- अध्याय- 69 कंडु मुनी का चरित्र और मुनी पर भगवान पुरुषोतम की कृपा
- अध्याय- 70 मुनियों का भगवान के अवतार के सम्बन्ध में प्रश्न श्री व्यास जी द्वारा उसका उत्तर
- अध्याय- 71 भगवान के अवतार का उपक्रम
- अध्याय- 72 भगवान अवतार, गोकुल गमन, पूतना वध, शकट भज्जन, यमला-अर्जुन उद्दार, गोपों का वृदावन गमन, बलराम और श्री कृष्ण का बछड़े चराना
- अध्याय- 73 कालिय नागका दमन
- अध्याय- 74 धेनुक और प्रलम्बका वध तथा गिरियज्ञका अनुष्ठान
- अध्याय- 75 इंद्रके द्वारा भगवानका अभिषेक, श्रीकृष्ण और गोपोंकी बातचीत रासलीला और अरिष्टासुरका वध
- अध्याय- 76 कंसका अक्रूरको नन्द गाव जानेका आज्ञा देना और केशीका वध तथा भगवानके पास नारदका आगवन
- अध्याय- 77 अक्रूरका नन्दगांवमें जाना, श्रीराम-कृष्णकी मथुरा यात्रा, गोपियोंकी कथा, अक्रूरको यमुनामें भगवानदर्शन, उनके द्वारा भगवानकी स्तुती, मथुरा-प्रवेश, रजक-वध और मालीपर कृपा
- अध्याय- 78 कुब्जापर कृपा, कुवलयापीड, चाणूर, मुष्टिक, तोशल और कंसका वध तथा वासुदेवद्वारा भगवानका स्तवन
- अध्याय- 79 भगवान् की माता-पितासे भेट, उग्रसेनका राजयभिषेक, श्रीकृष्ण-बलरामका विधाध्ययन, गुरुपुत्रको यमपुरसे लाना, जरासंधकी पराजय, कालयवनका संहार तथा मुचुकुन्दद्वारा भगवानका स्तवन
- अध्याय- 80 बलरामजीकी व्रज यात्रा, श्रीकृष्णद्वारा रुकमणी हरण तथा प्रधुम्नके द्वारा शम्बरासुरका वध
- अध्याय- 81 श्रीकृष्णकी संतति, अनिरुद्धके विवाहमें रुक्मीका वध, भौमासुरका वध, पारिजात-हरण तथा इंद्रकी पराजय
- अध्याय- 82 शभगवान श्रीकृष्णका सोलह हजार स्त्रियोंसे विवाह और उनकी संतति तथा उषाका अनिरुद्धके साथ विवाह
- अध्याय- 83 पौंड्रकका वध और बलरामजीके द्वारा हस्तिनापुरका आकर्षण
- अध्याय- 84 पौंड्रकका वध और बलरामजीके द्वारा हस्तिनापुरका आकर्षण
- अध्याय- 85 श्रीहरीके अनेक अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
- अध्याय- 86 यमलोक के मार्ग और चारों द्वारों का वर्णन
- अध्याय- 87 यमलोक के दक्षिण द्वार तथा नारको का वर्णन
- अध्याय- 88 धर्म से यमलोक में सुख पूर्वक गति भगवत भक्ति के प्रभाव का वर्णन
- अध्याय- 89 धर्म की महिमा एवं अधर्म की गति का निरूपण अन्न दान का माहात्म्य
- अध्याय- 90 श्राद्ध-कल्पका वर्णन
- अध्याय- 91 गृहस्थोचित सदाचार तथा कर्तव्याकर्तव्यका वर्णन
- अध्याय- 92 वर्ण और आश्रमोंके धर्मका निरूपण
- अध्याय- 93 उच्च वर्णकी अधोगति और नीच वर्णकी उर्ध्वगतिका कारण
- अध्याय- 94 स्वर्ग और नरकमें ले जानेवाले धर्माधर्मका निरूपण
- अध्याय- 95 भगवान वासुदेव का माहात्म्य
- अध्याय- 96 श्री वासुदेव की पूजन की महिमा एकादशी को भगवान के मंदिरों में जागरण करने के माहात्म्य ब्रहा राक्षस और चंडाल की कथा
- अध्याय- 97 श्री विष्णु की भक्ति होने के क्रम कली धर्म का निरूपण
- अध्याय- 98 शयुगा अंत काल की अवस्था का वर्णन
- अध्याय- 99 नैमितिक और प्राकृतिक प्रलय का वर्णन
- अध्याय- 100 आत्यंतिक प्रलय का निरूपण अध्यात्मिक आदि त्रिविध तापों का वर्णन भगवत तत्व की व्याख्या
- अध्याय- 101 योग और सांख्य का वर्णन
- अध्याय- 102 कर्म तथा ज्ञानका अंतर, परमात्वमतत्वका निरूपण तथा अध्यात्मज्ञान और उसके साधनोंका वर्णन
- अध्याय- 103 योग और संख्याका संक्षिप्त वर्णन
- अध्याय- 104 क्षर-अक्षर-तत्वके विषयमें राजा करालजनक और वशिष्ठका संवाद
- अध्याय- 105 क्षर-अक्षर तथा योग और संख्याका वर्णन
- अध्याय- 106 श्री ब्रह्मपुराण की महिमा तथा ग्रन्थ का उपसंहार
ब्रह्मपुराण उत्तरभाग
अध्याय- 69 कंडु मुनी का चरित्र और मुनी पर भगवान पुरुषोतम की कृपा
व्यासजी कहते हैं – मुनिवरो ! पुरुषोत्तमक्षेत्र सम्पूर्ण जीवों के लिये सुखदायी हैं । वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष –चारों पुरुषार्थो का फल देनेवाला हैं । उस तीर्थों में कंडू नामके एक महातेजस्वी मुनि रहा करते थे, जो परम धार्मिक, सत्यवादी, पवित्र, जितेन्द्रिय और समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले थे । उन्होंने इन्द्रियों को जीतकर क्रोधपर अधिकार प्राप्त कर लिया था । वे वेड-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे और भगवान पुरुषोत्तम की आराधना करके उत्तम सिद्धि प्राप्त कर चुके थे । उनके सिवा और भी बहुत से मुनि वहाँ उत्तम व्रत का पालन करते हुए सिद्ध हो चुके हैं ।
मुनियों ने पूछा– साधुशिरोमणे ! कंडू कौन थे और उन्होंने किस प्रकार वहाँ परमगति प्राप्त की? हम उनका चरित्र सुनना चाहते हैं, बताइये ।
व्यासजी बोले – मुनीश्वरो ! कंडूमुनि की कथा बड़ी मनोहर हैं । मैं संक्षेप से ही कहूँगा, सुनो । गोमती नदी के परम मनोरम एकांत तटपर, जहाँ कंद, मूल, फल, समिधा, पुष्प और कुश आदि की अधिकता थी, कंडूमुनिका आश्रम था । वहाँ सभी ऋतुओं के फल और फुल सुलभ थे । केलों का उद्यान उस आश्रम की शोभा बड़ा रहा था । वहाँ कंडूमुनिने व्रत, उपवास, नियम, स्नान, मौन और संयम आदि के द्वारा बड़ी भारी एवं अत्यंत अद्भुत तपस्या की । वे ग्रीष्म ऋतू में पंचाग्नि का ताप सहते, वर्षा में खुली वेदीपर सोते और हेमंत-ऋतू में भीगे वस्त्र धारण करके कठोर तपस्या करते थे । मुनिकी तपस्या का बढ़ता हुआ प्रभाव देख देवता, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधरों को बड़ा विस्मय हुआ । वे कहने लगे – ‘इनका महँ धैर्य अदभुत है । इनकी कठोर तपस्या नितांत आश्चर्यजनक हैं ।’ उन्हें तपस्या में स्थित देख इन्द्र्सहित सम्पूर्ण देवता उनके भयसे व्याकुल हो आपसमें परामर्श करने लगे । वे उनकी तपस्या में विघ्न डालना चाहते थे । त्रिभुवन के स्वामी इंद्र देवताओं का अभिप्राय जानकर एक सुन्दरी अप्सरा से बोले – प्रम्लोचे ! तुम शीघ्र कंडूमुनि के आश्रमपर जाओ । मुनि वहाँ तपस्या करते हैं । उनकी तपस्या में विघ्न डालनेके लिये ही तुम्हें भेजा जाता हैं । सुन्दरी ! तुम शीघ्र ही उनके चित्त में क्षोम उत्पन्न कर दो ।’
प्रम्लोचा बोली – सुरश्रेष्ठ ! मैं सदा आपकी आज्ञा का पालन करती हूँ । किन्तु इस कार्य में तो मेरे जीवन का ही संदेह है । मैं मुनिवर कंडू से बहुत डरती हूँ । वे ब्रह्मचर्यव्रत के पालन में स्थित हैं । अत्यंत उग्र हैं । उनकी तपस्या बहुत तीव्र हैं । वे अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी हैं । मुझे अपनी तपस्या में विघ्न डालने आयी हुई जानकर परम तेजस्वी कंडूमुनि कुपित हो उठेंगे और दू:सह शाप दे देंगे ।
यह सुनकर इंद्र ने कहा – ‘सुन्दरी ! मैं कामदेव, ऋतुराज वसंत और दक्षिण समीर को तुम्हारी सहायता में देता हूँ । इन सबके साथ उस स्थानपर जाओ, जहाँ वे महामुनि रहते हैं ।’ इंद्र का यह कथन सुनकर मनोहर नेत्रोंवाली प्रम्लोचा कामदेव आदि के साथ आकाशमार्ग से कंडूमुनि के आश्रमपर गयी । वहाँ पहुँचकर उसने एक बहुत सुंदर वन देखे । तीव्र तपस्या में लगे हुए पापरहित मुनिवर कंडू भी आश्रमपर ही दिखायी दिये । प्रम्लोचा और कामदेव आदिने देखा – वह वन नंदनवन के समान रमणीय था । सभी ऋतुओं में विकसित होनेवाले सुंदर पुष्प उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । नाना प्रकार के पक्षी वृक्षोंपर बैठकर अपने श्रवणसुखद कलरवों से उस वनको मुखरित कर रहे थे । अप्सराने क्रमश: सम्पूर्ण वनका निरिक्षण किया । उस परम अदभुत मनोहर कानन की शोभा देख उसके नेत्र आश्चर्य-चकित हो उठे । उसने वायु, कामदेव और वसंत से कहा – ‘अब आपलोग पृथक-पृथक मेरी सहायता करें ।’ उन्होंने बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकृति दे दी । तब प्रम्लोचा बोली – ‘अब मैं मुनिके पास जाऊँगी । जो इन्द्रियरूपी अश्वों से जुटे हुए देहरूपी रथ के सारथि बने हुए हैं, उन्हें आज कामबाण से आहत करके ऐसी दशाको पहुँचा दूँगी कि मनरूपी बागडोर उनके काबूसे बाहर हो जायगी । इसप्रकार उन्हें मैं योग्य सारथि सिद्ध कर दिखाऊँगी ।’ यों कहकर वह उस स्थान की ओर चल दी, जहाँ मुनि निवास करते थे । मुनिकी तपस्या के प्रभाव से वहाँ के हिंसक जीव भी शांत हो गये थे । नदी के तटपर, जहाँ कोयल की मीठी तान सुनायी देती थी, वह ठहर गयी । थोड़ी देरतक तो वह खड़ी रही, फिर उसने संगीत छेड़ दिया । इसी समय वसंत में भी अपना पराक्रम दिखाया । समय नही होनेपर भी समस्त कानन में मधु-ऋतू की मनोहर शोभा छा गयी । कोकिल की काकली से माधुर्य की वर्षा होने लगी । मलयवायु मनोहर सुगंध लिये मंद-मंद गतिसे बहने लगी और छोटे-बड़े सभी वृक्षों के पवित्र पुष्प धीरे-धीरे भूतलपर गिरने लगे । कामने अपने फूलों का बाण सँभाला और मुनि के समीप जाकर उनके मनको विचलित कर दिया । संगीत की मधुर ध्वनी सुनकर मुनि के मनमें बड़ा आश्चर्य हुआ । वे कामबाण से अत्यंत पीड़ित हो जहाँ सुन्दरी अप्सरा गीत गा रही थी, गये । मुनि ने अप्सरा को देखा और अप्सरा ने भी मुनिपर दृष्टिपात किया । उनके नेत्र आश्चर्य से खिल गये । चादर खिसककर गिर पड़ी । मुनि के मन में विकलता छा गयी । उनके शरीर में रोमांच हो आया । वे पूछने लगे – ‘सुन्दरी ! तुम कौन हो ? किसकी हो ? तुम्हारी मुसकान बड़ी मनोहर है । सुभ्रु ! तुम मेरे मन को मोहे लेती हो । सुमध्य में ! अपना सच्चा परिचय दो ।’
प्रम्लोचा बोली – मुने ! मैं आपकी सेविका हूँ और फूल लेने के लिये यहाँ आयी हूँ । शीघ्र आज्ञा दीजिये । मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?
अप्सरा की यह बात सुनकर मुनिका धैर्य छुट गया । उन्होंने मोहित होकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे साथ लेकर अपने आश्रम में प्रवेश किया । यह देख कामदेव, वायु और वसंत कृतकृत्य हो जैसे आये थे , उसी प्रकार स्वर्ग को लौट गये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने इंद्र से प्रम्लोचा और मुनि की सारी चेष्टा कह सुनायी । सुनकर इंद्र और सम्पूर्ण देवताओं का चित्त प्रसन्न हो गया । कंडू ने अप्सरा के साथ आश्रम में प्रवेश करते ही अपना रूप कामदेव के समान मनोहर एवं तरुण बना लिया । दिव्य वस्त्र और आभूषण धारण कर लिये । देखने में उनकी अवस्था सोलह वर्षों की जान पडती थी । मुनि की वह शक्ति देखकर प्रम्लोचा को बड़ा आश्चर्य हुआ । ‘अहो, इनकी तप:शक्ति अद्भुत है !’ यों कहकर वह बहुत प्रसन्न हुई । कंडूमुनि स्नान, संध्या, जप, होम, स्वाध्याय, देवपूजन, व्रत, उपवास, नियम और ध्यान –सब छोडकर रात-दिन उसी के साथ विहार करने लगे । इसीमें वे आनंद मानते थे । उनका ह्रदय कामदेवके वशीभूत हो गया था । अत: वे अपनी तपस्या की हानि नहीं समझ पाते थे । इसप्रकार कंडूमुनि उसके साथ सांसारिक विषयभोग में आसक्त हो साँसे कुछ अधिक वर्षोतक मन्दराचल की गुफा में पड़े रहे । एक दिन प्रम्लोचा ने महाभाग कंडूमुनि से कहा – ‘ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्ग में जाना चाहती हूँ । आप प्रसन्न होकर मुझे जाने की आज्ञा दें ।’ मुनिका मन तो उसीमें आसक्त हो रहा था । उसके इसप्रकार पुछ्नेपर वे बोले – ‘कल्याणी ! कुछ दिन और ठहरो ।’ तब उसने पुन: सौ वर्षों से कुछ अधिक कालतक उन कंडूमुनि के साथ विषय भोगा । तदनंतर उसने पुन: जाने की आज्ञा माँगी, किन्तु मुनिने स्वीकार नहीं किया । अत: उसे लगभग दो सौ वर्षोतक और ठहरना पड़ा । वह जब-जब उसने देवलोक में जाने की आज्ञा माँगती, तब-तब वे उसे वही उत्तर देते – कुछ दिन और ठहरो । प्रम्लोचा एक तो मुनि के शाप से डरती थी । दूसरे उसमें दक्षिणा नायिका की स्वाभाविक उदारता थी और तीसरे वह प्रणयभंग की पीड़ा को जानती थी । इसलिये मुनि को छोड़ न सकी । महर्षि कामभोग में आसक्त हो दिन-रात उसके साथ रमन करते रहे । किन्तु तृप्ति न हुई । उसके प्रति नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया ।
एक दिन कंडूमुनि बड़ी उतावली के साथ आश्रम से बाहर जाने लगे । अप्सराने पूछा – ‘कहाँ चले ?’ मुनिने उत्तर दिया – ‘शुभे ! दिन बीत चला हैं । संध्यापासन कर लूँ, नहीं तो कर्म का लोप हो जायगा ।’ प्रम्लोचा को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने हँसकर पूछा – ‘सब धर्मों के ज्ञाता महात्माजी ! क्या आज ही आपका दिन बीता हैं ? आपकी यह बात सुनकर किसको आश्चर्य न होगा ।’
मुनि बोले – कल्याणी ! अभी प्रात:काल ही तो तुम उस नदी के सुंदर तटपर आयी हो । उसी समय मैंने तुम्हें देखा, परिचय पूछा और तुम मेरे साथ आश्रम में आयी । अब वह दिन बीता हैं और यह संध्या का समय उपस्थित हुआ है । फिर यह परिहास किस लिये ? सच्ची बात बताओ ।
प्रम्लोचा ने कहा – ब्रह्मन ! यह ठीक है कि मैं प्रात:काल में ही आयी थी; इसमें तनिक भी मिथ्था नहीं हैं । किन्तु आज तबसे सैकड़ों वर्ष बीत गये ।
यह सुनकर मुनि को बड़ा भय हुआ । उन्होंने विशाल नेत्रोंवाली अप्सरासे पूछा – ‘भीरु ! बताओ तो सही, तुम्हारे साथ निरंतर रमण करते हुए अबतक मेरा कितना समय बीता हैं ?’
प्रम्लोचा बोली – मुने ! मेरे साथ आपके नौ सौ सात वर्ष, छ: महीने और तीन दिन बीते हैं ।
ऋषीने कहा – शुभे ! क्या यह सत्य कहती हो अथवा परिहास की बात है ? मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि तुम्हारे साथ एक ही दिन रहा हूँ ।
प्रम्लोचा बोली – ब्रह्मन ! आपके समीप मैं झूठ कैसे बोलूँगी । विशेषत: ऐसे अवसरपर, जब कि आप धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हुए पूछ रहे हैं ।
अप्सरा की बात सुनकर मुनि को बड़ा कष्ट हुआ । वे स्वयं ही अपनी निंदा करते हुए बोले – ‘हाय, मुझ दुराचारी को धिक्कार है । हाय, मेरी तपस्या नष्ट हो गयी । ब्रह्मवेत्ताओं का जो धन है, वह चला गया और मेरा विवेक भी छिन गया । जान पड़ता है, मनुष्यों को मोह में डालने के लिये ही किसीने युवती नारीकी सृष्टि की है । मुझे तो अपने मनको जीतकर क्षुधा-पिपासा, राग-द्वेष और जरा-मृत्यु – इन छहों ऊर्मियों से अतीत परब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । इसके विपरीत जिसने मेरी ऐसी दुर्गति की है, उस कामरूपी महान ग्रह को धिक्कार हैं । यह काम नरकग्राम में ले जानेवाला मार्ग है । इसने आज मेरे सम्पूर्ण वेदों के स्वाध्याय, व्रत और समस्त साधनोंपर पानी फेर दिया ।’
इसप्रकार स्वयं ही अपनी निंदा करके वे धर्म के ज्ञाता मुनि पास ही बैठी हुई उस अप्सरा से बोले – ‘पापिनी ! तेरी जहाँ इच्छा हो, चली जा । तुझे जो करना था, उसे तूने पूरा कर लिया । मैं तुझे अपने क्रोध की प्रचंड आगसे जो भस्म नहीं करता, इसमें एक कारण है – सत्यपुरुषों की मैत्री सात पग एक साथ चलने से ही हो जाती हैं । मैं तो तेरे साथ चिरकालतक निवास कर चूका हूँ । अथवा तेरा क्या दोष हैं ? मेरी क्या हानि करूँ ? सारा दोष तो मेरा ही हैं, क्योंकि मैं ही ऐसा अजितेन्द्रिय निकला । तू तो इंद्र की प्रिय करने के लिये आयी थी कटाक्ष के महामोहमय मन्त्र से तूने मुझे घृणित बना दिया । अरी, अब जा ! जा ! चली जा !! ‘
इस प्रकार मुनिवर कंडू ने जब क्रोधपूर्वक उसे फटकारा, तब वह काँपती हुई आश्रम से बाहर निकली और आकाशमार्ग से जाने लगी । उसके अंग-अंगसे पसीने की बूँदे निकल रही थी और वह वृक्षों के पल्लवों से उन्हें पोंछती जाती थी । ऋषीने उसके उदर में जो गर्भ स्थापित किया था, वह पसीने के रूप में ही बाहर निकल गया । वृक्षों ने उन स्वेद-बिन्दुओं को ग्रहण किया और वायु ने इस सबको एकत्रित करके एक गर्भ का रूप दिया । फिर चंद्रमा ने अपनी अमृतमयी किरणों से उस गर्भ को धीरे-धीरे पुष्ट किया । उससे मारिया नाम की कन्या उत्पन्न हुई, जो वृक्षों की पुत्री कहलायी । उसके नेत्र बड़े मनोहर थे । वही प्राचेतसों की पत्नी और दक्ष की जननी हुई ।
इधर महर्षि कंडू तपस्या क्षीण होनेपर श्रीविष्णु के निवास-स्थान पुरुषोत्तमक्षेत्र को गये । वहाँ सम्पूर्ण देवताओं से सुशोभित श्रीहरि का दर्शन किया । ब्राह्मण आदि चारों वर्णों और आश्रमों के लोग भगवान की सेवा में उपस्थित थे । पुरुषोत्तमक्षेत्र और भगवान पुरुषोत्तम का दर्शन करके मुनि ने अपने को कृतकृत्य माना और वहाँ अपनी दोनों बाँहे ऊपर उठाकर एकाग्रचित्त से ब्रह्मपारस्तोत्र का जप करते हुए वे भगवान की आराधना करने लगे ।
मुनि बोले – व्यासजी ! हम परम कल्यानमय ब्रह्मपारस्तोत्र को श्रवण करना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए कंडूमुनि ने भगवान विष्णु की आराधना की थी ।
व्यासजी ने कहा – भगवान विष्णु सबके परम पार (अंतिम प्राप्य) हैं; वे अपार भवसागर से पार उतारनेवाले, पर-शब्द-वाच्य, आकाश आदि पंचमहाभूतों से परे और परमात्मस्वरुप हैं । वेदों की भी पहुँच से परे होनेके कारण उन्हें ब्रह्मपार कहते हैं । वे दूसरों के लिये पारस्वरुप हैं – उन्हें पाकर सब प्राणी सदा के लिये पार हो जाते हैं । वे पर के भी पर – इन्द्रिय, मन आदिके भी अगोचर हैं । सब के पालक और सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । वे कारण में स्थित होते हुए भी स्वयं ही कारणरूप हैं । कारण के भी कारण हैं । परम कारणभूत प्रकृति के कारण भी वे ही है । कार्यों में भी उन्हीं की स्थिति हैं । इसप्रकार कर्म और कर्ता आदि अनेक रूप धारण करके वे सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं । ब्रह्म ही प्रभु हैं, ब्रह्म ही सर्वस्वरुप हैं, ब्रह्म ही प्रजापति तथा अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाला है । वह ब्रह्म अविनाशी, नित्य और अजन्मा हैं । वही क्षय आदि सम्पूर्ण विकारों के सम्पर्क से रहित भगवान विष्णु है । वे भगवान पुरुषोत्तम ही अविनाशी, अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं । उनके प्रभाव से मेरे राग आदि समस्त दोष नष्ट हो जायँ ।
मुनि के उस ब्रह्मपारस्तोत्र का जप सुनकर और उनकी सुदृढ़ पराभक्ति को जानकर भक्तवत्सल भगवान पुरुषोत्तम बड़े प्रसन्न हुए और उनके पास जाकर बोले – ‘मुने ! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, उसे कहो । मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ । सुव्रत ! तुम कोई वर माँगो ।’ देवाधिदेव भगवान चक्रपाणि के ये वचन सुनकर मुनिने सहसा आँखे खोल दी और देखा, भगवान सामने खड़े हैं । उनका श्रीअंग तीसी के फूल की भांति श्याम हैं । नेत्र पद्यपत्र के समान विशाल हैं । हाथों में शंख, चक्र और गदा शोभा पाते है । माथेपर मुकुट और भुजाओं में भुजबंध सुशोभित हैं । चार भुजाएँ हैं । अंग-अंग से उदारता टपकती हैं । सुंदर शरीरपर पीताम्बर शोभा दे रहा है । श्रीवत्स-चिन्ह से युक्त वक्ष:स्थल वनमालासे विभूषित हैं । श्रीहरि समस्त शुभ लक्षणों से युक्त दिखायी देते हैं । उनके अंगों में सब प्रकार के रत्नमय आभूषण शोभा पाते हैं । श्रीअंग में दिव्य चन्दन लगा हैं और दिव्य हार उनकी शोभा बढ़ा रहा हैं ।
अतसीपुष्पसंकाशं पद्यपत्रावतेक्षणम । शंखचक्र गदापाणिं मुकुटांगदधारिणम ।। चतुर्बाहूमुदारांग पीतवस्त्रधरं शुभम । श्रीवत्सलक्ष्यसंयुक्तं वनमालाविभूषितम ।। सर्वलक्षणसंयुक्तं सर्वरत्नविभूषितम् । दिव्यचन्दनलिप्तांगं दिव्यमाल्यविभूषितम् ।।
इसप्रकार भगवान की झाँकी देखकर कंडूमुनि के शरीर में रोमांच हो आया । उन्होंने दंड की भांति पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया और कहा – ‘आज मेरा जन्म सफल हुआ, आज मेरी तपस्या का फल मिल गया ।’ यों कहकर मुनिने भगवान की स्तुति आरम्भ की ।
कंडू बोले – नारायण ! हरे ! श्रीकृष्ण ! श्रीवत्सांग ! जगत्पते ! जगदबीज ! जगद्धाम ! जगत्साक्षीन ! आपको नमस्कार हैं । अव्यक्त विष्णो ! आप ही सबकी उत्पत्ति के कारण हैं । प्रकृति और पुरुष दोनों से उत्तम होने के कारण आपको पुरुषोत्तम कहते हैं । कमलनयन गोविन्द ! जगन्नाथ ! आपको नमस्कार हैं । आप हिरण्यगर्भ, लक्ष्मीपति, पद्मनाभ और सनातन पुरुष हैं । यह पृथ्वी आपके गर्भ में हैं । आप ध्रुव और ईश्वर हैं । हर्षीकेश ! आपको नमस्कार हैं । आप अनादि, अनंत और अजेय हैं । विजयी पुरषों में श्रेष्ठ ! आपकी जय हो । श्रीकृष्ण ! आप अजित और अखंड हैं । श्रीनिवास ! आपको नमस्कार हैं । आप ही बादल और धूम – वर्षा और गर्मी करनेवाले हैं । आपका पार पाना कठिन है । आप बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं । दुःख और पीडाओं का नाश करनेवाले हरे ! जलमें शयन करनेवाले नारायण ! आपको नमस्कार हैं । अव्यक्त परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण भूतों के पालक और ईश्वर हैं । भौतिक तत्त्वों से आप कभी क्षुब्ध होनेवाले नहीं हैं । सम्पूर्ण प्राणी आप में ही निवास करते हैं । आप सब भूतों के आत्मा हैं । सम्पूर्ण भुत आपके गर्भ में स्थित हैं । आपको नमस्कार हैं । आप यज्ञ, यज्वा, यज्ञधर, यज्ञधाता और अभय देनेवाले हैं । यज्ञ आपके गर्भ में स्थित हैं । आपका श्रीअंग सुवर्ण के समान कान्तिमान हैं । पृश्रीगर्भ ! आपको नमस्कार हैं । आप क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रपालक, क्षेत्री, क्षेत्रहन्ता, क्षेत्रकर्ता, जितेन्द्रिय, क्षेत्रात्मा, क्षेत्ररहित और क्षेत्र के स्त्रष्टा हैं । आपको नमस्कार हैं । गुणालय, गुणावास, गुणाश्रय, गुणभोक्ता, गुणाराम और गुणत्यागी – ये सब आपके ही नाम हैं । आपको नमस्कार हैं । आप ही श्रीविष्णु हैं । आप ही श्रीहरि और चक्री कहलाते हैं । आप ही श्रीविष्णु और आप ही जनार्दन हैं । आप ही वषटकार कहे गये हैं । भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रभु भी आप ही हैं । आप भूतों के उत्पादक और अव्यक्त हैं ।सबकी उत्पत्ति के कारण होने से आप ‘भव’ कहलाते हैं । आप सम्पूर्ण प्राणियों के भरण-पोषण करनेवाले हैं । आप ही भूतभावन देवता हैं । आपको अजन्मा और ईश्वर कहते हैं ।
आप विश्वकर्मा हैं, श्रीविष्णु हैं, शम्भु है और वृषभ की आकृति धारण करनेवाले हैं । आप ही शंकर, शुक्राचार्य, सत्य, तप और जनलोक हैं । आप विश्वविजेता, कल्याणमय, शरणागतपालक, अविनाशी, शम्भु, स्वयम्भू, ज्येष्ठ और परायण (परम आश्रय) हैं । आदित्य, ओंकार, प्राण, अन्धकारनाशक सूर्य, मेघ, सर्वत विख्यात तथा देवताओं के स्वामी ब्रह्मा भी आप ही है । ऋक, यजु: और साम भी आप ही है । आप ही सबके आत्मा, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी है । स्त्रष्टा, भोक्ता, होता, हविष्य, यज्ञ, प्रभु, विभु, श्रेष्ठ, लोकपति और अच्युत भी आप ही हैं । आप सबके द्रष्टा, ल्क्स्मिवान, दमन करनेवाले और शत्रुओं के नाशक है । आप ही दिन, रात्रि, विद्वान पुरुष आपको ही वर्ष कहते हैं । आप ही काल है । कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षण और लव – सब आपके ही स्वरूप ही है । आप ही बालक, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक हैं । आप ही सबके नेत्र और विश्व की उत्पत्ति के स्थान हैं । आप ही स्थाणु (स्थिर रहनेवाले) और शुचिश्रवा (पवित्र यशवाले) हैं । आप सनातन पुरुष है, आपको कोई जीत नहीं सकता । आप इंद्र के छोटे भाई उपेन्द्र और सबसे उत्तम हैं । सम्पूर्ण विश्वको सुख देनेवाले, वेदों के अंग भी आप ही है । आप अविनाशी, वेदों के भी वेद (ज्ञेय तत्त्व), धाता, विधाता और समाहित रहनेवाले है । आप धाता और वसु ही है । आप वैद्य, धृतात्मा,इन्द्रियातितं सबसे आगे चलनेवाले और गाँव के नेता है । आप ही गरुड और आदिमान, संग्रह (लघु) और परम महान हैं । अपने मनको वशमें रखनेवाले और महिमा से कभी च्युत न होनेवाले भी आप ही है । आप यम और नियम हैं । आप प्रांशु (उन्नत शरीरवाले ), चतुर्भुज, अन्न, अंतरात्मा और परमात्मा भी आप ही कहलाते हैं । आप गुरु, गुरुतम, वाम और दक्षिण हैं । आप ही पीपल एवं अन्य वृक्ष हैं । व्यक्त जगत, प्रजापति भी आप ही है । आपकी नाभि से सुवर्णमय कमल प्रकट हुआ है । आप दिव्य शक्ति से सम्पन्न हैं । आप ही यम और आप ही दैत्यों के नाशक श्रीविष्णु हैं । आप तीनों गुणों से रहित हैं ।
आप जेष्ठ, वरिष्ठ, सहिष्णु, लक्ष्मी के पति हैं । आपके सहस्रों मस्तक हैं, अव्यक्त देवता हैं । आपके सहस्त्रो नेत्र और चरण हैं । विराट और देवताओं के स्वामी हैं । देवदेव ! तथापि आप दस अंगुल के होकर रहते हैं । जो भुत है, वह आपका ही स्वरूप बताया गया है । आप ही अन्तर्यामी पुरुष, इंद्र, उत्तम देवता, भविष्य, ईशान, अमृत, मर्त्य हैं । यह सम्पूर्ण संसार आपसे ही अंकुरित होता हैं, अत: आप परम महान और सबसे उत्तम हैं । देव ! आप सबसे जेष्ठ है, पुरुष है और दस प्राणवायुओं के रूप में स्थित हैं । आप विश्वरूप होकर चार भागों में स्थित हैं । अमृतस्वरुप होकर नौ भागों के साथ द्युलोक में रहते हैं और नौ भागोंसहित सनातन पौरुषेय रूप धारण करके अन्तरिक्ष में निवास करते हैं । आपके दो भाग पृथ्वी में स्थित हैं और चार भाग भी यहाँ हैं । आपसे यज्ञों की उत्पत्ति होती हैं, जो जगत में वृष्टि करनेवाले हैं । आपसे ही विराट की उत्पत्ति हुई, जो सम्पूर्ण जगत के ह्रदय में अन्तर्यामी पुरुषरूप से विराजमान हैं । वह विराट पुरुष अपने तेज, यश और ऐश्वर्य के कारण सम्पूर्ण भूतों से विशिष्ठ हैं । आपसे ही देवताओं का आहारभूत हवनीय घृत उत्पन्न हुआ । ग्राम्य और जंगली ओषधियाँ तथा पशु एवं मृग आदि भी आपसे ही प्रकट हुए है । देवदेव ! आप ध्येय और ध्यान से परे है । आप ही सात मुखोंवाले देदीप्यमान विग्रह से युक्त काल है । यह स्थावर और जंगम तथा चर और अचर सम्पूर्ण जगत आपसे ही प्रकट हुआ है और आपमें ही स्थित हैं । आप अनिरुद्ध, वासुदेव, प्रद्युम्र तथा दैत्यनाशक संकर्षण हैं । देव ! आप सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ और समस्त विश्व के परम आश्रय हैं । कमलनयन ! मेरी रक्षा कीजिये । नारायण ! आपको नमस्कार है । भगवान ! विष्णो ! पुरुषोत्तम ! सर्वलोकेश्वर ! कमलालय ! गुणालय ! गुणाकार ! वासुदेव ! सुरोत्तम ! जनार्दन ! सनातन आपको नमस्कार हैं ।
योगिगम्य परमेश्वर ! योग के आश्रयस्थान ! गोपते ! श्रीपते ! मरुत्पते ! श्रीविष्णो ! जगत्पते ! आप जगत को उत्पन्न करनेवाले और ज्ञानियों के स्वामी हैं, आपको नमस्कार हैं । दिव्यस्पते ! महीपते ! पुण्डरीकाक्ष ! आप मधु दैत्य का वध करनेवाले हैं , आपको नमस्कार हैं, नमस्कार हैं । कैटभ को मारनेवाले नारायण ! सुब्रह्मण्य ! पीठपर वेदों को धारण करनेवाले महामत्स्यरूप अच्युत ! आपको नमस्कार हैं । आप समुद्र के जल को मथ डालनेवाले और लक्ष्मी को आनंद देनेवाले हैं, आपको नमस्कार हैं । विशाल नासिकवाले अश्वमुख भगवान हयग्रीव ! महापुरुषविग्रह ! आप मधु और कैटभ का नाश करनेवाले है, आपको नमस्कार है । प्रभो ! आप पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिये विशाल कच्छप का शरीर धारण करनेवाले है, अपनी पीठपर मंदराचल को धारण किया था । महाकुर्मस्वरुप आप भगवान को नमस्कार है । पृथ्वी का उद्धार करनेवाले महावराह को नमस्कार हैं । भगवान आपने ही पहले-फल वराहरूप धारण किया था, अत: आप आदिवराह कहलाते हैं । आप विश्वरूप और विधाता है, आपको नमस्कार है । आप अनंत, सूक्ष्म, मुख्य, श्रेष्ठ, परमाणुस्वरुप तथा योगिगम्य हैं । आपको नमस्कार हैं । जो परम कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं, योगीश्वर मंडल के आश्रयस्थान हैं, जिनके स्वरूप का ज्ञान होना अत्यंत कठिन हैं, जो क्षीरसागर के भीतर निवास करनेवाले महान सर्प-शेषनाग की सुंदर शय्यापर शयन करते हैं तथा जिनके कानों में सुवर्ण एवं रत्नों के बने हुए दिव्य कुंडल झिलमिलाते रहते हैं, उन आप भगवान विष्णु को नमस्कार हैं ।
कंडूमुनि के इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर कहा – ‘मुनिश्रेष्ठ ! तुम मुझसे जो कुछ पाना चाहते हो, उसे शीघ्र कहो ।’
कंडू बोले – जगन्नाथ ! यह संसार अत्यंत दुस्तर और रोमांचकारी है । इसमें दु:खों की ही अधिकता हैं । यह अनित्य और केले के पत्ते की भांति सारहीन है । इसमें न कहीं आश्रय हैं, न अवलम्ब । यह जल के बुलबुलों की भांति चंचल हैं । इसमें सब प्रकार के उपद्रव भरे हुए हैं । यह दुस्तर होने के साथ ही अत्यंत भयानक हैं । मैं आपकी मायासे मोहित होकर चिरकाल से इस संसार में भटक रहा हूँ, किन्तु कहीं भी शान्ति नहीं पाता । मेरा मन विषयों में आसक्त है । देवेश ! इस संसार के भय से पीड़ित होकर आज मैं आपकी शरण में आया हूँ । श्रीकृष्ण ! आप इस भवसागर से मेरा उद्धार कीजिये । सुरेश्वर ! मैं आपकी कृपा से आपके ही सनातन परम पद को प्राप्त करना चाहता हूँ, जहाँ जाने से फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता ।
श्रीभगवान बोले – मुनिश्रेष्ठ ! तुम मेरे भक्त हो । सदा मेरी ही आराधना करते रहो । तुम्हें मेरे प्रसाद से अभीष्ट मोक्षपद की प्राप्ति होगी । विप्रवर ! मेरे भक्त क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शुद्र तथा अन्त्यज भी परम सिद्धि को प्राप्त होते है; फिर तुम – जैसे तपोनिष्ठ ब्राह्मण की तो बात ही क्या है । चाण्डाल भी यदि उत्तम श्रद्धा से युक्त एवं मेरा भक्त हो तो उसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त होती है; फिर औरों की तो चर्चा ही क्या हैं ।
मद्भक्ता: क्षत्रिया वैश्या: स्व्रिय: शुद्रान्त्यजातिजा: । प्राप्रुवन्ति परां सिद्धिं किं पुनस्त्वं द्विजोत्तम ।। श्वपाकोऽपि च मद्भक्तः सम्यक श्रद्धासमन्वित: । प्राप्रोत्याभिमतां सिद्धिमन्येषां तत्र का कथा ।।
व्यासजी कहते हैं – यों कहकर भक्तवत्सल भगवान विष्णु वहीँ अन्तर्धान हो गये । उनके चले जानेपर मुनिवर कंडू बहुत प्रसन्न हुए और समस्त कामनाओं का त्याग करके स्वस्थचित्त हो गये ।
समस्त इन्द्रियों को वश में करके ममता और अहंकार से रहित हो एकाग्रचित्त से भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करने लगे । भगवान के निर्लेप, निर्गुण, शांत और सन्मात्र स्वरूप का चिन्तन करते हुए उन्होंने दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लिया । जो महात्मा कंडू की कथा को पढ़ता अथवा सुनता हैं, वह सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में जाता हैं । मुनिवरो ! इसप्रकार मैंने इस कर्मभूमि तथा मोक्षदायक पुरुषोत्तमक्षेत्र का वर्णन किया, जहाँ साक्षात भगवान पुरुषोत्तम निवास करते हैं । जो मनुष्य संसारजनित दु:खोंका नाश और मोक्ष प्रदान करनेवाले वरदायक भगवान श्रीपुरुषोत्तम का भक्तिपूर्वक दर्शन, स्तवन और ध्यान करते हैं, वे समस्त दोषों से मुक्त हो भगवान के अविनाशी धाम में जाते हैं ।
अध्याय- 70 मुनियों का भगवान के अवतार के सम्बन्ध में प्रश्न श्री व्यास जी द्वारा उसका उत्तर
मुनि बोले – पुरुषश्रेष्ठ व्यासजी ! आपने भारतवर्ष तथा पुरुषोत्तमक्षेत्र के अद्भुत गुणों का वर्णन किया । उस क्षेत्र के उत्तम माहात्म्य को सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है । हमारे मनमें बहुत दिनों से एक संदेह है । उसका निवारण करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नही हैं । हम भूतलपर श्रीकृष्ण, बलदेव और सुभद्रा के अवतार का रहस्य सुनना चाहते हैं । वीरवर श्रीकृष्ण और बलभद्र किसलिये अवतीर्ण हुए थे ? वे वसुदेव के पुत्र होकर नन्द के घरमें क्यों रहे ? यह मर्त्यलोक सर्वथा नि:सार हैं । इसमें अधिकतर दुःख ही भरा है । यह पानी के बुलबुले की भांति अत्यंत चंचल – क्षणभंगुर हैं । इसकी भयंकरता इतनी बढ़ी हुई है कि उसका विचार आते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । ऐसे संसार में उन्हें जन्म ग्रहण करने की क्या आवश्यकता थी ? इस भूतलपर अवतीर्ण हो उन्होंने जो-जो लीलाएँ की, उनका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । उनका सम्पूर्ण चरित्र अदभुत और अलौकिक हैं । भगवान सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी एवं सुरश्रेष्ठ हैं और पृथ्वी को उत्पन्न करनेवाले तथा अविनाशी परमात्मा है । उन्होंने अपने दिव्य स्वरूप को मनुष्यों के बीचमें कैसे प्रकट किया ? जो भगवान सम्पूर्ण जंगम प्राणियों की गति हैं, वे मानव शरीर में कैसे आये ? इसे देवता और दैत्य भी बड़े आश्चर्य की बात मानते हैं । महामुने ! आप भगवान विष्णु के आश्चर्यजनक अवतार की कथा सुनाइये । भगवान के बल और पराक्रम विख्यात हैं । उनके तेजकी कोई माप नहीं हैं । वे अपने अलौकिक चरित्रों के द्वारा आश्चर्यरूप जान पड़ते हैं । आप उनके तत्त्व का वर्णन कीजिये । भगवान पुरुषोत्तम देवताओं की पीड़ा दूर करनेवाले और सर्वव्यापी हैं । जगत के रक्षक और सर्वलोकमहेश्वर हैं । संसारकी सृष्टि, पालन और संहार –सब वे ही करते हैं । वे ही सब लोकों को सुख देनेवाले हैं । वे अक्षय, सनातन, अनंत, क्षय और वृद्धि से रहित, निर्लेप, निर्गुण , सूक्ष्म, निर्विकार, निरंजन, समस्त उपाधियों से रहित, सत्तामात्ररूप से स्थित, अविकारी, विभु, नित्य, अचल, निर्मल, व्यापक, नित्यतृप्त, निरामय तथा शाश्वत परमात्मा हैं । सत्ययुग में उनका विशुद्ध ‘हरि’ नाम सुना जाता हैं । देवताओं में वे वैकुण्ठ और मनुष्यों में श्रीकृष्ण नामसे विख्यात हैं । उन्हीं परमेश्वर की भूत और भविष्य लीलाओं को, जिनका रहस्य अत्यंत गहन हैं, हम सुनना चाहते हैं ।
व्यासजी बोले – जो सम्पूर्ण देवताओं के स्वामी, सबकी उत्पत्ति के कारण, पुराणपुरुष, सनातन, अविनाशी, चतुर्व्यूहस्वरूप, निर्गुण, गुणरूप, परममहान, परम गुरु, वरेण्य, असीम, यज्ञांग और देवता आदि के प्रियतम है, उन भगवान विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ, जिन अजन्मा प्रभु ने सम्पूर्ण चराचर जगत को व्याप्त कर रखा हैं, जो आविर्भाव, तिरोभाव, दृष्ट और अदृष्ट से विलक्षण हैं, सृष्टि और संहार को भी जिनका स्वरूप बतलाया जाता है, उन आदिदेव परब्रह्म परमात्मा को मैं समाधि के द्वारा प्रणाम करता हूँ ।जो सम्पूर्ण विकारों से रहित, शुद्ध, नित्य, सदा एकरूप रहनेवाले और विजयी हैं, उन परमात्मा श्रीविष्णु को नमस्कार हैं । जो हिरण्यगर्भ, हरि, शंकर तथा वासुदेव कहलाते हैं, जिनसे समस्त प्राणियों का तरण-तारण होता हैं, जो सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं, उन भगवान को नमस्कार हैं । जो एक होते हुए भी अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, स्थूल और सूक्ष्म, व्यक्त और अव्यक्त जिनके स्वरूप हैं और जो मोक्ष के कारण हैं, उन भगवान विष्णुको नमस्कार हैं । जो जगन्मय हैं, जगत की सृष्टि, पालन और संहार के मूल कारण हैं, उन परमात्मा, भगवान विष्णु को नमस्कार हैं । जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सम्पूर्ण विश्व के आधारभूत, समस्त प्राणियों के भीतर विराजमान और अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाले हैं, उन भगवान पुरुषोत्तम को प्रणाम हैं । जो वास्तव में अत्यंत निर्मल ज्ञानस्वरूप होते हुए भी भ्रमपूर्ण दृष्टी के कारण भिन्न-भिन्न पदार्थों के रूप में स्थित दिखायी देते हैं, जिनका आदि नहीं हैं, जो सम्पूर्ण जगत के ईश्वर, अजन्मा, अक्षय और अविनाशी है, उन भगवान श्रीहरि को नमस्कार करके मैं उनके अवतार की कथा आरम्भ करता हूँ ।
पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पुछ्नेपर कमलयोनि भगवान ब्रह्माने जो कुछ कहा था, वही मैं भी आप लोगों से कहूँगा । जो अपने चारों मुखों से ऋक, साम आदि चारों वेदों का उच्चारण करते हुए तीनों लोकों को पवित्र करते हैं, जिनका प्रादुर्भाव एकार्णव के जल से हुआ है, असुरगण जिनके यज्ञों का लोप नहीं कर पाते, उन भगवान ब्रह्माजी को प्रणाम करके मैं उन्हीं की कही हुई कथा आरंभ करता हूँ । जिन्होंने सृष्टि के उद्देश्य से धर्म आदि को प्रकट किया है, उन अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी के सम्पूर्ण मतका ही मैं वर्णन करूँगा । तत्त्वदर्शी मुनियों ने जलको ‘नार’ कहा हैं । वह नार पूर्वकाल में भगवान का अयन (निवासस्थान) हुआ । इसलिये वे नारायण कहलाते हैं । वे भगवान नारायण सबको व्याप्त करके स्थित हैं । वे ही सगुण और निर्गुण कहलाते हैं । वे दूर भी हैं और समीप भी । उनकी ‘वासुदेव’ संज्ञा हैं । ममता का त्याग करनेपर ही उनका साक्षात्कार भाव नहीं हैं । वे सदा शुद्ध, सुप्रतिष्ठित और एकरूप हैं । जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता हैं, तब-तब वे अपने-आप को संसार में प्रकट करते हैं । पूर्वकाल में उन्हीं प्रजापालक भगवान ने वाराहरूप धारण करके थूथुन से जलको हटाया और रसातल में डूबी हुई पृथ्वी को अपनी एक ददाढ़ से कमल के फूल की भांति ऊपर उठा लिया । उन्होंने ही नृसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपु का वध किया और विप्रचित्ति आदि अन्य दानवों को भी मार गिराया । फिर वामन अवतार लेकर माया से बलि को बाँधा और दैत्यों को जीतकर तीनों लोकों को अपने तीन पगों से ही नाप लिया । वे ही भृगु-वंश में परमप्रतापी जमदग्निकुमार परशुराम के रूप में उत्पन्न हुए, जिन्होंने पिता के वध का बदला लेनेके लिये क्षत्रियों का संहार कर डाला । उन्हीं भगवान ने अत्रिकुमार प्रतापी दत्तात्रेय के रूप में अवतीर्ण हो महात्मा अलर्क को अष्टांगयोग का उपदेश दिया । त्रेता में दशरथनंदन श्रीराम के रूप में प्रकट होकर उन्होंने ही त्रिभुवन को भय देनेवाले रावण का युद्ध में संहार किया ।
प्रलयकाल में जब सारी सृष्टि एकार्णव में निमग्न हो गयी, उससमय देवताओं के भी देवता जगतपति श्रीविष्णु एक सहस्त्र युगोंतक शेषनाग की शय्यापर सोते रहे । वास्तव में वे योगनिद्रा का आश्रय ले अपनी योगमहिमा में स्थित हो गये थे । सम्पूर्ण चराचर जगत को उन्होंने अपने उदर में स्थापित कर रखा था । जनलोकनिवासी सिद्ध और महर्षि उनकी स्तुति करते थे । उसी समय उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जो दिशारुपी पत्रों से सुशोभित, अग्नि और सूर्य के समान तेजोमय और पर्वतरूपी केसरों से अलंकृत था । सुवर्णमय मेरुगिरि उसका किंजल्क (केसरका मध्यभाग) था । वह कमल ही पितामह ब्रह्माजी का सुंदर गृह था । उसीमें चार मुखोंवाले देवाधिदेव ब्रह्माजी प्रकट हुए । उससमय भगवान विष्णु के कानों की मैलसे दो महाबली और महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए, जो ब्रह्माजी को मार डालने के लिये उद्यत हो गये । उनका नाम मधु और कैटभ था । भगवान ने समुद्ररूपी शयनगृह से उठकर उन दोनों दुर्धर्ष दैत्यों का वध किया । ये तथा और भी भगवान की असंख्य लीलाएँ हैं, जिनकी मैं गणना नहीं कर सकता । इस समय अजन्मा भगवान के जिस अवतार का प्रसंग चल रहा हैं, वह मथुरा में हुआ था । इसप्रकार भगवान की जो सात्त्विक मूर्ति हैं, वही अवतार धारण करती हिन् । वह प्रद्युम्न नामसे विख्यात हैं और सदा रक्षाकार्य में संलग्न रहती हैं । वह भगवान् वासुदेव की इच्छा के अनुसार देवता, मनुष्य और तिर्यक योनि में अवतीर्ण होती है और उसी के अनुकूल स्वभाव बना लेती है । भक्त पुरुषोंद्वारा पूजित होनेपर वह उनकी मनोवांछित कामनाओं को भी पूर्ण करती हैं । इस तरह मैंने यहाँ भगवान के अवतार का रहस्य बतलाया हैं । भगवान विष्णु यद्यपि कृतकृत्य हैं, उन्हें कुछ करना अथवा पाना नहीं हैं तो भी वे लोक-कल्याण के लिये ही मानवरूप में प्रकट हुए थे ।
अध्याय- 71 भगवान के अवतार का उपक्रम
व्यासजी कहते हैं – मुनिवरो ! अब मैं संक्षेप से श्रीहरि के अवतार का वर्णन करता हूँ, सुनो । भगवान इस पृथ्वी का भार उतारने की इच्छा से अवतार लेते हैं । जब-जब अधर्म की वृद्धि होती है और धर्म का ह्रास होने लगता हैं, तब-तब भगवान जनार्दन अपने स्वरूप के दो भाग करके यहाँ अवतीर्ण होते हैं । साधू पुरुषों की रक्षा, धर्म की स्थापना, दुष्टों तथा अन्य देव-द्रोहियों का दमन और प्रजावर्गका पालन करने के लिये वे प्रत्येक युग में अवतार धारण करते हैं । पहले की बात हैं, यह पृथ्वी अत्यंत भारसे पीड़ित हो मेरुपर्वतपर देवताओं के समाज में गयी और ब्रह्मा आदि सब देवताओं को प्रणाम करके खेद एवं करुणामिश्रित वाणी में अपना सब हाल सुनाने लगी – ‘सुवर्ण के गुरु अग्नि, गौओं के गुरु सूर्य तथा मेरे गुरु सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय भगवान् नारायण हैं । इससमय ये कालनेमि आदि दैत्य मर्त्यलोक में जन्म लेकर दिन-रात प्रजाको कष्ट देते रहते हैं । सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु ने जिस कालनेमि नामक महान असुर का वध किया था, वही अब उग्रसेनकुमार कंस के रूपमें उत्पन्न हुआ है । अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्दासुर, अत्यंत भयंकर बलिकुमार बाणासुर तथा और भी जो महापराक्रमी दुरात्मा दैत्य राजाओं के घरमें उत्पन्न हुए हैं, उनकी मैं गणना नहीं कर सकती । दिव्यमुर्तिधारी देवताओं ! इससमय मेरे ऊपर महाबली और गर्वीले दैत्यों की अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं । सुरेश्वरो ! मैं आपलोगों को बताएं देती हूँ कि उन दैत्यों के भारी भार से पीड़ित होने के कारण अब मुझ में अपने को धारण करने की भी शक्ति नहीं रह गयी हैं । अत: आपलोग मेरा भार उतारिये ।’
पृथ्वी का यह वचन सुनकर सम्पूर्ण देवताओं ने उसका भार उतारने के लिये ब्रह्माजी को प्रेरित किया । तब ब्रह्माजी बोले – ‘देवताओं ! पृथ्वी जो कुछ कहती हैं, वह सब ठीक है । वास्तव में मैं, महादेवजी और तुमलोग – सब भगवान नारायण के ही स्वरूप है । भगवान की जो विभूतियाँ है, उन्हीं की परस्पर न्यूनता और अधिकता बाध्य-बाधकरूप से रहा करती है । इसलिये आओं, हमलोग क्षीरसागर के उत्तम तटपर चलें और वहाँ श्रीहरि की आराधना करके यह सब वृतांत उनसे निवेदन करें । वे सबके आत्मा हैं, सम्पूर्ण जगत उनका ही रूप है, वे सदा ही जगत का कल्याण करने के लिये अपने अंश से अवतार ले धर्म की स्थापना करते हैं ।’
यों कहकर ब्रह्माजी सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर के तटपर गये और एकाग्रचित्त होकर भगवान गरुड़ध्वज की स्तुति करने लगे ।
ब्रह्माजी बोले – सहस्त्रमूर्ते ! आपको बारंबार नमस्कार हैं । आपके सहस्त्रों बाँहें, अनेक मुख और अनेक चरण हैं । आप जगत की सृष्टि, पालन और संहार में संलग्न रहते हैं । अप्रमेय परमेश्वर ! आपको बारंबार नमस्कार हैं । भगवन ! आप सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म, परम महान और बड़े-बड़े गुरुओं से भी अधिक गौरवशाली है । आप प्रकृति, समष्टि बुद्धि (महत्तत्त्व), अहंकार तथा वाणी के भी प्रधान मूल हैं । अपरा-प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत आपका ही स्वरूप हैं आप हमपर प्रसन्न होइये । देव ! यह पृथ्वी आपकी शरण में आयी हैं । इससमय भूतलपर जो बड़े-बड़े असुर उत्पन्न हुए है, उनके द्वारा पीड़ित होने से इसके पर्वतरूपी बंधन शिथिल पड गये हैं । आप सम्पूर्ण जगत के परम आश्रय हैं । आपकी महिमा अपरम्पार हैं । अत” यह वसुधा अपना भार उतरवाने के लिये आपकी ही सेवा में उपस्थित हुई हैं । हमलोग भी यहाँ उपस्थित हुए हैं । ये इंद्र, दोनों अश्विनीकुमार, वरुण, रूद्र, वसु, आदित्य, वायु, अग्नि तथा अन्य सम्पूर्ण देवता यहाँ खड़े हैं । देवेश्वर ! मुझे तथा इन देवताओं को जो कुछ करना हो, उसके लिये आज्ञा दीजिये । आपके ही आदेश का पालन करते हुए हमलोग सदा सम्पूर्ण दोषों से मुक्त रहेंगे ।
ब्रह्माजी के इसप्रकार स्तुति करनेपर परमेश्वर भगवान श्रीविष्णु ने अपने श्वेत और कृष्ण – दो केश उखाड़े और देवताओं से कहा – ‘मेरे ये दोनों केश ही भूतलपर अवतार ले पृथ्वी के भार और क्लेश का नाश करेंगे । स्मौर्ण देवता भी अपने-अपने अंश से पृथ्वीपर अवतीर्ण हो पहले से उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्यों के साथ युद्ध करे । इसमें संदेह नहीं की नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से चूर्ण होकर सम्पूर्ण दैत्य नष्ट हो जायेंगें । व्स्तुदेव की पत्नी जो देवकीदेवी हैं, उनके आठवे गर्भ से मेरा यह श्याम केश प्रकट होगा । भूतलपर अवतीर्ण हो यह कालनेमि के अंश से उत्पन्न हुए कंस का वध करेगा ।’ यों कहकर भगवान श्रीहरि अन्तर्धान हो गये । अदृश्य हो जानेपर उन परमात्मा को प्रणाम करके सम्पूर्ण देवता मेरुपर्वत के शिखरपर चले गये और वहाँ से पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए ।
एक दिन महर्षि नारद ने कंस से जाकर कहा – ‘देवकी के आठवे गर्भ से भगवान विष्णु उत्पन्न होंगे, जो तुम्हारा वध करेंगे ।’ यह सुनकर कंस को बड़ा क्रोध हुआ और उसने देवकी तथा वसुदेव को कारागृह में बंदी बना लिया । वसुदेव ने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘देवकी के गर्भ से जो-जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसे मैं स्वयं लाकर दे दिया करूँगा ।’ इसके अनुसार उन्होंने अपना प्रत्येक पुत्र कंस को अर्पित कर दिया । सुना गया हैं प्रथम उत्पन्न हुए छ: गर्भ हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, जिन्हें भगवान विष्णु की प्रेरणा से योगनिद्रा ने क्रमश: देवकी के उदर में स्थापित कर दिया था । योगनिद्रा भगवान विष्णु की महामाया हैं, जिसने अविद्यारूप से सम्पूर्ण जगत को मोहित कर रखा है । उससे श्रीहरि ने कहा – ‘निद्रे ! तू मेरी आज्ञा से जा और पातालवासी छ: गर्भों को एक-एक करके देवकी के गर्भ में पहुँचा दे । ये सब कंस के हाथसे मारे जायेंगे । तत्पश्चात मेरा शेष नामक अंश अपने अंशांश से देवकी के उदर में सातवें गर्भ के रूप में प्रकट होगा । वसुदेवजी की दूसरी भार्या रोहिणी आजकल गोकुल में रहती हैं । तू प्रसवकाल में वह गर्भ रोहिणी के ही उदर में डाल देना । उसके विषय में लोग यही कहेंगे कि ‘देवकी का सातवाँ गर्भ भोजराज कंस के डर से गिर गया ।’ गर्भ का संकर्षण होने से रोहिणी का वह वीर पुत्र लोक में ‘संकर्षण’ नामसे विख्यात होगा । उसके शरीर का वर्ण श्वेतगिरि के शिखर की भांति गौर होगा । तदनंतर मैं देवकी के उदर में प्रवेश करूँगा । उससमय तुझे भी यशोदा के गर्भ में अविलम्ब प्रवेश करना होगा । वर्षा-ऋतू में श्रावणमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को आधी रात के समय मेरा प्रादुर्भाव होगा और तू नवमी तिथि में यशोदा के गर्भ से जन्म लेगी । उससमय वसुदेव मेरी शक्ति से प्रेरित होकर मुझे तो यशोदा की शय्यापर पहुँचा देंगे और तुझे देवकी के पास लायेंगे । फिर कंस तुझे लेकर पत्थर की शिलापर पछाड़ेगा, किन्तु तू उसके हाथ से निकलकर आकाश में ठहर जायगी । यों करनेपर इंद्र मेरे गौरव का स्मरण करके तुझे सौ-सौ बार प्रणाम करेंगे और विनितभाव से अपनी बहिन बना लेंगे । फिर तू शुम्भ – निशुम्भ आदि सहस्त्रों दैत्यों का वध करके अनल स्थान बनाकर सारी पृथ्वी की शोभा बढायेगी । भूति, संनति, कीर्ति, कान्ति, पृथ्वी, धृति, लज्जा, पुष्टि, उषा तथा अन्य जो भी स्त्री-नामधारी वस्तु हैं, वह सब तू ही है । जो प्रात:काल और अपराह्र में तेरे सामने मस्तक झुकायेंगे और तुझे आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेम्या तथा क्षेमंकरी आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे, उनके समस्त मनोरथ मेरे प्रसाद से सिद्ध हो जायेंगे । जो लोग भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थ से तेरी पूजा करेंगे, उन मनुष्योंपर प्रसन्न होकर तू उनकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करेगी । वे सब लोग सदा मेरी कृपासे निश्चय ही कल्याण के भागी होंगे; अत: देवि ! जो कार्य मैंने तुझे बताया हैं, उसे पूर्ण करने के लिये जा ।’
अध्याय- 72 भगवान अवतार, गोकुल गमन, पूतना वध, शकट भज्जन, यमला-अर्जुन उद्दार, गोपों का वृदावन गमन, बलराम और श्री कृष्ण का बछड़े चराना
व्यासजी कहते हैं – देवाधिदेव श्रीहरि ने पहले जैसा आदेश दिया था, उसके अनुसार जगज्जननी योगमायाने देवकी के उदर में क्रमश: छ: गर्भ स्थापित किये और सातवें को खींचकर रोहिणी के उदरमें डाल दिया । तदनंतर तीनों लोकों का उपकार करने के लिये साक्षात श्रीहरि ने देवकी के गर्भ में प्रवेश किया और उसी दिन योगनिद्रा यशोदा के उदर में प्रविष्ट हुई । भगवान विष्णु के अंश के भूतलपर आते ही आकाश में ग्रहों की गति यथावत होने लगी । समस्त ऋतुएँ सुखदायिनी हो गयीं । देवकी के शरीर में इतना तेज आ गया कि कोई उनकी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था । देवतागण स्त्री-पुरुषों से अदृश्य रहकर अपने उदरमें श्रीविष्णु को धारण करनेवाली माता देवकी का प्रतिदिन स्तवन करने लगे ।
देवता बोले – देवि ! तुम स्वाहा, तुम स्वधा और तुम्हीं विद्या, सुधा एवं ज्योति हो । इस पृथ्वीपर सम्पूर्ण लोकों की रक्षाके लिये तुम्हारा अवतार हुआ है । तुम प्रसन्न होकर सम्पूर्ण जगत का कल्याण करो । हमारी प्रसन्नता के लिये उन परमेश्वर को अपने गर्भ में धारण करो, जिन्होंने स्वयं सम्पूर्ण जगत को धारण कर रखा हैं ।
इसप्रकार देवताओंद्वारा की हुई स्तुतिको सुनती हुई माता देवकी ने जगत की रक्षा करनेवाले कमलनयन भगवान विष्णु को अपने गर्भ में धारण किया । तदनंतर वह शुभ समय उपस्थित हुआ, जब की समस्त विश्वरूपी कमल को विकसित करने के लिये महात्मा श्रीविष्णुरूपी सूर्यदेव का देवकी रूपी प्रभातवेला में उदय हुआ । आधी रात का समय था । मेघ मंद-मंद स्वर में गरज रहे थे । शुब मुहूर्त में भगवान जनार्दन प्रकट हुए । उस समय सम्पूर्ण देवता फूलों की वर्षा करने लगे । विकसित नील कमल के समान श्यामवर्ण, श्रीवत्सचिन्ह से सुशोभित वक्ष-स्थलवाले चतुर्भुज बालक को उत्पन्न हुआ देख परम बुद्धिमान वसुदेवजी ने उल्लासपूर्ण वचनों में भगवान का स्तवन किया और कंस से भयभीत होकर कहा- ‘शंख, चक्र एवं गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर ! मैंने जान लिया, आप साक्षात भगवान हैं; परन्तु देव ! आप मुझपर कृपा करके अपने दिव्य रूप को छिपा लीजिये । आप मेरे भवन में अवतीर्ण हुए है, यह बात जान लेनेपर कंस अभी मुझे कष्ट देगा ।’
देवकी बोली – जिनके अनंत रूप हैं, यह सम्पूर्ण विश्व जिनका ही स्वरूप हैं, जो गर्भ में स्थित होकर भी अपने शरीर से सम्पूर्ण लोकों को धारण करते हैं तथा जिन्होंने अपनी मायासे ही बाल-रूप धारण किया है, वे देवदेव प्रसन्न हों । सर्वात्मन ! आप अपने इस चतुर्भुज रूपका उपसंहार कीजिये । दैत्यों का संहार करनेवाले देवेश्वर ! आपके इस अवतार का वृतांत कंस न जानने पाये ।
श्रीभगवान बोले – देवि ! पूर्वजन्म में तुमने मुझ-जैसे पुत्र को पाने की अभिलाषा से जो मेरा स्तवन किया था, वह आज सफल हो गया; क्योंकि आज मैंने तुम्हारे उदर से जन्म लिया है ।
मुनिवरो ! यों कहकर भगवान मौन हो गये तथा वसुदेवजी भी रात में ही उन्हें लेकर घरसे बाहर निकले । वसुदेवजी के जाते समय पहरा देनेवाले मथुरा के द्वारपाल योगनिद्रा के प्रभाव से अचेत हो गये थे । उस रात में बादल वर्षा कर रहे थे । यह देख शेषनागने छत्र की भांति अपने फणों से भगवान को ढँक लिया और वे वसुदेवजी के पीछे-पीछे चलने लगे । मार्ग में अत्यंत गहरी यमुना वह रही थी । उनके जलमें नाना प्रकार की सैकड़ों लहरें उठ रही थी, किन्तु भगवान विष्णु को ले जाते समय वे वसुदेवजी के घुटनोंतक होकर बहने लगीं । वसुदेवजी ने उसी अवस्था में यमुना को पार किया । उन्होंने देखा, नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप राजा कंस का कर लेकर यमुना के तटपर आये हुए हैं । इसीसमय यशोदाजी ने भी योगमाया को कन्यारूप में जन्म दिया । परन्तु वे योगनिद्रा से मोहित थी; अत: ‘पुत्र हैं या पुत्री’ इस बात को जान न सकी । प्रसूतिगृह में और भी जो स्त्रियाँ थी, वे सब निद्रा केर कारण अचेत पड़ी थी । वसुदेवजी ने चुपके से अपने बालक को यशोदा की शय्यापर सुला दिया और कन्याको ;लेकर तुरंत लौट गये । जागनेपर यशोदा ने देखा, ‘मेरे नील कमल के समान श्यामसुंदर बालक हुआ है ।’ इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । वसुदेवजी भी कन्या को लेकर अपने घर लौट आये और देवकी की शय्यापर उसे सुलाकर पहले की भांति बैठ रहे । इतने में ही बालक के रोने का शब्द सुनकर पहरा देनेवाले द्वारपाल सहसा उठकर खड़े हो गये । उन्होंने देवकी के सन्तान होने का समाचार कंस से निवेदन किया । कंस ने शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर उस बालिका को उठा लिया । देवकी रुँधे हुए कंठ से ‘छोडो, छोड़ दो इसे’ यों कहकर उसे रोकती ही रह गयीं । कंस ने उस कन्या को एक शिलापर दे मारा; किन्तु वह आकाश में ही ठहर गयी और आयुधोंसहित आठ बड़ी-बड़ी भुजाओंवाली देवी के रूप में प्रकट हुई । उसने ऊँचे स्वर से अट्टहास किया और कंससे रोषपूर्वक कहा – ओ कंस ! मुझे पटकने से क्या लाभ हुआ । जो तेरा वध करेंगे, वे प्रकट हो चुके हैं । देवताओं के सर्वस्वभुत वे श्रीहरि पूर्वजन्म में भी तेरे काल थे । इस सब बातोंपर विचार करके तू शीघ्र ही अपने कल्याण का उपाय कर ।’ यों कहकर देवी कंस के देखते-देखते आकाशमार्ग से चली गयी । उसके शरीरपर दिव्या हार, दिव्य चंदन और दिव्य आभूषण शोभा पा रहे थे और सिद्धगण उसकी स्तुति करते थे ।
तदनंतर कंस के मन में बड़ा उद्वेग हुआ । उसने प्रलम्ब और केशी आदि समस्त प्रधान असुरों को बुलाकर कहा – ‘महाबाहू प्रलम्ब ! केशी ! धेनुक ! और पूतना ! अरिष्ट आदि अन्य सब वीरों के साथ तुमलोग मेरी बात सुनो । दुरात्मा देवताओं ने मुझे मार डालने का यत्न प्रारम्भ किया हैं । किन्तु वे मेरे पराक्रम से भलीभांति पीड़ित हो चुके हैं । अत: मैं उन्हें वीरों की श्रेणी में नहीं गिनता । दैत्यवीरों ! मुझे तो कन्या की कही हुई बात आश्चर्य-सी प्रतीत होती है । देवता मेरे विरुद्ध प्रयत्न कर रहे हैं – यह जानकर मुझे हँसी आ रही है । तथापि दैत्येश्वरो ! अब हमें उन दुष्टों का और अधिक अपकार करने की चेष्टा करनी चाहिये । देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुई बालिकाने यह भी कहा है कि ‘भुत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी विष्णु, जो पूर्वजन्म में भी मेरी मृत्यु के कारण बन चुके हैं, कहीं-न-कहीं उत्पन्न हो गये ।’ अत: इस भूतलपर बालकों के दमन का हमें विशेष प्रयत्न करना चाहिये । जिस बालक में बल की अधिकता जान पड़े, उसे यत्नपूर्वक मौत के घाट उतार देना चाहिये ।’
असुर्यों को ऐसी आज्ञा देकर कंस अपने घर गया और विरोध छोडकर वसुदेव तथा देवकी से बोला- ‘मैंने आप दोनों के इतने बालक व्यर्थ ही मारे । मेरे नाश के लिये तो कोई दूसरा ही बालक उत्पन्न हुआ है । आपलोग संताप न करें । आपके बालकों की भवितव्यता ही ऐसी थी । आयु पूरी होनेपर कौन नहीं मारा जाता ।’ इसप्रकार सांत्वना दे कंस ने उन दोनों के बंधन खोल दिये और उन्हें सब प्रकार से संतुष्ट किया । तत्पश्चात वह अपने महल के भीतर चला गया ।
बंधन से मुक्त होनेपर वसुदेवजी नन्द के छकड़े के पास आये । नन्द बड़े प्रसन्न दिखायी दिये । मुझे पुत्र हुआ है, यह सोचकर वे फूले नही समाते थे । वसुदेवजी ने भी कहा- ‘बड़े सौभाग्य की बात हैं कि इससमय वृद्धावस्था में आपको पुत्र हुआ है । अब तो आपलोगों ने राजा का वार्षिक कर चूका दिया होगा । जिसके लिये यहाँ आये थे, वह काम पूरा हो गया । यहाँ किसी श्रेष्ठ पुरुष को अधिक नही ठहरना चाहिये । नंदजी ! जब कार्य हो गया, तब आपलोग क्यों यहाँ बैठे है । शीघ्र ही अपने गोकुल में जाइये । वहाँ रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न मेरा भी एक बालक हैं । उसका भी अपने ही पुत्र की भांति लालन-पालन कीजियेगा ।’
वसुदेवजी के यों कहनेपर नन्द आदि गोप छकड़ोंपर सामान लादकर वहाँ से चल दिये । उनके गोकुलमे रहते समय रात में बालकों की हत्या करनेवाली पूतना आयी और सोये हुए कृष्ण को लेकर अपना स्तन पिलाने लगी । पूतना रातमें जिस-जिस के मुख में अपना स्तन डालती थी, उस-उस बालक का शरीर क्षणभर में निर्जीव हो जाता था । श्रीकृष्ण ने उसके स्तन को दोनों हाथों से पकडकर खूब जोरसे दबाया और क्रोध में भरकर उसके प्राणोंसहित दूध पीना आरम्भ किया । उस राक्षसी के शरीर की नस-नाड़ियों के बंधन छिन्न-भिन्न हो गये । वह जोर-जोरसे कराहती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी । मरते समय उसका शरीर बड़ा भयंकर हो गया । पूतना का चीत्कार सुनकर समस्त व्रजवासी भय के मारे जाग उठे । उन्होंने आकर देखा, पूतना मरी पड़ी है और श्रीकृष्ण उसकी गोद में बैठे है । यह देखकर माता यशोदा थर्रा उठी और श्रीकृष्ण को शीघ्र ही गोदमें उठाकर गाय की पूँछ घुमाने आदि के द्वारा अपने बालक के ग्रह-दोष को शांत किया । नन्द ने भी गाय का गोबर ले श्रीकृष्ण के मस्तक में लगाया और उनकी रक्षा करते हुए इस प्रकार बोले – ‘समस्त प्राणियों की उत्पत्ति करनेवाले भगवान श्रीहरि, जिनके नाभिकमल से सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ हैं, तुम्हारी रक्षा करें । जिनकी दाढ के अग्रभागपर रखी हुई यह पृथ्वी सम्पूर्ण जगत को धारण करती हैं, वे वराहरूपधारी केशव तुम्हारी रक्षा करें । तुम्हारें गुदाभाग और उदर की रक्षा भगवान विष्णु तथा जंघा और चरणों की रक्षा श्रीजनार्दन करें । जो एक ही क्षण में वामन से विराट बन गये और तीन पगों से सारी त्रिलोकी को नापकर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न दिखायी देने लगे, वे भगवान वामन तुम्हारी सदा रक्षा करे । तुम्हारे सिर की गोविन्द तथा कंठ की केशव रक्षा करें ।
इसप्रकार नंदगोपद्वारा स्वस्तिवाचन होनेपर बालक श्रीकृष्ण छकड़े के नीचे एक खटोलेपर सुलाये गये । गोपों को मरी हुई पूतना का विशाल शरीर देखकर अत्यंत भय और आश्चर्य हुआ । इ कदीन की बात हैं, मधुसुदन श्रीकृष्ण छकड़े के नीचे सोये हुए थे । उससमय वे दूध पीने ले ;लिये जोर-जोरसे रोने लगे । रोते – ही – रोते उन्होंने अपने दोनों पैर ऊपर की ओर फेंकने आरम्भ किये । उनका एक पैर छकड़े से छू गया । उसके हल्के आघात से ही वह छकड़ा उलटकर गिर पड़ा । उसपर र्केह हुए मटके और घड़े आदि टूट-फुट गये । उससमय समस्त गोप-गोपियाँ हाहाकार करती हुई वहाँ आ पहुँची । उन्होंने देखा, ‘बालक श्रीकृष्ण उतान सोये हुए है ।’ तब गोपों ने पूछा – ‘किसने इस छकड़े को उलट दिया ?’ वही कुछ बालक खेल रहे थे । उन्होंने कहा ‘ इस बच्चे ने ही गिराया है ।’ यह सुनकर गोपों के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ । नन्दगोप ने अत्यंत विस्मित होकर बालक को गोद में उठा लिया । यशोदा ने भी आश्चर्यचकित हो टूटे-फूटे भाँड़ो के टुकड़ों और छकड़े की दही, फूल, फल और अक्षत से पूजा की ।
एक दिन वसुदेवजी की प्रेरणा से गर्गजी गोकुल में आये और अन्य गोपों से छिपे-छिपे ही उन्होंने उन दोनों बालकों के द्विजोचित संस्कार किये । उनके नामकरण –संस्कार करते हुए परम बुद्धिमान गर्गजी ने बड़े बालक का नाम ‘राम’ और छोटे का ‘कृष्ण’ रखा । थोड़े ही दिनों में वे दोनों बालक महाबलवान के रूप में प्रसिद्ध हो गये । घुटनों के बलसे चलने के कारण उनके दोनों घुटनों और हाथों में रगड़ पड़ गयी थी । वे शरीर में गोबर और राख लपेटे इधर-उधर घुमा करते थे । यशोदा और रोहिणी उन्हें रोक नही पाती थी । कभी गौओ के बाड़े में खेलते-खेलते बछड़ों के बाड़े में निकल जाते थे । कभी उसी दिन पैदा हुए बछड़ों की पूँछ पकडकर खींचने लगते थे । वे दोनों बालक एक ही स्थानपर साथ-साथ खेलते और अत्यंत चपलता दिखाते थे । एक दिन, जब यशोदा उन्हें किसी प्रकार रोक न सकीं, तब उनके मनमें कुछ क्रोध हो आया । उन्होंने अनायास ही बड़े-बड़े कार्य करनेवाले श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कस दी और उन्हें ऊखल से बाँध दिया । उसके बाद कहा – ‘ओ चंचल ! तू बहुत ऊधम मचा रहा था । अब तुझमें समार्थ्य हो तो जा ।’ यों कहकर गृहस्वामिनी यशोदा अपने काम-काज में लग गयीं । जब यशोदा घरके काम-धंधे में फँस गयीं, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ऊखल को घसीटते हुए दो अर्जुन वृक्षों के बीच से जा निकले । वे दोनों वृक्ष जुड़वे उत्पन्न हुए थे । उन वृक्षों के बीच में तिरछी पड़ी हुई ऊखली को ज्यों ही उन्होंने खींचा, उसी समय ऊँची शाखाओंवाले वे दोनों वृक्ष जड़ से ऊखडकर गिर पड़े । वृक्षों के उखड़ते समय बड़े जोर से कडकडाहटकी आवाज हुई । उसे सुनकर समस्त व्रजवासी कातरभाव से वहाँ दौड़े आये । आनेपर सबने देखा वे दोनों महावृक्ष पृथ्वीपर गिरे पड़े हैं । उनकी मोटी-मोटी डालियाँ और पतली शाखाएँ भी टूट-टूटकर बिखर गयी हैं । उन दोनों के बीच में बालक कृष्ण मंद-मंद मुसकरा रहा है । उसके खुले हुए मुख से थोड़े से दांत झलक रहे हैं । उसकी कमर में खूब कसकर रस्सी बँधी हुई है । ऊदर में दाम (रस्सी) बाँधने के कारण की श्रीकृष्ण की दामोदर के नामसे प्रसिद्धि हुई ।
तदनंतर नन्द आदि समस्त बड़े-बड़े गोप, जो बड़े-बड़े उत्पातों के कारण बहुत डर गये थे, उद्धिग्न होकर आपसमें सलाह करने लगे – ‘अब हमें इस स्थानपर रहने की कोई आवश्कता नहीं हैं । किसी दूसरे महान वन में चलना चाहिये । यहाँ नाश के हेतुभूत अनेक उत्पात देखे जाते हैं – जैसे पूतना का विनाश, छकड़े का उलट जाना और बिना आँधी वर्षा के ही दोनों वृक्षों का गिरना आदि । अत: अब हम बिलम्ब न करके शीघ्र ही यहाँ से वृन्दावन को चल दें । जबतक कोई भूमिसंबंधी दूसरा महान उत्पात व्रज को नष्ट न कर दे, तबतक ही हमें उसकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये ।’ इस प्रकार वहाँ से चले जाने का निश्चय करके समस्त व्रजवासो अपने-अपने कुटुंब के लोगों से कहने लगे – ‘शीघ्र चले, विलम्ब न करो ।’ फिर तो एक ही क्षण में छकड़ों और गौओं के साथ सब लोग वहाँ से चल दिये । बछड़ों के चरवाहे झुण्ड -के – झुण्ड एक साथ होकर उन बछड़ों को चराते हुए चलते थे । व्रज का वह खाली किया हुआ स्थान अन्न के दाने बिखरे होने के कारण क्षणभर में कौए आदि पक्षियों से व्याप्त हो गया । अत: अत्यंत रुक्ष ग्रीष्मकाल में भी वहाँ सब ओर वर्षाकाल की भांति नयी-नयी घास जम गयी । वृन्दावन में पहुँचकर वह समस्त गोप-गौओं का समुदाय चारों ओरसे अर्धचन्द्रकार छकड़ों की बाड़ लगाकर बस गया । और वृन्दावन धाम का चिन्तन किया ।
तत्पश्चात बलराम और श्रीकृष्ण बछड़ों की चरवाही करने लगे । गोष्ठ में रहकर वे दोनों भाई अनेक प्रकार की बाल लीलाएँ किया करते थे । मोर के पंख का मुकुट बनाकर पहनते, जंगली पुष्पों को कानों में धारण करते, कभी मुरली बजाते, उन्ही के छिद्रों से तरह-तरह की ध्वनि निकालते थे । दोनों काक-पक्षधारी बालक हँसते-खेलते हुए उस महान वनमें विचरण करते थे । कभी आपस में ही एक-दूसरे को हँसाते हुए खेलते और कभी दूसरे ग्वालबालों के साथ बालोचित क्रीड़ाएँ करते फिरते थे । इससमय समय बीतने पर बलराम और श्रीकृष्ण सात वर्ष के हो गये । जो सम्पूर्ण जगत का पालन करनेवाले हैं, वे उस महाव्रज में बछड़ों के पालक बने हुए थे । धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतू के बाद वहाँ वर्षाका समय आया । मेघों की घटासे सम्पूर्ण आकाश आच्छादित हो गया । निरंतर धारावाहिक वृष्टि होने से सम्पूर्ण दिशाएँ एक-सी जान पढती थी । पानी पड़ने से नयी-नयी घास उग आयी । स्थान-स्थानपर बीरबहूटीयों से पृथ्वी आच्छादित हो गयी । जैसे पन्ने के फर्शपर लाल मणि की ढेरी शोभा पाती है । जैसे नूतन सम्पत्ति पाकर उद्धत मनुष्यों के मन कुमार्ग में प्रवृत्त होने लगते हैं, उसी प्रकार वर्षा के जल से भरी हुई नदियों का पानी बाँध तोडकर तटके ऊपरसे बहने लगा । संध्या होनेपर महाबली राम और श्रीकृष्ण इच्छानुसार व्रज में लौट आते और अपने समवयस्क ग्वाल बालों के साथ देवताओं की भान्ति क्रीडा करते थे ।
अध्याय- 73 कालिय नागका दमन
व्यासजी कहते हैं- एक दिनकी बात है- श्री कृष्ण अपने बड़े भाई बलरामजीको साथ लिये बिना ही वृन्दावनके भीतर गये और ग्वालबालोंके साथ विचरने लगे। जंगली पुष्पोंका हार पहननेके कारण वे बड़े सुन्दर दिखायी देते थे। घूमते-घूमते श्रीकृष्ण चञ्चल लहरोंसे सुशोभित यमुनाके तटपर गये, जो तटपर लगे हुए फेनों के रूपमें मानो सब ओर हास्यकी छटा बिखेर रही थी। उस यमुनामें एक कालिय नागका कुण्ड था, जो विषाग्निके कणोंसे दूषित होनेके कारण अत्यन्त भयंकर हो गया था। श्रीकृष्णने उस भयानक कुण्डको देखा। उसकी फैलती हुई विषाग्निसे तटके बड़े-बड़े वृक्ष दग्ध हो गये थे। वायुके आघातसे जो जलमें हिलोर उठती थी और उससे जो जलके छींटे चारों ओर पड़ते थे, उनका स्पर्श हो जानेपर पक्षी जलकर भस्म हो जाते थे। वह महाभयंकर कुण्डे मृत्युका दूसरा मुख था। उसे देखकर भगवान् मधुसूदनने सोचा, ‘इस कुण्डके भीतर दुष्टात्मा कालिय नाग रहता है, जिसका विष ही शस्त्र हैं। इसने यहाँ सागरगामिनी यमुनाका सारा जल दूषित कर दिया है। प्याससे पीड़ित मनुष्य अथवा गौएँ इस जलका उपयोग नहीं कर सकते। अतः मुझे नागराज कालियका दमन करना चाहिये, जिससे सदा भयभीत रहनेवाले ब्रजवासी यहाँ सुखपूर्वक विचर सकें। मैंने मनुष्यलोकमें इसीलिये अवतार धारण किया है। कि इन कुमार्गगामी दुरात्माओंको दण्ड देकर राहपर लाऊँ। वहाँ पास ही बहुत-सी शाखाओं से सम्पन्न कदम्बका वृक्ष है। उसीपर चढ़कर जीवोंका नाश करनेवाले इस सर्पके कुण्डमें कूदूंगा।’
ऐसा निश्चय करके भगवान्ने अच्छी तरह कमर कस ली और वे वेगपूर्वक नागराजके कुण्डमें कूद पड़े। उनके कूदनेसे वह महान् कुण्ड क्षुब्ध हो उठा। पानीकी ऐसी हिलोर उठी कि बहुत दूरके वृक्ष भी भीग गये। सर्पकी विषाग्निद्वारा तपे हुए जलसे भीगनेके कारण वे सभी वृक्ष सहसा जल उठे। चारों दिशाओं में आगकी लपटें फैल गयीं। उस नागकुण्डमें पहुँचकर श्रीकृष्णने अपनी भुजाओंपर ताल ठोंकी। उसका शब्द सुनकर नागराज उनके पास आया। उसके नेत्र क्रोधसे लाल हो रहे थे। उसके फणसे विषाग्निकी लपटें निकल रही थीं। और भी बहुत-से विषैले नाग उसे घेरे हुए थे। सैकड़ों नागपलियाँ भी वहाँ उपस्थित थीं, जो मनोहर हार पहनकर बड़ी शोभा पा रही थीं। उनके अङ्गकै हिलने-डुलनेसे कानोंके चशल कुण्डल झिलमिला रहे थे। सपने श्रीकृष्णको अपने शरीरमें लपेट लिया और वे विषको ज्वालासे भरे हुए मुखद्वारा उन्हें इसने लगे। श्रीकृष्णको कुण्डमें पड़कर नागके फणों से पीड़ित होते देख ग्वाल-बाल ब्रजमें दौड़े आये और शोकाकुल होकर रोते हुए बोले-‘ व्रजवसियो ! श्रीकृष्ण कालियदमें डूबकर मूच्छित हो गये हैं। नागराज उन्हें खाये लेता है। तुम जल्दी आओ, विलम्ब न करो।’
यह बात सुनकर मानो गोपोंपर ब्रज टूट पड़ा। समस्त गोप और यशोदा आदि गोपियाँ तुरंत कालियपर दौड़ी आयीं। ‘हाय, हाय, प्यारे कृष्ण कहाँ हैं?’ इस प्रकार विलाप करती हुई गोपियाँ अत्यन्त व्याकुल हो उठों और यशोदाके साथ गिरती-पड़ती हुई वहाँ आयीं। नन्दगोप, अन्य गोपगण तथा अद्भुत पराक्रमी बलराम भी श्रीकृष्णको देखनेके लिये तुरंत यमुनानटपर जा पहुँचे। पुत्रका मुंह देखकर नन्दगोप और माता यशोदा दोनों जडवत् हो गये। अन्यान्य गोपियाँ भी शोकले आतुर हो रोती हुई श्रीकृष्णकी और देखने लगीं। वे भयसे कातर हो गद्गद वाणीमें प्रेमपूर्वक बोल-‘हम सब लोग यशोदाके साथ नागराजके महान् कुण्डमें प्रवेश करें। अब ब्रजमें लौटना हमारे लिये उचित नहीं हैं। भला, सूर्यके बिना दिन और चन्द्रमाके बिना रात कैसे। दूधके बिना गएँ और श्रीकृष्णके बिना ब्रज किस कामका। हम श्रीकृष्णके बिना गोकुलने नहीं जायेंगी।’
गोपियोंके ये वचन सुनकर रोहिणीनन्दन महाबलो बलमने देखा-गोपगग बहुत दुःखी हैं। इनकी आँखें आँसुओंसे भीगी हुई हैं। नन्दजी भी पुत्रके मुखपर दृष्टि लगाये अत्यन्त कातर हो रहे हैं और यशोदा अपनी सुध-बुध खो बैठी हैं। तब उन्होंने अपनी संकेतमयी भाषामें श्रीकृष्णको उनके माहात्म्यको स्मरण दिलाते हुए कहा-‘ देवदेवेश्वर ! तुम क्यों इस प्रकार मानवभाव व्यक्त कर रहे हो। क्या इस बातको नहीं जानते कि तुम झन मानवसे भिन्न साक्षात् परमात्मा हो? तुम्हीं इस जगत्के केन्द्र हो। देवताओंका आश्रय भी तुम्ही हो। तुम्हीं त्रिभुवनकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले त्रयीमय परमेश्वर हो। हम दोनों इस समय यहाँ अवतीर्ण हुए हैं। इस व्रजमें ये गोप-गोपियाँ ही हमारे बान्धव हैं। ये सब-के-सब तुम्हारे लिये दुःखी हो रहे हैं। फिर क्यों अपने इन बन्धुओंकी उपेक्षा करते हो। तुमने मनुष्यभाव अच्छी तरह दिखा लिया। बालोचित चपलता दिखाने में भी कोई कमी नहीं की। अब यह खेल रहने दो और दाँतों से ही अस्त्र-शस्त्रका काम तेनेवाले इस दुरात्मा नागका दमन करो।’
बलरामजीके द्वारा इस प्रकार स्मरण दिलाये जानेपर श्रीकृष्णके होठ मन्द मुसकानसे खिन उठे। उन्होंने अंगड़ाई लेकर अपने शरीरको साँपोंके बन्धनसे छुड़ा लिया और दोनों हाथोंसे उसके बीचके फणको नीचे झुकाकर वे उसपर चढ़ गये और शीघ्रतापूर्वक पैर चलाते हुए नृत्य करने लगे। श्रीकृष्णके चरणोंके आघातसे उस नागके फणमें कई घाव हो गये। वह जिस फणको ऊपर उठाता, उसीको भगवान् अपने पैरोंसे झुकाकर दवा देते थे। श्रीकृष्णके द्वारा कुचले जानेसे नागको चक्कर आने लगा। वह मूर्छित होकर डंडेकी भांति पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसके मस्तक और गर्दन टेढ़े हो गये थे। मुखसे रक्तको अजस धारा बह रही थी। यह देखकर नागराजको पलियाँ भगवान् मधुसूदनकी शरणमें गयी।
नागपत्नियाँ बोलीं- देवदेवेश्वर ! हमने आपको पहचान लिया। आप सबके ईश्वर और सबसे उत्तम हैं। अचिन्त्य परमज्योति:स्वरूप जो ब्रह्म हैं, उसीके अंशभूत आप परमेश्वर हैं। देवता भी जिन स्वयम्भू प्रभुकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हैं, उन्हींकै स्वरूपका वर्णन हम-जैसी साधारण स्त्रियाँ कैसे कर सकती हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायुरूप यह ब्रह्माण्ड जिनके छोटे-से अंशका भी अंश है, उस भगवान्की स्तुति हम कैसे कर सकती हैं। जगन्नाथ ! हम बड़े कष्टमें पड़ गयी हैं। आप हमपर कृपा करें। यह नाग अब प्राण त्यागना चाहता है। हमें पतिकी भिक्षा दें।
उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर कालिय नागको कुछ आश्वासन मिला। यद्यपि उसक शरीर अत्यन्त शिथिल हो गया था तो भी ब्रह्म धीरे-धीरे बोला-‘देवदेव ! मुझपर प्रसन्न हों। नाथ ! आपमें अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य स्वाभाविक हैं। आपसे बढ़कर अन्यत्र कहीं भी उनकी स्थिति नहीं है। ऐसे आप परमेश्वरकी में क्या स्तुति करूंगा। आप पर हैं। पर (मूल प्रकृति) के भी आदि कारण हैं। परकी प्रवृति भी आपसे ही हुई है। परात्मन् ! आप परसे भी पर हैं। फिर मैं कैसे आपकी स्तुति कर सकता हूँ। ईश्वर । आपने शारि, रुप और स्वभावसे मुझे जैस बनाया है, उसके अनुसार ही मैंने यह चेष्टा की है। देवदेव ! यदि इन सबके विपरीत कौई चेष्टा करूं तो मुझे दण्ड देना उचित हो सकता है। क्योंकि आपका ऐसा ही आदेश हैं तथापि आप जगत्के स्वामी हैं। आपने मुझको जो दण्ड दिया है, उसे मैंने सहर्ष स्वीकार किया; क्योंकि आपसे मिला हुआ दण्ड भी वरदान है। अब मेरे लिये दूसरे वरको आवश्यकता नहीं है। अच्युत ! आपने मेरे बलका नाश किय, मेरे विषको भी हर लिया और पूर्णरूपसे मेरा मन भी कर दिया। अब एकमात्र जीवन रह गया है। उसे छोड़ दीजिये और कहिये, आपको क्या सेवा करूं?
श्रीभगवान् बोले- ‘सर्प ! अब तुम्हें यहाँ यमुनाल कदापि नहीं न चाहिये। अपने भृत्य और परिवारके साथ समुद्रके जलमें चले जाओ नाग ! तुम्हारे मस्तकपर मेरे चरणचिह्न देखकर नागके शत्रु गरुड़ तुमपर प्रहार नहीं करेंगे।’
यों कहकर भगवान् श्रीहरि नागराजको छोड़ दिया। वह भी श्रीकृष्णको प्रणाम करके समुद्र चल गया। उसने सबके देखते-देखते सेवक, संतान, बन्धु-बान्धव और पत्नियोंके साथ सदाकै लिये वह कुण्ड त्याग दिया। सर्पके चले जानेपर गोपने दौड़कर श्रीकृष्णको छातीसे लगा लिया, मानो वे मरकर पुन: लौट आये हों। उनके नेत्रोंसे आँसू निकलकर श्रीकृष्णके मस्तकपर गिरने तगे। कुछ गोप विस्मित होकर श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगे। यमुना नदीका जल विषसे रहित हो गया-यह देख समस्त गोपोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। गोपियाँ श्रीकृष्णकी मनोहर लीलाओंका गान करने लगीं और ग्वाल-बाल उनके गुणोंकी प्रशंसा करने लगे। उन सबके साथ श्रीकृष्ण व्रजमें आये।
अध्याय- 74 धेनुक और प्रलम्बका वध तथा गिरियज्ञका अनुष्ठान
व्यासजी कहते हैं-एक दिन बलराम और श्रीकृष्ण साथ-साथ गौएँ चराते हुए वनमें विचरने लगे। घूमते-घूमते वे परम रमणीय ताड़के वनमें जा पहुँचे। वहाँ धेनुक नामक दानव गदहेके रूपमें सदा निवास करता था। मनुष्यों और गौओंका मांस ही उसका भोजन था। फलको समृद्धिसे पूर्ण मनोहर तलवनको देखकर ग्वालबाल वहाँके फत सेनेको ललचा उठे और बोले- ‘भैया राम ! ओ कृष्ण ! धेनुकासुर सदा इस भूभागकी रक्षा करता है। इसीलिये ये ताड़ोके सुगन्धित फल लोगोंने छोड़ रखे हैं। हम इन्हें प्राप्त करना चाहते हैं। यदि आपलोगोंको जंचे तो इन फलोंको गिराइये।’ ग्वाल-बालोंकी यह बात सुनकर बलराम और श्रीकृष्णने बहुत-से तालफल पृथ्वीपर गिराये। गिरते हुए फलोंका शब्द सुनकर वह गर्दभाकार दुष्ट दैत्य क्रोधमें भरा हुआ आया। आते ही उसने अपने दोनों पिछले पैरोंसे बलरामजीकी छातीमें प्रहार किया। बलरामजीने उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाना आरम्भ किया। घूमानेनेसे आकाशमें ही उसके प्राणपखेरू उड़ गये। फिर वेगसे बलरामजीने उसे एक महान् ताल-वृक्षपर दे मारा। जैसे आँधी बादलको उड़ा देती है, उसी प्रकार उस दैत्यने गिरते-गिरते अपने शरीरके आघातसे बहुतेरे फल गिरा दिये। उसके मारे जानेपर और भी बहुत-से गर्दभाकार दैत्य आये, किंतु श्रीकृष्ण और बलभद्रने उन सबको खेल-खेलमें ही उठाकर वृक्षों पर फेंक दिया। एक ही क्षणमें पके हुए ताड़के फलों और गर्दभाकार दैत्योंके शरीरसे सारी पृथ्वी पट गयी । इससे उस स्थानकी बड़ी शोभा होने लगी। तबसे उस तालवनमें गएँ बाधारहित होकर नयी-नयी घास चरने लगीं।
अनुचरोंसहित धेनुकासुरके मारे जानेपर वह मनोहर तालवन समस्त गोप-गोपियों के लिये सुखदायक हो गया। इससे वसुदेवके दोनों पुत्र बलराम और श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए। वे दोनों महात्मा छोटे-छोटे सींगोंवाले बछडोकी भाँति शोभा पा रहे थे। कंधेपर गाय बाँधनेकी रस्सी लिये, वनमालासे विभूषित हो वे दूर-दूतक गौएँ चराते और उनके नाम ले-लेकर पुकारते थे। श्रीकृष्णका ब्रज सुनहरे रंगका था और बलरामजींका नीले रंगका। उन्हें धारण किये वे दोनों भाई दो इन्द्रधनुषों एवं श्वेत-श्याम मेघोंकी भाँति शोभा पाते थे। लोकमें मालकोंके जो-जो खेल प्रचलित हैं, उन सबके द्वारा परस्पर क्रीड़ा करते हुए उनमें विचरते थे । समसा लोकनाथोंके नाथ होकर भी वे इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए और मानवधर्ममें तत्पर रहकर मनुष्ययोनिको गौरवान्वित करते थे।
मानव-जातिके गुणसे युक्त भाँति-भांतिके खेल खेलते हुए वनमें घूमते थे। कभी झूला झूलकर और कभी आपसमें कुश्ती लड़कर महाबली श्रीराम और श्रीकृष्ण व्यायाम करते थे। उन दोनों को खेलते देख प्रलम्ब नामक दानव उन्हें पकड़ ले जानेकी इच्छासे वहाँ आया। उसने ग्वाल-बालोंके वैषमें अपने वास्तविक रूपको छिपा रखा था। मनुष्य न होते हुए भी मनुष्यका रूप धारण करके दानवोंमें श्रेष्ठ प्रलम्ब ग्वालबालोंकी उस मण्डलीमें बेखटके जा मिला। वह राम और कृष्ण दोनोंको उठा ले जानेका अवसर ढूंढने लगा। उसने कृष्णको तो सर्वथा अजेय समझा। अत: रोहिणीनन्दन बलरामको ही मारनेका निश्चय किया।
तदनन्तर उन ग्वाल-बालोंमें हरिणाक्रीडन नामक खेल आरम्भ हुआ। यह बालकका वह खेल है, जिसमें दो-दो बालक एक साथ हिरणकी तरह उछलते हुए किसी निश्चित लक्ष्यतक जाते हैं। आगे पहुँचनेवाला विजयी होता है। हारा हुआ बालक निजगीको अपनी पीउपर बिठाकर नियत स्थानतक आता है। इस खेलमें सब लोग सम्मिलित हुए। दो-दो बालक एक साथ उछलते हुए चले। श्रीदामाके साथ श्रीकृष्ण, प्रलम्बके साथ बलराम तथा अन्य ग्वाल-बालोंके साथ दूसरे-दूसरे बालक फूद रहे थे। श्रीकृष्णने श्रीदामाको और बलरामने प्रलम्बको जीत लिया। इसी प्रकार श्रीकृष्णपक्षके अन्य बालकने भी अपने साथियोंको हरा दिया। अब वे हारे हुए बालक एक-दूसरेको अपनी पीठपर लादे हुए भाण्डीर-वटतक आये और पुन: वहाँसे लौट चले। किन्तु दानव प्रलम्ब बलरामको अपने कंधेपर चढ़ाकर शीघ्र ही उड़ चला। वह चलता ही गया। कहीं रुका नहीं । जब वह बलरामजौका भार नहीं सह सका, तब बड़े क्रोधमें आकर वर्षाकालके मैघकी भाँति उसने अपने शरीरको बढ़ा लिया। बलरामजीने देखा, उस दैत्यका रंग जले हुए पर्वतके समान है। उसके गलेमें बहुत बड़ा हार लटक रहा था। मस्तकपर बहुत बड़ा मुकुट था। आँखें गाड़ीके पहिये-जैसी घूम रही थीं। उसके पैर रखनेसे धरती गमगाने लगती थी। उसका रूप बड़ा ही भयंकर वा। ऐसे राक्षसके द्वारा अपनेको हरे जाते देख बलरामने श्रीकृष्णसे कहा- ‘कृष्ण ! कृष्ण ! इधर तो देखो, ग्वाल-बालोंके वेषमें छिपा हुआ कोई दैत्य मुझे हरकर लिये जाता है। इसकी विकराल मूर्ति पर्वतके समान दिखायी देती है। मधुसूदन ! बताओ, इस समय मुझे क्या करना चाहिये। यह दुरात्मा बड़ी उतावलीके साथ भागा जाता है।’
यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्णके ओठ मन्द मुसकानसे खिल उठे। वे रोहिणीनन्दन बलरामके बल और पराक्रमको जानते थे। अतः उनसे बोले- ‘ सर्वात्मन् ! यह क्या बात है, आप तो स्पष्टरूपमें मनुष्यकी-सी चेष्टा करने लगे। आप सम्पूर्ण गुह्य पदार्थोंमें गुह्यसे भी गुह्य हैं। जरा अपने उस स्वरूपका तो स्मरण कीजिये, जो सम्पूर्ण जगत्का कारण, कारणोंका भी पूर्ववर्ती, अद्वितीय आत्मा और प्रलयकालमें भी स्थित रहनेवाला है । विश्वात्मन् ! आप और मैं दोनों ही इस संसारके एकमात्र कारण हैं और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यहाँ दो रूपोंमें प्रकट हैं। अप्रमेयात्मन् ! आप अपने स्वरूपको स्मरण कीजिये और इस दानवको मार डालिये। तत्पश्चात् मानुष-भावका आश्रय लेकर बन्धुजनका हित कीजिये ।’
महात्मा श्रीकृष्णके द्वारा इस प्रकार अपने स्वरूपका स्मरण कराये जानेपर महाबलीं बलरामने हँसकर प्रलम्बासुरको दबाया और क्रोधसे लाल आँखें करके उसके मस्तकपर एक मुक्का मारा। उनके इस प्रहारसे प्रलम्बके दोनों नेत्र बाहर निकल आये, मस्तिष्क फट गया और वह दैत्य मुँहसे खून उगलता हुआ पृथ्वीपर गिरकर मर गया। अद्भुत कर्म करनेवाले बलदेवजीके द्वारा प्रलम्बको मारा गया देख ग्वाल-बाल बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ ‘ कहते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे। इस प्रकार प्रलम्बासुरके मारे जानेपर ग्वाल-बालोंके मुखसे अपनी प्रशंसा सुनते हुए बलरामजी श्रीकृष्णके साथ पुनः गौओंके समूहमें आये।
इस तरह नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हुए बलराम और श्रीकृष्ण वनमें विहार करते रहे। इतनेमें ही वर्षा बीत गयी और शरद् ऋतुका आगमन हुआ। जलाशयों में कमल खिलने लगे, आकाश और नक्षत्र निर्मल हो गये। ऐसे समयमें समस्त व्रजवासी इन्द्रोत्सवका आयोजन करने लगे। उन्हें उत्सवके लिये अत्यन्त उत्सुक देख परम बुद्धिमान् श्रीकृष्णाने बड़े-बूढ़े गोपोसे कौतूहलवश पूछा-‘ यह इन्द्रौत्सव क्या वस्तु है, जिससे आपलोगोंको इतना हर्ष हुआ हैं?’ श्रीकृष्णको अत्यन्त आदरपूर्वक प्रश्न करते देख नन्द गोपने कहा-‘ बेटा! देवराज इन्द्र मेघ और जलके स्वामी हैं। उन्हींसे प्रेरित होकर मेघ जलमय रसकी वृष्टि करते हैं। उस वृष्टिसे हीं अन्न पैदा होता है, जिसे हम तथा अन्य देहधारी खाकर जीवन निर्वाह करते और देवता आदिको भी तृप्त करते हैं। ये दूध और बछड़ोंवाली गौएँ इन्द्रके अढ़ाये हुए अन्नसे ही संतुष्ट हो हृष्ट-पुष्ट रहती हैं। जहाँ वर्षा करनेवाले मेघ होते हैं, वहाँ बिना खेतीको भूमि नहीं दिखायी देती, कोई ऋणग्रस्त नहीं रहता और वहाँ एक भी भूखसे पीड़ित मनुष्य नहीं दृष्टिगोचर होता। मेघ सूर्यकी किरणद्वारा इस पृथ्वीका जल ग्रहण करते और फिर सम्पूर्ण लोकोंकी भलाईके लिये उसे बरसा देते हैं। अतः वर्षाकालमें सब राजालोग, हम तथा अन्य देहधारी भी बड़ी प्रसन्नताके साथ उत्सव मनाते और देवराज इन्द्रकी पूजा करते हैं।’
इन्द्रपूजाके विषय नन्दगोपका ऐसा कथन सुनकर भगवान् दामोदरने इन्द्रको कुपित करनेके उद्देश्यसे कहा-‘ पिताजी ! हमलोग न तो खेती करते हैं और न व्यापारसे ही जीविका चलाते हैं। हमारे देवता तो ये गौएँ ही हैं। क्योंकि हम सब लोग वनवासी हैं। आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति-ये चार प्रकारको विद्याएँ हैं। इनमेसे वातका सम्बन्ध हमलोगोंसे है। अतः उसका वर्णन सुनिये। कृषि, वाणिज्य और पशुपालन-इन तीन वृत्तियोंपर वार्ता अवलम्बित रहती है। कृषि किसानको वृत्ति हैं और वाणिज्य क्रय-विक्रय करनेवाले वैश्योंकी। हमलोगोंकी सबसे प्रधान वृत्ति है-गोपालन। इस प्रकार ये वार्ताके तीन भेद हैं। उपर्युक्त चार विद्याओं में से जो जिस विद्याओमें निर्वाह करता है, वही उसके लिये महान् देवता है। उसे उसीकी पूजा-अर्चा करनी चाहिये। वही उसके लिये उपकारक हैं। जो मनुष्य एकका दिया हुआ फल भोगता और किसी दूसरे की पूजा करता है, वह इस लोक या परलोकमें-कहीं भी कल्याणका भागी नहीं होता। हमारे इस व्रजकी जो प्रख्यात सीमाएँ हैं, उनका पूजन होना चाहिये । सीमाके भीतर वन है और वनके भीतर सम्पूर्ण पर्वत हैं, जो हमारे लिये परम आश्रय हैं। अत: हमें गिरियज्ञ और गोयज्ञ आरम्भ करना चाहिये। इन्द्रसे हमारा क्या लाभ होता है। हमारे लिये वो गौएँ और गिरिराज ही देवता हैं। ब्राह्मण मन्त्रयुक्त यज्ञको प्रधानता देते हैं। किसानोंके यहाँ सौरयज्ञ (हलपूजन) होता है और हम-जैसे वन एवं पर्वतों में रहनेवाले लोग गिरियज्ञ और गोयज्ञका अनुष्ठान करें तो उत्तम है। इसलिये मेरा विचार तो यह हैं कि आपलोग भाँति-भाँतीकी पूजा-सामग्रियों से गिरिराज गोवर्धनकी पूजा करें। सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्र किया जाय और उससे ब्राह्मणों तथा अन्य याचकोंको भोजन कराया जाय। इस प्रकार गोवर्धनका पूजन, होम और ब्राह्मण-भोजन हो जानेपर गौओंका शरद् ऋतुमें प्राप्त होनेवाले पुष्पों द्वारा शृंगार किया जाय और वे गिरिराजकी परिक्रमा करें। गोपगण ! यही मेरी सम्मति है। यदि आपलोग प्रेमपूर्वक यह यज्ञ करेंगे तो इसके द्वारा गौएँ और गिरिराज गोवर्धन प्रसन्न होंगे। साथ ही मुझे भी बड़ी प्रसन्नता होगी।’
श्रीकृष्णक यह वचन सुनकर नन्द आदि व्रजवासियोंके मुख हर्षसे प्रफुल्लित हो उठे। वे बोले, ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक। बेटा ! तुमने जो अपना मत प्रकट किया है, वह बहुत सुन्दर है। हमलोग वही करेंगे। अब गिरियज्ञका ही आरम्भ किया जाय।’ यों कहकर व्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया। गिरिराज गोवर्धनको दही और खीर आदिको बलि चढ़ायी। सैकड़ों-हजारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया। फिर गायों और साँड़की पूजा की गयी और उनके द्वारा गिरिराजकी परिक्रमा करायी गयी । साँड़ जलसे भरे मेघकी भांति गर्जना करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण दुसरे रूपमें पर्वतके शिखरपर जा बैठे और मैं ही मूर्तिमान् गिरिराज हैं-यों कहकर गोपद्वारा अर्पित किये हुए नाना प्रकार के अन्नोंका भोग लगाने लगे तथा अपने कृष्णरूपसे ही गौपोंके साथ पर्वतशिखरपर चढ़कर उन्होंने अपने द्वितीय शरीर गिरिराजका पूजन भी किया। तदनन्तर गिरिराजरूपमें प्रकट हुए भगवान् अन्तर्धान हो गये और गोपगग उनसे मनोवाञ्छित वरदान पाकर गिरियज्ञकी समाप्ति करके पुन: अपने व्रजमें लौट आये।
अध्याय- 75 इंद्रके द्वारा भगवानका अभिषेक, श्रीकृष्ण और गोपोंकी बातचीत रासलीला और अरिष्टासुरका वध
व्यासजी कहते हैं-इन्द्रयज्ञमें बाधा पड़नेले देवराज इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने मेघोंके संवर्तक नामक गणसे कहा- ‘बादलो ! मेरी बात सुनो और मैं जो भी आज्ञा दें, उसे बिना विचारे शीघ्र पूरा करो। खोटी बुद्धिवाले नन्दगोपने अन्य ग्वालोंके साथ श्रीकृष्णके बलपर उन्मत्त हो मेरे यज्ञको बंद कर दिया है। इसलिये उनकी जो सबसे बड़ी अजीविका हैं और जिनका पालन करनेके कारण वे गोप कहलाते हैं, उन गौओंको मूसलाधार वृष्टिसे पीड़ित करो। मैं भी पर्वतशिखरके समान ऊँचे ऐरावतपर सवार हो वायुके संयोगसे तुमलोगोंकी सहायता करूंगा।’ देवराजकी ऐसी आज्ञा पाकर मेघोंने गौओंका संहार करनेके लिये बड़ी भयंकर आँधी और वर्षा आरम्भ की। एक ही क्षणमें पृथ्वी, दिशाएँ और आकाश धारावाहिक वृष्टिके कारण एक हो गये। वर्षाके साथ ही वायु भी बड़े वेगसे चल रही थी। इससे काँपती हुई गौएँ प्राण त्यागने लगी। कुछ गौएँ अपने अङ्कमें बछड़ोंको छिपाकर खड़ी थीं। जलकी तेज धारा बहनेसे कितनी ही गायके बछड़े बह गये। बछडोका मुख अत्यन्त दयनीय हो रहा था। वायुके वेगसे उनकी गर्दन काँप रही थी। मानो वे आर्त होकर मन्द स्वरमें श्रीकृष्णसे त्राहि-त्राहिकी पुकार कर रही थीं। भगवान्ने देखा-गौओं, गोपियों और ग्वालों से भरा हुआ सम्पूर्ण व्रज अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। तब उन्होंने उनकी रक्षाके लिये इस प्रकार विचार किया-‘जान पड़ता है यह सब देवराज इन्द्रकी करतूत है। अपना यज्ञ बंद होनेसे वे हमलोगोंके विरोधी हो गये हैं। इस समय मुझे समस्त व्रजकी रक्षा करनी चाहिये । यह गोवर्धन पर्वत बड़ी-बड़ी शिलाओंसे युक्त है। इसको अपने बलसे उखाड़कर मैं ब्रजके ऊपर छत्रकी भाँति धारण करूंगा।’
ऐसा निश्चय करके श्रीकृष्णने गोवर्धन पर्वतको उखाड़ लिया और उसे लीलापूर्वक एक ही हाथसे धारण किया। पर्वत उखाड़नेके बाद जगदीश्वर श्रीकृष्णने गोपोंसे कहा-‘ मैंने वर्षासे बचनेका उपाय कर दिया। तुम सब लोग इसके नीचे आ जाओ और जहाँ वायुका झोंका न लगे, ऐसे स्थानोंमें यथायोग्य बैठ जाओ। किस प्रकारका भय न करो। पर्वतके गिरनेकी आशङ्का बिलकुल छोड़ दो।’ भगवन्के यों कहनेपर समस्त गोप छुकड़ोंपर बर्तन-भाँडै लादे गौओंके साथ उसके नीचे आ गये। वर्षाकी धारासे पीड़ित हुई गोपियाँ भी वहीं आ गयीं। श्रीकृष्णने गोवर्धन पर्वतको स्थिरतापूर्वक धारण कर रखा था। वह तनिक भी हिलता-डुलता नहीं था। व्रजमें रहनेवाले गोप-गोपीजन हर्ष और विस्मयपूर्ण दृष्टिसे उन्हें देखते रहे। वे प्रेमपूर्वक निर्निमेष नेत्रोंसे देखने हुए भगवान्की स्तुति करते रहे। नन्दके व्रजमें मेघोंने लगातार सात रातोंतक वर्षा की। वे इन्द्रकी आज्ञासे गोपोंका विनाश करनेपर तुले थे। परंतु श्रीकृष्ण तबतक उस पर्वतको धारण किये खड़े ही रह गये। इससे गोकुलकी पूर्ण रक्षा हुई और इन्द्रकी प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। तब उन्होंने बादलको वर्षा करनेसे रोक दिया। बादल हट गये। आकाश स्वच्छ हो गया और इन्द्रका षड्यन्त्र सफल न हो सका। तब समस्त ब्रजके लोग प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे निकलकर पुनः अपने स्थानपर आये। फिर श्रीकृष्णने भी महापर्वत गोवर्धनको यथास्थान रख दिया। व्रजवासी विस्मित होकर उनकी यह लीला देख रहे थे।
श्रीकृष्णने गोवर्धन पर्वत धारण करके समूचे गोकुलको बचा लिया, यह जानकर इन्द्रको उनके दर्शनकी इच्छा हुई। वे महागज़ ऐरावतपर आरूढ़ हो व्रजमें आये। वहाँ देवराजने गोवर्धन पर्वतके समीप श्रीकृष्णका दर्शन किया। वे गौप-शरीर धारण करके गौएँ चरा रहे थे। उनका पराक्रम अनन्त था। सम्पूर्ण जगत्के रक्षक भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ ग्वाल-बालों से घिरे हुए खड़े थे। ऊपर पक्षिराज गरुड़ अन्य प्राणियोंसे अदृश्य रहकर श्रीहरिके मस्तकपर अपने पंखोंसे छाया कर रहे थे। यह देखकर इन्द्र एकान्तमे ऐरावत हाथीसे उतरे और प्रेमसे एकटक देखते हुए भगवान् मधुसुदनसे मुसकराकर बोले-‘ महाबाहु श्रीकृष्ण ! मैं आपके समीप जिस कार्यके लिये आया हूँ, उसे सुनिये। मेरे प्रति कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। परमेश्वर ! आप ही सम्पूर्ण जगत्के आधार हैं और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरा यज्ञ बंद होनेसे मेरे मनमें विरोध जाग उठा और मैंने गोकुलका नाश करनेके लिये बड़े-बड़े मेघोंको वर्षा करनेकी आज्ञा दे दी। उन्होंने ही यह संहार मचाया है। परंतु आपने महापर्वत गोवर्धनको उखाड़कर समस्त गौओंको कष्टसे बचा लिया। वीरवर ! आपके इस अद्भुत कर्मसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। कृष्ण ! मैं तो अब ऐसा मानता हैं कि आज ही देवताओंका सारा प्रयोजन सिद्ध हो गया। क्योंकि आपने एक ही हाथसे इस गिरिराजको ऊपर उठा रखा था। श्रीकृष्ण ! आपने गोवंशकी बहुत बड़ी रक्षा की है। अतः आपका आदर करनेके लिये मैं गौओकी प्रेरणासे यहाँ आपके समीप आया हूँ। गौओंके आदेशानुसार आज मैं उपेन्द्रके पदपर आपका अभिषेक करूंगा। आजसे आप गौओंके इन्द्र होकर गोविन्द नामसे विख्यात होंगे।
यों कहकर इन्द्रने ऐरावत हाथीसे घण्टा उतारा। इसमें पवित्र जल भरा हुआ था। इस दिव्य जलसे उन्होंने श्रीकृष्णका अभिषेक किया। श्रीकृष्णका अभिषेक होते समय गौओंने तत्काल अपने थनोंसे दूधको धारा बहाकर वसुधाको भिगो दिया। अभिषेकका कार्य पूरा करके शचीपति इन्द्रने प्रेम और विनयपूर्वक श्रीकृष्णसे फिर कहा–’महाभाग ! यह सब तो मैंने गौओंके आदेशसे किया है। अब पृथ्वीका भार उतरवानेको इच्छासे मैं जो और कुछ बातें निवेदन करता हूँ, उन्हें भी सुनिये। मेरे अंशसे इस पृथ्वीपर एक श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न हुआ है, जिसका नाम अर्जुन है। आप उसकी सद रक्षा करते रहें। मधुसूदन ! अर्जुन वीर पुरुष हैं। वह इस भूमिका भार उतारनेमें आपकी सहायता करेगा। जैसे अपनी रक्षा की जाती है, वैसे ही आपको अर्जुनकी भी रक्षा करनी चाहिये।’
श्रीभगवान् बोले-देवराज ! मैं जानता हूँ, भरतवंशमें आपके अंशसे अर्जुनकी उत्पत्ति हुई है। मैं जबतक इस भूतलपर रहूँगा, अर्जुनकी रक्षा करूंगा। मेरे रहते अर्जुनको युद्धमें कोई भी जीत न सकेगा। महाबाहु कंस, अरिष्टासुर, केशी, कुवलयापीड और नरकासुर आदि दैत्यों के मारे जानेके पश्चात् महाभारत युद्ध होगा। उसकी समाप्त होनेपर यह जानना चाहिये कि पृथ्वीको भार उतर गया। अब आप जाइये, पुत्रके लिये चिन्ता न कीजिये। मेरे आगे अर्जुनका कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा। केवल अर्जुनके लिये ही मैं युधिष्ठिर आदि पाँचों भाइयोंको महाभारतके अन्तमें कुन्ती देवीके समीप सकुशल लौटाऊँगा।
श्रीकृष्णके यों कहनेपर देवराज इन्द्रने उन्हें छातीसे लगाया और ऐरावतपर आरूढ़ हो पुनः स्वर्गको प्रस्थान किया। तदनन्तर श्रीकृष्ण गौओं और ग्वाल-बालोंके साथ पुनः वजमें लौट आये। गोपियोंकी आँखें उनके पथपर लगी हुई थीं। उनको दृष्टिसे वह मार्ग पवित्र हो गया था।
इन्द्रके चले जानेपर गोपने अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णसे प्रेमपूर्वक कहा-‘ महाभाग ! आपने गोवर्धन पर्वत उठाकर हमारी और गौओंकी बहुत बड़े भयसे रक्षा की है। तात ! यह अनुपम बाललीला, समाजमें नीचा समझा जानेवाला ग्वालेका शरीर और आपका दिव्य कर्म-यह सब क्या हैं? आपने जसमें प्रवेश करके कलिय नागका दमन किया, प्रलम्बको मार गिराया और गोवर्धन पर्वतको हाथपर उठा लिया। इससे हमारे मनमें सन्देह पैदा होता है। अमितपराक्रम श्रीकृष्ण ! हम श्रीहरिके चरणोंकी शपथ खाकर सत्य-सत्य कहते हैं कि आपकी इस दिव्य शक्तिको देखते हुए हमें विश्वास नहीं होत कि आप मनुष्य हैं। आप देवता हैं या दानव, यक्ष हैं या गन्धर्व-इन सब बातोंका विचार करनेसे हमारा क्या लाभ हैं। आप कोई भी क्यों न हों, इस समय हमारे बान्धव हैं । अतः आपको नमस्कार हैं। हम देखते हैं, स्त्री और जलकसहित समस्त ब्रजका आपके प्रति प्रेम बढ़ रहा है और यह कर्म भी आपका ऐसा है, जिसे सम्पूर्ण देवता भी नहीं कर सकते। अभी आप बालक हैं, फिर भी आपके बलकी कोई सीमा नहीं है। इधर आपने हमलोगोंने जन्म लिया हैं जो अच्छी श्रेणीमें नहीं गिना जाता। अमेयात्मन् ! इन सब बातों पर विचार करनेसे आप हमारे मनमें शङ्का उत्पन्न कर देते हैं।’
गोपोंकी यह बात सुनकर भगवान् कुछ कालतक प्रेमसे रूदकर चुपचाप बैठे रहे। फिर इस प्रकार बोले- ‘ गोपगण ! यदि मेरे साथ सम्बन्ध होने से आपको लज्जा नहीं आती हो अथवा यदि मैं आपलोगोंका प्रिय हैं तो इस प्रकार विचार करनेकी क्या आवश्यकता है। यदि मुझपर आपका प्रेम है अधया मैं आपकी प्रशंसाका पात्र हैं तो मेरे प्रति अपने बन्धु-वान्धवोंके समान ही स्नेह रखिये। मैं न देवता हूँ न गंधर्व हूँ, न यक्ष हूँ और न दानव ही हूँ। मैं तो आपका बन्धु होकर उत्पन्न हुआ है। अत: यह आपको मानना चाहिये। इसके विपरीत किसी भी विचारको मनमें स्थान नहीं देना चाहिये।’
श्रीहरिका यह वचन सुनकर गोप मौन हो गये। वे यह सोचकर कि कन्हैया हमारी बातें । सुनकर रूठ गया है, वहाँसे चुपचाप चले गये।
तदनन्तर एक दिन निशाकालमें श्रीकृष्णने देखा-आकाश स्वच्छ है, शरच्चन्द्रको मनोरम चाँदनी चारों ओर फैली है, कुमुदिनी खिली है, जिसकी आमोदमय सुगन्धसे सम्पूर्ण दिशाएँ महक रही हैं। वनमें सब और भौंरे गूंज रहे हैं, जिससे वह वनश्रेणी अयन्त मनोहारिणी जान पड़ती है। प्रकृतिको यह नैसर्गिक शोभा देखकर उन्होंने गोपियोंके साथ रास करनेका विचार किया। श्रीकृष्णले अत्यन्त मधुर स्वरमें संगीतकी मधुर तान छेड़ दी, जो वनिताओंको बहुत ही प्रिय थी। गीतको मनोरम ध्वनि सुनकर गोपियाँ घर छोड़कर निकल पड़ी और बड़ी उतावलीके साथ उस स्थानपर आ पहुंची, जहाँ मधुसूदन मुरली बजा रहे थे। वहाँ आकर कोई गोपी तो उनके स्वरमें स्वर मिलाकर धीरे-धीरे गाने लगी। कोई ध्यान देकर सुनती हुई मन-ही-मन भगवान्का स्मरण करने लगी। कोई ‘कृष्ण-कृष्ण’ कहकर लजा गयी। कोई प्रेमान्य होकर लजाको तिलाञ्जलि दे उनके बगलमें खड़ी हो गयी। कोई गोपी बाहर गुरुजनोंको खड़ा देख घरके भीतर ही रह गयी और नेत्र बंद करके तन्मय हो गोविन्दका ध्यान करने लगी। गोपियोंसे घिरे हुए श्रीकृष्ण रासलीलाका रसास्वादन करनेको उत्सुक थे। अतः उन्होंने श्रत्कालीन चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे अत्यंत मनोरम प्रतीत होनेवाली उस रजनीका सम्मान किया–रास आराम करके उसे गौरव प्रदान किया।
इसी बीचमें श्रीकृष्ण गायब होकर कहीं अन्यत्र चले गये। गोपियोंका शरीर श्रीकृष्णको चेष्टाओंके अधीन था। वे झुंड-की-झुंड अपने प्रियतमकी खोजके लिये वृन्दावनमें विचरने लगीं। उनके मनमें केवल श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसा थी। वे वृन्दावनकी भूमिपर रात्रिमें श्रीकृष्णके चरण-चिह्न देखकर उन्हें चारों ओर ढूंढ रही थीं। श्रीकृष्णकी विभिन्न लीलाओंका अनुकरण करती हुई उन्होंने व्यग्र हो सब गोपियों एक ही साथ वृन्दावनमें विचरने लगीं । बहुत खोजनेपर भी जब श्रीकृष्ण नहीं मिले, तब उनके दर्शनसे निराश हो सब-की-सब लौटकर यमुनाके तटपर आयीं और उनके मनोहर चरित्रोंका गान करने सग। इतनेमें ही श्रीकृष्ण उन्हें आते दिखायी दिये। उनका मुखकमल खिला था। त्रिभुवनके रक्षक और लीलासे ही सब कुछ करनेवाले श्रीकृष्णको आते देख कोई गोपी अत्यन्त हर्षसे भर गयी। उसके नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे और वह ‘कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण’ की रट लगाने लगी। किसीने भौहें रेदी करके उनकी ओर देखा और नेत्ररूपी भ्रमरोंके द्वारा उनके मुखकमलको सौन्दर्य-माधुरीका पान काने लगी। किस गोपीने गोविन्दको निहारकर अपने नेत्र बंद कर लिये और उन्हीके रूपक ध्यान करती हुई वह योगारुढ़-सी प्रतीत होने लगी।
तब माधवने किसीको प्रिय वचन कहकर और किसीको कुटिल भूभङ्गीसे निहारकर मनाया। सबका चित प्रसन्न हो गया। फिर उदार चरित्रोंवाले श्रीकृष्णने रासमण्डली बनाया और समस्त गोपियोंके साथ आदरपूर्वक रासलीला की। उस समय कोई भी गोपी श्रीकृष्णके पाससे हटना नहीं चाहती थी, अत: एक स्थानपर स्थिर हो जानेके कारण रासोचित मण्डल न बन सका। तब श्रीकृष्णने एक-एक गोपीका हाथ पकड़कर रासमण्डलीकी रचना की। उस समय उनके हाथका स्पर्श पाकर प्रत्येक गोपीकी आँखें आनन्दसे मूँद जाती थीं। इसके बाद रासलील आरम्भ हुई। चञ्चल चूड़ियोंकी झनकारके साथ क्रमश: शरद् ऋतुकी शोभाके रमणीय गीत गाये जाने लगे। उस समय श्रीकृष्ण शरद् ऋतुके चन्द्रमाका, उनकी चारु-चन्द्रिकाका और मनोहर कुमुद वनका वर्णन करते हुए गौत गाते थे; किंतु गोपियाँ बारंबार केवल श्रीकृष्णके नामका ही गान करती थीं। श्रीकृष्ण जितने ऊँचे स्वरसे रासके गीत गाते, उससे दुगुने स्वरमें समस्त गोपियाँ ‘धन्य कृष्ण ! धन्य कृष्ण !!’ का उच्चारण करती थीं। भगवान् जब आगे चलते, तब गोपियाँ उनके पीछे चलती थीं और जब वे पीछेकी ओर घूमकर लौट पड़ते, तब वे उनके सापने मुँह किये पीछे हटती थीं। इस प्रकार वे अनुलोम और प्रतिलोम-गतिसे श्रीहरिका साथ देती थीं। मधुसूदनने उस समय गोपियोंके साथ ऐसा रास किया, जिससे उन्हें उनके बिना एक क्षण भी करोड़ वर्षोंके समान प्रतीत होने लगा। भगवान् श्रीकृष्ण सबके ईश्वर हैं। वे गोपियों में, उनके पतियोंमें तथा सम्पूर्ण भूतों में भी निवास करते हैं। वे आत्मारूपसे सम्पूर्ण विश्वको ध्यास कर स्थित हैं। जैसे सब प्राणियोंमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और आत्मा हैं, उसी प्रकार भगवान् भी सबको व्याप्त करके स्थित है।
एक दिन आधी रातके समय जब श्रीकृष्ण रासलीलामें संलग्न थे, अरिष्टासुर नामका उन्मत दानव ब्रजवासियोंको त्रास देता हुआ वहाँ सांडके रूपमें आ पहुँचा। उसका शरीर जलपूर्ण मेघके समान काला था। सींग तीखे थे। नेत्र सूर्यकी भौत तेजस्वी दिखायी देते थे। वह अपने सुरोंक अग्रभागसे पृथ्वीको विदीर्ण किये डालता था और दाँत पीसता हुआ अपने दोनों ओठोंको बार-बार जीभसे चाटता था। उसके कंधोंको गाँठे अत्यन्त कठोर थी और उसने क्रोधके मारे अपनी पूँछ ऊपर उठा रखी थी। उसकी गर्दन लंबी और मुख विशाल था। वृक्षसे टक्कर लेनेके कारण उसके ललाटमें घावके कई चिह्न थे। साँडका रूप धारण करनेवाला वह दैत्य गौओंके गर्भ गिरा देता और सबको बड़े वेगसे मारता हुआ सदा वनमें घूमा करता था। उसके नेत्र बड़े भयंकर थे। उसे देखकर समस्त गोप और गोपाङ्गनाएँ अत्यन्त भयले व्याकुल हो उठीं और ‘कृष्ण-कृष्ण’ पुकारने लगीं। उनका आर्तनाद सुनकर श्रीकृष्णने ताल ठोंकते हुए सिंहके समान गर्जना की। वह शब्द सुनकर दुरात्मा वृषभासुर श्रीकृष्णकी और ही दौड़ा। उसकी आँखें श्रीकृष्णके पेटकी ओर लगी थीं और सामने उन्हींकी सीधमें उसने सींगोंका अग्रभाग कर रखा था। उस महाबली दैत्यको आते देख श्रीकृष्ण अवहेलनापूर्वक हँसने लगे और अपने स्थानसे तिलभर भी पीछे न हटे। ज्यों ही वह दैत्य समीप आया, मधुसूदनने झट उसके दोनों सींग पकड़ लिये और अपने घुटनेसे उसकी कोखमें प्रहार किया। सींग पकड़ लिये जानेसे वह दानव हिल-डुल नहीं पाता था। उसका अहंकार और बल दोनों नष्ट हो चुके थे। श्रीकृष्णने उसकी गर्दनको भीगे हुए कपड़ेकी भाँति निचोड़ डाला और एक सींग उखाड़कर उसीसे उसपर प्रहार किया। इससे वह महादैत्य मुँहसे रक्त वमन करके मर गया। उसके मारे जानेपर गोपने भगवान् श्रीकृष्णकी भूरि-भूरि प्रशंसा की-ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकालमें जम्भासुरके मारे जानेपर देवताओंने इन्द्रकी स्तुति की थी।
अध्याय- 76 कंसका अक्रूरको नन्द गाव जानेका आज्ञा देना और केशीका वध तथा भगवानके पास नारदका आगवन
व्यासजी कहते हैं-महर्षियो ! जब वृषभरूपधारी अरिष्टासुर, धेनुक और प्रलम्ब आदि असुर मारे जा चुके, गोवर्धन पर्वत धारण करके श्रीकृष्णने गोकुलको बचा लिया, उनके द्वारा कालिय नागका दमन, दोनों यमलार्जुन वृक्षोंका भङ्ग, पूतनाका वध और शकट-भङ्ग आदि घटनाएँ हो गयीं, तब देवर्षि नारदने कंसके पास जाकर क्रमशः सब समाचार कह सुनाया। यशोदा और देवकीके बालकोंमें जो अदला-बदली हुई, वहाँसे लेकर अरिष्ट-वधतककी सारी बातें नारदजीके मुखसे सुनकर खोटी बुद्धिवाले कंसने वसुदेवजीके प्रति बड़ा क्रोध किया और समस्त यादवोंकी सभामें अत्यन्त रोषपूर्वक उलाहना देकर उसने यदुवंशियोंकी बड़ी निन्दा की; फिर आगेके कर्तव्यके विषयमें इस प्रकार विचार किया-‘ बलराम और कृष्ण दोनों अभी बालक हैं। जबतक वे युवा होकर अत्यन्त बलवान् नहीं हो जाते, तबतक ही मुझे उनका वध कर डालना चाहिये। युवा होनेपर तो वे मेरे काबूके बाहर हो जायेंगे। यहाँ महापराक्रमी चाणूर और बलवान् मुष्टिक दोनों पहलवान मौजूद हैं। इनके द्वारा मल्लयुद्धमें उन दोनों मतवाले बालकको मरवा डालूंगा। धनुषयज्ञ नामक उत्सव देखनेके बहाने दोनोंको व्रणसे बुलाकर ऐसा यत्न करूंगा, जिससे उनका नाश हो जाय।’
इस प्रकार सोच-विचारकर दुष्टात्मा कंसने बलराम और श्रीकृष्णको मार डालनेका निश्चय किया और वीरवर अक्रूरको बुलाकर कहा-‘ दानपते ! तुम मेरी प्रसन्नताके लिये एक बात मानो, यहाँसे रथपर बैठकर नन्दगाँव जाओ। वहाँ वसुदेवके दो पुत्र हैं, जो मेरा विनाश करनेके लिये विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। वे दोनों दुष्ट बढ़ते जा रहे हैं। चतुर्दशीको धनुषयज्ञका उत्सव होनेवाला है। उसमें कुश्ती लड़नेके लिये उन दोनोंको बुला लाओ। मेरे दो पहलवान चाणूर और मुष्टिक दाँव-पेचमें बहुत कुशल हैं। इनके साथ यहाँ उन दोनोंकी कुश्ती हो और सब लोग देखें। वसुदेवके दोनों पापी पुत्र अभी बालक ही हैं। द्वारपर आते ही उन दोनोंको महावतकी प्रेरणासे मेरा कुवलयापीड हाथी मार डालेगा। इन दोनोंको मारकर मैं दुष्ट बुद्धिवाले वसुदेव, नन्द और अपने पिता उग्रसेनको भी मौतके घाट उतारूंगा। तत्पश्चात् समस्त गोपोंका गोधन और सारा वैभव छीन लँगा, क्योंकि वे दुष्ट मैरै वधको इच्छा करते हैं। दानपते ! तुम्हारे सिवा ये सभी यादव बड़े दुष्ट हैं, अतः मैं क्रमश: इनका भी वध करनेकै लिये प्रयत्न करूंगा। तदनन्तर यादनोंसे रहित यह समस्त अकप्टक राज्य अकेला ही होगा। अतः वीर! तुम मेरी प्रसन्नताके लिये वहाँ जाओ। गोपोंसे ऐसा कहना जिससे वे भैसका घी, दही आदि उपहारकी वस्तुएँ लेकर शीघ्र यहाँ आयें।’
अक्रुरजी बड़े भगवद्भक्त थे। कंसके इस प्रकार आदेश देनेपर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। इसी बहाने कल भग्वान् श्रीकृष्णके दर्शन तो करूंगा, इस विचारने उन्हें उतावला अन दिया। राजा कससे बहुत अच्छा’ कहकर अकुरजी शीघ्र ही रथपर सवार हुए और मथुरापुरीसे निकलकर नन्दगाँवकी ओर चल दिये।
इधर कंसका दूत महाबली केशी कंसके ही आदेशसे वृन्दावनमें आया। श्रीकृष्णचन्द्रका वध करना ही उसको यात्राका उद्देश्य था। उसने घोड़ेका रूप धारण कर रखा था। वह अपनी टापोंसे पृथ्वीको खोदता, गर्दनके बालोंसे बादलको उड़ाता तथा वेगसे उछलकर चन्द्रमा और सूर्यके भी मार्गको लाँघता हुआ गोपके समीप आया। उसके हँसनेके शब्दसे समस्त गोप और गोपाङ्गनाएँ भयभीत हो भगवान् गोविन्दकी शरणमें गयीं। उनकी त्राहिप्राहिकी पुकार सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण जलपूर्ण मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर वाणीमें इस प्रकार बोले-‘ गोपालगण ! इसकेशीसे डरनेकी अवश्यकता नहीं है। आपलोग तो गोप-जातिके हैं। इस तरह भयसे व्याकुल होकर अपने विरोचित पराक्रमका लोप क्यों कर रहे हैं। अरे ! इस दैत्यमें शक्ति ही कितनी है, यह हमारा क्या कर लेगा। यह तो ओर-जोरसे हिनहिनाकर केवल आतङ्क फैला रहा है। इसपर तो दैत्योंकी सेना सवारी करती है। यह दुष्ट अश्व व्यर्थ ही उछल-कूद मचा रहा है।’ ग्वालोंसे यों कहकर भगवान्ने उस दैत्यसे कहा-‘ओ दुष्ट ! इधर आ। मैं कृष्ण हूँ। जैसे पिनाकधरी वीरभद्रने पूषाके दाँत तोड दिये थे, उसी तरह मैं भी तेरे सारे दाँत गिराये देता हैं।’
यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण केशीके सामने गये। वह दैत्य भी मुँह फैलाकर उनकी ओर दौड़ा। श्रीकृष्णने अपनी बाँहको बढ़ाकर दुष्ट केशीके मुखमें घुसेड़ दिया। उससे टकराकर केशके सारे दाँत शुभ मेघ-खण्डोंकी भाँति छिन्न-भिन्न हो गिर गये। श्रीकृष्णकी भुजा केशीके शरीरमें बढ़ती ही चली गयी। जैसे अवहेलनापूर्वक उपेक्षा किया हुआ रोग धीरेधीरे बढ़कर विनाशका कारण बन जाता है, वैसे हो वह भुजा भी इस दैत्यको मृत्युका साधन बन गयी। उसके जबड़े फट गये। वह मुखसे फैन और रक्त फेंकने लगा। नस-नाड़ियोंके बन्धन टूट जानेसे उसके दोनों जबड़े बिलग हो गये। यह लीद और पेशाब करता हुआ धरतीपर पैर पटकने लगा। उसका सारा शरीर पसीनेसे तर हो गया और वह थककर प्राणोंसे हाथ धो बैठा। उसकी सारी हलचल समाप्त हो गयी। जैसे बिजली गिरने से किसी वृक्षके दो टुकड़े हो जाते हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्णकी भुजासे वह महाभयंकर असुर दो टुकड़े होकर गिर पड़ा। केशीको मारने श्रीकृष्णके शरीर में कोई थकावट नहीं हुई। वे स्वास्थरूपसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे। उस दैत्यके मारे जानेसे गोप और गोपियों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे श्रीकृष्णको सब ओरसे घेरकर आश्चर्यचकित हो उनकी स्तुति करने लगे। इसी समय देवर्षि नारद बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आये और बादलोंमें स्थित हो गये। केशीको मारा गया देख वे हर्षसे फूले नहीं समाते थे।
नारदजी बोले- जगन्नाथ ! आपको धन्यवाद है। अच्युत ! आपने खेल-खेलमें ही इस केशीको मार डाला। यह देवताओंको बड़ा क्लेश दिया करता था। मधुसूदन ! आपने इस अवतारमें जो-जो महान् कर्म किये हैं, उनसे मेरे चित्तको बड़ा आश्चर्य और संतोष हुआ है। यह अश्वरूपधारी दैत्य जब गर्दनके बालोंको हिलाते और हिनहिनाते हुए आकाशकी और देखता था, उस समय देवराज इन्द्र और सम्पूर्ण देवता भी थर्रा उठते थे। जनार्दन ! आपने दुष्टात्मा केशीका वध किया है, इसलिये अब लोकमें आप ‘केशव’ नामसे विख्यात होंगे। आपका कल्याण हो, अब मैं जाऊँगा और परसों कंसके यहाँ आपके साथ जो युद्ध होगा, उसमें फिर सम्मिलित होऊँगा। धरणीधर ! उग्रसेनकुमारकंस जब अपने अनुचरोंसहित मारा जायगा, उस समय पृथ्वीका भार आप बहुत कुछ उतार देंगे। उसके बाद भी राजाओंके साथ आपके अनेक युद्ध में देखनेको मिलेंगे। गोविन्द ! आपने देवताओंका बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया और मुझे भी बहुत आदर दिया।आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हैं।
यों कहकर नारदजी चले गये। तब श्रीकृष्ण अत्यन्त सौम्यभावसे ग्वालोंके साथ गोकुलमें चले आये।
अध्याय- 77 अक्रूरका नन्दगांवमें जाना, श्रीराम-कृष्णकी मथुरा यात्रा, गोपियोंकी कथा, अक्रूरको यमुनामें भगवानदर्शन, उनके द्वारा भगवानकी स्तुती, मथुरा-प्रवेश, रजक-वध और मालीपर कृपा
व्यासजी कहते हैं-अक्रूरजी शीघ्र चलनेवाले रथपर चढ़कर मथुरासे निकले और श्रीकृष्णके दर्शनका लोभ लेकर नन्दगाँवकी ओर चल दिये। मार्गमें सोचने लगे-“अहा! मुझसे बढ़कर सौभाग्यशाली कोई नहीं है, क्योंकि आज मैं अंशसहित अवतीर्ण हुए साक्षात् भगवान् विष्णुका मुख देगा। आज मेरा जन्म सफल हुआ और आनेवाला प्रभात बहुत ही सुन्दर होगा। क्योंकि में विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले भगवान् विष्णुके मुखका दर्शन करूंगा। जो स्मरण अथवा ध्यानमें आकर भी मनुष्यके सारे पाप हर लेता है, वही कमल-सदृश नेत्रोंवाला श्रीविष्णुका सुन्दर मुख आज मुझे देखनेको मिलेगा। जिससे सम्पूर्ण वेद और वेदाङ्गका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो देवताओंके लिये सर्वश्रेष्ठ आश्रय है, भगवान्के उसी मुखका आज मैं दर्शन करूंगा।* ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अश्विनीकुमार, वसु, आदित्य तथा मरुद्रण जिनके स्वरूपको नहीं जानते, वे श्रीहरि आज मेरा स्पर्श करेंगे। जो सर्वात्मा, सर्वव्यापी, सर्वस्वरूप, सम्पूर्ण भूतों में स्थित, अव्यय एवं व्यापी परमात्मा हैं, ये ही आज मेरे नेत्रोंके अतिथि होंगे। जिन्होंने अपनी योगशक्तिसे मत्स्य, कूर्म, वराह और नरसिंह आदि अवतार ग्रहण किये थे, वे ही भगवान् आज मुझसे वार्तालाप करेंगे। स्वेच्छासे शरीर धारण करनेवाले अविनाशी जगन्नाथ इस समय कार्यवश ब्रजमें निवास करनेके लिये मानवरूप धारण किये हुए हैं। जो भगवान् अनन्त अपने मस्तकपर इस पृथ्वीको धारण करते हैं, वे ही जगत्का हित करनेके लिये अवतीर्ण हो आज मुझे ‘अक्रूर’ कहकर बुलायेंगे। पिता, पुत्र, सुखद्, भ्राता, माता और बन्धु-बान्धवरूपिणी जिनकी मायाको यह जगत् हटा नहीं पाता, उन भगवान्को बारंबार नमस्कार है। जिनको हृदयमें स्थापित करके मनुष्य इस योगमायारूप फैली हुई अविद्याको तर जाते हैं, उन विद्यास्वरूप परमात्माको नमस्कार है। जिन्हें यज्ञपरायण मनुष्य यज्ञपुरुष, भगवद्भक्तजन वासुदेव और वेदान्तवेत्ता सर्वव्यापी श्रीविष्णु कहते हैं, उनको मेरा नमस्कार है। जो सम्पूर्ण जगत्के निवासस्थान हैं, जिनमें सत् और असत् दोनों प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् अपने सहज सत्त्वगुणसे मुझपर प्रसन्न हों। जिनका स्मरण करनेपर मनुष्य पूर्ण कल्याणका भागी होता है, उन पुरुषश्रेष्ठ श्रीहरिकी मैं सदाके लिये शरण लेता है।*
अक्रूरका हृदय भक्तिसे विनम्र हो रहा था। वे इस प्रकार श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए कुछ दिन रहते नन्दगाँवमें पहुँच गये। वहाँ उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको उस स्थानपर देखा, जहाँ गौएँ दुही जा रही थीं। वे बछड़ोंके बीचमें खड़े थे। उनका श्रीअङ्ग विकसित नीलकमलकी आभासे सुशोभित था। नेत्र खिले हुए कमलकी शोभा धारण करते थे। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न दिखायी देता था। बड़ी-बड़ी बाँहें, चौड़ी और उभरी हुई छाती, ऊँची नासिका, विलासयुक्त मुसकानसे सुशोभित मुख, लाल-लाल नख, शरीरपर पीताम्बर, गलेमें जंगली पुष्पोंके हार, हाथमें स्निग्ध नील लता और कानों में श्वेत कमलपुष्पके आभूषण-यहीं उनकी झाँकी थी। उनके दोनों चरण भूमिपर विराजमान थे। श्रीकृष्णका दर्शन करनेके बाद अक्रूरजीकी दृष्टि यदुनन्दन बलभद्रजीपर पड़ी, जो हंस, चन्द्रमा और कुन्दके समान गौरवर्ण थे। उनके शरीरपर नील वस्त्र शोभा पा रहे थे। उनकी कद ऊँची और बाँहें बड़ी-बड़ी थीं। मुख प्रफुल्ल कमल-सा सुशोभित था। नीलाम्बरधारी गौराङ्ग बलभद्रजी ऐसे जान पड़ते थे, मानो मेघमालासे घिरा हुआ दूसरा कैलास पर्वत हो।* उन दोनों भाइयोंको देखकर महाबुद्धिमान् अक्रूरजीको मुखकमल प्रसन्नतासे खिल उठा। सम्पूर्ण शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे मन-ही-मन इस प्रकार कहने लगे-‘इन दोनों बन्धुओंके रूपमें यहाँ साक्षात् भगवान् विष्णु विराज रहे हैं। ये ही वह परम धाम और ये ही वह परम पद हैं। अनन्तमूर्ति भगवान् आज ही मेरे हाथका स्पर्श करके उसे शोभासम्पन्न बनायेंगे। इन्हीं भगवान्की अँगुलियोंके स्पर्शसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जानेके कारण मनुष्य उत्तमोत्तम सिद्धि प्राप्त करते हैं तथा अश्विनीकुमार, रुद्र, इन्द्र और वसु आदि देवता प्रसन्न होकर उन्हें उत्तम वर देते हैं। इन्हीं भगवान्ने दैत्यराजको सेनाका विनाश करके दैत्यपलियोंकी आँखोंका काजल भी छीन लिया। राजा बलिने जिनके हाथमें संकल्पका जल छोड़कर रसातलमें रहते हुए भी मनोहर स्वर्गीय भोग प्राप्त कर लिये तथा देवराज इन्द्रने जिनकी आराधना करके एक मन्वन्तरके लिये देवलोकका अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया, वे ही भगवान् कंसके साथ रहनेके कारण निर्दोष होते हुए भी दोषके पात्र बने हुए मुझ अक्रूरका क्या आदर न करेंगे? जो साधु पुरुषोंसे बहिष्कृत हैं उसके जन्मको धिक्कार हैं। भगवान् श्रीहरि ज्ञानस्वरूप हैं। परिपूर्ण सत्त्वके पुञ्ज हैं। सब प्रकारके दोषोंसे रहित हैं, अव्यक्त हैं और समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान हैं। जगत्में कौन-सी ऐसी वस्तु है, जो उन्हें ज्ञात न हो। अतः मैं भकिसे विनीत होकर आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अजन्मा, पुरुषोत्तम, भगवान् विष्णुके अंशावतार तथा ईश्वरोक भी ईश्वर श्रीकृष्णको शरणमें जाता है।’
इस प्रकार विचार करते हुए वे भगवान् श्रीकृष्णके पास गये और ‘मैं यदुवंशी अक्रूर हूँ’ यों कहकर उनके चरणोंमें पड़ गये। भगवान्ने भी ध्वजा, वज्र और कमल आदि चिह्नों से सुशोभित अपने करकमलद्वारा उनका स्पर्श किया और उन्हें खींचकर प्रेमपूर्वक गाढ़ आलिङ्गन दिया। फिर बलराम और श्रीकृष्णने उनसे बातचीत की और उन्हें साथ ले अपने भवनमें चले गये। परस्पर प्रणाम आदिके बाद अक्रूरने दोनों भाइयोंके साथ बैठकर भोजन किया और यथायोग्य उनसे सब बातें निवेदन कीं। दुरात्मा दानव कंसने वसुदेव और देवकीको जिस प्रकार धमकाया था, उग्रसेनके प्रति जैसा उसका बर्ताव था और जिस उद्देश्यसै कंसने उन्हें ब्रजमें भेजा था, वह सब विस्तारके साथ कह सुनाया। सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने कहा-‘ये सब बातें मुझे ज्ञात हैं। इस विषयमें जो उचित कर्तव्य है, उसे मैं करूंगा। आप अन्यथा विचार न करें। कंसको मारा गया ही समझे। मैं बलरामजीसहित कल आपके साथ मधुरा चलँगा। बड़े-बूढे गोप भी भेंटकी बहुतसी सामग्री लेकर जायेंगे। धीर! आप किसी प्रकारको चिन्ता न करें। आरामसे यहाँ रात बितायें। अजसे तीन रातके भीतर ही मैं अनुचरोंसहित कंसको मार डालूंगा।’
तदनन्तर गोपोंको मथुरा चलनेका आदेश दै अकुर, श्रीकृष्ण तथा बलरामजी नन्दकै घरमें सोये। सबेरा होनेपर महाबली राम और श्रीकृष्ण अक्रूरके साथ मथुरा जानेको तैयार हो गये, यह देख गोपियोंके नेत्रों में आँसू भर आये। वे चिन्तासे इतनी दुर्बत हो गयी कि उनके कंगन और बाजूबंद खिसक-खिसककर गिरने लगे। वे दुःखसे पीड़ित हो लंबी साँस लेतीं हुई एक दूसरीसे कहने लगीं- ‘सखी ! गोविन्द मथुरा जाते हैं। वहाँ जाकर वे इस गोकुलमें फिर क्यों आने लगे। वहाँ तो अपने कानों द्वारा नगरकी स्त्रियोंके मधुर वार्तालापका रस पान करेंगे। नगरकी नारियोंके बिलासपूर्ण वचनोंमें जब इनका मन आसक्त हो जायगा, तब फिर गाँवोंको रहनेवाली इन गॅवार गोप-गोपियोंकी ओर उनका झुकाव कैसे हो सकेगा। हाय ! श्रीहरि सम्पूर्ण व्रजके प्राण थे। इन्हें छीनकर दुरात्मा और निर्दयी विधाताने हम गोपियोंपर निष्ठुर प्रहार किया है। नगरकी युवतियाँ भावभरी मुसकानके साथ बात करती हैं। उनकी गतिमें लालित्य हैं। वे कयक्षपूर्ण नेत्रोंसे देखती हैं। अत: ये हमलोगोंके पास क्यों आने लगे। यह देखो, गोविन्द रथपर बैठकर मथुरा जाते हैं। क्रूर अक्रूरने उन्हें चकमा दिया है। क्या इस निर्दयीको प्रेमीजनको मानसिक वेदनाका अनुभव नहीं हैं, जे यह हमारे नयनानन्द गोविन्दको अन्यत्र लिये ज्ञाता है? गोविन्द भी आज अत्यन्त निष्ठुर हो गये हैं। देखो न, बलरामजौके साथ उधपर बैठकर चले जा रहे हैं। अरी ! इन्हें रोकनेमें शक्का करो। ऎ! क्या कहती हो–गुल्झनकै सामने हमारा कुछ बोलना उचित नहीं है? अरौ । हम तो यों ही विरहकी आगमें जल रही हैं। अब ये गुरुजा हमारा क्या कर लेंगे। हाय ! ये नन्दयावा आदि भी जानेको उद्यत हैं। कोई भी श्रीकृष्णको लौटानेका उद्योग नहीं करता। आज मथुरावासिनी युवतियोंके नेत्ररूपी भ्रमर श्रीकृष्णके मुखकमलका मकरन्द पान करेंगे। वे लोग धन्य हैं, जो मार्गों पुलकित शरीरसे बेरोक-येक श्रीकृष्णका दर्शन करेंगे। आज गौविन्दका दर्शन पकर मथुराको नागरियोंके नेत्रोंमें महान् आनन्द छा जायगा।
आज उन भाग्यशालिनी युवतियों कौन-सा शुभ स्वप्न देखा है, जो वे अपने विशाल एवं कमनीय नेत्रोंसे श्रीकृष्णको रूप-माधुरीका पान करेंगी।
अहो ! विधाताको किञ्जिन्मात्र भी दया नहीं है। उसने म गोपियों को बहुत बड़ी निधिका दर्शन कराकर हमारी आँखें ही निकाल लीं। हमारे प्रति श्रीकृष्णका अनुराग ज्यों-ज्यों शिथिल होता जाता हैं, त्यों-ही-त्यों हमारे हाथोंक कङ्कग भी शीघ्रतापूर्वक ढीले होते जा रहे हैं। अक्रूरका हृदय बहुत ही क्रूर है। वह घोड़ोंको बहुत जल्दी-जल्दी हाँकता है। हम-जैसी आर्त स्त्रियोंपर उसे छोड़ किसको दया नहीं आयेगी। अरी ! वह देखो, श्रीकृष्णके रकी धूल बहुत ऊँचेपर दिखायी देती है। हाय! अब वह धूल भी नहीं दिखायी देती। अब वह भगवनको बहुत दूर ले गयी।’ इस प्रकार गोपियों अत्यन्त अनुरागपूर्वक देखते-देखते बलरामसहित श्रीकृष्णने ब्रजके उस भूभागका परित्याग किया। रथके घोड़े बहुत तेज चलनेवाले थे; अत: बलराम, अकूर और श्रीकृष्ण दोपहर होते-होते मथुराके समीपवर्ती यमुना-तटपर पहुँच गये।
तब अक्रूरने श्रीकृष्णसे कहा- ‘आप दोनों भाई यहीं रथपर बैठे रहें। तबतक मैं यमुना जलमें नैयिक स्नान और पूजन कर लेता हूँ।’ श्रीकृष्णने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी बात मान ली। परन बुद्धिमान् अक्रूरने यमुनाके जलमें प्रवेश करके स्नान और आचमन किया। तत्पश्चात् वे परब्रह्मका चिन्तन करने लगे। उन्हें जलके भीतर सहस्रों फणोंसे युक्त बलभद्रजी दिखायी दिये। उनका शरीर कुन्दके समान गौर और नेत्र कमलपत्रके समान विशाल थे। वासुकि तथा डिम्भ आदि बड़े-बड़े नाग उन्हें घेरे हुए स्तुति कर रहे थे। गले में सुगन्धित वनमाला उनकी शेभा बढ़ा रही थी। वे दो नील वस्त्र और सुन्दर कर्णभूषण धारण किये मनोहर गंदुली मारे जलके भीतर विराजमान थे। उनकी गोदमें भगवान् श्रीकृष्ण दृष्टिगोचर हुए, जो सजल मैघके समान श्याम, किञ्चित् सातिमायुक्त बिशाल नेत्रोंवाले, चतुर्भुज, सुन्दर और चक्र आदि आयुधोंसे विभूषित थे। उन्होंने दो पीताम्बर धारण कर रखे थे। विचित्रविचित्र हार इनकी शोभा बढ़ाते थे। इद्रधनुष और विद्युन्मालासे विभूषित मेघकी भांति उनकी विचित्र शोभा हो रही थी। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न सुशोभित था। भुजाओंमें भुजबन्ध और मस्तकपर मुकुट देदीप्यमान था। कानों में कमलपुष्प कुण्डलका काम देता था। सनन्दन आदि पापरहित सिद्ध योगी नासिकाकै अग्रभागपर दृष्टि जमाये मनही-मन भगवान्का ध्यान करते थे। बलराम और श्रीकृष्णको वहाँ पहचानकर अक्रूर बड़े आञ्चर्यमें पड़े। वे सोचने लगे, ‘दोनों भाई इतना शीघ्र यहाँ कैसे आ गये ?’ अक्रूरने कुछ बोलना चाहा, किंतु श्रीकृष्णने उनकी वाणको स्तम्भित कर दिया। तब वे जलसे निकलकर रथके पास आये, किंतु वहाँ बलराम और श्रीकृष्ण पहलेकी ही भाँति बैठे दिखायी दिये। तब उन्होंने पुनः जलमें डुबकी लगायी। भीतर वही दृश्य दिखायी दिया। गन्धर्व,मुनि, सिद्ध तथा बड़े-बड़े नाग श्रीकृष्ण और बलरामकी स्तुति करते थे। यह सब देखकर दानपति अक्रूरको वास्तविक रहस्यका पता लग गया। वे पूर्ण विज्ञानमय भगवान् अच्युतकी स्तुति करने लगे—
‘जिनका सत्तामात्र स्वरूप हैं, महिमा अचिन्त्य हैं, जो सर्वत्र व्यापक हैं, जो कारणरूपसे एक, किंतु कार्यरूपसे अनेक हैं, उन परमात्माको बारंब्यार नमस्कार है। अचिन्त्य परमेश्वर । आप शब्द (वैदिक मन्त्र)-रूप और हवि:स्वरूप हैं।
आपको नमस्कार है। प्रभो! आप प्रकृतिसे परे विज्ञानस्वरूप हैं। आपको नमस्कार हैं। आप ही भूतात्मा, इन्द्रियात्मा, प्रधानात्म, जीवात्मा और परमात्मा हैं। इस प्रकार एक होते हुए भी आप पाँच प्रकारसे स्थित हैं। सर्वधर्मात्मन् महेश्वर!
आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है। नाथ ! जहाँ नाम और जाति आदि कल्पनाओंका अस्तित्व नहीं है, वह नित्य, अविकारी और अजन्मा परब्रह्म आप ही हैं। कल्पनके बिना कोई व्यावहारिक नाम रखे बिना किसी भी पदार्थका ज्ञान नहीं होता। इसीलिये कृष्ण, अच्युत, अनन्त और विष्णु आदि नामोंसे आपकी स्तुति की जाती है। सर्वात्मन्! आप अजन्मा परमेश्वर हैं। जगत्में जितनी कल्पनाएँ हैं, उन सबके द्वारा आपका ही बोध होता है। आप ही देवता हैं, सम्पूर्ण जगत् हैं तथा विश्वरूप हैं। विश्वात्मन् ! आप विकार और भेदसे सर्वथा रहित हैं, सम्पूर्ण विश्वमें आपके सिवा दूसरी कोई वस्तु नहीं है। आप ही ब्रह्मा, महादेवजी, सूर्य, धाता, विधाता, इन्द्र, वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर और यम हैं। एकमात्र आप ही भिन्न-भिन्न रूप धारण करके अपनी विभिन्न शक्तियोंसे जगत्की रक्षा करते हैं। आप ही विश्वकी सृष्टि करते हैं और आप ही प्रलयकालीन सूर्य होकर सम्पूर्ण जगत्का संहार करते हैं। अज! यह गुणमय प्रपञ्च आपका ही स्वरूप है। सत्स्वरूप परमेश्वरका धाक जो ॐकाररूप अक्षर है, यह आपका उत्कृष्ट स्वरूप है। वही सत् असत् और ज्ञानात्मा है। आपके उस स्वरुपको मेरा प्रणाम है। भगवन् ! वासुदेवरूपमें आपको नमस्कार है। संकर्षण-संज्ञा धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। प्रद्युम्न कहलानेवाले आपको नमस्कार है और अनिरुद्ध नामसे पुकारे जानेवाले आपको नमस्कार है।’
इस प्रकार जलके भीतर यदुवंशी अक्रूरने सर्वेश्वर श्रीकृष्णको स्तुति करके मानसिक धूप और पुष्पों द्वारा उनका पूजन किया। अन्य विषयों का चिन्तन छोड़कर मनको उन ब्रह्मभूत परमात्मामें लगा दीर्घकालतक ध्यान किया। तत्पश्चात् समधिसे विरत हो अपनेको कृतार्थ मानते हुए यमुनाजलसे निकलकर वे पुनः रथके समीप आये। आनेपर उन्होंने बलराम और श्रीकृष्णको पूर्ववत्, बैठे देख्ना। अकुरजीके नेत्रोंसे विस्मयका अभास मिलता था। यह देख श्रीकृष्णने उनसे कहा–‘अक्रुरजी! आपने यमुनाके जलमें कौन सी आश्चर्य बात देखी है, जो आपके नेत्र आश्चर्यचकित दिखायी देते हैं?
अक्रूर बोले- अच्युत ! जलके भीतर मैंने जो आश्चर्य देखा है, उसे यही अपने सामने मूर्तिमान् बैठा देखता हूँ। यह परम आश्चर्यमय जगत् जिन महात्माका स्वरूप है, उन्ही आश्चर्यस्वरूप आपके साथ मेरा समागम हुआ है। मधुसूदन । अब इस विषयमें अधिक की क्या आवश्यकता । चलिये, मथुरा चलें । मैं कंससे डरता हूँ। जो दूसरोंके टुकड़ोंपर जीवन-निर्वाह करनेवाले हैं, उन मनुष्योंके जन्मको धिकार है।
यों कहकर अक्रूरनै घोड़ोंको हाँक दिया और सायंकालके समय मथुरापुरीमें जा पहुँचे। मथुराको देखकर अक्रूरने बलराम और श्रीकृष्णसे कहा‘महापराक्रमी वीरो ! अव आपलोग पैदल जाइये। रथसे मैं अकेला हो जाऊँगा। मथुरामें पहुँचकर आप दोनों वसुदेवजीके घर न जायें, क्योंकि आपके ही कारण वह बेचारा बूढ़ा कंसके द्वारा सदा अपमानित होता है।’
यों कहकर अक्रूर मथुरापुरीमें चले गये। राम और श्रीकृष्ण भी पुरीमें पहुँचकर राजमार्गपर आ गये। उस समय नगरके सभी स्त्री-पुरुष आनन्दपूर्ण नेत्रोंसे उन्हें निहारते थे। वे दोनों थौर तरुण हाथियों की भाँति लीलापूर्वक चल रहे थे। घूमते-घूमते उन दोनों भाइयोंने कपड़ा अँगनेवाले एक रजकको देखा। उससे अपने शरीरके अनुरूप सुन्दर वस्त्र माँगे। वह राजा कसका रजक था। राजाकी कृपा पकर उसका अहंकार बहुत बढ़ गया था। उसने बलराम और श्रीकृष्णके प्रति ललकारकर अनेक आक्षेपयुक्त कटुवचन कहे। उस दुरात्मा रजकका बर्ताव देख श्रीकृष्ण कुपित हो उठे। उन्होंने थप्पड़ मारकर उस रजकका मस्तक पृथ्वीपर गिरा दियो। उसे मारकर राम और कृष्णने उसके सारे वस्त्र छीन लिये और अपनी रुचिके अनुसार पीले एवं नीले वस्त्र धारण करके वे बड़ी प्रसन्नताके साथ मालीके घर गये। उन्हें देखते ही मालीके नेत्र आनन्दसे खिल उठे। वह अत्यन्त विस्मित होकर मन-ही-मन सोचने लगा, ‘ये दोनों किसके पुत्र हैं? कहाँसे आये हैं? एकके अङ्गपा पीताम्बर शोभा पाता है तो दूसरेके शरीरपर नीलाम्बर। दोनों ही अत्यन्त मनोहर दिखायी देते हैं। उन्हें देखकर मातीने समझा-दो देवता इस भूतलपर उतरे हैं। उन दोनों भाईयोंके मुखकमल प्रफुल्लित दिखायी देते थे। मालीने दोनों हाथ पृथ्वीपर फैलाकर सिरसे पृथ्वीका स्पर्श करते हुए साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा-‘नाथ! आप दोनों बड़ी कृपा करके मैरै घर पधारे हैं! मैं धन्य हो गया। अब पुष्पोंसे आप दोनोंकी पूजा करूंगा।’ यों कहकर उसने रुचिके अनुसार फूल भेंट किये। ‘ये सुन्दर हैं, ये मनोहर हैं,’ यों कहते हुए उसने उनके मनमें फूलोंके ग्रति आकर्षण पैदा किया और जो-जो उन्हें पसंद आया, वह सब दिया। प्राय: सभी फूल मनोहर, निर्मल और सुगन्धित थे। श्रीकृष्णने भी प्रसन्न होकर मालीको वर दिया- ‘भद्र ! मेरे अधीन रहनेवाली लक्ष्मी तेरा कभी त्याग न करेगी। सौम्य ! तेरे अस और धनकी कभी हानि न होगी। जबतक यह पृथ्वी और सूर्य रहेंगे, तबतक तेरी पुत्र-पौत्र आदि वंश-परम्परा कायम रहेगी । तू बहुत-से भोग भोगकर अन्तमें मेरी कृपासे मुझे स्मरण करते हुए दिव्य लोक प्राप्त करेगा। भद्! तेरा मन हर समय धर्ममें लगा रहेगा।’ यों कहकर बलरामसहित श्रीकृष्ण मलीद्वारा पूजित हो उसके घरसे चले आये।
अध्याय- 78 कुब्जापर कृपा, कुवलयापीड, चाणूर, मुष्टिक, तोशल और कंसका वध तथा वासुदेवद्वारा भगवानका स्तवन
व्यासजी कते हैं—तदनन्तर श्रीकृष्णने राजमार्गपर एक कुब्जा स्त्री देखी, जो अङ्गरागसे भरा हुआ पात्र लिये आ रहीं थी। उसे देखकर श्रीकृष्णने पूछा- ‘ कमललोचने ! तू यह अङ्गराग किसके पास लिये जाती है? सच-सच बता ।’ उनकी बात सुनकर वह श्रीहरिके प्रति अनुरक्त हो गया और बोली-‘प्रिय ! क्या आप नहीं जानते कंसने मुझे अङ्गराग लगानेका कार्य सौंप रखा है? मैं अनेकवक्राले नामसे विख्यात हैं। मेरे सिवा दूसरे किसीका घिसा हुआ चन्दन कंलको पसंद नहीं आता।’
श्रीकृष्णा बोले- सुमुखि ! यह सुन्दर सुगन्धयुक्त अनुलेपन तो राजाके ही योग्य हैं। हमारे शरीरके योग्य भी कोई अनुलोपन हो तो दो।
यह सुनकर कुब्जाने आदरपूर्वक कहा- ‘ लीजिये न।’ फिर उन दोनोंको उनके शरीरके अनुरूप चन्दन आदि अनुलेप प्रदान किया। कुब्जाने हो उनके कपोल आदि अङ्गों में पत्रभङ्गीरचनापूर्वक अङ्गगग लगाया। इससे वे दोनों पुरुषरल इन्द्रधनुषके साथ शोभा पानेवाले श्वेत-श्याम मेघोंके समान सुशोभित हुए। तत्पश्चात् उल्लापन-विधि (कुलत्व दूर करनेकी क्रिया)-के जाननेवाले श्रीकृष्णने उसकी ठोढ़ीमें अपने हाथकी दो उँगलियाँ लगा दी और उसे उचकाकर ऊपरकी और खींचा। साथ ही उसके पैर अपने दोनों पैरोसे दना लिये। इस प्रकार केशवने उसके शरीरको सीधा कर दिया। फिर तो वह युवतियों में श्रेष्ठ परम सुन्दरी वन गयी और प्रेमसे शिथिल वाणीमें बोली-‘प्यारे। आप मेरे घर में पधारें।’ ‘अच्छा , तुम्हारे घर आऊँगा’ यों कहकर श्रीकृष्णने कुब्जाको विदा किया और बलरामजीके मुँहकी ओर देखकर थे जोरसे हँसे । तदनन्तर पत्र-रचनापूर्वक अङ्गराग लगाये और पीताम्बर तथा नौलाम्बर धारण किये विचित्र पुष्पोंके हारसे सुशोभित वे दोनों भाई धनुषशालामें गये। वहाँ उन्होंने रक्षकोंसे धनुषके विषयमें पूछ और उनके बतलानेपर उसे उठाकर चढ़ाया। बलपूर्वक चढ़ाते ही वह धनुष टूट गया। उससे बड़े जोरका शब्द हुआ, जिससे सारी मथुरापुरी गूंज उठी। धनुध टूटनेपर रक्षकॉने उनपर आक्रमण किया। तब वे रक्षक- सेनाका संहार करके धनुषशालासे बाहर निकले। कंसको अक्रूर लौटनेका हाल मालूम हो चुका था। फिर धनुष नेका शब्द सुनकर उसने चाणूर और मुष्टिकसे कहा, ‘दोनों गोपपुत्र यहाँ आ गये हैं। उन्हें मेरे सामने मल्लयुद्ध करके तुम दोनों अवश्य मार झालना, क्योंकि वे दोनों मेरे प्राण लेनेवाले हैं। यदि युद्धमैं उन्हें मारकर तुमने मुझे संतुष्ट क्रिया तो मैं तुम्हारी जो-जो इच्छा होगी, वह सब पूर्ण करूँगा। वे दोनों मेरे शत्रु हैं, अतः न्यायसे अथवा अन्यायसे उनको अवश्य मार डालो। उनके मारे जाने पर इस राज्यपर मेरा और तुम्हारा समान अधिकार होगा।’
इस प्रकार उन दोनों मल्लोंको आदेश दे कंसने हाथीवानको बुलाया और उच्च स्वरसे कहा ‘महावत ! तू कुवलयापीड हाथीको मतवाला करकै रङ्गभूमिके द्वारपर खड़ा रखना। जब दोनों गोषपुत्र मल्लयुद्धके लिये आयें, तब उन्हें द्वारपर ही मरवा डालना।’ महावतको यह आज्ञा दे कंसने देखा, रङ्गभूनिमें सब ओर यथायोग्य मञ्च लग गये हैं। तब वह सूर्योदय होनेकी प्रतीक्षा करने लगा। उसकी मृत्यु समीप आ गयी थी। सवेरा होनेपर सव मच्चोंपर नागरिकगण आ विराजे। जो मञ्च केवल राजाओंके लिये बिछे थे, वहाँ भिन्न-भिन्न स्थानोंके राजा अपने सेवकोंसहित आ बैठे। जो लोग मल्लोंकी जड़का चुनाव करनेवाले थे, उन्हें कंसने रङ्गभूमिके बीचमें अपने पास ही विठाया। वह स्वयं भी बहुत ऊँचे मङ्गपर विराजमान था। रनिवासकी स्त्रियोंके लिये अलग मञ्च लगे थे और नगरकी स्त्रियोंके लिये अलग। नन्द आदि गोप दूसरे-दूसरे मञ्चपर बैठे थे। अक्रूर और वसुदेव मझोंके किनारे खड़े थे। बेचारी देवकी नगरकी स्त्रियोंमें खड़ी थी। वह सोचती थी, अन्तकालमें भी तो एक बार पुत्रका मुँह देख लें।
इसी समय रङ्गभूमिमें तुरही आदि बाजे बज्ञ उठे। चाणूर उछलने और मुष्टिक ताल ठोंकने लगा। लोगोंमें हाहाकार मच गया। बलराम और श्रीकृष्ण रङ्गभूमिके द्वारपर आये और महावतसे प्रेरित कुवलयापीड नामक हाथीको मारकर भीतर घुस गये। उस समय उनके अङ्गामें हाथीका मद और रक्त लगे हुए थे। उसके बड़े-बड़े दाँतोंको ही उन्होंने अपना आयुध बना लिया था। वे दोनों भाई गर्वपूर्ण लीलामयी चितवनसे निहारते हुए उस महान् ङ्गोत्सवमें इस प्रकार प्रविष्ट हुए, मानो मृगकै झुंडमें दो सिंह आ गये हों। उनके आते ही रङ्गभूमिमें चारों ओर महान् कोलाहल हुआ। सब लोग विस्मयके साथ कहने लगे, ‘यै ही कृष्ण हैं, ये ही अतभद्र हैं। ये कृष्ण वे ही हैं, जिन्होंने भयंकर राक्षसी पूतनाका वध किया, छकई उलट दिये और दोनों अर्जुन वृक्षों को उखाड़ डाला। जिन्होंने बालक होते हुए भी कालिय नागके मस्तकपर नृत्य किया, सात रातोंतक गोवर्धन पर्वतको हाथपर रखा और अरिष्ट, धेनुक तथा फेशी आदि दुराचारियोंको खेल-खेलमें ही मार आला, थे ही ये श्रीकृष्ण दिखायी देते हैं और ये जो दूसरे महाबाहु युवतियोंके मन और नयनोंको आनन्द देते हुए लीलापूर्वक आगे-आगे चल रहे हैं, वे श्रीकृष्णके बड़े भाई बलदेवजी हैं। पौराणिक रहस्यको जननेवाले विद्वान् पुरुष इन्हीं गोपालके विषयमें यों कहते हैं कि ये शोकसागरमें डूबे हुए यदुवंशका उद्धार करेंगे। निश्चय ही ये सबको जन्म देनेवाले सर्वभूतस्वरूप भगवान् विष्णुके अंश हैं, जो पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं।’
इस प्रकार जब नगरके लोग बलराम और श्रीकृष्णका वर्णन कर रहे थे, उस समय देवको हृदयमें स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूध बहने लगा। वसुदेवजी तो मानो समीच आयी हुई वृद्धावस्थाको छोड़कर युवा हो गये। उनकी दृष्टि अपने दोनों पुत्रों पर ही लगी हुई थी, मानो वे ही उनके लिये महान् उत्सव हो। रनिवासकी स्त्रियाँ एकटक नेत्रोंसे श्रीकृष्ण और बलरामको निहारती । नगरकी स्त्रियों तो उनकी ओरसे दृष्टि ही नहीं हटाती थीं।
स्त्रिया आपसमें कहने लगीं- ‘ सखियो ! श्रीकृष्णका मुख तो देखो, कैसी कमल-जैसी सुन्दर आँखें हैं। कुवतचापीड हाथीसे युद्ध करनेके कारण जो परिश्रम हुआ है, उससे इनके मुखपर पसीनेकी बूंद निकल आयी हैं। इन स्वेदबिन्दुओंसे सुशोभित इनका प्रसन्न मुख ऐसा आन पड़ता है, मानो खिले हुए कमलपर औसके कण शोभा पा रहे हों। इस मनोहर मुखकी झाँकी करके आज अपना जन्म सफल कर लो। अहा! भामिनी! इस बालकके वक्षस्थलपर तो दृष्टिपात करो। श्रीवत्सचिह्नसे इसको कैसी शोभा हो रही है। यह सम्पूर्ण जगत्का आश्रय हैं और इसकी दोनों भुजाएँ शत्रुओका दर्य दलन करनेमें समर्थ हैं। अरी सखी! उधर देखो, मुष्टिक और चाणूरको उछलते-कूदते देख बलभद्रजीके मुखपर मन्द हास्यकी कैसी छटा छा रही है। हाव, सखी! देखो तो सही, ये श्रीकृष्ण चाणूर के साथ युद्ध करने जा रहे हैं। क्या इस समें न्याययुक बर्ताव करनेवाले बड़े-बूढ़े नहीं हैं? कहाँ ते अभी युवावस्थाने प्रवेश करनेवाले श्रीहरिका मुकुमार शरीर और कहाँ वज्रके समान कठोर एवं विशाल शरीरवाला यह महान् असर ! ये दोनों भाई रङ्गभूमिमें अभी तरुण दिखायी देते हैं। इनके सभी अङ्ग कोमल हैं और चाणूर आदि दैत्य मल्ल बड़े ही भयंकर हैं। मुझके लिये जोड़का चुनाव करनेवाले लोगोंका यह बहुत बड़ा अन्याय है कि मध्यस्थ होकर भी बालक और बलवान्के युद्धकी उपेक्षा करते हैं।’
जब नगरकी स्त्रियाँ इस प्रकार वार्तालाप कर रही थी, उसी समय भगवान् श्रीहरि अपने पदाघातसे पृथ्वीको कैंपाते हुए सब लोगों के हदसमें हर्षातिरेकको वृद्धि करने लगे। बलभद्रजी भी ताल ठोंककर मनोहर गतिसे उछलते हुए चल रहे थे। उस समय यह पृथ्वी पग-पगपर उनके पदायातसे विदोर्न नह हुई–यही बड़े आश्चर्यको बात थी। तदनन्तर अमिपराक्रमी श्रीकृष्ण चाणूरके साथ कुश्ती लड़ने लगे तथा मल्लयुद्धकी विद्यामें कुशल मुष्टिक दैत्य अलदेशीके साथ भिड़ गया। श्रीकृष्ण चापूरके साथ परस्पर भिट्टकर, नीचे गिराकर, उछालकर, पूँसे और वद्भके समान कोहीसे मारकर, पैरोंसे ठोंक देकर तथा एकदूसरेके शरीरको रगड़कर लड़ने लगे। इस तरह उन दोनों में बड़ा भारी युद्ध हुआ। उस युद्धमें यद्यपि किसी अस्त्र-शस्त्रको प्रयोग नहीं होता था तो भी वह अत्यन्त ओर एवं भयंकर था। अपने बल और प्राणशक्ति ही साध्य था। ज्योंज्यों चाणूर श्रीहरिके साथ युद्ध करता, त्यों-हीत्यों उसकी प्राणशछि घटती जाती थी। जगन्मय श्रीकृष्ण भी उसके साथ लीलापूर्वक युद्ध करने लगे। वह परिश्रमसे थक गया था, अतः क्रोधपूर्वक श्रीकृष्णके हाथपर हाथ मार रहा था। कंसने देखा, श्रीकृष्णको थल बढ़ रहा है और चाणूर थकता जा रहा है। कुपित होकर उसने बाजे बंद कर दिये। इस समय आकाशमें देवताओं अनेक प्रकारकै बाजे बज उठे। अदृश्य भाषसे खड़े हुए देवता हर्षमें भरकर भगवान्को स्तुति करते हुए बोले-‘केशव ! चाणूर दानवको मार इसलिये, गोविन्द। आपकी जय हो।’
श्रीकृष्ण दैरतक चानुरके साथ खिलवाड़ करते रहे, फिर उसे मार डालनेके लिये सचेष्ट हुए और दैत्यको उठाकर आकाशमें घुमाने लगे। घुमाते समय ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। भगवान्ने उसे सौ बार घुमाकर पृथ्वीपर पटक दिया। चाणूरके सौ-सौ टुकड़े हो गये। उसके रक्तकी धारासे अखाड़ेमें गहरी कीचड़ हो गयी। महाबली बलदेवजी भी इतनी देरतक मुष्टिकके साथ लड़ते रहे। अन्तमें उन्होंने भी उस दैत्यके मस्तकपर मुकेका प्रहार किया और छतीमें घुटनेसे आघात करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। फिर अपने शरीरसे रगड़कर उसका कचूमर निकाल दिया। उसकी जीवन-लीला समाप्त हो गयी। तत्पश्चात् श्रीकृष्णने पुन: महाबलो मल्लराज तौशलको बायें पैंसेकी चोटसे मार गिराया। चाणूर, मुष्टिक और तोशलके मारे जानेपर शेष पहलवान भाग खड़े हुए। उस समय श्रीकृष्ण और बलभद्र रंगभूमिमें समवयस्क ग्वालबालोंको साथ ले हर्षमें भरकर उसने-कूदने लगे। यह देख कंसकी आँखें क्रोधसे साप्त हो गया। उसने अपने सेवकको आज्ञा दी, ‘इन दोनों ग्वालोंको बलपूर्वक रङ्गशालसे बाहर निकाल दो। पापी नन्दको भी पकड़कर तुरंत बेड़ियोंमें जकड़ दो। वसुदेवको भी उसकी वृद्धताका विचार न रखते हुए कठोर दण्ड देकर मार डालो। ये जो ग्वालबाल श्रीकृष्णके साथ उछल रहे हैं, इन सबको गौएँ छीन लो और इनके परमें जो कुछ भी धनसम्पत्ति हो, उसे लूट लो।’
कंसको इस प्रकार आदेश देते देख भगवान् मधुसूदन हँस पड़े। वे उछलकर मञ्चपर जा चढे । राजाका मुकुट पृथ्वीपर गिर पड़ा। श्रीकृष्णने इसके कैश पकड़ लिये और उसे पृथ्वीपर गिराकर स्वयं भी उसपर कूद पड़े। वे सम्पूर्ण जगत्का भार लेकर उसके ऊपर कूदे थे, इसलिये उसके प्राण निकल गये। उग्रसैनकुमार राजा कंस संसारसे चल बसा। मरनेपर भी श्रीकृष्णने उसके मस्तकके बाल पकड़कर उसके शरीरको रङ्गभूमिमें घसीटा। कंसके पकड़े जानेपर उसका भाई सुनामा क्रोधमें भरकर आया, किन्तु बलभद्रजीने उसे खेतमें ही मार गिराया। मथुराका महाराज कंस श्रीकृष्णके हाथसे अवहेलनापूर्वक मारा गया, यह देखकर रङ्गभूमिमें आये हुए सब लोग हाहाकार करने लगे। तदनन्तर श्रीकृष्णाने शीघ्र जाकर बसुदेव और देलकके चरण पकड़ लिये। बलदेवजीने भी उनका साथ दिया। वसुदेव और देवकीने श्रीकृष्णको उठाया; और जन्मकालमें उन्होंने जो बातें कही थी, उन्हें याद करके स्वयं ही प्रणाम करने लगे।
वसुदेवजी बोले- देवदेवेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये । प्रभो ! आप देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं। केशव ! आपने हम दोनोंपर कृपा करके ही हम दोनोंका उद्धार किया हैं। हमारी आराधनासे भगवान्ने जो दुराचारी दैत्योंका वध करनेके लिये हमारे घरमें अवतार लिया, इससे हमारा कुल पवित्र हो गया। सर्वात्मन्! आप ही सम्पूर्ण भूतोंके अन्त हैं-आपमें ही सबका लय होता है। आप समस्त प्राणियोंके भीतर विराजमान हैं। आपसे ही भूत और भविष्यको प्रवृति हुई है। सर्वदेवमय अच्युत ! अचिन्त्य परनेश्वर ! यज्ञमें आपका हो यजन किया जाता है। परमेश्वर ! आप ही मज्ञ हैं और आप ही यज्ञों के कर्ता-धर्ता हैं। आपके प्रति परमात्मभावको इराकर जो मेरा और देवकोका मन पुत्रस्नेहके कारण आपकी ओर जाता है, यह हमारे लिये अत्यन्त विडम्बना है। कहाँ तो आप सम्पूर्ण भूतोंके कर्ता, अनादि और अनन्त परमेश्वर और कहाँ हमारी इस मानवीय जिल्लाका आपको ‘पुत्र’ कहकर पुकारना ! जिनके भीतर समस्त चराचर जगत् प्रतिष्ठित हैं, वे किसी मनुष्यसे कैसे उत्पन्न हो सकते हैं, किसी नारीके गर्भमें कैसे शयन कर सकते हैं। जगन्नाथ ! जिनसे यह सम्पूर्ण संसार उत्पन्न हुआ हैं, वे आप मायाके सिवा किस युक्तिसे मेरे पुत्र हो सकते हैं। परमेश्वर ! आप प्रसन्न हों। इस विश्वको रक्षा करें। आप मेरे पुत्र नहीं हैं। ईश! ब्रह्मासे लेकर वृक्षपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् आपसे ही उत्पन्न हुआ है। परमात्मन् ! आप हमारे मन मोह क्यों उत्पन्न करते हैं। मेरी दृष्टि मयासे मोहित हो रही थी। आप मेरे पुत्र हैं, यह समझकर मैंने कंससे अत्यन्त भय किया था और शत्रुके भयसे व्याकुल होकर आपको गोकुल ले गया था। गोविन्द ! वहाँ रहकर आप मेरे सौभाग्यसे इतने बड़े हुए हैं। रुद्र, मरुद्रण, अश्विनीकुमार और इन्द्रके द्वारा भी जो कार्य सिद्ध नहीं हो सकते, वे भी आपके द्वारा सिद्ध होते देखे गये हैं। ईश! आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं। जगत्का कल्याण करनेके लिये इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। हमारा सारा मोह अब दूर हो गया।
अध्याय- 79 भगवान् की माता-पितासे भेट, उग्रसेनका राजयभिषेक, श्रीकृष्ण-बलरामका विधाध्ययन, गुरुपुत्रको यमपुरसे लाना, जरासंधकी पराजय, कालयवनका संहार तथा मुचुकुन्दद्वारा भगवानका स्तवन
व्यासजी कहते हैं- भगवान्के अलौकिक कर्म देखकर वसुदेव और देवकीको उनके भगवद्भावका ज्ञान हो गया, यह देख भगवान श्रीहरिने यदुवंशियोंको मोहनेके लिये वैष्णवी माया फैलायी और कहा-“माता और पिताजी ! मैं तथा भैया बलराम बहुत दिनोंसे आपके दर्शनके लिये उत्कण्ठित थे, आज दीर्घ कालके बाद हमें आपका दर्शन मिला है। जिसका समय माता-पिताकी सेवा किये बिना ही बीतता है, उस पुत्रका जीवन व्यर्थ है; वह जननीको कष्ट देनेवाला माना गया है। साधु पुरुषोंमें उसकी निन्दा होती है। तात! जो गुरु, देवता, ब्राह्मण और माता-पिताका पूजन-सत्कार करते हैं, उन्हींका जन्म सफल होता है। पिताजी! हमलोग कंसके बल और प्रतापसे पराधीन हो गये थे; अत: हमारे द्वारा जो अपने कर्तव्यका उल्लङ्घन हुआ है, वह सब आप क्षमा करें।’
यों कहकर दोनों भाइयोंने माता-पिताको प्रणाम किया। फिर क्रमश: यदुकुलके सभी बड़े-बूढोंका चरणस्पर्श किया। इस प्रकार अपने विनयपूर्ण बर्तावसे समस्त पुरवासियोंके मनमें अपने प्रति स्नेहका संचार कर दिया। कंसके मारे जानेपर उसकी पलियाँ और माताएँ शोक और दुःखमें डूब गयीं तथा उसको सब ओरसे घेरकर अनेक प्रकारसे विलाप करने लगीं। उन्हें घबरायी हुई और दुःखी देख श्रीकृष्णने स्वयं भी नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए उन सबको सान्त्वना दी, उग्रसेनको कैदसे छुड़ाया और अपने राजपदपर अभिषिक्त कर दिया। राज्यासनपर बैठनेके बाद उग्रसेनने अपने पुत्रके तथा अन्य मरे हुए व्यक्तियोंके पारलौकिक कार्य किये। मृतकोंकी और्धवर्देहिक क्रिया करनेके पश्चात् जब उग्रसेन पुनः सिंहासनपर बैठे, तब श्रीकृष्णने उनसे कहा-‘महाराज ! जो भी आवश्यक कार्य हो, उसके लिये मुझे नि:शङ्क होकर आज्ञा दें। जबतक मैं आपकी सेवामें मौजूद हूँ तबतक आप देवताओंको भी आज्ञा दे सकते हैं, फिर इस पृथ्वीके राजाओंकी तो बात ही क्या है।’
उग्रसेनसे यों कहकर श्रीकृष्ण वायुदेवतासे बोले-“वायो ! तुम इन्द्रके पास जाओ और उनसे मेरा यह संदेश कहो, ‘इन्द्र ! तुम अभिमान छोड़कर महाराज उग्रसेनको सुधम सभा दे दो। श्रीकृष्ण कहते हैं, यह राजाके योग्य उत्तम रत्न है; अत: सुधर्मा सभामें यदुवंशियोंका बैठना सर्वथा उचित है।’ भगवान्के यों कहनेपर वायुदेवने शचीपति इन्द्रसे सब कुछ कहा। इन्द्रने वायुको सुधर्मा सभा दे दी। वह दिव्य सभा सब रत्नोंसे सम्पन्न थी। गोविन्दकी भुजाओंकी छत्रछायामें रहनेवाले यादव वायुद्वारा लायी हुई उस सभाका उपभोग करने लगे। श्रीकृष्ण और बलभद्र सम्पूर्ण विद्याओंके ज्ञाता तथा पूर्ण ज्ञानस्वरूप थे, तथापि शिष्य और आचार्यकी परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिये उन्होंने काश्यगोत्रमें उत्पन्न अवन्तीपुरनिवासी सांदीपनिजीके यहाँ विद्याध्ययनके लिये यात्रा की। बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाई शिष्यता ग्रहण करके निरन्तर गुरु-सेवामें लगे रहते थे। उन्होंने अपने आचरणद्वारा सबको शिष्यके कर्तव्यका उपदेश दिया। चौंसठ दिनोंमें हो रहस्य और संग्रह (अस्त्रोंके उपसंहार)-सहित धनुर्वेदका उन्हें पूर्ण ज्ञान हो गया। यह एक अद्भुत बात थी। उनके अलौकिक और अनहोने कर्मोको देखकर गुरुने ऐसा समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा इन दोनोंके रूपमे मेरे यहाँ आये हैं। एक बार बतानेमात्रसे ही सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंका उन्हें ज्ञान हो गया। पूरी विद्या पढ़कर उन्होंने गुरुसे कहा- भगवन् ! आपको क्या गुरुदक्षिणा दी जाय? बताइये।’ परम बुद्धिमान् गुरुने भी उनसे अलौकिक कर्मका विचार करके अपने मरे हुए पुत्रको माँगा, जो प्रभासक्षेत्रमें समुद्रके भीतर डूब गया था। तब बलराम और श्रीकृष्ण हथियार लेकर समुद्रतटपर गये और समुद्रसे बोले-‘मेरे गुरुके पुत्रको ले आओ।’ समुद्रने हाथ जोड़कर कहा–’भगवन् ! मैंने सांदीपनिके पुत्रका अपहरण नहीं किया है। मेरे भीतर पशुजन नामका एक दैत्य रहता है, उसका आकार शङ्खका-सा है। उसने उस बालकको पकड़ लिया था। वह दैत्य आज भी मेरे जलमें मौजूद है। समुद्रके वों कहनेपर भगवान्ने जलमें प्रवेश करके पञ्चजनको मार डाला और उसकी हड़ियोंका उत्तम शर्छ ग्रहण किया। उसका शब्द सुनकर दैत्योंका अल क्षीण होता, देवताओंकी शक्ति बढ़ती और अधर्मका नाश होता है। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलवान् बलरामजी यमपुरीमें गये; वहाँ उन्होंने शङ्ख-नाद किया और वैवस्वत पमको जीतकर गुरुके पुत्रको प्राप्त कर लिया। वह बेचारा वहाँ नरककी यातन भोग रहा था। उसे पहले-जैसा शरीर प्रदान कर दोनों भाइयोंने गुरुको अर्पित किया। तत्पश्चात् वे दोनों बन्धु उग्रसेनद्वारा पालित मथुरापुरीने चले आये। उनके आगमनसे मथुराके सभी स्त्री-पुरुष प्रसन्न हो गये।
महाबली कंसने जरासंधकी पुत्री अस्ति और प्राप्तिसे विवाह किया था। जरासंध मगधदेशका बलवान् राजा था। वह बहुत बड़ी सेना साथ लेकर अपने दामादको मारनेवाले यदुवंशियोंसहित श्रीकृष्णका वध करनेके लिये क्रोधपूर्वक आया। मथुराके पास पहुँचकर उसने उस पुरीको चारों ओरसे घेर लिया। उसके साथ तेईस अक्षौहिणी सेना थी । बलराम और श्रीकृष्ण थोड़े-से सैनिकोंको साथ ले नगरसे बाहर निकले और उसके बलवान् योद्धाओके साथ युद्ध करने लगे। उस समय उन्हें अपने पुरातन आयुधको ग्रहण करनेकी इच्छा हुई। उनके मनमें ऐसा संकल्प आते ही सुदर्शन चक्र, शाङ्गधनुष, बाणों से भरा हुआ अक्षय तूणीर और कौमोदकी गद-ये सभी अस्त्र श्रीकृष्णके हाथमें आ गये। इसी प्रकार बलदेवजीके हाथमें भी उनके अभीष्ट अस्त्र हल और मुसल आ गये। उन दिव्य अस्त्रको पकर श्रीकृष्ण और बलरामने महाराज जरासंभको सेनासहित युद्धमें परास्त कर दिया और फिर वे अपनी पुरीमें लौट आये। दुराचारी जरासंघ परास्त होकर भी जीते-जी लौट गया था। अत: श्रीकृष्णने उसे हारा हुआ नहीं समझा। वह पुनः बहुत बड़ी सेनाके साथ मथुरापर चढ़ आया और बलराम तथा श्रीकृष्णसे परास्त होकर भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार अत्यन्त दुर्मद मगधराजने श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियोंके साथ अठारह बार लौह लिया। परंतु प्रत्येक युद्धमें उसे यदुवंशियोंद्वारा मुँहकी खानी पड़ी। यद्यपि उसके पास सेना अधिक थी तो भी थोड़ी-सी सेनवाले यादवोंने उसे मार भगाया। इन अनेक युद्धोंमें लड़नेपर भी जो यदुवंशियोंकी सेना सुक्षित रह गयी, यह चक्रपाणि भगवान् विष्णुके अंशभूत श्रीकृष्णके सामीप्यकी महिमा थी। भगवान् श्रीकृष्ण शत्रुओं पर हो अनेक प्रकारके अस्त्र चलाते थे, यह मनुष्यधर्मका पालन करनेवाले जगदीश्वरकी लीला थी। जो मनसे हो संसारको सृष्टि और संहार करते हैं, उन्हें शत्रुपक्षका विनाश करनेमें कितने उद्यमको आवश्यकता है; तथापि मनुष्योंके धर्मका अनुसरण करते हुए बलवानोंसे संधि और हीन बलवानके साथ युद्ध करते थे। कहीं साम, दान और कहीं भेदको नीति दिखाते हुए कहीं-कहींपर दण्टनीतिका भी प्रयोग करते थे और आवश्यकता होनेपर कहीं युद्धसे पलायन भी करते थे। इस प्रकार वे मानव-शरीरको चेष्टाका अनुसरण करते थे। वास्तवमें यह जगदीश्वरकी लीला है, जो उनकी इच्छाके अनुसार होती हैं।
दक्षिणमें एक यवनोंका राजा रहता था, उसने अपने पुत्र कालयवनको अपने राज्यपर अभिषिक किया और स्वयं वनमें चला गया। कालयवन बलके मदसे उन्मत्त रहता था। एक बार उसने नारदजीसे पूछा- ‘पृथ्वीपर बलवान् राजा कौन-कौन-से हैं?’ नारदजीने यादवको बतलाया । उसने हाथी, घोड़े और रथसहित खरबों म्लेच्छोंकी सेना साथ लेकर यादवोंपर आक्रमणको तैयारी की। यह प्रतिदिन अविचिन्न गतिसे यात्रा करता हुआ मधुराको गया। यादवके प्रति उसके हृदयमें बड़ा अमर्ष था। उसके आक्रमणका समाचार जानकर श्रीकृष्णने सोचा, ‘यदि कालयवनने आकर यादवोंकी सेनाका संहार कर दिया तो अवसर देखकर मगधराज जरासंध भी आक्रमण करेगा और यदि पहले जरासंधने ही आकर हमारी सेनाको क्षीण कर दिया तो बलवान् कालयवन बचे-खुचे सैनिकों को मार डालेगा। अहो ! यदुवंशियोंपर दोनों प्रकारसे संकट उपस्थित है; अत: इससे बचनेके लिये मैं यादवोंके निमित्त अत्यन्त दुर्जय दुर्गका निर्माण किया, जहाँ रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती हैं, फिर वृष्णियों और यादवोंकी तो बात ही क्या । यदि मैं सोया अथवा बाहर गया होऊँ तो भी उस दुर्गमें रहनेपर दुष्ट शत्रु यादवको अधिक कष्ट न दे सकें।’ यह सोचका गोविन्दने समुद्रसे बारह योजन भूमि माँग और उसमें द्वारकापुरीका निर्मान किया। उसमें बड़े-बड़े उद्यान शोभा पाते थे। उसको चहारदीवारी बहुत ऊँची थी। सैकड़ों सरोवरोंसे वह पुरी सुशोभित हो रही थी। इसमें सैकड़ों परकोटे बने हुए थे। वह पुरी इन्द्रकी अमरावतीसी मनोहर जान पड़ती थी। भगवान् श्रीकृष्णने मथुराके निवासियोंको वहाँ पहुँचा दिया और जय कालपवन समीप आ गया, तब वे स्वयं मथुरा लोट आये। मथुराके चार कालयवनकी सेनाका पड़ाव था। श्रीकृष्ण अस्त्र-शस्त्र लिये बिना ही मथुरासे बाहर निकले। कालयवनने उन्हें देखा और यह जानकर कि ये ही वासुदेव हैं, बिना अस्त्र-शस्त्रके ही उनका पीछा किया। जिन्हें बड़े-बड़े योगी अपने मनके द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकते, उन्हीं भगवान्को पकड़नेके लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे चला। उसके पीछा करनेपर श्रीकृष्ण भी एक बहुत बड़ी गुफामें प्रवेश कर गये, जहाँ महापराक्रमी मुचकुन्द सोये हुए थे। कालयवनने भी उस गुफामें प्रवेश करके देखा, एक मनुष्य सो रहा है। उसे श्रीकृष्ण समझकर उसे खौटी बुद्धिवाले यवनने लात मारी। मुचुकुन्दकी आँख खुल गयी और वह यवन राजाको दृष्टि पड़ते ही उनकी क्रोधाग्निसे जलकर भस्म हो गया।
पूर्वकालमें राजा मुचुकुन्द देवासुर-संग्राम युद्ध करनेके लिये गये थे। वहीं उन्होंने बड़े-बड़े दैत्यों को परास्त किया। युद्ध समाप्त होने पर उन्हें नींद सताने लगी। तब उन्होने देवताओंसे दीर्घकालतक निद्रामें पड़े रहनेका वरदान माँगा। देवताओंने कहा-‘राजन् ! जो तुम्हें सोते उथा देगा, वह तुम्हारे शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे तत्क्षण जलकर भस्म हो जायगा।’ इस प्रकार पापी कालयवनको भस्म करके गाने मधुसूदनसे पूछा-‘आप कौन हैं? वे बोले-‘मैं चन्द्रवंशके भीतर यदुकुलमें उत्पन्न वसुदेव-पुत्र श्रीकृष्ण हूँ।’ यह सुनकर उन्होंने सर्वेश्वर श्रीहरिको प्रणाम करके कहा ‘भगवन् ! मैंने आपको पहचान लिया। आप श्रीहरिके अंशभूत साक्षात् परमेश्वर हैं। पूर्वकालमें गर्गयने कहा था-अट्ठाईस द्वापरके अन्तमें यदुकुलमें श्रीहरिका अवतार होगा। वे अवतारधारी श्रीहरि आप ही हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। आप मर्त्यलोकके प्राणियोंका उपकार करनेवाले हैं। आपके इस महान् तेजको मैं नहीं सह सकता। आपकी वाणी महामेघकी गंभीर गर्जना समान हैं। देवासुर संग्राममें दैत्यपक्षके महान् योद्धा भी आपके जिस महान् तेजको सहन न कर सके, वही तेज आज मेरे लिये भी असह्य है। संसारसागरमें पड़े हुए जीवके लिये एकमात्र आप ही परमाश्रय हैं, शरणागती पीड़ा दूर करनेवाले हैं। भगवन् ! मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे अमङ्गलको हर लीजिये। आप ही समुद्र, पर्वत, नदी, वन, पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि तथा पुरुष हैं। पुरुषसे भी परे जो व्यापक, जन्म आदि विकारोंसे रहित, शब्द आदिसे शुन्य, सदा नवीन तथा वृद्धि और क्षग्रसे रहित तत्त्व है, वह भी आप ही हैं। देवता, पितर, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, सिद्ध, अप्सरा, मनुष्य, पशु-पक्षी, सर्प, मृग तथा वृक्ष-सव आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। इस चाचर जगत्में जो कुछ भी भूल या भविष्य, मूर्त या अमूर्त अथवा स्थूल या सूक्ष्मतर वस्तु है, वह सब आपके सिवा कुछ भी नहीं है। भगवन् ! इस संसारचक्रमें आध्यात्मिक आदि तीनों तापसे पीड़ित हो सदा भटकते हुए मुझे कभी शान्ति नहीं मिली । नाथ ! मैंने मृगतृष्णासे जलको आशा करके दुःखोंको ही सुख समझकर ग्रहण किया, अतः ये सदा मेरे लिये संतापके ही कारण हुए। प्रभो ! राज्य, पृथ्वी, सेना, कोष, मित्र, पुत्र, पत्नी, भृत्य और शब्द आदि विषय-यह सब कुछ मैंने सुख-बुद्धिसे ग्रहण किया; परंतु देवेश्वर ! परिणाममें ये सब मेरे लिये संतापग्रद ही सिद्ध हुए हैं। नाथ ! देवलोककी उत्तम गतिको प्राप्त देवताओंको भी जब मुझसे सहायता सेनेकी इच्छा हुई, तब वहाँ भी नित्य शान्ति कहाँ है। आप सम्पूर्ण जगत्के उद्गम-स्थान हैं। परमेश्वर! आपकी आराधना किये बिना सनातन शान्ति कौन पा सकता है। जिनका चित्त आपको मापासे मोहित है, ये जन्म-मृत्यु और जरा आदि कों भोगकर अन्तमें यमराजको दर्शन करते हैं। तदनन्तर सैकड़ों पाशोंमें आबद्ध हो नरकोंमें अत्यन्त दारुण दुःख भोगते हैं। यह विश्व आपका स्वरूप है। परमेश्वर ! मैं अत्यन्त विषयी हैं और आपकी मायासे मोहित होकर ममताकै अगाध गर्तमें भटक रहा हैं। वहीं मैं आज अपार एवं स्तवन करने योग्य आप परमेश्वरकी शरणमें आया है, जिससे भिन्न दूसरा कोई परम पद नहीं है। मेरा चित सांसारिक श्रमसे संतप्त है; अतः मैं निर्वाणस्वरूप आप परमधाम परमात्माकी अभिलाषा करता हूँ।
व्यासजी कहते हैं-परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुदके इस प्रकार स्तुति करनेपर आदि-अन्तरहित, सर्वभूतेश्वर श्रीहरिने कहा-‘नरेश्वर! तुम अपनी इच्छा अनुसार दिव्य लोकोंमें जाओ और मैरे प्रसादसे उत्तम ऐश्वर्यसे सम्पन्न होकर वहाँक दिव्य भोग भोगो। तत्पश्चात् इस पृथ्वीपर श्रेष्ठ कुलमें तुम्हारा जन्म होगा। उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी रहेगी और मेरी कृपासे तुम मोक्ष प्राप्त कर लोगे।’ यह सुनकर राजाने जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा तो सब मनुष्य छोटे-छोटे दिखायी दिये। तब कलियुग आया जान वे तपस्या करनेके लिये गन्धमादन पर्वतपर भगवान् नर-नारायणके आश्रममें चले गये। श्रीकृष्णने भी युक्तिसे शत्रुका वध कराकर मधुरामें आ हाथी, घोड़े और रथसे सुशोभित उनकी सारी सेना अपने अधिकारमें कर ली तथा द्वारकामें ले जाकर राजा उग्रसेनको समर्पित कर दी। अब सम्पूर्ण यादव शत्रुओंके आक्रमणकी आशङ्कासे निर्भय हो गये।
अध्याय- 80 बलरामजीकी व्रज यात्रा, श्रीकृष्णद्वारा रुकमणी हरण तथा प्रधुम्नके द्वारा शम्बरासुरका वध
व्यासजी कहते हैं- तदनन्तर बलदेवजी अपने बन्धु-बान्धवोंके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो नन्दगाँवमें आये। उस समय सम्पूर्ण गोप और गोपियाँ उनसे पूर्ववत् मिलीं। बलरामजीने सबको आदर देते हुए सबके साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप किया। किन्हींने उनको हृदयसे लगाया। कुछ लोगोंका उन्होंने गाढ़ आलिङ्गन किया तथा कुछ गोप-गोपियोंके साथ बैठकर उन्होंने हास्यविनोद किया। वहाँ गोपने बलरामजीसे अनेकों प्रिय लगनेवाली बातें कहीं। कुछ गोपियाँ उन्हें देखकर प्रेमानन्दमें निमग्न हो गयीं तथा कुछ दूसरी गोपियोंने ईष्र्यापूर्वक पूछा-‘चञ्चल प्रेमरसके आस्वादनमें व्यग्र रहनेवाले नागरी स्त्रियोंके प्रियतम श्रीकृष्ण तो सुखसे हैं न? क्षणिक अनुराग दिखानेवाले श्यामसुन्दर क्या कभी हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हुए नगरकी महिलाओंके सौभाग्यका मान नहीं बढ़ाते? क्या श्रीकृष्ण कभी हमारे गीतोंका अनुसरण करनेवाले मधुर स्वरका स्मरण करते हैं? क्या वे एक बार भी अपनी माताको देखनेके लिये यहाँ आयेंगे? अथवा उनकी बात करनेसे हमें क्या लाभ। कोई दूसरी बात करो। यदि हमारे बिना उनका काम चल सकता है तो उनके बिना हमारा भी चल जायगा। हमने उनके लिये पिता, माता, भ्राता, पति और वन्धुबान्धव-किसको नहीं छोड़ दिया। फिर भी वे कृतज्ञ न हो सके तथापि बलरामजी ! क्या श्रीकृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी आपसे बात करते हैं? दामोदर श्रीकृष्णका मन तो नगरकी स्त्रियों में आसक्त हो गया है। हमपर अब उनका प्रेम नहीं रहा। अत: अब हमारे लिये उनका दर्शन दुर्लभ ही जान पड़ता है।’
भगवान् श्रीकृष्णने गोपियोंका चित्त आकृष्ट कर लिया था। वे बलभद्रजीको भी हे कृष्ण ! हे दामोदर !’ कहकर पुकारने और जोर-जोरसे हँसने लग। तब बलरामजीने श्रीकृष्णके सौम्य, मधुर, प्रेमगर्भित, अभिमानशून्य और अत्यन्त मनोहर संदेश सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी। फिर गोपोंके साथ प्रेमपूर्वक हास-परिहासयुक्त मनोहर यतें कीं और पहलेकी ही भाँति वे उनके साथ ब्रजभूमिमें विचरण कने लगे। दो महीने वहाँ रहकर वे पुनः द्वरकाको चले गये। उनका विवाह राजा रेवतकी कन्या वतीसे हुआ। उसके गर्भसे बलरामजीने निशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र उत्प्न्न किये।
विदर्भ देशमें कुण्डिनपुर नामक एक नगर है, वहाँ राजा भीष्मक राज्य करते थे। उनके पुत्रका नाम रुक्मी और कन्याका नाम रुक्मिणी था। श्रीकृष्ण रुक्मिणीको प्राप्त करना चाहते थे और मनोहर मुसकानवाली रुक्मिणी भी श्रीकृष्णचन्द्रको पतिरूपमें पानेकी अभिलाषा रखती थी। उन्होंने कुण्डीननरेशसे’ रुक्मिणीके लिये प्रार्थना भी की, किंतु रुक्मीने द्वेषवश श्रीकृष्णकी प्रार्थना ठुकरा दी। जरासंधकी प्रेरणासे परम पराक्रमी राजा भीष्मकने रुक्मीके साथ मिलकर शिशुपालको अपनी कन्या देनेका निश्चय किया। शिशुपालका विवाह सम्पन्न करनेके लिये जरासंध आदि सभी प्रमुख राजा उसे साथ ले कुण्ड़िनपुरमें गये। श्रीकृष्ण भी बलभद्र आदि यादयोंके साथ चैद्यनरेशका विवाह देखनेके लिये वहाँ उपस्थित हुए।
विवाह होनेमें एक ही दिनकी देर थी, इसी समय श्रीहरिने बलभद्र आदि बन्धुजनोंपर शत्रुओंके रोकनेका भार रखकर राजकुमारी रुक्मिणीको हर लिया। इससे पौण्ड्रक, दन्तवा, विदूरथ, शिशुपाल, जरासंध और शाल्व आदि राजा बहुत कुपित हुए। उन्होंने श्रीकृष्णको मार डालनेको भारी चेष्टा की, किंतु बलराम आदि यादव वीरोंने सामना करके इन सबको परास्त कर दिया। तब रुक्मीने यह प्रतिज्ञा करके कि ‘मैं श्रीकृष्णको युद्धमें मारे बिना कुण्डिनपुरमें प्रवेश नहीं करूंगा,’ श्रीकृष्णका पीछा किया; परंतु चक्रपाणि श्रीकृष्णने हाथी, घोड़े, पैदल और रथोंसे युक्त रुक्मीकी चतुरङ्गिणी सेनाका वध करके उसे लीलापूर्वक जीत लिया और पृथ्वीपर गिरा दिया। इस प्रकार रुक्मीको जीतकर मधुसूदनने रुक्मिणीके साथ विधिपूर्वक विवाह किया। रुक्मिणीके गर्भसे बलवान् प्रद्युम्नका जन्म हुआ, जो कामदेवके अंश थे, जिन्हें जन्मके समय ही शम्बरासुरने हर लिया था और जिन्होंने बड़े होनेपर शम्बरासुरका वध किया था।
मुनियोंने पूछा- मुने ! शम्बरासुरने वीरवर प्रद्युम्नका अपहरण कैसे किया और महापराक्रमी शम्बर प्रद्युम्नके हाथसे किस प्रकार मारा गया?
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो ! शम्बरासुर कालके समान विकराल था। उसे यह बात मालूम हो गयी थी कि श्रीकृष्णका पुत्र प्रद्युम्न मेरा वध करेगा; अतः उसने जन्मके छठे दिन ही प्रद्युम्नको सूतिकागृहसे हर लिया और उन्हें ले जाकर समुद्रमें फेंक दिया। वहाँ उस बालकको एक मत्स्यने निगल लिया, किंतु उसकी जठराग्निसे तप्त होनेपर भी बालककी मृत्यु न हो सकी। तदनन्तर मछेरोंने अन्य मछलियोंके साथ उस मत्स्यको भी मारा और असुरोंमें श्रेष्ठ शम्बरासुरको भेंट कर दिया। उसके घरमें मायावती नामको एक युवतं गृहस्वामिनी थी। वह सुन्दरी रसोइयोंका आधिपत्य करती थी। जब मछलीका पेट चीरा गया, तब उसने मायावतीने एक अत्यन्त सुन्दर बालक देखा, जो जले हुए कामरूपी वृक्षका प्रथम अङ्कर था। ‘यह कौन हैं? किस प्रकार मछलीके पेटमें आ गया?’ इस प्रकार कौतूहलमें पड़ी हुई उस कृशाङ्गी तरुणीसे नारदजीने कहा-‘यह सम्पूर्ण जगतकी सुष्टि पालन और संहार करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका पुत्र है। इसे राम्बरासुरने सौरीसे चुराकर समुद्रमें फेंक दिया और वहाँ मत्स्यने निगल लिया था। वहीं यह बालक है, जो आज तुम्हारे हाथ आ गया। सुन्दरी! यह मनुष्योंमें रल हैं। तुम पूर्ण विश्वासके साथ इसका पालन करो।’
देवर्षि नारदके यों कहनेपर मायावतीने उस बालकका पालन किया। उसका अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर वह मोहित थी और बचपनसे ही अत्यन्त अनुरागपूर्वक उसकी सेवा करने लगी। जिस समय वह बालक युवावस्थाकी संधिसे सुशोभित हुआ, उस समय वह गजगामिनी बाला प्रद्युम्नके प्रति कामनायुक्त भाव प्रकट करने लगी। मायावतीने महात्म प्रद्युम्नको सारी माया सिखा दी। उसका मन उन्होंमें रहता था और उसके नेत्र सदा उहाँको निहारते रहते थे। मायावतीको अपने प्रति आसक्त होते देख कमलनयन प्रद्युमने कहा-‘तू मातृभावका परित्याग करके यह विपरीत भावन कैसे करती है?” मायावतीने कहा-‘तुम मेरे नहीं, भगवान् श्रीकृष्णके पुत्र हो। तुम्हें कालरूपी शम्बने चुराकर समुद्रमें फेंक दिया था। तुम मुझे मछलीकै पेटसे प्राप्त हुए हो । प्रिय ! तुम्हारी पुत्रवत्सला माता आज भी तुम्हारे लिये रोती है।’
मायावती ये कहनेपर महायती द्युमका चित क्रोधसे व्याकुल हो उठा। उन्होंने शम्बरासुरको युद्धके लिये ललकार और उसकी सारी दैत्यसेनाका संहार करके सातों मायाओंको जीतकर उसके ऊपर आठवीं मायाका प्रयोग किया। उस मायासे प्रद्युमने कालरूपी शम्बरको मार डाला और आकाशमार्गसे उड़कर वीएच मायावतीके साथ अपने पिताके नगरमें आये। अन्त:पुरमें उतरनेपर मायावतीसहित प्रद्युम्नको देखकर श्रीकृष्णकी रानियाँ प्रसन्न हो अनेक प्रकारके संकल्प करने लगीं। रुक्मिणीकी दृष्टि प्रद्युमको औरसे हटती ही नहीं थी। वे स्नेहमें भरकर कहने लगी–’यह अवश्य ही किसी बड़भागिनीका पुत्र हैं। अभी इसकी युवावस्थाका आरम्भ हो रहा है। यदि मेरा पुत्र प्रद्युम्न जीवित होता तो उसकी भी यही अवस्था होती। बेटा ! तुमने अपने जन्मसे किस सौभाग्यशालिनी जननीकी शोभा बढ़ायी है? अथवा तुम्हारे प्रति मेरे हृदयों जैसा लेह उमड़ रहा हैं, उसके अनुसार मैं यह स्पष्टरूपसे कह सकती हैं कि तुम श्रीहरिके पुत्र हो।’
इसी समय श्रीकृष्णके साथ नारदजी वहाँ आये। उन्होंने अन्त:पुरमें रहनेवाली रुक्मिणी देवीसे प्रसन्नतापूर्वक कहा-‘सुभु ! यह तुम्हारा पुत्र प्रद्युम्न है। इस समय शम्बरासुरको मारकर यहाँ आया है। कुछ वर्ष पहले शम्बरासुरने ही तुम्हारे पुत्रको सूतिकागृहसे हर लिया था। वह तुम्हारे पुत्रकी सती भार्या मायावती है। यह शाबरासुरकी पली नहीं है। इसका कारण सुनो। जय शंकरजीके कोपसे कमदेवका नाश हो गया, तब उनके पुनर्जन्मकी प्रतीक्षा करती हुई रतिने अपने माथामय रूपसे शम्बरासुरको मोहित किया। देवि! तुम्हारे पुत्ररूपमें ये कामदेव ही अवतीर्ण हुए हैं और यह उन्हॉकी पत्नी रति है। कल्याणी ! यह तुम्हारी पुत्रवधू है, इसमें किसी प्रकारको विपरीत शङ्का न करना।’
यह सुनकर रुक्मिणी और श्रीकृष्णको बड़ा हर्ष हुआ। समस्त द्वारकापुरी ‘धन्य! धन्य’ कहने लगी। चिरकालसे खोये हुए पुत्रकै साथ माता रुक्मिणीका मिलन देख द्वारकापुरीके सब लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ।
अध्याय- 81 श्रीकृष्णकी संतति, अनिरुद्धके विवाहमें रुक्मीका वध, भौमासुरका वध, पारिजात-हरण तथा इंद्रकी पराजय
व्यासजी कहते हैं-रुक्मिणीने प्रद्युम्नके अतिरिक्त चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुषेण, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुविन्द, सुचारु और बलवानोंमें श्रेष्ठ चारु नामक पुत्र तथा चारुमती नामकी कन्याको जन्म दिया। रुक्मिणोके सिवा श्रीकृष्णकी सात पटरानियाँ और थीं। उनके नाम ये हैं–कालिन्दी, मित्रविन्दा, राजा नग्नजित्की पुत्री सत्या जाम्यवान्की कन्या इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली रोहिणी देवी (जाम्बवती), अपने शीलसे विभूषित मद्रराजकुमारी भद्रा, सत्राजित्की पुत्री सत्यभामा तथा मनोहर मुसकानवाली लक्ष्मणा। इनके सिवा श्रीकृष्णके सोलह हजार स्त्रियाँ और थीं। महापराक्रमी प्रद्युम्नने रुक्मीको सुन्दरी कन्याको और उस कन्याने भी श्रीहरिके पुत्र प्रद्युम्नजीको स्वयंवरमें ग्रहण किया। उसके गर्भसे प्रद्युम्नजीके अनिरुद्ध नामक पुत्र हुआ, जो महाबली, महापराक्रमी, युद्धमें कभी रुद्ध (कुण्ठित) न होनेवाला, बलका समुद्र तथा शत्रुका दमन करनेवाला था। अनिरुद्धको भी रुक्मीकी पौत्रीने वरण किया। यद्यपि स्क्मी श्रीकृष्णके साथ लाग-डाँट रखता था तो भी उसने अपने दौहित्र अनिरूद्धके साथ पौत्रोका विवाह कर दिया। उस विवाहमें बलराम आदि यदुवंशी श्रीकृष्णके साथ स्क्मीके भोजकट नगरमें गये थे। विवाह हो जानेपर कलिङ्गराज आदिने रुक्मोसे कहा-‘राजन् ! बलराम जुआ खेलना नहीं जानते, तथापि उन्हें जुएका बड़ा भारी व्यसन है; अत: आज हमलोग उनको जुएसे ही परास्त करें।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर रुक्मीने सभामें बलरामजीके साथ जुएका खेल प्रारम्भ किया। पहले ही दाँवमें बलभद्रजी एक हजार स्वर्णमुद्रा हार गये। उसके बाद भी कई बार उनकी हार हुई। यह देख मूर्ख कलिङ्गराज दाँत दिखाते हुए बलरामजीका उपहास करने लगा। मदोन्मत्त रुक्मीने भी कहा-‘ बलभद्रको तो छूत विद्याका बिलकुल ज्ञान नहीं है। इसीलिये बार-बार हार खानी पड़ी है। ये व्यर्थ ही घमंडमें आकर अपनेको छूत-विद्याको पूर्ण ज्ञाता मानते थे।’ तब बलरामजीने क्रोधमें भरकर एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ दाँवपर लगा दीं। रुक्मीने पाँसा फेंका। अबकी बार बलभद्रकी जीत हुई। उन्होंने उच्चस्वरसे कहा-‘मैंने जीत लिया।’ रुक्मी बोला-‘क्यों झूठ बोलते हो। जीत तो मेरी हुई है। तुमने इस दाँवके विषयमें चर्चा अवश्य की थी, परंतु मैंने उसका अनुमोदन तो नहीं किया था। ऐसी दशामें भी यदि तुम्हारी जीत हुई है तो मेरी जोत कैसे नहीं हुई। इसी समय महात्मा बलरामजीके क्रोधको बढ़ाती हुई आकाशवाणी हुई–’जीत तो बलदेवजीकी ही हुई है। रुक्मी झूठ बोलता है। मुंहसे अनुमोदनसूचक वचन न करनेपर भी जो उसने दाँवको स्वीकार करके पासा फेंका है, इस कर्मसे उसका अनुमोदन सिद्ध हो जाता है।’
इतना सुनते ही बलरामजी क्रोधसे लाल आँखें करके उठ खड़े हुए। उन्होंने जुआ खेलनेके पासेसे ही रुक्मीको मौतके घाट उतार दिया। फिर काँपते हुए कलिङ्गराजको बलपूर्वक धर दबाया और जिन्हें दिखा-दिखाकर वह हँसता था, उन दाँतोंको कुपित होकर तोड़ डाला। फिर सभाभवनके सुवर्णमय विशाल स्तम्भको खींच लिया और क्रोधमें आकर रुक्मीके पक्षमें आये हुए समस्त राजाओंका संहार कर डाला। बलरामजीके कुपित होनेपर सम्पूर्ण राजालोग हाहाकार करते हुए भाग खड़े हुए। बलरामजीके द्वारा रुक्मीको मारा गया सुनकर श्रीकृष्ण चुप रहे। रुक्मिणी और बलराम दोनोंके संकोचसे वे कुछ बोल न सके। तदनन्तर विवाहके बाद भगवान् श्रीकृष्ण अनिरुद्धसहित यादवको साथ ले द्वारका चले आये।
एक दिन त्रिभुवनके स्वामी इन्द्र मतवाले ऐरावतकी पौढ़पर बैठकर द्वारकामें श्रीकृष्णके पास ये और इस प्रकार बोले-‘मधुसूदन ! यद्यपि आप इस समय मनुष्यरूपमें स्थित हैं, तथापि आपने रक्षक अनकर देवताओंके सम्पूर्ण दुःख दूर कर दिये हैं। तपस्वीजनको रक्षाके लिये अरिष्ट, धेनुक, प्रलम्य तथा केशी आदि सब दैत्योंका नाश किया और कंस, कुवलयापीठ, बालघातिनी पूतना तथा जितने इस जगत्के उपद्रव थे, उन सबको आपने शान्त कर दिया है। आपके भुजदण्डसे तीनों लोक सुरक्षित होनेके कारण देवता यज्ञोंमें हविष्य ग्रहण करके तृप्त हो रहे हैं । जनार्दन ! इस समय मैं जिस उद्देश्यसे आया हैं, उसे सुनकर उसके प्रतिकारका उपाय करें। भूमिका पुत्र नरक, जो इस समय प्राग्ज्योतिषपुरका स्वामी है, सम्पूर्ण भूतों का विनाश कर रहा है। जनार्दन ! उसने देवताओं, सिद्धों और राजाओंकी कन्याओंका अपहरण करके अपने महलमें कैद कर रखा है। वरुणका छन, जिससे उसकी बूंदें चूती रहती हैं, अपने अधिकारमें कर लिया है। मन्दराचलके शिखर मणिपर्वतको भी हरण कर लिया है; इतना ही नहीं, नरकासुरने मेरो माता अदितिके दोनों दिव्य कुण्डल भी, जिनसे अमृत झरता रहता हैं, हर लिये हैं। अब वह मुझसे ऐरावत हाथी लेना चाहता है। गोविन्द ! उसका यह दुराचार मैंने आपसे निवेदन कर दिया। इसके बदलेमें उसके साथ जो कुछ करना चहिये, वह आप स्वयं ही विचारें।’
यह सुनकर भगवान् देवकीनन्दन मुसकराये और इन्द्रका हाथ पकड़कर अपने सिंहासनसे उठे। उन्होंने गरुड़का आवाहन किया। चिन्तन करते ही गरुड़ आ पहुँचे। भगवान् सत्यभामाको बिठाकर स्वयं भी गरुड़पर सवार हुए और प्राग्ज्योतिषपुरकी ओर चल दिये । इन्द्र भी द्वारकावासियोंके देखतेदेखते ऐरावत हाथीपर सवार हुए और प्रसन्नचित्त हो देवलोकको चले गये। प्राग्ज्योतिषपुरके चारों ओर सौ योजनोंतक भयंकर पाशों (लोहेके कैंटीले तारों)-को घेरा बना था। शत्रुओंकी सेनाको रोकनेके लिये वे पाश लगाये गये थे। श्रीहरिने सुदर्शन चक्र चलाकर उन सब पाशको काट डाला। तय मुर नामक दैत्यने खड़े होकर भगवान्का सामना किया, किंतु भगवान्ने उसे मार डाला। मुरके सात हजार पुत्र थे, श्रीहरिने चक्रकी धाररूप अग्निसे उन सबको पतंगोंकी भाँति भस्म कर दिया। मुरको मारकर उन्होंने हयग्रीव और पञ्चजनको भी यमलोक प्ठाया तथा बड़ी उतावलीके साथ प्राग्ज्योतिषपुरपर धावा किया। नरक बहुत बड़ी सैनाके साथ सामने आया । उसके साथ श्रीकृष्णका घोर युद्ध हुआ। उसमें श्रीगोविन्दने सहस्रों दैत्योंका संहार किया । भूमिपुत्र नरक अस्त्र-शस्त्रेकी वृष्टि कर रहा था। दैत्यमण्डलका विनाश करनेवाले श्रीहरिने चक्र चलाकर उस असुरके दो टुकड़े कर दिये । नरकके मारे जानेपर भूमि अदितिके दोनों कुण्डल लेकर उपस्थित हुई और जगदीश्वर श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोलीं-‘ नाथ ! आपने वाराहरूप धारण करके जिस समय मुझे उठाया था, उस समय आपका स्पर्श होनेपर मेरे गर्भसे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था, अत: इसे आपने ही दिया और अपने ही मार गिराया। ये दोनों कुण्डल लीजिये और नरकासुरकी संतानकी रक्षा कौजिये। प्रभो! मेरा ही भार उतारनेके लिये आप अंशसहित अवतार धारण करके इस लोकमें आये हैं। आप हो कता, विकर्ता (बिगाड़नेवाले) और संह (नाश करक्याले) हैं। आप ही अविनाशी कारण हैं और आप ही जगत्स्व रूप हैं। अच्युत ! में आपकी क्या स्तुति कर सकती हैं। आप परमात्मा, जीवरमा और अविनाशी भूताःम हैं। अत: आपकी स्तुति हो ही नहीं सकती। फिर किसलिये असम्भव चेष्टा की जाय। सर्वभूतात्मन्! मुझपर प्रसन्न होइये। नकासुरने जो अपराध किया है, उसे क्षमा कीजिये। वह आपका पुत्र था, अत: उसे दोषरहित करने के लिये ही आपने मारा हैं।’
भूतभावन भगवान् श्रीकृष्णने पृथ्वीकी प्रार्थना सुनकर ‘तथास्तु’ कहा। नरकासुरके महल जो रत्न थे, उन्हें अपने अधिकार में कर लिया। अन्त:पुरमें जाकर उन्होंने सोलह हजार एक सौ कन्याएँ देखीं। वहाँ दाँतवाले छः हजार हाथी और काम्बोज देशके इक्कीस लाख घोड़े भी देखे। श्रीगोविन्दने उन कन्याओं हाथियों और घोड़ोको द्वारकापुरी भेज दिया। वरुणके छत्र और मणिपर्वतपर भी दृष्टि पड़ी। उन्हें भगवान्ने पक्षिराज गरुड़पर रख लिया। फिर सत्यभामाके साथ स्वयं भी गरुड़पर सवार हो अदितिको कुण्डल देनेके लिये स्वर्गलोक गये।
वरुणके छत्र, मणिपर्वत और पतीसहित श्रीकृष्णको पीउपर लिये गरुड़जी मौजसे चले जा रहे थे । स्वर्गके द्वारपर पहुँचकर श्रीकृष्णने शङ्ख बजाया। शङ्खको आवाज सुनकर सम्पूर्ण देवता अर्यपत्र लिये भगवान्की सेवामें उपस्थित हुए। उनके द्वारा पूजित हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाता अदितिके माहलमें गये। वह भव्य भवन श्वेत बादलकै समान धवल और पर्वत शिखरके सदृश ऊँचा था। उसमें प्रवेश करके भगवान्ने अदितिको देखा और इन्द्रसहित उनके चरणों में प्रणाम किया। फिर दोनों दिव्य कुण्डल उन्हें अर्पित किये और नरकासुरके मारे जानेका समाचार भी कह सुनाया। इससे जगन्माता अदितिको बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने भगवान्में मन लगाकर जगदाधर श्रीहरिका इस प्रकार स्तवन किया।
अदिति बोली – भक्तों को अभय देनेवाले कमलनयन परमेश्वर! आपको नमस्कार है। आप सनातन आएमा, भूतात्मा, सर्वात्मा और भूतभावन हैं। मन, बुद्धि और इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। गुणस्वरूप ! आप श्वेत, दीर्ध आदि सम्पूर्ण कल्पनाओंसे रहित हैं, जन्म आदि विकारोंसे पृथक् हैं तथा स्वप्न आदि तीनों अवस्थाओंसे परे हैं; आपको नमस्कार है। अच्युत ! सन्ध्या , रत्रि, दिन, भूमि, आकाश, चायु, जल, अग्नि, मन, बुद्धि और अहंकार-सव आप ही हैं। ईश्वर! आप ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामक अपनी मूर्तियोंसे जगतुकी सृष्टि स्थिति और संहार करनेवाले हैं। आप कर्ताओंके भी अधिपति हैं। यह चराचर जगत् आपकी मायाओंसे व्याप्त है। जनार्दन ! अनात्म वस्तुमें जो आत्मबुद्धि होती है, वह आपकी राय है। उसके द्वारा अहंता और ममताका भाव उत्पन्न होता है। नाथ ! इस संसारमें जो कुछ होता है, वह सब आपकी मायाकी ही चेष्टा है। भगवन् ! जो मनुष्य अपने धर्ममें तत्पर हो आपकी निरन्तर आराधना करते हैं, वे अपनी मुक्तिके लिये इस सारी मायाको तर जाते हैं। ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवता, मनुष्य और पशु-ये सभी श्रीविष्णुपयाके महान् भैवमें पड़े हुए मोहान्धकारसे आवृत है। भगवन् ! जो आपकी आराधना करके भोगोंको प्राप्त करना चाहते हैं, वे आपकी मासाद्वारा बँधे हुए हैं। मैंने भी पुत्रको कामनासे और शत्रुपक्षका नाश करनेके लिये आपकी आराधना को है, मोक्षके लिये नहीं। यह आपकी मायाका ही विलास है। पुण्यरहित मनुष्य चदि कल्पवृक्षसे भी कौपीनमात्र ही लेनेकी इच्छा को तो यह अपराध उसके अपने ही पापकर्माका है। अपनी मायासे सम्पूर्ण जगत्को मोहित करनेवाले अविनाशी परमेश्वर ! मुझपर प्रसन्न होइये। ज्ञानस्वरूप सम्पूर्ण भूतेश्वर ! मेरे अज्ञानका नाश कीजिये। आपके हायोंमें चक्र, शार्ङ्गधनुष, गदा और शङ्ख शोभा पाते हैं। विष्णो ! आपको बारंबार नमस्कार है। परमेश्वर ! शङ्ख-चक्र आदि स्थूल क्रिोंसे सुशोभित आपके इस रूपका मैं दर्शन करती हैं। आपका जो परम सूक्ष्म स्वरूप है, उसको मैं नहीं जानती। आप मुझपर प्रसन्न होइये।’
देवमाता अदितिके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीकृष्ण हँसकर बोले-‘देवि! आप हम सब लोगोंकी माता हैं, अतः आप ही प्रसन्न होकर हमें वरदान दें।’
अदिति बोलीं- एवमस्तु । नरश्रेष्ठ । जैसी आपको इच्छा है, मैं वही करूंगी। आप मर्त्यलोकमें सम्पूर्ग देवताओं और अनुरसे अजेय होंगे।
तदनन्तर सत्यभामाने इन्द्राणीसाहत अदितिको प्रणाम किया और कहा–’देवि! आप मुझपर भी प्रसन्न हों।’ अदितिने कहा-‘सुश्रू ! मेरी कृपासे तुम्हें वृद्धावस्था और कुरूपता नहीं स्पर्श कर सकती। तुम्हारी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होंगी ।’ तत्पश्चात् अदितिकी आज्ञासे देवराज इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णका आदरपूर्वक पूजन किया। श्रीकृष्ण भी सत्यभामाके साथ देवताओंकनन्दनवन आदि सम्पूर्ण उद्यानोंमें घूमनेफिरने लगे।एक स्थानपर भगवान् श्रीकृष्णने पारिजातका वृक्ष देखा, जो परम सुगन्धित मञ्जरियोंसे सुशोभित, शीतलता और आह्वाद प्रदान करनेवला, ताम्रवर्णके पल्लवोंसे अलंकृत और सुवर्णके समान कान्तिमान् था। अमृतके लिये समुद्रका मन्थन होते समय वह प्रकट हुआ थ। उसे देखकर सत्यभामाने श्रीगोविंदसे कहा-‘ नाथ ! इस वृक्षको आप द्वारका क्यों नहीं ले चलते। आप कहते हैं, सत्यभामा मुझे भी प्रिय हैं। यदि आपको यह बात सत्य हो तो मेरे घरके आँगनकी शोभा बढ़ानेके लिये इस वृक्षको ले चलिये ।
सत्यभामाके यों कहने पर भगवान् श्रीकृष्णने परिजातको गरुड़पर रख लिया। यह देख उस के रक्षकोंने कहा- ‘ गोंविन्द ! देवराजकी महारानी जो शची हैं, उनका इस पारिजातपर अधिकार है। आप उनके इस प्रिय वृक्षको न ले जाइये। देवताओंने अमृतमन्थनके समय महारानी शचीको विभूषित करनेके लिये ही इस वृक्षको प्रकट किया था। आप इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकते। आप अज्ञानवश ही इसे ले जानेकी अभिलाषा करते हैं। भला, इस पारिजातको लेकर कौन कुशलले जा सकता है। देवराज इंद्र इतका बदला लेनेके लिये अवश्य आयेंगे। जब वे हाथमें वज्र लेकर आगे बढ़ेंगे, तब सम्पूर्ण देवता भी उनका साथ देंगे; अतः सम्पूर्ण देवताओंके सथ आपको विवाद करनेसे क्या लाभ। अच्युत ! जिस कार्यका परिणाम कटु हो, उसकी विद्वान् पुरुष प्रशंसा नहीं करते।’
वनरक्षकोके यों कह्नेपर सत्यभामा देवी अत्यन्त कुपित होकर बोलीं-‘ शची अथवा देवराज इन्द्र इस पारिजातको लेनेवाले कौन होते हैं। यदि यह अमृतमन्थनके समय समुद्रसे निकता है, तब तो इसपर सम्पूर्ण लोकका समान अधिकार है। इसे इन्द्र अकेले कैंसे ले सकते हैं। यदि अपने पतिकी भुजाओंके बलका अधिक घमंड होनेके कारण शची इस वृक्षको रोकती है तो तुमलोग शीघ्र शचीके पास जर मेरी यह बात कहो-‘ सत्यभामा अपने पतिपर गर्व करके धृष्टतापूर्वक कहती हैं कि यदि तुम अपने पतिको अत्यन्त प्रिय हो तो पारिजात वृक्षको लेकर जाते हुए मेरे पतिको उनके द्वारा रोको।’
यह सुनकर रक्षकोंने चीके पास जा सत्यभामाकी कही हुई सारी बातें ज्यों-की-त्यों सुना दी। शचीने भी अपने स्वामी देवराज इन्द्रको युद्धके लिये उत्साहित किया। तब इद्र पारिजातके लिये सम्पूर्ण देवसेनाको साथ ते श्रीहरिसे युद्ध करनेको उद्यत हुए। जव इन्द्र हाथमें वत्र लेकर युद्ध करनेके लिये खड़े हुए, तब समस्त देवता भी परिघ, खड्ग, गदा और शूल आदि आयुधोंके साथ तैयार हो गये। भगवान् श्रीकृष्णने देखा इन्द्र ऐरावतपर सवार हो देवपरिवारको साझ ले युद्धके लिये उपस्थित हैं। तब उन्होंने पाञ्चजन्य शङ्ख बजाया। उसकी ध्वनिसे सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज उठी। साथ ही उन्होंने सहस्रों और लाखों बाणोंकी वर्षा आरम्भ कर दी। इन बाणों से सम्पूर्ण दिशाएँ और आकाश आच्छादित हो गये। यह देख सम्पूर्ण देवता भी अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् मधुसूदनने देवताओंके छोड़े हुए एक-एक अस्त्र-शस्त्रके खेल-खेलमें ही हजारों टुकड़े कर डाले। पक्षिराज गरुड़ने वरुणके पाशको खींच लिया और छोटे-छोटे साँपोंके शरीरको भाँति उसके खण्ड-खण्ड़ कर डाले। भगवान् देवकीनन्दनने यमराजके चलाये हुए दण्डको गदाकी मारसे टूक-टूक करके पृथ्वीपर गिरा दिया। कुवेरको शिबिकाको चक्रसे तिल-तिल करके काट डाला। सूर्य और चन्द्रमा उनको दृष्टि पड़ते ही अपना तेज और प्रभाव खो बैठे। अग्निदेवके सैकड़ों टुकड़े हो गये । आठों वसुओंने भगवान्के बाणोंकी चोट खाकर आठों दिशाओंकी शरण ली। ग्यारह रुद्र भी धराशायी हो गये। उनके त्रिशूलोंके अग्रभाग चक्रको धारसे छिन्न-भिन्न हो गये। साध्य, विश्वेदेव, मस्दया और गन्धव शार्ङ्गधनुषधारी भगवान् श्रीकृष्णके बाणसे आहत हो सेमरकी रूईके समान आकाशमें उड़ने लगे। गरुड़ तो सदा आकाशमें ही चलनेवाले ठहरे। उन्होंने चोंचसे पंखोंसे और पंजोंसे भी देवताओं और दानवोंको घायल कर ली।
तदनन्तर देवराज इन्द्र और भगवान् मधुसूदन एक-दूसरेपर हजार-हज़ार बाणोंकी वृष्टि करने लगे, मानो दो मेघ परम्पर जलकी धाराएँ बरसाते हों। ऐरावत और गरुडमें घमासान युद्ध होने लगा। जय सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र कटकर गिर गये, तब इन्द्रने वज्र और श्रीकृष्णने सुदर्शन चक्र हाथमें लिया। उन दोनोंको वज्र और चक्र हाथमें लिये देख चराचर जीवोंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीमें हाहाकार मच गया। अन्ततोगत्वा इन्द्रने वज्रको चला ही दिया, किंतु भगवान् श्रीकृष्णने उसे हाथमें पकड़ लिया। उन्होंने अपना चक्र नहीं छोड़ा। केवल इतना ही कहा, ‘खड़ा रह, खड़ा रह।’ देवराजका वज्र व्यर्थ हो गया और उनके वाहनको गरुड़ने क्षत-विक्षर कर डाला; अत: वे रणभूमिसे भागने लगे। उस समय सत्यभामाने कहा–’त्रिलोकीनाथ! आप तो महारानी शचीकै पति हैं। आपका युद्धभूमिसे भागना उचित नहीं। पारिजात-पुष्पोंके हारसे सुशोभित एवं प्रेमपूर्वक आय हुई शचको यदि आप पहलेकी भाँति विजयी होकर नहीं देखेंगे तो आपके लिये यह देवराजका पद कैसा प्रतीत होगा। इन्द्र! अब अधिक प्रयास करनेकी आवश्यकता नहीं। आप लजाका अनुभव न करें। आप यह पारिजात ले जाइये, जिससे देवताओंकी पीड़ा दूर हो। मैं आपके घर गयी थी, किंतु शचीने पतिकै गर्वसे उन्मत्त होकर मुझे आदरकै साथ नहीं देखा। में भी स्त्री हो उहरी और मुझे भी अपने पतिपर गर्व है, तथा स्त्री होनेके कारण मेरा चित्त भी अधिक गम्भीर नहीं है; इसलिये मैंने आपके साथ युद्ध ठान दिया। यह पारिजात दुसरेका धन है। इसका अपहरण करनेसे मुझे कोई लाभ नहीं।’
सत्यभामा यों कहनेपर देवराज इन्द्र लौट आये और बोले- ‘मानिनी ! खेदको अधिक बढ़ानेसे क्या लाभ। जो सम्पूर्ण जगत्की सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं, उन विश्वरूपधारी परमेश्वरसे युद्ध हार जानेपर भी मुझे लगा नहीं हो सकती। देवि! जिनका आदि, अन्त और मध्य नहीं है, जिनमें सम्पूर्ण जगत्की स्थिति हैं, जिनसे इसकी उत्पत्ति हुई हैं और जिन सर्वभूतमय परमेश्वरसे ही इसका संहार होगा, उन सृष्टि, पालन और संहारके कारणभूत परमात्मासे परस्त होनेपर मुझे लला क्यों होने लगी। जिनको अत्यन्त अल्प और सूक्ष्म मूर्तिको, जो सम्पूर्ण जगत्को जननी है, सब वेदोंके ज्ञाता होनेपर भी दूसरे मनुष्य नहीं जान पाते, जो स्वेच्छासे ही सदा जगका उपकार करते हैं, न अजन्मा, अकर्ता तथा सबके आदिभूत इन सनातन परमेश्वरको जीतनेमें कौन समर्थ हो सकता है।’
व्यासजी कहते हैं- देवराज इद्रके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर भावसे हँसकर कहा- ‘सगत्पते ! आप देवराज इन्द्र हैं। और हम मनुष्य हैं। आपको मेरे द्वारा किया हुआ यह अपराध क्षमा करना चाहिये। यह रहा आपका पारिजात वृक्ष । इसे इसके योग्य स्थानपर ले जाइये। इन्द्र! मैंने तो केवल सत्यभामाकी बात रखनेके लिये ही इसको ले लिया था। अपने मेरे ऊपर जो वज्र चलाया था, उसे भी लीजिये। यह शत्रुसंहारक अस्त्र आपका ही है।’
इन्द्र बोले- प्रभो ! मैं मनुष्य हूँ-यों कहकर आप मुझे क्यों मोहमें डाल रहे हैं। भगवन् ! हम तो आपके इस सगुण-स्वरूपको ही जानते हैं। आपके सूक्ष्म स्वरूपका ज्ञान हमें नहीं है। जगन्नाथ ! आप जो कोई भी हों, इस समय जगतकी रक्षा तत्पर हैं। असुरसूदन ! आप संसारका कप्टक दूर कर रहे हैं। श्रीकृष्ण ! पह पारिजात आप हरकापुरीको ले जायें। जब आप मर्त्यलोक छोड़ देंगे, तब यह पृथ्वीपर नहीं रहेगा।
‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् श्रीहरि भूलोकमें चले आये। उस समय सिद्ध, गन्धर्व तथा ऋषिमहर्षि उनकी स्तुति कर रहे थे। उत्तम पारिजात वृक्ष लेकर श्रीकृष्ण सहस्सा द्वारकापुरीके ऊपर जा पहुँचे। उन्होंने शङ्ख बजाकर द्वारकावासियोंके हृदयमें हर्ष भर दिया। फिर सत्यभामाके साथ गरुडसे उतरकर पारिजातको उनके आँगनमें लगाया। उसके नीचे जानेपर सब लोगों को अपने पूर्वजन्मकी बातें याद आ जाती थी। उसके फूलोंकी सुगन्धसे यारह कोयतककी पृथ्वी सुवासित रहती थी। सम्पूर्ण यादवोंने उस वृक्षके पास जाकर जब अपना मुख देखा, तब उन्होंने अपनेको अमानवदेवतातुल्य पाया।
अध्याय- 82 शभगवान श्रीकृष्णका सोलह हजार स्त्रियोंसे विवाह और उनकी संतति तथा उषाका अनिरुद्धके साथ विवाह
व्यासजी कहते हैं- नरकासुरके सेवकोंने जो हाथी, घोड़े, धन, रत्न तथा स्त्रियोंको द्वारकामें पहुँचाया था, वह सब श्रीकृष्णने ले लिया। शुभ मुहूर्त आनेपर जनार्दनने नरकासुरके महलसे लायी हुई समस्त कन्याओंके साथ विवाह किया। एक ही समय श्रीगोविन्दने अनेक रूप धारण करके उन सबका स्वधर्मके अनुसार विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं, अत: भगवान् मधुसूदनने भी उतने ही रूप धारण किये थे। प्रत्येक कन्या यह समझती थीं कि भगवान् श्रीकृष्णने केवल मेरा पाणिग्रहण किया है। जगत्की सृष्टि करनेवाले विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभी स्त्रियोंके महलोंमें निवास करते थे।
श्रीहरिके रुक्मिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए प्रद्युम्न आदि पुत्रोंकी चर्चा पहले की जा चुकी है। सत्यभामाने भानु आदि पुत्रोंको जन्म दिया। जाम्बवतीसे साम्ब आदिका जन्म हुआ। नाग्नजिती (सत्या)-से भद्रविन्द आदि और शैव्या (मित्रविन्दा)से संग्रामजित् आदि पुत्र उत्पन्न हुए। माद्रीके गर्भसे वृक आदिका जन्म हुआ। लक्ष्मणाने गात्रंवान् आदि पुत्र प्राप्त किये। कालिन्दीसे श्रुत आदिकी उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार भगवान्की अन्य पत्नियोंके गर्भसे जो पुत्र उत्पन्न हुए थे, उन सबको संख्या अठासी हजार आठ सौंके लगभग थी । रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न श्रीकृष्णके समस्त पुत्रों में श्रेष्ठ थे। प्रद्युम्नसे अनिरुद्ध और अनिरुद्धसे वज्रका जन्म हुआ। अनिरुद्ध संग्राममें कभी रुकते नहीं थे। वे बड़े बलवान् थे। उन्होंने बलिकी पौत्री और वाणासुरकी पुत्री उषाके साथ विवाह किया था। उस विवाहमें भगवान् श्रीकृष्ण तथा शंकरमें बड़ा भयंकर युद्ध हुआ था। उस समय श्रीकृष्णने चक्रसे बाणासुरकी सहस्र भुजाएँ काट डालीं।
मुनियोंने पूछा- ब्रह्मन् ! उषाके लिये महादेवजी तथा श्रीकृष्णमें युद्ध क्यों हुआ तथा श्रीहरिने बाणासुरकी भुजाओंका उच्छेद क्यों किया? महाभाग! आप यह सम्पूर्ण वृत्तान्त हमें बताइये। इस सुन्दर कथाको सुननेके लिये हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है।
व्यासजीने कहा- ब्राह्मणो ! बाणासुरकी पुत्री उषाको स्वप्नमें किसी पुरुषने आलिङ्गन किया। उषाका भी उसके प्रति अनुराग हो गया। इतनेमें ही उसकी नींद खुल गयी । जागनेपर उस पुरूषको न देखने के कारण उषा उत्कण्ठित होकर बोल उठी-‘ प्यारे ! तुम कहाँ चले गये ?’ उस समय उसे लज्जाका ध्यान न रहा। बाणासुरके मन्त्री कुम्भाण्डके एक कन्या थी, जिसका नाम चित्रलेखा था। वह उषाकी सखी थी। उसने पूछा-‘राजकुमारी ! तुम किसे पुकारती हो?’ यह सुनकर वह लाजसे गड़-सी गयी। मुंहसे एक शब्द भी बोल न सकी। तब चित्रलेखाने उसे बहुत विश्वास दिलाया और सब बातें उसके मुखसे निकलवा ली। चित्रलेखाको जब यथार्थ बात मालूम हो गयी, तब उषाने उससे कहा- ‘पार्वतीदेवीने मुझे इसी प्रकार पतिकी प्राप्ति होनेका वरदान दिया हैं; अतः तुम उस पुरुषको प्राप्त करनेके लिये जो उपाय हो सके, उसे करो।’
तब चित्रलेखाने एक पट्पर प्रधान-प्रधान देवताओं, दैत्यों, गन्धर्वो और मनुष्योंका चित्र लिखकर उषाको दिखाया। उषाने गन्धर्वो, नागों, देवताओं और दैत्योंको छोड़कर मनुष्योंकी ओर दृष्टि दी। उनमें भी अन्धक और वृष्णिवंशोंके लोगोंपर विशेष ध्यान दिया। श्रीकृष्ण और बलरामके चित्रोंको देखकर वह सुन्दरी कुछ लबित हो गयी। प्रद्युम्नको देखनैपर उसने लज्जासे आँखें फेर ली, परंतु अनिरुद्धपर दृष्टि पड़ते ही न जाने उसकी लज्जा कहाँ चली गयी। वह सहसा बोल उठी-‘ये ही हैं, ये ही मेरे प्रियतम हैं।’ उषाके यों कहनेपर योगगामिनी चित्रलेखा उसे सान्त्वना दे द्वारकापुरीको गयी।
एक बार बाणासुरने भगवान् शंकरको प्रणाम करके कहा था-‘देव! युके बिना इन हजार भुजाओंसे मुझे बड़ा ग्वेद हो रहा है; क्या कभी ऐसे युद्धका अवसर आयेगा, जब कि ये मेरी भुजाएँ सफल होंगी?’ यदि युद्ध न हो तो इन भुजाओंसे क्या लाभ। फिर तो ये मेरे लिये भाररूप ही सिद्ध होंगी। यह सुनकर महादेवजीने कहा-‘जिस समय तुम्हारी मयूर-चिह्वाली ध्वजा टूट जायगी, उस समय तुम्हें कैसा युद्ध प्राप्त होगा। इससे बाणासुरको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह भगवान् शिवको प्रणाम करके घर चला आया। कुछ कलके बाद उसकी मयूर-ध्वजा टूटकर गिर गयी। यह देखकर उसके हर्शकी सीमा न रह । इसी समय चित्रलेखा अपनी योगविद्या बसे अनिरुद्धको ब्रापासुरके भवनमें ले आयो। अनिरुद्ध कन्याके अन्तःपुरने उषाके साथ विहार करने लगे। यह बात अन्त:पुरके रक्षकको मालूम हो गये। उन्होंने दैत्यराज्ञसे सब हाल कह सुनाया। बाणासुरने अपने सेवकोंको अनिरुद्ध युद्ध करनेकी आज्ञा दी, किंतु शत्रुवौका दमन करनेवाले अनिरुद्धने लोहेका परिघ लेकर इन सबको मार डाला। सेवकोंक मारे जानेपर बाणासुर स्वयं ही रथपर आरूढ़ हो अनिरुद्धका वध करनेके लिये उद्यत हुआ। अपनी शक्तिभर युद्ध करनेपर भी जब उसे वीरवर अनिरुद्धजीने परास्त कर दिया, तब वह मन्त्रीकी प्रेरणासे मायाद्वारा युद्ध करने लगा। इस प्रकार उसने यदुनन्दन अनिरुद्धको नागपाशसे बाँध लिया।
उधर द्वारकाने अनिरुद्धको खोज हो रही थी। समस्त यदुवंशी आपसमें कह रहे थे कि ‘अनिरुद्ध सहसा कहाँ चले गये?’ उसी समय देवर्षि नारदजी द्वारकामें पहुँचे और उन्होंने बताया कि अनिरुद्धको बाणासुरने शोणितपुरमें बाँध रखा हैं। उन्हें योगविद्यामें चतुर युवती चित्रलेखा अपने साथ ले गयी थी ।’ यदुवंशियोंको इस बातपर विश्वास हो गया। फिर तो भगवान् श्रीकृष्णने गरुड़का आवाहन किया। वे स्मरण करते ही आ पहुँचे। भगवान् श्रीकृष्ण बलराम और प्रद्युम्नके साथ गरुडूपर आरूढ़ हो बाणासुरके नगरमें गये। पुरीमें प्रवेश करते समय महाबली प्रमथके साथ उनका युद्ध हुआ। श्रीहरि उन सबका संहार करके बाणासुरके भवनके निकट गये। तत्पश्चात् तीन पैर और तीन मस्तकवाले माहेश्वर चरने वाणासुरको रक्षाके लिये शार्ङ्गधन्वा श्रीकृष्णके साथ युद्ध किया। उसके फेंके हुए भस्मके स्पर्शसे श्रीकृष्णका शरीर संतप्त हो उठा और उससे छु जानेपर बलदेवजीने भी शिथिल होकर अपने नेत्र मूंद लिये। इस प्रकार श्रीकृष्णके साथ युद्ध करते हुए माहेश्वर वरपर शीघ्र ही वैष्णव वरने आक्रमण किया और उसको भगवान्के शरीरप्से बाहर निकाल दिया। उस समय भगवान् नारायणकी भुजाओंके आघातसे महेश्वर ज्वरको बड़ी पीड़ा हुई। इह व्याकुल हो उठा। यह देख पितामह ब्रह्म जीने आकर कहा-‘भगवन् ! इसे क्षमा कीजिये।’ भगवान् बोले-‘अच्छा, मैंने क्षमा कर दिया।’ यों कहकर उन्होंने वैष्णव चरको अपने ही लीन कर लिया। तब माहेश्वर धरने कहा-‘भगवन्! जो मनुष्य आपके सथ मेरे युद्धका स्मरण करेंगे, वे ज्वरहीन हो जायेंगे।’ यों कहकर वह चलः गया।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने पाँच अग्नियों को जीतकर उन्हें नष्ट कर डाला और दानवोंको सेनाका खेल-खेलमें ही विध्वंस कर दिया, यह देव बलिकुमार बाणासुर सम्पूर्ण दैत्योंकी सेना साथ ले भगवान्से युद्ध करने लगा। भगवान् शिव तथा कार्तिकेयजीने भी उसका साथ दिया। श्रीहरि तथा शंकरजीमें बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उनके चलाये हुए नाना प्रकारकै अस्त्र-शस्त्रोंकी मारसे पीड़ित हो समस्त लोक क्षुब्ध हो उठे। उस महायुद्धको होते देख देवताओंने समझा ‘निश्चय ही समस्त संसारके लिये प्रलयकाल आ गया।” तब भगवान् श्रीकृष्ण जृम्भणास्त्रक्रे द्वारा शंकरजीको स्तब्ध कर दिया। वे बुद्ध छोड़कर भई लेने लगे। यह देख दैत्य और प्रमथगण चारों दिशाओंमें भाग गये। भगवान् शंकर जृम्भासे विवश हो शके पिछले भागमें बैठ गये। उस समय वे अनायास ही सब कुछ करनेवाले श्रीकृष्णके साथ युद्ध न कर सके। गरुडने कार्तिकेयकी भुजाओंको क्षत-विक्षत कर दिया। प्रद्युम्रने भी अपने अस्त्रशत्रोंसे उन्हें पीड़ित किया तथा श्रीकृष्णके हुंकासे उनकी शक्ति नष्ट हो गयी; अतः वे युद्धसे भाग गये।
इस प्रकार जव महादेवजी भाई लेने लगे, दैत्यसेना नष्ट हो गयी, कार्तिकेयजी परास्त हो गये और प्रमथों (रुद्रके गणों)-का संहार हो गया, तब श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न और बलरामजीके साथ युद्ध करने के लिये एक विशाल रथपर आरूढ़ हो बाणासुर बहाँ आया। साक्षात् नन्दीश्वर सारथि बनकर उसके घोड़ोंकी बागडोर संभाले हुए थे। महापराक्रमी बलभद्र और प्रद्युम्रने अनेकों वाणोंसे बाणासुरकी सेनाको बाँध डाला। वह सेना वीरधर्मसे भ्रष्ट होकर रणभूमिसे भागने लगी। बाणासुरते देखा उसकी सेनाको बलरामजी हलसे खींचकर मूसलसे मारते हैं और भगवान् श्रीकृष्ण भी उसे अपने बापोंका निशाना बनाते हैं। तब उसका श्रीकृष्णके सथ घमासान युद्ध छिड़ गया। दोनों एक-दूसरेपर कवचको भी छेद डालनेवाले तेजस्वी बाण छोड़ने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने बाणासुरकै चलाये हुए बाणोंको अपने सायकोंसे छिन्न-भिन्न कर डाला। फिर बाणासुरने श्रीकृष्णको और श्रीकृष्णने बाणासुरको घायल किया। दोनों एकदूसरे को जीतनेकी इच्छासे परस्पर अस्त्रशस्त्रोंकी बौछार कर रहे थे। जब सम्पूर्ण अस्त्रशस्त्र छिन्न-भिन्न हो गये तब भगवान् श्रीकृष्णने बाणासुरको मारनेका निश्चय किया। उन्होंने सैकड़ों सूर्योके समान तेजस्वी सुदर्शन चक्र हाथमें लिया और बाणासुरको लक्ष्य करके चला दिया। वे शत्रुकी भुजाओंको काट डालना चाहते थे। श्रीकृष्णके द्वारा प्रेरित चक्रने क्रमश: उस असुरकी भुजाओंका उच्छेद कर इाला। जब बाणासुरको भुजाओंका जङ्गल कट गया तब भगवान् श्रीकृष्णने उसका नाश करनेके लिये चक्र हाथमें लिया। वे उसे छोड़ना ही चाहते थे कि भगवान् शंकरको इनका मनोभाव ज्ञात हो गया। तब मैं तुरंत कूदकर भगवान्के सामने आ गये। उन्होंने देखा भुजाओंके कट जानेसे बाणासुरके शरीरसे रक्तकी धारा गिर रही है। तव शान्तिपूर्वक भगवानकी स्तुति करते हुए कहा-‘कृष्ण! कृष्ण !! जगन्नाथ !! में आपको जानता हैं। आप पुरुषोत्तम, परमेश्वर, परमात्मा और आदि-अनासे रहित परब्रह्म हैं। आप जो देवता, पशु-पक्षी तथा मनुष्योंकी योनिमें शरीर धारण करते हैं, यह आपकी लीलामात्र हैं। आपकी चेष्टा दैत्योंका वध करनेके लिये होती हैं। प्रभो! प्रसन्न होइये। मैंने बाणासुरको अभय दे रखा है। आपको भी मेरी बात असत्य नहीं करनी चाहिये। मेरा आश्रय पानेसे यह दैत्य बहुत बढ़ गया है। वास्तवमें यह आपका अपराधी नहीं है। मैंने ही इसे वरदान दिया था, अत: मैं ही इसके लिये आपसे क्षमा चाहता हूँ।
भगवान् शंकरके यों कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णका मुख प्रसन्न हो गया। बाणासुरके प्रति उनके मनमें कोई अमर्ष नहीं रह गया। उन्होंने शिवजीसे कहा’शंकर! यदि आपने इसे वर दे रखा है तो यह बाणासुर जीवित रहे। आपके वचनोंका गौरव रखनेके लिये हमने अपना चक्र लौटा लिया है। शंकर ! आपने जो अभयदान दिया है, वह मैंने भी दिया। आप अपनेको मुझसे पृथक् न देखें। जो मैं हैं, वही आप हैं और वही यह देवता, असुर तथा मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् भी है। जिनका चित्त अविद्यासे मोहित है, वे ही पुरुष भेददृष्टि रखनेवाले होते हैं।’*
यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण अनिरुद्धके पास गये। उनके जाते ही अनिरुद्धको बाँधनेवाले नाग भाग खड़े हुए। गरुड़के पंखोंकी हवा लगनेसे वे सूख गये थे। तदनन्तर पत्नीसहित अनिरुद्धको गरुड़पर चढ़ाकर भगवान् श्रीकृष्ण, बलराम और प्रद्युम्न द्वारकापुरीमें आये।
अध्याय- 83 पौंड्रकका वध और बलरामजीके द्वारा हस्तिनापुरका आकर्षण
मुनियोंने कहा- भगवान् श्रीकृष्णने मानव शरीर धारण करके बहुत बड़ा पराक्रम किया, जो उन्होंने लीलापूर्वक ही इन्द्र, महादेवजी तथा सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया। मुनिश्रेष्ठ ! देवताओंकी चेष्टाका विघात करनेवाले भगवान्ने और भी जो कर्म किये थे, वे सब हमसे कहिये। हमें उन्हें सुननेके लिये बड़ा कौतूहल हो रहा है।
व्यासजी बोले- मुनिवरो ! बतलाता हूँ। मनुष्यावतारमें श्रीहरिने जो लीलाएँ की थीं, उन्हें आदरपूर्वक सुनो। पुण्डुकवंशी वासुदेव नामक एक राजा था। वह ‘भगवान् वासुदेव’ बन बैठा था। कुछ अज्ञानमोहित मनुष्योंने उससे यह कहा था कि ‘आप ही इस पृथ्वीपर वासुदेवके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं। उनकी बातों में आकर वह स्वयं भी अपनेको अवतार मानने लगा था। वासुदेव बननेकी धुनमें वह अपने वास्तविक स्वरूपको भूल गया और भगवान् विष्णुके जितने चिह्न हैं, उन सबको धारण करने लगा। इतना ही नहीं, उसने भगवान् श्रीकृष्णके पास अपना दूत भी भेजा और उसके मुखसे कहलाया-‘ओ मूड ! तूने जो चक्र आदि मेरे चिह्न और मेरा वासुदेव नाम धारण किया है, वह सब शीघ्र ही त्याग दे और अपने जीवनकी रक्षाके लिये मेरी शरणमें आ जा।’ यह सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण हँस पड़े और दूतसे बोले-‘तुम जाकर राजा पौण्ड्रकसे मेरी यह बात कहना, ‘राजन् ! मैंने तुम्हारे वचनोंका तात्पर्य भलीभाँति समझ लिया है। अब तुम्हें जो कुछ करना हो, वह करो। मैं अपने चिह्नको साथ लेकर ही तुम्हारे नगरमें आऊँगा और उस चिह्मस्वरूप चक्रको तुम्हारे ऊपर हीं छोड़ेंगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं। तुमने जो आज्ञापूर्वक आनेका संदेश दिया है, उसका मैं अविलम्ब पालन करूंगा। कल सवेरे ही तुम्हारी पुरीमें पहुँच जाऊँगा। तुम्हारे वहाँ आकर मैं वह कार्य करूंगा, जिससे फिर तुमसे कोई भय नहीं रह जायगा।’
श्रीकृष्णके यों कहनेपर दूत चला गया, तब भगवान्ने गरुडका स्मरण किया। गरुड़ तुरंत आ पहुँचे। भगवान् इनकी पीठपर सवार हुए और पौण्ड्रकके नगरमें गये। श्रीकृष्णके आक्रमपकी बात सुनकर काशिराज अपनी समस्त सेनाओंके सथ पौण्ड्रककी सहायतामें आ गया। तब अपनी और काशिराजकी विशाल सेना लेकर पौण्ड्रक वासुदेव श्रीकृष्णाका सामना करनेके लिये गया। भगवान्ने दूरसे ही देखा पौण्डुक एक विशाल रथपर बैठा है। उसने अपने हाथोंमें कृत्रिम शङ्ख, चक्र और गदा ले रखे हैं। एक हाथमें कमल भी हैं। गलेमें वनमालाके स्थानपर एक बहुत बड़ा हार लटक रहा है। शाङ्गधनुषकी तरहका एक धनुष भी है। रथपर गड़चिह्न अङ्कित एक ध्वजा फहरा रही हैं और उसकी छातीमें बीवत्सका कृत्रिम चिह्न भी बना हुआ है। उसने मस्तकपर किरीट, कानों में कुण्डत और शरीरपर पीताम्बर धारण कर रखा है। उसे देखकर भगवान् श्रीकृष्ण गम्भीरभावसे हँसे और उसकी सेवाके साथ युद्ध करने लगे। शार्ङ्गधनुषसे छूटे हुए बाणों से, गदासे और चक्रफी मारसे उन्होंने काशिचकी सेनाका संहार कर डाला और अपने समान चिह्न धारण करनेवाले अज्ञानी पौण्ड्रकसे कहा-‘पौंड्रक ! तुमने जो दूतके मुखसे मुझे कहला भेजा था कि तुम अपने चिह्न छोड़ दो, सो अब मैं तुम्हारे आदेशका पालन करता हूँ। लो, वह चक्र छोड़ा: यह गद छोड़ दी और इन गरुडको भी छोड़ा। गह तुम्हारी भुजापर आरूढ़ हो जाय।’ यों कहकर भगवान्ने अपने छोड़े हुए चक्रले पौण्ड्रकको विदीर्ण कर डाला। गदा आघातसे उसे पृथ्वीपर गिरा दिया और गरुड़ने उसके कृत्रिम रडको भी तोड़-फोड़ डाला। पौण्डुकके मारे जानेपर वहाँ लोगों में हाहाकार मच गया। तत्र काशिराज अपने मित्रका बदला चुकानेके लिये श्रीकृष्णके साथ युद्ध करने लगे। श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुषद्वारा छोड़े हुए बाणों से काशिराजका मस्तक काटकर उसे काशीपुरीमें फेंक दिया। यह लोगोंके लिये बड़े विस्मयका कार्य था। इस प्रकार पौंक और काशिराजको सेवकसहित मारकर भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकामें चले आये और वहाँ स्वर्गलोकमें स्थित देवताकी भाँति विहार करने लगे।
मुनियोंने कहा- मुने ! अब हम परम बुद्धिमान् बलरामजीके शौर्य और पराक्रमका वृत्तान्त सुनना चाहते हैं। आप उसीका वर्णन कीजिये।
व्यासजी बोले- मुनियो ! बलरामजी इस पृथ्वीको धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् शेष हैं। उनकी महिमा अनन्त है। वे अप्रमेय हैं। उन्होंने जो कार्य किया, उसका वर्णन करता हूँ सुनो। दुर्योधनकी पुत्री कुमारी लक्ष्मण स्वयंवरमें जा रही थी। उस सुमप जाम्बवतीक पुत्र दीरवर साम्यने उसे बलपूर्वक हर लिया। यह देख महापराक्रमी कर्ण, दुर्योधन, भीष्म और द्रोण आदि बहुत कुपित हुए। उन्होंने साम्बको युद्धमें जीतकर कैद कर लिया। यह सुनकर सम्पूर्ण यादवोंने दुर्योधन आदिपर बड़ा ऋध किया और उनका विनाश कर डालनेके लिये भरी तैयारी की। तब बलरामजीने यादवले रोककर कहा-‘मैं अकेला ही कौरवोंके यहाँ जाता हैं। वे मेरे कनेसे साम्बको छोड़ देंगे।’ तदनन्तर बलरामजी हस्तिनापुरमें जाकर बाहरके उद्यानमें ठहर गये नगरमें नहीं गये। वलरामजीको आया ज्ञान दुर्योधन आदि कौरयोंने उन्हें गौ, अर्घ्य और जल भेंट किये। वह सब विधिपूर्वक स्वीकार करके बलरामजीने कौरखले कहा–’राजा उग्रसेनको आशा है कि तुम सब लोग साम्यको शीघ्र छोड़ दो।’
बलदेवजीको यह बात सुनकर भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदिके क्रोधको सीमा न रही। राजा बाह्नीक आदि भी कुपित हो उठे। उन्होंने य को रायके अधिकारसे वञ्जित ज्ञान बलरामजीसे कहा-‘बलदेव ! तुमने यह कैसी बात कह डाली। कौंन ऐसा यदुवंशी है, जो कौरवोंको आज्ञा देगा। यदि उग्रसेन भी कौरवोंको आज्ञा दें, तब तो हमें राजाओंके योग्य श्वेत-छत्र धारण करनेसे क्या लाभ होगा। अत: तुम लौट जाओ। साम्बने अन्यायपूर्ण कार्य किया है, अत: तुम्हारे या उग्रसेनके कहनेसे हम उसे छोड़ नहीं सकते। हमलोग यदुवंशियोंके माननीय हैं। कुकुर और अन्धक-वंशके लोग सदा हमको प्रणाम किया करते थे। अब वे ऐसा नहीं करते तो न सही; किंतु स्वामीको सेवकको ओरसे यह आज्ञा देनेकी बात कैसी। हमने तुमलोगों को अपने समान आसन और भोजन देकर ने सम्मानित किया, उससे तुम्हारा अहंकार बहुत बढ़ गया है। इसमें तुम्हारा क्या दोष है । हमने ही प्रेमवश नीति नहीं देखी। बलराम ! हमने तुम्हारे लिये जो यह सब निवेदित किया है, इसमें केवल प्रेम हो कारण हैं। हमारे कुलकी ओरसे तुम्हारे कुलको अर्घ्य देना कदापि उचित नहीं है।’
यों कहकर कौरव चुप हो गये। उन्होंने श्रीकृष्णके पुत्रको बन्धनसे मुक्त नहीं किया। इस विषयमें उन सबने एक राय कर ली थी। वे सबवे-सब बलरामजीको वहीं छोड़ हस्तिनापुरमें चले गये। कौरवोंद्वरा किये हुए आक्षेपसे बलगमजीको बड़ा क्रोध हुआ। वे घूरते हुए उठकर खड़े हो गये और पैरकी एड़ीसे उन्होंने पृथ्वीपर प्रहार किया। महात्मा बलरामकी एडौकै आघातसे पृथ्वी विदीर्ण हो गयी। वे अपनी गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाको गुँजाकर कम्पित करने लगे। वे आँखें लात-लाल और भौहें टेडो करके बोले-‘अहो ! इन सारहीन दुरात्मा कौरवोंको अपने राजा होनेका इतना मद, इतना अभिमान है! क्या कौरव ही सम्राट्-पदके अधिकारी हैं? हमलोगोंका प्रभुत्व कुछ ही कालके लिये हैं? क्या बात हैं, जो ये महाराज उग्रसेनकी अलङ्गनीय आज्ञाको भी नहीं मानते। देवताओं और धर्मके साथ शचीपति इन्द्र, भी उनकी आज्ञाकी प्रतीक्षा करते हैं। इन्द्रकी सुधर्मा सभामें इस समय सदा महाराज उग्रसेन ही विराजमान होते हैं। इन कौरवोंका राजसिंहासन तो सैकड़ों मनुष्योंकी जूठन है; उसीपर इनको संतोष है ! धिक्कार हैं इन्हें ! आजसे उग्रसेन हीं समस्त राजाओंके भी राजा बनकर रहें। अब मैं इस पृथ्वीको कौरवसे हीन करके ही द्वारकापुरीको लौहूँगा। कर्ण, दुर्योधन, द्रोण, भीष्म, वाहीक, दुःशासन, भूरि, भूरिश्रवा, सोमदत्त, शल तथा अन्यान्य कौरवोंको इनके हाथी, घोड़े और रथों सहित मार डालूंगा और वीरवर साम्बको उनकी पत्नीके साथ द्वारकापुरीमें ले जाकर उग्रसेन आदि बन्धुबान्धवोंका दर्शन करूंगा। अथवा देवराज इन्द्रको प्रेरणासे हमें शीघ्र ही पृथ्वीका भार उतारना है, इसलिये समस्त कौरवोंके साथ उनके हस्तिनापुर नगरको अभी गङ्गामें डाल देता है।’
यों कहकर क्रोधसे लाल आँखें किये बलभद्रजीने अपने हलका मुख नीचेकी ओर किया और चहारदीवारीकी जड़में फँसाकर खींचा। इससे सम्पूर्ण हस्तिनापुर सहसा डगमगाता-सा जान पड़ा। यह देख समस्त कौरव व्याकुलचित्त होकर हाहाकार करने लगे और बलरामजीके पास आकर बोले-‘ महाबाहु राम ! बलराम ! क्षमा कीजिये, क्षमा कीजिये; मुसलायुध! अपना क्रोध शान्त कीजिये और हमपर प्रसन्न होइये। बलराम ! ये पत्नीसहित साम्व आपकी सेवामें समर्पित हैं। हम आपको प्रभाव नहीं जानते; इसीसे हमलोगोंके द्वारा आपका अपराध हुआ है। अब कृपया उसे क्षमा करें ।’ यों कहकर कौरवोंने पत्नीसहित साम्बको बलभद्रजीके सामने उपस्थित कर दिया। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि बलरामजीको प्रणाम करके प्रिय वचन कहने लगे। तब बलवानोंमें श्रेष्ठ बलरामने कहा-‘अच्छा, मैंने क्षमा कर दिया।’ इस समय भी हस्तिनापुर गङ्गाकी ओर कुछ झुका-सा दिखायी देता है। यह बलवान् और शूरवीर बलरामका ही प्रभाव है। तदनन्तर कौरवोंने बलरामजीके सहित साम्बका पूजन करके बहुत-से दहेज और नववधूके साथ उन्हें द्वारकापुरी भेज दिया।
अध्याय- 84 पौंड्रकका वध और बलरामजीके द्वारा हस्तिनापुरका आकर्षण
व्यासजी कहते हैं- मुनियो ! बलशाली भगवान् बलरामजींने जो और पराक्रम किया था, वह भी सुनो। द्विविद नामसे प्रसिद्ध एक महापराक्रमी वानर था, जो देवद्रोही पैंत्यपति नरकासुरका मित्र था। उसने देवताओंसे वैर बाँध लिया था। वह कहता था, ‘ श्रीकृष्णने देवताओंके कहनेसे ही बलवान् नरकासुरका वध किया हैं, अतः मैं समस्त देवताओंसे इसका बदला लूंगा।’ इस निश्चयके अनुसार वह यज्ञोंका विध्वंस और मर्त्यलोकका विनाश करने लगा। अज्ञानसे मोहित होनेके कारण उसने साधु पुरुषोंकी मर्यादा तोड़ डाली और देहधारी जीवोंका संहार आरम्भ कर दिया। वह चञ्चल वानर देश, नगर और गाँवों में आग लगाने लगा। कहीं-कहीं पर्वत गिराकर गाँवों आदिको कुचल डालता था। पर्वतोंको उखाड़कर समुद्रके जलमें डाल देता था और स्वयं भी समुद्रके भीतर घुसकर उसका मन्थन आरम्भ कर देता था। इससे क्षुब्ध होकर समुद्र अपनी सीमा लाँघकर आगे बढ़ जाता और तटपर बसे हुए गाँवों तथा नगरोंको डुबो देता था। वानर द्विविद इच्छानुसार विशाल रूप धारण करके खेतोंमें लोटता, घूमती और खेतीको कुचलकर नष्ट कर डालता था। उस दुरात्माने सम्पूर्ण जगत्के विरुद्ध कार्य आरम्भ कर दिया था। कहीं कोई स्वाध्याय और वषट्कारका नाम लेनेवाला नहीं था। सब संसार अत्यन्त दुःखित हो गया था।
एक दिन रैवत पर्वतके उद्यानमे बलभद्रजी तथा महाभागा रेवती विहार कर रहे थे। उनके साथ और भी सुन्दर स्त्रियाँ थीं। चतभङ्गजी मणियोंके बीचमें विराजमान थे और वे उनके सुयशका गान कर रही हैं। इस समय द्विविद भी वहाँ आया और उनके सम्मुख खड़ा हो उन्हींकी नकल करने लगा। वह दुष्ट वानर उन युवतियोंकी ओर देख-देखकर जोर-जोरसे हँसने लगा। यह देखकर बलभद्रजीने कुपित होकर उसे डॉटा, किंतु उनके ड्रॉटनेकौ परवा न करके वह किलकारी मारने लगा। तब बलरामजीने उठकर बड़े रोषके साथ मूसल हाथमें लिया। उधर वानरने भी एक भयंकर शिलाखण्ड उठा लिया और उसे बलभद्रजीपर चलाया; किंतु उन्होंने मूसलसे मारकर उस शिलाके सहस्रों टुकड़े कर दिये। द्विविदने बलरामजीके मूसलका वार अचाकर उनको छातीमें बड़े वेग और रोषके साथ घूसा मारा। यह देख बलरामजीने भी क्रोधमें भरकर मुकेसे उसके मस्तकपर प्रहार किया। इससे वह रक्त वमन करता हुआ निर्जीव होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। गिरते समय उसके शरीरके आघातसे इस पर्वत-शिखरके सैकड़ों टुकड़े हो गये, पानो उसपर वज़ गिरा हो। उस समय देवता बलरामजीके ऊपर फूलोंकी वर्षा तथा उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे और बोले-‘वर! आपने यह बड़ा अच्छा कार्य किया, यह दुष्ट वानर दैत्य-पक्षका सहायक था। इसने सम्पूर्ण जगत्को संकटमें डाल रखा था। सौभाग्यकी बात है कि आज यह मारा गया।’
इस प्रकार इस पृथ्वीको धारण करनेवाले परम बुद्धिमान् बलरामजीके अनेक अद्भुत पराक्रम हैं, जिनकी कोई गणना नहीं हो सकती।
इस तरह इस जगत्का उपकार करने के लिये बसामसहित भगवान् श्रीकृष्णने दैत्यों और दुष्ट राजाओंका वध किया। फिर अर्जुनके साथ मिलकर भगवाने अनेक अक्षौहिणी सेनाका वध कराकर इस पृथ्वीका भार उतारा। इस प्रकार सम्पूर्ण दुष्ट राजाओंका संहार करके भूभार उतारनेके पश्चात् उन्होंने ब्राह्मणोंके शापको निमित्त बनाकर अपने कुलका भी संहार कर डाला। अन्तमें स्वयम्भू श्रीकृष्ण द्वारकापुरी छोड़कर अपने अंशभूत बलराम आदिके साथ पुन: अपने आश्रयभूत परम भामको चले गये।
मुनियोंने पूछा- ब्रह्मन् ! भगवानने ब्राह्मणोंकि शापको निमित्त बनाकर किस प्रकार अपने कुलका संहार किया?
व्यासजी बोले- एक समयकी बात है- पिण्डारक नामके महातीर्थमें विश्वामित्र, कण्व तथा महामुनि नारद पधारे थे। वहाँ यदुकुनके कुमारोंने उनका दर्शन किया। वे सभी कुमार यौवनके मदसे उन्मत्त थे, अतः भावीकी प्रेरणा उन्होंने जाम्बवतीकुमार साम्बको स्त्रीके वेषमें विभूषित किया और मुनियोंको प्रणाम करके विनीत भावसे पूछा-‘महर्थियो! यह स्त्री पुत्रको आभनाधा रखती हैं। बताइये, याहू अपने पसे क्या जनेगी?’ वे महर्षि दिव्य ज्ञानसे सम्पन्न थे, तथापि यदुकुमारोंने उनके साथ छल किया। यह देख उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उन महर्षियोंने यादवकै नाशके लिये शाप देते हुए कहा-‘यह स्त्री एक मुसल पैदा करेगी, जिससे सम्पूर्ण यदुकुलका संहार हो जायगा।’ उनके यों कहनेपर यदुकुमारोंने पुराँमें आकर राजा उग्रसेनको सब हाल कह सुनाया। सम्बके पेटसे मुसल पैदा हुआ। उग्रसैनने उस मुसलके लोहेको कुटवाकर चूर्ण बना दिया और उसे समुद्रमें फेंक दिया। वह चूर्ण एका नामकी घासके रूपमें उत्पन्न हो गया। मुसलका जो लौहा था, उसे चूर्ण कर देगेपर भी उसका एक टुकड़ा बचा रह गया। उसे यादवगण किसी प्रकार भी चूर्ण न कर सके। उसकी आकृति तोमरके समान थी। वह टुकड़ा भी समुद्र में फेंक दिया गया, किंतु उसे एक मत्स्यने निगल लिया। उस मत्स्यको मछेने जाल बिछाकर पकड़ लिया। जब उसका पेट चीरा गया, तब वह लोहा निकला और उसे जरा नामक व्याधने ले लिया। भगवान् श्रीकृष्ण इन सभी बातोंको अच्छी तरह जानते थे तो भी उन्होंने विधाताके विधानको बदलना नहीं चाहा। इसी बीचमें देवताओंने भगवान् श्रीकृष्णके पास अपना दूत भेजा। उसने एकातमें भगवानको प्रणाम करके कहा-‘भगवन् ! वसु अश्विनीकुमार, मरुद्गण, आदित्य, रुद्र तथा साध्य आदि देवताओंके साथ इद्रने मुझे दूरी बनाकर भेजा हैं। प्रभो ! देवगण आपसे जो निवेदन करना चाहते हैं, वह इस प्रकार है; सुनिये। देवताओंके प्रार्थना करनेपर आपने जो इस पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अवतार लिया था, उसे आज सौ वर्षसे अधिक हो गये । दुराचारी दैत्य मारे गये। पृथ्वीको भार उतर गया। अब देबता आपसे अनाथ होकर स्वर्गमें निवास करें। जगन्नाथ ! यदि आपको स्वीकार हो तो अब अपने परमधामको पधारें।
श्रीभगवान् बोले- ‘दूत ! तुम जो कुछ कहते हो, वह सब मैं जानता हूँ। इसीलिये मैंने यादवोंके संहारका कार्य आरम्भ कर दिया है। यदि यदुवंशियोंका संहार न हो तो यह पृथ्वीपर बहुत बड़ा भार रह जायगा; अत: में सात शतके भीतर जल्दी ही इस भारको भी उतार डालूंगा। जिस प्रकार मैंने द्वारकापुरी बसानेके लिये समुद्रसै भूमि माँगी थी, उसी प्रकार उसे वह भूमि लौटा भी हूँगा और यादवोंका संहार करके अपने परमधामको जाऊँगा। देवराज इन्द्र तथा देवताओंको यों मानना चाहिये कि मैं बलरामजीके साथ अब अपने धाममें आ ही गया। इस पृथ्वीके भाररूप जो जरासंभ आदि राजा थे, वे मारे गये; तथापि इन यदुवंशियोंका भार उनसे भी बढ़कर है, अतः पृथ्वीके इस महाभारको तारकर हीं मैं देवलोककी रक्षाके लिये अपने धाममें जाऊँगा।’
भगवान् वासुदेवके यों कहनेपर दैवदूत उन्हें प्रणाम करके दिव्य गतिसे देवराजके समीप चला गया। इधर द्वारकापुरीमें दिन-रात विनाशके सूचक दिव्य, भौम एवं अन्तरिक्षसम्बन्धी उत्पात होने लगे। उन्हें देखकर भगवान्ने यादोंसे कहा-‘देखो, ने अत्यन्त भयंकर महान् उत्पात हो रहे हैं। इनकी शान्तिके लिये हम सब लोग शीट्स ही प्रभासक्षेत्रमें चले। उस समय महान् भगवद्भक्त उद्धवजीने त्रीहरेको प्रणाम करके कहा- भगवन्! अब मुझे क्या करना चाहिये? इसके लिये आज्ञा दें। मैं समझता हूँ आप इस समस्त यादवकुलका संहार करना चाहते हैं, क्योंकि मुझे ऐसे निमित्त दिखायी देते हैं, जो इस कुलके विनाशकी सूचना देनेवाले हैं।’
श्रीभगवान् बोले- उद्धव ! तुम मेरी कृपासे प्राप्त हुई दिव्य गसिके द्वारा गन्धमादन पर्वतपर परम पवित्र बदरिकाश्रमतीर्थमें चले जाओ। वह श्रोनर-नारायगका स्थान है। वहॉकी भूमि बड़ी पवित्र है। उस तीर्थमें मेरा चिन्तन करते हुए निवास करो, फिर मैरी कृपासे तुम्हें उत्तम सिद्धि प्राप्त होगी। मैं इस कुलका संहार करके अपने धामको जाऊँगा। मेरे त्याग देनेपर समुद्र इस द्वारकापुरीको डुबो देगा।
भगवानके यों कहनेपर उद्धवजी उन्हें प्राप्त करके नर-नारायणके आश्रममें चले गये। तदनन्तर सम्पूर्ण यादव शीघ्रगामी रथपर आरूढ़ हो बलराम और श्रीकृष्ण आदिके साथ प्रभासक्षेत्रमें गये। वहाँ पहुँचकर कुकुर और अकवंशके सब लोगोंने प्रसन्नतापूर्वक मदिरापान किया। पीते समय उनमें परस्पर संघर्ष हो गया, जिससे विनाश करनेवाली कहान्नि प्रज्वलित हो उठी। दैवके अधीन होकर उन्होंने एक दूसरेको शस्त्रों से मारना आरम्भ किया। जब शस्त्र समाप्त हो गये, तब पास हो जमी हुई एरका नामकी घास सबने उखाड़ ली। उनके हाथोंमें आनेपर वह एरको वज्रको भाँति दिखायी देने लगी। उसके द्वारा वे एकदूसरेपर भयंकर प्रहार करने लगे। प्रद्युम्न, साम्ब, कृतवर्मा, सात्यकि, अनिरुद्ध, पृथु, विपृथु, चारुवर्मा, सुचारु तथा अक्रूर आदि सभी यदुवंशी एकरूप वयसे एक-दूसरेको मारने लगे। श्रीहरिने यादवोंको ऐसा करनेसे रोका; किंतु वे उन्हें अपने विपक्षीका सहायक मानने लगे और उनकी अवहेलना करके परस्पर प्रहार करते ही रहे। इससे भगवान् श्रीकृष्णको भी क्रोध हो आया। अतः उन्होंने भी उनका वध करनेके लिये मुट्ठीभर एका उखाड़ ली। हाथमें आते ही वह एरका लोहेका मुसल बन गयी। उस मुसलसे भगवानने सहसा समस्त यादवोंको संहार कर डाला तथा अन्य यादव आपसमें ही लड़कर नष्ट हो गये। तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णका जैत्र नामक रथ दारुकके देखते-देखते समुद्रके मध्यवर्ती मार्गद्वारा शीघ्र हो चला गया। इसमें जुते हुए घोड़े उस रथको लेकर उड़ गये। फिर शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष, दोनों अक्षय तूणीर और खङ्ग-ये सभी अस्त्र-शस्त्र भगवान्की परिक्रमा करके सूर्यके मार्गसे चले गये। क्षणभरमें वहाँ सम्पूर्ण यदुवंशियोंका संहार हो गया। केवल महाबाहु श्रीकृष्ण और दारुक रह गये। उन दोनोंने घूमतेहुए आगे जाकर देखा, बलरामजी एक वृक्षके नीचे आसन लगाकर बैठे हैं और उनके मुँह एक विशाल नाग निकल रहा है। वह महाकाय सर्प उनके मुख़से निकलकर सिद्धों और नागोसे पूजित हो समुद्रकी ओर चला गया। समुद्रने सामने आकर उसे अर्घ्य दिया। तत्पश्चात् वह श्रेष्ठ नागोंसे पृजित हो मुड्के जलमें प्रवेश कर गया।
इस प्रकार बलरामजेका प्रयाण देखकर श्रीकृष्ण दारुकसे कहा-“तुम द्वारक्यमें जाकर यह सब वृत्तान्त वसुदेवजी तथा राजा उग्रसेनसे कहो— ‘बलरामजी चले गये। यदुवंशियोंका संहार हो गया और मैं भी योगस्थ होकर परमधामको चला जाऊँगा।’ ये सब बातें बताकर द्वारकावासी मनुष्यों और उग्रसेनसे यह भी कहना कि ‘अब इस सम्पूर्ण द्वारकापुरीको समुद्र डुबो देगा, अत: आपलोग यहाँसे जानेके लिये रथको सुसज्जत करके अनके आगमनकी प्रतीक्षा करें। शव अर्जुन द्वारकासे निकलें तब येई ने बहाँ न रहे। सब लोग अर्जुनके साथ ही चले जायें।’ दाक ! तुम कुन्तीनन्दन अर्जुनस्से में जाकर मेरी ये बातें कहो ‘ द्वारकामें जो मेरी स्त्रियाँ हैं, उनकै वे यथाशक्ति रक्षा करो।’ यह कहकर अर्जुनको साथ ले तुम द्वारकामें आना और सबको बाहर निकाल ले जाना। अब यदुकुलमें अनिरुद्धकुमर वल्लनाभ राजा होंगे।”
यह सुनकर दारुकने भगवान् श्रीकृष्णको बारंबार प्रणाम किया और अनेक बार उनकी परिक्रमा करके वह उनके कथनानुसार वहाँसे चला गया। उसने जाकर भगवान्की आज्ञाके अनुसार सब कार्य किया। यह अर्जुनको द्वारकामैं बुली ते आया और महाबुद्धिमान् वाको यदुवंशियोंका राजा बनाया। उधर भगवान् श्रीकृष्णन वासुदेवस्वरूप परब्रह्मको अपने आत्मामें आरोपित करके सम्पूर्ण भूतोंमें उनके व्याप्त होनेको धारणा की और योगयुक्त होकर अपने एक पैरको दूसरे पैरके घुटनेपर रखकर बैठे। वे ब्राह्मण दुर्वासाके वचनका मान रखना चाहते थे। उसी समय जरा नामका व्याध उस ओर आ निकला। उसने मुसलके बचे हुए लोहखण्डका बाण बनाकर उसे धारण कर रखा था। भगवान्को चरण उसे मृगके आकारका दिखायी दिया। उसे देखकर वह खड़ा हो गया और उसी तोमरसे उसने भगवान्के पैरको बध वाला। जब वह उनके समीप गया तब वे उसे चार भुजाधारी मनुष्यके रूपर्ने दृष्टिगोचर हुए। भगवान्को देखते ही वह उनके चरणोंमें पड़ गया और बारंबार कहने लगा ‘प्रभो ! प्रसन्न होइये। मैंने अनजानमें हरिपके धोखेसे यह अपराध किया है, अत: क्षमा कीजिये।
तब भगवान्ने उससे कहा-‘व्याध ! तुझे तनिक भी भय नहीं है। तू मेरे प्रसादसे इन्द्रलोकमें चला जा।’ भगवान्के इतना कहते ही वहाँ विमान आ पहुंचा और वह व्याध उसपर वैठकर भगवान्की कृपासे स्वर्गलोकको चला गया। उसके चले जानेपर भगवान् श्रीकृष्णने त्रिविध गतिको पार करके अपने आत्माको अव्यय, अचिन्त्य, अमल, अजन्मा, अजर, अविनाशी, अप्रमेय, अख़िलात्मा एवं ब्रह्मभूत अपने ही वासुदेवस्वरूपमें लीन कर लिया।
तत्पश्चात् अर्जुनने सम्पूर्ण यादवका विधिपूर्वक प्रेतकर्म (औदैहिक संस्कार) किया। फिर वज्र आदि सब लोगोंको साथ ले वे हरकासे बाहर निकले। श्रीकृष्णकी हजारों पत्निय भी साथ ही थीं। उन सबकी रक्षा करते हुए कुत्तीनन्दन अर्जुन धीरे-धीरे चले । भगवान् श्रीकृष्णने मर्त्यलोकमें जो सुध सभा मँगवायी थी, वह और पारिजात वृक्ष दोनों ही पुन: स्वर्गको चले गये। श्रीहरि जिस दिन इस पृथ्वीको छोड़कर अपने धामको पधारे, उसी दिन यह मलिनकाय कलियुग भूतलपर प्रकट हुआ। समुने मनुष्योंसे सूनी द्वारकाको डुबो दिया। केवल भगवान् श्रीकृष्णका मन्दिर वह अब भी नहीं डुबाता। वह भगवान् श्रीकृष्ण नित्य विराजमान रहते हैं। वह परम पवित्र भगवद्धाम सम्पूर्ण पातका नाश करनेवाला है। भगवान् श्रीकृष्णको लीलऑसे युक्त उस पवित्र स्थानका दर्शन करनेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो शाता है।
अर्जुन द्वारकावासियोंको साथ ले प्रचुर धनधान्यसे सम्पन्न पञ्चनद (पंजाब) देशमें जा पहुंचे। वहाँ उन्होंने सब लोगोंके साथ एक स्थानपर पड़ाव डाला। वहाँ बहुत-से लुटेरे रहते थे। उन्होंने देखा एकमात्र धनुर्धर अर्जुन ही बहुत-सी अनाथ स्त्रियोंको साथ लिये जाता है। तब उनके मनमें लोभ उत्पन्न हुआ। लोभसे उनकी विचारशक्ति नष्ट हो गयी, अत: वे अत्यन्त दुर्मद पापाचारी आभीर एकत्रित होकर आपसमें सलाह करने लगे-‘भाइयो ! यह अर्जुन अकेला हम सब लोगों की अवहेलना करके इन अनाथ स्त्रियों को लिये जाता है। इसके हाथमें केवल धनुष है। इसके बलपर यह हमें कुछ नहीं समझता। यह हमारे लिये धिकारकी बात है। तुम सब लोग बल लगाओ।’
ऐसा निश्चय करके लाठी और देले चलानेवाले डाकू हजारों की संख्या उन स्त्रियोंपर टूट पड़े। यह देख कुन्तीन्दन अर्जुनने उनका उपहास-सा करते हुए कहा-‘ओ पापियो ! यदि तुम्हारी मरनेकी इच्छा न हो तो लौट जाओ।’ आभीरॉपर उनको धमकोका कुछ भी असर न हुआ। उन्होंने अर्जुनके वचनोंकी अवहेलना करके सारा धन लूट लिया। तब अर्जुनने अपने दिव्य गाण्डीव धनुषको बढ़ाना आरम्भ किय; किंतु बलवान् होनेपर भी वे उसे चढ़ा न सके। बड़ी कठिनाईसे किसी तरह उन्होंने धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी भी तो वह पुनः ढीली हो गयी तथा उनके अहुत स्मरण करनेपर भी उन्हें किसी अस्त्र-शस्त्रकी याद न आयी। उन्होंने डाकुओंपर बाण चलाये, किंतु वे बाण उन्हें घायले न कर सके। अग्निदेवके दिये हुए अक्षय बाण इन ग्वालोंके साथ युद्ध करनेमें नष्ट हो गये। अर्जुनकी शक्ति भी क्षीण हो गयी। उस समय अर्जुनके मनमें यह निध्य हुआ कि ‘मैंने अपने बाण-समूहोंसे जो बड़े-बड़े क्लवान् राजाओंको परास्त किया है, वह श्रीकृष्णका ही बल था।’ बाणोंके नष्ट हो जानेपर अर्जुनने धनुषको नोकसे डाकुओंको मारना आरम्भ किया, किंतु वे उनके इस प्रहारकी हँसी उड़ाने लगे। वे म्लेच्छ लुटेरे अर्जुनके देखते-देखते वृष्णि और अन्धकवंशकी सुन्दरी स्त्रियोंको लेकर चारों ओर चम्पत हो गये। तब अर्जुनने दु:खी होकर कहा-‘हाय ! यह बड़े कटुकी बात हुई। अहो ! भगवान् श्रीकृष्णने मुझे अकेला छोड़ दिया।’ यों कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे और रोते-रोते ही बोले-‘हाय ! यह वही धनुष है, वे ही बम हैं, वही रथ और वे ही घोड़े हैं; किंतु आज सब एक साथ ही नष्ट हो गये। अहाँ ! दैव बड़ा प्रबल है। महात्मा श्रीकृष्णके बिना मुझे सामर्थ्य रहते हुए नीच पुरुषोंसे अपमानित होना पड़ा। वे ही मेरी भुजाएँ, बड़ी मुष्टि और यही मैं अर्जुन; किंतु उन पुण्यपुरुष श्रीकृष्णके बिना आज सब कुछ नि:सार हो गया। मेरा अर्जनत्व और भीमसेनका भीमत्व भगवान्के ही कारण था, तभी तो आज उनके न रहनेपर मुझे आभीरोंने जीत लिया। अन्यथा यह कैसे सम्भव था।’ इस प्रकार कहते हुए अर्जुन अपने श्रेष्ठ नगर इन्द्रप्रस्थ गये। वहाँ उन्होंने यादवकुमार वज्रको यदुवंशियोंका राजा बनाया। तदनन्तर वे अनमें आकर मुझसे मिले और मुझे विनयपूर्वक प्रणाम किया। अर्जुनको अपने चरणोंकी वन्दना करते देख मैंने पूछा-‘ पार्थ ! तुम इस प्रकार अत्यन्त उदास क्यों हो रहे हो? तुमसे किसी ब्राह्मणकी हत्या तो नहीं हो गयी है? अथवा विजयकी आश भङ्ग होनेसे तुम्हें दु:ख हो रहा है। इस सम्मम तुम सर्वथा श्रीहीन हो गये हो । तुमने किसी अगम्या स्त्रीसे रमण तो नहीं क्रिया, जिससे तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है? या कहीं निम्न श्रेणी मनुष्योंने तुम्हें युद्धमें परास्त कर दिया हैं?”
मेरे ऐसा प्रश्न करनेपर अर्जुनने लंबी साँस छोड़ते हुए कहा–‘भगवन् ! सुनिये-जो हमारे तेज, बल, वीर्य, पराक्रम, नी और कान्ति थे, वे भावान् श्रीकृष्ण हमलोगोंको छोड़कर चले गये। मुने ! जो महान् होकर भी साधारण मनुष्योंकी शौति हमसे हँस-हँसकर चलें किया करते थे, उन्होंके बिना आज हम जिनकॉकै पुतलेकी भांति सारहीन हो गये हैं। मेरे दिन्यास्त्रों, दिव्य बाणों और गाण्डीव धनुपके जो मूर्तिमान् सार थे, वे भगवान् पुस्त म हमें छोड़कर चले गये। जिनकी कृपादृष्टिसे लक्ष्मी, विजय, सम्पत्ति और उन्नतिने कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा, वे भगवान् गोविन्द्र हमें छोड़कर चले गये। जिनके प्रभावरूपी अग्निसे भष्म्, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन आदि वीर जलकर भस्म हो गये, उन भगवान् श्रीकृष्णने इस भूमण्डलको त्याग दिया। तात ! चक्रपाणि गोविन्दके विरहमें केवल मैं ही नहीं, यह सारी पृथ्वी ही यौवन, श्री और कान्तिसे हीन प्रतीत होती है। जिनकी कृपासे भीष्म आदि वीर आगमें पाङ्गकी भाँती मेरे पास आकर भस्म हो गये, आज उन्हीं श्रीकृष्णके बिना मुझे ग्वालोंने हरा दिया। जिनके प्रभावसे मेरा गण्डीव अनुष तीनों लोकों में विख्यात हो चुका था, उन्हें श्रीहरिके बिना उसे आभीरोंने डंडोंमें तिरस्कृत कर दिया। महामुने ! मेरे साथ कई हजार अनाथ स्त्रियाँ थीं और मैं उनकी रक्षा लिये पूर्ण यत्न कर रहा था तो भी डाकुओंने केस लाठीके बलपर उन्हें छीन लिया। पितामह ! ऐसी अवस्थामें मेरा श्रीहीन होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि मैं नीच पुरुषोंद्वारा अपमानके पङ्कमें माना जाकर भी निर्लज्जतापूर्वक जीवन धारण कर रहा हूं।’
व्यासजी कहते हैं- द्विजवरो ! पाण्डुनन्दन महात्मा अर्जुन अत्यन्त दु:खी और दीन हो रहे थे। उनकी बात सुनकर मैंने कहा-‘ पार्थ ! तूम लज्जा न करो। शोकमें भी न पड़ो। सोचौ और समझो: सम्पूर्ण भूतोंमें कालकी ऐसी ही गति है। पाण्डुनन्दन ! प्राणियोंकी उन्नति और अवनतिका कारण काल ही है। यह जो कुछ होता है और हुआ है, सब क्रातमूलक ही है-यह जानकर तुम धैर्य धारण करौ। नदी, समुद्र, पर्यंत, सम्पूर्ण पृथ्वी, देवता, मनुष्य, पशु, वृक्ष और साँप, बिच्छू अदि सब भूतोंको कालने ही उत्पन्न किया है और कालके द्वारा ही पुन: उनका संहार होगा। यह सारा प्रपञ्च कालस्वरूप ही है-यह जानकर शान्त हो जाओ। धनंजय! तुमने श्रीकृष्णकी जैसी महिमा बतलायौ है, वह वैसी ही है। उन्होंने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही यहाँ अवतार लिया था। जब पृथ्वोपर भार अधिक हो गया और वह दबने लगी, तब वह देवताओं के पास गयी थी। उसीके लिये इच्छानुसार रुप धारण करनेवाले श्रीहरिने अवतार ग्रहण किया था। वह कार्य पूरा हो गया। सम्पूर्ण दुष्ट राजा मारे गये तथा तृष्णा और अन्धकवंशका भी संहार हो गया। अब इस भूतलपर भगवान्के करनेयोग्य कोई कार्य शेष नहीं रह गया था, अत: अवतार-कार्य पूरा करके वे इच्छानुसार अपने धामको चले गये हैं। देवदेव भगवान् श्रीकृष्ण ही सृष्टिके समय संसारको सृष्टि और पालनके समय पालन करते हैं तथा वे ही संहारकालमें सम्पूर्ण जगत्का संहार करने में समर्थ होते हैं, जैसा कि इस समय भी उन्होंने दुष्ट राक्षसों का संहार किया था। अतः पार्थ ! तुम्हें अपनी पराजयसे दु:ख नहीं मानना चाहिये; क्योंकि अभ्युदयका समय आनेपर ही पुरुषोंद्वारा बड़े-बड़े पराक्रम होते हैं। जिस समय तुमने अकेले ही भीष्म-जैसे वीरोंका वध किया था, उस समय उनका भी क्या अपनेसे न्यून पुरुषके द्वारा पराभव नहीं हुआ था? किंतु यह पराजय कालकी ही देन थी। भगवान् विष्णुके प्रभावसे जिस प्रकार तुम्हारे द्वारा उनकी पराजय हुई, उसी प्रकार लुटेरोंके हाथसे तुम्हें भी पराजित होना पड़ा। वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण भिन्न-भिन्न शरीरोंमें प्रवेश करके संसारका पालन करते हैं। और अन्तमें सब जीवोंका संहार कर डालते हैं। जब तुम्हारे अभ्युदयका समय था, तब भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे सहायक हो गये थे और जब वह समय बीत गया, तब तुम्हारे विपक्षियोंपर भगवान्की कृपादृष्टि हुई है। तुम गङ्गानन्दन भीष्मके साथ सम्पूर्ण कौरवोंका संहार कर डालोगे-इस बातपर पहले कौन विश्वास कर सकता था और फिर तुम्हें आभीरोंसे परास्त होना पड़ेगा—यह बात कौन मान सकता था। परंतु दोनों ही बातें सम्भव हुई। पार्थ! यह सम्पूर्ण भूतोंमें श्रीहरिकी लीलाका ही विलास है। अतः तुम्हें तनिक भी शोक नहीं करना चाहिये। सम्पूर्ण जगत्के स्वामी भगवान् श्रीकृष्णने ही सम्पूर्ण यादवोंका संहार किया है। तुमलोगोंका संहार-काल भी समीप ही है; इसीलिये भगवान्ने तुम्हारे बल, तेज, पराक्रम और माहात्म्यका पहले ही संहार कर दिया है। जो जन्म ले चुका है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जो ऊँचे चढ़ चुका है, उसका नीचे गिरना भी अवश्यंभावी है। संयोगका अवसान वियोगमें ही होता है और संग्रह हो जानेके बाद उसका क्षय होना भी निश्चित बात है। यह समझकर विद्वान् पुरुष हर्ष और शोकके वशीभूत नहीं होते और इतर मनुष्य भी उन्हींके आचरणसे शिक्षा लेकर वैसे ही बनते हैं।* नरश्रेष्ठ! यह समझकर तुम्हें भाइयोंके साथ सारा राज्य छोड़कर तपस्याके लिये वनमें जाना चाहिये। अब जाओ, धर्मराज युधिष्ठिरसे मेरी ये सारी बातें कहो वीर ! परसोंतक अपने भाइयोंके साथ जैसे भी हो सके घरसे प्रस्थान कर दो।’
यह सुनकर अर्जुनने धर्मराजके पास जा अपनी देखी और अनुभव की हुई सारी बातें कह सुनायी । अर्जुनके मुखसे मेरा संदेश सुनकर समस्त पाण्डव परीक्षित्को राज्यपर अभिषिक्त करके वनमें चले गये। मुनिवरो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे यदुकुलमें अवतीर्ण भगवान् श्रीकृष्णको सम्पूर्ण लीलाओंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया।
अध्याय- 85 श्रीहरीके अनेक अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
मुनियों ने कहा – मुनिश्रेष्ठ ! इस पृथ्वीपर भगवान के माहात्म्य की चर्चा अत्यंत दुर्लभ हैं । महाभाग ! आपके मुख से भगवत्कथा सुनते-सुनते हमें तृप्ति नहीं होती, अत: उनकी लीलाओं का पुन: वर्णन कीजिये । हमें साधू पुरुषों के मुख से सुना है कि पुराणों में अमिततेजस्वी भगवान विष्णु के वाराह अवतारका वर्णन हैं । ब्रह्मन ! भगवान नारायण ने किस प्रकार वाराहरूप धारण किया ? और किस प्रकार अपनी दंष्ट्रा से एकार्णव में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार किया ? सबको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाले परम बुद्धिमान भगवान श्रीहरि की समस्त लीलाओं का हम विस्तारपूर्वक श्रवण करना चाहते हैं ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! तुमलोगों ने मुझपर यह बहुत बड़े प्रश्न का भार रख दिया । मैं यथाशक्ति तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूँगा । भगवान विष्णु की लीला-कथाका श्रवण करो । भगवान विष्णु के प्रभाव को सुनने में जो तुम्हारा मन लगा हैं, यह बहुत बड़े सौभाग्य की बात है । अत: श्रीविष्णु की जो-जो लीलाएँ हैं, उन सबका वर्णन सुनो ।
वेदवेत्ता ब्राह्मण जिन्हें सहस्त्रमुख, सहस्त्रनेत्र, सहस्त्रचरण, सहस्त्रशिरा, सहस्त्रकर, अविनाशी देव, सहस्त्रजिह्र, भास्वान, सहस्त्रमुकुट, प्रभु, सहस्त्रदाता, सहस्त्रादि, सहस्त्रबाहु, हवन, सवन, होता, हव्य, यज्ञपात्र, पवित्रक, वेदी, दीक्षा, समिधा, स्त्रुवा, स्त्रुक, सोम, सूप, मूसल, प्रोक्षणी, दक्षिणायन, अध्वर्यु, सामग ब्राह्मण, सदस्य, सदन, सभा, यूप, चक्र, ध्रुवा, दर्वी, चरु, उलूखल, प्राग्वंश, यज्ञभूमि, छोटे-बड़े चराचर जीव, प्रायश्चित, अर्घ्य, स्थंडिल,कुश, मन्त्र, यज्ञको वहन करनेवाले अग्निदेव, यज्ञभाग, भागवाहक, अग्राशनभोजी, सोमभोक्ता, हुतार्ची, उदायुध तथा यज्ञ में सनातन प्रभु कहते हैं, उन श्रीवत्सचिन्हविभूषित देवेश्वर भगवान विष्णु के सहस्त्रो अवतार हो चुके हैं और समय-समयपर होते रहते हैं । उनका जो वाराह अवतार हैं, वह वेद्प्रधान यज्ञस्वरूप हैं । चारों वेद उनके चरण और यूप उनकी दाढ़े हैं । यज्ञ दाँत और चितियाँ मुख हैं । साक्षात अग्नि ही उनकी जिव्हा, कुश रोमावलि और ब्रह्म मस्तक हैं । उनका तप महान हैं । दिन और रात्रि उनके नेत्र हैं । वे दिव्यस्वरूप हैं । वेद उनका अंग और श्रुतियाँ आभूषण हैं । हविष्य नासिका, स्त्रुवा थूथुन और सामवेद का गम्भीर घोष ही उनका स्वर हैं । वे सत्य धर्मस्वरूप, श्रीसंपन्न तथा क्रम (गति) और विक्रम (पराक्रम) – के द्वारा सम्मानित हैं । प्रायश्चित उनके नख, पशु उनके घुटने तथा यज्ञ उनका स्वरूप है । उद्भाता अन्त्र (आँत ), होम लिंग, ओषधि एवं महान फल बीज हैं । वादी अंतरात्मा, मन्त्र नितम्ब और सोमरस उनका रक्त हैं । वेदी कंधा, हविष्य गंध तथा हव्य और गव्य उनका प्रचंड वेग है । प्राग्वंश (यजमान-गृह ) उनका शरीर हैं । वे परम कान्तिमान और नाना प्रकार की दीक्षाओं से सम्पन्न हैं । दक्षिणा उनका ह्रदय है । वे महान योगी और महायज्ञमय है । उपाकर्म (वेदों का स्वाध्याय) उनका हार और प्रवर्ग (एक प्रकार की होमाग्नि) उनका आभूषण है । नाना प्रकार के छंद उनके चलने के मार्ग है । गूढ़ उपनिषद उनके बैठने के लिये आसन हैं । पृथ्वी की छायारूप पत्नी सदा उनके साथ रहती हैं, वे मणिमय शिखर की भान्ति पानी के ऊपर प्रकट हुए । समुद्र, पर्वत, वन और काननोंसहित समस्त पृथ्वी एकार्णव के जलमें डूबी थी । सम्पूर्ण जगत के आदि कारण और सहस्त्रो मस्तकोंवाले भगवान ने वाराहरूप में प्रकट होकर एकार्णव में प्रवेश किया तथा सब लोकों का हित करने की इच्छा से पृथ्वी को अपनी दाढ़पर उठा लिया । इसप्रकार समस्त जीवों के हितैषी भगवान यज्ञवाराह ने समुद्र-जल की धारण करनेवाली समूची पृथ्वी का उद्धार किया ।द्विजवरो ! यह वाराह – अवतार का वर्णन हुआ ।
उसके बाद भगवान् का नरसिंह अवतार हुआ । उस अवतार में भगवान ने नरसिंहरूप धारण करके हिरण्यकशिपु नामक दैत्य का वध किया था । प्राचीन काल के सत्ययुग की बात है, दैत्यों के आदिपुरुष देवशत्रु बलाभिमानी हिरण्यकशिपु ने बड़ी भारी तपस्या की । वह साढ़े ग्यारह हजार वर्षोतक शम-दम तथा ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ मौनव्रत लेकर जप और उपवास में संलग्न रहा । उसकी तपस्या और नियम-पालन में स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने हंस से जुड़े हुए सूर्य के समान तेजस्वी विमानद्वारा स्वयं आकर दैत्य को वरदान दिया । उनके साथ आदित्य, वसु, मरुद्रण, देवता, रुद्रगण और विश्वेदेव भी थे । ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ चराचरगुरु ब्रह्माजी ने उस दैत्य से कहा – ‘सुव्रत ! तुम मेरे भक्त हो । मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो । तुम कोई वर माँगों और उसके द्वारा अभीष्ट वस्तु प्राप्त करो ।’
हिरण्यकशिपु बोला – लोकपितामह ! देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग और राक्षस मुझे मार न सकें । तपस्वी ऋषि भी क्रोध में आकर मुझे शाप न दें । किसी अस्त्र या शस्त्र से, वृक्ष या पर्वत से , अथवा सूखी या गीली वस्तुसे, ऊपर या नीचे – खिन भी मेरी मृत्यु न हो । जो मेरे सेवक, सेना और वाहनोंसहित मुझे एक ही थप्पड़ से मार डालने में समर्थ हो, उसी के हाथसे मेरी मृत्यु हो ।
ब्रह्माजी ने कहा – तात ! ये दिव्य और अदभुत वर मैंने तुम्हें दिये । इन सम्पूर्ण अभिष्टों को तुम नि:संदेह प्राप्त करोगे ।
यों कहकर पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मर्षिगणों से सेवित वैराजपद – ब्रह्मधाम को चले गये । तदनंतर उस वरदान की बात सुनकर देवता, नाग, गन्धर्व और मनुष्य ब्रह्माजी की सेवामे उपस्थित हुए और बोले – ‘भगवन ! इस वरदान से तो वह असुर हमलोगों को सदा ही कष्ट पहुँचाता रहेगा, अत: हमारे ऊपर प्रसन्न हो उसके वधका भी उपाय सोचिये ।’
ब्रह्माजी ने कहा – देवताओं ! उसे अपनी तपस्या का फल अवश्य प्राप्त होगा । उसका भोग समाप्त होनेपर वह साक्षात भगवान विष्णु के हाथसे मारा जायगा ।
ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर सब देवता प्रसन्न हो अपने-अपने दिव्य स्थानों को चले गये । वर पाते ही दैत्यराज हिरण्यकशिपु अभिमान में आकर समस्त प्रजाको कष्ट देने लगा । आश्रम में रहनेवाले सत्यधर्मपरायण, जितेन्द्रिय एवं उत्तम व्रतधारी महाभाग मुनियों को भी उसने सताना आरम्भ कर दिया । स्वर्ग के देवताओं को हराकर तीनों लोकों को अपने अधीन करके वह महाबली असुर स्वयं ही स्वर्ग में रहने लगा । वरदान के मद से उन्मत्त होकर पृथ्वीपर विचरते हुए उस दानवने दैत्यों को तो यज्ञ का भागी बनाया और देवताओं को उससे वंचित कर दिया । तब आदित्य, वसु, साध्य, विश्वेदेव और मरुद्रण शरणागतरक्षक सनातन प्रभु महाबली भगवान विष्णु की शरण में गये और इसप्रकार बोले – ‘देवेश्वर ! आप हिरण्यकशिपु के भय से हमारी रक्षा करें । आप ही हमारे परम देवता, परम गुरु और परम विधाता हैं । सुरश्रेष्ठ ! आप ब्रह्मा आदि देवताओं के भी पालक है । आपके नेत्र विकसित कमलदल के समान शोभा पाते हैं । आप शत्रुपक्ष का नाश करनेवाले हैं । भगवन ! हमें शरण दीजिये और दैत्यों का संहार कीजिये ।’
भगवान वासुदेवने कहा – देवताओं ! भय छोडो । मैं तुम्हें अभय देता हूँ । तुम शीघ्र ही पहले की भान्ति स्वर्गलोक को प्राप्त करोगे । मैं वरदान से उन्मत्त दानवराज हिरण्यकशिपु को, जो देवेश्वरों के लिये अवध्य हो रहा हैं, उसके सेवकगणोंसहित मार डालूँगा ।
यों कहकर भगवान उन देवेश्वरों को विदा करके स्वयं हिरण्यकशिपु के स्थानपर आये । उस समय उन्होंने आधा शरीर मनुष्य का और आधा सिंह का बना रखा था । इसप्रकार नृसिंहदेह धारण किये हाथ-में-हाथ मिलाये हुए आये । उनके शरीर का वर्ण मेघ के समान श्याम था । शब्द भी मेघ की गर्जना के समान ही गम्भीर था । शब्द भी मेघ की गर्जना के समान ही गम्भीर था । ओज और वेग में भी वे मेघ के ही सदृश थे । मतवाले सिंह के समान उनकी चाल थी । यद्यपि हिरण्यकशिपु बलाभिमानी दैत्यों से सुरक्षित और अत्यंत बलशाली था तो भी भगवान ने उसे एक ही थप्पड़ से मारकर यमलोक पहुंचा दिया । यही नृसिंह अवतार की कथा कही गयी ।
अब वामन-अवतार का वर्णन सुनो । भगवान का वामनरूप दैत्यों का विनाश करनेवाला था । उस रूप को धारणकर श्रीहरि बलवान बलि के यज्ञ में गये और वहाँ उन्होंने अपने तीन ही पगों से त्रिलोकी को नापकर सम्पूर्ण दैत्यों को क्षुब्ध कर डाला । बलि के हाथ से समूची पृथ्वी लेकर भगवान ने इंद्र को दे दी । यही महात्मा श्रीविष्णु का वामन अवतार है । वेदवेत्ता ब्राह्मण भगवान वामन के यश का सदा गान करते हैं ।
तदनन्तर भगवान् विष्णु ने दत्तात्रेय नामक अवतार धारण किया । दत्तात्रेयजी में क्षमा की पराकाष्ठा थी । उससमय वेद, वेदों की प्रक्रिया और यज्ञ – सभी नष्टप्राय हो गये थे । चारों वर्णों में संकरता आ गयी थी । धर्म शिथिल हो चला था । अधर्म बड़े जोरों के साथ बढ़ रहा था । सत्य मिटता जाता था और सब ओर असत्य क बोलबाला था । प्रजा क्षीण हो रही थी और धर्म पाखंडमिश्रित हो गया था । ऐसे समय में भगवान दत्तात्रेय ने यज्ञों तथा क्रियाओंसहित वेदों का पुनरुद्धार किया और चारों वर्णों को पृथक-पृथक करके उन्हें व्यवस्थितरूप दिया । दत्तात्रेयजी परम बुद्धिमान और वरदायक थे; उन्होंने हैहयराज कार्तवीर्य को यह वर दिया था कि ‘राजन ! तुम्हारी ये दो भुजाएँ मेरी कृपासे एक हजार हो जायेगी । वसुधापते ! तुम सम्पूर्ण वसुधा का पालन करोगे । जिस समय तुम युद्ध में खड़े होगे, तुम्हारे शत्रु तुम्हें आँख उठाकर देख भी नहीं सकेंगे – तुम उनके लिये अजेय हो जाओगे ।’ यह श्रीविष्णु के दत्तात्रेयवतार की चर्चा की गयी ।
इसके बाद भगवान ने परशुरामावतार ग्रहण किया । राजा कार्तवीर्य अर्जुन अपनी सहस्त्र भुजाओं के कारण युद्ध में शत्रुओं के लिये दुर्जय था तो भी परशुरामजी ने उसे सेना के बीच में मार डाला । राजा अर्जुन रथपर बैठा था, किन्तु परशुरामजी ने उसे धरतीपर गिरा दिया और छातीपर चढकर तीखे फरसे के द्वारा उसकी हजारों भुजाएँ काट डालीं । उससमय कार्तवीर्य बड़े जोर-जोरसे चीखता, चिल्लाता रहा । उन्होंने मेरुगिरी से विभूषित समस्त पृथ्वीपर करोड़ों क्षत्रियों की लाशें बिछा दी, इक्कीस बार भूतल को क्षत्रियों से शून्य कर दिया और अपने समस्त पापों का नाश करने के लिये उन्होंने अश्वमेध-यज्ञ का अनुष्ठान किया । उस यज्ञ में भृगुनंदन परशूराम ने कश्यपजी को सारी पृथ्वी दक्षिणारूप में दे दी । साथ ही बहुत-से हाथी, घोड़े, सुंदर रथ और गौएँ भी दान की । आज भी वे विश्व का कल्याण करने के लिये घोर तपस्या करते हुए महेंद्र पर्वतपर निवास करते हैं । यह सनातन परमात्मा श्रीहरि के परशुरामावतार का परिचय दिया गया ।
चौथीसवें त्रेतायुग में भगवान ने दशरथनंदन कमलनयन श्रीराम के रूप में अवतार लिया । भगवान विष्णु उससमय चार रूपों में प्रकट हुए थे । उनका तेज सूर्य के समान था । वे लोक में श्रीराम के नामसे विख्यात हुए और विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिये उनके पीछे-पीछे गये । महायशस्वी श्रीराम सब लोगों को प्रसन्न रखने, राक्षसों को मारने और धर्म की वृद्धि करने के लिये अवतीर्ण हुए थे । कहते हैं, राजा श्रीराम सदा सब भूतों का हित करने के लिये तत्पर रहते थे । वे सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता थे । उन्होंने लक्ष्मण को साथ ले चौदह वर्षोतक वनमें निवास किया था । उनके साथ उनकी पत्नी सीता भी गयी थी, जो मूर्तिमती लक्ष्मी थी । जनस्थान में निवास करते हुए श्रीराम ने देवताओं के अनेक कार्य सिद्ध किये । उन्होंने रावण के द्वारा अपह्रत सीता का पता लगाकर उन्हें प्राप्त किया और रावण का वध किया । पुलस्त्यवंशी राक्षसराज रावण देवता, असुर, यक्ष, राक्षस और नागों के लिये भी अवध्य था । युद्ध में उसको जीतना बहुत ही कठिन था । उसका शरीर कज्जलराशि के समान काला था । उसे कोटि-कोटि राक्षस सदा घेरे रहते थे । वह तीनों लोकों को मार भगानेवाला, क्रूर, दुर्जय, दुर्धर, गर्वयुक्त, सिंह के समान पराक्रमी और वरदान से उन्मत्त था । देवताओं के लिये तो उसकी ओर देवता भी कठिन था । ऐसे रावण को भगवान श्रीराम ने सेना और सचिवोंसहित संग्राम में मार डाला । इसके पहले उन्होंने और भी कई अलौकिक कर्म किये थे । अपने मित्र सुग्रीव के लिये उन्होंने महाबली वानरराज बाली को मारा और सुग्रीव को किष्किन्धा के राज्यपर अभिषित्क किया । मधु का पुत्र लवण नामका दानव मधुवन में रहता था । वह वीर तो था ही, वर पाकर मतवाला हो उठा था । उसे भगवान ने शुत्रघ्न के रूप में जाकर मारा । मारीच और सुबाहु नामक दो बलवान राक्षस थे, जो शुद्ध अंत:करणवाले मुनियों के यज्ञों में विघ्न डाला करते थे । उनको और उनके साथी अन्य राक्षसों को भी युद्धकुशल महात्मा श्रीराम ने मार गिराया । विराध और कबन्ध दो बड़े भयंकर राक्षस थे । वे पूर्वजन्म में गन्धर्व थे, किन्तु शापसे मोहित होकर राक्षसभाव को प्राप्त हुए थे । उन्हें भी नरश्रेष्ठ श्रीराम ने मारकर शापमुक्त कर दिया । श्रीराम के बाण अग्नि, सूर्यकिरण और विद्युत् के समान तेजस्वी, तपाये हुए स्वर्ण से युक्त विचित्र पंखों से सुशोभित तथा महेंद्र-वज्र के सदृश सारयुक्त थे । उन्ही के द्वारा उन्होंने युद्ध में शत्रुओं का नाश किया । परम बुद्धिमान महर्षि विश्वामित्र ने देवताओं के लिये भी दुर्धर्ष दैत्यों का वध करने के लिये श्रीरघुनाथजी को अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये थे । पूर्वकाल मे, जब कि महात्मा राजा जनक के यहाँ यज्ञ हो रहा था, श्रीराम ने खेल में ही महेश्वर के धनुष को तोड़ डाला था । धर्मात्माओं में श्रेष्ठ श्रीरघुनाथजी ने ये सब अलौकिक कर्म करके दस अश्वमेध-यज्ञ भी किये थे, जो बिना किसी विघ्न-बाधा के पूर्ण हुए थे । श्रीरामचन्द्रजी के राज्य करते समय कभी अमंगल की बात नही सुनी गयी । हवा तेज नहीं चलती थी । कोई किसी का धन नहीं चुराता था । न कभी विधवाओं के विलाप सुने जाते और न अनर्थ की ही प्राप्ति होती थी । उससमय सब कुछ शुभ-ही-शुभ होता था । प्राणियों को जल, अग्नि अथवा आँधी से कभी भय नही होता था । बूढों को बालकों की प्रेतक्रिया नहीं करनी पडती थी । क्षत्रिय ब्राह्मणों की परिचर्या करते थे । वैश्य क्षत्रियों के प्रति श्रद्धा रखते थे और शुद्र अहंकार छोडकर ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा करते थे । महाबाहू श्रीरामने दस हजार वर्षोंतक राज्य किया । उनके राज्य में सदा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद का घोष सुनायी देता था । धनुष की टंकार भी सर्वदा कानों में आती रहती थी । ‘दान करो और स्वयं भी भोगो’ का उपदेश कभी बंद नहीं होता था । दशरथनंदन श्रीराम सत्त्ववान और गुणवान होने के साथ ही सदा अपने तेजसे देदीप्यमान रहते थे । उनकी सूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक शोभा होती थी । यह श्रीरामवतार का वर्णन हुआ ।
इसके बाद श्रीहरि का अवतार मथुरा में हुआ था । वह श्रीकृष्ण के नामसे विख्यात हुआ । भगवान श्रीकृष्ण समस्त संसार का हित करने के लिये अवतीर्ण हुए थे । उन्होंने मानव-शरीर धारण करके शाल्व, शिशुपाल, कंस, द्विविद, अरिष्ट, वृषभ, केशी, दैत्यकन्या पूतना, कुवलयापीड हाथी तथा चाणूर और मुष्टिका नाम के मल्लों का वध किया । अद्भुत कर्म करनेवाले बाणासुर की हजार भुजाएँ काट डालीं । युद्ध में नरकासुर का संहार किया और महाबली कालयवन को भी भस्म करा दिया । भगवान ने अपने तेजस्वी दुष्ट दुराचारी राजाओं के समस्त रत्न हर लिये और उन्हें मौत के घात उतार दिया । यह अवतार सम्पूर्ण लोकों का हित-साधन करने के लिये हुआ था ।
इसके बाद विष्णुयशा नामसे प्रसिद्ध कल्कि अवतार होनेवाला है । भगवान कल्कि शम्भल नामक गाँव में अवतीर्ण होंगे । उनके अवतार का उद्देश्य भी सब लोकों का हित करना ही है । ये तथा और भी अनेक दिव्य अवतार हैं, जो पुराणों में ब्रह्मवादी पुरुषोद्वारा वर्णित हैं । भगवान के अवतारों का वर्णन करने में देवता भी मोहित हो जाते हैं । पुराण वेदों की श्रुतियोंद्वारा समर्थित है । इसप्रकार यह अवतारकथा संक्षेप से कही गयी ।
जो सम्पूर्ण लोकों के गुरु और सदा कीर्तन करनेयोग्य हैं , उन भगवान विष्णु के अवतारों का वर्णन किया गया । इसके कीर्तन से पितरों को प्रसन्नता होती है । जो हाथ जोडकर अमितपराक्रमी श्रीविष्णु के अवतार की कथा सुनता हैं, उसके पितर भी अत्यंत तृप्त होते हैं । योगेश्वर भगवान श्रीहरि की योगमाया का वर्णन सुनकर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैं और भगवान की कृपा से शीघ्र ही उसे ऋद्धि, समृद्धि तथा प्रचुर भोगों की प्राप्ति होती है । मुनिवरो ! इसप्रकार मैंने अमिततेजस्वी श्रीहरि के सर्वपापहारी पवित्र अवतारों का वर्णन किया ।
अध्याय- 86 यमलोक के मार्ग और चारों द्वारों का वर्णन
मुनि बोले – ब्रह्मन ! आपके मुखसे निकले हुए पुण्यधर्ममय वचनामृतों से हमें तृप्ति नहीं होती, अपितु अधिकाधिक सुनने की उत्कंठा बढती जाती हैं ।मुने ! आप परम बुद्धिमान हैं और प्राणियों की उत्पत्ति, लय और कर्मगति को जानते हैं; इसलिये हम आपसे और भी प्रश्न करते हैं । सुनने में आता ही कि यमलोक का मार्ग बड़ा दुर्गम हैं । वह सदा दुःख और क्लेश देंनेवाला हैं तथा समस्त प्राणियों के लिये भयंकर हैं । उस मार्ग की लंबाई कितनी है तथा मनुष्य उस मार्ग से यमलोक की यात्रा किसप्रकार करते हैं ? मुने ! कौन-सा ऐसा उपाय हैं, जिससे नरक के दु:खों की प्राप्ति न हो ?
व्यासजी ने कहा – उत्तम व्रत का पालन करनेवाले मुनिवरो ! सुनो । यह संसारचक्र प्रवाहरूप से निरंतर चलता रहता है । अब मैं प्राणियों की मृत्यु से लेकर आगे जो अवस्था होती है, उसका वर्णन करूँगा । इसी प्रसंग में यमलोक के मार्ग का भी निर्णय किया जायगा । यमलोक और मनुष्यलोक में छियासी हजार योजनों का अंतर हैं । उसका मार्ग तपाये हुए ताँबे की भांति पूर्ण तप्त रहता है । प्रत्येक जीव को यमलोक के मार्ग से जाना पड़ता हैं । पुण्यात्मा पुरुष पुण्यलोकों में और नीच पापाचारी मानव पापमय लोकों में जाते हैं । यमलोक में बाईस नरक हैं, जिनके भीतर पापी मनुष्यों को पृथक-पृथक यातनाएँ दी जाती हैं । उन नरकों के नाम ये हैं- नरक, रौरव, रौद्र, शूकर, ताल, कुम्भीपाक, महाघोर, शाल्मल, विमोहन, कीटाद, कृमिभक्ष, लालाभक्ष, भ्रम, पीब बहानेवाली नदी, रक्त बहानेवाली नदी, जल बहानेवाली नदी, अग्निज्वाल, महारौद्र, संदेश, शुनभोजन, घोर वैतरणी और असिपत्रवन । यमलोक के मार्ग में न तो कहीं वृक्ष की छाया हैं न तालाब और पोखरे हैं, न बावड़ी, न पुष्करिणी हैं, न कूप है न पीसले हैं, न धर्मशाला हैं न मंडप है, न घर है न नदी एवं पर्वत हैं और न ठहरने के योग्य कोई स्थान ही है, जहाँ अत्यंत कष्ट में पड़ा हुआ थका-माँदा जीव विश्राम कर सके । उस महान पथपर सब पापियों को निश्चय ही जाना पड़ता हैं । जीवों को यहाँ जितनी आयु नियत है, उसका भोग पूरा हो जानेपर इच्छा न रहते हुए भी उसे प्राणों अक त्याग करना पड़ता हैं । जल, अग्नि, विष, क्षुधा, रोग अथवा पर्वतसे गिरने आदि किसी भी निमित्त को लेकर देहधारी जीव की मृत्यु होती है । पाँच भूतों से बने हुए इस विशाल शरीर को छोडकर जीव अपने कर्मानुसार यातना भोगंने के योग्य दूसरा शरीर धारण करना हैं । उसे सुख और दुःख भोगने के लिये सुदृढ़ शरीर की प्राप्ति होती है । पापाचारी मनुष्य उसी देह से अत्यंत कष्ट भोगता हैं और धर्मात्मा मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक सुख का भागी होता है ।
शरीर में जो गर्मी या पित्त है, वह तीव्र वायु से प्रेरित होकर जब अत्यंत कुपित हो जाता है, उस समय बिना ईधन के ही उद्दीप्त हुई अग्नि की भांति बढकर मर्मस्थानों को विदीर्ण कर देता हैं । तत्पश्चात उदान नामक वायु ऊपर की ओर उठता हैं और खाये-पीये हुए अन्न-जल को नीचे की ओर जाने से रोक देता हैं । उस आपत्ति की अवस्था में भी उसी को प्रसन्नता रहती है, जिसने पहले जल, अन्न एवं रसका दान किया हैं । जिस पुरुष ने श्रद्धा से पवित्र किये हुए अंत:करण के द्वारा पहले अन्नदान किया है, वह उस रुग्णावस्था में अन्न के बिना भी तृप्तिलाभ करता हैं । जिसने कभी मिथ्याभाषण नही किया, दो प्रेमियों के पारस्परिक प्रेम में बाधा नहीं डाली तथा जो आस्तिक और श्रद्धालु है, वह सुखपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होता है । जो देवता और ब्राह्मणों की पूजा में संलग्न रहते, किसी की निंदा नहीं करते तथा सात्त्विक, उदार और लज्जाशील होते है, ऐसे मनुष्यों को मृत्यु के समय कष्ट नहीं होता । जो कामनासे, क्रोध से अथवा द्वेष के कारण धर्म का त्याग नहीं करता, शास्त्रोक्त आज्ञा का पालन करनेवाला तथा सौम्य होता हैं, उसकी मृत्यु भी सुख से होती है । जिन्होंने कभी जल का दान नहीं किया हैं, उन मनुष्यों को मृत्युकाल उपस्थित होनेपर अधिक जलन होती है तथा अन्नदान न करनेवालों को उससमय भूख का भारी कष्ट भोगना पड़ता हैं । जो लोग जाड़े के दिनों में लकड़ी दान करते हैं, वे शीत के कष्ट को जीत लेते हैं । जो चन्दन दान करते हैं, वे तापपर विजय पाते हैं तथा जो किसी भी जीव को उद्वेग नही पहुँचाते, वे मृत्युकाल में प्राणघातिनी क्लेशमय वेदना अक अनुभव नहीं करते । ज्ञानदाता पुरुष मोहपर और दीपदान करनेवाले अन्धकारपर विजय पाते हैं । जो झूठी गवाही देते, झूठ बोलते, अधर्म का उपदेश देते और वेदों की निंदा करते हैं, वे सब लोग मूर्च्छाग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त होते है ।
ऐसे लोगों की मृत्यु के समय यमराज के दुष्ट दूत हाथों में हथौड़ी एवं मुद्रर लिये आते हैं; वे बड़े भयंकर होते है और उनकी देहसे दुर्गन्ध निकलती रहती है । उन यमदूतोंपर दृष्टि पड़ते ही मनुष्य काँप उठता हैं और भ्राता, माता तथा पुत्रों का नाम लेकर बारंबार चिल्लाने लगता हैं । उस समय उसकी वाणी स्पष्ट समझ में नहीं आती । एक ही शब्द, एक ही आवाज-सी जा पडती हैं । भय के मारे रोगी की आँखे झुमने लगती है और उसका मुख सूख जाता हैं । उसकी साँस ऊपर को उठने लगती है । दृष्टि की शक्ति भी नष्ट हो जाती है । फिर वह अत्यंत वेदना से पीड़ित होकर उस शरीर को छोड़ देता है और वायु के सहारे चलता हुआ वैसे ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता हैं जो रूप, रंग और अवस्था में पहले शरीर के समान ही होता हैं । वह शरीर माता-पिता के गर्भ से उत्पन्न नहीं, कर्मजनित होता हैं और यातना भोगने के लिये ही मिलता हैं; उसीसे यातना भोगनी पडती है । तदनंतर यमराज के दूत शीघ्र ही उसे दारुण पाशों से बाँध लेते हैं । मृत्युकाल आनेपर जीव को बड़ी वेदना होती है, जिससे वह अत्यंत व्याकुल हो जाता हैं । उस समय सब भूतों से उसके शरीर का सम्बन्ध टूट जाता हैं । प्राणवायु कंठतक आ जाती हैं और जीव शरीर से निकलते समय जोर-जोर से रोता है । माता, पिता, भाई, मामा, स्त्री, पुत्र, मित्र और गुरु – सबसे नाता छुट जाता है । सभी सगे-सम्बन्धी नेत्रों में आँसू भरे दु:खी होकर उसे देखते रह जाते है और वह अपने शरीर को त्यागकर यमलोक के मार्गपर वायुरूप होकर चला जाता है ।
वह मार्ग अन्धकारपूर्ण, अपार, अत्यंत भयंकर तथा पापियों के लिये अत्यंत दुर्गम होता है । यमदूत पाशों में बाँधकर उसे खींचते और मुद्ररों से पीटते हुए उस विशाल पथपर ले जाते हैं । यमदूतों के अनेक रूप होते हैं । वे देखने में बड़े डरावने और समस्त प्राणियों को भय पहुँचानेवाले होते है । उनके मुख विकराल, नासिका टेढ़ी, आँखे तीन, ठोड़ी, कपोल और मुख फैले हुए तथा ओठ लंबे होते हैं । वे अपने हाथों में विकराल एवं भयंकर आयुध लिये रहते हैं । उन आयुधों से आग की लपटें निकलती रहती हैं । पाश, साँकल और डंडे से भय पहुँचानेवाले, महाबली, महाभयंकर यमकिंकर यमराज की आज्ञा से प्राणियों की आयु समाप्त होनेपर उन्हें लेने के लिये आते हैं । जीव यातना भोंगने के लिये अपने कर्म के अनुसार जो भी शरीर ग्रहण करता ई, उसे ही यमराज के दूत यमलोक में ले जाते हैं । वे उसे कालपाश में बाँधकर पैरों में बेडी डाल देते हैं । बेडी की साँकल वज्र के समान कठोर होती है । यमकिंकर क्रोध में भरकर उस बंधे हुए जीव को भलीभांति पीटते हुए ले जाते हैं । वह लडखडाकर गिरता हैं, रोता हैं और ‘हाय बाप ! हाय मैया ! हाय पुत्र !’ कहकर बारंबार चीखता-चिल्लाता है; तो भी दूषित कर्मवाले उस पापी को वे तीखे शुलों, मुद्वरो, खड्ग और शक्ति के प्रहारों और वज्रमय भयंकर डंडों से घायल करके जोर-जोर से डाँटते है । कभी-कभी तो एक-एक पापी को अनेक यमदूत चारों ओरसे घेरकर पीटते हैं । बेचारा जीव दुःख से पीड़ित हो मुर्च्छित होकर इधर-उधर गिर पड़ता हैं; तथापि वे दूत उसे घसीटकर ले जाते हैं । कही भयभीत होते, कही त्रास पाते, कहीं लडखडाते और कहीं दुःख से करुण क्रन्दन करते हुए जीवों को उस मार्ग से जाना पड़ता है । यमदूतों की फटकार पड़ने से वे उद्दिग्न हो उठते हैं और भय से विव्हल हो काँपते हुए शरीर से दौड़ ने लगते हैं । मार्गपर कही काँटे बिछे होते हैं और कुछ दुरतक तपी हुई बालू मिलती है ।
जिन मनुष्यों ने दान नहीं किया है, वे उस मार्गपर जलते हुए पैरों से चलते हैं । जीवहिंसक मनुष्य के सब ओर मरे हुए बकरों की लाशें पड़ी होती है, जिनकी जली और फटी हुई चमड़ी से मेढे और रक्त की दुर्गन्ध आती रहती हैं । वे वेदनासे पीड़ित हो जोर-जोर से चीखते-चिल्लाते हुए यममार्ग की यात्रा करते हैं । शक्ति, भिन्दिपाल, खड्ग, तोमर, बाण और तीखी नोक्वाले शुलों से उनका अंग-अंग विदीर्ण कर दिया जाता हैं । कुत्ते, बाघ, भेडिये और कौएं उनके शरीर का मांस नोच-नोचकर खाते रहते हैं । मांस खानेवाले लोग उस मार्गपर चलते समय आरे से चीरे जाते हैं, सूअर अपनी दाढो से उनके शरीर को विदीर्ण कर देते हैं ।
जो अपने ऊपर विश्वास करनेवाले स्वामी, मित्र अथवा स्त्री की हत्या कराते हैं, वे शस्त्रोंद्वारा छिन्न-भिन्न और व्याकुल होकर यमलोक के मार्गपर जाते हैं । जो निरपराध जीवों को मारते और मरवाते हैं, वे राक्षसों के ग्रास बनकर उस पथ से यात्रा करते हैं । जो परायी स्त्रियों के वस्त्र उतारते हैं, वे मरनेपर नंगे करके दौड़ते हुए यमलोक में लाये जाते हैं । जो दुरात्मा पापाचारी अन्न, वस्त्र, सोने, घर और खेत का अपहरण करते हैं, उन्हें यमलोक के मार्गपर पत्थरों, लाठियों और डंडों से मारकर जर्जर कर दिया जाता हैं और वे अपने अंग-प्रत्यंग से प्रचुर रक्त बहाते हुए यमलोक में जाते हैं । जो नराधम नरक की परवा न करके इस लोक में ब्राह्मण का धन हडप लेते, उन्हें मारते और गालियाँ सुनाते हैं, उन्हें सूखे काठ में बाँधकर उनकी आँखे फोड़ दी जाती और नाक-कान काट लिये जाते हैं । फिर उनके शरीर में पिब और रक्त पोत दिए जाते हैं तथा काल के समान गीध और गीदड़ उन्हें नोच-नोचकर खाने लगते हैं । इस दशामें भी क्रोध में भरे हुए भयानक यमदूत उन्हें पीटते हैं और वे चिल्लाते हुए यमलोक के पथपर अग्रसर होते हैं ।
इसप्रकार वह मार्ग बड़ा भी दुर्गम और अग्नि के समान प्रज्वलित हैं । उसे रौरव (जीवों को रुलानेवाला) कहा गया है । वह नीची-ऊँची भूमिसे युक्त होने के कारण मानवमात्र के लिये अगम्य हैं । तपाये हुए ताँबे की भांति उसका वर्ण हैं । वहाँ आग की चिनगारियाँ और लपटें दिखायी देती हैं । वह मार्ग कंटकों से भरा हैं । शक्ति और वज्र आदि आयुधो से व्याप्त है । ऐसे कष्टप्रद मार्गपर निर्दयी यमदूत जीव को घसीटते हुए ले जाते हैं और उन्हें सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से मारते रहते हैं । इस तरह पापासकत अन्यायी मनुष्य विवश होकर मार खाते हुए दुर्धर्ष यमदूतों के द्वारा यमलोक में ले जाए जाते हैं । यमराज के सेवक सभी पापियों को उस दुर्गम मार्ग में अवहेलनापूर्वक ले जाते हैं । वह अत्यंत भयंकर मार्ग जब समाप्त हो जाता हैं, तब यमदूत पापी जीव को ताँबे और लोहे की बनी हुई भयंकर यमपुरी में प्रवेश कराते है ।
वह पूरी बहुत विशाल है, उसका विस्तार लाख योजन का है । वह चौकोर बतायी जाती है । उसके चार सुंदर दरवाजे हैं । उसको चहारदीवारी सोने की बनी हैं, जो दस हजार योजन ऊँची हैं । यमपुरी का पुर्वद्वार बहुत ही सुंदर हैं । वहाँ फहराती हुई सैकड़ों पताकाएँ उसकी शोभा बढाती हैं । हीरे, नीलम, पुखराज और मोतियोंसे वह द्वार सजाया जाता हैं । वहाँ गन्धर्वों और अप्सराओं के गीत और नृत्य होते रहते हैं । उस द्वार से देवताओं, ऋषियों, योगियों, गन्धर्वो, सिद्धों, यक्षों और विद्याधरों का प्रवेश होता हैं । उस नगर का उत्तरद्वार घंटा, छत्र, चंवर तथा नाना प्रकार के रत्नों से अलंकृत हैं । वहाँ वीणा और वेणु की मनोहर ध्वनि गूँजती रहती है । गीत, मंगल-गान तथा ऋग्वेद आदि के सुमधुर शब्द होते रहते हैं । वहाँ महर्षियों का समुदाय शोभा पाता हैं । उस द्वारसे उन्हीं पुण्यात्माओं का प्रवेश होता हैं, जो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं । जिन्होंने गर्मी में दूसरों को जल पिलाया और सर्दी में अग्नि का सेवन कराया हैं, जो थके-मांदे मनुष्यों की सेवा करते और सदा प्रिय वचनबोलते हैं, जो दाता, शूर और माता-पिता के भक्त हैं तथा जिन्होंने ब्राह्मणों की सेवा और अतिथियों का पूजन किया हैं, वे भी उत्तरद्वार से ही पूरी में प्रवेश करते हैं ।
यमपुरी पश्चिम महाद्वार भांति-भांति के रत्नों से विभूषित हैं । विचित्र-विचित्र मणियों की वहाँ सीढ़ियाँ बनी है । देवता उस द्वार की शोभा बढाते रहते हैं । वहाँ भेरी, मृदंग और शंख आदि वाद्यों की ध्वनि हुआ करती हैं । सिद्धों के समुदाय सदा हर्ष में भरकर उस द्वारपर मंगल-गान करते हैं । जो मनुष्य भगवान शिव की भक्ति में संलग्न रहते हैं, जो सब तीर्थों में गोते लगा चुके हैं, जिन्होंने पंचाग्नि का सेवन किया हैं, जो किसी उत्तम तीर्थस्नान में अथवा कालिंजर पर्वतपर प्राणत्याग करते हैं और जो स्वामी, मित्र अथवा जगत का कल्याण करने के लिये एवं गौओं की रक्षा के लिये मारे गये हैं, वे शूरवीर और तपस्वी पुरुष पश्चिमद्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं । उस पूरी का दक्षिणद्वार अत्यंत भयानक हैं । वह सम्पूर्ण जीवों के मन में भय उपजानेवाला हैं । वहाँ निरंतर हाहाकार मचा रहता हैं । सदा अँधेरा छाया रहता हैं । उस द्वारपर तीखे सींग, काँटे, बिच्छु, साँप, वज्रमुख कीट, भेडिये, व्याघ्र, रींछ, सिंह, गीदड़, कुत्ते, बिलाव और गीध उपस्थित रहते हैं । उनके मुखोंसे आग की लपटें निकला करती हैं । जो सदा सबका अपकार करनेवाले पापात्मा हाँ, उन्ही का उस मार्ग से पूरी में प्रवेश होता हैं । जो ब्राह्मण, गौ, बालक, वृद्ध, रोगी, शरणागत, विश्वासी, स्त्री, मित्र और निहथ्ये मनुष्य की हत्या कराते हैं, अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करते हैं, दूसरों के धनका अपहरण करते हैं, धरोहर हडप लेते हैं, दूसरों को जहर देते और उनके घरों में आग लगाते हैं, परायी भूमि, गृह, शय्या, वस्त्र और आभूषण की चोरी करते हैं, दूसरों के छिद्र देखकर उनके प्रति क्रूरता का बर्ताव करते हैं, सदा झूठ बोलते हैं , ग्राम, नगर तथा राष्ट्र को महान दुःख देते हैं, झूठी गवाही देते, कन्या बेचते, अभक्ष्य भक्षण करते, पुत्री और पुत्रवधू के साथ समागम करते, माता-पिताको कटुवचन सुनाते तथा अन्यान्य प्रकार के महापातकों में संलग्न रहते हैं, वे सब दक्षिण द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं ।
अध्याय- 87 यमलोक के दक्षिण द्वार तथा नारको का वर्णन
मुनियों ने पूछा – तपोधन ! पापी मनुष्य दक्षिणमार्ग से यमपुरी में किस प्रकार प्रवेश करते हैं? यह हम सुनना चाहते हैं । आप विस्तारपूर्वक बतलाइये ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! दक्षिणद्वार अत्यंत घोर और महाभयंकर हैं । मैं उसका वर्णन करता हूँ । वहाँ सदा नाना प्रकार के हिंस्त्र जन्तुओं और गीदड़ियों के शब्द होते रहते हैं । वहाँ दूसरों का पहुंचना असम्भव हैं । उसे देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं । भुत, प्रेत, पिशाच और राक्षसों से यह द्वार सदा ही घिरा रहता हैं । पापी जिव दूर से ही उस द्वार को देखकर त्रास से मुर्च्छित हो जाते हैं और विलाप-प्रलाप करने लगते हैं । तब यमदूत उन्हें साँकलों से बाँधकर घसीटते और निर्भय होकर डंडों से पीटते हैं । साथ ही डाँटते-फटकारते भी रहते हैं । होश में आनेपर वे खून से लथपथ हो पग-पगपर लडखडाते हुए दक्षिणद्वार को जाते हैं । मार्ग में कहीं तीखे काँटे होते हैं और खी छुरेकी धार के समान तीक्ष्ण पत्थरों के टुकड़े बिछे होते हैं । कही कीचड़-ही-कीचड़ भरी रहती है और कहीं ऐसे-ऐसे गड्डे होते हैं, जिनको पार करना सम्भव-सा होता हैं । कहीं वृक्षों से भरे हुए पर्वत होते हैं, जो किनारोंपर झरने गिरते रहने से दुर्गम प्रतीत होते हैं और कहीं-कहीं तपे हुए अंगारे बिछे होते हैं । ऐसे मार्ग से दु:खी होकर पापी जीवों को यात्रा करनी पडती हैं । कहीं दुर्गम गर्त्त, कहीं चिकने ढेले, कहीं तपायी हुई बालू और कहीं तीखें काँटे होते हैं । कहीं दावानल प्रज्वलित रहते हैं । कहीं तपी हुई शिला हैं तो कहीं जमी हुई बर्फ । कहीं इतनी अधिक बालू हैं कि उस मार्ग से जानेवाला जीव उसमें आकण्ठ डूब जाता हैं । कहीं दूषित जल से और कहीं कंडे की आगसे वह मार्ग भरा रहता हैं । कहीं सिंह, भेडिये,बाघ, डांस और भयानक कीड़े डेरा डाले रहते हैं । कहीं बड़ी-बड़ी जों के और अजगर पड़े रहते हैं । भयंकर मक्खियाँ, विषैले साँप और दुष्ट एवं बलोंमत्त हाथी सताया करते हैं । खुरों से मार्ग को खोदते हुए तीखे सींगोंवाले बड़े-बड़े सांड, भैसे और मतवाले ऊँट सबको कष्ट देते हैं । भयानक डाईनों और भीषण रोगों से पीड़ित होकर जीव उस मार्ग से यात्रा करते हैं ।
कही धुलमिश्रित प्रचंड वायु चलती हैं, जो पत्थरों की वर्षा करके निराश्रय जीवों को कष्ट पहुँचाती रहती है; कहीं बिजली गिरने से शरीर विदीर्ण हो जाता हैं; कहीं बड़े जोर से बाणों की वर्षा होती है, जिससे सब अंग छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । कहीं-कहीं बिजली को गडगडाहट के साथ भयंकर अँगारों की वर्षा हुआ करती हैं, जिससे जलते हुए पापी जीव आगे बढ़ते हैं । कभी जोर-जोर से धूल की वर्षा होने के कारण शरीर भर जाता हैं और जीव रोने लगते हैं । मेघों की भयंकर गर्जना से बारंबार तरस पहुँचाता रहता हैं । बाण वर्षा से घायल हुए शरीरपर खारे जल की धारा गिरायी जाती है और उसकी पीड़ा सहन करते हुए जीव आगे बढ़ते हिन् । कहीं-कहीं अत्यंत शीतल हवा चलने के कारण अधिक सर्दी पडती हैं तथा कहीं रुखी और कठोर वायु का सामना करना पड़ता हैं; इससे पापी जीवों के अंग-अंग में बिवाई फट जाती हैं । वे सुख ने और सिकुड़ ने लगते हैं । ऐसे मार्ग से, जहाँ न तो राह-खर्च के लिये कुछ मिल पाता हैं और न कोई सहारा ही दिखायी देता हैं, पापी जीवों को यात्रा करनी पडती हैं । सब ओर निर्जल और दुर्गम प्रदेश दृष्टिगोचर होता हैं । बड़े परिश्रम से पापी जीवों को यात्रा करनी पडती है । सब ओर निर्जल और दुर्गम प्रदेश दृष्टिगोचर होता हैं । बड़े परिश्रम से पापी जीव यमलोकतक पहुँच पाते हैं । यमराज की आज्ञा का पालन करनेवाले भयंकर यमदूत उन्हें बलपूर्वक ले जाते हैं । वे एकाकी और पराधीन होते हैं । साथ में न कोई मित्र होता हैं न बन्धु । वे अपने-अपने कर्मों को सोचते हुए बारंबार रोते रहते है । प्रेतों का-सा उनका शरीर होता हैं । उनके कंठ, ओठ और लालू सूखे रहते हैं । वे शरीर से अत्यंत दुर्बल और भयभीत हो क्षुधाग्नि की ज्वाला से जलते रहते हैं । कोई साँकल में बँधे होते हैं । किन्हीको उतान सुलाकर यमदूत उनके दोनों पैर पकडकर घसीटते हैं और कोई नीचे मुँह करके घसीटे जाते हैं । उससमय उन्हें अत्यंत दुःख होता हैं । उन्हें खाने को अन्न और पीने को पानी नहीं मिलता । वे भूख-प्यास से पीड़ित हो हाथ जोड़ दीनभाव से आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में बारंबार याचना करते और ‘दीजिये-दीजिये’ की रट लगाये रहते हैं । उनके सामने सुगन्धित पदार्थ, दही, खीर, घी, भात, सुगंधयुक्त पेय और शीतल जल प्रस्तुत होते हैं । उन्हें देखकर वे बारंबार उनके लिये याचना करते हैं ।
उससमय यमराज के दूत क्रोध में लाल आँखे करके उन्हें फटकारते हुए कठोर वाणी में कहते हैं – ‘ओ पापियों ! तुमने समयपर अग्निहोत्र नही किया, स्वयं ब्राह्मणों को दान नहीं दिया और दूसरों को भी उन्हें दान देते समय बलपूर्वक मना किया; उसी पाप का फल तुम्हारे सामने उपस्थित हुआ है । तुम्हारा धन आगमन नहीं जला था, जल में नहीं नष्ट हुआ था, राजाने नहीं छीना था और चोरों ने भी नही चुराया था । नराधमों ! तो भी तुमने जब पहले ब्राह्मणों को दान नहीं दिया हैं, तब इससमय तुम्हें कहाँ से कोई वस्तु प्राप्त हो सकती हैं । जिन साधू पुरुषों ने सात्त्विकभाव से नाना प्रकार के दान किये हैं, उन्हीं के लिये ये पर्वतों के समान अन्न के ढेर लगे दिखायी देते हैं । इनमें भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य और चोष्य – सब प्रकार के खाद्य पदार्थ हैं । तुम इन्हें पाने की इच्छा न करो, क्योंकि तुमने किसी प्रकार का दान नही दिया है । जिन्होंने दान, होम, यज्ञ और ब्राह्मणों का पूजन किया है, उन्हीं का अन्न ले आकर सदा यहाँ जमा किया जाता हैं । नारकी जीवो ! यह दूसरों की वस्तु हम तुम्हें कैसे दे सकते हैं ।’
यमदूतों की यह बात सुनकर वे भूख-प्यास से पीड़ित जीव उस अन्न की अभिलाषा छोड़ देते हैं । तदनंतर यमदूत उन्हें भयानक अस्त्रों से पीड़ा देते हैं । मुद्रर, लोहदंड, शक्ति, तोमर, पट्टिश, परिघ, भिन्दिपाल, गदा, फरसा और बाणों से उनकी पीठपर प्रहार किया जाता हैं और सामने की ओर से सिंह तथा बाघ आदि उन्हें काट खाते हैं । इसप्रकार के पापी जीव न तो भीतर प्रवेश कर पाते हैं और न बाहर ही निकल पाते हैं । अत्यंत दु:खित होकर करुणक्रंदन किया करते हैं । इस प्रकार वहाँ भलीभांति पीड़ा देकर यमराज के दूत उन्हें भीतर प्रवेश कराते और उस स्थानपर ले जाते हैं; जहाँ सबका संयमन (नियन्त्रण) करनेवाले धर्मात्मा यमराज रहते हैं । वहाँ पहुँचकर वे दूत यमराज को उन पापियों के आने की सुचना देते अहिं और उनकी आज्ञा मिलनेपर उन्हें उनके सामने उपस्थित करते हैं । तब पापाचारी जीव भयानक यमराज और चित्रगुप्त को देखते हैं । यमराज उन पापियों को बड़े जोर से फटकारते हैं और चित्रगुप्त धर्मयुक्त वचनों से पापियों को समझाते हुए कहते हैं – ‘पापाचारी जीवो ! तुमने दूसरों के धन का अपहरण किया है और अपने रूप और वीर्य के घमंड में आकर परायी स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया है । जीव स्वयं जो कर्म करता हैं – यह जानते हुए भी तुमने अपना विनाश करने के लिये यह पापकर्म क्यों किया ? अब क्यों शोक करते हो । अपने कुकर्मों से ही तुम पीड़ित हो रहे हो । तुमने अपने कर्मोंद्वारा जिन दु:खों का उपार्जन किया है, उन्हें भोगो । इसमें किसीका कुछ दोष नही हैं । ये जो राजालोग मेरे समीप आए हुए है, इन्हें भी अपने बलका बड़ा घमंड था । ये अपने घोर दुष्कर्मोद्वारा यहाँ लाये गये हैं । इनकी बुद्धि बहुत ही खोटी थी ।’ तत्पश्चात यमराज राजाओं की ओर दृष्टिपात करके कहते हैं – ‘अरे औ दुराचारी नरेशो ! तुमलोग प्रजा का विध्वंस करनेवाले हो । थोड़े दिनोंतक रहनेवाले राज्य के लिये तुमने क्यों भयंकर पाप किया ? राजाओ ! तुमने राज्य के लोभ, मोह, बल तथा अन्याय से जो प्रजाओं को कठोर दंड दिया है, उसका यथोचित फल इससमय भोगो । कहाँ गया वह राज्य । कहाँ गयी वे रानियाँ, जिनके लिये तुमने पापकर्म किये हैं । उन सबको छोडकर यहाँ तुमलोग एकाकी – असहाय होकर खड़े हो । यहाँ वह सारी सेना नहीं दिखायी देती, जिसके द्वारा तुमने प्रजाका दमन किया है । इस समय यमदूत तुम्हारे अंग-अंग फाड़े डालते हैं । देखो तो, उस पापका अब कैसा फल मिल रहा हैं ।’
इसप्रकार यमराज के उपालभ्ययुक्त अनेक वचन सुनकर वे राजा अपने-अपने कर्मों का विचार करते हुए चुपचाप खड़े रह जाते हैं । तब उनके पापों की शुद्धि के लिये धर्मराज अपने सेवकों को इसप्रकार आज्ञा देते हैं – ‘ओ चंड ! ओ महाचंड ! इन राजाओं को पकडकर ले जाओ और क्रमश: नरक की अग्नि में तपाकर इन्हें पापों से मुक्त करो ।’ धर्मराज की आज्ञा पाते ही यमदूत राजाओं के दोनों पैर पकडकर वेग से घुमाते हुए उन्हें ऊपर फेंक देते हैं और फिर लौटकर उनके पापों की मात्रा के अनुसार उन्हें बड़ी-बड़ी शिलाओंपर देरतक पटकते रहते हैं, मानो वज्रसे किसी महान वृक्षपर प्रहार करते हों । इससे पापी जीव का शरीर जर्जर हो जाता है । उसके चेतना लुप्त हो जाती हैं और वह हिलने-डुलने में भी असमर्थ हो जाता हैं । तदनन्तर शीतल वायु क स्पर्श होनेपर धीरे-धीरे पुन: वह सचेत हो उठता है । तब यमराज के दूत उसे पापों की शुद्धि के लिये नरक में डाल देते हैं । एकसे निवृत्त होनेपर वे दूसरे-दूसरे पापियों के विषय में यमराज से निवेदन करते हैं – ‘देव ! आपकी आज्ञा से हम दूसरे पापी को भी ले आये हैं । यह सदा धर्म से विमुख और पापपरायण रहा है । यह दुराचारी व्याध है । इसने महापातक और उपपातक सभी किये हैं । यह अपवित्र मनुष्य सदा दूसरे जीवों की हिंसा में संलग्न रहा है । यह जो दुष्टात्मा खड़ा है, अगम्या स्त्रियों के साथ समागम करनेवाला हैं, इसने दूसरे के धन का भी अपहरण किया है । यह कन्या बेचनेवाला, झूठी गवाही देनेवाला, कृतघ्न तथा मित्रों को धोखा देनेवाला है । इस दुरात्माने मदोन्मत्त होकर सदा धर्म की निंदा की है, मर्त्यलोक में केवल पाप का ही आचरण किया हैं । देवेश्वर ! इससमय इसको दंड देना है या इसपर अनुग्रह करना है, यह बताइये । क्योंकि आप ही निग्रहानुग्रह करने में समर्थ है । हमलोग तो केवल आज्ञापालक हैं ।’
यों निवदेन करके वे दूत पापीको यमराज के सामने उपस्थित कर देते हैं और स्वयं दूसरे पापियों को लाने के लिये चल देते हैं । जब पापीपर लगाये गये दोष की सिद्धि हो जाती हैं, तब यमराज अपने भयंकर सेवकों को उन्हें दंड देने के लिये आदेश देते हैं । वसिष्ठ आदि महर्षियों ने जिसके लिये जो दंड नियत किया है, उसी के अनुसार वे यमकिंकर पापी को दंड प्रदान करते हैं । अंकुश, मुद्रर, डंडे, आरे, शक्ति, तोमर, खड्ग और शुलों के प्रहार से पापियों को विदीर्ण कर डालते हैं । अब नरकों के भयंकर स्वरूप का वर्णन सुनो ।
महावीचि नामक नरक रक्त से भरा रहता हैं । उसमें वज्र के समान काँटे होते हैं । उसका विस्तार दस हजार योजन है । उसमें डूबा हुआ पापी जीव काँटों में विन्धकर अत्यंत कष्ट भोगता है । गौओं का वध करनेवाला मनुष्य उस भयंकर नरक में एक लाख वर्षोतक निवास करता हैं ।
कुम्भीपाक का विस्तार सौ लाख योजन है । वह अत्यंत भयंकर नरक है । वहाँ की भूमि तपाये हुए ताँबे के घड़ों से भरी रहने के कारण अत्यंत प्रज्वलित दिखायी देती हैं । वहाँ गरम-गरम बालू और अँगारे बिछे होते हैं । ब्राह्मण की हत्या तथा पृथ्वी का अपहरण करनेवाले और धरोहर को हहड़प लेनेवाले पापी उस नरक में डालकर प्रलयकालतक जलाये जाते हैं ।
तदनंतर रौरव नामक नरक हैं , जो प्रज्वलित वज्रमय बाणों से व्याप्त रहता हैं । उसका विस्तार साथ हजार योजन का है । उस नरक में गिराये हुए मनुष्य जलते हुए बाणों से बिंधकर यातना भोगते हैं । झूठी गवाही देनेवाले मनुष्य उसमें ईख की भांति पेरे जाते हैं ।
उसके बाद मंजूष नामक नरक हैं, जो लोहे से बना हुआ है । वह सदा प्रज्वलित रहता हैं । उसमें वे ही डालकर जलाये जाते हैं, जो दूसरों को निरपराध बंदी बनाते हैं ।
अप्रतिष्ठ नामक नरक पीब, मूत्र और विष्ठाका भंडार है । उसमें ब्राह्मण को पीड़ा देनेवाला पापी नीचे मुँह करके गिराया जाता हैं ।
विलेपक नामका घोर नरक लाह की आगसे जलता रहता हैं । उसमें मदिरा पीनेवाले द्विज डालकर जलाये जाते हैं ।
महाप्रभ नामसे विख्यात नरक बहुत ऊँचा है । उसमें चमकता हुआ शूल गड़ा होता है । जो लोग पति-पत्नी में भेद डालते हैं, उन्हें वहीं शूल से छेदा जाता हैं ।
उसके बाद जयंती नामक अत्यंत घोर नरक हैं, जहाँ लोहे की बहुत बड़ी चट्टान पड़ी रहती है । परायी स्त्रियों के साथ सम्भोग करनेवाले मनुष्य उसी के नीचे दबाये जाते हैं ।
शाल्मल नरक जलते हुए सुदृढ़ काँटों से व्याप्त हैं । जो स्त्री अनेक पुरुषों के साथ सम्भोग करती है, उसे उस शाल्मल नामक वृक्ष का आलिंगन करना पड़ता हैं । उस समय वह पीड़ा से व्याकुल हो उठती हैं । जो लोग सदा झूठ बोलते और दूसरों के मर्म को चोट पहुँचानेवाली वाणी मुँह से निकालते हैं, मृत्यु के बाद उनकी जिव्हा यमदूतोंद्वारा काट ली जाती हैं । जो आसक्ति के साथ कटाक्षपूर्ण परायी स्त्री की ओर देखते हैं, यमराज के दूत बाण मारकर उनकी आँखे फोड़ देते हैं । जो लोग माता, बहिन, कन्या और पुत्रवधू के साथ समागम तथा स्त्री, बालक और बूढों की हत्या करते हैं, उनकी भी यही दशा होती हैं; वे चौदह इन्द्रों की आयुपर्यन्त नरकयातना में पड़े रहते हैं ।
महारौरव नामक नरक ज्वालाओं से परिपूर्ण तथा अत्यंत भयंकर हैं, उसका विसार चौदह हजार योजन है । जो मूढ़ नगर, गाँव, घर अथवा खेत में आग लगाते हैं, वे एक कल्पतक उस नरक में पकाये जाते हैं ।
तामिस्त्र नरक का विस्तार एक लाख योजन है । वहाँ सदा खड्ग, पट्टिश और मुद्ररों की मार पडती रहती हैं । इससे वह बड़ा भयंकर जान पड़ता हैं । यमराज के दूत चोरों को उसी में डालकर शूल, शक्ति, गदा और खड्ग से उन्हें तीन सौ कल्पोंतक पीटते रहते हैं ।
महातामिस्त्र नामक नरक और भी दुःखदायी हैं । उसका विस्तार तामिस्र की अपेक्षा दूना हैं । उसमें जोंके भरी हुई हैं और निरंतर अन्धकार छाया रहता हैं । जो माता, पिता और मित्र की हत्या करनेवाले तथा विश्वासघात की हैं, वे जबतक यह पृथ्वी रहती है, तबतक उसमें पड़े रहते हैं और जोंके निरंतर उनका रक्त चूसती रहती हैं ।
असिपत्रवन नामक नरक तो बहुत ही कष्ट देनेवाला है । उसका विस्तार दस हजार योजन है । उसमें अग्नि के समान प्रज्वलित खड्ग पत्तों के रूप में व्याप्त हैं । वहाँ गिराया हुआ पापी खड्ग की धार के समान पत्तोद्वारा क्षत-विक्षत हो जाता है । उसके शरीर में सैकड़ों घाव हो जाते हैं । मित्रघाती मनुष्य उसमें एक कल्पतक रखकर काटा जाता हैं ।
करम्भबालूका नामक नरक दस हजार योजन विस्तीर्ण हैं । उसका आकर कुएँ की तरह हैं । उसमें जलती हुई बालू, अँगारे और काँटे भरे हुए हैं । जो भयंकर उपायोंद्वारा किसी मनुष्य को जला देता हैं, वह उक्त नरक में एक लाख दस हजार तीन सौ वर्षोतक जलाया और विदीर्ण किया जाता हैं ।
काकोल नामक नरक कीड़ों और पीब से भरा रहता हैं । जो दुष्टात्मा मानव दूसरों को न देकर अकेला ही मिष्टान्न उड़ाता हैं, वह उसी में गिराया जाता हैं ।
कुड्मल नरक विष्ठा, मूत्र और रक्त से भरा होता हैं । जो लोग पंचयज्ञों का अनुष्ठान नहीं करते, वे उसीमें गिराये जाते हैं ।
महाभीम नरक अत्यंत दुर्गन्धयुक्त मांस व रक्त से पूर्ण है । अभक्ष्य-भक्षण करनेवाले नीच मनुष्य उसमें गिरते बहुत-से कीटों से व्याप्त रहता हैं । जो मनुष्य अपनी कन्या बेचता हैं, यह नीचे मुँह करके उसमे गिराया जाता हैं ।
तिलपाक नामसे प्रसिद्ध नरक बहुत ही भयंकर बताया गया हैं । जो लोग दूसरों को पीड़ा देते हैं, वे उसमें तिल की भांति पेरे जाते हैं ।
तैलपाक नरक में खौलता हुआ तेल भूमिपर बहता रहता हैं । जो मित्रों तथा शरणागतों की हत्या करते हैं, वे उसीमें पकाये जाते हैं ।
वज्रकपाट नरक वज्रमयी श्रुंखला से व्याप्त रहता हैं । जिन लोगों ने दूध बेचनेका व्यवसाय किया हैं, उन्हें वहाँ निर्दयतापूर्वक पीड़ा दी जाती है ।
निरुच्छवास नरक अंधकार से पूर्ण और वायु से रहित होता है । जो ब्राह्मण को दिये जानेवाले दान में रुकावट डालता हैं, वह निश्चेष्ट करके उसमें डाल दिया जाता हैं ।
महापायी नरक का विस्तार एक लाख योजन हैं । जो सदा उसीमें डाल दिया जाता हैं ।
महाज्वाल नामक नरक सदा आग की लपटों से प्रकाशित एवं भयंकर होता हैं । जो मनुष्य पाप में मन लगाते हैं, ऊन्हें दीर्घकालतक उसीमें जलाया जाता हैं ।
क्रकच नामक नरक में वज्र की धार की समान तीखे आरे लगे होते हैं । उसमें अगम्या स्त्री के साथ समागम करनेवाले मनुष्यों को उन्ही आरों से चीरा जाता हैं ।
गुडपाक नरक खौलते हुए गुड के अनेक कुंडों से व्याप्त हैं । जो मनुष्य वर्णसंकरता फैलाता है, वह उसी में डालकर जलाया जाता हैं ।
क्षुरधार नामक नरक तीखे उस्तुरों से भरा रहता हैं । जो लोग ब्राह्मणों की भूमि हडप लेते हैं, वे एक कल्पतक उसी में डालकर काटे जाते हैं ।
अम्बरीष नामक नरक प्रलयाग्निके समान प्रज्वलित रहता हैं । सुवर्ण की चोरी करनेवाला मनुष्य करोड़ कल्पोंतक उसमे दग्ध किया जाता हैं ।
वजकुठार नामक नरक वज्र से व्याप्त हैं । पेड़ काटनेवाले पापी मनुष्य उसीमें डालकर काटे जाते हैं ।
परिताप नामक नरक भी प्रलायाग्नि से उद्दीप्त रहता हैं । विष देने तथा मधु की चोरी करनेवाला पापी उसी में यातना भोगता हैं ।
कालसूत्र नरक वज्रमय सूत से निर्मित है । जो लोग दूसरों की खेती नष्ट करते हैं, वे उसीमें घुमाये जाते हैं, जिससे उनका अंग छिन्न-भिन्न हो जाता हैं ।
कश्मल नरक मुख और नाक के मल से भरा होता हैं । मॉस की रूचि रखनेवाला मनुष्य उसमें एक कल्पतक रखा जाता हैं ।
उग्रगंध नामक नरक लार, मूत्र और विष्ठासे भरा होता हैं । जो पितरों को पिंड नहीं देते, वे उसी नरक में डाले जाते हैं ।
दुर्धर नरक जोंकों और बिच्छूओं से भरा रहता हैं । सूदखोर मनुष्य उसमें दस हजार वर्षोतक पड़ा रहता हैं ।
वज्रमहापीड नामक नरक वज्र से ही निर्मित हैं । जो दूसरों के धन-धान्य और सुवर्ण की चोरी करते हैं, उन्हें उसी में डालकर यातना दी जाती हैं । यमदूत उन चोरों को छूरों से क्षण-क्षणपर काटते रहते हैं । जो मुर्ख किसी प्राणी की हत्या करके उसे कौए और गृध्र की भांति खाते हैं, उन्हें एक कल्पतक अपने ही शरीर का मांस खाना पडता हैं । जो दूसरों के आसन, शय्या और वस्त्र का अपहरण करते हैं, उन्हें यमदूत शक्ति और तोमरों से विदीर्ण करते हैं । जिन खोटी बुद्धिवाले पुरुषों ने लोगों के फल अथवा पत्ते भी चुराये हैं, उन्हें क्रोध से भरे हुए यमदूत तिनकों की आगमें जला डालते हैं । जो मनुष्य पराये धन और परायी स्त्री के प्रति सदा दूषित भाव रखता हैं, यमदूत उसकी छाती में जलता हुआ शूल गाड़ देते है । जो मानव मन, वाणी और क्रियाद्वारा धर्म से विमुख रहते हैं, उन्हें यमलोक में बड़ी भयंकर यातना भोगनी पडती है । इसप्रकार लाखों, करोड़ों और अरबों नरक हैं, जहाँ पापी मनुष्य अपने कर्मों का फल भोगते हैं । इस लोक में थोडासा भी पापकर्म करनेपर यमलोक में भयंकर नरक के भीतर घोर यातना सहनी पडती हैं । मूढ़ मनुष्य साधू पुरुषोद्वारा बताये हुए धर्मयुक्त वचनों को नहीं सुनतें । जब कोई उनसे परलोक की चर्चा करता है, तब वे झट यही उत्तर देते है – किसने स्वर्ग और नरक को प्रत्यक्ष देखा हैं । ऐसे लोग दिन-रात प्रयत्नपूर्वक पाप करते हैं । धर्म का आचरण तो वे भूलकर भी नहीं करते । इसप्रकार जो इसी लोक में कर्मों के फल का भोग होता मानते हैं, परलोक के प्रति जिनकी तनिक भी आस्था नहीं है, ऐसे नराधम भयंकर नरकों में पड़ते हैं । नरक का निवास अत्यंत दुःखदायी और स्वर्गवास सुख देनेवाला हैं । मनुष्य शुभकर्म करने से स्वर्ग पाते हैं और अशुभकर्म करके नरकों में पड़ते हैं ।
अध्याय- 88 धर्म से यमलोक में सुख पूर्वक गति भगवत भक्ति के प्रभाव का वर्णन
मुनियों ने कहा – अहो ! यमलोक के मार्ग में तो बड़ा भयंकर दुःख होता है । सधुश्रेष्ठ ! आपने उन दु:खों के साथ ही घोर नरकों तथा दक्षिणद्वार का भी वर्णन किया । ब्रह्मन ! उस भयानक मार्ग में कष्टों से बचने का कोई उपाय हैं या नही ? यदि है तो बताइये, किस उपाय से मनुष्य यमलोक में सुखपूर्वक जा सकते हैं ?
व्यासजी ने कहा – मुनिवरो ! जो लोग इस लोकमें धर्मपरायण हो अहिंसा का पालन करते, गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहते और देवता तथा ब्राह्मणों की पूजा करते हैं, वे स्त्री और पुत्रोंसहित जिस प्रकार उस मार्ग से यात्रा करते हैं, वह बतलाता हूँ । उपर्युक्त पुण्यात्मा पुरुष सुवर्णमय ध्वजाओं से सुशोभित भांति-भांति के दिव्य विमानोंपर आरूढ़ हो धर्मराज के नगर में जाते हैं । जो ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक नाना पराक्र की वस्तुएँ दान में देते हैं, वे उस महान पथपर सुख से यात्रा करते हैं । जो ब्राह्मणों को, बाह्मणों में भी विशेषत: श्रीत्रियों को अत्यंत भक्तिपूर्वक उत्तम रीति से तैयार किया हुआ अन्न देते हैं , वे सुसज्जित विमानोंद्वारा धर्मराज के नगर में जाते हैं । जो सदा सत्य बोलते और बाहर-भीतर से शुद्ध रहते हैं, वे भी देवताओं के समान कान्तिमान शरीर धारणकर विमानोंद्वारा यमराज के भवन में जाते हैं । जो धर्मज्ञ पुरुष जीविकारहित दिन-दुर्बल साधुओं को भगवान विष्णु के उद्देश्य से पवित्र गोदान करते हैं, वे मणिजटित दिव्य विमानोंद्वारा धर्मराज के लोक में जाते हैं । जो जूता, छाता, शय्या, आसन, वस्त्र और आभूषण दान करते हैं, वे दिव्य आभूषणों स अलंकृत हो हाथी, रथ और घोड़ों की सवारी से वहाँ की यात्रा करते हैं । उनके ऊपर सोने-चांदी का छत्र लगा रहता हैं । जो श्रेष्ठ ब्राह्मणों को विशुद्ध ह्रदय से भक्तिपूर्वक गुड़का रस और भात देते हैं, वे सुवर्णमय वाहनोंद्वारा यमलोक में जाते हैं । जो ब्राह्मणों को यत्नपूर्वक शुद्ध एवं सुसंस्कृत दूध, दही, घी और गुड दान करते हैं, वे चक्रवाक पक्षियों से जुड़े हुए सुवर्णमय विमानोंद्वारा यात्रा करते हैं । उससमय गन्धर्वगण वाद्योंद्वारा उनकी सेवा करते हिन् । जो सुगन्धित पुष्प दान करते हैं, वे हंसयुक्त विमानों से धर्मराज के नगर को जाते हैं । जो क्षोत्रिय ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक तिल, तिलमयी धेनु अथवा घृतमयी धेनु दान करते हैं, वे चंद मंडल के समान उज्ज्वल विमानोंद्वारा यमराज के भवन में प्रवेश करते हैं । उससमय गंधर्वगण उनका सुयश गाते रहते हैं । इस लोक में जिनके बनवाये हुए कुएँ, बावडी, तालाब, सरोवर, दीर्घिका, पुष्करिणी तथा शीतल जलाशय शोभा पाते हैं, वे दिव्य घंटानाद से मुखरित, सुवर्ण और चन्द्रमा के समान कान्तिमान विमानोद्वारा यात्रा करते हैं । मार्ग में उन्हें सुख देने के लिये दिव्य पंखे डुलाये जाते हैं । जो लोग समस्त प्राणियों के जीवनभुत जलका दान करते हैं, वे पिपासा से रहित हो दिव्य विमानोंपर बैठकर सुखपूर्वक उस महान पथ की यात्रा करते हैं । जिन्होंने ब्राह्मणों को लकड़ी की बनी खडाऊं, सवारी, पीढ़ा और आसन दान किये हैं, वे उस मार्ग में सुख से जाते हैं । वे विमानोंपर बैठकर सोने और मणियों के बने हुए उत्तम पिढोपर पैर रखकर यात्रा करते हैं ।
जो मनुष्य दूसरों के उपकार के लिये फल और पुष्पों से सुशोभित विचित्र उद्यान लगाते हैं, वे वृक्षोंकी रमणीय एवं शीतल छाया में सुखपूर्वक यात्रा करते हैं । जो लोग सोना, चाँदी, मूँगा तथा मोती दान करते हैं, वे सुवर्णनिर्मित उज्ज्वल विमानोंपर बैठकर यमलोक में जाते हैं । भूमिदान करनेवाले पुरुष सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तुओं से तृप्त हो उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी विमानोंपर बैठकर देदीप्यमान शरीर से धर्मराज के नगर को जाते हैं । जो बाह्मणों के लिये भक्तिपूर्वक उत्तम गंध, अगर, कपूर, पुष्प और धूप का दान करते हैं, वे मनोहर गंध, सुंदर वेष, उत्तम कान्ति और श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित हो विचित्र विमानोंद्वारा धर्मनगर की यात्रा करते हैं । दीप-दान करनेवाले मनुष्य अग्नि के तुल्य प्रकाशमान होकर सूर्य के समान तेजस्वी विमानोंद्वारा दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए चलते हैं । जो गृह अथवा रहने के लिये स्थान देते हैं, वे अरुणोदयकी-सी कान्तिवाले सुवर्णमंडित गुर्हों के साथ धर्मराज के नगर में जाते हैं ।
जो ‘पापहरे !’ इत्यादि का उच्चारण करके गौ को मस्तक झुकाते हैं, वह सुख से यमलोक के मार्गपर आगे बढ़ता हैं । जो शठता और दम्भ का परित्याग करके एक समय भोजन करते हैं, वे हंसयुक्त विमानोंद्वारा सुखपूर्वक यमलोक की यात्रा करते हैं । जो जितेन्द्रिय पुरुष एक दिन उपवास करके दूसरे दिन एक समय भोजन करते हैं, वे मोरों से जुड़े हुए विमानोंद्वारा धर्मराज के नगर में जाते हैं । जो नियमपूर्वक व्रत का पालन करते हुए तीसरे दिन एक समय भोजन करते हैं, वे हाथियों से जुड़े हुए दिव्य रथोंपर आसीन हो यमराज के लोक में जाते अं । जो नित्य पवित्र रहकर इन्द्रियों को वश में रखते हुए छठे दिन आहार ग्रहण करते हैं, वे साक्षात शचीपति इंद्र के समान ऐरावत की पीठपर बैठकर यात्रा करते हैं । जो एक पक्षतक उपवास करके अन्न ग्रहण करते हैं, वे बाघों से जुड़े हुए विमानोंद्वारा धर्मराज के नगर में जाते हैं । उससमय देवता और असुर उनकी सेवा में उपस्थित रहते हैं । जो जितेन्द्रिय रहकर एक मासतक उपवास करते हैं, वे सूर्य के समान देदीप्यमान रथोपर बैठकर यमलोक की यात्रा करते हैं । जो स्त्री अथवा गौ की रक्षा के लिये युद्ध प्राणत्याग करता हैं, वह सूर्य के समान कान्तिमान शरीर धारण करके देवकन्याओंद्वारा सेवित हो धर्मनगर की यात्रा करता है ।
जो भगवान विष्णु में भक्ति रखते हुए जितेन्द्रियभाव से तीर्थों की यात्रा करते हैं, वे सुखदायक विमानों से सुशोभित हो उस भयंकर पथ की यात्रा करते हैं । जो श्रेष्ठ द्विज प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा भगवान का यजन करते हैं, वे तपाये हुए सुवर्णसदृश विमानोंद्वारा सुखपूर्वक यमलोक में जाते हैं । जो दूसरों को पीड़ा नहीं देते और भृत्यों का भरण-पोषण करते हैं, वे सुवर्णनिर्मित उज्ज्वल विमानोंपर बैठकर सुखसे यात्रा करते है । जो समस्त प्राणियों के प्रति क्षमाभाव रखते, सबको अभय देते, क्रोध, मोह और मद से मुक्त रहते तथा इन्द्रियों को वश में रखते हैं, वे महान तेजसे सम्पन्न हो पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रकाशमान विमानपर बैठकर यमराज की पूरी में जाते हैं । उससमय देवता और गन्धर्व उनकी सेवामे खड़े रहते हैं । जो सत्य और पवित्रता से युक्त रहकर कभी भी मांसाहार नही करते, वे बी धर्मराज के नगर में सुखसे ही यात्रा करते हैं । जो एक हजार गौओं का दान करता है और जो कभी मांस भक्षण नही करता, वे दोंनो समान हैं – यह बात पूर्वकाल में वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ साक्षात ब्रह्माजी ने कही थी । ब्राह्मणों ! सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने से जो पुण्य होता हैं और समस्त यज्ञों के अनुष्ठान से जिस फल की प्राप्ति होती हैं, वही या उसके समान फल मांस न खाने से भी प्राप्त होता हैं । इसप्रकार दान और व्रत में तत्पर रहनेवाले धर्मात्मा पुरुष विमानोंद्वारा सुखपूर्वक यमलोक में जाते हैं, जहाँ सूर्यनंदन यम विराजमान रहते हैं । धार्मिक पुरुषों को देखकर यमराज स्वयं ही स्वागतपूर्वक उन्हें आसन देते और पाद्य, अर्घ्य तथा प्रिय वचनोंद्वारा उनका सम्मान करते हैं । वे कहते हैं – पुण्यात्मा पुरुषो ! आपलोग धन्य हैं । आप अपने आत्माका कल्याण करनेवाले महात्मा हैं, क्योंकि आपने दिव्य सुख के लिये शुभकर्मों का अनुष्ठान किया है । अब इस विमानपर बैठकर उस अनुपम स्वर्गलोक को जाइये, जहाँ समस्त कामनाएँ पूर्ण होती हैं । वहाँ महान भोगो माँ उपभोग करके अंत में पुण्य क्षीण होनेपर जो थोडा अशुभ कर्म शेष रहेगा, उसका फल यहाँ आकर भोगियेगा ।
धर्मात्मा पुरुष अपने पुण्यों के प्रभाव से धर्मराज को कोमल ह्रदयवाले अपने पिता के तुल्य देखते हैं, इसलिये धर्म का सदा सेवन करना चाहिये । धर्म मोक्षरूप फल को देनेवाला हैं । धर्म से ही अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि बतायी गयी हैं । धर्म ही माता-पिता और भ्राता हैं, धर्म ही अपना रक्षक और सुह्रद हैं । स्वामी, सखा, पालक तथा धारण-पोषण करनेवाला धर्म ही हैं । धर्मसे अर्थ, अर्थ से काम और कामसे भोग एवं सुख उपलब्ध होते है । धर्म से ही ऐश्वर्य, एकाग्रता और उत्तम स्वर्गीय गति प्राप्त होती हैं । विप्रवरो ! धर्म का यदि सेवन किया जाय तो वह मनुष्य की महान भय से रक्षा करता हैं । इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि धर्म से देवत्त्व और ब्राह्मणत्त्व भी प्राप्त हो सकते हैं । जब मनुष्यों के पूर्वसंचित पाप नष्ट हो जाते हैं, तब उनकी बुद्धि इस लोक में धर्म की ओर लगती है ।हजारों जन्मों के पश्चात दुर्लभ मनुष्य जीवन को पाकर जो धर्म का आचरण नहीं करता, वह निश्चय ही सौभाग्य से वंचित है । जो लोग कुत्सित, दरिद्र, कुरूप, रोगी, दूसरों के सेवक और मुर्ख है, उन्होंने पूर्वजन्म में धर्म नहीं किया हैं – ऐसा जानना चाहिये । जो दीर्घायु, शूरवीर, पंडित, भोगसाधन से सम्पन्न, धनवान, नीरोग तथा रूपवान हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में अवश्य ही धर्म का अनुष्ठान किया है । ब्राह्मणों ! इसप्रकार धर्मपरायण मनुष्य उत्तम गति को प्राप्त होते हैं और अधर्म का सेवन करनेवाले लोग पशु-पक्षियों की योनि में जाते हैं ।
जो मनुष्य नरकासुर का विनाश करनेवाले भगवान वासुदेव के भक्त है, वे स्वप्न में भी यमराज अथवा नरकों को नहीं देखते । जो दैत्यों और दानवों का संहार करनेवाले आदि-अंतरहित भगवान नारायण को प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, वे भी यमराज को नहीं देखते । जो मन, वाणी और क्रिया के द्वारा भगवान अच्युत की शरण में चले गये हैं, उनपर यमराज का वश नही चलता । वे मोक्षरूप फल के भागी होते हैं । ब्राह्मणों ! जो मनुष्य प्रतिदिन जगन्नाथ श्रीनारायण को नमस्कार करते है, वे वैकुण्ठधाम के सिवा अन्यत्र नही जाते । श्रीविष्णु को नमस्कार करके मनुष्य यमदूतों को, यमलोक के मार्ग को, यमपुरी को तथा वहाँ के नरकों को किसीप्रकार नहीं देख पाते । मोह में पडकर अनेकों बार पाप कर लेनेपर भी यदि मानव सर्वपापहारी श्रीहरि को नमस्कार करते हैं तो वे नरक में नही पड़ते । जो लोग शठतासे भी सदा भगवान जनार्दन का स्मरण करते हैं, वे भी देहत्याग के पश्चात रोग-शोक से रहित श्रीविष्णुधाम को प्राप्त होते हैं । अत्यंत क्रोध में आसक्त होकर भी जो कभी श्रीहरि के नामों का कीर्तन करता हैं, वह भी चेदिराज शिशुपाल की भांति सम्पूर्ण दोषों का क्षय हो जानेसे मोक्ष को प्राप्त करता हैं ।
अध्याय- 89 धर्म की महिमा एवं अधर्म की गति का निरूपण अन्न दान का माहात्म्य
मुनियों ने कहा – भगवन ! आप सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता तथा सब शास्त्रों के ज्ञान में निपुण हैं । कृपया बताइये पिता, माता, गुरु, पुत्र, जातिवाले, सम्बन्धी और मित्रवर्ग – इनमें से कौन मरनेवाले प्राणी का विशेष सहायक होता है ? लोग तो मृतक के शरीर को काठ और मिटटी के ढेले की भांति छोडकर चल देते हैं, फिर परलोक में कौन उसके साथ जाता हैं ?
व्यासजी बोले – विप्रवरो ! प्राणी अकेल ही जन्म लेता, अकेला ही मरता, अकेला ही दुर्गम संकटों को पार करता और अकेला ही दुर्गति में पड़ता हैं । पिता, माता, भ्राता, पुत्र, गुरु, जातिवाले, सम्बन्धी तथा मित्रवर्ग – इनमे से कोई भी मरनेवाले का साथ नहीं देता । घर के लोग मृत व्यक्ति के शरीर को काठ और मिटटी के ढेले की भांति त्याग देते और दो घड़ी रोकर उससे मुँह मोडकर चले जाते हैं । वे सब लोग तो त्याग देते हैं, किन्तु धर्म उसका त्याग नही करता । वह अकेला ही जीव के साथ जाता हैं, अत: धर्म ही सच्चा सहायक है । इसलिये मनुष्यों को सदा धर्म का सेवन करना चाहिये । धर्मयुक्त प्राणी उत्तम स्वर्गगति को प्राप्त होता हैं, इसीप्रकार अधर्मयुक्त मानव नरक में पड़ता हैं; अत: विद्वान पुरुष पाप से प्राप्त होनेवाले धन में अनुराग न रखे । एकमात्र धर्म ही मनुष्यों का सहायक बताया गया हैं । बहुत-से शास्त्रों का ज्ञाता मनुष्य भी लोभ, मोह, घृणा अथवा भय से मोहित होकर दूसरे के लिये न करने योग्य कार्य भी कर डालता है । धर्म, अर्थ और काम – तीनों ही इस जीवन के फल है । अधर्म-त्यागपूर्वक इन तीनों की प्राप्ति करनी चाहिये ।
मुनियों ने कहा – भगवन ! आपका यह धर्मयुक्त वचन, जो परम कल्याण का साधन हैं, हमने सुना । अब हम यह जानना चाहते हैं कि यह शरीर किन तत्त्वों का समूह हैं । मनुष्यों का मर हुआ शरीर तो स्थूल से सूक्ष्म – अव्यक्तभाव को प्राप्त हो जाता हैं, वह नेत्रों का विषय नही रह जाता, फिर धर्म कैसे उनके साथ जाता है ?
व्यासजी बोले – पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन, बुद्धि और आत्मा – ये सदा साथ रहकर धर्मपर दृष्टी रखते हैं । ये समस्त प्राणियों के शुभाशुभ कर्मों के निरंतर साक्षी रहते हैं । इनके साथ धर्म जीव का अनुसरण करता हैं । जब शरीर से प्राण निकल जाता है, तब त्वचा, हड्डी, मांस, वीर्य और रक्त भी उस शरीर को छोड़ देते हैं । उससमय जीव धर्म से युक्त होनेपर ही इस लोक और परलोक में सुख एवं अभ्युदय को प्राप्त होता हैं ।
मुनियों ने पूछा – भगवन ! आपने यह भलीभांति समझा दिया कि धर्म किस प्रकार जीवका अनुसरण करता हैं । अब हम यह जानना चाहते हैं कि (शरीर के कारणभूत) वीर्य की उत्पत्ति कैसे होती है ।
व्यासजी ने कहा – द्विजवरो ! शरीर में स्थित जो पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज और मनके अधिष्ठाता देवता है, वे जब अन्न ग्रहण करते हैं और उससे मनसहित पृथ्वी आदि पाँचो भुत तृप्त होते है, तब उस अन्न से शुद्ध वीर्य बनता हैं । उस वीर्य में कर्मप्रेरित जीव आकर निवास करता हैं । फिर स्त्रियों के रज में मिलकर वह समयानुसार जन्म ग्रहण करता हैं । पुण्यात्मा प्राणी इस लोक में जन्म लेनेपर जन्मकाल से ही पुण्यकर्म का उपभोग करता हैं । वह धर्म के फल का आश्रय लेता हैं । मनुष्य यदि जन्म से ही धर्मका सेवन करता हैं तो सदा सुख का भागी होता है । यदि बीच-बीचमें कभी धर्म और कभी अधर्म का सेवन करता हैं तो वह सुख के बाद दुःख भी पाटा हैं । पापयुक्त मनुष्य यमलोग में जाकर महान कष्ट उठाने के बाद पुन: तिर्यग्योनि में जन्म लेता हैं ।
मोहयुक्त जीव जिस-जिस कर्म से जिस-जिस योनि में जन्म लेता हैं, उसे बतलाता हूँ; सुनो !
# परायी स्त्री के साथ सम्भोग करने से मनुष्य पहले तो भेड़िया होता है; फिर क्रमश: कुत्ता, सियार, गीध, साँप, कौआ और बगुला होता हैं ।
# जो पापात्मा कामसे मोहित होकर अपनी भौजाई के साथ बलात्कार करता हैं, वह एक वर्षतक नर-कोकिल होता हैं ।
# मित्र, गुरु तथा राजा की पत्नी के साथ समागम करने से कामात्मा पुरुष मरने के बाद सूअर होता हैं । पाँच वर्षोतक सूअर रहकर मरने के बाद दस वर्षोतक बगुला, तीन महीनोंतक चीटी और एक मासतक किट की योनि में पड़ा रहता हैं । इन सब योनियों में जन्म लेने के बाद वह पुन: कृमियोनि में उत्पन्न होता और चौदह महीनोंतक जीवित रहता हैं । इस प्रकार अपने पूर्वपापों का क्षय करने के बाद वह फिर मनुष्ययोनि जन्म लेता हैं ।
# जो पहले एक को कन्या देने की प्रतिज्ञा करके फिर दूसरे को देना चाहता है, वह भी मरनेपर कीड़े की योनि में जन्म पाता है । उस योनि में वह तेरह वर्षोतक जीवित रहता हैं । फिर अधर्म का क्षय होनेपर वह मनुष्य होता है ।
# जो देवकार्य अथवा पितृकाय न करके देवताओं और पितरों को संतुष्ट किये बिना ही मर जाता है, वह कौआ होता है । सौ वर्षोतक कौएकी योनि में रहने के बाद वह मुर्गा होता हैं । तत्पश्चात एक मासतक सर्प की योनि में निवास करता हैं । उसके बाद वह मनुष्य होता हैं ।
# जो पिता के समान बड़े भाईका अपमान करता है, वह मृत्यु के बाद क्रौंच – योनि में जन्म लेता हैं और दस वर्षोतक जीवन धारण करता हैं । तत्पश्चात मरनेपर वह मनुष्य होता है । शूद्रजातीय पुरुष ब्राह्मणी के साथ समागम करनेपर कीड़े की योनि में जन्म लेता हैं । उससे मृत्यु होनेपर वह सूअर होता हैं । सूअर की योनि में जन्म लेते ही रोग से उनकी मृत्यु हो जाती है । तदनंतर वह मुर्ख पूर्वोक्त पाप के ही फलस्वरूप कुत्ते की योनि में उत्पन्न होता है । उसके बाद उसे मानव-शरीर की प्राप्ति होती है । मानवयोनि में सन्तान उत्पन्न करके वह मर जाता हैं और चूहे का जन्म पाता है ।
# कृतघ्न मनुष्य मृत्यु के बाद जब यमराज के लोक में जाता है, उससमय क्रूर यमदूत उसे बाँधकर भयंकर दंड देते है । उस दंड से उसको बड़ी वेदना होती है । दंड, मुद्रर, शूल. भयंकर अग्निदंड, असिपत्रवन, तप्तवालुका तथा कूटशाल्मलि आदि अन्य बहुत-सी घोर यातनाओं का अनुभव करके वह संसारचक्र में आता और कीड़े की योनि में जन्म लेता है; पन्द्रह वर्षोतक कीड़ा रहने के बाद मानव-गर्भ में आकार वहाँ जन्म लेने के पहले ही मर जाता हैं ।
# इसप्रकार सैकड़ो बार गर्भ में मृत्युका कष्ट भोगकर अनेक बार संसार-बंधन में पड़ता हैं । तत्पश्चात वह पशु-पक्षियों की योनि में जन्म लेता हैं । उसमें बहुत वर्षोतक कष्ट उठाकर अंत में वह कछुआ होता है ।
# दही की चोरी करने से मनुष्य बगुला और मेढक होता हैं ।
# फल, मूल अथवा पुआ चुराने से वह चीटी होता हैं । जल की चोरी करने से कौआ और काँसा चुराने से हारित (हरियल) पक्षी होता है ।
# चांदी का वर्तन चुरानेवाला कबूतर और सुवर्णमय पात्र का अपहरण करने से कृमियोंनि में जन्म लेता पड़ता हैं ।
# रेशम का कीड़ा चुराने से मनुष्य वानर होता है । वस्त्र की चोरी करने से तोते की योनि में जन्म होता है । साडी चुरानेवाला मनुष्य मरने के बाद हंस होता हैं । रुई का वस्त्र हडप लेनेवाला मानव मृत्यु के पश्चात क्रौंच होता हैं । सनका वस्त्र, ऊनी वस्त्र तथा रेशमी वस्त्र चुरानेवाला मनुष्य खरगोश होता हैं ।
# चूर्ण की चोरी करने से मनुष्य दूसरे जन्म में मोर होता हैं । अंगराग और सुगंध की चोरी करनेवाला लोभी मनुष्य छछूंदर होता है । उस योनि में पन्द्रह वर्षोतक जीवित रहने के बाद जब पापका क्षय हो जाता हैं, तब वह मनुष्य-योनि में जन्म ग्रहण करता हैं ।
# जो स्त्री दूध की चोरी करती है, वह बगुली होती है ।
# जो नीच पुरुष स्वयं सशस्त्र होकर वैर से अथवा धन के लिये किसी शस्त्रहीन पुरुष की हत्या करता हैं, वह मरनेपर गदहा होता है । गदहे की योनि में दो वर्षोतक जीवित रहने के बाद वह शस्त्रद्वारा मारा जाता है, फिर मृग की योनि में जन्म लेकर सदा उद्गिग्न बना रहता हैं । मृगयोनि में एक वर्ष बीतनेपर वह बाण का निशाना बन जाता हैं, फिर मछली की योनि में जन्म ले वह जाल में फँसा लिया जाता हैं । चार महीने बीतनेपर वह शिकारी कुत्ते के रूप में जन्म लेता हैं । दस वर्षोतक कुत्ता रहकर पाँच वर्षोतक व्याघ्र की योनि में रहता हैं । फिर कालक्रम से पापों का क्षय होनेपर मनुष्य-योनि में जन्म ग्रहण करता हैं ।
# जो मनुष्य खलीमिश्रित अन्न का अपहरण करता है, वह भयंकर चूहा होता है । उसका रंग नेवले- जैसा भूरा होता हैं । वह पापात्मा प्रतिदिन मनुष्यों को डंसता रहता हैं ।
# घी की चोरी करनेवाला दुर्बुद्धि मानव कौआ और बगुला होता है । नमक चुराने से चिरिकाक नामक पक्षी होना पड़ता हैं ।
# जो मनुष्य विश्वासपूर्वक रखी हुई धरोहर को हडप लेता हैं, वह मृत्यु के बाद मछली की योनि में जन्म लेता हैं । उसके पश्चात मृत्यु होनेपर फिर मनुष्य होता हैं । मानव-योनि में भी उसकी आयु बहुत ही थोड़ी होती है ।
ब्राह्मणों ! मनुष्य पाप करके तिर्यग्योनिमें जाता हैं, जहाँ उसे धर्म का कुछ भी ज्ञान नही रहता । जो मनुष्य पाप करके व्रतोंद्वारा उसका प्रायश्चित करते है, वे सुख और दुःख दोनों से युक्त होते हैं । लोभ-मोह से युक्त पापाचारी मनुष्य निश्चय ही म्लेच्छयोनि में जन्म लेते थाई । जो लोग जन्म से ही पापका परित्याग करते हैं, वे नीरोग रूपवान और धनी होते हैं । स्त्रियाँ भी ऊपर बताये अनुसार कर्म करने से पाप की भागिनी होती हैं और पापयोनि में पड़े हुए पूर्वोक्त पापियों की ही पत्नी बनती हैं । द्विजवरो ! चोरी के प्राय: सभी दोष बता दिये गये । यहाँ जो कुछ कहा गया हैं, वह बहुत संक्षिप्त हैं; फिर कभी कथा-वार्ता का अवसर आनेपर तुमलोग इस विषय को विस्तारपूर्वक सुन सकते हो । पूर्वकाल में देवर्षियों की सभा में उनके प्रश्नानुसार ब्रह्माजी ने जो कुछ कहा था, वह सब मैंने तुमलोगों को बतलाया हैं । ये सब बाते सुनकर तुम धर्म के अनुष्ठान में मन लगाओ ।
मुनि बोले – ब्रह्मन ! आपने अधर्म की गतिका निरूपण किया, अब हम धर्म की गति सुनना चाहते हैं । किस कर्म के अनुष्ठान से मनुष्य की सदगति होती है ?
व्यासजी ने कहा – ब्राह्मणों ! जो मोहवश अधर्म का अनुष्ठान कर लेनेपर उसके लिये पुन: सच्चे ह्रदय से पश्चाताप करता और मन को एकाग्र रखता हैं, वह पापका सेवन नहीं करता । ज्यों-ज्यों मनुष्य का मन पाप-कर्म की निंदा करता हैं, त्यों-त्यों उसका शरीर उस अधर्म से दूर होता जाता हैं । यदि धर्मवादी ब्राह्मणों के सामने अपना पाप कह दिया जाय तो वह उस पापजनित अपराध से शीघ्र मुक्त हो जाता हैं । मनुष्य जैसे-जैसे अपने अधर्म की बात बारंबार प्रकट करता हैं, वैसे-ही-वैसे वह एकाग्रचित्त होकर अधर्म को छोड़ता जाता है । जैसे साँप केचुल छोड़ता है, उसी प्रकार वह पहले के अनुभव किये हुए पापों का त्याग करता हैं । एकाग्रचित्त होकर ब्राह्मण को नाना प्रकार के दान दें । जो मन को ध्यान में लगाता हैं, वह उत्तम गति को प्राप्त करता हैं ।
बाह्मणों को सरलतापूर्वक सब प्रकार के अन्नों का दान करे । अन्न ही मनुष्यों का जीवन है । उसीसे जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति होती हैं । अन्न में ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं, अत: अन्न को श्रेष्ठ बताया जाता है न। देवता, ऋषि, पितर और मनुष्य अन्न की ही प्रशंसा करते हैं, क्योंकि अन्नदान से मनुष्य स्वर्गलोक को प्राप्त होता है । स्वाध्यायशील ब्राह्मणों को प्रसन्नचित्त से अन्नदान को दस ब्राह्मण भोजन कर लेते हैं, वह कभी पशु-पक्षी आदि की योनि में नहीं पड़ता । सदा पापों में संलग्न रहनेवाला मनुष्य भी यदि दस हाज ब्राह्मणों को भोजन करा दे तो वह अधर्म से मुक्त हो जाता हैं । वेदों का अध्ययन करनेवाला ब्राह्मण भिक्षा से अन्न ले आकर यदि किसी स्वाध्यायशील ब्राह्मण को दान कर दे तो वह संसार में सुख और समृद्धि का भागी होता हैं । जो क्षत्रिय ब्राह्मण के धन को हानि न पहुँचाकर न्यायत: प्रजा का पालन करते हुए अन्न का उपार्जन करता हैं और उसे एकाग्रचित्त होकर श्रोत्रिय ब्राह्मणों को दान देता है, वह धर्मात्मा हैं और उस पुण्य के जल से अपने पापपंख को धो डालता हैं । अपने द्वारा उपार्जित खेती के अन्न में से छठा भाग राजा को देने के बाद जो शेष शुद्ध भाग बच जाता है, वह अन्न यदि वैश्य ब्राह्मण को दान करे तो वह सब पापों से मुक्त हो जाता हैं । जो शुद्र प्राणों को संशय में डालकर और नाना प्रकारकी कठिनाइयों को सहकर भी अपने द्वारा उपार्जित शुद्ध अन्न को ब्राह्मणों के निमित्त दान करता हैं, वह भी पापों से छुटकारा पा जाता है ।जो मनुष्य वेदवेत्ता ब्राह्मण को हर्षपूर्वक अन्नका दान करता हैं उसका पाप छुट जाता है । सत्पुरुषों के मार्गपर चलने से सब पाप दूर हो जाते हैं । दानवेत्ता पुरुषों ने जो मार्ग बताया है और जिसपर मनीषी पुरुष चलते हैं, वही अन्नदाताओं का भी मार्ग हैं । उन्हीं से सनातन धर्म है । अन्नदान से मनुष्य गति और परमगति को प्राप्त होता हैं । इस लोक में उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण होती है और मृत्यु के बाद भी वह सुख का भागी होता है ।
इसप्रकार पुण्यवान मनुष्य पापों से मुक्त होता हैं । अत: अन्यायरहित अन्न का दान करना चाहिये । जो ग्रहस्थ सदा प्राणाग्निहोत्रपूर्वक अन्न-भोजन करता हैं, वह अन्नदान से प्रत्येक दिन को सफल बनाता हैं । जो मनुष्य वेद, न्याय, धर्म और इतिहास के ज्ञाता सौ विद्वानों को प्रतिदिन भोजन कराता हैं, वह घोर नरक में नही पड़ता और संसार बंधन में भी नहीं बँधता, अपितु सम्पूर्ण कामनाओं से तृप्त हो मृत्यु के बाद सुख का भागी होता है । इसप्रकार पुण्यकर्म से युक्त मनुष्य निश्चित होकर आनंद का भागी होता है । उसे रूप, कीर्ति और धन की प्राप्ति होती है । ब्राह्मणों ! इसप्रकार मैंने तुम्हें अन्नदान का महान फल बतलाया । यह सभी धर्मों और दानों का मूल है ।
अध्याय- 90 श्राद्ध-कल्पका वर्णन
मुनियोंने पूछा- भगवन् ! अब श्राद्ध-कल्पका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगोंको किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिये-यह बतानेकी कृपा करें।
व्यासजी बोले- मुनिवरो ! सुनो, मैं श्राद्धकल्पका विस्तारके साथ वर्णन करता हूँ। जब, जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगोंद्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिये, वह सब बतलाता हैं।
अपने कुलोचित धर्मका पालन करनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंको उचित है। कि वे अपने-अपने वर्णके अनुरूप वेदोक्त विधिसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक श्राद्धका अनुष्ठान करें।
स्त्रियों और शूद्रोंको ब्राह्मणको आज्ञाके अनुसार मन्त्रोच्चारणके बिना ही विधिवत् श्राद्ध करना चाहिये। उनके लिये अग्निमें होम आदि वर्जित हैं।
पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वतशिखर, पावन प्रदेश, पुण्यसलिला नदी, नद्, सरोवर, संगम, सात समुद्रोंके तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षोंके मूल और यज्ञ कुण्ड-ये सभी उत्तम स्थान हैं। इन सबमें श्राद्ध करना चाहिये।
अब श्राद्ध के लिये वर्जित स्थान बतलाता हैं। किरात (किलात), कलिङ्ग (उड़ीसा), कोङ्कण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तङ्गण, क्रथ, सिन्धु नदीका उत्तर तट, नर्मदाका दक्षिण तट और करतोयाका पृर्व तट-इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिये।
प्रत्येक मासकी अमावास्या और पूर्णिमाको श्राद्धके योग्य काल बताया गया है।
नित्यश्राद्धमें विश्वेदेवोंका पूजन नहीं होता। नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवोंके पूजनपूर्वक होता है।
नित्य, नैमित्तिक और काम्य-ये तीन प्रकारके श्राद्ध माने गये हैं। इन तीनोंका प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिये।
जातकर्म आदि संस्कारोंके अवसरपर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करनेका विधान है। आभ्युदयिक श्राद्ध मातासे आरम्भ होता है।
जब सूर्य कन्याराशिपर जाते हैं, तब कृष्णपक्षके पंद्रह दिनोंतक पार्वणको विधिसे श्राद्ध करना चाहिये।
प्रतिपदाको श्राद्ध करनेसे धनकी प्राप्ति होती है। द्वितीया संतान देनेवाली हैं। तृतीया पुत्रप्राप्तिको अभिलाषा पूर्ण करती है। चतुर्थी शत्रुका नाश करनेवाली है। पञ्चमीको श्राद्ध करनेसे मनुष्य लक्ष्मीको प्राप्त करता है और षष्ठीको श्राद्ध करके वह पूजनीय होता है। सप्तमीको गणोंका आधिपत्य, अष्टमीको उत्तम बुद्धि, नौवमीको स्त्री, दशमीको मनोरथको पूर्णता और एकादशीको श्राद्ध करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण वेदोंको प्राप्त करता है। द्वादशीको पितरों की पूजा करनेवाला मानव विजय-लाभ करता है। त्रयोदशीको श्रद्धासहित श्राद्ध करनेवाला पुरुष संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतन्त्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्यका भागी होता है-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
जिसके पितर युवावस्था ही मृत्युको प्राप्त हुए अथवा शस्त्रद्वारा मारे गये हों, वे इन पितरोंको तृप्त करनेकी इच्छासे चतुर्दशी तिथिको श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो पुरुष पवित्र होकर अमावास्याको बलपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्गको प्राप्त करता है।
मुनिवरो ! अब पितरों को प्रसन्नताके लिये जो-जो वस्तु देनी चाहिये, उसका वर्णन सुनो। जो श्राद्धकर्ममें गुडमिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है।
पितर कहते हैं-‘ क्या हमारे कुलमें ऐसा कोई पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षामें और मघा नक्षत्रमें हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा? मनुष्योंको बहुत-से पुत्रोंकी अभिलाषा करने चाहिये। यदि उनमें से एक भी गया चला जाय अथवा कन्याका विवाह करे या नील वर्षका उत्सर्ग करे तो पितरोंको पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।’ कृत्तिका नक्षत्रमें पितरोंकी पुजा करनेवाला मानव स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। संतानकी इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणीमें श्राद्ध करे । मृगशिरामें श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है। आद्रामें शौर्य और पुनर्वसुमें स्त्रीकी प्राप्ति होती है; पुष्यमें अक्षय धन, आश्लेषामें उत्तम आयु, मघामें संतान और पुष्टि तथा पूर्वाफाल्गुनौमें सौभाग्यको प्राप्ति होती है। उत्तराफाल्गुनीमें श्राद्ध करनेवाला मनुष्य संतानवान् और श्रेष्ठ होता है। हस्त नक्षत्रमें श्राद्ध करनेसे शास्त्रज्ञानमें श्रेष्ठता प्राप्त होती है। चित्रामें रूप, तेज और संतति मिलती है। स्वातीमें श्राद्ध करनेसे व्यापारमें लाभ होता है। विशाखा पुश्की अभिलाषा पूर्ण करनेवाली हैं। अनुराधामें श्राद्ध करनेसे चक्रवर्ती-पदकी प्राप्ति होती है। ज्येष्ठामें श्राद्धसे प्रभुत्व प्राप्त होता हैं। मूलमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष उत्तम आरोग्य लाभ करता है। पूर्वाषाढ़ नक्षत्रमें यशकी प्राप्ति होती है। उत्तराषाढ़ामें श्राद्धसे शोक दूर होता है। श्रवणमें श्राद्धके अनुष्ठानसे शुभ लोक प्राप्त होते हैं। धनिष्ठामें श्राद्धसे अधिक धनका लाभ होता है। अभिजित्में श्राद्धसे वेदोंकी विद्वत्ता प्राप्त होती है। शराभिषामें पितरोंकी पूजा करनेसे वैद्यकके कार्यमें सिद्धि प्राप्त होती है। पूर्वाभाद्रपदामें श्राद्धसे भेड़ और बकरी तथा उत्तराभाद्रपदामें गौएँ प्राप्त होती हैं। रेवतीमें आद्धका अनुष्ठान करनेसे जस्ता आदि धातुओंकी तथा अश्विनीमें घोड़ोंकी प्राप्ति होती है। भरणी नक्षत्रमें श्राद्ध करनेवाला पुरुष उत्तम आयु प्राप्त करता हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष उक्त नक्षत्रोंमें श्राद्ध करनेपर ऐसे ही फलके भागी होते हैं।
अतः अक्षय फलको इच्छा रखनेवाले पुरुषको कन्याराशिपर सूर्यके रहने उक्त नक्षत्रोंमें काम्य झाका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये ।
सूर्यके कन्याराशिपर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओंका चिन्तन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं।
जब सूर्य कन्याराशिपर स्थित हों, तब नन्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिये, क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पानेको इच्छा रखते हैं।
जो राजसूय और अश्वमेध-यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशिपर सूर्यके रहते जल, शाक और मूल आदिसे भी पितरोंकी पूजा अवश्य करनी चाहिये।
उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रोंपर सूर्यदेव स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरोंका पूजन करता है, उसका स्वर्गलोकमें निवास होता हैं । उस समय यमराजकी आज्ञासे पितरोंकी पुरी तबतक खाली रहती है, जबतक कि सूर्य वृश्चिक राशिपर मौजूद रहते हैं। वृश्चिक बीत जानेपर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओंसहित पितर मनुष्यको दु:सह शाप देकर खेदपूर्वक लंबी साँसे लेते हुए अपनी पुरीको लौट जाते हैं।
अष्टका’, मन्वन्तरा’ तथा अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिये। वह मातृवर्गसे आरम्भ होता है।
ग्रहण, व्यतीपात, एक राशिपर सूर्य और चन्द्रमाके संगम, जन्मनक्षत्र तथा ग्रहपीड़ाके अवसरपर पार्वण श्राद्ध करनेका विधान है।
दोनों अयनोंके आरम्भके दिन, दोनों विषुव योगोंके आनेपर तथा प्रत्येक संक्रान्तिके दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिये।
इन दिनों में पिण्डदानको छोड़कर शेष सभी श्राद्ध-सम्बन्धी कार्य करने चाहिये।
वैशाखकी शुक्ला तृतीया और कार्तिककी शुक्ला नवमीको संक्रान्तिकी विधिसे श्राद्ध करना उचित है। भादोंको त्रयोदशी और माधकी अमावास्याको खीरसे श्राद्ध करना चाहिये।
जब कोई वेदवेत्ता एवं अग्निहोत्री श्रोत्रिय ब्राह्मण घरपर पधारे, तब उस एक ब्राह्मणके द्वारा भी विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये। जिस दिन साधुपुरुषोंद्वारा प्रशंसित श्राद्धके योग्य कोई वस्तु प्राप्त हो जाय, उस दिन द्विजोंको पार्वजको विधिसे श्राद्ध करना चाहिये। माता और पिताको मृत्युके दिन प्रतिवर्ष एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये। यदि पिताके भाई अथवा अपने बड़े भाईकी मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिये भी निधनतिथीको प्रतिवर्ष एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना उचित है।
पार्वण श्राद्धमें पहले विश्वेदेवोंका आवाहन और पूजन होता है। किंतु एकोद्दिष्टमें ऐसा नहीं होता। देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करना चाहिये अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको ही निमन्त्रित करे। इसी प्रकार मातामहीके श्राद्धकार्यमें भी समझना चाहिये।
जो हालका मरा हो, उसके लिये सदा, बाहर जलके समीप, पृथ्वीपर, तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिये। मृत्युके तीसरे दिन प्रेतका अस्थि-चयन करना उचित है।
घरमें किसीकी मृत्यु होनेपर ब्राह्मण दस दिनोंमें, क्षत्रिय बारह दिनोंमें, वैश्य पंद्रह दिनोंमें और शूद्र एक मासमें शुद्ध होता हैं।
सूतक निवृत्त हो जानेपर घरमें एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना बताया गया है। बारहवें दिन, एक मासपर, फिर डेढ़ मासपर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्षतक श्राद्ध करना चाहिये। वर्ष बीतनेपर सपिण्द्धीकरण श्राद्ध करना उचित है। सपिण्डीकरण हो जानेपर उसके लिये पार्वण श्राद्धका विधान है।
सपिण्डीकरणके बाद मृत व्यक्ति प्रेतभावसे मुक्त होकर पितरोंके स्वरूपको प्राप्त होते हैं।
पितर दो प्रकारके हैं-अमूर्त और मूर्तिमान्।
नान्दीमुख नामवाले पितर अमूर्त होते हैं और पार्वण श्राद्धके पितर मूर्तिमान् बताये गये हैं।
एकोद्दिष्ट श्राद्ध ग्रहण करनेवाले पितरोंकी ‘प्रेत’ संज्ञा है। इस प्रकार पितरोंके तीन भेद स्वीकार किये गये हैं।
मुनियोंने पूछ- द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदिको सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिये? यह हमें विधिपूर्वक बताइये।
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्धकी विधि बतलाता हैं, सुनो। सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवोंकी पूजासे रहित होता है। इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रकका विधान हैं। अग्निकरण और आवाहनकी क्रिया भी इसमें नहीं होती। सपिण्डीकरणमें अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये। इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरणमें तिल, चन्दन और जलसे युक्त चार पात्र होते हैं। उनसे तीन तो पितरोंके लिये रखे और एक प्रेतके लिये। प्रेतके पात्रसे अय॑जल लेकर ‘ये समानाः समनसः०’ इत्यादि मन्त्रका जप करते हुए पितरोंके तीनों पात्रों में छोड़ना चाहिये। शेष कार्य अन्य श्राद्धोंकी भाँती करना चाहिये। स्त्रियोंके लिये भी इसी प्रकार एकोष्टिका विधान है। यदि पुत्र न हो तो स्त्रियोंका सपिण्डीकरण नहीं होता। पुरुषोंको उचित है कि वे स्त्रियोंके लिये भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिधिको एकोद्दिष्ट श्राद्ध करें। पुत्रके अभावमें सपिण्ड और सपिण्ड़के अभावमें सहोदक इस विधिको पूर्ण करें। जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र कर सकते हैं। पुत्रिका-विधिसे ब्याही हुई कन्याके पुत्र तो अपने नाना आदिका श्राद्ध करनेके अधिकारी हैं ही। जिनकी ह्यामुष्यायण संज्ञा है, ऐसे पुत्र नाना और बाबा दोनोंका नैमित्तिक श्राद्धोंमें भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं। कोई भी न हो तो स्त्रियाँ ही अपने पतियोंका मन्त्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं। वे भी न हों तो राजा मृतकके सजातीय मनुष्योंद्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएँ पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णोका बन्धु होता है।
ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरणके बाद पिताके जो प्रपितामह हैं, वे लेषभागभोजी पितरोंकी श्रेणीमें चले जाते हैं। उन्हें पितृपिण्ड पानेका अधिकार नहीं रहता। उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपरके पितर, जो अबतक पुत्रके लेपभागका अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्धसे रहित हो जाते हैं। अब उनको लेपभागका अन्न पानेका अधिकार नहीं रहता। वे सम्बन्धहीन अन्नका उपभोग करते हैं। पिता, पितामह और प्रपितामह-इन तीन पुरुषोंको पिण्डका अधिकारी समझना चाहिये। इनसे भिन्न अर्थात् पितामहके पितामहसे लेकर ऊपरके जो तीन पीढ़ीके पुरुष हैं, वे लेपभागके अधिकारी हैं। इस प्रकार छ: ये और सातवाँ यजमान—सब मिलकर सात पुरुषोंका घनिष्ठ सम्बन्ध होता है-ऐसा मुनियोंका कथन है। यह सम्बन्ध यजमानसे लेकर ऊपरके लेफ्भागभोजी पितरोंतक माना जाता है। इनसे ऊपरके सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं। पूर्वजोंमेंसे जो नरकमें निवास करते हैं, जो पशु-पक्षीकी योनिमें पड़े हैं। तथा जो भूत आदिके रूपमें स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है। जिससे जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ; सुनो। मनुष्य पृथ्वीपर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनिमें पड़े हुए पितरोंकी तृप्ति होती है। स्नानके वस्त्रसे जो जल पृथ्वीपर टपकता है, उससे वृक्षयोनिमें पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं। नहानेपर अपने शरीरसे जो जलके कण पृथ्वीपर गिरते हैं, उनसे उन पितरोंकी तृप्ति होती है, जो देवभावको प्राप्त हुए हैं। पिण्डोंके उठानेपर जो जलके कण पृथ्वीपर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षौकी योनिमें पड़े हुए पितरोंकी तृप्ति होती है। कुलमें जो बलक दाँत निकलनेके पहले दाह आदि कर्मके अनधिकारी रहकर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे सम्पार्जनके जलका आहार करते हैं। ब्राहाणलोग भोजन करके हाथ-मुँह धोते हैं और चरणका प्रक्षालन करते हैं, उस जलसे अन्यान्य पितरोंकी तृप्ति होती है। ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषोंके जो पितर दुसरी-दूसरी योनियोंमें चले गये हैं, वे भी यजमान और ब्राह्राणोंके हाथसे बिखरे हुए अन्न और जलके द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं।
मनुष्य अन्यापोपार्जित धनसे जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल अदि योनियोंमें पड़े हुए पितरोंकी वृति होती है। इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बन्धुओंके द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वीपर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत-से पितर तृप्त होते हैं।
अतः मनुष्यको उचित है कि वह पितरोंके प्रति भक्ति रखते हुए शाममात्रके द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे। श्राद्ध करनेवाले लोगोंके कुलमें कोई दुःख नहीं भोगता।
श्राद्धका दान संयमी, अग्निहोत्री, शुद्धचरित्र, विद्वान् एवं विशेषतः श्रोत्रिय ब्राह्मणको देना चाहिये। त्रिणाचिकेत, त्रिमधु, त्रिलुपर्ण, षडङ्गवेत्ता, मातापिताका भक्त, भानजा, सामवेदका ज्ञाता, ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, उपाध्याय, मामा, अशु, साला, सम्बन्धी, मण्डल ब्राह्मणका पाठ करनेवाला, पुराणका तत्वज्ञ, संकल्पहीन, संतोषी और प्रतिग्रह न लेनेवाला—ये श्राद्धमें सम्मिलित करनेयोग्य पंछिपवन ब्राह्मण हैं। ऊपर बताये हुए श्रेष्ठ द्विजको देवयज्ञ अथवा श्राद्धमें एक दिन पहले हो निमन्त्रण देन चाहिये। उसी समयसे ब्राह्मणों तथा श्राद्धकर्ताको भी संयमसे रहना चाहिये। जो श्राद्धमें दान देकर अथवा श्राद्धमें भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मासतक वीर्यमें शयन करते हैं। जो स्त्रीसहवास करके श्राद्ध करता अथवा में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्रको एक मासतक आहार करते हैं। इसलिये विद्वान् पुरुषको एक दिन पहले ही ब्राह्मणोंक पास निमन्त्रण भेजना चाहिये। यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्धके दिन भी निमन्त्रण किया जा सकता है। परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणों को कदापि निमन्त्रित न करे। यदि समयपर भिक्षाके लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदिके द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्तसे अवश्य भोजन कराये। विद्वान् पुरुष श्राद्धमें योगियोंको भी भोजन कराये। क्योंकि पितरोंका आधार योग है, अत: योगियोंका सदा पूजन करना चाहिये । यदि हजारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जलसे नैकाकी भॉति यजमान और श्राद्धोजी ब्राह्मणोंको भी तार देता है।
इस विषयमें ब्रह्मवादी विद्वान् पितरोंको गायी हुई एक गाथाका गान करते हैं। पूर्वकालमें राजा पुरूरवाके पितरोंने उसका गान किया था। वह गाथा इस प्रकार है-‘हमारी वंशपरम्परामें कब किसीको ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन करानेसे बचे हुए अत्रको लेकर पृथ्वीपर हमारे लिये पिण्ड देगा? अथवा गयामें जाकर पिण्डदान करेगा? या हमारी तृप्तिके लिये सामयिक शाक, तिल, घी और खिचड़ी देगा? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्रमें विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायनमें हमारे लिये मधु और घीसे मिली हुई खीर देगा?’
इसलिये सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धि तथा पापसे मुक्ति चाहनेवाले प्रत्येक मनुष्यको उचित है कि वह भक्तिपूर्वक पितरोंकी पूजा करें। श्राद्धमें तृप्त किये हुए पितर मनुष्योंके लिये वसु, रुद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारोंकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हैं। इतना ही नहीं, वे आयु, प्रजा, धन, विह्मा, स्वर्ग, मोक्ष, मुख तथा राज्य भी देते हैं। पितरोंको पूर्वाहकी अपेक्षा अपर अधिक प्रिय हैं। घरपर आये हुए ब्राह्मणोंका स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथसे आचमन कराने पश्चात् आसनोंपर बिठाये; फिर विभिपूर्वक श्राद्ध काके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करानेके पश्चात् भक्तिपूर्वक प्रणाम करे और प्रिय वचन कहकर विदा कर। दरवाजेतक उन्हें पहुँचानेके लिये पीछे-पीछे जय और उनकी आज्ञा लेकर लौटे। तदनन्तर नित्य-क्रिया को और अतिथियों को भोजन कराये। किन्हीं-किन्हीं श्रेष्ठ पुरुषोंका विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरोंके ही उद्देश्यसे होता है। दूसरे लोगोंका कहना है कि इससे पितरौंका कोई सम्बन्ध नहीं है। शेष कार्य सदाकी भाँति करे। किन्हींकिन्हींका मत है कि पितरोंके लिये पृथक् पाक बनाकर श्राद्ध करना चाहिये। कुछ लोगों का विचार है कि ऐसा न करके पहले बने हुए पाकसे ही अन्न लेकर सब कार्य पूर्ववत् करना चाहिये।
तदनन्तर श्राद्धकर्ता मनुष्य अपने भृत्य आदिके साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करे। धर्मज्ञ पुरुषको इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरोंका श्राद्ध करना चाहिये और जिस प्रकार ब्राह्मणको संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिये।
अब मैं श्राद्धमें त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणों का वर्णन करता हूँ। मित्रद्रोही, खराब नोंवाला, नपुंसक, क्षयको रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दाँतोंवाला, गंजा, काना, अंधा, बहरा, जड़, राँगा, पङ्ग, हिजड़ा, खराब चमड़ेवाला, हीनाङ्ग, लाल आँखोंवाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलस, मित्रके प्रति शत्रुधाव रखनेवाला, कलङ्कित कुलमें उत्पन्न, पशु पालन करनेवाला, अच्छी आकृतिसे हीन, परिवर्तित (छोटे भाईके विवाहित होनेपर भी स्वयं अविवाहित रहनेवाला), परिवेत्ता (बड़े भाईके व्याहसे पहले ही विवाह कर लेनेवाला), परिवेदनिका (बड़ी बहिनके विवाहके पहले ही ब्याह करनेवाली स्त्री)-का पुत्र शूद्रजतीय स्त्रीको स्वामी और उसका पुत्र-ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजनके अधिकारी नहीं हैं। शुद्रीके पश्क संस्कार करानेवाला, अविवाहित, जो दूसरेकी पत्नी रह चुकी हो, ऐसी स्त्रीका पति, वेतन लेकर पट्टानेवाला, वैसे गुस्से पढ़नेवाल, सूतककै अन्नपर जीविका-निर्वाह करनेवाला, सोमरसका विक्रय करनेवाला, चोर, पतित, व्याज लेकर खानेवाला, शठ, चुगलखोर, वेदोंका त्याग करनेवाला, अग्निहोत्रका त्यागी, राजाका पुरोहित, सेवक, विद्याहीन, द्वेष रखनेवाला, वृद्ध पुरुषों से शत्रुता रखनेवाला, दुर्धर्ष, क्रूर, मूङ, मन्दिरकी आयपर जीनेवाला, नक्षत्र बतानेवाला, बाण अनानेवाला और यज्ञकै अनधिकारी पुरुषों से यज्ञ करानेवाला—ये तथा अन्य जितने भी निन्दित और अधम ब्राह्मण हैं, उन्हें श्राद्धमें सम्मिलित न करे; क्योंकि वे पंक्तिको दूषित करनेवाले हैं। जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषोंकी अवहेलना होती हो, वहाँ देवताओंका दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है। जो शास्त्रविधिकी अवहेलना करके मूर्खको भोजन कराता हैं, वह दाता प्राचीन धर्मका त्याग करनेके कारण नष्ट हो जाता है। जो अपने आश्रयमें रहनेवाले ब्राह्मणका परित्याग करके दूसरेको बुलाकर भोजन करता है, वह दाता उस ब्राह्मणके शोकोच्छ्वासकी आगमें दग्ध होकर नष्ट हो जाता है।
वस्त्रके बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन और तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकालमें वस्त्रका दान विशेष रूपसे करना चाहिये।* जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्धमें देता है, वह उत्तम भोगोंको प्राप्त करता है। जैसे बहुतसी गौओंमें बछड़ा अपनी माताके पास पहुँच जता है, उसी प्रकार श्राद्धमें ब्राह्मणोंका भोजन किया हुआ अन्न जीवके पास वह जहाँ भी रहता हैं, पहुँच जाता है। नाम, गोत्र और मन्त्र-ये अन्नको वहाँ ढोकर नहीं ले जाते, अपितु मृत्युको प्राप्त हुए जीवोंतकको तृप्ति पहुँचती है-वे श्राद्धसे तृप्ति लाभ करते हैं।
‘देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः।’
इस मन्त्रका श्राद्धके आरम्भ और अन्तमें तीन बार जप करे। पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिये। इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनों लोकोंके पितर तृप्त होते हैं। यह मन्त्र पितरोंको तारनेवाला है।
श्राद्धमें रेशम, सन अथवा कपासका नया सूत देना चाहिये। ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है। विद्वान् पुरुष जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होनेपर भी श्राद्धने न दे; क्योंकि उससे पितरोंको तृप्ति नहीं होती और दाताके लिये भी अन्याषका फल प्राप्त होता है। पिता आदिमेसे जो जीवित हो, उसको पिंड नहीं देना चाहिये, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम अन्न भोजन कराना चाहिये । भोगकी इच्छा रखनेवाला पुरुष श्राद्धके पश्चात् पिण्डको अग्निमें डाल दे और जिसे पुत्रकी अभिलाषा हो, वह मध्यम अर्थात् पितामहके पिण्डको मन्त्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नीके हाथमें दे दे और पली उसे खा ले। जो उत्तम कान्तिको इच्छा रखनेवाला हो, वह श्राद्धके अनतर सब पिण्ड गौओंको खिला दे। थुद्धि, यश और कीर्ति चाहनेवाला पुरुष पिण्डोंको जलमें डाल दें। दीर्घ आयुकी अभिलाषावाला पुरुष उसे कौओंको दे दे। कुमारशालकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य वह पिण्ड मुगको । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणोंसे ‘पिण्ड उठाओ’ ऐसौ आज्ञा ले ले; इसके बाद पिण्डों को उठाये। अत: ऋषियोंकी बतायी हुई विधिके अनुसार श्राद्धका अनुष्ठान करे; अन्यथा दोष लगता है और पितरोंको भी नहीं मिलता।
जौ, धान, तिल, गेहूँ, मूंग, सावाँ, सरसोंका तेल, तिन्नीका चावल और कैंगनी आदिसे पितरोंको तृप्त करे। आम, अमड़ा, बेल, अनार, बिजौरा, पुराना आँवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, वेर, जंगली बैर, इन्द्रजौ और भतुआ-इन फलोंको श्राइमें यलपूर्वक लेना चाहिये। गुड़, शक्कर, खाँड़, गायका दूध, दही, घी, तिलका तेल, सेंधा तथा समुई और झीलसे उत्पन्न होनेवाला नमक, पवित्र सुगन्ध, चन्दन, अरगजा तथा केसर भी पितरोंको निवेदन करे। सामयिक शाक, चौलाई, बथुआ, मूली तथा जंगली साग श्राद्धमें देनेयोग्य है। चम्पा चमेली, बैला, लोध, अशोक, तुलसी, तिलक, शतपश, सुगन्धित शेफर्मालिका, कुञ्जक, तगर, बनकेवड़ा और जूही आदि पुष्म श्राद्धमें अर्पण करने योग्य हैं। कमल, कुमुद, पद्म, पुण्डरीक, इन्दौर, कोकनद और कार भी पितरोंको निवेदन करे। गूगल, चन्दन, श्रीवास (बेल), गर तथा ऋषिगुग्गुल-ये पितरोंके योग्य धूप हैं। चना और मसूर श्राद्धमें वर्जित हैं। स्त्री, ऊँटनी और भेड़के दूध, दही और मीका परित्याग करे। ताड़, वरुमा, काँकोल, बहुपत्रा (शिवलिंगी), अर्जुन-फल, नीबू, रक्तविल्व और सालके फलका भी श्राद्धमें त्याग करे। पितृकर्ममें कस्तुरी, गोरोचन, पद्मचन्दन, कालेषक (काली अगर), हींग, अजवायन और लोहबानकी गन्ध वर्जित है। पलकका साग, बड़ी इलायची, चिरायत, शलजम, गाजर, अमलोनीका साग, चूकाका साग, चनेकी पत्तीका साग, पहाड़ी क्रन्द, सौवा, सौंफ, पटुआ साग, गधशूकर (बाराहीकन्द), हलभृत्य, सरसों, प्याज, लहसुन, शकरकन्द, भैंसाकंद, जिमीकंद, सुथनी, लौकी, पेहँटुल, कुम्हड़ा, मिर्च, सोंठ, पीपल, बैंगन, कैवाँच, बहेड़ा, कच्चे गेहँका अर्क, सत्तू, बासी अत्र, हींग, कचनार और सहिजन-इन सय वस्तुओंका श्राद्धमें उपयोग न करे। जो अत्यन्त खट्टा, अधिक चिकना, सूक्ष्म, बहुत देरका बना हुआ और नीरस हो तथा जिसमेंसे मदिराकी-सी गन्ध आती हो, ऐसे पदार्थों को श्राद्धमें न दे। चिरायता, नीम, राई, धनिया, तरबूज और अमलबेद भी श्राद्धमें वर्जित हैं। अनार, छोटी इलायची, नारंगी, अदरख, इमली, अमड़ा और नैपाली धनियाका श्राद्धमें उपयोग करना चाहिये। खीर, सेमर, मूग, ल, पानक, रसाल (आम) और गोदुग्धको भी श्राद्धमें भक्तिपूर्वक देना चाहिये। जो भी स्वादिष्ट एवं स्निग्ध खाद्य पदार्थ हों, उनका श्राद्धमें उपयोग करना चाहिये। जिनमें खटाई और कडुआपन कम हो, ऐसी ही वस्तुओंका उपयोग करना उचित है। अधिक खट्टे, अधिक नमकीन और अधिक कड़वे पदार्थ असुरोंके भोजन हैं; अतः उनको दूरसे ही त्याग दे। मीठे, स्नेहयुक्त, थोड़े चरपरे और थोड़े खट्टे स्वादिष्ट पदार्थ देवताओंक भोजन हैं। अतः उन्हींका श्राद्धमें उपयोग करे। श्राद्धमें निषिद्ध वस्तु भोजन करानेवाला मनुष्य रौरव नरकमें पड़ता है। अभक्ष्य वस्तुएँ ब्राह्मणोंको कदापि न दे। बरैकी पत्तीका साग, जंभीरी नीबू, सहिजन, कचनार, खलौ, मसूर, गाजर, सनकी पत्तीका साग, कोदो, तालमखाना, चूकाका साग, कम्बुक, पदमकाठका फल, लौकी, ताड़ी और ताड़ वृक्षके फलको त्राद्धमें भोजन करानेसे मनुष्य नरकमें पड़ता है। जो पितरोंके लिये उक्त निषिद्ध वस्तुएँ अर्पित करता है, वह उन पितरोंकै साथ ही पूयवह नामक नरकमें गिरता है। यदि अनजानमें या प्रमावश एक बार इन निषिद्ध वस्तुओंका भक्षण कर ले तो उसके दोषको निवृत्तिके लिये प्रायश्चित्त करना आवश्यक है। सात दिनों तक क्रमशः फल, मूल, दूध, दही, तक्र, गोमूत्र और जौकी लप्सी खाकर रहे। इस प्रकार ब्राह्मणों और विशेषत: भगवान् विष्णुके भक्तोंको उचित है कि वे एक बार भी निषिद्ध आचरण कर लेनेपर इस प्रकार शरीरको शुद्धि करें। ऊपर बतायी हुई निषिद्ध वस्तुओका अवश्य त्याग करे। अपनी शक्तिके अनुसार श्राद्धको सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है। जो अपने वैभवके अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्को तृप्त कर देता है।
मुनियों ने पूछा- ब्रह्मन् ! जिसके पिता तो जीवित हों, किंतु पितामह और प्रपितामहकी मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिये’ यह विस्तारपूर्वक बतलाइये।।
व्यासजी बोले-पिता जिनके लिये श्राद्ध करते हैं, उनके लिये स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है। ऐसा करनेसे लौकिक और वैदिक धर्मको हानि नहीं होती।
मुनियोंने पूछा- विप्रवर ! जिसके पिताकी मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिये? यह बतानेकी कृपा करें। *
व्यासजी बोले- पिताको तो पिण्ड दे, पितामहको प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामहको भी पिण्ड दे दे। यहीं शास्त्रोंका निर्णय है। मरे हुएको पिण्ड देने और जीवितको भोजन करानेका विधान हैं। उस अवस्थामें सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता।*
जो मनुष्य श्राद्ध-सम्बन्धी विधिका पालन करता है, वह आयु, धन और पुत्रोंके साथ ही वृद्धिको प्राप्त होता है-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। जो श्राद्धके समय इस पितृमेधविषयक अध्यायका पाठ करता है, उसके दिये हुए अन्नको पितरलोग तीन युगोंतक खाते रहते हैं। इस प्रकार मैंने ‘यहाँ श्राद्ध-कल्पका वर्णन किया। यह पापोंका नाश और पुण्योंकी वृद्धि करनेवाला है। श्राद्ध अवसरपर मनुष्यको संयतचित्त होकर इसका श्रवण और पाठ करना चाहिये।
अध्याय- 91 गृहस्थोचित सदाचार तथा कर्तव्याकर्तव्यका वर्णन
व्यासजी कहते हैं- ब्राह्मणो ! इस प्रकार गृहस्थ पुरुष हव्य, कव्य और अन्नसे देवता, पितर तथा अतिथियोंका पूजन करे। सम्पूर्ण भूत, भरणपोषणके योग्य कुटुम्बोजन, पशु, पक्षी, चींटियाँ, संन्यासी, भिक्षुक, पथिक तथा सदाचारी ब्राह्मण आदि जो भी उपस्थित हों, गृहस्थ पुरुष अपने घरमें सबको संतुष्ट करे। जो नित्य और नैमित्तिक क्रियाओंका उल्लङ्घन करता है, वह पापभोजी है।
मुनि बोले– महर्षे ! आपने पुरुषों के नित्य, नैमित्तिक और काम्य-त्रिविध कर्मोका वर्णन किया; अब हम सदाचारका वर्णन सुनना चाहते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य इस लोक और परलोकमें भी सुखका भागी हो।
व्यासजीने कहा- ब्राह्मणो ! गृहस्थ पुरुषको सदा ही सदाचारकी रक्षा करनी चाहिये। आचारहीन मनुष्यको न इस लोकमें सुख मिलता है न परलोकमें। जो सदाचारका उल्लङ्घन करके मनमाना बर्ताव करता है, उस पुरुषका कल्याण यज्ञ, दान और तपस्यासे भी नहीं होता। दुराचारी पुरुषको इस लोकमें बड़ी आयु नहीं मिलती, अतः उत्तम आचाररूप धर्मका सदा पालन करना चाहिये। सदाचार बुरे लक्षणों का नाश करता है। ब्राह्मणो ! अब मैं सदाचारका स्वरूप बतलाता हूँ, एकाग्रचित्त होकर उसका पालन करना चाहिये। गृहस्थको धर्म, अर्थ और काम-तीनोंके साधनका यत्न करना चाहिये। उनके सिद्ध होने पर उसे इस लोक और परलोकमें सिद्धि प्राप्त होती है। मनको वशमें करके अपनी आयका एक चौथाई भाग पारलौकिक कल्याणके लिये संगृहीत करे। आधे भागसे नित्य-नैमित्तिक कार्यों का निर्वाह करते हुए अपना भरण-पोषण करे तथा एक चौथाई भाग अपने लिये मूल पूँजीके रूपमें रखकर उसे बढ़ाये । ब्राह्मणो ! ऐसा करनेसे धन सफल होता है। इसी प्रकार पापकी निवृत्ति तथा पारलौकिक उन्नतिके लिये विद्वान् पुरुष धर्मका अनुष्ठान करे। वह इस लोकमें भी फल देनेवाला होता है। ब्राह्ममुहूर्तमें जागे। जागकर धर्म और अर्थका चिन्तन करे। इसके बाद शय्या त्याग कर नित्यकर्मसे निवृत्त हो, स्नान आदिसे पवित्र होकर मनको संयममें रखते हुए पूर्वाभिमुख बैठे और आचमन करके संध्योपासन करे। प्रात:कालकी संध्या उस समय आरम्भ करे, जब तारे दिखायी देते हों। इसी प्रकार सायंकालकी संध्योपासना सूर्यास्तसे पहले ही विधिपूर्वक आरम्भ करे। आपत्तिकालके सिवा और किसी समय उसका त्याग न करे। द्विजो ! बुरी-बुरी बातें बकना, झूठ बोलना, कठोर वचन मुँहसे निकालना, असत् शास्त्र पढ़ना, नास्तिकवादको अपनाना तथा दुष्ट पुरुषोंकी सेवा करना अवश्य छोड़ देना चाहिये।* मनको वशमें रखते हुए प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल हवन करे। उदय और अस्तके समय सूर्यमण्डलका दर्शन न करे। बाल सँवारना, दर्पण देखना, दाँतन करना, आँजन लगाना और देवताओंका तर्पण करना—यह सब कार्य पूर्वाह्नकालमें ही करना चाहिये।
ग्राम, निवासस्थान, तीर्थ और क्षेत्रोंके मार्गमें, जोते हुए खेतमें तथा गोशालामें मल-मूत्र न करे। परायी स्त्रीको नंगी अवस्थामें न देखे। अपनी विष्ठापर दृष्टिपात न करे। रजस्वला स्त्रीको दर्शन, स्पर्श तथा उसके साथ भाषण भी वर्जित है। पानीमें मल-मूत्रका त्याग अथवा मैथुन न करे। बुद्धिमान् पुरुष मल-मूत्र, केश, राख, खोपड़ी, भूसी, कोयले, सड़ी-गली वस्तुएँ, रस्सी तथा केवल पृथ्वीपर और मार्गमें कभी न बैठे। गृहस्थ मनुष्य अपने वैभवके अनुसार देवता, पितर, मनुष्य तथा अन्यान्य प्राणियोंका पूजन करके पीछे भोजन करे। भलीभाँति आचमन करके हाथ-पैर धोकर पवित्र हो पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके भोजनके लिये आसनपर बैठे और हाथोंको घुटनों के भीतर करके मौनभावसे भोजन करे। भोजनके समय मनको अन्यत्र न ले जाय। यदि अन्न किसी प्रकारको हानि करनेवाला हो तो उस हानिको ही बताये, उसके सिवा अन्नके और किसी दोषको चर्चा न करे। भोजनके साथ पृथक् नमक लेकर न खाय। जूठा अन्न खाना वर्जित है। मनुष्यको चाहिये कि मनको वशमें रखे और खड़े होकर या चलते-चलते मल-मूत्रका त्याग, आचमन तथा किसी वस्तुका भक्षण न करे। जूठे मुँह वार्तालाप न करे तथा उस अवस्थामें स्वाध्याय भी वर्जित है। जूठी अवस्थामें सूर्य, चन्द्रमा और तारोंकी ओर जानबूझकर न देखे। दूसरेके आसन, शय्या और बर्तनका भी स्पर्श न करे।
गुरुजनोंके आनेपर उन्हें बैठनेको आसन दे। उठकर प्रणाम आदिके द्वारा उनका आदर-सत्कार करे। उनके अनुकूल वार्तालाप करे। जाते समय उनके पीछे-पीछे कुछ दूर जाकर पहुँचाये। उनके प्रतिकूल कोई बर्ताव न करे। एक वस्त्र धारण करके भोजन और देवपूजन न करे। बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मणों से बोझ न ढुलाये। आगमें मूत्र त्याग न करे। नग्न होकर कभी स्नान और शयन न करे। दोनों हाथोंसे सिर न खुजलाये। बिना कारण बार-बार सिरके ऊपरसे स्नान न करे। सिरसे स्नान कर लेनेपर किसी भी अङ्गमें तेल ने लगाये। सब अनध्यायोंके दिन स्वाध्याय बंद रखे। ब्राह्मण, अग्नि, गौ तथा सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब न करे। दिनमें उत्तरकी ओर और रातमें दक्षिणकी ओर मुँह करके मल-मूत्रका त्याग करे। जहाँ ऐसा करनेमें कोई बाधा हो, वहाँ इच्छानुसार करे। गुरुके दुष्कर्मकी चर्चा न करे। यदि वे क्रुद्ध हों तो उन्हें विनयपूर्वक प्रसन्न करे। दूसरे लोग भी यदि गुरुको निन्दा करते हों तो उसे न सुने। ब्राह्मण, राजा, दु:खसे आतुर मनुष्य, विद्यावृद्ध पुरुष, गर्भिणी स्त्री, रोगसे व्याकुल मनुष्य, गूंगा, अंधा, बहरा, मत्त, उन्मत्त, व्यभिचारिणी स्त्री, उपकारी, बालक और पतित-ये यदि सामनेसे आते हों तो स्वयं किनारे हटकर इनको जानेके लिये मार्ग देना चाहिये। विद्वान् पुरुष देवालय, चैत्यवृक्ष, चौराहा, विद्यावृद्ध पुरुष और गुरु-इनको दाहिने करके चले। दूसरोंके धारण किये हुए जूते, वस्त्र और माला आदि स्वयं न पहने।
चतुर्दशी, अष्टमी, पूर्णिमा तथा पर्वके दिन तैलाभ्यङ्ग एवं स्त्री-सहवास न करे। बुद्धिमान् मनुष्य बाँहों और पिंडलियोंको ऊपर उठाकर न खड़ा हो तथा पैरोंको भी न हिलाये। पैरसे पैरको न दबाये। किसीको चुभती हुई बात न कहे। निन्दा और चुगली छोड़ दे। दम्भ, अभिमान और तीखे व्यवहारका त्याग करे। मूर्ख, उन्मत्त, व्यसनी, कुरूप, हीनाङ्ग और निर्धन मनुष्योंकी खिल्ली न उड़ाये। दूसरेको दण्ड न दे, केवल पुत्र और शिष्यको शिक्षा देनेके उद्देश्यसे दण्ड दिया जा सकता है। आसनको पैरसे खींचकर न बैठे। सायंकाल और प्रात:काल पहले अतिथिका सत्कार करके पीछे स्वयं भोजन करे।
पूर्व या उत्तरकी और मुँह करके ही दाँतन करे। दाँतन करते समय मौन रहे। दाँतनके लिये निषिद्ध वृक्ष एवं लताओंका परित्याग करे। उत्तर और पश्चिमकी ओर सिर करके कभी न सोये । दक्षिण या पूर्व दिशाकी ओर ही मस्तक करके सोना चाहिये। जहाँसे दुर्गन्ध आती हो, ऐसे जलमें तथा रात्रिकालमें स्नान न करे। ग्रहणके समय रात्रिमें भी स्नान करना बहुत उत्तम है। इसके सिवा अन्य समयमें दिनमें ही स्नानका विधान है। वस्त्रके छोरसे अथवा वस्त्र हाथमें लेकर उससे शरीरको न मले। बालों और वस्त्रोंको न झटकारे। विद्वान् पुरुष स्नान किये बिना कभी चन्दन न लगाये। एक-दूसरेके वस्त्र और आभूषणोंको अदल-बदलकर न पहने। जिसमें कोर न हो और जो बहुत फट गया हो, ऐसा वस्त्र न पहने। जिसमें कीड़े अथवा बाल पड़े हों, जिसे कुत्तेने देखा अथवा चाट लिया हो अथवा जो सारभाग निकाल लेनेके कारण दूषित हो गया हो, ऐसे अन्नको कभी न खाय। भोजनके साथ अलग नमक रखकर न खाय। बहुत देरके बने हुए सूखे और वासी अन्नको त्याग दे। पिट्ठी, साग, ईखके रस और दूधकी बनी हुई वस्तुएँ भी यदि बहुत दिनोंकी हों तो उन्हें न खाय। सूर्यके उदय और अस्तके समय शयन न करे। बिना नहाये, बिना बैठे, अन्यमनस्क होकर, शय्यापर बैठकर या सोकर, केवल पृथ्वीपर बैठकर, बोलते हुए तथा भृत्यवर्गको दिये बिना कदापि भोजन न करे। मनुष्य स्नान करके सबेरे और शाम दो समय विधिपूर्वक भोजन करे।
विद्वान् पुरुषको कभी परायी स्त्रीके साथ समागम नहीं करना चाहिये। परस्त्रीसंगम मनुष्योंके इष्ट, पूर्त और आयुका नाश करनेवाला है। इस संसारमें परस्त्री-गमनके समान पुरुषकी आयुका विघातक कार्य दूसरा कोई नहीं है। देवपूजा, अग्निहोत्र, पितरोंका श्राद्ध, गुरूजनोंको प्रणाम तथा भोजन भलीभाँति आचमन करके करना चाहिये। स्वच्छ, फेनरहित, दुर्गन्धशून्य और पवित्र जल लेकर पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके आचमन करना चाहिये। जलके भीतरको, घरकी, बबीकी, चूहेके बिलकी और शौचसे बची हुई—ये पाँच प्रकारकी मिट्टियाँ त्याग देने योग्य हैं। हाथ-पैर धोकर एकाग्रचित्तसे मार्जन करके घुटनोंको समेटकर तीन या चार बार आचमन करे; फिर दो बार ओठ पोंछकर आँख, कान, मुख,नासिका तथा मस्तकका स्पर्श करे। इस प्रकार जलसे भलीभाँति आचमन करके पवित्र हो देवपूजन तथा श्राद्ध आदिकी क्रिया करनी चाहिये। छींकने, चाटने, वमन करने, थूकने तथा अस्पृश्यका स्पर्श करनेपर आचमन, सूर्यका दर्शन अथवा दाहिने कानका स्पर्श करना चाहिये। इनमें पहलेके अभावमें दूसरा उपाय करना चाहिये। पहले उपायके सभव होनेपर उपायान्तरका अवलम्बन अभीष्ट नहीं।
दाँत न कटकटाये। अपने शरीरपर ताल न दे। दोनों संध्याओंके समय अध्ययन, भोजन और शयनका त्याग करे। सन्ध्याकालमें मैथुन और रास्ता चलना भी मना है। पूर्वाहमें देवताओंका, मध्याह्नमें मनुष्योंका तथा अपराह्नकालमें पितरोंका भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिये। देवकार्य या पितृकार्यमें सिरसे स्नान करके प्रवृत्त होना उचित है। पूर्व या उत्तरकी ओर मुंह करके क्षौर कराये। उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी जो कन्या किसी अङ्गसे हीन या रोगिणी हो, उसके साथ विवाह न करे। ईष्र्याका परित्याग करे। दिनमें शयन अथवा मैथुन न करे। दूसरोंको कष्ट देनेवाला कार्य न करे। कभी किसी भी जीवको पीड़ा न दे। रजस्वला स्त्री चार राततक सभी वर्णके पुरुषके लिये त्यज्य है। यदि कपका जन्म अभीष्ट न हो तो उसे रोकनेके लिये पाँचवीं रातमें भी स्त्रीसहवास न करे। छठी रात आनेपर स्त्रीके पास जाय, क्योंकि युग्म रात्रि ही इसके लिये श्रेष्ठ । युग्म रात्रियोंमें स्त्रीसहवास करनेसे पुत्र होता है और अयुग्म रात्रियों में गर्भाधान करनेसे कन्या उत्पन्न होती है। पर्व आदिके अवसरपर मैथुन करनेसे विधर्मी संतान होती है। और संध्याकालमें गर्भाधान करनेसे नपुंसक उत्पन्न होते हैं। विद्वान् पुरुष क्षौरकर्ममें रिक्ता (चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी) तिथियोंका परित्याग करे। विनयरिहत उद्दण्ड पुरुषोंकी बात कभी न सुने। जो अपनेसे नीचा हो, उसे आदरपूर्वक ऊँचा आसन न दे। हजामत बनवाने, वमन होने, स्त्री-प्रसङ्ग करने तथा श्मशानभूमिमें जानेपर वस्त्रसहित स्नान करे। देवता, वेद, द्विज, साधु, सचे महात्मा गुरु, पतिव्रता, वेद, यज्ञ तथा उपस्थीकी निन्दा और परिहास न करे। सदा माङ्गलिक वेष धारण किये रहे। कभी भी अमङ्गलमय नैष न झारण करे। स्वच्छ वस्त्र पहने और श्वेत पुमॉकी माला धारण करे। उक्षत, उन्मत्त, मूढ, अविनीत, शीलहीन, अवस्था और जातिसे दूषित, अधिक अपव्ययी, वैरी, कार्यमें असमर्थ, निन्दित, धूर्तीका संग करनेवाले, निर्धन, विवाद करनेवाले तथा अन्य अधम पुरुषोंक साथ कभी मित्रता न करे। सुहृद्, यज्ञदीक्षित, राजा, स्नातक तथा अशुर-इनके साथ मैत्रीक भाव रखे और जब ये घरपर पधारें तो उठकर खड़ा हो जाय; साथ ही अपने वैभवके अनुसार इनका पूजन करे। प्रतिवर्ष अपने घर आये हुए ब्राह्मणोंका वैभव अनुसार स्वागत-सत्कार करे।
अपने घर में यथास्थान देवताओंका भलीभाँत पूजन करके क्रमशः अग्निमें आहुति दे। पहती आहुति ब्रह्माको, दूसरी प्रजापतिको, तोसरी गृह्याऑको, चौथी कश्यपको तथा पाँच अनुमतिको दें। तत्पश्चात् बलिवैश्वदेव करे। देवताओंके लिये पृथक्पृथक् स्थानका विभाग करके उनके लिये बलि अर्पण करे। उसका क्रम इस प्रकार है। एक पात्रमें पहले पर्जन्य, जल और पृथ्वीको तीन बलियाँ दे; फिर पूर्व आदि प्रत्येक दिशामें वायुको बलि देकर क्रमश: उन-उन दिशाओके नामसे भी बलि समर्पित करे। तत्पश्चात् मध्यमें क्रमशः ब्रह्मा, अन्तरिक्ष और सूर्यको बलि दे। उनके उत्तरभागमें विश्वेदेवों और विश्वभूतोंको बलि दे फिर उनके भी उत्तरभागमें उषा और भूतपतिको बलि समर्पित करे। तदनन्तर ‘पितृभ्यः स्वधा नमः’ यों कहकर दक्षिण दिशामें अपसव्य होकर पितरोंके लिये बलि दे और वायव्य दिशामें अत्रका शेष भाग तथा जल लेकर ‘यक्ष्मैतत्ते निर्णजनम्” यह मन्त्र पढ़कर उसे विधिपूर्वक छोड़ दे। फिर देवताओं और ब्राह्मणोंको नमस्कार करे। दाहिने हाथमें अँगूठेके उत्तर ओर जो एक ऐसा होती है, वह ब्राह्मतीर्थकै नामसे प्रसिद्ध है; उससे आचमन किया जाता है। तर्जनी और अँगूठेके बीचका भाग पितृतीर्थ कहलाता है। नान्दीमुख पितरोंको छोड़कर अन्य सब पितरोंको उसी तीर्थसे जल आदि देना चाहिये। अँगुलियोंके अग्रभागमें देवतीर्थ है। उसीसे देवकार्य करनेका विधान है। कनिष्ठिकाके मूलभागमें कायतीर्थ (प्रजापति-तीर्थ) है। उससे प्रजापतिका कार्य किया जाता है। इस प्रकार इन तीर्थोंसे सदा देवताओं और पितरोंके कार्य करने चाहिये, अन्य तीर्थोंसे कदापि नहीं। ब्राह्मतीर्थसे आचमन उत्तम माना गया है। पितरोंका श्राद्ध और तर्पण पितृतीर्थसे, देवताओंका यज्ञ-यागादि देवतीर्थसे और प्रजापतिका कार्य कायतीर्थसे करना श्रेष्ठ बताया गया है। नान्दीमुख नामवाले पितरोंके लिये पिण्डदान और तर्पण आदि कार्य प्राजापत्यतीर्थसे करने चाहिये।
विद्वान् पुरुष एक साथ जल और अग्नि न ले। गुरु, देवता, पिता तथा ब्राह्मणोंकी ओर पैर न फैलाये। बछडेको दूध पिलाती हुई गायको न छेड़े। अञ्जलिसे पानी न पिये। शौचके समय विलम्ब न करे। मुखसे आग न फेंके। ब्राह्मणो ! जहाँ ऋण देनेवाला धनी, चिकित्सा करनेवाला वैद्य, श्रोत्रिय ब्राह्मण तथा जलपूर्ण नदी-ये चार न हों, वहाँ निवास नहीं करना चाहिये। जहाँ शत्रुविजयी बलवान् और धर्मपरायण राजा हो, वहीं विद्वान् पुरुषको सदा निवास करना चाहिये। दुष्ट राजाके राज्यमें कहाँ सुख है। जहाँ पुरवासी परस्पर संगठित और न्यायानुकूल बर्ताव करनेवाले हों तथा सब लोग शान्त एवं ईरहित हों, वहाँका निवास भविष्यमें सुख देनेवाला होता है। जिस राष्ट्रमें किसान बहुत हों, परंतु वे बहुत घमंडी न हों तथा जहाँ सब तरहके अन्न पैदा होते हों, वहीं बुद्धिमान् पुरुषको निवास करना चाहिये। ब्राह्मणो। जहाँ अपने जीतनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य, पहलेका शत्रु और सदा उत्सवमें ही मग्न रहनेवाले लोग–ये तीन सदा मौजूद हों, वहाँ कभी निवास नहीं करना चाहिये। जिस स्थानपर अच्छे स्वभाववाले पड़ोसी हों, दुर्धर्ष राजी हो और सदा खेती उपजानेवाली भूमि हो, वहीं विद्वान् पुरुषको रहना उचित है। विप्रवरो! इस प्रकार मैंने तुमलोगोंके हितके लिये ये सब बातें बतायी हैं।
अब मैं भक्ष्य और भौज्यको विधिसे सम्बन्ध रखनेवाली बातें बतलाऊँगा। घी अथवा तेलमें पका हुआ अन्न बहुत देरका बना हुआ अथवा बासी भी हो तो वह भोजन करने योग्य होता है। गेहूँ, जौ तथा गोरसकी बनी हुई वस्तुएँ तेल, घीमें न बनी हों, तब भी वे पूर्ववत् ग्रहण करने योग्य हैं। शङ्ख, पत्थर, सोना, चाँदी, रस्सी, कपड़ा, साग, मूल, फल, मणि, हीरा, मूंगा, मोती, पात्र और चमस-इन सबकी शुद्धि जलसे होती है। लोहेके पात्रों एवं हथियारोंकी शुद्धि पानीसे धोने तथा पत्थर यानी शानपर रगड़नेसे होती है। जिस पात्रमें तेल या घी रखा गया हो, उसकी सफाई गर्म जलसे होती है। सूप, मृगचर्म, मूसल, ओखली तथा कपड़ों के ढेरकी शुद्धि जल छिड़कनेमात्रसे हो जाती है। वल्कल वस्त्रकी शुद्धि जल और मिट्टीसे होती है, मिट्टीके बर्तन दुबारा पकानेसे शुद्ध होते हैं। भिक्षामें प्राप्त अन्न, कारीगरका हाथ, बाजारमें बिकनेके लिये आयी हुई शाक आदि वस्तुएँ, जिसके गुण-दोषका ज्ञान न हो, ऐसी वस्तु और सेवकोंद्वारा बनायी हुई वस्तु सदा शुद्ध मानी जाती है। जो बहता हो तथा जिससे दुर्गन्ध न आती हो, ऐसा जल शुद्ध माना गया है। समयानुसार अग्निसे तपाने, बुहारने, गायोंके चलने-फिरने, लीपने, जोतने और जल छिड़कनेसे भूमिकी शुद्धि होती है। बुहारने आदिसे घर शुद्ध होता है। जिसमें बाल या कोई पड़े हो, जिसे गायने सँय लिया हो तथा जिसमें मक्खियाँ पड़ी हों, ऐसे पात्रकी शुद्धिके लिये राख, मिट्टी और ज्ञलका उपयोग करना चाहिये। ताँबेका बर्तन खटाईसे, राँगा और शीशा जलसे और काँसेके बर्तन राख और जलसे शुद्ध होते हैं। जिस पात्रमें कोई अपवित्र वस्तु पड़ गयी हो, उसे मिट्टी और जलसे तबतक धोये, जबतक कि उसकी दुर्गन्ध दूर न हो जाय। इससे बह शुद्ध होता है। पूल, अग्रि, घोड़ा, गौ, छाया, किरणें, वायु, भूमि, जतके छींटे और मक्खों आदि-ये सब अशुद्ध वस्तुके संसर्गमें आने पर भी दूषित नहीं होते। बको और धोका मुख शुद्ध माना गया है, किंतु गायका नहीं । बछडेका मुँह तथा माताका स्तन भी पवित्र बताया गया है। पेड़से फल गिराते समय पक्षीकी चोंच भी शुद्ध मानी गयी है। आसन, शय्या, सवारी, नदीका तट और तृण-ये सब बाजारमें बिकनेवाली वस्तुओंकी भाँति सूर्य और चन्द्रमाकी किरणों तथा वायुके स्पर्शसे शुद्ध होते हैं। सड़कों और गलियोंमें घूमने-फिरने, स्नान करने, छींक आने, हवा खुलने तथा वस्त्र बदलनेपर विधिपूर्वक आचमन करना चाहिये । पक्की ईंटके बने हुए चबूतरे आदिमें यदि कोई अस्पृश्य वस्तु, गलियोंको कीचड़ या जल आदि लग जाय तो उसकी शुद्धि केवल वायुके स्पर्शसे हो जाती है।
अनजानमें यदि दूषित अन्न भोजन कर ले तो तीन रात उपवास करनेसे शुद्धि होती है; और यदि जान-बूझकर किया हो तो उसके दोपको शान्तिके लिये प्रायश्चित करनेसे शुद्धि होती हैं। रजस्वला स्त्री, नवप्रसूता स्त्री, चाण्डाल तथा मुर्दा ढोनेवाले मनुष्योंसे छू जानेपर शुद्धिके लिये स्नान करना चाहिये। मनुष्यको गीली हट्ठीका स्पर्श कर लेनेपर ब्राह्मण स्नान करनेसे शुद्ध होता है और सूखी हकका स्पर्श करनेपर केवल आचमन करके गायका स्पर्श या सूर्यका दर्शन करनेसे वह शुद्ध हो सकता है। थूक और उबटनको न लाँधे । जूठन, मल-मूत्र और पैरोंकी धौवनको घरसे बाहर फेंके। दूसरोंके खुदायै हुए पोखरे आदिमें पाँच लदै मिट्टी निकाले बिना स्नान न करे । देवतासम्बन्धी सरोवरों और गङ्गा आदि नदियों में सदा ही स्नान करे। असमयमें उद्यान आदिके भीतर कभी न उहरे। सोकनिन्दित पुरुषों तथा विधवा स्त्रियोंसे कभी वार्तालाप न करे। रजस्वला स्त्री, पतित, गुर्दा, विधर्मी, प्रसूता स्त्री, नपुंसक, वस्त्रहीन, चाण्डाल, मुर्दा ढोनेवाले तथा परस्त्रीगार्म पुरुषों को देखकर विद्वान् पुरुष अपनी शुद्धिके लिये सूर्यका दर्शन करे। अभक्ष्य पदार्थ, भिक्षुक पाखण्डी, बिल्ली, गदहा, मुर्गा, पतित, जातिबहिष्कृत, चाण्डाल, ग्रामीण सुअर तथा अशौचदूषित मनुष्योंका स्पर्श कर लेनेपर स्नान करनेसे शुद्धि होती है। जिसके अरमें प्रतिदिन नित्यकर्मकी अवहेलना होती है तथा जिसे ब्राह्मणोंने त्याग दिया है, वह नराधम पापभोगी है। नित्यकर्मका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। उसे न करनेका विधान तो केवल मरणाशौच और जननाशौचमें ही है। अशौच प्राप्त होनेपर ब्राह्मण दस दिन, क्षत्रिय बारह दिन तथा वैश्य पंद्रह दिनोंतक दान-होम आदि कर्मों से अलग रहे। शूद्र एक मासतक अपना कर्म बंद रखे। फिर अशौच निवृत्त होनेपर सब लोग अपने शास्त्रोक्त कमक अनुष्ठान करें। मृतकका दाह-संस्कार करनेके बाद उसके गोत्रवाले लोगोंको चाहिये कि आहए जलाशय आदिमें जाकर पहले, चौघे, सातवें और नवें दिन उस प्रेतके लिये जलाञ्जलि दें। दाह-संस्कारके चौथे दिन समान गोश्वाले भाई-बंधुओंको प्रेतकी चितासे उसकी अस्थियका संचय करना चाहिये। अस्थिसंचयके बाद उनके अङ्गका स्पर्श किया जा सकता है। फिर समानोदक पुरुष अपने सब कर्म कर सकते हैं। जिस दिन मृत्यु हुई हो, उस दिन समानोदक और सपिण्ड दोनोंका स्पर्श किया जा सकता है। धनके लिये चेष्टा करते समय या स्वेच्छासे अथवा शस्त्र, रस्सी, बन्धन, अग्नि, विष, पर्वतसे गिरने तथा उपवास आदिके द्वारा मृत्यु होनेपर और बालक, परदेशी एवं परिव्राजकको मृत्यु होनेपर तत्काल अशौच निवृत्त हो जाता है। कुछ लोगों के मतमें तीन दिनोंतक अशौच बना रहता है। यदि सपिण्डोंमेंसे एककी मृत्यु होनेके बाद थोड़े ही दिनों में दूसरेकी भी मृत्यु हो जाय तो पहलेके अशौचके साथ ही दूसरेका अशौच भी निवृत्त हो जाता है। अतः पहलेके अशौचमें जितने दिन शेष हों, उतने ही दिनोंके भीतर दूसरे का भी श्राद्ध आदि कर्म कर देना चाहिये। जननाशौचमें भी यही विधि देखी गयी है। सपिण्ड तथा समानोदक व्यक्तियों में एकके बाद दूसरेका जन्म हो तो इसी प्रकार पहलेके साथ दूसरेका अशौच भी निवृत्त हो जाता है।
पुत्रका जन्म होनेपर पिताको वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये। उसमें भी यदि एकके जन्मके बाद दूसरेका जन्म हो जाय तो पहले जन्मे हुए बालकके दिनपर ही दूसरे की भी शुद्धि बतायी गयी है। अशौचके बाद क्रमश: दस, बारह, पंद्रह और तीस दिन बीतनेपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने-अपने शास्त्रोक्त कर्मोका अनुष्ठान करें। अशौच निवृत्त होनेपर प्रेतके लिये एकोद्दिष्ट करना चाहिये और ब्राह्मणोंको दान देना चाहिये। लोकमें जो-जो वस्तु अधिक प्रिय हो और घरमें भी जो वस्तु अत्यन्त प्रिय जान पड़े, उसको अक्षय बनानेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको उचित है कि वह उसे गुणवान् पुरुषको दान दे। अशौचके दिन पूरे हो जानेपर जल, वाहन और आयुधका स्पर्श करके पवित्र हो सय वर्णांके लोग प्रेतके लिये जलदान और पिण्डदान आदिका कार्य करें; तदनन्तर अपने-अपने वर्ण-धर्मका पालन करें। इससे इस लोक और परलोकमें भी कल्याण होता है। तीनों वेदोंका प्रतिदिन स्वाध्याय करे, विद्वान् बने, धर्मानुसार धनका उपार्जन करे और उसे यत्नपूर्वक यज्ञमें लगाये। जिस कर्मको करते समय आत्मामें घृणा न हो और जिसे महापुरुषोंके सामने प्रकट करनेमें कोई संकोच न हो, ऐसा कर्म नि:शङ्क होकर करना चाहिये। ब्राह्मणो! ऐसे आचरणवाले गृहस्थ पुरुषको धर्म, अर्थ और कामको प्राप्ति होती है तथा इस लोक और परलोकमें भी. उसका कल्याण होता है। यह विषय अत्यन्त गोपनीय तथा आयु, धन और बुद्धिको बढ़ानेवाला है। यह सब पापों का नाशक, पवित्र तथा श्री, पुष्टि एवं आरोग्य देनेवाला है। इतना ही नहीं, यह कल्याणमय प्रसङ्ग मनुष्योंको यश और कीर्ति देनेवाला तथा उनके तेज और बलकी वृद्धि करनेवाला है। मनुष्योंको सदा इसका अनुष्ठान करना चाहिये। यह स्वर्गका सर्वोत्तम साधन है। सम्यक् श्रेयकी इच्छा रखनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रोंको यत्नपूर्वक इन सब बातोंका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जो इस विषयको भलीभाँति जानकर नित्य-निरन्तर इसका अनुष्ठान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। द्विजवरो! यह मैंने सारसे भी अत्यन्त सारभूत तत्त्वका वर्णन किया है। यह श्रुतियों तथा स्मृतियोंद्वारा प्रतिपादित धर्म है। हर एकको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो नास्तिक हो, जिसकी बुद्धि खोटी हो, जो दम्भी, मूर्ख और कुतर्कपूर्ण वार्तालाप करनेवाला हो, ऐसे मनुष्यको कदापि इसका उपदेश नहीं देना चाहिये।
अध्याय- 92 वर्ण और आश्रमोंके धर्मका निरूपण
मुनियोंने कहा- ब्रह्मन् ! अब हम वर्णधर्म और आश्रमधर्मका विशेष रूपसे वर्णन सुनना चाहते हैं। विप्रवर! अब उसका वर्णन कीजिये।
व्यासजी बोले- द्विजवरो ! अब मैं क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन चारों वर्गोंके धर्मका वर्णन करूंगा। तुमलोग एकाग्रचित्त होकर सुनो। ब्राह्मणको सदा दान, दया, तपस्या, देवयज्ञ और स्वाध्यायमें तत्पर रहना चाहिये। तर्पण और अग्निहोत्र उसका प्रतिदिनका कार्य होना चाहिये। जीविकाके लिये वह अन्य द्विजका यज्ञ कराये तथा उन्हें पढ़ाये। यज्ञ करनेके लिये वह जान-बूझकर भी प्रतिग्रह ले सकता है। सब लोगोंका हितसाधन करना और किसीका भी अपने द्वारा अहित न होने देना, यह ब्राह्मणका कर्तव्य है। समस्त प्राणियोंके प्रति मैत्रीका होना, यह ब्राह्मणके लिये सबसे उत्तम धन है। केवल ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम करना ब्राह्मणके लिये प्रशंसाकी बात है। क्षत्रिय भी अपने इच्छानुसार ब्राह्मणको दान दे, नाना प्रकारके यज्ञद्वारा भगवान्का यजन करे और स्वाध्यायमें संलग्न रहे। शस्त्र चलाकर जीवन-निर्वाह करना और पृथ्वीका पालन करना—ये दो क्षत्रियकी मुख्य जीविकाएँ हैं। उनमें भी पृथ्वीको रक्षा उसके लिये मुख्य आजीविका है। पृथ्वीका पालन करनेसे ही राजा कृतार्थ होते हैं, क्योंकि उससे उनके यज्ञ आदि कार्योकी रक्षा होती है। जो राजा दुष्ट पुरुषका दमन और साधु पुरुषोंका पालन करके सब वर्गों को अपने-अपने धर्ममें स्थापित करता है, वह मनोवाञ्छित लोकको प्राप्त होता है। लोकपितामह ब्रह्माजीने वैश्योंके लिये पशुओंका पालन, व्यापार और खेती-ये तीन आजीविकाएँ प्रदान की हैं। वेदोंका अध्ययन, यज्ञ, दान, धर्म तथा नित्य और नैमित्तिक आदि कर्माका अनुष्ठान वैश्यके लिये भी उत्तम है। शुद्र द्विजातियोंकी सेवाका कार्य करे और उससे अर्थोपार्जन करके अपना जीवननिर्वाह करे। अथवा खरीद-बिक्री या शिल्पकर्मके द्वारा धन पैदा करके उससे जीविका चलाये। शूद्र भी दान दे और मन्त्रहीन पाक-यज्ञों द्वारा यजन करे। वह श्राद्ध आदि सब कार्य बिना मन्त्रके कर सकता है। भृत्य आदिका भरण-पोषण करनेके लिये सबके लिये संग्रह आवश्यक है। ऋतुकालके समय अपनी पत्नीके पास जाना, सब प्राणियके प्रति दयाभाव रखना, शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंको सहन करना, अभिमान न रखना, सत्य बोलना, पवित्रतापूर्वक रहना, किसीको कष्ट न पहुँचाना, सबका मङ्गल करना, प्रिय वचन बोलना, सबके प्रति मैत्रीका भाव रखना, किसी वस्तुकी कामना न करना, कृपणता न करना तथा किसीके भी दोष ने देखना-ये सभी वर्गोंके लिये सामान्यरूपसे उत्तम गुण बताये गये हैं। चारों आश्रमके लिये भी ये सामान्य गुण है। ब्राह्मणो ! अब ब्राह्मण आदि। वर्णोके उपधर्म बतलाये जाते हैं। आपत्तिकालमें ब्राह्मणके लिये क्षत्रियका कर्म, क्षत्रियके लिये वैश्यका कर्म तथा वैश्य और क्षत्रिय दोनोंके लिये शूद्रका कर्म कर्तव्य बताया गया है। सामर्थ्य रहते इन दोनोंको शूद्रका कर्म नहीं करना चाहिये, परंतु आपत्तिकालमें वही कर्तव्य हो जाता है। आपत्ति न होनेपर कर्म-संकर कदापि न करे। ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने वर्णधर्मका वर्णन किया है।
अब आश्रमधर्मका भलीभांति वर्णन करता हूँ, सुनो। उपनयन-संस्कार होनेपर ब्रह्मचारी बालक एकाग्रचित्त हो गुरुके घरपर रहते हुए वेदोंका अध्ययन करे। शौच और सदाचारका पालन करते हुए रुकी सेवा करे। पवित्र बुद्धिसे व्रतके प्रसन्नपूर्वक वेदोंकी शिक्षा ग्रहण करे। दोनों संध्याके समय एकाग्रचित्त हो सूर्योपस्थन, अग्निहोत्र और गुरुका अभिवादन करे। गुरूदेव खड़े हों तो स्वयं भी खड़ा रहे। वे जाते हों तो पीछे पीछे जाय और वे बैठे हों तो उनसे नीचे आसनपर बैठे। शिष्यके चाहिये कि वह गुरुके विपरीत कोई आचरण न करे। उनकी आज्ञसे उनके सामने बैठकर एकाग्रचित्तसे वेदका अध्ययन फरे। गुरुका आदेश मिलनेपर भिक्षा अन्न ऋण ले। जब आचार्य पहले स्नान कर लें तो स्वयं जलमें प्रवेश करके अवाहन करे। प्रतिदिन प्रात:काल आचार्यके लिये समिधा और जल आदि ले आये। जब ग्रहण करने योग्य वेदोंका पूर्णरूपसे अध्ययन कर ले, तब विद्वान् पुरुष गुरुक्षिण देकर गुरुको आज्ञा ले गृहस्थाश्रममें प्रवेश करे।
विधिपूर्वक योग्य स्त्रीसे विवाह करके अपने वर्गोंचित कर्मद्वारा धनका उपार्जन करे और उससे यथाशक्ति गृहस्थका सारा कार्य पूर्ण करे। श्राद्धके द्वारा पितरों, यद्धारा देवताओं, अन्नसे अतिथियों, स्याध्यायसे मुनियों, संतानोत्पादनसे प्रजापति, वलिवैश्वदेवसे सम्पूर्ण भूतों और सत्यवचनके द्वारा सम्पूर्ण जगत्का पूजन करे। ऐसा करनेवाला पुरुष अपने कर्मोद्वारा उपार्जित उत्तम लोकोंमें जाता है। भिक्षापर निर्वाह करनेवाले संन्यासी और ब्रह्मचारी भी गृहस्थोंके ही अवलम्बसे रहते हैं, अतः गार्हस्थ्य-आश्रम श्रेष्ठ माना गया है। जो ब्राह्मण वेदाध्ययन, तीर्थस्नान और पृथ्वीके दर्शनके सिये भूतलपर भ्रमण करते हैं, जिनका कोई घर नहीं हैं, जो प्रायः निराहार रहते हैं और जहाँ सन्ध्या हो गयी, वहीं डेरा डाल देते हैं, ऐसे लोगों का सहारा और आधार गृहस्थ ही हैं। पूर्वोक्त द्विज जब घरपर पधारें तो मधुर वाणीने सदा उनका स्वागत-सत्कार करना चाहिये। उन्हें शय्या, आसन और भोजन देना चाहिये। जिसके फरसे अतिथि निराश होकर लौटता है, वह उसे अपना पाप दे बदलेमें उसका पुण्य लेकर चल देता है।’ गृहस्थ पुरुषमें दूसरोंके प्रति अपहेलना, अपनेमें अहंकार, दम्भ, परनिन्दा, दूसरोंपर चोट करनैक प्रवृत्ति और कटुवचन बोलनका स्वभाव होना अच्छा नहीं माना गया है। जो गृहस्थ इस प्रकार उत्तम विधिका पालन करता है, वह सब प्रकारके बन्धनोंसे मुक्त हो उतम लोकोंमें जाता हैं। गृहस्थ पुरुष बुढ़ापा आनेपर अपनी स्त्रीको भार पुत्रोंको सौंप दे और स्वयं तपस्याये लिये वनमें चला जाय अथवा स्त्रीको भी साथ ही लेता जाय। हाँ पत्तियाँ, मूल और फल आदिका आहार करते हुए पृथ्वीपर शयन करे। सिरके बाल, दाढ़ी और मूंछ न कटये। वानप्रस्थ मुनिके लिये सब लोग अतिथि हैं। वह मृगचर्म, कास और कुश आदिकी कौपीन एवं चादर धारण करे। उसके लिये तीनों समय स्नान करना उत्तम माना गया है। देवपूजन, होम, सम्पूर्ण अतिथियोंका पूजन, भिक्षा और प्राणियोंको बलि-समर्पण–ये सय यातें वानप्रस्थ लिये श्रेष्ठ मानी गयी हैं। वह अपने शरीरमें जंगली पल आदिकै तेल लगा सकता है। उसका मुख्य कर्तव्य है तपस्या-शीत और उष्ण आदि द्वन्द्वका सह्न । जो वानप्रस्थ मुनि नियमपूर्वक रहकर पूर्वोक्त रूपले अपने कर्तव्यका पालन करता है, वह अग्निकी भाँति अपने सव दोषोंको जला देता और सनातन लोकोंको प्राप्त होता है।
मुनियो ! मनीष पुरुष जो भिक्षुका चतुर्थ आश्रम बतलाते हैं, उसके स्वरूपका वर्णन सुनो। भिक्षुको चाहिये कि पुत्र, धन, स्त्रीके प्रति स्नेहका त्याग करे और ईष्यारहित होकर चतुर्थ आश्रममें जाय। उसीको संन्यास-आश्रम भी कहते हैं। संन्यासीको समस्त त्रैवर्णिक कर्मोके आरम्भका त्याग करना चाहिये। वह मित्र और शत्रुमें समान भाव रखे। सब प्राणियोंका मित्र बना रहे। जरायुज और अण्डज आदि किसी भी प्राणीके साथ मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी द्रोह न करे। वह सब प्रकारकी आसक्तियोंको त्याग दे। गाँवमें एक रात और नगरमें पाँच रातसे अधिक न रहे। पशु, पक्षी आदिके प्रति न तो उसका राग हो और न द्वेष ही रहे। जीवन-निर्वाहके लिये वह उच्च वर्णवाले मनुष्योंके घरपर भिक्षाके लिये जाय—वह भी ऐसे समयमें जब कि रसोईकी आग बुझ गयी हो और घरके सब लोग खा-पी चुके हों। भिक्षा न मिलनेपर खेद और मिलनेपर हर्ष न माने । भिक्षा उतनी ही ले, जिससे प्राणयात्रा होती रहे। विषयासक्तिसे वह नितान्त दूर रहे। अधिक आदर-सत्कारकी प्राप्तिको घृणाकी दृष्टिसे देखे, क्योंकि अधिक आदर-सत्कार मिलनेपर संन्यासी अन्य बन्धनोंसे मुक्त होनेपर भी बँध जाता है। काम, क्रोध, दर्प, लोभ और मोह आदि जितने दोष हैं, उन सबका त्याग करके संन्यासी ममतारहित हो सर्वत्र विचरता रहे।* जो सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय-दान देकर पृथ्वीपर विचरता रहता है, उस देहाभिमानसे मुक्त यतिको कहीं भय नहीं होता। जो ब्राह्मण अग्निहोत्रको भावनाद्वारा शरीरमें स्थापित करके अपने मुखमें भिक्षाप्रास अन्नरूपी हविष्य डालकर उस शरीरस्थ अग्निको आहुति देता है, वह उस संचित अग्निके द्वारा उत्तम लोकोंमें जाता है। जो द्विज पवित्र एवं संयत बुद्धिसे युक्त हो शास्त्रोक्त विधिसे मोक्ष-आश्रमका पालन करता है, वह बिना इंधनकी प्रज्वलित अग्निके सदृश शान्त तेजोमय ब्रह्मलोकमें जाता है।
अध्याय- 93 उच्च वर्णकी अधोगति और नीच वर्णकी उर्ध्वगतिका कारण
मुनियोंने पूछा- महाभाग ! आप सर्वज्ञ हैं, समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले हैं। मुने ! भूत, भविष्य और वर्तमान-कुछ भी आपसे छिपा नहीं हैं। महामते ! किस कर्मसे उच्च वर्षोंकी नीच गति होती है और किस कर्मसे नीच वर्णोकी उत्तम गति होती है? यह बतानेकी कृपा करें। |
व्यासजी बोले- मुनिवरो ! भाँति-भाँतिके वृक्ष और लताओंसे आच्छादित, अनेक प्रकारकी धातुओंसे विभूषित तथा विविध आश्चर्योंसे युक्त हिमालयके रमणीय शिखरपर त्रिपुरासुरका नाश करनेवाले त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकर विराजमान थे। वहाँ गिरिराजकुमारी पार्वती देवीने देवेश्वर महादेवजीको प्रणाम करके यही प्रश्न किया था। मैं वही प्रसङ्ग यहाँ सुना रहा हूँ, तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन् ! स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माने पूर्वकालमें चार वर्षों की सृष्टि की। उनमें से वैश्य किस कर्मसे शूद्रभावको प्राप्त होता है? अथवा क्या करनेसे क्षत्रिय वैश्य हो जाता है। और ब्राह्मण किस कर्मक अनुष्ठानसे क्षत्रिय होता हैं? देव ! इस प्रकार धर्मको प्रतिलोम-दशामें कैसे लाया जा सकता है? ब्राह्मण अधवा क्षत्रिय किस कर्मसे शूद्र होते हैं? भूतनाथ ! आप मेरे इस संशयका निवारण कीजिये। क्षत्रिय आदि तीन वर्णोके लोग, जो जन्मसे ही यहाँ भिन्न वर्णवाले हैं, कैसे ब्राह्मणभावको प्राप्त हो सकते हैं?
शिवजी बोले- देवि ! ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। शुभे ! ब्राह्मण स्वभावसे ही ब्राह्मण होता है; इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी स्वभावसे ही वैसे होते हैं-ऐसा मेरा विचार है। ब्राह्मण इस लोकमें पापकर्म करनेसे अपने पथसे भ्रष्ट हो जाता है, उत्तम वर्णको पाकर भी फिर उससे नीचे गिर जाता है। जो ब्राह्मण-धर्मका पालन करते हुए उससे जीवन-निर्वाह करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है; परंतु जो ब्राह्मणत्वका त्याग करके क्षत्रियोचित धमका सेवन करता है, वह ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट होकर क्षत्रिययोनिमें जन्म लेता है। जो विप्र लोभ और मोहका आश्रय ले अपनी मन्द बुद्धिके कारण दुर्लभ ब्राह्मणत्वको पाकर भी सदा वैश्यकर्मका अनुष्ठान करता है, वह वैश्ययोनिको प्राप्त होता है; अथवा यदि वैश्य शूद्रोचित कर्म करने लगता है तो वह शूद्र हो जाता है। अपने धर्मसे भ्रष्ट हुआ ब्राह्मण शूद्रत्वको प्राप्त होता है। वर्णसे भ्रष्ट या बहिष्कृत होनेपर वह ब्रह्मलोकसे भी गिर जाता है और नरकमें पड़नेके पश्चात् शूद्रयोनिमें जन्म लेता है। महाभागे ! क्षत्रिय अथवा वैश्य भी जब अपना-अपना कर्म छोड़कर शूद्रोचित कर्म करने लगते हैं, तब अपने पदसे भ्रष्ट होकर वर्णसंकर हो जाते हैं। ऐसे कर्म-भ्रष्ट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य–तीनों शूद्रभावको प्राप्त होते हैं। जो शूद्र ज्ञान-विज्ञानसे युक्त एवं पवित्र हो अपने धर्मका पालन करते हुए जीवन-निर्वाह करता है, धर्मको जानता और उसके पालनमें तत्पर रहता है, वह धर्मके फलका भागी होता है।
देवि ! ब्रह्माजीने यह एक दूसरी आध्यात्मिक बात बतलायी है, जिसके पालनसे धर्मकामी पुरुषोंको नैष्ठिक सिद्धि प्राप्त होती है। जो मनुष्य क्षत्रियके वीर्य और शूद्रजातीय स्त्रीके गर्भसे उत्पन्न अथवा वर्णसंकर है, उसका अन्न अत्यन्त निन्दित माना गया है। इसी प्रकार एक समुदायका अन्न, श्राद्ध और सूतकका अन तथा शूद्रका अन्न कभी नहीं खाना चाहिये। देवि ! देवताओं और महात्मा पुरुषोंने शूद्रके अन्नकी सदा ही निन्दा की है। यह श्रीब्रह्माजीके श्रीमुखका कथन होनेके कारण अत्यन्त प्रामाणिक हैं। जो ब्राह्मण अपने पेटमें शूद्रका अन्न लिये मृत्युको प्राप्त होता है, वह अग्निहोत्री और यज्ञकर्ता होते हुए भी शूद्रोचित गतिको प्राप्त होता है। पेटमें शूद्रान्न शेष रहनेके कारण वह ब्रह्मलोकसे भ्रष्ट हो जाता है। शूद्रान्न भोजी ब्राह्मण शूद्रत्वको प्राप्त होता है-इसमें अन्यथा विचारके लिये स्थान नहीं है । ब्राह्मण अपने उदरमें जिसका अन्न शेष रहते प्राण त्याग करता है और जिसके अन्नसे यौवन-निर्वाह करता है, उसीकी योनिको प्राप्त होता है। जो लोग दुर्लभ ब्राह्मणत्वको अनायास ही पाकर उसको अवहेलना करते हैं अथवा अभक्ष्य-भक्षण करते हैं, वे भ्राह्मणत्वसे गिर जाते हैं। शराबी, ब्रह्महत्यारा, चोर, व्रत भङ्ग करनेवाला, अपवित्र, स्वाध्याय न करनेवाला, पापी, लोभी, अपकारी, शठ, ब्रतहीन, शूद्रीका पति, दोगलेका अन्न खानेवाला, सोमरस बेचनेवाला और नीचसेवी ब्राह्मण ब्राह्मणत्वसे भ्रष्ट हो जाता है। गुरस्त्रीगामी, गुरुद्वेषी, गुरुनन्दापरायण तथा ब्रह्मदोहो ब्राह्मण भी ब्रह्मयोनिसे गिर जाता है।
जो शुद्र सब कर्म शास्त्रीय विधिके अनुसार न्यायपूर्वक करता है, सबका अतिथि-सत्कार करनेके बाद बचा हुआ अन्न भोजन करता हैं, अपनेसे श्रेष्ठ वर्णवाले पुरुषको सेवा-शुश्रूषामें यत्नपूर्वक लगा रहता है, जो कभी मनमें बुरा नहीं मानता, सदा सन्मार्गपर स्थित रहता है, देवता और द्विगोंका सत्कार करता, सबका आतिथ्य कानेके लिये दृढ़संकल्प रहता, ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम करता, नियमपूर्वक रहकर नियमित भोजन करता और कार्यदक्ष, साधुसेवी तथा अतिथियोंसे बचे हुए अन्नका भोजन करनेवाला होता है, जो कभी भी मांस नहीं ग्रहण करता, ऐसा शूद्र वैश्ययोनिको प्राप्त होता है।
जो वैश्य सत्यवादी, अहंकाररहित, निद्वंह, सामवेदका ज्ञाता पवित्र और स्वाध्यायपरायण होकर प्रतिदिन यज्ञ करता, मन और इन्द्रिको संयममें रखता, ब्राह्मणोंका सत्कार करता, किसी भी वर्णके दोष नहीं देखता, गृहस्थोचित व्रतका पालन करते हुए केवल दो समय भोजन करता है, जो आहारपर विजय पाकर निष्काम एवं अहंकारशून्य हो गया है, अग्निहोत्रकी उपासना करते हुए विधिपूर्वक हवन करता है और सबका आतिथ्य-सत्कार करते हुए यज्ञशिष्ट अन्नको भोजन करता है, वह वैश्य पवित्र होकर श्रेष्ठ क्षत्रिय-कुलमें जन्म ग्रहण करता है। क्षत्रियरूपमें उत्पन्न होनेपर वह जन्मसे ही अच्छे संस्कारका होता है। उपनयनके पश्चात् ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर हो वह संस्कारसम्पन्न द्विज होता है। यह समय-समयपर दान देता, प्रचुर दक्षिणा देकर वैभवपूर्ण यज्ञ करता और वेदाध्ययन करके स्वर्गकी इच्छासे आहवनीय आदि तीनों अग्नियोंकी सदा उपासना करता है। राजा होनेपर वह संकल्प जलसे भीगे हाथद्वारा दान देता और सद धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करता है। स्वयं सत्यवादी होकर सदा सत्यका ही अनुष्ठान करता है, शुद्धिपर दृष्टि रखता है और धर्मदण्डसे युक्त हो धर्म, अर्थ एवं कामरूप त्रिवर्गका साधन करता है। शरीर और इन्द्रियोंको वशमें रखकर प्रशासे करके रूपमें केवल उसकी आयका छठा भाग ग्रहण करता है। तत्त्वज्ञ राजाको चाहिये कि वह स्वेच्छाधारी होकर विषय-भोगका सेवन न को, अपितु धर्ममें चित्त लगाकर सदा ऋतुकालमें ही पत्नीके पास जाय। नित्य उपवास करनेवाला, नियमपरायण, स्वाध्यायशील तथा पवित्र रहे। सबका अतिथि-सत्कार करे। धर्म, अर्थ और कामका चिन्तन करते हुए सदा प्रसन्न चित्त रहे। अत्रकी इच्छा रखनेवाले शूद्रोंको भी सदा यही उत्तर दे- ‘भोजन तैयार हैं।’ स्वार्थ या कामनासे प्रेरित होकर कोई भाव न व्यक्त करे। देवता, पितर और अतिथियोंके लिये सर्वदा साधन-सामग्री उपस्थित रखे। अपने घरमें न्यायानुकूल विधिमे उपासना करे। भिक्षुको भिक्षा दे। दोनों समय विधिपूर्वक अग्निहोत्र करे तथा गौओं और ब्राह्मणोंका हितसाधन करनेकै लिये संग्राममें सम्मुख होकर प्राण दे दे। विविध अग्नियोंके सेवन तथा मन्त्रोच्चारणपूर्वक हवन करनेसे पवित्र होकर क्षत्रिय भी जन्मानाने ज्ञान-विज्ञानसम्पन्न, वेदका पारंगत और संस्कारयुक्त ब्राह्मण हो जाता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर शुभ कर्म करनेसे धर्मात्म वैश्य कर्मानुसार क्षत्रिय होता है और नीच कुलमें उत्पन्न शूद्र भी उत्तम कर्म करनेसे संस्कारसम्पन्न द्विज हो जाता है।
देवि ! जन्मसे ब्राह्मण होनेपर भी जो दुराचारी और समस्त वर्णसंकरोंका अन्न भोजन करनेवाला है, वह ब्राह्मणत्वको त्यागकर वैसा ही शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार शुद्धात्मा एवं जितेन्द्रिय शूद्र भी शुद्ध कर्मों के अनुष्ठानसे ब्राह्मणकी भाँति सेवन करने योग्य हो जाता है, यह साक्षात् ब्रह्माजीका कथन है। जो शूद्र अपने स्वभाव और कर्मके अनुसार जीवन बिताता है, उसे द्विजातियोंसे भी अधिक शुद्ध जानना चाहिये-ऐसा मेरा विश्वास है। जन्म, संस्कार, वेदाध्ययन और संतति-ये सब द्विजत्वके कारण नहीं हैं; द्विजत्वका मुख्य कारण तो सदाचार ही है। संसारमें ये सब लोग आचरणसे ही ब्राह्मण माने जाते हैं। उत्तम आचरणमें स्थित होनेपर शूद्र भी ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो सकता है। पार्वती ! ब्रह्मस्वभाव सर्वत्र सम है-यह मेरी मान्यता है। जहाँ निर्गुण एवं निर्मल ब्रह्म स्थित है, वहीं द्विशत्व है। देवि ! ये जो विमल स्वभाववाले पुरुष हैं, वे ब्रह्मके ही स्थान और भावका दर्शन करानेवाले हैं। प्रजाकी सृष्टि करते समय वरदायक भगवान् ब्रह्माने स्वयं ही ऐसी बात कही थी। ब्राह्मण इस संसारमें एक महान् क्षेत्र है, जो हाथ-पैरोंसे युक्त होकर सर्वत्र विचरता रहता है। इसमें जो बीज पड़ता है, वह परलोकमें फल देनेवाली खेती है। ब्राह्मणको सदा संतुष्ट एवं सन्मार्गका पथिक होना चाहिये। उन्नति चाहनेवाले द्विजको सदा ब्रह्ममार्गका अवलम्बन करके रहना चाहिये। गृहस्थ ब्राह्मणको घरपर रहते हुए प्रतिदिन संहिताके मन्त्रोंका अध्ययन और स्वाध्याय करना चाहिये। वह अध्ययनकी वृत्तिसे ही जीवन-निर्वाह करे। जो ब्राह्मण इस प्रकार सदा सन्मार्गमें स्थित हो अग्निहोत्र और स्वाध्याय करता है, वह ब्रह्मभावको प्राप्त होता है। देवि ! ब्राह्मणत्वको प्राप्त करके उसकी यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। यह मैंने तुम्हें बड़ी गोपनीय बात बतलायी है। शूद्र धर्माचरणसे ब्राह्मण होता है और ब्राह्मण धर्मभ्रष्ट होनेपर शूद्रत्वको प्राप्त होता है।
अध्याय- 94 स्वर्ग और नरकमें ले जानेवाले धर्माधर्मका निरूपण
पार्वतीजीने कहा- भगवन् ! सर्वभूतेश्वर ! देवदानव-वन्दित विभो ! मुझे मनुष्योंके धर्म और अधर्मके विषयमें संदेह है। देव ! आप उसका समाधान कीजिये। देहधारी जीव सदा मन, वाणी और क्रियारूप त्रिविध बन्धनोंद्वारा बँधते हैं; फिर किन साधनोंसे और किस प्रकार उनकी मुक्ति होती है? यह बताइये। देव! किस स्वभावसे, कैसे कर्मसे अथवा किन सदाचारों एव सद्गुणोंसे संसारके मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं?
शिवजी बोले- देवि ! तुम धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाली और निरन्तर धर्ममें तत्पर रहनेवाली हो। तुम्हारा प्रश्न सब प्राणियोंके लिये हितकारी और उनकी बुद्धिको बढ़ानेवाला है। मैं उसका उत्तर देता हूँ, सुनो। जो मनुष्य सब प्रकारके लिङ्गों (बाह्य चिहों)-से रहित, सत्यधर्मके परायण तथा शान्त हैं, जिनके सभी संशय नष्ट हो गये हैं, वे धर्म या धर्मसे नहीं बँधते । जो प्रलय और उत्पत्तिके तत्त्वज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदशी और वीतराग हैं, वे पुरुष कर्मोक बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसीकी हिंसा नहीं करते तथा किसीके प्रति आसक्त नहीं होते, वे कर्म-अन्धनमें नहीं पड़ते। जो प्राण-संहारसे दूर रहनेवाले, सुशील, दयालु, प्रिय और अप्रियको समान समझनेवाले तथा जितेन्द्रिय हैं, वे भी कर्मोंसे नहीं बँधते। जो सब प्राणियोंपर दया रखते, सब जीवोंके लिये विश्वासपात्र बने रहते और हिंसापूर्ण बर्तावका त्याग कर देते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जानेवाले हैं। जो पराये अनके प्रति कभी ममता नहीं रखते और परायी स्त्रियोंसे सदा दूर रहते हैं तथा जो धर्मतः प्राप्त अर्थका ही उपभोग करनेवाले हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो पस्त्रियोंके प्रति सदा माता, बहिन और पुत्रीका-सा बर्ताव करते हैं, वे मानव स्वर्गलोकमें आते हैं। जो केवल अपनी ही स्त्रीके प्रति अनुराग रखते, ऋतुकाल आनेपर ही पत्नीके साथ समागम करते तशा विषय-सुखोंके उपभोगमें कभी आसक्त नहीं होते, वे ही मनुष्य स्वर्गलोकके यात्री होते हैं। जो अपने सदाचारके कारण परायी स्त्रियोंको ओरसे सदा ऑखें बंद किये रहते हैं, इन्द्रियोंको अपने अधीन रखते और शीलको सदा रक्षा करते हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं। यह देवमार्ग है। मनुष्यको सदा इसका सेवन करना चाहिये। विद्वान् पुरुषको सदा उसी मार्गका सेवन करना चाहिये, जो वासनाद्वारा निर्मित न हो, जिसमें किसीका व्यर्थ ही अपकार न होता हो और जहाँ दान, सत्कर्म, तपस्या, शील, शौच तथा दयाभावका दर्शन होता हो। स्वर्गमार्गको इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको इसके विपरीत मार्गका आश्रय नहीं होना चाहिये।
जो अपने अथवा दुसरेके लिये अधर्मयुक्त बात नहीं कहते और कभी झूठ नहीं बोलते, ये मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो जीपिका अथवा धर्मके लिये या स्वेच्छासे ही कभी असत्यभाषण नहीं करते, अपितु स्पष्ट, कोमल, मधुर, पापरहित एवं स्वागतपूर्ण वचन बोलते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जानेके अधिकरी हैं। जो कठोर, कड़वी तथा निष्ठुर घेत मुंहसे नहीं निकालते, चुगली नहीं खाते, साधुतासे रहते हैं, कठोर भाषण और परद्रोह त्याग देते हैं तथा सम्पूर्ण भूतोंके प्रति सम एवं जितेन्द्रिय होते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो शठों से बात नहीं करते, विरुद्ध कर्मोको त्याग देते, कोमल वचन बोलते, क्रोध न करके मनोहर वाणी मुँहसे निकालते और कुपित होनेपर भी शान्ति धारण करते हैं, वे मानव स्वर्गगामी होते हैं। देवि! यह वाणीद्वारा पाला जानेवाला धर्म है। शुभ तथा सत्य गुणोवाले विद्वान् मनुष्योंको सदा इसका सेवन करना चाहिये।
कल्याणि ! मानसिक धर्मसे युक्त मनुष्य सदा स्वर्गमें जाते हैं। मैं उनका वर्णन करता हूँ। सुनो। निर्जन वनमें रखे हुए पराये धनपर जब दृष्टि पड़े, उस समय जो मनसे भी उसे लेना नहीं चाहते, वे स्वर्गगामी होते हैं। इसी प्रकार जो परायी स्त्रियोंको एकान्तमें पाकर मनके द्वारा भी कामवश उन्हें नहीं ग्रहप करते, जो शत्रु और मित्रको सदा एक-चित्तसे अपनाते, शास्त्रों का अध्ययन करते, पवित्र एवं सत्यप्रतिज्ञ होते और अपने ही धनसे संतुष्ट रहते हैं, जिनसे दूसरोंको कष्ट नहीं पहुँचता और जिनके चित्तमें सदा मैत्रीका भाव बना रहता है, जो सब प्राणियोंपर निरन्तर दयभव बनाये रहते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकमें जानेके अधिकारी हैं। जो ज्ञानवान्, क्रियावान्, क्षमावान्, सुहद्-प्रेमी, धर्माधर्मक ज्ञाता और शुभाशुभ कर्मोक फल-संग्रहके प्रति उदासीन रहते हैं, जो पापियोंको त्याग देते, देवताओं और द्विजों की सेवामें संलग्न रहते एवं गुरुजनों आनेपर खड़े होकर उनका स्वागत करते हैं, वे मानव स्वर्गलोकमें जाते हैं। देवि! जो लोग शुभकर्मोंके फलस्वरूप स्वर्गमार्गपर जाते हैं, उनका मैंने वर्णन किया। अब तुम और क्या सुनना चाहती हो?
पार्वतीजी बोलीं- महेश्वर ! मेरे मनमें मनुष्योंक सम्बन्धमें एक और महान् संशय है। अत: आपा उसका भलीभाँत समाधान करें। प्रभो ! मनुष्य किस कर्मसे इस पृथ्वीपर बड़ी आयु प्राप्त करता हैं? और किस कर्मसे उसकी आयु क्षीण हो जाती है? आप कर्मोके परिणामका वर्णन करें।
शिवजी बोले- देवि ! कामका फल जैसे प्राप्त होता है, उसका वर्णन करता हैं; सुनो। मर्त्यलोकमें सत्ब मनुष्य अपने-अपने कर्मोका फल भोगते हैं। जो मनुष्य सदा हाथमें डंडा लेकर दूसरोक प्राणोंका संहार करता, सर्वदा हथियार उठाकर प्राणियोंकी हिंसा किया करता, सब जीवोंके प्रति निर्दय बना रहता, सदा सबको उद्वेगमें डालता, कोट और पतङ्गोंको भी शरण नहीं देता और अत्यन्त निष्ठुरतापूर्ण बताव करता है, वह नरकमें पड़ता हैं। इसके विपरीत जो धर्मात्मा होता है, उसे अपने स्वरूपके अनुरूप ही गति मिलती है। हिंसक नरकमें और अहिंसक स्वर्गमें जाता है। नरकगामी मनुष्य नरकमें पड़कर अत्यन्त दुस्सह एवं भयंकर यातना भोगता है। जो कोई कभी उस नरकसे निकलता हैं, वह यदि मनुष्य-योनिमें आता हैं तो भी वहाँ उसकी आयु बहुत थोड़ी होती है। देवि ! जो शुभकर्म करते हुए जीवन व्यतीत करता है, प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहता है, जो शस्त्र और दण्डका त्याग करके कभी किसीकी हिंसा नहीं करता, न मरवाता है, न मारता है और न मारनेवालेका अनुमोदन ही करता है, जिसका सभी प्राणियोंके प्रति स्नेह हैं तथा जो अपने और परायेमें समान भाव रखता है, ऐसा पुरुष सदा देवपदको प्राप्त होता है। देवि! वह अपने शुभ क्रमले प्राप्त देवचित सुख-भोगका प्रसन्नतापूर्वक उपभोग करता है। अह यदि कभी मनुष्य लोकमें आता है तो उसका बड़ी आयु होती है। यह बड़ी आयुवाले सदाचारी एवं पुण्यात्मा मनुष्योंका मार्ग है। जीवोंकी हिंसाको त्याग करनेसे इसकी प्राप्ति होती है. यह ब्रह्माजीका कथन है।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन् ! कैसे शील और सदाचारवाला पुरुष किन कम अथवा किस्सा दानसे स्वर्ग जाता हैं?
महादेवजी बोले- जो ब्राह्मणका सत्कार करनेवाला तथा दीन-दु:खी और कृपण आदिको भक्ष्य, भोज्य, अन्न, पान एवं बस्त्र देनेवाला है, जो यज्ञमण्डप, धर्मशाला, पौंसला तथा पुष्करिणी बनवाता हैं, मन और इन्द्रियोंको वशमें करके शुभावसे नित्य-नैमित्तिक आदि कर्म करता है, आसन, शय्या, सवारी, घर, रत्न, धन, खेतकी उपज तथा खेत आदि वस्तुओंका सदा शान्त चित्तसे दान करता है, देवि! ऐसा मनुष्य देवलोक जन्म लेता है। वहाँ दीर्घकालतक उत्तम भोगोंका उपभोग करते हुए नन्दन आदि वनों में अप्सराओके साथ प्रसन्नतापूर्वक विहार करता है। देवि ! वहाँसे च्युत होनेपर वह मनुष्योंके सौभाग्यशाली कुलमें, जो धन-धान्यसे सम्पन्न होता हैं, जन्म लेता है। वह मानव समस्त मनोवाञ्छित गुणों से युक्त, प्रसन्न, प्रचुर भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न एवं धनवान् होत हैं। पार्वते ! जो दानशील महाभाग प्राणी हैं, ब्रह्माजीने उन्हें सर्वप्रिय बतलाया है। इनके सिवा दूसरे मनुष्य ऐसे हैं, जो देनेमें कृपण होते हैं। वे मूर्ख घरमें रहते हुए भी किसीको अन्न नहीं देते। दीनों अंधों, कृपणों दु:खियों याचऔर अतिथियों देखकर मुँह फेर लेते हैं। उनके याचना करते रहनेपर भी अनसुनी करके पीछे लौट जाते हैं। कभी किसीको धन, वस्त्र, भोग, स्वर्ग, गौ और भाँति-भांतिके खाद्य पदार्थ नहीं देते। जो लोभी, नस्तिक और दानरहित होते हैं, वे अज्ञानी मनुष्य नाकमें पड़ते हैं। कालचक्रके परिवर्तनसे उन्हें इब कभी मनुष्य-योनिमें आना पड़ता है, तब वे निर्धनकुलमें जन्म पाते हैं। बुद्धि भी उनकी बहुत थोड़ी होती है। यहाँ वे भूख-प्यासका कष्ट सहते हैं। सब लोग उन्हें समाजसे बहिष्कृत किये रहते हैं। वे सब भोगोंसे निराश हो पापपूर्ग वृत्तसे जीवननिर्वाह करते हैं। उनका जन्म ऐसे कुलमें होता है, जहाँ भोग-सामग्न बहुत थोड़ी होती है; अतः वे अल्पभोगपरायण होते हैं। देवि ! इस प्रकार दान न करनैसै मनुष्य निर्धन होते हैं।
उनसे भिन्न अन्य मनुष्य दम्भी और अभिमानी होते हैं। वै मन्दबुद्धि मानव आसन देने योग्य गुरुजनके आनेपर उन्हें पीढ़ानक नहीं देते। जिन्हें स्वयं किनारे हटकर जानेके लिये मार्ग देना उचित हैं, उनके लिये वे अज्ञानी मार्ग नहीं देते। जो लोग अयं पने योग्य हैं, उनका वे विधिपूर्वक पूजन नहीं करते। उन्हें पावा अथवा आचमनीय भी नहीं देते। अभीष्ट एवं श्रेष्ठ गुरुजनसे भी प्रेमपूर्वक वार्तालाप नहीं करते। अभिमानके साथ ही बड़े हुए लोभके वशीभूत होकर ने माननीय पुरुषोंका भी अनादर और बड़े-बूढोंका तिरस्कार करते हैं। देवि ! ऐसे स्वभाववाले सभी मनुष्य नरकमें जाते हैं। यदि वे कभी उस रत्नसे छुटकारा पाते हैं तो बहुत वर्षांत अन्यान्य योनियोंमें भटकनेके बाद घृणित, अज्ञानी, चाण्डाल आदिके निन्दित कुलमें जन्म पाते हैं। गुरुजनों और वृद्ध पुरुषोंको संताप देनेवाले लोगोंकी यही गति होती हैं।
जो न दम्भी है न मानी है, जो देवता और अतिथियोंको पूजक, लेकफूप, सबको नमस्कार करनेवाला, मधुरभाषी, सब प्रकार चेष्टाओंसे दूसरोंका प्रिय करनेवाल, समस्त प्राणियोंको सदा प्रिष मान्नेत, द्वेषरहित, प्रसन्मुख, कोमलस्वभाव, सबसे स्वागतपूर्वक स्नेहमय वचन बोलनेवला, प्राणियोंकी हिंस न करनेवाला, श्रेष्ठ पुरुषोंका विधिवत् सत्कारपूर्वक पूजन करनेवाला, मार्ग देने योग्य पुरुषको मार्ग देनेवाला, गुरुपूजक और अतिधिको का अभाग अर्पित करनेवाला है, ऐसा पुरुष स्वर्गमें जाता है। मनुष्य अपने किये हुए कर्मोक फल स्वयं ही भोगता हैं। यह साक्षात् ब्रह्माजीका बताया हुआ धर्म है, जिसका मैंने वर्णन किया है।
जिसका आचरण निर्दयतापूर्ण होता है, जो सब प्रापियोंके मनमें भय उपजाता हैं, हाथ, पैर रस्सी, डंडा, ठेला, खंभा अथवा अन्य साधनोंसे जीवोंको कष्ट देता है, हिंसाके लिये उद्वेग पैदा करता है, पर आक्रमण करता और उन्हें उद्विग्न बनाता है, ऐसे स्वभाव और आचरणवाला मनुष्य नकमें पड़ता है। वह यदि कालक्रमसे मनुष्य-योनिमें जाता है तो अभम कुलमें जन्म लेता है, जहाँ उसे नाना प्रकारको बाधाएँ और क्लेश सहन करने पड़ते हैं। वह अधम मनुष्य अपने किये हुए कर्मोक फलस्वरूप सब लोकका द्वेषपात्र होता है। इसके विपरीत जो सब प्राणियों दयापूर्ण दुष्टिसे देखा है, सबके प्रति मैत्रीभाव रखता है, पिताके समान निर्वैर होता है, दयालु होनेके कारण प्राणियोंको न इराता है और न मारता ही है, जिसके हाथ-पैर वशमें होते हैं, जो सम्पूर्ण जीवोंक विश्वासपात्र हैं, रस्सी, इंडा, डेला अथवा अस्त्र-शस्त्रोंसे किसी भी जौवको उद्वेग नहीं पहुंचाता, शुभ कर्म करता और सबपर दया रखता है, ऐसे शीत और आचरणवाला मनुष्य स्वर्गमें जाता है। वहाँ देवताओंकी भाँति वह दिव्य भवनमें सानन्द निवास करता हैं। वह यदि पुण्यक्षयके पश्चात् मर्त्यलोकमें आता है तो मनुष्योंमें लेशरहित एवं निर्भय होता है। वह सुखसे जन्म लेता और अभ्युदयशील होता है। सुखका भागी तथा उद्वेगशून्य होता है। देवि! यह साधु पुरुषोंका मार्ग हैं, जहाँ किसी प्रकारकी बाधा नहीं है।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन् ! कुछ मनुष्य ऊहापोहमें कुशल दिखायी देते हैं; अत: कृपया बताइये-किस कर्मसे मनुष्य बुद्धिमान होते हैं? तथा जो लोग जन्मसे ही अंधे, रोगी तथ नपुंसक देखें जाते हैं, उनके वैसे होनेमें क्या कारण है? बतानेको कृपा करें।
महादेवजी बोले- जो लोग वेदवेत्ता, सिद्ध तथा धर्मज्ञ ब्राह्मणोंसे प्रतिदिन शुभाशुभ कर्म पूछते हैं और अशुभका त्याग करके शुभ कर्मका सेवन करते हैं, वे इस लोकमें सुखसे रहते और अन्तमें स्वर्गगामी होते हैं। ऐसे लोग जब फिर कभी मनुष्य-योनिमें आते हैं, तब बुद्धिमान होते हैं। जिसका वेदाध्ययन यज्ञानुष्ठानमें सहायक होता है, वह कल्याणका भागी होता है। जो परायी स्त्रियों पर कुदृष्टि डालते हैं, वे उस दुष्ट स्वभावके कारण जन्मान्ध होते हैं। जो दूषित मनसे परायी स्त्रीको नंगी देखते हैं, वे पापी मनुष्य इस लोकमें रोगसे पीड़ित होते हैं। जो मूर्ख और दुराचारी मानव पशु आदिके साथ मैथुन करते हैं, वे मानव नपुंसक होते हैं। जों पशुओंको बाँधे रखते और गुरुपली-गमन करते हैं, वे मनुष्य भी नपुंसक होते हैं। | पार्वतीजीने पूछा-देवश्रेष्ठ! कौन-सी कर्म अनिन्छ हैं? क्या करनेसे मनुष्य कल्याणका भागी होता है? । महादेवजी बोले-जो कल्याणम्य मार्गकी इच्छा रखता हुआ सदा ब्राह्मणोंसे उसकी जिज्ञासा करता है, जो धर्मका अन्वेषण और गुणोंकी अभिलाषा करता है, वह स्वर्गमें जाता है। देवि! यदि कभी वह फिर मनुष्य-योनिमें आता है तो मेधावी और धारणाशक्तिसे युक्त होता है। यह सत्पुरुषोंका धर्म सबका कल्याण करनेवाला है, अतः इसीपर चलना चाहिये। यह मैंने मनुष्योंके हितके लिये बतलाया है।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन् ! कुछ लोग व्रत और तपसे भ्रष्ट एवं राक्षसके समान देखे जाते हैं। और कुछ मनुष्य यज्ञपरायण दृष्टिगोचर होते हैं; यह किस कर्मविपाकका फल है?
महादेवजीने कहा- देवि ! लोकधर्मके प्रतिपादक शास्त्र और प्राचीन मर्यादाको प्रमाण मानकर जो उसका अनुसरण करते हैं, वे दृढ़संकल्प एवं यज्ञतत्पर देखे जाते हैं। परंतु जो मोहके वशीभूत हो अधर्मको ही धर्म बताते हैं, वे व्रत और मर्यादाका लोप करनेवाले मानव ब्रह्मराक्षस होते हैं। उन्हीं में से जो लोग काल-क्रमसे यहाँ फिर मनुष्ययोनिमें जन्म लेते हैं, वे होम और वषट्कारसे शून्य एवं मनुष्यों में अधम होते हैं। देवि ! मैंने तुम्हारे संदेहका निवारण करने के लिये यह मनुष्योंके शुभाशुभ कर्मका निरूपण किया है।
अध्याय- 95 भगवान वासुदेव का माहात्म्य
व्यासजी कहते हैं – जगन्माता पार्वती अपने स्वामी की कही हुई सब बातें आदि से ही सुनकर बहुत प्रसन्न हुई । उससमय वहाँ तीर्थयात्रा के प्रसंग से जो मुनिउस पर्वतपर गये थे, उन्होंने भी शूलपाणि महादेवजी का पूजन और प्रणाम करके सब लोकों के हित के लिये प्रश्न किया ।
मुनियों ने कहा – त्रिलोचन ! आपको नमस्कार है । इस रोमांचकारी महाभयंकर संसार में अज्ञानी पुरुष चिरकाल से भटक रहे हैं, वे जन्म-मृत्युरूप संसारबंधन से किस उपाय से मुक्त हो सकते ? बताइये । हम यही सुनना चाहते हैं ।
महादेवजी बोले – द्विजो ! कर्मबन्धन में बंधकर दुःख भोगनेवाले मनुष्यों के लिये मैं भगवान वासुदेव से बढकर दूसरा कोई उपाय नही देखता । जो शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान वासुदेव का मन, वाणी और क्रियाद्वारा विधिपूर्वक पूजन करते हैं, वे परम गति को प्राप्त होते है । जिनका मन जगन्मय भगवान वासुदेव में नही लगा, उनके जीवन से और पशुओं की भाँती चेष्टा से क्या लाभ हुआ ।
मुनियों ने कहा – सर्वलोकवन्दित पिनाकधारी भगवान शंकर ! हम भगवान वासुदेव का महात्म्य सुनना चाहते है ।
महादेवजी बोले – सनातन पुरुष श्रीहरि ब्रह्माजी से भी श्रेष्ठ हैं । उनका श्रीविग्रह श्यामवर्ण हैं, उनकी कान्ति जाम्बूनद नामक सुवर्ण के समान है । वे मेघरहित आकाश में सूर्य की भांति प्रकाशित होते हैं । उनके दस भुजाएँ हैं । वे महातेजस्वी और देवशत्रुओं के नाशक हैं । उनके वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह शोभा पाटा हैं । वे इन्द्रियों के नियंता और सम्पूर्ण देववृन्द के अधिपति है । उनके उदर से ब्रह्मा का और मस्तक से मेरा प्रादुर्भाव हुआ है । सिरके बालोंसे नक्षत्र और ग्रह तथा रोमावलियों से देवता और असुर उत्पन्न हुए । उनके शरीर से ऋषि और सनातन लोक प्रकट हुए है । वे साक्षात ब्रह्माजी तथा संपूर्ण देवताओं के निवासस्थान हैं । वे ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी के रचयिता और तीनों लोकों के स्वामी हैं । वे देवताओं के भी देवता और रक्षक हैं । शत्रुओं को ताप देनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वस्त्रष्टा, सर्वव्यापी और सब ओर मुखवाले हैं । तीनों लोकों में उनसे बढकर दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं । वे सनातन महाभाग गोविन्द के नामसे विख्यात हैं । देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये मानव-शरीर में अवतीर्ण होकर वे समस्त भूपालों का युद्ध में संहार करेंगे । भगवान विष्णु के बिना देवगण अनाथ हैं । अत” उनके बिना ये संसार में देव-कार्य की सिद्धि नहीं कर सकते । सम्पूर्ण भूतों के नायक भगवान विष्णु समस्त प्राणियोंद्वारा वन्दित हैं । वे देवताओं के नाथ, कार्य-कारण-ब्रह्मस्वरूप और ब्रह्मर्षियों को शरण देनेवाले हैं । ब्रह्माजी उनकी नाभि में हैं और मैं शरीर में । सम्पूर्ण देवता भी उनके शरीर में सुखपूर्वक स्थित हैं । वे भगवान् कमल के समान नेत्र धारण करते हैं । उनके गर्भ से श्री का निवास हैं । वे सदा लक्ष्मीजी के साथ रहते हैं । शांर्ग नामक धनुष, सुदर्शन चक्र और नंदक नामक खड्ग उनके आयुध हैं । सम्पूर्ण नागों के शत्रु गरुड उनकी ध्वजा में विराजमान हैं । उत्तम शील, शौच, इन्द्रियसंयम, पराक्रम, वीर्य, सुदृढ़ शरीर, ज्ञान, सरलता, कोमलता, रूप और बल आदि सभी गुणों से वे सुशोभित हैं । उनके पास सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों का समुदाय हैं । उनके योगमायामय सहस्त्रों नेत्र हैं । वे विकराल नेत्रोंवाले भी हैं । उनका ह्रदय विशाल हैं । वे अपनी वाणी से मित्रजनों की प्रशंसा करते हैं । कुटुम्बी और बंधुजनों के प्रेमी है । क्षमाशील, अहंकारशून्य और वेदों का ज्ञान प्रदान करनेवाले हैं । वे भयातूरों के भय का अपहरण और मित्रों के आनंद की वृद्धि करनेवाले हैं । समस्त प्राणियों को शरण देनेवाले और दीनों के पालक हैं । शास्त्रों के ज्ञाता और ऐश्वर्यसम्पन्न हैं । शरण में आये हुए मनुष्यों के उपकारी और शत्रुओं को भय देनेवाले हैं । नीतिज्ञ, नितिसंपन्न, ब्रह्मवादी, जितेन्द्रिय और उत्कृष्ट बुद्धि से युक्त है ।
वे देवताओं के अभ्युदय के लिये महात्मा मनुके वंश में अवतार लेंगे । उस अवतार में वे ब्राह्मणों का सत्कार करनेवाले, ब्रह्मस्वरूप और ब्राम्हणों के प्रेमी होंगे । यदुकुल में अवतीर्ण भगवान श्रीकृष्ण राजगृह में जरासंध को जीतकर उसकी कैद में पड़े हुए राजाओं को छुडायेंगे । पृथ्वी के समस्त रत्न उनके पास संचित होंगे । वे अत्यंत पराक्रमी होंगे । भूतलपर दूसरा कोई वीर उन्हें पराक्रमद्वारा परास्त न कर सकेगा । वे विक्रम से सम्पन्न समस्त राजाओं के भी राजा और वीरमूर्ति होंगे । भगवान वासुदेव द्वारका में रहते हुए दुर्बुद्धि दैत्यों को पराजित करके इस पृथ्वी का पालन करेंगे । आप सब लोग ब्राह्मणों तथा श्रेष्ठ पूजन-सामग्रियों के साथ भगवान की सेवा में उपस्थित हो सनातन ब्रह्माजी की भांति उनका यथायोग्य पूजन करें । जो मेरा तथा पितामह ब्रह्मा का दर्शन करना चाहता हो, उसे परम प्रतापी भगवान वासुदेव का दर्शन अवश्य करना चाहिये । उनका दर्शन होने से ही मेरा भी दर्शन हो जाता हैं – इससे कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । तपोधनो ! भगवान वासुदेव ही ब्रह्मा हैं, ऐसा जानो । जिनपर कमलनयन भगवान विष्णु प्रसन्न होंगे, उनपर ब्रह्मासहित सम्पूर्ण देवता भी प्रसन्न हो जायेंगे । संसार में जो मानव भगवान केशव की शरण लेगा, उसे कीर्ति, यश और स्वर्गकी प्राप्ति होगी । इतना ही नहीं, वह धर्मात्मा होने के साथ ही धर्म का उपदेश करनेवाला आचार्य होगा ।
महातेजस्वी भगवान विष्णु ने प्रजावर्ग का हित करने की इच्छा से धर्मानुष्ठान के लिये कोटि-कोटि ऋषियों को उत्पन्न किया । वे सनत्कुमार आदि ऋषि गंधमादन पर्वतपर विधिपूर्वक तपस्या में संलग्न हैं । इसलिए धर्मज्ञ एवं प्रवचन कुशल भगवान विष्णु सबके लिये नमस्कार करनेयोग्य हैं । वे वन्दित होनेपर स्वयं वन्दना करते हैं और सम्मानित होनेपर स्वयं भी सम्मान देते हैं । जो प्रतिदिन उनका दर्शन करता हैं, उसपर वे भी सदा कृपादृष्टि रखते हैं । जो उनकी शरण में जाता हैं, उसकी ओर वे भी बढ़ आते हैं । जो अर्चना करता हैं, उसकी वे भी सदा अर्चना करते हैं । इसप्रकार आदिदेव भगवान विष्णु अनिन्द्य हैं । साधू पुरुषों ने उनकी आराधना के लिये बड़ी भारी तपस्या की हैं । देवताओं ने भी सनातन देव श्रीहरि का सदा ही पूजन किया हैं । भगवान के अनुरूप निर्भयता से युक्त हो उनकी शरण में जाकर उनकी आराधना में मन लगाया हैं । सम्पूर्ण द्विजों को चाहिये कि वे मन, वाणी और क्रियाद्वारा भगवान देवकी-नंदन की सेवामे उपस्थित हो यत्नपूर्वक उनका दर्शन और नमस्कार करे । मुनिवरों ! मैंने इसी मार्ग का अनुष्ठान किया है । उन सर्वदेवेश्वर भगवानका दर्शन कर लेनेपर सम्पूर्ण देवताओं का दर्शन हो जाता हैं । उन महावराहरूपधारी सर्वलोकपितामह जगत्पति भगवान विष्णु को मैं नित्यप्रति प्रणाम करता हूँ । उन्हीं श्रीकृष्ण के बड़े भाई हलधर बलरामजी होंगे, जिनका श्वेतगिरि के समान गौर वर्ण होगा । इस पृथ्वी को धारण करनेवाले शेषनाग ही उनके रूप में अवतीर्ण होंगे । वे भगवान शेष बड़ी प्रसन्नता के साथ सर्वत्र विचरण करते हैं । वे अपने फणसे पृथ्वी को लपेट करके स्थित हैं । ये जो भगवान विष्णु कहलाते हैं, वे ही इस पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान अनंत हैं । जो बलराम हैं, वही समस्त इन्द्रियों के स्वामी धरणीधर अच्युत हैं । वे दोनों पुरुषसिंह दिव्य रूप एवं दिव्य पराक्रमी हैं । उन दोनों का दर्शन और आदर करना चाहिये । वे क्रमश: चक्र और हल धारण करनेवाले हैं । तपोधनो ! मैंने तुमलोगों से भगवान के अनुग्रह का यह उपाय बताया है, अत: तुम सब लोग प्रयत्नपूर्वक यदुश्रेष्ठ भगवान वासुदेव का पूजन करो ।
अध्याय- 96 श्री वासुदेव की पूजन की महिमा एकादशी को भगवान के मंदिरों में जागरण करने के माहात्म्य ब्रहा राक्षस और चंडाल की कथा
मुनियों ने कहा – महामुने ! श्रीवासुदेव के पूजन में संलग्न रहनेवाले मनुष्य उनका विधिपूर्वक भक्तिभाव से पूजन करके किस गति को प्राप्त होते हैं ?
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! तुमने बहुत अच्छी बात पूछी हैं । यह वैष्णवों को सुख देनेवाला विषय हैं, ध्यान देकर सुनो । वैष्णवों के लिये स्वर्ग और मोक्ष दुर्लभ नहीं है । वैष्णव पुरुष जिन-जिन दुर्लभ भोगों की अभिलाषा करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जैसे कोई पुरुष कल्पवृक्ष के पास पहुँच जानेपर अपनी इच्छा के अनुसार फल पाता है, उसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है । भक्त मनुष्य श्रद्धा और विधि के साथ जगदगुरु भगवान वासुदेव का पूजन करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चारों पुरुषार्थ के फलस्वरूप स्वयं भगवान को प्राप्त कर लेते हैं । जो लोग सदा भक्तिपूर्वक अविनाशी वासुदेव की पूजा करते हैं, उनके लिये तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं है । संसार में वे मनुष्य धन्य है, जो समस्त मनोवांछित फलों के देनेवाले सर्वपापहारी श्रीहरि का सदा पूजन करते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शुद्र और अन्त्यज – सभी सुरश्रेष्ठ भगवान वासुदेव का पूजन करके परम गति को प्राप्त होते हैं ।
दोनों पक्षों की एकादशी को उपवासपूर्वक एकाग्रचित हो विधिपूर्वक स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहने । इन्दिर्यों को अपने काबू में रखे और पुष्प, गंध, धूप, दीप, नैवेद्य, नाना प्रकार के उपहार, जप, होम, प्रदक्षिणा, भांति-भान्ति के दिव्य स्तोत्र, मनोहर गीत, वाद्य, दंडवत-प्रणाम तथा ‘जय’ शब्द के उच्चारणद्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करे । पूजन के पश्चात रात्रि में जागरण करके श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हुए उनकी कथा-वार्ता करे । अथवा भगवतसंबंधी पदों का गान करे । यों करनेवाला मनुष्य भगवान विष्णु के परम धाम को जाता हैं – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।
मुनियों ने पूछा – महामुने ! भगवान् विष्णु के लिए जागरण करके गीत गाने का क्या फल है ? उसे बताइये । उसका श्रवण करने के लिये हमारे मनमें बड़ी उत्कंठा है ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! भगवान विष्णु के लिये जागरण करते समय गान करनेका जो फल बताया गया है, उसका क्रमश: वर्णन करता हूँ; सुनो । इस पृथ्वीपर अवन्ती नामसे प्रसिद्ध एक नगरी थी, जहाँ शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान विष्णु विराजमान थे । उस नगरी के एक चांडाल रहता था, जो संगीत में कुशल था । वह उत्तम वृत्ति से धन पैदा करके कुटुंब के लोगों का भरण-पोषण करता था । भगवान विष्णु के प्रति उसकी बड़ी भक्ति थी । वह अपने व्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करता था । प्रत्येक मासकी एकादशी तिथि को वह उपवास करता और भगवान के मन्दिर के पास जाकर उन्हें गीत सुनाया करता था । वह गीत भगवान विष्णु के नामों से युक्त और उनकी अवतार-कथा से संबंध रखनेवाला होता था । गांधार, षड्ज, निषाद, पंचम और धैवत आदि स्वरों से वह रात्रि-जागरण के समय विभिन्न गाथाओंद्वारा श्रीविष्णु का यशोगान करता था । द्वादशी को प्रात:काल भगवान को प्रणाम करके अपने घर आता और पहले दामाद, भानजे और कन्याओं को भोजन कराकर पीछे स्वयं सपरिवार भोजन करता था । इसप्रकार विचित्र गीतोंद्वारा भगवान विष्णु की प्रसन्नता का सम्पादन करते हुए उस चांडाल की आयुका अधिकांश भाग बीत गया । एक दिन चैत्र के कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि को वह भगवान विष्णु की सेवा करने के लिए जंगली पुष्पों का संग्रह करने के निमित्त भक्तिपूर्वक उत्तम वनमें गया । क्षिप्रा के तटपर महँ वनके भीतर एक बहेड़े का वृक्ष था । उसके नीचे पहुँचनेपर किसी राक्षस ने उस चांडाल को देखा और भक्षण करने के लिये पकड़ लिया । यह देख चांडाल ने उस राक्षस से कहा – ‘भद्र ! आज तुम मुझे न खाओ, कल प्रात:काल खा लेना । मैं सत्य कहता हूँ, फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगा । राक्षस ! आज मेरा बहुत बड़ा कार्य हैं, अत: मुझे छोड़ दो । मुझे भगवान विष्णु की सेवा के लिये रात्रि में जागरण करना है । तुम्हें उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिये । ब्रह्मराक्षस ! सम्पूर्ण जगत का मूल सत्य ही है, अत: मेरी बात सुनो । मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, पुन: तुम्हारे पास लौट आऊँगा । परायी स्त्रियों के पास जाने और पराये धनको हडप लेनेवाले मनुष्यों को जिस पाप की प्राप्ति होती है, ब्रह्महत्यारे, शराबी और गुरुपत्नीगामी तथा शुद्रजातीय स्त्री से सम्बन्ध रखनेवाले द्विज को जो पाप होता हैं, कृतघ्न, मित्रघाती, दुबारा ब्याही हुई स्त्री के पति, क्रूरतापूर्ण कर्म-करनेवाले पुरुष, कृपण तथा वन्ध्या के अतिथि को जो पाप लगता हैं, अमावस्या, अष्टमी, षष्ठी और दोनों पक्षों की चतुर्दशी में स्त्रीसमागम से जो पाप होता है, ब्राह्मण यदि रसस्वला स्त्री के पास जाय अथवा श्राद्ध करके स्त्रीसमागम करे, उससे जो पाप लगता हैं, मल-भोजन करनेपर जिस पाप की प्राप्ति होती है, मित्रकी पत्नी के साथ सम्भोग करनेवालों को जो दोष प्राप्त होता है, चुगलखोर, दम्भी, मायावी और मधुघाती को जिस पापकी प्राप्ति होती है, ब्राह्मण को कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर उसे न देनेवाले को जो दोष लगता है, स्त्री-हत्या, बाल-हत्या और मिथ्याभाषण करनेवाले को जिस पापका भागी होना पड़ता है, देवता, वेद, ब्राह्मण, राजा, मित्र और साध्वी स्त्री की निंदा करने से जो पाप होता है, गुरु को झूठा कलंक देने, वन में आग लगाने, गौकी हत्या करने, ब्राह्मणाधम होने और बड़े भाई के अविवाहित रहते स्वयं विवाह कर लेनेपर जो पाप लगता हैं तथा भ्रूणहत्या करनेवाले मनुष्यों को जिस पापकी प्राप्ति होती है – अथवा यहाँ बहुत-से शपथों का वर्णन करने से क्या लाभ । राक्षस ! एक भयंकर शपथ सुन लो; यद्यपि वह कहने योग्य नहीं है तो भी कहता हूँ – अपनी कन्याको बेचकर जीविका चलानेवाले, झूठी गवाही देने एवं यज्ञ के अनधिकारी से यज्ञ करानेवाले मनुष्यों को जिस पापका भागी होना पड़ता हैं तथा, संन्यासी और ब्रह्मचारी को कामभोग में आसक्त होनेपर जिस पापकी प्राप्ति होती है, उक्त सभी पापों से मैं लिप्त हौऊँ, यदि तुम्हारे पास लौटकर न आऊँ ।’
चांडाल की यह बात सुनकर ब्रह्मराक्षस को बड़ा विस्मय हुआ । उसने कहा – ‘जाओ, सत्य के द्वारा अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन करना ।’ राक्षस के यों कहनेपर चांडाल फूल लेकर भगवान विष्णु के मन्दिरपर आया । उसने सभी फूल ब्राह्मण को दे दिये । ब्राह्मण ने उन्हें जलसे धोकर उनके द्वारा भगवान विष्णु का पूजन किया और अपने घर की राह ली; किन्तु चांडाल ने मन्दिर के बाहर ही भूमिपर बैठकर उपवासपूर्वक गीत गाते हुए रातभर जागरण किया । रात बीती, सवेरा हुआ और चांडाल ने स्नान करके भगवान को नमस्कार किया; फिर अपनी प्रतिज्ञा सत्य करने के लिये वह राक्षस के पास चल दिया । उसे जाते देख किसी मनुष्य ने पूछा- ‘भद्र ! कहाँ जाते ही ?’ चांडाल ने सब बातें कह सुनायी । तब वह मनुष्य फिर बोला – ‘यह शरीर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चारों पुरुषार्थों का साधन है; अत: विद्वान पुरुष को बड़े यत्न से इसका पालन करना चाहिये । मनुष्य जीवित रहे तो वह धर्म, अर्थ, सुख और श्रेष्ठ मोक्ष-गति को प्राप्त कर लेता हैं । जीवित रहनेपर वह कीर्ति का भी उपार्जन करता हैं । संसार में मरे हुए मनुष्य की कोई चर्चा ही नहीं करता ।’ उसकी बात सुनकर चांडाल ने युक्तियुक्त वचनों में उत्तर दिया – ‘भद्र ! मैंने शपथ खायी हैं, अत: सत्य को आगे करके राक्षस के पास जाता हूँ ।’ तब उस मनुष्य ने फिर कहा – ‘साधो ! तुम ऐसी मुर्खता क्यों करते हो ? क्या तुमने मनुजी का यह वचन नहीं सुना है – ‘गौ, स्त्री और ब्राह्मण की रक्षा के लिये, विवाह के समय, रति के प्रसंग में , प्राण-संकटकाल में, सर्वस्वका अपहरण होते समय –इन पाँच अवसरोंपर असत्यभाषण से पाप नही लगता ।’
उस मनुष्य का कथन सुनकर चांडाल ने पुन: उत्तर दिया – ‘आपका कल्याण हो, आप ऐसी बात मुँह से न निकालें । संसार में सत्यका ही आदर होता हैं । भूतलपर जो कुछ भी सुख-सामग्री है, वह सत्य से ही प्राप्त होती है । सत्य से ही सूर्य तपता हैं, सत्यसे ही जलमे रसकी स्थिति है, सत्यसे ही आग जलती और सत्यसे ही वायु चलती है । मनुष्यों को सत्यसे ही धर्म, अर्थ, काम और दुर्लभ मोक्ष की प्राप्ति होती है; अत: सत्यका परित्याग न करे । लोक में सत्य ही परब्रह्म है, यज्ञों में भी सत्य ही सबसे उत्तम है तथा सत्य स्वर्ग से आया हुआ है; इसलिये सत्य को कभी नही छोड़ना चाहिये ।
यों कहकर वह चांडाल उस मनुष्य को चुप कराकर उस स्थानपर गया, जहाँ प्राणियों का वध करनेवाला ब्रह्मराक्षस रहता था । चांडाल को आया देख ब्रह्मराक्षस के नेत्र आश्चर्य से चकित हो उठे । उसने सर हिलाकर कहा – ‘महाभाग ! तुम्हें साधुवाद ! तुम वास्तव में सत्य वचन का पालन करनेवाले हो । तुम तो सत्यस्वरूप हो । मैं तुम्हें चांडाल नही मानता । तुम्हारे इस कर्म से मैं तुम्हे पवित्र ब्राह्मण समझता हूँ । तुम्हारे मुख में कल्याण का निवास है । अब मैं तुमसे धर्म-सम्बन्धी कुछ बाते पूछता हूँ, बताओ । ‘ तुमने भगवान विष्णु के मन्दिर में कौन-सा कार्य किया ? मातंग ने कहा – ‘सुनो, मैंने मन्दिर के नीचे बैठकर भगवान के सामने मस्तक झुकाया और उनका यशोगान करते हुए साड़ी रात जागरण किया ।’ ब्रह्मराक्षस ने फिर पूछा – ‘बताओ, तुम्हें इसप्रकार भक्तिपूर्वक विष्णुमन्दिर में जागरण करते कितना समय व्यतीत हो गया ? चांडाल ने हँसकर कहा – ‘राक्षस ! मुझे प्रत्येक मासकी एकादशी को जागरण करते बीस वर्ष व्यतीत हो गये ।’ यह सुनकर ब्रह्मराक्षस ने कहा- ‘साधो ! अब मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, वह करो । मुझे एक रातके जागरण का फल अर्पण करो । महाभाग ! ऐसा करनेसे तुम्हें छुटकारा मिल जायगा; अन्यथा मैं तीन बार सत्यकी दुहाई देकर कहता हूँ कि तुम्हे कदापि नही छोडूँगा ।’ यों कहकर वह चुप हो गया ।
चांडाल ने कहा – ‘निशाचर ! मैंने तुम्हें अपना शरीर अर्पित कर दिया हैं । अत: अब दूसरी बात करनेसे क्या लाभ । तुम मुझे इच्छानुसार खा जाओ ।’ तब राक्षस ने फिर कहा – ‘अच्छा, रातके दो ही पहर के जागरण और संगीत का पुण्य मुझे दे दो । तुम्हें मुझपर भी कृपा करनी चाहिये ।’ यह सुनकर चांडाल ने राक्षस ने कहा – ‘यह कैसी बेसिर-पैर की बात करते हो । मुझे इच्छानुसार खा लो । मैं तुम्हे जागरण का पुण्य नहीं दूँगा ।’ चांडाल की बात सुनकर ब्रह्मराक्षस ने कहा – ‘भाई ! तुम तो अपने धर्म-कर्म से सुरक्षित हो; कौन ऐसा अज्ञानी और दुष्ट बुद्धिका पुरुष होगा, जो तुम्हारी ओर देखने, तुमपर आक्रमण करने अथवा तुम्हें पीड़ा देने का साहस कर सके । दिन, पापग्रस्त, विषयविमोहित, नरकपीड़ित और मूढ़ जीवपर साधू पुरुष सदा ही दयालु रहते हैं । महाभाग ! तुम मुझपर कृपा करके एक ही याम के जागरणका पुण्य दे दो अथवा अपने घर को लौट जाओ ।’ चांडाल ने फिर उत्तर दिया – ‘न तो मैं अपने घर लौटूँगा और न तुम्हे किसी तरह एक याम के जागरण का पुण्य ही दूँगा ।’ यह सुनकर ब्रह्मराक्षस हँस पड़े ।
पीडीए और बोला – ‘भाई ! रात्रि व्यतीत होते समय जो तुमने अंतिम गीत गाया हो, उसीका फल मुझे दे दो और पाप से मेरा उद्धार करो ।’
तब चांडाल ने उससे कहा – ‘यदि तुम आजसे किसी प्राणी का बढ़ न करो तो मैं तुम्हें अपने पिछले गीत का पुण्य दे सकता हूँ; अन्यथा नहीं ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्रह्मराक्षस ने उसकी बात मान ली । तब चांडाल ने उसे आधे मुहूर्त के जागरण और गान का फल दे दिया । उसे पाकर ब्रह्मराक्षस ने चांडाल को प्रणाम किया और प्रसन्न होकर तीर्थों में श्रेष्ठ पृथुदकतीर्थ की ओर चल दिया । वहाँ निराहार रहने का संकल्प लेकर ब्रह्मराक्षस ने प्राण त्याग दिया । उस गीत के फल से पुण्य की वृद्धि होने के कारण उसका उस राक्षसयोनि से उद्धार हो गया । पृथुदकतीर्थ के प्रभाव से दुर्लभ ब्रह्मलोक में जाकर उसने दस हजार वर्षोतक वहाँ निर्भय निवास किया । अंत में वह जितेन्द्रिय ब्राह्मण हुआ और इसे पूर्वजन्म का स्मरण बना रहा । अब चांडाल की शेष कथा कहता हूँ, सुनो ! राक्षस के चले जानेपर वह बुद्धिमान एवं संयमी चांडाल अपने घर आया । उस घटनासे चांडाल के मन में बड़ा वैराग्य हुआ । उसने अपनी पत्नी की रक्षा का भार पुत्रोंपर डाल दिया और स्वयं पृथ्वी की परिक्रमा आरम्भ कर दी । कोकामुख से लेकर जहाँ भगवान स्कन्द के दर्शन होते हैं, वहाँतक गया । स्कन्द का दर्शन करके वह धारा नगरी में गया । वहाँ भी प्रदक्षिणा करके वह पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्याचलपर जाकर पापमोचन तीर्थ में पहुँचा । वहाँ उस चांडालने स्नान किया, जो सब पापों को दूर करनेवाला है । फिर पापरहित हो वह उत्तम गतिको प्राप्त हुआ ।
अध्याय- 97 श्री विष्णु की भक्ति होने के क्रम कली धर्म का निरूपण
मुनियों ने कहा – महामते ! हमने भगवान श्रीकृष्ण के समीप जागरणपूर्वक गीत सुनाने का फल सुना, जिससे वह चांडाल परम गति को प्राप्त हुआ । अब जिस तपस्या अथवा कर्म से भगवान विष्णु में हमारी भक्ति हो सके, वह हमें बताइये । इस समय हम यही विषय सुनना चाहते हैं ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति महान फल देनेवाली है । वह मनुष्य को जिस प्रकार होती है, वह सब क्रमश: बतलाता हूँ; ध्यान देकर सुनो । ब्राह्मणों ! यह संसार अत्यंत घोर और समस्त प्राणियों के लिये भयंकर हैं । नाना प्रकार के सैकड़ो दु:खों से व्याप्त और मनुष्यों के ह्रदय में महान मोह का संचार करनेवाला है । इस जगत में पशु-कशी आदि हजारों योनियों में बारंबार जन्म लेने के पश्चात् देहधारी जीव कभी किसी प्रकार मनुष्यका जन्म पाता है । मनुष्यों में भी ब्राह्मणत्व, ब्राह्मणत्वमें भी विवेक, विवेक से भी धर्मनिष्ठ बुद्धि और बुद्धि से भी कल्यानमय मार्गों का ग्रहण होना अत्यंत दुर्लभ है । मनुष्यों के पूर्वजन्म का संचित पाप जबतक नष्ट नहीं हो जाता, तबतक जगन्मय भगवान वासुदेव में उनकी भक्ति नही होती । अत: ब्राह्मणों ! श्रीकृष्ण में जिस प्रकार भक्ति होती है, वह सुनो । अन्य देवतायों के प्रति मनुष्य की जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा तद्वतचित्त से भक्ति होती है, उससे यज्ञ में उसका मन लगता हैं; फिर वह एकाग्रचित होकर अग्नि की उपासना करता हैं । अग्निदेव संतुष्ट होनेपर भगवान भास्कर में उसकी भक्ति होती है । तबसे वह निरंतर सूर्यदेव की आराधना करने लगता है । भगवान सूर्य के प्रसन्न होनेपर उसकी भक्ति भगवान शंकर में होती है, फिर वह बड़े यत्न के साथ विधिपूर्वक महादेवजी की पूजा करता है । जब महादेवजी संतुष्ट होते है, तब मनुष्य की भक्ति भगवान श्रीकृष्ण में होती है । तब वह वासुदेवसंज्ञक अविनाशी भगवान जगन्नाथ का पूजन करके भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त कर लेता है ।
मुनियों ने पूछा– महामुने ! संसार में जो अवैष्णव मनुष्य देखे जाते हैं, वे श्रीविष्णु का पूजन क्यों नही करते ? इसका कारण बतलाइये ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! इस संसार में दो प्रकार के भूतसर्ग विख्यात हैं – एक असुर और दूसरा दैव प्रकृतिका आश्रय लेनेवाले मनुष्य भगवान विष्णु का पूजन करते हैं और आसुरी प्रकृति को प्राप्त हुए लोग श्रीहरि की निंदा किया करते हैं । ऐसे लोग मनुष्यों में अधम है । श्रीहरिकी माया से उनकी बुद्धि मारी गयी है । ब्राह्मणों ! वे श्रीहरि को न पाकर नीच गति में जाते है । भगवान की माया बड़ी गूढ़ है । देवताओं और असुरों के लिये भी उसका ज्ञान होना कठिन है । वह मनुष्यों के ह्रदय में महँ मोह का संचार करती है । जिन्होंने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये उस माया को पार करना कठिन हैं ।
मुनियों ने कहा – महर्षे ! अब हम आपसे जगत के संहार की कथा सुनना चाहते हैं । कल्प के अंत में जो महाप्रलय होता है, उसका वर्णन कीजिये ।
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! कल्प के अंत में तथा प्राकृत प्रलय में जो जगत का संहार होता है, उसका वर्णन सुनो । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि – ये चार युग है, जो देवताओं के बारह हजार दिव्य वर्षों में समाप्त होते हैं समस्त चतुर्युग स्वरूप से एक-से ही होते है । सृष्टि के आरम्भ में सत्ययुग होता है तथा अंत में कलियुग रहता हैं । ब्रह्माजी प्रथम कृतयुग में जिसप्रकार सृष्टिका आरम्भ करते हैं, वैसे ही अंतिम कलियुग में उसका उपसंहार करते है ।
मुनियों ने कहा – भगवन ! कलि के स्वरूप का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये, जिसमें चार चरणोंवाले भगवान धर्म खंडित हो जाते है ।
व्यासजी बोले – निष्पाप मुनियों ! तुम जो मुझसे कलिका स्वरप पूछते हो, वह तो बहुत बड़ा है; तथापि मैं संक्षेप से बतलाता हूँ, सुनो ।
• कलियुग में मनुष्यों की वर्ण और आश्रमसम्बन्धी आचार में प्रवृत्ति नही होगी । • सामवेद, ऋग्वेद और यजुर्वेद की आज्ञा के पालन में भी कोई प्रवृत्त न होगा । • कलियुग में विवाह को धर्म नहीं माना जायगा । • शिष्य गुरु के अधीन नहीं रहेंगे । • पुत्र भी अपने धर्म का पालन नही करेंगे । • अग्निहोत्र का नियम उठ जायगा । कोई किसी भी कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो- जो बलवान होगा, वही कलियुग में सबका स्वामी होगा । • सभी वर्णों के लोग कन्या बेचकर जीवन-निर्वाह करेंगे । • बाह्मणों ! कलियुग में जिस किसीका जो भी वचन होगा, सब शास्त्र ही माना जायगा । • कलियुग में सब देवता होंगे और सबके लिये सब आश्रम होंगे । अपनी-अपनी रूचि के अनुसार अनुष्ठान करके उसमें उपवास, परिश्रम और धनका व्यय करना धर्म कहा जायगा । • कलियुग में थोड़े से ही धनसे मनुष्यों को बड़ा घमंड होगा । • स्त्रियों को अपने केशोंपर ही रूपवती होने का गर्व होगा । सुवर्ण, मणि और रत्न आदि तथा वस्त्रों के भी नष्ट हो जानेपर स्त्रियाँ केशों से ही शृंगार करेंगी । • कलियुग की स्त्रियाँ धनहीन पति को त्याग देंगी । उससमय धनवान पुरुष ही युवतियों का स्वामी होगा । • जो- जो अधिक देगा, उसे-उसे ही मनुष्य अपना मालिक मानेंगे । उससमय लोग प्रभुता के ही कारण सम्बन्ध रखेंगे । • द्रव्यराशि घर बनाने में ही समाप्त हो जायगी । उससे दान-पुण्यादि न होंगे । • बुद्धि द्रव्यों के संग्रहमात्र में ही लगी रहेगी । उसके द्वारा आत्मचिंतन न होगा । सारा धन उपभोगमें ही समाप्त हो जायगा । उससे धर्म का अनुष्ठान न होगा । • कलियुग की स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी होंगी । हाव-भाव-विलास में ही उनकी स्पृहा रहेगी । अन्याय से धन पैदा करनेवाले पुरुषों से ही उनकी आसक्ति होगी । • सुह्रदों के निषेध करनेपर भी मनुष्य एक-एक पाई के लिये भी दूसरों के स्वार्थ की हानि कर देंगे । • कलियुग में सब लोग सदा सबके साथ समानता दावा करेंगे । • गायों के प्रति तभीतक गौरव रहेगा, जबतक कि वे दूध देती रहेंगी । • कलियुग की प्रजा प्राय: अनावृष्टि और क्षुधा के भय से व्याकुल रहेगी । सबके नेत्र आकाश की ओर लगे रहेंगे । • वर्षा न होने से दु:खी मनुष्य तपस्वीजनों की भांति मूल-फल और पत्ते खाकर रहेंगे और कितने ही आत्मघात कर लेगे । कलि में सदा अकाल ही पड़ता रहेगा । सब लोग सदा असमर्थ होकर क्लेश भोगेंगे । कभी किन्हीं मानवों को थोडा सुख भी मिल जायगा । • सब लोग बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे । अग्निहोत्र, देवपूजा, अतिथि-सत्कार, श्राद्ध और तर्पण की क्रिया कोई नहीं करेंगे । • कलियुग की स्त्रियाँ लोभी, नाटी, अधिक खानेवाली, बहुत सन्तान पैदा करनेवाली और मंद भाग्यशाली होंगी । वे दोनों हाथों से सिर खुजलाती रहेंगी । • गुरुजनों तथा पति की आज्ञा का भी उल्लंघन करेंगी तथा पर्दे के भीतर नही रहेगी । अपना ही पेट पालेंगी, क्रोध में भरी रहेंगी । देह-शुद्धि की ओर ध्यान नहीं देंगी और असत्य एवं कटु वचन बोलेंगी । इतना ही नहीं, वे दुराचारिणी होकर दुराचारी परुषों से मिलने की अभिलाषा करेंगी ।कुलवती स्त्रियाँ भी अन्य पुरुषों के साथ व्यभिचार करेंगी । • ब्रह्मचारी लोग वेदोक्त व्रत का पालन किये बिना ही वेदाध्ययन करेंगे । • गृहस्थ पुरुष न तो हवन करेंगे और न सत्पात्र को उचित दान ही देंगे । • वानप्रस्थ आश्रम में रहनेवाले लोग वन के कंद-मूल आदि से निर्वाह न करके ग्रामीण आहार का संग्रह करेंगे और संन्यासी भी मित्र आदि के स्नेह-बंधन में बँधे रहेंगे । • कलियुग आनेपर राजालोग प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे, अपितु कर लेने के बहाने प्रजा के ही धन का अपहरण करनेवाले होंगे । • उस समय जिस-जिस के पास हाथी, घोड़े और रथ होंगे, वही-वाही राजा होगा और जो-जो निर्बल होंगे, वे ही सेवक होंगे । • वैश्यलोग कृषि, वाणिज्य आदि अपने कर्मों को छोडकर शुद्र-वृत्तिसे रहेंगे । शिल्प-कर्म से जीवन-निर्वाह करेंगे । इसी प्रकार शुद्र भी संन्यास का चिन्ह धारण करके भिक्षापर जीवन-निर्वाह करेंगे । वे अधम मनुष्य संस्कारहीन होते हुए भी लोगों को ठगने के लिये पाखंड-वृत्तिका आश्रय लेंगे । • दुर्भिक्ष और करकी पीड़ा से अत्यंत उपद्र्वग्रस्त होकर प्रजाजन ऐसे देशों में चले जायेंगे, जहाँ गेहूँ और जौ आदि की अधिकता होगी । उससमय वेदमार्ग का लोप, पाखंडकी अधिकता और अधर्म की वृद्धि होने से लोगों की आयु बहुत थोड़ी होगी । • कलियुग में पाँच, छ: अथवा सात वर्ष की स्त्री और आठ, नौ या दस वर्ष के पुरुषों के ही संताने होने लग जायँगी । • बारह वर्ष की अवस्था में ही बाल सफेद होने लगेंगे । • घोर कलियुग आनेपर कोई मनुष्य बीस वर्षतक जीवित नही रहेगा । उस समय लोग मंदबुद्धि, व्यर्थ चिन्ह धारण करनेवाले और दुष्ट अंत:करणवाले होंगे; अत: वे थोड़े ही समय में नष्ट हो जायेंगे । • जब – जब इस जगत में पाखंड-वृत्ति दृष्टिगोचर होने लगे, तब-तब विद्वान पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिये । • जब – जब वैदिक मार्ग का अनुसरण करनेवाले साधू पुरुषों की हानि हो, तब – तब बुद्धिमान पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिये । • जब धर्मात्मा मनुष्यों के आरम्भ किये हुए कार्य शिथिल हो जायँ, तब उसमें विद्वानों को कलियुग की प्रधानता का अनुमान करना चाहिये । • जब – जब यज्ञों के अधीश्वर भगवान पुरुषोत्तम का लोग यज्ञोंद्वारा यजन न करें, तब – तब यह समझना चाहिये कि कलियुगका बल बढ़ रहा हैं । द्विजवरो ! जब वेदवाद में प्रेम न हो और पाखंड में अनुराग बढ़ता जाय, तब विद्वान पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिये । ब्राह्मणों कलियुग में पाखंड से दूषित चित्तवाले मनुष्य सबकी सृष्टि करनेवाले जगतपति भगवान विष्णु की आराधना नहीं करेंगे । उससमय पाखण्ड से प्रभावित मनुष्य ऐसा कहेंगे कि ‘देवताओं से क्या लेना हैं । ब्राह्मणों और वेदों से क्या लाभ है । जल से होनेवाली शुद्धि में क्या रखा है । ‘ • कलियुग में मेघ थोड़ी वृष्टि करेंगे । खेती में बहुत कम फल लगेंगे और वृक्षों के फल सारहीन होंगे । • कलि में प्राय: लोग घुटनोतक वस्त्र पहनेगे । • वृक्षों में शमी की ही अधिकता होगी । • चारों वर्णों के सब लोग प्राय: शुद्रवत हो जायेंगे । • कलियुग आनेपर प्राय: छोटे-छोटे धान्य होंगे । अधिकतर बकरियों का दूध मिलेगा और उशीर (खस) ही एकमात्र अनुलेपन होगा । • कलियुग में अधिकतर सास और सुसर ही लोगों के गुरुजन होंगे । मुनिवरो ! उस समय मनोहारिणी भार्या और साले आदि ही सुह्रद समझे जायेंगे । लोग अपने ससुर के अनुगामी होकर कहेंगे कि ‘कौन किसकी माता हैं और कौन किसका पिता । सब जीव अपने कर्मों के अनुसार ही जन्मते और मरते हैं ।’ • उससमय थोड़ी बुद्धिवाले मनुष्य मन, वाणी और शरीर के दोषों से प्रभावित होकर प्रतिदिन बारंबार पाप करेंगे । सत्य, शौच और लज्जा से रहित मनुष्यों के लिये जो-जो दुःख की बात हो सकती हैं, वह सब कलिकाल में होगी । • संसार में स्वाध्याय, वषटकार, स्वधा और स्वाहा का शब्द नहीं सुनायी देगा । उस समय स्वधर्मनिष्ठ ब्राह्मण कोई विरला ही होगा । • एक विशेषता अवश्य है , कलियुग में थोडा-सा ही प्रयन्त करनेपर मनुष्य वह उत्तम पुण्यराशि प्राप्त कर सकता हैं, जो सत्ययुग में बहुत बड़ी तपस्या से ही साध्य हो सकती है ।
ब्राह्मणों ! कलियुग धन्य है, जहाँ थोड़े ही क्लेशसे महान फल की प्राप्ति होती है तथा स्त्री और शुद्र भी धन्य है । इसके सिवा और भी सुनो ।
सत्ययुग में दस वर्षतक तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदिका अनुष्ठान करने से जो फल मिलता हैं, वह त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास तथा कलियुग में एक दिन-रात के ही अनुष्ठान से मिल जाता हैं । इसलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया । सत्ययुग में ध्यान, त्रेतामें यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापर में पूजन करने से मनुष्य जिस फलको पाता हैं, वही कलियुग में केशव का नाम-कीर्तन करनेमात्र से मिल जाता हैं । धर्मज्ञ ब्राह्मणों ! इस कलियुग में थोड़े-से परिश्रम से ही मनुष्य को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती हैं । इसलिये मैं कलियुग से अधिक संतुष्ट हूँ ।
द्विजों को पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता हैं । फिर धर्मत: प्राप्त हुए धन के द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करना पड़ता हैं । इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ धन द्विजों के पतन के कारण होते हैं ; इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक हैं । यदि वे सभी वस्तुओं में विधिका पालन न करें तो उन्हें दोष लगता हैं । यहाँतक कि भोजन और पान आदि भी उनकी इच्छा के अनुसार नहीं प्राप्त होते । वे समस्त कार्यों में परतंत्र होते हैं । इसप्रकार विनीत भाव से महान क्लेश उठाकर वे उत्तम लोकों पर अधिकार प्राप्त करते हैं; परन्तु मन्त्रहीन पाक-यज्ञ का अधिकारी शुद्र केवल द्विजों की सेवा करनेमात्र से अपने लिये अभीष्ट पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेता हैं । इसलिये शुद्र अन्य वर्णों की अपेक्षा अधिक धन्यवाद का पात्र हैं । स्त्रियाँ क्यों धन्य हैं, इसका कारण बतलाया जाता हैं । पुरुषों को अपने धर्म के विपरीत न चलकर सदा ही धनोपार्जन करना, उसे सुपात्रों को देना और विधिपूर्वक यज्ञ करना आवश्यक हैं । धन के उपार्जन और संरक्षण में महान क्लेश उठाना पड़ता हैं तथा उसे उत्तम कार्य में लगाने के लिये मनुष्यों को जो गहरी चिंता करनी पडती हैं, वह सबको विदित हैं । ये तथा और भी बहुत से क्लेश सहन करके पुरुष क्रमश: प्राजापत्य आदि शुभ लोक प्राप्त करते हैं; परन्तु स्त्री मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल पतिकी सेवा करनेमात्र से उसके समान लोकोंपर अधिकार प्राप्त कर लेती हैं । वे महान क्लेश के बिना ही उन्ही लोकों में जाती हैं, इसलिये तीसरी बार मैंने स्त्रियों को साधुवाद दिया हैं । ब्राह्मणों ! यह मैंने कलियुग आदि की श्रेष्ठत्ता का कारण बताया हैं । अब तुमलोग जिस उद्देश्य से यहाँ आये हो, उसे पूछो; मैं तुम्हारे इच्छानुसार उसका भी वर्णन करूँगा । जो अपने सद्गुणरूपी जल से समस्त पापरूपी पंख को धो चुके हैं; उनके द्वारा थोड़े ही प्रयत्न से कलियुग में धर्म की सिद्धि हो जाती है । मुनिवरो ! शुद्र केवल द्विजों की सेवा में तत्पर रहने तथा स्त्रियाँ पति की शुश्रूषा करनेमात्र से अनायास ही पुण्यलोक प्राप्त कर लेती है । इसलिये इन तीनों को ही मैंने परम धन्य माना है द्विजातियों को सत्य आदि तीनों युगों में धर्म का साधन करते समय अधिक क्लेश उठाना पड़ता हैं, किन्तु कलियुग में मनुष्य थोड़ी ही तपस्या से शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं ।
मुनिवरो ! जो कलियुग में धर्म का आचरण करते हैं, वे धन्य हैं
अध्याय- 98 शयुगा अंत काल की अवस्था का वर्णन
मुनियों ने कहा – धर्मज्ञ ! हमलोग धर्म की लालसा से अब उस कलिकाल के समीप आ पहुँचे हैं, जब कि स्वल्प कर्म के द्वारा हम सुखपूर्वक उत्तम धर्म को प्राप्त कर सकते हैं । अब जिन निमित्तों (लक्षणों) से धर्म का नाश और त्रास एवं उद्वेग करनेवाले युगांतकाल की उपस्थिति जानी जाय, उसे बताने की कृपा करे ।
व्यासजी बोले – ब्राह्मणों ! • युगांतकाल में प्रजाकी रक्षा न करके केवल कर लेनेवाले राजा होंगे । वे अपनी ही रक्षा में लगे रहेंगे । उससमय प्राय: क्षत्रियेतर राजा होंगे । • ब्राह्मण शूद्रों के यहाँ रहकर जीवन-निर्वाह करेंगे और शुद्र ब्राह्मणों के आचार का पालन करनेवाले होंगे । • युगान्तकाल आनेपर श्रोत्रिय तथा काण्डपृष्ठ (अपने कुलका त्याग करके दूसरे कुल में सम्मीलित हुए पुरुष) एक पंक्ति में बैठकर यज्ञकर्म से हीन हविष्य भोजन करेंगे । • मनुष्य अशिष्ट, स्वार्थपरायण, नीच तथा मद्य और मांस के प्रेमी होकर मित्र-पत्नी के साथ व्यभिचार करनेवाले होंगे । • चोर राजा की वृत्ति में रहकर अपना काम करेंगे और राजा चोरोंका-सा बर्ताव करेंगे । • सेवकगण स्वामी के दिये बिना ही उसके धनका उपभोग करनेवाले होंगे । सबको धन की ही अभिलाषा होगी । • साधू-संतों के बर्ताव का कहीं भी आदर न होगा । • पतित मनुष्य के प्रति किसी के मन में घृणा न होगी । • पुरुष नकटे, खुले केशवाले और कुरूप होंगे । स्त्रियाँ सोलह वर्ष की आयु के पहले ही बच्चों की माँ बन जायँगी । • युगांत में स्त्रियाँ धन लेकर पराये पुरुषों से समागम करेंगी । सभी द्विज वाजसनेयी (बृहदारन्यक उपनिषद के ज्ञाता) बनकर ब्रह्म की बात करेंगे । • शुद्र तो वक्ता होंगे और ब्राह्मण चांडाल हो जायँगे । शुद्र शठतापूर्ण बुद्धि से जीविका चलाते हुए मूंड-मुंडाकर गेरुआ वस्त्र पहने धर्म का उपदेश करेंगे । • युगांत के समय शिकारी जीव अधिक होंगे, गौओं की संख्या घटेगी और साधुओं के स्वभाव में परिवर्तन होगा । • चांडाल तो गाँव या नगर के बीच में बसेंगे और बीच में रहनेवाले ऊँचे वर्ण के लोग नगर या गाँव से बाहर बसेंगे । • सारी प्रजा लज्जा को तिलांजलि दे उच्छंखलतापूर्ण बर्ताव से नष्ट हो जायगी । • दो साल के बछड़े हल में जोते जायँगे और मेघ कहीं वर्षा करेगा, कहीं नहीं करेगा । • शूरवीर के कुल में उत्पन्न हुए सब लोग पृथ्वी के मालिक होंगे । प्रजावर्ग के सभी मानव निम्रश्रेणी के हो जायेंगे । प्राय: कोई मनुष्य धर्म का आचरण नहीं करेगा । अधिकांश भूमि ऊसर हो जायगी । • सभी मार्ग बटमारों से घिरे होंगे । सभी वर्णों के लोग वाणिज्य-वृत्तिवाले होंगे । • पिताके धन को उनके दिये बिना ही लडके आपस में बाँट लेंगे, उसे हडप लेने की चेष्टा करेंगे और लोभ आदि कारणों से वे परस्परविरोधी बने रहेंगे । • सुकुमारता, रूप और रक्त का नाश हो जानेसे नारियाँ बालों से ही सुसज्जित होंगी । उनमें वीर्यहीन ग्रहस्थ की रति होगी । • युगांतकाल में पत्नी के समान दूसरा कोई अनुराग का पात्र नही होगा । पुरुष थोड़े हों और स्त्रियाँ अधिक, यह युगान्तकाल की पहचान हैं । • संसार में याचक अधिक होंगे और एक-दूसरे से याचना करेंगे ।किन्तु कोई किसी को कुछ न देगा । • सब लोग राजदंड, चोरी और अग्निकांड आदिसे क्षीण होकर नष्ट हो जायँगे । • खेती में फल नही लगेंगे । • तरुण पुरुष बुड्ढोकी तरह आलसी और अकर्मण्य होंगे । जो शील और सदाचार से भ्रष्ट हैं, ऐसे लोग सुखी होंगे । • वर्षाकाल में जोर से आँधी चलेगी और पानी के साथ कंकड़-पत्थरों की वर्षा होगी । • युगान्तकाल में परलोक संदेह का विषय हो जायगा । • क्षत्रिय वैश्यों की भांति धन-धान्य के व्यापार से जीविका चलायेंगे । • युगान्तकाल में कोई किसीसे बन्धु-बान्धव का नाता नहीं निभायेगा । • प्रतिज्ञा और शपथ का पालन नहीं होगा । प्राय: लोग ऋण को चुकाये बिना ही हडप लेंगे । लोगों का हर्ष निष्फल और क्रोध सफल होगा । • दूध के लिये घरमें बकरियाँ बाँधी जायँगी ।• इसी प्रकार जिसका शास्त्र में कहीं विधान नहीं हैं; ऐसे यज्ञ का अनुष्ठान होगा । मनुष्य अपने को पंडित समझेंगे और बिना प्रमाण के ही सब कार्य करेंगे । • जारज, क्रूर कर्म करनेवाले और शराबी भी ब्रह्मवादी होंगे और अश्वमेध-यज्ञ करेंगे । अभक्ष्य-भक्षण करनेवाले ब्राह्मण धन की तृष्णा से यज्ञ के अनधिकारियों से भी यज्ञ करायेंगे । कोई भी अध्ययन नहीं करेगा । • तारों की ज्योति फीकी पड जायगी, दसों दिशाएँ विपरीत होंगी । • पुत्र पिताको और बहुएँ सासको अपना काम करने के लिये भेजेंगी । इसप्रकार युगान्तकाल में पुरुष और स्त्रियाँ ऐसा ही जीवन व्यतीत करेंगी । • द्विजगण अग्निहोत्र और अग्रासन किये बिना ही भोजन कर लेंगे । (बलिवैश्वदेव करके अतिथि आदि के लिये पहले ही जो अन्न निकाल दिया जाता हैं, वह ‘अग्रासन’ कहलाता है।) • भिक्षा दिये बिना और बलिवैश्वदेव किये बिना ही लोग स्वयं भोजन करेंगे । • स्त्रियाँ सोये हुए पतियों को धोखा देकर अन्य पुरुषों के पास चली जायँगी ।
मुनियों ने कहा – महर्षे ! इसप्रकार धर्म का नाश होनेपर मनुष्य कहाँ जायँगे ? वे कौन-सा कर्म और कैसी चेष्टा करेंगे ? वे किस प्रमाण को मानेंगे ? उनकी कितनी आयु होगी ? और किस सीमातक पहुँचकर वे सत्ययुग प्राप्त करेंगे ?
व्यासजी बोले – मुनिवरो ! • तदनंतर धर्म का नाश होने से समस्त प्रजा गुणहीन होगी शीलका नाश हो जाने सबकी आयु घट जायगी । आयु की हानि से बलकी भी हानि होगी । बल की हानि से शरीर का रंग बदल जायगा । फिर शरीर में रोगजनित पीड़ा होगी । उससे निर्वेद (वैराग्य) होआ । निर्वेद से आत्मबोध होगा और आत्मबोध से धर्मशीलता आयेगी । इसप्रकार अंतिम सीमापर पहुँचकर लोगों को सत्ययुग की प्राप्ति होगी । • कुछ लोग कोई उद्देश्य लेकर धर्म का आचरण करेंगे, कोई मध्यस्थ रहेंगे । कुछ लोग प्रत्यक्ष और अनुमान को ही प्रमाण मानेंगे । दूसरे लोग सबको अप्रमाण ही मानेगे । कोई नास्तिकतापरायण, कोई धर्मका लोप करनेवाले और कोई द्विज अपनेको पंडित माननेवाले होंगे । • युगान्तकाल के मनुष्य वर्तमानपर ही विश्वास करनेवाले, शास्त्रज्ञान से रहित, दम्भी और अज्ञानी होंगे । इस प्रकार धर्म की डाँवाडोल परिस्थिति में श्रेष्ठ पुरुष दान और शीलरक्षा में तत्पर हो शुभ कर्मों का अनुष्ठान करेंगे । • जब जगत के मनुष्य सर्वभक्षी हो जायँ, स्वयं ही आत्मरक्षा के लिये विवश हों – राजा आदि के द्वारा उनकी रक्षा असम्भव हो जाय, जब उनमें निर्दयता और निर्लज्जता आ जाय, तब उसे कषायका लक्ष्ण समझना चाहिये । (क्रोध-लोभ आदिके विकार को कषाय कहते है । युगान्तकाल में वह पराकाष्ठा को पहुँच जाता हैं ।) • जब छोटे वर्णों के लोग ब्राह्मणों की सनातन वृत्तिका आश्रय लेने लगें, तब वह भी कषाय का ही लक्षण हैं । • युगान्तकाल में बड़े-बड़े भयंकर युद्ध, बड़ी भारी वर्षा, प्रचंड आँधी और जोरों की गर्मी पड़ेगी । यह सब कषाय का लक्षण हैं । • लोग खेती काट लेंगे, कपड़े चुरा लेंगे, पानी पीने का सामान और पेटियाँ भी चुरा ले जायँगे । कितने ही चोर ऐसे होंगे, जो चोर की संपत्तिका भी अपहरण करेंगे । • हत्यारों की भी हत्या करनेवाले लोग होंगे । चोरों के द्वारा चोरों का नाश हो जानेपर जनता का कल्याण होगा । • युगान्तकाल में मर्त्यलोक के मनुष्यों की आयु अधिक-से अधिक तीस वर्ष की होगी । • लोग दुर्बल, विषय-सेवन के कारण कृष तथा बुढापे और शोक से ग्रस्त होंगे । फिर धीरे-धीरे लोग साधू पुरुषों की सेवा, दान, सत्य एवं प्राणियों की रक्षा में तत्पर होंगे । उस धर्म से लोगों को कल्याण की प्राप्ति होगी । लोगों के गुणों में परिवर्तन होगा उअर धर्म से लाभ होने का अनुमान दृढ़ होता जायगा । • फिर श्रेष्ठ क्या हैं ? इस बातपर विचार करने से धर्म ही श्रेष्ठ दिखायी देगा । जिसप्रकार क्रमश: धर्म की हानि हुई थी, उसीप्रकार धीरे-धीरे प्रजा धर्म की वृद्धि को प्राप्त होगी । इसप्रकार धर्म को पूर्णरूप से अपना लेनेपर सब लोग सत्ययुग देखेंगे । सत्ययुग में सबका व्यवहार अच्छा होता है और युगान्तकाल में साधू-वृत्ति की हानि बतायी जाती है । • ऋषियों ने प्रत्येक युग में देश-काल की अवस्था के अनुसार पुरुषों की स्थिति देखकर उनके अनुरूप आशीर्वाद कहा है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के साधन, देवताओं की प्रतिक्रिया, पुण्य एवं शुभ आशीर्वाद तथा आयु- ये प्रत्येक युग में अलग-अलग होते है । युगों के परिवर्तन भी चिरकाल से चलते रहते हैं । उत्पत्ति और संहार के द्वारा नित्य परिवर्तनशील यह संसार कभी क्षणभर के लिये भी स्थिर नहीं रहता ।
अध्याय- 99 नैमितिक और प्राकृतिक प्रलय का वर्णन
व्यासजी कहते हैं- समस्त प्राणियोंका प्रलय नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यन्तिक भेदसे तीन प्रकारका माना गया है। कल्पके अन्तमें जो ब्राह्म प्रलय होता है, वह नैमित्तिक है। मोक्षको आत्यन्तिक प्रलय कहते हैं और जो दो पराद्ध व्यतीत होनेपर हुआ करता है, उसका नाम प्राकृत प्रलय है।
मुनियोंने कहा- भगवन् ! हमें शास्त्रोंमें बताये अनुसार परार्द्धकी संख्याका वर्णन कीजिये, जिसको दुना करने से प्राकृत प्रलयका ज्ञान हो सके।
{व्यास उवाच॒ } स्थानात्स्थानं दशगुणमेकैकं गण्यते द्विजाः । ततोऽष्टादशमे भागे परार्धमभिधीयते ॥ २३२.४ ॥
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो ! एकसे दूसरे स्थानपर क्रमशः दसगुना गिनते चलते हैं, इस प्रकार अठारहवें स्थानतक गिननेपर जो अन्तिम संख्या होती है, उसका नाम परार्ध है।
परार्धं द्विगुणं यत्तु प्राकृतः स लयो द्विजाः । तदाव्यक्तेऽखिलं व्यक्तं सहेतौ लयमेति वै ॥ २३२.५ ॥
परार्धको दूना करनेसे जो काल-संख्या होती है, वही प्राकृत प्रलयका समय है। उस समय सम्पूर्ण दृश्य जगत् अपने कारणभूत अव्यक्तमें लीन हो जाता है।
निमेषो मानुषो योऽयं मात्रामात्रप्रमाणतः । तैः पञ्चदशभिः काष्ठा त्रिंशत्काष्ठास्तथा कला ॥ २३२.६ ॥
मनुष्यका निमेष (पलक गिरनेका काल) मात्रा कहलाता है; क्योंकि एक मात्रावाले अक्षरके उच्चारणमें जितना समय लगता है, उतना निमेषमें भी लगता है। पंद्रह निमेषोंकी एक काष्ठा और तीस काष्ठाकी एक कला होती है।
नाडिका तु प्रमाणेन कला च दश पञ्च च । उन्मानेनाम्भसः सा तु पलान्यर्धत्रयोदश ॥ २३२.७ ॥
पंद्रह कला एक नाड़ीको प्रमाण है। साढ़े तेरह पल ताँबेके बने हुए जलके पात्रसे नाड़ीका ज्ञान होता है।
हेममाषैः कृतच्छिद्रा चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः । मागधेन प्रमाणेन जलप्रस्थस्तु स स्मृतः ॥ २३२.८ ॥
उस पात्रमें चार अंगुल लंबी, चार माशेकी सुवर्णमयी शलाकासे छिद्र किया जाता है। उस छिद्रको ऊपर करके जलमें डुबो देनेपर जितनी देरमें वह पात्र भर जाय, वही एक नाड़ीका समय है। मगधदेशीय मापसे वह पात्र जलप्रस्थ कहलाता है।
नाडिकाभ्यामथ द्वाभ्यां मुहूर्तो द्विजसत्तमाः । अहोरात्रं मुहूर्तास्तु त्रिंशन्मासो दिनैस्तथा ॥ २३२.९ ॥
दो नाड़ीका एक मुहूर्त, तीस मुहूर्त्तका एक दिन-रात और तीस दिन-रातका एक मास होता है।
मासैर्द्वादशभिर्वर्षमहोरात्रं तु तद्दिवि । त्रिभिर्वर्षशतैर्वर्षं षष्ट्या चैवासुरद्विषाम् ॥ २३२.१० ॥
बारह मासका एक वर्ष होता है। देवलोकमें यही एक दिन-रात कहलाता है। ऐसे तीन सौ साठ वर्षोंका देवताओंका एक वर्ष होता है।
तैस्तु द्वादशसाहस्रैश्चतुर्युगमुदाहृतम् । चतुर्युगसहस्रं तु कथ्यते ब्रह्मणो दिनम् ॥ २३२.११ ॥
बारह हजार दिव्य वर्षोंका एक चतुर्युग बताया गया है। एक हजार चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन कहते हैं।
स कल्पस्तत्र मनवश्चतुर्दश द्विजोत्तमाः । तदन्ते चैव भो विप्रा ब्रह्मनैमित्तिको लयः ॥ २३२.१२ ॥
यही एक कल्प कहलाता है। द्विजवरो ! उस एक कल्पमें चौदह मनु बीत जाते हैं। उसके अन्तमें जो प्रलय होता है, उसको ब्राह्म या नैमित्तिक प्रलय कहते हैं।
तस्य स्वरूपमत्युग्रं द्विजेन्द्रा गदतो मम । शृणुध्वं प्राकृतं भूयस्ततो वक्ष्याम्यहं लयम् ॥ २३२.१३ ॥
अब मैं उसके भंयकर स्वरूपका वर्णन करता हैं। इसके बाद प्राकृत प्रलयका वर्णन करूंगा।
चतुर्युगसहस्रान्ते क्षीणप्राये महीतले । अनावृष्टिरतीवोग्रा जायते शतवार्षिकी ॥ २३२.१४ ॥
एक सहस्र चतुर्युग बीतनेपर यह भूतल प्रायः क्षीण हो जाता है। उस समय सौ वर्षोतक अत्यन्त घोर अनावृष्टि होती है-वर्षाका अत्यन्त अभाव हो जाता है। मुनिवरो ! उस अनावृष्टिके कारण अल्प शक्तिवाले अनेकानेक पार्थिव जीव अयन्त पीड़ित होनेसे नष्ट हो जाते हैं। तदनन्तर रुद्ररूपधारी अविनाशी भगवान् विष्णु जगत्का संहार करनेके लिये सम्पूर्ण प्रजाको अपने में लीन कर लेनेका यत्न करते हैं। मुनिवरो ! उस समय भगवान् विष्णु सूर्यकी सात किरणों में स्थित होकर पृथ्वीका सम्पूर्ण जल सोख लेते हैं। सम्पूर्ण प्राणियों और पृथ्वीमें स्थित समस्त जलको सोखकर वे समूची वसुधाको सुखा डालते हैं। समुद्र, नदी, पर्वतीय नदी, झरने तथा पातालों में जो जल होता है, वह सब को सुखा देते हैं। तत्पश्चात् भगवान्के प्रभावसे और सब जगह्के जलका शोषण करनेसे परिपुष्ट हुई वे सूर्यको सात रश्मियाँ सात सूर्योके रूपमें प्रकट होती हैं। उस समय ऊपरनीचे सब ओर जाग्वल्यमान होकर वे सातों सूर्य पाताललोकसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको जला डालते हैं। उन तेजस्वी सूर्योकी किरणोंसे जलती हुई त्रिलोकी पर्वत, नदी और समुद्र अदिके सहित नीरस हो जाती है। तीनों लोकोंके जल और वृक्ष दग्ध हो जानेके कारण यह पृथ्वी कछुएको पीठके भांति दिखायी देती है।
तदनन्तर भूतसर्गका संहार करनेवाले कालाग्निरुद्ररूपधारी श्रीहरि शेषनागके श्वासजनित तापसे नीचेके समस्त पातालोंको जलाना आरम्भ करते हैं। सातों पातालोंको भस्म कर डालनेके पश्चात् वह प्रचण्ड अग्नि भूमिपर पहुँचकर सम्पूर्ण भूमण्डलको को भस्म कर डालती हैं। फिर भुवरलोक और स्वर्लोकको जलाकर ज्वालामालाओंके महान् आवर्तके रूपमें वह दारुण अग्नि सब और चक्कर लगाने लगती है। उस समय प्रचण्ड लपटोंसे घिरी हुई यह सारी त्रिलोकी जलते हुए कड़ाहसी प्रतीत होती है। तत्पश्चात् भुवर्लोक और स्वर्लोकके निवासी अत्यन्त तापसे संतप्त एवं क्षीणशक्ति होकर कहीं रहने लिये स्थान न होनेसे महर्लोकमें चले जाते हैं। वहाँके लोग भी उस महान् तापसे तप्त हो वहाँसे हटकर जनलोकमें प्रवेश करते हैं। मुनिवरो ! इसके बाद रुद्रूपधारी श्रीजनार्दन सम्पूर्ण जगत्को दग्ध करके अपने मुखके नि:श्वाससे मेघोंको प्रकट करते हैं। इस समय आकाशमे घोर संवर्तक मेघ उमड़ आते हैं, जो बड़े-बड़े गजराजोंके समान प्रतीत होते हैं। वे बिजलीकी गड़गड़ाहटके साथ भयंकर गर्जना करते हैं। उनका आकार विशाल होता है, अपनी विकट गर्जनासे वे सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त कर लेते हैं। और मूसलाधार पानी बरसाकर त्रिलोकीके भीतर फैले हुए उस अत्यन्त भयंकर अग्निको पूर्णरूपसे बुझा देते हैं। रथको धुरीके समान स्थूल धाराओंकी वर्षा करते हुए सम्पूर्ण जगत्को जलसे आप्लावित कर देते हैं। सम्पूर्ण भूतलको जलमग्न करनेके पश्चात् वे भुवर्लोकको भी डुबो देते हैं। उस समय संसारमें सब ओर अन्धकार छा जाता है। चर और अचर सब नष्ट हो जाते हैं। उस अवस्थामें वे महान् संवर्तक मेघ सौ वर्षोंसे अधिक कालतक वर्षा करते रहते हैं।
द्विजवरो ! अब सारा जल सप्तर्धियोंके स्थानतक पहुँचकर स्थिर होता हैं, उस समय सम्पूर्ण त्रिलोकी एकार्णवमग्न हो जाती है। तदनन्तर भगवान् विष्णुके नि:श्वाससे प्रकट हुई बायु उन मेघोंको छिन्न-भिन्न कर देती है और सौ वर्षोंसे अधिक कालतक बहती रहती हैं। फिर विभ्रके आदिकारण, अनादि, अचिन्त्य एवं सर्वभूतमया भूतभावन भगवान् सम्पूर्ण वायुको पीकर एकार्णवके जलमें शेषनागकी शय्यापर आसीन होते हैं। ये आदिकर्ता भगवान् श्रीहरि ब्रह्माजीका रूप धारण करके शयन करते हैं। उस समय जनलोककै सनकादि सिद्ध उनकी स्तुति करते हैं और ब्रह्मलोककै मुमुक्ष उनका चिन्तन करते रहते हैं। वे परमेश्वर अपनी मायामयी दिव्य योगनिद्राका आश्रय ले अपने ही वासुदेव नामक स्वरूपका चिन्दान करते हैं। विप्रवरो ! यह नैमित्तिक नामका प्रलय है। इसमें निमित्त यहीं हैं कि उस समय ब्रह्मरूपधारी श्रीहरि शयन करते हैं। जबतक सर्थात्मा श्रीहरि जागते हैं, तबतक सारा जगत् सचेष्ट रहता है और जब वे मायामयौ शय्यार शयन करते हैं, उस समय सारा जगत् वितीन हो जता है। ब्रह्माजीका जो सहस्र चतुर्युगका दिन होता है, एकार्णवमें शयन करनेपर उनकी इतनी ही बड़ी रात्रि होती है। रात्रिके बाद जागनेपर ब्रह्मरूपधारी अजन्मा श्रीविष्णु पुनः सृष्टि करते हैं, यह बात मैं पहले यतला चुका हूँ। यह कल्पका संहार, अन्तर प्रलय अथवा नैमित्तिक प्रलय कहा गया। अब प्राकृत प्रलयका वर्णन सुनो।
अनावृष्टि और अग्नि आदिके द्वारा जब सब प्राणियोंका संहार हो जाता है और सम्पूर्ण तोक तथा समस्त पाताल नष्ट हो जाते हैं, उस समय भगवान् विष्णुको इच्छाले प्राकृत प्रलयका अवसर उपस्थित होनेपर महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सम्पूर्ण विकारोंका क्षय हो जाता है। पहले भूमिके गन्ध आदि गुणको जल अपनेमें लीन कर लेता है। गन्ध नष्ट हो जानेसे पृथ्वीका लय हो जाता है। गन्थतन्मात्राका नाश हो जानेके कारण सारी पृथ्वी जल में परिणत हो जाती है। फिर तो जल बड़े वेगसे घोर शब्द करते हुए बढ़ने लगता है और सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर लेता है। वह कहीं तो स्थिर रहता है और कहीं वेगसे बहता रहता है। इस प्रकार सम्पूर्ण लोक सब ओरसे तरङ्गमालाओंसे युक्त जल-राशिद्वारा व्याप्त हो जाते हैं। तत्पश्चात् जलके गुण रसको तेज पी लेता है। रसतन्मात्राका नाश होनेसे जल अत्यन्त तस होकर सूख जाता है। इसका अपहरण होनेसे सम्पूर्ण जल तेज:स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार जब तेज आवृत होकर जल अग्नि-सी अवस्थामें पहुँच जाता है, तब अग्नितत्त्व राव और फैतफर उस जलको सोख लेता है। उस समय सम्पूर्ण जगत्में धीरे-धीरे आगकी लपटें फैल जाती हैं। जब सारा जगत् ऊपर-नीचे और इधर-उधर अग्निकी ज्वालाले व्याप्त हो जाता है, तब अग्निके प्रकाशक गुण रूपको वायुतत्व अपनेमें लीन कर लेता है। सबके कारणस्वरूप वायुमें जब अग्निका प्रकाशक तत्त्व-रूप विलीन हो जाता है, तब रूपतन्मात्राके नष्ट हो जानेसे अग्नितत्त्व रूपहीन हो स्वयं ही शान्त हो जाता है। फिर वायु प्रचण्ड तिसे चलने लगती हैं। तेजस्तत्त्वके वायुमें स्थित हो जानेसे जगत्में प्रकाश नहीं रह जाता। तब वायुतत्त्व अपने उद्भव और लयस्थान आकाशका आश्रय ले ऊपर-नीचे, अगल-बगल एवं दलों दिशाओमें बड़े वेगसे बहने लगता हैं। तदातर वायुके भी गुण स्पर्शको आकाश ग्रस लेता है। इससे वायु शान्त हो जाती है और केवल आवरणशून्य आकाश रह जाता है। वह रूप, रस, स्पर्श, गध तथा आकारसे रहित परम महान् आकाश सवको व्याप्त करके प्रकाशित होता है। आकाश सब ओरसे गोल एवं छत्रस्वरूप है। शब्द उसका गुण है। वह शब्दतन्मात्रायुक्त आकाश सम्पूर्ण विश्वको आवृत किये रहता है। तत्पश्चात् आकाशको भूतादि (तामस अहंकार), भूतादिको महत्तत्व और इन सबके सहित महत्तत्त्वकै मूल प्रकृति अपनेमें लीन कर लेती हैं। द्विजवरो। न्यूनता और अधिकतासे रहित जो सत्त्वादि तीनों गुपकी साम्यावस्था है, उसीको प्रकृति कहते हैं। यही प्रधान भी कहलाती हैं। प्रधान ही सम्पूर्ण सृष्टिका प्रधान कारण है। ब्राह्मणो! इस प्रकार यह सम्पूर्ण प्रकृति व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी हैं। इसमें जो व्य स्वरूप है, वह अव्यक्तमें लौन होता है।
द्विजवरो ! प्रकृतिसे भिन्न जो एक सिद्ध, अक्षर, नित्य तथा सर्वव्यापी पुरुष है, वह भी सर्वभूतमय परमात्माका ही अंश है। जो सत्तामात्रस्वरूप, ज्ञेय, ज्ञानात्मा और देहात्मसंघातसे परे है, जिसमें नाम और जाति आदिकी समस्त कल्पनाएँ विलीन हो जाती हैं, वही परब्रह्म, परमधाम, परमात्मा तथा परमेश्वर है। उसीको विष्णु कहते हैं। भगवान् विष्णु ही इस सम्पूर्ण विश्वके रूपमें स्थित हैं। उनको प्राप्त हो जानेपर मनुष्य फिर इस संसारमें नहीं लौटता। मैंने जिस व्यक्ताव्यक्त रूपिणी प्रकृतिका वर्णन किया है, वह तथा पुरुष दोनों ही परमात्मामें लीन होते हैं। वह परमात्मा सबका आधार तथा परमेश्वर है। वेदों और वेदान्तों में विष्णुके नामसे उसीकी महिमाका गान किया जाता है। प्रवृत्ति (कर्मयोग) और निवृत्ति (सांख्ययोग)-के भेदसे वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं। उन दोनों ही कर्मोद्वारा मनुष्य यज्ञस्वरूप भगवान्की आराधना करते हैं। प्रवृत्तिमार्गक अनुयायी पुरुष ऋक्, यजुः और सामवेदोक्त मार्गोंसे यज्ञोंके स्वामी यज्ञपुरुष भगवान् पुरुषोत्तमका यजन करते हैं तथा निवृत्ति एवं योगमार्गके पथिक ज्ञानयोगके द्वारा ज्ञानात्मा, ज्ञानमूर्ति एवं मुक्तिफलदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करते हैं। इस्व, दीर्घ और प्लुत स्वरोंके द्वारा जिस किसी वस्तुको प्रतिपादन किया जाता है और जो वाणीका विषय नहीं है, वह सब अविनाशी भगवान् विष्णु ही हैं। वे ही व्यक्त, वे ही अव्यक्त, वे ही अव्यय पुरुष तथा वे ही परमात्मा, विश्वात्मा और विश्वरूपधारी श्रीहरि हैं। वह व्यक्ताव्यस्वरूपिणी प्रकृति तथा पुरुष भी उन्हीं अव्याकृत परमात्मामें लीन होते हैं। ब्राह्मणो ! मैंने जो परार्धका काल बतलाया है, वह सर्वेश्वर भगवान् विष्णुका दिन कहलाता है। व्यक्त जगत्के अव्यक्त प्रकृतिमें और प्रकृतिके पुरुषमें लीन होनेपर फिर उतने ही कालकी भगवान् विष्णुकी रात्रि होती है। तपोधनो! वास्तवमें नित्यस्वरूप परमात्मा श्रीविष्णुका न तो कोई दिन है और न रात्रि ही; तथापि केवल आरोपसे उनके विषयमें ऐसा कहा जाता है। मुनिवरो ! इस प्रकार मैंने तुमसे प्राकृत प्रलयका वर्णन किया।
अध्याय- 100 आत्यंतिक प्रलय का निरूपण अध्यात्मिक आदि त्रिविध तापों का वर्णन भगवत तत्व की व्याख्या
व्यासजी कहते हैं – ब्राह्मणों ! आध्यात्मिक आदि तीनों तापों को जानकर ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होनेपर विद्वान आत्यंतिक लय प्राप्त होते हैं । आध्यात्मिक ताप के भी दो भेद है – शारीरिक और मानसिक । शारीरिक ताप के बहुत-से भेद हैं । उनका वर्णन सुनो ।
शिरोरोग, प्रतिश्याय (पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म (पथ की गाँठ), अर्श (बवासीर), श्ववथु (सुजन), दमा, वमन (छदि) आदि तथा नेत्ररोग, अतीसार और कुष्ठ आदि शरीरिक कष्टों के भेद से दैहिक ताप के अनेक भेद हो जाते है । अब मानस ताप का वर्णन सुनो । काम, क्रोध, भय,द्वेष, लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया (दोषदृष्टि), अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य तथा पराभव आदि के भेद से मानस ताप के अनेक रूप है । ये सभी प्रकार के ताप आध्यात्मिक माने गये हैं । मृग, पक्षी, मनुष्य आदि तथा पिशाच, सर्प, राक्षस और बिच्छू आदि से मनुष्यों को जो पीड़ा होती है, उसका नाम आधिभौतिक ताप है । शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदिसे होनेवाले संताप को आधिदैविक कहते हैं । मुनिवरो ! इनके सिवा गर्भ, जन्म, बुढापे, अज्ञान, मृत्यु और नरक से प्राप्त होनेवाले दुःख के भी सहस्त्रों भेद है ।
अत्यंत मलसे भरे हुए गर्भाशय में सुकुमार शरीरवाला जीव झिल्ली से लिपटा हुआ रहता है । उसकी पीठ और ग्रीवा की हड्डियाँ मुड़ी होती हैं । माताके खाये हुए अत्यंत तापदायक और अधिक खट्टे, कडवे, चटपटे, गर्म और खारे पदार्थों से कष्ट पाकर उसकी पीड़ा बहुत बढ़ जाती है । वह अपने अंगों को फैलाने या सिकोड़ने में समर्थ नहीं होता । मल और मूत्र के महान पंख में उसे सोना पड़ता हैं, जिससे उसके सभी अंगों में पीड़ा होती हैं । चेतनायुक्त होनेपर भी वह खुलकर साँस नहीं ले सकता । अपने कर्मों के बंधन में बंधा हुआ वह जीव सैकड़ो जन्मों का स्मरण करता हुआ बड़े दुःख से गर्भ में रहता है । जन्म के समय उसका मुख मल-मूत्र, रक्त और वीर्य आदि में लिपटा रहता हैं । प्राजापत्य नामक वायु से आदि में लिपटा रहता हैं । प्राजापत्य नामक वायुसे उसकी हड्डियों के प्रत्येक जोड़ में बड़ी पीड़ा होती है । प्रबल प्रसुतिवायु उसके मूंह को नीचे की ओर कर देती है और वह गर्भस्थ जीव अत्यंत आतुर होकर बड़े क्लेश के साथ माता के उदर से बाहर निकल पाटा है । मुनिवरो ! जन्म लेने के पश्चात बाह्य वायु का स्पर्श होने से अत्यंत मूर्च्छा को प्राप्त होकर वह बालक अपनी सुध-बुध खो बैठता है । दुर्गन्धयुक्त फोड़े से पृथ्वीपर गिरे हुए कीड़े की भांति वह छटपटाता है । उससमय उसे ऐसी पीड़ा होती है, मानो उसके सारे अंगों में काँटे चुभो दिये गये हों अथवा वह आरे से चीरा जा रहा हो । उसे अपने अंगों को खुजलाने की भी शक्ति नहीं रहती । वह करवट बदलने में भी असमर्थ होता है । स्तन-पान आदि आहार भी उसे दूसरों की इच्छा से ही प्राप्त होता है । वह अपवित्र बिछौनेपर पड़ा रहता हैं । उससमय उसे खटमल और डांस आदि काटते है तो भी वह उन्हें हटाने में समर्थ नहीं होता ।
मृत्युकाल में मनुष्य का कंठ और हाथ-पैर शिथिल हो जाते हैं । उसका शरीर काँपता रहता हैं । उसे बार-बार मूर्च्छा होती है और कभी थोड़ी-सी चेतना भी आ जाती है । उससमय वह अपने सुवर्ण, धान्य, पुत्र, पत्नी, सेवक और गृह आदि के लिये ममता से अत्यंत व्याकुल होकर सोचता हैं – ‘हाय ! मेरे बिना इनकी कैसी दशा होगी ।’ मर्म विदीर्ण करनेवाले महान रोग भयंकर आरे तथा यमराज के घोर बाणों की भांति उसके अस्थि-बन्धनों को काटे डालते हैं । उसकी आँखों की पुतलियाँ घुमने लगती हैं , वह बारंबार हाथ-पैर पटकता है; उसके तालू, ओठ और कंठ सूखने लगते हैं । गला घुरघुरता हैं । उड़ान वायुसे पीडीत होकर कंठ रूँध जाता हैं । उस अवस्था में मनुष्य महान ताप, भूख और प्यास से व्यथित हो यमदूतोंद्वारा दी हुई पीड़ा सहकर बड़े कष्ट से प्राणत्याग करता हैं । फिर क्लेश से ही उसे यातनादेह की प्राप्ति होती है । ये तथा और भी बहुत-से भयंकर दुःख मृत्यु के समय मनुष्यों को भोगने पड़ते है ।
विप्रवरो ! नरक में गये हुए जीवों को जो पापजनित दुःख भोगने पड़ते हैं, उनकी कोई गणना नहीं हैं । केवल नरक में ही दुःख की परम्परा हो, ऐसी बात नहीं हैं; स्वर्ग में भी जिसके पुण्य का भोग क्षीण हो रहा है और जो पाप के फलभोग से भयभीत है, उसे शान्ति नहीं मिलती । जीव पुन: – पुन: गर्भ में आता और जन्म लेता हैं । कभी वह गर्भ में ही नष्ट हो जाता और कभी जन्म लेने के समय मृत्यु को प्राप्त होता है । कभी जन्मते ही, कभी बाल्यावस्था में और कभी युवावस्था में ही उसकी मृत्यु हो जाती है । विप्रगण ! मनुष्यों के लिये जो-जो वस्तु अत्यंत प्रितिकारक होती है, वही-वही उसके लिये दुःखरूपी वृक्ष का बीज बन जाती है । स्त्री, पुत्र, मित्र आदि और गृह, क्षेत्र तथा धन आदि से पुरुषों को उतना अधिक सुख नहीं मिलता, जितना कि दुःख उठाना पड़ता है । इसप्रकार सांसारिक दुःखरूपी सूर्य के तापसे संतप्त चित्तवाले मानवों को मोक्षरूपी वृक्ष की शीतल छाया के सिवा अन्यत्र कहाँ सुख हैं । अत: विद्वानों ने गर्भ, जन्म और बुढापा आदि स्थानों में होनेवाले अध्यात्मिक आदि त्रिविध दुःखसमूहों को दूर करने के लिये एकमात्र भगवत्प्राप्ति को ही अमोघ औषधि बताया है । उससे बढकर आल्हादजंक और सुखस्वरूप दूसरी कोई ओषधि नहीं है । अत: बुद्धिमान पुरुषों को भगवत्प्राप्ति के लिये सदा ही यत्न करना चाहिये । द्विजवरो ! भगवत्प्राप्ति के दो साधन कहे गये हैं – ज्ञान और कर्म । ज्ञान भी दो प्रकार का है – शास्त्र-जन्य और विवेक-जन्य । शास्त्र-जन्य ज्ञान शब्दब्रह्म का और विवेक –जन्य ज्ञान परब्रह्म का स्वरूप है । अज्ञान गाढ़ अन्धकार के समान है । उसको नष्ट करने के लिये शास्त्र-जन्य ज्ञान दीपक के समान और विवेक-जन्य ज्ञान साक्षात सूर्य के सदृश माना गया है ।
मुनिवरो ! मनुजी ने वेदार्थ का स्मरण करके इसके विषय में जो विचार प्रकट किया है, उसे बताता हूँ, सुनो ।
ब्रह्म के दो स्वरूप जानने योग्य है – शब्दब्रह्म और परब्रह्म । जो शब्दब्रह्म में पारंगत हैं, वह परब्रह्म को प्राप्त कर लेता हैं । अथर्ववेद की श्रुति कहती हैं कि परा और अपरा – ये दो विद्याएँ जानने योग्य है । परा विद्यासे अक्षरब्रह्म की प्राप्ति होती है तथा ऋग्वेदादि शास्त्र ही अपर विद्या है । वह जो अव्यक्त, जरावस्था से रहित, अचिन्त्य, अजन्मा, अविनाशी, अनिर्देश्य, अरूप, हस्त-पादादि से रहित, सर्वव्यापक, नित्य, सब भूतों का कारण तथा स्वयं कारणरहित है, जिससे सम्पूर्ण व्याप्य वस्तु व्याप्त है, जिसे ज्ञानी पुरुष ही ज्ञानदृष्टि से देखते हैं, वही परब्रह्म और वही परमधाम हैं । मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले पुरुषों को उसीका चिन्तन करना चाहिये । वही भगवान विष्णु का वेदवाक्योंद्वारा प्रतिपादित परम पद है । जो सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति, प्रलय, आगमन, गमन तथा विद्या और अविद्या को जानता हैं, उसीको ‘भगवान’ कहना चाहिये । त्याग ने योग्य त्रिविध गुण आदि को छोडकर समग्र ज्ञान, समग्र शक्ति, समग्र बल, समग्र ऐश्चर्य, समग्र वीर्य और समग्र तेज ही ‘भगवत’ शब्द के वाच्यार्थ हैं । इस दृष्टि से श्रीविष्णु ही ‘भगवान’ हैं । उन परमात्मा श्रीहरि में सम्पूर्ण भूत निवास करते हैं तथा वे भी सर्वात्मारूप से सब भूतों में स्थित है । अत: वे ‘वासुदेव’ कहे गये हैं । पूर्वकाल में महर्षियों के पूछनेपर स्वयं प्रजापति ब्रह्माने अनंत भगवान वासुदेव के नाम की यह यथार्थ व्याख्या बतलायी थी । सम्पूर्ण जगत के धाता और विधाता भगवान श्रीहरि सम्पूर्ण भूतों में वास करते हैं और सम्पूर्ण भूत उनमें वास करते हैं; इसलिये उनका नाम ‘वासुदेव’ है । वे परमात्मा निर्गुण, समस्त आवरणों से परे और सबके आत्मा है । सम्पूर्ण भूतों की, प्रकृति तथा उसके गुण और दोषों की पहुँच के बाहर है । सम्पूर्ण भुवनों के बीच में जो कुछ भी स्थित है, वह सब उनके द्वारा व्याप्त है । समस्त कल्याणमय गुण उनके स्वरूप है । उन्होंने अपनी मायाशक्ति के लेशमात्र से सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि की है । वे अपनी इच्छा से मन के अनुरूप अनेक शरीर धारण करते हैं तथा उन्हीं के द्वारा सम्पूर्ण जगत के कल्याण का साधन होता है । वे तेज, बल और ऐश्वर्य के महान भंडार है । पराक्रम और शक्ति आदि गुणों की एकमात्र राशि है तथा परसे भी परे है । उन परमेश्वर में सम्पूर्ण क्लेश आदि का अभाव है । वे ईश्वर ही व्यष्टि और समष्टिरूप है । वे ही अव्यक्त और व्यक्तस्वरूप हैं । सबके ईश्वर, सबके द्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर नामसे प्रसिद्ध वे ही है । जिसके द्वारा दोषरहित, परम शुद्ध, निर्मल तथा एक रूप परमात्मा का ज्ञान, साक्षात्कार अथवा प्राप्ति होती है, वही ज्ञान है । जो इसके विपरीत हैं, उसे अज्ञान बताया गया है ।
अध्याय- 101 योग और सांख्य का वर्णन
व्यासजी कहते हैं – जिस प्रकार दुर्बल मनुष्य पानी के वेग में बह जाता हैं , उसीप्रकार निर्बल योगी विषयों से विचलित हो जाता हैं । किन्तु उसी महान प्रवाह को जैसे हाथी रोक देता हैं, वैसे योग का महान बल पाकर योगी भी समस्त विषयों को रोक लेता हैं, उनके द्वारा विचलित नही होता । योगशक्तिसम्पन्न पुरुष स्वतंत्रापूर्वक समस्त प्रजापतियों, मनुओं तथा महाभूतों में प्रवेश कर जाते हैं । अमित तेजस्वी योगी के ऊपर क्रोध में भरे हुए यमराज, काल और भयंकर पराक्रम दिखानेवाली मृत्युका भी जोर नहीं चलता । वह योगबल पाकर अपने हजारों रूप बना सकता और उन सबके द्वारा इस पृथ्वीपर विचर सकता हैं । फिर तेज को समेट लेनेवाले सूर्य की भान्ति वह उन सभी रूपों को अपने में लीन करके उग्र तपस्या में प्रवृत्त हो जाता हैं । बलवान योगी बंधन तोड़ने में समर्थ होता हैं । उसमें अपने को मुक्त करने की पूर्ण शक्ति होती है ।
द्विजवरो ! ये मैंने योग की स्थूल शक्तियाँ बतायी हैं । अब दृष्टांत के लिये योग से प्राप्त होनेवाली कुछ सूक्ष्म शक्तियों का वर्णन करूँगा तथा आत्म-समाधि के लिये जो चित्तकी धारणा की जाती हैं, उसके विषय में भी कुछ सूक्ष्म दृष्टांत बतलाऊँगा । जिस प्रकार सदा सावधान रहनेवाला धनुर्धर वीर चित्तको एकाग्र करके प्रहार करनेपर लक्ष्य को वेध देता हैं, उसीप्रकार जो योगी मन को परमात्मा के ध्यान में लगा देता हैं, वह नि:संदेह मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं । जैसे सावधान मल्लाह समुद्र में पड़ी हुई नावको शीघ्र ही किनारे लगा देता हैं, उसीप्रकार योग के अनुसार तत्त्वको जाननेवाला पुरुष समाधि के द्वारा मन को परमात्मा में लगाकर देह का त्याग करने के अनन्तर दुर्गम स्थान (परम-धाम) को प्राप्त होता हैं । जिस प्रकार सावधान सारथि अच्छे घोड़ों को रथ में जोतकर धनुर्धर श्रेष्ठ वीर को तुरंत अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देता हैं, वैसे ही धारणाओं में चित्त को एकाग्र करनेवाला योगी लक्ष्य की ओर छूटे हुए, बाण की भान्ति शीघ्र परम पदको प्राप्त कर लेता हैं । जो समाधि के द्वारा अपने आत्मा को परमात्मा में लगाकर स्थिर भाव से बैठा रहता है, उसे अजर (बुढ़ापे से रहित) पद की प्राप्ति होती है । योग के महान व्रत में एकाग्रचित्त रहनेवाला जो योगी नाभि, कंठ, पार्श्वभाग, ह्रदय, वक्ष:स्थल, नाक, कान, नेत्र और मस्तक आदि स्थानों में धारणा के द्वारा आत्मा को परमात्मा के साथ युक्त करता हैं, वह पर्वत के समान महान शुभाशुभ कर्मों को भी शीघ्र ही भस्म कर डालता हैं और इच्छा करते ही उत्तम योग का आश्रय ले मुक्त हो जाता हैं ।
निर्मल अंत:करणवाले यति परमात्मा को प्राप्त करके तद्रूप हो जाते हैं । उन्हें अमृतत्त्व मिल जाता हैं, फिर वे संसार में नही लौटते । ब्राह्मणों ! यही परम गति है । जो सब प्रकार के द्वन्दो से रहित, सत्यवादी, सरल तथा सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले हैं, उन महात्माओं को ही ऐसी गति प्राप्त होती है ।
मुनि बोले – साधुशिरोमणे । दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले यति उत्तम स्थानस्वरुप भगवान को प्राप्त होकर क्या निरंतर उन्हीं में रमण करते रहते हैं ? अथवा ऐसी बात नही है ? यहाँ जो तथ्य हो, उसका यथावत वर्णन कीजिये । आपके सिवा दूसरे किसी से हम ऐसा प्रश्न नहीं कर सकते ।
व्यासजी ने कहा – मूनिवरो ! आपने जो प्रश्न किया है, वह उचित ही है । यह विषय बहुत ही कठिन हैं । इसमें विद्वानों को भी मोह हो जाता हैं । यहाँ भी जो परम तत्त्व की बात है, उसे बतलाता हूँ ; सुनो ।
इसविषय में कपिल के सांख्यमत का अनुसरण करनेवाले महात्माओं का विचार उत्तम मना गया है । देहधारियों की इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म शरीर को जानती है; क्योंकि वे आत्मा के करण हैं और आत्मा भी उनके द्वारा सब कुछ देखता हैं । सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वयं असमर्थ होने के कारण विष के द्वारा मारे हुए सर्पों की भान्ति अपने-अपने गोलकों में विलीन रहती है । उनकी सूक्ष्म गतिका आश्रय लेकर निश्चय ही आत्मा सर्वत्र विचरता हैं । सत्त्व, रज, तम, बुद्धि, मन, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी – इन सबके गुणों को व्याप्त करके क्षेत्रज्ञ आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रों में विचरण करता है । जैसे शिष्य माहात्मा गुरु का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियाँ क्षेत्रज्ञ आत्मा का अनुसरण करती हैं । सांख्ययोगी प्रकृति का भी अतिक्रमण करके शुद्ध, सूक्ष्म, परात्पर, निर्विकार, समस्त पापों से रहित, अनामय, निर्गुण तथा आनंदमय परमात्मा श्रीनारायण को प्राप्त होते हैं । विप्रवरो ! इस ज्ञान के समान दूसरा कोई ज्ञान नही है । इसके विषय में तुमको संदेह नही करना चाहिये । सांख्यज्ञान सबसे उत्कृष्ट माना गया हैं । इसमें अक्षर, ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्म का ही प्रतिपादन हुआ है । वह ब्रह्म आदि, मध्य और अंत से रहित, द्वंदों से अतीत, सनातन, कूटस्थ और नित्य है – ऐसा शान्तिपरायण विद्वान पुरुषों का कथन है । इसीसे जगत की उत्पत्ति और प्रलय आदिरूप सम्पूर्ण विकार होते हैं । गूढ़ तत्त्वों की व्याख्या करनेवाले महर्षियों ने शास्त्रों में ऐसा ही वर्णन किया हैं । सम्पूर्ण ब्राह्मण, देवता, वेद तथा सामवेत्ता पुरुष उसी अनंत, अच्युत, ब्राह्मणभक्त तथा परमदेव परमेश्वर की प्रार्थना करते और उनके गुणों का चिन्तन करते रहते हैं ।
ब्राह्मणों ! महात्मा पुरुषों में , वेदों में, सांख्य और योग में तथा पुराणों में जो उत्तम ज्ञान देखा गया है, वह सब सांख्य से ही आया हुआ है । बड़े-बड़े इतिहासों में , यथार्थ तत्त्व का वर्णन करनेवाले शास्त्रों में तथा इस लोक में जो कुछ भी ज्ञान श्रेष्ठ पुरुषों के देखनेमे आया है, वह सब सांख्य से ही प्राप्त हुआ है । पूर्ण दृष्टि, उत्तम बल, ज्ञान, मोक्ष तथा सूक्ष्म तप आदि जितने भी विषय बताये गये है, उन सबका सांख्यशास्त्र से यथवंत वर्णन किया गया है । सांख्यज्ञानी सदा सुखपूर्वक कल्याणमय ब्रह्म को प्राप्त होते हैं । उस ज्ञान को धारण करके भी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं । सांख्य का ज्ञान अत्यंत विशाल और परम प्राचीन है । यह महासागर के समान अगाध, निर्मल और उदार भावों से पूर्ण हिया । इस अप्रमेय ज्ञान को भगवान नारायण ही पूर्णरूप से धारण करते हैं । मुनिवरो ! यह मैंने तुमसे परम तत्त्व का वर्णन किया । यह सम्पूर्ण पुरातन विश्व भगवान नारायण से ही प्रकट हुआ हैं । वे ही सृष्टि के समय संसार की सृष्टि और संहारकाल में उसका संहार करते हैं ।
अध्याय- 102 कर्म तथा ज्ञानका अंतर, परमात्वमतत्वका निरूपण तथा अध्यात्मज्ञान और उसके साधनोंका वर्णन
मुनि बोले– महर्षे ! यदि वेदको ऐसी आज्ञा है कि ‘कर्म करो’ तथा यह भी आदेश हैं कि ‘कर्मका त्याग करो’ तो यह बताइये कि मनुष्य ज्ञानके द्वारा कर्म त्याग देनेपर किस गतिको प्राप्त होते हैं तथा कर्म करनेसे उन्हें किस फलकी प्राप्ति होती है? इस बातको हम सुनना चाहते हैं। क्योंकि उक्त दोनों आज्ञाएँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं।
व्यासजीने कहा- ब्राह्मणो ! ज्ञानसे मनुष्य जिस गतिको पाते हैं और कर्मसे उन्हें जैसी गति मिलती है, उसका वर्णन करता हूँ; सुनो। तुम्हारे इस प्रश्नको उत्तर गहन है। शास्त्रमें दो मार्गोका वर्णन है-एकका नाम प्रवृत्तिधर्म है और दूसरेको निवृत्तिधर्म कहा गया है। प्रवृत्तिमार्गको कर्म और निवृत्तिमार्गको ज्ञान भी कहते हैं। कर्म (अविद्या) से मनुष्य बन्धनमें पड़ता है और ज्ञानसे मुक्त हो जाता है; इसलिये पारदर्शी यति कर्म नहीं करते। कर्मसे मरनेके बाद जन्म लेना पड़ता है, सोलह तत्त्वोंसे बने हुए शरीरकी प्राप्ति होती है। किंतु ज्ञानसे नित्य, अव्यक्त एवं अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते हैं। कुछ मन्दबुद्धि मानव कर्मकी प्रशंसा करते हैं, अतः वे भोगासक्त होकर बारंबार देहके बन्धनमें पड़ते हैं। परंतु जो धर्मके तत्त्वको भलीभाँति समझते हैं तथा जिन्हें उत्तम बुद्धि प्राप्त है, वे कर्मकी उसी तरह प्रशंसा नहीं करते, जैसे नदीका पानी पीनेवाला मनुष्य कुएँका आदर नहीं करता। कर्म फल मिलते हैं-सुख और दु:ख, जन्म और मृत्यु। किंतु ज्ञानसे उस पदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर मनुष्य सदाके लिये शोकसे मुक्त हो जाता है। जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और वृद्धि उसका स्पर्श नहीं करते, वहाँ केवल अव्यक्त, अचल, ध्रुव, अव्याकृत एवं अमृतस्वरूप परब्रह्मको ही स्थिति है। उस स्थितिमें पहुँचे हुए मनुष्योंको शीत-उष्ण आदि द्वन्द्व बाधा नहीं पहुँचाते । मानसिक विकार और क्रियाद्वारा भी उन्हें कष्ट नहीं होता। वे समत्वभावसे युक्त, सबके प्रति मैत्री रखनेवाले और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रहनेवाले होते हैं।
ब्राह्मणो ! देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृतिके विकार हैं, वे क्षेत्रज्ञके ही आधारपर स्थित हैं। वे जड होनेके कारण क्षेत्रज्ञको नहीं जानते, किंतु क्षेत्रज्ञ उन सबको जानता है। जैसे चतुर सारथि अपने वशमें किये बलवान् एवं उत्तम घोड़ोंसे अच्छी तरह काम लेता है, उसी प्रकार क्षेत्रज्ञ भी अपने अधीन किये हुए मन और इन्द्रियोंद्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करता है। इन्द्रियोंको अपेक्षा उनके विषय (शब्दादि तन्मात्रा) पर सूक्ष्म और श्रेष्ठ हैं। विषयोंसे मन पर है। मनसे बुद्धि पर है। बुद्धिसे महत्त्व पर है। महत्तत्त्वसे अव्यक्त (मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्तसे अविनाशी परमात्मा पर है। अविनाशी परमात्मासे पर कुछ भी नहीं है। वही परमात्माकी सीमा है तथा वही परम गति है। इस प्रकार सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर छिपा हुआ यह परमात्मा सबके जाननेमें नहीं आता। उसे तो सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ बुद्धिसे देखते हैं।”
मनसहित इन्द्रियोंको तथा इन्द्रियोंके साथ उनके विषयोंको भी बुद्धिके द्वारा अन्तरात्मा लीन करके नाना प्रकारके दृश्योंका चिन्तन न करे। ध्यानके द्वारा मनको विषयोंकी ओरसे हटाकर विवेकके द्वारा उसे स्थिर करे और शान्तभावसे स्थित हो जाय; ऐसा करनेसे साधक परम पदको प्राप्त होता है। जो इन्द्रियोंके वशमें रहता है, वह मानव विवेकशक्तिको खो देता है और अपनेको काम आदि शत्रुओंके हाथमें देकर मृत्युको प्राप्त होता है। इसलिये सब प्रकारके संकल्पोंका नाश करके चित्तको सत्त्वयुक्त बुद्धिमें स्थापित करे। यों करनेसे चित्तमें प्रसाद गुण आता है, जिससे यति पुरुष शुभ और अशुभ दोनोंको जीत लेता है। प्रसन्नचित्त साधक परमात्मामें स्थित होकर अत्यन्त आनन्दका अनुभव करता है। चित्तकी प्रसन्नताका लक्षण यह है कि सदा सुषुप्तिके समान सुखको अनुभव होता रहे अथवा वायुशून्य स्थानमें जलते हुए निष्काम दीपककी लौके समान मन कभी चञ्चल न हो।
जो मिताहारी और शुद्धचित्त होकर रातके पहले तथा पिछले भागमें आत्माको परमात्माके ध्यानमें लगाता है, वही अपने अन्त:करणमें परमात्माको दर्शन करता है। यह उपदेश सम्पूर्ण वेदका रहस्य है। यह परमात्माका बोध करानेवाला शास्त्र है। धर्म और सत्यके सम्पूर्ण उपाख्यानों में जो सार वस्तु है, उसका दस हजार वर्षों तक मन्थन करके यह अमृतमय उपदेश निकाला गया है। जैसे दहीसे मक्खन निकलता और काष्ठसे अग्नि प्रकट होती है, उसी प्रकार मोक्षके लिये विद्वानों का ज्ञान यहाँ प्रकट किया गया है। इस शास्त्रका उपदेश स्नातकोंको देना चाहिये। जिसका मन शान्त नहीं है, इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तथा जो तपस्वी नहीं हैं, उसे इस जानका उपदेश नहीं करना चाहिये। जो वेदका ज्ञाता नहीं हैं, जिसके मनमें गुरुके प्रति भक्ति नहीं है, जो दोष देखनेवाला, कुटिल, आज्ञाका पालन न करनेवाला, व्यर्थ तर्क-वितर्कसे दूषित और चुगलखोर है, उसे भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो प्रशंसनीय, शान्त, तपस्वी तथा सेवापरायण शिष्य अथवा पुत्र हो, उसीको इस गूढ़ धर्मका उपदेश देना उचित है; दूसरे किसीको नहीं। यदि कोई रत्नोसे भरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वी देने लगे तो भी तत्त्ववेत्ता पुरुष उसकी अपेक्षा इस ज्ञानको ही श्रेष्ठ पाने । अतः मैं तुम्हें अत्यन्त गूढ़ अर्थवाले अध्यात्म ज्ञानका उपदेश देता हैं, जो मानवीय ज्ञानसे बाहर है, जिसे महर्षिोंने ही जाना है तथा जिसका सम्पूर्ण उपनिषदोंमें वर्णन किया गया है। मुनिवरो ! तुमलोग जो बात पूछते थे और तुम्हारे हृदयमें जिसके विषयमें संदेह था, वह सब तुमने सुन लिया। मेरे मनमें जैसा निश्चय था, वह सब बना दिया। अब और क्या सुनाऊँ ।
मुनियोंने कहा- ऋषिश्रेष्ठ ! अब पुन: अध्यात्म ज्ञानका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। अध्यात्म क्या है और उसे हम किस प्रकार जाने?
व्यासजी बोले- ब्राह्मणो ! अध्यात्मका जो स्वरूप है, उसे बताता हैं। तुम उसकी व्याख्या ध्यान देकर सुनो। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये पञ्चमहाभूत सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरमें स्थित हैं। शब्द, श्रवणेन्द्रिय और शरीरके सम्पूर्ण छिद्र आकाशसे प्रकट हुए हैं। प्राण, चेष्टा और स्पर्शको उत्पत्ति वायुसे हुई हैं। रूप, नेत्र और जठरानल-ये तीन अग्निके कार्य हैं। रस, रसना और चिकनाहट-ये जलके गुण हैं। गन्ध, नासिका और देह-ये पृथ्वी कार्य हैं। यह पाञ्चभौतिक विकार बताया गया। स्पर्श वायुका, रस जलका, रूप तेजका, शब्द आकाशकी और गन्ध भूमिका गुण हैं। मन-बुद्धि और स्वभाव-ये स्वयोनिज गुण हैं। ये गुणको सीमाको लाँघ जाते हैं, अत: उनसे श्रेष्ठ माने गये हैं। जैसे कछुआ अपने अङ्गको फैलाकर फिर सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार बुद्धिके द्वारा श्रेष्ठ पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेट लेता है। मनुष्य शरीरमें पाँच इन्द्रियों हैं, छठा तत्त्व मन है, सातवाँ तत्त्व बुद्धि हैं और क्षेत्रज्ञको आठ्व समझो। आँख देखनेके लिये ही हैं, मन संदेह करता है, बुद्धि निक्ष्य करनेके लिये है और क्षेत्रज्ञको साक्षी कहा जाता है। सत्व, रज और तम-ये तीनों गुण अपने कारणभूत प्रकृतिसे प्रकट है। वे सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान भावसे रिथत हैं। उनके कार्योदरा उनकी पहचान करनी चाहिये। जब अन्त:करण कुछ प्रौतियुक्त-सा जान पड़े, अत्यन्त शान्तिकासा अनुभव हो, तब उसे सत्त्वगुण जानना चाहिये। जब शरीर और मनमें कुछ संतापका-सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुणकी प्रवृत्ति मानना चाहिये। जब अन्त:करणमें अव्यक्त, अंतर्य और अज्ञेय मोहका संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिये । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम आनन्द, समता और स्वस्थचित्तताका विकास हो, तब उसे सात्त्विक गुण कहते हैं। अभिमान, असत्य-भाषण, सौभ और असहाशीलतये रजोगुणके चिह्न हैं। मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुणका कार्य जानना चाहिये।
जैसे जलचर पक्षी जलमें विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसारमें रहकर भी उसके गुण-दोनै लिप्त नहीं होता।* इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष विषयोंमें आसक्त न होनेके कारण उनका उपभोग करते हुए भी उनके दोषोंसे लिप्त नहीं होता। जो सदा परमात्मा चिन्तनमें ही लगा रहता है, वह पूर्वकृत कर्मोके बन्धनसे रहित हो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आस नही। होता। गुप्त आत्माक नहीं जानते, किंतु आत्मा उन्हें सदा जानता रहता है; क्योंकि वह गुणोंका द्रष्टा है। प्रकृति और आत्ममें यही अन्तर हैं। एक (प्रकृति) तो गुणों सृष्टि करती है, किन्तु दूसरा (आत्मा) ऐसा नहीं करता। वे दोनों स्वभावतः पृथक् होते हुए भी एकदूसरेसे संयुक्त हैं। जैसे पत्थर सुवर्ण जड़ा होता है, जैसे गूलर और उसके कीड़े साथसाथ रहते हैं तथा जिस प्रकार मुंजमें सक होती है और ये सभी वस्तुएँ पृथक् होती हुई भी परस्पर संयुक्त रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक दूसरेसे संयुक्त रहते हैं।
प्रकृति गुणोंकी सृष्टि करती है और क्षेत्रज्ञ आत्मा उदासीनकी भाँति अलग रहकर समस्त विकारशील गुणोंको देखा करता है। प्रकृति जो इन गुणोंकी सृष्टि करती हैं, वह सब उसका स्वाभाविक कर्म है। जैसे मकड़ी अपने शरीरसे तन्तुगोंकी सृष्टि करती हैं, वैसे ही प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थों को जन्म देती है। किन्हाँका मत हैं कि तत्त्वज्ञानसे जव गुणोंका नाश कर दिया जाता है, तब वे फिर उत्पन्न नहीं होते, उनका सर्वथा बाध हो जाता है। क्योंकि फिर उनका कोई चिह्न नहीं उपलब्ध होता। इस प्रकार वे भ्रम या अविद्याके निवारणको दो मुक्ति मानते हैं। दूसरोंके मतमें त्रिविध दुःखको आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष हैं। इन दोनों मतोंपर अपनी बुद्धि अनुसार विचार करके सिद्धान्तका निश्चय करे।
आत्मा आदि और अन्तसे रहित हैं। इसे जानकर मनुष्य हर्ष और क्रोधको त्याग दे और मात्सर्यरहित होकर विचरण करे। जैसे तैरनेकी कला न जाननेवाले मनुष्य यदि भरी हुई नदीमें कूद पड़ते हैं तो वे डूब जाते हैं, किंतु जो तैरना ज्ञानते हैं, वे कष्टमें नहीं पड़ते, वे तो जलमें भी स्थलकी ही भांति विचरते हैं, उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप आत्माको प्राप्त हुआ तत्ववेत्ता पुरुष संसार-सागरसे पार हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियों के आवागमनको जानकर सबके प्रति समभाव रखते हुए बर्ताव करता हैं, वह उत्तम शान्तिको प्राप्त होता है। ब्राह्मणमें इस ज्ञानको प्राप्त करनेकी सहज शक्ति होती है। मन और इन्द्रियोंका संयम तथा आत्माका ज्ञान-ये मोक्षप्राप्तिके लिये पर्याप्त साधन हैं । तत्त्वका ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बुद्ध (ज्ञानी) हो जाता हैं। बुद्धका इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है। बुद्धिमान् मनुष्य इस आत्मतत्त्वको जानकर कृतकृत्य हो संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं। अज्ञानी पुरुषोंको परलोकमें जो महान् भ्य प्राप्त होता है, वह ज्ञानीको नईं होता । ज्ञानी पुरुषको जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं है।
मुनि बोले- भगवन् ! अब आप उस धर्मका वर्णन कीजिये, जो सब धर्मोसे श्रेष्ठ है तथा जिससे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है।
व्यासजीने कहा- मुनिवरो ! मैं ऋषियोंके द्वारा प्रशंसित प्राचीन धर्मका, जो सम्पूर्ण धर्मोसे श्रेष्ठ है, वर्णन करता हूँ। तुम एकाग्रचित होकर सुनो। जैसे पिता अपने छोटे बालकोंको अपनी आशाके अधीन रखता है, उसी प्रकार मनुष्य बुद्धिके बतसे अपनी प्रमथनशील इन्द्रियोंका यापूर्वक संयम करे। मन और इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही सबसे बड़ी तपस्या है, उसे ही सब धर्मोको अपेक्षा श्रेष्ठ धर्म जानना चाहिये। पाँचौं इन्द्रियोंसहित छठे मनको बुझिके द्वरा एकाग्र करके सदा अपनेआपमें ही संतुष्ट रहे, नना प्रकारके चिन्तनीय विषयोंका चिन्तन न करे ।* जिस समय ये इन्द्रियाँ अपने विषयोंसे हटकर बुद्धिमें स्थित हो जायेंगी, उसी सनयं तुम्हें सनातन परमात्माका दर्शन होगा । धूमरहित अग्निके समान देदीप्यमान उस परम महान् सर्वात्मा परमेश्वरको मनीषी ब्राह्मण ही देख पाते हैं। जलते हुए ज्ञानमय प्रदीपके द्वारा पुरुष अपने अन्त:करणमें ही अत्माका दर्शन करता है। ब्राहाणो ! तुमलोग भी इसी प्रकार त्याका साक्षात्कार करकै संसारसे विरद्र हो जाओ। जैसे साँप केंचुत छोड़ता है, वैसे ही तुम भी सब पापोते मुक्त हो जाओगे। इस उत्तम बुद्धिको प्राप्त कर लेनेपर तुम्हारे मनमें चिन्ता तथा वेदना नहीं रहेगी। अविद्या एक भयंकर नदी है, जिसके सब ओर स्रोत हैं; यह लोकोंको प्रवाहित करनेवाली है। पाँचों इन्द्रियाँ इस नदीके भीतर रहनेवाले ग्राह हैं। मानसिक संकल्प-विकल्प ही इसके तट हैं। यह सोभ-गोहरूपी तृण (रोबार आदि) से अच्छादित रहती है। काम और क्रोधरूपी ससे युक्त है। सत्य ही इससे पार करनेवाला पुण्यतीर्थ हैं। इसमें असत्वका तूफान उठा करता है। क्रोध ही इस श्रेष्ठ नदीकी कीचड़ हैं। इसका उद्दमस्थान अव्यक्त है। यह काम-क्रोधसे व्याप्त तथा वेगसे बहनेवाली हैं। अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये इसे पार करना अत्यन्त कठिन है। यह नदी संसाररूपी समुद्रमें मिलती हैं। अपना जन्म हो इस नदीकी उत्पत्तिका कारण है। जिह्वारूपी भंवरके कारण इसको पार करना कठिन हैं। स्थिर बुद्धिवाले पवित्र मनीषी पुरुष ही इस नदीको पार कर पाते हैं। तुम सब लोग भी इस नदीके पार हो जाओ। इससे पार हो सब बन्धनोंसे मुक्त हुआ पवित्र जितात्मा पुरुष उत्तम बुद्धि पाकर ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। वह सब क्लेशसि छूट जाता है, इसका अन्त:करण प्रसन्नतासे पूर्ण रहता है तथा वह पापरहित हो जाता है। इसमें हर्ष और क्रोधरूपी विकार नहीं रह जाते। उसकी बुद्धि क्रूर नहीं होती। इस बुद्धिको प्राप्त करके तुमलोग समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयको देख सकोगे। यहाँ बताये हुए शर्मको विद्वानने सब धर्मोंसे श्रेष्ठ माना है। वह आत्मज्ञानका उपदेश सम्पूर्ण गुह्य रहस्यों में भी सबसे अधिक गोपनीय है। जो कोई परम पवित्र, हितैषी तथा भक्त हो, उसको इसका उपदेश करना चाहिये। ब्राह्मणो । मैंने यहाँ जिस ज्ञानका वर्णन किया है, वह अनायास ही आत्माका साक्षात्कार करानेवाला है। वह आत्मतत्व न स्त्री हैं, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। उसमें दुःख और सुख दोनोंका अभाव है। वह साक्षात् ब्रहा हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान-सब उसीकै रूप हैं। कोई पुरुष हो पा स्त्री, जो उस ब्रह्मको जान लेता है, उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। विप्रगण! सब प्रकारके मतोंने इस विषयका जैसा प्रतिपादन किया है, उसके अनुकूल ही मैंने भी वर्णन किया हैं।
मुनि बोले- ब्रह्माजीने उपायसे ही मोक्षकी प्राप्ति बतायी है, बिना उपायके नहीं। अत: हम न्यायानुकूल उपायको ही सुनना चाहते हैं।
व्यासजीने कहा- महाप्राज्ञ मुनिवारों ! हमलोगों में ऐसी ही निपुण दृष्टि होनी उचित हैं। उपायसे ही सब पुरुषार्थोकी खोज करनी चाहिये। मोक्षका एक ही मार्ग है, उसे सुनो। क्षमाके द्वारा क्रोधका नाश करे। इच्छा, द्वेष और क्रामको धैर्यसे शान्त करे। तत्त्ववेत्ता योगी ज्ञानकै अभ्याससे निद्रा तथा भेद-बुद्धिका निराकरण करें। हितकर, सुपक्व और स्वस्थ भोजनसे वह सब प्रकारके उपद्रवोंको मिटाये। विद्वान् पुरुष संतोषसे लोभ और मोहका, तात्विक दृष्टिसे विषयोंकी आसक्तिका, दयासे अधर्मका, सबमें अनित्य-बुद्धिके द्वारा स्नेहका तथा योग-साधनासे क्षुधाका निवारण करे। पूर्ण संतोषसे तृष्णाको, उत्थान (उत्तम)-से आलस्यको, निश्चयसे तर्क-वितर्कको, मौनावलम्बनसे बहुत बोलनेकी प्रवृत्तिको, शूरतासे भयको, बुद्धिसे मन और वाणीको तथा ज्ञानदृष्टिसे बुद्धिको जीते। शान्तचित्त हो पवित्र कर्मोका अनुष्ठान करते हुए इस बातको समझे। जिसके पाप धुल गये हैं, ऐसा तेजस्वी, मिताहारी तथा जितेन्द्रिय पुरुष काम और क्रोधको अपने वशमें करके ब्रह्ममें प्रवेश करता है। अविवेक और आसक्तिको अभाव, दीनताका त्याग, अविनयसे दूर रहना, चित्तमें उद्वेग न आने देना, स्थिरता धारण किये रहना तथा मन, वाणी और शरीरको संयममें रखना-यह सब मोक्षका प्रसादपूर्ण निर्मल एवं पवित्र मार्ग है।
अध्याय- 103 योग और संख्याका संक्षिप्त वर्णन
व्यासजी कहते हैं-जिस प्रकार दुर्बल मनुष्य पानीके वेगमें बह जाता है, उसी प्रकार निर्बल योगी विषयोंसे विचलित हो जाता है। किंतु उसी महान् प्रवाहको जैसे हाथी रोक देता है, वैसे योगका महान् बल पाकर योगी भी समस्त विषयको रोक लेता है, उनके द्वारा विचलित नहीं होता। योगशक्तिसम्पन्न पुरुष स्वतन्त्रतापूर्वक समस्त प्रजापतियों, मनुओं तथा महाभूतोंमें प्रवेश कर जाते हैं। अमित तेजस्वी योगके ऊपर क्रोधमें भरे हुए यमराज, काल और भयंकर पराक्रम दिखानेवाली मृत्युका भी जोर नहीं चलता। वह योगबल पाकर अपने हजारों रूप बना सकता और उन सबके द्वारा इस पृथ्वीपर विचर सकता है। फिर तेजको समेट लेनेवाले सूर्यकी भाँति वह उन सभी रूपोंको अपनेमें लीन करके उग्र तपस्या प्रवृत्त हो जाता हैं। बलवान् योगी बन्धन तोड़नेमें समर्थ होता है। उसमें अपनेको मुक्त करनेकी पूर्ण शक्ति होती है।
द्विजवरो ! ये मैंने योगको स्थूल शक्तियाँ बतायी हैं। अब दृष्टान्तके लिये योगसे प्राप्त होनेवाली कुछ सूक्ष्म शक्तियों का वर्णन करूंगा तथा आत्म-समाधिके लिये जो चितको धारणा की जाती है, उसके विषयमें भी कुछ सूक्ष्म दृष्टान्त बतलाऊँगा। जिस प्रकार सदा सावधान रहनेवाला धनुर्धर वीर चित्तको एकाग्र करके प्रहार करनेपर लक्ष्यको वेध देता है, उसी प्रकार जो योगी मनको परमात्माके ध्यानमें लगा देता है, वह नि:संदेह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जैसे सावधान मल्लाह समुद्रमें पड़ी हुई नावको शीघ्र ही किनारे लगा देता है, उसी प्रकार योगके अनुसार तत्त्वको जाननेवाला पुरुष समाधिके द्वारा मनको परमात्मामें लगाकर देहका त्याग करनेके अनन्तर दुर्गम स्थान (परम धाम)-को प्राप्त होता है। जिस प्रकार सावधान सारथि अच्छे घोड़ोंको रथमें जोतकर धनुर्धर श्रेष्ठ वीरको तुरंत अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देता है, वैसे ही धारणाओंमें चित्तको एकाग्र करनेवाला योगी लक्ष्यकी ओर छूटे हुए बाणको भाँति शीघ्र परम पदको प्राप्त कर लेता है। जो समाधिके द्वारा अपने आत्माको परमात्मामें लगाकर स्थिर भावसे बैठा रहता है, उसे अजर (बुढ़ापेसे रहित) पदकी प्राप्ति होती है। योगके महान् व्रतमें एकाग्रचित्त रहनेवाला जो योगी नाभि, कण्ठ, पार्श्वभाग, हृदय, वक्षःस्थल, नाक, कान, नेत्र और मस्तक आदि स्थानों में धारणाके द्वारा आत्माको परमात्माके साथ युक्त करता है, वह पर्वतके समान महान् शुभाशुभ कर्मोको भी शीघ्र ही भस्म कर डालता है और इच्छा करते ही उत्तम योगको आश्रय ले मुक्त हो जाता है।
निर्मल अन्त:करणवाले यति परमात्माको प्राप्त करके तद्रूप हो जाते हैं। उन्हें अमृतत्व मिल जाता है, फिर वे संसारमें नहीं लौटते । ब्राह्मणो! यही परम गति है। जो सब प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित, सत्यवादी, सरल तथा सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करनेवाले हैं, उन महात्माओंको ही ऐसी गति प्राप्त होती है।
मुनि बोले- साधुशिरोमणे ! दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले यति उत्तम स्थानस्वरूप भगवान्को प्राप्त होकर क्या निरन्तर उन्होंने रमण करते रहते हैं? अथवा ऐसी बात नहीं हैं? यहाँ जो तथ्य हो, उसका यथावत् वर्णन कीजिये। आपके सिवा दूसरे किसीसे हम ऐसा प्रश्न नहीं कर सकते। |
{व्यास उवाच॒ } यथान्यायं मुनिश्रेष्ठाः प्रश्नः पृष्टश्च संकटः । बुधानामपि संमोहः प्रश्नेऽस्मिन्मुनिसत्तमाः ॥ २४०.८१ ॥
व्यासजीने कहा- मुनिवरो ! आपने जो प्रश्न किया है, वह उचित ही है। यह विषय बहुत ही कठिन है। इसमें विद्वानों को भी मोह हो जाता है। यहाँ भी जो परम तत्त्वकी बात है, उसे बतलाता है; सुनो।
अत्रापि तत्त्वं परमं शृणुध्वं वचनं मम । बुद्धिश्च परमा यत्र कपिलानां महात्मनाम् ॥ २४०.८२ ॥
इस विषय कपिलके सांख्यमतका अनुसरण करनेवाले महात्माओंका विचार उत्तम माना गया है।
इन्द्रियाण्यपि बुध्यन्ते स्वदेहं देहिनां द्विजाः । करणान्यात्मनस्तानि सूक्ष्मं पश्यन्ति तैस्तु सः ॥ २४०.८३ ॥
देहधारियोंकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म शरीरको जानती हैं; क्योंकि वे आत्मा करण हैं और आत्मा भी उनके द्वारा सब कुछ देखता है।
आत्मना विप्रहीणानि काष्ठकुड्यसमानि तु । विनश्यन्ति न संदेहो वेला इव महार्णवे ॥ २४०.८४ ॥
अत्यासे सम्बन्ध न रहनेपर वे काठ और दीवारकी भाँति जड़मात्र हैं तथा महासागरमें उसके तटकी भूमिकी भाँति नष्ट हो जाती हैं।
इन्द्रियैः सह सुप्तस्य देहिनो द्विजसत्तमाः । सूक्ष्मश्चरति सर्वत्र नभसीव समीरणः ॥ २४०.८५ ॥
विप्रवरो ! जब इन्द्रियों के साथ देहधारी जीव सो जाता है, तब उसका सूक्ष्म शरीर आकाशमें वायुकी भाँति सर्वत्र विचरता रहता है।
स पश्यति यथान्यायं स्मृत्वा स्पृशति चानघाः । बुध्यमानो यथापूर्वमखिलेनेह भो द्विजाः ॥ २४०.८६ ॥
वह यथायोग्य वस्तुओंको देखता, स्मरण करता, छूता और पहलेको हो भाँति उन सबका अनुभव करता है।
इन्द्रियाणि ह सर्वाणि स्वे स्वे स्थाने यथाविधि । अनीशत्वात्प्रलीयन्ते सर्पा विषहता इव ॥ २४०.८७ ॥
सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वयं असमर्थ होनेके कारण विषके द्वारा मारे हुए सर्पोको भाँति अपने-अपने गोलकोंमें विलीन रहती हैं।
इन्द्रियाणां तु सर्वेषां स्वस्थानेष्वेव सर्वशः । आक्रम्य गतयः सूक्ष्मा वरत्यात्मा न संशयः ॥ २४०.८८ ॥ सत्त्वस्य च गुणान् कृत्स्नान् रजसश्च गुणान् पुनः । गुणांश्च तमसः सर्वान् गुणान् बुद्धेश्च सत्तमाः ॥ २४०.८९ ॥ गुणांश्च मनसश्चापि नभसश्च गुणांस्तथा । गुणान् वायोश्च सर्वज्ञाः स्नेहजांश्च गुणान् पुनः ॥ २४०.९० ॥ अपां गुणास्तथा विप्राः पार्थिवांश्च गुणानपि । सर्वानेव गुणैर्व्याप्य क्षेत्रज्ञेषु द्विजोत्तमाः ॥ २४०.९१ ॥ आत्मा चरति क्षेत्रज्ञः कर्मणा च शुभाशुभे । शिष्या इव महात्मानमिन्द्रियाणि च तं द्विजाः ॥ २४०.९२ ॥
उनकी सूक्ष्म गतिका आश्रय लेकर निश्चय ही आत्मा सर्वत्र विचरता है। सत्त्व, रज, तम, बुद्धि, गन, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-इन सबके गुणोंको व्याप्त करके क्षेत्रज्ञ आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्रोंमें विचरण करता है। जैसे शिष्य महात्मा गुरुका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार इन्द्रिय क्षेत्रज्ञ आत्माका अनुसरण करती हैं।
प्रकृतिं चाप्यतिक्रम्य शुद्धं सूक्ष्मं परात्परम् । नारायणं महात्मानं निर्विकारं परात्परम् ॥ २४०.९३ ॥
सांख्ययोगी प्रकृतिका भी अतिक्रमण करके शुद्ध, सूक्ष्म, परात्पर, निर्विकार, समस्त पापोंसे रहित, अनामय, निर्गुण तथा आनन्दमय परमात्मा श्रीनारायणको प्राप्त होते हैं।
विमुक्तं सर्वपापेभ्यः प्रविष्टं च ह्यनामयम् । परमात्मानमगुणं निर्वृतं तं च सत्तमाः ॥ २४०.९४ ॥ श्रेष्ठं तत्र मनो विप्रा इन्द्रियाणि च भो द्विजाः । आगच्छन्ति यथाकालं गुरोः संदेशकारिणः ॥ २४०.९५ ॥ शक्यं वाल्पेन कालेन शान्तिं प्राप्तुं गुणांस्तथा । एवमुक्तेन विप्रेन्द्राः सांख्ययोगेन मोक्षिणीम् ॥ २४०.९६ ॥ सांख्या विप्रा महाप्राज्ञा गच्छन्ति परमां गतिम् । ज्ञानेनानेन विप्रेन्द्रास्तुल्यं ज्ञानं न विद्यते ॥ २४०.९७ ॥ अत्र वः संशयो मा भूज्ज्ञानं सांख्यं परं मतम् ।
विप्रवरो! इस ज्ञानके समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है। इसके विषयमें तुमको संदेह नहीं करना चाहिये। सांख्यज्ञान सबसे उत्कृष्ट माना गया है।
अक्षरं ध्रुवमेवोक्तं पूर्वं ब्रह्म सनातनम् ॥ २४०.९८ ॥ अनादिमध्यनिधनं निर्द्वंद्वं कर्तृ शाश्वतम् । कूटस्थं चैव नित्यं च यद्वदन्ति शमात्मकाः ॥ २४०.९९ ॥
इसमें अक्षर, ध्रुव एवं पूर्ण सनातन ब्रह्मका ही प्रतिपादन हुआ है। वह ब्रह्म आदि, मध्य और अन्तसे रहित, द्वन्द्वोंसे अतीत, सनातन, कूटस्थ और नित्य है-ऐसा शान्तिपरायण विद्वान् पुरुषोंका कथन है।
यतः सर्वाः प्रवर्तन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः । एवं शंसन्ति शास्त्रेषु प्रवक्तारो महर्षयः ॥ २४०.१०० ॥
इससे जगत्की उत्पत्ति और प्रलय आदिप सम्पूर्ण विकार होते हैं। गूढ़ तत्वों की व्याख्या करनेवाले महर्षियोंने शास्त्रों में ऐसा ही वर्णन किया है।
सर्वे विप्राश्च वेदाश्च तथा सामविदो जनाः । ब्रह्मण्यं परमं देवमनन्तं परमाच्युतम् ॥ २४०.१०१ ॥ प्रार्थयन्तश्च तं विप्रा वदन्ति गुणबुद्धयः ।
सम्पूर्ण ब्राह्मण, देवता, वेद तथा सामवेत्ता पुरुष उसी अनन्त, अच्युत, ब्राह्मणभक्त तथा परमदेय परमेश्वरकी प्रार्थना करते और उनके गुणोंका चिन्तन करते रहते हैं।
सम्यगुक्तास्तथा योगाः सांख्याश्चामितदर्शनाः ॥ २४०.१०२ ॥ अमूर्तिस्तस्य विप्रेन्द्राः सांख्यं मूर्तिरिति श्रुतिः । अभिज्ञानानि तस्याहुर्महान्ति मुनिसत्तमाः ॥ २४०.१०३ ॥ द्विविधानि हि भूतानि पृथिव्यां द्विजसत्तमाः । अगम्यगम्यसंज्ञानि गम्यं तत्र विशिष्यते ॥ २४०.१०४ ॥ ज्ञानं महद्वै महतश्च विप्रा २४०.१०५ वेदेषु सांख्येषु तथैव योगे २४०.१०५ यच्चापि दृष्टं विधिवत्पुराणे २४०.१०५
ब्राह्मणो ! महात्मा पुरुषोंमें, वेदोंमें, सांख्य और योगमें तथा पुराणों में जो उत्तम ज्ञान देखा गया है, वह सब सांख्यसे ही आया हुआ है। बड़े-बड़े इतिहास में, यथार्थ तत्त्वका वर्णन करनेवाले शास्त्रोंमें तथा इस लोकमें जो कुछ भी ज्ञान श्रेष्ठ पुरुषोंके देखनेमें आया है, वह सब सांख्यसे ही प्राप्त हुआ है।
पूर्ण दृष्टि, उत्तम बल, ज्ञान, मोक्ष तथा सूक्ष्म तप आदि जितने भी विषय बताये गये हैं, उन सबका सांख्यशास्त्रमें यथावत् वर्णन किया गया है। सांख्यज्ञानी सदा सुखपूर्वक कल्याणमय ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। उस ज्ञानको धारण करके भी मनुष्य कृतार्थ हो जाते हैं।
सांख्यं विशालं परमं पुराणं २४०.१११ महार्णवं विमलमुदारकान्तम् २४०.१११ कृत्स्नं हि सांख्या मुनयो महात्म २४०.१११ नारायणे धारयताप्रमेयम् २४०.१११ एतन्मयोक्तं परमं हि तत्त्वं २४०.११२ नारायणाद्विश्वमिदं पुराणम् २४०.११२ स सर्गकाले च करोति सर्गं २४०.११२ संहारकाले च हरेत भूयः २४०.११२
सांखयका ज्ञान अत्यन्त विशाल और परम प्राचीन है। यह महासागरके समान अगाध, निर्मल और उदार भायोंसे पूर्ण है। इस अप्रमेय ज्ञानको भगवान् नारायण हो पूर्णरूपसे धारण करते हैं। मुनिवरो! यह मैंने तुमसे परम तत्त्वका वर्णन किया। यह सम्पूर्ण पुरातन विश्व भगवान् नारायणसे ही प्रकट हुआ है। वे ही सृष्टिके समय संसारकी सृष्टि और संहारकालमें उसका संहार करते हैं।
अध्याय- 104 क्षर-अक्षर-तत्वके विषयमें राजा करालजनक और वशिष्ठका संवाद
मुनियोंने पूछा- महामुने ! वह अक्षर-तत्त्व क्या है, जिसको प्राप्त कर लेने पर जीव पुन: इस संसारमें नहीं आता ? तथा क्षर् पदार्थ क्या है, जिसको जाननेपर भी आवागमन बना रहता है? क्षर और अक्षरके स्वरूपको स्पष्टरूपसे जाननेके लिये हम आपसे यह प्रश्न करते हैं।
व्यासजीने कहा- मुनिवरो ! इस विषयमें राजा करालजनक और वसिष्ठके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका वर्णन करता हैं। एक समयकी बात है, सूर्यके समान तेजस्वी मुनिवर वसिष्ठ अपने आश्रमपर विराजमान थे। वे परमात्मतत्त्वके प्रतिपादनमें कुशल थे। उन्हें अध्यात्मतत्त्वका निश्चयात्मक ज्ञान था। उस समय राजा करालजनकने उस आश्रमपर पहुँचकर वसिष्ठजीको हाथ जोड़कर प्रणाम किया और विनययुक्त मधुरवाणीमें कहा-‘ भगवन् ! जहाँसे ज्ञानी पुरुषोंको पुनः इस संसारमें नहीं आना पड़ता, उस सनातन ब्रह्मके स्वरूपका मैं वर्णन सुनना चाहता हैं। इसके सिवा जो क्षर कहा गया है, उसका तथा जिसमें इस जगत्का लय होता है, उस अनामय, कल्याणमय, अक्षरतत्वका भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। अत: आप इस विषयका उपदेश करें।’
वसिष्ठजीने कहा- राजन् ! सुनो। जिस प्रकार इस जगत्का क्षरण (लय) होता है, उसको तथा जिसमें इसका लग्न होता है, उस अक्षरको भी बतलाता हैं। देवताओंके बारह हजार वर्षांका एक चतुर्युग होता है। एक हजार चतुर्युगको ब्रह्माका एक दिन कहते हैं। इसीको कल्प समझो। दिनके ही बराबर ब्रह्माजीकी रात्रि भी होती है, जिसके अन्तमें वे सोकर उठते हैं और इस विशाल विश्वको सृष्टि करते हैं। वे यद्यपि निराकार हैं तो भी साकार जगत्की रचना करते हैं। उनमें अणिमा, लधिमा तथा प्राप्ति आदि शक्तियोंका स्वाभाविक निवास है। वे अविनाशी ज्योतिर्मय परमेश्वर हैं। उनके सब ओर हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र, मस्तक और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं। वे संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित हैं। वे ही भगवान् हिरण्यगर्भ हैं। ये ही योगशास्त्रमें महान् और विरञ्चि आदि नामों से प्रसिद्ध हैं तथा सांख्यशास्त्रमें भी उनका अनेक नामोंसे वर्णन आता है। उनके नाना प्रकारके अनेक अद्भुत रूप हैं। वे विश्वके आत्मा और एकाक्षर कहे गये हैं। उन्होंने सम्पूर्ण त्रिलोकीको स्वयं ही धारण कर रखा है तथा वे बहुत-से रूप धारण करनेके कारण विश्वरूप नामसे प्रसिद्ध हैं। ये महातेजस्वी भगवान् अपनी शक्तिसे महत्तत्त्वकी सृष्टि करके फिर अहंकार और उसके अभिमानी देवता प्रजापति उत्पन्न करते हैं। राजस, तामस और सात्विक भेदसे तीन प्रकारके अहंकारोंसे आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँच महाभूत तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच विषय तथा कान, त्वचा, नेत्र, जिहा और नासिका-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और लिङ्ग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं। मनके सहित इन सबका प्रादुर्भाव हुआ है। ये चौबीस तत्त्व सम्पूर्ण शरीरोंमें मौजूद रहते हैं। इनके स्वरूपको भलीभाँति जानकर तत्त्वदर्शी ब्राह्मण कभी शौक नहीं करते।
नरश्रेष्ठ ! यह त्रिलोकी उन्हीं तत्त्वों से बनी है। देवता, मनुष्य, यक्ष, भूत, गन्धर्व, किंनर, महानाग, चारण, पिशाच, देवर्षि, निशाचर, दंश, कीट, मशक, दुर्गन्धित कौड़े, चूहे, कुत्ते, चाण्डाल, हिरन, पुस, हाथी, घोड़े, गदहे, व्याघ्र, भेड़िये तथा गौ आदि जितने भी मूर्तिमान् पदार्थ हैं, उन सबमें इन्हीं तत्त्वका दर्शन होता है। पृथ्वी, जल और आकाशमें ही प्राणियोंका निवास है; अन्यत्र नहीं। यह सम्पूर्ण जगत् व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण (क्षय) होता है, इसलिये इसको क्षर कहते हैं। इससे भिन्न तत्त्व अक्षर कहा गया है। सम्पूर्ण भूतोंके आत्म परमेश्वरको ही अक्षर कहते हैं। इस प्रकार उस अव्यक्त अक्षरसे उत्पन्न यह व्यक्त नामवाला मोहात्मक जगत् सदा क्षयशील होनेके कारण ‘क्षर’ नाम धारण करता है। क्षतत्त्वोंमें सबसे पहले महत्तत्त्वकी सृष्टि हुई है। यही क्षरका निरूपण है। महाराज ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने क्षर-अक्षरका वर्णन किया। अक्षरतत्त्व पच्चीसवा तत्त्व है। वह नित्य एवं निराकार है। उसको प्राप्त कर लेनेपर इस संसारमें लौटना नहीं होता। जो अव्यक्ततत्त्व इस व्यक्त जगत्को सृष्टि करता है, वह प्रत्येक शरीरमें साक्षीरूपसे निवास करता है। चौबीस तत्त्वोंका समुदाय तो व्यक्त हैं, किंतु उनका साक्षी पच्चीसवाँ तत्त्व परमात्मा निराकार होनेके कारण अव्यक्त है। वही सम्पूर्ण देहधारियोंके हृदयमें निवास करता है। वह चेतनरूपसे सबको चेतना प्रदान करता है। वह स्वयं अमूर्त होते हुए भी सर्वमूर्तिस्वरूप है। सृष्टि और प्रलयरूप धर्मसे वह सृष्टिस्वरूप भी है और प्रलयस्वरूप भी। वही विश्वरूपमें सबको प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है। वह निर्गुण होते हुए भी गुणस्वरूप है। वह परमात्मा करोंड़ों सृष्टि और प्रलय करता रहता है, तथापि उसे अपने कर्तृत्वका अभिमान नहीं होता।
अज्ञानी पुरुष तमोगुण, सत्वगुण और रजोगुणसे युक्त होकर तदनुकूल योनियोंमें जन्म लेता है। वह ज्ञान न होने, अज्ञानी पुरुषोंका सेवन करने तथा उनके सम्पर्कमें रहनेसे ऐसा अभिमान करने लगता है कि ‘मैं बालक हूँ, यह हैं, वह हैं और वह नहीं हूँ’ इत्यादि। इस अभिमानके कारण वह प्राकृत गुणोंका ही अनुसरण करता है। तमोगुणके सेवनसे वह नाना प्रकारके तामसिक भावको प्राप्त होता है। रजोगुणके सेवनसे राजसिक और सत्त्वगुणके आश्रयसे वह सात्त्विक रूप ग्रहण करता है। काले, लाल और श्वेत-ये जो तीन प्रकारके रूप हैं, उन सबको प्राकृत ही जानो । तमोगुणी पुरुष नरकमें पड़ते हैं, रजोगुणी मनुष्यलोकमें आते हैं और सत्त्वगुणका आश्रय लेनेवाले जीव सुखके भागी होकर देवलोकमें जाते हैं। केवल पापसे (पापकी प्रधानतासे) पशु-पक्षियोंकी योनिमें जाना पड़ता है। पुण्य और पाप दोनोंका मेल होनेसे मनुष्यलोककी प्राप्ति होती हैं तथा केवल पुण्यसे (पुप्यकी प्रधानतासे) जीव देवताका स्वरूप प्राप्त करता है। अव्यक्त परमात्मामें जो स्थिति होती हैं, उसको मनीषी पुरुष मोक्ष कहते हैं। वे परमात्मा ही पच्चीसवां तत्त्व हैं। ज्ञानसे ही उनकी प्राप्ति होती है।
अध्याय- 105 कक्षर-अक्षर तथा योग और संख्याका वर्णन
जनकने कहा-मुनिश्रेष्ठ ! क्षर और अक्षर (प्रकृति और पुरुष) दोनोंका सम्बन्ध तो पत्नी और पतिके सम्बन्धकी भाँति स्थिर जान पड़ता है। जैसे पुरुषके बिना स्त्री तथा स्त्रीके बिना पुरुष संतान नहीं उत्पन्न कर सकते, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी सदा एक-दूसरेसे संयुक्त होकर ही सृष्टि करते हैं। ऐसी दशामें पुरुषका मोक्ष असम्भव जान पड़ता है। यदि मोक्षके निकट पहुँचनेवाला (उसके स्वरूपका स्पष्ट बोध करानेवाला) कोई दृष्टान्त हो तो बताइये; क्योंकि आपको सब कुछ प्रत्यक्ष है। हमारे मनमें भी मोक्षकी अभिलाषा है। हम भी उस पदको प्राप्त करना चाहते हैं, जो अनामय, अजेय, बुढ़ापेसे रहित, नित्य, इन्द्रियातीत एवं परम स्वतन्त्र हैं।
वसिष्ठजी बोले- राजन् ! तुम्हारा कहना ठीक है, तुमने वेद और शास्त्रोंका दृष्टान्त देकर अपना प्रश्न उपस्थित किया है तथापि अभी ग्रन्थका यथार्थ तत्त्व तुम्हारे समझमें नहीं आया है। जो वेद और शास्त्रोंके ग्रन्थोंको रट लेता हैं किंतु उसके तत्त्वको नहीं समझता, उसका वह रटना व्यर्थ है। जो याद किये हुए ग्रन्थका अर्थ नहीं जानता, वह तो केवल उसका बोझ ढोता है। उसके तत्वका यथार्थ बोध होनेसे ही वह उसके अर्थको ग्रहण कर सकता है। जिसकी बुद्धि स्थूल और मन्द हैं, अतएव जो ग्रन्थके तत्त्वको ठीकठीक जाननेके लिये उत्सुक नहीं है, वह इस ग्रन्थके विषयका निर्णय कैसे कर सकता है। जो मनुष्य ग्रन्थके तत्त्वको जाने बिना ही लोभ अथवा दम्भवश, उसपर विवाद करता है, वह पापी नरकमें पड़ता है। इसलिये महाराज ! साँख्य और योगके ज्ञाता महात्मा पुरुषोंके मतमें मोक्षका जैसा स्वरूप देखा जाता है, उसे मैं यथार्थरूपसे बतलाता हूँ; सुनो। योगी जिस तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, सांख्यके विद्वान् भी उसका ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो सांख्य और योगको एक समझता है, वही बुद्धिमान् है। जैसे बीजसे बीजजकी उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्यसे द्रव्य, इन्द्रियसे इन्द्रिय और देहसे देहकी प्राप्ति होती है। परंतु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देहसे रहित तथा निर्गुण है; अत: उसमें गुण कैसे हो सकते हैं। जैसे आकाश आदि गुण सत्त्वादि गुणों से उत्पन्न होते और उन्हींमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्त्वादि गुण भी प्रकृतिसे उत्पन्न होकर उसीमें लीन होते हैं। आत्मा तो जन्म-मृत्युसे रहित, अनन्त, सबका द्रष्टा एवं अद्वितीय है। वह सत्त्वादि गुणोंमें केवल आत्माभिमान करनेके कारण ही गणस्वरूप कहलाता हैं। गुण तो गुणवानुमें ही रहते हैं, निर्गुण आत्मामें गुण कैसे रह सकते हैं। अत: गुणोंके स्वरूपको जाननेवाले विद्वान् पुरुष ऐसा मानते हैं कि जब जीवात्मा इन प्राकृत गुणोंमें अपनेपनका अभिमान करता हैं, उस समय वह गुण्वान्-सा ही होकर भिन्न-भिन्न गुणोंको देखता है। किंतु जब उस अभिमानको छोड़ देता है, उस समय देहादिमें आत्मबुद्धिका परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्मस्वरूपका साक्षात्कार करता है। उस परमात्माको बुद्धि आदिसे परे सांख्ययोगस्वरूप बताया गया है। वह सत्त्वादि गुणोंसे रहित, अव्यक्त, ईश्वर (नियामक), निर्गुण, नित्य तथा प्रकृति और उसके गुणोंका अधिष्ठाता पच्चीसवाँ तत्त्व है। यह सांख्य और योगमें कुशल एवं परम तत्त्वकी खोज करनेवाले विद्वानों का कथन है। इस प्रकार परस्पर सम्बन्ध खनेवाले क्षर-अक्षर (प्रकृतिपुरुष)का स्वरूप बताया गया। सदा एक रूपमें रहनेवाला परमात्मा अक्षर है और नाना रूपों में प्रतीत होनेवाला प्राकृत जगत् क्षर कहलाता है। सारांश यह कि एकत्व ही अक्षर है और ननाचको ही क्षर कहते हैं। जव जीवात्मा पच्चीसवें तत्त्व परमात्मामें स्थित हो जाता है, उस समय उसकी सम्यक् स्थिति बतायी जाती हैं। एकत्व और नानात्व दोनों रूपोंमें उस परमात्माका ही दर्शन होता हैं। तत्त्ववेत्ता पुरुष एकत्व और नानात्व दोनों पार्थक्यको भलीभाँति जानत है। मनीषी पुस्प तत्वों की संख्आ पच्चीस चलाते हैं; परंतु उनमें पच्चीसवाँ तत्त्व परमात्मा है, जो तत्त्चसे विलक्षण है।
राजन् ! योगीका प्रधान कर्तव्य है ध्यान; ध्यान ही योगियोंका सबसे बड़ा बल है। योगविद्याके ज्ञता विद्वान् पुरुष मनकी एकाग्रता और प्राणायाम ये ध्यानके दो भेद बतलाते हैं। योगीको सन प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग करके मिताहारी और जितेन्द्रिय होना चाहिये। वह रात्रिके पहले और पिछले भागमें मनको परमात्मामें लगाकर अन्तःकरणमें उनका ध्यान करे। मिथिलेश्वर ! सम्पूर्ण इन्द्रियोंको मनके द्वारा स्थिर करके मनको भी बुद्धिमें स्थापित कर दे और पत्थरकी भाँति अविचल हो जाय, तभी उसे योगयुक्त कहते हैं। जिस समय उसे सुनने, सँघने, स्वाद लेने, देखने और स्पर्श करनेका भी भान नहीं रहता, जब मनमें किसी प्रकारका संकल्प नहीं उठता तथा वह काठकी भाँति स्थिर होकर किसी भी वस्तुका अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उस समय मनीषी पुरुष उसे अपने स्वरूपको प्राप्त ‘योगयुक्त’ कहते हैं। ध्याननिष्ठ योगीको अपने हृदयमें धूगरहित अग्नि, किरणमालाओंसे मण्डित सूर्य तथा विद्युत्के प्रकाशको भांति तेजस्वी आत्माका साक्षात्कार होता हैं। धैर्यवान्, मनीषी, वेदवेत्ता और महात्मा ब्राह्मण ही इस अजन्मा एवं अमृतस्वरूप ब्रसका दर्शन कर पाते हैं। वह ब्रह्म अणुसे भी अणु और महानसे भी महान् कहा गया है। सर्वत्र सम्पूर्ण भूतों में स्थित होते हुए भी वह किसको दिखायी नहीं देता। वेदोंके पारगामी तत्वज्ञा विद्वानोंने उसे तमसे दूर-अज्ञानान्धकारमे परे बताया है। वह निर्मल एवं लिङ्गरहित हैं। यही योगियोंका योग हैं। इसके सिवा योगा और क्या लक्षण हो सकता हैं। इस प्रकार साधना करनेवाली योगी सबके द्रष्टा अजर-अमर परमात्माका दर्शन करता है। यहाँतक मैंने तुम्हें योग-दर्शनको यथार्थस्वरूप बतलाया।
अब सांख्यका वर्णन करता हैं, यह विचारप्रधान दर्शन है। राजन् ! प्रकृतिवादी विद्वान् मूल प्रकृतिको अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्त्व प्रकट हुआ, जो ‘महत्तत्त्व’ कहलाता है। महत्तत्त्वसे अहंकार नामक तीसरे तत्त्वकी उत्पत्ति सुनी गयी है। साँख्य-दर्शनके ज्ञाता विद्वान् अहंकारसे सूक्ष्म भूतोंका–पञ्चतन्मात्राओंका प्रादुर्भाव बतलाते हैं। इन आठौंको प्रकृति कहते हैं; इनसे सौलह तत्वोंकी उत्पत्ति होती हैं, जो ‘विकृति’ कहलाते हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवाँ मन तथा पाँच स्थूलभूत—ये ही सोलह विकार हैं। ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं। सांख्यदर्शनमें तत्त्वोंकी इतनी ही संख्या मानी गयी है। सांख्यमार्ग स्थित और सांख्यविधि ज्ञाता मनीषी पुरुष ऐसा ही कहते हैं। जो तत्व जिससे उत्पन्न होता है, इसका इसमें लय भी होता है। प्रकृति परमात्माके संनिधानसे अनुलोमक्रमके अनुसार तत्त्वोंकी रचना करती है अर्थात् प्रकृतिसे महत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकारसे सूक्ष्म भूत आदिके क्रमसे सृष्टि होती है; किंतु उसका संहार विलोमक़मसे होता है। अर्थात् पृथ्वीका जनमें, अलका तेजमें और तेजका वायुनें लय होता है; इसी प्रकार सभी तत्व अपने-अपने कारणमें लीन होते हैं। जैसे समुद्रसे उठी हुई लहरे फिर उसमें शान्त हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण तत्त्न अनुलोपक्रमसे उत्पन्न होकर विलोमक्रम लीन होते हैं। नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार प्रकृतिसे ही जगत्की उत्पत्ति और उसमें उसका लय होता है। प्रलयकालमें तो वह एक रूपमें रहती है और सृष्टिके समय नाना रूप धारण करती है। ज्ञान-निपुण पुरुषको इसी प्रकार प्रकृतिके एकत्व और नानात्वका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
प्रकृतिका अधिष्ठाता जो अव्यक्त आत्मा हैं, उसके विषयमे भी यही बात है। वह भी प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेपर एकत्व और नानात्वको प्राप्त होता हैं। प्रलयकालमें तो वह भी एक ही रूपमें रहता है, किंतु सृष्टिके समय प्रकृतिको प्रेरित करनेके कारण उसकी ही अनेकतासे वह स्वयं भी अनेक-सा प्रतीत होता है। परमात्मा ही प्रकृतिको प्रसवके लिये उन्मुख करके उसे अनेक रूपों में परिणत करता है। प्रकृति और उसके विकारोंको क्षेत्र कहते हैं। चौबीस तत्वों से भिन्न जो पच्चीसवाँ तत्त्व महान् आत्मा है, वहीं उस क्षेत्रमें अधिष्ठावारूपसे निवास करता हैं। वह क्षेत्रको जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है। क्षेत्रज्ञ प्रकृतिजनित पुरष (शरीर)-में शयन करता है, इसलिये उसे पुरुष कहते हैं। वास्तवमें क्षेत्र अन्य वस्तु है और क्षेत्र अन्य। क्षेत्र अव्यक्त (प्रकृति) है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पच्चीसवाँ तत्त्व परमात्मा है। जब पुरुष अपनेको प्रकृतिसे भिन्न जान लेता है, उस समय वह अद्वितीय परमात्मरूपसे स्थित होता हैं। इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्यग् दर्शन (सांख्य) का यथार्थ वर्णन किया। जो इसे इस प्रकार जानते हैं, वे समस्वरूप ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।
महाराज ! इस प्रकार मैंने तुमसे शुद्ध, सनातन आदि ब्रह्मके यथार्थ तत्वका वर्णन किया है। तुम मात्सर्यका त्याग करके अपनी बुद्धिसे इस तत्त्वको ग्रहण करो। असत्यवादी, शठ, नपुंसक, कुटिल बुद्धिवाले, अपनेको पण्डित माननेवाले तथा दूसरों को कष्ट पहुँचानेवाले मनुष्यको इसका उपदेश नहीं देना चाहिये। शिष्यको बोध करानेके लिये ही इस तत्वका उपदेश करना उचित है। जो श्रद्धासु, गुणवान्, परायी निन्दासे दूर रहनेवाले, विशद्ध योगी, विद्वान्, वेदोक्त कर्म करनेवाले, क्षमाशील तथा सबके हितैषी हों, वे ही इस ज्ञानके अधिकारी हैं। जितेन्द्रिय तथा संयम पुरुषको इसका उपदेश अवश्य देना चाहिये। महाराज्ञ कराल ! तुमने मुझसे आज परब्रह्मका ज्ञान प्राप्त किया है। अब तुम्हारे मनमें तनिक भी भय नहीं होना चाहिये । नरेन्द्र ! तुमने मुझसे जैसा प्रश्न किया था, उसके अनुसार ही मैंने तुम्हें यह उपदेश किया है; कोई दूसरी बात नहीं कही है। यह महान् ज्ञान मोक्षवेत्ता पुरुषोंका परम आश्रय है। यह मुझे साक्षात् ब्रह्माजीसे प्राप्त हुआ है। |
व्यासजी कहते हैं- मुनिवरो ! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने जिस प्रकार पच्चीसवें तत्त्वरूप परब्रहाके स्वरूपका वर्णन किया था, उसी प्रकार मैंने तुम्हें बताया है। यही वह ब्रह्म है, जिसे जान लेनेपर मनुष्य फिर इस संसार में नहीं आता। यह ज्ञान हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीसे महर्षि वसिष्ठको प्राप्त हुआ, वसिष्ठजीसे देवर्षि नारदको मिला और देवर्षि नारदसे मुझको प्राप्त हुआ। वही यह सनातन ज्ञान मैंने तुम सब लोगोंको बताया है; यह परम पद हैं, इसका श्रवण करके अब तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। जिसने क्षर और अक्षरके भेदको जान लिया, उसे किसी प्रकारका भय नहीं है। जो उन्हें ठीक-ठीक नहीं जानता, उसीको भय हैं। मूर्ख मनुष्य इस तत्वको न जानने के कारण बारंबार उपद्रवग्रस्त हो मरता और मरनेके बाद पुन: हजारों बार जन्म-मृत्युके कष्ट भोगता है। वह देव, मनुष्य और पशु-पक्षी आदिकी योनियों में भटकता रहता है। अज्ञानरूपी समुद्र अव्यक्त, अगाध और भयंकर है। इसमें प्रतिदिन कितने ही प्राणी डूबते चले जा रहे हैं। तुमलोग यह उपदेश सुनकर इस अगाध भवसागरसे पार हो गये हो। अब तुममें रजोगुण और तमोगुणका भाव नहीं रह गया। तुम्हारी शुद्ध सत्त्वमें स्थिति हो गयी है। मुनिवरो ! इस प्रकार मैंने सारसे भी सारभूत परमतत्त्वका वर्णन किया। यह परम मोक्षरूप है। इसे जान लेनेपर मनुष्य फिर इस संसारमें लौटकर नहीं आता। जो नास्तिक हो, जिसके हृदयमें गुरु और भगवान्के प्रति भक्ति न हो, जिसकी बुद्धि खोटी और हृदय श्रद्धासे विमुख हो, ऐसे मनुष्यको कभी इसका उपदेश नहीं करना चाहिये।
अध्याय- 106 श्री ब्रह्मपुराण की महिमा तथा ग्रन्थ का उपसंहार
लोमहर्षणजी कहते हैं – द्विजवरो ! इसप्रकार पूर्वकाल में महर्षि व्यासने सारभूत निर्दोष वचनोंद्वारा मधुरवाणी में मुनियों को यह पुराण सुनाया था । इसमें अनेक शास्त्रों के शुद्ध एवं निर्मल सिद्धांतों का समावेश हैं । यह सहज शुद्ध है और अच्छे शब्दों के प्रयोग से सुशोभित होता है । इसमें यथास्थान पूर्वपक्ष और सिद्धांतका प्रतिपादन किया गया है । इस पुराण को न्यायानुकुल रीति से सुनाकर परम बुद्धिमान वेदव्यासजी मौन हो गये । वे श्रेष्ठ मुनि भी सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देनेवाले तथा वेदों के तुल्य माननीय इस आदि ब्रह्मपुराण को सुनकर बहुत प्रसन्न और विस्मित हुए । उनहोंने मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासकी बारंबार प्रशंसा की ।
मुनि बोले – मुनिश्रेष्ठ ! आपने हमें वेदों के तुल्य प्रामाणिक तथा सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देनेवाला सर्वपापहारी श्रेष्ठ पुराण सुनाया हैं । यह कितने हर्ष की बात है । हमने भी इस विचित्र पदोंवाले पुराण का अक्षर-अक्षर सुना है । प्रभो ! तीनों लोकों में ऐसी कोई वस्तु नही हैं, जो आपको विदित न हो । महाभाग ! आप देवताओं में बृहस्पतिकी भान्ति सर्वज्ञ है, महाप्राज्ञ और ब्रह्मनिष्ठ हैं । महामते ! हम आपको नमस्कार करते हैं । आपने महाभारत में सम्पूर्ण वेदों के अर्थ प्रकट किये है । महामुने ! आपके सम्पूर्ण गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ हैं । जिन्होंने छहों अन्गोंसहित चारों वेदों तथा सम्पूर्ण व्याकरणों को पढकर महाभारत शास्त्र की रचना की, उन ज्ञानात्मा भगवान वेदव्यास को नमस्कार है । प्रफुल्ल कमलदल के समान बड़े-बड़े नेत्रों तथा विशाल बुद्धिवाले व्यासजी ! आपको नमस्कार है । आपने महाभारतरूपी तेल से भरे हुए ज्ञानरुपी दीपक को जलाया है ।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविंदातपत्रनेत्र । येन त्वया भारततैलपूर्ण: प्रज्वालितो ज्ञानमय: प्रदीप: ।।
यों कहकर उन महर्षियों ने व्यासजी का पूजन किया । फिर व्यासजी ने भी उन सबका सम्मान किया । तत्पश्च्यात वे कृतार्थ होकर जैसे आये थे, उसी प्रकार अपने आश्रम को लौट गये ।
मुनिवरो ! आपने हमसे जिसप्रकार प्रश्न किया था, उसके अनुसार हमने भी सब पापों का नाश करनेवाले परम पुण्यमय इस सनातन पुराण का वर्णन किया । श्रीव्यासजी की कृपा से ही मैंने यह सब कुछ आपलोगों को सुनाया है । ग्रहस्थ, संन्यासी और ब्रह्मचारी – सबको ही इस पुराण का श्रवण करना चाहिये । यह मनुष्यों को धन और सुख देनेवाला, परम पवित्र एवं पापों का दूर करनेवाला है । परम कल्याण की अभिलाषा रखनेवाले ब्रह्मपरायण ब्राह्मण आदि को संयम और प्रयत्नपूर्वक यह पुराण सुनना चाहिये । इसको सुननेसे ब्राह्मण विद्या, क्षत्रिय संग्राम में विजय, वैश्य अक्षय धन और शुद्र सुख पाता है । पुरुष पवित्र होकर जिस-जिस काम्य वस्तुका चिन्तन करते हुए इस पुराण का श्रवण करता हैं, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता हैं । यह ब्रह्मपुराण भगवान विष्णु से सम्बन्ध रखनेवाला हैं । इससे सब पापों का नाश हो जाता हैं । यह सब शास्त्रों से विशिष्ट और समस्त पुरुषार्थों का साधक है ।
यह जो मैंने आपलोगों को वेदतुल्य पुराण का श्रवण कराया हैं, इसको सुननेसे सब प्रकार के दोषों से प्राप्त होनेवाली पापराशि का नाश हो जाता हैं । प्रयाग, पुष्कर, कुरुक्षेत्र तथा अर्बुदारन्य (आबू) में उपवास करनेसे जो फल मिलता है, वह इसके श्रवणमात्र से मिल जाता हैं । एक वर्षतक अग्नि में हवन करने से पुरुष को जो महापुण्यमय फल प्राप्त होता है, वह इसे एक बार सुनने से ही मिल जाता हैं । जेष्ठ मास के शुक्लपक्ष की द्वादशी को यमुना में स्नान करके मथुरापूरी में श्रीहरि के दर्शन से मनुष्य जिस फलका भागी होता है, वह एकाग्रचित्त होकर इस ब्रह्मपुराण की कथा कहने से ही प्राप्त हो जाता हैं । जो इसका पाठ अथवा श्रवण करता है, वह भी उसी फलको प्राप्त करता है । जो मनुष्य प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक इस वेदसम्मित पुराण का पाठ या श्रवण करता हैं, वह भगवान् विष्णु के धाम में जाता हैं और जो ब्राह्मण मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर पर्वों के दिन तथा एकादशी और द्वादशी तिथि को ब्रह्मपुराण बाँचकर दूसरों को सुनाता हैं, वह वैकुण्ठ धाम में जाता हैं ।
इदं हि श्रद्धया नित्यं पुराणं वेदसम्मितम । य: पठेच्छणुयान्मर्त्यं: स याति भुवनं हरे: ।। श्रावयेदब्राह्मणों यस्तु सदा पर्वसु संयत: । एकादश्यां द्वादश्यां च विष्णुलोकं स गच्छति ।।
यह पुराण मनुष्यों को यश, आयु, सुख, कीर्ति,बल, पुष्टि तथा धन देनेवाला और अशुभ स्वप्नों का नाश करनेवाला है । जो प्रतिदिन तीनों संध्याओं के समय एकाग्रचित्त हो श्रद्धापूर्वक इस श्रेष्ठ उपाख्यान का पाठ करता हैं, वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता है न। इसको पढने और सुनने से रोगातुर मनुष्य रोगसे, कैद में पड़ा हुआ पुरुष वहाँ के बंधन से, भय से डरा हुआ मानव भय से तथा आपत्तिग्रस्त पुरुष आपत्ति से छुट जाता हैं । इतना ही नहीं; इसके पाठ और श्रवण से पूर्वजन्मों के स्मरण की शक्ति, विद्या, पुत्र, धारणावती बुद्धि, पशु, धैर्य, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भी मनुष्य प्राप्त कर लेता हैं । जिन-जिन कामनाओं को मनमें लेकर मनुष्य संयतचित्त से इस पुराण का पाठ करता हैं, उन सबकी उसे प्राप्ति हो जाती है – इसमें तनिक भी संदेह नही हैं ।
जो मनुष्य एकमात्र भगवान की भक्ति में चित्त लगाकर पवित्र हो अभीष्ट वर देनेवाले लोकगुरु भगवान विष्णु को प्रणाम करके स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले इस पुराण का निरंतर श्रवण करता हैं, उसके सारे पाप छुट जाते हैं । वह इस लोक में उत्तम सुख भोगकर स्वर्ग में भी दिव्य सुख का अनुभव करता हैं । तत्पश्चात प्राकृत गुणों से मुक्त हो भगवान विष्णु के निर्मल पद को प्राप्त होता है । इसलिये एकमात्र मुक्तिमार्ग की इच्छा रखनेवाले स्वधर्मपरायण श्रेष्ठ ब्राह्मणों को, मन और इन्द्रियों को वश में रखनेवाले कल्याणकामी उत्तम क्षत्रियों को, विशुद्ध कुल में उत्पन्न वैश्यों को तथा धर्मनिष्ठ शूद्रों को भी प्रतिदिन इस पुराण का श्रवण करना चाहिये । यह बहुत ही उत्तम, अनेक फलों से युक्त तथा धर्म, अर्थ एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है । आप सब लोग श्रेष्ठ पुरुष है, अत: आपकी बुद्धि निरंतर धर्म में लगी रहे । एकमात्र धर्म ही परलोक में गये हुए प्राणी के लिये बन्धु की भान्ति सहायक है । धन और स्त्री आदि भोगों का चतुर – से – चतुर मनुष्य भी क्यों न सेवन करे, उनपर न तो कभी भरोसा किया जा सकता हैं और न वे सदा स्थिर ही रहते हैं । मनुष्य धर्म से ही राज्य प्राप्त करता हैं, धर्म से ही वह स्वर्ग में जाता हैं तथा धर्म से ही मानव आयु, कीर्ति, तपस्या एवं धर्म का उपार्जन करता हैं और धर्म से ही उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है । इस लोक में तथा परलोक में भी धर्म ही मनुष्य के लिये माता-पिता और सखा है । इस लोकमें भी धर्म ही रक्षक है और वही मोक्ष की भी प्राप्ति करानेवाला है । धर्म के सिवा कुछ भी काम नहीं आता । यह श्रेष्ठ पुराण परम गोपनीय तथा वेद के तुल्य प्रामाणिक है । खोटी बुद्धिवाले और विशेषत: नास्तिक पुरुष को इसका उपदेश नही देना चाहिये । यह श्रेष्ठ पुराण पापों का नाश तथा धर्म की वृद्धि करनेवाला है । साथ ही इसे अत्यंत गोपनीय माना गया है । मुनियों ! मैंने आपलोगों के सामने इसका कथन किया उअर आपने भी इसे भलीभांति सुन लिया ।
धर्मेण राज्यं लभते मनुष्य: स्वर्ग च धर्मेण नर: प्रयाति । आयुश्च्य कीर्ति च तपश्व धर्म धर्मेण मोक्षं लभते मनुष्य: ।। धमोंऽत्र मातापितरौ नरस्य धर्म: सखा चात्र परे च लोके । त्राता च धर्मस्त्विह मोक्षदश्व धर्मादृते नास्ति तू किंचिदेव ।। इदं रहस्यं श्रेष्ठं च पुराणं वेद्सम्मितम । न देयं दुष्टमतये नास्तिकाय विशेषत: ।। इदं मयोक्तं प्रवरं पुराणं पापापहं धर्मविवर्धनं च । श्रुतं भवद्भि: परमं रहस्यमाज्ञापयध्वं मुनयो व्रजामि ।।