकर फिरचन्दनयुक्त जलसे स्नान कराये। तत्पश्चात् इस प्रकार कहे

स्नातोऽसि लक्ष्म्या सहितो देवदेव जगत्पते । मां समुद्धर देवेश घोरात् संसारबन्धनात् ॥ ‘देवदेव! जगत्पते! देवेश्वर! आप लक्ष्मीजीके साथ स्नान कर चुके हैं; इस घोर संसार-बन्धनसे मेरा उद्धार कीजिये।’इसके बाद वैदिक तथा पौराणिक मन्त्रोंसे भक्तिपूर्वक लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका पूजन करे ‘अतो देव’ इस सूक्तसे अथवा पुरुषसूक्तसे पूजा करनी चाहिये। अथवा

नमो मत्स्याय देवाय कूर्मदेवाय वै नमः ।

नमो वाराहदेवाय नरसिंहाय वै

वामनाय नमस्तुभ्यं परशुरामाय ते नमः

नमोऽस्तु रामदेवाय विष्णुदेवाय ते नमः ॥

नमोऽस्तु बुद्धदेवाय कल्किने च नमो नमः ।

सर्वात्मने तुभ्यं शिरसेत्यभिपूजयेत् ॥

‘मत्स्य, कच्छप, वाराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्की-ये दस अवतार धारण करनेवाले आप सर्वात्माको मैं मस्तक झुकाकर नमस्कार करता हूँ।’ यों कहकर पूजन करे।

अथवा भगवान्‌के जो ‘केशव’ आदि प्रसिद्ध नाम हैं, उनके द्वारा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये ।

धूपका मन्त्र

वनस्पतिरसो सुरभिर्गन्धवाञ्छुचिः ।

धूपोऽयं देवदेवेश नमस्ते प्रतिगृह्यताम्

‘देवदेवेश्वर! मनोहर सुगन्धसे भरा यह परम पवित्र दिव्य वनस्पतिका रसरूप धूप आपकी सेवामें प्रस्तुत है; आपको नमस्कार है, आप इसे स्वीकार करें।’

दीपका मन्त्र

दीपस्तमो नाशयति दीपः कान्तिं प्रयच्छति ।

तस्माद्दीपप्रदानेन प्रीयतां मे जनार्दनः ॥

‘दीप अन्धकारका नाश करता है, दीप कान्ति प्रदान करता है; अतः दीपदानसे भगवान् जनार्दन मुझपर प्रसन्न हों।’

नैवेद्य-मन्त्र

नैवेद्यमिदमन्नाद्ये देवदेव जगत्पते

लक्ष्म्या सह गृहाण त्वं परमामृतमुत्तमम्

‘देवदेव! यह अन्न आदिका बना हुआ नैवेद्य सेवामें प्रस्तुत है; जगदीश्वर आप लक्ष्मीजीके साथ इस परम अमृतरूप उत्तम नैवेद्यको ग्रहण कीजिये। ‘ तदनन्तर श्रीजनार्दनका ध्यान करके शंखमें जल और हाथमें फल लेकर भक्तिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करे; अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

जन्मान्तरसहस्त्रेण यन्मया पातकं कृतम् ।

तत्सर्वं नाशमायातु प्रसादात्तव केशव ॥

‘केशव ! हजारों जन्मोंमें मैंने जो पातक किये हैं, वे सब आपकी कृपासे नष्ट हो जायँ ।’ इसके बाद घी अथवा तेलसे भरा हुआ एक सुन्दर नवीन कलश ले आकर भगवान् लक्ष्मीनारायणके सामने स्थापित करे। कलशके ऊपर ताँबे या मिट्टीका पात्र रखे। उसमें नौ तन्तुओंके समान मोटी बत्ती डाल दे तथा कलशको स्थिरतापूर्वक स्थापित करके वहाँ वायुरहित गृहमें दीपक जलाये। देवर्षे! फिर पवित्रतापूर्वक पुष्प और गन्ध आदिसे कलशकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रसे शुभ संकल्प करे

कामो भूतस्य भव्यस्य सम्राडेको विराजते ।

दीपः संवत्सरं यावन्मयायं परिकल्पितः ।

अग्निहोत्रमविच्छिन्नं प्रीयतां मम केशवः ॥

‘भूत और भविष्यके सम्राट् तथा सबकी कामनाके विषय एक-अद्वितीय परमात्मा सर्वत्र विराजमान हैं। मैंने एक वर्षतक प्रज्वलित रखनेके लिये इस दीपककीस्थापना की है; यह अखण्ड अग्निहोत्ररूप है। इससे भगवान् केशव मुझपर प्रसन्न हों।

तत्पश्चात् इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए वेदोंके स्वाध्याय तथा ज्ञानयोगमें तत्पर रहे। पतितों, पापियों और पाखण्डी मनुष्योंसे बातचीत न करे। रातको गीत, नृत्य, बाजे आदिसे, पुण्य ग्रन्थोंके पाठसे तथा भाँति भौतिके धार्मिक उपाख्यानोंसे मन बहलाते हुए उपवासपूर्वक जागरण करे। इसके बाद सबेरा होनेपर पूर्वाह्नके नित्य कर्मोंका अनुष्ठान करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा अपनी शक्तिके अनुसार उनकी पूजा करे। फिर स्वयं भी पारण करके ब्राह्मणोंको प्रणाम कर विदा करे। इस प्रकार दृढ संकल्प करके एक वर्षतक दिन-रात उक्त नियमसे रहे। एक या आधे पल सोनेका दीपक बनाये; उसके लिये बत्ती चाँदीकी बतायी गयी है, जो दो या ढाई पलकी होनी चाहिये। घीसे भरा हुआ घड़ा हो तथा उसके ऊपर ताँबेका पात्र रखा रहे मुक्तिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको भक्तिपूर्वक भगवान् लक्ष्मीनारायणकी प्रतिमा भी यथाशक्ति सोनेकी बनवानी चाहिये। इसके बाद [[वर्ष पूर्ण होनेपर ] विद्वान् पुरुष साधु एवं श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे। बारह ब्राह्मण हों यह उत्तम पक्ष है। छः ब्राह्मणोंका होना मध्यम पक्ष है। इतना भी न हो सके तो तीन ब्राह्मणोंको ही निमन्त्रित करे। इनमेंसे एक कर्मनिष्ठ एवं सपत्नीक ब्राह्मणकी पूजा करे। वह ब्राह्मण शान्त होनेके साथ ही विशेषतः क्रियावान् हो। इतिहासपुराणोंका ज्ञाता धर्मज्ञ मृदुल स्वभावका पितृभक्त, गुरुसेवापरायण तथा देवता ब्राह्मणोंका पूजन करनेवाला हो पाद्य- अर्घ्यदान आदिकी विधिसे वस्त्र, अलंकार तथा आभूषण अर्पण करते हुए पत्नीसहित ब्राह्मणदेवकी भक्तिपूर्वक पूजा करके भगवान् लक्ष्मीनारायणको तथा बत्तीसहित दीपकको भी ताम्रपात्रमै रखकर धीसे भरे हुए धड़के साथ ही उस ब्राह्मणको दान कर दे। देवर्षे। उस समय निम्नांकित मन्त्रसे परम पुरुष नारायणदेवका ध्यान भी करता रहे

अविद्यातमसा व्याप्ते संसारे पापनाशनः ।

तस्माद्दत्तो ज्ञानप्रदो मोक्षदश्च मयानघ ॥

‘पापरहित नारायण तथा ज्योतिर्मय दीप अविद्यामय अन्धकारसे भरे हुए संसारमें तुम्हीं ज्ञान एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले हो; इसलिये मैंने आज तुम्हारा दान किया है । ‘

फिर पूजित ब्राह्मणको अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक दक्षिणा दे। अन्यान्य ब्राह्मणों को भी मृतयुक्त खीर तथा मिठाईका भोजन कराये ब्राह्मणभोजनके अनन्तर सपत्नीक ब्राह्मणको वस्त्र पहनाये। सामग्रियों सहित शय्या तथा बछड़ेसहित धेनु दान करे। अन्य ब्राह्मणोंको भी अपनी सामर्थ्यके अनुसार दक्षिणा दे। सुबदों, स्वजनों तथा बन्धुबान्धवको भी भोजन कराये और उनका सत्कार करे। इस प्रकार इस संवत्सरदीप व्रतकी समाप्तिके अवसरपर महान् उत्सव करे। फिर सबको प्रणाम करके विदा करे और अपनी त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगे ।

दान, व्रत, यज्ञ तथा योगाभ्याससे मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वही फल उसे संवत्सरदीप व्रतके पालनसे मिलता है। गौ, भूमि, सुवर्ण तथा विशेषत: गृह आदिके दानसे विद्वान् पुरुष जिस फलको पाता है, वही दीपव्रतसे भी प्राप्त होता है। दीपदान करनेवाला पुरुष कान्ति, अक्षय धन, ज्ञान तथा परम सुख पाता है। दीपदान करनेसे मनुष्यको सौभाग्य, अत्यन्त निर्मल विद्या, आरोग्य तथा परम उत्तम समृद्धिकी प्राप्ति होती है इसमें तनिक भी संशय नहीं है। दीपदान करनेवाला मानव समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त सौभाग्यवती पत्नी, पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र तथा अक्षय संतति प्राप्त करता है। दीपदानके प्रभावसे ब्राह्मणको परम ज्ञान क्षत्रियको उत्तम राज्य, वैश्यको धन और समस्त पशु तथा शूद्रको सुखकी प्राप्ति होती है। कुमारी कन्याको सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त पति मिलता है। वह बहुत से पुत्र-पौत्र तथा बड़ी आयु पाती है। युवती स्त्री इस व्रतके प्रभावसे कभी वैधव्यका दुःख नहीं देखती। उसका अपनेस्वामीसे कभी वियोग नहीं होता। दीपदानसे मानसिक चिन्ता तथा रोग भी दूर होते हैं। भवभीत पुरुष भयसे तथा कैदी बन्धनसे छूट जाता है। दीपव्रतमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पार्पोसे निस्संदेह मुक्त हो जाता है-ऐसा ब्रह्माजीका वचन है।

जिसने श्रीहरिके सम्मुख सांवत्सर दीप जलाया है उसने निश्चय ही चान्द्रायण तथा कृच्छ्र व्रतोंका अनुष्ठान पूरा कर लिया। जिन्होंने भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करके संवत्सरदीप-व्रतका पालन किया है, वे धन्य हैं तथा उन्होंने जन्म लेनेका फल पा लिया। जो सलाईसे दीपकी बत्तीको उकसा देते हैं, वे भी देवदुर्लभ परमपदको प्राप्त होते हैं। जो लोग सदा ही मन्दिरके दीपमें यथाशक्ति तेल और बत्ती डालते हैं, वे परम धामको जाते हैं। जो लोग बुझते या बुझे हुए दीपको स्वयं जलानेमें असमर्थ होनेपर दूसरे लोगों से उसकी सूचना दे देते हैं, वे भी उक्त फलके भागी होते हैं। जो दीपकके लिये थोड़े-थोड़े तेलकी भीख माँगकर श्रीविष्णुके सम्मुख दीप जलाता है, उसे भी पुण्यको प्राप्ति होती है। दीपक जलाते समय यदि कोई नीच पुरुष भी उसकी ओर श्रद्धासे हाथ जोड़कर निहारता है तो वह विष्णुधाममें जाता है। जो दूसरोंको भगवान् के सामने दीप जलानेकी सलाह देता है तथा स्वयं भी ऐसा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त होता है।

जो लोग पृथ्वीपर दीपव्रतके इस माहात्म्यको सुनते हैं, वे सब पापोंसे छुटकारा पाकर श्रीविष्णुधामको जाते हैं। विद्वन्। मैंने तुमसे यह दीपव्रतका वर्णन किया है। यह मोक्ष तथा सब प्रकारका सुख देनेवाला, प्रशस्त एवं महान् व्रत है। इसके अनुष्ठानसे पापके प्रभावसे होनेवाले नेत्ररोग नष्ट हो जाते हैं। मानसिक चिन्ताओं तथा व्याधियोंका क्षणभरमें नाश हो जाता है। नारद! इस व्रतके प्रभावसे दारिद्र्य और शोक नहीं होता। मोह और भ्रान्ति मिट जाती है।

अध्याय 156 जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा

नारदजी बोले – देवदेव! जगदीश्वर! भक्तोंको अभयदान देनेवाले महादेव! मुझपर कृपा करके कोई दूसरा व्रत बताइये। महादेवजीने कहा- पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं। उनपर संतुष्ट होकर ब्रह्माजीने उन्हें एक सुन्दर पुरी प्रदान की, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली थी। उसमें रहकर राजा हरिश्चन्द्र सात द्वीपोंसे युक्त वसुन्धराका धर्मपूर्वक पालन करते थे। प्रजाको वे औरस पुत्रकी भाँति मानते थे। राजाके पास धन-धान्यकी अधिकता थी। उन्हें नाती पोतोंकी भी कमी न थी। अपने उत्तम राज्यका पालन करते हुए राजाको एक दिन बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे- ‘आजके पहले कभी किसीको ऐसा राज्य नहीं मिला था। मेरे सिवा दूसरे मनुष्योंने ऐसे विमानपर सवारी नहीं की होगी। यह मेरे किस कर्मका फल है,

जिससे मैं देवराज इन्द्रके समान सुखी हूँ?’ राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्र इस प्रकार सोच-विचारकरअपने उत्तम विमानपर आरूढ हुए। आकाशमार्गसे जाते समय पर्वतोंमें श्रेष्ठ मेरुपर उनकी दृष्टि पड़ी। उस श्रेष्ठ शैलपर ज्ञानयोग-परायण ब्रह्मर्षि सनत्कुमार दिखायी पड़े, जो सुवर्णमयी शिलाके ऊपर विराजमान थे। उन्हें देखकर राजा अपना विस्मय पूछनेके लिये उतर पड़े। उन्होंने पास जा हर्षमें भरकर मुनिके चरणोंमें मस्तक झुकाया । ब्रह्मर्षिने भी राजाका अभिनन्दन किया। फिर सुखपूर्वक बैठकर राजाने मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमारजीसे पूछा- ‘भगवन्! मुझे जो यह सम्पत्ति प्राप्त हुई है, मानवलोकमें प्रायः दुर्लभ है। ऐसी सम्पत्ति किस कर्मसे प्राप्त होती है? मैं पूर्वजन्ममें कौन था ? ये सब बातें यथार्थरूपसे बतलाइये।’

सनत्कुमारजी बोले – राजन् ! सुनो- तुम पूर्वजन्ममें सत्यवादी, पवित्र एवं उत्तम वैश्य थे। तुमने अपना काम-धाम छोड़ दिया था, इसलिये बन्धु बान्धवोंने तुम्हारा परित्याग कर दिया। तुम्हारे पास जीविकाका कोई साधन नहीं रह गया था; इसलिये तुम स्वजनोंको छोड़कर चल दिये। स्त्रीने ही तुम्हारा साथ दिया। एक समय तुम दोनों किसी घने जंगलमें जा पहुँचे। वहाँ एक पोखरेमें कमल खिले हुए थे। उन्हें देखकर तुम दोनोंके मनमें यह विचार उठा कि हम यहाँसे कमल ले लें। कमल लेकर तुम दोनों एक-एक पग भूमि लाँघते हुए शुभ एवं पुण्यमयी वाराणसी पुरीमें पहुँचे। वहाँ तुमलोग कमल बेचने लगे, किन्तु कोई भी उन्हें खरीदता नहीं था। वहीं खड़े-खड़े तुम्हारे कानोंमें बाजेकी आवाज सुनायी पड़ी। फिर तुम उसी ओर चल दिये। वहाँ काशीके विख्यात राजा इन्द्रद्युम्नकी सती-साध्वी कन्या चन्द्रावतीने, जो बड़ी सौभाग्यशालिनी थी, जयन्ती नामक जन्माष्टमीका शुभकारक व्रत किया था। उस स्थानपर तुम बड़े हर्षके साथ गये। वहाँ पहुँचने पर तुम्हारा चित्त संतुष्ट हो गया। तुमने वहाँ भगवान्‌ के पूजनका विधान देखा। कलशके ऊपर श्रीहरिकी स्थापना करके उनकी पूजा हो रही थी। विशेष समारोहके साथ भगवान्का पूजन किया गया था, भिन्न भिन्न पुष्पोंसे उनका शृंगार हुआ था। भगवान्‌की भक्तिके वशीभूत हो तुमने भी अपनी पत्नीके साथ कमलके फूलोंसे वहाँ श्रीहरिका पूजन किया तथा पूजासे बचे हुए फूलोंको उनके समीप ही बिखेर दिया। तुमने भगवान्‌को पुष्पमय कर दिया। इससे उस कन्याको बड़ा संतोष हुआ। वह स्वयं तुम्हें धन देने लगी, किन्तु तुमने नहीं लिया। तब राजकुमारीने तुम्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया किन्तु उस समय तुमने न तो भोजन स्वीकार किया और न धन ही लिया। यही पुण्य तुमने पिछले जन्म में उपार्जित किया था। फिर अपने कर्मके अनुसार तुम्हारी मृत्यु हो गयी। उसी महान् पुण्यके प्रभावसे तुम्हें विमान मिला है। राजन् ! पूर्वजन्ममें जो तुम्हारे द्वारा वह पुग्य हुआ था, उसीका फल इस समय तुम भोग रहे हो। हरिश्चन्द्र बोले- मुनिवर किस महीने में वहतिथि आती है और किस विधिसे उसका व्रत करना चाहिये? यह मुझे बताइये। सनत्कुमारजीने कहा- राजन् मैं तुम्हें इस व्रतको बताता है; सावधान होकर सुनो। श्रावणमासके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको यदि रोहिणी नक्षत्रका योग मिल जाय तो उस जन्माष्टमीका नाम ‘जयन्ती’ होता है। अब मैं इसकी विधिका वर्णन करता है. जैसा कि ब्रह्माजीने मुझे बताया था। उस दिन उपवासका व्रत लेकर काले तिलोंसे मिश्रित जलसे स्नान करे। फिर नवीन कलशकी, जो फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचरत्न डाल दे हीरा, मोती वैदूर्य, पुष्पराग (पुखराज ) और इन्द्रनील – ये उत्तम पंचरत्न हैं—ऐसा कात्यायनका कथन है। कलशके ऊपर सोनेका पात्र रखे और सोनेकी बनी हुई नन्दरानी यशोदाकी प्रतिमा स्थापित करे। प्रतिमाका भाव यह होना चाहिये –’ यशोदा अपने पुत्र श्रीकृष्णको स्तन पिलाती हुई मन्द मन्द मुसकरा रही हैं, श्रीकृष्ण यशोदा मैयाका एक स्तन तो पी रहे हैं और दूसरा स्तन दूसरे हाथसे पकड़े हुए हैं। वे माताकी ओर प्रेमसे देखकर उन्हें सुख पहुँचा रहे हैं।’ इस प्रकार जैसी अपनी शक्ति हो, उसीके अनुसार सुवर्णमय भगवत्प्रतिमाका निर्माण कराये। इसके सिवा सोनेकी रोहिणी और चौदीके चन्द्रमाकी प्रतिमा बनवाये अँगूठेके बराबर चन्द्रमा हो और चार अंगुलकी रोहिणी भगवान्‌के कानोंमें कुण्डल और गलेमें कण्ठा पहनाये। इस प्रकार माताके साथ जगत्पति गोविन्दकी प्रतिमा बनवाकर दूध आदिसे स्नान कराये तथा चन्दनसे अनुलेप करे। दो श्वेत वस्त्रोंसे भगवान्‌को आच्छादित करके फूलोंकी मालासे उनका श्रृंगार करे। भाँति-भाँतिके भक्ष्य पदार्थोंका नैवेद्य लगाये, नाना प्रकारके फल अर्पण करे। दीप जलाकर रखे और फूलोंके मण्डपसे पूजास्थानको सुशोभित करे। विज्ञपुरुषोंके द्वारा भक्तिपूर्वक नृत्य, गीत और वाद्य कराये।

इस प्रकार अपने वैभवके अनुसार सब विधान पूर्ण करके गुरुका पूजन करे, तत्पश्चात् पूजाकी समाप्ति करे।

महादेवजी कहते हैं-जब इन्द्रके सौ यज्ञ पूर्ण हो गये और उत्तम दक्षिणा देकर यज्ञका कार्य समाप्त कर दिया गया, उस समय देवराजके मनमें कुछ पूछनेका संकल्प हुआ; अतएव उन्होंने अपने गुरु बृहस्पतिजीसे इस प्रकार प्रश्न किया।

इन्द्र बोले- भगवन्! किस दानसे सब ओर सुखकी वृद्धि होती है? जो अक्षय तथा महान् अर्थका साधक हो, उसका वर्णन कीजिये।

बृहस्पतिजीने कहा-इन्द्र सोना, वस्त्र, गौ तथा भूमि- इनका दान करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाता है जो भूमिका दान करता है, उसके द्वारा सोने, चाँदी, वस्त्र, मणि एवं रत्नका भी दान हो जाता है जो फालसे जोती हो, जिसमें बीज बो दिया गया हो तथा जहाँ खेती लहरा रही हो, ऐसी भूमिका दान करके मनुष्य तबतक स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है, जबतक सूर्यका प्रकाश बना रहता है। जीविकाके कष्टसे मनुष्य जो कुछ भी पाप करता है, वह गोचर्ममात्र भूमिके दानसे छूट जाता है दस हाथका एक दण्ड होता है, तीस दण्डका एक वर्तन होता है। और दस वर्तनका एक गोचर्म होता है; यही ब्रह्म गोचर्मकी भी परिभाषा है। छोटे बछड़ोंको जन्म देनेवाली एक हजार गौएँ जहाँ साँड़ोंके साथ खड़ी हो सकें, उतनी भूमिको एक गोचर्म माना गया है। गुणवान्, तपस्वी तथा जितेन्द्रिय ब्राह्मणको दान देना चाहिये। उस दानका अक्षय फल तबतक मिलता रहता है, जबतक यह समुद्रपर्यन्त पृथ्वी कायम रहती है। इन्द्र जैसे तेलकी बूँद कहीं गिरनेपर शीघ्र ही फैल जाती है, उसी प्रकार खेती के साथ किया हुआ भूमिदान विशेष विस्तारको प्राप्त होता है। गौ, भूमि और विद्या- इन तीन वस्तुओंके दानको अतिदान बतायागया है; ये क्रमशः दुहने, बोने तथा अभ्यास करनेसे नरकसे उद्धार कर देती हैं।

वस्त्रदान करनेवाले पुरुष परलोकके मार्गपर वस्त्रोंसे आच्छादित होकर यात्रा करते हैं और जिन्होंने वस्त्रदान नहीं किया है, उन्हें नंगे ही जाना पड़ता है। अन्नदान करनेवाले लोग तृप्त होकर जाते हैं; जो अन्नदान नहीं करते, उन्हें भूखे ही यात्रा करनी पड़ती है। नरकके भयसे डरे हुए सभी पितर इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि हमारे पुत्रोंमेंसे जो कोई गया जायगा, वह हमें तारनेवाला होगा। बहुत से पुत्रोंकी इच्छा करनी चाहिये क्योंकि उनमेंसे एक भी तो गया जायगा अथवा नील वृषका उत्सर्ग करेगा। जो रंगसे लाल हो, जिसकी पूँछके अग्रभागमें कुछ पीलापन लिये सफेदी हो और खुर तथा सींगोंका विशुद्ध श्वेत वर्ण हो, वह ‘नील वृष’ कहलाता है। 2 पाण्डु रंगकी पूँछवाला नील वृष जो जल उछालता है, उससे साठ हजार वर्षोंतक पितर तृप्त रहते हैं। जिसके सॉंगमें नदीके किनारेकी उखाड़ी हुई मिट्टी लगी होती है, उसके दानसे पितरगण परम प्रकाशमय चन्द्रलोकका सुख भोगते हैं।

यह पृथ्वी पूर्वकालमें राजा दिलीप, नृग, नहुष तथा अन्यान्य नरेशोंके अधीन थी और पुनः अन्यान्य राजाओंके अधिकारमें जाती रहेगी। सगर आदि बहुत से राजा इस पृथ्वीका दान कर चुके हैं। यह जब जिसके अधिकारमें रहती है, तब उसीको इसके दानका फल मिलता है। जो अपनी या दूसरेकी दी हुई पृथ्वीको हर लेता है; यह विष्ठाका कीड़ा होकर पितरोंसहित नरकमें पकाया जाता है। भूमिदान करनेवालेसे बढ़कर पुण्यवान् तथा भूमि हर लेनेवालेसे बढ़कर पापी दूसरा कोई नहीं है। जबतक महाप्रलय नहीं हो जाता, तबतक भूमिदाता ऊर्ध्वलोकमें और भूमिहर्ता नरकमें रहता है। सुवर्ण अग्निकी प्रथम संतान है, पृथ्वी विष्णुके अंशसे प्रकट हुई है। तथा गौएँ सूर्यकी कन्याएँ हैं इसलिये जो सुवर्ण, गौतथा पृथ्वीका दान करता है, वह उनके दानका अक्षय फल भोगता है जो भूमिको न्यायपूर्वक देता और जो न्यायपूर्वक ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यकर्मा हैं; उन्हें निश्चय ही स्वर्गकी प्राप्ति होती है। जिन लोगोंने अन्यायपूर्वक पृथ्वीका अपहरण किया अथवा कराया है, वे दोनों ही प्रकारके मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंका विनाश करते हैं उन्हें सद्गति से वंचित कर देते हैं। ब्राह्मणका खेत हर लेनेपर कुलकी तीन पीढ़ियोंका नाश हो जाता है। एक हजार कूप और बावली बनवानेसे, सौ अश्वमेध करनेसे तथा करोड़ों गौएँ देनेसे भी भूमिहर्ताकी शुद्धि नहीं होती।

किया हुआ शुभ कर्म, दान, तप, स्वाध्याय तथा जो कुछ भी धर्मसम्बन्धी कार्य है, वह सब खेतकी आधी अंगुल सीमा हर लेनेसे भी नष्ट हो जाता है। गोतीर्थ (गौओंके चरने और पानी पीने आदिका स्थान), गाँवकी सड़क, मरघट तथा गाँवको दबाकर मनुष्य प्रलयकालतक नरकमें पड़ा रहता है।” यदि जीविकाके बिना प्राण कण्ठतक आ जायँ तो भी ब्राह्मणके धनका लोभ नहीं करना चाहिये। अग्निकी आँच और सूर्यके तापसे जले हुए वृक्ष आदि पुनः पनपते हैं, राजदण्डसे दण्डित मनुष्योंकी अवस्था भी पुन: सुधर जाती है; किन्तु जिनपर ब्राह्मणोंके शापका प्रहार होता है, वे तो नष्ट ही हो जाते हैं। ब्राह्मणके धनका अपहरण करनेवाला मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। केवल विषको ही विष नहीं कहते, ब्राह्मणका धन सबसे बड़ा विष कहा जाता है। साधारण विष तो एकको ही मारता है, किन्तु ब्राह्मणका धनरूपी विष बेटों और पोतों का भी नाश कर डालता है। मनुष्य लोहे और पत्थरके चूरेको तथा विषको भी पचा सकता है; परन्तु तीनों लोकोंमें कौन ऐसा पुरुष है, जो ब्राह्मणके धनको पचा सके। ब्राह्मणके धनसे जो सुख उठाया जाता है, देवताके धनके प्रति जो राग पैदा होता है, वह धन समूचे कुलके नाशका कारण होता है तथा अपनाविनाश तो वह करता ही है। ब्राह्मणका धन, ब्रह्महत्या, दखिका धन, गुरु और मित्रका सुवर्णये सब स्वर्गमें जानेपर भी मनुष्यको पीड़ा पहुँचाते हैं।

देवश्रेष्ठ इन्द्र जो ब्राह्मण श्रोत्रिय, कुलीन, दरिद्र, संतुष्ट, विनयी, वेदाभ्यासी, तपस्वी, ज्ञानी और इन्द्रियसंयमी हो, उसे ही दिया हुआ दान अक्षय होता है। जैसे कच्चे बर्तनमें रखा हुआ दूध, दही, घी अथवा मधु दुर्बलताके कारण पात्रको ही छेद देता है, उसी प्रकार यदि अज्ञानी पुरुष गौ, सुवर्ण, वस्त्र, अन्न, पृथ्वी और तिल आदिका दान ग्रहण करता है तो वह काष्ठकी भाँति भस्म हो जाता है।

जो नया पोखरा बनवाता है अथवा पुरानेको ही खुदवाता है, वह वह समस्त कुलका उद्धार करके स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। बावली, कुआँ, तडाग और बगीचे पुनः संस्कार (जीर्णोद्धार) करनेपर मोक्षरूप फल प्रदान करते हैं। इन्द्र ! जिसके जलाशयमें गर्मी के मौसमतक पानी ठहरता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटका सामना नहीं करता। देवश्रेष्ठ ! यदि एक दिन भी पानी ठहर जाय तो वह सात पहलेकी और सात पीछेकी पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। दीपका प्रकाश दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है और दक्षिणा देनेसे स्मरणशक्ति तथा मेधा ( धारणा – शक्ति) को प्राप्त करता है। यदि बलपूर्वक अपहरण की हुई भूमि, गौ तथा स्त्रीको मनुष्य पुनः लौटा न दे तो उसे ब्रह्महत्यारा कहा जाता है।

इन्द्र ! जो विवाह यज्ञ तथा दानका अवसर उपस्थित होनेपर उसमें मोहवश विघ्न डालता है, वह मरनेपर कीड़ा होता है। दान करनेसे धन और जीव -रक्षा करनेसे जीवन सफल होता है। रूप, ऐश्वर्य तथा आरोग्य – ये अहिंसाके फल हैं, जो अनुभवमें आते हैं। फल-मूलके भोजनसे सम्मान तथा सत्यसे स्वर्गकी प्राप्ति होती है। मरणान्त उपवाससे राज्य और सर्वत्र सुखउपलब्ध होता है। तीनों काल स्नान करनेवाला मनुष्य रूपवान् होता है। वायु पीकर रहनेवाला यज्ञका फल पाता है। जो उपवास करता है, वह चिरकालतक स्वर्गमें निवास करता है। जो सदा भूमिपर शयन करता है, उसेअभीष्ट गतिकी प्राप्ति होती है, जो पवित्र धर्मका आचरण करता है, वह स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। जो द्विजश्रेष्ठ बृहस्पतिजीके इस पवित्र मतका स्वाध्याय करते हैं, उनकी आयु, विद्या, यश और बल-ये चार बातें बढ़ती हैं।

अध्याय 157 महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना

नारदजीने पूछा- सुरश्रेष्ठ शनैश्चरकी दी हुई पीड़ा कैसे दूर होती है? यह मुझे बताइये। महादेवजी बोले- देवर्षे सुनो, ये शनैश्चर देवताओंमें प्रसिद्ध कालरूपी महान् ग्रह हैं। इनके मस्तकपर जटा है, शरीरमें बहुत से रोएँ हैं तथा ये दानवोंको भय पहुँचानेवाले हैं। पूर्वकालकी बात है, रघुवंशमें दशरथ नामके एक बहुत प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। वे चक्रवर्ती सम्राट् महान् वीर तथा सातों द्वीपोंके स्वामी थे। उन दिनों ज्योतिषियोंने यह जानकर कि शनैश्चर कृत्तिकाके अन्तमें जा पहुँचे हैं, राजाको सूचित किया- ‘महाराज ! इस समय शनि रोहिणीका भेदन करके आगे बढ़ेंगे; यह अत्यन्त उग्र शाकटभेद नामक योग है, जो देवताओं तथा असुरोंके लिये भी भयंकर है। इससे बारह वर्षोंतक संसारमें अत्यन्त भयानक दुर्भिक्ष फैलेगा।’ यह सुनकर राजाने मन्त्रियोंके साथ विचार किया और वसिष्ठ आदि ब्राह्मणोंसे पूछा-द्विजवरो! बताइये, इस संकटको रोकनेका यहाँ कौन-सा उपाय है?”

वसिष्ठजी बोले- राजन्! यह रोहिणी प्रजापति ब्रह्माजीका नक्षत्र है, इसका भेद हो जानेपर प्रजा कैसे रह सकती है। ब्रह्मा और इन्द्र आदिके लिये भी यह योग असाध्य है।

महादेवजी कहते हैं— नारद! इस बातपर विचार करके राजा दशरथने मनमें महान् साहसका संग्रह किया और दिव्यास्त्रोंसहित दिव्य धनुष लेकर रथपर आरूढ़ हो बड़े वेग से नक्षत्रमण्डलये गये रोहिणीपृष्ठ सूर्यसे सवा लाख योजन ऊपर है; वहाँ पहुँचकर राजाने धनुषको कानतक खींचा और उसपर संहारास्त्रका संधान किया। वह अस्त्र देवता और असुरोंके लिये भयंकर था। उसेदेखकर शनि कुछ भयभीत हो हँसते हुए बोले- ‘राजेन्द्र ! तुम्हारा महान् पुरुषार्थ शत्रुको भय पहुँचानेवाला है मेरी दृष्टिमें आकर देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग— सब भस्म हो जाते हैं; किन्तु तुम बच गये। अतः महाराज ! तुम्हारे तेज और पौरुषसे मैं संतुष्ट हूँ वर माँगो तुम अपने मनसे जो कुछ चाहोगे, उसे अवश्य दूँगा।’

दशरथने कहा- शनिदेव जबतक नदियाँ और समुद्र हैं, जबतक सूर्य और चन्द्रमासहित पृथ्वी कायम है, तबतक आप रोहिणीका भेदन करके आगे न बढ़ें। साथ ही कभी बारह वर्षोंतक दुर्भिक्ष न करें। शनि बोले- एवमस्तु ।महादेवजी कहते हैं- ये दोनों वर पाकर राजा बड़े प्रसन्न हुए, उनके शरीरमें रोमांच हो आया। वे रथके ऊपर धनुष डाल हाथ जोड़ शनिदेवकी इस प्रकार स्तुति करने लगे।

दशरथ बोले- जिनके शरीरका वर्ण कृष्ण, नील तथा भगवान् शंकरके समान है, उन शनिदेवको नमस्कार है। जो जगत्के लिये कालाग्नि एवं कृतान्तरूप हैं, उन शनैश्चरको बारम्बार नमस्कार है। जिनका शरीर कंकाल है तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेवको प्रणाम है। जिनके बड़े बड़े नेत्र, पीठमें सटा हुआ पेट और भयानक आकार हैं, उन शनैश्चरदेवको नमस्कार है। जिनके शरीरका ढाँचा फैला हुआ है, जिनके रोएँ बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूखे शरीरवाले हैं तथा जिनकी दा कालरूप हैं, उन शनिदेवको बारम्बार प्रणाम है। शने! आपके नेत्र खोखलेके समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर, रौद्र, भीषण और विकराल हैं। आपको नमस्कार है। बलीमुख! आप सब कुछ भक्षण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन! भास्करपुत्र! अभय देनेवाले देवता! आपको प्रणाम है। नीचेकी ओर दृष्टि रखनेवाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक! आपको प्रणाम है। मन्दगतिसे चलनेवाले शनैश्चर! आपका प्रतीक तलवारके समान है, आपको पुनः पुनः प्रणाम है। आपने तपस्यासे अपने देहको दग्ध कर दिया है; आप सदा योगाभ्यासमें तत्पर, भूखसे आतुर और अतृप्त रहतेहैं। आपको सदा-सर्वदा नमस्कार है। ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। कश्यपनन्दन सूर्यके पुत्र शनिदेव ! आपको नमस्कार है। आप संतुष्ट होनेपर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होनेपर उसे तत्क्षण हर लेते हैं। देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग—ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं। देव! मुझपर प्रसन्न होइये। मैं वर पानेके योग्य हूँ और आपकी शरणमें आया हूँ।*

महादेवजी कहते हैं— नारद! राजाके इस प्रकार स्तुति करनेपर ग्रहोंके राजा महाबलवान् सूर्यपुत्र शनैश्चर बोले- उत्तम व्रतके पालक राजेन्द्र ! तुम्हारी इस स्तुतिसे मैं संतुष्ट हूँ। रघुनन्दन तुम इच्छानुसार वर माँगो, मैं तुम्हें अवश्य दूँगा।

दशरथ बोले- सूर्यनन्दन ! आजसे आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणीको पीड़ा न दें। शनिने कहा – राजन् देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर तथा राक्षस – इनमेंसे किसीके भी मृत्यु स्थान, जन्मस्थान अथवा चतुर्थ स्थानमें मैं रहूँ तो उसे मृत्युका कष्ट दे सकता हूँ। किन्तु जो श्रद्धासे युक्त, पवित्र और एकाग्रचित्त हो मेरी लोहमयी सुन्दर प्रतिमाका शमीपत्रोंसे पूजन करके तिलमिश्रित उड़द-भात, लोहा, काली गौ या काला वृषभ ब्राह्मणको दान करता है तथा विशेषतः मेरे दिनको इस स्तोत्रसे मेरी पूजा करता है, पूजनके पश्चात् भी हाथ जोड़कर मेरे स्तोत्रका जप करता है, उसे मैं कभी भी पीड़ा नहीं दूँगा। गोचरमें, जन्मलग्नमें,दशाओं तथा अन्तर्दशाओंमें ग्रह – पीड़ाका निवारण करके मैं सदा उसकी रक्षा करूँगा । इसी विधानसे सारा संसार पीड़ासे मुक्त हो सकता है। रघुनन्दन ! इस प्रकार मैंने युक्तिसे तुम्हें वरदान दिया है।

महादेवजी कहते हैं- नारद! वे तीनों वरदान पाकर उस समय राजा दशरथने अपनेको कृतार्थ माना।वे शनैश्चरको नमस्कार करके उनकी आज्ञा ले रथपर सवार हो बड़े वेगसे अपने स्थानको चले गये। उन्होंने कल्याण प्राप्त कर लिया था। जो शनिवारको सबेरे उठकर इस स्तोत्रका पाठ करता है तथा पाठ होते समय जो श्रद्धापूर्वक इसे सुनता है, वह मनुष्य पापसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है।

अध्याय 158 त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा

नारदजी बोले- सर्वेश्वर अब आप विशेष रूपसे त्रिस्पृशा नामक व्रतका वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर लोग तत्काल कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। महादेवजीने कहा- विद्वन् पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंके हितकी इच्छा सनत्कुमारजीने व्यासजीके प्रति इस व्रतका वर्णन किया था। यह व्रत सम्पूर्ण पापराशिका शमन करनेवाला और महान् दुःखाँका विनाशक है। विप्र त्रिस्पृशा नामक महान् व्रत सम्पूर्ण कामनाओंका दाता माना गया है। ब्राह्मणोंके लिये तो मोक्षदायक भी है। महामुने! जो प्रतिदिन ‘त्रिस्पृशा’ का नामोच्चारण करता है, उसके समस्त पापका क्षय हो जाता है। देवाधिदेव भगवान्ने मोक्ष प्राप्तिके लिये इस व्रतकी सृष्टि की है, इसीलिये इसे ‘वैष्णवी तिथि’ कहते हैं। इन्द्रियोंका निग्रह न होनेसे मनमें स्थिरता नहीं आती [ मनकी यह अस्थिरता ही मोक्षमें बाधक है।] ब्रह्मन्! जो ध्यान-धारणासे वर्जित, विषयपरायण तथा काम भोगमें आसक्त हैं, उनके लिये त्रिस्पृशा ही मोक्षदायिनी है। मुनिश्रेष्ठ पूर्वकालमें जब चक्रधारी श्रीविष्णु के द्वारा क्षीरसागरका मन्थन हो रहा था, उस समय चरणोंमें पड़े हुए देवताओंके मध्य में ब्रह्माजीसे मैंने ही इस व्रतका वर्णन किया था। जो लोग विषयोंमें आसक्त रहकर भी त्रिस्पृशाका व्रत करेंगे, उनके लिये भी मैंने मोक्षका अधिकार दे रखा है। नारद! तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो, क्योंकि त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है। महामुने। बड़े-बड़े मुनियोंके समुदायने इस व्रतका पालन किया है। यदि कार्तिक शुक्लपक्षमें सोमवार या बुधवारसे युक्तत्रिस्पृशा एकादशी हो तो वह करोड़ों पापका नाश करनेवाली है। विप्रवर! और पापोंकी तो बात ही क्या है, त्रिस्पृशाके व्रतसे ब्रह्महत्या आदि महापाप भी नष्ट हो जाते हैं। प्रयागमें मृत्यु होनेसे तथा द्वारकामें श्रीकृष्णके निकट गोमतीमें स्नान करनेसे शाश्वत मोक्ष प्राप्त होता है, परन्तु त्रिस्पृशाका उपवास करनेसे घरपर भी मुक्ति हो जाती है। इसलिये विप्रवर नारद! तुम मोक्षदायिनी त्रिस्पृशाके व्रतका अवश्य अनुष्ठान करो। विप्र! पूर्वकालमें भगवान् माधवने प्राची सरस्वतीके तटपर गंगाजीके प्रति कृपापूर्वक त्रिस्पृशाव्रतका वर्णन किया था। गंगाने पूछा- हृषीकेश! ब्रह्महत्या आदि करोड़ों

पाप – राशियोंसे युक्त मनुष्य मेरे जलमें स्नान करते हैं, उनके पापों और दोषोंसे मेरा शरीर कलुषित हो गया है। देव! गरुडध्वज ! मेरा वह पातक कैसे दूर होगा ? प्राचीमाधव बोले- शुभे! तुम त्रिस्पृशाका व्रत करो। यह सौ करोड़ तीर्थोंसे भी अधिक महत्त्वशालिनी है। करोड़ों यज्ञ, व्रत, दान, जप, होम और सांख्ययोगसे भी इसकी शक्ति बढ़ी हुई है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाली है। नदियोंमें श्रेष्ठ गंगा ! त्रिस्पृशाव्रत जिस-किसी महीनेमें भी आये तथा वह शुक्लपक्षमें हो या कृष्णपक्षमें, उसका अनुष्ठान करना ही चाहिये। उसे करके तुम पापसे मुक्त हो जाओगी। जब एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रात्रिके अन्तिम प्रहरमें त्रयोदशी भी हो तो उसे ‘त्रिस्पृशा’ समझना चाहिये उसमें दशमीका योग नहीं होता। देवनदी! एकादशी व्रतमें दशमी-वेधका दोष मैं नहीं क्षमा करता।ऐसा जानकर दशमीयुक्त एकादशीका व्रत नहीं करना चाहिये। उसे करनेसे करोड़ों जन्मोंके किये हुए पुण्य तथा संतानका नाश होता है। वह पुरुष अपने वंशको स्वर्गसे गिराता और रौरव आदि नरकोंमें पहुँचाता है। अपने शरीरको शुद्ध करके मेरे दिन एकादशीका व्रत करना चाहिये। द्वादशी मुझे अत्यन्त प्रिय है, मेरी आज्ञासे इसका व्रत करना उचित है।

गंगा बोलीं- जगन्नाथ। आपके कहनेसे मैं त्रिस्पृशाका व्रत अवश्य करूँगी, आप मुझे इसकी विधि बताइये।

प्राचीमाधवने कहा- सरिताओंमें उत्तम गंगा देवी! सुनो, मैं त्रिस्पृशाका विधान बताता हूँ। इसका श्रवण मात्र करनेसे भी मनुष्य पातकोंसे मुक्त हो जाता है। अपने वैभवके अनुसार एक या आधे पल सोनेकी मेरी प्रतिमा बनवानी चाहिये। इसके बाद एक ताँबेके पात्रको तिलसे भरकर रखे और जलसे भरे हुए सुन्दर कलशकी स्थापना करे, जिसमें पंचरत्न मिलाये गये हो कलशको फूलोंकी मालाओंसे आवेष्टित करके कपूर आदिसे सुवासित करे। इसके बाद भगवान् दामोदरको स्थापित करके उन्हें स्नान कराये और चन्दन चढ़ाये। फिर भगवान्‌को वस्त्र धारण कराये। तदनन्तर पुराणोक्त सामयिक सुन्दर पुष्प तथा कोमल तुलसीदलसे भगवान्की पूजा करे। उन्हें छत्र और उपानह (जूतियाँ) अर्पण करे! मनोहर नैवेद्य और बहुत-से सुन्दर सुन्दर फलका भोग लगाये। यज्ञोपवीत -से तथा नूतन एवं सुदृढ़ उत्तरीय वस्त्र चढ़ाये। सुन्दर ऊँची बाँसकी छड़ी भी भेंट करे दामोदराय नमः’ कहकर दोनों चरणोंकी, ‘माधवाय नमः’ से दोनों घुटनोंकी, ‘कामप्रदाय नमः’ से गुह्यभागकी तथा ‘वामनमूर्तये नमः’ कहकर कटिकी पूजा करे। ‘पद्मनाभाय नमः’ से नाभिकी, ‘विश्वमूर्तये नमः’ से पेटकी, ‘ज्ञानगम्याय नमः’ से हृदयकी, ‘वैकुण्ठगामिने नमः’ से कण्ठकी, ‘सहस्त्रबाहवे नमः’ से बाहुओंकी, ‘योगरूपिणे नमः’ से नेत्रोंकी, ‘सहस्वशीष्पों नमः’ से सिरकी तथा ‘माधवाय नमः’ कहकर सम्पूर्ण अंगोंकी पूजा करनी चाहिये।इस प्रकार विधिवत् पूजा करके विधिके अनुसार अर्ध्य देना चाहिये। जलयुक्त शंखके ऊपर सुन्दर नारियल रखकर उसमें रक्षासूत्र लपेट दें। फिर दोनों हाथोंमें वह शंख आदि लेकर निम्नांकित मन्त्र पढ़े

स्मृतो हरसि पापानि यदि नित्यं जनार्दन ॥

दुःस्वप्नं दुर्निमित्तानि मनसा दुर्विचिन्तितम् ।

नारकं तु भवं देव भयं दुर्गतिसंभवम् ॥

यन्मम स्यान्महादेव ऐहिकं पारलौकिकम् ।

तेन देवेश मां रक्ष गृहाणाय नमोऽस्तु ते ॥

सदा भक्तिर्ममैवास्तु दामोदर तवोपरि ।

(35 /69-72) ‘जनार्दन ! यदि आप सदा स्मरण करनेपर मनुष्यके सब पाप हर लेते हैं तो देव! मेरे दुःस्वप्न, अपशकुन, मानसिक दुश्चिन्ता, नारकीय भय तथा दुर्गतिजन्य त्रास हर लीजिये। महादेव! देवेश्वर ! मेरे लिये इहलोक तथा परलोकमें जो भय हैं, उनसे मेरी रक्षा कीजिये तथा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। आपको नमस्कार है। दामोदर ! सदा आपमें ही मेरी भक्ति बनी रहे।’

तत्पश्चात् धूप, दीप और नैवेद्य अर्पण करके भगवान्की आरती उतारे। उनके मस्तकपर शंख घुमाये। यह सब विधान पूरा करके सद्गुरुकी पूजा करे। उन्हें सुन्दर वस्त्र, पगड़ी तथा अंगा दे। साथ ही जूता, छत्र, अंगूठी, कमण्डलु, भोजन, पान, सप्तधान्य तथा दक्षिणा दे। गुरु और भगवान्‌की पूजाके पश्चात् श्रीहरिके समीप जागरण करे। जागरणमें गीत, नृत्य तथा अन्यान्य उपचारोंका भी समावेश रहना चाहिये। तदनन्तर रात्रिके अन्तमें विधिपूर्वक भगवान्‌को अर्घ्य दे स्नान आदि कार्य करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेके पश्चात् स्वयं भोजन करे।

महादेवजी कहते हैं—ब्रह्मन् । ‘त्रिस्पृशा’ व्रतका यह अद्भुत उपाख्यान सुनकर मनुष्य गंगातीर्थमें स्नान करनेका पुण्य-फल प्राप्त करता है। त्रिस्पृशाके उपवाससे हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञोंका फल मिलता है। यह व्रत करनेवाला पुरुष पितृकुल, मातृकुल तथा पत्नीकुलके सहित विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। करोड़ों तीर्थोंमें जो पुण्य तथा करोड़ों क्षेत्रों में जो फलमिलता है, वह त्रिस्पृशाके उपवाससे मनुष्य प्राप्त कर लेता है। द्विजश्रेष्ठ! जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अन्य जातिके लोग भगवान् श्रीकृष्णमें मन लगाकर इस व्रतको करते हैं, वे सब इस धराधामको छोड़नेपर मुक्त हो जाते हैं। इसमें द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये। यह मन्त्रोंमें मन्त्रराज माना गया है। इसीप्रकार त्रिस्पृशा सब व्रतोंमें उत्तम बतायी गयी है। जिसने इसका व्रत किया, उसने सम्पूर्ण व्रतोंका अनुष्ठान कर लिया । पूर्वकालमें स्वयं ब्रह्माजीने इस व्रतको किया था, तदनन्तर अनेकों ऋषियोंने भी इसका अनुष्ठान किया; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। नारद ! यह त्रिस्पृशा मोक्ष देनेवाली है।

अध्याय 159 पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य

नारदजीने पूछा- महादेव! ‘पक्षवर्धिनी’ नामवाली तिथि कैसी होती है, जिसका व्रत करनेसे मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है ?

श्रीमहादेवजी बोले- यदि अमावास्या अथवा पूर्णिमा साठ दण्डकी होकर दिन-रात अविकल रूपसे रहे और दूसरे दिन प्रतिपदायें भी उसका कुछ अंश चला गया हो तो वह ‘पक्षवर्धिनी’ मानी जाती है। उस पक्षकी एकादशीका भी यही नाम है, वह दस हजार अश्वमेध यज्ञोंके समान फल देनेवाली होती है। अब उस दिन की जानेवाली पूजाविधिका वर्णन करता हूँ, जिससे भगवान् लक्ष्मीपतिको संतोष प्राप्त होता है। सबसे पहले जलसे भरे हुए कलशकी स्थापना करनी चाहिये। कलश नवीन हो-फूटा टूटा न हो और चन्दनसे चर्चित किया गया हो। उसके भीतर पंचरत्न डाले गये हों तथा वह कलश फूलकी मालाओंसे आवृत हो । उसके ऊपर एक ताँबेका पात्र रखकर उसमें गेहूं भर देना चाहिये। उस पात्रमें भगवान्के सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। जिस मासमें पक्षवर्धिनी तिथि पड़ी हो, उसीका नाम भगवद्विग्रहका भी नाम समझना चाहिये। जगत् के स्वामी देवेश्वर जगन्नाथका स्वरूप अत्यन्त मनोहर बनवाना चाहिये। फिर विधिपूर्वक पंचामृतसे भगवान्‌को नहलाना तथा कुंकुम, अगरजा और चन्दनसे अनुलेप करना चाहिये। फिर दो वस्त्र अर्पण करने चाहिये उनके साथ छत्र और जूते भी हों। इसके बाद कलशपर विराजमान देवेश्वर श्रीहरिकी पूजा आरम्भ करे। ‘पद्मनाभाय नमः’ कहकर दोनों चरणोंकी, ‘विश्वमूर्तये नमः’ बोलकर दोनोंघुटनोंकी, ‘ज्ञानगम्याय नमः’ से दोनों जाँघोंकी, ‘ज्ञानप्रदाय नमः’ से कटिभागकी, ‘विश्वनाथाय नमः’ से उदरकी, ‘श्रीधराय नमः’ से हृदयकी ‘कौस्तुभ कण्ठाय नमः’ से कण्ठकी, ‘क्षत्रान्तकारिणे ‘नमः’ से दोनों बाँहोंकी, ‘व्योममूर्ते नमः’ से ललाटकी तथा ‘सर्वरूपिणे नमः’ से सिरकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न अस्त्रोंका भी उनके नाममन्त्रद्वारा पूजन करना उचित है। अन्तमें ‘दिव्यरूपिणे नमः’ कहकर भगवान्‌के सम्पूर्ण अंगोंकी पूजा करनी चाहिये।

इस तरह विधिवत् पूजन करके विद्वान् पुरुष सुन्दर नारियलके द्वारा चक्रधारी देवदेव श्रीहरिको अर्घ्य प्रदान करे। इस अर्घ्यदानसे ही व्रत पूर्ण होता है। अर्घ्यदानका मन्त्र इस प्रकार है

संसारार्णवमग्नं भो मामुद्धर जगत्पते ॥

त्वमीशः सर्वलोकानां त्वं साक्षाच्च जगत्पतिः l

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं पद्मनाभ नमोऽस्तु ते ॥


(38।14-15) ‘जगदीश्वर! मेँ संसारसागरमें डूब रहा हूँ, मेरा उद्धार कीजिये। आप सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर तथा साक्षात् जगत्पति परमेश्वर हैं। पद्मनाभ! आपको नमस्कार है। मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार कीजिये।’

तत्पश्चात् भगवान् केशवको भक्तिपूर्वक भाँति भाँतिके नैवेद्य अर्पण करे, जो मनको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले और मधुर आदि छहों रसोंसे युक्त हों। इसके बाद भगवान्‌को भक्तिके साथ कपूरयुक्त ताम्बूल निवेदन करे। घी. अथवा तिलके तेलसे दीपक जलाकर रखे।यह सब करनेके पश्चात् गुरुकी पूजा करे। उन्हें वस्त्र, पगड़ी तथा जामा दे अपनी शक्तिके अनुसार दक्षिणा भी दें। फिर भोजन और ताम्बूल निवेदन करके आचार्यको संतुष्ट करे। निर्धन पुरुषोंको भी यथाशक्ति प्रयत्नपूर्वक पक्षवर्धिनी एकादशीका व्रत करना चाहिये। तदनन्तर गीत, नृत्य, पुराण पाठ तथा हर्षके साथ रात्रिमें जागरण करे।

जो मनीषी पुरुष पक्षवर्धिनी एकादशीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, उनके द्वारा सम्पूर्ण व्रतका अनुष्ठान हो जाता है। पंचाग्निसेवन तथा तीथोंमें साधना करनेसे जो पुण्य होता है, वह श्रीविष्णुके समीप जागरण करनेसे ही प्राप्त हो जाता है। पक्षवर्धिनी एकादशी परम पुण्यमयी तथा सब पापों का नाश करनेवाली है। ब्रह्मन्! यह उपवास करनेवाले मनुष्योंकी करोड़ों हत्याओंका भी विनाश कर डालती है मुने पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठ, भरद्वाज, ध्रुव तथा राजा अम्बरीषने भी इसका व्रत किया था। यह तिथि श्रीविष्णुको अत्यन्त प्रिय है। यह काशी तथा द्वारकापुरीके समान पवित्र है। भक्त पुरुषके उपवास करनेपर यह उसे मनोवांछित फल प्रदान करती है। जैसे सूर्योदय होनेपर तत्काल अन्धकारका नाश हो जाता है, उसी प्रकार पक्षवर्धिनीका व्रत करनेसे पापराशि नष्ट हो जाती है।

नारद! अब मैं एकादशीकी रातमें जागरण करनेका माहात्म्य बतलाऊँगा, ध्यान देकर सुनो भक्त पुरुषको चाहिये कि एकादशी तिथिको रात्रिके समय भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करके वैष्णवोंके साथ उनके सामने जागरण करे। जो गीत, वाद्य, नृत्य, पुराण-पाठ, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, चन्दनानुलेप, फल, अर्घ्य, श्रद्धा, दान, इन्द्रियसंयम, सत्यभाषण तथा शुभकर्मके अनुष्ठानपूर्वक प्रसन्नताके साथ श्रीहरिके समक्ष जागरण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान्का प्रिय होता है। जो विद्वान् मनुष्य भगवान् विष्णुके समीप जागरण करते, श्रीकृष्णकी भावना करते हुए कभी नींद नहीं लेते तथा मन-ही-मन बारम्बार श्रीकृष्णका नामोच्चारण करते हैं, उन्हें परम धन्य समझना चाहिये। विशेषतः एकादशीकी रातमें जागनेपरतो वे और भी धन्यवादके पात्र हैं। जागरणके समय एक क्षण गोविन्दका नाम लेनेसे व्रतका चौगुना फल होता है, एक पहरतक नामोच्चारणसे कोटिगुना फल मिलता है और चार पहरतक नामकीर्तन करनेसे असीम फलकी प्राप्ति होती है। श्रीविष्णुके आगे आधे निमेष भी जागनेपर कोटिगुना फल होता है, उसकी संख्या नहीं है। जो नरश्रेष्ठ भगवान् केशवके आगे नृत्य करता है, उसके पुण्यका फल जन्मसे लेकर मृत्युकालतक कभी क्षीण नहीं होता। महाभाग ! प्रत्येक पहरमें विस्मय और उत्साहसे युक्त हो पाप तथा आलस्य आदि छोड़कर निर्वेदशून्य हृदयसे श्रीहरिके समक्ष नमस्कार और नीराजनासे युक्त आरती उतारनी चाहिये जो मनुष्य एकादशीको भक्तिपूर्वक अनेक गुणोंसे युक्त जागरण करता है, वह फिर इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो धनकी कंजूसी छोड़कर पूर्वोक्त प्रकारसे एकादशीको भक्तिसहित जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन होता है।

जो भगवान् विष्णुके लिये जागरणका अवसर प्राप्त होनेपर उसका उपहास करता है, वह साठ हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है। प्रतिदिन वेद शास्त्रमें परायण तथा यज्ञका अनुष्ठान करनेवाला ही क्यों न हो, यदि एकादशीकी रातमें जागरणका समय आनेपर उसकी निन्दा करता है तो उसका अधःपतन होता है जो मेरी (शिवकी) पूजा करते हुए विष्णुकी निन्दामै तत्पर रहता है, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंके साथ नरकमें पड़ता है। विष्णु ही शिव हैं और शिव ही विष्णु हैं। दोनों एक ही मूर्तिकी दो झाँकियोंके समान स्थित हैं, अतः किसी प्रकार भी इनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि जागरणके समय पुराणकी कथा बाँचनेवाला कोई न हो तो नाच-गान कराना चाहिये। यदि कथावाचक मौजूद हों तो पहले पुराणका ही पाठ होना चाहिये। वत्स! श्रीविष्णुके लिये जागरण करनेपर एक हजार अश्वमेध तथा दस हजार वाजपेय यज्ञोंसे भी करोड़गुना पुण्य प्राप्त होता है। श्रीहरिकी प्रसन्नताके लिये जागरण करके मनुष्य पिता, माता तथा पत्नी- तीनोंके कुलोंका उद्धार कर देता है। यदि एकादशीके व्रतका दिन दशमीसे विद्ध हो तोश्रीहरिका पूजन, जागरण और दान आदि सब व्यर्थ होता है-ठीक उसी तरह, जैसे कृतघ्न मनुष्योंके साथ किया हुआ नेकीका बर्ताव व्यर्थ हो जाता है। जो वेधरहित एकादशीको जागरण करते हैं, उनके बीचमें साक्षात् श्रीहरि संतुष्ट होकर नृत्य करते हैं। जो श्रीहरिके लिये नृत्य, गीत और जागरण करता है, उसके लिये ब्रह्माजीका लोक, मेरा कैलासधाम तथा भगवान् श्रीविष्णुका वैकुण्ठधाम-सब-के-सब निश्चय ही सुलभ हैं जो स्वयं श्रीहरिके लिये जागरण करते और लोगोंको भी जगाये रखता है, वह विष्णुभक्त हुए पुरुष अपने पितरोंके साथ वैकुण्ठलोकमें निवास करता है। जो श्रीहरिके लिये जागरण करनेकी लोगोंको सलाह देता है, वह मनुष्य साठ हजार वर्षोंतक श्वेतद्वीपमें निवास करता है। नारद! मनुष्य करोड़ों जन्मोंमें जो पाप संचित करता है, वह सब श्रीहरिके लिये एक रात जागरण करनेपर नष्ट हो जाता है। जो शालग्राम-शिलाके समक्ष जागरण करते हैं, उन्हें एक एक पहरमें कोटि-कोटि तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त होता है जागरणके लिये भगवान्‌के मन्दिरमें जाते समय मनुष्य जितने पग चलता है, वे सभी अश्वमेध यज्ञके समान फल देनेवाले होते हैं। पृथ्वीपर चलते समय दोनों चरणोंपर जितने धूलिकण गिरते हैं, उतने हजार वर्षोंतक जागरण करनेवाला पुरुष दिव्यलोकमें निवास करता है।

इसलिये प्रत्येक द्वादशीको जागरणके लिये अपने घरसे भगवान् विष्णुके मन्दिरमें जाना चाहिये। इससे कलिमलका विनाश होता है। दूसरोंकी निन्दामें संलग्न होना, मनका प्रसन्न न रहना, शास्त्रचर्चाका न होना, संगीतका अभाव, दीपक न जलाना, शक्तिके अनुसार पूजाके उपचारोंका न होना, उदासीनता, निन्दा तथा कलह-इन दोषोंसे युक्त नौ प्रकारका जागरण अधममाना गया है। जिस जागरणमें शास्त्रकी चर्चा, सात्त्विक नृत्य, संगीत, वाद्य, ताल, तैलयुक्त दीपक, कीर्तन, भक्तिभावना, प्रसन्नता, संतोषजनकता, समुदायकी उपस्थिति तथा लोगोंके मनोरंजनका सात्त्विक साधन हो, वह उक्त बारह गुणोंसे युक्त जागरण भगवान्‌को बहुत प्रिय है। शुक्ल और कृष्ण दोनों ही पक्षोंकी एकादशीको प्रयत्नपूर्वक जागरण करना चाहिये । 2 नारद! परदेशमें जानेपर मार्गका थका-माँदा होनेपर भी जो द्वादशीको भगवान् वासुदेवके निमित्त किये जानेवाले जागरणका नियम नहीं छोड़ता, वह मुझे विशेष प्रिय है। जो एकादशीके दिन भोजन कर लेता है, उसे पशुसे भी गया- बीता समझना चाहिये; वह न तो शिवका उपासक है न सूर्यका, न देवीका भक्त है और न गणेशजीका। जो एकादशीको जागरण करते हैं, उनका बाहर-भीतर यदि करोड़ों पापोंसे घिरा हो तो भी वे मुक्त हो जाते हैं। वेधरहित द्वादशीका व्रत और श्रीविष्णुके लिये किया जानेवाला जागरण यमदूतोंका मानमर्दन करनेवाला है। मुनिश्रेष्ठ! एकादशीको जागरण करनेवाले मनुष्य अवश्य मुक्त हो जाते हैं।

जो रातको भगवान् वासुदेवके समक्ष जागरणमें प्रवृत्त होनेपर प्रसन्नचित्त हो ताली बजाते हुए नृत्य करता, नाना प्रकारके कौतुक दिखाते हुए मुखसे गीत गाता, वैष्णवजनोंका मनोरंजन करते हुए श्रीकृष्ण चरितका पाठ करता, रोमांचित होकर मुखसे बाजा बजाता तथा स्वेच्छानुसार धार्मिक आलाप करते हुए भाँति-भाँतिके नृत्यका प्रदर्शन करता है, वह भगवान्का प्रिय है। इन भावोंके साथ जो श्रीहरिके लिये जागरण करता है, उसे नैमिष तथा कोटितीर्थका फल प्राप्त होता है। जो शान्तचित्तसे श्रीहरिको धूप आरती दिखाते हुए रातमें जागरण करता है, वह सात द्वीपोंका अधिपति होता है।ब्रह्महत्या के समान भी जो कोई पाप हों, वे सब श्रीकृष्णकी प्रीतिके लिये जागरण करनेपर नष्ट हो जाते हैं। एक ओर उत्तम दक्षिणाके साथ समाप्त होनेवाले सम्पूर्ण यज्ञ और दूसरी ओर देवाधिदेव श्रीकृष्णको प्रिय लगनेवाला एकादशीका जागरण दोनों समान हैं।

जहाँ भगवान् के लिये जागरण किया जाता है वहाँ काशी, पुष्कर, प्रयाग, नैमिषारण्य, शालग्राम नामक महाक्षेत्र, अर्बुदारण्य (आबू), शूकरक्षेत्र (सोरों), मथुरा तथा सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। समस्त यज्ञ और चारों वेद भी श्रीहरिके निमित्त किये जानेवाले जागरणके स्थानपर उपस्थित होते हैं। गंगा, सरस्वती, तापी, यमुना, शतद्रु (सतलज), चन्द्रभागा तथा वितस्ता आदि सम्पूर्ण नदियाँ भी वहाँ जाती हैं। द्विजश्रेष्ठ सरोवर, कुण्ड और समस्त समुद्र भी एकादशीको जागरणस्थानपर जाते हैं। जो मनुष्य श्रीकृष्णप्रीतिके लिये होनेवाले जागरणके समय वीणा आदि बाजोंसे हर्षमें भरकर नृत्य करते और पद गाते हैं, वे देवताओंके लिये भी आदरणीय होते हैं। इस प्रकार जागरण करके श्रीमहाविष्णुकी पूजा करे और द्वादशीको अपनी शक्तिके अनुसार कुछ वैष्णव पुरुषोंको निमन्त्रित करके उनके साथ बैठकर पारण करे।

द्वादशीको सदा पवित्र और मोक्षदायिनी समझना चाहिये। उस दिन प्रातः स्नान करके श्रीहरिकी पूजा करे और उन्हें निम्नांकित मन्त्र पढ़कर अपना व्रत समर्पण करे

अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन

प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ।

(39।81-82)

‘केशव ! मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो रहा हूँ,आप इस व्रतसे प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।’ इसके बाद यथासम्भव पारण करना चाहिये। पारण समाप्त होनेपर इच्छानुसार विहित कर्मोका अनुष्ठान करे। नारद! यदि दिनमें पारणके समय थोड़ी भी द्वादशी न हो तो मुक्तिकामी पुरुषको रातको ही [पिछले पहरमें] पारण कर लेना चाहिये। ऐसे समय में रात्रिको भोजन करनेका दोष नहीं लगता। रात्रिके पहले और पिछले पहर में दिनकी भाँति कर्म करने चाहिये। यदि पारणके दिन बहुत थोड़ी द्वादशी हो तो उषःकालमें ही प्रातः काल तथा मध्याहनकालकी भी संध्या कर लेनी चाहिये। इस पृथ्वीपर जिस मनुष्यने द्वादशी व्रतको सिद्ध कर लिया है, उसका पुण्य फल बतलानेमें मैं भी समर्थ नहीं हूँ। एकादशी देवी सब पुण्योंसे अधिक है तथा यह सर्वदा मोक्ष देनेवाली है। यह द्वादशी नामक व्रत महान् पुण्यदायक है जो इसका साधन कर लेते हैं, वे महापुरुष समस्त कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं। अम्बरीष आदि सभी भक्त, जो इस भूमण्डलमें विख्यात हैं, द्वादशी व्रतका साधन करके ही विष्णुधामको प्राप्त हुए हैं। यह माहात्म्य जो मैंने तुम्हें बताया है, सत्य है। सत्य है!! सत्य है !!! श्रीविष्णुके समान कोई देवता नहीं है और द्वादशीके समान कोई तिथि नहीं है। इस तिथिको जो कुछ दान किया जाता, भोगा जाता तथा पूजन आदि किया जाता है, वह सब भगवान् माधवके पूजित होनेपर पूर्णताको प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, भक्तवल्लभ श्रीहरि द्वादशी व्रत करनेवाले पुरुषोंकी कामना कल्पान्ततक पूर्ण करते रहते हैं। द्वादशीको किया हुआ सारा दान सफल होता है।

अध्याय 160 एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन

नारदजीने पूछा- महादेव! महाद्वादशीका उत्तम व्रत कैसा होता है। सर्वेश्वर प्रभो! उसके व्रतसे जो कुछ भी फल प्राप्त होता है उसे बताने की कृपा कीजिये।

महादेवजीने कहा- ब्रह्मन् ! यह एकादशी महान् पुण्यफलको देनेवाली है। श्रेष्ठ मुनियोंको भी इसका अनुष्ठान करना चाहिये। विशेष विशेष नक्षत्रोंका योग होनेपर यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी इन चार नामोंसे विख्यात होती है। ये सभी पापका नाश करनेवाली हैं। इनका व्रत अवश्य करना चाहिये। जब शुक्लपक्षकी एकादशीको ‘पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि ‘जया’ कहलाती है। उसका व्रत करके मनुष्य निश्चय ही पापसे मुक्त हो जाता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको ‘श्रवण नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि ‘विजया’ के नामसे विख्यात होती है; इसमें किया हुआ दान और ब्राह्मण भोजन सहस्रगुना फल देनेवाला है तथा होम और उपवास तो सहस्रगुने से भी अधिक फल देता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको ‘रोहिणी’ नक्षत्र हो तो वह तिथि ‘जयन्ती’ कहलाती है; वह सब पापको हरनेवाली है। उस तिथिको पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द निश्चय ही मनुष्यके सब पापको धो डालते हैं। जब कभी शुक्लपक्षकी द्वादशीको ‘पुष्य नक्षत्र हो तो वह महापुण्यमयी ‘पापनाशिनी’ तिथि कहलाती है। जो एक वर्षतक प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल दान करता है तथा जो केवल ‘पापनाशिनी’ एकादशीको उपवास करता है, उन दोनोंका पुण्य समान होता है। उस तिथिको पूजित होनेपर संसारके स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं तथा प्रत्यक्ष दर्शन भी देते हैं। उस दिन प्रत्येक पुण्यकर्मका अनन्त फल माना गया है। सगरनन्दन ककुत्स्थ नहुष तथा राजा गाधिने उस तिथिको भगवान्की आराधना की थी, जिससे भगवान्ने इस पृथ्वीपर उन्हें सब कुछ दिया था। इस तिथिके सेवनसे मनुष्य सात जन्मोंके कायिक, वाचिक और मानसिक पापसे मुक्त हो जाता है। इसमेंतनिक भी संदेह नहीं है। पुष्य नक्षत्रसे युक्त एकमात्र पापनाशिनी एकादशीका व्रत करके मनुष्य एक हजार एकादशियोंके व्रतका फल प्राप्त कर लेता है। उस दिन स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजा आदि जो कुछ भी किया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। जिस समय धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर पंचम अश्वमेध यज्ञका स्नान कर चुके, उस समय उन्होंने यदुवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रश्न किया।

युधिष्ठिर बोले- प्रभो ! नक्तव्रत तथा एकभुक्त व्रतका पुण्य एवं फल क्या है? जनार्दन ! यह सब मुझे बताइये।

श्रीभगवान् ने कहा – कुन्तीनन्दन! हेमन्त ऋतुमें जब परम कल्याणमय मार्गशीर्ष मास आये, तब उसके कृष्णपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास (व्रत) करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है- दृढ़तापूर्वक उत्तमव्रतका पालन करनेवाला शुद्धचित्त पुरुष दशमीको सदा एकभुक्त रहे अथवा शौच-सन्तोषादि नियमोंके पालनपूर्वक नक्तव्रतके स्वरूपको जानकर उसके अनुसार एक बार भोजन करे। दिनके आठवें भागमें जब सूर्यका तेज मन्द पड़ जाता है, उसे ‘नक्त’ जानना चाहिये। रातको भोजन करना ‘नक्त’ नहीं है। गृहस्थ लिये तारोंके दिखायी देनेपर नक्त भोजनका विधान है और संन्यासीके लिये दिनके आठवें भागमें; क्योंकि उसके लिये रातमें भोजनका निषेध है। कुन्तीनन्दन ! दशमीकी रात व्यतीत होनेपर एकादशीको प्रातः काल व्रत करनेवाला पुरुष व्रतका नियम ग्रहण करे और सबेरे तथा मध्याह्नको पवित्रताके लिये स्नान करे। कुएँका स्नान निम्न श्रेणीका है। बावलीमें स्नान करना मध्यम, पोखरेमें उत्तम तथा नदीमें उससे भी उत्तम माना गया है। जहाँ जलमें खड़ा होनेपर जल जन्तुओंको पीड़ा होती हो, वहाँ स्नान करनेपर पाप और पुण्य बराबर होता है। यदि जलको छानकर शुद्ध कर ले तो घरपर भी स्नान करना उत्तम माना गया। है। इसलिये पाण्डव श्रेष्ठ! घरपर उक्त विधिसे स्नान करे। स्नानके पहले निम्नांकित मन्त्र पढ़कर शरीरमें मृत्तिका लगा ले

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे।

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥

(40।28)

‘वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् विष्णुने भी वामन अवतार धारण कर तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके! मैंने पूर्वकालमें जो पाप संचित किया है, उस मेरे पापको हर लो। ‘

व्रती पुरुषको चाहिये कि वह एकचित और दृढ़ संकल्प होकर क्रोध तथा लोभका परित्याग करे। अन्त्यज, पाखण्डी, मिथ्यावादी, ब्राह्मणनिन्दक, अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाले अन्यान्य दुराचारी, परधनहारी तथा परस्त्रीगामी मनुष्योंसे वार्तालाप न करे भगवान् केशवकी पूजा करके उन्हें नैवेद्य भोग लगाये घरमें भक्तियुक्त मनसे दीपक जलाकर रखे पार्थ! उस दिन निद्रा और मैथुनका परित्याग करे। धर्मशास्त्रसेमनोरंजन करते हुए सम्पूर्ण दिन व्यतीत करे। नृपश्रेष्ठ भक्तियुक्त होकर रात्रिमें जागरण करे, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगे। जैसी कृष्णपक्षकी एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षको भी है। इसी विधिसे उसका भी व्रत करना चाहिये।

पार्थ! द्विजको उचित है कि वह शुक्ल और कृष्णपक्षको एकादशी के व्रती लोगों में भेदबुद्धि न उत्पन्न करे। शंखोद्धार तीर्थमें स्नान करके भगवान् गदाधरका दर्शन करनेसे जो पुण्य होता है तथा संक्रान्तिके अवसरपर चार लाखका दान देकर जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह सब एकादशीव्रतकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। प्रभासक्षेत्रमें चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके अवसरपर स्नान-दानसे जो पुण्य होता है, वह निश्चय ही एकादशीको उपवास करनेवाले मनुष्यको मिल जाता है। केदारक्षेत्रमें जल पीनेसे पुनर्जन्म नहीं होता। एकादशीका भी ऐसा ही माहात्म्य है। यह भी गर्भवासका निवारण करनेवाली है। पृथ्वीपर अश्वमेध यज्ञका जो फल होता है, उससे सौगुना अधिक फल एकादशीव्रत करनेवालेको मिलता है। जिसके घरमें तपस्वी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण भोजन करते हैं उसको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह एकादशीव्रत करनेवालेको भी अवश्य मिलता है। वेदांगों के पारगामी विद्वान् ब्राह्मणको सहस्र गोदान करनेसे जो पुण्य होता है, उससे सौगुना पुण्य एकादशीव्रत करनेवालेको प्राप्त होता है। इस प्रकार व्रतीको वह पुण्य प्राप्त होता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। रातको भोजन कर लेनेपर उससे आधा पुण्य प्राप्त होता है तथा दिनमें एक बार भोजन करनेसे देहधारियोंको नक्त-भोजनका आधा फल मिलता है। जीव जबतक भगवान् विष्णुके प्रिय दिवस एकादशीको उपवास नहीं करता, तभीतक तीर्थ, दान और नियम अपने महत्वकी गर्जना करते हैं। इसलिये पाण्डव श्रेष्ठ! तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। कुन्तीनन्दन ! यह गोपनीय एवं उत्तम व्रत है, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया है। हजारों यज्ञोंका अनुष्ठान भी एकादशी व्रतकी तुलना नहीं कर सकता।युधिष्ठिरने पूछा – भगवन् पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी। गयी ? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?

श्रीभगवान् बोले – कुन्तीनन्दन प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयंकर था। उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था। सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शांकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे एक दिन सब देवता महादेवजीके पास गये। वहाँ इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया।

इन्द्र बोले- महेश्वर! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती। देव! कोई उपाय बतलाइये। देवता किसका सहारा लें ?

महादेवजीने कहा- देवराज! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले जगत्के स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ। वे तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर। महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ गये। भगवान् गदाधर क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।

इन्द्र बोले- देवदेवेश्वर। आपको नमस्कार है। देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। पुण्डरीकाक्ष! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन । हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। जगन्नाथ सम्पूर्ण देवता मुरनामक दानवसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं।

भक्तवत्सल! हमें बचाइये। देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये। जनार्दन! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। दानवोंका विनाश करनेवाले कमलनयन ! हमारी रक्षा कीजिये। प्रभो! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही शरणमें आ पड़े हैं। भगवन् ! शरणमें आये हुए देवताओंकी सहायता कीजिये देव ! आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण हैं। आप ही सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। भगवन्! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है। *इन्द्रकी बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले ‘देवराज! वह दानव कैसा है ? उसका रूप और बल कैसा है तथा उस दुष्टके रहनेका स्थान कहाँ है ?’

इन्द्र बोले – देवेश्वर पूर्वकालमें ब्रह्माजीके वंशमें तालजंघ नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था। उसका पुत्र मुर दानवके नामसे विख्यात हुआ। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयंकर है। चन्द्रावती नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है। उस दैत्यने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गलोकसे बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाया है। अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ। उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओंको तो उसने प्रत्येक स्थानसे वंचित कर दिया है।

इन्द्रका कथन सुनकर भगवान् जनार्दनको बड़ा क्रोध हुआ। वे देवताओंको साथ लेकर चन्द्रावतीपुरीमें गये। देवताओंने देखा, दैत्यराज बारम्बार गर्जना कर रहाहै; उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग गये। अब वह दानव भगवान् विष्णुको देखकर बोला-‘खड़ा रह, खड़ा रह ।’ उसकी ललकार सुनकर भगवान्के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे बोले ‘अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओंको देख।’ यह कहकर श्रीविष्णुने अपने दिव्य बाणोंसे सामने आये हुए दुष्ट दानवोंको मारना आरम्भ किया। दानव भयसे विह्वल हो उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णुने दैत्य सेनापर चक्रका प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों योद्धा मौतके मुखमें चले गये। इसके बाद भगवान् मधुसूदन बदरिकाश्रमको चले गये। वहाँ सिंहावती नामकी गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डुनन्दन ! उस गुफामें एक ही दरवाजा था। भगवान् विष्णु उसीमें सो रहे। दानव मुर भगवान्‌को मार डालनेके उद्योगमें लगा था। वह उनके पीछे लगा रहा। वहाँ पहुँचकर उसने भी उसी गुहामें प्रवेश किया। वहाँ भगवान्‌को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा- ‘यह दानवोंको भय देनेवाला देवता है। अतः निस्सन्देह इसे मार डालूँगा ।’ युधिष्ठिर! दानवके इस प्रकार विचारकरते ही भगवान् विष्णुके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त थी। वह भगवान्‌के तेजके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान् था। युधिष्ठिर! दानवराज मुरने उस कन्याको देखा। कन्याने युद्धका विचार करके दानवके साथ युद्धके लिये याचना की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण थी! वह मुर नामक महान् असुर उसके हुंकार मात्रसे राखका ढेर हो गया। दानवके मारे जानेपर भगवान् जाग उठे। उन्होंने दानवको धरतीपर पड़ा देख, पूछा- ‘मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था, किसने इसका वध किया है ?’

कन्या बोली- स्वामिन्! आपके ही प्रसादसे मैंने इस महादैत्यका वध किया है।

श्रीभगवान्ने कहा – कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्मसे तीनों लोकोंके मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं! अतः तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँगो; देवदुर्लभ होनेपर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी। उसने कहा – ‘प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपासे सब तीर्थोंमें प्रधान, समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाली तथा सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ । जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिनको उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त हो। माधव! जो लोग उपवास, नक्त अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रतका पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये।’श्रीविष्णु बोले – कल्याणी ! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—युधिष्ठिर! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों पक्षोंकी एकादशी समान रूपसे कल्याण करनेवाली है। इसमें शुक्ल और कृष्णका भेद नहीं करना चाहिये । यदि उदयकालमें थोड़ी-सी एकादशी, मध्यमें पूरी द्वादशी और अन्तमें किंचित् त्रयोदशी हो तो वह ‘त्रिस्पृशा’ एकादशी कहलाती है। वह भगवान्को बहुत ही प्रिय है। यदि एक त्रिस्पृशा एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो एक सहस्र एकादशीव्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशीमें पारण करनेपर सहस्रगुना फल माना गया है। अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथिसे विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिये । परवर्तिनी तिथिसे युक्त होनेपर ही इनमें उपवासका विधान है। पहले दिन दिनमें और रातमें भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातः काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथिका परित्याग करके दूसरे दिनकी द्वादशीयुक्त एकादशीको ही उपवास करना चाहिये यह विधि मैंने दोनों पक्षोंकी एकादशीके लिये बतायी है। जो मनुष्य एकादशीको उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाममें, जहाँ साक्षात् भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, जाता है। जो मानव हर समय एकादशीके माहात्म्यका पाठ करता है, उसे सहस्र गोदानोंके पुण्यका फल प्राप्त होता है। जो दिन या रातमें भक्तिपूर्वक इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे निस्सन्देह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। एकादशीके समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।

अध्याय 161 मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिर बोले- देवदेवेश्वर! मैं पूछता हूँ मार्गशीर्षमासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है ? कौन-सी विधि है तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है? स्वामिन्! यह सब यथार्थरूपसे बताइये।श्रीकृष्णने कहा – नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्षमासके कृष्णपक्षमें ‘उत्पत्ति’ नामकी एकादशी होती है, जिसका वर्णन मैंने तुम्हारे समक्ष कर दिया है। अब शुक्लपक्षकी एकादशीका वर्णन करूँगा, जिसके श्रवणमात्रसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। उसका नाम है- ‘मोक्षा’ एकादशी जो सब पापका अपहरण करनेवाली है।

राजन्। उस दिन यत्नपूर्वक तुलसीकी मंजरी तथा धूप-दीपादिसे भगवान् दामोदरका पूजन करना चाहिये। पूर्वोक्त विधिसे ही दशमी और एकादशीके नियमका पालन करना उचित है ‘मोक्षा’ एकादशी बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। उस दिन रात्रिमें मेरी प्रसन्नताके लिये नृत्य, गीत और स्तुतिके द्वारा जागरण करना चाहिये। जिसके पितर पापवश नीच योनिमें पड़े हों, वे इसका पुण्य दान करनेसे मोक्षको प्राप्त होते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी बात है, वैष्णवोंसे विभूषित परम रमणीय चम्पक नगरमें वैखानस नामक राजा रहते थे। वे अपनी प्रजाका पुत्रकी भाँति पालन करते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए राजाने एक दिन रातको स्वप्नमें अपने पितरोंको नीच योनिमें पड़ा हुआ देखा। उन सबको इस अवस्थामें देखकर राजाके मनमें बड़ा विस्मय हुआ और प्रातः काल ब्राह्मणोंसे उन्होंने उस स्वप्नका सारा हाल कह सुनाया।

राजा बोले- ब्राह्मणो! मैंने अपने पितरोंको नरकमें गिरा देखा है। वे बारम्बार रोते हुए मुझसे यॉ कह रहे थे कि ‘तुम हमारे तनुज हो, इसलिये इस नरक – समुद्रसे हमलोगोंका उद्धार करो।’ द्विजवरो ! इस रूपमें मुझे पितरोंके दर्शन हुए हैं। इससे मुझे चैन नहीं मिलता। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है। द्विजोत्तमो वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरकसे छुटकारा पा जायँ, बताने की कृपा करें। मुझे बलवान् एवं साहसी पुत्रके । जीते-जी मेरे माता-पिता घोर नरकमें पड़े हुए हैं। अतः ऐसे पुत्रसे क्या लाभ है।

ब्राह्मण बोले- राजन् यहाँसे निकट ही पर्वत मुनिका महान् आश्रम है। वे भूत और भविष्यके भी ज्ञाता हैं। नृपश्रेष्ठ! आप उन्होंके पास चले जाइये।ब्राह्मणोंकी बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनिके आश्रमपर गये और वहाँ उन मुनिश्रेष्ठको देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके गुनिके चरणोंका स्पर्श किया। मुनिने भी राजासे राज्यके सातों अंगोंकी कुशल पूछी।

राजा बोले- स्वामिन्! आपकी कृपासे मेरे राज्यके सातों अंग सकुशल हैं। किन्तु मैंने स्वप्नमें देखा है कि मेरे पितर नरकमें पड़े हैं; अतः बताइये किस पुण्यके प्रभावसे उनका वहाँसे छुटकारा होगा ?

राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्ततक ध्यानस्थ रहे। इसके बाद वे राजासे बोले “महाराज! मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्षमें जो ‘मोक्षा’ नामकी एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरोंको दे डालो। उस पुण्यके प्रभावसे उनका नरकसे उद्धार हो जायगा।’

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं युधिष्ठिर। मुनिकी – यह बात सुनकर राजा पुनः अपने घर लौट आये। जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा वैखानसने मुनिके कथनानुसार ‘मोक्षा’ एकादशीका व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरोंसहित पिताको दे दिया। पुण्य देते ही क्षणभरमें आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। वैखानसके पिता पितरोंसहित नरकसे छुटकारा पा गये और आकाशमें आकर राजाके प्रति यह पवित्र वचन बोले- ‘बेटा! तुम्हारा कल्याण हो।’ यह कहकर वे स्वर्गमें चले गये। राजन्! जो इस प्रकार कल्याणमयी ‘मोक्षा’ एकादशीका व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरनेके बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह मोक्ष देनेवाली ‘मोक्षा’ एकादशी मनुष्याँके लिये चिन्तामणिके समान समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली है। इस माहात्म्य के पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

अध्याय 162 पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- स्वामिन्! पौष मासके कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवताकी पूजा की जाती है? यह बताइये।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजेन्द्र! बतलाता हूँ, सुनो बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रतके अनुष्ठानसे होता है। इसलिये सर्वथा प्रयत्न करके एकादशीका व्रत करना चाहिये। पौष मासके कृष्णपक्ष में ‘सफला’ नामकी एकादशी होती है। उस दिन पूर्वोक्त विधानसे ही विधिपूर्वक भगवान् नारायणकी पूजा करनी चाहिये। एकादशी कल्याण करनेवाली है। अतः इसका व्रत अवश्य करना उचित है। जैसे नागों में शेषनाग, पक्षियोंमें गरुड़, देवताओंमें श्रीविष्णु तथा मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतोंमें एकादशी तिथि श्रेष्ठ है। राजन्! ‘सफला एकादशीको नाम- मन्त्रोंका उच्चारण करके फलोंके द्वारा श्रीहरिका पूजन करे। नारियलके फल, सुपारी, बिजौरा नीबू जमीरा नीबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आमके फलोंसे देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। इसी प्रकार धूप-दीपसे भी भगवान्‌की अर्चना करे। ‘सफला एकादशीको विशेषरूपसे दीप दान करनेका विधान है। रातको वैष्णव पुरुषोंके साथ जागरण करना चाहिये। जागरण करनेवालेको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करनेसे भी नहीं मिलता।

नृपश्रेष्ठ! अब ‘सफला एकादशीकी शुभकारिणी कथा सुनो। चम्पावती नामसे विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मतकी राजधानी थी। राजर्षि माहिष्मतके पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्ममें ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था। उसने पिताके धनको पापकर्ममें ही खर्च किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा ब्राह्मणोंका निन्दक था। वैष्णवों और देवताओंकी भी हमेशा निन्दा कियाकरता था। अपने पुत्रको ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मतने राजकुमारोंमें उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाइयोंने मिलकर उसे राज्यसे बाहर निकाल दिया। लुम्भक उस नगरसे निकलकर गहन वनमें चला गया। वहीं रहकर उस पापीने प्रायः समूचे नगरका धन लूट लिया। एक दिन जब वह चोरी करनेके लिये नगरमें आया तो रातमें पहरा देनेवाले सिपाहियोंने उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने अपनेको राजा माहिष्मतका पुत्र बतलाया तो सिपाहियोंने उसे छोड़ दिया। फिर वह पापी वनमें लौट आया और प्रतिदिन मांस तथा वृक्षोंके फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्टका विश्राम स्थान पीपल वृक्षके निकट था वहाँ बहुत वर्षोंका पुराना पीपलका वृक्ष था। उस वनमें वह वृक्ष एक महान् देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था।

बहुत दिनोंके पश्चात् एक दिन किसी संचित पुण्यके प्रभावसे उसके द्वारा एकादशीके व्रतका पालन हो गया। पौष मासमें कृष्णपक्षकी दशमीके दिन पापिष्ठ लुम्भकने वृक्षोंके फल खाये और वस्त्रहीन होनेके कारण रातभर जाड़ेका कष्ट भोगा। उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला। वह निष्प्राण-सा हो रहा था। सूर्योदय होनेपर भी उस पापीको होश नहीं हुआ। ‘सफला एकादशीके दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होनेपर उसे चेतना प्राप्त हुई। फिर इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसनसे उठा और लँगड़ेकी भाँति पैरोंसे बार-बार लड़खड़ाता हुआ वनके भीतर गया। वह भूखसे दुर्बल और पीड़ित हो रहा था। राजन् ! उस समय लुम्भक बहुत से फल लेकर ज्यों ही विश्राम स्थानपर लौटा, त्यों ही सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने वृक्षकी जड़में बहुत से फल निवेदन करते हुए कहा- ‘इन फलोंसे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु संतुष्ट हो।’ य कहकर लुम्भकने रातभर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रतका पालन कर लिया। उससमय सहसा आकाशवाणी हुई- ‘राजकुमार तुम ‘सफला एकादशीके प्रसादसे राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने यह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान् विष्णुके भजनमें लग गयी। दिव्य आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न होकर उसने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षोंतक वह उसका संचालन करता रहा। उस समय भगवान् श्रीकृष्णकी कृपासे उसके मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भकने तुरंत ही राज्यकी ममता छोड़कर उसे पुत्रको सौंप दिया और वह भगवान् श्रीकृष्णके समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोकमें नहीं पड़ता। राजन्। इस प्रकार जो ‘सफला एकादशीका उत्तम व्रत करता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर मरनेके पश्चात् मोक्षको प्राप्त होता है। संसारमें वे मनुष्य धन्य हैं, जो ‘सफला’ एकादशीके व्रतमें लगे रहते हैं। उन्हींका जन्म सफल है। महाराज! इसकी महिमाको पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करनेसे मनुष्य राजसूय यज्ञका फल पाता है।

युधिष्ठिर बोले श्रीकृष्ण आपने शुभकारिणी ‘सफला एकादशीका वर्णन किया। अब कृपा करके शुक्लपक्षकी एकादशीका महत्त्व बतलाइये उसका क्या नाम है? कौन-सी विधि है? तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है ?

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजन्! पौषके शुक्लपक्षकी जो एकादशी है, उसे बतलाता हूँ सुनो। महाराज संसारके हितकी इच्छासे में इसका वर्णन करता हूँ। राजन्। पूर्वोक्त विधिसे ही यत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। इसका नाम ‘पुत्रदा’ है। यह सब पापको हरनेवाली उत्तम तिथि है। समस्त कामनाओं तथा सिद्धियोंके दाता भगवान् नारायण इस तिथिके अधिदेवता हैं। चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीमें इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है। पूर्वकाली बात है, भद्रावती पुरीमें राजा सुकेतुमान् राज्य करते थे। उनकी रानीका नाम चम्पा था। राजाको बहुत समयतककोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ। इसलिये दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोकमें डूबे रहते थे। राजाके पितर उनके दिये हुए जलको शोकोच्छ्वाससे गरम करके पीते थे। ‘राजाके बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हमलोगोंका तर्पण करेगा’ यह सोच सोचकर पितर दुःखी रहते थे।

एक दिन राजा घोड़ेपर सवार हो गहन वनमें चले गये। पुरोहित आदि किसीको भी इस बातका पता न था। मृग और पक्षियोंसे सेवित उस सघन काननमें राजा भ्रमण करने लगे। मार्गमें कहीं सियारकी बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओंकी । जहाँ-तहाँ रीछ और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे। इस प्रकार घूम-घूमकर राजा वनकी शोभा देख रहे थे, इतनेमें दोपहर हो गयी। राजाको भूख और प्यास सताने लगी। वे जलकी खोजमें इधर-उधर दौड़ने लगे। किसी पुण्यके प्रभावसे उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियोंके बहुत-से आश्रम थे। शोभाशाली नरेशने उन आश्रमोंकी ओर देखा। उस समय शुभकी सूचना देनेवाले शकुन होने लगे। राजाका दाहिना नेत्र और दाहिना हाथफड़कने लगा, जो उत्तम फलकी सूचना दे रहा था। सरोवर के तटपर बहुत-से मुनि वेद-पाठ कर रहे थे। उन्हें देखकर राजाको बड़ा हर्ष हुआ। वे घोड़ेसे उतरकर मुनियोंके सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे। वे मुनि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले थे। जब राजाने हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् किया, तब मुनि बोले- ‘राजन् ! हमलोग तुमपर प्रसन्न हैं।’

राजा बोले- आपलोग कौन हैं? आपके नाम क्या हैं तथा आपलोग किसलिये यहाँ एकत्रित हुए हैं ? यह सब सच-सच बताइये ।

मुनि बोले- राजन् ! हमलोग विश्वेदेव यहाँ स्नानके लिये आये हैं। माघ निकट आया है। आजसे पाँचवें दिन माघका स्नान आरम्भ हो जायगा। आज ही ‘पुत्रदा’ नामकी एकादशी है, जो व्रत करनेवाले मनुष्योंको पुत्र देती है।

राजाने कहा – विश्वेदेवगण! यदि आपलोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये ।मुनि बोले- राजन् ! आजके ही दिन ‘पुत्रदा’ नामकी एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रतका पालन करो। महाराज ! भगवान् केशव प्रसादसे तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा ।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियोंके कहनेसे राजाने उत्तम व्रतका पालन किया। महर्षियोंके उपदेशके अनुसार विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीका अनुष्ठान किया। फिर द्वादशीको पारण करके मुनियोंके चरणोंमें बारम्बार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये। तदनन्तर रानीने गर्भ धारण किया। प्रसवकाल आनेपर पुण्यकर्मा राजाको तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणोंसे पिताको संतुष्ट कर दिया। वह प्रजाओंका पालक हुआ । इसलिये राजन् ! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है। जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा’ का व्रत करते हैं, वे इस लोकमें पुत्र पाकर मृत्युके पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्यको पढ़ने और सुननेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है!

अध्याय 163 माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा— जगन्नाथ ! श्रीकृष्ण ! आदिदेव जगत्पते। माघ मास के कृष्णपक्षमें कौन सी एकादशी होती है? उसके लिये कैसी विधि है?

तथा उसका फल क्या है? महाप्राज्ञ! कृपा करके ये सब बातें बताइये।

श्रीभगवान् बोले- नृपश्रेष्ठ! सुनो, माघ मासके कृष्णपक्षकी जो एकादशी है, वह ‘पतिला’ के नामसे विख्यात है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है। अब तुम ‘षतिला’ की पापहारिणी कथा सुनो, जिसे मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यने दाल्भ्यसे कहा था।

दाभ्यने पूछा- ब्रह्मन् मृत्युलोकमें आये हुए प्राणी प्रायः पापकर्म करते हैं। उन्हें नरकमें न जाना पड़े, इसके लिये कौन सा उपाय है? बतानेकी कृपा करें।

पुलस्त्यजी बोले- महाभाग तुमने बहुत अच्छीबात पूछी है, बतलाता हूँ; सुनो। माघ मास आनेपर मनुष्यको चाहिये कि वह नहा-धोकर पवित्र हो इन्द्रियोंको संगममें रखते हुए काम, क्रोध, अहंकार, लोभ और चुगली आदि बुराइयोंको त्याग दे देवाधिदेव भगवान्का स्मरण करके जलसे पैर धोकर भूमिपर पड़े हुए गोबरका संग्रह करे। उसमें तिल और कपास छोड़कर एक सौ आठ पिंडिकाएँ बनाये। फिर माघमें जब आर्द्रा या मूल नक्षत्र आये, तब कृष्णपक्षकी एकादशी करनेके लिये नियम ग्रहण करे। भलीभाँति स्नान करके पवित्र हो शुद्धभावसे देवाधिदेव पूजा करे। कोई भूल हो जानेपर श्रीकृष्णका नामोच्चारण करे। रातको जागरण और होम करे। चन्दन, अरगजा, कपूर, नैवेद्य आदि सामग्रीसे शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर श्रीहरिकी पूजा करे तत्पश्चात्भगवान्का स्मरण करके बारम्बार श्रीकृष्णनामका उच्चारण करते हुए कुम्हड़े, नारियल अथवा बिजौरके फलसे भगवान्‌को विधिपूर्वक पूजकर अर्घ्य दे। अन्य सब सामग्रियोंके अभाव में सौ सुपारियोंके द्वारा भी पूजन और अर्घ्यदान किये जा सकते हैं। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव।

संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ॥

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन

सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु महापुरुष पूर्वज

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं लक्ष्म्या सह जगत्पते।

(44।18-20 )

‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण। आप बड़े दयालु हैं। हम आश्रयहीन जीवोंके आप आश्रयदाता होइये। पुरुषोत्तम! हम संसार समुद्रमें डूब रहे हैं, आप हमपर प्रसन्न होइये। कमलनयन ! आपको नमस्कार है, विश्वभावन! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य महापुरुष! सबके पूर्वज ! आपको नमस्कार है। जगत्पते। आप लक्ष्मीजीके साथ मेरा दिया हुआ अर्घ्य स्वीकार करें।’

तत्पश्चात् ब्राह्मणकी पूजा करे। उसे जलका घड़ा दान करे। साथ ही छाता, जूता और वस्त्र भी दे दान करते समय ऐसा कहे- ‘इस दानके द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों। अपनी शक्तिके अनुसार श्रेष्ठ ब्राह्मणको काली गौ दान करे। द्विज श्रेष्ठ ! विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह तिलसे भरा हुआ पात्र भी दान करे। उन तिलोंके बोनेपर उनसे जितनी शाखाएँ पैदा हो सकती हैं, उतने हजार वर्षोंतक वह स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तिलसे स्नान करे, तिलका उबटन लगाये, तिलसे होम करे; तिल मिलाया हुआ जल पिये, तिलका दान करे और तिलको भोजनके काममें ले। इस प्रकार छः कामोंमें तिलका उपयोग करनेसे यह एकादशी ‘पतिला कहलाती है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है।”युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! आपने माघ मासके कृष्णपक्षकी ‘षट्तिला एकादशीका वर्णन किया। अब कृपा करके यह बताइये कि शुक्लपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है? उसकी विधि क्या है? तथा उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले – राजेन्द्र ! बतलाता हूँ, सुनो। माघ मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका नाम ‘जया’ है। वह सब पापोंको हरनेवाली उत्तम तिथि है पवित्र होनेके साथ ही पापका नाश करनेवाली है तथा मनुष्योंको भोग और मोक्ष प्रदान करती है। इतना ही नहीं, वह ब्रह्महत्या जैसे पाप तथा पिशाचत्वका भी विनाश करनेवाली है। इसका व्रत करनेपर मनुष्योंको कभी प्रेतयोनिमें नहीं जाना पड़ता। इसलिये राजन् ! प्रयत्नपूर्वक ‘जया’ नामकी एकादशीका व्रत करना चाहिये।

एक समयकी बात है, स्वर्गलोकमें देवराज इन्द्र राज्य करते थे। देवगण पारिजातवृक्षोंसे भरे हुए नन्दनवनमें अप्सराओंके साथ विहार कर रहे थे। पचास करोड़ गन्धवोंके नायक देवराज इन्द्रने स्वेच्छानुसार वनमें विहार करते हुए बड़े हर्षके साथ नृत्यका आयोजन किया। उसमें गन्धर्व गान कर रहे थे, जिनमें पुष्पदन्त, चित्रसेन तथा उसका पुत्र- ये तीन प्रधान थे। चित्रसेनकी स्त्रीका नाम मालिनी था मालिनीसे एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जो पुष्पवन्तीके नामसे विख्यात थी पुष्पदन्त गन्धर्वके एक पुत्र था, जिसको लोग माल्यवान् कहते थे। माल्यवान् पुष्पवन्तीके रूपपर अत्यन्त मोहित था ये दोनों भी इन्द्रके संतोषार्थ नृत्य करनेके लिये आये थे। इन दोनोंका गान हो रहा था, इनके साथ अप्सराएँ भी थीं। परस्पर अनुरागके कारण ये दोनों मोहके वशीभूत हो गये। चित्तमें भ्रान्ति आ गयी। इसलिये वे शुद्ध गान न गा सके। कभी ताल भंग हो जाता और कभी गीत बंद हो जाता था। इन्द्रने इस प्रमादपर विचार किया और इसमें अपना अपमानसमझकर वे कुपित हो गये। अतः इन दोनोंको शाप देते हुए बोले- ‘ओ मूर्खो! तुम दोनोंको धिक्कार है। तुमलोग पतित और मेरी आज्ञा भंग करनेवाले हो; अतः पति-पत्नीके रूपमें रहते हुए पिशाच हो जाओ।’

इन्द्रके इस प्रकार शाप देनेपर इन दोनोंके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वे हिमालय पर्वतपर चले गये और पिशाचयोनिको पाकर भयंकर दुःख भोगने लगे। शारीरिक पातकसे उत्पन्न तापसे पीड़ित होकर दोनों ही पर्वतकी कन्दराओंमें विचरते रहते थे। एक दिन पिशाचने अपनी पत्नी पिशाचीसे कहा-‘हमने कौन-सा पाप किया है, जिससे यह पिशाचयोनि प्राप्त हुई है? नरकका कष्ट अत्यन्त भयंकर है तथा पिशाचयोनि भी बहुत दुःख देने वाली है । अतः पूर्ण प्रयत्न करके पापसे बचना चाहिये।’

इस प्रकार चिन्तामग्न होकर वे दोनों दुःखके कारण सूखते जा रहे थे। दैवयोगसे उन्हें माघ मास की एकादशी तिथि प्राप्त हो गयी। ‘जया’ नामसे विख्यात तिथि, जो सब तिथियोंमें उत्तम है, आयी। उस दिन उन दोनोंने सब प्रकारके आहार त्याग दिये। जलपानतक नहीं किया। किसी जीवकी हिंसा नहीं की, यहाँतक कि फल भी नहीं खाया । निरन्तर दुःखसे युक्त होकर वे एक पीपलके समीप बैठे रहे। सूर्यास्त हो गया। उनके प्राण लेनेवाली भयंकर रात उपस्थित हुई। उन्हें नींद नहीं आयी। वे रति या और कोई सुख भी नहीं पा सके। सूर्योदय हुआ। द्वादशीका दिन आया। उन पिशाचोंके द्वारा ‘जया’ के उत्तम व्रतका पालन हो गया। उन्होंने रातमें जागरण भीकिया था। उस व्रतके प्रभावसे तथा भगवान् विष्णुकी शक्तिसे उन दोनोंकी पिशाचता दूर हो गयी। पुष्पवन्ती और माल्यवान् अपने पूर्वरूपमें आ गये। उनके हृदयमें वही पुराना स्नेह उमड़ रहा था। उनके शरीरपर पहले ही जैसे अलंकार शोभा पा रहे थे। वे दोनों मनोहर रूप धारण करके विमानपर बैठे और स्वर्गलोकमें चले गये। वहाँ देवराज इन्द्रके सामने जाकर दोनोंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें प्रणाम किया। उन्हें इस रूपमें उपस्थित देखकर इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने पूछा— ‘बताओ, किस पुण्यके प्रभावसे तुम दोनोंका पिशाचत्व दूर हुआ है। तुम मेरे शापको प्राप्त हो चुके थे, फिर किस देवताने तुम्हें उससे छुटकारा दिलाया है?’

माल्यवान् बोला – स्वामिन्! भगवान् वासुदेवकी कृपा तथा ‘जया’ नामक एकादशीके व्रतसे हमारी पिशाचता दूर हुई है। इन्द्रने कहा – तो अब तुम दोनों मेरे कहनेसे सुधापान करो। जो लोग एकादशीके व्रतमें तत्पर और भगवान् श्रीकृष्णके शरणागत होते हैं, वे हमारे भी
पूजनीय हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन् ! इस कारण एकादशीका व्रत करना चाहिये। नृपश्रेष्ठ! ‘जया’ ब्रह्महत्याका पाप भी दूर करनेवाली है। जिसने ‘जया’ का व्रत किया है, उसने सब प्रकारके दान दे दिये और सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। इस माहात्म्यके पढ़ने और सुननेसे अग्निष्टोम यज्ञका फल मिलता है।

अध्याय 164 फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपा करके बताइये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- युधिष्ठिर! एक बार नारदजीने कमलके आसनपर विराजमान होनेवाले ब्रह्माजीसे प्रश्न किया- ‘सुरश्रेष्ठ! फाल्गुनके कृष्णपक्षमें जो ‘विजया’ नामकी एकादशी होती है, कृपयाउसके पुण्यका वर्णन कीजिये।’

ब्रह्माजीने का – नारद! सुनो- ‘मैं एक उत्तम कथा सुनाता हूँ, जो पापका अपहरण करनेवाली है। यह व्रत बहुत ही प्राचीन, पवित्र और पापनाशक है। यह ‘विजया’ नामकी एकादशी राजाओंको विजय प्रदान करती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् श्रीरामचन्द्रजी चौदह वर्षोंके लिये वनमेंगये और वहाँ पंचवटीमें सीता तथा लक्ष्मणके साथ रहने लगे। वहाँ रहते समय रावणने चपलतावश विजयात्मा श्रीरामकी तपस्विनी पत्नी सीताको हर लिया। उस दुःखसे श्रीराम व्याकुल हो उठे। उस समय सीताकी खोज करते हुए वे वनमें घूमने लगे। कुछ दूर जानेपर उन्हें जटायु मिले, जिनकी आयु समाप्त हो चुकी थी। इसके बाद उन्होंने बनके भीतर कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। फिर सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता हुई। तत्पश्चात् श्रीरामके लिये वानरोकी सेना एकत्रित हुई हनुमानजीने लंकाके उद्यानमें जाकर सीताजीका दर्शन किया और उन्हें श्रीरामकी चिह्नस्वरूप मुद्रिका प्रदान की। यह उन्होंने महान् पुरुषार्थका काम किया था। वहाँसे लौटकर वे श्रीरामचन्द्रजीसे मिले और लंकाका सारा समाचार उनसे निवेदन किया। हनुमान्जीकी बात सुनकर श्रीरामने सुग्रीवकी अनुमति ले लंकाको प्रस्थान करनेका विचार किया और समुद्र के किनारे पहुँचकर उन्होंने लक्ष्मणसे कहा- ‘सुमित्रानन्दन! किस पुण्यसे इस समुद्रको पार किया जा सकता है? यह अत्यन्त अगाध और भयंकर जलजन्तुओंसे भरा हुआ है। मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता जिससे इसको सुगमतासे पार किया जा सके।’

लक्ष्मण बोले- महाराज! आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष पुरुषोत्तम हैं। आपसे क्या छिपा है ? यहाँ द्वीपके भीतर बकदाल्भ्य नामक मुनि रहते हैं। यहाँसे आधे योजनकी दूरीपर उनका आश्रम है। रघुनन्दन। उन प्राचीन मुनीश्वरके पास जाकर उन्हींसे इसका उपाय पूछिये।

लक्ष्मणकी यह अत्यन्त सुन्दर बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी महामुनि बकदाल्भ्यसे मिलनेके लिये गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मस्तक झुकाकर मुनिको प्रणाम किया। मुनि उनको देखते ही पहचान गये कि ये पुराणपुरुषोत्तम श्रीराम है, जो किसी कारणवश मानवशरीरमें अवतीर्ण हुए हैं। उनके आनेसे महर्षिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने पूछा—’ श्रीराम। आपका कैसे यहाँ आगमन हुआ ?’श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! आपकी कृपासे राक्षसों सहित लंकाको जीतनेके लिये सेनाके साथसमुद्र के किनारे आया हूँ। मुने! अब जिस प्रकार समुद्र पार किया जा सके, वह उपाय बताइये। मुझपर कृपा कीजिये ।

बकदाल्भ्यने कहा— श्रीराम ! फाल्गुन कृष्णपक्षमें जो ‘विजया’ नामकी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेसे आपकी विजय होगी। निश्चय ही आप अपनी वानरसेनाके साथ समुद्रको पार कर लेंगे। राजन्! अब इस व्रतकी फलदायक विधि सुनिये। दशमीका दिन आनेपर एक कलश स्थापित करे। वह सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीका भी हो सकता है। उस कलशको जलसे भरकर उसमें पल्लव डाल दे। उसके ऊपर भगवान् नारायणके सुवर्णमय विग्रहकी स्थापना करे। फिर एकादशीके दिन प्रात:काल स्नान करे। कलशको पुनः स्थिरतापूर्वक स्थापित करे। माला, चन्दन, सुपारी तथा नारियल आदिके द्वारा विशेषरूपसे उसका पूजन करे। कलशके ऊपर सप्तधान्य और जौ रखे गन्ध, धूप, दीप और भाँति-भाँतिके नैवेद्यसे पूजनकरे। कलशके सामने बैठकर वह सारा दिन उत्तम कथा-वार्ता आदिके द्वारा व्यतीत करे तथा रातमें भी वहाँ जागरण करे। अखण्ड व्रतकी सिद्धिके लिये श्रीका दीपक जलाये फिर द्वादशी के दिन सूर्योदय होनेपर उस कलशको किसी जलाशयके समीप नदी, झरने या पोखरेके तटपर ले जाकर स्थापित करे और उसकी विधिवत् पूजा करके देव-प्रतिमासहित उस कलशको वेदवेत्ता ब्राह्मणके लिये दान कर दे। महाराज ! कलशके साथ ही और भी बड़े-बड़े दान देने चाहिये। श्रीराम आप अपने यूथपतियोंके साथ इसी विधिसे प्रयत्नपूर्वक ‘विजया’ का व्रत कीजिये इससे आपकी विजय होगी।

ब्रह्माजी कहते हैं- नारद! यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने मुनिके कथनानुसार उस समय ‘विजया’ एकादशीका व्रत किया। उस व्रतके करनेसे श्रीरामचन्द्रजी विजयी हुए। उन्होंने संग्राममें रावणको मारा, लंकापर विजय पायी और सीताको प्राप्त किया। बेटा! जो मनुष्य इस विधिसे व्रत करते हैं, उन्हें इस लोकमें विजय प्राप्त होती है और उनका परलोक भी अक्षय बना रहता है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— युधिष्ठिर। इस कारण ‘विजया’ का व्रत करना चाहिये। इस प्रसंगको पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। युधिष्ठिरने कहा— श्रीकृष्ण ! मैंने विजया एकादशीका माहात्म्य, जो महान् फल देनेवाला है, सुन लिया। अब फाल्गुन शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम और माहात्म्य बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाभाग धर्मनन्दन! सुनो तुम्हें इस समय वह प्रसंग सुनाता हूँ, जिसे राजा मान्धाताके पूछने पर महात्मा वसिष्ठने कहा था। फाल्गुन शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम ‘आमलकी’ है। इसका पवित्र व्रत विष्णुलोककी प्राप्ति करानेवाला है। मान्धाताने पूछा-द्विजश्रेष्ठ! यह ‘आमलकी’ कब उत्पन्न हुई, मुझे बताइये। वसिष्ठजीने कहा- महाभाग ! सुनो-पृथ्वीपर’आमलकी’ की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह बताता हूँ। आमलकी महान् वृक्ष है, जो सब पापका नाश करनेवाला है भगवान् विष्णुके थूकनेपर उनके मुखसे चन्द्रमाके समान कान्तिमान् एक बिन्दु प्रकट हुआ। वह बिन्दु पृथ्वीपर गिरा। उसीसे आमलकी (आँवले) – का महान् वृक्ष उत्पन्न हुआ। यह सभी वृक्षोंका आदिभूत कहलाता है। इसी समय समस्त प्रजाकी सृष्टि करनेके लिये भगवान्ने ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। उन्हींसे इन प्रजाओंकी प्रजाओंकी सृष्टि हुई। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षियोंको ब्रह्माजीने जन्म दिया। उनमेंसे देवता और ऋषि उस स्थानपर आये, जहाँ विष्णुप्रिया आमलकीका वृक्ष था। महाभाग ! उसे देखकर देवताओंको बड़ा विस्मय हुआ। वे एक दूसरेपर दृष्टिपात करते हुए उत्कण्ठापूर्वक उस वृक्षकी ओर देखने लगे और खड़े-खड़े सोचने लगे कि प्लक्ष (पाकर) आदि वृक्ष तो पूर्वकल्पकी ही भाँति हैं, जो सब-के-सब हमारे परिचित हैं, किन्तु इस वृक्षको हम नहीं जानते उन्हें इस प्रकार चिन्ता करते देख आकाशवाणी हुई- ‘महर्षियो! यह सर्वश्रेष्ठ आमलकीका वृक्ष है, जो विष्णुको प्रिय है। इसके स्मरणमात्रसे गोदानका फल मिलता है। स्पर्श करनेसे इससे दूना और फल भक्षण करनेसे तिगुना पुण्य प्राप्त होता है। इसलिये सदा प्रयत्नपूर्वक आमलकीका सेवन करना चाहिये। यह सब पापको हरनेवाला वैष्णव वृक्ष बताया गया है। इसके मूलमें विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्धर्मे परमेश्वर भगवान् रुद्र, शाखाओंमें मुनि, टहनियोंमें देवता, पत्तोंमें वसु, फूलोंमें मरुद्गण तथा फलोंमें समस्त प्रजापति वास करते हैं। आमलकी सर्वदेवमयी बतायी गयी है। * अतः विष्णुभक्त पुरुषके लिये यह परम पूज्य है।’

ऋषि बोले- [ अव्यक्त स्वरूपसे बोलनेवाले महापुरुष!] हमलोग आपको क्या समझें- आप कौन हैं? देवता है या कोई और? हमें ठीक-ठीक बताइये।आकाशवाणी हुई— जो सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता और समस्त भुवनोंके स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान् पुरुष भी कठिनतासे देख पाते हैं, वही सनातन विष्णु मैं हूँ। देवाधिदेव भगवान् विष्णुका कथन सुनकर उन ब्रह्मकुमार महर्षियोंके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ वे आदि अन्तरहित भगवान्‌की स्तुति करने लगे।

ऋषि बोले सम्पूर्ण भूतोंके आत्मभूत आत्मा एवं परमात्माको नमस्कार है। अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले अच्युतको नित्य प्रणाम है। अन्तरहित परमेश्वरको बारम्बार प्रणाम है। दामोदर, कवि (सर्वज्ञ) और यज्ञेश्वरको नमस्कार है। मायापते ! आपको प्रणाम है। आप विश्वके स्वामी हैं; आपको नमस्कार है।

ऋषियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले-महर्षियो। तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ?’

ऋषि बोले- भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हमलोगों के हितके लिये कोई ऐसा व्रत बतलाइये जो स्वर्ग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला हो।

श्रीविष्णु बोले- महर्षियो। फाल्गुन शुक्लपक्षमें यदि पुष्य नक्षत्रसे युक्त द्वादशी हो तो वह महान् पुण्य देनेवाली और बड़े-बड़े पाठकोंका नाश करनेवाली होती है। द्विज उसमें जो विशेष कर्तव्य है, उसको सुनो। आमलकी एकादशीमें आँवलेके वृक्षके पास जाकर वहाँ रात्रिमें जागरण करना चाहिये। इससे मनुष्य सब पापोंसे छूट जाता और सहस्र गोदानोंका फल प्राप्त करता है। विप्रगण! यह व्रतोंमें उत्तम व्रत है, जिसे मैंने तुमलोगोंको बताया है।

ऋषि बोले- भगवन्! इस व्रतकी विधि बतलाइये। यह कैसे पूर्ण होता है? इसके देवता, नमस्कार और मन्त्र कौन-से बताये गये हैं? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है? पूजनकी कौन सी विधि है तथा उसके लिये मन्त्र क्या है? इन सबबातोंका यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये।

भगवान् विष्णुने कहा-द्विजवरो! इस व्रतकी जो उत्तम विधि है, उसको श्रवण करो! एकादशीको प्रातः काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘हे पुण्डरीकाक्ष! हे अच्युत! मैं एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरणमें रखें।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, मर्यादा भंग करनेवाले तथा गुरुपत्नीगामी, मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। अपने मनको वशमें रखते हुए नदीमें, पोखरे, कुएँपर अथवा घरमें ही स्नान करे। स्नानके पहले शरीरमें मिट्टी लगाये।

मृत्तिका लगानेका मन्त्र

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे।

मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम् ॥

‘वसुन्धरे तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था। मृत्तिके मैंने करोड़ों जन्मोंमें जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापको हर लो।’

स्नान-मन्त्र

त्वं मातः सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।

स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नमः ॥

स्नातोऽहं सर्वतीर्थेषु हृदप्रस्त्रवणेषु च।

नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत् ॥

(47।44-45) ‘जलकी अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतोंके लिये जीवन हो। वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जातिके जीवोंका भी रक्षक है। तुम रसोंकी स्वामिनी हो। तुम्हें नमस्कार है आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरोंमें स्नान कर चुका। मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानोंका फल देनेवाला हो।’ विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह परशुरामजी की सोनेकी प्रतिमा बनवाये। प्रतिमा अपनी शक्ति औरधनके अनुसार एक या आधे माशे सुवर्णकी होनी चाहिये। स्नानके पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे। इसके बाद सब प्रकारकी सामग्री लेकर आँवले के वृक्षके पास जाय वहाँ वृक्षके चारों ओरकी जमीन झाड़-बुहार, लीप-पोतकर शुद्ध करे। शुद्ध की हुई भूमिमें मन्त्रपाठपूर्वक जलसे भरे हुए नवीन कलशकी स्थापना करे। कलशमें पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे। श्वेतचन्दनसे उसको चर्चित करे। कण्ठमें फूलकी माला पहनाये। सब प्रकारके धूपकी सुगन्ध फैलाये। जलते हुए दीपककी श्रेणी सजाकर रखे। तात्पर्य यह कि सब ओरसे सुन्दर एवं मनोहर दृश्य उपस्थित करे पूजाके लिये नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे। कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे दिव्य लाजों (खीलों) से भर दे। फिर उसके ऊपर सुवर्णमय परशुरामजीकी ‘विशोकाय नमः कहकर उनके चरणोंकी, ‘विश्वरूपिणे नमः’ से दोनों घुटनोंकी, ‘उग्राय नमः’ से जाँघोंकी, ‘दामोदराय नमः’ से कटिभागकी, ‘पद्मनाभाय नमः’ से उदरकी, ‘श्रीवत्सधारिणे नमः’ से वक्षःस्थलकी, ‘चक्रिणे नमः’ से बायी बाँकी, ‘गदिने नमः’ से दाहिनी बाँहकी, ‘वैकुण्ठाय नमः’ से कण्ठकी, ‘यज्ञमुखाय नमः’ से मुखकी, ‘विशोकनिधये नमः – से नासिकाकी, ‘वासुदेवाय नमः’ से नेत्रोंकी, ‘वामनाय नमः’ से ललाटकी, ‘सर्वात्मने नमः’ से सम्पूर्ण अंगों तथा मस्तककी पूजा करे। ये ही पूजाके मन्त्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे शुद्ध फलके द्वारा देवाधिदेव परशुरामजीको अर्घ्य प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोऽस्तु ते

गृहाणार्थ्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥

(47।57)

‘देवदेवेश्वर जमदग्निनन्दन श्रीविष्णुस्वरूप परशुरामजी! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आँवले के फलके साथ दिया हुआ मेरा यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये।’

तदनन्तर भक्तियुक्त चित्तसे जागरण करे। नृत्य, संगीत, बाह्य, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णुसम्बन्धिनी कथा वार्ता आदिके द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे। उसके बाद भगवान् विष्णुके नाम ले-लेकर आमलकी वृक्षकी परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे। फिर सबेरा होनेपर श्रीहरिकी आरती करे। ब्राह्मणकी पूजा करके वहाँकी सब सामग्री उसे निवेदन कर दे। परशुरामजीका कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि ‘परशुरामजी स्वरूपमें भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न हाँ।’ तत्पश्चात् आमलकीका स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करनेके बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये। तदनन्तर कुटुम्बियोंके साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे। ऐसा करनेसे जो पुण्य होता है, वह सब बतलाता हूँ सुनो। सम्पूर्ण तीर्थोके सेवनसे जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकारके दान देनेसे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधिके पालनसे सुलभ होता है। समस्त यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है; इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। यह व्रत सब व्रतोंमें उत्तम है, जिसका मैंने तुमसे पूरा-पूरा वर्णन किया है।

वसिष्ठजी कहते हैं- महाराज! इतना कहकर देवेश्वर भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियोंने उक्त व्रतका पूर्णरूपसे पालन किया। नृपश्रेष्ठ। इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्यको सब पापोंसे मुक्त करनेवाला है।

अध्याय 165 चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! फाल्गुन शुक्लपक्षकी आमलकी एकादशीका माहात्म्य मैंने सुना। अब चैत्र कृorrent] एकादशीका क्या नाम है, यह बताने की कृपा कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजेन्द्र ! सुनो-मैं = इस विषय एक पापनाशक उपाख्यान सुनाऊँगा, जिसे चक्रवर्ती नरेश मान्धाताके पूछनेपर महर्षि लोमशने कहा था।

मान्धाता बोले- भगवन्। में लोगोंके हितकी इच्छासे यह सुनना चाहता हूँ कि चैत्र मासके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? उसकी क्या विधि है तथा उससे किस फलकी प्राप्ति होती है? कृपया ये सब बातें बताइये।

लोमशजीने कहा- नृपश्रेष्ठ! पूर्वकालकी बात है, अप्पाराओंसे सेवित चैत्ररथ नामक वनमें, जहाँ गन्धयोंकी कन्याएँ अपने किंकरोंके साथ बाजे बजाती हुई विहार करती हैं, मंजुघोषा नामक अप्सरा मुनिवर मेधावीको मोहित करनेके लिये गयी। वे महर्षि उसी वनमें रहकर ग्रहाचर्य का पालन करते थे। मंजुघोषा मुनिके भयसे आश्रमसे एक कोस दूर ही ठहर गयी और सुन्दर ढंगसे वीणा बजाती हुई मधुर गीत गाने लगी। मुनिश्रेष्ठ मेधावी घूमते हुए उधर जा निकले और उस सुन्दरी अप्सराको इस प्रकार गान करते देख सेनासहित कामदेवसे परास्त होकर बरबस मोहके वशीभूत हो गये। मुनिकी ऐसी अवस्था देख मंजुघोषा उनके समीप आयी और वीणा नीचे रखकर उनका आलिंगन करने लगी। मेधावी भी उसके साथ रमण करने लगे। कामवश रमण करते हुए उन्हें रात और दिनका भी भान न रहा। इस प्रकार मुनिजनोचित सदाचारका लोप करके अप्सराके साथ रमण करते उन्हें बहुत दिन व्यतीत हो गये। मंजुघोषा देवलोक जाने को तैयार हुई। जाते समय उसने मुनिले मेधावीसे कहा- ‘ब्रहान्। अब मुझे अपने देश जानेकी आज्ञा दीजिये।’मेधावी बोले- देवी! जबतक सबेरेकी सन्ध्या न हो जाय तबतक मेरे ही पास ठहरो ।

अप्सराने कहा – विप्रवर! अबतक न जाने कितनी सन्ध्या चली गयी मुझपर कृपा करके बीते हुए समयका विचार तो कीजिये।

लोमशजी कहते हैं- राजन्! अप्सराकी बात सुनकर मेधावीके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उस समय उन्होंने बीते हुए समयका हिसाब लगाया तो मालूम हुआ कि उसके साथ रहते सत्तावन वर्ष हो गये। उसे अपनी तपस्याका विनाश करनेवाली जानकर | मुनिको उसपर बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने शाप देते हुए कहा- ‘पापिनी ! तू पिशाची हो जा।’ मुनिके शापसे दग्ध होकर वह विनयसे नतमस्तक हो बोली ‘विप्रवर! मेरे शापका उद्धार कीजिये। सात वाक्य बोलने या सात पद साथ-साथ चलनेमात्र से ही सत्पुरुषोंके साथ मैत्री हो जाती है। ब्रह्मन्! मैंने तो आपके साथ अनेक वर्ष व्यतीत किये हैं; अतः स्वामिन्! मुझपर कृपा कीजिये।’

मुनि बोले- भद्रे मेरी बात सुनो- यह शापसे उद्धार करनेवाली है। क्या करूं? तुमने मेरी बहुत बड़ी तपस्या नष्ट कर डाली है। चैत्र कृष्णपक्षमें जो शुभ एकादशी आती है उसका नाम है ‘पापमोचनी’। वह सब पापका क्षय करनेवाली है। सुन्दरी ! उसीका व्रत करनेपर तुम्हारी पिशाचता दूर होगी।

ऐसा कहकर मेधावी अपने पिता मुनिवर च्यवनके आश्रमपर गये। उन्हें आया देख च्यवनने पूछा—’बेटा! यह क्या किया ? तुमने तो अपने पुण्यका नाश कर डाला !”

मेधावी बोले- पिताजी मैंने अप्सराके साथ रमण करनेका पातक किया है। कोई ऐसा प्रायश्चित्त बताइये, जिससे पापका नाश हो जाय।

व्यवनने कहा- बेटा! चैत्र कृष्णपक्ष जो पापमोचनी एकादशी होती है, उसका व्रत करनेपर पापराशिका विनाश हो जायगा।पिताका यह कथन सुनकर मेधावीने उस व्रतका अनुष्ठान किया। इससे उनका पाप नष्ट हो गया और वे पुनः तपस्यासे परिपूर्ण हो गये। इसी प्रकार मंजुघोषाने भी इस उत्तम व्रतका पालन किया। ‘पापमोचनी’ का व्रत करनेके कारण वह पिशाच योनिसे मुक्त हुई और दिव्य रूपधारिणी श्रेष्ठ अप्सरा होकर स्वर्गलोकमें चली गयी। राजन्! जो श्रेष्ठ मनुष्य पापमोचनी एकादशीका व्रत करते हैं, उनका सारा पाप नष्ट हो जाता है। इसको पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, सुरापान और गुरुपत्नीगमन करनेवाले महापातकी भी इस व्रतके करनेसे पापमुक्त हो जाते हैं। यह व्रत बहुत पुण्यमय है।

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! आपको नमस्कार है। अब मेरे सामने यह बताइये कि चैत्र शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! एकाग्रचित्त होकर यह पुरातन कथा सुनो, जिसे वसिष्ठजीने दिलीपके पूछने पर कहा था l

दिलीपने पूछा- भगवन्! मैं एक बात सुनना चाहता हूँ। चैत्रमासके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है?

वसिष्ठजी बोले – राजन् चैत्र शुक्लपक्षमें ‘कामदा’ नामकी एकादशी होती है। वह परम पुण्यमयी है। पापरूपी ईंधनके लिये तो वह दावानल ही है। प्राचीन कालकी बात है, नागपुर नामका एक सुन्दर नगर था, जहाँ सोनेके महल बने हुए थे। उस नगरमें पुण्डरीक आदि महा भयंकर नाग निवास करते थे। पुण्डरीक नामका नाग उन दिनों वहाँ राज्य करता था। गन्धर्व, किन्नर और अप्सराएँ भी उस नगरीका सेवन करती थीं। वहाँ एक श्रेष्ठ अप्सरा थी, जिसका नाम ललिता था। उसके साथ ललित नामवाला गन्धर्व भी था। वे दोनों पति-पत्नीके रूपमें रहते थे। दोनों ही परस्पर कामसे पीड़ित रहा करते थे। ललिताके हृदय में सदा पतिकी ही मूर्ति बसी रहती थी और ललितके हृदयमें सुन्दरी ललिताका नित्य निवास था। एकदिनकी बात है, नागराज पुण्डरीक राजसभामें बैठकर मनोरंजन कर रहा था। उस समय ललितका गान हो रहा था किन्तु उसके साथ उसकी प्यारी ललिता नहीं थी। गाते-गाते उसे ललिताका स्मरण हो आया। अतः उसके पैरोंकी गति रुक गयी और जीभ लड़खड़ाने लगी। नागों में श्रेष्ठ कर्कोटकको ललितके मनका सन्ताप ज्ञात हो गया; अतः उसने राजा पुण्डरीकको उसके पैरोंकी गति रुकने एवं गानमें त्रुटि होनेकी बात बता दी। कर्कोटककी बात सुनकर नागराज पुण्डरीककी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने गाते हुए कामातुर ललितको शाप दिया- ‘दुर्बुद्धे! तू मेरे सामने गान करते समय भी पत्नीके वशीभूत हो गया, इसलिये राक्षस हो जा।’

महाराज पुण्डरीकके इतना कहते ही वह गन्धर्व राक्षस हो गया। भयंकर मुख, विकराल आँखें और देखनेमात्र से भय उपजानेवाला रूप ऐसा राक्षस होकर वह कर्मका फल भोगने लगा। ललिता अपने पतिकी विकराल आकृति देख मन ही मन बहुत चिन्तित हुई भारी दुःखसे कष्ट पाने लगी सोचने लगी, ‘क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पति पापसे कष्ट पा रहे हैं।’ वह रोती हुई घने जंगलोंगें पतिके पीछे-पीछे घूमने लगी। वनमें उसे एक सुन्दर आश्रम दिखायी दिया, जहाँ एक शान्त मुनि बैठे हुए थे। उनका किसी भी प्राणीके साथ वैर-विरोध नहीं था ललिता शीघ्रताके साथ वहाँ गयी और मुनिको प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हुई। मुनि बड़े दयालु थे। उस दुःखिनीको देखकर वे इस प्रकार बोले- ‘शुभे तुम कौन हो? कहाँसे यहाँ आयी हो? मेरे सामने सच सच बताओ।’

ललिताने कहा- महामुने! वीरधन्वा नामवाले एक गन्धर्व हैं। मैं उन्हीं महात्माकी पुत्री हूँ मेरा नाम ललिता है। मेरे स्वामी अपने पाप-दोषके कारण राक्षस हो गये हैं। उनकी यह अवस्था देखकर मुझे चैन नहीं है। ब्रह्मन् इस समय मेरा जो कर्तव्य हो, वह बताइये। विप्रवर जिस पुण्यके द्वारा मेरे पति राक्षसभावसे छुटकारा पा जायँ, उसका उपदेश कीजिये।’ ऋषि बोले- भद्रे इस समय चैत्रमासकेशुक्लपक्षकी ‘कामदा’ नामक एकादशी तिथि है, जो सब पापको हरनेवाली और उत्तम है। तुम उसीका विधि पूर्वक व्रत करो और इस व्रतका जो पुण्य हो, उसे अपने स्वामीको दे डालो। पुण्य देनेपर क्षणभरमें ही उसकेशापका दोष दूर हो जायगा ।

राजन्! मुनिका यह वचन सुनकर ललिताको बड़ा हर्ष हुआ। उसने एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन उन ब्रह्मर्षिके समीप ही भगवान् वासुदेवके [ श्रीविग्रहके] समक्ष अपने पतिके उद्धारके लिये यह वचन कहा- ‘मैंने जो यह कामदा एकादशीका उपवासव्रत किया है, उसके पुण्यके प्रभावसे मेरे पतिका राक्षस भाव दूर हो जाय।’

वसिष्ठजी कहते हैं- ललिताके इतना कहते ही उसी क्षण ललितका पाप दूर हो गया। उसने दिव्य देह धारण कर लिया। राक्षस भाव चला गया और पुनः गन्धर्वत्वकी प्राप्ति हुई। नृपश्रेष्ठ! वे दोनों पति पत्नी ‘कामदा’ के प्रभावसे पहलेकी अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप धारण करके विमानपर आरूढ़ हो अत्यन्त शोभा पाने लगे। यह जानकर इस एकादशीके व्रतका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। मैंने लोगोंके हितके लिये तुम्हारे सामने इस व्रतका वर्णन किया है। कामदा एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषोंका भी नाश करनेवाली है। राजन्! इसके पढ़ने और सुननेसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है।

अध्याय 166 वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! आपको नमस्कार है। वैशाख मासके कृष्णपक्ष किस नामकी एकादशी होती है? उसकी महिमा बताइये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् वैशाख कृष्णपक्षकी एकादशी ‘वरूथिनी’ के नामसे प्रसिद्ध है। यह इस लोक और परलोकमें भी सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। ‘वरूथिनी’ के व्रतसे ही सदा सौख्यका लाभ और पापकी हानि होती है। यह समस्त लोकोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। ‘वरूथिनी’ के ही व्रतसे मान्धाता तथा धुन्धुमार आदि अन्य अनेक राजा स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं। जो दस हजार वर्षोंतक तपस्या करता है, उसके समान ही फल ‘वरूथिनी’ के व्रतसे भीमनुष्य प्राप्त कर लेता है। नृपश्रेष्ठ ! घोड़ेके दानसे हाथीका दान श्रेष्ठ है। भूमिदान उससे भी बड़ा है। भूमिदानसे भी अधिक महत्त्व तिलदानका है। तिलदानसे बढ़कर स्वर्णदान और स्वर्णदानसे बढ़कर अन्नदान है; क्योंकि देवता, पितर तथा मनुष्योंको अन्नसे ही तृप्ति होती है। विद्वान् पुरुषोंने कन्यादानको भी अन्नदानके ही समान बताया है। कन्यादानके तुल्य ही धेनुका दान है – यह साक्षात् भगवान्का कथन है। ऊपर बताये हुए सब दानोंसे बड़ा विद्यादान है। मनुष्य वरूथिनी एकादशीका व्रत करके विद्यादानका भी फल प्राप्त कर लेता है। जो लोग पापसे मोहित होकर कन्याके धनसे जीविका चलाते हैं, वे पुण्यका क्षय होनेपर यातनामय नरकमेंजाते हैं। अतः सर्वथा प्रयत्न करके कन्याके धनसे बचना चाहिये उसे अपने काममें नहीं लाना चाहिये। जो अपनी शक्तिके अनुसार आभूषणोंसे विभूषित करके पवित्रभावसे कन्याका दान करता है, उसके पुण्यकी संख्या बताने में चित्रगुप्त भी असमर्थ हैं। वरूथिनी एकादशी करके भी मनुष्य उसीके समान फल प्राप्त करता है। व्रत करनेवाला वैष्णव पुरुष दशमी तिथिको काँस, उड़द, मसूर, चना, कोदो, शाक, मधु, दूसरेका अन्न, दो बार भोजन तथा मैथुन-इन दस वस्तुओंका परित्याग कर दे। एकादशीको जुआ खेलना, नींद लेना, पान खाना, दाँतुन करना, दूसरेकी निन्दा करना, चुगली खाना, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा असत्य भाषण- इन ग्यारह बातोंको त्याग दे। द्वादशीको काँस, उड़द, शराब, मधु, तेल, पतितोंसे वार्तालाप, व्यायाम परदेशगमन, दो बार भोजन, मैथुन, बैलकी पीठपर सवारी और मसूर इन बारह वस्तुओंका त्याग करे। राजन् ! इस विधिसे वरूथिनी एकादशी की जाती है। रातको जागरण करके जो भगवान् मधुसूदनका पूजन करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होते हैं। अतः पापभीरु मनुष्योंको पूर्ण प्रयत्न करके इस एकादशीका व्रत करना चाहिये। यमराजसे डरनेवाला मनुष्य अवश्य ‘वरूथिनी’ का व्रत करे। राजन् ! इसके पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है।युधिष्ठिरने पूछा – जनार्दन ! वैशाख मासके शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? उसका क्या फल होता है? तथा उसके लिये कौन-सी विधि है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- महाराज! पूर्वकालमें परम बुद्धिमान् श्रीरामचन्द्रजीने महर्षि वसिष्ठसे यही बात पूछी थी, जिसे आज तुम मुझसे पूछ रहे हो।

श्रीरामने कहा- भगवन्! जो समस्त पापका क्षय तथा सब प्रकारके दुःखोंका निवारण करनेवाला व्रतोंमें उत्तम व्रत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ।

वसिष्ठजी बोले- श्रीराम ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। मनुष्य तुम्हारा नाम लेनेसे ही सब पापोंसे शुद्ध हो जाता है। तथापि लोगोंके हितकी इच्छासे मैं पवित्रोंमें पवित्र उत्तम व्रतका वर्णन करूँगा। वैशाख मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका नाम मोहिनी है। वह सब पापको हरनेवाली और उत्तम है। उसके व्रतके प्रभावसे मनुष्य मोहजाल तथा पातक समूहसे छुटकारा पा जाते हैं।

सरस्वती नदीके रमणीय तटपर भद्रावती नामकी सुन्दर नगरी है। वहाँ धृतिमान् नामक राजा, जो चन्द्र वंशमें उत्पन्न और सत्यप्रतिज्ञ थे, राज्य करते थे। उसी नगरमें एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्यसे परिपूर्ण और समृद्धिशाली था। उसका नाम था धनपाल। वह सदा पुण्यकर्ममें ही लगा रहता था। दूसरोंके लिये पाँसला कुआँ मठ, बगीचा, पोखरा और घर बनवायाकरता था। भगवान् श्रीविष्णुकी भक्तिमें उसका हार्दिक अनुराग था। वह सदा शान्त रहता था। उसके पाँच पु थे- सुमना, द्युतिमान्, मेधावी, सुकृत तथा धृष्टबुद्धि । धृष्टबुद्धि पाँचवाँ था। वह सदा बड़े-बड़े पापोंमें ही संलग्न रहता था । जुए आदि दुर्व्यसनोंमें उसकी बड़ी आसक्ति थी। वह वेश्याओंसे मिलनेके लिये लालायित रहता था। उसकी बुद्धि न तो देवताओंके पूजनमें लगती थी और न पितरों तथा ब्राह्मणोंके सत्कारमें। वह दुष्टात्मा अन्यायके मार्गपर चलकर पिताका धन बरबाद किया करता था। एक दिन वह वेश्याके गलेमें बाँह डाले चौराहेपर घूमता देखा गया। तब पिताने उसे घरसे निकाल दिया तथा बन्धु बान्धवोंने भी उसका परित्याग कर दिया। अब वह दिन-रात दुःख और शोक में डूबा तथा कष्ट-पर-कष्ट उठाता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। एक दिन किसी पुण्यके उदय होनेसे वह महर्षि कौण्डिन्यके आश्रमपर जा पहुँचा। वैशाखका महीना था। तपोधन कौण्डिन्यगंगाजीमें स्नान करके आये थे । धृष्टबुद्धि शोकके भारसे पीड़ित हो मुनिवर कौण्डिन्यके पास गया और हाथ जोड़ सामने खड़ा होकर बोला- ‘ब्रह्मन् ! द्विजश्रेष्ठ ! मुझपर दया करके कोई ऐसा व्रत बताइये, जिसके पुण्यके प्रभावसे मेरी मुक्ति हो ।’

कौण्डिन्य बोले- वैशाखके शुक्लपक्षमें मोहिनी नामसे प्रसिद्ध एकादशीका व्रत करो। मोहिनीको उपवास करनेपर प्राणियोंके अनेक जन्मोंके किये हुए मेरुपर्वत-जैसे महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।

वसिष्ठजी कहते हैं— श्रीरामचन्द्र ! मुनिका यह वचन सुनकर धृष्टबुद्धिका चित्त प्रसन्न हो गया। उसने कौण्डिन्यके उपदेशसे विधिपूर्वक मोहिनी एकादशीका व्रत किया। नृपश्रेष्ठ! इस व्रतके करनेसे वह निष्पाप हो गया और दिव्य देह धारणकर गरुड़पर आरूढ़ हो सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित श्रीविष्णुधामको चला गया। इस प्रकार यह मोहिनीका व्रत बहुत उत्तम है। इसके पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।

अध्याय 167 ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन ज्येष्ठके कृष्णपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? मैं उसका माहात्म्य सुनना चाहता हूँ। उसे बतानेकी कृपा कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्। तुमने सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये बहुत उत्तम बात पूछी है। राजेन्द्र ! इस एकादशीका नाम ‘अपरा’ है। यह बहुत पुण्य प्रदान करनेवाली और बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाली है। ब्रह्महत्यासे दबा हुआ, गोत्रकी हत्या करनेवाला, गर्भस्थ बालकको मारनेवाला, परनिन्दक तथा परस्त्रीलम्पट पुरुष भी अपरा एकादशीके सेवनसे निश्चय ही पापरहित हो जाता है जो झूठी गवाही देता, माप-तोलमें धोखा देता, बिना जाने ही नक्षत्रोंकी गणना करता और कूटनीतिसे आयुर्वेदका ज्ञाता बनकर वैद्यका काम करता है-ये सब नरकमें निवास करनेवाले प्राणी हैं। परन्तु अपरा एकादशीके सेवनसे ये भी पापरहित हो जाते हैं। यदि क्षत्रिय क्षात्रधर्मका परित्याग करके युद्धसे भागताहै. तो वह क्षत्रियोचित धर्मसे भ्रष्ट होनेके कारण घोर नरकमें पड़ता है। जो शिष्य विद्या प्राप्त करके स्वयं ही गुरुकी निन्दा करता है, वह भी महापातकौसे युक्त होकर भयंकर नरकमें गिरता है। किन्तु अपरा एकादशीके सेवनसे ऐसे मनुष्य भी सद्गतिको प्राप्त होते हैं।

माघमें जब सूर्य मकरराशिपर स्थित हों, उस समय प्रयागमें स्नान करनेवाले मनुष्योंको जो पुण्य होता है, काशीमें शिवरात्रिका व्रत करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, गयामें पिण्डदान करके पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला पुरुष जिस पुण्यका भागी होता है, बृहस्पति सिंहराशिपर स्थित होनेपर गोदावरीमें स्नान करनेवाला मानव जिस फलको प्राप्त करता है, बदरिकाश्रमकी यात्राके समय भगवान् केदारके दर्शन से तथा बदरीतीर्थके सेवनसे जो पुण्य फल उपलब्ध होता है तथा सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में दक्षिणासहित यज्ञ करके हाथी, घोड़ा और सुवर्ण दान करनेसे जिसफलकी प्राप्ति होती है; अपरा एकादशीके सेवनसे भी मनुष्य वैसे ही फल प्राप्त करता है। ‘अपरा’ को उपवास करके भगवान् वामनकी पूजा करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। इसको पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।

युधिष्ठिरने कहा- जनार्दन ! ‘अपरा’ का सारा माहात्म्य मैंने सुन लिया, अब ज्येष्ठके शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो उसका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यासजी करेंगे; क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ और वेद-वेदांगोंके पारंगत विद्वान् हैं।

तब वेदव्यासजी कहने लगे—दोनों ही पक्षोंकी एकादशियोंको भोजन न करे। द्वादशीको स्नान आदि से पवित्र हो फूलोंसे भगवान् केशवकी पूजा करके नित्यकर्म समाप्त होनेके पश्चात् पहले ब्राह्मणोंको भोजन देकर अन्तमें स्वयं भोजन करे। राजन् ! जननाशौच और मरणाशौचमें भी एकादशीको भोजन नहीं करना चाहिये यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान्पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशीको कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि ‘भीमसेन! तुम भी एकादशीको न खाया करो।’ किन्तु मैं इन लोगोंसे यही कह दिया करता हूँ कि ‘मुझसे भूख नहीं सही जायगी।’

भीमसेनकी बात सुनकर व्यासजीने कहा यदि तुम्हें स्वर्गलोककी प्राप्ति अभीष्ट है और नरकको दूषित समझते हो तो दोनों पक्षोंकी एकादशीको भोजन न करना।

भीमसेन बोले- महाबुद्धिमान् पितामह। मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूँ एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता। फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूँ। मेरे उदरमें वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है; अतः जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शान्त होती है। इसलिये महामुने! मैं वर्षभरमें केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ; जिससे स्वर्गकी प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करनेसे मैं कल्याणका भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचितरूपसे पालन करूँगा।

व्यासजीने कहा- भीम! ज्येष्ठ मासमें सूर्य वृष राशिपर हों या मिथुनराशिपर शुक्लपक्षमें जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करनेके लिये मुखमें जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर और किसी प्रकारका जल विद्वान् पुरुष मुखमें न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशीको सूर्योदयसे लेकर दूसरे दिनके सूर्योदयतक मनुष्य जलका त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशीको निर्मल प्रभातकालमें स्नान करके ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक जल और सुवर्णका दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणोंके साथ भोजन करे। वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशीके सेवनसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है; इसमेंतनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् केशवने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरणमें आ जाय और एकादशीको निराहार रहे तो वह सब पापोंसे छूट जाता है।’

एकादशीव्रत करनेवाले पुरुषके पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अन्तकालमें पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाववाले हाथमें सुदर्शन धारण करनेवाले और मनके समान वेगशाली विष्णुदूत आकर इस वैष्णव पुरुषको भगवान् विष्णुके धाममें ले जाते हैं। अतः निर्जला एकादशीको पूर्ण यत्न करके उपवास करना चाहिये। तुम भी सब पापोंकी शान्तिके लिये यत्नके साथ उपवास और श्रीहरिका पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरुपर्वतके बराबर भी महान् पाप किया हो तो वह सब एकादशीके प्रभावसे भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जलके नियमका पालन करता है, वह पुण्यका भागी होता है, उसे एक-एक पहरमें कोटि कोटि स्वर्णमुद्रा दान करनेका फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशीके दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान् श्रीकृष्णका कथन है। निर्जला एकादशीको विधिपूर्वक उत्तम रीतिसे उपवास करके मानव वैष्णवपदको प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशीके दिन अन्न खाता है, वह पाप भोजन करता है। इस लोकमें वह चाण्डालके समान है और मरनेपर दुर्गतिको प्राप्त होता है।

जो ज्येष्ठके शुक्लपक्षमें एकादशीको उपवास करके दान देंगे, वे परमपदको प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशीको उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होनेपर भी सब पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। कुन्तीनन्दन निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालुस्त्री-पुरुषोंके लिये जो विशेष दान और कर्तव्य विहित है, उसे सुनो-उस दिन जलमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका पूजन और जलमयी धेनुका दान करना चाहिये। अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनुका दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँतिके मिष्टान्नद्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणोंको संतुष्ट करना चाहिये। ऐसा करनेसे ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होनेपर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं जिन्होंने शम, दम और दानमें प्रवृत्त हो श्रीहरिकी पूजा और रात्रिमें जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशीका व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियोंको और आनेवाली सौ पीढ़ियोंको भगवान् वासुदेवके परम धाममें पहुँचा दिया है। निर्जला एकादशीके दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिये। जो श्रेष्ठ एवं सुपात्र ब्राह्मणको जूता दान करता है, वह सोनेके विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो इस एकादशीको महिमाको भक्तिपूर्वक सुनता तथा जो भक्तिपूर्वक उसका वर्णन करता है, वे दोनों स्वर्गलोकमें जाते हैं। चतुर्दशीयुक्त अमावास्याको सूर्यग्रहणके समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फलको प्राप्त करता है, वही इसके श्रवणसे भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिये कि ‘मैं भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये एकादशीको निराहार रहकर आचमनके सिवा दूसरे जलका भी त्याग करूंगा।’ द्वादशीको देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्रसे विधिपूर्वक पूजन करके जलका घड़ा संकल्प करते हुए निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे।

देवदेव हृषीकेश उदकुम्भप्रदानेन l

संसारार्णवतारक नय मां परमां गतिम् ॥

(53/60)

‘संसारसागरसे तारनेवाले देवदेव हृषीकेश! इस जलके घड़ेका दान करनेसे आप मुझे परम गतिकी प्राप्ति कराइये।’

भीमसेन! ज्येष्ठ मासमें शुक्लपक्षकी जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिये तथा उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको शक्करके साथ जलके घड़े दान करने चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान् विष्णुके समीपपहुँचकर आनन्दका अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशीको ब्राह्मणभोजन करानेके बाद स्वयं भोजन करे। जो इस प्रकार पूर्णरूपसे पापनाशिनी एकादशीका व्रत करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अनामय पदको प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेनने भी इस शुभ एकादशीका व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोकमें ‘पाण्डव द्वादशी’ के नामसे विख्यात हुई।

अध्याय 168 आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- वासुदेव! आषाढके कृष्णपक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है? कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- नृपश्रेष्ठ आषाढ़ कृष्णपक्षको एकादशीका नाम ‘योगिनी’ है। यह बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली है। संसारसागरमें डूबे हुए प्राणियोंके लिये यह सनातन नौकाके समान है। तीनों लोकोंमें यह सारभूत व्रत है।

अलकापुरी राधिराज कुबेर रहते हैं। वे सदा भगवान् शिवकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाले हैं। उनके हेममाली नामवाला एक यक्ष सेवक था, जो पूजाके लिये फूल लाया करता था। हेममालीकी पत्नी बड़ी सुन्दरी थी। उसका नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष कामपाशमें आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नीमें आसक्त रहता था। एक दिनकी बात है, हेममाली मानसरोवरसे फूल लाकर अपने घरमें ही ठहर गया और पत्नीके प्रेमका रसास्वादन करने लगा; अतः कुबेरके भवनमें न जा सका। इधर कुबेर मन्दिरमें बैठकर शिवका पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहरतक फूल आनेकी प्रतीक्षा की जब पूजाका समय व्यतीत हो गया तो यक्षराजने कुपित होकर सेवकोंसे पूछा “यक्षो! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है, इस बातका पता तो लगाओ। यक्षोंने कहा- राजन्! वह तो पत्नीकी कामनायें आसक्त हो अपनी इच्छाके अनुसार घरमें ही रमण कर रहा है।उनकी बात सुनकर कुबेर क्रोधमें भर गये और तुरंत ही हेममालीको बुलवाया। देर हुई जानकर हेममालीके नेत्र भयसे व्याकुल हो रहे थे। वह आकर कुबेरके सामने खड़ा हुआ उसे देखकर कुबेरकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे बोले ‘ओ पापी! ओ दुष्ट! ओ दुराचारी ! तूने भगवान्की अवहेलना की है, अतः कोड्से युक्त और अपनी उस प्रियतमासे वियुक्त होकर इस स्थानसे भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा’ कुबेरके ऐसा कहनेपर वह उस स्थानसे नीचे गिर गया। उस समय उसके हृदयमें महान् दुःख हो रहा था। कोदोंसे सारा शरीर पीड़ित था। परन्तु शिवपूजाके प्रभावसे उसकी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं होती थी। पातकसे दबा होनेपर भी वह अपने पूर्वकर्मको याद रखता था। तदनन्तर इधर-उधर घूमता हुआ वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरिके शिखरपर गया। वहाँ उसे तपस्याके पुंज मुनिवर मार्कण्डेयजीका दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्षने दूरसे ही मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिवर मार्कण्डेयने उसे भयसे काँपते देख परोपकारकी इच्छासे निकट बुलाकर कहा- ‘तुझे कोढ़के रोगने कैसे दबा लिया? तू क्यों इतना अधिक निन्दनीय जान पड़ता है?’ यक्ष बोला- मुझे मैं कुबेरका अनुचर हूँ। मेरा नाम हेममाली है। मैं प्रतिदिन मानसरोवरसे फूल ले आकर शिवपूजाके समय कुबेरको दिया करता था।

एक दिन पत्नी- सहवासके सुखमें फँस जानेके कारण मुझेसमयका ज्ञान ही नहीं रहा; अतः राजाधिराज कुबेरने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोइसे आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमासे बिछुड़ गया। मुनि श्रेष्ठ ! इस समय किसी शुभ कर्मके प्रभावसे मैं आपके निकट आ पहुँचा हूँ। संतोंका चित्त स्वभावतः परोपकारमें लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधीको कर्तव्यका उपदेश दीजिये।

मार्कण्डेयजीने कहा- तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, असत्य भाषण नहीं किया है; इसलिये मैं तुम्हें कल्याणप्रद व्रतका उपदेश करता हूँ। तुम आषाड़के कृष्णपक्ष ‘योगिनी’ एकादशीका व्रत करो। इस व्रतके पुण्यसे तुम्हारी कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायगी।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— ऋषिके ये वचन सुनकर हेममाली दण्डकी भाँति मुनिके चरणोंमें पड़ गया। मुनिने उसे उठाया, इससे उसको बड़ा हर्ष हुआ। मार्कण्डेयजीके उपदेशसे उसने योगिनी एकादशीका व्रत किया, जिससे उसके शरीरकी कोढ़ दूर हो गयी। मुनिके कथनानुसार उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करनेपर वह पूर्ण सुखी हो गया। नृपश्रेष्ठ! यह योगिनीका व्रत ऐसा हीबताया गया है। जो अट्ठासी हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराता है, उसके समान ही फल उस मनुष्यको भी मिलता है, जो योगिनी एकादशीका व्रत करता है। ‘योगिनी’ महान् पापको शान्त करनेवाली और महान् पुण्य फल देनेवाली है। इसके पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

युधिष्ठिरने पूछा – भगवन्! आषाढ़के शुक्ल पक्षमें कौन-सी एकादशी होती है? उसका नाम और विधि क्या है? यह बतलानेकी कृपा करें।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! आषाढ़ शुक्लपक्षकी एकादशीका नाम ‘शयनी’ है। मैं उसका वर्णन करता हूँ। वह महान् पुण्यमयी, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली, सब पापोंको हरनेवाली तथा उत्तम व्रत है। आषाढ़ शुक्लपक्षमें शयनी एकादशीके दिन जिन्होंने कमलपुष्पसे कमललोचन भगवान् विष्णुका पूजन तथा एकादशीका उत्तम व्रत किया है, उन्होंने तीनों लोकों और तीनों सनातन देवताओंका पूजन कर लिया। हरिशयनी एकादशीके दिन मेरा एक स्वरूप राजा बलिके यहाँ रहता है और दूसरा क्षीरसागरमें शेषनागकी शय्यापर तबतक शयन करता है, जबतक आगामी कार्तिककी एकादशी नहीं आ जाती अतः आषादशुक्ला एकादशीसे लेकर कार्तिकशुक्ला एकादशीतक मनुष्यको भलीभाँति धर्मका आचरण करना चाहिये। जो मनुष्य इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है, इस कारण यत्नपूर्वक इस एकादशीका व्रत करना चाहिये। एकादशीकी रातमें जागरण करके शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। ऐसा करनेवाले पुरुषके पुण्यकी गणना करनेमें चतुर्मुख ब्रह्माजी भी असमर्थ हैं। राजन्! जो इस प्रकार भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले सर्वपापहारी एकादशीके उत्तम व्रतका पालन करता है, वह जातिका चाण्डाल होनेपर भी संसारमें सदा मेरा प्रिय करनेवाला है। जो मनुष्य दीपदान, पलाशके पत्तेपर भोजन और व्रत करते हुए चौमासा व्यतीत करते हैं, वे मेरे प्रिय हैं। चौमासेमें भगवान् विष्णु सोये रहते हैं; इसलिये मनुष्यको भूमिपरशयन करना चाहिये। सावनमें साग, भादोंमें दही, क्वारमें दूध और कार्तिकमें दालका त्याग कर देना चाहिये। * अथवा जो चौमासेमें ब्रह्मचर्यका पालन करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। राजन् ! एकादशीके व्रतसे ही मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है; अतः सदा इसकाव्रत करना चाहिये कभी भूलना नहीं चाहिये। ‘शयनी’ और ‘बोधिनी’ के बीचमें जो कृष्णपक्षकी एकादशियाँ होती हैं, गृहस्थके लिये वे ही व्रत रखने योग्य हैं- अन्य मासोंकी कृष्णपक्षीय एकादशी गृहस्थके रखनेयोग्य नहीं होती। शुक्लपक्षकी एकादशी सभीको करनी चाहिये।

अध्याय 169 श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- गोविन्द ! वासुदेव! आपको नमस्कार है! श्रावणके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है? उसका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! सुनो, मैं तुम्हें एक पापनाशक उपाख्यान सुनाता हूँ, जिसे पूर्वकालमें ब्रह्माजीने नारदजीके पूछने पर कहा था।

नारदजीने प्रश्न किया- भगवन्! कमलासन ! मैं आपसे यह सुनना चाहता हूँ कि श्रावणके कृष्णपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है, उसके कौन-से देवता हैं तथा उससे कौन-सा पुण्य होता है ? प्रभो! यह सब बताइये।

ब्रह्माजीने का – नारद! सुनो-मैं सम्पूर्ण लोकोंके हितकी इच्छासे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर दे रहा हूँ। श्रावणमासमें जो कृष्णपक्षको एकादशी होती है, उसका नाम ‘कामिका’ है; उसके स्मरणमात्रसे वाजपेय यज्ञका फल मिलता है। उस दिन श्रीधर, हरि, विष्णु, माधव और मधुसूदन आदि नामोंसे भगवान्का पूजन करना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णके पूजनसे जो फल मिलता है, वह गंगा, काशी, नैमिषारण्य तथा पुष्कर क्षेत्रमें भी सुलभ नहीं है। सिंहराशिके: बृहस्पति होनेपर तथा व्यतीपात और दण्डयोगमें + गोदावरीस्नानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही फल भगवान् श्रीकृष्णके पूजन भी मिलता है। जो समुद्र और वनसहित समूची पृथ्वीका दान करता है तथा जो कामिका एकादशीका व्रत करता है, वे दोनों समान फलके भागी माने गये हैं। जो ब्यायीहुई गायको अन्यान्य सामग्रियोंसहित दान करता है, उस मनुष्यको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही ‘कामिका’ का व्रत करनेवालेको मिलता है। जो नरश्रेष्ठ श्रावणमासमें भगवान् श्रीधरका पूजन करता है, उसके द्वारा गन्धवों और नागसहित सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है; अतः पापभीरु मनुष्योंको यथाशक्ति पूरा प्रयत्न करके कामिका’ के दिन श्रीहरिका पूजन करना चाहिये जो पापरूपी पंकसे भरे हुए संसारसमुद्रमें डूब रहे हैं, उनका उद्धार करनेके लिये कामिकाका व्रत सबसे उत्तम है। अध्यात्मविद्यापरायण पुरुषोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है; उससे बहुत अधिक फल ‘कामिका’ व्रतका सेवन करनेवालोंको मिलता है। ‘कामिका’ का व्रत करनेवाला मनुष्य रात्रिमें जागरण करके न तो कभी भयंकर यमराजका दर्शन करता है और न कभी दुर्गतिमें ही पड़ता है।

लाल मणि, मोती, वैदूर्य और मूंगे आदिसे पूजित होकर भी भगवान् विष्णु वैसे संतुष्ट नहीं होते, जैसे तुलसीदलसे पूजित होनेपर होते हैं। जिसने तुलसीकी मंजरियों से श्रीकेशवका पूजन कर लिया है; उसके जन्मभरका पाप निश्चय ही नष्ट हो जाता है। जो दर्शन करनेपर सारे पापसमुदायका नाश कर देती है, स्पर्श करनेपर शरीरको पवित्र बनाती है, प्रणाम करनेपर रोगोंका निवारण करती है, जलसे सींचनेपर यमराजको भी भय पहुँचाती है, आरोपित करनेपर भगवान् श्रीकृष्णके समीप से जाती है और भगवान्‌के चरणों मेंचढ़ानेपर मोक्षरूपी फल प्रदान करती है, उस तुलसी देवीको नमस्कार है।” जो मनुष्य एकादशीको दिन रात दीपदान करता है, उसके पुण्यकी संख्या चित्रगुप्त भी नहीं जानते। एकादशीके दिन भगवान् श्रीकृष्णके सम्मुख जिसका दीपक जलता है, उसके पितर स्वर्गलोकमें स्थित होकर अमृतपानसे तृप्त होते हैं। घी अथवा तिलके तेलसे भगवान्‌ के सामने दीपक जलाकर मनुष्य देह त्यागके पश्चात् करोड़ों दीपकोंसे पूजित हो स्वर्गलोकमें जाता है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर। यह तुम्हारे सामने मैंने कामिका एकादशीकी महिमाका वर्णन किया है। ‘कामिका’ सब पातकोंको हरनेवाली है; अतः मानवोंको इसका व्रत अवश्य करना चाहिये। यह स्वर्गलोक तथा महान् पुण्यफल प्रदान करनेवाली है। जो मनुष्य श्रद्धाके साथ इसका माहात्म्य श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें जाता है।

युधिष्ठिरने पूछा- मधुसूदन ! श्रावणके शुक्ल पक्षमें किस नामकी एकादशी होती है? कृपया मेरे सामने उसका वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! प्राचीन कालकी बात है, द्वापरयुग प्रारम्भका समय था, माहिष्मतीपुरमें राजा महीजित् अपने राज्यका पालन करते थे, किन्तु उन्हें कोई पुत्र नहीं था; इसलिये वह राज्य उन्हें सुखदायक नहीं प्रतीत होता था। अपनी अवस्था अधिक देख राजाको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने प्रजावर्ग बैठकर इस प्रकार कहा- ‘प्रजाजनो! इस जन्ममें मुझसे कोई पातक नहीं हुआ। मैंने अपने खजानेमें अन्यायसे कमाया हुआ धन नहीं जमा किया है। ब्राह्मणों और देवताओंका धन भी मैंने कभी नहीं लिया है। प्रजाका पुत्रवत् पालन किया, धर्मसे पृथ्वीपर अधिकार जमाया तथा दुष्टोंको, वे बन्धु और पुत्रोंके समान ही क्यों न रहे हों, दण्ड दिया है। शिष्ट पुरुषोंका सदा सम्मानकिया और किसीको द्वेषका पात्र नहीं समझा। फिर क्या कारण है, जो मेरे घरमें आजतक पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ। आपलोग इसका विचार करें।’

राजाके ये वचन सुनकर प्रजा और पुरोहितोंके साथ ब्राह्मणोंने उनके हितका विचार करके गहन वनमें प्रवेश किया। राजाका कल्याण चाहनेवाले वे सभी लोग इधर-उधर घूमकर ऋषिसेवित आश्रमोंकी तलाश करने लगे। इतनेहीमें उन्हें मुनिश्रेष्ठ लोमशका दर्शन हुआ। लोमशजी धर्मके तत्त्वज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशिष्ट विद्वान्, दीर्घायु और महात्मा हैं। उनका शरीर लोमसे भरा हुआ है। वे ब्रह्माजीके समान तेजस्वी हैं। एक-एक कल्प बीतनेपर उनके शरीरका एक-एक लोग विशीर्ण होता-टूटकर गिरता है; इसीलिये उनका नाम लोमश हुआ है। वे महामुनि तीनों कालोंकी बातें जानते हैं। उन्हें देखकर सब लोगोंको बड़ा हर्ष हुआ उन्हें निकट आया देख लोमशजीने पूछा- ‘तुम सब लोग किसलिये यहाँ आयेहो? अपने आगमनका कारण बताओ तुमलोगों के लिये जो हितकर कार्य होगा, उसे मैं अवश्य करूंगा। प्रजाओंने कहा- ब्रह्मन् इस समय महीजित् नामवाले जो राजा हैं, उन्हें कोई पुत्र नहीं है। हमलोग उन्हींकी प्रजा हैं, जिनका उन्होंने पुत्रकी भाँति पालन किया है। उन्हें पुत्रहीन देख, उनके दुःखसे दुःखित हो हम तपस्या करनेका दृढ़ निश्चय करके यहाँ आये हैं। द्विजोत्तम! राजाके भाग्यसे इस समय हमें आपका दर्शन मिल गया है। महापुरुषोंके दर्शनसे ही मनुष्योंके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं। मुने! अब हमें उस उपायका उपदेश कीजिये, जिससे राजाको पुत्रकी प्राप्ति हो।

उनकी बात सुनकर महर्षि लोमश दो घड़ीतक ध्यानमग्न हो गये। तत्पश्चात् राजाके प्राचीन जन्मका वृत्तान्त जानकर उन्होंने कहा – ‘प्रजावृन्द ! सुनो राजा महीजित् पूर्वजन्ममें मनुष्योंको चूसनेवाला धनहीन वैश्य था वह वैश्य गाँव-गाँव घूमकर व्यापार किया करता था। एक दिन जेठके शुक्लपक्षमें दशमी तिथिको, जब दोपहरका सूर्य तप रहा था, वह गाँवकी सीमामें एक जलाशयपर पहुँचा। पानीसे भरी हुई बावली देखकर वैश्यने वहीं जल पीनेका विचार किया। इतनेहीमें वहाँ बछड़े के साथ एक गौ भी आ पहुँची। वह प्याससेव्याकुल और तापसे पीड़ित थी; अतः बावलीमें जाकर जल पीने लगी। वैश्यने पानी पीती हुई गायको हाँककर दूर हटा दिया और स्वयं पानी पीया । उसी पापकर्मके कारण राजा इस समय पुत्रहीन हुए हैं। किसी जन्मके पुण्यसे इन्हें अकण्टक राज्यकी प्राप्ति हुई है।’

प्रजाओंने कहा- मुने। पुराणमें सुना जाता है कि प्रायश्चित्तरूप पुण्यसे पाप नष्ट होता है; अतः पुण्यका उपदेश कीजिये, जिससे उस पापका नाश हो जाय।

लोमशजी बोले- प्रजाजनो ! श्रावण मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, वह ‘पुत्रदा’ के नामसे विख्यात है। वह मनोवांछित फल प्रदान करनेवाली है। तुमलोग उसीका व्रत करो।

यह सुनकर प्रजाओंने मुनिको नमस्कार किया और नगरमें आकर विधिपूर्वक पुत्रदा एकादशीके व्रतका अनुष्ठान किया। उन्होंने विधिपूर्वक जागरण भी किया और उसका निर्मल पुण्य राजाको दे दिया। तत्पश्चात् रानीने गर्भ धारण किया और प्रसवका समय आनेपर बलवान् पुत्रको जन्म दिया। इसका माहात्म्य सुनकर मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है तथा इहलोकमें सुख पाकर परलोकमें स्वर्गीय गतिको प्राप्त होता है।

अध्याय 170 भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है? कृपया बताइये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! एकचित्त होकर सुनो। भाद्रपद मासके कृष्णपक्षको एकादशीका नाम ‘अजा’ है, वह सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। जो भगवान् हृषीकेशका पूजन करके इसका व्रत करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामक एक विख्यात चक्रवर्ती राजा हो गये हैं, जो समस्त भूमण्डलके स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ थे। एक समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर उन्हेंराज्यसे भ्रष्ट होना पड़ा। राजाने अपनी पत्नी और पुत्रको बेचा। फिर अपनेको भी बेच दिया। पुण्यात्मा होते हुए भी उन्हें चाण्डालकी दासता करनी पड़ी। वे मुर्दोंका कफन लिया करते थे। इतनेपर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र सत्यसे विचलित नहीं हुए। इस प्रकार चाण्डालकी दासता करते उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो गये। इससे राजाको बड़ी चिन्ता हुई। वे अत्यन्त दुःखी होकर सोचने लगे-‘क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कैसे मेरा उद्धार होगा ?’ इस प्रकार चिन्ता करते-करते वे शोकके समुद्रमें डूब गये। राजाको आतुर जानकर कोई मुनि उनके पास आये, वे महर्षि गौतम थे। श्रेष्ठ ब्राह्मणकोआया देख नृपश्रेष्ठने उनके चरणोंमें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़ गौतमके सामने खड़े होकर अपना सारा दुःखमय समाचार कह सुनाया। राजाकी बात सुनकर गौतमने कहा- ‘राजन् भादोंके कृष्णपक्षमें अत्यन्त कल्याणमयी ‘अजा’ नामकी एकादशी आ रही है, जो पुण्य प्रदान करनेवाली है। इसका व्रत करो। इससे पापका अन्त होगा। तुम्हारे भाग्यसे आजके सातवें दिन एकादशी है। उस दिन उपवास करके रातमें जागरण करना।’

ऐसा कहकर महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये। मुनिकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्रने उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे राजा सारे दुःखोंसे पार हो गये। उन्हें पत्नीका सन्निधान और पुत्रका जीवन मिल गया। आकाशमें दुन्दुभियाँ बज उठीं देवलोकसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। एकादशी के प्रभावसे राजाने अकण्टक राज्य प्राप्त किया और अन्तमें वे पुरजन तथा परिजनोंके साथ स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये। राजा युधिष्ठिर जो मनुष्य ऐसा व्रत करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं। इसके पढ़ने और सुननेसे अश्वमेधयज्ञका फल मिलता है।

युधिष्ठिरने पूछा- केशव भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम, कौन देवता और कैसी विधि है? यह बताइये ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन् ! इस विषयमें मैं तुम्हें आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूँ; जिसे ब्रह्माजीने महात्मा नारदसे कहा था।

नारदजीने पूछा- चतुर्मुख आपको नमस्कार है। मैं भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये आपके मुखसे यह सुनना चाहता हूँ कि भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?

ब्रह्माजीने कहा – मुनिश्रेष्ठ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे। भादोंके शुक्लपक्षकी एकादशी ‘पद्मा’ के नामसे विख्यात है। उस दिन भगवान् हृषीकेशकी पूजा होती है। यह उत्तम व्रत अवश्य करनेयोग्य है।सूर्यवंशमें मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्य प्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे प्रजाका अपने औरस पुत्रोंकी भाँति धर्मपूर्वक पालन किया करते थे। उनके राज्यमें अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिन्ताएँ नहीं सताती थीं और व्याधियोंका प्रकोप भी नहीं होता था। उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्यसे समृद्ध थी। महाराजके कोषमें केवल न्यायोपार्जित धनका ही संग्रह था। उनके राज्यमें समस्त वर्णों और आश्रमोंके लोग अपने-अपने धर्ममें लगे रहते थे। मान्धाताके राज्यकी भूमि कामधेनुके समान फल देनेवाली थी। उनके राज्य करते समय प्रजाको बहुत सुख प्राप्त होता था। एक समय किसी कर्मका फलभोग प्राप्त होनेपर राजाके राज्यमें तीन वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा भूखसे पीड़ित हो नष्ट होने लगी; तब सम्पूर्ण प्रजाने महाराजके पास आकर इस प्रकार कहा

प्रजा बोली- नृपश्रेष्ठ! आपको प्रजाकी बात सुननी चाहिये। पुराणोंमें मनीषी पुरुषोंने जलको ‘नारा’ कहा है; वह नारा ही भगवान्का अयन-निवासस्थान हैं;

इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। नारायणस्वरूप भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापकरूपमें विराजमान हैं। वे ही मेघस्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षासे अन्न पैदा होता है और अन्नसे प्रजा जीवन धारण करती है। नृपश्रेष्ठ! इस समय अन्नके बिना प्रजाका नाश हो रहा है; अतः ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योगक्षेमका निर्वाह हो। राजाने कहा – आपलोगोंका कथन सत्य है, क्योंकि अन्नको ब्रह्म कहा गया है। अन्नसे प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्नसे ही जगत् जीवन धारण करता है। लोकमें बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराणमें भी बहुत विस्तारके साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओंके अत्याचारसे प्रजाको पीड़ा होती है; किन्तु जब मैं बुद्धिसे विचार करता हूँ तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता। फिर भी मैं प्रजाका हित करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न करूँगा । ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने-गिने व्यक्तियोंको साथ ले विधाताको प्रणाम करके सघनवनकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर मुख्य-मुख्य मुनियों और तपस्वियोंके आश्रमोंपर घूमते फिरे । एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अंगिरा ऋषिका दर्शन हुआ। उनपर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्षमें भरकर अपने वाहनसे उत्तर पड़े और इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया। मुनिने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजाका अभिनन्दन किया और उनके राज्यके सातों अंगोंकी कुशल पूछी। राजाने अपनी कुशल बताकर मुनिके स्वास्थ्यका समाचार पूछा मुनिने राजाको आसन और अर्घ्य दिया। उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनिके समीप बैठे तो उन्होंने इनके आगमनका कारण पूछा।

तब राजाने कहा – भगवन्! मैं धर्मानुकूल प्रणालीसे पृथ्वीका पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्यमें वर्षाका अभाव हो गया। इसका क्या कारण है। इस बातको मैं नहीं जानता

ऋषि बोले- राजन् ! यह सब युगों में उत्तम सत्ययुग है। इसमें सब लोग परमात्माके चिन्तनमें लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणोंसे युक्त होता है। इस युगमें केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं। किन्तु महाराज! तुम्हारे राज्यमें यह शूद्र तपस्या करता है; इसी कारण मेघ पानी नहीं बरसाते तुम इसके प्रतीकारका यत्न करो; जिससे यह अनावृष्टिका दोष शान्त हो जाय l

राजाने कहा- मुनिवर। एक तो यह तपस्यामें लगा है, दूसरे निरपराध है; अतः मैं इसका अनिष्ट नहीं करूँगा। आप उक्त दोषको शान्त करनेवाले किसी धर्मका उपदेश कीजिये।

ऋषि बोले- राजन् यदि ऐसी बात है तोएकादशीका व्रत करो। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो ‘पद्मा’ नामसे विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रतके प्रभावसे निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी। नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनोंके साथ इसका व्रत करो।

ऋषिका यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णोंको समस्त प्रजाओंके साथ भादोंके शुक्लपक्षकी ‘पद्मा’ एकादशीका व्रत किया। इस प्रकार व्रत करनेपर मेघ पानी बरसाने लगे। पृथ्वी जलसे आप्लावित हो गयी और हरी-भरी खेती से सुशोभित होने लगी। उस व्रतके प्रभावसे सब लोग सुखी हो गये।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— राजन्। इस कारण इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। ‘पद्मा’ एकादशीके दिन जलसे भरे हुए घड़ेको वस्त्रसे ढँककर दही और चावलके साथ ब्राह्मणको दान देना चाहिये, साथ ही छाता और जूता भी देने चाहिये। दान करते समय निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करे

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक ॥

भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ॥

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव।

(59।38-39) ‘[ बुधवार और श्रवण नक्षत्रके योगसे युक्त द्वादशीके दिन] बुधश्रवण नाम धारण करनेवाले भगवान् गोविन्द! आपको नमस्कार है, नमस्कार है; मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें। आप पुण्यात्माजनोंको भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले तथा सुखदायक हैं।’ राजन् ! इसके पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

अध्याय 171 आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- मधुसूदन ! कृपा करके मुझे यह बताइये कि आश्विनके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! आश्विनकृष्णपक्ष ‘इन्दिरा’ नामकी एकादशी होती है, उसके व्रतके प्रभावसे बड़े-बड़े पापका नाश हो जाता है। नीच योनिमें पड़े हुए पितरोंको भी यह एकादशी सद्गति देनेवाली है।राजन्। पूर्वकालको बात है, सत्ययुगमें इन्द्रसेन 1 नामसे विख्यात राजकुमार थे, जो अब माहिष्मतीपुरीके राजा होकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। उनका यश सब ओर फैल चुका था। राजा इन्द्रसेन भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर हो गोविन्दके मोक्षदायक नामका जप करते हुए समय व्यतीत करते थे और विधिपूर्वक अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें संलग्न रहते थे। एक दिन राजा राजसभामें सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतनेहीमें देवर्षि नारद आकाशसे उतरकर वहाँ आ पहुँचे। उन्हें आया देख राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये और विधिपूर्वक पूजन करके उन्हें आसनपर बिठाया, इसके बाद वे इस प्रकार बोले- ‘मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मेरी सर्वथा कुशल है। आज आपके दर्शनसे मेरी सम्पूर्ण यज्ञ क्रियाएँ सफल हो गयीं। देवर्षे! अपने आगमनका कारण बताकर मुझपर कृपा करें।’

नारदजीने कहा- नृपश्रेष्ठ ! सुनो, मेरी बात तुम्हें आश्चर्यमें डालनेवाली है. मैं ब्रह्मलोकसे यमलोक आया था, वहाँ एक श्रेष्ठ आसनपर बैठा और यमराजने मेरी भक्तिपूर्वक पूजा की। उस समय यमराजकी सभा मेंमैंने तुम्हारे पिताको भी देखा था। वे व्रतभंगके दोषसे वहाँ आये थे। राजन्! उन्होंने तुमसे कहनेके लिये एक सन्देश दिया है, उसे सुनो। उन्होंने कहा है, ‘बेटा! मुझे ‘इन्दिरा’ के व्रतका पुण्य देकर स्वर्गमें भेजो।’ उनका यह सन्देश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। राजन् ! अपने पिताको स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेके लिये ‘इन्दिरा’ का व्रत करो।

राजाने पूछा— भगवन्! कृपा करके ‘इन्दिरा’ का व्रत बताइये किस पक्षमें, किस तिथिको और किस विधिसे उसका व्रत करना चाहिये ।

नारदजीने कहा- राजेन्द्र सुनो, मैं तुम्हें इस व्रतकी शुभकारक विधि बतलाता है। आश्विन मासके कृष्णपक्ष दशमीके उत्तम दिनको श्रद्धायुक्त चित्तसे प्रातःकाल स्नान करे। फिर मध्याह्नकालमें स्नान करके एकाग्रचित्त हो एक समय भोजन करे तथा रात्रिमें भूमिपर सोये। रात्रिके अन्तमें निर्मल प्रभात होनेपर एकादशीके दिन दातुन करके मुँह धोये; इसके बाद भक्तिभावसे निम्नांकित मन्त्र पढ़ते हुए उपवासका नियम ग्रहण करे

अद्य स्थित्वा निराहारः सर्वभोगविवर्जितः ।

श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरण मे भवाच्युत

(60।23)

‘कमलनयन भगवान् नारायण! आज मैं सब भोगोंसे अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करूँगा। अच्युत! आप मुझे शरण दें।’

इस प्रकार नियम करके मध्याह्नकालमें पितरोंकी प्रसन्नताके लिये शालग्राम शिलाके सम्मुख विधिपूर्वक श्राद्ध करे तथा दक्षिणासे ब्राह्मणोंका सत्कार करके उन्हें भोजन करावे। पितरोंको दिये हुए अन्नमय पिण्डको सूपकर विद्वान् पुरुष गायको खिला दे। फिर धूप और गन्ध आदिसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके रात्रिमें उनके समीप जागरण करे। तत्पश्चात् सबेरा होनेपर द्वादशीके दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी पूजा करे। उसके बाद ब्राह्मणोंको भोजन कराकर भाई-बन्धु, नाती और पुत्र आदिके साथ स्वयं मौन होकर भोजन करे।राजन्! इस विधिसे आलस्यरहित होकर तुम ‘इन्दिरा’ का
व्रत करो। इससे तुम्हारे पितर भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधाममें चले जायेंगे।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! राजा इन्द्रसेनसे ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये। राजाने उनकी बतायी हुई विधिसे अन्तःपुरकी रानियों, पुत्रों और भृत्योंसहित उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया। कुन्तीनन्दन! व्रत पूर्ण होनेपर आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। इन्द्रसेनके पिता गरुड़पर आरूढ़ होकर श्रीविष्णुधामको चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी अकण्टक राज्यका उपभोग करके अपने पुत्रको राज्यपर बिठाकर स्वयं स्वर्गलोकको गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे सामने ‘इन्दिरा’ व्रतके माहात्म्यका वर्णन किया है। इसको पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

युधिष्ठिरने पूछा- मधुसूदन! अब कृपा करके यह बताइये कि आश्विन शुक्लपक्षमें किस नामकी एकादशी होती है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! आश्विनके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, वह पापांकुशा’ के नामसे विख्यात है। वह सब पापको हरनेवाली तथा उत्तम है। उस दिन सम्पूर्ण मनोरथकी प्राप्तिके लिये मनुष्योंको स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले पद्मनाभसंज्ञक मुझ वासुदेवका पूजन करना चाहिये। जितेन्द्रिय मुनि चिरकालतक कठोर तपस्या करके जिस फलको प्राप्त करता है, वह उस दिन भगवान् गरुड़ध्वजको प्रणाम करनेसे ही मिल जाता है। पृथ्वीपर जितने तीर्थ और पवित्र देवालय हैं, उन सबके सेवनका फल भगवान् विष्णु के नामकीर्तनमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले सर्वव्यापक भगवान् जनार्दनकी शरण में जाते हैं, उन्हें कभी यमलोककी यातना नहीं भोगनी पड़ती। यदि अन्य कार्यके प्रसंगसे भी मनुष्य एकमात्र एकादशीको उपवासकर ले तो उसे कभी यम यातना नहीं प्राप्त होती जो पुरुष विष्णुभक्त होकर भगवान् शिवकी निन्दा करता है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें स्थान नहीं पाता; उसे निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है इसी प्रकार यदि कोई शैव या पाशुपत होकर भगवान् विष्णुकी निन्दा करता है तो वह घोर रौरव नरकमें डालकर तबतक पकाया जाता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी आयु पूरी नहीं हो जाती यह एकादशी स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीरको नीरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री, धन एवं मित्र देनेवाली है। राजन् ! एकादशीको दिनमें उपवास और रात्रिमें जागरण करनेसे अनायास ही विष्णुधामकी प्राप्ति हो जाती है। राजेन्द्र ! वह पुरुष मातृ पक्षकी दस, पिताके पक्षकी दस तथा स्त्रीके पक्षकी भी दस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। एकादशी व्रत करनेवाले मनुष्य दिव्यरूपधारी, चतुर्भुज, गरुड़की ध्वजासे बुक, हारसे सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान् विष्णुके धामको जाते हैं। आश्विन शुक्लपक्ष में कुशाका व्रत करनेमाजसे ही मानव सब पापोंसे मुक्त हो श्रीहरिके लोकमें जाता है जो पुरुष सुवर्ण, तिल, भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छातेका दान करता है, वह कभी यमराजको नहीं देखता । नृपश्रेष्ठ ! दरिद्र पुरुषको भी चाहिये कि वह यथाशक्ति स्नान-दान आदि क्रिया करके अपने प्रत्येक दिनको सफल बनावे * जो होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यमयातना नहीं देखनी पड़ती। लोकमें जो मानव दीर्घायु, धनाढ्य, कुलीन और नीरोग देखे जाते हैं, वे पहले के पुण्यात्मा हैं। पुष्पकर्ता पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं। इस विषयमें अधिक कहनेसे क्या लाभ, मनुष्य पापसे दुर्गतिमें पढ़ते हैं और धर्मसे स्वर्ग जाते हैं। राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, उसके अनुसार पापांकुशाका माहात्म्य मैंने वर्णन किया; अब और क्या सुनना चाहते हो ?

अध्याय 172 कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य

युधिष्ठिरने पूछा- जनार्दन! मुझपर आपका

स्नेह है; अतः कृपा करके बताइये। कार्तिकके कृष्णपक्षमें कौन-सी एकादशी होती है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्। कार्तिकके कृष्णपक्षमें जो परम कल्याणमयी एकादशी होती है, वह ‘रमा’ के नामसे विख्यात है। ‘रमा’ परम उत्तम है और बड़े-बड़े पापको हरनेवाली है।

पूर्वकालमें मुचुकुन्द नामसे विख्यात एक राजा हो चुके हैं, जो भगवान् श्रीविष्णुके भक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे। निष्कण्टक राज्यका शासन करते हुए उस राजाके यहाँ नदियोंमें श्रेष्ठ चन्द्रभागा कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई। राजाने चन्द्रसेनकुमार शोभनके साथ उसका विवाह कर दिया। एक समयकी बात है, शोभन अपने ससुरके घर आये। उनके यहाँ दशमीका दिन आनेपर समूचे नगरमें ढिंढोरा पिटवाया जाता था कि एकादशीके दिन कोई भी भोजन न करें, कोई भी भोजन न करे। यह डंकेकी घोषणा सुनकर शोभनने अपनी प्यारी पत्नी चन्द्रभागा से कहा-‘प्रिये। अब मुझे इस समय क्या करना चाहिये, इसको शिक्षा दो।’

चन्द्रभागा बोली-प्रभी मेरे पिताके घरपर तो एकादशीको कोई भी भोजन नहीं कर सकता। हाथी, घोड़े, हाथियोंके बच्चे तथा अन्यान्य पशु भी अन्न, घास तथा जलतकका आहार नहीं करने पाते; फिर मनुष्य एकादशीके दिन कैसे भोजन कर सकते हैं। प्राणनाथ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी। इस प्रकार मनमें विचार करके अपने चितको दृढ़ कीजिये।

शोभनने कहा—प्रिये। तुम्हारा कहना सत्य है, मैं भी आज उपवास करूँगा। दैवका जैसा विधान है, वैसा ही होगा।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभनने व्रतके नियमका पालन किया। क्षुधासे उनके शरीरमें पीड़ा होने लगी; अतः वे बहुत दुःखी हुए। भूखकी चिन्तामें पड़े-पड़े सूर्यास्त होगया। रात्रि आयी, जो हरिपूजापरायण तथा जागरण में आसक्त वैष्णव मनुष्योंका हर्ष बढ़ानेवाली थी; परन्तु वही रात्रि शोभनके लिये अत्यन्त दुःखदायिनी हुई। सूर्योदय होते-होते उनका प्राणान्त हो गया। राजा मुचुकुन्दने राजोचित काष्ठोंसे शोभनका दाह-संस्कार कराया। चन्द्रभागा पतिका पारलौकिक कर्म करके पिताके ही घरपर रहने लगी। नृपश्रेष्ठ! ‘रमा’ नामक एकादशीके व्रतके प्रभावसे शोभन मन्दराचलके शिखरपर बसे हुए परम रमणीय देवपुरको प्राप्त हुआ। वहाँ शोभन द्वितीय कुबेरकी भाँति शोभा पाने लगा। राजा मुचुकुन्दके नगरमें सोमशर्मा नामसे विख्यात एक ब्राह्मण रहते थे, वे तीर्थयात्राके प्रसंगसे घूमते हुए कभी मन्दराचल पर्वतपर गये। वहाँ उन्हें शोभन दिखायी दिये। राजाके दामादको पहचानकर वे उनके समीप गये। शोभन भी उस समय द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माको आया जान शीघ्र ही आसनसे उठकर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम फिर क्रमशः अपने श्वशुर राजामुचुकुन्दका, प्रिय पत्नी चन्द्रभागाका तथा समस्त नगरका कुशल समाचार पूछा।

सोमशर्माने कहा- राजन्! वहाँ सबकी कुशल है। यहाँ तो अद्भुत आश्चर्यकी बात है। ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसीने भी नहीं देखा होगा। बताओ तो सही, तुम्हें इस नगरकी प्राप्ति कैसे हुई ?

शोभन बोले- द्विजेन्द्र कार्तिक कृष्णपक्षमें जो ‘रमा’ नामकी एकादशी होती है, उसीका व्रत करनेसे मुझे ऐसे नगरकी प्राप्ति हुई है। ब्रह्मन्! मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था; इसलिये मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है। आप मुचुकुन्दकी सुन्दरी कन्या चन्द्रभागासे यह सारा वृत्तान्त कहियेगा।

शोभनकी बात सुनकर सोमशर्मा ब्राह्मण मुचुकुन्द पुरमें गये और वहाँ चन्द्रभागाके सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

सोमशर्मा बोले- शुभे मैंने तुम्हारे पतिको प्रत्यक्ष देखा है तथा इन्द्रपुरीके समान उनके दुर्धर्ष नगरका भी अवलोकन किया है। वे उसे अस्थिर बतलाते थे। तुम उसको स्थिर बनाओ।

चन्द्रभागाने कहा- ब्रह्मर्षे! मेरे मनमें पतिके दर्शनकी लालसा लगी हुई है। आप मुझे वहाँ ले चलिये। मैं अपने व्रतके पुण्यसे उस नगरको स्थिर बनाऊँगी।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— राजन्! चन्द्रभागाकी बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वतके निकट वामदेव मुनिके आश्रमपर गये। वहाँ ऋषिके मन्त्रकी शक्ति तथा एकादशीसेवनके प्रभावसे चन्द्रभागाका शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली। इसके बाद वह पतिके समीप गयी। उस समय उसके नेत्र हर्षोल्लाससे खिल रहे थे। अपनी प्रिय पत्नीको आयी देख शोभनको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उसे बुलाकर अपने वामभागमें सिंहासनपर बिठायाः तदनन्तर चन्द्रभागाने हर्षमें भरकर अपने प्रियतमसे यह प्रिय वचन कहा—’नाथ! मैं हितकी बात कहती हूँ, सुनिये। पिताके घरमें रहते समयजब मेरी अवस्था आठ वर्षसे अधिक हो गयी, तभीसे लेकर आजतक मैंने जो एकादशीके व्रत किये हैं और उनसे मेरे भीतर जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभावसे यह नगर कल्पके अन्ततक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकारके मनोवांछित वैभवसे समृद्धिशाली होगा।’

नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रतके प्रभावसे चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रूप और दिव्य आभरणोंसे विभूषित हो अपने पतिके साथ मन्दराचलके शिखरपर विहार करती है। राजन्! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशीका वर्णन किया है। यह चिन्तामणि तथा कामधेनुके समान सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली है। मैंने दोनों पक्षोंके एकादशीव्रतोंका पापनाशक माहात्म्य बताया है। जैसी कृष्णपक्षको एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षकी भी है; उनमें भेद नहीं करना चाहिये। जैसे सफेद रंगकी गाय हो या काले रंगकी, दोनोंका दूध एक-सा ही होता है, इसी प्रकार दोनों पक्षोंकी एकादशियाँ समान फल देनेवाली हैं। जो मनुष्य एकादशी व्रतोंका माहात्म्य सुनता है, यह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है।

युधिष्ठिरने पूछा- श्रीकृष्ण! मैंने आपके मुखसे ‘रमा’ का यथार्थ माहात्म्य सुना। मानद। अब कार्तिक शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है; उसकी महिमा बताइये। भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! कार्तिकके शुक्लपक्षमें जो एकादशी होती है, उसका जैसा वर्णन लोकस्रष्टा ब्रह्माजीने नारदजीसे किया था वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ।

नारदजीने कहा- पिताजी! जिसमें धर्म-कर्ममें प्रवृत्ति करानेवाले भगवान् गोविन्द जागते हैं, उस ‘प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य बतलाइये।

ब्रह्माजी बोले- मुनिश्रेष्ठ ‘प्रबोधिनी’ का माहात्म्य पापका नाश, पुण्यकी वृद्धि तथा उत्तम बुद्धिवाले पुरुषोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। समुद्रसे लेकर सरोवरतक जितने भी तीर्थ हैं, वे सभी अपने माहात्म्यकी तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक कि कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुकी ‘प्रबोधिनी’ तिथि नहींआ जाती। ‘प्रबोधिनी’ एकादशीको एक ही उपवास कर लेनेसे मनुष्य हजार अश्वमेध तथा सौ राजसूय यज्ञका फल पा लेता है। बेटा! जो दुर्लभ है, जिसकी प्राप्ति असम्भव है तथा जिसे त्रिलोकीमें किसीने भी नहीं देखा है; ऐसी वस्तुके लिये भी याचना करनेपर ‘प्रबोधिनी’ एकादशी उसे देती है। भक्तिपूर्वक उपवास करनेपर मनुष्यको ‘हरिबोधिनी एकादशी ऐश्वर्य, सम्पत्ति, उत्तम बुद्धि, राज्य तथा सुख प्रदान करती है। मेरुपर्वतके समान जो बड़े-बड़े पाप हैं, उन सबको यह पापनाशिनी ‘प्रबोधिनी’ एक ही उपवाससे भस्म कर देती है। पहलेके हजारों जन्मोंमें जो पाप किये गये। हैं, उन्हें ‘प्रबोधिनी’ की रात्रिका जागरण रूईकी ढेरीके समान भस्म कर डालता है। जो लोग ‘प्रबोधिनी’ ‘एकादशीका मनसे ध्यान करते तथा जो इसके व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उनके पितर नरकके दुःखोंसे छुटकारा पाकर भगवान् विष्णुके परमधामको चले जाते हैं। ब्रह्मन् ! अश्वमेध आदि यज्ञोंसे भी जिस फलको प्राप्ति कठिन है, वह ‘प्रबोधिनी एकादशीको जागरण करनेसे अनायास ही मिल जाता है। सम्पूर्ण तीर्थोंमें नहाकर सुवर्ण और पृथ्वी दान करनेसे जो फल मिलता है, वह श्रीहरिके निमित्त जागरण करनेमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है। जैसे मनुष्योंके लिये मृत्यु अनिवार्य है, उसी प्रकार धन-सम्पत्तिमात्र भी क्षणभंगुर है; ऐसा समझकर एकादशीका व्रत करना चाहिये। तीनों लोकोंमें जो कोई भी तीर्थ सम्भव हैं, वे सब ‘प्रबोधिनी’ एकादशीका व्रत करनेवाले मनुष्यके घरमें मौजूद रहते हैं। कार्तिकको ‘हरिबोधिनी’ एकादशी पुत्र तथा पौत्र प्रदान करनेवाली है। जो ‘प्रबोधिनी’ को उपासना करता है, वही ज्ञानी है, वही योगी हैं, वही तपस्वी और जितेन्द्रिय है तथा उसीको भोग और मोक्षकी प्राप्ति होती है।

बेटा! ‘प्रबोधिनी’ एकादशीको भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे मानव जो स्नान, दान, जप और होम करता है, वह सब अक्षय होता है जो मनुष्य उस तिथिको उपवास करके भगवान् माधवको भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं, वे सौ जन्मोंके पापोंसे छुटकारा पा जाते हैं।इस व्रतके द्वारा देवेश्वर ! जनार्दनको सन्तुष्ट करके मनुष्य सम्पूर्ण दिशाओंको अपने तेजसे प्रकाशित करता हुआ श्रीहरिके वैकुण्ठधामको जाता है। ‘प्रबोधिनी’ को पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द मनुष्योंके बचपन, जवानी और बुढ़ापेमें किये हुए सौ जन्मोंके पापोंको, चाहे वे अधिक हों या कम, धो डालते हैं। अतः सर्वथा प्रयत्न करके सम्पूर्ण मनोवांछित फलको देनेवाले देवाधिदेव जनार्दनकी उपासना करनी चाहिये। बेटा नारद। जो भगवान् विष्णुके भजनमें तत्पर होकर कार्तिकमें पराये अन्नका त्याग करता है, वह चान्द्रायण व्रतका फल पाता है। जो प्रतिदिन शास्त्रीय चर्चासे मनोरंजन करते हुए कार्तिक मास व्यतीत करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापको जला डालता और दस हजार यज्ञोंका फल प्राप्त करता है। कार्तिक मासमें शास्त्रीय कथाके कहने-सुननेसे भगवान् मधुसूदनको जैसा सन्तोष होता है, वैसा उन्हें यज्ञ, दान अथवा जप आदिसे भी नहीं होता। जो शुभकर्म परायण पुरुष कार्तिक मासमें एक या आधा श्लोक भी भगवान् विष्णुकी कथा बाँचते हैं, उन्हें सौ गोदानका फल मिलता है। महामुने! कार्तिकमें भगवान् केशवके सामने शास्त्रका स्वाध्याय तथा श्रवण करना चाहिये। मुनिश्रेष्ठ! जो कार्तिकमें कल्याण-प्राप्तिके लोभसे श्रीहरिकी कथाका प्रबन्ध करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंको तार देता है। जो मनुष्य सदा नियमपूर्वक कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुकी कथा सुनता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है। जो ‘प्रबोधिनी’ एकादशी के दिन श्रीविष्णुकी कथा श्रवण करता है, उसे सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वी दान करनेका फल प्राप्त होता है। मुनिश्रेष्ठ ! जो भगवान् विष्णुकी कथा सुनकर अपनी शक्तिके अनुसार कथा वाचककी पूजा करते हैं, उन्हें अक्षय लोककी प्राप्ति होती है नारद! जो मनुष्य कार्तिक मासमें भगवत्संबन्धी गीत और शास्त्रविनोदके द्वारा समय बिताता है, उसकी पुनरावृत्ति मैंने नहीं देखी है। मुने। जो पुण्यात्मा पुरुष भगवान् के समक्ष गान, नृत्य, वाद्य और श्रीविष्णुकी कथा करता है, वह तीनों लोकोंके ऊपर विराजमान होता है।मुनिश्रेष्ठ कार्तिककी ‘प्रबोधिनी एकादशीके 1 दिन बहुत-से फल-फूल, कपूर, अरगजा और कुंकुमके द्वारा श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। एकादशी आनेपर धनकी कंजूसी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उस दिन दान आदि करनेसे असंख्य पुण्यकी प्राप्ति होती है। ‘प्रबोधिनी’ को जागरणके समय शंखमें जल लेकर फल तथा नाना प्रकारके द्रव्योंके साथ श्रीजनार्दनको अर्घ्य देना चाहिये। सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करने और सब प्रकारके दान देनेसे जो फल मिलता है, वही ‘प्रबोधिनी’ एकादशीको अर्ध्य देनेसे करोड़ गुना होकर प्राप्त होता है। देवर्षे अर्ध्वके पश्चात् भोजन आच्छादन और दक्षिणा आदिके द्वारा भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये गुरुकी पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य उस दिन श्रीमद्भागवतकी कथा सुनता अथवा पुराणका पाठ करता है, उसे एक-एक अक्षरपर कपिलादानका फल मिलता है। मुनिश्रेष्ठ! कार्तिकमें जो मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार शास्त्रोक्त रीतिसे वैष्णवव्रत (एकादशी) का पालन करता है, उसकी मुक्ति अविचल है। केतकीके एक पत्तेसे पूजितहोनेपर भगवान् गरुड़ध्वज एक हजार वर्षतक अत्यन्त तृप्त रहते हैं। देवयें जो अगस्तके फूलसे भगवान् जनार्दनकी पूजा करता है, उसके दर्शनमात्रसे नरककी आग बुझ जाती है। वत्स! जो कार्तिकमें भगवान् जनार्दनको तुलसीके पत्र और पुष्प अर्पण करते हैं, उनका जन्मभरका किया हुआ सारा पाप भस्म हो जाता है। मुने! जो प्रतिदिन दर्शन, स्पर्श, ध्यान, नाम-कीर्तन, स्तवन, अर्पण, सेचन, नित्यपूजन तथा नमस्कारके द्वारा तुलसीमें नव प्रकारकी भक्ति करते हैं, वे कोटि सहस्र युगतक पुण्यका विस्तार करते हैं। * नारद! सब प्रकारके फूलों और पत्तोंको चढ़ाने से जो फल होता है, वह कार्तिक मासमें तुलसीके एक पत्तेसे मिल जाता है। कार्तिक आया देख प्रतिदिन नियमपूर्वक तुलसीके कोमल पत्तोंसे महाविष्णु श्रीजनार्दनका पूजन करना चाहिये। सौ यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करने और अनेक प्रकारके दान देनेसे जो पुण्य होता है, वह कार्तिकमें तुलसीदलमात्र से केशवकी पूजा करनेपर प्राप्त हो जाता है।

अध्याय 173 पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य

युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! अब मैं श्रीविष्णुके व्रतोंमें उत्तम व्रतका, जो सब पापको हर लेनेवाला तथा व्रती मनुष्योंको मनोवांछित फल देनेवाला हो, श्रवण करना चाहता हूँ। जनार्दन ! पुरुषोत्तम मासकी एकादशीकी कथा कहिये, उसका क्या फल है ? और उसमें किस देवताका पूजन किया जाता है? प्रभो ! किस दानका क्या पुण्य है? मनुष्योंको क्या करना चाहिये? उस समय कैसे स्नान किया जाता है? किस मन्त्रका जप होता है? कैसी पूजन विधि बतायी गयी है ? पुरुषोत्तम! पुरुषोत्तम मासमें किस अन्नका भोजनउत्तम है?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजेन्द्र ! अधिक मास आनेपर जो एकादशी होती है, वह ‘कमला’ नामसे प्रसिद्ध है। वह तिथियोंमें उत्तम तिथि है। उसके व्रतके प्रभावसे लक्ष्मी अनुकूल होती हैं। उस दिन ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर भगवान् पुरुषोत्तमका स्मरण करे और विधिपूर्वक स्नान करके व्रतो पुरुष व्रतका नियम ग्रहण करे। घरपर जप करनेका एक गुना, नदीके तटपर दूना, गोशालामै सहस्रगुना, अग्निहोत्रगृहमें एक हजार एक सौ गुना, शिवके क्षेत्रोंमें, तीथोंमें, देवताओंके निकट तथातुलसीके समीप लाख गुना और भगवान् विष्णुके निकट अनन्त गुना फल होता है।

अवन्तीपुरीमें शिवशर्मा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, उनके पाँच पुत्र थे। इनमें जो सबसे छोटा था, वह पापाचारी हो गया; इसलिये पिता तथा स्वजनोंने उसे त्याग दिया। अपने बुरे कर्मोंके कारण निर्वासित होकर वह बहुत दूर वनमें चला गया। दैवयोगसे एक दिन वह तीर्थराज प्रयागमें जा पहुँचा। भूखसे दुर्बल शरीर और दीन मुख लिये उसने त्रिवेणीमें स्नान किया। फिर क्षुधासे पीड़ित होकर वह वहाँ मुनियोंके आश्रम खोजने लगा। इतनेमें उसे वहाँ हरिमित्र मुनिका उत्तम आश्रम दिखायी दिया। पुरुषोत्तम मासमें वहाँ बहुत से मनुष्य एकत्रित हुए थे। आश्रमपर पापनाशक कथा कहनेवाले ब्राह्मणके मुखसे उसने श्रद्धापूर्वक ‘कमला’ एकादशीकी महिमा सुनी, जो परम पुण्यमयी तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। जयशर्माने विधिपूर्वक ‘कमला’ एकादशीकी कथा सुनकर उन सबके साथ मुनिके आश्रमपर ही व्रत किया जब आधी रात हुई तो भगवती लक्ष्मी उसके पास आकर बोलीं- ‘ब्रह्मन् ! इस समयकमला’ एकादशीके व्रतके प्रभावसे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ और देवाधिदेव श्रीहरिकी आज्ञा पाकर वैकुण्ठधामसे आयी हूँ। मैं तुम्हें वर दूंगी।’

ब्राह्मण बोला-माता लक्ष्मी ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो वह व्रत बताइये, जिसकी कथा-वार्ता में साधु-ब्राह्मण सदा संलग्न रहते हैं।

लक्ष्मीने कह्य — ब्राह्मण ! एकादशी-व्रतका माहात्म्य श्रोताओंके सुननेयोग्य सर्वोत्तम विषय है। यह पवित्र वस्तुओंमें सबसे उत्तम है। इससे दुःस्वप्नका नाश तथा पुण्यकी प्राप्ति होती है, अतः इसका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। उत्तम पुरुष श्रद्धासे युक्त हो एक या आधे श्लोकका पाठ करनेसे भी करोड़ों महापातकों से तत्काल मुक्त हो जाता है। जैसे मासोंमें पुरुषोत्तम मास, पक्षियोंमें गरुड़ तथा नदियोंमें गंगा श्रेष्ठ हैं; उसी प्रकार तिथियोंमें द्वादशी तिथि उत्तम है। समस्त देवता आज भी [ एकादशी व्रतके ही लोभसे] भारतवर्षमें जन्म लेनेकी इच्छा रखते हैं। देवगण सदा ही रोग-शोकसे रहित भगवान् नारायणका पूजन करते हैं। जो लोग मेरे प्रभु भगवान् नारायणके नामका सदा भक्तिपूर्वक जप करते हैं, उनकी ब्रह्मा आदि देवता सर्वदा पूजा करते हैं। जो लोग श्रीहरिके नाम-जपमें संलग्न हैं, उनकी लीला-कथाओंके कीर्तनमें तत्पर हैं तथा निरन्तर श्रीहरिकी पूजामें ही प्रवृत्त रहते हैं ये मनुष्य कलियुग कृतार्थ हैं। यदि दिनमें एकादशी और द्वादशी हो तथा रात्रि बीतते-बीतते त्रयोदशी आ जाय तो उस त्रयोदशीके पारणमें सौ यज्ञोंका फल प्राप्त होता है। व्रत करनेवाला पुरुष चक्र सुदर्शनधारी देवाधिदेव श्रीविष्णु के समक्ष निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करके भक्तिभावसे संतुष्टचित्त होकर उपवास करे। वह मन्त्र इस प्रकार है

एकादश्यां निराहारः स्थित्वाहमपरे ऽहनि

भोक्ष्यामि पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत ॥

(64।34) ‘कमलनयन। भगवान् अच्युत मैं एकादशीको निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। आप मुझे शरण दें।’

तत्पश्चात् व्रत करनेवाला मनुष्य मन और इन्द्रियोंको वशमें करके गीत, वाद्य, नृत्य और पुराण पाठ आदिके द्वारा रात्रिमें भगवान्‌ के समक्ष जागरण करें। फिर द्वादशीके दिन उठकर स्नानके पश्चात् जितेन्द्रियभावसे विधिपूर्वक श्रीविष्णुकी पूजा करे। एकादशीको पंचामृतसे जनार्दनको नहलाकर द्वादशीको केवल दूधमें स्नान करानेसे श्रीहरिका सायुज्य प्राप्त होता है। पूजा करके भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करे

अज्ञानतिमिरान्धस्य व्रतेनानेन केशव ।

प्रसीद सुमुखो भूत्वा ज्ञानदृष्टिप्रदो भव ॥

(6439)

‘केशव मैं अज्ञानरूपी रतौंधीसे अंधा हो गया हूँ। आप इस व्रतसे प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे ज्ञानदृष्टि प्रदान करें।’

इस प्रकार देवताओंके स्वामी देवाधिदेव भगवान् गदाधरसे निवेदन करके भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा उन्हें दक्षिणा दे। उसके बाद भगवान् नारायणके शरणागत होकर बलिवैश्वदेवकी विधि पंचमहायज्ञ का अनुष्ठान करके स्वयं मौन हो अपने बन्धुबान्धवके साथ भोजन करे इस प्रकार जो शुद्धभावसे पुण्यमय एकादशीका व्रत करता है, वह पुनरावृत्तिसे रहित वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर लक्ष्मीदेवी उस ब्राह्मणको वरदान दे अन्तर्धान हो गयीं। फिर वह ब्राह्मण भी धनी होकर पिताके घरपर आ गया। इस प्रकार जो ‘कमला’ का उत्तम व्रत करता है तथा एकादशीके दिन इसका माहात्म्य सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

युधिष्ठिर बोले- जनार्दन पापका नाश और पुण्यका दान करनेवाली एकादशीके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये, जिसे इस लोकमें करके मनुष्य परम पदको प्राप्त होता है।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- राजन्। शुक्ल या कृष्णपक्षमें जभी एकादशी प्राप्त हो, उसका परित्याग न करे, क्योंकि वह मोक्षरूप सुखको बढ़ानेवाली है।कलियुगमें तो एकादशी ही भव-बन्धनसे मुक्त करनेवाली, सम्पूर्ण मनोवांछित कामनाओंको देनेवाली तथा पापका नाश करनेवाली है। एकादशी रविवारको, किसी मंगलमय पर्वके समय अथवा संक्रान्तिके ही दिन क्यों न हो, सदा ही उसका व्रत करना चाहिये। भगवान् विष्णुके प्रिय भक्तोंको एकादशीका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। जो शास्त्रोक्त विधिसे इस लोकमें एकादशीका व्रत करते हैं, वे जीवन्मुक्त देखे जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

युधिष्ठिरने पूछा— श्रीकृष्ण के जीवन्मुक्त कैसे हैं? तथा विष्णुरूप कैसे होते हैं? मुझे इस विषयको जानने के लिये बड़ी उत्सुकता हो रही है।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- राजन्! जो कलियुगमें भक्तिपूर्वक शास्त्रीय विधिके अनुसार निर्जल रहकर एकादशीका उत्तम व्रत करते हैं, वे विष्णुरूप तथा जीवन्मुक्त क्यों नहीं हो सकते हैं? एकादशीव्रत के समान सब पापोंको हरनेवाला तथा मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला पवित्र व्रत दूसरा कोई नहीं है। दशमीको एक बार भोजन, एकादशीको निर्जलव्रत तथा द्वादशीको पारण करके मनुष्य श्रीविष्णुके समान हो जाते हैं। पुरुषोत्तम मासके द्वितीय पक्षकी एकादशीका नाम ‘कामदा’ है। जो श्रद्धापूर्वक ‘कामदा’ के शुभ व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इस लोक और परलोकमें भी मनोवांछित वस्तुको पाता है। यह ‘कामदा’ पवित्र, पावन, महापातकनाशिनी तथा व्रत करनेवालोंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। नृपश्रेष्ठ! ‘कामदा एकादशीको विधिपूर्वक पुष्प, धूप, नैवेद्य तथा फल आदिके द्वारा भगवान् पुरुषोत्तमकी पूजा करनी चाहिये। व्रत करनेवाला वैष्णव पुरुष दशमी तिथिको काँसके बर्तन, उड़द, मसूर, चना, कोदो, साग, मधु, पराया अन्न, दो बार भोजन तथा मैथुन-इन दसका परित्याग करे। इसी प्रकार एकादशीको जुआ, निद्रा, पान, दाँतुन, परायी निन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध और असत्य भाषण- इन ग्यारह दोषोंको त्याग दे तथा द्वादशीके दिन काँसका वर्तन, उड़द, मसूर, तेल, असत्य भाषण, व्यायाम, परदेशगमन, दो बार भोजन, मैथुन, बैलकी पीठपर सवारी, पराया अन्न तथा साग—इन बारह वस्तुओंका त्याग करे। राजन् ! जिन्होंने इस विधि से’कामदा’ एकादशीका व्रत किया और रात्रिमें जागरण करके श्रीपुरुषोत्तमकी पूजा की है, सब पापोंसे मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। इसके पढ़ने और सुननेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है।

अध्याय 174 चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन

नारदजीने पूछा- महेश्वर पृथ्वीपर चातुर्मास्य व्रतके जो प्रसिद्ध नियम हैं, उन्हें में सुनना चाहता हूँ; आप उनका वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले- देवर्षे! सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर देता हूँ। आषाढ़ शुक्लपक्षमें एकादशीको उपवास करके भक्तिपूर्वक चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण करे। श्रीहरिके योगनिद्रामै प्रवृत्त हो जानेपर मनुष्य चार मास अर्थात् कार्तिक पूर्णिमातक भूमिपर शयन करे। इस बीचमें न तो घर या मन्दिर आदिकी प्रतिष्ठा होती हैं और न यज्ञादि कार्य ही सम्पन्न होते हैं विवाह, यज्ञोपवीत, अन्यान्य मांगलिक कर्म, राजाओंकी यात्रा तथा नाना प्रकारकी दूसरी दूसरी क्रियाएँ भी नहीं होतीं। मनुष्य एक हजार अश्वमेधयज्ञ करनेसे जिस फलको पाता है, वही चातुर्मास्य व्रतके अनुष्ठानसे प्राप्त कर लेता है। जब सूर्य मिथुनराशिपर हों, तब भगवान् मधुसूदनको शयन कराये और तुलाराशिके सूर्य होनेपर पुनः श्रीहरिको शयनसे उठाये। यदि मलमास आ जाय तो निम्नलिखित विधिका अनुष्ठान करे। भगवान् विष्णुकी प्रतिमा स्थापित करे, जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाली हो, जिसे पीताम्बर पहनाया गया हो तथा जो सौम्य आकारवाली हो। नारद! उसे शुद्ध एवं सुन्दर पलंगपर, जिसके ऊपर सफेद चादर बिछी हो और तकिया रखी हो, स्थापित करे। फिर दही, दूध, मधु, लावा और घीसे नहलाकर उत्तम चन्दनका लेप करे। तत्पश्चात् धूप दिखाकर मनोहर पुष्पोंसे श्रृंगार करे। इस प्रकार उसकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रसे प्रार्थना करे

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्।

विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत्सर्वं चराचरम् ॥

(6615)

‘जगन्नाथ आपके सो जानेपर यह सारा जगत् सो जाता है तथा आपके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् जाग उठता है। ‘

नारद इस प्रकार भगवान् विष्णुकी प्रतिमाको स्थापित करके उसीके आगे स्वयं वाणीसे कहकर चातुर्मास्य व्रतके नियम ग्रहण करे स्त्री हो या पुरुष, जो भगवान्का भक्त हो, उसे हरिबोधिनी एकादशीतक चार महीनोंके लिये नियम अवश्य ग्रहण करने चाहिये। जितात्मा पुरुष निर्मल प्रभातकालमें दन्तधावनपूर्वक उपवास करके नित्यकर्मका अनुष्ठान करनेके पश्चात् भगवान् विष्णुके समक्ष जिन नियमोंको ग्रहण करता है, उनका तथा उनके पालन करनेवालोंका फल पृथक्-पृथक् बतलाता हूँ।

विद्वन्! चातुर्मास्यमें गुड़का त्याग करनेसे मनुष्यको मधुरताकी प्राप्ति होती है इसी प्रकार तेलको त्याग देनेसे दीर्घायु संतान और सुगन्धित तेलके त्यागसे अनुपम सौभाग्यकी प्राप्ति होती है। योगाभ्यासी मनुष्य ब्रह्मपदको प्राप्त होता है। ताम्बूलका त्याग करनेसे मनुष्य भोग-सामग्रीसे सम्पन्न होता और उसका कष्ठ सुरीला होता है। घीके त्यागसे लावण्यकी प्राप्ति होती और शरीर चिकना होता है। विप्रवर त्याग करनेवालेको बहुत-से पुत्रोंकी प्राप्ति होती है जो चौमासेभर पलाशके पत्तेमें भोजन करता है, वह रूपवान् और भोग-सामग्रीसे सम्पन्न होता है। दही-दूध छोड़नेवाले मनुष्यको गोलोक मिलता है। जो मौनव्रत धारण करता है, उसकी आज्ञा भंग नहीं फलका होती। जो स्थालीपाक (बटलोईमें भोजन बनाकर खाने) का त्याग करता है, वह इन्द्रका सिंहासन प्राप्त करता है। नारद । इस प्रकारके त्यागसे धर्मकी सिद्धि होती है। इसके साथ ‘नमो नारायणाय’ का जपकरनेसे सौगुने फलकी प्राप्ति होती है। चौमासेका व्रत करनेवाला पुरुष पोखरेमें स्नान करनेमाजसे गंगा स्नानका फल पाता है। जो सदा पृथ्वीपर भोजन करता है, वह पृथ्वीका स्वामी होता है। श्रीविष्णुकी चरण चन्दना करनेसे गोदानका फल मिलता है। उनके चरणकमलोंका स्पर्श करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। प्रतिदिन एक समय भोजन करनेवाला पुरुष अग्निष्टोमयज्ञका फलभागी होता है जो श्रीविष्णुकी एक सौ आठ बार परिक्रमा करता है, वह दिव्य विमानपर बैठकर यात्रा करता है। विद्वन्! पंचगव्य खानेवाले मनुष्यको चान्द्रायणका फल मिलता है। जो प्रतिदिन भगवान् विष्णुके आगे शास्त्रविनोदके द्वारा लोगोंको ज्ञान देता है, वह व्यासस्वरूप विद्वान् श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। तुलसीदलसे भगवान्‌को पूजा करके मानव वैकुण्ठधाममें जाता है। गर्म जलका त्याग कर देनेसे पुष्कर तीर्थमें स्नान करनेका फल होता है। जो पत्तोंमें भोजन करता है, उसे कुरुक्षेत्रका फल मिलता है। जो प्रतिदिन पत्थरकी शिलापर भोजन करता है, उसे प्रयाग-तीर्थका पुण्य प्राप्त होता है।

चौमासेमें काँसीके बरतनोंका त्याग करके अन्यान्य धातुओंके पात्रोंका उपयोग करे। अन्य किसी प्रकारका पात्र न मिलनेपर मिट्टीका ही पात्र उत्तम है अथवा स्वयं ही पलाशके पत्ते लाकर उनकी पत्तल बनावे और उनसे भोजन – पात्रका काम ले। जो पूरे एक वर्षतक प्रतिदिन अग्निहोत्र करता है और जो वनमें रहकर केवल पत्तोंमें भोजन करता है, उन दोनोंको समान फल मिलता है। पलाशके पत्तोंमें किया हुआ भोजन चान्द्रायणके समान माना गया है। पलाशके पत्तों में एक-एक बारका भोजन त्रिरात्र व्रतके समान पुण्यदायक और बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला बताया गया है। एकादशीके व्रतका जो पुण्य है, वही पलाशके पत्तेमें भोजन करनेका भी बतलाया गया है। उससे मनुष्य सब प्रकारके दानों तथा समस्त तीर्थोंका फल पा लेता है। कमलके पत्तोंमें भोजन करनेसे कभी नरक नहीं देखना पड़ता। ब्राह्मण उसमें भोजन करनेसे वैकुण्ठमें जाता है। ब्रह्माजीका महान्वृक्ष—पलाश पापका नाशक और सम्पूर्ण कामनाओंका दाता है। नारद! इसका बिचला पत्ता शूद्रजातिके लिये निषिद्ध है। यदि शुद्र पलाशके बिचले पत्रमें भोजन करता है तो उसे चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त नरकमे रहना पड़ता है; अतः वह बिचले पत्रको त्याग दे और शेष पत्रोंमें भोजन किया करे। ब्रह्मन् ! जो शूद्र बिचले पत्रमें भोजन करता है, वह ब्राह्मणको कपिला गौ दान करनेसे ही शुद्ध होता है, अन्यथा नहीं।

यदि शूद्र अपने घरमें कपिला गौका दोहन करे तो वह दस हजार वर्षोंतक विष्ठाका कीड़ा होता है। कीड़ेकी योनिसे छूटनेपर पशुयोनिमें जन्म लेता है। जो शुद्र कपिल जातिके बैलको गाड़ी जोतकर होता है, वह उस बैलके शरीरमें जितने रोएँ होते हैं, उतने वर्षोंतक कुम्भीपाकर्मे पकाया जाता है; यदि शूद्र पानी लानेके लिये किसी ब्राह्मणको घरमें भेजे तो वह जल मदिराके तुल्य होता है और उसे पीनेवाला नरकमें जाता है। जो शूद्र बुलानेपर ब्राह्मणोंके घर भोजन करता है, उसके लिये वह अन्न अमृतके समान होता है और उसे खाकर वह मोक्ष प्राप्त करता है। जो शूद्र लोभवश दूसरेका विशेषतः ब्राह्मणोंका सोना या चाँदी ले लेता है, वह नरकमें जाता है। शूद्रको चाहिये कि वह सदा ब्राह्मणोंको दान दे और उनमें विशेषरूपसे भक्तिभाव करे। विशेषतः चौमासेमें जैसे भगवान् विष्णु आराधनीय हैं, वैसे ही ब्राह्मण भी नारद! ब्राह्मणोंकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। भाद्रपद मास आनेपर उनकी महापूजा होती है। चौमासेमें भूमिपर शयन करनेवाला मनुष्य विमान प्राप्त करता है। दस हजार वर्षोंतक उसे रोग नहीं सताते। वह मनुष्य बहुत-से पुत्र और धनसे युक्त होता है उसे कभी कोढ़की बीमारी नहीं होती। बिना माँगे स्वतः प्राप्त हुए अन्नका भोजन करनेसे बावली और कुआँ बनवानेका फल होता है जो प्राणियोंकी हिंसासे मुँह मोड़कर द्रोहका त्याग कर देता है, वह भी पूर्वोक्त पुण्यका भागी होता है। वेदोंमें बताया गया है कि ‘अहिंसा श्रेष्ठ धर्म है।’ दान, दया और दम ये भी उत्तम धर्म हैं, यह बात मैंने सर्वत्र ही सुनी है; अतः बड़े लोगोंको भीचाहिये कि वे पूरा प्रयत्न करके उक्त धर्मोका पालन करें। यह चातुर्मास्य व्रत मनुष्योंद्वारा सदा पालन करनेयोग्य है। ब्रह्मन् और अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता ? इस पृथ्वीपर जो लोग भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य हैं! उनका कुल अत्यन्त धन्य है। तथा उनकी जाति भी परम धन्य मानी गयी है।

जो भगवान् जनार्दनके शयन करनेपर मधु भक्षण करता है, उसे महान् पाप लगता है; अब उसके त्यागनेका जो पुण्य है, उसका भी श्रवण करो, नाना प्रकारके जितने भी यज्ञ हैं, उन सबके अनुष्ठानका फल उसे प्राप्त होता है। चौमासेमें अनार, नीबू और नारियलका भी त्याग करे। ऐसा करनेवाला पुरुष विमानपर विचरनेवाला देवता होकर अन्तमें भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य धान जी और गेहूँका त्याग करता है, वह विधिपूर्वक दक्षिणासहित अश्वमेधादि यज्ञोंके अनुष्ठानका फल पाता है। साथ ही वह धन-धान्यसे सम्पन्न और अनेक पुत्रोंसे युक्त होता है। तुलसीदल, तिल और कुशोंसे तर्पण करनेका फल कोटिगुना बताया गया है। विशेषतः चातुर्मास्यमें उसका फल बहुत अधिक होता है। जो भगवान् विष्णुके सामने वेदके एक या आधे पदका अथवा एक या आध ऋचाका भी गान करते हैं, वे निश्चय ही भगवान्के भक्त हैं; इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। नारद! जो चौमासेमें दही, दूध, पत्र, गुड़ और साग छोड़ देता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। मुने! जो मनुष्य प्रतिदिन आँवला मिले हुए जलसे ही स्नान करते हैं, उन्हें नित्य महान् पुण्य प्राप्त होता है। मनीषी पुरुष आँवलेके फलको पापहारी बतलाते हैं। ब्रह्माजीने तीनों लोकोंको तारनेके लिये पूर्वकालमें आँवलेकी सृष्टि की थी। जो मनुष्य चौमासेभर अपने हाथसे भोजन बनाकर खाता है, वह दस हजार वर्षोंतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है जो मौन होकर भोजन करता है, वह कभी दुःखमें नहीं पड़ता। मौन होकर भोजन करनेवाले राक्षस भी स्वर्गलोकमें चले गये हैं। यदि पके हुए अन्नमें कीड़े-मकोड़े पड़ जायँ तो वहअशुद्ध हो जाता है। यदि मानव उस अपवित्र अन्नको खा ले तो वह दोषका भागी होता है। मौन होकर भोजन करनेवाला पुरुष निस्सन्देह स्वर्गलोकमें जाता है जो बात करते हुए भोजन करता है, उसके वार्तालापसे अन्न अशुद्ध हो जाता है, वह केवल पापका भोजन करता है; अतः मौनधारण अवश्य करना चाहिये। नारद! मौनावलम्बनपूर्वक जो भोजन किया जाता है, उसे उपवासके समान जानना चाहिये। जो नरश्रेष्ठ प्रतिदिन प्राणवायुको पाँच आहुतियाँ देकर मौन भोजन करता है, उसके पाँच पातक निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मन् पितृकर्म (श्राद्ध) में सिला हुआ वस्त्र नहीं पहनना चाहिये। अपवित्र अंगपर पड़ा हुआ वस्त्र भी अशुद्ध हो जाता है। मल मूत्रका त्याग अथवा मैथुन करते समय कमर अथवा पीठपर जो वस्त्र रहता है, उस वस्त्रको अवश्य ही बदल दे। श्राद्धमें तो ऐसे वस्त्रको त्याग देना ही उचित है। मुने! विद्वान् पुरुषोंको सदा चक्रधारी भगवान् विष्णुको पूजा करनी चाहिये। विशेषतः पवित्र एवं जितेन्द्रिय पुरुषोंका यह आवश्यक कर्तव्य है। भगवान् हृषीकेशके शयन करनेपर तृणशाक (पत्तियोंका साग), कुम्भिका (लौकी) तथा सिले हुए कपड़े यलपूर्वक त्याग देने चाहिये। जो चौमासेमें भगवान्के शयन करनेपर इन वस्तुओंको त्याग देता है, वह कल्प कभी नरकमें नहीं पड़ता। विप्रवर! जिसने असत्य भाषण, क्रोध, शहद तथा पर्वके अवसरपर मैथुनका त्याग कर दिया है, वह अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। विद्वन्! किसी पदार्थको उपभोगमें लानेके पहले उसमेंसे कुछ ब्राह्मणको दान करना चाहिये; जो ब्राह्मणको दिया जाता है, वह धन अक्षय होता है। ब्रह्मन् ! मनुष्य दानमें दिये हुए धनका कोटि-कोटि गुना फल पाता है। जो पुरुष सदा ब्राह्मणकी बतायी हुई उत्तम विधि तथा शास्त्रोक्त नियमोंका पालन करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है, अतः पूर्ण प्रयत्न करके यथाशक्ति नियम और दानके द्वारा देवाधिदेव जनार्दनको संतुष्ट करना चाहिये।

नारदजीने पूछा- विश्वेश्वर! जिसके आचरणसेभगवान् गोविन्द मनुष्योंपर संतुष्ट होते हैं, वह ब्रह्मचर्य कैसा होता है? प्रभो। यह बतलाने की कृपा करें।


महादेवजीने कहा- विद्वन् जो केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखता है, उसे विद्वानोंने ब्रह्मचारी माना है। केवल ऋतुकालमें स्त्रीसमागम करनेसे ब्रहाचार्यको रक्षा होती है जो अपने में भक्ति रखनेवाली निर्दोष पत्नीका परित्याग करता है, वह पापी मनुष्य लोकमें भ्रूणहत्याको प्राप्त होता है।

चौमासेमें जो स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किया जाता है, वह सब अक्षय होता है। जो एक अथवा दोनों समय पुराण सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धामको जाता है जो भगवान्के शयन करनेपर विशेषतः उनके नामका कीर्तन और जप करता है, उसे कोटिगुना फल मिलता है जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुका भक्त है और प्रतिदिन उनका पूजन करता है, वही सबमें धर्मात्मा तथा वही सबसे पूज्य है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है मुने! इस पुण्यमय पवित्र एवं पापनाशक चातुर्मास्य व्रतको सुननेसे मनुष्यको गंगास्नानका फल मिलता है। नारदजीने कहा प्रभो। चातुर्मास्य व्रतका उद्यापन बतलाइये; क्योंकि उद्यापन करनेपर निश्चय ही सब कुछ परिपूर्ण होता है।

महादेवजी बोले- महाभाग ! यदि व्रत करनेवाला पुरुष व्रत करनेके पश्चात् उसका उद्यापन नहीं करता, तो वह कमौके यथावत् फलका भागी नहीं होता। मुनिश्रेष्ठ उस समय विशेषरूपसे सुवर्णके साथ अन्नका दान करना चाहिये; क्योंकि अन्नके दानसे वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है जो मनुष्य चौमासेभर पलाशकी पत्तल में भोजन करता है, वह उद्यापनके समयघीके साथ भोजनका पदार्थ ब्राह्मणको दान करे। यदि उसने अयाचित व्रत (बिना माँगे स्वतः प्राप्त अन्नका भोजन) किया हो तो सुवर्णयुक्त वृषभका दान करे। मुनिश्रेष्ठ उड़दका त्याग करनेवाला पुरुष बछडेसहित गौका दान करे। आँवलेके फलसे स्नानका नियम पालन करनेपर मनुष्य एक माशा सुवर्ण दान करे। फलोंके त्यागका नियम करनेपर फल दान करे। धान्यके त्यागका नियम होनेपर कोई सा धान्य (अन्न) अथवा अगहनीके चावलका दान करे। भूमिशयनका नियम पालन करनेपर रूईके गद्दे और तकियेसहित शय्यादान करे। द्विजवर जिसने सीमामै ब्रह्मचर्य का पालन किया है उसको चाहिये कि भक्तिपूर्वक ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन दें, साथ ही उपभोगके अन्यान्य सामान, दक्षिणा, साग और नमक दान करे। प्रतिदिन बिना तेल लगाये स्नानका नियम पालन करनेवाला मनुष्य घी और सत्तू दान करे। नख और केश रखनेका नियम पालन करनेपर दर्पण दान करे। यदि जूते छोड़ दिये हो तो उद्यापन के समय जूतोंका दान करना चाहिये। जो प्रतिदिन दीपदान करता रहा हो, वह उस दिन सोनेका दीप प्रस्तुत करे और उसमें घी डालकर विष्णुभक्त ब्राह्मणको दे दे। देते समय यही उद्देश्य होना चाहिये कि मेरा व्रत पूर्ण हो जाय। पान न खानेका नियम लेनेपर सुवर्णसहित कपूरका दान करे। द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार नियमके द्वारा समय समयपर जो कुछ परित्याग किया हो, वह परलोकमें सुख प्राप्तिकी इच्छासे विशेषरूपसे दान करे। पहले स्नान आदि करके भगवान् विष्णुके समक्ष उद्यापन कराना चाहिये। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु आदि-अन्तसे रहित हैं, उनके आगे उद्यापन करनेसे व्रत परिपूर्ण होता है।

अध्याय 175 यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य

नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ। अब मेरे हितके लिये आप यमकी आराधना बताइये। देव किस उपायसे मनुष्यकी एक नरकसे दूसरे नरकमें नहीं जाना पड़ता। सुना जाता है यमलोक वैतरणी नदी है, जो दुर्द अपार, दुस्तर तथा रक्तकी धारा बहानेवाली है। वह समस्त प्राणियोंके लिये दुस्तर है, उसे सुगमताके साथ किस प्रकार पार किया जा सकता है?

महादेवजी बोले- प्रान् पूर्वकालकी बात है, द्वारकापुरीके समुद्र स्नान करके मैं ज्यों ही निकला, सामनेसे मुझे ब्रह्मचारी मुद्गल मुनि आते दिखायी दिये। उन्होंने प्रणाम किया और विस्मित होकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

मुद्गल बोले- देव मैं अकस्मात् मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा था। उस समय मेरे सारे अंग जल रहे थे। इतनेहीमें यमराजके दूतोंने आकर मुझे बलपूर्वक शरीरसे खींचा। मैं अंगूठेके बराबर पुरुष शरीर धारण करके बाहर निकला; फिर उन दूतोंने मुझेखूब कसकर बाँधा और उसी अवस्थामें यमराजके पास पहुँचा दिया। मैं एक ही क्षणमें यमराजकी सभा में पहुँचकर देखता हूँ कि पीले नेत्र और काले मुखवाले यम सामने ही बैठे हैं। वे महाभयंकर जान पड़ते थे। भयानक राक्षस और दानव उनके पास बैठे और सामने खड़े थे। अनेक धर्माधिकारी तथा चित्रगुप्त आदि लेखक वहाँ मौजूद थे। मुझे देखकर विश्वके शासक यमने अपने किंकरोंसे कहा- ‘अरे! तुमलोग नामके भ्रममें पड़कर मुनिको कैसे ले आये? इन्हें छोड़ो और कौण्डिन्य नामक ग्राममें जो भीमकका पुत्र मुद्गल नामक क्षत्रिय है, उसको ले आओ; क्योंकि उसकी आयु समाप्त हो चुकी है। ‘

यह सुनकर वे दूत वहाँ गये और पुनः लौट आये। फिर समस्त यमदूत धर्मराजसे बोले-‘सूर्यनन्दन ! वहाँ जानेपर भी हमलोगोंने ऐसे किसी प्राणीको नहीं देखा, जिसकी आयु क्षीण हो चुकी हो। न जाने, कैसे हमलोगोंका चित्त भ्रममें पड़ गया ?’

यमराज बोले- जिन लोगोंने ‘वैतरणी’ नामक द्वादशीका व्रत किया है, वे तुम यमदूतोंके लिये प्रायः अदृश्य हैं। उज्जैन, प्रयाग अथवा यमुनाके तटपर जिनकी मृत्यु हुई है तथा जिन्होंने तिल, हाथी, सुवर्ण और गौ आदिका दान किया है, वे भी तुमलोगों की दृष्टिमें नहीं आ सकते।

दूतोंने पूछा- स्वामिन्! वह व्रत कैसा है? आप उसका पूरा-पूरा वर्णन कीजिये। देव! मनुष्योंको उस समय ऐसा कौन-सा कर्म करना चाहिये जो आपको संतोष देनेवाला हो। जिन्होंने कृष्णपक्षकी एकादशीका व्रत किया है, वे कैसे पापमुक्त हो सकते हैं?

यमराज बोले- दूतो! मार्गशीर्ष आदि मासोंमें जो ये कृष्णपक्षकी द्वादशियाँ आती हैं, उन सबमें विधिपूर्वक वैतरणी व्रत करना चाहिये। जबतक वर्ष पूरा न हो जाय, तबतक प्रतिमास व्रतको चालू रखना चाहिये। व्रतके दिन उपवासका नियम ग्रहण करनाचाहिये, जो भगवान् विष्णुको संतोष प्रदान करनेवाला है। द्वादशोको श्रद्धा और भक्तिके साथ श्रीगोविन्दकी पूजा करके इस प्रकार कहे- ‘देव! स्वप्नमें इन्द्रियोंकी विकलाके कारण यदि भोजन और मैथुनको क्रिया बन जाय तो आप मुझपर कृपा करके क्षमा कीजिये।’ इस प्रकार नियम करके मिट्टी, गोमय और तिल लेकर मध्याहनमें तीर्थ (जलाशय) के पास जाय और व्रतको पूर्तिके लिये निम्नांकित मन्त्रसे विधिपूर्वक स्नान करे

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ॥

मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ।

त्वया हतेन पापेन सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

काश्यां चैव तु संभूतास्तिला वै विष्णुरूपिणः ।

तिलस्नानेन गोविन्दः सर्वपापं व्यपोहति ॥

विष्णुदेोद्भवे देवि महापापापहारिणि ।

सर्वपापं हर त्वं वै सर्वौषधि नमोऽस्तु ते॥

(68 | 34-37) ‘वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतारके समय भगवान् विष्णुने भी तुम्हें अपने चरणोंसे नापा था। मृत्तिके! मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, मेरा वह सारा पाप तुम हर लो तुम्हारे द्वारा पापका नाश हो जानेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। तिल काशी में उत्पन्न हुए हैं तथा वे भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। तिलमिश्रित जलके द्वारा स्नान करनेपर भगवान् गोविन्द सब पापका नाश कर देते हैं। देवी सर्वोषधि ! तुम भगवान् विष्णुके देहसे प्रकट हुई तथा महान् पापका अपहरण करनेवाली हो। तुम्हें नमस्कार है। तुम मेरे सारे पाप हर लो।’

इस प्रकार मृत्तिका आदिके द्वारा स्नान करके सिरपर तुलसीदल धारण कर तुलसीका नाम लेते हुए स्नान करे। यह स्नान ऋषियोंद्वारा बताया गया है। इसे विधिपूर्वक करना चाहिये। इस तरह स्नान करनेके पश्चात् जलसे बाहर निकलकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। फिर देवताओं और पितरोंका तर्पण करके श्रीविष्णुका पूजन करे। उसकी विधि इस प्रकार है। पहले एक कलशकी, फूटा टूटा न हो, स्थापना करे। उसमें पंचपल्लवऔर पंचरत्न डाल दे। फिर दिव्य माला पहनाकर उस कलशको गन्धसे सुवासित करे कलशमें जल भर दे और उसमें द्रव्य डालकर उसके ऊपर ताँबेका पात्र रख दे। इसके बाद उस पात्रमें देवाधिदेव तपोनिधि भगवान् श्रीधरकी स्थापना करके पूर्वोक्त विधिसे पूजा करे। फिर मिट्टी और गोवर आदिसे सुन्दर मण्डल बनावे। सफेद और धुले हुए चावलोंको पानीमें पीसकर उसके द्वारा मण्डलका संस्कार करे। तत्पश्चात् हाथ-पैर आदि अंगोंसे युक्त धर्मराजका स्वरूप बनावे और उसके आगे ताँबेकी वैतरणी नदी स्थापित करके उसकी पूजा करे। उसके बाद पृथक् आवाहन आदि करके यमराजकी विधिवत् पूजा करे।

पहले भगवान् विष्णुसे इस प्रकार प्रार्थना करे – महाभाग केशव ! मैं विश्वरूपी देवेश्वर यमका आवाहन करता हूँ। आप यहाँ पधारें और समीपमें निवास करें। लक्ष्मीकान्त ! हरे! यह आसनसहित पाद्य आपकी सेवामें समर्पित है। प्रभो! विश्वका प्राणिसमुदाय आपका स्वरूप है। आपको नमस्कार है। आप प्रतिदिन मुझपर कृपा कीजिये।’ इस प्रकार प्रार्थना करके ‘भूतिदाय नम:’ इस मन्त्रके द्वारा भगवान् विष्णुके चरणोंका, ‘अशोकाय नमः ‘ से घुटनोंका, ‘शिवाय नमः’ से जाँघोंका, ‘विश्वमूर्तये नमः’ से कटिभागका ‘कन्दपय नमः’ से लिंगका, ‘आदित्याय नमः’ से अण्डकोषका, ‘दामोदराय नमः’ से उदरका, ‘वासुदेवाय नमः – से स्तनोंका, ‘श्रीधराय नमः’ ‘श्रीधराय नमः’ से मुखका, ‘केशवाय नमः’ से केशोंका, ‘शार्ङ्गधराय नमः – से पीठका, ‘वरदाय नमः’ से पुनः चरणोंका, ‘शङ्खपाणये चक्रपाणये नमः’, ‘असिपाणये नमः’, ‘गदापाणये नमः’ और ‘परशुपाणये नमः ‘ – इन नाममन्त्रोंद्वारा क्रमशः शंख, चक्र, खड्ग, गदा तथा परशुका तथा ‘सर्वात्मने नमः’ इस मन्त्रके द्वारा मस्तकका ध्यान करे। इसके बाद
यों कहे- ‘मैं समस्त पापकी राशिका नाश करनेके लिये मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्किका पूजन करता हूँ; भगवन्! इन अवतारोंके रूपमें आपकोनमस्कार है। बारम्बार नमस्कार है।’ इन सभी मन्त्रोंके द्वारा श्रीविष्णुका ध्यान करके उनका पूजन करे। * तत्पश्चात् निम्नांकित नाममन्त्रोंके द्वारा भगवान् धर्मराजका पूजन करना चाहिये

धर्मराज नमस्तेऽस्तु धर्मराज नमोऽस्तु ते ।

दक्षिणाशाय ते तुभ्यं नमो महिषवाहन ॥

चित्रगुप्त नमस्तुभ्यं विचित्राय नमो नमः ।

नरकार्तिप्रशान्त्यर्थं कामान् यच्छ ममेप्सितान् ॥

यमाय धर्मराजाय मृत्यवे चान्तकाय च।

वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च ll

वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय वै नमः ।

नीलाय चैव दध्नाय नित्यं कुर्यान्नमो नमः ॥

(68।53-56) ‘धर्मराज! आपको बारम्बार नमस्कार है। दक्षिण दिशाके स्वामी! आपको नमस्कार है। महिषपर चलनेवाले देवता! आपको नमस्कार है। चित्रगुप्त! आपको नमस्कार है। नरककी पीड़ा शान्त करनेके लिये विचित्र नामसे प्रसिद्ध आपको नमस्कार है। आप मेरी मनोवांछित कामनाएँ पूर्ण करें। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, वृकोदर, चित्र, चित्रगुप्त, नील और दध्नको नित्य नमस्कार करना चाहिये।’

तदनन्तर वैतरणीकी प्रतिमाको अर्घ्य देते हुए इस प्रकार कहे- ‘वैतरणी! तुम्हें पार करना अत्यन्त कठिन है। तुम पापका नाश करनेवाली और सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली हो। महाभागे ! यहाँ आओ और मेरे दिये हुए अर्घ्यको ग्रहण करो। यमद्वारके भयंकर मार्ग वैतरणी नदी विख्यात है उससे उद्धार पानेकेलिये मैं यह अर्घ्य दे रहा हूँ। जो जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे परे है, पापी पुरुषोंके लिये जिसको पार करना अत्यन्त कठिन हैं, जो समस्त प्राणियोंके भयका निवारण करनेवाली है तथा यातनामें पड़े हुए प्राणी भयके मारे जिसमें डूब जाते हैं, उस भयंकर वैतरणी नदीको पार करनेके लिये मैंने यह पूजन किया है। वैतरणी देवी तुम्हारी जय हो तुम्हें बारम्बार नमस्कार है। जिसमें देवता वास करते हैं, वही वैतरणी नदी है। मैंने भगवान् केशवकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक उस नदीका पूजन किया है। पापका नाश करनेवाली सिन्धुरूपिणी वैतरणी नदीकी पूजा सम्पन्न हुई। मैं उसे पार करने तथा सब पापोंसे छुटकारा पानेके लिये इस वैतरणी प्रतिमाका दान करता हूँ।’

इसके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर भगवान्से प्रार्थना करे

कृष्ण कृष्ण जगन्नाथ संसारादुद्धरस्य माम् ॥

नामग्रहणमात्रेण सर्वपापं हरस्व मे।

(68 । 64-65) ‘कृष्ण! कृष्ण! जगदीश्वर! आप संसारसे मेरा उद्धार कीजिये। अपने नामोंके कीर्तनमात्रसे मेरा सारा पाप हर लीजिये।’

फिर क्रमशः यज्ञोपवीत आदि समर्पण करे। यज्ञोपवीतका मन्त्र इस प्रकार है

यज्ञोपवीतं परमं कारितं नवतन्तुभिः ॥

प्रतिगृह्णीष्व देवेश प्रीतो यच्छ ममेप्सितम् ।

‘देवेश्वर मैंने नौ तन्तुओंसे इस उत्तमयज्ञोपवीतका निर्माण कराया है, आप इसे ग्रहण करें और प्रसन्न होकर मेरा मनोरथ पूर्ण करें।’

ताम्बूल-मन्त्र

इदं दत्तं च ताम्बूलं यथाशक्ति सुशोभनम् ॥

प्रतिगृह्णीष्व देवेश मामुद्धर भवार्णवात् ।

(68 । 66-67)

‘देवेश! मैंने यथाशक्ति उत्तम शोभासम्पन्न ताम्बूल दान किया है, इसे स्वीकार करें और भवसागरसे मेरा उद्धार कर दें।’

दीप – आरतीका मन्त्र

पञ्चवर्तिप्रदीपोऽयं देवेशारार्तिकं तव ॥

मोहान्धकारद्युमणे भक्तियुक्तो भवार्तिहन् l


(68 । 67-68)

‘देवेश ! आप मोहरूपी अन्धकार दूर करनेके लिये सूर्यरूप हैं। भव-बन्धनकी पीड़ा हरनेवाले परमात्मन् ! मैं भक्तियुक्त होकर आपकी सेवामें यह पाँच बत्तियोंका दीपक प्रस्तुत करता हूँ। यह आपके लिये आरती है।’

नैवेद्य-मन्त्र

परमान्नं सुपक्वान्नं समस्तरससंयुतम् ॥

निवेदितं मया भक्त्या भगवन् प्रतिगृह्यताम् ।

(68।68-69)

‘भगवन्! मैंने सब रसोंसे युक्त सुन्दर पकवान, ज़ो परम उत्तम अन्न है, भक्तिपूर्वक सेवामें निवेदन किया है; आप इसे स्वीकार करें।’

जप- समर्पण

द्वादशाक्षरमन्त्रेण यथासंख्यजपेन च ॥

प्रीयतां मे श्रियः कान्तः प्रीतो यच्छतु वाञ्छितम्

(68/69-70)

‘द्वादशाक्षर मन्त्रका यथाशक्ति जप करनेसे भगवान्
लक्ष्मीकान्त मुझपर प्रसन्न हों और प्रसन्न होकर मुझे मनोवांछित वस्तु प्रदान करें।’

इस प्रकार श्रीहरिका पूजन करनेके बाद निम्नांकित मन्त्र पढ़कर गौको प्रणाम करे

पञ्च गावः समुत्पन्ना मध्यमाने महोदधौ।

तासांमध्ये तु या नन्दा तस्यै धेन्वै नमो नमः ॥

(68।70-71)

‘समुद्रका मन्थन होते समय पाँच गौएँ उत्पन्न हुई थीं। उनमेंसे जो नन्दा नामकी धेनु है, उसे मेरा बारम्बार नमस्कार है।’

तत्पश्चात् विधिपूर्वक गौकी पूजा करके निम्नांकित मन्त्रोंद्वारा एकाग्रचित हो अर्घ्य प्रदान करे

सर्वकामदुहे देवि सर्वार्तिकनिवारिणि

आरोग्यं संततिं दीर्घा देहि नन्दिनि मे सदा॥

पूजिता च वसिष्ठेन विश्वामित्रेण धीमता।

कपिले हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥

गावो मे अग्रतः सन्तु गावो मे सन्तु पृष्ठतः ।

नाके मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्ग्यः पयोमुचः ॥

सुरभ्यः सौरभेयाश्च सरितः सर्वदेवमये

सुभद्रे देवि भक्तवत्सले ॥ सागरास्तथा।

(68।72–75) ‘समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली तथा सब प्रकारकी पीड़ा हरनेवाली देवी नन्दिनी! मुझे सर्वदा आरोग्य तथा दीर्घायु संतान प्रदान करो। कपिले महर्षि वसिष्ठ तथा बुद्धिमान् विश्वामित्रजीने भी तुम्हारी पूजा की है। मैंने पूर्वजन्ममें जो पाप संचित किया है, उसे हर लो। गएँ मेरे आगे रहें, गौएँ ही मेरे पीछे रहें तथा स्वर्गलोकमें भी सुवर्णमय सींगोंसे सुशोभित, सरिताओं और समुद्रोंकी भाँति दूधकी धारा बहानेवाली सुरभी और उनकी संतानें मेरे पास आयें। सर्वदेवमयी देवी नन्दिनी! तुम परम कल्याणमयी और भक्तवत्सला हो। तुम्हें नमस्कार है।’

इस प्रकार विधिवत् पूजा करके गौओंको प्रतिदिन ग्रास समर्पण करे। उसका मन्त्र इस प्रकार है

सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पापनाशिनीः ।

प्रतिगृह्णन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः ॥

(68।76-77)

‘सबके हितमें लगी रहनेवाली, पवित्र, पापनाशिनी तथा त्रिभुवनकी माता गौएँ मेरा दिया हुआ ग्रास ग्रहण करें।’ महादेवजी कहते हैं- इस प्रकार धर्मराजके मुखसे सुने हुए वैतरणीव्रतका मेरे आगे वर्णन करकेइच्छानुसार भ्रमण करनेवाले द्विजश्रेष्ठ मुद्गल मुनि चले गये।

द्विजवर ! जहाँ गोपीचन्दन रहता है, वह घर तीर्थस्वरूप है – यह भगवान् श्रीविष्णुका कथन है। जिस ब्राह्मणके घरमें गोपीचन्दन मौजूद रहता है, वहाँ कभी शोक, मोह तथा अमंगल नहीं होते। जिसके घरमें रात-दिन गोपीचन्दन प्रस्तुत रहता है, उसके पूर्वज सुखी होते हैं तथा सदा उसकी संतति बढ़ती है। गोपीतालाबसे उत्पन्न होनेवाली मिट्टी परम पवित्र एवं शरीरका शोधन करनेवाली है। देहमें उसका लेप करनेसे सारे रोग नष्ट होते हैं तथा मानसिक चिन्ताएँ भी दूर हो जाती हैं। अतः पुरुषोंद्वारा शरीरमें धारण किया हुआ गोपीचन्दन सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसकाध्यान और पूजन करना चाहिये। यह मल – दोषका विनाश करनेवाला है। इसके स्पर्शमात्रसे मनुष्य पवित्र हो जाता है। वह अन्तकालमें मनुष्योंके लिये मुक्तिदाता एवं परम पावन है। द्विजश्रेष्ठ ! मैं क्या बताऊँ, गोपीचन्दन मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुका प्रिय तुलसीकाष्ठ, उसके मूलकी मिट्टी, गोपीचन्दन तथा हरिचन्दन-इन चारोंको एकमें मिलाकर विद्वान् पुरुष अपने शरीरमें लगाये। जो ऐसा करता है, उसके द्वारा जम्बूद्वीपके समस्त तीर्थोंका सदाके लिये सेवन हो जाता है। जो गोपीचन्दनको घिसकर उसका तिलक लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परम पदको प्राप्त होता है। जिस पुरुषने गोपीचन्दन धारण कर लिया, उसने मानो गयामें जाकर अपने पिताका श्राद्ध-तर्पण आदि सब कुछ कर लिया।

अध्याय 176 वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा

महादेवजी कहते हैं-नारद! सुनो, अब मैं वैष्णवोंके लक्षण बताऊँगा, जिन्हें सुनकर लोग ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं। भक्त भगवान् विष्णुका होकर रहा है, इसलिये वह वैष्णव कहलाता है। समस्त वर्णोंकी अपेक्षा वैष्णवको श्रेष्ठ कहा गया है जिनका आहार अत्यन्त पवित्र है, उन्होंके वंशमें वैष्णव पुरुष जन्म धारण करता है। ब्रह्मन्! जिनके भीतर क्षमा, दया, तपस्या और सत्यकी स्थिति है, उन वैष्णवोंके दर्शनमात्रके आगसे रूईकी भाँति सारा पाप नष्ट हो जाता है। जो हिंसासे दूर रहता है, जिसकी मति सदा भगवान् विष्णुमें लगी रहती हैं, जो अपने कण्ठमें तुलसीकाष्ठकी माला धारण करता है, प्रतिदिन अपने अंगोंमें बारह तिलक लगाये रहता है तथा विद्वान् होकर धर्म और अधर्मका ज्ञान रखता है, वह मनुष्य वैष्णव कहलाता है। जो सदा वेद-शास्त्रके अभ्यासमें लगे रहते, प्रतिदिन यज्ञोंका अनुष्ठान करते तथा बारम्बार वर्षके चौबीस उत्सव मनाते रहते हैं, उनका कुल परम धन्य है; उन्हींका यश विस्तारकी प्राप्त होता है तथा वे ही लोग संसारमें धन्यतम एवं भगवद्भक्त हैं। ब्रह्मन्! जिसके कुलमें एकही भगवद्भक्त पुरुष उत्पन्न हो जाता है, उसका कुल बारम्बार उस पुरुषके द्वारा उद्धारको प्राप्त होता रहता है। वैष्णवोंके दर्शनमात्रसे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है। महामुने! इस लोकमें जो वैष्णव पुरुष देखे जाते हैं, तत्त्ववेत्ता पुरुषोंको उन्हें विष्णुके समान ही जानना चाहिये। जिसने भगवान् विष्णुकी पूजा की, उसके द्वारा सबका पूजन हो गया। जिसने वैष्णवोंकी पूजा की, उसने महादान कर लिया। जो वैष्णवोंको सदा फल, पत्र, साग, अन्न अथवा वस्त्र दिया करते हैं, वे इस भूमण्डलमें धन्य हैं। ब्रह्मन् ! | वैष्णवोंके विषयमें अब और क्या कहा जाय। बारम्बार अधिक कहनेकी आवश्यकता नहीं है; उनका दर्शन और स्पर्श – सब कुछ सुखद है। जैसे भगवान् विष्णु हैं, वैसा ही उनका भक्त वैष्णव पुरुष भी है। इन दोनोंमें कभी अन्तर नहीं रहता। ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष सदा वैष्णवोंकी पूजा करे। जो इस पृथ्वीपर एक ही वैष्णव ब्राह्मणको भोजन करा देता है, उसने सहस्रों ब्राह्मणोंको भोजन करा दिया इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

नारदजीने कहा- सुरश्रेष्ठ! जो सदा उपवासकरनेमें असमर्थ हैं, उनके लिये कोई एक ही द्वादशीका व्रत, जो पुण्यजनक हो, बतलाइये। महादेवजी बोले- भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें जो श्रवण नक्षत्रसे युक्त द्वादशी होती है, वह सब कुछ देनेवाली पुण्यमयी तथा उपवास करनेपर महान् फल देनेवाली है। जो नदियोंके संगममें नहाकर उक्त द्वादशीको उपवास करता है, वह अनायास ही बारह द्वादशियोंका फल पा लेता है। बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त जो द्वादशी होती है, उसका महत्त्व बहुत बड़ा है। उस दिन किया हुआ सब कुछ अक्षय हो जाता है। श्रवण द्वादशीके दिन विद्वान् पुरुष जलपूर्ण कलशकी स्थापना करके उसके ऊपर एक पात्र रखे और उसमें श्रीजनार्दनकी स्थापना करे। तत्पश्चात् उनके आगे घीमें पका हुआ नैवेद्य निवेदन करे; साथ ही अपनी शक्तिके अनुसार जलसे भरे हुए अनेक नये घड़ोंका दान करे। इस प्रकार श्रीगोविन्दकी पूजा करके उनके समीप रात्रिमें जागरण करे। फिर निर्मल प्रभातकाल आनेपर स्नान करके फूल, धूप, नैवेद्य, फल और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा भगवान् गरुडध्वजकी पूजा करे।

तदनन्तर पुष्पांजलि दे और इस मन्त्रको पट्टे

नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंयुत।

अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव ॥

(70/10) ‘बुधवार और श्रवण नक्षत्रसे युक्त भगवान् गोविन्द! आपको नमस्कार है, नमस्कार है। मेरी पापराशिका नाश करके आप मुझे सब प्रकारके सुख प्रदान करें।’

तत्पश्चात् वेद-वेदांगो पारगामी, विशेषतः पुराणोंके ज्ञाता विद्वान् ब्राह्मणको विधिपूर्वक पवित्र अन्नका दान करे। इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष किसी नदीके किनारे एकचित्त होकर उक्त विधिसे सब कार्य पूर्ण करे। इस विषय में जानकार लोग यह प्राचीन इतिहास कहा करते हैं- एक महान् वनमें जो घटना घटित हुई थी, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो।

विद्वन्! दाशेरक नामका जो देश है, उसकेपश्चिमभागमें मरु (मारवाड़) प्रदेश है, जो समस्त प्राणियोंके लिये भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँकी भूमि तपी हुई बालूसे भरी रहती है। वहाँ बड़े-बड़े साँप हैं, जो महादुष्ट होते हैं। वह भूमि थोड़ी छायावाले वृक्षोंसे व्याप्त है शमी, खैर, पलाश, करील और पीलू-ये ही वहाँके वृक्ष हैं मजबूत काँटोंसे घिरे हुए वहाँके वृक्ष बड़े भयंकर दिखायी देते हैं; तथापि कर्मबन्धनसे बँधे होनेके कारण वहाँ भी सब जीव जीवन धारण करते हैं। विद्वन्। उस देशमें न तो पर्याप्त जल है और न जल धारण करनेवाले बादल ही वहाँ दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसे देशमें कोई बनिया भाग्यवश अपने साथियोंसे बिछुड़कर इधर-उधर भटक रहा था। उसके हृदयमें भ्रम छा गया था। वह भूख प्यास और परिभ्रमसे पीड़ित हो रहा था। कहाँ गाँव है? कहाँ जल है? मैं कहाँ जाऊँगा? यह कुछ भी उसे जान नहीं पड़ता था। इसी समय उसने कुछ प्रेत देखे, जो भूख प्याससे व्याकुल एवं भयंकर दिखायी देते थे। उनमें एक प्रेत ऐसा था, जो दूसरे प्रेतके कंधेपर चढ़कर चलता था तथा और बहुत से प्रेत उसे चारों ओरसे घेरे हुए थे। प्रेतोंकी भयानक आवाजके साथ वहभयंकर प्रेत उधर ही आ रहा था। वह उस भयानक जंगलमें मनुष्यको आया देख प्रेतके कंधेसे पृथ्वीपर उतर पड़ा और बनियेके पास आकर उसे प्रणाम करके इस प्रकार बोला- ‘इस घोर प्रदेशमें आपका कैसे प्रवेश हुआ ?’ यह सुनकर उस बुद्धिमान् बनियेने कहा- ‘दैवयोगसे तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मकी प्रेरणासे मैं अपने साथियोंसे बिछुड़ गया हूँ। इस प्रकार मेरा यहाँ प्रवेश सम्भव हुआ है। इस समय मुझे बड़े जोरकी भूख और प्यास सता रही है।’

तब उस प्रेतने उस समय अपने अतिथिको उत्तम अन्न प्रदान किया। उसके खानेमात्रसे बनियेको बड़ी तृप्ति हुई। वह एक ही क्षणमें प्यास और संतापसे रहित हो गया। इसके बाद वहाँ बहुत से प्रेत आ पहुँचे। प्रधान प्रेतने क्रमशः उन सबको अन्नका भाग दिया। दही, भात और जलसे उन्हें बड़ी प्रसन्नता और तृप्ति हुई। इस प्रकार अतिथि और प्रेतसमुदायको तृप्त करके उसने स्वयं भी बचे हुए अन्नका सुखपूर्वक भोजन किया। उसके भोजन कर लेनेपर वहाँ जो सुन्दर अन्न और जल प्रस्तुत हुआ था, वह सब अदृश्य हो गया। तब बनियेने उस प्रेतराजसे कहा ‘भाई! इस वनमें तो मुझे यह बड़े आश्चर्यकी बात प्रतीत हो रही है। तुम्हें यह उत्तम अन्न और जल कहाँसे प्राप्त हुआ ? तुमने थोड़े से ही अन्नसे इन बहुत से जीवोंको तृप्त कर दिया। इस घोर जंगलमें तुमलोग कैसे निवास करते हो ?’

प्रेत बोला- महाभाग! मैंने अपना पूर्वजन्म केवल वाणिज्य-व्यवसायमें आसक्त होकर व्यतीत किया है। समूचे नगरमें मेरे समान दूसरा कोई दुरात्मा नहीं था। धनके लोभसे मैंने कभी किसीको भीखतक नहीं दी। उन दिनों एक गुणवान् ब्राह्मण मेरे मित्र थे एक समय भादोंके महीनेमें, जब श्रवण नक्षत्र और द्वादशीका योग आया था, वे मुझे साथ लेकर तापी नदीके तटपर गये, जहाँ उसका चन्द्रभागा नदीके साथ पवित्र संगम हुआ था, चन्द्रभागा चन्द्रमाकी पुत्री है और तापी सूर्यको उन दोनोंके मिले हुए शीत और उष्ण जलमें मैंने ब्राह्मणके साथ प्रवेश किया। श्रवणद्वादशी के योग बहुत से मनुष्योंको संतुष्ट किया। चन्द्रभागाके उत्तम जलसे भरकर ब्राह्मणको जलपात्र दान किया तथा दही और भातके साथ जलसे भरे हुए बहुत-से पुरखे भी ब्राह्मणोंको दिये। इसके सिवा भगवान् शंकरके समक्ष श्रेष्ठ ब्राह्मणको छाता, जूते, वस्त्र तथा श्रीहरिकी प्रतिमा भी दान की। उस नदीके तीरपर मैंने धनकी रक्षाके लिये व्रत किया था। उपवासपूर्वक एक मनोहर जलपात्र भी दान किया था। यह सब करके मैं घर लौट आया। तदनन्तर, कुछ कालके बाद मेरी मृत्यु हो गयी। नास्तिक होनेके कारण मुझे प्रेतकी योनिमें आना पड़ा। श्रवण-द्वादशीके योगमें मैंने जलका बड़ा पात्र दान किया था, इसलिये प्रतिदिन मध्याहनके समय यह मुझे प्राप्त होता है। ये सब ब्राह्मणका धन चुरानेवाले पापी हैं, जो प्रेतभावको प्राप्त हुए हैं। इनमें कुछ परस्त्रीलम्पट और कुछ अपने स्वामीसे द्रोह करनेवाले रहे हैं। इस मरुप्रदेशमें आकर ये मेरे मित्र हो गये हैं। सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु अक्षय (अविनाशी) हैं। उनके उद्देश्यसे जो कुछ दिया जाता है, वह सब अक्षय कहा गया है। उस अक्षय अन्नसे ही ये प्रेत पुनः पुनः तृप्त होते रहते हैं। आज तुम मेरे अतिथिके रूपमें उपस्थित हुए हो। मैं अन्नसे तुम्हारी पूजा करके प्रेतभावसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होऊंगा, परन्तु मेरे बिना ये प्रेत इस भयंकर वनमें कर्मानुसार प्राप्त हुई प्रेतयोनिको दुस्सह पीड़ा भोगेंगे; अतः तुम मुझपर कृपा करनेके लिये इन सबके नाम और गोत्र लिखकर ले लो। महामते। हाँसे | हिमालयपर जाकर तुम खजाना प्राप्त करोगे। तत्पश्चात्
गया जाकर इन सबका श्राद्ध कर देना। महादेवजी कहते हैं-नारद! बनियेको इस प्रकार आदेश देकर प्रेतने उसे सुखपूर्वक विदा किया। घर आनेपर उसने हिमालयकी यात्रा की और वहाँसे | प्रेतका बताया हुआ खजाना लेकर वह लौट आया। उस खजानेका छठा अंश साथ लेकर वह ‘गया’ तीर्थमें गया। वहाँ पहुँचकर उस परम बुद्धिमान् बनियेने शास्त्रोक्त विधिसे उन प्रेतोंका श्राद्ध किया। एक-एकके नाम और गोत्रका उच्चारण करके उनके लिये पिण्डदानकिया। वह जिस दिन जिसका श्राद्ध करता था, उस दिन वह आकर स्वप्नमें बनियेको प्रत्यक्ष दर्शन देता और कहता कि ‘महाभाग ! तुम्हारी कृपासे मैंने प्रेतभावको त्याग दिया और अब मैं परमगतिको प्राप्त हो रहा हूँ।’ इस प्रकार वह महामना वैश्य गयातीर्थमें प्रेतोंका विधिपूर्वक श्राद्ध करके बारम्बार भगवान् विष्णुका ध्यान करता हुआ अपने घर लौट आया। फिर भाद्रपद मासके शुक्लपक्षमें, जब श्रवण-द्वादशीका योग आया, तब वह सब आवश्यक सामग्री साथ लेकर नदीके संगमपर गया और वहाँ स्नान करके उसने द्वादशीका व्रत किया। स्नान, दान और भगवान् विष्णुका पूजन करनेके अनन्तर ब्राह्मणको उपहार भेंट किया। एकचित्त होकर उस बुद्धिमान् वैश्यने शास्त्रोक्त विधिसे सब कार्य सम्पन्नकिया। उसके बाद प्रतिवर्ष भादोंका महीना आनेपर श्रवण-द्वादशीके योगमें नदीके संगमपर जाकर वह भगवान् विष्णुके उद्देश्यसे पूर्वोक्त प्रकारसे स्नान-दान आदि सब कार्य करने लगा। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उसकी मृत्यु हो गयी। उसने सब मनुष्योंके लिये दुर्लभ परमधामको प्राप्त कर लिया। आज भी वह विष्णुदूतोंसे सेवित हो वैकुण्ठधाममें विहार कर रहा है। ब्रह्मन् ! तुम भी इसी प्रकार श्रवण-द्वादशीका व्रत करो। वह इस लोक और परलोकमें भी सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान करनेवाला, उत्तम बुद्धिका देनेवाला तथा सब पापोंको हरनेवाला उत्तम साधन है। जो श्रवण-द्वादशीके योगमें इस व्रतका अनुष्ठान करता है, वह इसके प्रभावसे विष्णुलोकमें जाता है।

अध्याय 177 नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन

ऋषियोंने कहा- सूतजी! आपका हृदय अत्यन्त करुणायुक्त है; अतएव श्रीमहादेवजी और देवर्षि नारदका जो अद्भुत संवाद हुआ था, उसे आपने हमलोगों से कहा है। हमलोग श्रद्धापूर्वक सुन रहे हैं। अब आप कृपापूर्वक यह बताइये कि महात्मा नारदने ब्रह्माजीसे भगवन्नामको महिमाका किस प्रकार श्रवण किया था।

सुनजी बोले- द्विजश्रेष्ठ मुनियो इस विषय मैं पुराना इतिहास सुनाता हूँ। आप सब लोग ध्यान देकर सुनें। इसके श्रवणसे भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति बढ़ती है। एक समयकी बात है, चित्तको पूर्ण एकाग्र रखनेवाले नारदजी अपने पिता ब्रह्माजीका दर्शन करनेके लिये मेरुपर्वतके शिखरपर गये। वहाँ आसनपर बैठे हुए जगत्पति ब्रह्माजीको प्रणाम करके मुनिश्रेष्ठ नारदजीने इस प्रकार कहा- ‘विश्वेश्वर! भगवान्‌के नामकी जितनी शक्ति है, उसे बताइये। प्रभो! ये जो सम्पूर्ण विश्वके स्वामी साक्षात् श्रीनारायण हरि हैं, इन अविनाशी परमात्मा के नामकी कैसी महिमा है?”

ब्रह्माजी बोले- बेटा! इस कलियुगमेंविशेषतः नाम-कीर्तनपूर्वक भगवान्की भक्ति जिस प्रकार करनी चाहिये, वह सुनो। जिनके लिये शास्त्रोंमें कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है, उन सभी पापोंकी शुद्धिकेलिये एकमात्र विजयशील भगवान् विष्णुका प्रयत्नपूर्वक स्मरण ही सर्वोत्तम साधन देखा गया है, वह समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। अतः श्रीहरिके नामका कीर्तन और जप करना चाहिये। जो ऐसा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। जो मनुष्य ‘हरि’ इस दो अक्षरोंवाले नामका सदा उच्चारण करते हैं, वे उसके उच्चारणमात्रसे मुक्त हो जाते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। तपस्याके रूपमें किये जानेवाले जो सम्पूर्ण प्रायश्चित्त हैं, उन सबकी अपेक्षा श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ है। जो मनुष्य प्रातः, सायं, रात्रि तथा मध्याह्न आदिके समय ‘नारायण’ नामका स्मरण करता है, उसके समस्त पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। 2

उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नारद! मेरा कथन सत्य है, सत्य है, सत्य है। भगवान्‌के नामोंका उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे मुक्त हो जाता है । ‘राम-राम-राम-राम’ इस प्रकार बारम्बार जप करनेवाला मनुष्य यदि चाण्डाल हो तो भी वह पवित्रात्मा हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। उसने नाम-कीर्तनमात्रसे कुरुक्षेत्र, काशी, गया और द्वारका आदि सम्पूर्ण तीर्थोंका सेवन कर लिया। जो ‘कृष्ण! कृष्ण! कृष्ण ! ‘इस प्रकार जप और कीर्तन करता है, वह इस संसारका परित्याग करनेपर भगवान् विष्णुके समीप आनन्द भोगता है। ब्रह्मन्! जो कलियुगमें प्रसन्नतापूर्वक ‘नृसिंह’ नामका जप और कीर्तन करता है, वह भगवद्भक्त मनुष्य महान् पापसे छुटकारा पा जाता है। सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ तथा द्वापरमें पूजन करके मनुष्य जो कुछ पाता है, वही कलियुगमें केवल भगवान् केशवका कीर्तन करनेसे पा लेता है। जो लोग इस बातको जानकर जगदात्मा केशवके भजनमें लीन होते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णु के परमपदको प्राप्त कर लेते हैं। मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि – ये दस अवतार इस पृथ्वीपर बताये गये हैं। इनके नामोच्चारणमात्रसे सदा ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध होता है। जो मनुष्य प्रातः काल जिस किसी तरह भी श्रीविष्णुनामका कीर्तन, जप तथा ध्यान करता है, वह निस्सन्देह मुक्त होता है, निश्चय ही नरसे नारायण बन जाता है। ll 3 ll

सूतजी कहते हैं – यह सुनकर नारदजीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे अपने पिता ब्रह्माजीसे बोले ‘तात! तीर्थसेवनके लिये पृथ्वीपर भ्रमण करनेकी क्या आवश्यकता है; जिनके नामका ऐसा माहात्म्य है किउसे सुननेमात्रसे मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है, उन भगवान्‌का ही स्मरण करना चाहिये। जिस मुखमें ‘राम राम’ का जप होता रहता है, वही महान् तीर्थ है, वही प्रधान क्षेत्र है तथा वही समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। सुव्रत भगवान्के कीर्तन करनेयोग्य कौन-कौन से नाम हैं? उन सबको विशेष रूपसे बताइये।

ब्रह्माजीने कहा- बेटा! ये भगवान् विष्णु सर्वत्रव्यापक सनातन परमात्मा हैं। इनका न आदि है न अन्त। ये लक्ष्मीसे युक्त, सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा तथा समस्त प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाले हैं। जिनसे मेरा प्रादुर्भाव हुआ है, वे भगवान् विष्णु सदा मेरी रक्षा करें। वही कालके भी काल और वही मेरे पूर्वज हैं। उनका कभी विनाश नहीं होता। उनके नेत्र कमलके समान शोभा पाते हैं। वे परम बुद्धिमान्, अधिकारी एवं पुरुष (अन्तर्यामी) हैं। सदा शेषनागकी शब्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णु सहस्रों मस्तकवाले हैं। वे महाप्रभु हैं। सम्पूर्ण भूत उन्हींके स्वरूप हैं। भगवान् जनार्दन साक्षात् विश्वरूप हैं। कैटभ नामक असुरका वध करनेके कारण वे कैटभारि कहलाते हैं। वे ही व्यापक होनेके कारण विष्णु, धारण-पोषण करनेके कारण धाता और जगदीश्वर हैं। नारद! मैं उनका नाम और गोत्र नहीं जानता। तात! मैं केवल वेदोंका वक्ता हूँ, वेदातीत परमात्माका ज्ञाता नहीं, अतः देवर्षे तुम वहाँ जाओ, जहाँ भगवान् विश्वनाथ रहते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! वे तुमसे सम्पूर्ण तत्त्वका वर्णन करेंगे। कैलासके स्वामी श्रीमहादेवजी ही अन्तर्यामी पुरुष हैं। वे देवताओंके स्वामी और सम्पूर्ण भक्तोंके आराध्यदेव हैं। पाँच मुखोंसे सुशोभित भगवान् उमानाथ सब दुःखोंका विनाश करनेवाले हैं। सम्पूर्ण विश्वके ईश्वर श्रीविश्वनाथजी सदा भक्तोंपर दया करनेवाले हैं। नारद। वहीं जाओ, वे तुम्हें सब कुछ बता देंगे।

सूतजी कहते हैं—पिताकी बात सुनकर देवर्षि नारद कैलास पर्वतपर, जहाँ कल्याणप्रद भगवान् विश्वेश्वर नित्य निवास करते हैं, गये। देवताओं द्वारापूजित देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् शंकर कैलासके शिखरपर विराजमान थे। उनके पाँच मुख, दस भुजाएँ, प्रत्येक मुखमें तीन नेत्र तथा हाथोंमें त्रिशूल, कपाल, खट्वांग, तीक्ष्ण शूल, खड्ग और पिनाक नामका धनुष शोभा पा रहे थे। बैलपर सवारी करनेवाले वरदाता भगवान् भीम अपने अंगोंमें भस्म रमाये सर्पोंकी शोभासे युक्त चन्द्रमाका मुकुट पहने करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान हो रहे थे। नारदजीने देवेश्वर शिवको साष्टांग दण्डवत् किया। उन्हें देखकर महादेवजीके नेत्रकमल खिल उठे। उस समय वैष्णवोंमें सर्वश्रेष्ठ शिवने ब्रह्मचारियोंमें श्रेष्ठ नारदजीसे पूछा- ‘देवर्षिप्रवर ! बताओ, कहाँसे आ रहे हो ?’

नारदजीने कहा- भगवन्! एक समय मैं ब्रह्माजीके पास गया था। वहाँ उनके मुखसे मैंने भगवान् विष्णुके पापनाशक माहात्म्यका श्रवण किया। सुरश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने मेरे सामने भगवान्की महिमाका भलीभाँति वर्णन किया। भगवान् के नामकी जितनी शक्ति है, वह भी मैंने उनके मुखसे सुनी है। तत्पश्चात् पहले विष्णुके नामोंके विषय में प्रश्न किया। तब उन्होंने कहा- ‘नारद! मैं इस बातको नहीं जानता; इसका ज्ञान महारुद्रको है वे ही सब कुछ बतायेंगे।’ यह सुनकर मैं आपके पास आया हूँ। इस घोर कलियुगमें मनुष्योंकी आयु थोड़ी होगी । वे सदा अधर्ममें तत्पर रहेंगे। भगवान्के नामोंमें उनकी निष्ठा नहीं होगी। कलियुगके ब्राह्मण पाखण्डी, धर्मसे विरक्त, संध्या न करनेवाले, व्रतहीन, दुष्ट और मलिन होंगे; जैसे ब्राह्मण होंगे, वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके लोग भी होंगे। प्रायः मनुष्य भगवान्के भक्त नहीं होंगे। द्विजोंसे बाहर गिने जानेवाले शूद्र कलियुगमें धर्म-अधर्म तथा हिताहितका ज्ञान भी नहीं रखते; ऐसा जानकर मैं आपके निकट आया हूँ। आप कृपा करके विष्णुके सहस्र नामोंका वर्णन कीजिये, जो पुरुषोंके लिये सौभाग्यजनक, परम उत्तम तथा सर्वदा भक्तिभावको बढ़ानेवाले हैं; इसी प्रकार जो ब्राह्मणोंको ब्रह्मज्ञान क्षत्रियोंको विजय, वैश्योंको धन तथा शूद्रोंको सदा सुख देनेवाले हैं।सुव्रत ! जो सहस्रनाम परम गोपनीय है, उसका वर्णन कीजिये वह परम पवित्र एवं सदा सर्वतीर्थमय है; अतः मैं उसका श्रवण करना चाहता हूँ। प्रभो ! विश्वेश्वर! कृपया उस सहस्रनामका उपदेश कीजिये।

नारदजी के वचन सुनकर भगवान् शंकरके नेत्र आश्चर्य चकित हो उठे। भगवान् विष्णुके नामका बारम्बार स्मरण करके उनके शरीरमें रोमांच हो आया। वे बोले-‘ब्रह्मन् ! भगवान् विष्णुके सहस्रनाम परम गोपनीय हैं। इन्हें सुनकर मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता।’ यों कहकर भगवान् शंकरने नारदजीको विष्णुसहस्रनामका उपदेश दिया, जिसे पूर्वकालमें वे भगवती पार्वतीजीको सुना चुके थे। इस प्रकार नारदजीने कैलासपर्वत पर भगवान् महेश्वरसे श्रीविष्णुसहस्रनामका ज्ञान प्राप्त किया। फिर दैवयोगसे एक बार वे कैलाससे उतरकर नैमिषारण्य नामक तीर्थमें आये वहाँके ऋषियोंने ऋषिश्रेष्ठ महात्मा नारदको आया देख विशेषरूपसे उनका स्वागत सत्कार किया। उन्होंने विष्णुभक्त विप्रवर नारदजीके ऊपर फूल बरसाये, पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया, उनकी आरती उतारी और फल-मूल निवेदन करके पृथ्वीपर साष्टांग प्रणाम किया। तत्पश्चात् वे बोले ‘महामुने! हमलोग इस वंशमें जन्म लेकर आज कृतार्थ हो गये; क्योंकि आज हमें परम पवित्र और पापका नाश करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ। देवर्षे! आपके प्रसादसे हमने पुराणोंका श्रवण किया है। ब्रह्मन् ! अब आप यह बताइये कि किस प्रकार से समस्त पापका क्षय हो सकता है। दान, तपस्या, तीर्थ, यह योग, ध्यान, इन्द्रिय-निग्रह और शास्त्र समुदायके बिना ही कैसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है?”

नारदजी बोले – मुनिवरो! एक समय भगवती पार्वतीने कैलासशिखर पर बैठे हुए अपने प्रियतम देवाधिदेव जगद्गुरु महादेवजीसे इस प्रकार प्रश्न किया। पार्वती बोलीं- भगवन्! आप सर्वज्ञ और सर्वपूजित श्रेष्ठ देवता हैं। जन्म और मृत्युसे रहित, स्वयम्भू एवं सर्वशक्तिमान् हैं। स्वामिन्! आप सदा किसका ध्यान करते हैं? किस मन्त्रका जप करते हैं?देवेश्वर इसे जानने की मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है। सुत यदि मैं आपकी प्रियतमा और कृपापात्र हूँ तो मुझसे यथार्थ बात कहिये।

महादेवजी बोले- देवि! पहले सत्ययुगमें विशुद्ध चित्तवाले सब पुरुष सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर एकमात्र भगवान् विष्णुका तत्त्व जानकर उन्हींके नामका जप किया करते थे और उसीके प्रभावसे इस लोक तथा परलोकमें भी परम ऐश्वर्यको प्राप्त करते थे। प्रिये! तुलादान, अश्वमेध आदि यज्ञ, काशी, प्रयाग आदि तीर्थोंमें किये हुए स्नान आदि शुभकर्म, गयामें किये हुए पितरोंके आद्ध-तर्पण आदि वेदोंके स्वाध्याय आदि, जप, उग्र तप, नियम, यम, जीवोंपर दया, गुरुशुश्रूषा सत्यभाषण, वर्ण और आश्रमके धर्मो का पालन, ज्ञान तथा ध्यान आदि साधनका कोटि जन्मोंतक भलीभाँति अनुष्ठान करनेपर भी मनुष्य परम कल्याणमय सर्वेश्वरेश्वर भगवान् विष्णुको नहीं परन्तु जो दूसरेका भरोसा न करके सर्वभावसे पुराण पुरुषोत्तम श्रीनारायणकी शरण ग्रहण करते हैं, वे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग एकमात्र श्रीभगवान् विष्णुके नामोंका कीर्तन करते हैं, वेसुखपूर्वक जिस गतिको प्राप्त करते हैं, उसे समस्त धार्मिक भी नहीं पा सकते। अतः सदा भगवान् विष्णुका स्मरण करना चाहिये, इन्हें कभी भी भूलना नहीं चाहिये । क्योंकि सभी विधि और निषेध इन्हींके किंकर हैं इन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं। प्रिये ! अब मैं तुमसे भगवान् विष्णुके मुख्य-मुख्य हजार नामका वर्णन करूँगा, जो तीनों लोकोंको मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं।

विनियोग

अस्य श्रीविष्णोर्नामसहस्त्रस्तोत्रस्य श्रीमहादेव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, परमात्मा देवता, ह्रीं बीजम्, श्रीं शक्तिः, क्लीं कीलकम्, चतुर्वर्गधर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः ॥ 114॥

इस श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रके महादेवजी ऋषि, अनुष्टुप् छन्द, परमात्मा देवता, ह्रीं बीज, श्रीं शक्ति और क्लीं कीलक हैं। चारों पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षकी प्राप्तिके निमित्त जप करनेके लिये इस स्तोत्रका विनियोग (प्रयोग) किया जाता है॥ 114 ॥

ॐ वासुदेवाय विद्महे, महाहंसाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ 115 ॥

हम श्रीवासुदेवका तत्त्व समझनेके लिये ज्ञान प्राप्त करते हैं, महाहंसस्वरूप नारायणके लिये ध्यान करते हैं, श्रीविष्णु हमें प्रेरित करें-हमारी मन, बुद्धिको प्रेरणा देकर इस कार्यमें लगायें 115 ॥

अङ्गन्यासकरन्यासविधिपूर्वं यदा पठेत् ।

तत्फलं कोटिगुणितं भवत्येव न संशयः ॥ 116 ॥

यदि पहले अंगन्यास और करन्यासकी विधि पूर्ण करके सहस्रनामस्तोत्रका पाठ किया जाय तो निस्सन्देह उसका फल कोटिगुना होता है ॥ 116 ॥अङ्गन्यास

श्रीवासुदेवः परं ब्रह्मेति हृदयम् । मूलप्रकृतिरिति शिरः । महावराह इति शिखा। सूर्यवंशध्वज इति कवचम्। ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशव इति नेत्रम्। पार्थार्थखण्डिताशेष इत्यस्त्रम् । नमो नारायणायेति न्यासं सर्वत्र कारयेत् ॥ 117 ॥

‘श्रीवासुदेवः परं ब्रह्म’ ( श्रीवासुदेव परब्रह्म हैं) – यह कहकर दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे हृदयका स्पर्श करे। ‘मूलप्रकृतिः’ (मूल प्रकृति) का उच्चारण करके सिरका स्पर्श करे। महावराहः’ (महान् वराहरूपधारी भगवान् विष्णु) – यह कहकर शिखाका स्पर्श करे। ‘सूर्यवंशध्वज:’ (सूर्यवंशके ध्वजारूप भगवान् श्रीराम) यों कहकर दोनों हाथोंसे दोनों भुजाओंके मूलभागका स्पर्श करे। ‘ब्रह्मादिकाम्यला लित्यजगदाश्चर्यशैशवः’ (अवतार धारण करनेपर जिनका शिशुरूप अपने अनुपम सौन्दर्यसे संसारको आश्चर्यमें डाल देता है तथा ब्रह्मा आदि देवता भी उस रूपमें जिनकी झाँकी करनेकी अभिलाषा रखते हैं, वे भगवान् विष्णु धन्य हैं) यह कहकर नेत्रोंका स्पर्श करे । ‘पार्थार्थखण्डिताशेषः’ (अर्जुनके लिये महाभारतके समस्त वीरोंका संहार करानेवाले श्रीकृष्ण) यों कहकर ताली बजाये। अन्तमें ‘नमो नारायणाय’ (श्रीनारायणको नमस्कार है) –ऐसा बोलकर सर्वांगका स्पर्श करे ॥ 117 ॥ 2 ll

ॐ नमो नारायणाय पुरुषाय महात्मने, विशुद्धसत्त्वाय महाहंसाय धीमहि, तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥ 118 ॥

ॐकाररूप सर्वान्तर्यामी महात्मा नारायणकोनमस्कार है, विशुद्ध सत्त्वमय महाहंसस्वरूप श्रीविष्णुका हम ध्यान करते हैं; अतः श्रीविष्णु देवता हमें सत्कार्यमें प्रेरित करें ।। 118 ॥

क्लीं कृष्णाय विद्महे, ह्रीं रामाय धीमहि, तन्नो देव: प्रचोदयात् ॥ 119 ॥

‘क्लीं’ रूप श्रीकृष्णतत्त्वको समझनेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं; ‘ह्रीं’ रूप श्रीरामका हम ध्यान करते हैं; वे देव श्रीरघुनाथजी हमें प्रेरित करें ॥ 119 ॥

शं नृसिंहाय विद्महे, श्रीकण्ठाय धीमहि, तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ 120 ॥ शम्— कल्याणमय भगवान् नृसिंहका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीकण्ठका ध्यान करते हैं; वे श्रीनृसिंहरूप भगवान् विष्णु हमें प्रेरित करें ॥ 120 ll ॐ वासुदेवाय विद्महे, देवकीसुताय धीमहि, तन्नः कृष्णः प्रचोदयात् ॥ 121 ॥

ॐ काररूप श्रीवासुदेवका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीदेवकीनन्दन श्रीकृष्णका हम ध्यान करते हैं, वे श्रीकृष्ण हमें प्रेरित करें ॥ 121 ॥ ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नमः स्वाहा ॥ 122 ॥

ॐ ह्रां ह्रीं हूं हैं ह्रौं ह्रः क्लीं— सच्चिदानन्दस्वरूप, गोपीजनोंके प्रियतम भगवान् गोविन्दको नमस्कार है; हम उनकी तृप्तिके लिये उत्तम रीतिसे हवन करते हैं- अपना सब कुछ अर्पण करते हैं ॥ 122 ॥ इति मन्त्रं समुच्चार्य यजेद् वा विष्णुमव्ययम् । श्रीनिवासं जगन्नाथं ततः स्तोत्रं पठेत् सुधीः ।

ॐ वासुदेवः परं ब्रह्म परमात्मा परात्परः ॥ 123 ॥ – उपर्युक्त मन्त्रोंका उच्चारण करके लक्ष्मीके निवासस्थान और संसारके स्वामी अविनाशी भगवान् श्रीविष्णुका पूजन करे; इसके बाद विद्वान् पुरुष सहस्रनामस्तोत्रका पाठ करे। सच्चिदानन्दस्वरूप, 1 वासुदेवः – सम्पूर्ण प्राणियोंको अपनेमें बसानेवाले तथा समस्त भूतोंमें सर्वात्मारूपसे बसनेवाले, चतुर्व्यूहमें वासुदेवस्वरूप, 2 परं ब्रह्म- सर्वोत्कृष्ट ब्रह्म-निर्गुणपरमात्मा, 3 परमात्मा परम श्रेष्ठ, नित्य-शुद्ध बुद्धमुक्तस्वभाव, 4 परात्परः पर अर्थात् प्रकृतिको भी परे विराजमान परमात्मा ॥ 123 ॥

परं धाम परं ज्योतिः परं तत्त्वं परं पदम् ।

परः शिवः परो ध्येयः परं ज्ञानं परा गतिः ।। 124 ॥

5 परं धाम – सर्वोत्तम वैकुण्ठधाम, निर्गुण परमात्मा, 6 परं ज्योतिः–सूर्य आदि ज्योतियोंको भी प्रकाशित करनेवाले सर्वोत्कृष्ट ज्योतिः स्वरूप, 7 परं तत्त्वम् — परम तत्त्व उपनिषदोंसे जाननेयोग्य सर्वोत्तम रहस्य, 8 परं पदम् — प्राप्त करनेयोग्य सर्वोत्कृष्ट पद, मोक्षस्वरूप, 9 परः शिवः परम कल्याणरूप, 10 परो ध्येयः – ध्यान करनेयोग्य सर्वोत्तम देव, चिन्तनके सर्वश्रेष्ठ आश्रय, 11 परं ज्ञानम् – भ्रान्तिशून्य उत्कृष्ट बोधस्वरूप परमात्मा, 12 परा गतिः सर्वोत्तम गति, मोक्षस्वरूप 124 परमार्थ: परश्रेष्ठः परानन्दः परोदयः ।

परोऽव्यक्तात्परं व्योम परमर्द्धिः परेश्वरः ।। 125 ।। 13 परमार्थः मोक्षरूप परम पुरुषार्थ, परम सत्य 14 परश्रेष्ठः श्रेष्ठसे भी श्रेष्ठ, 15 परानन्दः – परम आनन्दमय, असीम आनन्दकी निधि, 16 परोदय:- सर्वाधिक अभ्युदयशाली, 17 अव्यक्तात्परः- -अव्यक्तपदवाच्य मूलप्रकृतिसे परे, 18 परं व्योम – नित्य एवं अनन्त आकाशस्वरूप निर्गुण परमात्मा 19 परमर्द्धि: सर्वोत्तम ऐश्वर्यसे सम्पन्न, 20 परेश्वरः – पर अर्थात् ब्रह्मादि देवताओंके भी ईश्वर ।। 125 ।। निरामयो निर्विकारो निर्विकल्पो निराश्रयः । निरञ्जनो निरालम्बो निर्लेपो निरवग्रहः ।। 126 ।।

21 निरामयः – रोग-शोकसे रहित, 22 निर्विकारः – उत्पत्तिः, सत्ता, वृद्धि, विपरिणाम, अपक्षय और विनाश- इन छः विकारोंसे शून्य, 23 निर्विकल्पः सन्देहरहित, 24 निराश्रयः स्वयं ही सबके आश्रय होनेके कारण अन्य किसी आश्रयसे रहित, 25 निरञ्जन: वासना और आसक्तिरूपी मलसे शून्य, तमोगुणरहित,26 निरालम्बः – आधारशून्य, स्वयं ही सबके आधार, निर्लेप: – जलसे कमलकी भाँति राग द्वेषादि दोषोंसे अलिप्त, 28 निरवग्रहः -विघ्न बाधाओंसे रहित ॥ 126 ॥ निर्गुणो निष्कलोऽनन्तोऽभयोऽचिन्त्योऽचलोऽञ्चितः । अतीन्द्रियो ऽमितोऽपारो नित्योऽनीहो ऽव्ययोऽक्षयः ॥ 127 ।।

29 निर्गुणः – सत्त्व, रज और तम इन तीनों र गुणोंसे रहित परमात्मा, 30 निष्कलः – अवयवशून्य र ब्रह्म, 31 अनन्तः – असीम एवं अविनाशी परमेश्वर, 32 अभयः – काल आदिके भयसे रहित, 33 अचिन्त्यः – मनकी गतिसे परे होनेके कारण चिन्तनमें न आनेवाले, 34 अचलः- अपनी मर्यादासे विचलित न होनेवाले, 35 अञ्चितः – सबके द्वारा पूजित, 36 अतीन्द्रियः – इन्द्रियोंके अगोचर, 37 अमितः- :- माप या सीमासे रहित, महान्, अपरिच्छिन्न, 38 अपारः – पाररहित, अनन्त, 39 नित्यः – सदा रहनेवाले, सनातन, 40 अनीहः – चेष्टारहित ब्रह्म, 41 अव्ययः – विनाशरहित, 42 अक्षयः – कभी क्षीण न होनेवाले ॥ 127 ॥ सर्वज्ञः सर्वगः सर्वः सर्वदः सर्वभावनः । सर्वशास्ता सर्वसाक्षी पूज्यः सर्वस्य सर्वदृक् ॥ 128 ॥ 43 सर्वज्ञः – परोक्ष और अपरोक्ष सबके ज्ञाता, 44 सर्वगः – कारणरूपसे सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले, 45 सर्वः – सर्वस्वरूप, 46 सर्वदः – भक्तोंको सर्वस्व देनेवाले, 47 सर्वभावनः– सबको उत्पन्न करनेवाले, 48 सर्वशास्ता — सबके शासक, 49 सर्वसाक्षी भूत, भविष्य और वर्तमान-सबपर दृष्टि रखनेवाले, 50 सर्वस्य पूज्य: :-सबके पूजनीय, 51 सर्वदृक् सबके द्रष्टा ॥ 128 ॥

सर्वशक्तिः सर्वसारः सर्वात्मा सर्वतोमुखः सर्ववासः सर्वरूपः सर्वादिः सर्वदुःखहा ॥ 129 ॥ 52 सर्वशक्तिः – सब प्रकारकी शक्तियोंसेसम्पन्न, 53 सर्वसारः – सबके बल, 54 सर्वात्मा सबके आत्मा, 55 सर्वतोमुखः – सब ओर मुखवाले, विरादस्वरूप 56 सर्ववास: सम्पूर्ण विश्वके वासस्थान, 57 सर्वरूपः – सब रूपोंमें स्वयं ही उपलब्ध होनेवाले, विश्वरूप, 58 सर्वादिः – सबके आदि कारण, 59 सर्वदुःखहा- सबके दुःखोंका नाश करनेवाले 129 ॥ सर्वार्थः सर्वतोभद्रः सर्वकारणकारणम् ।

सर्वातिशयितः सर्वाध्यक्षः सर्वेश्वरेश्वरः ।। 130 ॥ 60 सर्वार्थः – समस्त पुरुषार्थरूप, 61 सर्वतोभद्रः – सब ओरसे कल्याणरूप, 62 सर्वकारणकारणम् – विश्वके कारणभूत प्रकृति आदिके भी कारण, 63 सर्वातिशयितः – सबसे सब बातों में बढ़े हुए, ब्रह्मा और शिव आदिसे भी अधिक महिमावाले 64 सर्वाध्यक्षः सबके साक्षी, सबके नियन्ता, 65 सर्वेश्वरेश्वरः – सम्पूर्ण ईश्वरोंके भी ईश्वर, ब्रह्मादि देवताओंके भी नियामक ॥ 130 षड्विंशको महाविष्णुर्महागुह्यो महाविभुः नित्योदितो नित्ययुक्तो नित्यानन्दः सनातनः ।। 131 ।। 66 षड्विंशकः – पचीस * तत्त्वोंसे विलक्षण छब्बीसवाँ तत्व, पुरुषोत्तम, 67 महाविष्णुः – सब देवताओंमें महान् सर्वव्यापी भगवान् विष्णु, 68 महागुह्यः – परम गोपनीय तत्त्व, 69 महाविभुः – प्राकृत आकाश आदि व्यापक तत्त्वोंसे भी महान् एवं व्यापक, 70 नित्योदितः – सूर्य आदिकी भाँति अस्त न होकर नित्य निरन्तर उदित रहनेवाले, 71 नित्ययुक्तः – चराचर प्राणियोंसे नित्य संयुक्त अथवा सदा योगमें स्थित रहनेवाले, 72 नित्यानन्दः- नित्य आनन्दस्वरूप, 73 सनातनः सदा एकरस रहनेवाले ॥131 ॥

मायापतिर्योगपतिः कैवल्यपतिरात्मभूः ।

जन्ममृत्युजरातीतः कालातीतो भवातिगः ॥ 132 ॥

74 मायापतिः मायाके स्वामी, 75 योग पति:- योगपालक, योगेश्वर, 76 कैवल्यपतिः मोक्ष प्रदान करनेका अधिकार रखनेवाले, मुक्तिके स्वामी, 77 आत्मभूः – स्वतः होनेवाले, स्वयम्भू, 78 जन्ममृत्युजरातीतः – जन्म, मरण और वृद्धावस्था आदि शरीरके धर्मोसे रहित, 79 कालातीतः – कालके वशमें न आनेवाले, 80 भवातिगः – भवबन्धनसे अतीत 132 पूर्णः सत्यः शुद्धबुद्धस्वरूपो नित्यचिन्मयः

योगप्रियो योगगम्यो भवबन्धैकमोचकः ॥ 133 ॥ 81 पूर्णः – समस्त ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य और गुणोंसे परिपूर्ण, 82 सत्य:- भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंमें सदा समानरूपसे रहनेवाले, सत्यस्वरूप, 83 शुद्धबुद्धस्वरूपः – स्वाभाविक शुद्धि और ज्ञानसे सम्पन्न, प्रकृतिके संसर्गसे रहित बोधस्वरूप परमात्मा, 84 नित्यचिन्मयः – नित्य चैतन्यस्वरूप, 85 योगप्रियः – चित्तवृत्तियोंके निरोधरूप योगके प्रेमी, 86 योगगम्यः- ध्यान अथवा समाधिके द्वारा अनुभवमें आनेयोग्य, 87 भवबन्धैकमोचकः – संसार बन्धनसे एकमात्र छुड़ानेवाले ॥ 133 ॥

पुराणपुरुषः प्रत्यक्चैतन्यः पुरुषोत्तमः । वेदान्तवेद्यो दुर्ज्ञेयस्तापत्रयविवर्जितः ॥ 134 ॥ 88 पुराणपुरुषः ब्रह्मा आदि पुरुषोंकी अपेक्षा भी प्राचीन, आदिपुरुष, 89 प्रत्यक्चैतन्यः – अन्तर्यामी चेतन, 90 पुरुषोत्तमः -क्षर और अक्षर पुरुषोंसे श्रेष्ठ 99 वेदान्तवेद्यः-उपनिषदोंके द्वारा जाननेयोग्य, 92 दुर्ज्ञेयः – कठिनतासे अनुभवमें आनेवाले, 93 तापत्रयविवर्जितः – आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक तीनों तापोंसे रहित 134 ब्रह्मविद्याश्रयोऽनघः स्वप्रकाशः स्वयम्प्रभुः । –

सर्वोपाय उदासीनः प्रणवः सर्वतः समः ।। 135 ।। 94 ब्रह्मविद्याश्रयः- -ब्रह्मविद्याके आश्रय, उसके द्वारा जाननेमें आनेवाले ब्रह्म, 95 अनघः – पापरहित, शुद्ध, 16 स्वप्रकाशः अपने ही प्रकाशसे प्रकाशितहोनेवाले, 97 स्वयम्प्रभुः- दूसरेकी सामर्थ्यकी अपेक्षासे रहित, स्वयं समर्थ, 98 सर्वोपायः सर्वसाधनरूप, 99 उदासीनः राग-द्वेषसे ऊपर उठे हुए, पक्षपातरहित 100 प्रणवः – ओंकाररूप शब्दब्रह्म, 101 सर्वतः समः – सब और समान दृष्टि रखनेवाले ॥ 135 ॥ सर्वानवद्यो दुष्प्राप्यस्तुरीयस्तमसः

कूटस्थ: सर्वसंश्लिष्टो वाङ्मनोगोचरातिगः ।। 136 ।। 102 सर्वानवद्यः – सबकी प्रशंसाके पात्र, सबके द्वारा स्तुत्य, 103 दुष्प्राप्यः – अनन्यचित्तसे भजन न करनेवालोंके लिये दुर्लभ, 104 तुरीयः – जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति- इन तीनों अवस्थाओंसे अतीत चतुर्थावस्थास्वरूप 105 तमसः परः- तमोगुण एवं अज्ञानसे परे, 106 कूटस्थ:- निहाईकी भाँति अविचलरूपसे स्थिर रहनेवाला निर्विकार आत्मा, 107 सर्वसंश्लिष्टः – सर्वत्र व्यापक होनेके कारण सबसे संयुक्त 108 नोगोचरातिगः वाणी और मनको पहुँचसे बाहर 136 संकर्षणः सर्वहरः कालः सर्वभयंकरः
अनुल्लङ्घ्यश्चित्रगतिर्महारुद्रो दुरासदः ।। 137 ।। 109 संकर्षण: कालरूपसे सबको अपनी ओर खींचनेवाले, चतुर्व्यूह संकर्षणरूप, शेषावतार बलराम, 110 सर्वहर:- प्रलयकाल में सबका संहार करनेवाले, 111 कालः – युग, वर्ष, मास, पक्ष आदि रूपसे सम्पूर्ण विश्वको अपना ग्रास बनानेवाले, काल पदवाच्य यमराज, 112 सर्वभयंकर:- मृत्युरूपसे सबको भय – – पहुँचानेवाले, 113 अनुल्लङ्घ्यः – काल आदि भी जिनकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं कर सकते, ऐसे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ll 114 ll चित्रगति: विचित्र लीलाएँ करनेवाले लीलापुरुषोत्तम अथवा विचित्र गति से चलनेवाले, 195 महारुद्र: महान् दुःखोंको दूर भगानेवाले, ग्यारह रुद्रोंकी अपेक्षा भी महान् महेश्वररूप, 116 दुरासदः – बड़े-बड़े दानवोंके लिये भी जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे दुर्धर्ष वीर ॥ 137 ॥मूलप्रकृतिरानन्दः प्रद्युम्नो विश्वमोहनः महामायो विश्वबीजं परशक्तिः सुखैकभूः ॥ 138 ll

117 मूलप्रकृतिः सम्पूर्ण विश्वके महाकारण स्वरूप, 118 आनन्दः – सब ओरसे सुख प्रदान करनेवाले, आनन्दस्वरूप, 119 प्रद्युम्नः – महान् बलवाले क्रमदेव चतुर्व्यूहमें प्रद्युम्नस्वरूप 120 विश्वमोहन: अपने अलौकिक रूपलावण्य से सम्पूर्ण विश्वको मोहित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, 129 महामाय: मायावियोंपर भी माया डालनेवाले महान् मायावी, 122 विश्वबीजम् — जगत्की उत्पत्तिके आदिकारण, 123 परशक्तिः महान् सामर्थ्यशाली, 124 सुखैकभूः – सुखके एकमात्र उत्पत्तिस्थान ॥ 138 ॥ सर्वकाम्योऽनन्तलीलः सर्वभूतवशंकरः अनिरुद्धः सर्वजीवो हृषीकेशो मनः पतिः ।। 139 ।। 125 सर्वकाम्यः – सबकी कामनाके विषय, 126 अनन्तलील:-जिनकी लीलाओंका अन्त नहीं है ऐसे भगवान् 127 सर्वभूतवशंकर:- सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने वशमें करनेवाले 128 अनिरुद्धः संग्राममें जिनकी गतिको कोई रोक नहीं सकता- ऐसे पराक्रमी, शूरवीर चतुर्व्यूहमें अनिरुद्धस्वरूप 129 सर्वजीवः – सबको जीवन प्रदान करनेवाले, सबके आत्मा, 130 हृषीकेशः – इन्द्रियोंके स्वामी, 131 मनः पतिः– मनके स्वामी, हृदयेश्वर 139 ।। निरुपाधिप्रियो हंसोऽक्षरः सर्वनियोजकः ।

ब्रह्मप्राणेश्वर: सर्वभूतभृद् देहनायकः ॥ 140 ॥ 132 निरुपाधिप्रिय:- जिनकी बुद्धिसे उपाधिकृत भेदभ्रम दूर हो गये हैं, उन ज्ञानी परमहंसों के भी प्रियतम, 133 हंसः – हंसरूप धारण करके सनकादिकौको उपदेश करनेवाले, 134 अक्षर: कभी नष्ट न होनेवाले, आत्मा 135 सर्वनियोजकः सबको विभिन्न कमोंमें लगानेवाले, सबके प्रेरक, सबके स्वामी, 136 ब्रह्मप्राणेश्वर: ब्रह्माजीके प्राणोंके स्वामी, 137 सर्वभूतभृत् – सम्पूर्ण भूतोंका भरण-पोषण करनेवाले, 138 देहनायकः शरीरकासंचालन करनेवाले ॥ 140 ॥ क्षेत्रज्ञः प्रकृतिस्वामी पुरुषो विश्वसूत्रधृक् अन्तर्यामी त्रिधामान्तः साक्षी निर्गुण ईश्वरः ॥ 141 ।। 139 क्षेत्रज्ञः – सम्पूर्ण क्षेत्रों (शरीरों) में स्थित होकर उनका ज्ञान रखनेवाले, 140 प्रकृतिस्वामी- जगत्की कारणभूता प्रकृतिके स्वामी, 141 पुरुषः- समस्त शरीरोंमें शयन करनेवाले अन्तर्यामी, 142 विश्वसूत्रधृक् – संसाररूपी नाटकके सूत्रधार, 143 अन्तर्यामी- अन्तःकरणमें विराजमान परमेश्वर, 144 त्रिधामा – भूः भुवः स्वः रूप तीन धामवाले, त्रिलोकीमें व्याप्त, 145 अन्तः साक्षी अन्तःकरणके द्रष्टा, 146 निर्गुणः – गुणातीत, 147 ईश्वर : – सम्पूर्ण ऐश्वर्यसे सम्पन्न ॥ 141 ॥ योगिगम्यः पद्मनाभः शेषशायी श्रियः पतिः
श्रीशिवोपास्यपादाब्जो नित्यश्रीः श्रीनिकेतनः ॥ 142 ॥ 148 योगिगम्यः – योगियोंके अनुभवमें आनेवाले, 149 पद्मनाभः – अपनी नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले, 150 शेषशायी- शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले, 151 श्रियः पतिः – लक्ष्मीके स्वामी, 152 श्रीशिवोपास्यपादाब्ज:- पार्वतीसहित भगवान् शिव जिनके चरणकमलोंकी उपासना करते हैं, वे भगवान् विष्णु, 153 नित्यश्रीः कभी विलग न होनेवाली लक्ष्मीकी शोभासे युक्त, 154 श्रीनिकेतनः – भगवती लक्ष्मीके हृदय मन्दिरमें निवास करनेवाले ॥ 142 ।।

नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः श्रीनिधिः श्रीधरो हरिः ।वश्यश्रीर्निश्चलश्रीदो विष्णुः क्षीराब्धिमन्दिरः ।। 143 ।। 155 नित्यवक्षःस्थलस्थश्रीः- जिनके वक्षःस्थलमें लक्ष्मी सदा निवास करती हैं-ऐसे भगवान् विष्णु, 156 श्रीनिधिः- शोभाके भण्डार, सब प्रकारकी सम्पत्तियोंके आधार 157 श्रीधरः जगज्जननी श्रीको हृदयमें धारण करनेवाले, 158 हरि:- पापहारी, भक्तोंका मन हर लेनेवाले – 159 वश्यश्रीः – लक्ष्मीको सदा अपने वशमें रखनेवाले,निश्चलश्रीदः स्थिर सम्पत्ति प्रदान करनेवाले, 161 विष्णुः – सर्वत्र व्यापक, 162 क्षीराब्धिमन्दिर:- क्षीरसागरको अपना निवासस्थान बनानेवाले 143 कौस्तुभोद्भासितोरस्को माधवो जगदार्तिहा

– 163 कौस्तुभोद्भासितोरस्क:- कौस्तुभमणिकी प्रभासे उद्भासित हृदयवाले, 164 माधवः- -जगन्माता लक्ष्मीके स्वामी अथवा मधुवंश प्रादुर्भूत भगवान् श्रीकृष्ण, 165 जगदार्तिहा – समस्त संसारकी पीड़ा दूर करनेवाले, 166 श्रीवत्सवक्षाः वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न धारण करनेवाले. 167 निःसीमकल्याणगुणभाजनम् – सीमारहित कल्याणमय गुणोंके आधार 144 ॥
श्रीवत्स्वक्षा निःसीमकल्याणगुणभाजनम् ।। 144 ।।

पीताम्बरो जगन्नाथो जगत्त्राता जगत्पिता जगद्वन्धुर्जगत्स्रष्टा जगद्धाता जगन्निधिः ॥ 145 ॥ 168 पीताम्बरः पीत वस्त्रधारी, 169 जगन्नाथः – जगत्के स्वामी, 170 जगत्त्राता सम्पूर्ण विश्वके रक्षक, 171 जगत्पिता- समस्त संसारके जन्मदाता 172 जगदबन्धुः बन्धुकी भाँति जगत्के जीवोंकी सहायता करनेवाले, 173 जगत्स्रष्टा जगत् की सृष्टि करनेवाले ब्रह्मारूप, 174 जगद्धाता अखिल विश्वका धारण-पोषण करनेवाले विष्णुरूप, 175 जगन्निधिः – प्रलयके समय सम्पूर्ण जगत्को बीजरूपमें धारण करनेवाले ॥। 145 ।। जगदेकस्फुरद्वयों नाहंवादी जगन्मयः ।

सर्वाश्चर्यमयः सर्वसिद्धार्थः सर्वरञ्जितः ।। 146 ।। 176 जगदेकस्फुरद्वीर्य: संसारमें एकमात्र विख्यात पराक्रमी, 177 नाहंवादी अहंकाररहित, 178 जगन्मय:- विश्वरूप, 179 सर्वाश्चर्यमय: जिनका सब कुछ आश्चर्यमय है-ऐसे अथवा सम्पूर्ण आश्चयोंसे युक्त, 180 सर्वसिद्धार्थ:- पूर्णकाम होने के कारण जिनके सभी प्रयोजन सदा सिद्ध हैं—ऐसे परमेश्वर, 189 सर्वरञ्जितः – देवता, दानव और मानव आदि सभी प्राणी जिन्हें रिझानेकी चेष्टामें लगे रहते हैं-ऐसेभगवान् ॥ 146 ॥

सर्वामोघोद्यमो ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः ।

शम्भोः पितामहो ब्रह्मपिता शक्राद्यधीश्वरः ॥ 147 ॥

182 सर्वामोघोद्यमः – जिनके सम्पूर्ण उद्योग सफल होते हैं, कभी व्यर्थ नहीं जाते – ऐसे भगवान् विष्णु, 183 ब्रह्मरुद्राद्युत्कृष्टचेतनः – ब्रह्मा और रुद्र आदिसे उत्कृष्ट चेतनावाले, 184 शम्भोः पितामहः – शंकरजीके पिता भगवान् ब्रह्माको भी जन्म देनेवाले श्रीविष्णु, 185 ब्रह्मपिता ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, 186 शक्राद्यधीश्वरः – इन्द्र आदि देवताओंके स्वामी ॥ 147 ॥ सर्वदेवप्रियः सर्वदेवमूर्तिरनुत्तमः ।

सर्वदेवैकशरणं सर्वदेवैकदेवता ।। 148 ।। 187 ll सर्वदेवप्रियः – सम्पूर्ण देवताओंके प्रिय, ll 188 ll सर्वदेवमूर्तिः– समस्त देवस्वरूप, 189 अनुत्तमः – जिनसे उत्तम दूसरा कोई नहीं है, सर्वश्रेष्ठ, ll 190 ll सर्वदेवैकशरणम्-समस्त देवताओंके एकमात्र आश्रय, 191 सर्वदेवैकदेवता – सम्पूर्ण देवताओंके एकमात्र आराध्यदेव ll 148 ll

यज्ञभुग्यज्ञफलदो यज्ञेशो यज्ञभावनः । यज्ञत्राता यज्ञपुमान्वनमाली द्विजप्रियः ।। 149 ।।

192 यज्ञभुक् – समस्त यज्ञोंके भोक्ता, 193 यज्ञफलदः – सम्पूर्ण यज्ञोंका फल देनेवाले, 194 यज्ञेशः – यज्ञोंके स्वामी, 195 यज्ञभावनः – अपनी वेदमयी वाणीके द्वारा यज्ञोंको प्रकट करनेवाले, 196 यज्ञत्राता – यज्ञविरोधी असुरोंका वध करके यज्ञोंकी रक्षा करनेवाले, 197 यज्ञपुमान्-यज्ञपुरुष, यज्ञाधिष्ठाता देवता, 198 वनमाली – परम मनोहर वनमाला धारण करनेवाले, 199 द्विजप्रियः- ब्राह्मणोंके प्रेमी और प्रियतम ।। 149 ।।द्विजैकमानदो
विप्रकुलदेवोऽसुरान्तकः ।

सर्वदुष्टान्तकृत्सर्वसज्जनानन्यपालकः ll 200 ll द्विजैकमानदः – ब्राह्मणोंको एकमात्र ll 201 ll विप्रकुलदेवः – सम्मान देनेवाले, ब्राह्मणवंशको अपना आराध्यदेव माननेवाले,202 असुरान्तकः – संसारमें अशान्ति फैलानेवाले असुरोंके प्राणहन्ता, 203 सर्वदुष्टान्तकृत् दुष्टोंका अन्त करनेवाले, 204 सर्वसज्जनानन्यपालकः – सम्पूर्ण साधु पुरुषोंके समस्त एकमात्र पालक ॥ 150 ॥ सप्तलोकैकजठरः
सप्तलोकैकमण्डनः ।

एकमात्र सृष्टिस्थित्यन्तकृच्चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ॥ 151 ॥ 205 सप्तलोकैकजठरः – भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक – इन सातों लोकोंको अपने उदरमें स्थापित करनेवाले, 206 सप्तलोकैकमण्डनः – सातों लोकोंके एकमात्र श्रृंगार अपनी ही शोभासे समस्त लोकोंको विभूषित करनेवाले, 207 सृष्टिस्थित्यन्तकृत् — संसारकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले, 208 चक्री – सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले, 209 शार्ङ्गधन्वा – शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले, 210 गदाधरः- कौमोदकी नामकी गदा धारण करनेवाले ॥ 151 ॥

शङ्खभृन्नन्दकी पद्मपाणिर्गरुडवाहनः अनिर्देश्यवपुः सर्वपूज्यस्त्रैलोक्यपावनः ।। 152 ।।

211 शङ्खभृत् – एक हाथमें पांचजन्य नामक शंख लिये रहनेवाले, 212 नन्दकी- नन्दक नामक खड्ग (तलवार) बाँधनेवाले, 213 पद्मपाणि: हाथमें कमल धारण करनेवाले, 214 गरुडवाहनः – पक्षियोंके राजा विनतानन्दन गरुड़पर सवारी करनेवाले, 215 अनिर्देश्यवपुः – जिसके दिव्यस्वरूपका किसी प्रकार भी वर्णन या संकेत न किया जा सके-ऐसे अनिर्वचनीय शरीरवाले, 216 सर्वपूज्यः- देवता, दानव और मनुष्य आदि सबके पूजनीय, 217 त्रैलोक्यपावनः अपने दर्शन और स्पर्श आदिसे त्रिभुवनको पावन बनानेवाले 152 ॥

अनन्तकीर्तिर्निःसीमपौरुषः सर्वमङ्गलःसूर्यकोटिप्रतीकाशो यमकोटिदुरासदः 153 ॥ 218 अनन्तकीर्तिः शेष और शारदा भी जिनकी कीर्तिका पार न पा सकें-ऐसे अपार सुयशवाले, 219 निःसीमपौरुषः – असीम पुरुषार्थवाले, अमितपराक्रमी, 220 सर्वमङ्गलः – सबका मंगल करनेवाले अथवा सबके लिये मंगलरूप, 221 सूर्य कोटिप्रतीकाशः – करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी, 222 यमकोटिदुरासदः – करोड़ों यमराजोंके लिये भी दुर्धर्ष ll 153 ll

कन्दर्पकोटिलावण्यो दुर्गाकोट्यरिमर्दनः

समुद्रकोटिगम्भीरस्तीर्थकोटिसमाह्वयः


कन्दर्पकोटिलावण्यः-करोड़ों कामदेवोंके

।। 154 ।।

समान मनोहर कान्तिवाले, 224 दुर्गाकोट्यरिमर्दनः करोड़ों दुर्गाओंके समान शत्रुओंको रौंद डालनेवाले, 225 समुद्रकोटिगम्भीरः -करोड़ों समुद्रोंके समान गम्भीर, 226 तीर्थकोटिसमाह्वयः -करोड़ों तीर्थोंके समान पावन नामवाले ll 154 ll

ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा कोटीन्दुजगदानन्दी शम्भुकोटिमहेश्वरः ॥ 155 ।। वायुकोटिमहाबलः 227 ब्रह्मकोटिजगत्स्रष्टा – करोड़ों ब्रह्माओंके समान संसारकी सृष्टि करनेवाले, 228 वायुकोटि महाबलः – करोड़ों वायुओंके तुल्य महाबली, 229 कोटीन्दुजगदानन्दी – करोड़ों चन्द्रमाओंकी भाँति जगत्‌को आनन्द प्रदान करनेवाले, 230 शम्भुकोटिमहेश्वरः – करोड़ों शंकरोंके समान महेश्वर (महान् ऐश्वर्यशाली) ॥ 155 ll

कुबेरकोटिलक्ष्मीवाञ्शनकोटिविलासवान् । हिमवत्कोटिनिष्कम्पः कोटिब्रह्माण्डविग्रहः ॥ 156 ॥

231 कुबेरकोटिलक्ष्मीवान्-करोड़ों कुबेरोंके समान सम्पत्तिशाली, 232 शक्रकोटिविलासवान् करोड़ों इन्द्रोंके सदृश भोग-विलासके साधनोंसे परिपूर्ण, 233 हिमवत्कोटिनिष्कम्पः – करोड़ों हिमालयोंकी भाँति अचल, 234 कोटिब्रह्माण्डविग्रहः – अपने श्रीविग्रहमें कोटि-कोटि ब्रह्माण्डोंको धारण करनेवाले, महाविराट्रूप ॥156॥

कोट्यश्वमेधपापघ्नो यज्ञकोटिसमार्चनः सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः कामधुक्कोटिकामदः ॥ 157 ॥ 235 कोट्यश्वमेधपापघ्नः – करोड़ों अश्वमेध -यज्ञोंके समान पापनाशक, 236 यज्ञकोटिसमार्चनः करोड़ों होंके तुल्य पूजन सामग्री से पूजित होनेवाले, 237 सुधाकोटिस्वास्थ्यहेतुः – कोटि-कोटि अमृतके तुल्य स्वास्थ्य-रक्षाके साधन, 238 कामधुक्कोटि कामदः – करोड़ों कामधेनुओंके समान मनोरथ पूर्ण करनेवाले ॥ 157 ll

ब्रह्मविद्याकोटिरूपः शिपिविष्टः शुचिश्रवाः । विश्वम्भरस्तीर्थपादः पुण्यश्रवणकीर्तनः 158 ॥

239 ब्रह्मविद्याकोटिरूपः – करोड़ों ब्रह्म विद्याओंके तुल्य ज्ञानस्वरूप, 240 शिपिविष्ट: सूर्य किरणोंमें स्थित रहनेवाले, 241 शुचिश्रवाः पवित्र यशवाले, 242 विश्वम्भरः- सम्पूर्ण विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, 243 तीर्थपादः तीर्थोंकी भाँति पवित्र चरणोंवाले अथवा अपने चरणोंमें ही समस्त तीथको धारण करनेवाले, 244 पुण्यश्रवण कीर्तनः – जिनके नाम, गुण, महिमा तथा स्वरूप आदिका श्रवण और कीर्तन परम पवित्र एवं पावन है-ऐसे भगवान् ॥ 158 ॥ आदिदेवो जगज्जैत्रो मुकुन्दः कालनेमिहा।

वैकुण्ठोऽनन्तमाहाल्यो महायोगेश्वरोत्सवः 159 ॥ 245 आदिदेवः- आदि देवता, सबके आदि कारण एवं प्रकाशमान 246 जगज्जैत्रः विश्वविजयी, 247 मुकुन्दः – मोक्षदाता, 248 कालनेमिहा कालनेमि नामक दैत्यका वध करनेवाले, 249 वैकुण्ठ:- परमधामस्वरूप, 250 अनन्त माहात्म्य:- जिनकी महिमाका अन्त नहीं है- ऐसे महामहिम परमेश्वर, 251 महायोगेश्वरोत्सव: बड़े-बड़े योगेश्वरोंके लिये जिनका दर्शन उत्सवरूप है – ऐसे भगवान् ॥ 159 ॥ नित्यतृप्तो लसद्भावो निःशङ्को नरकान्तकः ।

दीनानाथैकशरणं विश्वैकव्यसनापहः ॥ 160 ॥ 252 नित्यतृप्तः – अपने आपमें ही सदा तृप्त रहनेवाले, 253 लसद्भावः – सुन्दर स्वभाववाले, 254 निःशङ्कः – अद्वितीय होनेके कारण भय शंकासे रहित, 255 नरकान्तकः- नरकके भयकानाश अथवा नरकासुरका वध करनेवाले, एकमात्र दीनानाथैकशरणम्- दीनों और अनार्थीको शरण देनेवाले, 257 विश्वैकव्यसनापहः – संसारके एकमात्र संकट हरनेवाले ॥ 160 ॥ जगत्कृपाक्षमो नित्यं कृपालुः सज्जनाश्रयः ।

योगेश्वरः 258 सज्जनाश्रयः सत्पुरुषोंके 261 सदोदीर्णो वृद्धिपतिः ॥ 169॥ जगत्कृपाक्षम:- सम्पूर्ण विश्वपर कृपण करनेमें समर्थ, 259 नित्यं कृपालु सदा स्वभावसे ही कृपा करनेवाल, 260 शरणदाता, योगेश्वरः- सम्पूर्ण योगों तथा उनसे प्राप्त होनेवाली सिद्धियोंके स्वामी, 262 सदोदीर्णः – सदा अभ्युदयशील, नित्य उदार, सदा सबसे श्रेष्ठ, 263 वृद्धिक्षयविवर्जितः वृद्धि और हासरूप विकारसे रहित ॥ 169 ॥

अधोक्षजो विश्वरेताः प्रजापतिशताधिपः शातिपदः शम्भुब्रह्मोर्ध्वधामगः 162 ।।

264 अधोक्षजः – इन्द्रियोंके विषयोंसे ऊपर उठे हुए, अपने स्वरूपसे क्षीण न होनेवाले 265 विश्वरेताः सम्पूर्ण विश्व जिनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, वे परमेश्वर 266 प्रजापतिशताधिपः सैकड़ों प्रजापतियोंके स्वामी, 267 शक्रार्थितपद इन्द्र और ब्रह्माजीके द्वारा पूजित चरणोंवाले, 268 शम्भुब्रह्योर्ध्वधामगः भगवान् शंकर और – ब्रह्माजी के धामसे भी ऊपर विराजमान वैकुण्ठधाम निवास करनेवाले ॥ 162 ॥ सूर्यसोमेक्षणो विश्वभोक्ता सर्वस्य पारगः ।विश्वधुरन्धरः ॥ 163

जगत्सेतुर्धर्मसेतुध 269 सूर्य सोमेक्षणः – सूर्य और चन्द्रमारूपी नेत्र 270 विश्वभोक्ता विश्वका पालन करनेवाले, 271 सर्वस्य पारग:- सबसे परे विराजमान 272 जगत्सेतुः – संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुरूप, 203 धर्मसेतुधरः धर्ममर्यादाका पालन करनेवाले, 274 विश्वपुरन्धरः शेषनागके रूपसे समस्त विश्वका भार वहन करनेवाले ॥ 163 ॥निर्ममो ऽखिललोकेशो निःसङ्गोऽद्भुतभोगवान् । वश्यमायो वश्यविश्वो विष्वक्सेनः सुरोत्तमः ॥ 164 ॥

275 निर्ममः- आसक्तिमूलक ममतासे रहित, 276 अखिललोकेशः सम्पूर्ण लोकोंका शासन कानेवाले, 277 निःसङ्गः आसक्तिरहित, 278 अद्भुतभोगवान्–आश्चर्यजनक भोग- सामग्री से सम्पन्न, 279 वश्यमायः – मायाको अपने वशमें रखनेवाले, वश्यविश्वः- समस्त 280 जगत्को अपने अधीन रखनेवाले, 281 विष्वक्सेनः युद्धके लिये की हुई तैयारीमात्रसे ही दैत्यसेनाको तितर-बितर कर डालनेवाले, 282 सुरोत्तमः – समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ 164

सर्वश्रेयः पतिर्दिव्यो ऽनयंभूषणभूषितः सर्वलक्षणलक्षण्यः 283 सर्वश्रेयः पतिः – समस्त कल्याणोंके स्वामी, 284 दिव्य लोकोत्तर सौन्दर्य- माधुर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न 285 अनर्घ्यभूषणभूषितः अमूल्य आभूषणोंसे विभूषित, 286 सर्वलक्षणलक्षण्य: समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त, 287 सर्वदैत्येन्द्रदर्पहा समस्त दैत्यपतियोंका दर्प दलन करनेवाले ॥ 165 ॥ समस्तदेव सर्वस्वं सर्वदैवतनायकः ।
सर्वदैत्येन्द्रदर्पहा ।। 165 ॥

समस्तदेवकवचं सर्वदेवशिरोमणिः ॥ 166 ॥ 288 समस्तदेवसर्वस्वम् – सम्पूर्ण देवताओंके सर्वस्व 289 सर्वदैवतनायकः समस्त देवताओंके नेत, 290 समस्तदेवकवचम् – सब देवताओंकी कवचके समान रक्षा करनेवाले, 299 सर्वदेव शिरोमणिः- सम्पूर्ण देवताओंके शिरोमणि 166 प्रपन्नाशनिपञ्जरः । – समस्तदेवतादुर्गः
समस्तभयहुन्नामा भगवान् विष्टरश्रवाः ।। 167 ।।

292 समस्तदेवतादुर्गः – मजबूत किलेके समान समस्त देवताओंकी रक्षा करनेवाले, 293 प्रपन्नाशनिपञ्जरः – शरणागतोंकी रक्षाके लिये वज्रमय पिंजड़ेके समान, 294 समस्तभयहनामा – जिनका नाम सब प्रकारके भयौंको दूर करनेवाला है-ऐसे विष्णु. 295 भगवान्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री.ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न, 296 विष्टरश्रवाः कुशाकी मुष्टिके समान कानोंवाले ॥ 167 ॥ विभुः सर्वहितोदको हतारिः स्वर्गतिप्रदः।

सर्वदैवतजीवेशो ब्राह्मणादिनियोजकः ।। 168 ।। 297 विभुः – सर्वत्र व्यापक, 298 सर्वहितोदर्क:- सबके लिये हितकर भविष्यका निर्माण करनेवाले, 299 हतारिः – जिनके शत्रु नष्ट हो चुके हैं, शत्रुहीन, 300 स्वर्गतिप्रदः स्वर्गीय उच्चगति प्रदान करनेवाले, 301 सर्वदैवतजीवेश:- समस्त देवताओंके जीवनके स्वामी, 302 ब्राह्मणादि नियोजक:- ब्राह्मण आदि वर्णोंको अपने-अपने धर्ममें नियुक्त करनेवाले 168

ब्रह्मशम्भुपरार्धायुर्ब्रह्मज्येष्ठः शिशुस्वराट् । विराइ भक्तपराधीनः स्तुत्यः स्तोत्रार्थसाधकः ॥। 169 ।। 303 ब्रह्मशम्भुपरार्धायुः ब्रह्मा और शिवकी अपेक्षा भी अनन्तगुनी आयुवाले 304 ब्रह्मज्येष्ठः ब्रह्माजीसे भी ज्येष्ठ, 305 शिशुस्वराट् – बालमुकुन्द रूपसे शोभा पानेवाले, 306 विराद्-विशेष शोभा सम्पन्न, अखिल ब्रह्माण्डमय विराट् रूपधारी भगवान् 307 भक्तपराधीन: प्रेमविवश होकर भक्तोंके अधीन रहनेवाले, 308 स्तुत्यः- स्तुति करनेयोग्य, 309 स्तोत्रार्थसाधक : – स्तोत्रमें कहे हुए अर्थको सिद्ध करनेवाले 169

परार्थकर्ता कृत्यज्ञः स्वार्थकृत्यसदोतिः सदानन्दः सदाभद्रः सदाशान्तः सदाशिवः ॥ 170 ॥

310 परार्थकर्ता परोपकार करनेवाले, 311 कृत्यज्ञः – कर्तव्यका ज्ञान रखनेवाले, 312 स्वार्थ कृत्यसदोतिःस्वार्थसाधनके कार्योंसे सदा दूर रहनेवाले, 313 सदानन्दः – सदा आनन्दमग्न, सत्पुरुषोंको आनन्द प्रदान करनेवाले अथवा सत् एवं आनन्दस्वरूप, 314 सदाभद्रः – सर्वदा कल्याणरूप, 315 सदाशान्तः – नित्य शान्त, 316 सदाशिव: निरन्तर कल्याण करनेवाले 170

सदाप्रियः सदातुष्टः सदापुष्टः सदार्चितः

सदापूतः पावनाग्रयो वेदगुह्यो वृषाकपिः ।। 171 ।।317 सदाप्रियः सर्वदा सबके प्रियतम, 318 सदातुष्टः – निरन्तर संतुष्ट रहनेवाले, 319 सदापुष्टः- सुधा पिपासा तथा आधि-व्याधिसे रहित होनेके कारण सदा पुष्ट शरीरवाले, 320 सदार्चितः भक्तोंद्वारा निरन्तर पूजित, 321 सदापूतः – नित्य पवित्र, 322 पावनाग्रयः- पवित्र करनेवालोंमें अग्रगण्य, 323 वेदगुः वेदोंके गूढ़ रहस्य, 324 वृषाकपिः वृष धर्मको अकम्पित (अविचल ) रखनेवाले श्रीविष्णु ॥ 171 ॥ त्रियुगश्चतुर्मूर्तिश्चतुर्भुजः

भूतभव्यभवनाथ महापुरुषपूर्वजः ।। 172 ।। 325 सहस्रनामा-हजारों नामवाले, 326 त्रियुगः- सत्ययुग, त्रेता और द्वापर नामक त्रियुग स्वरूप, 327 चतुर्मूर्तिः– राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्नरूप चार मूर्तियाले 328 चतुर्भुज: चार भुजाओंवाले, 329 भूतभव्यभवन्नाथः भूत, भविष्य और वर्तमान सभी प्राणियोंके स्वामी 330 महापुरुषपूर्वजः महापुरुष आदिके भी पूर्वज ॥ 172 ॥ नारायणो मञ्जुकेशः सर्वयोगविनिःसृतः।

वेदारो सामसारस्तपोनिधिः ।। 173 ।। 331 नारायणः – जलमें शयन करनेवाले, 332 मज्जुकेश: मनोहर पुराले केशवले, 333 सर्वयोगविनिःसृतः नाना प्रकारके शास्त्रोक्त साधनों से जाननेमें आनेवाले, समस्त योग-साधनों से प्रकट होनेवाले 334 बेदसार:- वेदोंके सारभूत तत्त्व, ब्रह्म, 335 यज्ञसारः- यज्ञोंके सारतत्त्व- f यज्ञपुरुष विष्णु, 336 सामसार:- सामवेदकी श्रुतियोंद्वारा गाये जानेवाले सारभूत परमात्मा, 337 तपोनिधिः- तपस्याके भंडार नर-नारायण स्वरूप ॥ 173 यज्ञसार:

साध्यश्रेष्ठः पुराणविर्निष्ठा शान्तिः परायणम् शिवत्रिशूलविध्वंसी श्रीकण्ठैकवरप्रदः ।। 174

॥ 338 साध्य श्रेष्ठः साध्य देवताओंमें श्रेष्ठ साधनसे प्राप्त होनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ, 339पुराणर्षिः – पुरातन ऋषि नारायण, 340 निष्ठा सबकी स्थिति के आधार अधिष्ठानस्वरूप 341 शान्तिः परम शान्तिस्वरूप, 342 परायणम् परम प्राप्यस्थान, 343 शिवः – कल्याणस्वरूप, 344 त्रिशूलविध्वंसी आध्यात्मिक आदि त्रिविध शूलोंका नाश करनेवाले अथवा प्रलयकालमें महारुद्ररूप होकर त्रिशूलसे समस्त समस्त विश्वका विध्वंस करनेवाले 345 श्रीकण्ठैकवरप्रदः भगवान् शंकरके एकमात्र वरदाता ॥ 174 ॥ नरः कृष्णो हरिर्धर्मनन्दनो धर्मजीवनः ।

आदिकर्ता सर्वसत्यः सर्वस्त्रीरत्नदर्पहा ।। 175 ।। 346 नरः – बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले ऋषिश्रेष्ठ नर, नरके अवतार अर्जुन, 347 कृष्णः – के मनको आकृष्ट करनेवाले देवकीनन्दन श्रीकृष्ण सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा, 348 हरि:- गजेन्द्रकी पुकार सुनकर तत्काल प्रकट हो ग्राहके प्राणोंका अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीहरि 349 धर्म नन्दनः धर्मत यहाँ पुत्ररूपसे अवतीर्ण होनेवाले भगवान् नारायण अथवा धर्मराज युधिष्ठिरको आनन्दित करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण, 350 धर्मजीवन: पापाचारी असुरोंका मूलोच्छेद करके धर्मको जीवित रखनेवाले, 351 आदिकर्ता जगत्के आदि कारण ब्रह्माजीको उत्पन्न करनेवाले, 352 सर्वसत्यः पूर्णत: सत्यस्वरूप, 353 सर्वस्त्रीरत्नदर्पहा – जितेन्द्रिय होनेके कारण सम्पूर्ण सुन्दरी स्त्रियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले ॥ 175 ॥ त्रिकालजितकन्दर्प उर्वशीसृङ्मुनीश्वरः

कविर्हयग्रीवः सर्ववागीश्वरेश्वरः 176 ॥ 354 त्रिकालजितकन्दर्पः भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंमें कामदेवको परास्त करनेवाले, 355 उर्वशी उर्वशी अप्सराको सृष्टि करनेवाले भगवान् नारायण, 356 मुनीश्वरः- तपस्वी मुनियोंमें श्रेष्ठ नर-नारायणस्वरूप, 357 आद्यः- आदिपुरुष विष्णु, 358 कविः – त्रिकालदर्शी विद्वान् 359 हयग्रीवः — हयग्रीव नामक अवतार धारण करनेवालेभगवान् 350 सर्ववागीश्वरेश्वरः ब्रह्मा आदि समस्त वागीश्वरोंके भी ईश्वर ॥ 176 ॥ सर्वदेवमयो

ब्रह्मगुरुर्वागीश्वरीपतिः। अनन्तविद्याप्रभवो

मूलाविद्याविनाशकः ।। 177 ।। 361 ll

सर्वदेवमय: सम्पूर्ण देवस्वरूप 362 ब्रह्मगुरु : – ब्रह्माजीको वेदका उपदेश करनेवाले गुरु, 363 वागीश्वरीपतिः- वाणीकी अधीश्वरी सरस्वतीदेवीके स्वामी, 364 अनन्तविद्याप्रभवः असंख्य विद्याओंकी उत्पत्तिके हेतु 365 मूलाविद्या विनाशक:- भवबन्धनकी हेतुभूत मूल अविद्याका विनाश करनेवाले ॥ 177॥

सार्वयदो नमज्जाड्यनाशको मधुसूदनः ।

अनेकमन्त्रकोटीशः शब्दब्रह्मैकपारगः ।। 178 ।।

366 सार्वज्ञ्यदः – सर्वज्ञता प्रदान करनेवाले, 367 नमज्जाड्यनाशकः – प्रणाम करनेवाले भक्तोंकी जड़ताका नाश करनेवाले, 368 मधुसूदनः- मधु नामक दैत्यका वध करनेवाले, 369 अनेकमन्त्र कोटीश :- अनेक करोड़ मन्त्रोंके मी 370 शब्दब्रह्मैकपारगः- शब्दब्रह्म (वेद-वेदांगों ) – के एकमात्र पारंगत विद्वान् 178 आदिविद्वान् वेदकर्ता वेदात्मा श्रुतिसागरः ।

ब्रह्मार्थदाहरण सर्वविज्ञानजन्मभूः 979 ।।

371 आदिविद्वान् — सर्वप्रथम वेदका ज्ञान प्रकाशित करनेवाले, 372 वेदकर्ता अपने निःश्वासके साथ वेदोंको प्रकट करनेवाले, 373 वेदात्मा- वेदोंके सार तत्त्व-उनके द्वारा प्रतिपादित होनेवाले सिद्धान्तभूत परमात्मा, 374 श्रुतिसागरः 374 श्रुतिसागरः- वैदिक ज्ञानके समुद्र, 375 ब्रह्मार्थवेदाहरण: धारण करके ब्रह्माजीके लिये वेदको ले आनेवाले, 376 सर्वविज्ञानजन्मभूः – सब प्रकारके विज्ञानोंकी जन्मभूमि 179 ॥ मत्स्यरूप विद्याराज
मत्स्यदेवो महाभुंगो जगद्वीजवहित्र ।। 180 ॥ 377 विद्याराज:- समस्त विद्याओंके राजा, 378 ज्ञानमूर्तिः ज्ञानस्वरूप, 379 ज्ञानसिन्धुःज्ञानके सागर, 380 अखण्डधीः संशय-विपर्यय – – आदिके द्वारा कभी खण्डित न होनेवाली बुद्धिसे युक्त, 381 मत्स्यदेवः – मत्स्यावतारधारी भगवान्, 382 महाभृंगः मत्स्य शरीरमें ही महान् भृंग धारण करनेवाले, 383 जगद्वीजवहित्रधृक् – संसारकी बीजभूत ओषधियोंके सहित नौकाको अपने सींगमें बाँधकर धारण करनेवाले मत्स्यभगवान् ॥ 180 ॥ लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिऋग्वेदादिप्रवर्तकः ।

प्रकट आदिकृषऽखिलाधारस्तृणीकृतजगद्भरः ॥ 181 ॥ 384 लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधि:- अपने मत्स्य शरीरसे लीलापूर्वक सम्पूर्ण समुद्रको आच्छादित कर लेनेवाले, 385 ऋग्वेदादिप्रवर्तकः ऋग्वेद, यजुर्वेद आदिके प्रवर्तक 386 आदिकुर्मः सर्वप्रथम कच्छपरूपमें होनेवाले भगवान्, 387 अखिलाधारः – अखिल ब्रह्माण्डके आधारभूत, 388 तृणीकृतजगद्भरः समस्त जगत्के भारको तिनकेके समान समझनेवाले 181 अमरीकृतदेवीपः पीयूषोत्पत्तिकारणम् आत्माधारो धराधारो यज्ञाङ्गो धरणीधरः 182 ॥ 389 अमरीकृतदेवौघः – अमृत पिलाकर देवसमुदायको अमर बनानेवाले, 390 पीयूषोत्पत्ति कारणम् क्षीरसागरसे अमृतके निकालने में प्रधान कारण, 391 आत्माधारः- -अन्य किसी आधारकी अपेक्षा न रखकर अपने ही आधारपर स्थित रहनेवाले, 392 धराधारः – पृथ्वीके आधार, 393 यज्ञाङ्गः – यज्ञमय शरीरवाले भगवान् वराह, 394 धरणीधरः – अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले ॥ 182 ॥

हिरण्याक्षहरः पृथ्वीपतिः श्राद्धादिकल्पकः समस्तपितृभीतिघ्नः समस्तपितृजीवनम् ॥ 983 ॥ 395 हिरण्याक्षहरः वराहरूपसे ही हिरण्याक्ष नामक दैत्यका वध करनेवाले, 396 पृथ्वीपतिः उक्त अवतारमें ही पृथ्वीको पत्नीरूपमें ग्रहण करनेवाले, अथवा पृथ्वीके पालक, 397 श्राद्धादिकल्पकः पितरोंके लिये श्राद्ध आदिको व्यवस्था करनेवाले398 समस्तपितृभीतिघ्नः- सम्पूर्ण पितरोंके भयका निवारण करनेवाले, 399 समस्तपितृजीवनम् – समस्त पितरोंके जीवनाधार 183

हव्यकव्यैक भुग्धव्यकव्यैकफलदायकः

रोमान्तलींनजलधिः क्षोभिताशेषसागरः ।। 184 ।। 400 हव्यकव्यैकभुक् हव्य और कव्य (यज्ञ और श्राद्ध) के एकमात्र भोक्ता, 401 हव्यकव्यैक फलदायक : – यज्ञ और श्राद्धके एकमात्र फलदाता, 402 रोमान्तलीन जलधिः- अपने रोमकूपों में रोमान्तलनजलधिः रोमकूपोंमें समुद्रको लीन कर लेनेवाले महावराह, 403 क्षोभिताशेषसागरः वराहरूपसे पृथ्वीको खोज करते समय समस्त समुद्रको क्षुब्ध कर डालनेवाले ॥ 184 महावराहो यज्ञघ्नध्वंसको याज्ञिकाश्रयः श्रीनृसिंहो दिव्यसिंहः सर्वानिष्टाः खा ॥ 185 ॥

404 महावराहः – महान् वराहरूपधारी भगवान् 405 यज्ञघ्नध्वंसकः यज्ञमें विघ्न डालनेवाले असुरोंके विनाशक, 406 याज्ञिकाश्रयः – यज्ञ करनेवाले ऋत्विजोंके परम आश्रय, 407 श्रीनृसिंह: अपने भक्त प्रह्लादकी बात सत्य करनेके लिये नृसिंहरूप धारण करनेवाले भगवान्, 408 दिव्यसिंहः अलौकिक सिंहकी आकृति धारण करनेवाले, 409 सर्वानिष्टार्थदुःख सब प्रकारकी अनिष्ट वस्तुओं और दुःखोंका नाश करनेवाले ॥ 185 ॥ एकवीरोऽद्भुतल यन्त्रमन्त्रैकभञ्जनः । –

ब्रह्मादिदुःसहज्योतिर्युगान्ताग्नयतिभीषणः ।। 186 ।। f 410 एकवीरः अद्वितीय वीर 419 अद्भुतबलः – अद्भुत शक्तिशाली, 412 यन्त्र मन्त्रैकभञ्जनः — शत्रुके यन्त्र-मन्त्रोंको एकमात्र भंग करनेवाले 413 ब्रह्मादिदुः सहयोतिः जिनके श्रीविग्रहकी ज्योति ब्रह्मा आदि देवताओंके व लिये भी दुःसह है, ऐसे नृसिंहभगवान् 414 युगान्ताग्नयतिभीषणः – प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त भयंकर । 186 ।।

कोटिवज्राधिकनखो जगददुष्प्रेक्ष्यमूर्तिधृक्। मातृचक्रप्रमथनो महामातृगणेश्वरः ।। 987 ॥415 कोटिवाधिकनख: करोड़ों वज्रोंसे भी अधिक तीक्ष्ण नखवाले, 416 जगददुष्प्रेक्ष्य मूर्ति सम्पूर्ण जगत् जिसकी ओर कठिनता से देख सके, ऐसी भयानक मूर्ति धारण करनेवाले 410] मातृचक्रप्रमथन: डाकिनी, शाकिनी, पूतना आदि मातृमण्डलको मथ डालनेवाले, 418 महामातृगणेश्वरः अपनी शक्तिभूत दिव्य महमातृगणोंके अधीश्वर ॥ 187 ॥

अचिन्त्यामोघवीर्याढ्यः समस्तासुरघस्मरः

हिरण्यकशिपुच्छेदी कालः संकर्षणीपतिः ॥ 188 ॥ 419 अचिन्त्यामोघवीर्याढ्यः – कभी व्यर्थ न जानेवाले अचिन्त्य पराक्रमसे सम्पन्न, 420 समस्तासुरघस्मरः- समस्त असुरोंको ग्रास बनानेवाले 421 हिरण्यकशिपुच्छेदी हिरण्यकशिपु नामक दैत्यको विदीर्ण करनेवाले, 422 कालः असुरोंके लिये कालरूप, 423 संकर्षणीपतिः संहारकारिणी शक्तिके स्वामी 188 कृतान्तवाहनः

सद्यः समस्तभयनाशनः ।

सर्वविघ्नान्तकः सर्वसिद्धिदः सर्वपूरकः ।। 189 ।। 424 कृतान्तवाहनः कालको अपना वाहन बनानेवाले, 425 सद्यः समस्तभयनाशन:- शरणमें आये हुए भक्तोंके समस्त भयका तत्काल नाश करनेवाले, 426 सर्वविघ्नान्तकः – सम्पूर्ण विघ्नोंका अन्त करनेवाले, 427 सर्वसिद्धिदः – सब प्रकारकी सिद्धि प्रदान करनेवाले, 428 सर्वपूरक: सम्पूर्ण मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले ॥ 189 ॥ | समस्तपातकध्वंसी सिद्धिमन्त्राधिकायः

भैरवेशो हरार्तिघ्नः कालकोटिदुरासदः ॥ 190 ॥ 429 समस्तपातकध्वंसी-सब पातकोंका नाश करव 430 सिद्धिमन्त्राधिकाद्वय राम में हो सिद्धि और मन्त्रोंसे अधिक शक्ति रखनेवाले, 431 भैरवेश: भैरवगणोंके स्वामी, 432 हार्तिघ्नः भगवान् शंकरकी पीड़ाका नाश करनेवाले 433 कालकोटिदुरासदः करोड़ों कालोंके लिये भी दुर्धर्ष 190दैत्यगर्भस्त्राविनामा

स्फुटद्ब्रह्माण्डगतिः ।

स्मृतमात्राखिलत्राताद्भुतरूपो महाहरिः ।। 191 ।।

434 दैत्यगर्भवाविनामा- जिनका नाम सुनकर की दैत्यपत्नियोंके गर्भ गिर जाते हैं ऐसे भगवान् नृसिंह, 435 स्फुटद्ब्रह्माण्डगर्जितः – जिनके गर्जनेपर सारा ब्रह्माण्ड फटने लगता है, 436 स्मृतमात्रा खिलत्राता – स्मरण करनेमात्रसे सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले, 437 अद्भुतरूपः- आश्चर्यजनक रूप धारण करनेवाले, 438 महाहरिः महान् सिंहकी आकृति धारण करनेवाले ।। 191 ।। ब्रह्मचर्यशिर पिण्डी द्वादशार्कशिरोदामा रुद्रशीर्षैकनूपुरः ।। 192 ।।

439 ब्रह्मचर्यशिरः पिण्डी- अपने शिरोभागमें ब्रह्मचर्यको धारण करनेवाले, 440 दिक्पालः – समस्त दिशाओंका पालन करनेवाले, 441 अर्धाङ्ग भूषणः- आधे अंगमें आभूषण धारण करनेवाले नृसिंह 442 द्वादशार्कशिरोदामा मस्तकमै बारह सूर्यो के समान तेज धारण करनेवाले, 443 रुद्रशीर्षैकनूपुरः जिनके चरणोंमें प्रणाम करते समय रुद्रका मस्तक एक नुपूरकी भाँति शोभा धारण करता है, वे भगवान् ॥ 192 ।। योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता

भैरवतर्जकः ।

वीरचक्रेश्वरोऽत्युग्रो यमारिः कालसंवरः ।। 993 ॥ 444 योगिनीग्रस्तगिरिजात्राता – योगिनियोंके चंगुल में फँसी हुई पार्वतीकी रक्षा करनेवाले, 445 भैरवतर्जकः – भैरवगणोंको डाँट बतानेवाले, 446 वीरचक्रेश्वर : – वीरमण्डलके ईश्वर, 447 अत्युग्रः अत्यन्त भयंकर, 448 यमारि:- यमराजके शत्रु, 449 कालसंवर: – कालको आच्छादित करनेवाले ॥ 193 ॥ क्रोधेश्वरो रुद्रचण्डी परिवारादिदुष्टभुक्

सर्वाक्षोभ्यो मृत्युमृत्युः कालमृत्युनिवर्तकः ॥ 194॥

450 क्रोधेश्वरः – क्रोधपर शासन करनेवाले, 451 रुद्रचण्डी परिवारादिदुष्टभुक-रुद्र और चण्डीके पार्षदोंमें रहनेवाले दुष्टोंके भक्षक, 452 सर्वाक्षोभ्यः – किसीके द्वारा भी विचलित नहीं कियेजा सकनेवाले, 453 मृत्युमृत्युः — मौतको भी मारनेवाले, 454 कालमृत्युनिवर्तकः काल और मृत्युका निवारण करनेवाले ॥ 194 ॥

असाध्यसर्वरोगघ्नः सर्वदुसम्यकृत् ।

गणेशकोदिनो दुःसहाशेषगोत्रहा ।। 195 ।।

455 असाध्यसर्वरोगघ्नः – सम्पूर्ण असाध्य रोगोंका नाश करनेवाले, 456 सर्वदुर्ग्रहसौम्यकृत् समस्त दुष्ट ग्रहोंको शान्त करनेवाले, 457 गणेशकोटिदर्पघ्नः – करोड़ों गणपतियोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले, 458 दुःसहाशेषगोत्रहा – समस्त दुस्सह शत्रुओंके कुलका नाश करनेवाले ॥। 195 ।। देवदानवदुर्दर्शो जगद्भयदभीषकः । समस्तदुर्गतित्राता

जगद्भक्षकभक्षकः । 196 ॥ भी जिनकी ओर देखने में कठिनाई होती है-ऐसे भगवान् नृसिंह, 460 जगद्भबदभीषक: संसारके भयदाता असुरोंको भी भयभीत करनेवाले, 461 समस्तदुर्गतित्रता सम्पूर्ण दुर्गतियोंसे उद्धार करनेवाले, 462 जगद्भक्षकभक्षकः – जगत्का भक्षण करनेवाले कालके भी भक्षक ॥ 196 ॥ उग्रेशो ऽम्बरमार्जारः 459 देवदानवदुर्दर्शः देवता और दानवोंको

कालमूषकभक्षकः ।

अनन्तायुधदोर्दण्डी नृसिंहो वीरभद्रजित् ॥ 197 ॥ 464 अम्बरमार्जारः – आकाशरूपी बिलाव, 465 कालमूषक भक्षकः – कालरूपी चूहेको खा जानेवाले, 466 अनन्तायुधदोर्दण्डी- अपने बाहुदण्डको ही अक्षय आयुधोंके रूपमें करनेवाले, 467 नृसिंहः – नर तथा सिंह दोनोंकी आकृति धारण करनेवाले 468 वीरभद्रजित् वीरभद्रपर विजय धारण पानेवाले ॥ 197 ॥

463 उग्रेश:- उग्र शक्तियोंपर शासन करनेवाले,

योगिनीचक्र गुह्येशः शक्रारिपशुमांसभुक् ।

रुद्रो नारायणो मेषरूपशङ्करवाहनः ।। 198 ।।

469 योगिनीचक्रगुह्येशः- योगिनीमण्डलके रहस्योंके शक्रारिपशु मांसभुक् — इन्द्रके शत्रुभूत दैत्यरूपी पशुओंका भक्षणकरनेवाले, 471 रुद्रः- प्रलयकालमें सबको रुलाने वाले रुद्र अथवा भयंकर आकारवाले नृसिंह, 472 नारायणः – नर अर्थात् जीवसमुदायके आश्रय; अथवा नार-जलको निवासस्थान बनाकर रहनेवाले शेषशायी, 403 मेषरूपरवाहनः मेषरूपधारी शिवको वाहन बनानेवाले ॥ 198 ॥

मेषरूपवित्राता दुष्टशक्तिसहस्रभुक् ।

तुलसीलो वीरो वामाचाराखिलेष्टदः । 199 ।। 474 मेषरूपवित्राता – मेषरूपधारी शिवके रक्षक, 405 दुष्टशक्तिसहस्रभुक् सहस्रों दुष्ट शक्तियोंका विनाश करनेवाले, 406 तुलसी वल्लभः – तुलसीके प्रेमी, 477 वीरः शूरवीर, 478 वामाचाराखिलेष्टदः – सुन्दर आचरणवालोंका सम्पूर्ण अभीष्ट सिद्ध करनेवाले ॥ 199 ॥ महाशिवः शिवारूढो भैरवैककपालधृक् ।

झिल्लिचक्रेश्वरः शक्रदिव्यमोहनरूपदः ॥ 200 ॥ 479 महाशिवः – परम मंगलमय, 480 शिवारूढः – कल्याणमय वाहनपर आरूढ़ होनेवाले, अथवा ध्यानस्थ भगवान् शिवके हृदयकमलपर आसीन होनेवाले 489 भैरवैककपालक रुद्ररूपसे हाथमें एक भयानक कपाल धारण करनेवाले, 482 झिल्लिचक्रेश्वरः – झींगुरोंके समुदायके स्वामी, 483 शक्रदिव्यमोहनरूपदः – इन्द्रको दिव्य एवं मोहक रूप देनेवाले 200

गौरीसौभाग्यदो मायानिधिर्मायाभयापहः ।

ब्रह्मतेजोमयो ब्रह्मश्रीमयश्च त्रयीमयः ॥ 201 ।। 484 गौरीसौभाग्यदः – भगवती पार्वतीको सौभाग्य प्रदान करनेवाले, 485 मायानिधिः- मायाके भंडार, 486 मायाभयापहः – मायाजनित भयका नाश करनेवाले, 487 ब्रह्मतेजोमयः – ब्रह्मतेजसे सम्पन्न भगवान् वामन, 488 ब्रह्मश्रीमयः – ब्राह्मणोचित श्रीसे परिपूर्ण विग्रहवाले 489 त्रयीमय: ऋक्, यजुः और साम- इन तीन वेदोंद्वारा प्रतिपादित स्वरूपवाले ॥ 201 सुब्रह्मण्यो बलिध्वंसी

वामनोऽदितिदुःखहा । उपेन्द्रो नृपतिर्विष्णुः कश्यपान्वयमण्डनः ॥ 202 ॥490 सुब्रह्मण्यः ब्राह्मण, वेद, तप और जानकी भलीभाँति रक्षा करनेवाले, 491 बलिध्वंसी राजा बलिको स्वर्णसे हटानेवाले 492 वामनः वामनरूपधारी भगवान् 493 अदितिदुःखहा देवमाता अदितिके दुःख दूर करनेवाले, 494 उपेन्द्रः इन्द्रके छोटे भाई, द्वितीय इन्द्र 495 नृपतिः राजा जो ‘नराणां च नराधिपः’ के अनुसार भगवान्की दिव्य विभूति है, 496 विष्णुः – बारह आदित्योंमेंसे एक, 497 कश्यपान्वयमण्डनः – कश्यपजीके कुलकी शोभा बढ़ानेवाले ॥ 202 ॥

बलिस्याराज्यदः सर्वदेवविप्रान्नदोऽच्युतः । उरुक्रमस्तीर्थपादस्विपदस्थास्त्रिविक्रमः ॥ 203 ॥

498 बलिस्वारान्यदः राजा बलिको [अगले मन्वन्तरमें इन्द्र बनाकर ] स्वर्गका राज्य प्रदान करनेवाले, 499 सर्वदेवविप्रान्नदः सम्पूर्ण देवताओं तथा ब्राह्मणोंको अन्न देनेवाले, 500 अच्युतः-अपनी – महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, 501 उरुक्रमः बलिके यज्ञमें विरारूप होकर लम्बे डगसे त्रिलोकीको नापनेवाले 502 तीर्थपाद:- गंगाजीको प्रकट करनेके कारण तीर्थरूप चरणोंवाले, 503 त्रिपदस्थ: तीन स्थानों पर पैर रखनेवाले, 504 त्रिविक्रमः – तीन बड़े-बड़े डगवाले ॥ 203 ॥ व्योमपादः स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः ।

ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याङ्घ्रिर्दुतधर्माहिधावनः ॥ 204 ॥ 505 व्योमपाद: सम्पूर्ण आकाशको चरणोंसे नापनेवाले, 506 स्वपादाम्भः पवित्रितजगत्त्रयः अपने चरणोंके जल (गंगाजी) से तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले 500 ब्रह्मेशाद्यभिवन्द्याप्रि: ब्रह्मा और शंकर आदि देवताओंके द्वारा वन्दनीय चरणवाले 508 धर्माशीघ्रतापूर्वक धर्मका पालन करनेवाले 509 अहिभावनः सर्पको भाँति तेज दौड़नेवाले ॥ 204 ॥ अतिविस्तारो विश्ववृक्षो महाबलः।

राहुमूर्धापराङ्गच्छिद् भृगुपत्नीशिरोहरः ॥ 205 ॥ 510 अचिन्त्यादद्भुतविस्तार:- किसी तरह चिन्तनमें न आनेवाले अद्भुत विस्तारसे युक्त,511 विश्ववृक्षः – संसार वृक्षरूप, 512 महाबलः महान् बलसे युक्त, 513 राहुमूर्धापराङ्गच्छित् राहुके मस्तक और धड़को काटकर अलग करनेवाले, 514 भृगुपत्नीशिरोहर: भृगुपलीके मस्तकका अपहरण करनेवाले ॥ 205 ॥ पापात्त्रस्तः सदापुण्यो दैत्याशानित्यखण्डकः । पूरिताखिलदेवाशो

विश्वकावतारकृत् ।। 206 ।। 515 पापात्त्रस्तः – पापसे डरनेवाले, 516 सदापुण्यः – निरन्तर पुण्यमें प्रवृत्त, 517 दैत्याशा नित्यखण्डकः – धर्मविरोधी दैत्योंकी आशाका सदा खण्डन करनेवाले, 518 पूरिताखिलदेवाशः- सम्पूर्ण देवताओंकी आशा पूर्ण करनेवाले, 519 विश्वार्थैकावतारकृत् — एकमात्र विश्वका कल्याण करनेके लिये अवतार लेनेवाले 206 स्वमायानित्यगुप्तात्मा भक्तचिन्तामणिः सदा ।

वरदः कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदोऽनघः 207 520 स्वमायानित्यगुप्तात्मा अपनी मायासे निरन्तर अपने स्वरूपको छिपाये रखनेवाले, 521 सदा भक्तचिन्तामणिः – सदा भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये चिन्तामणिके समान, 522 वरदः भक्तोंको वर प्रदान करनेवाले, 523 कार्तवीर्यादिराजराज्यप्रदः – कृतवीर्यपुत्र अर्जुन आदि राजाओंको राज्य देनेवाले, 524 अनघः स्वभावतः पापसे रहित ॥ 207 ॥ विश्वश्लायोऽमिताचारो दत्तात्रेयो मुनीश्वरः

पराशक्तिसदाश्लिष्टो योगानन्ददोन्मदः ॥ 208 ॥ 525 विश्वश्लाघ्यः- समस्त संसारके लिये प्रशंसनीय, 526 अमिताचार:- अपरिमित आचारवाले, 527 दत्तात्रेयः – अत्रिकुमार दत्त, जो भगवान्के अवतार हैं, 528 मुनीश्वर:- मुनियोंके स्वामी, 529 पराशक्तिसदाश्लिष्टः सदा पराशक्तिसे युक्त, 530 योगानन्दसदोन्मदः- निरन्तर योगजनित आनन्दमें विभोर रहनेवाले 208 ॥ समस्तेन्द्रारितेजोहृत्परमामृतपद्यपः

अनसूयागभैरवं 531 समस्तेन्द्रारितेजोहत्-इन्द्रसे शत्रुतारखनेवाले सम्पूर्ण दैत्योंका तेज हर लेनेवाले, 532 परमामृतपद्मपः परम अमृतमय कमलका रस पान करनेवाले, 533 अनसूयागर्भरत्नम् – अत्रिपत्नी अनसूयाजीके गर्भके रत्न, 534 भोगमोक्षसुखप्रदः भोग और मोक्षका सुख प्रदान करनेवाले ॥ 209 ॥ जमदग्निकुलादित्यो रेणुकाद्भुतशक्तिधृक् मातृहत्यादिनिर्लेपः स्कन्दजिद्विप्रराज्यदः ।। 210 ॥

535 जमदग्निकुलादित्यः – मुनिवर जमदग्नि

के वंशको सूर्यके समान प्रकाशित करनेवाले परशुरामजी 536 रेणुकाद्भुतशक्तिधृक्- माता रेणुकाकी अद्भुत शक्ति धारण करनेवाले, 537 मातृहत्यादिनिर्लेपः- मातृहत्या आदि दोषोंसे निर्लिप्त रहनेवाले परशुरामजी 538 स्कन्दजित् कार्त्तिकेयजीको जीतनेवाले, 539 विप्रराज्यदः ब्राह्मणोंको राज्य देनेवाले ॥ 210 ॥

सर्वक्षत्त्रान्तकृद्वीरदर्पहा कार्तवीर्यजित्

सप्तद्वीपवतीदाता शिवार्चकयशः प्रदः ॥ 219 ॥ 540 सर्वक्षत्त्रान्तकृत् – समस्त क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले, 541 वीरदर्पहा – बड़े-बड़े वीरोंका दर्प दलन करनेवाले, 542 कार्तवीर्यजित् — कृतवीर्य पुत्र अर्जुनको परास्त करनेवाले, 543 सप्तद्वीपवती दाता – ब्राह्मणोंको सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका दान करनेवाले, 544 शिवार्चकयशः प्रदः – शिवकी पूजा करनेवालेको यश देनेवाले ॥ 211 ॥

भीमः परशुरामश्च शिवाचार्यैकविश्वभूः ।

शिवाखिलज्ञानकोशो भीष्माचार्योऽग्निदैवतः ।। 212 ।। 545 भीमः – भयंकर पराक्रम करनेवाले, 546 परशुराम: – परशुरामरूपधारी भगवान् 547 शिवाचार्यैकविश्वभूः – भगवान् शंकरको गुरु बनाकर विद्या सीखनेवाले संसारमें एकमात्र पुरुष, 548 शिवाखिलज्ञानकोश: भगवान् शंकरसे सम्पूर्ण ज्ञानका कोष प्राप्त करनेवाले, 549 भीष्माचार्य: पाण्डवोंके पितामह भीष्मजीके आचार्य, 550 अग्निदैवतः – अग्निदेवताके उपासक ॥ 212 ।। द्रोणाचार्यगुरुर्विश्वजैत्रधन्वा कृतान्तजित्। अद्वितीयतपोमूर्तिर्ब्रह्मचर्यैकदक्षिणः ।। 293 ।।

551 द्रोणाचार्यगुरु : आचार्य द्रोणके गुरु, 552 विश्वजैत्रधन्वा विश्वविजयी धनुष धारण करनेवाले, 553 कृतान्तजित् – कालको भी परास्त करनेवाले, 554 अद्वितीयतपोमूर्तिः– अद्वितीय तपस्याके मूर्तिमान् स्वरूप, 555 ब्रह्मचर्यैकदक्षिण: ब्रह्मचर्यपालनमें एकमात्र दक्ष 213

मनुश्रेष्ठः सतां सेतुर्महीयान् वृषभो विराट् आदिराजः क्षितिपिता क्षितिपिता सर्वरलैकदोहकृत् ।। 214 ।। ॥

556 मनुश्रेष्ठः – मनुष्योंमें श्रेष्ठ राजा पृथु, 557 सतां सेतुः – सेतुके समान सत्पुरुषोंकी मर्यादाके रक्षक, अथवा सत्पुरुषोंके लिये सेतुरूप, 558 महीयान् — बड़ोंसे भी बड़े महापुरुष, 559 वृषभ: कामनाओंकी वर्षा करनेवाले श्रेष्ठ राजा, 560 विराट् – तेजस्वी राजा, 561 आदिराजः- मनुष्यों में सबसे प्रथम राजाके पदसे विभूषित, 562 क्षितिपिता पृथ्वीको अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार करनेवाले, 563 सर्वरनैकदोहकृत् गोरूपधारिणी पृथ्वी से समस्त रत्नोंके एकमात्र दुहनेवाले 214 ॥

जगद्वृत्तिप्रदश्चक्रवर्तिश्रेष्ठोऽद्वयास्त्रधृक् ।। 215 ।। 564 पृथुः – अपने यशसे प्रख्यात पृथु नामक राजा, 565 जन्माद्येकदक्षः- उत्पत्ति, पालन और संहारमें एकमात्र कुशल, 566 गीः श्रीकीर्तिस्वयं वृतः – वाणी, लक्ष्मी और कीर्तिके द्वारा स्वयं वरण किये हुए, 567 जगद्वृत्तिप्रदः – संसारको जीविका प्रदान करनेवाले 568 चक्रवर्तिश्रेष्ठः चक्रवर्ती राजाओंमें श्रेष्ठ, 569 अद्वयास्त्रधृक् अद्वितीय शस्त्रधारी वीर 215 सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्तिवर्धनः –

वर्णाश्रमादिधर्माणां कर्ता वक्ता प्रवर्तकः ।। 216 ।। 570 सनकादिमुनिप्राप्यभगवद्भक्तिवर्धन:-) सनकादि मुनियोंसे प्राप्त होनेयोग्य भगवद्भक्तिका विस्तार करनेवाले, 571 वर्णाश्रमादिधर्माणां कर्ता- वर्ण और आदिके धर्मोके बनानेवाले, 572 वक्ता— वर्ण और आश्रम आदिकेधमका उपदेश करनेवाले, 573 प्रवर्तकः उक धर्मोका प्रचार करनेवाले ॥ 217 ॥ सूर्यवंशध्वजो रामो राघवः सद्गुणार्णवः ।

काकुत्स्थो वीरराजाय राजधर्मधुरन्धरः 217 ॥ 574 सूर्यवंशध्वजः – सूर्यवंशकी कीर्तिपताका फहरानेवाले श्रीरघुनाथजी 575 रामः- योगीजनोंके रमण करनेके लिये नित्यानन्दस्वरूप परमात्मा मर्यादापुरुषोतम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी 576 राघवः रघुकुलमै जन्म ग्रहण करनेवाले, 577 सद्गुणार्णवः उत्तम गुणोंके सागर, 578 काकुत्स्थः- ककुत्स्थ पदवी धारण करनेवाले राजा पुरंजयको कुल परम्परामें अवतीर्ण, 579 वीरराजार्थः वीर राजाओं में श्रेष्ठ, |580 राजधर्मधुरन्धरः – राजधर्मका भार वहन करनेवाले ॥ 217 ॥ नित्यस्वस्थाश्रयः सर्वभग्राही शुभेकटुक

– अथवा नररत्नं रत्नगर्भो धर्माध्यक्षो महानिधिः ॥ 298 ॥ 581 नित्यस्वस्थाश्रयः सदा अपने स्वरूपमें स्थित रहनेवाले महात्माओंके आश्रय, 582 सर्वभद्र ग्राही समस्त कल्याणोंकी प्राप्ति करानेवाले, 583 शुभेकक एकमात्र शुभकी ओर ही दृष्टि रखनेवाले, 584 नररत्नम् – मनुष्योंमें श्रेष्ठ, 585 रत्नगर्भः अपनी माताके गर्भके रत्न अपने भीतर रत्नमय गुणोंको धारण करनेवाले, 586 धर्माध्यक्षः – धर्मके साक्षी, 587 महानिधिः अखिल भूमण्डलके सम्राट् होनेके कारण बहुत बड़े कोषवाले ॥ 218 ॥

सर्वश्रेष्ठाश्रयः सर्वशस्त्रास्त्रग्रामवीर्यवान् ।

जगदीशो दाशरथिः सर्वरत्नाश्रयो नृपः ॥ 219 ॥ 588 सर्वश्रेष्ठाश्रयः – सबसे श्रेष्ठ आश्रय, 589 सर्वशस्त्रास्त्रग्रामवीर्यवान्- समस्त अस्त्र शस्त्रोंके समुदायकी शक्ति रखनेवाले, 590 जगदीश: सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, 591 दाशरथिः -अयोध्याके चक्रवर्ती नरेश महाराज दशरथके प्राणाधिक प्रियतम पुत्र, 592 सर्वरत्नाश्नयो नृपः – सम्पूर्ण रत्नोंके आश्रयभूत राजा ॥ 219 ॥समस्तधर्मसूः सर्वधर्मद्रष्टाखिलार्तिहा

अतीन्द्रो ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा क्षमाम्बुधिः 220 593 समस्तधर्मसूः – समस्त धर्मोंको उत्पन्न करनेवाले, 594 सर्वधर्मद्रष्टा सम्पूर्ण धर्मोपर दृष्टि रखनेवाले, 595 अखिलार्तिहा – सबकी पीड़ा दूर करनेवाले अथवा समस्त पीड़ाओंके नाशक, 596 अतीन्द्रः इन्द्रसे भी बढ़कर ऐश्वर्यशाली, 597 ज्ञानविज्ञानपारद्रष्टा – ज्ञान और विज्ञानके पारंगत, 598 क्षमाम्बुधिः क्षमाके सागर 220 ॥ सर्वप्रकृष्टः शिष्टेष्टो हर्षशोकाद्यनाकुलः

पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्यः सपत्नोदयनिर्भयः ।। 221 ॥ 599 सर्वप्रकृष्टः – सबसे श्रेष्ठ, 600 शिष्टेष्ट:- शिष्ट पुरुषोंके इष्टदेव, 601 हर्ष शोकाद्यनाकुल:- हर्ष और शोक आदिसे विचलित न होनेवाले 602 पित्राज्ञात्यक्तसाम्राज्य:- पिताकी आज्ञासे समस्त भूमण्डलका साम्राज्य त्याग देनेवाले, 603 सपत्नोदयनिर्भयः – शत्रुओंके उदयसे भयभीत न होनेवाले ॥ 221 ॥

गुहादेशार्पितैश्वर्यः शिवस्पर्धाजटाधरः वनेचरः ।। 222 ॥

चित्रकूटाप्तरलाद्रिर्जगदीशो

604 गुहादेशार्पितैश्वर्यः – वनवासके समय पर्वतको कन्दराओंको ऐश्वर्य समर्पित करनेवाले अपने निवाससे गुफाओंको भी ऐश्वर्यसम्पन्न बनानेवाले, 605 शिवस्पर्धाजटाधरः- शंकरजीकी जटाओंसे होड़ लगानेवाली जटाएँ धारण करनेवाले, 606 चित्रकूटाप्तरत्नाद्रिः – चित्रकूटको निवासस्थल बनाकर उसे रत्नमय पर्वत (मेरुगिरि) की महत्ता प्राप्त करानेवाले, 607 जगदीश : – सम्पूर्ण जगत्के ईश्वर, 608 वनेचरः वनमें विचरनेवाले 222 ॥

यथेष्टामस्त्रो देवेन्द्रतनयाक्षिहा।

ब्रह्मेन्द्रादिनतैषीको मारीचघ्नो विराधहा ।। 223 ।। 609 यथेष्टामोघसर्वास्त्रः – जिनके सभी अस्त्र इच्छानुसार चलनेवाले एवं अचूक हैं, 610 देवेन्द्रतनयाशिहा देवराजके पुत्र जयन्तकी आँख फोड़नेवाले, 611 ब्रह्मेन्द्रादिनतैषीकः – जिनकेचलाये हुए सकके बाणको ब्रह्मा आदि देवताओंने भी मस्तक झुकाया था, ऐसे प्रभावशाली भगवान् श्रीराम, 612 मारीचघ्नः – मायामय मृगका रूप धारण करनेवाले मारीच नामक राक्षसके नाशक, 613 विराधहा विराधका वध करनेवाले 223 ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः

॥ 224 ॥

– 616 खरारिः – खर नामक राक्षसके शत्रु, 617 त्रिशिरोहन्ता – त्रिशिराका वध करनेवाले, 618 दूषणघ्नः -दूषण नामक राक्षसके प्राण लेनेवाले, 619 जनार्दनः – भक्तलोग जिनसे अभ्युदय एवं निःश्रेयसरूप परम पुरुषार्थकी याचना करते हैं, 620 जटायुषो ऽग्निगतिद:- जटायुका दाह संस्कार करके उन्हें उत्तम गति प्रदान करनेवाले, 621 अगस्त्य सर्वस्वमन्त्रराट् – जिनका नाम महर्षि अगस्त्यका सर्वस्व एवं मन्त्रोंका राजा है॥ 225 लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थिमहाचलः

चतुर्दशसहस्त्रोग्ररक्षोघ्नैकशरैकधृक्

614 ब्रह्मशापहताशेषदण्डकारण्यपावनः ब्राह्मण (शुक्राचार्य) के शापसे नष्ट हुए दण्डकारण्यको अपने निवाससे पुनः पावन बनानेवाले 615 चतुर्दशसहस्त्रोग्ररक्षोघ्नैकशरैकधृक्- चौदह हजार भयंकर राक्षसोंको मारनेकी शक्तिसे युक्त एकमात्र बाण धारण करनेवाले ॥ 224 खरारिस्त्रिशिरोहन्ता दूषणघ्नो जनार्दनः जटायुषो ऽग्निगतिदो ऽगस्त्य सर्वस्वमन्त्रराट् ।। 225 ।।

सप्ततालव्यधाकृष्टध्वस्तपातालदानवः ॥ 226 ॥ 622 लीलाधनुष्कोट्यपास्तदुन्दुभ्यस्थि | महाचल:- खेल-खेलमें ही दुन्दुभि दानवकी हड्डियोंके महान् पर्वतको धनुषकी नोकसे उठाकर दूर फेंक देनेवाले, 623 सप्ततालव्यधाकृष्ट ध्वस्तपातालदानवः – सात तालवृक्षोंके वेधसे आकृष्ट होकर आये हुए पातालवासी दानवका विनाश नामक करनेवाले ॥ 226 ॥

सुग्रीवराज्यदो हीनमनसैवाभयप्रदः हनुमद्रुद्रमुख्येशः
समस्तकपिदेहभृत् ॥ 227 ॥624] सुग्रीवराज्यदः सुग्रीवको राज्य देनेवाले, 625 अहीनमनसैवाभयप्रदः – उदार चित्तसे अभय दान देनेवाले, 626 हनुमद्रुद्रमुख्येश:- हनुमानजी तथा भगवान् शंकरके आराध्यदेव, प्रधान 620 समस्तकपिदेहभृत् सम्पूर्ण वानरोंके शरीरोंका पोषण करनेवाले 227 ॥

।। 228 ।। 628 सनागदैत्यबाणैकव्याकुलीकृत सागरः एक ही बाणसे नाग और दैत्योंसहित समुद्रको क्षुब्ध कर देनेवाले, 629 सम्लेच्छकोटि बाणैकशुष्कनिर्दग्धसागरः – एक ही बाणसे करोड़ों म्लेच्छों सहित समुद्रको सुखा देने और जला डालनेवाले ॥ 228 ॥

नागदैत्यवाणैकव्याकुलीकृतसागरः

सम्लेच्छकोटिवाणैकशुष्कनिर्दग्धसागरः

समुद्राद्भुतपूर्वकबद्धसेतुर्यशोनिधिः असाध्यसाधको लङ्कासमूलोत्साददक्षिणः ।। 229 ।।

630 समुद्राभुतपूर्वकद्धसेतु समुद्रमें पहले पहल एक अद्भुत पुल बाँधनेवाले, 631 यशोनिधिः सुयशके भंडार, 632 असाध्यसाधकः असम्भवको भी कर दिखानेवाले, 633 लङ्कासमूलोत्पाददक्षिण लंकाको जसे नष्ट कर डालनेमें दक्ष ॥ 229 ॥ सम्भव

रावणिघ्नः प्रहस्तच्छित्कुम्भकर्णभिदुग्रहा ।। 230 ।। 634 वरदृप्तजगच्छल्यपौलस्त्यकुलकृन्तन: वर पाकर घमंडसे भरे हुए तथा संसारके लिये कण्टकरूप रावणके कुलका उच्छेद करनेवाले, 6353 रावणिघ्नः – लक्ष्मणरूपसे रावणके पुत्र मेघनादका वध करनेवाले, 636 प्रहस्तच्छित् प्रहस्तका मस्तक काटनेवाले, 637 कुम्भकर्णभित्— कुम्भकर्णकोविदीर्ण करनेवाले, 638 उग्रहाभयंकर राक्षसोंका वध करनेवाले ॥ 230 ॥ स्वर्गास्वर्गत्वविच्छेदी देवेन्द्रानिन्द्रताहरः ।। 239 ॥

रावणैकशिरश्छेता निःशङ्केन्द्रकराज्यदः ।

639 रावणैकशिरश्छेता रावणके सिर काटनेवाले एकमात्र वीर, 640 निःशङ्केन्द्रैकराज्यदः – निःशंक होकर इन्द्रको एकमात्र राज्य देनेवाले, 641 स्वर्गास्वगत्वविच्छेदी–स्वर्गकी अस्वर्गताको मिटा डालनेवाले, 642 देवेन्द्रानिन्द्रताहरः- देवराज इन्द्रकी 1 अनिन्द्रता दूर करनेवाले ॥ 231 ॥ रक्षोदेवत्वद्धर्माधर्मत्वघ्नः

पुरुष्टुतः ।

नतिमात्रदशास्यारिर्दत्तराज्यविभीषणः 643 रक्षोदेवत्वत्-राक्षसलोग जो देवताओंको हटाकर स्वयं देवता बन बैठे थे, उनके उस देवत्वको हर लेनेवाले, 644 धर्माधर्मत्वघ्नः धर्मकी अधर्मताका नाश करनेवाले (राक्षसोंके कारण धर्म भी अधर्मरूपमें परिणत हो रहा था, भगवान् रामने उन्हें मारकर धर्मको धर्मको पुनः अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित किया), 645 पुरुष्टुतः बहुत लोगों के द्वारा स्तुत होनेवाले, 646 नतिमात्रदशास्यारिः – नतमस्तक होनेतक ही रावणको शत्रु माननेवाले, 647 दत्तराज्यविभीषणः विभीषणको राज्य प्रदान ॥ 232 ॥
करनेवाले ॥ 232 ॥

सुधावृष्टिमृताशेषस्वसैन्यग्नीवनैककृत्

देवब्राह्मणनामैकधाता सर्वामरार्चितः ॥ 233 ॥

648 सुधावृष्टिमृताशेषस्वसैन्योज्जीवनैक कृत्-सुधाकी वर्षा कराकर अपने समस्त मरे हुए सैनिकोंको जीवन प्रदान करनेवाले, 649 देवब्राह्मण नामैकधाता – देवता और ब्राह्मणके नामोंके एकमात्र रक्षक, वे यदि न होते तो देवताओं एवं ब्राह्मणोंकानाम-निशान मिट जाता, 650 सर्वामराचितः सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित ॥ 233 ॥ ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः

अयोध्याखिलराजाग्रयः सर्वभूतमनोहरः ॥ 234 ॥

651 ब्रह्मसूर्येन्द्ररुद्रादिवृन्दार्पितसतीप्रियः

ब्रह्मा, सूर्य, इन्द्र तथा रुद्र आदि देवताओंके समूहद्वारा शुद्ध प्रमाणित करके समर्पित की हुई सती सीताके प्रियतम् 652 अयोध्याखिलराजाग्रय: अयोध्यापुरीके सम्पूर्ण राजाओंगे अग्रगण्य, 653 सर्वभूतमनोहरः – अपने सौन्दर्य-माधुर्यके कारण सम्पूर्ण प्राणियोंका मन हरनेवाले ॥ 234 ॥

स्वाम्यतुल्यकृपादण्डो हीनोत्कृष्टैकसत्प्रियः ।

श्वपक्ष्यादिन्यायदर्शी हीनार्थाधिकसाधकः ॥ 235 ॥ 654 स्वाम्यतुल्यकृपादण्डः प्रभुताके अनुरूप ही कृपा करने और दण्ड देनेवाले, 655 हीनोत्कृष्टैकसत्प्रियः – ऊँच-नीच – सबके सच्चे प्रेमी, 656 श्वपक्ष्यादिन्यायदर्शी-कुत्ते और पक्षी आदिके प्रति भी न्याय प्रदर्शित करनेवाले, 657 हीनार्थाधिकसाधकः असहाय पुरुषोंके कार्यकी अधिक सिद्धि करनेवाले ॥ 235 वधव्याजानुचितकृत्तारकोऽखिलतुल्यकृत्

पावित्र्याधिक्यमुक्तात्मा प्रियात्यक्तः स्मरारिजित् ।। 236 ।। 658 वधव्याजानुचितकृत्तारकः – अनुचित कर्म करनेवाले लोगोंका वधके बहाने उद्धार करनेवाले, 659 अखिलतुल्यकृत्-सबके साथ उसकी योग्यताके अनुरूप बर्ताव करनेवाले, 660 पावित्र्याधिक्य मुक्तात्मा अधिक पवित्रताके कारण नित्यमुक्त स्वभाववाले 661 प्रियात्यक्तः प्रिय पत्नी सीतासे कुछ कालके लिये वियुक्त, 662 स्मरारिजित् कामदेवके शत्रु भगवान् शिवको भी जीतनेवाले ॥ 236 ॥ साक्षात्कुशलयच्छद्रावितो ापराजितः ।

कोसलेन्द्रो वीरबाहुः सत्यार्थत्यक्तसोदरः ॥ 237 ।। 663 साक्षात्कुशलवच्छावितः कुश और लबके रूपमें स्वयं अपने-आपसे युद्ध हार 664 अपराजितः – वास्तवमें कभीकिसीके द्वारा भी परास्त न होनेवाले, 665 कोसलेन्द्रः कोसलदेशके ऐश्वर्यशाली सम्राट् 666 वीरबाहुः शक्तिशालिनी भुजाओंसे युक्त, 667 सत्यार्थत्यक्त सोदरः – सत्यकी रक्षाके लिये अपने भाई लक्ष्मणका त्याग करनेवाले ॥ 237 ॥ शरसंधाननिर्धूतधरणीमण्डलो जयः ।

॥ 238 ॥ – ब्रह्मादिकामसांनिध्यसनाथीकृतदैवतः 668 शरसंधाननिर्धूतधरणीमण्डल:- बागोंके संधानसे समस्त भूमण्डलको कँपा देनेवाले, 669 जय:- विजयशील, 1670 ब्रह्मादि कामसांनिध्यसनाधीकृतदैवतः ब्रह्मा आदिको कामनाके अनुसार समीपसे दर्शन देकर समस्त देवताओंको सनाथ करनेवाले ॥ 238 ॥ ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालाद्यशेषप्राणिसार्थकः ।

स्वनीतगर्दभश्वादिश्चियनैककृत् ॥ 239 ॥ 671 ब्रह्मलोकाप्तचाण्डालाद्यशेषप्राणि सार्थकः – चाण्डाल आदि समस्त प्राणियोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचाकर कृतार्थ करनेवाले 672 स्वनतगर्दभश्वादि: गदहे और कुत्ते आदिको भी स्वर्गलोकमें ले जानेवाले, 673 चिरायोध्यावनैककृत् — चिरकालतक अयोध्याकी एकमात्र रक्षा करनेवाले ॥ 239 ॥

राम्रो द्वितीयसौमित्रिलक्ष्मणः प्रहतेन्द्रजित् विष्णुभक्तः सरामाङ्घ्रिपादुकाराज्यनिर्वृतिः ॥ 240 ॥

674 रामः – मुनियोंका मन रमानेवाले भगवान् श्रीराम, 675 द्वितीयसौमित्रिः- सुमित्राकुमार लक्ष्मणको साथ रखनेवाले, 676 लक्ष्मणः – शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न लक्ष्मणरूप, 677 प्रहतेन्द्रजित् – लक्ष्मणरूपसे मेनका वध करनेवाले, 678 विष्णुभक्त: विष्णु के अवतारभूत भगवान् श्रीरामके भक्त भरतरूप, 679 सरामाङ्घ्रिपादुकाराज्यनिर्वृतिः — श्रीरामचन्द्रजीकी चरणपादुकाके साथ मिले हुए राज्यसे संतुष्ट होनेवाले भरतरूप ॥ 240 ॥

भरतोऽसगन्धर्वकोटिनो शत्रुनो वैद्यायुर्वेदगर्भाषधीपतिः ॥ 249 ॥

680 भरतः प्रजाका भरण-पोषण करनेवालेकैकेयीकुमार भरतरूप, 681 असह्यगन्धर्वकोटिघ्नः – करोड़ों दुःसह गन्धर्वोका वध करनेवाले, 682 लवणान्तकः – लवणासुरको मारनेवाले शत्रुघ्नरूप, 683 शत्रुघ्नः – शत्रुओंका वध करनेवाले सुमित्राके छोटे कुमार, 684 वैद्यराट् – वैद्योंके राजा धन्वन्तरिरूप, 685 आयुर्वेदगर्भौषधीपतिः- आयुर्वेदके भीतर वर्णित ओषधियोंके स्वामी ॥ 241 ॥ नित्यामृतक धन्वन्तरिर्यज्ञो

सूर्यारिघ्नः सुराजीवो दक्षिणेशो द्विजप्रियः ॥। 242 ।। 686 नित्यामृतकरः – हाथोंमें सदा अमृत लिये रहनेवाले, 687 धन्वन्तरिः – धन्वन्तरि नामसे प्रसिद्ध एक वैद्य, जो समुद्रसे प्रकट हुए और भगवान् नारायणके अंश थे, 688 यज्ञः – यज्ञस्वरूप, 689 जगद्धरः – संसारके पालक, 690 सूर्यारिघ्नः – सूर्यके शत्रु (केतु) को मारनेवाले, 691 सुराजीव: – अमृतके द्वारा देवताओंको जीवन प्रदान करनेवाले, 692 दक्षिणेश: – दक्षिणदिशाके स्वामी धर्मराजरूप, 693 द्विजप्रियः – ब्राह्मणोंके प्रियतम ॥ 242 ॥

छिन्नमूर्धापदेशार्कः शेषाङ्गस्थापितामरः

विश्वार्थाशेषकृद्राहुशिरश्छेत्ताक्षताकृतिः ll 694 ll छिन्नमूर्धापदेशार्क:- जिसका मस्तक कटा हुआ है तथा जो कहनेमात्रके लिये सूर्य- ‘स्वर्भानु’ नाम धारण करता है, ऐसा राहु नामक ग्रह, 695 शेषाङ्गस्थापितामरः – जिसके शेष अंगोंमें अमरत्वकी स्थापना हुई है, ऐसा राहु, 696 विश्वार्थाशेषकृत् संसारके सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाले भगवान्, 697 राहुशिरश्छेत्ता- राहुका मस्तक काटनेवाले, 698 अक्षताकृतिः – स्वयं किसी प्रकारकी भी क्षतिसे रहित शरीरवाले ॥ 243 ।। ॥ 243 ॥

वाजपेयादिनामाग्निर्वेदधर्मपरायणः

श्वेतद्वीपपति: सांख्यप्रणेता सर्वसिद्धिराट् ॥ 244 ॥ 699 वाजपेयादिनामाग्निः – वाजपेय आदिनाम धारण अग्निदेवता, वेदधर्मपरायणः – वेदोक्त धर्मके परम आश्रय करनेवाले श्वेतद्वीपपति:- श्वेतद्वीपके स्वामी,
सांख्यप्रणेता-सांख्यशास्त्रकी कपिलस्वरूप, 703 सर्वसिद्धिराद्-सम्पूर्ण सिद्धियोंके रचना करनेवाले
राजा ॥ 244 ॥ विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमिस्त्रहा
देवहूत्यात्मजः सिद्धः कपिलः कर्दमात्मजः ॥ 245 ।।

704 विश्वप्रकाशितज्ञानयोगमोहतमित्रहा संसारमें ज्ञानयोगका प्रकाश करके मोहरूपी अन्धकारका नाश करनेवाले, 705 देवहूत्यात्मजः मनुकुमारी देवहूतिके पुत्र, 706 सिद्धः – सब प्रकारकी सिद्धियोंसे परिपूर्ण, 707 कपिल:- कपिल नामसे प्रसिद्ध भगवान्के अवतार, 708 कर्दमात्मजः – कर्दम ऋषिके सुयोग्य पुत्र ।। 245 ।। योगस्वामी ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत् ।

धर्मो वृषेन्द्रः सुरभीपतिः शुद्धात्मभावितः ॥ 246 ॥ 709 योगस्वामी – सांख्ययोगके स्वामी, 710 ध्यानभङ्गसगरात्मजभस्मकृत् – ध्यान भंग होनेसे सगर पुत्रोंको भस्म कर डालनेवाले, 711 धर्मः – जगत्‌को धारण करनेवाले धर्मके स्वरूप, 712 वृषेन्द्रः – श्रेष्ठ वृषभकी आकृति धारण करनेवाले, 713 सुरभीपतिः – सुरभी गौके स्वामी, 714 शुद्धात्मभावितः – शुद्ध अन्तःकरणमें चिन्तन किये जानेवाले ॥ 246 ॥

शम्भुस्त्रिपुरदाहैकस्थैर्यविश्वरथोद्वहः भक्तशम्भुजितो
दैत्यामृतवापीसमस्तपः ॥ 247 ॥ 715 शम्भुः – कल्याणकी उत्पत्तिके स्थानभूत, शिवस्वरूप, 716 त्रिपुरदाहैकस्थैर्यविश्वरथोद्वहः – त्रिपुरका दाह करनेके समय एकमात्र स्थिर रहनेवाले और विश्वमय रथका वहन करनेवाले, 717 भक्तशम्भुजितः – अपने भक्त शिवके द्वारा पराजित,718 दैत्यामृतवापीसमस्तपः – त्रिपुरनिवासी दैत्योंकी अमृतसे भरी हुई सारी बावलीको गोरूपसे पी जानेवाले ॥ 247 ॥

स्वरूप, 719 महाप्रलयविश्वैकनिलयः – महाप्रलयके समय सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र निवासस्थान, 720 अखिलनागराट् – सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषनाग स्वरूप 721 शेषदेव – प्रलयकालमें भी शेष रहनेवाले देवता, 722 सहस्राक्षः सहस्रों नेत्रवाले, 723 सहस्रास्यशिरोभुजः सहस्रों मुख, मस्तक और भुजाओंवाले ॥ 248 ।। फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुदक्षितिः ।

महाप्रलयविश्वैकनिलयोऽखिलनागराट् सहस्राक्षः सहवास्यशिरोभुजः ॥ 248 ll

कालाग्निरुद्रजनको मुशलास्त्रो हलायुधः 249 ।। 724 फणामणिकणाकारयोजिताच्छाम्बुद क्षितिः – फनॉकी मणियोंके कणोंके आकारसे पृथ्वीपर श्वेत बादलोंकी घटा-सी छा देनेवाले, 725 कालाग्निरुद्रजनकः भयंकर कालाग्नि एवं संहारमूर्ति रुद्रको प्रकट करनेवाले, 726 मुशलास्त्रः – मुशलको अस्वरूपमें ग्रहण करनेवाले शेषावतार बलरामरूप, 727 हलायुधः – हलरूपी आयुधवाले ॥ 249 ।। नीलाम्बरो वारुणीशो मनोवाक्कायदोषहा।

असंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः ॥ 250 ॥ 728 नीलाम्बर:- नीलवस्त्रधारी, 729 वारुणीश: – वारुणीके स्वामी, 730 मनोवाक्काय दोषहा – मन, वाणी और शरीरके दोष दूर करनेवाले, 731 असंतोषदृष्टिमात्रपातितैकदशाननः – असंतोषपूर्ण दृष्टि डालनेमात्रसे ही पातालमें गये हुए रावणको गिरा देनेवाले शेषनागरूप 250 बिलसंयमनो घोरो रौहिणेयः प्रलम्बा।

पुष्टिकानो द्विविदा कालिन्दीकर्षणो बलः ।। 251 ॥ 732 बिलसंयमनः सातों पाताललोकोंको काबू रखनेवाले 733 घोरः प्रलयके समय भयंकर आकृति धारण करनेवाले, 734 रौहिणेयः रोहिणी पुत्र, 735 प्रलम्बा प्रलम्ब दानवकोमारनेवाले, 736 मुष्टिकघ्नः – मुष्टिकके प्राण लेनेवाले, 737 द्विविदहा – द्विविद नामक वीर वानरका वध करनेवाले, 738 कालिन्दीकर्षणः- यमुनाकी धाराको खींचनेवाले, 739 मूर्तिमान् स्वरूप ॥ 251 ॥

रेवतीरमणः पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रजः ।

देवकीवसुदेवाह्वकश्यपादितिनन्दनः ।। 252 ।। 740 रेवतीरमण:- अपनी पत्नी रेवतीके साथ रमण करनेवाले, 741 पूर्वभक्तिखेदाच्युताग्रज: पूर्वजन्ममें लक्ष्मणरूपसे भगवान्‌की निरन्तर सेवा करते करते थके रहनेके कारण दूसरे जन्ममें भगवान्की इच्छासे उनके ज्येष्ठ बन्धुके रूपमें अवतार लेनेवाले बलरामरूप, 742 देवकीवसुदेवाह्वकश्यपादिति नन्दनः- वसुदेव और देवकीके नामसे प्रसिद्ध महर्षि कश्यप और अदितिको पुत्ररूपसे आनन्द देनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण 252 वार्ष्णेयः सात्वतां श्रेष्ठः शौरिर्यदुकुलेश्वरः ।

नराकृतिः परं ब्रह्म सव्यसाचिवरप्रदः ।। 253 ॥ 743 वार्ष्णेयः – वृष्णिकुलमें उत्पन्न 744 सात्वतां श्रेष्ठः – सात्वतकुलमें सर्वश्रेष्ठ, 745 शौरिः – शूरसेनके कुलमें अवतीर्ण, 746 यदुकुलेश्वरः – यदुकुलके स्वामी, 747 नराकृतिः – मानव-शरीर धारण करनेवाले श्रीकृष्ण, 748 परं ब्रह्म-वस्तुतः परमात्मा, 749 सव्यसाचिवरप्रदः – अर्जुनको वर देनेवाले ॥ 253 ॥ ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः ।

पूतनाघ्नः शकटभिद्यमलार्जुनभञ्जकः ॥ 254 ॥ 750 ब्रह्मादिकाम्यलालित्यजगदाश्चर्यशैशवः – ब्रह्मा आदि भी जिन्हें देखनेकी इच्छा रखते हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत्को आश्चर्यमें डालनेवाली हैं, ऐसी ललित बाललीलाओंसे युक्त श्रीकृष्ण, 751 पूतनाघ्नः – पूतनाके प्राण लेनेवाले, 752 शकटभित्-लातके हलके आघातसे छकड़ेको चकनाचूर कर देनेवाले, 753 यमलार्जुनभञ्जकः- यमलार्जुन नामसे प्रसिद्ध दो जुड़वें वृक्षोंको तोड़ डालनेवाले ॥ 254 ॥वातासुरारिः केशिघ्नो धेनुकारिर्गवीश्वरः । दामोदरो गोपदेवो

यशोदानन्ददायकः ।। 255 ।। शत्रु, 754 वातासुरारि:-तृणावर्तके 755 केशिनः केसी नामक दैत्यको मारनेवाले, 756 धेनुकारि धेनुकासुर के शत्रु 757 गवीश्वरः गौओंके स्वामी, 758 दामोदरः उदरमें यशोदा मैवाद्वारा रस्सी बांधी जानेके कारण दामोदर नाम धारण करनेवाले, 759 गोपदेवः – ग्वालोंके इष्टदेव, 760 यशोदानन्ददायकः – यशोदा मैयाको आनन्द देनेवाले ॥ 255 ॥

कालीयमर्दनः सर्वगोपगोपीजनप्रियः । लीलागोवर्धनधरो गोविन्दो गोकुलोत्सवः ॥ 256 ॥

761 कालीयमर्दनः – कालिय नागका मान मर्दन करनेवाले, 762 सर्वगोपगोपीजनप्रियः समस्त गोपों और गोपियोंके प्रियतम, 763 लीलागोवर्धनधर:- अनायास ही गोवर्धनपर्वतको अंगुलीपर उठा लेनेवाले, 764 गोविन्दः – इन्द्रकी वर्षासे गौओंकी रक्षा करनेके कारण कामधेनुद्वारा ‘गोविन्द’ पदपर अभिषिक्त भगवान् श्रीकृष्ण, 765 गोकुलोत्सवः गोकुलनिवासियोंको निरन्तर आनन्द प्रदान करनेके कारण उत्सवरूप ॥ 256 ॥ अरिष्टमश्चनः कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः ।

सद्यः कुवलयापीडघाती चाणूरमर्दनः ॥ 257 ।। 766 अरिष्टमथनः अरिष्टासुरको नष्ट करनेवाले 767 कामोन्मत्तगोपीविमुक्तिदः प्रेमविभोर गोपीको मुक्ति प्रदान करनेवाले, 768 सद्यः कुवलयापीडघाती – कुवलयापीड नामक हाथीको शीघ्र मार गिरानेवाले, 769 चाणूरमर्दनः चापूर नामक मल्लको कुचल डालनेवाले ॥ 257 ॥ कंसारिरुग्रसेनादिराज्यव्यापारितामरः

सुधर्माङ्कितभूलोको जरासंधबलान्तकः ॥ 258 ॥ 770 कंसारिः – मथुराके राजा कंसके शत्रु 701 उग्रसेनादिराज्यव्यापारितामरः राज्य सम्बन्धी कार्योंमें उग्रसेन आदिके रूपमें देवताओंको ही नियुक्त करनेवाले, 772 सुधर्माङ्कितभूलोकः – देवोचितसुधर्मा नामक सभासे भूलोकको भी सुशोभित करनेवाले, 773 जरासंधबलान्तकः – जरासंधी सेनाका संहार करनेवाले ॥ 258 ॥ त्यक्तभग्नजरासंधो

भीमसेनयशः प्रदः कालान्तकादिजित् ।। 259 ॥

सांदीपनिमृतापत्यदाता 774 त्यक्तभग्नजरासंध: – युद्धसे भगे जरासंधको जीवित छोड़ देनेवाले, 775 भीमसेन यशः प्रदः – युक्तिसे जरासंधका वध कराकर भीमसेनको यश प्रदान करनेवाले, 776 सांदीपनिमृतापत्यदाता अपने विद्यागुरु सांदीपनिके मरे हुए पुत्रको पुनः ला देनेवाले, 777 कालान्तकादिजित्- काल और अन्तक आदिपर विजय पानेवाले ॥ 259 ॥

समस्तनारकत्राता सर्वभूपतिकोटिजित् ।

रुक्मिणीरमणो रुक्मिशासनो नरकान्तकः ॥ 260 ॥ पड़े हुए समस्त प्राणियोंका भी उद्धार करनेवाले, 779 सर्वभूपतिकोटिजित्-रुक्मिणीके विवाह में करोड़ोंकी संख्यामें आये हुए समस्त राजाओंको परास्त करनेवाले, 780 रुक्मिणीरमणः – रुक्मिणीके साथ रमण करनेवाले, 781 रुक्मिशासन: रुक्मीको दण्ड देनेवाले, 782 नरकान्तकः- नरकासुरका विनाश करनेवाले ॥ 260 ॥

778 समस्तनारकत्राता-शरणमें आनेपर नरकमे समस्तसुन्दरीकान्तो मुरारिर्गरुडध्वजः एकाकिजितरुद्रार्कमरुदाद्यखिलेश्वरः ॥ 261 ॥

783 समस्तसुन्दरीकान्तः – समस्त सुन्दरियाँ जिन्हें पानेकी इच्छा करती हैं, 784 मुरारिः – मुर नामक दानवके शत्रु, 785 गरुडध्वजः – गरुड़के | चिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले, 786 एकाकिजितरुद्रार्क मरुदाद्यखिलेश्वरः – अकेले ही रुद्र, सूर्य और वायु आदि समस्त लोकपालोंको जीतनेवाले ॥ 261 ॥ कल्पद्रुमालङ्कृतभूतलः । देवेन्द्रदर्पहा

बाणबाहुसहस्त्रच्छिन्नन्द्यादिगणकोटिजित् 787 देवेन्द्रदर्पहा – देवराज इन्द्रका अभिमान चूर्ण करनेवाले, 788 कल्पद्रुमालङ्कृतभूतलः कल्पवृक्षको स्वर्गसे लाकर उसके द्वारा भूतलकी शोभाबढ़ानेवाले, 789 बाणबाहुसहस्त्रच्छित्-बाणासुरकी सहस्र भुजाओंका उच्छेद करनेवाले, 790 नन्द्यादि गणकोटिजित् नन्दी आदि करोड़ों शिवगणोंको परास्त करनेवाले ॥ 262 ॥ लीलाजितमहादेवो इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः महादेवैकपूजितः ।

पाण्डवैकधृक् ।। 263 ।। लीलाजितमहादेवः – अनायास ही 791 794 महादेवजीपर विजय पानेवाले, 792 महादेवैक पूजितः – महादेवजीके द्वारा एकमात्र पूजित, 793 इन्द्रार्थार्जुननिर्भङ्गजयदः – इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये अर्जुनको अखण्ड विजय प्रदान करनेवाले, पाण्डवैकधृक्- पाण्डवोंके एकमात्र रक्षक 263 ॥ काशिराजशिरश्छेत्ता रुद्रशक्त्येकमर्दनः

वेश्वरप्रसादा काशिराजसुतार्दनः ।। 264 ।। 795 काशिराजशिरश्छेत्ता – काशिराजका मस्तक काट देनेवाले, 796 रुद्रशक्त्येकमर्दनः- रुद्रकी शतिके एकमात्र विश्वेश्वरप्रसादाढ्यः – काशीविश्वनाथकी प्रसन्नता प्राप्त करनेवाले, 798 काशिराजसुतार्दनः काशीनरेशशके पुत्रको पीड़ा देनेवाले ॥ 264 ॥ शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसीकाशीनिर्दग्धनायकः मर्दन करनेवाले, 797

काशीशगणकोटिनो लोकशिक्षाद्विजार्थकः ।। 265 ।। 799 शम्भुप्रतिज्ञाविध्वंसी- शंकरजीकी प्रतिज्ञा दोड़नेवाले, 800 काशीनिर्दग्धनायकः- जिन्होंने काशीको जलाकर अनाथ-सी कर दिया था, वे भगवान् श्रीकृष्ण, 801 काशीशगणकोटिन: काशीपति विश्वेश्वरके करोड़ों गणका नाश करनेवाले, 1802 लोकशिक्षाद्विजार्चक:- लोकको शिक्षा देनेके लिये सुदामा आदि ब्राह्मणोंकी पूजा करनेवाले ॥ 265 ॥ शिवतीव्रतपोवश्यः पुराशिववरप्रदः शङ्करैकप्रतिष्ठाधृक्स्वांशशङ्करपूजकः ।। 266 ।।

803 शिवतीव्रतपोवश्यः- शिवजीकी तीव्र तपस्याके वशीभूत होनेवाले 804 पुराशिववरप्रदः पूर्वकालमें शिवजीको वरदान देनेवाले, 805 शङ्करैकप्रतिष्ठाधृक् – भगवान् शंकरकी एकमात्रप्रतिष्ठा करनेवाले, 806 – स्वांशशङ्करपूजक:- अपने अंशभूत शंकरकी पूजा करनेवाले ॥ 266 ॥

शिवकन्याव्रतपतिः कृष्णरूपविारिहा।

महालक्ष्मीपुरीत्राता 807 शिवकन्याव्रतपतिः शिवकी कन्याके व्रतकी रक्षा करनेवाले, 808 कृष्णरूपशिवारिहा कृष्णरूपसे शिवके शत्रु ( भस्मासुर) का संहार करनेवाले, 809 महालक्ष्मीवपुर्गौरीत्राता— महालक्ष्मीका शरीर धारण करनेवाली पार्वतीके रक्षक, 810 वैदलवृत्रहा — वैदलवृत्र नामकः दैत्यका वध करनेवाले ॥ 267 ॥ वैदलवृत्रहा ।। 267 ।।स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्टकृत् ।

यमुनापतिरानीतपरिलीनद्विजात्मजः ॥ 268 ॥

811 स्वधाममुचुकुन्दैकनिष्कालयवनेष्ट कृत्- अपने तेज: स्वरूप राजा मुचुकुन्दके द्वारा केवल कालयवनका नाश कराकर उन्हें अभीष्ट वरदान देनेवाले, 812 यमुनापतिः सूर्यकन्या यमुनाको पत्नीरूपसे ग्रहण करनेवाले, 813 आनीतपरिलीनद्विजात्मजः मरे हुए ब्राह्मणपुत्रोंको –
पुनः लानेवाले ॥ 268 ॥

श्रीदामभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभवः दुर्वृत्तशिशुपालैकमुक्तिदो द्वारकेश्वरः ।। 269 ।।

814 श्रीदामरङ्कभक्तार्थभूम्यानीतेन्द्रवैभवः अपने दोन भक्त श्रीदामा (सुदामा) के लिये पृथ्वीपर इन्द्रके समान वैभव उपस्थित करनेवाले, 815 दुर्वृत्तशिशुपालैकमुक्तिदः – दुराचारी शिशुपालको एकमात्र मोक्ष प्रदान करनेवाले, 816 द्वारकेश्वर: द्वारकाके स्वामी ॥ 269 ।।

आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधिकोटिकृत् । अक्रूरोद्धवमुख्यैकभक्तः स्वच्छन्दमुक्तिदः ।। 270 ।।

आचाण्डालादिकप्राप्यद्वारकानिधि कोटिकृत् द्वारकामे चाण्डाल आदितकके लिये सुलभ होनेवाली करोड़ों निधियोंका संग्रह करनेवाले, 818 अक्रूरोद्धवमुख्यैकभक्तः – अक्रूर और उद्धव आदि प्रधान भक्तोंके साथ रहनेवाले, 819 स्वच्छन्दमुक्तिदः – इच्छानुसार मुक्ति देनेवाले ॥ 270 ॥ सबालस्त्रीजलक्रीडामृतवापीकृतार्णवः । ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् ॥ 271 ।।

820 सवालस्वीजलक्रीडामृतवापीकृतार्णवः बालकों और स्त्रियोंके जल-विहार करनेके लिये समुद्रको अमृतमयी बावलीके समान बना देनेवाले, 821 ब्रह्मास्त्रदग्धगर्भस्थपरीक्षिज्जीवनैककृत् अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे दग्ध हुए गर्भस्थ परीक्षित्‌को एकमात्र जीवन – दान देनेवाले ॥ 279 ॥ परिलीनद्विजसुतानेतार्जुनमदापहः

गूढमुद्राकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरव: ॥ 272 ॥ 822 परिलीनद्विजसुतानेता – नष्ट हुए ब्राह्मणकुमारों को पुनः ले आनेवाले, 823 अर्जुनमदापहः- अर्जुनका घमंड दूर करनेवाले, 824 गूढमुद्रकृतिग्रस्त भीष्माद्यखिलकौरवः गम्भीर मुद्रावाली आकृति बनाकर भीष्म आदि समस्त कौरवोंको कालका ग्रास बनानेवाले ॥ 272 ॥ यथार्थखण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थमोहत्
गर्भशापच्छलध्वस्तपादयोर्वाभरापहः

॥ 273 ॥

825 यथार्थखण्डिताशेषदिव्यास्त्रपार्थमोहत् समस्त दिव्यास्त्रोंका भलीभाँति खण्डन करनेवाले अर्जुनके मोहको हरनेवाले, 826 गर्भशापच्छलध्वस्तयादयोवीभरापहः स्त्रीरूप धारण करके गये हुए साम्बके गर्भको मुनियोंद्वारा शाप दिलाने के बहाने पृथ्वीके भारभूत समस्त यादवोंका संहार करानेवाले ॥ 273 ॥

जराव्याधारिगतिदः स्मृतमात्राखिलेष्टदः

कामदेवो रतिपतिमन्मथः शम्बरान्तकः ॥ 274 ॥ 827 जराव्याधारिगतिदः – शत्रुका करनेवाले जरा नामक व्याधको उत्तम गति प्रदान करनेवाले, 828 स्मृतमात्राखिलेष्टदः – स्मरण करनेमात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थोंको देनेवाले, 829 कामदेवः कामदेवस्वरूप 830 रतिपति: रतिके स्वामी, 839 मन्मथः – विचारशक्तिका नाश करनेवाले कामदेवरूप, 832 शम्बरान्तकःशम्बरासुरके प्राणहन्ता ॥ 274 ॥ अनङ्गो जितगरीशो रतिकान्तः सदेशितः । कामेश्वरीप्रियः ।। 275 ।। पुष्पेषुर्विश्वविजयी

833 अन अंगरहित, 834 जितगौरीश गौरीपति शंकरको भी जीतनेवाले, 835 रतिकान्तः रतिके प्रियतम, 836 सदेप्सितः – कामी पुरुषोंको सदा अभीष्ट 837 पुष्येषुः पुष्पमय बाणवाले, 838 विश्वविजयी- सम्पूर्ण जगत्पर विजय पानेवाले, 839 स्मरः – विषयोंके स्मरणमात्रसे मनमें प्रकट हो जानेवाले, 840 कामेश्वरीप्रियः कामेश्वरी रतिके प्रेमी 275 ॥ ऊषापतिर्विश्यकेतुर्विश्वतृप्तोऽधिपूरुषः

चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्युगविधायकः ॥ 276 ॥ 849 ऊषापतिः बाणासुरकी कन्या ऊषाके स्वामी अनिरुद्धरूप, 842 विश्वकेतुः विश्वमें विजयपताका फहरानेवाले, 843 विश्यतृप्तः – सब ओरसे तृप्त, 844 अधिपूरुषः अन्तर्यामी साक्षी चेतन, 845 चतुरात्मा- मन, बुद्धि, अहंकार और चित्तरूप चार अन्तःकरणवाले, 846 चतुर्व्यूहः वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध – इन – चार व्यूहोंसे युक्त, 840 चतुर्युगविधायक:- सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग-इन चार युगका विधान करनेवाले ॥ 276 ॥

चतुर्वेदैकविश्वात्मा सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः

आश्रमात्मा पुराणर्षिर्व्यासः शाखासहस्त्रकृत् ॥ 277 ॥ 848 चतुर्वेदेकविश्वात्मा चारों वेदोंद्वारा प्रतिपादित एकमात्र सम्पूर्ण विश्वके आत्मा 849 सर्वोत्कृष्टांशकोटिसूः – सबसे श्रेष्ठ कोटि-कोटि अंशोंको जन्म देनेवाले, 850 आश्रमात्मा आश्रमधर्मरूप 851 पुराणर्षिः – पुराणोंके प्रकाशक ऋषि, 852 व्यासः – वेदोका विस्तार करनेवाले, 853 शाखासहस्वकृत् सामवेदको सहस्र शाखाओंका सम्पादन करनेवाले ॥ 277 ॥ महाभारतनिर्माता कवीन्द्रो बादरायणः ।
कृष्णद्वैपायनः सर्वपुरुषार्थैकबोधकः 278 ॥854 महाभारतनिर्माता महाभारत ग्रन्थके रचयिता 855 कवीन्द्रः कवियोंके राजा, 856 बादरायणः बदरी-वनमें उत्पन्न भगवान् वेदव्यासरूप, 857 कृष्णद्वैपायनः- द्वीपमें उत्पन्न श्यामवर्णवाले व्यासजी, 858 सर्वपुरुषार्थैकबोधकः – समस्त पुरुषार्थीके एकमात्र बोध करानेवाले ॥ 278 ॥ वेदान्नकर्ता ब्रह्मैकव्यञ्जकः पुरुवंशकृत् ।

बुद्धो ध्यानजिताशेषदेवदेवी जगत्प्रियः 279 859 वेदान्तकर्ता वेदान्तसूत्रों के रचयिता, 860 ब्रह्मैकव्यञ्जकः एक अद्वितीय ब्रह्मकी अभिव्यक्ति करानेवाले, 861 पुरुवंशकृत् — पुरुवंशकी परम्परा सुरक्षित रखनेवाले, 862 बुद्धः – भगवान्के अवतार बुद्धदेव, 863 ध्यानजिताशेषदेवदेवीजगत्प्रियः ध्यानके द्वारा समस्त देव-देवियोंको जीतकर जगत्के प्रियतम बननेवाले ॥ 279 ॥ निरायुधो जगज्जैत्रः श्रीधनो दुष्टमोहनः

दैत्यवेदबहिष्कर्ता वेदार्थश्रुतिगोपकः 280 ॥

864 निरायुधः – अस्त्र-शस्त्रोंका त्याग करनेवाले, 865 जगज्जैत्रः – सम्पूर्ण जगत्को वशमें करनेवाले, 866 श्रीधनः- शोभाके धनी, 867 दुष्टमोहन: दुष्टोंको मोहित करनेवाले, 868 दैत्यवेदवहिष्कर्ता दैत्योंको वेदसे बहिष्कृत करनेवाले, 869 वेदार्थश्रुतिगोपकः – वेदोंके अर्थ और श्रुतियोंको गुप्त रखनेवाले 280 शौद्धोदनिष्टदिष्टः सुखदः सदसस्पतिः ।

यथायोग्याखिलकृपः सर्वशून्योऽखिलेष्टदः ॥ 289 ।। 870 शौद्धोदनिः – कपिलवस्तुके राजा शुद्धोदनके पुत्र, 879 दृष्टदिष्टः दैवके विधानको प्रत्यक्ष देखनेवाले, 872 सुखदः- सबको सुख देनेवाले, 873 सदसस्पतिः – सत्पुरुषोंकी सभाके अध्यक्ष, 874 यथायोग्याखिलकृपः – यथायोग्य सम्पूर्ण जीवोंपर कृपा रखनेवाले, 875 सर्वशून्यः – सम्पूर्णपदार्थोंको शून्यरूप ही माननेवाले,
अखिलेप्टदः सबको सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ देनेवाले ॥ 281 ॥

चतुष्कोटिपृथक्तत्त्वप्रज्ञापारमितेश्वरः

पाखण्डवेदमार्गेश: पाखण्डतिगोपकः ॥ 282 ॥

877 चतुष्कोटिपृथक् – स्थावर आदि चार श्रेणियोंमें विभक्त हुई सृष्टिसे पृथक्, 878 तत्त्व प्रज्ञापारमितेश्वरः- तत्त्वभूत प्रज्ञापारमिता (बुद्धिकी पराकाष्ठा) के ईश्वर, 879 पाखण्डवेदमार्गेश: पाखण्ड-वेदमार्गक स्वामी, 880 पाखण्डअतिगोपक: पाखण्ड के द्वारा प्रतिपादित वेदकी श्रुतियोंके रक्षक ॥ 282 ॥ कल्की विष्णुयशः पुत्रः कलिकालविलोपकः ।

समस्तम्लेच्छदुष्टानः सर्वशिष्टद्विजातिकृत् ॥ 283 ॥ 881 कल्की – कलियुगके अन्तमें होनेवाला भगवान्का एक अवतार, 882 विष्णुयशः पुत्रः श्रीविष्णुपरा के पुत्र भगवान् कल्कि, 883 कलिकाल विलोपक:- कलियुगका लोप करके सत्ययुगका प्रवेश करानेवाले, 884 समस्तम्लेच्छदुष्टघ्नः – सम्पूर्ण म्लेच्छों और दुष्टोंका वध करनेवाले, 885 सर्वशिष्टद्विजातिकुत्-सबको श्रेष्ठ द्विज बनानेवाले अथवा समस्त साधु द्विजातियोंके रक्षक ॥। 283 ।। सत्यप्रवर्तको देवद्विजदीर्घक्षुधापहः ।

अश्ववारादिरेकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशनः 886 सत्यप्रवर्तकः – सत्ययुगकी प्रवृत्ति करानेवाले, 887 देवद्विजदीर्घक्षुधापहः – [ यज्ञ और ब्राह्मणभोजन आदिका प्रचार करके] देवताओं और ब्राह्मणोंकी बढ़ी हुई भूखको शान्त करनेवाले, 888 अश्ववारादिः – घुड़सवारोंमें श्रेष्ठ, 889 एकान्तपृथ्वीदुर्गतिनाशन:- पृथ्वीकी दुर्गतिका पूर्णतया नाश करनेवाले ॥ 284 ॥

सद्यः क्ष्मानन्तलक्ष्मीकृनष्टनिःशेषधर्मवित्
अनन्तस्वर्णयागेकडेमपूर्णाखिलद्विजः ।। 285 ।।

890 सद्यःक्ष्मानन्तलक्ष्मीकृत् — पृथ्वीको शीघ्र ही अनन्त लक्ष्मीसे परिपूर्ण करनेवाले, 891 नष्टनिःशेषधर्मवित्-नष्ट हुए सम्पूर्ण धर्मोके ज्ञाता, 892 अनन्तस्वर्णयागकहेमपूर्णाखिलद्विजः अनन्त सुवर्गको दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञका अनुष्ठान कराकर सम्पूर्ण ब्राह्मणोंको स्वर्णसे सम्पन्न करनेवाले ॥ 285 ॥ असाध्यैकजगच्छास्ता विश्वबन्धो जयध्वजः । आत्मतत्त्वाधिपः कर्तृश्रेष्ठो विधिरुमापतिः ।। 286 ।।

893 असाध्यैकजगच्छास्ता किसीके वशमें न होनेवाले सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र शासक, 894 विश्वबन्धः – समस्त विश्वको अपनी मायासे बाँध रखनेवाले, 895 जयध्वजः सर्वत्र अपनी विजयपताका फहरानेवाले, 896 आत्मतत्त्वाधिपः आत्मतत्त्वके स्वामी, 897 कर्तृश्रेष्ठः – कर्ताओंमें श्रेष्ठ, 898 विधिः- शास्त्रीय विधिरूप, 899 उमापतिः – उमाके स्वामी 286 भर्तृश्रेष्ठः प्रजेशाग्रयो मरीचिर्जनकाग्रणीः 904 कश्यपो देवराडिन्द्रः प्रह्लादो दैत्यराट् शशी ॥ 287 ॥ 900 भर्तृश्रेष्ठ:- भरण-पोषण करनेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ 109 प्रजेशाख्यः प्रजापतियोंमें अग्रगण्य 902 मरीचिः – मरीचि नामक प्रजापतिरूप, 903 जनकाग्रणीः -जन्म देनेवाले प्रजापतियोंमें श्रेष्ठ, कश्यपः -सर्वद्रष्टा कश्यपमुनिस्वरूप, 905 देवराट् देवताओंके राजा, 106 इन्द्रः परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रस्वरूप, 907 प्रह्लाद: भगवद्भतिके प्रभाव अत्यन्त आह्लादपूर्ण रानी कयाधूके पुरुष 908 दैत्यराट् दैत्योंके स्वामी प्रह्लादरूप, 909 शशी- खरगोशका चिह्न धारण करनेवाले चन्द्रमारूप ॥ 287 ॥

नक्षत्रेशो रविस्तेजः श्रेष्ठः शुक्रः कवीश्वरः। बलिस्वराट् ॥ 288 ॥

110 नक्षत्रेश:-नक्षत्रोंके स्वामी चन्द्रमारूप 111 रविः सूर्यस्वरूप, 992 तेजः श्रेष्ठ: तेजस्वियोंमें सबसे श्रेष्ठ, 113 शुक्रः भृगुके पुत्र शुक्राचार्यस्वरूप 114 कवीश्वरः कवियोंके स्वामी,115] महर्षिरा महर्षियोंमें अधिक तेजस्वी, 916 भृगुः ब्रह्माजी के पुत्र प्रजापति भृगुस्वरूप, 917

विष्णुः – बारह आदित्योंमेंसे एक, 918 आदित्येश: बारह आदित्योंके स्वामी 999 बलिस्वराट् बलिको इन्द्र बनानेवाले ॥ 288 ।।

वायुर्वनिः शुचिश्रेष्ठः शङ्करो रुद्रराङ्गुरुः । गन्धर्वाप्रयोऽक्षरोत्तमः ।। 289 ।।

विद्वत्तमश्चित्ररथो 920 वायुः वायुतत्त्वके अधिष्ठाता देवता 921 वह्निः – अग्नितत्त्वके अधिष्ठाता देवता, 922 शुचिश्रेष्ठः पवित्रोंमें श्रेष्ठ 923 शङ्करः सबका कल्याण करनेवाले शिवरूप, 924 रुद्रराट् — ग्यारह रुद्रोंके स्वामी, 925 गुरुः- गुरु नामसे प्रसिद्ध अंगिरापुत्र बृहस्पतिरूप, 926 विद्वत्तमः – सर्वश्रेष्ठ विद्वान्, 927 चित्ररथः – विचित्र रथवाले गन्धर्वोके राजा, 928] गन्धर्वाधः- गन्धवों में चित्ररथरूप 129 अक्षरोत्तमः अक्षरोंमें उत्तम – अग्रगण्य ‘ॐ कारस्वरूप 289 ॥

वर्णादिरस्त्री गौरी शक्त्यग्रथा श्रीश्च नारदः । देवर्षिराट्पाण्डवाग्रयोऽर्जुनो वादः प्रवादराट् ॥ 290 ॥

930 वर्णादिः – समस्त अक्षरोंके आदिभूत अकारस्वरूप, 931 अग्रयस्त्री-स्त्रियोंमें अग्रगण्य सती पार्वतीरूप, 932 गौरी-गौरवर्णा उमारूप, 933 शक्त्यग्रथा – भगवान्‌की अन्तरंगा शक्तियोंमें सर्वश्रेष्ठ भगवती लक्ष्मीरूप, 934 श्री:- भगवान् विष्णुका आश्रय लेनेवाली लक्ष्मी, 935 नारदः सबको ज्ञान देनेवाले देवर्षि नारद 136 देवर्षिराट् देवर्षियोंके राजा, 937 पाण्डवाग्रय: पाण्डवोंमें अपने गुणोंके कारण श्रेष्ठ अर्जुनरूप, 938 अर्जुनः अर्जुन नामसे प्रसिद्ध कुन्तीके तृतीय पुत्र, 939 वादः तत्त्वनिर्णयके उद्देश्यसे शुद्ध नीयत के साथ किये जानेवाले शास्त्रार्थरूप 140 प्रवादराद उत्तम वाद करनेवालोंमें श्रेष्ठ ॥ 290 ॥ – पावनः पावनेशानो वरुणो यादसां पतिः गङ्गा तीर्थोत्तम तं छलकायं वरौषधम् ॥ 299 ॥ 141 पावन:- सबको पवित्र करनेवाले, 942पावनेशान :- पावन वस्तुओंके ईश्वर, 943 वरुणः जलके अधिष्ठाता देवता वरुणरूप, 944 यादसां पतिः जल-जन्तुओंके स्वामी, 945 गङ्गा-भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई परम पवित्र नदी, जो भूतलमें भागीरथीके नामसे विख्यात एवं भगवद्विभूति तीर्थोंमें उत्तम गंगारूप, 947 द्यूतम्-छल करनेवालोंमें द्यूतरूप भगवान्‌की विभूति, 948 छलकाग्रयम् — छलकी पराकाष्ठा, जूआरूप 249 वरीषधम् जीवनकी रक्षा करनेवाली श्रेष्ठ ओषधि अन्नरूप ॥ 291 ॥ अनं सुदर्शन प्रहरणोत्तमम्।

– उच्चैःश्रवा वाजिराज ऐरावत इभेश्वरः ।। 292 ।। 950 अन्नम् – प्राणियोंकी क्षुधा दूर करनेवाला धरतीसे उत्पन्न खाद्य पदार्थ, 951 सुदर्शन: देखनेमें सुन्दर तेजस्वी अस्त्र- सुदर्शनचक्ररूप, 952 अस्वाग्रयम् — समस्त अस्त्रोंमें श्रेष्ठ सुदर्शन, 953 वज्रम्-इन्द्रके आयुधस्वरूप, 954 प्रहरणोत्तमम्— प्रहार करनेयोग्य आयुधोंमें उत्तम वज्ररूप, 955 उच्चैःश्रवाः – ऊँचे कानवाला दिव्य अश्व, जो समुद्रसे उत्पन्न हुआ था, 956 वाजिराजः – घोड़ोंके राजा उच्चैःश्रवारूप, 957 ऐरावतः – समुद्रसे उत्पन्न इन्द्रका वाहन ऐरावत नामक हाथी, 958 इभेश्वर: हाथियोंके राजा ऐरावतस्वरूप ॥ 292 ॥

अरुन्धत्येक पत्नीशो श्राद। अध्यात्मविद्या विद्याग्रयः प्रणवश्छन्दसां वरः ।। 293 ।।।

959 पतिव्रता श्रेष्ठ अरुन्धती स्वरूप, 960 एकपत्नीशः पतिव्रता अरुन्धतीके स्वामी महर्षि वसिष्ठरूप, 961 अश्वत्थः – पीपलके वृक्षरूप, 962 अशेषवृक्षराद्-सम्पूर्ण वृक्षोंके राजा अश्वत्थरूप, 963 अध्यात्मविद्या – आत्मतत्त्वका बोध करानेवाली ब्रह्मविद्यास्वरूप 164 विद्याधः विद्याओं में अग्रगण्य प्रणवरूप, 965 प्रणवः काररूप 966 छन्दसां वरः वेदोंका आदिभूत ओंकार, अथवा मन्त्रोंमें श्रेष्ठ प्रणव ॥ 293 ॥ – कालसत्तमः । मैरुर्गिरिपतिर्मार्गो मासाग्रयः दिनाद्यात्मा पूर्वसिद्धः कपिलः साम वेदराद् ॥ 294 ॥967 मेरु:- मेरु नामक दिव्य पर्वतरूप, 968 गिरिपतिः – पर्वतोंके स्वामी, 969 मार्ग:- मार्गशीर्ष (अगहन) का महीना 970 मासाग्रयः – मासोंमें अग्रगण्य मार्गशीर्षस्वरूप, 979 कालसत्तम: समयौमें सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवेला 972 दिनाद्यात्मा दिन और रात्रि दोनोंका सम्मिलितरूप- प्रभात या ब्रह्मवेला 973 पूर्वसिद्ध: आदिसिद्ध महर्षि कपिलरूप, 974 कपिलः- कपिलवर्णवाले एक मुनि, जो भगवान्के अवतार हैं, 975 साम- सहस्र शाखाओंसे विशिष्ट सामवेद, 976 वेदराट्-वेदोंके राजा सामवेदरूप ॥ 294 तार्क्ष्यः खगेन्द्र ऋत्वग्रयो वसन्तः कल्पपादपः।

दातृश्रेष्ठः कामधेनुरार्तिघ्नाग्राः सुहृत्तमः ।। 295 ।। 977 तार्क्ष्यः – तार्क्ष (कश्यप) ऋषिके पुत्र गरुड़रूप, 978 खगेन्द्रः- पक्षियोंके राजा गरुड़, 979 ऋत्वग्रयः ऋतुओंमें श्रेष्ठ वसन्तरूप, 980 वसन्तः – चैत्र और वैशाख मास, 981 कल्पपादपः- कल्पवृक्षस्वरूप, 982 दातृश्रेष्ठ:- मनोवांछित वस्तु देनेवालोंमें कल्पवृक्ष, 983 कामधेनुः – अभीष्ट पूर्ण करनेवाली गोरूप, 984 आर्तिघ्नाग्रयः पीड़ा दूर करनेवालों में सर्वश्रेष्ठ, 985 सुहृत्तमः परम हितैषी ॥ 295 ॥ चिन्तामणिगुरुश्रेष्ठो माता हिततमः पिता । श्रेष्ठ

सिंहो मृगेन्द्रो नागेन्द्रो वासुकिर्नृवरो नृपः ।। 296 ।। 986 चिन्तामणिः- मनमें चिन्तन की हुई इच्छाको पूर्ण करनेवाली भगवत्स्वरूप दिव्य मणि, 987 गुरुश्रेष्ठः- गुरुओंमें श्रेष्ठ मातारूप, 988 माता— जन्म देनेवाली जननी, 989 हिततमः – सबसे बड़े हितकारी, 990 पिता जन्मदाता, 999 सिंहः- मृगोंके राजा सिंहस्वरूप, 992 मृगेन्द्र:- समस्त वनके जन्तुओंका स्वामी सिंहरूप, 993 नागेन्द्रः- नागों के राजा, [ 994 वासुकिः नागराज वासुकिरूप 195 नृबर:- मनुष्यों में श्रेष्ठ, 996 नृपः मनुष्योंका पालन करनेवाले राजारूप 296वर्णेशो ब्राह्मणश्चेतः करणाग्रयं नमो नमः ।

इत्येतद्वासुदेवस्य विष्णोर्नामसहस्यकम् ॥ 297॥ 997 वर्णेश:- समस्त वर्णोंके स्वामी ब्राह्मण

रूप, 998 ब्राह्मण:- -ब्राह्मण माता-पितासे उत्पन्न एवं ब्रह्मज्ञानी 199 चेतः परमात्मचिन्तनकी योग्यतावाले चित्तरूप, 1000 करणाग्रयम् इन्द्रियोंका प्रेरक होनेके कारण उनमें सबसे श्रेष्ठ चित्त- – इस प्रकार ये सबके हृदयमें वास करनेवाले भगवान् विष्णुके सहस्र नाम हैं। इन सब नामोंको मेरा बारम्बार नमस्कार है ।। 297 ॥

यह विष्णुसहस्रनामस्तोत्र समस्त अपराधीको शान्त करनेवाला, परम उत्तम तथा भगवान्‌में भक्तिको बढ़ाने वाला है। इसका कभी नाश नहीं होता। ब्रह्मलोक आदिका तो यह सर्वस्व ही है। विष्णुलोकतक पहुँचनेके लिये यह अद्वितीय सीड़ी है। इसके सेवनसे सब दुःखोंका नाश हो जाता है। यह सब सुखोंको देनेवाला तथा शीघ्र ही परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। काम, क्रोध आदि जितने भी अन्तःकरणके मल हैं, उन सबका इससे शोधन होता है। यह परम शान्तिदायक एवं महापातकी मनुष्योंको भी पवित्र बनानेवाला है। समस्त प्राणियोंको यह शीघ्र ही सब प्रकारके अभीष्ट फल दान करता है। समस्त विघ्नोंकी शान्ति और सम्पूर्ण अरिष्टोंका विनाश करनेवाला है। इसके सेवनसे भयंकर दुःख शान्त हो जाते हैं। दुःसह दरिद्रताका नाश हो जाता है तथा तीनों प्रकारके ॠण दूर हो जाते हैं। यह परम गोपनीय तथा धन-धान्य और यशकी वृद्धि करनेवाला है सब प्रकारके ऐश्वर्यो, समस्त सिद्धियों और सम्पूर्ण धर्मोको देनेवाला है। इससे कोटि-कोटि तीर्थ, यज्ञ, तप, दान और व्रतों का फल प्राप्त होता है। यह संसारकी जडता दूर करनेवाला और सब प्रकारको विद्याओंमें प्रवृत्ति करानेवाला है। जो राज्यसे भ्रष्ट हो गये हैं, उन्हें यह राज्य दिलाता और रोगियोंके सब रोगोंको हर लेता है। इतना ही नहीं, यह स्तोत्र वन्ध्या स्त्रियोंको पुत्र औररोगसे क्षीण हुए पुरुषोंको तत्काल जीवन देनेवाला है। यह परम पवित्र, मंगलमय तथा आयु बढ़ानेवाला है। एक बार भी इसका श्रवण, पठन अथवा जप करनेसे पुराण, अंगसहित सम्पूर्ण वेद, कोटि-कोटि मन्त्र, शास्त्र तथा स्मृतियोंका श्रवण और पाठ हो जाता है। प्रिये ! जो इसके एक श्लोक, एक चरण अथवा एक अक्षरका भी नित्य जप या पाठ करता है, उसके सम्पूर्ण मनोरथ तत्काल सिद्ध हो जाते हैं। सब कार्योंकी सिद्धिसे शीघ्र ही विश्वास पैदा करानेवाला इसके समान दूसरा कोई साधन नहीं है।

कल्याणी! तुम्हें इस स्तोत्रको सदा गुप्त रखना चाहिये और अपने अभीष्ट अर्थकी सिद्धिके लिये केवल इसीका पाठ करना चाहिये जिसका हृदय संशयसे दूषित हो, जो भगवान् विष्णुका भक्त न हो, जिसमें श्रद्धा और भक्तिका अभाव हो तथा जो भगवान् विष्णुको साधारण देवता समझता हो, ऐसे पुरुषको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो अपना पुत्र, शिष्य अथवा सुहृद् हो, उसे उसका हित करनेकी इच्छासे इस श्रीविष्णुसहस्त्रनामका उपदेश देना चाहिये। अल्पबुद्धि पुरुष इसे नहीं ग्रहण करेंगे। देवर्षि नारद मेरे प्रसादसे कलियुग तत्काल फल देनेवाले इस स्तोत्रको ग्रहण करके कल्पग्राम (कलापग्राम) में ले जायेंगे, जिससे भाग्यहीन लोगोंका दुःख दूर हो जायगा। भगवान् विष्णुसे बढ़कर कोई धाम नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और श्रीविष्णुसे भिन्न कोई मन्त्र नहीं है। भगवान् श्रीविष्णुसे भिन्न कोई सत्य नहीं है, श्रीविष्णुसे बड़कर जप नहीं है, श्रीविष्णुसे उत्तम ध्यान नहीं है तथा श्रीविष्णुसे श्रेष्ठ कोई गति नहीं है। जिस पुरुषकी भगवान् जनार्दनके चरणोंमें भक्ति है, उसे अनेक मन्त्रोंके जप बहुत विस्तारवाले शास्त्रोंके स्वाध्याय तथा सहस्रों वाजपेय यज्ञोंके अनुष्ठान करनेकी क्या आवश्यकता है? मैं सत्य सत्य कहता हूँ-भगवान् विष्णु सर्वतीर्थमय है, भगवान् विष्णु सर्वशास्त्रमय हैंतथा भगवान् विष्णु सर्वयज्ञमय है। यह सब मैंने सम्पूर्ण विश्वका सर्वस्वभूत सारतत्त्व बतलाया है।

पार्वती बोलीं- जगत्पते। आज मैं धन्य हो गयी। आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। मैं कृतार्थ हो गयी, क्योंकि आपके मुखसे यह परम दुर्लभ एवं गोपनीय स्तोत्र मुझे सुननेको मिला है। देवेश! मुझे तो संसारकी अवस्था देखकर आश्चर्य होता है। हाय! कितने महान् कष्टकी बात है कि सम्पूर्ण सुखोंके दाता श्रीहरिके विद्यमान रहते हुए भी मूर्ख मनुष्य संसारमें क्लेश उठा रहे हैं। 2 भला, लक्ष्मी के प्रियतम भगवान् मधुसूदनसे बढ़कर दूसरा कौन देवता है आप जैसे योगीश्वर भी जिनके तत्त्वका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं, उन श्रीपुरुषोत्तमसे बड़ा दूसरा कौन-सा पद है। उनको जाने बिना ही अपनेको ज्ञानी माननेवाले मूढ मनुष्य दूसरे किस देवताकी आराधना करते हैं। अहो ! सर्वेश्वर भगवान् विष्णु सम्पूर्ण श्रेष्ठ देवताओंसे भी उत्तम हैं। स्वामिन्! जो आपके भी आदिगुरु हैं, उन्हें गृह मनुष्य सामान्य दृष्टिसे देखते हैं; किन्तु प्रभो ! सर्वेश्वर! यदि मैं अर्थ- कामादिमें आसक्त होने या केवल आपमें ही मन लगाये रहनेके कारण अथवा प्रमादवश ही समूचे सहस्रनामस्तोत्रका पाठ न कर सकूँ, तो उस अवस्थामें जिस किसी भी एक नामसे | मुझे सम्पूर्ण सहस्रनामका फल प्राप्त हो जाय, उसे बताने की कृपा कीजिये। 3

महादेवजी बोले- सुमुखि! मैं तो ‘राम ! राम ! राम!’ इस प्रकार जप करते हुए परम मनोहरश्रीरामनाममें ही निरन्तर रमण किया करता हूँ। रामनाम सम्पूर्ण सहस्रनामके समान हैं। 4 पार्वती ! यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र भी प्रतिदिन विशेषरूपसे इस श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करें तो वे धन-धान्यसे युक्त होकर भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं । 5 देवि ! जो लोग पूर्वोक्त अंगन्याससे युक्त श्रीविष्णुसहस्त्रनामका पाठ करते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। सुमुखि ! बार-बार बहुत कहने से क्या लाभ; थोड़ेमें इतना ही जान लो कि भगवान् विष्णुका सहस्रनाम परम मोक्ष प्रदान करनेवाला है। इसके पाठ उतावली नहीं करनी चाहिये। यदि उतावली की जाती है, तो आयु और धनका नाश होता है। इस पृथ्वीपर जम्बूद्वीपके अंदर जितने भी तीर्थ हैं, वे सब सदा वहीं निवास करते हैं, जहाँ श्रीविष्णुसहस्र

नामका पाठ होता है। जहाँ श्रीविष्णुसहस्रनामकी स्थिति होती है, वहीं गंगा, यमुना, कृष्णवेणी, गोदावरी, सरस्वती और समस्त तीर्थ निवास करते हैं। यह परम पवित्र स्तोत्र भक्तोंको सदा प्रिय है। भक्तिभावसे भावित चित्तके द्वारा सदा ही इस स्तोत्रका चिन्तन करना चाहिये। जो मनीषी पुरुष परम उत्तम श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त होकर श्रीहरिके समीप जाते हैं। जो लोग सूर्योदयके समय इसका पाठ और जप करते हैं, उनके बल, आयु और लक्ष्मीकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। एक-एक नामका उच्चारण करके श्रीहरिको तुलसीदल अर्पण करनेसे जो पूजा सम्पन्न होतीहै, उसे कोटि यज्ञोंकी अपेक्षा भी अधिक फल देनेवाली समझना चाहिये। पार्वती ! जो द्विज रास्ता चलते हुए भी श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करते हैं, उन्हें मार्गजनित दोषनहीं प्राप्त होते । जो लोग भगवान् केशवके इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे मनुष्योंमें श्रेष्ठ, पवित्र एवं पुण्यस्वरूप हैं।

अध्याय 178 गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा

श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं धर्मके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसका श्रवण करनेसे इस पृथ्वीपर फिर कभी जन्म नहीं होता। धर्मसे अर्थ, काम और मोक्ष- तीनोंकी प्राप्ति होती है; अतः जो धर्मके लिये चेष्टा करता है, वही विशेष रूपसे विद्वान् माना गया है। 1 जो कभी कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त नहीं होता, वह घरपर भी पाँचों इन्द्रियाँका संयमरूप तप कर सकता है। जिसकी आसक्ति दूर हो गयी है, उसके लिये घर भी तपोवनके ही समान है; अतः गृहस्थाश्रमको स्वधर्म बताया गया है। 2 गिरिराजकिशोरी। जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, उनके लिये इस गृहस्थ आश्रमको पार करना कठिन है; वे इस शुभ एवं श्रेष्ठतम आश्रमका विनाश कर डालते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने मनीषी पुरुषों के लिये गृहस्थ धर्मको बहुत उत्तम बताया है। साधु पुरुष वनमें तपस्या करके जब भूखसे पीड़ित होता है, तब सदा अन्नदाता गृहस्थके ही घर आता है। वह गृहस्थ जब भक्तिपूर्वक उस भूखे अतिथिको अन्न देता है तो उसकी तपस्यामें हिस्सा बँटा लेता है; अतः मनुष्य समस्त आश्रम में श्रेष्ठ इस गृहस्थाश्रमका सदा पालन करता है और इसीमें मानवोचित भोगका उपभोग करके अन्तमें स्वर्गको जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवि! सदा गृहस्थ धर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंके पास पाप कैसे आ सकता है।गृहस्थाश्रम परम पवित्र है। घर सदा तीर्थके समान पावन है। इस पवित्र गृहस्थाश्रममें रहकर विशेषरूपसे दान देना चाहिये। यहाँ देवताओंका पूजन होता है, अतिथियोंको भोजन दिया जाता है और [ थके-माँदै] राहगीरोंको ठहरनेका स्थान मिलता है; अतः गृहस्थाश्रम परम धन्य है । 3 ऐसे गृहस्थाश्रममें रहकर जो लोग ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, उन्हें आयु, धन और संतानकी कभी कमी नहीं होती।

शुभ समय आनेपर चन्द्रदेवकी पूजा करके नित्यनैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान करनेके पश्चात् अपनी शक्तिके अनुसार दान देना चाहिये। दानसे मनुष्य निस्सन्देह अपने पापका नाश कर डालता है। दानके प्रभावसे इस लोकमें अभीष्ट भोगोंका उपभोग करके मनुष्य सनातन श्रीविष्णुको प्राप्त होता है। जो अभक्ष्य भक्षणमें प्रवृत्त रहनेवाला, गर्भस्थ बालककी हत्या करनेवाला, गुरुपत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा झूठ बोलनेवाला है, ये सभी नीच योनियोंमें जन्म लेते हैं। जो यज्ञ करानेके योग्य नहीं है ऐसे मनुष्यसे जो यज्ञ कराता, लोकनिन्दित पुरुषसे याचना करता, सदा कोपसे युक्त रहता, साधुओंको पीड़ा देता, विश्वासघात करता, अपवित्र रहता और धर्मकी निन्दा करता है-इन पापोंसे युक्त होनेपर मनुष्यकी आयु शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा जानकर [पापका सर्वथा त्याग करके] विशेषरूपसे दान करना उचित है।

अध्याय 179 गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! अब मैं गण्डकी नदीके माहात्म्यका विधिपूर्वक वर्णन करूँगा। पार्वती ! गंगाका जैसा माहात्म्य है, वैसा ही गण्डकी नदीका भी बताया गया है। जहाँसे नाना प्रकारकी शालग्राम शिला प्रकट होती है, उस गण्डकी नदीकी महिमाका बड़े बड़े मुनियोंने वर्णन किया है। अण्डज, उद्भिज्ज, स्वेदज और जरायुज- सभी प्राणी उसके दर्शनमात्रसे पवित्र हो जाते हैं। महानदी गण्डकी उत्तरमें प्रकट हुई है। गिरिजे! वह स्मरण करनेपर निश्चय ही सब पापोंका नाश कर देती है। वहाँ कल्याण प्रदान करनेवाले भगवान् नारायण सदा विद्यमान रहते हैं, ऋषियोंका भी वहाँ निवास है तथा सम्पूर्ण देवता, रुद्र, नाग और यक्ष विशेषरूपसे वहाँ रहा करते हैं। उस स्थलपर भगवान्को अनेक रूपवाली और सुखदायिनी चौबीस अवतारोंकी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। एक मत्स्यरूप है, दूसरी कच्छपरूप; इसी प्रकार वाराह, मुसिंह और वामनकी भी कल्याणदायिनी मूर्तियाँ हैं। श्रीराम, परशुराम तथा श्रीकृष्णकी भी मोक्षदायिनी मूर्ति देखी जाती है। श्रीविष्णुनामसे प्रसिद्ध उस स्थलपर उपर्युक्त मूर्तियोंके सिवा बुद्धकी मूर्ति भी बतायी गयी है। कल्कि और महर्षि कपिलकी भी पुण्यमयी मूर्ति उपलब्ध होती है, इनके सिवा और भी भाँति-भाँतिके अकारवाली बहुत-सी मूर्तियाँ देखी जाती हैं। उन सबके अनेक रूप हैं और उनकी संख्या भी बहुत वह गण्डकी नामको गंगा परम पुण्यमयी तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस भूमिपर आज भी मेरे साथ भगवान् हृषीकेश नियमपूर्वक निवास करते हैं, उसके जलका स्पर्श करनेमात्रसे मनुष्य भ्रूणहत्या, बालहत्या और गोहत्या आदि समस्त पापसे मुक्त हो जाता है।

गण्डकी नदीके जलका दर्शन करनेसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके मनुष्य-सभी निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं; विशेषतः पापियोंके लिये तो यह शिके समान पुण्यमयी है। जहाँ ब्रह्महत्या की भी मुक्ति हो जाती है, वहाँ औरोंके लिये क्या कहना है?पार्वती! मैं सदा हर समय वहाँ जाता रहता हूँ; वह तीर्थोंमें तीर्थराज है- यह बात ब्रह्माजीने कही थी। मुनियोंने वहाँ स्नान और दानका विधान किया है। भगवान् विष्णुद्वारा पूर्वकालमें निर्मित हुआ वह क्षेत्र महान् से महान् है। वह वैष्णव पुरुषोंको उत्तम गति प्रदान करनेवाला और परम पावन माना गया है। देवि! इस संसार में मनुष्यका जन्म सदा दुर्लभ है; उसमें भी गण्डकी नदीका तीर्थ और वहाँ भी श्रीविष्णुक्षेत्र अत्यन्त दुर्लभ है। अतः श्रेष्ठ द्विजोंको आषाढ़ मासमें वहाँकी यात्रा करनी चाहिये। वरानने। मैं बारंबार कहता हूँ कि गण्डकीके समान कोई तीर्थ, द्वादशीके तुल्य कोई व्रत और श्रीविष्णुसे भिन्न कोई देवता नहीं है। जो नरश्रेष्ठ गण्डकी नदीका माहात्म्य श्रवण करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुधामको जाते हैं।

महादेव उवाच

शृणु सुन्दरि वक्ष्यामि स्तोत्रं चाभ्युदयं ततः ।

यच्छ्रुत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महा नात्र संशयः ॥ 1 ॥

धाता वै नारदं प्राह तदहं तु ब्रवीमि ते ।

तमुवाच ततो स्वयम्भूरमितद्युतिः ॥ 2 ॥

प्रगृह्य रुचिरं बाहुं स्मारये चौर्ध्वदेहिकम्। देवः

महादेवजी कहते हैं— सुन्दरी! सुनो, अब मैं अभ्युदयकारी स्तोत्रका वर्णन करूँगा, जिसे सुनकर ब्रह्महत्यारा भी निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। ब्रह्माजीने देवर्षि नारदसे इस स्तोत्रका वर्णन किया था, वही मैं तुम्हें बताता हूँ। [पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब रावणका वध कर चुके, उस समय समस्त देवता उनकी स्तुति करनेके लिये आये। उसी अवसरपर ] अमिततेजस्वी भगवान् ब्रह्माने श्रीरघुनाथजीकी सुन्दर बाँह हाथमें लेकर जो उनकी स्तुति की थी, वह ‘और्ध्वदैहिक स्तोत्र’ के नामसे प्रसिद्ध है। आज मैं उसीको स्मरण करके तुमसे कहता हूँ।

भवान्नारायणः श्रीमान् देवश्चक्रायुधो हरिः ॥ 3 ॥

शार्ङ्गधारी हृषीकेशः पुराणपुरुषोत्तमः ।

अजितः खङ्गभिज्जिष्णुः कृष्णश्चैव सनातनः ॥ 4 ॥

एकशृङ्गो वराहस्त्वं भूतभव्यभवात्मकः ।

अक्षरं ब्रह्म सत्यं तु आदौ चान्ते च राघव ॥ 5 ॥

लोकानां त्वं परो धर्मो विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः

सेनानी रक्षणस्त्वं च वैकुण्ठस्त्वं जगत्प्रभो ॥ 6 ॥

श्रीब्रह्माजी बोले- श्रीरघुनन्दन! आप समस्त जीवके आश्रयभूत नारायण, लक्ष्मीसे युक्त, स्वयंप्रकाश एवं सुदर्शन नामक चक्र धारण करनेवाले श्रीहरि हैं। शार्ङ्ग नामक धनुषको धारण करनेवाले भी आप ही उ हैं। आप ही इन्द्रियोंके स्वामी एवं पुराणप्रतिपादित पुरुषोत्तम हैं। आप कभी किसीसे भी परास्त नहीं होते। शत्रुओंकी तलवारोंको ट्रक-टूक करनेवाले, 3 विजयी और सदा एकरस रहनेवाले-सनातन देवता सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण भी आप ही हैं। आप एक दाँतवाले भगवान् वराह हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल आपके ही रूप हैं। श्रीरघुनन्दन! इस विश्वके आदि, मध्य और अन्तमें जो सत्यस्वरूप अविनाशी परब्रह्म स्थित है, वह आप ही हैं। आप ही लोकोंके परम धर्म हैं। आपको युद्धके लिये तैयार होते देख दैत्योंकी सेना चारों ओर भाग खड़ी होती है, इसीलिये आप विष्वक्सेन कहलाते हैं। आप ही

चार भुजा धारण करनेवाले श्रीविष्णु हैं।

प्रभवश्चाव्ययस्त्वं च उपेन्द्रो मधुसूदनः ।

पृश्निगर्भो धृतार्चिस्त्वं पद्मनाभो रणान्तकृत् ॥ 7 ॥

शरण्यं शरणं च त्वामाहुः सेन्द्रा महर्षयः ।

ऋक्साम श्रेष्ठो वेदात्मा शतजिहो महर्षभः ॥ 8 ॥

त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कारस्त्वमकारः परन्तपः ।

शतधन्वा वसुः पूर्वं वसूनां त्वं प्रजापतिः ॥ 9 ॥



आप सबकी उत्पत्तिके स्थान और अविकारी हैं। इन्द्रके छोटे भाई वामन एवं मधु दैत्यके प्राणहन्ता श्रीविष्णु भी आप ही हैं। आप अदिति या देवकीके गर्भमें अवतीर्ण होनेके कारण पृश्निगर्भ कहलाते हैं। आपने महान् तेज धारण कर रखा है। आपकी ही नाभिसे विराट् विश्वकी उत्पत्तिका कारणभूत कमल प्रकट हुआ था। आप शान्तस्वरूप होनेके कारण युद्धका अन्त करनेवाले है। इन्द्र आदि देवता तथा सम्पूर्ण महर्षिगण आपको ही सबका आश्रय शरणदाता कहते हैं।ऋग्वेद और सामवेदमें आप ही सबसे श्रेष्ठ बताये गये हैं। आप सैकड़ों विधिवाक्यरूप जिाओंसे युक्त वेदस्वरूप महान् वृषभ हैं। आप ही यज्ञ आप ही वषट्कार और आप ही ॐकार हैं। आप शत्रुओंको ताप देनेवाले तथा सैकड़ों धनुष धारण करनेवाले हैं। आप ही वसु, वसुओंके भी पूर्ववर्ती एवं प्रजापति हैं।

त्रयाणामपि लोकानामादिकर्ता स्वयंप्रभुः ।

रुद्राणामष्टमो रुद्रः साध्यानामपि पञ्चमः ll 10 ll

अश्विनौ चापि कर्णी ते सूर्यचन्द्रौ च चक्षुषी।

अन्ते चादौ च मध्ये च दृश्यसे त्वं परन्तप ॥ 11 ॥

प्रभवो निधनं चासि न विदुः को भवानिति

दृश्यसे सर्वलोकेषु गोषु च ब्राह्मणेषु च ॥ 12 ॥

दिक्षु सर्वासु गगने पर्वतेषु गुहासु च।

सहस्त्रनयनः श्रीमायतशीर्षः सहस्त्रपात् ॥ 13 ll

आप तीनों लोकोंके आदिकर्ता और स्वयं ही अपने प्रभु (परम स्वतन्त्र) हैं। आप रुद्रोंमें आठवें रुद्र और साध्योंमें पाँचवें साध्य हैं। दोनों अश्विनीकुमार आपके कान तथा सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं। परंतप ! आप ही आदि, मध्य और अन्तमें दृष्टिगोचर होते हैं। सबकी उत्पत्ति और लयके स्थान भी आप ही हैं। आप कौन हैं—इस बातको ठीक ठीक कोई भी नहीं जानते। सम्पूर्ण लोकोंमें, गौओंमें और ब्राह्मणोंमें आप ही दिखायी देते हैं तथा समस्त दिशाओंमें, आकाशमै पर्वतों और गुफाओंमें भी आपकी ही सत्ता है आप शोभासे सम्पन्न हैं। आपके सहस्रों नेत्र, सैकड़ों मस्तक और सहस्रों चरण हैं।

त्वं धारयसि भूतानि वसुधां च सपर्वताम् ।

अन्तःपृथिव्यां सलिले दृश्यसे त्वं महोरगः ॥14 ll

त्रीँल्लोकान्धारयन् राम देवगन्धर्वदानवान्।

आप सम्पूर्ण प्राणियोंको तथा पर्वतोंसहित पृथ्वीको भी धारण करते हैं। पृथ्वीके भीतर पाताललोकमें और क्षीरसागरके जलमें आप ही महान् सर्प शेषनागके रूपमें दृष्टिगोचर होते हैं राम आप उस स्वरूपसे देवता गन्धर्व और दानवोंके सहित तीनों लोकोंको धारण करते हैं।

अहं ते हृदयं राम जिल्हा देवी सरस्वती ।। 15 ।।

देवा रोमाणि गात्रेषु निर्मितास्ते स्वमायया ।

निमेषस्ते स्मृता रात्रिरुन्मेषो दिवसस्तथा ।। 16 ।।

श्रीराम ! मैं (ब्रह्मा) आपका हृदय हूँ, सरस्वती देवी जिह्वा हैं तथा आपके द्वारा अपनी मायासे उत्पन्न किये हुए देवता आपके अंगोंमें रोम हैं। आपका आँख दना रात्रि और आँख खोलना दिन है।

संस्कारस्तेऽभवद्देहो नैतदस्ति विना त्वया ।

जगत्सर्व शरीरं ते स्थैर्य च वसुधातलम् ॥ 17 ॥

अग्निः कोपः प्रसादस्ते शेषः श्रीमांश्च लक्ष्मणः ।

शरीर और संस्कारकी उत्पत्ति आपसे ही हुई। है। आपके बिना इस जगत्को स्थिति नहीं है सम्पूर्ण विश्व आपका शरीर है, पृथ्वी आपकी स्थिरता है, अग्नि आपका कोप है और शेषावतार श्रीमान् लक्ष्मण आपके प्रसाद हैं।

त्वया लोकास्वयः क्रान्ताः पुरा स्वैर्विक्रमैस्त्रिभिः ।। 18 ।।

त्वयेन्द्रश्च कृतो राजा बलिर्बद्धो महासुरः ।

लोकान् संहृत्य कालस्त्वं निवेश्यात्मनि केवलम् ॥ 19 ॥

करोष्येकार्णवं घोरं दृश्यादृश्ये च नान्यथा ।

पूर्वकालमें वामनरूप धारण कर आपने अपने तीन पगोंसे तीनों लोक नाप लिये थे तथा महान् असुर बलिको बाँधकर इन्द्रको स्वर्गका राजा बनाया था। आप ही कालरूपसे समस्त लोकोंका संहार करके अपने भीतर लीनकर सब ओर केवल भयंकर एकार्णवका दृश्य उपस्थित करते हैं। उस समय दृश्य और अदृश्यमें कुछ भेद नहीं रह जाता।

त्वया सिंहवपुः कृत्वा परमं दिव्यमद्भुतम् ॥ 20 ॥

भवदः सर्वभूतानां हिरण्यकशिपुर्हतः।

आपने नृसिंहावतारके समय परम अद्भुत एवं दिव्य सिंहका शरीर धारण करके समस्त प्राणियोंको भय देनेवाले हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध किया था।

त्वमश्ववदनो भूत्वा पातालतलमाश्रितः ॥ 21 ॥

संहतं परमं दिव्यं रहस्यं वै पुनः पुनः ।

आपने ही हयग्रीव अवतार धारण करके पातालके भीतर प्रवेशकर दैत्योंद्वारा अपहरण किये हुए वेदोंके परम रहस्य और यज्ञ-यागादिके प्रकरणोंको पुनः प्राप्त किया।यत्परं श्रूयते ज्योतिर्यत्परं श्रूयते परम् ॥ 22 ॥ यत्परं परतश्चैव परमात्मेति कथ्यते परो मन्त्रः परं तेजस्त्वमेव हि निगद्यसे ।। 23 ।। जो परम ज्योतिःस्वरूप तत्त्व सुना जाता है, जो परम उत्कृष्ट परब्रह्मके नामसे श्रवणगोचर होता है, जिसे परात्पर परमात्मा कहा जाता है तथा जो परम मन्त्र और परम तेज है, उसके रूपमें आपके ही स्वरूपका प्रतिपादन किया जाता है।

हव्यं कव्यं पवित्रं च प्राप्तिः स्वर्गापवर्गयोः ।I

स्थित्युत्पत्तिविनाशांस्ते त्वामाहुः प्रकृतेः परम् ॥ 24 ॥

यज्ञश्च यजमानश्च होता चाध्वर्युरेव च ।

भोक्ता यज्ञफलानां च त्वं वै वेदैश्च गीयसे ॥ 25 ॥

हव्य (यज्ञ), कव्य (श्राद्ध), पवित्र, स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति, संसारकी उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार- ये सब आपके ही कार्य हैं। ज्ञानी पुरुष आपको प्रकृतिसे पर बतलाते हैं। वेदोंके द्वारा आप ही यज्ञ, यजमान, होता, अध्वर्यु तथा यज्ञफलोंके भोक्ता कहे जाते हैं।

सीता लक्ष्मीर्भवान् विष्णुर्देवः कृष्णः प्रजापतिः ।

वधार्थं रावणस्य त्वं प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ॥ 26 ॥

सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं और आप स्वयंप्रकाश विष्णु, कृष्ण एवं प्रजापति हैं। आपने रावणका वध करनेके लिये ही मानव शरीरमें प्रवेश किया है।

तदिदं च त्वया कार्य कृतं कर्मभृतां वर ।

निहतो रावणो राम प्रहृष्टा देवताः कृताः ॥ 27 ॥

कर्म करनेवालोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी आपने हमारा यह कार्य पूरा कर दिया। रावण मारा गया, इससे सम्पूर्ण देवताओंको आपने बहुत प्रसन्न कर दिया है।

अमोघं देव वीर्यं ते नमोऽमोघपराक्रम ।

अमोघं दर्शनं राम अमोघस्तव संस्तवः ॥ 28 ॥

देव! आपका बल अमोघ है। अचूक पराक्रम कर दिखानेवाले श्रीराम! आपको नमस्कार है। राम! आपके दर्शन और स्तवन भी अमोध हैं।

अमोघास्ते भविष्यन्ति भक्तिमन्तो नरा भुवि ।

ये च त्वां देव भक्ताः पुराणं पुरुषोत्तमम् ॥ 29 ll

देव जो मनुष्य इस पृथ्वीपर आप पुराणपुरुषोत्तमका भलीभाँति भजन करते हुए निरन्तर आपके चरणोंमें भक्ति रखेंगे, वे जीवनमें कभी

असफल न होंगे। इममार्ष स्तवं पुण्यमितिहासं पुरातनम् ।

ये नराः कीर्तयिष्यन्ति नास्ति तेषां पराभवः ॥ 30 ॥

जो लोग परम ऋषि ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए इस पुरातन इतिहासरूप पुण्यमय स्तोत्रका पाठ करेंगे, उनका कभी पराभव नहीं होगा।

यह महात्मा श्रीरघुनाथजीका स्तोत्र है, जो सब स्तोत्रोंमें श्रेष्ठ है जो प्रतिदिन तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाता है। श्रेष्ठ द्विजोंको चाहिये कि वे संध्याके समय विशेषतः श्राद्धके अवसरपर भक्तिभावसे मन लगाकर प्रयत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करें। यह परम गोपनीय स्तोत्र है। इसे कहीं और कभी भी अनधिकारी व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। इसके पाठसे मनुष्य मोक्ष प्राप्त करलेता है। निश्चय ही उसे सनातन गति प्राप्त होती है। नरश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको श्राद्धमें पहले तथा पिण्ड- पूजाके बाद भी इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये; इससे अक्षय हो जाता है। यह परम पवित्र स्तोत्र मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। जो एकाग्र चित्तसे इस स्तोत्रको लिखकर अपने घरमें रखता है, उसकी आयु, सम्पत्ति तथा बलकी प्रतिदिन वृद्धि होती है। जो बुद्धिमान् पुरुष कभी इस स्तोत्रको लिखकर ब्राह्मणको देता है, उसके पूर्वज मुक्त होकर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं। चारों वेदोंका पाठ करनेसे जो फल होता है, वहीं फल मनुष्य इस स्तोत्रका पाठ और जप करके पा लेता है। अतः भक्तिमान् पुरुषको यत्नपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इसके पढ़नेसे मनुष्य सब कुछ पाता है और सुखपूर्वक रहकर उत्तरोत्तर उन्नतिको प्राप्त होता है।

अध्याय 180 ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा

महादेवजी कहते हैं- पार्वती। एक समयकी बात है, मैंने जगत्के स्वामी भगवान् श्रीविष्णुसे पूछा था— भगवन् ! सब व्रतोंमें उत्तम व्रत कौन है, जो पुत्र पौकी वृद्धि करनेवाला और सुख-सौभाग्यको देनेवाला हो ? उस समय उन्होंने जो कुछ उत्तर दिया, वह सब मैं तुम्हें कहता हूँ सुनो।

श्रीविष्णु बोले- महा शिव पूर्वकालमें देवशर्मा नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे और सदा स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे। प्रतिदिन अग्निहोत्र करते तथा सदा अध्ययन-अध्यापन, यजनयाजन एवं दानप्रतिग्रहरूप छः कर्मोंमें प्रवृत्त रहते थे। सभी वर्णोंके लोगोंमें उनका बड़ा मान था। वे पुत्र, पशु और बन्धु बान्धव – सबसे सम्पन्न थे। ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ देवशर्माकी गृहिणीका नाम भग्ना था। वे भादोंके शुक्लपक्षमें पंचमी तिथि आनेपर तपस्या(व्रत-पालन)-के द्वारा इन्द्रियोंको वशमें रखते हुए पिताका एकोद्दिष्ट श्राद्ध किया करते थे। पहले दिन रात्रिमें सुख और सौभाग्य प्रदान करनेवाले ब्राह्मणोंको निमन्त्रण देते और निर्मल प्रभातकाल आनेपर दूसरे दूसरे नये बर्तन मँगाते तथा उन सभी बर्तनोंमें अपनी स्त्रीके द्वारा पाक तैयार कराते थे। वह पाक अठारह रसोंसे युक्त एवं पितरोंको संतोष प्रदान करनेवाला होता था। पाक तैयार होनेपर वे पृथक्-पृथक् ब्राह्मणोंको बुलावा भेजकर बुलवाते थे।

एक बार उक्त समयपर निमन्त्रण पाकर समस्त वेदपाठी ब्राह्मण दोपहरीमें देवशर्माके घर उपस्थित हुए। विप्रवर देवशर्माने अर्घ्य पाद्यादि निवेदन करके विधिपूर्वक उनका स्वागत-सत्कार किया। फिर घरके भीतर जानेपर सबको बैठनेके लिये आसन दिया और विशेषतः मिष्टान्नके साथ उत्तम अन्न उन्हें भोजन करनेकेलिये परोसा; साथ ही विधिपूर्वक पिण्डदानकी पूर्ति करनेवाला श्राद्ध भी किया। इसके बाद पिताका चिन्तन करते हुए उन्होंने उन ब्राह्मणोंको नाना प्रकारके वस्त्र, दक्षिणा और ताम्बूल निवेदन किये। फिर उन सबको विदा किया। वे सभी ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले गये। तत्पश्चात् अपने सगोती, बन्धु-बान्धव तथा और भी जो लोग भूखे थे, उन सबको ब्राह्मणने विधिपूर्वक भोजन दिया। इस प्रकार श्राद्धका कार्य समाप्त होनेपर ब्राह्मण जब कुटीके दरवाजेपर बैठे, उस समय उनके घरकी कुतिया और बैल दोनों परस्पर कुछ बातचीत करने लगे। देवि! बुद्धिमान् ब्राह्मणने उन दोनोंकी बातें सुनीं और समझी। फिर मन-ही-मन वे इस प्रकार सोचने लगे- ‘ये साक्षात् मेरे पिता हैं, जो मेरे ही घरके पशु हुए हैं तथा यह भी साक्षात् मेरी माता है, जो दैवयोगसे कुतिया हो गयी है। अब मैं इनके उद्धारके लिये निश्चितरूपसे क्या करूँ?’ इसी विचारमें पड़े-पड़े ब्राह्मणको रातभर नींद नहीं आयी। वे भगवान् विश्वेश्वरका स्मरण करते रहे। प्रातः काल होनेपर वे ऋषियोंके समीप गये। वहाँ वसिष्ठजीने उनका भलीभाँति स्वागत किया। वसिष्ठजी बोले- ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने आनेका कारण बताओ।

ब्राह्मण बोले -मुनिवर ! आज मेरा जन्म सफल हुआ तथा आज मेरी सम्पूर्ण क्रियाएँ सफल हो गय; क्योंकि इस समय मुझे आपका दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ है। अब मेरा समाचार सुनिये। आज मैंने शास्त्रोक्त विधिसे श्राद्ध किया, ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा समस्त कुटुम्बके लोगोंको भी भोजन दिया है। सबके भोजनके पश्चात् एक कुतिया आयी और मेरे घरमें जहाँ एक बैल रहता है, वहाँ जा उसे पतिरूपसे सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगी- ‘स्वामिन्! आज जो घटना घटी है, उसे सुन लीजिये इस घरमें जो दूधका बर्तन रखा हुआ था, उसे साँपने अपना जहर उगकर दूषित कर दिया। यह मैंने अपनी आँखों देखा था। देखकर मेरे मनमें बड़ी चिन्ता हुई। सोचने लगी- इस दूधसे जब भोजन तैयार होगा, उस समय सब ब्राह्मणइसको खाते ही मर जायेंगे। यों विचारकर मैं स्वयं उस दूधको पीने लगी। इतनेमें बहूकी दृष्टि मुझपर पड़ गयी। उसने मुझे खूब मारा। मेरा अंग-भंग हो गया है। इसीसे मैं लड़खड़ाती हुई चल रही हूँ। क्या करूँ, बहुत दुःखी हूँ।’

कुतियाके दुःखका अनुभव करके बैलने भी उससे कहा- अब मैं अपने दुःखका कारण बताता हूँ, सुनो मैं पूर्वजन्ममें इस ब्राह्मणका साक्षात् पिता था। आज इसने ब्राह्मणोंको भोजन कराया और प्रचुर अन्नका दान किया है; किन्तु मेरे आगे इसने घास और जलतक नहीं रखा। इसी दुःखसे मुझे आज बहुत कष्ट हुआ है।’ उन दोनोंका यह कथानक सुनकर मुझे रातभर नींद नहीं आयी। मुनिश्रेष्ठ मुझे तभी से बड़ी चिन्ता हो रही है। मैं वेदका स्वाध्याय करनेवाला हैं, वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानमें कुशल हूँ फिर भी मेरे माता और पिताको महान् दुःख सहन करना पड़ रहा है। इसके लिये मैं क्या करूँ ? यही सोचता विचारता आपके पास आया हूँ। आप ही मेरा कष्ट दूर कीजिये।

ऋषि बोले- ब्रह्मन् ! उन दोनोंने पूर्वजन्ममें जो कर्म किया है, उसे सुनो-ये तुम्हारे पिता परम सुन्दर कुण्डिननगर में श्रेष्ठ ब्राह्मण रहे हैं। एक समय भार्दोके महीने में पंचमी तिथि आयी थी, तुम्हारे पिता अपने पिताके श्राद्ध आदिमें लगे थे, इसलिये उन्हें पंचमीके व्रतका ध्यान न रहा। उनके पिताकी क्षयाह तिथि थी । उस दिन तुम्हारी माता रजस्वला हो गयी थी, तो भी उसने ब्राह्मणोंके लिये सारा भोजन स्वयं ही तैयार किया। रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डाली, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिनके समान अपवित्र बतायी गयी है; चौथे दिन स्नानके बाद उसकी शुद्धि होती है। तुम्हारी माताने इसका विचार नहीं किया, अतः उसी पापसे उसको अपने ही घरकी कुतिया होना पड़ा है तथा तुम्हारे पिता भी इसी कर्मसे बैल हुए हैं। ब्राह्मणने कहा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुने! मुझे कोई ऐसा व्रत, दान, यज्ञ और तीर्थ बतलाइये, जिसके सेवनसे मेरे माता-पिताको मुक्ति हो जाय।ऋषि बोले- भादोंके शुक्लपक्षमें जो पंचमी आती है, उसका नाम ऋषिपंचमी है। उस दिन नदी, कुएँ, पोखरे अथवा ब्राह्मणके घरपर जाकर स्नान करे। फिर अपने घर आकर गोबरसे लीपकर मण्डल बनाये; उसमें कलशकी स्थापना करे। कलशके ऊपर एक पात्र रखकर उसे तिन्नीके चावलसे भर दे। उस पात्रमें यज्ञोपवीत, सुवर्ण तथा फलके साथ ही सुख और सौभाग्य देनेवाले सात ऋषियोंकी स्थापना करे। ‘ऋषिपंचमी’ के व्रतमें स्थित हुए पुरुषोंको उन सबका आवाहन करके पूजन करना चाहिये। तिन्नीके चावलका ही नैवेद्य लगाये और उसीका भोजन करे। केवल एक समय भोजन करके व्रत करना चाहिये। उस दिन परम भक्तिके साथ मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक ऋषियोंका पूजन करना उचित है। पूजनके ब्राह्मणको दक्षिणा और घीके साथ विधिपूर्वक भोजनसामग्रीका दान देना चाहिये तथा समस्त ऋषियोंकी प्रसन्नता ही इस दानका उद्देश्य होना समय चाहिये। फिर विधिपूर्वक माहात्म्य- कथा सुनकर ऋषियोंकी प्रदक्षिणा करे और सबको पृथक्-पृथक् धूप-दीप तथा नैवेद्य निवेदन करके अर्घ्य प्रदान करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

ऋषयः सन्तु मे नित्यं व्रतसंपूर्तिकारिणः ।

पूजां गृह्णन्तु मद्दत्तामृषिभ्योऽस्तु नमो नमः ॥

पुलस्त्यः पुलहश्चैव क्रतुः प्राचेतसस्तथा l

वसिष्ठमारिचात्रेया अर्घ्यं गृह्णन्तु वो नमः ॥

(78159-60)

‘ऋषिगण सदा मेरे व्रतको पूर्ण करनेवाले हों। वे मेरी दी हुई पूजा स्वीकार करें। सब ऋषियोंको मेरा नमस्कार है। पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्राचेतस, वसिष्ठ, मारीच और आत्रेय – ये मेरा अर्घ्य ग्रहण करें। आप सब ऋषियोंको मेरा प्रणाम है।’

इस प्रकार मनोरम धूप-दीप आदिके द्वारा ऋषियोंकी पूजा करनी चाहिये। इस व्रतके प्रभावसे पितरोंकी मुक्ति होती है। वत्स ! पूर्वकर्मके परिणामसे अथवा रजके संसर्गदोषसे जो कष्ट होता है, उससे इस व्रतका अनुष्ठान करनेपर नि:संदेह छुटकारा मिल जाता है।

महादेवजी कहते हैं—यह सुनकर देवशर्माने पिता-माताकी मुक्तिके लिये ‘ऋषिपंचमी’ व्रतका अनुष्ठान किया। उस व्रतके प्रभावसे वे दोनों पति-पत्नी पुत्रको आशीर्वाद देते हुए मुक्तिमार्गसे चले गये। ‘ऋषिपंचमी’ का यह पवित्र व्रत ब्राह्मणके लिये बताया गया, किन्तु जो नरश्रेष्ठ इसका अनुष्ठान करते हैं, वे सभी पुण्यके भागी होते हैं। जो श्रेष्ठ पुरुष इस परम उत्तम ऋषिव्रतका पालन करते हैं, वे इस लोकमें प्रचुर भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् श्रीविष्णुके सनातन लोकको प्राप्त होते हैं।

अध्याय 181 न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा

पार्वती बोलीं- भगवन् ! सभी प्राणी विष और रोग आदिके उपद्रवसे ग्रस्त तथा दुष्ट ग्रहोंसे हर समय पीड़ित रहते हैं। सुरश्रेष्ठ! जिस उपायका अवलम्बन करनेसे मनुष्योंको अभिचार (मारण उच्चाटन आदि) तथा कृत्या आदिसे उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकारके भयंकर रोगोंका शिकार न होना पड़े, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले- पार्वती। जिन लोगोंने व्रत उपवास और नियमोंके पालनद्वारा भगवान् विष्णुकोसंतुष्ट कर लिया है, वे कभी रोगसे पीड़ित नहीं होते। जिन्होंने कभी व्रत, पुण्य, दान, तप, तीर्थ सेवन, देव पूजन तथा अधिक मात्रामें अन्न-दान नहीं किया है, उन्हीं लोगोंको सदा रोग और दोषसे पीड़ित समझना चाहिये। मनुष्य अपने मनसे आरोग्य तथा उत्तम समृद्धि आदि जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, वह सब भगवान् विष्णुकी सेवासे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है । श्रीमधुसूदनके संतुष्ट हो जानेपर न कभी मानसिक चिन्ता सताती है, न रोग होता है, न विष तथा ग्रहोंके कष्टमेंबंधना पड़ता है और न कृत्याके ही स्पर्शका भय रहता है। श्रीजनार्दनके प्रसन्न होनेपर समस्त दोषका नाश हो जाता है। सभी ग्रह सदाके लिये शुभ हो जाते हैं तथा वह मनुष्य देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष बन जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति समानभाव रखता है और अपने प्रति जैसा बर्ताव चाहता है वैसा ही दूसरोंके प्रति भी करता है, उसने मानो उपवास आदि करके भगवान् मधुसूदनको संतुष्ट कर लिया। ऐसे लोगोंके पास शत्रु नहीं आते, उन्हें रोग या आभिचारिक कष्ट नहीं होता तथा उनके द्वारा कभी पापका कार्य भी नहीं बनता। जिसने भगवान् विष्णुकी उपासना की है, उसे भगवानके चक्र आदि अमोघ अस्त्र सदा सब आपत्तियोंसे बचाते रहते हैं।

पार्वती बोलीं- भगवन्! जो लोग भगवान् गोविन्दकी आराधना न करनेके कारण दुःख भोग रहे हैं, उन दुःखी मनुष्योंके प्रति सब प्राणियों में सनातन वासुदेवको स्थित देखनेवाले समदर्शी एवं दयालु पुरुषोंका जो कर्तव्य हो, वह मुझे विशेषरूपसे बताइये। महादेवजी बोले- देवेश्वरि बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। यह उपाय रोग, दोष एवं अशुभको हरनेवाला तथा शत्रुजनित आपत्तिका नाश करनेवाला है। विद्वान् पुरुष शिखामें श्रीधरका, शिखाके निचले भाग में भगवान् श्रीकरका, केशोंमें हृषीकेशका, मस्तकमें परम पुरुष नारायणका, कानके ऊपरी भागमें श्रीविष्णुका, ललाटमें जलशायीका, दोनों भौहोंमें श्रीविष्णुका, भौंहोंके मध्यभागमें श्रीहरिका, नासिकाकेअग्रभागमें नरसिंहका, दोनों कानोंमें अर्णवेशय (समुद्रमें शयन करनेवाले भगवान्) -का, दोनों नेत्रोंमें पुण्डरीकाक्षका, नेत्रोंके नीचे भूधर (धरणीधर) का, दोनों गालोंमें कल्किनाथका, कानोंके मूल भागमें वामनका, गलेकी दोनों हँसलियोंमें शंखधारीका, मुखमें गोविन्दका, दाँतोंकी पंक्ति में मुकुन्दका, जिह्वामें वाणीपतिका, ठोढ़ीमें श्रीरामका, कण्ठमें वैकुण्ठका, बाहुमूलके निचले भाग (काँख) में बलघ्न (बल नामक दैत्यके मारनेवाले) – का, कंधोंमें कंसघातीका, दोनों भुजाओंमें अज (जन्मरहित) – का, दोनों हाथोंमें शार्ङ्गपाणिका, हाथके अँगूठेमें संकर्षणका, अँगुलियोंमें गोपालका, वक्ष:स्थलमें अधोक्षजका, छातीके बीचमें श्रीवत्सका, दोनों स्तनोंमें अनिरुद्धका, उदरमें दामोदरका, नाभिमें पद्मनाभका, नाभिके नीचे केशवका, लिंगमें धराधरका, गुदामें गदाग्रजका, कटिमें पीताम्बरधारीका, दोनों जाँघोंमें मधुद्विट् (मधुसूदन) – का, पिंडलियोंमें मुरारिका, दोनों घुटनोंमें जनार्दनका, दोनों घुट्ठियोंमें फणीशका, दोनों पैरोंकी गतिमें त्रिविक्रमका, पैरके अँगूठेमें श्रीपतिका, पैरके तलवोंमें धरणीधरका, समस्त रोमकूपोंमें विष्वक्सेनका, शरीरके मांसमें मत्स्यावतारका, मेदेमें कूर्मावतारका, वसामें वाराहका, सम्पूर्ण हड्डियोंमें अच्युतका, मज्जामें द्विजप्रिय (ब्राह्मणोंके प्रेमी) का, शुक्र (वीर्य) में श्वेतपतिका, सर्वांगमें यज्ञपुरुषका तथा आत्मामें परमात्माका न्यास करे। इस प्रकार न्यास करके मनुष्य साक्षात् नारायण हो जाता है; वह जबतक मुँहसे कुछ बोलता नहीं, तबतक विष्णुरूपसे ही स्थित रहता है। *शान्ति करनेवाला पुरुष मूलसहित शुद्ध कुशको लेकर एकाग्रचित्त हो रोगीके सब अंगोंको झाड़े विशेषतः विष्णुभक्त पुरुष रोग, ग्रह और विषसे पीड़ित मनुष्यकी अथवा केवल विषसे ही कष्ट पानेवाले रोगियोंकी इस प्रकार शुभ शान्ति करे। पार्वती! कुशसे झाड़ते समय सब रोगोंका नाश करनेवाले इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये।

ॐ परमार्थस्वरूप, अन्तर्यामी, महात्मा, रूपहीन होते हुए भी अनेक रूपधारी तथा व्यापक परमात्माको नमस्कार है। वाराह, नरसिंह और सुखदायी वामन भगवान्का ध्यान एवं नमस्कार करके श्रीविष्णुके उपर्युक्त नामोंका अपने अंगोंमें न्यास करे। न्यासके पश्चात् इस प्रकार कहे- ‘मैं पापके स्पर्शसे रहित, शुद्ध, व्याधि और पापका और अपहरण करनेवाले गोविन्द, पद्मनाभ, वासुदेव और भूधर नामसे प्रसिद्ध भगवान्‌को नमस्कार करके जो कुछ कहूँ, वह मेरा सारा वचन सिद्ध हो। तीन पगोंसे त्रिलोकीको नापनेवाले भगवान् त्रिविक्रम, सबके हृदयमें रमण करनेवाले राम, वैकुण्ठधामके अधिपति, बदरिकाश्रममें तपस्या करनेवाले भगवान् नर, वाराह, नृसिंह, वामन और उज्ज्वल रूपधारी हयग्रीवको नमस्कार है। हृषीकेश! आप सारे अमंगलको हर लीजिये। सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान् वासुदेवको नमस्कार है। नन्दक नामक खड्ग धारण करनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्णको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले आदि चक्रधारी श्रीकेशवको नमस्कार है। कमल केसरके समान वर्णवाले भगवान्को नमस्कार है। पीले रंगके निर्मल वस्त्र धारण करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। अपनी एक दाड़पर समूची पृथ्वीको उठा लेनेवाले त्रिमूर्तिपतिभगवान् वाराहको नमस्कार है। जिसके नखका स्पर्श वज्रसे भी अधिक तीक्ष्ण और कठोर है, ऐसे दिव्य सिंहका रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह। आपको नमस्कार है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदसे लक्षित होनेवाले परमात्मन्! अत्यन्त लघु शरीरवाले कश्यपपुत्र वामनका रूप धारण करके भी समूची पृथ्वीको एक ही पगमें नाप लेनेवाले! आपको बारंबार नमस्कार है। बहुत बड़ी दाढ़वाले भगवान् वाराह ! सम्पूर्ण दुःखों और समस्त पापके फलोंको रौंद डालिये, रौंट डालिये। पापके फलको नष्ट कर डालिये, नष्ट कर डालिये। विकराल मुख और दाँतोंवाले, नखोंसे उद्दीप्त दिखायी देनेवाले, पीड़ाओंके नाशक भगवान् नृसिंह। आप अपनी गर्जनासे इस रोगीके दुःखोंका भंजन कीजिये, भंजन कीजिये। इच्छानुसार रूप ग्रहण करके पृथ्वी आदिको धारण करनेवाले भगवान् जनार्दन अपनी ऋक्, यजुः और साममयी वाणीद्वारा इस रोगीके सब दुःखोंकी शान्ति कर दें। एक, दो, तीन या चार दिनका अन्तर देकर आनेवाले हलके या भारी ज्वरको, सदा बने रहनेवाले ज्वरको, किसी दोषके कारण उत्पन्न हुए ज्वरको सन्निपातसे होनेवाले तथा आगन्तुक ज्वरको विदीर्ण कर उसकी वेदनाका नाश करके भगवान् गोविन्द उसे सदाके लिये शान्त कर दें। नेक कष्ट, मस्तकका कष्ट, उदररोगका कष्ट अनुच्छ्वास (साँसका रुकना), महाश्वास (साँसका तेज चलना-दमा), परिताप, (ज्वर), वेपथु (कम्प या जूड़ी), गुदारोग, नासिकारोग, पादरोग, कुष्ठरोग, क्षयरोग, कमला आदि रोग, प्रमेह आदि भयंकर रोग, बातरोग, मकड़ी और चेचक आदि समस्त रोग भगवान् विष्णुके चक्रकी चोट खाकर नष्ट हो जायें। अच्युत, अनन्त और गोविन्द नामोंके उच्चारणरूपौओषधिसे समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं-यह बात मैं सत्य-सत्य कहता हूँ। स्थावर, जंगम अथवा कृत्रिम विष हो या दाँत, नख, आकाश तथा भूत आदिसे प्रकट होनेवाला अत्यन्त दुस्सह विष हो; वह सारा का सारा श्रीजनार्दनका नाम-कीर्तन करनेपर इस रोगीके शरीरमें शान्त हो जाय। बालकके शरीरमें ग्रह, प्रेतग्रह अथवा अन्यान्य शाकिनी-ग्रहोंका उपद्रव हो या मुखपर चकत्ते निकल आये हों अथवा रेवती, वृद्ध रेवती तथा वृद्धिका नामके भयंकर ग्रह मातृग्रह एवं बालग्रह पीड़ा दे रहे हों; भगवान् श्रीविष्णुका चरित्र उन सबका नाश कर देता है। वृद्धों अथवा बालकोंपर जो कोई भी ग्रह लगे हों, वे श्रीनृसिंहके दर्शनमात्रसे तत्काल शान्त हो जाते हैं। भयानक दाढ़ोंके कारण विकराल मुखवाले भगवान् नृसिंह दैत्योंको भयभीत करनेवाले हैं। उन्हें देखकर सभी ग्रह बहुत दूर भाग जाते हैं। ज्वालाओंसे देदीप्यमान मुखवाले महासिंहरूपधारी नृसिंह! सुन्दर मुख और नेत्रोंवाले सर्वेश्वर! आप समस्त दुष्ट ग्रहोंको दूर कीजिये। जो-जो रोग, महान् उत्पात, विष, महान् ग्रह, क्रूरस्वभाववाले भूत, भयंकर ग्रह पीड़ाएँ, हथियारसे कटे हुए घावोंपर होनेवाले रोग, चेचक आदि फोड़े और शरीर के भीतर स्थित रहनेवाले ग्रह हाँ, उन सबको हे त्रिभुवनकी रक्षा करनेवाले ! दुष्ट दानवोंके विनाशक महातेजस्वी सुदर्शन! आप काट डालिये, काट डालिये महान् ज्वर, वातरोग, लूतारोग तथा भयानक महाविषको भी आप नष्ट कर दीजिये, नष्ट कर दीजिये। असाध्य अमरशूल विषकी ज्वाला और गर्दभ रोग-ये सब के-सब शत्रु हैं, ॐ ह्रां ह्रां हूं हूं’ इस बीजमन्त्रके साथ तीखी धारवाले कुठारसे आप इन शत्रुओंको मार डालें। दूसरोंका दुःख दूर करनेके लिये शरीर धारण करनेवाले परमेश्वर! आप भगवान्‌को नमस्कार है। इनके सिवा और भी जो प्राणियोंको पीड़ा देनेवाले दुष्ट ग्रह और रोग हों, उन सबको सबके आत्मा परमात्मा जनार्दन दूर करें। वासुदेव! आपको नमस्कार है। आप कोई रूप धारण करके ज्वालाओंके कारण अत्यन्त भयानक सुदर्शन नामक चक्र चलाकर सबदुष्टोंको नष्ट कर दीजिये। देववर! अच्युत! आप दुष्टोंका संहार कीजिये।

महाचक्र सुदर्शन! भगवान् गोविन्दके श्रेष्ठ आयुध । तीखी धार और महान् वेगवाले शस्त्र! कोटि सूर्यके समान तेज धारण करनेवाले महाज्वालामय सुदर्शन! भारी आवाजसे सबको भयभीत करनेवाले चक्र ! आप समस्त दुःखों और सम्पूर्ण राक्षसोंका उच्छेद कर डालिये, उच्छेद कर डालिये। हे सुदर्शनदेव! आप पापका नाश और आरोग्य प्रदान कीजिये। महात्मा नृसिंह अपनी गर्जनाओंसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर- सब ओर रक्षा करें। अनेक रूप धारण करनेवाले भगवान् जनार्दन भूमिपर और आकाशमें, पीछे-आगे तथा पार्श्वभागमें रक्षा करें। देवता, असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण विश्व श्रीविष्णुमय है। योगेश्वर श्रीविष्णु ही सब वेदोंमें गाये जाते हैं, इस सत्यके प्रभावसे इस रोगीका सारा दुःख दूर हो जाय। समस्त वेदांगोंमें भी परमात्मा श्रीविष्णुका ही गान किया जाता है। इस सत्यके प्रभावसे विश्वात्मा केशव इसको सुख देनेवाले हों भगवान् वासुदेवके शरीरसे प्रकट हुए कुशोंके द्वारा मैंने इस मनुष्यका मार्जन किया है। इससे शान्ति हो, कल्याण हो और इसके दुःखका नाश हो जाय। जिसने गोविन्दके अपामार्जनस्तोत्रसे मार्जन किया है, वह भी यद्यपि साक्षात् श्रीनारायणका ही स्वरूप है; तथापि सब दुःखोंकी शान्ति श्रीहरिके वचनसे ही होती है। श्रीमधुसूदनका स्मरण करनेपर सम्पूर्ण दोष, समस्त ग्रह सभी विष और सारे भूत शान्त हो जाते हैं। अब यह श्रीहरिके वचनानुसार पूर्ण स्वस्थ हो जाय। शान्ति हो, कल्याण हो और दुःख नष्ट हो जायें। भगवान् इषीकेशके नाम कीर्तनके प्रभावसे सदा ही इसके स्वास्थ्यकी रक्षा रहे। जो पाप जहाँसे इसके शरीरमें आये हों, वे वहीं चले जायें।

यह परम उत्तम ‘अपामार्जन’ नामक स्तोत्र प्राणियोंका कल्याण चाहनेवाले श्रीविष्णुभक्त पुरुषोंको रोग और पीड़ाओंके इसका प्रयोग करना चाहिये। इससे समस्त दुःखौका पूर्णतया नाश हो जाता है। यहसब पापकी शुद्धिका साधन है। श्रीविष्णुके ‘अपामार्जन स्तोत्र’ से आई शुष्क’ लघु-स्थूल (छोटे-बड़े) एवं ब्रह्महत्या आदि जितने भी पाप हैं, वे सब उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्यके दर्शनसे अन्धकार दूर हो जाता है। जिस प्रकार सिंहके भयसे छोटे मृग भागते हैं, उसी प्रकार इस स्तोत्रसे सारे रोग और दोष नष्ट हो जाते हैं इसके श्रवणमात्र से ही ग्रह, भूत और पिशाच आदिका नाश हो जाता है। लोभी पुरुष धन कमानेके लिये कभी इसका उपयोग न करें। अपामार्जन स्तोत्रका उपयोग करके किसीसे कुछ भी नहीं लेना चाहिये, इसीमें अपना हित है। आदि, मध्य और अन्तका ज्ञान रखनेवाले शान्तचित्त श्रीविष्णुभक्तोंको निःस्वार्थभावसे इस स्तोत्रका प्रयोग करना उचित है; अन्यथा यह सिद्धिदायक नहीं होता। भगवान् विष्णुका जो अपामार्जन नामक स्तोत्र है, यह मनुष्योंके लिये अनुपम सिद्धि है, रक्षाका परम साधन है और सर्वोत्तम औषधि है। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने अपने पुत्र पुलस्त्य मुनिको इसका उपदेश किया था फिर पुलस्त्य मुनिने दाल्भ्यको सुनाया। दाल्भ्यने समस्त प्राणियोंका हित करनेके लिये इसे लोकमें प्रकाशित किया; तबसे श्रीविष्णुका यह अपामार्जनस्तोत्र तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गया। यह सब प्रसंग भक्तिपूर्वक श्रवण करनेसे मनुष्य अपने रोग और दोषका नाश करता है।

‘अपामार्जन’ नामक स्तोत्र परम अद्भुत और दिव्य है। मनुष्यको चाहिये कि पुत्र काम और अर्थकी सिद्धिके लिये इसका विशेषरूपसे पाठ करे। जो द्विज एक या दो समय बराबर इसका पाठ करते हैं, उनकी आयु लक्ष्मी और बलकी दिन-दिन वृद्धि होती है ब्राह्मण विद्या, क्षत्रिय राज्य वैश्व धन-सम्पत्ति और शूद्र भक्ति प्राप्त करता है। दूसरे लोग भी इसके पाठ, श्रवणऔर जपसे भक्ति प्राप्त करते हैं। पार्वती! जो इसका पाठ करता है, उसे सामवेदका फल होता है; उसकी सारी पाप-राशि तत्काल नष्ट हो जाती है। देवि! ऐसा जानकर एकाग्रचित्तसे इस स्तोत्रका पाठ करना चाहिये। इससे पुत्रकी प्राप्ति होती है और घरमें निश्चय ही लक्ष्मी परिपूर्ण हो जाती हैं। जो वैष्णव इस स्तोत्रको भोजपत्र पर लिखकर सदा धारण किये रहता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। जो इसका एक-एक श्लोक पढ़कर भगवान्‌को तुलसीदल समर्पित करता है, वह तुलसीसे पूजन करनेपर सम्पूर्ण तीर्थोंके सेवनका फल पा लेता है। यह भगवान् विष्णुका स्तोत्र परम उत्तम और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। सम्पूर्ण पृथ्वीका दान करनेसे मनुष्य श्रीविष्णुलोकमें जाता है; किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हो, वह श्रीविष्णुलोककी प्राप्तिके लिये विशेषरूपसे इस स्तोत्रका जप करे। यह रोग और ग्रहोंसे पीड़ित बालकोंके दुःखकी शान्ति करनेवाला है। इसके पाठमात्रसे भूत, ग्रह और विष नष्ट हो जाते हैं। जो ब्राह्मण कण्ठमें तुलसीकी माला पहनकर इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे वैष्णव जानना चाहिये; वह निश्चय ही श्रीविष्णुधाममें जाता है। इस लोकका परित्याग करनेपर उसे श्रीविष्णुधामकी प्राप्ति होती है। जो मोह-मायासे दूर हो दम्भ और तृष्णाका त्याग करके इस दिव्य स्तोत्रका पाठ करता है, वह परम मोक्षको प्राप्त होता है। इस भूमण्डलमें जो ब्राह्मण भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे धन्य माने गये हैं; उन्होंने कुलसहित अपने आत्माका उद्धार कर लिया- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जिन्होंने भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण कर ली है, संसारमें वे परम धन्य हैं। उनकी सदा भक्ति करनी चाहिये, क्योंकि वे भागवत (भगवद्भक्त) पुरुष हैं।

अध्याय 182 श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा

श्रीपार्वती बोलीं- विश्वेश्वर! प्रभो। भगवान् श्रीविष्णुका माहात्म्य अद्भुत है, जिसे सुनकर फिर कभी संसार बन्धन नहीं प्राप्त होता आप पुनः उसका वर्णन कीजिये।

महादेवजीने का सुन्दरी! मैं भगवान् श्रीविष्णुके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, सुनो इसे सुनकर मनुष्य पुण्य प्राप्त करता है और अन्तमें उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ देवव्रत, जो इन्द्र आदि देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष थे, कुरुक्षेत्रकी पुण्यभूमिमें ध्यानयोगपरायण हो रहे थे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके आश्रय थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था। उनमें पापका लेश भी नहीं था। वे सत्यप्रतिज्ञ थे और क्रोधको जीतकर समतामें प्रतिष्ठित हो चुके थे। संसारके स्वामी और सबको शरण देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् नारायणमें मन, वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा वे परम निष्ठाको प्राप्त थे। ऐसे शान्तचित्त तथा समस्त गुणके आश्रयभूत कुरु पितामह भीष्मको पृथ्वीपर मस्तक झुकाकर राजा युधिष्ठिरने प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा।युधिष्ठिर बोले- समस्त शास्त्र-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, धर्मके ज्ञाता पितामह। कोई तो धर्मको सबसे श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई धनको कोई दानकी प्रशंसा करते हैं, तो कोई संग्रहके गीत गाते हैं। कुछ लोग सांख्यके समर्थक हैं, तो दूसरे लोग योगके। कोई यथार्थ ज्ञानको उत्तम मानते हैं, तो कोई वैराग्यको कुछ लोग अग्निष्टोम आदि कर्मको ही सबसे श्रेष्ठ समझते हैं, तो कुछ लोग उस आत्मज्ञानको बड़ा मानते हैं, जिसे पाकर मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णमें समबुद्धि हो जाती है। कुछ लोगोंके मतमें मनीषी पुरुषोंद्वारा बताये हुए यम और नियम ही सबसे उत्तम हैं। कुछ लोग दयाको श्रेष्ठ बताते हैं, तो कुछ तपस्वी महात्मा अहिंसाको ही सर्वोत्तम कहते हैं। कुछ मनुष्य शौचाचारको श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो कुछ देवार्चनको। इस विषय में पाप कर्मोंसे मोहित चित्तवाले मानव चक्कर खा जाते हैं-वे कुछ निर्णय नहीं कर पाते। इन सबमें जो सर्वोत्तम कृत्य हो, जिसका महात्मा पुरुष भी अनुष्ठान कर सकें, उसे बतानेकी कृपा कीजिये।


भीष्मजी बोले- धर्मनन्दन! सुनो, यह अत्यन्त गूढ़ विषय है, जो संसारबन्धनसे मोक्ष दिलानेवाला है। यह विषय तुम्हें भलीभाँति सुनना और जानना चाहिये। पुण्डरीक नामके एक परम बुद्धिमान् और वेदविद्यासे सम्पन्न ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करते हुए सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन रहा करते थे। वे जितेन्द्रिय, क्रोधजयी, संध्योपासनमें तत्पर, वेद वेदांगोंके ज्ञानमें निपुण और शास्त्रोंकी व्याख्या करनेमें कुशल थे। प्रतिदिन सायंकाल और प्रात: काल समिधाओंसे अग्निको प्रज्वलित करके उत्तम हविष्यसे होम किया करते थे। जगत्पति भगवान् विष्णुका ध्यान करके विधिपूर्वक उनकी आराधनामें लगे रहते थे। तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर वे साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्रकी भाँति जान पड़ते थे। जल, समिधा और फूल आदि लाकर निरन्तर गुरुकी पूजामें प्रवृत्त रहते थे। उनके मनमें माता-पिताके प्रति भी पूर्ण सेवाका भाव था। वे भिक्षाका आहार करते और दम्भ-द्वेपसे दूर रहतेथे। ब्रह्मविद्या (उपनिषद्)- ) का स्वाध्याय करते और प्राणायामके अभ्यासमें संलग्न रहते थे। उनके हृदयमें सबके प्रति आत्मभाव था। संसारकी ओरसे वे निःस्पृह हो गये थे। एक बार उनके मनमें संसार सागरसे तारनेवाला विचार उत्पन्न हुआ; फिर तो वे । माता-पिता, भाई, सुहृद्, मित्र, सखा, सम्बन्धी, बन्धु बान्धव, वंशपरम्परासे प्राप्त एवं धन-धान्यसे परिपूर्ण गृह, सब प्रकारके अन्नकी पैदावारके योग्य बहुमूल्य खेत तथा उनकी तृष्णा छोड़कर महान् धैर्यसे सम्पन्न और परम सुखी होकर पैदल ही पृथ्वीपर विचरने लगे। ‘यह यौवन, रूप, आयु और धनका संग्रह सब अनित्य है’- याँ विचारकर उनका मन तीनों लोकोंकी ओरसे फिर गया। पाण्डुनन्दन ! महायोगी पुण्डरीक पुराणोक्त मार्गसे यथासमय समस्त तीर्थोंमें विधिपूर्वक विचरने लगे।

एक समय धीर तपस्वी महाभाग पुण्डरीक अपने पूर्वकर्मकि अधीन हो घूमते-घामते शालग्रामतीर्थमे जा पहुँचे, जो उपस्थाके धनी एवं तत्यवेता मुनियोंके द्वारा सेवित था। उस परम पुण्यमय क्षेत्रमें सरस्वती नदीके देवहद नामक तीर्थमें स्नान करके उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महाबुद्धिमान् ब्राह्मण वहाँके जातिस्मरी, चक्रकुण्ड, चक्र नदीसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य कुण्ड तथा अन्यान्य तीर्थोंमें भी घूमने लगे। तीर्थसेवनसे उनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो चुका था, अतः उन्होंने ध्यानयोगमें प्रवृत्त होकर वहीं अपना आश्रम बना लिया। उसी तीर्थमें शास्त्रोक्त विधि तथा परम भक्तिके साथ भगवान् गरुडध्वजकी आराधना करके वे सिद्धि पाना चाहते थे; इसलिये शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित एवं जितेन्द्रिय हो दीर्घ कालतक अकेले ही वहाँ निवास करते रहे। शाक, मूल और फल यही उनका भोजन था। वे सदा संतुष्ट रहते और सबमें समान दृष्टि रखते थे । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा आलस्यरहित हो सदा विधिपूर्वक योगाभ्यास करते थे। उनके सारे पाप दूर हो चुके थे; वे वैदिक, तान्त्रिक तथा पौराणिक मन्त्रोंसे सर्वेश्वर भगवान् विष्णुको आराधना करते थे अतःउन्होंने भलीभाँति शुद्धि प्राप्त कर ली थी। राग-द्वेषसे मुक्त हो मूर्तिवान् स्वधर्मको भाँत चित्रावृत्तियोंको भगवान् लगाकर वे निरन्तर उनकी आराधनामें संलग्न रहते थे।

तदनन्तर किसी समय परमार्थ-तत्त्वके ज्ञाता साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, विष्णुभक्तिसे परिपूर्ण हृदयवाले तथा वैष्णवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले देवर्षि नारदजी तपोनिधि पुण्डरीकको देखनेके लिये उस स्थानपर आये। नारदजीको आया देख पुण्डरीक प्रसन्न चित्तसे उठे और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् विधिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करके उन्होंने पुनः नारदजीको मस्तक झुकाया। फिर मन ही मन विचार किया ये अद्भुत आकार और मनोहर वेष धारण करनेवाले तेजस्वी पुरुष कौन हैं। इनके हाथमें वीणा है तथा मुखपर प्रसन्नता छा रही है। यह सोचते हुए वे उन परम तेजस्वी नारदजीसे बोले ‘महाद्युते! आप कौन हैं? और कहाँसे इस आश्रमपर पधारे हैं? भगवन्! इस पृथ्वीपर आपका दर्शन तो प्रायः दुर्लभ ही है। मेरे लिये जो आज्ञा हो, उसे बताने की कृपा कीजिये।’

नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! मैं नारद हूँ। तुम्हेंदेखनेकी उत्कण्ठासे यहाँ आया हूँ। द्विजश्रेष्ठ! भगवान्‌का भक्त यदि चाण्डाल हो तो भी वह स्मरण, वार्तालाप अथवा पूजन करनेपर सबको पवित्र कर देता है।” जो अपने हाथोंमें शार्ङ्ग नामक धनुष, पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा धारण करते हैं तथा जो त्रिभुवनके नेत्र हैं, उन देवाधिदेव भगवान्का मैं दास हूँ।

पुण्डरीक बोले- देवर्षे ! आपका दर्शन पाकर देहधारियोंमें धन्य हो गया, देवताओंके लिये भी परम पूजनीय बन गया। मेरे माता-पिता कृतार्थ हो गये और आज मैंने जन्म लेनेका फल पा लिया। नारदजी ! मैं आपका भक्त हूँ, मुझपर अनुग्रह कीजिये। मुझे परम गुढ़ रहस्यसे भरे हुए कर्तव्यका उपदेश दीजिये।

नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर अनेक शास्त्र, बहुत-से कर्म और नाना प्रकारके धर्म हैं; इसीलिये संसारमें ऐसी विलक्षणता दिखायी देती है। अन्यथा सभी प्राणियोंको या तो केवल सुख ही सुख प्राप्त होता या केवल दुःख ही दुःख। [कोई सुखी और कोई दुःखी-ऐसा अन्तर देखनेमें नहीं आता ।] कुछ लोगोंके मतमें यह जगत् क्षणिक, विज्ञानमात्र, चेतन आत्मासे रहित तथा बाह्य पदार्थों की अपेक्षासे शून्य है।’ दूसरे लोग ऐसा कहते हैं कि ‘यह जगत् सदा नित्य अव्यक्त (मूल प्रकृति) से उत्पन्न होता है। तथा उसीमें लीन होता है, अतः उपादानकी नित्यताके अनुसार यह भी नित्य ही है। कुछ लोग तत्त्वके विचारमें प्रवृत्त होकर ऐसा निश्चय करते हैं कि ‘आत्मा अनेक, नित्य एवं सर्वगत है।’ दूसरे लोग इस निश्चयपर पहुँचे हैं कि ‘जितने शरीर हैं, उतने ही आत्मा हैं।’ इस मतके अनुसार हाथी और कीड़े आदिके शरीरमें तथा [ब्रह्माण्डरूपी ] महान् अण्डमें भी आत्माकी सत्ता मौजूद है। कुछ लोगोंका कहना है कि ‘आज इस जगत्की जैसी अवस्था है, वैसी ही कालान्तरमें भी रहती है। संसारका यह [अनादि] प्रवाह नित्य ही बना रहता है,भला इसका कर्ता कौन है।’ कुछ अन्य व्यक्तियोंकी रायमें ‘जो-जो वस्तु प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है, उसके सिवा और किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है; फिर स्वर्ग आदि कहीं हैं। कुछ लोग जगत्‌को ईश्वरकी सत्तासे रहित समझते हैं और कुछ लोग इसमें ईश्वरको व्यापक मानते हैं। इस प्रकार एक-दूसरेसे अत्यन्त भिन्न विचार रखनेवाले ये सभी लोग सत्यसे विमुख हो रहे हैं। इसी तरह भिन्न-भिन्न मतका मायाजाल फैलानेवाले दूसरे लोग भी बुद्धि और विद्याके अनुसार अपनी-अपनी युक्तियोंको स्थापित करते हुए भेदपूर्ण विचारोंको लेकर भाँति-भाँति बातें करते हैं

तपोधन! अब मैं तर्कमें स्थित होकर वास्तविक तत्त्वकी बात कहता हूँ। यह परमार्थज्ञान परम पुण्यमय और भयंकर संसारबन्धनका नाश करनेवाला है। देवता आदिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सब लोग उसीको प्रामाणिक मानते हैं, जो परमार्थज्ञानमूलक प्रतीत होता है। किन्तु जो अज्ञानसे मोहित हो रहे हैं, वे लोग अनागत (भविष्य), अतीत (भूत) और दूरवर्ती वस्तुको प्रमाणरूपमें नहीं स्वीकार करते। उन्हें प्रत्यक्ष वर्तमान वस्तुकी ही प्रामाणिकता मान्य है । परन्तु मुनियोंने प्रत्यक्ष और अनुमानके सिवा उस आगमको भी प्रमाण माना है, जो पूर्वपरम्परासे एक ही रूपमें चला आ रहा हो। वास्तवमें ऐसे आगमको ही परमार्थ वस्तुके साधनमें प्रमाण मानना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! आगम उस शास्त्रका नाम है, जिसके अभ्यासके बलसे राग-द्वेषरूपी मलका नाश करनेवाला उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता हो। जो कर्म और उसके फलरूपसे प्रसिद्ध है, जिसका तत्त्व ही विज्ञान और दर्शन नाम धारण करता है, जो सर्वत्र व्यापक और जाति आदिकी कल्पनासे रहित है, जिसे आत्मसंवेदन (आत्मानुभव)-रूप, नित्य, सनातन, इन्द्रियातीत, चिन्मय, ‘अमृत ज्ञेय, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, व्यक्त और अव्यक्तरूपमें स्थित, निरंजन (निर्मल), सर्वव्यापी श्रीविष्णु के नामसे विख्यात तथा वाणीद्वारा वर्णित समस्तवस्तुओंसे भिन्नरूपमें स्थित माना गया है, वह परमात्मा ही आगमका दूसरा लक्षण है। तात्पर्य यह कि साधन भूत ज्ञान और साध्यस्वरूप ज्ञेय दोनों ही आगम हैं। वह ज्ञेय परमात्मा योगियोंद्वारा ध्यान करनेयोग्य है। परमार्थसे विमुख मनुष्यों द्वारा उसका ज्ञान होना असम्भव है। भिन्न-भिन्न बुद्धियोंसे वह यद्यपि भिन्न-सा लक्षित होता है, तथापि आत्मासे भिन्न नहीं है तात पुण्डरीक ध्यान देकर सुनो। सुव्रत ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मेरे पूछनेपर जिस ताका उपदेश किया था, वही तुम्हें बतलाता हूँ। एक समय अज, अविनाशी पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें विराजमान थे। उस समय मैंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें प्रणाम करके पूछा ‘ब्रह्मन् ! कौन-सा ज्ञान सबसे उत्तम बताया गया है ? तथा कौन-सा योग सर्वश्रेष्ठ माना गया है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये।’

ब्रह्माजीने कहा – तात! सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका श्रवण करो। यह थोड़े-से वाक्योंमें कहा गया है, किन्तु इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। इसकी उपासनामें कोई क्लेश या परिश्रम नहीं है। जिन्हें गुरु परम्परासे पंचविंशक पुरुष बतलाया गया है, वे ही सम्पूर्ण भूतक आत्मा है, इसलिये उन्हींको सम्पूर्ण जगत्के निवासरूप सनातन परमात्मा नारायण कहा जाता है। वे ही संसारको सृष्टि, संहार और पालनमें लगे रहते हैं। ब्रहान्। ब्रह्मा, शिव और विष्णु-इन तीनों रूपोंमें एक ही देवाधिदेव सनातन पुरुष विराज रहे हैं। अपना हित चाहनेवाले पुरुषको सदा उन्हींकी आराधना करनी चाहिये जो निःस्पृह नित्य संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय ममता- अहंकारसे रहित, राग-द्वेषसे शून्य, शान्तचित्त और सब प्रकारको आसक्तियोंसे पृथक् हो ध्यानयोग प्रवृत्त रहते हैं, वे ही उन अक्षय जगदीश्वरको देखते और प्राप्त करते हैं। जो लोग भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण कर चुके हैं तथा जिनके मन-प्राण उन्हींके चिन्तनमें लगे हैं, वे ही ज्ञानदृष्टिसे संसारकी वर्तमानअवस्थाको, कालान्तरमें होनेवाली अवस्थाको, भूत, भविष्य, वर्तमान और दूरको स्थूल और सूक्ष्मको तथा अन्य ज्ञातव्य बातोंको यथार्थरूपसे देख पाते हैं। इसके विपरीत जिनकी बुद्धि मन्द और अन्तःकरण दूषित है तथा जिनका स्वभाव कुतर्क और अज्ञानमे दुष्ट हो रहा है, ऐसे लोगोंको सब कुछ उलटा ही प्रतीत होता है।

नारदजी कहते हैं- पुण्डरीक! अब मैं दूसरा प्रसंग सुनाता हूँ, इसे भी सुनो पूर्वकालमें जगत्‌के कारणभूत ब्रह्माजीने ही इसका भी उपदेश किया था। एक बार इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषियोंके पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्माजीने उनके हितकी बात इस प्रकार बतायी थी।

ब्रह्माजीने कहा- देवताओ। भगवान् नारायण ही सबके आश्रय हैं। सनातन लोक, यज्ञ तथा नाना प्रकारके शास्त्रोंका भी पर्यवसान नारायणमें ही होता है। छहाँ अंगोंसहित वेद तथा अन्य आगम सर्वव्यापीविश्वेश्वर श्रीहरिके ही स्वरूप हैं। पृथ्वी आदि पाँचों भूत भी वे ही अविनाशी परमेश्वर हैं। देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्को श्रीविष्णुमय ही जानना चाहिये; तथापि पापी मनुष्य मोहग्रस्त होनेके कारण इस बातको नहीं समझते। यह समस्त चराचर जगत् उन्हींकी मायासे व्याप्त है। जो मनसे भगवान्‌का ही चिन्तन करता है, जिसके प्राण भगवान्में ही लगे रहते हैं, वह परमार्थतत्त्वका ज्ञाता पुरुष ही इस रहस्यको जानता है। सम्पूर्ण भूतक ईश्वर भगवान् विष्णु ही तीनों लोकोंका पालन करनेवाले हैं। यह सारा संसार उन्हींमें स्थित है और उन्होंसे उत्पन्न होता है। वे ही रुद्ररूप होकर जगत्का संहार करते हैं। पालनके समय उन्हींको श्रीविष्णु कहते हैं तथा सृष्टिकालमें मैं (ब्रह्मा) और अन्यान्य लोकपाल भी उन्हींके स्वरूप हैं। वे सबके आधार हैं, परन्तु उनका आधार कोई नहीं है। ये सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त होते हुए भी उनसे रहित हैं। वे ही छोटे-बड़े तथा उनसे भिन्न हैं। साथ ही इन सबसे विलक्षण भी हैं; अतः देवताओ! सबका संहार करनेवाले उन श्रीहरिकी ही शरणमें जाओ। वे ही हमारे जन्मदाता पिता हैं। उन्हींको मधुसूदन कहा गया है।

नारदजी कहते हैं— कमलयोनि ब्रह्माजीके याँ कहनेपर सब देवताओंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी सर्वव्यापी देव भगवान् जनार्दनकी शरण होकर उन्हें प्रणाम किया; अतः विप्रर्षे! तुम भी श्रीनारायणकी आराधनामें लग जाओ। उनके सिवा दूसरा कौन ऐसा परम उदार देवता है, जो भक्तकी माँगी हुई वस्तु दे सके। ये पुरुषोत्तम ही पिता और माता हैं। सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी देवताओंके भी देवता और जगदीश्वर हैं। तुम उन्हींकी परिचर्या करो। प्रतिदिन आलस्यरहित हो अग्निहोत्र, भिक्षा, तपस्या और स्वाध्यायके द्वारा उनदेवदेवेश्वर गुरुको ही संतुष्ट करना चाहिये। ब्रह्मर्णे उन्हीं पुरुषोत्तम नारायणको तुम सब तरहसे अपनाओ।

उन बहुत से मन्त्रों और उन बहुत से व्रतोंके द्वारा क्या लेना है। ‘ॐ नमो नारायणाय’ यह मन्त्र ही सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करनेवाला है। द्विजश्रेष्ठ ! ब्राह्मण चीरवस्त्र पहनकर जटा रखा ले या दण्ड धारण करके मुँड़ मुँड़ा ले अथवा आभूषणोंसे विभूषित रहे; ऊपरी चिह्न धर्मका कारण नहीं होता। जो भगवान् नारायणकी शरण ले चुके हैं, वे क्रूर, दुरात्मा और सदा ही पापाचारी रहे हों तो भी परमपदको प्राप्त होते हैं। जिनके पाप दूर हो गये हैं, ऐसे वैष्णव पुरुष कभी पापसे लिप्त नहीं होते। वे अहिंसाभावके द्वारा अपने मनको काबू किये रहते हैं और सम्पूर्ण संसारको पवित्र करते हैं। *

क्षत्रबन्धु नामके राजाने, जो सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता था, भगवान् केशवकी शरण लेकर श्रीविष्णुके परमधामको प्राप्त कर लिया। महान् धैर्यशाली राजा अम्बरीषने अत्यन्त कठोर तपस्या की थी और भगवान् पुरुषोत्तमकी आराधना करके उनका साक्षात्कार किया था। राजाओंके भी राजा मित्रासन बड़े तत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने भी भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके ही उनके वैकुण्ठधामको प्राप्त किया था। उनके सिवा बहुत से ब्रहार्षि भी, जो तीक्ष्ण व्रतोंका पालन करनेवाले और शान्तचित्त थे, परमात्मा विष्णुका ध्यान करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हुए। पूर्वकालमें परम आह्लादसे भरे हुए प्रह्लाद भी सम्पूर्ण जीवोंके आश्रयभूत श्रीहरिका सेवन, पूजन और ध्यान करते थे; अतः भगवान्ने ही उनकी संकटोंसे रक्षा की परम धर्मात्मा और तेजस्वी राजा भरतने भी दीर्घकालतक इन श्रीविष्णुभगवान्‌की उपासना करके परम मोक्ष प्राप्त कर लिया था।ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यासी कोई भी क्यों न हो, भगवान् केशवकी आराधनाको छोड़कर परमगतिको नहीं प्राप्त हो सकता। हजारों जन्म लेनेके पश्चात् जिसकी ऐसी बुद्धि होती है कि ‘मैं भगवान् विष्णुके भक्तोंका दास हूँ, वह समस्त पुरुषार्थीका साधक होता है। वह पुरुष भी निस्सन्देह श्रीविष्णुधाममें जाता है। फिर जो कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले पुरुष भगवान् विष्णुमें ही मन-प्राण लगाये रहते हैं, उनकी उत्तम गतिके विषयमें क्या कहना है। अतः तत्त्वका चिन्तन करनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे नित्य निरन्तर अनन्यचित्तसे विश्वव्यापी सनातन परमात्मा नारायणका ध्यान करते रहें। *

भीष्मजी कहते हैं—यों कहकर परोपकारपरायण परमार्थवेत्ता देवर्षि नारद वहीं अन्तर्धान हो गये। नारायणकी शरणमें पड़े हुए धर्मात्मा पुण्डरीक भी ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षरमन्त्रका जप करने लगे। वे अपने हृदयकमलमें अमृतस्वरूप गोविन्दकी स्थापना करके मुखसे सदा यही कहा करते थे कि ‘हे विश्वात्मन्! आप मुझपर प्रसन्न होइये।’ द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित हो तपोधन पुण्डरीकने उस निर्मल शालग्रामतीर्थमें अकेले ही चिरकालतक निवास किया। स्वप्नमें भी उन्हें केशवके सिवा और कुछ नहीं दिखायी देता था। उनकी निद्रा भी पुरुषार्थ सिद्धिकी विरोधिनी नहीं थी। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे, जन्म-जन्मान्तरोंके विशुद्ध संस्कारसे तथा सर्वलोकसाक्षी देवाधिदेव श्रीविष्णुके प्रसादसे पापरहित पुण्डरीकने परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली। वे सदा हाथोंमें शंख, चक्र और गदा लिये कमलके समान नेत्रोंवाले श्यामसुन्दर पीताम्बरधारी भगवान् अच्युतकी ही झाँकी किया करते थे मृगों और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले सिंह, व्याघ्रतथा अन्यान्य जीव अपना स्वाभाविक विरोध छोड़कर उनके समीप आते और इच्छानुसार विचरा करते थे। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रसन्न रहती थीं। उनके हृदयमें एक-दूसरेके हितसाधनका मनोरम भाव भर जाता था। वहाँके जलाशय और नदियोंके जल स्वच्छ हो गये थे। सभी ऋतुओंमें वहाँ प्रसन्नता छायी रहती थी। सबकी इन्द्रिय-वृत्तियाँ शुद्ध हो गयी थीं हवा ऐसी चलती थी. जिसका स्पर्श सुखदायक जान पड़े। वृक्ष फूल और फलोंसे लदे रहते थे। परम बुद्धिमान् पुण्डरीकके लिये सभी पदार्थ अनुकूल हो गये थे। देवदेवेश्वर भक्तवत्सल गोविन्दके प्रसन्न होनेपर उनके लिये समस्त चराचर जगत् प्रसन्न हो गया था।

तदनन्तर एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकके सामने भगवान् जगन्नाथ प्रकट हुए। हाथोंमें शंख, चक्र औरगदा शोभा पा रहे थे। तेजोमयी आकृति, कमलके समान बड़े-बड़े नेत्र और चन्द्रमण्डलके समान कान्तिमान् सुख कमरमें करधनी, कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार बाहुअर्मि भुजबन्द, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न और श्याम शरीरपर पीतवस्त्र शोभा पा रहे थे। भगवान् कौस्तुभमणिसे विभूषित थे। वनमालासे उनका सारा अंग व्याप्त था। मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे। दमकते हुए यज्ञोपवीत और नीचेतक लटकती हुई मोतियोंकी मालासे उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। देव, सिद्ध, देवेन्द्र, गन्धर्व और मुनि चैवर तथा व्यजन आदिसे भगवान्‌की सेवा कर रहे थे पापरहित पुण्डरीकने स्वयं उन देवदेवेश्वर महात्मा जनार्दनको वहाँ उपस्थित देख पहचान लिया और प्रसन्न चित्तसे हाथ जोड़ प्रणाम करके स्तुति करना आरम्भ किया।

पुण्डरीक बोले सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र नेत्र आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप निरंजन (निर्मल), नित्य, निर्गुण एवं महात्मा है; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियोंके ईश्वर है भोंका भय एवं पीड़ा दूर करनेके लिये गोविन्द तथा गरुडध्वजरूप धारण करते हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये अनेक आकार धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। यह सम्पूर्ण विश्व आपमें ही स्थित है। केवल आप ही इसके उपादान कारण हैं। आपने ही जगत्का निर्माण किया है। नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले आप भगवान् पद्मनाभको बारंबार नमस्कार है। समस्त वेदान्तोंमें जिनकी आत्मविभूतिका ही श्रवण किया जाता है, उन परमेश्वरको नमस्कार है। नारायण! आप ही सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी और जगत् के कारण हैं। मेरे हृदयमन्दिरमें निवास करनेवाले भगवान् शंख-चक्र-गदाधर! मुझपर प्रसन्न होइये। समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इस पृथ्वीको धारण करनेवाले, अनेक रूपधारी तथा सबकी उत्पत्तिके कारण श्रीविष्णुको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि देवता और सुरेश्वर भी जिनकी महिमाको नहीं जानते,जिनकी महिमाका तपस्यासे ही अनुमान हो सकता है, उन परमात्माको नमस्कार है। भगवन्। आपकी महिमा वाणीका विषय नहीं है, उसे कहना असम्भव है। आप जाति आदिकी कल्पनासे दूर हैं, अतः सदा तत्त्वतः ध्यान करनेके योग्य हैं। पुरुषोत्तम! आप एक अद्वितीय होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये भेदरूपसे मत्स्य कूर्म आदि अवतार धारण करके दर्शन देते हैं।

भीष्मजी कहते हैं- इस प्रकार जगत्के स्वामी वीरवर भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करके पुण्डरीक उन्हींको निहारने लगे; क्योंकि चिरकालसे वे उनके दर्शनकी लालसा रखते थे तब तीन पर्गोंसे त्रिलोकीको नापनेवाले तथा नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले भगवान् विष्णुने महाभाग पुण्डरीकसे गम्भीर वाणीमें कहा ‘बेटा पुण्डरीक! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। महामते तुम्हारे मनमें जो भी कामना हो, उसे वरके रूपमें माँगो मैं अवश्य दूँगा।’

पुण्डरीक बोले- देवेश्वर! कहाँ मैं अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला मनुष्य और कहाँ मेरे परम हितैषी आप माधव जिसमें मेरा हित हो, उसे आप ही दीजिये।

पुण्डरीकके यों कहनेपर भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- ‘सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, मेरे ही साथ चलो। तुम मेरे परम उपकारी और सदा मुझमें ही मन लगाये रखनेवाले हो अतः सर्वदा मेरे साथ ही रहो।’

भीष्मजी कहते हैं- भक्तवत्सल भगवान् श्रीधरने प्रसन्नतापूर्वक जब इस प्रकार उसी समय आकाशमें देवताओंकी दुंदुभी बज उठी और आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। ब्रह्मा आदि देवता साधुवाद देने लगे सिद्ध गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। समस्त लोकोंद्वारा वन्दित देवदेव जगदीश्वरने वहीं पुण्डरीकको अपने साथ ले लिया और गरुड़पर आरूढ़ हो वे परमधामको चले गये; इसलिये राजेन्द्र युधिष्ठिरतुम भी भगवान् विष्णुकी भक्तिमें लग जाओ। उन्हीं में मन, प्राण लगाये रहो और सदा उनके भक्तोंके हितमें तत्पर रहो। यथायोग्य अर्चना करके पुरुषोत्तमका भजन करो और सब पापोंका नाश करनेवाली भगवान्‌की पवित्र कथा सुनो। राजन्! जिस उपायसे भी भक्तपूजित विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों, वह विस्तारके साथ करो। जो मनुष्य भगवान् नारायणसे विमुख होते हैं, वे सौ अश्वमेध और सौ वाजपेययज्ञोंका अनुष्ठान करके भी उन्हें नहीं पा सकते। जिसने एक बार भी ‘हरि’ इन दो अक्षरोंका उच्चारण कर लिया, उसने मोक्षतक पहुँचनेके लिये मानो कमर कस ली। जिनके हृदयमें नीलकमलके समान श्यामसुन्दर भगवान् जनार्दन विराजमान हैं, उन्हींको लाभ है, उन्हींकी विजय है; उनकी पराजय कैसे हो सकती है। * जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इसे सुनता या पढ़ता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है।

अध्याय 183 श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य

पार्वती बोलीं- महामते। श्रीगंगाजीके माहात्म्यका पुनः वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर सभी मुनि संसारकी ओरसे विरक्त हो जाते हैं।

श्रीमहादेवजीने कहा- देवि ! बुद्धिमें बृहस्पति और पराक्रममें इन्द्रके समान भीष्मजी जब बाणशय्यापर शयन कर रहे थे, उस समय उन्हें देखनेके लिये अत्रि, वसिष्ठ, भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, अगस्त्य और सुमति आदि बहुत-से ऋषि आये। धर्मपुत्र युधिष्ठिर अपने भाइयोंके साथ वहाँ मौजूद थे। उन्होंने उन परम तेजस्वी, जगत्पूज्य ऋषियोंको प्रणाम करके विधिपूर्वक उनका पूजन किया। पूजा ग्रहण करके वे तपोधन महात्मा जब सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये, तब युधिष्ठिरने भीष्मजीको प्रणाम करके इस प्रकार पूछा पितामह! धर्मार्थी पुरुषोंके नित्य सेवन करनेयोग्य परम पुण्यमय देश, पर्वत और आश्रम कौन-कौन-से हैं?’भीष्मजीने कहा युधिष्ठिर इस विषय में एक प्राचीन इतिहास बतलाया जाता है, जिसमें शिल और उच्छवृत्तिमे जीविका चलानेवाले ब्राह्मणका किसी सिद्ध पुरुषके साथ हुए संवादका अन है। कोई सिद्ध पुरुष समूची पृथ्वीको परिक्रमा करके किसी उच्छवृत्तिवाले महात्मा गृहस्थके घर गये। वे आत्मविद्याके तत्त्वज्ञ, सदा अपनी इंद्रियको काबू रखनेवाले, राग-द्वेषसे रहित, ज्ञान कर्म कुशल वैष्णवोंमें श्रेष्ठ, वैष्णव-धर्मके पालनमें तत्पर, वैष्णवोंकी निन्दासे दूर रहनेवाले, योगाभ्यासी, त्रिकालपूजाके तत्त्वज्ञ, वेदविद्यामें निपुण, धर्माधर्मका विचार करनेवाले, नित्य नियमपूर्वक वेदपाठ करनेवाले और सदा अतिथिपूजामें तत्पर रहनेवाले थे।सिद्ध पुरुषको आया देख गृहस्थने उनका विधिपूर्वक आतिथ्य सत्कार किया तत्पश्चात् उनसे पूछा द्विजवर! कौन-कौनसे देश, पर्वत और आश्रम पवित्र हैं? मुझे प्रेमपूर्वक बतानेकी कृपा कीजिये।

सिद्ध पुरुषने कहा- ब्रह्मन् ! जिनके बीच नदियोंमें श्रेष्ठ त्रिपथगा गंगाजी सदा बहती रहती हैं, वे ही देश, वे ही जनपद, वे ही पर्वत और वे ही आश्रम परम पवित्र हैं। जीव गंगाजीका सेवन करके जिस गतिको प्राप्त करता है, उसे तपस्या, ब्रह्मचर्य, यज्ञ अथवा त्यागसे भी नहीं पा सकता। अपने मनको संयममें रखनेवाले पुरुषोंको गंगाजीके जलमें स्नान करनेसे जो संतोष होता है, वह सौ यज्ञोंके अनुष्ठानसे भी नहीं हो सकता। जैसे सूर्य उदयकालमें तीव्र अन्धकारका नाश करके तेजसे उद्भासित हो उठता है, उसी प्रकार गंगाजीके जलमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य पापका नाश करके पुण्यसे प्रकाशमान होने लगता है। विप्र! जैसे आगका संयोग पाकर रूईका ढेर जल जाता है, उसी प्रकार गंगाका स्नान मनुष्यके सारे पापोंको दूर कर देता है। जो मनुष्य सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए गंगाजलका पान करता है, वह सब रोगोंसे मुक्त हो जाता है। जो पुरुष एक पैरसे खड़ा होकर एक हजार चान्द्रायणव्रतोंका अनुष्ठान करता है और जो केवल गंगाजीके जलमें डुबकी लगाता है-इन दोनोंमें डुबकी लगानेवाला मनुष्य ही श्रेष्ठ है। जो दस हजार वर्षोंतक नीचे सिर करके लटका रहता है, उसकी अपेक्षा भी वही मनुष्य श्रेष्ठ है जो एक मास भी गंगाजलका सेवन कर लेता है। नरश्रेष्ठ! गंगाजीमें स्नान करके मनुष्य देहत्यागके पश्चात् तुरंत वैकुण्ठमें चला जाता है जो सौ योजन दूरसे भी ‘गंगा-गंगा’ का उच्चारण करता है, वहसब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको चला जाता है। ll 1 ll

ब्रह्महत्यारा, गोघाती, शराबी और बालहत्या करनेवाला मनुष्य भी गंगाजीमें स्नान करके सब पापोंसे छूट जाता और तत्काल देवलोकमें चला जाता है। माधव तथा अक्षयवटका दर्शन और त्रिवेणीमें स्नान करनेवाला पुरुष वैकुण्ठ में जाता है जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकार नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गंगामें स्नान करनेमात्र से मनुष्यके सारे पाप दूर हो जाते हैं। गंगाद्वार, कुशावर्त, बिल्वक नील पर्वत तथा कनखलतीर्थ में स्नान करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। ll 2 ll

भीष्मजी कहते हैं—ऐसा जानकर श्रेष्ठ मनुष्यको बारंबार गंगास्नान करना चाहिये। राजन्! वहाँ स्नान करनेमात्रसे मनुष्य पापमुक्त हो जाता है। जैसे देवताओंमें विष्णु, यज्ञोंमें अश्वमेध और समस्त वृक्षोंमें अश्वत्थ (पीपल) श्रेष्ठ है, उसी प्रकार नदियोंमें भागीरथी गंगा सदा श्रेष्ठ मानी गयी हैं।

पार्वतीने पूछा- विश्वेश्वर! वैष्णवोंका लक्षण कैसा बताया गया है तथा उनकी महिमा कैसी है? प्रभो! यह बताने की कृपा करें।

महादेवजी बोले- देवि! भक्त पुरुष भगवान् विष्णुकी वस्तु माना गया है, इसलिये इसे ‘वैष्णव’ कहते हैं। जो शौच, सत्य और क्षमासे युक्त हो, राग-द्वेषसे दूर रहता हो, वेद-विद्याके विचारका ज्ञाता हो, नित्य अग्निहोत्र और अतिथियोंका सत्कार करता हो तथा पिता-माताका भक्त हो, वह वैष्णव कहलाता है। जो कण्ठमें माला धारण करके मुखसे सदा श्रीरामनामका उच्चारण करते, भक्तिपूर्वक भगवान्‌की लीलाओंका गान करते, पुराणोंके स्वाध्यायमें लगे रहते और सर्वदा यज्ञ किया करते हैं, उन मनुष्योंको वैष्णव जानना चाहिये। वे सब धर्मो में सम्मानित होते हैं। जो पापाचारी मनुष्य उन वैष्णवोंकी निन्दा करते हैं, वे मरनेपर बारंबार कुत्सित योनियोंमें पड़ते हैं जो द्विज धातु अथवा मिट्टीकी बनीहुई चार हाथोंवाली शोभामयी गोपाल मूर्तिका सद पूजन करते हैं. वे पुण्यके भागी होते हैं। जो ब्राह्मण । पत्थरकी बनी हुई परम सुन्दर रूपवाली श्रीकृष्ण प्रतिमाकी पूजा करते हैं, वे पुण्यस्वरूप हैं। जहाँ शालग्रामशिला तथा द्वारकाकी गोमती चक्रांकित शिला हो और उन दोनोंका पूजन किया जाता हो, वहाँ निःसन्देह मुक्ति मौजूद रहती है। वहाँ यदि मन्त्रद्वारा मूर्तिकी स्थापना करके पूजन किया जाय तो वह पूजन कोटिगुना अधिक पुण्य देनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ भगवान जनार्दनको नवधा भक्ति करनी चाहिये। भक्त पुरुषोंको मूर्ति भगवान्का ध्यान और पूजन करना चाहिये। सम्भव हो तो भगवन्मूर्तिकी राजोचित उपचारोंसे पूजा करे तथा उस मूर्तिमें दीनों और अनाथको एकमात्र शरण देनेवाले, सम्पूर्ण लोकोंके हितकारी एवं बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाले सर्वात्मा भगवान् अधोक्षजका नित्य निरन्तर स्मरण करे। जो मूर्तिके सम्बन्धमें ‘ये गोपाल हैं’, ‘ये साक्षात् श्रीकृष्ण हैं’, ‘ये श्रीरामचन्द्रजी हैं’- यों कहता है और इसी भावसे विधिपूर्वक पूजा करता है, वह निश्चय ही भगवान्का भक्त है। श्रेष्ठ वैष्णव द्विजोंको चाहिये कि वे परम भक्तिके साथ सोने, चाँदी, ताँबे अथवा पीतलकी विष्णु प्रतिमाका निर्माण करायें, जिसके चार भुजा, दो नेत्र, हाथोंमें शंख, चक्र और गदा, शरीरपर पीत वस्त्र, गलेमें वनमाला, कानोंमें वैदूर्यमणिके कुण्डल, माथेपर मुकुर और वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणिका दिव्य प्रकाश हो । प्रतिमा भारी और शोभासम्पन्न होनी चाहिये। फिर वेद-शास्त्रोक मन्त्रोंके द्वारा विशेष समारोहसे उसकी स्थापना कराकर पीछे शास्त्र के अनुसार षोडशोपचार के मन्त्र आदिद्वारा विधिपूर्वक उसका पूजन करना चाहिये। जगत्के स्वामी भगवान् विष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा हो जाती है अतः इस प्रकार आदि अन्तसे रहित, शंख, चक्र और गदा धारण करनेवालेभगवान् श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। वे सर्वेश्वर पुण्यस्वरूप वैष्णवोंको सब कुछ देते हैं। जो शिवकी पूजा नहीं करता और श्रीविष्णुकी निन्दामें तत्पर रहता है,उसे निश्चय ही रौरव नरकमें निवास करना पड़ता है। मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही रुद्र हूँ और मैं ही पितामह ब्रह्मा हूँ। मैं ही सदा सब भूतोंमें निवास किया करता हूँ।

अध्याय 184 चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व

पार्वती बोलीं- महेश्वर! सब महीनोंकी विधिका वर्णन कीजिये। प्रत्येक मासमें कौन-कौनसे महोत्सव करने चाहिये और उनके लिये उत्तम विधि क्या है? सुरेश्वर! किस महीनेका कौन देवता है? किसकी पूजा करनी चाहिये, उस पूजनकी महिमा कैसी है और वह किस तिथिको करना उचित है?

महादेवजी बोले- देवि! मैं प्रत्येक मासके उत्सवको विधि बतलाता हूँ। पहले चैत्र मासके शुक्लपक्षमें विशेषतः एकादशी तिथिको भगवान्‌को झूलेपर बिठाकर पूजा करनी चाहिये। यह दोलारोहणका उत्सव बड़ी भक्तिके साथ और विधिपूर्वक मनाना चाहिये। पार्वती! जो लोग कलियुगके पाप-दोषका अपहरण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको झूलेपर विराजमान देखते हैं-उस रूपमें उनकी झाँकी करते हैं, वे सहस्रों अपराधोंसे मुक्त हो जाते हैं करोड़ों जन्मोंमें किये हुए पाप तभीतक मौजूद रहते हैं, जबतक मनुष्य विश्वके स्वामी भगवान् जगन्नाथको झूलेपर बिठाकर उन्हें अपने हाथसे झुलाता नहीं। जो लोग कलियुग पर बैठे हुए जनार्दनका दर्शन करते हैं, वे गोहत्यारे हों तो भी मुक्त हो जाते हैं; फिर औरोंकी तो बात ही क्या है। दोलोत्सवसे प्रसन्न होकर समस्त देवता भगवान् शंकरको साथ लेकर पर बैठे हुए श्रीविष्णुको झाँकी करनेके लिये आते हैं और आँगनमें खड़े हो हर्षमें भरकर स्वयं भी नाचते, गाते एवं बाजे बजाते हैं। वासुकि आदि नाग और इन्द्र आदि देवता भी दर्शनके लिये पधारते हैं। भगवान् विष्णुको झूलेपर विराजमान देख तीनों लोकों में उत्सव होने लगता है; अतः सैकड़ों कार्य छोड़कर दोलोत्सवके दिन झूलनका उत्सव करो। जो लोगझूलेपर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णके सामने रात्रिमें जागरण करते हैं, उन्हें एक निमेषमें ही सब पुण्योंकी प्राप्ति हो जाती है। सुरेश्वरि ! झूलेपर विराजमान दक्षिणाभिमुख भगवान् गोविन्दका एक बार भी दर्शन करके मनुष्य ब्रह्महत्याके पापसे छूट जाता है।

ॐ दोलारूढाय विद्महे माधवाय च

धीमहि तन्नो देवः प्रचोदयात् ॥

‘झूलेपर बैठे हुए भगवान्‌का तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। श्रीमाधवका ध्यान करते हैं। अतः वे देव-भगवान् विष्णु हमलोगोंकी बुद्धिको प्रेरित करें।’

इस गायत्री मन्त्रके द्वारा भगवान्‌का पूजन करना चाहिये। ‘माधवाय नमः’, ‘गोविन्दाय नमः’ और ‘श्रीकण्ठाय नमः ‘ इन मन्त्रोंसे भी पूजन किया जा सकता है। मन्त्रोच्चारणके साथ विधिपूर्वक पूजन करना उचित है। एकाग्रचित्त होकर गुरुको यथाशक्ति दक्षिणा देनी चाहिये तथा निरन्तर भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी लीलाओंका गान करते रहना चाहिये। इससे उत्सव पूर्ण होता है। सुमुखि ! और अधिक कहनेसे क्या लाभ । झूलेपर विराजमान भगवान् विष्णु सब पापोंको हरनेवाले हैं। जहाँ दोलोत्सव होता है, वहाँ देवता, गन्धर्व, किन्नर और ऋषि बहुधा दर्शनके लिये आते हैं। उस समय ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस मन्त्रद्वारा षोडशोपचारसे विधिवत् पूजा करनी उचित है। इससे सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं। सुव्रते ! अंगन्यास, करन्यास तथा शरीरन्यास- सब कुछ द्वादशाक्षर मन्त्रसे करना चाहिये और इस आगमोक्त मन्त्रसे ही महान् उत्सवका कार्य सम्पन्न करना चाहिये। झूलेपर सबसेऊँचे लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुको बैठाना चाहिये। भगवान् के आगे [कुछ नीची सतहमें] वैष्णवोंको,

नारदादि देवर्षियोंको तथा विष्वक्सेन आदि भक्तोंको स्थापित करना चाहिये। फिर पाँच प्रकारके बाजकी आवाजके साथ विद्वान् पुरुष भगवान्की आरती करे और प्रत्येक पहरमें यत्नपूर्वक पूजा भी करता रहे। तत्पश्चात् नारियल तथा सुन्दर केलोंके साथ जलसे भगवान्‌को अर्घ्य दे अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

देवदेव जगन्नाथ शङ्खचक्रगदाधर ।

अयं गृहाण मे देव कृपां कुरु ममोपरि ॥

(85/31)

‘देवताओंके देवता जगत्के स्वामी तथा शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले दिव्यस्वरूप नारायण ! यह अर्ध्य ग्रहण करके मुझपर कृपा कीजिये।’

तदनन्तर भगवान्‌के प्रसादभूत चरणामृत आदि वैष्णवोंको बाँटे। वैष्णवजनोंको चाहिये कि वे बाजे बजाकर भगवान् के सामने नृत्य करें और सभी लोग बारी-बारीसे भगवान्‌को झुलायें। सुरेश्वरि! पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ और क्षेत्र हैं, वे सभी उस दिन भगवान्‌कादर्शन करने आते हैं-ऐसा जानकर यह महान् उत्सव अवश्य करना चाहिये। पार्वती! वैशाख मासकी पूर्णिमाके दिन वैष्णव पुरुष भक्ति, उत्साह और प्रसन्नताके साथ जगदीश्वर भगवान्‌को जलमें पधराकर उनकी पूजा करे अथवा एकादशी तिथिको अत्यन्त हर्षमें भरकर गीत, वाद्य तथा नृत्यके साथ यह पुण्यमय महोत्सव करे। भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी लील कथाका गान करते हुए ही यह शुभ उत्सव रचाना उचित है। उस समय भगवान्से प्रार्थनापूर्वक कहें ‘हे देवेश्वर ! इस जलमें शयन कीजिये।’ जो लोग वर्षाकालके आरम्भ में भगवान् जनार्दनको जलमें शयन कराते हैं, उन्हें कभी नरककी ज्वालामें नहीं तपना पड़ता। देवेश्वरि सोने, चाँदी, ताँबे अथवा मिट्टीके बर्तन श्रीविष्णुको शयन कराना उचित है। पहले उस वर्तनमें शीतल एवं सुगन्धित जल रखकर विद्वान् पुरुष उस जलके भीतर श्रीविष्णुको स्थापित करे। गोपाल या श्रीराम नामक मूर्तिकी स्थापना करे अथवा शालग्रामशिलाको ही स्थापित करे या और ही कोई प्रतिमा जलमें रखे। उससे होनेवाले पुण्यका अन्त नहीं है। देवि! इस पृथ्वीपर जबतक पर्वत, लोक और सूर्यकी किरणें विद्यमान हैं, तबतक उसके कुलमें कोई नरकगामी नहीं होता। अतः ज्येष्ठ मासमें श्रीहरिको जलमें पधराकर उनकी पूजा करनी चाहिये। इससे मनुष्य प्रलयकालतक निष्पाप बना रहता है। ज्येष्ठ और आषाढ़ के समय तुलसीदलसे वासित शीतल जलमें भगवान् धरणीधरकी पूजा करे। जो लोग ज्येष्ठ और आषाढ़ मासमें नाना प्रकारके पुष्पोंसे जलमें स्थित श्रीकेशवकी पूजा करते हैं, वे यम-यातनासे छुटकारा पा जाते हैं। भगवान् विष्णु जलके प्रेमी हैं, उन्हें जल बहुत ही प्रिय है; इसीलिये वे जलमें शयन करते हैं। अतः गरमीके मौसममे विशेषरूपसे जलमें स्थापित करके ही हरिका पूजन करना चाहिये। जो शालग्रामशिलाको जलमें विराजमान करके परम भक्तिके साथ उसकी पूजा करता है, वह अपने कुलको पवित्र करनेवाला होता है। पार्वती! सूर्यके मिथुन और कर्कराशिपर स्थित होनेके,,समय जिसने भक्तिपूर्वक जलमें श्रीहरिकी पूजा की है, विशेषतः द्वादशी तिथिको जिसने जलशायी विष्णुका अर्चन किया है, उसने मानो कोटिशत यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया। जो वैशाख मासमें भगवान् माधवको जलपात्रमें स्थापित करके उनका पूजन करते हैं, वे इस पृथ्वीपर मनुष्य नहीं, देवता हैं।

जो द्वादशीकी रातको जलपात्रमें गन्ध आदि डालकर उसमें भगवान् गरुडध्वजकी स्थापना और पूजा करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो श्रद्धारहित, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और तर्कमें ही स्थित रहनेवाले हैं, ये पाँच व्यक्ति पूजाके फलके भागी नहीं होते। * इसी प्रकार जो जगत्के स्वामी महेश्वर श्रीविष्णुको सदा जलमें रखकर उनकी पूजा करता है, वह मनुष्य सदाके लिये महापापोंसे मुक्त हो जाता है। देवेश्वरि ! ‘ॐ ह्रां ह्रीं रामाय नमः’ इस मन्त्रसे वहाँ पूजन बताया गया है। ‘ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नम:’ इस मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करना चाहिये। तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्रसे अर्घ्य निवेदन करे

देवदेव महाभाग श्रीवत्सकृतलाञ्छन ।

महादेव नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वभावन ॥

अर्घ्यं गृहाण भो देव मुक्तिं मे देहि सर्वदा ।

(87 । 23-24)

‘देवदेव! महाभाग ! श्रीवत्सके चिह्नोंसे युक्त महान् देवता! विश्वको उत्पन्न करनेवाले भगवान् नारायण ! मेरा अर्घ्य ग्रहण करें और मुझे सदाके लिये मोक्ष प्रदान करें।’

जो नाना प्रकारके पुष्पोंसे गरुडासन श्रीविष्णुकी पूजा करता है, वह सब बाधाओंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है। द्वादशीको एकाग्रचित्त हो रातमें जागरण करके अविकारी एवं अविनाशी भगवान् विष्णुका भक्तिपूर्वक भजन करे। इस तरह भक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको भक्तिभावसे तत्पर हो भगवान् विष्णुका वैशाखसम्बन्धी उत्सव करना चाहिये तथा उसमें आगमोक्त मन्त्रद्वारा समस्त विधिका पालन करना चाहिये। महादेवी! ऐसा करनेसे कोटि यज्ञोंके समान फल मिलता है। इस उत्सवको करनेवाला पुरुष राग-द्वेषसे मुक्त हो महामोहकी निवृत्ति करके इस लोकमें सुख भोगता और अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाता है। वेदके अध्ययनसे रहित तथा शास्त्रके स्वाध्यायसे शून्य मनुष्य भी श्रीहरिकी भक्ति पाकर वैष्णवपदको प्राप्त होता है।

अध्याय 185 पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं- देवेश्वरी! श्रावण मास आनेपर पवित्रारोपणका विधान है। इसका पालन करनेपर दिव्य भक्ति उत्पन्न होती है। विद्वान् पुरुषको भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुका पवित्रारोपण करना चाहिये। पार्वती। ऐसा करनेसे वर्षभरकी पूजा सम्पन्न हो जाती है। श्रीविष्णुके लिये पवित्रारोपण करनेपर अपनेको सुख होता है। कपड़ेका सूत, जो किसी ब्राह्मणीका काता हुआ हो अथवा अपने हाथसे तैयार किया हुआ हो, ले आयेऔर उसीसे पवित्रक बनाये। उपर्युक्त सूतके अभावमें किसी उत्तम शूद्र जातिकी स्त्रीके हाथका काता हुआ सूत भी लिया जा सकता है। यदि ऐसा भी न मिले तो जैसा तैसा खरीदकर भी ले आना चाहिये। पवित्रारोपणकी विधि रेशमके सूतसे ही करनी चाहिये अथवा चाँदी या सोनेसे श्रीविष्णु देवताके लिये विधिपूर्वक पवित्रक बनाना चाहिये। सब धातुओंके अभाव में विद्वान् पुरुषको साधारण सूत ग्रहण करना चाहिये। सूतकोतिगुना करके उसे जलसे धोना चाहिये। फिर यदि शिवलिंगके लिये बनाना हो तो उस लिंगके बराबर अथवा किसी प्रतिमाके लिये बनाना हो तो उस प्रतिमा के सिरसे लेकर पैरतकका या घुटनेतकका या नाभिके बराबरतकका पवित्रक बनाना चाहिये। इनमें पहला उत्तम, दूसरा मध्यम और तीसरा लघु श्रेणीका है एक सालमें जितने दिन हों, उतनी संख्या में या उसके आधी संख्यामें अथवा एक सौ आठकी संख्या में सूतसे ही उस पवित्रकर्मे गाँठें लगानी चाहिये। पार्वती! चौवनकी संख्यामें भी गाँठें लगायी जा सकती हैं। विष्णुप्रतिमाके लिये जो पवित्रक बने उसे वनमालाके आकारका बना लेना चाहिये। जैसे भी शोभा हो, वह उपाय करना चाहिये। इससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। पवित्रक तैयार होनेके पश्चात् भगवान्‌को अर्पण करना चाहिये।

पार्वती कुबेरके लिये पवित्रारोपण करनेकी तिथि प्रतिपदा बतायी गयी है। लक्ष्मीदेवीके लिये द्वितीया सब तिथियोंगे उसम है तुम्हारे लिये तृतीया बतायी गयी है और गणेशके लिये चतुर्थी चन्द्रमाके लिये पंचमी, कार्तिकेयके लिये षष्ठी, सूर्यके लिये सप्तमी, दुर्गाके लिये अष्टमी, मातृवर्गके लिये नवमी, यमराजके लिये दशमी, अन्य सब देवताओंके लिये एकादशी, लक्ष्मीपति श्रीविष्णुके लिये द्वादशी, कामदेवके लिये त्रयोदशी, मेरे लिये चतुर्दशी तथा ब्रह्माजीके लिये पवित्रकसे पूजन करनेके निमित्त पूर्णिमा तिथि बतायी गयी है। ये भिन्न-भिन्न देवताओंके लिये पवित्रारोपणके योग्य तिथियाँ कही गयी हैं। लघु श्रेणीके पवित्रक में बारह, मध्यम श्रेणीके पवित्रकमें चौबीस और उत्तम श्रेणीके पवित्रकमें छत्तीस ग्रन्थियाँ कम-से-कम होनी चाहिये। सब पवित्रकोंको कपूर और केसर अथवा चन्दन और हल्दीमें रंगकर बाँसके नये पात्रमें रखना चाहिये और जहाँ भगवान्‌का पूजन हो, वहाँ उन सबको देवताकी भाँति स्थापित करना चाहिये। पहले देवताकी पूजा करके फिर उन्हें पवित्रकों में अधिवासित करना चाहिये। पवित्रकर्मे अधिवास हो जानेपर पुन: पूजन करना उचित है। पवित्रकोंमें जो देवता अधिवास करते हैं, उनका आगे बतायी जानेवालीविधिसे संनिधीकरण (समीपतास्थापन) करना चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु और तीन सूत्र देवता है तथा क्रिया, पौरुषी, वीरा, अपराजिता, जया, विजया, मुक्तिदा, सदाशिवा, मनोन्मनी और सर्वतोमुखी- ये दस ग्रन्थियोंकी अधिष्ठात्री देवियाँ हैं। इन सबका सूत्रों आवाहन करना चाहिये। शास्त्रोक्त विधिसे मुद्राद्वारा आवाहन करे। सबका आवाहन करके संनिधीकरणकी क्रिया करे।

मुद्राद्वारा समीपता स्थापित करनेका नाम संनिधीकरण है। पहले रक्षामुद्रासे संरक्षण करके धेनुमुद्राके द्वारा उन्हें अमृतस्वरूप बनाये। फिर सबसे पहले भगवान्के आगे कलशका जल लेकर ‘क्लीं कृष्णाय’ इस मन्त्रसे उन पवित्रकका प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य और ताम्बूल आदि निवेदन करके षोडशोपचार आदिसे पवित्रकके देवताओंका पूजन करे। फिर उन्हें धूप देकर देवताके सम्मुख हो नमस्कारमुद्राके द्वारा देवताको अभिमन्त्रित करे। उस समय इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये

आमन्त्रितो महादेव सार्धं देव्या गणादिभिः ।

मन्त्रैर्वा लोकपालैश्च सहितः परिचारकैः ॥

आगच्छ भगवन् विष्णो विधेः सम्पूर्तिहेतवे

प्रातस्त्वत्पूजनं कुर्मः सांनिध्यं नियतं कुरु ॥

(88 । 29-30)

‘महान् देवता भगवान् विष्णु ! मन्त्रोंद्वारा आवाहन करनेपर आप देवी लक्ष्मी, पार्षद, लोकपाल और
परिचारकोंके साथ विधिकी पूर्तिके लिये यहाँ पधारिये।
प्रातःकालमें आपकी पूजा करूँगा। यहाँ निश्चितरूपमे
सन्निकटता स्थापित कीजिये।’

तदनन्तर वह गन्ध और पवित्रक भगवान् राघवके अथवा श्रीविष्णुके चरणोंके समीप रख दे, फिर प्रातः काल नित्यकर्म करके पुण्याह और स्वस्तिवाचन कराये तथा भगवान्की जय-जयकारके साथ घण्टा आदि बाजे और तुरही आदि बजाते हुए पवित्रकोंद्वारा पूजन करे।

‘ॐ वासुदेवाय विद्महे, विष्णुदेवाय धीमहि, तन्नो देवः प्रचोदयात्।”श्रीवासुदेवका तत्त्व जाननेके लिये हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, श्रीविष्णुदेवके लिये ध्यान करते हैं, वे देव विष्णु हमारी बुद्धिको प्रेरित करें।

इस मन्त्रसे अथवा देवताके नाम – मन्त्रसे पवित्रक अर्पण करना चाहिये। इसके बाद भगवान् विष्णुकी महापूजा करे, जिससे सबके आत्मा श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। चारों ओर विधिपूर्वक दीपमाला जलाकर रखे। भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य- ये चार प्रकारके अन्न नैवेद्यके लिये प्रस्तुत करे। पूर्वपूजित पवित्रक भगवान्‌को अर्पण कर दे। फिर विशेष भक्तिके साथ श्रीगुरुकी पूजा करे गुरु महान् देवता हैं, उन्हें वस्त्र और अलंकार आदि अर्पण करके विधिपूर्वक पूजन करना उचित है। गुरुपूजनके पश्चात् पवित्रक धारण करे। इसके बाद वहाँ जो वैष्णव उपस्थित हों, उन्हें ताम्बूल आदि देकर अग्निको पूर्णाहुति अर्पण करे। अन्तमें लक्ष्मीनिवास भगवान् श्रीकृष्णको कर्म समर्पित करे

महीनं क्रियाहीनं भक्तिहीन तु केशव।

यत्पूजितं मया सम्यक् सम्पूर्ण यातु मे ध्रुवम्

(88139)

“हे केशव! मैंने मन्त्र, क्रिया और भक्तिके बिना जो पूजन किया हो, यह भी निश्चय ही परिपूर्ण हो जाय।’ तदनन्तर देवताओंका विसर्जन करके वैष्णव ब्राह्मणों तथा इष्ट-बन्धुओंके साथ स्वयं भी शुद्ध अन्न भोजन करे। जो उत्तम द्विज इस दिव्य पूजनके प्रसंगको सुनते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार पवित्रारोपण करनेपर इस पृथ्वीपर जितने भी दान और नियम किये जाते हैं, वे सब परिपूर्ण होते हैं। पवित्रारोपणका विधान उत्सवोंका सम्राट् है। इससे ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है, इसमें तनिक भी अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। गिरिराजकुमारी। मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य है, सत्य है, सत्य है। पवित्रारोपणमें जो पुण्य है, वही उसके दर्शन में भी है। महाभागे यदि शूद्र भी भक्तिभावसे पवित्रारोपणका विधान पूर्ण कर लें तो परम धन्य माने जाते हैं। मैं इस भूतलपर धन्य कृतकृत्य हूँ; क्योंकि मैंने भगवान् विष्णुकी मोक्षदायिनी भक्ति प्राप्त की है।पार्वतीने पूछा- देवेश्वर! विश्वनाथ! किस मासमें किन-किन फूलोंकर भगवान्‌की पूजामै उपयोग करना चाहिये? यह बतानेकी कृपा करें। श्रीमहादेवजी बोले- चैत्र मासमें चम्पा और चमेलीके फूलोंसे क्लेशहारी केशवका प्रयत्नपूर्वक पूजन करना चाहिये। दौना, कटसरैया और वरुणवृक्षके फूलोंसे भी जगत्के स्वामी सर्वेश्वर श्रीविष्णुका पूजन किया जा सकता है। मनुष्य एकाग्रचित्त होकर लाल या और किसी रंगके सुन्दर कमलपुष्पोद्वारा चैत्र मासमें श्रीहरिका पूजन करे। देखि वैशाख मासमें जब कि सूर्य वृषराशिपर स्थित हों, केतकी (केवड़े) के पत्ते लेकर महाप्रभु श्रीविष्णुका पूजन करना चाहिये। जिन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन कर लिया, उनके ऊपर श्रीहरि संतुष्ट रहते हैं। ज्येष्ठ मास आनेपर नाना प्रकारके फूलोंसे भगवान्की पूजा करनी चाहिये। देवदेवेश्वर श्रीविष्णुके पूजित होनेपर सम्पूर्ण देवताओंकी पूजा सम्पन्न हो जाती है। आषाढ़ मासमें कनेरके फूल, लाल फूल अथवा कमलके फूलोंसे भगवान्‌की विशेष पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य इस प्रकार भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं जो सुवर्णके समान रंगवाले कदम्बके फूलोंसे सर्वव्यापी गोविन्दकी पूजा करेंगे, उन्हें कभी यमराजका भय नहीं होगा। लक्ष्मीपति श्रीविष्णु श्रीलक्ष्मीजीको पाकर जैसे प्रसन्न रहते हैं, उसी प्रकार कदंबका फूल पाकर भी विश्वविधाता श्रीहरिको विशेष प्रसन्नता होती है। सुरेश्वरि । तुलसी, श्यामा-तुलसी तथा अशोकके द्वारा सर्वदा पूजित होनेपर श्रीविष्णु नित्यप्रति कष्टका निवारण करते हैं। जो लोग सावन मास आनेपर अलसीका फूल लेकर अथवा दूर्वादलके द्वारा श्रीजनार्दनकी पूजा करते हैं, उन्हें भगवान् प्रलयकालतक मनोवांछित भोग प्रदान करते रहते हैं। पार्वती भादोंके महीने में चम्पा, श्वेत पुष्प, रक्तसिंदूरक तथा कहारके पुष्पोंसे पूजन करके मनुष्य सब कामनाओंका फल प्राप्त कर लेता है। आश्विनके शुभ मासमें जुही, चमेली तथा नाना प्रकारके शुभ पुष्पोंद्वारा प्रयत्नपूर्वक भक्तिके साथ सदा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। जो कमलके फूल ले आकर श्रीजनार्दनकीपूजा करते हैं, वे मानव इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- चारों पदार्थ प्राप्त कर लेते हैं। कार्तिक मास आनेपर परमेश्वर श्रीविष्णुकी पूजा करनी चाहिये। उस समय ऋतुके अनुकूल जितने भी पुष्प उपलब्ध हों, वे सभी श्रीमाधवको अर्पण करने चाहिये। तिल और तिलके फूल भी चढ़ाये अथवा उन्हींके द्वारा पूजन करे। उनके द्वारा देवेश्वरके पूजित होनेपर मनुष्य अक्षय फलका भागी होता है। जो लोग कार्तिकमें छितवन, मौलसिरी तथा चम्पाके फूलोंसे श्रीजनार्दनकी पूजा करते हैं, वे मनुष्य नहीं, देवता हैं। मार्गशीर्ष मासमें नाना प्रकारके पुष्पों, विशेषतः दिव्य पुष्पों, उत्तम नैवेद्यों, धूपों तथा आरती आदिके द्वारा सदा प्रयत्नपूर्वक भगवान्कापूजन करे। महादेवि! पौष मासमें नाना प्रकारके तुलसीदल तथा कस्तूरीमिश्रित जलके द्वारा पूजन करना कल्याणदायक माना गया है। माघ मास आनेपर नाना प्रकारके फूलोंसे भगवान्‌की पूजा करे। उस समय कपूरसे तथा नाना प्रकारके नैवेद्य एवं लड्डुओंसे पूजा होनी चाहिये। इस प्रकार देवदेवेश्वरके पूजित होनेपर मनुष्य निश्चय ही मनोवांछित फलोंको प्राप्त कर लेता है। फाल्गुनमें भी नवीन पुष्पों अथवा सब प्रकारके फूलोंसे श्रीहरिका अर्चन करना चाहिये। सब तरहके फूल लेकर वसन्तकालकी पूजा सम्पादन करे। इस प्रकार श्रीजगन्नाथके पूजित होनेपर पुरुष श्रीविष्णुकी कृपासे अविनाशी वैकुण्ठपदको प्राप्त कर लेता है।

अध्याय 186 कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति

सूतजी कहते हैं- एक समयकी बात है, देवर्षि नारद कल्पवृक्षके दिव्य पुष्प लेकर द्वारकामें भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये आये। श्रीकृष्णने स्वागत पूर्वक नारदजीका सत्कार करते हुए उन्हें पाद्य-अर्घ्यनिवेदन करनेके पश्चात् बैठनेको आसन दिया। नारदजीने वे दिव्य पुष्प भगवान्‌को भेंट कर दिये। भगवान्ने अपनी सोलह हजार रानियोंमें उन फूलोंको बाँट दिया। तदनन्तर एक दिन सत्यभामाने पूछा—’प्राणनाथ!मैंने पूर्वजन्ममें कौन-सा दान, तप अथवा व्रत किया था जिससे मैं मर्त्यलोकमे जन्म लेकर भी मर्त्यभावसे ऊपर उठ गयी, आपकी अर्द्धांगिनी हुई।

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- प्रिये! एकाग्रचित्त होकर सुनो तुम पूर्वजन्ममें जो कुछ थीं और जिस पुण्यकारक व्रतका तुमने अनुष्ठान किया था, वह सब मैं बताता हूँ। सत्ययुगके अन्तमें मायापुरी (हरद्वार) के भीतर अत्रिकुलमें उत्पन्न एक ब्राह्मण रहते थे, जो देवशर्मा नामसे प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान्, अतिथिसेवी, अग्निहोत्रपरायण और सूर्यव्रतके पालनमें तत्पर रहनेवाले थे। प्रतिदिन सूर्यकी आराधना करनेके कारण वे साक्षात् दूसरे सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ते थे। उनकी अवस्था अधिक हो चली थी। ब्राह्मणके कोई पुत्र नहीं था केवल एक पुत्री थी, जिसका नाम गुणवती था। उन्होंने अपने चन्द्र नामक शिष्यके साथ उसका विवाह कर दिया। वे उस शिष्यको ही पुत्रकी भाँति मानते थे और वह जितेन्द्रिय शिष्य भी उन्हें पिताके ही तुल्य समझता था। एक दिन वे दोनों गुरु-शिष्य कुश और समिधा लानेके लिये गये और हिमालयके शाखाभूत पर्वतके वनमें इधर उधर भ्रमण करने लगे; इतनेमें ही उन्होंने एक भयंकर राक्षसको अपनी ओर आते देखा। उनके सारे अंग भयसे काँपने लगे। वे भागने में भी असमर्थ हो गये। तबतक उस कालरूपी राक्षसने उन दोनोंको मार डाला। उस क्षेत्रके प्रभावसे तथा स्वयं धर्मात्मा होनेके कारण उन दोनोंको मेरे पार्षदोंने वैकुण्ठ धाममें पहुँचा दिया। उन्होंने जो जीवनभर सूर्यपूजन आदि किया था, उस कर्मसे मैं उनके ऊपर बहुत संतुष्ट था सूर्य, शिव, गणेश, विष्णु तथा शक्तिके उपासक भी मुझे ही प्राप्त होते हैं। जैसे वर्षाका जल सब ओरसे समुद्रमें हो जाता है, उसी प्रकार इन पाँचोंके उपासक मेरे ही पास आते हैं। मैं एक ही हूँ. तथापि लीलाके अनुसार भिन्न-भिन्न नाम धारण करकेपाँच रूपोंमें प्रकट हुआ हूँ। ठीक उसी तरह, जैसे कोई देवदत्त नामक एक ही व्यक्ति पुत्र पिता आदि भिन्न भिन्न नामोंसे पुकारा जाता है। *

तदनन्तर गुणवतीने जब राक्षसके हाथसे उन दोनोंके मारे जानेका हाल सुना, तब वह पिता और पतिके वियोग-दुःखसे पीड़ित होकर करुणस्वरमें विलाप करने लगी- ‘हा नाथ! हा तात ! आप दोनों मुझे अकेली छोड़कर कहाँ चले गये ? मैं अनाथ बालिका आपके बिना अब क्या करूँगी। अब कौन घरमें बैठी हुई मुझ कुशलहीन दुःखिनी स्त्रीका भोजन और वस्त्र आदिके द्वारा पालन करेगा।’ इस प्रकार बारंबार करुणाजनक विलाप करके वह बहुत देरके बाद चुप हुई। गुणवती शुभकर्म करनेवाली थी। उसने घरका सारा सामान बेंचकर अपनी शक्तिके अनुसार पिता और पतिका पारलौकिक कर्म किया। तत्पश्चात् वह उसी नगरमें निवास करने लगी। शान्तभावसे सत्य- शौच आदिके पालनमें तत्पर हो भगवान् विष्णुके भजनमें समय बिताने लगी। उसने अपने जीवनभर दो व्रतोंका विधिपूर्वक पालन किया-एक तो एकादशीका उपवास और दूसरा कार्तिक मासका भलीभाँति सेवन। प्रिये ! ये दो व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। ये पुण्य उत्पन्न करनेवाले, पुत्र और सम्पत्तिके दाता तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। जो कार्तिकके महीनेमें सूर्यके तुलाराशिपर रहते समय प्रातः काल स्नान करते हैं, वे महापातकी होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मनुष्य कार्तिकमें स्नान, जागरण, दीपदान और तुलसीवनका पालन करते हैं, वे साक्षात् भगवान् विष्णुके स्वरूप हैं। जो लोग श्रीविष्णुमन्दिरमें झाडू देते, स्वस्तिक आदि निवेदन करते और श्रीविष्णुकी पूजा करते रहते हैं, वे जीवन्मुक्त हैं। जो कार्तिकमें तीन दिन भी इस नियमका पालन करते हैं, वे देवताओंके लिये वन्दनीय हो जाते हैं। फिर जिन लोगोंने आजन्म इस कार्तिकव्रतकाअनुष्ठान किया है, उनके लिये तो कहना ही क्या है। इस प्रकार गुणवती प्रतिवर्ष कार्तिकका व्रत किया करती थी वह श्रीविष्णुकी परिचर्या में नित्य-निरन्तर भक्तिपूर्वक मन लगाये रहती थी। एक समय, जब कि जरावस्थासे उसके सारे अंग दुर्बल हो गये थे और वह स्वयं भी ज्वरसे पीड़ित थी, किसी तरह धीरे-धीरे चलकर गंगाके तटपर स्नान करनेके लिये गयी। ज्यों ही उसने जलके भीतर पैर रखा, त्यों ही वह शीतसे पीड़ित हो काँपती हुई गिर पड़ी उस घबराहटकी दशामें ही उसने देखा, आकाशसे विमान उतर रहा है, जो शंख,
चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले श्रीविष्णुरूपधारी पार्षदोंसे सुशोभित है और उसमें गरुड़चिह्नसे अंकित ध्वजा फहरा रही है। विमानके निकट आनेपर वहदिव्यरूप धारण करके उसपर बैठ गयी। उसके लिये चँवर डुलाया जाने लगा। मेरे पार्षद उसे वैकुण्ठ ले चले। विमानपर बैठी हुई गुणवती प्रज्वलित अग्नि शिखाके समान तेजस्विनी जान पड़ती थी, कार्तिकव्रतके पुण्यसे उसे मेरे निकट स्थान मिला।

तदनन्तर जब मैं ब्रह्मा आदि देवताओंकी प्रार्थनासे इस पृथ्वीपर आया, तब मेरे पार्षदगण भी मेरे साथ ही आये। भामिनि ! समस्त यादव मेरे पार्षदगण ही हैं। ये मेरे समान गुणोंसे शोभा पानेवाले और मेरे प्रियतम हैं। जो तुम्हारे पिता देवशर्मा थे, वे ही अब सत्राजित् हुए हैं। शुभे ! चन्द्रशर्मा ही अक्रूर हैं और तुम गुणवती हो। कार्तिकव्रतके पुण्यसे तुमने मेरी प्रसन्नताको बहुत बढ़ाया है। पूर्वजन्ममें तुमने मेरे मन्दिरके द्वारपर जो तुलसीकी वाटिका लगा रखी थी, इसीसे तुम्हारे आँगनमें कल्पवृक्ष शोभा पा रहा है। पूर्वकालमें तुमने जो कार्तिकमें दीपदान किया था, उसीके प्रभावसे तुम्हारे घरमें यह स्थिर लक्ष्मी प्राप्त हुई है तथा तुमने जो अपने व्रत आदि सब कर्मोंको पतिस्वरूप श्रीविष्णुकी सेवामें निवेदन किया था, इसीलिये तुम मेरी पत्नी हुई हो। मृत्युपर्यन्त जो कार्तिकव्रतका अनुष्ठान किया है, उसके प्रभावसे तुम्हारा मुझसे कभी भी वियोग नहीं होगा। इस प्रकार जो मनुष्य कार्तिक मासमें व्रतपरायण होते हैं, वे मेरे समीप आते हैं, जिस प्रकार कि तुम मुझे प्रसन्नता देती हुई यहाँ आयी हो। केवल यज्ञ, दान, तप और व्रत करनेवाले मनुष्य कार्तिकव्रतके पुण्यकी एक कला भी नहीं पा सकते।

सूतजी कहते हैं- इस प्रकार जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे अपने पूर्वजन्मके पुण्यमय वैभवकी बात सुनकर उस समय महारानी सत्यभामाको बड़ा हर्ष हुआ।

अध्याय 187 कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा

सत्यभामाने पूछा- देवदेवेश्वर तिथियोंमें एकादशी और महीनों में कार्तिक मास आपको विशेष प्रिय क्यों हैं? इसका कारण बताइये।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले- सत्ये! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। एकाग्रचित्त होकर सुनो। प्रिये! पूर्वकालमें राजा पृथुने भी देवर्षि नारदसे ऐसा ही प्रश्न किया था। उस समय सर्वज्ञ मुनिने उन्हें कार्तिक मासकीश्रेष्ठताका कारण बताया था।

नारदजी बोले – पूर्वकालमें शंख नामक एक असुर था, जो त्रिलोकीका नाश करनेमें समर्थ तथा महान् बल एवं पराक्रमसे युक्त था। वह समुद्रका पुत्र था। उस महान् असुरने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गसे बाहर कर दिया और इन्द्र आदि • लोकपालोंके अधिकार छीन लिये। देवता मेरुगिरिकी दुर्गम कन्दराओंमें छिपकर रहने लगे। शत्रुके अधीन नहीं हुए। तब दैत्यने सोचा कि ‘देवता वेदमन्त्रोंकेबलसे प्रबल प्रतीत होते हैं। यह बात मेरी समझमें आ गयी है, अतः मैं वेदोंका ही अपहरण करूँगा। इससे समस्त देवता निर्बल हो जायेंगे। ऐसा निश्चय करके वह वेदोंको हर ले आया। इधर ब्रह्माजी पूजाकी सामग्री लेकर देवताओंके साथ वैकुण्ठलोकमें जा भगवान् विष्णुकी शरणमें गये। उन्होंने भगवान्‌को जगानेके लिये गीत गाये और बाजे बजाये तब भगवान् विष्णु उनकी भक्तिसे संतुष्ट हो जाग उठे। देवताओंने उनका दर्शन किया। वे सहस्रों सूर्योक समान कान्तिमान् दिखायी देते थे। उस समय षोडशोपचारसे भगवान्‌की पूजा करके देवता उनके चरणोंमें पड़ गये। तब भगवान् लक्ष्मीपतिने उनसे इस प्रकार कहा।

श्रीविष्णु बोले- देवताओ तुम्हारे गीत वाद्य आदि मंगलमय कार्योंसे संतुष्ट हो मैं वर देनेको उद्यत हूँ तुम्हारी सभी मनोवांछित कामनाओंको पूर्ण करूँगा। कार्तिक शुक्लपक्षमें ‘प्रबोधिनी’ एकादशीकेदिन जब एक पहर रात बाकी रहे, उस समय गीत वाद्य आदि मंगलमय विधानोंके द्वारा जो लोग तुम्हारे ही समान मेरी आराधना करेंगे, वे मुझे प्रसन्न करनेके कारण मेरे समीप आ जायँगे। शंखासुरके द्वारा हरे गये सम्पूर्ण वेद जलमें स्थित हैं। मैं सागरपुत्र शंखका वध करके उन्हें ले आऊँगा। आजसे लेकर सदा ही प्रतिवर्ष कार्तिक मासमें मन्त्र, बीज और यज्ञोंसे युक्त वेद जलमें विश्राम करेंगे। आजसे मैं भी इस महीने में जलके भीतर निवास करूँगा। तुमलोग भी मुनीश्वरोंको साथ लेकर मेरे साथ आओ। इस समय जो श्रेष्ठ द्विज प्रातः स्नान करते हैं, वे निश्चय ही सम्पूर्ण यज्ञोंका अवभृथस्नान कर चुके। जिन्होंने जीवनभर शास्त्रोक्त विधिसे कार्तिकके उत्तम व्रतका पालन किया हो, वे तुमलोगोंके भी माननीय हों तुमने एकादशीको मुझे जगाया है; इसलिये यह तिथि मेरे लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी और माननीय होगी। कार्तिक मास और एकादशी तिथि – इन दो व्रतोंका यदि मनुष्य अनुष्ठान करें तो ये मेरे सांनिध्यकी प्राप्ति करानेवाले हैं। इनके समान दूसरा कोई साधन नहीं है।

नारदजी कहते हैं- यह कहकर भगवान् विष्णुमछलीके समान रूप धारण करके आकाशसे विन्ध्य पर्वतनिवासी कश्यप मुनिकी अंजलिमें गिरे। मुनिने करुणावश उस मत्स्यको अपने कमण्डलुमें रख लिया; किन्तु वह उसमें अँट न सका। तब उन्होंने उसे कुएँ में ले जाकर डाल दिया। जब उसमें भी वह न आ सका, तब मुनिने उसे तालाबमें पहुँचा दिया; किन्तु वहाँ भी यही दशा हुई। इस प्रकार उसे अनेक स्थानों में रखते हुए अन्ततोगत्वा उन्होंने समुद्रमें डाल दिया। वहाँ भी बढ़कर वह विशालकाय हो गया । तदनन्तर उन मत्स्यरूपधारी भगवान् विष्णुने शंखासुरका वध किया और उस शंखको अपने हाथमें लिये वे बदरीवनमें गये। वहाँ सम्पूर्ण ऋषियोंको बुलाकर भगवान्ने इस प्रकार आदेश दिया।

श्रीविष्णु बोले- महर्षियो! जलके भीतर बिखरे हुए वेदोंकी खोज करो और रहस्योंसहित उनका पता लगाकर शीघ्र ही ले आओ। तबतक मैं देवताओंके साथ प्रयागमें ठहरता हूँ।

तब तेज और बलसे सम्पन्न समस्त मुनियोंने यज्ञ और बीजसहित वेदमन्त्रोंका उद्धार किया। जिस वेदके जितने मन्त्रको जिस ऋषिने उपलब्ध किया, वही उतनेभागका तबसे ऋषि माना जाने लगा। तदनन्तर सब मुनि एकत्रित होकर प्रयागमें गये तथा ब्रह्माजीसहित भगवान् विष्णुको उन्होंने प्राप्त किये हुए वेद अर्पण कर दिये यज्ञसहित वेदोंको पाकर ब्रह्माजीको बड़ा हर्ष हुआ तथा उन्होंने देवताओं और ऋषियोंके साथ प्रयागमें अश्वमेधयज्ञ किया। यज्ञकी समाप्ति होनेपर देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर तथा गुह्यकोंने पृथ्वीपर साष्टांग प्रणाम करके यह प्रार्थना की।

देवता बोले- देवाधिदेव जगन्नाथ प्रभो! हमारा निवेदन सुनिये। हमलोगोंके लिये यह बड़े हर्षका समय है, अतः आप हमें वरदान दें। रमापते ! इस स्थानपर ब्रह्माजीको खोये हुए वेदोंकी प्राप्ति हुई है तथा आपकी कृपासे हमें भी यज्ञभाग उपलब्ध हुआ है; अतः यह स्थान पृथ्वीपर सबसे अधिक श्रेष्ठ और पुण्यवर्धक हो। इतना ही नहीं, आपके प्रसादसे यह भोग और मोक्षका भी दाता हो। साथ ही यह समय भी महान् पुण्यदायक और ब्रह्महत्यारे आदिकी भी शुद्धि करनेवाला हो। इसमें दिया हुआ सब कुछ अक्षय हो। यही वर हमें दीजिये।

भगवान् विष्णुने कहा- देवताओ! तुमने जो कुछ कहा है, उसमें मेरी भी सम्मति है अतः तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, यह स्थान आजसे ‘ब्रह्मक्षेत्र’ नाम धारण करे। सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा भगीरथ यहाँ गंगाको ले आयेंगे और वह सूर्यकन्या यमुनाजीके साथ यहाँ मिलेगी। ब्रह्माजीसहित तुम सम्पूर्ण देवता भी मेरे साथ यहाँ निवास करो। आजसे यह तीर्थ ‘तीर्थराज’ के नामसे विख्यात होगा। यहाँ किये हुए दान, व्रत, तप, होम, उप और पूजा आदि कर्म अक्षय फलके दाता और सदा मेरी समीपताकी प्राप्ति करानेवाले हों। सात जन्मों मेंकिये हुए ब्रह्महत्या आदि पाप भी इस तीर्थका दर्शन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ। जो धीर पुरुष इस तीर्थमें मेरे समीप मृत्युको प्राप्त होंगे, वे मुझमें ही प्रवेश कर जायँगे, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। जो यहाँ मेरे आगे पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करेंगे, उनके समस्त पितर मेरे लोकमें चले जायँगे। यह काल भी मनुष्योंके लिये महान् पुण्यमय तथा उत्तम फल प्रदान करनेवाला होगा। सूर्यके मकरराशिपर स्थित रहते हुए जो लोग यहाँ प्रात:काल स्नान करेंगे, उनके लिये यह स्थान पापनाशक होगा। मकरराशिपर सूर्यके रहते समय माघमें प्रातः स्नान करनेवाले मनुष्योंके दर्शनमात्रसे सारे पाप उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे सूर्योदयसे अन्धकार । माघमें जब सूर्य मकरराशिपर स्थित हों, उस समय यहाँ प्रातः स्नान करनेपर मैं मनुष्योंको क्रमशः सालोक्य, सामीप्य और सारूप्य – तीनों प्रकारकी मुक्ति दूँगा। मुनीश्वरो तुम सब लोग मेरी बात सुनो। यद्यपि मैं सर्वत्र व्यापक हूँ, तो भी बदरीवनमें सदा विशेषरूपसे निवास करता हूँ; अन्यत्र दस वर्षोंतक तपस्या करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वही वहाँ एक दिनकी तपस्यासे तुमलोग प्राप्त कर सकते हो। जो नरश्रेष्ठ उस स्थानका दर्शन करते हैं, वे सदाके लिये जीवन्मुक्त हैं। उनके शरीरमें पाप नहीं रहता।

नारदजी कहते हैं— देवदेव भगवान् विष्णु देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजीके साथ वहीं अन्तर्धान हो गये तथा इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता भी अपने अंशोंसे वहाँ रहकर स्वरूपसे अन्तर्धान हो गये। जो शुद्ध चित्तवाला श्रेष्ठ पुरुष इस कथाको सुनता या सुनाता है, वह तीर्थराज प्रयाग और बदरीवनकी यात्रा करनेका फल प्राप्त कर लेता है।

अध्याय 188 कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि

राजा पृथुने कहा- मुने! आपने कार्तिक और मापके स्नानका महान फल बतलायाः अब उनमें किये जानेवाले स्नानको विधि और नियमोंका भी वर्णन कीजिये, साथ ही उनको उद्यापन विधिको भी ठीक ठीक बताइये।

नारदजी बोले – राजन्! तुम भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारे लिये कोई बात अज्ञात नहीं है। तथापि तुम पूछते हो, इसलिये में कार्तिकके परम उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ; सुनो। आश्विन मासके शुक्लपक्षमें जो एकादशी आती है, उसी दिन आलस्य छोड़कर कार्तिकके उत्तम व्रतोंका नियम ग्रहण करे व्रत करनेवाला पुरुष पहरभर रात बाकी रहे, तभी उठे और जलसहित लोटा लेकर गाँवसे बाहर नैर्ऋऋत्यकोणकी और जाय दिन और सन्ध्याके समय उत्तरदिशाकी और मुँह करके तथा रात हो तो दक्षिणको और मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करे। पहले जनेऊको दाहिने कानपर चढ़ा ले और भूमिको तिनकेसे ढककर अपने मस्तकको वस्त्रसे आच्छादित कर लें। शौचके समय मुखको यत्नपूर्वक मूंदे रखे। न तो थूके और न मुँहसे ऊपरको साँस ही खींचें। मलत्यागके पश्चात् गुदाभाग तथा हाथको इस प्रकार धोये, जिससे मलका लेप और दुर्गन्ध दूर हो जाय। इस कार्यमें आलस्य नहीं करना चाहिये। पाँच बार गुदामें, दस बार बायें हाथमें तथा सात-सात बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धीये। फिर एक बार लिंगमें, तीन बार बायें हाथमें और दो-दो बार दोनों हाथोंमें मिट्टी लगाकर धोये। यह गृहस्थके लिये शौचकी विधि बतायी गयी। ब्रह्मचारीके लिये इससे दूना, वानप्रस्थ के लिये तिगुना और संन्यासीके लिये चौगुना करनेका विधान है। रातको दिनकी अपेक्षा आधे शौच (मिट्टी (लगाकर धोने) का नियम है। रास्ता चलनेवाले व्यक्तिके लिये, स्वीके लिये तथा शूद्रोंके लिये उससे भी आधे शौचका विधान है। शौचकर्मसे हीन पुरुषकी समस्त क्रियाएँ निष्फल होती हैं। जो अपने मुँहकोअच्छी तरह साफ नहीं रखता, उसके उच्चारण किये हुए मन्त्र फलदायक नहीं होते; इसलिये प्रयत्नपूर्वक दाँत और जो की शुद्धि करनी चाहिये। गृहस्थ पुरुष किसी दूधवाले वृक्षकी बारह अंगुलकी लकड़ी लेकर दाँतुन करे; किन्तु यदि घरमें पिताको क्षयाह तिथि या व्रत हो तो दाँतुन न करे। दाँतुन करनेके पहले वनस्पतिदेवतासे इस प्रकार प्रार्थना करे

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च ।

ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥

(94 । 11) ‘हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, संतति, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान और स्मरणशक्ति प्रदान करें।’

इस मन्त्रका उच्चारण करके दाँतुनसे दाँत साफ करना चाहिये । प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, षष्ठी, रविवार तथा चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके दिन दाँतुन नहीं करना चाहिये। व्रत और श्राद्धके दिन भी लकड़ीकी दातुन करना मना है, उन दिनों जलके बारह कुल्ले करके मुख शुद्ध करनेका विधान है। काँटेदार वृक्ष, कपास, सिन्धुवार, ब्रह्मवृक्ष ( पलाश), बरगद, एरण्ड (रेंड) और दुर्गन्धयुक्त वृक्षोंकी लकड़ीको दाँतुनके काममें नहीं लेना चाहिये। फिर स्नान करनेके पश्चात् भक्तिपरायण एवं प्रसन्नचित्त होकर चन्दन, फूल और ताम्बूल आदि पूजाकी सामग्री ले भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें जाय । वहाँ भगवान्‌को पृथक्-पृथक् पाद्य- अर्घ्य आदि उपचार अर्पण करके स्तुति करे तथा पुनः नमस्कार करके गीत आदि मांगलिक उत्सवका प्रबन्ध करे। ताल, वेषु और मृदंग आदि बाजोंके साथ भगवान् के सामने नृत्य और गान करनेवाले लोगोंका भी ताम्बूल आदिके द्वारा सत्कार करे। जो भगवान्‌के मन्दिरमें गान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुरूप है। कलियुगमे किये हुए यज्ञ, दान और तप भक्तिसे युक्त होनेपर ही भगवान्‌को संतोष देनेवाले होते हैं।राजन्! एक बार मैंने भगवान्से पूछा-‘देवेश्वर! आप कहाँ निवास करते हैं?’ तो वे मेरी भष्टि होकर बोले-‘नारद न तो मैं कुष्ठ निवास करता हूँ और न योगियोंके हृदयमें मेरे भक्त जहाँ मेरा गुण गान करते हैं, वहीं मैं भी रहता हूँ।1 यदि मनुष्य इन्ध, पुष्प आदिके द्वारा मेरे भौंका पूजन करते हैं। तो उससे मुझे जितनी अधिक प्रसन्नता होती है, उतनी स्वयं मेरी पूजा करनेसे भी नहीं होती। जो मूर्ख मानव मेरी पुराण कथा और मेरे भक्तोंका गान सुनकर निन्दा करते हैं, वे मेरे द्वेषके पात्र होते हैं।

शिरीष, (सिरस), उन्मत्त (धतूरा), गिरिजा (मातुलुंगी), मल्लिका (मालती), सेमल, मदार और कनेर के फूलोंसे तथा अक्षतोंके द्वारा श्रीविष्णुकी पूजा नहीं करनी चाहिये। जया, कुन्द, सिरस, जूही, मालती और केवड़ेके फूलोंसे श्रीशंकरजीका पूजन नहीं करना चाहिये। लक्ष्मी प्राप्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष तुलसीदलसे गणेशका दूर्वादलसे दुर्गाका तथा अगस्त्यके फूलोंसे सूर्यदेवका पूजन न करे। 2 इनके अतिरिक्त जो उत्तम पुष्प हैं, वे सदा सब देवताओंकी पूजाके लिये प्रशस्त माने गये हैं। इस प्रकार पूजा विधि पूर्ण करके देवदेव भगवान्से क्षमा-प्रार्थना करे

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीन सुरेश्वर मे॥

यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ॥

(94 । 30)

‘देवेश्वर! देव! मेरे द्वारा किये गये आपके पूजनमें जो मन्त्र, विधि तथा भक्तिकी न्यूनता हुई हो, वह सब आपकी कृपासे पूर्ण हो जाय। तदनन्तर प्रदक्षिणा करके दण्डवत् प्रणाम करे तथा पुनः भगवान्से त्रुटियोंके लिये क्षमा-याचना करते हुए गायन आदि समाप्त करे। जो इस कार्तिककी रात्रिमेंभगवान् विष्णु अथवा शिवकी भलीभाँति पूजा करते हैं, वे मनुष्य पापहीन हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रीविष्णुके धाममें जाते हैं।

नारदजी कहते हैं—जब दो घड़ी रात बाकी रहे, तब तिल, कुश, अक्षत, फूल और चन्दन आदि लेकर पवित्रतापूर्वक जलाशयके तटपर जाय मनुष्यका खुदवाया हुआ पोखरा हो अथवा कोई देवकुण्ड हो या नदी अथवा उसका संगम हो– इनमें उत्तरोत्तर दसगुने पुण्यकी प्राप्ति होती हैं तथा यदि तीर्थमें स्नान करे तो उसका अनन्त फल माना गया है। तत्पश्चात् भगवान् विष्णुका स्मरण करके स्नानका संकल्प करे तथा तीर्थ आदिके देवताओंको क्रमशः अर्घ्य आदि निवेदन करे। फिर भगवान् विष्णुको अर्घ्य देते हुए निम्नांकित मन्त्रका पाठ करे

नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।

नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्ध्व नमोऽस्तु ते ॥

कार्त्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातः स्नानं जनार्दन

प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ॥

ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः ।

तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु ॥

(95 । 4, 7, 8) ‘भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है। जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणको नमस्कार है। हृषीकेश! आपको बारंबार नमस्कार है। यह अर्घ्य ग्रहण कीजिये। जनार्दन! देवेश! लक्ष्मीसहित दामोदर मैं आपकी प्रसन्नताके लिये कार्तिकमें प्रातः स्नान करूंगा। देवेश्वर आपका ध्यान करके मैं इस जलमें स्नान करनेको उद्यत हूँ। दामोदर! आपकी कृपासे मेरा पाप नष्ट हो जाय।’ तत्पश्चात् राधासहित भगवान् श्रीकृष्णको निम्नांकित
मन्त्रसे अर्घ्य दे

नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्त्तिके पापनाशने।

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।। (95/9)

‘श्रीराधासहित भगवान् श्रीकृष्ण ! नित्य और

नैमित्तिक कर्मरूप इस पापनाशक कार्तिकस्नानके व्रतके

निमित्त मेरा दिया हुआ यह अर्घ्य स्वीकार करें। ‘ इसके बाद व्रत करनेवाला पुरुष भागीरथी, श्रीविष्णु, शिव और सूर्यका स्मरण करके नाभिके बराबर जलमें खड़ा हो विधिपूर्वक स्नान करें। गृहस्थ पुरुषको तिल और आँवलेका चूर्ण लगाकर स्नान करना चाहिये। वनवासी संन्यासी तुलसीके मूलकी मिट्टी लगाकर स्नान करे। सप्तमी, अमावास्या, नवमी, द्वितीया, दशमी और त्रयोदशीको आँवलेके फल और तिलके द्वारा स्नान करना निषिद्ध है। पहले मल स्नान करे अर्थात् शरीरको खूब मल मलकर उसकी मैल छुड़ाये। उसके बाद मन्त्रस्नान करे। स्त्री और शूद्रोंको वेदोक्त मन्त्रोंसे स्नान नहीं करना चाहिये। उनके लिये पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग बताया गया है।

व्रती पुरुष अपने हाथमें पवित्रक धारण करके निम्नांकित मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए स्नान करे

त्रिधाभूद्देवकार्यार्थं यः पुरा भक्तिभावितः

स विष्णुः सर्वपापघ्नः पुनातु कृपयात्र माम् ॥

विष्णोराज्ञामनुप्राप्य कार्तिकव्रतकारणात्।

क्षमन्तु देवास्ते सर्वे मां पुनन्तु सवासवाः ॥

वेदमन्त्राः सबीजाश्च सरहस्या मखान्विताः

कश्यपाद्याश्च मुनयो मां पुनन्तु सदैव ते ॥

गङ्गाद्याः सरितः सर्वास्तीर्थानि जलदा नदाः ।

ससप्तसागराः सर्वे मां पुनन्तु सदैव ते ॥

पतिव्रतास्त्वदित्याद्या यक्षाः सिद्धाः सपन्नगाः ।

ओषध्यः पर्वताश्चापि मां पुनन्तु त्रिलोकजाः ॥

(95। 14–18) ‘जो पूर्वकालमें भक्तिपूर्वक चिन्तन करनेपर देवताओंके कार्यकी सिद्धिके लिये तीन स्वरूपोंमें प्रकट हुए तथा जो समस्त पापका नाश करनेवाले हैं, ये भगवान् विष्णु यहाँ कृपापूर्वक मुझे पवित्र करें।श्रीविष्णुकी आज्ञा प्राप्त करके कार्तिकका व्रत करनेके कारण यदि मुझसे कोई त्रुटि हो जाय तो उसके लिये समस्त देवता मुझे क्षमा करें तथा इन्द्र आदि देवता मुझे पवित्र करें। बीज, रहस्य और यज्ञसहित वेदमन्त्र और कश्यप आदि मुनि मुझे सदा ही पवित्र करें। गंगा आदि सम्पूर्ण नदियाँ तीर्थ मेघ, नद और सात समुद्र- ये सभी मुझे सर्वदा पवित्र करें। अदिति आदि पतिव्रताएँ, यक्ष, सिद्ध, नाग तथा त्रिभुवनकी ओषधि और पर्वत भी मुझे पवित्र करें।’

स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक देवता, ऋषि मनुष्य (सनकादि) तथा पितरोंका तर्पण करे। कार्तिक मासमें पितृतर्पणके समय जितने तिलोंका उपयोग किया जाता है, उतने ही वर्षोंतक पितर स्वर्गलोकमें निवास करते हैं। तदनन्तर जलसे बाहर निकलकर व्रती मनुष्य पवित्र वस्त्र धारण करे और प्रातः कालोचित नित्यकर्म पूरा करके श्रीहरिका पूजन करे। फिर भक्तिसे भगवान्में मन लगाकर तीर्थों और देवताओंका स्मरण करते हुए पुनः गन्ध, पुष्प और फलसे युक्त अर्घ्य निवेदन करे। अर्घ्यका मन्त्र इस प्रकार है

व्रतिनः कार्त्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम ।

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ॥ (95।23)

‘भगवन्! मैं कार्तिक मासमें स्नानका व्रत लेकर विधिपूर्वक स्नान कर चुका है। मेरे दिये हुए इस अर्घ्यको आप श्रीराधिकाजीके साथ स्वीकार करें।’ इसके बाद वेदविद्याके पारंगत ब्राह्मणोंका गन्ध, पुष्प और ताम्बूलके द्वारा भक्तिपूर्वक पूजन करे और बारंबार उनके चरणोंमें मस्तक झुकावे ब्राह्मणके दाहिने पैर में सम्पूर्ण तीर्थ, मुखमें वेद और समस्त अंगोंमें देवता निवास करते हैं; अतः ब्राह्मणके पूजन करनेसे इन सबकी पूजा हो जाती है। इसके पश्चात् हरिप्रिया भगवती तुलसीकी पूजा करे। प्रयागमें स्नान करने, काशीमै मृत्यु होने और वेदोंके स्वाध्याय करनेसे जो फल प्राप्त होता है; वह सब श्रीतुलसीके पूजनसे मिल जाता है, अतः एकाग्रचित्त होकर निम्नांकित मन्त्रसे तुलसीकी प्रदक्षिणा और नमस्कार करे

देवैस्त्वं निर्मिता पूर्वमर्चिताऽसि मुनीश्वरैः

नमो नमस्ते तुलसि पापं हर हरिप्रिये ॥

(95।30)

‘हरिप्रिया तुलसीदेवी! पूर्वकालमें देवताओंने तुम्हें उत्पन्न किया और मुनीश्वरोंने तुम्हारी पूजा की। तुम्हें बारंबार नमस्कार है। मेरे सारे पाप हर लो।’तुलसी पूजनके पश्चात् व्रत करनेवाला भक्तिमान् पुरुष चित्तको एकाग्र करके भगवान् विष्णुकी पौराणिक कथा सुने तथा कथा वाचक विद्वान् ब्राह्मण अथवा मुनिकी पूजा करे। जो मनुष्य भक्तियुक्त होकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधियोंका भलीभाँति पालन करता है, वह अन्तमें भगवान् नारायणके परमधाममें जाता है।

अध्याय 189 कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि

नारदजी कहते हैं-राजन्। कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषोंके लिये जो नियम बताये गये हैं, उनका मैं संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। ध्यान देकर सुनो। अन्नदान देना, गौओंको ग्रास अर्पण करना, वैष्णव पुरुषोंके साथ वार्तालाप करना तथा दूसरेके दीपकको जलाना या उकसाना – इन सब कार्योंसे मनीषी पुरुष धर्मकी प्राप्ति बतलाते हैं। बुद्धिमान् पुरुष दूसरेके अन्न, दूसरेकी शय्या, दूसरेकी निन्दा और दूसरेको स्वीका सदा ही परित्याग करे तथा कार्तिकमें तो इन्हें त्यागनेको विशेषरूपसे चेष्टा करे। उड़द, मधु, सौवीरक तथा राजमाष (किराव) आदि अन्न कार्तिकका व्रत करनेवाले मनुष्यको नहीं खाने चाहिये। दाल, तिलका तेल, भाव- दूषित तथा शब्द दूषित अन्नका भी व्रती मनुष्य परित्याग करे। कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष देवता, वेद, द्विज, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री, राजा तथा महापुरुषोंकी निन्दा छोड़ दे। बकरी, गाय और भैंसके दूधको छोड़कर अन्य सभी पशुओंका दूध मांसके समान वर्जित है। ब्राह्मणोंके खरीदे हुए सभी प्रकारके रस, ताँबेके पात्रमें रखा हुआ गायका दूध, दही और घी, गढ़ेका पानी और केवल अपने लिये बनाया हुआ भोजन – इन सबको विद्वान् पुरुषोंने आमिषके तुल्य माना है। व्रती मनुष्योंको सदा ही ब्रह्मचर्यका पालन, भूमिपर शयन, पत्तलमें भोजन और दिनके चौथे पहरमें एक बार अन्न ग्रहण करना चाहिये। कार्तिकका व्रत करनेवाला मानव प्याज, लहसुन, हींग, छत्राक (गोबर- छत्ता), गाजर, नालिक (भसड़), मूली और साग खाना छोड़ दे। लौकी, भाँटा(बैगन), कोहड़ा, भतुआ, लसोड़ा और कैथ भी त्याग दे। व्रती पुरुष रजस्वलाका स्पर्श न करे; म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदके अनधिकारी पुरुषोंसे कभी वार्तालाप न करे। इन लोगोंने जिस अन्नको देख लिया हो, उस अन्नको भी न खाय; कौओंका जूठा किया हुआ, सूतकयुक्त घरका बना हुआ, दो बार पकाया तथा जला हुआ अन्न भी वैष्णवव्रतका पालन करनेवाले पुरुषोंके लिये अखाद्य है जो कार्तिकमें तेल लगाना, खाटपर सोना, दूसरेका अन्न लेना और काँसके बर्तनमें भोजन करना छोड़ देता है, उसीका व्रत परिपूर्ण होता है। व्रती पुरुष प्रत्येक व्रतमें सदा ही पूर्वोक्त निषिद्ध वस्तुओंका त्याग करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये कृच्छ्र आदि व्रतोंका अनुष्ठान करता रहे। गृहस्थ पुरुष रविवारके दिन सदा ही आँवलेके फलका त्याग करे।

इसी प्रकार माघमें भी व्रती पुरुष उक्त नियमोंका पालन करे और श्रीहरिके समीप शास्त्रविहित जागरण भी करे यथोक्त नियमोंके पालनमें लगे हुए कार्तिकव्रत करनेवाले मनुष्यको देखकर यमदूत उसी प्रकार भागते हैं, जैसे सिंहसे पीड़ित हाथी । भगवान् विष्णुके इस व्रतको सौ यज्ञोंकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ जानना चाहिये; क्योंकि यज्ञ करनेवाला पुरुष स्वर्गलोकको पाता है। और कार्तिकका व्रत करनेवाला मनुष्य वैकुण्ठधामको इस पृथ्वीपर भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले जितने भी क्षेत्र हैं, वे सभी कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषके शरीरमें निवास करते हैं। मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वाराहोनेवाला जो कुछ भी दुष्कर्म या दुःस्वप्न होता है, वह कार्तिक- व्रतमें लगे हुए पुरुषको देखकर तत्काल नष्ट हो जाता है। इन्द्र आदि देवता भगवान् विष्णुकी आज्ञासे प्रेरित होकर कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषकी निरन्तर रक्षा करते रहते हैं-ठीक उसी तरह, जैसे सेवक राजाकी रक्षा करते हैं। जहाँ सबके द्वारा सम्मानित वैष्णव- व्रतका अनुष्ठान करनेवाला पुरुष नित्य निवास करता है, वहाँ ग्रह, भूत, पिशाच आदि नहीं रहते।

राजन्! अब मैं कार्तिक व्रतके अनुष्ठानमें लगे हुए पुरुषके लिये उत्तम उद्यापन विधिका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ। तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो व्रती मनुष्य कार्तिक शुक्लपक्षको चतुर्दशीको व्रतकी पूर्ति तथा भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये उद्यापन करे। तुलसीजीके ऊपर एक सुन्दर मण्डप बनाये, जिसमें चार दरवाजे बने हों; उस मण्डपमें सुन्दर बंदनवार लगाकर उसे पुष्पमय चैवरसे सुशोभित करे चारों दरवाजोंपर पृथक्-पृथक् मिट्टी के चार द्वारपाल – पुण्यशील, सुशील, जय और विजयकी स्थापना करके उन सबका पूजन करे। तुलसीके मूलभागमें बेदीपर सर्वतोभद्र मण्डल बनाये, जो चार रंगोंसे रंजित होकर सुन्दर शोभासम्पन्न और अत्यन्त मनोहर प्रतीत होता हो । सर्वतोभद्रके ऊपर पंचरत्नयुक्त कलशकी स्थापना करे। उसके ऊपर नारियलका महान् फल रख दे। इस प्रकार कलश स्थापित करके उसके ऊपर समुद्रकन्या लक्ष्मीजीके साथ शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले पीताम्बरधारी देवेश्वर श्रीविष्णुकी पूजा करे। सर्वतोभद्रके करे । मण्डलमें इन्द्र आदि लोकपालोंका भी पूजन करना चाहिये। भगवान् द्वादशीको शयनसे उठे त्रयोदशीको देवताओंने उनका दर्शन किया और चतुर्दशीको 6 सबने उनकी पूजा की इसीलिये इस समय भी उसी तिथिको इनकी पूजा की जाती है। उस दिन शान्त एवं शुद्धचित्त होकर भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये तथा आचार्यकी आज्ञासे देवदेवेश्वर श्रीविष्णुको सुवर्णमयी प्रतिमाका षोडशोपचारद्वारा नाना प्रकारके भक्ष्यभोज्य पदार्थ प्रस्तुत करते हुएपूजन करना चाहिये। रात्रिमें गीत और वाद्य आदि मांगलिक उत्सवके साथ भगवान्‌के समीप जागरण करना चाहिये। जो भगवान् विष्णुके समीप जागरणकालमें भक्तिपूर्वक गान करते हैं, वे सौ जन्मोंकी पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। भगवान् विष्णुके निमित्त जागरणकालमें गीत वाद्य करनेवालों तथा सहस्र गोदान करनेवालोंको भी समान फलकी हो प्राप्ति बतलायी गयी है। जो रात्रिमें वासुदेवके समक्ष जागरण करते समय भगवान् विष्णुके चरित्रोंका पाठ करके वैष्णव पुरुषोंका मनोरंजन करता है तथा मनमानी बातें नहीं करता, उसे प्रतिदिन कोटि तीर्थो के सेवनके समान पुण्य प्राप्त होता है।

रात्रि जागरणके पश्चात् पूर्णिमाको प्रातः काल अपनी शक्तिके अनुसार तीस या एक सपत्नीक ब्राह्मणको भोजनके लिये निमन्त्रित करे। उस दिन किया हुआ दान, होम और जप अक्षय फल देनेवाला माना गया है; अतः व्रती पुरुष खीर आदिके द्वारा ब्राह्मणोंको भलीभाँति भोजन कराये। ‘अतो देवाः’ आदि दो मन्त्रोंसे देवदेव भगवान् विष्णु तथा अन्य देवताओंकी प्रसन्नताके लिये पृथक्-पृथक् तिल और खीरकी आहुति छोड़े। फिर यथाशक्ति दक्षिणा दे उन्हें प्रणाम करे। इसके बाद भगवान् विष्णु देवगण तथा तुलसीका पुन: पूजन करे। कपिला गायकी विधिपूर्वक पूजा करे और व्रतका उपदेश करनेवाले सपत्नीक आचार्यका भी वस्त्र तथा आभूषण आदिके द्वारा पूजन करे। अन्तमें सब ब्राह्मणोंसे क्षमा-प्रार्थना करे- ‘विप्रवरो! आपलोगोंकी कृपासे देवेश्वर भगवान् विष्णु मुझपर सदा प्रसन्न रहें। मैंने गत सात जन्मोंमें जो पाप किये हों, वे सब इस व्रतके प्रभावसे नष्ट हो जायें। प्रतिदिन भगवान के पूजन मेरे सम्पूर्ण मनोरथ सफल हों तथा इस देहका अन्त होनेपर मैं अत्यन्त दुर्लभ वैकुण्ठधामको प्राप्त करूँ।”

इस प्रकार क्षमायाचना करके ब्राह्मणोंको प्रसन्न करनेके पश्चात् उन्हें विदा करे और गौसहित भगवान् विष्णु सुवर्णमयी प्रतिमा आचार्यको दान कर दे। तत्पश्चात् भक्त पुरुष सुइदों और गुरुजनोंके साथ स्वयं भी भोजन करे कार्तिक हो या माथ, उसके लिये ऐसी ही विध बतायी गयी है। जो मनुष्य इस प्रकार कार्त्तिककेउत्तम व्रतका पालन करता है, वह निष्पाप एवं मुक्त होकर भगवान् विष्णुकी समीपता प्राप्त करता है। सम्पूर्ण व्रतों, तीर्थों और दानोंसे जो फल मिलता है, वही इस कार्तिक व्रतका विधिपूर्वक पालन करनेसे करोड़गुना होकर मिलता है। जो कार्तिक व्रतका अनुष्ठान करते हुए भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर होते हैं, वे धन्य हैं, वे सदा पूज्य हैं तथा उन्हींके यहाँ सब प्रकारके शुभफलोंका उदय होता है। देहमें स्थित हुए पाप उस मनुष्यके भयसे काँप उठते हैं और आपसमें कहने लगते हैं-‘अरे यह तो कार्तिकका व्रत करने लगा, अब हम कहाँ जायेंगे।’ जो कार्तिक व्रतके इन नियमोंको भक्तिपूर्वक सुनता तथा वैष्णव पुरुषके आगे इनका वर्णन करता है, वे दोनों ही उत्तम व्रत करनेका फल पाते हैं और उनका दर्शन करनेसे मनुष्योंके पापोंका नाश हो जाता है।

नारदजी कहते हैं- राजन्! कार्तिक-व्रतके उद्यापनमें तुलसीके मूलप्रदेशमें भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है; क्योंकि तुलसी उनके लिये अत्यन्त प्रीतिदायिनी मानी गयी हैं। जिसके घरमें तुलसीका बगीचा लगा होता है, उसका वह घर तीर्थस्वरूप है। यहाँ यमराजके दूत नहीं जाते। तुलसीवन सब पापको हरनेवाला पवित्र तथा मनोवांछित भोगोंको देनेवाला है। जो श्रेष्ठ मानव तुलसीका वृक्ष लगाते हैं, वे कभी यमराजको नहीं देखते। नर्मदाका दर्शन, गंगाका स्नान और तुलसीवनके पास रहना-ये तीनों एक समान माने गये हैं। रोपने, रक्षा करने, सींचने तथा दर्शन और स्पर्श करनेसे तुलसी मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए समस्त पापको भस्म कर डालती है। जो तुलसीकी मंजरियाँसे भगवान् विष्णु और शिवकी पूजा करता है, वह कभी गर्भमें नहीं आता तथा निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। पुष्कर आदि तीर्थ, गंगा आदि नदियाँ तथा वासुदेव आदि देवता- ये सभी तुलसीदलमें निवास करते हैं। नृपश्रेष्ठ जो तुलसीकी मंजरीसे संयुक्त होकर प्राणोंका परित्याग करता है, उसे श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त होता है—यह सत्य है, सत्य है। जोशरीरमें तुलसीकी मिट्टी लगाकर मृत्युको प्राप्त होता है, वह सैकड़ों पापोंसे युक्त हो तो भी उसकी ओर साक्षात् यमराज भी नहीं देख सकते जो मनुष्य तुलसीकाष्ठका चन्दन लगाता है, उसके शरीरको पाप नहीं छू सकते। जहाँ-जहाँ तुलसीवनकी छाया हो, वहीं श्राद्ध करना चाहिये; क्योंकि वहाँ पितरोंके निमित्त दिया हुआ दान अक्षय होता है।

नृपश्रेष्ठ! जो आँवलेकी छायामें पिण्डदान करता है, उसके नरकमें पड़े हुए पितर भी मुक्त हो जाते हैं। जो मस्तकपर, हाथमें, मुखमें तथा शरीरके अन्य किसी अवयवमें आँवलेका फल धारण करता है, उसे साक्षात् श्रीहरिका स्वरूप समझना चाहिये। आँवला, तुलसी और द्वारकाकी मिट्टी (गोपीचन्दन) – ये जिसके शरीरमें स्थित हों, वह मनुष्य सदा जीवन्मुक्त कहलाता है। जो मनुष्य आँवलेके फल और तुलसीदलसे मिश्रित जलके द्वारा स्नान करता है, उसके लिये गंगास्नानका फल बताया गया है। जो आँवलेके पत्ते और फलोंसे देवताकी पूजा करता है, वह भाँति-भाँतिके सुवर्णमय पुष्पोंसे पूजा करनेका फल पाता है। कार्तिकमें जब सूर्य तुलाराशिपर स्थित होते हैं, उस समय समस्त तीर्थ, मुनि, देवता और यज्ञ- ये सभी आँवलेके वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं जो द्वादशीको तुलसीदल और कार्त्तिकमें आँवलेका पत्ता तोड़ता है, वह अत्यन्त निन्दित नरकोंमें पड़ता है। जो कार्तिकमें आँवलेकी छायामें बैठकर भोजन करता है, उसका वर्षभरका अन्नसंसर्गजनित दोष दूर हो जाता है। जो मनुष्य कार्त्तिकमें आँवलेकी जड़में भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, उसके द्वारा सदा सम्पूर्ण क्षेत्रों में श्रीविष्णुका पूजन सम्पन्न हो जाता है। जैसे भगवान् विष्णुकी महिमाका पूरा-पूरा वर्णन असम्भव है, उसी प्रकार आँवले और तुलसीके माहात्म्यका भी वर्णन नहीं हो सकता। जो आँवले और तुलसीकी उत्पत्ति कथाको भक्तिपूर्वक सुनता और सुनाता है, वह पापरहित हो अपने पूर्वजोंके साथ श्रेष्ठ विमानपर बैठकर स्वर्गलोकमें जाता है।

अध्याय 190 कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार

राजा पृथुने कहा- मुनिश्रेष्ठ! कार्तिकका व्रत करनेवाले पुरुषके लिये जिस महान् फलकी प्राप्ति बतायी गयी है, उसका वर्णन कीजिये किसने इस व्रतका अनुष्ठान किया था ?

नारदजी बोले – राजन्! पूर्वकालकी बात है, सह्य पर्वतपर करवीरपुरमें धर्मदत्त नामके एक धर्मज्ञ ब्राह्मण रहते थे, जो भगवान् विष्णुका व्रत करनेवाले तथा भलीभाँति श्रीविष्णु पूजनमें सर्वदा तत्पर रहनेवाले थे। वे द्वादशाक्षर मन्त्रका जप किया करते थे। अतिथियोंका सत्कार उन्हें विशेष प्रिय था। एक दिन कार्तिक मासमें श्रीहरिके समीप जागरण करनेके लिये वे भगवान्‌के मन्दिरकी ओर चले। उस समय एक पहर रात बाकी थी। भगवान्‌के पूजनको सामग्री साथ लिये जाते हुए ब्राह्मणने मार्गमें देखा, एक राक्षसी आ रही है।

उसको आवाज बड़ी डरावनी थी। टेढ़ी-मेढ़ी दाढ़े, लपलपाती हुई जीभ, धँसे हुए लाल-लाल नेत्र, नग्न शरीर, लंबे-लंबे ओठ और घर्धर शब्द-यही उसकीहुलिया थी। उसे देखकर ब्राह्मणदेवता भवसे ध उठे। सारा शरीर काँपने लगा। उन्होंने साहस करके पूजाकी सामग्री तथा जलसे ही उस राक्षसीके ऊपर रोषपूर्वक प्रहार किया हरिनामका स्मरण करके तुलसीदलमिश्रित जलसे उसको मारा था, इसलिये उसका सारा पातक नष्ट हो गया। अब उसे अपने पूर्वजन्मके कर्मोके परिणामस्वरूप प्राप्त हुई दुर्दशाका स्मरण हो आया। उसने ब्राह्मणको दण्डवत् प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – ‘ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्मके कर्मोंके कुपरिणामवश इस दशाको पहुँची हूँ। अब कैसे मुझे उत्तम गति प्राप्त होगी ?’

राक्षसीको अपने आगे प्रणाम करते तथा पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका वर्णन करते देख ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ वे उससे इस प्रकार बोले-‘किस कर्मके फलसे तुम इस दशाको पहुँची हो? कहाँसे आयी हो? तुम्हारा नाम क्या है? तथा तुम्हारा आचार व्यवहार कैसा है? ये सारी बातें मुझे बताओ।’

कलहा बोली- ब्रह्मन् मेरे पूर्वजन्मकी बात है,सौराष्ट्र नगरमें भिक्षु नामके एक ब्राह्मण रहते थे। मैं उन्हीं की पत्नी थी। मेरा नाम कलहा था। मैं बड़े भयंकर स्वभावकी स्त्री थी। मैंने वचनसे भी कभी अपने पतिका भला नहीं किया। उन्हें कभी मीठा भोजन नहीं परोसा मैं सदा उनकी आज्ञाका उल्लंघन किया करती थी। कलह मुझे विशेष प्रिय था। वे ब्राह्मण मुझसे सदा उद्विग्न रहा करते थे। अन्ततोगत्वा मेरे पतिने दूसरी स्त्रीसे विवाह करनेका विचार कर लिया। तब मैंने विष खाकर अपने प्राण त्याग दिये। फिर यमराजके दूत आये और मुझे बाँधकर पीटते हुए यमलोकमें ले गये। यमराजने मुझे उपस्थित देख चित्रगुप्तसे पूछा “चित्रगुप्त देखो तो सही, इसने कैसा कर्म किया है? इसे शुभकर्मका फल मिलेगा या अशुभकर्मका ?”

चित्रगुप्तने कहा- धर्मराज! इसने तो कोई भी शुभकर्म नहीं किया है। यह स्वयं मिठाइयाँ उड़ाती थी और अपने स्वामीको उसमेंसे कुछ भी नहीं देती थी। अतः बल्गुली (चमगादर) की योनिमें जन्म लेकर यह अपनी विष्ठा खाती हुई जीवन धारण करे इसने सदा अपने स्वामीसे द्वेष किया है तथा सर्वदा कलहमें हीइसकी प्रवृत्ति रही है इसलिये यह शुकरीकी योनिमें जन्म ले विष्ठाका भोजन करती हुई समय व्यतीत करे। जिस बर्तनमें भोजन बनाया जाता है, उसीमें यह हमेशा खाया करती थी; अतः उस दोषके प्रभावसे यह अपनी ही संतानका भक्षण करनेवाली बिल्ली हो तथा अपने स्वामीको निमित्त बनाकर इसने आत्मघात किया है, अतः यह अत्यन्त निन्दनीय स्त्री कुछ कालतक प्रेत-शरीरमें भी निवास करे दूतोंके साथ इसको यहाँसे मरूप्रदेशमें भेज देना चाहिये। वहाँ चिरकालतक यह प्रेतका शरीर धारण करके रहे। इसके बाद यह पापिनी तीन योनियोंका भी कष्ट भोगेगी।

कलहा कहती है- विप्रवर! मैं वही पापिनी कलहा हूँ, प्रेतके शरीरमें आये मुझे पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। मैं सदा ही अपने कर्मसे दुःखित तथा भूख-प्याससे पीड़ित रहा करती हूँ। एक दिन भूखसे पीड़ित होकर मैंने एक बनियेके शरीरमें प्रवेश किया और उसके साथ दक्षिण देशमें कृष्णा और वेणीके संगमपर आयी। आनेपर ज्यों ही संगमके किनारे खड़ी हुई, त्यों ही उस बनियेके शरीरसे भगवान् शिव और विष्णुके पार्षद निकले और उन्होंने मुझे बलपूर्वक दूर भगा दिया। द्विजश्रेष्ठ ! तबसे मैं भूखका कष्ट सहन करती हुई इधर-उधर घूम रही थी। इतनेमें ही आपके ऊपर मेरी दृष्टि पड़ी। आपके हाथसे तुलसीमिश्रित जलका संसर्ग पाकर अब मेरे पाप नष्ट हो गये। विप्रवर! मुझपर कृपा कीजिये और बताइये, मैं इस प्रेत-शरीरसे और भविष्यमें प्राप्त होनेवाली भयंकर तीन योनियोंसे किस प्रकार मुक्त होऊँगी ?

नारदजी कहते हैं— कलहाके ये वचन सुनकर द्विजश्रेष्ठ धर्मदत्तको उसके कर्मोंके परिणामका विचार करके बड़ा विस्मय और दुःख हुआ। उसकी ग्लानि देखकर उनका हृदय करुणासे द्रवित हो उठा। वे बहुत देरतक सोच-विचारकर खेदके साथ बोले धर्मदत्तने कहा-तीर्थ, दान और व्रत आदि शुभ साधनोंके द्वारा पाप नष्ट होते हैं; किन्तु तुम इस समय प्रेतके शरीरमें स्थित हो, अतः उन शुभ कर्मोंमें तुम्हाराअधिकार नहीं है। तथापि तुम्हारी ग्लानि देखकर मेरे मनमें बड़ा दुःख हो रहा है। तुम दुःखिनी हो, तुम्हारा उद्धार किये बिना मेरे चित्तको शान्ति नहीं मिलेगी; अतः मैंने जन्मसे लेकर आजतक जो कार्तिक-व्रतका अनुष्ठान किया है, उसका आधा पुण्य लेकर तुम उत्तम गतिको प्राप्त होओ।

यों कहकर धर्मदत्तने द्वादशाक्षर मन्त्रका श्रवण कराते हुए तुलसीमिश्रित जलसे ज्यों ही उसका अभिषेक किया, त्यों ही वह प्रेत-शरीरसे मुक्त हो दिव्यरूपधारिणी देवी हो गयी। धधकती हुई आगकी ज्वालाके समान तेजस्विनी दिखायी देने लगी। लावण्यसे तो वह ऐसी जान पड़ती थी, मानो साक्षात् लक्ष्मी हों। तदनन्तर उसने भूमिपर मस्तक टेककर ब्राह्मणदेवताको प्रणम किया और आनन्दविभोर हो गद्गदवाणीमें कहा ‘दिजश्रेष्ठ आपकी कृपासे में नरकसे छुटकारा पा गयी। मैं पापके समुद्रमे डूब रही थी, आप मेरे लिये नौकाके समान हो गये।’

वह इस प्रकार ब्राह्मणदेवसे वार्तालाप कर ही रही थी कि आकाशसे एक तेजस्वी विमान उतरता दिखायी दिया।वह श्रीविष्णु के समान रूप धारण करनेवाले पार्षदोंगे युक्त था। पास आनेपर विमानके द्वारपर खड़े हुए। पुण्यशील और सुशील नामक पार्षदोंने उस देवीको विमानपर चढ़ा लिया। उस समय उस विमानको देखकर धर्मदत्तको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने श्रीविष्णुरूपधारी पार्षदोंका दर्शन करके उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ब्राह्मणको प्रणाम करते देख पुण्यशील और सुशीलने उन्हें उठाया और उनकी प्रशंसा करते हुए यह धर्मयुक्त वचन कहा।

दोनों पार्षद बोले- द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें धन्यवाद है। क्योंकि तुम सदा भगवान् विष्णुकी आराधनामें संलग्न रहते हो। दीनोंपर दया करनेका तुम्हारा स्वभाव है। तुम धर्मात्मा और श्रीविष्णुव्रतका अनुष्ठान करनेवाले हो । तुमने बचपनसे लेकर अबतक जो कल्याणमय कार्तिकका व्रत किया है, उसके आधेका दान करके दूना पुण्य प्राप्त कर लिया है। तुम बड़े दयालु हो, तुम्हारे द्वारा दान किये हुए कार्तिक- व्रतके अंगभूत तुलसीपूजन आदि शुभ कमके फलसे यह स्त्री आज भगवान् विष्णुके समीप जा रही है। तुम भी इस शरीरका अन्त होनेपर अपनी दोनों पत्नियोंके साथ भगवान् विष्णुके वैकुण्ठधाममें जाओगे और उन्हींके समान रूप धारण करके सदा उनके समीप निवास करोगे। धर्मदत्त जिन लोगोंने तुम्हारी ही भाँति श्रीविष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधना की है, वे धन्य और कृतकृत्य हैं; तथा संसारमें उन्हींका जन्म लेना सार्थक है। जिन्होंने पूर्वकालमें राजा उत्तानपादके पुत्र ध्रुवको ध्रुवपदपर स्थापित किया था, उन श्रीविष्णुकी यदि भलीभाँति आराधना की जाय तो वे प्राणियोंको क्या नहीं दे डालते। भगवानके नामका स्मरण करने मात्रसे देहधारी जीव सद्गतिको प्राप्त हो जाते हैं। पूर्वकालमें जब गजराजको ग्राहने पकड़ लिया था, उस समय उसने श्रीहरिके नामस्मरणसे ही संकटसे छुटकारा पाकर भगवानकी समीपता प्राप्त की थी और वही अब भगवान्‌का ‘जय’ नामसे प्रसिद्ध पार्षद है तुमने भी श्रीहरिकी आराधना की है, अतः वे तुम्हें अपने समीप अवश्य स्थान देंगे।

अध्याय 191 कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा

नारदजी कहते हैं—इस प्रकार विष्णुपार्षदोंके वचन सुनकर धर्मदत्तको बड़ा आश्चर्य हुआ, वे उन्हें साष्टांग प्रणाम करके बोले-‘प्रायः सभी लोग भक्तोंका कष्ट दूर करनेवाले श्रीविष्णुकी यज्ञ, दान, व्रत, तीर्थसेवन और तपस्याओंके द्वारा विधिपूर्वक आराधना करते हैं; उन समस्त साधनोंमें कौन-सा ऐसा साधन है, जो श्रीविष्णुको प्रीतिकारक तथा उनके सामीप्यकी प्राप्ति करानेवाला है? किस साधनका अनुष्ठान करनेसे उपर्युक्त सभी साधनोंका अनुष्ठान स्वतः हो जाता है?

दोनों पार्षदोंने कहा- ब्रह्मन् ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है; अब एकाग्रचित्त होकर सुनो, हम इतिहाससहित प्राचीन वृत्तान्तका वर्णन करते हैं। पहले कांचीपुरीमें चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हो गये हैं; उनके अधीन जितने देश थे वे भी चोल नामसे ही विख्यात हुए। राजा चोल जब इस भूमण्डलका शासन करते थे, उस समय कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी, पापमें मन लगानेवाला अथवा रोगी नहीं था। उन्होंने इतने यज्ञ किये थे, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती। उनके यज्ञोंके सुवर्णमय एवं शोभाशाली यूपसे भरे हुए ताम्रपर्णी नदीके दोनों किनारे चैत्ररथ वनके समान सुशोभित होते थे। एक समयकी बात है, राजा चोल ‘अनन्तशयन’ नामक तीर्थमें गये, जहाँ जगदीश्वर श्रीविष्णु योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे। वहाँ लक्ष्मीरमण भगवान् श्रीविष्णुके दिव्य विग्रहकी राजाने विधिपूर्वक पूजा की। मणि, मोती तथा सुवर्णके बने हुए सुन्दर फूलोंसे पूजन करके उन्होंने भगवान्‌को साष्टांग प्रणाम किया। प्रणाम करके वे ज्यों ही बैठे, उसी समय उनकी दृष्टि भगवान्‌के पास आते हुए एक ब्राह्मणपर पड़ी, जो उन्हींकी कांचीनगरीके निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। दे भगवान्को पूजाके लिये अपने हाथमें तुलसीदल और जल लिये हुए थे। निकट आनेपर उन ब्रह्मर्षिने मुगुका पाठ करते हुए देवदेव भगवान्‌को स्नान कराया और तुलसीको मंजरी तथा पत्तोंसे विधिवत्पूजा की। राजा बोलने जो पहले रत्नोंसे भगवान्की पूजा की थी, वह सब तुलसी पूजासे ढक गयी। यह देख राजा कुपित होकर बोले-‘विष्णुदास मैंने मणियों तथा सुवर्णसे भगवान्‌की पूजा की थी, वह कितनी शोभा पा रही थी किन्तु तुमने तुलसीदल चढ़ाकर सब ढक दी। बताओ, ऐसा क्यों किया? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम बड़े मूर्ख हो; भगवान् विष्णुकी भक्तिको बिलकुल नहीं जानते। तभी तो तुम अत्यन्त सुन्दर सजी-सजायी पूजाको पत्तोंसे ढके जा रहे हो। तुम्हारे इस बर्तावपर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है।’

विष्णुदास बोले- राजन्। आपको भक्तिका कुछ भी पता नहीं है, केवल राजलक्ष्मीके कारण आप घमंड कर रहे हैं। बताइये तो, आजसे पहले आपने कितने वैष्णव व्रतोंका पालन किया है?

राजाने कहा – ब्राह्मण! यदि तुम विष्णुभक्तिसे अत्यन्त गर्वमें आकर ऐसी बात करते हो तो बताओ, तुममें कितनी भक्ति है? तुम तो दरिद्र हो, निर्धन होतुमने श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाले यज्ञ और दान आदि कभी नहीं किये हैं तथा पहले कहीं कोई देवालय भी नहीं बनवाया है। ऐसी दशामें भी तुम्हें अपनी भक्तिका इतना घमंड है! अच्छा, तो आज यहाँ जितने भी श्रेष्ठ ब्राह्मण उपस्थित हैं, वे सभी कान खोलकर मेरी बात सुन लें। देखना है, मैं पहले भगवान् विष्णुका दर्शन पाता हूँ या यह; इससे लोगोंको स्वयं ही ज्ञात हो जायगा कि हम दोनोंमॅसे किसमें कितनी भक्ति है।

दोनों पार्षद बोले- ब्रह्मन्! यह कहकर राजा चोल अपने राजभवनको चले गये और उन्होंने महर्षि मुद्गलको आचार्य बनाकर वैष्णव यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया, जिसमें बहुत से ऋषियोंका समुदाय एकत्रित हुआ। बहुत-सा अन्न खर्च किया गया और प्रचुर दक्षिण बाँटी गयी जैसे पूर्वकालमें गयाक्षेत्र के भीतर ब्रह्माजीने समृद्धिशालीयका अनुष्ठान किया था, उसी प्रकार राजा चोलने भी महान् यज्ञ आरम्भ किया। उधर विष्णुदास भी नहीं भगवान्‌ के मन्दिरमें ठहर गये और श्रीविष्णुको सन्तुष्ट करनेवाले शो नियमों काभलीभाँति पालन करते हुए सदा ही व्रतका अनुष्ठान करने लगे। माघ और कार्तिकके व्रत, तुलसीके बगीचेका भलीभाँति पालन, एकादशीका व्रत, द्वादशाक्षर मन्त्रका जप तथा गीत-नृत्य आदि मांगलिक उत्सवोंके साथ षोडशोपचारद्वारा प्रतिदिन श्रीविष्णुकी पूजा-यही उनको जीवनचर्या थी। वे इन्हीं व्रतोंका पालन करते थे चलते खाते और सोते समय भी उन्हें निरन् श्रीविष्णुका स्मरण बना रहता था ये समदर्शी थे और सम्पूर्ण प्राणियोंमें भगवान् विष्णुको स्थित देखते थे।

उन्होंने भगवान् विष्णुके संतोषके लिये उद्यापन विधिसहित माघ और कार्तिकके विशेष विशेष नियमोंका भी सर्वदा पालन किया। इस प्रकार राजा चोल और विष्णुदास दोनों ही भगवान् विष्णुको आराधना करने लगे। दोनों ही अपने-अपने व्रतमें स्थित रहते थे, दोनोंकी ही इन्द्रियाँ और दोनोंके ही कर्म भगवानमें ही केन्द्रित थे। एक दिनकी बात है, विष्णुदासने नित्यकर्म करनेके पश्चात् भोजन तैयार किया; किन्तु उसे किसीने चुरा लिया। चुरानेवालेपर किसीकी दृष्टि नहीं पड़ी। विष्णुदासने देखा, भोजन गायब है; फिर भी उन्होंनेदुबारा भोजन नहीं बनाया; क्योंकि ऐसा करनेपर सायंकालकी पूजाके लिये अवकाश नहीं मिलता, अतः प्रतिदिनके नियमके भंग हो जानेका भय था । दूसरे दिन उसी समयपर भोजन बनाकर वे ज्यों ही भगवान् विष्णुको भोग लगानेके लिये गये, त्यों ही कोई आकर फिर सारा भोजन हड़प ले गया। इस प्रकार लगातार सात दिनोंतक कोई आ-आकर उनके भोजनका अपहरण करता रहा। इससे विष्णुदासको बड़ा विस्मय हुआ। वे मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगे- ‘अहो ! यह कौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई चुरा ले जाता है ? मैं क्षेत्र- संन्यास ले चुका हूँ, अतः अब किसी तरह इस स्थानका परित्याग नहीं कर सकता। यदि दुबारा बनाकर भोजन करूँ तो सायंकालकी यह पूजा कैसे छोड़ दूँ। कोई-सा भी पाक बनाकर मैं तुरंत भोजन तो करूँगा ही नहीं; क्योंकि जबतक सारी सामग्री भगवान् विष्णुको निवेदन न कर लूँ तबतक मैं भोजन नहीं करता। प्रतिदिन उपवास करनेसे मैं इस व्रतकी समाप्तितक जीवित कैसे रह सकता हूँ। अच्छा, आज मैं रसोईकी भलीभाँति रक्षा करूँगा।’यों सोचकर भोजन बनानेके पश्चात् वे वहीं कहीं छिपकर खड़े हो गये। इतनेमें ही एक चाण्डाल दिखायी दिया, जो रसोईका अन्न हड़प ले जानेको तैयार खड़ा था। भूखके मारे उसका सारा शरीर दुर्बल हो रहा था, मुखपर दीनता छा रही थी, शरीरमें हाड़ और चामके सिवा और कुछ बाकी नहीं बचा था। उसे देखकर श्रेष्ठ ब्राह्मण विष्णुदासका हृदय करुणासे व्यथित हो उठा। उन्होंने भोजन लेकर जाते हुए चाण्डालपर दृष्टि डाली और कहा- ‘भैया! जरा ठहरो, ठहरो। क्यों रूखा सूखा खाते हो। यह घी तो ले लो।’ इस तरह बोलते हुए विप्रवर विष्णुदासको आते देख चाण्डाल बड़े वेगसे भागा और भयसे मूच्छित होकर गिर पड़ा। चाण्डालको भयभीत और मूच्छित देख द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास वेगसे चलकर उसके पास पहुँचे और करुणावश अपने वस्त्रके किनारे से उसको हवा करने लगे। तदनन्तर जब वह उठकर खड़ा हुआ तो विष्णुदासने देखा वह चाण्डाल नहीं, साक्षात् भगवान् नारायण ही शंख, चक्र और गदा धारण किये सामने विराजमान हैं। कटिमें पीताम्बर, चार भुजाएँ, हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न तथा मस्तकपर किरीटशोभा पा रहे हैं अलसीके फूलकी भाँति श्यामसुन्दर शरीर और कौस्तुभमणिसे जगमगाते हुए वक्षःस्थलकी अपूर्व शोभा हो रही है। अपने प्रभुको प्रत्यक्ष देखकर द्विजश्रेष्ठ विष्णुदास सात्त्विकभावोंके वशीभूत हो गये। वे स्तुति और नमस्कार करनेमें भी समर्थ न हो सके। उस समय वहाँ इन्द्र आदि देवता भी आ पहुँचे। गन्धर्व और अप्सराएँ गाने और नाचने लगीं। वह स्थान सैकड़ों विमानोंसे भर गया और देवर्षियोंके समुदायसे सुशोभित होने लगा। चारों ओर गीत और वाद्योंकी ध्वनि छा गयी। तब भगवान् विष्णुने सात्त्विक व्रतका पालन करनेवाले अपने भक्त विष्णुदासको छातीसे लगा लिया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वे वैकुण्ठधामको ले चले। उस समय यज्ञमें दीक्षित हुए राजा चोलने देखा, विष्णुदास एक सुन्दर विमानपर बैठकर भगवान् विष्णु के समीप जा रहे हैं। विष्णुदासको वैकुण्ठधाम में जाते देख राजाने तुरंत ही अपने गुरु महर्षि मुद्गलकोबुलाया और इस प्रकार कहना आरम्भ किया। राजा बोले- जिसके साथ लाग- डाँट होनेके कारण मैंने यह यज्ञ-दान आदि कर्मका अनुष्ठान किया है, वह ब्राह्मण आज भगवान् विष्णुका रूप धारण करके मुझसे पहले ही वैकुण्ठधाममें जा रहा है। मैंने इस वैष्णवयागमें भलीभाँति दीक्षित होकर अग्निमें हवन किया और दान आदिके द्वारा ब्राह्मणोंका मनोरथ पूर्ण किया; तथापि अभीतक भगवान् मुझपर प्रसन्न नहीं हुए और इस ब्राह्मणको केवल भक्तिके ही कारण श्रीहरिने प्रत्यक्ष दर्शन दिया है। अतः जान पड़ता है, भगवान् विष्णु केवल दान और यज्ञोंसे प्रसन्न नहीं होते। उन प्रभुका दर्शन करानेमें भक्ति ही प्रधान कारण है।

दोनों पार्षद कहते हैं—यों कहकर राजाने अपने भानजेको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया। वे बचपन से ही यज्ञकी दीक्षा लेकर उसीमें संलग्न रहते थे, इसलिये उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ। यही कारण है कि उस देशमें अबतक भानजे ही सदा राज्यके उत्तराधिकारी होते हैं। वे सब-के-सब राजा चोलके द्वारा स्थापित आचारका ही पालन करते हैं। भानजेको राज्य देनेके पश्चात् राजा यज्ञशालामें गये और यज्ञकुण्डके सामने खड़े होकर श्रीविष्णुको सम्बोधित करते हुए तीन बार उच्चस्वरसे निम्नांकित वचन बोले—’भगवान् विष्णु ! आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा स्थिर भक्ति प्रदान कीजिये।’ योँ कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निमें कूद पड़े। उस समय मुद्गल मुनिने क्रोधमें आकर अपनी शिखा उखाड़ डाली। तभीसे आजतक उस गोत्रमें उत्पन्न होनेवाले समस्त मुद्गल ब्राह्मण बिना शिखाके ही रहते हैं। राजा ज्यों ही अग्निकुण्डमें कूदे, उसी समय भक्तवत्सल भगवान् विष्णु प्रकट हो गये और उन्होंने राजाको छाती से लगाकर एक श्रेष्ठ विमानपर बिठाया फिर अपने ही समान रूप देकर उन देवेश्वरने देवताओं सहित वैकुण्ठधामको प्रस्थान किया। उकदोनों भक्तोंमें जो विष्णुदास थे, वे तो पुण्यशील नामसे प्रसिद्ध भगवान्के पार्षद हुए तथा जो राजा चोल थे, उनका नाम सुशील हुआ। हम वे ही दोनों हैं। लक्ष्मीजीके प्रियतम श्रीहरिने हमें अपने समान रूप देकर अपना द्वारपाल बना लिया है।

इसलिये धर्मज्ञ ब्राह्मण! तुम भी सदा भगवान् विष्णुके व्रतमें स्थित रहो। मात्सर्य और दम्भका परित्यागकरके सर्वत्र समान दृष्टि रखो। तुला, मकर और मेषकी संक्रान्तिमें सदा प्रातः स्नान किया करो। एकादशीके व्रतमें लगे रहो और तुलसीवनकी रक्षा करते रहो। ब्राह्मणों, गौओं तथा वैष्णवोंकी सदा ही सेवा करो। मसूर, काँजी और बैंगन खाना छोड़ दो। धर्मदत्त ! ऐसा करनेसे तुम भी शरीरका अन्त होनेपर श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त करोगे। जैसे हमलोगोंने भगवान्की भक्तिसे ही उन्हें पाया है, उसी प्रकार तुम भी उन्हें प्राप्त कर लोगे। तुमने जन्मसे लेकर अबतक जो श्रीविष्णुको संतुष्ट करनेवाला यह व्रत किया है, इससे यज्ञ, दान और तीर्थ भी बड़े नहीं हैं। विप्रवर! तुम धन्य हो; क्योंकि तुमने जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुको प्रसन्न करनेवाले इस व्रतका अनुष्ठान किया है; जिसके एक भागका पुण्य पाकर ही प्रेतयोनिमें पड़ी हुई कलहा मुक्त हो गयी। अब हमलोग इसे भगवान् विष्णुके लोकमें ले जा रहे हैं।

नारदजी कहते हैं— राजन् ! इस प्रकार विमानपर बैठे हुए विष्णुके दूतोंने धर्मदत्तको उपदेश देकर कलहाके साथ वैकुण्ठधामकी यात्रा की। तत्पश्चात् धर्मदत्त भी पूर्ण विश्वासके साथ उस व्रतमें लगे रहे और शरीरका अन्त होनेपर अपनी दोनों पत्नियोंके साथ वे भगवान्‌के परमधामको चले गये। जो पुरुष इस प्राचीन इतिहासको सुनता और सुनाता है, वह जगद्गुरु भगवान्की कृपासे उनका सान्निध्य प्राप्त करानेवाली उत्तम गति पाता है।

अध्याय 192 पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिये! यह कथा सुनकर राजा पृथुके मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने भक्तिपूर्वक देवर्षि नारदका पूजन करनेके पश्चात् उन्हें विदा किया। इसलिये माघस्नान, कार्तिकस्नान तथा एकादशी- ये तीनों व्रत मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। वनस्पतियोंमें तुलसी महीनोंमें कार्तिक तिथियोंमें एकादशी तथा पुण्य-क्षेत्रों में द्वारकापुरी मुझे विशेष प्रियहैं। * जो अपनी इन्द्रियोंको संयममें रखकर इन सबका सेवन करता है, वह मुझे बहुत ही प्रिय होता है। यज्ञ आदिके द्वारा भी कोई मेरा ऐसा प्रिय नहीं हो सकता, जैसा कि पूर्वोक्त चारोंके सेवनसे होता है।

सत्यभामा बोलीं- नाथ! आपने मुझे जो कथा सुनायी है, वह बड़े ही आश्चर्यमें डालनेवाली है; क्योंकि कलहा दूसरेके दिये हुए पुण्यसे ही मुक्ति पा गयी। इसकार्तिक मासका ऐसा प्रभाव है और यह आपको इतना प्रिय है कि इसमें किये हुए स्नान-दानसे कलहाके पतिद्रोह आदि पाप भी नष्ट हो गये। प्रभो! जो दूसरेका किया हुआ पुण्य है, वह उसके देनेसे तो मिल जाता है; किन्तु बिना दिया हुआ पुण्य मनुष्य किस मार्गसे पा सकता है?

भगवान् श्रीकृष्णने कहा- प्रिये! सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें देश, ग्राम और कुल भी मनुष्यके किये हुए पुण्य और पापके भागी होते हैं; परन्तु कलियुगमें केवल कर्ताको ही पुण्य और पापका फल भोगना पड़ता है। पढ़ानेसे, यज्ञ करानेसे अथवा एक पक्तिमें बैठकर भोजन करनेसे भी मनुष्य दूसरों के पुण्य और पापका चौथाई भाग परोक्षरूपसे पा लेता है। एक आसनपर बैठने, एक सवारीपर चलने, श्वासका स्पर्श होने और परस्पर अंग सट जानेसे भी निश्चय ही पुण्य-पापके छठे अंशका फलभागी होना पड़ता है। स्पर्श करनेसे, बातचीत करनेसे तथा दूसरेकी स्तुति करनेसे भी मानव पुण्य-पापके दशमांशको ग्रहण करता है। देखनेसे, नाम सुननेसे तथा मनके द्वारा चिन्तन करनेसे दूसरेके पुण्य-पापका शतांश भाग प्राप्त होता है जो दूसरेकी निन्दा करता चुगली खाता और उसे धिक्कार देता है, वह उसके किये हुए पातकको स्वयं लेकर बदले में अपने पुण्यको देता है। एक पंक्ति में बैठकर भोजन करनेवाले लोगोंमेंसे जो किसीको परोसनेमें छोड़ देता है, उसके पुण्यका छठा भाग उस छोड़े हुए व्यक्तिको मिल जाता है। जो स्नान और सन्ध्या आदि करते समय किसीको छूता या उससे बातचीत करता है, उसे अपने कर्मजनित पुण्यके छठे अंशको उस व्यक्तिके लिये निश्चय ही देना पड़ता है। जो धर्मके उद्देश्यसे दूसरे मनुष्यसे धनकी याचना करता है, उसके पुण्य कर्मके फलको धन देनेवाला व्यक्ति भी पाता है जो दूसरेका धन चुराकर पुण्य कर्म करता है, उसका फल धनीको हीमिलता है, कर्म करनेवालेको नहीं। जो मनुष्य दूसरेका ऋण चुकाये बिना ही मर जाता है, उसके पुण्यको धनी मनुष्य अपने धनके अनुसार बाँट लेता है। कर्म करनेकी सलाह देनेवाला, अनुमोदन करनेवाला, सामग्री जुटानेवाला तथा बलसे सहायता करनेवाला पुरुष भी पुण्य-पापके छठे अंशको पा लेता है। राजा अपनी प्रजासे, गुरु शिष्यसे, पति अपनी पत्नीसे तथा पिता अपने पुत्रसे उसके पुण्य पापका छठा अंश प्राप्त करता है। स्त्री भी यदि सदा अपने पतिके मनके अनुसार चले और सदा उसे संतोष देनेवाली हो तो वह पतिके पुण्यका आधा भाग प्राप्त करती है। स्वयं धन देकर अपने नौकर या पुत्रके अतिरिक्त किसी भी दूसरेके हाथसे दान करानेवाले पुरुषके पुण्य कर्मोंके छठे भागको कर्ता ले लेता है। वृत्ति देनेवाला पुरुष वृत्तिभोगीके पुण्यका छठा अंश ले लेता है; किन्तु यदि उसके बदले में उसने अपनी या दूसरेकी सेवा न करायी हो, तभी उसे लेनेका अधिकारी होता है। इस प्रकार दूसरोंके किये हुए पुण्य और पाप बिना दिये भी सदा आते रहते हैं। इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास है, जो बहुत ही उत्तम और पुण्यमयी बुद्धि प्रदान करनेवाला है, उसे सुनो।

पूर्वकालकी बात है, अवन्तीपुरीमें धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह ब्राह्मणोचित कर्मसे भ्रष्ट, पापपरायण और खोटी बुद्धिवाला था, रस, कम्बल और चमड़ा आदि बेचकर तथा झूठ बोलकर वह जीविका चलाता था। उसका मन चोरी, वेश्यागमन, मदिरापान और जुए आदिमें सदा आसक्त रहता था। एक बार वह खरीद-बिक्रीके कामसे देश-देशान्तरमें भ्रमण करता हुआ माहिष्मतीपुरीमें जा पहुँचा, जिसकी चहारदीवारीसे सटकर बहनेवाली पापनाशिनी नर्मदा सदा सुशोभित होती रहती है। यहाँ कार्तिक व्रत करनेवाले बहुत-से मनुष्य अनेक गाँवोंसे स्नान करनेके लिये आये थे। धनेश्वरने उन सबको देखा। कितने ही ब्राह्मण स्नानकरके यज्ञ तथा देव-पूजनमें लगे थे। कुछ लोग पुराणोंका पाठ करते और कुछ लोग सुनते थे। कितने ही भक्त नाच, गान, दान और वाद्यके द्वारा भगवान् विष्णुकी स्तुतिमें संलग्न थे धनेश्वर प्रतिदिन घूम घूमकर वैष्णवोंके दर्शन, स्पर्श तथा उनसे वार्तालाप करता था। इससे उसे श्रीविष्णुके नाम सुननेका शुभ अवसर प्राप्त होता था। इस प्रकार वह एक मासतक यहाँ टिका रहा। कार्तिक-व्रतके उद्यापनमें भक्त पुरुषोंने जो श्रीहरिके समीप जागरण किया, उसको भी उसने देखा। उसके बाद पूर्णिमाको व्रत करनेवाले मनुष्योंने जो ब्राह्मणों और गौओंका पूजन आदि किया तथा दक्षिणा और भोजन आदि दिये, उन सबका भी उसने अवलोकन किया। तत्पश्चात् सूर्यास्त के समय श्रीशंकरजी की प्रसन्नताके लिये जो दीपोत्सर्गकी विधि की गयी, उसपर भी धनेश्वरकी दृष्टि पड़ी। उस तिथिको भगवान् शंकरने तीनों पुरोका दाह किया था, इसीलिये भक्तपुरुष उस दिन दीपोत्सर्गका महान् उत्सव किया करते हैं। जो मुझमें और शिवजीमें भेद बुद्धि करता है, उसके सारे पुण्य कर्म निष्फल होजाते हैं- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। धनेश्वर नर्मदाके तटपर नृत्य आदि देखता हुआ घूम रहा था। इतनेमें ही एक काले साँपने उसे काट लिया। वह व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसे गिरा देख बहुत-से मनुष्योंने दयावश उसको चारों ओरसे घेर लिया और तुलसीमिश्रित जलके द्वारा उसके मुखपर छोटे देना आरम्भ किया देहत्यागके पश्चात् धनेश्वरको यमराजके दूतोंने बाँधा और क्रोधपूर्वक कोड़ोंसे पीटते हुए वे उसे संयमनीपुरीको ले गये। चित्रगुप्तने धनेश्वरको देखकर उसे बहुत फटकारा और उसने बचपनसे लेकर मृत्युपर्यन्त जितने दुष्कर्म किये थे, वे सब उन्होंने यमराजको बताये।

चित्रगुप्त बोले- प्रभो ! बचपनसे लेकर मृत्युपर्यन्त इसका कोई पुण्य नहीं दिखायी देता यह दुष्ट केवल पापका मूर्तिमान् स्वरूप दीख पड़ता है, अतः इसे कल्पभर नरकमें पकाया जाय।

यमराज बोले- प्रेतराज केवल पापोंपर ही दृष्टि रखनेवाले इस दुष्टको मुद्गरोंसे पीटते हुए ले जाओ और तुरंत ही कुम्भीपाकमें डाल दो। यमराजकी आज्ञा पाकर प्रेतराज पापी धनेश्वरको ले चला । मुद्गरोंकी मारसे उसका मस्तक विदीर्ण हो गया था। कुम्भीपाकमें तेलके खौलनेका खलखल शब्द हो रहा था। प्रेतराजने उसे तुरंत ही उसमें डाल दिया। वह ज्यों ही कुम्भीपाकमें गिरा, त्यों ही उसका तेल ठंडा हो गया-ठीक उसी तरह जैसे पूर्वकालमें भप्रवर प्रह्लादको डालनेसे दैत्योंकी जलायी हुई आग बुझ गयी थी। यह महान् आश्चर्यकी बात देखकर प्रेतराजको बड़ा विस्मय हुआ उसने बड़े वेगसे आकर यह सारा हाल यमराजको कह सुनाया। प्रेतराजकी कही हुई कौतूहलपूर्ण बात सुनकर यमने कहा- ‘आह यह कैसी बात है!’ फिर उसे साथ ले वे उस स्थानपर आये और उस घटनापर विचार करने लगे। इतनेमें ही देवर्षि नारद हँसते हुए बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आये। यमराजने भलीभाँति उनका पूजन किया। उनसे मिलकर देवर्षि नारदजीने इस प्रकार कहा।नारदजी बोले सूर्वनन्दन। यह नरक भोगनेके योग्य नहीं है; क्योंकि इसके द्वारा ऐसा कर्म बन गया है. जो नरकका नाश करनेवाला है। जो पुरुष पुण्य कर्म करनेवाले लोगोंका दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्यका छठा अंश प्राप्त कर लेता है। यह तो एक मासतक श्रीहरिके कार्तिक व्रतका अनुष्ठान करनेवाले असंख्य मनुष्यों के सम्पर्क में रहा है; अतः उन सबके पुग्यांशका भागी हुआ है। उनकी सेवा करनेके कारण इसे सम्पूर्ण व्रतका पुण्य प्राप्त हुआ है, अतः इसके कार्तिक-व्रतसे उत्पन्न होनेवाले पुण्यों की कोई गिनती नहीं है। कार्तिक-व्रत करनेवाले पुरुषोंके बड़े-से-बड़े पातकों का भी भक्तवत्सल श्रीविष्णु पूर्णतया नाश कर डालते हैं। इतना ही नहीं, अन्तकालमें वैष्णव पुरुषोंने तुलसीमिश्रित नर्मदाके जलसे इसको नहलाया है और श्रीविष्णुके नामका भी श्रवण कराया है; इसलिये इसके सारे पाप नष्ट हो गये हैं। अब धनेश्वर उत्तम गति प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है। यह वैष्णव पुरुषोंका कृपापात्र है, अत: इसे नरकमे न पकाओ। इसको अनिच्छासे पुण्य प्राप्त हुआ है;इसलिये यह यक्षयोनिमें रहे और सम्पूर्ण नरकोंके दर्शनमात्रसे अपने पापों का भोग पूरा कर ले।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं—प्रिये! यों कहकर देवर्षि नारदजी चले गये। फिर यमराज अपने सेवकके द्वारा उस ब्राह्मणको सम्पूर्ण नरकका दर्शन कराने के लिये वहाँसे ले गये। इसके बाद यमकी आज्ञाका पालन करनेवाला प्रेतराज धनेश्वरको सम्पूर्ण नरकोंके पास ले गया और उनका अवलोकन कराता हुआ इस प्रकार कहने लगा।

प्रेतराजने कहा- धनेश्वर ! महान् भय देनेवाले इन घोर नरकोंकी ओर दृष्टि डालो। इनमें पापी पुरुष सदा यमराजके सेवकोंद्वारा पकाये जाते हैं। यह जो भयानक नरक दिखायी देता है, इसका नाम तप्तबालुक है। इसमें ये पापाचारी जीव अपनी देह दग्ध होनेके कारण क्रन्दन कर रहे हैं। जो मनुष्य बलिवैश्वदेवके अन्तमें भूखसे दुर्बल हो घरपर आये हुए अतिथियोंका सत्कार नहीं करते, वे अपने पापकर्मके कारण इस नरकमें कष्ट भोगते हैं। जो गुरु, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, देवता तथा मूर्धाभिषिक्त राजाओंको लात मारते हैं, वे ही पापी यहाँ दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यहाँ तपी हुई बालूपर चलनेके कारण इनके पैर जल गये हैं। इस नरकके छः अवान्तर भेद हैं। नाना प्रकारके पापोंके कारण इसमें आना पड़ता है। इसी प्रकार यह दूसरा महान् नरक अन्धतामिस्र कहलाता है। देखो, यहाँ सुईके समान मुँहवाले कीड़ोंके द्वारा पापियोंके शरीर विदीर्ण हो रहे हैं। यह नरक भयानक मुखवाले अनेक प्रकारके कीटोंसे ठसाठस भरा हुआ है। यह तीसरा क्रकच नामक नरक है। यह भी बड़ा भयानक दिखायी देता है। इसमें ये पापी मनुष्य आरेसे चौरे जानेका कष्ट भोगते हैं। असिपत्रवन आदि भेदोंसे यह नरक छः प्रकारका बताया गया है। जो दूसरोंका पत्नी और पुत्र आदिसे तथा अन्यान्य प्रियजनोंसे विछोह कराते हैं, वे ही लोग यहाँ कष्ट भोगते हैं। तलवारके समान पत्तोंसे इनके अंग छिन्न-भिन्न हो रहे हैं और इसी भवसे ये इधर-उधर भाग रहे हैं। देखो, येपापी कितने कष्ट भोगते हैं और किस प्रकार इधर उधर क्रन्दन करते फिरते हैं। यह चौथा नरक तो और भी भयानक । इसका नाम अर्गला है। देखो, यमराजके दूत नाना प्रकारके पाशोंसे बाँधकर इन पापियोंको मुद्गर आदिसे पीट रहे हैं और ये जोर जोरसे चीख रहे हैं। जो साधु पुरुषों और ब्राह्मण आदिको गला पकड़कर या और किसी उपायसे कहीं आने-जानेसे रोकते हैं, वे पापी यमराजके सेवकोंद्वारा यहाँ यातनामें डाले जाते हैं। वध और भेदन आदिके द्वारा इस नरकके भी छः भेद हैं। अब पाँचवें नरकपर दृष्टिपात करो। इसका नाम कूटशाल्मलि है। यहाँ जो ये सेमल आदिके वृक्ष खड़े हैं, ये सभी जलते हुए अँगारेके समान हैं। इसमें पापियोंको यातना दी जाती है। परायी स्त्री और पराये धनका अपहरण करनेवाले तथा दूसरोंसे द्रोह करनेवाले पापी सदा ही यहाँ कष्ट भोगते हैं। यह छठा नरक और भी अद्भुत है। इसे रक्तपूय कहते हैं- इसमें रक्त और पीब भरा रहता है। इसकी ओर देखो तो सही, इसमें कितने ही पापी मनुष्य नीचे मुँह करके लटकाये गये हैं और भयानक कष्ट भोग हैं। ये सब अभक्ष्यभक्षण और निन्दा करनेवाले तथा चुगली खानेवाले हैं। कोई डूब रहे हैं, कोई मारे जा रहे हैं। ये सब-के-सब डरावनी आवाजके साथ चीखरहे हैं। इस नरकके भी विगन्ध आदि छः भेद हैं। धनेश्वर ! अब इधर दृष्टि डालो। यह भयंकर दिखायी देनेवाला सातवाँ नरक कुम्भीपाक है। यह तेल आदि द्रव्योंके भेदसे छः प्रकारका है। यमराजके दूत महापातकी पुरुषोंको इसीमें डालकर औंटाते हैं और वे पापी इसमें अनेक हजार वर्षोंतक डूबते-उतराते रहते हैं। देखो, वे भयानक नरक सब मिलाकर बयालीस हैं। बिना इच्छाके किया हुआ पातक शुष्क कहलाता है और इच्छापूर्वक किये हुए पातकको आर्द्र कहा गया है। आर्द्र और शुष्क आदि भेदोंसे प्रत्येक नरक दो प्रकारका है। इस प्रकार ये नरक पृथक्-पृथक् चौरासीकी संख्यामें स्थित हैं। प्रकीर्ण, अपांक्तेय, मलिनीकरण, जातिभ्रंशकर, उपपातक, अतिपातक और महापातक- ये सात प्रकारके पातक माने गये हैं। इनके कारण पापी पुरुष उपर्युक्त सात नरकोंमें क्रमशः यातना भोगते हैं तुम्हें कार्तिक व्रत करनेवाले पुरुषोंका संसर्ग प्राप्त हो चुका था; इसलिये अधिक पुण्यराशिका संचय हो जानेसे नरकोंके कष्टसे छुटकारा मिल गया।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- सत्यभामा ! इस प्रकार प्रेतराज धनेश्वरको नरकोंका दर्शन कराकर उसे यक्षलोकमें ले गया तथा वहाँ जाकर वह यक्ष हुआ।

अध्याय 193 अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय

सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! भगवान् वासुदेव अपनी प्रियतमा सत्यभामाको यह कथा सुनाकर सायंकालका सन्ध्योपासन करनेके लिये अपनी माता देवकीके भवनमें चले गये। इस पापनाशक कार्तिक मासका ऐसा ही प्रभाव बतलाया गया है। यह भगवान् विष्णुको सदा ही प्रिय है तथा भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करनेवाला है। रातमें भगवान् विष्णुके समीप जागना, प्रातः काल स्नान करना, तुलसीकी सेवामें संलग्न रहना, उद्यापन करना और दीप दान देना-ये कार्तिकमासके पाँच नियम हैं। इन पाँचों नियमोंके पालनसे कार्तिकका व्रत करनेवाला पुरुष पूर्ण फलका भागी होता है। वह फल भोग और मोक्ष देनेवाला बताया गया है।

ऋषि बोले – रोमहर्षणकुमार सूतजी ! आपने इतिहाससहित कार्तिक मासकी विधिका भलीभाँति वर्णन किया। यह भगवान् विष्णुको प्रिय लगनेवाला तथा अत्यन्त उत्तम फल देनेवाला है। इसका प्रभाव बड़ा ही आश्चर्यजनक । इसलिये इसका अनुष्ठान अवश्यकरना चाहिये । परन्तु यदि कोई व्रत करनेवाला पुरुष संकटमें पड़ जाय या दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा रोगोंसे पीड़ित हो तो उसे इस कल्याणमय कार्तिक व्रतका अनुष्ठान कैसे करना चाहिये ?

सूतजीने कहा- महर्षियो! ऐसे मनुष्यको भगवान् विष्णु अथवा शिवके मन्दिरमें केवल जागरण करना चाहिये। विष्णु और शिवके मन्दिर न मिलें तो किसी भी मन्दिरमें वह जागरण कर सकता है। यदि कोई दुर्गम वनमें स्थित हो अथवा आपत्तिमें फँस जाय तो वह अश्वत्थवृक्षकी जड़के पास अथवा तुलसीके वृक्षोंके बीच बैठकर जागरण करे। जो पुरुष भगवान् विष्णुके समीप बैठकर श्रीविष्णुके नाम तथा चरित्रोंका गान करता है, उसे सहस्र गो-दानोंका फल मिलता है। बाजा बजानेवाला पुरुष वाजपेययज्ञका फल पाता है और भगवान् के पास नृत्य करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है। जो उक्त नियमोंका पालन करनेवाले मनुष्योंको धन देता है, उसे यह सब पुण्य प्राप्त होता है। उक्त नियमोंका पालन करनेवाले पुरुषोंके दर्शन और नाम सुननेसे भी उनके पुण्यका छठा अंश प्राप्त होता है। जो आपत्तिमें फँस जानेके कारण नहानेके लिये जल न पा सके अथवा जो रोगी होनेके कारण स्नान न कर सके, वह भगवान् विष्णुका नाम लेकर मार्जन कर ले। जो कार्तिक-व्रतके पालनमें प्रवृत्तहोकर भी उसका उद्यापन करनेमें समर्थ न हो, उसे चाहिये कि अपने व्रतकी पूर्ति के लिये यथाशक्ति ब्राह्मणोंको भोजन कराये। ब्राह्मण इस पृथ्वीपर अव्यक्तरूप श्रीविष्णुके व्यक्तस्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट होनेपर भगवान् सदा सन्तुष्ट होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो स्वयं दीपदान करनेमें असमर्थ हो, वह दूसरोंका दीप जलाये अथवा हवा आदिसे उन दीपकी यत्नपूर्वक रक्षा करे। तुलसीवृक्षके अभावमें वैष्णव ब्राह्मणका पूजन करे; क्योंकि भगवान् विष्णु अपने भक्तोंके हृदयमें सदा ही विराजमान रहते हैं। अथवा सब साधनों के अभावमें व्रत करनेवाला पुरुष व्रतकी पूर्तिके लिये ब्राह्मणों, गौओं तथा पीपल और वटके वृक्षोंकी सेवा करे।

ऋषियोंने पूछा— सूतजी ! आपने पीपल और वटको गौ तथा ब्राह्मणके समान कैसे बता दिया ? वे दोनों अन्य सब वृक्षोंकी अपेक्षा अधिक पूज्य क्यों माने गये ?

सूतजी बोले- महर्षियो! पीपलके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराजते हैं। इसी प्रकार वट भगवान् शंकरका और पलाश ब्रह्माजीका स्वरूप है। इन तीनोंका दर्शन, पूजन और सेवन पापहारी माना गया है। दुःख, आपत्ति, व्याधि और दुष्टोंके नाशमें भी उसको कारण बताया गया है।

अध्याय 194 कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम

सत्यभामाने कहा—प्रभो! कार्तिक मास सब मासोंमें श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्यको विस्तारपूर्वक नहीं सुना। कृपया उसीका वर्णन कीजिये। भगवान् श्रीकृष्ण बोले- सत्यभामे तुमने बड़ी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकालमें महात्मा सूतने शौनक मुनिसे आदरपूर्वक कार्तिक व्रतका वर्णन किया था। वही प्रसंग मैं तुम्हें सुनाता हूँ।सूतजीने कहा – मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकालमें – कार्तिकेयजीके पूछनेपर महादेवजीने जिसका वर्णन किया था, उसको आप श्रवण कीजिये ।

कार्तिकेयजी बोले- पिताजी! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। मुझे कार्तिक मासके स्नानकी विधि बताइये, जिससे मनुष्य दुःखरूपी समुद्रसे पार हो जाते हैं। साथ ही तीर्थके जलका माहात्म्य और माघस्नानका फल भी बताइये।महादेवजीने कहा- एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, समस्त दान, दक्षिणासहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, हिमालय, अकूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्रमें निवास तथा दूसरी ओर केवल कार्तिक मास हो, तो वही भगवान् केशवको सर्वदा प्रिय है। जिसके हाथ, पैर, वाणी और मन वशमें हों तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थके पूर्ण फलको प्राप्त करता है। श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी तर्कबुद्धिका सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थसेवनके फलभागी नहीं होते। जो ब्राह्मण सबेरे उठकर सदा प्रातः स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो परमात्माको प्राप्त होता है। षडानन! स्नानका महत्व जाननेवाले पुरुषोंने चार प्रकारके स्नान बतलाये हैं-वायव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य ।

यह सुनकर सत्यभामा बोलीं- प्रभो ! मुझे चारों स्नानोंके लक्षण बतलाइये।भगवान् श्रीकृष्णने कहा – प्रिये। गोधूलिद्वारा किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि जलाशयोंमें किये हुए स्नानको वारुण कहते हैं, ‘आपो हि ष्ठा मयो0’ आदि ब्राह्मण-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है, उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघके जल और सूर्यकी किरणोंसे शरीरकी शुद्धि करना दिव्य स्नान माना गया है। सब प्रकारके स्नानोंमें वारुण स्नान श्रेष्ठ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करें। परन्तु शूद्र और स्त्रियोंके लिये बिना मन्त्रके ही स्नानका विधान है। बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक – सब लोग कार्तिक और माघमें प्रातः स्नानकी प्रशंसा करते हैं। कार्तिकमें प्रातः काल स्नान करनेवाले लोग मनोवांछित फल प्राप्त करते हैं। कार्तिकेयजी बोले- पिताजी! अन्य धर्मोका भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।

महादेवजीने कहा- बेटा! कार्तिक मासको उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरेका अन्न त्याग देता है, वह प्रतिदिन कृच्छ्रव्रतका फल प्राप्त करता है। कार्तिकमें तेल, मधु, काँसेके बर्तनमें भोजन और मैथुनका विशेषरूपसे परित्याग करना चाहिये। एक बार भी मांस भक्षण करनेसे मनुष्य राक्षसकी योनिमें जन्म पाता है और साठ हजार वर्षोंतक विष्ठामें डालकर सड़ाया जाता है। उससे छुटकारा पानेपर वह पापी विष्ठा खानेवाला ग्राम-शूकर होता है। कार्तिक मासमें शास्त्रविहित भोजनका नियम करनेपर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान् विष्णुका परमधाम ही मोक्ष है। कार्तिकके समान कोई मास नहीं है, श्रीविष्णुसे बढ़कर कोई देवता नहीं है, वेदके तुल्य कोई शास्त्र नहीं है, गंगाके समान कोई तीर्थ नहीं है, सत्यके समान सदाचार, सत्ययुगके समान युग, रसनाके तुल्य तृप्तिका साधन, दानके सदृश सुख, धर्मके समान मित्र और नेत्रके समान कोई ज्योति नहीं है। *स्नान करनेवाले पुरुषोंके लिये समुद्रगामिनी पवित्र नदी प्रायः दुर्लभ होती है। कुलके अनुरूप उत्तम शीलवाली कन्या, कुलीन और शीलवान् दम्पति, जन्मदायिनी माता, विशेषतः पिता, साधु पुरुषोंके सम्मानका अवसर, धार्मिक पुत्र, द्वारकाका निवास, भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन, गोमतीका स्नान और कार्तिकका व्रत- ये सब मनुष्यके लिये प्रायः दुर्लभ हैं। चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणकालमें ब्राह्मणोंको पृथ्वी दान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह कार्तिकमें भूमिपर शयन करनेवाले पुरुषको स्वतः प्राप्त हो जाता है। ब्राह्मण-दम्पतिको भोजन कराये, चन्दन आदिसे उनकी पूजा करे। कम्बल, नाना प्रकारके रत्न और वस्त्र दान करे ओढ़नेके साथ ही बिना भी दे तुम्हें कार्तिक मासमें जूते और छातेका भी दान करना चाहिये। कार्तिक मासमें जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तलमें भोजन करता है, वह चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। उसे सम्पूर्ण कामनाओं तथा समस्त तीर्थोंका फल प्राप्त होता है। पलाशके पत्तेपर भोजन करनेसे मनुष्य कभी नरक नहीं देखता; किन्तु वह पलाशके बिचले पत्रका अवश्य त्याग कर दे।

कार्तिक में तिलका दान, नदीका स्नान, सदा साधुपुरुषोंका सेवन और पलाशके पत्तोंमें भोजन सदा मोक्ष मोक्ष देनेवाला है। कार्तिकके महीने में मौन व्रतका पालन, पलाशके पत्तेमें भोजन, तिलमिश्रित जलसे स्नान, निरन्तर क्षमाका आश्रय और पृथ्वीपर शयन करनेवाला पुरुष युग-युगके उपार्जित पापका नाश कर डालता है। जो कार्तिक मासमें भगवान् विष्णुके सामने उषाकालतक जागरण करता है, उसे सहस्र गोदानोंका फल मिलता है।पितृ पक्षमें अन्नदान करनेसे तथा ज्येष्ठ और आषाढ़ मासमें जल देनेसे मनुष्योंको जो फल मिलता है, वह कार्तिकमें दूसरोंका दीपक जलानेमात्रसे प्राप्त हो जाता है। जो बुद्धिमान् कार्तिकमें मन, वाणी और क्रियाद्वारा पुष्कर तीर्थका स्मरण करता है, उसे लाखों-करोड़ोंगुना पुण्य होता है। माघ मासमें प्रयाग, कार्तिकमें पुष्कर और वैशाख मासमें अवन्तीपुरी (उज्जैन) – ये एक युगतक उपार्जित किये हुए पापोंका नाश कर डालते हैं। कार्तिकेय ! संसारमें विशेषतः कलियुगमें वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो सदा पितरोंके उद्धारके लिये श्रीहरिका सेवन करते हैं। बेटा! बहुत-से पिण्ड देने और गयामें श्राद्ध आदि करनेकी क्या आवश्यकता है। वे मनुष्य तो हरिभजनके ही प्रभावसे पितरोंका नरकसे उद्धार कर देते हैं। यदि पितरोंके उद्देश्यसे दूध आदिके द्वारा भगवान् विष्णुको स्नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्गमें पहुँचकर कोटि कल्पोंतक देवताओंके साथ निवास करते हैं। जो कमलके एक फूलसे भी देवेश्वर भगवान् लक्ष्मीपतिका पूजन करता है, वह एक करोड़ वर्षतकके पापोंका नाश कर देता है। देवताओंके स्वामी भगवान् विष्णु कमलके एक पुष्पसे भी पूजित और अभिवन्दित होनेपर एक हजार सात सौ अपराध क्षमा कर देते हैं। षडानन! जो मुखमें, मस्तकपर तथा शरीरमें भगवान्‌की प्रसादभूता तुलसीको प्रसन्नतापूर्वक धारण करता है, उसे कलियुग नहीं छूता । भगवान् विष्णुको निवेदन किये हुए प्रसादसे जिसके शरीरका स्पर्श होता है, उसके पाप और व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं । शंखका जल, श्रीहरिको भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ नैवेद्य, चरणोदक, – चन्दन तथा प्रसादस्वरूप धूप-ये ब्रह्महत्याका भी पाप दूर करनेवाले हैं।

अध्याय 195 प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन

महादेवजी कहते हैं—भक्तप्रवर कार्तिकेय ! अब माघस्नानका माहात्म्य सुनो। महामते। इस संसारमें तुम्हारे समान विष्णु भक्त पुरुष नहीं हैं। चक्रतीर्थमें का और मथुरा श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे मनुष्यको जो फल मिलता है, वही माघ मासमें केवल स्नान करनेसे मिल जाता है। जो जितेन्द्रिय, शान्तचित्त और सदाचारयुक्त होकर माघ मासमें स्नान करता है, वह फिर कभी संसार – बन्धनमें नहीं पड़ता।

इतनी कथा सुनाकर भगवान् श्रीकृष्णने कहा—सत्यभामा! अब मैं तुम्हारे सामने शूकरक्षेत्रके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, जिसके विज्ञानमात्रसे मेरा प्राप्त होता है। पाँच योजन विस्तृत शूकरक्षेत्र मेरा मन्दिर (निवासस्थान) है। देवि! जो इसमें निवास करता है, वह गदहा हो तो भी चतुर्भुजस्वरूपको प्राप्त होता है। तीन हजार तीन सौ तीन हाथ मेरे मन्दिरका परिमाण माना गया है। देवि! जो अन्य स्थानोंमें साठ हजार वर्षोंतक तपस्या करता है, वह मनुष्य शूकरक्षेत्र में आधे पहरतक तप करनेपर ही उतनी तपस्याका फल प्राप्त कर लेता है। कुरुक्षेत्रके सन्निहति’ नामक तीर्थमें सूर्यग्रहणके समय तुला पुरुषके दानसे जो फल बताया गया है, वह काशीमें दसगुना, त्रिवेणीमें सौगुना और गंगा सागर संगममें गुना गया है। किन्तु मेरे निवासभूत शूकरक्षेत्रमें उसका फल अनन्तगुना समझना चाहिये। भामिनि ! अन्य तीर्थों में उत्तम विधानके साथ जो लाखों दान दिये जाते हैं, सूकरक्षेत्रमें एक ही दानसे उनके समान फल प्राप्त हो जाता है। शूकरक्षेत्र, त्रिवेणी और गंगा-सागर-संगममें एक बार ही स्नान करनेसे मनुष्यकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। पूर्वकालमें राजा अलर्कने] शूकरक्षेत्रका माहात्म्य श्रवण करके सातोंद्वीपोंसहित पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया था। कार्तिकेयने कहा- भगवन्! मैं व्रतोंमें उत्तम मासोपवास- व्रतका वर्णन सुनना चाहता हूँ। साथ ही उसकी विधि एवं यथोचित फलको भी श्रवण करना चाहता हूँ।

महादेवजी बोले- बेटा! तुम्हारा विचार बड़ा उत्तम है। तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब बताता हूँ। जैसे देवताओंमें भगवान् विष्णु, तपनेवालोंमें सूर्य, पर्वतोंमें मेरु, पक्षियोंमें गरुड़, तीर्थोंमें गंगा तथा प्रजाओं में वैश्य श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सब व्रतोंमें मासोपवास- व्रत श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण व्रतोंसे, समस्त तीर्थोंसे तथा सब प्रकारके दानोंसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह सब मासोपवास करनेवालेको मिल जाता है। वैष्णवयज्ञके उद्देश्यसे भगवान् जनार्दनकी पूजा करनेके पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर मासोपवास व्रत करना चाहिये। शास्त्रोक्त जितने भी वैष्णवव्रत हैं, उन सबको तथा द्वादशीके पवित्र व्रतको करनेके पश्चात् मासोपवास-व्रत करना उचित है। अतिकृच्छ्र, पराक और चान्द्रायण व्रतोंका अनुष्ठान करके गुरु और ब्राह्मणकी आज्ञासे मासोपवास-व्रत करे। आश्विन मासके शुक्लपक्षकी एकादशीको उपवास करके तीस दिनोंके लिये इस व्रतको ग्रहण करे। जो मनुष्य भगवान् वासुदेवकी पूजा करके कार्तिक मासभर उपवास करता है, वह मोक्षफलका भागी होता है। भगवान्के मन्दिरमें जाकर तीनों समय भक्तिपूर्वक सुन्दर मालती, नीलकमल, पद्म, सुगन्धित कमल, केशर, खस, कपूर, उत्तम चन्दन, नैवेद्य और धूप-दीप आदिसे श्रीजनार्दनका पूजन करे। मन, वाणी और क्रियाद्वारा श्रीगरुडध्वजकी आराधनामें लगा रहे। स्त्री, पुरुष, विधवा- जो कोई भीइस व्रतको करे, पूर्ण भक्तिके साथ इन्द्रियोंको काबूमें रखते हुए दिन-रात श्रीविष्णुके नामोंका कीर्तन करता रहे । भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी स्तुति करे। झूठ न बोले । सम्पूर्ण जीवोंपर दया करे । अन्तःकरणकी वृत्तियोंको अशान्त न होने दे। हिंसा त्याग दे। सोया हो या बैठा, श्रीवासुदेवका कीर्तन किया करे। अन्नका स्मरण, अवलोकन, सूँघना, स्वाद लेना, चर्चा करना तथा ग्रासको मुँहमें लेना – ये सभी निषिद्ध हैं। व्रतमें स्थित मनुष्य-शरीरमें उबटन लगाना, सिरमें तेलकी मालिश कराना, पान खाना और चन्दन लगाना छोड़ दे तथा अन्यान्य निषिद्ध वस्तुओंका भी त्याग करे। व्रत करनेवाला पुरुष शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले व्यक्तिका स्पर्श न करे उससे वार्तालाप भी न करे। पुरुष, सौभाग्यवती स्त्री अथवा विधवा नारी शास्त्रोक्त विधिसे एक मासतक उपवास करके भगवान् वासुदेवका पूजन करे। यह व्रत गिने-गिनाये तीस दिनोंका होता है, इससे अधिक या कम दिनोंका नहीं। मनको संयममें रखनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष एक मासतकउपवासके नियमको पूरा करके द्वादशी तिथिको भगवान् गरुडध्वजका पूजन करे। फूल, माला, गन्ध, धूप, चन्दन, वस्त्र, आभूषण और वाद्य आदिके द्वारा भगवान् विष्णुको संतुष्ट करे। चन्दनमिश्रित तीर्थके जलसे भक्तिपूर्वक भगवान्‌को स्नान कराये। फिर उनके अंगोंमें चन्दनका लेप करके गन्ध और पुष्पोंसे शृंगार करे। फिर वस्त्र आदिका दान करके उत्तम ब्राह्मणोंको भोजन कराये, उन्हें दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा-याचना करे। इस प्रकार मासोपवासपूर्वक जनार्दनकी पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे मनुष्य श्रीविष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है। मण्डपमें उपस्थित ब्राह्मणोंसे बारंबार इस प्रकार कहना चाहिये- ‘द्विजवरो! इस व्रतमें जो कोई भी कार्य मन्त्रहीन, क्रियाहीन और सब प्रकारके साधनों एवं विधियोंसे हीन हुआ हो, वह सब आपलोगोंके वचन और प्रसादसे परिपूर्ण हो जाय।’ कार्तिकेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे मासोपवासकी विधिका यथावत् वर्णन किया है।

अध्याय 196 शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य

कार्तिकेयने कहा- भगवन्! आप योगियोंमें श्रेष्ठ हैं। मैंने आपके मुखसे सब धर्मोका श्रवण किया। प्रभो! अब शालग्राम-पूजनकी विधिका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।

महादेवजी बोले- महामते ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। वत्स! तुम जो कुछ पूछ रहे हो, उसका उत्तर देता हूँ सुनो शालग्रामशिलामें सदा चराचर प्राणियसहित समस्त त्रिलोकी लीन रहती है। जो शालग्रामशिलाका दर्शन करता, उसे मस्तक झुकाता, स्नान कराता और पूजन करता है, वह कोटि यज्ञोंके समान पुण्य तथा कोटि गोदानोंका फल पाता है। बेटा! जो पुरुष सर्वदा भगवान् विष्णुकी शालग्रामशिलाका चरणामृत पान करता है, उसने गर्भवासके भयंकर कष्टका नाश कर दिया। जो सदा भोगोंमें आसक्त और भक्तिभावसे हीन है, वह भी शालग्रामशिलाका पूजनकरके भगवत्स्वरूप हो जाता है। शालग्रामशिलाका स्मरण, कीर्तन, ध्यान, पूजन और नमस्कार करनेपर कोटि-कोटि ब्रह्महत्याओंका पाप नष्ट हो जाता है। शालग्रामशिलाका दर्शन करनेसे अनेक पाप दूर हो जाते हैं। जो मनुष्य प्रतिदिन शालग्रामशिलाकी पूजा करता है, उसे न तो यमराजका भय होता है और न मरने या जन्म लेनेका ही। जिन मनुष्योंने भक्तिभावसे शालग्रामको नमस्कारमात्र कर लिया, उनको तथा मेरे भक्तोंको फिर मनुष्ययोनिकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। वे तो मुक्तिके अधिकारी हैं। जो मेरी भक्तिके घमंडमें आकर मेरे प्रभु भगवान् वासुदेवको नमस्कार नहीं करते, वे पापसे मोहित हैं; उन्हें मेरा भक्त नहीं समझना चाहिये
करोड़ों कमल-पुष्पोंसे मेरी पूजा करनेपर जो फल होता है, वही शालग्रामशिलाके पूजनसे कोटिगुना होकर मिलता है, जिन लोगोंने मर्त्यलोकमें आकर शालग्रामशिलाका पूजन नहीं किया, उन्होंने न तो कभी मेरा पूजन किया और न नमस्कार ही किया। जो शालग्रामशिलाके अग्रभागमें मेरा पूजन करता है, उसने मानो लगातार इक्कीस युगांतक मेरी पूजा कर ली। जो मेरा भक्त होकर वैष्णव पुरुषका पूजन नहीं करता वह मुझसे द्वेष रखनेवाला है। उसे तबतकके लिये नरकमें रहना पड़ता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी आयु समाप्त नहीं हो जाती।

जिसके घरमें कोई वानप्रस्थी, वैष्णव अथवा संन्यासी दो घड़ी भी विश्राम करता है, उसके पितामह आठ युगोंतक अमृत भोजन करते हैं। शालग्रामशिलासे प्रकट हुए लिंगोंका एक बार भी पूजन करनेपर मनुष्य योग और सांख्यसे रहित होनेपर भी मुक्त हो जाते हैं। मेरे कोटि-कोटि लिंगोंका दर्शन, पूजन और स्तवन करनेसे जो फल मिलता है, वह एक ही शालग्रामशिलाके पूजनसे प्राप्त हो जाता है।

जो वैष्णव प्रतिदिन बारह शालग्रामशिलाओंका पूजन करता है, उसके पुण्यका वर्णन सुनो। गंगाजीके तटपर करोड़ों शिवलिंगों का पूजन करनेसे तथा लगातार आठ युगौतक काशीपुरीमें रहनेसे जो पुण्य होता है, वह उस वैष्णवको एक ही दिनमें प्राप्त हो जाता है। अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता – जो वैष्णव मनुष्य शालग्रामशिलाका पूजन करता है, उसके पुण्यकी गणना करनेमें में तथा ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं; इसलिये बेटा! मेरे भक्तोंको उचित है कि वे मेरी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक शालग्रामशिलाका भी पूजन करें। जहाँ शालग्रामशिलारूपी भगवान् केशव विराजमान हैं, वहीं सम्पूर्ण देवता, असुर, यक्ष तथा चौदों भुवन मौजूद हैं। अन्य देवताओंका करोड़ों बार कीर्तन करनेसे जो फल होता है, वह भगवान् शिवका एक बार कीर्तन करनेसे ही मिल जाता है। अतः कलियुगमें श्रीहरिका कीर्तन ही सर्वोत्तम पुण्य हैं।” श्रीहरिका चरणोदक पान करनेसे ही समस्त पापका प्रायश्चित्त हो जाता है। फिर उनके लिये दान, उपवास और चान्द्रायण व्रत करनेकी क्या आवश्यकता है।बेटा स्कन्द ! अन्य सभी शुभकर्मोंके फलोंका माप है; किन्तु शालग्रामशिलाके पूजनसे जो फल मिलता है, उसका कोई माप नहीं जो विष्णुभक्त ब्राह्मणको शालग्रामशिलाका दान करता है, उसने मानो सौ यज्ञोंद्वारा भगवान्का यजन कर लिया। जो शालग्रामशिलाके जलसे अपना अभिषेक करता है, उसने सम्पूर्ण तीथोंमें स्नान कर लिया और समस्त यज्ञोंकी दीक्षा ले ली। जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक एक एक सेर तिलका दान करता है, वह शालग्रामशिलाके पूजनमात्रसे उस फलको प्राप्त कर लेता है। शालग्रामशिलाको अर्पण किया हुआ थोड़ा-सा पत्र, पुष्प, फल, जल, मूल और दूर्वादल भी मेरुपर्वतके समान महान् फल देनेवाला होता है।

जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं। वहाँ किया हुआ स्नान और दान काशीसे सौगुना अधिक फल देनेवाला है। प्रयाग, कुरुक्षेत्र, पुष्कर और नैमिषारण्य- ये सभी तीर्थ वहाँ मौजूद रहते हैं; अतः वहाँ उन तीर्थोंकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक पुण्य होता है। काशीमें मिलनेवाला मोक्षरूपी महान् फल भी वहाँ सुलभ होता है जहाँ शालग्रामशिलासे प्रकट होनेवाले भगवान् शालग्राम तथा द्वारकासे प्रकट होनेवाले भगवान् गोमतीचक्र हों तथा जहाँ इन दोनोंका संगम हो गया हो वहाँ निःसन्देह मोक्षकी प्राप्ति होती है। शालग्रामशिलाके पूजनमें मन्त्र, जप, भावना, स्तुति अथवा किसी विशेष प्रकारके आचारका बन्धन नहीं है। शालग्रामशिलाके सम्मुख विशेषतः कार्तिक मासमें आदरपूर्वक स्वस्तिकका चिह्न बनाकर मनुष्य अपनी सात पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है। जो भगवान् केशवके समक्ष मिट्टी अथवा गेरू आदिसे छोटा-सा भी मण्डल (चौक) बनाता है, वह कोटि कल्पतक दिव्यलोकमें निवास करता है। श्रीहरिके मन्दिरको सजानेसे अगम्यागमन तथा अभक्ष्यभक्षण जैसे पाप भी नष्ट हो जाते हैं। जो नारी प्रतिदिन भगवान् विष्णुके सामने चौक पूरती है, वह सात जन्मोंतक कभी विधवा नहीं होती।

अध्याय 197 भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन

महादेवजी कहते हैं- जो प्रतिदिन मालतीसे भगवान् गरुड़ध्वजका पूजन करता है, वह जन्मके दुःखों और बुढ़ापेके रोगोंसे छुटकारा पाकर मुक्त हो जाता है। जिसने कार्तिकमें मालतीको मालासे भगवान् विष्णुको पूजा की है, उसके पापको भगवान् श्रीकृष्ण धो डालते हैं। चन्दन, कपूर, अरगजा, केशर, केवड़ा और दीपदान भगवान् केशवको सदा ही प्रिय हैं। कमलका पुष्प, तुलसीदल, मालती, अगस्त्यका फूल और दीपदान ये पाँच वस्तुएँ कार्तिकमें भगवान्के लिये परम प्रिय मानी गयी हैं। कार्तिकेय केवड़े के फूलोंसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके मनुष्य उनके परम पवित्र एवं कल्याणमय धामको प्राप्त होता है। जो अगस्त्यके फूलोंसे जनार्दनका पूजन करता है, उसके दर्शनसे नरककी आग बुझ जाती है। जैसे कौस्तुभमणि और वनमालासे भगवान्‌को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार कार्तिकमें तुलसीदलसे वे अधिक संतुष्ट होते हैं।

कार्तिकेय ! अब कार्तिकमें दिये जानेवाले दीपका माहात्म्य सुनो। मनुष्यके पितर अन्य पितृगणोंके साथ सदा इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि क्या हमारे कुलमें भी कोई ऐसा उत्तम पितृभक्त पुत्र उत्पन्न होगा, जो कार्तिकमें दीपदान करके श्रीकेशवको संतुष्ट कर सके। स्कन्द कार्तिकमें घी अथवा तिलके तेलसे जिसका दीपक जलता रहता है, उसे अश्वमेध यज्ञसे क्या लेना है। जिसने कार्तिकमें भगवान् केशवके समक्ष दीपदान किया है, उसने सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान कर लिया और समस्त तीर्थों में गोता लगा लिया। बेटा! विशेषतः कृष्णपक्षमें पाँच दिन बड़े पवित्र हैं (कार्तिक कृष्णा 13 से कार्तिक शुक्ला 2 तक) उनमें जो कुछ भी दान किया जाता है, वह सब अक्षय एवं सम्पूर्ण कामनाओंकोपूर्ण करनेवाला होता है। लीलावती वेश्या दूसरेके रखे हुए दीपको ही जलाकर शुद्ध हो अक्षय स्वर्गको चली गयी। इसलिये रात्रिमें सूर्यास्त हो जानेपर घरमें गोशालाएँ, देववृक्षके नीचे तथा मन्दिरोंमें दीपक जलाकर रखना चाहिये। देवताओंके मन्दिरोंमें, श्मशानोंमें और नदियोंके तटपर भी अपने कल्याणके लिये घृत आदिसे पाँच दिनोंतक दीपक जलाने चाहिये। ऐसा करनेसे जिनके श्राद्ध और तर्पण नहीं हुए हैं, वे पापी पितर भी दीपदानके पुण्यसे परम मोक्षको प्राप्त हो जाते हैं।

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— ‘भामिनि ! कार्तिक कृष्णपक्षको त्रयोदशीको घरसे बाहर यमराजके लिये दीप देना चाहिये। इससे दुर्मृत्युका नाश होता है। दीप देते समय इस प्रकार कहना चाहिये ‘मृत्यु’, पाशधारी काल और अपनी पत्नीके साथ सूर्यनन्दन यमराज त्रयोदशीको दीप देनेसे प्रसन्न हों। 9 कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको चन्द्रोदयके समय नरकसे डरनेवाले मनुष्योंको अवश्य स्नान करना चाहिये। जो चतुर्दशीको प्रातः काल स्नान करता है, उसे यमलोकका दर्शन नहीं करना पड़ता अपामार्ग (आँगा या चिचड़ा) तुम्बी (लौकी), प्रपुन्नाट (चकवड़) और कट्फल (कायफल ) – इनको स्नानके बीचमें मस्तकपर घुमाना चाहिये। इससे नरकके भयका नाश होता है। उस समय इस प्रकार प्रार्थना करे- ‘हे अपामार्ग! मैं हराईके ढेले, काँटे और पत्तोंसहित तुम्हें बार-बार मस्तकपर घुमा रहा हूँ। मेरे पाप हर लो। ‘2 यों कहकर अपामार्ग और चकवड़को मस्तकपर घुमाये। तत्पश्चात् यमराजके नामोंका उच्चारण करके तर्पण करे। वे नाम-मन्त्र इस प्रकार हैं यमाय नमः, धर्मराजाय नमः, मृत्यवे नमः, अन्तकाय नमः, वैवस्वताय नमः, कालायनमः, . सर्वभूतक्षयाय नमः, औदुम्बराय नमः, दध्नाय नमः, नीलाय नमः, परमेष्ठिने नमः, वृकोदराय चित्राय नमः, चित्रगुप्ताय नमः ।

देवताओंका पूजन करके दीपदान करना चाहिये। इसके बाद रात्रिके आरम्भमें भिन्न-भिन्न स्थानोंपर मनोहर दीप देने चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदिके मन्दिरोंमें, गुप्त गृहोंमें, देववृक्षोंके नीचे, सभाभवनमें, नदियोंके किनारे, चहारदीवारीपर, बगीचेमें, बावलीके तटपर, गली-कूचोंमें, गृहोद्यानमें तथा एकान्त अश्वशालाओं एवं गजशालाओंमें भी दीप जलाने चाहिये। इस प्रकार रात व्यतीत होनेपर अमावास्याको प्रात:काल स्नान करें और भक्तिपूर्वक देवताओं तथा पितरोंका पूजन और उन्हें प्रणाम करके पार्वण श्राद्ध करे; फिर दही, दूध, घी आदि नाना प्रकारके भोज्य पदार्थोद्वारा ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उनसे क्षमा प्रार्थना करे। तदनन्तर भगवान्‌के जागनेसे पहले स्त्रियोंके द्वारा लक्ष्मीजीको जगाये। जो प्रबोधकाल (ब्राह्ममुहूर्त) – में लक्ष्मीजीको जगाकर उनका पूजन करता है, उसे धन-सम्पत्तिकी कमी नहीं होती। तत्पश्चात् प्रातः काल (कार्तिकशुक्ला प्रतिपदाको) गोवर्धनका पूजन करना चाहिये। उस समय गौओं तथा बैलोंको आभूषणोंसे सजाना चाहिये। उस दिन उनसे सवारीका काम नहीं लेना चाहिये तथा गायको दुहना भी नहीं चाहिये। पूजनके गोवर्धनसे इस प्रकार प्रार्थना करे

गोवर्धन धराधार गोकुलत्राणकारक ॥

विष्णुबाहुकृतोच्छ्राय गवां कोटिप्रदो भव l

या लक्ष्मीर्लोकपालानां धेनुरूपेण संस्थिता ॥

घृतं वहति यज्ञार्थे मम पापं व्यपोहतु

अग्रतः सन्तु मे गावो गावो मे सन्तु पृष्ठतः

गावो मे हृदये सन्तु गवां मध्ये वसाम्यहम्

(124 । 31-33)

‘पृथ्वीको धारण करनेवाले गोवर्धन ! आप गोकुलके रक्षक हैं। भगवान् श्रीकृष्णने आपको अपनी भुजाओंपर उठाया था। आप मुझे कोटि-कोटि गौएँ प्रदान करें। लोकपालोंकी जो लक्ष्मी धेनुरूपमें स्थित है और यज्ञके लिये घृत प्रदान करती है, वह मेरे पापको दूर करे। मेरे आगे गौएँ रहें, मेरे पीछे भी गौएँ रहें, मेरे हृदयमें गौओंका निवास हो तथा मैं भी गौओंके बीचमें निवास करूँ।’

कार्तिक शुक्लपक्षकी द्वितीयाको पूर्वाह्नमें यमकी पूजा करे । यमुनामें स्नान करके मनुष्य यमलोकको नहीं देखता। कार्तिक शुक्ला द्वितीयाको पूर्वकालमें यमुनाने यमराजको अपने घरपर सत्कारपूर्वक भोजन कराया था। उस दिन नारकी जीवोंको यातनासे छुटकारा मिला और उन्हें तृप्त किया गया। वे पाप मुक्त होकर सब बन्धनोंसे छुटकारा पा गये और सब के-सब यहाँ अपनी इच्छाके अनुसार संतोषपूर्वक रहे 1 उन सबने मिलकर एक महान् उत्सव मनाया, जो यमलोकके राज्यको सुख पहुँचानेवाला था। इसीलिये यह तिथि तीनों लोकोंमें यमद्वितीयाके नामसे विख्यात हुई; अतः विद्वान् पुरुषोंको उस दिन अपने घर भोजन नहीं करना चाहिये। वे बहिनके घर जाकर उसीके हाथसे मिले हुए अन्नको, जो पुष्टिवर्धक है, स्नेहपूर्वक भोजन करें तथा जितनी बहिनें हों, उन सबको पूजा और सत्कारके साथ विधिपूर्वक सुवर्ण, आभूषण एवं वस्त्र दें। सगी बहिनके हाथका अन्न भोजन करना उत्तम माना गया है। उसके अभावमें किसी भी बहिनके हाथका अन्न भोजन करना चाहिये। वह बलको बढ़ानेवाला है। जो लोग उस दिन सुवासिनी बहिनोंको वस्त्र दान आदिसे सन्तुष्ट करते हैं, उन्हें एक सालतक कलह एवं शत्रुके भयका सामना नहीं करना पड़ता। यह प्रसंग धन, यश, आयु, धर्म, काम एवं अर्थकी सिद्धि करनेवाला है।

अध्याय 198 प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा

महादेवजी कहते हैं-सुरश्रेष्ठ कार्तिकेय अब प्रबोधिनी एकादशीका माहात्म्य सुनो यह पापका नाशक, पुण्यकी वृद्धि करनेवाला तथा तत्त्वचिन्तनपरायण पुरुषोंको मोक्ष देनेवाला है समुद्रसे लेकर सरोवरोंतक: जितने तीर्थ हैं, वे भी तभीतक गरजते हैं जबतक कि कार्तिक में श्रीहरिकी प्रबोधिनी तिथि नहीं आती। प्रबोधिनीको एक ही उपवाससे सहस्र अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञोंका फल मिल जाता है। इस चराचर त्रिलोकीमें जो वस्तु अत्यन्त दुर्लभ मानी गयी है, उसे भी माँगनेपर हरिबोधिनी एकादशी प्रदान करती है। यदि हरिबोधिनी एकादशीको उपवास किया जाय तो वह अनायास ही ऐश्वर्य, सन्तान, ज्ञान, राज्य और सुख सम्पत्ति प्रदान करती है। मनुष्यके किये हुए मेरुपर्वतके समान बड़े-बड़े पापको भी हरिबोधिनी एकादशी एक ही उपवाससे भस्म कर डालती है। जो प्रबोधिनी एकादशीको स्वभावसे ही विधिपूर्वक उपवास करता है, वह शास्त्रोक्त फलका भागी होता है। प्रबोधिनी एकादशीको रात्रिमें जागरण करनेसे पहलेके हजारों जन्मोंकी की हुई पापराशि रूड़के ढेरकी भाँति भरम हो जाती है।

रात्रिमें जागरण करते समय भगवत्सम्बन्धी गीत, वाद्य, नृत्य और पुराणोंके पाठकी भी व्यवस्था करनी चाहिये। धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्प, गन्ध, चन्दन, फल और अर्घ्य आदिसे भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। मनमें श्रद्धा रखकर दान देना और इन्द्रियोंको संयममें रखना चाहिये। सत्यभाषण, निद्राका अभाव, प्रसन्नता, शुभकर्ममें प्रवृत्ति, मनमें आश्चर्य और उत्साह, आलस्य आदिका त्याग, भगवान्की परिक्रमा तथा नमस्कार इन बातोंका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये। महाभाग ! प्रत्येक पहरमें उत्साह और उमंगके साथ भक्तिपूर्वक भगवान्की आरती उतारनी चाहिये। जो पुरुष भगवान्के समीप एकाग्रचित्त होकर उपर्युक्त गुणोंसे युक्त जागरण करता है, वह पुनः इस पृथ्वीपर जन्म नहीं लेता। जो धनकी कृपणता छोड़कर इस प्रकार भक्तिभावसेएकादशीको जागरण करता है, वह परमात्मामें लीन हो जाता है। जो कार्तिक पुरुषसूक्तके द्वारा प्रतिदिन श्रीहरिका पूजन करता है, उसके द्वारा करोड़ों वर्षोंतक भगवान्‌की पूजा सम्पन्न हो जाती है। जो मनुष्य पांचरात्रमें बतायी हुई यथार्थ विधिके अनुसार कार्तिकमें भगवान्का पूजन करता है, वह मोक्षका भागी होता है। जो कार्तिकमें ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्रके द्वारा श्रीहरिकी अर्चना करता है, वह नरकके दुःखोंसे छुटकारा पाकर अनामयपदको प्राप्त होता है। जो कार्तिक श्रीविष्णुसहस्रनाम तथा गजेन्द्र मोक्षका पाठ करता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता। उसके कुलमें जो सैकड़ों, हजारों पुरुष उत्पन्न हो चुके हैं, वे सभी श्रीविष्णुधामको प्राप्त होते हैं। अतः एकादशीको जागरण अवश्य करना चाहिये। जो कार्तिकमें रात्रिके पिछले पहर में भगवान के सामने स्तोत्रगान करता है, वह अपने पितरोंके साथ श्वेतद्वीपमें निवास करता है। जो मनुष्य कार्तिक शुक्लपक्षमें एकादशीका व्रत पूर्ण करके प्रातःकाल सुन्दर कलश दान करता है, वह श्रीहरिके परमधामको प्राप्त होता है।

व्रतधारियोंमें श्रेष्ठ कार्तिकेय ! अब मैं तुम्हें महान् पुण्यदायक व्रत बताता हूँ। यह व्रत कार्तिकके अन्तिम पाँच दिनोंमें किया जाता है। इसे भीष्मजीने भगवान् वासुदेवसे प्राप्त किया था, इसलिये यह व्रत भीष्म पंचक नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् केशवके सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो इस व्रतके गुणोंका यथावत् वर्णन कर सके। वसिष्ठ, भृगु और गर्ग आदि मुनीश्वरोंने सत्ययुगके आदिमें कार्तिकके शुक्लपक्षमें इस पुरातन धर्मका अनुष्ठान किया था। राजा अम्बरीषने भी त्रेता आदि युगोंमें इस व्रतका पालन किया था। ब्राह्मणोंने ब्रह्मचर्यपालन, जप तथा हवन कर्म आदिके द्वारा और क्षत्रियों एवं वैश्योंने सत्य-शीच आदिके पालनपूर्वक इस व्रतका अनुष्ठान किया है। सत्यहीन मूढ़ मनुष्योंके लिये इस व्रतका अनुष्ठान असम्भव है। जो इस व्रतको पूर्ण कर लेता है, उसने मानो सब कुछ कर लिया।कार्तिक शुक्लपक्ष एकादशीको विधिपूर्वक स्नान करके पाँच दिनोंका व्रत ग्रहण करे। व्रती पुरुष प्रातः स्नानके बाद मध्याह्नके समय भी नदी, झरने या पोखरेपर जाकर शरीरमें गोबर लगाकर विशेषरूपसे। स्नान करे। फिर चावल, जौ और तिलोंके द्वारा क्रमशः देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। मौनभावसे स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहन दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करे। ब्राह्मणको पंचरत्न दान दे। लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुका प्रतिदिन पूजन करे। इस पंचकतके अनुष्ठानसे मनुष्य वर्षभरके सम्पूर्ण व्रतोंका फल प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य निम्नांकित मन्त्रोंसे भीष्मको जलदान देता और अर्घ्यके द्वारा उनका पूजन (सत्कार) करता है, वह मोक्षका भागी होता है। मन्त्र इस प्रकार है—

वैयाघ्रपद्यगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।

अनपत्याय भीष्माय उदकं भीष्मवर्मणे ॥

वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च।

अर्घ्यं ददामि भीष्माय आजन्मब्रह्मचारिणे ॥

(125 43-44)

‘जिनका गोत्र वैयाघ्रपद्य और प्रवर सांकृत्य है, उन सन्तानरहित राजर्षि भीष्मके लिये यह जल समर्पित है जो वसुओंके अवतार तथा राजा शन्तनुके पुत्र हैं, उन आजन्म ब्रह्मचारी भीष्मको मैं अर्घ्य दे रहा हूँ।’ तत्पश्चात् सब पापका हरण करनेवाले श्रीहरिका पूजन करे। उसके बाद प्रयत्नपूर्वक भीष्मपंचकव्रतका पालन करना चहिये। भगवान्को भक्तिपूर्वक जलसे स्नान कराये। फिर मधु, दूध, घी, पंचगव्य, गन्ध और चन्दनमिश्रित जलसे उनका अभिषेक करे। तदनन्तर सुगन्धित चन्दन और केशरमें कपूर और खस मिलाकर भगवान के श्रीविग्रहपर उसका लेप करे फिर गन्ध और धूपके साथ सुन्दर फूलोंसे ओहरिकी पूजा करे तथा उनकी प्रसन्नताके लिये भक्तिपूर्वक घी मिलाया हुआ गूगल जलावे। लगातार पाँच दिनोंतक भगवान्‌के समीप दिन-रात दीपक जलाये रखे। देवाधिदेव श्रीविष्णुको नैवेद्यके रूपमें उत्तम अन्न निवेदन करे। इस प्रकार भगवान्का स्मरण और उन्हें प्रणाम करके उनकी अर्चनाकरे। फिर ‘ॐ नमो वासुदेवाय’ इस मन्त्रका एक सौ आठ बार जप करे तथा उस पडक्षर मन्त्रके अन्तमें ‘स्वाहा’ पद जोड़कर उसके उच्चारणपूर्वक घृतमिश्रित तिल, चावल और जौ आदिसे अग्निमें हवन करे। सायंकालमें सन्ध्योपासना करके भगवान् गरुड़ध्वजको प्रणाम करे और पूर्ववत् षडक्षर मन्त्रका जप करके व्रत- पालनपूर्वक पृथ्वीपर शयन करे। इन सब विधियोंका पाँच दिनोंतक पालन करते रहना चाहिये।

एकादशीको सनातन भगवान् हृषीकेशका पूजन करके थोड़ा-सा गोबर खाकर उपवास करे फिर द्वादशीको व्रती पुरुष भूमिपर बैठकर मन्त्रोचारणके साथ गोमूत्र पान करे । त्रयोदशीको दूध पीकर रहे चतुर्दशीको दही भोजन करे। इस प्रकार शरीरकी शुद्धिके लिये चार दिनोंका लंघन करके पाँचवें दिन स्नान के पश्चात् विधिपूर्वक भगवान् केशवकी पूजा करे और भक्तिके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणा दे। पापबुद्धिका परित्याग करके बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मचर्यका पालन करे। शाकाहारसे अथवा मुनियोंके अन्न (तिन्नीके चावल) से इस प्रकार निर्वाह करते हुए मनुष्य श्रीकृष्णके पूजनमें संलग्न रहे। उसके बाद रात्रिमें पहले पंचगव्य पान करके पीछे अन्न भोजन करे। इस प्रकार भलीभाँति व्रतकी पूर्ति करनेसे मनुष्य शास्त्रोक्त फलका भागी होता है। इस भीष्म व्रतका अनुष्ठान करनेसे मनुष्य परमपदको प्राप्त करता है। स्त्रियोंको भी अपने स्वामीकी आज्ञा लेकर इस धर्मवर्धक व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। मोक्ष-मुखकी वृद्धि, सम्पूर्ण विधवाएँ भी कामनाओंकी पूर्ति तथा पुण्यकी प्राप्तिके लिये इस व्रतका पालन करें। भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगे रहकर प्रतिदिन बलिवैश्वदेव भी करना चाहिये यह आरोग्य और पुत्र प्रदान करनेवाला तथा महापातकों का नाश करनेवाला है। एकादशीसे लेकर पूर्णिमातकका जो व्रत है, वह इस पृथ्वीपर भीष्मपंचकके नामसे विख्यात है। भोजनपरायण पुरुषके लिये इस व्रतका निषेध है। इस व्रतका पालन करनेपर भगवान् विष्णु शुभ फल प्रदान करते हैं।महादेवजी कहते हैं- यह मोक्षदायक शास्त्र अनधिकारी पुरुषोंके सामने प्रकाशित करनेयोग्य नहीं है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है, वह मोक्षको प्राप्त होता है। कार्तिकेय ! इस व्रतको यत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिये। जो त्यागी मनुष्य हैं, वे भी यदि इस व्रतका अनुष्ठान करें तो उनके पुण्यको बतलाने में मैं असमर्थ हूँ। इस प्रकार कार्तिक मासका जो कुछ भी फल है, वह सब मैंने बतला दिया।भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- देवदेव भगवान् शंकरने पुत्रकी मंगल कामनासे यह व्रत उसे बताया था। पिताके वचन सुनकर कार्तिकेय आनन्दमग्न हो गये। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस कार्तिकमाहात्म्यका पाठ करता, सुनता और सुनकर हृदयमें धारण करता है, वह सब पापसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। इस माहात्म्यका श्रवण करनेमात्रसे ही धन, धान्य, यश, पुत्र, आयु और आरोग्यकी प्राप्ति हो जाती है।

अध्याय 199 भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य

श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो! विश्वेश्वर श्रेष्ठ भक्तिका क्या स्वरूप है, जिसके जाननेमात्रसे मनुष्योंको सुख प्राप्त होता है?

महादेवजी बोले- देवि! भक्ति तीन प्रकारकी बतायी गयी है- सात्त्विकी, राजसी और तामसी इनमें सात्त्विकी उत्तम, राजसी मध्यम और तामसी कनिष्ठ है। मोक्षरूप फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको श्रीहरिको उत्तम भक्ति करनी चाहिये। अहंकारको लेकर या दूसरोंको दिखानेके लिये अथवा ईर्ष्यावश या दूसरोंका संहार करनेकी इच्छासे जो किसी देवताको भक्ति की जाती है, वह तामसी बतायी गयी है। जो विषयोंकी इच्छा रखकर अथवा यश और ऐश्वर्यकी प्राप्ति के लिये भगवान्की पूजा करता है, उसकी भक्ति राजसी मानी गयी है। ज्ञानपरायण ब्राह्मणोंको कर्म-बन्धनका नाश करनेके लिये श्रीविष्णु के प्रति आत्मसमर्पणकी बुद्धि करनी चाहिये। यही सात्त्विकी भक्ति है। अतः देवि! सदा सब प्रकारसे श्रीहरिका सेवन करना चाहिये। तामसभावसे तामस, राजससे राजस और सात्त्विकसे सात्त्विक गति प्राप्त होती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखनेवाले पुरुषोंको समस्त देवता प्रसन्नतापूर्वक शान्ति देते हैं, ब्रह्मा आदि देवेश्वर उनका मंगल करते हैं औरप्रधान प्रधान मुनीश्वर उन्हें कल्याण प्रदान करते हैं। जो भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखते हैं, उनके लिये भूत पिशाचों सहित समस्त ग्रह शुभ हो जाते हैं। ब्रह्मा आदि देवता उनपर प्रसन्न होते हैं तथा उनके घरोंमें लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है। भगवान् गोविन्दमें भक्ति रखनेवाले मानवोंके शरीरमें सदा गंगा, गया, नैमिषारण्य, काशी, प्रयाग और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थ निवास करते हैं।

इस प्रकार विद्वान् पुरुष भगवती लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुकी आराधना करे। जो ऐसा करता है, वह ब्राह्मण सदा कृतकृत्य होता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। पार्वती क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ही क्यों न हो जो भगवान् विष्णुकी विशेषरूपसे भक्ति करता है, वह निस्सन्देह मुक्त हो जाता है।

पार्वतीजीने पूछा- सुरेश्वर ! इस पृथ्वीपर शालग्रामशिलाकी विशुद्ध मूर्तियाँ बहुत-सी हैं, उनमेंसे कितनी मूर्तियोंको पूजनमें ग्रहण करना चाहिये।

महादेवजी बोले- देवि! जहाँ शालग्रामशिलाकी कल्याणमयी मूर्ति सदा विराजमान रहती है, उस घरको वेदोंमें सब तीर्थोंसे श्रेष्ठ बताया गया है। ब्राह्मणोंको पाँच, क्षत्रियोंको चार वैश्योंको तीन और शूद्रोंको एक ही शालग्राममूर्तिका यत्नपूर्वक पूजन करनाचाहिये। ऐसा करनेसे वे इस लोकमे समस्त भोगोंका उपभोग करके अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। यह शालग्रामशिला भगवान्की सबसे बड़ी मूर्ति है, जो पूजन करनेपर सदा पापका अपहरण करनेवाली और मोक्षरूप फल देनेवाली है। जहाँ शालग्रामशिला विराजती है, वहाँ गंगा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती – सभी तीर्थ निवास करते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको इसका भलीभाँति पूजन करना चाहिये। देवेश्वरि ! जो भक्तिभावसे जनार्दनका पूजन करते हैं, उनके दर्शनमात्र से ब्रह्महत्यारा भी शुद्ध हो जाता है पितर सदा यही बातचीत किया करते हैं कि हमारे कुलमें वैष्णव पुत्र उत्पन्न हों, जो हमारा उद्धार करके हमें विष्णुधाममें पहुँचा सकें। वही दिवस धन्य है, जिसमें भगवान् विष्णुका पूजन किया जाय और उसी पुरुषकी माता, बन्धुबान्धव तथा पिता धन्य हैं, जो श्रीविष्णुकी अर्चना करता है। जो लोग भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, उन सबको परम धन्य समझना चाहिये। वैष्णव पुरुषोंके दर्शनमात्रसे जितने भी उपपातक और महापातक हैं, उन सबका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुकी पूजामें संलग्न रहनेवाले मनुष्य अग्निकी भाँति तेजस्वी प्रतीत होते हैं। वे मैचोंके आवरणसे उन्मुक्त चन्द्रमाकी भाँति सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। वैष्णवोंके पूजनसे बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। आर्द्र (स्वेच्छासे किया हुआ पाप), शुष्क (अनिच्छासे किया हुआ पाप), लघु और स्थूल, मन, वाणी तथा शरीरद्वारा किया हुआ, प्रमादसे होनेवाला तथा जानकर और अनजानमेंकिया हुआ जो पाप है, वह सब वैष्णवोंके साथ वार्तालाप करनेसे नष्ट हो जाता है। साधु पुरुषोंके दर्शनसे पापहीन पुरुष स्वर्गको जाते हैं और पापिष्ठ मनुष्य पापसे रहित शुद्ध हो जाते हैं। यह बिलकुल सत्य बात है। भगवान् विष्णुका भक्त पवित्रको भी पवित्र बनानेवाला तथा संसाररूपी कीचड़के दागको धो डालनेमें दक्ष होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। ll 2 ll

जो विष्णुभक्त प्रतिदिन भगवान् मधुसूदनका स्मरण करते हैं, उन्हें विष्णुमय समझना चाहिये। उनके विष्णुरूप होनेमें तनिक भी सन्देह नहीं है। भगवान्के श्रीविग्रहका वर्ण नूतन मेघोंकी नील घटाके समान श्याम एवं सुन्दर है। नेत्र कमलके समान विकसित एवं विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। वक्षःस्थल कौस्तुभमणिसे देदीप्यमान है। श्रीहरि गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं। कुण्डलोंकी दिव्य ज्योतिसे उनके कपोल और मुखकी कान्ति बहुत बढ़ गयी है। किरीटसे मस्तक सुशोभित है। कलाइयोंमें कंगन, बाँहोंमें भुजबंद और चरणोंमें नूपुर शोभा दे रहे हैं। मुखकमल प्रसन्नतासे खिला हुआ है। चार भुजाएँ हैं और साथमें भगवती लक्ष्मीजी विराजमान हैं। पार्वती! जो ब्राह्मण भक्तिभावसे युक्त हो इस प्रकार श्रीविष्णुका ध्यान करते हैं, वे साक्षात् विष्णुके स्वरूप हैं। वे ही वास्तवमें वैष्णव हैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवेश्वरि ! उनका दर्शनमात्र करनेसे, उनमें भक्ति रखनेसे, उन्हें भोजन करानेसे तथा उनकी पूजा करनेसे निश्चय ही वैकुण्ठधामकी प्राप्ति होती है । ll 3 ll

अध्याय 200 भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष

श्रीपार्वतीजीने पूछा- प्रभो ! अविनाशी भगवान् वासुदेवका स्मरण कैसे करना चाहिये ? श्रीमहादेवजी बोले- देवेश्वरि! मैं वास्तविक रूपसे भगवान्के स्वरूपका साक्षात्कार करके निरन्तर उनका स्मरण करता रहता हूँ। जैसे प्यासा मनुष्य बड़ी व्याकुलताके साथ पानीकी याद करता है, उसी प्रकार मैं भी आकुल होकर श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जिस प्रकार सर्दीका सताया हुआ संसार अग्निका स्मरण करता है, वैसे ही देवता, पितर, ऋषि और मनुष्य निरन्तर भगवान् विष्णुका चिन्तन करते रहते हैं। जैसे पतिव्रता नारी सदा पतिकी याद किया करती है, भयसे आतुर मनुष्य किसी निर्भय आश्रयको खोजता फिरता है, धनका लोभी जैसे धनका चिन्तन करता है। और पुत्रकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य जैसे पुत्रके लिये लालायित रहता है, उसी प्रकार मैं भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे हंस मानसरोवरको, ऋषि भगवान्के स्मरणको, वैष्णव भक्तिको, पशु हरी हरी घासको और साधु पुरुष धर्मको चाहते हैं, वैसे ही मैं श्रीविष्णुका चिन्तन करता हूँ।” जैसे समस्त प्राणियोंको आत्माका आश्रयभूत शरीर प्रिय है, जिस प्रकार जीव अधिक आयुकी अभिलाषा रखते हैं, जैसे अमर पुष्पको, चक्रवाक सूर्यको और परमात्माके प्रेमीजन भक्तिको चाहते हैं, उसी प्रकार मैं भीश्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे अन्धकारसे घबराये हुए लोग दीपक चाहते हैं, उसी प्रकार साधु पुरुष इस जगत्में केवल भगवान्‌के स्मरणकी इच्छा रखते हैं। जैसे थके-माँदे मनुष्य विश्राम, रोगी निद्रा और आलस्यहीन पुरुष विद्या चाहते हैं, उसी प्रकार मेँ भी श्रीविष्णुका स्मरण करता हूँ। जैसे सूर्यकान्तमणि और सूर्यकी किरणोंका संयोग होनेपर आग प्रकट हो जाती है, उसी प्रकार साधु पुरुषोंके संसर्गसे श्रीहरिके प्रति भक्ति उत्पन्न होती है। जैसे चन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंके संयोगसे द्रवीभूत होने लगती है, उसी प्रकार वैष्णव पुरुषोंके संयोगसे स्थिर भक्तिका प्रादुर्भाव होता है। जैसे कुमुदिनी चन्द्रमाको देखकर खिल जाती है, उसी प्रकार भगवान्के प्रति की हुई भक्ति मनुष्योंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली है। भक्तिसे, स्नेहसे, द्वेषभावसे, स्वामि- सेवकभावसे अथवा विचारपूर्वक बुद्धिके द्वारा जिस किसी भावसे भी जो भगवान् जनार्दनका चिन्तन करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीविष्णुके सनातन धामको जाते हैं। 3 अहो ! भगवान् विष्णुका माहात्म्य अद्भुत है। उसपर विचार करनेसे रोमांच हो आता है। भगवान्‌का जैसे-तैसे किया हुआ स्मरण भी मोक्ष देनेवाला है। बढ़े हुए धनसे और विपुल बुद्धिसे भगवान्‌की प्राप्ति नहीं होती; केवल भक्तियोगसे ही क्षणभरमें भगवान्‌का अपनेसमीप दर्शन होता है। भगवान् अपने समीप रहकर भी दूर जान पड़ते हैं — ठीक उसी तरह, जैसे आँखोंमें लगाया हुआ अंजन अत्यन्त समीप होनेपर भी दृष्टिगोचर नहीं होता।

भक्तियोगके प्रभावसे भक्त पुरुषोंको सनातन परमात्माका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। भगवान्‌की मायासे मोहित पुरुष ‘यह तत्त्व है, यह तत्त्व है’ यों कहते हुए संशयमें ही पड़े रह जाते हैं। जब भक्तितत्त्व प्राप्त होता है, तभी विष्णुरूप तत्वकी उपलब्धि होती है। सुन्दरि मेरी बात सुनो। इन्द्र आदि देवताओंने सुखके लिये अमृत प्राप्त किया था; तथापि वे विष्णुभक्तिके बिना दुःखी ही रह गये। भक्ति ही एक ऐसा अमृत है, जिसको पाकर फिर कभी दुःख नहीं होता। भक्त पुरुष वैकुण्ठधामको प्राप्त होकर भगवान् विष्णुके समीप सदा आनन्दका अनुभव करता है। जैसे हंस हमेशा पानीको अलग करके दूध पीता है, उसी प्रकार अन्य कर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल श्रीविष्णु भक्तिकी ही शरण लेनी चाहिये। शरीरको पाकर बिना भक्तिके जो कुछ भी किया जाता है, वह सब व्यर्थ परिश्रममात्र होता है। जैसे कोई मूर्ख अपनी बाँहोंसे समुद्र पार करना चाहे, उसी प्रकार मूढ मानव विष्णुभक्तिके बिना संसारसागरको पार करनेकी अभिलाषा करता है। संसारमें बहुतेरे लोग ऐसे हैं, जो दूसरोंको उपदेश दिया करते हैं; किन्तु जो स्वयं आचरण करता हो, ऐसा मनुष्य करोड़ोंमें कोई एक ही देखा जाता है।” जड़में सींचे हुए वृक्षके ही हरे हरे पत्ते और शाखाएँ दिखायी देती हैं। इसी प्रकार भजनसे ही आगे-आगे फल प्रस्तुत होता है। जैसे जलमें जल, दूधमें दूध और घीमें घी डाल देनेपर कोई अन्तर नहीं रहता, उसी प्रकार विष्णुभक्तिके प्रसादसे भेददृष्टि नहीं रहती जैसे सूर्य सर्वत्र व्यापक है, अग्नि सब वस्तुओंमें व्याप्त है, इन्हें किसी संकुचित सीमामें आवद्ध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भक्तिमें स्थित भक्त भी कर्मोंसे आबद्ध नहीं होता।अजामिलने अपना धर्म छोड़कर पापका आचरण किया था, तथापि अपने पुत्र नारायणका स्मरण करके उसने निश्चय ही भक्ति प्राप्त कर ली थी। जो भक्त दिन-रात केवल भगवन्नामके ही सहारे जीवन धारण करते हैं, वे वैकुण्ठधामके निवासी हैं-इस विषयमें वेद ही साक्षी हैं। अश्वमेध आदि यहाँका फल स्वर्गमें भी देखा जाता है। उन यज्ञोंका पूरा-पूरा फल भोगकर मनुष्य पुनः स्वर्गसे नीचे गिर जाते हैं; परन्तु जो भगवान् विष्णुके भक्त हैं, वे अनेक प्रकारके भोगोंका उपभोग करके इस प्रकार नीचे नहीं गिरते वैकुष्ठधाममें पहुँच जानेपर उनका पुनरागमन नहीं होता। जिसने भगवान् विष्णुकी भक्ति की है, वह सदा विष्णुधाममें ही निवास करता है। विष्णुभक्तिके प्रसादसे उसका कभी अन्त नहीं देखा गया है। मेढक जलमें रहता है और भँवरा वनमें; परन्तु कुमुदिनीकी गन्धका ज्ञान भँवरेको ही होता है, मेहकको नहीं इसी प्रकार भक्त अपनी भक्तिके प्रभावसे श्रीहरिके तत्त्वको जान लेता है। कुछ लोग गंगाके किनारे निवास करते हैं और कुछ गंगासे सौ योजन दूर; किन्तु गंगाका प्रभाव कोई-कोई ही जानता है। इसी प्रकार कोई उत्तम पुरुष ही श्रीविष्णुभक्तिको उपलब्ध कर पाता है। जैसे ऊँट प्रतिदिन कपूर और अरगजेका बोझ ढोता है किन्तु उनके भीतरकी सुगन्धको नहीं जानता, उसी प्रकार जो भगवान् विष्णुकी भक्तिसे विमुख हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जान पाते। कस्तूरीकी सुगन्धको ग्रहण करनेकी इच्छावाले मृग शालवृक्षको सुँघा करते हैं उनकी नाभिमें ही कस्तूरीकी गन्ध है-इस बातको वे नहीं जानते इसी प्रकार भगवान् विष्णुसे विमुख मनुष्य अपने भीतर ही विराजमान भगवत्तत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते। पार्वती ! जैसे मूर्खोको उपदेश देना व्यर्थ है, उसी प्रकार जो दूसरोंके भक्त हैं उनके लिये विष्णुभक्तिका उपदेश निरर्थक है। जैसे अंधे मनुष्य आँख न होनेके कारण पास ही रखे हुए दीपक तथा दर्पणको नहीं देख पाते,उसी प्रकार बहिर्मुख (विषयासक्त) मानव अपने अन्तःकरणमें विराजमान श्रीविष्णुको नहीं देखते।

जैसे अग्नि धूमसे, दर्पण मैलसे तथा गर्भ झिल्लीसे ढका रहता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण इस शरीर के भीतर छिपे हुए हैं। गिरिराजकुमारी जैसे दूधमें घी तथा तिलमें तेल सदा मौजूद रहता है, वैसे ही इस चराचर जगत्में भगवान् विष्णु सर्वदा व्यापक देखे जाते हैं। जैसे एक ही धागेमें बहुत से सूतके मनके पिरो दिये जाते हैं, इसी प्रकार ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण विश्वके प्राणी चिन्मय श्रीविष्णुमें पिरोये हुए हैं। जिस प्रकार काठमें स्थित अग्निको मन्थनसे ही प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे ही सर्वत्र व्यापक विष्णुका ध्यानसे ही साक्षात्कार होता है जैसे पृथ्वी जलके संयोगसे नाना प्रकारके वृक्षोंको जन्म देती है, उसी प्रकार आत्मा प्रकृतिके गुणोंके संयोगसे नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करता है। हाथी या मच्छरमें, देवता अथवा मनुष्यमें वह आत्मा न अधिक है न कम। वह प्रत्येक शरीरमें स्थिरभावसे स्थित देखा गया है। वह आत्मा ही सच्चिदानन्दस्वरूप, कल्याणमय एवं महेश्वरके रूपमें उपलब्ध होता है। उस परमात्माको हो विष्णु कहा गया है। वह सर्वगत श्रीहरि मैं ही हूँ। मैं वेदान्तवेद्य विभु, सर्वेश्वर, कालातीत और अनामय परमात्मा हूँ। देवि! जो इस प्रकार मुझे जानता है, वह निस्सन्देह भक्त है।

वह एक ही परमात्मा नाना रूपोंमें प्रतीत होता है और नाना रूपोंमें प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें वह एक ही है-ऐसा जानना चाहिये। नाम-रूपके भेदसे ही उसको इस पृथ्वीपर नाना रूपोंमें बतलाया जाता है। जैसे आकाश प्रत्येक घटमें पृथक्-पृथक् स्थित जान पड़ता है किन्तु घड़ा फूट जानेपर वह एक अखण्डरूपमें ही उपलब्ध होता है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरमें पृथक् पृथक् आत्मा प्रतीत होता है परन्तु उस शरीररूप उपाधिके भग्न होनेपर वह एकमात्र सुस्थिर सिद्ध होता है। सूर्य जब बादलोंसे ढक जाते हैं, तब मूर्ख मनुष्य उन्हें तेजोहीन मानने लगता है; उसी प्रकार जिनकी बुद्धि अज्ञानसे आवृत है, वे मूर्ख परमेश्वरको नहीं जानते।परमात्मा विकल्पसे रहित और निराकार है। उपनिषदोंमें उसके स्वरूपका वर्णन किया गया है। वह अपनी इच्छासे निराकारसे साकाररूपमें प्रकट होता है। उस परमात्मासे ही आकाश प्रकट हुआ, जो शब्दरहित था। उस आकाशसे वायुकी उत्पत्ति हुई। तबसे आकाशमें शब्द होने लगा। वायुसे तेज और तेजसे जलका प्रादुर्भाव हुआ। जलमें विश्वरूपधारी विराट् हिरण्यगर्भ प्रकट हुआ। उसकी नाभिसे उत्पन्न हुए कमल में कोटि-कोटि ब्रह्माण्डौकी सृष्टि हुई। प्रकृति और पुरुषसे ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति हुई तथा उन्हीं दोनोंके संयोगसे पाँचों तत्त्वोंका परस्पर योग हुआ। भगवान् श्रीविष्णुका आविर्भाव सत्त्वगुणसे युक्त माना जाता है। अविनाशी भगवान् विष्णु इस संसारमें सदा व्यापकरूपसे विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सर्वगत विष्णु इसके आदि, मध्य और अन्तमें स्थित रहते हैं। कर्मोंमें ही आस्था रखनेवाले अज्ञानीजन अविद्याके कारण भगवान्‌को नहीं जानते। जो नियत समयपर कर्तव्यबुद्धिसे वर्णोचित कर्मोंका पालन करता है, उसका कर्म विष्णुदेवताको अर्पित होकर गर्भवासका कारण नहीं बनता। मुनिगण सदा ही वेदान्तशास्त्रका विचार किया करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान ही है, जिसका मैं तुमसे वर्णन कर रहा है। शुभ और अशुभकी प्रवृत्तिमें मनको ही कारण मानना चाहिये। मनके शुद्ध होनेपर सब कुछ शुद्ध हो जाता है और तभी सनातन ब्रह्मका साक्षात्कार होता है। मन ही सदा अपना बन्धु है और मन ही शत्रु है। मनसे ही कितने तर गये और कितने गिर गये। बाहरसे कर्मका आचरण करते हुए भी भीतरसे सबका त्याग करे। इस प्रकार कर्म करके भी मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानीमें रहकर भी उससे लेशमात्र भी लिप्त नहीं होता। जब भक्तिरसका ज्ञान हो जाता है, उस समय मुक्ति अच्छी नहीं लगती। भक्तिसे भगवान् विष्णुकी प्राप्ति होती है। वे सदाके लिये सुलभ हो जाते हैं। वेदान्त-विचारसे तो केवल ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे जेव सम्पूर्ण वस्तुओंमें भाव -शुद्धिकी ही प्रशंसा कीजाती है। जैसा भाव रहता है वैसा ही फल होता है। जिसकी जैसी बुद्धि होती है, वह जगत्को वैसा ही समझता है। वैकुण्ठनाथको छोड़कर भक्त पुरुष दूसरे मार्गमें कैसे रम सकेगा ? भक्तिहीन होकर चारों वेदोंके पढ़नेसे क्या लाभ? भक्तियुक्त चाण्डाल ही क्यों न हो, वह देवताओंद्वारा भी पूजित होता है। जिस समय श्रीहरिके स्मरणजनित प्रसन्नतासे शरीरमें रोमांच हो जाय और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहने लगें, उस समय मुक्ति दासी बन जाती है। वाणीद्वारा किये हुए पापका भगवान्के कीर्तनसे और मनद्वारा किये हुए पापका उनके स्मरणसे नाश हो जाता है।

ब्रह्माजीने सम्पूर्ण वर्णोंको उत्पन्न किया और उन्हें अपने-अपने धर्ममें लगा दिया। अपने धर्मके पालनसे प्राप्त हुआ धन शुक्ल द्रव्य अर्थात् विशुद्ध धन कहलाता है। शुद्ध धनसे श्रद्धापूर्वक जो दान दिया जाता है, उसमें थोड़े दानसे भी महान् पुण्य होता है। उस पुण्यकी कोई गणना नहीं हो सकती। नीच पुरुषोंके संगसे जो धन आता हो, उस धनसे मनुष्यके द्वारा जो दान किया जाता है, उसका कुछ फल नहीं होता। उस दानसे वे मानव पुण्यके भागी नहीं होते जो इन्द्रियोंको सुख देनेकी इच्छासे ही कर्म करता है, वह ज्ञान – दुर्बल मूढ़ पुरुष अपने कर्मके अनुसार योनिमें जन्म लेता है। मनुष्य इस लोकमें जो कर्म करता है, उसे परलोकमें भोगना पड़ता है। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषको निश्चय ही कभी दुःख नहीं होता यदि पुण्य करते समय शरीरमें कोई कष्ट हो तो उसे पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मका फल समझकर दुःख नहीं मानना चाहिये। पापाचारी पुरुषको सदा दुःख-ही-दुःख मिलता है। यदि उस समय उसे कुछ सुख प्राप्त हुआ हो तो उसे पूर्वकर्मका फल समझना चाहिये और उसपर हर्षसे फूल नहीं उठना चाहिये। जैसे स्वामी रस्सीमें बँधे हुए पशुको अपनी इच्छाके अनुसार इधर उधर ले जाया करता है, उसी प्रकार कर्मबन्धनमेंबँधा हुआ जीव सुख और दुःखकी अवस्थाओंमें ले जाया जाता है। प्रारब्ध कर्मसे बँधा हुआ जीव अपने बन्धनको दूर करनेमें समर्थ नहीं होता। देवता और ऋषि भी कर्मोंसे बँधे हुए हैं। कैलासपर्वतपर मुझ महादेवके शरीर में स्थित सर्प भी विषके ही भागी होते हैं; क्योंकि कर्मानुसार प्राप्त हुई योनि बड़ी ही प्रबल है। विद्वान् पुरुष कहते हैं कि सूर्य सुन्दर शरीर प्रदान करनेवाले हैं; परन्तु उनके ही रथका सारथि पंगु है। वास्तवमें कर्मयोनि बड़ी ही प्रबल है। पूर्वकालमें भगवान् विष्णुद्वारा निर्मित सम्पूर्ण जगत् कर्मके अधीन हैं और वह कर्म श्रीकेशवके अधीन है। श्रीरामनामके जपसे उसका नाश होता है। कोई देवताओंकी प्रशंसा करते हैं, कोई ओषधियोंकी महिमाके गीत गाते हैं, कोई मन्त्र और उसके द्वारा प्राप्त सिद्धिकी महत्ता बतलाते हैं और कोई बुद्धि, पराक्रम, उद्यम, साहस, धैर्य, नीति और बलका बखान करते हैं; परन्तु मैं कर्मकी प्रशंसा करता हूँ; क्योंकि सब लोग कर्मके ही पीछे चलनेवाले हैं—यह मेरा निश्चित विचार है तथा पूर्वकालके विद्वानोंने भी इसका समर्थन किया है। कुछ लोग क्रोधमें आकर सर्वस्व त्याग देते हैं, कोई-कोई अभाववश सब कुछ छोड़ते हैं तथा कुछ लोग बड़े कष्टसे सबका त्याग करते हैं। ये सभी त्याग मध्यम श्रेणीके हैं। अपनी बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर और क्रोध आदिके वशीभूत न होकर श्रद्धापूर्वक त्याग करना चाहिये। जो लोग इस प्रकार सर्वस्वका त्याग करते हैं, उन्हींका त्याग उत्तम माना गया है। योगाभ्यासमें तत्पर हुआ मनुष्य यदि उसमें पूर्णता न प्राप्त कर सके अथवा प्रारब्ध कर्मकी प्रेरणासे वह साधनसे विचलित हो जाय तो भी वह उत्तम गतिको ही प्राप्त होता है। योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र आचरणवाले श्रीमानोंके घरमें जन्म लेता है अथवा ज्ञानवान् योगियोंके यहाँ द्विजकुलमें जन्म ग्रहण करता है तथा वहाँ थोड़े ही समयमें पूर्ण योगसिद्धि प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् वह योग एवंभक्तिके प्रसादसे चिदानन्दमय पदको प्राप्त होता है। जैसे कीचड़से कीचड़ तथा रक्तसे रक्तको नहीं धोया जा सकता, उसी प्रकार हिंसाप्रधान यज्ञ-कर्मसे कर्मजनित मल कैसे धोया जा सकता है। हिंसायुक्त कर्ममय सकाम यज्ञ कर्म-बन्धनका नाश करनेमें कैसे समर्थ हो सकता है। स्वर्गकी कामनासे किये हुए यज्ञ स्वर्गलोकमें अल्प सुख प्रदान करनेवाले होते हैं। कर्मजनित सुख अधिक मात्रामें हों तो भी वे अनित्य ही होते हैं; उनमें नित्य सुख है ही नहीं। भगवान् श्रीहरिकी भक्तिके बिना कहीं भी नित्य सुख नहीं मिलता।

जो भगवान् सृष्टि करते हैं, वे ही संहारकारी और पालक कहलाते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं सैकड़ोंअपराधोंसे युक्त हूँ। मुझे यहाँसे अपने परमधाममें ले चलिये। मुझ अपराधीपर कृपा कीजिये। आपने व्याधको मोक्ष दिया है, कुब्जाको तारा है [मुझपर भी कृपादृष्टि कीजिये ] । योगिजन सदा आपकी महिमाका गान करते हैं। आप परमात्मा, जनार्दन, अविनाशी पुरुष और लक्ष्मीसे सम्पन्न हैं। आपका दर्शन करके कितने ही भक्त आपके परमपदको प्राप्त हो गये। जो लोग इस दिव्य विष्णुस्मरणका प्रतिदिन पाठ करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुके सनातन धाममें जाते हैं। जो भगवान् विष्णुके समीप भक्तिभावसे भावित बुद्धिद्वारा इसका पाठ करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होते हैं।

अध्याय 201 पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन

श्रीपार्वतीजीने कहा – सुव्रत ! इस द्वीपमें जो जो तीर्थ हैं, उनकी गणना करके मुझे बताइये।

श्रीमहादेवजी बोले- सुरेश्वरि इस द्वीपमें सबके क्लेशका नाश करनेवाले महान् देवता भगवान् केशव ही तीर्थरूपसे विराजमान हैं। देवि! अब मैं तुम्हारे लिये उन तीर्थोका वर्णन करता है। पहला पुष्कर तीर्थ है, जो सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ और शुभकारक है। दूसरा क्षेत्र काशीपुरी है, जो मुक्ति प्रदान करनेवाली है। तीसरा नैमिष क्षेत्र है, जिसे ऋषियोंने परम पावन माना है। चौथा प्रयाग तीर्थ है, जो सब तीर्थोंमें उत्तम माना गया है। पाँचवाँ कामुक तीर्थ है, जिसकी उत्पत्ति गन्धमादन पर्वतपर बतायी गयी है। छठा मानसरोवर तीर्थ है, जो देवताओंको भी अत्यन्त रमणीय प्रतीत होता है। सात विश्वकाय तीर्थ है, उसकी स्थिति कल्याणमय अम्बर पर्वतपर बतायी गयी है। आठवाँ गौतम नामक तीर्थ है, जिसकी स्थापना पूर्वकालमें मन्दराचल पर्वतपर हुई थी। नवाँ मदोत्कट और दसवाँ रथचैत्रक तीर्थ है। ग्यारहवाँ कान्यकुब्ज तीर्थ है, जहाँ भगवान् वामन विराज रहे हैं। बारहवाँ मलयज तीर्थ है। इसके बाद कुब्जाम्रक, विश्वेश्वर, गिरिकर्ण, केदार और गतिदायक तीर्थ हैं।हिमालयके पृष्ठभागमें बाह्य तीर्थ, गोकर्णमें गोपक, हिमालयपर स्थानेश्वर, बिल्वकमें बिल्वपत्रक, श्रीशैलमें माधव तीर्थ, भद्रेश्वरमें भद्र तीर्थ, वाराहक्षेत्रमें विजय तीर्थ, वैष्णवगिरिपर वैष्णव तीर्थ, रुद्रकोटमें रुद्र तीर्थ, कालंजर पर्वतपर पितृ तीर्थ, कम्पिलमें काम्पिल तीर्थ, मुकुटमें कर्कोटक, गण्डकीमें शालग्रामोद्भव तीर्थ, नर्मदामें शिव तीर्थ, मायापुरीमें विश्वरूप तीर्थ, उत्पलाक्षमें तीर्थ, गयामें पितृ तीर्थ और विष्णुपादोद्भव तीर्थ, विपाशा (व्यास) में विपाप, पुण्ड्रवर्धनमें पाटल, सुपार्श्वमें नारायण, त्रिकूटमें विष्णुमन्दिर, विपुलमें विपुल, मलयाचलमें कल्याण, कोटि तीर्थमें कौरव, गन्धमादनमें सुगन्ध, कुब्जांकमें त्रिसन्ध्य, गंगाद्वारमें हरिप्रिय, विन्ध्यप्रदेशमें शैल तीर्थ, बदरिकाश्रममें शुभ सारस्वत तीर्थ, कालिन्दीमें कालरूप, सह्यपर्वतपर साह्यक और चन्द्रप्रदेशमें चन्द्र तीर्थ है।

तीर्थोंका वर्णन तीर्थ, रैवतक पर्वतपर महाकालमें महेश्वर तीर्थ, विन्ध्य पर्वतकी कन्दरामें अभयद और अमृत नामक तीर्थ, मण्डपमें विश्वरूप तीर्थ, ईश्वरपुरमें स्वाहा तीर्थ, प्रचण्डामें वैगलेय तीर्थ, अमरकण्टकमें चण्डी तीर्थ, प्रभासक्षेत्रमें सोमेश्वर तीर्थ, सरस्वतीमें पारावत तटपर देवमातृ तीर्थ, महापद्ममेंमहालय तीर्थ, पयोष्णीमें पिंगलेश्वर, सिंहिका तथा सौरवमें रवि तीर्थ, कृत्तिकाक्षेत्रमें कार्तिक तीर्थ, शंकरगिरिपर शंकर तीर्थ, सुभद्रा और समुद्रके संगमपर दिव्य उत्पल तीर्थ, विष्णुपर्वतपर गणपति तीर्थ, जालन्धरमें विश्वमुख तीर्थ, तार एवं विष्णुपर्वतपर तारक तीर्थ, देवदारुवनमें पौण्ड्र तीर्थ, काश्मीरमण्डलमें पौष्क तीर्थ, हिमालयपर भौम, हिम, तुष्टिक और पौष्टिक तीर्थ, मायापुरमें कपालमोचन तीर्थ, शंखोद्धारमें शंखधारकदेव, पिण्डमें पिण्डन, सिद्धिमें वैखानस और अच्छोद सरोवरपर विष्णुकाम तीर्थ है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको देनेवाला है। उत्तरकूलमें औषध्य तीर्थ, कुशद्वीपमें कुशोदक तीर्थ, हेमकूटमें मन्मथ तीर्थ, कुमुदमें सत्यवादन तीर्थ, वदन्तीमें आश्मक तीर्थ, विन्ध्यपर्वतपर वैमातृक तीर्थ और चित्तमें ब्रह्ममय तीर्थ है, जो सब तीर्थों में पावन माना गया है। सुन्दरि ! इन सब तीर्थोंमें उत्तम तीर्थका वर्णन सुनो। भगवान् विष्णुके नामकी समता करनेवाला कोई तीर्थ न तो हुआ है और न होगा। भगवान् केशवकी कृपासे उनका नाम लेनेमात्रसे ब्रह्महत्यारा, सुवर्ण चुरानेवाला, बालघातीऔर गोहत्या करनेवाला पुरुष भी पापमुक्त हो जाता है। कलियुगमें द्वारकापुरी परम रमणीय है और वहाँके देवता भगवान् श्रीकृष्ण परम धन्य हैं। जो मनुष्य वहाँ जाकर उनका दर्शन करते हैं, उन्हें अविचल मुक्ति प्राप्त होती है। महादेवि ! ऐसे परम धन्य देवता सर्वेश्वर प्रभु श्रीविष्णुभगवान्‌का मैं निरन्तर चिन्तन करता रहता हूँ। इस प्रकार यहाँ अनेक तीर्थोंका नामोल्लेख किया गया है। जो इनका जप करता अथवा इन्हें सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो इन तीर्थोंमें स्नान करके पापहारी भगवान् नारायणका दर्शन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाता है। जगन्नाथपुरी महान् तीर्थ है। वह सब लोकोंको पवित्र करनेवाली मानी गयी है। जो श्रेष्ठ मानव वहाँकी यात्रा करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं। जो श्राद्ध कर्ममें इन परम पवित्र तीर्थोंके नाम सुनाता है, वह इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाता है। गोदान, श्राद्धदान अथवा देवपूजाके समय प्रतिदिन जो विद्वान् इसका पाठ करता है, वह परमात्माको प्राप्त होता है।

अध्याय 202 वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुन्दरि अब मैं वेत्रवती (बेतवा) नदीका माहात्म्य वर्णन करता हूँ, सुनो। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्यकी मुक्ति हो जाती है। पूर्वकालमें वृत्रासुरने एक बहुत ही गहरा कुआँ खुदवाया था, जिसका नाम महागम्भीर था। उसीसे यह दिव्य नदी प्रकट हुई है। वेत्रवती नदी बड़े बड़े पापोंकी राशिका विनाश करनेवाली है। गंगाजीके समान ही इस श्रेष्ठ नदीका भी माहात्म्य है। इसके दर्शन करनेमात्रसे पापराशि शान्त हो जाती है। पहलेकी बात है, चम्पक नगरमें एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही दुष्ट और प्रजाको पीड़ा देनेवाला था। वह नीच अधर्मका मूर्तिमान् स्वरूप था । निरन्तर भगवान् विष्णुकी निन्दा करता, देवताओं और ब्राह्मणोंकी घातमें लगा रहता तथाआश्रमोंको कलंकित किया करता था। वह मूर्ख वेदोंकी निन्दामें ही प्रवृत्त रहनेवाला, निर्दयी, शठ, असत् शास्त्रोंमें अनुराग रखनेवाला और परायी स्त्रियोंको दूषित करनेवाला था उसका नाम था विदारुण। वह अत्यन्त पापी था। महान् पाप और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेके कारण राजा विदारुण कोढ़ी हो गया। एक दिन दैवयोगसे वह शिकार खेलता हुआ उस नदीके किनारे आ निकला। उस समय उसे बड़े जोरकी प्यास सता रही थी घोड़ेसे उतरकर उसने नदीका जल पीया और पुनः अपनी राजधानीको लौट गया। उस जलके पीनेमात्रसे राजाकी कोढ़ दूर हो गयी और बुद्धिमें भी निर्मलता आ गयी। तबसे उसके हृदयमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्ति उत्पन्न हो गयी। अब वह सदा ही समय-समयपर वहाँआकर स्नान करने लगा। इससे वह अत्यन्त रूपवान और निर्मल हो गया। इस लोकमें सुख भोगते हुए उसने अनेकों यज्ञ किये, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दी तथा अन्तमें श्रीविष्णु के वैकुण्ठधामको प्राप्त किया। पार्वती ! ऐसा जानकर जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे पापबन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। कार्तिक, माघ अथवा वैशाखमें जो लोग बारंबार वहाँ स्नान करते हैं, वे भी कर्मोंके बन्धनसे छुटकारा पा जाते हैं। ब्रह्महत्या, गोहत्या, बालहत्या और वेदनिन्दा करनेवाला पुरुष भी नदियोंके संगममें स्नान करके पापसे मुक्त हो जाता है। जिस स्थानपर और जिस नदीका साभ्रमती (साबरमती) नदीके साथ संगम दिखायी दे, वहाँ स्नान करनेपर ब्रह्महत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है। खेटक (खेड़ा) नामक दिव्य नगर इस धरातलका स्वर्ग है। वहाँ बहुत से ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके योगोंका साधन किया है। वहाँ स्नान और भोजन करनेसे मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। पार्वती! कलियुगमें वेत्रवती नदी दूसरी गंगाके समान मानी गयी है। जो लोग सुख, धन और स्वर्ग चाहते हैं, वे उसनदीमें बारंबार स्नान करनेसे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें विष्णु के सनातन धामको जाते हैं। सूर्यवंश और सोमवंशमें उत्पन्न क्षत्रिय वेत्रवती नदीके तटपर आकर उसमें स्नान करके परम शान्ति पा चुके हैं। यह नदी दर्शनसे दुःख और स्पर्शसे मानसिक पापका नाश करती है। इसमें स्नान और जलपान करनेवाला मनुष्य निस्सन्देह मोक्षका भागी होता है। यहाँ स्नान, जप तथा होम करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वाराणसी तीर्थमें जाकर जो भक्तिपूर्वक चान्द्रायणव्रतका अनुष्ठान करता है, और वहाँ उसे जिस पुण्यकी प्राप्ति होती है, उसे वह वेत्रवती नदीमें स्नान करनेमात्रसे पा लेता है। यदि वेत्रवती नदीमें किसीकी मृत्यु हो जाती है तो वह चतुर्भुजरूप होकर विष्णुके परमपदको प्राप्त होता है। पृथ्वीपर जो-जो तीर्थ, देवता और पितर हैं, वे सब वेत्रवती नदीमें वास करते हैं। महेश्वरि मैं, विष्णु, ब्रह्मा, देवगण तथा महर्षि- ये सब के सब वेत्रवती नदीमें विराजमान रहते हैं। जो एक, दो अथवा तीनों समय वेत्रवती नदीमें स्नान करते हैं, वे निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं।

देवि! अब मैं साभ्रमती नदीके माहात्म्यका यथावत् वर्णन करता हूँ। मुनिश्रेष्ठ कश्यपने इसके लिये बहुत बड़ी तपस्या की थी। एक दिनकी बात है, महर्षि कश्यप नैमिषारण्यमें गये। वहाँ ऋषियोंके साथ उन्होंने बहुत समयतक वार्तालाप किया। उस समय ऋषियोंने कहा- ‘कश्यपजी! आप हमलोगोंकी प्रसन्नताके लिये यहाँ गंगाजीको ले आइये। प्रभो! वह सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगा आपके ही नामसे प्रसिद्ध होगी।’

उन महर्षियोंको बात सुनकर कश्यपजीने उन्हें प्रणाम किया और वहाँसे चलकर वे आबूके जंगलमें सरस्वती नदीके समीप आये। वहाँ उन्होंने अत्यन्त दुष्कर तपस्या की वे मेरी ही आराधनामें संलग्न थे उस समय मैंने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा- ‘विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मुझसे मनोवांछित वर माँगो।’

कश्यपने कहा- देवदेव जगत्पते! महादेव !आप वर देनेमें समर्थ हैं। आपके मस्तकपर जो ये परम पवित्र पापहारिणी गंगा स्थित हैं, इन्हें विशेष कृपा करके मुझे दीजिये। आपको नमस्कार है। पार्वती। उस समय मैंने महर्षि कश्यपसे कहा ‘द्विजश्रेष्ठ! लो अपना वर’ यों कहकर मैंने अपने मस्तक से एक जटा उखाड़कर उसीके साथ उन्हें गंगाको दिया। श्रीगंगाजीको लेकर द्विजश्रेष्ठ कश्यप बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने स्थानको चले गये। गिरिजे! पूर्वकालमें विष्णुलोककी इच्छा रखनेवाले राजा भगीरथने मुझसे गंगाजीके लिये याचना की थी, उस समय उन्हें भी मैंने गंगाको समर्पित किया था। तत्पश्चात् पुनः ऋषियोंके कहनेसे कश्यपजीको गंगा प्रदान की। यह काश्यपी गंगा समस्त रोग और दोषोंका अपहरण करनेवाली है। सुन्दरि ! भिन्न-भिन्न युगों में ये गंगा संसारमें जिन-जिन नामोंसे विख्यात होती हैं, उनका यथार्थ वर्णन करता हूँ सुनो। सत्ययुगमें कृतवती, त्रेतामें गिरिकर्णिका, द्वापरमें चन्दना और कलियुगमें इनका नाम साभ्रमती (साबरमती) होता है जो मनुष्य प्रतिदिन यहाँ विशेषरूपसे स्नान करनेके लिये आते हैं,वे सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। प्लक्षावतरण तीर्थमें सरस्वती नदीमें, केदारक्षेत्रमें तथा कुरुक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है, वह फल साभ्रमती नदीमें नित्य स्नान करनेसे प्रतिदिन प्राप्त होता है। माघ मास आनेपर प्रयाग तीर्थमें प्रातः स्नान करनेसे जो फल होता है, कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिकाका योग आनेपर श्रीशैलमें भगवान् माधवके समक्ष जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह साभ्रमती नदीमें डुबकी लगानेमात्र से प्राप्त हो जाता है। देवि! यह नदी सबसे श्रेष्ठ और सम्पूर्ण जगतमें पावन है। इतना ही नहीं, यह पवित्र और पापनाशिनी होनेके कारण परम धन्य है।

देवेश्वरि पितृतीर्थ, सब तीर्थोसहित प्रयाग, माधवसहित भगवान् वटेश्वर, दशाश्वमेध तीर्थ तथा गंगाद्वार- ये सब मेरी आज्ञासे साभ्रमती नदीमें निवास करते हैं। नन्दा, ललिता, सप्तधारक, मित्रपद, भगवान् शंकरका निवासभूत केदारतीर्थ, सर्वतीर्थमय गंगासागर, शतद्रु (सतलज) – के जलसे भरे हुए कुण्डमें ब्रह्मसर तीर्थ, तथा नैमिष तीर्थ भी मेरी आज्ञासे सदा साभ्रमती नदीके जलमें निवास करते हैं। श्वेता, बल्कलिनी, हिरण्यमयी हस्तिमती तथा सागरगामिनी नदी बार्त्रघ्नी ये सब पितरोंको अत्यन्त प्रिय तथा श्राद्धका कोटिगुना फल देनेवाली हैं। वहाँ पुत्रोंको पितरोंके हितके लिये पिण्डदान करना चाहिये जो मनुष्य वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् विष्णुके सनातन धामको जाते हैं। नीलकण्ठ तीर्थ, नन्दहद तीर्थ, रुद्रहृद तीर्थ, पुण्यमय रुद्रमहालय तीर्थ, परम पुण्यमयी मन्दाकिनी तथा महानदी अच्छोदा ये सब तीर्थ और नदियाँ अव्यक्तरूपसे साभ्रमती नदीमें बहती रहती हैं। धूम्र तीर्थ, मित्रपद, बैजनाथ, दृषदर, क्षिप्रा नदी महाकाल तीर्थ, कालंजर पर्वत, गंगोद्भूत तीर्थ, हरोद्भेद तीर्थ, नर्मदा नदी तथा ओंकार तीर्थ-ये गंगामें पिण्डदान करनेके समान फल देनेवाले हैं, ऐसा मनीषी पुरुषोंका कथन है। उक्त सभी तीर्थ ब्रह्मतीर्थ कहलाते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने इन सभी तीर्थोको साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर गुप्तरूपसेस्थापित कर रखा है। महेश्वरि! ये तीर्थ स्मरणमात्रसे संक्षिप्त लोगोंके पापोंका नाश करनेवाले हैं। फिर जो वहाँ श्राद्ध करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। ओंकार तीर्थ, पितृतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगाका साभ्रमतीके साथ संगम तथा अमरकण्टक इन तीर्थों में स्नान आदि करनेसे कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा सौगुना पुण्य होता है। साभ्रमती और वार्त्रघ्नी नदीका जहाँ संगम हुआ है, वहाँ गणेश आदि देवताओंने तीर्थसंघकी स्थापना की है। इस प्रकार मैंने यहाँ संक्षेपसे साभ्रमती नदीमें तीर्थोंके संगमका वर्णन किया है। विस्तारके साथ उनका वर्णन करनेमें बृहस्पति भी समर्थ नहीं है।

अतः इस तीर्थमें प्रयत्नपूर्वक स्नान करना चाहिये। सबेरे तीन मुहूर्त्तका समय प्रातः काल कहलाता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततक पूर्वाह्न या संगणकाल होता है। इन दोनों कालोंमें तीर्थके भीतर किया हुआ स्नान आदि देवताओंको प्रीतिदायक होता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्त्ततक मध्याहन है और उसके बादका तीन मुहूर्त्त अपराह्न कहलाता है। इसमें किया हुआ स्नान, पिण्डदान और तर्पण पितरोंकी प्रसन्नताका कारण होता है। तदनन्तर तीन मुहूर्त्तका समय सायाहन माना गया है। उसमें तीर्थस्नान नहीं करना चाहिये। वह राक्षसी बेला है, जो सभी कर्मोंमें निन्दित है। दिन भरमें कुल पंद्रह मुहूर्त बताये गये हैं। उनमें जो आठवाँ मुहूर्त है, वह कुतपकाल माना गया है। उस समय पितरोंको पिण्डदान करनेसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। मध्याह्नकाल, नेपालका कम्बल, चाँदी, कुश, गौ, दौहित्र (पुत्रीका पुत्र) और तिल-ये कुतप कहलाते हैं। ‘कु’ नाम है पापका, उसको सन्ताप देनेवाले होनेके कारण ये कुतपके नामसे विख्यात हैं। कुतप मुहूर्तके बाद चार मुहूर्त्ततक कुल पाँच मुहूर्त्तका समय श्राद्धके लिये उत्तम समय माना गया है। कुश और काले तिल श्राद्धकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुके शरीरसे प्रकट हुए हैं-ऐसा देवताओंका कथन है। तीर्थवासी पुरुष जलमें खड़े हो हाथमें कुश लेकर तिलमिश्रित जलकी अंजलि पितरोंको दें। ऐसा करने से श्राद्धमें बाधा नहीं आती।पार्वती! इस प्रकार मैंने साभ्रमती नदीमें नामोच्चारणपूर्वक तीर्थोंका प्रवेश कराकर उसे महर्षि कश्यपको दिया था। कश्यप मेरे प्रिय भक्त हैं, इसलिये उन्हें मैंने यह पवित्र एवं पापनाशिनी गंगा प्रदान की थी। महाभागे साभ्रमतीके तटपर ब्रह्मचारितीर्थं है। वहाँ उसी नामसे मैंने अपनेको स्थापित कर रखा है। सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये मैं यहाँ ब्रह्मचारीश नामसे निवास करता हूँ। साभ्रमती नदीके किनारे ब्रह्मचारीश शिवके पास जाकर भक्त पुरुष यदि कलियुगमें विशेषरूपसे पूजा करे तो इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें महान् शिवधामको प्राप्त होता हैं। उनके स्थानपर जाकर जो जितेन्द्रियभावसे उपवास करता और रात्रिमें स्थिरभावसे रहकर भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करता है, उसे मैं योगीरूपसे दर्शन देता हूँ तथा उसकी समस्त मनोगत कामनाओंको भी पूर्ण करता हूँ- यह बिलकुल सच्ची बात है। पार्वती! वहाँ मेरा कोई लिंग नहीं है, मेरा स्थानमात्र है। जो विद्वान् वहाँ फूल, धूप तथा नाना प्रकारका नैवेद्य अर्पण करता है, उसे निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है। जो मेरे स्थानपर आकर बिल्वपत्र, पुष्प तथा चन्दन आदिसे मेरी पूजा करते हैं, उन्हें मैं सब कुछ देता हूँ। दर्शनसे रोग नष्ट होता है, पूजा करनेसे आयु प्राप्त होती है तथा वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।

सुन्दरि ! सुनो, अब मैं राजखड्ग नामक परम अद्भुत तीर्थका वर्णन करता हूँ, जो साभ्रमती नदीके तीर्थोंमें विशेष विख्यात है। सूर्यवंशमें उत्पन्न एक वैकर्तन नामक राजा था, जो दुराचारी, पापात्मा, ब्राह्मण निन्दक, गुरुद्रोही, सदा असन्तुष्ट रहनेवाला, समस्त कर्मोकी निन्दा करनेवाला सदा परायी स्त्रियोंमें प्रीति रखनेवाला और निरन्तर श्रीविष्णुकी निन्दा करनेवाला था। वह बहुत-से प्राणियोंका घातक था और अपनी प्रजाको सदा पीड़ा दिया करता था। इस प्रकार दुष्टात्मा राजा वैकर्तन इस पृथ्वीपर राज्य करता था। कुछ कालके पश्चात् दैवयोगसे अपने पापके कारण वह कोढ़ी हो गया। अपने शरीरकी दुर्दशा देखकर वह बार-बारसोचने लगा- ‘अब क्या करना चाहिये ?’ वह निरन्तर इसी चिन्तामें डूबा रहता था। एक दिन दैवयोगसे क्रीड़ाके लिये राजा वनमें गया। वहाँ साभ्रमती नदीकेतीरपर जाकर खड़ा हुआ। फिर उसने वहाँ स्नान किया और वहाँका उत्तम जल पीया। इससे उसका शरीर दिव्य हो गया। पार्वती! जैसे सोनेकी प्रतिमा देदीप्यमान दिखायी देती है, उसी प्रकार राजा वैकर्तन भी परम कान्तिमान् हो गया। उस दिव्य रूपको पाकर राजाने कुछ कालतक राज्य भोग किया। इसके बाद वह परमपदको प्राप्त हुआ। तबसे वह तीर्थ राजखड्गके नामसे सुप्रसिद्ध हो गया। जो लोग वहाँ स्नान और दान करते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर भगवान् विष्णुके सनातन धामको प्राप्त होते हैं। उन्हें कभी रोग और शोक नहीं होता। जो प्रतिदिन राजखड्ग तीर्थमें स्नान और श्रद्धापूर्वक पितरोंका तर्पण करते हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीपर पुण्यकर्मा कहलाते हैं। ब्राह्मणों और बालकोंकी हत्या करनेवाले पुरुष भी यदि यहाँ स्नान करते हैं तो वे पापोंसे रहित हो भगवान् शिवके समीप जाते हैं। जो मनुष्य साभ्रमती नदीके तटपर नील वृषका उत्सर्ग करेंगे, उनके पितर प्रलय कालतक तृप्त रहेंगे। राजखड्ग तीर्थका यह दिव्य उपाख्यान जो सुनते हैं, उन्हें कभी भय नहीं प्राप्त होता इसके सुनने और पढ़नेसे समस्त रोग-दोष शान्त हो जाते हैं।

अध्याय 203 साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन

श्रीपार्वतीजीने पूछा- भगवन्! नन्दिकुण्डसे निकलकर बहती हुई साभ्रमती नदीने किन-किन देशको पवित्र किया है, यह बतानेकी कृपा करें।

श्रीमहादेवजी बोले- देवि ! परम पावन नन्दि कुण्ड नामक तीर्थसे निकलनेपर पहले मुनियोंद्वारा प्रकाशित कपालमोचन नामक तीर्थ पड़ता है। यह तीर्थ पावनसे भी अत्यन्त पावन और सबसे अधिक तेजस्वी है। पार्वती। यहाँ मैंने ब्रह्मकपालका परित्याग किया है, अतः मुझसे ही कपालमोचन तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। यह सम्पूर्ण भूतोंको पवित्र करनेवाला विश्वविख्यात तीर्थ प्रकट हुआ है। इसे कपालकुण्ड तीर्थ भी कहते हैं। यह तीर्थोंका राजा है। इस शुभ एवं निर्मल तीर्थमें देवता, नाग, गन्धर्व, किन्नर आदि तथा महात्मा पुरुष निवास करते हैं। यहतीनों लोकोंमें विख्यात, ज्ञानदाता एवं मोक्षदायक तीर्थ है। यहाँ स्नान करके पवित्र हो मेरा पूजन करना चाहिये। एक रात उपवास करके ब्राह्मणभोजन कराये। यहाँ वस्त्र दान करनेसे मानव अग्निहोत्रका फल पाता है। जो कोई इस तीर्थमें दर्शन-व्रतका अवलम्बन करके रहता है। वह देहत्यागके अनन्तर निश्चय ही शिवलोकमें जाता है।

भगीरथके कुलमें सुदास नामक एक महाबली राजा हुए थे। उनके पुत्रका नाम मित्रसह था। राजा मित्रसह सौदास नामसे भी विख्यात थे। सौदास महर्षि वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गये थे। उन्होंने साभ्रमती नदीमें स्नान किया। इससे वे शापजनित पापसे मुक्त हो गये। यहाँ नन्दितीर्थमें गंगा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती आदि पुण्यदायिनी पवित्र नदियाँ निवास करती हैं। पृथ्वीकेसमस्त पतित प्राणी साभ्रमतीके जलका स्पर्श करनेमात्र से शुद्ध हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ भक्तिपूर्वक श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होकर परमपदको प्राप्त होते हैं।

तदनन्तर महर्षि कश्यपके उपदेशसे साभ्रमती नदी ब्रह्मर्षियोंद्वारा सेवित विकीर्ण वनमें आयी। उसका प्रबल वेगसे बहता जल पर्वतोंसे टकराकर सात भागोंमें विभक्त हो गया। उन सभी धाराओंसे युक्त साभ्रमती नदी दक्षिण समुद्रमें मिली है। पहली धारा परम पवित्र साभ्रमती नामसे ही विख्यात हुई दूसरीका नाम श्वेता है, तीसरी बकुला या वल्कला और चौथी हिरण्मयी कहलाती है। पाँचवीं धाराका नाम हस्तिमती है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। छठी धारा वेत्रवतीके नामसे विख्यात है, जिसे पूर्वकालमें वृत्रासुरने उत्पन्न किया था यह श्रेष्ठ देवी वृत्रकूपसे निकली थी, इसीलिये इसका नाम वेत्रवती हुआ। यह बड़े-बड़े पापका नाश करनेवाली है। सातवीं धाराका नाम भद्रामुखी तथा सुभद्रा है यह सम्पूर्ण जगत्‌को पवित्र करनेवाली है। इन सातों धाराओंसे भिन्न-भिन्न देशोंको पवित्र करती हुई एक ही साभ्रमती नदी ‘सप्तस्रोता’ के रूपमें प्रतिष्ठित हुई है। जो विकीर्ण तीर्थमें पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध एवं दान करता है, उसे गया में पिण्डदान करनेका फल प्राप्त होता है। जो धर्मभ्रष्ट होनेके कारण सद्गतिसे वंचित हैं, जिनकी पिण्ड और जलदानकी क्रिया लुप्त हो गयी है, वे भी विकीर्ण तीर्थमें पिण्डदान और जलदान करनेपर मुक्त हो जाते हैं। अतः वेदत्रयीकी विधिके अनुसार यहाँ श्रद्धापूर्वक श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। इस तीर्थमें कश्यपजीने ब्राह्मणोंको संबोधित करके कहा था-द्विजवरो यदि तुम्हें ऋषिलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है तो इस विकीर्ण तीर्थमें, जहाँ सात नदियोंका उद्गम हुआ है, विशेषरूपसे स्नान करो।’ यदि यहाँ स्नान किया जाय तो सब दुःखोंका नाश हो जाता है। यह विकीर्ण तीर्थ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ तथा क्षेत्रोंमें परम उत्तम है। यह शुभगति प्रदान करनेवाला तथा रोग और दोषका निवारण करनेवाला है। विकीर्ण तीर्थके बाद श्वेतोद्भव नामक उत्तम तीर्थ है,जहाँ सब पापोंका नाश करनेवाली त्रिलोकविख्यात श्वेता नदी प्रवाहित होती है। वह नदी मेरे अंगोंमें लगे हुए भस्मके संयोगसे प्रकट हुई थी, इसलिये देवताओं द्वारा सम्मानित हुई। उसमें स्नान करके पवित्र और जितेन्द्रिय भावसे वहाँ तीन रात निवास करनेवाला पुरुष महाकालेश्वरका दर्शन करनेसे स्ट्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो श्वेताके तटपर कुश और तिलोंके साथ पितरोंको पिण्डदान करता है, उसके पितर पूर्ण तृप्त हो जाते हैं। श्वेतगंगा परम पुण्यमयी और दुःख एवं दरिद्रताको दूर करनेवाली है। पार्वती। मैं उसके पवित्र संगममें नित्य निवास करता हूँ। उसमें जो स्नान और दान करते हैं, उन्हें उसका अक्षय फल प्राप्त होता है। जो नरश्रेष्ठ वहाँ धूप, फूल, माला और आरती निवेदन करते हैं, वे पुण्यात्मा हैं। जो बिल्वपत्र लेकर श्वेताके किनारे शिवके ऊपर चढ़ाता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है।

यहाँसे तीर्थ यात्री पुरुष गणतीर्थको जाय। वह तीर्थ चन्दना नदीके तटपर है। शिवगणोंने उसका नाम त्रिविष्टप रखा है। पूर्णिमाको एकाग्रचित्त हो त्रिविष्टप तीर्थमें स्नान करके मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पापसे मुक्त हो जाता है। जो वर्षाके चार महीनोंमें वहाँ निवास करता है, वह महान् सौभाग्यशाली एवं पवित्र होकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। कृष्णपक्षकी अष्टमीको गणतीर्थमें स्नान करके जो उपवास करता है तथा बकुलासंगममें गोता लगाता है, वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है। उस तीर्थमें स्नान करके बकुलेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य गणेशजीके प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त होता है। यहाँ परम पराक्रमी चन्द्रवंशी राजा विश्वदत्तने दीर्घकालतक बड़ी भारी तपस्या की थी और श्रीगणेशजी प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त किया था। महेश्वरि वसिष्ठ, वामदेव, कहोड, कौषीतक, भारद्वाज, अंगिरा, विश्वामित्र तथा वामन – ये पुण्यात्मा मुनि श्रीगणेशजीकी कृपासे सदा हो इस तीर्थका सेवन करते हैं। इसके सेवनसे पुत्रहीनको पुत्र, धनहीनको धन, विद्याहीनको विद्या और मोक्षार्थीको मोक्ष प्राप्त होता है। जो यहाँ स्नान अथवा पूजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णु के परमपदको प्राप्त होता है।

अध्याय 204 अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! साभ्रमतीके पास ही ईशानकोणमें पालेश्वर नामक तीर्थ है, जहाँ चण्डीदेवी प्रतिष्ठित हैं। वह योगमाताओंका पीठ है, जो समस्त सिद्धियोंका साधक है। वहाँ जगत्पर अनुग्रह करने और सब देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये माताएँ परम यत्नपूर्वक स्थित हैं। उस तीर्थमें दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए तीन रात निवास करके मनुष्य चण्डीपति भगवान् शंकरके समीप जा उनका दर्शन करे और उनके निकट साभ्रमती नदीमें स्नान करके समाधिविधिसे युक्त हो मातृ-मण्डलके दर्शनके लिये जाय; ऐसा करनेसे मनुष्य सहस्त्र गोदानोंका फल पाता है। अग्नितीर्थमें स्नान करके चामुण्डाका दर्शन करनेपर मनुष्यको राक्षस, भूत और पिशाचोंका भय नहीं रहता। पार्वती। -साभ्रमतीमें जहाँ गोक्षुरा नदी मिली है, वहाँ सहस्रों तीर्थ हैं। वहाँ तिलके चूर्णसे श्राद्ध करना चाहिये। उस तीर्थमें पिण्डदान करके ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे अक्षय पदकी प्राप्ति होती है।

पूर्वकालमें कुकर्दम नामक एक पापिष्ठ एवं दुर्धर्ष राजा रहता था, जो बड़ा ही खल, मूढ, अहंकारी, ब्राह्मणोंका निन्दक, गोहत्यारा, बालघाती और सदा उन्मत्त रहनेवाला था। पिण्डार नामक नगर में वह राज्य करता था। एक समय अधर्मके ही योगमें उसकी मृत्यु हो गयी। मरनेपर वह प्रेत हुआ। उसे हवातक पीनेको नहीं मिलती थी; अतः वह अनेक प्रेतोंकि साथ करुणस्वरमें रोता और हाहाकार मचाता हुआ इधर-उधर भटकता फिरता था। एक समय दैवयोगसे वह अपने गुरुके आश्रमपर जा पहुँचा। पूर्वजन्ममें उसने कुछ पुण्य किया था, जिसके योगसे उसे गुरुका सत्संग प्राप्त हुआ।

पार्वती! पूर्वजन्ममें वह वेदपाठी ब्राह्मण था और प्रतिदिन महादेवजीकी पूजा तथा अतिथियोंका स्वागत- सत्कार करके ही भोजन करता था। उस पुण्यके प्रभावसे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण पिण्डारपुण्ड्रमें राजा कुकर्दमकेरूपमें उत्पन्न हुआ। जबतक उसने राज्य किया, कभी मन और क्रियाद्वारा भी पुण्य कर्म नहीं किया था, इसलिये दैवात् मृत्यु होनेपर वह प्रेतराज हुआ। सूखा हुआ मुँह, कंकाल शरीर, पीला रंग, विकराल रूप और गहरी आँखें यही उसकी आकृति थी। वह महापापी प्रेत अन्य दुष्ट प्रेतोंके साथ रहता था। उसके रोएँ ऊपरको उठे हुए थे। जटाओंसे युक्त होने के कारण वह भयंकर जान पड़ता था। उसे इस रूपमें देखकर आश्रमवासी ब्राह्मण कहोड व्याकुल हो उठे।

कहोड बोले- राजन् ! यह अग्निपालेश्वर तीर्थ है। मैं इस परम अद्भुत, मनोरम एवं रमणीय स्थान में प्रतिदिन निवास करता हूँ। तुम तो मेरे यजमान हो । फिर इस प्रकार प्रेतराज कैसे हो गये?

प्रेत बोला- देव मैं वही पिण्डारपुरका कुकर्दम राजा हूँ वहाँ रहकर मैंने जो कुछ किया है, उसे सुनिये। ब्राह्मणोंकी हिंसा, असत्यभाषण, प्रजाओंका उत्पीड़न,
जीवोंकी हत्या, गौओंको दुःख देना, सदा बिना स्नानकिये ही रहना, सज्जन पुरुषोंको कलंक लगाना, भगवान् विष्णु और वैष्णवोंकी सर्वदा निन्दा करना यही मेरा काम था। मैं दुराचारी और दुरात्मा था। जहाँ जीमें आता, वहीं खा लेता। कभी भी शौचाचारका पालन नहीं करता था। द्विजराज! उसी पापकर्मके योगसे मैं मृत्युके बादसे प्रेतयोनिमें पड़ा हूँ। यहाँ नाना प्रकारके दुःख सहन करने पड़ते हैं। जिसके माता, पिता, स्वजन एवं बन्धु बान्धव नहीं हैं, उसके लिये गुरु ही माता हैं और गुरु ही उत्तम गति हैं। ब्रह्मन् !

ऐसा जानकर मुझे मोक्ष प्रदान कीजिये । कोडने कहा- राजन्! मैं तुम्हारी प्रार्थना पूर्ण करूँगा तुम्हारे साथ जो ग्यारह प्रेत और हैं, इन्हें भी इस तीर्थमें मुक्ति दिलाऊंगा।

पार्वती ! यों कहकर ब्राह्मण कहोडने सबके साथ तीर्थमें जाकर तिलसहित पिण्डदान एवं जलदानका कार्य किया। तीर्थमें मास और तिथिका कोई विचार नहीं है। वहाँ जाकर सदा ही श्राद्धादि कर्म करने चाहिये। यह बात पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे कही थी। ब्राह्मणके द्वारा श्राद्धकी क्रिया पूर्ण होनेपर उस श्रेष्ठ तीर्थमें वे सभीप्रेत मुक्त हो गये और उत्तम विमानपर बैठकर मेरे धामको चले गये। सुरेश्वरि जहाँ साभ्रमतीके साथ गोक्षुरा नदीका संगम हुआ है, वहाँ स्नान और दान करनेसे करोड़ यज्ञका फल होता है कपालेश्वर क्षेत्रमें जहाँ अग्नितीर्थ है, वहाँ साभ्रमती नदी मुक्ति देनेवाली बतायी गयी है।

देवि! अब मैं दूसरे तीर्थ हिरण्यासंगमका वर्णन करता हूँ। वह महान् तीर्थ है। पूर्वकालमें जब साभ्रमती गंगा सात धाराओं में विभक्त हुई, उस समय वह ब्रह्मतनया सप्तस्रोताके नामसे विख्यात हुई। उसके सातवें खोलको ही हिरण्या कहते हैं। प्राक्ष और मंजुमके बीच सत्यवान् नामक पर्वत है। उससे पूर्व दिशामें हिरण्यासंगम नामक महातीर्थ है, जिसमें स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य शुभगतिको प्राप्त होता है। वहाँसे वनस्थलीमें जाय और पापहारी भगवान् नारायणका दर्शन करे। यह वही स्थान है, जहाँ भगवान् नर और नारायणने उत्तम तपस्या की थी। एक हजार कपिला गौओंके दानसे जो फल मिलता है, दशाश्वमेधतीर्थमें चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय स्नानसे जो पुण्य होता है तथा तुलापुरुषके दानसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसी पुण्यफलको मनुष्य हिरण्यासंगममें स्नान करके प्राप्त कर लेता है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र – जो भी हिरण्यासंगममें स्नान करते हैं, वे शिवधामको जाते हैं।

देवि! अब मैं हिरण्यासंगमके बाद आनेवाले धर्मतीका वर्णन करता हूँ, जहाँ साभ्रमती गंगाके साथ धर्मावती नदीका संगम हुआ है। यहाँ स्नान करके मनुष्य धन्य हो जाता है और निश्चय ही स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। जो वहीं धर्मद्वारा स्थापित तीर्थका दर्शन करता है, वह पुण्यका भागी होता है। जो लोग वहाँ श्रद्ध करते हैं, वे पितृऋणसे मुक्त हो जाते हैं । वहाँसे मधुरातीर्थकी यात्रा करे, जहाँ सब पापका नाश हो जाता है। मथुरातीर्थमें स्नान करके मधुर संज्ञक श्रीहरिका दर्शन करना चाहिये। कंसासुरका वध हो जानेके पश्चात् जब भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकापुरीको जाने लगे, उस समयउन्होंने चन्दना नदीके सात निवास किया। उसके बाद भोज, वृष्णि और अन्धक-वंशियोंसे घिरे हुए वे समस्त यादव वीरोंके साथ मधुरातीर्थमें आये और वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके द्वारकापुरीको गये। जोमनुष्य तीर्थमें स्नान करके मधुर नामसे विख्यात भगवान् सूर्यकी पूजा करता है और माघके शुक्लपक्षकी सप्तमीको कपिला गौका दान करता है, वह इस लोकमें दीर्घकालतक सुख भोगनेके पश्चात् सूर्यलोकको जाता है।

अध्याय 205 माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन

महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! मनुष्य कम्बुतीर्थ में स्नान और पितृतर्पण करके रोग-शोकसे रहित देवदेवेश्वर भगवान् नारायणका पूजन करे। फिर ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक दान दे। ऐसा करनेपर वह उस तीर्थके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होता है। उसके बाद कपीश्वर नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह रक्तसिंहके समीप है और महापातकोंका नाश करनेवाला है। पूर्वकालमें श्रीराम-रावण युद्ध के प्रारम्भमें जब समुद्रपर पुल बाँधा जा रहा था, उस समय इस पर्वतका शिखर लेकर कपियोंने इसका विशेषरूपसे स्मरण किया। उन्होंने यहाँ कपीश्वरादित्य नामक उत्तम तीर्थकी स्थापना की। उस तीर्थमें स्नान और पितृतर्पण करके कपीश्वरादित्यका दर्शन करनेपर मनुष्य ब्रह्महत्या से मुक्त हो जाता है। कपीश्वरतीर्थमें विशेषतः चैत्रकी अष्टमीको स्नान करना चाहिये। हनुमान्जी आदि प्रमुख वीरोंने इस तीर्थमें तीन दिनोंतक स्नान किया था। पार्वती! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये कपितीर्थके प्रभावका वर्णन किया है। वहाँसे परमपावन एकधार तीर्थको जाना चाहिये। जो एकधारमें स्नान करके एक करता और स्वामिदेवेश्वरका पूजन करता है, वह अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्य ब्रह्मलोकमें जाता है। तत्पश्चात् तीर्थयात्री पुरुष सप्तधार नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह सब तीर्थोंमें उत्तम तीर्थ है। उस तीर्थको मुनियोंने सप्त-सारस्वत नाम दिया है। त्रेतायुगमें महर्षि मंकिने वहाँ मौकितीर्थका निर्माण किया था। फिर द्वापरमें पाण्डवोंने सप्तधार तीर्थको प्रवृत्त किया। भगवान् शंकरकी जटासे निकला हुआ गंगाजल यहाँ सात धाराओंके रूपमें प्रकट हुआ,इसलिये यह सप्तधार तीर्थ कहलाता है। सात लोकों में जो गंगाजीके सात रूप सुने जाते हैं, वे सभी इस सप्तधार नामक तीर्थमें अपने पवित्र जलको प्रवाहित करते हैं। सप्तधार तीर्थमें किया हुआ श्राद्ध पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला होता है।

देवेश्वरि वहाँसे ब्रह्मवल्ली नामक महान् यात्रा करे। उस तीर्थके स्वरूपका वर्णन सुनो। जहाँ साभ्रमती नदीका जल ब्रह्मवल्लीके जलसे मिला है, वह स्थान ब्रह्मतीर्थ कहलाता है। उसका महत्त्व प्रयागके समान माना गया है। ब्रह्माजीका कथन है कि वहाँ पिण्डदान करनेसे पितरोंको बारह वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है। विशेषतः ब्रह्मवल्लीमें पिण्डदानका गया श्राद्धके समान पुण्य माना गया है। पुष्कर, गंगानदी और अमरकण्टक क्षेत्रमें जानेसे जो फल मिलता है, वह ब्रह्मवल्लीमें विशेषरूपसे प्राप्त होता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके समय जो लोग दान करते हैं, उन्हें मिलनेवाला फल ब्रह्मवल्लीमें स्वतः प्राप्त हो जाता है। ब्रह्मवल्लीमें स्नान करके गलेमें तुलसीकी माला धारण किये भगवान् नारायणका स्मरण करता हुआ मनुष्य दिव्य वैकुण्ठधाममें जाता है, जो आनन्दस्वरूप एवं अविनाशी पद है।

तत्पश्चात् वृषतीर्थमें जाय, जो खण्डतीर्थके नामसे भी प्रसिद्ध है। पूर्वकालमें गौएँ वहाँ स्नान करके दिव्य गोलोकधामको प्राप्त हुई थीं। उस तीर्थमें निराहार रहकर जो गौओंके लिये पिण्डदान करता है, वह चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त सुखी एवं अभ्युदयशाली होता है, करोड़ गौओंके दानसे मनुष्यको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह खण्डतीर्थमें निस्सन्देह प्राप्त हो जाता है। जोखण्डतीर्थमें बैलका मूत्र लेकर पान करता है, उसकी तत्काल शुद्धि हो जाती है। खण्डतीर्थसे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ न हुआ है और न होगा। पार्वती जो मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, वे पुण्यके भागी होते हैं। वहाँ जाकर गौओंका पूजन करना चाहिये। उसके बाद वृषभकी पूजा करके एकाग्रतापूर्वक पुनः स्नान करना चाहिये। गो-पूजनसे मनुष्य गोलोकमें नित्य निवास करता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो वहाँ पाँच आँवलेके पौधे लगाते हैं, वे इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें श्रीहरिके परमधाममें जाते हैं।

तदनन्तर संगमेश्वर नामक उत्तम तीर्थकी यात्रा करे। वह बहुत बड़ा तीर्थ है। वहाँ पुण्यमयी हस्तिमती नदी साभ्रमतीसे मिली है। वह नदी कौण्डिन्य मुनिके शापसे सूख गयी थी। तबसे लोकमें बहिश्चर्याके नामसे उसकी ख्याति हुई। वह त्रिलोक विख्यात तीर्थ परमपवित्र और सब पापोंको हरनेवाला है। मनुष्य उस तीर्थमें स्नान तथा महेश्वरका दर्शन करके सब पापोंसे मुक्त होता और रुद्रके लोकमें जाता है। देवि! जिस प्रकार शाप मिलनेके कारण उस नदीका जल सूख गया था, वह प्रसंग बतलाता हूँ सुनो। जहाँ परमपवित्र ; महानदी साभ्रमती गंगा और हस्तिमती नदीका संगम हुआ है, वहीं मुनिवर कौण्डिन्यने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। इस प्रकार बहुत समयतक उन्होंने समस्त इन्द्रियोंके स्वामी शुद्ध बुद्ध भगवान् नारायणकी आराधना की। एक समय दैवयोगसे वर्षाकाल उपस्थित हुआ। नदी जलसे भर गयी। तब कौण्डिन्य ऋषिने उस स्थानको छोड़ दिया। किन्तु रातमें नदीकी बाढ़के कारण उन्हें बड़ा कष्ट हुआ। वे चिन्तित होकर सोचने लगे ‘अब क्या करना चाहिये ?’ उनका आश्रम दिव्य शोभासे सम्पन्न और महानू था। किन्तु जलके वेगसे वह हस्तिमती नदीमें बह गया। उनके पास जो बहुत से फल-मूल और पुस्तकें थीं, वे भी नदी वह गर्यो तब मुनिश्रेष्ठ कौण्डिन्यने उस नदीको शाप दिया- ‘अरी! तू कलियुगमें बिना जलकी हो जायगी।’ पार्वती। इस प्रकार हस्तिमतीको शाप देकर विप्रवर कौण्डिन्य सनातन विष्णुधामको चलेगये। आज भी यह संगमेश्वर नामक तीर्थ मौजूद है, जिसका दर्शन करके पापी मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकसे मुक्त हो जाता है। देवेश्वरि ! वहाँसे तीर्थयात्री मनुष्य रुद्रमहालय नामक तीर्थकी यात्रा करे। वह केदार तीर्थके समान अनुपम है। साक्षात् रुद्रने उसका निर्माण किया है। वहाँ अवश्य श्राद्ध करना चाहिये; क्योंकि वह पितरोंकी पूर्ण तृप्तिका कारण होता है उस तीर्थमें श्राद्ध करनेसे पितर और पितामह तृप्त हो रुद्रके परमपदको प्राप्त होते हैं जो रुद्रमहालय तीर्थमें कार्तिक एवं वैशाखकी पूर्णिमाको वृषोत्सर्ग करता है, वह रुद्रके साथ आनन्दका भागी होता है केदार तीर्थमें जलपान करनेमें मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता। वहाँ स्नान करनेमात्र से वह मोक्षका भागी हो जाता है। देवि! एक समय में साभ्रमती नामक महागंगाका महत्व जानकर कैलास छोड़ यहाँ आया था और लोकहितके लिये यहाँ स्नान तथा जलपान करके इसे परम उत्तम तीर्थ बनाकर पुनः अपने कैलासधामको लौट गया। तबसे महालय परम पुण्यमय तीर्थ हो गया। संसारमें इसकी रुद्रमहालयके नामसे ख्याति हुई। देवि! जो कार्तिक और वैशाखकी पूर्णिमाको यहाँकी यात्रा करते हैं, उन्हें फिर कभी संसारजनित दुःखकी प्राप्ति नहीं होती।

पार्वती! अब देवताओंके लिये भी दुर्लभ उत्तम तीर्थका वर्णन सुनो। वह खद्गतीर्थके नामसे विख्यात और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। खड्गतीर्थमें स्नान करके खड़गेश्वर शिवका दर्शन करनेसे मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता और अन्तमें स्वर्गलोकको जाता है जो खड्गधारेश्वर महादेवका दर्शन करता और कार्तिककी पूर्णिमाको उनकी विशेषरूपसे पूजा करता है, उसको ये सर्वेश्वर भगवान् विश्वनाथ सदा इस पृथ्वीपर सब प्रकारका सुख देते हैं; क्योंकि ये मनोवांछित फल देनेवाले हैं।

साभ्रमतीके तटपर चित्रांगदन नामक एक तीर्थ है जो गयासे भी श्रेष्ठ है। उस शुभकारक तीर्थके अधिष्ठातृ देवता मालार्क नामके सूर्य हैं। जिसको कोढ़ हो गयी हो,वह मनुष्य यदि उस तीर्थमें जाय तो भगवान् मालार्क उसकी कोढ़को दूर कर देते हैं। जो नारी शास्त्रोक्तविधिसे वहाँ अभिषेक करती है, वह मृतवत्सा हो या वया शोध ही पुत्र प्राप्त करती है। उस तीर्थमें रविवारके दिन यदि स्नान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजन किये जायँ तो वे अक्षय हो जाते हैं। देवेश्वरि वहाँ जाकर श्रीसूर्यका व्रत करना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्य इस लोकमें सुख भोगकर सूर्यलोकको जाता है। जो उस तीर्थमें जाकर विशेषरूपसे उपवास करता और इन्द्रियोंको वशमें करके भगवान् मालार्कका पूजन करता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है।

इस तीर्थके बाद दूसरे तीर्थमें जाय, जो मालार्कसे उत्तरमें स्थित है। उसका नाम है— चन्दनेश्वर तीर्थ । वह उत्तम स्थान सदा चन्दनकी सुगन्धसे सुवासित रहता है। वहाँ स्नान, जलपान और पितृतर्पण करनेसे मनुष्य कभी नरकमें नहीं पड़ता और रुद्रलोकको प्राप्त होता है। वहाँ जगत्का कल्याण करनेवाले विश्वके स्वामी भगवान् चन्दनेश्वरका दर्शन करके रुद्रलोककी इच्छा रखनेवाला पुरुष यथाशक्ति उनका पूजन करे। उस तीर्थमें कल्याण प्रदान करनेवाले साक्षात् परमात्मा श्रीविष्णु नित्य निवास करते हैं। धन्य है साभ्रमती नदी और धन्य हैं विश्वके स्वामी भगवान् शिव एवं विष्णु !

वहाँसे पापनाशक जम्बूतीर्थमें स्नान करनेके लिये जाय कलियुगमें वह तीर्थ मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सौढ़ीके समान स्थित है। पूर्वकालमें जाम्बवान्ने वहाँ दांग पर्वतपर अपने नामसे एक शिवलिंगकी स्थापना की थी। वहाँ स्नान करके मनुष्य तत्काल श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणका स्मरण करे तथा जाम्बवतेश्वर शिवको मस्तक झुकाये तो वह रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। देवि! जहाँ-जहाँ श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया जाता है, वहाँ-वहाँ सम्पूर्ण चराचर जगतमें भव-बन्धनसे छुटकारा देखा जाता है। मुझे ही श्रीराम जानना चाहिये। और श्रीराम ही रुद्र हैं—याँ जानकर कहीं भेददृष्टि नहीं रखनी चाहिये। जो मन-ही-मन ‘राम ! राम! राम !’ इस प्रकार जप किया करते हैं, उनके समस्त मनोरथोंकी।प्रत्येक युगमें सिद्धि हुआ करती है। देवि! मैं सदा श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण किया करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीका नाम श्रवण करनेसे कभी भव-बन्धनकी प्राप्ति नहीं होती। पार्वती! मैं काशीमें रहकर प्रतिदिन भक्तिपूर्वक कमलनयन श्रीरघुनाथजीका निरन्तर स्मरण किया करता हूँ। पूर्वकालमें परम सुन्दर श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके जम्बूतीर्थमें जाम्बवत नामसे प्रसिद्ध शिवलिंगको स्थापित किया था। वहाँ स्नान, देवपूजन तथा भोजन करके मनुष्य शिवलोकको प्राप्त होता है और वहीं चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त निवास करता है। वहाँसे इन्द्रग्राम नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ पूर्वकालमें स्नान करके इन्द्र घोर पापसे मुक्त हुए थे। श्रीपार्वतीजीने पूछा-भगवन्! इन्द्रको किस कर्मसे घोर पाप लगा था और किस प्रकार वे पापरहित हुए! उस प्रसंगको विस्तारके साथ सुनाइये।

श्रीमहादेवजी बोले- देवि! पूर्वकालमें देवराज इन्द्र और असुरोंके स्वामी नमुचिने परस्पर यह प्रतिज्ञा की कि हम दोनों एक-दूसरेका बिना किसी शस्त्रकी सहायता लिये वध करें; परन्तु इन्द्रने आकाशवाणीके कथनानुसार जलका फेन लेकर उसीसे नमुचिको मार डाला। तब इन्द्रको ब्रह्महत्या लगी। उन्होंने गुरुके पास जाकर अपने पापकी शान्तिका उपाय पूछा। फिर बृहस्पतिजीके आज्ञानुसार वे साभ्रमती नदीके उत्तर तटपर आये और वहाँ उन्होंने स्नान किया। इससे उनका सारा पाप तत्काल दूर हो गया। शरीरमें पूर्ण चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्ति छा गयी। तब इन्द्रने वहाँ धवलेश्वर नामक शिवकी स्थापना की।

वह शिवलिंग इस पृथ्वीपर इन्द्रके ही नामसे प्रसिद्ध हुआ वहाँ पूर्णिमा, अमावास्या, संक्रान्ति और ग्रहणके दिन दिन श्राद्ध करनेपर पितरोंको बारह वर्षोंतक तृप्ति बनी रहती है जो धवलेश्वरके पास जाकर ब्राह्मण भोजन कराता है, उसके एक ब्राह्मणको भोजन करानेपर सहस्र ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल होता है। वहाँ अपनी शक्तिके अनुसार सुवर्ण, भूमि और वस्त्रका दान करना चाहिये। ब्राह्मणको श्वेत रंगकी दूध देनेवाली गौबछड़ेसहित दान करनी चाहिये। जो ब्राह्मण यहाँ आकर रुद्रमन्त्रका जप आदि करता है, उसका शुभ कर्म वहाँ भगवान् शंकरजीके प्रसादसे कोटिगुना फल देनेवाला होता है । जो मनुष्य उस तीर्थमें आकर उपवास आदि करता है, वह अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको निस्सन्देह प्राप्त कर लेता है। जो बिल्वपत्र लाकर भगवान् धवलेश्वरकी पूजा करता है, वह मानव इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ और काम- तीनों प्राप्त करता है, विशेषतः सोमवारको जो श्रेष्ठ मनुष्य वहाँकी यात्रा करते हैं, उनके रोग-दोषको भगवान् धवलेश्वर शान्त कर देते हैं। जो सदा रविवारको उनका विशेषरूपसे पूजन करता है, उसकी महिमाका ज्ञान मुझे कभी नहीं हुआ। जो दूर्वादल, मदारके फूल, कहारपुष्प तथा कोमल पत्तियोंसे श्रीधवलेश्वरका पूजन करते हैं, वे मनुष्य पुण्यके भागी होते हैं। श्वेत मदारकाफूल लाकर उसके द्वारा धवलेश्वरकी पूजा करके उन्हींके प्रसादसे मनुष्य सदा मनोवांछित फल पाता है। सत्ययुगमें भगवान् नीलकण्ठके नामसे प्रसिद्ध होकर सबका कल्याण करते थे। फिर त्रेतायुगमें वे भगवान् हरके नामसे विख्यात हुए, द्वापरमें उनकी शर्व संज्ञा होती है और कलियुगमें वे धवलेश्वर नामसे प्रसिद्ध होते हैं। जो श्रेष्ठ मानव यहाँ स्नान और दान करते हैं, वे धर्म, अर्थ और कामका उपभोग करके शिवधामको जाते हैं। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण तथा पिताकी वार्षिक तिथिको श्राद्ध करनेसे जो फल मिलता है, उसे धवलेश्वर तीर्थमें मनुष्य अनायास ही प्राप्त कर लेता है। देवि! धवलेश्वरमें कालसे प्रेरित होकर सदा ही जो प्राणी मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे जबतक सूर्य और चन्द्रमा हैं तबतक शिवधाममें निवास करते हैं।

अध्याय 206 साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं-साभ्रमतीके तटपर बालार्क नामका श्रेष्ठ तीर्थ है, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं। मनुष्य उस बालार्कतीर्थमें स्नान करके पवित्रतापूर्वक तीन रात निवास करे और सूर्योदयके समय बाल सूर्यके मुखका दर्शन करे। ऐसा करनेसे वह निश्चय ही सूर्यलोकको प्राप्त होता है। रविवार, संक्रान्ति, सप्तमी तिथि, विषुवयोग, अयनके आरम्भ-दिवस, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहणके दिन स्नान करके देवताओं, पितरों और पितामहोंका तर्पण करे। फिर ब्राह्मणोंको गुड़मयी धेनु और गुड़-भात दान करे। तत्पश्चात् कनेर और जपाके फूलोंसे बाल सूर्य का पूजन करना चाहिये। जो मनुष्य ऐसा करते हैं, वे सूर्यलोकमें निवास करते हैं। जो मानव वहाँ दूध देनेवाली लाल गौ तथा बोझ ढोनेमें समर्थ एक बैल दान करता है, वह यज्ञका फल पाता है और कभी भी नरकमें नहीं पड़ता। इतना ही नहीं, यदि वह रोगी हो तो रोगसे और कैदी हो तो बन्धनसे मुक्त हो जाता है। इस तीर्थमें पिण्डदान करनेसे पितामहगण पूर्ण तृप्त होते हैं।पूर्वकालकी बात है, एक बुड्ढा भैंसा, जो वृद्धावस्थाके कारण जर्जर हो रहा था, बोझ ढोनेमें असमर्थ गया। यह देख व्यापारीने उसको रास्तेमें ही त्याग दिया। गरमीका महीना था, वह पानी पीनेके लिये महानदी साभ्रमतीके तटपर आया। दैववश वह भैंसा कीचड़में फँस गया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। नदीके पवित्र जलमें उसकी हड्डियाँ बह गयीं। उस तीर्थके प्रभावसे वह भैंसा कान्यकुब्ज देशके राजाका पुत्र हुआ। क्रमशः बड़े होनेपर उसे राज्यसिंहासनपर बिठाया गया। उसे अपने पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा । वहाँ अपने पूर्ववृत्तान्तको याद करके उस तीर्थके प्रभावका विचार कर वह राजा उक्त तीर्थमें आया और वहाँके जलमें स्नान करके उसने अनेक प्रकारके दान किये। साथ ही उस तीर्थमें राजाने देवाधिदेव महेश्वरकी स्थापना की। वहाँ स्नान करके महिषेश्वरका पूजन तथा बाल सूर्यके मुखका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। यों तो समूची साभ्रमती नदी ही परम पवित्र है, किन्तु बालार्कक्षेत्रमें उसकी पावनता विशेष बढ़ गयी है।उसका नामोच्चारणमात्र मनुष्य बड़े-बड़े पापोंसे भी छुटकारा पा जाता है। साभ्रमती नदीका जल जहाँ पूर्वसे पश्चिमकी और बहता है, वह स्थान प्रयागसे भी अधिक पवित्र, समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और महान् है। वहाँ ब्राह्मणोंको दिया हुआ गौ, भूमि तिल सुवर्ण, वस्त्र, अन्न, शय्या, भोजन, वाहन और छत्र आदिका दान, अग्निमें किया हुआ हवन, पितरोंके लिये किया गया श्राद्ध तथा जप आदि कर्म अक्षय हो जाता है। उस तीर्थमें मनुष्य जिस-जिस वस्तुकी कामना करता है, वह वह उसे महेश्वरकी कृपा तथा सीधक प्रभावसे प्राप्त होती है।

अब दुर्धर्षेश्वर नामक एक दूसरे उत्तम तीर्थका वर्णन करता हूँ। उसके स्मरण करनेमात्रसे पापी भी पुण्यवान् हो जाता है। देवासुर संग्रामकी समाप्ति और दैत्योंका संहार हो जानेपर भृगुनन्दन शुक्राचार्यने वहाँ कठोर व्रतका पालन करके लोक-सृष्टिके कारणभूत दुर्धर्ष देवता महादेवजीकी समाराधना की और उनसे दयोंके जीवनके लिये मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त को तबसे यह तीर्थ भूमण्डलमें उन्हीं के नामपर विख्यात हुआ। काव्यतीर्थमें स्नान करके दुर्धर्मेश्वर नमक महादेवका पूजन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है।

साभ्रमती नदीके तटपर खड्गधार नामसे विख्यात एक परम पावन तीर्थ है, जो अब गुप्त हो गया है। और जहाँ प्रसंगवश भी कभी अचानक स्नान और जलपान कर लेनेपर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो स्द्रलोक में प्रतिष्ठित होता है। वहाँ कश्यपके पीछे जाती हुई पवित्र साभ्रमती नदीको पातालकी ओर जाते देख रुद्रने उसे अपने जटाजूटमें धारण कर लिया तथा वे रुद्र खड्गधार नामसे विख्यात होकर वहीं रहने लगे। देवेश्वरि वहाँ स्नान करनेसे पापी भी स्वर्गमें चले जाते हैं। पार्वती! माघमें वैशाखमें या विशेषतः कार्तिककी पूर्णिमाको जो वहाँ स्नान करते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। वसिष्ठ, वामदेव, भारद्वाज और गौतम आदि ऋषि वहाँ स्नान तथा भगवान् शिवका दर्शन करनेके लिये आया करतेहैं। यदि मनुष्य मेरे स्थानपर जाकर विशेषरूपसे मेरा पूजन करता है तो उसका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। जो इस तीर्थमें मेरी मिट्टीकी मूर्ति बनाकर पूजते हैं, वे मेरे परमधाममें निवास करते हैं। मेरा विग्रह कलियुगमें खड्गधारेश्वरके नामसे विख्यात होता है। सत्ययुग में ‘मन्दिर’ कहलाता हूँ और त्रेतामें ‘गौरव’। द्वापरमें मेरा ‘विश्वविख्यात’ नाम होता है और कलियुगमें ‘खड्गेश्वर’ या ‘खड्गधारेश्वर’ इस तीर्थके दक्षिणभागमें मेरा स्थान है—यह जानकर जो विद्वान् वहीं मेरी मूर्ति बनाता और नित्य उसकी पूजा करता है, उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है। वह मानव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थीको प्राप्त कर लेता है। देवेश्वरि ! जो लोग लोकनाथ महेश्वरको धूप, दीप, नैवेद्य तथा चन्दन आदि अर्पण करते हैं, उन्हें कभी दुःख नहीं होता।

खड्गधार तीर्थसे दक्षिणकी और परम पावन दुग्धेश्वर तीर्थ बताया गया है, जो सब पापका नाश करनेवाला है। उस तीर्थमें स्नान करके दुग्धेश्वर शिवका दर्शन करनेपर मनुष्य पापजनित दुःखसे तत्काल छुटकारा पा जाता है। साभ्रमतीके सुन्दर तटपर जहाँ परम पुण्यमयी चन्द्रभागा नदी आकर मिली है, महर्षि दधीचिने भारी तपस्या की थी वहाँ किये हुए स्नान, दान, जप, पूजा और तप आदि समस्त शुभ कर्म दुग्धतीर्थके प्रभावसे अक्षय होते हैं।

दुग्धेश्वर तीर्थसे पूर्वकी ओर एक परम पावन तीर्थ है जहाँ साभ्रमतीमें चन्द्रभागा नदी मिली है। यहाँ पुण्यदाता चन्द्रेश्वर नामक महादेवजी नित्य विराजमान रहते हैं। जो सम्पूर्ण लोकोंको सुख देनेवाले, परम महान् और सर्वत्र व्यापक हैं, वे ही भगवान् ‘हर’ वहाँ निवास करते हैं। उस तीर्थमें चन्द्रमाने दीर्घकालतक तप किया था और उन्होंने ही चन्द्रेश्वर नामक महादेवकी स्थापना की थी। वहाँ स्नान, जलपान और शिवकी पूजा करनेवाले मनुष्य धर्म और अर्थ प्राप्त करते हैं। जो लोग वहाँ विशेषरूपसे वृषोत्सर्ग आदि कर्म करते हैं, वे पहले स्वर्ग भोगकर पीछे शिवधामको जाते हैं। जो दूसरे तटपर जाकर समस्त पापका नाश करनेवाले चन्द्रेश्वर नामकशिवकी अर्चना करते हैं तथा विशेषतः रुद्रके मन्त्रोंका जप करते हैं, उन्हें शिवका स्वरूप समझना चाहिये। देवि! जो यहाँ सर्वदा स्नान करते हैं, उन मनुष्योंको निस्सन्देह विष्णुस्वरूप जानना चाहिये। जो तिलपिण्डसे यहाँ श्राद्ध करते हैं, वे भी उसके प्रभावसे विष्णुधामको जाते हैं। यहाँ विधिपूर्वक स्नान और दान करना चाहिये। स्नान करनेपर ब्रह्महत्या आदि पापोंसे भी छुटकारा मिल जाता है। इस तटपर जो विशेषरूपसे वटका वृक्ष लगाते हैं, वे मृत्युके पश्चात् शिवपदको प्राप्त होते हैं।

दुग्धेश्वरके समीप एक अत्यन्त पावन तथा रमणीय तीर्थ है, जो इस पृथ्वीपर पिप्पलादके नामसे प्रसिद्ध है। देवेश्वरि वहाँ स्नान और जलपान करनेसे ब्रह्महत्याका पाप दूर हो जाता है। साभ्रमतीके तटपर पिप्पलाद तीर्थ गुप्त है। वहाँ स्नान करनेसे मनुष्य मोक्षका भागी होता है। यहाँ विधिपूर्वक पीपलका वृक्ष लगाना चाहिये। ऐसा करनेपर मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। पिप्पलाद तीर्थसे आगे साभ्रमतीके तटपर निम्बार्क नामक उत्तम तीर्थ है, जो व्याधि तथा दुर्गन्धका नाश करनेवाला है। पूर्वकालमें कोलाहल दैत्यके साथ युद्धमें दानवोंके द्वारा परास्त होकर देवतालोग सूक्ष्म शरीर धारण करके प्राणरक्षाके लिये यहाँ वृक्षोंमें समा गये थे वहाँ जानेपर विशेषरूपसे भगवान् सूर्यका पूजन करना चाहिये। पार्वती ! सूर्यके पूजनसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है। जो मनुष्य इस तीर्थमें जाकर सूर्यके बारह नामोंका पाठ करते हैं, वे जीवनभर पुण्यात्मा बने रहते हैं। वे नाम इस प्रकार हैं- आदित्य, भास्कर, भानु, रवि, विश्वप्रकाशक, तीक्ष्णांशु मार्तण्ड सूर्य, प्रभाकर, विभावसु सहस्ताक्ष तथा पूषा पार्वती! जो विद्वान् एकाग्रचित्त होकर इन बारह नामोंका पाठ करता है, वह धन, पुत्र और पौत्र प्राप्त करता है। जो मनुष्य इनमेंसे एक-एक नामका उच्चारण करके सूर्यदेवका पूजन करता है, वह ब्राह्मण हो तो सात जन्मोंतक धनाढ्य एवं वेदोंकापारगामी होता है। क्षत्रिय हो तो राज्य वैश्य हो तो
धन और शूद्र हो तो भक्ति पाता है। इसलिये उपर्युक्त
नाममय उत्तम सूक्तका जप करना चाहिये। पार्वती! निम्बार्क तीर्थसे बहुत दूर जानेपर परम उत्तम सिद्धक्षेत्र आता है। उपर्युक्त तीर्थके बाद तीर्थराज नामसे विख्यात एक उत्तम तीर्थ है, जहाँ सात नदियाँ बहती हैं। अन्य तीर्थोकी अपेक्षा यहाँके स्नानमें सौगुनी विशेषता है। यहाँ देवताओंमें श्रेष्ठ साक्षात् भगवान् वामन विराजमान हैं। जो माघ मासकी द्वादशीको तिलकी धेनुका दान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो अपनी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। यदि मनुष्य शुद्धचित्त होकर यहाँ केवल तिलमिश्रित जल भी पितरोंको अर्पण करे तो उसके द्वारा हजार वर्षोंतकके लिये श्राद्ध कर्म सम्पन्न हो जाता है। इस रहस्यको साक्षात् पितर ही बतलाते हैं। जो इस तीर्थमें ब्राह्मणोंको गुड़ और खीर भोजन कराते हैं, उनको एक-एक ब्राह्मणके भोजन करानेपर सहस्त्र- सहस्र ब्राह्मणोंको भोजन करानेका फल मिलता है।

तदनन्तर, साभ्रमतीके तटपर गुप्तरूपसे स्थित सोमतीर्थ की यात्रा करे, जहाँ कालाग्निस्वरूप भगवान् शिव पातालसे निकलकर प्रकट हुए थे। सोमतीर्थ में स्नान करके सोमेश्वर शिवका दर्शन करनेसे निःसन्देह सोमपानका फल प्राप्त होता है। वहाँ स्नान करनेवाला पुरुष परलोकमें कल्याण प्राप्त करता है जो सोमवार के दिन भगवान् सोमेश्वरके मन्दिर में दर्शनके लिये जाता है, वह सोमलिंगकी कृपासे मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो श्वेत रंगके फूलोंसे, कनेरके पुष्पोंसे तथा पारिजातके प्रसूनोंसे पिनाकधारी श्रीमहादेवजीकी पूजा करते हैं, वे परम उत्तम शिवधामको प्राप्त होते हैं। वहाँसे कापोतिक तीर्थकी यात्रा करे, जहाँ साभ्रमतीका जल पश्चिमसे पूर्वको ओर बहता है। जो मनुष्य पितृ तर्पणपूर्वक वहाँ पिण्डदान करता है तथाप्रत्येक पर्वपर उनके फूलों और फलों क कुत्ते आदिको बलि अर्पण करता है, वह यमराजके भार्गको सुखपूर्वक लाँघ जाता है। जो वैशाखकी पूर्णिमाको उस तीर्थमें स्नान करके पीली सरसोंसे परम उत्तम प्राचीनेश्वर नामक शिवकी पूजा करता है, वह अपनेको तो तारता ही है, अपने पितरों और पितामहका भी उद्धार कर देता है। यह वही स्थान है, एक कबूतरने अपने अतिथिको प्रसन्नतापूर्वक अपना शरीर दे दिया था और विमानपर बैठकर सम्पूर्ण देवताओंके मुखसे अपनी प्रशंसा सुनता हुआ वह स्वर्गलोकमें गया था। तभीसे वह तीर्थ कापोत तीर्थके नामसे विख्यात हुआ। वहाँ स्नान और जलपान करनेसे मनुष्यकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है।

अतः देवि! उस तीर्थमें जानेपर सदा ही अतिथिका पूजन करना चाहिये। अतिथिका पूजन करनेपर वहाँ निश्चय ही सब कुछ प्राप्त होता है।

वहाँसे आगे काश्यप हृदके समीप गोतीर्थ है, जो सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ और महापातकोंका नाश करनेवाला है। ब्रह्महत्याके समान भी जो कोई पाप हैं, वे गोतीर्थमें स्नान करनेसे निस्सन्देह नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ स्नान करके गौओंको एक दिनका भोजन देता है वह गो माताओंके प्रसादसे मातृ ऋणसे मुक्त हो जाता है। जो गोतीर्थमें जानेपर स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दूध देनेवाली गौ दान करता है, वह ब्रह्मपदको प्राप्त होता है।

यहाँ एक दूसरा भी महान् तीर्थ है, जो काश्यप कुण्डके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ कुशेश्वर नामक महादेवजी विराजते हैं। उनके पास ही कश्यपजीका बनवाया हुआ सुन्दर कुण्ड है। उसमें स्नान करनेसे मनुष्य कभी नरकमे नहीं पड़ता महादेवि काश्यपके तटपर नित्य अग्निहोत्र करनेवाले तथा वेदोंके स्वाध्यायमें तत्पर रहनेवाले अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मण निवास करते हैं। जैसा काशीका माहात्म्य है, वैसा ही इस प्राधिनिर्मित नगरीका भी है। महर्षि कश्यपने यहाँ रहकर बड़ी भारी तपस्या की है तथा वे भगवान् शंकरकी जटासे प्रकट होनेवाली गंगाको यहाँ से आये हैं। यह काश्यपीगंगा बड़े-बड़े पातकका नाश करनेवाली है। उसके दर्शनमात्र से मनुष्य घोर पापसे छुटकारा पा जाते हैं। वहाँ गो-दान और रथ-दानकी प्रशंसा की जाती है। उस तीर्थमें श्राद्ध करके बलपूर्वक दान देना चाहिये। भयंकर कलियुगमें वह तीर्थ महापातकका नाश करनेवाला है वहाँसे भूतालय तीर्थमें जाना चाहिये, जो पापोंका अपहरण करनेवाला और उत्तम तीर्थ है। वहाँ भूतोंका निवासभूत घटका वृक्ष है और पूर्ववाहिनी चन्दना नदी है। भूतालयमें स्नान करके भूतोंके निवासभूत वटका दर्शन करनेपर भगवान् भूतेश्वरके प्रसादसे मनुष्यको कभी भय नहीं प्राप्त होता वहाँसे आगे घटेश्वर नामका उत्तम तीर्थ है, जहाँ स्नान और दर्शन करनेसे मानव निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। वहाँ जाकर जो विशेषरूपसे पाकरकी पूजा करता है, वह इस पृथ्वीपर मनोवांछित कामनाओंको प्राप्त करता है।

वहाँसे मनुष्य भक्तिपूर्वक वैद्यनाथ नामक तीर्थमें जाय और उसमें स्नान करके शिवजीकी पूजा करे। वहाँ विधिपूर्वक पितरोंका तर्पण करनेसे सम्पूर्ण यज्ञौका फल प्राप्त होता है। वहाँ देवताओंसे प्रकट हुआ विजय तीर्थ है, जिसका दर्शन करनेसे मनुष्य सदा भाँति भौतिके मनोवांछित भोग प्राप्त करते हैं वैद्यनाथ तीर्थसे आगे तीर्थोंमें उत्तम देवतीर्थ है, जो सब प्रकारकी सिद्धियोंको देनेवाला है। वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिरने राक्षसराज विभीषणसे कर लेकर राजसूय नामक महान् यज्ञ आरम्भ किया था । पाण्डुपुत्र नकुलने दक्षिण दिशापर विजय पानेके बाद साभ्रमती नदीके तटपर बड़ी भक्तिके साथ पाण्डुरार्य्या नामसे विख्यात देवीकी स्थापना की थी, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। साभ्रमतीके जलमें स्नान करके पाण्डुरार्य्याको नमस्कार करनेवाला मनुष्य अणिमा आदि आठ सिद्धियों तथा प्रचुर मेधाशक्तिको प्राप्त करता है। यदि मानव शुद्धभावसे पाण्डुराव्यांको नमस्कार कर ले तो उसके द्वारा एक वर्षतककी पूजा सम्पन्न हो गयी ऐसा जानना चाहिये। देवतीर्थमें पाण्डुरार्य्याके समीप जिसकी मृत्यु होती है, वह कैलास शिखरपर पहुँचकर भगवान् चन्द्रेश्वरका गण होता है।उस तीर्थसे आगे चण्डेश नामका उत्तम तीर्थ है, जहाँ सबको ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले भगवान् चण्डेश्वर नित्य निवास करते हैं। उनका दर्शन करनेसे मनुष्य अनजानमें अथवा जान-बूझकर किये हुए पापसे छुटकारा पा जाता है। सम्पूर्ण देवताओंने मिलकर एक नगरका निर्माण किया, जो भगवान् चण्डेश्वरके नामसे ही विख्यात है। वहाँसे आगे गणपति तीर्थ है, जो बहुत ही उत्तम है। वह साभ्रमतीके समीप ही विख्यात है। वहाँस्नान करनेसे मनुष्य निस्सन्देह मुक्त हो जाता है। साभ्रमतीके पावन तटपर लोगोंकी कल्याण-कामनासे पृथ्वीके अन्य सब तीर्थोंका परित्याग करके जो भगवान् रुद्रमें भक्ति रखता हुआ जितेन्द्रियभावसे श्राद्ध करता है, वह शुद्धचित्त होकर सब यज्ञोंका फल पाता है। उस तीर्थमें स्नान करके ब्राह्मणको वृषभ दान करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष सब लोकोंको लाँघकर परम गतिको प्राप्त होता है।

अध्याय 207 वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा

श्रीमहादेवजी कहते हैं— महादेवि! तदनन्तर उस तीर्थमें जाना चाहिये, जहाँ परम साध्वी गिरिकन्या वार्त्रघ्नी के साथ इन्द्रका समागम हुआ था। जो मनुष्य अपने मनको संयममें रखते हुए वहाँ स्नान करते हैं, उन्हें दस अश्वमेधयज्ञोंका फल प्राप्त होता है। जो पुरुष वहाँ तिलके चूर्णसे पिण्ड बनाकर श्राद्ध करता है, वह अपनेसे पहलेकी सात और बादकी सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। संगममें विधिपूर्वक स्नान करके गणेशजीका भलीभाँति पूजन करनेवाला मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता और लक्ष्मी भी कभी उसका त्याग नहीं करती।

पूर्वकालमें वृत्रासुर और इन्द्रमें रोमांचकारी युद्ध हुआ था, जो लगातार ग्यारह हजार वर्षोंतक चलता रहा। उसमें इन्द्रकी पराजय हुई और वे वृत्रासुरसे पुनः लौटने की शर्त करके युद्ध छोड़कर मेरी शरण में आये। उन्होंने वार्त्रघ्नीके पवित्र संगमपर आराधनाके द्वारा मुझे सन्तुष्ट किया। तब मैंने आकाशमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया। उस समय काश्यपी गंगाके तटपर मेरे शरीरसे कुछ भस्म झड़कर गिरा, जिससे एक पवित्र लिंग प्रकट हो गया। उस शिवलिंगकी ‘भस्मगात्र’ नामसे प्रसिद्धि हुई। तब मैंने प्रसन्न होकर महात्मा इन्द्रसे कहा- ‘देव! तुम जो जो चाहते हो, वह सब तुम्हें दूँगा। इस वज्रकी सहायतासे तुम शीघ्र ही वृत्रासुरका वध करोगे।’इन्द्रने कहा— भगवन्! आपकी कृपासे उस दुर्धर्ष दैत्यको आपके देखते-देखते ही इस वज्रसे मारूँगा।

पार्वती यों कहकर इन्द्र पुनः वृत्रासुरके पास गये। उस समय देवताओंकी सेनामें दुन्दुभि बज उठी। एक ही क्षणमें इन्द्र प्रबल शक्तिसे सम्पन्न हो गये। युद्धकी इच्छासे वृत्रासुरके पास जाते हुए इन्द्रका रूप अत्यन्त तेजस्वी दिखायी देता था। महर्षिगण उनकीकर रहे थे। उधर युद्धके मुहाने पर खड़े हुए वृत्रासुरके शरीरमें जो सहसा पराजयके चिह्न प्रकट हुए, उनका वर्णन करता हूँ सुनो। वृत्रासुरका मुख अत्यन्त भयानक और जलता हुआ-सा प्रतीत होने लगा। । उसके शरीरका तेज फीका पड़ गया। सारे अंग काँपने लगे। जोर-जोरसे गरम साँस चलने लगी। सूरके रोंगटे खड़े हो गये। उसके उसकी गति अत्यन्त तीव्र हो गयी। आकाशसे महाभयानक उल्कापात हुआ। उस दैत्यके पास गिद्ध, बाज और कंक आदि पक्षी आकर अत्यन्त कठोर शब्द करने लगे। वे सब वृत्रासुरके ऊपर मण्डल बनाकर घूमने लगे। इतनेमें ही इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर वहाँ आये। उनके उठे हुए हाथमें वज्र शोभा पा रहा था। इन्द्र ज्यों ही दैत्यके समीप पहुँचे, उसने अमानुषिक गर्जना की और वह उनके ऊपर टूट पड़ा। वृत्रासुरको अपनी ओर आते देख इन्द्रने उसके ऊपर वज्रका प्रहार किया और उस दैत्यको समुद्रके तटपर मार गिराया। उस समय इन्द्रके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा होने लगी। उस भयंकर दानवराजका करके अमरोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए इन्द्रने देवलोककी राजधानीमें प्रवेश किया।

तदनन्तर अत्यन्त भयंकर ब्रह्महत्या रौद्ररूप धारण किये वृत्रके शरीरसे निकली और इन्द्रको ढूँढ़ने लगी। उसने दौड़कर महातेजस्वी इन्द्रका पीछा किया और जब वे दिखायी दिये, तब उसने उनका गला पकड़ लिया। इन्द्रको ब्रह्महत्या लग गयी। वे किसी तरह उसे हटाने में समर्थ न हो सके। उसी दशामें ब्रह्माजीके पास जाकर उन्होंने मस्तक झुकाया। इन्द्रको ब्रह्महत्यासे गृहीत जानकर ब्रह्माजीने उसका स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही ब्रह्महत्या ब्रह्माजीके पास उपस्थित हुई।

ब्रह्माजीने कहा-देवि ! मेरा प्रिय कार्य करो। देवराज इन्द्रको छोड़ दो। बताओ, तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारी कौन-सी इच्छा पूर्ण करूँ ?

ब्रह्महत्या बोली – सुरश्रेष्ठ! मैं आपकी आज्ञा मानकर इन्द्रके शरीरसे अलग हो जाऊँगी, किन्तु देवदेव मुझे कोई दूसरा निवासस्थान दीजिये आपको नमस्कार है। भगवन्। आपने ही तो लोकरक्षाके लिये यह मर्यादा बनायी है।
हत्या दूर करनेके उपायपर विचार किया। उन्होंने अग्निदेवको बुलाकर कहा- ‘अग्ने ! तुम इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चौथाई भाग ग्रहण करो।’

अग्निने कहा- प्रभो! इस ब्रह्महत्याके दोषसे मेरे छूटनेका क्या उपाय है ? ब्रह्माजी बोले- अग्ने ! जो तुम्हें प्रज्वलित रूपमें पाकर कभी बीज, औषधि, तिल, फल मूल समिधा और कुश आदिके द्वारा तुममें आहुति नहीं डालेगा, उस समय ब्रह्महत्या तुम्हें छोड़कर उसीमें प्रवेश कर जायगी।

यह सुनकर अग्निने ब्रह्माजीको आज्ञा शिरोधार्य की। तत्पश्चात् पितामहने वृक्ष, ओषधि और तृण आदिको बुलाकर उनके सामने भी यही प्रस्ताव रखा। यह बात सुनकर उन्हें भी अग्निकी ही भाँति कष्ट हुआ; अतः वे ब्रह्माजीसे इस प्रकार बोले- ‘पितामह! हमारी ब्रह्महत्याका अन्त कैसे होगा ?’

ब्रह्माजीने कहा- जो मनुष्य महान् मोहके वशीभूत होकर अकारण तुम्हें काटे या चौरेगा, ब्रह्महत्या उसीको लग जायगी।

तब औषधि और तृण आदिने ‘हाँ’ कहकर अपनीतब ब्रह्माजीने ब्रह्महत्यासे ‘तथास्तु’ कहकर इन्द्रकीस्वीकृति दे दी। फिर लोकपितामह ब्रह्माजीने अप्सराओंको बुलाकर मधुर वाणीमें उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ‘अप्सराओ! यह ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे आयी है; इसके चौथे भागको तुमलोग ग्रहण करो।’

अप्सराएं बोलीं- देवेश्वर आपकी आज्ञासे हम इसे ग्रहण करनेको तैयार हैं; परन्तु हमारे उद्धारका कोई उपाय भी आपको सोचना चाहिये।

ब्रह्माजीने कहा- जो रजस्वला स्त्रीसे मैथुन करेगा, उसीके अंदर यह तुरंत चली जायगी। ‘बहुत अच्छा’ कहकर अप्सराओंने हार्दिक प्रसन्नता प्रकट की और अपने-अपने स्थानपर जाकर वे विहार करने लगीं। तदनन्तर लोकविधाता ब्रह्माजीने जलका स्मरण किया। जब जल उपस्थित हुआ, तब ब्रह्माजीने कहा- ‘यह भयानक ब्रह्महत्या वृत्रासुरके शरीरसे निकलकर इन्द्रके ऊपर आयी है। इसका चौथा भाग तुम ग्रहण करो।’

जलने कहा- लोकेश्वर! आप हमें जो आज्ञा देते हैं, वही होगा; परन्तु हमारे उद्धारके उपायका भी विचार कीजिये।ब्रह्माजी बोले- जो मनुष्य अज्ञानसे मोहित होकर तुम्हारे भीतर थूक या मल-मूत्र डालेगा, उसीके भीतर यह शीघ्र चली जायगी और वहीं निवास इससे तुम्हे छुटकारा मिल जायगा।

श्रीमहादेवजी कहते हैं-सुरेश्वरि! इस प्रकार आता वह ब्रह्महत्या देवराज इन्द्रको कर चली गयी। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई पूर्वकालमें इन्द्रको इसी प्रकार ब्रह्महत्या प्राप्त हुई थी। वार्त्रघ्नी तीर्थमें तपस्या करके शुद्धचित्त होकर वे स्वर्गमें गये थे। पार्वती! साभ्रमतीके तीर्थोंमें ‘वार्त्रघ्नी’ का ऐसा ही माहात्म्य है। इस वानी संगमसे आगे जानेपर देवनदी साभ्रमती भद्रानदीके साथ-साथ वरुणके निवासभूत समुद्रमें जा मिली है। समुद्र भी साभ्रमतीके अनुरागसे उसका प्रिय करनेके लिये आगे बढ़ आया है और उसके प्रिय मिलनको उसने अंगीकार किया है। भद्रानदी पूर्वकालमें सुभद्राको सखी थी। उसने मार्गमें मूर्तिमती साक्षात् लक्ष्मीकी भाँति प्रकट होकर साभ्रमती गंगाकी सहायता की उन दोनों नदियोंका पवित्र संगम समुद्रके उत्तर तटपर हुआ है। उस तीर्थमें स्नान करके जो भगवान् महावराहको नमस्कार करता और स्वच्छ जलका दान करता है, वह वरुणलोकको प्राप्त होता है। उसी मार्गसे वराहरूपधारी भगवान् विष्णुने समुद्रमें प्रवेश करके देवताओंके वैरी सम्पूर्ण दानवोंपर विजय पायी थी। भगवान्ने जो वाराहका रूप धारण किया था, उसका उद्देश्य देवताओंका कार्य सिद्ध करना ही था वह रूप धारण करके वे समुद्रमें जा घुसे और पृथ्वीदेवीको अपनी दाड़ोंपर रखकर कर्दमालय में आ निकले इससे वहाँ वाराहतीर्थके नामसे एक महान् तीर्थ बन गया। जो मनुष्य वहाँ स्नान करता है, वह निश्चय ही मोक्षका भागी होता है। यहाँ पितरौकी मुक्तिके लिये श्राद्ध करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष पितरोंके साथ ही मुक होकर अत्यन्त सुखद लोकमें जाता है। वाराहतीर्थसे आगे संगम नामक तीर्थ है, जहाँ साभ्रमती गंगा समुद्रसे मिली है। यहाँ विधिपूर्वक स्नानऔर दान करना चाहिये। इस तीर्थमें स्नान करनेसे महापातकी भी मुक्त हो जाते हैं। स्वजनोंका हित चाहनेवाले पुरुषोंको वहाँ श्राद्धका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। वहाँ श्राद्ध करनेसे मनुष्य निश्चय ही पितृलोकमें निवास करता है। जहाँ समुद्रसे साभ्रमती गंगाका नित्य संगम हुआ है, उस स्थानपर ब्रह्महत्यारा भी मुक्त हो जाता है। फिर अन्य पापोंसे युक्त मनुष्योंके लिये तो कहना ही क्या है। मन्दबुद्धि लोग जहाँ तीर्थ नहीं जानते, वहाँ मेरे नामसे उत्तम तीर्थकी स्थापना कर लेनी चाहिये।

संगमके पास ही आदित्य नामक उत्तम तीर्थ है, जो सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात है। उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे पुष्करमें स्नान करनेका फल होता है। मदार और कनेरके फूलोंसे भगवान् सूर्यका पूजन, श्राद्ध तथा दान करना चाहिये। यह आदित्यतीर्थ परम पवित्र और पापोंका नाशक है। महापातकी मनुष्योंको भी यह पुण्य प्रदान करनेवाला है। उस तीर्थके बाद नीलकण्ठ नामका एक उत्तम तीर्थ है। मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उसका दर्शन अवश्य करना चाहिये। पार्वती! जो मनुष्य बिल्वपत्र तथा धूप-दीपसे नीलकण्ठका पूजन करता है, उसे मनोवांछित फलकी प्राप्ति होती है जो निर्जन स्थानमें रहकर वहाँ उपवास करते हैं, वे लोग जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करते हैं, उसे वह तीर्थ प्रदान करता है।

पार्वती। जहाँ साभ्रमती नदी दुर्गासे मिली है तथा जहाँ उसका समुद्रसे संगम हुआ है, वहाँ स्नान करना चाहिये जो कलियुगमें वहाँ स्नान करेंगे, वे निश्चय ही निष्पाप हो जायेंगे। दुर्गा-संगमपर श्राद्ध करना चाहिये। वहाँ जानेपर विशेषरूपसे ब्राह्मणोंको भोजन कराना और विधिपूर्वक गाय-भैंसका दान देना उचित है यह साभ्रमती नदी पवित्र, पापका नाश करनेवाली और परम धन्य है इसका दर्शन करके मनुष्य पापोंसे । मुक्त हो जाते हैं। पार्वती! साभ्रमती नदीको गंगाके समान ही जानना चाहिये। कलियुगमें वह विशेषरूपसे प्रचुर फल देनेवाली है।

अध्याय 208 श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा

श्रीमहादेवजी कहते हैं-देवि ! सुनो, अब मैं तुम्हें त्रिलोकदुर्लभ का वर्णन सुनाता हूँ. जिसके सुननेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकोंसे मुक्त हो जाता है। स्वयंप्रकाश परमात्मा जब भक्तोंको सुख देनेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं, वह तिथि और मास भी पुण्यके कारण बन जाते हैं। देवि! जिनके नामका उच्चारण करनेवाला पुरुष सनातन मोक्षको प्राप्त होता है, वे परमात्मा कारणोंके भी कारण हैं। वे सम्पूर्ण विश्वके आत्मा, विश्वस्वरूप और सबके प्रभु हैं। जिन्होंने बारह सूर्योको धारण कर रखा है, वे ही भगवान् भक्तोंका अभीष्ट सिद्ध करनेके लिये महात्मा नृसिंहके रूपमें प्रकट हुए थे।

देवि! जब हिरण्यकशिपु नामक दैत्यका वध करके देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् नृसिंह सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उनकी गोदमें बैठे हुए ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ प्रह्लादजीने उनसे इस प्रकार प्रश्न किया- ‘सर्वव्यापी भगवान् नारायण ! नृसिंहका अद्भुत रूप धारण करनेवालेआपको नमस्कार है। सुरश्रेष्ठ! मैं आपका भक्त हैं अतः यथार्थ बात जाननेके लिये आपसे पूछता हूँ। स्वामिन्! आपके प्रति मेरी अभेद-भक्ति अनेक प्रकारसे स्थिर हुई है। प्रभो! मैं आपको इतना प्रिय कैसे हुआ ? इसका कारण बताइये।’ भगवान् नृसिंह बोले- वत्स! तुम पूर्वजन्ममें किसी ब्राह्मणके पुत्र थे। फिर भी तुमने वेदोंका अध्ययन नहीं किया। उस समय तुम्हारा नाम वसुदेव था। उस जन्ममें तुमसे कुछ भी पुण्य नहीं बन पड़ा। केवल मेरे व्रतके प्रभावसे मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति हुई। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने सृष्टि रचनाके लिये इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया था। मेरे व्रतके प्रभावसे ही उन्होंने चराचर जगत्की रचना की है। और भी बहुत-से देवताओं, प्राचीन ऋषियों तथा परम बुद्धिमान् राजाओंने मेरे उत्तम व्रतका पालन किया है और उसके प्रभावसे उन्हें सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं। स्त्री या पुरुष, जो कोई भी इस उत्तम व्रतका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें मैं सौख्य, भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता हूँ।

प्रह्लादने पूछा- देव! अब मैं इस व्रतकी उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ। प्रभो! किस महीनेमें और किस दिनको यह व्रत आता है? यह विस्तारके साथ बतानेकी कृपा कीजिये

भगवान् नृसिंह बोले- बेटा ! प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। एकाग्रचित्त होकर इस व्रतको श्रवण करो। यह व्रत मेरे प्रादुर्भावसे सम्बन्ध रखता है, अतः वैशाखके शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथिको इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे मुझे बड़ा सन्तोष होता है। पुत्र भक्तोंको सुख देनेके लिये जिस प्रकार मेरा आविर्भाव हुआ, वह प्रसंग सुनो। पश्चिम दिशामें एक विशेष कारणसे मैं प्रकट हुआ था। वह स्थान अब मूलस्थान (मुलतान) क्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध है, जो परम पवित्र और समस्त पापका नाशक है। उस क्षेत्रमें हारीत नामक एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् और ज्ञान-ध्यानमेंअत्पर रहनेवाले थे। उनकी स्त्रीका नाम लीलावती था। वह भी परम पुण्यमयी, सतीरूपा तथा स्वामीके अधीन रहनेवाली थी। उन दोनोंने बहुत समयतक बड़ी भारी तपस्या की। तपस्यामें ही उनके इक्कीस । बीत गये। तब उस क्षेत्रमें प्रकट होकर मैंने उन दोनोंको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस समय उन्होंने मुझसे कहा- ‘भगवन्! यदि आप मुझे वर देना चाहते हैं तो इसी समय आपके समान पुत्र मुझे प्राप्त हो।’ बेटा प्रह्लाद! उनकी बात सुनकर मैंने उत्तर दिया- ‘ब्रह्मन् ! निस्सन्देह मैं आप दोनोंका पुत्र हूँ। किन्तु मैं सम्पूर्ण विश्वको सृष्टि करनेवाला साक्षात् परात्पर परमात्मा हूँ, सदा रहनेवाला सनातन पुरुष हूँ अतः गर्भमें नहीं निवास करूँगा।’ तब हारीतने कहा- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ तबसे मैं भक्तके कारण उस क्षेत्रमें निवास करता हूँ। मेरे श्रेष्ठ भक्तको चाहिये कि उस तीर्थमें आकर मेरा दर्शन करे। इससे उसकी सारी बाधाओंका मैं निरन्तर नाश करता रहता हूँ। जो हारीत और लीलावतीके साथ मेरे बालरूपका ध्यान करके रात्रिमें मेरा पूजन करता है, वह नरसे नारायण हो जाता है।

बेटा! मेरे व्रतका दिन आनेपर भक्त पुरुष सबेरे दन्तधावन करके इन्द्रियोंको काबू में रखते हुए मेरे सामने व्रतका संकल्प करे- ‘भगवन्! आज मैं आपका व्रत करूँगा । इसे निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण कराइये। ‘ व्रतमें स्थित होकर दुष्ट पुरुषोंसे वार्तालाप आदि नहीं करना चाहिये। फिर मध्याह्नकालमें नदी आदिके निर्मल जलमें, घरपर देवसम्बन्धी कुण्डगे अथवा किसी सुन्दर तालाबके भीतर वैदिक मन्त्रोंसे स्नान करे। मिट्टी, गोवर, आँवलेका फल और तिल लेकर उनसे सब पापोंकी शान्तिके लिये विधिपूर्वक स्नान करे। तत्पश्चात् दो सुन्दर वस्त्र धारण करके सन्ध्या तर्पण आदि नित्यकर्मका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके बाद घर लीपकर उसमें सुन्दर अष्टदल कमल बनाये। कमलके ऊपर पंचरत्नसहित ताँबेका कलश स्थापित करे। कलशके ऊपर चावलोंसे भरा हुआ पात्र रखे और पात्रमें अपनी शक्तिके अनुसार सोनेकी लक्ष्मीसहित मेरी प्रतिमा बनवाकर स्थापित करे।तत्पश्चात् उसे पंचामृत से स्नान कराये। इसके बाद शास्त्रके ज्ञाता और लोभहीन ब्राह्मणको बुलाकर आचार्य बनाये और उसे आगे रखकर भगवान्‌की अर्चना करे। पूजाके स्थानपर एक मण्डप बनवाकर उसे फूलके गुच्छोंसे सजा दे फिर वर्तमान तु सुलभ होनेवाले फूलोंसे और षोडशोपचारकी सामग्रियोंसे विधिपूर्वक मेरा पूजन करे। पूजामें नियमपूर्वक रहकर मुझसे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक मन्त्रोंका उपयोग करे। जो चन्दन, कपूर, रोली, सामयिक पुष्प तथा तुलसीदल मुझे अर्पण करता है, वह निश्चय ही मुक्त हो जाता है। समस्त कामनाओंकी सिद्धिके लिये जगद्गुरु श्रीहरिको सदा कृष्णागरुका बना हुआ धूप निवेदन करना चाहिये, क्योंकि वह उन्हें बहुत ही प्रिय है। एक महान् दीप जलाकर रखना चाहिये, जो अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश करनेवाला है। फिर घण्टेकी आवाजके साथ बड़े रूपमें आरती उतारनी चाहिये। तदनन्तर नैवेद्य निवेदन करे, जिसका मन्त्र
इस प्रकार है

नैवेद्यं शर्करां चापि भक्ष्यभोज्यसमन्वितम्।

ददामि ते रमाकान्त सर्वपापक्षयं कुरु ॥

(17062) लक्ष्मीकान्त मैं आपके लिये भक्ष्यभोज्यसहित नैवेद्य तथा शर्करा निवेदन करता हूँ। आप मेरे सब पापका नाश कीजिये।

तत्पश्चात् भगवान्से इस प्रकार प्रार्थना करे ‘नृसिंह! अच्युत देवेश्वर आपके शुभ जन्मदिनको मैं सब भोगोंका परित्याग करके उपवास करूंगा। स्वामिन्! आप इससे प्रसन्न हों तथा मेरे पाप और जन्मके `बन्धनको दूर करे।’ यों कहकर व्रतका पालन करे। रातमें गीत और वाद्योंकी ध्वनिके साथ जागरण करना चाहिये। भगवान् नृसिंहकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाले पौराणिक प्रसंगका पाठ भी करना उचित है। फिर प्रातः काल होनेपर स्नानके अनन्तर पूर्वोक्त विधिसे यत्नपूर्वक मेरी पूजा करे। उसके बाद स्वस्थचित्त होकर मेरे आगे वैष्णव श्राद्ध करे। तदनन्तर इस लोक और परलोक दोनोंपर विजय पानेकी इच्छासे सुपात्र ब्राह्मणोंको नीचे लिखी वस्तुओंका दान करना चाहिये। गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, ओढ़ने-बिछौने आदिके सहित चारपाई, सप्तधान्य तथा अन्यान्य वस्तुएँ भी अपनी शक्तिके अनुसार दान करनी चाहिये। शास्त्रोक्त फल पानेकी इच्छा हो तो धनकी कृपणता नहीं करनी चाहिये। अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन कराये और उन्हें उत्तम दक्षिणा दे। धनहीन व्यक्तियोंको भी चाहिये कि के इस व्रतका अनुष्ठान करें और शक्तिके अनुसार दान दें। मेरे व्रतमें सभी वर्णके मनुष्योंका अधिकार है। मेरी शरण में आये हुए भक्तोंको विशेषरूपसे इसका अनुष्ठान करना चाहिये।

श्रीमहादेवजी बोले- हे पार्वती! इसके बाद व्रत करनेवाले पुरुषको इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये। विशाल रूप धारण करनेवाले भगवान् नृसिंह ! करोड़ों कालोंके लिये भी आपको परास्त करना कठिन है। बालरूपधारी प्रभो! आपको नमस्कार है। बाल अवस्था तथा बालकरूप धारण करनेवाले श्रीनृसिंह भगवान्‌को नमस्कार है। जो सर्वत्र व्यापक, सबको आनन्दित करनेवाले, स्वतः प्रकट होनेवाले, सर्वजीव स्वरूप, विश्वके स्वामी, देवस्वरूप और सूर्यमण्डलमें स्थित रहनेवाले हैं, उन भगवान्‌को प्रणाम है। दयासिन्धो आपको नमस्कार है। आप तेईस तत्त्वोंके साक्षी चौबीसवें तत्त्वरूप हैं। काल, रुद्र और अग्नि आपके ही स्वरूप हैं। यह जगत् भी आपसे भिन्न नहीं है। नर और सिंहका रूप धारण करनेवाले आप भगवान्को नमस्कार है।

देवेश मेरे वंशमें जो मनुष्य उत्पन्न हो चुके हैं और जो उत्पन्न होनेवाले हैं, उन सबका दुःखदायी भवसागरसे उद्धार कीजिये। जगत्पते। मैं पातकके समुद्रमें दवा है। नाना प्रकारकी व्याधियाँ ही इस समुद्रकी जल-राशि हैं। इसमें रहनेवाले जीव मेरा तिरस्कार करते हैं। इस कारण मैं महान् दुःखमें पड़ गया हूँ। शेषशायी देवेश्वर मुझे अपने हाथोंका सहारादीजिये और इस व्रतसे प्रसन्न हो मुझे भोग और मोक्ष प्रदान कीजिये।

इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक देवताका विसर्जन करे। उपहार आदिकी सभी वस्तुएँ आचार्यको निवेदन करे। ब्राह्मणोंको दक्षिणासे सन्तुष्ट करके विदा करे। फिर भगवान्का चिन्तन करते हुए भाई बन्धुओंके साथ भोजन करे। जिसके पास कुछ भी नहीं है, ऐसा दरिद्र मनुष्य भी यदि नियमपूर्वक नृसिंहचतुर्दशीको उपवास करता है तो वह निःसन्देह सात जन्मके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो भक्तिपूर्वक इस पापनाशक व्रतका श्रवण करता है, उसकी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। जो मानव इस परम पवित्र एवं गोपनीय व्रतका कीर्तन करता है, वह सम्पूर्ण मनोरथोंके साथ ही इस व्रतके फलको भी पा लेता है। जो मध्याह्नकालमें यथाशक्ति इस व्रतका अनुष्ठान करता और लीलावती देवीके साथ हारीत मुनि एवं भगवान् नृसिंहका पूजन करता है, उसे सनातन मोक्षकी प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं, वह श्रीनृसिंहके प्रसादसे सदा मनोवांछित वस्तुओंको प्राप्त करता रहता है।

उस तीर्थमें परम पुण्यमयी सिन्धु नदी बहुत ही रमणीय है। उसके समीप मूलस्थान नामक नगर आज भी वर्तमान है। उस नगरका निर्माण देवताओंने किया था। वहीं महात्मा हारीतका निवासस्थान है और उसीमें लीलावती देवी भी रहती हैं। सिन्धु नदीके निकट होनेसे यहाँ निरन्तर जलके प्रबल वेगकी प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है कलियुग आनेपर वहाँ बहुत से पापाचारी म्लेच्छ निवास करने लगते हैं। पार्वती भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भाव कालमें जैसा अद्भुत शब्द हुआ था, उसीके समान प्रतिध्वनि वहाँ आज भी सुनायी देती है। ब्रहत्यारा सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी और गुरुपत्नी के साथ समागम करनेवाला ही क्यों न हो, जो मनुष्य सिन्धु नदीके तटपर जाकर विशेषरूपसे स्नान करता है, वह निश्चय ही श्रीनृसिंहके प्रसादसे मुक्त हो जाता है। जोमानव वहाँ दस रात निवास करते हैं, उन्हें पुण्यात्मा जानना चाहिये। जो वहाँ मांस खाते और शराब पीते हैं, वे अधर्मके मूर्तिमान् स्वरूप और महापापी हैं। भगवान्नृसिंहके नामसे प्रसिद्ध एक ही तीर्थ है, जो बहुत ही उत्तम और विस्तृत है। उसका श्रवण करनेमात्रसे मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है।

अध्याय 209 श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य

श्रीपार्वतीने कहा- भगवन्! आप सब तत्त्वोंके ज्ञाता हैं। आपकी कृपासे मुझे श्रीविष्णु-सम्बन्धी नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले, जो समस्त लोकका उद्धार करनेवाले हैं। देवेश ! अब मैं गीताका माहात्म्य सुनना चाहती हूँ। जिसका श्रवण करनेसे श्रीहरिमें भक्ति बढ़ती है।

श्रीमहादेवजी बोले- जिनका श्रीविग्रह अलसीके फूलकी भाँति श्यामवर्णका है, पक्षिराज गरुड़ ही जिनके वाहन हैं, जो अपनी महिमासे कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनागकी शय्यापर शयन करते हैं, उन भगवान् महाविष्णुकी हम उपासना करते हैं। एक समयकी बात है, मुर दैत्यके नाशक भगवान् विष्ण शेषनागके रमणीय आसनपर सुखपूर्वक विराजमानथे। उस समय समस्त लोकोंको आनन्द देनेवाली भगवती लक्ष्मीने आदरपूर्वक प्रश्न किया।

श्रीलक्ष्मीने पूछा भगवन्। आप सम्पूर्ण जगत्का पालन करते हुए भी अपने ऐश्वर्यके प्रति उदासीनसे होकर जो इस क्षीरसागरमें नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?

श्रीभगवान् बोले- सुमुखि! मैं नींद नहीं लेता हूँ, अपितु तत्त्वका अनुसरण करनेवाली अन्तर्दृष्टिके द्वारा अपने ही माहेश्वर तेजका साक्षात्कार कर रहा हूँ। देवि! यह वही तेज है, जिसका योगी पुरुष कुशाग्र बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें दर्शन करते हैं तथा जिसे मीमांसक विद्वान् वेदोंका सार तत्त्व निश्चित करते हैं। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोकसे रहित, अखण्ड आनन्दका पुंज, निष्यन्द (निरीह) तथा द्वैतरहित है इस जगत्का जीवन उसीके अधीन है। मैं उसीका अनुभव करता हूँ देवेश्वरि यही कारण है कि मैं तुम्हें नींद लेता सा प्रतीत हो रहा हूँ।

श्रीलक्ष्मीने कहा- हृषीकेश आप ही योगी पुरुषोंके ध्येय हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करनेयोग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। इस चराचर जगत्‌की सृष्टि और संहार करनेवाले स्वयं आप ही हैं। आप सर्वसमर्थ हैं। इस प्रकारकी स्थितिमें होकर भी यदि आप उस परम तत्त्वसे भिन्न हैं, तो मुझे उसका बोध कराइये।

श्रीभगवान् बोले- प्रिये। आत्माका स्वरूप द्वैत और अद्वैतसे पृथक्, भाव और अभावसे मुक्त तथा आदि और अन्तसे रहित है शुद्ध ज्ञानके प्रकाशसे उपलब्ध होनेवाला तथा परमानन्दस्वरूप होनेके कारण एकमात्र सुन्दर है। यही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्माकाएकत्व ही सबके द्वारा जाननेयोग्य है। गीताशास्त्रमें इसीका प्रतिपादन हुआ है।

अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर लक्ष्मीदेवीने शंका उपस्थित करते हुए कहा- भगवन् ! यदि आपका स्वरूप स्वयं परमानन्दमय और मन वाणीकी पहुँचके बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध कराती है? मेरे इस सन्देहका आप निवारण कीजिये।’

श्रीभगवान् बोले- सुन्दरि ! सुनो, मैं गीतामें अपनी स्थितिका वर्णन करता हूँ। क्रमशः पाँच अध्यायोंको तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायोंको दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्यायको उदर और दो अध्यायोंको दोनों चरणकमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायोंकी वाङ्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिये। यह ज्ञानमात्रसे ही महान् पातकोंका नाश करनेवाली है। जो उत्तम बुद्धिवाला पुरुष गीताके एक या आधे अध्यायका अथवा एक, आधे या चौथाई श्लोकका भी प्रतिदिन अभ्यास करता है, वह सुशर्माक समान मुक्त हो जाता है।

श्रीलक्ष्मीजीने पूछा- देव! सुशर्मा कौन था ? किस जातिका था? और किस कारणसे उसकी मुक्ति हुई ?

श्रीभगवान् बोले- प्रिये! सुशर्मा बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था पापियोंका तो वह शिरोमणि ही था। उसका जन्म वैदिक ज्ञानसे शून्य एवं क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले ब्राह्मणोंके कुलमें हुआ था। वह न ध्यान करता था न जप न होम करता था न अतिथियोंका सत्कार। वह लम्पट होनेके कारण सदा विषयोंके सेवनमें ही आसक्त रहता था। हल जोतता और पत्ते बेंचकर जीविका चलाता था। उसे मदिरा पीनेका व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस प्रकार उसने अपने जीवनका दीर्घकाल व्यतीत कर दिया। एक दिन मूढबुद्धि सुशर्मा पत्ते लानेके लिये किसी ऋषिकीवाटिकामें घूम रहा था। इसी बीचमें कालरूपधारी काले साँपने उसे डँस लिया। सुशर्माकी मृत्यु हो गयी। तदनन्तर वह अनेक नरकोंमें जा वहाँकी यातनाएँ भोगकर मर्त्यलोकमें लौट आया और यहाँ बोझ ढोनेवाला बैल हुआ। उस समय किसी पंगुने अपने जीवनको आरामसे व्यतीत करनेके लिये उसे खरीद लिया। बैलने अपनी पीठपर पंगुका भार ढोते हुए बड़े कष्टसे सात आठ वर्ष बिताये। एक दिन पंगुने किसी ऊँचे स्थानपर बहुत देरतक बड़ी तेजीके साथ उस बैलको घुमाया। इससे वह थककर बड़े वेगसे पृथ्वीपर गिरा और मूर्च्छित हो गया। उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृष्ट हो बहुत से लोग एकत्रित हो गये। उस जनसमुदायमेंसे किसी पुण्यात्मा व्यक्तिने उस बैलका कल्याण करनेके लिये उसे अपना पुण्य दान किया। तत्पश्चात् कुछ दूसरे लोगोंने भी अपने-अपने पुण्योंको याद करके उन्हें उसके लिये दान किया। उस भीड़में एक वेश्या भी खड़ी थी। उसे अपने पुण्यका पता नहीं था, तो भी उसने लोगोंकी देखा-देखी उस बैलके लिये कुछ त्याग किया।

तदनन्तर यमराजके दूत उस मरे हुए प्राणीको पहले यमपुरी ले गये। वहाँ यह विचारकर कि यह वेश्याके दिये हुए पुण्यसे पुण्यवान् हो गया है, उसे छोड़ दिया गया। फिर वह भूलोकमें आकर उत्तम कुल और शीलवाले ब्राह्मणोंके घरमें उत्पन्न हुआ। उस समय भी उसे अपने पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण बना रहा। बहुत दिनोंके बाद अपने अज्ञानको दूर करनेवाले कल्याण- तत्त्वका जिज्ञासु होकर वह उस वेश्याके पास गया और उसके दानकी बात बतलाते हुए उसने पूछा- ‘तुमने कौन-सा पुण्य दान किया था?’ वेश्याने उत्तर दिया- ‘वह पिंजरेमें बैठा हुआ तोता प्रतिदिन कुछ पढ़ता है। उससे मेरा अन्तःकरण पवित्र हो गया है। उसीका पुण्य मैंने तुम्हारे लिये दान किया था।’ इसके बाद उन दोनोंनेतोतेसे पूछा। तब उस तोतेने अपने पूर्वजन्मका स्मरण करके प्राचीन इतिहास कहना आरम्भ किया।

शुक बोला- पूर्वजन्ममें मैं विद्वान् होकर भी विद्वत्ताके अभिमानसे मोहित रहता था। मेरा राग-द्वेष इतना बढ़ गया था कि मैं गुणवान् विद्वानोंके प्रति भी ईर्ष्या-भाव रखने लगा। फिर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृणित लोकोंमें भटकता फिरा । उसके बाद इस लोकमें आया। सद्गुरुकी अत्यन्त निन्दा करनेके कारण तोतेके कुलमें मेरा जन्म हुआ। पापी होनेके कारण छोटी अवस्थामें ही मेरा माता पितासे वियोग हो गया। एक दिन मैं ग्रीष्मऋतुमें तपे हुए मार्गपर पड़ा था। वहाँसे कुछ श्रेष्ठ मुनि मुझे उठा लाये और महात्माओंके आश्रयमें आश्रमके भीतर एक पिंजरेमें उन्होंने मुझे डाल दिया। वहीं मुझे पढ़ाया गया। ऋषियोंके बालक बड़े आदरके साथ गीताके प्रथम अध्यायकी आवृत्ति करते थे। उन्हींसे सुनकर मैं भी बारम्बार पाठ करने लगा। इसी बीचमें एक चोरी करनेवाले बहेलियेने मुझे वहाँसे चुरा लिया। तत्पश्चात् इस देवीने मुझे खरीद लिया। यही मेरा वृत्तान्त है, जिसे मैंने आपलोगोंसे बता दिया। पूर्वकालमें मैंने इस प्रथम अध्यायका अभ्यास किया था, जिससे मैंने अपने पापको दूर किया है। फिर उसीसे इस वेश्याका भी अन्तःकरण शुद्ध हुआ है और उसीके पुण्यसे ये द्विजश्रेष्ठ सुशर्मा भी पापमुक्त हुए हैं।इस प्रकार परस्पर वार्तालाप और गीताके प्रथम अध्यायके माहात्म्यकी प्रशंसा करके वे तीनों निरन्तर अपने-अपने घरपर गीताका अभ्यास करने लगे। फिर ज्ञान प्राप्त करके वे मुक्त हो गये। इसलिये जो गीताके प्रथम अध्यायको पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस भवसागरको पार करनेमें कोई कठिनाई नहीं होती।

अध्याय 210 श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य

श्रीभगवान् कहते हैं- लक्ष्मी प्रथम अध्यायके माहात्म्यका उत्तम उपाख्यान मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अन्य अध्यायोंके माहात्म्य श्रवण करो। दक्षिण दिशामें वेदवेता ब्राह्मणोंके पुरन्दरपुर नामक नगरमें श्रीमान् देवशर्मा नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। वे अतिथियोंके पूजक, स्वाध्यायशील, वेद-शास्त्रोंके विशेषज्ञ, वहाँका अनुष्ठान करनेवाले और तपस्वियोंके सदा ही प्रिय थे। उन्होंने उत्तम द्रव्योंके द्वारा अग्निमें हवन करके दीर्घकालतक देवताओंको तृप्त किया, किन्तुउन धर्मात्मा ब्राह्मणको कभी सदा रहनेवाली शान्ति न मिली। वे परम कल्याणमय तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रतिदिन प्रचुर सामग्रियोंके द्वारा सत्य- संकल्पवाले तपस्वियोंकी सेवा करने लगे। इस प्रकार शुभ आचरण करते हुए उन्हें बहुत समय बीत गया। तदनन्तर एक दिन पृथ्वीपर उनके समक्ष एक त्यागी महात्मा प्रकट हुए। वे पूर्ण अनुभवी, आकांक्षारहित, नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखनेवाले तथा शान्तचित्त थे। निरन्तर परमात्माके चिन्तनमें संलग्न हो वे सदाआनन्दविभोर रहते थे। देवशर्माने उन नित्यसन्तुष्ट तपस्वीको शुद्धभावसे प्रणाम किया और पूछा ‘महात्मन्! मुझे शान्तिमयी स्थिति कैसे प्राप्त होगी ?” तब उन आत्मज्ञानी संतने देवशर्माको सौपुर ग्रामके निवासी मित्रवानूका, जो बकरियोंका चरवाहा था, परिचय दिया और कहा ‘वही तुम्हें उपदेश देगा।’

यह सुनकर देवशर्माने महात्माके चरणोंकी वन्दना की और समृद्धिशाली सौपुर ग्राममें पहुँचकर उसके उत्तरभागमें एक विशाल वन देखा। उसी वनमें नदीके किनारे एक शिलापर मित्रवान् बैठा था। उसके नेत्र आनन्दातिरेकसे निश्चल हो रहे थे वह अपलक दृष्टिसे देख रहा था। वह स्थान आपसका स्वाभाविक वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओंसे घिरा था। वहाँ उद्यानमें मन्द मन्द वायु चल रही थी। मुके झुंड शन्तभावसे बैठे थे और मित्रवान् दया भरी हुई आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टिसे पृथ्वीपर मानो अमृत छिड़क रहा था। इस रूपमें उसे देखकर देवशर्माका मन प्रसन्न हो गया। वे उत्सुक होकर बड़ी विनयके साथ मित्रवान् के पास गये। मित्रवान्ने भी अपने मस्तकको किंचित् नवाकर देवशर्माका सत्कार किया। तदनन्तर विद्वान् देवशर्मा अनन्य चित्तसे मित्रवान् के समीप गये और जब उसके ध्यानका समय समाप्त हो गया, उस समय उन्होंने अपने मनकी बात पूछी ‘महाभाग! मैं आत्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। मेरे इस मनोरथकी पूर्तिके लिये मुझे किसी ऐसे उपायका उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो।’

देवशर्माकी बात सुनकर मित्रवान्ने एक क्षणतक कुछ विचार किया। उसके बाद इस प्रकार कहा ‘विद्वन्! एक समयकी बात है, मैं वनके भीतर बकरियोंकी रक्षा कर रहा था। इतनेमें ही एक भयंकर व्याघ्रपर मेरी दृष्टि पड़ी, जो मानो सबको ग्रस लेना चाहता था। मैं मृत्युसे डरता था, इसलिये व्याघ्रको आते देख बकरियों के झुंडको आगे करके वहाँसे भाग चला किन्तु एक बकरी तुरंत ही सारा भय छोड़कर नदीके किनारे उस व्याघ्रके पास बेरोक-टोक चली गयी। फिरतो व्याघ्र भी द्वेष छोड़कर चुपचाप खड़ा हो गया। उसे इस अवस्थामें देखकर बकरी बोली- ‘व्याघ्र ! तुम्हें तो अभीष्ट भोजन प्राप्त हुआ है। मेरे शरीरसे मांस निकालकर प्रेमपूर्वक खाओ न। तुम इतनी देरसे खड़े क्यों हो? तुम्हारे मनमें मुझे खानेका विचार क्यों नहीं हो रहा है?”

व्याघ्र बोला- बकरी! इस स्थानपर आते ही मेरे मनसे द्वेषका भाव निकल गया। भूख-प्यास भी मिट गयी। इसलिये पास आनेपर भी अब मैं तुझे खाना नहीं चाहता।

व्याघ्रके यों कहनेपर बकरी बोली-‘न जाने में कैसे निर्भय हो गयी हूँ। इसमें क्या कारण हो सकता है? यदि तुम जानते हो तो बताओ।’ यह सुनकर व्याघ्रने कहा—’मैं भी नहीं जानता। चलो, सामने खड़े हुए इन महापुरुषसे पूछें। ऐसा निश्चय करके वे दोनों वहाँ चल दिये। उन दोनोंके स्वभावमें यह विचित्र परिवर्तन देखकर मैं बहुत विस्मयमें पड़ा था। इतनेमें ही उन्होंने मुझसे आकर प्रश्न किया। वहाँ वृक्षकी शाखापर एक वानरराज था। उन दोनोंके साथ मैंने भी वानरराजसे पूछा। विप्रवर मेरे पूछनेपर वानरराजने आदरपूर्वक कहा- ‘अजापाल ! सुनो, इस विषयमें मैं तुम्हें प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ यह सामने वनके भीतर जो बहुत बड़ा मन्दिर है, उसकी ओर देखो इसमें ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ एक शिवलिंग है। पूर्वकालमें यहाँ सुकर्मा नामक एक बुद्धिमान् महात्मा रहते थे, जो तपस्यामें संलग्न होकर इस मन्दिरमें उपासना करते थे। वे वनमेंसे फूलोंका संग्रह कर लाते और नदीके जलसे पूजनीय भगवान् शंकरको स्नान कराकर उन्होंसे उनकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार आराधनाका कार्य करते हुए सुकर्मा यहाँ निवास करते थे। बहुत समयके बाद उनके समीप किसी अतिथिका आगमन हुआ। सुकर्मानि भोजनके लिये फल लाकर अतिथिको अर्पण किया और कहा- ‘विद्वन्! मैं केवल तत्त्वज्ञानकी इच्छासे भगवान् शंकरकी आराधना करता हूँ। आज इस आराधनाका फल परिपक्व होकर मुझे मिल गया; क्योंकि इस समय आप जैसे महापुरुषने मुझपर अनुग्रह किया है।’सुकर्माके ये मधुर वचन सुनकर तपस्याके धनी महात्मा अतिथिको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने एक शिलाखण्डपर गीताका दूसरा अध्याय लिख दिया और ब्राह्मणको उसके पाठ एवं अभ्यासके लिये आज्ञा देते। हुए कहा- ‘ब्रह्मन् ! इससे तुम्हारा आत्मज्ञान-सम्बन्धी मनोरथ अपने-आप सफल हो जायगा।’ यो कहकर वे बुद्धिमान् तपस्वी सुकर्माके सामने ही उनके देखते देखते अन्तर्धान हो गये। सुकर्मा विस्मित होकर उनके आदेशके अनुसार निरन्तर गीताके द्वितीय अध्यायका अभ्यास करने लगे। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात्अन्तःकरण शुद्ध होकर उन्हें आत्मज्ञानकी प्राप्ति हुई । फिर वे जहाँ-जहाँ गये, वहाँ-वहाँका तपोवन शान्त हो गया। उनमें शीत-उष्ण और राग-द्वेष आदिकी बाधाएँ दूर हो गयीं। इतना ही नहीं, उन स्थानोंमें भूख-प्यासका कष्ट भी जाता रहा तथा भयका सर्वथा अभाव हो गया। यह सब द्वितीय अध्यायका जप करनेवाले सुकर्मा ब्राह्मणकी तपस्याका ही प्रभाव समझो।

मित्रवान् कहता है—वानरराजके यों कहनेपर मैं प्रसन्नतापूर्वक बकरी और व्याघ्रके साथ उस मन्दिरकी ओर गया। वहाँ जाकर शिलाखण्डपर लिखे हुए गीताके द्वितीय अध्यायको मैंने देखा और पढ़ा। उसीकी आवृत्ति करनेसे मैंने तपस्याका पार पा लिया है, अतः भद्रपुरुष ! तुम भी सदा द्वितीय अध्यायकी ही आवृत्ति किया करो। ऐसा करनेपर मुक्ति तुमसे दूर नहीं रहेगी।

श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये ! मित्रवान्‌के इस प्रकार आदेश देनेपर देवशर्माने उसका पूजन किया और उसे प्रणाम करके पुरन्दरपुरकी राह ली। वहाँ किसी देवालयमें पूर्वोक्त आत्मज्ञानी महात्माको पाकर उन्होंने यह सारा वृत्तान्त निवेदन किया और सबसे पहले उन्हींसे द्वितीय अध्यायको पढ़ा। उनसे उपदेश पाकर शुद्ध अन्तःकरणवाले देवशर्मा प्रतिदिन बड़ी श्रद्धाके साथ द्वितीय अध्यायका पाठ करने लगे। तबसे उन्होंने अनवद्य (प्रशंसाके योग्य) परमपदको प्राप्त कर लिया। लक्ष्मी ! यह द्वितीय अध्यायका उपाख्यान कहा गया। अब तृतीय अध्यायका माहात्म्य बतलाऊँगा ।

अध्याय 211 श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य

श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये ! जनस्थानमें एक जड नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक-वंशमें उत्पन्न हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनियेको वृत्तिमै मन लगाया। उसे परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार करनेका व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवोंकी हिंसा कियाकरता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था । धन नष्ट हो जानेपर वह व्यापारके लिये बहुत दूर उत्तर दिशामें चला गया। वहाँसे धन कमाकर घरकी ओर लौटा। बहुत दूरतकका रास्ता उसने तै कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जानेपर जब दसों दिशाओंमें अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्षके नीचे उसे लुटेरोंनेधर दबाया और शीघ्र हो उसके प्राण ले लिये। उसके धर्मका लोप हो गया था, इसलिये वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।

उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदोंका विद्वान् था। उसने अबतक पिताके लौट आनेकी राह देखी। जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगानेके लिये वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरोंसे पूछनेपर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदनन्तर एक दिन एक मनुष्यसे उसकी भेंट हुई, जो उसके पिताका सहायक था। उससे सारा हाल जानकर उसने पिताको मृत्युपर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान् था। बहुत कुछ सोच-विचार कर पिताका पारलौकिक कर्म करनेकी इच्छासे आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जानेका विचार किया। मार्गमें सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्षके नीचे पहुँचा, जहाँ उसके पिता मारे गये थे। उस स्थानपर उसने सन्ध्योपासना की और गीताके तीसरे अध्यायका पाठ किया। इसी समय आकाशमें बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिताको भयंकर आकारमें देखा; फिर तुरंत ही अपने सामने आकाशमें उसे एक सुन्दर विमान दिखायी दिया, जो महान् तेजसे व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घण्टिकाएँ लगी थीं। उसके तेजसे समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थीं। यह दृश्य देखकर उसके चित्तको व्यग्रता दूर हो गयी। उसने विमानपर अपने पिताको दिव्यरूप धारण किये विराजमान देखा। उनके शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्रने प्रणाम किया। तब पिताने भी उसे आशीर्वाद दिया।

तत्पश्चात् पितासे यह सारा वृत्तान्त पूछा। उसके उत्तरमें पिताने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया-‘बेटा! दैववश मेरे निकट गीताके तृतीय अध्यायका पाठ करके तुमने इस शरीरके द्वारा किये हुए दुस्त्यज कर्म-बन्धनसे मुझे छुड़ा दिया। अतः अब घर लौट जाओ; क्योंकि जिसके लिये तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्यायकेपाठसे ही सिद्ध हो गया है।’ पिताके यों कहनेपर पुत्रने पूछा- ‘तात! मेरे हितका उपदेश दीजिये तथा और कोई कार्य जो मेरे लिये करनेयोग्य हो बतलाइये।’ तब पिताने उससे कहा- ‘अनघ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाईने भी किया था। इससे वे घोर नरकमें पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिये तथा मेरे कुलके और भी जितने लोग नरकमें पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिये; यही मेरा मनोरथ है। बेटा! जिस साधनके द्वारा तुमने मुझे संकटसे छुड़ाया है। उसीका अनुष्ठान औरोंके लिये भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होनेवाला पुण्य उन नारकी जीवोंको संकल्प करके दे दो। इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातनासे मुक्त हो स्वल्पकालमें ही श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त हो जायँगे।’

पिताका यह सन्देश सुनकर पुत्रने कहा- ‘तात ! यदि ऐसी बात है और आपको भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवोंका नरकसे उद्धार कर दूँगा । यह सुनकर उसके पिता बोले-‘बेटा! एवमस्तु, तुम्हाराकल्याण हो; मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया!’ इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर उसके पिता भगवान् विष्णुके परमधामको चले गये। तत्पश्चात् वह भी लौटकर जनस्थानमें आया और परम सुन्दर भगवान् श्रीकृष्णके मन्दिरमें उनके समक्ष बैठकर पिताके आदेशानुसार गीताके तीसरे अध्यायका पाठ करने लगा। उसने नारकी जीवोंका उद्धार करनेकी इच्छासे गीतापाठजनित सारा पुण्य संकल्प करके दे दिया।

इसी बीचमें भगवान् विष्णुके दूत यातना भोगने वाले नारकी जीवोंको छुड़ानेके लिये यमराजके पास गये। यमराजने नाना प्रकारके सत्कारोंसे उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले-‘धर्मराज! हमलोगोंके लिये सब ओर आनन्द ही आनन्द है।’ इस प्रकार सत्कार करके पितृलोकके सम्राट् परम बुद्धिमान् यमने विष्णुदूतोंसे यमलोकमें आनेका कारण पूछा।।

तब विष्णुदूतोंने कहा – यमराज! शेषशय्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णुने हमलोगोंको आपके पास कुछ सन्देश देनेके लिये भेजा है। भगवान् हमलोगोंके मुखसे आपकी कुशल पूछते हैं और यहआज्ञा देते हैं कि ‘आप नरकमें पड़े हुए समस्त प्राणियोंको छोड़ दें।’

अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुका यह आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन ही मन कुछ सोचा। तत्पश्चात् मदोन्मत्त नारकी जीवोंको नरकसे मुक्त देखकर उनके साथ वे भगवान् विष्णुके वास-स्थानको चले। यमराज श्रेष्ठ विमानके द्वारा जहाँ क्षीरसागर है, वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्योके समान कान्तिमान् नील कमल दलके समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगद्गुरु श्रीहरिका उन्होंने दर्शन किया। भगवान्‌का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनागके फनकी मणियोंके प्रकाशसे दुगुना हो रहा था। वे आनन्दयुक्त दिखायी दे रहे थे। उनका हृदय प्रसन्नतासे परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवनसे प्रेमपूर्वक उन्हें बारम्बार निहार रही थीं। चारों ओर योगीजन भगवान्की सेवामें खड़े थे। उन योगियोंकी आँखोंके तारे ध्यानस्थ होनेके कारण निश्चल प्रतीत होते थे। देवराज इन्द्र अपने विरोधियोंको परास्त करनेके उद्देश्यसे भगवान्‌की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए वेदान्तवाक्य मूर्तिमान् होकर भगवान्‌के गुणोंका गान कर रहे थे। भगवान् पूर्णतः सन्तुष्ट होनेके साथ ही समस्त योनियोंकी ओरसे उदासीन प्रतीत होते थे। जीवोंमेंसे जिन्होंने योग-साधनके द्वारा अधिक पुण्य संचय किया था, उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टिसे निहार रहे थे। भगवान् अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत्को आनन्दपूर्ण दृष्टिसे आमोदित कर रहे थे। शेषनागकी प्रभासे उद्भासित एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमलके सदृश श्यामवर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनीसे घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान्‌की झाँकी करके यमराज अपनी विशाल बुद्धिके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

यमराज बोले- सम्पूर्ण जगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वर! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। आपके मुखसे ही वेदोंका प्रादुर्भाव हुआ है। आपही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको नमस्कार है। अपने बल और वेगके कारण जो अत्यन्त दुर्धर्य प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। पालनके समय सत्त्वमय शरीर धारण करनेवाले, विश्वके आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार है। समस्त देहधारियोंकी पातक-राशिको दूर करनेवाले परमात्माको प्रणाम है। जिनके ललाटवर्ती नेत्रके तनिक-सा खुलनेपर भी आग की लपटें निकलने लगती हैं, उन रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्वके गुरु, आत्मा और महेश्वर हैं; अतः समस्त वैष्णवजनोंको संकटसे मुक्त करके उनपर अनुग्रह करते हैं। आप मायासे विस्तारको प्राप्त हुए अखिल विश्वमें व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले गुणोंसे मोहित नहीं होते। माया तथा मायाजनित गुणोंके बीचमें स्थित होनेपर भी आपपर उनमेंसे किसीका प्रभाव नहींपड़ता। आपकी महिमाका अन्त नहीं है; क्योंकि आप असीम हैं। फिर आप वाणीके विषय कैसे हो सकते हैं। अतः मेरा मौन रहना ही उचित है।

इस प्रकार स्तुति करके यमराजने हाथ जोड़कर कहा—’जगद्गुरो ! आपके आदेशसे इन जीवोंकों गुणरहित होनेपर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये।’ उनके यों कहनेपर भगवान् मधुसूदन मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा मानो अमृत–रससे सींचते हुए बोले–’धर्मराज! तुम सबके प्रति समानभाव रखते हुए लोकोंका पापसे उद्धार कर रहे हो। तुमपर देहधारियोंका भार रखकर मैं निश्चिन्त हूँ । अतः तुम अपना काम करो और अपने लोकको लौट जाओ।’

यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। यमराज भी अपनी पुरीको लौट आये तथा वह ब्राह्मण अपनी जातिके और समस्त नारकी जीवोंका नरकसे उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमानद्वारा श्रीविष्णुधामको चला गया।

अध्याय 212 श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य

श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये। अब मैं चौथे अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। भागीरथीके तटपर वाराणसी (बनारस) नामकी एक पुरी है। वहाँ विश्वनाथजीके मन्दिरमें भरत नामके एक योगनिष्ठ महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्मचिन्तनमें तत्पर हो आदरपूर्वक गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ किया करते थे। उसके अभ्याससे उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते थे। एक समयकी बात है, वे तपोधन नगरकी सीमायें स्थित देवताओंका दर्शन करनेकी इच्छासे भ्रमण करते हुए नगरसे बाहर निकल गये। वहाँ बेरके दो वृक्ष थे। उन्हींकी जड़में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्षकी जड़में उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूलमें उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे तपस्वी चले गये, तब बेरके वे दोनों वृक्ष पाँच-ही-छदिनोंके भीतर सूख गये। उनमें पत्ते और डालियाँ भी नहीं रह गयीं। तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणोंके पवित्र गृहमें दो कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुए।

वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्षकी हो गयीं, तब एक दिन उन्होंने दूर देशोंसे घूमकर आते हुए भरतमुनिको देखा। उन्हें देखते ही वे दोनों चरणोंमें उनके चरणों में पड़ गयीं और मीठी वाणीमें बोली-‘मुने! आपकी ही कृपासे हम दोनोंका उद्धार हुआ है। हमने बेरकी योनि त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है।’ उनके इस प्रकार कहनेपर मुनिको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछा- ‘पुत्रियो! मैंने कब और किस साधनसे तुम्हें मुक्त किया था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेरके वृक्ष होनेमें क्या कारण था ? क्योंकि इस विषयमें मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है।’

तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जानेकाकारण बतलाती हुई बोलीं- “मुने! गोदावरी नदीके तटपर छिन्नपाप नामका एक उत्तम तीर्थ है, जो मनुष्योंकी पुण्य प्रदान करनेवाला है। वह पावनताकी वाम सीमापर पहुंचा हुआ है। उस तीर्थ सत्यतपा नामक एक तपस्वी बड़ी कठोर तपस्या कर रहे थे। ये ग्रीष्मऋतु प्रज्वलित अग्नियोंके बीचमें बैठते थे, वर्णकालमें जलकी धाराओंसे उनके मस्तकके बाल सदा भींगे ही रहते थे तथा जाड़ेके समय जलमें निवास करनेके कारण उनके शरीरमें हमेशा रोंगटे खड़े रहते थे। वे बाहर-भीतरसे सदा शुद्ध रहते, समयपर तपस्या करते तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए शान्ति प्राप्त करके आत्मामें ही रमण करते थे। वे अपनी विद्वत्ताके द्वारा जैसा व्याख्यान करते थे, उसे सुननेके लिये साक्षात् ब्रह्माजी भी प्रतिदिन उनके पास उपस्थित होते और प्रश्न करते थे। ब्रह्माजीके साथ उनका संकोच नहीं रह गया था; अतः उनके आनेपर भी वे सदा तपस्यामें मग्न रहते थे। परमात्मा ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहनेके कारण उनकी तपस्या सदा बढ़ती रहती थी। सत्यतपाको जीवन्मुक्तके समान मानकर इन्द्रको अपने समृद्धिशाली पदके सम्बन्धमें कुछ भय हुआ तब उन्होंने उनकी तपस्यामें सैकड़ों विघ्न डालने आरम्भ किये। अप्सराओंके समुदायसे हम दोनोंको बुलाकर इन्द्रने इस प्रकार आदेश दिया “तुम दोनों उस तपस्वीकी तपस्यामें विघ्न डालो, जो मुझे इन्द्रपदसे हटाकर स्वयं स्वर्गका राज्य भोगना चाहता है।’

‘इन्द्रका यह आदेश पाकर हम दोनों उनके सामनेसे चलकर गोदावरीके तीरपर, जहाँ वे मुनि तपस्या करते थे, आयीं। वहाँ मन्द एवं गम्भीर स्वरसे बजते हुए मृदंग तथा मधुर वेणुनादके साथ हम दोनोंने अन्यअप्सराओं सहित मधुर स्वरमें गाना आरम्भ किया। इतना ही नहीं, उन योगी महात्माको वशमें करनेके लिये हमलोग स्वर, ताल और लयके साथ नृत्य भी करने लगीं। बीच-बीचमें जरा-जरा-सा अंचल खिसकनेपर उन्हें हमारी छाती भी दीख जाती थी। हम दोनोंकी उन्मत्त गति कामभावका उद्दीपन करनेवाली थी; किन्तु उसने उन निर्विकार चित्तवाले महात्माके मनमें क्रोधका संचार कर दिया। तब उन्होंने हाथसे जल छोड़कर हमें क्रोधपूर्वक शाप दिया- ‘अरी तुम दोनों गंगाजीके तटपर बेरके वृक्ष हो जाओ।’ यह सुनकर हमलोगोंने बड़ी विनयके साथ कहा- ‘महात्मन्! हम दोनों पराधीन थीं; अतः हमारे द्वारा जो दुष्कर्म बन गया है, उसे आप क्षमा करें।’ यों कहकर हमने मुनिको प्रसन्न कर लिया। तब उन पवित्र चित्तवाले मुनिने हमारे शापोद्धारकी अवधि निश्चित करते हुए कहा- ‘भरत मुनिके आनेतक ही तुमपर यह शाप लागू होगा। उसके बाद तुमलोगोंका मर्त्यलोकमें जन्म होगा और पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी।’

“मुने! जिस समय हम दोनों बेर-वृक्षके रूपमें खड़ी थीं, उस समय आपने हमारे समीप आकर गीताके चौथे अध्यायका जप करते हुए हमारा उद्धार किया था; अतः हम आपको प्रणाम करती हैं। आपने केवल शापसे ही नहीं, इस भयानक संसारसे भी गीताके चतुर्थ अध्यायके पाठद्वारा हमें मुक्त कर दिया।”

श्रीभगवान् कहते हैं— उन दोनोंके इस प्रकार कहनेपर मुनि बहुत ही प्रसन्न हुए और उनसे पूजित हो विदा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये तथा वे कन्याएँ भी बड़े आदरके साथ प्रतिदिन गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ करने लगीं, जिससे उनका उद्धार हो गया।

अध्याय 213 श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीभगवान् कहते हैं-देवि ! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेपसे बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्रदेशमें पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामका एक ब्राह्मण रहता था। वह वेदपाठी ब्राह्मणोंके विख्यात वंशमें, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था किन्तु अपने कुलके लिये उचित वेद-शास्त्रोंके स्वाध्यायको छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच-गानमें मन लगाया। गीत, नृत्य और बाजा बजानेको कलामें परिश्रम करके पिंगलने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और उसीसे उसका राजभवनमें भी प्रवेश हो गया। अब वह राजाके साथ रहने लगा और परायी स्त्रियोंको बुला बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियोंके सिवा और कहीं इसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जानेसे उच्छृंखल होकर वह एकान्तमें राजासे दूसरोंके दोष बतलाने लगा। पिंगलको एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा वह नीच कुलमें उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषोंके साथ विहार करनेको इच्छासे सदा उन्होंकी खोजमें घूमा करती थी। उसने पतिको अपने मार्गका कण्टक समझकर एक दिन आधी रातमें घरके भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाशको जमीनमें गाड़ दिया। इस प्रकार प्राणोंसे वियुक्त होनेपर वह यमलोकमें पहुँचा और भीषण नरकोंका उपभोग करके निर्जन वनमें गिद्ध हुआ।

अरुणा भी भगन्दर रोगसे अपने सुन्दर शरीरको त्याग कर घोर नरक भोगनेके पश्चात् उसी वनमें शुकी हुई। एक दिन वह दाना चुगनेकी इच्छासे इधर उधर फुदक रही थी, इतनेमें ही उस गिद्धने पूर्वजन्मके वरका स्मरण करके उसे अपने तीखे नखोंसे फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानीसे भरी हुई मनुष्यको खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतनेमें ही जाल फैलानेवाले बहेलियोंने उसे भी बाणोंका निशाना बनाया। उसकी पूर्वजन्मको पत्नी शुको उस खोपड़ीके जलमेंडूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसीमें गिरकर डूब गया। तब यमराजके दूत उन दोनोंको यमराजके लोकमें ले गये। वहाँ अपने पूर्वकृत पापकर्मको याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदनन्तर यमराजने जब उनके घृणित कर्मोंपर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्युके समय अकस्मात् खोपड़ीके जलमें स्नान करनेसे इन दोनोंका पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोकमें जानेकी आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पापको याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मयमें पड़े और पास जाकर धर्मराजके चरणों प्रणाम करके पूछने लगे- ‘भगवन्! हम दोनोंने पूर्वजन्ममें अत्यन्त घृणित पापका संचय किया है। फिर हमें मनोवांछित लोकोंमें भेजनेका क्या कारण है ? बताइये।’

यमराजने कहा- गंगाके किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकान्तसेवी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसीसे भी द्वेष न रखनेवाले थे।प्रतिदिन गीताके पाँचवें अध्यायका जप करना उनका सदाका नियम था पाँचवें अध्यायको श्रवण कर लेनेपर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्मका ज्ञान प्राप्त कर लेता है । उसी पुण्यके प्रभावसे शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीरका परित्याग किया था। गीताके पाठसे जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्हीं महात्माकी खोपड़ीका जल पाकर तुम दोनोंपवित्र हो गये हो। अतः अब तुम दोनों मनोवांछित लोकोंको जाओ; क्योंकि गीताके पाँचवें अध्यायके माहात्म्यसे तुम दोनों शुद्ध हो गये हो।

श्रीभगवान् कहते हैं— सबके प्रति समानभाव रखनेवाले धर्मराजके द्वारा इस प्रकार समझाये जानेपर ये दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमानपर बैठकर वैकुण्ठधामको चले गये ।

अध्याय 214 श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य

श्रीभगवान् कहते हैं—सुमुखि ! अब मैं छठे अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुननेवाले मनुष्योंके लिये मुक्ति करतलगत हो जाती है। गोदावरी नदीके तटपर प्रतिष्ठानपुर (पैठण) नामक एक विशाल नगर है, जहाँ मैं पिप्पलेशके नामसे विख्यात होकर रहता हूँ। उस नगरमें जानश्रुति नामक एक राजा रहते थे, जो भूमण्डलकी प्रजाको अत्यन्त प्रिय थे। उनका प्रताप मार्तण्ड मण्डलके प्रचण्ड तेजके समान जान पड़ता था। प्रतिदिन होनेवाले उनके यज्ञके धुएँसे नन्दनवनके कल्पवृक्ष इस प्रकार काले पड़ गये थे, मानो राजाकी असाधारण दानशीलता देखकर वे लज्जित हो गये हों। उनके यज्ञमें प्राप्त पुरोडाशके रसास्वादनमें सदा आसक्त होनेके कारण देवतालोग कभी प्रतिष्ठानपुरको छोड़कर बाहर नहीं जाते थे। उनके दानके समय छोड़े हुए जलको धारा, प्रतापरूपी तेज और यज्ञके धूमोंसे पुष्ट होकर मेघ ठीक समयपर वर्षा करते थे। उस राजाके शासनकालमें इंतियों (खेतीमें होनेवाले छः प्रकारके उपद्रवों) के लिये कहीं थोड़ा भी स्थान नहीं मिलता था और अच्छी नीतियोंका सर्वत्र प्रसार होता था। वे बावली, कुएँ और पोखरे खुदवानेके बहाने मानो प्रतिदिन पृथ्वीके भीतरकी निधियोंका अवलोकन करते थे। एक समय राजाके दान, तप, यज्ञ और प्रजापालनसे सन्तुष्ट होकर स्वर्गके देवता उन्हें कर देनेके लिये आये। वे कमलनालके समान उज्ज्वल हंसोंका रूप धारण कर अपनी पाँखें हिलाते हुए आकाशमार्गसे चलने लगे।बड़ी उतावलीके साथ उड़ते हुए वे सभी हंस परस्पर बातचीत भी करते जाते थे उनमें भद्राश्व आदि दो-तीन हंस वेगसे उड़कर आगे निकल गये तब पीछेवाले हंसोंने आगे जानेवालोंको संबोधित करके कहा- ‘अरे भाई भद्राश्व! तुमलोग वेगसे चलकर आगे क्यों हो गये ? यह मार्ग बड़ा दुर्गम है; इसमें हम सबको साथ मिलकर चलना चाहिये। क्या तुम्हें दिखायी नहीं देता, यह सामने ही पुण्यमूर्ति महाराज जानश्रुतिका तेज:पुंज अत्यन्त स्पष्टरूपसे प्रकाशमान हो रहा है [उस तेजसे भस्म होनेकी आशंका है, अतः सावधान होकर चलना चाहिये। ] ‘

पीछेवाले हंसोंके वचन सुनकर आगेवाले हंस हँस पड़े और उच्चस्वरसे उनकी बातोंकी अवहेलना करते हुए बोले- ‘अरे भाई क्या इस राजा जानता तेज ब्रह्मवादी महात्मा रैक्वके तेजसे भी अधिक तीव्र है?’ हंसोंकी ये बातें सुनकर राजा जानश्रुति अपने ऊँचे महलकी छतसे उतर गये और सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो अपने सारथिको बुलाकर बोले- ‘जाओ, महात्मा रैक्वको यहाँ ले आओ।’ राजाका यह अमृतके समान वचन सुनकर मह नामक सारथि प्रसन्नता प्रकट करता हुआ नगरसे बाहर निकला। सबसे पहले उसने मुक्तिदायिनी काशीपुरीकी यात्रा की, जहाँ जगत्के स्वामी भगवान् विश्वनाथ मनुष्योंको उपदेश दिया करते हैं। उसके बाद वह गयाक्षेत्रमें पहुँचा, जहाँ प्रफुल्ल नेत्रोंवाले भगवान् गदाधर सम्पूर्ण लोकोंका उद्धार करनेके लियेनिवास करते हैं। तदनन्तर नाना तीर्थोंमें भ्रमण करता हुआ सारथि पापनाशिनी मथुरापुरीमें गया; यह भगवान् श्रीकृष्णका आदि स्थान है, जो परम महान् एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वेद और शास्त्रोंमें वह तीर्थ त्रिभुवनपति भगवान् गोविन्दके अवतारस्थानके नामसे प्रसिद्ध है। नाना देवता और ब्रह्मर्षि उसका सेवन करते हैं। मथुरा नगर कालिन्दी (यमुना) के किनारे शोभा पाता है। उसकी आकृति अर्द्धचन्द्रके समान प्रतीत होती है। वह सब तीर्थोंके निवाससे परिपूर्ण है। परम आनन्द प्रदान करनेके कारण सुन्दर प्रतीत होता है। गोवर्धन पर्वतके होनेसे मथुरामण्डलकी शोभा और भी बढ़ गयी है। वह पवित्र वृक्षों और लताओंसे आवृत है। उसमें बारह वन हैं। वह परम पुण्यमय तथा सबको विश्राम देनेवाले श्रुतियोंके सारभूत भगवान् श्रीकृष्णकी आधारभूमि है।

तत्पश्चात् मथुरासे पश्चिम और उत्तर दिशाकी और बहुत दूरतक जानेपर सारथिको काश्मीर नामक नगर दिखायी दिया, जहाँ शंखके समान उज्ज्वल गगनचुम्बी महलोंकी पंक्तियों भगवान् शंकरके अट्टहासकी भाँति शोभा पाती हैं। जहाँ ब्राह्मणोंके शास्त्रीय आलाप सुनकर मूक मनुष्य भी सुन्दर वाणी और पदोंका उच्चारण करते हुए देवताके समान हो जाते हैं। जहाँ निरन्तर होनेवाले यज्ञ-धूमसे व्याप्त होनेके कारण आकाशमण्डल मेघोंसे धुलते रहनेपर भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ता। जहाँ उपाध्यायके पास आकर छात्र जन्मकालीन अभ्याससे ही सम्पूर्ण कलाएँ स्वतः पढ़ लेते हैं तथा जहाँ माणिक्येश्वर नामसे प्रसिद्ध भगवान् चन्द्रशेखर देहधारियोंको वरदान देनेके लिये नित्य निवास करते हैं। काश्मीरके राजा माणिक्येशने दिग्विजयमें समस्त राजाओंको जीतकर भगवान् शिवका पूजन किया था, तभीसे उनका नाम माणिक्येश्वर हो गया था। उन्होंके मन्दिरके दरवाजेपर महात्मा रैक्व एक छोटी-सी गाड़ीपर बैठे अपने अंगोंको खुजलाते हुए वृक्षकी छायाका सेवन कर रहे थे। इसी अवस्थामें सारथिने उन्हें देखा। राजाके बताये हुए भिन्न भिन्न चिह्नोंसे उसने शीघ्र ही रैक्वको पहचान लियाऔर उनके चरणोंमें प्रणाम करके कहा- ‘ब्रह्मन् ! आप किस स्थानपर रहते हैं? आपका पूरा नाम क्या है? आप तो सदा स्वच्छन्द विचरनेवाले हैं, फिर यहाँ किसलिये ठहरे हैं ? इस समय आपका क्या करनेका विचार है ?”

सारथिके ये वचन सुनकर परम आनन्दमें निमग्न महात्मा रैक्वने कुछ सोचकर उससे कहा ‘यद्यपि हम पूर्णकाम हैं-हमें किसी वस्तुकी आवश्यकता नहीं है, तथापि कोई भी हमारी मनोवृत्तिके अनुसार परिचर्या कर सकता है।’ रैक्वके हार्दिक अभिप्रायको आदरपूर्वक ग्रहण करके सारथि धीरेसे राजाके पास चल दिया। वहाँ पहुँचकर राजाको प्रणाम करके उसने हाथ जोड़ सारा समाचार निवेदन किया। उस समय स्वामीके दर्शनसे उसके मनमें बड़ी प्रसन्नता थी। सारथिके वचन सुनकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उनके हृदयमें रैक्वका सत्कार करनेकी श्रद्धा जाग्रत् हुई। उन्होंने दो खच्चरियोंसे जुती हुई एक गाड़ी लेकर यात्रा की। साथ ही मोतीके हार, अच्छे-अच्छे वस्त्र और एक सहस्र गौएँ भी ले लीं। काश्मीरमण्डलमें महात्मा रैक्व जहाँ रहते थे,उस स्थान पर पहुँचकर राजाने सारी वस्तुएँ उनके आगे निवेदन कर दीं और पृथ्वीपर पड़कर साष्टांग प्रणाम किया। महात्मा रैक्व अत्यन्त भक्तिके साथ चरणों में पड़े हुए राजा जानश्रुतिपर कुपित हो उठे और बोले रे शूद्र ! तू दुष्ट राजा है। क्या तू मेरा वृत्तान्त नहीं जानता? यह खच्चरियोंसे जुती हुई अपनी ऊँची गाड़ी ले जा। ये वस्त्र, ये मोतियोंके हार और ये दूध देनेवाली गौएँ भी स्वयं ही ले जा।’ इस तरह आज्ञा देकर रैक्वने राजाके मनमें भय उत्पन्न कर दिया। तब राजाने शापके भयसे महात्मा रैक्वके दोनों चरण पकड़ लिये और भक्तिपूर्वक कहा – ‘ब्रह्मन् ! मुझपर प्रसन्न होइये। भगवन्! आपमें यह अद्भुत माहात्म्य कैसे आया? प्रसन्न होकर मुझे ठीक-ठीक बताइये ।’रैक्व कहा- राजन्! मैं प्रतिदिन गीताके छठे अध्यायका जप करता हूँ; इसीसे मेरी तेजोराशि देवताओंके लिये भी दुःसह है।

तदनन्तर परम बुद्धिमान् राजा जानश्रुतिने यत्नपूर्वक महात्मा रैक्वसे गीताके छठे अध्यायका अभ्यास किया। इससे उन्हें मोक्षकी प्राप्ति हुई। इधर रैक्व भी भगवान् माणिक्येश्वरके समीप मोक्षदायक गीताके छठे अध्यायका जप करते हुए सुखसे रहने लगे। हंसका रूप धारण करके वरदान देनेके लिये आये हुए देवता भी विस्मित होकर स्वेच्छानुसार चले गये। जो मनुष्य सदा इस एक ही अध्यायका जप करता है, वह भी भगवान् विष्णुके ही स्वरूपको प्राप्त होता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

अध्याय 215 श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य

भगवान् शिव कहते हैं- पार्वती ! अब मैं सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर कानोंमें अमृत राशि भर जाती है। पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है, जिसका गोपुर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। उस नगरमें शंकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था; उसने वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर बहुत धन कमाया, किन्तु न तो कभी पितरोंका तर्पण किया और म देवताओंका पूजन ही। वह धनोपार्जनमें तत्पर होकर राजाओंको ही भोज दिया करता था। एक समयकी बात है, उस ब्राह्मणने अपना चौथा विवाह करनेके लिये पुत्रों और बन्धुओंके साथ यात्रा की। मार्ग में आधी रातके समय जब वह सो रहा था, एक सर्पने कहींसे आकर उसकी बाँहमें काट लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि, मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीरकी रक्षा असाध्य जान पड़ी। तत्पश्चात् कुछ ही क्षणोंमें उसके प्राण पखेरू उड़ गये। फिर बहुत समयके बाद वह प्रेत सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ। उसका चित्त धनकी वासनामें बँधा था। उसने पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करके सोचा- ‘मैंने जी भरके बाहर करोड़ोंकी संख्या में अपना धन गाड़रखा है, उससे इन पुत्रोंको वंचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा।’ एक दिन साँपकी योनिसे पीड़ित होकर पिताने स्वप्नमें अपने पुत्रोंके समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया, तब उसके निरंकुश पुत्रोंने सबेरे उठकर बड़े विस्मयके साथ एक-दूसरेसे स्वप्नकी बातें कहीं। उनमेंसे मझला पुत्र कुदाल हाथमें लिये घरसे निकला और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थे, उस स्थानपर गया। यद्यपि उसे धनके स्थानका ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नोंसे उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभबुद्धिसे वहाँ पहुँचकर बाँबीको खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबीसे बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोला- ओ मूढ़! तू कौन है, किसलिये आया है, क्यों बिल खोद रहा है, अथवा किसने तुझे भेजा है ? ये सारी बातें मेरे सामने बता।’

पुत्र बोला- मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव है। मैं रात्रिमें देखे हुए स्वप्नसे विस्मित होकर यहाँका सुवर्ण लेनेके कौतूहलसे आया हूँ।

पुत्रकी यह लोकनिन्दित वाणी सुनकर वह साँप हँसता हुआ उच्चस्वरसे इस प्रकार स्पष्ट वचनबोला- ‘यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त कर मैं पूर्वजन्मके गाड़े हुए धनके ही लिये सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ।’

पुत्रने पूछा- पिताजी! आपकी मुक्ति कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताइये; क्योंकि मैं इस रातमें सब लोगोंको छोड़कर आपके पास आया हूँ।

पिताने कहा- बेटा! गीताके अमृतमय सप्तम अध्यायको छोड़कर मुझे मुक्त करनेमें तीर्थ, दान, तप और यह भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं। केवल गीताका सातवाँ अध्याय ही प्राणियोंके जरा मृत्यु आदि दुःखको दूर करनेवाला है। पुत्र! मेरे श्राद्धके दिन सप्तम अध्यायका पाठ करनेवाले ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ। इससे निस्सन्देह मेरी मुक्ति हो जायगी। वत्स ! अपनी शक्तिके अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ वेद-विद्यामै प्रवीण अन्य ब्राह्मणोंको भी भोजन कराना।

सर्पयोनिमें पड़े हुए पिताके ये वचन सुनकर सभी पुत्रोंने उसकी आज्ञाके अनुसार तथा उससे भी अधिक किया तब शंकुकर्णने अपने सर्पशरीरको त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रोंके अधीन करदिया। पिताने करोड़ोंकी संख्या में जो धन बाँटकर दिया था, उससे वे सदाचारी पुत्र बहुत प्रसन्न हुए। उनकी बुद्धि धर्ममें लगी हुई थी इसलिये उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देवमन्दिरके लिये उस धनका उपयोग किया और अन्नशाला भी बनवायी। तत्पश्चात् सातवें अध्यायका सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। पार्वती! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बताया गया है; जिसके श्रवणमात्रसे मानव सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।

भगवान् शिव कहते हैं-देवि ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो! उसके सुननेसे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। [लक्ष्मीजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्यायका माहात्म्य बतलाया था।] दक्षिणमें आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। वहाँ भावशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था। वह मांस खाता, मदिरा पीता, साधुओंका धन चुराता, परायी स्त्रीसे व्यभिचार करता और शिकार खेलनेमें दिलचस्पी रखता था। वह बड़े भयानक स्वभावका था और मनमें बड़े-बड़े हौसले रखता था। एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था। उसमें भावशर्माने भर पेट ताड़ी पी खूब गलेतक उसे चढ़ाया; अतः अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ। उसकी घनी और ठण्डी छायाका आश्रय लेकर ब्रह्मराक्षसभावको प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहीं रहा करते थे।

उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है। एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदांगके तत्त्वोंका जाता, सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था। उसकी स्त्रीका नाम कुमति था। वह बड़े खोटे विचारकी थी। वह ब्राह्मण विद्वान् होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्रीके साथ प्रतिदिन भैंस, कालपुरुष और घोड़े आदि बड़े दानोंको ग्रहण किया करता था परन्तु दूसरे ब्राह्मणों को दानमें मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था। वे ही दोनों पति-पत्नी कालवशमृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़-वृक्षके पास आये और उसके मूलभागमें विश्राम करने लगे। इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा- नाथ! हमलोगोंका यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षसयोनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ?’ तब उस ब्राह्मणने कहा— ‘ब्रह्मविद्याके उपदेश, अध्यात्मतत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार संकटसे छुटकारा मिल सकता है।’

यह सुनकर पत्नीने पूछा- ‘किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम’ (पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन सा है ?) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था। उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया। तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्धचित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये। उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्यायका आधा श्लोक निकल पड़ा था। तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये। वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था ।

उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी काशीपुरीमें चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागरकी कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा ‘नाथ! आप सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ?’ बोले-देवि !

श्रीभगवान् काशीपुरीमेंभागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है। मैं उसकी तपस्यासे बहुत सन्तुष्ट हूँ। बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था। प्रिये! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हैं।

पार्वतीजीने पूछा- भगवन्! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन-सा फल प्राप्त किया ?

श्रीमहादेवजी बोले- देवि द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक यातनामें पड़े थे, उसीके शुभकर्मसे भगवद्धामको प्राप्त हुए। पार्वती यह आठवें अध्यायका माहात्म्य थोड़े में ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते रहना चाहिये।

अध्याय 216 श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं आदर पूर्वक नवम अध्यायके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, तुम स्थिर होकर सुनो। नर्मदाके तटपर माहिष्मती नामकी एक नगरी है। वहाँ माधव नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदांगोंके तत्त्वज्ञ और समय-समयपर आनेवाले अतिथियोंके प्रेमी थे। उन्होंने विद्याके द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान् यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञमें बलि देनेके लिये एक बकरा मँगाया गया। जब उसके शरीरकी पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्यमें डालते हुए उस बकरेने हँसकर उच्चस्वरसे कहा- ‘ब्रह्मन्! इन बहुत से यज्ञोंद्वारा क्या लाभ है। इनका फल तो नष्ट हो जानेवाला है। तथा ये जन्म, जरा और मृत्युके भी कारण हैं। यह सब करनेपर भी मेरी जो वर्तमान दशा है, इसे देख ‘लो।’ बकरेके इस अत्यन्त कौतूहलजनक वचनको सुनकर यज्ञमण्डपमें रहनेवाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए। तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रोंसे देखते हुए बकरेको प्रणाम करके श्रद्धा और आदरके साथ पूछने लगे।

ब्राह्मण बोले- आप किस जातिके थे? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा किस कर्मसे आपको बकरेकी योनि प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये।

बकरा बोला- ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मणोंके अत्यन्त निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ था। समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और वेद-विद्यामें प्रवीण था। एक दिन मेरी स्त्रीने भगवती दुर्गाकी भक्तिसे विनम्र होकर अपने बालकके रोगकी शान्तिके लिये बलि देनेके निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा। तत्पश्चात् जब चण्डिकाके मन्दिरमें वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माताने मुझे शाप दिया- ‘ओ ब्राह्मणोंमें नीच, पापी तू मेरे बच्चेका वध करना चाहता है इसलिये तू भी बकरेकी योनिमें जन्म लेगा।’ द्विजश्रेष्ठ तब कालवश मृत्युको प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ यद्यपिमैं पशुयोनिमें पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण बना हुआ है। ब्रह्मन् ! यदि आपको सुननेकी उत्कण्ठा हो, तो मैं एक और भी आश्चर्यकी बात बताता हूँ। कुरुक्षेत्र नामका एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। एक समय जब कि सूर्यग्रहण लगा था, राजाने बड़ी श्रद्धाके साथ कालपुरुषका दान करनेकी तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदांगोंके पारगामी एक विद्वान् ब्राह्मणको बुलवाया और पुरोहितके साथ वे तीर्थके पावन जलसे स्नान करनेको चले। तीर्थके पास पहुँचकर राजाने स्नान किया और दो वस्त्र धारण किये। फिर पवित्र एवं प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगलमें खड़े हुए पुरोहितका हाथ पकड़कर तत्कालोचित मनुष्योंसे घिरे हुए अपने स्थानपर लौट आये। आनेपर राजाने यथोचित विधिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको कालपुरुषका दान किया।

तब कालपुरुषका हृदय चीरकर उसमेंसे एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ। फिर थोड़ी देरके बाद निन्दा भी चाण्डालीका रूप धारण करके कालपुरुषके शरीरसे निकली और ब्राह्मणके पास आ गयी। इस प्रकार चाण्डालोंकी वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मणके शरीरमें हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मण मन-ही-मन गीताके नवम अध्यायका जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे। ब्राह्मणके अन्तःकरणमें भगवान् गोविन्द शयन करते थे। वे उन्हींका ध्यान करने लगे। ब्राह्मणने [जब गीताके नवम अध्यायका जप करते हुए] अपने आश्रयभूत भगवान्का ध्यान किया, उस समय गीताके अक्षरोंसे प्रकट हुए विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। उनका उद्योग निष्फल हो गया। इस प्रकार इस घटनाको प्रत्यक्ष देखकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्होंने ब्राह्मणसे पूछा-‘विप्रवर। इस महाभयंकर आपत्तिको आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्रकाजप तथा किस देवताका स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा वह स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे हो गये ? यह सब मुझे बतलाइये।’

ब्राह्मणने कहा- राजन् ! चाण्डालका रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दाकी साक्षात् मूर्ति थी मैं इन दोनोंको ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मैं गीताके नवें अध्यायके मन्त्रोंकी माला जपता था। उसीका माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया। महीपते! मैं नित्य ही गीताके नवम अध्यायका जप करता हूँ। उसीके प्रभावसे प्रतिग्रहजनित आपत्तियोंके पार हो सका यह सुनकर राजाने उसी ब्राह्मणसे गीताके नवम अध्यायका अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परमशान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

[यह कथा सुनकर ब्राह्मणने बकरेको बन्धनसे मुक्त कर दिया और गीताके अभ्याससे परमगतिको प्राप्त किया।]

भगवान् शिव कहते हैं— सुन्दरि ! अब तुम दशम अध्यायके माहात्म्यको परम पावन कथा सुनी,जो स्वर्गरूपी दुर्गगे जानेके लिये सुन्दर सोपान और प्रभावकी चरम सीमा है काशीपुरबुद्ध नागरी विख्यात एक ब्राह्मण था जो मुझमें नन्दीके समान भक्ति रखता था वह पावन कीर्तिके अर्जनमें तत्पर रहनेवाला, शान्तचित्त और हिंसा कठोरता एवं दुः दूर रहनेवाला था। जितेन्द्रिय होनेके कारण वह निवृत्तिमार्गमें ही स्थित रहता था। उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्पर्यका ज्ञाता था उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्न रहता था। वह मनको अन्तरात्मामें लगाकर सदा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया करता था अतः जब वह चलने लगता तो मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथका सहारा देता रहता था।

यह देख मेरे पार्षद भृंगिरिटिने पूछा भगवन्! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा इस महात्माने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद पदपर इसे हाथका सहारा देते चलते हैं?

भृंगिरिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तरदेना आरम्भ किया। एक समयकी बात है, कैलास पर्वतके पार्श्वभागमें पुन्नाग वनके भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणोंसे धुली हुई भूमिमें एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था। मेरे बैठनेके क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी, वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपसमें टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गर्यो । पर्वतकी अविचल छाया भी हिलने लगी। इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ। जिससे पर्वतकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी। वह कज्जलकी राशि, अन्धकारके समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था। पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणोंमें रखकर स्पष्ट वाणीमें स्तुति करनी आरम्भ की।

पक्षी बोला- देव! आपकी जय हो। आप चिदानन्दमयी सुधाके सागर तथा जगत्के पालक हैं। सदा सद्भावनासे युक्त एवं अनासक्तिकी लहरोंसे उल्लसित हैं। आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है। आपकी जय हो वासनासे परिपूर्ण बुद्धिके द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं। आप जितेन्द्रिय भक्तोंके अधीन रहते हैं तथा ध्यानमें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। आप अविद्यामय उपाधि रहित, नित्यमु निराकार, निरामय, असीम, अहंकारशून्य आवरणरहित और निर्गुण हैं। आपके चरणकमल शरणागत भक्तोंकी रक्षा करनेमें प्रवीण हैं। अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्पकी विष ज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया है। आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। चैतन्यके स्वामी तथा त्रिभुवनरूप धारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियोंद्वारा चुम्बित आपके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो अपार भव पापके समुद्रसे पार उतारनेमें अद्भुत शक्तिशाली हैं। महादेव! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेकीधृष्टता नहीं कर सकते। सहस्र मुखोंवाले नागराज शेषमें भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें। फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है।

उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा- ‘विहंगम! तुम कौन हो और कहाँसे आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौएका मिला है। तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।’

पक्षी बोला – देवेश ! मुझे ब्रह्माजीका हंस जानिये । धूर्जटे! जिस कर्मसे मेरे शरीरमें इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये। प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं। [ अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ। सौराष्ट्र (सूरत) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते थे। उसीमेंसे बालचन्द्रमाके टुकड़े-जैसे श्वेत मृणालोंके ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ रहा था। उड़ते-उड़ते सहसा वहाँसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब होशमें आया और अपने गिरनेका कोई कारण न देख सका तो मन-ही-मन सोचने लगा- ‘अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया? पके हुए कपूरके समान मेरे श्वेत शरीरमें यह कालिमा कैसे आ गयी ?’ इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरेके कमलोंमेंसे मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी – ‘हंस ! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होनेका कारण बताती हूँ।’ तब मैं उठकर सरोवरके बीचमें गया और वहाँ पाँच कमलोंसे युक्त एक सुन्दर कमलिनीको देखा। उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतनका सारा कारण पूछा।

कमलिनी बोली- कलहंस ! तुम आकाशमार्गसे मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातकके परिणामवश तुम्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा है तथा उसीके कारण तुम्हारे शरीरमें कालिमा दिखायी देती है। तुम्हें गिरा देख मेरे हृदयमें दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमलकेद्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुखसे निकली हुई सुगन्धको सूंघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये हैं पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना वैभव—ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ ; सुनो! इस जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनोंकी सेवा करती हुई सदा एकमात्र पातिव्रत्यके पालनमें तत्पर रहती थी। एक दिनकी बात है, मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी इससे पतिसेवा में कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया- ‘पापिनी ! तू मैना हो जा।’ मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय मिला। किसी मुनिकन्याने मेरा पालन-पोषण किया। मैं जिनके घरमें थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातः काल विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती थी। विहंगम! काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई।मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्माकी प्यारी सखी हो गयी। एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी। उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके। उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया। उनके भयसे मैंने स्वयं ही यह कमलिनीका रूप धारण कर लिया। मेरे दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। इस प्रकार में पाँच कमलोंसे युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासाने मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्निसे जल रहे थे। वे बोले-‘पापिनी । तू इसी रूपमें सौ वर्षोंतक पड़ी रह ।’ यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये। कमलिनी होनेपर भी विभूति योगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है। मुझे लाँघनेमात्रके अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो। पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्यायको तुम भी सुन लो । उसके श्रवणमात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओगे।

यों कहकर पद्मिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।

इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है। जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है। दसवें अध्यायके अर्थ-चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शंख चक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है, तो वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है तथापूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए दसवें अध्यायके माहात्म्यसे इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है अतः जब यह रास्ता चलने लगता है। तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ। भृंगिरिटे ! यह सब दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है।पार्वती! इस प्रकार मैंने भृंगिरिटिके सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही यहाँ तुमसे भी कही है। नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्यायके श्रवणमात्रसे उसे सब आश्रमोंके पालनका फल प्राप्त होता है।

अध्याय 217 श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं—प्रिये! गीताके वर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा एवं विश्वरूप अध्यायके पावन माहात्म्यको श्रवण करो। विशाल नेत्रोंवाली पार्वती! इस अध्यायके माहात्म्यका पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सम्बन्धमें सहस्रों कथाएँ हैं उनमेंसे एक यहाँ कही जाती है। प्रणीता नदीके तटपर मेघंकर नामसे विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है। उसके प्राकार और गोपुर बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, जिनमें सोनेके खंभे शोभा दे रहे हैं। उस नगरमें श्रीमान् सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्योंका निवास है। वहाँ हाथमें शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। वे परब्रह्मके साकार स्वरूप हैं। संसारके नेत्रोंको जीवन प्रदान करनेवाले हैं। उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी क्षेत्र-कमल पूजित होता है। भगवान्की वह झाँकी वामन अवतारकी है। मेघके समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभा पाता है। वे कमल और वनमालासे विभूषित हैं। अनेक प्रकारके आभूषणोंसे सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्रके सदृश जान पड़ते हैं। पीताम्बरसे उनके श्याम विग्रहकी कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजलीसे घिरा हुआ स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान् वामनका दर्शन करके जीव जन्म एवं संसारके बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस नगरमें मेखला नामक महान् तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। वहाँ जगत्के स्वामी करुणासागर भगवान्नृसिंहका दर्शन करनेसे मनुष्य सात जन्मोंके किये घोर पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य हुए मेखलामें गणेशजीका दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नोंके भी पार हो जाता है।

उसी मेघंकर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्यपरायण, ममता और अहंकारसे रहित, वेद शास्त्रोंमें प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेवके शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था। प्रिये! वे शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान्‌के पास गीताके ग्यारहवें अध्याय – विश्वरूपदर्शनयोगका पाठ किया करते थे। उस अध्यायके प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। परमानन्द – सन्दोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधिके द्वारा इन्द्रियोंके अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगीकी स्थितिमें रहते थे। एक समय जब बृहस्पति सिंहराशिपर स्थित थे, महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थकी यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारातीर्थ, कपिलासंगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, अम्बिकापुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रोंमें स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगर में आये। वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरनेके लिये स्थान माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला। अन्तमें गाँवके मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी। ब्राह्मणने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रातमें निवास किया। सबेरा होनेपर उन्होंने अपनेको तो धर्मशालाके बाहर पाया, किन्तु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये। वे उन्हें खोजनेके लिये चले, इतनेमें हीग्रामपाल ( मुखिये) – से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपालने कहा – ‘मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते हो सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है। तुम्हारे साथी कहाँ गये ? और कैसे इस भवनसे बाहर हुए? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता विप्रवर तुम्हें किस महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो तथा किस देवताकी दयासे तुममें अलौकिक शक्ति आ गयी है? भगवन्! कृपा करके इस गाँवमें रहो! मैं तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूँगा ।’

यों कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने गाँवमें ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्तिसे उनकी सेवा टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातः काल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्माके सामने रोने लगा और बोला- ‘हाय ! आज रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है। मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।’ ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने पूछा- ‘कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है?’

ग्रामपाल बोला- ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था। तब एक दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की— राक्षस! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो हम तुम्हारे लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहरके जो पथिक रातमें आकर नींद लेने लर्गे, उनको खा जाना।’ इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके (मुझ) मुखियाद्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकों को ही राक्षसका आहार निश्चित किया अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा। तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस घरमें आकर सोचे थे किन्तु राक्षसने उन सर्वोको तो खा लिया केवल तुम्हें छोड़ दिया है। द्विजोत्तम! तुममें ऐसाक्या प्रभाव है, इस बातको तुम्हीं जानते हो। इस समय मेरे पुत्रका एक मित्र आया था, किन्तु मैं उसे पहचान न सका। वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था; किन्तु अन्य राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज दिया। मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया। परन्तु राक्षसने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाचसे पूछा- ‘ओ दुष्टात्मन्! तूने रातमें मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेटमें पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता ।’

राक्षसने कहा- ग्रामपाल धर्मशालाके भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्रको न जाननेके कारण मैंने भक्षण किया है। अन्य पथिकोंके साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजानमें ही मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदरमें जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाताने ही कर दिया है। जो ब्राह्मण सदा गीताके ग्यारहवें अध्यायका पाठ करता हो, उसके प्रभावसे मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशालेसे बाहर कर दिया था। वे निरन्तर गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप किया करते हैं। इस अध्यायके मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जलका छींटा दें तो निस्सन्देह मेरा शापसे उद्धार हो जायगा। इस प्रकार उस राक्षसका सन्देश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ।

ब्राह्मणने पूछा- ग्रामपाल ! जो रातमें सोये हुए मनुष्योंको खाता है, वह प्राणी किस पापसे राक्षस हुआ है?

ग्रामपाल बोला- ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनीके खेतकी क्यारियोंकी रक्षा करनेमें लगा था। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले, जो उस राहीको बचाने के लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहेथे। गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया। तब तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा- ‘ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है। दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके धंधे में लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे! जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके वधका फल पाता है। जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदिके चंगुलमें फँसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें जन्म लेता है। जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्रकी दृष्टिमें पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये ‘छोड़ो, छोड़ो’ की पुकार करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। जो मनुष्य गौओंकी रक्षाके लिये व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णुके उस परमपदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेययज्ञ मिलकर शरणागत रक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीवकी उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचानेमें समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तु निर्दयी जान पड़ता तू है; अतः तू राक्षस हो जा ?’

हलवाहा बोला- महात्मन्! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किन्तु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे, अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका । अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये । तपस्वी ब्राह्मणने कहा—जो प्रतिदिन गीताकेग्यारहवें अध्यायका जप करता है, उस मनुष्यके द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा, उस समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा ।

यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो। फिर अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो।

ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर आया। वे ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसके साथ राक्षसके निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला। गीताके अध्यायके प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस- देहका परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसनेजिन सहस्रों पथिकोंका भक्षण किया था, वे भी शंख, चक्र • एवं गदा धारण किये चतुर्भुजरूप हो गये। तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतनेमें ही शामपालने राक्षससे कहा- ‘निशाचर! मेरा पुत्र कौन है? उसे दिखाओ।’ उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले राक्षसने कहा- ‘ये जो तमालके समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य मणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलंकृत हैं, हार पहननेके कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोनेके भुजबंदोंसे विभूषित, कमलके समान नेत्रवाले, स्निग्धरूप तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन्हींको अपना पुत्र समझो।’ यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।

पुत्र बोला – ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किन्तु अब देवता हो गया हूँ। इन ब्राह्मणदेवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको जाऊँगा। देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुजरूपको प्राप्त हो गया। ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है; अत: तुम भी इन ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करेऔर निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात ! मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका संग सर्वथा दुर्लभ है। वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्तकमसे क्या लेना है। विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है। पूर्णानन्दसन्दोह स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है। तुम उसीका चिन्तन करो। वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है। संसार – भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि-व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं देखता, अतः उसीका अभ्यास करो।

श्रीमहादेवजी कहते हैं—यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया। तब ग्रामपालने ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा। फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये। पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायकी माहात्म्य – कथा सुनायी है। इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोंका नाश हो जाता है।

अध्याय 218 श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती दक्षिणदिशामें कोल्हापुर नामका एक नगर है, जो सब प्रकारके सुखोंका आधार, सिद्ध-महात्माओंका निवासस्थान तथा सिद्धि प्राप्तिका क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका प्रधान पीठ है। सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं। वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिंग हैं। स्वगया भी वहीं है। वह विशाल नगर लोगोंमें बहुत विख्यात है। एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगरमें आया। [ वह कहाँका राजकुमार था।] उसके शरीरका रंग गोरा, नेत्रसुन्दर, ग्रीवा शंखके समान, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगरमें प्रवेश करके सब ओर महलोंकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मीके दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थमें गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरोंका तर्पण किया। फिर महामाया महालक्ष्मीजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना आरम्भ किया।

राजकुमार बोला- जिसके हृदयमें असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओंको देती तथा अपने कटाक्षमात्रसे सारे जगत्की सृष्टि, पालन और संहारकरती है, उस जगन्माता महालक्ष्मीकी जय हो! जिस उ शक्तिके सहारे उसीके आदेशके अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, भगवान् अच्युत जगत्का पालन करते हैं तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं, उस सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे सम्पन्न भगवती पराशक्तिका मैं भजन करता हूँ।

कमले ! योगिजन तुम्हारे चरणकमलोंका चिन्तन करते हैं। कमलालये! तुम अपनी स्वाभाविक सत्तासे ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयोंको जानती हो। तुम्हीं कल्पनाओंके समूहको तथा उसका संकल्प करनेवाले मनको उत्पन्न करती हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति- ये सब तुम्हारे ही रूप हैं। तुम परासंवित् (परम ज्ञान ) – रूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अन्तररहित आतंकशून्य, आतम्बहीन तथा निरामय है। देवि! तुम्हारी महिमाका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरणके बारह स्थानोंमें विहार करती है, अनाहत ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला -ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मीको मैं प्रणाम करता हूँ। माता! तुम अपने [मुखरूपी] पूर्ण चन्द्रमासे प्रकट होनेवाली अमृत राशिको बहाया करती हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ देवि! तुम जगत्की रक्षाके लिये अनेक रूप धारण किया करती हो । अम्बिके! तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी तथा माहेश्वरी शक्ति हो। वाराही, महालक्ष्मी, नारसिंही, ऐन्द्री, कौमारी, चण्डिका, जगत्‌को पवित्र करनेवाली लक्ष्मी, जगन्माता सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो। परमेश्वरि ! तुम भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये कल्पलताके समान हो मुझपर प्रसन्न हो जाओ।

उसके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं- ‘राजकुमार !
मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई उत्तम वर माँगो ।’ राजपुत्र बोला- माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथअश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। वे दैवयोगसे रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीचमें यूपमें बँधे हुए मेरे यहसम्बन्धी घोड़ेको, जो समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटा था, किसीने रात्रिमें बन्धन काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया। उसकी खोजमें मैंने कुछ लोगोंको भेजा था; किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं सब ऋत्विजोंसे आज्ञा लेकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ देवि! यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञका घोड़ा मुझे मिल जाय, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके। तभी मैं अपने पिता महाराजका ऋण उतार सकूँगा । शरणागतोंपर दया करनेवाली जगज्जननी लक्ष्मी जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो, वह उपाय करो।

भगवती लक्ष्मीने कहा- राजकुमार ! मेरे मन्दिरके दरवाजेपर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधिके नामसे विख्यात हैं। वे मेरी आज्ञासे तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे।

महालक्ष्मीके इस प्रकार कहनेपर राजकुमार उस स्थानपर आये, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे। उनकेचरणोंमें प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े हो गये। तब ब्राह्मणने कहा—’ -‘तुम्हें माताजीने यहाँ भेजा है। अच्छा, देखो; अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ।’ यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणने सब देवताओंको वहीं खींचा। राजकुमारने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त देवताओंसे कहा—’देवगण! इस राजकुमारका अश्व, जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था, रातमें देवराज इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है; उसे शीघ्र ले आओ।’

तब देवताओंने मुनिके कहनेसे यज्ञका घोड़ा लाकर दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जानेकी आज्ञा दी। देवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको पाकर राजकुमारने मुनिके चरणों में प्रणाम करके कहा—’ महर्षे! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है। आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। ब्रह्मन् ! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये हैं। अभीतक उनका शरीर तपाये हुए तेलमें सुखाकरमैंने रख छोड़ा है। साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें जीवित पुनः कर दीजिये।’

यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किंचित् मुसकराकर कहा- ‘चलो, जहाँ यज्ञमण्डपमें तुम्हारे पिता मौजूद हैं, चलें।’ तब सिद्धसमाधिने राजकुमारके साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकपर रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर उन्होंने ब्राह्मणको देखकर पूछा ‘धर्मस्वरूप ! आप कौन हैं?’ तब राजकुमारने महाराजसे पहलेका सारा हाल कह सुनाया। राजाने अपनेको पुनः जीवन-दान देनेवाले ब्राह्मणको नमस्कार करके पूछा- ‘ब्रह्मन् ! किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है ?’ उनके यों कहनेपर ब्राह्मणने मधुर वाणीमें कहा- ‘ – राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीताके बारहवें अध्यायका जप करता हूँ; उसीसे मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है।’ यह सुनकर ब्राह्मणोंसहित राजाने उन ब्रह्मर्षिसे गीताके बारहवें अध्यायका अध्ययन किया। उसके माहात्म्यसे उन सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे दूसरे जीव भी उसके पाठसे परम – मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।

अध्याय 219 श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब तेरहवें अध्यायकी अगाध महिमाका वर्णन सुनो। उसको सुननेसे तुम बहुत प्रसन्न होओगी। दक्षिणदिशामें तुंगभद्रा नामकी एक बहुत बड़ी नदी है। उसके किनारे हरिहरपुर नामक रमणीय नगर बसा हुआ है। वहाँ साक्षात् भगवान् हरिहर विराजमान हैं, जिनके दर्शनमात्रसे परम कल्याणको प्राप्ति होती है। हरिहरपुरमें हरिदीक्षित नामक एक श्रोत्रिय ब्राह्मण रहते थे, जो तपस्या और स्वाध्यायमें संलग्न तथा वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। उनके एक स्त्री थी, जिसे लोग दुराचारा कहकर पुकारते थे। इस नामके अनुसार ही उसके कर्म भी थे। वह सदा पतिको कुवाच्य कहती थी। उसने कभी भी उनके साथ शयन नहीं किया। पतिसेसम्बन्ध रखनेवाले जितने लोग घरपर आते, उन सबको डाँट बताती और स्वयं कामोन्मत्त होकर निरन्तर व्यभिचारियोंके साथ रमण किया करती थी। एक दिन नगरको इधर-उधर आते-जाते हुए पुरवासियोंसे भरा देख उसने निर्जन एवं दुर्गम वनमें अपने लिये संकेतस्थान बना लिया। एक समय रातमें किसी कामीको न पाकर वह घरके किवाड़ खोल नगरसे बाहर संकेतस्थानपर चली गयी। उस समय उसका चित्त कामसे मोहित हो रहा था। वह एक-एक कुंजमें तथा प्रत्येक वृक्षके नीचे जा जाकर किसी प्रियतमकी खोज करने लगी; किन्तु उन सभी स्थानोंपर उसका परिश्रम व्यर्थ गया। उसे प्रियतमका दर्शन नहीं हुआ। तब वह उस वनमें नाना प्रकारकी बातेंकहकर विलाप करने लगी। चारों दिशाओंमें घूम घूमकर वियोगजनित विलाप करती हुई उस स्त्रीकी आवाज सुनकर कोई सोया हुआ व्याघ्र जाग उठा और उछलकर उस स्थानपर पहुँचा, जहाँ वह रो रही थी। उधर वह भी उसे आते देख किसी प्रेमीकी आशंकासे उसके सामने खड़ी होनेके लिये ओटसे बाहर निकल आयी। उस समय व्याघ्रने आकर उसे नखरूपी बाणोंके प्रहारसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस अवस्थामै भी वह कठोर वाणीमें चिल्लाती हुई पूछ बैठी-‘अरे बाघ! तू किसलिये मुझे मारनेको यहाँ आया है? पहले इन सारी बातोंको बता दे, फिर मुझे मारना।’

उसकी यह बात सुनकर प्रचण्ड पराक्रमी व्याघ्र क्षणभरके लिये उसे अपना ग्रास बनानेसे रुक गया और हँसता हुआ सा बोला- ‘दक्षिण देशमें मलापहा नामक एक नदी है। उसके तटपर मुनिपर्णा नगरी बसी हुई है। वहाँ पंचलिंग नामसे प्रसिद्ध साक्षात् भगवान् शंकर निवास करते हैं। उसी नगरीमें मैं ब्राह्मणकुमार होकर रहता था। नदीके किनारे अकेला बैठा रहता और जो यज्ञके अधिकारी नहीं है. उन लोगों से भी यज्ञ कराकर उनका अन्न खाया करता था। इतना ही नहीं, धनके लोभसे मैं सदा अपने वेदपाठके फलको भी बेचा करता था। मेरा लोभ यहाँतक बढ़ गया था कि अन्य भिक्षुओंको गालियाँ देकर हटा देता और स्वयं दूसरोंका नहीं देनेयोग्य धन भी बिना दिये ही हमेशा ले लिया करता था। ऋण लेनेके बहाने में सब लोगों को छला करता था। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत होनेपर मैं बूढ़ा हुआ मेरे बाल सफेद हो गये। आँखोंसे सूझता न था और मुँहके सारे दाँत गिर गये। इतनेपर भी मेरी दान लेनेकी आदत नहीं छूटी। पर्व आनेपर प्रतिग्रहके लोभसे में हाथमें कुश लिये तीर्थके समीप चला जाया करता था। तत्पश्चात् जब मेरे सारे अंग शिथिल हो गये, तब एक बार मैं कुछ धूर्त ब्राह्मणोंके घरपर माँगने खानेके लिये गया। उसी समय मेरे पैरमें कुत्तेने काट लिया। तब मैं मूच्छित होकर क्षणभरमै पृथ्वीपर गिर पड़ा। मेरे प्राण निकल गये। उसके बाद मैं इसी व्याघ्रयोनिमें उत्पन्न हुआ। तबसेइस दुर्गम वनमें रहता हूँ तथा अपने पूर्व पापोंको याद करके कभी धर्मिष्ठ महात्मा, यति, साधु पुरुष तथा सती स्त्रियोंको मैं नहीं खाता। पापी, दुराचारी तथा कुलटा स्त्रियोंको ही मैं अपना भक्ष्य बनाता हूँ; अतः कुलटा होनेके कारण तू अवश्य ही मेरा ग्रास बनेगी।’

यों कहकर वह अपने कठोर नखोंसे उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े करके रखा गया। इसके बाद यमराजके दूत उस पापिनीको संयमनीपुरी ले गये। वहाँ यमराजकी आज्ञासे उन्होंने अनेकों बार उसे विष्ठा, मूत्र और रक्तसे भरे हुए भयानक कुण्डों में गिराया। करोड़ों कल्पांतक उसमें रखनेके बाद उसे वहाँसे ले आकर सौ मन्वन्तरोंतक रौरव नरकमें रखा। फिर चारों ओर मुँह करके दीनभावसे रोती हुई उस पापिनीको वहाँसे खींचकर दहनानन नामक नरकमें गिराया। उस समय उसके केश खुले हुए थे और शरीर भयानक दिखायी देता था। इस प्रकार घोर नरक यातना भोग चुकनेपर वह महापापिनी इस लोकमें आकर चाण्डालयोनिमें उत्पन्न हुई। चाण्डालके घरमें भी प्रतिदिन बढ़ती हुई वह पूर्वजन्मके अभ्याससे पूर्ववत् पापोंमें प्रवृत्त रही। फिर उसे कोढ़ और राजयक्ष्माका रोग हो गया। नेत्रोंमें पीड़ा होने लगी। फिर कुछ कालके पश्चात् वह पुनः अपने निवासस्थानको गयी, जहाँ भगवान् शिवके अन्तःपुरकी स्वामिनी जम्भकादेवी विराजमान हैं। वहाँ उसने वासुदेव नामक एक पवित्र ब्राह्मणका दर्शन किया, जो निरन्तर गीताके तेरहवें अध्यायका पाठ करता रहता था। उसके मुखसे गीताका पाठ सुनते ही वह चाण्डाल- शरीरसे मुक्त हो गयी और दिव्य देह धारण करके स्वर्गलोकमें चली गयी।

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती अब मैं भव बन्धनसे छुटकारा पानेके साधनभूत चौदहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो। सिंहल द्वीपमें विक्रम बेताल नामक एक राजा थे, जो सिंहके समान पराक्रमी और कलाओंके भंडार थे। एक दिन वे शिकार खेलनेके लिये उत्सुक होकर राजकुमारों सहित दो कुतियोंको साथ लिये कनमें गये। पहुँचनेपर उन्होंने तीव्र गतिसे भागते हुए खरगोशके पीछेअपनी कुतिया छोड़ दी। उस समय सब प्राणियों के देखते-देखते खरगोश इस प्रकार भागने लगा मानो कहीं उड़ गया हो। दौड़ते-दौड़ते बहुत थक जानेके कारण वह एक बड़ी खंदकमें गिर पड़ा। गिरनेपर भी वह कुतियाके हाथ नहीं आया और उस स्थानपर जा पहुँचा, जहाँका वातावरण बहुत ही शान्त था। वहाँ हरिन निर्भय होकर सब ओर वृक्षोंकी छायामें बैठे रहते थे। बंदर भी अपने-आप टूटकर गिरे हुए नारियलके फलों और पके हुए आमोंसे पूर्ण तृप्त रहते थे। वहाँ सिंह हाथीके बच्चोंके साथ खेलते और साँप निडर होकर मोरकी पाँखोंमें घुस जाते थे। उस स्थानपर एक आश्रमके भीतर वत्स नामक मुनि रहते थे, जो जितेन्द्रिय एवं शान्तभावसे निरन्तर गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ किया करते थे। आश्रमके पास ही वत्समुनिके किसी शिष्यने अपना पैर धोया था। उसके जलसे वहाँकी मिट्टी गीली हो गयी थी। खरगोशका जीवन कुछ शेष था। वह हाँफता हुआ आकर उसी कीचड़में गिर पड़ा। उसके स्पर्शमात्रसे ही खरगोश संसार-सागरके पार हो गया और दिव्य विमानपर बैठकर स्वर्गलोकको चला गया। फिर कुतिया भी उसका पीछा करती हुई आयी। वहाँ उसके शरीरमेंभी कुछ कीचड़के छींटे लग गये। फिर भूख-प्यासकी पीड़ासे रहित हो कुतियाका रूप त्यागकर उसने दिव्यांगनाका रमणीय रूप धारण कर लिया तथा गन्धवोंसे सुशोभित दिव्य विमानपर आरूढ़ हो वह भी स्वर्गलोकको चली गयी। यह देख मुनिके मेधावी शिष्य स्वकन्धर हँसने लगे। उन दोनोंके पूर्वजन्मके वैरका कारण सोचकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ था। उस समय राजाके नेत्र भी आश्चर्य चकित हो उठे। उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ प्रणाम करके पूछा- ‘विप्रवर! ये नीच योनिमें पड़े हुए दोनों प्राणी – कुतिया और खरगोश ज्ञानहीन होते हुए भी जो स्वर्गमें चले गये- इसका क्या कारण है? इसकी कथा सुनाइये।”

शिष्यने कहा- भूपाल ! इस वनमें वत्स नामक ब्राह्मण रहते हैं, वे बड़े जितेन्द्रिय महात्मा हैं; गीताके चौदहवें अध्यायका सदा जप किया करते हैं। मैं उन्हींका शिष्य हूँ, मैंने भी ब्रह्मविद्यामें विशेषज्ञता प्राप्त की है। गुरुजीकी ही भाँति मैं भी चौदहवें अध्यायका प्रतिदिन जप करता हूँ । मेरे पैर धोनेके जलमें लोटनेके कारण यह खरगोश कुतियाके साथ ही स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ है।अब मैं अपने हँसनेका कारण बताता हूँ। महाराष्ट्रमें प्रत्युदक नामक महान् नगर है; वहाँ केशव नामका एक ब्राह्मण रहता था, जो कपटी मनुष्योंमें अग्रगण्य था। उसकी स्त्रीका नाम विलोभना था। वह स्वच्छन्द विहार करनेवाली थी। इससे क्रोधमें आकर जन्मभरके वैरको याद करके ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका वध कर डाला औरउसी पापसे उसको खरगोशकी योनिमें जन्म मिला। ब्राह्मणी भी अपने पापके कारण कुतिया हुई।

श्रीमहादेवजी कहते हैं— यह सारी कथा सुनकर श्रद्धालु राजाने गीताके चौदहवें अध्यायका पाठ आरम्भ कर दिया। इससे उन्हें परमगतिकी प्राप्ति हुई।

अध्याय 220 श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य सुनो। गौडदेशमें कृपाण नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवारकी धारसे युद्धमें देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् सेनापति शस्त्र और शास्त्रकी कलाओंका भण्डार था। उसका नाम था सरभ- मेरुण्ड। उसकी भुजाओंमें प्रचण्ड बल था। एक समय उस पापीने राजकुमारोंसहित महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करनेका विचार किया। इस निश्चयके कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका शिकार होकर मर गया। थोड़े समयमें वह पापात्मा अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेश एक तेजस्वी घोड़ा हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़ेके लक्षणोंका ठीक-ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्यके पुत्रने बहुत सा मूल्य देकर उस अश्वको खरीद लिया और बड़े यत्नके साथ उसे राजधानीतक वह ले आया। वैश्य कुमार वह अश्व राजाको देनेके लिये लाया था। यद्यपि राजा उससे परिचित थे, तथापि द्वारपालने जाकर उसके आगमनकी सूचना की। राजाने पूछा ‘किसलिये आये हो?’ तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया- ‘देव! सिन्धुदेशमें एक उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकोंका एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य देकर खरीद लिया है।’ राजाने आज्ञा दी – ‘उस अश्वको यहाँ ले आओ।’

वास्तवमें वह घोड़ा गुणोंमें उच्चैः श्रवाके समान था। सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणोंका समुद्र जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसेदेखा। अश्वका लक्षण जाननेवाले अमात्योंने उसकी बड़ी प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्दमें निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्यको मुँहमाँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्वको खरीद लिया। कुछ दिनोंके बाद एक समय राजा शिकार खेलनेके लिये उत्सुक हो उसी घोड़ेपर चढ़कर वनमें गये। वहाँ मृगोंके पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकोंका साथ छूट गया। वे हिरनोंद्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये। प्यासने उन्हें व्याकुल कर दिया। तब वे घोड़ेसे उतरकर जलकी खोज करने लगे। घोड़ेको तो उन्होंने वृक्षकी डालीमें बाँध दिया और स्वयं एक चट्टानपर चढ़ने लगे। कुछ दूर जानेपर इन्होंने देखा कि एक पत्तेका टुकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्डपर गिरा है। उसमें गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे। उनके मुखसे गीताके अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्वयोनिसे उसकी मुक्ति हो गयी तथा तुरंत ही दिव्य विमानपर बैठकर वह स्वर्गलोकको चला गया। तत्पश्चात् राजाने पहाड़पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेसर, केले, आम और नारियलके वृक्ष लहरा रहे थे। आश्रमके भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसारकी वासनाओंसे मुक्त थे। राजाने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्तिके साथ पूछा- ‘ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी अभी स्वर्गको चला गया है, उसमें क्या कारण है ? ‘ राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं महापुरुषोंमें श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मणने कहाराजन्! पूर्वकालमें तुम्हारे यहाँ जो ‘सरभ मेरुण्ड’ नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रांसहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेनेको तैयार था। इसी बीचमें हैजेका शिकार होकर वह मृत्युको प्राप्त हो गया। उसके बाद वह उसी पापसे घोड़ा हुआ था। यहाँ कहीं गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे। उसीको तुम्हारे मुखसे सुनकर वह अश्व स्वर्गको प्राप्त हुआ है।’

तदनन्तर राजाके पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन सबके साथ ब्राह्मणको प्रणाम करके राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चले और गीताके पंद्रहवें अध्यायके श्लोकाक्षरोंसे अंकित उसी पत्रको बाँच-बाँचकर प्रसन्न होने लगे। उनके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे। घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियोंके साथ अपने पुत्र सिंहबलको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्यायके जपसे विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं गीताके सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बताऊँगा, सुनो। गुजरातमें सौराष्ट्र नामक एक नगर है वहाँ खड्गबहु नामके राजा राज्य करते थे, जो दूसरे इन्द्रके समान प्रतापी थे। उनके एक हाथी था, जो मद बहाया करता और सदा मदसे उन्मत्त रहता था। उस हाथीका नाम अरिमर्दन था। एक दिन रातमें वह हठात् साँकलों और लोहेके खम्भोंको तोड़-फोड़कर बाहर निकला। हाथीवान उसके दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहनेके स्थान हथिसारको ढहा दिया। उसपर चारों ओरसे भालोंकी मार पड़ रही थी। फिर भी हाथीवान ही डरे हुए थे, हाथीको तनिक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूर्ण घटनाको सुनकर राजा स्वयं हाथीको मनानेकी कलामें निपुण राजकुमारोंके साथ वहाँ आये। आकर उन्होंने उस बलवान् दैतैले हाथीको देखा। नगरके निवासी अन्य काम-धंधोंकी चिन्ता छोड़ अपने बालकको भयसे बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजराजको देखते रहे। इसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्गसे लौटे। वे गीताके सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका जप कर रहे थे। पुरवासियों और पीलवानोंने उन्हें बहुत मना किया; किन्तु उन्होंने किसीकी न मानी। उन्हें हाथीसे भय नहीं था इसीलिये वे विचलित नहीं हुए। उधर हाथी अपने फूत्कारसे चारों दिशाओंको व्याप्त करता हुआ लोगोंको कुचल रहा था। वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मदको हाथसे छूकर कुशलपूर्वक निकल गये। इससे वहाँ राजा तथा देखनेवाले पुरवासियोंके मनमें इतना विस्मय हुआ कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। राजाके कमलनेत्र चकित हो उठे थे। उन्होंने ब्राह्मणको बुला सवारीसे उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा ‘ब्रह्मन् आज आपने यह महान् अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि इस कालके समान भयंकर गजराजके सामनेसे आप सकुशल लौट आये हैं। प्रभो। आप किस देवताका पूजन तथा किस मन्त्रका जप करते हैं? बताइये, आपने कौन सी सिद्धि प्राप्त की है?’ ब्राह्मणने कहा- राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताकेसोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका जप किया करता हूँ, उसीसे ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।

श्रीमहादेवजी कहते हैं – तब हाथीका कौतूहल देखनेकी इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मणदेवताको साथ ले अपने महलमें आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्ण मुद्राओंकी दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मणको संतुष्ट किया और उनसे गीता – मन्त्रकी दीक्षा ली। गीताके सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका अभ्यास कर लेनेके बाद उनके मनमें हाथीको छोड़कर उसके कौतुक देखनेकी इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिकोंके साथ बाहर निकलकर राजाने हाथीवानोंसे उसी मत्त गजराजका बन्धन खुलवाया। उन्हें भयकी बात भूल गयी । राज्यके सुख-विलासके प्रति आदरका भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथीके सामने चले गये। साहसी मनुष्योंमें अग्रगण्य राजा खड्गबाहु मन्त्रपर विश्वास करके हाथीके समीप गये और मदकी अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थलको हाथसे छूकर सकुशल लौट आये। कालके मुखसे धार्मिक और खलके मुखसे साधु पुरुषकी भाँति राजा उस गजराजके मुखसे बचकर निकल आये।नगरमें आनेपर उन्होंने अपने राजकुमारको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीताके सोलहवें अध्यायका जप करके परमगति प्राप्त की।

अध्याय 221 श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया गया। अब सत्रहवें अध्यायकी अनन्त महिमा श्रवण करो। राजा खड्गबाहुके पुत्रका दुःशासन नामक एक नौकर था। वह बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य था। एक बार वह माण्डलिक राजकुमारोंके साथ बहुत धनकी बाजी लगाकर हाथीपर चढ़ा और कुछ ही कदम आगे जानेपर लोगोंके मना करनेपर भी वह मूढ़ हाथीके प्रति जोर-जोरसे कठोर शब्द करने लगा। उसकी आवाज सुनकर हाथी क्रोधसे अंधा हो गया और दुःशासन पैर फिसल जानेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा। दुःशासनको गिरकर कुछ कुछ उच्छ्वास लेते देख कालके समान निरंकुश हाथीने क्रोधमें भरकर उसे ऊपर फेंक दिया। ऊपरसे गिरते हीउसके प्राण निकल गये। इस प्रकार कालवश मृत्युको प्राप्त होनेके बाद उसे हाथीकी ही योनि मिली और सिंहलद्वीपके महाराजके यहाँ उसने अपना बहुत समय व्यतीत किया।

सिंहलद्वीपके राजाकी महाराज खड्गबाहुसे बड़ी मैत्री थी, अतः उन्होंने जलके मार्गसे उस हाथीको मित्रकी प्रसन्नताके लिये भेज दिया। एक दिन राजाने श्लोककी समस्या-पूर्तिसे सन्तुष्ट होकर किसी कविको पुरस्काररूपमें वह हाथी दे दिया और उन्होंने सौ स्वर्ण मुद्राएँ लेकर उसे मालव-नरेशके हाथ बेच दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वह हाथी यत्नपूर्वक पालित होनेपर भी असाध्य ज्वरसे ग्रस्त होकर मरणासन्न हो गया। हाथीवानोंने जब उसे ऐसी शोचनीय अवस्थामेंदेखा तो राजाके पास जाकर हाथीके हितके लिये शीघ्र ही सारा हाल कह सुनाया ‘महाराज! आपका हाथी अस्वस्थ जान पड़ता है। उसका खाना पीना और सोना सब छूट गया है। हमारी समझमें नहीं आता इसका क्या कारण है।’

हाथीवानोंका बताया हुआ समाचार सुनकर राजाने हाथीके रोगको पहचाननेवाले चिकित्साकुशल मन्त्रियोंके साथ उस स्थानपर पदार्पण किया जहाँ हाथी ज्वरग्रस्त होकर पड़ा था। राजाको देखते ही उसने ज्वरजनित वेदनाको भूलकर संसारको आश्चर्यमें डालनेवाली वाणीमें कहा – ‘सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, राजनीतिके समुद्र, शत्रु समुदायको परास्त करनेवाले तथा भगवान् विष्णुके चरणोंमें अनुराग रखनेवाले महाराज ! इन औषधोंसे क्या लेना है ? वैद्योंसे भी कुछ लाभ होनेवाला नहीं है। दान और जपसे भी क्या सिद्ध होगा? आप कृपा करके गीताके सत्रहवें अध्यायका पाठ करनेवाले किसी ब्राह्मणको बुलवाइये।’

हाथीके कथनानुसार राजाने सब कुछ वैसा ही किया। तदनन्तर गीता-पाठ करनेवाले ब्राह्मणने जबउत्तम जलको अभिमन्त्रित करके उसके ऊपर डाला, तो दुःशासन गजयोनिका परित्याग करके मुक्त हो गया। राजाने दुःशासनको दिव्य विमानपर आरूढ़ एवं इन्द्रके समान तेजस्वी देखकर पूछा-‘तुम्हारी पूर्व जन्ममें क्या जाति थी? क्या स्वरूप था ? कैसे आचरण थे? और किस कर्मसे तुम यहाँ हाथी होकर आये थे ? ये सारी बातें मुझे बताओ’ राजाके इस प्रकार पूछनेपर संकटसे छूटे हुए दुःशासनने विमानपर बैठे-ही-बैठे स्थिरताके साथ अपना यथावत् समाचार कह सुनाया। तत्पश्चात् नरश्रेष्ठ मालवनरेश भी गीताके सत्रहवें अध्यायका जप करने लगे। इससे थोड़े ही समयमे उनकी मुक्ति हो गयी।

श्रीपार्वतीजीने कहा- भगवन्! आपने सत्रहवें अध्यायका माहात्म्य बतलाया। अब अठारहवें अध्यायके माहात्म्यका वर्णन कीजिये।

श्रीमहादेवजीने कहा- गिरिनन्दिनि चिन्मय आनन्दकी धारा बहानेवाले अठारहवें अध्यायके पावन माहात्म्यको, जो वेदसे भी उत्तम है, श्रवण करो यह सम्पूर्ण शास्त्रोंका सर्वस्व, कानोंमें पड़ा हुआ रसायनके समान तथा संसारके यातना जालको छिन्न-भिन्न करनेवाला है। सिद्ध पुरुषोंके लिये यह परम रहस्यकी वस्तु है। इसमें अविद्याका नाश करनेकी पूर्ण क्षमता है। यह भगवान् विष्णुकी चेतना तथा सर्वश्रेष्ठ परमपद है। इतना ही नहीं, यह विवेकमयी लताका मूल, काम, क्रोध और मदको नष्ट करनेवाला, इन्द्र आदि देवताओंके चित्तका विश्राम-मन्दिर तथा सनक सनन्दन आदि महायोगियोंका मनोरंजन करनेवाला है। इसके पाठमात्रसे यमदूतोंकी गर्जना बंद हो जाती है। पार्वती ! इससे बढ़कर कोई ऐसा रहस्यमय उपदेश नहीं है, जो सन्तप्त मानवोंके त्रिविध तापको हरनेवाला और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाला हो। अठारहवें अध्यायका लोकोत्तर माहात्म्य है। इसके सम्बन्धमें जो पवित्र उपाख्यान है, उसे भक्तिपूर्वक सुनो। उसके श्रवणमात्रसे जीव समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है।

मेरुगिरिके शिखरपर अमरावती नामवाली एकरमणीय पुरी है। उसे पूर्वकालमें विश्वकर्माने बनाया था। उस पुरीमें देवताओंद्वारा सेवित इन्द्र शचीके साथ करते थे। एक दिन सुखपूर्वक बैठे हुए थे, इतनेहीमें उन्होंने देखा कि भगवान् विष्णुके दूतोंसे सेवित एक अन्य पुरुष वहाँ आ रहा है। इन्द्र उस नवागत पुरुषके तेजसे तिरस्कृत होकर तुरंत ही अपने मणिमय सिंहासनसे मण्डपमें गिर पड़े। तब इन्द्रके सेवकोंने देवलोकके साम्राज्यका मुकुट इस नूतन इन्द्रके मस्तकपर रख दिया। फिर तो दिव्य गीत गाती हुई देवांगनाओंके साथ सब देवता उनकी आरती उतारने लगे। ऋषियोंने वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये। रम्भा आदि अप्सराएँ उनके आगे नृत्य करने लगीं। गन्धर्वोका ललित स्वरमें मंगलमय गान होने लगा।

इस प्रकार इस नवीन इन्द्रको सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किये बिना ही नाना प्रकारके उत्सवोंसे सेवित देखकर पुराने इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे- ‘इसने तो मार्गमें न कभी पाँसले बनवाये हैं, न पोखरे खुदवाये हैं और न पथिकोंको विश्राम देनेवाले बड़े-बड़े वृक्ष ही लगवाये हैं। अकाल पड़नेपर अन्नदानके द्वारा इसने प्राणियोंका सत्कार भी नहीं किया है। इसके द्वारा तीर्थोंमें सत्र और गाँवोंमें यज्ञका अनुष्ठान भी नहीं हुआ है। फिर इसने यहाँ भाग्यकी दी हुई ये सारी वस्तुएँ कैसे प्राप्त की हैं?’ इस चिन्तासे व्याकुल होकर इन्द्र भगवान् विष्णुले पूछने के लिये वेगपूर्वक क्षीरसागर के तटपर गये और वहाँ अकस्मात् अपने साम्राज्यसे भ्रष्ट होनेका दुःख निवेदन करते हुए बोले-‘लक्ष्मीकान्त मैंने पूर्व कालमें आपको प्रसन्नताके लिये सौ यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उसीके पुण्यसे मुझे इन्द्रपदकी प्राप्ति हुई थी; किन्तु इस समय स्वर्गमें कोई दूसरा ही इन्द्र अधिकार जमाये बैठा है। उसने तो न कभी धर्मका अनुष्ठान किया है और न यज्ञोंका। फिर उसने मेरे दिव्य सिंहासनपर कैसे अधिकार जमाया है?’ श्रीभगवान् बोले- इन्द्र वह गीताके अठारहवें
अध्यायमेंसे पाँच श्लोकोंका प्रतिदिन जप करता हैउसीके पुण्यसे उसने तुम्हारे उत्तम साम्राज्यको प्राप्तकर लिया है। गीताके अठारहवें अध्यायका पाठ सब पुष्पोंका शिरोमणि है। उसीका आश्रय लेकर तुम भी अपने पदपर स्थिर हो सकते हो।

भगवान् विष्णुके ये वचन सुनकर और उस उत्तम उपायको जानकर इन्द्र ब्राह्मणका वेष बनाये गोदावरीके तटपर गये। वहाँ उन्होंने कालिकाग्राम नामक उत्तम और पवित्र नगर देखा, जहाँ कालका भी मर्दन करनेवाले भगवान् कालेश्वर विराजमान हैं। वहाँ गोदावरी तटपर एक परम धर्मात्मा ब्राह्मण बैठे थे, जो बड़े ही दयालु और वेदोंके पारंगत विद्वान् थे। वे अपने मनको वशमें करके प्रतिदिन गीताके अठारहवें अध्यायका जप किया करते थे उन्हें देखकर इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनके दोनों चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन्हींसे अठारहवें अध्यायको पढ़ा। फिर उसीके पुण्यसे उन्होंने श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लिया। इन्द्र आदि देवताओंका पद बहुत ही छोटा है, यह जानकर वे परम हर्षके साथ उत्तम वैकुण्ठधामको गये। अतः यह अध्याय मुनियोंके लिये श्रेष्ठ परमतत्त्व है। पार्वती ! अठारहवें अध्यायके इस दिव्य माहात्म्यका वर्णनसमाप्त हुआ। इसके श्रवणमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण गीताका पापनाशक माहात्म्य बतलाया गया। महाभागे ! जोपुरुष श्रद्धायुक्त होकर इसका श्रवण करता है, वह समस्त यज्ञोंका फल पाकर अन्तमें श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

अध्याय 222 देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन

पार्वतीजीने कहा- भगवन्! समस्त पुराणोंमें श्रीमद्भागवत श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके प्रत्येक पदमें महर्षिद्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका नाना प्रकारसे गान किया गया है; अतः इस समय उसीके माहात्म्यका इतिहाससहित वर्णन कीजिये ।

श्रीमहादेवजीने कहा- जिनका अभी यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा जो समस्त लौकिक वैदिक कृत्योंका परित्याग करके घरसे निकले जा रहे थे. ऐसे शुकदेवजीको बाल्यावस्थायें ही संन्यासी होते देख उनके पिता श्रीकृष्णद्वैपायनविरहसे कातर हो उठे और ‘बेटा! बेटा!! तुम कहाँ चले जा रहे हो ?’ इस प्रकार पुकारने लगे। उस समय शुकदेवजीके साथ एकाकार होनेके कारण वृक्षोंने ही उनकी ओरसे उत्तर दिया था। ऐसे सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें आत्मारूपसे विराजमान परम ज्ञानी श्रीशुकदेव मुनिको मैं प्रणाम करता हूँ।

एक समय भगवत्कथाका रसास्वादन करनेमें कुशल परम बुद्धिमान् शौनकजीने नैमिषारण्यमें विराजमान सूतजीको नमस्कार करके पूछा।

शौनकजी बोले- सूतजी आप इस समय कोई ऐसी सारगर्भित कथा कहिये, जो हमारे कानोंको अमृतके समान मधुर जान पड़े तथा जो अज्ञानान्धकारका विध्वंस और कोटि-कोटि जन्मोंके पापों का नाश करनेवाली हो। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यसे प्राप्त होनेवाला विज्ञान कैसे बढ़ता है तथा वैष्णवलोग किस प्रकार माया मोहका निवारण करते हैं। इस पोर कलिकालमें प्रायः जीव असुरस्वभावके हो गये हैं, इसीलिये वे नाना प्रकारके क्लेशोंसे घिरे रहते हैं; अतः उनकी शुद्धिका सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है? इस समय हमें ऐसा कोई साधन बताइये, जोसबसे अधिक कल्याणकारी, पवित्रको भी पवित्र करनेवाला तथा सदाके लिये भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करा देनेवाला हो। चिन्तामणि केवल लौकिक सुख देती है, कल्पवृक्ष स्वर्गतककी सम्पत्ति दे सकता है; किन्तु यदि गुरुदेव प्रसन्न हो जायँ तो वे योगियोंको भी कठिनतासे मिलनेवाला नित्य वैकुण्ठधामतक दे सकते हैं।

सूतजीने कहा— शौनकजी! आपके हृदयमें भगवत्कथाके प्रति प्रेम है अतः मैं भलीभाँति विचार करके सम्पूर्ण सिद्धान्तोंद्वारा अनुमोदित और संसार जनित भयका नाश करनेवाले सारभूत साधनका वर्णन करता हूँ। वह भक्तिको बढ़ानेवाला तथा भगवान् श्रीकृष्णकी प्रसन्नताका प्रधान हेतु है। आप उसे सावधान होकर सुनें। कलियुगमें कालरूपी सर्पसे डँसे जानेके भयको दूर करनेके लिये ही श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत-शास्त्रका उपदेश किया है। मनकी शुद्धिके लिये इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। जब जन्म-जन्मान्तरोंका पुण्य उदय होता है तब कहीं श्रीमद्भागवत – शास्त्रकी प्राप्ति होती है। जिस समय श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित्को कथा सुनानेके लिये सभामें विराजमान हुए, उस समय देवतालोग अमृतका कलश लेकर उनके पास आये। देवता अपना कार्य साधन करनेमें बड़े चतुर होते हैं। वे सब-के-सब श्रीशुकदेवजीको नमस्कार करके कहने लगे- ‘मुने ! आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृतका दान दीजिये। इस प्रकार परिवर्तन करके राजा परीक्षित् अमृतका पान करें [ और अमर हो जायँ] तथा हम सब लोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करेंगे। तब श्रीशुकदेवजीने सोचा- ‘इस लोकमें कहाँ अमृत औरकहाँ भागवतकथा, कहाँ काँच और कहाँ बहुमूल्य मणि!’ यह विचारकर वे देवताओंकी बातपर हँसने लगे, तथा उन्हें अनधिकारी जानकर कथामृतका दान नहीं किया। अतः श्रीमद्भागवतकी कथा देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। केवल श्रीमद्भागवतके अग हो राजा परीक्षित्‌का मोक्ष हुआ देख पूर्वकालमें ब्रह्माजीको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने सत्यलोकमें तराजू बाँधकर सब साधनोंको तौला उस समय अन्य सभी साधन हलके पड़ गये, अपने गौरवके कारण श्रीमद्भागवतका ही पलड़ा सबसे भारी रहा। यह देखकर समस्त ऋषियोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने इस पृथ्वीपर भगवत्स्वरूप भागवत – शास्त्रको ही पढ़ने-सुननेसे तत्काल भगवान्की प्राप्ति करानेवाला निश्चय किया। यदि एक वर्षमें श्रीमद्भागवतको सुनकर पूरा किया जाय, तो वह श्रवण महान् सौख्य प्रदान करनेवाला होता है। जिसके हृदयमें भगवद्भक्तिकी कामना हो, उसके लिये एक मासमें पूरे श्रीमद्भागवतका श्रवण उत्तम माना गया है। यदि सप्ताहपारायणकी विधिसे इसका श्रवण किया जाय तो यह सर्वथा मोक्ष देनेवाला होता है। पूर्वकालमें सनकादि महर्षियोंने कृपा करके इसे देवर्षि नारदको सुनाया था। यद्यपि देवर्षि नारद श्रीमद्भागवतको पहले ही ब्रह्माजीके मुखसे सुन चुके थे तथापि इसके सप्ताहश्रवणकी विधि तो उन्हें सनकादिने ही बतायी थी।

शौनकजी! अब मैं आपको वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजीने मुझे अपना प्रिय शिष्य जानकर एकान्तमें सुनाया था। एक समयकी बात है, सनक सनन्दन आदि चारों निर्मल अन्तःकरणवाले महर्षि सत्संगके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम) में आये। वहाँ उन्होंने नारदजीको देखा।

सनकादि कुमारोंने पूछा- ब्रहान् आपके मुखपर दीनता क्यों छा रही है। आप चिन्तासे आतुर कैसे हो रहे हैं। इतनी उतावलीके साथ आप जाते कहाँ हैं और आये कहाँसे हैं? इस समय तो आप जिसका सारा धन लुट गया हो, उस पुरुषके समान सुध-बुध खोये हुए हैं।आप जैसे आसक्तिशून्य विरक्त पुरुषकी ऐसी अवस्था होनी तो उचित नहीं है। बताइये, इसका क्या कारण है?

नारदजीने कहा- महात्माओ मैं पृथ्वीको नाग तीर्थोंके कारण] सबसे उत्तम जानकर यहाँकी यात्रा करनेके लिये आया था। आनेपर पुष्कर, प्रयाग, काशी, गोदावरी, हरिक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि तीर्थोंमें इधर-उधर विचरता रहा। किन्तु कहीं भी मुझे मनको सन्तोष देनेवाली शान्ति नहीं मिली। इस समय अधर्मके सखा कलियुगने सारी पृथ्वीको पीड़ित कर रखा है। अब यहाँ सत्य, तपस्या, शौच, दया और दान आदि कुछ भी नहीं हैं। बेचारे जीव पेट पालनेमें लगे हैं। वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि और भाग्यहीन हो गये हैं। उन्हें तरह तरहके उपद्रव घेरे रहते हैं। साधु-संत कहलानेवाले लोग पाखण्ड में फँस गये हैं। ऊपरसे विरक्त जान पड़ते हैं, किन्तु वास्तवमै पूरे संग्रही हैं। घर-घरमें स्त्रियोंका राज्य है। साले ही सलाहकार बने हुए हैं। पैसोंके लोभसे कन्याएँतक बेची जाती हैं। पति-पत्नीमें सदा ही कलह मचा रहता है। आश्रमों, तीर्थों और नदियोंपर म्लेच्छोंने अधिकार जमा रखा है। उन दुष्टोंने बहुत-से देवमन्दिर भी नष्ट कर दिये हैं। अब यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध न कोई जानी है और न सत्कर्म करनेवाला ही इस समय सब साधन कलिरूपी दावानलसे भस्म हो गया है। पृथ्वीपर चारों ओर सभीदेशवासी बाजारोंमें अन्न बेचते हैं। ब्राह्मणलोग पैसे लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्तिसे जीवन निर्वाह करती देखी जाती हैं। इस प्रकार कलियुगके दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजीके तटपर आ पहुँचा, जहाँ र भगवान् श्रीकृष्णकी लीला हुई थी। मुनीश्वरो ! वहाँ आनेपर मैंने जो आश्चर्यकी बात देखी है, उसे आपलोग सुनें- ‘वहाँ एक तरुणी स्त्री बैठी थी; जिसका चित्त बहुत ही खिन्न था। उसके पास ही दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्थामें पड़े जोर-जोरसे साँस ले रहे थे। वह तरुणी उनकी सेवा-शुश्रूषा करती, उन्हें जगाने की चेष्टा करती और अपने प्रयत्नमें असफल होकर रोने लगती थी। बीच-बीचमें दसों दिशाओंकी ओर दृष्टि डालकर वह अपने लिये कोई रक्षक भी ढूँढ़ रही थी। उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ पंखा झलती हुई उसे बार-बार सान्त्वना दे रही थीं। दूरसे ही यह सब देखकर मैं कौतूहलवश उसके पास चला गया। मुझे देखते ही वह युवती स्त्री उठकर खड़ी हो गयी और व्याकुल होकर बोली-‘महात्माजी !

क्षणभरके लिये ठहर जाइये और मेरी चिन्ताको भी नष्ट कीजिये। आपका दर्शन संसारके समस्त पापको सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है। आपके वचनोंसे मेरे दुःखकी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी। जब बहुत बड़ा भाग्य होता है, तभी आप-जैसे महात्माका दर्शन होता है।’नारदजी कहते हैं— युवतीकी ऐसी बात सुनकर मेरा हृदय करुणासे भर आया और मैंने उत्कण्ठित होकर उस सुन्दरीसे पूछा- देवि! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष कौन हैं? तथा तुम्हारे पास ये कमलके समान नेत्रोंवाली देवियाँ कौन हैं? तुम विस्तारके साथ अपने दुःखका कारण बताओ।

युवती बोली- मेरा नाम भक्ति है, ये दोनों पुरुष मेरे पुत्र हैं; इनका नाम ज्ञान और वैराग्य है। समयके फेरसे आज इनका शरीर जराजीर्ण हो गया है। इन देवियोंके रूपमें गंगा आदि नदियाँ हैं, जो मेरी सेवाके लिये आयी हैं। इस प्रकार साक्षात् देवियोंके द्वारा सेवित होनेपर भी मुझे सुख नहीं मिलता। तपोधन! अब तनिक सावधान होकर मेरी बात सुनिये। मेरी कथा कुछ विस्तृत है। उसे सुनकर मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। मैं द्रविड़ देशमें उत्पन्न होकर कर्णाटकमें बड़ी हुई। महाराष्ट्रमें भी कहीं-कहीं मेरा आदर हुआ। गुजरातमें आनेपर तो मुझे बुढ़ापेने घेर लिया। वहाँ घोर कलियुगके प्रभावसे पाखण्डियोंने मुझे अंग-भंग कर डाला। तबसे बहुत दिनोंतक मैं दुर्बल ही दुर्बल रही। वृन्दावन मुझे बहुत प्रिय है, इसलिये अपने दोनों पुत्रोंके साथ यहाँ चली आयी। इस स्थानपर आते ही मैं परम सुन्दरी नवयुवती हो गयी। इस समय मेरा रूप अत्यन्त मनोरम हो गया है, परन्तु मेरे ये दोनों पुत्र थके-माँदे होनेके कारण यहीं सोकर कष्ट भोग रहे हैं। मैं यह स्थान छोड़कर विदेश जाना चाहती थी; परन्तु ये दोनों बूढ़े हो गये हैं, इसी दु:खसे मैं दुःखित हो रही हूँ। पता नहीं मैं यहाँ युवती कैसे हो गयी और मेरे ये दोनों पुत्र बूढ़े क्यों हो गये । हम तीनों साथ-ही-साथ यात्रा करते थे, फिर हममें यह विपरीत अवस्था कैसे आ गयी। उचित तो यह है कि माता बूढ़ी हो और बेटे जवान; परन्तु यहाँ उलटी बात हो गयी। इसीलिये मैं चकितचित्त होकर अपने लिये शोक करती हूँ। महात्मन् ! आप परम बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। बताइये, इसमें क्या कारण हो सकता है ?

नारदजी कहते हैं— उसके इस प्रकार पूछनेपरमैंने कहा- साध्वी! मैं अभी ज्ञानदृष्टिसे अपने हृदयके 3 भीतर तुम्हारे दुःखका सारा कारण देखता हूँ। तुम खेद न करो। भगवान् तुम्हें शान्ति देंगे।

तब मुनीश्वर नारदजीने ध्यान लगाया और एक ही क्षणमें उसका कारण जानकर कहा- ‘बाले! तुम व ध्यान देकर सुनो। यह कलिकाल बड़ा भयंकर युगदृ है। इसीने सदाचारका लोप कर दिया। योगमार्ग और तप आदि भी लुप्त हो गये हैं। इस समय मनुष्य इ शठता और दुष्कर्ममें प्रवृत्त होकर असुरस्वभावके हो गये हैं। आज जगत् में सज्जन पुरुष दुःखी हैं और दुष्टलोग मौज करते हैं। ऐसे समयमें जो धैर्य धारण किये रहे, वही बुद्धिमान्, धीर अथवा पण्डित है। अब यह पृथ्वी न तो स्पर्श करनेयोग्य रह गयी है और न देखनेयोग्य। यह क्रमशः प्रतिवर्ष शेषनागके लिये भारभूत होती जा रही है। इसमें कहीं भी मंगल नहीं दिखायी देता । तुम्हें और तुम्हारे पुत्रोंको तो अब कोई देखता भी नहीं है। इस प्रकार विषयान्ध मनुष्योंके उपेक्षा करनेसे ही तुम जर्जर हो गयी थी, किन्तु वृन्दावनका संयोग पाकर पुनः नवीन तरुणी-सी हो गयी हो; अतः यह वृन्दावन धन्य है, जहाँ सब ओर भक्ति नृत्य कर रही है ! परन्तु इन ज्ञान और वैराग्यका यहाँ भी कोई ग्राहक नहीं है; इसलिये अभीतक इनका बुढ़ापा दूर नहीं हुआ। इन्हें अपने भीतर कुछ सुख सा प्रतीत हो रहा है, इससे इनकी गाढ़ सुषुप्तावस्थाका अनुमान होता है।

भक्तिने कहा- महर्षे! महाराज परीक्षितने इस अपवित्र कलियुगको पृथ्वीपर रहने ही क्यों दिया ? तथा कलियुगके आते ही सब वस्तुओंका सार कहाँ चला गया ? भगवान् तो बड़े दयालु हैं, उनसे भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है? मुने! मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। आपकी बातोंसे मुझे बड़ा सुख मिला है।

नारदजी बोले बाले यदि तुमने पूछा है तो प्रेमपूर्वक सुनो कल्याणी में तुम्हें सब बातें बताऊँगाऔर इससे तुम्हारा सब शोक दूर हो जायगा। जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोकको छोड़कर अपने परमधामको पधारे, उसी दिनसे यहाँ कलियुगका आगमन हुआ है, जो समस्त साधनोंमें बाधा उपस्थित करनेवाला है। दिग्विजयके समय जब राजा परीक्षित्की दृष्टि इस कलियुगके ऊपर पड़ी तो यह दीनभावसे उनकी शरण में गया। राजा भँरिके समान सारग्राही थे, इसलिये उन्होंने सोचा कि मुझे इसका वध नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस कलियुगमें एक बड़ा अद्भुत गुण है अन्य युगों में तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति नहीं होती, वही फल कलियुगमें भगवान् केशवके कीर्तनमात्रसे और अच्छे रूपमें उपलब्ध होता है।” असार होनेपर भी इस एक ही रूपमें यह सारभूत फल प्रदान करनेवाला है, यही देखकर राजा परीक्षितने कलियुगमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंके सुखके लिये इसे रहने दिया ।

इस समय लोगोंकी खोटे कममें प्रवृत्ति होनेसे सभी वस्तुओंका सार निकल गया है तथा इस पृथ्वीपर जितने भी पदार्थ हैं, वे बीजहीन भूसीके समान निस्सार हो गये हैं। ब्राह्मणलोग धनके लोभसे पर परमें जाकर प्रत्येक मनुष्यको [ अधिकारी अनधिकारीका विचार किये बिना ही ] भागवतकी कथा सुनाने लगे हैं, इससे कथाका सार चला गया लोगोंकी दृष्टिमें उसका कुछ महत्त्व नहीं रह गया है तीथोंमें बड़े भयंकर कर्म करनेवाले नास्तिक और दम्भी मनुष्य भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थोंका भी सार चला गया। जिनका चित्त काम, क्रोध, भारी लोभ और तृष्णासे सदा व्याकुल रहता है, वे भी तपस्वी बनकर बैठते हैं। इसलिये तपस्याका सार भी निकल गया। मनको काबू न करने, लोभ, दम्भ और पाखण्डका आश्रय लेने तथा शास्त्रका अभ्यास न करनेके कारण ध्यानयोगका फल भी चला गया। औरोंकी तो बात ही क्या, पण्डितलोग भी अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसोंकी तरह रमण करते हैं। वे सन्तानपैदा करनेमें ही दक्ष हैं। मुक्तिके साधनमें वे नितान्त र असमर्थ पाये जाते हैं। परम्परासे प्राप्त हुआ वैष्णव धर्म कहीं भी नहीं रह गया है। इस प्रकार जगह-जगह सभी वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युगका स्वभाव ही है, इसमें दोष किसीका नहीं है; यही कारण है कि कमलनयन भगवान् विष्णु निकट रहकर भी यह सब कुछ सहन करते हैं।

शौनकजी! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने जो कुछ कहा, उसे आप सुनिये ।

भक्ति बोली- देवर्षे! आप धन्य हैं। मेरेसौभाग्यसे ही आपका यहाँ शुभागमन हुआ है । संसारमें साधु-महात्माओंका दर्शन सब प्रकारके कार्योंको सिद्ध करनेवाला और सर्वश्रेष्ठ साधन है। अब जिस प्रकार मुझे सुख मिले- मेरा दुःख दूर जाय, वह उपाय बताइये। ब्रह्मन्! आप समस्त योगोंके स्वामी हैं, आपके लिये इस समय कुछ भी असाध्य नहीं है। एकमात्र आपके ही सुन्दर उपदेशको सुनकर कयाधू नन्दन प्रह्लादने संसारकी मायाका त्याग किया था तथा राजकुमार ध्रुव भी आपकी ही कृपासे ध्रुवपदको प्राप्त हुए थे। आप सब प्रकारसे मंगलभाजन एवं श्रीब्रह्माजीके पुत्र हैं; मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।

अध्याय 223 भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति

नारदजीने कहा- वाले! तुम व्यर्थ ही अपनेको खेदमें डालती हो। अहो ! इतनी चिन्तातुर क्यों हो रही हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्मरण करो। इससे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की तथा गोपसुन्दरियोंका मनोरथ पूर्ण किया, वे श्रीकृष्ण कहीं चले नहीं गये हैं। तुम तो साक्षात् भक्ति हो, जो उन्हें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् नीच पुरुषोंके घरोंमें भी चले जाते हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर – इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्म- सायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है। ऐसा सोचकर ही ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने तुम्हें प्रकट किया है। तुम भगवत्स्वरूपा, परमानन्दचिन्मूर्ति परम सुन्दरी तथा साक्षात् श्रीकृष्णकी प्रियतमा हो। एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूँ?’ उस समय भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भोंका पोषण करो। तुमने भगवान्‌की यह आज्ञा स्वीकार कर ली। इससे प्रसन्न होकर श्रीहरिने तुम्हें मुक्तिको दासीरूपमें दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको पुत्ररूपमें। तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे तो वैकुण्ठधाममेंही भक्तोंका पोषण करती हो । भूलोकमें उनका पोषण करनेके लिये तुमने केवल छायारूप धारण कर रखा है। मुक्ति अपने साथ ज्ञान और वैराग्यको लेकर तुम्हारी सेवाके लिये इस पृथ्वीपर आयी तथा सत्ययुगके आरम्भसे द्वापरके अन्ततक यहाँ बड़े आनन्दसे रही; परन्तु कलियुग आनेपर वह पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित होकर क्षीण होने लगी। तब तुम्हारी आज्ञासे वह तुरंत ही फिर वैकुण्ठलोकको चली गयी। अब भी वह तुम्हारे स्मरण करनेपर इस लोकमें आती है और फिर चली जाती है। इन ज्ञान और वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर अपने ही पास रख छोड़ा था । कलियुगमें मनुष्योंद्वारा इनकी उपेक्षा होनेके कारण ये तुम्हारे पुत्र उत्साहहीन और वृद्ध हो गये हैं; फिर भी तुम चिन्ता न करो। मैं इनके उद्धारका उपाय सोचता हूँ। सुमुखि ! कलियुगके समान कोई युग नहीं है। इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें और मनुष्य मनुष्यके भीतर स्थापित कर दूँगा । अन्य जितने भी धर्म हैं, उन सबको दबाकर और बड़े-बड़े उत्सव रचाकर यदि संसारमें मैं तुम्हारा प्रचार न कर दूँ तो मैं श्रीहरिका दास ही नहीं। इस कलियुगमें जो जीव तुमसे सम्बन्ध रखेंगे, वे पापी होनेपर भी निर्भयतापूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके नित्य धामको चले जायँगे। जिनकेहृदयमें सदा प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे पवित्रमूर्ति पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते। जिनके हृदयमें भक्तिभाव भरा हुआ है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस अथवा असुर भी नहीं छू सकते। भगवान् तपस्या, वेदाध्ययन, ज्ञान तथा कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते। वे केवल भक्तिसे ही वशीभूत होते हैं। इस विषय में गोपियाँ ही प्रमाण हैं। सहस्रों जन्मोंका पुण्य उदय होनेपर मनुष्योंका भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें भक्ति ही सार है। भक्तिसे ही भगवान् श्रीकृष्ण सामने प्रकट होते- प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। जो लोग भक्तिसे द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकोंमें दुःख उठाते हैं। पूर्वकालमें भक्तका तिरस्कार करनेवाले दुर्वासा ऋषिको कितना क्लेश भोगना पड़ा था। व्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान चर्चा आदि बहुत-से साधनोंकी क्या आवश्यकता है? एकमात्र भक्ति ही मोक्ष प्रदान करनेवाली है।

इस प्रकार नारदजीद्वारा निर्णय किये हुए अपने माहात्म्यको सुनकर भक्तिके सारे अंग पुष्ट हो गये। उसने नारदजीसे कहा-‘नारदजी! आप धन्य हैं। मुझमें आपकी निश्चल प्रीति है। मैं सदा आपके हृदयमें निवास करूँगी। कभी उसे छोड़कर नहीं जाऊँगी। साधो! आप बड़े कृपालु हैं। आपने एक क्षणमें ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया, किन्तु अभीतक मेरे पुत्रोंको चेत नहीं हुआ; अतः इन्हें भी शीघ्र ही सचेत कीजिये।

भक्तिके ये वचन सुनकर नारदजीको बड़ी दया आयी। वे उन्हें हाथकी अंगुलियोंसे दबा दबाकर जगाने लगे; फिर कानके पास मुँह लगाकर जोर-जोरसे बोले-‘ओ ज्ञान! जल्दी जागो। वैराग्य ! तुम भी शीघ्र ही जाग उठो।’ फिर वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बारम्बार गीता-पाठ करके उन्होंने उन दोनोंको जगाया। इससे वे बहुत जोर लगाकर किसी तरह उठ तो गये किन्तु आँख खोलकर देख न सके। आलस्यके कारण दोनों ही जँभाई लेते रहे। उनके सिरके बाल पककर बगुलोंकी तरह सफेद हो गये थे। सारे अंग रक्त-मांससे हीन होनेके कारण कंकाल प्रतीत होते थे। उन्हें देखकरऐसा जान पड़ता था, मानो सूखे काठ हों। भूखसे दुर्बल होनेके कारण वे फिर सो गये। उन्हें इस अवस्थामें देखकर देवर्षि नारदजीको बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे ‘अब मुझे क्या करना चाहिये, इनकी यह नींद कैसे जाय, तथा यह सबसे बड़ा बुढ़ापा कैसे दूर हो ?’ शौनकजी। इस प्रकार चिन्ता करते-करते उन्होंने भगवान् गोविन्दका स्मरण किया। उसी समय आकाशवाणी हुई- ‘मुने! खेद मत करो। तुम्हारा उद्योग निश्चय ही सफल होगा। देवर्षे! तुम इसके लिये सत्कर्मका अनुष्ठान करो। वह कर्म क्या है, यह तुम्हें साधु-शिरोमणि संतजन बतलायेंगे। उस सत्कर्मके करनेपर इनकी निद्रा और वृद्धावस्था दोनों क्षणभरमें दूर हो जायँगी तथा सर्वत्र भक्तिका प्रसार हो जायगा।’

यह आकाशवाणी वहाँ सबको साफ-साफ सुनायी दी। इससे नारदजीको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे-‘मैं तो इसका भाव नहीं समझ सका। इस आकाशवाणीने भी गुप्तरूपसे ही बात की है। यह नहीं बताया कि वह कौन-सा साधन करनेयोग्य है, जिससे इनका कार्य सिद्ध हो सके। वे संत न जाने कहाँ होंगे और किस प्रकार उस साधनका उपदेश देंगे। आकाशवाणीने जो कुछ कहा है, उसके अनुसार यहाँ मुझे क्या करना चाहिये ?’

तदनन्तर ज्ञान और वैराग्य दोनोंको वहीं छोड़कर नारद मुनि वहाँसे चल दिये और एक-एक तीर्थमें जाकर मार्गमें मिलनेवाले मुनीश्वरोंसे वह साधन पूछने लगे। उनका वृत्तान्त सब लोग सुन लेते; किन्तु कोई भी कुछ निश्चय करके उत्तर नहीं देता था। कुछ लोगोंने तो इस कार्यको असाध्य बता दिया और कोई बोले, ‘इसका ठीक-ठीक पता लगना कठिन है।’ कुछ लोग सुनकर मौन रह गये और कितने ही मुनि अपनी अवज्ञा होनेके भयसे चुपचाप खिसक गये। तीनों लोकोंमें महान् हाहाकार मचा, जो सबको विस्मयमें डालनेवाला था। लोग आपसमें काना-फुंसी करने लगे-‘भाई! जब वेदध्वनि, वेदान्तोष और गीता पाठ सुनानेपर भी ज्ञान और वैराग्य नहीं जाग सके तो अब दूसरा कोई उपायहै। भला योगो नारदको भी स्वयं जिसका ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी मनुष्य कैसे बता सकते हैं ?’ इस प्रकार जिन-जिन मुनियोंसे यह बात पूछी गयी, उन सबने निर्णय करके यही बताया कि यह कार्य दुस्साध्य है।

सूतजी बोले- तब नारदजी चिन्तासे आतुर हो बदरीवनमें आये। उन्होंने मन ही मन यह निश्चय किया था कि ‘उस साधनकी प्राप्तिके लिये यहीं तपस्या करूँगा।’ बदरीवनमें पहुँचते ही उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी सनकादि मुनीश्वर दिखायी दिये। तब मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उनसे कहा ‘महात्माओ! इस समय बड़े सौभाग्यसे मुझे आपलोगोंका समागम प्राप्त हुआ है। कुमारो ! आप मुझपर कृपा करके अब शीघ्र ही उस साधनको बताइये। आप सब लोग योगी, बुद्धिमान् और बहुज्ञ विद्वान् हैं। देखने में पाँच वर्षके बालक से होनेपर भी आप पूर्वजोंके भी पूर्वज हैं। आपलोग सदा वैकुण्ठधाममें निवास करते हैं। निरन्तर हरिनामकीर्तनमें तत्पर रहते हैं। भगवल्लीलामृतका रसास्वादन करके सदा उन्मत्त बने रहते हैं और एकमात्र भगवत्कथा ही आपके जीवनका आधार है। आपके मुखमें सदा ‘हरिः शरणम्’ (भगवान्) ही हमारे रक्षक हैं) यह मन्त्र विद्यमान रहता है। इसीसे कालप्रेरित वृद्धावस्था आपको बाधा नहीं पहुँचा सकती। पूर्वकालमें आपके भूभंगमात्र से भगवान् विष्णुके द्वारपाल जय और विजय तुरंत ही पृथ्वीपर गिर पड़े थे और फिर आपहीकी कृपासे वे पुनः वैकुण्ठधाममें पहुँचे। मेरा अहोभाग्य हैं, जिससे इस समय आपका दर्शन हुआ मैं बहुत दीन हूँ और आपलोग स्वभावसे ही दयालु है; अतः मुझपर आपकी कृपा होनी चाहिये। आकाशवाणीने जिस साधनकी ओर संकेत किया है, वह क्या है? इसे बताइये और किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये, इसका विस्तारसहित वर्णन कीजिये। भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको किस प्रकार सुख प्राप्त हो सकता है और किस तरह इनका प्रेमपूर्वक यत्न करके सब वर्णार्म प्रचार किया जा सकता है ?’ श्रीसनकादि बोले – देवयें! आप चिन्ता नकरें। अपने मनमें प्रसन्न हों उनके उद्धारका एक सुगम उपाय पहलेसे ही मौजूद है। नारदजी आप धन्य हैं। विरक्तोंके शिरोमणि हैं। भगवान् श्रीकृष्णके दासोंमें सदा आगे गिननेयोग्य हैं तथा योगमार्गको प्रकाशित करनेवाले साक्षात् सूर्य ही हैं। आप जो | भक्तिके लिये इतना उद्योग कर रहे हैं, यह आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्णके भक्तको तो भक्तिकी सदा स्थापना करना उचित ही है। ऋषियोंने इस संसारमें बहुत से मार्ग प्रकट किये हैं; किन्तु वे सभी परिश्रमसाध्य हैं और उनमेंसे अधिकांश स्वर्गरूप फलकी ही प्राप्ति करानेवाले हैं। भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाला मार्ग तो अभीतक गुप्त ही रहा है। उसका उपदेश करनेवाला पुरुष प्रायः बड़े भाग्यसे मिलता है आपको आकाशवाणीने पहले जिस कर्तव्यका संकेत किया है, उसे बतलाया जाता है। आप स्थिर एवं प्रसन्नचित्त होकर सुनिये। नारदजी! द्रव्ययज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ तथा स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ ये सब तो स्वर्गादिकी प्राप्ति करानेवाले कर्ममात्रके ही सूचक हैं, सत्कर्मके नहीं। सत्कर्म (मोक्षदायक कर्म ) – का सूचक तो विद्वानोंने केवल ज्ञानयज्ञको माना है। श्रीमद्भागवतका पारायण ही वह ज्ञानयज्ञ है, जिसका शुक आदि महात्माओंने गान किया है। उसके शब्द सुननेसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको बड़ा बल मिलेगा। इससे ज्ञान-वैराग्यका कष्ट दूर हो जायगा और भक्तिको सुख मिलेगा। श्रीमद्भागवतकी ध्वनि होनेपर कलियुगके ये सारे दोष उसी प्रकार दूर हो जायँगे, जैसे सिंहकी गर्जना सुनकर भेड़िये भाग जाते हैं। तब प्रेमरसकी धारा बहानेवाली भक्ति ज्ञान और वैराग्यके सहित प्रत्येक घरमें तथा प्रत्येक व्यक्तिके हृदयमें क्रीड़ा करेगी।

नारदजीने कहा- मैंने वेदध्वनि, वेदान्तघोष और गीतापाठ आदिके द्वारा ज्ञान और वैराग्यको बहुत जगाया किन्तु वे उठ न सके। ऐसी दशामें श्रीमद्भागवतका पाठ सुनानेसे वे कैसे जग सकेंगे; क्योंकि श्रीमद्भागवत कथाके श्लोक – श्लोकमें और पद-पदमें वेदोंका ही अर्थ भरा हुआ है आपलोग शरणागत पुरुषोंपर दयाकरनेवाले हैं। आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता; इसलिये मेरे सन्देहका निवारण कीजिये। इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।

श्रीसनकादि बोले- नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथा वेद और उपनिषदोंके सारसे प्रकट हुई है, अतः उनसे पृथक् फलके रूपमें आकर यह उनकी अपेक्षा भी अत्यन्त उत्तम प्रतीत होती है। जैसे आमके वृक्ष में जड़से लेकर शाखातक रस मौजूद रहता है, किन्तु उसका आस्वादन नहीं किया जा सकता; फिर वही एकत्रित होकर जब उससे पृथक् फलके रूपमें प्रकट होता है तो संसारमें सबके मनको प्रिय लगता है। जैसे दूधमें घी रहता है; किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता। फिर वही जब उससे पृथक् हो जाता है तो दिव्य जान पड़ता है और देवताओंके लिये भी स्वादवर्धक हो जाता है। खाँड ईखके आदि, मध्य और अन्त – प्रत्येक भागमें व्याप्त रहती है; तथापि उससे पृथक् होनेपर ही उसमें अधिक मधुरता आती है। इसी प्रकार यह श्रीमद्भागवतकी कथा भी है। यह श्रीमद्भागवतपुराण वेदोंके समान माना गया है। श्रीवेदव्यासजीने भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकीस्थापनाके लिये ही इसे प्रकट किया है। पूर्वकालमें जिस समय वेद-वेदान्तके निष्णात विद्वान् और गीताकी भी रचना करनेवाले वेदव्यासजी खिन्न होकर अज्ञानके समुद्रमें डूब रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चतुःश्लोकी भागवतका उपदेश किया था। उसका श्रवण करते ही व्यासदेवकी सारी चिन्ताएँ तत्काल दूर हो गयी थीं। उसी श्रीमद्भागवतके विषयमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे सन्देह पूछ रहे हैं? श्रीमद्भागवतशास्त्र समस्त शोक और दुःखका विनाश करनेवाला है।

नारदजीने कहा- महानुभावो! आपका दर्शन जीवके समस्त अमंगलका तत्काल नाश कर देता है और सांसारिक दुःखरूपी दावानलसे पीड़ित प्राणियोंपर शान्तिकी वर्षा करता है। आप निरन्तर शेषजीके सहस्र मुखोंद्वारा वर्णित भगवत्कथामृतका पान करते रहते हैं, मैं प्रेमलक्षणा-भक्तिका प्रकाश करनेके उद्देश्यसे आपकी शरणमें आया हूँ। अनेक जन्मोंके संचित सौभाग्यप्रद पुण्यका उदय होनेपर जब कभी मनुष्यको सत्संग प्राप्त होता है, तभी अज्ञानजनित मोहमय महान् अन्धकारका नाश करके विवेकका उदय होता है।

अध्याय 224 सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना

नारदजी बोले – ज्ञानयोगके विशेषज्ञ महात्माओ ! अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापना करनेके लिये श्रीशुकदेवजीके कहे हुए श्रीमद्भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा यत्नपूर्वक उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूँगा। यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये? इसके लिये कोई स्थान बतलाइये । आपलोग वेदोंके पारंगत विद्वान् हैं, इसलिये मुझे शुकशास्त्र (श्रीमद्भागवत) की महिमा भी सुनाइये। और यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुननी चाहिये तथा उसके सुननेके लिये कौन सी विधि है।

श्रीसनकादिने कहा- नारदजी! आप विनयी और विवेकी हैं, सुनिये- हम आपकी पूछी हुई सभीबातें बताते हैं। हरद्वारके समीप एक आनन्द नामका घाट है। वहाँ अनेकों ऋषि महर्षि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते हैं। नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे वह स्थान व्याप्त है। वहाँ नूतन एवं कोमल बालू बिछी हुई है। वह घाट बड़ा सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है। सुवर्णमय कमल उसकी शोभा बढ़ाया करते हैं। उसके आस-पास रहनेवाले जीवोंके मनमें वैरका भाव नहीं ठहरने पाता। वहाँ अधिक समारोहके बिना ही आपको ज्ञान-यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये। उस स्थानपर जो कथा होगी, उसमें बड़ा अपूर्व रस मिलेगा। भक्ति भी निर्बल एवं जरा-जीर्ण शरीरवाले अपने दोनों पुत्रोंको आगे करके वहीं आ जायगी; क्योंकिजहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि स्वतः पहुँच जाते हैं। वहाँ कानोंमें कथाका शब्द पढ़नेसे तीनों ही तरुण हो जायेंगे।

ऐसा कहकर देवर्षि नारदजीके साथ सनकादि श्री भागवत कथारूपी अमृतका पान करनेके लिये शीघ्र ही हरद्वारमें गंगाजीके तटपर आ गये। जिस समय वे वहाँ तटपर पहुँचे भूलोक, देवलोक तथा ब्रह्मलोकमे सब जगह इस कथाका शोर हो गया। रसिक भक्त श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके लिये वहाँ सबसे पहले दौड़-दौड़कर आने लगे। भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, श्रीमान् छायाशुक, जाजलि और जनु आदि सभी प्रधान मुनिगण अपने पुत्र, मित्र और स्त्रियोंको साथ लिये बड़े प्रेमसे यहाँ आये इनके सिवा वेद, वेदान्त, मन्त्र तन्त्र, सत्रह पुराण और छहों शास्त्र भी वहाँ मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुए। गंगा आदि नदियाँ; पुष्कर आदि सरोवर समस्त क्षेत्र सम्पूर्ण दिशाएँ, दण्डक आदि वन; नाग आदि गण देव, गन्धर्व और किन्नर सभी कथा सुननेके लिये चले आये। जो लोग अपनेको बड़ा माननेके कारण संकोचवश वहाँ नहीं उपस्थित हुए थे, उन्हें महर्षि भृगु समझा बुझाकर से आये।

तदनन्तर, कथा सुनानेके लिये दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर श्रीकृष्णपरायण सनकादि नारदजीके दिये हुए उत्तम आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनको मस्तक झुकाया। श्रोताओं में वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी ये सबसे आगे बैठे और उनके भी आगे देवर्षि नारदजी विराजमान हुए। एक और ऋषि बैठे थे और दूसरी ओर देवता। वेदों और उपनिषदोंका अलग आसन था। एक ओर तीर्थ विराजमान हुए और दूसरी ओर स्त्रियाँ । उस समय सब और जयजयकार, नमस्कार और शंखोंका शब्द होने अबीर-गुलाल आदि चूर्ण, खोल और फूलोकीखूब वर्षा हुई। कितने ही देवेश्वर विमानोंपर बैठकर वहाँ उपस्थित हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्षके फूलोंकी वर्षा करने लगे।

इस प्रकार जब पूजा समाप्त हुई और सब लोग एकाग्रचित्त होकर बैठ गये, तब सनकादि मुनि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके बतलाने लगे।

श्रीसनकादिने कहा- नारदजी अब हम आपसे इस भागवत शास्त्रकी महिमाका वर्णन करते हैं। इसके सुननेमात्र ही मुक्ति हाथ लग जाती है। श्रीमद्भागवतकी कथाका सदा ही सेवन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे मुक्तिरत्नकी प्राप्ति हो जाती है। यह ग्रन्थ अठारह हजार श्लोकोंका है। इसमें बारह स्कन्ध हैं। यह राजा परीक्षित और श्रीशुकदेव मुनिका संवादरूप है। हम इस श्रीमद्भागवतको सुनाते हैं, आप ध्यान देकर सुनें। जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक कि क्षणभरके लिये भी यह श्रीमद्भागवत कथा उसके कानोंमें नहीं पड़ती। बहुत से शास्त्रों और पुराणोंके सुननेसे क्या लाभ इससे तो भ्रम ही बढ़ता है। भागवत – शास्त्र अकेला ही मोक्ष देनेके लिये गरज रहा है। जिस घरमें प्रतिदिन श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है। जो लोग उसमें निवास करते हैं, उनके पापोंका नाश कर देता है। सहस्रौ अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी इस श्रीमद्भागवतकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते। तपोधनो! मनुष्य जबतक श्रीमद्भागवत कथाका भलीभाँति श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीर में पाप ठहर सकते हैं। गंगा, गया, काशी, पुष्कर और प्रयाग-ये श्रीमद्भागवत कथाके फलकी बराबरी नहीं कर सकते ॐकार, गायत्रीमन्त्र, पुरुषसूक्त, म साम और यजुः ये तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह द्वादशाक्षर मन्त्र बारह मूर्तिवाले सूर्य, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम इन सबमें विद्वान् पुरुष वस्तुतःकोई अन्तर नहीं मानते। जो मनुष्य प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्रका अर्थसहित पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंके किये हुए पापका नाश हो जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो नित्यप्रति श्रीमद्भागवतके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ करता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल प्राप्त होता है। नित्य श्रीमद्भागवतका पाठ करना, श्रीहरिका ध्यान करना, तुलसीके पौधेको सींचना और गौओंकी सेवा करना ये चारों समान हैं। जो पुरुष अन्तकालमें श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न हो भगवान् गोविन्द उसे अपना वैकुण्ठधामतक दे डालते हैं। जो मानव इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर श्रीविष्णु भक्तको दान करता है, उसे निश्चय ही भगवान् श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त होता है। जिस दुष्टने अपने जन्मसे लेकर समस्त जीवनमें चित्तको एकाग्र करके कभी श्रीमद्भागवत कथामृतका थोड़ा सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया। वह तो माताको प्रसक्की पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ था। यह कितने खेदकी बात है जिसने इस शुक-शास्त्रके | थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा जीते-जी भी मुर्देके ही समान है। वह इस पृथ्वीका भाररूप है। मनुष्य होकर भी पशुके ही तुल्य है। उसे धिक्कार है – इस प्रकार उसके विषयमें स्वर्गके प्रधान प्रधान देवता कहा करते हैं। संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथा परम दुर्लभ है। जब करोड़ों जन्मोंके पुण्योंका उदय होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है।

इसलिये योगनिधि बुद्धिमान् नारदजी! श्रीमद्भागवतका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। इसके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है। सदा ही इसका सुनना उत्तम माना गया है। सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सदा ही इसको सुनना उत्तम है, किन्तु कलियुगमें ऐसा होना बहुत ही कठिन है, इसलिये इसके विषयमें श्रीशुकदेवजीके आदेशके अनुसार यह विशेष विधि जान लेनी चाहिये। मनके असंयम, रोगोंकेआक्रमण, मनुष्योंकी आयुके ह्रास और कलियुगके अनेक दोषोंकी सम्भावनाके कारण एक सप्ताहमें ही भागवतके श्रवणका नियम किया गया है। कलियुगमें अधिक दिनोंतक मनकी वृत्तियोंपर काबू रखना, नियमोंका पालन करना और विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करना बहुत कठिन है; इसलिये इस समय सप्ताह श्रवणका विधान है। प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक श्रीमद्भागवतको आदिसे अन्ततक सुननेका जो फल है, वही श्रीशुकदेवजीने सप्ताह श्रवणमें भी बताया है। तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति असम्भव है, वह सब श्रीमद्भागवतका सप्ताहश्रवण करनेसे अनायास ही मिल जाता है। सप्ताहश्रवण यज्ञसे भी बढ़कर अपने महत्त्वकी घोषणा करता है, व्रतसे भी अधिक होनेका दावा करता है, तपस्यासे भी श्रेष्ठ होनेकी गर्जना करता है और तीर्थसे तो वह सदा बढ़कर है ही। इतना ही नहीं, सप्ताहश्रवण योगसे भी बढ़कर हैं, ध्यान और ज्ञानसे भी बढ़ा-चढ़ा है। कहाँतक उसकी विशेषताका वर्णन करें। अरे! वह तो सबसे बढ़-चढ़कर है।

शौनकजीने पूछा- सूतजी ! यह तो आपने बड़े आश्चर्यकी बात बतायी। माना कि यह श्रीमद्भागवत पुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण भगवान् श्रीपुरुषोत्तमका निरूपण करनेवाला है; परन्तु यह इस युगमें ज्ञान आदि साधनोंका तिरस्कार करके उनसे भी बढ़कर कल्याणका साधक कैसे हो गया ?

सूतजीने कहा – शौनकजी! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने परमधामको पधारनेके लिये उद्यत हुए, उस समय उद्धवजीने उनके मुखसे एकादशस्कन्धमें वर्णित ज्ञानका उपदेश सुनकर भी उनसे इस प्रकार कहा।

उद्धवजी बोले- गोविन्द ! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करके परमधामको पधारना चाहते हैं; किन्तु मेरे मनमें एक बहुत बड़ी चिन्ता है, उसे सुनकर आप मुझे सुखी कीजिये। देखिये, यह भयंकर कलिकाल आया ही चाहता है। अब फिर संसारमें दुष्टलोग उत्पन्न होंगे। उनके संसर्गसे साधु पुरुष भी उग्र स्वभाव होजायेंगे। उस समय उनके भारसे दबी हुई यह सरूपधारिणी भूमि किसकी शरण में जायगी। कमल जयन! मुझे तो आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक दिखायी देता इसलिये भक्तवत्सल आप साधु पुरुषो दया करके यहाँ मत जाइये। निराकार एवं चिन्मय होते हुए भी आपने भक्तोंके लिये ही यह सगुणरूप धारण किया है। अब वे ही भक्त आपके वियोगमें इस पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणकी उपासनामें हो बहुत कठिनाई है, अतः वह उनसे हो नहीं सकती; इसलिये मेरे कथनपर कुछ विचार कीजिये।

सूतजी कहते हैं- प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर श्रीहरिने सोचा- ‘भक्तोंके अवलम्बके लिये इस समय मुझे क्या करना चाहिये ?’ इस प्रकार विचार करके भगवान्ने अपना सम्पूर्ण तेज श्रीमद्भागवतमें स्थापित कर दिया। वे अन्तर्धान होकर श्रीमद्भागवतरूपी समुद्रमें प्रवेश कर गये इसलिये यह श्रीमद्भागवत भगवान्को साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। इसके सेवनसे तथा सुनने, पढ़ने और दर्शन करनेसे यह सब पापका नाश कर देती है। इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है। कलियुगमें अन्य सब साधनोंको छोड़कर इसीको प्रधान धर्म बताया गया है। दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंको धो डालनेके लिये तथा काम और क्रोधको काबू में करनेके लिये कलिकालमें यही प्रधान धर्म कहा गया है; अन्यथा भगवान् विष्णुकी मायासे पिण्ड छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर मनुष्य तो उसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छुटकारा पानेके लिये भी सप्ताह श्रवणका विधान किया गया है।

शौनकजी जब सनकादि ऋषि इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महान् महिमाका वर्णन कर रहे थे, उस समय सभामें एक बड़े आश्चर्यकी बात हुई; उसे मैं बतलाता हूँ, सुनिये प्रेमरूपा भक्ति तरुण अवस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ ले सहसा वहाँ प्रकट हो गयी। उस समय उसके मुखसे ‘श्रीकृष्ण! गोविन्द हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव! ‘आदिभगवन्नामका बारंबार उच्चारण हो रहा था। उस समाजमे बैठे हुए श्रोताओंने जब श्रीमद्भागवतके अर्थभूत, भगवान्के गलेकी हार एवं मनोहर वेषवाली भक्ति देवीको वहाँ उपस्थित देखा तो वे मन-ही-मन तर्क करने लगे- ‘ये मुनियोंके बीचमें कैसे आ गयीं? इनका यहाँ किस प्रकार प्रवेश हुआ ?’ तब सनकादिने कहा “इस समय ये भक्तिदेवी यहाँ कथाके अर्थसे ही प्रकट हुई हैं।’ उनके ये वचन सुनकर भक्तिने पुत्रों सहित अत्यन्त विनीत हो सनत्कुमारजीसे कहा-‘महानुभाव! मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी किन्तु आपने भागवत कथारूप अमृतसे सींचकर आज फिर मुझे पुष्ट कर दिया। अब आपलोग बताइये, मैं कहाँ रहूँ?” तब ब्रह्मकुमार सनकादि ऋषियोंने कहा- ‘भक्ति भक्तोंके हृदयमें भगवान् गोविन्दके सुन्दर रूपकी स्थापना करनेवाली है। वह अनन्य प्रेम प्रदान करनेवाली तथा संसार रोगको हर लेनेवाली है। तुम वही भक्ति हो, अतः धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर भक्तोंके हृदय मन्दिरमें निवास करो। वहाँ ये कलियुगके दोष सारे संसारपर प्रभाव डालने में समर्थ होकर भी तुम्हारी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते।’ इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्तिदेवी भगवद्भकोंके हृदयमन्दिरमें विराजमान हो गयीं। शौनकजी जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्तिका ही निवास है, वे मनुष्य सारे संसारमैनिर्धन होनेपर भी धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर साक्षात् भगवान् भी अपने धामको छोड़कर सर्वथा उनके हृदयमें बस जाते हैं। भूलोकमें यह श्रीमद्भागवत साक्षात् परब्रह्मका स्वरूप है। हम इसकीमहिमाका आज तुमसे कहाँतक बखान करें। इसका आश्रय लेकर पाठ करनेपर इसके वक्ता और श्रोता दोनों ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त कर लेते हैं; अतः इसको छोड़कर अन्य धर्मोंसे क्या प्रयोजन है?

अध्याय 225 कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन

तजी कहते हैं— शौनकजी! तदनन्तर अपने भक्तोंके हृदयमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण अपना धाम छोड़कर वहाँ पधारे। उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी। श्रीविग्रह नूतन मेघके समान श्यामवर्ण था। उसपर पीताम्बर सुशोभित हो रहा था भगवान्की वह झाँकी चित्तको चुराये लेती थी। उनका कटिप्रदेश करधनीकी लड़ियोंसे अलंकृत था। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल शोभा पा रहे थे। बाँकी अदासे खड़े होनेके कारण वे बड़े मनोहर प्रतीत होते थे। वक्षःस्थलपर सुन्दर कौस्तुभमणि दमक रही थी। सारा श्री अंग हरिचन्दनसे चर्चित था। करोड़ों कामदेवकी रूप- माधुरी उनपर निछावर हो रही थी। इस प्रकार वे परमानन्द- चिन्मूर्ति परम मधुर मुरलीधर श्रीकृष्ण अपने भक्तोंके निर्मल हृदयमें प्रकट हुए। वैकुण्ठ (गोलोक ) में निवास करनेवाले जो उद्भव आदि वैष्णव हैं, वे भी वह कथा सुननेके लिये गुप्तरूपसे वहाँ उपस्थित थे। भगवान्‌के पधारते ही वहाँ चारों ओरसे जय जयकारकी ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अलौकिक प्रवाह वह चला। अबीर और गुलालके साथ ही फूलोंकी वर्षा होने लगी वारंवार शंखध्वनि होती रहती थी। उस सभामें जितने लोग विराजमान थे, उन्हें अपने देह गेह और आत्मातककी सुध-बुध भूल गयी थी। उनकी यह तन्मयताको अवस्था देख देवर्षि नारदजी इस प्रकार कहने लगे

नारदजी बोले – मुनीश्वरो! आज मैंने सप्ताह श्रवणकी यह बड़ी अलौकिक महिमा देखी है। यहाँ जोमूढ़, शठ और पशु-पक्षी आदि हैं, वे भी इसके प्रभावसे पापशून्य प्रतीत होते हैं। अतः इस मर्त्यलोकमें चित्त-शुद्धिके लिये इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। कलिकालमें यह श्रीमद्भागवतकी कथा ही पाप राशिका विनाश करनेवाली है। इस कथाके समान पृथ्वीपर दूसरा कोई साधन नहीं है। अच्छा, अब मुझे यह बताइये कि इस कथामय सप्ताहयज्ञसे संसारमें कौन-कौन लोग शुद्ध होते हैं। मुनिवर ! आपलोग बड़े दयालु हैं। आपलोगोंने लोकहितका विचार करके यह बिलकुल निराला मार्ग निकाला है।

सनकादिने कहा- देवर्षे ! जो लोग सदा ही भाँति-भाँतिके पाप करते हैं, दुराचारमें प्रवृत्त रहते हैं और शास्त्र – विरुद्ध मार्गोंसे चलते हैं तथा जो क्रोधाग्निसे जलनेवाले, कुटिल और कामी हैं, वे सभी कलिकालमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो सत्यसे हीन, पिता माताकी निन्दा करनेवाले, तृष्णासे व्याकुल, आश्रम धर्मसे रहित, दम्भी, दूसरोंसे डाह रखनेवाले और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुपत्नी-गमन और विश्वासघात – ये पाँच भयंकर पाप करनेवाले, छल-छद्ममें प्रवृत्त रहनेवाले, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं। जो शठ हठपूर्वक मन, वाणी और शरीरके द्वारा सदा पाप करते रहते हैं, दूसरोंके धनसे पुष्ट होते हैं, मलिन शरीर तथा खोटे हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं।नारदजी! इस विषयमें अब हम तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, जिसके श्रवणमात्र पापका हो जाता है। पूर्वकालकी बात है-तुंगभद्रा नदीके तटपर एक उत्तम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी लोग अपने-अपने धर्मोका पालन करते और सत्य एवं सत्कर्ममें लगे रहते थे। उस नगरमें आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौतस्मार्त कर्मोंमें निष्णात था। वह ब्राह्मण द्वितीय सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था। यद्यपि वह भिक्षासे ही जीवन निर्वाह करता था, तो भी लोकमे धनवान् समझा जाता था। उसकी स्त्रीका नाम धुन्धुली था। वह सुन्दरी तो थी ही, अच्छे कुलमें भी उत्पन्न हुई थी। फिर भी स्वभावकी बड़ी हठीली थी। सदा अपनी ही टेक रखती थी हमेशा दूसरे लोगोंकी चर्चा किया करती थी। उसमें क्रूरता भी थी तथा वह प्रायः बहुत बकवाद किया करती थी, परन्तु घरका काम-काज करनेमें बड़ी बहादुर थी। कंजूस भी कम नहीं थी। कलहका तो उसे व्यसन-सा हो गया था। । ये दोनों पति-पत्नी बड़े प्रेमसे रहते थे फिर भी उन्हें कोई सन्तान नहीं थी इस कारण धन, भोग-सामग्री तथा घर आदि कोई भी वस्तु उन्हें सुखद नहीं जान पड़ती थी। कुछ कालके पश्चात् उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये धर्मका अनुष्ठान आरम्भ किया। वे दीनोंको सदा गौ, भूमि, सुवर्ण और वस्त्र आदि दान करने लगे। उन्होंने अपने धनका आधा भाग धर्मके मार्गपर खर्च कर दिया; तो भी उनके न कोई पुत्र हुआ, न पुत्री। इससे ब्राह्मणको बड़ी चिन्ता हुई। वह आकुल हो उठा और एक दिन अत्यन्त दुःखके कारण घर छोड़कर वनमें चला गया। वहाँ दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक पोखरेके किनारे गया और वहाँ जल पीकर बैठ रहा। सन्तानहीनताके दुःखसे उसका सारा शरीर सूख गया था। उसके बैठने के दो ही घड़ी बाद एक संन्यासी वहाँ आये। उन्होंने भी पोखरेमें जल पीया ब्राह्मणने देखा, वे जल । पी चुके हैं, तो वह उनके पास गया और चरणों में मस्तक झुकाकर जोर-जोरसे साँस लेता हुआ सामनेखड़ा हो गया।

संन्यासीने पूछा- ब्राह्मण! तुम रोते कैसे हो? तुम्हें क्या भारी चिन्ता सता रही है? तुम शीघ्र ही मुझसे अपने दुःखका कारण बताओ।

ब्राह्मणने कहा- मुने! मैं अपना दुःख क्या कहूँ. यह सब मेरे पूर्वपापों का संचित फल है। [मेरे कोई सन्तान नहीं है, इससे मेरे पितर भी दुःखी हैं; वे] मेरे पूर्वज मेरी दी हुई जलांजलिको जब पीने लगते हैं, उस समय वह उनकी चिन्ताजनित साँसोंसे कुछ गरम हो जाती है। देवता और ब्राह्मण भी मेरी दी हुई वस्तुको प्रसन्नतापूर्वक नहीं लेते। सन्तानके दुःखसे मेरा संसार सूना हो गया है, अतः अब मैं यहाँ प्राण त्यागनेके लिये आया हूँ। सन्तानहीन पुरुषका जीवन धिक्कारके योग्य है जिस घरमें कोई सन्तान कोई बाल-बच्चे न हों, वह घर भी धिक्कार देनेयोग्य है। निस्सन्तान पुरुषके धनको भी धिक्कार है। तथा सन्तानहीन कुल भी धिक्कारके ही योग्य है। [मैं अपने दुर्भाग्यको कहाँतक बताऊँ ? ] जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा वन्ध्या हो जाती है। मैं जिसको रोपता हूँ, उस वृक्षमें भी फल नहीं लगते। इतना ही नहीं, मेरे घरमें बाहरसे जो फल आता है, वह भी शीघ्र ही सूख जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और सन्तानहीन हूँ, तो इस जीवनको रखनेसे क्या लाभ है। यों कहकर वह ब्राह्मण दुःखसे व्यथित हो उठा और उन संन्यासी बाबाके पास फूट-फूटकर रोने लगा। संन्यासीके हृदयमें बड़ी करुणा भर आयी। वे योगी भी थे, उन्होंने ब्राह्मणके ललाटमें लिखे हुए विधाताके अक्षरोंको पढ़ा और सब कुछ जानकर विस्तारपूर्वक कहना आरम्भ किया।

संन्यासीने कहा- ब्राह्मण! सुनो, मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखा है उससे जान पड़ता है कि सात जन्मोंतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती; अतः सन्तानका मोह छोड़ो, क्योंकि यह महान् अज्ञान है देखो, कर्मकी गति बड़ी प्रबल है; अतः विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना त्याग दो। अजी पूर्वकालमें सन्तानके ही कारण राजा सगर औरअंगको दुःख भोगना पड़ा था इसलिये अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। त्यागमें ही सब प्रकारका सुख है।

ब्राह्मण बोले- बाबा ! विवेकसे क्या होगा ? मुझे तो जैसे बने वैसे पुत्र ही दीजिये नहीं तो मैं शोकसे मूर्च्छित होकर आपके आगे ही प्राण त्याग दूँगा पुत्र र आदिके सुखसे हीन यह संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। संसारमें पुत्र-पौत्रोंसे भरा हुआ गृहस्थाश्रम ही सरस है।

ब्राह्मणका यह आग्रह देख उन तपोधनने कहा ‘देखो, विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा 2 चित्रकेतुको कष्ट भोगना पड़ा; अतः दैवने जिसके पुरुषार्थको कुचल दिया हो, ऐसे पुरुषके समान तुम्हे 1 पुत्रसे सुख नहीं मिलेगा; फिर भी तुम हठ करते जा रहे हो। तुम्हें केवल अपना स्वार्थ ही सूझ रहा है; अतः मैं तुमसे क्या कहूँ।”

अन्तमें ब्राह्मणका बहुत आग्रह देख संन्यासीने उसे एक फल दिया और कहा- ‘इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना इससे उसके एक पुत्र होगा। तुम्हारी स्वीको चाहिये कि वह एक वर्षातक सत्य, शौच, दया और दानका नियम पालती हुई प्रतिदिन एक समय भोजन करे। इससे उसका बालक अत्यन्त शुद्ध स्वभाववाला होगा।’ ऐसा कहकर वे योगी महात्मा चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। यहाँ उसने अपनी पत्नीकेहाथमें वह फल दे दिया और स्वयं कहीं चला गया। उसकी पत्नी तो कुटिल स्वभावकी थी ही अपनी सखीके आगे रो-रोकर इस प्रकार कहने लगी ‘अहो! मुझे तो बड़ी भारी चिन्ता हो गयी। मैं तो इस फलको नहीं खाऊँगी। सखी इस फलको खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर तो खाना पीना कम होगा और इससे मेरी शक्ति घट जायगी। ऐसी दशामें तुम्हीं बताओ, परका काम-धंधा कैसे होगा? यदि दैववश गाँवमें लूट पड़ जाय तो गर्भिणी स्त्री भाग कैसे सकेगी? यदि कहीं शुकदेवजीकी तरह यह गर्भ भी [बारह वर्षोंतक] पेटमें ही रह गया, तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा ? यदि कहीं प्रसवकालमें बच्चा टेढ़ा हो गया, तब तो मेरी मौत ही हो जायगी। बच्चा पैदा होते समय बड़ी असह्य पीड़ा होती है। मैं सुकुमारी स्त्री, भला उसे कैसे सह सकूँगी ? गर्भवती अवस्थामें जब मेरा शरीर भारी हो जायगा और चलने फिरनेमें आलस्य लगेगा, उस समय मेरी ननद रानी आकर घरका सारा माल मता उड़ा ले जायँगी। और तो और, यह सत्य शौचादिका नियम पालना तो मेरे लिये बहुत ही कठिन दिखायी देता है। जिस स्त्रीके सन्तान होती है, उसे बच्चोंके लालन-पालनमें भी कष्ट भोगना पड़ता है। मैं तो समझती हूँ, बाँझ अथवा विधवा स्त्रियाँ ही अधिक सुखी होती हैं।’

नारदजी! इस प्रकार कुतर्क करके उस ब्राह्मणीने फल नहीं खाया। जब पतिने पूछा- ‘तुमने फल खाया?’ तो उसने कह दिया- ‘हाँ, खा लिया।’ एक दिन उसकी बहिन अपने आप ही उसके घर आयी। धुन्धुलीने उसके आगे अपना सारा वृतान्त सुनाकर कहा- ‘बहिन मुझे इस बातकी बड़ी चिन्ता है कि सन्तान न होनेपर मैं पतिको क्या उत्तर दूँगी इस दुःखके कारण मैं दिनोदिन दुबली हुई जा रही हूँ। बताओ, मैं क्या करूँ? तब उसने कहा ‘दीदी! मेरे पेटमें बच्चा है। प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुमको दे दूँगी। तबतक तुम गर्भवती स्त्रीकी भाँति घरमें छिपकर मौजसे रहो। तुम मेरे पतिको धन दे देना। इससे वे अपना बालकतुम्हें दे देंगे तथा लोगोंमें इस बातका प्रचार कर देंगे कि मेरा बच्चा छः महीनेका होकर मर गया। मैं प्रतिदिन तुम्हारे घरमें आकर बच्चेका पालन-पोषण करती रहूँगी। तुम इस समय परीक्षा लेनेके लिये यह फल गौको खिला दो।’ तब उस ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभावके कारण वह सब कुछ वैसे ही किया। तदनन्तर समय आनेपर उसकी बहिनको बच्चा पैदा हुआ। बच्चे के पिताने बालकको लाकर एकान्तमें धुन्धुलीको दे दिया। उसने अपने स्वामीको सूचना दे दी कि मेरे बच्चा पैदा हो गया और कोई कष्ट नहीं हुआ। आत्मदेवके पुत्र होनेसे लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। ब्राह्मणने बालकका जातकर्म संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया। उसके दरवाजेपर गाना, बजाना आदि नाना प्रकारका मांगलिक उत्सव होने लगा। धुन्धुलीने स्वामीसे कहा- ‘मेरे स्तनोंमें दूध नहीं है, फिर गाय-भैंस आदि अन्य जीवोंके दूधसे मैं बालकका पोषण कैसे करूँगी ? मेरी बहिनको भी बच्चा हुआ था, किन्तु वह मर गया है; अतः अब उसीको बुलाकर घरमें रखिये, वही आपके बालकका पालन-पोषण करेगी।’ उसके पतिने पुत्रकी जीवन-रक्षाके लिये सब कुछ किया। माताने उसका नाम ‘धुन्धुकारी’ रखा।

तदनन्तर तीन महीने बीतनेके बाद ब्राह्मणकी गौने भी एक बालकको जन्म दिया, जो सर्वांगसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था। उसेदेखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने स्वयं ही बालकके सब संस्कार किये। यह आश्चर्यजनक समाचार सुनकर सब लोग उसे देखनेके लिये आये और आपसमें कहने लगे-‘देखो, इस समय आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है। कितने आश्चर्यकी बात है कि गायके पेटसे भी देवताके समान रूपवाला बालक उत्पन्न हुआ।’ किन्तु दैवयोगसे किसीको भी इस गुप्त रहस्यका पता न लगा। उस बालकके कान गौके समान थे, यह देखकर आत्मदेवने उसका नाम गोकर्ण रख दिया। कुछ काल व्यतीत होनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो पण्डित और ज्ञानी हुआ; किन्तु धुन्धुकारी महादुष्ट निकला। स्नान और शौचाचारका तो उसमें नाम भी नहीं था। वह अभक्ष्य भक्षण करता, क्रोधमें भरा रहता और बुरी-बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। भोजन तो वह सबके हाथका कर लेता था। चोरी करता, सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाता, दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता और खेलानेके बहाने छोटे बच्चोंको पकड़कर कुएँमें डाल देता था। जीवोंकी हिंसा करनेका उसका स्वभाव हो गया था। वह हमेशा हथियार लिये रहता और दीन, दुःखियों तथा अंधोंको कष्ट पहुँचाया करता था । चाण्डालोंके साथ उसने खूब हेल-मेल बढ़ा लिया था। वह प्रतिदिन हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता था। उसने वेश्याके कुसंगमें पड़कर पिताका सारा धन बरबाद कर दिया। एक दिन तो माता-पिताको खूब पीटकर वह घरके सारे वर्तन – भाँड़े उठा ले गया। इस प्रकार धनहीन हो जानेके कारण बेचारा बाप फूट-फूटकर रोने लगा। वह बोला- ‘इस प्रकार पुत्रवान् बननेसे तो अपुत्र रहना ही अच्छा है। कुपुत्र बड़ा ही दुःखदायी होता है। अब मैं कहाँ रहूँ? कहाँ जाऊँ? कौन मेरा दुःख दूर करेगा ? हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पहुँचा। अब तो मैं इस दुःखसे अपना प्राण त्याग दूँगा ।’

इसी समय ज्ञानवान् गोकर्णजी वहाँ आये और वैराग्यका महत्त्व दिखलाते हुए अपने पिताको समझाने लगे- ‘पिताजी! इस संसारमें कुछ भी सार नहीं है।दुःख ही इसका स्वरूप है। यह जीवोंको मोहमें डालनेवाला है। भला, यहाँ कौन किसका पुत्र है और कौन किसका धन जो इनमें आसक्त होता है, उसे ही रात-दिन जलना पड़ता है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती राजाओंको भी कोई सुख नहीं है। सुख तो बस, एकान्तवासी वैराग्यवान् मुनिको हो है सन्तानके प्रति जो आपकी ममता है, यह महान् अज्ञान है इसे छोड़िये। मोहमें फँसनेसे मनुष्यको नरकमें ही जाना पड़ता है। औरोंकी तो बात ही क्या है, आपका यह प्रिय शरीर भी एक न एक दिन नष्ट हो जायगा आपको छोड़कर चल देगा; इसलिये आप अभीसे सब कुछ छोड़कर वनमें चले जाइये।”गोकर्णकी बात सुनकर उनके पिता आत्मदेव वनमें जानेके लिये उद्यत होकर बोले- ‘तात! मुझे वनमें रहकर क्या करना चाहिये? यह विस्तारपूर्वक बताओ! मैं बड़ा शठ हूँ। अबतक कर्मवश स्नेहके बन्धनमें बँधकर में अपंगकी भाँति इस गृहरूपी अँधेरे कुएँ में ही पड़ा हुआ हूँ। दयानिधे! तुम निश्चय ही मेरा उद्धार करो!”

गोकर्णने कहा- पिताजी! हड्डी, मांस और रक्तके पिण्डरूप इस शरीरमें आप ‘मैं’ पनका अभिमान छोड़ दीजिये और स्त्री-पुत्र आदिमें भी ‘बे छोड़ मेरे हैं इस भावको सदाके लिये त्याग दीजिये। इस संसारको निरन्तर क्षणभंगुर देखिये और एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्‌के भजनमें लग जाइये। सदा भगवद्भजनरूप दिव्य धर्मका ही आश्रय लीजिये। सकामभावसे किये जानेवाले लौकिक धर्मोको छोड़िये साधु पुरुषोंकी सेवा कीजिये, भोगोंकी तृष्णाको त्याग दीजिये तथा दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना शीघ्र छोड़कर निरन्तर भगवत्सेवा एवं भगवत्कथाके रसका पान कीजिये। *

इस प्रकार पुत्रके कहने से आत्मदेव साठ वर्षकी अवस्था बीत जानेपर घर छोड़कर स्थिरचित्तसे वनको चले गये और वहाँ प्रतिदिन भगवान् श्रीहरिकी परिचर्या करते हुए नियमपूर्वक दशम स्कन्धका पाठ करनेसे उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया।

अध्याय 226 गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति

सूतजी कहते हैं—पिताके विरक्त होकर वनमें चले जानेके बाद एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको खूब पीटा और कहा- ‘बता, धन कहाँ रखा है? नहीं तो लातोंसे तेरी खबर लूँगा।’ उसकी इस बातसे डरकर और पुत्रके उपद्रवोंसे दुःखी होकर उसकी माँ रातको कुएँमें कूद पड़ी; इससे उसकी मृत्यु हो गयी। इस प्रकार माता-पिताके न रहनेपर गोकर्णजी तीर्थयात्राके लिये चल दिये। वे योगनिष्ठ थे। उनके मनमें इस घटना के कारण न कोई दुःख था, न कोई सुख क्योंकि उनका न कोई शत्रु था न मित्र अब धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ घरमें रहने लगा। उनके पालन-पोषण के लिये बहुत सामग्री जुटानेकी चिन्तासे उसकी बुद्धि मोहित हो गयी थी अतः वह अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्म करने लगा। एक दिन उन कुलटाओंने उससे गहनोंके लिये इच्छा प्रकट की। धुन्धुकारी तो कामसे अंधा हो रहा था। उसे अपनी मृत्युकी भी याद नहीं रहती थी। यह गहने जुटानेके लिये घरसे निकल पड़ा और जहाँ-तहाँसे बहुत-सा धन चुराकर पुनः अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने उन वेश्याओंको बहुत से सुन्दर सुन्दर वस्त्र और कितने ही आभूषण दिये। अधिक धनका संग्रह देखकर रातमें उन स्त्रियोंने विचार किया-‘यह प्रतिदिन चोरी करने जाता है, अतः राजा इसे अवश्य पकड़ेंगे; फिर सारा धन छीनकर निश्चय ही इसे प्राणदण्ड भी देंगे। ऐसी दशामें इस धनकी रक्षाके लिये हमलोग क्यों न इसे गुप्तरूपसे मार डालें। इसे मार, यह सारा धन लेकर हम कहीं और जगह चल दें।’

ऐसा निश्चय करके उन स्त्रियोंने धुन्धुकारीके सो जानेपर उसे रस्सियोंसे कसकर बाँध दिया और गलेमें फाँसी डालकर उसके प्राण लेनेकी चेष्टा करने लग; किन्तु वह तुरंत न मरा। इससे उनको बड़ी चिन्ता | हुई। तब उन्होंने जलते हुए अँगारे लाकर उसके मुँहपर दाल दिये। इससे यह आग की लपटोंसे पीड़ित होकरछटपटाता हुआ मर गया। फिर उन्होंने उसकी लाशको गमें डालकर गाड़ दिया। प्रायः ऐसी स्त्रियाँ बड़ी दुःसाहसवाली होती है। इस रहस्यका किसीको भी पता नहीं चला। लोगोंके पूछनेपर उन स्त्रियोंने कह दिया कि हमारे प्रियतम धनके लोभसे कहीं दूर चले गये हैं, इस वर्षके भीतर ही लौट आयेंगे। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह असन्मार्गपर चलनेवाली दुष्टा स्त्रियका विश्वास न करे जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे अवश्य ही संकटोंका सामना करना पड़ता है। इनकी वाणी तो अमृतके समान कामियोंके हृदयमें रसका संचार करती है, किन्तु हृदय रेकी धारके समान तीखा होता है; भला, इन स्त्रियोंका कौन प्रिय है? अनेक पतियोंसे सहवास करनेवाली वे कुलटाएँ धुन्धुकारीका सारा धन लेकर चम्पत हो गयीं और धुन्धुकारी अपने कुकर्मके कारण बहुत बड़ा प्रेत हुआ। वह बवंडरका रूप धारण करके सदा दसों दिशाओंमें दौड़ता फिरता था और शीत- घामका क्लेश सहता तथा भूख प्याससे पीड़ित होता हुआ ‘हा दैव’, ‘हा! दैव’ की बारंबार पुकार लगाता रहता था; किन्तु कहीं भी उसे शरण नहीं मिलती थी। कुछ कालके पश्चात् गोकर्णको भी लोगोंके मुँहसे धुन्धुकारीके मरनेका हाल मालूम हुआ तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसके लिये गयाजीमें श्रद्ध किया और तबसे जिस तीर्थ में भी वे चले जाते, वहाँ उसका श्राद्ध अवश्य करते थे।

इस प्रकार तीर्थोंमें भ्रमण करते हुए गोकर्णजी एक दिन अपने गाँवमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी दृष्टिसे बचकर वे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये गये। अपने भाई गोकर्णको वहाँ सोया देख धुन्धुकारीने आधी रातके समय उन्हें अपना महाभयंकर रूप दिखाया वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्निका रूप धारण करता था । अन्तमें पुनः मनुष्यके रूपमें प्रकट हुआ। गोकर्णजी बड़ेधैर्यवान् महात्मा थे। उन्होंने उसकी विपरीत अवस्थाएँ देखकर जान लिया कि यह कोई दुर्गतिमें पड़ा हुआ जीव है तब उन्होंने पूछा-‘अरे भाई तू कौन है? रात्रिके समय अत्यन्त भयानक रूपमें क्यों प्रकट हुआ है ? तेरी ऐसी दशा क्यों हुई है? हमें बता तो सही, तू प्रेत है या पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ?’

उनके ऐसा पूछनेपर वह बारंबार उच्चस्वरसे रोदन करने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी; इसलिये केवल संकेतमात्र किया। तब गोकर्णजीने अंजलिमें जल ले उसे अभिमन्त्रित करके धुकारीके ऊपर छिड़क दिया। उस जलसे सींचनेपर उसका पाप-ताप कुछ कम हुआ। तब वह इस प्रकार कहने लगा- ‘भैया! मैं तुम्हारा भाई धुन्धुकारी हूँ। मैंने अपने ही दोषसे अपने ब्राह्मणत्वका नाश किया है। मैं महान् अज्ञानमें चक्कर लगा रहा था; अतः मेरे पापकर्मोकी कोई गिनती नहीं है। मैंने बहुत लोगोंकी हिंसा की थी। अतः मैं भी स्त्रियोंद्वारा तड़पा-तड़पाकर मारा गया। इसीसे मैं प्रेतयोनिमें पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैवाधीन कर्मफलका उदय हुआ है, इसलिये मैं वायु पीकर जीवन धारण करता हूँ। मेरे भाई! तुम दयाके समुद्र हो। अब किसी प्रकार जल्दी ही मेरा उद्धार करो।’

धुन्धुकारीकी बात सुनकर गोकर्ण बोले भाई! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। मैंने तो तुम्हारे लिये गयाजी में विधिपूर्वक पिण्डदान किया है, फिर तुम्हारी मुक्ति कैसे नहीं हुई? यदि गया श्राद्धसे भी मुक्ति न हो, तो यहाँ दूसरा तो कोई उपाय ही नहीं है। प्रेत! इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यह तुम्हीं विस्तारपूर्वक बताओ ।

प्रेतने कहा- भाई! सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी मेरी मुक्ति नहीं होगी। इसके लिये अब तुम और ही कोई उपाय सोचो।

प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे-‘यदि सैकड़ों गया श्राद्धसे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी, तब तो तुम्हें इस प्रेतयोनिसे छुड़ाना असम्भव ही है। अच्छा, इस समय तो तुम अपनेस्थानपर ही निर्भय होकर रहो तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय सोचकर उसीको काममें लाऊंगा।’ गोकर्णजीकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी अपने स्थानपर चला गया। इधर गोकर्णजी रातभर सोचते-विचारते रहे, किन्तु उसके उद्धारका कोई भी उपाय उन्हें नहीं सूझा। सबेरा होनेपर उन्हें आया देख गाँवके लोग बड़े प्रेमके साथ उनसे मिलनेके लिये आये। तब गोकर्णने रातमें जो घटना घटित हुई थी, वह सब उन्हें कह सुनायी। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और ब्रह्मवादी थे, उन्होंने शास्त्र-ग्रन्थोंको उलट-पलटकर देखा; किन्तु उन्हें धुन्धुकारीके उद्धारका कोई उपाय नहीं दिखायी दिया। तब सब लोगोंने मिलकर यही निश्चय किया कि भगवान् सूर्यनारायण उसकी मुक्तिके लिये जो उपाय बतायें, वही करना चाहिये। यह सुनकर गोकर्णने भगवान् सूर्यकी ओर देखकर कहा- ‘भगवन्! आप सारे जगत्के साक्षी हैं। आपको नमस्कार है। आप मुझे धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।’ यह सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट वाणीमें कहा- श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है। तुम उसका सप्ताहपारायण करो।’ भगवान् सूर्यका यह ध्वनिरूप वचन वहाँ सब लोगोंने सुना और सबने यही कहा-‘यह तो बहुत सरल साधन है। इसको यत्नपूर्वक करना चाहिये।’ गोकर्णजी भी ऐसा ही निश्चय करके कथा बाँचनेको तैयार हो गये। उस समय वहाँ कथा सुननेके लिये आस-पासके स्थानों और गाँवोंसे लोग एकत्रित होने लगे। अपंग, अंधे, बूढ़े और मन्दभाग्य पुरुष भी अपने पापोंका नाश करनेके लिये वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार यहाँ बहुत बड़ा समाज जुट गया, जो देवताओंको भी आश्चर्यमें डालनेवाला था। जिस समय गोकर्णजी व्यासगटीपर बैठकर कथा बाँचने लगे, उस समय वह प्रेत भी वहाँ आया और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूँढ़ने लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सात गाँठवाले ऊँचे बाँसपर पड़ी। उसीके नीचेवाले छेदमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठा। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था। इसलिये बाँसमें ही घुस गया था।गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको प्रधान श्रोता बनाकर पहले स्कन्धसे ही स्पष्ट वाणीमें कथा सुनानी आरम्भ की। सायंकालमें जब कथा बंद होने लगी, तब एक विचित्र घटना घटित हुई। सब श्रोताओंके देखते-देखते तड़-तड़ शब्द करती हुई बाँकी एक गाँठ फट गयी। दूसरे दिन शामको दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन भी उसी समय तीसरी गाँठ फट गयी। इस प्रकार सात दिनोंमें उस बाँसकी सातों गाठोको फोड़कर धुन्धुकारीने वारहों स्कन्धौके श्रवणसे निष्पाप हो प्रेतयोनिका त्याग कर दिया और दिव्य रूप धारण करके वह सबके सामने प्रकट हो गया। उसका मेघके समान श्यामवर्ण था। शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। गलेमें तुलसीकी माला उसकी शोभा बढ़ा रही थी। मस्तकपर मुकुट और कानोंमें दिव्य कुण्डल झलमला रहे थे। उसने तुरंत अपने भाई गोकर्णको प्रणाम किया और कहा- “भाई! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिके क्लेशोंसे मुक्त कर दिया। प्रेतयोनिकी पीड़ा नष्ट करनेवाली यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है तथा भगवान् श्रीकृष्णके परमधामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताहपारायण भी धन्य है। सप्ताह कथा सुननेके लिये बैठ जानेपर सारे पाप काँपने लगते हैं। उन्हें इस बातकी चिन्ता होती है कि अब यह कथा शीघ्र ही हमलोगोंका अन्त कर देगी। जैसे आग गीली-सूखी, छोटी और बड़ी-सभी तरहकी लकड़ियोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताहश्रवण मन, वाणी और क्रियाद्वारा किये हुए, इच्छा या अनिच्छासे होनेवाले छोटे-बड़े सभी तरहके पापको भस्म कर देता है। विद्वानोंने देवताओंको सभामें कहा है कि ‘इस भारतवर्षमें जो पुरुष श्रीमद्भागवतकी कथा नहीं सुनते, उनका जन्म व्यर्थ ही है।’ यदि भागवत-शास्त्रकी कथा सुननेको न मिली तो मोहपूर्वक पालन करके परपुष्ट और बलवान् बनाये हुए इस अनित्य शरीरसे क्या लाभ हुआ। जिसमें हड्डियाँ ही खम्भे हैं, जो ना नाड़ीरूप रस्सियोंसे बँधा है, जिसके ऊपर मांग और रतका सेप करके उसे चमड़े मढ़ दिया गया है, जिसके भीतरसे दुर्गन्ध आती रहती है, जोमल-मूत्रका पात्र ही है, वृद्धावस्था और शोकके कारण जो परिणाममें दुःखमय जान पड़ता है, जिसमें रोगोंका निवास है, जो सदा किसी कामनासे आतुर रहता है, जिसका पेट कभी नहीं भरता, जिसको सदा धारण किये रहना कठिन है तथा जो अनेक दोषोंसे भरा हुआ और क्षणभंगुर है, वही यह शरीर कहलाता है। अन्तमें इसकी तीन ही गतियाँ होती हैं-यदि मृत्युके पश्चात् इसे गाड़ दिया जाय तो इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, कोई पशु खा जाय तो यह विष्ठा बन जाता है और यदि अग्निमें जला दिया जाय तो यह राखका ढेर हो जाता है। ऐसी दशामें भी मनुष्य इस अस्थिर शरीरसे स्थायी फल देनेवाला कर्म क्यों नहीं कर लेता ? प्रातः काल जो अन्न पकाया जाता है, वह शाम होनेतक बिगड़ जाता है। फिर उसीके रससे पुष्ट हुए इस शरीर में नित्यता क्या है?”

“इस लोकमें श्रीमद्भागवतका सप्ताह सुननेसे अपने निकट ही भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। अतः सब प्रकारके दोषोंकी निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है जहाँ कथा श्रवण करनेसे जड़ एवं सूखे बाँकी गाँठें फट सकती हैं, वहीं यदि की खुल जायँ तो क्या आश्चर्य है? जो भागवतकी कथा सुननेसे वंचित हैं, वे लोग जलमें बुदबुदों और जीवोंमें मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये पैदा हुए हैं। सप्ताह श्रवण करनेपर हृदयकी अज्ञानमयी गाँठ खुल जाती है, सारे सन्देह नष्ट हो जाते हैं और बन्धनके हेतुभूत समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं। यह भागवत कथा एक महान् पुण्यतीर्थ है। यह संसाररूपी कीचड़के लेपको धो डालनेमें अत्यन्त पटु है। विद्वान् पुरुषोंका मत है कि जब यह कथा – तीर्थ चित्तमें स्थिर हो जाय तो मनुष्यकी मुक्ति निश्चत ही है।”

धुन्धुकारी इस प्रकारकी बातें कह ही रहा था कि उसे लेनेके लिये आकाशसे एक विमान उतरा। उससे चारों ओर मण्डलाकार प्रकाश पुंज फैल रहा था उसमें भगवान्के वैकुण्ठवासी पार्षद विराजमान थे। धुन्धुकारी सब लोगोंके देखते-देखते उस विमानपर जा बैठा। उसमें आये हुए श्रीविष्णु पार्षदोंको देखकर गोकर्णनउनसे इस प्रकार पूछा-‘भगवान् के परिकरो। यहाँ तो बहुत-से शुद्ध अन्तःकरणवाले मेरी कथाके श्रोता बैठे

हुए हैं। आपलोग एक ही साथ इनके लिये भी विमान क्यों नहीं लाये ? देखनेमें आता है-सबने समानरूपसे यहाँ कथा श्रवण किया है; फिर फलमें क्यों इस प्रकार भेद हुआ? यह बतानेकी कृपा कीजिये।’

भगवान् के पार्षद बोले- गोकर्णजी इनके कथा-श्रवणमें भेद होनेसे ही फलमें भी भेद हुआ है। यद्यपि श्रवण सब लोगोंने ही किया है; किन्तु इसके जैसा मनन किसीने नहीं किया है. इसीलिये फलमें भेद हुआ है। पुनः कथा श्रवण करनेपर यह फल-भेद भी दूर हो जायगा। प्रेतने सात रात उपवास करके कथा श्रवण किया है। अतः उसने स्थिरचित्तसे भलीभाँति मनन आदि किया है। जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवण, सन्देहसे मन्त्र और चंचलचित्त होनेसे जप निष्फल हो जाता है। वैष्णव पुरुषोंसे रहित देश, कुपात्र ब्राह्मणसे कराया हुआ श्राद्ध, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान और सदाचारहीन कुल भी नष्ट ही समझना चाहिये। गुरुके वचनोंमें विश्वास हो, अपनेमें दीनताकी भावना बनी रहे, मनके दोषों को काबू में रखा जाय और कथायें दृढ निष्ठा बनी रहे इन सब बातोंका यदि पालन किया जाय तो अवश्य ही कथा श्रवणका पूरा-पूरा फल मिलता है।पुनः कथा श्रवण करनेके पश्चात् इन सब लोगोंका वैकुण्ठमें निवास निश्चित है। गोकर्णजी तुम्हें तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ही गोलोक प्रदान करेंगे।

ऐसा कहकर वे सब पार्षद भगवान् के नामोंका कीर्तन करते हुए वैकुण्ठधाममें चले गये। उसके बाद गोकर्णने पुनः श्रावण मासमें कथा बाँची। उस समय सब लोगोंने सात दिनोंतक उपवास करके कथा-श्रवण किया। नारदजी! कथाकी समाप्ति होनेपर वहाँ जो कुछ हुआ, उसे सुनिये। उस समय बहुत से विमानोंको साथ | लिये भक्तोंसहित साक्षात् भगवान् उस स्थानपर प्रकट हो गये। चारों ओरसे जय-जयकार और नमस्कारके शब्द बारंबार सुनायी देने लगे। भगवान्ने प्रसन्न होकर वहाँ स्वयं भी अपने पांचजन्य नामक शंखको बजाया तथा गोकर्णको छातीसे लगाकर उन्हें अपने समान ही बना लिया। उनके सिवा और भी जितने श्रोता थे, उन सबको श्रीहरिने एक ही क्षणमें अपना सारूप्य दे दिया। वे सभी मेघके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलोंसे सुशोभित हो गये उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डाल आदि जितने भी जीव थे, उन सबको गोकर्णकी दयासे भगवान्ने विमानपर बिठा लिया और वैकुण्ठधाममें भेज दिया, जहाँ योगी पुरुष जाया करते हैं। तत्पश्चात् भक्तवत्सल भगवान् गोपाल कथा-श्रवणसे प्रसन्न हो, गोकर्णको साथ ले गोपवल्लभ गोलोक धामको पधारे जैसे पूर्वकालमें समस्त अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके साथ साकेतधाममें गये थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने उस गाँवके सब मनुष्योंको योगियोंके लिये भी दुर्लभ गोलोकधाममें पहुँचा दिया। जहाँ सूर्य, चन्द्रमा और सिद्ध पुरुषोंकी भी कभी पहुँच नहीं होती, उसी लोकमें वहाँके सब प्राणी केवल श्रीमद्भागवतकी कथा सुननेसे चले गये।

नारदजी ! श्रीमद्भागवतकी कथामें सप्ताह-यज्ञसे जिस उज्ज्वल फलसमुदायका संचय होता है, उसका इस समय हम आपसे क्या वर्णन करें। जिन्होंने गोकर्णजीकी कथाका एक अक्षर भी अपने कर्ण-पुटोंके द्वारा पान किया, वे फिर माताके गर्भ में नहीं आये हवापीकर, पत्ते चबाकर और शरीरको सुखाकर दीर्घकालतक कठोर तपस्या करनेसे तथा योगाभ्यास करनेसे भी मनुष्य उस गतिको नहीं प्राप्त होते, जिसे वे सप्ताह-कथाके श्रवणसे पा लेते हैं। मुनीश्वर शाण्डिल्य चित्रकूटमें रहकर ब्रह्मानन्दमें निमग्न हो इस पवित्र इतिहासका सदा पाठकिया करते हैं। यह उपाख्यान परम पवित्र है। एक बार श्रवण करनेपर भी सारी पाप-राशिको भस्म कर देता है। यदि श्राद्धमें इसका पाठ किया जाय तो इससे पितरोंको पूर्ण तृप्ति होती है और प्रतिदिन इसका पाठ करनेसे मनुष्यको मोक्ष प्राप्त हो जाता है।

अध्याय 227 श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार

श्रीसनकादि कहते हैं— नारदजी! अब हम सप्ताह श्रवणकी विधिका वर्णन करते हैं। यह कार्य प्रायः लोगोंकी सहायता और धनसे साध्य होनेवाला माना गया है। पहले ज्योतिषीको बुलाकर इसके लिये यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछना चाहिये। फिर विवाहके कार्यमें जितने धनकी आवश्यकता होती है, उतने ही धनका प्रबन्ध कर लेना चाहिये। कथा आरम्भ करनेके लिये भादों, कुआर, कार्तिक, अगहन, आषाढ़ और सावन-ये महीने श्रोताओंके लिये मोक्षप्राप्तिके कारण माने गये हैं। महीनोंमें जो भद्रा, व्यतीपात आदि काल त्यागनेयोग्य माने गये हैं, उन सबको सब प्रकारसे त्याग देना ही उचित है। जो लोग उत्साही और उद्योगी हॉ— ऐसे अन्य व्यक्तियोंको भी सहायक बना लेना चाहिये। फिर प्रयत्नपूर्वक देश-देशान्तरोंमें यह समाचार भेज देना चाहिये कि अमुक स्थानपर श्रीमद्भागवतकी कथा होनेवाली है, अतः सब लोग कुटुम्बसहित यहाँ पधारें। कुछ लोग भगवत्कथा और कीर्तन आदिसे बहुत दूर हैं; इसलिये इस समाचारको इस प्रकार फैलावें, जिससे स्त्रियों और शूद्र आदिको भी इसका पता लग जाय। देश-देशमें जो विरक्त और कथा-कीर्तनके लिये उत्सुक रहनेवाले वैष्णव हों, उनके पास भी पत्र भेजना चाहिये तथा उन पत्रोंमें इस प्रकार लिखना उचित है—’महानुभावो! यहाँ सात राततक सत्पुरुषोंका सुन्दर समागम होगा, जो अन्यत्र बहुत ही दुर्लभ है। इसमें श्रीमद्भागवतकी अपूर्व रसमयी कथा होगी। आपलोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके रसिक हैं, अतः यहाँ प्रेमपूर्वक शीघ्र ही पधारनेकी कृपा करें। यदि आपकोकिसी कारणवश विशेष अवकाश न हो, तब भी एक दिनके लिये तो कृपा करनी ही चाहिये क्योंकि यहाँका एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिये सब प्रकारसे यहाँ पधारनेके लिये ही चेष्टा करनी चाहिये।” इस प्रकार बड़ी विनयके साथ उनको आमन्त्रित करे और जो लोग आवें, उन सबके ठहरनेके लिये प्रबन्ध करे। तीर्थमें, वनमें अथवा अपने घरपर भी कथा श्रवण उत्तम माना गया है। जहाँ भी लम्बी-चौड़ी भूमि मैदान खाली हो, वहीं कथाके लिये स्थान बनाना चाहिये। जमीनको झाड़- बुहारकर, धोकर और लीप-पोतकर शुद्ध करे। फिर उसपर गेरु आदिसे चौक पुरावे । यदि वहाँ कोई घरका सामान पड़ा हो तो उसे उठाकर एक कोनेमें रखवा दे। कथा आरम्भ होनेसे पाँच दिन पहलेसे ही यत्नपूर्वक बहुत-से आसन जुटा लेने चाहिये, तथा एक ऊँचा मण्डप तैयार कराकर उसे केलेके खम्भोंसे सजा देना चाहिये। उसे फल, फूल, पत्तों तथा चँदोवेसे सब ओर अलंकृत करे; मण्डपके चारों ओर ध्वजारोपण करे और नाना प्रकारकी शोभामयी सामग्रियोंसे उसे सजावे। उस मण्डपके ऊपरी भागमै विस्तारपूर्वक सात लोकोंकी कल्पना करे और उनमें विरक्त ब्राह्मणोंको बुला-बुलाकर बिठावे। पहलेसे ही वहाँ उनके लिये यथोचित आसन तैयार करके रखे। वक्ताके लिये भी सुन्दर व्यासगद्दी बनवानी चाहिये। यदि वक्ताका मुख उत्तरकी ओर हो तो श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ताका मुख पूर्वकी ओर हो तो श्रोताको उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिये। अथवा वक्ता और श्रोताके बीचमें पूर्व दिशा आ जानी चाहिये। देश, काल आदिको जाननेवालेविद्वानोंने श्रोताओंके लिये ऐसा ही शास्त्रोक्त नियम बतलाया है।

वक्ता ऐसे पुरुषको बनाना चाहिये जो विरक्त, वैष्णव, जातिका ब्राह्मण, वेद-शास्त्रकी विशुद्ध व्याख्या करनेमें समर्थ, भाँति-भाँतिके दृष्टान्त देकर ग्रन्थके भावको हृदयंगम करानेमें कुशल, धीर और अत्यन्त निःस्पृह हो। जो अनेक मत-मतान्तरोंके चक्कर में पड़कर भ्रान्त हो रहे हों, स्त्री लम्पट हों और पाखण्डकी बातें करते हों, ऐसे लोग यदि पण्डित भी हाँ तो भी उन्हें श्रीमद्भागवतकथाका वक्ता न बनावे। वक्ताके पास उसकी सहायताके लिये उसी योग्यताका एक और विद्वान् रखे; वह भी संशय निवारण करनेमें समर्थ और लोगोंको समझानेमें कुशल होना चाहिये। वक्ताको उचित है कि कथा आरम्भ होनेसे एक दिन पहले क्षौर करा ले, जिससे व्रतका पूर्णतया निर्वाह हो सके तथा श्रोता अरुणोदयकालमें-दिन निकलनेसे दो घड़ी पहले शौच आदि से निवृत्त होकर विधिपूर्वक स्नान करे, फिर सन्ध्या आदि नित्यकर्मोंको संक्षेपसे समाप्त करके कथाके विघ्नोंका निवारण करनेके लिये श्रीगणेशजीकी पूजा करे। तदनन्तर पितरोंका तर्पण करके पूर्वपापोंकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिकी स्थापना करे। फिर भगवान् श्रीकृष्णके उद्देश्यसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचारविधिसे पूजन करे। पूजा समाप्त होनेपर प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके इस प्रकार स्तुति करे- ‘करुणानिधे! मैं इस संसार समुद्रमें डूबा हुआ हूँ। मुझे कर्मरूपी ग्राहने पकड़ रखा है। आप मुझ दीनका इस भवसागरसे उद्धार कीजिये।’ इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे प्रयत्नपूर्वक प्रसन्नता के साथ श्रीमद्भगवती भी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। फिर पुस्तकके आगे श्रीफल (नारियल) रखकर नमस्कार करे और प्रसन्नचित्तसे इस प्रकार स्तुति करे श्रीमद्भागवत के रूपमेंआप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही यहाँ विराजमान हैं। नाथ! मैंने भवसागर से छुटकारा पानेके लिये ही आपकी शरण ली है मेरे इस मनोरथको किसी विघ्न-बाधाके बिना ही आप सब प्रकारसे सफल करें। केशव ! मैं आपका दास हूँ।’

इस प्रकार दीन वचन कहकर वक्ताको वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित करके उसकी पूजा करे और पूजाके पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे ‘शुकदेवस्वरूप महानुभाव! आप समझानेकी कला में निपुण और समस्त शास्त्रोंके विशेषज्ञ हैं। इस श्रीमद्भागवतकथाको प्रकाशित करके आप मेरे अज्ञानको दूर कीजिये । तदनन्तर वक्ताके आगे अपने कल्याणके लिये प्रसन्नतापूर्वक नियम ग्रहण करे और यथाशक्ति सात दिनोंतक निश्चय ही उसका पालन करे। कथामें कोई विघ्न न पड़े, इसके लिये पाँच ब्राह्मणोंका वरण करे। उन ब्राह्मणोंको द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये। इसके बाद वहाँ उपस्थित हुए ब्राह्मणों, विष्णुभक्तों और कीर्तन करनेवाले लोगोंको नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनसे आज्ञा लेकर स्वयं श्रोताके आसनपर बैठे। जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्र आदिकी चिन्ता छोड़कर शुद्ध बुद्धिसे केवल कथामें ही मन लगाये रहता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है।

बुद्धिमान् वक्ताको उचित है कि वह सूर्योदयसे लेकर साढ़े तीन पहरतक मध्यम स्वरसे अच्छी तरह कथा बाँचे, दोपहर के समय दो घड़ीतक कथा बंद रखे। कथा बंद होनेपर वैष्णव पुरुषोंको वहाँ कीर्तन करना चाहिये। कथाके समय मल-मूत्रके वेगको काबू रखनेके लिये हलका भोजन करना अच्छा होता है। अतः कथा सुननेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको एक बार हविष्यान भोजन करना उचित है। यदि शक्ति हो तो सात रात उपवास करके कथा श्रवण करे अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुने। इससे काम न चलेतो फलाहार अथवा एक समय भोजन करके कथा सुने तात्पर्य यह कि जिसके लिये जो नियम सुगमतापूर्वक निभ सके, वह उसीको कथा सुननेके लिये ग्रहण करे। मैं तो उपवासकी अपेक्षा भोजनको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, यदि वह कथा श्रवणमें सहायक हो सके। अगर उपवाससे कथामें विघ्न पड़ता हो तो वह अच्छा नहीं माना गया है।

नारदजी नियमसे सप्ताह-कथा सुननेवाले पुरुषोंके लिये पालन करनेयोग्य जो नियम हैं, उन्हें बतलाता हूँ; सुनिये। जिन्होंने श्रीविष्णुमन्त्रकी दीक्षा नहीं ली है अथवा जिनके हृदयमें भगवान्‌की भक्ति नहीं है, उन्हें इस कथाको सुननेका अधिकार नहीं है। कथाका व्रत लेनेवाला पुरुष ब्रह्मचर्यसे रहे, भूमिपर शयन करे और कथा समाप्त होनेपर पत्तलमें भोजन करें। दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्नको वह सर्वथा त्याग दे। काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेषको बुरा समझकर पास न आने दे। वेद वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु गोसेवक, स्त्री, राजा और महापुरुषोंकी निन्दा न करे। रजस्वला स्त्री, अन्त्यज ( चाण्डाल आदि), म्लेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदको न माननेवाले पुरुषोंसे वार्तालाप न करे। नियमसे कथाका व्रत लेनेवाले पुरुषको सदा सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारताका बर्ताव करना चाहिये। दरिद्र, क्षपका रोगी, अन्य किसी रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापाचारी, सन्तानहीन तथा मुमुक्षु पुरुष इस कथाको अवश्य सुने। जिस स्त्रीका मासिक धर्म रुक गया हो, जिसके एक ही सन्तान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसके बच्चे पैदा होकर मर जाते हों तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो, उस स्त्रीको प्रयत्नपूर्वक इस कथाका श्रवण करना चाहिये। इन्हें विधिपूर्वक दिया हुआ कथाका दान अक्षय फल देनेवाला है। [अर्थात् ये यदि कथा सुनें तो इनके उक्त दोष अवश्य मिट जाते हैं। कथाके लिये सात दिन अत्यन्त उत्तम | माने गये हैं। वे कोटि यज्ञोंका फल देनेवाले हैं।इस प्रकार व्रतकी विधि पूर्ण करके उसका उद्यापन करे। उत्तम फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको जन्माष्टमीव्रतके समान इसका उद्यापन करना चाहिये। जो अकिंचन भक्त हैं, उनके लिये प्रायः उद्यापनका आग्रह नहीं है। वे कथा श्रवणमात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं; क्योंकि वे निष्काम वैष्णव हैं। इस तरह सप्ताह-यज्ञ पूर्ण होनेपर श्रोताओंको बड़ी भक्तिके साथ पुस्तक तथा कथावाचककी पूजा करनी चाहिये और वक्ताको उचित है कि वह श्रोताओंको प्रसाद एवं तुलसीकी माला दे। तत्पश्चात् मृदंग बजाकर तालस्वरके साथ कीर्तन किया जाय, जय जयकार और नमस्कार शब्दके साथ शंखोंकी ध्वनि हो तथा ब्राह्मणों और याचकोंको धन दिया जाय। यदि श्रोता विरक्त हो तो कथा समाप्तिके दूसरे दिन गीता बाँचनी चाहिये और गृहस्थ हो तो कर्मकी शान्तिके लिये होम करना चाहिये। उस हवनमें दशम स्कन्धका एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घी, तिल और अन्न आदिसे युक्त हवन सामग्रीकी आहुति दे अथवा एकाग्रचित्त होकर गायत्री मन्त्रसे हवन करे; क्योंकि वास्तव में यह महापुराण गायत्रीमय ही है। यदि होम करानेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके लिये विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको कुछ हवन सामग्रीका दान करे तथा कर्ममें जो नाना प्रकारकी त्रुटियाँ रह गयी हों या विधिमें जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गयी हो, उनके दोषकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। हवनके पश्चात् बारह ब्राह्मणोंको मीठी खीर भोजन करावे और व्रतकी पूर्तिके लिये दूध देनेवाली गौ तथा सुवर्णका दान करे। यदि शक्ति हो तो तीन तोले सोनेका एक सिंहासन बनवावे, उसपर सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई श्रीमद्भागवतको पोथी रखकर आवाहन आदि उपचारोंसे उसका पूजन करे। फिर वस्त्र, आभूषण और गन्ध आदिके द्वारा जितेन्द्रिय आचार्यको पूजा करके उन्हें दक्षिणासहित वह पुस्तक दान कर दे जो बुद्धिमान् श्रोता ऐसा करता है, वह भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताह-यज्ञकाविधान सब पापोंका निवारण करनेवाला है; इसका इस प्रकार यथावत् पालन करनेसे कल्याणमय श्रीमद्भागवतपुराण मनोवांछित फल प्रदान करता है तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थोका साधक होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

श्रीसनकादि कहते हैं-नारदजी! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह श्रवणकी सारी विधि सुना दी। अब और क्या सुनना चाहते हो? श्रीमद्भागवतसे ही भोग और मोक्ष दोनों हाथ लगते हैं। श्रीमद्भागवत नामक एक कल्पवृक्ष है, जिसका अंकुर बहुत ही उज्ज्वल है। सत्स्वरूप परमात्मासे इस वृक्षका उद्गम हुआ है, यह बारह स्कन्धों (मोटी डालियों) से सुशोभित हैं, भक्ति ही इसका थाल्हा है, तीन सौ बत्तीस अध्याय ही इसकी सुन्दर शाखाएँ हैं और अठारह हजार श्लोक ही इसके पत्ते हैं। यह सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है। इस प्रकार यह भागवतरूपी दिव्य वृक्ष अत्यन्त सुलभ होनेपर भी अपनी अनुपम महत्ताके कारण सर्वोपरि विराजमान है।

सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर सनकादि महात्माओंने परम पवित्र श्रीमद्भागवतकी कथा बाँचनी आरम्भ की, जो सब पापको हरनेवाली तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस समय समस्त प्राणी अपने मनको काबूमें रखकर सात दिनोंतक वह कथा सुनते रहे। तत्पश्चात् सबने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमको स्तुति की कथाके अन्तमें ज्ञान, वैराग्य और भक्तिकी पूर्णरूपसे पुष्टि की। उन्हें उत्तम तरुण अवस्था प्राप्त हुई, जो समस्त प्राणियोंका मन हर लेनेवाली थी। नारदजी भी अपना मनोरथ सिद्ध हो जानेसे कृतार्थ हो गये, उनके सारे शरीरमें रोमांच हो आया और वे परमानन्दमें निमग्न हो गये। इस प्रकार कथा सुनकर भगवान्के प्रिय भक्त नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें सनकादि महात्माओंसे बोले-‘तपोधनो। आज मैं धन्य हो गया। आप दयालु महात्माओंने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। सप्ताह यज्ञमें श्रीमद्भागवतका श्रवण करनेसे आज मुझे भगवान्श्रीहरि समीपमें ही मिल गये। मैं तो सब धर्मोकी अपेक्षा श्रीमद्भागवत – श्रवणको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, क्योंकि उसके मनसे वैकुण्ठवासी भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है।

सूतजी कहते हैं-वैष्णवोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय सोलह वर्षकी अवस्थावाले व्यासपुत्र योगेश्वर श्रीशुकदेव मुनि यहाँ घूमते हुए आ पहुँचे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो ज्ञानरूपी महासागरसे निकले हुए चन्द्रमा हों। वे ठीक कथा समाप्त होनेपर वहाँ पहुँचे थे। आत्मलाभसे परिपूर्ण श्रीशुकदेवजी उस समय बड़े प्रेमसे धीरे-धीरे श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे। उन परम तेजस्वी मुनिको आया देख सारे सभासद् तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और उन्हें बैठनेके लिये एक ऊँचा आसन दिया फिर देवर्षि नारदजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पूजन किया। जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो गये तो ‘मेरी उत्तम वाणी सुनो’ ऐसा कहते हुए बोले- भगवत्कथाके रसिक भावुक भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका एवं चूकर गिरा हुआ फल है, जो परमानन्दमय अमृत रससे भरा है। यह श्रीशुकदेवरूप तोतेके मुखसे इस पृथ्वीपर प्राप्त हुआ है; जबतक यह जीवन रहे, जबतक संसारका प्रलय न हो जाय तबतक आपलोग इस दिव्य रसका नित्य निरन्तर बारंबार पान करते रहिये। महामुनि श्रीव्यासजीके द्वारा रचित इस श्रीमद्भागवतमें परम उत्तम निष्काम धर्मका प्रतिपादन किया गया है तथा जिनके हृदयमें ईर्ष्या-द्वेषका अभाव है, उन साधु पुरुषोंके जाननेयोग्य उस कल्याणप्रद परमार्थतत्त्वका निरूपण किया गया है, जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापका समूल नाश करनेवाला है। इस श्रीमद्भागवतको शरण लेनेवाले पुरुषोंको दूसरे साधनोंकी क्या आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् एवं पुण्यात्मा पुरुष इस पुराणको श्रवण करनेकी इच्छा करते हैं, उनके हृदयमें स्वयं भगवान् ही तत्काल प्रकट होकर सदाके लिये स्थिर हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत समस्त पुराणोंका तिलक और वैष्णव पुरुषोंकी प्रिय वस्तु है। इसमें परमहंस महात्माओंको प्राप्तहोनेयोग्य परम उत्तम विशुद्ध अद्वैत ज्ञानका वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित नैष्कर्म्य धर्म- (निवृत्तिमार्ग) को प्रकाशित किया गया है जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसके अवण, पठन और मननमें संलग्न रहता है, वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास तथा वैकुण्ठमें भी नहीं है; अतः सौभाग्यशाली पुरुषो! तुम इसका निरन्तर पान करते रहो। कभी किसी प्रकार भी इसको छोड़ो मत छोड़ो मत।’

शौनकजी! व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि वहाँ बीच सभामें प्रह्लाद, बलि, उद्धव और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। देवर्षि नारदने भगवान् और उनके भक्तोंका पूजन किया। भगवान्‌को प्रसन्न देखकर नारदजीने उन्हें एक श्रेष्ठ आसनपर बिठा दिया और सब लोग मिलकर उनके सामने कीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये पार्वतीसहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी वहाँ आ गये। प्रह्लादजी चंचल गतिसे थिरकते हुए करताल बजाने लगे, उद्धवने मँजीरे ले लिये, देवर्षि नारदजीने वीणाकी तान छेड़ दी, स्वरमें कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदंग बजाना आरम्भ किया। महात्मा सनक, सनन्दन, आदि कीर्तनके बीचमें जय-जयकार करने लगे और इन सबके आगे व्यासपुत्र शुकदेवजी रसकी अभिव्यक्ति करते हुए भाव बताने लगे। उस कीर्तन मण्डलीके बीच परम तेजस्वी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य नटाँके समान नृत्य कर रहे थे। यह अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले ‘भकजन मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, अतः तुमलोग मुझसे वर माँगो’ भगवान्का यह वचन सुनकर सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई, उनका हृदय भगवत्प्रेमसे सराबोर हो गया। वे श्रीहरिसे कहने लगे-‘भगवन्! हमारी इच्छा है कि जहाँ कहीं भी श्रीमद्भागवतकी सप्ताह कथा हो, यहाँ इन समस्त पार्थदेकि साथ यत्नपूर्वक पधारें। हमलोगों का यह मनोरथ अवश्य पूर्ण होना चाहिये।’ तब भगवान्’तथास्तु’ कहकर वहाँसे अन्तर्धान हो गये।

तत्पश्चात् नारदजीने भगवान् तथा उनके भक्तोंके चरणोंको लक्ष्य करके मस्तक झुकाया और शुकदेव आदि तपस्वियोंको भी प्रणाम किया। इस प्रकार कथामृतका पान करके सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन सबका मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस समय श्रीशुकदेवजीने ज्ञान-वैराग्यसहित भक्तिको श्रीमद्भागवत शास्त्रमें स्थापित कर दिया। इसीसे श्रीमद्भागवतका सेवन करनेपर भगवान् विष्णु वैष्णवोंके हृदयोंमें विराजमान हो जाते हैं; जो लोग दरिद्रता (तरह-तरहके अभाव) और दुःखरूप ज्वरसे दग्ध हो रहे हैं, जिनको मायापिशाचीने अपने पैरोंसे कुचल डाला है तथा जो संसार – समुद्रमें पड़े हुए हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत – शास्त्र निरन्तर गर्जना कर रहा है। शौनकजीने पूछा- सूतजी शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को, गोकर्णजीने धुन्धुकारीको तथा सनकादिने देवर्षि नारदको किस-किस समय श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी थी ?

सूतजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधारनेके पश्चात् जब कलियुगको आये तीस वर्ष हो गये, उस समय भादोंके शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको श्रीशुकदेवजीने कथा आरम्भ की। राजा परीक्षित्के कथा सुननेके पश्चात् कलियुगके दो सौ वर्ष बीत जानेपर शुद्ध आषाढ़ मासकी शुक्ला नवमीको गोकर्णजीने कथा सुनायी थी उसके बाद जब कलियुगके तीन सौ छः वर्ष व्यतीत हो गये, तब कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको सनकादिने कथा आरम्भ की थी पापरहित शौनकजी! आपने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। इस कलियुगमें श्रीमद्भागवतकी कथा संसाररूपी रोगका नाश करनेवाली है। संतजन ! आपलोग श्रद्धापूर्वक इस कथामृतका पान करें। यह भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय, समस्त पापका नाश करनेवाला, मुक्तिका एकमात्र कारण तथा भक्तिको बढ़ानेवाला है। इसको छोड़कर लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनोंके विचार करनेकीक्या आवश्यकता है? अपने सेवकको पाश हाथमें लिये देख यमराज उसके कानमें कहते हैं-‘देखो, जो लोग भगवान्‌की कथा वार्तामें मस्त हो रहे हों, उनसे दूर ही रहना। मैं दूसरे ही लोगोंको दण्ड देनेमें समर्थ हूँ, वैष्णवोंको नहीं।’ इस असार संसारमें विषयरूपी विषके सेवनसे व्याकुलचित्त हुए मनुष्यो ! यदि कल्याण चाहते हो तो आधे क्षणके लिये भी श्रीमद्भागवतकथारूपी अनुपम सुधाका पान करो। अरे भाई! घृणित चर्चासे भरे हुए कुमार्गपर क्यों व्यर्थ भटक रहे हो। इस कथाके कानमें पड़ते ही मुक्ति हो जाती है। मेरे इस कथनमें राजा परीक्षित् प्रमाण हैं। श्रीशुकदेवजीने प्रेम-रसके प्रवाह में स्थित होकर यह कथा कही है। जो इसे अपने कण्ठसेलगाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है। शौनकजी ! मैंने समस्त शास्त्रसमुदायका मन्थन करके इस समय आपको यह परम गुह्य रहस्य सुनाया है। यह समस्त सिद्धान्तोंद्वारा प्रमाणित है । संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथासे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है, अतः आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये द्वादशस्कन्धरूप इस सारमय कथामृतका किंचित्-किंचित् पान करते रहिये। जो मनुष्य नियमपूर्वक इस कथाको भक्तिभावसे सुनता है और जो विशुद्ध वैष्णव पुरुषोंके आगे इसे सुनाता है, वे दोनों ही उत्तम विधिका पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल प्राप्त करते हैं। उनके लिये संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है।

अध्याय 228 यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा

ऋषियोंने पूछा- सूतजी! अब आप यमुनाजीके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। साथ ही यह बात भी बताइये, किसने किसके प्रति इस माहात्म्यका उपदेश किया था ?

सूतजीने कहा- एक समयकी बात है पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर सौभरिमुनिसे कल्याणमय ज्ञान सुननेके लिये उनके स्थानपर गये और उन्हें नमस्कार करके इस प्रकार पूछने लगे- ‘ब्रह्मन् सूर्यकन्या यमुनाजीके तटपर जितने तीर्थ हैं उनमें ऐसा कल्याणमय तीर्थ कौन है, जो भगवान्की जन्मभूमि मथुरासे भी बड़ा हो।’

सौभरि बोले – एक समय मुनिश्रेष्ठ नारद और पर्वत आकाशमार्ग से जा रहे थे। जाते-जाते उनकी दृष्टि परम मनोहर खाण्डव वनपर पड़ी। वे दोनों मुनि आकाशसे वहाँ उतर पड़े और यमुनाजीके उत्तम तटपर बैठकर विश्राम करने लगे। क्षणभर विश्राम करनेके बाद उन्होंने स्नान करनेके लिये जलमें प्रवेश किया। इसी समय उशीनर देशके राजा शिखिने, जो उस वनमें शिकार खेलनेके लिये आये थे, उन दोनों मुनियाँको देखा। तब वे उनके निकलनेकी प्रतीक्षा करते हुए नदी के तटपर बैठ गये। नारद और पर्वत मुनि जब विधिपूर्वक स्नानकरके वस्त्र पहन चुके तब राजा शिबिने उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया। फिर तो वे मुनि भी राजाके साथ ही तटपर विराजमान हो गये । वहाँ सुवर्णके हजारों यूप दिखायी दे रहे थे। अभिमानरहित राजा शिबिने उन यूपोंपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारद और पर्वतसे पूछा- ‘मुनिवरो! ये यज्ञ-यूप किनके हैं ? किस देवता अथवा मनुष्यने यहाँ यज्ञ किये हैं? काशी आदि तीर्थोंको छोड़कर किस पुरुषने यहाँ यज्ञ किया है ? अन्य तीर्थोंसे यहाँ क्या विशेषता है ? इसमें कौन सा विज्ञानका भण्डार भरा हुआ है? यह बतानेकी कृपा करें। ‘

नारदजीने कहा- राजन् पूर्वकालमें हिरण्यकशिपुने जब देवताओंको जीतकर तीनों लोकोंका राज्य प्राप्त कर लिया तो उसे बड़ा घमण्ड हो गया। उसके पुत्र प्रह्लादजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे; किन्तु वह पापात्मा उनसे सदा द्वेष रखता था। भक्तसे द्रोह करनेके कारण उसे दण्ड देनेके लिये भगवान् विष्णुने नृसिंहरूप धारण किया और उसका वध करके स्वर्गका राज्य इन्द्रको समर्पित कर दिया। अपना स्थान पाकर इन्द्रने गुरु बृहस्पतिके चरणोंमें मस्तक झुकाकरप्रणाम किया और भगवान् नारायणके गुणोंका स्मरण करते हुए कहा- ‘गुरुदेव! समस्त जगत्‌का पालन करनेवाले नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने मुझे पुनः देवताओंका राज्य प्रदान किया है, अतः मैं यज्ञोंद्वारा उनका पूजन करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे पवित्र स्थान बताइये और योग्य ब्राह्मणोंका परिचय दीजिये आप हमलोगोंके हितकारी है, अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये।’

बृहस्पतिजीने कहा- देवराज तुम्हारा खाण्डव वन परम पवित्र और रमणीय स्थान है वहाँ त्रिभुवनको पवित्र करनेवाली पुण्यमयी यमुना नदी है। यदि तुम आत्मीयजनोंका कल्याण चाहते हो तो उसीके तटपर चलकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् केशवकी आराधना करो।

गुरु बृहस्पतिके वचन सुनकर देवराज इन्द्र तुरंत गुरु, देवता तथा यज्ञसामग्री के साथ खाण्डव वनमें आये। फिर गुरुकी आज्ञासे ब्रह्मकुमार वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों तथा अन्य ब्राह्मणोंका वरण करके इन्द्रने जगत्पति भगवान् विष्णुका यजन किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीके साथ इन्द्रके यज्ञमें पधारे सरलहृदय इन्द्र तीनों देवताओंको उपस्थित देख तुरंत आसनसे उठकर खड़े हो गये और मुनियोंके साथ उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर वाहनोंसे उतरकर वे तीनों देवता सोनेके सिंहासनोंपर विराजमान हुए। उस समय वेदियोंपर प्रज्वलित त्रिविध अग्नियोंकी भाँति उन तीनोंकी शोभा हो रही थी। श्वेत और लाल वर्णवाले शंकर एवं ब्रह्माजी के बीचमें बैठे हुए पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर भगवान् विष्णु ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पर्वत शिखरोंके बीच बिजलीसहित मेघ दिखायी दे रहा हो इन्द्रने उन तीनोंके चरण धोकर उस जलको अपने मस्तकपर चढ़ाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ मधुर वाणीमें इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया।

इन्द्र बोले- देव ! आज मेरे द्वारा आरम्भ किया हुआ यह यज्ञ सफल हो गया; क्योंकि योगियोंको भी जिनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है, वे ही आपतीनों देवता स्वतः मुझे दर्शन देने पधारे हैं। विष्णो! | यद्यपि आप एक ही हैं, तो भी सत्त्व आदि गुणका आश्रय लेकर आपने अपने तीन स्वरूप बना लिये हैं। इन तीनों ही रूपोंका तीनों वेदोंमें वर्णन है अथवा ये तीनों रूप तीन वेदस्वरूप ही हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वतः उज्ज्वल है, किन्तु भाँति-भाँति के रंगोंके सम्पर्क में आकर विविध रंगका जान पड़ता है, उसी प्रकार आप एक होनेपर भी उपाधिभेदसे अनेकवत् प्रतीत होते हैं। आपका यह नानात्व स्फटिकमणिके रंगोंकी भाँति मिथ्या ही है। प्रभो जैसे लकड़ियोंमें छिपी हुई आग रगड़े बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपे हुए आप परमात्मा भक्तिसे ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं। आप सब प्राणियोंका उपकार करनेवाले हैं। आपमें एककी भी भक्ति हो तो अनेकोंको सुख होता है। प्रह्लादजीकी की हुई भक्तिके द्वारा आज सम्पूर्ण देवता सुखी हो गये हैं। देव हम सभी देवता विषय-भोगों में ही फैसे हैं। हमारे मनपर आपकी मायाका पर्दा पड़ा है, अतः हम आपके स्वरूपको नहीं जानते; उसका यथावत् ज्ञान तो उन्हींको होता है, जो आपके चरणोंके सेवक हैं। ब्रह्मा और महादेवजी! आप दोनों भी इस जगत्के गुरु हैं: यह गुरुत्व भगवान् विष्णुका ही है, इसलिये आपलोग इनसे पृथक नहीं हैं। वाणीसे जो कुछ भी कहा जाता है और मनसे जो कुछ सोचा जाता है, वह सब भगवान् विष्णुकी माया ही है जो कुछ देखनेमें आ रहा है, यह सारा प्रपंच ही मिथ्या है-ऐसा विचार करके जो मनुष्य भगवान् विष्णुके चरणोंका भजन करते हैं, वे संसार सागरसे तर जाते हैं महादेवजी इन चरणोंकी महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय, जिनका जल आप भी अपने मस्तकपर धारण करते हैं। ब्रह्माजी मैं तो यही चाहता हूँ कि जिनकी दृष्टि पड़नेमात्र से विकारको प्राप्त होकर प्रकृति महत्तत्त्व आदि समस्त जगत्की सृष्टि करती है, उन्हीं भगवान् विष्णुके चरण-कमलोंमें मेरा जन्म जन्म दृढ़ अनुराग बना रहे भगवान् नृसिंह आपके समान दयालु प्रभु दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि जो आपसे शत्रुभाव रखते हैं, उनके लिये भी आप सुखकाही विस्तार करते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि आप अपने भक्तोंका शोक दूर करनेके लिये ही दयालु है यह उनकी अज्ञता है।

राजन्! इस प्रकार भगवान् केशवकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनका वचन सुननेके लिये वे दत्तचित्त होकर खड़े हो गये। तब यज्ञसभामें आये हुए मुनि इन्द्रद्वारा की हुई रमापति भगवान् विष्णुकी यह स्तुति सुनकर भगवद्धतिको प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद देने लगे।

नारदजी कहते हैं-मुनियोंद्वारा त्रिलोकीसे अतीत नित्य धामकी प्राप्ति करानेवाली तथा सबके सेवन करनेयोग्य अपनी भक्तिका समर्थन सुनकर सम्पूर्ण जगत्के गुरु भगवान् श्रीहरि उस समाजके भीतर इन्द्रसे मधुर वाणीमें बोले।

श्रीभगवान्ने कहा- देवराज! ये मुनि परम ज्ञानी हैं। अतः यदि ये मेरी भक्तिको गौरव देते और उसका सत्कार करते हैं तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि ये तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोंको उपदेश देनेवाले हैं। ये ही सदा नष्ट हुए वैदिक मार्गको पुनः स्थापित करते हैं। यद्यपि तुम स्वर्गके भोगों में आसक थे, तथापि जो भक्तिपूर्वक मेरी शरणमें आ गये- इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि देवगुरु बृहस्पति- जैसे महात्मा तुम्हारे गुरु हैं। सुरश्रेष्ठ! तुम बहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंसे मेरा यजन करो, किन्तु मनमें कोई कामना न रखो इससे तुम तुरंत ही मेरे समीपवर्ती पद-परमधामको प्राप्त होओगे। तुम प्रत्येक यज्ञमें रत्नोंके अनेक प्रस्थ ढेर) दान करो; फिर इसी नामसे यह स्थान इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा । महादेवजी! आप यहीं काशी और शिवकांचीकी स्थापना कीजिये और पार्वतीजीके साथ सदा इस तीर्थमें निवास कीजिये। बृहस्पतिजी आप भी यहाँ निगमोद्बोधक तीर्थकी स्थापना कीजिये। यहाँ स्नान करनेसे पूर्वजन्मकी स्मृति और परमात्माका ज्ञान प्राप्त हो। मैं भी यहाँ परम मनोहर द्वारकापुरी, अयोध्यापुरी, मधुवन और बदरिकाश्रमकी स्थापना करता हूँ तथा सदा यहाँउपस्थित रहूँगा । इन्द्र ! हरिद्वार और पुष्कर नामक जो दो श्रेष्ठ तीर्थ हैं, उनको भी मैं तुम्हारे हितकी कामना यहाँ स्थापित करता है। नैमिषारण्य कालंजरगिरि तथा सरस्वतीके तटपर भी जितने तीर्थ हैं, उन सबकी मैं यहाँ स्थापना करता हूँ।

नारदजी कहते हैं-राजा शिवि श्रीहरिके ये कल्याणमय वचन सुनकर सबने वैसा ही किया। अब यह स्थान सम्पूर्ण तीर्थोंका स्वरूप बन गया, अतः देवराज इन्द्र सुवर्णके यूपोंसे सुशोभित अनेक योद्वारा पुनः भगवान् लक्ष्मीपतिका वजन किया और भगवान्‌के सामने ही ब्राह्मणोंको रत्नोंके कितने ही प्रस्थ दान किये। दान देते समय उन्होंने केवल यही उद्देश्य रखा कि मुझपर सर्वात्मा नारायण सन्तुष्ट हों। तभीसे यह तीर्थ इन्द्रप्रस्थ कहलाता है।

इन्द्रने यहाँ सुवर्ण-यूपसे सुशोभित यज्ञोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान पूर्ण किया और भगवान् विष्णु आदि देवताओंकी पूजा करके उन्हें विदा किया। फिर ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ आदि ऋत्विजोंको धन आदिके द्वारा सन्तुष्ट करके बृहस्पतिको आगे करके इन्द्र स्वर्गलोकको चले गये। राजन्। वहाँ भगवान्‌की भक्तिसे युक्त हो इन्द्रने राज्य किया और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः हस्तिनापुरमें जन्म लिया।

वहाँ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण थे, जो वेद वेदांगोंके पारंगत विद्वान थे। उनकी पत्नीका नाम गुणवती था। भगवान् विष्णुके सेवक देवराज इन्द्र उसीके गर्भसे उत्पन्न हुए। शिवशर्माने ज्योतिषियोंको बुलवाया। ज्योतिषी लग्न देखकर उसका फल बतलाने लगे ‘शिवशर्माजी! आपका यह बालक भगवान् विष्णुका प्रिय भक्त होगा तथा आपके कुलका उद्धार करेगा।’ ज्योतिषियोंका यह शान्तिदायक वचन सुनकर शिवशर्माने अपने पुत्रका नाम विष्णुशर्मा रखा और उन्हें धन देकर विदा किया शिवशर्मा बड़े बुद्धिमान् थे वे मन-ही मन सोचने लगे-‘मेरा जीवन धन्य है; क्योंकि मेरा पुत्र भगवान् विष्णुका भक्त होगा।’ मनमें ऐसी ही बात विचारते हुए शिवशर्माने किसी अच्छे दिनको श्रेष्ठब्राह्मणोंके द्वारा शिशुके जातकर्म आदि संस्कार कराये। जब सात वर्ष व्यतीत हो गये और आठवाँ वर्ष आ लगा तब उन्होंने अपने पुत्रका उपनयन संस्कार किया। इसके बाद बारह वर्षोंतक उसे अंगोंसहित वेद पढ़ाये। तत्पश्चात् शिवशर्माने पुत्रका विवाह कर दिया। बुद्धिमान् विष्णुशर्माने अपनी पत्नीसे एक पुत्र उत्पन्न करके अपने विषय-वासनारहित मनको तीर्थयात्रामें लगाया और पिताके पास जाकर उनके दोनों चरणों में प्रणाम किया। तत्पश्चात् महाप्राज्ञ विष्णुशर्मा इस प्रकार बोले- ‘पिताजी! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं सत्संग प्रदान करनेवाले तृतीय आश्रमको स्वीकार करके अब श्रीविष्णुकी आराधना करूँगा। स्त्री, गृह, धन, सन्तान और सुहृद् – ये सभी जलमें उठनेवाले बुबुदोंकी तरह क्षणभंगुर हैं; अतः विद्वान् पुरुष इनमें आसक्त नहीं होता। मैंने वेदोंके स्वाध्यायसे और सन्तानोत्पत्तिके द्वारा क्रमशः ऋषि ऋण और पितृ ऋणसे उद्धार पा लिया है। अब तीर्थोंमें रहकर निष्कामभावसे भगवान् केशवकी आराधना करना चाहता हूँ। गुणमय पदार्थोंकी आसक्तिका त्याग करके जबतक प्रारब्ध शेष है, किसी उत्तम तीर्थमें रहनेका विचार करता हूँ।’

शिवशर्माने कहा- बेटा! मेरे लिये भी अहंकारशून्य होकर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करनेका समय आ गया है, अतः मैं भी विषयोंको विषकी भाँति त्यागकर श्रीकेशवरूपी अमृतका सेवन करूँगा। अब मेरी वृद्धावस्था आ गयी, अतः घरमें मेरा मन नहीं लगता। तुम्हारा छोटा भाई सुशमा कुटुम्बका पालनपोषण करेगा। हम दोनों श्रीहरिके चरण-कमलोंका चिन्तन करते हुए अब यहाँसे चल दें।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्! ऐसा निश्चय करके वे दोनों मुमुक्षु पिता-पुत्र अन्धकारपूर्ण आधी रातके समय घरसे चल दिये और घूमते हुए इस परम कल्याणदायक तीर्थ इन्द्रप्रस्थमें आये। यहाँ अपने पूर्वजन्मके किये हुए यज्ञयूपको देखकर विष्णुशर्माको श्रीहरिके समागमका स्मरण हो आया। उन्होंने अपने पितासे कहा- ‘पिताजी! मैं पूर्वजन्ममें इन्द्र था। मैंने ही भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेकी इच्छासे यहाँ यज्ञ किये थे। यहीं मेरे ऊपर भक्तवत्सल भगवान् केशव प्रसन्न हुए थे। मैंने रत्नोंके प्रस्थ दान करके यहाँ ब्राह्मणों और सप्तर्षियोंको सन्तुष्ट किया था। उन्होंने ही मुझे विष्णुभक्तिकी प्राप्ति तथा इस जन्ममें मोक्ष होनेका आशीर्वाद दिया था। इस तीर्थको सर्वतीर्थमय बनाकर इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया था। उन मुनिवरोंने इसी स्थानपर मेरी मृत्यु होनेकी बात बतायी है और अन्तमें भगवान् के परमधामकी प्राप्ति होनेका आश्वासन दिया है। ये सब बातें मुझे इस समय याद आ रही हैं। यह निगमोद्बोधक नामक तीर्थ है, जिसे मेरे गुरु बृहस्पतिजीने स्थापित किया था। सप्ततीर्थ और निगमोद्बोध- इन दो तीर्थोंके बीचमें देवताओंने इस इन्द्रप्रस्थनामक महान् क्षेत्रकी स्थापना की है। पिताजी! यह पूर्वसे पश्चिमकी ओर एक योजन चौड़ा है और यमुनाके दक्षिण तटपर चार योजनकी लंबाईमें फैला हुआ है। महर्षियोंने इन्द्रप्रस्थकी इतनी ही सीमा बतायी है।’

अध्याय 229 निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा

नारदजी कहते हैं- राजन् यह बात सुनकर शिवशमकि मनमें बड़ा सन्देह हुआ और उन्होंने अपने सत्यवादी पुत्र विष्णुशर्मासे पूछा- ‘बेटा में कैसे सम कि तुम पूर्वजन्ममें देवताओंके राजा इन्द्र थे और तुमने यह करके रत्नोंके द्वारा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया था। हमारी कही हुई बातें जिस प्रकार मेरी समझमें आजायँ, वह करो। पूर्वजन्ममें किये हुए कार्योंका ज्ञान इस समय तुम्हें कैसे हो रहा है?

विष्णुशर्माने कहा – पिताजी! मुझे ऋषियोंने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहनेका वरदान दिया है। उन्हींके मुँहसे इस तीर्थ के विषयमें ऐसी महिमा सुनी थी। आप यहाँ निगमोद्बोध तीर्थमें स्नान कीजिये। इससे आपको भीपूर्वजन्मकी स्मृति प्रदान करनेवाला दुर्लभ ज्ञान प्राप्त होगा।

यह सुनकर विप्रवर शिवशमनि पूर्वजन्मकी स्मृति प्राप्त करनेके लिये भगवान् श्रीहरि, श्रीगंगाजी एवं अयोध्या आदि सात पुरियोंका स्मरण करके और भगवान् गोविन्दमें चित्त लगाकर निगमोद्बोध तीर्थमें बार-बार डुबकियाँ लगाकर स्नान किया। उसके बाद सन्ध्या-तर्पण किया। तदनन्तर सूर्यको सादर अर्घ्य देकर विविध उपचारोंसे भगवान् विष्णुका पूजन किया। इस तरह नित्यकर्म पूरा करके वे सुखपूर्वक बैठे और अपने सुयोग्य पुत्र विष्णुशर्मासे बोले ।

शिवशर्माने कहा – विष्णुशर्मन् यहाँ स्नान करनेसे मुझे भी पहलेके जन्म- कर्मोंका स्मरण हो आया है। महाभाग ! मैं उन्हें तुम्हारे सामने कहता हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मैं धनवान् वैश्यके कुलमें उत्पन्न हुआ था। मेरे पिताका नाम शरभ था। वे कान्यकुब्जपुरमें निवास करते थे। वहाँ व्यापारके द्वारा उन्होंने बहुत धन कमाया; परन्तु रात-दिन उन्हें यही चिन्ता घेरे रहती थी कि पुत्रके बिना मेरी संचित की हुई यह सारी धनराशि व्यर्थ ही है। इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए वैश्यके घर एक दिन परोक्ष विषयोंका ज्ञान रखनेवाले मुनिवर देवलजी पधारे। उन्हें आया देख मेरे पिता आसनसे उठकर खड़े हो गये। उन्होंने पाद्य और अर्घ्य देकर मुनिको प्रणाम किया, उत्तम आसनपर बैठाया और सम्मानपूर्वक कुशलप्रश्न पूछते हुए कहा- ‘मुनिश्रेष्ठ ! आपका इस पृथ्वीपर विचरना हम जैसे गृहस्थोंको सुख देनेके लिये ही होता है; अन्यथा यदि आप कृपा करके स्वतः न पधारें, तो घरकी चिन्तामें डूबे हुए मनुष्योंको आप जैसे महात्माका दर्शन कहाँ हो सकता है? जिनकी बुद्धि भगवान्‌की चरण-रजके चिन्तनमें लगी हुई है, उन्हें कहीं भी कोई कामना नहीं हो सकती। तथापि यहाँ आपके पधारनेका क्या कारण है ? यह शीघ्र बतानेकी कृपा करें।’

वैश्यके ऐसा कहने पर देवल मुनिने उनके मनोभावको जाननेके लिये पूछा- वैश्यप्रवर! तुमने धर्मपूर्वक बहुत धनका संचय कर लिया है और उसीसेतुम नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका भलीभांति अनुष्ठान करते हो फिर भी तुम्हारा शरीर सूखा क्यों जा रहा है? यदि कोई गोपनीय बात न हो, तो मुझे अवश्य बताओ।’

वैश्यने कहा – मुनिश्रेष्ठ! आपसे छिपानेयोग्य कौन-सी बात हो सकती है? आपकी कृपासे मुझे सब प्रकारका सुख है। दुःख केवल एक ही बातका है कि बुढ़ापा आ जानेपर भी अबतक मेरे कोई पुत्र नहीं हुआ। आप कृपा करके ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मैं भी पुत्रवान् हो सकूँ। आप जैसे महात्माओंके लिये इस पृथ्वीपर कोई भी कार्य असम्भव नहीं है।

वैश्यश्रेष्ठ शरभके ये वचन सुनकर परोक्षज्ञानी देवलजीने आँखें बंद कर मनको स्थिर करके क्षणभर ध्यान किया और मेरे पिताको सन्तानकी प्राप्ति होनेमें जो रुकावट थी, उसका कारण जानकर उन्हें पुरानी बातोंकी याद दिलाते हुए कहा- “वैश्य! पहलेकी बात हैं, एक दिन तुम्हारी धर्मपत्नीने अपने मनमें जो कामना की थी, उसे बतलाता है सुनो। इसने पार्वतीजी से प्रार्थना की- ‘शिवप्रिया गौरीदेवी। यदि मैं गर्भवती हो जाऊँ तो तुम्हें परस भोजनसे सन्तुष्ट करूंगी। इस प्रार्थनाके बाद उसी महीने में तुम्हारी पत्नीके गर्भ रह गया तब सखियोंके अनुरोधसे तुम्हारी पतिव्रता पत्नीने तुम्हारे पास आकर विनयपूर्वक कहा- ‘नाथ! मैं सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली पार्वती देवीको पूजा करना चाहती हूँ, क्योंकि उन्होंकी कृपासे इस समय मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है।’

“वैश्यप्रवर! अपनी पत्नीके ये शुभ वचन सुनकर तुम बहुत प्रसन्न हुए और तुमने मधु, अन्न, द्राक्षा और गन्ध आदि सब सामग्रियोंको मंगवाकर अपनी पत्नीके हवाले कर दिया। तब तुम्हारी पत्नीने सखियोंको बुलाकर कहा- ‘सहेलियो ! पूजनकी सारी सामग्री मैंने मँगा ली है। यह सब लेकर तुमलोग मन्दिरमें जाओ और विधिवत् पूजा करके देवीको सन्तुष्ट करो हमारे कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती; इसलिये मैं नहीं चल सकूँगी। तुम्हीं लोग देवीकी पूजाके लिये जाओ।'”तुम्हारी पत्नीकी आज्ञा पाकर सखियाँ पूजाकी सामग्री ले अम्बिकाके मन्दिरमें गयीं। वहाँ उन्होंने पार्वतीजीको प्रणाम और प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक कहा- ‘जगदम्बे ! तुम्हें नमस्कार है। शिवप्रिये ! हमारा कल्याण करो। शरभ नामक वैश्यकी पत्नी ललिताको तुम्हारी कृपासे गर्भ प्राप्त हो गया, अतः उसने तुम्हारी पूजाके लिये यह सब सामग्री हमारे हाथ भेजी है। उसके कुलमें गर्भवती स्त्री घरसे बाहर नहीं निकलती, इसीलिये वह स्वयं नहीं आ सकी है। देवि! तुम प्रसन्न होकर इस पूजनको ग्रहण करो।’

“ऐसा कहकर सखियोंने माता पार्वतीका चन्दन आदिसे विधिपूर्वक पूजन किया; परन्तु भगवती गौरीकी ओरसे उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। सखियाँ घर लौट आयीं और तुम्हारी पत्नीसे बोलीं कि इस पूजासे पार्वतीजी प्रसन्न नहीं हैं। सखियोंकी बात सुनकर तुम्हारी स्त्रीके मनमें बड़ी व्याकुलता हुई। वह मन ही मन चिन्ता करने लगी कि ‘उनके सुन्दर मन्दिरमें पूजाके समय मैं स्वयं नहीं जा सकी, यही मेरा अपराध है। इसके सिवा दूसरी कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती, जो उनकी अप्रसन्नताका कारण हो जो बात बीत गयी, उसको तो बदलना असम्भव है; किन्तु मैं गर्भसे छुटकारा पानेपर स्वयं भगवतीकी पूजाके लिये उनके मन्दिरमें जाऊँगी। महादेवजीकी पत्नी भगवती उमाको नमस्कार है। वे मेरा कल्याण करें।’

वैश्यने पूछा- मुने! मेरी पत्नीने जैसी प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार उसने पार्वतीजीका पूजन किया; फिर उनकी अप्रसन्नताका क्या कारण है, यह बतानेकीकृपा करें।

देवलजीने कहा- वैश्यवर! इसका कारण सुनो; जब तुम्हारी पत्नीकी सखियाँ स्कन्दमाता पार्वतीका पूजन करके लौट आयीं तब विजयाने कौतूहलवश पार्वतीजीसे पूछा- ‘गिरिजे! ललिताकी सखियोंने तुम्हारी श्रद्धापूर्वक पूजा की है; फिर तुम प्रसन्न क्यों नहीं हुईं।’

पार्वतीजीने कहा- सखी विजया! मैं जानती हूँ, वैश्य – पत्नी घरसे बाहर निकलनेमें असमर्थ थी; | इसीलिये उसकी सखियाँ आयी थीं। किन्तु मेरी-जैसी देवियाँ दूसरेके हाथकी पूजा स्वीकार नहीं कर सकतीं। उसका पति आ जाता, तो भी उसका कल्याण होता । पत्नी जिस व्रत और पूजनको करनेमें असमर्थ हो, उसे अपने पतिसे ही करा सकती है। इससे उसकी वह पूजा भंग नहीं होती। अथवा अनन्यभावसे पतिसे पूछकर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मणके द्वारा भी वह पूजा करा सकती थी। पर उसने न तो स्वयं पूजन किया और न पतिसे करवाया। इसलिये उसका गर्भ निष्फल हो जायगा। यदि दोनों पति-पत्नी श्रद्धापूर्वक यहाँ आकर मेरी पूजा करेंगे, तो उन्हें पुत्रकी प्राप्ति होगी।”

वैश्य! तुम्हारे सन्तान न होनेमें यही कारण है, जो तुम्हें बता दिया। जैसे पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने महाराज दिलीपको सन्तान प्राप्तिके लिये नन्दिनीकी सेवा बतलायी थी, उसे सुनकर राजाने नन्दिनीको सन्तुष्ट किया था और राजाकी सेवासे प्रसन्न हुई नन्दिनीने उन्हें पुत्र प्रदान किया था, उसी प्रकार तुम भी पत्नीसहित जाकर भगवती पार्वतीकी आराधना करो। इससे वे तुम्हें पुत्र प्रदान करेंगी l

अध्याय 230 देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति

वैश्यने पूछा- मुने राजा दिलीप कौन थे तथा वह नन्दिनी गौ कौन थी, जिसकी आराधना करके महाराजने पुत्र प्राप्त किया था? इस कथाके सुननेके बाद में पत्नीसहित पार्वतीजीकी आराधना करूंगा।देवलने कहा- महामते ! वैवस्वत मनुके वंशमें एक दिलीप नामके श्रेष्ठ राजा हुए हैं। वे धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करते हुए अपने उत्तम गुणके द्वारा समस्त प्रजाको प्रसन्न रखते थे। मगधराजकुमारीसुदक्षिणा राजा दिलीपकी महारानी थी। महारानीको अवधमें आये बहुत दिन हो गये, किन्तु उनके गर्भसे कोई पुत्र नहीं हुआ तब कोसलसम्राट दिलीप अपने मनमें विचार करने लगे कि ‘मैंने कोई दोष नहीं किया है और धर्म, अर्थ तथा कामका यथासमय सेवन किया है। फिर मेरे किस दोषके कारण महारानीके गर्भसे सन्तान नहीं हुई? हमारे कुलगुरु वसिष्ठजी भूत और भविष्यके ज्ञाता हैं; वे ही उस दोषको बता सकते हैं, जिससे मुझे पुत्र नहीं हो रहा है।

ऐसा विचारकर राजा अपनी रानीसहित गुरु वसिष्ठके शुभ आश्रमपर गये। वसिष्ठजी सायंकालका नित्यकर्म समाप्त करके आश्रम में बैठे थे। उसी समय राजा और रानीने वहाँ पहुँचकर उनका दर्शन किया। महाराजने गुरुके और महारानीने गुरुपत्नी अरुन्धती देवीके चरणोंमें प्रणाम किया। वसिष्ठजीने राजाको और अरुन्धती देवीने रानीको आशीर्वाद दिया। तत्पश्चात् पूजनीय पुरुषोंमें श्रेष्ठ महर्षि वसिष्ठने मधुपर्क आदि सामग्रियोंसे अपने नवागत अतिथिका सत्कार करके उनसे कुशल पूछी।

तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठने अपने योगके प्रभावसे नाना प्रकारके भोज्य पदार्थ प्रस्तुत किये और उन्हें राजा दिलीपको भोजन कराया तथा उदारहृदया अरुन्धती देवीने भी महारानी सुदक्षिणाको बड़े आदरके साथ भाँति-भाँतिके व्यंजन और पकवान भोजन कराये। जब राजा भोजन करके आरामसे बैठे, तब सदा आत्मस्वरूपमें स्थित रहनेवाले मुनि उन विनयशील नरेशका हाथ अपने हाथमें लेकर पूछने लगे-‘राजन्! जिस राज्य के राजा, मन्त्री, राष्ट्र किला खजाना, सेना और मित्रवर्ग- ये सातों अंग एक-दूसरेके उपकारक एवं सकुशल हों, जहाँकी प्रजा अपने-अपने धर्मके पालनमें तत्पर रहती हो, जहाँ बन्धुजन और मन्त्री प्रेम और प्रसन्नता से रहते हो, जहाँके योद्धा अस्त्र-शस्त्रोंके संचालनकी क्रियामें कुशल हों, मित्र वशमें हों और शत्रुओंका नाश हो गया हो तथा जहाँ निवास करनेवाले लोगोंका मन भगवान्की आराधनायें लगा रहता हो,ऐसा राज्य जिस राजाके अधिकारमें हो, उसे स्वर्गका राज्य लेकर क्या करना है? राजन्। इक्ष्वाकुकुलके धार्मिक नरेश पुत्र उत्पन्न करके उनको राज्यका भार सौंपनेके बाद तपके लिये वनमें आया करते थे। तुम तो अभी जवान हो। तुमने अभी पुत्रका मुँह भी नहीं देखा है, 1 अतः तुम तपस्याके अधिकारी नहीं हो फिर वैसा राज्य छोड़कर इस तपोवनमें किस लिये आये हो?”

राजाने कहा- ब्रहान्! मैं तपस्या करनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ। जैसे बाल्यावस्था चली गयी और जवानी आयी है, उसी प्रकार यह भी चली जायगी और वृद्धावस्था आयेगी। वृद्धावस्थाके अनन्तर मृत्यु निश्चित है। गुरुदेव ! इस प्रकार यदि मैं पुत्र हुए बिना ही मर जाऊँगा, तो मेरे बाद यह पृथ्वीका राज्य किसके अधिकारमे रहेगा ? तपोनिधे! किस दोषके कारण मुझे पुत्र नहीं होता ? गुरुदेव मेरे उस दोषको ध्यानके द्वारा देखकर शीघ्र ही बतानेकी कृपा मुझे कीजिये ।

राजाका यह वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठने ध्यान लगाया और सन्तान बाधाका कारण जानकर इस प्रकार कहा- “नृपश्रेष्ठ पहले की बात है, तुमने देवराज इन्द्रकी सेवासे राजमहलको लौटते समय उतावलीके कारण मार्ग में कल्पवृक्षके नीचे खड़ी कामधेनु गौको प्रदक्षिणा करके प्रणाम नहीं किया। इससे कामधेनुको बड़ा क्रोध हुआ और उसने यह शाप दे दिया कि ‘जबतक तू मेरी सन्तानकी सेवा नहीं करेगा, तबतक तुझे पुत्र नहीं होगा।’ अतः अब तुम बछडेसहित मेरी नन्दिनी गौकी, जो कामधेनुकी पुत्रीकी पुत्री है, इस बहूके साथ आराधना करो यह नन्दिनी तुम्हें पुत्र प्रदान करेगी।’

इसी समय नन्दिनी गौ तपोवनसे आश्रमपर आ पहुँची। उसे देखकर मुनिवरका मन प्रसन्न हो गया। वे नन्दिनीको दिखाकर राजासे बोले-‘राजन्! देखो, स्मरणमात्रसे कल्याण करनेवाली यह नन्दिनी गौ चर्चा होते ही चली आयी; अतः तुम अपनी कार्य सिद्धिको समीप ही समझो। तपोवनमें इसके पीछे-पीछे रहकर तुम इसकी आराधना करो और आश्रमपर आनेपर रानी सुदक्षिणा इसकी सेवामें लगी रहे। इससे प्रसन्नहोकर यह गौ तुम्हें निश्चय ही पुत्र प्रदान करेगी। महाराज! तुम हाथमें धनुष लेकर वनमें पूरी सावधानीके साथ गौको चराओ, जिससे कोई हिंसक जीव इसपर आक्रमण न कर बैठे।’ राजाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर शीघ्र ही गुरुकी आज्ञा शिरोधार्य की।

देवलजी कहते हैं- तदनन्तर प्रातः काल जब महारानी सुदक्षिणाने फूल आदिसे नन्दिनीकी पूजा कर ली, तब राजा उस धेनुको लेकर वनमें गये। वह गौ जब चलने लगती तो राजा भी छायाकी भाँति उसके पीछे-पीछे चलते थे। जब घास आदि चरने लगती, तब वे भी फल मूल आदि भक्षण करते थे। जब वह वृक्षोंके नीचे बैठती तो वे भी बैठते और जब पानी पीने लगती तो वे भी स्वयं पानी पीते थे। राजा हरी हरी घास लाकर गौको देते, उसके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटाते तथा उसे हाथोंसे सहलाते और खुजलाते थे। इस प्रकार वे गुरुकी कामधेनु गौके सेवनमें लगे रहे। जब शाम हुई, तब वह गौ अपने खुरोंसे उड़े हुए धूलिकणोंद्वारा राजाके शरीरको पवित्र करती हुई आश्रमको लौटी। आश्रमके निकट पहुँचनेपर रानी सुदक्षिणाने आगे बढ़कर नन्दिनीकी अगवानी की और विधिपूर्वक पूजा करके बारंबार उसके चरणों में मस्तक झुकाया। फिर गौकी परिक्रमा करके वह हाथ जोड़ उसके आगे खड़ी हो गयी। गौने स्थिरभावसे खड़ी होकर रानीद्वारा श्रद्धापूर्वक की हुई पूजाको स्वीकार किया, तत्पश्चात् उन दोनों दम्पतिके साथ वह आश्रमपर आयी। इस प्रकार दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले राजा दिलीपके उस गौकी आराधना करते हुए इक्कीस दिन बीत गये। तत्पश्चात् राजाके भक्तिभावको परीक्षा लेनेके लिये नन्दिनी सुन्दर घासोंसे सुशोभित हिमालयकी कन्दरामें प्रवेश कर गयी। उस समय उसके हृदयमें तनिक भी भय नहीं था। राजा दिलीप हिमालयके सुन्दर शिखरकी शोभा निहार रहे थे। इतनेमें ही एक सिंहने आकर नन्दिनीको बलपूर्वक धर दबाया। राजाको उस सिंहके आनेकी तक नहीं मालूम हुई। सिंहके चंगुलमें पैसकर नन्दिनीने दयनीय स्वरमें बड़े जोरसे चीत्कार |किया। उसके करुण क्रन्दनने धनुर्धर राजाके चित्तमें दयाका संचार कर दिया। उन्होंने देखा, गौका मुख आँसुओंसे भीगा हुआ है और उसके ऊपर तीखे दादों तथा पंजोंवाला सिंह चढ़ा हुआ है। यह दुःखपूर्ण दृश्य देखकर राजा व्यथित हो उठे। उन्होंने सिंहके पंजेमें पड़ी हुई गौको फिरसे देखा और तरकससे एक बाण निकालकर उसे धनुषकी डोरीपर रखा और सिंहका वध करनेके लिये धनुषकी प्रत्यंचाको खींचा। इसी समय सिंहने राजाकी ओर देखा उसकी दृष्टि पड़ते ही उनका सारा शरीर जडवत् हो गया। अब उनमें बाण छोड़नेकी शक्ति न रही इससे वे बहुत ही विस्मित हुए।

राजाको इस अवस्थामें देखकर सिंहने उन्हें और भी विस्मयमें डालते हुए मनुष्यकी वाणीमें कहा ‘राजन्! मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम सूर्यवंशमें उत्पन्न राजा दिलीप हो। तुम्हारा शरीर जो जडवत् हो गया है, उसके लिये तुम्हें विस्मय नहीं करना चाहिये; क्योंकि इस हिमालय में भगवान् शंकरकी बहुत बड़ी माया फैली है। किसी दूसरे सिंहकी भाँति मुझपर प्रहार करना भी तुम्हारे वशकी बात नहीं है; क्योंकि भगवान् शंकर मेरी पीठपर पैर रखकर अपने वृषभपर आरूढ़ हुआ करते हैं। अच्छा, अब तुम लौट जाओ और समस्त पुरुषार्थोके साधनभूत अपने शरीरकी रक्षा करो। वीर। इस गौको दैवने मेरे आहारके लिये ही भेजा है।’

सिंहके ‘वीर’ सम्बोधनसे युक्त वचन सुनकर जडवत् शरीरवाले राजा दिलीपने उसे इस प्रकार उत्तर दिया- मृगराज हमारे गुरु महर्षि वसिष्ठकी यह सम्पूर्ण मनोरथोंको सिद्ध करनेवाली नन्दिनी नामक धेनु है। गुरुदेवने सन्तान प्राप्तिके उद्देश्यसे इसकी आराधना करनेके लिये इसे मुझको सौंपा है। मैंने अबतक इसकी भलीभाँति आराधना की है। यह छोटे बछड़ेकी माँ है। तुमने इसे पर्वतकी कन्दरामें पकड़ रखा है। तुम शंकरजीके सेवक हो, इसलिये तुम्हारे हाथसे बलपूर्वक इसको छुड़ाना मेरे लिये असम्भव है। अब मेरा यह शरीर अपकीर्तिसे मलिन हो चुका। मैं इस गौके बदले अपने शरीरको ही तुम्हें समर्पित करता हूँ। ऐसा करनेसेमहर्षिके धार्मिक कृत्योंमें भी कोई बाधा नहीं पड़ेगी और तुम्हारे भोजनका भी काम चल जायगा। साथ ही गो-रक्षाके लिये प्राणत्याग करनेसे मेरी भी उत्तम गति होगी।’ यह सुनकर सिंह मौन हो गया। धर्मज्ञ राजा दिलीप उसके आगे नीचे मुँह किये पड़ गये। वे सिंहके द्वारा होनेवाले दुःसह आघातकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि अकस्मात् उनके ऊपर देवेश्वरोंद्वारा की हुई फूलोंकी वृष्टि होने लगी। फिर, ‘बेटा! उठो ।’ यह वचन सुनकर राजा दिलीप उठकर खड़े हो गये। उस समय उन्होंने माताके समान सामने खड़ी हुई धेनुको ही देखा। वह सिंह नहीं दिखायी दिया। इससे राजाको बड़ा विस्मय हुआ । तब नन्दिनीने नृपश्रेष्ठ दिलीपसे कहा- ‘राजन्! मैंने मायासे सिंहका रूप बनाकर तुम्हारी परीक्षा ली है। मुनिके प्रभावसे यमराज भी मुझे पकड़नेका विचार नहीं ला सकता। तुम अपना शरीर देकर भी मेरी रक्षाके लिये तैयार थे। अतः मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे अपना अभीष्ट वर माँगी।”

राजा बोले- माता! देहधारियोंके अन्तःकरणमें जो बात होती है, वह आप जैसी देवियोंसे छिपी नहीं रहती। आप तो मेरा मनोरथ जानती ही हैं। मुझे वंशधर पुत्र प्रदान कीजिये।

राजाकी बात सुनकर देवता पितर ऋषि और मनुष्य आदि सब भूतोंका मनोरथ सिद्ध करनेवाली नन्दिनीने कहा-‘बेटा! तुम पत्तेके दोनेमें मेरा दूध दुहकर इच्छानुसार पी लो। इससे तुम्हें अस्त्र-शस्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाला वंशधर पुत्र प्राप्त होगा।’ यह सुनकर राजाने कामधेनुकी दौहित्री नन्दिनीसे विनयपूर्वक कहा— ‘माता इस समय तो मैं आपके मधुर वचनामृतका पान करके ही तृप्त हूँ, अब आश्रमपर चलकर समस्त धार्मिक क्रियाओंके अनुष्ठानसे बचे हुए आपके प्रसादस्वरूप दूधका ही पान करूँगा।’

राजाका यह वचन सुनकर गौको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने ‘साधु-साधु’ कहकर राजाका सम्मान किया। तत्पश्चात् वह उनके साथ आश्रमपर गयी। पूर्व दिनकी भाँति उस दिन भी महारानी सुदक्षिणाने आगे आकरउसका पूजन किया। महाराजके मुखको प्रसन्न देखकर रानीको कार्य सिद्धिका निश्चय हो गया वह समझ गयी कि जिसके लिये यह यत्न हो रहा था, वह उद्देश्य सफल हो गया। तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी विधिवत् पूजित हुई गौके साथ अपने गुरु वसिष्ठजीके सामने उपस्थित हुए। उन दोनोंके मुख कमल प्रसन्नतासे खिले हुए देखकर ज्ञानके भण्डार मुनिवर वसिष्ठजी उन्हें प्रसन्न करते हुए बोले- ‘राजन्! मुझे मालूम हो गया कि यह गौ तुम दोनोंपर प्रसन्न है; क्योंकि इस समय तुम्हारे मुखकी कान्ति अपूर्व दिखायी दे रही है। कामधेनु और कल्पवृक्ष- दोनों ही सबकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं-यह बात प्रसिद्ध है। फिर उसी कामधेनुकी सन्तानकी भलीभाँति आराधना करके यदि कोई सफलमनोरथ हो जाय तो आश्चर्य हो क्या है? यह पापरहित कामधेनु तथा देवनदी गंगा दूरसे भी नाम लेनेपर समस्त मनोरथोंको पूर्ण करती हैं; फिर श्रद्धापूर्वक निकटसे सेवा करनेपर ये समस्त कामनाएँ पूर्ण करें- इसके लिये तो कहना ही क्या है। राजन्! आज इस गौकी पूजा करके रानीसहित यहीं रात्रि बिताओ। कल अपने व्रतको विधिपूर्वक समाप्त करके अयोध्यापुरीको जाना।’

देवलजी कहते हैं—वैश्यवर ! इस प्रकार धेनुकी आराधनासे मनोवांछित वर पाकर राजा दिलीप रात्रिमें पत्नीसहित आश्रमपर रहे। फिर प्रातः काल होनेपर गुरुकी आज्ञा ले वे राजधानीको पधारे। कुछ दिनोंके बाद राजा दिलीपके रघु नामक पुत्र हुआ, जिसके नामसे इस पृथ्वीपर सूर्यवंशकी ख्याति हुई अर्थात् रघुके बाद वह वंश ‘रघुवंश’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ। जो भूतलपर राजा दिलीपकी इस कथाका पाठ करता है, उसे धन-धान्य और पुत्रकी प्राप्ति होती है। शरभ तुम भी इस वधूके साथ जा श्रेष्ठ पुत्रकी प्राप्तिके लिये अपनी बुद्धिसे -आराधना करके पार्वतीजीको प्रसन्न करो। वे तुम्हें पापरहित, गुणवान् एवं वंशधर पुत्र प्रदान करेंगी।

इस प्रकार शरभसे राजा दिलीपके मनोहर चरित्रका वर्णन करके देवल मुनिने उन्हें अम्बिकाके पूजनकी विधि बतायी। इसके बाद वे अपने अभीष्ट स्थानको चले गये।

अध्याय 231 शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार

शिवशर्मा कहते हैं— विष्णुशर्मन् ! तदनन्तर शरभ वैश्यने अपनी पत्नीके साथ मन्दिरमें जाकर पुत्रकी कामनासे विधिपूर्वक स्नान करके पुष्प, धूप और दीप अदिके द्वारा भक्तिपूर्वक पार्वतीजीका पूजन किया। इस प्रकार सात दिनोंतक श्रद्धापूर्वक पूजन करनेके बाद माता पार्वतीने प्रत्यक्ष दर्शन देकर कहा- ‘वैश्य तुम्हारी सुदृढ़ भक्तिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। साधो ! तुम जिसके लिये प्रयत्नशील हो, वह पुत्र में तुम्हें देती हूँ। अब तुम इन्द्रके खाण्डव वनमें जाओ। विलम्ब न करो। वहाँ परम पुण्यमय इन्द्रप्रस्थ नामक उत्तम तीर्थ है। उस तीर्थमें बृहस्पतिजीके द्वारा स्थापित किया हुआ सर्वकामप्रद निगमोद्बोधकतीर्थ है। उसमें पुत्रकी कामनासे स्नान करो। तुम्हें अवश्य पुत्र प्राप्त होगा।’ देवीके आज्ञानुसार शरभ पत्नीके साथ इस उत्तम तीर्थमें आये और पुत्रकी इच्छासे उन्होंने यहाँ स्नान किया; फिर ब्राह्मणोंको अन्य उपकरणोंसहित सौ गौएँ। दान की तथा देवता और पितरोंका विधिपूर्वक तर्पण किया, फिर सात दिन वहाँ रहकर वे घर लौट आये। उसी महीने में वैश्यपत्नीको गर्भ रह गया। समयपर मेरा जन्म हुआ। मेरे योग्य होनेपर एक दिन पिताजीने संसारसे विरक्त होकर मुझसे कहा कि ‘घर तुम सँभालो; में विषय कामनाओंको छोड़कर श्रीहरिको भक्ति, तौर्थ भ्रमण और सत्संगरूपी औषधिका पान करके संसाररूपी रोगका नाश करूँगा।’ इस प्रसंगमें उन्होंने बार-बार विषयासक्तिकी निन्दा और भगवद्भक्तिकी प्रशंसा की।

मैंने श्रीगंगाजीकी प्रशंसा करते हुए पिताजीसे प्रार्थना की कि अपने समीप ही श्रीगंगाजी बहती हैं, इन्हें छोड़कर आप अन्यत्र न जाइये पिताजी मेरी बात मानकर घरपर ही रह गये वे प्रतिदिन तीनों समय श्रीगंगाजी में स्नान करते और पुराणोंकी कथा सुनते। रहते। एक दिन उन्होंने इन्द्रप्रस्थ तीर्थकी बड़ी महिमासुनी और तबसे वे यहाँ आकर मोक्ष, कामनासे निगमोद्बोधकतीर्थका सेवन करने लगे। कुछ दिनों बाद उन्हें भयंकर ज्वर हो आया। तब यह समाचार पाकर मैं भी यहाँ आ गया। मेरे आनेके बाद तीर्थराजके जलमें आधा शरीर रखे हुए पिताजीकी मृत्यु हो गयी। उसी समय स्वयं भगवान् विष्णु यहाँ पधारे और पिताजीको श्रीवैकुण्ठधाममें ले गये।

पिताजीको भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त हुआ देखकर उनका अन्तिम संस्कार करनेके बाद मैं भी भगवान्का चिन्तन करता हुआ मोक्षकी कामनासे यहीं रहने लगा।

शिवशर्माकी यह बात सुनकर उसके पुत्र विष्णुशर्माने कहा- ‘महान् तीर्थमें निवास करनेपर भी आपको फिरसे जन्म क्यों लेना पड़ा? मुक्ति कैसे नहीं हुई?’ इसके उत्तर में शिवशर्मा ने कहा कि एक दिन मैं भगवान्‌के ध्यानमें बैठा था। महर्षि दुर्वासा उसी समय पधारे और मुझे चुप देखकर उन्होंने शाप दे दिया कि ‘इस जन्ममें तेरा मनोरथ पूर्ण नहीं होगा।’ मेरे बहुत गिड़गिड़ानेपर उन्होंने कहा

‘अगले जन्ममें ब्राह्मण होकर तुम यहीं मृत्युको प्राप्त होओगे और फिर तुम्हें जन्म नहीं लेना पड़ेगा।’ तदनन्तर फिर मैं घर लौट आया और मैंने संसारके समस्त भोगोंको अनित्य मानकर श्रीभगवन्नामकीर्तन और भजन करनेका निश्चय किया। कुछ दिनों बाद गंगातटपर मेरी मृत्यु हो गयी। दुर्वासाजीके कथनानुसार वैष्णव ब्राह्मणकुलमें मेरा जन्म हुआ। अब इस उत्तम तीर्थमें मृत्युको प्राप्त होकर मैं श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें जाऊँगा।

नारदजी कहते हैं-राजा शिबि! इस प्रकार अपने-अपने पूर्वजन्मके कर्मोंका वर्णन करके वे दोनों पिता-पुत्र श्रीहरिके चरणकमलोंका चिन्तन करते हुए यहाँ रहने लगे और अन्तमें दोनोंने भगवान्‌के समान रूप प्राप्त कर लिया।

अध्याय 232 इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य

राजा शिबि बोले- मुने! अब मुझे इन्द्रप्रस्थके सैकड़ों तीर्थोमेंसे अन्य तीर्थोका भी माहात्म्य बतलाइये। नारदजीने कहा- राजन्! इन्द्रप्रस्थके भीतर यह द्वारका नामक तीर्थ है। इसकी महिमा सुनो। काम्पिल्य नगर में एक बहुत सुन्दर और संगीतज्ञ ब्राह्मण रहता था। उसके गानकी सुरीली ध्वनिसे नगरकी स्त्रियोंके मनोंमें उसके प्रति पाप वासनायुक्त बड़ा आकर्षण हो गया। नगरके लोगोंने जाकर राजासे शिकायत की। राजाके पूछने पर ब्राह्मणने अपनेको निर्दोष बताया और नगरकी स्त्रियोंको उच्छृंखल इतनेमें कुछ स्त्रियाँ भी वहाँ आ गयीं और निर्लज्जतापूर्ण बातें करने लगीं। ब्राह्मणने कामवासनाकी और पति वंचनाकी निन्दा करते हुए पातिव्रतकी महिमा बताकर उन स्त्रियोंको समझाया। वे ब्राह्मणकी बात सुनकर बहुत लज्जित हुई और परस्पर पापी कामकी निन्दा करती हुई अपने घरोंको लौट आयीं। कुछ समय बाद कारूष देशके राजाने काम्पिल्य नगरपर आक्रमण किया और युद्धमें काम्पिल्यराज मारे गये। उनका नगर लुट गया। शूरवीर मारे गये और नगरकी स्त्रियाँ जहर खाकर मर गयीं। जिन स्त्रियोंने संगीतज्ञ ब्राह्मणके प्रति आकर्षित होनेके पापका प्रायश्चित्त नहीं किया था, वे सब की सब बड़ी भयानक राक्षसियों होकर भूख-प्याससे पीड़ित रहने लगीं। वाणी और मनके किये हुए एक ही पापसे उन्हें दो जन्मोंतक राक्षसी योनिमें रहना पड़ा। अतएव पापसे डरनेवाली किसी भी स्त्रीको मन-वाणीसे कभी किसी भी पराये पतिका सेवन नहीं करना चाहिये। अपना पति रोगी, मूर्ख, दरिद्र और अंधा हो, तो भी उत्तम गतिकी इच्छा रखनेवाली स्त्रियोंको उसका त्याग नहीं करना चाहिये। ये राक्षसियाँ इन्द्रप्रस्थके द्वारका नामक तीर्थसे जल लेकर पुष्कर जाते हुए ब्राह्मणके कमण्डलुसे जलकी कुछ बूँदें पड़ते ही निष्पाप हो गयीं और भयानक राक्षसी शरीरसे मुक्त होकर स्वर्गमें ‘चली गर्यो।इसी इन्द्रप्रस्थमें कोसला (अयोध्या) नामक एक तीर्थ है। इसके विषयमें भी एक पुण्यमय उपाख्यान है। चन्द्रभागा नदीके किनारे एक पुरीमें चण्डक नामक एक जुआरी, शराबखोर, व्यभिचारी, डकैत, हत्यारा और मन्दिरोंका सामान चुरानेमें चतुर एक नाई रहता था। उसने एक दिन अपने समीप ही रहनेवाले मुकुन्द नामक धार्मिक और धनवान् ब्राह्मणके परमें चोरी करनेके लिये प्रवेश करके ब्राह्मणको मार डाला। इससे उनकी स्नेहमयी माता और सती पत्नीको बड़ा दुःख हुआ और वे आर्तस्वरसे विलाप करने लगीं। इतनेमें ही मुकुन्दके गुरु वेदायन नामक संन्यासी वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने शरीरकी नश्वरताका वर्णन करते हुए आत्मज्ञानका उपदेश देकर उन लोगोंको समझाया और मुकुन्दका अन्त्येष्टि संस्कार करवाया। मुकुन्दकी गर्भवती पत्नीको विद्वान् संन्यासीने सती होनेसे रोक दिया। मुकुन्दका छोटा भाई मुकुन्दकी अस्थियोंको लेकर गंगाजीमें छोड़नेके लिये चला, चलते-चलते वह इस कोसलातीर्थमें आया। आधी रातको यहाँ अस्थिकी गठरीको एक कुत्तेने उठाकर कोसलाके जलमें फेंक दिया। अस्थियोंके जलमें पड़ते ही मुकुन्द दिव्य विमानपर चढ़कर वहाँ आया और उसने तीर्थके माहात्म्यका वर्णन करते हुए यह बताया कि ‘मेरी हड्डियोंके तीर्थमें पड़ते ही मैं नरकसे निकलकर इस उत्तम गतिको प्राप्त हुआ हूँ। नरक मुझे इसीलिये प्राप्त हुआ था कि मैं गुरुद्रोही था। अब मैं उस पापसे मुक्त होकर चौदह इन्द्रोंके कालतक सुखपूर्वक स्वर्गमें निवास करूँगा।’ यो कहकर वह देवताके समान सुन्दर शरीरवाला ब्राह्मण देखते-ही-देखते तत्काल स्वर्गको चला गया।

अब उस चण्डक नाईकी कथा सुनो। मुकुन्दकी हत्याका समाचार पाकर राजाने चण्डकको पकड़ मँगवाया और उसे चन्द्रभागासे आठ कोसकी दूरीपर ले जाकर चाण्डालोंके द्वारा मरवा डाला। वह मारवाड़देशमें काला साँप हुआ। एक ब्राह्मण अपने माता पिताकी हड्डियाँ गंगाजी में डालनेके लिये एक पेटी में रखकर लाया था और वह कुछ साधुओंके दलके साथ वहीं आकर ठहरा, जहाँ साँप रहता था। रातको साँप उस पेटीमें घुस गया और पेटीके साथ वह भी कोसलातटपर आ पहुँचा। यहाँ पेटी खोली गयी तो साँप निकल भागा; पर लोगोंने उसे मार डाला और मरते ही वह देवशरीर प्राप्तकर दिव्य विमानमें बैठकर आ गया। उसने कहा, ‘मैं चण्डक नामक नाई था और ब्रह्महत्याके पापसे पाँच लाख वर्षतक नरककी पीड़ा और बीस हजार वर्षतक सर्पयोनि भोगकर आज इस तीर्थमें मरनेके कारण परम उत्तम देवत्वको प्राप्त हुआ हूँ।’

तीर्थका यह प्रत्यक्ष वैभव देखकर उस ब्राह्मणने भी अपने माता-पिताकी हड्डियोंको इसी तीर्थमें डाल दिया। हड्डियोंके पड़ते ही उसके माता-पिता श्रेष्ठ विमानपर बैठकर दिव्यरूप धारण किये यहाँ आये और अपने पुत्रको आशीर्वाद देते हुए स्वर्गको चले गये। फिर वे सब साधु भी इसी कोसलातीर्थमें रह गये और अन्तमें वैकुण्ठको प्राप्त हुए।

नारदजी कहते हैं- यह परमपावन मधुवनतीर्थ है, यहाँ विश्रान्तिघाट नामक तीर्थ है। एक ब्राह्मण पर्णशाला बनाकर यहाँ भगवान्‌के दर्शनकी इच्छासे सकुटुम्ब रहते थे। एक दिन तीर्थमें स्नान करते समय भी उन्हें यही अभिलाषा हुई और तत्काल भगवान्ने दर्शन देकर उनको कृतार्थ कर दिया और वे भगवान्‌की स्तुति करके उन्होंके साथ वैकुण्ठलोकको चले गये।

इस मधुवनसे ग्यारह धनुषकी दूरीपर एक बदरिकाश्रमतीर्थ है। मगधदेशमें देवदास नामक एक सत्यवादी जितेन्द्रिय और धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। वे भगवान्के परम भक्त थे। उनके घरमें उत्तमा नामकी गुणवती पतिव्रता पत्नी थी। देवदासके अंगद नामक एक पुत्र और वलया नामकी एक कन्या थी। देवदासने दोनोंका विवाह कर दिया। कन्या विवाहिता होनेपर ससुराल चली गयी और पुत्र अंगदने घरका काम सँभाल लिया। कुछ समय बाद विप्रवर देवदासने अपनीपत्नी उत्तमासे परामर्श करके निश्चय किया कि अब इस वृद्धावस्थामै संसारके समस्त विनाशी पदार्थोंसे मन हटाकर इन्द्रियसंयमपूर्वक हमलोगोंको भगवान्का भजन और तीर्थसेवन करना चाहिये। फिर उन्होंने अपने पुत्र अंगदको बुलाकर भगवान् श्रीहरिकी आराधनाका महत्त्व बतलाते हुए अपना निश्चय सुनाया और पुत्रसे अनुमति पाकर वे दोनों कुछ धन लेकर भगवान् विष्णुकी प्रसन्नताके लिये चल पड़े। रास्तेमें कल्पग्रामके एक सिद्ध पुरुषसे उनकी भेंट हुई उस सिद्ध पुरुषने इन्द्रप्रस्थके बदरी नामक तीर्थका माहात्म्य सुनाया, जिसमें पूर्वजन्मके व्यभिचार और डकैती आदि पापके फलस्वरूप भयंकर भैंसा बने हुए एक राजाका तीर्थमें प्रवेश करते ही उद्धार हो गया था। फिर सिद्ध पुरुषने उन दोनोंसे कहा कि ‘यदि तुम भी अपने परमकल्याणकी इच्छा रखते हो, तो वहाँ चले जाओ। मैं भी अपने निःस्पृह और मोक्षके इच्छुक बूढ़े पिताको इस बदरिकाश्रमतीर्थमें लानेके लिये घर जा रहा हूँ।’ सिद्धकी बात सुनकर धीरबुद्धि ब्राह्मण देवदास तीर्थोंमें घूमते हुए इन्द्रप्रस्थ आये और यहाँ इस बदरिकाश्रममे भगवान् उन्हें उसी शरीरसे परमधामको ले गये। सिद्ध पुरुषने भी शीघ्र ही अपने पिताको घरसे लाकर उस तीर्थमें नहलवाया। इससे उनको भी भगवान् विष्णुका परमधाम प्राप्त हो गया।

इन्द्रप्रस्थमें हरिद्वार नामक तीर्थ है। इसकी भी बड़ी महिमा है। कुरुक्षेत्रमै नगरसे बाहर कालिंग नामक एक पापी चाण्डाल रहता था। एक बार सूर्यग्रहणके समय आये हुए एक धनी वैश्यके पीछे वह लग गया और कुरुक्षेत्रसे उस वैश्यके लौटनेके समय इसी हरिद्वारमें आधी रातके वक्त उस पापीने वैश्यके खेमे चोरी करनेकी चेष्टा की और दो पहरेदारोंको मार डाला। इसी समय वैश्यके एक सेवकने दूरसे बाण मारा, जिससे भागता हुआ वह पापी भी मर गया। तदनन्तर चाण्डालद्वारा मारे हुए वैश्यके दोनों पहरेदार और वह चाण्डाल तीनों देवताओंके द्वारा लाये हुए विमानपर चढ़कर वैश्यसे बोले-‘देखो इस तीर्थका माहात्म्य !यह हरिद्वार पापियोंका भी कल्याण करनेवाला है।’ यो कहकर वे स्वर्गलोकको चले गये। दूसरे दिन वैश्यने अपने दोनों पहरेदारोंके शरीरोंका दाह संस्कार कराकर उनकी हड्डियाँ हरिद्वारतीर्थ में डलवा दीं। इसके परिणामस्वरूप वे दोनों भाग्यवान् स्वर्गसे लौटकर भगवान् विष्णुके परमधाममें चले गये। तदनन्तर बुद्धिमान् वैश्यने अपने घर जाकर सांसारिक कार्योंको धर्मपूर्वक करते हुए भगवान्‌की भक्तिमें मन लगाया और अन्तमें इसी वैकुण्ठधामकी प्राप्ति करानेवाले तीर्थमें आकर मृत्युको प्राप्त हुआ।

अब इन्द्रप्रस्थके पुष्करतीर्थका माहात्म्य सुनो। विदर्भ नगर में मालव नामक एक ब्रह्मवेत्ता, शान्त, विद्वान्, हरिभक्त देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और समस्त भूत-प्राणियोंके पोषक ब्राह्मण रहते थे। वे एक समय जब बृहस्पति सिंहराशिपर थे, दान करनेके लिये दस हजार स्वर्णमुद्राएँ साथ लेकर गोदावरी नदीमें स्नान करनेको चले। उन्होंने आधे रुपये अपने पुण्डरीक नामक भानजेको देनेका विचार किया और आधे अन्यान्य श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको। गोदावरीके तटपर पहुँचने के बाद मालवके बुलाये हुए उनके भानजे पुण्डरीक भी वहीं आ गये और उन्होंने अपना आधा न पुण्डरीकको दे दिया पुण्यात्मा पुण्डरीकने अपने धनमेंसे चौथाई भाग प्रसन्नतापूर्वक श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको दिया। इसके बाद वे अपने मामा मालवसे उपदेश, आशीर्वाद और सन्देश प्राप्त करके अपने घरकी ओर लौटे और कुछ दिनों बाद इस कल्याणप्रद तीर्थमें आये। यहाँ आकर अपने छोटे भाई भरतको खूनसे लथपथ और अन्तिम श्वास लेते हुए पृथ्वीपर पड़ा देखा। कुछ ही देरमें पीड़ासे छटपटाकर उसने प्राण त्याग दिये। उसी समय आकाशसे एक विमान उतरा और दिव्य देह धारण करके भरत उसपर जा बैठा। फिर उस समय भरतने भाई पुण्डरीकसे कहा ‘भाईजी इस समय मैं तुम्हें मारकर मामाका दिया हुआ धन छीननेके लिये आया था और तुम्हारी ही घातमें था। परन्तु आधी रातके समय बाहरसे आये हुए व्यापारियोंके सेवकोंने मुझे समझकर मार दिया। परइस पुष्करतीर्थके प्रसादसे मैंने दिव्य देह प्राप्त कर ली में एक बार बाजारमें किसी अनाथ बालकको मरा देखकर उसे उठाकर गंगाजीके सुन्दर तटपर ले गया था और कफन आदिसे ढककर उसका दाह संस्कार किया था। उसी पुण्यसे मुझे इस तीर्थकी प्राप्ति हुई।’

धर्मात्मा पुण्डरीकने भाई भरतकी सद्गति देखकर अपने हृदयमें अनुमान किया कि यह तीर्थ मन:कामना पूर्ण करनेवाला है। फिर उन्होंने ‘माघभर भगवान् विष्णु अपने साक्षात् स्वरूपसे मेरे घर में पधारकर निवास करें इस कामनासे पुष्करतीर्थ में स्नान किया। तदनन्तर घर लौटकर पौषकी पूर्णिमाके दिन घरको भलीभाँति सजाकर उत्सव किया, ब्राह्मणभोजन करवाया। और भगवान्का गुणगान करते हुए जागरण किया। भगवान्के पधारने की प्रतीक्षा तो थी ही दूसरे दिन सचमुच ही भगवान् उसके घर पधार गये। पुण्डरीकने आनन्दमग्न होकर आसन, अर्घ्य आदिके द्वारा भगवान्‌की पूजा की और फिर स्तवन करके माघभर घरमें निवास करनेके लिये उनसे प्रार्थना की। भगवान् उसके द्वारा विविध भाँति से पूजित होकर पूरे माघभर उसके घरमें रहे और अन्तमें उसको सर्वतीर्थशिरोमणि इन्द्रप्रस्थ के पुष्करतीर्थमें लाकर स्नान कराया। बस उसी समय पुण्डरीकके शरीरसे एक दिव्य ज्योति निकली और वह भगवान् गोविन्दके चरणोंमें समा गयी।

अब इन्द्रप्रस्थके प्रयागकी महिमा सुनो। नर्मदा नदीके किनारे माहिष्मतीपुरीमें एक रूप-यौवनसम्पन्ना, नाच गानमें निपुण मोहिनी नामकी वेश्या रहती थी। धनके लोभमें उसने अनेकों महापाप किये थे। वृद्धावस्था आनेपर उसको सुबुद्धि आयी और उसने अपना धन बगीचे, पोखरे, बावली, कुआँ, देवमन्दिर और धर्मशाला बनवाने में लगाया। यात्रियोंके लिये भोजन और जगह-जगह जलकी भी व्यवस्था की। एक बार वह बीमार पड़ी। अपना सारा धन ब्राह्मणोंको देना चाहा, पर ब्राह्मणोंके न लेनेपर उसने एक भाग अपने दासियोंको और दूसरा परदेशी यात्रियोंको दे दिया। स्वयं निर्धन हो गयी। इस समय जरद्गवा नामक मोहिनीकीएक सखी उसकी सेवा करती थी। भाग्यवश कुछ दिनोंमें वह अच्छी हो गयी, पर निर्धनताकी अवस्थामें जरद्गवाके घर रहने में उसे बड़ा संकोच वह घरसे निकल गयी।

एक दिन मोहिनी वनके मार्ग से जा रही थी। चोरोंने उसके पास धन समझकर लोभसे उसे मार दिया। पर जब धन नहीं मिला, तब वे उसे वनमें ही छोड़कर चल दिये। अभी मोहिनीकी साँस चल रही थी, उसी समय एक वानप्रस्थी महात्मा इस प्रयागके जलको कमण्डलुमें लिये वहाँ आ पहुँचे और तीर्थकी 1 महिमा कहते हुए उन्होंने मोहिनीके मुखमें वह जल डाल दिया। उस समय मोहिनीके मनमें किसी राजाकी महारानी बनने की इच्छा थी मुँह प्रयागका जल पड़ते ही मोहिनी मर गयी और दूसरे जन्ममें वह द्रविड़ देशमें राजा वीरवर्माकी हेमांगी नामक महारानी हुई। राजमन्त्रीकी लड़की कला उसकी सखी थी। एक दिन हेमांगी कलाके घर गयी और कलाने एक सोनेकी पेटीमें उसे एक विचित्र पुस्तक दिखायी, जिसमें अवतारोंके चित्रोंके साथ-साथ सारे भूगोलका मानचित्र था। मानचित्र देखते-देखते हेमांगीको दृष्टि इस प्रयागतीर्थपर पड़ी और उसे तुरंत अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। तदनन्तर उसने घर लौटकर अपने पतिसे पूर्वजन्मकी सारी घटनाएँ सुनाकर प्रार्थना की. कि ‘नाथ! मैं उस तीर्थ जलके प्रसादसे ही आपके घरकी रानी बनी हूँ। इस समय आपके साथ चलकर इन्द्रप्रस्थके मनोवांछा पूर्ण करनेवाले तीर्थराज प्रयागका दर्शन करना चाहती हूँ। जब मैं उस तीर्थराजके लिये चल पहूँगी, तभी अन्न-जल ग्रहण करूँगी।’ राजाके पूरा विश्वास न करनेपर उसी समय आकाशवाणीने कहा- ‘राजन् ! तुम्हारी पत्नीका कथन सत्य है। इन्द्रप्रस्थके परम पवित्र प्रयागतीर्थमें जाकर तुम स्नान करो। इससे तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जायेगी।’ तब तो आकाशवाणीको नमस्कार करके मन्त्रीको सारा भार साँप हेमांगीके साथ चल पड़े और कुछ दिनोंमें इन्द्रप्रस्थके प्रयागमें आ पहुँचे। ‘इस प्रयागस्नानके पुण्यसे हमपर भगवान् विष्णु प्रसन्न हों’ इस इच्छासेतीर्थ में स्नान करते ही भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी क्रमशः गरुड़ और हंसपर बैठे हुए वहाँ आ पहुँचे। राजा वीरवर्माने मस्तक झुकाकर भगवान्‌के दोनों स्वरूपोंको प्रणाम किया और एकाग्रचित्तसे उनकी विलक्षण स्तुति की। फिर हेमांगीने उनका स्तवन करके मनोरथ पूर्ण करनेकी प्रार्थना की। भगवान् विष्णु और ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर हेमांगीकी बड़ी प्रशंसा की और फिर दोनोंको अपने साथ सत्यलोकमें ले गये।

अब इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थका परम पवित्र तथा यश और आयुको बढ़ानेवाला माहात्म्य सुनो। सत्ययुगमें इन्द्रप्रस्थके काशीतीर्थमें शिंशपाके वृक्षपर एक कौआ रहता था और उसके नीचे खोखलेमें एक बहुत बड़ा साँप। एक दिन आँधी आयी और शिंशपाका वृक्ष उखड़कर गिर पड़ा। उसके नीचे दबकर साँप और कौआ मर गये। फिर तो शिंशपा, कौआ और साँप तीनों ही दिव्य रूप धारण करके तीन विमानोंपर सवार होकर भगवान्‌के वैकुण्ठधाममें चले गये। पूर्वजन्ममें वह कौआ कुरुजांगल देशमें श्रवण नामक ब्राह्मण था और एकान्तमें अकेला मिठाइयाँ उड़ाया करता था। वह कालसर्प उसी ब्राह्मणका भाई कुरण्टक था, जो बड़ा नास्तिक, निर्दयी, वेदमार्गको तोड़नेवाला और देवताओंका निन्दक था और वह शिंशपा पेड़ बनी हुई श्रवणकी स्त्री कुण्ठा थी, जो दोनोंके ही दोषोंसे युक्त थी। इसीलिये वह स्थावर बनकर दोनोंका ही आश्रय हुई। इन दोनों भाइयोंने एक दिन किसी पथिककी कुएँ में पड़ी हुई गौको बाहर निकाल दिया था और घर आनेपर कुण्ठाने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनके कार्यका समर्थन किया था। इसी पुण्यके प्रभावसे इन्द्रप्रस्थके तटपर स्थित काशीमें दुर्लभ मृत्युको पाकर वे तीनों वैकुण्ठको गये।

अब इन्द्रप्रस्थके गोकर्णतीर्थकी महिमा सुनो। यह शिवजीका परम पवित्र क्षेत्र है। इसमें मरनेवाला मनुष्य निस्सन्देह शिवस्वरूप हो जाता है। गोकर्णतीर्थमें मरे हुए मनुष्यका पुनर्जन्म नहीं होता।

इन्द्रप्रस्थके किनारे शिवकांचीतीर्थ है। इसमें मरनेवाला भी पुनर्जन्मको नहीं प्राप्त होता यहाँश्रीमहादेवजीने भगवान् विष्णुकी आराधना करके भक्तराजकी पदवी पायी है। हेरम्ब नामक एक धर्मात्मा ब्राह्मण बड़े शिवभक्त थे। वे शिवतीर्थोंमें घूमते हुए यहाँ शिवकांचीमें आये और यहीं उनके प्राण छूटे। वे भगवान् शिवजीके लोकमें जाकर पश्चात् वैकुण्ठको प्राप्त हुए ।

इसके सिवा इन्द्रप्रस्थमें कपिलाश्रम, केदार और प्रभास आदि और भी बहुत-से तीर्थ हैं। उनका भी बड़ा माहात्म्य है।

सौभरि कहते हैं— राजा शिबिसे यों कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी भगवान्‌के गुणोंका गान करते हुए वहाँसे चले गये। राजा शिबिने मुनिके मुखसे इन्द्रप्रस्थका यह वैभव सुनकर अपनेको कृतार्थ माना और विधिपूर्वक स्नान करके अपनी धार्मिक क्रियाएँ पूरी कीं । तदनन्तर वे अपने नगरको चले गये। राजा युधिष्ठिर! यह मैंने यमुना-तीरवर्ती इन्द्रप्रस्थके लोक-पावन माहात्म्यका तुमसे वर्णन किया है।

सूतजी कहते हैं-शौनकजी! इस प्रकार सौभरि मुनिसे इन्द्रप्रस्थका माहात्म्य सुनकर राजा युधिष्ठिर हस्तिनापुरको गये और वहाँसे अपने दुर्योधन आदि भाइयोंको साथ ले राजसूययज्ञ करनेकी इच्छासेपुण्यमय इन्द्रप्रस्थमें आये। राजाने अपने कुलदेवता भगवान् गोविन्दको द्वारकासे बुलाकर राजसूययज्ञके द्वारा उनका यजन किया। ‘यह तीर्थ मुक्ति देनेवाला है; अतः यहाँ मुँहसे कुत्सित वचन कहनेपर भी शिशुपालकी मुक्ति हो जायगी।’ यह सोचकर ही श्रीहरिने वहाँ शिशुपालका वध किया। शिशुपालने भी उस तीर्थमें मरनेके कारण समस्त पुरुषार्थोके दाता भगवान् श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त कर लिया। जहाँ शिशुपाल मारा गया और जहाँ राजा युधिष्ठिरने यज्ञ किया, उस स्थानपर भीमसेनने अपनी गदासे एक विस्तृत कुण्ड बना दिया था। वह पावन कुण्ड इस पृथ्वीपर भीमकुण्डके नामसे विख्यात हुआ। वह यमुनाके दक्षिण एक कोसके भूभागमें है। इन्द्रप्रस्थकी यमुनामें स्नान करनेसे जो फल होता है, वही फल उस कुण्डमें स्नान करनेसे मिल जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो मनुष्य प्रतिवर्ष इस तीर्थकी परिक्रमा करता है, वह क्षेत्रापराधजनित दोषों और पातकोंसे मुक्त हो जाता है। जो भगवान्‌के नामोंका जप करते हुए इस तीर्थकी प्रदक्षिणा करता है, उसे पग पगपर कपिलादानका फल मिलता है। जो मनुष्य चैत्र कृष्णा चतुर्दशीको इन्द्रप्रस्थकी प्रदक्षिणा करता है, वह धन्य एवं सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

अध्याय 233 वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना

ऋषियोंने कहा – लोमहर्षण सूतजी ! अब हमें मायका माहात्म्य सुनाइये, जिसको सुननेसे लोगोंका महान् संशय दूर हो जाय।

सूतजी बोले- मुनिवरो! आपलोगोंको साधुवाद देता हूँ। आप भगवान् श्रीकृष्णके शरणागत भक्त हैं; इसीलिये प्रसन्नता और भक्तिके साथ आपलोग बार-बार भगवान्की कथाएँ पूछा करते हैं। मैं आपके कथनानुसार माघ माहात्म्यका वर्णन करूंगा जो अरुणोदयकालमें स्नान करके इसका श्रवण करते हैं, उनके पुण्यको वृद्धि और पापका नाश होता है। एक समयकी बात है,राजाओंमें श्रेष्ठ महाराज दिलीपने यज्ञका अनुष्ठान पूरा करके ऋषियोंद्वारा मंगल-विधान होनेके पश्चात् अवभृथ स्नान किया। उस समय सम्पूर्ण नगरनिवासियोंने उनका बड़ा सम्मान किया । तदनन्तर राजा अयोध्यामें रहकर प्रजाजनोंकी रक्षा करने लगे। वे समय-समयपर वसिष्ठजीकी अनुमति लेकर प्रजावर्गका पालन किया करते थे। एक दिन उन्होंने वसिष्ठजीसे कहा ‘भगवन्! आपके प्रसादसे मैंने आचार, दण्डनीति, नाना प्रकारके राजधर्म, चारों वर्णों और आश्रमोंके कर्म, दान, दानकी विधि, यज्ञ, यज्ञके विधान, अनेकों व्रत, उनकेउद्यापन तथा भगवान् विष्णुकी आराधना आदिके सम्बन्धर्मे बहुत कुछ सुना है। अब माघस्नानका फल सुननेकी इच्छा है। मुने! जिस विधिसे इसको करना चाहिये, वह मुझे बताइये।’

वसिष्ठजीने कहा- राजन्! मैं तुम्हें माघस्नानका फल बतलाता हूँ, सुनो। जो लोग होम, यज्ञ तथा इष्टापूर्त कर्मोके बिना ही उत्तम गति प्राप्त करना चाहते हों, वे माघमें प्रातः काल बाहरके जलमें स्नान करें। जो गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, सुवर्ण और धान्य आदि वस्तुओंका दान किये बिना ही स्वर्गलोक जाना चाहते हों, वे माघमें सदा प्रात:काल स्नान करें। जो तीन-तीन राततक उपवास, कृच्छ्र और पराक आदि व्रतोंके द्वारा अपने शरीरको सुखाये बिना ही स्वर्ग पाना चाहते हों, उन्हें भी माघमें सदा प्रातःकाल स्नान करना चाहिये। वैशाखमें जल और अन्नका दान उत्तम है, कार्तिकमें तपस्या और पूजाकी प्रधानता है तथा माघमें जप, होम और दान- ये तीन बातें विशेष हैं। जिन लोगोंने माघमैं प्रातः स्नान, नाना प्रकारका दान और भगवान् विष्णुका स्तोत्र पाठ किया है, वे ही दिव्यधाममें आनन्दपूर्वक निवास करते हैं। प्रिय वस्तुके त्याग और नियमोंके पालनसे माघमास सदा धर्मका साधक होता है और अधर्मकी जड़ काट देता है। यदि सकामभावसे माघस्नान किया जाय तो उससे मनोवांछित फलकी सिद्धि होती है और निष्कामभावसे स्नान आदि करनेपर वह मोक्ष देनेवाला होता है। निरन्तर दान करनेवाले, वनमें रहकर तपस्या करनेवाले और सदा अतिथि सत्कारमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंको जो दिव्यलोक प्राप्त होते हैं, वे ही माघस्नान करनेवालोंको भी मिलते हैं। अन्य पुण्योंसे स्वर्गमें गये हुए मनुष्य पुण्य समाप्त होनेपर वहाँसे लौट आते हैं; किन्तु माघस्नान करनेवाले मानव कभी वहाँसे लौटकर नहीं आते। माघस्नानसे बढ़कर कोई पवित्र और पापनाशक व्रत नहीं है। इससे बढ़कर कोई तप और इससे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण साधन नहीं है। यही परम हितकारक और तत्काल पापका नाश करनेवाला है। महर्षि भृगुने मणिपर्वतपर विद्याधरसेकहा था- ‘जो मनुष्य माघके महीनेमें, जब उषःकालकी लालिमा बहुत अधिक हो, गाँवसे बाहर नदी या पोखरेमें नित्य स्नान करता है, वह पिता और माताके कुलकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार करके स्वयं देवताओंके समान शरीर धारण कर स्वर्गलोकमें चला जाता है।’

दिलीपने पूछा- ब्रह्मन् ब्रह्मर्षि भृगुने किस समय मणिपर्वतपर विद्याधरको धर्मोपदेश किया था बताने की कृपा करें।

वसिष्ठजी बोले – राजन् ! प्राचीन कालमें एक – समय बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई। इससे सारी प्रजा उद्विग्न और दुर्बल होकर दसों दिशाओंमें चली गयी। उस समय हिमालय और विन्ध्यपर्वतके बीचका प्रदेश खाली हो गया। स्वाहा, स्वधा, वषट्कार और वेदाध्ययन- सब बंद हो गये। समस्त लोकमें उपद्रव होने लगा। धर्मका तो लोप हो ही गया था, प्रजाका भी अभाव हो गया। भूमण्डलपर फल, मूल, अन्न और पानीकी बिलकुल कमी हो गयी। उन दिनों नाना प्रकारके वृक्षोंसे आच्छादित नर्मदा नदीके रमणीय तटपर महर्षि भृगुका आश्रम था। वे उस आश्रमसे शिष्यों सहित निकलकर हिमालय पर्वतकी शरणमें गये। वहाँ कैलासगिरिके पश्चिममें मणिकूट नामका पर्वत है, जो सोने और रत्नोंका ही बना हुआ है। उस परम रमणीय श्रेष्ठ पर्वतको देखकर अकाल पीड़ित महर्षि भृगुका मन बहुत प्रसन्न हुआ और उन्होंने वहीं अपना आश्रम बना लिया। उस मनोहर शैलपर वनों और उपवनोंमें रहते हुए सदाचारी भृगुजीने दीर्घकालतक भारी तपस्या की।

इस प्रकार जब ब्रह्मर्षि भृगुजी वहाँ अपने आश्रमपर निवास करते थे, एक समय एक विद्याधर अपनी पत्नीके साथ पर्वतसे नीचे उतरा। वे दोनों मुनिके पास आये और उन्हें प्रणाम करके अत्यन्त दुःखी हो एक ओर खड़े हो गये। उन्हें इस अवस्था में देख ब्रहार्पिने मधुर वाणीसे पूछा- ‘विद्याधर! प्रसन्नताके साथ बताओ, तुम दोनों इतने दुःखी क्यों हो?’ विद्याधरने कहा— द्विजश्रेष्ठ मेरे दुःखकाकारण सुनिये। मैं पुण्यका फल पाकर देवलोकमें गया। वहाँ देवताका शरीर, दिव्य नारीका सुख और दिव्य भोगोंका अनुभव प्राप्त करके भी मेरा मुँह बाघका सा हो गया। न जाने यह किस दुष्कर्मका फल उपस्थित हुआ है। यही सोच-सोचकर मेरे मनको कभी शान्ति नहीं मिलती। ब्रह्मन्! एक और भी कारण है, जिससे मेरा मन व्याकुल हो रहा है। यह मेरी कल्याणमयी पत्नी बड़ी मधुरभाषिणी तथा सुन्दरी है। स्वर्गलोकमें शील, उदारता, गुणसमूह, रूप और यौवनको सम्पत्तिद्वारा इसकी समानता करनेवाली एक भी स्त्री नहीं है। कहाँ तो यह देवमुखी सुन्दरी रमणी और कहाँ मेरे जैसा व्याघ्रमुख पुरुष ? ब्रह्मन् मैं इसी बातकी चिन्ता करके मन-ही-मन सदा जलता रहता हूँ।

भृगुजीने कहा- विद्याधर श्रेष्ठ पूर्वजन्ममें तुम्हारे द्वारा जो अनुचित कर्म हुआ है, वह सुनो। निषिद्ध कर्म कितना ही छोटा क्यों न हो, परिणाममें वह भयंकर हो जाता है। तुमने पूर्वजन्ममें मायके महीने में एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन शरीरमें तेल लगा लिया था। इसीसे तुम्हारा मुँह व्याघ्रके समान हो गया। पुण्यमयी एकादशीका व्रत करके द्वादशीको तेलका सेवन करनेसे पूर्वकालमें इलानन्दन पुरुरवाको भी कुरूप शरीरको प्राप्ति हुई थी। वे अपने शरीरको कुरूप देख उसके दु:खसे बहुत दुःखी हुए और गिरिराज हिमालयपर जाकर गंगाजीके किनारे स्नान आदिसे पवित्र हो प्रसन्नतापूर्वक कुशासनपर बैठे। राजाने अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको कसमें करके हृदयमें भगवान्‌ का ध्यान करना आरम्भ किया। उन्होंने ध्यानमें देखा – भगवान्का श्रीविग्रह नूतन नील मेघके समान श्याम है। उनके नेत्र कमलदलके समान विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। उनका श्रीअंग पीताम्बरसे ढका है। वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणि अपना प्रकाश फैला रही है तथा वे गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं। इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करते हुए राजाने प्राणवायुके मार्गको भीतर ही रोक लिया और नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाये कुण्डलिनीके मुखको ऊपरउठाकर स्वयं सुषुम्णा नाडीमें स्थित हो गये। इस तरह एक मासतक निराहार रहकर उन्होंने दुष्कर तपस्या की।

इस थोड़े दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान् संतुष्ट हो गये। उन्होंने राजाके सात जन्मोंकी आराधनाका स्मरण करके उन्हें स्वयं प्रकट हो प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस दिन माघ शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि थी, सूर्य मकरराशिपर स्थित थे। भगवान् वासुदेवने बड़ी प्रसन्नताके साथ चक्रवर्ती नरेश पुरूरवापर शंखका जल छोड़ा और उन्हें अत्यन्त सुन्दर एवं कमनीय रूप प्रदान दिया। वह रूप इतना मनोहर था, जिससे देवलोककी नायिका उर्वशी भी आकृष्ट हो गयी और उसने पुरूरवाको पतिरूपमें प्राप्त करनेकी अभिलाषा की। इस प्रकार राजा पुरूरवा भगवान्‌से वरदान पाकर कृतकृत्य हो अपने नगरमें लौट आये विद्याधर कर्मकी गति ऐसी ही है। इसे जानकर भी तुम क्यों खिन्न होते हो? यदि तुम अपने मुखकी कुरूपता दूर करना चाहते हो तो मेरे कहनेसे शीघ्र ही मणिकूट नदीके जलमें माघस्नान करो वह प्राचीन पापका नाश करनेवाला है। तुम्हारे भाग्यसे माघ बिलकुल निकट है। आजसे पाँच दिनके बाद ही माघमास आरम्भ हो जायगा। तुम पौषके शुक्लपक्षकी एकादशीसे ही नीचे वेदीपर सोया करो और एक महीनेतक निराहार रहकर तीनों समय स्नान करो। भोगोंको त्यागकर जितेन्द्रियभावसे तीनों काल भगवान् विष्णुकी पूजा करते रहो। विद्याधरश्रेष्ठ! जिस दिन माघ शुक्ला एकादशी आयेगी, उस दिनतक तुम्हारे सारे पाप जलकर भस्म हो जायेंगे। फिर द्वादशीके पवित्र दिनको मैं मन्त्रपूत कल्याणमय जलसे अभिषेक करके तुम्हारा मुख कामदेवके समान सुन्दर कर दूँगा। फिर देवमुख होकर इस सुन्दरीके साथ तुम सुखपूर्वक क्रीड़ा करते रहना।

विद्याधर। मायके स्नानसे विपत्तिका नाश होता है और मापके स्नानसे पाप नष्ट हो जाते हैं। माघ सव व्रतोंसे बढ़कर है तथा यह सब प्रकारके दानोंका फल प्रदान करनेवाला है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, पृथुदक, अविमुक्तक्षेत्र (काशी), प्रयाग तथा गंगासागर-संगममें दस वर्षोंतक शौच-सन्तोषादि नियमोंका पालन करनेसे जो फल प्राप्त होता है, वह माघके महीने में तीन दिनोंतक प्रातः स्नान करनेसे ही मिल जाता है। जिनके मनमें दीर्घकालतक स्वर्गलोकके भोग भोगनेकी अभिलाषा हो, उन्हें सूर्यके मकरराशिपर रहते समय जहाँ कहीं भी जल मिले, प्रातःकाल स्नान करना चाहिये। आयु, आरोग्य, रूप, सौभाग्य एवं उत्तम गुणोंमें जिनकी रुचि हो, उन्हें सूर्यके मकर राशिपर रहनेतक प्रातः काल अवश्य स्नान करना चाहिये। जो नरकसे डरते हैं और दरिद्रताके महासागरसे जिन्हें त्रास होता है, उन्हें सर्वथा प्रयत्नपूर्वक माघमासमें प्रात:काल स्नान करना चाहिये। देवश्रेष्ठ ! दरिद्रता, पाप और दुर्भाग्यरूपी कीचड़को धोनेके लिये माघस्नानके सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। अन्य कर्मोंको यदि अश्रद्धापूर्वक किया जाय तो वे बहुत थोड़ा फल देते हैं; किन्तु माघस्नान यदि श्रद्धाके बिना भी विधिपूर्वक किया जाय तो वह पूरा-पूरा फल देता है। गाँवसे बाहर नदी या पोखरेके जलमें जहाँ कहीं भी निष्काम या सकामभावसे माघस्नान करनेवाला पुरुष इस लोक और परलोकमें दुःख नहीं देखता । जैसे चन्द्रमा कृष्णपक्षमें क्षीण होता और शुक्लपक्षमें बढ़ता है, उसी प्रकार माघमासमें स्नान करनेपर पाप क्षीण होता और पुण्यराशि बढ़ती है। जैसे समुद्रमें नाना प्रकारके रत्न उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार माघस्नानसे आयु, धन और स्त्री आदि सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जैसे कामधेनु औरचिन्तामणि मनोवांछित भोग देती हैं, उसी प्रकार माघस्नान सब मनोरथोंको पूर्ण करता है। सत्ययुगमें तपस्याको, त्रेतामें ज्ञानको, द्वापरमें भगवान्‌के पूजनको और कलियुगमें दानको उत्तम माना गया है; परन्तु माघका स्नान सभी युगोंमें श्रेष्ठ समझा गया है। * सबके लिये, समस्त वर्णों और आश्रमोंके लिये माघका स्नान धर्मकी धारावाहिक वृष्टि करता है।

भृगुजीके ये वचन सुनकर वह विद्याधर उसी आश्रमपर ठहर गया और माघमासमें भृगुजीके साथ ही उसने विधिपूर्वक पर्वतीय नदीके कुण्डमें पत्नीसहित स्नान किया। महर्षि भृगुके अनुग्रहसे विद्याधरने अपना मनोरथ प्राप्त कर लिया। फिर वह देवमुख होकर मणिपर्वतपर आनन्दपूर्वक रहने लगा। भृगुजी उसपर कृपा करके बहुत प्रसन्न हुए और पुनः विन्ध्यपर्वतपर अपने आश्रम में चले आये। उस विद्याधरका मणिमय पर्वतकी नदीमें माघस्नान करनेमात्रसे कामदेवके समान मुख हो गया तथा भृगुजी भी नियम समाप्त करके शिष्यों सहित विन्ध्याचल पर्वतकी घाटीमें उतरकर नर्मदा तटपर आये।

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! महर्षि भृगुके द्वारा विद्याधरके प्रति कहा हुआ यह माघ माहात्म्य सम्पूर्ण भुवनका सार है तथा नाना प्रकारके फलोंसे विचित्र जान पड़ता है। जो प्रतिदिन इसका श्रवण करता है, वह देवताकी भाँति समस्त सुन्दर भोगोंको प्राप्त कर लेता है।

अध्याय 234 मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना

वसिष्ठजी कहते हैं— राजन्! मैं माघमासका प्रभाव बतलाता हूँ, सुनो। इसे भक्तिपूर्वक सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। प्राचीन रथन्तर कल्पके सत्ययुग कुत्स नामके एक ऋषि थे, जो ब्रह्मानीके पुत्र थे। वे बड़े ही तेजस्वी और निष्पाप थे। उन्होंने कर्दम ऋषिकी सुन्दरी कन्याके साथ विधिपूर्वक विवाह किया।उसके गर्भसे मुनिके वत्स नामक पुत्र हुआ, जो वंशको बढ़ानेवाला था । वत्सकी पाँच वर्षकी अवस्था होनेपर पिताने उनका उपनयन संस्कार करके उन्हें गायत्री मन्त्रका उपदेश किया। अब वे ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए भृगुकुलमें निवास करने लगे। प्रतिदिन प्रात: काल और सायंकाल अग्निहोत्र, तीनों समय स्नान और भिक्षाकेअन्नका भोजन करते थे इन्द्रियोंको काबू में रखते, काला मृगचर्म धारण करते और सदा स्वाध्यायमें संलग्न रहते थे। पैरसे लेकर शिखातक लंबा पलाशका डंडा, जिसमें कोई छेद न हो, लिये रहते थे। उनके कटिभागमें जकी मेखला शोभा पाती थी। हाथमें सदा कमण्डलु धारण करते, स्वच्छ कौपीन पहनते, शुद्ध भावसे रहते और स्वच्छ यज्ञोपवीत धारण करते थे। उनका मस्तक समिधाओंकी भस्मसे सुशोभित था। वे सबके नयनोंको प्रिय जान पड़ते थे प्रतिदिन माता, पिता, गुरु आचार्य, अन्यान्य बड़े-बूढ़ों, संन्यासियों तथा ब्रह्मवादियोंको प्रणाम करते थे। बुद्धिमान् वत्स ब्रह्मयज्ञमें तत्पर रहते और सदा शुभ कर्मोंका अनुष्ठान किया करते थे। वे हाथमें पवित्री धारण करके देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करते थे। फूल, चन्दन और गन्ध आदिको कभी हाथसे छूते भी नहीं थे। मौन होकर भोजन करते। मधु पिण्याक और खारा नमक नहीं खाते थे। खड़ाऊँ नहीं पहनते ये तथा सवारीपर नहीं चढ़ते शीशेमें मुंह नहीं देखते। दन्तधावन, ताम्बूल और पगड़ी आदिसे परहेज रखते थे। नीला, लाल तथा पीला वस्त्र, खाट, आभूषण तथा और भी जो-जो वस्तुएँ ब्रह्मचर्य आश्रम के प्रतिकूल बतायी गयी हैं, उन सबका वे स्पर्शतक नहीं करते थे; सदा शान्तभावसे सदाचारमें ही तत्पर रहते थे।

ऐसे आचारवान् और विशेषतः ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले वत्स मुनि सूर्यके मकरराशिपर रहते माथ मासमें भक्तिपूर्वक प्रातः स्नान करते थे। वे उस समय विशेष रूपसे शरीरकी शुद्धि करते थे। आकाशमें जब इने-गिने तारे रह जाते थे, उस समय ब्रह्मवेलामै तो वे नित्यस्नान करते थे और फिर जब आधे सूर्य निकल आते, उस समय भी माघका स्नान करते थे। वे मन-ही-मन अपने भाग्यकी सराहना करने लगे ‘अहो इस पश्चिमवाहिनी कावेरी नदीमें स्नानका अवसर मिलना प्रायः मनुष्योंके लिये कठिन है, तो भी मैंने मकरार्कमें यहाँ स्नान किया। वास्तवमें मैं बड़ा भाग्यवान् हूँ। समुद्रमें मिली हुई जितनी नदियाँ हैं, उनसबका प्रवाह जहाँ पश्चिम या उत्तरकी ओर है, उस स्थानका प्रयागसे भी अधिक महत्त्व बतलाया गया है। मैंने अपने पूर्वपुण्यों के प्रभावसे आज कावेरीका पश्चिमगामी प्रवाह प्राप्त किया है। वास्तवमें मैं कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ, कृतार्थ हूँ।’ इस प्रकार सोचते हुए वे प्रसन्न होकर कावेरीके जलमें तीनों काल स्नान करते थे। उन्होंने कावेरीके पश्चिमगामी प्रवाहमें तीन सालतक माघस्नान किया। उसके पुण्यसे उनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया। वे ममता और कामनासे रहित हो गये। तदनन्तर माता, पिता और गुरुकी आज्ञा लेकर ये सर्वपापनाशक कल्याणतीर्थमें आ गये। उस सरोवरमें भी एक मासतक माघस्नान करके ब्रह्मचारी वत्स मुनि तपस्या करने लगे। राजन् ! इस प्रकार उन्हें उत्तम तपस्या करते देख भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर उनके आगे प्रत्यक्ष प्रकट हुए और बोले- ‘महाप्राज्ञ मृगशृंग! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ।’ यो कहकर भगवान् पुरुषोत्तमने उनके ब्रह्मरन्ध्र (मस्तक) का स्पर्श किया।

तब वत्स मुनि समाधिसे विरत हो जाग उठे और उन्होंने अपने सामने ही भगवान् विष्णुको उपस्थित देखा। वे सहस्र सूर्योके समान तेजस्वी कौस्तुभमणिरूप आभूषणसे अत्यन्त भासमान दिखायी देते थे तब मुनिने बड़े वेगसे उठकर भगवान‌को प्रणाम किया और बड़े भावसे सुन्दर स्तुति की।

भगवान् हृषीकेशकी स्तुति और नमस्कार करके वत्स मुनि अपने मस्तकपर हाथ जोड़े चुपचाप भगवान्के सामने खड़े हो गये। उस समय उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बह रहे थे और सारे शरीरमें रोमांच हो आया था।

तब श्रीभगवान्ने कहा- मृग तुम्हारी इस स्तुतिसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। माधमासमे इस सरोवरके जलमें जो तुमने स्नान और तप किये हैं, इससे मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुने! तुम निरन्तर कष्ट सहते-सहते थक गये हो दक्षिणासहित यह दान अन्यान्य नियम तथा यमके पालनसे भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना मायके स्नानसे होता है। पहले तुम मुझसे वर माँगो फिर मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु प्रदानकरूँगा। मृगश्रृंग! तुम मेरी प्रसन्नताके लिये मैं जो आज्ञा दूँ, उसका पालन करो। इस समय तुम्हारे उसे जिस प्रकार ऋषियोंको सन्तोष हुआ है, उसी प्रकार तुम यज्ञ करके देवताओंको और सन्तान उत्पन करके पितरोंको संतुष्ट करो मेरे सन्तोषके लिये ये दोनों कार्य तुम्हें सर्वथा करने चाहिये। अगले 1 जन्ममें तुम ब्रह्माजीक पुत्र महाज्ञानी ऋभु नामक जीवन्मुक्त ब्राह्मण होओगे और निदाघको वेदान्तवाक्यजन्य ज्ञानका उपदेश करके पुनः परमधामको प्राप्त होओगे।

मृगभृंग बोले – देवदेव! सम्पूर्ण देवताओंद्वारा वन्दित जगन्नाथ! आप यहाँ सदा निवास करें और सबको सब प्रकारके भोग प्रदान करते रहें। आप सदा सब जीवोंको सब तरहकी सम्पत्ति प्रदान करें। भगवन्! यदि मैं आपका कृपापात्र हूँ तो यही एक वर, जिसे निवेदन कर चुका हूँ, देनेकी कृपा करें। कमलनयन ! चरणोंमें पड़े हुए भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले अच्युत! आप मुझपर प्रसन्न होइये। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ।

भगवान् विष्णु बोले- मृगश्रृंग! एवमस्तु, मैं सदा यहाँ निवास करूंगा जो लोग यहाँ मेरा पूजन करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सम्पत्ति हाथ लगेगी। विशेषतः जब सूर्य मकरराशिपर हों, उस समय इस सरोवरमें स्नान करनेवाले मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो मेरे परमपदको प्राप्त होंगे। व्यतीपातयोगमें, अयन प्रारम्भ होनेके दिन, संक्रान्तिके समय, विषुवयोगमें, पूर्णिमा और अमावास्या तिथिको तथा चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर यहाँ स्नान करके यथाशक्ति दान देनेसे और तुम्हारे मुखसे निकले हुए इस स्तोत्रका मेरे सामने पाठ करनेसे मनुष्य मेरे लोकमें प्रतिष्ठित होगा।

भगवान् गोविन्दके यों कहनेपर उन ब्राह्मणकुमारने पुनः प्रणाम किया और भक्तोंके अधीन रहनेवाले श्रीहरिसे फिर एक प्रश्न किया-‘कृपानिधे देवेश्वर। मैं तो कुत्स मुनिका पुत्र वत्स हूँ; फिर मुझे आपने मृगभृंग कहकर क्यों सम्बोधित किया?’ श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् इस कल्याणसरोवर के तटपर जब तुम तपस्या करनेमें लगे थे, उस समय जो मृग प्रतिदिन यहाँ पानी पीने आते थे, वे निर्भय होकर तुम्हारे शरीरमें अपने सींग रगड़ा करते थे। इसीसे श्रेष्ठ महर्षि तुम्हें मृगशृंग कहते हैं । आजसे सब लोग तुम्हें मृगशृंग ही कहेंगे ।

यों कहकर सबको सब कुछ प्रदान करनेवाले भगवान् सर्वेश्वर वहाँ रहने लगे। तदनन्तर मृगशृंग मुनिने भगवान्का पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे उस पर्वतसे चले गये। संसारका उपकार करनेके लिये उन्होंने गृहस्थ-धर्मको स्वीकार करनेका निश्चय किया और अपने अन्तःकरणमें निरन्तर वे आदिपुरुष कमलनयन भगवान् विष्णुका चिन्तन करने लगे। अपनी जन्मभूमि भोजराजनगरमें घर आकर उन्होंने माता और पिताको नमस्कार करके अपना सारा समाचार कह सुनाया। माता-पिताके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने पुत्रको छातीसे लगाकर बारंबार उसका मस्तक सूँघा और प्रेमपूर्वक अभिनन्दन किया। वत्स अपने गुरुको प्रणाम करके फिर स्वाध्यायमें लग गये। पिता, माता और गुरु-तीनोंकी प्रतिदिन सेवा करते हुए उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया और गुरुकी आज्ञा ले विधिपूर्वक व्रतस्नान और उत्सर्गका कार्य पूर्ण किया। तत्पश्चात् महामना मृगशृंग अपने पितासे इस प्रकार बोले- ‘तात ! पुत्रकी उत्पत्तिके लिये पिता और माताको जो क्लेश सहने पड़ते हैं, उनका बदला सौ वर्षोंमें भी नहीं चुकाया जा सकता; अतः पुत्रको उचित है कि वह माता-पिता तथा गुरुका भी सदा ही प्रिय करे। इन तीनोंके अत्यन्त सन्तुष्ट होनेपर सब तपस्या पूर्ण हो जाती है। इन तीनोंकी सेवाको ही सबसे बड़ा तप कहा गया है। इनकी आज्ञाका उल्लंघन करके जो कुछ भी किया जाता है, वह कभी सिद्ध नहीं होता। विद्वान् पुरुष इन्हीं तीनोंकी आराधना करके तीनों लोकोंपर विजय पाता है। जिससे इन तीनोंको संतोष हो, वही मनुष्योंके लिये चारों पुरुषार्थ कहा गया है; इसके सिवा जो कुछ भी है, वह उपधर्म कहलाता है। मनुष्यको उचित है कि वह अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए पितासे क्रमशःतीन, दो या एक वेदका अध्ययन करनेके पश्चात् गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करे। यदि पत्नी अपने वशमें रहे तो गृहस्थाश्रमसे बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है। पति और पत्नीकी अनुकूलता धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धिका प्रधान कारण है। यदि स्त्री अनुकूल हो तो स्वर्गसे क्या लेना है-घर ही स्वर्ग हो जाता है और यदि पत्नी विपरीत स्वभावकी मिल गयी तो नरकमें जानेकी क्या आवश्यकता है-यहीं नरकका दृश्य उपस्थित हो जाता है। सुखके लिये गृहस्थाश्रम स्वीकार किया जाता है; किन्तु वह सुख पत्नीके अधीन है। यदि पत्नी विनयशील हो तो धर्म, अर्थ और कामकी प्राप्ति निश्चित है। जो गृहकार्यमें चतुर, सन्तानवती, पतिव्रता, प्रिय वचन बोलनेवाली और पतिके अधीन रहनेवाली है ऐसी उपर्युक्त गुणोंसे युक्त नारी स्त्रीके रूपमें साक्षात् लक्ष्मी है। इसलिये अपने समान वर्णकी उत्तम लक्षणों वाली भार्यासे विवाह करना चाहिये। जो पिताके गोत्र अथवा माताके सपिण्डवर्गमें उत्पन्न न हुई हो, वही स्त्री विवाह करनेयोग्य होती है तथा उसीसे द्विजोंके धर्मकी वृद्धि होती है।

जिसको कोई रोग न हो, जिसके भाई हो, जो अवस्था और कदमें अपनेसे कुछ छोटी हो, जिसका मुख सौम्य हो तथा जो मधुर भाषण करनेवाली हो, ऐसी भार्याके साथ द्विजको विवाह करना चाहिये। जिसका नाम पर्वत, नक्षत्र, वृक्ष, नदी, सर्प, पक्षी तथा नौकरोंके नामपर न रखा गया हो, जिसके नाममें कोमलता हो, ऐसी कन्यासे बुद्धिमान् पुरुषको विवाह करना चाहिये।

इस प्रकार उत्तम लक्षणोंकी परीक्षा करके ही किसीकन्याके साथ विवाह करना उचित है। उत्तम लक्षण और अच्छे आचरणवाली कन्या पतिको आयु बढ़ाती है, अतः पिताजी! ऐसी भार्या कहाँ मिलेगी ?

कुत्सने कहा- परम बुद्धिमान् मृगशृंग! इसके लिये कोई विचार न करो तुम्हारे जैसे सदाचारी पुरुषके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं है। जो सदाचारहीन, आलसी, माघस्नान न करनेवाले, अतिथि पूजासे दूर रहनेवाले, एकादशीको उपवास न करनेवाले, महादेवजीकी भक्तिसे शून्य, माता-पितामें भक्ति न रखनेवाले, गुरुको सन्तोष न देनेवाले, गौओंकी सेवासे विमुख, ब्राह्मणोंका हित न चाहनेवाले, यज्ञ, होम और श्राद्ध न करनेवाले, दूसरोंको न देकर अकेले खानेवाले, दान, धर्म और शीलसे रहित तथा अग्निहोत्र न करके भोजन करनेवाले हैं, ऐसे लोगोंके लिये ही वैसी स्त्रियों दुर्लभ हैं। बेटा! प्रातःकाल स्नान करनेपर माघका महीना विद्या, निर्मल कीर्ति, आरोग्य, आयु, अक्षय धन, समस्त पापोंसे मुक्ति तथा इन्द्रलोक प्रदान करता है। बेटा! माघमास सौभाग्य, सदाचार, सन्तान वृद्धि, सत्संग, सत्य, उदारभाव, ख्याति, सूरता और बल-सब कुछ देता है। कहाँतक गिनाऊँ, वह क्या-क्या नहीं देता। पुण्यात्मन्! कमलके समान नेत्रोंवाले भगवान् विष्णु माघस्नान करनेसे तुमपर बहुत प्रसन्न हैं।

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्। पिताके ये सत्य वचन सुनकर मृगभृंग मुनि मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने पिताके चरणोंमें मस्तक झुकाकर पुनः प्रणाम किया और दिन-रात वे अपने हृदयमें श्रीहरिका ही चिन्तन करने लगे।

अध्याय 235 मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना

वसिष्ठजी कहते हैं-राजन्। भोजपुरमें उचथ्य नामक एक श्रेष्ठ मुनि थे। उनके कमलके समान नेत्रोंवाली एक कन्या थी, जिसका नाम सुवृत्ता था। वह माघमासमें प्रतिदिन सबेरे ही उठकर अपनी कुमारीसखियोंके साथ कावेरी नदीके पश्चिमगामी प्रवाहमें स्नान किया करती थी। स्नानके समय वह इस प्रकार प्रार्थना करती – ‘देवि! तुम सह्यपर्वतकी घाटीसे निकलकर श्रीरंगक्षेत्रमें प्रवाहित होती हो। श्रीकावेरी ! तुम्हेंनमस्कार है। मेरे पापका नाश करो। मरुद्वृधे! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। माघमासमें जो लोग तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं, उनके बड़े-बड़े पापको हर लेती हो। माता! मुझे मंगल प्रदान करो। पश्चिमवाहिनी कावेरी मुझे पति, धन, पुत्र, सम्पूर्ण मनोरथ और पातिव्रत्य पालनकी शक्ति दो।’ यों कहकर सुवृत्ता कावेरीको प्रणाम करती और जब कुछ कुछ सूर्यका उदय होने लगता, उसी समय वह नित्य स्नान किया करती थी। इस प्रकार उसने तीन वर्षोंतक माघस्नान किया। उसका उत्तम चरित्र तथा गृहकार्यमें चतुरता देखकर पिताका मन बड़ा प्रसन्न रहता था। वे सोचने लगे- अपनी कन्याका विवाह किससे करूँ ? इसी बीचमें कुत्स मुनिने अपने पुत्र ब्रह्मचारी वत्सका विवाह करनेके लिये उचथ्यकी सुमुखी कन्या सुवृत्ताका वरण करनेका विचार किया। सुवृत्ता बड़ी सुन्दरी थी। उसमें अनेक शुभ लक्षण थे। वह बाहर भीतरसे शुद्ध तथा नीरोग थी। उस समय उसकी कहीं तुलना नहीं श्री वत्स मुनिने उससे विवाह करनेकी अभिलाषा की। एक दिन सुवृत्ता अपनी तीन सखियोंके साथ माघस्नान करनेके लिये अरुणोदयके समय कावेरीके तटपर आयी। उसी समय एक भयानक जंगली हाथी पानीसे निकला। उसे देखकर सुवृत्ता आदि कन्याएँ भयसे व्याकुल होकर भागीं। हाथी भी बहुत दूरतक उनके पीछे-पीछे गया। चारों कन्याएँ वेगसे दौड़नेके कारण हॉफने लगीं और तिनकोंसे ढंके हुए एक बहुत बड़े जलशून्य कुएँ में गिर पड़ीं। कुएँ में गिरते ही उनके प्राण निकल गये। जब वे घर लौटकर नहीं आयीं, तब माता-पिता उनकी खोज करते हुए इधर-उधर भटकने लगे। उन्होंने वन-वनमें घूमकर झाड़ी-झाड़ी छान डाली। आगे जानेपर उन्हें एक गहरा कुआँ दिखायी दिया, जो तिनकोंसे ढँका होनेके कारण प्रायः दृष्टिमें नहीं आता था। उन्होंने देखा, वे कमललोचना कन्याएँ कुएँके भीतर निर्जीव होकर पड़ी है। उनकी माताएँ कन्याओंके पास चली गयीं और शोकग्रस्त हो बारंबार उन्हें छातीसे लगाकर ‘विमले! कमले। सुवृत्ते! सुरसे।’आदि नाम ले-लेकर विलाप करने लगीं। कन्याओंकी माताएँ जब इस प्रकार जोर-जोरसे क्रन्दन कर रही थीं, उसी समय तपस्याके भण्डार, कान्तिमान्, धीर तथा जितेन्द्रिय, श्रीमान् मृगश्रृंग मुनि वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने मन ही मन एक उपाय सोचा और सोचकर उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘जबतक इन कमलनयनी कन्याओंको जीवित न कर दूँ, तबतक आपलोग इनके सुन्दर शरीरकी रक्षा करें।’ यो कहकर मुनि परम पावन कावेरीके तटपर गये और कण्ठभर पानीमें खड़े हो, मुख एवं भुजाओंको ऊपर उठाये सूर्यदेवकी ओर देखते हुए मृत्यु देवताकी स्तुति करने लगे। इसी बीचमें एक समय वही हाथी पानीके भीतरसे उठा और उन ब्राह्मण मुनिको मारनेके लिये सूँड़ उठाये बड़े वेगसे उनके समीप आया। हाथीका क्रोध देखकर भी मुनिवर मृगभृंग जलसे विचलित नहीं हुए, अपितु, चित्रलिखित से चुपचाप खड़े रहे। पास आनेपर एक ही क्षणमें उस गजराजका क्रोध चला गया। वह बिलकुल शान्त हो गया। उसने मुनिको सूँड़से पकड़कर अपनी पीठपर बिठा लिया। मुनि उसके भावको समझ गये। उसके कंधे पर सुखपूर्वक बैठनेसे उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ और जप समाप्त करके हाथमें जल ले ‘मैंने आठ दिनोंके माघस्नानका पुण्य तुम्हें दे दिया।’ यॉ कहकर उन्होंने शीघ्र ही वह जल हाथीके मस्तकपर छोड़ दिया। इससे गजराज पापरहित हो गया और मानो इस बातको स्वयं भी समझते हुए उसने प्रलयकालीन मेधके समान बड़े जोरसे गर्जना की उसकी इस गर्जनासे भी मुनिके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने कृपापूर्वक उस गजराजकी ओर देखकर उसके ऊपर अपना हाथ फेरा। मुनिके हाथका स्पर्श होनेसे उसने हाथीका शरीर त्याग दिया और आकाशमें देवताकी भाँति दिव्यरूप धारण किये दृष्टिगोचर हुआ। उस रूपमें उसे देखकर मुनीश्वरको बड़ा विस्मय हुआ।

तब दिव्यरूपधारी उस जीवने कहा- मुनीश्वर ! मैं कृतार्थ हो गया, क्योंकि आपने मुझे अत्यन्त निन्दित एवं पापमयी पशुयोनिसे मुक्त कर दिया। दयानिधे!अब मैं अपना सारा वृत्तान्त बतलाता हूँ, सुनिये । पूर्वकालकी बात है, नैषध नगर में विश्वगुप्त नामसे प्रसिद्ध परम धर्मात्मा तथा स्वधर्मपालनमें तत्पर एक वैश्य रहते थे। मैं उन्हींका पुत्र था। मेरा नाम धर्मगुप्त था। स्वाध्याय, यजन, दान, सूद लेना, पशुपालन, गोरक्षा, खेती और व्यापार-यही सब मेरा काम था। द्विजश्रेष्ठ मैं [अनुचित] काम और दम्भसे सदा दूर ही रहा। सत्य बोलता और किसीकी निन्दा नहीं करता था इन्द्रियोंको काबू में रखकर अपनी स्त्रीसे ही अनुराग करता था और परायी स्त्रियोंके सम्पर्क से बचा रहता था। मुझमें राग, भय और क्रोध नहीं थे। लोभ और मत्सरको भी मैंने छोड़ रखा था। दान देता, यज्ञ करता, देवताओंके प्रति भक्ति रखता और गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितमें संलग्न रहता था। सदा धर्म, अर्थ और कामका सेवन करता तथा व्यापारके काममें कभी किसीको धोखा नहीं देता था। ब्राह्मणलोग जब यज्ञ करते, उस समय उन्हें बिना माँगे ही धन देता था। समयपर श्राद्ध तथा सम्पूर्ण देवताओंका पूजन करता था अनेक प्रकारके सुगन्धित द्रव्य, बहुत-से पशु, दूध-दही, मट्टा, गोवर, घास, लकड़ी, फल, मूल, नमक, जायफल, पीपल, अन्न, सागके बीज, नाना प्रकारके वस्त्र, धातु, ईखके रससे तैयार होनेवाली वस्तुएँ और अनेक प्रकारके रस बेचा करता था। जो दूसरोंको देता था, वह तौलमें कम नहीं रहता था और जो औरोंसे लेता, वह अधिक नहीं होता था। जिन रसौके बेचनेसे पाप होता है, उनको छोड़कर अन्य रसोंको बेचा करता था। बेचनेमें छल-कपटसे काम नहीं लेता था जो मनुष्य साधु पुरुषोंको व्यापारमें ठगता है, वह घोर नरकमें पड़ता है तथा उसका धन भी नष्ट हो जाता है। मैं सब देवताओं, ब्राह्मणों तथा गौओंकी प्रतिदिन सेवा करता और पाखण्डी लोगोंसे दूर रहता था। ब्रह्मन् ! किसी भी प्राणीसे मन, वाणी और क्रियाद्वारा ईर्ष्या किये बिना ही जो जीविका चलायी जाती है, वही परम धर्म है। मैं ऐसी ही जीविकासे जीवन निर्वाह करता था। इस प्रकार धर्मके मार्गसे चलकर मैंने एक करोड़स्वर्णमुद्राओंका उपार्जन किया। मेरे एक ही पुत्र था जो सम्पूर्ण गुणोंमें श्रेष्ठ था। मैंने अपने सारे धनको दो भागों में बाँटकर आधा तो पुत्रको दे दिया और आधा अपने लिये रखा। अपने हिस्सेका धन लेकर पोखरा खुदवाया। नाना प्रकारके वृक्षोंसे युक्त बगीचा लगवाया। अनेक मण्डपोंसे सुशोभित देवमन्दिर बनवाया। मरुभूमिके मार्गों में पाँसले और कुएँ बनवाये तथा ठहरनेके लिये धर्मशालाएं तैयार करायीं। कन्यादान, गोदान और भूमिदान किये। तिल, चावल, गेहूँ और मूँग आदिका भी दान किया। उड़द, धान, तिल और घी आदिका दान तो मैंने बहुत बार किया।

तदनन्तर रसके चमत्कारोंका वर्णन करनेवाला कोई कापालिक मेरे पास आया और कौतूहल पैदा करनेके लिये कुछ करामात दिखाकर उसने मुझे अपने मायाजाल में फँसाकर ठग लिया। उसकी करतूतें देखकर उसके प्रति मेरा विश्वास बढ़ गया और रसवाद-चाँदी, सोना आदि बनानेके नामपर मेरा सारा धन बरबाद हो गया। उस कापालिकने मुझे भ्रममें डालकर बहुत दिनोंतक भटकाया। उसके लिये धन दे-देकर मैं दरिद्र हो गया। माघका महीना आया और मैंने दस दिनोंतक सूर्योदयके समय महानदीमें स्नान किया; किन्तु बुढ़ापेके कारण इससे अधिक समयतक मैं स्नानका नियम चलानेमें असमर्थ हो गया। इसी बीचमें मेरा पुत्र देशान्तरमें चला गया। घोड़े मर गये। खेती नष्ट हो गयी और बेटेने वेश्या रख ली। फिर भी भाई-बन्धु यह सोचकर कि यह बेचारा बूढ़ा, धर्मात्मा और पुण्यवान् है, धर्मके ही उद्देश्यसे मुझे कुछ सूखा अन्न और भात दे दिया करते थे। अब मैं अपना धर्म बेचकर कुटुम्बका पालन-पोषण करने लगा, केवल माघस्नानके फलको नहीं बेच सका। एक दिन जिझकी लोलुपताके कारण दूसरेके घरपर खूब गलेतक दूंसकर मिठाई खा ली। इससे अजीर्ण हो गया। अजीर्णसे अतिसारकी बीमारी हुई और उससे मेरी मृत्यु हो गयी। केवल माघस्नानके प्रभावसे मैं एक मन्वन्तरतक स्वर्गमें देवराज इन्द्रके पास रहा और पुण्यकी समाप्ति हो जानेपर हाथीकी योनिमें उत्पन्न हुआ।जो लोग धर्म बेचते हैं, वे हाथी ही होते हैं। विप्रवर!

इस समय आपने हाथीकी योनिसे भी मेरा उद्धार कर दिया। मुझे स्वर्गकी प्राप्ति होनेके लिये आपने पुण्यदान
किया है। मुनीश्वर मैं कृतार्थ हो गया। आपको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है।

यों कहकर वह स्वर्गको चला गया। सच है, सत्पुरुषोंका संग उत्तम गति प्रदान करनेवाला होता है। इस प्रकार महानुभाव मृगशृंग वैश्यको हाथीकी योनिसे मुक्त करके स्वयं गलेतक पानीमें खड़े हो सूर्यनन्दन यमराजकी स्तुति करने लगे

ॐ यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतक्षय, औदुम्बर, दघ्न, नील, परमेष्ठी, वृकोदर, चित्र और चित्रगुप्त- इन चौदह नामोंसे पुकारे जानेवाले भगवान् यमराजको नमस्कार है।

जिनका मुख दाढ़ोंके कारण विकराल प्रतीत होता है और टेढ़ी भौहोंसे युक्त आँखें क्रूरतापूर्ण जान पड़ती हैं, जिनके शरीरमें ऊपरकी ओर उठे हुए बड़े बड़े रोम हैं तथा ओठ भी बहुत लम्बे दिखायी देते हैं, ऐसे आप यमराजको नमस्कार है।

आपके अनेक भुजाएँ हैं, अनन्त नख हैं तथा कज्जलगिरिके समान काला शरीर और भयंकर रूप है। आपको नमस्कार है।

भगवन्! आपका वेष बड़ा भयानक है। आप पापियोंको भय देते, कालदण्डसे धमकाते और सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र धारण करते हैं। बहुत बड़ा भैंसा आपका वाहन हैं। आपके नेत्र दहकते हुए अँगारॉके समान जान पड़ते हैं। आप महान् हैं। मेरु पर्वतके समान आपका विशाल रूप है। आप लाल माला और वस्त्र धारण करते हैं। आपको नमस्कार है।

कल्पान्तके मेघोंकी भाँति जिनकी गम्भीर गर्जना और प्रलयकालीन वायुके समान प्रचण्ड वेग है, जो समुद्रको भी पी जाते, सम्पूर्ण जगत्को ग्रास बना लेते, पर्वतोंको भी चबा जाते और मुखसे आग उगलते हैं, उन भगवान् यमराजको नमस्कार है।भगवन्! अत्यन्त घोर और अग्निके समान तेजस्वी कालरूप मृत्यु तथा बहुत से रोग आपके पास सेवामें उपस्थित रहते हैं। आपको नमस्कार है।

आप भयानक मारी और अत्यन्त भयंकर महामारीके साथ रहते हैं। पापिष्ठोंके लिये आपका ऐसा ही स्वरूप है। आपको बारंबार नमस्कार है।

वास्तवमें तो आपका मुख खिले हुए कमलके समान प्रसन्नता पूर्ण है। आपके नेत्रोंमें करुणा भरी है। आप पितृस्वरूप हैं। आपको नमस्कार है। आपके केश अत्यन्त कोमल हैं और नेत्र भौहोंकी रेखासे सुशोभित हैं। मुखके ऊपर मूँछें बड़ी सुन्दर जान पड़ती हैं। पके हुए बिम्बफलके समान लाल ओठ आपकी शोभा बढ़ाते हैं। आप दो भुजाओंसे युक्त, सुवर्णके समान कान्तिमान् और सदा प्रसन्न रहनेवाले हैं। आपको नमस्कार है।

आप सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, रत्नमय सिंहासनपर विराजमान, श्वेत माला और श्वेत वस्त्र धारण करनेवाले तथा श्वेत छत्रसे सुशोभित हैं आपके दोनों ओर दो दिव्य नारियाँ खड़ी होकर हाथोंमें सुन्दर चँवर लिये डुला रही हैं। आपको नमस्कार है।

गलेके रत्नमय हारसे आप बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं। रत्नमय कुण्डल आपके कानोंकी शोभा बढ़ाते हैं। आपके हार और भुजबंद भी रत्नके ही हैं तथा आपके किरीटमें नाना प्रकारके रत्न जड़े हुए हैं। आपकी कृपादृष्टि सीमाका अतिक्रमण कर जाती है। आप मित्रभावसे सबको देखते हैं। सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ आपको समृद्धिशाली बनाती हैं। आप सौभाग्यके परम आश्रय हैं तथा धर्म और अधर्मके ज्ञानमें निपुण सभासद् आपकी उपासना करते हैं। आपको नमस्कार है।

संयमनीपुरीकी सभा में शुभ्र रूपवाले धर्म, शुभ लक्षण सत्य, चन्द्रमाके समान मनोहर रूपधारी शम, दूधके समान उज्ज्वल दम तथा वर्णाश्रमजनित विशुद्ध आचार आपके पास मूर्तिमान् होकर सेवामें उपस्थित रहते हैं; आपको नमस्कार है।

आप साधुओंपर सदा स्नेह रखते, वाणीसे उनमें प्राणका संचार करते, वचनोंसे सन्तोष देते और गुणोंसेउन्हें सर्वस्व समर्पण करते हैं। सज्जन पुरुषोंपर सदा

सन्तुष्ट रहनेवाले आप धर्मराजको बारंबार नमस्कार है। जो सबके काल होते हुए भी शुभकर्म करनेवाले पुरुषोंपर कृपा करते हैं, जो पुण्यात्माओंके हितैषी, सत्पुरुषोंके संगी, संयमनीपुरीके स्वामी धर्मात्मा तथा धर्मका अनुष्ठान करनेवालोंके प्रिय हैं, उन धर्मराजको नमस्कार है।

जिसकी पीठपर लटके हुए घण्टोंकी ध्वनिसे सारी दिशाएँ गूंज उठती हैं तथा जो ऊँचे-ऊँचे सोगों और फुंकारोंके कारण अत्यन्त भीषण प्रतीत होता है, ऐसे महान् भैंसेपर जो विराजमान रहते हैं तथा जिनकी आठ बड़ी-बड़ी भुजाएँ क्रमशः नाराय, शक्ति, मुसल, खड्ग, गदा, त्रिशूल, पाश और अंकुशसे सुशोभित हैं, उन भगवान् यमराजको प्रणाम है।

जो चौदह सत्पुरुषोंके साथ बैठकर जीवोंके शुभाशुभकर्मीका भलीभाँति विचार करते हैं, साक्षियों द्वारा अनुमोदन कराकर उन्हें दण्ड देते हैं तथा सम्पूर्ण विश्वको शान्त रखते हैं, उन दक्षिण दिशाके स्वामी शान्तस्वरूप यमराजको नमस्कार है।

जो कल्याणस्वरूप, भयहारी, शौच संतोष आदि नियमोंमें स्थित मनुष्योंके नेत्रोंको प्रिय लगनेवाले सावर्णि, शनैश्वर और वैवस्वत मनु-इन तीनोंकी माताके सौतेले पुत्र विवस्वान (सूर्यदेव) के आत्म तथा सदाचारी मनुष्यों को कर देनेवाले हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार है।

भगवन् जब आपके दूत पापी जीवोंको दृढ़ता पूर्वक अधिकर आपके सामने उपस्थित करते हैं, तब आप उन्हें यह आदेश देते हैं कि ‘इन पापियोंको अनेक घोर नरकोंमें गिराकर छेद डालो, टुकड़े-टुकड़े कर दो, जला दो, सुखा डालो, पीस दो।’ इस प्रकारकी बातें कहते हुए यमुनाजीके ज्येष्ठ भ्राता आप यमराजको मेरा प्रणाम है।

जब आप अन्तकरूप धारण करते हैं, उस समय आपके गोलाकार नेत्र किनारे-किनारेसे लाल दिखायी देते हैं। आप भीमरूप होकर भय प्रदान करते हैं। टेढ़ीभौंहोंके कारण आपका मुख वक्र जान पड़ता है। आपके शरीरका रंग उस समय नीला हो जाता है तथा आप अपने निर्दयी दूतोंके द्वारा शास्त्रोक्त नियमोंका उल्लंघन करनेवाले पापियोंको खूब कड़ाईके साथ धमकाते हैं। आपको सर्वदा नमस्कार है।

जिन्होंने पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान किया है तथा जो सदा ही अपने कर्मोंके पालनमें संलग्न रहे हैं, ऐसे लोगोंको दूरसे ही विमानपर आते देख आप दोनों हाथ जोड़े आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं। आपके नेत्र कमलके समान विशाल हैं तथा आप माता संज्ञाके सुयोग्य पुत्र हैं आपको मेरा प्रणाम है।

जो सम्पूर्ण विश्वसे उत्कृष्ट, निर्मल, विद्वान्, जगत्के पालक, ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवके प्रिय, सबके शुभाशुभकर्मोंके उत्तम साक्षी तथा समस्त संसारको शरण देनेवाले हैं, उन भगवान् यमको नमस्कार हैं।

वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करके मृगश्रृंगने उदारता और करुणाके भण्डार तथा दक्षिण दिशा के स्वामी भगवान् यमका ध्यान करते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इससे भगवान् यमको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे महान् तेजस्वी रूप धारण किये मुनिके सामने प्रकट हुए। उस समय उनका मुखकमल प्रसन्नतासे खिला हुआ था और किरीट, हार, केयूर तथा मणिमय कुण्डल धारण करनेवाले अनेक सेवक चारों ओरसे उनकी सेवायें उपस्थित थे।

यमराजने कहा- मुने! मैं तुम्हारे इस स्तोत्रसे बहुत सन्तुष्ट हूँ और तुम्हें वर देनेके लिये यहाँ आया हूँ तुम मुझसे मनोवांछित वर माँगो मैं तुम्हें अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा ।

उनकी बात सुनकर मुनीश्वर मृगशृंग उठकर खड़े हो गये। नमराजको सामने उपस्थित देख उन्हें बड़ा विस्मय हुआ उनके नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। कृतान्तको पाकर उन्होंने अपनेको सफलमनोरथ समझा और हाथ जोड़कर कहा-‘भगवन्! इन कन्याओंको प्राणदान दीजिये। मैं आपसे बारम्बार यही याचना करता हूँ।’ मुनिका कथन सुनकर धर्मराजने अदृश्यरूपसे उनब्राह्मण- कन्याओंको उनके शरीरमें भेज दिया। फिर तो सोकर उठे हुएकी भाँति वे कन्याएँ उठ खड़ी हुईं। अपनी बालिकाओंको सचेत होते देख माताओंको बड़ा हर्ष हुआ। कन्याएँ पहलेकी ही भाँति अपना अपना वस्त्र पहनकर माताओंको बुला उनके साथ अपने घर गयीं।

वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार विप्रवर मृगशृंगको वरदान दे यम देवता अपने पार्षदोंके साथअन्तर्धान हो गये। इधर ब्राह्मण भी यमराजसे वर पाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमको लौटे। जो मानव प्रतिदिन यमराजकी इस स्तुतिका पाठ करेगा, उसे कभी यम यातना नहीं भोगनी पड़ेगी, उसके ऊपर यमराज प्रसन्न होंगे, उसकी सन्ततिका कभी अपमृत्युसे पराभव न होगा, उसे इस लोक और परलोकमें भी लक्ष्मीकी प्राप्ति होगी तथा उसे कभी रोगोंका शिकार नहीं होना पड़ेगा।

अध्याय 236 यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन

राजा दिलीपने पूछा- मुने! यमलोकसे लौटकर

आयी हुई उन साध्वी कन्याओंने अपनी माताओं और बन्धुओंसे वहाँका वृत्तान्त कैसा बतलाया ? पापियोंकी यातना और पुण्यात्माओंकी गतिके सम्बन्धमें क्या कहा ? मैं पुण्य और पापके शुभ और अशुभ विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ।

वसिष्ठजी बोले- राजन् कन्याओंने अपनी माताओं और बन्धुओंसे पुण्य पापके शुभाशुभ फलोंके विषयमें जो कुछ कहा था, वह ज्यों-का-त्यों तुम्हे बतलाता हूँ।

कन्याओंने कहा- माताओ! यमलोक बड़ा ही घोर और भय उत्पन्न करनेवाला है। वहाँ सर्वदा चारों प्रकारके जीवोंको विवश होकर जाना पड़ता है। गर्भमें रहनेवाले अथवा जन्म लेनेवाले शिशु, बालक, तरुण, अधेड़ बूढ़े, स्त्री, पुरुष और नपुंसक सभी तरहके जीवोंको वहाँ जाना होता है वहाँ चित्रगुप्त आदि समदर्शी एवं मध्यस्थ सत्पुरुष मिलकर देहधारियोंके शुभ और अशुभ फलका विचार करते हैं। इस लोकमें जो शुभकर्म करनेवाले, कोमलहृदय तथा दयालु पुरुष हैं, वे सौम्य मार्गसे यमलोकमें जाते हैं। नाना प्रकारके दान और व्रतोंमें संलग्न रहनेवाले स्त्री-पुरुषोंसे सूर्यनन्दन यमकी नगरी भरी है । माघस्नान करनेवाले लोग वहाँ विशेषरूपसे शोभित होते हैं। धर्मराज उनका अधिक सम्मान करते हैं। वहाँ उनके लिये सब प्रकारकी भोगसामग्री सुलभ होती है माघस्नानमें मन लगानेवालेलोगोंके सैकड़ों, हजारों विचित्र-विचित्र विमान वहाँ शोभा पाते हैं। इन पुण्यात्मा जीवको विमानपर बैठकर आते देख सूर्यनन्दन यम अपने आसनसे उठकर खड़े हो जाते हैं और अपने पार्षदोंके साथ जाकर उन सबकी अगवानी करते हैं। फिर स्वागतपूर्वक आसन दे, पाद्य-अर्घ्य आदि निवेदन कर प्रिय वचनोंमें कहते हैं— ‘आपलोग अपने आत्माका कल्याण करनेवाले महात्मा अतएव धन्य हैं; क्योंकि आपने दिव्य सुखकी प्राप्तिके लिये पुण्यका उपार्जन किया है। अतः आप इस विमानपर बैठकर स्वर्गको जाइये। स्वर्गलोककी कहीं तुलना नहीं है, वह सब प्रकारके दिव्य भोगोंसे परिपूर्ण है।’ इस प्रकार उनकी अनुमति ले पुण्यात्मा पुरुष स्वर्गलोकमें जाते हैं।

माताओ! तथा बन्धुजन! अब हम वहाँके पापी जीवोंके कष्टका वर्णन करती हैं, आप सब लोग धैर्य धारण करके सुनें। जो क्रूरतापूर्ण कर्म करनेवाले और दान न देनेवाले पापी जीव हैं, वे वहाँ यमराजके घरमें अत्यन्त भयंकर दक्षिणमार्गसे जाते हैं। यमराजका नगर अनेक रूपोंमें स्थित है, उसका विस्तार चारों ओरसे छियासी हजार योजन समझना चाहिये। पुण्यकर्म करनेवाले पुरुषोंको वह बहुत निकट-सा जान पड़ता है, किन्तु भयंकर मार्गसे जानेवाले पापी जीवोंके लिये वह अत्यन्त दूर है। वह मार्ग कहीं तो तीखे काँटोंसे भरा होता है और कहीं रेत एवं कंकड़ोंसे। कहीं पत्थरोंके ऐसे टुकड़े बिछे होते हैं, जिनका किनारा छुरोंकी धारके समानतीखा होता है। कहीं बहुत दूरतक कीचड़ ही कीचड़ भरी रहती है। कहीं घातक अंकुर उगे होते हैं और कहीं-कहीं लोहेकी सुईके समान नुकीले कुशोंसे सारा मार्ग ढका होता है। इतना ही नहीं, कहीं-कहीं बीच रास्ते में वृक्षोंसे भरे हुए पर्वत होते हैं, जो किनारेपर भारी जल प्रपातके कारण अत्यन्त दुर्गम जान पड़ते हैं कहीं रास्तेपर दहकते हुए अंगारे बिछे रहते हैं। ऐसे मार्गसे पापी जीवोंको दुःखित होकर जाना पड़ता है। कहीं ऊँचे-नीचे गद्दे, कहीं फिसला देनेवाले चिकने ढेले, कहीं खूब तपी हुई बालू और कहीं तीखी कीलोंसे वह मार्ग व्याप्त रहता है। कहीं-कहीं अनेक शाखाओंमें फैले हुए सैकड़ों वन और दुःखदायी अन्धकार हैं, जहाँ कोई सहारा देनेवाला भी नहीं रहता। कहीं तपे हुए लोहेके काँटेदार वृक्ष, कहीं दावानल, कहीं तपी हुई शिला और कहीं हिमसे वह मार्ग आच्छादित रहता है। कहीं ऐसी बालू भरी रहती है. जिसमें चलनेवाला जीव कण्ठतक धँस जाता है और बालू कानके पासतक आ जाती है। कहीं गरम जल और कहीं कंडोंकी आपसे यमलोकका मार्ग व्याप्त रहता है। कहीं भूल मिली हुई प्रचण्ड वायुका बवंडर उठता है और कहीं बड़े-बड़े पत्थरोंकी वर्षा होती है। उन सबकी पीड़ा सहते हुए पापी जीव यमलोक में जाते हैं। रेतकी भारी वृष्टिसे सारा अंग भर जानेके कारण पापी जीव रोते हैं। महान् मेघोंकी भयंकर गर्जनासे वे बारंबार थर्रा उठते हैं। कहीं तीखे अस्त्र शस्त्रोंकी वर्षा होती है, जिससे उनके सारे शरीरमें घाव हो जाते हैं। तत्पश्चात् उनके ऊपर नमक मिले हुए पानीको मोटी धाराएँ बरसायी जाती हैं। इस प्रकार कष्ट सहन करते हुए उन्हें जाना पड़ता है। कहीं अत्यन्त ठंडी, कहीं रूखी और कहीं कठोर वायुका सब ओरसे आघात सहते हुए पापी जीव सूखते और रोते हैं। इस प्रकार वह मार्ग बड़ा ही 1. भयंकर है। वहाँ राहखर्च नहीं मिलता। कोई सहारा देनेवाला नहीं रहता। वह सब ओरसे दुर्गम और निर्जन है। वहाँ और कोई मार्ग आकर नहीं मिला है। वह बहुत बड़ा और आश्रयरहित है। वहाँ अन्धकार- 3 ही अन्धकार भरा रहता है। वह महान् कष्टप्रदऔर सब प्रकारके दुःखोंका आश्रय है। ऐसे ही मार्गसे यमकी आज्ञाका पालन करनेवाले अत्यन्त भयंकर यमदूतोंद्वारा समस्त पाप-परायण मूढ़ जीव बलपूर्वक लाये जाते हैं।

वे एकाकी, पराधीन तथा मित्र और बन्धु बान्धवोंसे रहित होते हैं अपने कर्मोंके लिये बारंबार शोक करते और रोते हैं। उनका आकार प्रेत-जैसा होता है। उनके शरीरपर वस्त्र नहीं रहता कण्ठ, ओठ और तालू सूखे होते हैं। वे शरीरसे दुर्बल और भयभीत होते हैं तथा क्षुधाकी आपसे जलते रहते हैं। बलोन्मत यमदूत किन्हीं किन्हीं पापी मनुष्योंको चित सुलाकर उनके पैरोंमें साँकल बाँध देते हैं और उन्हें घसीटते हुए खींचते हैं। कितने ही दूसरे जीव ललाटमें अंकुश चुभाये जानेके कारण क्लेश भोगते हैं। कितनोंकी बाँहें पीठकी ओर घुमाकर बाँध दी जाती और उनके हाथोंमें कील ठोंक दी जाती हैं; साथ ही पैरोंमें बेड़ी भी पड़ी होती है इस दशामें भूखका कष्ट सहन करते हुए उन्हें जाना पड़ता है। कुछ दूसरे जीवोंके गलेमें रस्सी बाँधकर उन्हें पशुओंकी भाँति घसीटा जाता है और वे अत्यन्त दुःख उठाते रहते हैं। कितने ही दुष्ट मनुष्योंकी जिह्वामें रस्सी बाँधकर उन्हें खींचा जाता है। किन्होंकी कमरमें भी रस्सी बाँधी जाती और उन्हें गरदनियाँ देकर इधर-उधर ढकेला जाता है। यमदूत किन्हींकी नाक बांधकर खींचते हैं और किन्हींके गाल तथा ओठ छेदकर उनमें रस्सी डाल देते और उन्हें खींचकर ले जाते हैं। तपे हुए सौंकचोंसे कितने ही पापियोंके पेट छिदे होते हैं। कुछ लोगोंके कानों और ठोड़ियोंमें छेद करके उनमें रस्सी डालकर खींचा जाता है। किन्हींके पैरों और हाथोंके अग्रभाग काट लिये जाते हैं। किन्होंके कण्ठ, ओठ और तालुओंमें छेद कर दिया जाता है। किन्हीं किन्हींके अण्डकोश कट जाते हैं और कुछ लोगों के समस्त अंगोंकी सन्धियों काट दी जाती हैं। किन्हींको भालोंसे छेदा जाता है, कुछ बाणोंसे घायल किये जाते हैं और कुछ लोगोंको मुद्गरों तथा लोहेके डंडोंसे बारंबार पीटा जाता है और वे निराश्रय होकर चीखते-चिल्लाते हुए इधर-उधर भागा करते हैं।प्रज्वलित अग्निके समान कान्तिवाले भाँति-भाँति के भयंकर आरों और भिन्दिपालोंसे उन्हें विदीर्ण किया जाता है और वे पापी जीव पीब तथा रक्त बहाते हुए पावसे पीड़ित होते और कीड़ोंसे से जाते हैं। इस प्रकार उन्हें विवश करके यमलोकमें ले जाया जाता है। वे भूख-प्याससे पीड़ित होकर अन्न और जल मांगते हैं, धूपसे बचनेको छायाके लिये प्रार्थना करते हैं और शीतसे व्यथित होकर अपनेके लिये अग्नि माँगते हैं जिन्होंने उक्त वस्तुओंका दान नहीं किया होता, वे उस पाथेयरहित पथपर इसी प्रकार कष्ट सहते हुए यात्रा करते हैं। इस प्रकार अत्यन्त दुःखमय मार्गसे चलकर जब वे प्रेतलोकमें पहुँचते हैं, तब दूत उन्हें यमराजके आगे उपस्थित करते हैं। उस समय वे पापी जीव यमराजको भयानक रूपमें देखते हैं। वहाँ असंख्यों भयानक यमदूत, जो काजलके समान काले, महान् वीर और अत्यन्त क्रूर होते हैं, हाथोंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये मौजूद रहते हैं। ऐसे ही परिवारके साथ बैठे हुए यमराज तथा चित्रगुप्तको पापी जीव अत्यन्त भयंकररूपमें देखते हैं।

उस समय भगवान् यमराज और चित्रगुप्त उन पापियोंको धर्मयुक्त वाक्योंसे समझते हुए बड़े जोर जोरसे फटकारते हैं। वे कहते हैं-‘ओ खोटे कर्म करनेवाले पापियो। तुमने दूसरोंके धन हड़प लिये है और सुन्दर रूपके घमंडमें आकर परावी स्त्रियों के साथ व्यभिचार किया है। मनुष्य अपने-आप जो कुछ कर्म करता है, उसे स्वयं ही भोगता है; फिर तुमने अपने ही भोगनेके लिये पापकर्म क्यों किया? और अब अपने कर्मोकी आगमें जलकर इस समय तुमलोग संतप्त क्यों हो रहे हो? भोगो अपने उन कर्मोंको। इसमें दूसरे किसीका दोष नहीं है ये राजालोग भी अपने भयंकर कर्मोंसे प्रेरित हो मेरे पास आये हैं इन्हें अपनी खोटी बुद्धि और बलका बड़ा घमंड था। अरे, ओ दुराचारी राजाओ! तुमलोग प्रजाका सर्वनाश करनेवाले हो अरे, थोड़े समयतक रहनेवाले राज्यके लिये तुमने पाप क्यों किया? राज्यके लोभमें पड़कर मोहवशबलपूर्वक अन्यायसे जो तुमने प्रजाजनोंको दण्ड दिया है, इस समय उसका फल भोगो। कहाँ है वह राज्य और कहाँ गयी वह रानी, जिसके लिये तुमने पापकर्म किया था? अब तो सबको छोड़कर तुम अकेले ही यहाँ खड़े हो यहाँ वह बल नहीं दिखायी देता, जिससे तुमने प्रजाओंका विध्वंस किया। इस समय यमदूतोंकी मार पड़नेपर कैसा लग रहा है?’ इस तरह नाना प्रकारके वचनोंद्वारा यमराजके उलाहना देनेपर वे राजा अपने अपने कर्मोंको सोचते हुए चुपचाप खड़े रह जाते हैं।

इस प्रकार राजाओंसे धर्मकी बात कहकर धर्मराज उनके पापपंककी शुद्धिके लिये अपने दूतोंसे इस प्रकार कहते हैं- ‘ओ चण्ड ! ओ महाचण्ड !! तुम इन राजाओंको पकड़कर ले जाओ और क्रमशः नरककी आगमें डालकर इन्हें पापोंसे शुद्ध करो।’ तब वे दूत शीघ्र ही उठकर राजाओंके पैर पकड़ लेते हैं और उन्हें बड़े वेगसे आकाशमें घुमाकर ऊपर फेंकते हैं। तत्पश्चात् उन्हें पूरा बल लगाकर तपायी हुई शिलापर बड़े वेग से पटकते हैं, मानो किसी महान् वृक्षपर वज्रसे प्रहार करते हों। शिलापर गिरनेसे उनका शरीर चूर-चूर हो जाता है, रक्तके स्वोत बहने लगते हैं और जीव अचेत एवं निश्चेष्ट हो जाता है। तदनन्तर वायुका स्पर्श होनेपर वह धीरे-धीरे फिर साँस लेने लगता है। उसके बाद पापकी शुद्धिके लिये उसे नरकके समुद्रमें डाल दिया जाता है। इस पृथ्वीके नीचे नरककी अट्ठाईस कोटियाँ हैं। वे सातवें तलके अन्तमें भयंकर अन्धकारके भीतर स्थित हैं उनमें पहली कोटिका नाम घोरा है। उसके नीचे सुघोराकी स्थिति है तीसरी अतिघोरा, चौथी महाघोरा और पाँचवीं कोटि घोररूपा है। छठीका नाम तरलतारा, सातवींका भयानका, आठवका कालरात्रि और नवींका भवोत्कटा है उसके नीचे दसवीं कोटि चण्डा है। उसके भी नीचे महाचण्डा है। बारहवींका नाम चण्डकोलाहला है। उसके बाद प्रचण्डा, नरनायिका, कराला, विकराला और वज्रा है। [तीन अन्य नरकोंके साथ] वज्राकी बीसवीं संख्या है। इनके सिवा त्रिकोणा, पंचकोणा,सुदीप परिवर्तता, सप्तभीमा, अष्टभमा दीप्ता और माया- ये आठ और हैं। इस प्रकार नरककी कुल अट्ठाईस कोटियाँ बतायी गयी हैं। उपर्युक्त कोटियोंमेंसे प्रत्येकके पाँच-पाँच नायक हैं। उनके नाम सुनो। उनमें पहला रौरव है, जहाँ देहधारी जीव रोते हैं। दूसरा महारौरव है, जिसकी पीड़ाओंसे बड़े-बड़े जीव भी रो देते हैं। तीसरा तम, चौथा शीत और पाँचवा उष्ण है। ये प्रथम कोटिके पाँच नायक माने गये हैं। इनके सिवा सुघोर, सुतम, तीक्ष्ण, पद्म, संजीवन, शठ, महामाय, अतिलोम, सुभीम, कटंकट, तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महापद्म, सुचक्र, कालसूत्र, प्रतर्दन, सूचीमुख, सुनेमि, खादक, सुप्रदीपक, कुम्भीपाक, सुपाक, अतिदारुणकूण, अंगारराशि, भवन, अमृहद विरामय, तुण्डशकुनि महासंवर्तक ऋतुत पंकलेप पूतिमस, द्रव त्रपु उच्चश्वास, निरुश्यास सुदीर्घ, कूटशाल्मलि, दुरिष्ट, सुमहानाद, प्रभाव, सुप्रभावन, ऋक्ष, मेष, वृष, शल्य, सिंहानन, व्याघ्रानन, मृगानन, सूकरानन, श्वानन, महिषानन, वृकानन, मेषवरानन, ग्राह, कुम्भीर, नक्र, सर्प, कूर्म, वायस, गृध्र, उलूक, जलूका, शार्दूल, कपि कर्कट, गण्ड पुलिया रकास, पूतिमृत्तिक कणधूम, तुषाग्नि, कृमिनिचय, अमेय, अप्रतिष्ठ रुधिरान्न, श्वभोजन, लालाभक्ष, आत्मभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, संकष्ट, सुविलास, सुकट, संकट, कट, पुरीष, कटाह, कष्टदायिनी वैतरणी नदी, सुतप्त लोहशंकु अप: शंकु प्रपूरण, घोर असिलवर, अस्थिभंग प्रपीक, नीलयन्त्र अतसीवन शुन्य फूट, अंशप्रमर्दन महाचूर्णी, सुचूर्णी, तप्तलोहमयी शिला, क्षुरधाराभपर्वत, मतपर्वत कूप विष्ठा, अन्धकूप, पूयकृष शातन, मुसलोलूखल यन्त्रशिला शकटांगल तालपत्रासिवन, महामशकमण्डप, सम्मोहन, अतिभंग, ततशूल, अयोगुड बहु-ख महादुःख, कश्मल, समल हालाहल, विरूप, भीमरूप, भीषण, एकपाद, द्विपाद, तीव्र तथा अवीचि यह अवीचि अन्तिम नरक है। इस प्रकार ये क्रमशः पाँच-पाँचके अट्ठाईस समुदायमाने गये हैं। एक-एक समुदाय एक-एक कोटिका नायक है।

रौरवसे लेकर अवीचितक कुल एक सौ चालीस नरक माने गये हैं। इन सबमें पापी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार डाले जाते हैं और जबतक भाँति भौतिकी यातनाओंद्वारा उनके कर्मोंका भोग समाप्त नहीं हो जाता, तबतक वे उसीमें पड़े रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि धातु जबतक उनकी मैल न जल जाय तबतक आगमें तपाये जाते हैं, उसी प्रकार पापी पुरुष पापक्षय होनेतक नरकोंकी आगमें शुद्ध किये जाते हैं। इस प्रकार क्लेश सहकर जब ये प्रायः शुद्ध हो जाते हैं, तब शेष कर्मोके अनुसार पुनः इस पृथ्वीपर आकर जन्म ग्रहण करते हैं। तृण और झाड़ी आदिके भेदसे नाना प्रकारके स्थावर होकर वहाँके दुःख भोगनेके पश्चात् पापी जीव कीड़ोंकी योनिमें जन्म लेते हैं। फिर कोटयोनिसे निकलकर क्रमश: पक्षी होते हैं। पक्षीरूपसे कष्ट भोगकर मृगयोनिमें उत्पन्न होते हैं । वहाँके दुःख भोगकर अन्य पशुयोनिमें जन्म लेते हैं। फिर क्रमशः गोयोनिमें आकर मरनेके पश्चात् मनुष्य होते हैं।

माताओ! हमने यमलोकमें इतना ही देखा है। वहाँ पापीको बड़ी भयानक यातनाएँ होती हैं। वहाँ ऐसे-ऐसे नरक हैं, जो न कभी देखे गये थे और न कभी सुने ही गये थे। वह सब हमलोग न तो जान सकती हैं और न देख ही सकती हैं।

माताएँ बोलीं- बस, बस, इतना हो बहुत हुआ। अब रहने दो। इन नरक यातनाओंको सुनकर हमारे सारे अंग शिथिल हो गये हैं। हृदयमें भय छा गया है। बारम्बार उनकी याद आ जानेसे हमारा मन सुध-बुध खो बैठता है। आन्तरिक भयके उद्रेकसे हमलोगोंके शरीरमें रोमांच हो आया है।

कन्याओंने कहा- माताओ! इस परम पवित्र भारतवर्षमें जो हमें जन्म मिला है, यह अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें भी हजार-हजार जन्म लेनेके बाद पुण्यराशिके संचयसे कदाचित् कभी जीव मनुष्ययोनिमें जन्म पाता है; परन्तु जो माघस्नानमें तत्पर रहनेवाले हैं, उनके लिये कुछभी दुर्लभ नहीं है। उन्हें यहाँ ही परम मोक्ष मिल जाता है और पर्याप्त भोगसामग्री भी सुलभ होती है। भारतवर्षको कर्मभूमि कहा गया है। अन्य जितनी भूमियाँ हैं, वे भोगभूमि मानी जाती हैं। यहाँ यति तपस्या और याजक यज्ञ करते हैं तथा यहीं पारलौकिक सुखके लिये श्रद्धापूर्वक दान दिये जाते हैं। कितने ही धन्य पुरुष यहीं माघस्नान करते तथा तपस्या करके अपने कर्मोके अनुसार ब्रह्मा, इन्द्र, देवता और मरुद्गणोंका पद प्राप्त करते हैं। यह भारतवर्ष सभी देशोंसे श्रेष्ठ माना गया है; क्योंकि यहीं मनुष्य धर्म तथा स्वर्ग और मोक्षकी सिद्धि कर सकते हैं। इस पवित्र भारतदेशमें क्षणभंगुर मानव जीवनको पाकर जो अपने आत्माका कल्याण नहीं करता, उसने अपने-आपको ठग लिया। मनुष्यों में भी अत्यन्त दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर जो अपना कल्याण नहीं करता, उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा। कितने ही कालके बाद जीव अत्यन्त दुर्लभ मानवजीवन प्राप्त करता है; इसे पाकर ऐसा करना चाहिये, जिससे कभी नरकमें न जाना पड़े। देवतालोग भी यह अभिलाषा करते हैं कि हमलोग कब भारतवर्षमें जन्म लेकर माघ मासमें प्रातः काल किसी नदी या सरोवरके जलमें गोते लगायेंगे। देवता यह गीत गाते हैं कि जो लोग देवत्वके पश्चात् स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिके मार्गभूत भारतवर्षके भूभागमें मनुष्य जन्म धारण करते हैं, वे धन्य हैं। हम नहीं जानते कि स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाले अपने पुण्यकर्मके क्षीण होनेपर किस देशमें हमें पुनः देह धारण करना पड़ेगा। जो भारतवर्षमें जन्म लेकर सब इन्द्रियोंसे युक्त हैं किसी भी इन्द्रियसे हीन नहीं हैं, वे ही मनुष्य धन्य हैं; अतः माताओ! तुम भय मत करो, भय मत करो। आदरपूर्वक धर्मका अनुष्ठान करो। जिनके पास दानरूपी ग्रहखर्च होता है, वे यमलोकके मार्गपर सुखसे जाते हैं; अन्यथा उस पाथेयरहित पथपर जीवको क्लेश भोगना पड़ता है। ऐसा जानकर मनुष्य पुण्य करे और पाप छोड़ दे पुण्यसे देवत्वकी प्राप्ति होती है और अधर्मसे नरकमें गिरना पड़ता है। जो किंचित् भी देवेश्वर भगवान् श्रीहरिकी शरण में गये हैं, वे भयंकरयमलोकका दर्शन नहीं करते। बान्धवो। यदि तुमलोग संसार-बन्धनसे छुटकारा पाना चाहते हो तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमदेव श्रीनारायणकी आराधना करो। यह चराचर जगत् आपलोगोंकी भावना-संकल्पसे ही निर्मित है, इसे बिजलीकी तरह चंचल – क्षणभंगुर समझकर श्रीजनार्दनका पूजन करो। अहंकार विद्युत्की रेखाके समान व्यर्थ है, इसे कभी पास न आने दो। शरीर मृत्युसे जुड़ा हुआ है, जीवन भी चंचल है, धन राजा आदिसे प्राप्त होनेवाली बाधाओंसे परिपूर्ण है तथा सम्पतियाँ क्षणभंगुर हैं। माताओ ! क्या तुम नहीं जानतीं, आधी आयु तो नींदमें चली जाती है? कुछ आयु भोजन आदिमें समाप्त हो जाती है। कुछ बालकपनमें, कुछ बुढ़ापेमें और कुछ विषय-भोगोंके सेवनमें ही बीत जाती है; फिर कितनी आयु लेकर तुम धर्म करोगी। बचपन और बुढ़ापेमें तो भगवान् के पूजनका अवसर नहीं प्राप्त होता; अतः इसी अवस्थामें अहंकारशून्य होकर धर्म करो। संसाररूपी भयंकर में गिरकर नष्ट न हो जाओ। यह शरीर मृत्युका घर है तथा आपत्तियोंका सर्वश्रेष्ठ स्थान है; इतना ही नहीं, यह रोगोंका भी निवासस्थान है और मल आदिसे भी अत्यन्त दूषित रहता है माताओ ! फिर किसलिये इसे स्थिर समझकर तुम पाप करती हो। यह संसार निःसार है और नाना प्रकारके दुःखोंसे भरा है। इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि एक दिन तुम्हारा निश्चय ही नाश होनेवाला है। बान्धवो! तुम सब लोग सुनो। हम बिलकुल सच्ची बात बता रही हैं। शरीरका नाश बिलकुल निकट है; अतः श्रीजनार्दनका पूजन अवश्य करना चाहिये। सदा ही श्रीविष्णुकी आराधना करते रहो। यह मानव जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। बन्धुओ स्थावर आदि योनियोंमें अरबों-खरबों बार भटकनेके बाद किसी तरह मनुष्यका शरीर प्राप्त होता है। मनुष्य होनेपर भी देवताओंके पूजन और दानमें मन लगना तो और भी कठिन है। माताओ! योगबुद्धि सबसे दुर्लभ है जो दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर सदा ही श्रीहरिकापूजन नहीं करता, वह आप ही अपना विनाश करता है। उससे बढ़कर मूर्ख कौन होगा? तुमलोग दम्भका आचरण छोड़कर चक्रसुदर्शनधारी भगवान् विष्णुकी पूजा करो। हमलोग बारंबार भुजाएँ उठाकर तुम्हारे हितकी बात कहती हैं सर्वथा भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये और मनुष्योंके साथ ईर्ष्याका भाव छोड़ देना चाहिये। सबके धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् अच्युतकी आराधना किये बिना संसार-सागरमें डूबे हुए तुम सब लोग कैसे पार जाओगे? माताओ! अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता ? हमारी यह बात सुनो-जो प्रतिदिन तन्मय होकर भगवान् गोविन्दके गुणोंका गान तथा नामोंका संकीर्तन सुनते हैं, उन्हें वेदोंसे, तपस्यासे, शास्त्रोक्त दक्षिणावाले यज्ञोंसे, पुत्र और स्त्रियोंसे, संसारके कृत्योंसे तथा घर, खेत और बन्धु बान्धवोंसेक्या लेना है? इसलिये तुमलोग भय छोड़कर श्रीकेशवकी आराधना करो। शालग्रामशिलाका निर्मल एवं शुद्ध चरणामृत पीओ तथा भगवान् विष्णुके एकादशीको उपवास किया करो। दिन जब सूर्य मकरराशिपर स्थित हों, उस समय प्रतिदिन प्रात:काल स्नान करो; साथ ही पतिकी सेवामें लगी रहो। नरकका भय तो तुम्हें दूरसे ही छोड़ देना चाहिये; क्योंकि सब पापोंका नाश करनेवाली परम पवित्र एकादशी तिथि प्रत्येक पक्षमें आती है। फिर तुम्हें नरकसे भय क्यों हो रहा है? घरसे बाहरके जलमें स्नान करनेसे पुण्य प्रदान करनेवाला माघमास भी प्रतिवर्ष आया करता है । फिर तुम्हें नरकसे भय क्यों होता है। वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! वे कन्याएँ अपनी माताओंसे इस प्रकार कहकर पुनः माघस्नान, उपवास आदि व्रत, धर्म तथा दान करने लगीं।

अध्याय 237 महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! माघस्नान और उपवास आदि महान् पुण्य करनेवाले मनुष्य इसी प्रकार दिव्य लोकोंमें जाते-आते रहते हैं। पुण्य ही सर्वत्र आने-जाने में कारण है। पूर्वकालमें विप्रवर पुष्कर भी यमलोकमें गये थे और वहाँ बहुत-से नारकीय जीवोंको नरकसे निकालकर फिर यहीं आ पूर्वक अपने घरमें रहने लगे। त्रेतायुगमें जब भगवान् श्रीरामचन्द्रजी राज्य करते थे, तभी एक समय किसी ब्राह्मणका पुत्र मरकर यमलोकमें गया और पुनः वह जी उठा। क्या यह बात तुमने नहीं सुनी है ? देवकीनन्दन श्रीकृष्णने अपने गुरु सान्दीपनिके पुत्रको, जिसे बहुत दिन पहले ही ग्राहने अपना ग्रास बना लिया था, पुनः यमलोकसे ले आकर गुरुको अर्पण किया था। इसी प्रकार और भी कई मनुष्य यमलोकसे लौट आये हैं। इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये। अच्छा बताओ, अब और क्या सुनना चाहते हो?

दिलीपने पूछा- मुने! पुष्कर नामक श्रेष्ठब्राह्मण कहाँके रहनेवाले थे? वे कैसे यमलोक में आये और किस प्रकार उन्होंने नरकसे पापियोंका उद्धार किया?

वसिष्ठजी बोले – राजन्! मैं महात्मा पुष्करके चरित्रका वर्णन करता हूँ। वह सब पापका नाश करनेवाला है। तुम सावधान होकर सुनो। बुद्धिमान् पुष्कर नन्दिग्रामके निवासी थे। वे सदा अपने धर्मके अनुष्ठानमें लगे रहनेवाले और सब प्राणियोंके हितैषी थे। सदा माघस्नान और स्वाध्यायमें तत्पर रहते तथा समयपर अनन्यभावसे श्रीविष्णुकी आराधना किया करते थे। महायोगी पुष्कर अपने कुटुम्बके साथ रहते और नित्य अग्निहोत्र करते थे। राजन्, वे अप्रमेय! हरे ! विष्णो! कृष्ण ! दामोदार ! अच्युत ! गोविन्द ! अनन्त ! देवेश्वर ! इत्यादि रूपसे केवल भगवन्नामोंका कीर्तन करते थे । महामते ! देवताका आराधन छोड़कर और किसी काममें उन ब्राह्मण देवताका मन स्वप्नमें भी नहीं था। एक दिन सूर्यनन्दन यमराजने अपनेभयंकर दूतोंको आज्ञा दी जाओ, नन्दिग्रामनिवासी पुष्कर नामक ब्राह्मणको यहाँ पकड़ ले आओ।’ यह आदेश सुनकर और यमराजके बताये हुए पुष्करको न पहचानकर वे इन महात्मा पुष्करको ही यमलोकमें पकड़ लाये। ब्राह्मण पुष्करको आते देख यमराज मन-ही-मन भयभीत हो गये और आसनसे उठकर खड़े हो गये। फिर मुनिको आसनपर बिठाकर उन्होंने दूतोंको फटकारा ‘तुमलोगोंने यह क्या किया? मैंने तो दूसरे पुष्करको लानेके लिये कहा था। तुमलोगोंके कितने पापपूर्ण विचार हैं। भला, इन सब धर्मोके ज्ञाता, विशेषतः भगवान् विष्णुके भक्त, सदा माघस्नान करनेवाले और उपवासपरायण महात्मा पुरुषको यहाँ मेरे समीप क्यों ले आये ?’

दूतोंको इस प्रकार डाँट बताकर प्रेतराज यमने पुष्करसे कहा- ‘ब्रह्मन्। तुम्हारे पुत्र और स्त्री आदि सब बन्धव बहुत व्याकुल होकर रो रहे हैं अतः तुम भी अभी जाओ।’ तब पुष्करने यमसे कहा- ‘भगवन् ! जहाँ पापी पुरुष यातनामय शरीर धारण करके कष्ट भोगते हैं, उन सब नरकोंको मैं देखना चाहता हूँ। यह सुनकर सूर्यकुमार यमने पुष्करको सैकड़ों और हजारों नरक दिखलाये पुष्करने देखा, पापी जीव नरकोंमें पड़कर बड़ा कष्ट भोगते हैं। कोई शूलीपर चढ़े हैं, किन्हींको व्याघ्र खा रहा है, जिससे वे अत्यन्त दुःखित हैं। कोई तपी हुई बालूपर जल रहे हैं किन्हींको कीड़े खा रहे हैं। कोई जलते हुए घड़ेमें डाल दिये गये हैं। कोई कीड़ोंसे पीड़ित हैं। कोई असिपत्रवनमें दौड़ रहे हैं, जिससे उनके अंग छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। किन्हींको आरोंसे चीरा जा रहा है। कोई कुल्हाड़ोंसे काटे जाते हैं। किन्हींको खारी कीचड़में कष्ट भोगना पड़ता है। किन्हींको सूई चुभो चुभोकर गिराया जाता है और कोई सर्दीसे पीड़ित हो रहे हैं। उनको तथा अन्य जीवोंकों नरकमें पड़कर यातना भोगते देख पुष्करको बड़ा दुःख हुआ। वे उनसे बोले-‘क्या आपलोगोंने पूर्वजन्ममें कोई पुण्य नहीं किया था, जिससे यहाँ यातनामें पड़क आप सदा दुःख भोगते हैं?’ नरकके जीवोंने कहा – विप्रवर! हमने पृथ्वीप कोई पुण्य नहीं किया था। इसीसे इस बातनामें पड़क जलते और बहुत कष्ट उठाते हैं। हमने परायी स्त्रियोंअनुराग किया, दूसरोंके धन चुराये, अन्य जीवोंकी हिंसा की बिना अपराध ही दूसरोंपर लांछन लगाये, ब्राह्मणोंकी निन्दा की और जिनके भरण-पोषणका भार अपने ऊपर था, उनके भोजन किये बिना ही हम सबसे पहले भोजन कर लेते थे। इन्हीं सब पापोंके कारण हमलोग इस नरकाग्निमें दग्ध हो रहे हैं। प्यासी गौएँ जब जलकी ओर दौड़ती हुई जातीं, तो हम सदा उनके पानी पीनेमें विघ्न डाल दिया करते थे। गौओंको कभी खिलाते-पिलाते नहीं थे, तो भी उनका दूध दुहकर पेट पालनेमें लगे रहते थे। याचकोंको दान देनेमें लगे हुए धार्मिक पुरुषोंके कार्यमें रोड़े अटकाया करते थे। अपनी स्त्रियोंको त्याग दिया था। व्रतसे भ्रष्ट हो गये थे। दूसरेके अन्नमें ही सदा रुचि रखते थे। पर्वोपर भी स्त्रियोंके साथ रमण करते थे। ब्राह्मणोंको देनेकी प्रतिज्ञा करके भी लोभवश उन्हें दान नहीं दिया। हम धरोहर हड़प लेते थे, मित्रोंसे द्रोह करते तथा झूठी गवाही देते रहते थे। इन्हीं सब पापोंके कारण आज हम दग्ध हो रहे हैं।

पुष्करने कहा- क्या आपलोगोंने भगवान् जनार्दनका एक बार भी पूजन नहीं किया ? इसीसे आप ऐसी भयानक दशाको पहुँचे हैं। जिन्होंने समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तमका पूजन किया है, उन मनुष्योंका मोक्षतक हो सकता है; फिर पापक्षयकी तो बात ही क्या है? प्रायः आपलोगोंने श्रीपुरुषोत्तमके चरणोंमें मस्तक नहीं झुकाया है। इसीसे आपको इस अत्यन्त भयंकर नरककी प्राप्ति हुई है। अब यहाँ हाहाकार करनेसे क्या लाभ? निरन्तर भगवान् श्रीहरिका स्मरण कीजिये । वे श्रीविष्णु समस्त पापोंका नाश करनेवाले हैं। मैं भी यहाँ जगदीश्वरके नामोंका कीर्तन करता हूँ। वे नाम निश्चय ही आपका कल्याण करेंगे।

नरकके जीवोंने कहा- ब्रह्मन् ! हमारा अन्तःकरण अपवित्र है। हम अपने पापसे सन्तप्त हैं। ऐसे समय में आपके शरीरको छूकर बहनेवाली वायु हमें परम आनन्द प्रदान करती है। धर्मात्मन्! आप कुछ देरतक यहाँ ठहरिये, जिससे हम दुःखी जीवोंको क्षणभर भी तो सुख मिल सके। ब्रह्मन्! आपके दर्शनसे भी हमें बड़ा सन्तोष होता है अहो हम पापी जीवोंपरभी आपकी कितनी दया है। यमराजने कहा – धर्मके ज्ञाता पुष्कर! तुमने नरक देख लिये। अब जाओ। तुम्हारी पत्नी दुःख और शोकमें डूबकर रो रही है।

पुष्कर बोले- भगवन् ! जबतक इन दुःखी जीवोंकी आवाज कानोंमें पड़ती है, तबतक कैसे जाऊँ जानेपर भी वहाँ मुझे क्या सुख मिलेगा? आपके किंकरोंकी मार खाकर जो आगके ढेरमें गिर रहे हैं, उन नारकीय जीवोंकी यह दिन-रातकी पुकार सुनिये। कितने ही जीवोंके मुखसे निकली हुई यह ध्वनि सुनायी देती है- ‘हाय! मुझे बचाओ, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।’ समस्त भूतोंके आत्मा और सबके ईश्वर सर्वव्यापी श्रीहरिकी मैं नित्य आराधना करता हूँ। इस सत्यके प्रभावसे नारकीय जीव तत्काल मुक्त हो जायँ । भगवान् विष्णु सबमें स्थित हैं और सब कुछ भगवान् विष्णुमें स्थित है। इस सत्यसे नारकीय जीवोंका तुरंत क्लेशसे छुटकारा हो जाय। हे कृष्ण! हे अच्युत ! हे जगन्नाथ ! हे हरे ! हे विष्णो! हे जनार्दन यहाँ नरकके भीतर यातनामें पड़े हुए इन सब जीवोंकी रक्षा कीजिये पुष्करके द्वारा उच्चारित भगवान्‌के नाम सुनकर वहाँ नरकमें पड़े हुए सभी पापी तत्काल उससे छुटकारापा गये। वे सब बड़ी प्रसन्नताके साथ पुष्करसे बोले ‘ब्रह्मन् ! हम नरकसे मुक्त हो गये। इससे संसार में आपकी अनुपम कीर्तिका विस्तार हो।’ यमराजको भी इस घटनासे बड़ा विस्मय हुआ। वे पुष्करके पास जा प्रसन्नचित्त होकर वरदानके द्वारा उन्हें सन्तुष्ट करने लगे। वे बोले—’धर्मात्मन्! तुम पृथ्वीपर जाकर सदा वहीं रहो। तुम्हें और तुम्हारे सुहृदोंको भी मुझसे कोई भय नहीं है। जो मनुष्य तुम्हारे माहात्म्यका प्रतिदिन स्मरण करेगा, उसे मेरी कृपासे अपमृत्युका भय नहीं होगा। ‘

वसिष्ठजी कहते हैं- यमराजके यों कहनेपर पुष्कर पृथ्वीपर लौट आये और यहाँ पूर्ववत् स्वस्थ हो भगवान् मधुसूदनकी पूजा करते हुए रहने लगे। राजन्! मेरे द्वारा कहे हुए महात्मा पुष्करके इस माहात्म्यको जो सुनता है, उसके सारे पापोंका नाश हो जाता है। भगवान् विष्णुका नाम-कीर्तन करनेसे जिस प्रकार नरकसे भी छुटकारा मिल जाता है, वह प्रसंग मैंने तुम्हें सुना दिया आदिपुरुष परमात्माके नामोंकी थोड़ी सी भी स्मृति संचित पापोंकी राशिका तत्काल नाश कर देती है, यह बात प्रत्यक्ष देखी गयी है। फिर उन जनार्दनके नामोंका भलीभाँति कीर्तन करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति होगी, इसके लिये तो कहना ही क्या है।”

अध्याय 238 मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म

राजा दिलीप बोले- मुने! मेरे प्रश्नोंके उत्तरमें आपने बड़ी विचित्र बात सुनायी। अब संसारके हितके लिये महात्मा मृगंग शेष चरित्रका वर्णन कीजिये: क्योंकि उनके समान संतपुरुष स्पर्श, बातचीत और दर्शन करनेसे तथा शरणमें जानेसे सारे पापका नाश कर डालते हैं।

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! ब्रह्मचारी मृगशृंगने गुरुकुलमें रहकर सम्पूर्ण वेदों और दर्शनोंका यथावत् अध्ययन किया। फिर गुरुकी बतायी हुई दक्षिणा दे, समावर्तनको विधि पूरी करके शुद्ध चित्त होनेपर उन्हें गुरुने घर जानेकी आज्ञा दी। घर आनेपर कुत्स मुनिके उस पुत्रको उचथ्यने अपनी पुत्री देनेका विचार कियातथा मुनीश्वर मृगश्रृंगने भी पहले जिसे मन-ही-मन वरण किया था, उस उचथ्य-पुत्री सुवृत्ताके साथ विवाह करनेकी इच्छा की। इसके बाद उन्होंने महर्षि वेदव्यासजीकी आज्ञासे सुवृत्ता तथा उसकी तीनों सखियों-कमला, विमला और सुरसाका पाणिग्रहण किया।

श्रुति कहती है- ‘ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह सबसे उत्तम है।’ इसलिये मुनिने उन चारों कन्याओंको ब्राह्म विवाहकी ही रीतिसे ग्रहण किया। इस प्रकार विवाह हो जानेपर मुनिवर वत्सने समस्त ऋषियोंको मस्तक झुकाया तथा वे मुनीश्वर भी वर-वधूको आशीर्वाद दे उनसे पूछकर अपनी-अपनी कुटीमें चले गये

राजा दिलीपने पूछा- गुरुदेव वसिष्ठजी ! चारोंवर्णोंके विवाह कितने प्रकारके माने गये हैं? यह बात यदि गोपनीय न हो तो मुझे भी बताइये। वसिष्ठजी बोले – राजन्! सुनो, मैं क्रमश: तुमसे सभी विवाहका वर्णन करता हूँ। विवाह आठ प्रकार के हैं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच। जहाँ वरको बुलाकर वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित कन्याका [विधिपूर्वक] दान किया जाता है, वह ब्राह्म विवाह कहलाता है। ऐसे विवाहसे उत्पन्न होनेवाला पुत्र इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करता है। यज्ञ करनेके लिये ऋषिको जो कन्या दी जाती है, वह दैव विवाह है। उससे उत्पन्न होनेवाला पुत्र चौदह पीढ़ियोंका उद्धार करता है। वरसे दो बैल लेकर जो कन्याका दान किया जाता है, वह आर्ष विवाह है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। ‘दोनों एक साथ रहकर धर्मका आचरण करें’ यों कहकर जो किसी माँगनेवाले पुरुषको कन्या दी जाती है, वह प्राजापत्य विवाह कहलाता है। उससे उत्पन्न हुआ पुत्र भी छः पीढ़ियोंका उद्धार करता है। ये चार विवाह ब्राह्मणोंके लिये धर्मानुकूल माने गये हैं जहाँ धनसे कन्याको खरीदकर विवाह किया जाता है, वह आसुर विवाह है। वर और कन्यामें परस्पर मैत्रीके कारण जो विवाह सम्बन्ध स्थापित होता है, उसका नाम गान्धर्व है। बलपूर्वक कन्याको हर लाना राक्षस विवाह है। सत्पुरुषोंने इसकी निन्दा की है। छलपूर्वक कन्याका अपहरण करके किये जानेवाले विवाहको पैशाच कहते हैं। यह बहुत ही घृणित है। समान वर्णकी कन्याओंके साथ विवाहकालमें उनका हाथ अपने हाथमें लेना चाहिये, यही विधि है। धर्मानुकूल विवाहोंसे सौ वर्षतक जीवित रहनेवाली धार्मिक सन्तान उत्पन्न होती है तथा अधर्ममय विवाहों से जिनकी उत्पत्ति होती है, वे भाग्यहीन, निर्धन और थोड़ी आयुवाले होते हैं; अतः ब्राह्मणोंके लिये ब्राह्म विवाह ही श्रेष्ठ है।

इस प्रकार मुनीश्वर मृगशृंग विधिपूर्वक विवाह करके वेदोक्त मार्गसे भलीभाँति गार्हस्थ्य-धर्मका पालन करने लगे। उनकी गृहस्थीके समान दूसरे किसीकी गृहस्थी न कभी हुई है, न होगी। सुवृत्ता, कमला, विमला और सुरसा – ये चारों पत्नियाँ पातिव्रत्य धर्ममेंतत्पर हो सदा पतिकी सेवामें लगी रहती थीं। उनके सतीत्वकी कहीं तुलना नहीं थी। इस प्रकार वे धर्मात्मा मुनि उन धर्मपत्नियोंके साथ रहकर भलीभाँति धर्मका अनुष्ठान करने लगे।

राजा दिलीपने पूछा- मुनिवर ! पतिव्रताका क्या लक्षण है? तथा गृहस्थ आश्रमका भी क्या लक्षण है ? मैं इस बातको जानना चाहता हूँ। कृपया बताइये।

वसिष्ठजी बोले- राजन्! सुनो, मैं गृहस्थाश्रमका लक्षण बतलाता हूँ। सदाचारका पालन करनेवाला पुरुष दोनों लोक जीत लेता है। ब्राह्म मुहूर्तमें शयनसे उठकर पहले धर्म और अर्थका चिन्तन करे। फिर अर्थोपार्जनमें होनेवाले शारीरिक क्लेशपर विचार करके मन-ही-मन परमेश्वरका स्मरण करे। धनुषसे छूटनेपर एक बाण जितनी दूततक जाता है, उतनी दूरकी भूमि लाँघकर घरसे दूर नैर्ऋत्य कोणकी ओर जाय और वहाँ मल

मूत्रका त्याग करे। दिनको और सन्ध्याके समय कानपर जनेऊ चढ़ाकर उत्तरकी ओर मुँह करके शौचके लिये बैठना चाहिये और रात्रिमें दक्षिण दिशाकी ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। मलत्यागके समय भूमिको तिनकेसे ढँक दे और अपने मस्तकपर वस्त्र डालकर यत्नपूर्वक मौन रहे। न तो थूके और न ऊपरको साँस ही खींचे। शौचके स्थानपर अधिक देरतक न रुके। मलकी ओर दृष्टिपात न करे। अपने शिश्नको हाथसे पकड़े हुए उठे और अन्यत्र जाकर आलस्यरहित हो गुदा और लिंगको अच्छी तरह धो डाले। किनारेकी मिट्टी लेकर उससे इस प्रकार अंगोंकी शुद्धि करे, जिससे मलकी दुर्गन्ध और लेप दूर हो जाय। किसी पवित्र तीर्थमें शौचकी क्रिया (गुदा आदि धोना) न करे; यदि करना हो तो किसी पात्रमें जल निकालकर उससे अलग जाकर शौच कर्म करे। लिंगमें एक बार, गुदामें पाँच बार तथा बायें हाथमें दस बार मिट्टी लगाये। दोनों पैरोंमें पाँच-पाँच बार मिट्टी लगाकर धोये। इस प्रकार शौच करके मिट्टी और जलसे हाथ-पैर धोकर चोटी बांध ले और दो बार आचमन करे। आचमनके समय हाथ घुटनोंके भीतर होना चाहिये। पवित्र स्थानमें उत्तर या पूरबकी ओर मुँह करके हाथमें पवित्री धारण किये आचमन करनाचाहिये। इससे पवित्री जूठी नहीं होती। यदि पवित्री पहने हुए ही भोजन कर ले तो वह अवश्य जूठी हो जाती है। उसको त्याग देना चाहिये।

तदनन्तर उठकर दोनों नेत्र धो डाले और दन्तधावन (दातुन) करे। उस समय निम्नांकित मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः शुचि

ब्रह्मप्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते

(233 । 17)

‘वनस्पते! आप हमें आयु, बल, यश, तेज, सन्तान, पशु, धन, वेदाध्ययनकी बुद्धि तथा धारणाशक्ति प्रदान करें।’
इस मन्त्रका पाठ करके दातुन करे। दातुन काँटेदार या दूधवाले वृक्षकी होनी चाहिये। उसकी लंबाई बारह अंगुलकी हो और उसमें कोई छेद न हो। मोटाई भी कनिष्ठिका अँगुलीके बराबर होनी चाहिये। रविवार को दातुन निषिद्ध है, उस दिन बारह कुल्ललोंसे मुखकी शुद्धि होती है। तत्पश्चात् आचमन करके शुद्ध हो विधिपूर्वक प्रातः स्नान करे। स्नानके बाद देवता और पितरोंका तर्पण करे। फिर उठकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करे। विज्ञ ब्राह्मणको उत्तरीय वस्त्र (चादर) सदा ही धारण किये रहना चाहिये। आचमनके बाद भस्मके द्वारा ललाटमें त्रिपुण्ड्र धारण करे अथवा गोपीचन्दन घिसकर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक लगाये। तदनन्तर सन्ध्या-वन्दन आरम्भ करके प्राणायाम करे । ‘आपो हि ष्ठा0’ आदि तीन ऋचाओंसे कुशोदकद्वारा मार्जन करे। पूर्वोक्त ऋचाओं में से एक एकका प्रणवसहित उच्चारण करके जल सींचे। फिर ‘सूर्यश्च0’ इत्यादि मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंमें जल लेकर उसे गायत्रीसे अभिमन्त्रित करे और सूर्यकी ओर मुँह करके खड़ा हो तीन बार ऊपरको वह जल फेंके। इस प्रकार सूर्यको अर्घ्यदान करना चाहिये। प्रातः कालकी सध्या जब तारे दिखायी देते हो, उसी समय विधिपूर्वक आरम्भ करे और जबतक सूर्यका दर्शन न हो जाय, तबतक गायत्री मन्त्रका जप करता रहे। इसके बाद सविता देवता सम्बन्धी पापहारी मन्त्रद्वारा हाथ जोड़कर सूर्योपस्थान करे। सन्ध्याकालमें गुरुके चरणोंको तथाभूमिदेवीको प्रणाम करे जो द्विज श्रद्धा और विधिके साथ प्रतिदिन सन्ध्योपासन करता है, उसे तीनों लोकों में कुछ भी अप्राप्य नहीं । सन्ध्या समाप्त होनेपर आलस्य छोड़कर होम करे कोई भी दिन खाली न जाने दे। प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करे।

यह दिनके प्रथम भागका कृत्य बतलाया गया। दूसरे भागमें वेदोंका स्वाध्याय किया जाता है। समिधा, फूल और कुश आदिके संग्रहका भी यही समय है। दिनके तीसरे भागमें न्यायपूर्वक कुछ धनका उपार्जन करे। शरीरको क्लेश दिये बिना दैवेच्छासे जो उपलब्ध हो सके, उतनेका ही अर्जन करे। ब्राह्मणके छः कर्मोंमेंसे तीन कर्म उसकी जीविकाके साधन हैं। यज्ञ कराना, वेद पढ़ाना और शुद्ध आचरणवाले यजमानसे दान लेना ये ही उसकी आजीविकाके तीन कर्म हैं। दिनके चौथे भागमें पुनः स्नान करे। [ प्रातःकाल सन्ध्या-वन्दनके पश्चात्] कुशके आसनपर बैठे और दोनों हाथोंमें कुश ले अंजलि बाँधकर ब्रह्मयज्ञकी पूर्तिके लिये यथाशक्ति स्वाध्याय करे। उस समय ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद और यजुर्वेदके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। फिर देवता, ऋषि और पितरोंका तर्पण करे। देवताओंका तर्पण करते समय यज्ञोपवीतको बायें कंधेपर रखे, ऋषि तर्पणके समय उसे गलेमें मालाकी भाँति कर ले और पितृ तर्पणमें जनेऊको दायें कंधेपर रखे। उन्हें क्रमशः देवतीर्थ, प्रजापतितीर्थ और पितृतीर्थसे ही जल देना चाहिये। इसके बाद सम्पूर्ण भूतोंको जल दे। [मध्याहनकालमें] ‘आपो हि ष्ठा0’ इस मन्त्रसे अपने मस्तकको सींचकर ‘आपः पुनन्तु’ इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये हुए जलका आचमन करे। तत्पश्चात् दोनों हाथोंसे जल लेकर गायत्री मन्त्र पढ़ते हुए सूर्यको एक बार अर्घ्य दे। उसके बाद गायत्रीका जप करे। गायत्री मन्त्रद्वारा यथाशक्ति सूर्यका उपस्थान करके उनकी प्रदक्षिणा और नमस्कारके पश्चात् आसनपर बैठे और जलके देवताओंको नमस्कार करके एकाग्रचित्त हो घरको जाय।

इस प्रकार जप यज्ञके अनन्तर देवताओंकी पूजा करे। ब्राह्मणको सूर्य, दुर्गा, श्रीविष्णु, गणेश तथा शिव-इन पाँच देवताओंको पूजा करनी चाहिये।उसके बाद पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान करे। फिर भूतबलि, काकबलि और कुक्कुरबलि आदि देते हुए निम्नांकित मन्त्रका पाठ करे

देवा पशवो मनुष्याः सिद्धाश्च

वयांसि यक्षोरगदैत्यसहाः प्रेताः

पिशाचा समस्ता मयात्र उरगाः ये

चान्नमिच्छन्ति दत्तम् ॥ (233 | 43)

‘देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सिद्ध, यक्ष, नाग, दैत्य, प्रेत, पिशाच और सब प्रकारके सर्प जो मुझसे अन्न लेनेकी इच्छा रखते हों, वे यहाँ आकर मेरे दिये हुए अन्नको ग्रहण करें।’

यों कहकर सब प्राणियोंके लिये पृथक् पृथक् बलि दे। तत्पश्चात् विधिपूर्वक आचमन करके प्रसन्नचित्त होकर द्वारपर बैठे और बड़ी श्रद्धाके साथ किसी अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे। गोदोहनकालतक प्रतीक्षा करनेके बाद यदि भाग्यवश कोई अतिथि आ जाय तो यथाशक्ति अन्न और जल देकर देवताकी भाँति उसकी भक्तिपूर्वक पूजा करे। संन्यासी और ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक सब व्यंजनोंसे युक्त रसोईमेंसे, जो अभी उपयोगमें न लायी गयी हो, अन्न निकालकर भिक्षा दे। संन्यासी और ब्रह्मचारी ये दोनों ही बनी हुई रसोईके स्वामी – प्रधान अधिकारी हैं। संन्यासीके हाथमें पहले जल दे, फिर अन्न दे; उसके बाद पुनः जल दे। ऐसा करनेसे वह भिक्षाका अन्न मेरुके समान और जल समुद्रके तुल्य फल देनेवाला होता है। जो मनुष्य संन्यासीको सत्कारपूर्वक भिक्षा देता है, उसे गोदानके समान पुण्य होता है-ऐसा भगवान् यमका कथन है। माता, पिता, गुरु, बन्धु, गर्भिणी स्त्री, वृद्ध, बालक और आये हुए अतिथि जब भोजन कर लें, उसके बाद घरका मालिक गृहस्थ पुरुष लिये पुते पवित्र स्थानमें हाथ-पैर धोकर बैठे और पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे। भोजन करते समय वाणीको संयममें रखकर मौन रहे। दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख-इन पाँचोंको धोकर ही भोजन करना चाहिये। भोजनका पात्र उत्तम और शुद्ध होना चाहिये। अन्नकी निन्दा न करते हुए भोजन करना उचित है। एक वस्त्र धारण करके अथवा फूटे हुए पात्रमें भोजन न करे। जो शुद्ध काँसेके बरतन में अकेला ही भोजन करता है, उसकी आयु, बुद्धि, यश और बल इन चारोंकी वृद्धि होती है। घी, अन्न तथा सभी प्रकारके व्यंजन करछुलसे ही परोसने चाहिये हाथसे नहीं। भोजनमें से पहले कुछ अन्न निकालकर धर्मराज तथा चित्रगुप्तको बलि दे फिर सम्पूर्ण भूतोंके लिये अन्न देते हुए इस मन्त्रका उच्चारण करे

यत्र क्वचनसंस्थानां क्षुत्तृष्णोपहतात्मनाम् ।

भूतानां तृप्तयेऽक्षय्यमिदमस्तु यथासुखम् ॥

(233 | 56)

‘जहाँ कहीं भी रहकर भूख-प्याससे पीड़ित हुए प्राणियोंकी तृप्तिके लिये यह अन्न और जल प्रस्तुत है;
यह उनके लिये सुखपूर्वक अक्षय तृप्तिका साधन हो।’ भोजनमें मन लगाकर पहले मधुर रस ग्रहण करे, बीचमें नमकीन और खट्टी वस्तुएँ खाय। उसके बाद कड़वे और तिक्त पदार्थोंको ग्रहण करे। पहले रसदार चीजें खाय, बीचमै गरिष्ठ अन्न भोजन करे और अन्तमें पुनः द्रव पदार्थ ग्रहण करे। इससे मनुष्य कभी बल और आरोग्यसे हीन नहीं होता। संन्यासीको आठ ग्रास, वनवासीको सोलह ग्रास और गृहस्थको बत्तीस ग्रास भोजन करने चाहिये ब्रह्मचारीके लिये ग्रासोंको कोई नियत संख्या नहीं है। द्विजको उचित है कि वह शास्त्र विरुद्ध भक्ष्यभोज्यादि पदार्थोंका सेवन न करे। सूखे और बासी अन्नको भोजन करनेके योग्य नहीं बतलाया गया है। भोजनके पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे आचमन करके एकाग्रचित्त हो हाथ और मुँहकी शुद्धि करे। मिट्टी और जलसे खूब मल-मलकर धोये। तदनन्तर कुल्ला करके दाँतोंके भीतरी भागका उनकी सन्धियोंका [तिनके आदिकी सहायतासे] शोधन करे। फिर आचमन करके पात्रको हटा दे और कुछ भीगे हुए हाथसे मुख तथा नासिकाका स्पर्श करे। हथेलीसे नाभिका स्पर्श करे। तत्पश्चात् शुद्ध एवं शान्तचित्त होकर आसनपर बैठे और अपने इष्टदेवका स्मरण करे। उसके बाद पुनः आचमन करके ताम्बूल भक्षण करे। भोजन करके बैठा हुआ पुरुष विश्रामके बाद कुछ देरतक ब्रह्मका चिन्तन करे। दिनके छठे और सातवें भागको सन्मार्ग आदिके अविरुद्ध उत्तम शास्त्र आदिके द्वारा मनोरंजनऔर इतिहास पुराणों का पाठ करके व्यतीत करे आठवें 1 भागमें जीविकाके कार्यमें संलग्न रहे। उसके बाद पुनः बाह्य सन्ध्या- सायं सन्ध्याका समय हो जाता है।

जब सूर्य अस्ताचलके शिखर पर पहुँच जायें तब हाथ-पैर धोकर हाथमें कुश ले एकाग्रचित्त हो सायंकालीन सन्ध्योपासना करे सूर्यके रहते-रहते ही पश्चिम सन्ध्या प्रारम्भ करे। उस समय सूर्यका आधा 1 मण्डल ही अस्त होना चाहिये। प्राणायाम करके जल- देवता-सम्बन्धी मन्त्रोंसे मार्जन करे। सायंकालमें ‘अग्निश्च मा मन्युश्च0’ इत्यादि मन्त्रके द्वारा और सबेरे ‘सूर्यश्च मा मन्युश्च0’ इत्यादि मन्त्रके द्वारा आचमन करे। सायंसन्ध्या पश्चिमाभिमुख बैठकर मौन तथा एकाग्रचित्त हो रुद्राक्षकी माला से तारोंके उदय होनेतक प्रणव और व्याहृतियाँसहित गायत्री मन्त्रका जप करे फिर वरुण देवतासम्बन्धिनी ऋचाओंसे सूर्योपस्थान करके प्रदक्षिणा करते हुए प्रत्येक दिशा और दिक्पालको पृथक् पृथक् नमस्कार करे। इस प्रकार सायंकालकी सन्ध्योपासना करके अग्निहोत्र करनेके पश्चात् कुटुम्बके अन्य लोगोंके साथ भोजन करे। भोजनकी मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिये। भोजनके कुछ काल बाद शयन करे। सायंकाल और प्रातः कालमें भी बलिवैश्वदेव करना चाहिये। स्वयं भोजन न करना हो तो भी बलिवैश्वदेवका अनुष्ठान सदा ही करे; अन्यथा पापका भागी होना पड़ता है। यदि घरपर कोई अतिथि आ जाय तो गृहस्थ पुरुष अपनी शक्तिके अनुसार उसका यथोचित सत्कार करे।रातमें भोजनके पश्चात् हाथ-पैर आदि धोकर गृहस्थ मनुष्य कोमल शय्यापर सोनेके लिये जाय। शय्यापर तकियेका होना आवश्यक है। अपने घरमें सोना हो तो पूर्व दिशाकी ओर सिरहाना करे और ससुरालमें सोना हो तो दक्षिण दिशाकी ओर। परदेशमें गया हुआ मनुष्य पश्चिम दिशाकी ओर सिर करके सोये। उत्तरकी ओर सिरहाना करके कभी नहीं सोना चाहिये। सोनेके पहले रात्रिसूक्तका जप और सुखपूर्वक शयन करनेवाले देवताओंका स्मरण करे। फिर एकाग्रचित्त होकर अविनाशी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके रात्रिमें शयन करे। अगस्त्य, माधव, महाबली मुचुकुन्द, कपिल तथा आस्तीक मुनि-ये पाँचों सुखपूर्वक शयन करनेवाले हैं। मांगलिक वस्तुओंसे भरे हुए जलपूर्ण कलशको सिरहानेकी ओर रखकर वरुण देवता-सम्बन्धी वैदिक मन्त्रोंसे अपनी रक्षा करके सोये ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम करे। सदा अपनी स्त्रीसे ही अनुराग रखे। पत्नीके स्वीकार करनेपर रतिकी इच्छासे उसके पास जाय। पर्वके दिन उसका स्पर्श न करे। रात्रिके पहले और पिछले प्रहरको वेदाभ्यासमें व्यतीत करे और बीचके दोनों प्रहरोंमें शयन करे। ऐसा करनेवाला पुरुष ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। ऊपर जो कुछ बतलाया गया, वह सारा कर्म गृहस्थको प्रतिदिन करना चाहिये। यही गृहस्थाश्रमका लक्षण है। सम्पूर्ण वेदोक्त सदाचारसे युक्त यह गृहस्थ आश्रमका लक्षण मैंने तुम्हें संक्षेपसे बताया है। अब पतिव्रताओंके लक्षण सुनो।

अध्याय 239 पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! मैं सतियोंके उत्तम व्रतका वर्णन करता हूँ, सुनो। पति कुरूप हो या दुराचारी, अच्छे स्वभावका हो या बुरे स्वभावका, रोगी, पिशाच, क्रोधी, बूढ़ा, चालाक, अंधा, बहरा, भयंकर स्वभावका दरिद्र, कंजूस, घृणित, कायर, धूर्त अथवा परस्त्रीलम्पट ही क्यों न हो, सती-साध्वी स्त्रीके लिये वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा देवताकी भाँति पूजनीय है। स्त्रीको कभी किसी प्रकार भी अपने स्वामीके साथ अनुचित बर्ताव नहीं करना चाहिये स्त्री बालिका हो या युवती अथवा वृद्धा ही क्यों न हो, उसे अपने घरपरभी कोई काम स्वतन्त्रतासे नहीं करना चाहिये । अहंकार और काम-क्रोधका सदा ही परित्याग करके केवल अपने पतिका ही मनोरंजन करना उचित है, दूसरे पुरुषका नहीं। परपुरुषोंके कामभावसे देखनेपर, प्रिय लगनेवाले वचनद्वारा प्रलोभनमें डालनेपर अथवा जनसमूहमें दूसरोंके शरीरसे छू जानेपर भी जिसके मनमें कोई विकार नहीं होता तथा जो परपुरुषद्वारा धनका लोभ दिखाकर लुभायी जानेपर भी मन, वाणी, शरीर और क्रियासे कभी पराये पुरुषका सेवन नहीं करती, वही सती है। वह सम्पूर्ण लोकोंकी शोभा है। सती स्त्री दूतमुखसे प्रार्थना करनेपर, बलपूर्वक पकड़ी जानेपर भी व दूसरे पुरुषका सेवन नहीं करती। जो पराये पुरुषोंके देखनेपर भी स्वयं उनकी ओर नहीं देखती, हँसनेपर भी नहीं हँसती तथा औरोंके बोलनेपर भी स्वयं उनसे नहीं बोलती, वह उत्तम लक्षणोंवाली स्त्री साध्वी- पतिव्रता है। रूप और यौवनसे सम्पन्न तथा संगीतकी कलामें निपुण सती-साध्वी स्त्री अपने ही जैसे योग्य पुरुषको देखकर भी कभी मनमें विकार नहीं लाती। जो सुन्दर, तरुण, रमणीय और कामिनियोंको प्रिय लगनेवाले परपुरुषकी भी कभी इच्छा नहीं करती, उसे महासती जानना चाहिये। पराया पुरुष देवता, मनुष्य अथवा गन्धर्व कोई भी क्यों न हो, वह सती स्त्रियोंको प्रिय नहीं होता। पत्नीको कभी भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो पतिको अप्रिय जान पड़े। जो पतिके भोजन कर लेनेपर भोजन करती, उनके दुःखी होनेपर दुःखित होती, पतिके आनन्दमें ही आनन्द मानती उनके परदेश चले जानेपर मलिन वस्त्र धारण करती, पतिके सो जानेपर सोती और पहले ही जग जाती, पतिकी मृत्यु हो जानेपर उनके शरीरके साथ ही चितामें जल जाती और दूसरे पुरुषको कभी भी अपने मनमें स्थान नहीं देती, उस स्त्रीको पतिव्रता जानना चाहिये।

पतिव्रता स्त्रीको अपने सास-ससुर तथा पतिमें विशेष भक्ति रखनी चाहिये: वह धर्मके कार्यमें सदा पतिके अनुकूल रहे, धन खर्च करनेमें संयमसे काम ले, सम्भोगकालमें संकोच न रखे और अपने शरीरको सदा पवित्र बनाये रखे । पतिकी मंगल कामना करे, उनसे सदा प्रिय वचन बोले, मांगलिक कार्यमें संलग्न रहे, घरको सजाती रहे और घरकी प्रत्येक वस्तुको प्रतिदिन साफ-सुथरी रखनेकी चेष्टा करे। खेतसे, वनसे अथवा गाँवसे लौटकर जब पतिदेव घरपर आवे तो उठकर उनका स्वागत करे। आसन और जल देकर अभिनन्दन करे। वर्तन और अन्न साफ रखे। समयपर भोजन बनाकर दे। संयमसे रहे अनाजको छिपाकर रखे। घरको झाड़-बुहारकर स्वच्छ बनाये रखे। गुरुजन, पुत्र, मित्र, भाई-बन्धु, काम करनेवाले सेवक, अपने आश्रयमें रहनेवाले भृत्य, दास-दासी, अतिथि-अभ्यागत, संन्यासी तथा ब्रह्मचारी लोगोंको आसन और भोजन देने, सम्मानकरने और प्रिय वचन बोलनेमें तत्पर रहे। मुख्य गृहिणीको सदा ही समय-समयपर उपर्युक्त व्यक्तियोंकी यथोचित सेवाके कार्यमें दक्ष होना चाहिये। पति घरका खर्च चलानेके लिये अपनी पत्नीके हाथमें जो द्रव्य दे, उससे घरकी सारी आवश्यकता पूर्ण करके पत्नी अपनी बुद्धिके द्वारा उसमेंसे कुछ बचा ले। पतिने दान करनेके लिये जो धन दिया हो, उसमेंसे लोभवश कुछ बचाकर न रखे। स्वामीकी आज्ञा लिये बिना अपने बन्धुओंको धन न दे। दूसरे पुरुषसे वार्तालाप, असन्तोष, पराये कार्योंकी चर्चा अधिक हँसी, अधिक रोष और क्रोध उत्पन्न होनेके अवसरका सर्वथा त्याग करे। पतिदेव जो-जो पदार्थ न खायें, न पीयें और न मुँहमें डालें, यह सब पतिव्रता स्त्रीको भी छोड़ देना चाहिये। स्वामी परदेशमें हों तो स्त्रीके लिये तेल लगाकर नहाना, शरीरमें उबटन लगाना, दाँतोंमें मंजन लगाकर धोना, केशोंको संवारना, उत्तम पदार्थ भोजन करना, अधिक समयतक कहीं बैठना, नये-नये वस्त्रोंको पहनना और श्रृंगार करना निषिद्ध है। राजन् त्रेतासे लेकर प्रत्येक युगमें स्त्रियोंको प्रतिमास ऋतुधर्म होता है। उस समय पहले दिन चाण्डाल जातिकी स्त्रीके समान पत्नीका स्पर्श वर्जित है। दूसरे दिन वह ब्राह्मणकी हत्या करनेवाली स्त्रीके तुल्य अपवित्र मानी गयी है। तीसरे दिन उसे धोबिनके तुल्य बताया गया है। चौथे दिन स्नान करके वह शुद्ध होती है। रजस्वला स्त्री स्नान, शौच- जलसे होनेवाली शुद्धि, गाना, रोना, हँसना, यात्रा करना, अंगराग लगाना, उबटन लगाना, दिनमें सोना, दाँतन करना, मन या वाणीके द्वारा भी मैथुन करना तथा देवताओंका पूजन और नमस्कार करना छोड़ दे। पुरुषको भी चाहिये कि वह रजस्वला स्त्रीसे स्पर्श और वार्तालाप न करे तथा पूर्ण प्रयत्न करके उसके वस्त्रोंका भी संयोग न होने दे।

रजस्वला स्त्री स्नान करनेके पश्चात् पराये पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। सर्वप्रथम वह सूर्यदेवका दर्शन करे। उसके बाद अपने अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ब्रह्मकूर्च – पंचगव्यका अथवा केवल दूधका पान करे। साध्वी स्त्री नियमपूर्वक शास्त्रोक्त विधिके अनुसार जीवन व्यतीत करे। आभूषणोंसे विभूषित होकर परमपवित्र भावसे स्वामीके प्रिय तथा हित साधनमें संलग्न रहे। यदि स्त्री गर्भवती हो तो उसे नीचे लिखे हुए नियमोंसे रहना चाहिये। वह आत्मरक्षापूर्वक सुन्दर आभूषण धारण करके वास्तुपूजनमें तत्पर रहे। उसके मुखपर प्रसन्नता छायी रहे। बुरे आचार-विचारकी स्त्रियोंसे बातचीत न करे सूपकी हवासे बचकर रहे जिसके बच्चे हो होकर मर जाते हों अथवा जो वन्ध्या हो, ऐसी स्त्रीके साथ संसर्ग न करे गर्भिणी स्त्री दूसरेके घरका भोजन न करे। मनमें घृणा पैदा करनेवाली कोई वस्तु न देखे डरावनी कथा न सुने। भारी और अत्यन्त ” गरम भोजन न करे। पहलेका किया हुआ भोजन जबतक अच्छी तरह पच न जाय, दुबारा भोजन न करे। इस विधिसे रहनेपर साध्वी स्त्री उत्तम पुत्र प्राप्त करती है; अन्यथा या तो गर्भ गिर जाता है, या उसका निरोध हो जाता है पतिदेव जब किसी कार्यवश घरके भीतर प्रवेश करें, तो पतिव्रता स्त्री अंगराग आदिसे युक्त हो शुद्ध हृदयसे उनके पास जाय तरुणी, सुन्दरी, पुत्रवती, ज्येष्ठा अथवा कनिष्ठा-कोई भी क्यों न हो, परोक्षमें या सामने अपनी किसी सौतकी गुणहीन होनेपर भी निन्दा न करे। मनमें राग-द्वेषजनित मत्सरता रहनेपर भी सौतोंको परस्पर एक दूसरीका अप्रिय नहीं करना चाहिये। स्त्री पराये पुरुषके नामोंका गान और पराये पुरुषके गुणोंका वर्णन न करे। पतिसे दूर न रहे सदा अपने स्वामीके समीप ही निवास करे। निर्दिष्ट भूभागमें बैठकर सदा प्रियतमकी ओर ही मुख किये रहे। स्वच्छन्दतापूर्वक चारों दिशाओंकी ओर दृष्टि न डाले। पराये पुरुषका अवलोकन न करे। केवल पतिके मुखकमलको ही हावभावसे देखे पतिदेव यदि कोई | कथा करते हों तो स्त्री उसे बड़े आदरके साथ सुने पति बातचीत करते हों तो स्वयं दूसरेसे बात न करे। यदि स्वामी बुलायें तो शीघ्र ही उनके पास चली जाय। पतिदेव उत्साहपूर्वक गीत गाते हों तो प्रसन्नचित्त होकर सुने अपने प्रियतमके नृत्य करते समय उन्हें हर्षभरे नेत्रोंसे देखे पतिको शास्त्र आदिमें चतुरता, विद्या और कलामें प्रवीणता दिखलाते देख पत्नी आनन्दमें निमग्न हो जाय। पतिके समीप उद्वेग और व्यग्रतापूर्ण हृदय लेकर न ठहरे। उनके साथ प्रेमशून्य कलह न करे।स्वामी कलह करनेके योग्य नहीं हैं-ऐसा जानकर स्त्री कभी अपने लिये, अपने भाईके लिये या अपनी सौतके लिये क्रोधमें आकर उनसे कलह न करे। फटकारने, निन्दा करने और अत्यन्त ताड़ना देनेके कारण व्यथित होनेपर भी पत्नी अपने प्रियतमको भय छोड़कर गले लगाये। स्त्री जोर-जोर से विलाप न करे दूसरे लोगोंको न पुकारे और अपने घर से बाहर न भागे। पतिसे कोई विरक्तिसूचक वचन न कहे सती स्त्री उत्सव आदिके समय यदि भाई-बन्धुओंके घर जाना चाहे तो पतिकी आज्ञा लेकर किसी अध्यक्षके संरक्षणमें रहकर जाय । वहाँ अधिक कालतक निवास न करे। शीघ्र ही अपने घर लौट आये। यदि पति कहींकी यात्रा करते हों तो उस समय मंगलसूचक वचन बोले। ‘न जाइये’ कहकर पतिको न तो रोके और न यात्राके समय रोये ही।

पतिके परदेश जानेपर स्त्री कभी अंगराग न लगाये। केवल जीवन निर्वाहके लिये प्रतिदिन कोई उत्तम कार्य करे। यदि स्वामी जीविकाका प्रबन्ध करके परदेशमें जायें तो उनकी निश्चित की हुई जीविकासे ही गृहिणीको जीवन निर्वाह करना चाहिये। पतिके न रहनेपर स्त्री सास-ससुरके समीप ही शयन करे और किसीके नहीं। वह प्रतिदिन प्रयत्न करके पतिके कुशल समाचारका पता लगाती रहे। स्वामीकी कुशल जाननेके लिये दूत भेजे तथा प्रसिद्ध देवताओंसे याचना करे। इस प्रकार जिसके पति परदेश गये हों, उस पतिव्रता स्त्रीको ऐसे ही नियमोंका पालन करना चाहिये। वह अपने अंगोंको न धोये। मैले कपड़े पहनकर रहे। बेंदी और अंजन न लगाये। गन्ध और मालाका भी त्याग करे। नख और केशोंका श्रृंगार न करे। दाँतोंको न धोये। प्रोषितभर्तृका स्त्रीके लिये पान चबाना और आलस्यके वशीभूत होना बड़ी निन्दाकी बात है। अधिक आलस्य करना, सदा नींद लेना, सर्वदा कलहमें रुचि रखना, जोर-जोर से हँसना, दूसरोंसे हँसी परिहास करना, पराये पुरुषोंकी चेष्टाका चिन्तन करना, इच्छानुसार घूमना, पर-पुरुषके शरीरको दबाना, एक वस्त्र पहनकर बाहर घूमना, निर्लज्जताका बर्ताव करना और बिना किसी आवश्यकताके व्यर्थ ही दूसरेके घरजाना – ये सब युवती स्त्रीके लिये पाप बताये गये हैं, जो पतिको दुःख देनेवाले होते हैं।

सती स्त्री घरके सब कार्य पूर्ण करके शरीरमें हल्दीकी उबटन लगाये। फिर शुद्ध जलसे सब अंगों को धोकर सुन्दर श्रृंगार करे। उसके बाद अपने मुखकमलको प्रसन्न करके प्रियतमके समीप जाय। मन, वाणी और शरीरको संयममें रखनेवाली नारी ऐसे बर्ताव से इस लोकमें उत्तम कीर्ति पाती और परलोकमें पतिका सायुज्य प्राप्त करती है। देवताओंसहित सम्पूर्ण लोकों में पतिके समान दूसरा कोई देवता नहीं है। जब पतिदेवतासन्तुष्ट होते हैं, तो इच्छानुसार सम्पूर्ण भोगोंकी प्राप्ति कराते हैं और कुपित होनेपर सब कुछ हर लेते हैं। सन्तान, नाना प्रकारके भोग, शय्या, आसन, अद्भुत वस्त्र, माला, गन्ध, स्वर्गलोक तथा भाँति-भाँतिकी कीर्ति – ये सब पतिसे ही प्राप्त होते हैं।

इस प्रकार मुनिवर मृगशृंग धर्म, नय, नीति एवं गुणोंमें सबसे श्रेष्ठ सुवृत्ता आदि चारों पत्नियोंके साथ चिरकालतक अतिरात्र और वाजपेय आदि यज्ञोंका अनुष्ठान करते रहे। वे नियमपूर्वक संसारी सुख भोगते थे, तथापि उनका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल था।

अध्याय 240 मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति

वसिष्ठजी कहते हैं—इस प्रकार गृहस्थाश्रममे निवास करते हुए महामुनि मृगभृंगको पत्नी सुवृत्ताने समयानुसार एक पुत्रको जन्म दिया। इसके द्वारा पितृ ऋणसे छुटकारा पाकर मुनिश्रेष्ठ मृगभृंगने अपनेको कृतार्थ माना और विधिपूर्वक नवजात शिशुका जातकर्म संस्कार किया। वे परम बुद्धिमान् मुनि तीनों कालकी बातें जानते थे; अत: उन्होंने पुत्रके भावी कर्मके अनुसार उसका मृकण्डु नाम रखा। उसके शरीरमें मृगगण निर्भय होकर कण्डूयन करते थे- अपना शरीर खुजलाते या रगड़ते थे। इसीलिये पिताने उसका नाम मृकण्डु रख दिया। मृकण्डु मुनि उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर समस्त गुणोंके भंडार बन गये थे। उनका शरीर प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी था। पिताके द्वारा उपनयन संस्कार हो जानेपर वे ब्रह्मचर्यका पालन करने लगे। उन्होंने पिताके पास रहकर सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन किया। तत्पश्चात् गुरु (पिता) की आज्ञा ले द्वितीय आश्रमको स्वीकार किया। मुद्गल मुनिकी कन्या मरुद्वतीके साथ मृकण्डु मुनिका विवाह हुआ। तदनन्तर मृगशृंग मुनिकी दूसरी पत्नी कमलाने भी एक उत्तम पुत्र उत्पन्न किया। वह सदाचार, वेदाध्ययन, विद्या और विनयमें सबसे उत्तम निकला; इसलिये उसका नाम उत्तम रखा गया। पिताके उपनयन संस्कार कर देनेपर उत्तम मुनिने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके विधिपूर्वक विवाह किया। कमनीय केशकलाप और मनोहर रूपसे युक्त, कमलके समान विशाल नेत्र तथाकल्याणमय स्वभाववाली कण्व मुनिकी कन्या कुशाको उन्होंने पत्नीरूपमें ग्रहण किया। विमलाने भी सुमति नामसे विख्यात पुत्रको जन्म दिया। सुमति भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके गृहस्थ हुए। उनकी स्त्रीका नाम सत्या था। तत्पश्चात् सुरसाके गर्भसे भी एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम सुव्रत था। सुरसाकुमार सुव्रतने भी सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन समाप्त करके द्वितीय आश्रममें प्रवेश किया। पृथुकी पुत्री प्रियंवदा सुव्रतकी धर्मपत्नी हुई पिताने अपने सभी पुत्रोंसे पर्याप्त दक्षिणावाले यज्ञोंका अनुष्ठान करवाया। वे सभी पुत्र सेवा-शुश्रूषामें संलग्न हो प्रतिदिन पिताका प्रिय करते थे। उत्तम लक्षणोंवाली पुत्रवधुओं, वेदोंके पारगामी कल्याणमय पुत्रों तथा उत्तम गुणोंवाली धर्मपत्नियोंसे सेवित हो मृगशृंग मुनि गृहस्थधर्मका पालन करने लगे। सुमति, उत्तम तथा महात्मा सुव्रतको भी पृथक् पृथक् अनेक पुत्र हुए, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। माघमास आनेपर मुनिवर मृगशृंग अपनी धर्मपत्नियों, पुत्रवधुओं, पुत्रों तथा पौत्रोंके साथ प्रात:काल स्नान करते थे। वे एक माप भी कभी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। माघ आनेपर स्नान, दान, शिवकी पूजा, व्रत और नियम- ये गृहस्थ आश्रमके भूषण हैं। यह सोचकर वे द्विजश्रेष्ठ प्रत्येक माघमै प्रातः स्नान किया करते थे। इस प्रकार सांसारिक सुख-सौभाग्यका अनुभव करके उन महामुनिने अपनी धर्मपत्नियोंका भार पुत्रोंको सौंप दिया और गार्हपत्य अग्निको अपने आत्मामें स्थापित करलिया। फिर पुत्रके पुत्रका मुख देख और अपने शरीरको अत्यन्त जराग्रस्त जानकर तपोनिधि मृगश्रृंगने तपस्या करनेके लिये तपोवनको प्रस्थान किया। वहाँ पत्ते चबाने छोटे-छोटे तालाबों में जल पीने, संसारसे उद्विग्न होने तथा रेतीली भूमिमें निवास करनेके कारण वे मृगोंके समान धर्मका पालन करने लगे। मृगोंके झुंडमें चिरकालतक विचरण करनेके पश्चात् उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त कर लिया। वहाँ चार मुखवाले ब्रह्माजीने उनका अभिनन्दन किया। मुनिवर मृगशृंग दिव्य सिंहासनपर विराजमान हुए और अपने द्वारा उपार्जित उपमारहित अक्षय लोकोंका सुख भोगने लगे। तदनन्तर एक समय प्रलयकालके बाद श्वेतवाराहकल्पमें वे पुनः ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुए। उस समय उनका नाम ऋभु हुआ और उन्होंने निदाघको कल्याणका उपदेश दिया।

शील और सदाचारसे सम्पन्न उनकी चारों पत्नियाँ पुत्रोंके आश्रयमें रहकर कुछ दिनोंतक कठोर व्रतका पालन करती रहीं। तत्पश्चात् जीवनके अन्तिम भागमें बुढ़ापेके कारण उनके बाल सफेद हो गये। उनकी कमर झुक गयी। मुँहमें एक ही दो दाँत रह गये तथा इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ प्रायः नष्ट हो गयीं। मुनिश्रेष्ठ मृकण्डुके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई। उन्होंने माताओंकी वैसी अवस्था देख मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया ‘मैं माताओंको साथ ले स्त्रीसहित भगवान् शंकरकी राजधानी जहाँ पुरुषों को तारक मन्त्रका उपदेश दिया करते हैं।’ ऐसा निश्चय करके उन्होंने काशीपुरीकी ओर प्रस्थान किया। वे मार्ग में काशीकी महिमाका इस प्रकार बखान करने लगे।

मृकण्डु बोले- जो माता, पिता और अपने बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये हैं, जिनकी संसारमें कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है जो जरावस्थासे ग्रस्त और नाना प्रकारके रोगोंसे व्याकुल हैं, जिनके ऊपर दिन-रात पग-पगपर विपत्तियोंका आक्रमण होता है, जो कर्मोंके बन्धनमें आबद्ध और संसारसे तिरस्कृत हैं, जिन्हें राशि राशि पापोंने दबा रखा है, जो दरिद्रतासे परास्त, योगसे भ्रष्ट तथा तपस्या और दानसे वर्जित हैं, जिनके लिये कहीं भी गति नहीं है, उनके लिये काशीपुरी ही उत्तम गति है। जिन्हें भाईबन्धुओंके बीच पग-पगपर मानहानि उठानी पड़ती हो, उनको एकमात्र भगवान् शिवका आनन्दकानन – काशीपुरी ही आनन्द प्रदान करनेवाला है। आनन्दकानन काशी में निवास करनेवाले दुष्ट पुरुषोंको भी भगवान् शंकरके अनुग्रहसे आनन्दजनित सुखकी प्राप्ति होती है। काशीचे विश्वनाथरूपी आगकी आँचसे सारे कर्ममय बीज भुन जाते हैं; अतः वह काशीतीर्थ जिनकी कहीं भी गति नहीं है. ऐसे पुरुषोंको भी उत्तम गति प्रदान करनेवाला है। वहाँ संसाररूपी सर्पसे डँसे हुए जीवोंको अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर भगवान् शंकर उनके कानोंमें तारक ब्रह्मका उपदेश देते हैं कपिलदेवजीके बताये हुए योगानुष्ठानसे, सांख्यसे तथा व्रतोंके द्वारा भी मनुष्योंको जिस गतिकी प्राप्ति नहीं होती, उसे यह मोक्षभूमि काशीपुरी अनायास ही प्रदान करती है। यह काशीकी प्राप्ति ही योग है, यह काशीकी प्राप्ति ही तप है, यह काशीकी प्राप्ति ही दान है और यह काशीकी प्राप्ति ही शिवकी पूजा है। यह काशीकी प्राप्ति ही यज्ञ, यह काशीकी प्राप्ति ही कर्म, यह काशीकी प्राप्ति ही स्वर्ण और यह काशीकी प्राप्ति ही सुख है। काशीमें निवास करनेवाले मनुष्योंके लिये काम, क्रोध, मद, लोभ, अहंकार, मात्सर्य, अज्ञान, कर्म, जडता, भय, काल, बुढ़ापा, रजोगुण और विघ्न-बाधा क्या चीज हैं? ये उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते।

अपनी माताओंका मार्गजनित कष्ट दूर करनेके लिये इस प्रकारकी बातें करते हुए मृकण्डु मुनि धीरे धीरे चलकर माताओंसहित काशीपुरीमें जा पहुँचे। वहाँ उन मुनिने बिना विलम्ब किये सबसे पहले मणिकर्णिकाके जलमें विधिपूर्वक वस्त्रसहित स्नान किया। तत्पश्चात् सन्ध्या आदि शुभकर्मोंका अनुष्ठान करके पवित्र हो उन्होंने चन्दन और कुशमिश्रित जलसे सम्पूर्ण देवताओं और ऋषियोंका तर्पण किया। फिर अमृतके समान स्वादिष्ट पकवान, शक्कर मिली हुई खीर तथा गोरस से सम्पूर्ण तीर्थ-निवासियोंको पृथक् पृथक् तृप्त करके अन्नदान, धान्यदान, गन्ध, चन्दन, कपूर, पान और सुन्दर वस्त्र आदिके द्वारा दीनों एवं अनाथोंका सत्कार किया। उसके बाद भक्तिपूर्वक दुण्डिराज गणेशके शरीरमें थी और सिन्दूरका लेप किया और पाँच चढ़ाकर आत्मीयजनोंको विघ्न-बाधाओंके आक्रमणसे बचाते हुए अन्तः क्षेत्रमें प्रवेश किया। वहाँ समस्त आवरण- देवताओंकी यथाशक्ति पूजा की। तदनन्तर महामना मृकण्डुने भगवान् विश्वनाथको नमस्कार और उनकी स्तुति करके माताओंके साथ विधिपूर्वक क्षेत्रोपवास किया। विश्वनाथजीके समीप उन्होंने जागकर रात बितायी और निर्मल प्रभात होनेपर एकाग्रचित्त हो मणिकर्णिकाके जलमें स्नान किया। सारा अनुष्ठान पूरा करके नियमोंका पालन करते हुए पवित्र हो वेद वेदांगोंके पारगामी महात्मा ब्राह्मणोंके साथ अपने नामसे एक शिवलिंगकी स्थापना की, जो सब प्रकारकी सिद्धियोंको देनेवाला है। उनकी चारों माताओंने भी अपने-अपने नामसे एक-एक शिवलिंग स्थापित किया। वे सभी लिंग दर्शनमात्रसे मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। दुण्डिराज गणेशके आगे मृकण्ड्वीश्वर शिवका दर्शन करनेसे सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते हैं और काशीका निवास भी सफल होता है। उस शिवलिंगके आगे सुवृत्ताद्वारा स्थापित सुवृत्तेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य कभी विघ्न-बाधाओंसे आक्रान्त नहीं होता तथा वह सदाचारी होता है। सुवृत्तेश्वरसे पूर्वदिशाकी ओर कमलाद्वारा स्थापित उत्तम शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है। दुण्ढिराजगणेशकी देहलीके पास विमलाद्वारा स्थापित विमलेश्वरका स्थान है। उस लिंगके दर्शनसे निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है। विमलेश्वरसे ईशानकोणमें सुरसाद्वारा स्थापित सुरसेश्वर नामक शिवलिंग है। उसके दर्शनसे मनुष्य देवताओंका साम्राज्य प्राप्त करके काशीमें आकर मुक्त होगा। मणिकर्णिकासे पश्चिम मरुद्वतीद्वारा पूजित शिवलिंग है, जिसके दर्शनमात्रसे मनुष्य फिर जन्म नहीं लेता।

इस प्रकार शिवलिंगोंकी स्थापना करके वे सब लोग एक वर्षतक काशीमें ठहरे रहे। बारंबार उस विचित्र एवं पवित्र क्षेत्रका दर्शन करनेसे उन्हें तृप्ति नहीं होती थी । मृकण्डु मुनि एक वर्षतक प्रतिदिन तीर्थयात्रा करते रहे, किन्तु वहाँके सम्पूर्ण तीर्थोंका पार न पा सके; क्योंकि काशीपुरीमें पग-पगपर तीर्थ हैं। एक दिन मृकण्डु मुनिकी माताएँ, जो पूर्ण ज्ञानसे सम्पन्न थीं, मणिकर्णिकाके जलमें दोपहरको स्नान करके शिवमन्दिरकी प्रदक्षिणा करने लगीं। इससे परिश्रमके कारण उन्हें थकावट आ गयी और वे सब की सब मरणासन्न होकर वहीं गिर पड़ीं। उस समय परम दयालु काशीपति भगवान् शिव बड़े वेगसे वहाँ आये और अपने हाथोंसे स्नेहपूर्वक उन सबके मस्तक पकड़कर एक ही साथ कानोंमें प्रणव-मन्त्रका उच्चारण किया।

अध्याय 241 मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन्! महामना मृकण्डु मुनिने विधिपूर्वक माताओंके और्ध्वदैहिक संस्कार करके दीर्घकालतक काशीमें ही निवास किया। भगवान् शंकरके प्रसादसे उनकी धर्मपत्नी मरुद्वतीके गर्भसे एक महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसकी मार्कण्डेयके नामसे प्रसिद्धि हुई । श्रीमान् मार्कण्डेय मुनिने तपस्या से भगवान् शिवकी आराधना करके उनसे दीर्घायु पाकर अपनी आँखोंसे अनेकों बार प्रलयका दृश्य देखा।

दिलीपने पूछा – मुनिवर ! आपने पहले यह बात बतायी थी कि मृकण्डु मुनिके मरुद्वतीसे कोई सन्तान नहीं हुई, फिर भगवान् शिवके प्रसादसे उन्होंने किस प्रकार पुत्र प्राप्त किया ? तथा वह पुत्र शंकरजीकेप्रसादसे कैसे दीर्घायु हुआ ? इन सब बातोंको मैं विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप बतानेकी कृपा करें।

वसिष्ठजीने कहा- राजन् ! सुनो, मैं मार्कण्डेयजीके जन्मका वृत्तान्त बतलाता हूँ। महामुनि मृकण्डुके कोई सन्तान नहीं थी; अतः उन्होंने अपनी पत्नीके साथ तपस्या और नियमोंका पालन करते हुए भगवान् शंकरको सन्तुष्ट किया । सन्तुष्ट होनेपर पिनाकधारी शिवने पत्नीसहित मुनिसे कहा- ‘मुने! मुझसे कोई वर माँगो’ तब मुनिने यह वर माँगा – ‘परमेश्वर ! आप मेरे स्तवनसे सन्तुष्ट हैं; इसलिये मैं आपसे एक पुत्र चाहता हूँ। महेश्वर ! मुझे अबतक कोई सन्तान नहीं हुई ।भगवान् शंकर बोले- मुने। क्या तुम उत्तम गुणोंसे हीन चिरंजीवी पुत्र चाहते हो या केवल सोलह वर्षकी आयुवाला एक ही गुणवान् एवं सर्वज्ञ पुत्र पानेकी इच्छा रखते हो ?

उनके इस प्रकार पूछनेपर धर्मात्मा मृकण्डुने कहा- ‘जगदीश्वर! मैं गुणहीन पुत्र नहीं चाहता। उसकी आयु छोटी ही क्यों न हो, वह सर्वज्ञ होना चाहिये।’

भगवान् शंकर बोले- अच्छा, तो तुम्हें सोलह वर्षकी आयुवाला एक पुत्र प्राप्त होगा, जो परम धार्मिक, सर्वज्ञ, गुणवान्, लोकमें यशस्वी और ज्ञानका समुद्र होगा।

ऐसा कहकर भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये और मुनिवर मृकण्डु इच्छानुसार वरदान पाकर प्रसन्न हो अपने आश्रम में लौट आये उनकी पत्नी मस्ती बहुत दिनोंके बाद गर्भवती हुई। मुनिने विधिपूर्वक गर्भाधान संस्कार किया था। तदनन्तर गर्भस्थ बालकमें चेष्टा उत्पन्न होनेसे पहले पुरुषकी वृद्धिके लिये उन्होंने किसी शुभ दिनको गृह्यसूत्रोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार अच्छे ढंगसे पुंसवन संस्कार किया। जब आठवाँ मास आया, तब संस्कार कर्मोंके ज्ञाता उन मुनीश्वरने गर्भके रूपकी समृद्धि और सुखपूर्वक सन्तानको उत्पत्ति होनेके लिये सीमन्तोन्नयन संस्कार किया। समय आनेपर मस्तीके गर्भ से सूर्यके समान तेजस्वी पुत्रका जन्म हुआ। उस समय देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं, सम्पूर्ण दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं और सब ओरसे प्राणियोंको तृप्त करनेवाली कल्याणमयी वाणी सुनायी देने लगी। बालककी शान्तिके लिये वेदव्यास आदि मुनि भी मुकण्डुके आश्रमपर पधारे। साक्षात् महामुनि वेदव्यासने बालकका जातकर्म संस्कार कराया। तत्पश्चात् ग्यारहवें दिन मुनिने नामकरण संस्कार किया। उसके बाद नाना प्रकारके वेदोक मन्त्रों और आशीर्वादों से अभिनन्दन करके मुनियोंने बालककी रक्षाका शास्त्रीय उपाय किया। फिर मृकण्डु मुनिके द्वारा पूजित हो वे सब लोग लौट गये।

उस समय नगर और प्रान्तके लोग हर्षमें भरकर आपसमें कहते थे—’अहो! इस बालकका अद्भुत रूप है! अद्भुत तेज है! और समस्त अंगोंका लक्षण भीअद्भुत है। मरुद्वतीके सौभाग्यसे साक्षात् भगवान् शंकर ही इस बालकके रूपमें प्रकट हुए हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है। चौथे महीने में पिताने पुत्रको पर बाहर निकाला। छठे महीनेमें उसका अन्नप्राशन कराया। फिर ढाई वर्षको अवस्थामै चूडाकर्म करके श्रवण नक्षत्रमें कर्णवेध किया। तदनन्तर कर्मोंके ज्ञाता मृकण्डु मुनिने बालकके ब्रह्मतेजकी वृद्धिके लिये पाँचवें वर्षकी अवस्थामें उसे यज्ञोपवीत दे दिया। फिर उपाकर्म करके विद्वान् मुनिने बालकको वेद पढ़ाया। उसने अंग, उपांग, पद तथा क्रमसहित सम्पूर्ण वेदोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया। वह बालक बड़ा शक्तिशाली था। गुरु तो उसके सक्षम थे उसने विनय आदि गुणोंको प्रकट करते हुए गुरुमुखसे समस्त विद्याओंको ग्रहण किया। वह भिक्षाके अन्नसे जीवन निर्वाह करता हुआ प्रतिदिन माता-पिताकी सेवामें संलग्न रहता था, बुद्धिमान् मार्कण्डेयको आयुका सोलहवाँ वर्ष प्रारम्भ होनेपर मृकण्डु मुनिका हृदय शोकसे कातर हो उठा। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियोंमें व्याकुलता छा गयी। वे दीनतापूर्वक विलाप करने लगे। मार्कण्डेयने पिताको अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करते देख पूछा-‘तात! आपके शोक-मोहका क्या कारण है?’ मार्कण्डेयके मधुर वचन सुनकर मृकण्डुने अपने शोकका युक्तियुक्त कारण बताया।

मृकण्डु बोले- बेटा! पिनाकधारी भगवान् शंकरने तुम्हें सोलह वर्षकी ही आयु दी है। उसकी समाप्तिका समय अब आ पहुँचा है; इसीलिये मुझे शोक हो रहा है।

पिताका यह कथन सुनकर मार्कण्डेयने कहा ‘पिताजी! आप मेरे लिये कदापि शोक न कीजिये। मैं ऐसा यत्न करूँगा, जिससे अमर हो जाऊँ। महादेवजी सबको मनोवांछित वस्तु प्रदान करनेवाले और कल्याणस्वरूप हैं। वे मृत्युको जीतनेवाले, विकराल नेत्रधारी, सर्वज्ञ, सत्पुरुषोंको सब कुछ देनेवाले, कालके भी काल, महाकालरूप और कालकूट विषको भक्षण करनेवाले हैं। मैं उन्हींकी आराधना करके अमरत्व प्राप्त करूँगा।’ पुत्रकी यह बात सुनकर माता-पिताको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने सारा शोक छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘बेटा! तुमने हम दोनोंका शोक नष्ट करनेके लिये भगवान् मृत्युंजयकी आराधनारूप महान् उपायकाप्रतिपादन किया है। तात! तुम उन्होंकी शरणमें जाओ। उनसे बढ़कर दूसरा कोई भी हितैषी नहीं है। जो बात मनकी कल्पनाएँ भी नहीं आ सकती, उसे भी भगवान् शंकर सिद्ध कर देते हैं। वे कालका भी संहार करनेवाले हैं। बेटा! क्या तुमने नहीं सुना है, पूर्वकालमें कालपाशसे बँधे हुए श्वेतकेतुकी महादेवजीने किस प्रकार रक्षा की ? उन्होंने ही समुद्रमन्थनसे प्रकट हुए प्रलयकालीन अग्निके समान भयंकर हालाहल विषका पान करके तीनों लोकोंको बचाया था। जिसने तीनों लोकोंकी सम्पत्ति हड़प ली थी, उस महान् अभिमानी जलंधरको अपने चरणोंकी अंगुष्ठरेखासे प्रकट हुए चक्रद्वारा मौतके घाट उतार दिया था। ये वही भगवान् धूर्जटि हैं, जिन्होंने श्रीविष्णुको बाण बनाकर एक ही बाणके प्रहारसे उत्पन्न हुई आपकी लपटोंसे दैत्योंके तीनों पुरोको फूंक डाला था। अन्धकासुर तीनों ऐश्वर्य पाकर विवेकशून्य हो गया था, किन्तु उसे भी महादेवजीने अपने त्रिशूलकी नोकपर रखकर दस हजार वर्षोंतक सूर्यकी किरणोंमें सुखाया। केवल दृष्टि डालनेमात्रसे तीनों लोकोंको जीत लेनेवाले प्रबल कामदेवको उन्होंने ब्रह्मा आदि देवताओंके देखते-देखते जलाकर भस्म कर डाला – अनंगकी पदवीको पहुँचा दिया। भगवान् शिव ब्रह्मा आदि देवताओंके एकमात्र कर्ता, मेधरूपी वृषभपर सवारी करनेवाले अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले, सम्पूर्ण विश्वके आश्रय और जगत्की रक्षाके लिये दिव्य मणि हैं। बेटा! तुम उन्हींकी शरणमें जाओ।’

इस प्रकार माता-पिताकी आज्ञा पाकर मार्कण्डेयजी दक्षिण समुद्र तटपर चले गये और वहाँ विधिपूर्वक अपने ही नामसे एक शिवलिंग स्थापित किया। तीनों समय स्नान करके वे भगवान् शिवकी पूजा करते और पूजाके अन्तमें स्तोत्र पढ़कर नृत्य करते थे। उस स्तोत्रसे एक ही दिनमें भगवान् शंकर सन्तुष्ट हो गये। मार्कण्डेयजीने बड़ी भक्तिके साथ उनका पूजन किया। जिस दिन उनकी आयु समाप्त होनेवाली थी, उस दिन शिवजी पूजा संलग्न हो वे ज्यों ही स्तुति करनेको उद्यत हुए, उसी समय मृत्युको साथ लिये काल उन्हें लेनेके लिये आ पहुँचा। उसके गोलाकार नेत्र किनारेकी बोरसे लाल-लाल दिखायी दे रहे थे। साँप और ही उसके रोम थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंके कारण उसका मुख अत्यन्त विकराल जान पड़ता था। वह काजलके समान काला था। समीप आकर कालने उनके गलेमें फंदा डाल दिया। गलेमें बहुत बड़ा फंदा लग जानेपर मार्कण्डेयजीने कहा-‘महामते काल में जबतक जगदीश्वर शिवके मृत्युंजय नामक महास्तोत्रका पाठ पूरा न कर लूँ, तबतक मेरी प्रतीक्षा करो। मैं शिवजीकी स्तुति किये बिना कहीं नहीं जाता। भोजन और शयनतक नहीं करता। यह मेरा निश्चित व्रत है। संसारमें जीवन, स्त्री, राज्य तथा सुख भी मुझे उतना प्रिय नहीं है, जितना कि यह शिवजीका स्तोत्र है। यदि मैंने इस विषयमें कोई असत्य बात न कही हो तो इस सत्यके प्रभावसे भगवान् महेश्वर सदा मुझपर प्रसन्न रहें।”

यह सुनकर कालने मार्कण्डेयजीसे हँसते-हँसते कहा—’ब्रह्मन् ! मालूम होता है तुमने पूर्वकालसे निश्चित की हुई बड़े-बूढ़ोंकी यह बात नहीं सुनी है- जो मूढबुद्धि मानव आयुके प्रथम भागमें ही धर्मका अनुष्ठान नहीं करता, वह वृद्ध होनेपर साथियोंसे बिछुड़े हुए राहीकी भाँति पश्चात्ताप करता है। आठ महीनोंमें ऐसा उपाय कर लेना चाहिये, जिससे वर्षाकालके चार महीने सुखसे बीतें दिनमें ही वह काम पूरा कर ले, जिससे रातमें 1 सुखसे रहे। पहली अवस्थामें ही ऐसा कार्य कर ले, जिससे बुढ़ापेमें सुखसे रहे। जीवनभर ऐसा कार्य करता रहे, जिससे मरनेके बाद सुख हो। जो कार्य कल करना हो, उसे आज ही कर ले। जिसे अपराह्नमें करना हो, उसे पूर्वाह्नमें ही कर डाले। काल इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करता कि इस पुरुषका काम पूरा हुआ है या नहीं। यह कार्य कर लिया, यह करना है और इस कार्यका कुछ अंश हो गया है तथा कुछ बाकी है-इस प्रकारकी इच्छाएँ करते हुए पुरुषको काल सहसा आकर दबोच लेता है। जिसका काल नहीं आया है, वह सैकड़ों बाणोंसे बिंध जानेपर भी नहीं मरता तथा जिसका काल | आ पहुँचा है, वह कुशके अग्रभागसे छू जानेपर भी जीवित नहीं रहता। मैं हजारों चक्रवर्ती राजाओं और सैकड़ों इन्द्रोंको भी अपना ग्रास बना चुका हूँ। अतः इस विषय में तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।’

जिसका प्रयास कभी विफल नहीं होता, उसकालके उपर्युक्त वचन सुनकर शिवजीकी स्तुतिमें तत्पर रहनेवाले मार्कण्डेयजीने कहा-‘काल! भगवान् शिवकी स्तुतिमें लगे रहनेवाले पुरुषोंके कार्यमें जो लोग विघ्न डालते हैं, वे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं इसीलिये मैं तुम्हें मना करता हूँ। जैसे राजाके सिपाहियोंपर राजा ही शासन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं, उसी प्रकार शिवजीके भक्तोंका परमेश्वर शिव ही शासन कर सकते हैं भगवान् शंकरके सेवक पर्वतोंको भी विदीर्ण कर डालते हैं, समुद्रोंको भी पी जाते हैं तथा पृथ्वी और अन्तरिक्षको भी हिला देते हैं। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मा और इन्द्रको भी तिनकेके समान समझते हैं। भला उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है! भगवान् शिवके भक्तोंपर मृत्यु, ब्रह्मा, यमराज, यमदूत तथा दूसरे कोई भी अपना प्रभुत्व नहीं स्थापित कर सकते। काल ! क्या तुमने मनीषी पुरुषोंका यह वचन नहीं सुना है कि शिवभक्त मनुष्योंपर कहीं भी आपत्ति नहीं आती। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता क्रुद्ध हो जायँ, तो भी वे उन्हें मारनेकी शक्ति नहीं रखते।’

मार्कण्डेयजीके इस प्रकार फटकारनेपर भगवान् काल आँखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देखने लगे, मानो तीनों लोकोंको निगल जायँगे। वे क्रोधमें भरकर बोले- ‘ओ दुर्बुद्धि ब्राह्मण गंगाजीमें जितने बालूके कण हैं, उतने ब्रह्माओंका इस कालने संहार कर डाला है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता। मेरा बल और पराक्रम देखो, मैं तुम्हें अपना ग्रास बनाता हूँ; तुम इस समय जिनके दास बने बैठे हो, वे महादेव मुझसे तुम्हारी रक्षा करें तो सही।’

वसिष्ठजी कहते हैं- राजन् ! जैसे राहु चन्द्रमाको ग्रस लेता है, उसी प्रकार गर्जना करते हुए कालने महामुनि मार्कण्डेयको हठपूर्वक ग्रसना आरम्भ किया। उसी समय परमेश्वर शिव उस लिंगसे सहसा प्रकट हो गये। उनकी अवस्था, उनका रूप-सब कुछ अवर्णनीय था। मस्तकपर अर्धचन्द्राकार मुकुट शोभा पा रहा था। हुंकार भरकर मेघके समान प्रचण्ड गर्जना करते हुए उन्होंने तुरंत ही मृत्युकी छातीमें लात मारी। मृत्युदेव उनके चरण-प्रहारसे भयभीत हो दूर जा पड़े। भयंकर आकारवाले कालको दूर पड़ा देख मार्कण्डेयजीने पुनःउस स्तोत्रसे भगवान् शंकरका स्तवन किया

कैलासशिखरपर जिनका निवासगृह है, जिन्होंने मेकगिरिका धनुष, नागराज वासुकिकी प्रत्यंचा और भगवान् विष्णुको अग्निमय वाण बनाकर तत्काल ही दैत्योंके तीनों पुरोको दग्ध कर डाला था, सम्पूर्ण देवता जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

मन्दार, पारिजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरिचन्दन इन पाँच दिव्य वृक्षोंके पुष्पोंसे सुगन्धित युगल चरणकमल जिनकी शोभा बढ़ाते हैं, जिन्होंने अपने ललाटवर्ती नेत्रसे प्रकट हुई आगकी ज्यालामें कामदेवके शरीरको भस्म कर डाला था, जिनका श्रीविग्रह सदा भस्मसे विभूषित रहता है, जो भव-सबकी उत्पत्तिके कारण होते हुए भी भव-संसारके नाशक हैं तथा जिनका कभी विनाश नहीं होता, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी में शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो मतवाले गजराजके मुख्य चर्मकी चादर ओढ़े परम मनोहर जान पड़ते हैं, ब्रह्मा और विष्णु भी जिनके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं तथा जो देवताओं और सिद्धौकी नदी गंगाको तरंगोंसे भीगी हुई शीतल जटा धारण करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ । यमराज मेरा क्या करेगा ?

गेंडुल मारे हुए सर्पराज जिनके कानोंमें कुण्डलका काम देते हैं, जो वृषभपर सवारी करते हैं, नारद आदि मुनीश्वर जिनके वैभवकी स्तुति करते हैं, जो समस्त भुवनोंके स्वामी, अन्धकासुरका नाश करनेवाले, जिनके लिये कल्पवृक्षके समान और यमराजको भी शान्त करनेवाले हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो यक्षराज कुबेरके सखा, भग देवताकी आँख फोड़नेवाले और सपके आभूषण धारण करनेवाले हैं, जिनके श्रीविग्रहके सुन्दर वामभागको गिरिराजकिशोरी उमाने सुशोभित कर रखा है, कालकूट विष पीनेके कारण जिनका कण्ठभाग नीले रंगका दिखायी देता है, जो एक हाथमें फरसा और दूसरेमें मृग लिये रहते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरको मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा?जो जन्म-मरणके रोगसे ग्रस्त पुरुषोंके लिये औषधरूप हैं, समस्त आपत्तियोंका निवारण और दक्ष यज्ञका विनाश करनेवाले हैं, सत्त्व आदि तीनों गुण जिनके स्वरूप हैं, जो तीन नेत्र धारण करते, भोग और मोक्षरूपी फल देते तथा सम्पूर्ण पापराशिका संहार करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी में शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो भक्तोंपर दया करनेवाले हैं, अपनी पूजा करनेवाले मनुष्योंके लिये अक्षय निधि होते हुए भी जो स्वयं दिगम्बर रहते हैं, जो सब भूतोंके स्वामी, परात्पर, अप्रमेय और उपमारहित हैं, पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और चन्द्रमाके द्वारा जिनका श्रीविग्रह सुरक्षित है, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

जो ब्रह्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते, फिर विष्णुरूपसे सबके पालनमें संलग्न रहते और अन्तमें सारे प्रपंचका संहार करते हैं, सम्पूर्ण लोकों जिनका निवास है तथा जो गणेशजीके पार्षदोंसे घिरकर दिन रात भाँति-भाँतिके खेल किया करते हैं, उन भगवान् चन्द्रशेखरकी मैं शरण लेता हूँ। यमराज मेरा क्या करेगा ?

रु अर्थात् दुःखको दूर करनेके कारण जिन्हें रुद्र कहते हैं, जो जीवरूपी पशुओंका पालन करनेसे पशुपति स्थिर होनेसे स्थाणु, गलेमें नीला चिह्न धारण करनेसे नीलकण्ठ और भगवती उमाके स्वामी होनेसे उमापति नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जिनके गलेमें काला दाग है, जो कलामूर्ति कालाग्निस्वरूप और कालके नाशक हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जिनका कण्ठ नील और नेत्र विकराल होते हुए भी जो अत्यन्त निर्मल और उपद्रवरहित हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?जो वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम धारण करते हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? जो देवताओंके भी आराध्यदेव, जगत्के स्वामी और देवताओंपर भी शासन करनेवाले हैं, जिनकी ध्वजापर वृषभका चिह्न बना हुआ है, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो अनन्त, अविकारी, शान्त, रुद्राक्षमालाधारी और सबके दुःखोंका हरण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो परमानन्दस्वरूप, नित्य एवं कैवल्यपद मोक्षकी प्राप्तिके कारण हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

जो स्वर्ग और मोक्षके दाता तथा सृष्टि, पालन और संहारके कर्ता हैं, उन भगवान् शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ? वसिष्ठजी कहते हैं- मार्कण्डेयजीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रका जो भगवान् शंकरके समीप पाठ करेगा, उसे मृत्युसे भय नहीं होगा – यह मैं सत्य सत्य कहता हूँ। बुद्धिमान् मार्कण्डेयके इस प्रकार स्तुति करनेपर महादेवजीने उन्हें अनेक कल्पोंतककी असीम आयु प्रदान की। इस प्रकार देवाधिदेव महादेवजीके प्रसादसे अमरत्व पाकर महातेजस्वी मार्कण्डेयने बहुत से प्रलयके दृश्य देखे हैं। वरदान पानेके अनन्तर महामुनि मार्कण्डेयने पुनः अपने आश्रममें लौटकर माता-पिताको प्रणाम किया। फिर उन्होंने भी पुत्रका अभिनन्दन किया। उसके बाद मार्कण्डेयजी तीर्थयात्रामें प्रवृत्त होकर सदा इस पृथ्वीपर विचरने लगे यमराज भी भगवान् शंकरकी स्तुति करके अपने लोकमें चले गये। राजन् ! मृगशृंग मुनि सदा माघस्नान किया करते थे। उसीके माहात्म्यसे उनकी सन्तान इस प्रकार सौभाग्यशालिनी हुई।

अध्याय 242 माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम

राजा दिलीपने पूछा- मुने! आप इक्ष्वाकुवंशके गुरु और महात्मा हैं। आपको नमस्कार है । माघस्नानमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंके लिये कौन-कौनसे मुख्य तीर्थ हैं? उनका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। मैं सुनना चाहता हूँ।

वसिष्ठजीने कहा- राजन्! माघ मास आनेपर बस्ती से बाहर जहाँ कहीं भी जल हो, उसे सब ऋषियोंने गंगाजलके समान बतलाया है; तथापि मैं तुमसे विशेषतः माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थोका वर्णन करता हूँ। पहला है— तीर्थराज प्रयाग वह बहुत विख्यात तीर्थ है। प्रयाग सब तीर्थोंमें कामनाकी पूर्ति करनेवाला तथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है। उसके सिवा नैमिषारण्य, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, उज्जैन, सरयू, यमुना, द्वारका, अमरावती, सरस्वती और समुद्रका संगम, गंगा सागर संगम, कांची, त्र्यम्बक तीर्थ, सप्त गोदावरीका तट, कालंजर, प्रभास, बदरिकाश्रम, महालय, ओंकारक्षेत्र, पुरुषोत्तमक्षेत्र – जगन्नाथपुरी, गोकर्ण, भृगुकर्ण, भृगुतुंग, पुष्कर, तुंगभद्रा, कावेरी, कृष्णा वेणी, नर्मदा, सुवर्णमुखरी तथा वेगवती नदी- ये सभी माघ मासमें स्नान करनेवालोंके लिये मुख्य तीर्थ हैं। गया नामक जो तीर्थ है, वह पितरोंके लिये तृप्तिदायक और हितकर है। ये भूमिपर विराजमान तीर्थ हैं, जिनका मैंने तुमसे वर्णन किया है। राजन्! अब मानस तीर्थ बतलाता हूँ, सुनो। उनमें भलीभाँति स्नान करनेसे मनुष्य परम गतिको प्राप्त होता है। सत्यतीर्थ, क्षमातीर्थ, इन्द्रिय-निग्रहतीर्थ, सर्वभूतदयातीर्थ, आर्जव (सरलता) – तीर्थ, दानतीर्थ, दम (मनोनिग्रह) तीर्थ, सन्तोषतीर्थ, ब्रह्मचर्यतीर्थ, नियमतीर्थ, मन्त्र जपतीर्थ, प्रियभाषणतीर्थ, अनर्थ धैर्यतीर्थ अहिंसातीर्थ आत्मतीर्थ, ध्यानतीर्थऔर शिवस्मरण तीर्थ-ये सभी मानस तीर्थ हैं। मनको 1 शुद्धि सब तीर्थोंसे उत्तम तीर्थ है। शरीरसे जलमें डुबकी लगा लेना ही स्नान नहीं कहलाता। जिसने मन और । इन्द्रियोंके संयममें स्नान किया है, वास्तवमें उसीका स्नान सफल है; क्योंकि वह पवित्र एवं स्नेहयुक्त चित्तवाला माना गया है।’

जो लोभी, चुगलखोर, क्रूर दम्भी और विषयलोलुप है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करके भी पापी और मलिन ही बना रहता है; केवल शरीरकी मैल छुड़ानेसे मनुष्य निर्मल नहीं होता, मनकी मैल धुलनेपर ही वह अत्यन्त निर्मल होता है। जलचर जीव जलमें ही जन्म लेते और उसीमें मर जाते हैं; किन्तु इससे वे स्वर्गमें नहीं जाते, क्योंकि उनके मनकी मैल नहीं धुली रहती। विषयोंमें जो अत्यन्त आसक्ति होती है. उसीको मानसिक मल कहते हैं विषयोंकी ओरसे वैराग्य हो जाना ही मनकी निर्मलता है। दान, यज्ञ, तपस्या, बाहर-भीतरकी शुद्धि और शास्त्र ज्ञान भी तीर्थ ही हैं। यदि अन्तःकरणका भाव निर्मल हो तो ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिसने इन्द्रियसमुदायको काबू कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ-जहाँ निवास करता है, वहीं-वहीं उसके लिये कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ प्रस्तुत हैं जो ज्ञानसे पवित्र, ध्यानरूपी जलसे परिपूर्ण और राग-द्वेषरूपी मलको धो देनेवाला है, ऐसे मानस तीर्थमें जो स्नान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। राजन्! यह मैंने तुम्हें मानस तीर्थका लक्षण बतलाया है।

अब भूतलके तीर्थोकी पवित्रताका कारण सुनो। जैसे शरीरके कुछ भाग परम पवित्र माने गये हैं, उसी प्रकार पृथ्वीके भी कुछ स्थान अत्यन्त पुण्यमय मानेजाते हैं। भूमिके अद्भुत प्रभाव, जलकी शक्ति और मुनियोंके अनुग्रहपूर्वक निवाससे तीथको पवित्र बताया गया है; इसलिये भौम और मानस सभी तीर्थोंमें जो नित्य स्नान करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। प्रचुर दक्षिणावाले अग्निष्टोम आदि यज्ञोंसे यजन करके भी मनुष्य उस फलको नहीं पाता, जो उसे तीर्थोंमें जानेसे प्राप्त होता है। जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर और मन भलीभाँति काबूमें हों तथा जो विद्या, तप और कीर्तिसे सम्पन्न हो, वह तीर्थके फलका भागी होता है। जो प्रतिग्रहसे निवृत्त जिस किसी वस्तुसे भी संतुष्ट रहनेवाला और अहंकारसे मुक्त है, वह तीर्थके फलका भागी होता है। श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित हो तीर्थोंकी यात्रा करनेवाला धीर पुरुष कृतघ्न हो तो भी शुद्ध हो जाता है; फिर जो शुद्ध कर्म करता है, उसकी तो बात ही क्या है ? वह मनुष्य पशु-पक्षियोंकी योनिमें नहीं पड़ता, बुरे देशमें जन्म नहीं लेता, दुःखका भागी नहीं होता, स्वर्गलोकमें जाता और मोक्षका उपाय भी प्राप्त कर लेता है। अश्रद्धालु, पापात्मा, नास्तिक, संशयात्मा और केवल युक्तिवादका सहारा लेनेवाला ये पाँच प्रकारके मनुष्य तीर्थफलके भागी नहीं होते। जो शास्त्रोक्त तीर्थों में विधिपूर्वक विचरते और सब प्रकारके द्वन्द्वोंको सहन करते हैं, वे धीर मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं तीर्थमें अयं और आवाहनके बिना ही श्राद्ध करना चाहिये। वह श्राद्धके योग्य काल हो या न हो, तीर्थमें बिना विलम्ब किये श्राद्ध और तर्पण करना उचित है; उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये। अन्य कार्यके प्रसंगसे भी तीर्थमें पहुँच जानेपर स्नान करना चाहिये। ऐसा करनेसे तीर्थयात्राका नहीं, परन्तु तीर्थस्नानका फल अवश्य प्राप्त होता है। तीर्थमें नहानेसे पापी मनुष्योंके पापकी शान्ति होती है। जिनका हृदय शुद्ध है, उन मनुष्योंको तीर्थ शास्त्रोक्त फल प्रदान करनेवाला होता है जो दूसरेके लिये तीर्थयात्रा करता है, वह भी उसके पुण्यका सोलह अंश प्राप्त कर लेता है। कुशकी प्रतिमा बनाकर तीर्थके जलमें उसे स्नान करावे। जिसके | उद्देश्यसे उस प्रतिमाको स्नान कराया जाता है, वह पुरुषतीर्थस्नानके पुण्यका आठवाँ भाग प्राप्त करता है। तीर्थ में जाकर उपवास करना और सिरके बालोंका मुण्डन कराना चाहिये। मुण्डनसे मस्तकके पाप नष्ट हो जाते हैं। जिस दिन तीर्थमें पहुँचे, उसके पहले दिन उपवास करे और दूसरे दिन श्राद्ध एवं दान करे। तीर्थके प्रसंगमें मैंने श्राद्धको भी तीर्थ बतलाया है। यह स्वर्गका साधन तो है ही, मोक्षप्राप्तिका भी उपाय है।

इस प्रकार नियमका आश्रय ले माघ मासमें व्रत ग्रहण करना चाहिये और उस समय ऐसी ही तीर्थयात्रा करनी चाहिये। माघ मासमें स्नान करनेवाला पुरुष सब जगह कुछ-न-कुछ दान अवश्य करे। बेर, केला और आँवलेका फल, सेरभर घी, सेरभर तिल, पान, एक आढक (सोलह सेर) चावल, कुम्हड़ा और खिचड़ी ये नौ वस्तुएँ प्रतिदिन ब्राह्मणोंको दान करनी चाहिये। जिस किसी प्रकार हो सके, माघ मासको व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। किंचित् सूर्योदय होते-होते माघस्नान करना चाहिये तथा माघस्नान करनेवाले पुरुषको यथाशक्ति शौच-सन्तोष आदि नियमोंका पालन करना चाहिये। विशेषतः ब्राह्मणों और साधु-संन्यासियोंको पकवान भोजन कराना चाहिये। जाड़ेका कष्ट दूर करनेके लिये बोझ के बोझ सूखे काठ दान करे। रुईभरा अंगा, शय्या, गद्दा, यज्ञोपवीत, लाल वस्त्र, रूईदार रजाई, जायफल, लौंग, बहुत से पान, विचित्र-विचित्र कम्बल, हवासे बचानेवाले गृह, मुलायम जूते और सुगन्धित उबटन दान करे। माघस्नानपूर्वक घी, कम्बल, पूजनसामग्री, काला अगर, धूप, मोटी बत्तीवाले दीप और भाँति भौतिके नैवेद्यसे माघस्नानजनित फलकी प्राप्तिके लिये भगवान् माधवकी पूजा करे। माघ मासमें डुबकी लगानेसे सारे दोष नष्ट हो जाते हैं और अनेकों जन्मोंके -उपार्जित सम्पूर्ण महापाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। यह माघस्नान ही मंगलका साधन है, यही वास्तवमें धनका उपार्जन है तथा यही इस जीवनका फल है। भला, माघस्नान, मनुष्योंका कौन-कौन-सा कार्य नहीं सिद्ध करता? वह पुत्र, मित्र, कलत्र, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्षका भी देनेवाला है।

अध्याय 243 माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति

वसिष्ठजी कहते हैं-राजन्। सुनो, मैं तुमसे सुव्रतके चरित्रका वर्णन करता हूँ। यह शुभ प्रसंग श्रोताओंके समस्त पापोंको तत्काल हर लेनेवाला है। नर्मदाके रमणीय तटपर एक बहुत बड़ा अग्रहार ब्राह्मणोंको दानमें मिला हुआ गाँव था। वह लोगों में अकलंक नामसे विख्यात था, उसमें वेदोंके ज्ञाता और धर्मात्मा ब्राह्मण निवास करते थे। वह धन-धान्यसे भरा था और वेदोंके गम्भीर घोषसे सम्पूर्ण दिशाओंको मुखरित किये रहता था उस गाँवमें एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो सुव्रतके नामसे विख्यात थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदका अध्ययन किया था। वेदार्थके वे अच्छे ज्ञाता थे, धर्मशास्त्रोंके अर्थका भी पूर्ण ज्ञान रखते थे, पुराणोंकी व्याख्या करनेमें वे बड़े कुशल थे। वेदांगोंका अभ्यास करके उन्होंने तर्कशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, गजविद्या, अश्वविद्या, चौसठ कलाएँ, मन्त्रशास्त्र, सांख्यशास्त्र तथा योगशास्त्रका भी अध्ययन किया था। वे अनेक देशोंकी लिपियाँ और नाना प्रकारकी भाषाएँ जानते थे। यह सब कुछ उन्होंने धन कमानेके लिये ही सीखा था तथा लोभसे मोहित होनेके कारण अपने भिन्न-भिन्न गुरुओंको गुरुदक्षिणा भी नहीं दी थी। उपायोंके जानकार तो थे ही, उन्होंने उक्त उपायोंसे बहुत कुछ धनका उपार्जन किया। उनके मनमें बड़ा लोभ था; इसलिये वे अन्यायसे भी धन कमाया करते थे जो वस्तु बेचनेके योग्य नहीं है, उसको भी बेचते और जंगलकी वस्तुओंका भी विक्रय किया करते थे; उन्होंने चाण्डाल आदिसे भी दान लिया, कन्या वेची तथा गौ, तिल, चावल, रस और तेलका भी विक्रय किया। वे दूसरोंके लिये तीर्थमें जाते, दक्षिणा लेकर देवताकी पूजा करते, वेतन लेकर पढ़ाते और दूसरोंके घर खाते थे; इतना ही नहीं, वे नमक, पानी, दूध, दही और पक्वान्न भी बेचा करते थे। इस तरह अनेक उपायोंसे उन्होंने यत्नपूर्वक धन कमाया। धनके पीछे उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मतक छोड़ दिया था। न खाते थे, न दान करते थे। हमेशा अपना धन गिनते रहते थे कि कब कितना जमा हुआ। इस प्रकार उन्होंने एक लाख स्वर्णमुद्राएँ उपार्जित कर लीं। धनोपार्जनमेंलगे लगे ही वृद्धावस्था आ गयी और सारा शरीर जर्जर हो गया। कालके प्रभावसे समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। अब वे उठने और कहीं आने-जानेमें असमर्थ हो गये। धनोपार्जनका काम बंद हो जानेसे स्त्रीसहित ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी हुए। इस प्रकार चिन्ता करते करते जब उनका चित्त बहुत व्याकुल हो गया, तब उनके मनमें सहसा विवेकका प्रादुर्भाव हुआ।

सुव्रत अपने-आप कहने लगे मैंने नीच प्रतिग्रहसे – नहीं बेचनेयोग्य वस्तुओंके बेचनेसे तथा तपस्या आदिका भी विक्रय करनेसे यह धन जमा किया है; फिर भी मुझे शान्ति नहीं मिली। मेरी तृष्णा अत्यन्त दुस्सह है। यह मेरु पर्वत के समान असंख्य सुवर्ण पानेकी अभिलाषा रखती है। अहो! मेरा मन महान् कष्टदायक और सम्पूर्ण क्लेशोंका कारण है। सब कामनाओंको पाकर भी यह फिर दूसरी दूसरी नवीन कामनाओंको प्राप्त करना चाहता है। बूढ़े होनेपर सिरके बाल पक जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं, आँख और कानोंकी शक्ति भी क्षीण हो जाती है; किन्तु एक तृष्णा ही ऐसी है, जो उस समय भी नित्य तरुण होती जाती है। जिसके मनमें कष्टदायिनी आशा मौजूद है, वह विद्वान् होकर भी अज्ञानी है, अशान्त है, क्रोधी है और बुद्धिमान् होकर भी अत्यन्त मूर्ख है। आशा मनुष्योंको नष्ट करनेवाली है, उसे अग्निके समान जानना चाहिये; अतः जो विद्वान् सनातन पदको प्राप्त करना चाहता हो, वह आशाका परित्याग कर दे। बल, तेज, यश, विद्या, सम्मान, शास्त्रज्ञान तथा उत्तम कुलमें जन्म- इन सबको आशा शीघ्र ही नष्ट कर देती है। मैंने भी इसी प्रकार बहुत क्लेश उठाकर यह धन कमाया है। वृद्धावस्था मेरे शरीरको भी गला दिया और सारा बल भी हर लिया अबसे मैं श्रद्धापूर्वक परलोक सुधारनेके लिये प्रयत्न करूँगा।

ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण देवता जब धर्मके मार्गपर चलनेके लिये उत्सुक हुए, उसी दिन रातमें कुछ चोर उनके घरमें घुस आये। आधी रातका समय था आततायी चोरोंने ब्राह्मणको खूब कसकर बाँध दिया और सारा धन लेकर चंपत हुए। चोरोंके द्वारा धनछिन जानेपर ब्राह्मण अत्यन्त दारुण विलाप करने लगा-‘हाय! मेरा धन कमाना धर्म, भोग अथवा मोक्ष- किसी भी काममें नहीं आया। न तो मैंने उसे भोगा और न दान ही किया। फिर किसलिये धनका उपार्जन किया? हाय! हाय! मैंने अपने आत्माको धोखेमें डालकर यह क्या किया? सब जगहसे दान लिया और मदिरातकका विक्रय किया। पहले तो एक ही गौका प्रतिग्रह नहीं लेना चाहिये। यदि एकको ले लिया तो दूसरीका प्रतिग्रह लेना कदापि उचित नहीं है। उस गौको भी यदि बेच दिया जाय तो वह सात पीढ़ियोंको दग्ध कर देती है। इस बातको जानते हुए भी मैंने लोभवश ऐसे-ऐसे पाप किये हैं। धन कमानेके जोशमें मैंने एक दिन भी एकाग्रचित्त होकर अच्छी तरह सन्ध्योपासना नहीं की। अगर्भ (ध्यानरहित) या सगर्भ (ध्यानसहित) प्राणायाम भी नहीं किया। तीन बार जल पीकर और दो बार ओठ पौछकर भलीभाँति आचमन नहीं किया। उतावली छोड़कर और हाथमें कुशकी पवित्री लेकर मैंने कभी गायत्री मन्त्रका वाचिक, उपांशु अथवा मानस जप भी नहीं किया। जीवोंका बन्धन छुड़ानेवाले महादेवजीकी आराधना नहीं की। जो मन्त्र पढ़कर अथवा बिना मन्त्रके ही शिवलिंगके ऊपर एक पत्ता या फूल डाल देता हैं, उसकी करोड़ों पीढ़ियोंका उद्धार हो जाता है; किन्तु मैंने कभी ऐसा नहीं किया। सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाले भगवान् विष्णुको कभी सन्तुष्ट नहीं किया। पाँच प्रकारकी हत्याओंके पाप शान्त करनेवाले पंचयज्ञोंका अनुष्ठान नहीं किया। स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले अतिथिके सत्कारसे भी वंचित रहा। संन्यासीका सत्कार करके उसे अन्नकी भिक्षा नहीं दी। ब्रह्मचारीको विधिपूर्वक अतिथिके योग्य भोजन नहीं दिया।

‘मैंने ब्राह्मणोंको भाँति-भाँति के सुन्दर एवं महीन वस्त्र नहीं अर्पण किये। सब पापोंका नाश करनेके लिये प्रज्वलित अग्निमें घीसे भीगे हुए मन्त्रपूत तिलोंका हवन नहीं किया। श्रीसूक्त, पावमानी ऋचा, मण्डल ब्राह्मण, पुषसूक्त और परमपवित्र शतरुद्रिय मन्त्रका जप नहीं | किया पीपल वृक्षका सेवन नहीं किया। अर्कत्रयोदशीका त्याग दिया। वह भी यदि रातको अथवा शुक्रवारके।दिन पड़े, तो तत्काल सब पापको हरनेवाली है; किन्तु मैंने उसकी भी उपेक्षा कर दी। ठंढी छायावाले सघन वृक्षका पौधा नहीं लगाया। सुन्दर शय्या और मुलायम गद्देका दान नहीं किया पंखा, छतरी, पान तथा मुखको सुगन्धित करनेवाली और कोई वस्तु भी ब्राह्मणको दान नहीं दी। नित्यश्राद्ध, भूतबलि तथा अतिथि पूजा भी नहीं की। उपर्युक्त उत्तम वस्तुओंका जो लोग दान करते हैं, वे पुण्यके भागी मनुष्य यमलोकमें यमराजको, यमदूतोंको और यमलोककी यातनाओंको नहीं देखते; किन्तु मैंने यह भी नहीं किया। गौओंको ग्रास नहीं दिया। उनके शरीरको कभी नहीं खुजलाया, कीचड़में फैंसी हुई गौको, जो गोलोकमें सुख देनेवाली होती है, मैंने कभी नहीं निकाला वाचकोंको उनकी मुँहमाँगी वस्तुएँ देकर कभी सन्तुष्ट नहीं किया। भगवान् विष्णुकी पूजाके लिये कभी तुलसीका वृक्ष नहीं लगाया। शालग्रामशिलाके तीर्थभूत चरणामृतको न तो कभी पीया और न मस्तकपर ही चढ़ाया। एक भी पुण्यमयी एकादशी तिथिको उपवास नहीं किया। शिवलोक प्रदान करनेवाली शिवरात्रिका भी व्रत नहीं किया। वेद, शास्त्र, धन, स्त्री, पुत्र, खेत और अटारी आदि वस्तुएँ इस लोकसे जाते समय मेरे साथ नहीं जायेंगी। अब तो मैं बिलकुल असमर्थ हो गया; अतः कोई उद्योग भी नहीं कर सकूँगा। क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। हाय! मुझपर बड़ा भारी कष्ट आ पड़ा। मेरे पास परलोकका राहखर्च भी नहीं है।’

इस प्रकार व्याकुलचित्त होकर सुव्रतने मन-ही मन विचार किया- ‘अहो ! मेरी समझमें आ गया, आ गया, आ गया मैं धन कमानेके लिये उत्तम देश काश्मीरको जा रहा था। मार्गमें भागीरथी गंगाके तटपर मुझे कुछ ब्राह्मण दिखायी दिये, जो वेदोंके पारगामी विद्वान् थे। वे प्रातः काल माघस्नान करके बैठे थे। वहाँ किसी पौराणिक विद्वान्ने उस समय यह आधा श्लोक कहा था

माघे निमग्नाः सलिले सुशीते

विमुक्तपापास्त्रिदिवं प्रयान्ति ॥

(238 । 78)

‘माघ मासमें शीतल जलके भीतर डुबकी लगानेवालेमनुष्य पापमुक्त हो स्वर्गलोकमें जाते हैं।’

पुराणमेंसे मैंने इस श्लोकको सुना है। यह बहुत ही प्रामाणिक है; अतः इसके अनुसार मुझे माघका स्नान करना ही चाहिये।

मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके सुव्रतने अपने मनको सुस्थिर किया और नौ दिनोंतक नर्मदाके जलमें माघ मासका स्नान किया। उसके बाद स्नान करनेकी भी शक्ति नहीं रह गयी। वे दसवें दिन किसी तरहनर्मदाजीमें गये और विधिपूर्वक स्नान करके तटपर आये। उस समय शीतसे पीड़ित होकर उन्होंने प्राण त्याग दिया। उसी समय मेरुगिरिके समान तेजस्वी विमान आया और माघस्नानके प्रभावसे सुव्रत उसपर आरूढ़ हो स्वर्गलोकको चले गये। वहाँ एक मन्वन्तरतक निवास करके वे पुनः इस पृथ्वीपर ब्राह्मण हुए। फिर प्रयागमें माघस्नान करके उन्होंने ब्रह्मलोक प्राप्त किया।

अध्याय 244 सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन

राजा दिलीपने पूछा- भगवन्! आपने वर्णाश्रमधर्म 1 तथा नित्य नैमित्तिक कर्मोंसहित सम्पूर्ण धर्मोका वर्णन किया। अब मैं सनातन मोक्ष मार्गका वर्णन सुनना चाहता हूँ। आप उसे सुनानेकी कृपा करें। सम्पूर्ण मन्त्रों में कौन सा ऐसा मन्त्र है, जो संसाररूपी रोगकी एकमात्र औषध हो ? सब देवताओंमें कौन मोक्ष प्रदान करनेवाला श्रेष्ठ देवता है? यह सब बताइये।

वसिष्ठजी बोले- राजन् ! प्राचीन कालकी बात है-यज्ञ और दानमें लगे रहनेवाले सम्पूर्ण महर्षियोंने ब्रह्माजीके पुत्र मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे प्रश्न किया ‘भगवन्! हम किस मन्त्रसे परमपदको प्राप्त होंगे ?

महाभाग ! यह हमें बताइये, हमारे ऊपर कृपा कीजिये।’ नारदजीने कहा- महर्षियो! पूर्वकालमें सनकादि योगियोंने एकान्तमें बैठे हुए ब्रह्माजीसे परम दुर्लभ मोक्ष मार्गके विषयमें प्रश्न किया।

तब ब्रह्माजीने कहा— सम्पूर्ण योगिजन परम उत्तम मोक्ष मार्गका वर्णन सुनें। बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मैं इस अद्भुत रहस्यका वर्णन करूँगा। समस्त देवता और तपस्वी ऋषि भी इस रहस्यको नहीं जानते। सृष्टिके आदिमें अविनाशी भगवान् नारायण मुझपर प्रसन्न हुए। उस समय मैंने उन पुराणपुरुषोत्तमसे पूछा- ‘भगवन्! किस मन्त्रसे मनुष्योंका इस संसारसे उद्धार होगा? इसको यथार्थरूपसे बतलाइये। इससे सब लोगोंका हित होगा। कौन सा ऐसा मन्त्र है, जो बिना पुरश्चरणके ही एक बार उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्योंको परमपद प्रदान करता है।’

श्रीभगवान् बोले- महाभाग ! तुम सब लोकोंकेहितैषी हो। तुमने यह बहुत उत्तम बात पूछी है। अतः मैं तुम्हें वह रहस्य बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकते हैं। लक्ष्मी और नारायण-ये दो मन्त्ररत्न शरणागतजनोंकी रक्षा करते हैं। सब मन्त्रोंकी अपेक्षा ये शुभकारक हैं। एक बार स्मरण करनेमात्रसे ये परमपद प्रदान करते हैं। लक्ष्मीनारायण मन्त्र सब फलोंको देनेवाला है। जो मेरा भक्त नहीं है, वह इस मन्त्रको पानेका अधिकारी नहीं है। उसे यत्नपूर्वक दूर रखना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र तथा इतर जातिके मनुष्य भी यदि मेरे भक्त हों तो वे सभी इस मन्त्रको पानेके अधिकारी हैं। जो शरणमें आये हों, मेरे सिवा दूसरेका सेवन न करते हों तथा अन्य किसी साधनका आश्रय न लेते हों-ऐसे लोगोंको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। यह सबको शरण देनेवाला मन्त्र है। एक बार उच्चारण करनेपर भी यह आर्त्त प्राणियोंको शीघ्र फल प्रदान करनेवाला है। आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी अथवा ज्ञानी- जो कोई भी एक बार मेरी शरणमें आ जाता है, उसे उक्त मन्त्रका पूरा फल मिलता है। जो भक्तिहीन, अभिमानी, नास्तिक, कृतघ्न एवं श्रद्धारहित हो, सुननेकी इच्छा न रखता हो तथा एक वर्षतक साथ न रह चुका हो ऐसे मनुष्यको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो काम-क्रोधसे मुक्त और दम्भ-लोभसे रहित हो तथा अनन्यभक्तियोगके द्वारा मेरी सेवा करता हो, उसे विधिपूर्वक इस उत्तम मन्त्ररत्नका उपदेश करना उचित है।

मेरी आराधना करना, मुझमें समस्त कर्मोंका अर्पण करना, अनन्यभावसे मेरी शरणमें आना, मुझे सबकर्मोंका फल अत्यन्त विश्वासपूर्वक समर्पित कर देना, मेरे सिवा और किसी साधनपर भरोसा न रखना तथा अपने लिये किसी वस्तुका संग्रह न करना-ये सब शरणागत भक्तके नियम हैं। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। उक्त मन्त्रका मैं सर्वव्यापी सनातन नारायण ही ऋषि हूँ। लक्ष्मीके साथ मैं ही इसका देवता भी हूँ अर्थात् वात्सल्य रसके समुद्र, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर, श्रीमान्, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, निरन्तर पूर्णकाम, सर्वव्यापक, सबके बन्धु और कृपामयी सुधाके सागर लक्ष्मीसहित मैं नारायण ही इसका देवता हूँ । अतः मेरी अनुगामिनी लक्ष्मीदेवीके साथ मुझ विश्वरूपी भगवान्‌का ध्यान करना चाहिये। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके पवित्र हो उक्त मन्त्ररत्नद्वारा गन्ध-पुष्प आदि निवेदन करके शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले दिव्यरूपधारी मुझ विष्णुका मेरे वामांकमें विराजमान लक्ष्मीसहित पूजन करे। प्रजापते ! इस प्रकार एक बार पूजा करनेपर भी मैं सन्तुष्ट हो जाता हूँ।

ब्रह्माजीने कहा – नाथ! आपने इस उत्तम रहस्यका भलीभाँति वर्णन किया तथा मन्त्ररत्नके प्रभावको भी बतलाया, जो मनुष्योंको सब प्रकारकी सिद्धिका प्रदान करनेवाला है। आप सम्पूर्ण लोकोंके पिता, माता, गुरु, स्वामी, सखा, भ्राता, गति, शरण और सुहृद् हैं। देवेश्वर! मैं तो आपका दास, शिष्य तथा सुहृद् हूँ। अतः दयासिन्धो! मुझे अपनेसे अभिन्न बना लीजिये। सर्वज्ञ ! अब आप इस समय सब लोगोंके हितकी इच्छासे उत्तम विधिके साथ मन्त्ररत्नकी दीक्षाका तत्त्वतः वर्णन कीजिये।

श्रीभगवान् बोले- वत्स! सुनो-मैं मन्त्र दीक्षाकी उत्तम विधि बतलाता हूँ। मेरे आश्रयकीसिद्धिके लिये पहले आचार्यकी शरण ले आचार्य ऐसे होने चाहिये – जो वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न, मेरे भक्त, द्वेषरहित, मन्त्रके ज्ञाता, मन्त्रके भक्त, मन्त्रकी शरण लेनेवाले, पवित्र, ब्रह्मविद्याके विशेषज्ञ, मेरे भजनके सिवा और किसी साधनका सहारा न लेनेवाले, अन्य किसीके नियन्त्रणमें न रहनेवाले, ब्राह्मण, वीतराग, क्रोध-लोभसे शून्य, सदाचारकी शिक्षा देनेवाले, मुमुक्षु तथा परमार्थवेत्ता हों। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको ही आचार्य कहा गया है। जो आचारकी शिक्षा दे, उसीका नाम आचार्य है। जो आचार्यके अधीन हो, उनके अनुशासनमें मन लगाये और आज्ञापालनमें स्थिरचित्त हो, उसे ही साधु पुरुषोंने शिष्य कहा है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त सर्वगुणसम्पन्न शिष्यको विधिपूर्वक उत्तम मन्त्ररत्नका उपदेश करे। द्वादशीको, श्रवण नक्षत्रमें या वैष्णवके बताये हुए किसी भी समयमें उत्तम आचार्यकी प्राप्ति होनेपर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।

वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार मन्त्ररत्नका उपदेश पाकर तीनों लोकोंके सामने ब्रह्माजीने मुझको और नारदजीको भी उक्त मन्त्रका उपदेश दिया। तत्पश्चात् नैमिषारण्यवासी शौनकादि महर्षियोंको नारदजीने इस मन्त्रका उपदेश दिया, जो शरणागतोंकी रक्षा करता है। राजन्! महर्षि भी इस गुह्यतम मन्त्रको नहीं जानते। लक्ष्मी और नारायण-ये दोनों मन्त्र परम रहस्यमय हैं। इन दोनोंसे श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं है। इन दोनोंसे श्रेष्ठ धर्म सम्पूर्ण लोकोंमें कोई नहीं है। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें तीन बार सत्यकी प्रतिज्ञा करके कहा था- ‘मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। उनकी सेवा ही सम्पूर्ण शुभाशुभकर्मोंका मूलोच्छेद करनेवाला मोक्ष है।’

अध्याय 245 भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण

राजा दिलीपने कहा- भगवन्! हरिभक्तिमयी सुधसे पूर्ण आपके वचनों को सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं होती अधिकाधिक सुनने की इच्छा बढ़ती जाती है। अतः इस विषयमें जितनी बातें हों, सब बताइये।मुनिश्रेष्ठ ! इस भयानक संसाररूपी वनमें आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंके दावानलकी महाज्वालासे सन्तप्त हुए मनुष्योंके लिये श्रीहरिभक्तिमयी सुधाके समुद्रको छोड़कर दूसरा कौन-सा आश्रय हो सकता है ? महामुने! मुनिजनजिनकी सदा उपासना करते हैं, परमात्माकी भक्तिके उन विभिन्न रूपोंको इस समय विस्तारके साथ बतलाइये।

वसिष्ठजीने कहा- राजेन्द्र ! तुम्हारा प्रश्न बहुत उत्तम है। यह मनुष्योंको संसार सागरके पार उतारनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भक्ति नित्य सुख देनेवाली है। प्राचीन कालमें कैलास पर्वतके शिखरपर भगवती पार्वतीजीने लोकपूजित भगवान् शंकरसे इसी महान् प्रश्नको पूछा था।

पार्वतीजी बोलीं- देवदेव त्रिपुरासुरको मारनेवाले महादेव सुरेश्वर। मुझे विष्णुभक्तिका उपदेश कीजिये, जो सब प्राणियोंको मुक्ति देनेवाली है।

श्रीमहादेवजीने कहा सब लोकौका हित चाहनेवाली महादेवी! तुम्हें साधुवाद। तुम जो भगवान् लक्ष्मीपतिके उत्तम माहात्म्यके विषयमें प्रश्न करती हो, यह बहुत ही उत्तम है। पार्वती! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा हो और भगवान् विष्णुकी भक्त हो। तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारे शील, रूप और गुणोंसे सदा ही सन्तुष्ट रहता हूँ। गिरिजे मैं उत्तम भगवद्भक्ति, भगवान् विष्णुके स्वरूप तथा उनके मन्त्रोंके विधानका वर्णन करता हूँ; सुनो। भगवान् नारायण ही परमार्थतत्त्व हैं। वे ही विष्णु, वासुदेव, सनातन, परमात्मा, परब्रह्म, परम ज्योति, परात्पर, अच्युत, पुरुष, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर, नित्य, सर्वगत, स्थाणु, रुद्र, साक्षी, प्रजापति, यज्ञ, साक्षात्, यज्ञपति, ब्रह्मणस्पति, हिरण्यगर्भ, सविता, लोककर्ता, लोकपालक और विभु आदि नामोंसे पुकारे जाते हैं। वे भगवान् विष्णु ‘अ’ अक्षरके वाच्य, लक्ष्मीसे सम्पन्न, लीलाके स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है, उस जीव-समुदायके तथा अमृतत्व (मोक्ष) के भी स्वामी हैं। वे विश्वात्मा सहस्रों मस्तकवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहसों पैरवाले हैं। उनका कभी अन्त नहीं होता। इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। लक्ष्मी के पति होनेसे औपति नाम धारण करते हैं। योगिजन उनमें रमण करते हैं, इसलिये उनकानाम राम है। वे समस्त गुणोंको धारण करते हैं, तथापि निर्गुण हैं। महान् हैं। वे समस्त लोकोंके ईश्वर, श्रीमान् सर्वज्ञ तथा सब ओर मुखवाले हैं। पार्वती उन लोकप्रधान जगदीश्वर भगवान् वासुदेवके माहात्म्यका जितना मुझसे हो सकेगा, वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तो मैं ब्रह्माजी तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसका पूरा वर्णन नहीं कर सकते। सम्पूर्ण उपनिषदोंमें भगवानकी महिमाका ही प्रतिपादन है तथा वेदान्तमें उन्हींको परमार्थतत्त्व निश्चित किया गया है।

अब मैं भगवान्की उपासनाके पृथक् पृथक् भेद बतलाता हूँ, सुनो। भगवान्‌का अर्चन, उनके मन्त्रोंका जप, स्वरूपका ध्यान, नामोंका स्मरण, कीर्तन, श्रवण, वन्दन, चरण सेवन, चरणोदक सेवन, उनका प्रसाद ग्रहण करना, भगवद्भक्तोंकी सेवा, द्वादशीव्रतका पालन तथा तुलसीका वृक्ष लगाना यह सब देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी भक्ति है, जो भव-बन्धनसे छुटकारा दिलानेवाली है। सम्पूर्ण देवताओंके तथा मेरे लिये भी पुरुषोत्तम श्रीहरि ही पूजनीय हैं। ब्राह्मणोंके लिये तो वे विशेषरूपसे पूज्य हैं। अतः ब्राह्मणोंको उचित है कि वे प्रतिदिन विधिपूर्वक श्रीहरिका पूजन करें।

श्रेष्ठ द्विजको अष्टाक्षर मन्त्रका अभ्यास करना चाहिये प्रणवको मिलाकर ही वह मन्त्र अष्टाक्षर कहा गया है । मन्त्र है- ‘ॐ नमो नारायणाय’। इस प्रकार इस मन्त्रको अष्टाक्षर जानना चाहिये। यह सब मनोरथोंकी सिद्धि और सब दुःखोंका नाश करनेवाला है। इसे सर्वमन्त्रस्वरूप और शुभकारक माना गया है। इस मन्त्रके ‘ऋषि’ और ‘देवता’ लक्ष्मीपति भगवान् नारायण ही हैं। ‘छन्द’ दैवी गायत्री है। प्रणवको इसका ‘बीज’ कहा गया है। भगवान्से कभी विलग न होनेवाली भगवती लक्ष्मीको ही विद्वान् पुरुष इस मन्त्रकी ‘शक्ति’ कहते हैं। इस मन्त्रका पहला पद ‘ॐ’ दूसरा पद ‘नमः’ और तीसरा पद ‘नारायणाय’ है। इस प्रकार यह तीन पदोंका मन्त्र बतलाया गया है। प्रणवमें तीन अक्षरहैं- अकार, उकार तथा मकार। प्रणवको तीनों वेदोंका स्वरूप बतलाया गया है। यह ब्रह्मका निवासस्थान है। अकारसे भगवान् विष्णुका और उकारसे भगवती लक्ष्मीका प्रतिपादन होता है। मकारसे उन दोनोंके दासभूत जीवात्माका कथन है, जो पचीस तत्त्व है।

किसी-किसीके मतमें उकार अवधारणवाची है। इस पक्षमें भी श्रीतत्त्वका प्रतिपादन उकारके ही द्वारा किया जाता है। जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्यसे कभी अलग नहीं होती, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी श्रीविष्णुसे नित्य संयुक्त रहती हैं। अकारसे जिनका बोध कराया जाता है, वे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु कारणके भी कारण हैं। सम्पूर्ण जीवात्माओंके प्रधान अंगी हैं। जगत्‌के बीज हैं और परमपुरुष हैं। वे ही जगत्के कर्ता, पालक, ईश्वर और लोकके बन्धु बान्धव हैं तथा उनकी मनोरमा पत्नी लक्ष्मी सम्पूर्ण जगत्की माता, अधीश्वरी और आधारशक्ति हैं। वे नित्य हैं और श्रीविष्णुसे कभी विलग नहीं होतीं। उकारसे उन्होंके तत्वका बोध कराया जाता है। मकारसे इन दोनोंके दास जीवात्माका कथन है, जिसे विद्वान् पुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यह ज्ञानका आश्रय और ज्ञानरूपी गुणसे युक्त है। इसे चित्त और प्रकृतिसे परे माना गया है। यह अजन्मा, निर्विकार, एकरूप, स्वरूपका भागी, अणु, नित्य, अव्यापक, चिदानन्द स्वरूप ‘अहम्’ पदका अर्थ, अविनाशी, क्षेत्र (शरीर) का अधिष्ठाता, भिन्न-भिन्न रूप धारण करनेवाला, सनातन, जलाने, काटने, गलाने और सुखानेमें न आनेवाला तथा अविनाशी है। ऐसे गुणोंसे युक्त जो जीवात्मा है, वह सदा परमात्माका अंगभूत है। वह केवल श्रीहरिका ही दास है और किसीका नहीं। इस प्रकार मध्यम अक्षर उकारके द्वारा जीवके दासभावका ही अवधारण (निश्चय) किया जाता है। इस तरह प्रणवका अर्थ जानना चाहिये। प्रणवका अर्थ स्पष्ट होजानेपर शेष मन्त्र के द्वारा परमात्मा दासभूत जीवकी परतन्त्रता ही सिद्ध होती है। वह कभी स्वतन्त्र नहीं होता। अतः अपनी स्वतन्त्रताके महान अहंकारको मनसे दूर कर देना चाहिये अहंकार बुद्धिसे जो कर्म किया जाता है, उसका भी निषेध है।

‘मनस्’–मन शब्दमें जो मक्कार है, वह अहंकारका वाचक है और नकार उसका निषेध करनेवाला है। अतः मनसे ही जीवके लिये अहंकार त्यागकी प्रेरणा मिलती है। अहंकारसे युक्त मनुष्यको तनिक भी सुख नहीं मिलता जिसका चित्त अहंकारसे मोहित है, वह घोर अन्धकारसे पूर्ण नरकमें गिरता है। इसलिये मनके द्वारा क्षेत्रज्ञकी स्वतन्त्रताका निषेध किया गया है। वह भगवान् के अधीन है। भगवान् के अधीन ही उसका जीवन है। अतः चेतन जीवात्मा किसी साधनका स्वतन्त्र कर्ता नहीं है। ईश्वरके संकल्पसे ही सम्पूर्ण चराचर जगत् अपने-अपने व्यापारमें लगा है। अतः जीव अपने सामर्थ्यपर निर्भर रहना छोड़ दे ईश्वरके सामर्थ्य से उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है। अपना सारा भार भगवान् लक्ष्मीपतिको सौंपकर उनकी आराधनाके ही कर्म करे। श्रीहरि परमात्मा हैं। मैं सदा उनका दास बना रहूँ।’ इस भावसे स्वेच्छापूर्वक अपने आत्माको ईश्वरकी सेवामें लगाना चाहिये। इस प्रकार मनके द्वारा अहंता, ममताका त्याग करना उचित है। देहमें जो अहंबुद्धि होती है, वही संसार-बन्धनका मूल कारण है। वही कर्मोंके बन्धनमें डालती है। अतः विद्वान् पुरुष अहंकारको त्याग दे

पार्वती! अब मैं ‘नारायण’ शब्दकी व्याख्या करता हूँ। शुभे ! नर अर्थात् जीवोंके समुदायको नार कहते हैं। उन ‘नार’ शब्दवाच्य जीवोंके अयन-गति अर्थात् आश्रय परम पुरुष श्रीविष्णु हैं। अतः वे नारायण कहलाते हैं अथवा नार यानी जीव उन भगवान्‌के अपननिवासस्थान हैं। इसलिये भी उन्हें नारायण कहा जाता है। जड़-चेतनरूप जितना भी जगत् देखा या सुना जाता है, उसको पूर्णरूपसे व्याप्त करके भगवान् नित्य विराजमान हैं। इसलिये उनका नाम नारायण है। जो कल्पके अन्तमें सम्पूर्ण जगत्‌को अपना ग्रास बनाकर अपने ही भीतर धारण करते हैं और सृष्टिके आरम्भकाल में पुनः सबकी सृष्टि करते हैं, वे भगवान् नारायण कहे गये हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् नार कहलाता है। उसको जिनका संग नित्य प्राप्त है अथवा उसे जिनके द्वारा उत्तम गति प्राप्त होती है, उन्हें नारायण कहते हैं। जलसे फेनकी भाँति जिनसे सम्पूर्ण लोक उत्पन्न होते और पुनः जिनमें लीन हो जाते हैं, उन भगवान्‌को नारायण कहा गया है। जो अविनाशी पद, नित्यस्वरूप तथा नित्यप्राप्त भोगोंसे सम्पन्न हैं, साथ ही जो सम्पूर्ण जगत्का शासन करनेवाले हैं, उन भगवान्का नाम नारायण है। दिव्य, एक, सनातन और अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ही नारायण कहलाते हैं। द्रष्टा और दृश्य, श्रोता और श्रोतव्य, स्पर्श करनेवाला और स्पृश्य, ध्याता और ध्येय, वक्ता और वाच्य तथा ज्ञाता और ज्ञेय-जो कुछ भी जड़-चेतनमय जगत् है, वह सब लक्ष्मीपति श्रीहरि हैं, जिन्हें नारायण कहा गया है। वे सहसों मस्तकवाले अन्तर्यामी पुरुष, सहस्रों नेत्रोंसे युक्त तथा सहस्रों चरणोंवाले हैं। भूत और वर्तमान- सब कुछ नारायण श्रीहरि ही हैं। अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है, उस प्राणिसमुदाय तथा अमृतत्व – मोक्षके भी स्वामी वे ही हैं। वे ही विराट् पुरुष हैं। वे अन्तर्यामी पुरुष ही श्रीविष्णु, वासुदेव, अच्युत, हरि, हिरण्मय, भगवान्, अमृत, शाश्वत तथा शिव आदि नामों से पुकारे जाते हैं। वे ही सम्पूर्ण जगत्के पालक और सब लोकॉपर शासन करनेवाले ईश्वर हैं। वे हिरण्मय अण्डको उत्पन्न करनेके कारण हिरण्यगर्भ और सबको जन्म देनेके कारण सविता हैं। उनकी महिमाका अन्त नहीं है, इसलिये वे अनन्त कहलाते हैं। वे महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न होनेके कारण महेश्वर हैं। उन्हींका नाम भगवान् ( षड्विध ऐश्वर्यसे युक्त) और पुरुष है। ‘वासुदेव’ शब्द बिना किसी उपाधिके सर्वात्माका बोधक है। उन्होंको ईश्वर, भगवान् विष्णु, परमात्मा,संसारके सुहृद्, चराचर प्राणियोंके एकमात्र शासक और यतियोंकी परमगति कहते हैं। जिन्हें वेदके आदिमें स्वर कहा गया है, जो वेदान्तमें भी प्रतिष्ठित हैं तथा जो प्रकृतिलीन पुरुषसे भी परे हैं, वे ही महेश्वर कहलाते हैं। प्रणवका जो अकार है, वह श्रीविष्णु ही हैं और जो विष्णु हैं, वे ही नारायण हरि हैं। उन्हींको नित्यपुरुष, परमात्मा और महेश्वर कहते हैं मुनियोंने उन्हें ही ईश्वर नाम दिया है। इसलिये भगवान् वासुदेवमें उपाधिशून्य ‘ईश्वर’ शब्दकी प्रतिष्ठा है। सनातन वेदवादियोंने उन्हें आत्मेश्वर कहा है इसलिये वासुदेव महेश्वरत्वकी भी प्रतिष्ठा है। ये त्रिपाद विभूति तथा लीलाके भी अधीश्वर हैं। जो श्री भू तथा लीला देवीके स्वामी हैं, उन्हींको अच्युत कहा गया है। इसलिये वासुदेवमें सर्वेश्वर शब्दकी भी प्रतिष्ठा है। जो यज्ञके ईश्वर, यज्ञस्वरूप, यज्ञके भोक्ता, यज्ञ करनेवाले, विभु, यज्ञरक्षक और यज्ञपुरुष हैं, वे भगवान् ही परमेश्वर कहलाते हैं। वे ही यज्ञके अधीश्वर होकर समस्त हव्यकव्योंका भोग लगाते हैं। वे ही इस लोकमें अविनाशी श्रीहरि एवं ईश्वर कहलाते हैं। उनके निकट आनेसे समस्त राक्षस, असुर और भूत तत्काल भाग जाते हैं जो विराट्रूप धारण करके अपनी विभूतिसे तीनों लोकोंको तृप्त करते हैं, वे पापको हरनेवाले श्रीजनार्दन ही परमेश्वर हैं जब पुरुषरूपी हविके द्वारा देवताओंने यज्ञ किया, तब उस यज्ञसे नीचे ऊपर दोनों ओर दाँत रखनेवाले जीव उत्पन्न हुए। सबको होमनेवाले उस यज्ञसे ही ऋग्वेद और सामवेदकी उत्पत्ति हुई। उसीसे घोड़े, गौ और पुरुष आदि उत्पन्न हुए। उस सर्वयज्ञमय पुरुष श्रीहरिके शरीरसे स्थावर-जंगमरूप समस्त जगत्की उत्पत्ति हुई। उनके मुख, बाहु, ऊरु और चरणोंसे क्रमशः ब्राह्मण आदि वर्ण उत्पन्न हुए। भगवान्के पैरोंसे पृथ्वी और मस्तकसे आकाशका प्रादुर्भाव हुआ। उनके मनसे चन्द्रमा, नेत्रोंसे सूर्य मुखसे अग्नि, सिरसे द्युलोक, प्राणसे सदा चलनेवाले वायु, नाभिसे आकाश तथा सम्पूर्ण चराचर जगत्की उत्पत्ति हुई। सब कुछ श्रीविष्णुसे ही प्रकट हुआ है, इसलिये वे सर्वव्यापी नारायण सर्वमय कहलाते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्को सृष्टि करके श्रीहरि पुनः उसका संहार करते हैं-ठीक उसी तरह जैसे मकड़ी अपनेसे प्रकट हुए तन्तुओंकोपुनः अपनेमें ही लीन कर लेती है। ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वरुण और यम- सभी देवताओंको अपने वशमें करके उनका संहार करते हैं; इसलिये भगवान्‌को हरि कहा जाता है। जब सारा जगत् प्रलयके समय एकार्णवमें निमग्न हो जाता है, उस समय वे सनातन पुरुष श्रीहरि संसारको अपने उदरमें स्थापित करके स्वयं मायामय वटवृक्षके पत्रपर शयन करते हैं। कल्पके आरम्भमें एकमात्र सर्वव्यापी एवं अविनाशी भगवान् नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे, न रुद्र । न देवता थे, नमहर्षि। ये पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र, लोक तथा महत्तत्त्वसे आवृत ब्रह्माण्ड भी नहीं थे। श्रीहरिने समस्त जगत्का संहार करके सृष्टिकालमें पुनः उसकी सृष्टि की; इसलिये उन्हें नारायण कहा गया है। पार्वती! ‘नारायणाय’ इस चतुर्थ्यन्त पदसे जीवके दासभावका प्रतिपादन होता है। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण जगत् भगवान्‌का दास ही है। पहले इस अर्थको समझकर पीछे मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये । मन्त्रार्थको न जाननेसे सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।

अध्याय 246 श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन

पार्वतीजी बोलीं- देवेश्वर आप मन्त्रोंके अर्थ और पदोंकी महिमाको विस्तारके साथ बतलाइये। साथ ही ईश्वरके स्वरूप, गुण, विभूति, श्रीविष्णुके परमधाम तथा व्यूह भेदोंका भी यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये।

महादेवजीने कहा- देवि! सुनो-मैं परमात्माके स्वरूप, विभूति, गुण तथा अवस्थाओंका वर्णन करता हूँ। भगवान् के हाथ, पैर और नेत्र सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त हैं। समस्त भुवन और श्रेष्ठ धाम भगवान्‌में ही स्थित हैं। वे महर्षियोंका मन अपनेमें स्थिर करके विराजमान हैं। उनका स्वरूप विशाल एवं व्यापक है। वे लक्ष्मीके पति और पुरुषोत्तम हैं। उनका लावण्य करोड़ों कामदेवोंके समान है। वे नित्य तरुण किशोर-विग्रह धारण करके जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मीजीके साथ परमपद- वैकुण्ठधाममें विराजते हैं। वह परमधाम ही परमव्योम कहलाता है। परमव्योम ऐश्वर्यका उपभोग करनेके लिये है और यह सम्पूर्ण जगत् लीला करनेके लिये इस प्रकार भोगभूमि और क्रीड़ा भूमिके रूपमें श्रीविष्णुकी दो विभूतियाँ स्थित हैं। जब वे लीलाका उपसंहार करते हैं, तब भोगभूमिमें उनकी नित्य स्थिति होती है भोग और लीला दोनोंको वे अपनी शक्ति ही धारण करते हैं भोगभूमि या परमधाम त्रिपाद विभूतिसे व्याप्त है अर्थात् भगवद्विभूतिके तीन अंशोंमें उसकी स्थिति है और इस लोकमें जो कुछ भी है, वह भगवान्की पाद विभूतिके अन्तर्गत है। परमात्माकी त्रिपाद विभूति नित्य और पाद विभूति अनित्य है। परमधाममें भगवान्का जो शुभ विग्रह विराजमान है, वह नित्य है। वह कभी अपनी महिमासे च्युत नहींहोता, उसे सनातन एवं दिव्य माना गया है। वह सदा तरुणावस्थासे सुशोभित रहता है। वहाँ भगवान्‌को भगवती श्रीदेवी और भूदेवीके साथ नित्य संभोग प्राप्त है। जगन्माता लक्ष्मी भी नित्यरूपा हैं। वे श्रीविष्णुसे कभी पृथक् नहीं होतीं। जैसे भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी भी हैं। पार्वती! श्रीविष्णुपत्नी रमा सम्पूर्ण जगत्की अधीश्वरी और नित्य कल्याणमयी हैं। उनके भी हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब ओर व्याप्त हैं। वे भगवान् नारायणकी शक्ति, सम्पूर्ण जगत्की माता और सबको आश्रय प्रदान करनेवाली हैं। स्थावर
जंगमरूप सारा जगत् उनके कृपा-कटाक्षपर ही निर्भर है । विश्वका पालन और संहार उनके नेत्रोंके खुलने और बंद होनेसे ही हुआ करते हैं। वे महालक्ष्मी सबकी आदिभूता, त्रिगुणमयी और परमेश्वरी हैं। व्यक्त और अव्यक्त भेदसे उनके दो रूप हैं। वे उन दोनों रूपोंसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं। जल आदि रसके रूपसे वे ही लीलामय देह धारण करके प्रकट होती हैं। लक्ष्मीरूपमें आकर वे धन प्रदान करनेकी अधिकारिणी होती हैं। ऐसे स्वरूपवाली लक्ष्मीदेवी श्रीहरिके आश्रयमें रहती हैं। सम्पूर्ण वेद तथा उनके द्वारा जाननेयोग्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब श्रीलक्ष्मीके ही स्वरूप हैं। स्त्रीरूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब लक्ष्मीका ही विग्रह कहलाता है। स्त्रियोंमें जो सौन्दर्य, शील, सदाचार और सौभाग्य स्थित है, वह सब लक्ष्मीका ही रूप है। पार्वती! भगवती लक्ष्मी समस्त स्त्रियोंकी शिरोमणि हैं, जिनकी कृपा कटाक्षके पड़नेमात्रसेब्रह्मा, शिव, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, कुबेर, यमराज तथा अग्निदेव प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं।

उनके नाम इस प्रकार हैं-लक्ष्मी, श्री, कमला, विद्या, माता, विष्णुप्रिया, सती, पद्मालया पद्महस्ता, पद्माक्षी, पद्मसुन्दरी, भूतेश्वरी, नित्या, सत्या, सर्वगता, शुभा, विष्णुपत्नी, महादेवी, क्षीरोदतनया (क्षीरसागरकी कन्या), रमा, अनन्तलोकनाभि (अनन्त लोकोंकी उत्पत्रिका केन्द्रस्थान), भू, लीला, सर्वसुखप्रदा, रुक्मिणी, सर्ववेदवती, सरस्वती, गौरी, शान्ति, स्वाहा, स्वधा, रति, नारायणवरारोहा (श्रीविष्णुकी सुन्दरी पत्नी) तथा विष्णोर्नित्यानुपायिनी (सदा श्रीविष्णुके समीप रहनेवाली)। जो प्रातः काल उठकर इन सम्पूर्ण नामका पाठ करता है, उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति तथा विशुद्ध धन-धान्यकी उ प्राप्ति होती है।

हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।

चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं विष्णोरनपगामिनीम् ॥

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।

ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥

(255। 28-29) ‘जिनके श्रीअंगोंका रंग सुवर्णके समान सुन्दर एवं गौर है, जो सोने-चाँदीके हारोंसे सुशोभित और सबको आह्लादित करनेवाली हैं भगवान् श्रीविष्णुसे जिनका कभी वियोग नहीं होता, जो स्वर्णमयी कान्ति धारण करती हैं, उत्तम लक्षणोंसे विभूषित होनेके कारण जिनका नाम लक्ष्मी है, जो सब प्रकारकी सुगन्धोंका द्वार हैं, जिनको परास्त करना कठिन है, जो सदा सब उ अंगोंसे पुष्ट रहती हैं, गायके सूखे गोवरमें जिनका प्र निवास है तथा जो समस्त प्राणियोंकी अधीश्वरी हैं, उन र भगवती श्रीदेवीका में यहाँ आवाहन करता हूँ।’

ऋग्वेद कहे हुए इस मन्त्रके द्वारा स्तुति करनेपर महेश्वरी लक्ष्मीने शिव आदि सभी देवताओंको सब द्व प्रकारका ऐश्वर्य और सुख प्रदान किया था। श्रीविष्णुपत्नी है लक्ष्मी सनातन देवता हैं। वे ही इस जगत्का शासन करती हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत्की स्थिति उन्होंके र कृपा कटाक्षपर निर्भर है। अग्निमें रहनेवाली प्रभाको भाँति भगवती लक्ष्मी जिनके वक्षःस्थलमें निवास करती हैं, वे भगवान् विष्णु सबके ईश्वर, परम शोभा सम्पन्न,अक्षर एवं अविनाशी पुरुष हैं; वे श्रीनारायण वात्सल्य गुणके समुद्र हैं। सबके स्वामी, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, नित्य पूर्णकाम, स्वभावतः सबके सुखी, दयासुधाके सागर, समस्त देहधारियोंके आश्रय, स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाले और भक्तोंपर दवा करनेवाले हैं। उन श्रीविष्णुको नमस्कार है। मैं सम्पूर्ण देश-काल आदि अवस्थाओंमें पूर्णरूपसे भगवान्‌का दासत्व स्वीकार करता हूँ। इस प्रकार स्वरूपका विचार करके सिद्धिप्राप्त पुरुष अनायास ही दासभावको प्राप्त कर लेता है। यही पूर्वोक मन्त्रका अर्थ है। इसको जानकर भगवान्‌में भलीभाँति भक्ति करनी चाहिये। यह चराचर जगत् भगवान्‌का दास ही है। श्रीनारायण इस जगत् के स्वामी, प्रभु, ईश्वर, भ्राता, माता, पिता, बन्धु, निवास, शरण और गति हैं। भगवान् लक्ष्मीपति कल्याणमय गुणोंसे युक्त और समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले हैं। वे ही जगदीश्वर शास्त्रोंमें निर्गुण कहे गये हैं। ‘निर्गुण’ शब्दसे यही बताया गया है कि भगवान् प्रकृतिजन्य हेय गुणोंसे रहित हैं। जहाँ वेदान्तवाक्योंद्वारा प्रपंचका मिथ्यात्व बताया गया है और यह कहा गया है कि यह सारा दृश्यमान जगत् अनित्य है, वहाँ भी ब्रह्माण्डके प्राकृत रूपको ही नश्वर बताया गया है। प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले रूपोंकी ही अनित्यताका प्रतिपादन किया गया है।

महादेवि ! इस कथनका तात्पर्य यह है कि लीला विहारी देवदेव श्रीहरिकी लीलाके लिये ही प्रकृतिकी उत्पत्ति हुई है। चौदह भुवन, सात समुद्र, सात द्वीप, चार प्रकारके प्राणी तथा ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंसे भरा हुआ यह रमणीय ब्रह्माण्ड प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है। यह उत्तरोत्तर महान् दस आवरणोंसे घिरा हुआ है। कला काष्ठा आदि भेदसे जो कालचक्र चल रहा है, उसीके द्वारा संसारकी सृष्टि पालन और संहार आदि कार्य होते. हैं। एक सहस्र चतुर्युग व्यतीत होनेपर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होता है। इतने ही बड़े दिनसे सौ वर्षोंकी उनकी आयु मानी गयी है। ब्रह्माजीको आयु समाप्त होनेपर सबका संहार हो जाता है। ब्रह्माण्डके समस्त लोक कालाग्निसे दग्ध हो जाते हैं सर्वात्मा श्रीविष्णुकी प्रकृतिमें उनका लय हो जाता है। ब्रह्माण्डऔर आवरणके समस्त भूत प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं ।। सम्पूर्ण जगत्का आधार प्रकृति है और प्रकृतिके आधार श्रीहरि । प्रकृतिके द्वारा ही भगवान् सदा जगत्की सृष्टि और संहार करते हैं। देवाधिदेव श्रीविष्णुने लीलाके लिये जगन्मयी मायाकी सृष्टि की है। वही अविद्या, प्रकृति, माया और महाविद्या कहाती है। सृष्टि, पालन और संहारका कारण भी वही है। वह सदा रहनेवाली है। योगनिद्रा और महामाया भी उसीके नाम हैं। प्रकृति सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंसे युक्त है। उसे अव्यक्त और प्रधान भी कहते हैं। वह लीलाविहारी श्रीकृष्णकी क्रीड़ास्थली है। संसारकी उत्पत्ति और प्रलय सदा उसीसे होते हैं। प्रकृतिके स्थान असंख्य हैं, जो घोर अन्धकारसे पूर्ण हैं। प्रकृतिसे ऊपरकी सीमामें विरजा नामकी नदी है; किन्तु नीचेकी ओर उस सनातनी प्रकृतिकी कोई सीमा नहीं है। उसने स्थूल, सूक्ष्म आदि अवस्थाओंके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है। प्रकृतिके विकाससे सृष्टि और संकोचावस्थासे प्रलय होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भूत प्रकृतिके ही अन्तर्गत हैं। यह जो महान् शून्य (आकाश) है, वह सब भी प्रकृतिके ही भीतर है। इस तरह प्राकृतरूप ब्रह्माण्ड अथवा पादविभूतिके स्वरूपका अच्छी तरह वर्णन किया गया।

गिरिराजकुमारी ! अब त्रिपाद्-विभूतिके स्वरूपका वर्णन सुनो। प्रकृति एवं परम व्योमके बीचमें विरजा नामकी नदी है। वह कल्याणमयी सरिता वेदांगों के स्वेदजनित जलसे प्रवाहित होती है। उसके दूसरे पारमें परम व्योम है, जिसमें त्रिपाद्-विभूतिमय सनातन, अमृत, शाश्वत, नित्य एवं अनन्त परमधाम है। वह शुद्ध, सत्त्वमय, दिव्य, अक्षर एवं परब्रह्मका धाम है। उसका तेज अनेक कोटि सूर्य तथा अग्नियोंके समान है। वह धाम अविनाशी, सर्ववेदमय, शुद्ध, सब प्रकारके प्रलयसे रहित, परिमाणशून्य, कभी जीर्ण न होनेवाला, नित्य, जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंसे रहित, हिरण्यमय,मोक्षपद, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, न्यूनता-अधिकता तथा आदि-अन्तसे शून्य, शुभ, तेजस्वी होनेके कारण अत्यन्त अद्भुत, रमणीय, नित्य तथा आनन्दका सागर है। श्रीविष्णुका वह परमपद ऐसे ही गुणोंसे युक्त है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निदेव नहीं प्रकाशित करते- वह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है। जहाँ जाकर जीव फिर कभी नहीं लौटते, वही श्रीहरिका परमधाम है। श्रीविष्णुका वह परमधाम नित्य, शाश्वत एवं अच्युत है। सौ करोड़ कल्पोंमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं, ब्रह्मा तथा श्रेष्ठ मुनि श्रीहरिके उस पदका वर्णन नहीं कर सकते। जहाँ अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले साक्षात् परमेश्वर श्रीविष्णु विराजमान हैं, उसकी महिमाको वे स्वयं ही जानते हैं। जो अविनाशी पद है, जिसकी महिमाका वेदोंमें गूढरूपसे वर्णन है तथा जिसमें सम्पूर्ण देवता और लोक स्थित हैं उसे जो नहीं जानता, वह केवल ऋचाओंका पाठ करके क्या करेगा। जो उसे जानते हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष समभावसे स्थित होते हैं। श्रीविष्णुके उस परम पदको ज्ञानी पुरुष सदा देखते हैं। वह अक्षर, शाश्वत, नित्य एवं सर्वत्र व्याप्त है। कल्याणकारी नामसे युक्त भगवान् विष्णुके उस परमधाम – गोलोकमें बड़े सींगोंवाली गौएँ रहती हैं तथा वहाँकी प्रजा बड़े सुखसे रहा करती है। गौओं तथा पीनेयोग्य सुखदायक पदार्थोंसे उस परमधामकी बड़ी शोभा होती है। वह सूर्यके समान प्रकाशमान, अन्धकारसे परे, ज्योतिर्मय एवं अच्युत – अविनाशी पद है। श्रीविष्णुके उस परमधामको ही मोक्ष कहते हैं। वहाँ जीव बन्धनसे मुक्त होकर अपने लिये सुखकर पदको प्राप्त होते हैं। वहाँ जानेपर जीव पुनः इस लोकमें नहीं लौटते; इसलिये उसे मोक्ष कहा गया है। मोक्ष, परमपद, अमृत, विष्णुमन्दिर, अक्षर, परमधाम, वैकुण्ठ, शाश्वतपद, नित्यधाम परमव्योम, सर्वोत्कृष्ट पद तथा सनातन पद-ये अविनाशी परमधामके पर्यायवाची शब्द हैं। अब उस त्रिपाद्-विभूतिके स्वरूपका वर्णन करूँगा ।

 

अध्याय 247 वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! त्रिपाद विभूतिके द असंख्य लोक बतलाये गये हैं। वे सब के सब शुद्ध व सत्त्वमय, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, नित्य, निर्विकार, र हेय गुणोंसे रहित, हिरण्मय, शुद्ध, कोटि सूर्योके समान प्रकाशमान, वेदमय, दिव्य तथा काम-क्रोध आदिसे रहित हैं। भगवान् नारायणके चरणकमलोंकी भक्तिमें ही रस लेनेवाले पुरुष उनमें निवास करते हैं। वहाँ निरन्तर सामगानकी सुखदायिनी ध्वनि होती रहती है। वे सभी लोक उपनिषद्-स्वरूप, वेदमय तेजसे युक्त तथा वेदस्वरूप स्त्री-पुरुषोंसे भरे हैं। वेदके ही रससे भरे हुए सरोवर उनकी शोभा बढ़ाते हैं। श्रुति, स्मृति और पुराण आदि भी उन लोकोंके स्वरूप हैं। उनमें दिव्य वृक्ष भी सुशोभित होते हैं। उनके विश्व-विख्यात स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन मुझसे नहीं हो सकता। विरजा और परम व्योमके बीचका जो स्थान है, उसका नाम केवल है। वही अव्यक्त ब्रह्मके उपासकोंके उपभोगमें आता है। वह आत्मानन्दका सुख प्रदान करनेवाला है। उस स्थानको केवल, परमपद, निःश्रेयस्, निर्वाण, कैवल्य और मोक्ष कहते हैं। जो महात्मा भगवान् लक्ष्मीपतिके चरणोंकी भक्ति और सेवाके रसका उपभोग करके पुष्ट हुए हैं, वे महान् सौभाग्यशाली भगवच्चरणसेवक पुरुष श्रीविष्णु के परमधाममें जाते हैं, जो ब्रह्मानन्द प्रदान करनेवाला है।

उसका नाम है वैकुण्ठधाम। वह अनेक जनपदोंसे व्याप्त है। श्रीहरि उसीमें निवास करते हैं। वह रत्नमय प्राकारों, विमानों तथा मणिमय महलोंसे सुशोभित है। उस धामके मध्यभागमें दिव्य नगरी है, जो अयोध्या कहलाती है तथा जो चहारदीवारियों और ऊँचे दरवाजोंसे घिरी है। उनमें मणियों तथा सुवर्णोंके चित्र बने हैं। उस अयोध्यापुरीके चार दरवाजे हैं तथा ऊँचे-ऊँचे गोपुर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। चण्ड आदि द्वारपाल और कुमुद आदि दिक्पाल उसकी रक्षामें रहते हैं। पूर्वके दरवाजेपर चण्ड और प्रचण्ड, दक्षिण-द्वारपर भद्र और सुभद्र, पश्चिम द्वारपर जय और विजय तथा उत्तरकेदरवाजेपर धाता और विधाता नामक द्वारपाल रहते हैं। कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, वामन, शंकुकर्ण, सर्वनिद्र, सुमुख और सुप्रतिष्ठित थे उस नगरीके दिवपाल बताये गये हैं। पार्वती उस पुरीमें कोटि-कोटि अनिके समान तेजोमय गृहोंकी पंक्तियाँ शोभा पाती हैं। उनमें तरुण अवस्थावाले दिव्य नर-नारी निवास करते हैं। पुरीके मध्यभागमें भगवान्‌का मनोहर अन्त: पुर है, जो मणियोंके प्राकारसे युक्त और सुन्दर गोपुरसे सुशोभित है। उसमें भी अनेक अच्छे-अच्छे गृह, विमान और प्रासाद है। दिव्य अपाराएँ और स्वियों सब ओरसे उस अन्तःपुरकी शोभा बढ़ाती हैं। उसके बीचमें एक दिव्य मण्डप है, जो राजाका खास स्थान है; उसमें बड़े-बड़े उत्सव होते रहते हैं। वह मण्डप रत्नोंका बना है तथा उसमें मानिकके हजारों खम्भे लगे हैं। वह दिव्य मोतियाँसे व्याप्त है तथा सामगानसे सुशोभित रहता है मण्डपके मध्यभागमें एक रमणीय सिंहासन है, जो सर्ववेदस्वरूप और शुभ है। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासनको सदा घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य और वैराग्य तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी मूर्तिमान् होकर उस सिंहासनके चारों ओर खड़े रहते हैं शक्ति, आधारशक्ति, चिच्छक्ति, सदाशिवा शक्ति तथा धर्मादि देवताओंकी शक्तियाँ भी वहाँ उपस्थित रहती हैं। सिंहासनके मध्यभागमें अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा निवास करते हैं। कूर्म (कच्छप), नागराज (अनन्त या वासुकि), तीनों वेदोंके स्वामी, गरुड़, छन्द और सम्पूर्ण मन्त्र-ये उसमें पीठरूप धारण करके रहते हैं। वह पीठ सब अक्षरोंसे युक्त है। उसे दिव्य योगपीठ कहते हैं। उसके मध्यभागमें अष्टदलकमल है, जो उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान् है उसके बीचमें सावित्री नामकी कर्णिका है, जिसमें देवताओंके स्वामी परम पुरुष भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीजीके साथ विराजमान होते हैं।

भगवान्का श्रीविग्रह नीलकमलके समान श्याम तथा कोटि सूर्योके समान प्रकाशमान है। वे तरुण कुमार से जान पड़ते हैं। सारा शरीर चिकना है औरप्रत्येक अवयव कोमल खिले हुए लाल कमल-जैसे हाथ तथा पैर अत्यन्त मृदुल प्रतीत होते हैं। नेत्र विकसित कमलके समान जान पड़ते हैं। ललाटका निम्न भाग दो सुन्दर भ्रूलताओंसे अंकित है। सुन्दर नासिका, मनोहर कपोल, शोभावुक मुखकमल, मोतीके दाने-जैसे दाँत और मन्द मुसकानकी छविसे युक्त मूँगे जैसे लाल-लाल ओठ हैं। मुखमण्डल पूर्ण चन्द्रमाकी शोभा धारण करता है। कमल जैसे मुखपर मनोहर हास्यकी छटा छायी रहती है कानोंमें तरुण सूर्यकी भाँति चमकीले कुण्डल उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मस्तक चिकनी, काली और घुंघराली अलकोंसे सुशोभित है। भगवान्के बाल गुंथे हुए हैं, जिनमें पारिजात और मन्दारके पुष्प शोभा पाते हैं। गलेमें कौस्तुभमणि शोभा दे रही है, जो प्रातःकाल उगते हुए सूर्यकी कान्ति धारण करती है। भाँति-भाँतिके हार और सुवर्णकी मालाओंसे शंख-जैसी ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है। सिंहके कंधोंके समान ऊँचे और मोटे कंधे शोभा दे रहे हैं। मोटी और गोलाकार चार भुजाओंसे भगवान्‌का श्रीअंग बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। सबमें अंगूठी, कड़े और भुजबंद हैं, जो शोभावृद्धिके कारण हो रहे हैं। उनका विशाल वक्षःस्थल करोड़ों बालसूर्वोके समान तेजोमय कौस्तुभ आदि सुन्दर आभूषणोंसे देदीप्यमान है। वे वनमालासे विभूषित हैं। नाभिका वह कमल, जो ब्राजीकी जन्मभूमि है, श्री अंगोंको शोभा बढ़ा रहा है। शरीरपर मुलायम पीताम्बर सुशोभित है, जो बाल रविको प्रभाके समान जान पड़ता है दोनों चरणोंमें सुन्दर कड़े विराज रहे हैं, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे जड़े होनेके कारण अत्यन्त विचित्र प्रतीत होते हैं। नखोंकी मियाँ चाँदनीयुक्त चन्द्रमाके समान उद्भासित हो रही हैं। भगवान्का लावण्य कोटि-कोटि कन्दपका दर्प दलन करनेवाला है। वे सौन्दर्यकी निधि और अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले हैं। उनके सर्वागमें दिव्य चन्दनका अनुलेप किया हुआ है। वे दिव्य मालाओं से विभूषित हैं। उनके ऊपरकी दोनों भुजाओंमें रेख और चक्र है तथा नीचेकी भुजाओंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं। भगवान्के वामांकमें महेश्वरी भगवती महालक्ष्मीविराजमान हैं। उनका श्रीअंग सुवर्णके समान कान्तिमान् तथा गौर है। सोने और चाँदी हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। उनकी अवस्था ऐसी है, मानो शरीरमें यौवनका आरम्भ हो रहा है। कानोंमें रत्नोंके कुण्डल और मस्तकपर काली काली घुँघराली अलकें शोभा पाती हैं। दिव्य चन्दनसे चर्चित अंगोंका दिव्य पुष्पोंसे श्रृंगार हुआ है। केशोंमें मन्दार, केतकी और चमेलीके फूल गुंथे हुए हैं। सुन्दर भी, मनोहर नासिका और शोभायमान कटिभाग हैं। पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुख कमलपर मन्द मुसकानकी छटा छा रही है। बाल रविके समान चमकीले कुण्डल कानोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं। तपाये हुए सुवर्णके समान शरीरको कान्ति और आभूषण हैं। चार हाथ हैं, जो सुवर्णमय कमलोंसे विभूषित हैं। भाँति-भाँतिके विचित्र रत्नोंसे युक्त सुवर्णमय कमलोंकी माला, हार, केयूर, कड़े और अंगूठियोंसे श्रीदेवी सुशोभित हैं उनके दो हाथोंमें दो कमल और शेष दो हाथोंमें मातुलुंग (बिजौरा) और जाम्बूनद (धतूरा) शोभा पा रहे हैं। इस प्रकार कभी विलग न होनेवाली महालक्ष्मी के साथ महेश्वर भगवान् विष्णु सनातन परम व्योममें सानन्द विराजमान रहते हैं। उनके दोनों पार्श्वमें भूदेवी और लीलादेवी बैठी रहती हैं। आठों दिशाओंमें अष्टदल कमलके एक-एक दलपर क्रमशः विमला आदि शक्तियाँ सुशोभित होती हैं। उनके नाम ये हैं-विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या तथा ईशाना। ये सब परमात्मा श्रीहरिकी पटरानियाँ हैं, जो सब प्रकारके सुन्दर लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। ये अपने हाथोंमें चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णके दिव्य चैवर लेकर उनके द्वारा सेवा करती हुई अपने पति श्रीहरिको आनन्दित करती हैं। इनके सिवा दिव्य अप्सराएँ तथा पाँच सौ युवती स्त्रियाँ भगवान्‌ के अन्तःपुरमें निवास करती हैं, जो सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, कोटि अग्नियोंके समान तेजस्विनी, समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चन्द्रमुखी हैं उन सबके हाथोंमें कमलके पुष्प शोभा पाते हैं। उन सबसे घिरे हुए महाराज परम पुरुष श्रीहरिकी बड़ी शोभा होती है अनन्त (शेषनाग), गरुड़ तथा सेनानी आदि देवेश्वरों, अन्यान्य पार्षदों तथा नित्यमुक्त भकोंसे सेवित हो रमा सहित परम पुरुषश्रीविष्णु भोग और ऐश्वर्यके द्वारा सदा आनन्दमग्न
रहते हैं। इस प्रकार वैकुण्ठधामके अधिपति भगवान्
नारायण अपने परम पदमें रमण करते हैं। पार्वती ! अब मैं भगवान्‌ के भिन्न-भिन्न व्यूहों और लोकोंका वर्णन करता हूँ। वैकुण्ठधामके पूर्वभागमें श्रीवासुदेवका मन्दिर है। अग्निकोणमें लक्ष्मीका लोक है। दक्षिण दिशामें श्रीसंकर्षणका भवन है। नैर्ऋत्य कोणमें सरस्वतीदेवीका लोक है। पश्चिम दिशामें श्रीप्रद्युम्नका मन्दिर है। वायव्यकोणमें रतिका लोक है। उत्तर- दिशामें श्रीअनिरुद्धका स्थान है और ईशानकोणमें शान्तिलोक है। भगवान्के परमधामको सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि नहीं प्रकाशित करते। कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले योगिजन वहाँ जाकर फिर इस संसारमें नहीं लौटते। जो दो नामोंके एक मन्त्र (लक्ष्मीनारायण) – के जपमें लगे रहते हैं, वे निश्चय ही उस अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। मनुष्य अनन्य भक्तिके साथ उक्त मन्त्रका जप करके उस सनातन दिव्य धामको अनायास ही प्राप्त कर लेते हैं। उनके लिये वह पद जैसा सुगम होता है, वैसा वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, दान, शुभव्रत, तपस्या, उपवास तथा अन्य साधनोंसे भी नहीं होता। त्रिपाद् विभूतिमें जहाँ भगवान् परमेश्वर भगवती लक्ष्मीजीके साथ सदा आनन्दका अनुभव करते हैं, वहाँ संसारकी आश्रयभूता महामायाने हाथ जोड़कर प्रकृतिके साथ उनकी भाँति-भाँति से स्तुति करके कहा- केशव ! इन जीवोंके लिये लोक और शरीर प्रदान कीजिये। सर्वज्ञ ! आप पूर्वकल्पोंकी भाँति अपनी लीलामयी विभूतियोंका विस्तार कीजिये। जड- चेतनमय सम्पूर्ण चराचर जगत्अज्ञान अवस्थामें पड़ा है। आप लीला-विस्तारके लिये इसपर दृष्टिपात कीजिये। परमेश्वर ! मेरे तथा प्रकृतिके साथ जगत्की सृष्टि कीजिये। धर्म-अधर्म, सुख दुःख – सबका संसारमें प्रवेश कराके आप मुझे अपनी आज्ञामें रखकर शीघ्र ही लीला आरम्भ कीजिये ।

श्रीमहादेवजी कहते हैं- मायादेवीके इस प्रकार कहनेपर परमेश्वरने उसके भीतर जगत्की सृष्टि आरम्भ की। जो प्रकृतिसे परे पुरुष कहलाते हैं, वे अच्युत भगवान् विष्णु ही प्रकृतिमें प्रविष्ट हुए । ब्रह्मस्वरूप श्रीहरिने प्रकृतिसे महत्तत्त्वको उत्पन्न किया, जो सब भूतोंका आदि कारण है। महत्से अहंकारका जन्म हुआ। यह अहंकार सत्त्वादि गुणोंके भेदसे तीन प्रकारका है-सात्त्विक, राजस और तामस । विश्वभावन परमात्माने उन गुणोंसे अर्थात् तामस अहंकारसे तन्मात्राओंको उत्पन्न किया। तन्मात्राओंसे आकाश आदि पंचमहाभूत प्रकट हुए, जिनमें क्रमश: एक-एक गुण अधिक हैं। आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जलसे पृथ्वीका प्रादुर्भाव हुआ। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये ही क्रमशः आकाश आदि पंचभूतोंके प्रधान गुण हैं। महाप्रभु श्रीहरिने उत्तरोत्तर भूतोंमें अधिक गुण देख उन सबको लेकर एकमें मिला दिया तथा सबके मेलसे महान् विश्वब्रह्माण्डकी सृष्टि की। उसीमें पुरुषोत्तमने चौदह भुवन तथा ब्रह्मादि देवताओंको उत्पन्न किया। पार्वती ! दैव, तिर्यक्, मानव और स्थावर – यह चार प्रकारका महासर्ग रचा गया। इन चारों सर्गों अथवा योनियोंमें जीव अपने अपने कर्मोंके अनुसार जन्म लेते हैं।

अध्याय 248 देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन

पार्वतीजीने कहा- भगवन्! परम उत्तम देवसर्गका
विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। साथ ही भगवान्के अवतारोंको कथा भी विस्तृतरूपसे कहिये।

श्रीमहादेवजी बोले- देवि । सृष्टिकी इच्छा रखनेवाले भगवान् मधुसूदनने योगनिद्राको प्राप्त होकर मायाके साथ चिरकालतक रमण किया। उससे कालात्माको जन्म दिया, जो कला, काष्ठा, मुहूर्त, पक्ष और मास आदिके रूपमें उपलब्ध होता है। उस समय श्रीहरिकानाभिकमल, जो सम्पूर्ण जगत्का बीज और परम तेजस्वी था, मुकुलाकार हो विकसित होने लगा। उसीसे परम बुद्धिमान् ब्रह्माजी प्रकट हुए। उनके मनमें रजोगुणकी प्रेरणासे सृष्टिकी इच्छा उत्पन्न हुई। तब उन्होंने योगनिद्रामें सोये हुए परमेश्वरका स्तवन किया।

ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर समस्त इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु योगनिद्रासे उठ गये। योगनिद्राको काबूमें करके उन्होंने जगत्की सृष्टि आरम्भ की।जगत्के स्वामी श्रीअच्युतने पहले एक क्षणतक कुछ विचार किया। विचारके पश्चात् उन्होंने सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि की। उस समय सब लोकोंसे युक्त सुवर्णमय अण्डको, सात द्वीप, सात समुद्र और पर्वतोंसहित पृथ्वीको तथा एक अण्डकटाहको भी भगवान्ने अपने नाभिकमलसे उत्पन्न किया। तत्पश्चात् उस अण्डमें श्रीहरि स्वयं ही स्थित हुए। तदनन्तर नारायणने अपने मनसे इच्छानुसार ध्यान किया। ध्यानके अन्तमें उनके ललाटसे पसीने की बूँद प्रकट हुई। वह बूँद बुदबुदेके आकारमें परिणत हो तत्क्षण पृथ्वीपर गिर पड़ी। पार्वती! उसी बुदबुदेसे मैं उत्पन्न हूँ। उस समय रुद्राक्षकी माला और त्रिशूल हाथमें लेकर जटामय मुकुटसे अलंकृत हो मैंने विनयपूर्वक देवेश्वर श्रीविष्णुसे पूछा- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है।’ तब भगवान् नारायणने प्रसन्नतापूर्वक मुझसे कहा- ‘रुद्र! तुम संसारका भयंकर संहार करनेवाले होओगे।’ इस प्रकार मैं भयंकर आकृतिमें जगत्का संहार करनेके लिये ही भगवान् नारायणके श्रीअंगसे उत्पन्न हुआ। जनार्दनने मुझे संहारके कार्यमें नियुक्त करके पुनः अपने नेत्रोंसे अन्धकार दूर करनेवाले चन्द्रमा और सूर्यको उत्पन्न किया। फिर कानोंसे वायु और दिशाओंको, मुखकमलसे इन्द्र और अग्निको, नासिकाके छिद्रोंसे वरुण और मित्रको, भुजाओंसे साध्य और मरुद्गणसहित सम्पूर्ण देवताओंको, रोमकूपोंसे वन और ओषधियोंको तथा त्वचासे पर्वत, समुद्र और गाय आदि पशुओंको प्रकट किया। भगवान्के मुखसे ब्राह्मण, दोनों भुजाओं से क्षत्रिय, जाँघोंसे वैश्य तथा दोनों चरणोंसे शूद्रजातिकी उत्पत्ति हुई।

इस प्रकार सम्पूर्ण जगत्को सृष्टि करके देवेश्वर श्रीकृष्णने उसे अचेतनरूपमें स्थित देख स्वयं ही विश्वरूपसे उसके भीतर प्रवेश किया। श्रीहरिकी शलिके बिना संसार हिल-डुल नहीं सकता। इसलिये सनातन श्रीविष्णु ही सम्पूर्ण जगत्के प्राण हैं। वे ही अव्यक्तरूपमें स्थित होनेपर परमात्मा कहलाते हैं। वे षड्विध ऐश्वर्यसे परिपूर्ण सनातन वासुदेव हैं। वे अपने तीन गुणोंसे चार स्वरूपोंमें स्थित होकर जगत्की सृष्टि करते हैं। प्रशुश्नरूपधारी भगवान् सब ऐश्वयोंसे युक्त है। बड़ा प्रजापति, काल तथा सबके अन्तर्यामीहोकर सृष्टिका कार्य भलीभाँति सिद्ध करते हैं। महात्मा वासुदेवने उन्हें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान प्रदान किया है। लोकपितामह ब्रह्माजी प्रद्युम्न के ही अंशभागी हैं। वे संसारको सृष्टि और पालन भी करते हैं। भगवान् अनिरुद्ध शक्ति और तेजसे सम्पन्न हैं। वे मनुओं, राजाओं, काल तथा जीवके अन्तर्यामी होकर सबका पालन करते हैं। संकर्षण महाविष्णुरूप हैं। उनमें विद्या और बल दोनों हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंके काल, रुद्र और यमके अन्तर्यामी होकर जगत्का संहार करते हैं। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और कल्कि ये दस भगवान् विष्णुके अवतार हैं।

पार्वती! श्रीहरिकी उस अवस्थाका वर्णन सुनो। परमश्रेष्ठ वैकुण्ठलोक, विष्णुलोक, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर ये चार व्यूह महर्षियोंद्वारा बताये गये हैं। वैकुण्ठलोक जलके घेरे में है। वह कारणरूप और शुभ है। उसका तेज कोटि अग्नियोंके समान उद्दीप्त रहता है। वह सम्पूर्ण धर्मोसे युक्त और अविनाशी है। परमधामका जैसा लक्षण बताया गया है, वैसा ही उसका भी है नाना प्रकारके रत्नोंसे उद्भासित वैकुण्ठनगर चण्ड आदि द्वारपालों और कुमुद आदि दिक्पालोंसे सुरक्षित है। भाँति-भाँति की मणियोंसे बने हुए दिल्य गृहोंकी पंक्तियोंसे वह नगर घिरा हुआ है। उसकी चौड़ाई पचपन योजन तथा लंबाई एक हजार योजन है। करोड़ों ऊँचे-ऊँचे महल उसकी शोभा बढ़ाते हैं। वह नगर तरुण अवस्थावाले दिव्य स्त्री-पुरुषोंसे सुशोभित है। वहाँकी स्त्रियाँ और पुरुष समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देते हैं। स्त्रियोंका रूप भगवती लक्ष्मीके समान होता है. और पुरुषोंका भगवान् विष्णुके समान वे सब प्रकार आभूषणोंसे विभूषित होते हैं तथा भक्तिजनित मनोरम आह्लादसे सदा आनन्दमग्न रहते हैं। उनका भगवान् विष्णु के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध बना रहता है। वे सदा उनके समान ही सुख भोगते हैं। जहाँ कहींसे भी श्रीहरिके लोकमें प्रविष्ट हुए शुद्ध अन्तःकरणवाले मानव फिर संसारमें जन्म नहीं लेते। मनीषी पुरुष भगवान् विष्णुके दासभावको ही मोक्ष कहते हैं। उनकी दासताका नाम बन्धन नहीं है। भगवान्के भक्त तो सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त और रोग-शोकसे रहित होते हैं।ब्रह्मलोकतकके प्राणी पुनः संसारमें आकर जन्म लेते, र कर्मोंके बन्धनमें पड़ते और दुःखी तथा भयभीत होते हैं। पार्वती उन लोकोंमें जो फल मिलता है, वह बड़ा आयाससाध्य होता है। वहाँका सुख भोग विषमिश्रित मधुर अन्नके समान है। जब पुण्यकर्मोंका क्षय हो जाता है, तब मनुष्योंको स्वर्गमें स्थित देख देवता कुपित हो उठते हैं और उसे संसारके कर्मबन्धनमें डाल देते हैं; इसलिये स्वर्गका सुख बड़े क्लेशसे सिद्ध होता है। वह अनित्य, कुटिल और दुःखमिश्रित होता है; इसलिये योगी पुरुष उसका परित्याग कर दे। भगवान् विष्णु सब दुःखोंकी राशिका नाश करनेवाले हैं; अतः सदा उनका स्मरण करना चाहिये। भगवान्‌का नाम लेनेमात्रसे मनुष्य परमपदको प्राप्त होते हैं। इसलिये पार्वती! विद्वान् पुरुष सदा भगवान् विष्णुके लोकको पानेकी इच्छा करे। भगवान् दयाके सागर हैं; अतः अनन्यभक्तिके साथ उनका भजन करना चाहिये। वे सर्वज्ञ और गुणवान् हैं। निःसन्देह सबकी रक्षा करते हैं। जो परम कल्याणकारक और सुखमय अष्टाक्षर मन्त्रका जप करता है, वह सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है।

वहाँ भगवान् श्रीहरि सहस्रों सूर्योकी किरणोंसे सुशोभित दिव्य विमानपर विराजमान रहते हैं। उस विमानमें मणियोंके खंभे शोभा पाते हैं। उसमें एक सुवर्णमय पीठ है, जिसे आधारशक्ति आदिने धारण कर रखा है तथा जो भाँति-भाँतिके रत्नोंका बना हुआ एवं अलौकिक है। उसमें अनेकों रंग जान पड़ते हैं। पीठपर अष्टदल कमल है, जिसपर मन्त्रोंके अक्षर और पद अंकित हैं। उसकी सुरम्य कर्णिकामें लक्ष्मी-बीजका शुभ अक्षर अंकित है। उसमें कमलके आसनपर दिव्यविग्रह भगवान् श्रीनारायण विराजमान हैं, जो अरबोंखरबों बालसूयोंके समान कान्ति धारण करते हैं। उनके दाहिने पार्श्वमें सुवर्णके समान कान्तिमती जगन्माता श्रीलक्ष्मी विराजती हैं, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और दिव्य मालाओंसे सुशोभित हैं। उनके हाथोंमें सुवर्णपात्र, मातुलुंग और सुवर्णमय कमल शोभा पाते हैं। भगवान् के वामभागमें भूदेवी विराजमान हैं, जिनकी कान्ति नील कमल दलके समान श्याम है। वे नाना प्रकारके आभूषणों और विचित्र वस्त्रोंसे विभूषित हैं। उनके ऊपरके हाथोंमें दो लाल कमल हैं और नीचेके दो हाथोंमें उन्होंने दो धान्यपात्र धारण कर रखे हैं। विमला आदि शक्तियाँ दिव्य चँवर लेकर कमलके आठों दलोंमें स्थित हो भगवान्‌की सेवा करती हैं। वे सभी समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं । भगवान् श्रीहरि उन सबके बीचमें विराजते हैं। उनके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पाते हैं। भगवान् केयूर, अंगद और हार आदि दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं। उनके कानोंमें उदयकालीन सूर्यके समान तेजोमय कुण्डल झिलमिला रहे हैं। पूर्वोक्त देवता उन परमेश्वरकी सेवामें सदा संलग्न रहते हैं। इस प्रकार नित्य वैकुण्ठधाममें भगवान् सब भोगोंसे सम्पन्न हो नित्य विराजमान रहते हैं। वह परम रमणीय लोक अष्टाक्षर मन्त्रका जप करनेवाले सिद्ध मनीषी पुरुषों तथा श्रीविष्णुभक्तोंको प्राप्त होता है। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुमसे प्रथम व्यूहका वर्णन किया।

इसी प्रकार वैष्णवलोक, श्वेतद्वीप और क्षीरसागर निवासी द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ व्यूहका वर्णन करके श्रीशिवजीने कहा- ‘पार्वती! अब और क्या सुनना | चाहती हो? देवि! भगवान् पुरुषोत्तममें तुम्हारी भक्ति है। इसलिये तुम धन्य और कृतार्थ हो ।

अध्याय 249 मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य

पार्वतीजीने कहा- महेश्वर! अब मुझसे भगवान्के वैभव – मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। श्रीमहादेवजी बोले- देवि! एकाग्रचित्त होकरसुनो। मैं श्रीहरिके वैभव – मत्स्य, कूर्म आदि अवतारोंका वर्णन करता हूँ। जैसे एक दीपकसे दूसरे अनेक दीपक जला लिये जाते हैं, उसी प्रकार एक परमेश्वरके अनेक अवतार होते हैं। उन अवतारोंके परावस्थ, व्यूह औरविभव आदि अनेक भेद हैं। भगवान् विष्णुके अनेक शुभ अवतार बताये गये हैं ब्रह्माजीने भृगु, मरीचि, अत्रि, दक्ष, कर्दम, पुलस्त्य, पुलह, अंगिरा तथा क्रतु इन नौ प्रजापतियोंको उत्पन्न किया। इनमें मरीचिने कश्यपको जन्म दिया। कश्यपके चार स्त्रियाँ थीं अदिति, दिति, कद्दू और विनता अदिति देवताओंका जन्म हुआ। दितिने तमोगुणी पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो महान् असुर हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं-मकर, हयग्रीव, महाबली हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु जम्भ और मय आदि। मकर बड़ा बलवान् था। उसने ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीको मोहित करके उनसे सम्पूर्ण वेद से लिये। इस प्रकार श्रुतियोंका अपहरण करके वह महासागरमें घुस गया। फिर तो सारा संसार धर्मसे शून्य हो गया। वर्णसंकर- सन्तान उत्पन्न होने लगी। स्वाध्याय, वषट्कार और वर्णाश्रम धर्मका लोप हो गया। तब ब्रह्माजीने सम्पूर्ण देवताओंके साथ क्षीरसागरपर भगवान्की शरणमें जाकर मकर दैत्यके द्वारा अपहरण किये हुए वेदोंका उद्धार करनेके लिये उनका स्तवन किया।

श्रीमहादेवजी कहते हैं—पार्वती ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी परमेश्वर श्रीविष्णु मत्स्यरूप धारण करके महासागरमें प्रविष्ट हुए। उन्होंने उस अत्यन्त भयंकर मकर नामक दैत्यको qनके अग्रभागसे विदीर्ण करके मार डाला और अंग उपांगोंसहित सम्पूर्ण वेदोंको लाकर ब्रह्माजीको समर्पित कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मत्स्यावतारके द्वारा सम्पूर्ण देवताओंकी रक्षा की। वेदोंको लाकर श्रीहरिने तीनों लोकोंका भय दूर किया, धर्मकी प्राप्ति करायी और देवताओं तथा सिद्धोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहाँसे अन्तर्धान हो गये।

प्रिये ! अब मैं श्रीविष्णुके कूर्मावतार – सम्बन्धी विश्ववन्दित वैभवका वर्णन करूँगा। महर्षि अत्रिके पुत्र दुर्वासा बड़े ही तेजस्वी मुनि हुए। वे महान् तपस्वी, हुए । अत्यन्त क्रोधी तथा सम्पूर्ण लोकोंको क्षोभमें डालनेवाले । । एक समयकी बात है-वे देवराज इन्द्रसे मिलनेके लिये स्वर्गलोकमै गये। उस समय इन्द्र ऐरावत हाथीपर नरूद हो सम्पूर्ण देवताओंसे पूजित होकर कहीं जानेके | लिये उद्यत थे उन्हें देखकर महातपस्वी दुर्वासाका मनप्रसन्न हो गया। उन्होंने विनीतभावसे देवराजको एक पारिजातकी माला भेंट की। देवराजने उसे लेकर हाथीके मस्तकपर डाल दिया और स्वयं नन्दनवनकी ओर चल दिये। हाथी मदसे उन्मत्त हो रहा था। उसने सूँड़से उस मालाको उतार लिया और मसलते हुए तोड़कर जमीनपर फेंक दिया। इससे दुर्वासाजीको क्रोध आ गया और उन्होंने शाप देते हुए कहा-‘देवराज तुम त्रिभुवनकी राजलक्ष्मीसे सम्पन्न होनेके कारण मेरा अपमान करते हो। इसलिये तीनों लोकोंकी लक्ष्मी नष्ट हो जायगी। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।’

दुर्वासाके इस प्रकार शाप देनेपर इन्द्र पुनः अपने नगरको लौट गये। तत्पश्चात् जगन्माता लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयीं। ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, दैत्य, दानव, नाग, मनुष्य, राक्षस, पशु, पक्षी तथा कीट आदि जगत्के समस्त चराचर प्राणी दरिद्रताके मारे दुःख भोगने लगे। सब लोगोंने भूख-प्याससे पीड़ित होकर ब्रह्माजीके पास जाकर कहा – ‘भगवन्! तीनों लोक भूख-प्याससे पीड़ित हैं। आप सब लोकोंके स्वामी और रक्षक हैं। अतः हम आपकी शरणमें आये हैं। देवेश! आप हमारी ‘रक्षा करें।’

ब्रह्माजी बोले- देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्य आदि प्राणियो! सुनो। इन्द्रके अनाचारसे ही यह सारा संकट उपस्थित हुआ है। उन्होंने अपने बर्तावसे महात्मा दुर्वासाको कुपित कर दिया है। उन्होंके क्रोधसे आज तीनों लोकोंका नाश हो रहा है। जिनकी कृपा कटाक्षसे सब लोक सुखी होते हैं, वे जगन्माता महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। जबतक वे अपनी कृपादृष्टिसे नहीं देखेंगी, तबतक सब लोग दुःखी ही रहेंगे। इसलिये हम सब लोग चलकर क्षीरसागरमें विराजमान सनातनदेव भगवान् नारायणकी आराधना करें। उनके प्रसन्न होनेपर ही सम्पूर्ण जगत्का कल्याण होगा।

ऐसा निश्चय करके ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं और भृगु आदि महर्षियोंके साथ क्षीरसागरपर गये और विधिपूर्वक पुरुषसूक्तके द्वारा उनकी आराधना करने लगे। उन्होंने अनन्यचित्त होकर अष्टाक्षर मन्त्रका जप और पुरुषसूक्तका पाठ करके परमेश्वरका ध्यान करते हुए उनके लिये हवन किया तथा दिव्य स्तोत्रोंसे स्तवनऔर विधिवत् नमस्कार किया। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने सब देवताओंको दर्शन दिया और कृपापूर्वक कहा—’ देवगण में वर देना चाहता हूँ, तुमलोग इच्छानुसार वर माँगो’ यह सुनकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर बोले-‘भगवन्! दुर्वासा मुनिके शापसे तीनों लोक सम्पत्तिहीन हो गये हैं। पुरुषोत्तम! इसीलिये हम आपकी शरणमें आये हैं।’ श्रीभगवान् बोले- देवताओ। अत्रिकुमार दुर्वासा

मुनिके शापसे भगवती लक्ष्मी अन्तर्धान हो गयी हैं। अतः तुमलोग मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसमुद्र में
रखो और उसे मथानी बना नागराज वासुकिको रस्सीकी जगह उसमें लपेट दो। फिर दैत्य, गन्धर्व और दानवोंके साथ मिलकर समुद्रका मन्थन करो। तत्पश्चात् जगत्की रक्षा के लिये लक्ष्मी प्रकट होंगी उनकी कृपादृष्टि पड़ते ही तुमलोग महान् सौभाग्यशाली हो जाओगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मैं ही कूर्मरूपसे मन्दरायलको अपनी पीठपर धारण करूंगा तथा मैं ही सम्पूर्ण देवताओं में प्रवेश करके अपनी शक्तिसे उन्हें बलिष्ठ बनाऊँगा। भगवान् के ऐसा कहनेपर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता उन्हें साधुवाद देने लगे। उनकी स्तुति सुनते हुए भगवान् अच्युत वहाँसे अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महाबली दानव आदिने मन्दराचल पर्वतको उखाड़कर क्षीरसागरमें डाला। इसी समय अमितपराक्रमी भूतभावन भगवान् नारायणने कछुएके रूपमें प्रकट होकर उस पर्वतको अपनी पीठपर धारण किया तथा एक हाथसे उन सर्वव्यापी अविनाशी प्रभुने उसके शिखरको भी पकड़ रखा था। तदनन्तर देवता और असुर मन्दराचल पर्वतमें नागराज वासुकिको लपेटकर क्षीरसागरका मन्थन करने लगे। जिस समय महाबली देवता लक्ष्मीको प्रकट करनेके लिये क्षीरसागरको मथने लगे, उस समय सम्पूर्ण महर्षि उपवास करके मन और इन्द्रियोंके संयमपूर्वक श्रीसूड और विष्णुसहलनामका पाठ करने लगे। शुद्ध एकादशी तिथिको समुद्रका मन्धन आरम्भ हुआ। उस समय लक्ष्मीके प्रादुर्भावकी अभिलाषा रखतेहुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों और मुनिवरोंने भगवान् लक्ष्मीनारायणका ध्यान और पूजन किया। उस मुहूर्तमें सबसे पहले कालकूट नामक महाभयंकर विष प्रकट हुआ, बड़े पिण्डके रूपमें था वह प्रलयकालीन अग्निके समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ता था। उसे देखते ही सम्पूर्ण देवता और दानव भयसे व्याकुल हो भाग चले। उन्हें भयसे पीड़ित हो भागते देख मैंने उन सबको रोककर कहा-‘देवताओ! इस विषसे भय न करो। इस कालकूट नामक महान् विषको मैं अभी अपना आहार बना लूँगा।’ मेरी बात सुनकर इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे चरणोंमें पड़ गये और ‘साधु-साधु’ कहकर मेरी स्तुति करने लगे। उधर मेघके समान काले रंगवाले उस महाभयानक विषको प्रकट हुआ देख मैंने एकाग्रचित्तसे अपने हृदयमें सर्वदु:खहारी भगवान् नारायणका ध्यान किया और उनके तीन नामरूपी महामन्त्रका भक्तिपूर्वक जप करते हुए उस भयंकर विषको पी लिया। सर्वव्यापी श्रीविष्णुके तीन नामोंके प्रभावसे उस लोकसंहारकारी विषको मैंने अनायास ही पचा लिया। अच्युत, अनन्त और गोविन्द-ये ही श्रीहरिके तीन नाम हैं। जो एकाग्रचित्त हो इनके आदिमें प्रणव और अन्तमें नमः जोड़कर (ॐ अच्युताय नमः, ॐ अनन्ताय नमः तथा ॐ गोविन्दाय नमः इस रूपमें) भक्तिपूर्वक जप करता है, उसे विष रोग और अग्निसे होनेवाली मृत्युका महान् भय नहीं प्राप्त होता। जो इस तीन नामरूपी महामन्त्रका एकाग्रतापूर्वक जप करता है, उसे काल और मृत्युसे भी भय नहीं होता; फिर दूसरोंसे भय होनेकी तो बात ही क्या है। देवि! इस प्रकार मैंने तीन नामोंके ही प्रभावसे विषका पान किया था।

तत्पश्चात् समुद्र मन्थन करनेपर लक्ष्मीजीकी बड़ी बहन दरिद्रा देवी प्रकट हुई। वे लाल वस्त्र पहने थीं। उन्होंने देवताओंसे पूछा- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है। तब देवताओंने उनसे कहा- ‘जिनके घरमें प्रतिदिन कलह होता हो, वहीं हम तुम्हें रहनेके लिये स्थान देते हैं। तुम अमंगलको साथ लेकर उन्हीं घरो में जा बसो जहाँकठोर भाषण किया जाता हो, जहाँके रहनेवाले सदा झूठ बोलते हों तथा जो मलिन अन्तःकरणवाले पापी सन्ध्याके समय सोते हों, उन्हींके घरमें दुःख और दरिद्रता प्रदान करती हुई तुम नित्य निवास करो महादेवि जोखोटी बुद्धिवाला मनुष्य पैर धोये बिना ही आचमन करता है, उस पापपरायण मानवकी ही तुम सेवा करो।’

कलहप्रिया दरिद्रा देवीको इस प्रकार आदेश देकर सम्पूर्ण देवताओंने एकाग्रचित्त हो पुनः खीरसागरका मन्थन आरम्भ किया। तब सुन्दर नेत्रोंवाली वारुणी देवी प्रकट हुई, जिसे नागराज अनन्तने ग्रहण किया। तदनन्तर समस्त शुभलक्षणोंसे सुशोभित और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित एक स्त्री प्रकट हुई. जिसे गरुड़ने अपनी पत्नी बनाया। इसके बाद दिव्य अप्सराएँ और महातेजस्वी गन्धर्व उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त रूपवान् और सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निके समान तेजस्वी थी। तत्पश्चात् ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा नामक अश्व, धन्वन्तरि वैद्य, पारिजात वृक्ष और सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौका प्रदुर्भाव हुआ। इन सबको देवराज इन्द्रने बड़ी प्रसन्नताके साथ ग्रहण किया। इसके बाद द्वादशीको प्रातः काल सूर्योदय होनेपर सम्पूर्ण लोकोंकी अधीश्वरी कल्याणमयी भगवती महालक्ष्मी प्रकट हुईं। उन्हें देखकर सब देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। देवलोकमै दुन्दुभियाँ बनने लगीं, वनदेवियों फूलोंकी वृष्टि करने लगीं, गन्धर्वराज गाने और अप्सराएँ नाचने लगीं। शीतल एवं पवित्र हवा चलने लगी। सूर्यकी प्रभा निर्मल हो गयी। बुझी हुई अग्नियाँ जल उठीं और सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसन्नता छा गयी।

तदनन्तर क्षीरसागर से शीतल एवं अमृतमयी किरणोंसे युद्ध चन्द्रमा प्रकट हुए, जो माता लक्ष्मीके भाई और सबको सुख देनेवाले हैं। वे नक्षत्रोंके स्वामी और सम्पूर्ण जगत् के मामा हैं। इसके बाद श्रीहरिकी पत्नी तुलसीदेवी प्रकट हुई, जो परम पवित्र और सम्पूर्ण विश्वको पावन बनानेवाली हैं। जगन्माता तुलसीका | प्रादुर्भाव श्रीहरिकी पूजाके लिये ही हुआ है। तत्पश्चात् सब देवता प्रसन्नचित्त होकर मन्दराचल पर्वतको – यथास्थान रख आये और सफल मनोरथ हो माता लक्ष्मीकेपास जा सहस्रनामसे स्तुति करके श्रीसूक्तका जप करने लगे। तब भगवती लक्ष्मीने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण देवताओंसे कहा—’ देववरो ! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हें वर देना चाहती हूँ। मुझसे मनोवांछित वर माँगो।’

देवता बोले सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी! आप हमलोगोंपर प्रसन्न हों और श्रीविष्णुके वक्षःस्थलमें सदा निवास करें। कभी भगवान्से अलग न हों तथा तीनों लोकोंका भी कभी परित्याग न करें। देवि! यही हमारे लिये श्रेष्ठ वर है। जगन्माता! आपको नमस्कार है। हम आपसे यही चाहते हैं।

देवताओंके ऐसा कहनेपर श्रीनारायणकी प्रियतमा लोकमाता महेश्वरी लक्ष्मीने ‘एवमस्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तदनन्तर क्षीरसागरपर भगवान् नारायण और ब्रह्माजी भी प्रकट हुए। देवताओंने जनार्दनको नमस्कार करके उनका स्तवन किया और प्रसन्नवदन हो, हाथ जोड़कर कहा- ‘सर्वेश्वर! आप अपनी प्रियतमा और महारानी लक्ष्मीदेवीको, जो कभी आपसे अलग होनेवाली नहीं हैं, जगत्‌की रक्षाके लिये ग्रहण कीजिये।’ ऐसा कहकर ब्रह्मा आदि देवता और मुनियोंने नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए बालसूर्यके समान तेजस्वी दिव्य पीठपर भगवान् विष्णु और भगवती लक्ष्मीको बिठाया तथा नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाते हुए उन्होंने दिव्य वस्त्र, दिव्य माला, रत्नमय आभूषण एवं अप्राकृत दिव्य फलोंसे उन दोनोंका पूजन किया। क्षीरसागरसे जो कोमल दलोंवाली तुलसीदेवी प्रकट हुई थीं, उनके द्वारा उन्होंने लक्ष्मीजीके युगल चरणोंका अर्चन किया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा और बारंबार नमस्कार करके दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति की। इससे सर्वदेवेश्वर भगवान् श्रीहरिने लक्ष्मीसहित प्रसन्न होकर देवताओंको मनोवांछित वरदान दिया। तबसे देवता और मनुष्य आदि प्राणी बहुत प्रसन्न रहने लगे। उनके यहाँ धन-धान्यकी प्रचुर वृद्धि हुई और वे नीरोग होकर अत्यन्त सुखका अनुभव करने लगे।

इसके बाद लक्ष्मीसहित भगवान् विष्णुने प्रसन्न होकर सम्पूर्ण लोकोंके हितके लिये समस्त महामुनियों और देवताओंसे कहा-‘मुनियों और महाबली देवताओ!तुम सब लोग सुनो-एकादशी तिथि परम पुण्यमयी है। वह सब उपद्रवोंको शान्त करनेवाली है। तुमलोगोंने लक्ष्मीका दर्शन पानेके लिये इस तिथिको उपवास किया है; इसलिये यह द्वादशी तिथि मुझे सदा प्रिय होगी। आजसे जो लोग एकादशीको उपवास करके द्वादशीको प्रातःकाल सूर्योदय होनेपर बड़ी श्रद्धाके साथ लक्ष्मी और तुलसीके साथ मेरा पूजन करेंगे, वे सब बन्धनोंसे मुक्त होकर मेरे परम पदको प्राप्त होंगे।’

ऐसा कहकर सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए लक्ष्मीजीके निवासस्थान क्षीरसागरमें चले गये। वहाँ सूर्यके समान तेजोमय विमानपर शेषनागकी शय्याके ऊपर विशाललोचना भगवती रमाके साथ रहने लगे। वे देवताओंको दर्शन देनेके लिये सदा ही वहाँ निवास करते हैं। तदनन्तर सब देवता कच्छपरूपधारी सनातन भगवान्‌का भक्तिपूर्वकपूजन करके प्रसन्नचित्त हो उनकी स्तुति करने लगे। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे बोले-‘देवेश्वरो ! तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, वैसा वर माँगो ।’

देवता बोले-महाबली देवेश्वर ! आप शेषनाग और दिग्गजोंकी सहायताके लिये सात द्वीपोंवाली इस पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण कीजिये ।

देवताओंकी प्रार्थना सुनकर विश्वभावन भगवान्ने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) । तबसे उन्होंने सातों द्वीपोंसहित पृथ्वीको अपनी पीठपर धारण किया। तदनन्तर महर्षियोंसहित देवता, गन्धर्व, दैत्य, दानव तथा मानव भगवान्‌की आज्ञा ले अपने अपने लोकको चले गये। तबसे ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, मनुष्य, योगी तथा मुनिश्रेष्ठ भगवान्‌की आज्ञा मानकर बड़ी भक्तिके साथ एकादशी तिथिको उपवास और द्वादशी तिथिको भगवान्‌का पूजन करने लगे।

अध्याय 250 नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा

महादेवजी कहते हैं- पार्वती दिति कश्यपनीके दो महाबली पुत्र हुए थे, जिनका नाम हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष था। वे दोनों महापराक्रमी और सम्पूर्ण दैत्योंके स्वामी थे। उनके दैत्य योनिमें आनेका कारण इस प्रकार है। वे पूर्वजन्ममें जय-विजय नामक श्रीहरिके पार्षद थे और श्वेतद्वीपमें द्वारपालका काम करते थे। एक समय सनकादि योगीश्वर भगवान्‌का दर्शन करनेके लिये उत्सुक हो श्वेतद्वीपमें आये। महाबली जय विजयने उन्हें बीचमें ही रोक दिया। इससे सनकादिने उन्हें शाप दे दिया- ‘द्वारपालो ! तुम दोनों भगवान्के इस धामका परित्याग करके भूलोकमें चले जाओ।’ इस प्रकार शाप देकर वे मुनीश्वर वहीं ठहर गये। भगवान्‌को यह बात मालूम हो गयी और उन्होंने सनकादि महात्माओं तथा दोनों द्वारपालोंको भी बुलाया। निकट आनेपर भूतभावन भगवान्ने जय-विजयसे कहा ‘द्वारपालो ! तुमलोगोंने महात्माओंका अपराध किया है। अत: तुम इस शापका उल्लंघन नहीं कर सकते। तुम यहाँसे जाकर या तो सात जन्मोंतक मेरे पापहीन भक्त होकर रहो या तीन जन्मोंतक मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुए समय व्यतीत करो।’यह सुनकर जय – विजयने कहा- मानद ! हम अधिक समयतक आपसे अलग पृथ्वीपर रहने में असमर्थ हैं। इसलिये केवल तीन जन्मोंतक ही शत्रुभाव धारण करके रहेंगे।

ऐसा कहकर वे दोनों महाबली द्वारपाल कश्यपके वीर्यसे दितिके गर्भमें आये और महापराक्रमी असुर | होकर प्रकट हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था और छोटेका हिरण्याक्ष । वे दोनों सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात हुए। उन्हें अपने बल और पराक्रमपर बड़ा अभिमान था। हिरण्याक्ष मदसे उन्मत्त रहता था । उसका शरीर कितना बड़ा था या हो सकता था – इसके लिये कोई निश्चित मापदण्ड नहीं था । उसने अपनी हजारों भुजाओंसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियोंसहित इस पृथ्वीको उखाड़ लिया और सिरपर रखकर रसातलमें चला गया। यह देख सम्पूर्ण देवता भयसे पीड़ित हो हाहाकार करने लगे और रोग-शोकसे रहित भगवान् नारायणकी शरण में गये। उस अद्भुत वृत्तान्तको जानकर विश्वरूपधारी जनार्दनने वाराहरूप धारण किया। उस समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़े और विशाल भुजाएँ थीं। उन परमेश्वरने अपनी एक दाढ़से उस दैत्यपरआघात किया। इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया। पृथ्वीको रसातलमें पड़ी देख भगवान् वाराहने उसे अपनी दाढपर उठा लिया और उसे पहलेकी भाँति शेषनागके ऊपर स्थापित करके स्वयं कच्छपरूपसे उसके आधार बन गये। वाराहरूपधारी महाविष्णुको वहाँ देखकर सम्पूर्ण देवता और मुनि भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने लगे। स्तुतिके पश्चात् उन्होंने गन्ध, पुष्प आदिसे श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने उन सबको मनोवांछित वरदान दिया। इसके बाद वे महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। अपने भाई हिरण्याक्षको मारा गया जान महादैत्य हिरण्यकशिपु मेरुगिरिके पास जा मेरा ध्यान करते हुए तपस्या करने लगा। पार्वती! उस महाबली दैत्यने एक हजार दिव्य वर्षोंतक केवल वायु पीकर जीवन निर्वाह किया और ‘ॐ नमः शिवाय’ इस पंचाक्षर मन्त्रका जप करते हुए वह सदा मेरा पूजन करता रहा। तब मैंने प्रसन्न होकर उस महान् असुरसे कहा- ‘दितिनन्दन ! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो ।’ तब वह मुझे प्रसन्न जानकर बोला- ‘भगवन्! देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, पक्षी, सिद्ध, महात्मा, यक्ष, विद्याधर और किन्नरोंसे, मृग, समस्त रोगोंसे, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे तथा सम्पूर्ण महर्षियोंसे भी मेरी मृत्यु न हो सके यह वरदान दीजिये।’ ‘एवमस्तु’ कहकर मैंने उसे वरदान दे दिया। मुझसे महान् वर पाकर वह महाबली दैत्य इन्द्र और देवताओंको जीत करके तीनों लोकोंका सम्राट् बन बैठा। उसने बलपूर्वक समस्त यज्ञ-भागोंपर अधिकार जमा लिया। देवताओंको कोई रक्षक न मिला। वे उससे परास्त हो गये। गन्धर्व, देवता और दानव-सभी उसके किका हो गये। यक्ष, नाग और सिद्ध- सभी उसके अधीन रहने लगे। उस महाबली दैत्यराजने राजा उत्तानपादकी पुत्री कल्याणीके साथ विधिपूर्वक विवाह | किया। उसके गर्भ से महातेजस्वी प्रह्लादका जन्म हुआ, जो आगे चलकर दैत्योंके राजा हुए। वे गर्भमें रहते समय भी सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी श्रीहरिमें अनुराग खते थे। सब अवस्थाओं और समस्त कार्यों में मन,वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा वे देवताओंके स्वामी सनातन भगवान् पद्मनाभके सिवा दूसरे किसीको नहीं जानते थे। उनकी बुद्धि बड़ी निर्मल थी । समयानुसार उपनयन संस्कार हो जानेपर वे गुरुकुलमें अध्ययन करने लगे। सम्पूर्ण वेदों और नाना प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन करके वे प्रह्लाद किसी समय अपने गुरुके साथ घरपर आये। उन्होंने पिताके पास जाकर बड़ी विनयके साथ उनके चरणों प्रणाम किया। हिरण्यकशिपुने उत्तम लक्षणोंसे युक्त पुत्रको चरणोंमें पड़ा देख भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया और गोदमें बिठाकर कहा- बेटा प्रह्लाद तुमने दीर्घकालतक गुरुकुलमें निवास किया है। वहाँ गुरुजीने जो तुम्हें जाननेयोग्य तत्त्व बतलाया हो, वह मुझसे कहो।’

पिताके इस प्रकार पूछनेपर जन्मसे ही वैष्णव प्रह्लादने बड़ी प्रसन्नताके साथ पापनाशक वचन कहा ‘पिताजी! जो सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, अन्तर्यामी पुरुष और ईश्वर हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके मैं आपसे कुछ निवेदन करता हूँ।’ प्रह्लादके मुखसे इस प्रकार विष्णुकी स्तुति सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुको बड़ा विस्मय हुआ। उसने कुपित होकर गुरुसे पूछा-खोटी बुद्धिवाले ब्राह्मण! तूने मेरे पुत्रको क्या सिखा दिया। मेरा पुत्र और इस प्रकार विष्णुको स्तुति करेतूने ऐसी शिक्षा क्यों दी? यह मूर्खतापूर्ण न करनेयोग्य कार्य ब्राह्मणोंके ही योग्य है। ब्राह्मणाधम मेरे शत्रुकी यह स्तुति, जो कदापि सुननेयोग्य नहीं है, आज मेरे ही आगे इस बालकने भी सुना दी। यह सब तेरा ही प्रसाद है।’ इतना कहते-कहते दैत्यराज हिरण्यकशिपु क्रोधके मारे अपनी सुध-बुध खो बैठा और चारों ओर देखकर दैत्योंसे बोला-‘अरे इस ब्राह्मणको मार डालो।’ आज्ञा पाते ही क्रोधमें भरे हुए राक्षस आ पहुँचे और उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके गलेमें रस्सी लगाकर उन्हें बाँधने लगे। ब्राह्मणोंके प्रेमी प्रह्लाद अपने गुरुको बँधते देख पितासे बोले-‘तात! यह गुरुजीने नहीं सिखाया है। मुझे तो देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी ही कृपासे ऐसी शिक्षा मिली है। दूसरा कोई गुरु मुझे उपदेश नहीं देता। मेरे लिये तो श्रीहरि ही प्रेरक हैं। सुनने, मनन करने, बोलने तथा देखनेवाले सर्वव्यापीईश्वर केवल श्रीविष्णु ही हैं वे ही अविनाशी कर्ता हैं और वे ही सब प्राणियों पर नियन्त्रण करनेवाले हैं। अतः प्रभो। मेरे गुरु इन ब्राह्मणदेवताका कोई अपराध नहीं है। इन्हें बन्धनसे मुक्त कर देना चाहिये।’

पुत्रकी यह बात सुनकर हिरण्यकशिपुने ब्राह्मणका बन्धन खुलवा दिया और स्वयं बड़े विस्मयमें पड़कर प्रह्लादसे कहा- ‘बेटा! तुम ब्राह्मणोंके झूठे बहकावे में आकर क्यों भ्रम पड़ रहे हो? कौन विष्णु है? कैसा उसका रूप है और कहाँ वह निवास करता है? संसारमें मैं ही ईश्वर हूँ। मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी माना गया हूँ विष्णु तो हमारे कुलका शत्रु है उसे छोड़ो और मेरी ही पूजा करो अथवा लोकगुरु भगवान् शंकरकी आराधना करो, जो देवताओंके अध्यक्ष, सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और परम कल्याणमय हैं। ललाटमें भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करके पाशुपत मार्गसे दैत्यपूजित महादेवजीकी पूजामें संलग्न रहो।’

पुरोहितोंने कहा- ठीक ऐसी ही बात है। महाभाग ! प्रह्लाद ! तुम पिताकी बात मानो। अपने कुलके शत्रु विष्णुको छोड़ो और त्रिनेत्रधारी महादेवजीकी पूजा करो महादेवजी से बढ़कर सब कुछ देनेवाला दूसरा कोई देवता नहीं है। उन्हींकी कृपासे आज तुम्हारे पिता भी ईश्वरपदपर प्रतिष्ठित हैं।

प्रह्लाद बोले- अहो! भगवान्की कैसी महिमा है, जिनकी मायासे सारा जगत् मोहित हो रहा है! कितने आश्चर्यकी बात है कि वेदानाके विद्वान् और सब लोकोंमें पूजित ब्राह्मण भी मदोन्मत्त होकर चपलतावश ऐसी बातें कहते हैं। मेरा तो दृढ विश्वास है कि नारायण ही परब्रह्म हैं। नारायण ही परमतत्त्व हैं, नारायण ही सर्वश्रेष्ठ ध्याता और नारायण ही सर्वोत्तम ध्यान हैं। सम्पूर्ण जगत्की गति भी वे ही हैं। वे सनातन शिव, अच्युत, जगत्के धाता विधाता और नित्य वासुदेव हैं। परम पुरुष नारायण ही यह सम्पूर्ण विश्व हैं और वे ही इस विश्वको जीवन प्रदान करते हैं। उनका श्रीअंग सुवर्णके समान कान्तिमान् है। वे नित्य देवता हैं। उनके नेत्र कमलके समान हैं। वे श्री, भू और लीलाइन तीनों देवियोंके स्वामी हैं। उनकी आकृति सुन्दर और सौम्य है तथा अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। उन्होंने हीसम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेवजीको उत्पन्न किया है। ब्रह्मा और महादेवजी उन्होंके आज्ञानुसार चलते हैं। उन्हींके भयसे वायु सदा गतिशील रहती है। उन्होंके डासे सूर्यदेव ठीक समयपर उदित होते हैं और उन्होंके भयसे अग्नि, इन्द्र तथा मृत्यु देवता सदा दौड़ लगाते रहते हैं। सृष्टिके आदिमें एकमात्र नित्य देवता भगवान् नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे और न महादेवजी, न चन्द्रमा थे न सूर्य, न आकाश था न पृथ्वी । नक्षत्र और देवता भी उस समय प्रकट नहीं हुए थे। विद्वान् पुरुष सदा ही भगवान् विष्णुके उस परमधामका साक्षात्कार करते हैं। परम योगी महात्मा सनकादि भी जिन भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी आराधनामें लगे रहते हैं, जिनकी पत्नी भगवती लक्ष्मीकी कृपा कटाक्षपूर्ण आधी दृष्टि पड़नेपर ही ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वरुण, यम, चन्द्रमा और कुबेर आदि देवता हर्षसे फूल उठते हैं, जिनके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे पापियोंकी भी तत्काल मुक्ति हो जाती है, वे भगवान् लक्ष्मीपति हो देवताओंकी भी सदा रक्षा करते हैं मैं लक्ष्मीसहित उन परमेश्वरका ही सदा पूजन करूँगा तथा अनायास ही श्रीविष्णुके उस परम पदको प्राप्त कर लूँगा।

प्रह्लादकी ये बातें सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रोधमें भरकर द्वितीय अग्निकी भाँति जल उठा और चारों ओर देखकर दैत्योंसे बोला-‘अरे! यह प्रह्लाद बड़ा पापी है। यह शत्रुकी पूजामें लगा है मैं आज्ञा देता हूँ इसे भयंकर शस्त्रोंसे मार डालो। जिसके बलपर यह ‘श्रीहरि ही रक्षक हैं’ ऐसा कहता है, उसे आज ही देखना है। उस हरिका रक्षा कार्य कितना सफल है यह अभी मालूम हो जायगा।’

दैत्यराजकी यह आज्ञा पाते ही दैत्य हथियार उठाकर महात्मा प्रह्लादको मार डालनेके लिये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। इधर प्रह्लाद भी अपने हृदय-कमलमें श्रीविष्णुका ध्यान करते हुए अष्टाक्षर मन्त्रका जप करने लगे और दूसरे पर्वतको ति अविचलभावसे खड़े रहे। दैत्यवीर चारों ओरसे उनके ऊपर शूल, तोमर और शक्तियोंसे प्रहार करने लगे, परन्तु श्रीहरिका स्मरण करनेके कारण प्रह्लादका शरीरउस समय भगवान्‌के प्रभावसे दुर्धर्ष वज्रके समान हो गया। देवद्रोहियोंके बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र प्रह्लादके शरीरसे टकराकर टूट जाते और कमलके पत्तोंके समान छिन्न भिन्न होकर पृथ्वीपर गिर जाते थे। दैत्य उनके अंगमें छोटा-सा भी घाव करनेमें समर्थ न हो सके। तब विस्मयसे नीचा मुँह किये वे सभी योद्धा दैत्यराजके पास जा चुपचाप खड़े हो गये। अपने महात्मा पुत्रको इस प्रकार तनिक भी चोट पहुँचती न देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने क्रोध व्याकुल होकर वासुकि आदि बड़े-बड़े विषैले और भयंकर सर्पोको आज्ञा दी कि इस प्रह्लादको काट खाओ।”

राजाका यह आदेश पाकर अत्यन्त भयंकर और महाबली नाग, जिनके मुखोंसे आगकी लपटें निकल रही थीं, प्रह्लादको काट खानेकी चेष्टा करने लगे; किन्तु उनके शरीरमें दाँत लगाते ही वे सर्प विषोंसे हाथ धो बैठे। उनके दाँत भी टूट गये तथा हजारों गरुड़ प्रकट होकर उनके शरीरको छिन्न-भिन्न करने लगे। इससे व्याकुल होकर मुखसे रक्त वमन करते हुए सभी सर्प इधर-उधर भाग गये। बड़े-बड़े सपकी ऐसी दुर्दशा देख दैत्यराजका क्रोध और भी बढ़ गया। अब उसने मतवाले दिग्गजोंको प्रह्लादपर आक्रमण करनेकी आज्ञा दी। राजाज्ञासे प्रेरित होकर मदोन्मत्त दिग्गज प्रह्लादको चारों ओरसे घेरकर अपने विशाल और मोटे दाँतोंसे उनपर प्रहार करने लगे किन्तु उनके शरीरसे टक्कर लेते ही दिग्गजोंके दाँत जड़-मूलसहित टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। अब वे बिना के हो गये। इससे उन्हें बड़ी पीड़ा हुई और वे सब ओर भाग गये। बड़े-बड़े गजराजोंको इस प्रकार भागते देख दैत्यराजके क्रोधकी सीमा न रही। उसने बहुत बड़ी चिता जलाकर उसमें अपने बेटेको डाल दिया। जलमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुके प्रियतम प्रह्लादको धीरभावसे बैठे देख भयंकर लपटोंवाले अग्निदेवने | उन्हें नहीं जलाया। उनकी ज्वाला शान्त हो गयी। अपने ब्लकको आगमें भी जलते न देख दैत्यपतिके आश्चर्यकी सीमा न रही। उसने पुत्रको अत्यन्त भयंकर विष दे जो सब प्राणियों के प्राण हर लेनेवाला था किन्तु भगवान् विष्णुके प्रभावसे प्रह्लादके लिये विष भी अमृतहो गया। भगवान्‌को अर्पण करके उनके अमृतस्वरूप प्रसादको ही वे खाया करते थे। इस प्रकार राजा हिरण्यकशिपुने अपने पुत्रके वधके लिये बड़े भयंकर और निर्दयतापूर्ण उपाय किये; किन्तु प्रह्लादको सर्वथा अवध्य देखकर वह विस्मयसे व्याकुल हो उठा और बोला।

हिरण्यकशिपुने कहा-प्रह्लाद तुमने मेरे सामने विष्णुकी श्रेष्ठताका भलीभाँति वर्णन किया है वे सब भूतोंमें व्यापक होनेके कारण विष्णु कहलाते हैं। जो सर्वव्यापी देवता हैं, वे ही परमेश्वर हैं। अतः तुम मुझे विष्णुकी सर्वव्यापकताको प्रत्यक्ष दिखाओ उनके ऐश्वर्य, शक्ति, तेज, ज्ञान, वीर्य, बल, उत्तम रूप, गुण और विभूतियोंको अच्छी तरह देख लूँ तब मैं विष्णुको देवता मान सकता हूँ। इस समय संसारमें तथा देवताओंमें भी मेरे बलकी समानता करनेवाला कोई भी नहीं है। भगवान् शंकरके वरदानसे मैं सब प्राणियोंके लिये अवध्य हो गया हूँ। मुझे परास्त करना किसी भी प्राणीके लिये कठिन है। यदि विष्णु मुझे अपने बल और पराक्रमसे जीत लें तो ईश्वरका पद प्राप्त कर सकते हैं।

पिताकी यह बात सुनकर प्रह्लादको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने दैत्यराजके सामने श्रीहरिके प्रभावका वर्णन करते हुए कहा – ‘पिताजी! योगी पुरुष भक्तिके बलसे उनका सर्वत्र दर्शन करते हैं। भक्तिके बिना वे कहीं भी दिखायी नहीं देते। रोष और मत्सर आदिके द्वारा श्रीहरिका दर्शन होना असम्भव है। देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य तथा स्थावर समस्त छोटे-बड़े प्राणियोंमें वे व्याप्त हो रहे हैं।’

प्रादके ये वचन सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके उन्हें डाँटते हुए कहा ‘यदि विष्णु सर्वव्यापी और परम पुरुष है तो इस विषयमें अधिक प्रलाप करनेकी आवश्यकता नहीं है। इसपर विश्वास करनेके लिये कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करो।’ ऐसा कहकर दैत्यने सहसा अपने महलके खंभेको हाथसे ठोंका और प्रह्लादसे फिर कहा-‘यदि विष्णु सर्वत्र व्यापक है तो उसे तुम इस खंभेमें दिखाओ। अन्यथा झूठी बातें बनानेके कारण तुम्हारा वध कर डालूँगा।’

यों कहकर दैत्यराजने सहसा तलवार खींच लीऔर क्रोधपूर्वक प्रह्लादको मार डालनेके लिये उनकी छातीपर प्रहार करना चाहा। उसी समय खंभेके भीतरसे बड़े जोरकी आवाज सुनायी पड़ी, मानो वज्रकी गर्जनाके साथ आसमान फट पड़ा हो। उस महान् शब्दसे दैत्योंके कान बहरे हो गये। वे जड़से कटे हुए वृक्षोंकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े। उनपर आतंक छा गया। उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो अभी तीनों लोकोंका प्रलय हो जायगा। तदनन्तर उस खंभेसे महान् तेजस्वी श्रीहरि विशालकाय सिंहकी आकृति धारण किये निकले निकलते ही उन्होंने प्रलयकालीन मेघोंके समान महाभयंकर गर्जना की। वे अनेक कोटि सूर्य और अग्नियोंके समान तेजसे सम्पन्न थे। उनका मुँह तो सिंहके समान था और शरीर मनुष्यके समान दाढ़ोंके कारण मुख बड़ा विकराल दिखायी देता था। लपलपाती हुई जीभ उनके उद्धत भावकी सूचना दे रही थी। उनके बालोंसे आगकी लपटें निकल रही थीं। क्रोधसे जलती हुई अँगारे जैसी लाल लाल आँखें अलातचक्र के समान घूम रही थीं। हजारों बड़ी-बड़ी भुजाओंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये भगवान् नरसिंह अनेक खावाले वृक्षोंसे युक्त मेरुपर्वतके समान जान पड़ते थे। उनके अंगोंमें दिव्य मालाएँ, दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण शोभा पाते थे। भगवान् नरसिंह सम्पूर्ण दानवोंका संहार करनेके लिये वहाँ खड़े हुए। भयानक आकृतिवाले महाबली नरसिंहको उपस्थित देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी आँखोंकी बरौनियाँ जल उठीं। उसका सारा शरीर व्याकुल हो गया और वह अपनेको सँभाल न सकनेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा।

उस समय प्रह्लादने भगवान् जनार्दनको नरसिंहकी आकृतिमें उपस्थित देख जय-जयकार करते हुए उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन महात्माके अद्भुत अंगोंपर दृष्टिपात किया। उनकी गर्दनके बालोंमें कितने ही लोक, समुद्र, द्वीप, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और हजारों अण्डज प्राणी दिखायी देते थे। दोनों नेत्रोंमें सूर्य और चन्द्रमा आदि तथा कानोंमें अश्विनीकुमार और सम्पूर्ण दिशा एवं विदिशाएँ थीं। ललाटमें ब्रह्मा और महादेव, नासिकामें आकाश और वायु, मुखके भीतर इन्द्र और अग्नि, जिड़में सरस्वती, दाड़ोंपर सिंह, व्याघ्र, शरभ और बड़े-बड़े साँपोंका दर्शन होता था।कण्ठमें मेरुगिरि, कंधोंमें महान् पर्वत, भुजाओंमें देवता मनुष्य और पशु-पक्षी, नाभिमें अन्तरिक्ष और दोनों पैरो पृथ्वी थी। रोमावलियोंगे ओषधियाँ नय सम्पूर्ण विश्व और निःश्वासोंमें सांगोपांग वेद थे। उनके सम्पूर्ण अंगोंमें आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण गन्धर्व तथा अपाराएँ दृष्टिगोचर होती थीं। इस प्रकार उन परमात्माकी विभूतियाँ दिखायी दे रही थीं। उनका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिन, कौस्तुभमणि और वनमाला विभूषित था। वे शंख, चक्र, गदा, खड्ग और शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे सम्पूर्ण उपनिषदोंके अर्थभूत भगवान् श्रीविष्णुको उपस्थित देख दैत्य राजकुमार प्रह्लादके नेत्रोंसे आनन्द के आँसू या चले। उनका सर्वांग अश्रुजलसे अभिषिक्त होने लगा और वे बारंबार श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम करने लगे। दैत्यराज हिरण्यकशिपु सिंहको सामने आया देख क्रोधवश युद्धके लिये तैयार हो गया। वह मृत्युके अधीन हो रहा था। इसलिये हाथमें तलवार लेकर भगवान् नृसिंहकी ओर दौड़ा। इसी बीचमें महावली दैत्य भी होशमें आ गये और वे अपने-अपने आयुध लेकर बड़ी उतावलीके साथ श्रीहरिपर प्रहार करने लगे। दैत्योंकी उस सेनाको देखकर भगवान् नरसिंहने अपनी अयालसे निकलती हुई लपटोंके द्वारा उसे जलाकर भस्म कर दिया। समस्त दानव उनकी जटाकी आगसे। जलकर राखकी ढेर हो गये। प्रह्लाद और उनके अनुचरोंको छोड़कर दैत्यसेनामें कोई भी नहीं बचा। यह देख दैत्यराजने क्रोधमें भरकर तलवार खींच ली और भगवान् नरसिंहपर धावा किया; किन्तु भगवान्ने एक ही हाथसे तलवारसहित दैत्यराजको पकड़ लिया और जैसे आँधी वृक्षको शाखाको गिरा देती है, उसी प्रकार उसे पृथ्वीपर दे मारा। पृथ्वीपर पड़े हुए उस विशालकाय दैत्यको भगवान् नरसिंहने फिर पकड़ा और अपनी गोदमें रखकर उसके मुखकी ओर दृष्टिपात किया। उसमें श्रीविष्णुको निन्दा तथा वैष्णवभकसे द्वेष करनेका जो पाप था, वह भगवान्के स्पर्शमात्रसे ही जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् भगवान् नृसिंहने दैत्यराजके उस विशाल शरीरको वज्रके समान कठोर और तीखे नखसे विदीर्ण कर डाला। इससे दैत्यराजका अन्तःकरणनिर्मल हो गया। उसने साक्षात् भगवान्का मुख देखते हुए प्राणोंका परित्याग किया। इसलिये वह कृतकृत्य हो गया। महान् नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने अपने तीखे नखोंसे उसकी देहके सैकड़ों टुकड़े करके उसकी लंबी आँ बाहर निकाल लीं और उन्हें अपने गलेमें डाल लिया।

तदनन्तर, सम्पूर्ण देवता और तपस्वी मुनि ब्रह्मा तथा महादेवजीको आगे करके धीरे-धीरे भगवान्की स्तुति करनेके लिये आये। उस समय सब ओर मुखवाले भगवान् नृसिंह क्रोधाग्निसे प्रज्वलित हो रहे थे। इसलिये सब देवता और मुनि भयभीत हो गये। उन्होंने भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिये जगन्माता भगवती लक्ष्मीका चिन्तन किया, जो सबका धारण-पोषण करनेवाली, सबकी अधीश्वरी, सुवर्णमय कान्ति सुशोभित हो तथा सब प्रकारके उपद्रवोंका नाश करनेवाली हैं। उन्होंने भक्तिपूर्वक देवीसूक्तका जप करते हुए श्रीविष्णुकी शक्ति अनिन्द्य सुन्दरी नारायणीको नमस्कार किया। देवताओंके स्मरण करनेपर सनातन देवता भगवती लक्ष्मी वहाँ प्रकट हुईं। देवाधिदेव श्रीविष्णुकी वल्लभा महालक्ष्मीका दर्शन करके सम्पूर्ण देवता बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर बोले— ‘देवि! अपने प्रियतमको प्रसन्न करो। तुम्हारे स्वामी जिस प्रकार भी तीनों लोकोंको अभय दान दें, वही उपाय करो।’

देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवती लक्ष्मी सहसा अपने प्रियतम भगवान् जनार्दनके पास गर्यो और चरणोंमें पड़कर नमस्कार करके बोलीं- ‘प्राणनाथ ! प्रसन्न होइये।’ अपनी प्यारी महारानीको उपस्थित देख सर्वेश्वर श्रीहरिने राक्षस-शरीरके प्रति उत्पन्न क्रोधको तत्काल त्याग दिया और कृपारूपी अमृतसे सरस दृष्टिके द्वारा देखा। उस समय उनके कृपापूर्ण दृष्टिपातसे संतुष्ट होकर जय-जयकार करते हुए उच्च-स्वरसे स्तुति और नमस्कार करनेवाले लोगोंमें आनन्द और उल्लास छा गया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता हर्षमग्न हो जगदीश्वर श्रीविष्णुको नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोले-‘भगवन्! अनेक भुजाओं और चरणोंसे युक्त -आपके इस अद्भुत रूप और तीनों लोकोंमें व्याप्तसह तेजकी ओर देखने और आपके समीप ठहरनेमें म सभी देवता असमर्थ हो रहे हैं।’देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर देवेश्वर श्रीविष्णुने उस अत्यन्त भयानक तेजको समेट लिया और सुखपूर्वक दर्शन करनेयोग्य हो गये। उस समय उनका प्रकाश शरत्कालके करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रतीत होता था। कमलके समान विशाल नेत्र शोभा पा रहे थे। जटापुंजसे सुधाकी वृष्टि हो रही थी। उसमें इतनी चमक थी, मानो करोड़ों चपलाएँ चमक रही हो। नाना प्रकारके रत्ननिर्मित दिव्य केयूर और कड़ौसे विभूषित भुजाओं द्वारा वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शाखा और फलोंसे युक्त कल्पवृक्ष सुशोभित हो। कोमल, दिव्य तथा जपाकुसुमके समान लाल रंगवाले चार हाथोंसे परमेश्वर श्रीहरिकी बड़ी शोभा हो रही थी। उनकी ऊपरवाली दो भुजाओंमें शंख और चक्र थे तथा शेष दो हाथोंमें वरदान और अभयकी मुद्राएँ शोभा पाती थीं। भगवान्‌का वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमालासे विभूषित था। कानोंमें उदयकालीन दिनकरकी-सी दीप्तिवाले दो कुण्डल जगमगा रहे थे। हार, केयूर और कड़े आदि आभूषण भिन्न-भिन्न अंगोंकी सुषमा बढ़ा रहे थे। वामांगमें भगवती लक्ष्मीजीको साथ ले भगवान् नृसिंह बड़ी शोभा पाने लगे।

उस समय लक्ष्मी और नृसिंहको एक साथ देख देवता और महर्षि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके नेत्रोंसे आनन्दा की धारा बह चली, जिससे उनका शरीर भीगने लगा। वे आनन्दसमुद्रमें निमग्न होकर बारंबार भगवान्‌को नमस्कार करने लगे। उन्होंने अमृतसे भरे हुए रत्नमय कलशोंद्वारा सनातन भगवान्‌का अभिषेक करके वस्त्र, आभूषण, गन्ध, दिव्य पुष्प तथा मनोरम धूप अर्पण करके उनका पूजन किया और दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति करके बार-बार उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् लक्ष्मीपतिने उन देवताओंको मनोवांछित वरदान दिया। तत्पश्चात् सबके स्वामी भक्तवत्सल श्रीहरिने देवताओंको साथ ले प्रह्लादको सब दैत्योंका राजा बनाया। प्रह्लादको आश्वासन दे देवताओंद्वारा उनका अभिषेक कराकर उन्हें अभीष्ट वरदान और अनन्यभक्ति प्रदान की। इसके बाद भगवान्के ऊपर फूलोंकी वर्षा हुई और वे देवगणोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तरसब देवता अपने-अपने स्थानको चले गये और प्रसन्नतापूर्वक यज्ञभागका उपभोग करने लगे। तबसे उनका आतंक दूर हो गया। उस महादैत्यके मारे जानेसे सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर विष्णुभक्त प्रह्लाद धर्मपूर्वक राज्य करने लगे। वह उत्तम राज्य उन्हें भगवान्‌के प्रसादसे ही उपलब्ध हुआ था। उन्होंने अनेक यज्ञ – दानआदिके द्वारा नरसिंहजीका पूजन किया और समय आनेपर वे श्रीहरिके सनातन धामको प्राप्त हुए। जो प्रतिदिन इस प्रह्लाद-चरित्रको सुनते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुम्हें श्रीहरिके नृसिंहावतारका वैभव बतलाया है। अब शेष अवतारोंके वैभवका क्रमशः वर्णन सुनो।

अध्याय 251 वामन अवतारके वैभवका वर्णन

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती प्रह्लादके विरोचन नामक पुत्र हुआ। विरोचनसे महाबाहु बलिका जन्म हुआ। बलि धर्मज्ञों में श्रेष्ठ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरिके प्रियतम भक्त थे। वे महान् बलवान् थे। उन्होंने इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणको जीतकर तीनों लोकोंको अपने अधीन कर लिया था। इस प्रकार वे समस्त त्रिलोकीका राज्य करते थे। उनके शासनकालमें पृथ्वी बिना जोते ही पके धान पैदा करती थी और खेतीमें बहुत अधिक अन्नको उपज होती थी। सभी गौएँ पूरा दूध देतीं और सम्पूर्ण वृक्ष फल-फूलोंसे लदे रहते थे सब मनुष्य पापोंसे दूर हो अपने-अपने धर्ममें लगे रहते थे। किसीको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं थी। सब लोग सदा भगवान् हृषीकेशकी पूजा किया करते थे। इस प्रकार दैत्यराज बलि धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। इन्द्र आदि देवता दासभावसे उनकी सेवामें खड़े रहते थे। बलिको अपने बलका अभिमान था। वे तीनों लोकोंका ऐश्वर्य भोग रहे थे।

इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्रको राज्यसे वंचित देख उनके हितकी इच्छासे श्रीहरिको प्रसन्न करनेके लिये पत्नीसहित तपस्या करने लगे। धर्मात्मा कश्यपने अपनी भार्या अदितिके साथ पयोव्रतका अनुष्ठान किया और उसमें देवताओंके स्वामी भगवान् जनार्दनका पूजन किया। उसके बाद भी एक सहस्र वर्षोंतक वे श्रीहरिकी आराधनामें संलग्न रहे। तब सनातन देवता भगवान् विष्णु भगवती लक्ष्मीके साथ उनके सामने प्रकट हुए। जगदीश्वर श्रीहरिको सामने देख द्विजश्रेष्ठ कश्यपका हृदय आनन्दमें मग्न हो गया। उन्होंने अदिति के साथ प्रणाम करके भगवान्‌की स्तुति की।तब भगवान् बोले- विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो। तुमने भक्तिपूर्वक मेरी पूजा की है। इससे मैं सन्तुष्ट हूँ। तुम कोई वर माँगो। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण बहुत करूँगा।

कश्यपजीने कहा- देवेश्वर ! दैत्यराज बलिने तीनों लोकोंको बलपूर्वक जीत लिया है। आप मेरे पुत्र होकर देवताओंका हित कीजिये। जिस किसी उपायसे भी मायापूर्वक बलिको परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य प्रदान कीजिये।

कश्यपजीके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की और देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे वहीं अन्तर्धान हो गये। इसी समय महात्मा कश्यपके संयोगसे देवी अदितिके गर्भमें भूतभावन भगवान्‌का शुभागमन हुआ। तदनन्तर एक हजार वर्ष बीतनेके बाद अदितिने वामनरूपधारी भगवान् विष्णुको जन्म दिया। वे ब्रह्मचारीका वेष धारण किये हुए थे। सम्पूर्ण वेदांगोंमें उन्हींका तत्त्व दृष्टिगोचर होता है। वे मेखला, मृगचर्म और दण्ड आदि चिह्नोंसे उपलक्षित हो रहे थे इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनका दर्शन करके महर्षियोंके साथ उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान्ने प्रसन्न होकर उन श्रेष्ठ देवताओंसे कहा ‘देवगण! बताइये, इस समय मुझे क्या करना है?’

देवता बोले- मधुसूदन इस समय राजा बलिका यज्ञ हो रहा है। अतः ऐसे अवसरपर वह कुछ देनेसे इनकार नहीं कर सकता। प्रभो! आप दैत्यराजसे तीनों लोक माँगकर इन्द्रको देनेकी कृपा करें।

देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवान् वामन यज्ञ शालामें महर्षियोंके साथ बैठे हुए राजा बलिके पास आये। ब्रह्मचारीको आया देख दैत्यराज सहसा उठकरखड़े हो गये और मुसकराते हुए बोले-‘अभ्यागत सदा विष्णुका ही स्वरूप है। अतः आप साक्षात् विष्णु ही यहाँ पधारे हैं।’ ऐसा कहकर उन्होंने ब्रह्मचारीको ऐ फूलोंके आसनपर बिठाकर उनका विधिपूर्वक पूजन किया और चरणोंमें गिरकर प्रणाम करके गद्गद वाणी में कहा- ‘विप्रवर! आपका पूजन करके आज मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। मेरा जीवन सफल है। कहिये मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ? द्विजश्रेष्ठ ! आप जिस वस्तुको पानेके उद्देश्यसे मेरे पास पधारे हैं, उसे शीघ्र बताइये। मैं अवश्य दूंगा।’

वामनजी बोले- महाराज! मुझे तीन पग भूमि दे दीजिये क्योंकि भूमिदान सब दानोंमें श्रेष्ठ है जो भूमिका दान करता और जो उस दानको ग्रहण करता है, वे दोनों ही पुण्यात्मा हैं। वे दोनों अवश्य ही स्वर्गगामी होते हैं। अतः आप मुझे तीन पग भूमिका दान कीजिये।

यह सुनकर राजा बलिने प्रसन्नतापूर्वक कहा ‘बहुत अच्छा। ‘ तत्पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भूमिदानका विचार किया। दैत्यराजको ऐसा करते देख उनके पुरोहित शुक्राचार्यजी बोले- ‘राजन्! ये साक्षात् परमेश्वर विष्णु हैं। देवताओंकी प्रार्थनासे यहाँ पधारे हैं और तुम्हें चकमेमें डालकर सारी पृथ्वी हड़प लेना चाहते हैं। अतः इन महात्माको पृथ्वीका दान न देना मेरे कहनेसे कोई और ही वस्तु इन्हें दान करो, भूमि न दो।’

यह सुनकर राजा बलि हँस पड़े और धैर्यपूर्वक गुरुसे बोले-‘ब्रह्मन् ! मैंने सारा पुण्य भगवान् वासुदेवकी प्रसन्नताके ही लिये किया है। अतः यदि स्वयं विष्णु ही यहाँ पधारे हैं, तब तो आज मैं धन्य हो गया। उनके लिये तो आज मुझे यह परम सुखमय जीवनतक दे डालने में संकोच न होगा। अतः इन ब्राह्मणदेवताको आज मैं तीनों लोकोंका भी निश्चय ही दान कर दूंगा।’ ऐसा कहकर राजा बलिने बड़ी भक्तिके साथ ब्राह्मणके दोनों चरण पखारे और हाथमें जल लेकर विधिपूर्वक भूमिदानका संकल्प किया। दान दे, नमस्कार करके दक्षिणारूपसे धन दिया और प्रसन्न होकर कहा ‘ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपनेको धन्य और कृतकृत्य मानता हूँ। आप अपने इच्छानुसार इस पृथ्वीको ग्रहण कीजिये।’तब भगवान् विष्णुने दैत्यराज बलिसे कहा ‘राजन्! मैं तुम्हारे सामने ही अब पृथ्वीको नापता हूँ।’ ऐसा कहकर परमेश्वरने वामन ब्रह्मचारीका रूप त्याग दिया और विराट् रूप धारण करके इस पृथ्वीको ले लिया। समुद्र, पर्वत, द्वीप, देवता, असुर और मनुष्यसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास कोटि योजन है। किन्तु उसे भगवान् मधुसूदनने एक ही पैरसे नाप लिया। फिर दैत्यराजसे कहा- ‘राजन्! अब क्या करूँ ?’ भगवान्‌का वह विराट् रूप महान् तेजस्वी था और महात्मा ऋषियों तथा देवताओंके हितके लिये प्रकट हुआ था। मैं तथा ब्रह्माजी भी उसे नहीं देख सकते थे भगवान्‌का वह पग सारी पृथ्वीको लांघकर सौ योजनतक आगे बढ़ गया। उस समय सनातन भगवान्‌ने दैत्यराज बलिको दिव्यचक्षु प्रदान किया और उन्हें अपने स्वरूपका दर्शन कराया भगवानके विश्वरूपका दर्शन करके दैत्यराज बलिके हर्षकी सीमा न रही उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने भगवान्‌को नमस्कार करके स्तोत्रोंद्वारा उनकी स्तुति की और प्रसन्नचित्तसे गद्गद वाणीमें कहा- ‘परमेश्वर ! आपका दर्शन करके मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आप इन तीनों ही लोकोंको ग्रहण कीजिये।’

तब सर्वेश्वर विष्णुने अपने द्वितीय पगको ऊपरकी ओर फैलाया। वह नक्षत्र, ग्रह और देवलोकको लाँघता हुआ ब्रह्मलोकके अन्ततक पहुँच गया; किन्तु फिर भी पूरा न पड़ा उस समय पितामह ब्रह्माने देवाधिदेव भगवानके चक्र कमलादि चिह्नोंसे अंकित चरणको देख हर्षयुक्त चित्तसे अपनेको धन्य माना और अपने कमण्डलुके जलसे भक्तिपूर्वक उस चरणको धोया। श्रीविष्णुके प्रभावसे वह चरणोदक अक्षय हो गया। वह तीर्थभूत निर्मल जल मेरुपर्वतके शिखरपर गिरा और जगत्को पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें बह चला। वे चारों धाराएँ क्रमशः सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्राके नामसे प्रसिद्ध हुई। मेरुके दक्षिण ओर जो धारा चली, उसका नाम अलकनन्दा हुआ। वह तीन धाराओं में विभक्त होनेके कारण त्रिपथगा और त्रिस्रोता कहलायी। वह लोकपावनी गंगा तीन नामोंसे प्रसिद्ध हुई। ऊपर-स्वर्गलोकमें मन्दाकिनी, नीचे-पाताललोकमेंभोगवती तथा मध्य अर्थात् मर्त्यलोकमें वेगवती गंगा कहलाने लगी। ये गंगा मनुष्योंको पवित्र करनेके लिये प्रकट हुई हैं। इनका स्वरूप कल्याणमय है। पार्वती ! जब गंगा मेरुपर्वतसे नीचे गिर रही थीं, उस समय मैंने अपनेको पवित्र करनेके लिये उन्हें मस्तकपर धारण कर लिया। जो श्रीविष्णुचरणोंसे निकली हुई गंगाका पावन जल अपने मस्तकपर धारण करेगा अथवा उनके जलका पान करेगा, वह निःसन्देह सम्पूर्ण जगत्का पूज्य होगा।

तदनन्तर राजा भगीरथ और महातपस्वी गौतमने तपस्याके द्वारा मेरी पूजा करके गंगाजीके लिये मुझसे याचना की। तब मैंने सम्पूर्ण विश्वका हित करनेके लिये कल्याणमयी वैष्णवी गंगाका जल उन दोनों महानुभावोंके लिये प्रसन्नतापूर्वक दान किया। महर्षि गौतम जिन गंगाको ले गये, वे गौतमी (गोदावरी) कही गयी हैं और राजा भगीरथने जिनको भूमिपर उतारा, वे भागीरथीगंगाके नामसे प्रसिद्ध हुईं। यह मैंने प्रसंगवश तुमसे गंगाजीके प्रादुर्भावकी उत्तम कथा सुनायी है। तदनन्तर भक्तवत्सल भगवान् नारायणने दैत्यराज बलिको रसातलका उत्तम लोक प्रदान किया और उन्हें सब दानवों, नागों तथा जल-जन्तुओंका कल्पभरके लिये राजा बना दिया। इस प्रकार कश्यपनन्दन वामनका वेष धारण करके अविनाशी भगवान् विष्णुने बलिसे तीनों लोक लेकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रको दे दिया। तब देवता, गन्धर्व तथा परम तेजस्वी ऋषियोंने दिव्य स्तोत्रोंसे भगवान्का स्तवन और पूजन किया। तत्पश्चात् अपना विराट् रूप समेटकर भगवान् अच्युत वहीं अन्तर्धान हो गये। इस तरह प्रभावशाली श्रीविष्णुने इन्द्रकी रक्षा की और इन्द्रने उनकी कृपासे तीनों लोकोंका महान् ऐश्वर्य प्राप्त किया। शुभे ! यह मैंने तुमसे वामन अवतारके वैभवका वर्णन किया है।

अध्याय 252 परशुरामावतारकी कथा

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती भृगुवंशमें द्विजवर जमदग्नि अच्छे महात्मा हो गये हैं। ये सम्पूर्ण वेद वेदांगों के पारगामी विद्वान् और महान् तपस्वी थे। धर्मात्मा जमदग्निने इन्द्रको प्रसन्न करनेके लिये गंगाके किनारे एक हजार वर्षतक भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्र ने कहा- ‘विप्रवर! तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार वर मांगो।’

जमदग्नि बोले- देव! मुझे सदा सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौ प्रदान कीजिये।

तब देवराज इन्द्रने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौ प्रदान की। सुरभिको पाकर महातपस्वी जमदग्नि दूसरे इन्द्रकी भाँति महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न होकर रहने लगे। उन्होंने राजा रेणुककी सुन्दरी कन्या रेणुकाके साथ विधिपूर्वक विवाह किया। तत्पश्चात् परम धार्मिक जमदग्निने पुत्रकी कामनासे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ किया और उस यज्ञके द्वारा देवराज इन्द्रको सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होनेपर शचीपति इन्द्रने जमदग्निको एक महाबाहु, महातेजस्वी और महाबलवान् पुत्र होनेका वरदान दिया। समय आनेपर विप्रवर जमदग्निने रेणुकाके गर्भसे एक महापराक्रमीऔर बलवान् पुत्र उत्पन्न किया, जो भगवान् विष्णुके अंशके अंशसे प्रकट हुआ था। उसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण मौजूद थे। पितामह भृगुने आकर उस महापराक्रमी पुत्रका नामकरण-संस्कार किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ उसका नाम ‘राम’ रखा। जमदग्निका पुत्र होनेके कारण वह जामदग्न्य भी कहलाया । भार्गववंशी बालक राम धीरे-धीरे बड़े हुए। उपनयन संस्कारके पश्चात् उन्होंने सब विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त कर ली। तदनन्तर विप्रवर राम शालग्राम पर्वतके शिखरपर तपस्या करनेके लिये गये। वहाँ उन्हें परमतेजस्वी ब्रह्मर्षि कश्यपजीका दर्शन हुआ। रामने बड़े हर्षके साथ उनका पूजन किया। तब उन्होंने रामको विधिपूर्वक अविनाशी वैष्णव मन्त्रका उपदेश दिया। महात्मा कश्यपसे मन्त्रका उपदेश पाकर राम विधिपूर्वक लक्ष्मीपति श्रीविष्णुकी आराधना करने लगे। उन्होंने दिन-रात षडक्षर महामन्त्रका जप करते हुए सर्वव्यापी कमलनयन श्रीहरिके ध्यानपूर्वक अनेक वर्षोंतक तपस्या की। महातपस्वी ब्रह्मर्षि जमदग्नि जितेन्द्रिय एवं मौनभावसे तप करते हुए गंगाके सुन्दर तटपर निवास करते थे। उन्होंने यज्ञ, दान आदि महान् धर्मोका विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। इन्द्रकी दी हुईगौके प्रसादसे उनके पास सब सम्पतियाँ भरी-पूरी रहती थीं।

एक समयकी बात है-हैहयराज अर्जुन सब राष्ट्रोंको जीतकर अपनी सारी सेनाके साथ जमदग्नि मुनिके आश्रमपर आये। राजाने महाभाग मुनिवरका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया, उनकी कुशल पूछी और उन्हें भाँति-भाँति के वस्त्र तथा आभूषण दान किये मुनिने भी अपने घरपर आये हुए राजाका मधुपर्ककी विधिसे प्रेमपूर्वक सत्कार किया तथा शक्तिशालिनी सुरभि गौके प्रभावसे सेनासहित राजाको उत्तम भोजन दिया। राजाको उस गौकी शक्ति देखकर बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने महर्षि जमदग्निसे उस गौको माँगा।

जमदग्नि मुनिके अस्वीकार करनेपर हैहयराजने उस सबला गौको बलपूर्वक ले लिया। तब महाभागा सबलाने क्रोधमें भरकर अपने सींगोंसे राजाके सब सैनिकोंको मार डाला। तदनन्तर स्वयं अन्तर्धान होकर क्षणभरमें इन्द्रके पास जा पहुँची। इधर अपनी सेनाका विनाश देखकर राजा अर्जुन क्रोधसे पागल हो उठा। उसने मुक्कोंसे मार-मारकर मुनि जमदग्निका वध कर डाला और लौटकर अपने नगरमें प्रवेश किया।

उधर रामने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया। भगवान्‌ने अपने परशु, वैष्णव महाधनुष और अनेक दिव्यास्त्र प्रदान करके उनसे कहा-‘मैं तुम्हें अपनी उत्तम शक्ति प्रदान करता हूँ। मेरी शक्तिसे आविष्ट होकर तुम पृथ्वीका भार उतारने और देवताओंका हित करनेके लिये दुष्ट राजाओंका वध करो। इस समय पृथ्वीपर बहुत-से मदोन्मत्त राजा एकत्र हो रहे हैं। उन्हें मारकर समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी अपने अधिकारमें कर लो और महान् पराक्रमसे सम्पन्नहो धर्मपूर्वक इसका पालन करो। फिर समय आनेपर मेरी ही कृपासे मेरे परमपदको प्राप्त होओगे।’ भगवान् विष्णुके अन्तर्धान होनेपर राम भी तुरंत अपने पिताके आश्रमको लौट गये। वहाँ जब उन्होंने अपने पिताको मारा गया देखा तो वे क्रोधसे मूच्छित हो गये और इस पृथ्वीको क्षत्रियविहीन करनेकी इच्छासे हैहयराजके नगरमें जा पहुँचे। वहाँ राजाको ललकारकर महायुद्धमें प्रवृत्त हुए और उसकी सेनाका संहार करके अन्तमें उन्होंने उसको भी मार डाला।

इस प्रकार सहस्रबाहु अर्जुनका वध करनेके अनन्तर प्रतापी परशुरामजीने कुपित होकर सम्पूर्ण राजाओंका संहार कर डाला। केवल राजा इक्ष्वाकुके महान् कुलपर उन्होंने हाथ नहीं उठाया। एक तो वह नानाका कुल था, दूसरे माता रेणुकाने इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंको मारनेकी मनाही कर दी थी। इसलिये उक्त वंशकी उन्होंने रक्षा की।

इस प्रकार क्षत्रियोंका संहार करनेके पश्चात् प्रतापी परशुरामजीने अश्वमेध नामक महायज्ञका विधिवत् अनुष्ठान किया और उसमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सात द्वीपोंसहित पृथ्वी दान कर दी। तदनन्तर वे भगवान् नर-नारायणके आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। पार्वती ! यह मैंने तुमसे परशुरामजीके चरित्रका वर्णन किया है। वे भगवान् विष्णुकी शक्तिके आवेशावतार थे। इसीलिये शक्तिके आवेशसे उन्होंने जो कुछ किया, उसकी उपासना नहीं करनी चाहिये। भगवद्भक्त महात्माओं तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके लिये भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्णके अवतार ही उपासना करनेयोग्य हैं; क्योंकि वे अपने ईश्वरीय गुणोंसे परिपूर्ण हैं और उपासना करनेपर मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।

अध्याय 253 श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! पूर्वकालकी बात है, स्वायम्भुव मनु शुभ एवं निर्मल तीर्थ नैमिषारण्यमें गोमती नदीके तटपर द्वादशाक्षर महामन्त्रका जप करते थे। उन्होंने एक हजार वर्षतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीहरिका पूजन किया तब भगवान्ने प्रकट होकर कहा – ‘राजन् ! मुझसे वर माँगो।’ तब स्वायम्भुव मनुनेबड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- ‘अच्युत ! देवेश्वर ! आप तीन जन्मोंतक मेरे पुत्र हों। मैं पुत्रभावसे आप पुरुषोत्तमका भजन करना चाहता हूँ।’ उनके ऐसा कहनेपर भगवान् लक्ष्मीपति बोले- ‘नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा है, वह अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारा पुत्र होनेमें मुझे भी बड़ी प्रसन्नता है। जगत्के पालनतथा धर्मकी रक्षाका प्रयोजन उपस्थित होनेपर भिन्न भिन्न समयमें तुम्हारे जन्म लेनेके पश्चात् मैं भी तुम्हारे यहाँ अवतार लूंगा। अनघ साधु पुरुषोंकी रक्षा, पापियोंका विनाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूँ।*

इस प्रकार स्वायम्भुव मनुको वरदान दे श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। उन स्वायम्भुव मनुका पहला जन्म रघुकुलमें हुआ। वहाँ वे राजा दशरथके नामसे प्रसिद्ध हुए। दूसरी बार वे वृष्णिवंशमें वसुदेवरूपसे प्रकट हुए। फिर जब कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो जायँगे तो सम्भल नामक गाँवमें वे हरिगुप्त ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न होंगे। उनकी पत्नी भी प्रत्येक जन्ममें उनके साथ रहीं। अब मैं पहले श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रका वर्णन करता हूँ, जिसके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य दूसरा जन्म धारण करनेपर महाबली कुम्भकर्ण और रावण हुए मुनिवर पुलस्त्यके विश्रवा नामके एक धार्मिक पुत्र हुए, जिनकी पत्नी राक्षसराज सुमालीकी कन्या थी उसकी माताका नाम सुकेशी था। उसका नाम केकशी था। केकशी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली थी किन्तु एक दिन कामवेगकी अधिकतासे सन्ध्याके समय उसने महामुनि विश्रवाके साथ रमण किया; अतः समयके दोषसे उसके गर्भसे दो तमोगुणी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बहुत ही बलवान् थे। संसारमें वे रावण और कुम्भकर्णके नामसे विख्यात हुए। केकशीके गर्भसे एक शूर्पणखा नामकी कन्या भी हुई, जिसका मुख बड़ा ही विकराल था कुछ कालके पश्चात् उससे विभीषणका जन्म हुआ, जो सुशील, भगवद्भक्त, सत्यवादी, धर्मात्मा और परम पवित्र थे ।

रावण और कुम्भकर्ण हिमालय पर्वतपर अत्यन्त कठोर तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करने लगे। रावण बड़ा दुष्टात्मा था। उसने बड़ा कठोर कर्म करके अपने मस्तकरूपी कमलोंसे मेरी पूजा की। तब मैंने प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा- ‘बेटा तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, उसके अनुसार वर माँगो’ तब वह दुष्टात्मा बोला

‘देव! मैं सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाना चाहता हूँ। अतःआप मुझे देवता, दानव और राक्षसोंके द्वारा भाव | कर दीजिये।’ पार्वती। मैंने उसके कथनानुसार दान | दे दिया। वरदान पाकर उस महापराक्रमी राक्षसको गर्व हो गया। वह देवता, दानव और मनुष्य ताना लोकोंके। प्राणियोंको पीड़ा देने लगा। उसके सताये हुए ब्रह्मा आदि देवता भयसे आतुर हो भगवान् लक्ष्मीपतिकी शरणये गये। सनातन प्रभुने देवताओंके कष्ट और उसके दूर होनेके उपायको भलीभाँति जानकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- ‘देवगण में रघुकुलमें राजा दशरथके यहाँ अवतार धारण करूँगा और दुरात्मा रावणको बन्धु बान्धवोंसहित मार डालूँगा। मानवशरीर धारण करके मैं देवताओंके इस कण्टकको उखाड़ फेंकूँगा। ब्रह्माजीके शापसे तुमलोग भी गन्धर्वो और अप्सराओंसहित वानर योनिमें उत्पन्न हो मेरी सहायता करो।’

देवाधिदेव श्रीविष्णुके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता इस पृथ्वीपर वानररूपमें प्रकट हुए। उधर सूर्यवंशमे वैवस्वत मनुके पुत्र राजा इक्ष्वाकु हुए, जो समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ, महाबलवान् और सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंकी कुल परम्परामें महातेजस्वी तथा बलवान् राजा दशरथ हुए, जो महाराज अजके पुत्र, सत्यवादी, सुशील एवं पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने अपने पराक्रमसे समस्त भूमण्डलका पालन किया और सब राजाओंको अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। कोशलनरेशके एक सर्वांगसुन्दरी कन्या थी, जिसका नाम कौसल्या था राजा दशरथने उसीके साथ विवाह किया। तदनन्तर मगधराजकुमारी सुमित्रा उनकी द्वितीय पत्नी हुई केकयनरेशकी कन्या कैकेयी, जिसके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे, महाराज दशरथकी तीसरी भार्या हुई। इन तीनों धर्मपत्नियोंके साथ धर्मपरायण होकर राजा दशरथ पृथ्वीका पालन करने लगे। अयोध्या नामकी नगरी, जो सरयूके तीरपर बसी हुई है, महाराजकी राजधानी थी। वह सब प्रकारके रत्नोंसे भरी पूरी और धन-धान्यसे सम्पन्न थी वह सोनेकी चहारदीवारीसे घिरी हुई और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों (नगरद्वारों) से सुशोभित थी। धर्मात्मा राजा दशरथ अनेक मुनिवरों और अपने पुरोहित महात्मा वसिष्ठजीके साथ उस पुरीमें निवासकरते थे। उन्होंने वहाँ अकण्टक राज्य किया। वहाँ f भगवान् पुरुषोत्तम अवतार धारण करनेवाले थे, अतएव वह पवित्र नगरी अयोध्या कहलायी। परमात्माके उस नगरका नाम भी परम कल्याणमय है। जहाँ भगवान् विष्णु विराजते हैं, वही स्थान परमपद हो जाता है। वहाँ सब कर्मोका बन्धन काटनेवाला मोक्ष सुलभ होता है।

राजा दशरथने समस्त भूमण्डलका पालन करते हुए पुत्रकामनासे वैष्णवयागके द्वारा श्रीहरिका यजन किया। सबको वर देनेवाले सर्वव्यापक लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उक्त यज्ञद्वारा राजा दशरथसे पूजित होनेपर वहाँ अग्निकुण्डमें प्रकट हुए। जाम्बूनदके समान उनकी श्याम कान्ति थी। वे हाथोंमें शंख, चक्र और गदा लिये हुए थे। उनके शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था। वाम अंकमें भगवती लक्ष्मीजीके साथ वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हुए भक्तवत्सल परमेश्वर राजा दशरथसे बोले – ‘राजन् ! मैं वर देनेके लिये आया हूँ।’ सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् विष्णुका दर्शन पाकर राजा दशरथ आनन्दमग्न हो गये। उन्होंने पत्नीके साथ प्रसन्नचित्तसे भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीमें कहा ‘भगवन्! आप मेरे पुत्रभावको प्राप्त हों।’ तब भगवान्ने प्रसन्न होकर राजासे कहा-‘नृपश्रेष्ठ ! मैं देवलोकका हित, साधुपुरुषोंकी रक्षा, राक्षसोंका वध, लोगोंको मुक्ति प्रदान और धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हारे यहाँ अवतार लूँगा।’

ऐसा कहकर श्रीहरिने सोनेके पात्रमें रखा हुआदिव्य खीर, जो लक्ष्मीजीके हाथमें मौजूद था, राजाको दिया और स्वयं वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजा दशरथने वहाँ बड़ी रानी कौसल्या और छोटी रानी कैकेयीको उपस्थित देख इन्हीं दोनोंमें उस दिव्य खीरको बाँट दिया। इतनेहीमें मझली रानी सुमित्रा भी पुत्रकी कामनासे राजाके समीप आयीं। उन्हें देख कौसल्या और कैकेयीने तुरंत ही अपने-अपने खीरमेंसे आधा-आधा निकालकर उनको दे दिया। उस दिव्य खीरको खाकर तीनों ही रानियाँ गर्भवती हुईं। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उन्हें कई बार सपनेमें शंख, चक्र और गदा लिये तथा पीताम्बर पहने देवेश्वर भगवान् विष्णु दर्शन दिया करते थे। तदनन्तर समयानुसार जब चैतका मनोरम मधुमास आया तो शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको पुनर्वसु नक्षत्रमें दोपहर के समय रानी कौसल्याने पुत्रको जन्म दिया। उस समय उत्तम लग्न था और सभी ग्रह शुभ स्थानोंमें स्थित थे। कौसल्याके पुत्ररूपमें सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी साक्षात् श्रीहरि ही अवतीर्ण हुए थे, जो योगियोंके ध्येय, सनातन प्रभु, सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, अनन्त, संसारकी सृष्टि, रक्षा और प्रलयके हेतु, रोग-शोकसे रहित, सब प्राणियोंको शरण देनेवाले और सर्वभूतस्वरूप परमेश्वर हैं। जगदीश्वरका अवतार होते ही आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं। श्रेष्ठ देवताओंने फूल बरसाये। प्रजापति आदि देवगण विमानपर बैठकर मुनियोंके साथ हर्षगद्गद हो स्तुति करने लगे।

अध्याय 254 श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह

तत्पश्चात् राजा दशरथने बड़ी प्रसन्नताके साथ पुरोहित वसिष्ठजीके द्वारा बालकका जातकर्म-संस्कार कराया। भगवान् वसिष्ठने उस समय बालकका बड़ा सुन्दर नाम रखा। वे बोले-‘ये महाप्रभु कमलमें निवास करनेवाली श्रीदेवीके साथ रमण करनेवाले हैं, इसलिये इनका परम प्राचीन स्वतः सिद्ध नाम ‘श्रीराम’ होगा। यह नाम भगवान् विष्णुके सहस्र नामोंके समान है तथामनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। चैत मास श्रीविष्णुका मास है। इसमें प्रकट होनेके कारण यह विष्णु भी कहलायेंगे। *

इस प्रकार नाम रखकर महर्षि वसिष्ठने नाना प्रकारकी स्तुतियोंसे भगवान्का स्तवन किया और बालकके मंगलके लिये सहस्रनामका पाठ करके वे उस परम पवित्र राजभवनसे बाहर निकले। राजा दशरथनेश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्नतापूर्वक बहुत धन दिया तथा धर्मपूर्वक दस हजार गौएँ दान कीं। इतना ही नहीं, उन रघुकुलश्रेष्ठ राजाने श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये एक र लाख गाँव दान किये और दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा असंख्य धन देकर ब्राह्मणोंको तृप्त किया। महारानी 1 कौसल्याने जब अपने पुत्र श्रीरामकी और दृष्टिपात किया तो उनके श्रीचरणों और करकमलोंमें शंख, चक्र, 1 गदा, पद्म, ध्वजा और वज्र आदि चिह्न दिखायी दिये। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि और वनमाला सुशोभित थी। उनके श्रीअंगमें देवता, असुर और मनुष्यसहित सम्पूर्ण जगत् दृष्टिगोचर हुआ मुसकराते हुए मुखके भीतर चौदहों भुवन दिखायी देते थे। उनके निःश्वासमें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेद, जाँघोंमें द्वीप, समुद्र और पर्वत, नाभिमें ब्रह्मा तथा महादेवजी, कानोंमें सम्पूर्ण दिशाएँ, नेत्रोंमें अग्नि और सूर्य तथा नासिकामें महान् वेगशाली वायुदेव विराजमान थे। पार्वती। सम्पूर्ण उपनिषदोंके तात्पर्यभूत भगवान्‌को देखकर रानी कौसल्या भयभीत हो गयीं और बारंबार प्रणाम करके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाती हुई हाथ जोड़कर बोली ‘देवदेवेश्वर! प्रभो! आपको पुत्ररूपमें पाकर मैं धन्य हो गयी। जगन्नाथ! अब मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे भीतर पुत्रस्नेहको जाग्रत् कीजिये।’

माताके ऐसा कहनेपर सर्वव्यापक श्रीहरि मायासे मानवभाव तथा शिशुभावको प्राप्त होकर रुदन करने लगे। फिर तो देवी कौसल्याने आनन्दमग्न होकर उत्तम लक्षणोंवाले अपने पुत्रको छाती से लगा लिया और उसके मुखमें स्तन डाल दिया। संसारका भरण-पोषण करनेवाले सनातन देवता महाप्रभु श्रीहरि बालकरूपसे माताकी गोदमें लेटकर उनका स्तनपान करने लगे। वह दिन बड़ा ही सुन्दर रमणीय और मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था। नगर और प्रान्तके सब मनुष्योंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस दिन भगवान्‌का जन्मोत्सव मनाया। तदनन्तर कैकेयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ। वे पांचजन्य शंखके अंशसे प्रकट हुए थे। इसके बाद महाभागा सुमित्राने उत्तम लक्षणोंवाले लक्ष्मणको तथा देवशत्रुओंको सन्ताप देनेवाले शत्रुघ्नको जन्म दिया। शत्रुपक्षके वीरोंका संहार करनेवाले श्रीलक्ष्मणभगवान् अनन्तके अंशसे और अमित पराक्रमी शत्रुघ्न सुदर्शनके अंशसे प्रकट हुए थे। वैवस्वत मनुके वंश जन्म लेनेवाले वे सभी बालक क्रमशः बड़े हुए। फिर महातेजस्वी महर्षि वसिष्ठने सबका विधिपूर्वक संस्कार किया। तदनन्तर सबने वेद-शास्त्रोंका अध्ययन किया। सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ होकर वे धनुर्वेदके भी प्रतिष्ठित विद्वान् हुए। श्रीराम आदि चारों भाई बड़े ही उदार और लोगोंका हर्ष बढ़ानेवाले थे। उनमें श्रीराम और लक्ष्मणकी जोड़ी एक साथ रहती थी और भरत तथा शत्रुघ्नकी जोड़ी एक साथ।

भगवान् के अवतार लेनेके पश्चात् जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मी राजा जनकके भवनमें अवतीर्ण हुई। जिस समय राजा जनक किसी शुभक्षेत्रमें यज्ञके लिये हलसे भूमि जोत रहे थे, उसी समय सीता (हलके अग्रभाग) – से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् लक्ष्मी ही थी उस वेदमयी कन्याको देख मिथिलापति राजा जनकने गोदमें उठा लिया और अपनी पुत्री मानकर उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार जगदीश्वरकी वल्लभा देवेश्वरी लक्ष्मी सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये राजा जनकके मनोहर भवनमें पल रही थीं।

इसी समय विश्वविख्यात महामुनि विश्वामित्रने गंगाजीके सुन्दर तटपर परम पुण्यमय सिद्धाश्रममें एक उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। जब यज्ञ होने लगा तो रावणके अधीन रहनेवाले कितने ही निशाचर उसमें विघ्न डालने लगे। इससे विश्वामित्र मुनिको बड़ी चिन्ता हुई। तब उन धर्मात्मा मुनिने लोकहितके लिये रघुकुलमें प्रकट हुए श्रीहरिको वहाँ ले आनेका विचार किया। फिर तो वे रघुवंशी क्षत्रियोंद्वारा सुरक्षित रमणीय नगरी अयोध्यामें गये और वहाँ राजा दशरथसे मिले कौशिक मुनिको उपस्थित देख राजा दशरथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा उन्होंने अपने पुत्रोंके साथ मुनिवर विश्वामित्रके चरणोंमें मस्तक झुकाया और बड़े हर्षके साथ कहा ‘मुने। आज आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।’ तत्पश्चात् उन्हें उत्तम आसनपर बिठाकर राजाने विधिपूर्वक सत्कार किया और पुनः प्रणाम करके पूछा- ‘महर्षे! मेरे लिये क्या आज्ञा है?” तब महातपस्वी विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न होकरबोले- ‘राजन्! आप मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीरामचन्द्रजीको मुझे दे दीजिये। इनके समीप रहनेसे मेरे यज्ञमें पूर्ण सफलता मिलेगी।’ मुनिवर विश्वामित्रकी यह बात सुनकर सर्वज्ञों में श्रेष्ठ राजा दशरथने लक्ष्मणसहित श्रीरामको मुनिकी सेवामें समर्पित कर दिया। महातपस्वी विश्वामित्र उन दोनों रघुवंशी कुमारोंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर गये। श्रीरामचन्द्रजीके जानेसे देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने भगवान्के ऊपर फूल बरसाये और उनकी स्तुति की। उसी समय महाबली गरुड़ सब प्राणियोंसे अदृश्य होकर वहाँ आये और उन दोनों भाइयोंको दो दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई महापराक्रमी वीर थे तपोवनमें पहुँचनेपर महात्मा कौशिकने विशाल वनके भीतर उन्हें एक भयंकर राक्षसीको दिखलाया, जिसका नाम ताड़का था। वह सुन्द नामक राक्षसकी स्त्री थी। मुनिकी प्रेरणासे उन दोनोंने दिव्य धनुषसे छूटे हुए बार्णोद्वारा ताड़काको मार डाला। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मारी जानेपर वह भयंकर राक्षसी अपने भयानक रूपको छोड़कर दिव्यरूपमें प्रकट हुई। उसका शरीर तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा वह सब आभरणोंसे विभूषित दिखायी देती थी। राक्षसयोनिसे छूटकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करनेके पश्चात् वह श्रीविष्णुलोको चली गयी।

ताड़काको मारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने महात्मा लक्ष्मणके साथ विश्वामित्रके शुभ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय समस्त मुनि बड़े प्रसन्न हुए। वे आगे बढ़कर श्रीरामचन्द्रजीको ले गये और उत्तम आसनपर बिठाकर सबने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका पूजन किया। द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने विधिपूर्वक यज्ञकी दीक्षा ले मुनियोंके साथ उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। उस महायज्ञका प्रारम्भ होते ही मारीच नामक राक्षस अपने भाई सुबाहुके साथ उसमें विघ्न डालनेके लिये उपस्थित हुआ। उन भयंकर राक्षसोंको देखकर विपक्षी वीरोंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसराज सुबाहुको एक ही बाणसे मौतके घाट उतार दिया और महान् । नास्त्रका प्रयोग करके मारीच नामक निशाचरकोसमुद्रके तटपर इस प्रकार फेंक दिया, जैसे हवा सूखे पसेको उड़ा ले जाती है। श्रीरामचन्द्रजीके इस महान् पराक्रमको देखकर राक्षसश्रेष्ठ मारीचने हथियार फेंक दिया और एक महान् आश्रममें वह तपस्या करनेके लिये चला गया। महान् यज्ञके समाप्त होनेके बाद महातेजस्वी विश्वामित्रने प्रसन्नचित्तसे श्रीरघुनाथजीका पूजन किया। वे मस्तकपर काकपक्ष धारण किये हुए थे। उनके शरीरका वर्ण नील कमलदलके समान श्याम था तथा क्षेत्र कमलदलके समान विशाल थे। मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उन्हें छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा और स्तवन किया।

इसी बीचमें मिथिलाके सम्राट् राजा जनकने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा वाजपेययज्ञ आरम्भ किया। विश्वामित्र आदि सब महर्षि उस यज्ञको देखनेके लिये गये। उनके साथ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी थे। मार्ग में महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका स्पर्श हो जानेसे बहुत बड़ी शिलाके रूपमें पड़ी हुई गौतमपत्नी अहल्या शुद्ध हो गयी। पूर्वकालमें वह अपने स्वामी गौतमके शापसे पत्थर हो गयी थी; किन्तु श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्पर्श होनेसे शुद्ध हो वह शुभ गतिको प्राप्त हुई तदनन्तर दोनों रघुकुमारोंके साथ मिथिला नगरीमें पहुँचकर सभी मुनिवरोंका मन प्रसन्न हो गया। महाबली राजा जनकने महान् सौभाग्यशाली महर्षियोंको आया देख आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम और पूजन किया। कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले, नील कमलदलके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, कोमलांग, कोटि कन्दपक सौन्दर्यको मात करनेवाले, समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रघुवंशनाथ श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मिथिलानरेश जनकके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दशरथनन्दन श्रीरामको परमेश्वरका ही स्वरूप समझा और अपनेको धन्य मानते हुए उनका पूजन किया। राजाके मनमें श्रीरामचन्द्रजीको अपनी | कन्या देनेका विचार उत्पन्न हुआ। ‘ये दोनों कुमार रघुकुलमें उत्पन्न हुए हैं।’ इस प्रकार दोनों भाइयोंका परिचय पाकर राजाने उत्तम वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा धर्मपूर्वक उनका सत्कार किया और मधुपर्क आदिकी विधिसे सम्पूर्ण महर्षियोंका भी पूजन किया। तत्पश्चात्यज्ञ समाप्त होनेपर कमलनयन श्रीरामने शंकरजीके दिव्य धनुषको भंग करके जनककिशोरी सीताको जीत लिया। उस पराक्रमरूपी महान् शुल्कसे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर मिथिलानरेशने सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें देनेका निश्चय कर लिया।

तत्पश्चात् राजा जनकने महाराज दशरथके पास दूत भेजा। धर्मात्मा राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्नको साथ लेकर वसिष्ठ, वामदेव आदि महर्षियों और सेनाके साथ मिथिलामें आये और जनकके सुन्दर भवनमें उन्होंने जनवासा किया। फिर शुभ समयमें मिथिलानरेशने श्रीरामका सीताके साथ और लक्ष्मणका उर्मिलाके साथ विवाह कर दिया। उनके भाई कुशध्वजके दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जो माण्डवी और श्रुतकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध थीं। वे दोनों सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं। उनमेंसे माण्डवीके साथ भरतका और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नका विवाह किया। इस प्रकार वैवाहिक उत्सव समाप्त होनेपर महाबली राजा दशरथ मिथिलानरेशसे पूजित हो दहेजका सामान ले पुत्रों, पुत्रवधुओं, सेवकों, अश्व-गज आदि सैनिकों तथा नगर और प्रान्तके लोगोंके साथ अयोध्याको प्रस्थित हुए। मार्गमें महापराक्रमी तथा परम प्रतापी परशुरामजी मिले, जो हाथमें फरसा लेकर क्रोधमें भरे हुए सिंहकी भाँति खड़े थे। वे क्षत्रियोंके लिये कालरूप थे और श्रीरामचन्द्रजीके पास युद्धको इच्छासे आ रहे थे। रघुनाथजीको सामने पाकर परशुरामजीने इस प्रकार कहा – ‘महाबाहु श्रीराम ! मेरी बात सुनो। मैं युद्धमें बहुत से महापराक्रमी राजाओंका वध करके ब्राह्मणोंको भूमिदान दे तपस्या करनेके लिये चला गया था किन्तु तुम्हारे वीर्य और बलकी ख्याति सुनकर यहाँ तुमसे युद्ध करनेके लिये आया हूँ। यद्यपि इक्ष्वाकुवंशके वे क्षत्रिय जो मेरे नानाके कुलमें उत्पन्न हुए हैं, मेरे वध्य नहीं हैं; तथापि किसी भी क्षत्रियका बल और पराक्रम सुनकर मेरे लिये उसका सहन करना असम्भव है; इसलिये उदार रघुवंशी वीर! तुम मुझे युद्धका अवसर दो। सुना है, तुमने शंकरजीके दुर्धर्षधनुषको तोड़ डाला है। यह वैष्णव धनुष भी उसीके समान शत्रुओंका संहार करनेवाला है। तुम अपने पराक्रमसे इसकी प्रत्यंचा चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार मान लूँगा अथवा यदि मुझे देखकर तुम्हारे मनमें भय समा गया हो तो मुझ बलवान् के आगे अपने हथियार नीचे डाल दो और मेरी शरणमें आ जाओ।’

परशुरामजीके ऐसा कहनेपर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजीने वह धनुष ले लिया। साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी खींच लिया। शक्तिसे वियोग होते ही पराक्रमी परशुराम कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणकी भाँति वीर्य और तेजसे हीन हो गये। उन्हें तेजोहीन देखकर समस्त क्षत्रिय साधु-साधु कहते हुए बारंबार श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करने लगे। रघुनाथजीने उस महान् धनुषको हाथमें लेकर अनायास ही उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी और बाणका सन्धान करके विस्मयमें पड़े हुए परशुरामजी से पूछा- ‘ब्रह्मन् ! इस श्रेष्ठ बाणसे आपका कौन-सा कार्य करूँ? आपके दोनों लोकोंका नाश कर दूँ या आपके पुण्योंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोकका ही अन्त कर डालूँ ?’

उस भयंकर बाणको देखकर परशुरामजीको यह मालूम हो गया कि ये साक्षात् परमात्मा हैं। ऐसा जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने लोकरक्षक श्रीरघुनाथजीको नमस्कार करके अपने सौ यज्ञोंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोक और अपने अस्त्र-शस्त्र उनकी सेवामें समर्पित कर दिये। तब महातेजस्वी रघुनाथजीने महामुनि परशुरामजीको प्रणाम किया तथा पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदिके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित होकर महातपस्वी परशुरामजी भगवान् नर नारायणके रमणीय आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। तत्पश्चात् महाराज दशरथने पुत्रों और बहुओंके साथ उत्तम मुहूर्तमें अपनी पुरी अयोध्याके भीतर प्रवेश किया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न चारों भाई अपनी-अपनी पत्नीके साथ प्रसन्नचित्त होकर रहने लगे। धर्मात्मा श्रीरघुनाथजीने सीताके साथ बारह वर्षों तक विहार किया।

अध्याय 255 श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती। इसी समय राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको प्रेमवश युवराजपदपर अभिषिक्त करना चाहा किन्तु उनकी छोटी रानी कैकेयीने, जिसे पहले वरदान दिया जा चुका था, महाराजसे दो वर माँगे भरतका राज्याभिषेक और रामका चौदह वर्षोंके लिये वनवास राजा दशरथने सत्य वचनमें बँधे होनेके कारण अपने पुत्र श्रीरामको राज्यसे निर्वासित कर दिया। उस समय राजा मारे दुःखके अचेत हो गये तथा रामचन्द्रजीने पिताके वचनोंकी रक्षा करनेके लिये धर्म समझकर राज्यको त्याग दिया और लक्ष्मण तथा सीताके साथ वे वनको चले गये। वहाँ जानेका उद्देश्य था रावणका वध करना। इधर राजा दशरथ पुत्रवियोगसे शोकग्रस्त हो मर गये। उस समय मन्त्रियोंने भरतको राज्यपर बिठानेकी चेष्टा की, किन्तु धर्मात्मा भरतने राज्य लेनेसे इनकार कर दिया। उन्होंने उत्तम भ्रातृ-प्रेमका परिचय देते हुए वनमें आकर श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना की; किन्तु पिताकी आज्ञाका पालन करनेके कारण रघुनाथजीने राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की। उन्होंने भरतके अनुरोध करनेपर उन्हें अपनी चरणपादुकाएँ दे दीं। भरतने भी भक्तिपूर्वक उन्हें स्वीकार किया और उन पादुकाओंको ही राजसिंहासनपर स्थापित करके गन्ध-पुष्प आदिसे वे प्रतिदिन उनका पूजन करने लगे। महात्मा रघुनाथजीके लौटनेतक के लिये भरतजी तपस्या करते हुए वहाँ रहने लगे तथा समस्त पुरवासी भी तबतकके लिये भाँति भौतिके व्रतोंका पालन करने लगे।

श्रीरघुनाथजी चित्रकूट पर्वतपर भरद्वाज मुनिके उत्तम आश्रमके निकट मन्दाकिनीके किनारे लक्ष्मीस्वरूपा विदेह राजकुमारी सीताके साथ रहने लगे। एक दिन महामना श्रीराम जानकीजीकी गोदमें मस्तक रखकर सो रहे थे। इतनेहीमें इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएके रूपमें वहाँ आकर विचरने लगा। वह जानकीजीको देखकर उनकी और झपटा और अपने तीखे पंजोंसे उसने उनके स्तनपर आघात किया। उस कौएको देखकर श्रीरामने। एक कुश हाथमें लिया और उसे ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके उसकी ओर फेंका। वह तृण प्रज्वलित अग्निकेसमान अत्यन्त भयंकर हो गया। उससे आगकी लपटें निकलने लगीं। उसे अपनी ओर आता देख वह कौआ कातर स्वरमें काँव-काँव करता हुआ भाग चला। श्रीरामका छोड़ा हुआ वह भयंकर अस्व कौएका पीछा करने लगा। कौआ भयसे पीड़ित हो तीनों लोकोंमें घूमता फिरा वह जहाँ-जहाँ शरण लेनेके लिये जाता, वहीं-वहीं वह भयानक अस्त्र तुरंत पहुँच जाता था। उस कौएको देखकर रुद्र आदि समस्त देवता, दानव और मनीषी मुनि यही उत्तर देते थे कि ‘हमलोग तुम्हारी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं।’ इसी समय तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माने कहा- ‘कौआ ! तू भगवान् श्रीरामकी ही शरण में जा। वे करुणाके सागर और सबके रक्षक हैं। उनमें क्षमा करनेकी शक्ति है। वे बड़े ही दयालु हैं। शरणमें आये हुए जीवोंकी रक्षा करते हैं। वे ही समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं। सुशीलता आदि गुणोंसे सम्पन्न हैं और समस्त जीवसमुदायके रक्षक, पिता, माता, सखा और सुहृद हैं। उन देवेश्वर श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जा, उनके सिवा और कहीं भी तेरे लिये शरण नहीं है।’

ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह कौआ भयसे व्याकुल हो सहसा श्रीरघुनाथजीकी शरणमें आकर पृथ्वीपर गिर पढ़ा। कौएको प्राणसंकटमें पड़ा देख जानकीजीने बड़ी विनयके साथ अपने स्वामीसे कहा-‘नाथ! इसे बचाइये, बचाइये।’ कौआ सामने धरतीपर पड़ा था। सीताने उसके मस्तकको भगवान् श्रीरामके चरणोंमें लगा दिया। तब करुणारूपी अमृतके सागर भगवान् श्रीरामने कौएको अपने हाथसे उठाया और दयासे द्रवित होकर उसकी रक्षा की। दयानिधि श्रीरघुनाथजीने कौएसे कहा-‘काक ! डरो मत, मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थानको जाओ।’ तब वह कौआ श्रीराम और सीताको बारंबार प्रणाम करके श्रीरघुनाथजीके द्वारा सुरक्षित हो शीघ्र ही स्वर्गलोकको चला गया। फिर श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके साथ महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए चित्रकूट पर्वतपर रहने लगे। कुछ कालके पश्चात् एक दिन श्रीरघुनाथजी
अत्रिमुनिके विशाल आश्रमपर गये। उन्हें आया देख
मुनिश्रेष्ठ धर्मात्मा अत्रिने बड़ी प्रसन्नताके साथ आगेजाकर उनकी अगवानी की और सीतासहित स् श्रीरामचन्द्रजीको सुन्दर आसनपर विराजमान करके उन्हें उ प्रेमपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, भाँति-भाँति वस्त्र, मधुपर्क और आभूषण आदि समर्पण किये मुनिकी पत्नी अनसूयादेवीने भी प्रसन्नतापूर्वक सीताको परम उत्तम दिव्य वस्त्र और चमकीले आभूषण भेंट किये। फिर दिव्य अन्न, पान और भक्ष्यभोज्य आदिके द्वारा मुनिने तीनोंको भोजन कराया। मुनिके द्वारा पराभक्तिसे पूजित होकर लक्ष्मणसहित श्रीराम वहाँ बड़ी प्रसन्नता f साथ एक दिन रहे। सबेरे उठकर उन्होंने महामुनिसे विदा माँगी और उन्हें प्रणाम करके वे जानेको तैयार हुए। मुनिने आज्ञा दे दी। तब कमलनयन श्रीराम महर्षियोंसे 2 भरे हुए दण्डक वनमें गये। वहाँ अत्यन्त भयंकर विराध नामक राक्षस निवास करता था। उसे मारकर वे शरभंगमुनिके उत्तम आश्रमपर गये। शरभंगने श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन किया। इससे तत्काल पापमुक्त होकर वे ब्रह्मलोकको चले गये तत्पश्चात् श्रीरघुनाथजी क्रमशः सुतीक्ष्ण, अगस्त्य तथा अगस्त्यके भाईके आश्रमपर गये। उन सबने उनका भलीभाँति सत्कार किया। इसके बाद वे गोदावरीके उत्तम तटपर जा पंचवटीमें रहने लगे। वहाँ उन्होंने दीर्घकालतक बड़े सुखसे निवास किया। धर्मका अनुष्ठान करनेवाले तपस्वी मुनिवर वहाँ जाकर अपने स्वामी राजीवलोचन श्रीरामका पूजन किया करते थे। उन मुनियोंने राक्षसोंसे प्राप्त होनेवाले अपने भयकी भी भगवान्को सूचना दी। भगवान्ने उन्हें सान्त्वना देकर अभयकी दक्षिणा दी। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा सत्कार पाकर सब मुनि अपने-अपने आश्रममें चले आये। पंचवटीमें रहते हुए श्रीरामके तेरह वर्ष व्यतीत हो गये। एक समय भयंकर रूप धारण करनेवाली दुर्धर्ष राक्षसी सूर्पणखाने, जो रावणकी बहिन थी, पंचवटी प्रवेश किया। वहाँ कोटि कन्दर्पके समान मनोहर कान्तिवाले श्रीरघुनाथजीको देखकर वह राक्षसी कामदेवके बाणसे पीड़ित हो गयी और उनके पास जाकर बोली ‘तुम कौन हो, जो इस दण्डकारण्यके भीतर तपस्वीके बेचमें रहते हो? तपस्वियोंके लिये तो इस वनमें आना बहुत ही कठिन है। तुम किसलिये यहाँ आये हो? येसब बातें शीघ्र ही सच-सच बताओ। झूठ न बोलना ?’ उसके इस प्रकार पूछने पर श्रीरामचन्द्रजीने हँसकर कहा—’मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ। मेरा नाम राम है। वे मेरे छोटे भाई धनुर्धर लक्ष्मण हैं। ये मेरी पत्नी सीता हैं। इन्हें मिथिलानरेश जनककी प्यारी पुत्री समझो। मैं पिताके आदेशका पालन करनेके लिये इस वनमें आया हूँ। हम तीनों महर्षियोंका हित करनेकी इच्छासे इस महान् वनमें विचरते हैं। सुन्दरी! तुम मेरे आश्रमपर किसलिये आयी हो? तुम कौन हो और किसके कुलमें उत्पन्न हुई हो ? ये सारी बातें सच सच बताओ।’

राक्षसी बोली- मैं मुनिवर विश्रवाकी पुत्री और रावणकी बहिन हूँ। मेरा नाम शूर्पणखा है मैं तीनों लोकॉमें विख्यात हूँ। मेरे भाईने यह दण्डकारण्य मुझे दे दिया है। मैं इस महान् वनमें ऋषि महर्षियोंको खाती हुई विचरती रहती हूँ। तुम एक श्रेष्ठ राजा जान पड़ते हो तुम्हें देखकर में कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हो रही हूँ और तुम्हारे साथ बेखटके रमण करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। नृपश्रेष्ठ ! तुम मेरे पति हो जाओ। मैं तुम्हारी इस सती सीताको अभी खा जाऊँगी।

ऐसा कहकर वह राक्षसी सीताको खा जानेके लिये उद्यत हुई। यह देख श्रीरामचन्द्रजीने तलवार उठाकर उसके नाक-कान काट लिये। तब विकराल मुखवाली वह राक्षसी भयभीत हो रोती हुई शीघ्र ही खर नामक निशाचरके घर गयी और वहाँ उसने श्रीरामकी सारी करतूत कह सुनायी। यह सुनकर खर कई हजार राक्षसों और दूषण तथा त्रिशिराको साथ ले शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु श्रीरामने उस भयानक वनमें काल और अन्तकके समान प्राणान्तकारी बाणोंद्वारा उन विशालकाय राक्षसोंका अनायास ही संहार कर डाला। विषैले साँपोंके समान तीखे सायकोंद्वारा उन्होंने युद्धमें खर मिशिरा और महाबली दूषणको भी मार गिराया। इस प्रकार दण्डकारण्यवासी समस्त राक्षसोंका यथ करके श्रीरामचन्द्रजी देवताओं द्वारा पूजित हुए और महर्षि भी उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ दण्डकारण्यमें रहने लगे। शूर्पणखासे राक्षसोंके मारे जानेका समाचार सुनकररावण क्रोधसे मूच्छित हो उठा और दुरात्मा मारीचको साथ लेकर जनस्थानमें आया। पंचवटीमें पहुँचकर दशशीश रावणने मारीचको मायामय मृगके रूपमें रामके आश्रमपर भेजा। वह राक्षस अपने पीछे आते हुए दोनों दशरथकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा ले गया। इसी बीच में रावणने अपने वधकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीको हर लिया।

सीताजीको हरी जाती हुई देख गृधोंके राजा महावली जटायुने श्रीरामचन्द्रजीके प्रति स्नेह होनेके कारण उस राक्षसके साथ युद्ध किया। किन्तु शत्रुविजयी रावणने अपने बाहुबलसे जटायुको मार गिराया और राक्षसों से घिरी हुई लंकापुरीमें प्रवेश किया। वहीं अशोकवाटिकामें सीताको रखा और श्रीरामचन्द्रजीके बाणोंसे मृत्युकी अभिलाषा रखकर वह अपने महलमें चला गया। इधर श्रीरामचन्द्रजी मृगरूपधारी मारीच नामक राक्षसको मारकर भाई लक्ष्मणके साथ जब पुनः आश्रम में आये, तब उन्हें सीता नहीं दिखायी दीं। सीताको कोई राक्षस हर ले गया, यह जानकर दशरथनन्दन श्रीरामको बहुत शोक हुआ और वे सन्तप्त होकर विलाप करने लगे। वनमें घूम-घूमकर उन्होंने सीताकी खोज आरम्भ की। उसी समय मार्गमें महाबली जटायु पृथ्वीपर पड़े दिखायी दिये। उनके पैर और पंख कट गये थे तथा सारा अंग लहूलुहान हो रहा था। उनको इस अवस्थामें देख श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा विस्मय हुआ उन्होंने पूछा- ‘अहो किसने तुम्हारा वध किया है ?”

जटायुने श्रीरामचन्द्रजीको देखकर धीरे-धीरे कहा रघुनन्दन! आपकी पत्नीको महाबली रावणने हर लिया है, उसी राक्षसके हाथसे में युद्धमें मारा गया हूँ।’ इतना कहकर जटायुने प्राण त्याग दिया। श्रीरामने वैदिक विधिसे उनका दाह संस्कार किया और उन्हें अपना सनातन धाम प्रदान किया; जो योगियोंको ही प्राप्त योग्य है। श्रीरघुनाथजी प्रसादसे गोधको भी परमपदकी प्राप्ति हुई। उन पक्षिराजको श्रीहरिका सारूप्य मोक्ष मिला। तदनन्तर माल्यवान् पर्वतपर जाकर मातंग मुनिके आश्रमपर वे महाभागा धर्म-परायणा शबरीसे मिले। वह – भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थी। उसने श्रीराम-लक्ष्मणको आते देख आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और प्रणामकरके आश्रम में कुशके आसनपर उन्हें बिठाया। फिर चरण धोकर वनके सुगन्धित फूलोंसे भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया। उस समय शबरीका हृदय आनन्दमग्न हो रहा था। वह दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। उसने दोनों रघुकुमारोंको सुगन्धित एवं मधुर फल मूल निवेदन किये। उन फलोंको भोग लगाकर भगवान्ने शबरीको मोक्ष प्रदान किया। पम्पासरोवरकी ओर जाते समय उन्होंने मार्गमें भयानक रूपधारी कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। उसको मारकर महापराक्रमी श्रीरामने उसे जला दिया, इससे वह स्वर्गलोकमें चला गया। इसके बाद महाबली श्रीरघुनाथजीने शबरीतीर्थको अपने शार्ङ्गधनुषकी कोटिसे गंगा और गयाके समान पवित्र बना दिया। ‘यह महान् भगवद्भक्तोंका तीर्थ है, इसका जल जिसके उदरमें पड़ेगा, उसका शरीर सम्पूर्ण जगत्के लिये वन्दनीय हो जायगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।

ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी ऋष्यमूक पर्वतपर गये। वहाँ पम्पासरोवर के तटपर हनुमान् नामक वानरसे उनकी भेंट हुई हनुमान्जीके कहने से उन्होंने सुग्रीवके साथ मित्रता की और सुग्रीवके अनुरोधसे वानरराज बालिको मारकर सुग्रीवको ही उसके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् जानकीजीका पता लगानेके लिये वानरराज सुग्रीवने हनुमान् आदि वानर वीरोंको भेजा पवननन्दन हनुमानजीने समुद्रको लांघकर लंका नगरीमें प्रवेश किया और दृढ़तापूर्वक पातिव्रत्यका पालन करनेवाली सीताजीको देखा। वे उपवास करनेके कारण दुर्बल, दीन और अत्यन्त शोकग्रस्त थीं। उनके शरीरपर मैल जम गयी थी तथा वे मलिन वस्त्र पहने हुए थीं। उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी दी हुई पहचान देकर हनुमानजीने उनसे भगवान्‌का समाचार निवेदन किया। फिर विदेहराजकुमारीको भलीभाँति आश्वासन दे उन्होंने उस सुन्दर उद्यानको नष्ट कर डाला। तदनन्तर दरवाजेका खम्भा उखाड़कर उससे हनुमान्जीने वनकी रक्षा करनेवाले सेवकों, पाँच सेनापतियों, सात मन्त्रिकुमारों तथा रावणके एक पुत्रको मार डाला। इसके बाद रावणके दूसरे पुत्र मेघनादके द्वारा वे स्वेच्छासे बँध गये। फिर राक्षसराज रावणसे मिलकर हनुमान्जीने उससे वार्तालाप किया और अपनी पूँछमें लगायी हुई आगसे समूचीलंकापुरीको दग्ध कर डाला। फिर सीताजीके दिये हुए चिह्नको लेकर वे लौट आये और कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीसे मिलकर सारा हाल बताते हुए बोले ‘मैंने सीताजीका दर्शन किया है।’

इसके बाद सुग्रीवसहित श्रीरामचन्द्रजी बहुत-से वानरोंके साथ समुद्रके तटपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी सेनाका पड़ाव डाल दिया। रावणके एक छोटे भाई थे, जो विभीषण के नामसे प्रसिद्ध थे सत्यप्रतिज्ञ और महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। श्रीरामचन्द्रजीको आया जान विभीषण अपने बड़े भाई रावणको, राज्यको तथा पुत्र और स्त्रीको भी छोड़कर उनकी शरण में चले गये। हनुमान्जीके कहने से श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणको अपनाया और उन्हें अभयदान देकर राक्षसोंके राज्यपर अभिषिक्त किया। तत्पश्चात् समुद्रको पार करनेकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजी उसकी शरणमें गये, किन्तु प्रार्थना करनेपर भी उसकी गतिविधिमें कोई अन्तर होता न देख महाबली ओरामने धनुष हाथमें लिया और बामसमूहकी वर्षा करके समुद्रको सुखा दिया। तब सरिताओंके स्वामी समुद्रने करुणासागर भगवान्‌की शरण में जा उनका विधिवत् पूजन किया। इससे श्रीरघुनाथजीने वारुणास्त्रका प्रयोग करके पुनः सागरको जलसे भर दिया। फिर समुद्रके ही कहनेसे उन्होंने उसपर वानरोंके लाये हुए पर्वतोंके द्वारा पुल बँधवाया। उसीसे सेनासहित लंकापुरीमें जाकर अपनी बहुत बड़ी सेनाको ठहराया।

उसके बाद वानरों और राक्षसोंमें खूब युद्ध हुआ। तदनन्तर रावणके पुत्र महाबली इन्द्रजित् नामक राक्षसने नागपाशसे श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयोंको बाँध लिया। उस समय गरुड़ने आकर उन्हें उन अस्त्रोंके बन्धन से मुक्त किया। महाबली वानरोंके द्वारा बहुत-से राक्षस मारे गये। रावणका छोटा भाई कुम्भकर्ण बड़ा बलवान् वीर था। उसको श्रीरामने युद्धमें अग्निशिखाके समान तेजस्वी वाणोंसे मौतके घाट उतार दिया। तब इन्द्रजितको बड़ा क्रोध हुआ और उसने ब्रह्मास्त्रके द्वारा वानरोंको मार गिराया। उस समय हनुमानजी श्रेष्ठ ओषधियोंसे युक्त पर्वतको उठा ले आये। उसको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे सभी वानर जी उठे तब परम उदार लक्ष्मणने अपने तीखे बाणोंसे जैसे इन्द्रनेमसूरको मारा था, उसी प्रकार इन्द्रजितको मार गिराया अब स्वयं रावण ही संग्राम में श्रीरामचन्द्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये निकला। उसके साथ चतुरंगिणी सेना और महाबली मन्त्री भी थे। फिर तो वानरों और राक्षसोंमें तथा लक्ष्मणसहित श्रीराम और रावणमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। उस समय राक्षसराज रावणने शक्तिका प्रहार करके लक्ष्मणको रणभूमिमें गिरा दिया। इससे महातेजस्वी रघुनाथजी, जो राक्षसोंके काल थे, कुपित हो उठे और काल एवं मृत्युके समान तीखे बाणोंसे राक्षस वोरोंका संहार करने लगे। उन्होंने कालदण्डके समान सहस्रों तेजस्वी बाण मारकर राक्षसराज रावणको ढक दिया। श्रीरघुनाथजीके बाणोंसे उस निशाचरके सारे अंग बिंध गये और वह भयभीत होकर रणभूमिसे लंकामें भाग गया। उसे सारा संसार श्रीराममय दिखायी देता था; अतः वह खिन्न होकर घरमें घुस गया। इसके बाद हनुमानजी श्रेष्ठ ओषधियोंसे युक्त महान् पर्वत उठा ले आये इससे लक्ष्मणजीको तुरंत ही चेत हो गया। उधर रावणने विजयकी इच्छासे होम करना आरम्भ किया; किन्तु बड़े-बड़े वानरोंने जाकर शत्रुके उस अभिचारात्मक यज्ञका विध्वंस कर दिया। तब रावण पुनः श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये निकला। उस समय वह दिव्य रथपर बैठा था और बहुत-से राक्षस उसके साथ थे यह देख इन्द्रने भी अपने दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सारधिसाहित दिव्य रथको श्रीरामचन्द्रजीके लिये भेजा। मातलिके लाये हुए उस रथपर बैठकर श्रीरघुनाथजी देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए राक्षसके साथ युद्ध करने लगे। तदनन्तर श्रीराम और रावणमें भयंकर शस्त्रास्त्रोंद्वारा सात दिन और सात रातोंतक घोर युद्ध हुआ सब देवता विमानोंपर बैठकर उस महाबुद्धको देख रहे थे।

रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने अनेकों बार रावणके मस्तक काटे, किन्तु मेरे (महादेवजीके) वरदानसे उसके फिर नये-नये मस्तक निकल आते थे। तब श्रीरघुनाथजीने। उस दुरात्माका वध करनेके लिये महाभयंकर और कालाग्निके समान तेजस्वी ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ वह अस्त्र रावणकी छाती छेदकर धरती को चीरता हुआ रसातलमें चला गया। वहाँसपने उस वाणका पूजन किया। वह महाराक्षस प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिरा और भर गया। इससे सम्पूर्ण देवताओंका हृदय हर्षसे भर गया। वे सम्पूर्ण जगत्के गुरु महात्मा श्रीरामपर फूलों की वर्षा करने लगे। गन्ध गाने और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वा चलने लगी और सूर्यकी प्रथा स्वच्छ हो गयी। मुनि, सिद्ध, देवता, गन्धर्व और किन्नर भगवान्‌की स्तुति करने लगे। श्रीरघुनाथजीने लंकाके राज्यपर विभीषणको अभिषिक्त करके अपनेको कृतार्थ सा माना और इस प्रकार कहा ‘विभीषण! जबतक सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी रहेगी तथा जबतक यहाँ मेरी कथाका प्रचार रहेगा, तबतक तुम्हारा राज्य कायम रहेगा। महाबल! यहाँ राज्य करके तुम पुनः अपने पुत्र, पौत्र तथा गणोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य मेरे सनातन दिव्य धाममें पहुँच जाओगे।’

इस प्रकार विभीषणको वरदान दे महाबली श्रीरामचन्द्रजीने मिथिलेशकुमारी सीताको पास बुलवाया। यद्यपि वे सर्वथा पवित्र थीं, तो भी श्रीरामने भरी सभा में उनके प्रति बहुत-से निन्दित वचन कहे। पतिके द्वारा निन्दित होनेपर सती-साध्वी सीता अग्नि प्रज्वलित करके उसमें प्रवेश करने लगीं। माता जानकीको अग्निमें प्रवेश करते देख शिव और ब्रह्मा आदि सभी देवता भयसे व्याकुल हो उठे और श्रीरघुनाथजीके पास आ हथ जोड़कर बोले-‘महाबाहु श्रीराम! आप अत्यन्त पराक्रमी हैं। हमारी बात सुनें। सीताजी अत्यन्त निर्मल हैं. साध्वी हैं और कभी भी आपसे विलग होनेवाली नहीं हैं। जैसे सूर्य अपनी प्रभाको नहीं छोड़ सकते, उसी प्रकार आपके द्वारा भी ये त्यागनेयोग्य नहीं हैं। ये सम्पूर्ण जगत्की माता और सबको आश्रय देनेवाली हैं: संसारका कल्याण करनेके लिये ही ये भूतलपर प्रकट हुई हैं। रावण और कुम्भकर्ण पहले आपके ही भक्त थे, वे सनकादिकोंके शापसे इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। उनीको मुक्ति के लिये ये विदेहराजकुमारी दण्डकारण्य में गयीं। इन्हींको निमित्त बनाकर वे दोनों श्रेष्ठ राक्षस आपके हाथसे मारे गये हैं। अब इस राक्षसयोनिसे मुक्त होकर का पुत्र, पौत्रों और सेवकोंसहित स्वर्गमें गये हैं। सदा शुद्ध आचरणवाली सती-साध्वी सीताको हो ग्रहण कीजिये। ठीक उसी तरह जैसेपूर्वकालमें आपने समुद्रसे निकलनेपर लक्ष्मीरूपमें इन्हें ग्रहण किया था।’

इसी समय लोकसाक्षी अग्निदेव सीताको लेकर प्रकट हुए। उन्होंने देवताओंके समीप ही श्रीजानकीजीको श्रीरामजीकी सेवामें अर्पण कर दिया और कहा ‘प्रभो! सीता सर्वथा निष्कलंक और शुद्ध आचरणवाली हैं। यह बात मैं सत्य सत्य निवेदन करता हूँ। आप इन्हें बिना विलम्ब किये ग्रहण कीजिये।’ अग्निदेवके इस कथनसे रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामने प्रसन्नताके साथ सीताको स्वीकार किया। फिर सब देवता भगवान्‌का पूजन करने लगे। उस युद्धमें जो-जो श्रेष्ठ वानर राक्षसोंके हाथसे मारे गये थे, वे ब्रह्माजीके वरसे शीघ्र ही जी उठे। तत्पश्चात् राक्षसराज विभीषणने सूर्यके समान तेजस्वी पुष्पकविमानको, जिसे रावणने कुबेरसे छीन लिया था, श्रीरघुनाथजीको भेंट किया। साथ ही बहुत से वस्त्र और आभूषण भी दिये। विभीषणसे पूजित होकर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजी अपनी धर्मपत्नी विदेहकुमारी सीताके साथ उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए। इसके बाद शूरवीर भाई लक्ष्मण, वानर और भालुओं के समुदायसहित वानरराज सुग्रीव तथा महाबली राक्षसों सहित शूरवीर विभीषण भी उसपर सवार हुए। वानर, भालू और राक्षस-सबके साथ सवार हो श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवताओंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए अयोध्याकी ओर प्रस्थित हुए। भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर सत्यपराक्रमी श्रीरामने हनुमान्जीको भरतके पास भेजा। वे निषादोंके गाँव (श्रृंगवेरपुर ) – में जाकर श्रीविष्णुभक्त गुहसे मिले और उनसे श्रीरामचन्द्रजीके आनेका समाचार कहकर नन्दिग्रामको चले गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरतसे मिलकर उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके शुभागमनका समाचार कह सुनाया। हनुमान्जीके द्वारा श्रीरघुनाथजीके शुभागमनकी बात सुनकर भाई तथा सुहृदोंके साथ भरतजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वायुनन्दन हनुमानजी पुनः श्रीरामचन्द्रजीके पास लौट आये और भरतका समाचार उनसे कह सुनाया।

तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने अपने छोटे भाई लक्ष्मण और सीताके साथ तपस्वी भरद्वाज मुनिको प्रणाम किया। फिर मुनिने भी पकवान, फल, मूल, वस्त्र औरआभूषण आदिके द्वारा भाईसहित श्रीरामका स्वागत सत्कार किया। उनसे सम्मानित होकर श्रीरघुनाथजीने उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले पुनः लक्ष्मणसहित पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो सुहृदोंसहित नन्दिग्राममें आये। उस समय कैकेयीनन्दन भरतने भाई शत्रुघ्न, मन्त्रियों, नगरके मुख्य-मुख्य व्यक्तियों तथा सेनासहित अनेक राजाओंको साथ ले प्रसन्नतापूर्वक आगे आकर बड़े भाईकी अगवानी की। रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके निकट पहुँचकर भरतने अनुयायियोंसहित उन्हें प्रणाम किया। फिर शत्रुओंको ताप देनेवाले श्रीरघुनाथजीने विमानसे उतरकर भरत और शत्रुघ्नको छातीसे लगाया। तत्पश्चात् पुरोहित वसिष्ठजी, माताओं, बड़े-बूढ़ों तथा बन्धु-बान्धवोंको महातेजस्वी श्रीरामने सीता और लक्ष्मणके साथ प्रणाम किया। इसके बाद भरतजीने विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, अंगद, हनुमान् और सुषेणको गले लगाया। वहाँ भाइयों और अनुचरोंसहित भगवान्ने मांगलिक स्नान करके दिव्य माला और दिव्य वस्त्रधारण किये, फिर दिव्य चन्दन लगाया। इसके बाद वे सीता और लक्ष्मणके साथ सुमन्त्र नामक सारथिसे संचालित दिव्य रथपर बैठे। उस समय देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे। फिर भरत, सुग्रीव, शत्रुघ्न, विभीषण, अंगद, सुषेण, जाम्बवान्, हनुमान्, नील, नल, सुभग, शरभ, गन्धमादन, अन्यान्य कपि, निषादराज गुह, महापराक्रमी राक्षस और महाबली राजा भी बहुत-से घोड़े, हाथी और रथोंपर आरूढ़ हुए। उस समय नाना प्रकारके मांगलिक बाजे बजने लगे तथा नाना प्रकारके स्तोत्रोंका गान होने लगा। इस प्रकार वानर, भालू, राक्षस, निषाद और मानव सैनिकोंके साथ महातेजस्वी श्रीरघुनाथजीने अपने अविनाशी नगर साकेतधाम (अयोध्या) में प्रवेश किया। मार्गमें उस राजनगरीकी शोभा देखते हुए श्रीरघुनाथजीको बारंबार अपने पिता महाराज दशरथकी याद आने लगी। तत्पश्चात् सुग्रीव, हनुमान् और विभीषण आदि भगवद्भक्तोंके पावन चरणोंके पड़नेसे पवित्र हुए राजमहलमें उन्होंने प्रवेश किया।

अध्याय 256 श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग

श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती! तदनन्तर किसी पवित्र दिनको शुभ लग्नमें मंगलमय भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक करनेके लिये लोगोंने मांगलिक उत्सव मनाना आरम्भ किया। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि कश्यप, मार्कण्डेय, मौद्गल्य, पर्वत और नारद-ये महर्षि जप और होम करके राजशिरोमणि श्रीरघुनाथजीका शुभ अभिषेक करने लगे। नाना रत्नोंसे निर्मित दिव्य सुवर्णमय पीढ़ेपर सीतासहित भगवान् श्रीरामको बिठाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि सोने और रत्नोंके कलशों में रखे हुए सब तीर्थोके शुद्ध एवं मन्त्रपूत जलसे, जिसमें पवित्र मांगलिक वस्तुएँ दुर्बदन तुलसीदल फूल और चन्दन आदि पड़े थे, उनका मंगलमय अभिषेक करने और चारों वेदोंके वैष्णव सूक्तोंको पढ़ने लगे। उस शुभ लग्नके समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजती थीं। चारों ओरसे फूलोंकी वर्षा होती थी। वेदोंके पारगामी मुनियोंने दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य गन्ध और नाना प्रकारके दिव्य पुष्पोंसे श्रीसीतादेवीके साथ श्रीरघुनाथजीका शृंगार किया। उस समय लक्ष्मणनेदिव्य छत्र और चॅवर धारण किये। भरत और शत्रुघ्न भगवान्‌के दोनों बगलमें खड़े होकर ताड़के पंखोंस हवा करने लगे। राक्षसराज विभीषणने सामनेसे दर्पण दिखाया। वानरराज सुग्रीव भरा हुआ कलश लेकर खड़े हुए। महातेजस्वी जाम्बवान्ने मनोहर फूलोंकी माला पहनायी। बालिकुमार अंगदने श्रीहरिको कपूर मिला हुआ पान अर्पण किया। हनुमान्जीने दिव्य दीपक दिखाया। सुषेणने सुन्दर झंडा फहराया। सब मन्त्री महात्मा श्रीरामको चारों ओरसे घेरकर उनकी सेवामें खड़े हुए। मन्त्रियोंके नाम इस प्रकार थे— सृष्टि, जयन्त, विजय, सौराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र। नाना जनपदोंके स्वामी नरश्रेष्ठ नृपतिगण, पुरवासी, वैदिक विद्वान् तथा बड़े बूढ़े सज्जन भी महाराजकी सेवामें उपस्थित थे। वानर, भालू, मन्त्री, राजा, राक्षस, श्रेष्ठ द्विज तथा सेवकोंसे घिरे हुए महाराज श्रीराम साकेतधाम (अयोध्या) – में इस प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु देवताओंसे घिरे होनेपर परव्योम (वैकुण्ठधाम) – में सुशोभित होते हैं। देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको राज्यपर अभिषिक्तहोते देख विमानोंपर बैठे हुए देवताओंका हृदय आनन्दसे भर गया। गन्धर्व और अप्सराओंके समुदाय जय जयकार करते हुए स्तुति करने लगे। वसिष्ठ आदि महर्षियोद्वारा अभिषेक होने श्रीसीतादेवी के साथ उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु शोभा पते हैं। सीताजी अत्यन्त विव श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी सेवा किया करती थीं।

राज्याभिषेक हो जानेके पश्चात् सम्पूर्ण दिशाओंका पालन करते हुए श्रीरामचन्द्रजीने विदेहनन्दिनी सीताके साथ एक हजार वर्षोंतक मनोरम राजभोगका उपभोग किया। इस बीचमें अन्तःपुरकी रिवद नगर निवासी तथा प्रान्तके लोग छिपे तौरपर सीताजीकी निन्दा करने लगे। निन्दाका विषय यही था कि वे कुछ कालतक राक्षसके घरमें निवास कर चुकी थीं। शत्रुओंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी लोकापवादके कारण मानव भावका प्रदर्शन करते हुए उन्होंने राजकुमारी सीताको गर्भवतीकी अवस्थामै वाल्मीकि मुनिके आश्रम के पास गंगातटपर महान् बनके भीतर छुपा दिया। महातेजस्विनी जानकी गर्भका कष्ट सहन करती हुई मुनिके आश्रम में रहने लगीं। उनका मन सदा स्वामीके चिन्तनमें ही लगा रहता था। मुनिपत्नियोंसे सत्कृत और महर्षि वाल्मीकिद्वारा सुरक्षित होकर उन्होंने आश्रम में ही दो पुत्र उत्पन्न किये, जो कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। मुनिने ही उनके संस्कार किये और वहीं पलकर वे दोनों बड़े हुए।

उधर श्रीरामचन्द्रजी यम-नियमादि गुणोंसे सम्पन्न हो सब प्रकारके भोगोंका परित्याग करके भाइयोंके साथ पृथ्वीका पालन करने लगे। वे सदा आदि-अन्तसे रहित, सर्वव्यापी श्रीहरिका पूजन करते हुए ब्रह्मचर्यपरायण हो प्रतिदिन पृथ्वीका शासन करते थे। धर्मात्मा शत्रुघ्न लवणासुरको मारकर अपने दो पुत्रोंके साथ देवनिर्मित मथुरापुरीके राज्यका पालन करने लगे। भरतने सिंधु नदीके दोनों तटोंपर अधिकार जमाये हुए गन्धवका संहार करके उस देशमें अपने दोनों महाबली पुत्रोंको स्थापित कर दिया। इसी प्रकार लक्ष्मणने मद्रदेशमें रकर मौका वध किया और अपने दो महापराक्रमी पुगेको यहाँके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् आकर वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवाकरने लगे। श्रीरघुनाथजीने एक तपस्वी शूद्रको मारकर मृत्युको प्राप्त हुए एक ब्राह्मणबालकको जीवन प्रदान किया। तत्पश्चात् नैमिषारण्य में गोमतीके तटपर श्रीरघुनाथजीने सुवर्णमयी जानकीको प्रतिमाके साथ बैठकर अश्वमेधयज्ञ किया। वहाँ भारी जनसमाज एकत्रित था। उन्होंने बहुत से यज्ञ किये।

इसी समय महातपस्वी वाल्मीकिजी सीताको साथ लेकर वहाँ आये और श्रीरघुनाथजीसे इस प्रकार बोले- ‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रीराम। मिथिलेशकुमारी सीता सर्वधा निष्पाप हैं। ये अत्यन्त निर्मल और सती-साध्वी स्त्री हैं। जैसे प्रभा सूर्यसे पृथक नहीं होती, उसी प्रकार ये भी कभी आपसे अलग नहीं होतीं। आप भी पापके सम्पर्कसे रहित हैं; फिर आपने इनका त्याग कैसे किया ?’

श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! मैं जानता हूँ, आपके कथनानुसार जानकी सर्वथा निष्पाप हैं। बात यह है कि सती-साध्वी सीताको दण्डकारण्य में रावणने हर लिया था। मैंने उस दुष्टको युद्धमें मार डाला। उसके बाद सीताने अग्निमें प्रवेश करके जब अपनेको शुद्ध प्रमाणित कर दिया, तब मैं धर्मतः इन्हें लेकर पुनः अयोध्या में आया। यहाँ आनेपर इनके प्रति नगरनिवासियोंमें महान् अपवाद फैला। यद्यपि ये तब भी सदाचारिणी ही थीं, तो भी लोकापवादके कारण मैंने इन्हें आपके निकट छोड़ दिया। अतः अब केवल मेरे ही चिन्तनमें संलग्न रहनेवाली सीताको उचित है कि ये लोगोंके सन्तोषके लिये राजाओं और महर्षियोंके सामने अपनी शुद्धताका विश्वास दिलावें।

मुनियों और राजाओंकी सभा में श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर सती सीताने उनके प्रति अपना अनन्य प्रेम दिखलाने के लिये सब लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाला प्रमाण उपस्थित किया। वे हाथ जोड़कर सबके सामने उस भरी सभामें बोलीं- ‘यदि मैं श्रीरघुनाथजीके सिवा अन्य किसी पुरुषका मनसे चिन्तन भी न करती होऊ तो हे पृथ्वीदेवी! तुम मुझे अपने अंकमें स्थान दो। यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीकी ही पूजा करती होऊँ तो हे माता पृथिवी । तुम मुझे अपने अंकमें स्थान दो।’माता जानकीको परमधाममें चलनेके लिये उद्यत जान पक्षिराज गरुड़ अपनी पीठपर रत्नमय सिंहासन लिये रसातलसे प्रकट हुए। इसी समय पृथ्वीदेवी भी प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हुई। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीताको दोनों हाथोंसे उठा लिया और स्वागतपूर्वक अभिनन्दन करके उन्हें सिंहासनपर बिठाया। सीतादेवीको सिंहासनपर बैठी देख देवगण धारावाहिकरूपसे उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा दिव्य अप्सराओंने उनका पूजन किया। फिर वे सनातनी देवी गरुड़पर आरूढ़ हो पृथ्वीके ही मार्गसे परमधामको बली गर्यो जगदीश्वरी सीता पूर्वभागमें दासीगणोंसे पिरकर योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन परमधाममें स्थित हुईं। सीताको रसातलमें प्रवेश करते देख सब मनुष्य साधुवाद देते हुए उच्चस्वरसे कहने लगे’ वास्तवमें ये सीतादेवी परम साध्वी हैं।’

सीताके अन्तर्धान हो जानेसे श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा शोक हुआ। वे अपने दोनों पुत्रोंको लेकर मुनियों और राजाओंके साथ अयोध्यामें आये। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी माताएँ कालधर्मको प्राप्त हो पतिके समीप स्वर्गलोकमें चली गयीं। कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्यका पालन किया। एक दिन काल तपस्वीका वेष धारण करके श्रीराम चन्द्रजीके भवनमें आया और इस प्रकार बोला ‘महाभाग श्रीराम ! मुझे ब्रह्माजीने भेजा है। रघुश्रेष्ठ! मैं उनका सन्देश कहता है, आप सुनें। मेरी और आपकी बातचीत हम ही दोनोंतक सीमित रहनी चाहिये; इस बीचमें जो यहाँ प्रवेश करे, वह वधके योग्य होगा।’

ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा करके श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको दरवाजेपर पहरा देनेके लिये बिठा दिया और स्वयं कालके साथ वार्तालाप करने लगे। उस समय कालने कहा- ” श्रीराम! मेरे आनेका जो कारण है, उसे आप सुनें। देवताओंने आपसे कहा था कि ‘आप रावण और कुम्भकर्णको मार ग्यारह हजार वर्षोंतक मनुष्यलोकमें निवास करें।’ उनके ऐसा कहनेपर आप इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे। वह समय अब पूरा हो गया है; अतः अब आप परमधामको पधारें, जिससे सब देवता आपसेसनाथ हों।” महाबाहु श्रीरामने ‘एवमस्तु’ कहकर कालका अनुरोध स्वीकार किया।

उन दोनोंमें अभी बातचीत हो ही रही थी कि महातपस्वी दुर्वासामुनि राजद्वारपर आ पहुँचे और लक्ष्मणसे बोले- राजकुमार तुम शीघ्र जाकर रघुनाथजीको मेरे आनेकी सूचना दो।’ यह सुनकर लक्ष्मणने कहा ‘ब्रह्मन्! इस समय महाराजके समीप जानेकी आज्ञा नहीं है। लक्ष्मणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाको बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले-‘यदि तुम श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं मिलाओगे तो शाप दे दूंगा।’ लक्ष्मणजीने शापके भवसे श्रीरामचन्द्रजीको महर्षि दुर्वासाके आगमनकी सूचना दे दी। तब सब भूतोंको भय देनेवाले कालदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। महाराज श्रीरामने दुर्वासाके आनेपर उनका विधिवत् पूजन किया। उधर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने बड़े भाईकी प्रतिज्ञाको याद करके सरयूके जलमें स्थित हो अपने साक्षात् स्वरूपमें प्रवेश किया। उस समय उनके मस्तकपर सहस्रों फन शोभा पाने लगे। उनके श्रीअंगोंकी कान्ति कोटि चन्द्रमाओंके समान जान पड़ती थी। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये दिव्य चन्दनके अनुलेपसे सुशोभित हो रहे थे। सहस्त्रों नाग-कन्याओंसे घिरे हुए भगवान् अनन्त दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चले गये।

लक्ष्मणके परमधामगमनका हाल जानकर श्रीरघुनाथजीने भी इस लोकसे जानेका विचार किया। उन्होंने अपने पुत्र वीरवर कुशको कुशावतीमें और लयको द्वारवतीमें धर्मपूर्वक अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। उस समय भगवान् श्रीरामके अभिप्रायको जानकर समस्त वानर और महाबली राक्षस अयोध्यामें आ गये। विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, पवनकुमार हनुमान्, नील, नल, सुषेण और निषादराज गुह भी आ पहुँचे महामना शत्रुघ्न भी अपने वीर पुत्रोंको राज्यपर अभिषिक्त करके श्रीरामपालित अयोध्यानगरीमें आये वे सभी महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे ‘रघुश्रेष्ठ! आप परमधाममें पधारनेको उद्यत हैं-वह जानकर हम सब लोग आपके साथ चलनेको आये हैं। प्रभो! आपके बिना हम क्षणभर भी जीवित रहनेमें समर्थ नहीं हैं; अतः हम भी साथ ही चलेंगे।’ उनकेऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने बहुत अच्छा’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तत्पश्चात् उन्होंने राक्षसराज विभीषणसे कहा- तुम धर्मपूर्वक राज्यका पालन करो। मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ न होने दो। जबतक चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी कायम हैं, तबतक प्रसन्नतापूर्वक राज्य भोगो। फिर योग्य समय आनेपर मेरे परमपदको प्राप्त होओगे।’

ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने इक्ष्वाकुकुलके देवता श्रीरंगशायी सनातन भगवान् विष्णुके अचविग्रहको विभीषणके लिये समर्पित किया। इसके बाद शत्रुसूदन । श्रीरघुनाथजीने हनुमान्जीसे कहा- ‘वानरेश्वर! संसारमें जबतक मेरी कथाका प्रचार रहे, तबतक तुम इस पृथ्वीपर सुखसे रहो। फिर समयानुसार मुझे प्राप्त होओगे।’ हनुमानूजीसे ऐसा कहकर वे जाम्बवान्से बोले- ‘पुरुषश्रेष्ठ! द्वापरयुग आनेपर में पुनः पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतार लूँगा और तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा। [अतः तुम यहाँ रहो।]’

उपर्युक्त व्यक्तियोंसे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी अन्य सभी वानरों और भालुओंसे कहा- ‘तुम सब लोग मेरे साथ चलो।’ तदनन्तर ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले भगवान् श्रीराम श्वेत वस्त्र पहनकर दोनों हाथोंमें कुश लिये अनासक्तभावसे चले। श्रीरामचन्द्रजीके दक्षिण भागमें कमल हाथमें लिये श्रीदेवी उपस्थित हो गर्यो और वामभागमै भूदेवी साथ-साथ चलने लगी। वेद, वेदांग, पुराण, इतिहास, ॐकार, वषट्कार, लोकको पवित्र करनेवाली सावित्री तथा धनुष आदि अम्ब शस्त्र- सभी पुरुष विग्रह धारण करके वहाँ उपस्थित हो गये। भरत, शत्रुघ्न तथा समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्री, पुत्र तथा सेवकोंसहित भगवान् के साथ-साथ चले। मन्त्री, भृत्यवर्ग, किंकर, वैदिक, वानरगण, भालु तथा राजा सुग्रीव – इन सबने स्त्री और पुत्रोंके साथ परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इतना ही नहीं, समीपवर्ती पशु, पक्षी तथा समस्त स्थावर-जंगम प्राणी भी महात्मा रघुनाथजीके साथ गये। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको जो भी देख लेते, वे ही उनके साथ लग जाते थे। उनमेंसे कोई भी पीछे नहीं लौटता था।

तदनन्तर अयोध्यासे तीन योजन दूर जाकर जहाँ नदीका प्रवाह पच्छिमकी और था, भगवान्नेअनुयायियों सहित पुण्यसलिला सरयूमें प्रवेश किया। उस समय पितामह ब्रह्माजी सब देवताओं और ऋषियोंके साथ आकर रघुनाथजीकी स्तुति करते हुए बोले—’ श्रीविष्णो! आइये आपका कल्याण हो। बड़े सौभाग्यकी बात है जो आप यहाँ पधारे हैं। मानद! अब आप अपने देवोपम भाइयोंके साथ अपने वैष्णव स्वरूपमें प्रवेश कीजिये वही आपका सनातन रूप है। देव! आप ही सम्पूर्ण विश्वकी गति हैं। कोई भी आपके स्वरूपको वास्तवमें नहीं जानते। आप अचिन्त्य, महात्मा, अविनाशी और सबके आश्रय हैं। भगवन्! आप आइये।’ उस समय भगवान् श्रीरामने अपने स्वरूपमें प्रवेश किया। भरत और शत्रुघ्न क्रमशः शंख और चक्रके अंश थे। वे दोनों महात्मा दिव्य तेजसे सम्पन्न हो अपने तेजमें मिल गये। तब शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए चतुर्भुज भगवान् विष्णुके रूपमें स्थित हो श्रीरामचन्द्रजी श्री और भू देवियोंके साथ विमानपर आरूढ़ हुए। वहाँ दिव्य कल्पवृक्षके मूल भागमें सुन्दर सिंहासनपर भगवान् विराजमान हुए उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। श्रीराम चन्द्रजीके पीछे जो वानर, भालु और मनुष्य आये थे, उन्होंने सरयूके जलका स्पर्श करते ही सुखपूर्वक प्राण त्याग दिये और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे सबने दिव्य रूप धारण कर लिया। उनके अंगोंमें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। वे दिव्य मंगलमय कान्तिसे सम्पन्न थे। असंख्य देहधारियोंसे घिरे हुए राजीवलोचन भगवान् श्रीराम उस विमानपर आरूढ़ हुए। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि और महात्माओंसे पूजित होकर वे अपने दिव्य, अविनाशी एवं सनातन धाममें चले गये।

पार्वती जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रके एक या आधे श्लोकको पढ़ता अथवा सुनता या भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, वह कोटि जन्मोंके उपार्जित ज्ञाताज्ञात पापसे मुक्त हो स्त्री, पुत्र एवं बन्धु बान्धवोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य विष्णुलोकमें अनायास ही चला जाता है। देवि ! यह मैंने तुमसे श्रीरामचन्द्रजीके महान् चरित्रका वर्णन किया है तुम्हारी प्रेरणासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीकी लीलाओंके कीर्तनका शुभ अवसर प्राप्त हुआ, इससे मैं अपनेको धन्य मानता है।

अध्याय 257 श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग

पार्वतीजीने कहा- महेश्वर आपने श्रीरघुनाथजीके उत्तम चरित्रका अच्छी तरह वर्णन किया। देवेश्वर ! आपके प्रसादसे इस उत्तम कथाको श्रवण करके मैं धन्य हो गयी। अब मुझे भगवान् वासुदेवके महान् चरित्रोंको सुननेकी इच्छा हो रही है, कृपया कहिये

श्रीमहादेवजी बोले- देवि! सबके हृदयमें निवास करनेवाले परमात्मा श्रीकृष्णकी लीलाएँ मनुष्योंको मनोवांछित फल देनेवाली हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ, सुनो। यदुवंशमें वसुदेव नामक श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न हुए, जो देवमीढके पुत्र और सब धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने मथुरामें उग्रसेनकी पुत्री देवकीसे विधिपूर्वक विवाह किया, जो देवांगनाओंके समान सुन्दरी थी। उग्रसेनके एक कंस नामक पुत्र था, जो महाबलवान् और शूरवीर था। जब वधू और वर रथपर बैठकर विदा होने लगे, उस समय कंस स्नेहवश सारथि बनकर उनका रथ हाँकने लगा। इसी समय गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी सुनायी पड़ी- ‘कंस! इस देवकीका आठवाँ बालक तुम्हारे प्राण लेगा ।’

यह सुनकर कंस अपनी बहिनको मार डालनेके लिये तैयार हो गया। उसे क्रोधमें भरा देख बुद्धिमान् वसुदेवजीने कहा- ‘राजन् यह तुम्हारी बहिन है, तुम्हें धर्मतः इसका वध नहीं करना चाहिये। इसके गर्भसे जो बालक उत्पन्न हों, उन्हींको मार डालना।’ ‘अच्छा, ऐसा ही हो’ यों कहकर कंसने वसुदेव और देवकीको अपने सुन्दर महलमें ही रोक लिया और उनके लिये सब प्रकारके सुखभोगकी व्यवस्था कर दी। पार्वती! इसी बीचमें समस्त लोकोंको धारण करनेवाली पृथ्वी भारी भारसे पीड़ित होकर सहसा लोकनाथ ब्रह्माजीके पास गयी और गम्भीर वाणीमें बोली- ‘प्रभो अब मुझमें इन लोकोंको धारण करनेकी शक्ति नहीं रह गयी है। मेरे ऊपर पाप कर्म करनेवाले राक्षस निवास करते हैं। वे बड़े बलवान् हैं, अतः सम्पूर्ण जगत्के धर्मोका विध्वंस करते हैं। पापसे मोहित हुए समस्त मानव इस समय अधर्मपरायण हो रहे हैं। इस संसारमें अब थोड़ा-सा भी धर्म कहींदिखायी नहीं देता। देव! मैं सत्य-शौचयुक्त धर्मके ही बलसे टिकी हुई थी। अतः अधर्मपरायण विश्वको धारण करनेमें मैं असमर्थ हो रही हूँ।’

यों कहकर पृथ्वी वहीं अन्तर्धान हो गयी। तदनन्तर ब्रह्मा और शिव आदि समस्त देवता तथा महातपस्वी मुनि क्षीरसागरके उत्तर तटपर जगदीश्वर श्रीविष्णुके पास गये और नाना प्रकारके स्तोत्रद्वारा उनकी स्तुति करने लगे। इससे प्रसन्न होकर भगवान्ने समस्त देवताओं और मुनिवरोंसे कहा-‘देवगण! तुम सब लोग यहाँ किसलिये आये हो?’ तब पितामह ब्रह्माजीने देवाधिदेव जनार्दनसे कहा-‘देवदेव! जगन्नाथ! पृथ्वी भारी भारसे पीडित है। इस समय संसारमें बहुत-से दुर्द्धर्ष राक्षस उत्पन्न हो गये हैं। जरासन्ध, कंस, प्रलम्ब और धेनुक आदि दुरात्मा सब लोगोंको सता रहे हैं; अतः आप इस पृथ्वीका भार उतारनेकी कृपा करें।’ ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण जगत्‌का पालन करनेवाले अविनाशी भगवान् हृषीकेशने कहा- ‘देवताओ! मैं मनुष्यलोकके भीतर यदुकुलमें अवतार लेकर पृथ्वीका भार हटाऊँगा।’ यह सुनकर सब देवता भगवान् जनार्दनको नमस्कार करके अपने-अपने लोकमें जा उन परमेश्वरका ही चिन्तन करने लगे। तत्पश्चात् परमेश्वर श्रीहरिने भगवती मायासे कहा-‘देखि रसातलसे हिरण्याक्षके छः पुत्रोंको ले आओ और क्रमशः वसुदेवपत्नी देवकीके गर्भ में स्थापित करो। सातवाँ गर्भ अनन्त ( शेषनाग ) का अंश होगा, उसे भी खींचकर तुम देवकीकी सौत रोहिणीके उदरमें स्थापित कर देना। तदनन्तर देवकीके आठवें गर्भमें मेरा अंश प्रकट होगा। तुम नन्दगोपकी पत्नी यशोदाके गर्भसे उत्पन्न होना इससे इन्द्र आदि देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।’

‘बहुत अच्छा’ कहकर महाभागा मायाने क्रमशः हिरण्याक्षके पुत्रोंको ला- लाकर देवकीके गर्भमें स्थापित किया। महाबली कंसने पैदा होते ही उन बालकोंको मार डाला। फिर भगवत्प्रेरणावश सातवाँ गर्भ अनन्तके अंशसे प्रकट हुआ। वह गर्भ जब बढ़कर कुछ पुष्ट हुआतो मायादेवीने उसे रोहिणीके उदरमें स्थापित कर दिया। गर्भका संकर्षण करने (खींचने से उस बालकका जन्म हुआ, इसलिये वह संकर्षण नामसे प्रसिद्ध हुआ। भादोंके कृष्णपक्षको अष्टमी तिथिको रोहिणी नक्षत्रमें शुभ लग्नका उदय होनेपर रोहिणी देवीने भगवान् संकर्षणको जन्म दिया। तत्पश्चात् साक्षात् भगवान् श्रीहरि देवकीके गर्भ में आये। आठवें गर्भसे युक्त देवकीको देखकर कंस बहुत भयभीत हुआ। उस समय समस्त देवताओंके मनमें उल्लास छा रहा था। वे विमानपर बैठे हुए आकाशसे ही देवकी देवीकी स्तुति किया करते थे। तदनन्तर दसवाँ महीना आनेपर श्रवणमासी कृष्ण अष्टमीको आधी रातके समय श्रीहरिका अवतार हुआ। वसुदेवके पुत्र होनेसे वे सनातन भगवान् वासुदेव कहलाये।

सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको देखकर वसुदेवजी हाथ जोड़ नमस्कार करके उन जगन्मय प्रभुकी स्तुति करने लगे-‘जगन्नाथ! आप भक्तोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये साक्षात् कल्पवृक्ष हैं। प्रभो ! आप स्वयं मेरे यहाँ प्रकट हुए, मैं कितना भाग्यवान् हूँ। अहो आज धरणीधरभगवान् इस धरती के ऊपर मेरे पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए हैं। पुरुषोत्तम! आपके इस अद्भुत ईश्वरीय रूपको देखकर महाबली एवं पापाचारी दानव सहन नहीं कर सकेंगे।’ वसुदेवजीके इस प्रकार स्तुति और प्रार्थना करनेपर सनातन पुरुष भगवान् पद्मनाभ ने अपने चतुर्भुज रूपको तिरोहित कर लिया और मानवरूप धारण करके वे दो भुजाओंसे ही शोभा पाने लगे। उस भवनमें पहरा देनेवाले जो दानव रहते थे, वे सब भगवान्‌की मायासे मोहित और तमोगुणसे आच्छादित हो सो गये। इसी समय मौका पाकर भगवान् के आज्ञानुसार वसुदेवजी भगवान्‌को गोदमें ले तुरंत ही नगरसे बाहर निकल गये। उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। मेघ पानी बरसाने लगे, यह देख महाबली नागराज शेष भक्तिवश अपने हजारों फनोंसे भगवानके ऊपर छाया करके पीछे-पीछे चलनेलगे। उनके चरणोंका स्पर्श होते ही नगरद्वारके किवाड़ खुल गये । वहाँके रक्षक नींदमें बेसुध थे। तीव्र प्रवाहसे बहनेवाली भरी हुई यमुना भी महात्मा वसुदेवजीके प्रवेश करनेपर घट गयी। उसमें घुटनेतक ही जल रह गया। यमुनाके पार हो वसुदेवजीने उसके तटपर ही स्थित व्रजमें प्रवेश किया।

उधर नन्दगोपकी पत्नीके गर्भसे गायोंके व्रजमें ही एक कन्या उत्पन्न हुई। किन्तु यशोदा मायासे मोहित एवं तमोगुणसे आच्छादित हो गाड़ी नींदमें सो गयी थीं। वसुदेवजीने उनकी शय्व्यापर भगवान्‌को सुला दिया और उनकी कन्याको लेकर वे मधुरामें चले आये। वहाँ पत्नीके हाथमें कन्याको देकर वे निश्चिन्त हो गये। देवकीकी शय्यापर जाते ही वह कन्या बालभावसे रोने लगी। बालककी आवाज सुनकर पहरेदार जाग उठे। उन्होंने कंसको देवकीके प्रसव होनेका समाचार दे दिया। कंस तुरंत ही आ पहुँचा और बालिकाको लेकर उसने एक पत्थरपर पटक दिया। किन्तु वह कन्या उसके हाथसे छूटनेपर तुरंत ही आकाशमें जा खड़ी हुई। वह कंसके सिरमें लात मारकर ऊपर गयी और आठ भुजावाली देवीके रूपमें दर्शन दे उससे बोली- ‘ओ मूर्ख ! मुझे पत्थरपर पटकनेसे क्या हुआ ? जो तुम्हारा वध करनेवाले हैं, उनका जन्म तो हो गया। जो सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, वे भगवान् इस संसारमें अवतार ले चुके हैं, वे ही तुम्हारे प्राण लेंगे।’

इतना कहकर देवीने सहसा अपने तेजसे सम्पूर्ण आकाशको आलोकमय कर दिया और वह देवताओं तथा गन्धवोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनती हुई हिमालयपर्वतपर चली गयी। देवीकी बात सुनकर कंसका हृदय उद्विग्न हो उठा। उसने भयसे पीड़ित हो प्रलम्ब आदि दानववीरोंको बुलाकर कहा- ‘वीरो ! | हमलोगोंके भयसे समस्त देवताओंने क्षीरसागरपर जाकर विष्णुसे राक्षसोंके संहारके विषयमें बहुत कुछ कहा है। उनकी बात सुनकर वे अविनाशी धरणीधर यहाँ कहींमनुष्यरूपमें उत्पन्न हुए हैं। अतः आज इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले तुम सभी राक्षस जाओ और जिन बालकोंमें कुछ बलकी अधिकता जान पड़े, उन्हें बेखटके मार डालो।’ ऐसी आज्ञा देकर कंसने वसुदेव और देवकीको आश्वासन दे उन्हें बन्धनसे मुक्त कर दिया और स्वयं अपने महलमें चला गया। तत्पश्चात् वमुदेवजी नन्दके उत्तम व्रजमें गये। नन्दरायजीने उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। वहाँ अपने पुत्रको देखकर वसुदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने नन्दरानी यशोदासे कहा—’देवि! रोहिणीके पेटसे पैदा हुए मेरे इस पुत्र (बलराम) – को भी तुम अपना ही पुत्र मानकर इसकी रक्षा करना। यह कंसके डरसे यहाँ लाया गया है।’ दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली नन्दपत्नीने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वसुदेवजीकी आज्ञा शिरोधार्य की और दोनों पुत्रोंको पाकर वे बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पालन करने लगीं। इस प्रकार नन्दगोपके घर अपने दोनों पुत्रोंको रखकर वमुदेवजी निश्चिन्त हो गये और तुरंत ही मथुरापुरीको चले गये। तदनन्तर वसुदेवजीकी प्रेरणासे किसी शुभ दिनको गगंजी नन्दगोपके व्रजमें गये। वहांके निवासियोंने उनकी बड़ी आवभगत की। फिर उन्होंने गोकुलमें वसुदेवके दोनों पुत्रोंके विधिपूर्वक जातकर्म और नामकरण संस्कार कराये। बड़े बालकके नाम उन्होंने संकर्षण, रौहिणेय, बलभद्र, महाबल और राम आदि रखे तथा छोटेके श्रीधर, श्रीकर, श्रीकृष्ण, अनन्त, जगत्पति, वासुदेव और हृषीकेश आदि नाम रखे। ‘लोगों में ये दोनों बालक क्रमशः राम और कृष्णके नामसे विख्यात होंगे।’ ऐसा कहकर द्विजश्रेष्ठ गर्मने पितरों और देवताओंका पूजन किया और स्वयं भी ग्वालोंसे पूजित होकर मथुरामें लौट आये। एक दिनकी बात है, बालकोंकी हत्या करनेवाली पूतना कंसके भेजनेसे रातमें नन्दके घर आयी। उसने अपने स्तनोंमें विष लगा रखा था। अमित तेजस्वी श्रीकृष्णके मुखमें वही स्तन देकर वह उन्हें दूध पिलाने लगी। भगवान् श्रीकृष्णने उस राक्षसीको पहचान लिया और उसके स्तनोंको खूब दबाकर उसे प्राणसहित पीना आरम्भ किया। अब तो वह मतवाली राक्षसी छटपटाने लगी। उसके स्नायुबन्धन टूट गये। वह काँपती हुई गिरीऔर जोर-जोर से चिग्धाहती हुई मर गयी। उसके चीत्कारसे सारा आकाश-मण्डल गूँज उठा। उसे पृथ्वीपर पड़ी देख समस्त गोप थर्रा उठे। श्रीकृष्णको राक्षसीके विशाल वक्षःस्थलपर खेलते देख गोपगण उद्विग्न हो उठे और तुरंत ही दौड़कर उन्होंने बालकको गोदमें उठा लिया। उस समय नन्दगोपने पास आकर पुत्रको अंकमें ले लिया और राक्षसके भयसे रक्षा करनेके लिये गायके गोवरसे और बालसे बालकके मस्तकको झाड़ा। फिर भगवान् के नाम लेकर श्रीकृष्णके सब अंगों का मान किया। इसके बाद उस भयानक राक्षसीको गौओंके व्रजसे बाहर करके डरे हुए ग्वालोंकी सहायता से उसका दाह किया।

एक दिन भगवान् श्रीहरि किसी छकड़ेके नीचे सोये हुए थे और दोनों पैर फेंक-फेंककर रो रहे थे। उनके पैरका धक्का लगनेसे छकड़ा ही उलट गया। उसपर जो बर्तन भाँड़े रखे हुए थे, वे सब टूट-फूट गये। गोप और गोपियाँ इतने बड़े छकड़ेको सहसा उलटकर गिरा देख बड़े विस्मयमें पड़ीं और ‘यह क्या हो गया ?’ ऐसा कहती हुई शंकित हो उठीं। उस समय विस्मित हुई यशोदाने शीघ्र ही अपने बालकको गोदमें उठा लिया। वे दोनों यदुवंशी बालक माताके स्तनपानसे पुष्ट होकर थोड़े ही समयमें बड़े हो गये और घुटनों तथा हाथोंके बलसे चलने लगे। उन दिनों एक मायावी राक्षस मुर्गेका रूप धारण किये वहाँ पृथ्वीपर विचरता रहता था। वह श्रीकृष्णको मारनेकी ताकमें लगा था। भगवान् श्रीकृष्णने उसे पहचान लिया और एक ही तमाचेमें उसका काम तमाम कर दिया। मार पड़नेपर वह पृथ्वीपर गिरा और मर गया। मरते समय उसने अपने राक्षसस्वरूपको ही धारण किया था ।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण समूचे व्रजमें विचरने लगे। वे गोपियोंके यहाँसे माखन चुरा लिया करते थे। इससे यशोदाको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने श्रीकृष्णकी कमरमें रस्सी लपेटकर उन्हें उखलमै बाँध दिया और स्वयं गोरस बेचने चली गयीं। समस्त पृथ्वीको धारण करनेवाले श्रीकृष्ण ऊखलमें बंधे हो-बँधे उसे खींचते हुए दो अर्जुनवृक्षोंके बीचसे निकले। गोविन्दने खालके धक्केसे ही उन दोनों वृक्षोंको गिरा दिया। उनके तनेटूट गये और वे बड़े जोरसे तड़तड़ शब्द करते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े। उनके गिरनेकी भारी आवाजसे बड़े बूढ़े गोप वहाँ आ पहुँचे। यह घटना देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। यशोदाजी भी बहुत डर गयीं और श्रीकृष्णके बन्धन खोलकर आश्चर्यमग्न हो उन महात्माको अपने स्तनोंका दूध पिलाने लगीं। माताने जगदीश्वर श्रीकृष्णके उदरको दाम अर्थात् रस्सीसे बाँध दिया था; अतः सभी महापुरुषोंने उनका नाम दामोदर रख दिया। वे दोनों यमलार्जुनवृक्ष भगवान्के पार्षद हो गये।

तब नन्द आदि वृद्ध गोप वहाँ बड़े-बड़े उत्पात होते जानकर दूसरे स्थानको चले गये। विशाल वृन्दावनमें यमुनाके मनोहर तटपर उन्होंने स्थान बनाया। वह प्रदेश गौओं और गोपियोंके लिये बड़ा ही रमणीय था । महाबली राम और श्रीकृष्ण वहीं रहकर बढ़ने लगे। अब ये बछड़ोंके चरवाहों को साथ लेकर सदा बछड़े चराने लगे। बछड़ोंके बीच श्रीकृष्णको देखकर बक नामक महान् असुर वहाँ आया और बगलेका रूप धारण कर उन्हें मारनेका उद्योग करने लगा। उसे देखकर भगवान् वासुदेवने भी खिलवाड़में ही एक ढेला उठा लिया और उसके पंखों में दे मारा। ढेला लगते ही वह महान् असुर प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद एक दिन बछड़े चरानेवाले राम और श्रीकृष्ण वनमें किसी यज्ञवृक्षकी छाया में पल्लव बिछाकर सो गये। इसी बीचमें ब्रह्माजी देवताओंके साथ भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये आये। किन्तु उन्हें सोते देख बछड़ों और ग्वाल-बालको चुराकर स्वर्गलोकमें चले गये। जागनेपर जब उन्होंने बछड़ों और ग्वाल बालोंको नहीं देखा तो ‘वे कहाँ चले गये ?’ इसका विचार किया; फिर यह जानकर कि यह सारी करतूत ब्रह्माजीकी ही है, उन सनातन प्रभुने वैसे ही बालक और बछड़े बना लिये। वही रंग और वही रूप, कुछ भी अन्तर नहीं था। शामको जब वे लौटकर व्रजमें गये तो गौओं और माताओंने अपने-अपने बछड़ों और बालकोंको पाकर उनके साथ पूर्ववत् बर्ताव किया। इस प्रकार एक वर्षका समय व्यतीत हो गया। तब प्रजापतिने उन बछड़ों और बालकको पुनः ले जाकर भगवानको समर्पित किया और हाथ जोड़ विनीतभावसे प्रणाम करकेभयभीत होकर कहा- ‘नाथ! मैंने इन बछड़ोंका अपहरण करके आपका महान् अपराध किया है। शरणागतवत्सल ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। यों कहकर पुनः श्रीहरिके चरणोंमें बारंबार प्रणाम किया और बछड़ोंको उन्हें सौंपकर पुनः अपने लोकमें चले गये महातपस्वी ब्रह्माजी भगवान्‌के उस बालरूपको हृदयमें धारण करके देवताओंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे।

इसके बाद श्रीकृष्ण बछड़ोंके साथ नन्दके गोकुलमें चले गये। इसके कुछ दिनोंके पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण ग्वालोंको साथ लेकर यमुनाके कुण्डमें गये। वहाँ बड़ा विषैला और बलवान् नागराज कालिय रहता था। उसके हजार फन थे किन्तु भगवान्ने अपने एक ही पैरसे उसके हजारों फनोंको कुचल डाला और जब वह प्राणसंकटमें पड़ गया तो होशमें आनेपर उसने भगवान्की शरण ली। उसका सारा विष तो निकल ही गया था, शरणमें आनेपर भगवान्ने उसकी रक्षा की वह गरुड़के भयसे इस कुण्डमें आकर रहता था इसलिये भगवान्ने उसके मस्तकपर अपने चरणचिह्न स्थापित करके उसको कालिन्दीके कुण्डसे निकाल दिया। उसने अपने स्त्री-पुत्रोंके साथ तुरंत ही उस कुण्डको छोड़ दिया और भगवान् गोविन्दको नमस्कार करके अन्यत्रकी राह ली। उसके किनारेके जो वृक्ष कालियके विषसे दग्ध हो गये थे, वे श्रीकृष्णकी कृपादृष्टि पड़ते ही फलने-फूलने लगे।

तत्पश्चात् समयानुसार भगवान्‌ने कुमारावस्थामें पदार्पण किया। अब वे सर्वदेवमय प्रभु गौओंकी चरवाही करने लगे। वे अपने समान अवस्थावाले ग्वालोंको साथ ले मनोहर वृन्दावनमें बलरामजीके साथ विचरा करते थे। वहाँ एक अत्यन्त भयानक असुर था, जो अजगर साँपके रूपमें रहा करता था। वह विशालकाय दैत्य मेरुपर्वतके समान भारी था परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने उसको भी मौतके घाट उतार दिया। इसके बाद वे धेनुकासुरके वनमें गये, जो ताड़के वृक्षोंसे बहुत सघन प्रतीत होता था। उसके भीतर धेनुक नामक एक पर्वताकार दानव रहता था। जिसको परास्त करना बहुत ही कठिन था। वह सदा गदहेके रूपमें रहा करता था।भगवान् ने उसके दोनों पैर पकड़कर ऊपर फेंक दिया और एक ताड़के वृक्षसे उसको मार डाला। फिर तो वनमें वे ग्वाले खेलते फिरे। उस वनसे निकलनेपर वे 1 तुरंत ही भाण्डीर वटके पास आ गये और बलराम तथा श्रीकृष्णके साथ बालोचित खेल खेलने लगे। उस समय प्रलम्ब नामक राक्षस गोपका रूप धारण करके वहाँ आया और बलरामजीको अपनी पीठपर चढ़ा आकाशकी ओर उड़ चला। तब बलरामजीने उसे राक्षस समझकर बड़े रोषके साथ मुक्केसे मस्तकपर मारा; उस प्रहारसे राक्षसका शरीर तिलमिला उठा और वह अपने वास्तविक रूपमें आकर बड़े भयंकर स्वरमें चीत्कार करने लगा। उसका मस्तक और शरीर फट गया और वह खूनसे लथपथ हो पृथ्वीपर गिरकर मर गया। इसके बाद एक दिन सन्ध्याकालमें अरिष्ट नामक दैत्य बैलका आकार धारण किये व्रजमें आया और श्रीकृष्णको मारनेके लिये बड़े जोर-जोरसे गर्जना करने लगा। उसे देख समस्त गोप भयसे पीड़ित हो इधर-उधर भाग गये। श्रीकृष्णने उस भयंकर दैत्यको आया देख एक ताड़का वृक्ष उखाड़ लिया और उसके दोनों सींगोंके बीच दे मारा। उसके सींग टूट गये और मस्तक फट गया। वह रक्त वमन करता हुआ बड़े वेगसे गिरा और जोर-जोरसे चीत्कार करके मर गया। इस तरह उस महाकाय दैत्यको मारकर भगवान्ने ग्वालबालोंको बुलाया और फिर सब लोग वहीं निवास करने लगे।

तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद केशी नामक महान् असुर घोड़ेका रूप धारण किये व्रजमें आया। वह भी श्रीकृष्णको मारनेके ही उद्देश्यसे चला था। गौओके व्रजमें पहुँचकर वह जोर-जोरसे हिनहिनाने लगा। उसकी आवाज तीनों लोकोंमें गूंज उठी। देवता भयभीत हो गये। उन्हें प्रलयकालका-सा सन्देह होने लगा। व्रजके रहनेवाले समस्त गोप अचेत हो गये। गोपियाँ भी व्याकुल हो उठीं। फिर होसमें आनेपर सब लोग चारों ओर भाग चले। गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्णको शरणमें गर्यो और ‘बचाओ, बचाओ’ की रट लगाने लगीं। भक्तवत्सल भगवान्ने आश्वासन देते हुए कहा ‘डरो मत डरो मत।’ फिर उन्होंने तुरंत ही उस दैत्यके मस्तकपर एक मुक्का जड़ दिया। मार पड़ते ही दैत्यकेसारे दाँत गिर गये और आँखें बाहर निकल आयीं। वह बड़े जोर-जोर से चिल्लाने लगा। केशी सहसा पृथ्वीपर गिरा और उसके प्राणपखेरू उड़ गये। केशीको मारा गया देख आकाशमें खड़े हुए देवता साधु-साधु कहने और फूलोंकी वर्षा करने लगे। इस प्रकार शैशवकालमें श्रीहरिने बड़े-बड़े बलाभिमानी दैत्योंका वध किया। वे बलरामजीके साथ व्रजमें सदा प्रसन्न रहा करते थे। उन दिनों वृन्दावनकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी। फलों और फूलोंके कारण उसकी बड़ी शोभा होती थी। भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ मुरलीकी मधुर तान छेड़ते हुए निवास करते थे। एक समय शरत्काल आनेपर नन्द आदि गोपने इन्द्रकी पूजाका महान् उत्सव आरम्भ किया; किन्तु भगवान् गोविन्दने इन्द्रयज्ञके उत्सवको बंद करके गिरिराज गोवर्धनके पूजनका उत्सव कराया। इससे इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने नन्द गोपके व्रजमें लगातार सात रातोंतक बड़ी भारी वर्षा की। तब भगवान् जनार्दनने गिरिराज गोवर्धनको उखाड़ लिया और गोप, गोपियों तथा गौओंकी रक्षाके लिये उसे अनायास ही छत्रकी भाँति धारण कर लिया। पर्वतकी छायाके नीचे आकर गोप और गोपियाँ बड़े सुखसे रहने लगीं, मानो वे किसी महलके भीतर बैठी हों। यह देख सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्रको बड़ा भय हुआ। उन्होंने बड़ी घबराहटके साथ उस वर्षाको बंद कराया और स्वयं वे नन्दके व्रजमें गये। वर्षा बंद होनेपर भगवान् श्रीकृष्णने उस महापर्वतको पहलेकी भाँति यथास्थान रख दिया। नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप गोविन्दकी सराहना करते हुए बहुत विस्मित हुए। इतनेमें ही इन्द्रने आकर भगवान् मधुसूदनको प्रणाम किया और हाथ जोड़ हर्षगद्गद वाणीमें उनकी स्तुति की। स्तुतिके पश्चात् सब देवताओंके स्वामी इन्द्रने अमृतमय जलसे भगवान् गोविन्दका अभिषेक किया और दिव्य वस्त्र तथा दिव्य आभूषणोंसे उनकी पूजा की। इसके बाद वे स्वर्गलोकमें गये। उस समय बड़े-बूढ़े गोपों और गोपियोंने भी इन्द्रका दर्शन किया तथा इन्द्रसे सम्मानित होनेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्ण नन्दके रमणीय व्रजमें रहकर गौओं और बछड़ोंका पालन करने लगे।

अध्याय 258 भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारदजी मथुरामें कंसके पास गये। राजा कंसने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्हें सुन्दर आसनपर बिठाया। नारदजीने कंससे भगवान् विष्णुकी सारी चेष्टाएँ कहीं। देवताओंका करना, भगवान् केशवका अवतार लेना, वसुदेवका अपने पुत्रको व्रजमें रख आना, राक्षसोंका मारा जाना, नागराज कालियका यमुनाके कुण्डसे बाहर निकाला जाना, गोवर्धन धारण करना और इन्द्रका भगवान्से मिलना आदि सभी मुख्य मुख्य घटनाओंको उन्होंने कंससे निवेदन किया। यह सब सुनकर राक्षस कंसने नारदजीका बड़ा आदर किया। उसके बाद वे ब्रह्मलोकमें चल गये। इधर कंसके मनमें बड़ा उद्वेग हुआ। वह मन्त्रियोंके साथ बैठकर मृत्युसे बचनेके विषयमें परामर्श करने लगा। उसके मन्त्रियोंमें अक्रूर सबसे अधिक बुद्धिमान् और धर्मानुरागी थे। महाबली दानवराज कंसने अक्रूरको आज्ञा दी।

कंस बोला – यदुश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे भयसे पीड़ित हो श्रीविष्णुकी शरणमें गये थे। भूतभावन भगवान् मधुसूदन उन देवताओंको अभयदान दे मुझे मारनेके लिये देवकीके गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। वसुदेव भी ऐसा दुष्टात्मा है कि मुझे धोखा देकर रात में वह अपने पुत्रको दुरात्मा नन्दके घरमें रख आया। वह बालक बचपन से ही ऐसा दुर्धषं है कि बड़े-बड़े असुर उसके हाथसे मारे गये। यदि ऐसी ही उसकी प्रगति रही तो एक दिन वह मुझे भी मारनेके लिये तैयार हो जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि व्रजमें उसे इन्द्र आदि देवता तथा समस्त असुर भी नहीं मार सकते; अतः मुझे उसको यहाँ बुलवाकर किसी विशेष उपायसे ही मारना चाहिये। मतवाले हाथी, बड़े-बड़े पहलवान तथा श्रेष्ठ घोड़े आदिसे उसका वध कराना चाहिये। जिस-किसी उपायसे सम्भव हो, उसे यहीं बुलाकर मारा जा सकता है, अन्यत्र नहीं। इसलिये तुम गौओके व्रजमें जाकर बलराम, श्रीकृष्ण तथा नन्द आदि सम्पूर्ण ग्वालोंकोधनुष-यज्ञका मेला देखनेके बहाने यहाँ बुला ले आओ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर परम पराक्रमी यदुश्रेष्ठ अक्रूर रथपर आरूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्णकेदर्शनके लिये उत्सुक होकर गौओंके रमणीय व्रजमें गये। अक्रूरजी महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने अत्यन्त विनीतभावसे गौओंके बीचमें खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन किया। गोप कन्याओंसे घिरे हुए श्रीहरिको देखकर अक्रूरजीका सारा शरीर रोमांचित हो उठा। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने रथसे उतरकर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। वे बड़े हर्ष के साथ भगवान् गोपालके समीप गये और वज्र तथा चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित लाल कमलसदृश उनके मनोहर चरणोंमें मस्तक रखकर उन्होंने बारंबार नमस्कार किया। तत्पश्चात् उनकी दृष्टि कैलासशिखरके समान गौरवर्णवाले नीलाम्बरधारी बलरामजीपर पड़ी, जो मोतियोंकी मालासे विभूषित होकर शरत्कालके पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे अक्रूरजीने उनको भी प्रणाम किया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्णने भी बड़े हर्षके साथ उठकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरका पूजन किया और उनको साथ लेकर वे दोनों भाई घरपर आये। यदुश्रेष्ठ अक्रूरको आया देख महातेजस्वी नन्दगोपने निकट जाकर उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बिठाया और बड़ी प्रसन्नता के साथ विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, वस्त्र तथा दिव्य आभूषण आदि निवेदन करके भक्तिभावसे उनका पूजन किया। अक्रूरजीने भी बलराम, श्रीकृष्ण, नन्दजी तथा यशोदाको वस्त्र और आभूषण भेंट किये। फिर कुशल पूछकर शान्तभावसे वे कुशके आसनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् राजकार्यके विषयमें प्रश्न होनेपर बुद्धिमान् अक्रूरने इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

अक्रूर बोले- नन्दरायजी! ये महातेजस्वी श्रीकृष्ण साक्षात् अविनाशी भगवान् नारायण हैं देवताओंका हित, साधु पुरुषोंकी रक्षा, पृथ्वीके भारका नाश, धर्मकी स्थापना तथा कंस आदि सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करनेके लिये इनका अवतार हुआ है। उक्त कार्योंके लिये समस्त देवताओं तथा महात्मा मुनियोंने इनसे प्रार्थना की थी। उसीके अनुसार ये वर्षाकालमें आधी रातके समय देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। उस समय वसुदेवजीने कंसके भयसे रातमें ही अपने पुत्र भगवान् श्रीहरिको तुम्हारे घरमें पहुँचा दिया। उसी समय यशस्विनीयशोदाको भी मायाके अंशसे एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई थी उसीने सम्पूर्ण ब्रजको नींदमें बेसुध कर दिया था यशोदाजी भी मूर्च्छितावस्थामें पड़ी थीं। वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाकी शय्यापर सुला दिया और स्वयं उस कन्याको लेकर वे मथुराकी ओर चल दिये। कन्याको देवकीकी शय्यापर रखकर ये प्रसवघरसे बाहर निकल गये। देवकीकी शय्यापर सोयी हुई कन्या शीघ्र ही रोने लगी। उसका जन्म सुनकर दानव कंस सहसा आ पहुँचा और उसने कन्याको लेकर घुमाते हुए पत्थरपर पटक दिया। परन्तु वह कन्या आकाशमें उड़ गयी और आठ भुजाओंसे युक्त हो गम्भीर वाणीमें कंससे रोषपूर्वक बोली- ओ नीच दानव! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर और पुरुषोत्तम हैं, वे तुम्हारा वध करनेके लिये व्रजमें जन्म ले चुके हैं।’ यो कहकर महामाया हिमालय पर्वतपर चली गयी। तभी से वह दुष्टात्मा भयसे उद्विग्न हो गया और महात्मा श्रीकृष्णको मारनेके लिये एक-एक करके दानवोंको भेजने लगा। बालक होनेपर भी बुद्धिमान् श्रीकृष्णने खेल-खेल में ही सब दानवोंको मौतके घाट उतार दिया है। इन परमेश्वरने अनेक अद्भुत कर्म किये हैं। गोवर्धन-धारण, नागराज कालियका निर्वासन, इन्द्रसे समागम और सम्पूर्ण राक्षसों का संहार आदि सारे कर्म श्रीकृष्णके ही किये हुए है; यह बात नारदजीके मुँहसे सुनकर कंस अत्यन्त भयसे व्याकुल हो उठा है। महाबाहु बलराम और श्रीकृष्ण बड़े दुर्धर्ष बीर हैं: इसलिये इन दोनोंको वहीं बुलाकर वह बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवा डालना चाहता है अथवा पहलवानोंको भिड़ाकर इन्हें मार डालनेको उद्यत है। श्रीकृष्णको बुला लानेके लिये ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। यही सब उस दुष्ट दानवकी चेष्टा है, जिसे मैंने बता दिया। अब आप समस्त व्रजवासी दही-घी आदि लेकर कल सवेरे धनुषयका उत्सव देखनेके लिये मथुरामे चलें बलराम श्रीकृष्ण और समस्त गोपको राजाके पास चलना है। वहाँ निश्चय ही कंस श्रीकृष्णके हाथसे मारा जायगा; अतः आपलोग राजाकी आज्ञासे निर्भय होकर वहाँ चलिये।

इतना कहकर बुद्धिमान् अक्रूर चुप हो गये।उनकी बातें बड़ी ही भयंकर और रोंगटे खड़े कर देनेवाली थीं। उन्हें सुनकर नन्द आदि समस्त बड़े-बूढ़े गोप भयसे व्याकुल हो दुःखके महान् समुद्रमें डूब गये। उस समय कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको आश्वासन देकर कहा- ‘आपलोग भय न करें। मैं दुरात्मा कंसका विनाश करनेके लिये भैया बलरामजी तथा आपलोगोंके साथ मथुरा चलूँगा। वहाँ दानवराज दुरात्मा कंसको और उसके साथ रहनेवाले समस्त राक्षसोंको मारकर इस पृथ्वीकी रक्षा करूँगा। अतः आपलोग शोक छोड़कर मथुरापुरीको चलिये।’ श्रीहरिके ऐसा कहनेपर नन्द आदि गोपने बारंबार छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा । उन महात्माके अलौकिक कर्मोपर विचार करके तथा अक्रूरजीकी बातोंको सुनकर उन सबकी चिन्ता दूर हो गयी। तत्पश्चात् यशोदाने अक्रूरको दही, दूध, घी आदिसे युक्त भाँति-भाँति के पवित्र स्वादिष्ट, मधुर और रुचिकर पक्वान्न परोसकर भोजन कराया। उनके साथ बलराम, श्रीकृष्ण, नन्द आदि श्रेष्ठ गोप, अनेकों सुहृद्, बालक और वृद्ध भी थे। यशोदाजीके दिये हुए रुचिवर्धक उत्तम अन्नको यादवश्रेष्ठ अक्रूरजीने बड़े प्रेमसे खाया। भोजन करानेके पश्चात् नन्दरानीने जल देकर आचमन कराया और अन्तमें कपूरसहित पानका बीड़ा दिया। फिर सूर्यास्त होनेपर अरजीने सन्ध्योपासना की। उसके बाद बलराम और श्रीकृष्णके साथ खीर खाकर वे उन्हींके साथ शयन करनेके लिये गये। दीपकके प्रकाशसे सुशोभित श्रेष्ठ एवं रमणीय भवनमें विचित्र पलंग बिछा था। स्वच्छ सुन्दर बिछावन पर भाँति-भाँतिके फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस पलंगपर भगवान् श्रीकृष्ण सोते थे, मानो शेषनागकी शय्यापर श्रीनारायण शयन करते हों।

भगवान्‌को शयन करते देख सहसा अक्रूरके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक पड़े। उनका सारा शरीर पुलकित हो उठा। उन्होंने तमोगुणी निद्राको त्याग दिया। वे भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ तो थे ही, अपने परम कल्याणका विचार करके भगवान्के चरण दबाने लगे। उस समय वे मन-ही-मन सोच रहे थे— ‘इसीमें मेरे जीवनकी सफलता है। यही जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन है। यही धर्म तथा यही सर्वश्रेष्ठ मोक्षसुख है। शिव और ब्रह्माआदि देवता, सनकादि मुनीश्वर तथा वसिष्ठ आदि महर्षि जिनका दर्शन करना तो दूर रहा, मनसे स्मरण भी नहीं कर पाते, वे ही भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरण इस समय मुझे प्राप्त हुए हैं। अहो मेरा कितना सौभाग्य है? ये दोनों चरण शरत्कालके खिले हुए कमलकी भाँति सुन्दर हैं। भगवती लक्ष्मी अपने कोमल एवं चिकने हाथोंसे इनकी सेवा करती हैं। ये चरण परम उत्तम सुखस्वरूप हैं।’ इस प्रकार भगवान्की सेवामें लगे हुए अक्रूरजीकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। उस समय वे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। तदनन्तर निर्मल प्रभात होनेपर देवगण आकाशमें खड़े हो भगवान्की स्तुति करने लगे। तब भगवान् शयनसे उठे । उठकर विधिपूर्वक आचमन किया। फिर परम बुद्धिमान् बलरामजीके साथ जाकर माताके चरणोंमें नमस्कार किया और मथुरा जानेकी इच्छा प्रकट की। यशोदाजी दुःख और हर्षमें दूबी हुई थीं। उन्होंने दोनों पुत्रोंको उठाकर बड़े प्रेमके साथ छातीसे लगा लिया। उस समय उनके आँसुओंकी धारा बह रही थी। उन्होंने दोनों महावीर पुत्रोंको आशीर्वाद दिया और बार-बार हृदयसे लगाकर विदा किया। अक्रूरने भी हाथ जोड़कर यशोदाजीके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- ‘महाभागे ! अब मैं जाऊँगा मुझपर कृपा करो ये महाबाहु श्रीकृष्ण महाबली कंसको मारकर सम्पूर्ण जगत्के राजा होंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः देवि! तुम शोक छोड़कर सुखी होओ।’

ऐसा कहकर अक्रूरजी नन्दरानीसे विदा ले बलराम और श्रीकृष्णके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हुए और तीव्र गतिसे मथुराकी ओर चले। उनके पीछे नन्द आदि बड़े बूढ़े गोप भाँति-भाँतिके फल तथा बहुत से दही घी आदि लेकर गये। श्रीहरिको रथपर बैठकर जसे जाते देख समस्त गोपांगनाएँ भी उनके पीछे-पीछे चलीं। उनका हृदय शोक सन्तप्त हो रहा था। वे ‘हा कृष्ण! कृष्ण हा गोविन्द’ कहकर बारंबार रोती और विलाप करती थीं। श्रीहरिने उन सबको समझा-बुझाकर लौटाया। उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे। वे दीनभावसे । रोती हुए खड़ी रहीं। इसके बाद अक्रूरजीने अपने दिव्य रथको व्रजसे मथुराकी ओर बढ़ाया। शीघ्र ही यमुनाके |पार होकर उन्होंने रथको किनारे खड़ा कर दिया और स्वयं उससे उतरकर वे स्नान तथा अन्य आवश्यक कृत्य करनेकी तैयारी करने लगे। भक्तप्रवर अक्रूरने यमुनाके उत्तम जलमें जाकर डुबकी लगायी और अघमर्षण मन्त्रका जप आरम्भ किया। उस समय उन्हें श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण दोनों ही जलके भीतर दिखायी दिये। उन्हें देखकर अक्रूरजीको बड़ा विस्मय हुआ तब उन्होंने उठकर रथकी ओर देखा; किन्तु वहाँ भी वे दोनों महाबली वीर बैठे दृष्टिगोचर हुए तब पुनः जलमें डुबकी लगाकर वे युगल मन्त्रका जप करने लगे। उस समय उन्हें क्षीरसागरमें शेषनागकी शय्यापर बैठे हुए लक्ष्मीसहित श्रीहरिका दर्शन हुआ सनकादि मुनि उनकी स्तुति कर रहे थे और सम्पूर्ण देवता सेवामें खड़े थे इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वरको देखकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरने उनका स्तवन किया। स्तुति करनेके पश्चात् सुगन्धित कमलपुष्पोंसे भगवान्‌का पूजन किया और अपनेको कृतकृत्य मानते हुए वे यमुनाजलसे बलराम और श्रीकृष्णके समीप आये। वहाँ आकर अक्रूरजीने उन दोनों भाइयोंको भी प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें आश्चर्यमग्न और विनीतभावसे खड़ा देख पूछा- ‘कहिये अक्रूरजी! आपने जलमें कौन-सी आश्चर्यको बात देखी है?’ वह सुनकर अक्रूरजीने महातेजस्वी श्रीकृष्णसे कहा-‘प्रभो! आप सर्वत्र व्यापक हैं। आपकी महिमासे क्या आश्चर्यकी बात हो सकती है। इषीकेश! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीका तो स्वरूप है।’ इस प्रकार स्तुति करके जगदीश्वर गोविन्दको प्रणाम कर अक्रूरजी उन दोनों भाइयोंके साथ पुनः दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही देवनिर्मित मथुरापुरीमें जा पहुँचे। वहाँ नगरद्वारपर बलराम और श्रीकृष्णको बिठाकर वे अन्तःपुरमें गये और राजा कंससे उनके आगमनका समाचार सुनाकर उसके द्वारा सम्मानित हो पुनः अपने घरको चले गये।

तदनन्तर सन्ध्याके समय महाबली बलराम और श्रीकृष्ण एक-दूसरेका हाथ पकड़े मथुरापुरीके भीतर गये। ये दोनों राजमार्गसे जा रहे थे इतनेहीमें उनकी दृष्टि कपड़ा रंगनेवाले एक रंगरेजपर पड़ी, जो दिव्य वस्त्र लिये राजभवनकी ओर जा रहा था बलरामसहित परमपराक्रमी श्रीकृष्णने उन वस्त्रोंको अपने लिये माँगा किन्तु रंगरेजने वे वस्त्र उन्हें नहीं दिये। इतना ही नहीं, उसने सड़क पर खड़े होकर उन्हें बहुत से कटुवचन भी सुनाये। तब महाबली श्रीकृष्णने रंगरेजके मुँहपर एक तमाचा जड़ दिया। फिर तो वह मुँहसे रक्त वमन करता हुआ मार्गमें ही मर गया। बलराम और श्रीकृष्णने अपने बन्धु बान्धव ग्वाल-बालोंके साथ उन सुन्दर वस्त्रोंको यथायोग्य धारण किया। फिर वे मालीके घरपर गये। उसने उन्हें देखते ही नमस्कार किया और दिव्य सुगन्धित पुष्पोंसे प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की। तब उन दोनों यादव- वीरोंने मालीको मनोवांछित वरदान दिया। अब वे गलीकी राहसे घूमने लगे। सामनेसे एक सुन्दर मुखवाली युवती आती दिखायी दी, जो हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए थी। वह स्त्री कुब्जा थी। उन दोनों भाइयोंने उससे चन्दन माँगा कुब्जाने मुसकराते हुए उन्हें उत्तम चन्दन प्रदान किया। चन्दन लेकर उन्होंने इच्छानुसार अपने शरीरमें लगाया और कुब्जाको परम मनोहर रूप देकर वे आगे के मार्गपर बढ़ गये। नगरकी स्त्रियाँ सुन्दर मुखवाले उन दोनों सुन्दर कुमारोंको प्रेमपूर्वक निहारती थीं। इस प्रकार ये अपने अनुयायियोंसहित यज्ञशालामें पहुँचे। वहाँ दिव्य धनुष रखा था। उसकी पूजा की गयी थी। भगवान् मधुसूदनने देखते ही उस धनुषको उठा लिया और खेल-खेल ही उसे तोड़ डाला। धनुष टूटनेकी आवाज सुनकर कंस अत्यन्त व्याकुल हो उठा और उसने चाणूर आदि मुख्य-मुख्य मल्लोंको बुलाकर मन्त्रियोंकी सलाह ले चाणूरसे कहा-‘देखो, सब दैत्योंका विनाश करनेवाले बलराम और श्रीकृष्ण आ पहुँचे हैं। कल सबेरे मल्लयुद्ध करके इन दोनोंको बेखटके मार डालो। इन दोनोंको अपने बलपर बड़ा घमण्ड है मतवाले हाथियोंको भिड़ाकर अथवा बड़े-बड़े पहलवानोंको लगाकर जिस किसी उपायसे भी हो सके इन दोनोंको यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये।’ इस प्रकार आदेश देकर राजा कंस भाई और मन्त्रियोंके साथ शीघ्र ही सुन्दर राजभवनको छतपर चढ़ गया। नीचे रहनेमें उसे भय लग रहा था। सम्पूर्ण दरवाजों और मार्गोपर उसने मतवाले हाथियोंको नियुक्तकर दिया और सब ओर बड़े-बड़े बलोन्मत्त पहलवान बिठा दिये। यह सब कुछ जानते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण परम बुद्धिमान् बलरामजी तथा अपने अनुयायी ग्वाल-बालोंके साथ रातभर उस यज्ञशालामें ही ठहरे रहे। रात बीतनेपर जब निर्मल प्रभात आया तो बलराम और श्रीकृष्ण दोनों वीर शय्यासे उठकर स्नान आदिसे निवृत्त हुए। फिर भोजन करके वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित हो युद्धके लिये उत्सुक होकर वे उस शाला चले मानो दो सिंह किसी बड़ी गुफासे बाहर निकले हों। राजमहलके दरवाजेपर कुवलयापीड़ हाथी खड़ा था, जो हिमालय पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वही कंसकी विजयाभिलाषाको बढ़ानेवाला था। उसने ऐरावतके भी दाँत खट्टे कर दिये थे। उस महाकाय और मतवाले गजराजको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण सिंहकी भाँति उछल पड़े और अपने हाथसे उसकी सैंड पकड़कर वे लीलापूर्वक उसे घुमाने लगे। घुमाते घुमाते ही भगवान् धरणीधरने उसे धरतीपर पटक दिया। हाथीका सारा अंग चूर-चूर हो गया और वह डरावनी आवाजमें चिग्घाड़ता हुआ मर गया। इस प्रकार हाथीको मारकर बलराम और श्रीकृष्णने उसके दोनों दाँत उखाड़ लिये और पहलवानोंसे युद्ध करनेके लिये वे रंगभूमिमें पहुँचे। वहाँ जितने दानव थे, वे सब गोविन्दका पराक्रम देख भयभीत हो भाग खड़े हुए। तब कंसके भवनमें प्रवेश करके वे महाबली वीर युद्धके लिये उत्कण्ठित हो हाथीके दाँत घुमाने लगे। वहाँ उन महात्माओंने कंसके दो मल्ल चाणूर और मुष्टिकको उपस्थित देखा। कंस भी महाबली बलराम और गोविन्दको देखकर भयभीत हो उठा तथा अपने प्रधान मल्ल चाणूरसे बोला ‘वीर! इस समय तुम इन ग्वाल-बालोंको अवश्य मार डालो। मैं तुम्हें अपना आधा राज्य बाँटकर दे दूंगा।’ उस समय उन दोनों मल्लोंको भगवान् श्रीकृष्ण ‘अभेद्य कवचसे युक्त और दूसरे मेरुपर्वतके समान विशालकाय दिखायी दिये। कंसकी दृष्टिमें प्रलयकालीन अग्नि-से जान पड़े। स्त्रियोंको साक्षात् कामदेव प्रतीत हुए माता-पिताने उन्हें नन्हें शिशुके रूपमें ही देखा। देवताओंकी दृष्टिमें वे साक्षात् श्रीहरि थे और ग्वाल बाल उन्हें अपना प्यारा सखा ही समझते थे। इस प्रकारउन सर्वव्यापक भगवान् विष्णुको वहाँके लोगोंने अपने-अपने भावोंके अनुसार अनेक रूपोंमें देखा। वसुदेव, अक्रूर और परम बुद्धिमान् नन्द दूसरे कोठेपर चढ़कर वहाँका महान् युद्ध देख रहे थे। देवकी अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ बैठकर बेटेका मुँह निहार रही थीं। उस समय उनके नेत्रों में आँसू भर आये थे स्त्रियोंने उन्हें बहुत समझाया और आश्वासन दिया। तब वे किसी दूसरे भवनमें चल गयीं। तदनन्तर विमानपर बैठे हुए देवता आकाशमें जय-जयकार करते हुए कमलनयन भगवान् अच्युतकी स्तुति करने लगे। वे जोर-जोरसे कहते थे-‘भगवन्! कंसका वध कीजिये ।’ इसी समय रंगभूमिमें तुरही आदि बाजे बज उठे।

कंसके दोनों महामल्लों और महाबली श्रीकृष्ण एवं बलराममें भिड़ंत हो गयी। चाणूरके साथ भगवान् श्रीकृष्ण और मुष्टिकके साथ बलरामजी भिड़ गये। नीलगिरि तथा श्वेतगिरिके समान कान्तिवाले दोनों महात्मा मल्लयुद्धकी रीति-नीतिके अनुसार लड़ने लगे। वे एक-दूसरेको कभी मुक्कोंसे मारते और कभी ताल ठोंकते थे। उनमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ, जो देवताओंको भी भयभीत कर देनेवाला था। भगवान् श्रीकृष्णने चाणूरके साथ बहुत देरतक खेल करके उसके शरीरको रगड़ डाला और फिर लीलापूर्वक पृथ्वीपर दे मारा। देवताओं और दानवोंको भी दुःख देनेवाला वह महामल्ल बहुत रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर गिरा और मर गया। इसी प्रकार पराक्रमी बलरामजी भी मुष्टिकके साथ देरतक लड़ते रहे। अन्तमें उन्होंने उसकी छातीमें कई मुक्के जड़ दिये। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं और स्नायु बन्धन टूट गया। फिर तो वह भी प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उन दोनों भाइयोंका यह पराक्रम देख बाकी सारे पहलवान भाग गये। यह देखकर कंसको बड़ा भय हुआ। वह वेदनासे व्याकुल हो उठा। इसी बीचमें दुर्धर्ष वीर बलराम और श्रीकृष्ण कंसके ऊंचे महलपर चढ़ गये। फिर भगवान् श्रीकृष्णने कंसकेमस्तकमें थप्पड़ मारकर उसे छतसे नीचे गिरा दिया। पृथ्वीपर गिरते ही उसका सारा अंग छिन्न-भिन्न हो गया और वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा। फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा कंसका और्ध्वदेहिक संस्कार कराया। श्रीकृष्णके द्वारा कंसके मारे जानेपर महाबली बलरामजीने भी कंसके छोटे भाई सुनामाको मुक्केसे ही मार डाला और उसे उठाकर धरतीपर फेंक दिया।

इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलरामजी भाईसहित दुरात्मा कंसको मारकर अपने माता-पिताके समीप आये और बड़ी भक्तिके साथ उन्होंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। देवकी और वसुदेवने बड़े प्रेमसे उन दोनोंको बारंबार छाती से लगाया और पुत्रस्नेहसे द्रवित हो उनका मस्तक सूँघा । देवकीके दोनों स्तनोंसे उनके ऊपर दूधकी वृष्टि होने लगी। तत्पश्चात् बलराम और श्रीकृष्ण माता-पिताको आश्वासन दे बाहर आये। इसी समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवेश्वरगण फूलोंकी वर्षा करने लगे। तथा मरुद्गणके साथ श्रीजनार्दनको नमस्कार और उनकी स्तुति करके हर्षमग्न हो अपने-अपने लोकको चले गये। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ जाकर नन्दरायजी तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको नमस्कार किया। धर्मात्मा नन्दने बड़े स्नेहसे उन दोनोंको गले लगा लिया। फिर भगवान् जनार्दनने उन सबको बहुत से रत्न और धन भेंट किये। नाना प्रकारके वस्त्र, आभूषण तथा प्रचुर धन-धान्य देकर उन सबका पूजन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णके विदा करनेपर नन्द आदि गोप हर्ष और शोकमें डूबे हुए वहाँसे व्रजमें लौट गये। इसके बाद बलराम और श्रीकृष्णने अपने नाना उग्रसेनजीके पास जाकर उन्हें बन्धनसे मुक्त किया और बारंबार सान्त्वना दे मथुराके राज्यपर उनका अभिषेक कर दिया। अक्रूर आदि जितने श्रेष्ठ यदुवंशी थे, उन सबको राज्यमें | विशेष पदपर स्थापित किया और उग्रसेनको राजा बनाकर परम धर्मात्मा भगवान् वासुदेव धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करने लगे।

अध्याय 259 जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर वसुदेवजीने अपने दोनों पुत्रोंका वेदोक्त विधिसे उपनयन संस्कार किया। उसमें गर्गजीने आचार्यका काम किया था। विष्णुक विद्वानोंने नहलाने आदिके द्वारा महाबली बलराम और श्रीकृष्णका संस्कारकार्य सम्पन्न किया। तत्पश्चात् उन दोनों भाइयोंने गुरुवर सान्दीपनिके घर जाकर उन महात्माको नमस्कार किया और उनसे वेद शास्त्रोंका अध्ययन करके गुरुदक्षिणाके रूपमें उनके मरे हुए पुत्रको लाकर दिया। इसके बाद उन महात्मा गुरुसे आशीर्वाद से उन्हें प्रणाम करके दोनों भाई मथुरापुरीमें चले आये। इधर श्रीकृष्णके द्वारा दुर्धर्ष वीर कंसके मारे जानेका समाचार सुनकर उसके श्वशुर महाबली जरासन्धने श्रीकृष्णको मारनेके लिये अनेक अक्षौहिणी सेनाओंके साथ आकर मथुरापुरीको घेर लिया। महापराक्रमी बलराम और श्रीकृष्णने नगरसे बाहर निकलकर हाथी घोड़ोंसे भरी हुई उस विशाल सेनाको देखा तब भगवान् वासुदेवने अपने पूर्वकालीन सनातन सारधिका स्मरण किया। उनके स्मरण करते हो सारथि दारुक सुग्रीवपुष्पक नामक महान् रथ लिये आ पहुँचा। उसमें दिव्य एवं सनातन अश्व जुते हुए थे। उस रथमें शंख, चक्र, गदा आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र मौजूद थे। ध्वजाके ऊपर गरुड़चिह्नसे चिह्नित एवं फहराती हुई पताका उस देवदुर्जय रथकी शोभा बढ़ा रही थी। श्रीहरिके सारथिने भूतलपर आकर भगवान् गोविन्दको प्रणाम किया और आयुधों तथा अश्वोंसहित वह सुन्दर रथ सेवामें समर्पित कर दिया। भगवान् श्रीकृष्ण बड़े हर्ष साथ उस महान् रथके समीप आये और अपने बड़े भाई बलरामजीके साथ उसपर सवार हुए। उस समय मरुद्गण उनकी स्तुति कर रहे थे। भगवान्ने चतुर्भुजरूप धारण करके हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और तलवार ले ली और मस्तकपर किरीट धारण किया। दोनों कानोंमें कुण्डल तथा गलेमें वनमाला धारण करके वे संग्रामकी ओर प्रस्थित हुए। परम पराक्रमी बलदेवजीने भी मूमल और हल हाथमें से द्वितीय रुद्रकी भाँति जरासन्धको सेनाका संहार आरम्भ किया। दारुकने बड़ी शीघ्रताकेसाथ रथको रणभूमिकी ओर बढ़ाया। मानो तृण, गुल्म और लताओंसे आच्छादित वनमें वायु प्रज्वलित अग्निको बढ़ा रही हो।

उस समय जरासन्धके सैनिकोंने गदा, परिष शक्ति और मुद्गरोंके द्वारा उस रथको आच्छादित कर दिया, किन्तु बहुत-से तिनकों और सूखे काठको जैसे अत्यन्त प्रज्वलित अग्नि अपनी लपटोंसे शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी प्रकार श्रीहरिने अपने चक्रसे उन सभी अस्त्र-शस्त्रोंको लीलापूर्वक काट डाला। तत्पश्चात् उन्होंने शार्ङ्गधनुष हाथमें लिया और उससे छूटे हुए अक्षय एवं तीखे बाणोंके द्वारा सारी सेनाका संहार कर डाला। इसमें उनको कुछ भी आयास नहीं जान पड़ा। इस प्रकार क्षणभरमें ही शत्रुकी सारी सेनाका विनाश करके यदुश्रेष्ठ भगवान् मधुसूदनने अपना पांचजन्य शंख बजाया, जिसकी आवाज प्रलयकालीन वज्रकी भीषण गर्जनाको भी मात करती थी। शंखनाद सुनते ही शत्रुपक्षके महाबली योद्धाओंके हृदय विदीर्ण हो गये। ये घोड़े- हाथियोंके साथ ही गिरकर प्राणोंसे हाथ धो बैठे। इस प्रकार रथ, हाथी और घोड़ेसहित सम्पूर्ण सेनाका केवल भगवान् श्रीकृष्णने ही सफाया कर डाला। अब उस सेनामें कोई वीर जीवित न बचा। तब सम्पूर्ण देवता प्रसन्नचित्त होकर भगवान्‌ के ऊपर फूल बरसाने और उन्हें साधुवाद देने लगे। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतार कर देवताओंके मुँह स्तुति सुनते हुए भगवान् धरणीधरकी उस युद्धके मुहानेपर बड़ी शोभा हुई। अपनी सेनाको मारी गयी देख खोटी बुद्धिवाला पराक्रमी वीर जरासन्ध तुरंत ही बलरामजीके साथ लोहा लेनेके लिये आया। वे दोनों ही वीर युद्धसे पीछे हटनेवाले नहीं थे। उनमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। बलरामजीने हल उठाकर उससे जरासन्धके सारथिसहित रथको चौपट कर डाला और महाबली जरासन्धको भी पकड़कर वे मूसल उठा उसे मार डालनेको तैयार हो गये। जैसे सिंह महान् गजराजको दबोच ले, उसी प्रकार बलरामजी ने नृपश्रेष्ठ जरासन्धको प्राणसंकटको अवस्थामें डाल दिया। यह देख भगवान् श्रीकृष्णने अपने बड़े भाईबलरामजीसे कहा- ‘भैया! इसका वध न कीजिये।’ इस प्रकार महामति धर्मात्मा श्रीकृष्ण जरासन्धको छुड़वा दिया। श्रीकृष्णके कहने से अविनाशी और संकर्षण शत्रुको छोड़ दिया। इसके बाद वे दोनों भाई रथपर बैठकर मथुरापुरीमें लौट आये।

उधर जरासन्ध महापराक्रमी कालयवनके यहाँ गया। कालयवनके पास बहुत बड़ी सेना थी। वहाँ पहुँचकर उसने वसुदेवके दोनों पुत्रोंके पराक्रमका वर्णन किया। दानवोंका वध, कंसका मारा जाना, अनेक अक्षौहिणी सेनाका संहार तथा अपनी पराजय आदि श्रीकृष्णके सारे चरित्रोंका हाल कह सुनाया। यह सब सुनकर कालयवनको बड़ा क्रोध हुआ और उसने महान् बली एवं पराक्रमी म्लेच्छोंकी बड़ी भारी सेनाके साथ मथुरापर आक्रमण किया। मगधराजके महाबली सैनिक भी उसकी सहायताके लिये आये थे। जरासन्धको साथ लेकर महान् अभिमानी कालयवन बड़ी तेजीके साथ चला। उसकी विशाल सेनासे अनेक जनपदोंकी भूमि आच्छादित हो गयी थी। उस बलवान् वीरने मथुराको चारों ओरसे घेरकर अपनी महासेनाका पड़ाव डाल दिया। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने पुरवासियोंके कुशलक्षेमका विचार करके सबके रहनेके लिये समुद्रसे भूमि माँगी समुद्रने उन्हें तीस योजन विस्तृत भूमि दे दी। तब श्रीकृष्णने वहीं द्वारका नामकी सुन्दर पुरी बनवायी, जो अपनी शोभासे इन्द्रकी अमरावतीपुरीको मात करती थी। भगवान् जनार्दनने मथुरामें सोये हुए पुरवासियोंको उसी अवस्थामें उठाकर रातभरमें ही द्वारका पहुँचा दिया सबेरे जागनेपर उन्होंने स्त्री-पुत्रसहित अपनेको सोनेके महलोंमें बैठा पाया। इससे उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। प्रचुर धन धान्य और दिव्य वस्त्र आभूषणोंसे भरे हुए सुन्दर गृह, जहाँ भयका नाम भी नहीं था, पाकर सम्पूर्ण यादव बड़ी प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगे। जैसे स्वर्गमें देवता सुखी रहते हैं, उसी प्रकार द्वारकापुरीमें वहाँके सभी निवासी अत्यन्त प्रसन्न थे। मथुरावासियोंको द्वारकामें पहुँचाने के बाद महाबली बलराम और श्रीकृष्ण कालयवनसे युद्ध करनेके लिये मथुरासे बाहर निकले। एक ओर महारथी बलरामजीने हल और मूसल लेकर बड़े रोषके साथ यवनोंकी विशाल सेनाका संहार आरम्भ किया तथादूसरी ओर देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुष लेकर उससे छूटे हुए अग्निशिखाके सदृश तेजस्वी बाणोंद्वारा म्लेच्छौकी सम्पूर्ण विशाल वाहिनीको भस्म कर डाला। महाबली कालयवनने अपनी सेनाको मारी गयी देख भगवान् वासुदेवके साथ गदायुद्ध आरम्भ किया। भगवान् श्रीकृष्ण भी बहुत देरतक यवनोंका संहार करके युद्धसे विमुख होकर भागे। कालयवनने ‘ठहरो ठहरो’ की पुकार लगाते हुए बड़े वेगसे उनका पीछा किया। परम बुद्धिमान् भगवान् श्रीकृष्ण शीघ्र ही एक पर्वतको कन्दरामै घुस गये। वहाँ महामुनि राजा मुचुकुन्द सोये थे। भगवान् श्रीकृष्ण, जहाँ कालयवनकी दृष्टि न पड़ सके, ऐसे स्थानमें खड़े हो गये। कालयवन भी महान् धीर-वीर था। वह हाथमें गदा लिये श्रीकृष्णको मारनेके लिये उस कन्दरामें घुसा उसमें सोये हुए महामुनि राजा मुचुकुन्दको श्रीकृष्ण समझकर उसने लात मारी। इससे उनकी नींद खुल गयी और उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके हुंकार किया। उनके हुंकार शब्दसे तथा उनकी रोषभरी दृष्टि पड़नेसे कालयवन प्राणहीन हो जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् राजर्षि मुचुकुन्दने अपने सामने खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णको देखा अमित तेजस्वी भगवान्पर दृष्टि पड़ते ही वे सहसा उठकर खड़े हो गये और बोले-‘मेरा अहोभाग्य, अहोभाग्य, जो प्रभुका दर्शन मिला।’ इतना कहते-कहते उनके सारे शरीरमें रोमांच हो आया और नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। उन्होंने जय-जयकार करके भगवान्‌को बारंबार प्रणाम किया और स्तवन करते हुए कहा ‘परमेश्वर आपके दर्शनसे मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया। आज मेरा जन्म और जीवन-दोनों सफल हो गये!’ इस प्रकार स्तुति करके उन्होंने गोविन्दको पुनः बारंबार प्रणाम किया। इससे सन्तुष्ट होकर भगवान्ने महामुनि मुचुकुन्दसे कहा, ‘राजर्षे! तुम मनोवांछित वर माँगो’ तब मुचुकुन्दने भगवान्से पुनरावृत्तिरहित मोक्षके लिये प्रार्थना की। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना सनातन दिव्यलोक प्रदान किया। परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दने मानवरूपका परित्याग करके परमात्मा श्रीहरिके समान रूप धारण कर लिया और गरुड़पर आरूढ़ हो वे सनातन धाममें चले गये।

अध्याय 260 सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह

महादेवजी कहते हैं— पार्वती ! बुद्धिमान् मुचुकुन्दके द्वारा कालयवनका वध करानेके पश्चात् उन्हें मुक्तिका वरदान दे भगवान् यदुनन्दन गुफासे बाहर निकले। कालयवनको मारा गया सुनकर दुर्बुद्धि जरासन्ध अपनी सेनाके साथ बलराम और श्रीकृष्णके साथ युद्ध करने लगा। भगवान् श्रीकृष्णने उस दुरात्माकी प्रायः सारी सेनाका संहार कर डाला। मगधराज मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बहुत देरके बाद जब उसे कुछ चेत हुआ तो उसके सारे अंगोंमें व्याकुलता छा रही थी। वह भयसे आतुर था। अब मगधराज जरासन्ध बलरामजीके साथ युद्ध करने का साहस न कर सका। उसने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको अजेय समझा और मरनेसे बची हुई सेनाको साथ ले तुरंत ही वह अपनी राजधानीको भाग गया। अब उसने बलराम और श्रीकृष्णका विरोध छोड़ दिया। तदनन्तर वसुदेवजीके दोनों पुत्र अपनी सेनाके साथ द्वारका चले गये। वहाँ इन्द्रने वायुदेवताको भेजा और विश्वकर्माकी हुई सुधर्मा नामक देवसभाको प्रेमपूर्वक श्रीकृष्णको भेंट कर दिया। वह सभा हीरे और वैदूर्यमणिकी बनी हुई थी। चन्द्राकार सिंहासनसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। नाना प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णमय दिव्य छत्रोंसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी उस रमणीय सभाको पाकर उग्रसेन आदि यदुवंशी वैदिक विद्वानोंके साथ उसमें बैठकर स्वर्ग-सभामें बैठे हुए देवताओंकी भाँति आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न रैवत नामक एक राजा थे। उनके रेवती नामवाली एक कन्या थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपनी कन्याका विवाह बलरामजीके साथ कर दिया। बलरामजीने वैदिक विधिके अनुसार रेवतीका पाणिग्रहण किया।

विदर्भ देशमें भीष्मक नामक एक धर्मात्मा राजा रहते थे। उनके रुक्मी आदि कई पुत्र हुए। उन सबसे छोटी एक कन्या भी हुई, जो बहुत ही सुन्दरी थी। उस कन्याका नाम रुक्मिणी था। वह भगवती लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसमें सभी शुभ लक्षण मौजूद थे। श्रीरामावतारके समय जो सीतारूपमें प्रकट हुई थीं,वे ही भगवती लक्ष्मी श्रीकृष्णावतारके समय रुक्मिणीके रूपमें अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें जो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य हुए थे, वे ही द्वापर आनेपर पुनः शिशुपाल और दन्तवक्त्रके नामसे उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंका जन्म चैद्यवंशमें हुआ था। दोनों ही बड़े बलवान् और पराक्रमी थे। राजकुमार रुक्मी अपनी बहिन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था; किन्तु सुन्दर मुखवाली रुक्मिणी शिशुपालको अपना पति नहीं बनाना चाहती थी। बचपनसे ही उसका भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग था श्रीकृष्णको ही पति बनानेके उद्देश्यसे वह देवताओंका पूजन और भाँति-भाँति के दान किया करती थी। वह अपने सनातन स्वामी पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई कठोर व्रतमें संलग्न हो पिताके घरमें निवास करती थी। विदर्भराज भीष्मक अपने पुत्र रुक्मीके साथ मिलकर शिशुपालसे कन्याका विवाह करनेकी तैयारी करने लगे।

तब रुक्मिणीने भगवान् श्रीकृष्णको पति बनानेके उद्देश्यसे अपने पुरोहितके पुत्रको तुरंत ही द्वारकापुरीमें भेजा। ब्राह्मणदेवता द्वारकामें पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे मिले। उन दोनोंने उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया। ब्राह्मणने एकान्तमें बैठकर उन दोनों भाइयोंसे रुक्मिणीका सारा संदेश कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे परिपूर्ण आकाशगामी रथपर ब्राह्मणके साथ बैठे। महात्मा दारुकने उस रथको तीव्र गतिसे हाँका । अतः वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ शीघ्र ही विदर्भनगरमें जा पहुँचे। बुद्धिमान् शिशुपालके विवाहको देखनेके लिये सब राष्ट्रोंसे जरासन्ध आदि राजा आये थे। विवाहके दिन रुक्मिणी सोनेके आभूषणोंसे विभूषित हो दुर्गाजीकी पूजा करनेके लिये सखियोंके साथ नगरसे बाहर निकली। वह सन्ध्याका समय था। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय वहाँ पहुँचे। बलवान् तो थे ही, उन्होंने रथपर बैठी हुई रुक्मिणीको सहसा उठाकर अपने रथपर बिठा लिया और द्वारकाकी ओर चल दिये। यह देख जरासन्ध आदि राजा क्रोधमें भरकर राजकुमार रुक्मीको साथ ले युद्धके लिये उपस्थित हुए।उन्होंने चतुरंगिणी सेनाके साथ श्रीहरिका पीछा किया। तब महाबाहु बलभद्रजी उस उत्तम रथसे कूद पड़े। उन्होंने हल और मूसल लेकर युद्धमें शत्रुओंका संहार आरम्भ किया। कितने ही रथों, घोड़ों, बड़े-बड़े गजराजों तथा पैदल सैनिकोंको भी हल और मूसलकी मारसे कुचल डाला। जैसे वज्रके आघातसे पर्वत विदीर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार उनके हल और मूसल गिरने से रथोंकी पंक्तियाँ चूर-चूर हो गयीं और बड़े-बड़े हाथी भी धरतीपर ढेर हो गये। हाथियोंके मस्तक फट जाते और वे रक्त वमन करते हुए प्राणोंसे हाथ धो बैठते थे। इस प्रकार बलरामजीने क्षणभरमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों सहित सारी सेनाका सफाया कर दिया। राजाओंके पाँव उखड़ गये। वे सब के सब भयसे पीड़ित हो भाग चले। उधर रुक्मी क्रोधमें भरकर श्रीकृष्णके साथ लोहा ले रहा था। उसने धनुष उठाकर बाणोंके समूहसे श्रीकृष्णको बींधना आरम्भ किया। तब गोविन्दने हँसकर लीलापूर्वक अपना शार्ङ्गधनुष हाथमें उठाया और एक ही बाणसे रुक्मीके अश्व, सारथि, रथ और ध्वजापताकाको भी काट गिराया। रथ नष्ट हो जानेपर वह तलवार खींचकर पृथ्वीपर खड़ा हो गया। यह देख श्रीकृष्णने एक बाणसे उसकी तलवारको भी काट डाला। तब उसने श्रीकृष्णकी छातीमें मुक्केसे प्रहार किया। श्रीकृष्णने बलपूर्वक उसे पकड़कर रथमें बाँध दिया और हँसते-हँसते तीखा छुरा ले रुक्मीके सिरको मूड़कर उसे बन्धन से मुक्त कर दिया। इस अपमानके कारण उसको बड़ा शोक हुआ। वह चोट खाये हुए साँपकी भाँति लंबी साँस लेने लगा। लज्जाके कारण उसने विदर्भ-नगरीमें पाँव नहीं रखा। वहीं गाँव बसाकर वह रहने लगा।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बलराम, रुक्मिणी और दारुकके साथ उस दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत अपनी पुरीको चले गये। द्वारकामें प्रवेश करके देवकीनन्दन श्रीकृष्णने शुभ दिन और शुभ लग्नमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित राजकुमारी रुक्मिणीका वेदोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। उस विवाहके समय आकाशमेंदेवतालोग दुन्दुभि बजाते और फूलोंकी वर्षा करते थे। वसुदेव, उग्रसेन यदुश्रेष्ठ अक्रूर महातेजस्वी बलभद्र तथा और भी जो-जो श्रेष्ठ यादव थे; उन सबने बड़े उत्साह के साथ श्रीकृष्ण और रुक्मिणीका सुखमय विवाहोत्सव मनाया। उसमें ग्वालों और ग्वालबालोंके साथ नन्दगोप भी पधारे थे तथा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित बहुत-सी गोपांगनाओंके साथ स्वयं यशोदाजी भी आयी थीं। वसुदेव देवकी, रेवती, रोहिणी देवी तथा अन्यान्य नगर-युवतियोंने मिलकर बड़े हर्षके साथ विवाहके सारे कार्य सम्पन्न किये। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँसहित देवकीने बड़ी प्रसन्नताके साथ विधिपूर्वक देव पूजनका कार्य सम्पन्न किया । श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने विवाहोत्सवसे सम्बन्ध रखनेवाला सारा शास्त्रीय कार्य पूर्ण किया। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे पूजित करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। आये हुए राजा, नन्द आदि गोप तथा यशोदा आदि स्त्रियोंका भी स्वर्ण-रत्न आदिके बहुत से आभूषणों एवं वस्त्रोंद्वारा यथावत् सत्कार किया गया। इस प्रकार उस वैवाहिक महोत्सवमें सम्मानित होकर वे सभी बड़े प्रसन्न हुए।

उन नूतन दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने ग्रन्थिबन्धनपूर्वक एक साथ अग्निदेवको प्रणाम किया। वेदोंके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने आशीर्वादके द्वारा उनका अभिनन्दन किया। उस समय विवाहकी वेदीपर बैठे हुए वर और वधूकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्नीसहित श्रीकृष्णने ब्राह्मणों, राजाओं और बड़े भाई बलरामजीको प्रणाम किया। इस प्रकार समस्त वैवाहिक कार्य सम्पन्न करके भगवान् श्रीकृष्णने विवाहोत्सवमें पधारे हुए समस्त राजाओंको विदा किया। उनसे सम्मानित एवं विदा होकर श्रेष्ठ राजा तथा महात्मा ब्राह्मण अपने अपने निवासस्थानको चले गये। इसके बाद धर्मात्मा भगवान् देवकीनन्दन रुक्मिणीदेवी के साथ दिव्य अट्टालिकामें बड़े सुखसे रहने लगे। मुनि और देवता उनकी स्तुति किया करते थे। उस शोभामयी द्वारकापुरीमें सनातन भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन सन्तुष्टचित्त होकर सदा आनन्दमग्न रहते थे l

अध्याय 261 भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण

महादेवजी कहते हैं- पार्वती। सत्राजितुके एक यशस्विनी कन्या थी, जो भूदेवीके अंशसे उत्पन्न हुई थी उसका नाम था (सत्या) सत्यभामा सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्णकी दूसरी पत्नी थीं। तीसरी पत्नी सूर्यकन्या कालिन्दी थीं, जो लीलादेवीके अंशसे प्रकट हुई थीं। विन्दानुविन्दकी पुत्री मित्रविन्दाको स्वयंवरसे ले आकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके साथ विवाह किया वहाँ सात महाबली बैलोंको, जिनका दमन करना बहुत ही कठिन था, भगवान्ने एक ही रस्सीसे नाथ दिया और इस प्रकार पराक्रमरूपी शुल्क देकर उसका पाणिग्रहण किया। राजा सत्राजितके पास स्यमन्तक नामक एक बहुमूल्य मणि थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई महात्मा प्रसेनको दे रखा था। एक दिन भगवान् मधुसूदनने वह श्रेष्ठ मणि प्रसेनसे माँगी। उस समय प्रसेनने बड़ी धृष्टताके साथ उत्तर दिया- यह मणि प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देती है; अतः इसे में किसीको नहीं दे सकता। प्रसेनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो रहे।

एक दिनकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेन आदि समस्त महाबली यादवोंके साथ शिकार खेलनेके लिये बड़े भारी वनमें गये। प्रसेन अकेले ही उस घोर वनमें बहुत दूरतक चले गये। वहाँ एक सिंहने उन्हें मारकर वह मणि ले ली। फिर उस सिंहको महाबली जाम्बवान्ने मार डाला और उस मणिको लेकर वे शीघ्र ही अपनी गुफामें चले गये। उस गुफार्मे दिव्य स्त्रियों निवास करती थीं। उस दिन सूर्यास्त हो जानेपर भगवान् वासुदेव अपने अनुचरोंके साथ चले मार्गमें उन्होंने 1 चतुर्थीके चन्द्रमाको देख लिया। उसके बाद अपने नगरमें प्रवेश किया। तदनन्तर समस्त पुरवासी श्रीकृष्णके विषयमें एक-दूसरे से कहने लगे-‘जान पड़ता है, गोविन्दने प्रसेनकी वनमें ही मारकर बेखटके मणि ले ली है। उसके बाद ये द्वारकामें आये हैं।’ द्वारकावासियोंकी यह बात जब भगवान्के कानोंमें पड़ी तो वे मूर्खलोगोंके द्वारा उठाये हुए अपवादके भयसे पुनः कुछ यदुवंशियोंको साथ ले गहन वनमें गये। वहाँ सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेनकी लाश पड़ी थी, जिसे भगवान्ने सबको दिखाया। इसप्रकार प्रसेनकी हत्याके झूठे कलंकको मिटाकर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी सेनाको वहीं ठहरा दिया तथा हाथमें शार्ङ्गधनुष और गदा लिये वे अकेले ही गहन वनमें घुस गये। वहाँ एक बहुत बड़ी गुफा देखकर श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। उस गुफाके भीतर एक स्वच्छ भवन था, जो नाना प्रकारकी श्रेष्ठ मणियोंसे जगमगा रहा था। वहाँ एक धायने जाम्बवान्के पुत्रको पालनेमें सुलाकर उसके ऊपरी भागमें मणिको बाँधकर लटका दिया था और पालनेको धीरे-धीरे लीलापूर्वक डुलाती हुई वह लोरियाँ गा रही थी गाते-गाते वह निम्नांकित श्लोकका उच्चारण कर रही थी

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः ।

सुकुमारक मा रोदीस्तव होष स्यमन्तकः ॥

(276 19) ‘प्रसेनको सिंहने मारा और सिंह जाम्बवान्के हाथसे मारा गया है। सुन्दर कुमार रोओ मत। यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी ही है।’

यह सुनकर प्रतापी वासुदेवने शंख बजाया। वह महान् शंखनाद सुनकर जाम्बवान् बाहर निकले। फिर उन दोनोंमें लगातार दस राततक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरेको वज्रके समान मुक्कोंसे मारते थे। वह युद्ध समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था। श्रीकृष्णके बलकी वृद्धि और अपने बलका हास देखकर जाम्बवान्को भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके कहे हुए पूर्वकालके वचनोंका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे ये ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, जो धर्मकी रक्षाके लिये पुनः इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरे नाथ मेरा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं।’ ऐसा सोचकर ऋक्षराजने युद्ध बंद कर दिया और हाथ जोड़कर विस्मयसे पूछा- ‘आप कौन हैं? कैसे यहाँ पधारे हैं?’ तब भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर वाणीमें कहा-‘मैं वसुदेवका पुत्र हूँ। मेरा नाम वासुदेव है। तुम मेरी स्यमन्तक नामक मणि हर ले आये हो। उसे शीघ्र लौटा दो, नहीं तो अभी मारे जाओगे।’ यह सुनकर जाम्बवान्को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्‌को प्रणाम किया और विनीत भावसे कहा- ‘प्रभो। आपके दर्शनसे मैं धन्यऔर कृतार्थ हो गया। देवकीनन्दन। पहले अवतारसे ही मैं आपका दास हूँ। गोविन्द पूर्वकालमें जो मैंने युद्धकी अभिलाषा की थी, उसीको आज आपने पूर्ण किया है। जगन्नाथ करुणाकर। मैंने मोहवश अपने स्वामीके साथ जो यह युद्ध किया है, उसे आप क्षमा करें।’

ऐसा कहकर जाम्बवान् पैरोंमें पड़ गये और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने भगवान्‌को रत्नमय सिंहासनपर विनयपूर्वक बिठाया। फिर शरत्कालके कमलसदृश सुन्दर एवं कोमल चरणोंको उत्तम जलसे पखारकर मधुपर्ककी विधिसे उन यदुश्रेष्ठका पूजन किया। दिव्य वस्त्र और आभूषण भेंट किया। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके अमिततेजस्वी भगवान्‌को अपनी जाम्बवती नामवाली लावण्यमयी कन्या पत्नीरूपसे दान कर दी। साथ ही अन्यान्य श्रेष्ठ मणियाँसहित स्यमन्तकमणि भी दहेजमें दे दी। विपक्षी वीरोंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने वहीं प्रसन्नतापूर्वक जाम्बवतीसे विवाह किया और जाम्बवान्को उत्तम मोक्ष प्रदान किया। फिर जाम्बवतीको साथ ले गुफासे बाहर निकलकर वे द्वारकापुरीको गये। वहाँ पहुँचकर यदुश्रेष्ठ श्रीकृष् समाजको स्यमन्तकमणि दे दी और समाज उसे अपनी कन्या सत्यभामाको दे दिया। भादोंके शुक्लपक्षमें चतुर्थीको चन्द्रमाका दर्शन करनेसे झूठा कलंक लगता है; अतः उस दिन चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये। यदि कदाचित् उस तिथिको चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो इस स्यमन्तकमणिकी कथा सुननेपर मनुष्य मिथ्या कलंक से छूट जाता है। मद्रराजकी तीन कन्याएँ थीं-सुलक्ष्मणा, नग्नजिती और सुशीला इन तीनोंने स्वयंवरमै भगवान् श्रीकृष्णका वरण किया और एक ही दिन भगवान्ने उन तीनोंके साथ विवाह किया। इस प्रकार महात्मा श्रीकृष्णके रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, जाम्बवती नाग्नजिती, सुलक्ष्मणा और सुशीला – ये आठ पटरानियाँ थीं।

नरकासुर नामक एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जो भूमिसे उत्पन्न हुआ था। उसने देवराज इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंको युद्धमें जीतकर देवमाता अदितिके दो तेजस्वी कुण्डल छीन लिये थे। साथ ही देवताओंके भाँति-भाँति रत्न, इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवाघोड़ा, कुबेरके मणिमाणिक्य आदि तथा पद्मनिधि नामक शंख भी ले लिये थे। वह आकाशमें विचरण करनेवाला था और आकाशमें ही नगर बनाकर उसके भीतर निवास करता था। एक दिन सम्पूर्ण देवता उसके भयसे पीड़ित हो शचीपति इन्द्रको आगे करके अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये। श्रीकृष्णने भी नरकासुरकी सारी चेष्टाएँ सुनकर देवताओंको अभयदान दे विनतानन्दन गरुड़का स्मरण किया। सर्वदेववन्दित महाबली गरुड़ उसी समय भगवान्‌के सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गये। भगवान् सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए उस राक्षसके नगरमें गये। जैसे आकाशमें सूर्यका मण्डल देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार उसका नगर भी उद्भासित हो रहा था। उसमें दिव्य आभूषण धारण किये बहुत-से राक्षस निवास करते थे। वह नगर देवताओंके लिये भी दुर्भेद्य था भगवान्ने उसके कई आवरण देख चक्रसे उन्हें काट डाला, ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं। आवरण कट जानेपर समस्त राक्षस शूल उठाये सैकड़ों और हजारोंके झुंड बनाकर युद्धके लिये चले विजयकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर तोमर, भिन्दिपाल और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णपर प्रहार करने लगे । तब भगवान् श्रीकृष्णने भी शार्ङ्गधनुष लेकर उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंको काट डाला तथा अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबका संहार आरम्भ किया। इस प्रकार समस्त राक्षस मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सम्पूर्ण दानवोंका वध करके कमलनयन भगवान् पुरुषोत्तमने पांचजन्य नामक महान् शंख बजाया।

शंखनाद सुनकर पराक्रमी दैत्य नरकासुर दिव्य रथपर आरूढ़ हो भगवान्से युद्ध करनेके लिये आया। उन दोनोंमें अत्यन्त भयंकर घमासान युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वे दोनों बरसते हुए मेथोंकी भाँति हजारों बाणोंकी झड़ी लगा रहे थे। इसी बीचमें सनातन भगवान् वासुदेवने अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उस राक्षसका धनुष काट दिया और उसकी छातीपर महान् दिव्यास्त्रका प्रहार किया उससे हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वह महान् असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तबभूमिकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्ण उस राक्षसके समीप गये और बोले—’तुम कोई वर माँगो’ यह सुनकर राक्षसने गरुड़पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा “सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीकृष्ण मुझे की कोई आवश्यकता नहीं। फिर भी दूसरे लोगोंके हितके लिये आपसे एक उत्तम वर माँगता हूँ। मधुसूदन! जो मनुष्य मेरी मृत्युके दिन मांगलिक स्नान करें, उन्हें कभी नरककी प्राप्ति न हो।’

‘एवमस्तु’ कहकर भगवान्ने उसे वह वर दे दिया। नरकासुरने ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंद्वारा पूजित, व एवं वैदूर्यमणिसे बने हुए नूपुरोंसे सुशोभित तथा शरत्कालके खिले हुए कमलसदृश कोमल भगवच्चरणका दर्शन करते हुए अपने प्राणोंका परित्याग किया और श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महर्षि आनन्दमग्न हो भगवान्के ऊपर फूलोंकी वर्षा और स्तुति करने लगे। इसके बाद कमलनयन श्रीकृष्णने नरकासुरके नगरमें प्रवेश किया और उसने बलपूर्वक जो देवताओंका धन लूट लिया था, वह सब उन्हें वापस कर दिया। देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल उच्चैः वा मोड़ा, ऐरावत हाथी और दीप्तिमान् मणिमय पर्वत ये सारी वस्तुएँ भगवान्ने इन्द्रको दे दी। बलवान् नरकासुरने समस्त राजाओंको जीतकर सभी राष्ट्रोंसे जो सोलह हजार कन्याओंका अपहरण किया था, वे सब की सब उसके अन्तः पुरमें कैद थीं। सैकड़ों कामदेवकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले महापराक्रमी श्रीकृष्णको देखकर उन सबने उन्हें अपना पति बना लिया। तब अनन्त रूप धारण करनेवाले भगवान् गोविन्दने एक ही लग्नमें उन सबका पाणिग्रहण किया। नरकासुरके सभी पुत्र पृथ्वीदेवीको आगे करके भगवान् गोविन्दकी शरणमें गये। तब दयानिधान भगवान्ने उन सबकी रक्षा की और पृथ्वीके वचनोंका आदर करते हुए उन्हें नरकासुरके राज्यपर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन सभी सुन्दरी स्त्रियोंको इन्द्रके विमानपर बिठाकर देवदूतोंके साथ द्वारकायें भेज दिया। इसके बाद सत्यभामाके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाताका दर्शन करने के लिये स्वर्गलोकमें गये। अमरावतीपुरीमें पहुँचकरमहाबली श्रीकृष्ण पत्नीसहित गरुड़से उतरे और देवताओंकी वन्दनीया माता अदितिके चरणोंमें उन्होंने प्रणाम किया। पुत्रवत्सला माताने भगवान्‌को दोनों हाथोंसे पकड़कर छातीसे लगा लिया और एक श्रेष्ठ आसनपर बिठाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्का पूजन किया। तत्पश्चात् आदित्य, वसु, रुद्र और इन्द्र आदि देवताओंने भी परमेश्वरका यथायोग्य पूजन किया। उस समय यशस्विनी सत्यभामा शचीके महलमें गयीं। वहाँ इन्द्राणीने उन्हें सुखमय आसनपर बिठाकर उनका भलीभाँति पूजन किया। उसी समय सेवकोंने इन्द्रकी प्रेरणासे पारिजातके सुन्दर फूल ले जाकर शचीदेवीको भेंट दिये। सुन्दरी शचीने उन फूलको लेकर अपने काले एवं चिकने केशोंमें गूँथ लिया और सत्यभामाकी अवहेलना कर दी। उन्होंने सोचा- ‘ये फूल देवताओंके योग्य हैं और सत्यभामा मानुषी हैं, अतः ये इन फूलकी अधिकारिणी नहीं हैं।’ ऐसा विचार करके उन्होंने वे फूल सत्यभामाको नहीं दिये।

सत्यभामा क्रोधमें भरकर इन्द्राणीके घरसे चली आर्यों और अपने स्वामीके पास आकर बोलीं ‘यदुश्रेष्ठ! उस शचीको पारिजातके फूलोंपर बड़ा घमंड है। उसने मुझे दिये बिना ही सब फूल अपने ही केशों में धारण कर लिये हैं।’ सत्यभामाकी यह बात सुनकर महाबली वासुदेवने पारिजातका पेड़ उखाड़ लिया और उसे गरुड़की पीठपर रखकर वे सत्यभामाके साथ द्वारकापुरीकी ओर चल दिये। यह देख देवराज इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ और वे देवताओंको साथ लेकर भगवान् जनार्दनपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, मानो मेघ किसी महान् पर्वतपर जलकी बूँदें बरसा रहे हों। भगवान् श्रीकृष्णके चक्र और गरुड़जीके पंखोंकी मारसे देवता परास्त हो गये और इन्द्र भयभीत होकर गजराज ऐरावतसे नीचे उतर पड़े तथा गद्गद वाणी से भगवान्की स्तुति करके बोले – ‘ श्रीकृष्ण यह पारिजात देवताओंके उपभोगमें आनेयोग्य है। पूर्वकालमें आपने ही इसे देवताओंके लिये दिया था। अब यह मनुष्यलोकमें कैसे रह सकेगा?’ तब भगवान्ने इन्द्रसे कहा ‘देवराज! तुम्हारे घरमें शचीने सत्यभामाका अपमान किया है। उन्होंने इनको पारिजातके फूल न देकर स्वयंही उन्हें अपने मस्तकमें धारण किया है। इसलिये मैंने पारिजातका अपहरण किया है। मैंने सत्यभामासे प्रतिज्ञा की है कि मैं तुम्हारे घरमें पारिजातका वृक्ष लगा दूंगा; अतः आज यह पारिजात तुम्हें नहीं मिल सकता। मैं मनुष्योंके हितके लिये उसे भूतलपर ले जाऊँगा । जबतक मैं वहाँ रहूँगा, मेरे भवनमें पारिजात भी रहेगा। मेरे परमधाम पधारनेपर तुम अपनी इच्छाके अनुसार इसे ले लेना। इन्द्रने भगवान्‌को नमस्कार करके कहा’अच्छा, ऐसा ही हो।’ यों कहकर वे देवताओंके साथ अपनी पुरीमें लौट गये और भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामादेवीके साथ गरुड़पर बैठकर द्वारकापुरीमें चले आये। उस समय मुनिगण उनकी स्तुति करते थे। सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरि सत्यभामाके निकट देववृक्ष पारिजातकी स्थापना करके समस्त भार्याओंके साथ विहार करने लगे। विश्वरूपधारी मधुसूदन रात्रिमें इन सभी पत्नियोंके घरोंमें रहकर उन्हें सुख प्रदान करते थे।

अध्याय 262 अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! भगवान् श्रीकृष्णके रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्युम्न उत्पन्न हुए, जो कामदेवके अंशसे प्रकट हुए थे। वे बड़े बलवान् थे। उन्होंने शम्बरासुरका वध किया था। उनके रुक्मीकी पुत्रीके गर्भसे अनिरुद्धका जन्म हुआ। अनिरुद्धने भी बाणासुरकी कन्या ऊषाके साथ विवाह किया। उस विवाहकी कथा इस प्रकार है-एक दिन ऊषाने स्वप्नमें एक नील कमलदलके समान श्यामसुन्दर तरुण पुरुषको देखा। ऊषाने स्वप्न में ही उस पुरुषके साथ प्रेमालाप किया और जागनेपर उसे सामने न देख वह पागल सी हो उठी तथा यह कहती हुई कि ‘तुम मुझे अकेली छोड़ कहाँ चले गये ?’ वह भाँति-भाँति से विलाप करने लगी। ऊषाकी एक चित्रलेखा नामकी सखी थी। उसने उसकी ऐसी अवस्था देखकर पूछा—’सखी! क्या कारण है कि तुम्हारा मन विक्षिप्त सा हो रहा है?” ऊषाने स्वप्नमें मिले हुए पतिके विषयकी सारी बातें सच सच बता दीं।

चित्रलेखाने सम्पूर्ण देवताओं और श्रेष्ठ मनुष्योंके चित्र वस्त्रपर अंकित करके ऊषाको दिखलाये। यदुकुलमें जो श्रीकृष्ण बलभद्र, प्रद्युम्न और असिद्ध आदि सुन्दर पुरुष थे, उनके चित्र भी उसने ऊषाके सामने प्रस्तुत किये। ऊषाने उनमेंसे श्रीकृष्णको उससे मिलता-जुलता पाया। अतः उन्हींकी परम्परामें उनके होनेका अनुमान करके उसने उधर ही दृष्टिपात किया। श्रीकृष्णके बाद प्रद्युम्न और प्रद्युम्नके बाद अनिरुद्धको देखकर वह सहसा बोल उठी-‘यही है, यही है’ ऐसा कहकर उसने अनिरुद्ध के चित्रको हृदयसे लगा लिया तब चित्रलेखा दैत्योंकी बहुत-सी मायाविनीस्त्रियोंको साथ ले द्वारकामें गयी और रातके समय अन्तःपुरमें सोये हुए अनिरुद्धको मायासे मोहित करके बाणासुरके महलमें लाकर ऊषाकी शय्यापर सुला दिया। जागनेपर अनिरुद्धने अपनेको अत्यन्त रमणीय और स्वच्छ पलंगपर सोया हुआ पाया। पास ही समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न विचित्र आभूषण, वस्त्र, गन्ध और माला आदिसे अलंकृत तथा सुवर्णके समान रंग और सुन्दर केशोंवाली ऊषा बैठी हुई थी। तदनन्तर ऊषाकी प्रसन्नतासे अनिरुद्ध उसके साथ रहने लगे।

इस प्रकार लगातार एक मासतक अनिरुद्ध ऊषाके साथ महलमें रहे। एक दिन अन्तः पुरमें रहनेवाली कुछ बूढ़ी स्त्रियोंने उन्हें देख लिया और राजा बाणासुरको इसकी सूचना दे दी। यह समाचार सुनते ही राजाकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। उसने अत्यन्त विस्मित होकर अपने सेवकोंको भेजा और यह आदेश दिया कि ‘उसे यहीं पकड़ लाओ।’ सेवक राजाके महलपर चढ़ गये और राजकुमारीके शयनागारमें सोये हुए अनिरुद्धको पकड़नेके लिये आगे बढ़े। अपनेको पकड़नेके लिये आते देख अनिरुद्धने खिलवाड़में ही महलका एक खम्भा उखाड़ लिया और उसीसे मार-मारकर दो ही घड़ीमें उन सबका कचूमर निकाल डाला। अपने सेवकोंको मारा गया देख दैत्यराज बाणासुरको अनिरुद्ध के विषयमें बड़ा कौतूहल हुआ। इतनेमें ही देवर्षि नारदने आकर बताया कि ये श्रीकृष्णके पौत्र अनिरुद्ध हैं। यह सुनकर धनुष ले वह स्वयं ही अनिरुद्धको पकड़नेके लिये उनके समीप आया। हजार भुजाओंसे युक्त दैत्यराजको युद्धके लिये आते देख अनिरुद्धने भी एकपरिघ घुमाकर बाणासुरके ऊपर फेंका; किन्तु उसने बाण मारकर उस परिघको काट दिया। तत्पश्चात् सर्पास्त्रसे अनिरुद्धको अच्छी तरह बाँधकर दैत्यराजने उन्हें अन्तःपुरमें ही कैद कर लिया।

इधर देवर्षि नारदके मुखसे यह सारा समाचार ज्यों-का-त्यों जानकर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलदेवजी, प्रद्युम्न तथा अपनी सेनाके साथ पक्षिराज गरुड़पर आरूढ़ हो बाणासुरके बाहुबलका उच्छेद करनेके लिये आ पहुँचे। पूर्वकालमें बलिपुत्र बाणासुरने भगवान् शंकरकी आराधना की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने उसे वर माँगने को कहा। तब उसने महेश्वरसे यही वर माँगा था कि ‘आप मेरे नगर द्वारपर सदा रक्षाके लिये मौजूद रहें और जो शत्रुओंकी सेना आवे, उसका संहार करें।’ ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् शंकरने उसकी प्रार्थना स्वीकार की तथा वे अपने पुत्र और पार्षदोंके साथ अस्त्र-शस्त्र लिये उसके नगर द्वारपर सदा विराजमान रहने लगे। उस समय जब भगवान् श्रीकृष्ण यादवोंकी बहुत बड़ी सेनाको साथ लेकर वहाँ आये तो उन्हें देखकर भगवान् शंकर भी वृषभपर आरूढ़ हो सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये अपने पुत्र और पार्षदोंसहित युद्धके लिये निकले। वे हाथीका चमड़ा पहने, कपाल धारण किये, सब अंगोंमें विभूति रमाये और प्रज्वलित सर्पोका आभूषण पहने शोभा पा रहे थे। उनका श्रीअंग पिंगल वर्णका था। उनके तीन नेत्र थे। वे अपने हाथमें लिये हुए थे। उन्होंने सम्पूर्ण भूतगणोंका संगठन कर रखा था। वे समस्त प्राणियोंके लिये भयदायक प्रतीत होते थे। उनका तेज प्रलयकालीन अग्निके समान जान पड़ता था। वे अपने दोनों पुत्रों और समस्त पार्षदोंके साथ उपस्थित थे। त्रिपुरका नाश करनेवाले उन भगवान् भूतनाथको सामना करनेके लिये आया देख भगवान् श्रीकृष्णने सेनाको तो बहुत दूर पीछे ही ठहरा दिया और स्वयं बलभद्र एवं प्रद्युम्नसहित निकट आकर वे हँसते-हँसते भगवान् शंकरजीके साथ युद्ध करने लगे। उन दोनों पोर युद्ध हुआ पिनाक और शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाण प्रलयाग्निके समान भयंकर जान पड़ते थे। बलरामजी गणेशजीके साथ और प्रद्युम्न कार्तिकेयजीके साथ भिड़ गये। दोनों पक्षोंके योद्धा महान् पराक्रमी औरसिंहके समान उत्कट बलवाले थे। गणेशजीने अपने दौतसे बलरामजीकी छाती प्रहार किया, तब बलरामजीने मूसल उठाकर उनके दाँतपर दे मारा। मूसलकी मार पढ़ते ही गणेशजीका दाँत टूट गया और वे चूहेपर चढ़कर रणभूमिसे भाग खड़े हुए तभी से टूटे हुए दाँतवाले गणेशजी इस लोकमें तथा देवता, दानव और गन्धर्वोके यहाँ ‘एकदन्त’ के नामसे प्रसिद्ध हुए । कार्तिकेयजी प्रद्युम्नके साथ युद्ध कर रहे थे। हल धारण करनेवाले बलरामजीने मूसलकी मारसे शिवगणको युद्धभूमिसे भगा दिया।

भगवान् शिव श्रीकृष्णसे बहुत देरतक युद्ध करते रहे। इसके बाद उन्होंने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके अपने वाणपर अत्यन्त प्रज्वलित तापज्वरका आधान किया और उसे भगवान् श्रीकृष्णपर छोड़ दिया; किन्तु श्रीकृष्ण शीतज्वरसे उस अस्त्रका निवारण कर दिया। इस प्रकार श्रीहरि और हरके छोड़े हुए वे दोनों ज्वर उन्हींकी आज्ञासे मनुष्यलोकमें चले गये जो मानव श्रीहरि और शंकरके युद्धका वृत्तान्त सुनते हैं, वे ज्वरसे मुक्त होकर नीरोग हो जाते हैं।

इसके बाद दैत्यराज बाणासुर रथपर सवार हो भगवान् श्रीकृष्णके साथ युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु भगवान्ने अपने चक्रसे उसकी भुजाएँ काट डालीं। यह देख भगवान् शंकरने कहा- ‘प्रभो! यह बाणासुर राजा बलिका पुत्र है। मैंने इसे अमरत्वका वरदान दिया है। यदुश्रेष्ठ! आप मेरे उस वरदानकी रक्षा करें और इस बलिकुमारके अपराधोंको क्षमा कर दें।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् श्रीकृष्णने अपने चक्रको समेट लिया और प्राणोंके संकटमें पढ़े हुए बाणासुरको छोड़ दिया। उसको छुड़ाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले भगवान् शंकर वृषभपर सवार हो कैलासपर चले गये। फिर बाणासुरने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको नमस्कार किया और उन दोनोंके साथ नगरमें जाकर अनिरुद्धको बन्धनसे मुक्त कर दिया। तत्पश्चात् उसने दिव्य वस्त्राभूषणोंसे पूजा करके कृष्णपौत्र अनिरुद्धको अपनी कन्या ऊषाका दान कर दिया। अनिरुद्धका विधिपूर्वक विवाह हो जानेके पश्चात् बाणासुरने प्रद्युम्नसहित बलराम और श्रीकृष्णका भी पूजन किया। फिर भगवान् जनार्दनऊषा और अनिरुद्धको एक दिव्य रथपर बिठाकर द्वारकाकी ओर प्रस्थित हुए। बलराम, प्रद्युम्न और सेनाके साथ श्रीहरिने अपनी रमणीय पुरीमें प्रवेश किया।वहाँ अनिरुद्ध अनेक रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर भवनमें बाणपुत्री ऊषाके साथ भाँति-भाँतिके भोगोंका उपभोग करते हुए निरन्तर प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे।

अध्याय 263 पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! काशीका राजा पौण्ड्रकवासुदेव काशीपुरीके भीतर एकान्त स्थानमें बैठकर बारह वर्षोंतक बिना कुछ खाये-पिये मेरी आराधनामें संलग्न हो पंचाक्षर मन्त्रका जप करता रहा। उस समय वह अपने नेत्ररूपी कमलसे मेरी पूजा करता था तब मैंने अत्यन्त प्रसन्न होकर उससे वर माँगने के लिये कहा। वह बोला-‘मुझे वासुदेवके समान रूप प्रदान कीजिये।’ यह सुनकर मैंने उसे शंख, चक्र, गदा और पद्मसहित चार भुजाएँ, कमलदलके समान विशाल नेत्र, किरीट, मणिमय कुण्डल, पीत वस्त्र तथा कौस्तुभमणि आदि चिह्न प्रदान किये। अब वह अपनेको वासुदेव बताकर सब लोगोंको मोहमें डालने लगा। एक दिन अभिमान और बलसे उन्मत्त हुए काशिराजके पास देवर्षि नारदने आकर कहा—’मूढ़! वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णपर विजय पाये बिना तू वासुदेव नहीं हो सकता।’ इतना सुनते ही वह उसी समय श्रीकृष्णको जीतनेके लिये गरुड़पताकासे युक्त रथपर आरूढ़ हो चारों अंगोंसे युक्त अक्षौहिणी सेनाके साथ यात्रा करके द्वारकामें जा पहुँचा। वहाँ नगरद्वारपर सुवर्णमय रथ में बैठे हुए पौण्ड्रकने श्रीकृष्णके पास दूत भेजा और यह सन्देश दिया कि ‘मैं वासुदेव हूँ तथा युद्धके लिये यहाँ आया हूँ। मुझपर विजय पाये बिना तुम वासुदेव नहीं कहला सकते।” उसका सन्देश सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण गरुड़पर आरूढ़ हुए और पौण्ड्रकसे युद्ध करनेके लिये नगरद्वारपर आये। वहाँ उन्होंने अक्षौहिणी सेनाके साथ रथपर बैठे हुए शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले पौण्ड्रकको देखा। फिर तो शार्ङ्गधनुष हाथमें ले प्रलयाग्निके समान 2 तेजस्वी वाणोंसे रथ, हाथी, घोड़े और पैदलसहित उसकी बहुत बड़ी अक्षौहिणी सेनाको भगवान्ने दो ही पड़ीमें भस्म कर डाला। एक वाणसे उसके हाथोंमें चिपके हुए शंख, चक्र और गदा आदि शस्त्रोंकोलीलापूर्वक काट दिया। फिर पवित्र सुदर्शनचक्र से उसके किरीट-कुण्डलयुक्त मस्तकको काटकर उन्होंने काशीके अन्तःपुरमें गिरा दिया। उस मस्तकको देखकर समस्त काशीनिवासी बहुत विस्मित हुए।

उधर मगधराज जरासन्ध कंसवधके पश्चात् यादवोंसे द्वेषभाव रखते हुए ही उन्हें सदा पीड़ा दिया करता था। इससे दुःखित होकर यादवोंने श्रीकृष्णसे उसकी चेष्टाएँ बतलायीं। तब भगवान् श्रीकृष्णने भीमसेन और अर्जुनको बुलाकर परामर्श किया इस जरासन्धने महादेवजीकी आराधना की है; अतः उनकी कृपासे यह शस्त्रोंद्वारा नहीं मारा जा सकता। किन्तु किसी-न-किसी प्रकार इसका वध करना आवश्यक है।’ फिर कुछ सोचकर भगवान्ने भीमसेनसे कहा

‘तुम उसके साथ मल्लयुद्ध करो।’ भीमसेनने ऐसा करनेकी प्रतिज्ञा की तब सम्पूर्ण चराचर जगत्के वन्दनीय भगवान् वासुदेव भीम और अर्जुनको साथ ले जरासन्धकी पुरीमें गये और वहाँ ब्राह्मणका वेष धारण करके उन सबने राजाके अन्तःपुरमें प्रवेश किया। उन्हें देखकर जरासन्धने साष्टांग प्रणाम किया और योग्य आसनोंपर बिठाकर मधुपर्ककी विधिसे उनका पूजन करके कहा- ‘द्विजवरो में धन्य हूँ, कृतकृत्य हूँ। आपलोग किस लिये मेरे समीप पधारे हैं? उसे बतायें। मैं आपलोगोंको सब कुछ दूँगा।’ तब उनमेंसे भगवान् श्रीकृष्णने हँसकर कहा-‘राजन् हम क्रमशः श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन हैं तथा युद्धके लिये तुम्हारे पास आये हैं। हममेंसे किसी एकको द्वन्द्व-युद्धके लिये स्वीकार करो।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसने उनकी बात मान ली और द्वन्द्व-युद्धके लिये भीमसेनका वरण किया। फिर तो भीमसेन और जरासन्धमें अत्यन्त भयंकर मल्लयुद्ध हुआ, जो लगातार सत्ताईस दिनोंतक चलता रहा। उसके बाद श्रीकृष्णके संकेतसे भीमसेननेउसके शरीरको चीर डाला और दो टुकड़े करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार पाण्डुनन्दन भीमके द्वारा जरासन्धका वध कराकर उसके कैद किये हुए राजाओंको भी भगवान्ने मुक्त किया। वे राजा भगवान् मधुसूदनको प्रणाम और उनकी स्तुति करके उनके द्वारा सुरक्षित हो अपने-अपने देशोंको चले गये।

तदनन्तर भगवान् वासुदेवने भीमसेन और अर्जुनके साथ इन्द्रप्रस्थमें जाकर महाराज युधिष्ठिरसे राजसूय नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कराया। यज्ञ समाप्त होनेपर युधिष्ठिरने भीष्मजीकी अनुमतिसे अग्रपूजाका अधिकार श्रीकृष्णको ही दिया – सर्वप्रथम उन्हींकी पूजा की। उस समय शिशुपालने श्रीकृष्णके प्रति बहुत-से आक्षेपयुक्त वचन कहे। तब श्रीकृष्णने सुदर्शनचक्रके द्वारा उसका मस्तक काट डाला। वह तीन जन्मोंकी समाप्तिके बाद उस समय श्रीहरिके सारूप्यको प्राप्त हुआ। शिशुपालको मारा गया सुनकर दन्तवक्त्र श्रीकृष्णसे युद्ध करनेके लिये मथुरा गया। यह सुनकर श्रीकृष्ण भी मथुरा हो उससे युद्ध करनेके लिये गये। वहीं मथुरापुरीके दरवाजेपर यमुनाके किनारे उन दोनोंमें दिन-रात युद्ध होता रहा अन्तमें श्रीकृष्णने दन्तवक्त्रपर गदासे प्रहार किया। उसकी चोट खाकर वज्रसे विदीर्ण हुए पर्वतकी भाँति उसका सारा शरीर चूर-चूर हो गया और वह प्राणहीन होकर पृथ्वीतलपर गिर पड़ा। दन्तवक्त्र भी योगियों को प्राप्त होनेयोग्य नित्यानन्दमय सुखसे परिपूर्ण सनातन परमपदरूप भगवत्सायुज्यको प्राप्त हुआ। इस प्रकार जय और विजय सनकादिके शापके व्याजसे केवल भगवान्‌की लीलामें सहयोग देनेके लिये संसारमें लोन बार उत्पन्न हुए और तीनों ही जन्मोंमें भगवान्‌के ही हाथसे उनकी मृत्यु हुई। इस तरह तीन जन्मोंकी समाप्ति होनेपर वे पुनः मोक्षको प्राप्त हुए।

दन्तवक्त्रका वध करनेके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण यमुनाके पार हो नन्दके व्रजमें गये और पहलेके पिता माता नन्द और यशोदाको प्रणाम करके उन्होंने उन दोनोंको आश्वासन दिया। फिर नन्द और यशोदाने भी नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए भगवान्‌को हृदयसे लगाया। तत्पश्चात् श्रीकृष्णने वहाँक समस्त बड़े-बड़े गोपोंको प्रणाम करके आश्वासन दिया और बहुमूल्य रत्न, वस्त्रतथा आभूषण आदि देकर व्रजके समस्त निवासियोंको सन्तुष्ट किया। वहाँ रहनेवाले नन्दगोप आदि सब लोग तथा पशु-पक्षी और मृग आदि भी भगवान् की कृपासे स्त्री- पुत्रसहित दिव्य रूप धारण करके विमानपर बैठे और परम वैकुण्ठधामको चले गये। इस प्रकार समस्त व्रजवासियोंको अपना निरामय पद प्रदान करके भगवान् श्रीकृष्ण शोभामयी द्वारकापुरीमें आये, उस समय आकाशमें स्थित देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे।

द्वारकामे वसुदेव, उग्रसेन, संकर्षण, प्रद्युम्न अनिरुद्ध और अक्रूर आदि यादव सदा भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया करते थे। वे विश्वरूपधारी भगवान् भाँति भौतिके दिव्य रत्नोंद्वारा निर्मित मनोहर गृहोंमें कल्पवृक्षके फूलोंसे सजी हुई स्वच्छ एवं कोमल शय्याओंपर सोलह हजार आठ रानियोंके साथ प्रतिदिन आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों श्रीकृष्ण और बलरामजीका बालसखा एवं सहपाठी एक ब्राह्मण था, जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीड़ित रहता था। एक दिन वह भीखमें मिला हुआ मुट्ठीभर चाकल पुराने चिथड़े में बाँधकर भगवान् वासुदेवसे मिलनेके लिये परम मनोहर द्वारका नगरी में आया और रुक्मिणीके अन्तः पुरके दरवाजेपर जा क्षणभर चुपचाप खड़ा रहा। इतनेमें उसके ऊपर श्रीकृष्णकी दृष्टि पड़ी, उन्होंने ब्राह्मणको आया जान आगे बढ़कर उसकी अगवानी की और प्रणाम करके हाथ पकड़कर महलके भीतर ले जा उसे सुन्दर आसनपर बिठाया। वह बेचारा भयसे काँप रहा था, किन्तु भगवान्ने रुक्मिणी के हाथमें रखे हुए सुवर्णमय कलशके जलसे स्वयं ही उसके दोनों चरण धोकर | मधुपर्कद्वारा उसका पूजन किया। फिर अमृतके समान मधुर अन्न-पान आदिसे ब्राह्मणको तृप्त करके उसके पुराने चिमें बँधे हुए चावलोंको लेकर भगवान्ने हँसते-हँसते उनका भोग लगाया। उन्होंने ज्यों ही उन चावलोंको मुँहमें डाला, त्यों ही ब्राह्मणको प्रचुर धन धान्य, वस्त्र एवं आभूषणोंसे युक्त महान् ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। किन्तु उस समय भगवान्से खाली हाथ विदा होकर उसने अपने मनमें इस बातका विचार किया कि ‘इन्होंने मुझे कुछ नहीं दिया।’ निवासस्थानमें पहुँचनेपर जब उसने अपने लिये धन-धान्यसे सम्पन्न गृह देखातो उसे निश्चय हो गया कि यह सब श्रीहरिकी कृपासे ही प्राप्त हुआ है। ब्राह्मणने प्रसन्नचित्त होकर दिव्य वस्त्र एवं आभूषण आदिके द्वारा पत्नीके साथ समस्त कामनाओंका उपभोग किया और श्रीहरिकी प्रसन्नता लिये नाना प्रकारके यज्ञोंका अनुष्ठान करके उन्होंके प्रसादसे वह परमधामको प्राप्त हुआ।

धृतराष्ट्रके पुत्र दुर्योधनने छलपूर्वक जुआ खेलकर उसीके व्याजसे पाण्डवोंका सारा राज्य हड़प लिया था और उन्हें अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया था। इससे युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपनी पत्नी द्रौपदीके साथ महान् वनमें जाकर वहाँ बारह वर्षोंतक रहे। फिर एक सालतक उन्हें अज्ञातवास करना पड़ा। अन्तमें सब मत्स्यदेशके राजा विराटके भवनमें एकत्रित हुए और भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे धृतराष्ट्र पुत्रोंके साथ युद्ध करनेको आये। अनेक देशोंसे आये हुए राजाओंके साथ परम पुण्यमय कुरुक्षेत्रमें जुटे हुए पाण्डवों और धृतराष्ट्र-पुत्रोंमें बहुत बड़ा संग्राम हुआ, जो देवताओंके लिये भी भयंकर था उसमें श्रीकृष्णने अर्जुनके सारथिका काम किया और अपनी शक्ति अर्जुनमें स्थापित करके उनके द्वारा ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओं सहित दुर्योधन, भीष्म, द्रोण तथा अन्यान्य राजाओंका वध कराकर उन्होंने पाण्डवोंको अपने राज्यपर स्थापित कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीका सारा भार उतारकर भगवान्ने द्वारकापुरीमें प्रवेश किया। तदनन्तर कुछ कालके बाद एक वैदिक ब्राह्मण अपने मरे हुए पाँच वर्षक बालकको लेकर द्वारकामें राजाके द्वारपर रखकर बहुत विलाप करने लगा। उसने श्रीकृष्णके प्रति बहुत आक्षेपयुक्त वचन कहे। श्रीकृष्ण उस आक्षेपको सुनकर भी चुप रहे। ब्राह्मण कहता गया मेरे पाँच पुत्र पहले मर चुके हैं। यह छठा पुत्र है। यदि श्रीकृष्ण मेरे इस पुत्रको जीवित नहीं करेंगे तो मैं इस राजद्वारपर प्राण दे दूंगा।’ इसी समय अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारकामें आये। वहाँ उन्होंने पुत्रशोकसे विलाप करते हुए ब्राह्मणको देखा। उसका पाँच वर्षका बालक कालके मुखमें चला गया है. यह देखकर अर्जुनको बड़ी दया आयी। उन्होंने अको अभयदान देकर प्रतिज्ञा की ‘मैं तुम्हारपुत्रको जीवित कर दूंगा।’ उनसे आश्वासन पाकर ब्राह्मण प्रसन्न हो गया। उन्होंने मन्त्र पढ़कर अनेक संजीवनास्त्रोंका प्रयोग किया; किन्तु वह बालक जीवित न हुआ। इससे अपनी प्रतिज्ञा झूठी होती देख अर्जुनको बड़ा शोक हुआ और उन्होंने उस ब्राह्मणके साथ ही प्राण त्याग देनेका विचार किया। यह सब जानकर भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरसे बाहर निकले और उस वैदिक ब्राह्मणसे बोले-‘मैं तुम्हारे सभी पुत्रोंको ला दूँगा।’ ऐसा कहकर उसे आश्वासन दे अर्जुनसहित गरुड़पर आरूढ़ हो वे विष्णुलोकमें गये। वहाँ दिव्य मणिमय मण्डपमें श्रीलक्ष्मीदेवीके साथ बैठे हुए भगवान् नारायणको देखकर श्रीकृष्ण और अर्जुनने उन्हें नमस्कार किया। भगवान्ने उन दोनोंको अपनी भुजाओं में कस लिया और पूछा-‘तुम दोनों किस लिये आये हो?’ श्रीकृष्णने कहा- ‘भगवन्! मुझे वैदिक ब्राह्मणके पुत्रोंको दे दीजिये।’ तब भगवान् नारायणने वैसी ही अवस्थामें स्थित अपने लोकमें विद्यमान ब्राह्मणपुत्रोंको श्रीकृष्णके हाथमें सौंप दिया। श्रीकृष्ण भी उन्हें गरुड़के कंधेपर बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक अर्जुनसहित स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और आकाशमें देवताओंके मुँहसे अपनी स्तुति सुनते हुए द्वारकापुरीमें आये वहाँ पहुँचकर उन्होंने ब्राह्मणके छः पुत्र उन्हें समर्पित कर दिये तब वह अत्यन्त हर्षमें भरकर श्रीकृष्णको अभ्युदयकारक आशीर्वाद देने लगा। अर्जुनकी भी प्रतिज्ञा सफल हुई इसलिये उनको भी बड़ा हर्ष था। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार करके महाराज युधिष्ठिरद्वारा पालित अपनी पुरीकी राह ली।

श्रीकृष्णके सोलह हजार रानियोंके गर्भ से कुल अयुत सहस्र (एक करोड़) पुत्र उत्पन्न हुए थे। इस विषयमें कहते हैं—’ श्रीकृष्णके एक करोड़ आठ सौ पुत्र थे। उन सबमें रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न ही बड़े थे, असंख्य यदुवंशियोंसे यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी थी।

एक दिन समस्त यादवकुमार घूमनेके लिये नर्मदातटपर गये। वहाँ महर्षि कण्व तपस्या कर रहे थे। यादवकुमारोंने जाम्बवतीके पुत्र साम्बको स्त्रीके वेषमें सजाकर उसके पेटमें एक लोहेका मूसल बाँध दिया। फिर धीरे-धीरे ऋषिके समीप आकर सबने नमस्कारकिया और स्त्रीरूपधारी साम्बको आगे खड़ा करके पूछा- ‘मुने! बताइये इस स्त्रीके गर्भमें कन्या है या पुत्र ?’ मुनिने मन-ही-मन सब बात जानकर क्रोधपूर्वक कहा- ‘अरे! तुम सब लोग इसी मूसलसे मारे जाओगे।’ यह सुनकर सबका हृदय उद्विग्न हो उठा। उन्होंने श्रीकृष्णके पास आकर महर्षिकी कही हुई सारी बातें कह सुनायीं श्रीकृष्णने उस लोहेके मूसलको चूर्ण करके कुण्डमें डलवा दिया। उस चूर्णसे वज्रके समान कोर बड़े-बड़े सरकंडे उग आये मूसलके चूर्ण होनेसे एक लोहा बच गया था, जो कनिष्ठिका अँगुलीके बराबर था। उसको एक मत्स्य निगल गया। उस मत्स्यको निषादने पकड़ा और उसके पेटसे उस मूसलावशेष लोहेको निकालकर बाणके आगेका फल बनवा लिया। कुछ दिनोंके बाद समस्त यादव परस्पर आक्षेपयुक्त वचन कहते हुए उन सरकंडोंद्वारा एक-दूसरेसे लड़कर नष्ट हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण युद्धसे श्रान्त होकर कल्पवृक्षकी छायामें सो रहे थे। उसी समय वह निषाद धनुष-बाण लेकर शिकार खेलनेके लिये आया। भगवान् श्रीकृष्णके सिवा समस्त यादव युद्धमें काम आये थे, वे सभी मरनेके पश्चात् अपने-अपने देवस्वरूपमें मिल गये। इस प्रकार मूसलद्वारा सबका संहार करके अकेले भगवान् श्रीकृष्ण अनेक लताओंसे व्याप्त महान् कल्पवृक्षकी छायामें लेटे हुए अपने चतुर्व्यूहगत वासुदेवस्वरूपका चिन्तन कर रहे थे। वे घुटनेपर अपना एक पैर रखे अ मानवलोकका त्याग करनेको उद्यत थे। उसी समय प मृगयासे जीविका चलानेवाले उस निषादने कालके व प्रभावसे चक्र, वज्र, ध्वजा और अंकुश आदि चिह्नोंसे 3 अंकित भगवान् के अत्यन्त लाल तलवेको (मृग जानकर ) लक्ष्य करके बींध डाला। उसके बाद उसने भगवान् श्रीकृष्णको पहचाना। फिर तो महान् भयसे पीड़ित हो वह थर-थर काँपने लगा और दोनों हाथ जोड़कर बोला- नाथ! मुझसे बड़ा अपराध हुआ, क्षमा करें। यो कहकर वह भगवान के चरणों में पड़ गया।

निषादको इस अवस्थामै देख भगवान् श्रीकृष्ण अपने अमृतमय हाथोंसे उठाया और यह कहकर कि ‘तुमने कोई अपराध नहीं किया है।’ उसे आश्वासन दिया। इसके बाद उसे योगियोंको प्राप्त होनेयोग्यपुनरावृत्तिरहित सनातन विष्णुलोक प्रदान किया। फिर तो वह स्त्री और पुत्रसहित मानव शरीरका त्याग करके दिव्य विमानपर बैठा तथा सहस्रों सूर्यके समान प्रकाशमान हिरण्मय वासुदेव नामक विष्णुधामको चला गया। इसी समय दारुक रथ लेकर भगवान् श्रीकृष्णके समीप आये भगवान्ने कहा-‘मेरे स्वरूपभूत अर्जुनको यहाँ बुला ले आओ।’ आज्ञा पाकर दारुक मनके समान वेगशाली रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही अर्जुनके समीप जा पहुँचे अर्जुन उस रथपर बैठकर आये और भगवान्‌को प्रणाम करके हाथ जोड़कर बोले, ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है ?’ भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘मैं परमधामको जाऊँगा। तुम द्वारका जाकर वहाँसे रुक्मिणी आदि आठ पटरानियोंको यहाँ ले आकर मेरे शरीरके साथ भेजो।’ अर्जुन दारुकके साथ द्वारकापुरीको गये। इधर भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के सृष्टि, पालन और संहारके हेतुभूत, सम्पूर्ण क्षेत्रोंके ज्ञाता, अन्तर्यामी, योगियोंद्वारा ध्यान करनेके योग्य, अपने वासुदेवात्मक स्वरूपको धारण करके गरुड़पर आरूढ़ हो महर्षियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए परमधामको चले गये। अर्जुनने द्वारकामें वसुदेव और उग्रसेनसे तथा रुक्मिणी आदि पटरानियोंसे सारा हाल कह सुनाया। यह सुनकर श्रीकृष्णमें अनुराग रखनेवाले समस्त पुरवासी पुरुष और अन्तःपुरकी स्त्रियाँ द्वारकापुरी छोड़कर बाहर निकल आय तथा वसुदेव, उग्रसेन और अर्जुनके साथ शीघ्र ही श्रीहरिके समीप आयीं, वहीं पहुँचकर आठों रानियाँ श्रीकृष्णके स्वरूपमें मिल गयीं। वसुदेव, उग्रसेन और अक्रूर आदि सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादव अपना-अपना शरीर त्यागकर सनातन वासुदेवको प्राप्त हुए रेवतीदेवीने बलरामजीके शरीरको अंकमें लेकर चिताकी अग्निमें प्रवेश किया और दिव्य विमानपर बैठकर वे अपने स्वामीके निवासस्थान दिव्य संकर्षणलोकमै चली गयीं। इसी प्रकार रुक्मीकी पुत्री प्रद्युम्नके साथ कथा अनिरुद्ध के साथ तथा यदुकुलकी अन्य वि अपने-अपने पतियोंके शरीरके साथ अग्निप्रवेश कर गयीं। उन सबका और्ध्वदैहिक कर्म अर्जुनने ही सम्पन्न किया। उस समय दारुक भी दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सुग्रीव नामक दिव्य रथपर आरूढ़ हो परमधामको बले गये। पारिजातवृक्ष और देवताओंकी सुधर्मा सभा-येदोनों इन्द्रलोकर्मे पहुँच गये। तत्पश्चात् द्वारकापुरी समुद्रमें गयी! अर्जुन भी यह कहते हुए कि ‘अब मेरा भाग्य नष्ट हो सायंकालीन सूर्यकी भाँति तेजोहीन होकर अपनी पुरीमें चले आये।

इस प्रकार सम्पूर्ण देवताओंके हितके लिये तथा पृथ्वीके समस्त भारका नाश करनेके लिये भगवान्ने यदुकुलमें अवतार लिया और सम्पूर्ण राक्षसों तथा पृथ्वीके महान् भारका नाश करके नन्दके व्रज, मथुरा और द्वारकामें रहनेवाले समस्त चराचर प्राणियोंको कालधर्मसे मुक्त किया। फिर उन्हें अपने शाश्वत, योगिगम्य, हिरण्मय, रम्य एवं परमैश्वर्यमय पदमें स्थापित करके वे परमधाममें दिव्य पटरानियों आदिसे सेवित हो सानन्द निवास करने लगे।

पार्वती ! यह भगवान् श्रीकृष्णका अत्यन्त अद्भुत चरित्र सब प्रकारके उत्तम फल प्रदान करनेवाला है। मैंने इसे संक्षेपमें ही कहा है। जो वासुदेवके इस चरित्रका श्रीहरिके समीप पाठ, श्रवण अथवा चिन्तन करता है, वह भगवान्‌के परमपदको प्राप्त होता है। महापातक अथवा उपपातकसे युक्त मनुष्य भी बालकृष्णके चरित्रको सुनकर सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। द्वारकामें विराजमानरुक्मिणीसहित श्रीहरिका स्मरण करके मनुष्य निश्चय ही पापरहित हो महान् ऐश्वर्यरूप परमधामको प्राप्त होता है। जो संग्राममें, दुर्गम संकटमें तथा शत्रुओंसे घिर जानेपर सब देवताओंके नेता भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह विजयी होता है। इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता, जो सब कामनाओंका फल प्राप्त करना चाहता हो, वह विद्वान् मनुष्य ‘श्रीकृष्णाय नम:’ इस मन्त्रका उच्चारण करता रहे। ‘सबको अपनी ओर खींचनेवाले कृष्ण, सबके हृदयमें निवास करनेवाले वासुदेव, पाप-तापको हरनेवाले श्रीहरि, परमात्मा तथा प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले भगवान् गोविन्दको बारंबार नमस्कार है।” जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक इस मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुलोकको जाता है। भगवान् जनार्दन सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं। वे समस्त लोकोंकी रक्षा करनेके लिये ही भिन्न-भिन्न अवस्थाओंको ग्रहण करते हैं। वे ही किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये बुद्धरूपमें अवतीर्ण होते हैं। कलियुगके अन्तमें एक ब्राह्मणके घरमें अवतीर्ण हो भगवान् जनार्दन समस्त म्लेच्छोंका संहार करेंगे। ये सब जगदीश्वरकी वैभवावस्थाएँ हैं।

अध्याय 264 श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन

पार्वतीजीने कहा- भगवन्! आपने श्रीहरिकी वैभवावस्थाका पूरा-पूरा वर्णन किया। इसमें भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णका चरित्र बड़ा ही विस्मयजनक है। अहो! भगवान् श्रीराम और परमात्मा श्रीकृष्णकी लीला कितनी अद्भुत है? देवेश्वर! मैं तो इस कथाको सौ कल्पोंतक सुनती रहूँ तो भी मेरा मन कभी इससे तृप्त नहीं होगा। अब मैं इस समय भगवान् विष्णुके उत्तम माहात्म्य और पूजनविधिका श्रवण करना चाहती हूँ।

श्रीमहादेवजीने कहा- देवि ! मैं परमात्मा श्रीहरिके स्थापन और पूजनका वर्णन करता हूँ, सुनो। भगवान्का विग्रह दो प्रकारका बताया गया है-एक तो ‘स्थापित’ और दूसरा ‘स्वयं व्यक्त ।’ पत्थर, मिट्टी,लकड़ी अथवा लोहा आदिसे श्रीहरिकी आकृति बनाकर श्रुति, स्मृति तथा आगममें बतायी हुई विधिके अनुसार जो भगवान्‌की स्थापना होती है, वह ‘स्थापित विग्रह’ है तथा जहाँ भगवान् अपने आप प्रकट हुए हों, वह ‘स्वयं व्यक्त विग्रह’ कहलाता है। भगवान्‌का विग्रह स्वयं व्यक्त हो या स्थापित, उसका पूजन अवश्य करना चाहिये। देवताओं और महर्षियोंके पूजनके लिये जगत्के स्वामी सनातन भगवान् विष्णु स्वयं ही प्रत्यक्षरूपसे उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। जिसका भगवान्‌के जिस विग्रहमें मन लगता है, उसके लिये वे उसी रूपमें भूतलपर प्रकट होते हैं; अतः उसी रूपमें भगवान्का सदा पूजन करना चाहिये और उसीमें सदा अनुरक्तरहना चाहिये। पार्वती श्रीरंगक्षेत्रमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका विधिपूर्वक पूजन करना चाहिये। काशीपुरीमें पापहारी भगवान् माधव मेरे भी पूजनीय हैं। जिस-जिस रमणीय भवनमें सनातन भगवान् स्वयं व्यक्त होते हैं, वहाँ-वहाँ जाकर मैं आनन्दका अनुभव किया करता हूँ। भगवान्‌का दर्शन हो जानेपर वे मनोवांछित वरदान देते हैं। इस पृथ्वीपर प्रतिमामें अज्ञानीजनोंको भी सदा भगवान्‌का सान्निध्य प्राप्त होता रहता है। परम पुण्यमय जम्बूद्वीप और उसमें भी भारतवर्षके भीतर प्रतिमामें भगवान् विष्णु सदा सन्निहित रहते हैं; अतः मुनियों तथा देवताओंने भारतवर्ष में ही तप, यज्ञ और क्रिया आदिके द्वारा सदा श्रीविष्णुका सेवन किया है। इन्द्रद्युम्नसरोवर कूर्मस्थान, सिंहाचल करवीरक, काशी, प्रयाग, सौम्य, शालग्रामार्थना नैमिषारण्य, बदरिकाश्रम, कृतशौचतीर्थ, पुण्डरीकतीर्थ, दण्डकवन, मथुरा, वेंकटाचल, श्वेताद्रि, गरुड़ाचल, कांची, अनन्तशयन, श्रीरंग, भैरवगिरि, नारायणाचल, वाराहतीर्थ और वामनाश्रम – इन सब स्थानोंमें भगवान् श्रीहरि स्वयं व्यक्त हुए हैं; अतः उपर्युक्त स्थान सम्पूर्ण कामनाओं तथा फलोंको देनेवाले हैं। इनमें श्रीजनार्दन स्वयं ही सन्निहित होते हैं। ऐसे ही स्थानोंमें जो भगवान्का विग्रह है, उसे मुनिजन ‘स्वयं व्यक्त’ कहते हैं। महान् भगवद्भकोंमें ब्रेष्ठ पुरुष यदि विधिपूर्वक भगवान् की स्थापना करके मन्त्रके द्वारा उनका सान्निध्य प्राप्त करावे तो उस स्थापनाका विशेष महत्त्व है। गाँवों अथवा परोंमें जो ऐसे विग्रह हो, उनमें भगवान्‌का पूजन करना चाहिये। सत्पुरुषोंने घरपर शालग्रामशिलाकी पूजा उत्तम बतायी है।

पार्वती भगवान्की मानसिक पूजाका सबके लिये समानरूपसे विधान है, अतः अपने-अपने अधिकारके अनुसार सबको जगदीश्वरकी पूजा करनी चाहिये जो भगवान्‌ के सिवा दूसरे किसी देवताके भक्त नहीं है; भगवत्प्राप्तिके सिवा और किसी फलके साधक नहीं हैं, जो वेदवेत्ता, ब्रह्मतत्त्व, वीतराग, मुमुक्षु गुरुभक्त, प्रसन्नात्मा, साधु, ब्राह्मण अथवा इतर मनुष्य हैं, उनसबको सदा श्रीहरिका पूजन करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि यह वेद और स्मृतियोंमें बताये हुए उत्तम सदाचारका सदा पालन करे। उनमें बताये हुए कर्मोंका कभी उल्लंघन न करे। शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियसंयम), तप (धर्मके लिये क्लेशसहन एवं तितिक्षा), शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), सत्य (मन, वाणी और क्रियाद्वारा सत्यका पालन), मांस न खाना, चोरी न करना और किसी भी जीवकी हिंसा न करना – यह सबके लिये धर्मका साधन है।

रातके अन्तमें उठकर विधिपूर्वक आचमन करे। फिर गुरुजनोंको नमस्कार करके मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण करे। मौन हो पवित्रभावसे भक्तिपूर्वक सहस्रनामका पाठ करे। तत्पश्चात् गाँवसे बाहर जाकर विधिपूर्वक मल-मूत्रका त्याग करे। फिर उचितरूपसे शरीरकी शुद्धि करके कुल्ला करे और शुद्ध एवं पवित्र हो दन्तधावन करके विधिपूर्वक स्नान करे। तुलसीके मूलभागकी मिट्टी और तुलसीदल लेकर मूलमन्त्रसे और गायत्रीमन्त्रसे अभिमन्त्रित करके मन्त्रसे ही उसको सम्पूर्ण शरीरमें लगावे। फिर अघमर्षण करके स्नान करे। गंगाजी भगवान्के चरणोंसे प्रकट हुई हैं। अतः उनके निर्मल जलमें गोता लगाकर अघमर्षण-‍ – सूक्तका जप करे। फिर आचमन करके पुरुषसूक्तके मन्त्रोंसे क्रमशः मार्जन करे। पुनः जलमें डुबकी लगाकर अट्ठाईस या एक सौ आठ बार मूलमन्त्रका जप करे। इसके बाद वैष्णव पुरुष उक्त मन्त्रसे ही जलको अभिमन्त्रित करके उससे आचमन करे। तदनन्तर देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे। फिर वस्त्र निमोड़ ले। उसके बाद आचमन करके धौतवस्त्र पहने। वैष्णव पुरुष निर्मल एवं रमणीय मृत्तिका ले उसे मन्यसे अभिमन्त्रित करके ललाट आदिमें लगावे। आलस्य छोड़कर परिगणित अंगोंमें ऊर्ध्वपुण्ड्र धारण करे। उसके बाद विधिपूर्वक सन्ध्योपासना करके गायत्रीका जप करे। तदनन्तर मनको संयममें रखकर घर जाय और पैर धो मौनभावसे आचमन करके एकाग्रचित्त हो पूजामण्डपमें प्रवेश करे।एक सुन्दर सिंहासनको फूलोंसे सजाकर भगवान् लक्ष्मीनारायणको विराजमान करे। फिर गन्ध, पुष्प और अक्षत आदिके द्वारा विधिपूर्वक भगवान्का पूजन आरम्भ करे। विग्रह स्थापित, स्वयं व्यक्त अथवा शालग्रामशिला – कोई भी क्यों न हो, श्रुति, स्मृति और आगमोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार उसका पूजन उचित है। वैष्णव पुरुष शुद्धचित हो गुरुके उपदेशके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुका यथायोग्य पूजन करे। वेदों तथा ब्राह्मणग्रन्थोंमें बतायी हुई पूजा ‘श्रीत’ कहलाती है। वासिष्ठी पद्धतिके अनुसार की जानेवाली पूजाको ‘स्मार्त’ कहते हैं। तथा पांचरात्रमें बताया हुआ विधान ‘आगम’ कहलाता है। भगवान् विष्णुकी आराधना बहुत ही उत्तम कर्म है। इस क्रियाका कभी लोप नहीं करना चाहिये। आवाहन, आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, स्नानीय वस्तु यज्ञोपवीत गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल एवं नमस्कार आदि उपचारोंके द्वारा अपनी शक्तिके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक श्रीविष्णुकी आराधना करे। पुरुषसूककी प्रत्येक ऋचा तथा मूलमन्त्र- इन दोनोंहीसे वैष्णव पुरुष षोडशोपचार समर्पण करे। पुनः प्रत्युपचार अर्पण करके पुष्पांजलि दे वैष्णवको चाहिये कि वह मुद्राद्वारा भगवान् जगन्नाथका आवाहन करे। फिर फूल और मुद्रासे ही आसन दे। इसी प्रकार क्रमशः पाद्य, अर्घ्य, आचमन और स्नानके लिये भिन्न-भिन्न पात्रोंमें निर्मल जल समर्पित करे। उस जलमें मांगलिक द्रव्योंके साथ तुलसीदल मिला हो इसके बाद उक्त दोनों ही प्रकारके मन्त्रोंसे प्रत्युपचार अर्पण करे सुगन्धित तेलसे भगवान्को अभ्यंग लगावे कस्तूरी और चन्दनसे उनके श्रीअंगमें उबटन लगावे। फिर मन्त्रका पाठ करते हुए सुगन्धित जलसे भगवान्‌को स्नान करावे। तत्पश्चात् दिव्य वस्त्र और आभूषणोंसे विधिपूर्वक भगवान्‌का शृंगार करे। फिर उन्हें मधुपर्क दे तथा भक्तिके साथ सुगन्धित चन्दन और सौरभयुक्त सुन्दर पुष्प निवेदन करे। इसके बाद दशांग या अष्टांग धूप, मनोहर दीप और भाँति-भाँति के नैवेद्य भेंट करे। नैवेद्य खरऔर मालपुआ भी होने चाहिये। नैवेद्यके अन्तमें आचमन कराकर भक्तियुक्त हृदयसे कर्पूरमिश्रित ताम्बूल निवेदित करे। फिर घीकी बत्तियोंसे आरती करके भगवान्‌को फूलोंकी माला पहनावे। तदनन्तर समीप जा विनीतभावसे प्रणाम करके उत्तम स्तोत्रोंद्वारा भगवान् का स्तवन करे। फिर उन्हें गरुड़के अंकमें शयन कराकर मंगलार्घ्य निवेदन करे। उसके बाद पवित्र नामौका कीर्तन करके होम करे भगवान्‌को भोग लगाये हुए नैवेद्यसे जो शेष बचे, उसीसे अग्निमें हवन करे। प्रत्येक आहुतिके साथ पुरुषसूक्त अथवा मंगलमय श्रीसूक्तकी एक-एक ऋचाका पाठ करे। वेदोक्त विधिसे स्थापित अग्निमें मृतमिश्रित हविष्यके द्वारा उपर्युक्त मन्त्ररत्नका एक सौ आठ या अट्ठाईस बार जप करके हवन करना चाहिये और हवनकालमें यज्ञस्वरूप महाविष्णुका ध्यान भी करना चाहिये।

शुद्ध जाम्बूनद नामक सुवर्णके समान जिनका श्यामवर्ण है, जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं, जिनमें अंग- उपांगौसहित सम्पूर्ण वेद-वेदान्तोंका ज्ञान भरा हुआ है तथा जो श्रीदेवीके साथ सुशोभित हो रहे हैं, उन भगवान्‌का ध्यान करके होम करना चाहिये। मन्त्रद्वारा होम करनेके पश्चात् नामोंका उच्चारण करके एक एकके लिये एक-एक आहुति देनी चाहिये। भगवद्भकोंमें श्रेष्ठ पुरुष भगवान्के ‘नित्य भक्तों के उद्देश्यसे उनके नाम ले-लेकर आहुति दे। पहले क्रमशः भूदेवी, लीलादेवी और विमला आदि शक्तियाँ होमकी अधिकारिणी हैं। फिर अनन्त, गरुड आदि, तदनन्तर वासुदेव आदि, तत्पश्चात् शक्ति आदि, इनके बाद केशव आदि विग्रह, संकर्षण आदि व्यूह, मत्स्य कूर्म आदि अवतार, चक्र आदि आयुध, कुमुद आदि देवता, चन्द्र आदि देव, इन्द्र आदि लोकपाल तथा धर्म आदि | देवता क्रमशः होमके अधिकारी हैं; इन सबका हवन और विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। इस प्रकार भगवद्भक्त पुरुष नित्य पूजनकी विधिमें प्रतिदिन एकाग्रचित हो हवन करे। इस हवनका नाम ‘वैकुण्ठहोम’ है। गृहमें पूजा करनेपर उस घर के दरवाजेपर पंचयज्ञकीविधिसे बलि अर्पण करे, फिर आचमन कर ले। तत्पश्चात् कुशके आसनपर काला मृगचर्म बिछाकर उस शुद्ध आसनके ऊपर बैठे। मृगचर्म अपने-आप मेरे हुए मृगका होना चाहिये। पद्मासनसे बैठकर पहले भूतशुद्धि करे, फिर जितेन्द्रिय पुरुष मन्त्रपाठपूर्वक तीन बार प्राणायाम कर ले। तदनन्तर मन-ही-मन यह भावना करे कि ‘मेरे हृदय कमलका मुख ऊपरकी ओर है और वह विज्ञानरूपी सूर्यके प्रकाशसे विकसित हो रहा है।’ इसके बाद श्रेष्ठ वैष्णव पुरुष उस कमलकी वेदत्रयीमयी कर्णिकामें क्रमशः अग्निबिम्ब, सूर्यबिम्ब और चन्द्रबिम्बका चिन्तन करे। उन बिम्बोंके ऊपर नाना प्रकारके रत्नोंद्वारा निर्मित पीठकी भावना करे। इसके ऊपर बालरविके सदृश कान्तिमान् अष्टविध ऐश्वर्यरूप अष्टदलकमलका चिन्तन करे। प्रत्येक दल अष्टाक्षर मन्त्रके एक-एक अक्षरके रूपमें हो। फिर ऐसी भावना करे कि उस अष्टदलकमलमें श्रीदेवीके साथ भगवान् विष्णु विराजमान हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंके समान प्रकाशमान हो रहे हैं। उनके चार भुजाएँ, सुन्दर श्रीअंग तथा हाथोंमें शंख, चक्र और गदा है। पद्मपत्रके समान विशाल नेत्र शोभा पा रहे हैं। वे समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न दिखायी देते हैं। उनके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न है, वहीं कौस्तुभमणिका प्रकाश छा रहा है। भगवान् पीत वस्त्र, विचित्र आभूषण, दिव्य श्रृंगार, दिव्य चन्दन, दिव्य पुष्प, कोमल तुलसीदल और वनमालासे विभूषित हैं। कोटि-कोटि बालसूर्यके सदृश उनकी सुन्दर कान्ति है। उनके श्रीविग्रहसे सटकर बैठी हुई श्रीदेवी भी सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दिखायी देती हैं।

इस प्रकार ध्यान करते हुए एकाग्रचित्त एवं शुद्ध हो अष्टाक्षर मन्त्रका एक हजार या एक सौ बार यथाशक्ति जप करे फिर भक्तिपूर्वक मानसिक पूजा करके विराम करे। उस समय जो भगवद्भक्त पुरुष वहाँ पधारे हों, उन्हें अन्न-जल आदिसे सन्तुष्ट करे और जब वे जाने लगें तो उनके पीछे-पीछे थोड़ी दूर जाकर विदाकरे। देवताओं तथा पितरोंका विधिपूर्वक पूजन एवं तर्पण करे और अतिथि एवं भृत्यवर्गीका यथावत् सत्कार करके सबके अन्तमें वह और उसकी पत्नी भोजन करे। यक्ष, राक्षस और भूतोंका पूजन सदा त्याग दे। जो श्रेष्ठ विप्र उनका पूजन करता है, वह निश्चय ही चाण्डाल हो जाता है। ब्रह्मराक्षस, वेताल, यक्ष तथा भूतोंका पूजन मनुष्योंके लिये महाघोर कुम्भीपाक नामक नरककी प्राप्ति करानेवाला है। यक्ष और भूत आदिके पूजनसे कोटि जन्मोंके किये हुए यज्ञ, दान और शुभ कर्म आदि पुण्य तत्काल नष्ट हो जाते हैं।” जो यक्षों, पिशाचों तथा तमोगुणी देवताओंको निवेदित किया हुआ अन्न खाता है, वह पीब और रक्त भोजन करनेवाला होता है। जो स्त्री यक्ष, पिशाच, सर्प और राक्षसोंकी पूजा करती है, वह नीचे मुँह किये घोर कालसूत्र नामक नरकमें गिरती है। अतः यक्ष आदि तामस देवताओंकी पूजा त्याग देनी चाहिये।

वैष्णव पुरुष विश्ववन्द्य भगवान् नारायणका पूजन करके उनके चारों ओर विराजमान देवताओंका पूजन करे भगवान्‌को भोग लगाये हुए अन्नमेंसे निकालकर उसीसे उनके लिये बलि निवेदन करे। भगवत्प्रसादसे ही उनके निमित्त होम भी करे। देवताओंके लिये भी भगवत्प्रसादस्वरूप हविष्यका ही हवन करे। पितरोंको ही प्रसाद अर्पण करे; इससे वह सब फल प्राप्त करता है। प्राणियोंको पीड़ा देना विद्वानोंकी दृष्टिमें नरकका कारण है। पार्वती ! मनुष्य दूसरोंकी वस्तुको जो बिना दिये ही ले लेता है, वह भी नरकका कारण है। अगम्या (परायी) स्त्रीके साथ संभोग, दूसरोंके धनका अपहरण तथा अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करनेसे तत्काल नरककी प्राप्ति होती है। जो अपनी विवाहिता पत्नीको छोड़कर दूसरी स्त्रीके साथ संभोग करता है, उसका वह कर्म ‘अगम्यागमन’ कहलाता है, जो तत्काल नरककी प्राप्तिका कारण है । पतित, पाखण्डी और पापी मनुष्योंके संसर्गसे मनुष्य अवश्य नरकमें पड़ता है। उनसे सम्पर्करखनेवालेका भी संसर्ग छोड़ देना चाहिये। एकान्ती पुरुष महापातकयुक्त ग्रामको छोड़ दे और परमैकान्ती मनुष्य वैसे देशका भी परित्याग कर दे। अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार कर्म, ज्ञान और भक्ति आदिका साधन वैष्णव साधन माना गया है। जो भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार कर्म, ज्ञान आदिका अनुष्ठान करता है, यह वासुदेवपरायण ब्राह्मण ‘एकान्ती’ कहलाता है। वैष्णव पुरुष निषिद्ध कर्मको मन-बुद्धिसे भी त्याग दे । एकान्ती पुरुष अपने धर्मको निन्दा करनेवाले शास्त्रको मनसे भी त्याग दे और परम एकान्ती भक्त हेव बुद्धिसे उसका परित्याग करे।

कर्म तीन प्रकारका माना गया है— नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इसी प्रकार मुनियोंने ज्ञानके भेदोंका भी वर्णन किया है – कृत्याकृत्यविवेक ज्ञान, परलोकचिन्तन ज्ञान, विष्णुप्राप्तिसाधन- ज्ञान तथा विष्णुस्वरूप ज्ञान- ये चार प्रकारके ज्ञान हैं। पार्वती नैमित्तिक कृल्पमें भगवान्‌का विशेषरूपसे विधिवत् पूजन करना चाहिये। कार्तिकमासमें प्रतिदिन चमेलीके फूलोंसे श्रीहरिकी पूजा करे, उन्हें अखण्ड दीप दे तथा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करे। फिर कार्तिकके अन्तमें ब्राह्मणोंको भोजन करावे, इससे वह श्रीहरिके सायुज्यको प्राप्त होता है। पौषमासमें सूर्योदयके पहले उठकर लगातार एक मासतक उत्पल तथा श्याम श्वेत कनेरपुष्पोंसे भगवान् विष्णुका पूजन करे। तत्पश्चात् यथाशक्ति धूप, दीप और नैवेद्य निवेदन करे। मासकी समाप्ति होनेपर श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे मनुष्य निश्चय ही एक हजार अश्वमेध यज्ञोंका फल प्राप्त करता है । माघमासमें सूर्योदय के समय विशेषतः नदीके जलमें स्नान करके उत्पल (कमल) के पुष्पोंसे माधवकी पूजा करनी चाहिये और उन्हें भक्तिपूर्वक घृतमिश्रित दिव्य खीरका भोग लगाना चाहिये। चैत्रमासमें वकुल (मौलसिरी) और चम्पाके फूलोंसे भगवान्की पूजा करके गुड़मिश्रित अन्नका भोग लगावे। तदनन्तर मासकी समाप्ति होनेपर एकाग्रचित्त हो वैष्णव ब्राह्मणको भोजन करावे। ऐसा करनेसे प्रतिदिन एक हजार वर्षोंकी पूजाका पुण्य प्राप्तहोता है। वैशाखमासमें शतपत्र और महोत्पलके पुष्पोंसे विधिवत् भगवान्का पूजन करके उन्हें दही, अन्न और फलके साथ गुड़ तथा जल भक्तिपूर्वक निवेदन करे । इससे लक्ष्मीसहित जगदीश्वर श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। ज्येष्ठमासमें श्वेत कमल, गुलाब, कुमुद और उत्पलके पुष्पोंसे भगवान् हृषीकेशका पूजन करके उन्हें आमके फलोंके साथ अन्न भोग लगावे । भक्तिपूर्वक ऐसा करनेसे मनुष्यको कोटि गोदानका फल प्राप्त होता है। फिर मासके अन्तमें वैष्णवोंको भोजन करानेसे सबका फल अनन्त हो जाता है। आषाढमासमें देवदेवेश्वर लक्ष्मीपतिको प्रतिदिन श्रीपुष्पोंसे पूजा करे और उन्हें खीरका भोग लगावे। फिर मासकी समाप्ति होनेपर उत्तम भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको भोजन करावे। ऐसा करनेसे वैष्णव पुरुष साठ हजार वर्षोंकी पूजाका फल पाता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। श्रावणमासमें नागकेसर और केवड़ेसे भक्तिपूर्वक श्रीविष्णुकी पूजा करनेसे मनुष्यका फिर इस लोकमें जन्म नहीं होता। उस समय भक्तिके साथ घी और शक्कर मिले हुए पूएका नैवेद्य निवेदन करे और श्रेष्ठ भगवद्भक्त ब्राह्मणोंको भोजन करावे भादोंमें कुन्द और कटसरैयाके फूलोंसे पूजा करके खीरका भोग लगावे आश्विनमें नीलकमलसे मधुसूदनकी पूजा करे और भक्तिके साथ उन्हें खीर-पूआ निवेदन करे इसी प्रकार कार्तिकमें कोमल तुलसीदलोंके द्वारा भक्तिपूर्वक अच्युतका पूजन करनेसे उनका सायुज्य प्राप्त होता है दूध, घी और शक्करको बनी हुई मिठाई, खीर और मालपुआ – इन्हें भक्तिपूर्वक एक-एक करके भगवान्‌को निवेदन करे।

अमावास्या तिथि, शनिवार, वैष्णवनक्षत्र (श्रवण), सूर्यसंक्रान्ति, व्यतीपात, चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् विष्णुका विशेषरूपसे पूजन करे। श्रेष्ठ द्विजको उचित है कि गुरुके उत्क्रमणके दिन तथा श्रीहरिके अवतारोंके जन्म-नक्षत्रोंमें अपनी शक्तिके अनुसार वैष्णव-याग करे उसमें वेदमन्त्रोंका उच्चारण करके प्रत्येक ऋचाके साथ भगवान्‌को पुष्पांजलि समर्पण करे। यथाशक्ति वैष्णव ब्राह्मणोंको भोजन करावे और दक्षिणा दे। ऐसा करनेसे वह अपनी करोड़ोंपीढ़ियोंका उद्धार करके वैष्णवपद (वैकुण्ठधाम ) – को प्राप्त होता है। श्रेष्ठ वैष्णव यदि सम्पूर्ण वेदोंके द्वारा भगवान्का यजन करनेमें असमर्थ हो तो केवल वैष्णव अनुवाकद्वारा लगातार सात राततक प्रतिदिन एक सहस्र पुष्पांजलि समर्पण करे और हविष्यसे हवन करके भगवान्‌का यजन करे। विद्वान् पुरुष विशेषतः श्रेष्ठ भगवद्भक्तोंका पूजन करे। यज्ञान्तमें अपने वैभवके अनुसार अवभृथस्नानका उत्सव करे। अवभृथस्नान भी उसे वैष्णव अनुवाकोंद्वारा ही करना चाहिये विधिपूर्वक स्नान करके एक सुन्दर पात्रमें आचार्यके चरणोंको भक्तिपूर्वक पखारे । फिर गन्ध, पुष्प, वस्त्र और आभूषण आदिके द्वारा पूजा करे यथाशक्ति ताम्बूल और फूलोंसे सत्कार करे और अन्न-पान आदिसे भोजन कराकरबारंबार प्रणाम करे। जाते समय गाँवकी सीमातक पहुँचाने जाय और वहाँ प्रणाम करके उन्हें विदा करे। इस प्रकार जीवनभर आलस्य छोड़कर भगवान् और उनके भक्तोंका विशेषरूपसे पूजन करना चाहिये। समस्त आराधनाओंमें श्रीविष्णुकी आराधना सबसे श्रेष्ठ है। उससे भी उनके भक्तोंकी पूजा करनी अधिक श्रेष्ठ है। जो भगवान् गोविन्दकी पूजा करके उनके भक्तोंका पूजन नहीं करता, उसे भगवद्भक्त नहीं जानना चाहिये । वह केवल दम्भी है। अत: सर्वथा प्रयत्न करके श्रीविष्णुभक्तका पूजन करना चाहिये। उनके पूजनसे मनुष्य समस्त दुःखराशिके पार हो जाता है। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीविष्णुकी श्रेष्ठ आराधना, नित्य-नैमित्तिक कृत्य तथा भगवद्भक्तोंकी पूजाका वर्णन किया है।

अध्याय 265 श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य

पार्वतीजीने कहा- नाथ! आपने उत्तम वैष्णवधर्मका भलीभाँति वर्णन किया। वास्तवमें परमात्मा श्रीविष्णुका स्वरूप गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय है। सर्वदेववन्दित महेश्वर मैं आपके प्रसादसे धन्य और कृतकृत्य हो गयी। अब मैं भी सनातन देव श्रीहरिका पूजन करूँगी।

महादेवजी बोले- देवि ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा! तुम सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् लक्ष्मीपतिका पूजन अवश्य करो। भद्रे ! मैं तुम जैसी वैष्णवी पत्नीको पाकर अपनेको कृतकृत्य मानता हूँ।

वसिष्ठजी कहते है-तदनन्तर वामदेवजीके उपदेशानुसार पार्वतीजी प्रतिदिन श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करनेके पश्चात् भोजन करने लगीं। एक दिन परम मनोहर कैलासशिखरपर भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना करके भगवान् शंकरने पार्वतीदेवीको अपने साथ भोजन करनेके लिये बुलाया। तब पार्वतीदेवीने कहा- ‘प्रभो! मैं श्रीविष्णुसहस्रनामका पाठ करनेके पश्चात् भोजन करूँगी, तबतक आप भोजन कर लें।’ यह सुनकर महादेवजीने हँसते हुए कहा- ‘पार्वती ! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा हो; क्योंकि भगवान् विष्णुमें तुम्हारी भक्ति है।देवि! भाग्यके बिना श्रीविष्णुभक्तिका प्राप्त होना बहुत कठिन है। सुमुखि ! मैं तो ‘राम ! राम! राम !’ इस प्रकार जप करते हुए परम मनोहर श्रीराम- नाममें ही निरन्तर रमण किया करता हूँ। राम नाम सम्पूर्ण सहस्रनामके समान है। पार्वती! रकारादि जितने नाम हैं, उन्हें सुनकर राम-नामकी आशंकासे मेरा मन प्रसन्न हो जाता है।* अतः महादेवि! तुम राम नामका उच्चारण करके इस समय मेरे साथ भोजन करो।’

यह सुनकर पार्वतीजीने राम-नामका उच्चारण करके भगवान् शंकरके साथ बैठकर भोजन किया। इसके बाद उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर पूछा- ‘देवेश्वर ! आपने राम-नामको सम्पूर्ण सहस्रनामके तुल्य बतलाया है। यह सुनकर राम- नाममें मेरी बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः भगवान् श्रीरामके यदि और भी नाम हों तो बताइये ।’

महादेवजी बोले- पार्वती! सुनो, मैं श्रीरामचन्द्रजीके नामोंका वर्णन करता हूँ। लौकिक और वैदिक जितने भी शब्द हैं, वे सब श्रीरामचन्द्रजीके ही नाम हैं, किन्तु सहस्रनाम उन सबमें अधिक है और उन सहस्रनामोंमें भी श्रीरामके एक सौ आठ नामोंकी प्रधानता अधिक है। श्रीविष्णुका एक-एक नाम ही सब वेदोंसे अधिकमाना गया है। वैसे ही एक हजार नामोंके समान अकेला म श्रीराम-नाम माना गया है। पार्वती। जो सम्पूर्ण मन्त्रों और समस्त वेदोंका जप करता है, उसकी अपेक्षा कोटिगुना पुण्य केवल राम-नामसे उपलब्ध होता है।” शुभे! अब श्रीरामके उन मुख्य नामोंका वर्णन सुनो, जिनका महर्षियोंने गान किया है। 1 ॐ श्रीरामः जिनमें योगीजन रमण करते हैं, ऐसे सच्चिदानन्दघनस्वरूप श्रीराम अथवा सीतासहित राम 2 रामचन्द्रः चन्द्रमाके समान आनन्ददायी एवं मनोहर राम। 3 रामभद्र: कल्याणमय राम । 4 शाश्वतः सनातन भगवान्। 5 राजीवलोचन: कमलके समान नेत्रोंवाले। 6 श्रीमान् राजेन्द्रः – श्रीसम्पन्न राजाओंके भी राजा, चक्रवर्ती सम्राट् । 7 रघुपुङ्गवः रघुकुलमें सर्वश्रेष्ठ । 8 जानकीवल्लभः – जनककिशोरी सीतके प्रियतम 9 जैत्रः- विजयशील 10 जितामित्रः शत्रुओं जीतनेवाले। 11 जनार्दनः- सम्पूर्ण मनुष्योंद्वारा करने योग्य। 12 विश्वामित्रप्रियः विश्वामित्रजीके प्रियतम । 13 दान्तः – जितेन्द्रिय । शरणागतोंकी रक्षामें संलग्न । याचना 14 शरण्यत्राणतत्परः – – 15 वालिप्रमथनः – वालि नामक वानरको मारनेवाले। 16 वाग्मी – अच्छे वक्ता । 17 सत्यवाक्- सत्यवादी । 18 सत्यविक्रमः – सत्यपराक्रमी । 19 सत्यव्रतः सत्यका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले। 20 व्रतफल: सम्पूर्ण व्रतोंके प्राप्त होनेयोग्य फलस्वरूप। 21 सदा हनुमदाश्रयः – निरन्तर हनुमान्जीके आश्रय अथवा हनुमानजीके हृदयकमलमें सदा निवास करनेवाले। 22 कौसलेयः – कौसल्याजीके पुत्र 23 खरध्वंसी खर नामक राक्षसका नाश करनेवाले। 24 विराधवध पण्डितः – विराध नामक दैत्यका वध करनेमें कुशल 25 विभीषणपरित्राता विभीषणके रक्षक। 26 दशग्रीवशिरोहर: – दशशीश रावणके मस्तक काटनेवाले। 27 सप्ततालप्रभेत्ता-सात तालवृक्षोंको 28 एक ही वाणसे बींध डालनेवाले। हरकोदण्डखण्डनः – जनकपुरमें शिवजीके धनुषको तोड़नेवाले। 29 जामदग्न्यमहादर्पदलनः – परशुरामजीके |महान् अभिमानको चूर्ण करनेवाले 30 ताडकान्तकृत् ताड़का नामवाली राक्षसीका वध करनेवाले। 31 वेदान्तपारः वेदान्तके पारंगत विद्वान् अथवा वेदान्तसे भी अतीत 32 वेदात्मा वेदस्वरूप] [33] भवबन्धैकभेषजः – संसारबन्धनसे मुक्त करनेके लिये एकमात्र औषधरूप 34 दूषणत्रिशिरोऽरि:- दूषण और त्रिशिरा नामक राक्षसोंके शत्रु 35 त्रिमूर्तिः ब्रह्मा, विष्णु और शिव-तीन रूप धारण करनेवाले। 36 त्रिगुणः – त्रिगुणस्वरूप अथवा तीनों गुणोंके आश्रय 37 त्रयी – तीन वेदस्वरूप । 38 त्रिविक्रमः- वामन अवतारमें तीन पगोंसे समस्त त्रिलोकीको नाप लेनेवाले। 39 त्रिलोकात्मा – तीनों लोकोंके आत्मा 40 पुण्यचारित्रकीर्तनः – जिनकी लीलाओंका कीर्तन परम पवित्र है, ऐसे 41 त्रिलोकरक्षकः – तीनों लोकोंकी रक्षा करनेवाले 42 धन्वी- धनुष धारण करनेवाले 43 दण्डकारण्यवासकृत् – दण्डकारण्यमें निवास करनेवाले। 44 अहल्यापावनः – अहल्याको पवित्र करनेवाले 45 पितृभक्तः पिताके भक्त 46 वरप्रदः – वर देनेवाले। 47 जितेन्द्रियः- इन्द्रियाँको काबू रखनेवाले 48 जितक्रोधः क्रोधको जीतनेवाले। 49 जितलोभः – लोभकी वृत्तिको परास्त करनेवाले। 50 जगद्गुरुः- अपने आदर्श चरित्रोंसे सम्पूर्ण जगत्को शिक्षा देनेके कारण सबके गुरु। 51 प्रक्षवानरसंघाती वानर और भालुओंकी सेनाका संगठन करनेवाले । 52 चित्रकूट- समाश्रयः – वनवासके समय चित्रकूटपर्वतपर निवास करनेवाले। 53 जयन्तत्राणवरदः – जयन्तके प्राणोंकी रक्षा करके उसे वर देनेवाले। 54 सुमित्रापुत्र सेवितः – सुमित्रानन्दन लक्ष्मणके द्वारा सेवित 55 सर्वदेवाधिदेवः – सम्पूर्ण देवताओंके भी अधिदेवता 56 मृतवानरजीवन: मरे हुए वानरोंको जीवित करनेवाले 57 मायामारीचहन्ता मायामय मृगका रूप धारण करके आये हुए मारीच नामक राक्षसका वध करनेवाले। 58 महाभागः – महान् सौभाग्यशाली। 59 महाभुज:- बड़ी-बड़ी बाँहोंवाले। 60 सर्वदेवस्तुतः – सम्पूर्ण देवता जिनकी स्तुति करते हैं,ऐसे 61 सौम्यः शान्तस्वभाव। 62 ब्रह्मण्यः ब्राह्मणोंके हितैषी 63 मुनिसत्तम:-मुनियोंमें श्रेष्ठ । 64 महायोगी – सम्पूर्ण योगोंके अधिष्ठान होनेके कारण महान् योगी 65 महोदारः – परम उदार 66 सुग्रीवस्थिरराज्यदः सुधीको स्थिर राज्य प्रदान करनेवाले। 67 सर्वपुण्याधिकफल:- समस्त पुण्योंके उत्कृष्ट फलरूप। 68 स्मृतसर्वाघनाशनः– स्मरण करनेमात्रसे ही सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाले 69 आदिपुरुषः – ब्रह्माजीको भी उत्पन्न करनेके कारण सबके आदिभूत अन्तर्यामी परमात्मा । 70 महापुरुषः- समस्त पुरुषोंमें महान्। 71 परमः पुरुषः- सर्वोत्कृष्ट पुरुष 72 पुण्योदयः पुण्यको प्रकट करनेवाले 73 महासारः सर्वश्रेष्ठ सारभूत परमात्मा 74 पुराणपुरुषोत्तमः – पुराणप्रसिद्ध क्षर-अक्षर पुरुषोंसे श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम । 75 स्मितवक्त्रः – जिनके मुखपर सदा मुसकानकी छटा छायी रहती है, ऐसे 76 मितभाषी कम बोलनेवाले । 77 पूर्वभाषी – पूर्ववक्ता । 78 राघवः- रघुकुलमें अवतीर्ण 79 अनन्तगुण-गम्भीर: अनन्त कल्याणमय गुणोंसे युक्त एवं गम्भीर। 80 धीरोदात्तगुणोत्तरः ? – धीरोदात्त नायकके लोकोत्तर गुणोंसे युक्त । 81 मायामानुषचारित्रः – अपनी मायाका आश्रय लेकर मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करनेवाले। 82 महादेवाभिपूजितः भगवान् शंकरके द्वारा निरन्तर पूजित। 83 सेतुकृत् – समुद्रपर पुल बाँधनेवाले। 84 जितवारीशः – समुद्रको जीतनेवाले। 85 सर्वतीर्थमयः सर्वतीर्थस्वरूप। 86 हरिः पाप तापको हरनेवाले 87 श्यामाङ्गः श्याम विग्रहवाले 88सुन्दरः परम मनोहर 89 शूरः- अनुपम शीर्यये सम्पन्न वीर। 90 पीतवासाः – पीताम्बरधारी । 91 धनुर्धरः धनुष धारण करनेवाले। 92 सर्वयज्ञाधिपः सम्पूर्ण यज्ञोंके स्वामी । 93 यज्ञः – यज्ञस्वरूप। 94 जरामरणवर्जितः बुढ़ापा और मृत्युसे रहित। 95 शिवलिङ्गप्रतिष्ठाता रामेश्वर नामक ज्योतिलिंगकी स्थापना करनेवाले । 96 सर्वाघगणवर्जितः – समस्त पापराशिसे रहित । 97 परमात्मा परम श्रेष्ठ, नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव। 98 परं ब्रह्म- सर्वोत्कृष्ट, सर्वव्यापी एवं सर्वाधिष्ठान परमेश्वर 99 सच्चिदानन्दविग्रहः – सत्, चित् और आनन्द ही जिनके स्वरूपका निर्देश करानेवाला है, ऐसे परमात्मा अथवा सच्चिदानन्दमय दिव्यविग्रह 100 परं ज्योति: परम प्रकाशमय, परम ज्ञानमय। 101 परं धाम सर्वोत्कृष्ट तेज अथवा साकेतधामस्वरूप । 102 पराकाशः – त्रिपाद विभूतिमें स्थित परमव्योम नामक वैकुण्ठधामरूप, महाकाशस्वरूप ब्रह्म । 103 परात्परः पर इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिसे भी परे परमेश्वर। 104 परेशः – सर्वोत्कृष्ट शासक। 105 पारगः सबको पार लगानेवाले अथवा मायामय जगत्की सीमासे बाहर रहनेवाले। 106 पार:- सबसे परे विद्यमान अथवा भवसागरसे पार जानेकी इच्छा रखनेवाले प्राणियों के प्राप्तव्य परमात्मा 107 सर्वभूतात्मकः सर्वभूतस्वरूप। 108 शिवः – परम कल्याणमय- ये श्रीरामचन्द्रजीके एक सौ आठ नाम है। देवि! ये नाम गोपनीयसे भी गोपनीय हैं; किन्तु स्नेहवश मैंने इन्हें तुम्हारे सामने प्रकाशित किया है।जो भक्तियुक्त चित्तसे इन नामका पाठ या श्रवण करता है, वह सौ कोटि कल्पोंमें किये हुए समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है। पार्वती ! इन नामोंका भक्तिभावसे पाठ करनेवाले मनुष्योंके लिये जल भी हो जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाते हैं, राजा दास हो जाते हैं, जलती हुई आग शान्त हो जाती है, समस्त प्राणी अनुकूल हो जाते हैं, चंचल लक्ष्मी भी स्थिर हो जाती है, ग्रह अनुग्रह करने लगते हैं तथा समस्त उपद्रव शान्त हो जाते हैं। जो भक्तिपूर्वक इन नामोंका पाठ करता है, तीनों लोकके प्राणी उसके वशमें हो जाते हैं तथा वह मनमें जो-जो कामना करता है, वह सब इन नामोंके कीर्तनसे पा लेता है। जो दूर्वादलके समान श्यामसुन्दर कमलनयन, पीताम्बरधारी भगवान् श्रीरामका इन दिव्य नामोंसे स्तवन करते हैं, वे मनुष्य कभी संसार – बन्धनमें नहीं पड़ते। राम, रामभद्र, रामचन्द्र, वेधा, रघुनाथ, नाथ एवं सीतापतिको नमस्कार है। * देवि! केवल इस मन्त्रका भी जो दिन-रात जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो श्रीविष्णुका सायुज्य प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मैंने तुम्हारे प्रेमवश भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकेवेदानुमोदित माहात्म्यका वर्णन किया है। यह परम कल्याणकारक है।

वसिष्ठजी कहते हैं- भगवान् शंकरके द्वारा कहे हुए परमात्मा श्रीरामचन्द्रजीके माहात्म्यको सुनकर पार्वती देवी ‘रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीतायाः पतये नमः ॥’ इस मन्त्रका ही सदा -सब अवस्थाओंमें जप करती हुई कैलासमें अपने पतिके साथ सुखपूर्वक रहने लगीं। राजा दिलीप ! यह मैंने तुमसे परम गोपनीय विषयका वर्णन किया है। जो भक्तियुक्त हृदयसे इस प्रसंगका पाठ या श्रवण करता है, वह सबका वन्दनीय, सब तत्त्वोंका ज्ञाता और महान् भगवद्भक्त होता है। इतना ही नहीं, वह समस्त कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो परमपदको प्राप्त कर लेता है। राजन् ! तुम इस संसारमें धन्य हो; क्योंकि तुम्हारे ही कुलमें पुराणपुरुषोत्तम श्रीहरि सब लोकोंका हित करनेके लिये दशरथनन्दनके रूपमें अवतार लेंगे। अतः इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय देवताओंके लिये भी पूजनीय होते हैं; क्योंकि उनके कुलमें राजीवलोचन भगवान् श्रीरामका अवतार होता है।

अध्याय 266 त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार

वसिष्ठजी कहते हैं—पूर्वकालकी बात है स्वायम्भुव मनु परम उत्तम एवं दीर्घकालतक चालू रहनेवाले यज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये मुनियोंके साथ मन्दराचल पर्वतपर गये। उस यज्ञमें कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले, अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता, बालसूर्य एवं अग्निके समान तेजस्वी, समस्त वेदोंके विद्वान् तथा सबधर्मोके अनुष्ठानमें तत्पर रहनेवाले मुनि पधारे थे। वह महायज्ञ जब आरम्भ हुआ तो पापरहित मुनि, देवता तत्त्वका अनुसन्धान करनेके लिये परस्पर बोले ‘वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके लिये कौन देवता सर्वश्रेष्ठ एवं पूज्य है ? ब्रह्मा, विष्णु और शिवमेंसे किसकी अधिक स्तुति हुई है ? किसका चरणोदक सेवन करनेयोग्य है ?किसको भोग लगाया हुआ प्रसाद परम पावन है? कौन अविनाशी परमधामस्वरूप एवं सनातन परमात्मा है ? किसके प्रसाद और चरणोदक पितरोंको तृप्ति प्रदान करनेवाले होते हैं?’

वहाँ बैठे हुए महर्षियोंमें इस विषयपर महान् वाद विवाद हुआ। किन्हीं महर्षियोंने केवल रुद्रको सर्वश्रेष्ठ बतलाया। कोई कहने लगे-ब्रह्माजी ही पूजनीय हैं। कुछ लोगोंने कहा- सूर्य ही सब जीवोंके पूजनीय हैं तथा कुछ दूसरे ब्राह्मणोंने अपनी सम्मति इस प्रकार प्रकट की-आदि-अन्तसे रहित भगवान् विष्णु ही परमेश्वर हैं। वे ही सब देवताओं में श्रेष्ठ एवं पूजन करनेके योग्य हैं। इस प्रकार विवाद करते हुए महर्षियोंसे स्वायम्भुव मनुने कहा- ‘वे जो शुद्ध सत्त्वमय, कल्याणमय गुणोंसे युक्त, कमलके समान नेत्रोंवाले, श्रीदेवीके स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम हैं एकमात्र वे ही वेदवेत्ता ब्राह्मणोंद्वारा पूजित हैं।’

मनुकी यह बात सुनकर सब महर्षियोंने हाथ जोड़कर तपोनिधि भृगुजीसे कहा- ‘सुव्रत! आप ही हमलोगोंका सन्देह दूर करनेमें समर्थ हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव – तीनों देवताओंके पास जाइये।’ उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ भृगु तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये। भगवान् शंकरके गृहद्वारपर पहुँचकर उन्होंने देखा – महाभयंकर रूपवाले नन्दी हाथमें त्रिशूल लिये खड़े हैं। भृगुजीने उनसे कहा- ‘मेरा नाम भृगु है, मैं ब्राह्मण हूँ और देवश्रेष्ठ महादेवजीका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ। आप भगवान् शंकरको शीघ्र ही मेरे आनेकी सूचना दें।’ यह सुनकर समस्त शिवगणोंके स्वामी नन्दीने उन अमिततेजस्वी महर्षिसे कठोर वाणीमें कहा- ‘अरे! इस समय भगवान्‌के पास तुम नहीं पहुँच सकते। अभी भगवान् शंकर देवीके साथ क्रीड़ाभवन हैं। यदि जीवित रहना चाहते हो तो सीट जाओ लौट जाओ।”

तब भृगुने कुपित होकर कहा-‘ये रुद्र तमोगुणसे युक्त होकर अपने द्वारपर आये हुए मुझ ब्राह्मणको नहीं जानते हैं। इसलिये इन्हें दिया हुआ अन्न, जल, फूल, हविष्य तथा निर्माल्य – सब कुछ अभक्ष्य हो जायगा।’ इस प्रकार भगवान् शिवको शाप देकर भृगु ब्रह्मलोकमेंगये। वहाँ ब्रह्माजी सब देवताओंके साथ बैठे हुए थे। उन्हें देख भृगुजीने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और चुपचाप वे उनके सामने खड़े रहे। किन्तु ब्रह्माजीने उन मुनिश्रेष्ठको आया हुआ देखकर भी उनका कुछ सत्कार नहीं किया। उनसे प्रिय वचनतक नहीं कहा। 1 उस समय ब्रह्माजी कमलके आसनपर महान् ऐश्वर्यके साथ बैठे हुए थे। तब महातेजस्वी महर्षिने लोक पितामह ब्रह्मसे कहा- आप महान् रजोगुणसे युक्त होकर मेरी अवहेलना कर रहे हैं, इसलिये आज समस्त संसारके लिये आप अपूज्य हो जायँगे।’

लोकपूजित महात्मा ब्रह्माजीको ऐसा शाप देकर महर्षि भृगु सहसा क्षीरसागरके उत्तर तटपर श्रीविष्णुके लोकमें गये। वहाँ जो महात्मा पुरुष रहते थे, उन्होंने भृगुजीका यथायोग्य सत्कार किया उस लोकमें कहाँ भी उनके लिये रोक-टोक नहीं हुई। वे भगवान् के अन्तः पुरमें बेधड़क चले गये। वहाँ उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी विमल विमानमें शेषनागकी शय्यापर सोये हुए भगवान् लक्ष्मीपतिको देखा। लक्ष्मी अपने करकमलोंसे भगवान्के दोनों चरणोंकी सेवा कर रही थीं उन्हें देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगु अकारण कुपित हो उठे और उन्होंने भगवान्‌के शोभायमान वक्षःस्थलपर अपने बायें चरणसे प्रहार किया। भगवान् तुरंत उठ बैठे और प्रसन्नतापूर्वक बोले-‘आज मैं धन्य हो गया।’ ऐसा कहकर वे हर्षके साथ अपने दो हाथोंसे महर्षिके चरण दबाने लगे। धीरे-धीरे चरण दबाकर उन्होंने मधुर वाणीमें कहा-‘ ब्रह्मर्षे ! आज मैं धन्य और कृतकृत्य हो गया मेरे शरीरमें आपके चरणोंका स्पर्श होनेसे मेरा बड़ा मंगल होगा। जो समस्त सम्पत्तिकी प्राप्तिके कारण तथा अपार संसारसागरसे पार होनेके लिये सेतुके समान हैं, वे ब्राह्मणोंकी चरणधूलियाँ मुझे सदा पवित्र करती रहें।’

ऐसा कहकर भगवान् जनार्दनने लक्ष्मीदेवीके साथ सहसा उठकर दिव्य माला और चन्दन आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक भृगुजीका पूजन किया। उनको इस रूपये देखकर मुनिश्रेष्ठ भृगुजीके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने आसनसे उठकर करुणासागर भगवान्‌को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा- ‘अहो ! श्रीहरिकाकितना मनोहर रूप है, कैसी शान्ति है, कैसा ज्ञान है, कितनी दया है, कैसी निर्मल क्षमा और कितना पावन सत्त्वगुण है। भगवन्! आप गुणके समुद्र हैं। आपमें ही स्वाभाविक रूपसे कल्याणमय सत्त्वगुणका निवास है। आप ही ब्राह्मणोंके हितैषी, शरणागतोंके रक्षक और पुरुषोत्तम हैं। आपका चरणोदक पितरों, देवताओं तथा सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके लिये सेव्य है। यह पापका नाशक और मुक्तिका दाता है। भगवन्! आपहीका भोग लगा हुआ प्रसाद देवता पितर और ब्राह्मण-सबके सेवन करनेयोग्य है। इसलिये ब्राह्मणको उचित है कि वह प्रतिदिन आप सनातन पुरुषका पूजन करके आपका चरणोदक ले और आपके भोग लगाये हुए प्रसादस्वरूप अन्नका भोजन करे। प्रभो! जो आपको निवेदित किये हुए अन्नका हवन या दान करता है, वह देवताओं और पितरोंको तृप्त करता तथा अक्षय फलका भागी होता है। अतः आप ही ब्राह्मणोंके पूजनीय हैं।

आप सम्पूर्ण देवताओंमें ब्राह्मणत्वको प्राप्त हों; क्योंकि आप ब्राह्मणोंके पूज्य और शुद्ध सत्त्वगुणसे सम्पन्न हैं। ब्राह्मणलोग सदा आप पुरुषोत्तमका ही भजन करते हैं। जो आपका पूजन करते हैं, वे ही विप्र वास्तवमें ब्राह्मण हैं, दूसरे नहीं। इस विषयमें सन्देहके लिये स्थान नहीं है। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणोंके हितैषी हैं। श्रीमधुसूदन ब्राह्मणोंके हितचिन्तक हैं। श्रीपुण्डरीकाक्ष ब्राह्मणोंके प्रेमी हैं। अविनाशी भगवान् विष्णु ब्राह्मणहितैषी हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान्वासुदेव एवं अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ब्राह्मणोंके हितकारक हैं। भगवान् नृसिंह तथा अविनाशी नारायण भी ब्राह्मणोंपर कृपा करनेवाले हैं। श्रीधर, श्रीश, गोविन्द एवं वामन आदि नामोंसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीहरि ब्राह्मणोंपर स्नेह रखते हैं। यज्ञवाराह रूपधारी पुरुषोत्तम भगवान् केशव ब्राह्मणोंका कल्याण करनेवाले हैं। रघुकुलभूषण राजीवलोचन श्रीरामचन्द्रजी भी ब्राह्मणोंके सुहृद् हैं। भगवान् पद्मनाभ तथा दामोदर (श्रीकृष्ण) भी ब्राह्मणोंका हित चाहनेवाले हैं। माधव, यज्ञपुरुष एवं भगवान् त्रिविक्रम भी ब्राह्मणहितैषी हैं। पीताम्बरधारी हृषीकेश श्रीजनार्दन ब्राह्मणोंके हितकारी हैं। शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले ब्राह्मणहितैषी देवता श्रीवासुदेवको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले लक्ष्मीपति श्रीनारायणको नमस्कार है। ब्राह्मणहितैषी देवता सर्वव्यापी वासुदेवको नमस्कार है कल्याणमय गुणोंसे परिपूर्ण, सृष्टि, पालन और संहारके कारणरूप आप परमात्माको नमस्कार है। ब्राह्मणोंके हितैषी देवता प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा संकर्षणको नमस्कार है। शेषनागकी शय्या पर शयन करनेवाले ब्रह्मण्यदेव भगवान् विष्णुको नमस्कार है। कमलके समान नेत्रोंवाले श्रीरघुनाथजीको बारंबार नमस्कार है। प्रभो! सम्पूर्ण देवता और ऋषि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी आप परमात्माको नहीं जानते। भगवन्। सम्पूर्ण वेदोंके विद्वान् भी आपके तत्त्वको नहीं जानते। भगवन्! मैं महर्षियोंके भेजनेपर आपके पास आयाहै। आपके शील और गुणोंका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये ही मैंने आपकी छातीपर पैर रखा है। गोविन्द ! कृपानिधे मेरे इस अपराधको क्षमा करें।’

ऐसा कहकर महर्षि भृगुने वारंवार भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया। भगवान्‌के धाममें रहनेवाले दिव्य महर्षियोंने भृगुजीका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। वहाँसे प्रसन्नचित्त होकर वे यज्ञमें महर्षियोंके पास लौट आये। उन्हें आया देख महर्षियोंने उठकर नमस्कार किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा की। तत्पश्चात् मुनिश्रेष्ठ भृगुने उन महर्षियोंसे सब बातें बतायीं। उन्होंने कहा- ‘ब्रह्माजीमें रजोगुणका आधिक्य है और रुद्रमें तमोगुणका केवल भगवान् विष्णु शुद्ध सत्त्वमय हैं। वे कल्याणमय गुणोंके सागर, नारायण, परब्रह्म तथा सम्पूर्ण ब्राह्मणोंके देवता है। वे ही वित्रोंके लिये पूजनीय हैं। उनके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। उनका चरणोदक तथा भोग लगाया हुआ प्रसाद समस्त मनुष्यों और विशेषतः ब्राह्मणोंके सेवन करनेयोग्य, परमपावन तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। भगवान् विष्णुको निवेदन किये हुए हविष्यका ही देवताओंके लिये हवन करे और वही पितरोंको भी दे। वह सब अक्षय होता है। अतः द्विजवरो! तुम आलस्य छोड़कर जीवनभर भगवान् विष्णुका पूजन करो। वे ही परम धाम हैं और वे ही सत्य ज्योति । अष्टाक्षर मन्त्रके द्वारा विधिपूर्वक पुरुषोत्तमका पूजन और उनके प्रसादका सेवन करना चाहिये। श्रीविष्णु ही सब यज्ञोंके भोक्ता परमेश्वर हैं- ऐसा जानकर उन्होंके उद्देश्यसे सदा हवन, दान और जप करे।वसिष्ठजी कहते हैं- भृगुजीके ऐसा कहनेपर समस्त निष्पाप महर्षियोंने उन्हें नमस्कार किया और उन्हींसे मन्त्रकी दीक्षा ले भगवान् विष्णुका पूजन किया। राजन्! ये सब बातें मैंने प्रसंगवश तुम्हें बतलायी है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजी सब देवताओंमें पावन एवं पुरुषोत्तम हैं। अतः यदि तुम परम पदको प्राप्त करना चाहते हो तो उन श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जाओ। राजन्! यह समस्त पुराण वेदके तुल्य है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें साक्षात् ब्रह्माजीने इसका उपदेश किया था। जो प्रतिदिन एकाग्रचित्त हो इसका श्रवण अथवा पाठ करता है, उसकी भगवान् लक्ष्मीपतिमें अनन्य भक्ति होती है। वह विद्यार्थी हो तो विद्या, धर्मार्थी हो तो धर्म, मोक्षार्थी हो तो मोक्ष और कामार्थी हो तो सुख पाता है। द्वादशी तिथिको, श्रवण नक्षत्रमें सूर्य और चन्द्रमाके ग्रहणके अवसरपर, अमावास्या तथा पूर्णिमाको इसका भक्तिपूर्वक पाठ करना चाहिये। जो एकाग्रचित्त हो प्रतिदिन इसके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ करता है वह निश्चय ही एक हजार अश्वमेधयज्ञका फल पाता है। इस प्रकार यह परम गुह्य पद्मपुराण कहा गया। यदि परम पदकी प्राप्ति चाहते हो तो सदा भगवान् हृषीकेशकी आराधना करो।

सूतजी कहते हैं- अपने गुरु वसिष्ठजीके ऐसा कहनेपर नृपश्रेष्ठ राजा दिलीपने उनको प्रणाम किया और यथायोग्य पूजा करके उनसे विधिपूर्वक विष्णुमन्त्रकी दीक्षा ली। फिर आलस्यरहित हो उन्होंने जीवनभर श्रीहृषीकेशकी आराधना करके समयानुसार योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन विष्णुधामको प्राप्त कर लिया।

अध्याय 267

अध्याय 268

अध्याय 269