- १- नैमिषारण्यमें सूतजीका आगमन, पुराणका आरम्भ तथा सृष्टिका वर्णन
- २- राजा पृथुका चरित्र
- ३- चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान् की संततिका वर्णन
- ४- वैवस्वत मनुके वंशजका वर्णन
- ५- राजा सगरका चरित्र तथा इक्ष्वाकुवंशके मुख्य-मुख्य राजाओंका परिचय
- ६- चन्द्रवंशके अन्तर्गत जह्रु, कुशिक तथा भृगुवंशका संक्षिप्त वर्णन
- ७- आयु और नहुषके वंशका वर्णन, रजि एवं ययातिका चरित्र
- ८- ययाति पुत्रोंके वंशका वर्णन
- ९- क्रोष्टु आदिके वंशका वर्णन तथा स्यमन्तक-मणिकी कथा
- १०- जम्बूद्वीप तथा उसके विभिन्न वर्षोसहित भारतवर्षका वर्णन
- ११- प्लक्ष आदि छः द्वीपोंका वर्णन और भूमिका मान
- १२- पाताल और नरकोंका वर्णन तथा हरिनाम कीर्तनकी महिमा
- १३- ग्रहों तथा भुवः आदि लोकों की स्थिति, श्रीविष्णुशक्तिका प्रभाव तथा शिशुमारचक्रका वर्णन
- १४- तीर्थ-वर्णन
- १५- भारतवर्षका वर्णन
- १६- कोणादित्यकी महिमा
- १७- भगवान् सूर्यकी महिमा
- १८- सूर्यकी महिमा तथा अदितिके गर्भ से उनके अवतारका वर्णन
- १९- श्रीसूर्यदेवकी स्तुति तथा उनके अष्टोत्तरशत नामोंका वर्णन
- २०- पार्वतीदेवीकी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा उनके द्वारा ग्राहके मुखसे ब्राह्मण बालकका उद्धार
- २१- पार्वतीजीका स्वयंवर और महादेवजीके साथ उनका विवाह
- २२- देवताओंद्वारा महादेवजीकी स्तुति, कामदेवका दाह तथा महादेवजीका मेरुपर्वतपर गमन
- २३- दक्ष-यज्ञ-विध्वंस
- २४- दक्षद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
- २५- एकाम्रकक्षेत्र तथा पुरुषोत्तमक्षेत्रकी महिमा
- २६- अवन्तीके महाराज इन्द्रद्युम्नका पुरुषोत्तम क्षेत्रमें जाना तथा वहाँकी इन्द्रनीलमयी प्रतिमाके गुप्त होनेकी कथा
- २७- राजा इन्द्रद्युम्नके द्वारा अश्वमेधयज्ञ तथा पुरुषोत्तम प्रासाद-निर्माणका कार्य
- २८- राजा इन्द्रद्युम्नके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी स्तुति
- २९- राजाको स्वप्नमें और प्रत्यक्ष भी भगवान् का दर्शन, भगवत्प्रतिमाओंका निर्माण, स्थापन और यात्राकी महिमा
- ३०- मार्कण्डेय मुनिको प्रलयकालमें बालमुकुन्दका दर्शन और उनका वरदान प्राप्त होना
- ३१- मार्कण्डेयेश्वर शिव, वटवृक्ष, श्रीकृष्ण, बलभद्र एवं सुभद्राके दर्शन-पूजनका माहात्म्य
- ३२- पुरुषोत्तमक्षेत्रमें भगवान् नृसिंह तथा श्वेतमाधवका माहात्म्य
- ३३- मत्स्यमाधवकी महिमा, समुद्रमें मार्जन आदिकी विधि, अष्टाक्षरमन्त्रकी महत्ता, स्नान, तर्पण- विधि तथा भगवान्की पूजाका वर्णन
- ३४- भगवान् पुरुषोत्तमकी पूजा और दर्शनका फल, इन्द्रद्युम्नसरोवरके सेवनकी विधि एवं महिमाका वर्णन तथा ज्येष्ठकी पूर्णिमाको दर्शनका माहात्म्य
- ३५- ज्येष्ठपूर्णिमाको श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राके स्नानका उत्सव तथा उनके दर्शनका माहात्म्य
- ३६- गुण्डिचा-यात्राका माहात्म्य तथा द्वादश यात्राकी प्रतिष्ठा-विधि
- ३७- तीर्थोके भेद, वामनका बलिसे भूमिदान ग्रहण तथा गङ्गाजीका महेश्वरकी जटामें गमन
- ३८- गौतमके द्वारा भगवान् शंकरकी स्तुति, शिवका गौतमको जटासहित गङ्गाका अर्पण तथा गौतमी गङ्गाका माहात्म्य
- ३९- भागीरथी गङ्गा अवतरणकी कथा
- ४०- वाराहतीर्थ, कुशावर्त, नीलगङ्गा और कपोततीर्थकी महिमा; कपोत और कपोती के अद्भुत त्यागका वर्णन
- ४१- दशाश्वमेधिक और पैशाचतीर्थका माहात्म्य
- ४२- क्षुधातीर्थ और अहल्या संगमतीर्थका माहात्म्य
- ४३- जनस्थान, अश्वतीर्थ, भानुतीर्थ और अरुणा-वरुणा संगमकी महिमा
- ४४- गरुड़तीर्थ और गोवर्धनतीर्थकी महिमा
- ४५- श्वेततीर्थ, शुक्रतीर्थ और इन्द्रतीर्थका माहात्म्य
- ४६- पौलस्त्य, अग्नि और ऋणमोचन नामक तीर्थोका माहात्म्य
- ४७- सुपर्णा-संगम, पुरूरवस्तीर्थ, पञ्चतीर्थ, शमीतीर्थ, सोम आदि तीर्थ तथा वृद्धा-संगम-तीर्थकी महिमा
- ४८- इलातीर्थ के आविर्भावकी कथा
- ४९- चक्रतीर्थ और पिप्पलतीर्थकी महिमा, महर्षि दधीचि, उनकी पत्नी गभस्तिनी तथा उनके पुत्र पिप्पलादके त्यागकी अद्भुत कथा
- ५०- नागतीर्थकी महिमा
- ५१- मातृतीर्थ, अविघ्नतीर्थ और शेषतीर्थको महिमा
- ५२- अश्वत्थ-पिप्पलतीर्थ, शनैश्वरतीर्थ, सोमतीर्थ, धान्यतीर्थ और विदर्भा-संगम तथा रेवती-संगम तीर्थकी महिमा
- ५३- पूर्णतीर्थ और गोविन्द आदि तीर्थोकी महिमा, धन्वन्तरि और इन्द्रपर भगवान्की कृपा
- ५४- श्रीरामतीर्थकी महिमा
- ५५- पुत्रतीर्थकी महिमा
- ५६- यम, आग्नेय, कपोत और उलूक-तीर्थकी महिमा
- ५७- तपस्तीर्थ, इन्द्रतीर्थ और वृषाकपि एवं अब्जकतीर्थकी महिमा
- ५८- आपस्तम्बतीर्थ, शुक्लतीर्थ और श्रीविष्णुतीर्थकी महिमा
- ५९- लक्ष्मीतीर्थ और भानुतीर्थका माहात्म्य
- ६०- खड्गतीर्थ और आत्रेवतीर्थकी महिमा
- ६१- परुष्णीतीर्थ, नारसिंहतीर्थ, पैशाचनाशनतीर्थ, निम्नभेदतीर्थ और शङ्खह्रदतीर्थकी महिमा
- ६२- किष्किन्धातीर्थ और व्यासतीर्थंकी महिमा
- ६३- कुशतर्पण एवं प्रणीता-संगम-तीर्थकी महिमा
- ६४- सारस्वत तथा चिच्चिकतीर्थका माहात्म्य
- ६५- भद्रतीर्थ, पतत्रितीर्थ और विप्रतीर्थकी महिमा
- ६६- चक्षुस्तीर्थका माहात्म्य
- ६७- सामुद्र, ऋषिसत्र आदि तीर्थोकी महिमा तथा गौतमी माहात्म्यका उपसंहार
- ६८- अनन्त वासुदेवकी महिमा तथा पुरुषोत्तमक्षेत्रके माहात्म्यका उपसंहार
ब्रह्मपुराण पूर्वभाग
अध्याय १ नैमिषारण्य में सूतजी का आगमन, पुराण का आरम्भ तथा सृष्टि का वर्णन
प्रत्येक कल्प और अनुकल्प में विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे प्रकट होता, जिनमें स्थित रहता और अन्तकाल में जिनके भीतर पुन: लीन हो जाता हैं, जो इस दृश्य-प्रपंच से सर्वथा पृथक हैं, जिनका ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान् पुरषोत्तम (जगन्नाथजी) को मैं प्रणाम करता हूँ । जो शुद्ध, आकाश के समान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल, सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एकमात्र ध्यान में ही अनुभव करनेयोग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते है, जो संसार की उत्पत्ति और विनाश के एकमात्र कारण हैं, जरा-अवस्था जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीहरि को मैं वन्दना करता हूँ ।

पूर्वकाल की बात हैं, परम पुण्यमय पवित्र नैमिषारण्यक्षेत्र बड़ा मनोहर जान पड़ता था । वहाँ बहुत-से मुनि एकत्रित हुए थे, भाँति-भाँति पुष्प उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे ।
पीपल, पारिजात, चंदन, अगर, गुलाब तथा चम्पा आदि अन्य बहुत-से वृक्ष उसकी शोभा वृद्धि में सहायक हो रहे थे । भाँति-भाँति के पक्षी, नाना प्रकारके मृगों का झुंड, अनेक पवित्र जलाशय तथा बहुत-सी बावलियाँ उस वनको विभूषित कर रही थीं । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तथा अन्य जाति के लोग भी वहाँ उपस्थित थे । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी – सभी जुटे हुए थे । झुंड – की – झुंड गौएँ उस वनकी शोभा बढ़ा रही थी । नैमिषारण्यवासी मुनियों का द्वादशवार्षिक (बारह वर्षोतक चालू रहनेवाला) यज्ञ आरम्भ था । जौ, गेहूँ, चना, उड़द, मूँग और तिल आदि पवित्र अन्नों से यज्ञमंडप सुशोभित था । वहाँ होमकुंड में अग्निदेव प्रज्वलित थे और आहुतियाँ डाली जा रही थी. । उस महायज्ञ में सम्मिलित होने के लिये बहुत-से मुनि और ब्राह्मण अन्य स्थानों से आये । स्थानीय महर्षियों ने उन सबका यथायोग्य सत्कार किया । ऋत्विजोंसहित वे सब लोग जब आराम से बैठ गये, तब परम बुद्धिमान लोमहर्षण सूतजी वहाँ पधारे । उन्हें देखकर मुनिवरों को बड़ी प्रसन्नता हुई, उन सबने उनका यथावत सत्कार किया । सूतजी भी उनके प्रति आदर का भाव प्रकट करके एक श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए । उससमय सब ब्राह्मण सूतजी के साथ वार्तालाप करने लगे । बातचीत के अंत में सबने व्यास-शिष्य लोमहर्षणजी से अपना संदेह पूछा ।
मुनि बोले –साधूशिरोमणे ! आप पुराण, तन्त्र, छहों शास्त्र, इतिहास तथा देवताओं और दैत्यों के जन्म-कर्म एवं चरित्र- सब जानते हैं । वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा मोक्षशास्त्र में कोई भी बात ऐसी नहीं हैं, जो आपको ज्ञात न हो ।
महामते ! आप सर्वज्ञ हैं, अत: हम आपसे कुछ प्रश्नों का उत्तर सुनना चाहते हैं; बताइये, यह समस्त जगत कैसे उत्पन्न हुआ ? भविष्य में इसकी क्या दशा होगी ? स्थावर-जंगमरूप संसार सृष्टि से पहले कहाँ लीन था और फिर कहाँ लीन होगा ?
लोमहर्षणजी ने कहा –जो निर्विकार, शुद्ध, नित्य, परमात्मा, सदा एकरूप और सर्वविजयी हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार हैं । जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप से जगत् की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करनेवाले हैं, जो भक्तों को संसार-सागर से तारनेवाले हैं, उन भगवान् को प्रणाम हैं । जो एक होकर भी अनेक रूप धारण करते हैं, स्थूल और सूक्ष्म सब जिनके ही स्वरुप हैं, जो अव्यक्त (कारण) और व्यक्त (कार्य) – रूप तथा मोक्ष के हेतु हैं, उन भगवान्, विष्णु को नमस्कार हैं । जो जगतकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले हैं, जरा और मृत्यु जिनका स्पर्श नहीं करतीं, जो सबके मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णु को नमस्कार हैं । जो इस विश्व के आधार हैं, अत्यंत सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं, सब प्राणियों के भीतर विराजमान हैं, क्षर और अक्षर पुरुष से उत्तम तथा अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णु को प्रणाम करता हूँ । जो वास्तवमें अत्यंत निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थो के रूपमें प्रतीत हो रहे हैं, जो विश्व की सृष्टि और पालन में समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, जगतके अधीश्वर हैं, जिनके जन्म और विनाश नहीं होते, जो अव्यय, आदि, अत्यंत सूक्ष्म तथा विश्वेश्वर हैं, उन श्रीहरि को तथा ब्रह्मा आदि देवताओं को मैं प्रणाम करता हूँ ।
इतिहास-पुराणों के ज्ञाता, वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान, सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ पराशरनंदन भगवान् व्यास को, जो मेरे गुरुदेव हैं, प्रणाम करके मैं वेद के तुल्य माननीय पुराण का वर्णन करूँगा ।
पूर्वकाल में दक्ष आदि श्रेष्ठ मुनियों के पुछ्नेपर कमलयोनि भगवान् ब्रह्माजी ने जो सुनायी थी, वही पापनाशिनी कथा मैं इस समय कहूँगा । मेरी वह कथा बहुत ही विचित्र और अनेक अर्थोवाली होगी । उसमें श्रुतियों के अर्थ का विस्तार होगा ।
जो इस कथाको सदा अपने ह्रदय में धारण करेगा अथवा निरंतर सुनेगा, वह अपनी वंश-परम्परा को कायम रखते हुए स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होगा ।
जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूती अव्यक्त प्रकृति हैं, उसीको प्रधान कहते हैं । उसीसे पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया हैं ।
मुनीवरों ! अमिततेजस्वी ब्रह्माजी को ही पुरुष समझो । वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करनेवाले तथा भगवान् नारायण के आश्रित हैं ।
प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए । भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए है । यह सनातन सर्ग हैं ।
जो नित्य, सदसत्स्वरूप तथा कारणभूती अव्यक्त प्रकृति हैं, उसीको प्रधान कहते हैं । उसीसे पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया हैं ।
मुनीवरों ! अमिततेजस्वी ब्रह्माजी को ही पुरुष समझो । वे समस्त प्राणियों की सृष्टि करनेवाले तथा भगवान् नारायण के आश्रित हैं ।
प्रकृति से महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार तथा अहंकार से सब सूक्ष्म भूत उत्पन्न हुए । भूतों के जो भेद हैं, वे भी उन सूक्ष्म भूतों से ही प्रकट हुए है । यह सनातन सर्ग हैं ।
तदनंतर स्वयम्भू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छासे सबसे पहले जल की ही सृष्टि की । फिर जलमें अपनी शक्ति का आधान किया । जलका दूसरा नाम ‘नार’ हैं, क्योंकि उसकी उत्पत्ति भगवान् नर से हुई है । वह जल पूर्वकाल में भगवान का अयन (निवासस्थान) हुआ, इसलिये वे नारायण कहलाते हैं ।
भगवान् ने जो जल में अपनी शक्ति का आधान किया, उससे एक बहुत विशाल सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ । उसीमें स्वयम्भू ब्रह्माजी उत्पन्न हुए – ऐसा सुना जाता है । सुवर्ण के समान कांतिमय भगवान् ब्रह्माने एक वर्षतक इस अण्ड में निवास करके उसके दो टुकड़े कर दिये । फिर एक टुकड़े से द्युलोक बनाया और दुसरे से भूलोक । उन दोनों के बीच में आकाश रखा । जल के ऊपर तैरती हुई पृथ्वी को स्थापित किया । फिर दसों दिशाएँ निश्चित कीं । साथ ही काल, मन, वाणी, काम, क्रोध और रति की सृष्टि की । इस भावों के अनुरूप सृष्टि करनेकी इच्छासे ब्रह्माजी ने सात प्रजापतियों को अपने मनसे उत्पन्न किया । उनके नाम इसप्रकार हैं – मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु तथा वसिष्ठ । पुराणों में ये सात ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं ।
तत्पश्चात ब्रह्माजी ने अपने रोषसे रूद्र को प्रकट किया । फिर पुर्वोजों के भी पूर्वज सनत्कुमारजी को उत्पन्न किया । इन्हीं सात महर्षियों से समस्त प्रजा तथा ग्यारह रुद्रों का प्रादुर्भाव हुआ । उक्त सात महर्षियों के सात बड़े-बड़े दिव्य वंश हैं, देवता भी इन्हीं के अतंर्गत हैं । उक्त सातों वंशों के लोग कर्मनिष्ठ एवं संतानवान हैं । उन वंशों को बड़े-बड़े ऋषियों ने सुशोभित किया है ।
इसके बाद ब्रह्माजी ने विद्युत्, वज्र, मेघ, रोहित, इन्द्रधनुष, पक्षी तथा मेघों की सृष्टि की । फिर यज्ञों की सिद्धि के लिये उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद प्रकट किये ।
तदनंतर साध्य देवताओं की उत्पत्ति बतायी जाती हैं । छोटे-बड़े सभी भूत भगवान् ब्रह्मा के अंगों से उत्पन्न हुए हैं । इसप्रकार प्रजाकी सृष्टि करते रहनेपर भी जब प्रजाकी वृद्धि नहीं हुई, तब प्रजापति अपने शरीर के दो भाग करके आधेसे पुरुष और आधेसे स्त्री हो गये । पुरुष का नाम मनु हुआ । उन्हीं के नामपर ‘मन्वन्तर’ काल माना गया हैं । स्त्री अयोनिजा शतरूपा थी, जो मनु को पत्नीरूप में प्राप्त हुई । उसने दस हजार वर्षोतक अत्यंत दुष्कर तपस्या करके परम तेजस्वी पुरुष को पतिरूप में प्राप्त किया ।वे ही पुरुष स्वायम्भुव मनु कहे गये हैं । उनका ‘मन्वन्तर-काल’ इकहत्तर चतुर्युगी का बताया जाता हैं ।
शतरूपा ने वैराज पुरुष के अंश से वीर, प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र उत्पन्न किये । वीर से काम्या नामक श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न हुई जो कर्दम प्रजापति की धर्मपत्नी हुई ।
काम्या के गर्भ से चार पुत्र हुए–सम्राट, कुक्षि, विराट और प्रभु ।
प्रजापति अत्रि ने राजा उत्तानपाद को गोद ले लिया । प्रजापति उत्तानपाद ने अपनी पत्नी सुनृता के गर्भ से ध्रुव, कीर्तिमान, आयुष्मान तथा वसु – ये चार पुत्र उत्पन्न किये । ध्रुव से उनकी पत्नी शम्भु ने श्लिष्टि और भव्य – इन दो पुत्रों को जन्म दिया । श्लिष्टि के उसकी पत्नी सुछाया के गर्भ से रिपु, रिपुज्जय, वीर, वृकल और वृकतेजा – ये पाँच पुत्र उत्पन्न हुए । रिपु से बृहती ने चक्षुष के उनकी पत्नी पुष्करिणी से, जो माहात्मा प्रजापति वीरण की कन्या थी, चाक्षुष मनु उत्पन्न हुए ।
चाक्षुष मनुसे वैराज प्रजापति की कन्या नडवला के गर्भ से दस महाबली पुत्र हुए, जिनके नाम इसप्रकार हैं – कुत्स, पुरु, शतदयुम्न, तपस्वी, सत्यवाक, कवि, अग्निष्टुत, अतिरात्र, सुद्युम्न तथा अभिमन्यु ।
पुरु से आग्रेयी ने अंग, सुमना, स्वाति, क्रतु, अंगिरा तथा मय – ये छ: पुत्र उत्पन्न किये । अंग से सुनीथा ने वेन नामक एक पुत्र पैदा किया । वेन के अत्याचार से ऋषियों को बड़ा क्रोध हुआ; अत: प्रजाजनों की रक्षा के लिये उन्होंने उसके दाहिने हाथ का मंथन किया, उससे महाराज पृथु प्रकट हुए । उन्हें देखकर मुनियों ने कहा – ‘ये महातेजस्वी नरेश प्रजा को प्रसन्न रखेंगे तथा महान यश के भागी होंगे ।’ वेनकुमार पृथु धनुष और कवच धारण किये अग्नि के समान तेजस्वीरूप में प्रकट हुए थे । उन्होंने इस पृथ्वी का पालन किया । राजसूय-यज्ञ के लिये अभिषिक्त होनेवाले राजाओं से वे सर्वप्रथम थे । उनसे ही स्तुति-गान में निपुण सूत और मागध प्रकट हुए । उन्होंने इस पृथ्वी से सब प्रकार के अनाज दुहे थे । प्रजा की जीविका चले, इसी उद्देश्य से उन्होंने देवताओं, ऋषियों, पितरों, दानवों, गन्धर्वो तथा अप्सराओं आदि के साथ पृथ्वी का दोहन किया था ।
अध्याय २ राजा पृथु का चरित्र
मुनियों ने कहा– लोमहर्षणजी ! पृथु के जन्म की कथा विस्तारपूर्वक कहिये । उन महत्माने इस पृथ्वीका किस प्रकार दोहन किया था ?
लोमहर्षणजी बोले– द्विजवरो ! मैं वेनकुमार पृथु की कथा विस्तार के साथ सुनाता हूँ । आप लोग एकाग्रचित्त होकर सुनें । ब्राह्मणों ! जो पवित्र नहीं रहता, जिसका हृदय खोटा हैं, जो अपने शासन में नहीं हैं, जो व्रत का पालन नहीं करता तथा जो कृतघ्न और अहितकारी है – ऐसे पुरुष को मैं यह ऐसे पुरुष को मैं यह प्रसंग नहीं सुना सकता । यह स्वर्ग देनेवाला, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम धन्य, वेदों के तुल्य, माननीय तथा गूढ़ रहस्य हैं । ऋषियों ने जैसा कहा हैं, वह सब मैं ज्यों-का-त्यों सुना रहा हूँ; सुनो ।
जो प्रतिदिन ब्राह्मणों को नमस्कार करके वेनकुमार पृथु के चरित्र का विस्तारपूर्वक कीर्तन करता हैं, उसे ‘अमुक कर्म मैंने किया और अमुक नहीं किया’ – इस बातका शोक नहीं होता ।
पूर्वकाल की बात हैं, अत्रि-कुल में उत्पन्न प्रजापति अंग बड़े धर्मात्मा और धर्म के रक्षक थे । वे अत्रि के समान ही तेजस्वी थे । उनका पुत्र वेन था, जो धर्म के तत्त्व को बिलकुल नहीं समझता था । उसका जन्म मृत्युकन्या सुनीथा के गर्भ से हुआ था । अपने नाना के स्वाभावदोष के कारण वह धर्मको पीछे रखकर काम और लोभ में प्रवृत्त हो गया । उसने धर्मकी मर्यादा भंग कर दी और वैदिक धर्मोका उल्लंघन करके वह अधर्म में तत्पर हो गया ।
विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण उसने यह क्रूर प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘किसीको यज्ञ और होम नहीं करने दिया जायेगा । यजन करने योग्य, यज्ञ करनेवाला तथा यज्ञ भी मैं ही हूँ । मेरे ही लिये यज्ञ करना चाहिये । मेरे ही उद्देश्य से हवन होना चाहिये ।’ इसप्रकार मर्यादा का उल्लंघन करके सब कुछ ग्रहण करनेवाले अयोग्य वेन से मरीचि आदि सब महर्षियों ने कहा – ‘वेन ! हम अनेक वर्षों के लिए यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करनेवाले हैं । तुम अधर्म न करो । यह यज्ञ आदि कार्य सनातन धर्म हैं ।’
महर्षियों को यों कहते देख खोटी बुद्धिवाले वेन ने हँसकर कहा – ‘अरे ! मेरे सिवा दूसरा कौन धर्मका स्त्रष्टा हैं । मैं किसकी बात सुनूँ । विद्या, पराक्रम, तपस्या और सत्य के द्वारा मेरी समानता करनेवाला इस भूतलपर कौन हैं ? मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों की और विशेषत: सब धर्मो की उत्पत्तिका कारण हूँ । तुम सब लोग मुर्ख और अचेत हो, इसलिये मुझे नहीं जानते । यदि मैं चाहूँ तो इस पृथ्वीको भस्म कर दूँ, जलमें बहा दूँ या भूलोक तथा द्युलोक को भी रूँध डालूँ । इसमें तनिक भी अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं ।’
जब महर्षिगण वेन को मोह और अहंकार से किसी तरह हटा न सके, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ । उन महात्माओं ने महाबली वेन को पकड़कर बाँध लिया । उससमय वह बहुत उछल-कूद मचा रहा था । महर्षि कुपित तो थे ही, वेन की बायीं जंघा का मंथन करने लगे । इससे एक काले रंग का पुरुष उत्पन्न हुआ, जो बहुत ही नाटा था । वह भयभीत हो हाथ जोडकर खड़ा हो गया । उसे व्याकुल देख अत्रि ने कहा –‘निषीद (बैठ जा) ।’ इससे वह निषादवंश का प्रवर्तक हुआ और वेन के पाप से उत्पन्न हुए धीवरों की सृष्टि करने लगा ।
तत्पश्च्यात महात्माओं ने पुन: अरणी(मक्खन निकलने जेसी क्रिया) की भाँती वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया । उससे अग्रि के समान तेजस्वी पृथुका प्रादुर्भाव हुआ । वे भयानक टंकार करनेवाले आजगव नामक धनुष, दिव्य बाण तथा रक्षार्थ कवच धारण किये प्रकट हुए थे । उनके उत्पन्न होनेपर समस्त प्राणी बड़े प्रसन्न हुए और सब ओर से वहाँ एकत्रित होने लगे । वेन स्वर्गगामी हुआ ।
महात्मा पृथु-जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर वेन को ‘पुम’ नामक नरक से छुड़ा दिया । उनका अभिषेक करने के लिये समुद्र और सभी नदियाँ रत्न एवं जल लेकर स्वयं ही उपस्थित हुई । आंगिरस देवताओं के साथ भगवान् ब्रह्माजी तथा समस्त चराचर भूतों ने वहाँ आकर राजा पृथु का राज्याभिषेक किया ।
उन महाराज ने सभी प्रजाका मनोरंजन किया । उनके पिताने प्रजा को बहुत दु:खी किया था, किन्तु पृथु ने उन सबको प्रसन्न कर लिया; प्रजा का मनोरंजन करने के कारण ही उनका नाम राजा हुआ । वे सब समुद्र की यात्रा करते तब उसका जल स्थिर हो जाता था । पर्वत उन्हें जाने के लिये मार्ग दे देते थे और उनके रथ की ध्वजा कभी भंग नहीं हुई । उनके राज्य में पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी । राजाका चिन्तन करनेमात्र से अन्न सिद्ध हो जाता था । सभी गौएँ कामधेनु बन गयी थीं और पत्तों के दोने-दोने में मधु भरा रहता था ।
उसी समय पृथु ने पैतामह (ब्रह्माजी से सम्बन्ध रखनेवाला) यज्ञ किया । उसमें सोमाभिषव् के दिन सूति (सोमरस निकालने की भूमि) से परम बुद्धिमान सूत की उत्पत्ति हुई । उसी महायज्ञ में विद्वान मागध का भी प्रादुर्भाव हुआ ।
उन दोनों को महर्षियों ने पृथु की स्तुति करने के लिये बुलाया और कहा – ‘तुम लोग इन महाराज की स्तुति करो । यह कार्य तुम्हारे अनुरूप है और ये महाराज भी इसके योग्य पात्र हैं ।’
यह सुनकर सूत और मागध ने उन महर्षियों से कहा – ‘हम अपने कर्मों से देवताओं तथा ऋषियों को प्रसन्न करते हैं । इन महाराज का नाम, कर्म, लक्षण और यश – कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है, जिससे इन तेजस्वी नरेश की हम स्तुति कर सकें ।’
तब ऋषियों ने कहा – ‘भविष्य में होनेवाले गुणों का उल्लेख करते हुए स्तुति करो ।’ उन्होंने वैसा ही किया । उन्होंने जो-जो कर्म बताये, उन्हीं को महाबली पृथु ने पीछे से पूर्ण किया ।
तभीसे लोक में सूत, मागध और वंदीजनों के द्वारा आशीर्वाद दिलाने की परिपाटी चल पड़ी । वे दोनों जब स्तुति कर चुके, तब महाराज पृथु ने अत्यंत प्रसन्न होकर अनूप देशका राज्य सूत को और मगध का मागध को दिया ।
पृथु को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुई प्रजा से महर्षियों ने कहा – ‘ये महाराज तुम्हें जीविका प्रदान करनेवाले होंगे’ यह सुनकर सारी प्रजा महात्मा राजा पृथु की ओर दौड़ी और बोली – ‘आप हमारे लिये जीविका का प्रबंध कर दें ।’ जब प्रजाओं ने उन्हें इसप्रकार घेरा, तब वे उनका हित करने की इच्छासे धनुष-बाण हाथ में ले पृथ्वी की और दौड़े । पृथ्वी उनके भय से थर्रा उठी और गौका रूप धारण करके भागी ।
तब पृथु ने धनुष लेकर भागती हुई पृथ्वीका पीछा किया । पृथ्वी उनके भयसे ब्रह्मलोक आदि अनेक लोकों में गयी, किन्तु सब जगह उसें धनुष लिये हुए पृथु को अपने आगे ही देखा । अग्नि के समान प्रज्वलित तीखे बाणों के कारण उनका तेज और भी उद्दीप्त दिखायी देता था । वे महान योगी महात्मा देवताओं के लिये भी दुर्धर्ष प्रतीत होते थे । जब और कहीं रक्षा न हो सकी, तब तीनों लोकों की पूजनीया पृथ्वी हाथ जोडकर फिर महाराज पृथु की ही शरण में आयी और इसप्रकार बोली – ‘राजन ! सब लोक मेरे ही ऊपर स्थित हैं । मैं ही इस जगत को धारण करती हूँ । यदि मेरा नाश हो जाय तो समस्त प्रजा नष्ट हो जायगी । इस बातको अच्छी तरह समझ लेना ।
भूपाल ! यदि तुम प्रजाका कल्याण चाहते हो तो मेरा वध न करो । मैं जो बात कहती हूँ, उसे सुनो; ठीक उपायसे आरम्भ किये हुए सब कार्य सिद्ध होते हैं । तुम इस उपायपर ही दृष्टीपात करो, जिससे इस प्रजाको जीवित रख सकोगे । मेरी हत्या करके भी तुम प्रजा के पालन-पोषण में समर्थ न होगे ।
महामते ! तुम क्रोध त्याग दो, मैं तुम्हारे अनुकूल हो जाऊँगी । तिर्यग्योनि में भी स्त्री को अवध्य बताया गया हैं; यदि यह बात सत्य है तो तुम्हें धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये ।’
पृथु ने कहा –भद्रे ! जो अपने या पराये किसी एक के लिए बहुत-से प्राणियों का वध करता हैं, उसे अनंत पातक लगता है; परन्तु जिस अशुभ व्यक्तिका वध करनेपर बहुत-से लोग सुखी हों, उसके मारने से पातक या उपपातक कुछ नहीं लगता ।
अत: वसुन्धरे ! मैं प्रजाका कल्याण करनेके लिये तुम्हारा वध करूँगा । यदि मेरे कहने से आज संसारका कल्याण नहीं करोगी तो अपने बाणसे तुम्हारा नाश कर दूँगा और अपनेको ही पृथ्वीरूप में प्रकट करके स्वयं ही प्रजा को धारण करूँगा; इसलिये तुम मेरी आज्ञा मानकर समस्त प्रजाकी जीवन-रक्षा करो; क्योंकि तुम सबके धारण में समर्थ हो । इस समय मेरी पुत्री बन जाओ; तभी मैं इस भयंकर बाण को, जो तुम्हारे वध के लिये उद्यत हैं, रोकूँगा ।
पृथ्वी बोली– वीर ! नि:संदेह मैं यह सब कुछ करूँगी । मेरे लिये कोई बछड़ा देखो, जिसके प्रति स्नेहयुक्त होकर मैं दूध दे सकूँ । धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भूपाल ! तुम मुझे सब ओर बराबर कर दो, जिससे मेरा दूध सब ओर बह सके ।
तब राजा पृथु ने अपने धनुष की नोक से लाखों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर एकत्रित किया । इससे पर्वत बढ़ गये । इससे पहले की सृष्टि में भूमि समतल न होने के कारण पुरों अथवा ग्रामों का कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सका था । उससमय अन्न, गोरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे । यह सब तो वेन-कुमार पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ है । भूमिका जो-जो भाग समतल था, वही-वहीपर समस्त प्रजाने निवास करना पसंद किया । उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल-मूल ही था और वह भी बड़ी कठिनाई से मिलता था ।
राजा पृथुने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी को दुहा । उन प्रतापी नरेश ने पृथ्वी से सब प्रकार के अन्नों का दोहन किया । उसी अन्नसे आज भी सब प्रजा जीवन धारण करती है । उससमय ऋषि, देवता, पितर, नाग, दैत्य, यक्ष, पुण्यजन, गंधर्व, पर्वत और वृक्ष – सबने पृथ्वी को दुहा । उनके दूध, बछड़ा, पात्र और दुह्नेवाला- ये सभी पृथक-पृथक थे ।
ऋषियों के चन्द्रमा बछड़ा बने, बृहस्पति ने दुहने का काम किया, तपोमय ब्रह्म उनका दूध था और वेद ही उनके पात्र थे । देवताओं ने सुवर्णमय पात्र लेकर पुष्टिकारक दूध दुहा । उनके लिए इंद्र बछड़ा बने और भगवान् सूर्य ने दुहनेका काम किया । पितरों का चाँदी का पात्र था । प्रतापी यम बछड़ा बने, अन्तक ने दूध दुहा । उनके दूध को ‘स्वधा’ नाम दिया गया हैं । नागों ने तक्षक को बछड़ा बनाया । तुम्बीका पात्र रखा । ऐरावत नागसे दुहने का काम लिया और विषरूपी दुग्ध का दोहन किया । असुरों में मधु दुहनेवाला बना । उसने मायामय दूध दुहा । उससमय विरोचन बछड़ा बना था और लोहे के पात्र में दूध दुहा गया था । यक्षों का कच्चा पात्र था । कुबेर बछड़ा बने थे । रजतनाभ यक्ष दुहनेवाला था और अन्तर्धान होने की विद्या ही उनका दूध था । राक्षसेन्द्रों में सुमाली नामका राक्षस बछड़ा बना । रजतनाम दुह्नेवाला था । उसने कपालरूपी पात्र में शोणितरूपी दूध का दोहन किया । गन्धर्वों में चित्ररथ ने बछड़े का काम पूरा किया । कमल ही उनका पात्र था । सुरुचि दुह्नेवाला था और पवित्र सुगंध ही उनका दूध था । पर्वतों में म्हागिरि मेरु ने हिमवान को बछड़ा बनाया और स्वयं दुह्नेवाला बनकर शिलामय पात्र में रत्नों एवं ओषधियों को दूध के रूप में दुहा । वृक्षों में प्लक्ष (पाकड़) बछड़ा था । खिले हुए शाल के वृक्ष ने दुहने का काम किया । पलाश का पात्र था और जलने तथा कटनेपर पुन: अंकुरित हो जाना ही उनका दूध था ।
इस प्रकार सबका धारण-पोषण करनेवाली यह पावन वसुंधरा समस्त चराचर जगत की आधारभूता तथा उत्पत्तिस्थान हैं । यह सब कामनाओं को देनेवाली तथा सब प्रकार के अन्नों को अंकुरित करनेवाली है । गोरुपा पृथ्वी मेदिनी के नामसे विख्यात हैं । यह समुद्रतक पृथु के ही अधिकार में थी । मधु और कैटभ के मेद से व्याप्त होने के कारण यह मेदिनी कहलाती है । फिर राजा पृथु की आज्ञा के अनुसार भूदेवी उनकी पुत्री बन गयी, इसलिये इसे पृथ्वी भी कहते हैं । पृथु ने इस पृथ्वीका विभाग और शोधन किया, जिससे यह अन्न की खान और समृद्धिशालिनी बन गयी । गाँवों और नगरों के कारण इसकी बड़ी शोभा होने लगी ।
वेन-कुमार महाराज पृथुका ऐसा ही प्रभाव था । इसमें संदेह नहीं कि वे समस्त प्राणियों के पूजनीय और वन्दनीय हैं । वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान ब्राह्मणों को भी महाराज पृथु की ही वंदना करनी चाहिये, क्योंकि वे सनातन ब्रह्मयोनि हैं । राज्य की इच्छा रखनेवाले राजाओं के लिये भी परम प्रतापी महाराज पृथु ही वन्दनीय हैं । युद्ध में विजय की कामना करनेवाले पराक्रमी योद्धाओं को भी उन्हें मस्तक झुकाना चाहिये । क्योंकि योद्धाओं में वे अग्रगण्य थे । जो सैनिक राजा पृथु का नाम लेकर संग्राम में जाता हैं, वह भयंकर संग्राम से भी सकुशल लौटता है और यशस्वी होता है । वैश्यवृत्ति करनेवाले धनि वैश्यों को भी चाहिये कि वे महाराज पृथु को नमस्कार करें, क्योंकि राजा पृथु सबके वृत्तिदाता और परम यशस्वी थे । इस संसार में परमकल्याण की इच्छा रखनेवाले तथा तीनों वर्णों की सेवामें लगे रहनेवाले पवित्र शुद्रों के लिये भी राजा पृथु ही वन्दनीय हैं । इसप्रकार जहाँ पृथ्वी को दुहने के लिये जो विशेष-विशेष बछड़े, दुहनेवाले, दूध तथा पात्र कल्पित किये गये थे , उन सबका मैंने वर्णन किया ।
अध्याय ३ चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान की सन्तति का वर्णन
ऋषि बोले– महामते सूतजी ! अब समस्त मन्वन्तरों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा उनकी प्राथमिक सृष्टि भी बतलाइये ।
लोमहर्षण (सूत) ने कहा– विप्रगण ! समस्त मन्वन्तरों का विस्तुत वर्णन तो सौ वर्षों में भी नहीं हो सकता, अत: संक्षेप से ही सुनो ।
प्रथम स्वायम्भुव् मनु हैं, दूसरे स्वारोचिष, तीसरे उत्तम, चौथे तामस, पाँचवे रैवत, छठे चाक्षुष तथा सातवें वैवस्वत मनु कहलाते हैं ।
वैवस्वत मनु ही वर्तमान कल्प के मनु हैं ।
इसके बाद सावणिॅ, भौत्य, रौच्य तथा चार मेरुसावर्न्य नामके मनु होंगे । ये भूत, वर्तमान और भविष्य के सब मिलकर चौदह मनु हैं ।
मैंने जैसा सुना है, उसके अनुसार सब मनुओं के नाम बताये । अब इनके समयमें होनेवाले ऋषियों, मनु-पुत्रों तथा देवताओं का वर्णन करूँगा ।
मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य तथा वसिष्ठ – ये सात ब्रह्माजी के पुत्र उत्तर दिशामें स्थित हैं जो स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं । आग्रीध्र, अग्निबाहू, मेध्य, मेधातिथि, वसु, ज्योतिष्मान, द्युतिमान, हव्य, सबल और पुत्र – ये दस स्वायम्भुव मनुके महावली पुत्र थे । विप्रगण ! यह प्रथम मन्वन्तर बतलाया गया ।
स्वारोचिष मन्वन्तर में प्राण, बृहस्पति, दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, वायुप्रोक्त तथा महाव्रत – ये सात सप्तर्षि थे । तुषित नामवाले देवता थे और हविर्ध्र, सुकृति, ज्योति, आप, मूर्ति,प्रतीत, नभस्य, नभ तथा ऊर्ज – ये महात्मा स्वारोचिष मनुके पुत्र बताये गये हैं, जो महान बलवान और पराक्रमी थे । यह द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन हुआ ।
अब तीसरा मन्वन्तर बतलाया जाता हैं, सुनो ! वसिष्ठ के सात पुत्र वासिष्ठ तथा हिरण्यगर्भ के तेजस्वी पुत्र ऊर्ज, तनुर्ज, मधु, माधव, शुचि, शुक्र, सह, नभस्य तथा नभ – ये उत्तम मनुके पराक्रमी पुत्र थे । इस मन्वन्तर में भानु नामवाले देवता थे । इस प्रकार तीसरा मन्वन्तर बताया गया ।
अब चौथे का वर्णन करता हूँ । काव्य, पृथु, अग्नि, जहू, धाता कपीवान और अकपीवान – ये सात उससमय के सप्तर्षि थे । सत्य नामवाले देवता तह । द्युति, तपस्य, सुतपा, तपोभुत, सनातन, तपोरति, अकल्माष, तन्वी, धन्वी और परंतप – ये दस तामस मनुके पुत्र कहे गये हैं । यह चौथे मन्वन्तरका वर्णन हुआ ।
पाँचवाँ रैवत मन्वन्तर हैं । उसमें देवबाहू, यदुध्र, वेद्शिरा, हिरण्यरोमा, पर्जन्य, सोमनंदन, ऊर्ध्वबाहू तथा अत्रिकुमार सत्यनेत्र – ये सप्तर्षि थे । अभूतरजा और प्रकृति नामवाले देवता थे । धृतिमान, अव्यय, युक्त, तत्त्वदर्शी, नीरूत्सूक, आरण्य, प्रकाश, निर्मोह, सत्यवाक और कृति – ये रैवत मनु के पुत्र थे । यह पाँचवाँ मन्वन्तर बताया गया ।
अब छठे चाक्षुष मन्वन्तरका वर्णन करता हूँ । सुनो ! उसमें भृगु, नभ, विवस्वान, सुधामा, विरजा, अतिनामा और सहिष्णु – ये सप्तर्षि थे । लेख नामवाले पाँच देवता थे । नाडवलेय नामसे प्रसिद्ध रुरु आदि चाक्षुष मनुके दस पुत्र बतलाये जाते हैं । यहाँतक छठे मन्वन्तरका वर्णन हुआ ।
अब सातवें वैवस्वत मन्वन्तरका वर्णन सुनो । अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भरद्वाज, विश्वामित्र तथा जमदग्नि – ये इस वर्तमान मन्वन्तरमें सप्तर्षि होकर आकाश में विराजमान हैं । साध्य, रूद्र, विश्वेदेव, वसु, मरुद्रण, आदित्य और अश्विनीकुमार – ये इस वर्तमान मन्वन्तर के देवता माने गये हैं । वैवस्वत मनुके इक्ष्वाकु आदि दस पुत्र हुए । ऊपर जिन महातेजस्वी महर्षियों के नाम बताये गये हैं, उन्हीं के पुत्र और पौत्र आदि सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए हैं ।
प्रत्येक मन्वन्तरमें धर्मकी व्यवस्था तथा लोकरक्षा के लिये जो सात सप्तर्षि रहते है, मन्वन्तर बीतने के बाद उनमें चार महर्षि अपना कार्य पूरा करके रोग-शोक से रहित ब्रह्मलोक में चले जाते हैं । तत्पश्च्यात दूसरे चार तपस्वी आकर उनके स्थान की पूर्ति करते हैं । भुत और वर्तमान काल के सप्तर्षिगण इसी क्रम से होते आये हैं ।
सावर्णि मन्वन्तरमें होनेवाले सप्तर्षि ये हैं – परशुराम, व्यास, आत्रेय, भारद्वाजकुल में उत्पन्न द्रोणकुमार अश्वस्थामा, गोतमवंशी शरदवान, कौशिककुल में उत्पन्न गालव तथा कश्यपनंदन और्व । वैरी, अध्वरीवान, शमन, धृतिमान, वासु, अरिष्ट, अधृष्ट, वाजी तथा सुमति – ये भविष्य में सावर्णिक मनु के पुत्र होंगे । प्रात:काल उठकर इनका नाम लेने से मनुष्य सुखी, यशस्वी तथा दीर्घायु होता है ।
भविष्य में होनेवाले अन्य मन्वन्तरों का संक्षेप से वर्णन किया जाता हैं, सुनो ! सावर्ण नामके पाँच मनु होंगे; उनमें से एक तो सूर्य के पुत्र हैं और शेष चार प्रजापति के । ये चारों मेरुगिरी के शिखरपर भारी तपस्या करने के कारण ‘मेरु सावर्न्य’ के नामसे विख्यात होंगे । ये दक्ष के धेवते और प्रिया के पुत्र है । इन पाँच मनुओं के अतिरिक्त भविष्य में रौंच्य और भौत्य नाम के दो मनु और होंगे । प्रजापति रूचि के पुत्र ही ‘रौंच्य’ कहे गये हैं । रूचि के दूसरे पुत्र, जो भूति के गर्भ से उत्पन्न होंगे ‘भौत्य मनु’ कहलायेंगे । इस कल्प में होनेवाले ये सात भावी मनु हैं । इस सबके द्वारा द्वीपों और नगरोंसहित सम्पूर्ण पृथिवी का एक सहस्त्र युगोंतक पालन होगा ।
सत्ययुग, त्रेता आदि चारों युग इकहत्तर बार बीतकर जब कुछ अधिक काल हो जाय, तब वह एक मन्वन्तर कहलाता है । इस प्रकार ये चौदह मनु बतलाये गये ।
ये यश की वृद्धि करनेवाले हैं । समस्त वेदों और पुराणों में भी इनका प्रभुत्व वर्णित हैं । ये प्रजाओं के पालक हैं । इनके यश का कीर्तन श्रेयस्कर हैं ।
मन्वन्तरों में कितने ही संहार होते हैं और संहार के बाद कितनी ही सृष्टियाँ होती रहती हैं; इन सबका पूरा-पूरा वर्णन सैकड़ों वर्षो में भी नहीं हो सकता ।
मन्वन्तरों के बाद जो संहार होता हैं, उसमें तपस्या, ब्रह्मचर्य और शास्त्रज्ञान से सम्पन्न कुछ देवता और सप्तर्षि शेष रह जाते हैं । एक हजार चतुर्युग पूर्ण होनेपर कल्प समाप्त हो जाता हैं । उससमय सूर्य की प्रचंड किरणों से समस्त प्राणी दग्ध हो जाते हैं । तब सब देवता आदित्यगणों के साथ ब्रम्हाजी को आगे करके सुरश्रेष्ठ भगवान् नारायण में लीन हो जाते हैं । वे भगवान ही कल्प के अन्तमें पुन: सब भूतों की सृष्टि करते हैं । वे अव्यक्त सनातन देवता हैं । यह सम्पूर्ण जगत उन्हींका हैं ।
मुनिवरो ! अब मैं इससमय वर्तमान महातेजस्वी वैवस्वत मनु की सृष्टि का वर्णन करूँगा ।
महर्षि कश्यप से उनकी भार्या दक्षकन्या आदिती के गर्भ से विवस्वान (सूर्य) – का जन्म हुआ । विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा विवस्वान की पत्नी हुई । उसके गर्भ से सूर्य ने तीन संताने उत्पन्न की, जिनमें एक कन्या और दो पुत्र थे । सबसे पहले प्रजापति श्राद्धदेव, जिन्हें वैवस्वत मनु कहते हैं, उत्पन्न हुए । तत्पश्च्यात यम और यमुना – ये जुडवी संताने हुई ।
भगवान् सूर्य के तेजस्वी स्वरुप को देखकर संज्ञा उसे सह न सकी । उसने अपने ही समान व्र्न्वाली अपनी छाया प्रकट की । वह छाया संज्ञा अथवा सवर्णा नामसे विख्यात हुई । उसको भी संज्ञा ही समझकर सूर्य ने उसके गर्भ से अपने ही समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किया । वह अपने बड़े भाई मनु के ही समान था, इसलिये सावर्ण मनु के नामसे प्रसिद्ध हुआ । छाया-संज्ञा से जो दूसरा पुत्र हुआ, उसकी शनैश्वर के नामसे प्रसिद्धी हुई ।
यम धर्मराज के पदपर प्रतिष्ठित हुए और उन्होंने समस्त प्रजा को धर्म से संतुष्ट किया । इस शुभकर्म के कारण उन्हें पितरों का आधिपत्य और लोकपाल का पद प्राप्त हुआ ।
सावर्ण मनु प्रजापति हुए । आनेवाले सावर्णिक मन्वन्तर के वे ही स्वामी होंगे । वे आज भी मेरुगिरी के शिखरपर नित्य तपस्या करते हैं । उनके भाई शनैश्वर ने ग्रह की पदवी पायी ।
अध्याय ४ वैवस्वत मनु के वंशजों का वर्णन
लोमहर्षणजी कहते हैं –वैवस्वत मनुके नौ पुत्र उन्हीं के समान हुए; उनके नाम इसप्रकार हैं – इक्ष्वाकु, नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, प्रांशु, अरिष्ट, करुष तथा पृषध्र । एक समय की बात हैं, प्रजापति मनु पुत्रकी इच्छासे मैत्रावरुण यज्ञ कर रहे थे । उस समयतक उन्हें कोई पुत्र नहीं हुआ था । उस यज्ञ में मनु ने मित्रावरुण के अंश की आहुति डाली । उसमें से दिव्य वस्त्र एवं दिव्य आभूषणों से विभूषित दिव्य रूपवाली इला नामकी कन्या उत्पन्न हुई । महाराज मनुने उसे ‘इला’ कहकर सम्बोधित किया और कहा – ‘कल्याणी ! तुम मेरे पास आओं ।’ तब इलाने पुत्रकी इच्छा रखनेवाले प्रजापति मनुसे यह धर्मयुक्त वचन कहा – ‘महाराज ! मैं मित्रावरुण के अंशसे उत्पन्न हुई हूँ, अत: पहले उन्हीं के पास जाऊँगी । आप मेरे धर्म में बाधा न डालिये ।’ यों कहकर वह सुन्दरी कन्या मित्रावरुण के समीप गयी और हाथ जोडकर बोली – ‘भगवान् ! मैं आप दोनों के अंशसे उत्पन्न हुई हूँ । आप लोगों की किस आज्ञा का पालन करूँ ? मनुने मुझे अपने पास बुलाया हैं ।’
मित्रावरुण बोले –सुन्दरी ! तुम्हारे इस धर्म, विनय, इन्द्रियसंयम और सत्यसे हमलोग प्रसन्न है । महाभागे ! तुम हम दोनों की कन्या के रूप में प्रसिद्ध होगी तथा तुम्ही मनु के वंश का विस्तार करनेवाला पुत्र हो जाओगी । उससमय तीनों लोकों में सुद्दुम्न के नामसे तुम्हारी ख्याति होगी ।
यह सुनकर वह पिताके समीपसे लौट पड़ी । मार्गमें उसकी बुध से भेंट हो गयी । बुध ने उसे मैथुन के लिये आमंत्रित किया । उनके विर्यसे उसने पुरुरवा को जन्म दिया । तत्पश्च्यात वह सुद्दुम्र के रुपमे परिणत हो गयी । सुद्दुम्र के तीन बड़े धर्मात्मा पुत्र हुए – उत्कल, गय और विन्ताश्व । उत्कल की राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई । विनताश्व को पश्चिम दिशाका राज्य मिला तथा गय पूर्व दिशा के राजा हुए । उनकी राजधानी गया के नामसे प्रसिद्ध हुई । जब मनु भगवान् सूर्य के तेज में प्रवेश करने लगे, तब उन्होंने अपने राज्य को दस भागों में बाँट दिया । सुद्दुम्र के बाद उनके पुत्रों में इक्ष्वाकु सबसे बड़े थे, इसलिये उन्हें मध्यदेश का राज्य मिला । सुद्दुम्र कन्या के रूप में उत्पन्न हुए थे , इसलिये उन्हें राज्य का भाग नहीं मिला । फिर वसिष्ठजी के कहने से प्रतिष्टानपुर से उनकी स्थिति हुई । प्रतिष्ठानपुर का राज्य पाकर महायशस्वी सुद्दुम्र ने उसे पुरुरवा को दे दिया । मनु-कुमार सुद्दुम्र क्रमश: स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षणों से युक्त हुए, इसलिये इला और सुद्दुम्र दोनों नामों से उनकी प्रसिद्धि हुई । नरिश्यन्त के पुत्र शक हुए । नाभाग के राजा अम्बरीष हुए । धृष्ट से धार्ष्टक नामवाले क्षत्रियों की उत्पत्ति हुई, जो युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ते थे । करुष के पुत्र कारुष नामसे विख्यात हुए । वे भी रणोन्मत थे । प्रांशु के एक ही पुत्र थे, जो प्रजापति के नामसे प्रकट हुए । शर्याति के दो जुड्वी संताने हुई । उनमें अनर्त नामसे प्रसिद्ध पुत्र तथा सुकन्या नामवाली कन्या थी । यही सुकन्या महर्षि च्यवन की पत्नी हुई । अनर्त के पुत्र का नाम रैव था । उन्हें अनर्त देश का राज्य मिला । उनकी राजधानी कुशस्थली (द्वारका) हुई । रैव के पुत्र रैवत हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे { उनका दूसरा नाम ककुद्मी भी था । अपने पिता के जेष्ठ पुत्र होने के कारण उन्हें कुशस्थली का राज्य मिला । एक बार वे अपनी कन्या को साथ ले ब्रह्माजी के पास गये और वहाँ गन्धर्वो के गीत सुनते हुए दो घड़ी ठहरे रहे । इतने ही समय में मानवलोक में अनेक युग बीत गये । रैवत जब वहाँ से लौटे, तब अपनी राजधानी कुशस्थली में आये : परन्तु अब वहाँ यादवों का अधिकार हो गया था । यदुवंशियों ने उसका नाम बदलकर द्वारवती रख दिया था । उसमें बहुत-से द्वार बने थे । वह पूरी बड़ी मनोहर दिखायी देती थी । भिज, वृष्णि और अंधक वंश के वसुदेव आदि यादव उसकी रक्षा करते थे } रैवत ने वहाँ का सब वृत्तान्त ठीक-ठीक जानकर अपनी रेवती नाम की कन्या बलदेवजी को ब्याह दी और स्वयं मेरुपर्वत के शिखरपर जाकर वे तपस्या में लग गये । धर्मात्मा बलरामजी रेवती के साथ सुखपूर्वक विहार करने लगे ।
पृषध्र ने अपने गुरु की गाय का वध किया था, इसलिये वे शाप से शुद्र हो गये हैं । मनु जब छींक रहे थे, उससमय इक्ष्वाकु की उत्पत्ति हुई थी । इक्ष्वाकु के सौ पुत्र हुए । उनमें विकुक्षि सबसे बड़े थे । वे अपने प्रराक्रम के कारण अयोध्य नामसे प्रसिद्ध हुए । उन्हें अयोध्या का राज्य प्राप्त हुआ । उनके शकुनि आदि पाँच सौ पुत्र हुए, जो अत्यंत बलवान और उत्तर-भारत के रक्षक थे । उनमें से वशाति आदि अट्ठावन राजपुत्र दक्षिण दिशाके पालक हुए । विकुक्षिका दुसा नाम शशाद था । इक्ष्वाकु के मरनेपर वे ही राजा हुए । शशाद के पुत्र ककुत्स्थ, ककुत्स्थ के अनेना, अनेना के पृथु, पृथु के विष्टराश्व, विष्टराश्व के आर्द्र, आर्द्र के युवनाश्व और युवनाश्व के पुत्र श्रावस्त हुए । उन्होंने ही श्रावस्तीपूरी बसायी थी । श्रावस्त के पुत्र बृह्र्दश्व और इनके पुत्र कुवलाश्व हुए । ये बड़े धर्मात्मा राजा थे । इन्होने धुंधू नामक दैत्यका वध करने के कारण धुन्धुमार नामसे प्रसिद्धि प्राप्त की ।
मुनि बोले –महाप्राज्ञ सूतजी ! हम धुंधू वध का वृतांत ठीक-ठीक सुनना चाहते है, जिससे कुवलाश्व का नाम धुन्धुमार हो गया ।
लोमहर्षणजी ने कहा –कुवलाश्व के सौ पुत्र थे । वे सभी अच्छे धनुर्धर, विद्याओं में प्रवीण, बलवान और दुर्धर्ष थे । सबकी धर्म में निष्ठा थी । सभी यज्ञकर्ता तथा प्रचुर दक्षिणा देनेवाले थे । राजा बृहदश्व ने कुवलाश्व को राजपदपर अभिषिक्त किया और स्वयं वनमें तपस्या करने के लिये जाने लगे । उन्हें जाते देख ब्रह्मर्षि उत्तंक ने रोका और इसप्रकार कहा – ‘राजन ! आपका कर्तव्य है प्रजा की रक्षा, अत: वही कीजिये । मेरे आश्रम के समीप मधु नामक राक्षस का पुत्र महान असुर धुंधू रहता है । वह सम्पूर्ण लोकोंका संहार करने के लिये कठोर तपस्या करता और बालू के भीतर सोता है । वर्षभर में एक बार वह बड़े जोर से साँस छोड़ता है । उससमय वहाँ की पृथ्वी डोलने लगती है । उसके श्वास की हवासे बड़े जोर की धुल उडती है और सूर्य का मार्ग ढँक लेती है । लगातार सात दिनोंतक भूकम्प होता रहता है । इसलिये अब मै अपने उस आश्रम में रह नहीं सकता । आप समस्त लोकों के हित की इच्छा से उस विशालकाय दैत्य को मार डालिये । उसके मारे जानेपर सब सुखी हो जायेंगे ।’
बृहदश्व बोले –भगवन ! मैंने तो अब अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर दिया । यह मेरा पुत्र है । यही धुंधू दैत्य का वध करेगा ।
राजर्षि बृहदश्व अपने पुत्र कुवलाश्व को धुंधू के वध की आज्ञा दे स्वयं पर्वत के समीप चले गये । कुवलाश्व अपने सब पुत्रों को साथ ले धुंधू को मारने चले । साथ में महर्षि उत्तंग भी थे । उत्तंग के अनुरोध से सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये साक्षात भगवान् विष्णु ने कुवलाश्व के शरीर में अपना तेज प्रविष्ट किया । दुर्धर्ष कुवलाश्व जब युद्ध के लिये प्रस्थित हुए, तब देवताओं का यह महान शब्द गूंज उठा – ‘ये श्रीमान नरेश अवध्य हैं । इनके हाथसे आज धुंधू अवश्य मारा जायगा ।’ पुत्रों के साथ वहाँ जाकर वीरवर कुवलाश्व ने समुद्र को खुदवाया । खोदनेवाले राजकुमारों ने बालू के भीतर धुंधू का पता लगा लिया । वह पश्चिम दिशाको घेरकर पड़ा था । वह अपने मुख की आगसे सम्पूर्ण लोकों का संहार-सा करता हुआ । जल का स्त्रोत बहाने लगा । जैसे चंद्रमा के उदयकाल में समुद्र में ज्वार आता है, उसकी उत्ताल तरंगे बढने लगती है, उसी प्रकार वहाँ जल का वेग बढ़ने लगा । कुवलाश्व के पुत्रों में से तीन को छोडकर शेष सभी धुंधू की मुखाग्रिसे जलकर भस्म हो गये । तदनन्तर महातेजस्वी राजा कुवलाश्व ने उस महावली धुन्धुपर आक्रमण किया । वे योगी थे; इसलिये उन्होंने योगशक्ति के द्वारा वेग से प्रवाहित होनेवाले जल को पी लिया और आग को भी बुझा दिया । फिर बलपूर्वक उस महाकाय जलचर राक्षस को मारकर महर्षि उत्तंग का दर्शन किया । उत्तंग ने उन महात्मा राजा को वर दिया कि ‘तुम्हारा धन अक्षय होगा और शत्रु तुम्हें पराजित न कर सकेंगे । धर्म में सदा तुम्हारा प्रेम बना रहेगा तथा अंत में स्वर्गलोक का अक्षय निवास प्राप्त होगा । युद्ध में तुम्हारे जो पुत्र राक्षसद्वारा मारे गये हैं, उन्हें भी स्वर्ग में अक्षयलोक प्राप्त होंगे ।’
धुंधूमार के जो तीन पुत्र युद्ध से जीवित बच गये थे, उनमें दृढाश्व सबसे जेष्ठ थे और चंद्राक्ष तथा कपिलाश्व उनके छोटे भाई थे । दृढाश्व के पुत्र का नाम हर्यश्व था । हर्यश्व का पुत्र निकुम्भ हुआ, जो सदा क्षत्रिय धर्म में तत्पर रहता था । निकुम्भ का युद्धविशारद पुत्र संहताश्व था । संहताश्व के दो पुत्र हुए – अकृशाश्व और कृशाश्व । उसके हेमवती नामकी एक कन्या भी हुई, जो आगे चलकर दृषद्वती के नामसे प्रसिद्ध हुई । उसका पुत्र प्रसेनजित हुआ, जो तीनों लोकों में विख्यात था । प्रसेनजित ने गौरी नामवाली पतिव्रता स्त्री से ब्याह किया था, जो बाद में पति के शाप से बाहुदा नामकी नदी हो गयी } प्रसेनजित के पुत्र राजा युवनाश्व हुए } युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए । वे त्रिभुवनविजयी थे । शशबिन्दु की सुशीला कन्या चैत्ररथी, जिसका दूसरा नाम बिन्दुमती भी था, मान्धाता की पत्नी हुई । इस भूतलपर उसके समान रूपवती स्त्री दूसरी नहीं थी । बिन्दुमती बड़ी पतिव्रता थी । वह दस हजार भाइयों की जेष्ठ भगिनी थी । मान्धाता के उसके गर्भ से धर्मज्ञ पुरुकुत्स और राजा मुचुकुन्द – ये दो पुत्र उत्पन्न किये । पुरुकुत्स के उनकी स्त्री नर्मदा के गर्भ से राजा त्रसदस्यु उत्पन्न हुए, उनसे सम्भूत का जन्म हुआ } सम्भूत के पुत्र शत्रुदमन त्रिधन्वा हुए । राजा त्रिधन्वा से विद्वान त्रय्यारुण हुए । उनका पुत्र महाबली सत्यव्रत हुआ । उसकी बुद्धि बड़ी खोटी थी । उसने वैवाहिक मन्त्रों में विघ्न डालकर दुसरे की पत्नी का अपहरण कर लिया । बालस्वभाव, कामासक्ति, मोह, साहस और चचंलतावश उसने ऐसा कुकर्म किया था । जिसका अपहरण हुआ था, वह उसके किसी पुरवासिकी ही कन्या थी । इस अधर्मरूपी शंकु (काँटे ) के कारण कुपित होकर त्रय्यारुण ने अपने उस पुत्र को त्याग दिया । उससमय उसने पूछा –‘पिताजी ! आपके त्याग देनेपर मैं कहाँ जाऊं ?’ पिताने कहा –‘ओ कुलकलंक ! जा, चांडालो के साथ रह । मुझे तेरे जैसे पुत्र की आवश्यकता नहीं है ।’ यह सुनकर वह पिता के कथनानुसार नगर से बाहर निकल गया । उससमय महर्षि वसिष्ठ ने उसे मना नहीं किया । वह सत्यव्रत चांडाल के घर के पास रहने लगा । उसके पिता भी वनमें चले गये । तदनन्तर उसी अधर्म के कारण इंद्र ने उस राज्य में वर्षा बंद कर दी । महातपस्वी विश्वामित्र उसी राज्य में अपनी पत्नी को रखकर स्वयं समुद्र के निकट भारी तपस्या कर रहे थे । उनकी पत्नीने अकालग्रस्त हो अपने मझले औरस पुत्र के गले में रस्सी डाल दी और शेष परिवार के भरण-पोषण के लिये सौ गायें लेकर उसे बेच दिया । राजकुमार सत्यव्रत ने देखा कि विक्रय के लिये इसके गले में रस्सी बंधी हुई है; तब उस धर्मात्मा ने दया करके महर्षि विश्वामित्र के उस पुत्र को छुड़ा लिया और स्वयं ही उसका भरण = पोषण किया । ऐसा करनेमें उसका उद्देश्य था महर्षि विश्वामित्र को संतुष्ट करके उनकी कृपा प्राप्त करना । महर्षि का वह पुत्र गलेमें बंधन पड़ने के कारण महातपस्वी गालव के नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
अध्याय ५ राजा सगर का चरित्र तथा इक्ष्वाकु वंश के मुख्य – मुख्य राजाओं का परिचय
लोमहर्षण जी कहते है –राजकुमार सत्यव्रत भक्ति, दया और प्रतिज्ञावश विनयपूर्वक विश्वामित्रजी की स्त्री का पालन करने लगा । इससे मुनि बहुत संतुष्ट हुए । उन्होंने सत्यव्रत से इच्छानुसार वर माँगने के लिये कहा । राजकुमार बोला – ‘मैं इस शरीर के साथ ही स्वर्गलोक में चला जाऊँ ।’ जब अनावृष्टि का भी दूर हो गया, तब विश्वामित्र ने उसे पिता के राज्यपर अभिषिक्त करके उसके द्वारा यज्ञ कराया । वे महातपस्वी थे, उन्होंने देवताओं तथा वसिष्ठ के देखते-देखते सत्यव्रत को शरीरसहित स्वर्गलोक में भेज दिया । उसकी पत्नी का नाम सत्यरथा था । वह केकयकुल की कन्या थी । उसने हरिश्चंद्र नामक निष्पाप पुत्र को जन्म दिया । राजसूय – यज्ञ का अनुष्ठान करके वे सम्राट कहलाये । हरिश्चंद्र के पुत्र का नाम रोहित था । रोहित के हरित और हरित के पुत्र चक्षु हुए । चक्षु के पुत्र का नाम विजय था । वे सम्पूर्ण पृथ्वीपर विजय प्राप्त करने के कारण विजय कहलाये । विजय के पुत्र राजा रुरुक हुए, जो धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे । रुरुक के वृक, वृक के बाहू और बाहू के सगर हुए । वे गर अर्थात विष के साथ प्रकट हुए थे, इसलिये उनका नाम सगर हुआ । उन्होंने भृगवंशी और्व मुनि से आग्नेय-अस्त्र प्राप्तकर तालजंग और हैहय नामक क्षत्रियों को युद्ध में हराया और समूची पृथ्वीपर विजय प्राप्त की । फिर शक, पह्र्व तथा पारदों के धर्म का निराकरण किया ।
मुनियोंने पूछा –सगर की उत्पत्ति गर के साथ कैसे हुई ? उन्होंने क्रोध में आकर शक आदि महातेजस्वी क्षत्रियों के कुलोचित धर्मो का निराकरण क्यों किया ? यह सब विस्तारपूर्वक सुनाइये ।
लोमहर्षणजी ने कहा –राजा बाहू व्यसनी थे, अत: पहले हैहय नामक क्षत्रियों ने तालजंगों और शकों की सहायता से उनका राज्य छीन लिया । यवन, पारद, काम्बोज तथा पह्र्व नामके गणों ने भी हैहयों के लिये पराक्रम दिखाया । राज्य छिन जानेपर राजा बाहू दु:खी हो पत्नी के साथ वन में चले गये । वहीँ उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये । बाहू की पत्नी यादवी गर्भवती थी । वे भी राजा का सहगमन करने को प्रस्तुत हो गयी । उन्हें उनकी सौतने पहलेसे ही जहर दे रखा था । उन्होंने वन में चिता बनायी और उसपर आरूढ़ हो पति के साथ भस्म हो जाने का विचार किया । भृगवंशी और्वमुनि को उनकी दशापर बड़ी दया आयी । उन्होंने रानी को चिता में जलने से रोक दिया । उन्हीं के आश्रम में वह गर्भ जहर के साथ ही प्रकट हुआ । वही महाराज सगर हुए । और्व ने बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये, वेद-शास्त्र पढाये तथा आग्नेय-अस्त्र भी प्रदान किया, जो देवताओं के लिये भी दु:सह है । उसीसे सगर ने हैहयवंशी क्षत्रियों का विनाश किया और लोक बड़ी भारी कीर्ति पायी । तदनंतर उन्होंने शक, यवन, काम्बोज, पारद तथा पह्र्वगणों का सर्वनाश करने के लिये उद्योग किया । वीरवर महात्मा सगर की मार पड़नेपर वे सभी महर्षि वसिष्ठ की शरण में गये और उनके चरणोंपर गिर पड़े । तब महातेजस्वी वसिष्ठ ने कुछ शर्त के साथ उन्हें अभय-दान दिया और राजा सगर को रोका । सगर ने अपनी प्रतिज्ञा तथा गुरु के वचन का विचार करके केवल उनके धर्म का निराकरण किया और उनके वेश बदल दिये । शकों के आधे मस्तक को मूँडकर विदा कर दिया । यवनों और काम्बोजों का सारा सिर मुंडा दिया । पारदों के सारे केश उड़ा दिये ।
धर्मविजयी राजा सगर ने इस पृथ्वी को जीतकर अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा ली और अश्व को देश में विचरने के लिये छोड़ा । वह अश्व जब पूर्व-दक्षिण समुद्र के तटपर विचर रहा था, उससमय किसीने उसको चुरा लिया और पृथ्वी के भीतर छिपा दिया । राजाने अपने पुत्रों से उस प्रदेश को खुदवाया । महासागर की खुदाई होते समय उन्होंने वहाँ आदिपुरुष भगवान् विष्णु को जो हरि, कृष्ण और प्रजापति नाम से भी प्रसिद्ध हैं, महर्षि कपिल के रूप में शयन करते देखा । जागनेपर उनके नेत्रों के तेज से वे सभी जलकर भस्म हो गये । केवल चार ही बचे, जिनके नाम है – बर्षिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ और पंचनद । ये ही राजा के वंश चलानेवाले हुए । कपिलरूपधारी भगवान् नारायण ने उन्हें वरदान दिया कि ‘राजा इक्ष्वाकु का वंश अक्षय होगा और इसकी कीर्ति कभी मिट नहीं सकती ।’ भगवान् ने समुद्र को सगर का पुत्र बना दिया और अंत में उन्हें अक्षय स्वर्गवास के लिये भी आशीर्वाद दिया । उससमय समुद्र ने अर्घ्य लेकर महाराज सगर का वन्दन किया । सगर का पुत्र होने के कारण ही समुद्र का नाम सागर हुआ । उन्होंने अश्वमेध-यज्ञ के उस अश्व को पुन: समुद्र से प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध-यज्ञ के अनुष्ठान पूर्ण किये । हमने सुना है, राजा सगर के साठ हजार पुत्र थे ।
मुनियों ने पूछा– साधुवर ! सगर के साठ हजार पुत्र कैसे हुए । वे अत्यंत बलवान और वीर किस प्रकार हुए ?
लोमहर्षणजी ने कहा– सगर की दो रानियाँ थी, जो तपस्या करके अपने पाप दग्ध कर चुकी थी । उनमें बड़ी रानी विदर्भनरेश की कन्या थी । उनका नाम केशिनी था । छोटी रानी का नाम महती था । वह अरिष्टनेमि की पुत्री तथा परम धर्मपरायणा थी । इस पृथ्वीपर उसके रूप की समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं थी । महर्षि और्व ने उन दोनों को इसप्रकार वरदान दिया – ‘एक रानी साठ हजार पुत्र प्राप्त करेगी और दूसरी को एक ही पुत्र होगा, किन्तु वह वंश चलानेवाला होगा । इन दो वरों में से जिसकी जिसे इच्छा हो, वह वही ले ले ।’ तब उनमें से एक ने साठ हजार पुत्रों का वरदान ग्रहण किया उअर दूसरी ने वंश चलानेवाले एक ही पुत्र को प्राप्त करना चाहा । मुनिने ‘तथास्तु’ कहकर वरदान दे दिया, फिर एक रानी के राजा पंचजन हुए और दूसरी ने बीज से भरी हुई एक तूँबी उत्पन्न की । उसके भीतर तिल के बराबर साथ हजार गर्भ थे । वे समयानुसार सुखपूर्वक बढ़ने लगे । राजाने उन सब गर्भों को घीसे भरे हुए घड़ों में रखवा दिया और उनका पोषण करने के लिये प्रत्येक के पीछे एक-एक धाय नियुक्त कर दी । तत्पश्चात क्रमशः दस महीनों में सगर की प्रसन्नता बढ़ानेवाले वे सभी कुमार उठ खड़े हए । पंचजन ही राज बनाये गये । पंचजन के पुत्र अंशुमान हुए, जो बड़े पराक्रमी थे । उनके पुत्र दिलीप हुए, जो खट्वांग के नामसे भी प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने स्वर्ग से यहाँ आकर दो घड़ी के ही जीवन में अपनी बुद्धि तथा सत्य के प्रभाव से परमार्थ-साधन के द्वारा तीनो लोक जीत लिये । दिलीप के पुत्र महाराज भागीरथ हुए, जिन्होंने नदियों में श्रेष्ठ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वीपर उतारकर समुद्रतक पहुँचाया और उन्हें अपनी पुत्री बना लिया । भागीरथी की पुत्री होने के कारण ही गंगा को भागीरथी कहते हैं । भगीरथ के पुत्र राजा श्रुत हुए । श्रुत के पुत्र नाभाग हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे । नाभाग के पुत्र अम्बरीष हुए, जो सिन्धुद्वीप के पिता थे । सिन्धुद्वीप के पुत्र अयुताजित हुए और अयुताजित से महायशस्वी ऋतुपर्ण की उत्पत्ति हुई, जो द्युतविद्या के रहस्य को जानते थे । राजा ऋतुपर्ण महाराज नल के सखा तथा बड़े बलवान थे । ऋतुपर्ण के पुत्र महायशस्वी आर्तुपर्णि हुए । उनके पुत्र सुदास हुए, जो इंद्र के मित्र थे । सुदास के पुत्र को सौदास बताया गया है; वे ही कल्माषपाद के नामसे विख्यात हुए तथा राजा मित्रसह भी उन्हीं का नाम था । कल्माषपाद के पुत्र सर्वकर्मा हुए, सर्वकर्मा के पुत्र अनरन्य थे । अनरन्य के दो पुत्र हुए – अनमित्र और रघु । अनमित्र के पुत्र राजा दुलिदुह थे । उनके पुत्र का नाम दिलीप हुआ, जो भगवान् श्रीरामचंद्रजी के प्रपितामह थे । दिलीप के पुत्र महाबाहू रघु हुए, जो अयोध्या के महाबली सम्राट थे । रघु के अज और अज के पुत्र दशरथ हुए । दशरथ से महायशस्वी धर्मात्मा श्रीराम का प्रादुर्भाव हुआ । श्रीरामचंद्रजी के पुत्र कुश के नामसे विख्यात हुए । कुश से अतिथिका जन्म हुआ, जो बड़े यशस्वी और धर्मात्मा थे । अतिथि के पुत्र महापराक्रमी निषध थे । निषध के नल और नल के नभ हुए । नभ के पुंडरिक और पुंडरिक के क्षेमधन्वा हुए । क्षेमधन्वा के पुत्र महाप्रतापी देवानीक थे । देवानीक से अहीनगु, अहीनगु से सुधन्वा, सुधन्वा से राजा शल, शल से धर्मात्मा उक्य, उक्य से वज्रनाभ और वज्रनाभ से नल का जन्म हुआ । मुनिवरो ! पुराण में दी ही नल प्रसिद्ध हैं – एक तो चन्द्रवंशीय वीरसेन के पुत्र थे और दुसरे इक्ष्वाकुवंश के धुरंधर वीर थे । इक्ष्वाकुवंश के मुख्य-मुख्य पुरुषों के नाम बताये गये । ये सुर्यवंश के अत्यंत तेजस्वी राजा थे । अदितिनंदन सूर्य की तथा प्रजाओं के पोषक श्राद्धदेव मनु की इस सृष्टि–परम्परा का पाठ करनेवाला मनुष्य सन्तानवान होता और सूर्य का सायुज्य प्राप्त करता है ।
अध्याय ६ चन्द्रवंश के अंतर्गत जह्रु, कुशिक तथा भृगुवंश का संक्षिप्त वर्णन
लोमहर्षणजी कहते है –पूर्वकाल में जब ब्रह्माजी सृष्टि का विस्तार करना चाहते थे, उससमय उनके मनसे महर्षि अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ, जो चन्द्रमा के पिता थे । सुनने में आया है कि अत्रि ने तीन हजार दिव्य वर्षोंतक अनुत्तर नाम की तपस्या की थी, उसमें उनका वीर्य ऊर्ध्वगामी हो गया था । वही चन्द्रमा के रूप में प्रकट हुआ । महर्षि का वह तेज ऊर्ध्वगामी होनेपर उनके नेत्रों से जल के रूप में गिरा और दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगा । चन्द्रमा को गिरा देख लोकपितामह ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण लोकों के हितकी इच्छा से उसे रथपर बिठाया । अत्रि के पुत्र महात्मा सोम के गिरनेपर ब्रह्माजी के पुत्र तथा अन्य महर्षि उनकी स्तुति करने लगे । स्तुति करनेपर उन्होंने अपना तेज समस्त लोकों की पुष्टि के लिये सबौर फैला दिया । चन्द्रमा ने उस श्रेष्ठ रथपर बैठकर समुद्रपर्यन्त समूची पृर्थ्वी की इक्कीस बार परिक्रमा की । उस समय उनका तेज चुकर पृथ्वीपर गिरा, उससे सब प्रकार के अन्न आदि उत्पन्न हुए, जिनसे यह जगत जीवन धारण करता है । इसप्रकार महर्षियों के स्तवन से तेज को पाकर महाभाग चन्द्रमा ने बहुत वर्षोतक तपस्या की; उससे संतुष्ट होकर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ बह्माजी ने उन्हें बीज, ओषधि, जल तथा बाह्मणों का राजा बना दिया । मृदुल स्वभाववालों में सबसे श्रेष्ठ सोम ने वह विशाल राज्य पाकर राजसूय-यज्ञ का अनुष्ठान किया, जिसमें लाखों की दक्षिणा बाँटी गयी । उस यज्ञ में सिनी, कुहू, द्युति, पुष्टि, प्रभा, वसु, कीर्ति, धृति तथा लक्ष्मी – इन नौ देवियों ने चन्द्रमा का सेवन किया । यज्ञ के अंत में अवभृथ-स्नान के पश्चात सम्पूर्ण देवताओं तथा ऋषियों ने उनका पूजन किया । राजाधिराज सोम दसों दिशाओं को प्रकाशित करने लगे । महर्षियोंद्वारा सत्कृत वह दुर्लभ ऐश्वर्य पाकर चन्द्रमा की बुद्धि भ्रांत हो गयी । उनमें विनय का भाव दूर हो गया । और अनीति आ गयी; फिर तो ऐश्वर्य के मद से मोहित होकर उन्होंने बृहस्पतिजी की पत्नी तारा का अपहरण कर लिया । देवताओं और देवर्षियों के बारंबार प्रार्थना करनेपर भी उन्होंने बृहस्पतिजी को तारा नहीं लौटायी । तब ब्रह्माजी ने स्वयं ही बीच में पडकर तारा को वापस कराया । उससमय वह गर्भिणी थी, यह देख बृहस्पतिजी ने कुपित होकर कहा – ‘मेरे क्षेत्र में तुम्हें दुसरे का गर्भ नहीं धारण करना चाहिये ।’ तब उसने तृण के समूहपर उस गर्भ को त्याग दिया । पैदा होते ही उसने अपने तेज से देवताओं के विग्रह को लज्जित कर दिया । उससमय ब्रह्माजी ने तारा से पूछा – ‘ठीक-ठीक बताओ, यह किसका पुत्र है ?’ तब वह हाथ जोड़कर बोली – ‘चन्द्रमा का हैं ।’ इतना सुनते ही राजा सोम ने उस बालक को गोद में उठा लिया और उसका मस्तक सूँघकर बुध नाम रखा । यह बालक बड़ा बुद्धिमान था । बुध आकाश में चन्द्रमा से प्रतिकूल दिशामें उदित होते हिया ।
मुनिवरो ! बुध के पुत्र पुरुरवा हुए, जो बड़े विद्वान, तेजस्वी, दानशील, यज्ञकर्ता तथा अधिक दक्षिणा देनेवाले थे । वे ब्रह्मवादी, पराक्रमी तथा शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष थे । निरंतर अग्निहोत्र करते और यज्ञों के अनुष्ठान में संलग्न रहते थे । सत्य बोलते और बुद्धि को पवित्र रखते थे । तीनों लोकों में उनके समान यशस्वी दूसरा कोई नहीं था । वे ब्रह्मवादी, शांत, धर्मज्ञ तथा सत्यवादी थे; इसीलिये यशस्विनी उर्वशी ने मान छोड़कर उनका वरण किया । राजा पुरुरवा उर्वशी के साथ पवित्र स्थानों में उनसठ वर्षोतक विहार करते रहे । उन्होंने महर्षियोंद्वारा प्रशंसित प्रयाग में राज्य किया । उनका ऐसा ही प्रभाव था । पुरुरवा के सात पुत्र हुए, जो गंधर्वलोक में प्रसिद्ध और देव्कुमारों के समान सुंदर थे । उनके नाम इसप्रकार हैं – आयु, अमावसु, विश्वायु, धर्मात्मा, श्रुतायु, दृधायु, वनायु तथा बह्रायु – ये सब उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । अमावसु के पुत्र राजा भीम हुए । भीम के पुत्र कांचनप्रभ और उनके पुत्र महाबली सुहोत्र हुए । सुहोत्र के पुत्र का नाम जह्रु था, जो केशिनी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । उन्होंने सर्पमेध नामक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया । एक बार गंगा उन्हें पति बनाने के लोभ से उनके पास गयीं, किन्तु उन्होंने अनिच्छा प्रकट कर दी । तब गंगा ने उनकी यज्ञशाला बहा दी । यह देख जह्रु ने क्रोध में भरकर कहा – ‘गंगे ! मैं तेरा जल पीकर तेरे इस प्रयत्न को अभी व्यर्थ किये देता हूँ । तू अपने इस घमंड का फल शीघ्र पा ले ।’ यों कहकर उन्होंने गंगा को पी लिया । यह देख महर्षियों ने बड़ी अनुनय करके गंगा को जह्रु की पुत्री के रूप में प्राप्त किया, तब से वे जाह्रवी कहलाने लगीं । तत्पश्चात जह्रु ने युवनाश्व की पुत्री कावेरी के साथ विवाह किया । युवनाश्व के शापवश गंगा अपने आधे स्वरुप से सरिताओं में श्रेष्ठ कावेरी में मिल गयी थी । जह्रु ने कावेरी के गर्भ से सुनध्य नामक धार्मिक पुत्र को जन्म दिया । सुनध्य के पुत्र अजक, अजक के बाल्काश्व और ब्लाकाश्व के पुत्र कुश हुए । कुश के देवताओं के समान तेजस्वी चार पुत्र हुए – कुशिक, कुशनाभ, कुशाम्ब और मूर्तिमान । राजा कुशिक वन में रहकर ग्वालों के साथ पले थे । उन्होंने इंद्र के समान पुत्र प्राप्त करने की इच्छा से तप किया । एक हजार वर्ष पूर्ण होनेपर इंद्र भयभीत होकर उनके पास आये । उन्होंने स्वयं अपने को ही उनके पुत्ररूप में प्रकट किया । उससमय वे राजा गाधि के नामसे प्रसिद्ध हुए । कुशिक की पत्नी पौरा थी । उसी के गर्भ से गाधिका जन्म हुआ था । गाधि के एक परम सौभाग्यशालिनी कन्या हुई, जिसका नाम सत्यवती था । गाधि ने उस कन्या का विवाह शुक्राचार्य के पुत्र ऋचीक के साथ किया था । ऋचीक अपनी पत्नी से बहुत प्रसन्न रहते थे । उन्होंने अपने तथा राजा गाधि के पुत्र होने के लिये पृथक-पृथक चरु तैयार किये और अपनी पत्नी को बुलाकर कहा – ‘शुभे ! इस चरु का उपयोग तुम करना और इसका उपयोग अपनी माता से कराना । तुम्हारी माता को जो पुत्र होगा, वह तेजस्वी क्षत्रिय होगा । लोकमें दूसरे क्षत्रिय उसे जित नहीं सकेंगे । वह बड़े-बड़े क्षत्रियों का संहार करनेवाला होगा तथा तुम्हारे लिये जो चरु है, वह तुम्हारे पुत्र को धीर, तपस्वी, शांतिपरायण एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण बानयेगा ।’ अपनी पत्नी से यों कहकर भृगनंदन ऋचीक घने जंगल में चले गये और वहाँ प्रतिदिन तपस्या में संलग्न रहने लगे । उससमय राजा गाधि अपनी स्त्री के साथ तीर्थयात्रा के प्रसंग में घूमते हुए ऋचीकमुनि के आश्रमपर अपनी पुत्री से मिलने के लिये आये थे । सत्यवती ने दोनों चरु ऋषि से ले लिये थे । उसने उन्हें हाथ में लेकर अपनी माता को निवेदन किया । उसकी माता ने दैववश अपना चरु पुत्री को दे दिया और उसका चरु स्वयं ग्रहण कर लिया ।
तदनंतर सत्यवती ने समस्त क्षत्रियों का विनाश करनेवाला गर्भ धारण किया । उसका शरीर अत्यंत उद्दीप्त हो रहा था । देखने में वह बड़ी भयंकर जान पडती थी । ऋचीक ने उसे देखकर योग के द्वारा सब कुछ जान लिया और उससे कहा – ‘भदे ! तुम्हारी माताने चरु बदलकर तुम्हें ठग लिया । तुम्हारा पुत्र कठोर कर्म करनेवाला और अंत्यंत दारुण होगा तथा तुम्हारा भाई ब्रह्मभूत तपस्वी होगा; क्योंकि मैंने तपस्या से सर्वरूप ब्रह्म का भाव उसमें स्थापित किया था । तब सत्यवती ने अपने पति को प्रसन्न करते हुए कहा – ‘मुने ! मेरा पुत्र ऐसा न हो; आप-जैसे महर्षि से ब्राह्मणाधमकी उत्पत्ति हो, यह मैं नहीं चाहती ।’ यह सुनकर मुनि बोले – ‘भद्रे ! मेरा पुत्र ऐसा हो, यह संकल्प मैंने नहीं किया है; तथापि पिता और माता के कारण पुत्र कठोर कर्म करनेवाला हो सकता है ।’ उनके यों कहनेपर सत्यवती बोली – ‘मुने ! आप चाहे तो नूतन लोकों की भी सृष्टि कर सकते है । फिर योग्य पुत्र उत्पन्न करना कौन बड़ी बात है । आप मुझे शान्तिपरायण कोमल स्वभाववाला पुत्र देने की कृपा करें । यदि चरु का प्रभाव अन्यथा न किया जा सके तो वैसे उग्र स्वभाव का पौत्र भले ही हो जाय, पुत्र वैसा कदापि न हो ।’ तब मुनि ने अपने तपोबल से वैसा ही करने का आश्वासन देते हए सत्यवती के प्रति प्रसन्नता प्रकट की और कहा – ‘सुन्दरि ! पुत्र अथवा पौत्र में मैं कोई अंतर नहींमानता । तुमने जो कहा हैं, वैसा ही होगा ।’ तत्पश्च्यात सत्यवती ने भृगुवंशी जमदग्नि को जन्म दिया, जो तपस्यापरायण, जितेन्द्रिय तथा सर्वत्र समभाव रखनेवाले थे । सत्यवती भी सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाली पुण्यात्मा स्त्री थी । वाही कौशिकी नाम से प्रसिद्ध महानदी हुई । इक्ष्वाकुव्रंश में रेणु नामके एक राजा थे । उनकी कन्या का नाम रेणुका था । रेणुका को कामली भी कहते हैं । तप और विद्या से सम्पन्न जगदग्नि ने रेणुका के गर्भ से अत्यंत भयंकर परशुरामजी को प्रकट किया, जो समस्त विद्याओं में पारंगत, धनुर्वेद में प्रवीण, क्षत्रियकुल का संहार करनेवाले तथा प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी थे । ऋचीक के सत्यवती से प्रथम तो ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ट जमदग्नि हुए । मध्यम पुत्र शुन:शेप और कनिष्ठ पुत्र शुन:पुच्छ थे । कुशिकनंदन गाधि ने विश्वामित्र को पुत्ररूप में प्राप्त किया, जो तपस्वी, विद्वान और शांत थे । वे ब्रह्मर्षि की समानता पाकर वास्तव में ब्रह्मर्षि हो गये । धर्मात्मा विश्वामित्र का दूसरा नाम विश्वरथ था । विश्वामित्र के देवरात आदि कई पुत्र हुए, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात थे । उनके नाम इसप्रकार बतलाये जाते हैं । देवरात, कात्यायन गोत्र के प्रवर्तक कति, हिरण्याक्ष, रेणु, रेणुक, सांकृति, गालव, मृद्र्ल, मधुच्छन्द, जय, देवल, अष्टक, कच्छप और हारीत – ये सभी विश्वामित्र के पुत्र थे । इन कौशिकवंशी महात्माओं के प्रसिद्ध गोत्र इस प्रकार है – पाणिनि, बभ्रु, ध्यानजप्य, पार्थिव, देवरात, शालंकायन, बाष्कल, लोहितायन, हारित और अष्टकाद्याजन । इस वंश में ब्राह्मण और क्षत्रिय का सम्बन्ध विख्यात है । विश्वामित्र के पुत्रों में शुन:शेप सबसे बड़ा माना गया है; यद्यपि उसका जन्म भृगुकुल में हुआ था, तथापि वह कौशिक गोत्रवाला हो गया । हरिदश्व के यज्ञ में वह पशु बनाकर लाया गया था, किन्तु देवताओं ने उसे विश्वामित्र को समर्पित कर दिया । देवताओंद्वारा प्रदत्त होने के कारण वह देवरात नामसे विख्यात हुआ । देवरात आदि विश्वामित्र के अनेक पुत्र थे । विश्वामित्र की पत्नी दृषद्वती के गर्भ से अष्टक का जन्म हुआ था । अष्टक का पुत्र लौहि बताया गया हैं । इसप्रकार मैंने जह्रुकुल का वर्णन किया । इसके बाद महात्मा आयु के वंश का वर्णन करूँगा ।
अध्याय ७ आयु और नहुष के वंश का वर्णन, रजि एवं ययाति का चरित्र
लोमहर्षणजी कहते है –आयु के उनकी पत्नी स्वर्भानुकुमारी प्रभा के गर्भ से पाँच पुत्र उत्पन्न हुए । वे सभी वीर और महारथी थे । सर्वप्रथम नहुष का जन्म हुआ । उनके बाद वृद्धशर्मा उत्पन्न हुए । तत्पश्च्यात क्रमश: रम्भ, रजि तथा अनेना हुए । ये तीनों लोकों में विख्यात थे । रजि ने पाँच सौ पुत्रों को जन्म दिया । वे सभी राजेय क्षत्रिय के नामसे विख्यात हुए । उनसे इंद्र भी डरते थे । पूर्वकाल में देवताओं तथा असुरों में भयंकर युद्ध आरम्भ होनेपर दोनों पक्षों के लोगों ने ब्रह्माजी से पूछा – ‘भगवन ! आप सब भूतों के स्वामी हैं; बताइये, हमारे युद्ध में कौन विजयी होगा ? हम इस बात को ठीक-ठीक सुनना चाहते हैं ।’
ब्रह्माजी ने कहा –राजा रजि हथियार हाथ में लेकर जिनके लिये युद्ध करेंगे, वे नि:संदेह तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर सकते हैं । जिस पक्ष में रजि हैं, उधर ही धृति है । जहाँ धृति हैं, वहाँ लक्ष्मी है तथा जहाँ धृति और लक्ष्मी हैं, वहीँ धर्म एवं विजय है ।
यह सुनकर देवता और दानव दोनों का मन प्रसन्न हो गया । वे रजि के पास आकर बोले – ‘ राजन ! आप हमारी विजय के लिये श्रेष्ठ धनुष धारण कीजिये ।’ तब रजि ने स्वार्थ को सामने रखकर अपने यश को प्रकाश में लाते हुए उभय पक्ष के लोगों से कहा – ‘देवताओं ! यदि मैं अपने पराक्रम से समस्त दैत्यों को जीतकर धर्मत: इंद्र बन सकूँ तो तुम्हारी ओर से युद्ध करूँगा ।’ देवताओं ने इस शर्त को पहले की प्रसन्नतापूर्वक मान लिया । वे बोले – ‘राजन ! ऐसा ही करो । तुम्हारी मन:कामना पूर्ण हो ।’ देवताओं की यह बात सुनकर राजा रजि ने असुरों से भी वहीँ बात पूछी । तब अहंकारी दानवों ने स्वार्थ को ही सोचकर उन्हें अभिमानपूर्वक उत्तर दिया – ‘राजन ! तुम इस युद्ध में चुपचाप खड़े रहो ।’ हमारे इंद्र तो प्रह्लाद ही होंगे । इनके लिये हम विजय करने को प्रस्तुत हैं ।’ देवताओं ने फिर कहा – ‘राजन ! तुम दैत्यपक्ष को जीतकर देवेन्द्र हो सकते हो ।’ तब रजि ने उन सब दानवों का, जो देवराज इंद्र के लिये अवध्य थे, संहार कर डाला और देवताओं की नष्ट हुई सम्पत्ति को पुन: उनसे छीन लिया । उससमय देवताओंसहित इंद्र महाराज रजि के पास आये और अपने को उनका पुत्र घोषित करते हुए बोले – ‘तात ! आप नि:संदेह हम सब लोगों के इंद्र हैं, क्योंकि मैं इंद्र आजसे आपका पुत्र कहलाऊँगा ।’ इंद्र की बात सुनकर उनकी माया से वंचित हो महाराज रजि ने ‘तथास्तु’ कह दिया । वे इन्द्र्पर बहुत प्रसन्न थे ।
रम्भ के कोई पुत्र नहीं था । अब अनेना के वंश का वर्णन करूँगा । अनेना के पुत्र महायशस्वी राजा प्रतिक्षत्र हुए । प्रतिक्षत्र के पुत्र संजय, संजय के जय, जय के विजय, विजय के कृति, कृति के हर्यश्व, हर्यश्व के प्रतापी सहदेव, सहदेव के धर्मात्मा नदीन, नदीन के जयत्सेन, जयत्सेन के संकृति तथा संकृति के पुत्र महायशस्वी धर्मात्मा क्षत्रवृद्ध हुए । क्षत्रवृद्ध का पुत्र सुनहोत्र था । उसके काश, शल और गृत्समद – ये तीन परम धर्मात्मा पुत्र हुए । गृत्समद के पुत्र शुनक थे । शुनक से शौनक का जन्म हुआ । शल के पुत्र का नाम आर्ष्टिषेण था । उनके काश्य हुए । काश्य के पुत्र का नाम काशिप हुआ । काशिप के दीर्घतपा, दीर्घतपा के धनु और धनु के पुत्र धन्वन्तरि हुए । वे काशी के महाराज और सब रोगों का नाश करनेवाले थे । उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद का अध्ययन करके चिकित्सा का कार्य किया और उसके आठ भाग करके शिष्यों को पढाया । धन्वन्तरि के पुत्र केतुमान हुए और केतुमान के वीर पुत्र भीमरथ के नामसे प्रसिद्ध हुए । भीमरथ के पुत्र राजा दिवोदास हुए, जो काशी के सम्राट और धर्मात्मा थे । दिवोदास के उनकी पत्नी दृषद्वती के गर्भ से प्रतर्दन नामक पुत्र हुआ । प्रतर्दन के दो पुत्र थे – वत्स और भार्ग । वत्स के पुत्र अलर्क और अलर्क के संनति हुए । अलर्क बड़े ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ थे । संनति के पुत्र धर्मात्मा सुनीथ हुए । सुनीथ के महायशस्वी क्षेम, क्षेम के केतुमान, केतुमान के सुकेतु, सुकेतु के धर्मकेतु, धर्मकेतु के महारथी सत्यकेतु, सत्यकेतु के राजा विभु, विभु के आनर्त, आनर्त के सुकुमार, सुकुमार के धर्मात्मा धृष्टकेतु, धृष्टकेतु के राजा वेणुहोत्र और वेणुहोत्र के पुत्र राजा भार्ग हुए । प्रतर्दन के जो वत्स और भार्ग नामक दो पुत्र बतलाये गए हैं, उनमें वत्स के वत्सभूमि और भार्ग के भार्गभूमि नामक पुत्र हुए थे । काश्य के कुल में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जाति के हजारों पुत्र हुए । अब नहुष की संतानों का वर्णन सुनो ।
नहुष के उनकी पत्नी पित्रुकन्या विरजा के गर्भ से पाँच महाबली पुत्र हुए, जो इंद्र के समान तेजस्वी थे । उनके नाम ये हैं – यति, ययाति, संयाति, आयाति तथा पार्श्वक । उनमें यति श्रेष्ठ थे । उनके बाद ययाति उत्पन्न हुए थे । यति ने ककुत्स्थ की कन्या गौ से विवाह किया था । ये मोक्षधर्म का आश्रय ले ब्रह्मस्वरुप मुनि हो गये । उन पाँच भाइयों में ययाति ने इस पृथ्वी को जीतकर शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा असुर कन्या शर्मिष्ठा को पत्नीरूप में प्राप्त किये । देवयानी ने यदु और तुर्वसु को जन्म दिया त्तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने द्रुह्य, अनु तथा पुरु नामक पुत्र उत्पन्न किये । ययातिपर प्रसन्न हो इंद्र ने उन्हें अत्यंत प्रकाशमान रथ प्रदान किया । उसमें मन के समान वेगशाली दिव्य अश्व जुते हुए थे । ययाति ने उस श्रेष्ठ रथ के द्वारा छ: रातों में ही सम्पूर्ण पृथ्वी तथा देवताओं और दानवों को भी जीत लिया । वे युद्ध में शत्रुओं के लिये दुर्धर्ष थे । समुद्र और सातों द्वीपोंसहित समूची पृथ्वी को अपने अधिकार में करके उन्होंने उसके पाँच भाग किये और उन्हें अपने पाँचो पुत्रों में बाँट दिया । तत्पश्च्यात एक दिन उन्होंने यदु से कहा – ‘बेटा ! कुछ आवश्यकतावश मुझे तुम्हारी युवावस्था चाहिये । तुम मेरा बुढापा ग्रहण करो और मैं तुम्हारे रूप से तरुण होकर इस पृथ्वीपर विचरूँगा ।’ यह सुनकर यदु ने उत्तर दिया – ‘राजन ! बुढापे में खान-पान-सम्बन्धी बहुत-से दोष हैं । अत: मैं उसे नहीं ले सकता । आपके अनेक पुत्र हैं, जो मुझसे भी बढकर प्रिय हैं । अत: युवावस्था ग्रहण करने के लिये किसी दुसरे पुत्र को बुलाइये ।’
ययाति बोले –औ मुर्ख ! मेरा अनादर करके तेरे लिये कौन–सा आश्रम हैं ? अथवा किस धर्म का विधान है ? मैं तो तेरा गुरु हूँ. फिर मेरी बात क्यों नहीं मानता ?
यों कहकर ययाति ने कुपित हो यदु को शाप दिया – ‘अरे मुर्ख ! तेरी सन्तति को कभी राज्य नहीं मिलेगा ।’ तत्पश्चात ययाति ने क्रमश: द्रुह्य, तुर्वसु तथा अनु से भी यही बात कहीं; परन्तु उन्होंने भी युवावस्था देने से इंकार कर दिया । तब ययाति ने अत्यंत क्रोध से भरकर उन सबको भी पूर्ववत शाप दे दिया । इसप्रकार सबको शाप दे राजाने अपने छोटे पुत्र पुरु से भी वही प्रस्ताव किया – ‘वत्स ! यदि तुम्हें स्वीकार हो तो अपना बुढापा तुम्हें देकर और तुम्हारी युवावस्था स्वयं लेकर इस पृथ्वीपर विचरु ।’ पिता की आज्ञा के अनुसार प्रतापी पुरु ने उनका बुढापा ले लिया । ययाति भी पुरु के तरुण रूप से पृथ्वीपर विचरने लगे । वे कामनाओं का अंत ढूँढते हुए चैत्ररथ नामक वन में गये और वहाँ विश्वाची नामक अप्सरा के साथ रमण करने लगे । जब काम और भोग से तृप्त हो चुके, तब पूरु के समीप जाकर उन्होंने अपना बुढापा ले लिया । उससमय ययाति ने जो उद्धार प्रकट किया, उसपर ध्यान देने से मनुष्य सब भोगों की ओर से अपने मन को उसी प्रकार हटा सकता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है ।
ययाति बोले –
‘भोगों की इच्छा उन्हें भोंगने से कभी शांत नहीं होती, अपितु घीसे आग की भांति और भी बढती ही जाती है । इस पृथ्वीपर जितने भी धान, जौ, सुवर्ण, पशु तथा स्त्रियाँ हैं, वे सब एक मनुष्य के लिये भी पर्याप्त नहीं हैं – ऐसा समझकर विद्वान पुरुष मोह में नहीं पड़ता । जब जीव मन, वाणी और क्रियाद्वारा किसी भी प्राणीके प्रति पाप-बुद्धि नहीं करता, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है । जब वह किसी भी प्राणी से नहीं डरता तथा उससे भी कोई प्राणी नहीं डरते, जब वह इच्छा और द्वेष से परे हो जाता है, उससमय ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है । खोटी बुद्धिवाले पुरुषोंद्वारा जिसका त्याग होना कठिन है, जो मनुष्य को बूढ़े होनेपर भी बूढी नहीं होती तथा जो प्राणनाशक रोग के समान है, उस तृष्णा का त्याग करनेवाले को ही सुख मिलता है । बूढ़े होनेवाले मनुष्य के बाल पक जाते हैं, दाँत टूट जाते हैं; परन्तु धन और जीवन की आशा उस समय भी शिथिल नहीं होती । संसार में जो कामजनित सुख है तथा जो दिव्य लोक का महान सुख है , वे सब मिलकर तृष्णा-क्षय से होनेवाले सुख की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते ।’
यों कहकर राजर्षि ययाति स्त्रीसहित वन में चले गये । वहाँ बहुत दिनोंतक उन्होंने भारी तपस्या की । तपस्या के अंत में भृगुतुंग नामक तीर्थ के भीतर उन्होंने सद्गति प्राप्त की । महायशस्वी ययाति ने स्त्रीसहित उपवास करके देह का त्याग किया और स्वर्गलोक को प्राप्त कर लिया ।
अध्याय ८ ययाति-पुत्रों के वंशका वर्णन
ब्राह्मणों ने कहा– सूतजी ! हमलोग पुरु, द्रुह्यु, अनु, यदु तथा तुर्वसु के वंशों का पृथक-पृथक वर्णन सुनना चाहते हैं ।
लोमहर्षणजी ने कहा– मुनिवरो ! आपलोग महात्मा पुरु के वंश का विस्तारपूर्वक वर्णन सुने, मैं क्रमश: सुनाता हूँ । पुरु के पुत्र सुवीर हुए, उनके पुत्र का नाम मनस्यु था । मनस्यु के पुत्र राजा अभयद थे । अभयद के सुधन्वा, सुधन्वा के सुबाहु, सुबाहु के रौद्राश्व तथा रौद्राश्व के दशार्णयु, कृकनेयु, क्क्षेयु, स्थण्डिलेयु, संनतेयु, ऋचेयु, जलेयु , स्थलेयु, धनेयु एवं वनेयु – ये दस पुत्र हुए । इसीप्रकार भद्रा, शुद्रा, मद्रा, शलदा, मलदा, खलदा, नलदा, सुरसा, गोचपला तथा स्त्रीरत्नकुटा – ये दस कन्याएँ हुई । अत्रिकुल में उत्पन्न महर्षि प्रभाकर उन सबके पति हुए । उन्होंने भद्रा के गर्भ से परम यशस्वी सोम को पुत्ररूप में उत्पन्न किया । राहू से आहत होकर जब सूर्य आकाश से पृथ्वीपर गिरने लगे और समस्त संसार में अंधकार छा गया, उस समय प्रभाकर ने ही अपनी प्रभा फैलायी । महर्षि ने गिरते हुए सूर्य को ‘तुम्हारा कल्याण हो’ यह कहकर आशीर्वाद दिया । उनके इस कथन से सूर्य पृथ्वीपर नहीं गिरे । महातपस्वी प्रभाकर ने सब गोत्रों में अत्रि को ही श्रेष्ठ बनाया । अत्रि यज्ञ में देवताओं ने उनके बल की प्रतिष्ठा की । उन्होंने रौद्राश्व की कन्याओं से दस पुत्र उत्पन्न किये, जो महान सत्त्वशाली तथा उग्र तपस्या में तत्पर रहनेवाले हुए । स्वस्त्यात्रेय नामसे उनकी ख्याति हुई । कक्षेयु के सभानर, चाक्षुष तथा परमन्यू – ये तीन महारथी पुत्र हुए । सभानर के पुत्र कालानल तथा कालानल के धर्मज्ञ सृजय हुए । सृजय के पुत्र वीर राजा पुरंजय थे । पुरंजय के पुत्र का नाम जनमेजय हुआ । जनमेजय के पुत्र महाशाल थे, जो देवाताओं में भी विख्यात हुए और इस पृथ्वीपर भी उनका यश फैला था । महाशाल के पुत्र महामना के नामसे विख्यात थे । देवताओं ने भी उनका सत्कार किया था । उन्होंने धर्मज्ञ उशीनर तथा महाबली तितिक्षु – ये दो पुत्र उत्पन्न किये । उशीनर की पाँच पत्नियाँ थी, जो राजर्षियों के कुल में उत्पन्न हुई थी । उनके नाम इसप्रकार है – नृगा, कृमि, नवा, दर्वा तथा दृषद्वती । उनसे उशीनर के पाँच पुत्र हुए – नृगा के पुत्र नृग थे, कृमि के गर्भ से कृमिका ही जन्म हुआ था । नवा के नव तथा दर्वा के सुव्रत हुए । दृषद्वती के गर्भ से उशीनरकुमार शिबि की उत्पत्ति हुई । शिबि को शिबिदेश का राज्य मिला । नृग के अधिकार में यौधेय प्रदेश आया । नवको नवराष्ट्र तथा कृमि को कृमिलापूरी का राज्य प्राप्त हुआ । सुव्रत के अधिकार में अम्बष्ठ देश आया । शिबि के विश्वविख्यात चार पुत्र हुए वृषदर्भ, सुवीर, केकय तथा मद्रक । उनके समृद्धिशाली जनपद उन्हीं के नामसे प्रसिद्ध हुए ।
अब महामना के दूसरे पुत्र तितिक्षु की संतानों का वर्णन किया जाता है । तितिक्षु पूर्व दिशा के राजा थे । उनके पुत्र महापराक्रमी उषद्र्थ हुए । उषद्रथ के पुत्र फेन, फेन के सुतपा तथा सुतपा के बलि हुए । राजा बलि सोने का तरकस रखते थे । वे बहुत बड़े योगी थे । उन्होंने इस भूतलपर वंश की वृद्धि करनेवाले पाँच पुत्र उत्पन्न किये । उनमें सबसे पहले अंग की उत्पत्ति हुई । तत्पश्चात क्रमश: – वंग, सुह्य, पुंड्र तथा कलिंग उत्पन्न हुए । य सब लोग बालेय क्षत्रिय कहलाते हैं । बलि के कुल में वालेय ब्राह्मण भी हुए, जो वंश की वृद्धि करनेवाले थे । ब्रम्हाजी ने प्रसन्न होकर बलि को यह वर दिया कि ‘तुम महायोगी होओगे । एक कल्प की तुम्हारी आयु होगी । बल में तुम्हारी समानता करनेवाला कोई न होगा । तुम धर्मतत्त्व के ज्ञाता होओगे । संग्राम में तुम्हें कोई जीत न सकेगा । धर्म में तुम्हारी प्रधानता होगी । तुम तीनों लोकों की देखभाल करोगे । सर्वत्र श्रेष्ठ माने जाओगे और चारों वर्णों को मर्यादा के भीतर स्थापित करोगे ।’
भगवान् ब्रह्माजी के यों कहनेपर बलि को बड़ी शान्ति मिली । वे दीर्घ काल के बाद मरकर स्वर्ग को गये । उनके पाँच पुत्रों के अधिकार में जो जनपद थे, उनके नाम इसप्रकार है – अंग, वंग, सुह्य, कलिंग और पुंड्रक । अब अंग की सन्तान का वर्णन करता हूँ । अंग के पुत्र महाराज दधिवाहन हुए । दधिवाहन के पुत्र राजा दिविरथ । दिविरथ के इन्द्र्तुल्य पराक्रमी और विद्वान धर्मरथ तथा धर्मरथ के पुत्र चित्ररथ हुए । राजा धर्मरथ जब कालंजर पर्वतपर यज्ञ करते थे, उससमय महात्मा इन्द्रने उनके साथ बैठकर सोमपान किया था । चित्ररथ के पुत्र दशरथ हुए, जो लोमपाद के नामसे विख्यात थे । उन्हीं की पुत्री शांता थी । दशरथ के पुत्र महायशस्वी वीर चतुरंग हुए, जो ऋश्यश्रुंग मुनि की कृपा से उत्पन्न हुए थे । चतुरंग के पुत्र का नाम पृथुलाक्ष था । पृथुलाक्ष के पुत्र महायशस्वी चम्प थे । चम्प की राजधानी चम्पा थी, जो पहले मालिनी के नामसे प्रसिद्ध थी । चम्प के पुत्र हर्यश्व हुए । हर्यश्व के पुत्र वैभांडकि थे , जिनका वाहन इंद्र का ऐरावत हाथी था । उन्होंने मन्त्रद्वारा उस उत्तम हाथी को पृथ्वीपर उतारा था । हर्यश्व के पुत्र राजा भद्ररथ हुए, भद्ररथ के बृहत्कर्मा, बृहत्कर्मा के बृहद्दर्भ और बृहद्दर्भ से बृहन्मना ने जयद्रथ नामक पुत्र उत्पन्न किया । जयद्रथ के दृढ़रथ, दृढ़रथ के विश्वविजयी जनमेजय । उनके पुत्र वैकर्ण, वैकर्ण के विकर्ण तथा विकर्ण के सौ पुत्र हुए, जो अंगवंश का विस्तार करनेवाले थे । वे सब अंगवंशी राजा बतलाये गये, जो सत्यव्रती, महात्मा, पुत्रवान तथा महारथी थे ।
अब रौद्राश्वकुमार राजा ऋचेयु के वंश का वर्णन करूँगा, सुनो । ऋचेयु के पुत्र राजा मतिनार हुए । मतिनार के तीन बड़े धर्मात्मा पुत्र थे – वसुरोध, प्रतिरथ और सुबाहु । वे सभी वेदवेत्ता तथा सत्यवादी थे । मतिनार की एक कन्या भी थी, जिसका नाम इला था । वह ब्रह्मवादिनी थी । उसका विवाह तंसु से हुआ । तंसु के पुत्र राजर्षि धर्मनेत्र हुए । इनकी स्त्री उपदानवी थी । उपदानवी से उन्होंने चार पुत्र उत्पन्न किये – दुष्यंत, सुश्मन्त, प्रवीर और अनाथ । दुष्यंत के पुत्र पराक्रमी भरत हुए, जो सर्वदमन के नामसे विख्यात थे । उनमें दस हजार हाथियों का बल था । वे शकुंतला के गर्भ से उत्पन्न चक्रवर्ती राजा थे । उन्हीं के नामपर इस देश को भारतवर्ष कहते हैं । अन्गिरानंदन बृहस्पतिजी के पुत्र महामुनि भरद्वाज ने भरत से पुत्रोत्पत्ति के लिए बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान कराया । इसके पहले पुत्र-जन्म का सारा प्रयास व्यर्थ हो चूका था । अत” भरद्वाज के प्रयत्न से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसका नाम वितथ हुआ । वितथ जे जन्म के बाद राजा भरत स्वर्गवासी हो गये, तब भरद्वाज जी वितथ को राज्यपर अभिषिक्त करके वनमें चले गये । वितथ ने पाँच पुत्र उत्पन्न किये –सुहोत्र, सुहोता, गय, गर्ग तथा महात्मा कपिल । सुहोत्र के दो पुत्र थे – महासत्यवादी काशिक तथा राजा गृत्समति । गृत्समति के पुत्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य – तीनों वर्णों के लोग हुए ।
मुनिवरो ! अब आजमीढ नामक दूसरे वंश का वर्णन सुनो । सुहोत्र का एक पुत्र था – बृहत । उसके तीन पुत्र हुए – अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ । अजमीढ से नीली के गर्भ से सुशान्ति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सुशान्ति से पुरुजाति और पुरुजाति से बाह्याश्व का जन्म हुआ । बाह्याश्व के पाँच पुत्र हुए, जो समृद्धिशाली पाँच जनपदों से युक्त थे । उनके नाम यों हैं – मुद्वल, सृजय, राजा बृहदिषु, पराक्रमी यवीन तथा कृमिलाश्व । ये पाँचों देशों की रक्षा के लिये आलम (समर्थ) थे; इसलिए उनके अधिकार में आये हुए जपनद पंचाल कहलाये । मुद्वल के पुत्र महायशस्वी मौद्वल थे । महात्मा सृजय के पुत्र पंचजन हुए । पंचजन के सोमदत्त, सोमदत्त के सहदेव और सहदेव के सोमक हुए । सोमक के पुत्र का नाम जन्तु था, जिसके सौ पुत्र हुए । उन सबमें छोटे पृषत थे, जिनके पुत्र द्रुपद हुए । ये सभी आजमीढ तथा सोमक क्षत्रिय कहलाते हैं । अजमीढ के एक और पत्नी थीं, जिनका नाम था – धुमिनी । रानी धुमिनी बड़ी पतिव्रता थी । ये पुत्र की कामना से व्रत करने लगी । दस हजार वर्षोतक अत्यंत दुष्कर तपस्या करके उन्होंने विधिपूर्वक अग्नि में हवन किया तथा पवित्रतापूर्वक नियमित भोजन करके वे अग्निहोत्र के कुशोंपर ही लेट गयीं । उसी अवस्था में राजा अजमीढ ने धुमीनीदेवी के साथ समागम किया । इससे ऋक्ष नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई । ऋक्ष से संवरण और संवरण से कुरु उत्पन्न हुए, जिन्होंने प्रयाग से जाकर कुरुक्षेत्र की स्थापना की । वह बड़ा ही पवित्र एवं रमणीय क्षेत्र है । कितने ही पुण्यात्मा पुरुष उसका सेवन करते हैं । कुरु का महान वंश उन्हीं के नामपर कौरव कहलाया । कुरु के चार पुत्र हुए – सुधन्वा, सुधनु, परीक्षित और अरिमेजय । परीक्षित के पुत्र जनमेजय, श्रुतसेन, अग्रसेन और भीमसेन हुए । ये सभी बलशाली और पराक्रमी थे । जनमेजय के पुत्र सुरथ हुए, सुरथ के विदूरथ, विदूरथ के महारथी ऋक्ष हुए । ये दुसरे ऋक्ष थे । इस सोमवंश में दो ऋक्ष, दो ही परीक्षित, तीन भीमसेन तथा दो जनमेजय नामके राजा हुए । द्वितीय ऋक्ष के पुत्र भीमसेन थे । भीमसेन से प्रतीप और प्रतीप से शांतनु, देवापि तथा बाह्यिक – ये तीन महारथी पुत्र हुए ।
अब राजर्षि बाह्रिक के वंश का वृतांत सुनो । बाह्रिक के पुत्र महायशस्वी सोमदत्त थे । सोमदत्त से भूरि, भूरिश्रवा और शल – ये तीन पुत्र हुए । देवापि देवताओं के उपाध्याय और मुनि हुए । शांतनु कौरववंश का भार वहन करनेवाले राजा हुए । अब में शांतनु के त्रिभुवनविख्यात वंश का वर्णन करूँगा । शांतनु ने गंगा के गर्भ से देवव्रत नामक पुत्र उत्पन्न किया । देवव्रत ही भीष्म नामसे विख्यात पांडवों के पितामह थे । तत्पश्चात शांतनु की काली नामवाली पत्नी ने विचित्रवीर्य नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो पिता का प्यारा तथा धर्मात्मा था । विचित्रवीर्य की स्त्रियों से श्रीकृष्णद्वैपायनने धृतराष्ट्र, पांडू तथा विदुर को जन्म दिया । धृतराष्ट्र ने गांधारी के गर्भ से सौ पुत्र उत्पन्न किये । उन सबमें दुर्योधन जेष्ठ था । पांडू के पुत्र अर्जुन हुए । अर्जुन से सुभद्राकुमार अभिमन्यु की उत्पत्ति हुई । अभिमन्यु से परीक्षित और परीक्षित से जनमेजय का जन्म हुआ । जनमेजय के काश्या नामकी पत्नी से चंद्रापीड तथा सुर्यापीड नामक दो पुत्र हुए । उनमे सुर्यापीड मोक्ष-धर्म के ज्ञाता थे । चंद्रापीड के महान धनुर्धर सौ पुत्र थे । ये सब इस पृथ्वीपर जानमेजय क्षत्रिय के नामसे प्रसिद्ध हुए । उन सौ पुत्रों से सबसे बड़ा सत्यकर्ण था, जो हस्तिनापुर में रहा करता था । महाबाहु सत्यकर्ण प्रचुर दक्षिणा देनेवाले थे । सत्यकर्ण के पुत्र प्रतापी श्वेतकर्ण हुए । वे पुत्र न होने के कारण तपोवन में चले गये । वहाँ सुचारू की पुत्री मालिनी, जो यदुकुल में उत्पन्न हुई थी, वन में आयी थी । उसने श्वेतकर्ण से गर्भ धारण किया । उस गर्भ के स्थापित हो जानेपर राजा श्वेतकर्ण पहले के किये हुए संकल्प के अनुसार महाप्रस्थान को चले । अपने प्रियतम को जाते देख मालिनी भी उनके पीछे लग गयी । मार्ग में उसने एक सुकुमार शिशु को जन्म दिया, किन्तु उसको भी छोड़कर वह पतिव्रता पति के पीछे चल दी । नवजात शिशु पर्वत की घाटीपर रो रहा था । तब उसपर कृपा करने के लिये आकाश में मेघ प्रकट हो गये । श्रविष्ठा के दो पुत्र थे – पैप्पलादि और कौशिक । वे दोनों उस शिशु को देख दयासे द्रवीभूत हो गये । उन्होंने उसे उठाकर जलसे धोया और रक्तमे डूबे हुए उसके पार्श्वभाग को शिलापर रगड़कर साफ़ किया । रगड़नेपर उसकी दोनों पसलियाँ बकरे की भान्ति श्यामवर्ण की हो गयी । इसलिए उन दोनों ने उस बालक का नाम अजपार्श्व रख दिया । उसे रेमक की शाला में दो ब्राह्मणों ने पाल-पोसकर बड़ा किया । रेमक की पत्नी ने अपना पुत्र बनाने के लिये उसे गोद ले लिया । तबसे वह रेमकी का पुत्र माना जाने लगा । दोनों ब्राम्हण उसके सचिव हुए । इन सबका पुत्र और पौत्र एक ही समय में – समान आयुवाले हुए । यह महात्मा पांडवों का पौरव-वंश बतलाया गया । नहुषनंदन ययाति ने अपनी वृद्धावस्था का परिवर्तन करते समय अत्यंत प्रसन्न हो यह उद्गार प्रकट किया था – ‘सम्भव है यह पृथ्वी चन्दमा, सूर्य और ग्रहों के प्रकाश में रहित हो जाय; किन्तु पौरववंश से सुनी यह कभी नहीं होगी ।’ इसप्रकार मैंने राजा पुरु के विख्यात वंश का वर्णन किया । अब तुर्वसु, द्रह्यु अनु और यदु के वंश का वर्णन करूँगा ।
तुर्वसु के पुत्र वह्रि, वह्रिके गोभानु, गोभानु के राजा त्रैशानु, त्रैशानु के करंधम तथा करंधम के मरुत्त हुए । अवीक्षित नंदन राजा मरुत्त्त से भिन्न हैं । करंधमकुमार मरुत्त के कोई पुत्र नहीं था । उन्होंने बहुत दक्षिणा देकर यज्ञ किया, उसमें उन्होंने दक्षिणा के रूप में महात्मा संवर्त को अपनी संयता नामकी कन्या दे दी । तत्पश्चात उन्होंने पुरुवंशी दुष्यंत को गोद ले लिया । इसप्रकार ययाति के शापवश जब तुर्वसु का वंश नहीं चला, तब उसमें पौरववंश का प्रवेश हुआ । दुष्यंत के पुत्र राजा करूरोम हुए । करुरोम से अह्रिद की उत्पत्ति हुई । अह्रिद के चार पुत्र हुए – पांड्य, केरल, कोल तथा चोल । द्रुह्यु के पुत्र बभ्रुसेतु, बभ्रुसेतु के अंगारसेतु और अंगारसेतु के मरुत्पति हुए, जो युद्ध में युवनाश्वकुमार मान्धाता के हाथ से मारे गये । अंगारसेतु के पुत्र राजा गांधार हुए, जिनके नामपर गांधार प्रदेश विख्यात है । गांधारदेश के घोड़े सब घोड़ों से अच्छे होते है । अनु के पुत्र धर्म, धर्म के द्युत, द्युत के वनदुह, वनदुह के प्रचेता और प्रचेता के सुचेता हुए । ये अनु के वंशज बतलाये गये । यदु के पाँच पुत्र हुए, जो देव्कुमारों के समान सुंदर थे । उनके नाम हैं । सह्स्त्राद, पयोद, क्रोष्ट, नील और अज्जिक । सह्स्त्राद के तीन परम धर्मात्मा पुत्र हुए – हैहय, हीरो तथा वेणुहय । हैहय का पुत्र धर्मनेत्र हुआ । धर्मनेत्र के कार्त और कार्त के साहज्ज नामक पुत्र हुए । साह्ज्ज ने साहज्जनी नामकी नगरी बसायी । साह्ज्ज का दूसरा नाम महिष्मान भी था । उनके पुत्र प्रतापी भद्रश्रेण्य थे भद्रश्रेण्य के दुर्दम और दुर्दम के कनक हुए । कनक के चार पुत्र हुए, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात थे । उनके नाम इसप्रकार है – कृतवीर्य, कृतौजा, कृतधन्वा तथा कृताग्नि ।
कृतवीर्य से अर्जुन की उत्पत्ति हुई, जो सहस्त्र भुजाओं से युक्त हो सात द्वीपों का राजा हुआ । उसने अकेले ही सूर्य के समान तेजस्वी रथद्वारा सम्पूर्ण पृथ्वीको जीत लिया था । उसने दस हजार वर्षोतक अत्यंत कठोर तपस्या करके दत्तात्रेयजी की आराधना की । दत्तात्रेयजी ने उसे कई वरदान दिये । पहले तो इसने युद्धकाल में एक हजार भुजाएँ माँगी । युद्ध करते समय किसी योगीश्वर की भाँति उसके एक सहस्त्र भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं । उसने द्वीप, समुद्र और नगरोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वी को कठोरतापूर्वक जीता तथा सात द्वीपों में सात सौ यज्ञ किये, उन सभी यज्ञों में एक-एक लाख की दक्षिणा दी गयी थी । सब में सोने के युप गड़े थे, सोने की ही वेदियाँ बनी थीं । वहाँ दिव्या वस्त्राभूषणों से अलंकृत देवताओं और गन्धर्वो के साथ महर्षिगण भी विमानपर बैठकर सुशोभित होते थे । कार्तवीर्य के यज्ञ में नारद नामक गंधर्व ने इस गाथा का गान किया – ‘ अन्य राजालोग यज्ञ, दान, तपस्या, पराक्रम और शास्त्र-ज्ञान में कार्तवीर्य अर्जुन की स्थिति को नहीं पहुँच सकते ।’ वह योगी था; इसलिये सातों द्वीपों में ढाल, तलवार, धनुष-बाण और रथ लिये सदा चारों और विचरता दिखायी देता था । धर्मपूर्वक प्रजाकी रक्षा करनेवाले महाराज कार्तवीर्य के प्रभाव से किसीका धन नष्ट नहीं होता था, किसी को रोग नहीं सताता था तथा कोई भ्रम में नहीं पड़ता था । वे सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट थे । वे ही पशुओं तथा खेतों के भी रक्षक थे और वे ही योगी होने के कारण वर्षा करते हुए मेघ बन जाते थे । जैसे शरद-ऋतू में भगवान् भास्कर अपनी सहस्त्रो किरणों से शोभायमान होते है, उसीप्रकार राजा कार्तवीर्य अर्जुन अपनी सहस्त्रो भुजाओं से शोभा पाते थे । उन्होंने कर्कोटक नाग के पुत्रों को जीतकर उन्हें अपनी नगरी महिष्मतीपूरी में मनुष्यों के साथ बसाया था । वे वर्षाकाल में समुद्र में जलक्रीडा करते समय अपनी भुजाओं से रोककर उसकी जलराशि के वेग की पीछे की ओर लौटा देते थे । उनकी राजधानी को घेरकर बहनेवाली नर्मदा नदी में जब वे जलक्रीडा करते समय लोटते थे, उससमय वह नदी अपनी सहस्त्रो चंचल लहरों के साथ डरती-डरती उनके पास आती थी । महासागर में जब वे अपनी सहस्त्रो भुजाएँ पटकते थे, उससमय पातालनिवासी महादैत्य निश्चेष्ट होकर भय से छिप जाते थे । ऊँची उठती हुई उत्ताल तरंगे विचुर्णित हो जाती थीं । बड़े-बड़े मीन और तिमि आदि जलजन्तु छटपटाने लगते थे । सागर के जलमे फेन जम जाता था । समुद्र बड़ी-बड़ी भँवरों के कारण क्षुब्ध दिखायी देता था । देवताओं और असुरों के डाले हुए मंदराचल पर्वत से क्षीरसमुद्र की जो दशा हुई थी; वाही दशा वे अपने सहस्त्र बाहुओं से महासागर की कर देते थे । उससमय मन्दराचल के द्वारा समुद्र मंथन की बात सोचकर चकित और अम्रुतोत्पत्ति से आशंकित हुए बड़े-बड़े नाग सहसा ऊपर उछलकर देखते और भयंकर कार्तवीर्य नरेशपर दृष्टि पड़ते ही मस्तक झुकाकर निश्चेष्ट पड़ जाते थे । जैसे संध्या के समय वायु के झोंके से कदलीखंड कॉपते है, उसीप्रकार वे भी काँपने लगते थे । राजा कार्तवीर्य ने अभिमान से भरे हुए लंकापति रावण को अपने पाँच ही बाणों से सेनासहित मुर्च्छित करके धनुष की प्रत्यंचा से बाँध लिया और माहिष्मतीपूरी में लाकर बंदी बना लिया । यह समाचार सुनकर महर्षि पुलस्त्य उनके पास गये । महर्षि के याचना करनेपर उन्होंने रावण को मुक्त कर दिया । अर्जुन की हजार भुजाओं में धारण किये हुए धनुषों की प्रत्यंचा का इतना घोर शब्द होता था, मानो प्रलयकालीन मेघ गर्जते हों अथवा वज्र फट पड़ा हो । अहो ! परशुरामजी का पराक्रम धन्य है, जिन्होंने सुवर्णामय तालवन के समान राजा कार्तवीर्य की सहस्त्रो भुजाओं को काट डाला था । एक दिन की बात है, प्यासे अग्निदेव ने राजा कार्तवीर्य से भिक्षा माँगी । उन्होंने सातों द्वीप, नगर, गाँव, गोष्ठ तथा सारा राज्य उन्हें भिक्षा में दे दिये । अग्निदेव सर्वत्र प्रज्वलित हो उठे और महाराज कार्तवीर्य के प्रभाव से समस्त पर्वतों एवं वनों को जलाने लगे । उन्होंने वरुणपुत्र के रमणीय आश्रम को भी जला दिया । पूर्वकाल में वरुण ने जिस तेजस्वी महर्षि को अपने पुत्ररूप में प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ के नामसे विख्यात हुए । उन्हीका नाम आपव भी है । महर्षि वसिष्ठ का शून्य आश्रम जलाया गया था, इसलिए उन्होंने शाप दिया –‘हैहय ! तूने मेरे इस वन को भी जलाए बिना न छोड़ा, अत: तेरे द्वारा यह महान पाप हुआ है । इसकारण मेरे-जैसा एक दूसरा तपस्वी ब्राह्मण तेरा वध करेगा । जमदग्निनंदन महाबाहू परशुराम, जो बलवान और प्रतापी हैं, तेरा बलपूर्वक मानमर्दन करके तेरी हजार भुजाओं को काट डालेंगे और तुझे मौत के घाट उतारेंगे ।’
जो शत्रुओं के नाशक और धर्मपूर्वक प्रजा के रक्षक थे, जिनके प्रताप से किसी के धन का नाश नहीं होने पाटा था, वे महाराज कार्तवीर्य महामुनि वसिष्ठ के शापवश परशुरामजी के हाथ से मृत्यु को प्राप्त हुए । उन्होंने स्वयं ही पहले इसी तरह का वर माँगा था । कार्तवीर्य के सौ पुत्र थे, किन्तु उनमे पाँच ही शेष बचे । वे सभी अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, बलवान, शुर, धर्मात्मा और यशस्वी थे । उनके नाम ये है – शूरसेन, शूर, वृषण, मधुपध्वज और जयध्वज । जयध्वज अवन्ती के महाराज थे । जयध्वज के पुत्र महाबली तालजंग हुए । उनके सौ पुत्र थे, जो तालजंग के नामसे विख्यात थे । हैहयवंश में वीतिहोत्र, सुजात, भोज, अवन्ति, तौडीकेर, लालजंग तथा भरत आदि क्षत्रियों का समुदाय हुआ । इनकी संख्या बहुत होने से पृथक-पृथक नाम नहीं बतलाये गये ।
वृष आदि बहुत-से पुण्यात्मा यादव इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए । उनमें वृष वंश के प्रवर्तक थे । वृष के पुत्र मधु थे । मधु के सौ पुत्र हुए, जिनमें वृषण वंश चलानेवाले हुए; वृषण के वृष्णि और मधु के वंशज माधव कहलाये । इसीप्रकार यदु के नामपर यादव तथा हैहय के नामसे हैहय क्षत्रिय कहलाते है ।
जो प्रतिदिन कार्तवीर्य अर्जुन के जन्म का वृतांत यहाँ कहेगा, उसके धन का नाश नहीं होगा, उसका नष्ट हुआ धन भी मिल जायगा । इसप्रकार ययाति-पुत्रों के पाँच वंश यहाँ बतलाये गयें , जो समस्त लोकों को धारण करते हैं । यदु के वंशधर पुण्यात्मा क्रोष्टु के, जिनके कुल में वृष्णिवंशावतंस श्रीहरि श्रीकृष्णरूप में प्रकट हुए थे, वंश का वर्णन सुनकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।
अध्याय ९ क्रोष्ठु आदि के वंश का वर्णन तथा स्यमन्तकमणि की कथा
लोमहर्षणजी कहते हैं– क्रोष्ठु के गांधारी और माद्री दो पत्नियाँ थीं । गांधारी ने महाबली अनमित्र को जन्म दिया तथा माद्री के युधाजित एवं देवमीढूष – ये दो पुत्र हुए; इन तीनों का वंश पृथक-पृथक चला, जो वृष्णिकुल की वृद्धि करनेवाला था । माद्री के दो पुत्र और सुने जाते हैं – वृष्णि तथा अंधक । वृष्णि के भी दो पुत्र थे – श्वफल्क और चित्रक । श्वफल्क बड़े धर्मात्मा थे । वे जहाँ रहते, वहाँ रोग का भय नहीं होता तथा वहाँ अवृष्टि कभी नहीं होती थी । एक बार काशी नरेश के राज्य में पूरे तीन वर्षोतक इंद्र ने वर्षा नहीं की; तब उन्होंने श्वफल्क को बुलवाया और उनका बड़ा आदर सत्कार किया । श्वफल्क के वहाँ पहुँचते ही इंद्र ने वृष्टि आरम्भ कर दी । काशिराज के एक कन्या थी, जिसका नाम गान्दिनी रखा गया था । वह प्रतिदिन ब्राह्मण को एक गौ दान किया करती थी, इसलिए उसका ऐसा नाम पड़ा था । वह श्वफल्क पत्नीरूप में प्राप्त हुई और उसके गर्भ से अक्रूर का जन्म हुआ, जो दानी, यज्ञकर्ता, वीर, शास्त्रज्ञ, अतिथिप्रेमी तथा अधिक दक्षिणा देनेवाले थे । इनके अतिरिक्त उपमदु, मदु, मेदुर, अरिमेजय,अविक्षित, आक्षेप, शत्रुघ्न, अरिमर्दन, धर्मधृक, यतिधर्मा, धर्मोक्षा, अंधकरू, आवाह तथा प्रतिवाह नामक पुत्र एवं वरांगना नामकी सुन्दरी कन्या हुई । अक्रूर के उग्रसेनकन्या सुगात्री के गर्भ से प्रसेन और उपदेव नामक दो पुत्र हुए, जो देवताओं के समान कान्तिमान थे ।
चित्रक के पृथु, विपृथू, अश्वग्रीव, अश्वबाहू, स्वपार्श्वक, गवेषण, अरिष्टनेमि, अश्व, सुधर्मा, धर्मभृत, सुबाहु तथा बहुबाहू नामक पुत्र एवं श्रविष्ठा और श्रवणा नाम की दो कन्याएँ हुई । देवमीढूष ने असिक्नी नाम की पत्नी के गर्भ से शूर नामक पुत्र उत्पन्न किया । शूर से रानी भोज्या के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न हुए । उनमें सबसे पहले महाबाहु वसुदेव उत्पन्न हुए, जिन्हें आनकदुन्दुभि भी कहते हैं । उनके जन्म लेने के बाद देवलोक में दुन्दुभियाँ बजी थी और आनाकों (मृदंगो)- की गंभीर ध्वनि हुई थी; इसलिये उनका नाम आनकदुन्दुभि पड गया था । उनके जन्म-काल में फूलों की वर्षा भी हुई थी । समस्त मानव-लोक में उनके समान रूपवान दूसरा कोई नहीं था । नरश्रेष्ठ वसुदेव की कान्ति चन्द्रमा के समान थी । वसुदेव के बाद क्रमशः – देवभाग, देवश्रवा, अनाध्रुष्टि, कनवक, वत्सवान, गृज्जम, श्याम, शमीक और गंडूष उत्पन्न हुए । शूर के पाँच सुन्दरी कन्याएं भी हुई, जिनके नाम इसप्रकार है – पृथुकीर्ति, पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतश्रवा तथा राजाधिदेवी । ये पाँचों वीर पुत्रों की जननी हुई । वृष्णि के छोटे पुत्र अनमित्र से शिनिका जन्म हुआ । शिनि के पुत्र सत्यक हुए । सत्यक के सात्यकि उत्पन्न हुए, जिनका दूसरा नाम युयुधान था । देवभाग के पुत्र महाभाग उद्धव हुए । गंडूष के कोई पुत्र नहीं था, अत: विष्वक्सेन ने उन्हें अनेक पुत्र दिये । उनके नाम इसप्रकार है – चारुदेष्ण, सुदेष्ण तथा सर्वलक्षणसम्पन्न पंचाल आदि । उन सबमें छोटे थे – महाबाहू रौक्मिणेय, जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते थे । कनवक के दो पुत्र हुए – तान्त्रिज और तंत्रिपाल । गृन्जम के भी दो पुत्र थे – वीरू तथा अश्वहनु । श्याम के पुत्र शमीक थे । शमीक राजा हुए । उन्होंने राजसूय यज्ञ किया था , उनके पुत्र अजातशत्रु हुए ।
अब वसुदेव के वीर पुत्रों का वर्णन करूँगा । वृष्णिवंश की अनेक शाखाएँ हैं । जो उसका स्मरण करता हैं, उसे कभी अनर्थ की प्राप्ति नहीं होती । वसुदेवजी के चौदह सुन्दरी पत्नियाँ थीं । पुरुवंश की कन्या रोहिणी, मदिरादि, वैशाखी, भद्रा, सुनाम्री, सहदेवा, शान्तिदेवा, श्रीदेवी, देवरक्षिता, वृकदेवी, उपदेवी तथा देवकी – ये बारह तो राजकुमारियाँ थी और सुतनु तथा बडवा – ये दो दासियाँ थीं । जेष्ठ पत्नी रोहिणी ने, जो बाह्रीककी पुत्री थी, वसुदेवजी से जेष्ठ पुत्र के रूप में बलरामजी को प्राप्त किया । तत्पश्चात उनके गर्भ से शरण्य, शठ, दुर्दम, दमन, शुभ्र, पिंडारक और उशीनर नामक पुत्र तथा चित्रा नाम की कन्या हुई । इसप्रकार रोहिणी की नौ संताने थी । चित्रा ही आगे चलकर सुभद्रा के नामसे विख्यात हुई । वसुदेव के देवकी के गर्भ से महायशस्वी भगवान् श्रीकृष्ण अवतीर्ण हुए । बलराम के रेवती के गर्भ से निशठ उत्पन्न हुए, जो माता-पिता के बड़े लाडले थे । सुभद्रा के अर्जुन के सम्बन्ध से महारथी अभिमन्यु उत्पन्न हुआ । वासुदेवजी की परम सौभाग्यशालिनी सात पत्नियों से जो पुत्र उत्पन्न हुए, उनके नाम बतलाता हूँ; सुनो । शान्तिदेवा के भोज और विजय, सुनामा के वृकदेव और गद तथा त्रिगर्तराजकन्या वृकदेवी के महात्मा अगावह नामक पुत्र हुए ।
क्रोष्टु के एक और पुत्र महायशस्वी वृजिनवान हुए । उनके पुत्र स्वाहि थे । स्वाहि के पुत्र राजा उषद्रु हुए, जिन्होंने प्रचुर दक्षिणावाले अनेक महायज्ञों का अनुष्ठान किया था । उषद्रु के पुत्र चित्ररथ हुए, चित्ररथ के शशबिंदु, शशबिंदु के पृथुश्रवा, पृथुश्रवा के अन्तर, अन्तर के सुयज्ञ तथा सुयज्ञ के उषत हुए । उषत का अपने धर्म के प्रति बड़ा आदर था । उषत के पुत्र शिनेयु, शिनेयु के मरुत, मरुत के कम्बलबह्रिष, कम्बलबह्रिष के रुक्मकवच, रुक्मकवच के परजित तथा परजित के पाँच पुत्र हुए – रुक्मेषु, पृथुरुक्म, ज्यामघ, पालित तथा हरि । पालित और हरि को पिताने विदेह प्रांत की रक्षा में नियुक्त कर दिया । रुक्मेषु पृथुरुक्म की सहायता से राजा हुए । इन दोनों भाइयों ने राजा ज्यामघ को घरसे निकाल दिया । तब वे वनमें आश्रम बनाकर रहने लगे । उससमय शान्तिपरायण राजा को ब्राम्हणों ने बहुत कुछ समझाया । तब वे धनुष लेकर रथपर आरूढ़ हो दुसरे देश में गये । अकेले ही नर्मदा के तटपर जाकर उन्होंने मेकला, मृत्तिकावती तथा ऋक्षवान पर्वत को जीतकर शुक्तिमती नगरी में निवास किया । ज्यामघ की पत्नी शैब्या थी, जो पतिव्रता होन के साथ ही बड़ी प्रबल थी । यद्यपि राजा को कोई पुत्र नहीं था, तथापि उन्होंने पत्नी के भय से दूसरी स्त्री से विवाह नहीं किया । एक बार किसी युद्ध में विजयी होनेपर उन्हें एक कन्या मिली । उसे रथपर बैठी देख स्त्री ने पूछा –‘यह कौन है ?’ तब वे डरकर बोले –‘यह तुम्हारी पुत्रवधू है ।’ यह सुनकर रानी बोली – ‘मेरे तो कोई पुत्र नहीं , फिर यह किस की पत्नी होने से पुत्रवधू हुई?’ यह सुनकर ज्यामघ ने कहा – ‘तुम्हें जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसके लिये यह पत्नी प्रस्तुत की गयी है ।’ तत्पश्च्यात रानी शैब्या ने कठोर तपस्या करके एक विर्दभ नामक पुत्र उत्पन्न किया । उसका विवाह उक्त राजकन्या से हुआ । उसके गर्भ से क्रथ और कौशिक नामक पुत्र उत्पन्न हुए । वे दोनों बड़े ही शुर तथा युद्धविशारद थे । उसके बाद विदर्भ के भीम नामक पुत्र हुआ । उसके पुत्र का नाम कुन्ति ह्या । कुन्ति से धृष्ट का जन्म हुआ, जो संग्राम में धृष्ट और प्रतापी था । धृष्ट के आवंत, दशार्ह तथा विषहर नामक तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा और शूरवीर थे । दशार्ह के व्योमा और व्योमा के पुत्र जीमूत बतलाये जाते हैं । जीमूत के विकृति, विकृति के भीमरथ, भीमरथ के नवरथ और नवरथ के पुत्र दशरथ हुए । दशरथ के पुत्र का नाम शकुनि था । शकुनि से करम्भ तथा करम्भ से देवरात का जन्म हुआ । देवरात के पुत्र देवक्षत्र तथा देवक्षत्र के महायशस्वी वृद्धक्षत्र हुए । वे देवकुमार के समान कान्तिमान थे । इनके सिवा मधुरभाषी राजा मधु का भी जन्म हुआ, जो मधुवंश के प्रवर्तक थे । मधु के उनकी पत्नी वैदर्भी से नरश्रेष्ठ पुरुद्वान की उत्पत्ति हुई । मधु की दूसरी पत्नी इक्ष्वाकुवंश की कन्या थी । उससे सर्वगुणसंपन्न सत्त्वान हुए, जो सात्त्वत कुल की कीर्ति को बढ़ानेवाले थे ।
सत्त्वान से सत्त्वगुणसम्पन्ना कौसल्या ने भजमान, देवावृध, अंधक तथा वृष्णि नामक पुत्र उत्पन्न किये । इनके चार कुल यहाँ विस्तारपूर्वक बतलाये गये हैं । भजमान के दो स्त्रियाँ थी । एकका नाम था बाह्यकसृज्जयी और दूसरी का उपबाह्यकसृज्जयी । उन दोनों के गर्भ से बहुत से पुत्र हुए । क्रिमी, क्रमण, धृष्ट, शूर तथा पुरज्जय – ये भजमान के बाह्यकसृज्जयी से उत्पन्न हुए पुत्र थे । अयुताजित, सह्स्त्राजित, शताजित और दासक – ये भजमानद्वारा उपबाह्यकसृज्जयी के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र थे । राजा देवावृध यज्ञपरायण रहते थे । उन्होंने सर्वगुणसम्पन्न पुत्र होने के उद्देश्य से भारी तपस्या की । तपस्या में संलग्न होकर वे पर्णाशा के जल का आचमन करते थे । सदा ऐसा ही करने के कारण उस नदी ने उनका प्रिय करना चाहां । कल्याणमय नरेश देवावृध के अभीष्ट की सिद्धि कैसे हो – इस चिंता में देरतक पड़ी रहनेपर भी पर्णाशा सहसा किसी निश्वयपर न पहुँच सकी । उसे ऐसी कोई स्त्री नहीं मिली, जिसके गर्भ से वैसा सुयोग्य पुत्र उत्पन्न हो सके । तब उसने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं ही चलकर इनकी सहधर्मिणी बनूँगी । यह विचारकर पर्णाशा ने एक परम सुन्दरी कुमारी का रूप धारण करके राजा को पतिरूप में वरण किया । राजाने भी उसकी कामना की । तदनंतर उन उदारबुद्धि नरेश ने उसमें एक तेजस्वी गर्भ की स्थापना की । तत्पश्च्यात दसवें महीने में पर्णाशा ने देवावृध के सर्वगुणसम्पन्न पुत्र बभु को जन्म दिया । इस वंश के विषय में पुराणों के ज्ञाता देवावृध के गुणों का बखान करते हुए निम्नाकिंत प्रसिद्ध गाथा का गान करते हैं । ‘हम जैसे आगे देखते हैं, वैसे ही दूर और निकट भी देखते हैं । हमारी दृष्टी में बभ्रु और देवावृध के सम्पर्क में आकर एक हजार चौहत्तर मनुष्य अमृतत्त्व को प्राप्त हो चुके हैं ।’
बभ्रु का वंश बहुत बड़ा था । उसमें सब-के-सब यज्ञपरायण, महादानी, बुद्धिमान, ब्राह्मणभक्त तथा सुदृढ़ आयुध धारण करनेवाले थे । मृत्तिकावतीपूरी में भोजवंश के क्षत्रिय रहते थे । अंधक से काश्यप की कन्या ने चार पुत्र प्राप्त किये – कुकुर, भजमान, शशक और बलबह्रिष । कुकुर के पुत्र वृष्टि, वृष्टि के कपोतरोमा, कपोतरोमा के तित्तिरि, उसके पुनर्वसु, पुनर्वसु के अभिजित तथा अभिजित के आहुक एवं श्राहुक नामक दो जुड़वाँ पुत्र हुए । इनके विषय में ऐसी गाथा प्रसिद्ध हैं – ‘आहुक किशोरवस्था के समान आकृतिवाले थे । वे अस्सी कवच धारण किये हुए अपने श्वेतवर्णवाले परिवार के साथ पहले यात्रा करते थे, उनमें से कोई ऐसा नहीं था, जो पुत्रवान न हो, सौसे कम दान करता हो, हजार या सौसे कम आयुवाला हो, अशुद्ध कर्म करता हो अथवा यज्ञ न करता हो । भोजवंशी आहुक की पूर्व दिशा में इक्कीस हजार हाथी चलते थे, जिनपर सोने-चांदी के हौदे कसे होते थे । उत्तर दिशा में भी उनकी उतनी ही संख्या होती थी ।
भोजवंसी प्रत्येक भूपाल की भुजामे धनुष की प्रत्यंचा के चिन्ह होते थे । अंधकवंशियों ने अपनी बहिन आहुकी का विवाह अंवतिनरेश से किया था ।’ आहुक के काश्या के गर्भ से देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए । देवक के चार पुत्र थे – देववान, उपदेव, संदेव तथा देवरक्षक । इनके सिवा सात कन्याएँ भी थीं, जिनका विवाह वसुदेवजी के साथ हुआ । इनके नाम इसप्रकार है – देवकी, शान्तिदेवा, सुदेवा, देवरक्षिता, वृकदेवी, उपदेवी और सुनाम्री । उग्रसेन के नौ पुत्र थे, जिनमें कंस बड़ा था, उससे छोटे न्यग्रोध, सुनामा, कंक, सुभूषण, राष्ट्रपाली तथा कंका । यहाँ तक कुकरवंशी उग्रसेन और उनकी संतानों का वर्णन हुआ ।
भजमान के पुत्र विदुरथ हुए, जो रथियों में प्रधान थे । विदुरथ के शूरवीर राजाधिदेव हुए । राजाधिदेव के पुत्र बड़े पराक्रमी थे । उनके नाम इसप्रकार ई –दत्त, अतिद्त्त, शोणाश्व, श्वेतवाहन, शमी, दंडशर्मा, दंतशत्रु तथा शत्रुजित । इन सबकी दो बहिनें थी, जो श्रवणा और श्रविष्ठा के नामसे विख्यात हुई । शमी के पुत्र प्रतिक्षत्र थे, प्रतिक्षत्र के पुत्र स्वयम्भोज, स्वयम्भोज से हृदिक हुए । हृदिक के बहुत से पुत्र हुए, जो भयानक पराक्रम करनेवाले थे । उनमें कृतवर्मा सबसे जेष्ठ और शतधन्वा माध्यम था । शेष भाइयों के नाम इस प्रकार है – देवांत, नरांत, भिषग, वैतरण, सुदांत, अतिदांत, निकाश्य और कामदम्भक । देवांत के पुत्र विद्वान् कम्बलबह्रिश हुए । उनके दो पुत्र थे – असमौजा तथा तामसौजा । असमौजा के कोई पुत्र नहीं हुआ; उन्हें सुदंष्ट्र , सुचारू और कृष्ण – ये पुत्र गोदमें प्राप्त हुए । इसप्रकार अंधकवंशी क्षत्रियों का वर्णन किया गया ।
ऊपर कह आये हैं कि क्रोष्टु के दो पत्नियाँ थीं – गांधारी और माद्री । गांधारी ने महाबली अनमित्र को जन्म दिया और माद्री ने युधाजित को । अनमित्र के निघ्र हुए । निघ्र के दो पुत्र थे – प्रसेन और सत्राजित । ये दोनों ही शत्रुसेना को परास्त करनेवाले थे । भगवान् सूर्य सत्राजित के प्राणोंपम सखा थे ।
स्यमन्तकमणि की कथा
एक दिन रात्रि बीतनेपर रथियों में श्रेष्ठ सत्राजित रथपर आरूढ़ हो स्नान एवं सूर्योपस्थान करने के लिये जल के किनारे गये । वहाँ पहुँचकर जब वे सूर्योपस्थान करने लगे, उससमय भगवान् सूर्य तेजोमंडल से युक्त स्पष्ट दिखायी देनेवाला रूपधारण करके उनके आगे प्रकट हो गये । तब राजा सत्राजित ने सामने खड़े हुए सूर्यदेव से कहा – ‘प्रभो ! आप जिसके द्वारा सदा सम्पूर्ण लोकों को प्रकाशित करते है, वह मणिरत्न मुझे देने की कृपा करें ।’ उनके यों कहनेपर भगवान् भास्कर ने उन्हें दिव्य स्यमन्तकमणि प्रदान की । सत्राजित ने उसे गले में पहनकर अपने नगर में प्रवेश किया । उन्हें देखकर सब लोग यों कहते हुए दौड़ने लगे – ‘यह देखो, सूर्य जा रहे है ।’ इसप्रकार नगर के लोगों को आश्वर्य में डालकर वे अंत:पुर में पहुँचे । सत्राजित ने वह उत्तम मणि अपने छोटे भाई प्रसेनजित को दे दी, क्योंकि उसको वे बहुत प्यार करते थे । वह मणि अंधकवंशी यादवों के घर में सुवर्ण उत्पन्न करती थी । वह जहाँ रहती, उसके निकटवर्ती जनपदों में मेघ समयपर वर्षा करता तथा किसी को रोग का भय नहीं रहता था । एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसेन के सम्मुख वह स्यमन्तक नामक मणिरत्न लेने की इच्छा [प्रकट की; किन्तु उसे वे नहीं पा सके । समर्थ होनेपर भी भगवान् ने उसका बलपूर्वक अपहरण नहीं किया ।
एक दिन प्रसेन उस मणिरत्न से विभूषित हो वन में शिकार खेलने के लिये गये । वहाँ स्यमन्तक के लिये ही एक सिंह के हाथ से मारे गये । सिंह उस मणि को मुख में दबाये भागा जा रहा था । इतने में ही महाबली ऋक्षराज जाम्बवान उधर आ निकले । वे सिंह को मारकर मणिरत्न ले अपनी गुफा में चले गये । इधर वृष्णि और अंधक –वंश के लोग यह संदेह करने लगे कि हो-न-हो श्रीकृष्ण ने ही मणि के लिए प्रसेन का वध किया है; क्योंकि उन्होंने एक बार वह मणि प्रसेन से माँगी थी । भगवान श्रीकृष्ण ने यह कार्य नहीं किया था तो भी उनपर संदेह किया गया; अत: अपने कलंक का मार्जन करने के लिए वे मणि को ढूँढ लाने की प्रतिज्ञा करके वन में गये । कुछ विश्वसनीय पुरषों के साथ प्रसेन के चरण-चिन्हों का पता लगाते हुए वे उस स्थानपर गये, जहाँ प्रसेन शिकार खेल रहे थे । गिरिवर ऋक्षवान तथा उत्तम पर्वत विन्ध्यपर उनका अन्वेषण करते हुए वे लोग थक गये । अंत में श्रीकृष्ण ने एक स्थानपर घोड़ेसहित मरे हुए प्रसेन की लाश देखी, किन्तु वहाँ मणि नहीं मिली । तदनंतर थोड़ी ही दूरपर ऋक्ष के द्वारा मारे गये सिंह का शरीर दिखायी पड़ा । ऋक्ष अपने चरण-चिन्हों से पहचाना गया । उन्हीं चिन्हों के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण जाम्बवान की गुफा के द्वारपर पहुंचे । वहाँ उन्हें बिल के भीतर से किसी धाय की कही हुई यह वाणी सुनायी दी – ‘मेरे सुकमार बच्चे ! तू मत रो । सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंह जाम्बवान के हाथ से मारा गया । अब यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है ।’
यह आवाज सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने उस गुफा के द्वारपर बलरामजी के साथ अन्य यादवों को बिठा दिया और स्वयं उन्होंने गुफा के भीतर प्रवेस्ज किया । बिल के भीतर जाम्बवान दिखायी दिये । भगवान् वासुदेव से लगातार इक्कीस दिनोंतक उनके साथ बाहुयुद्ध किया । इसी बीच में बलदेव आदि यादव द्वार का लौट गये और सबको श्रीकृष्ण के मारे जाने की सुचना दे दी । इधर भगवान् वासुदेव ने महाबली जाम्बवान को परास्त करके उनकी कन्या जाम्बवती को उन्हीं के अनुरोध से ग्रहण किया । साथ ही अपनी सफाई देने के लिये वह स्यमन्तकमणि भी ले ली । तत्पश्चात ऋक्षराज की अभ्यर्थना करके बे बिल से निकले और विनीत सेवकों के साथ द्वारका में गये । वहां सब यादवों से भरी हुई सभा में श्रीकृष्ण ने वह मणि सत्राजित को दे दी । इसप्रकार मिथ्या कलंक लगनेपर भगवान् श्रीकृष्ण ने स्यमन्तकमणि को ढूँढ निकाला और उसे देकर अपने ऊपर आये हुए कलंक का मार्जन किया । सत्राजित के दस पत्नियाँ थी । उनके गर्भ से उन्हें सौ पुत्र प्राप्त हुए, जिनमें तीन अधिक प्रसिद्ध थे – भंगकार, वातपति और वसुमेध । सत्राजित के तीन कन्याएँ भी थी, जो सब दिशाओं में विख्यात थीं – सत्यभामा, व्रतिनी तथा प्रस्वापिनी । इनमें सत्यभामा सबसे उत्तम थी । उसका विवाह पिताने श्रीकृष्ण के साथ कर दिया । जो भगवान् श्रीकृष्ण के इस मिथ्या कलंक का श्रवण करता है, उसे मिथ्या कलंक कभी स्पर्श नहीं करते ।
श्रीकृष्ण ने सत्राजित को जो स्यमन्तकमणि दी थी, उसका अक्रूर ने भोजवंशी शतधन्वा के द्वारा अपहरण करा दिया । महाबली शतधन्वा सत्राजित को मारकर वह मणि ले आया तथा अक्रूर को दे दी । अकृर ने उस उत्तम रत्न को लेते हुए शतधन्वा से प्रतिज्ञा करा ली कि ‘मेरा नाम न बताना ।’
पिता के मारे जानेपर मनस्विनी सत्यभामा दुःख से आतुर हो उठी और रथपर आरूढ़ हो वारणावत नगर में गयी । वहाँ अपने स्वामी श्रीकृष्ण को शतधन्वा की सारी करतुते बतलाकर उनके पास खड़ी हो आँसू बहाने लगी । तब भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही द्वारका आ पहुँचे और अपने बड़े भाई बलरामजी से बोले –‘प्रभो ! प्रसेन को तो सिंह ने मार डाला और सत्राजित को शतधन्वा ने । अब स्यमन्तकमणि मेरे अधिकार में आनेवाली है । अब मैं ही उसका उत्तराधिकारी हूँ; इसलिये शीघ्र ही रथपर बैठिये और महारथी शतधन्वा को मारकर मणि छीन लीजिये । महाबाहो ! अब स्यमन्तकमणि हमलोगों का ही होगा ।’ तदनंतर शतधन्वा और श्रीकृष्ण में घोर युद्ध हुआ । शतधन्वा सब ओर अक्रूर के आने की बाट देखने लगा । वह और भगवान् श्रीकृष्ण दोनों ही एक – दुसरेपर कुपित हो रहे तह । जब अक्रूर ने साथ नहीं दिया, तब शतधन्वा ने भयभीत हो भाग जाने का विचार किया । उसके पास ह्र्दया नामकी एक घोड़ी थी, जो सौ योजन चलती थी । वह उसीपर आरूढ़ हो श्रीकृष्ण से युद्ध कर रहा था । सौ योजन का मार्ग वेग से तै करने के कारण वह घोड़ी थककर शिथिल हो गयी । यह देख भगवान् श्रीकृष्ण ने बलरामजी से कहा – ‘महाबाहो ! आप वहीँ खड़े रहें । मैंने उस घोड़ी की कमजोरी देख ली हैं । अब तो मैं पैदल ही जाकर मणिरत्न स्यमन्तक को छीन लाउँगा ।’ यह कहकर भगवान् पैदल ही शतधन्वा के पास गये और मिथिला के समीप उन्होंने उसका वध कर डाला, परन्तु उसके पास स्यमन्तक नहीं दिखायी दिया । महावली शतधन्वा को मारकर जब श्रीकृष्ण लौटे, तब बलरामजी ने कहा –‘मणि मुझ को दे दो ।’ भगवान् श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया – ‘मणि नहीं मिली ।’ कुछ दिन के बाद नरश्रेष्ठ अक्रूर अंधकवंशी वीरों के साथ द्वारका में लौट आये । भगवान् श्रीकृष्ण ने योग के द्वारा यह जान लिया कि मणि वास्वव में अक्रूर के ही पास हैं । तब उन्होंने सभा में बैठकर अक्रूर से कहा – ‘आर्य ! मणिश्रेष्ठ स्यमन्तक आपके हाथ लग गया हैं । उसे मुझे दे दीजिये । उसकी प्रतीक्षा में बहुत समय व्यतीत हो चूका है ।’
सम्पूर्ण यादवों की सभा में श्रीकृष्ण के यों कहनेपर महामति अक्रूरजी ने उसकी प्राप्ति हो जानेपर भगवान् श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने वह मणि फिर अक्रूर को ही लौटा दी । भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ से प्राप्त हुए मणिरत्न स्यमन्तकमणि को गले में पहनकर अक्रूर सूर्य की भांति प्रकाशित होने लगे ।
अध्याय १० जम्बुद्वीप तथा उसके विभिन्न वर्षोसहित भारतवर्ष का वर्णन
मुनियोंने कहा– अहो ! आपने समस्त भरतवंशी राजाओं का यह बहुत बड़ा इतिहास कह सुनाया । अब हम समस्त भूमंडल का वर्णन सुनना चाहते हैं । जितने समुद्र, द्वीप, वर्ष, पर्वत, वन, नदियाँ तथा पवित्र देवताओं के स्थान हैं, समस्त भूतल का मान जितना बड़ा हैं, जिसके आधारपर यह टिका हुआ है तथा जो इसका उपादान कारण हैं, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये ।
लोमहर्षणजी बोले– मुनिवरो ! सुनो, मैं इस भूमंडल का वृतांत संक्षेप में सुनाता हूँ । जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रोंच, शाक तथा पुष्कर – ये सात द्वीप हैं, जो क्रमश: – लवण, इक्षुरस, सूरा, घृत, दधि, दुग्ध तथा जलरूप सात समुद्रों से घिरे हुए है । इस सबके बीच में जम्बूद्वीप की स्थिति हैं । उसके मध्यभाग में सुवर्णमय मेरुपर्वत हैं, जिसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन हैं । वह पृथ्वी के भीतर सोलह हजार योजनतक चला गया है तथा उसके शिखर की चौड़ाई बत्तीस हजार योजन है । उसके मूल का विस्तार सोलह हजार योजन है । वह पर्वत पृथ्वीरूपी कमलकी कर्णिका के रूपमें स्थित है । उसके दक्षिण में हिमवान, हेमकूट और निषध पर्वत है तथा उत्तर में नील, श्वेत और श्रुंगवान गिरि हैं । मध्य के दो पर्वत (निषध और नील) एक-एक लाख योजन लंबे हैं । शेष पर्वत क्रमश: दस-दस हजार योजन छोटे होते गये है । उन सबकी ऊँचाई और चौड़ाई दो-दो हजार योजन है । मेरु के दक्षिण में भारतवर्ष है । उससे उत्तर किम्पूरुषवर्ष तथा उससे भी उत्तर हरिवर्ष हैं । इसीप्रकार मेरु के उत्तर भाग में सबके अंत में रम्यकवर्ष, उससे दक्षिण हिरण्यमयवर्ष तथा उससे भी दक्षिण उत्तरकुरु हैं । इन छहों वर्षों के बीच में इलावृतवर्ष हैं, जिसके मध्यभाग में सुवर्णमय ऊँचा मेरुपर्वत खड़ा है । यह वर्ष मेरु के चारों ओर नौ हजार योजनतक फैला हुआ है । उसमें मेरु से पूर्व मन्दराचल, दक्षिण में गन्धमादन, पश्विम में विपुल तथा उत्तर में सुपार्श्वपर्वत की स्थित है । इन चारों पर्वतोंपर क्रमश: कदम्ब, जम्बू, पीपल और वट – ये चार वृक्ष हैं, जो ग्यारह-ग्यारह सौ योजन विस्तार के हैं । वे वृक्ष उन पर्वतों की ध्वजा के रूप में सुशोभित हैं । वह जम्बू वृक्ष ही इस द्वीप के जम्बूद्वीप नाम पड़ने का कारण है । उसके फल विशाल गजराज के बराबर होते है । वे गंधमादनपर्वत पर सब ओर गिरकर फुट जाते हैं । उनके रस से वहाँजम्बू नाम की नदी बहती हैं । वहाँ के निवासी उसी नदी का जल पीते हैं । उसके पीने से लोगों के शरीर और मन स्वस्थ रहते है । उन्हें खेद नहीं होता । उनके शरीर में दुर्गन्ध नहीं होती तथा उनकी इन्द्रियाँ कभी क्षीण नहीं होती । जम्बू के रस को पाकर उस नदी के तट की मिटटी जाम्बुनद नामक सुवर्ण के रूप में परिणत हो जाती है, जो सिद्धों के आभूषण के काम आती है । मेरुसे पूर्व भद्राक्ष और पश्चिम में केतुमालवर्ष हैं । इन दोनों के बीच में इलावृतवर्ष है । मेरु के पूर्व में चैत्ररथ, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में वैभ्राज तथा उत्तर में नंदनवन है । इसी प्रकार भिन्न-भिन्न दिशाओं में अरुणोद, महाभद्र, असितोद तथा मानस – ये चार सरोवर हैं, जो सदा देवताओं के उपभोग में आते हैं । शान्तवान, चक्र कुञ्ज, कुररी, माल्यवान तथा वैकंक आदि पर्वत मेरु के पूर्वभाग में केसराचल के रूप में स्थित है । त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक तथा निषध आदि दक्षिणभाग के केसर पर्वत हैं । सिखिवास, वैदूर्य, कपिल, गन्धमादन और जारूधि आदि पश्चिमभाग के केसराचल है । शंखकूट, ऋषभ, हंस, नाग तथा कालंजर आदि अन्य पर्वत उत्तरभाग में केसराचल हैं । मेरुगिरी के ऊपर चौदह हजार योजन के विस्तारवाली एक विशाल पूरी है, जो ब्रह्माजी की सभा कहलाती है । उसमें सब ओर आठों दिशाओं और विदिशाओं में इंद्र आदि लोकपालों के विख्यात नगर हैं ।
भगवान् विष्णु के चरणों से निकलकर चन्द्रमंडल को आप्लावित करनेवाली गंगा ब्रह्मपुरी के चारों ओर गिरती है । वहाँ गिरकर वे चार भागों में बाँट जाती है । उससमय उनके क्रमश: – सीता, अलकनंदा, चक्षु और भद्रा नाम होते हैं । पूर्व ओर सीता एक पर्वत से दुसरे पर्वतपर होती हुई पूर्ववती भद्राश्ववर्ष के मार्ग से समुद्र में जा मिलती है । इसीप्रकार अलकनंदा दक्षिण-पथ से भारतवर्ष में आती और वहाँ सात भेदों में विभक्त होकर समुद्र में मिल जाती है । चक्षु की धारा पश्चिम के सम्पूर्ण पर्वतों को लाँघकर केतुमालवर्ष में आती और समुद्र में मिल जाती है । इसीप्रकार भद्रा उत्तरागिरि तथा उत्तरकुरु को लाँघकर उत्तरसमुद्र में मिलती है । माल्यवान और गंधमादनपर्वत नीलगिरि से लेकर निषधपर्वत तक फैले हुए है । उन दोनों के मध्यभाग में मेरु कर्णिका के आकर में स्थित हैं । भारत, केतुमाल, भद्राश्व तथा कुरु – ये द्वीप लोकरुपी कमल के पत्र हैं । जठर और देवकूट – ये दो मर्यादा-पर्वत हैं । ये नील से निषध पर्वततक उत्तर-दक्षिण फैले हुए है। ये दोनों मेरु के पश्चिम भाग में पूर्ववत स्थित है । त्रिश्रुंग और जारूधि – ये उत्तर- दिशा के वर्षपर्वत हैं, जो पूर्व से पश्चिम ओर समुद्र के भीतरतक चले गए है ।
समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का जो देश है, उसका नाम भारतवर्ष हैं । उसी में राजा भरत की सन्तान तथा प्रजा रहती है । उसका विस्तार नौ हजार योजन है । भारतवर्ष कर्मभूमि है । वहाँ इच्छानुसार साधन करनेवालों को स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्त होते हैं । भारत में महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, ऋक्ष, विन्ध्य और पारियात्र – ये सात कुलपर्वत हैं । यहाँ सकाम साधन से स्वर्ग प्राप्त होता हैं, निष्काम साधन से मोक्ष मिलता है तथा यहाँ के लोग पाप करनेपर तिर्यग्योनी और नरकों में भी पड़ते हैं । भारत के सिवा अन्यत्र मुनष्यों के लिये कर्मभूमि नहीं हैं । इस भारतवर्ष के नौ भेद हैं – इंद्रद्वीप, कसेतुमान, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्यद्वीप, गंधर्वद्वीप, वारुणद्वीप तथा समुद्र से घिरा हुआ यह नवाँ द्वीप भारत । यह नवम द्वीप दक्षिण से उत्तरतक एक हजार योजन लंबा है । इसके अंदर पूर्व-दिशा में किरात तथा पश्चिम-दिशा में यवन रहते हैं; मध्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र जाति के लोग रहते हैं, जिनकी क्रमश: – यज्ञ, युद्ध, वाणिज्य तथा सेवा – ये चार वृत्तियाँ हैं । शतद्रू (सतलज) और चंद्रभागा (चनाब) आदि नदियाँ हिमालय की शाखाओं से निकली हैं । वेदस्मृति आदि सरिताओं का उद्गम पारियात्रपर्वत हैं । नर्मदा और सुरमा आदि नदियाँ विन्ध्यपर्वत से प्रकट हुई है । तापी, पयोष्णी, निर्विन्ध्या तथा कावेरी आदि सरिताएँ ऋक्ष की शाखासे निकली हैं । इनका नाम श्रवण करने मात्र से ये सब पापों को हर लेती है । गोदावरी, भीमरथी तथा कृष्णवेणी आदि पापनाशिनी नदियाँ सह्यपर्वत की संताने हैं । कृतमाला, ताम्रपर्णी आदि का उद्गमस्थान मलयपर्वत हैं । त्रिसांध्य, ऋषिकुल्या और कुमारा आदि नदियाँ शुक्तिमान के शाखापर्वतों से निकली हैं । इन नदियों की शाखाभुत पांचाल, मध्यदेश, पूर्वदेश, कामरूप (आसाम), पौण्ड्र, कलिंग (उड़ीसा), मगध, दक्षिण के प्रदेश, अपरांत, सौराष्ट्र (काठियावाड़), शुद्रू, आभीर, अर्बुद (आबू), मरु (मारवाड़), मालवा, पारियात्र, सौवीर, सिंध, शाल्व, शाकल्य, मद्र, अम्बष्ठ तथा पारसीक आदि प्रदेश और वहाँ के निवासी रहते हैं । वे उपर्युक्त नदियों के जल पीते तथा समभाव से रहते हैं ।उक्त प्रदेशों के लोग बड़े सौभाग्यशाली एवं ह्रष्ट-पुष्ट हैं । उन सबका निवास भारतवर्ष में ही हैं ।
महामुने ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग – ये चार युग इस भारतवर्ष में ही होते है, अन्यत्र कहीं नहीं होते । यहीं पारलौकिक लाभ के लिए यति तपस्या करते, यज्ञकर्ता अग्नि में आहुति डालते तथा दाता आदरपूर्वक दान देते हैं ।
जम्बूद्वीप में मनुष्य सदा अनेक यज्ञोंद्वारा यज्ञमय यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु का यजन करते हैं । अन्य द्वीपों में दूसरे प्रकार की उपासनाएँ हैं ।
महामुने ! जम्बुद्वीप में भी भारतवर्ष सबसे श्रेष्ठ है । यहाँ लाखों जन्म धारण करने के बाद बहुत बड़े पुण्य के संचय से जीव कभी मनुष्य-जन्म पाता है । देवता यह गीत गाते हैं कि ‘जो जीव स्वर्ग और मोक्ष के हेतुभूत भारतवर्ष के भूभाग में बारबार मनुष्यरूप में उत्पन्न होते है और फलेच्छा से रहित कर्म का अनुष्ठान करके उन्हें परमात्मस्वरुप श्रीविष्णु को अर्पण कर देते हैं; वे धन्य हैं । जो इस कर्मभूमि में उत्पन्न हो सत्कर्मोद्वारा अपने अंत:करणों को शुद्ध करके भगवान् अनंत में लींन होते हैं , उनका जीवन धन्य हैं ।
अध्याय ११ प्लक्ष द्वीप आदि छह: द्वीपों का वर्णन भूमी का मान
लोमहर्षण जी कहते है– जिसप्रकार जम्बूद्वीप खारे पानी के समुन्द्र से घिरा हुआ है उसी प्रकार उस समुन्द्र को घेरकर प्लक्षद्वीप स्थित है जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन बताया गया है प्लक्षद्वीप समुन्द्र का विस्तार दोगुणा है ।
प्लक्ष द्वीप
प्लक्ष द्वीप का स्वामी राजा मेधातिथि के सात पुत्र हुय, उनमे ज्येष्ठ पुत्र का (1) शांतमय है उससे छोटे (2) शिशिर, (3) सुखोदय, (4) आनंद, (5) शिव, (6) क्षेमक तथा (7) ध्रुव है । यह सभी पल्क्षद्वीपके राजा हुए, इन्ही के नाम पर इस द्वीप में सात देश है । उनकी सीमा को बनाने वाली सात ही वर्ष पर्वत है । उनके नाम बतलाता हूँ, सुनो । (1) गोमेद, (2) चन्द्र, (3) नारद, (4) दुदुंभी, (5) सोमक, (6) सुमना तथा(7) शैल है । यहां के सुन्दर निवासी वैभ्राज नाम से विख्यात है । इस रमणीय पर्वतों पर देवताओं और गन्धर्वों सहित वहाँ के प्रजा निवास करती है । उन सब में पवित्र जनपद है, वीर पुरुष है । वहाँ किसी की मृत्यु नहीं होती । मानसिक चिंताएं भी नहीं सताती । वहाँ हर समय सुख मिलता है ।
प्लक्ष द्वीप में सात ही प्रमुख नदियां है जो समुन्द्र में जा मिलती है । जिसका नाम (1) अनुतप्ता, (2) शिखा, (3) विप्राशा, (4) त्रिदिवा, (5) क्रमु, (6) अमृता, तथा (7) सुकृता है इसके अलावा छोटी-छोटी नदिया और छोटे छोटे पहाड़ तो हजारों की संख्या में है । इन वर्षों में भारत वर्ष की तरह युग का प्रचलन नहीं है । यहाँ सदा त्रेता युग के सामान समय रहता है ।
प्लक्ष द्वीप से लेकर शाकद्वीप तक के लोग पांच हजार वर्षों तक निरोग जीवन जीते है । इन द्वीप पर चार वर्ण एवं चार धर्म है आर्यक, कुरु, विविंश तथा भावी – ये क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र है ।
इस द्वीप के मध्यभाग में प्लक्ष नामक बहुत विशाल वृक्ष है । जो जम्बू द्वीप में स्थित जम्बू वृक्ष के बराबर है । इसी के नाम पर इस द्वीप का नाम प्लक्ष द्वीप पड़ा है । प्लक्ष द्वीप में आर्यक आदि वर्णोंके लोग जगत्वष्टा भगवान श्रीहरि का चन्द्रमा के रूप में यजन करते है । प्लक्ष द्वीप अपने ही बराबर विस्तार वाले मंडलाकार इक्षुरस के समुन्द्र से घिरा है ।
प्लक्ष द्वीप में सात जिह्राओं वाले अग्निदेव विराजते है । यहां के प्रमुख नदियों के जल में स्नान करने से इनके रजोगुण और तमोगुण क्षीण होते रहते है । इनके शरीर से देवताओां की भाती थकावट, पसीना, आदि नहीं होता और संतान की उतपत्ति भी उन्ही के सामान होती है । क्रम से पांच द्वीपों में सभी मनुष्यों को जन्म से ही आयु, इन्द्रिये, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक बल, बुद्धि और पराक्रम सामान्य रूप से सिद्ध रहते है ।
शाल्मलद्वीप
अब शाल्मल द्वीपका वर्णन सुनों । शाल्मलद्वीप के स्वामी वीर वपुषमान है । उनके सात पुत्र है और इन्ही के नाम पर इस शाल्मलद्वीप में सात वर्ष है । जिसका नाम (1) श्र्वेत, (2) हरित, (3) जीमूत, (4) रोहित, (5) वैद्युत, (6) मानस, तथा (7) सुप्रभ है । इक्षुरस का जो समुन्द्र है, वह अपने दुगने विस्तार वाला शाल्मलद्वीप के द्वारा सब ओर से घिरा है ।
शाल्मलद्वीप में भी सात ही वर्षपर्वत है । इन पर्वतों के भीतर रत्नों की खाने है एवं नदियां भी सात ही है । पहले वर्षपर्वत के नाम (1) कुमुद, (2) उन्नत, (3) वलाहक, (4) द्रोण, (5) कनक, (6) महिष, तथा इन सबसे में पर्वतों से श्रेष्ठ (7) ककुधान नाम वाले पर्वत है । इनमे से द्रोण पर्वत पर कितनी ही महाऔषोधियां है और नदियों के नाम (1) श्रोणी, (2) तोया, (3) वितृष्णा, (4) चंद्रा, (5) शुक्रा, (6) विमोचनी, तथा (7) निवृति है ।
शाल्मलद्वीप में कपिल, अरुण, पीत तथा कृष्ण वर्ण के लोग रहते है । जो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र है । ये सब लोग यज्ञपारायण हो सबके आत्मा, अविनाशी एवं यज्ञमें स्थित भगवान विष्णु को वायुरूप में आराधना करते है । इस अत्यंत मनोहर द्वीप में देवताओं का सानिध्य बना रहता है ।
इस शाल्मलद्वीप पर शाल्मली नामक महान वृक्ष है । इस कारण से इस द्वीप का नाम शाल्मलद्वीप है । यह द्वीप अपने ही सामान विस्तार के सामान सुरा समुन्द्र से घिरा हुआ है । यह सुरा का समुन्द्र शाल्मलद्वीप से भी दुगुना विस्तारवाले कुशद्वीप द्वारा सभी ओर से आवृत (घिरा) है शाल्मली द्वीप में शाल्मली का वृक्ष है । यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान की स्तुति करनेवाले पक्षिराज भगगवान गरूर का निवास स्थान है ।
कुशद्वीप
कुशद्वीप में ज्योतिष्मान राजा जिनके भी सात पुत्र है और सात पुत्रो के नाम पर ही सात वर्ष है । जिसका नाम (1) उद्दिद, (2) वेनुमान, (3) सुरथ, (4) रन्धन, (5) धृति, (6) प्रभाकर और (7) कपिल इस द्वीप पर मनुष्य के साथ-साथ दैत्य, दानव, देवता, गन्धर्वा, यक्ष और किन्नर आदि भी निवास करते है ।
यहां के भी मनुष्य के चारवर्ण दमी, शुष्मी, स्नेह तथा मन्देह है जो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिये, वैश्य एवं शूद्र है ये सभी शास्त्रोक कर्मों का ठिकठीक पालन करते है और भगवान श्री हरी को जनार्दन के रूप में पूजा करते है ।
इस द्वीप पर भी सात वर्ष पर्वत एवं सात ही प्रमुख नदियां है । जिसका नाम (1) विद्रुम, (2) हेमशैल, (3) द्युतिमान, (4) पुष्टिमान, (5) कुशेशय, (6) हरी एवं (7) मंदराचल पर्वत तथा (1) धूतपापा, (2) शिवा, (3) पवित्रा, (4) सम्मति, (5) विधुत, (6) अम्भस्, तथा (7) महि नदियां है । इनके अतिरिक्त बहुत से छोटी छोटी नदी और छोटे छोटे छोटे पहाड़ भी है । इस द्वीप में कुशों का बहुतबड़ा वन है । इसी के कारण इस द्वीप का नाम कुशद्वीप है । यह द्वीप अपने ही विस्तार वाले घी के समुन्द्र से घिरा है और यह घी का समुन्द्र क्रोच्च्द्वीप से घिरा है । इस द्वीप का विस्तार क्रोच्च द्वीप से दुगुना है ।
क्रोच्च द्वीप
क्रोच्च द्वीप द्वीप के राजा द्युतिमान है इनके भी सात पुत्र है । इन पुत्रों के नाम पर भी यहां भी सात वर्ष है । जिसका नाम (1) कुशग, (2) मन्दग, (3) उष्ण, (4) पीवर, (5) अन्धकारक, (6) मुनि और दुन्दभि है । इस द्वीप पर भी सात बड़े ही मनोरम पर्वत है । जिनपर देवता और गंधर्व निवास करते है ।
इन पर्वतो के नाम (1) क्रोच्च, (2) वामन, (3) अन्धकारक, (4) देवव्रत, (5) धर्म, (6) पुण्डरीकवन तथा (7) दुदुंभी है । ये द्वीप परस्पर उतरोतर दुगुने विस्तारवाले है, उन द्वीपों में जो वर्ष पर्वत है । वे भी द्वीपों के सामान ही एक दूसरे से दुगुने विस्तार वाला है । इन सभी पर्वतों में जनसमुदाय वसे हुए है । यहाँ देवताओं सहित समस्त प्रजा वेखट निवास करती है ।
यहां भी चारवर्ण है, जिसका नाम पुष्कल, पुष्कर, धन्य, तथा ख्यात है । जो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिये, वैश्य एवं शूद्र है । ये सभी यज्ञ के समीप ध्यानयोग के द्वारा रुद्रस्वरूप भगवान जनार्दन का यजन करते है । यहां छोटी बड़ी सैकड़ों नदियां है । जिसमे में से सात प्रधान नदियां है । जिसका नाम (1) गौरी, (2) कुमुद्वती, (3) संध्या, (4) रात्रि, (5) मनोजमा, (6) ख्याती तथा (7) पुण्डरीका है ।
क्रोच्च्द्वीप अपने ही सामान आकार वाले दधिमण्डोद नामक समुन्द्र से घिरा है । इस द्वीप को कुमार कार्तिकेय द्वारा गुस्से में तोड़ दिया गया था । फिर वायु और समुन्द्र के द्वारा संगठित कर दिया गया । इस कारण इस द्वीप का नाम क्रोच्द्वीप है । यह दधिमण्डोद नामक समुन्द्र भी शाकद्वीप से आवृत है । शाकद्वीप का विस्तार क्रोच्च्द्वीप से दुगुना है ।
क्रोच्च द्वीप को पूर्वकाल में श्री स्वामी कार्तिकेय जी के शस्त्रप्रहार से इसका कटिप्रदेश और लता निकुचादि क्षत-विक्षत हो गए थे । किन्तु क्षीर समुन्द्र से सींचा जाने पर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर निर्भय हो गया है । यहां के अधिपति जल से भरी हुई अंजली के द्वारा आपोदेवता की पूजा करते है ।
शाकद्वीप
शाकद्वीप के राजा भव्य है इसके भी सात पुत्र है और सात पुत्रों के नाम पर ही यहां भी सात वर्ष है । इस वर्ष का नाम भी उन्ही पुत्रों पर है । जिसका नाम (1) जलद, (2) कुमार, (3) सुकुमार, (4) मनीरक, (5) कुसुमोद, (6) गोदाकी तथा (7) महाद्रुम है । यहां भी सात कुल पर्वत है, जो इस वाश को विभाग करता है । जिसका नाम (1) उदयगिरि, (2) जलधार, (3) रैवतक, (4) श्याम, (5) अम्भोगीर, (6) आस्तिकेय, तथा (7) केसरी है ।
यहाँ शाक का बहुत बड़ा वृक्ष है । जहां सिद्ध और गंधर्व निवास करते है उसके पत्तों को छूकर बहनेवाली वायु का स्पर्श होने से बड़ा आनंद मिलता है । यहाँ भी चार प्रकार के जपद है । इस द्वीप में महात्मा पुरुष निर्भय एवं निरोग होकर निवास करता है । यहां भी सात प्रमुख नदियां है, जिसका नाम (1) सुकुमारी, (2) कुमारी, (3) नलिनी, (4) रेणुका, (5) इक्षु, (6) धेनुका, तथा (7) गभस्ति है । इसके अलावा बहुत से छोटी छोटी नदियां एवं पर्वत है ।
यहां भी चारवर्ण है, जिसका नाम मग, मागध, मानस, तथा मन्दग है । जो क्रम से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र है । ये सभी शास्त्रोक सत्यकर्मों के द्वारा सूर्यरूपधारी भगवान विष्णु का यजन करते है । शाकद्वीप अपने ही सामान विस्तार वाले क्षीरसागर द्वारा सभी और से घिरा है ।
शाकद्वीप में शाक का बहुत बड़ा वृक्ष है । उसकी अत्यंत मनोहर सुगंध से सारा द्वीप महकता रहता है ।
पुष्करद्वीप
क्षीरसागर को पुष्कर द्वीप ने सभी और से घेर रखा है । इसका विस्तार शाकद्वीप से दुगुना है ।
पुष्कर के महाराज स्रवन के दो पुत्र है । जिसका नाम (1) महावीर तथा (2) धातिक है । इन्ही के नाम पर इस द्वीप को दो भाग किये गए है । इस द्वीप पर एक ही वर्ष पर्वत है जो मनस्तोत्तर के नाम से विख्यात है । मानस्तोतर् पर्वत पुष्करद्वीप के मध्यभाग में वलयाकार आकार में स्थित है । उसकी उचाई पचास हजार योजन है और चौड़ाई वही उतनी है । यह पर्वत इस द्वीप के चारो ओर मंडलाकार के रूप में स्थित है । जो पुष्कर द्वीप को बीच से चीरता हुआ खड़ा है । उसी से विभाग होकर इस द्वीप के दो खंड हो गए है । प्रत्येक खंड गोलाकार है और इन दोने खण्डों के बीच वह महापर्वत खड़ा है । वहाँ के मनुष्य दस हजार वर्षों तक जीवित रहते है । वे सब लोग रोग-शोक से वर्ज्जित है तथा रागद्वेष से शून्य होते है । उनमे ऊंचनीच का कोई भेद नहीं है । वहाँ ना कोई वाद्य है ना वाधिक ।
महावत वर्ष मनसोत्तर पर्वत के बाहर है और धातिक वर्ष मनसोत्तर पर्वत के भीतर, उसमे देवता दैत्य आदि सभी निवास करते है । पुष्कर दीप में सत्य और असत्य नहीं है । इन दोनों खण्डों में ना कोई नदी है, ना कोई दूसरा पर्वत । वहा के मनुष्य देवताओं के सामान रूप और वेशवाले होते है । यहां पर ना कोई वर्ण है ना कोई आश्रम । यहां पर किसी भी प्रकार की कोई क्रिया नहीं होती । इस द्वीप पर एक विशाल वरगद का वृक्ष है । जो ब्रह्माजी का उत्तम स्थान माना गया है । जिसके निचे देवता और असुरों से पूजित भगवान ब्रह्मा निवास करतेहै । पुष्कतद्वीप अपने ही विशाल के विस्तार के अनुसार मीठे जल से घिरा है । इस प्रकार सातों द्वीप सात समुंद्रों से आवृत है ।
एकद्वीप और समुन्द्र का विस्तार समान माना गया है । उसकी अपेक्षा दूसरे समुन्द्र और द्वीप दुगुने बड़े है । सब समुंद्रों में सदा सामान जल रहता है । उसमे कभी कम या ज्यादा नहीं होती है । जैसे वर्तन में रखा हुआ जल आग का संयोग होने पर उफनने लगता है, उसी प्रकार चन्द्रमा की वृद्धि होने पर समुन्द्र के जल में ज्वार-भाटा आता है । उसका जल बढ़ता है और फिर धट जाता है । इसके वावजूद भी इसमे कम या ज्यादा नहीं होता ।
शुक्ल और कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा के उदय और अस्त होने पर समुन्द्र के जल का उत्थान पंद्रह सौ अंगुल ऊंचेतक देखा गया है । उत्थान के बाद पुनः उतार में आ जाता है ।
पुष्कर द्वीप से आगे की भूमि स्वर्णमय है । जिसका विस्तार पुष्करद्वीप से दुगुना है वहाँ किसी भी जीव जंतु का निवास नहीं है । उसके आगे लोकालोक पर्वत है । जो दस हजार योजन तक फैला हुआ है । लोकालोक पर्वत के बाद अन्धकार है । जो उस पर्वत को सभी ओर से आच्छंदित करके स्थित है । अंधकार भी अण्डकटाह के द्वारा सभी सब ओर से घिरा है ।
इस सम्पूर्ण पृथ्वी का विस्तार पचास करोड़ योजन है । यह भूमि सबका धारण-पोषण करने वाली है । इसमे सब भूतों की अपेक्षा अधिक गुण है, यह सम्पूर्ण जगत के आधार भुता है ।
अध्याय १२ पाताल और नरकों का वर्णन तथा हरिनाम-कीर्तन की महिमा
लोमहर्षणजी कहते हैं– मुनिवरो ! इसप्रकार यह पृथ्वी का विस्तार बतलाया गया । इसकी ऊँचाई भी सत्तर हजार योजन हैं । पृथ्वी के भीतर सात तल हैं, जिनमें से प्रत्येक की ऊँचाई दस-दस हजार योजन की है । उन सातों तलों के नाम ये है – अतल, वितल, नितल, सुतल, तलातल, रसातल तथा पाताल । इनकी भूमि क्रमश: काली, सफेद, लाल, पीली,कंकरीली, पथरीली तथा सुवर्णमयी है । सातों ही तल बड़े-बड़े महलों से सुशोभित हैं । उनमें दानव और देत्यों की सौकड़ों जातियाँ निवास करती हैं । विशालकाय नागों के कुटुंब भी उनके भीतर रहते हैं । एक समय पाताल से लाँटे हुए देवर्षि नारदजी ने स्वर्गलोक की सभा में कहा था – ‘पाताललोक स्वर्गलोक से भी रमणीय हैं । वहाँ सुंदर प्रभायुक्त चमकीली मणियाँ हैं, जो परम आनंद प्रदान करनेवाली हैं । वे नागों के अलंकारों एवं आभूषणों के काम आती हैं । भला, पाताल की तुलना किससे हो सकती हैं । वहाँ सूर्य की किरणें दिन में केवल प्रकाश फैलाती हैं, धुप नहीं । इसीप्रकार चंद्रमा की किरणें रात में केवल उजाला करती हैं, सदी नहीं फैलाती । वहाँ सर्प और दैत्य आदि भक्ष्य, भोज्य तथा सुरापान के मद से उन्मत्त होकर यह नहीं जान पाते कि कब कितना समय बीता हैं । वहाँ वन, नदियाँ, रमणीय सरोवर, कमलवन तथा अन्य मनोहर वस्तुएँ हैं , जो बड़े सौभाग्य से भोगने को मिलती हैं । पाताल-निवासी दानव, दैत्य तथा सर्पगण सदा ही उन सबका उपभोग करते हैं । सब पातालों के नीचे भगवान् विष्णु का तमोमय विग्रह है, जिसे शेषनाग कहते हैं । दैत्य और दानव उनके गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं । सिद्ध पुरुष ऊन्हे अनंत कहते हैं, देवता और देवर्षि उनकी पूजा करते हैं । वे सहस्त्रो मस्तकों से सुशोभित हैं । स्वस्तिकाकार निर्मल आभूषण उनकी शोभा बढाते हैं । वे अपने फणों की सहस्त्रो मणियों से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हैं तथा संसार का कल्याण करने के लिये सम्पूर्ण असुरों की शक्ति हर लेते हैं । उनके कानों में एक ही कुंडल शोभा पाता है । मस्तकपर किरीट और गले में मणियों की माला धारण किये भगवान अनंत अग्नि की ज्वाला से प्रकाशमान श्वेत पर्वत की भान्ति शोभा पाते हैं । वे नील वस्त्र धारण करते, मदसे मत्त रहते और श्वेत हार से ऐसे सुशोभित होते हैं, मानो आकाशगंगा के प्रपात से युक्त उत्तम कैलास पर्वत शोभा पा रहा हो । उनके एक हाथ का अग्रभाग हलपर टिका रहता हैं और दूसरे हाथे में वे उत्तम मुसल धारण किये हुए है । प्रलयकाल में विषाग्नि की ज्वालाओ से युक्त संकर्षणात्मक रूद्र उन्ही के मुखों से निकलकर तीनों लोकों का संहार करते हैं । सम्पूर्ण देवताओं से पूजित वे भगवान शेष पाताल के मूलभाग में स्थित हो अपने मस्तकपर समस्त भूमंडल को धारण किये रहते हैं । उनके वीर्य, प्रभाव, स्वरुप तथा रूप का वर्णन देवता भी नहीं कर सकते । जिनके मस्तकपर रखी हुई समूची पृथ्वी उनके फणों की मणियों के प्रकाश से लाल रंग की फूलमाला-सी दिखायी देती हैं, उनके पराक्रम का वर्णन कौन कर सकता हैं ? भगवान् अनंत जब जँभाई लेते हैं, उससमय पर्वत, समुद्र और वनोंसहित यह सारी पृथ्वी डोलने लगती हैं । गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, किन्नर और सर्प – कोई भी उनके गुणों का अंत नहीं पाते; इसीलिये उन अविनाशी प्रभु को अनंत कहते हैं । जिनके ऊपर नागवधुओं के हाथोंसे चढाया हुआ हरिचन्दन बारंबार श्वास-वायु के लगने से सम्पूर्ण दिशाओं को सुवासित करता रहता हैं, प्राचीन ऋषि गर्ग ने जिनकी आराधना करके सम्पूर्ण ज्योतिष-शास्त्र का यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया था, उन्हीं नाग्श्रेष्ठ भगवान् शेष ने इस पृथ्वी को धारण कर रखा है और वे ही देवता, असुर तथा मनुष्यों के सहित समस्त लोकों का भरण-पोषण करते हैं ।’
ब्राह्मणों ! पाताल के अनन्तर रौरव आदि नरक हैं, जिनमें पापियों को गिराया जाता हैं । उन नरकों के नाम बतलाता हूँ सुनो । रौरव, शौकर, रोध, तान, विशसन, महाज्वाल, तप्तकुम्भ, महालोभ, विमोहन, रुधिरांध, वसातप्त, कृमिश, कृमिभोजन, असिपत्रवन, लालाभक्ष्य, पूयवह, वह्रीज्वाल, अध:शिरा, संदंश, कृष्णसूत्र, तम, श्वभोजन, अप्रतिष्ठ तथा अवीचि इत्यादि बहुत–से नरक हैं, जो अत्यंत भयंकर हैं । ये सब यम के राज्य में हैं । शस्त्र, अग्नि और विष के द्वारा यातना देने के कारण वे सभी नरक अत्यंत भयंकर हैं । जो मनुष्य पापकर्मो में लगे रहते हैं, वे ही उन नरकों में गिरते हैं ।
- जो झूठी गवाही देता, पक्षपातपूर्वक बोलता तथा असत्य भाषण करता हैं, वह मनुष्य रौरव नरक में पड़ता हैं ।
- जो गर्भ के बच्चे की हत्या कराता, गुरु के प्राण लेता, गाय को मारता तथा दूसरों के श्वास रोककर मार डालता हैं, वे सभी घोर रौरव नरक में गिरते हैं ।
- शराबी, ब्रह्महत्यारा, सुवर्ण की चोरी करनेवाला तथा इन पापियों से संसर्ग रखनेवाला मानव शौकर नरक में जाता है ।
- जो क्षत्रिय और वैश्य की हत्या करता, गुरुपत्नी से संसर्ग रखता, बहन के साथ व्यभिचार करता तथा राजदूत के प्राण लेता हैं, वह तप्तकुंभ नामक नरक में पड़ता हैं ।
- जो शराब तह सिंह को बेचता और अपने भक्त का त्याग करता हैं, वह तप्तलोह नामक नरक में गिरता हैं ।
- पुत्री और पुत्र वधु के साथ समागम करनेवाला पापी महाज्वाल नामक नरक में गिराया जाता हैं ।
- जो नीच अपने गुरुजनों का अपमान करता, उन्हें गालियाँ देता, वेदों को दूषित करता, उन्हें बेचता तथा अगम्या स्रियों के साथ समागम करता हैं, वे सभी शबल नामक नरक में गिरता है ।
- चोर तथा मर्यादा में कलंक लगानेवाला मनुष्य विमोह नामक नरक में गिरता हैं ।
- देवताओं, द्विजों तथा पितरों से द्वेष रखनेवाला एवं रत्न को दूषित करनेवाला मनुष्य कृमिभक्ष्य नामक नरक में पड़ता हैं ।
- जो दूषित यज्ञ करता और देवताओं, पितरों एवं अतिथियों को दिये बिना ही स्वयं खा लेता हैं, वह लालाभक्ष्य नामक भयंकर नरक में जाता हैं ।
- बाण बनानेवाला बेधक नामके नरक में गिरता हैं ।
- जो कर्णी नामक बाण तथा खड्ग आदि आयुधों का निर्माण करता हैं । वह अत्यंत भयंकर विशसन नामक नरक में गिराया जाता हैं ।
- जो द्विज नीच प्रतिग्रह स्वीकार करता हैं । यज्ञ के अनधिकारियों से यज्ञ करवाता हैं, वह अधोमुख नामक नरक में जाता हैं ।
- जो अकेला ही मिठाई खाता हैं, वह मनुष्य कृमिपूय नामक नरक में जाता हैं । लाख, मांस, रस, तिल और नमक बेचनेवाला ब्राह्मण भी उसी नरक में पड़ता हैं ।
- बिल्ली, मुर्गी, बकरा, कुत्ता, सूअर तथा चिड़िया पालनेवाला भी कृमिपूय में ही गिरता हैं ।
- जो ब्राह्मण रंगमंचपर नाचकर जीविका चलाता, नाव चलाता, जारज मनुष्य का अन्न खाता, दूसरों को जहर देता, चुगली खाता, भैस से जीविका चलाता, पर्व के दिन स्त्रीसम्भोग करता, दूसरों के घर में आग लगाता, मित्रों की हत्या करता, शकुन बताकर पैसे लेता, गाँव भर की पुरोहिती करता तथा सोमरस बेचता हैं, वह रुधिरांध नामक नरक में गिरता हैं ।
- भाई को मारनेवाला और समूचे गाँव को नष्ट करनेवाला मनुष्य वैतरणी नदी में जाता हैं ।
- जो वीर्य पान करते, मर्यादा तोड़ते, अपवित्र रहते और बाजीगरी से जीविका चलाते हैं, वे कृच्छ नामक नरक में गिरते हैं ।
- जो अकारण ही जंगल कटवाता हैं, वहा असिपत्रवन नामक नरक में जाता हैं ।
- भेड़ के व्यापार से जीविका चलानेवाले और मृगों का वध करनेवाले वहिज्वाल नामक नरक में गिराये जाते हैं ।
- जो व्रत का लोप करनेवाले तथा अपने आश्रम में भ्रष्ट हैं, वे दोनों ही संदंश नरक की यातना में पड़ते हैं ।
- जो मनुष्य ब्रह्मचारी होकर दिन में सोते और स्वप्न में वीर्यपात करते हैं तथा जो लोग अपने पुत्रोंद्वारा पढाये जाते हैं, वे श्वभोजन नामक नरक में गिरते हैं । ये तथा और भी सहस्त्रो नरक हैं, जिनमे पापी मनुष्य यातना में डालकर पीड़ित किये जाते हैं । ऊपर जो पाप गिनाये गये हैं, उनके अतिरिक्त दूसरे भी सहस्त्रो प्रकार के पाप हैं, जिनका फल नरक में पड़े हुए पापी जीव भोगते हैं ।
- जो लोग मन, वाणी और क्रियाद्वारा अपने वर्ण और आश्रम के विपरीत आचरण करते हैं, वे नरकों में पड़ते हैं ।
नरक में पड़े हुए जीव नीचे मुँह करके लटका दिये जाते हैं और उसी अवस्था में वे स्वर्ग में सुख भोगनेवाले देवताओं को देखते हैं । इसीप्रकार देवता भी उक्त अवस्था में पड़े हुए नरक के जीवों को देखते रहते हैं । ऐसा होने से उनकी धर्म के प्रति श्रद्धा और पाप के प्रति विराक्ति बढती हैं । स्थावर, कीट, जलचर पक्षी, पशु, मनुष्य, धर्मात्मा, देवता तथा मोक्षप्राप्त महात्मा – ये क्रमश: एकसे दूसरे सहस्त्र गुने श्रेष्ठ हैं । महर्षियों ने पापों के अनुरूप प्रायश्चित भी बतलाये हैं । स्वायम्भुव मनु आदि स्मृतिकारों ने बड़े पाप के लिये बड़े और छोटे पाप के लिये छोटे प्रायश्चित्त बतलाये हैं । वे सब तपस्यारूप हैं ।
तपस्यारूप जो समस्त प्रायश्चित हैं, उन सबमें भगवान् श्रीकृष्ण का निरंतर स्मरण श्रेष्ठ हैं । पाप कर लेनेपर जिस पुरुष को उसके लिये पश्चाताप होता हैं, उसके लिये एक बार भगवान् श्रीहरि का स्मरण कर लेना ही सर्वोत्तम प्रायश्चित हैं । प्रात:काल, रात्रि, संध्या तथा मध्यान्ह आदि में भगवान् नारायण का स्मरण करनेवाला मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता हैं । भगवान् विष्णु के स्मरण और कीर्तन से समस्त क्लेशराशि के क्षीण हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता हैं । विप्रवरो ! जप, होम और अर्चन आदि के समय जिसका मन भगवान् वासुदेव में लगा होता है, वह तो मोक्ष का अधिकारी हैं । उसके लिये फलरूप से इंद्र आदि के पद की प्राप्ति विघ्नमात्र है । कहाँ तो जहाँ से पुन: लौटना पड़ता है, ऐसे स्वर्गलोक में जाना और कहाँ मोक्ष में सर्वोत्तम बीज वासुदेव मन्त्र का जप ! इनमें कोई तुलना ही नहीं हैं ।
वासुदेव मन्त्र
प्रायश्चित्तान्यशेषाणि तप:कर्मात्मकानि वै । यानि तेषाम शेषाणां कृष्णानुस्मरणं परम ।।
कृते पापेऽनुतापो यै यस्य पुंस: प्रजायते । प्रायश्चित्तं तु तस्यैकं हरिसंस्मरणं परम ।।
प्रातर्निशि तथा संध्याम्ध्यान्हादिषु संस्मरन । नारायणमवाप्रोति सद्य: पापक्षयं नर: ।।
विष्णुसंस्मरणत क्षीणसमस्तक्लेशसंचय: । मुक्तिं प्रयाति भो विप्रा विष्णोस्तस्यानुकीर्तनात ।।
वासुदेवे मनो यस्य जपहोमार्चनादिषु । तस्यान्तरायो विप्रेंद्रा देवेन्द्रत्वादिकं फलम ।।
क्य नाकपृष्टगमनं पुनरावृत्तिलक्षणम । क्य जपो वासुदेवेति मुक्तिबीजमनुप्तमम ।।
(२२/३७-४२)
इसलिये जो पुरुष रात-दिन भगवान् विष्णु का स्मरण करता हैं,वह अपने समस्त पातकों का नाश हो जाने के कारण कभी नरक में नहीं पड़ता । एक ही वस्तु समय-समयपर दुःख-सुख, ईर्ष्या और क्रोध का कारण बनती है । अत: केवल दुःखरूप वस्तु कहाँ से आयी ? वही वस्तु पहले प्रसन्नता का कारण होकर फिर दुःख देनेवाली बन जाती है । फिर वही क्रोध और प्रसन्नता का भी हेतु बनती हैं । इसलिये कोई भी वस्तु न तो दुःखरूप हैं न सुखरूप । यह सुख और दुःख अदि तो मनका विकारमात्र हैं । ज्ञान ही परब्रह्म का स्वरुप है और अज्ञान बंधन का कारण हैं । यह सम्पूर्ण विश्व ज्ञानस्वरूप है । ज्ञान से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं । ब्राह्मणों ! विद्या और अविद्या को भी ज्ञानरूप ही समझो । इसप्रकार मैंने तुमसे समस्त भूमंडल, पाताल, नरक, समुद्र, पर्वत, द्वीप, वर्ष तथा नदियों का संक्षेप से वर्णन किया । अब और क्या सुनना चाहते हो ?
अध्याय १३ ग्रहों तथा भुव: आदि लोकों की स्थिति, श्रीविष्णुशक्ति का प्रभाव तथा शिशुमारचक्र का वर्णन
मुनियों ने कहा– महाभाग लोमहर्षणजी ! अब हम भुव: आदि लोकों का, ग्रहों की स्थिति का तथा उनके परिमाण का यथार्थ वर्णन सुनना चाहते हैं । आप कृपापूर्वक बतलायें ।
लोमहर्षणजी बोले– सूर्य और चन्द्रमा की किरणों से समुद्र, नदी और पर्वतोंसहित जितने भाग में प्रकाश फैलता हैं, उतने भाग को पृथ्वी कहते हैं । पृथ्वी विस्तृत होने के साथ ही गोलाकार हैं । पृथ्वी से एक लाख योजन ऊपर सूर्यमंडल की स्थिति हैं और सूर्यमंडल से लाख योजन दूर चन्द्र्मंद्ल स्थित है । चंद्रमंडल से लाख योजन ऊपर सम्पूर्ण नक्षत्रमंडल प्रकाशित होता है । नक्षत्रमंडल से दो लाख योजन ऊँचे बुध की स्थिति है । बुध से दो लाख योजन शुक्र स्थित हैं । शुक्र से दो लाख योजन मंगल, तथा मंगल से दो लाख योजन ऊँचे देवगुरु बृहस्पति स्थित हैं । बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर हैं और उनसे एक लाख योजन ऊँचे सप्तर्षिमंडल स्थित हैं । सप्तर्षियों से लाख योजन ऊपर ध्रुव हैं, जो समस्त ज्योतिर्मडल के केंद्र हैं । ध्रुव से ऊपर महर्लोक हैं, जहाँ एक कल्पतक जीवित रहनेवाले महात्मा पुरुष निवास करते हैं । उसका विस्तार एक करोड़ योजन हैं । उसके ऊपर जनलोक हैं, जिसका विस्तार दो करोड़ योजन है । वहीँ शुद्ध अंत:करणवाले ब्रह्मकुमार सनंदन आदि महात्मा वास करते हैं । जनलोक से ऊपर उससे चौगुने विस्तारवाला तपोलोक स्थित हैं, जहाँ शरीररहित वैराज आदि देवता रहते हैं । तपोलोक से ऊपर सत्यलोक प्रकाशित होता है, जो उससे छ: गुना बड़ा हैं । वहाँ सिद्ध आदि एवं मुनिजन निवास करते है । वह पुनर्जन्म एवं पुनर्मृत्यु का निवारण करनेवाला लोक है । जहाँतक पैरों से जाने योग्य पार्थिव वस्तु हैं, उसे भूलोक कहा गया हैं; उसका विस्तार पहले बताया जा चूका है । भूमि और सूर्य के बीच में जो सिद्ध एवं मुनियों से सेवित प्रदेश हैं, वह भुवर्लोक कहा गया हैं । यही दूसरा लोक हैं । ध्रुव और सूर्य के बीच में जो चौदह लाख योजन विस्तृत स्थान हैं, उसे लोक-स्थिति का विचार करनेवाले पुरुषों ने स्वर्गलोक बतलाया हैं । भू:, भुव: और स्व: – इन्हीं तीनों को त्रैलोक्य कहते हैं । विद्वान् ब्राह्मण इन तीनों लोकों को कृतक (नाशवान) कहते हैं । इसीप्रकार ऊपर के जो जन, तप और सत्य नामक लोक हैं, वे तीनों अकृतक (अविनाशी) कहलाते हैं । कृतक और अकृतक के बीच में महर्लोक हैं, जो कृतकाकृतक कहलाता हैं । यह कल्पांत में जनशून्य हो जाता हैं, किन्तु नष्ट नहीं होता । ब्राम्हणों ! इसप्रकार ये सात महालोक बतलाये गये हैं । पाताल भी सात ही हैं । यही समूचे ब्रम्हाण्ड का विस्तार हैं ।
यह ब्रम्हाण्ड ऊपर, नीचे तथा किनारे की ओर से अंडकटाह द्वारा घिरा हुआ है – ठीक उसी तरह, जैसे कैथ का बीज सब ओर छिलके से ढका रहता हैं । उसके बाद समूचे अंडकटाह से दसगुने विस्तारवाले जल के आवरणद्वारा यह ब्रम्हांड आवृत हैं । इसीप्रकार जल का आवरण भी बाहर की ओर से अग्निमय आवरणद्वारा घिरा हुआ है । अग्नि वायु से, वायु आकाश से और आकाश महत्तत्त्व से आवृत है । इसप्रकार ये सातों आवरण उत्तरोत्तर दसगुने बड़े हैं । महत्तत्त्वको आवृत करके प्रधान – प्रकुति स्थित हैं । प्रधान अनंत हैं । उसका अंत नहीं हैं और न उसके माप की कोई संख्या ही है । वह अनंत एवं असंख्यात बताया गया है । वही सम्पूर्ण जगत का उपादान हैं । उसे ही परा प्रकति कहा गया हैं । उसके भीतर ऐसे-ऐसे कोटि-कोटि ब्रम्हाण्ड स्थित हैं । जैसे लकड़ी में आग और तिल में तेल व्याप्त हैं । ये प्रकुति और पुरुष एक-दुसरे के आश्रित हो भगवान् विष्णु की शक्ति से टिके हुए है । श्रीविष्णु की शक्ति ही प्रकृति और पुरुष के पृथक एव, संयुक्त होने में कारण है । विप्रवरो ! वही सृष्टि के समय प्रकृति में श्वोभ का कारण होती है । जैसे वायु जल के कणों में रहनेवाली शीतलता को धारण करती हैं, उसी सम्पूर्ण जगत को धारण करती हैं । जैसे प्रथम बीज से मूल, तने और शाखा आदिसहित विशाल वृक्ष उत्पन्न होता हैं, फिर उन बीजों से भी पहले ही-जैसे वृक्ष उत्पन्न होते रहते हैं, उसीप्रकार पहले अव्याकृत प्रकृति से महत्तत्त्व आदि उप्तन्न होते हैं, फिर उनसे देवता आदि प्रकट होते हैं, देवताओं से उनके पुत्र और उन पुत्रों के भी पुत्र होते रहते हैं । जैसे एक वृक्ष से दूसरा वृक्ष उत्पन्न होनेपर पहले वृक्ष की कोई हानि नहीं होती, उसीप्रकार नूतन भूतों की सृष्टि से भूतो का ह्रास नहीं होता । जैसे समीपव्रती होनेमात्र से आकाश और काल आदि भी वृक्ष के कारण हैं, उसीप्रकार भगवान् श्रीहरि स्वयं विकृत न होते हुए ही सम्पूर्ण विश्वके कारण होते हैं । जैसे धान के बीज में जड़, नाल, पत्ते, अंकुर, काण्ड, कोप, फुल, दूध, चावल, भूसी और कन – सभी रहते हैं तथा अंकुरित होने के योग्य कारण सामग्री पाकर प्रकट हो जाते हैं, उसीप्रकार भिन्न-भिन्न कर्मों में देव आदि सभी शरीर स्थित रहते हैं तथा कारणभुत श्रीविष्णुशक्ति का सहारा पाकर प्रकट हो जाते हैं ।
वे भगवान् विष्णु परब्रम्ह हैं; उन्हीं से यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है, वे ही जगत्स्वरूप है तथा उन्हीं में इस जगत का लय होगा । वे परब्रम्ह और पर धामस्वरूप हैं, सत और असत भी वे ही हैं, वे ही परम पद है । यह सम्पूर्ण चराचर जगत उनसे भिन्न नहीं है । वे ही अव्याकृत मूल प्रकृति और व्याकृत जगत्स्वरुप हैं । यह सब कुछ उन्हों में लय होता और उन्हों के आधारपर स्थित रहता हैं । वे ही क्रियाओं के कर्ता (यजमान) हैं, उन्हींका यज्ञोंद्वारा यजन किया जाता हैं, यज्ञ और उसके फल भी वे ही हैं । युग आदि सब कुछ उन्हींसे प्रवृत्त होता हैं । उन श्रीहरि से भिन्न कुछ भी नहीं हैं ।
स च विष्णु: परं ब्रम्ह यत: सर्वमिदं जगत । जगच्च यो यत्र चेदं यस्मिन विलयमेष्यति ।।
तद ब्रह्म परमं श्राम सदसत्परमं पदम् । यस्य सर्वमभेदेन जगदेतच्चराचरम ।।
स एव मूतप्रकृतिर्व्यक्तरूपी जगच्च स: । तस्मित्रेव लयं सर्वं याति तत्र च तिष्टति ।।
कर्ता क्रियाणां स च इज्यते क्रतु: स एव तत्कर्मफलं य तस्य वत । युगादि यस्माच्च भवेदशेपते होर्प किंचिद व्यतिरिक्तमस्ति तत ।।
(२३/४१–४४)
लोमहर्षणजी कहते हैं –आकाश में शिशुमार (गोह) के आकर में जो भगवान् का तारामय स्वरुप हैं, उसके पुच्छभाग में ध्रुव की स्थिति है । ध्रुव स्वयं अपनी परिधिमें भ्रमण करते हुए सूर्य, चन्द्र आदि अन्य ग्रहों को भी घुमाते हैं । ध्रुव के घुमनेपर उनके साथ ही समस्त नक्षत्र चक्र की भाँती घुमने लगते हैं । सूर्य, चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र और ग्रह – ये सभी वायुमयी डोरी से ध्रुव में बंधे हुए हैं । शिशुमार के आकर का आकाश में जो तारामय रूप बताया गया हैं, उसके आधार परम धामस्वरुप साक्षात भगवान् नारायण हैं, जो शिशुमार के ह्रदय-देश में स्थित हैं । देवता, असुर और मनुष्योंसहित यह सम्पूर्ण जगत भगवान् नारायण के ही आधारपर टिका हुआ हैं ।
सूर्य आठ महीनों में अपनी किरणोंद्वारा रसात्मक जल का संग्रह करते हैं और उसे वर्षाकाल में बरसा देते हैं । उस वृष्टि के जल से अन्न पैदा होता है और अन्नसे सम्पूर्ण जगत का भरण – पोषण होता हैं । सूर्य अपनी तीखी किरणों से जगत का जल लेकर उसके द्वारा चन्द्रमा की पुष्टि करते हैं । धूम, अग्नि और वायुरूप मेघो में स्थापित किया हुआ जल अपभ्रष्ट नहीं होता, अतएव मेघों को अभ्र कहते हैं । वायु की प्रेरणा से मेघस्थ जल पृथ्वीपर गिरता हैं । नदी, समुद्र, पृथ्वी तथा प्राणियों के शरीर से निकला हुआ – ये चार प्रकार के जल सूर्य अपनी किरणोंद्वारा ग्रहण करते हैं और उन्हीं को समयपर बरसाते हैं । इसके सिवा वे आकाशगंगा के जल को भी लेकर उसे बादलों में स्थापित किये बिना ही शीघ्र पृथ्वीपर बरसा देते हैं । उस जल का स्पर्श होने से मनुष्य के पाप-पक्क धुल जाते हैं, जिससे वह नरक में नहीं पड़ता । यह दिव्य स्नान माना गया हैं । कृत्तिका आदि विषम नक्षत्रों में सूर्य के दिखायी देते हुए आकाश से जल गिरता है, उसे दिग्गजोंद्वारा फेंका हुआ आकाशगंगा का जल समझना चाहिये । इसीप्रकार भरणी आदि सम संख्यावाले नक्षत्रों में सूर्य के दिखायी देते हुए आकाश से जो जल गिरता हैं, वह भी आकाशगंगा का ही जल हैं, जिसे सूर्य की किरणें तत्काल ले आकर बरसाती हैं । यह दोनों ही प्रकाश का जल अत्यंत पवित्र और मनुष्यों का पाप दूर करनेवाला हैं । आकाशगंगा के जलका स्पर्श दिव्य स्नान हैं । बादलों के द्वारा जो जल की वर्षा होती है, वह प्राणियों के जीवन के लिये सब प्रकार के अन्न आदि की पुष्टि करती हैं । अत: वह जल अमृत माना गया हैं । उसके द्वारा अत्यंत पुष्ट हुई सब प्रकार की ओषधियाँ फलती, पकती एवं प्रजा के उपयोग में आती हैं । उन ओषधियों से शास्त्रदर्शी मनुष्य प्रतिदिन विहित यज्ञों का अनुष्ठान करके देवताओं को तृप्त करते हैं । इसप्रकार यज्ञ, वेद, ब्राम्हण आदि वर्ण, सम्पूर्ण देवता, पशु, भूतगण तथा स्थावर जंगमरूप सम्पूर्ण जगत – ये सब वृष्टि के द्वारा ही धारण किये गये हैं वृष्टि सूर्य के द्वारा होती हैं । सूर्य के आधार ध्रुव, ध्रुव के शिशुमारचक्र तथा शिशुमारचक्र के आश्रय साक्षात भगवान् नारायण हैं । वे शिशुमारचक्र के ह्रदय-देश में स्थित हैं । वे ही सम्पूर्ण भूतों के आदि, पालक तथा सनातन प्रभु हैं । मुनिवरों ! इसप्रकार मैंने पृथ्वी, समुद्र आदि से युक्त ब्रम्हाण्ड का वर्णन किया ।
अध्याय १४ तीर्थ – वर्णन
मुनियों ने कहा– धर्म के ज्ञाता सूतजी ! पृथ्वीपर जो-जो पवित्र तीर्थ और मन्दिर हैं, उनका वर्णन कीजिये । इससमय हमारे मन में उन्हीं का वर्णन सुनने की इच्छा हैं ।
लोमहर्षणजी बोले– जिसके हाथ, पैर और मन काबुमे हो तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति हो, वह मनुष्य तीर्थ के फलका भागी होता हैं । पुरुष का शुद्ध मन, शुद्ध वाणी तथा वश में की हुई इन्द्रियाँ – ये शारीरिक तीर्थ हैं, जो स्वर्ग का मार्ग सूचित करती हैं । भीतर का दूषित चित्त तीर्थस्नान से शुद्ध नहीं होता । जिसका अंत:करण दूषित है, जो दम्भमें रूचि रखता हैं तथा जिस की इन्द्रियाँ चंचल हैं, उसे तीर्थ, दान, व्रत और आश्रम भी पवित्र नहीं कर सकते । मनुष्य इन्द्रियों को अपने वश में करके जहाँ-जहाँ निवास करता हैं, वहीँ-वहीँ कुरुक्षेत्र, प्रयाग और पुष्कर आदि तीर्थ वास करने लगते हैं । द्विजवरों ! अब मैं पृथ्वी के पवित्र तीर्थों और मंदिरों का संक्षेप से वर्णन आरम्भ करता हूँ, सुनो ।
पुष्कर, नैमिषारण्य, प्रयाग, धर्मारण्य, धेनुक, चम्पकारण्य, सेंधवारण्य, मागधारण्य, दंडकारण्य, गया, प्रभास, श्रीतीर्थ, कनखल, भृगुतुंग, हिरण्याक्ष, भीमारण्य, कुशस्थली, लोहाकुल, केदार, मंदरारण्य, महाबल, कोटितीर्थ, रुपतीर्थ, शूकर, चक्रतीर्थ, योगतीर्थ, सोमतीर्थ, शाखोटक, कोकामुख, बदरीशैल, तुंगकूट, स्कन्दाश्रम, अग्निपद, पंचाशिख, धर्मोभ्दव, बंधप्रमोचन, गंगाद्वार, पंचकुट, मध्यकेसर, चक्रप्रभ, मतंग, कुशदंड, दंष्ट्राकुंड, विष्णुतीर्थ, सार्व्कामिकतीर्थ, मत्स्यतिल, ब्रह्मकुंड, वह्रीकुंड, सत्यपद, चतु:स्त्रोत, चतु:शृंग, द्वादशधार, मानस, स्थूलशृंग, स्थलदंड, उर्वशी, लोकपाल, मनुवर, सोमशैल, सदाप्रभ, मेरुकुंड, सोमाभिषेचनतीर्थ, महास्त्रोत, कोटरक, पंचधार, त्रिधार, सप्तधार, एकधार, अमरकंटक, शालग्राम, कोटिद्रुम, बिल्वप्रभ, देवहृद, विष्णुहृद, शंखप्रभ, देवकुंड, वज्रायुध, अग्निप्रभ, पूनांग, देवप्रभ, विद्याधरतीर्थ, गान्धर्वतीर्थ, मणिपुर, गिरि, पंचहृद, पिंडारक, मलव्य, गोप्रभाव, गोवर, वटमूल, स्नानदंड, विष्णुपद, क्न्याश्रम, वायुकुंड, जम्बूमार्ग, गभस्तितीर्थ, यजातिपतन, भद्रवट, महाकालवन, नर्मदातीर्थ, तीर्थवज्र, अर्बुद, पिंडतीर्थ, वासिष्ठतीर्थ, पृथुसंगम, दौर्वासिक, पिंजरक, ऋषितीर्थ, ब्रह्मतुंग, वसुतिर्थ, कुमारिक, शक्रतीर्थ, पंचनद, रेणुकातीर्थ, पैतामह, विमलतीर्थ, रूद्रपाद, मणिमान, कामाख्य, कृष्णतीर्थ, कुलिंगक, यजनतीर्थ, याजनतीर्थ, ब्रम्हवालुक, पुष्पन्यास, पुंडरिक, मणिपुर, दीर्घसत्र, हयपद, अनशनतीर्थ, गंगोभ्देद, शिवोभ्देद, नर्मदाभ्देद, वस्त्रापद, दारुबल, छायारोहण, सिद्धेश्वर, मित्रबल, कालिकाश्रम, वटावट , भद्रवट, कौशाम्बी, दिवाकर, सारस्वतद्वीप, विजयतीर्थ, कामदतीर्थ, रूद्रकोटि, सुमनस्तीर्थ, समन्तपंचक, ब्रह्मतीर्थ, सुदर्शनतीर्थ, पारिप्लव, पृथुदक, दशाश्वमेधिक, साक्षिद, विजय, पंचनद, वाराह, यक्षिणीह्र्द, पुंडरिक, सोमतीर्थ, मुज्जवट, बदरीवन, रत्नमूलक, स्वर्लोकद्वार, पंचतीर्थ, कपिलातिर्थ, सूर्यतीर्थ, शखखिनीतीर्थ, गोभवनतीर्थ, यक्षराजतीर्थ, ब्रह्मावर्त, कामेश्वर, मातृतीर्थ, शातवनतीर्थ, स्नानलोमापह, माससंसरक, केदार, ब्रम्होंदुम्बर, सप्तर्षिकुंड, देवीतीर्थ, जम्बूकतीर्थ, ईहास्पद, कोटिकूट, किन्दान, किंजय, कारण्डव, अवेध्य, त्रिविष्टप, पानिखात, मिश्रक, मधुवट , मनोजव, कौशिकीतीर्थ, देवतीर्थ, ऋणमोचनतीर्थ, नृगधूम, अमरह्र्द, श्रीकुंज, शालितीर्थ, नैमिषेयतीर्थ, ब्रम्ह्स्थान, कन्यातिर्थ, मनसतीर्थ, कारुपावनतीर्थ, सौगन्धिकवन, मणितीर्थ, सरस्वतीतीर्थ, ईशानतीर्थ, पांचयज्ञिकतीर्थ, त्रिशूलधार, माहेन्द्र, देवस्थान, कृतालय, शाकम्भरी, देवतीर्थ, सुवर्णतीर्थ, कलिह्र्द, क्षीरस्त्रव, विरूपाक्ष, भृगुतीर्थ, कुशोभ्दवतीर्थ, ब्रम्हयोनि, नीलपर्वत, कुब्जाम्बक, वसिष्ठपद, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, कलिकाश्रम, रुद्र्वर्त, सुगंधाश्व, कपिलावन, भद्रकर्णपद, शक्कर्णह्र्द, सप्तसारस्वत, औशनसतीर्थ, कपालमोचन, अवकीर्ण, काम्यक, चतु:सामुद्रिक, शतिक, सहस्त्रिक, रेणुक, पंचवटक, विमोचन, स्थाणुतीर्थ, कुरुतीर्थ, कुशध्वज, विश्वेश्वर, मानककुप, नारायणाश्रम, गंगाह्र्द, बदरीपावन, इन्द्रमार्ग, एकरात्र, क्षीरकावास, दधीच, श्रुततीर्थ, कोटितीर्थ स्थली, भद्रकालीह्र्द, अरुंधतीवन, ब्रम्हावर्त, अश्ववेदी, कुब्जावन, यमुनाप्रभव, वीर, प्रमोक्ष, सिन्धुत्थ, ऋषिकुल्या, कृत्तिका, उर्वीसंक्रमन, मायाविद्योभ्द्वव, महाश्रम, वेतसिका, सुन्दरीकाश्रम, बाहूतीर्थ, चारुनदी, विम्लाशोक, मार्कण्डेयतीर्थ, सितोद, मत्स्योदरी, सूर्यप्रभ, अशोकवन, अरुणास्पद, शुक्रतीर्थ, बालुकातीर्थ, पिशाचमोचन, सुभद्राह्र्द, विरलदंडकुंड, चंडेश्वरतीर्थ, ज्येष्ठस्थानह्र्द, ब्रम्ह्सर, जैगीषव्यगुहा, हरिकेशवन, अजामुखसर, घंटाकर्णह्र्द, कर्कोटकवापी, सपर्णास्योदपान, श्वेततीर्थह्र्द, घर्घरिकाकुंड, श्यामाकूप, चन्द्रिकातीर्थ, श्मशानस्तकुंड, विनायकह्र्द, सिन्धुभ्द्ववकुप, ब्रम्हसर, रुद्रावास, नागतीर्थ, पुलोमतीर्थ, भक्तहद, क्ष्रीरसर, प्रेताधार, कुमारतीर्थ, कुशावर्त, दधिकर्नोद्पानक, शृंगतीर्थ, महातीर्थ, महानदी, गयशीर्ष, अक्षयवट, कपिलाह्र्द, गृधवट, सावित्रीह्र्द, प्रभासन, शीतवन, योनिद्वार, धन्यक, कोकिलातीर्थ, मतंगह्र्द, पितृकूप, सप्तकुंड, मनिरत्नह्र्द, कौशिक्यतीर्थ, भरततीर्थ, जेष्ठालिकातीर्थ, कल्पसर, कुमारधारा, श्रीवास, कुम्भकर्णह्र्द, कौशिकीह्र्द, धर्मतीर्थ, कामतीर्थ, उद्दालकतीर्थ, संध्यातीर्थ, लोहितार्नव, शोनोभदव, वन्शगुल्म, ऋषभ, कालतीर्थ, पुण्यावर्तीहद, बद्रीकाश्रम, रामतीर्थ, पितृवन, विरजातीर्थ, कृष्णतीर्थ, कृष्णवट, रोहिणीकूप, इंद्रध्यूम्रसरोवर, सानुगर्त, माहेन्द्र, श्रीनद, इषुतीर्थ, वार्षभतीर्थ, कावेरीहद, गोकर्ण, गायत्रीस्थान, बदरीह्र्द, मध्यस्थान, विकर्नक, जातीह्र्द, देवकुप, कुशप्रथन, सर्वदेवव्रत, कन्याश्रमह्र्द, वाल्खिल्पह्र्द, तथा अखंडितह्र्द – ये सब पवित्र तीर्थ हैं ।
जो मनुष्य इन तीर्थों में उत्तम श्रद्धा से सम्पन्न हो उपवास एवं इन्द्रियसंयमपूर्वक विधिवत स्नान, देवता, ऋषि, मनुष्य तथा पितरों का तर्पण, देवताओं का पूजन एवं तीन रात्रितक निवास करता हैं, वह प्रत्येक तीर्थ के पृथक–पृथक फलरूप से अश्वमेघ यज्ञ का पुण्य प्राप्त करता हैं – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।
जो प्रतिदिन इस उत्तम तीर्थ माहात्म्य को सुनता, पढ़ता अथवा सुनाता हैं, वह सब पापों से मुक्त हो जाता हैं ।
अध्याय १५ भारतवर्ष का वर्णन
मुनियों ने कहा– वक्ताओं में श्रेष्ठ सूतजी ! इस पृथ्वीपर धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष प्रदान करनेवाली जो उत्तम भूमि एवं श्रेष्ठ तीर्थ हो, उसे बतलाइये ।
लोमहर्षण जी बोले– ब्राह्मणों ! पूर्वकाल में महर्षियों ने मेरे गुरु व्यासजी से यही प्रश्न पूछा था । मैं वही प्रसंग कहता हूँ । कुरुक्षेत्र की बात हैं, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ व्यासजी, जो सब शास्त्रों के विद्वान्, महाभारत के रचयिता, अध्यात्मनिष्ठ, सर्वज्ञ, सब भूतों के हित में संलग्न, पुराण और आगमों के वक्ता तथा वेद-वेदांगों के पारंगत पंडित हैं, अपने परम पवित्र आश्रम में बैठे हुए थे । भाँती-भाँती के पुष्प उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे । उसी समय उत्तम व्रत का पालन करनेवाले अनेक महर्षि उनके दर्शनके लिये आये । कश्यप, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, वसिष्ठ, जैमिनी, धौम्य,मार्कंडेय, वाल्मीकि, विश्वामित्र, शतानंद, वात्स्य, गार्ग्ये, आसुरि, सुमन्तु, भार्गव, कण्व, मेधातिथि,मांडव्य, च्यवन, धूम्र, असित, देवल, मौद्वल्य, तृणयज्ञ, पिप्पलाद, अकृतव्रण, संवर्त, कौशिक, रौभ्य, मैत्रेय, हरित, शांडिल्य, विभाण्ड, दुर्वासा, लोमश, नारद, पर्वत, वैशम्पायन, गालव, भास्करी, पूरण, सूत, पुलस्त्य, कपिल, पुलह, देवस्थान, सनत्कुमार, पैल, कृष्ण तथा कृष्णानुभौतिक – ये तथा और भी बहुत से मुनिवर सत्यवतीनंदन व्यास को घेरकर बैठ गये । उनके बीचमें व्यास जी नक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमा की भाँती शोभा पाते थे । कुछ बातचीत के बाद उन्होंने व्यासजी से अपना संदेह इसप्रकार पूछा ।
मुनि बोले– मुने ! आप वेद, शास्त्र, पुराण, तंत्रशास्त्र, महाभारत, भूत, वर्तमान, भविष्य तथा सम्पूर्ण वाड्मय का ज्ञान रखते हैं । यह संसार एक समुद्र के समान है । इसमें दुःख-ही-दुःख भरा हैं । यह कष्टमय एवं नि:सार हैं । इस भयानक भवसागर में रागरुपी ग्राह रहते हैं । यह विषयरूपी जल से भरा रहता हैं । इन्द्रियाँ ही इसमें भँवर है । यह क्षुधा, पिपासा आदि सैकड़ो कर्मियों से व्याप्त है । इसे मोहरूपी कीचड़ ने मलिन बना रखा हैं । लोभ की गहराई के कारण इसके पार जाना अत्यंत कठिन है । हम देखते हैं कि सम्पूर्ण जगत इसमें डूबकर कोई सहारा न पा सकने के कारण अचेत बहा जा रहा हैं । अत: आपसे पूछते है, इस भयंकर संसार में कौन-सा साधन कल्याणकारी हैं ? इस बातका उपदेश देकर आप सम्पूर्ण लोकों का उद्धार कीजिये । इस पृथ्वीपर जो परम दुर्लभ मोक्षदायक क्षेत्र एवं कर्मभूमि हैं, उसे बतलाइये । हम इसका श्रवण करना चाहते हैं ।
व्यासजी ने कहा– पूर्वकाल में महर्षियों का ब्रह्माजी के साथ जो संवाद हुआ था, उसे आप सब लोग सुनें । नाना रत्नों से विभूषित मेरुगिरि के विशाल शिखरपर भगवान् ब्रह्माजी विराजमान थे । देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर, नाग, मुनि तथा सिद्ध उनकी सेवामें उपस्थित थे । उससमय भृगु आदि महर्षियों ने पितामह को प्रणाम करके इसप्रकार प्रश्न किया – ‘भगवन! इस पृथ्वीपर कर्मभूमि कौन हैं तथा दुर्लभ मोक्ष-क्षेत्र कौन हैं? यह बताने की कृपा करें ।’
ब्रह्माजी बोले– मुनिवरो ! सुनो, इस पृथ्वीपर भारतवर्ष को कर्मभूमि बतलाया गया हैं । वह परम प्राचीन, वेदों से सम्बन्ध रखनेवाला तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला उत्तम क्षेत्र हैं । वहीँ किये हुए कर्मों के फलरूप से स्वर्ग और नरक प्राप्त होते हैं । भारतवर्ष में पाप या पुण्य करके मनुष्य निश्चय ही उसके अशुभ अथवा शुभ फलका भागी होता हैं । वहाँ ब्राह्मण आदि वर्ण भलीभाँति संयमपूर्वक रहते हुए अपने-अपने कर्मों का अनुष्ठान करके उत्तम सिद्धि को प्राप्त होते है । भारतवर्ष में संयमशील पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – सब कुछ प्राप्त करता हैं । इंद्र आदि देवताओं ने भारतवर्ष में शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके देवत्व प्राप्त किया हैं । इनके सिवा अन्य जितेन्द्रिय पुरुषों ने भी भारतवर्ष में शांत, वीतराग एवं मात्सर्यरहित जीवन बिताते हिये मोक्ष प्राप्त किया हैं ।
देवता सदा इस बात की अभिलाषा करते हैं कि हम लोग कब स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाले भारतवर्ष में जन्म लेकर निरंतर उसका दर्शन करेंगे ।
इसके पूर्व में किरात और पश्चिम में यवन रहते हैं । मध्यभाग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों का निवास हैं । वे क्रमश: यज्ञ, युद्ध और व्यापार आदि विशुद्ध कर्मों के द्वारा अपने को पवित्र करते हैं । उनका जीवन-निर्वाह भी इन्हीं कर्मों से होता हैं ।
यहाँ किया हुआ पुण्य सकाम होनेपर स्वर्ग आदि का तथा निष्काम होनेपर मोक्ष का साधक होता हैं । इसीप्रकार पाप भी अपना फल प्रदान करता हैं ।
महेंद्र, मलय, शुक्तिमान, ऋक्षपर्वत, विन्ध्य और पारियात्र- ये ही सात यहाँ कुलपर्वत हैं । उनके आस-पास और भी हजारों पर्वत हैं । वे सभी विस्तृत, ऊँचे और रमणीय हैं । उनके शिखर भाँती-भाँती के और सुंदर हैं । कोलाहल, वैभ्राज, मंदर, दुर्दराचल, वातंधय, वैद्युत, मैनाक, सुरस, तुंगप्रस्थ, नागगिरि, गोधन, पांडूराचल, पुष्पगिरि, वैजयंत, रैवत, अर्बुद, ऋश्यमूक, गोमन्त, कृतशैल्य, कृताचल, श्रीपर्वत, चकोर तथा अन्य अनेक पर्वत ऐसे हैं, जिनसे मिले हुए म्लेच्छ आदि जनपद पृथक-पृथक बसे हुए हैं । वहाँ ले लोग जिन श्रेष्ठ नदियों का जल पीते हैं, उनके नाम इसप्रकार जानो – गंगा, सरस्वती, सिन्धु, चन्द्रभागा, यमुना, शतद्रु (सतलज), विपाशा, वितस्ता (झेलम), इरावती (रावी), गोमती, धूतपापा, बाहुदा, दृषद्वती, देविका, चक्षु, निष्ठिवा, गण्डकी तथा कौशिकी । ये हिमालय की घाटी से निकली हुई नदियाँ हैं । देवस्मृति, देववती, वातघ्री, सिन्धु,वेण्या , चंदना, सदानीरा, महि, चर्मण्वती (चंबल), वृषी, विदिशा, वेदवती, क्षिप्रा तथा अवन्ती – ये पारियात्रपर्वत का अनुसरण करनेवाली नदियाँ हैं । शोणा, महानदी, नर्मदा, सुरथा, क्रिया, मन्दाकिनी, दशार्णा, चित्रकुटा, चित्रोप्तला, वेत्रवती, कर्मोदा, पिशाचिका, अतिलघुश्रोणी, विपाप्मा, शैवला, सधेरुजा, शक्तिमती, शकुनी, त्रिदिवा, क्रमु तथा वेगवाहिनी – ये नदियाँ ऋक्षपर्वत की संताने हैं । चित्रा, पयोष्ण, निर्विन्ध्या, तापी, वेणा, वैतरणी, सिनीवाली, कुमुद्वती, तोया, महागौरी, दुर्गा तथा अंतशश्ली – ये पुण्यसलिला सरिताएँ विन्ध्याचल की घाटियों से निकली हैं । गोदावरी, भीमरथी, कृष्णवेणा, तुंगभद्रा, सुप्रयोगा तथा पापनाशिनी – ये श्रेष्ठ नदियाँ सह्यागिरी की शाखासे प्रकट हुई है । कृतमाला, ताम्रवर्णी, पुष्पवती, उत्पलावती – ये शीतल जलवाली पवित्र नदियाँ मलयाचल से निकली हैं । पितृकुल्या,. सोमकुल्या, ऋषिकुल्या, वंजुला, त्रिदिवा, लांगलिनी तथा वंशकरा – इनका प्राकट्य महेंद्रपर्वत से हुआ है । सुविकाला, कुमारी, मनुगा, मंदगामिनी, क्षया और प्लाशिनी – ये शुक्तिमानपर्वत से निकली है । समुद्र में मिलनेवाली सभी नदियाँ पुण्यसलिला सरस्वती तथा गंगा के समान है । सभी इस विश्व की जननी एवं पापहारिणी मानी गयी हैं । इनके अतिरिक्त भी सहस्रों छोटी-छोटी नदियाँ बतायी गयी हैं, जिनमें से कुछ तो केवल वर्षाकाल बहती हैं और कुछ सदा ही जलसे पूर्ण रहती हैं । मत्स्य, मुकुटकुल्य, कुंतल, काशी, कोसल, अन्ध्रक, कलिंग, शमक तथा वृक – ये प्राय: मध्यदेश के जनपद बताये गये हैं । सह्यपर्वत के उत्तर का प्रदेश, जहाँ गोदावरी नदी बहती हैं, सम्पूर्ण भूमंडल में सर्वाधिक मनोरम हैं ।
वानप्रस्थ और सन्यास–आश्रम के धर्मों का पालन करने से जो फल होता हैं, कुआँ, बावली आदि खुदवाने, बगीचे लगाने, यज्ञ करने तथा अन्य शुभ कर्मों के अनुष्ठान से जो फल मिलता हैं, वह सब केवल भारतवर्ष में ही सुलभ हैं ।
ब्राह्मणों ! भारतवर्ष के समस्त गुणों का वर्णन करने में कौन समर्थ हो सकता है ?
इसप्रकार मैंने भारतवर्ष का वर्णन किया । यह सबसे उत्तम, सब पापों का नाश करनेवाला, पवित्र, धन्य तथा बुद्धि को बढानेवाला हैं । जो सदा अपनी इन्द्रियों को वशमें रखकर इस प्रसंग का पाठ या श्रवण करता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णु के लोक में जाता हैं ।
अध्याय १६ कोणादित्यकी महिमा
ब्रह्माजी कहते है– भारतवर्ष में दक्षिण दिशा के समुन्द्र किनारे ओण्ड्र देश के नाम से विख्यात उत्कल प्रदेश है । वहाँ भगवान सूर्य कोणादित्य के नाम से विख्यात होकर रहते है, उनका दर्शन करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । भगवान सूर्य कोणादित्य का दर्शन स्वर्ग एवं मोक्ष देने वाला है ।
भारतवर्ष में दक्षिण दिशा के समुन्द्र से लेकर उत्तरदिशा तक जहां विरजमण्डल तक का प्रदेश है यह सभी पुण्यात्माओं के सम्पूर्ण गुणों द्वारा सुशोभित है । इन देशों में उतपन्न जो जितेन्द्रियं ब्रहामण तपस्या एवं स्वाध्याय में सलंग्न रहते है, वे सदा ही वनदनीय एवं पूजनीय है इन देशों के ब्रहामण श्राद्ध, दान, विवाह, यज्ञ अथवा आचार्यकर्म-सभी कार्य के लिए उत्तम है । ये सभी षट्कर्म में पारायण, वेदों का पारंगत विद्वान, इतिहासवेत्ता, पुराणार्थविशारद, सर्वशास्त्रार्थकुशल, यज्ञशील और रागद्वेष से रहित होते है ।
कोई वैदिक अग्निहोत्रमें लगे रहते और कोई स्मार्त अग्निकी उपासना करते है । वे स्त्री, पुत्र और धनसे संपन्न, दानी और सत्यवादी होते है तथा याग्योत्सवसे विभूषित पवित्र उत्कलदेशमें निवास करते है । वहाँ क्षत्रिय आदि अन्य तीन वर्णोंके लोग भी परम संयमी, स्वकर्मपरायण, शांत और धार्मिक होते है । उक्त प्रदेशमें भगवान सूर्य कोणादित्यके नाम से विख्यात होकर रहते है । उनका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।
मुनियों ने कहा- सुरश्रेष्ठ ! पूर्वोक्त ओण्ड्र देशमें जो सूर्य का क्षेत्र है, जहां भगवान भास्कर निवास करते है, उसका वर्णन कीजिये । इस समय हम उसे ही सुनना चाहते है ।
ब्रह्माजी बोले– मुनिवरों ! लवण समुन्द्र का उत्तर दिशा का तट अत्यंत मनोहर और पवित्र है । वह सब ओर बालुओं से आच्छादित है, उस सर्वगुण सम्पन्नदेश में चम्पा, अशोक, मौलसिरी, करवीर, गुलाब, नागकेसर, ताड़, सुपारी, नारियल, कैथ, और अन्य नाना प्रकार के वृक्ष चारों ओर शोभा पाते है । वहाँ भगवान सूर्य का पुण्यक्षेत्र है, जो सम्पूर्ण जगत में विख्यात है । भगवान सूर्य का वह पुण्यक्षेत्र सब ओर से एक योजन से अधिक का विस्तार है । वहाँ सहस्त्र किरणों से साक्षात भगवान सूर्य निवास करते हुए “कोणादित्य” के नाम से विख्यात होकर भोग और मोक्ष प्रदान करते है ।
भगवान सूर्य कोणादित्य का माघ मास के शुक्ल पक्ष के सप्तमी तिथि को इन्द्रिय-संयमपूर्वक उपवास करे । फिर प्रातःकाल शौच आदिसे निवृत एवं विशुद्धचित्त होकर सूर्यदेव का स्मरण करते हुए विधिपूर्वक समुन्द्र में स्नान करे । देवता, ऋषि, और मनुष्यों का तर्पण करे । तत्पश्चात जल से बाहर आकर दो स्वच्छ वस्त्र धारण करे । फिर आचमन करके समुन्द्र के तट पर ही पवित्रापूर्वक पूर्वदिशा की ओर मुख को करके बैठे ।
लालचन्दन और जल से ताँबे के पात्र में एक अष्टकदल कमल की आकृति बनाये, जो केसर युक्त और गोलाकार हो । उसकी कर्णिका का ऊपर की ओर उठी हो । फिर तिल, चावल, जल, लाल चन्दन, लाल फूल, और कुशा उस पात्र में रख दे । ताँबे का वर्तन ना मिले तो मदार के पत्ते का डोना बनाकर उसी में तिल आदि रखे । उस पात्र को एक दूसरे पात्र से ढककर रखे । इसके बाद ह्रदय आदि अंगों को क्रम से अंगन्यास और करन्यास करके पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने आत्मस्वरूप भगवान सूर्य का ध्यान करे ।
पहले बनाये गए अष्टकदल कमल के मध्यभाग में क्रम से प्रभूत, विमल, सार, आराध्य, परम, और सुखरूप सूर्यदेवका पूजन करे ।
इसके बाद वहाँ ही आकाश से सूर्यदेव का आवाहन करके कर्णिका के ऊपर उनकी स्थापना करे । इसके बाद हाथों से सुमुख-संपुट आदि मुद्राएं दिखाए ।
फिर देवता का स्नान आदि कराकर एकाग्रचित हो इस प्रकार ध्यान करे – भगवान सूर्य श्वेत कमल के आसान पर तेजोमंडल में विराजमान है । उनकी आँखें पिली और शरीर का रंग लाल है । उनके दो भुजाएं है । भगवान सूर्य का वस्त्र कमल के सामान है । भगवान सूर्यदेव सब प्रकार के शुभलक्षणों से युक्त और सभी तरह के आभूषणों से विभूषित है । सूर्यदेव का रूप सुन्दर है । सूर्यदेव वरदेने वाले, शांत एवं प्रभापुंज्ज से देदीप्यमान है । इसके बाद उदयकाल में स्निग्ध सिंदूर के समान अरुण वर्णवाले भगवान सूर्य का दर्शन करके अधर्यपात्र ले । उसे सर के पास लगाये और पृथ्वी पर घुटने टेककर मौन हुय एकराग्रचित् से त्र्यक्षर – मन्त्र का उच्चारण करते हुए सूर्य को अर्ध्य दे ।
जिस पुरुषको दीक्षा नहीं दी गयी है, वह भावयुक्त श्रद्धाके साथ सूर्यका नाम लेकर ही अर्ध्य दे; क्योकी भगवान सूर्य भक्तिके द्वारा ही वशमें होते है ।
अग्नि, नैऋत्य, वायव्य एवं ईशान कोण, मध्यभाग तथा पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से ह्रदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र, और अस्त्र की पूजा करे । * फिर अर्ध्य दे । गंध, धुप, दीप, और नैवेध निवेदन कर जप, स्तुति, नमस्कार तथा मुंद्रा, करके देवता का विसर्जन करे ।
जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री और शुद्र अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखते हुय सदा संयमपूर्वक भक्तिभाव और विशुद्ध चित्तसे भगवान सूर्यको अर्ध्य देते है, वे मनोवांछित भोगोंका उपभोग करके परम गतिको प्राप्त होते है ।
जो मनुष्य तीनों लोकोंको प्रकाशीत करनेवाले आकाशविहारी भगवान सूर्य की शरण लेते है, वे सुखके भागी होते है । जबतक भगवान सूर्य को विधिपूर्वक अर्ध्य न दे लिया जाय, तबतक श्रीविष्णु, शंकर अथवा इंद्र का पूजन नहीं करना चाहिये । अतः प्रतिदिन पवित्र हो प्रयत्न करके मनोहर फूलों और चन्दन आदिके द्वारा सूर्यदेव को अर्ध्य देता है, उसे मनोवांछित फल प्राप्त होता है । रोगी पुरुष रोगसे मुक्त हो जाता है, धनकी इच्छा रहनेवालेको धन मिलता है, विद्यार्थी को विद्या प्राप्त होती है और पुत्र की कामना रखने वाला मनुष्य पुत्रवान होता है ।
इस प्रकार समुन्द्र में स्नान करके सूर्यदेव को अर्ध्य दे कर, प्रणाम करे, फिर हाथ में फूलकर मौन होकर सूर्यमन्दिर में जाए । मंदिर के भीतर प्रवेश करके भगवान कोणादित्य को तीन बार प्रदक्षिणा करे और अत्यंत भक्ति के साथ गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेध, साष्टांग प्रणाम, जयजयकार तथा स्त्रोतों द्वारा उनकी पूजा करे ।
इस प्रकार सहस्त्र किरणों द्वारा मंडित जगदीश्वर सूर्यदेव का पूजन करके मनुष्य दस अश्वमेध यज्ञों का फल पाता है । इतना ही नहीं, वह सब पापों से मुक्त होकर दिव्य शरीर धारण करता है और अपने आगे-पीछे की सात-सात पीढ़ियों का उद्धार करके सूर्य के सामान तेजस्वी एवं इच्छानुसार गमन करने वाले विमान पर बैठकर सूर्यलोक को जाता है । उस समय गंधर्व लोग उसका यशोगान करते है । वहाँ एक कल्पतक श्रेष्ठ भोगों का उपभोग करके पुण्य क्षीण होने पर पुनः: इस संसार में आता है और योगियों के उत्तम कुल में जन्म लेकर चारों वेदों का विद्वान, सर्वधर्मापारायण तथा पवित्र ब्राह्मण होता है । इसके बाद भगवान सूर्य से ही योग का शिक्षा प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।
जो इस प्रकार सप्तमी तिथि को स्नान करके शुद्ध एवं एकाग्रचित हो सूर्य को अर्ध्य देता है, उसे मनोवांछित फल प्राप्त होता है ।
चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में भगवान कोणादित्य की यात्रा होती है यह यात्रा दमनभज्जिका के नाम से विख्यात है । जो मनुष्य यह यात्रा करता है उसे भी पहले के बताये हुए फल की प्राप्ति होती है ।
भगवान सूर्य के शयन और जागरण के समय, संक्रांति के दिन, विषुव योग में, उत्तरायण और दक्षिणायन आरम्भ होने पर, रविबार को, सप्तमी तिथि को अथवा पर्व के समय जो जितेन्द्रिय पुरुष वहाँ की श्रद्धा पूर्वक यात्रा करता है, वे सूर्य की ही भाँती तेजस्वी विमान के द्वारा उनके लोक में जाते है ।
रामेश्वर
ब्रह्माजी कहते है– भारतवर्ष के दक्षिण समुन्द्र के तटपर रामेश्वर नाम से विख्यात भगवान महादेवजी विराजमान है । जो समस्त अभिलाषित फलों के देने वाला है । जो समुन्द्र में स्नान करके वहाँ श्रीरामेश्वर का दर्शन करते और गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवैध, नमस्कार, स्त्रोत, गीत और मनोहर वाधोयंत्र द्वारा उनकी पूजा करते है, वे महात्मा पुरुष राजसूय तथा अश्वमेध -यज्ञों का फल पाते और परम सिद्धि को प्राप्त होते है ।
अध्याय १७ भगवान् सूर्य की महिमा
मुनियों ने कहा– सुरश्रेष्ठ ! अपने भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान् भास्कर के उत्तम क्षेत्र का जो वर्णन किया हैं, वह सब हम लोगोंने सुना । अब यह बताइये कि उनकी भक्ति कैसे की जाती है और वे किसप्रकार प्रसन्न होते है ? इस समय यही सब सुनने की हमारी हच्छा है ।
ब्रह्माजी बोले– मन के द्वारा इष्टदेव के प्रति जो भावना होती है, उसे ही भक्ति और श्रद्धा कहते हैं ।
जो इष्टदेव की कथा सुनता, उनके भक्तों की पूजा करता तथा अग्नि की उपासना में संलग्न रहता हैं, वह सनातन भक्त है ।
जो इष्टदेव का चिन्तन करता, उन्हीं में मन लगाता, उन्हीं की पूजा में रत रहता तथा उन्हीं के लिये कर्म करता हैं, वह निश्वय ही सनातन भक्त हैं ।
जो इष्टदेव के लिये किये जानेवाले कर्मों का अनुमोदन करता, उनके भक्तों में दोष नहीं देखता, अन्य देवता की निंदा नहीं करता, सूर्य के व्रत रखता तथा चलते, फिरते, ठहरते, सोते, सूँघते और आँख खोलते–मीचते समय भगवान भास्कर का स्मरण करता हैं, वह मनुष्य अधिक भक्त माना गया है । विज्ञ पुरुष को सदा ऐसी ही भक्ति करनी चाहिये ।
भक्ति, समाधि, स्तुति और मन से जो नियम किया जाता और जो ब्राह्मण को दान दिया जाता हैं, उसे देवता, मनुष्य और पितर – सभी ग्रहण करते हैं । पत्र, पुष्प, फल और जल – जो कुछ भी भक्तिपूर्वक अर्पण किया जाता हैं, उसे देवता ग्रहण करते हैं; परन्तु वे नास्तिकों की दी हुई वस्तु नहीं स्वीकार करते । नियम और आचार के साथ भावशुद्धि का भी उपयोग करना चाहिये । ह्रदय के भाव को शुद्ध रखते हुए जो कुछ किया जाता हैं, वह सब सफल होता है । भगवान् सूर्य के स्तवन, जप, उपहार-समर्पण, पूजन, उपवास (व्रत) और भजन से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैं ।
जो पृथ्वीपर मस्तक रखकर भगवान् सूर्य को नमस्कार करता है, वह तत्काल सब पापों से छुट जाता हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं ।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सुर्यदेव की प्रदक्षिणा करता हैं, उसके द्वारा सातों द्वीपोंसहित पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती हैं । जो सुर्यदेव को अपने हद्रय में धारण करके केवल आकाश की प्रदक्षिणा करता हैं, उसके द्वारा निश्चय ही सम्पूर्ण देवताओं की परिक्रमा हो जाती हैं ।
जो षष्ठी या सप्तमी को एक समय भोजन करके नियम और व्रत का पालन करते हुए सूर्यदेव का भक्तिपूर्वक पूजन करता हैं, उसे अश्वमेध–यज्ञ का फल मिलता है ।
जो षष्ठी अथवा सप्तमी को दिन–रात उपवास करके भगवान् भास्कर का पूजन करता हैं, वह परम गति को प्राप्त होता है ।
जब शुक्लपक्ष की सप्तमी को रविवार हो, उस दिन विजयासप्तमी होती है । उसमे दिया हुआ दान महान फल देनेवाला हैं । विजयासप्तमी को किया हुआ स्नान, दान, तप, होम और उपवास– सब कुछ बड़े–बड़े पातकों का नाश करनेवाला हैं । जो मनुष्य रविवार के दिन श्राद्ध करते और महातेजस्वी सूर्य का यजन करते हैं, उन्हें अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । जिनके समस्त धार्मिक कार्य सदा भगवान सूर्य के उद्देश्य से होते है, उनके कुल में कोई दरिद्र अथवा रोगी नहीं होता । जो सफेद, लाल अथवा पीली मिटटी से भगवान् सूर्य के मंदिर को लीपता हैं, उसे मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । जो निराहार रहकर भाँती-भाँती के सुंगंधित पुष्पोंद्वारा सूर्यदेव का पूजन करता हैं, उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है । जो घी अथवा तिल के तेल से दीपक जलाकर भगवान् सूर्य की पूजा करता हैं, वह कभी अँधा नहीं होता ।
दीप-दान करनेवाला मनुष्य सदा ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित रहता है । जो सदा देव-मन्दिरों, चौराहों और सडकोंपर दीप-दान करता हैं, वह रूपवान तथा सौभाग्यशाली होता है । दीप की शिखा सदा ऊपर की ही ओर होती है । इसीप्रकार दीप-दान करनेवाला पुरुष भी दिव्य तेज से प्रकाशित होता है । वह कभी तिर्यग्योनि में नहीं पड़ता । जलते हुए दीपक को न कभी चुराये, न नष्ट करे । दीपहर्ता मनुष्य बंधन, नाश, क्रोध एवं तमोमय नरक को प्राप्त होता है ।
उदयकाल में प्रतिदिन सूर्य को अर्घ्य देने से एक ही वर्ष में सिद्धि प्राप्त होती है ।
सूर्य के उदय से लेकर अस्ततक उनकी ओर मुँह करके खड़ा हो किसी मन्त्र अथवा स्तोत्र का जप करना आदित्यव्रत कहलाता है । यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला है ।
सूर्योदय के समय श्रद्धापूर्वक अर्घ्य देकर सब कुछ सांगोपांग दान करे । इससे सब पापों से छुटकारा मिल जाता हैं ।
अर्घ्येंण सहितं चैव सर्व सागं प्रदापयेत । उदये श्रद्धया युक्त: सर्वपापै : प्रमुच्यते ।।
अग्नि, जल, आकाश, पवित्र भूमि, प्रतिमा तथा पिंडी (प्रतिमा की वेदी) में यत्नपूर्वक सूर्यदेव को अर्घ्य देना चाहिये ।
अग्नौ तोयेऽन्तरिक्षे च शुचौ भुय्यां तथैव च । प्रतिमायां तथा पिंडयां देयमर्घ्य प्रयत्नत: ।।
उत्तरायण अथवा दक्षिणायन में सूर्यदेव का विशेषरूप से पूजन करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।
इसप्रकार जो मानव प्रत्येक वेलामें अथवा कुवेला में भी भक्तिपूर्वक श्रीसूर्यदेव का पूजन करता हैं, वह उन्हीं के लोक में प्रतिष्ठित होता है ।
जो तीर्थों में पवित्र हो भगवान् सूर्य को स्नान कराने के लिये एकाग्रतापूर्वक जल भरकर लाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । छत्र, ध्वजा, चन्दोबा , पताका और चँवर आदि वस्तुएं सूर्यदेव को श्रद्धापूर्वक समर्पित करके मनुष्य अभीष्ट गति को प्राप्त होता है ।
मनुष्य जो-जो पदार्थ भगवान् सूर्य को भक्तिपूर्वक अर्पित करता हैं, उसे वे लाखगुना करके उस पुरुष को देते हैं ।
भगवान् सूर्य की कृपा से मानसिक, वाचिक तथा शरीरिक समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । सूर्यदेव के एक दिन के पूजन से भी जो फल प्राप्त होता है, वह शास्त्रोक्त दक्षिणा से युक्त सैकड़ों यज्ञों के अनुष्ठान से भी नहीं मिलता ।
मुनियों ने कहा– जगत्पते ! भगवान् सूर्य का यह अद्भुत माहात्म्य हमने सुन लिया । अब पुन: हम जो कुछ पूछते हैं, उसे बतलाइये । गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी – जो भी मोक्ष प्राप्त करना चाहे, उसे किस देवताका पूजन करना चाहिये ? कैसे उसे अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होगी ? किस उपाय से वह उत्तम मोक्ष का भागी होगा तथा वह किस साधन का अनुष्ठान करे, जिससे स्वर्ग में जानेपर उसे पुन: नीचे न गिरना पड़े ?
ब्रह्माजी बोले – द्विजवरो ! भगवान् सूर्य उदय होते ही अपनी किरणों से संसार का अंधकार दूर कर देते हैं । अत: उनसे बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं हैं । वे आदि-अंत से रहित, सनातन पुरुष एवं अविनाशी हैं तथा अपनी किरणों से प्रचंड रूप धारणकर तीनों लोकों को ताप देते हैं । सम्पूर्ण देवता इन्ही के स्वरुप है । ये तापनेवालों में श्रेष्ठ, सम्पूर्ण जगत के स्वामी, साक्षी तथा पालक हैं । ये ही बारम्बार जीवो की सृष्टि और संहार करते हैं तथा ये ही अपनी किरणों से प्रकाशित होते, तपते और वर्षा करते हैं । ये धाता, विधाता, सम्पूर्ण भूतों के आदि कारण और सब जीवों को उत्पन्न करनेवाले हैं । ये कभी क्षीण नहीं होते । इनका मंडल सदा अक्षय बना रहते है । ये पितरों के भी पिता और देवताओं के भी देवता हैं । इनका स्थान ध्रुव माना गया है, जहाँ से फिर नीचे नहीं गिरना पड़ता ।
सृष्टि के समय सम्पूर्ण जगत सूर्यसे ही उत्पन्न होता है और प्रलय के समय अत्यंत तेजस्वी भगवान् भास्कर में ही उसका लय होता है । असंख्य योगिजन अपने कलेवर का परित्याग करके वायुस्वरूप हो तेजोराशि भगवान् सूर्य में ही प्रवेश करते है । राजा जनक आदि गृहस्थ योगी, वालखिल्य आदि ब्रह्मवादी महर्षि, व्यास आदि वानप्रस्थ ऋषि तथा कितने ही संन्यासी योगका आश्रय ले सूर्यमंडल में प्रवेश कर चुके हैं । व्यासपुत्र श्रीमान शुकदेवजी भी योगधर्म प्राप्त करने के अनन्तर सूर्य की किरणों में पहुँचकर ही मोक्षपद में स्थित हए । इसलिये आप सब लोग सदा भगवान् सूर्य की आराधना करे; क्योंकि वे सम्पूर्ण जगत के माता, पिता और गुरु है ।
अव्यक्त परमात्मा समस्त प्रजापतियों और नाना प्रकार की प्रजाओं की सृष्टि करके अपने को बारह रूपों में विभक्त करके आदित्यरूप से प्रकट होते हैं ।
इंद्र, धाता, पर्जन्य, त्वष्टा, पूषा, अर्यमा, भग, विवस्वान, विष्णु, अंशुमान, वरुण और मित्र – इन बारह मूर्तियोंद्वारा परमात्मा सूर्य ने सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा हैं ।
भगवान् आदित्य की जो प्रथम मूर्ति है, उसका नाम इंद्र हैं । वह देवराज के पदपर प्रतिष्टित है । वह देवशत्रुऔ का नाश करनेवाली मूर्ति है ।
भगवान् के दुसरे विग्रहका नाम धाता है, जो प्रजापतिके पदपर स्थित हो नाना प्रकार के प्रजावर्ग की सृष्टि करते हैं ।
सूर्यदेव की तीसरी मृति पर्जन्य के नाम से विख्यात हैं, जो बादलों में स्थित हो अपनी किरणोंद्वारा वर्षा करती है ।
उनके चतुर्थ विग्रह को त्वष्ठा कहते है । त्वष्ठा सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियों में स्थित रहते हैं ।
उनकी पाँचवी मूर्ति पूषा के नामसे प्रसिद्ध हैं, जो अंत में स्थित हो सर्वदा प्रजाजनों की पुष्टि करती हैं ।
सूर्य की जो छठी मूर्ति है, उसका नाम अर्यमा बताया गया है । वह वायु के सहारे सम्पूर्ण देवताओं में स्थित रहती है ।
भानुका सातवाँ विग्रह भग के नाम से विख्यात है । वह ऐश्वर्य तथा देहधारियों के शरीरों में स्थित होता है ।
सूर्यदेव की आठवीं मूर्ति विवस्वान कहलाती है, वह अग्नि में स्थित हो जीवों के खाये हुए अन्न को पचाती है ।
उनकी नवीं मूर्ति-विष्णु के नामसे विख्यात हैं, जो सदा देवशत्रुओं का नाश करने के लिये अवतार लेती है ।
सूर्य की दसवी मूर्ति का नाम अंशुमान है, जो वायु में प्रतिष्ठित होकर समस्त प्रजा को आनंद प्रदान करती हैं ।
सूर्य का ग्यारहवाँ स्वरुप वरुण के नामसे प्रसिद्ध हैं, जो सदा जल में स्थित होकर प्रजाका पोषण करता हैं ।
भानु के बारहवें विग्रह का नाम मित्र हैं, जिसने सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिए चन्द्र नदीके तटपर स्थित होकर तपस्या की ।
परमात्मा सूर्यदेव ने इन बारह मूर्तियों के द्वारा सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा हैं । इसलिए भक्त पुरुषों को उचित हैं कि वे भगवान् सूर्य में मन लगाकर पूर्वोक्त बारह मूर्तियों में उनका ध्यान और नमस्कार करे । इस प्रकार मनुष्य बारह आदित्यों को नमस्कार करके उनके नामों का प्रतिदिन पाठ और श्रवण करने से सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।
मुनियोंने पुछा- यदि ये सूर्य सनातन आदिदेव है तो इन्होने वर पानेकी इच्छासे प्राकृत मनुष्यकी भांती तपस्या क्यों की?
ब्रह्माजी बोले- ब्राह्मणों ! यह सूर्य का परम गोपनीय रहस्य है । पूर्वकालमें मित्र देवताने महात्मा नारदको जो बतलाई थी, वही मैं तुम लोगोंसे कहता हूँ ।
एक समय की बात है, अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले महायोगी नारदजी मेरुगिरीके शिखरसे गंधमादन नामक पर्वतपर उतरे और सम्पूर्ण लोकमें विचरते हुए उस स्थानपर आये, जहाँ मित्र देवता तपस्या करते थे । उन्हें तपस्या में संलग्न देख नारदजीके मनमें कौतुहल हुआ ।
वे सोचने लगे, जो अक्षय, अविकारी, व्यक्ताव्यक्तस्वरुप और सनातन पुरुष है, जिन महात्माने तीनों लोकोंको धारण कर रखा है, जो सब देवताओंके पिता एवं परोंसे भी पर है, वे किन देवताओं अथवा पितरोंका यजन करते रहे है?
इस प्रकार मन-ही-मन विचार करके नारदजी मित्रदेवता से बोले – भगवान् ! अंगोपंगोसहित सम्पूर्ण वेदों एवं पुराणोंमें आपकी महिमाका गान किया जाता है । आप अजन्मा, सनातन, धाता तथा उत्तम अधिष्ठान है । भुत, भविष्य और वर्तमान –सबकुछ आपमें ही प्रतिष्ठित है । गृहस्थ आदि चारों आश्रम प्रतिदिन आपका ही यजन करते है । फिर भी आप किस देवता अथवा पितरकी आराधना करते है, यः हमारी समझ में नहीं आ रहा है ।
मित्र ने कहा- ब्राह्मण ! यह परम गोपनीय सनातन रहस्य कहने योग्य तो नहीं है; परन्तु आप भक्त है, इसलिय आपके सामने मैं उसका यथावत वर्णन करता हूँ ।
वह जो सूक्ष्म, अविज्ञेय, अव्यक्त, अचल, ध्रुव, इन्द्रियरहित, इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित तथा सम्पूर्ण भूतोंसे पृथक है, वही समस्त जीवोंका अंतरात्मा है; उसीको क्षेत्रज्ञ भी कहते है । वह तीनों गुणोंसे भिन्न पुरुष कहा गया है, उसीका नाम भगवान हिरण्यगर्भ है । वह सम्पूर्ण विश्वकी आत्मा, शर्व और अक्षर माना गया है । उसने इस एकात्मक त्रिलोकीको अपने आत्मा के द्वारा धारण कर रखा है । वह स्वयं शरीरसे रहीत है, किन्तु समस्त शरीरोंमें निवास करता है । शरीरमें रहते हुय भी वह उसके कर्मोंसे लिप्त नहीं होता । वह मेरा, तुम्हारा तथा अन्य जितने भी देहधारी है, उनका भी आत्मा है । सबका साक्षी है, कोई भी उसका ग्रहण नहीं कर सकता । वह सगुण, निर्गुण, विश्वरूप तथा ज्ञानगम्य माना गया है । उसके सब ओर हाथ-पैर है, सब ओर नेत्र, सर और मुख है तथा सब ओर कान है, वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है ।*
सम्पूर्ण मस्तक उसके मस्तक, सम्पूर्ण भुजाएँ उसकी भुजा, सम्पूर्ण पैर उसके पैर, सम्पूर्ण नेत्र उसके नेत्र एवं सम्पूर्ण नासिकाएँ उसकी नासिका है । वह स्वेच्छाचारी है और अकेला ही सम्पूर्ण क्षेत्रमें सुखपूर्वक विचरता है । यहाँ जितने शरीर है, वे सभी क्षेत्र कहलाते है । अव्यक्त पुरमें शयन करता है, अतः उसे पुरुष कहते है । विश्वका अर्थ है बहुविध; वह परमात्मा सर्वत्र बतलाया जाता है, इसलिये बहुविधरूप होनेके कारण वह विश्वरूप माना गया है । एकमात्र वही महान है और एकमात्र वही पुरुष कहलाता है; अतः वह एकमात्र सनातन परमात्मा ही महापुरुष नाम धारण करता है । वह परमात्मा स्वयं ही अपने-आपको सौ, हजार, लाख और करोड़ों रूपों में प्रकट कर लेता है । जैसे आकाश से गीरा हुआ जल भूमिके रसविशेससे दुसरे स्वाद का हो जाता है, उसी प्रकार गुणमय रसके सम्पर्कसे वह परात्मा अनेक रूप प्रतीत होने लगता है । जैसे एक ही वायु समस्त शरीरोंमें पांच रूपोमें स्थित है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता और अनेकता मानी गई है । जैसी अग्नि दुसरे स्थानकी विशेषतासे अन्य नाम धारण करती है, उसी प्रकार वह परमात्मा ब्रहमा आदिके रूपोंमें भिन्न-भिन्न नाम धारण करता है । जैसे एक दीप हजारों दीपकोंको प्रकट करता है, वैसे ही वह एक परमात्मा हजारों रूपोंको उत्पन्न करता है । संसारमें जो चराचर भुत है, वे नित्य नहीं है; परन्तु वह परमात्मा अक्षय, अप्रमेय तथा सर्वव्यापी कहा जाता है । वह ब्रह्मा सदसत्स्वरूप है । लोकमें देवकार्य तथा पितृकार्यके अवसरपर उसीकी पूजा होती है । उससे बढकर दूसरा कोई देवता या पितर नहीं है । उसका ज्ञान अपने आत्माके द्वारा होता है । अतः मै उसी सर्वात्माका पूजन करता हूँ ।
देवर्ष ! स्वर्गमें जो भी जीव उस परमेश्वरको नमस्कार करते है, वे उसी के द्वारा दिए हुए अभीष्ट गतिको प्राप्त होते है । देवता और अपने-अपने आश्रमोंमें स्थित मनुष्य भक्तिपूर्वक सबके आदिभूत उस परमात्माका पूजन करते है और वे उन्हें सद्रित प्रदान करते है । वे सर्वात्मा, सर्वगत औअर निर्गुण कहलाते है । मैं भगवान सूर्यको ऐसा मानकर अपने ज्ञानके अनुसार उनका पूजन करता हूँ ।
नारदजी ! यह गोपनीय उपदेश मैंने अपनी भक्ती के कारण आपको बतलाया है । आपने भी इस उत्तम रहस्यको भलीभाँती समझ लिया है । देवता, मुनि और पुराण-सभी उस परमात्माको वरदायक मानते है और इसी भावसे सबलोग भगवान दिवाकरका पूजन करते है ।
ब्रह्माजी कहते हैं – इसप्रकार मित्र देवताने पूर्वकाल में नारदजी को यह उपदेश दिया था । भानु के उपदेश को मैंने भी आप लोगों से कह सुनाया । जो सूर्य का भक्त न हो, उसे इसका उपदेश नहीं देना चाहिये । जो मनुष्य प्रतिदिन इस प्रसंग को सुनाता और जो सुनता है, वह नि:संदेह भगवान् सूर्य में प्रवेश करता हैं ।
आरम्भ से ही इस कथा को सुनकर रोगी मनुष्य रोग से मुक्त हो जाता हैं और जिज्ञासु को उत्तम ज्ञान एवं अभीष्ट गति की प्राप्ति होती है ।
मुनियों ! जो इसका पाठ करता है, वह जिस–जिस वस्तुकी कामना करता हैं, उसे निश्चय ही प्राप्त कर लेता है ।
भक्ति कैसी की जाती है और देवता कैसे प्रसन्न होते है?
ब्रह्माजी कहते है :- मन के द्वारा इष्टदेव के प्रति जो भावना होती है, उसे ही भक्ति और श्रद्धा कहते है । जो इष्टदेव की कथा सुनता है, उनके भक्तों की पूजा करता तथा अग्नि की उपासना में संलग्न रहता है वह सनातन भक्त है ।
जो इष्टदेव का चिंतन करता उन्ही में मन लगाता, उन्ही के पूजा में रत रहता तथा उन्ही के लिय कर्म करता है, वह निश्चय ही सनातन भक्त है ।
जो इष्टदेव के लिए किए जाने वाले कर्मों का अनुमोदन करता है, उनके भक्तों में दोष नहीं देखता, अन्य देवता की निंदा नहीं करता, सूर्य के व्रत रखता, तथा चलते-फिरते, ठहरते, सोते, सूंघते, और आँख खोलते-मिचते समय भगवान भास्कर का स्मरण करता है वह मनुष्य अधिक भक्त कहा गया है । विज्ञ पुरुष को सदा ऐसा ही भक्ति करनी चाहिए । भक्ति समाधि, स्तुति और मन से जो नियम किया जाता है और जो ब्राह्मणों को दान दिया जाता है, उसे देवता, मनुष्य और पितर – सभी ग्रहण करते है ।
वह जो सूक्षम, अविज्ञेय, अव्यक्त, अचल, ध्रव, इन्द्रिये रहित, इन्द्रियों के विषय से रहित तथा सम्पूर्ण भूतों से अलग है वही समस्त जीवन का कारण है वह तीनों गुणों से अलग है उसी का नाम हिरण्यगर्भ कहा गया है यही सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, शर्व, अक्षर माना गया है वह स्वयं शरीर से रहित है किन्तु समस्त शरीर में रहते हुए भी वह उसके कर्मों से लिप्त नहीं होता है उसके सब ओर हाथ-पैर है सब ओर नेत्र, सिर, और मुख है सब ओर कान है वह संसार में सबको व्यपात करके स्थित है
सूर्य बारह है जिसका नाम (१) विष्णु,(२) धाता, (३) भग (४) पूषा, (५) मित्र, (६) इंद्र (७) वरुण (८) अर्यमा, (९) विवस्वान (१०) अंशुमान (११) त्वष्टा (१२) पर्जन्य – ये सभी अलग अलग है चैतमास में विष्णु, वैशाख मास में अर्यमा, ज्येष्ठ में विवस्वान, आषाढ़ में अंशुमान, श्रावण में पर्जन्य, भादों में वरुण, आश्विन में इंद्र, कार्तिक में धाता, अगहन में मित्र, पौष में पूषा, माध में भग तथा फाल्गुन में त्वष्टा नामक सूर्य तपते है
जो अंतरिक्ष के बीच आग में तपाये गोले के सामान सदृश्य दिखाई देते है जिनका विग्रह अधिक स्पष्ट नहीं जान परता वह भगवान सूर्य की भाती शोभा पाते है उनका नाम भगवान मार्तण्ड है
इलावृत वर्ष में एकमात्र भगवान शंकर ही पुरुष है श्रीपार्वती के शाप को जानने वाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता क्योकि वहाँ जो भी जाता है वह स्त्री हो जाता है
भद्राश्रव् वर्ष में धर्मपुत्र भद्रश्रव और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान वासुदेव को हयाद्रीव रूप से पूजन करते है
हरिवर्ष में भगवान नरसिंह रहते है भगवान के उस प्रिये रूप की महाभागवत प्रह्लादजी उस वर्ष में अन्य पुरुषों के सहित निष्काम एवं अन्नय भक्तिभाव से उपासना करते है ये प्रह्लादजी महापुरुषों की गुणों से सुशोभित है अपने शील एवं आचरण से यहां के दैत्य और दानवों के कुल को पवित्र कर दिया है
केतुमाल वर्ष में लक्ष्मी जी के साथ वहाँ संवस्तर नामक प्रजापति के पुत्र और पुत्रियों का प्रिये करने के लिए भगवान कामदेव के रूप में स्थित है यहां देवतारूप कन्याएं और देवतारूप पुत्रों की संख्या मनुष्य वर्ष के अनुसार एक वर्ष के बराबर दिन-रत होते है वे ही उस वर्ष के अधिपति है वे कन्याएं परम पुरुष श्री नारायण के श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शन चक्र के तेज से डर जाती है इसलिए प्रत्येकवर्ष के अंत में उसके गर्भ नष्ट हो जाते है यहां भगवान अपने सुललित गति और विलास से सुशोभित होकर मधु-मधुर मंद मुस्कान से मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवन से कुछ उझके हुए सुन्दर भ्रू मंडल की छवीली छटा के द्वारा वन्दना रविन्द का राशी राशी सौंदर्य उँड़ेलकर सौंदर्य देवी श्री लक्ष्मी को अत्यंत आनंदित करते है और स्वयं आनंदित होते रहते है श्री लक्ष्मी जी परम समाधि योग के द्वारा भगवान के उस मायामय स्वरुप की रात्रि के समय प्रजापति संवस्तर की कन्याओं सहित और दिन में उनके पतियों के सहित आराधना करती है
रम्यक वर्ष में भगवान ने वहाँ के अधपति मनु वैवस्त को पूर्वकाल में अपना परम प्रिय मत्सयरूप दिखाया था मनु वैवस्त जी इस समय भी भगवान के उसी रूप को बड़े भक्ति भाव से उपासना करते है और कहते है हे प्रभु जिस प्रकार नट कठपुतिलियों को नाचता है उसी प्राकर आप भी ब्राह्मण, क्षत्रिये, वैश्य एवं शूद्र नामों की डोरी से सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करके नचा रहे है जिस प्रकार नट कठपुतिलियों का प्रेरक है उसी प्रकार आप ही सबका प्रेरक है जिस प्रकार नट को कठपुतिलिया नहीं देख पाती है उसी प्रकार सभी प्राणी भी आपको नहीं देख सकता आप समस्त प्राणियों के भीतर और बाहर प्राणवायु के रूप में निरंतर संचार करते रहते है वेद ही आपका महान शब्द है
ब्रह्मा जी कहते है – भगवान सूर्य उदय होते ही अपनी किरणों से संसार का अंधकार दूर कर देते है, अतः सूर्य से बढाकर दूसरा कोई देवता नहीं । सम्पूर्ण देवता सूर्य के ही स्वरुप है । सूर्य तपने वालों में श्रेष्ठ, सम्पूर्ण जगत के स्वामी, साक्षी और पालक है । सूर्य ही अपनी किरणों से प्रकाशित होते है, तपते है और वर्षा करते है । सूर्य ही सब जीवों को उतपन्न करने वाले है । सूर्य कभी क्षीण नहीं होते । सूर्य का मंडल सदा अक्षय बना रहता है । सृष्टी के समय समपूर्ण जगत सूर्य से ही उतपन्न होता है और प्रलय के समय भी अत्यंत तेज ही इस जगत को ले कर देते है ।
सूर्य सृष्टी करके अपने बारह रूपों में विभक्त होकर इस जगत को व्याप्त कर रखा है सूर्यदेव का जो प्रथम मूर्ति है उसका नाम इंद्र है वह देवराज के पद पर प्रतिष्ठित है इनका काम देव शत्रुओं का नाश करना है
सूर्यदेव का जो दूसरे मूर्ति है उसका नाम धाता है, ये प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित है इनका काम नाना प्रकार के प्रजा वर्ग का सृष्टि करना है
सूर्यदेव का जो तीसरी मूर्ति है उसका नाम पर्जन्य है, इनका काम बादलों में स्थित जल को अपनी किरणों द्वारा वर्षा करवाना
सूर्यदेव का जो चौथी मूर्ति है उसका नाम त्वष्टा है इनका काम सम्पूर्ण वनस्पतियों और औषधियों में अपनी ताप के द्वारा स्थित रहना है
सूर्यदेव का जो पांचवी मूर्ति है उसका नाम पूषा है इनका काम अन्न में स्थित रहकर प्रजा जनों को पुष्टि करना है
सूर्यदेव का जो छथि मूर्ति है उसका नाम अर्यमा है इनका काम वायु के सहारे सम्पूर्ण देवताओं में स्थित रहना है
सूर्यदेव का जो सातवी मूर्ति है उनका नाम भग है इनका काम देहधारियों के शरीर में स्थित रहना है
सूर्यदेव का जो आठवी मूर्ति है इनका नाम विवस्वान है इनका काम अग्नि में स्थित होकर जीवन द्वारा खाए हुए अन्न को पचाना है
सूर्यदेव का जो नौवी मूर्ति है इनका नाम विष्णु है इनका काम देव शत्रु को नाश करने के लिए तरह तरह के अवतार लेते रहना है
सूर्यदेव का जो दशवी मूर्ति है इनका नाम अंशुमान है इनका काम वायु में प्रतिष्ठित होकर समस्त प्रजा को आनंद प्रदान करना है
सूर्यदेव का जो ग्यारहवीं मूर्ति है इनका नाम वरुण है इनका काम सदा जल में स्थित रहकर प्रजा का पोषण करना है
सूर्यदेव का जो बारहवी मूर्ति है उनका नाम मित्र है इनका काम है सम्पूर्ण लोकों को हिट करते रहना
इस प्रकार सूर्यदेव बारह मूर्ति में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कररखा है
इनमे से जो मित्र नाम वाली सूर्य मूर्ति है वह मेरु पर्वत पर जिनका ध्यान करते है उसका वर्णन उन्ही के द्वारा कहे गए है वह सुनों ॥
मित्र ने कहा :- वह जो सूक्ष्म, अविज्ञेय, अव्यक्त, अचल, ध्रुव, इन्द्र्यारहित, इन्द्रियों के विषयों से रहित तथा सम्पूर्ण भूतों से पृथक है, वही समस्त जीवों का अंतरात्मा है; उसी को क्षेत्रज्ञ कहते है वह तीनों गुणों से भिन्न है उसी का नाम हिरण्य गर्भ है । वही सम्पूर्ण विश्व के आत्मा, सर्व, और अक्षर माना गया है । उन्होंने ही इस एकात्मक त्रिलोकी को अपने आत्मा के द्वारा धारण कर रखा है । वह तो स्वयं शरीर से रहित है किन्तु समस्त शरीरों में ही निवास करते है । वह शरीर में रहते हुए भी उस शरीर के कर्मों से लिप्त नहीं होते । वही सगुन, निर्गुण, विश्वरूप तथा ज्ञानगम्य माना गया है । वही संसार में सबको व्याप्त करके स्थित है । *
वह अव्यक्त शरीर में शयन करते है इस कारण वह पुरुष कहे गए है, विश्व का अर्थ है बहुविधि, बहुविधि का अर्थ होता है सर्वत्र इसलिए बहुविध रूप होने के कारण वह विश्व रूप कहा गया है । उनका ज्ञान अपने आत्मा के द्वारा होता है मैं उसी सर्वात्मा का पूजन करता हूँ
अध्याय १८ सूर्य की महिमा तथा अदिति के गर्भ से उनके अवतार का वर्णन
ब्रह्मा जी कहते है :- भगवान सूर्य सबके आत्मा, सम्पूर्ण लोकों के ईश्वर, देवताओं के भी देवता और प्रजापति है । सूर्य ही तीनों लोक के जड़ है, परम देवता है । अग्नि में विधिपूर्वक डाली हुई आहुति सूर्य के ही पास पहुचती है । सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन निर्वाह करती है ।
क्षण, मुहूर्त, दिन, रात, पक्ष, मास, संवस्तर, ऋतू और युग – इनकी काल संख्या सूर्य के बिना नहीं हो सकती । कालका ज्ञान हुए बिना न कोई नियम चल सकता है और न ही अग्निहोत्र आदि ही हो सकती है ।
सूर्यके बिना ऋतुओंका विभाग भी नहीं होगा और उसके बिना वृक्षोंमें फल और फुल कैसे लग सकते है ? खेती कैसी पाक सकती है और नाना प्रकार के अन्न कैसे उतपन्न हो सकते है ? उस दशामें स्वर्गलोक तथा भूलोकमें जीवोंके व्यवहारका भी लोप हो जाएगा ।
आदित्य, सविता, सूर्य, मिहिर, अर्क, प्रभाकर, मार्तण्ड, भास्कर, भानु, चित्रभानु, दिवाकर तथा रवि-इन बारह सामान्य नामोंके द्वारा भगवान सूर्यका ही बोध होता है ।
विष्णु, धाता, भग, पूषा, मित्र, इन्द्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान, अंशुमान, त्वष्टा तथा पर्जन्य-ये बारह सूर्य पृथ्क-पृथ्क माने गये है ।
चैत्र में विष्णु, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में विवस्वान, आषाढ़में अंशुमान, श्रावन में पर्जन्य, भादों में वरुण, आश्विन में इंद्र, कार्तिक में धाता, अगहन में मित्र, पौष में पूषा, माध में भग, फाल्गुन में त्वष्टा नामक सूर्य तपते है ।
इस प्रकार यहाँ एक ही सूर्यके चोबीस नाम बताये गये है । इसके अतिरिक्त और भी हजारों नाम विस्तारपूर्वक कहे गये है ।
मुनियोंने पूछा- प्रजापते ! जो एक हजार नामोंके द्वारा भगवान सूर्यकी स्तुती करते है, उन्हें क्या पुण्य होता है ? तथा उनकी कैसी गति होती है ?
ब्रहमाजी बोले- मुनिवरों ! मैं भगवान सूर्यका कल्याणमय सनातन स्त्रोत कहता हूँ, जो सब स्तुतियोंका सारभुत है । इसका पाठ करने वालेको सहस्त्र नामोंकी आवश्यकता नहीं रह जाती ।
भगवान भास्करके जो पवित्र, शुभ एवं गोपनीय नाम है, उन्ही का वर्णन करता हूँ; सुनों ।
सूर्य के हजारों नाम है, अधिकतर मनुष्यों के लिए भगवान सूर्य के हाजरों नाम से स्तुति करना कठिन है । इसकारण भगवान भास्कर के पवित्र, शुभ एवं गोपनीय नाम का वर्णन करता हूँ :- विकर्तन, विवस्वान, मार्तण्ड, भास्कर, रवि, लोकप्रकाशक, श्रीमान, लोकचक्षु, महेश्वर, लोकसाक्षी, त्रिलोकेश, कर्ता, हर्ता, तमिस्रहा, तपन, तापन, शुचि, सप्ताश्र्ववाहन, गभस्तिहस्त, ब्रह्मा और सर्वदेवनमस्कृत – ये भगावन सूर्य के इक्कीस नाम का स्त्रोत्र अत्यंत प्रिये है ।
यह स्त्रोत मनुष्यों के लिए शरीर को निरोग बनानेबाला, धन की बृद्धि करनेवाला, यश फैलानेवाला है यह स्त्रोत तीनों लोक में प्रसिद्द है । जो सूर्य के उदय और अस्त काल में दोनों संध्याओं के समय इस स्त्रोत के द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है । भगवान सूर्य के समीप एक बार भी इसका जप करने से मानसिक, वाचिक, शारीरिक तथा कर्मजनित सब पाप नष्ट हो जाते है ।
अतः ब्राह्मणों ! आप लोग यत्नपूर्वक सम्पूर्ण अभिलषित फलोंके देनेवाले भगवान सूर्यका इस स्त्रोत्रके द्वारा स्तवन करे ।
मुनियोंने पूछा- भगवान् ! आपने भगवान सूर्यको निर्गुण एवं सनातन देवता बतलाया है; फिर आपके ही मुँहसे हमने यः भी सूना है कि वे बारह स्वरूपोंमें प्रकट हुए । वे तेज के राशि और महान तेजस्वी होकर किसी स्त्रीके गर्भमैं कैसे प्रकट हुए, इस विषयमें हमें बड़ा संदेह है ।
ब्रह्माजी बोले- प्रजापति दक्षके साठ कन्याएँ हुई, जो श्रेष्ठ और सुन्दरी थीं। उनके नाम अदिति, दिति, दुनु और विनता आदि थे। उनमेंसे रह कन्याओंका विवाह दक्षने कश्यपजीसे किया था। अदितिने तीनों लोकके स्वामी देवताओंको जन्म दिया। दितिसे दैत्य और दनुसे बलाभिमानी भयंकर दानव उत्पन्न हुए। विनता आदि अन्य स्त्रियोंने भी स्थावर-जङ्गम भूतोंको जन्म दिया। इन दक्षसुताओंके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो गया। कश्यपके पुत्रों में देवता प्रधान हैं, वे सात्त्विक हैं। इनके अतिरिक्त दैत्य आदि राजस और तामस हैं। देवताओंको यज्ञका भागी बनाया गया है। परंतु दैत्य और दानव उनसे शत्रुता रखते थे, अतः वे मिलकर उन्हें कष्ट पहुँचाने लगे। माता अदितिने देखा, दैत्यों और दानवोंने मेरे पुत्रोंको अपने स्थानसे हटा दिया और सारी त्रिलोकी नष्टप्राय कर दी। तब उन्होंने भगवान् सूर्यकी आराधनाके लिये महान् प्रयत्न किया। वे नियमित आहार करके कठोर नियमका पालन करती हुई एकाग्रचित्त हो आकाशमें स्थित तेजोराशि भगवान् भास्करका स्तवन करने लगीं।
अदिति बोलीं- भगवन् ! आप अत्यन्त सूक्ष्म, परम पवित्र और अनुपम तेज धारण करते हैं। तेजस्वियोंके ईश्वर, तेजके आधार तथा सनातन देवता हैं। आपको नमस्कार हैं। गोपते ! जगत्का उपकार करनेके लिये मैं आपकी स्तुति–आपसे प्रार्थना करती हैं। प्रचण्ड रूप धारण करते समय आपकी जैसी आकृति होती है, उसको मैं प्रणाम करती हैं। क्रमश: आठ मासतक पृथ्वीके जलरूप रसको ग्रहण करनेके लिये आप जिस अत्यन्त तीव्र रूपको धारण करते हैं, उसे मैं प्रणाम करती है। आपका वह स्वरूप अग्नि और सोमसे संयुक्त होता है। आप गुणात्माको नमस्कार है। विभावसो ! आपका जो रूप ऋक्, यजुर् और सामकी एकतासे त्रयीसंज्ञक इस विश्वके रूपमें तपता है उसको नमस्कार है। सनातन ! उससे भी परे जो ‘ॐ’ नामसे प्रतिपादित स्थूल एवं सूक्ष्मरूप निर्मल स्वरूप है, उसको मेरा प्रणाम है।
ब्रह्माजी कहते हैं- इस प्रकार बहुत दिनोंतक आराधना करनेपर भगवान् सूर्यने दक्षकन्या अदितिको अपने तेजोमय स्वरूपको प्रत्यक्ष दर्शन कराया।
अदिति बोलीं- जगत् के आदि कारण भगवान् सूर्य ! आप मुझपर प्रसन्न हों। गोपते ! मैं आपको भलीभाँत देख नहीं पाती। दिवाकर ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे मुझे आपके रूपको भलीभाँति दर्शन हो सके। भक्तोंपर दया करनेवाले प्रभो ! मेरे पुत्र आपके भक्त हैं। आप उनपर कृपा करें।
तब भगवान् भास्करने अपने सामने पड़ी हुई देवीको स्पष्ट दर्शन देकर कहा- ‘ देवि ! आपकी जो इच्छा हो, उसके अनुसार मुझसे कोई एक वर माँग लें।
अदिति बोलीं- देव ! आप प्रसन्न हों। अधिक बलवान् दैत्यों और दानवोंने मेरे पुत्रोंके हाथसे त्रिलोकीका राज्य और यज्ञभाग छीन लिये हैं। गोपते ! उन्हींके लिये आप मेरे ऊपर कृपा करें। अपने अंशसे मेरे पुत्रोंके भाई होकर आप उनके शत्रुओंका नाश करें।
भगवान् सूर्यने कहा- देवि ! मैं अपने हजारवें अंशसे तुम्हारे गर्भका बालक होकर प्रकट होऊँगा और तुम्हारे पुत्रके शत्रुओं का नाश करूंगा। । यों कहकर भगवान् भास्कर अन्तर्धान हो गये और देवी अदिति भी अपना समस्त मनोरथ सिद्ध हो जानेके कारण तपस्यासे निवृत्त हो गयीं। तत्पश्चात् वर्षके अन्तमें देवमाता अदितिकी इच्छा पूर्ण करने के लिये भगवान् सविताने उनके गर्भमे निवास किया। उस समय देवी अदिति यह सोचकर कि मैं पवित्रतापूर्वक ही इस दिव्य गर्भको धारण करूंगी, एकाग्रचित्त होकर कृच्छु और चान्द्रायण आदि व्रतोंका पालन करने लगीं। उनका यह कठोर नियम देखकर कश्यपजीने कुछ कुपित होकर कहा- ‘ तू नित्य उपवास करके गर्भके बचेको क्यों मारे डालती है।’ तब वे भी रुष्ट होकर बोलीं-‘ देखिये, यह रहा गर्भको बच्चा। मैंने इसे नहीं मारा है, यही अपने शत्रुओंको मारनेवाला होगा।’ यों कहकर देवमाताने उसी समय उस गर्भका प्रसव किया। वह उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी अण्डाकार गर्भ सहसा प्रकाशित हो उठा। उसे देखकर कश्यपजीने वैदिक वाणीके द्वारा आदरपूर्वक उसका स्तवन किया। स्तुति करनेपर उस गर्भसे बालक प्रकट हो गया। उसके श्रीअङ्गको आभा पद्मपत्रके समान श्याम शौ। उसका तेज सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो गया। इसी समय अन्तरिक्षसे कश्यप मुनिको सम्बोधित करके सजल मेघके समान गम्भीर स्वरमें आकाशवाणी हुई-मुने ! तुमने अदितिसे कहा था- ‘ त्वया मारितम् अपडम्’ (तून गर्भके बच्चेको मार डाला), इसलिये तुम्हारा यह पुत्र मार्तण्डके नामसे विख्यात होगा और यज्ञभागका अपहरण करनेवाले अपने शत्रुभूत असुरोंका संहार करेगा।’ यह आकाशवाणी सुनकर देवताओं को बड़ा हर्ष हुआ और दानव हतोत्साह हो गये। तत्पश्चात् देवताओं सहित इन्द्रने दैत्योंको युद्धके लिये ललकारा। दानवोंने भी आकर उनका सामना किया। उस समय देवताओं और असुरॉमें बड़ा भयानक युद्ध हुआ। उस युद्धमें भगवान् मार्तण्डने दैत्योंकी ओर देखा, अतः वे सभी महान् असुर उनके तेजसे जलकर भस्म हो गये। फिर वो देवताओंके हर्षकी सीमा नहीं रही। उन्होंने अदिति और मार्तण्डका स्तवन किया। तदनन्तर देवताओंको पूर्ववत् अपने-अपने अधिकार और यज्ञभाग प्राप्त हो गये। भगवान् मार्तण्ड भी अपने अधिकारका पालन करने लगे। ऊपर और नीचे सब ओर किरणें फैली होनेसे भगवान् सूर्य कदम्बपुष्पकी भाँत शोभा पाते थे। वे आगमें तपाये हुए गोलेके सदृश दिखायी देते थे। उनका विग्रह अधिक स्पष्ट नहीं जान पड़ता था।
अध्याय १९ श्री सूर्य देव की स्तुति तथा अष्टोत्तरशत नामों का वर्णन
ब्रह्मा जी कहते है :- स्थावर-जंगम समस्त प्राणियों के नष्ट हो जाने पर जब समस्त लोक अंधकार में विलीन हो गए थे, उस समय सबसे पहले प्रकृति से गुणों की हेतुभूत समष्टि बुद्धि का अभिभार्व हुआ । उस बुद्धि से पंचमहाभूतों का प्रवर्तक अहंकार प्रकट हुआ । आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी – ये पांच महाभूत हुए । इसके बाद एक अण्ड उतपन्न हुआ । उसमे ये सात लोक प्रतिष्ठित थे । सातों द्वीपों और समुंद्रों सहित पृथ्वी भी उसमे थी । उसी मैं विष्णु और महादेव जी भी थे । वहाँ सब लोग तमोगुण से अभिभूत एवं विमूढ़ थे और परमेश्वर का ध्यान करते थे । इसके बाद अंधकार को दूर करने वाले एक महातेजस्वी देवता प्रकट हुय । उस समय हमलोगों ने ध्यान के द्वारा जाना की ये भगवान सूर्य है । उन परमात्मा को जानकर हमने दिव्य स्तुतियों के द्वारा उनका स्तवन आरम्भ किया था ।
ब्रह्मा, विष्णु एवं महादेव द्वारा भगवान सूर्य की स्तुति :-
भगवन ! तुम आदिदेव हो, ऐश्वर्य से समपन्न होने के कारण तुम देवताओं के इश्वर हो । सम्पूर्ण भूतों के आदिकर्ता भी तुम्ही हो । तुम्ही देवाधि देव दिवाकर हो । सम्पूर्ण भूतों, देवताओं, गन्धर्वों, राक्षसों, मुनियों, किन्नरों, सिद्धों, नागों तथा पक्षियों का जीवन तुमसे ही चलता है । तुम्ही ब्रह्मा, तुम्ही विष्णु, तुमही महादेव, तुम्ही प्रजापति, तुम्ही वायु, इंद्र, सोम, विवस्वान, एवं वरुण हो । तुम्ही काल हो । सृष्टि के कर्ता, धर्ता, संहर्ता और प्रभु भी तुम्ही हो । नदी, समुन्द्र, पर्वत, बिजली, इंद्र-धनुष, प्रलय, सृष्टि, व्यक्त, अव्यक्त, एवं सनातन पुरुष भी तुम्ही हो । साक्षात परमेश्वर तुम्ही हो । तुम्हारे हाथ और पैर सब ओर है । नेत्र, मस्तक, और मुख भी सब ओर है, तुम्हारे सहस्त्रों किरणे, सहस्त्रों मुख, सहस्त्रों चरण और सहस्त्रों नेत्र है । तुम सम्पूर्ण भूतों के आदिकारण हो । भू:, भुव:, स्व: मह: जन: तप: और सत्य – ये सब तुम्हारे ही स्वरुप है । तुम्हारा जो स्वरुप अत्यंत तेजस्वी, सबका प्रकाशक, दिव्य, सम्पूर्ण लोकों में प्रकाश बिखेरनेवाला और देवेश्वरों के द्वारा भी कठिनता से देखे जाने योग्य है, उसको हमारा नमस्कार है । देवता और सिद्ध जिसका सेवन करते है, भृगु, अत्रि और पुलह आदि महर्षि जिसकी स्तुति में संलग्न रहते है तथा जो अत्यंत अव्यक्त है, तुम्हारे उस स्वरुप को हमारा प्रणाम है । सम्पूर्ण देवताओं में उतकृष्ट तुम्हारा जो रूप वेदवेत्ता पुरुषों द्वारा जानने योग्य, नित्य और सर्वज्ञान समपन्न है, उसको हमारा नमस्कार है । तुम्हारा जो रूप यज्ञ, वेद, लोक, तथा द्युलोक से भी परे परमात्मा नाम से विख्यात है, उसको हमारा नमस्कार है । जो अविज्ञेय, अलक्ष्य, अचिन्त्य, अव्यय, अनादि और अन्नत है, तुम्हारे उस स्वरुप को हमारा प्रणाम है । प्रभो! तुम कारण के भी कारण हो, तुमको बारम्बार नमस्कार है । पापों से मुक्त करने वाले तुम्हे प्रणाम है, प्रणाम है । तुम दैत्यों को पीड़ा देनेवाले और रोगों से छुटकारा दिलानेवाले हो । तुम्हे अनेकानेक नमस्कार है । तुम सबको वर, सुख, धन और उत्तम बुद्धि प्रदान करने वाले हो । तुम्हे बारम्बार नमस्कार है । *
ब्रह्माजी कहते है :- भगवान सूर्य के एक सौ आठ नाम कहता हूँ जो स्वर्ग और मोक्ष देने वाला है :- ॐ सूर्य, अर्यमा, भग, त्वष्टा, पूषा, अर्क, सविता, रवि, गभस्तिमान, अज, काल, मृत्यु, धाता, प्रभाकर, पृथ्वी, आप, तेज, ख, वायु, परायण, सोम, बृहस्पति, शुक्र, बुध, अंगारक, इंद्र, विवस्वान, दीप्तांशु, शुचि, सौरि, शनैश्चर, ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र, स्कन्द, वैश्रवण, यम, वैद्युत, अग्नि, जठराग्नि, एन्धन, अग्नि, तेज:पति, धर्मध्वज, वेदकर्ता, वेदांग, वेदवाहन, कृत, त्रेता, द्वापर, कलि, सर्वामराश्रय, कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षपा, याम, क्षण, संवस्तरकर, अश्र्वत्थ, कालचक्र, विभावसु, पुरुष, शाश्र्वत, योगी, व्यक्ताव्यक्त, सनातन, कालाध्यक्ष, प्रजाध्यक्ष, विश्वकर्मा, तमोनुद, वरुण, सागर, अंश, जीमूत, जीवन, अरिहा, भूताश्रय, भूतपति, सर्वलोकनमस्कृत, स्रष्टा, संवर्तक, अग्नि, सर्वादी, अलोलुप, अन्नत, कपिल, भानु, कामद, सर्वतोमुख, जय, विशाल, वरद, सर्वभूतनिषेवित, मन, सुपर्ण, भूतादि, शीध्रग, प्राणधारण, धन्वन्तरि, धूमकेतु, आदिदेव, अदितिपुत्र, द्वादशात्मा, रवि, दक्ष, पिता, माता, पितामह, स्वर्गद्वार, प्रजाद्वार, मोक्षद्वार, त्रिविष्टप, देहकर्ता, प्रशांतात्मा, विश्वात्मा, विश्वतोमुख, चराचरात्मा, सूक्ष्मात्मा, मैत्रेय तथा करुणान्वित * – ये अमित तेजस्वी एवं कीर्तन करने योग्य भगवान सूर्य के एक सौ आठ सुन्दर नाम है ।
जो मनुष्य देवश्रेष्ठ भगवान सूर्य के इस स्त्रोत का शुद्ध एवं एकाग्र चित से कीर्तन करता है, वह शोकरूपी दावानल के समुन्द्र से मुक्त हो जाता और मनोवांछित भागों को प्राप्त कर लेता है ।
अध्याय २० पार्वती की तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा उनके द्वारा ग्राह के मुख से ब्राह्मण-बालक का उद्धार
मुनियो ने पूछा – प्रभो ! दक्षकन्या सती ने क्रोधवश पूर्व शरीर का परित्याग करके फिर गिरिराज हिमालय के घर में कैसे जन्म लिया ? महादेवजी के साथ उनका संयोग कैसे हुआ ? तथा उस दम्पति में वार्तालाप किस प्रकार हुआ ?
ब्रह्माजी बोले – मुनिवरो ! पार्वती और महादेवजी की पवित्र कथा पापों का नाश करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली हैं; उसे कहता हूँ, सुनो । एक समय की बात है, महर्षि कश्यप हिमवान के घरपर पधारे । उससमय हिमवान ने पूछा – ‘मुने ! किस उपाय से मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे, मेरी अधिक प्रसिद्धि होगी और सत्पुरुषों में मैं पूजनीय समझा जाऊँगा ?’
कश्यप ने कहा – महाबाहो ! उत्तम सन्तान होने से यह सब कुछ प्राप्त हो जाता हैं । ब्रह्मा और ऋषियोंसहित मेरी प्रसिद्धि तो केवल सन्तान के ही कारण है । अत: गिरिराज ! तुम घोर तपस्या करके गुणवान सन्तान – श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न करो ।
ब्रह्माजी कहते हैं – कश्यपजी के यों कहनेपर गिरिराज हिमालय ने नियम में स्थित होकर ऐसी तपस्या की, जिसकी कहीं तुलना नहीं है । उस तपस्या से मुझे बड़ा संतोष हुआ । तब मैंने उनके पास जाकर कहा – ‘उत्तम व्रत के पालन करनेवाले गिरिराज ! अब मैं तुम्हारी इस तपस्या से संतुष्ट हूँ । तुम इच्छानुसार वर माँगो ।’
हिमालय ने कहा – भगवन ! मैं सब गुणों से सुशोभित सन्तान चाहता हूँ । यदि आप मुझपर संतुष्ट हैं तो ऐसा ही वर दीजिये ।
गिरिराज की यह बात सुनकर मैंने उन्हें मनोवांछित वर देते हुए कहा – ‘शैलेन्द्र ! इस तपस्या के प्रभाव से तुम्हारे कन्या उत्पन्न होगी, जिससे तुम सर्वत्र उत्तम कीर्ति प्राप्त करोगे । तुम्हारे यहाँ कोटि-कोटि तीर्थ वास करेंगे । तुम सम्पूर्ण देवताओं से पूजित होगे तथा अपने पुण्यसे देवताओं को भी पावन बनाओंगे । तदनन्तर गिरिराज ने समयानुसार अपनी पत्नी मैना के गर्भ से अपर्णा नाम की एक कन्या उत्पन्न की । अपर्णा बहुत समयतक निराहार रही, उसे उपवास से रोकते हुए माताने कहा ‘बेटी ! ‘उ मा’ (ऐसा मत करो) ।’ उससमय वे मातृस्नेह से दु:खित हो रही थीं । माता के यों कहनेपर कठोर तपस्या करनेवाली पार्वतीदेवी उमा नामसे ही संसार में प्रसिद्ध हुई । पार्वती की तपस्या से तीनों लोक संतप्त हो उठे । तब मैंने उससे कहा – ‘देवि ! क्यों इस कठोर तपस्या से तुम सम्पूर्ण लोकों को संताप दे रही हो ? कल्याणी ! तुम्हीं ने इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की है । स्वयं ही इसे रचकर अब इसका विनाश न करो । जगन्माता ! तुम अपने तेजसे सम्पूर्ण लोकों को धारण करती हो; फिर कौन ऐसी वस्तु है, जिसे तुम इससमय तपस्याद्वारा प्राप्त करना चाहती हो ? वह हमे बतलाओ ।’
देवीने कहा – पितामह ! मैं जिसके लिये यह तपस्या करती हूँ, उसे आप भलीभाँति जानते हैं । फिर मुझसे क्यों पूछते हैं ?
तब मैंने पार्वतीसे कहा – ‘शुभे ! तुम जिनके लिये तप करती हो, वे स्वयं ही तुम्हारा वरण करेंगे । भगवान् शंकर ही सर्वश्रेष्ठ पति हैं । वे सम्पूर्ण लोकेश्वरों के भी ईश्वर हैं । हम सदा ही उनके अधीन रहनेवाले किंकर हैं । देवि ! वे देवताओं के भी देवता, परमेश्वर और स्वयम्भू हैं । उनका स्वरुप बहुत ही उदार है । उनकी समानता करनेवाला कहीं कोई भी नहीं हैं ।’
तत्पश्चात देवताओं ने आकर परम सुन्दरी पार्वती से कहा – ‘देवि ! भगवान शंकर थोड़े ही दिनों में आपके स्वामी होंगे । अब इसके लिए तपस्या न कीजिये ।’ यों कहकर देवताओं ने गिरिराजकुमारी की प्रदक्षिणा की और वहाँ से अन्तर्धान हो गये । पार्वती भी तपस्या से निवृत्त हो गयी, किन्तु अपने आश्रम में ही रहने लगी । एक दिन जब वे अपने आश्रमपर उगे हुए अशोक-वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी थीं, देवताओं की पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् शंकर पधारे । उनके ललाटमें चन्द्राकार तिलक लगा था, वे बाँह के बराबर नाटा एवं विकृत रूप धारण करके आये थे । उनकी नाक कटी हुई थी, कूबड़ निकला हुआ था और केशों का अंतिम भाग पीला पड़ गया था । उनके मुख की आकृति भी बिगड़ी हुई थी । उन्होंने पार्वती से कहा – ‘देवि ! मैं तुम्हारा वरण करता हूँ ।’ उमा योगसिद्ध हो गयी थी । आंतरिक भाव की शुद्धि से उनका अंत:करण शुद्ध हो गया था । वे समझ गयी की साक्षात भगवान् शंकर पधारे हैं । तब उनकी कृपा प्राप्त करनेकी इच्छा से पार्वती ने अर्घ्य, पाद्य और मधुपर्क के द्वारा उनका पूजन करके कहा – ‘भगवन ! मैं स्वतंत्र नहीं हूँ । घर में मेरे पिता मालिक है । वे ही मुझे देने में समर्थ हैं । मैं तो उनकी कन्या हूँ ।’ यह सुनकर देवाधिदेव भगवान् शंकर ने उस विकृत रूप में ही गिरिराज हिमालय के पास जाकर कहा –‘ शैलेन्द्र ! मुझे अपनी कन्या दीजिये ।’ उस विकृत वेष में अविनाशी रूद्र को ही आया जान गिरिराज को शाप से भी हुआ । उन्होंने उदास होकर कहा – ‘भगवन ! ब्राह्मण इस पृथ्वी के देवता हैं, मैं उनका अनादर नहीं करता; किन्तु मेरे मन में पहले से जो कामना हैं, उसे सुनिये । मेरी पुत्री का स्वयंवर होगा । उसमे वह जिसको वरण करेगी, वाही उसका पति होगा ।’ हिमालय की यह बात सुनकर भगवान् शंकर ने देवी के पास आकर कहा – ‘तुम्हारे पिताने स्वयंवर होने की बात कही हैं । उसमें तुम जिसका वरण करोगी, वही तुम्हारा पति होगा । उससमय किसी रूपवान को छोडकर तुम-मुझ-जैसे अयोग्य का वरण कैसे करोगी ?’
उनके यों कहनेपर पार्वती ने उनकी बातोंपर विचार करते हुए कहा – ‘महाभाग ! आपको अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । मैं आपका ही वरण करूँगी । इसमें कोई अनोखी बात नहीं हैं । अथवा यदि आपको मुझपर संदेह है तो मैं यहीं आपका वरण करती हूँ ।’ यों कहकर पार्वती ने अपने हाथों से अशोक का गुच्छा लेकर भगवान् शंकर के कंधेपर रखा और कहा – ‘देव ! मैंने आपका वरण कर लिया ।’ भगवती पार्वती के इसप्रकार वरण करनेपर भगवान् शंकर ने उस अशोक वृक्ष को अपनी वाणी से सजीव करते हुए-से कहा – ‘अशोक ! तुम्हारे परम पवित्र गुच्छे से मेरा वरण हुआ है, इसलिये तुम जरावस्था से रहित एवं अमर रहोगे । तुम जैसा चाहोगे, वैसा रूप धारण कर सकोगे । तुममें इच्छानुसार फूल लगेंगे । तुम सब कामनाओं को देनेवाले, सब प्रकार के आभूषणरूप फूल और फलों से सम्पन्न एवं मेरे अत्यंत प्रिय होगे । तुममें सब प्रकार की सुगंध होगी तथा तुम देवताओं के अधिक प्रिय बने रहोगे ।’
यों कहकर जगत की सृष्टि और सम्पूर्ण भूतों का पालन करनेवाले भगवान् शंकर हिमालयकुमारी उमा से विदा ले वहीँ अन्तर्धान हो गये । उनके चले जानेपर पार्वतीदेवी भी उन्हीं की ओर मन लगाये एक शिलापर बैठ गयीं, इसीसमय देवाधिदेव शिव स्वयं लीला करने के लिये ब्राह्मण बालक का रूप धारणकर निकटवर्ती सरोवर में प्रकट हुए । उससमय उन्हें ग्राह ने पकड़ रखा था । वे बोले – ‘हाय ! ग्राह से पकड़े जाने के कारण मैं अचेत हो रहा हूँ । कोई हो तो मुझे आकर बचाये ।’ पीड़ित ब्राह्मण की वह पुकार सुनकर कल्याणमयी देवी पार्वती सहसा उठ खड़ी हुई और उस स्थानपर गयी, जहाँ वह ब्राह्मण-बालक खड़ा था । वहाँ पहुँचकर चन्द्रमुखी देवी ने देखा, एक बहुत सुंदर बालक ग्राह के मुख में पड़ा थरथर काँप रहा हैं । ग्राह के खींचनेपर वह तेजस्वी बालक बड़ा आर्तनाद करता था । उस ग्राहग्रस्त बालक को देखकर देवी उमा दुःख से आतुर हो उठी और बोलीं – ‘ग्राहराज ! यह अपने पिता-माता का एक ही बालक हैं, इसे शीघ्र छोड़ दो ।’
ग्राह ने कहा – देवि ! छठे दिनपर जो सबसे पहले मेरे पास आ जाता हैं, उसी को विधाता ने मेरा आहार निश्चित किया है । महाभागे ! यह बालक आज छठे दिन ब्रह्माजीसे प्रेरित होकर ही मेरे पास आया हैं, अत: मैं इसे किसीप्रकार न छोड़ूंगा ।
देवी बोलीं – ग्राहराज ! मैंने हिमालय के शिखरपर जो उत्तम तपस्या की है, उसका पुण्य लेकर इस बालक को छोड़ दो । मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ ।
ग्राहने कहा – देवि ! आपने थोड़ी या उत्तम जो कुछ भी तपस्या की है, वह सब मुझे दे दें तो शीघ्र ही यह छुटकारा पा जायगा ।
देवी बोली – महाग्राह ! मैंने जन्म से लेकर अबतक जो पुण्य किया हैं, वह सब तुम्हें समर्पित हैं । इस बालक को छोड़ दो ।
देवीने इतना कहते ही उनकी तपस्या से विभूषित हो वह ग्राह दोपहर के सूर्य की भाँती तेजसे प्रज्वलित हो उठा । उससमय उसकी ओर देखना कठिन हो रहा था । ग्राह ने संतुष्ट होकर विश्व को धारण करनेवाली देवी से कहा – ‘महाव्रते ! तुमने यह क्या किया ? भलीभाँति सोचकर देखो तो सही । तपस्या का उपार्जन बड़े कष्ट से होता हैं, अत: उसका परित्याग अच्छा नहीं माना गया हैं । तुम अपनी तपस्या ले लो । साथ ही इस बालक को भी मैं छोड़े देता हूँ ।’
देवीने कहा – ग्राह ! मुझे अपना शरीर देकर भी यत्नपूर्वक ब्राह्मण की रक्षा करनी चाहिये । तपस्या तो मैं फिर भी कर सकती हूँ; किन्तु यह ब्राह्मण पुन: नहीं मिल सकता । महाग्राह ! मैंने भलीभाँति सोचकर तपस्या के द्वारा बालक को छुडाया हैं । तपस्या ब्राह्मणों से श्रेष्ठ नहीं हैं । मैं ब्राह्मणों को ही श्रेष्ठ मानती हूँ । ग्राहराज ! मैं तपस्या देकर फिर नहीं लूँगी । कोई मनुष्य भी अपनी दी हुई वस्तुको वापस नहीं लेता । अत: यह तपस्या तुम में ही सुशोभित हो । इस बालक को छोड़ दो ।
पार्वती के यों कहनेपर सूर्य के समान प्रकाशित होनेवाले ग्राह ने उनकी प्रशंसा की, उस बालक को छोड़ दिया और देवी को नमस्कार करके वहीँ अन्तर्धान हो गया । अपनी तपस्या की हानि समझकर पार्वती ने पुन: नियमपूर्वक तप का आरम्भ किया । उन्हें पुन: तपस्या करने के लिए उत्सुक जान साक्षात भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा – ‘देवि ! अब तपस्या न करो । तुमने अपना तप मुझे ही समर्पित किया हैं । अत: वही सहस्त्रगुना होकर तुम्हारे लिये अक्षय हो जायगा ।’
इसप्रकार तपस्या के अक्षय होने का उत्तम वरदान पाकर उमादेवी को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे स्वयंवर की प्रतीक्षा करने लगी ।
अध्याय २१ पार्वतीजी का स्वयंवर और महादेवजी के साथ उनका विवाह
ब्रह्माजी कहते हैं – तदनंतर समयानुसार हिमालय के विशाल पृष्ठभागपर पार्वती का स्वयंवर रचाया गया । उससमय वह स्थान सैकड़ों विमानों से घिर रहा था । गिरिराज हिमवान किसी बातको सोचने –विचार ने में बड़े निपुण थे । पुत्री ने देवाधिदेव महादेवजी के साथ जो मंत्रणा की थी, वह उन्हें ज्ञात हो गयी थी; अत: उन्होंने सोचा, यदि मेरी कन्या सम्पूर्ण लोकों में निवास करनेवाले देवता, दानव तथा सिद्धों के समक्ष महादेवजी का वरण करे तो वही वांछनीय पुण्य होगा । उसीमें मेरा अभ्युदय निहित है । यों विचारकर शैलराज ने मन-ही-मन महेश्वर का स्मरण करके रत्नों से मंडित प्रदेश में स्वयंवर रचाया । गिरिराजकुमारी के स्वयंवर की घोषणा होते ही सम्पूर्ण लोकों में निवास करनेवाले देवता आदि सुंदर वेश-भूषा धारण करके वहाँ आने लगे । हिमवान की सूचना पाकर मैं भी देवताओं के साथ वहाँ उपस्थित हुआ । मेरे साथ सिद्ध और योगी भी थे । इंद्र, विवस्वान, भग, कृतांत (यम), वायु, अग्नि, कुबेर, चंद्रमा, दोनों अश्विनीकुमार तथा अन्यान्य देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग और किन्नर भी मनोहर वेश बनाये वहाँ आये थे । शचीपति इंद्र उस समाज में अधिक दर्शनीय जान पड़ते थे । वे अप्रतिहत आज्ञा, बल और ऐश्वर्य के कारण हर्षमग्न हो स्वयंवर की शोभा बढ़ा रहे थे ।
जो तीनों लोकों की उत्पत्ति में कारण, जगत को जन्म देनेवाली तथा देवता और असुरों की माता हैं, जो परम बुद्धिमान, आदिपुरुष भगवान् शिव की पत्नी मानी गयी है तथा पुराणों में परा प्रकृति बतायी गयी हैं, वे ही भगवती सती दक्षपर कुपित हो देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये हिमवान के घर में अवतीर्ण हुई थी । वे जिस विमानपर बैठी थी, उसमे सुवर्ण और रत्न जड़े हुए थे । उनके दोनों ओर चँवर डुलाये जा रहे थे । वे सभी ऋतुओं में खिलनेवाले सुंगंधित पुष्पों की माला हाथ में लिये स्वयंवर-सभा में जाने को प्रस्थित हुई ।
इंद्र आदि देवताओं से स्वयंवर-मंडप भरा हुआ था । भगवती उमा माला हाथ में लिये देव-समाज में खड़ी थी । इसीसमय देवी की परीक्षा लेने के लिये भगवान् शंकर पाँच शिखावाले शिशु बनकर सहसा उनकी गोदमें आकर सो गये । देवीने उस पंचशिख बालक को देखा और ध्यान के द्वारा उसके स्वरूप को जानकर बड़े प्रेम के साथ उसे अंग में ले लिया । पार्वती का संकल्प शुद्ध था । वे अपना मनोवांछित पति पा गयीं, अत: भगवान शंकर को ह्दय में रखकर स्वयंवर से लौट पड़ी । देवी के अंग में सोये हुए उस शिशु को देखकर देवता आपसमें सलाह करने लगे कि यह कौन है । कुछ पता न लगने से अत्यंत मोह में पडकर वे बहुत कोलाहल करने लगे और वृत्रासुर को मारनेवाले इंद्र ने अपनी एक बाँह ऊँचे उठाकर उस बालकपर वज्र का प्रहार करने की चेष्टा की; किन्तु शिशुरूपधारी देवाधिदेव शंकर ने उन्हें स्तम्भित कर दिया । अब वे न तो वज्र चला सके और न हिल-डुल सके । तब भग नामवाले बलवान आदित्य ने एक तेजस्वी शस्त्र चलाना चाहा, किन्तु भगवान ने उनकी बाँह को भी जडवत बना दिया । साथ ही उनका बल, तेज और योगशक्ति भी व्यर्थ हो गयी । उससमय मैंने परमेश्वर शिव को पहचाना और शीघ्र उठकर उनके चरणों में आदरपूर्वक मस्तक झुकाया । इसके बाद मैंने उनकी स्तुति करते हुए कहा –‘भगवन ! आप अजन्मा और अजर देवता है; आप ही जगत के स्त्रष्टा, सर्वव्यापक, परावरस्वरुप, प्रकृति पुरुष तथा ध्यान करनेयोग्य अविनाशी है । अमृत, परमात्मा, ईश्वर, महान कारण, मेरे भी उत्पादक, प्रकृति के स्त्रष्टा, सबके रचयिता और प्रकृति से भी परे हैं । ये देवी पार्वती भी प्रकृतिरूपा है, जो सदा ही आपके सृष्टिकार्य में सहायक होती है । ये प्रकृतिदेवी पत्नीरूप में प्रकट होकर जगत के कारणभुत आप परमेश्वर को प्राप्त हुई है । महादेव ! देवी पार्वती के साथ आपको नमस्कार हैं । देवेश्वर ! आपके ही प्रसाद और आदेशसे मैंने इन देवता आदि प्रजाओं की सृष्टि की है । ये देवगण आपकी योगमाया से मोहित हो रहे हैं । आप इनपर कृपा कीजिये, जिससे ये पहले-जैसे हो जायँ ।’
तदनंतर मैंने सम्पूर्ण देवताओं से कहा – ‘अरे ! तुम सब लोग कितने मूढ़ हो ! इन्हें नहीं जानते ? ये साक्षात भगवान शंकर हैं । अब शीघ्र इन्हीं की शरण में जाओ ।’ तब वे सब जडवत बने हुए देवता शुद्धचित्त से मन-ही-मन महादेवजी को प्रणाम करने लगे । इससे देवाधिदेव महेश्वर ने प्रसन्न होकर उनका शरीर पहले-जैसा कर दिया । तत्पश्चात देवेश्वर शिव ने परम अद्भुत त्रिनेत्रधारी विग्रह धारण किया । उससमय उनके तेज से तिरस्कृत हो सम्पूर्ण देवताओं ने नेत्र बंद कर लिये । तब उन्होंने देवताओं को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे वे उनके स्वरूप को देख सकते थे । वह दृष्टि पाकर देवताओं ने परम देवेश्वर भगवान् शिवका दर्शन किया । उससमय पार्वतीदेवी ने अत्यंत प्रसन्न हो समस्त देवताओं के देखते-देखते अपने हाथ की माला भगवान् के चरणों में चढ़ा दी ।
यह देख सब देवता साधु-साधु कहने लगे । फिर उन लोगों ने पृथ्वीपर मस्तक टेककर देवीसहित महादेवजी को प्रणाम किया । इसके बाद देवताओंसहित मैंने हिमवान से कहा – ‘शैलराज ! तुम सबके लिये स्पृहणीय, पूजनीय, वन्दनीय तथा महान हो; क्योंकि साक्षात महादेवजी के साथ तुम्हारा सम्बन्ध हो रहा हैं । यह तुम्हारे लिए महान अभ्युदय की बात हैं । अब शीघ्र ही कन्या का विवाह करो, विलम्ब क्यों करते हो ?’
मेरी बात सुनकर हिमवान ने नमस्कारपूर्वक मुझसे कहा – ‘देव ! मेरे सब प्रकार के अभ्युदय में आप ही कारण हैं । पितामह ! जब जिस विधि से विवाह करना उचित हो, वह सब आप ही कराये ।’ तब मैंने भगवान् शिव से कहा – ‘देव ! अब उमा के साथ विवाह करें ।’ उन्होंने उत्तर दिया –‘जैसी आपकी इच्छा ।’ फिर तो हम लोगों ने महादेवजी के विवाह के लिये तुरंत ही एक मंडप तैयार किया, जो नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित था । बहुत-से रत्न-चित्र-विभिन्न मणियाँ, सुवर्ण और मोती आदि द्रव्य स्वयं ही मूर्तिमान होकर उस मंडप को सजाने लगे । मरकत-मणि का बना हुआ फर्श विचित्र दिखायी देने लगा । सोने के खम्भों से उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी । स्फटिकमणि की बनी हुई दीवार चमक रही थी । द्वारपर मोतियों की झालरें लटक रही थी । चन्द्रकांत और सूर्यकांतमणि सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश पाकर पिघल रहे थे । वायु मनोहर सुगंध लेकर भगवान् शिव के प्रति अपनी भक्ति का परिचय देती हुई मंद गति से बहने लगी । उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था । चारों समुद्र, इंद्र आदि श्रेष्ठ देवता, देवनदियाँ, महानदियाँ , सिद्ध, मुनि, गंधर्व, अप्सराएँ, नाग, यक्ष, राक्षस, जलचर, खेचर, किन्नर तथा चारणगण भी उस विवाहोत्सव में (मूर्तिमान होकर) सम्मिलित हुए थे । तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि सामगान करनेवाले गंधर्व मनोहर बाजे लेकर उस विशाल मंडप में आये थे । ऋषि कथाएँ कहते, तपस्वी वेद पढ़ते तथा मन-ही-मन प्रसन्न होकर वे पवित्र वैवाहिक मन्त्रों का जप करते थे । सम्पूर्ण जगन्माताएँ और देवकन्याएँ हर्षमग्न हो मंगलगान कर रही थी । भगवान् शंकर का विवाह हो रहा है, यह जानकर भाँती-भाँती की सुगंध और सुख का विस्तार करनेवाली छहों ऋतुएँ वहाँ साकार होकर उपस्थित थी ।
इस प्रकार जब सम्पूर्ण भुत वहाँ एकत्रित हुए और नाना प्रकार के बाजे बजने लगे, उस समय मैं पार्वती को योग्य वस्त्राभूषणों से विभूषित कराकर स्वयं ही मंडप में ले आया । फिर मैंने भगवान् शंकर से कहा – ‘देव ! मैं आपका आचार्य बनकर अग्नि में हवन करूँगा । यदि आप मुझे आज्ञा दें तो विधिपूर्वक इस कार्य का अनुष्ठान आरम्भ हो ।’ तब देवाधिदेव शंकर ने मुझसे इस प्रकार कहा – ‘ब्रम्हन ! जो भी शास्त्रोक्त विधान हो, उसे इच्छानुसार कीजिये; मैं आपकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करूँगा ।’ यह सुनकर मेरे मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने तुरंत ही कुश हाथ में लेकर महादेवजी तथा पार्वतीदेवी के हाथों को योग्बंधन से युक्त कर दिया । उससमय वहाँ अग्निदेव स्वयं ही हाथ जोडकर उपस्थित हो गये । श्रुतियों के गीत और महामंत्र भी मूर्तिमान होकर आ गये थे । मैंने शास्त्रीय विधिसे अमृतस्वरूप घृत का होम किया और उस दिव्य दम्पति के द्वारा अग्नि की प्रदक्षिणा करायी । उसके बाद उनके हाथों को योगबंध से मुक्त किया । इसप्रकार क्रमश: वैवाहिक विधि पूर्ण की गयी । इस कार्य में सम्पूर्ण देवताओं, मेरे मानस पुर्त्रों तथा सिद्धों का भी सहयोग था । विवाह समाप्त होनेपर मैंने भगवान् शंकर को प्रणाम किया । योगशक्ति से ही पार्वती और परमेश्वर का उत्तम विवाह सम्पन्न हुआ । ब्राह्मणों ! इसप्रकार मैंने तुम सब लोगों से पार्वती जी के स्वयंवर और महादेवजी के उत्तम विवाह की कथा कह सुनायी ।
अध्याय २२ देवताओंद्वारा महादेवजी की स्तुति, कामदेव का दाह तथा महादेवजी का मेरुपर्वत पर गमन
ब्रह्माजी कहते हैं – अमित तेजस्वी महादेवजी का विवाह हो जानेपर इंद्र आदि देवताओं के हर्ष की सीमा न रही । उन्होंने भगवान् शंकर को प्रणाम किया और इसप्रकार स्तुति आरम्भ की ।
देवता बोले – पर्वत जिनका लिंगमय स्वरुप हैं, जो पर्वतों के स्वामी हैं, जिनका वेग पवन के समान हैं, जो विकृत रूपधारण करनेवाले तथा अपराजित हैं, जो क्लेशों का नाश करके शुभ सम्पत्ति प्रदान करते हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार हैं । नील रंग की चोटी धारण करनेवाले अम्बिका पति को नमस्कार हैं; वायु जिनका स्वरुप हैं और जो सैकड़ों रुपधारण करनेवाले हैं, उन भगवान् शिव को प्रणाम हैं । दैत्यों के योग का नाश करनेवाले तथा योगियों के गुरु महादेवजी को प्रणाम हैं । सूर्य और चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं तथा जो ललाट में भी नेत्र धारण करते हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार हैं । जो श्मशान में क्रीडा करते और वर देते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, उन देवेश्वर शिव को प्रणाम हैं । जो गृहस्थ होते हुए भी साधू हैं, नित्य जटा एवं ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार हैं । जो जलमें तपस्या करते, योगजनित ऐश्वर्य देते, मन को शांत रखते, इन्दिर्यों का दमन करते तथा प्रलय और सृष्टि के कर्ता हैं, उन महादेवजी को प्रणाम है । अनुग्रह करनेवाले भगवान् को नमस्कार हैं । पालन करनेवाले शिव को प्रणाम है । रूद्र, वसु, आदित्य और अश्विनीकुमारों के रूप में वर्तमान भगवान् शंकर को नमस्कार हैं । जो सबके पिता, सांख्यवर्णित पुरुष, विश्वेदेव, शर्व, उग्र, शिव, वरद, भीम, सेनानी, पशुपति, शुचि, वैरिहन्ता, सद्योजात, महादेव, चित्र, विचित्र, प्रधान, अप्रमेय, कार्य और कारण नामसे प्रतिपादित होते हैं, उन भगवान शिव को प्रणाम हैं । भगवन ! पुरुषरूप में आपको नमस्कार हैं । पुरुष में इच्छा उत्पन्न करनेवाले आपको प्रणाम हैं । आप ही पुरुष का प्रकृति के साथ संयोग कराते हैं और आप ही प्रकृति में गुणों का आधान करनेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । आप प्रकृति और पुरुष के प्रवर्तक, कार्य और कारण के विधायक तथा कर्मफलों की प्राप्ति करानेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । आप काल के ज्ञाता, सबके नियन्ता, गुणों की विषमता के उत्पादक तथा प्रजावर्ग को जीविका प्रदान करनेवाले हैं, आपको नमस्कार हैं । देवदेवेश्वर ! आपको प्रणाम हैं । भूतभावन ! आपको नमस्कार हैं । कल्याणमय प्रभो ! आप हमें दर्शन देने के लिये प्रसन्नमुख एवं सौम्य हो जायँ ।
इस प्रकार देवताओं के द्वारा अपनी स्तुति होनेपर सम्पूर्ण जगत के स्वामी भगवान उमापति ने कहा – ‘देवताओं ! मैं तुम्हें दर्शन देने को सदा ही प्रसन्नमुख और सौम्य हूँ । तुम शीघ्र कोई वर माँगो । मैं निश्चय ही उसे दूँगा ।’
देवता बोले – भगवन ! यह वर आपके ही हाथ में रहे । जब आवश्यकता होगी, तब हम माँग लेंगे । उससमय आप हमें मनोवांछित वर दीजियेगा ।
‘एवमस्तु’ कहकर महादेवजी ने देवताओं तथा अन्य लोगों को विदा किया और स्वयं प्रमथगणों के साथ अपने धाम को चले गये । ब्राह्मणों ! जो इस स्तोत्र का श्रवण या पाठ करता हैं, वह सम्पूर्ण लोकों में जाने की शक्ति प्राप्त करता और देवराज इंद्र की भाँती देवताओंद्वारा पूजित होता है ।
महादेवजी अपने धाम में प्रवेश करके जब सुंदर आसनपर विराजमान हुए, तब वक्र स्वभाववाले क्रूर कामदेव ने उन्हें अपने बाणों से बीधने का विचार किया । वह अनाचारी, दुरात्मा और कुलाधम काम सब लोकों को पीड़ित करनेवाला हैं । वह नियम तथा व्रतों का पालन करनेवाले ऋषियों के कार्य में विघ्न डाला करता हैं । उस दिन चक्रवाक का रूप धारण करके अपनी पत्नी रति के साथ उसका आगमन हुआ था । देवताओं के स्वामी भगवान् शंकर ने अपने को बींधने की इच्छा रखनेवाले आततायी कामदेव को तीसरे नेत्र से अवहेलनापूर्वक देखा । फिर तो उनके नेत्र से प्रकट हुई आग सहस्त्रो लपटों के साथ प्रज्वलित हो उठी और रति के स्वामी मदन को उसके साज-श्रुंगार के साथ सहसा दग्ध करने लगी । उससमय जलता हुआ कामदेव बड़े करुण स्वर में आर्तनाद करने लगा और भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिये धरतीपर गिर पड़ा । इतने में उसके सब अंगों में आग फ़ैल गयी और सब लोकों को ताप देनेवाला काम स्वयं ही पृथ्वीपर गिरकर क्षणभर में मुर्च्छित हो गया । उसकी पत्नी रति अत्यंत दू:खित हो करुणामय विलाप करने लगी । उस दू:खीनीने महादेवजी तथा पार्वतीदेवी से अपने पति के लिये याचना की । उसके दुःख को जानकर दयालु दम्पति ने उसे सांत्वना देते हुए कहा – ‘कल्याणी ! कामदेव तो अब निश्चय ही दग्ध हो गया, अब यहाँ इसकी उत्पत्ति नहीं हो सकती; परन्तु शरीररहित होते हुए भी यह तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करता रहेगा । शुभे ! जब भगवान् विष्णु वसुदेवनंदन श्रीकृष्ण के रूप में इस पृथ्वीपर अवतार लेंगे, उससमय उन्हीं के पुत्ररूप में तुम्हारे पति का जन्म होगा । इसप्रकार वरदान पाकर कामपत्नी रति खेदरहित एवं प्रसन्न हो अपने अभीष्ट स्थान को चली गयी । इस्ध्र भगवान् शंकर कामदेव को दग्ध करने के पश्चात भगवती उमा के साथ हिमालयपर प्रसन्नतापूर्वक रमण करने लगे ।
पार्वतीजी ने कहा – भगवन ! देवदेवेश्वर ! अब मैं इस पर्वतपर नहीं रहूँगी । अब मेरे लिये दूसरा कोई निवासस्थान बनाइये ।
महादेवजी बोले – देवि ! मैं तो सदा तुमसे अन्यत्र रहने को कहता था, किन्तु तुम्हें कभी अन्य किसी स्थान का निवास पसंद नहीं आया । आज स्वयं ही तुम अन्यत्र रहने की इच्छा क्यों करती हो ? इसका कारण बताओ ।
देवी ने कहा – देवेश्वर ! आज मैं अपने महात्मा पिता के घर गयी थी । वहाँ माताने मुझे एकांत स्थान में देख उत्तम आसन आदि के द्वारा मेरा सत्कार किया उअर कहा – ‘उमे ! तुम्हारे स्वामी दरिद्र हैं, इसलिये सदा खिलौने से खेला करते हैं । देवताओं की क्रीडा ऐसी नहीं होती ।’ महादेव ! आप जो नाना प्रकार के गणों के साथ विहार करते हैं, यह मेरी माता को पसंद नहीं हैं ।
यह सुनकर महादेवजी हँस पड़े और देवी को हँसाते हुए बोले- ‘प्रिये ! बा तो ऐसी ही है, इसके लिये तुम्हें दुःख क्यों हुआ ? मैं कभी हाथी के चमड़े लपेटता, कभी दिगम्बर बना रहता, श्मशानभूमि में निवास करता, बिना घर-द्वार का होकर जंगलों में और पर्वत की कन्दराओं में रहता तथा अपने गणों के साथ घूमता-फिरता हूँ । इसके लिये तुम्हें मातापर क्रोध नहीं करना चाहिये । तुम्हारी माताने सब ठीक ही कहा है । इस पृथ्वीपर प्राणियों का माताके समान हितकारी कोई बन्धु-बान्धव नहीं हैं ।’
देवी ने कहा – सुरेश्वर ! मुझे अपने बन्धु-बांधवों से कोई प्रयोजन नहीं है । आप वही करें, जिससे मुझे सुख हो ।
देवी का यह वचन सुनकर देवेश्वर महादेवजी ने उन्हें प्रसन्न करने के लिये उस पर्वत को छोड़ दिया और पत्नी तथा पार्षदों को साथ ले देवताओं और सिद्धों से सेवित सुमेरुपर्वत के लिये प्रस्थान किया ।
अध्याय २३ दक्ष-यज्ञ-विध्वंश
ऋषियोंने कहा- ब्रह्मन् ! वैवस्वत मन्वन्तरमें प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षका अश्वमेध यज्ञ कैसे नष्ट हुआ ?
ब्रह्माजी बोले- ब्राह्मणो! महादेवजीने सती- देवीका प्रिय करनेकी इच्छासे जिस प्रकार दक्षके यज्ञका विध्वंस किया था, उसका वर्णन करता हूँ। पूर्वकालकी बात है, महादेवजी मेरुगिरिके ज्योतिः स्थल नामक शिखरपर, जो सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित और पलंगकी भाँति फैला हुआ था, विराजमान थे। गिरिराजकुमारी पार्वती सदा उनके पार्श्वभागमें बैठी रहती थीं। आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, गुह्यकोंसहित कुबेर, महामुनि शुक्राचार्य तथा सनत्कुमार आदि महर्षि उनकी सेवामें उपस्थित रहते थे। अत्यन्त भयंकर राक्षस एवं महाबली पिशाच, जो अनेक रूप धारण करनेवाले तथा नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित थे, भगवान् शिवके समीप रहा करते थे । भगवान्के पार्षद भी वहाँ मौजूद थे। वे सब अग्रिके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। महादेवजीकी इच्छासे भगवान् नन्दीश्वर भी वहाँ खड़े रहते थे। नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गाजी मूर्तिमती होकर उनकी सेवामें संलग्न रहती थीं। इस प्रकार परम सौभाग्यशाली देवर्षियों और देवताओंसे पूजित होकर भगवान् शङ्कर वहाँ सदा निवास करने लगे।
कुछ कालके बाद प्रजापति दक्षने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार यज्ञ करनेकी तैयारी की। उनके उस यज्ञमें इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता स्वर्गसे आकर एकत्रित होने लगे । वे अग्निके समान तेजस्वी देवता दक्षके अनुरोधसे प्रकाशमान विमानोंपर बैठकर गङ्गाद्वारको गये । पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गलोकमें रहनेवाले सभी देवता प्रजापतिके पास हाथ जोड़कर उपस्थित हुए। आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य तथा मरुद्गण – ये सब यज्ञमें भाग लेनेके लिये भगवान् विष्णुके साथ वहाँ पधारे थे। ऊष्मप, धूमप, आज्यप तथा सोमप नामवाले देवता भी अश्विनीकुमारोंके साथ वहाँ उपस्थित थे। ये तथा और भी अनेक भूत- प्राणियों का समुदाय वहाँ एकत्रित हुआ था। जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज भी उस यज्ञमें सम्मिलित थे। देवतालोग अपनी स्त्रियों तथा महर्षियोंके साथ वहाँ पधारे थे।
देवताओंको वहाँ जाते देख गिरिराजकुमारी पार्वतीने भगवान् शङ्करसे पूछा- ‘भगवन्! ये इन्द्र आदि देवता कहाँ जाते हैं ?’
महादेवजी बोले- महाभागे ! प्रजापति दक्ष अश्वमेध यज्ञ करते हैं। उसीमें सब देवता जा रहे हैं।
देवीने पूछा- महाभाग ! आप इस यज्ञमें क्यों नहीं जाते ? ऐसी कौन-सी रुकावट है, जिससे आपका वहाँ जाना नहीं होता ?
महादेवजी बोले- महाभागे देवताओंने ही यह सब किया है। उन्होंने किसी भी यज्ञमें मेरा भाग नहीं रखा है। पहलेसे जो मार्ग चला आता है, उसीसे अपनेको भी चलना चाहिये।
उमाने कहा- भगवन्! आप सब देवताओंमें श्रेष्ठ हैं। आपके गुण और प्रभाव सबसे अधिक हैं। आप अपने तेज, यश और श्रीके द्वारा अजेय एवं अधृष्य हैं।
महाभाग ! यज्ञमें आपके भागका जो यह निषेध है, इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ है। मेरे शरीरमें कम्प छा गया है।
महादेवजी बोले- देवि! क्या तुम मुझे नहीं जानतीं ! आज तुम्हें जो मोह हुआ है, उससे इन्द्र आदि देवताओं सहित सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्ट हो सकती है। मैं ही यज्ञका स्वामी हूँ। मेरी ही सब लोग निरन्तर स्तुति करते हैं। मेरे ही संतोषके लिये सब लोग रथन्तर सामका गान करते हैं। ब्राह्मण वेदमन्त्रोंसे मेरा ही यजन करते हैं तथा अध्वर्यु लोग यज्ञमें मेरे ही लिये भागोंकी कल्पना करते हैं।
प्राणोंके समान प्रियतमा पत्नीसे यों कहकर भगवान् शङ्करने अपने मुखसे क्रोधाग्निजनित एक महाभूतकी सृष्टि की। फिर उससे कहा – ‘तुम मेरी आज्ञासे दक्षके यज्ञमें जाओ और उसका शीघ्र विनाश करो।’ तब उसने रुद्रकी आज्ञासे सिंहका वेष धारण करके दक्षके यज्ञका विनाश कर डाला। उसने अपने कर्मका साक्षी बनानेके लिये अत्यन्त भयंकर भद्रकालीको भी साथ ले लिया था। भगवान्का वह क्रोध वीरभद्रके नामसे विख्यात हुआ, जो श्मशानभूमिमें निवास करता है। उसने पार्वतीदेवीके खेदका निवारण किया था। वीरभद्रने अपने रोमकूपोंसे अनेक रुद्रगण उत्पन्न किये, जो रुद्रके समान ही वीर्यवान् और पराक्रमी थे। वे सब सैकड़ों और हजारोंकी संख्या में झुंड बनाकर उस यज्ञमण्डपमें गये। उनकी किलकिलाहटसे समस्त आकाश गूंज उठा। अग्नि और सूर्यका प्रकाश मन्द पड़ गया। चारों ओर अन्धकार छा गया। उस समय वे समस्त रुद्रगण यज्ञमण्डपमें आग लगाने लगे; किसीने यूपोंको तोड़ डाला, किसीने उन्हें उखाड़ दिया, कोई सिंहनाद करता और कोई वहाँकी सब वस्तुओंको तहस-नहस कर डालता था। कितने ही वायुके समान वेगसे इधर-उधर दौड़ लगाने लगे । यज्ञपात्र चूर-चूर हो गये । वहाँके मण्डप ढह गये। ऐसा जान पड़ता था, आकाशसे तारे टूटकर गिर रहे हैं। कोई यज्ञमें रखे हुए भोज्य पदार्थोंको खाते और सब ओर लोगोंको डराते फिरते थे। कितने ही पर्वताकार भूत देवाङ्गनाओंको उठाकर फेंक देते थे। ऐसे गणके साथ प्रतापी वीरभद्रने पहुँचकर देवताओं द्वारा सुरक्षित यज्ञको भद्रकालीके सामने ही भस्म कर डाला। अन्य रुद्रगण सबको भय उपजानेवाली गर्जना करने लगे। कुछ लोगोंने यज्ञका मस्तक काटकर भयंकर नाद किया।
तब इन्द्र आदि देवताओं और प्रजापति दक्षने हाथ जोड़कर पूछा – ‘ बताइये, आप कौन हैं ?”
वीरभद्रने कहा- मैं न देवता हूँ, न दैत्य हूँ । न इस यज्ञमें भोजन करने आया हूँ और न कौतूहलवश इसे देखने को ही मेरा आना हुआ है। मैं इस यज्ञका विध्वंस करनेके लिये आया हूँ। मेरा नाम वीरभद्र है। मैं रुद्रके कोपसे प्रकट हुआ हूँ। ये भद्रकाली हैं। इनका प्रादुर्भाव पार्वतीदेवीके क्रोधसे हुआ है। ये देवाधिदेव महादेवजीके भेजनेसे यज्ञके समीप आयी हैं । राजेन्द्र ! तुम देवदेव भगवान् उमापतिकी शरणमें जाओ। उनका क्रोध भी वरदानके ही तुल्य हैं।
तब प्रजापति दक्ष मन-ही-मन भगवान् शङ्करकी शरणमें गये। उन्होंने प्राण और अपानको हृदयमें रोककर यत्नपूर्वक उनका ध्यान किया। तब भगवान् शिव प्रकट हुए और उन्होंने मुसकराकर पूछा – ‘कहो, तुम्हारा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ ?’ तब दक्षने हाथ जोड़कर कहा- ‘भगवन् ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं अथवा यदि मैं आपका प्रिय एवं कृपापात्र हूँ तो मुझे यह वरदान दें- ‘जो भी भोजन सामग्री यहाँ खा पी ली गयी, नष्ट कर दी गयी, यज्ञका जो सामान चूर-चूर करके फेंक दिया गया, वह सब बहुत दिनोंसे यत्न करके संचित किया गया था। महेश्वर ! आपकी कृपासे यह व्यर्थ न जाय ।’
ब्रह्माजीने कहा — भगवान् शङ्करने ‘तथास्तु’ कहकर दक्षकी कामना पूर्ण की। प्रजापति दक्षने भगवान् से वरदान पाकर पृथ्वीपर घुटने टेक दिये और भगवान् शिवका स्तवन आरम्भ किया।
अध्याय २४ दक्षद्वारा भगवान् शिव की स्तुति
दक्ष बोले – देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार हैं । अंधकासुर को मारनेवाले रूद्र ! आपको प्रणाम हैं । देवेन्द्र ! आप बल में श्रेष्ठ और देवता तथा दानवोंद्वारा पूजित है । आप सहस्त्राक्ष, विरूपाक्ष, और त्र्यक्ष कहलाते हैं । यक्षराज कुबेर के आप इष्टदेव हैं । आपके हाथ और पैर सब ओर हैं । नेत्र, मस्तक और मुख भी सब ओर हैं । आपके सब ओर कान हैं । आप संसार में सबको व्याप्त करके स्थित हैं । शंखकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण, शतकर्ण, शतोदर, शतावर्त, शतजिव्ह और सनातन है । आपको नमस्कार हैं । गायत्री के उपासक आपका ही गान करते हैं । सूर्य के भक्त आपकी ही सुर्यरूप से अर्चना करते हैं । आप देवता और दानवों के रक्षक, ब्रह्मा तथा इंद्र हैं । आप मूर्तिमान, महामुर्ति और जल के भंडाररूप समुद्र है । जैसे गोशाला में गौएँ रहती हैं, उसीप्रकार आप में सम्पूर्ण देवता निवास करते हैं । आपके शरीर में मैं चन्द्रमा, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पति को देखता हूँ । क्रिया, करण, कार्य, कर्ता, कारण, असत, सदसत, उत्पत्ति तथा प्रलय भी आप ही हैं । भव (सृष्टिकर्ता), शर्व, रूद्र (रुलानेवाले), वरद, पशुपति, अन्धकारसुरघाती, त्रिजट, त्रिशीर्ष, त्रिशूलधारी, त्र्यम्बक, त्रिनेत्र और त्रिपुरनाशक आप भगवान् शिव को नमस्कार हैं ।
आप चंड (अत्यंत क्रोधी), मुंड (सिर मुंडाये हुए), प्रचंड विश्व को धारण करनेवाले, दंडी, शंखकर्ण तथा दंडीदंड (दंडधारियों को भी दंड देनेवाले ) हैं । आपको नमस्कार हैं । आप अर्धचंडीकेश (अर्द्धनारीश्वर), शुष्क, विकृत, विलोहित, धूम्र और नीलग्रीव हैं । आपको नमस्कार हैं । आप अप्रतिरूप हैं – आपके समान दूसरा कोई नहीं है । आपको नमस्कार हैं । आप विरूप (विकराल रूपवाले) होते हुए भी शिव (कल्याणमय) हैं । आप ही सूर्य और उनके स्वामी हैं । आपकी ध्वजा और पताका में सूर्य के चिन्ह हैं । आपको नमस्कार हैं । प्रमथगणों के स्वामी आपको नमस्कार हैं । आपके कंधे वृषभ के कंधे के समान मांसल हैं । आपको नमस्कार हैं । आप हिरण्यगर्भ एवं हिरण्यकवच हैं । आपको नमस्कार हैं । आप हिरण्य (सुवर्ण) की चुडा धारण करनेवाले और हिरण्यपति है । आपको नमस्कार है । आप शत्रुओं के घातक, अत्यंत क्रोधी तथा पत्तों के समूहपर शयन करनेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । आपकी स्तुति की गयी हैं, इससमय भी आपकी स्तुति की जाती हैं तथा आप ही स्तुतिस्वरुप है । आपको नमस्कार हैं । आप सर्वस्वरुप, सर्वभक्षी एवं सब भूतों के अंतरात्मा हैं । आपको नमस्कार हैं ।
आप ही होम और मन्त्र है । आपकी ध्वजा-पताका श्वेत रंग की हैं, आपको नमस्कार हैं । आप ही अनम्य और आप ही नमन करने के योग्य हैं । आप हर्षमग्न होकर किलकारियाँ भरनेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । सोते हुए, सोये हुए, सोकर उठे हुए, खड़े हुए और दौड़ते हुए आपको नमस्कार हैं । कुबड़े और कुटिलरूप में आपको नमस्कार हैं । आप सदा तांडव नृत्य करनेवाले और मुख से बाजा बजानेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । आप बाधा निवारण करनेवाले, लुब्ध एवं गाना-बजाना करनेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । जेष्ठ और श्रेष्ठरूप में आपको नमस्कार हैं । बलका मंथन करनेवाले आपको नमस्कार हैं । उग्र रूपवाले आपको सदा नमस्कार हैं । दस भुजाओंवाले आपको नित्य प्रणाम हैं । हाथ में कपालधारण करनेवाले आपको नमस्कार हैं । श्वेत भस्म आपको अधिक प्रिय हैं । आप भयभीत करनेवाले, भयंकर एवं कठोर व्रत धारण करनेवाले हैं । आपको नमस्कार हैं ।
आपका मुख नाना प्रकारसे विकृत हैं, जिव्हा तलवार के समान है और दाँत बड़े भयंकर हैं । पक्ष, मास और लवार्ध आदि काल के भेद आपके ही स्वरुप है । आपको तूँबी और वीणा बहुत ही प्रिय है । आपको नमस्कार हैं । आपका रूप घोर और अघोर दोनों ही है । आप घोर और अघोरतर हैं; ऐसे होते हुए भी आप शिव, शांत तथा अत्यंत शांत हैं । आपको नमस्कार हैं । शुद्ध बुद्धिरूप आपको नमस्कार हैं । सबको बाँटना आप अधिक पसंद करते हैं । आप पवन, सूर्य एवं सांख्यपरायण हैं । आप एक प्रचंड घंटा धारण करनेवाले एवं सांख्यपरायण हैं । आप एक प्रंचड घंटा धारण करनेवाले और घंटा – ध्वनि के समान बोलनेवाले हैं । आप के पास बराबर घंटा रहा करता हैं । आप लाखों घंटेवाले हैं । घंटों की माला आपको अधिक प्रिय है । मैं आपको प्रणाम करता हूँ । आप प्राणों को दंड देनेवाले, नित्य एवं लोहितरूप है । आपको नमस्कार हैं । आप हूँ – हूँ करनेवाले, रूद्र एवं भगाकारप्रिय हैं । आपको नमस्कार हैं । आपका कहीं पार नहीं हैं । आप सदा पर्वतीय वृक्षों को अधिक पसंद करते हैं । आपको नमस्कार हैं । आप भुत एवं प्रस्तुत (वर्तमान)- रूप हैं । आपको नमस्कार हैं । आप यज्ञवाहक, जितेन्द्रिय, सत्यस्वरुप, भग, तट, तटपर होने योग्य तथा तटिनीपति (समुद्र) है । आपको नमस्कार हैं । आप अन्नदाता, अन्नपति और अन्न के भोगी हैं । आपको नमस्कार हैं । आपके सहस्त्रों मस्तक और सहस्त्रो चरण हैं । आप सहस्त्रों शूल उठाये रहनेवाले और सहस्त्रो नेत्रोंवाले हैं । आपको नमस्कार हैं । आपका वर्ण उदयकालीन सूर्य के समान लाल है । आप बालकरूप धारण करनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । आप बालसूर्यस्वरुप हैं और काल आपका खिलौना हैं । आपको नमस्कार हैं । आप शुद्ध, बुद्ध, क्षोभण तथा क्षयरूप हैं । आपको नमस्कार हैं ।
आप मृगों में मृगराज सिंह, सर्पों में तक्षक और शेषनाग, समुद्रों से क्षीरसागर, मन्त्रों में प्रणव, शस्त्रों में वज्र और व्रतों में सत्य हैं । आप ही इच्छा, राग, द्वेष, मोह, शान्ति, क्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय और पराजय हैं । आप गदा, बाण, धनुष, खट्वांग और मुद्वर धारण करनेवाले हैं । आप ही छेदन, भेदन और प्रहार करनेवाले हैं । नेता और मंता (आदर देनेवाले) भी आप ही माने गये हैं । मनुक्त दस लक्षणोंवाला धर्म, अर्थ एवं काम भी आपके ही स्वरुप हैं । चन्द्रमा, समुद्र, नदी, छोटा तालाब, सरोवर, लता, बेल, घास, अन्न, पशु, मृग और पक्षी भी आप ही है । द्रव्य, कर्म और गुणों का आरम्भ भी आपसे ही होता हैं । आप ही समयपर फुल और फल देनेवाले हैं । आदि, अंत, मध्य, गायत्री और ॐकार भी आप ही है ।
आप धर्ममय वृषभ के शरीरपर सवार होने योग्य हैं, वृषभस्वरुप हैं । आपके नेत्र वृषभ के नेत्रों के समान हैं । आप वृषभ के नामसे लोक में विख्यात हैं । सम्पूर्ण लोक आपका संस्कार करता हैं । शिव ! चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र, ब्रम्हाजी ह्रदय, अग्निष्टोम शरीर और धर्मकर्म श्रुंगार हैं । ब्रह्मा, विष्णु तथा प्राचीन ऋषि भी आपके माहात्म्य को यथार्थरूप से जानने में समर्थ नही हैं । भगवन ! आपकी कल्याणमयी एवं सूक्ष्म जो मूर्तियों के द्वारा मेरी सब ओर से रक्षा करे – ठीक वैसे ही, जैसे पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता हैं । अनघ ! आपको नमस्कार हैं । मैं रक्षा करने योग्य हूँ । आप मेरी रक्षा करे । आप भक्तोपर कृपा करनेवाले भगवान है और मैं सदा ही आप में भक्ति रखता हूँ ।
जो खोटी दृष्टी रखनेवाले अनेक सहस्त्र पुरुषों को अपनी माया से आवृत्त करके अकेले ही समुद्र के भीतर निवास करते हैं, वे भगवान प्रतिदिन मेरे रक्षक हो । निद्रा से रहित, प्राणों को वश में रखनेवाले, सत्त्वगुण में स्थित, समदर्शी योगीजन योगाभ्यास करते समय जिन के ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं, उन योगात्मा को नमस्कार हैं । जो प्रलयकाल उपस्थित होनेपर सम्पूर्ण भूतों को अपना ग्रास बनाकर जल के भीतर शयन करते हैं, उन भगवान जलशायी की मैं शरण लेता हूँ । जो रात्रि में राहू के मुख में प्रवेश करके चन्द्रमा का अमृत पीते है और केतु बनकर सूर्य को भी ग्रस लेते हैं तथा जो अग्नि और सोमस्वरुप हैं, उन भगवान की मैं शरण लेता हूँ । समस्त देहधारियों की देहों में स्थित, अँगूठे के बराबर आकारवाले जितने भी जीवात्मा हैं, वे सब आपके ही स्वरुप हैं;. अत: वे सदा मेरी रक्षा करें और सदा मुझे तृप्त बनाये रखे । जो अभी उत्पन नहीं हुए है तथा जो जल के भीतर स्थित हैं, उन सब गर्भों को जिनसे स्वाहा पाप्त होती है तथा जिनकी कृपासे उन्हें स्वधा का आस्वादन सुलभ होता हैं, जो शरीर के भीतर रहकर स्वयं नहीं रोते और प्राणियों को रुलाते हैं, जो सबको हर्ष प्रदान करते, किन्तु स्वयं हर्ष का अनुभव नहीं करते, उन सबको शिवरूप में सदा-सर्वदा नमस्कार हैं ।
जो समुद्र, नदी, दुर्गम स्थान, पर्वत, गुफा, वृक्षों की जड़, गोशाला, अगम्य पथ, गहन वन, चौराहा, सडक, सभा, गजशाला, अश्वशाला, रथशाला, प्राचीन वाटिका, पुराने घर, पाँचो भूत, दिशा, विदिशा, इंद्र और सूर्य के मध्य, चन्द्रमा और सूर्य की किरण तथा रसातल में जो शिवस्वरूप जीव रहते हैं और उन स्थानों से परे जिनकी स्थिति हैं, उन सबको सब प्रकार से नमस्कार हैं, नमस्कार है, नमस्कार हैं । भगवन ! आप सर्वस्वरूप, सर्वव्यापी देवता, सम्पूर्ण भूतों के स्वामी, सबकी उत्पत्ति के कारण तथा सम्पूर्ण भूतों के अंतरात्मा है । इसीलिये आपको पृथक निमंत्रित नहीं किया गया । देव ! भांति-भांति की दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा आपका ही यजन किया जाता हैं । आप ही सबके कर्ता-धर्ता हैं, इसलिये आपको मैंने निमंत्रित नहीं किया । अथवा देव ! आपकी सूक्ष्म-दुर्बोध माया से मैं मोहित था । इसीकारण आपको निमन्त्रण नहीं दिया । देवेश्वर ! मुझपर प्रसन्न होइये ।आप ही मुझे शरण देनेवाले हैं । आप ही मेरी गति और प्रतिष्ठा हैं, दूसरा कोई नहीं हैं । ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास हैं ।
इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये । तब भगवान् शिव ने कहा-‘उत्तम व्रत का पालन करनेवाले दक्ष । मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से बहुत प्रसन्न हूँ । अधिक कहने से क्या लाभ, तुम्हें मेरा सामीप्य प्राप्त होगा ।’ यों कहकर देवेश्वर महादेवजी अपनी पत्नी और पार्षदों के साथ अमित तेजस्वी दक्ष की दृष्टी से ओझल हो गये । जो मनुष्य दक्षद्वारा किये हुए इस स्तोत्र का श्रवण या कीर्तन करता है, उसका तनिक भी अमंगल नहीं होता । उसे दीर्ध आयु की प्राप्ति होती है । जैसे सम्पूर्ण देवताओं में भगवान शिव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सब स्तोत्रों में यह दक्षनिर्मित स्तोत्र श्रेष्ठ हैं । जो लोग यश, स्वर्ग, देवताओं का ऐश्वर्य, धन, विजय और विद्या आदि की अभिलाषा रखते हैं, उन्हें यत्नपूर्वक भक्ति के साथ इस स्तोत्रद्वारा भगवान शिव की स्तुति करनी चाहिये । रोगी, दु:खी, दीन, भय आदिसे ग्रस्त राज–काज में नियुक्त मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से महान भय से मुक्त हो जाता है तथा भगवान शिव से इस लोक में सुख पाकर उसी शरीर से गणों का स्वामी बन जाता हैं । यक्ष, पिशाच, नाग और विनायक उस मनुष्य के घर में विघ्न नहीं डालते, जिसके यहाँ भगवान शिव की स्तुति होती है । दक्षद्वारा किये हुए इस स्तोत्र का पाठ करनेवाला मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है और मरने के बाद देवताओंद्वारा पूजित होता है । इस परम गोपनीय स्तोत्र का श्रवण करके पापयोनिवाले मनुष्य तथा वैश्य, स्त्री एवं शुद्र भी रुद्रलोक प्राप्त करते हैं । जो द्विज प्रत्येक पर्व में ब्राह्मणों को सदा इस स्तोत्र का श्रवण कराता हैं, वह नि:संदेह भगवान शिव के लोक में जाता हैं ।
अध्याय २५ एकाम्रकक्षेत्र तथा पुरुषोत्तमक्षेत्र की महिमा
लोमहर्षणजी कहते हैं – ‘महर्षियों ! ब्रह्माजी की कही हुई पवित्र कथा सुनकर उन महर्षियों को बड़ी प्रसन्नता हुई । उनके शरीर में रोमांच हो आया । उन्होंने कहा- ‘ब्रह्मन ! अब आप एकाम्रकक्षेत्र का वर्णन कीजिये ।’
ब्रह्माजी बोले – मुनिवरो ! वह क्षेत्र सब पापों को हरनेवाला,पवित्र एवं परम दुर्लभ हैं । मैं उसका संक्षेप से वर्णन करूँगा, सुनो । एकाम्रक नामसे विख्यात क्षेत्र वाराणसी के समान कोटि शिवलिंगों से युक्त एवं शुभ हैं । उसमें आठ तीर्थ हैं ।
पूर्व कल्प में वहाँ एक आमका वृक्ष था । उसी के नामसे वह एकाम्रकक्षेत्र के रूपमें विख्यात हुआ । वह स्थान ह्रष्ट-पुष्ट मनुष्यों से भरा रहता हैं, वहाँ स्त्रियाँ भी रहती हैं और पुरुष भी । उस क्षेत्र में विद्वानों की अधिकता हैं, वह धन-धान्य से सम्पन्न स्थान हैं । घर और गोपुर वहाँ की शोभा बढाते हैं । वहाँ अनेकों व्यवसायी भरे हुए हैं । भांति –भांति के रत्न उस क्षेत्र की शोभा बढाते हैं । नगर, अटारी, सडक और राजहंसों के समान श्वेत महल आदि के द्वारा उसकी बड़ी शोभा होती है । उसके चारों ओर सफेद चहारदीवारी बनी हैं । शस्त्रोंद्वारा उस पुरकी रक्षा होती है । अनेकों खाइयों से वह क्षेत्र अलंकृत हैं । वहाँ प्रतिदिन बाजों की ध्वनि सुनायी पडती हैं । चहारदीवारी और बगीचों से युक्त अनेक दिव्य देवमंदिर सब ओर उस क्षेत्र की शोभा बढाते हैं । वहाँ के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र बड़े धार्मिक हैं । वे अपने-अपने धर्मों में संलग्न रहते हैं । उस क्षेत्र में निर्धन, मुर्ख, दूसरों से द्वेष रखनेवाले, रोगी, मलिन, नीच, मायावी, रूपहीन, दुराचारी तथा परद्रोही मनुष्य नहीं हैं । वहाँ सर्वत्र सुखपूर्वक सब लोग घूमते-फिरते हैं । वह स्थान सब जीवों के लिये सुखद हैं । वहाँ के उद्यान नंदनवन के समान एवं सबके सेवन करने योग्य हैं । वहाँ वृक्ष फलों के भार से झुके रहते हैं और सभी ऋतुओं में उनसे फूल झड़ते रहते हैं । दीर्घिका, तडाग,पुष्करिणी, वापी तथा अन्यान्य जलाशय सदा कमलवन से सुशोभित रहते हैं । भांति-भांति के वृक्ष, नाना प्रकार के सुंदर पुष्प तथा अनेक प्रकार के पवित्र जलाशय सब ओर से उस स्थान की शोभा बढ़ाते हैं ।
उस क्षेत्र में साक्षात भगवान शंकर सब लोकों का हित करने के लिये निवास करते हैं । वे भोग और मोक्ष दोनों के दाता हैं । इस पृथ्वीपर जितने तीर्थ, नदियाँ, सरोवर, पुष्करिणी, तडाग, वापी, कूप और सागर हैं, उन सबसे पृथक–पृथक जल की बुँदे संग्रहित करके देवताओंसहित भगवान शंकर ने उस क्षेत्र में सम्पूर्ण लोकों के हित के लिए बिन्दुसर नामक तीर्थ स्थापित किया । इसलिये वह बिन्दुसर के नामसे विख्यात हैं ।
(कहाँ हैं विन्दुसर? गुजरात में ( नगवासन , सिधिपुर ,पाटन ) उदयपुर -अहमदाबाद मार्ग पर अहमदाबाद से 130 किलो मीटर दूरी पर विन्दुसर है ।)
अगहन के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जो वहाँ की यात्रा करता हैं तथा जो जितेन्द्रिय भावसे विषुवयोग में श्रद्धा के साथ विधिपूर्वक बिन्दुसरोवर में स्नान करके तिल और जल से नाम-गोत्र के उच्चारणपूर्वक देवताओं, ऋषियों, मनुष्यों एवं पितरों का तर्पण करता हैं, वह अश्वमेध-यज्ञ का फल पाता है । जो ग्रहण, विषुवयोग, संक्रांति, अयनारंभ, छियासी युगादि तिथि तथा अन्यान्य शुभ तिथियों में वहाँ ब्राह्मणों को धन आदिका दान करते हैं, वे अन्य तीर्थों की अपेक्षा सौगुना फल पाते हैं । जो बिन्दुसरोवर के तटपर पितरों को पिंडदान देते हैं, वे उन पितरों की अक्षय तृप्ति का सम्पादन करते हैं ।
स्नान के पश्चात मौन एवं जितेन्द्रिय भाव से भगवान् शंकर के मंदिर में प्रवेश करके उनकी पूजा करे । तीन बार शिव की प्रदक्षिणा करे । घृत और दुग्ध आदि के द्वारा पवित्रतापूर्वक भगवान् शंकर को स्नान कराकर उनके सब अंगों में सुगन्धित चन्दन एवं केसर लगाये । तदनंतर नाना प्रकार के पवित्र पुष्पों तथा बिल्वपत्र, आक और कमल आदिके द्वारा वैदिक एवं तांत्रिक मन्त्रों से तथा केवल नाममय मूल मन्त्र से गंध, पुष्प, चंदन, धुप, दीप, नैवेद्य, उपहार, स्तुति, दंडवत–प्रणाम, मनोहर, गीत–वाद्य, नृत्य, जप, नमस्कार, जय–शब्द तथा प्रदक्षिणा समर्पण करते हुए महादेवजी का पूजन करे । इसप्रकार देवाधिदेव का विधिपूर्वक पूजन करनेवाला पुरुष सब पापों से मुक्त हो शिवलोक में जाता हैं । जो उत्तम बुद्धिवाले पुरुष वहाँ हर समय महादेवजी का दर्शन करते हैं, वे भी पापमुक्त होकर शिवलोक में जाते हैं । भगवान् शिवसे पश्चिम, पूर्व, दक्षिण, उत्तर– चारों ओर ढाई–ढाई योजनतक वह क्षेत्र भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं । उस उत्तम क्षेत्र में भास्करेश्वर नामसे प्रसिद्ध एक शिवलिंग हैं । जो लोग वहाँ कुंड में स्नान करके भगवान् सूर्यद्वारा पूजित त्रिनेत्रधारी देवाधिदेव महादेव का दर्शन करते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो उत्तम विमानपर बैठकर गन्धर्वों के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए शिवलोक में जाते हैं अथवा योगियों के घर में वेद–वेदांगों के पारंगत, सर्वभूतहितकारी श्रेष्ठ द्विज के रूप में उत्पन्न होते हैं । उससमय वे मोक्षशास्त्र के तात्पर्य को समझने में कुशल और सर्वत्र समबुद्धि होते हैं तथा भगवान् शंकर से श्रेष्ठ योग प्राप्त करके भव-बंधन से मुक्ति पा जाते हैं । द्विजवरों ! स्त्री भी श्रद्धापूर्वक वहाँ भगवान् शिवका पूजन करके पूर्वोक्त फल को प्राप्त कर लेती है । मुनिवरो ! भगवान् महेश्वर के अतिरिक्त दूसरा कौन ऐसा है, जो इस उत्त्तम क्षेत्र के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन कर सके । भगवान् शिव का एकाम्रकक्षेत्र वाराणसी के समान शुभ है । जो वहाँ स्नान करता हैं, वह निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेता हैं ।
वहाँ और भी अनेक पवित्र तीर्थ एवं मंदिर हैं, उनका भी ज्ञान प्राप्त करना चाहिये । समुद्र के उत्तर-तटपर उस प्रदेश में एक परम गोपनीय मुक्तिदायक क्षेत्र हैं, जो सब पापों का नाश करनेवाला हैं । उस परमदुर्लभ क्षेत्र का विस्तार दस योजन हैं । वहाँ की भूमिपर सब ओर बालू बिछी हुई है । वह परम पवित्र एवं सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला हैं । अशोक, अर्जुन, पुंनाग, मौलसिरी, सरल, कटहल, नारियल, शाखू, ताड़, कैथ, चम्पा, कनेर, आम, बेल, गुलाब, कदम्ब,कचनार, लकुच, नागकेशर, पीपल, छितवन, महुआ, सहिजन, शीशम, आँवला, नीम तथा बहेड़ा आदि के वृक्षों से उसकी बड़ी शोभा होती है । वहाँ पक्षियों के मुख से निकले हुए अत्यंत मधुर कलरव, कानों और मनको बहुत सुख देते हैं । ऊपर बताये हुए वृक्षों के अतिरिक्त अन्यान्य मनोहर पुष्पों, लताओं और भांति –भांति के जलाशयों से वह क्षेत्र सुशोभित हैं । अनेकानेक ब्रह्मचारी, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी तथा स्वधर्मपरायण ब्राह्मणादि वर्णों से उस क्षेत्र की शोभा होती हैं । वह ह्रष्ट-पुष्ट मनुष्यों तथा अनेक नर-नारियों से भरा हुआ हैं । वह सम्पूर्ण विद्याओं का स्थान तथा समस्त धर्मो एवं गुणों का आकर हैं । इसप्रकार वह परम दुर्लभ क्षेत्र सर्वगुणसंपन्न हैं । मुनिवरों ! वहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हैं । उत्कल प्रांत की सीमा समुद्र की ओर जहाँतक बतायी गयी है, वह सब स्थान श्रीकृष्ण के प्रसाद से पुरुषोत्तम निवास करते हैं । वे जगद्व्यापी जगन्नाथ हैं । उन्हीं में सब कुछ प्रतिष्टित हैं । मैं, भगवान् शिव, इंद्र तथा अग्नि आदि देवता सदा उस देश में निवास करते हैं । गन्धर्व, अप्सरा, पितर, देवता, मनुष्य, यक्ष, विद्याधर, सिद्ध, उत्तम व्रतवाले मुनि, बालखिल्प आदि ऋषि, कश्यप आदि प्रजापति, गरुड, किनर, नाग, अन्यान्य स्वर्गवासी, अंगोसहित चारो वेद, नाना प्रकार के शास्त्र, इतिहास-पुराण, उत्तन दक्षिणावाले यज्ञ, अनेक पवित्र नदियाँ, पुण्यतीर्थ, मन्दिर, समुद्र तथा पर्वत – सब उस देश में स्थित हैं । इसप्रकार देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंद्वारा सेवित उस पावन प्रदेश में, जहाँ सब प्रकार के उपभोग सुलभ हैं, निवास करना किसको रुचिकर नहीं प्रतीत होगा । भला, उसके सिवा कौन देश श्रेष्ठ हैं, उससे बढकर दूसरा कौन स्थान हैं, जहाँ मुक्तिदाता भगवान् पुरुषोत्तम स्वयं ही विराजमान हैं । वे मनुष्य, जो उत्कलदेश में निवास करते हैं, देवताओं के समान और धन्य हैं । जो समस्त तीर्थों के राजा समुद्र में स्नान करके भगवान् पुरुषोत्तम का दर्शन करते हैं, वे मनुष्य स्वर्ग में बसते हैं, यमलोक में नहीं जाते । जो उत्कलदेशीय पवित्र पुरुषोत्तमक्षेत्र में निवास करते हैं, उन श्रेष्ठ बुद्धिवाले मनुष्यों का जीवन सफल हैं; क्योंकि वे देवश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्ण के मुखकमल का दर्शन करते हैं । भगवान् का मुखकमल तीनों लोकों को आनन्द प्रदान करनेवाला हैं । उनके नेत्र प्रसन्न एवं विशाल हैं । उनकी भौहें, केश तथा मुकुट सुंदर हैं, कानों में मनोहर कुंडल शोभा पाते हैं । उनकी मुस्कान मनोहर और दंतपंक्ति सुंदर हैं । वे सुंदर नाक, सुंदर कपोल, सुंदर ललाट और उत्तम लक्षणोंवाले हैं ।
अध्याय २६ अवन्ती के महाराज इंद्रद्युम्र का पुरुषोत्तमक्षेत्र में जाना तथा वहाँ की इन्द्रनीलमयी प्रतिमा के गुप्त होने की कथा
ब्रह्माजी कहते हैं – प्राचीन सत्ययुग की बात हैं, इंद्रद्युम्र नामसे विख्यात एक राजा थे, जो इंद्र के समान पराक्रमी थे । वे सत्यवादी, पवित्र, दक्ष, सर्वशास्त्रविशारद, रूपवान, सौभाग्यशाली, शूरवीर, दानी, उपभोग में समर्थ, प्रिय वचन बोलनेवाले, समस्त यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाले, ब्राह्मणभक्त, सत्यप्रतिज्ञ, धनुर्वेद और वेद-शास्त्र में निपुण, विद्वान तथा पूर्णिमा के चंद्रमा की भांति सब स्त्री-पुरुषों के प्रेमपात्र थे । सूर्य की भांति उनकी ओर देखना कठिन था । वे शत्रुसमुदाय के लिए भयंकर, विष्णुभक्त, सत्त्वगुणसम्पन्न, क्रोध को जीतनेवाले, जितेन्द्रिय, अध्यात्मविद्या के प्रेमी, मुमुक्षु और धर्मपरायण थे । इसप्रकार वे सर्वगुणसंपन्न राजा इंद्रदद्युम्न समूची पृथ्वी का पालन करते थे । एक समय उनके मनमें भगवान् श्रीहरि की आराधना का विचार उत्पन्न हुआ । वे सोचने लगे, ‘मैं किस क्षेत्र में, किस तीर्थ में, किस नदी के तटपर अथवा किस आश्रम में देवाधिदेव भगवान् जनार्दन की आराधना करूँ ।’ इस चिंता में पडकर उन्होंने मन-ही-मन समस्त पृथ्वीपर दृष्टिपात किया, समस्त तीर्थो, क्षेत्रों और नगरों की ओर देखा; परन्तु सबको छोडकर वे विश्वविख्यात मोक्षदायक पुरुशोत्त्तमक्षेत्र में गये । वहाँ उन्होंने बहुत ऊँचा मंदिर बनवाकर उसमे बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्रा की स्थापना की तथा विधिपूर्वक स्नान, दान, तप, होम और देव-दर्शनरूप पंचतीर्थों का अनुष्ठान करके प्रतिदिन भक्तिपूर्वक श्रीपुरुषोत्तम की आराधना की और उन्हीं की कृपासे मोक्ष प्राप्त किया ।
मुनियों ने पूछा – सुरश्रेष्ठ ! राजा इन्द्रद्युम्र मुक्तिदायक पुरषोत्तमक्षेत्र में किसलिये गये ? और वहाँ जाकर उन्होंने वह त्रिभुवनविख्यात प्रासाद किस प्रकार बनवाया ? प्रजापते ! उन्होंने श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की स्थापना कैसे की ? ये सब बातें विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करे ।
ब्रह्माजी बोले – द्विजवरो ! तुम लोग जो प्राचीन वृतांत पूछ रहे हो, वह सब पापों को दूर करनेवाला, पवित्र, भोग और मोक्ष देनेवाला तथा शुभ है । इस प्रश्न के लिये तुम्हें साधुवाद देता हूँ । तुम जितेन्द्रिय एवं विशुद्धचित होकर सुनो । मैं सत्ययुग के राजा इन्द्रद्युम्र का चरित्र बतलाता हूँ । इस पृथ्वीपर मालवा में अवन्ती (उज्जैन) नामकी नगरी विख्यात हैं । वही राजा इन्द्रद्युम्र की राजधानी थी । अवन्ती इस पृथ्वी के मुकुट के समान थी । वहाँ ह्रष्ट-पुष्ट मनुष्य भरे थे । उसकी चाहरदीवारी और दरवाजे दृढ़ बने हुए थे । दरवाजोपर मजबूत किंवाड और सुदृढ़ यंत्र लगे थे । नगर के चारों ओर अनेकों खाइयाँ बनी हुई थी । नगर में बहुतसे व्यापारी बसते थे । नाना प्रकार के बर्तनों की अच्छी विक्री होती थी । रथ चलने लायक सडके और बाजार सुंदर थे । चौराहों से चारों ओर जाने के लिये मार्गों का अच्छी प्रकार विभाग हुआ था । अनेकों घर और गोपुर बने हुए थे । बहुत-सी गलियाँ उस नगर की शोभा बढ़ाती थी । राजहंसों के समान श्वेत और मनोहर महल लाखों की संख्या में बने हुए थे, जो उस पूरी की श्रीवृद्धि कर रहे थे । अनेकों यज्ञसम्बन्धी उत्सवों के कारण उस नगर में आनंद छाया रहता था । गाने और बजाने की ध्वनि गूँजती रहती थी । अवन्तीपूरी में त्रिनेत्रधारी त्रिपुरशत्रु भगवान् शिव महाकाल नामसे प्रसिद्ध होकर रहते है । वे समस्त कामनाओं के पूर्ण करनेवाले हैं । वहाँ एक शिवकुंड हैं, जो सब पापों का नाश करनेवाला हैं । उसमें विधिपूर्वक स्नान करके देवताओं, ऋषियों और पितरों का तर्पण करे । फिर शिवालय में जाकर भगवान् शिवकी तीन बार प्रदक्षिणा करे । तत्पश्चात स्नान, पुष्प, गंध, धूप और दीप आदिके द्वारा भक्तिपूर्वक महाकाल का विधिवत पूजन करे । ऐसा करनेवाला मनुष्य एक हजार अश्वमेध-यज्ञों का फल पाता है । वह सब पापों से मुक्त हो समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले विमानोद्वारा भगवान शिव के परम धाम में जाता है ।
अवन्ती में शिप्रा नामसे प्रसिद्ध पवित्र नदी है । उसमे विधिपूर्वक स्नान करके देवताओं और पितरों का तर्पण करनेसे मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता और श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो स्वर्गलोक में नाना प्रकार के भोग भोगता है । वही देवाधिदेव भगवान् जनार्दन भी निवास करते हैं जो गोविंदस्वामी के नामसे प्रसिद्ध हैं । वे भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । उनका दर्शन करके मनुष्य अपनी इक्कीस पीढ़ियोंसहित मुक्त हो जाता हैं । उनके सिवा वाही विक्रमस्वामी के नामसे भी भगवान् विष्णुका निवास हैं । स्त्री अथवा पुरुष, कोई भी उनका दर्शन करके पूर्वोक्त फल प्राप्त कर लेता हैं । वहाँ इंद्र आदि देवता और समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाली देवियाँ भी निवास करती हैं । उन सबकी भक्तिपूर्वक पूजा और प्रणाम करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में जाता हैं । इसप्रकार राजाओं में श्रेष्ठ इंद्रद्युम्र के द्वारा पालित वह रमणीय पूरी इंद्र की अमरावती के समान नित्य उत्सव के आनंद से परिपूर्ण रहती थी । वहाँ दिन-रात इतिहास-पुराण, नाना प्रकार के शास्त्र तथा काव्यचर्चा सुनी जाती थी । इस तरह वह उज्जैनीपूरी सब गुणों से सम्पन्न बतायी गयी हैं, जिसमें पूर्वकाल में परम बुद्धिमान राजा इंद्रद्युम्र हुए थे ।
मुनियों ने पूछा – ब्रह्मन ! भगवान् विष्णु के उस परम पवित्र पुरुषोत्तमक्षेत्र में क्या पहले भगवान् की कोई प्रतिमा नहीं थी, जो राजाने सेना और सवारियों के साथ वहाँ जाकर श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्राजी की स्थापना की ?
ब्रह्माजी बोले – महर्षियों ! इस विषय में समस्त पापों का विनाश करनेवाली प्राचीन कथा सुनो । मैं उसे संक्षेप से कहूँगा । एक समय समस्त लोकों की सृष्टि करनेवाले अविनाशी भगवान् वासुदेव को प्रणाम करके भगवती लक्ष्मी ने सब लोगों के हित के लिये इस प्रकार प्रश्न किया – ‘भगवन ! आप समस्त लोकों के स्वामी हैं । मेरे ह्रदय में एक संदेह खड़ा हुआ है, उसका इससमय निवारण कीजिये । अत्यंत आश्चर्यमय मर्त्यलोक को, जो परम दुर्लभ कर्मभूमि हैं,लोभ और मोहरूपी ग्रह ने ग्रस लिया हैं । वहाँ काम और क्रोध का महासागर लहराता हैं । देवेश ! उस संचार-सागर से जिस प्रकार मुक्ति मिल सके, वह उपाय बतलाइये । इस संसार में मेरे संदेह का निवारण करने के लिये आपको छोडकर दूसरा कोई वक्ता नहीं हैं ।’
देवी का यह वचन सुनकर देवाधिदेव भगवान् जनार्दन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ यह सारभूत अमृतमय वचन कहा – ‘देवि ! समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ पुरुषोत्तमक्षेत्र विख्यात तीर्थ हैं । वह बहुत ही सुंदर, सुखपूर्वक सेवन करनेयोग्य, अनायास-साध्य तथा उत्तम फल देनेवाला हैं । तीनों लोकों में उसके समान कोई तीर्थ नहीं हैं । देवेश्वरी ! पुरुषोत्तमतीर्थ का नाम लेनेमात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैं । इस समय उस तीर्थराज की महिमा का वर्णन करता हूँ तुम एकत्रित होकर सुनो !
‘दक्षिणसमुद्र के तटपर जहाँ एक वट का महान वृक्ष खड़ा है, वह अत्यंत दुर्लभ क्षेत्र हैं । उसका विस्तार दस योजन का हैं । वह वट कल्प का संहार होनेपर भी नष्ट नहीं होता । उस वटवृक्ष के दर्शन से तथा उसकी छाया के नीचे चले जाने से ब्रह्महत्या भी छुट जाती हैं, फिर अन्य पापों की तो बात ही क्या है ? जिन्होंने उसकी परिक्रमा की है, उसे मस्तक झुकाया हैं, वे सब पापरहित होकर भगवान् विष्णु के धाम को पहुँच गये हैं । उस वटवृक्ष के उत्तर और भगवान् केशव के कुछ दक्षिण जो बहुत बड़ा महल खड़ा हैं, वह धर्ममय पद है । वहाँ स्वयं भगवान् की बनायी हुई प्रतिमा का दर्शन करके पृथ्वी के सब मनुष्य अनायास ही मेरे धाम में चले जाते हैं । प्रिये ! इसप्रकार सब लोगों को वैकुण्ठधाम में जाते देख एक दिन धर्मराज मेरे पास आये और मुझे प्रणाम करके इसप्रकार बोले ।’
यमराज ने कहा – भगवन ! आपको नमस्कार हैं । देव ! आप सम्पूर्ण लोकों के स्वामी और समस्त विश्व के पालक हैं । आपको नमस्कार हैं । आप क्षीर-सागर के निवासी और शेषनाग के शरीर की शय्यापर शयन करनेवाले हैं । आप सबसे श्रेष्ठ, वरेण्य और वरदाता हैं । सबके कर्ता होते हुए भी स्वयं अकृत है – आपको किसी दुसरेने नहीं बनाया हैं । आप प्रभु-शक्ति से सम्पन्न, सम्पूर्ण विश्व के ईश्वर, अजन्मा, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ तथा किसीसे परास्त न होनेवाले हैं । आपका श्रीविग्रह नील कमलदल के समान श्याम हैं, नेत्र खिले हुए कमल की शोभा धारण करते हैं । आप सबके ज्ञाता, निर्गुण, शांत, जगदाधार, अविनाशी, सर्वलोकस्त्रष्टा तथा सबको सुख देनेवाले हैं । जानने योग्य पुराणपुरुष, व्यक्ताव्यक्तस्वरुप सनातन परमेश्वर, कार्य-कारण के उत्पादक, लोकनाथ एवं जगदगुरु हैं । आपका वक्ष: स्थल श्रीवत्सचिन्ह से सुशोभित हैं । आप वनमाला से विभूषित हैं । आपको वस्त्र पीले रंग का है । आपकी चार बाहें हैं । आप शंख, चक्र, गदा, हार, केयूर, मुकुट और अंगद धारण करनेवाले हैं सब लक्षणों से सम्पन्न, समस्त इन्द्रियों से रहित, कूटस्थ अविचल, सूक्ष्म, ज्योति:स्वरुप, सनातन, भाव और अभावसे मुक्त, व्यापक तथा प्रकृति से परे है । आप भगवान जगन्नाथ को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भगवान विष्णु कहते हैं – महाभागे ! यमराज को हाथ जोड़े मस्तक झुकाये खड़ा देख मैंने उनसे स्तोत्र कहने का कारण पूछा ‘ महाबाहू सुर्यनंदन ! तुम सब देवताओं में श्रेष्ठ हो । तुमने इससमय मेरी स्तुति किस लिए की है ? संक्षेप से बताओ ।’
धर्मराज बोले – भगवन ! इस विख्यात पुरुषोत्तमतीर्थ में जो इन्द्रनील मणि की बनी हुई श्रेष्ठ प्रतिमा हैं, वह सब कामनाओं को देनेवाली है । उसका अनन्य भाव तथा श्रद्धा से दर्शन करके सभी मनुष्य कामनासहित हो आपके श्वेतधाम में चले जाते हैं । अत: अब मैं अपना व्यापार नहीं चला सकता । प्रभो ! आप कृपा करके उस प्रतिमा को समेट लीजिये ।
धर्मराज का यह वचन सुनकर मैंने उनसे कहा – ‘यम ! मैं सब ओरसे बालू के द्वारा उस प्रतिमा को छिपा दूँगा ।’ तदनंतर वह प्रतिमा छिपा दी गयी । अब उसे मनुष्य नहीं देख पाते थे । उसे छिपा देने के बाद मैंने यमराज को दक्षिण दिशा भेज दिया ।
ब्रह्माजी कहते है – पुरुषोत्तमतीर्थ में इन्द्रनीलमयी प्रतिमा के लुप्त हो जानेपर आगे चलकर जो-जो बातें हुई, उन सबको भगवान् विष्णु ने लक्ष्मीदेवी से विस्तारपूर्वक कह सुनाया ।
अध्याय २७ राजा इंद्रधुम्न के द्वारा अश्वमेध-यज्ञ-पुरुषोतम-प्रसाद-निर्माणका कार्य
मुनियोंने कहा- ‘भगवन्! अब हम राजा इन्द्रद्युम्रका शेष वृत्तान्त सुनना चाहते हैं। उस श्रेष्ठ तीर्थमें जाकर उन्होंने क्या किया ?
ब्रह्माजी बोले- मुनिवरो! सुनो, मैं उस क्षेत्रके दर्शन और राजाके कृत्यका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ । उस त्रिभुवनविख्यात पुरुषोत्तमक्षेत्रमें जाकर महाराज इन्द्रद्युम्रने रमणीय स्थानों और नदियोंका दर्शन किया। वहाँ एक बड़ी पवित्र नदी बहती है, जो विन्ध्याचलकी घाटीसे निकली हैं। वह स्वित्रोत्पलाके नामसे विख्यात, सब पापोंको दूर करनेवाली तथा कल्याणमयी है। उसका स्रोत बहुत बड़ा है। उसकी महत्ता गङ्गाजीके समान है। वह दक्षिणसमुद्रमें मिली है। वह पुण्यसलिला सरिता महानदीके नामसे भी विख्यात है। उसके दोनों किनारोंपर अनेकों गाँव और नगर बसे हुए हैं। वे सभी गाँव अच्छी फसल होनेके कारण बड़े मनोहर दिखायी देते हैं । वहाँके लोग बड़े हृष्ट-पुष्ट होते हैं और वहाँ रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र शान्तभावसे पृथक् पृथक् अपने धर्मोंमें तत्पर दिखायी देते हैं। ब्राह्मणोंके मुखसे छहों अङ्ग, पद और क्रमसे युक्त वैदिक वाणी निकलती रहती है। कोई अग्रिहोत्रमें लगे रहते हैं और कोई उपासनामें वे समस्त शास्त्रोंके अर्थ समझने में कुशल, यज्ञकर्ता एवं प्रचुर दक्षिणा देनेवाले होते हैं। वहाँ चबूतरों, सड़कों, वनों, उपवनों, सभामण्डपों, महलों और देवमन्दिरोंमें महान् जनसमुदाय एकत्रित होकर इतिहास, पुराण, वेद, वेदाङ्ग, काव्य एवं शास्त्रोंकी कथा सुनते रहते हैं। उस देशकी स्त्रियोंको अपने रूप और यौवनपर गर्व होता है। वे सभी उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न होती हैं। उस क्षेत्रमें संन्यासी, वानप्रस्थ, सिद्ध, स्नातक, ब्रह्मचारी, मन्त्रसिद्ध, तपस्यासिद्ध और यज्ञसिद्ध पुरुष निवास करते हैं। इस प्रकार राजाने उस क्षेत्रको परम शोभायमान देखा, इसलिये मनमें यह निश्चय किया कि यहीं रहकर परम देव, परम अपार, परमपद, अनन्त, अपराजित, सर्वेश्वरेश्वर, जगद्गुरु, सनातन भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना करूँगा। यहीं भगवान्का मानस तीर्थ पुरुषोत्तमक्षेत्र है, यह बात मुझे मालूम हो गयी; क्योंकि यहाँ कल्पवृक्षस्वरूप विशाल वटवृक्ष खड़ा है। यहीं इन्द्रनीलमणिकी बनी हुई मणिमयी प्रतिमा है, जिसे भगवान् ने स्वयं छिपा दिया है। क्योंकि यहाँ दूसरी कोई प्रतिमा नहीं दिखायी देती। मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा, जिससे सत्यपराक्रमी जगदीश्वर भगवान् विष्णु मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दें। मैं अनन्य भावसे भगवान् में मन लगाकर यहाँ यज्ञ, दान, तपस्या, होम, ध्यान, पूजन तथा उपवास आदिके द्वारा विधिपूर्वक उत्तम व्रतका पालन करूँगा। साथ ही यहाँ श्रीविष्णु भगवान्के मन्दिर बनानेका कार्य भी प्रारम्भ करूँगा।
द्विजवरो! यह सोचकर महाराज इन्द्रद्युम्नने वहाँ भगवान् का मन्दिर बनवानेके लिये कार्य आरम्भ किया। उन्होंने ज्योतिषशास्त्रके पारंगत समस्त आचार्योंको बुलाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ यत्नपूर्वक भूमिका शोधन कराया। इस कार्यमें ज्ञानसम्पन्न ब्राह्मणों, वेद-शास्त्रके पारंगत अमात्यों, मन्त्रियों तथा वास्तुविद्याके विद्वानोंका भी सहयोग प्राप्त था। उन सबके साथ भलीभाँति विचार करके शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें, जब कि उत्तम चन्द्रमा और नक्षत्रोंका योग था तथा ग्रहोंकी भी अनुकूलता थी, राजाने श्रद्धापूर्वक अर्घ्य दिया। उस समय जय-जयकार तथा मङ्गलमय शब्द हो रहे थे, भाँति-भाँतिके वाद्योंकी मनोहर ध्वनि गूँज रही थी। वेद मन्त्रोंके गम्भीर घोष और मधुर संगीत हो रहे थे। फूल, लाजा, अक्षत, चन्दन, भरे हुए कलश तथा दीपक आदिके द्वारा पूजा – कार्य सम्पन्न किया गया था। इस प्रकार अर्घ्य दान दे महाराज इन्द्रद्युम्नने शूरवीर कलिङ्गराज, उत्कलराज और कोसलराजको बुलाकर कहा- ‘राजाओ! तुम सब लोग एक ही साथ मन्दिरके निमित्त शिला ले आनेके लिये जाओ। अपने साथ प्रधान प्रधान शिल्पियोंको भी, जो शिला खोदनेके काममें निपुण हों, ले लो। विन्ध्याचल बहुत विस्तृत पर्वत है। वह अनेकों कन्दराओंसे सुशोभित है। उसके सभी शिखरोंको भलीभाँति देखकर सुन्दर सुन्दर शिलाएँ कटवाओ और उन्हें छकड़ों तथा नावोंपर लादकर ले आओ, विलम्ब न करो।’
इस प्रकार राजाओंको शिलाके लिये जानेकी आज्ञा दे महाराजने अमात्यों और पुरोहितोंसे कहा- सर्वत्र शीघ्रगामी दूत भेजे जायँ और वे पृथ्वीके समस्त राजाओंके पास जाकर मेरी यह आज्ञा सुना दें- ‘राजाओ ! महाराज इन्द्रद्युम्रकी आज्ञाके अनुसार तुम सब लोग हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना तथा अमात्यों एवं पुरोहितोंके साथ चलो।’ ऐसी आज्ञा पाकर दूत राजाओंके पास गये और सबको महाराजकी आज्ञा सुना दी। दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्व देशोंके रहनेवाले, दूर और समीप निवास करनेवाले, पर्वत तथा भिन्न भिन्न द्वीपोंके निवासी नरेश महाराज इन्द्रद्युम्रका आदेश सुनकर रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेनाके साथ बहुत धन लेकर भारी संख्यामें एकत्रित हुए। राजाओंको अमात्यों और पुरोहितोंसहित आया देख महाराजको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे बोले- ‘नृपवरो! मैं आपलोगोंसे कुछ निवेदन करना चाहता हूँ, सुनें। यह भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला कल्याणमय क्षेत्र है। मैं यहाँ अश्वमेध- यज्ञ करना और भगवान् विष्णुका मन्दिर बनवाना चाहता हूँ; किंतु मैं इसे कैसे पूर्ण कर सकता हूँ, इस चिन्तासे मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है। यदि आपलोग भलीभाँति मेरी सहायता करें तो मेरा सब कार्य सम्पन्न हो सकता है।’
महाराज इन्द्रद्युम्रके यों कहनेपर सब राजाओंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने महाराजकी आज्ञासे धन, रत्न, सुवर्ण, मणि, मोती, कम्बल, मृगचर्म, सुन्दर बिछौने, हीरे, पुखराज, माणिक, लाल, नीलम, हाथी, घोड़े, रथ, हथिनी, भाँति-भाँतिके द्रव्य, भक्ष्य, भोज्य तथा अनुलेप आदि पदार्थोंकी वर्षा की। राजा इन्द्रद्युम्नने देखा, यज्ञकी सब सामग्री एकत्रित हो गयी है और यज्ञकर्मके ज्ञाता, वेद- वेदाङ्गोंमें पारंगत, शास्त्रज्ञानमें निपुण तथा सब कर्मों में कुशल ऋषि महर्षि, देवर्षि, तपस्वी, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी, स्नातक तथा अग्रिहोत्रपरायण ब्राह्मण भी उपस्थित हैं; तब उन्होंने अपने पुरोहितसे कहा- ‘ब्रह्मन्! कुछ विद्वान् ब्राह्मण, जो वेदोंके पारंगत पण्डित हों, जाकर अश्वमेध यज्ञकी सिद्धिके लिये उत्तम स्थान देखें।’ राजाके यों कहनेपर विद्वान् पुरोहितने यज्ञकर्म में कुशल ब्राह्मणोंको आगे करके शिल्पियोंके साथ प्रस्थान किया और उस देशमें, जहाँ धीवरोंका गाँव था, विधिपूर्वक यज्ञशाला बनवायी । उसमें गली-कूचे और छतरियाँ भी बनवायी गयीं थीं। सैकड़ों महल बनाये गये थे। सारा यज्ञमण्डप सुवर्ण, रत्न तथा श्रेष्ठ मणियोंसे विभूषित हो इन्द्रभवनके समान रमणीय दिखायी देता था । खंभोंपर सुवर्णसे चित्रकारी की गयी थी। दरवाजे बहुत बड़े-बड़े बने हुए थे। यज्ञके प्रत्येक भवनमें शुद्ध सुवर्णका उपयोग किया गया था। धर्मात्मा पुरोहितने भिन्न-भिन्न देशोंके निवासी राजाओंके लिये अन्तःपुर भी बनवाये थे। नाना देशोंसे आये हुए ब्राह्मणों और वैश्योंके लिये भी उन्होंने अनेक शालाएँ बनवायी थीं। महाराज इन्द्रद्युम्नका प्रिय करनेके लिये समस्त राजा अनेक प्रकारके रत्न लेकर वहाँ आये थे। साथ ही उनकी स्त्रियाँ भी उत्सवमें सम्मिलित हुई थीं। महाराजने उन समस्त समागत अतिथियोंके लिये ठहरनेके स्थान, शय्या, भाँति-भाँतिके भोज्य पदार्थ, महीन चावल, ईखका रस और गोरस आदि प्रदान किये। उस महायज्ञमें जो भी श्रेष्ठ ब्राह्मण पधारे, उन सबको राजाने स्वागतपूर्वक ग्रहण किया। महातेजस्वी नरेशने दम्भ छोड़कर स्वयं ही सब ब्राह्मणोंका सब तरहसे स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् शिल्पियोंने अपनी शिल्प-रचनाका कार्य पूरा करके राजाको यज्ञमण्डप तैयार हो जानेकी सूचना दी। यह सुनकर मन्त्रियोंसहित राजा बहुत प्रसन्न हुए। उनके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। यज्ञमण्डप तैयार हो जानेपर महाराजने ब्राह्मण भोजनका कार्य आरम्भ कराया। प्रतिदिन जब एक लाख ब्राह्मण भोजन कर लेते, तब बारंबार मेघगर्जनाके समान गम्भीर स्वरमें दुन्दुभिकी ध्वनि होने लगती थी। इस प्रकार राजाके यज्ञकी वृद्धि होने लगी। उसमें अन्नका इतना दान किया गया, जिसकी कहीं उपमा नहीं थी। लोगोंने देखा वहाँ दूध, दही और घीकी नदियाँ बह रही हैं। भिन्न-भिन्न जनपदोंके साथ समूचे जम्बूद्वीपके लोग वहाँ जुटे थे। वहाँ कितने ही सहस्त्र पुरुष बहुत से पात्र लेकर इधर-उधर से एकत्र हुए थे। राजाके अनुगामी पुरुष ब्राह्मणोंको तरह-तरहके अनुपान और राजाओंके उपभोगमें आनेवाले भोज्य पदार्थ परोसते थे। यज्ञमें आये हुए वेदवेत्ता ब्राह्मणों तथा राजाओंका महाराजने पूर्ण स्वागत-सत्कार किया। इसके बाद उन्होंने राजकुमारोंसे कहा ।
राजा बोले- राजपुत्रो ! अब समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त श्रेष्ठ अश्व ले आओ और उसे समूची पृथ्वीपर घुमाओ । विद्वान् और धर्मात्मा ब्राह्मण यहाँ होम करें और यह यज्ञ उस समयतक चालू रहे, जबतक कि भगवान् इसके समीप प्रकट होकर मुझे प्रत्यक्ष दर्शन न दें।
यों कहकर राजाओंमें श्रेष्ठ इन्द्रद्युम्नने बहुत-सा सुवर्ण, करोड़ोंके आभूषण, लाखों हाथी घोड़े, अरबों बैल तथा सुवर्णमय सींगोंवाली दुधारू गौएँ, जिनके साथ काँसेके दुग्धपात्र थे, वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको दान किये। इसके सिवा बहुमूल्य वस्त्र, हरिणके बालों से बने हुए बिछौने, मूँगा, मणि तथा हीरा, पुखराज, माणिक और मोती आदि भाँति- भौतिके रत्न भी दिये। उस अश्वमेध यज्ञमें याचकों और ब्राह्मणोंको भाँति-भाँति के भक्ष्यभोज्य पदार्थ प्रदान किये गये। मीठे पूर्व तथा स्वादिष्ट अन्न सब जीवोंकी तृप्तिके लिये बारंबार दिये जाते थे। वहाँ दिये गये तथा दिये जानेवाले धनका कभी अन्त नहीं होता था। इस प्रकार उस महायज्ञको देखकर देवता, दैत्य, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, सिद्ध, ऋषि और प्रजापति – सब-के-सब बड़े विस्मयमें पड़ गये। उस श्रेष्ठ यज्ञकी सफलता देख पुरोहित, मन्त्री तथा राजा – सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। वहाँ कोई भी मनुष्य मलिन, दीन अथवा भूखा नहीं रहा। उस यज्ञमें किसी प्रकारका उपद्रव, ग्लानि, आधि, व्याधि, अकाल मृत्यु, दंशन, ग्रहपीड़ा अथवा विषका कष्ट नहीं हुआ। इस प्रकार राजाने अश्वमेध यज्ञ तथा पुरुषोत्तमप्रासाद- निर्माणका कार्य विधिपूर्वक पूर्ण किया।
अध्याय २८ राजा इन्द्रद्युम्न के द्वारा भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति
ब्रह्माजी कहते हैं – राजा इन्द्रद्युम्न के मनमें दिन-रात प्रतिमा के लिये चिंता रहने लगी । वे सोचने लगे-कौन-सा उपाय करूँ, जिससे सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले लोकपावन भगवान् पुरुषोत्तम का मुझे दर्शन हो । इसी चिंता में निमग्र रहने के कारण उन्हें न रात में नींद आती न दिनमें । वे न तो भांति-भांति के भोग भोगते और न स्नान एवं शृंगार ही करते थे । वाद्य, सुगंध, संगीत, अंगराग, इन्द्रनील, महानील, पद्मराग, सोना, चांदी, हीरा, स्फटिक आदि मणियाँ, राग, अर्थ, काम, वन्य पदार्थ अथवा दिव्या वस्तुओं से भी उनके मनको संतोष नहीं होता था । पत्थर, मिटटी और लकड़ी में से इस पृथ्वीपर सर्वोत्तम वस्तु कौन है ? किससे भगवान् विष्णु की प्रतिमा का निर्माण ठीक हो सकता हैं ? इस प्रकार की चिंता में पड़े-पड़े उन्होंने पांचरात्र की विधि से भगवान् पुरुषोत्तम का पूजन किया और अंत में इसप्रकार स्तवन आरम्भ किया –
वासुदेव ! आपको नमस्कार है । आप मोक्ष के कारण है । आपको मेरा नमस्कार है । सम्पूर्ण लोकों के स्वामी परमेश्वर ! आप इस जन्म-मृत्युरूपी संसार-सागर से मेरा उद्धार कीजिये । पुरुषोत्तम ! आपका स्वरुप निर्मल आकाश के समान है । आपको नमस्कार है । जगत्पते ! कभी नरक में और कभी स्वर्ग में मेरा निवास रहा है । कभी मनुष्यलोक में और कभी तिर्यग्योनियों में जन्म लेना पड़ा है । सुरश्रेष्ठ ! जैसे रहट में रस्सी से बंधी हुई घंटी कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती और कभी बीच में ठहरी रहती है, उसी प्रकार मैं कर्मरूपी रज्जू में बंधकर दैवयोग से ऊपर, नीचे तथा मध्यवर्ती लोक में भटकता रहता हूँ । भगवन ! ब्रह्मा आदि देवता भी आपकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं, फिर मानव बुद्धि लेकर मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ । क्योंकि आप प्रकृति से परे परमेश्वर हैं । प्रभो ! अज्ञान के भाव से आपकी स्तुति की है । यदि आपकी मुझपर दया हो तो मेरे इस अपराध को क्षमा करे । हरे ! साधू पुरुष अपराधीपर भी क्षमाभाव ही रखते हैं, अत: देवेश्वर ! आप भक्तस्नेह के वशीभूत होकर मुझपर प्रसन्न होइये । देव ! मैंने भक्तिभावित चित्तसे आपकी जो स्तुति की है, वह सांगोपांग सफल हो । वासुदेव ! आपको नमस्कार है ।
बह्माजी कहते हैं – राजा इंद्रद्युम्न के इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान् गरुडध्वज ने प्रसन्न होकर उनका सब मनोरथ पूर्ण किया । जो मनुष्य भगवान् जगन्नाथ का पूजन करके प्रतिदिन इस स्तोत्र से उनका स्तवन करता हैं, वह बुद्धिमान निश्चय ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । जो विद्वान पुरुष तीनों संध्याओं के समय पवित्र हो इस श्रेष्ठ स्तोत्र का जप करता हैं, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पाता है । जो एकाग्रचित्त हो इसका पाठ या श्रवण करता अथवा दूसरों को सुनाता हैं, वह पापरहित हो भगवान् विष्णु के सनातन धाम में जाता है । यह स्तोत्र परम प्रंशसनीय, पापों को दूर करनेवाला, भोग एवं मोक्ष देनेवाला, कल्यानमय, गोपनीय, अत्यंत दुर्लभ तथा पवित्र हैं । इसे जिस किसी मनुष्य को नहीं देना चाहिये । नास्तिक, मुर्ख, कृतघ्न, मानी, दुष्टबुद्धि तथा अभक्त मनुष्य को कभी इसका उपदेश न दे । जिसके ह्रदय में भक्ति हो, जो गुणवान, शीलवान, विष्णुभक्त, शांत तथा श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करनेवाला हो, उसीको इसका उपदेश देना चाहिये ।
जो निर्मल ह्रदयवाले मनुष्य उन परम सूक्ष्म नित्य पुराणपुरुष मुरारि श्रीविष्णुभगवान् का ध्यान करते हैं, वे मुक्ति के भागी हो भगवान विष्णु में प्रवेश कर जाते हैं – ठीक उसी तरह, जैसे मंत्रोद्वारा यज्ञाग्रीमें हवन किया हुआ हविष्य भगवान विष्णु को प्राप्त होता है । एकमात्र वे देवदेव भगवान् विष्णु ही संसार के दु:खों का नाश करनेवाले तथा परोंसे भी पर हैं । उनसे भिन्न किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है । वे ही सबकी सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले हैं । वे ही समस्त संसार में सारभूत हैं । मोक्ष-सुख देनेवाले जगदगुरु भगवान श्रीकृष्ण में यहाँ जिनकी भक्ति नहीं होती, उन्हें विद्यासे, अपने गुणों से तथा यज्ञ, दान और कठोर तपस्या से क्या लाभ हुआ । जिस पुरुष की भगवान पुरुषोत्तम के प्रति भक्ति है, वही संसार में धन्य, पवित्र और विद्वान है । वही ज्ञानी, दानी और सत्यवादी है
अध्याय २९ राजाके स्वपनमें और प्रत्यक्षमें श्रीभगवानका दर्शन, भगवत प्रतिमाओंका निर्माण, स्थापना और यात्राकी महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं- मुनिवरो ! इस प्रकार स्तुति करके राजाने समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले सनातन पुरुष जगन्नाथ भगवान् वासुदेवको प्रणाम किया और चिन्तामग्न हो पृथ्वीपर कुश और वस्त्र बिछाकर भगवान् का चिन्तन करते हुए वे उसीपर सो गये। सोते समय उनके मनमें यही संकल्प था कि सबकी पीड़ा दूर करनेवाले देवाधिदेव भगवान् जनार्दन कैसे मुझे प्रत्यक्ष दर्शन देंगे। सो जानेपर देवाधिदेव जगद्गुरु भगवान् वासुदेवने राजाको स्वप्नमें अपने शङ, चक्र और गदा धारण करनेवाले स्वरूपका दर्शन कराया। राजा इन्द्रद्युम्नने बड़े प्रेमसे भगवान् का दर्शन किया। वे शङ्ख और चक्र धारण किये हुए थे। उन्होंने शाङ्ग नामक धनुष और बाण भी धारण कर रखे थे। उनका स्वरूप प्रलयकालीन सूर्यके समान देदीप्यमान हो रहा था। वे प्रज्वलित तेजके विशाल मण्डल प्रतीत होते थे। उनका श्रीअङ्ग नीले पुखराजके समान श्याम था। वे गरुडके कंधेपर विराजमान थे और उनके आठ भुजाएँ शोभा पा रही थीं। दर्शन देकर भगवान् ने उनसे कहा- ‘राजन् ! तुम्हें साधुवाद है। तुम्हारे इस दिव्य यज्ञ, भक्ति और श्रद्धासे मैं बहुत संतुष्ट हूँ। महीपाल ! तुम व्यर्थ क्यों सोचमें पड़े हो । राजन् ! यहाँ जो जगत्पूज्य सनातनी प्रतिमा है, उसकी प्राप्तिका उपाय तुम्हें बतलाता है। आजकी रात बीतनेपर निर्मल प्रभावमें जब सूर्योदय हो, उस समय अनेक प्रकारके वृक्षसे सुशोभित समुद्रके जलप्रान्तमें, जहाँ तरङ्गोंसे प्रेरित महान् जलकी राशि दिखायी देती है, वही एक बहुत बड़ा वृक्ष खड़ा है, जिसका कुछ भाग तो जलमें है और कुछ स्थलमें है। वह समुद्रकी लहरोंसे आहत होनेपर भी कम्पित नहीं होता। तुम हाथमें कुल्हाड़ी लेकर लहरोंके बीचसे अकेले ही वहाँ चले जाना। तुम्हें वह वृक्ष दिखायी देगा। मेरे बताये अनुसार इसको पहचानकर नि:शङ्कभावसे उस वृक्षको काट डालना। उसे काटते समय तुम्हें कोई अद्भुत वस्तु दिखायी देगी। उसीसे सोच विचारकर तुम दिव्य प्रतिमाका निर्माण करो। मोहमें डालनेवाली चिन्ता छोड़ दो।’
यों कहकर महाभाग श्रीहरि अदृश्य हो गये। वह स्वप्न देखकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ। उस रात्रिको देखते हुए वे भगवान् में मन लग उठ बैठे और वैष्णव मन्त्र एवं विष्णुसूक्तका जप करने लगे। प्रात:काल उठे और भगवत्स्मरण करते हुए विधिपूर्वक उन्होंने समुद्रमें स्नान किया। फिर ब्राह्मणोंको नगर और गाँव आदि दानमें दे पूर्वाह- कृत्य करके समुद्र तटपर गये। वहाँ अकेले ही महाराजने समुद्रकी महाबेलामें प्रवेश किया और उस तेजस्वी महावृक्षको देखा। वह बहुत ऊँचा था और उससे बड़ी-बड़ी जटाएँ लटक रही थीं। उसे देखकर राजा इन्द्रद्युम्न बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तीखे फरसेसे उस वृक्षको काट गिराया और उसके दो टुकड़े करनेका विचार किया। फिर उन्होंने जब काष्ठका भलीभाँति निरीक्षण किया, तब एक अद्भुत बात दिखा दी । विश्वकर्मा और भगवान् विष्णु दोनों ब्राह्मणका रूप धरकर वहाँ आये। उनके कण्ठमें दिव्य हार और शरीरमें दिव्य अङ्गग शोभा पा रहे थे। वे दोनों अपने तेजसे प्रचलित हो रहे थे। राजाके पास आकर उन्होंने पूछा-‘ महाराज ! आप यहाँ कौन-सा कार्य करेंगे? किसलिये इस वनस्पतिको काट गिराया है?” ।
उन दोनों की बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मीठी वाणीमें उत्तर दिया-‘ मैं यहाँ आदि-अंतसे रहित देवाधिदेव जगदीश्वर भगवान् विष्णुकी आराधनाके लिये प्रतिमा बनवाना चाहता हूँ। इसके लिये स्वयं भगवानने ही मुझे स्वप्नमें प्रेरित किया है। राजाको यह बात सुनकर भगवान जगन्नाथने हँसकर कहा-‘ महाराज! आपका विचार बड़ा उत्तम है। इसके लिये आपको साधुवाद है। यह भयंकर संसार-सागर केलेके पत्तेकी भांति सारहीन है। इसमें दु:खकी ही अधिकता है। काम-क्रोध इसमें पूर्णरूपसे व्याप्त हैं। इन्द्रियरूपी भंवर और कीचड़के कारण यह दुस्तर है। नाना प्रकारके सैकड़ों रोग यहाँ भंवरके समान हैं। यह संसार पानीके बुलबुलेकी भाँत क्षणभङ्गुर है। इसमें रहते हुए जो आपके मनमें भगवान् विष्णुको आराधनाका विचार उत्पन्न हुआ, यह बहुत ही उत्तम है। महाभाग ! आइये, इस वृक्षकी शीतल छाया में हम दोनोंके साथ बैठिये। ये मेरे साथी एक श्रेष्ठ शिल्पी हैं। ये सब प्रकारके शिल्प-कर्ममें साक्षात् विश्वकर्माके समान निपुण हैं। आप किनारा छोड़कर चले आइये। ये मेरे बताये अनुसार प्रतिमा तैयार कर देंगे।’
ब्राह्मणकी बात सुनकर राजा इन्द्रद्युम्न समुद्रका तट छोड़ उनके पास चले गये और वृक्षक शीतल छायामें बैठे। तदनन्तर ब्राह्मणरूपधारी विश्वात्मा भगवान् ने शिल्पियोंमें प्रधान विश्वकर्माको आज्ञा दी-‘ तुम प्रतिमा बनाओ । भगवान् श्रीकृष्णका रूप परम शान्त हो। इनके नेत्र पद्मपत्रके समान विशाल होने चाहिये। वे वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न तथा कस्तुभमणि और हाथोंमें शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण किये हुए हों। दूसरी प्रतिमाका विग्रह दुग्ध समान गौवर्ण हो। उसमें स्वस्तिकका चिह्न होना चाहिये। वे अपने हाथमें हल धारण किये हुए हैं, उनका नाम महाबली अनन्त (बलरामजी) होगा। देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, विद्याधर और नाग-कोई भी उनका अन्त नहीं जानते; इसलिये वै भगवान् अनन्त कहलाते हैं। तीसरी प्रतिमा भगवान् वासुदेवकी बहन सुभद्रादेवीकी होगी। उनके शरीरका रंग सुवर्णके समान गौर एवं सुन्दर शोभासे युक्त होना चाहिये। उनमें समस्त शुभ लक्षणोंका समावेश होना आवश्यक है।’
भगवानका यह कथन सुनकर उत्तम कर्म करनेवाले विश्वकर्माने तत्काल उत्तम लक्षणसे युक्त प्रतिमाएँ तैयार कर दीं। पहले उन्होंने बलभद्रजीकी मूर्ति बनायी। उनका वर्ण शरत्कालके चन्द्रमाकी भाँति श्वेत’ था। नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा थी। उनका शरीर विशाल और मस्तक फणाकार होने से विकट जान पड़ता था। वे नील वस्त्र धारण किये बलके अभिमानसे उद्धत प्रतीत होते थे। उन्होंने एक कुण्डल धारण कर रखा था । उनके हाथोंमें गदा और मूसल शोभा पाते थे। उनका स्वरूप दिव्य था। द्वितीय विग्रह साक्षात् भगवान् वासुदेवका था। उनके नेत्र कमलके समान प्रफुल्लित थे। शरीरकी कान्ति नील मेघके समान श्याम थी। उनकी श्याम आभा तीसीके फूलकी-सी प्रतीत होती थी। बड़े-बड़े नेत्र कमल-पत्रकी उपमा धारण करते थे। शरीरपर् पीताम्बर शोभा पा रहा था। वक्षःस्थल श्रीवत्सका चिह्न तथा हाथमें चक्र था। इस प्रकार वे सर्वपापहारी श्रीहरि बड़े दिव्य दिखायी देते थे। तीसरी प्रतिमा सुभद्राकी थी, जिनके देहकी दिव्य कान्ति सोनेकी-सी दमक रही थी। नेत्र कमलपत्रके समान विशाल थे। इनका अङ्ग विचित्र वस्त्रसे आच्छादित था। वे हार और केयूर आदि विचित्र आभूषणोंसे सुशोभित थीं। गलेमें रत्नमय हार लटक रहा था। इस प्रकार विश्वकमांने उनकी बड़ी रमणीय प्रतिमा बनायी। राजा इन्द्रद्युम्नने यह बड़ी ही अद्भुत बात देखी। सब प्रतिमाएँ एक ही क्षणमें बन गयीं। सभी दो दिव्य वस्त्रोंसे आच्छादित सबका भाँति- भाँतिके रत्नोंसे श्रृंगार किया गया था और सभी अत्यन्त मनोहर एवं समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न थीं। उन्हें देखकर राजा अत्यन्त आश्चर्यमग्न होकर बोले-‘ आप दोनों ब्राह्मणके रूपमें साक्षात् देवता तो नहीं पधारे हैं? आप दोनोंके कर्म अद्भुत हैं। आपके व्यवहार देवताओंकेसे हैं। निश्चय ही आप मनुष्य नहीं जान पड़ते। आप देवता हैं या मनुष्य ? यक्ष हैं अथवा विद्याधर ! आप ब्रह्मा और विष्णु तो नहीं हैं? दोनों अश्विनीकुमार तो नहीं हैं ? आप मायामयरूपसे स्थित हैं। आपके यथार्थ स्वरूपको मैं नहीं जानता। अब आप ही दोनोंकी शरणमें आया हूँ। मेरे सामने अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये।’
श्रीभगवान् बोले- मैं देवता, यक्ष, दैत्य, देवराज इन्द्र, ब्रह्मा अथवा रुद्र नहीं हूँ। मुझे पुरुषोत्तम समझो। मैं समस्त लोकोंकी पीड़ा दूर करनेवाला अनन्त बल-पौरुषसे सम्पन्न और सम्पूर्ण भूतों का आराध्य हूँ। मेरा कभी अन्त नहीं होता। जिसका सब शास्त्रोंमें उल्लेख किया जाता हैं, वेदान्त-ग्रन्थों में वर्णन मिलता है, जिसे योगीजन ज्ञानगम्य एवं वासुदेव कहते हैं, वह परमात्मा मैं ही हूँ। स्वयं मैं ही ब्रह्मा, मैं ही विष्णु, मैं ही शिव, मैं ही देवराज इन्द्र तथा में ही जगत्का नियन्त्रण करनेवाला यम हूँ। पृथ्वी आदि पाँच भूत, त्रिविध अग्नि, जलाधिप वरुण, धरती और पर्वत भी मैं ही हूँ। संसारमें जो कुछ भी वाणीसे कहा जानेवाला स्थावर-जङ्गम भूत हैं, वह मेरा ही स्वरूप है। यह चराचर विश्व मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। नृपश्रेष्ठ ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। सुव्रत! मुझसे वर माँगो। तुम्हारे हदयमें जो अभीष्ट वस्तु हो, वह तुम्हें दूँगा। जो पुण्यवान् नहीं हैं, उनको स्वप्नमें भी मेरा दर्शन नहीं होता। तुम्हारी तो मुझमें दृढ़ भक्ति है, इसलिये तुमने मेरा प्रत्यक्ष दर्शन किया है।
भगवान् वासुदेवका यह वचन सुनकर राजाके शरीरमें रोमाञ्च हो आया। वे इस प्रकार स्तोत्रगान करने लगे- ‘ लक्ष्मीकान्त ! आपको नमस्कार है। श्रीपते ! आपके दिव्य विग्रहपर पीत वस्त्र शोभा पाता है। आप लक्ष्मी प्रदान करनेवाले और लक्ष्मीके स्वामी हैं। श्रीनिवास! आप लक्ष्मीके धाम हैं, आपको नमस्कार है। आप आदिपुरुष, ईशान, सबके ईश्वर, सव ओर मुखवाले, निष्कल एवं सनातन परम देव हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप शब्द और गुणोंसे अतीत, भाय और अभावसे रहित, निर्लेप, निर्गुण, सूक्ष्म, सर्वज्ञ तथा सबके रक्षक हैं। आपका स्वरूप वर्षाकालके मेंघके समान श्याम हैं। आप गौ तथा ब्राह्मणोंके हितमें संलग्न रहते हैं। सबकी रक्षा करते हैं। सर्वत्र व्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं। आप शङ्ख, चक्र, गदा और मूसल धारण करनेवाले देवता हैं। आपके श्रीअङ्गोंकी सुषमा नील कमलदलके समान श्याम है। आप क्षीरसागरके भीतर शेषनागकी शव्यापर शयन करनेवाले हैं। इन्द्रियोंके नियन्ता, सर्वपापहारी श्रीहरि हैं। आपको नमस्कार करता हूँ। आप देवदेवेश्वर, वरदाता, व्यापक, सर्वलोकेश्वर, मोक्षके साधक तथा अविनाशी भगवान् विष्णु हैं; आपको पुनः मेरा प्रणाम है।’
इस प्रकार भगवानका स्तवन करके राजाने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और धरतीपर मस्तक टेककर कहा-‘ नाथ यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यह उत्तम वर माँगता हूँ-देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, महानाग, सिद्ध, विद्याधर, साध्य, किंनर, गुह्यक, महाभाग ऋषि, नाना शास्त्रोंके प्रवीण विद्वान्, संन्यासी, योगी, वेदतत्त्वका विचार करनेवाले तथा अन्यान्य मोक्षमार्गके ज्ञाता मनीषी पुरुष जिस निर्गुण, निर्मल, एवं शान्त परम पदका ध्यान करते हैं, उस परम दुर्लभ पदको मैं आपके प्रसादसे प्राप्त करना चाहता हूँ।’
श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो, सब कुछ तुम्हारी इच्छा अनुसार होगा। मेरे प्रसादसे तुम्हें अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति होगी। नृपश्रेष्ठ ! तुम दस हजार नौ सौ वर्षोंतक अपने अखण्ड साम्राज्यका उपभोग करो। इसके बाद उस दिव्य पदको प्राप्त होओगे, जो देवता और असुरोंके लिये भी दुर्लभ है, जिसे पाकर सब मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। जो शान्त, गूढ, अव्यक्त, अव्यय, परसे भी पर, सूक्ष्म, निर्लेप, निष्कल, ध्रुव, चिन्ता और शेकसे मुक्त तथा कार्य और कारणसे चर्चित ज्ञेय नामक परम पद है, उसका तुम्हें साक्षात्कार कराऊँगा। उस परमानन्दमय पदको पाकर तुम परम पद-मोक्षको प्राप्त हो जाओगे! राजेन्द्र ! इस पृथ्वीपर जबतक बादल पानी बरसाते रहेंगे, जबतक आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और तारे दीखते रहेंगे, जबतक सात समुद्र तथा मेरु आदि पर्वत मौजूद रहेंगे तथा जबतक धुलोकमें देवताओंकी सत्ता बनी रहेगी, तबतक इस भूतलपर सर्वत्र तुम्हारी अक्षय कीर्ति छायी रहेगी । तुम्हारे यज्ञाङ्गसे प्रकट होनेवाला तालाब इन्द्रद्युग्नसरोवरके नामसे प्रसिद्ध तीर्थ होगा, जिसमें एक बार स्नान करके भी मनुष्य इद्रलोक प्राप्त कर सकते हैं। जो इस सरोवरके सुन्दर तट्पर पिण्डदान करेगा, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके इन्द्रलोकको जायेगा और वहाँ विमानपर बैठकर अप्सराओंसे पूजित हो गन्धर्वोके गीत सुनता हुआ चौदह इन्द्रोंकी आयुपर्यन्त निवास करेगा। सरोवरके दक्षिण भागमें नैऋत्य कोणकी ओर जो बरगदका वृक्ष खड़ा है, उसके समीप केवड़ेके वनसे आच्छादित एक मण्डप हैं, जो नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त हैं। आषाढके शुक्ल पक्षकी पञ्चमीको महानक्षत्रमें हमारी इन प्रतिमाओंको ले आकर लोग सात दिनोंतक मण्डपमें स्थापित रखेंगे। उस समय बड़ा उत्सव होगा। सोनेके दण्ड लगे हुए चँवर तथा रत्नभूषित व्यजनोंद्वारा सब लोग हमें हवा करेंगे। इस प्रकार मङ्गलपाठपूर्वक हमारी स्थापना होगी । ब्रह्मचारी, संन्यासी, स्नातक, वानप्रस्थ, गृहस्थ, सिद्ध तथा अन्य ब्राह्मण नाना प्रकारके पदोंवाले स्तोत्रों तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदकी ध्वनिसे बलराम और श्रीकृष्णकी स्तुति करेंगे। उस समय जो मनुष्य भक्तिपूर्वक मेरा स्तवन, दर्शन अथवा नमन करेगा, वह श्रीहरिके शोभामय धाममें विराजेगा ।
इस प्रकार राजाको वरदान दे विश्वकर्मासहित भगवान् विष्णु वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजाके हर्षकी सीमा न रही। उनका शरीर रोमाञ्चित हो गया। उन्होंने भगवान् के दर्शनसे अपनेको कृतकृत्य माना । तत्पश्चात् श्रीकृष्ण, बलराम और वरदायिनी सुभद्राको मणिकाञ्चनजटित विमानाकार रथोंमें विठकर वे बुद्धिमान् नरेश अमात्य और मन्त्रियोंसहित मङ्गलपाठ तथा बाजे-गाजेके साथ से आये और उन्हें परम मनोहर पवित्र स्थानमें पधराया। फिर शुभ तिथि, शुभ समय, शुभ नक्षत्र और शुभ मुहर्तमें ब्राह्मणोंके द्वारा उनकी प्रतिष्ठा करायी। उत्तम प्रासादमें वेदोक्त विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करके उन सब विग्रहों को स्थापित किया; फिर भाँति भाँतिके सुगन्धित पुष्पोंसे विधिवत् पूजा करके सुवर्ण, मणि, मोती और नाना प्रकारके सुन्दर वस्त्र अर्पण किये। विविध प्रकारके दिव्य रत्न, आसन, ग्राम, नगर, राज्य तथा पुर आदि भी दान किये। इस तरह अनेक प्रकारका दान करके राजाने समुचित रीतिसे राज्य किया और भाँति-भाँतिके यज्ञ करके अनेक बार दान दिये। फिर कृतकृत्य होकर राजाने समस्त परिग्रहों का त्याग कर दिया और अत्यन्त उत्कृष्ट स्थान-भगवान् विष्णुके परम पदको प्राप्त कर लिया।
मुनियोंने पूछा- सुरश्रेष्ठ ! किस समय पुरुषोत्तमतीर्धकी यात्रा करनी उचित है और प्रभो! किस विधिसे पञ्चतीर्थोंका सेवन करना चाहिये। स्नानदानरूप एक-एक तीर्थका और देव-दर्शनका जो पृथक्-पृथक् फल हो, वह सब बताइये।
ब्रह्माजी बोले- जो कुरुक्षेत्रमें अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीतकर बिना खाये-पीये सत्तर हजार वर्षोंतक एक पैरसे खड़ा होकर तपस्या करता है तथा जो ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशीको उपवासपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करता हैं, वह पहलेकी अपेक्षा अधिक फलका भागी होता है। अतः मुनिवरो ! स्वर्गलोककी इच्छा रखनेवाले ब्राह्मण आदिको चाहिये कि वे ज्येष्ठ मासमें प्रयत्न करके इन्द्रिय-संयमपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करें। श्रेष्ठ मनुष्यको उचित है कि ज्येष्ठ मासमें शुक्ल पक्षकी द्वादशीको विधिपूर्वक पञ्चतीर्थों का सेवन करके श्रीपुरुषोत्तमको दर्शन करे। जो ज्येष्ठकी द्वादशीको अविनाशी देवता भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करते हैं, वे विष्णुलोकमें पहुँचकर कभी वहाँसे नीचे नहीं गिरते। अतः ज्येष्ठमें प्रयत्नपूर्वक वहाँकी यात्रा करनी चाहिये और वहाँ पञ्चतीर्थ-सेवनपूर्वक पुरुषोत्तमका दर्शन करना चाहिये। जो अत्यन्त दूर होनेपर भी प्रतिदिन भक्तिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमका कीर्तन करता है, वह शुद्धचित्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है। जो श्रद्धापूर्वक एकाग्रचित्त हो श्रीकृष्णके दर्शनार्थ यात्रा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है। जो दूरसे भगवान् पुरुषोत्तमके प्रासाद-शिखरपर स्थित नीलचक्रका दर्शन करके उसे भक्तिपूर्वक प्रणाम करता है, वह मनुष्य सहसा पापसे मुक्त हो जाता है।
अध्याय ३० मारकंडे मुनीको प्रलयकालमें बालमुकुंदका दर्शन और उनका वरदान प्राप्त होना
ब्रह्माजी कहते हैं- मुनिवरो ! कल्पके अन्तर्म जब महासंहार आरम्भ हुआ, चन्द्रमा, सूर्य और वायुका नाश हो गया, स्थावर-जङ्गम समस्त प्राणी नष्ट होने लगे, उस समयकी बात बतलाता हैं। पहले प्रलयकालीन प्रचण्ड सूर्यका उदय होता है, फिर मेघोंकी घोर गर्जना होने लगती है। बिजली गिरती है, जिससे वृक्ष और पर्वत टूटफूट जाते हैं। सारे जगत्का संहार हो जाता है। उल्कापात होता रहता है, सरोवरों और नदियोंका सारा जल सूख जाता है। फिर वायुका सहारा पाकर संवर्तक नामक अग्नि समस्त विश्वमें फैल जाती है। ऊपरसे बारह सूर्य तपने लगते हैं। वह आग पृथ्वीको भेदकर रसातलमें भी पहुँच जाती है और देवता, दानव तथा यक्षोंको अत्यन्त भय देने लगती है। पृथ्वीपर जो कुछ रहता है, वह सब जलाकर नागलोकको भी दुग्ध करती है और फिर क्रमश: नीचेके समस्त लोकौंको तत्काल नष्ट कर देती हैं। बीस लाख योजनतक फैली हुई वायु और संवर्तक-अग्नि देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, नाग और राक्षस-सबको भस्म कर डालती है। ऐसे घोर महाप्रलयके समय परम धर्मात्मा मार्कण्डेय मुनि अकेले ध्यानस्थ होकर बैठे थे। प्रलयाग्नि लपट उनके पास भी पहुँची। उनके कण्ठ, तालु और ओठ सूख गये। उस गहाभयानक अग्निको देखकर वे भयसे विह्वल हो उठे और कोई रक्षक न पा सकनेके कारण इधर-उधर भागने लगे। उन्हें कहीं भी शान्ति नहीं मिली। वे सोचने लो-क्या करूँ, समझमें नही आता; किसकी शरणमें जाऊँ? किस प्रकार सनातन देव पुरुषेशका दर्शन करूं? इस प्रकार एकाग्रभावसे चिन्तन करते-करते वे महाप्रलयके कारणभूत सनातन दिव्य पद पुरुषेश नामक वटराजके पास पहुँच गये। उस दिव्य वटको सामने देख मुनि बड़ी उतावलीके साथ उसके निकट गये और उसकी जड़पर जा बैठे। वहाँ न तो कालाग्निका भय था, न अँगरोंकी वर्षाका। वे वहाँ संवर्तक अग्नि आ सकती थी और न वज्रपात आदिका ही डर था।
तदनन्तर विद्युन्मालाओंसे विभूषित गजराजके समान कान्तिवाले महामेघ आकाशमें घुमड़ आये। उन्होंने समूचे आकाशको ढक लिया और इतनी वृष्टि की कि पर्वत, बन और आकरोहित समस्त पृथ्वी जलराशिमें डूब गयी। सम्पूर्ण दिशाएँ पानीसे भर गयी । मूसलाधार वृष्टि करके वसुंधराको डुबोनेवाले मेघने उस भयंकर संवर्तकाग्रिको बुझा दिया। इस प्रकार बारह वर्षोंतक भारी वृष्टि होती रही। समुद्रने अपनी मर्यादा छोड़ दी, पर्वत गल-गलकर बह गये और पृथ्वी पानीमें डूब गयी। तत्पश्चात् प्रचण्ड आँधी उठी। उस प्रबल प्रभञ्जनके वेगसे सारे मेघ छिन्न-भिन्न हो गये। उसके बाद भगवान् विष्णु उस भंयकर वायुको पीकर एकार्णवमें शयन करने लगे। उस समय समस्त स्थावर जङ्गमका अभाव हो गया था। देवता, असुर, मनुष्य, यक्ष और राक्षस भी नष्ट हो गये थे। उस समय मार्कण्डेय मुनिने विश्राम अनन्तर श्रीपुरुषोत्तमका ध्यान करनेके पश्चात् जब आँखें खोलीं, तब पृथ्वीको जलमें निमग्न पाया। वह वटवृक्ष, पृथ्वी, दिशा आदि, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु देवता, असुर और नाग आदि कोई भी दिखायी नहीं देते थे। मुनिवर मार्कण्डेय भी स्वयं जलमें गोते खाने लगे। तब उन्होंने तैरना आरम्भ किया। वे आर्तभावसे इधर-उधर तैरते हुए भटकने लगे। उन्हें कोई अपना रक्षक नहीं मिलता था। उनके ध्यान करनेसे भगवान् पुरुषोत्तमको प्रसन्नता हुई थीं। अत: मुनिको भयसे व्याकुल देख वे कृपापूर्वक बोले-‘ उत्तम व्रतका पालन करनेवाले बेटा मार्कण्डेय ! तुम अभी बालक हो। थक गये होगे। आओ, आओ ! शीघ्र मेरे पास चले आओ। अब तुम्हें डरनेकी आवश्यकता नहीं है। मेरे सामने आ गये हो।’
भगवानकी यह बात सुनकर मुनि चिन्तामें निमग्न हो गये। सोचने लगे, क्या मैंने स्वप्न देखा है अथवा मुझपर यह मोह छा गया है? यह विचार आते ही उनके मनमें दुःखनाशक बुद्धिका उदय हुआ। उन्होंने यह निश्चय किया कि मैं भक्तिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमकी शरण जाऊँगा। इस निश्चयके अनुसार मार्कण्डेय मुनि मन-ही मन भगवान् का स्मरण करते हुए उनकी शरणमें गये । तब उन्होंने जलके ऊपर पुन: उस विशाल वटवृक्षको देखा। उसके ऊपर सुन्दर दिव्य पलंग बिछा हुआ था, जिसपर बालरूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान थे। वे कोटि-कोटि सूर्योके समान तेजस्वी शरीरसे देदीप्यमान हो रहे थे। चार भुजा, सुन्दर अङ्ग, पद्मपत्रके समान विशाल नेत्र, श्रीवत्सचिह्नसे विभूषित वक्षःस्थल और हाथों में शङ्ख, चक्र एवं गदा थे। हृदय वनमालासे आवृत था। वे दिव्य कुण्डल धारण किये हुए थे। गले में बहुत-से हार शोभा पाते थे। दिव्य रत्नोंसे उनका शृङ्गार किया गया था। भगवान् को इस रूपमें देखकर मार्कण्डेय मुनिके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। उनका शरीर रोमाञ्चित हो गया। वे भगवान् को प्रणाम करके बोले-अहो ! इस भयानक एकार्णवमें यह बालक कैसे निर्भय रहता है। इस प्रकार विचार करते हुए वे इधर-उधर बह रहे थे। उनकी चेतना लुप्त होती जा रही थी। वे अपने उद्धारके लिये व्याकुल हो गये। उस समय उन्हें बड़ा खेद हुआ। इधर वटवृक्षपर सोया हुआ बालक बालसूर्यके समान प्रकाशित हो रहा था। वह अपनी महिमामें ही स्थित था। मार्कण्डेय मुनि उस सम्पूर्ण तेजोमय वालककी ओर देखनेमें भी असमर्थ हो गये। मुनिको अपनी ओर आते देख बालकने हँसते हुए मेघके समान गभीर वाणीमें कहा-‘बेटा! जानता हूँ, तुम बहुत थक गये हो और अपनी रक्षाके लिये मेरे पास आये हो। अब शीघ्र ही मेरे शरीरमें प्रवेश कर जाओ। यहाँ तुम्हें पूर्ण विश्राम मिलेगा।’ बालककी बात सुनकर मार्कण्डेय मुनि कुछ बोल न सके। वे भगवान् की मायासे मोहित हो विवश होकर बालकके खुले हुए मुँहमें प्रवेश कर गये। उसके उदरमें प्रवेश करनेपर उन्होंने वहाँ अनेक जनपदों से घिरी हुई समूची पृथ्वी देखी। खारे पानी, ईखके रस, घी, दही और मीठे जलके समुद्रोंको देखा। जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौश, शाक और पुष्कर नामक द्वीपोंका अवलोकन किया। भारत आदि सम्पूर्ण वर्ष और पर्वतोंका निरीक्षण किया। सब रत्नोंसे सम्पन्न सुवर्णमय मेरुगिरिको भी देखा, जो अनेक प्रकारके रत्नमय शिखरोंसे विभूषित, अनेक कन्दराओंसे युक्त, नाना मुनिजनोंसे व्याप्त, भाँति-भाँतिके वृक्षों और वनोंसे परिपूर्ण, अनेक जीव-जन्तुओंसे सेवित, अनेकानेक आश्चर्योंसे युक्त, बाघ, सिंह, सूअर, चंवरी गाय, भैंसे, हाथी, हिरन, वानर तथा अन्य जीव-जन्तुओंसे सुशोभित एवं अत्यन्त मनोहर था। इन्द्र आदि अनेक देवता, सिद्ध, चारण, नाग, मुनि, यक्ष, अप्सरा तथा अन्य स्वर्गवासियोंसे उस पर्वतकी पूर्ण शोभा हो रही थी। इस प्रकार शोभामय सुमेरु पर्वतको देखते हुए वे बालकके उदरमें भ्रमण करने लगे। उन्होंने क्रमश: हिमवान्, हेमकूट, निषध, गन्धमादन, श्वेत, दुर्धर, नील, कैलास, मन्दरगिरि, महेन्द्र, मलय, विन्ध्य, पारियात्र, अर्बुद, सह्य, शुक्तिमान् तथा मैनाक आदि बहुतसे पर्वतोंको देखा। उन्होंने इस लोकमें जितने भी चराचर भूत देखे थे, वे सब उन्हें भगवान् की कुक्षिमें दृष्टिगोचर हुए। अथवा बहुत कहनेको क्या आवश्यकता, ब्रह्मासे लेकर कीटपर्यंन्त सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम जगत्-भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक, सत्यलोक, अतल, वितल, सुतल, पाताल, रसातल और महातलरूप ब्रह्माण्डको उन्होंने बालरूपधरी भगवान् के उदरमें देखा। उस समय मार्कण्डेयजीकी सर्वत्र बेरोकटोक गति थी। भगवानकी कृपासे उनकी स्मरणशक्तिका लोप नहीं होता था। वे भगवान् के उदर में सम्पूर्ण जगत्का अवलोकन करते हुए घूमते फिरे, किंतु उनके शरीरका कहीं अन्त नहीं मिला। तब वे बरदायक देवता श्रीहरिकी शरणमें गये। इस समय सहसा वे वायुके वेगसे खिंचकर भगवान् के खुले हुए मुखसे बाहर निकल आये।
बाहर निकलनेपर उन्हें पुनः मनुष्योंसे शून्य सारी पृथ्वी एकार्णवके जलमें निमग्र दिखायी दी। साथ ही वटवृक्षक शाखापर पलंगके ऊपर विराजमान शिशुरूपधारी भगवानका भी दर्शन हुआ, जो सम्पूर्ण जगत्को अपने उदरमें लेकर विराजमान थे। उनका वक्ष:स्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित, नेत्र पद्मपत्रके समान विशाल और श्रीअङ्ग पिताम्बरसे आच्छादित था। उनकी चार भुजाएँ शोभा पा रही थीं। भगवान् ने देखा मार्कण्डेय मुनि मुख़से निकलकर जलमें तैरते हुए अचेत-से हो रहे हैं। तब उन्होंने हँसकर कहा-‘बेटा। क्या तुमने मेरे उदरमें रहकर विश्राम कर लिया? वहाँ घूमते समय तुमने क्या-क्या आश्चर्य देखा?
मुनिश्रेष्ठ ! एक तो तुम मेरे भक्त, दूसरे थके-माँदे और तीसरे मेरे शरणागत हो। अतः तुम्हारा उपकार करनेके लिये मैं तुमसे बातचीत करता हैं। इधर मेरी और देखो तो सही। भगवान् का यह वचन सुनकर मार्कण्डेय मुनिका रोम-रोम हर्षसे खिल उठा। यद्यपि दिव्य रत्नसे अतंकृत तेजोमयं भगवान् की ओर देखना अत्यन्त कठिन था तो भी उन्होंने उनको देखा। भगवान् की कृपासे उन्हें क्षणभरमें नूतन, प्रसन्न एवं निर्मल दृष्टि प्राप्त हो गयी। तब मार्कण्डेयजीने भगवान् के दैववन्दित चरणोंको, जिनकी अँगुलियाँ और तलबे लाल-लाल थे, मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। हर्षसे युक्त और विस्मित होकर बारंबार उनकी ओर देखा तथा हाथ जोड़कर हर्षगदगद बाणीमें उन परमात्माका स्तवन आरम्भ किया।
मार्कण्डेयजी बोले- मायासे बाल-रूप धारण करनेवले देवदेव जगन्नाथ! कमलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले सुरश्रेष्ठ पुरुषोत्तम ! मैं दुःखित होकर आपकी शरणमें आया हूँ। मेरी रक्षा कीजिये। संवर्तक नामक अग्निने मुझे संतप्त कर रखा है। मैं अँगारोंकी वर्षासे भयभीत हो रहा हैं, मेरा उद्धार कीजिये। देवेश! पुरुषोत्तम! मैंने आपके उदरमें चराचर जगत्का अवलोकन किया है। इससे मुझे बड़ा विस्मय हुआ हैं। मैं विषादग्रस्त तो हूँ ही। मेरी रक्षा कीजिये । पुरुषोत्तम ! इस अवलम्बशुन्य संसारमें आपके सिवा दूसरा कोई सहारा देनेवाला नहीं है। मुझपर प्रसन्न होइये। सुरश्रेष्ठ ! प्रसन्न होइये। विबुधप्रिय ! प्रस्न्न होइये। देवताओंके नाथ ! प्रसन्न होइये। देवताओंके निवासस्थान ! प्रसन्न होइये। जगत्के कारणोंके भी कारण सर्वलोकेश्वर! मुझपर प्रसन्न होइये। सबको सृष्टि करनेवाले देव! प्रसन्न होइये। धरणीधर! मुझपर प्रसन्न होइये। जलमें निवास करनेवाले परमेश्वर! मुझपर प्रसन्न होइये। मधुसूदन ! मुझपर प्रसन्न होगे । कमलाकान्त ! प्रसन्न होइये। त्रिदशेश्वर! प्रसन्न होइये। कंस और केशका नाश करनेवाले श्रीकृष्ण ! प्रसन्न होइये। अरिष्टासुरका नाश करनेवाले गोविन्द ! प्रसन्न होइये। दैत्यनाशक श्रीकृष्ण ! प्रसन्न होइये । दानवोंका अन्त करनेवाले वासुदेव ! प्रसन्न होइये । मथुरावासी रे ! प्रसन्न होइये। यदुनन्दन ! प्रसन्न होइये। इनके छोटे भाई उपेन्द्र प्रसन्न होइये। वरदायक अविनाशी देव ! प्रसन्न होइये। भगवन् ! आप ही पृथ्वी, आप ही जत, आप ही अग्नि और आप ही वायु हैं। जगत्पते ! आकाश, मन, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति तथा सत्त्वादि गुण भी आप ही हैं। आप सम्पूर्ण विश्वमें व्यापक पुरुष हैं। पुरुषसे भी उत्तम पुरुषोत्तम हैं। प्रभो! आप ही सम्पूर्ण इन्द्रियों और उनके शब्द आदि विषय हैं। आप हौ दिक्पाल, धर्म, वेद दक्षिणसहित यज्ञ, इन्द्र, शिव, देवता, हविष्य और अग्नि हैं। वसु, रुद्र, आदित्य और ग्रह भी आपके ही स्वरूप हैं। और जितनी भी जातियाँ हैं, जो कुछ भी जीवनामधारी पदार्थ है, वह सब आप ही हैं। अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता, ब्रह्माले लेकर तिनकेतक जो कुछ भी भूत, भविष्य और वर्तमान चराचर जगत् है, वह आप ही हैं। देव ! आपका जो परमस्वरूप है, वह कूटस्थ, अचल एवं ध्रुव हैं। उसे ब्रह्मा आदि देवता भी नहीं जान पाते। फिर हुम-जैसे छोटी बुद्धिवाले मनुष्य कैसे उसका तत्त्व समझ सकते हैं। भगवन् ! आप शुद्धस्वभाव, नित्य, प्रकृतिसे परे, अव्यक्त, शाश्वत, अनन्त एवं सर्वव्यापी महेश्वर हैं। आप ही आकाशस्वरूप, परम शान्त, अजन्मा, व्यापक एवं अविनाशी हैं। इस प्रकार आपके निर्गुण एवं निरञ्जन (मायारहित शुद्ध) झपकी स्तुति कौन कर सकता है। देव ! अविनाशी देवदेवश्वर। मैंने जो विकल एवं अल्पज्ञन होनेके कारण आपके स्तवनकी धृष्टता की है, उसे आप क्षमा करनेकी कृपा करें।
मार्कण्डेयके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले- ‘ मुनिश्रेष्ठ ! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो उसे कहो। ब्रह्म ! तुम मुझसे जो कुछ चाहोगे, वह सब तुम्हें दूंगा।’
मार्कण्डेयज़ी बोले- देव ! मैं आपको और आपकी मायाको जानना चाहता हूँ। दैवेश ! आपकी कृपासे मेरी स्मरणशक्ति लुप्त नहीं हुई है। पुण्डरीकाक्ष! आप अव्यय हैं, मैं आपके तत्वको समझना चाहता हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्कौ पीकर आप साक्षात् परमेश्वर यहाँ बालरूपसे क्यों रहते हैं? ये सब बातें बतानेकी कृपा करें।
मुनिके इस प्रकार पूछनेपर परम कान्तिमान् देवाधिदेव श्रीहरिने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा–’ ‘ब्रह्मन् ! देवता भी मुझे ठीक-ठीक नहीं जानते; किंतु तुमपर प्रेम होनेके कारण मैं अपना रहस्य बाताऊँगा कि कैसे इस जगत्की सृष्टि करता हूँ। ब्रह्मर्षे ! तुम पितृभक्त हो और मेरो शरणमें आये हो; इसीलिये तुम्हें मेरे स्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन हुआ है। तुम्हारी ब्रह्मचर्य महान् है । पूर्वकालमें मैंने जलको ‘नारा’ नाम दिया था, उस ‘नारा’ में मेरा सदा अयन (निवास) रहता है: इसलिये मैं ‘नारायण’ कहलाता हैं। द्विजोत्तम ! मैं नारायण ही सबकी उत्पत्तिका कारण, सनातन, अविनाशी, सम्पूर्ण भूतोंका स्रष्टा और सेहत हूँ। मैं ही विष्णु, मैं ही ब्रह्मा और मैं ही देवराज इन्द्र, हूँ। यक्षराज कुबेर और प्रेतराज यम भी मैं ही हूँ। मैं ही शिव, चन्द्रमा, प्रजापति कश्यप, धाता, विधाता और यज्ञ हूँ। अग्नि मेरा मुख, पृथ्वी चरण, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र, द्युलोक मस्तक, आकाश और दिशाएँ कान तथा जल स्वेद हैं। दिशाओंसहित आकाश मेरा शरीर और वायु मेरे मनमें स्थित है। मैंने पर्याप्त दक्षिणावाले अनेकों यज्ञका अनुष्ठान किया है। पृथ्वीपर वेदके विद्वान् देवयज्ञमें स्थित मुझ विष्णुका ही यजन करते हैं। स्वर्गकी इच्छा रखनेवाले मुख्य-मुख्य क्षत्रिय और वैश्य भी यज्ञके द्वारा मेरी आराधना करते हैं। मैं ही शेषनाग होकर चारों ओरके समुद्रों और मेरुपर्वतसहित समस्त पृथ्वीको अकेला ही धारण करता हैं। पूर्वकालमें वाराहरूप धारण करके मैंने ही उसमें डूबी हुई इस पृथ्वीका अपनी शक्तिको उद्धार किया था। द्विज श्रेष्ठ ! मैं ही बड़वानल होकर समुद्रका जल पीता और मेघरूपसे उसकी अर्षा करता हूँ। ब्राह्मण मेरा मुख, क्षत्रिय मेरी भुजाएँ, वैश्य जाँघ और शूद्र चरण हैं। आवेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मुझसे ही प्रकट होते और फिर मुझमें ही प्रवेश कर जाते हैं। ज्ञानपरावण संन्यासी, संयमशील जिज्ञासु तथा काम, क्रोध एवं द्वेषसे रहित, अनासक्त, निष्पाप, सत्चस्थ, अहंकाइशून्य तथा अध्यात्मतत्त्वके ज्ञाता ब्राह्मण सदा मेरा ही चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं। मैं ही संवर्तक ज्योति, मैं ही संवर्तक अग्नि, मैं ही संवर्तक सूर्य और मैं ही संवर्तक वायु हैं। आकाशमें जो ये तारे दिखायी देते हैं, इन सबको मेरे ही रोम-कूप समझो। रत्नोंसे भरे हुए समुद्र और चारों दिशाओंको मेरे ही स्वरूप जानो। मनुष्य जिस कर्मका अनुष्ठान करके कल्याणके भागी होते हैं, वह भी मेरा ही स्वरूप है। सत्य, दान, उग्र तपस्या और अहिंसा-ये मेरे बनाये हुए विधानके अनुसार ही विहित माने जाते हैं और मेरे ही स्वरूपमें इनकी स्थिति है। जिनकी ज्ञानशक्ति मेरे द्वारा अभिभूत हो जाती हैं, वे इच्छानुसार चेष्टा नहीं कर पाते । वेदका सम्यक् स्वाध्याय करके भति-भाँतके यज्ञद्वारा यजन करनेवाले शन्तचित्त एवं क्रोधपर विजय पानेवाले ब्राह्मण मुझे प्राप्त करते हैं। पापाचारी, लोभी, कृपण, अनार्य तथा मनको वशमें न रखनेवाले मनुष्योंको मैं कभी नहीं मिल सकता। जिनके अन्त:करण शुद्ध हैं, उन्हें प्राप्त होनेवाला महान् फल मुझे ही समझो। कुयोगसेवी मूढ़ मनुष्योंके लिये मैं अत्यन्त दुर्लभ है। संतशिरोमणे! – जब धर्मकी हानि और अधर्मका उत्थान होता है। तब-तब मैं अपनेको प्रकट करता हूँ।* हिंसापगया दैत्य तथा भयंकर राक्षस, जो बड़े-बड़े देवताओंके लिये भी अवध्य हैं, जब इस संसारमें जम लेते हैं, तब मैं पुण्यात्मा पुरुषोंके घरों में अवतार लेता हैं। मनुष्य-देहमें प्रवेश करके समस्त बाधाओंका शमन करता हूँ। देवा, मनुष्य, गन्धर्व, नाग तथा राक्षसों और स्थावर भूतों की अपनी मायासे सृष्टि करके मैं पुनः उनका संहार करता हूँ। फिर कर्मकालमें उनके योग्य शरीरका विचार करके सृष्टि करता हूँ। मेरा स्वरूपभूत धर्म सत्ययुगमें श्वेत रहता है, जैतामें श्याम होता हैं, द्वापर आनेपर लाल हो जाता है और कलियुगमें काला पड़ जाता है। प्रलयकाल आनेपर में ही अत्यन्त दारुण कालरूप हो अकेला ही समस्त त्रिलोकीका नाश करता हूँ। उत्पत्ति, पालन और संहार-ये तीन मेरे ही धर्म हैं। मैं सम्पूर्ण विश्वका आत्मा और सब लोकोंको सुख पहुँचानेवाला हूँ। मेरा किसीसे । पार्थक्य नहीं है। मैं सर्वव्यापी, अनन्त और इन्द्रियोंका नियन्ता हूँ। मेरे डग बहुत बड़े हैं। मैं अकेला ही काल-चक्रका संचालन करता हूँ। जो ब्रह्मका रूप हैं, वह मेरा ही है। यही सम्पूर्ण भूनको शान्ति देनेवाला है। इसका उद्मम सम्पूर्ण भूकै हितके लिये ही होता है। मुनि श्रेष्ठ ! इस प्रकार मेरा आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें संनिहित है। फिर भी मुझे कोई नहीं जनत। भक्तगण सय लोकोंमें सर्बशा मेरा पूजन करते हैं। ब्रह्मन् ! मुझमें तुमने जो कुछ भी क्लेशका अनुभव किया है, वह सब तुम्हारे सुखके उदय और कल्याणकी प्राप्तिका कारण है। तुमने लोक स्थावर-जङ्गमरूप जो कुछ भी देखा है, वह सब सम्पूर्ण भूतोंको उत्पन्न करनेवाला मेरा आत्मा ही है, जिसे मैंने उस रूपमें प्रकट किया है। मैं ही शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाला नारायण हैं। जबतक एक हजार महायुगका समय नहीं बोत जाता, तबतक सम्पूर्ण विश्वको मोहित करके यहाँ जलमें शयन करता हैं। मुनिश्रेष्ठ! जबतक ब्रह्मा सोकर उठ नहीं जाते, तबतक मैं हर समय यहाँ शिशुरूप निवारा करती हैं। विप्रेन्द ! मुझ ब्रहारुपी परमात्माने अनेक बार संतुष्ट होकर तुम्हें वरदान दिया है। समस्त चराचर जगत्का नाश होकर सब कुछ एकार्णवमें मग्न हो जानेपर तुम मेरी ही आज्ञासे यहाँ आ निकले हो। फिर जब मेरे शरीरके भीतर प्रविष्ट हुए हो तब मैंने तुम्हें सम्पूर्ण पागका अवलोकन कराया है। वहाँ सम्पूर्ण लोकोंको देखकर तुम विस्मयमें पड़ गये और मुझे समझ नहीं पाये। तव तुरंत ही मैंने तुम्हें अपने मुखसे बाहर निकाल दिया और जो देवता और असुरोंके लिये दुर्जेय है, उसे अपने आत्मतत्वका तुमसे वर्णन किया है। ब्रह्मर्षे ! जबतक महातपस्वी ब्रह्माजी जागते नहीं तबतक तुम यहीं निर्भय होकर सुखपूर्वक विचरो। उनके जागनेके बाद मैं अकेला ही समस्त भूतों और उनके शरीरोंकी सृष्टि करूंगा।”
इतना कहकर भगवान्ने मुनिवर मार्कण्डेयजीसे पूछा- ‘ मुने ! तुमने जिस अभिप्रायसे मेरी स्तुति की है, उसे कहो। मैं तुम्हें शीघ्र ही उत्तम वरदान दूंगा।’ भगवान्का यह कल्याणमय वचन सुनकर मार्कण्डेय मुनि सहसा उनके चरणों में गिर पड़े और इस प्रकार बोले-“ देवेश ! मैंने आपके उत्कृष्ट स्वरूपका दर्शन किया, इससे मेरा सारा मोह दूर हो गया। नाथ ! अब मैं आपकी कृपासे यह चाहता हूँ कि सम्पूर्ण लाकोंके हित, भिन्नभिन्न भावनाओंकी पूर्ति तथा शैव और वैष्णवोंके विवाद-निवारणके लिये मैं इस परम उत्तम पवित्र पुरुषोत्तमतीर्थमें भगवान् शिवका बहुत बड़ा मन्दिर बनवाऊँ और उसमें शंकरजीको प्रतिष्ठा करू। इससे संसारके लोग यह जान लेंगे कि विष्णु और शिव एकरूप ही हैं।’ यह सुनकर भगवान् जगन्नाथने पुनः महामुनि मार्कण्डेयजीसे कहा ‘ ब्रह्मन् ! तुम मेरी आज्ञासे शीघ्र ही एक मन्दिर बनवाओं और उसमें नाना भावोंकी पूर्ति एवं अराधनाके लिये परम करणभूत भुवनेश्वर-लिङ्गकी स्थापना करो। उनके प्रभावसे तुम्हारा भगवान् शिवके लोकमें अक्षय निवास होगा। शिवकी स्थापना करनेपर मेरी ही स्थापना होती है। हम दोनोंमें तनिक भी अन्तर नहीं हैं। हम एक ही तत्त्व दो रूपमें व्यक्त हुए हैं। जो रुद्र हैं, वही विष्णु हैं; जो विष्णु हैं वहीं महादेव हैं। वायु और आकाशकी भाँति हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं हैं। जो अज्ञानसे मोहित है, वह इस बातको नहीं जानता कि जो गरुडध्वज हैं, वही वृषभध्वज हैं। अतः ब्रह्मन् ! तुम अपने नामसे शिवालय बनवा और देवाधिदेव भगवान्से उत्तरकी ओर एक सुन्दर तीर्थ (सरोवर) का निर्माण करो। वह तीर्थ मनुष्यलोकमें मार्कण्डेयदके नामसे विख्यात होगा। उसमेंस्नान करनेसे सब पापोंका नाश हो जायगा।’
मार्कण्डेय मुनिसे यों कहकर सर्वव्यापी जनार्दन वहीं अन्तर्धान हो गये।
अध्याय- 31 मार्कण्डेयेश्वर शिव, वटवृक्ष, श्रीकृष्ण, बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शन-पूजन का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – ब्राह्मणों ! अब मैं पंचतीर्थ की विधि बतलाऊँगा तथा स्नान स्नान , दान और देव-दर्शन से जो फल होता है, उसका वर्णन करूँगा । मार्कण्डेयह्र्द में जाकर मनुष्य उत्तराभिमुख हो तीन बार डुबकी लगाये और निम्नांकित मन्त्र का उच्चारण करे –
संसारसागरे मग्रं पापग्रस्तमचेतनम । त्राहि मां भगनेत्रघ्र त्रिपुरारे नमोऽस्तु ते ।। नम: शिवाय शान्ताय सर्वपापहराय च । स्नानं करोमि देवेश मम नश्यतु पातकम ।।
‘भग के नेत्रों का नाश करनेवाले त्रिपुरशत्रु भगवान शिव ! मैं संसार-सागर में निमग्र, पापग्रस्त एवं अचेंतन हूँ । आप मेरी रक्षा कीजिये । आपको नमस्कार हैं । समस्त पापों को दूर करनेवाले शांतस्वरूप शिव को नमस्कार है । देवेश्वर ! मैं यहाँ स्नान करता हूँ । मेरा सारा पातक नष्ट हो जाय ।’
यों कहकर बुद्धिमान पुरुष नाभि के बराबर जल में स्नान करने के पश्चात् देवताओं और ऋषियों का विधिपूर्वक तर्पण करे । फिर तिल और जल लेकर पितरों की भी तृप्ति करे । उसके बाद आचमन करके शिव-मन्दिर में जाय । उसके भीतर प्रवेश करके तीन बार देवताकी परिक्रमा करे । तदनन्तर ‘मार्कण्डेयेश्वराय नम:’ इस मूलमंत्र से अथवा अघोर मन्त्र से शंकरजी की पूजा करके उन्हें प्रणाम करे और निम्नाकिंत मन्त्र पढकर उन्हें प्रसन्न करे –
त्रिलोचन नमस्तेऽस्तु नमस्ते शशिभूषण । त्राहि मां त्वं विरूपाक्ष महादेव नमोऽस्तु ते ।।
‘तीन नेत्रोवाले शंकर ! आपको नमस्कार है, चन्द्रमा को भूषणरूप में धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है । विकट नेत्रोंवाले शिवजी ! आप मेरी रक्षा कीजिये । महादेव ! आपको नमस्कार है ।’
इसप्रकार मार्कण्डेयह्र्द में स्नान करके भगवान् शंकर का दर्शन करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो शिव को लोक में जाता है ।
वहाँ से कल्पांतस्थायी वटवृक्ष के पास जाकर उसकी तीन परिक्रमा करे । फिर निम्नाकिंत मन्त्रद्वारा बड़ी भक्ति के साथ उस वट की पूजा करे –
ॐ नमोऽव्यक्तरूपाय महाप्रलयकारिणे । महद्रसोपविष्टाय न्यग्रोधाय नमोऽस्तु ते ।। अमरस्त्वं सदा कल्पे हरेश्चायतनं वट । न्यग्रोध हर में पापं कल्पवृक्ष नमोऽस्तु ते ।।
‘अव्यक्तस्वरुप महाप्रलयकारी एवं महान रससे युक्त आप वटवृक्ष को नमस्कार है । हे वट ! आप प्रत्येक कल्प में अमर है । आपपर भगवान श्रीहरि का निवास है । न्यग्रोध ! मेरे पाप हर लीजिये । कल्पवृक्ष ! आपको नमस्कार है ।’
इसके बाद भक्तिपूर्वक परिक्रमा करके उस कल्पांतस्थायी वट को नमस्कार करे । ऐसा करनेवाला मनुष्य केंचुल से छूटे हुए सर्प की भांति सहसा पापों से मुक्त हो जाता है । उस वृक्ष की छाया में पहुँच जानेपर मनुष्य ब्रह्महत्या से भी मुक्त हो जाता है, फिर अन्य पापों की तो बात ही क्या है । भगवान श्रीकृष्ण के अंग से प्रकट हुए ब्रह्मतेजोमय वटवृक्षरूपी विष्णु को प्रणाम करके मानव राजसूय और अश्वमेध-यज्ञ से भी अधिक फल पाटा है और अपने कुल का उद्धार करके विष्णुलोक में जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण के सामने खड़े हुए गरुडको जो नमस्कार करता है, वह सब पापों से मुक्त ही श्रीविष्णु के वैकुण्ठधाम में जाता है । वटवृक्ष और गरुड़ का दर्शन करने के पश्चात जो पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रादेवी का दर्शन करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । जगन्नाथ श्रीकृष्ण के मन्दिर में प्रवेश करके तीन बार प्रदक्षिणा करे । फिर नाममंत्र से बलभद्रजी का भक्तिपूर्वक पूजन करके निम्नाकिंत रूपसे प्रार्थना करे –
नमस्ते हलधृग्राम नमस्ते मुसलायुध । नमस्ते रेव्तिकांत नमस्ते भक्तवत्सल ।। नमस्ते बलिनां श्रेष्ठ नमस्ते धरणीधर । प्रलम्बारे नमस्तेऽस्तु त्राहि मां कृष्णपूर्वज ।।
‘हलधारण करनेवाले राम ! आपको नमस्कार है । मुसल को आयुध रूप में रखनेवाले ! आपको नमस्कार है । रेवतीरमण ! आपको नमस्कार है । भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है । बलवानों में श्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है । पृथ्वी को मस्तकपर धारण करनेवाले शेषजी ! आपको नमस्कार है । प्रलम्बशत्रो ! आपको नमस्कार है । श्रीकृष्ण के अग्रज ! मेरी रक्षा कीजिये ।’
इस प्रकार कैलासशिखर के समान आकर और चंद्रमा से भी कमनीय मुखवाले, नीलवस्त्रधारी, देव्पुजित,अनंत, अजेय, एक कुंडल से विभूषित, फणों के द्वारा विकट मस्तकवाले, महाबली हलधर को प्रसन्न करे । बलरामजी की पूजा के पश्चात विद्वान पुरुष एकाग्रचित्त हो द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) से भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा करे । जो द्वादशाक्षर मन्त्र के द्वारा भक्तिपूर्वक सदा भगवान् पुरुषोत्तम की पूजा करते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं । देवता, योगी तथा सोमपान करनेवाले याज्ञिक भी जिस गति को नहीं पाते, उसी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जप करनेवाले पुरुष प्राप्त कर लेते है । अत: उसी मन्त्र से भक्तिपूर्वक गंध-पुष्प आदि सामग्रियोंद्वारा जगदगुरु श्रीकृष्ण की पूजा करके उन्हें प्रणाम करे । फिर इस प्रकार प्रार्थना करे–
‘जगन्नाथ श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो। सब पापों का नाश करनेवाले प्रभो ! आपकी जय हो । चाणूर और केशी के नाशक ! आपकी जय हो । कंसनाशन ! आपकी जय हो ! कमललोचन ! आपकी जय हो । चक्रगदाधर ! आपकी जय हो । नील मेघ के समान श्यामवर्ण ! आपकी जय हो । सबको सुख देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय ही । जगत्पुज्य देव ! आपकी जय हो । संसारसंहारक ! आपकी जय हो । लोकपते नाथ ! आपकी जय हो । मनोवांछित फल देनेवाले देवता ! आपकी जय हो । यह भयंकर संसारसागर सर्वथा नि:सार है । इसमें दुःखमय फेन भरा हुआ है । यह क्रोधरूपी ग्राह से पूर्ण है । इसमें विषयरूपी जलराशि भरी हुई है । भांति-भांति के रोग ही इसमें उठती हुई लहरे हैं । मोहरूपी भँवरों के कारण यह अत्यंत दुस्तर जान पड़ता है । सुरश्रेष्ठ ! मैं इस घोर संसाररूपी समुद्र में डूबा हुआ हूँ । पुरुषोत्तम ! मेरी रक्षा कीजिये ।’
इसप्रकार प्रार्थना करके जो देवेश्वर, वरदायक, भक्तवत्सल, सर्वपापहारी, समस्त अभिलषित फलों के दाता, मोटे कंधे और दो भुजाओंवाले, श्यामवर्ण, कमलपत्र के समान विशाल नेत्रोंवाले, चौड़ी छाती, विशाल भुजा, पीत वस्त्र और सुंदर मुखवाले, शंख-चक्र, गदाधर, मुकुटांगदभूषित, समस्त शुभ लक्षणों से युक्त और वनमालाविभूषित भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन और उन्हें प्रणाम करता है, वह हजारों अश्वमेध-यज्ञों का और सब तीर्थों में स्नान और दान करने का फल पाता है । सम्पूर्ण वेद, समस्त यज्ञ, सारे दान, व्रत, नियम, उग्र तपस्या और ब्रह्मचर्य के सम्यक पालन से जो फल मिलता है, वही भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन और वन्दन से प्राप्त होता है । शास्त्रोक्त आचार का पालन करनेवाले गृहस्थ को, वनवास के नियमों का पालन करने से वानप्रस्थ को और शास्त्रोक्त रीति से संन्यास-धर्म का पालन करनेपर सन्यासी को जो फल प्राप्त होता है, वही श्रीकृष्ण का दर्शन और उन्हें प्रणाम करनेवाला मनुष्य प्राप्त कर लेता है । भगवद्दर्शन के माहात्म्य के सम्बन्ध में अधिक कहने की क्या आवश्यकता, भगवान् श्रीकृष्ण का भक्तिपूर्वक दर्शन करके मनुष्य दुर्लभ मोक्षतक प्राप्त कर लेता है ।
तत्पश्चात भक्तोपर स्नेह रखनेवाली सुभद्रादेवी का भी नाममंत्र से पूजन करके उन्हें प्रणाम करे और हाथ जोडकर निम्नांकित रूपसे प्रार्थना करे –
नमस्ते सर्वगे देवि नमस्ते शुभसौख्यदे । त्राहि मां पद्मपत्राक्षी कात्यायनि नमोऽस्तु ते ।।
‘देवि ! तुम सर्वत्र व्याप्त रहनेवाली और शुभ सौख्य प्रदान करनेवाली हो । तुम्हें बारंबार नमस्कार है । पद्मपत्र के समान विशाल नेत्रोवाली कात्यायनि ! मेरी रक्षा करो । तुम्हें नमस्कार है ।’
इस प्रकार सम्पूर्ण जगत को धारण करनेवाली, लोकहितकारिणी, वरदायिनी एवं कल्याणमयी बलभद्रभगिनी सुभद्रादेवी को प्रसन्न करके मनुष्य इच्छानुसार गति से चलनेवाले विमान के द्वारा श्रीविष्णु के वैकुण्ठधाम में जाता है ।
अध्याय- 32 पुरुषोत्तमक्षेत्र में भगवान् नृसिंह तथा श्वेतमाधव का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते है – इसप्रकार बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्रा को प्रणाम करके भगवान् के मदिंर से बाहर निकले । तत्पश्चात जगन्नाथजी के मन्दिर को प्रणाम करके एकाग्रीचित हो उस स्थानपर जाय, जहाँ भगवान विष्णु की इन्द्रनीलमयी प्रतिमा बालू के भीतर छिपी है । वहाँ अदृश्यरूप से स्थित भगवान् को प्रणाम करके मनुष्य श्रीविष्णु के धाम में जाता है । ब्राह्मणों ! जो भगवान सर्वदेवमय हैं, जिन्होंने आधा शरीर सिंहका बनाकर असुरराज हिरण्यकशिपुका वध किया था, वे भगवान् नृसिंह भी पुरुषोत्तमतीर्थ में निवास करते है । जो भक्तिपूर्वक उनका दर्शन करके प्रणाम करता हैं, वह समस्त पातकों से निश्चय ही मुक्त हो जाता है । जो मानव इस पृथ्वीपर भगवान नृसिंह के भक्त होते हैं, उन्हें पाप कभी छू नहीं सकते और मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । अत: सब प्रकार से प्रयत्न करके भगवान नृसिंह की शरण ले; क्योंकि वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फल प्रदान करते हैं ।
मुनियों ने कहा – इस पृथ्वीपर भगवान् नृसिंह का माहात्म्य सुखदायक और दुर्लभ है । हम उनका प्रभाव विस्तार के साथ सुनना चाहते है । इसके लिये हमें बड़ी उत्कंठा है ।
ब्रह्माजी बोले – ब्राह्मणों ! मैं अजित, अप्रमेय तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले भगवान नृसिंह का प्रभाव बतलाता हूँ; सुनो । उनके समस्त गुणों का वर्णन कौन कर सकता हैं, अत: मैं भी संक्षेप से ही बतलाऊँगा । इस लोकमें जो कोई दैवी अथवा मानुषी सिद्धियाँ सुनी जाती है, वे सब भगवान् के प्रसाद से ही सिद्ध होती हैं । स्वर्ग, मर्त्यलोक, पाताल, दिशा, जल, गाँव तथा पर्वत – इन सब स्थानों में भगवान् के प्रसाद से मनुष्य की अबाध गति होती है । इस चराचर जगत में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो भक्तवत्सल भगवान् नृसिंह के लिए असाध्य हो । मुनिवरो ! सनातन कल्पराज एवं नृसिंह का तत्त्व, जिसे देवता या असुर भी नहीं जानते, तुम्हें बताता हूँ; सुनो । उत्तम साधक को चाहिये कि साग, जौ की लपसी, मूल, फल, खली अथवा सत्तू से भोजन की आवश्यकता पूर्ण करे अथवा दूध पीकर रहे । इन्द्रियों को काबू में रखकर धर्मपरायण रहे । वन, एकांत प्रदेश, पर्वत, नदी-संगम, ऊसर, सिद्धक्षेत्र अथवा नृसिंह के मंदिर में जाकर या स्वयं स्थापना करके भगवान् की विधिपूर्वक पूजा करे । शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उपवास करके जितेन्द्रियभाव से बीस लाख भगवन्नाम का जप करे । ऐसा करनेवाला साधक उपपातक और महापातकों से युक्त होनेपर भी मुक्त हो जाता हैं । पहले भगवान नुसिंह की प्रदक्षिणा करके चन्दन और धुप आदि के द्वारा उनकी पूजा करे । मस्तक झुकाकर प्रभु को प्रणाम करे तथा उनके माथेपर कपूर और चंदन मिले हुए चमेली के फुल चढावे । इससे सिद्धि प्राप्त होती है । किसी भी कार्य में भगवान् की गति कुंठित नहीं होती । ब्रह्मा, रूद्र आदि देवता भी उनके तेज को नहीं सह सकते । फिर संसार में सिद्ध गंधर्व, मानव, दानव, विद्याधर, यक्ष, किन्नर और महानागों की तो बात ही क्या है । एनी साधक जिन असुरों का नाश करने के लिये मन्त्र-जप करते हैं, वे सब नृसिंहभक्तों को सूर्य के समान तेजस्वी देखकर तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं । महाबली भगवान नृसिंह सदा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं । अत: मुनीश्वरो ! समस्त अभिलाषित फलों के दाता महापराक्रमी भगवान् नृसिंह की सदा भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शुद्र और अन्त्यज भी सुरश्रेष्ठ नृसिंह का भक्तिपूर्वक पूजन करके कोटिजन्मों के पाप और दु:खोंसे मुक्त हो जाते हैं । मनोवांछित फल पाते हैं । देव, गंधर्व एवं इंद्र का पद भी प्राप्त कर लेते है । एक बार भी भगवान् नृसिंह का भक्तिपूर्वक दर्शन करने से करोड़ों जन्मों के पापों और दु:खों से छुटकारा मिल जाता है । उसी प्रकार भगवान् नृसिंह का दर्शन होनेपर सभी उपद्रव नष्ट हो जाते है ।
अनंत नामक वासुदेव का भक्तिपूर्वक दर्शन और उन्हें वन्दन करनेपर मनुष्य सब पापों से मुक्त हो परम पदको प्राप्त होता है । मैंने इन्द्रने तथा विभीषण ने भी उनकी आराधना की है । फिर कौन मनुष्य उनकी आराधना न करेगा । ज मनुष्य श्वेतगंगा में स्नान करके श्वेतमाधव तथा मत्स्यमाधव का दर्शन करता हैं, वह श्वेतद्वीप में जाता है ।
मुनियों ने कहा – भगवन ! आप श्वेतमाधव के माहात्म्य का पूर्णरूप से वर्णन कीजिये । साथ ही भगवान् की प्रतिमा का वृतांत भी विस्तार के साथ बतलाइये । भूतल में विख्यात भगवान् के पवित्र क्षेत्र में श्वेतमाधव की स्थापना किसने की थी ?
ब्रह्माजी बोले – सत्ययुग में श्वेत नामके एक बलवान राजा थे । वे बड़े बुद्धिमान, धर्मज्ञ, शूरवीर, सत्यप्रतिज्ञ और दृढ़तापूर्वक व्रत का पालन करनेवाले थे । उनके राज्य में दस हजार वर्षोतक मनुष्यों की आयु होती थी और किसी बालक की मृत्यु नहीं होती थी । इसप्रकार राजा श्वेत के राज्य में कुछ काल व्यतीत होने के पश्चात एक घटना घटित हुई । कपालगौतम नामक एक परम धर्मात्मा ऋषि थे । उनके एक पुत्र हुआ, जो कालवश दाँत निकलने के पहले ही चल बसा । उसे गोदमें लेकर बुद्धिमान ऋषि राजा के निकट आये । राजा ने ऋषिकुमार को अचेत अवस्था में सोया देख उसको जीवित करने के लिये प्रतिज्ञा की ।
राजा बोले – यदि यमलोक में गयें हुए इस बालक को मैं सात दिन के भीतर न ला सकूँ तो जलती हुई चितापर चढ़ जाऊँगा ।
यों कहकर राजाने लाख नीलकमलों से महादेवजी की पूजा करके उनके मन्त्र का जप आरम्भ किया । जगदीश्वर भगवान शिव राजा की अत्यंत भक्ति का विचार करके पार्वतीजी के साथ उनके सामने प्रकट हुए और बोले – ‘राजन ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ।’ महादेवजी का यह वचन सुनकर राजा श्वेत ने सहसा उनकी ओर देखा । वे सब अंगों में भस्म रमाये हुए थे । उनके शरीर की कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमा और कुंद के समान थी । उनके नेत्र विकट थे । व्याघ्रचर्म का वस्त्र और ललाट में चन्द्रमा की रेखा थी । उनपर दृष्टी पड़ते ही राजाने सहसा पृथ्वीपर गिरकर उन्हें प्रणाम किया और कहा – ‘प्रभो ! यदि आप मुझपर प्रसन्न है, यदि आपकी मुझपर दया हैं तो काल के वश में पड़ा हुआ यह ब्राह्मण-बालक पुन: जीवित हो जाय । यही मेरी प्रतिज्ञा है । महेश्वर ! आप इसे यथायोग्य आयु से युक्त और कल्याण का भागी बनायें ।’
श्वेत की यह बात सुनकर महादेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने सब भूतों को भय देनेवाले काल को आज्ञा दी और काल ने मृत्यु के मुख में पड़े हुए उस बालक को जीवित कर दिया । इसके बाद वे पार्वतीदेवी के साथ अन्तर्धान हो गये ।
तदनंतर राजाने हजारों वर्षोतक एकाग्रचित्त होकर राज्य किया । फिर लौकिक धर्मों और वैदिक नियमों का विचार करके भगवान् केशव की आराधना का निश्चित व्रत ग्रहण किया । इसके बाद वे दक्षिणसमुद्र के पुरुषोत्तमक्षेत्र में गये और जगन्नाथजी के पास ही सुंदर रमणीय प्रदेश में एक सुंदर मन्दिर बनवाया और श्वेतशिला के द्वारा भगवान् श्वेतमाधव की प्रतिमा बनवाकर विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा की । उससमय ब्राह्मणों, दीनों, अनाथों और तपस्वियों को दान दे राजाने भगवान् माधव के समीप पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया । फिर एक मासतक मौन एवं निराहर रहकर द्वादशाक्षर मन्त्र का जप किया । जप समस्त होनेपर भगवान् देवेश्वर की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की ।
श्वेत बोले – ॐ वासुदेव को नमस्कार है । सबको अपनी ओर खीचनेवाले संकर्षण को नमस्कार है । अत्यंत द्युतिमान प्रद्दम्र, कभी रुद्ध न होनेवाले अनिरुद्ध तथा नारायण को नमस्कार है । जिनके अनेक रूप है, जो विश्वरूप, विधाता, निर्गुण, अतर्क्य, शुद्ध एवं उज्ज्वल कर्मवाले हैं, उनको नमस्कार है । जिनकी नाभि कमल है, जो पद्मगर्भ ब्रह्माजी की उत्पत्ति के कारण है, उनको नमस्कार है । जिनका वर्ण कमल के समान है, जो हाथ में भी कमल लिये रहते हैं, उनको नमस्कार है । प्रभो ! आपके सिवा नरक से उद्धार करनेवाला मेरा कोई बन्धु नहीं है । शरणागतवत्सल ! मैं सम्पूर्ण भाव से आपके चरणों में पड़ा हूँ । केशव ! अच्युत ! मेरा जो शारीरिक और मानसिक मल है, उसे धोनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है । भगवन ! मैंने समस्त संग त्यागकर आपकी शरण ली ई । केशव ! अब आपके ही साथ मेरा संग हो । इससे मुझे आत्मलाभ होगा । मुझे यह संसार कष्ट एवं आपत्तियों का घर तथा दुस्तर जान पड़ता हैं । मैं आध्यात्मिक आदि तीनो से खिन्न हूँ । इसलिये आपकी शरण में आया हूँ । आपकी माया से यह समस्त जगत नाना प्रकार की कामनाओंद्वारा मोहित हो रहा हैं । इसमें लोभ आदि का पूरा आकर्षण है । अत: मैंने आपकी शरण ली है । विष्णो ! संसारी जीव को तनिक भी सुख नही है । यज्ञेश्वर ! मनुष्य का मन जैसे-जैसे आप में लगता जाता हैं, वैसे-वैसे निष्काम होकर वह परमानन्द को प्राप्त होता रहता है । मैं विवेकशून्य होकर नष्ट हो गया हूँ । सारा जगत मुझे दु:खी दिखायी देता हैं । गोविन्द ! मेरी रक्षा कीजिये । आप ही संसार में मेरा उद्धार कर सकते हैं । यह संसार-समुद्र मोहरूपी जलसे परिपूर्ण हैं । इसके पार जाना असम्भव है । मैं इसमें गलेतक डूबा हुआ हूँ । पुंडरीकाक्ष ! आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा नही है, जो इससे मेरा उद्धार कर सके ।
उस विख्यात दिव्य पुरुषोत्तमक्षेत्र में राजा श्वेत के इसप्रकार स्तुति करनेपर देवाधिदेव जगदगुरु श्रीहरि उनकी भक्ति का विचार करके सम्पूर्ण देवताओं के साथ राजा के समाने आये । नील मेघ के समान श्यामवर्ण, कमल-पत्रके समान बड़ी-बड़ी आँखें, हाथों में देदीप्यमान सुदर्शन, बायें हाथ में पांचजन्य शंख तथा एनी हाथों में गदा, शांर्गधनुष और खडंग – यही उनकी झाँकी थी ।
भगवान ने कहा – ‘राजन ! तुम्हारी बुद्धि बड़ी उत्तम है । तुममे पाप का लेश भी नहीं हैं । मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम अपनी इच्छा के अनुसार कोई उत्तम वर माँगों ।’
देवाधिदेव भगवान का यह अमृतमय वचन सुनकर महाराज श्वेत ने मस्तक नवाकर उन्हें प्रणाम किया और उन्हीं में मन लगाये हुए कहा – ‘भगवन ! यदि मैं आपका भक्त हूँ तो मुझे यह उत्तम वरदान दीजिये । ब्रह्मलोक से भी ऊपर जो अविनाशी वैकुण्ठधाम है, जिसे निर्मल, रजोगुण-रहित, शुद्ध एवं संसार की आसक्ति से शून्य बताया गया है, मैं उसी को प्राप्त करना चाहता हूँ । जगत्पते ! आपकी कृपा से मेरा यह मनोरथ सफल हो ।’
श्रीभगवान बोले – राजेन्द्र ! सम्पूर्ण देवता, मुनि, सिद्ध और योगी भी जिस रमणीय और रोग-शोकरहित पद को नहीं प्राप्त होते, उसे ही तुम प्राप्त करोगे । सम्पूर्ण लोकों को लाँघकर मेरे लोक में जाओगे । यहाँ तुमने जो कीर्ति प्राप्त की है, वह तीनों लोकों में फैलेगी और मैं सदा ही यहाँ निवास करूँगा । इस तीर्थ को देवता और दानव आदि सब लोग श्वेतगंगा कहेंगे । जो कुश के अग्रभाग से भी श्वेतगंगा का जल अपने ऊपर छिडकेगा, वह स्वर्गलोक में जायगा । जो यहाँ स्थापित श्वेतमाधव नाम की प्रतिमा का दर्शन और उसे प्रणाम करेगा, वह देह त्यागकर भगवान् का स्मरण करते हुए शांत पदको प्राप्त करेगा ।
अध्याय- 33 मत्स्यमाधव की महिमा, समुद्र में मार्जन आदि की विधि, अष्टाक्षर-मन्त्र की महत्ता, स्नान, तर्पण-विधि तथा भगवान् की पूजा का वर्णन
ब्रह्माजी कहते हैं – श्वेतमाधव का दर्शन करके उनके समीप ही मत्स्यमाधव का दर्शन करे । जो भगवान पहले एकार्णव के जल में मत्स्यरूप धारण करके वेदों का उद्धार करने के लिये रसातल में स्थित थे, वे ही मत्स्यमाधव कहलाते है । वे भगवान के आदि अवतार हैं । पहले पृथ्वी का चिन्तन करके उसपर प्रतिष्ठित हुए भगवान् को प्रणाम करे । ऐसा करने से मनुष्य सब दु:खों से मुक्त हो जाता है और इस वैकुण्ठधाम में जाता है, जहाँ साक्षात भगवान श्रीहरि विराजमान रहते है । मुनिवरो ! इसप्रकार मैंने मत्स्यमाधव के माहात्म्य का वर्णन किया ।
मुनियोंने कहा – भगवन ! समुद्र में जो मार्जन और स्नान-दान आदि किया जाता हैं, उसका फल बतलाइये ।
ब्रह्माजी बोले – मुनिवरो ! मार्जन की विधि सुनो ! मार्कण्डेयह्र्द का स्नान पुर्वाह्रकाल में उत्तम माना गया है । विशेषत: चतुर्दशी को उसमे किया हुआ स्नान सब पापों का नाश करनेवाला है । समुद्रका स्नान सब समय उत्त्तम होता है, विशेषत: पूर्णिमा को उसमे स्नान करने से अश्वमेध-यज्ञ का फल मिलता है । मार्कण्डेयह्र्द, अक्षयवट, श्रीकृष्ण-बलराम, समुद्र तथा इंद्रद्युम्र – ये पुरुषोत्तमक्षेत्र के पाँच तीर्थ है । सब जेष्ठ मास की पूर्णिमा को जेष्ठा नक्षत्र हो तब विशेषरूप से तीर्थराज समुद्र की यात्रा करनी चाहिये । उससमय मन, वाणी और शरीर से शुद्ध हो भगवान् में मन लगाये रहे और कहीं मनको न ले जाय । सब प्रकार के द्वन्द्वोंसे मुक्त रहे, राग और द्वेष को दूर कर दे । कल्पवृक्ष-वट बहुत रमणीय स्थान है, वहाँ स्नान करके एकाग्र चित्तसे तीन बार भगवान् जनार्दनकी परिक्रमा करे । उनके दर्शन से सात जन्मों के पापोंसे छुटकारा मिल जाता है । प्रचुर पुण्य तथा अभीष्ट गति की प्राप्ति होती है । प्रत्येक युगके अनुसार वट के नाम और प्रमाण बतलाये जाते हैं । वट, वटेश्वर, कृष्ण तथा पुराणपुरुष – ये सत्य आदि युगों में क्रमशः वट के नाम कहे गये हैं । सत्ययुग में वट का विस्तार एक योजन, त्रेता में पौन योजन, द्वापर में आधा योजन और कलियुग में चौथाई योजन का माना गया है । पहले बताये हुए मन्त्र से वट को नमस्कार करके वहाँ तीन सौ धनुष की दुरीपर दक्षिण दिशा की ओर जाय । वहाँ भगवान विष्णु का दर्शन होता है । उसे मनोरम स्वर्गद्वार कहते हैं । वहाँ समुद्र के जल से आकृष्ट सर्वगुणसंपन्न काष्ठ है, उसे प्रणाम करके पूजन करनेपर मनुष्य सम्पूर्ण रोगों तथा पापग्रह आदि की पीड़ा से मुक्त हो जाता है ।
स्वर्गद्वार से समुद्रपर जाकर आचमन करे तथा पवित्र भावसे भगवान् नारायण का ध्यान करके उनके अष्टाक्षर मन्त्र से अंगन्यास और करन्यास करे । मन को भुलावे में डालनेवाले अन्य बहुत-से मन्त्रों की क्या आवश्यकता हैं, ‘ॐ नमो नारायणाय’ – यह अष्टाक्षर मन्त्र ही सब मनोरथों को सिद्ध करनेवाला है । नर से प्रकट होने के कारण जल को नार कहते है । वह पूर्वकाल में भगवान विष्णु का अयन (निवासस्थान) रहा है, इसलिए उन्हें नारायण कहते हैं । समस्त वेदों का तात्पर्य भगवान नारायण में ही है । सम्पूर्ण द्विज नारायण की ही उपासना में तत्पर रहते हैं । यज्ञों और क्रियाओं की समाप्ति भी नारायणपरक है । अग्नि नारायणपरक है । जल नारायणपरक है और आकाश भी नारायणपरक है । वायु और मन के आश्रय भी नारायण ही है । अहंकार और बुद्धि दोनों नारायणस्वरुप हैं । भुत, वर्तमान तथा आनेवाले सभी जीव, स्थूल और सूक्ष्म –सब कुछ नारायणस्वरुप है । शब्द आदि विषय, श्रवण आदि इन्द्रियाँ, प्रकुति और पुरुष –स ही नारायणस्वरुप है । जल, स्थल, पाताल, स्वर्गलोक, आकाश तथा पर्वत – इन सबको व्याप्त करके भगवान् नारायाण स्थित है । अधिक कहने की क्या आवश्यकता, ब्रह्मा आदिसे लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत नारायणस्वरूप है । जल भगवान् विष्णु का घर है और विष्णु ही जल के स्वामी है । अत: जल में सर्वदा पापहारी नारायण का स्मरण करना चाहिये । ओंकार और नरक का दोनों हाथों के अँगूठे में तथा शेष अक्षरों का तर्जनी आदि के क्रम से करतल और करपृष्ठोंतक न्यास करे । ‘ॐकार’ का बायें और ‘न’ कार का दायें चरण में न्यास करे । कटी के बायें भाग में ‘मो’ का और दायें भाग में ‘ना’ का न्यास करे । ‘रा’ का नाभिदेश में , ‘य’ का बायीं भुजामें, ‘णा’ का दाहिनी भुजा में और ‘य’ का मस्तकपर न्यास करे । नीचे-ऊपर, ह्रदय में, पार्श्वभाग में, पीठ की ओर तथा अग्रभाग में श्रीनारायण का ध्यान करके विद्वान, पुरुष कवच का पाठ आरम्भ करे । ‘पूर्व में गोविन्द, दक्षिण में मधुसुदन, पश्चिम की ओर श्रीधर, उत्तर में केशव, अग्रीकोण में विष्णु, नैऋत्य में अविनाशी माधव, वायव्य में ह्रषीकेश, ईशान में वामन, नीचे वाराह और ऊपर भगवान त्रिविक्रम मेरी रक्षा करें ।’
त्वमग्रिद्विपदां नाथ रेतोधा: कामदीपन: । प्रधान: सर्वभूतानां जीवानां प्रभुरव्यय: ।। अमुतस्यारणिस्त्वं हिं देवयोनिरपां पते । वृजिनं हर में सर्व तीर्थराज नमोऽस्तु ते ।।
‘नाथ ! आप अग्नि हैं, मनुष्य आदि सब जीवों के वीर्य का आधान और काम का दीपन करनेवाले हैं । सम्पूर्ण भूतों में प्रधान है तथा जीवों के अविनाशी प्रभु है । समुद्र ! आप अमृत की उत्पत्ति के स्थान तथा देवताओं की योनि है । तीर्थराज ! आप मेरे सब पाप हर लें । आपको नमस्कार हैं ।’
इस प्रकार विधिवत उच्चारण करके स्नान करना चाहिये, अन्यथा वह स्नान उत्तम नहीं माना जाता । वैदिक मन्त्रोंसे मार्जन करके जल में डुबकी लगा तीन बार अघमर्षण मन्त्र का जप करे । जैसे अश्वमेध यज्ञ सब पापों को दूर करनेवाला है । बायें और दायें हाथ की सम्मिलित अंजलिसे नाम-गोत्र के साथ ‘तृप्यताम’ बोलकर मौनभाव से जल दे ।
श्राद्धे हवनकाले च पाणिनैकेन निर्वपेत । तर्पणे तुभयं कुर्यादेव एव विधि: सदा ।। अन्वारब्धेन सव्येन पाणिना दक्षिणेन तु । तृप्ततामिति सिश्चेतु नामगोत्रेंण वाग्यत: ।।
अपने अंगों में स्थित तिल के द्वारा देवताओं और पितरों का तर्पण न करे । वैसे तिलों के साथ दिया हुआ जल रुधिर के तुल्य होता है । उसे देनेवाला पाप का भागी होता है । मुनिवरों ! यदि दाता जल में स्थित होकर पृथ्वीपर जल दे तो वह व्यर्थ होता है, किसी के पास नहीं पहुँचता । उसका दिया हुआ जल भी पितरों को नहीं मिलता, व्यर्थ जाता है । अत: जल में कदापि पितरों को जल न दे । न जलमे, न पात्रमें, न कुपित होकर और न एक हाथसे ही जल दे । जो पृथ्वीपर नहीं दिया जाता, वह जल पितरोंतक नहीं पहुँचता । मैंने पितरों के लिये अक्षय स्थान के रूप में पृथ्वी ही दी हैं, अत: उनकी प्रीति चाहनेवाले पुरुषों को पृथ्वीपर ही जल देना चाहिये ।
वैष्णव-पंचांगन्यास
‘ॐ विष्णवे नम: शिर:’, ‘ॐ ज्वलनाय नम: शिखा’, ‘ॐ विष्णवे नम: कवचम’, ‘ॐ विष्णवे नम:स्फुरण दिशोबंधाय’, ‘ॐ हूँ फट अस्त्रम’ ।
चतुर्व्यूहन्यास
‘ॐ शिरसि शुक्लो वासुदेव इति’, ‘ॐ आं ललाटे रक्त: संकर्षणो गुरुत्मान वह्रिस्तेज आदित्य इति’, ‘ॐ आं ग्रीवायां पीत: प्रद्युम्रो वायुमेध इति’, ‘ॐ आं ह्रदये कृष्णोऽनिरुद्ध: सर्वशक्तिसमन्वित इति ।
इस प्रकार अपने आत्मा का चतुर्व्यूहरूप से चिन्तन करके कार्य आरम्भ करे ।
‘मेरे आगे भगवान विष्णु और पीछे केशव हैं । दक्षिणभाग में गोविन्द और वामभाग में मधुसुदन है । ऊपर वैकुण्ठ और नीचे वाराह हैं । बीच की सम्पूर्ण दिशाओं से माधव है । चलते, खड़े होते, जागते अथवा सोते समय भगवान् नृसिंह मेरी रक्षा करते हैं । मैं वासुदेवस्वरुप हूँ।’ इसप्रकार विष्णुमय होकर पूजन आरम्भ करे । प्रणव का उच्चारण करके शरीरपर जल के छींटे दे । ‘ॐ फट’ का उच्चारण सब विघ्नों का निवारण करनेवाला और शुभ माना गया हैं । वहाँ सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु और आकाशमंडल का चिन्तन करे । फिर ह्रदय में ज्योति:स्वरुप ॐकार का चिन्तन करके कमल की कर्णिका में ज्योति:स्वरुप सनातन विष्णु की स्थापना करे । फिर एक-एक अक्षर के द्वारा तथा समस्त मन्त्र के द्वारा भी पूजन करना अत्यंत उत्तम माना गया है । सनातन परमात्मा विष्णु का द्वादशाक्षर मन्त्र से पूजन करे । इसके बाद भगवान का पहले ह्दय में ध्यान करके बाहर कर्णिका में भी उनकी भावना करे ।
पूर्वोक्त अष्टदल कमल के पुर्वदल में वासुदेव का, दक्षिणदल में संकर्षणका, पश्चिमदल में प्रद्युम्नका,उत्तरदल में अनिरुद्ध का, अग्निकोणवाले दल में वाराह का, नैऋत्यकोण में नरसिंह का, वायव्यकोण में माधव का तथा ईशान में भगवान् त्रिविक्रम का न्यास करे । फिर अष्टाक्षरदेव के सम्मुख गरुड की स्थापना करे । जिसने उपर्युक्त विधि से एक बार भी श्रीकेशव का पूजन किया है, वह जन्म-मृत्यु और जरा अवस्था को लाँघकर भगवान् विष्णु के पदको प्राप्त होता है । ‘नम:’ जिसके ॐकार जिसके आदि में और ‘नम:’ जिसके अंत में हैं, वह ‘ॐ नमो नारायाणाय नम:’ यह तेजस्वी मन्त्र सम्पूर्ण तत्त्वों का मन्त्र कहलाता हैं । इसी विधि से प्रत्येक को गंध, पुष्प आदि वस्तुएँ क्रमश: निवेदन करनी चाहिये । इसीतरह क्रमश: आठ मुद्राएँ बाँधकर दिखाये । फिर मंत्रवेत्ता पुरुष ‘ॐ नमो नारायाणाय’ इस मूलमन्त्र का एक सौ आठ या अट्ठाईस अथवा आठ बार जप करे । किसी कामना के लिये जप करना हो तो उसके लिये शास्त्रों में जितना बताया गया हो, उतनी संख्यामे जप करे । अथवा निष्कामभाव से जितना हो सके, उतना एकाग्रचित्त से जप करे । पद्म, शंख, श्रीवत्स, गदा, गरुड़, चक्र, खंड और शार्गधनुष – ये आठ मुद्राएँ बतलायी गयी है । जो लोग शास्त्रोक्त म्न्त्रोद्वारा श्रीहरि की पूजा का विधान न जाते हो, वे ‘ॐ नमो नारयाणाय’ – इस मूलमंत्र से ही सदा भगवान् अच्युत का पूजन करें ।
अध्याय- 34 भगवान् पुरुषोत्तम की पूजा और दर्शन का फल, इंद्रद्युम्न सरोवर के सेवन की विधि एवं महिमा का वर्णन तथा जेष्ठ की पूर्णिमा को दर्शन का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – उपर्युक्त प्रकार से भक्तिपूर्वक भगवान पुरुषोत्तम की पूजा करके उनके चरणों में मस्तक झुकाये । इसके बाद समुद्र से प्रार्थना करे – ‘सरिताओं के स्वामी तीर्थराज ! आप सम्पूर्ण भूतों के प्राण और योनि है । आपको नमस्कार है । अच्युतप्रिय ! मेरी रक्षा कीजिये।’ इसप्रकार उत्तम क्षेत्र समुद्र में स्नान करके तथा तटपर अविनाशी नारायण की विधिपूर्वक पूजा करके बलराम, श्रीकृष्ण और सुभद्रा को प्रणाम करे । ऐसा करनेवाला पुरुष सब पापों से मुक्त हो सब प्रकार के दु:खों से छुटकारा पा जाता है और अंत में सूर्य के समान तेजस्वी विमानपर, जहाँ दिव्य गन्धर्वो की संगीतध्वनि होती रहती है, बैठकर अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करके श्रीविष्णु के लोक में जाता है । ग्रहण, संक्रान्ति, अयनारम्भ, विषुवयोग, युगादि तिथियाँ व्यतीपात, तिथिक्षय, आषाढ़, कार्तिक तथा माघकी पूर्णिमा और अन्य शुभ तिथियों में जो वहाँ ब्राह्मणों को दान देते है, वे अन्य तीर्थोंकी अपेक्षा हजारगुना फल पाते हैं । जो जो लोग वहाँ विधिपूर्वक पितरों को पिंडदान करते हैं, उनके पितर अक्षय तृप्ति-लाभ करते हैं । इसप्रकार मैंने समुद्र में स्नान करने का उत्तम फल बतलाया । वह सब पापों को दूर करनेवाला, पवित्र तथा इच्छानुसार सब फलों का दाता है । यह पुराण-रहस्य नास्तिक को नहीं बतलाना चाहिये । भूतल जितने तीर्थ, नदियाँ और सरोवर हैं, वे सब समुद्र में प्रवेश करते हैं । इसलिये वह सबसे श्रेष्ठ है । सरिताओं का स्वामी समुद्र समस्त तीर्थों का राजा है । वह सब तीर्थों में श्रेष्ठ और समस्त इच्छित पदार्थ को देनेवाला है । जैसे सूर्योदय होनेपर अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार तीर्थराज समुद्र में स्नान करनेपर सब पापों का क्षय हो जाता है । जहाँ साक्षात भगवान नारायण का निवासस्थान है, उस तीर्थराज समुद्र के गुणों का वर्णन कौन कर सकता है । यहाँ निन्यानबे करोड़ तीर्थ रहते हैं, उसकी श्रेष्ठता के विषय में क्या कहा जा सकता है । इसलिये वहाँ स्नान, दान, होम, जप और देवपूजन आदि जो कुछ भी कर्म किया जाता है, वह अक्षय होता है । वहाँसे उस तीर्थ में जाय, जो अश्वमेध-यज्ञ के अंगसे उत्पन्न हुआ है । उसका नाम है इन्द्रद्युम्नसरोवर । वह पवित्र एवं शुभ तीर्थ है । बुद्धिमान पुरुष वहाँ जाकर पवित्र भाव से आचमन करे और मन-ही-मन श्रीहरि का ध्यान करके जल में उतरे । उससमय इस मन्त्र का उच्चारण करे –
अश्वमेधांगसम्भूत तीर्थ सर्वांगनाशन । स्नानं त्वयि करोम्यद्य पापं हर नमोऽस्तु ते ।।
‘अश्वमेध-यज्ञ के अंग से प्रकट हुए तथा सम्पूर्ण पापों के विनाशक तीर्थ । आज मैं तुम्हारे जल में स्नान करता हूँ । मेरे पाप हर लो । तुमको नमस्कार है ।’
इस प्रकार उच्चारण करके विधिपूर्वक स्नान करे और देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अन्याय लोगों का तिल – जल से तर्पण करके आचमन करे । फिर पितरों को पिंडदान दे, पुरुषोत्तम का पूजन करे । ऐसा करनेवाला मनुष्य दस अश्वमेध-यज्ञों का फल प्राप्त करता है । वह सात पीढ़ी ऊपर और सात पीढ़ी नीचे के पुरुषों का उद्धार करके इच्छानुसार गतिवाले विमान के द्वारा विष्णुलोक में जाता है । इसप्रकार पाँच तीर्थों का सेवन करके एकादशी को उपवास करे । जो मनुष्य जेष्ठ की पूर्णिमा को भगवान् पुरुषोत्तम का दर्शन करता है, वह पूर्वोक्त फल का भागी होकर परम धाम को जाता हैं, जहाँ से पुन: उसका लौटना नहीं होता ।
मुनियों ने पूछा- पितामह ! आप माघ आदि महीनों को छोडकर जेष्ठ मास की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं? प्रभो ! इसका कारण बतलाइये ।
ब्रह्माजी बोले – मुनिवरो ! सुनो । अन्य मासों की अपेक्षा जो जेष्ठ मास की बारंबार प्रशंसा करता हूँ, उसका कारण संक्षेप से बतलाता हूँ । पृथ्वीपर जो – जो तीर्थ, नदियाँ, सरोवर, पुष्करिणी, तडाग, वापी, कूप, ह्र्द और समुद्र हैं, वे सब जेष्ठ के शुक्लपक्ष की दशमी से लेकर पूर्णिमातक एक सप्ताह प्रत्यक्षरूप से पुरुषोत्तमतीर्थ में जाकर रहते हैं । यह उनका सदा का नियम है । इसलिये वहाँ स्नान-दान, देवदर्शन आदि जप कुछ पुण्य कार्य उससमय किया जाता है, वह अक्षय होता हैं । द्विजवरो ! जेष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि दस पापों को हरती है, इसलिये उसे दशहरा कहा गया है । उस दिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा का दर्शन करते है, वे सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक में जाते हैं । उत्तरायण और दक्षिणायन के आरम्भ के दिन श्रीपुरुषोत्तम, बलराम और सुभद्रा का दर्शन करनेवाला मानव वैकुण्ठ-धाम में जाता है । जो मनुष्य फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन एकचित्त हो पुरुषोत्तम श्रीगोविंद को झुलेपर विराजमान देखता हैं, वह उनके धाम में जाता है । विषुवयोग के दिन विधिपूर्वक पंचतीर्थविधि का पालन करके जो श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा का दर्शन करता हैं, वह सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है । जो वैशाख-कृष्ण तृतीया को चन्दन-चर्चित श्रीकृष्ण का दर्शन करता हैं, वह विष्णु-धाम में जाता है । जेष्ठा नक्षत्र से युक्त जेष्ठमास की पुर्णिमा के दिन जो श्रीपुरुषोत्तम का दर्शन करता हैं, वह अपनी इक्कीस पीढ़ियों का उद्धार करके श्रीविष्णुलोक में जाता है ।
जिस दिन राशि और नक्षत्र के योग से महाजेष्ठी (जेष्ठ की पूर्णिमा) हो, उस दिन यत्नपूर्वक श्रीपुरुषोत्तमतीर्थ में पहुँचना चाहिये । महाजेष्ठी पर्व के दिन श्रीकृष्ण, बलराम तथा सुभद्रा का दर्शन करके मनुष्य बारह यात्राओं से भी अधिक फल का भागी होता है । प्रयोग, कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य, पुष्कर, गया, हरिद्वार, कुशावर्त, गंगा-सागर-संगम, महानदी, वैतरणी तथा अन्य जितने तीर्थ है, अथवा अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता, पृथ्वीतल के सब तीर्थ, सब मंदिर, सब समुद्र, सब पर्वत, सब नदी और सब सरोवरों में ग्रहण के समय स्नान-दान से जो फल होता है, वही महाजेष्ठी को श्रीकृष्ण का दर्शन करनेमात्र से मनुष्य पा लेता है । अत: महाजेष्ठी को सर्वथा प्रयत्न करके पुरुषोत्तमतीर्थ की यात्रा करनी चाहिये । सुभद्रा के साथ श्रीकृष्ण और बलराम का उद्धार करके भगवान् विष्णु के धाम में जाता है ।
अध्याय- 35 ज्येष्ठ पूर्णिमा को श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के स्नान का उत्स्व-श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा के दर्शन का माहात्म्य
मुनियोंने पूछा- ब्रह्माजी ! भगवान् श्रीकृष्णको स्नान किस समय और किस विधिसे होता है? विधिज्ञोंमें श्रेष्ठ ! हमें उसकी विधि बताइये।
ब्रह्माजी बोले- मुनियो ! श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राका स्रान परम पुण्यमय और सब पापोंका नाशक है। मैं उसकी विधि आदिका वर्णन करता हैं, सुनो। ज्येष्ठ मासमें पूर्णिमाको ज्येष्ठा नक्षत्र आनेपर वहाँ हर समय श्रीहरिका स्नान होता है। वहाँ सर्वतीर्थमय कूप है, जो अत्यन्त निर्मल और पवित्र माना गया है। उक्त पूर्णिमाको उसमें भगवती गङ्गा प्रत्यक्षरूपसे प्रकट होती हैं। अतः ज्येष्ठकी पूर्णिमाको सुवर्णमय कलशोंसे श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्राके मानके लिये उस कूपसे जल निकाला जाता है। इसके लिये एक सुन्दर मञ्च बनवाकर उसे पताका आदिसे अलंकृत किया जाता है। वह सुदृढ़ और सुखपूर्वक चलने योग्य बना होता है। वस्त्र और फूलोंसे उसे सजाया जाता है। वह खूब विस्तृत होता है और धूपसे सुवासित किया जाता हैं। उसपर श्रीकृष्ण और बलरामको स्नान करानेके लिये श्वेत वस्त्र बिछाया जाता है। उसे सजानेके लिये मोतीके हार लटकाये जाते हैं। भौतिभौतिके वाद्योंकी ध्वनि होती रहती है। उस मञ्चपर एक ओर भगवान् श्रीकृष्ण और दूसरी ओर भगवान् बलराम विराजते रहते हैं। बीचमें सुभद्रादेवीको पधराकर जय-जयकार और मङ्गलघोषके साथ स्नान कराया जाता है। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा अन्य जातिके लाखों स्त्रीपुरुष उन्हें घेरे रहते हैं। गृहस्थ, स्नातक, संन्यासी और ब्रह्मचारी-सभी मञ्चपर विराजमान भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामको स्नान कराते हैं। पूर्वोक्त सम्पूर्ण तीर्थ अपने पुष्पमिश्रित जलोंमें पृथक्पृथक् भगवान्को स्नान कराते हैं। फिर शङ्ख, भेरी, मृदङ्ग, झाँझ और घण्टा आदि वाद्योंकी तुमुल ध्वनिके साथ स्त्रियोंके मङ्गलगीत, स्तुतियोंके मनोहर शब्द, जय-जयकार, वीणाव तथा वेणुनादका महान् शब्द समुद्रको गर्जनाके समान जान पड़ता है। उस समय मुनिलोग वेद-पाठ और मन्त्रोच्चारण करते हैं। सामगानके साथ भाँति-भौतिकी स्तुतियोंके पुण्यमय शब्द होते रहते हैं। यति, स्नातक, गृहस्थ और ब्रह्मचारी स्नानके समय बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान्का स्तवन करते हैं। श्रीकृष्ण और बलरामके ऊपर रत्न-दण्डविभूषित चँवर डुलाये जाते हैं। आकाशमें यक्ष, विद्याधर, सिद्ध, किंनर, अप्सराएँ, देव, गन्धर्व, चारण, आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, विश्वेदेव, मरुद्गण, लोकपाल तथा अन्य लोग भी भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करते हैं-‘ देवदेवेश्वर ! पुराणपुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है। जगत्पालक भगवान् जगन्नाथ ! आप सृष्टि, स्थिति और संहार करनेवाले हैं। जो त्रिभुवनको धारण करनेवाले, ब्राह्मणभक्त, मोक्षके कारणभूत और समस्त मनोवाञ्छित फलोंके दाता हैं, उन भगवान्को हम प्रणाम करते हैं। इस प्रकार आकाशमें खड़े हुए देवता श्रीकृष्ण, महाबली बलराम तथा सुभद्रादेवीकी स्तुति करते, गन्धर्व गाते और अप्सराएँ नृत्य करती हैं। देवताओंके बाजे बजते और शीतल वायु चलती है। उस समय आकाशमें उमड़े हुए मेघ पुष्यमिश्रित जलकी वर्षा करते हैं। मुनि, सिद्ध और चारण जय-जयकार करते हैं।
तत्पश्चात् देवतागण मङ्गल-सामग्रियोंके साथ विधि और मन्त्रयुक्त आभषेकोपयोगी द्रव्य लेकर भरापाका अभिषेक करते हैं। इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, धता, विधाता, वायु, अग्नि, पूषा, भग, अर्यमा, त्वष्टा, दोनों पनियोंसहित विवस्वान्, मित्र, वरुण, रुद्र, वसु, आदित्य, अश्विनीकुमार, विश्वेदेव, मरूदगण, सध्य, पितर, विद्याधर, पितामह, पुलस्त्य, पुलह, अङ्गिरा, कश्यप, अत्रि, मरीचि, भृगु, क्रतु, हर, प्रचेता, मनु, दक्ष, धर्म, काल, यम्, मृत्यु, यमदूत तथा अन्य अनेकों देवता भगवान्का अभिषेक करनेके लिये इधर-उधरसे आते हैं और सुवर्णपय कलशोंमें रखे हुए पुष्प-मिश्रित आकाशगङ्गाके जलसे श्रीकृष्ण, सुभद्रा तथा बलरामजीको स्नान कराते हैं तथा प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं।
सम्पूर्ण लोकका पालन करनेवाले जगन्नाथ ! आपकी जय हो, जय हो। आप भक्तोंके रक्षक तथा शरणागतवत्सल हैं। सम्पूर्ण भूतोंमें व्यापक आदिदेव ! आपकी जय हो । नानात्वके कारणभूत वासुदेव! आप असुरोंके संहारक, दिव्य मत्स्यरूप धारण करनेवाले, समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ तथा समुद्रमे शयन करनेवाले हैं। योगिवर ! आपकी जय हो, जय हो । सूर्य अपके नेत्र हैं तथा आप देवतके राजा हैं। वेदों में आप ही सर्वश्रेष्ठ बताये गये हैं। आपने कछप-अवतार धारण किया था। आप श्रेष्ठ यज्ञस्वरूप हैं। आपको नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ था, इसलिये आप पद्मनाभ कहलाते हैं। आप पहाड़ों पर विचरनेवाले तथा योगशायी हैं। आपकी जय हो, जय हो। महान् वैग धारण करनेवाले विश्वमूर्ते ! चक्रधर ! भूतनाथ! धरणीधर! शेषशायिन्! आपकी जय हो, जय हो। आप पीताम्बरधारी, चद्रमाके समान कान्तिमान्, योगमें वास करनेवाले, अग्निमुख, धर्मके आवासस्थान, गुणोंके भंडार, लक्ष्मीके निवासस्थान और गरुड़वाहन हैं। आपकी जया हो, जय हो। आप आनन्दनिकेतन, धर्मध्वज़, पृथ्वीके आश्रयस्थान और दुर्बोध चरित्रवाले हैं। योगी पुरुष ही आपको ज्ञान पाते हैं। आप यज्ञों में निवास करनेवाले तथा वेदोंके वैद्य हैं। शान्ति प्रदान करनेवाले और योगियोंकै ध्येय हैं। आपकी जय हो, जय हो। आप ही सबका पालन-पोषण करते हैं । ज्ञान आपका स्वरूप हैं। आप लक्ष्मीनिधि हैं। भव-भक्तिसे ही आपका ज्ञान होना सम्भव है। मुक्ति आपके हाथों है। आपका शरीर निर्मल है। आप सत्त्वगुणके अधिष्ठान, समस्त गुणोंसे समृद्धिशाली, यज्ञकर्ता, निर्गुण तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं। धूमण्द्वलको शरण देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो, जय हो। आप दिव्य कान्तिसे सम्पन्न, समस्त लोकोंको शरण देनेवाले, भगवती लक्ष्मीसे संयुक्त,कमलके-से नेत्रोंवाले, सृष्टिकारक, योगयुक्त, अलसीके फूलकी भाँति श्याम अङ्गोंवाले, समुद्रके भीतर शयन करनेवाले, लक्ष्मीरूपी कमलके अमर तथा भक्के अधीन रहनेवाले हैं। लोककान्त ! आपकी जय हो, जय हो। आप परम शान्त, परम सारभूर, चक्र धारण करनेवाले, सर्पोके साथ रहनेवाले, नीलवस्त्रधारी, शान्तिकारक, मोक्षदायक तथा समस्त पापोंको दूर करनेवाले हैं। आपको जय हो जय हो। बलरामजीके छोटे भाई जगदीश्वर श्रीकृष्ण ! आपको जय हो; पापत्रके समान नेत्रोंवाले तथा इच्छानुसार फल देनेवाले प्रभो ! आपकी जय हो । चक्र और गदा धारण करनेवाले नरायण ! आपका वक्षःस्थल वनमालासे आच्छादित है। आपकी जय हो। लक्ष्मीकान्त विष्णु ! आपको नमस्कार हैं। आपको जय हो।
इस प्रकार श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राका सावन, दर्शन और वन्दन करके देवतालोग अपने-अपने स्थानको चले जाते हैं। उस समय जो मनुष्य मञ्चपर विराजमान पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण, बलभद्र और मुभद्रका दर्शन करते हैं, वे अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं। सहस्र गौ-दान, विधिवत् भूमि-दान, अयं और आतिथ्यपूर्वक अन्न-दान, विधिवत् कृयोत्सर्ग, ग्रीष्मकालमें जल-दान, चान्द्रायणव्रतके अनुष्ठान तथा शास्त्रोक्त विधिसे एक मासतक उपवास करनेसे जो फल होता है, वही मञ्चपर विराजमान श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे मिल जाता है। अथवा अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता, सम्पूर्ण तीर्थोंमें व्रत और दागका जो फल बतलाया गया हैं, वह मञ्चस्थ श्रीकृष्ण, सुभद्रा और बलरामका दर्शन करनैमात्रसे प्राप्त हो जाता है। अत: स्त्री हो या पुरुष, सबको उस समय पुरुषोत्तमका दर्शन करना चाहिये। इससे सब तीर्थोंमें स्नान आदि करनेका फल मिलता है। भगवान्के स्नान किये हुए शेष जसको अपने शरीरपर छिड़कना चाहिये। इससे पुत्रकी इच्छा करनेवाली स्त्रीको पुत्रकी प्राप्ति होती है। सुख चाहनेवालोको सौभाग्य मिलता है। रोगार्न नारी रोगसे मुक्त हो जाती हैं और धनको अभिलाषा रखनेवाली स्त्रीको धन मिलता है। अत: भगवान् औकृष्णके नानावशेष जतको अपने अपर छिड़कना चाहिये । वह सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओंको देनेवाला है। जो स्नानके पश्चात् दक्षिणाभिमुख जाते हुए भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं। शास्त्रों में पृथ्वीको तीन परिक्रमा करनेका जो फल बताया गया है, वहीं दक्षिणाभिमुख यात्रा करते हुए श्रीकृष्णका दर्शन करनेसे प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय–वेद, शास्त्र, पुराण, महाभारत तथा समस्त धर्मशास्त्रों में पुण्यकर्मका जो कुछ भी फल बताया गया है, वह स्य सुभद्राके साथ दक्षिणाभिमुख यात्रा करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामका दर्शन करनेमात्रसे मिल जाता है।
अध्याय- 36 गुंडिचा यात्रा का माहात्म्य-द्वादश यात्रा की प्रतिष्ठा विधि
ब्रह्माजी कहते हैं- मुनियो ! भगवान् श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा-ये रथपर विराजमान होकर जब गुण्डिचा*-मण्डपकी यात्रा करते हैं, उस समय जिन्हें उनका दर्शन प्राप्त होता है तथा जो लोग एक सप्ताहतक उक्त मण्डपमें विराजमान श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्राकी झाँकी करते हैं, वे विष्णुलोकमें जाते हैं।
मुनियोंने पूछा- जगत्पते ! इस यात्राका आरम्भ किसने किया? तथा उसमें सम्मिलित होनेवाले मनुष्योंको क्या फल मिलता है?
ब्रह्माजी बोले- ब्राह्मणो ! पूर्वकालमें राजा इन्द्रद्युमने भगवान्से प्रार्थना की कि ‘मेरे सरोवरके तटपर एक सप्ताहके लिये आपकी यात्रा हो।’
श्रीभगवान् बोले- राजन् ! तुम्हारे सरोवरके तटपर सात दिनोंके लिये मेरी यात्रा होगी, वह यात्रा गुण्डिचा नामसे विख्यात और समस्त अभिलषित फलोंको देनेवाली होगी। जो लोग वहाँ मण्डपमें स्थित होनेपर मेरी, बलरामजीकी और सुभद्राको एकाग्रचित्तसे श्रद्धापूर्वक पूजा करेंगे तथा जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री और शूद्र पुष्य, गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य, भाँति-भांतिके उपहार, नमस्कार, परिक्रमा जय-जयकार, स्तोत्रगीत तथा मनोंहर गीतके द्वारा आराधना करेंगे, उन्हें मेरी कृपासे कोई भी मनोरथ दुर्लभ नहीं रहेगा।
यों कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और वे महाराज इन्द्रद्युम्न कृतकृत्य हो गये। अतः सब प्रकारसे प्रयत्न करके गुण्डिचा-मण्डपमें समस्त अभिलषित बस्तुओंको देनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करना चाहिये। वहाँ पुरुषोत्तमका दर्शन करके स्त्री या पुरुष जिन-जिन भोगको चाहें, उन्हें प्राप्त कर सकते हैं।
मुनियोंने पूछा- भगवन् । गुण्डिचाकी एक-एक यात्राका पृथक्-पृथक् क्या फल है? उसे करनेसे नर या नारीको कौन-सा फल मिलता है?
ब्रह्माजी बोले- ब्रह्मणो ! सुनो। मैं प्रत्येक यात्राका फल बताता हैं। गुण्डिचामें प्रबोधिनी एकादशीकै दिन, फाल्गुनकी पूर्णिमाको तथा विषुवयोगमें विधिपूर्वक यात्रा करके श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्राको दर्शन करनेसे मनुष्य वैकुण्ठ धाममे जाता है। क्षेत्रोंमें श्रेष्ठ पुरुषोत्तमतीर्थ बड़ा ही पवित्र, रमणीय, मनुष्योंको भोग और मोक्षका दाता तथा सब जीवोंको सुख पहुँचानेवाला है। जौ जितेन्द्रिय स्त्री या पुरुष ज्येष्ठमासमें वहाँ शास्त्रोक्त विधिके अनुसार मारह यात्राएँ करके एकाप्रविसे उनकी प्रतिष्ठा करता है और उस समय धन खर्च करने में कृपणता नहीं करता, वह भाँति-भौतिके भौगोंका उपभोग करके अन्तमें मोक्ष-पदको प्राप्त होता है।
मुनियोंने कहा- देव ! जगत्पते ! हम आपके मुँहसे द्वादश यात्राको प्रतिष्ठाकी विधि, पूजन, दान और फल सुनना चाहते हैं।
ब्रह्माजी बोले- ब्राह्मणो ! जब बारह यात्राएँ पूरी हो जायें, तब विधिपूर्वक उनकी प्रतिष्ठा करे। वह सब पापों का नाश करनेवाली हैं। ज्येष्ठमासके शुक्लपक्षमें एकादशी तिथिको एकाग्रचित्तसे किसी पवित्र जलाशयपर जाकर आचमन करे और इन्द्रियर्सयमपूर्वक पवित्र भावसे सब तीर्थोका आवाहन करके भगवान् नारायणका ध्यान करते हुए विधिवत् स्नान करे। षियने स्नान-कर्ममें जिसके लिये जैसी विधि बतलायी है, उसको उसी विधिसे स्नान करना चाहिये। स्नानकै पश्चात् नाम, गोत्र और विधिका ज्ञाता पुरुष शास्त्रोक्त विधिसे देवताओं, ऋषियों, पितरों तथा अन्य जौवॉका तर्पण करे। फिर जलसे निकलकर दो स्वच्छ वस्त्र पहने और विधिपूर्वक आचमन करके एक सौ आठ बार गायत्रीका मानसिक जप करे। गायत्री सब वेदोंकी माता, सम्पूर्ण पापोंको दूर करनेवाली तथा परम पवित्र हैं। इसके सिवा अन्यान्य सूर्यसम्बन्धी मन्त्रोंका भी श्रद्धापूर्वक अप करना चाहिये। तत्पश्चात् तीन बार परिक्रमा करके सूर्यदेवको प्रणाम करे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन वर्षोंका स्रन और जप वैदिक विधिके अनुसार बताया गया हैं; किंतु स्त्री और शूद्रोंके स्नान और अपने वैदिक विधिका निषेध हैं।
इसके बाद मौन होकर घरमें जाय और हाथपैर धोकर विधिवत् आचमन करके श्रीपुरूषोत्तमकी पूजा करे। पहले भगवानको पीने स्नान कराये । फिर दूधसे; उसके बाद मधु, गन्ध और जलसै; फिर तीर्थके चन्दन और जलसे स्नान कराये । तदनन्तर भक्तिपूर्वक दो उत्तम वस्त्र पहनाये; फिर चन्दन, अगर, कपूर और केसर भगवान्के अङ्गमें लगाये। पुनः पराभठिके साथ कमलसे तथा विष्णुदेवतासम्बन्धी मल्लिका आदि अन्य पुष्पसे श्रीपुरुषोत्तमकी पूजा करे । भोग और मोक्षके दाता जगदीश्वर श्रीहरिकी इस प्रकार पूजा करके उनके समक्ष र, गूगल तथा अन्य सुगन्धित पदार्थोक साथ धूप जलाये। अपनी शक्तिके अनुसार घौसे दीपक जलाकर रखे, घी अथवा तिलके तेलसे अय बारह दीपक जलाकर रखे। नैवेद्यके रूपमें खीर, पू, पूड़ी, बड़ा, लड्डू, खाँड़ और फल निवेदन करे। इस प्रकार पोपचारसे श्रीपुरुषोत्तमका पूजन करके ‘ॐ नम: पुरुषोत्तमाय’ इस मन्त्रको एक सौ आठ बार जप करे। इसके बाद भक्तिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमसे इस प्रकार प्रार्थना करे—
नमस्ते सर्वलोकेश भक्तानामभयप्रद। संसारसागरे मग्नं त्राहि मां पुरुषोत्तम ॥ थास्ते मया कृता यात्रा द्वादशैवं जगत्पते। प्रसादात्तव गोविन्द सम्पूर्णास्ना भवन्तु मे॥
‘भक्तको अभय प्रदन करनेवाले सर्वलोकेश्वर पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है। मैं इस संसार-सागरमें डूबा हुआ हैं। मेरा उद्धार कीजिये ।जगत्पते ! गोविन्द! आपके दर्शनके लिये मैंने जो बारहों यात्राएँ की हैं, सब आपके प्रसादसे मेरे लिये परिपूर्ण हों।’
इस प्रकार भगवानको प्रसन्न करके साष्टाङ्ग दण्डवत् करे। तत्पश्चात् पुष्प, वस्त्र और चन्दन आदिसे भक्तिपूर्वक गुरुकी पूजा करे। क्योंकि गुरू और भगवान्में कोई अन्तर नहीं है। तदनन्तर भौति-भौतिकै पुष्पोंसे भगवान्के ऊपर एक सुन्दर पुष्य-मण्डप बनाये, फिर श्रद्धा और एकाग्रतापूर्वक रात्रि जागरण करे। भगवान् वासुदेवकी कथा और गीतकी व्यवस्था रखे। इस प्रकार विद्वान् पुरुष ध्यान, पाठ और स्तुति करते हुए रात्रि व्यतीत करे । तत्पश्चात् निर्मल प्रभात होनेपर द्वादशीको बारह ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे। वे ब्राह्मण स्नातक वेदोंमें पारंगत, इतिहास-पुराणके ज्ञाता, प्रेत्रिय और जितेन्द्रिय होने चाहिये। इसके बाद स्वयं भी विधिपूर्वक स्नान करके धुला हुआ वस्त्र पहने और इन्द्रियसंयमपूर्वक पहले भगवान्को स्नान कराकर उनकी पूजा करे।
भगवान्की पूजाके बाद ब्राह्मणोंकी भी पूजा करे। उनके लिये बारह गौएँ दान करके श्रद्धा और भक्तिपूर्वक सुवर्ण, छतरी और जूते, धन तथा वस्त्र आदि समर्पित करे। सद्भावसे पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द संतुष्ट होते हैं। आचार्यको भी भक्तिपूर्वक ग, वस्त्र, सुवर्ण, छतरी, जूते तथा काँसेका पात्र अर्पित करे। तदनन्तर ब्राह्मणको खीर, पकवान, गुड़ और घीमें बने हुए पदार्थ भोजन कराये। जब वे भोजन करके तृप्त हो जायें, तब उनके लिये बारह जलसे भरे हुए घट दन करे। उन घड़के साथ लड्डू और यथाशक्ति दक्षिणा भी होनी चाहिये। आचार्यको भी कलश और दक्षिणा निवेदन करे। इस तरह की पूजा करके विष्णुतुल्य ज्ञानदाता गुरुकी भी पूर्ण भक्तिके साथ पूजा करे। पूजनके पश्चात् नमस्कार करके यह मन्त्र पढे—
सर्वव्यापी जगन्नाथः शङ्खचक्रगदाधरः। अनादिनिधनो देवः प्रीयतां पुरूषोत्तपः ॥
‘शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले, सर्वव्यापी, जगन्नाथ एवं आदि-अन्तसे रहित भगवान् पुरुषोत्तम मुझपर प्रसन्न हों।’
यों कहकर ब्राह्मणोंकी तीन बार प्रदक्षिणा करे। इसके बाद मस्तक झुकाकर आचार्यको भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । प्रणामके पश्चात् उन्हें विदा करे। फिर अन्य ब्राह्मणोंको भी गाँवकी सीमातक पहुँचा है। अन्तमें सबको नमस्कार करके लौट आये। फिर स्वजनों, बान्धवों, अन्य उपासकों, दीनों, भिखमंगों और अन्न चाहनेवाले अन्य लोगोंको भोजन कराकर फिर मौन होकर भोजन करे। ऐसा करके समस्तनानारी एक हजार अश्वमेध तथा सी राजसूय-यज्ञोंका फल पाते हैं और ऐसा करनेवाला बुद्धिमान् पुरुष सूर्यके समान तेजस्वी और इच्छानुसार चलनेवाले विमानके द्वारा भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है।
अध्याय- 37 तीर्थों के भेद, वामन का बली से भूमिदान ग्रहण-गंगा जी का महेश्वर की जटा में गमन
ब्रह्माजी कहते हैं- द्विजवरो ! सब तीर्थों और क्षेत्रोंमें जो जप, होम, व्रत और तपस्या तथा दानके फल प्राप्त होते हैं, उनमॅसे कोई ऐसा नहीं दिखायी देशा, जो पुरुषोत्तमक्षेत्रमें रहनेके फलको समानता कर सके। अब बारंबार अधिक कहनेको क्या आवश्यकता, वह पुरुषोत्तमक्षेत्र सबसे महान् है-यह बात सत्य हैं, सत्य हैं, राय है। समुद्रके जलसे घिरे हुए पुरुषोतमतीर्थका एक बार भी दर्शन कर लेनेपर तथा ब्रह्मविद्याका एक बार बोध हो जानेपर मनुष्य फिर गर्भमे नहीं आता। जहाँ भगवान् विष्णुका संनिधान है, उस उत्तम पुरुषोत्तमक्षेत्रमें एक वर्ष अथवा एक मासतक भगवानकी उपासना करे। ऐसा करनेवाले पुरुथने जप, होम तथा भारी तपस्यों की हैं। वह उस परम धाममें जाता है, जहाँ साक्षात् योगेश्वर श्रीहरि विराजमान रहते हैं।
मुनियोंने कहा- भगवन् ! हमें तीर्थकी महिमाका विस्तारपूर्वक श्रवण करनेपर भी तृप्ति नहीं होती। आप पुनः किसी गोपनीय तीर्थका वर्णन करें।
ब्रह्माजी बोले- श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! पूर्वकालमें देवर्षि नारदने मुझसे यही प्रश्न पूछा था। उस समय मैंने प्रयत्नपूर्वक जो कुछ उनसे कहा था, वहीं तुम्हें भी बतलाता हूँ।
नारदजीने पूछा- जगत्पते ! स्वर्गलोक, मत्र्यलोक और रसातलमें कुल कितने तीर्थ हैं तथा सय तीर्थोंमें सदा कौन सबसे बढ़कर है?
ब्रह्मा जी बोले- देवर्षे ! स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और रसातलमें चार प्रकारके तीर्थ हैं-दैव, आसुर, आर्ष और मानुष। ये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। जम्बूद्वीपमें भारतवर्ष तीर्थभूमि हैं। वह तीन सोकोंमें विख्यात है। बेटा! वह कर्मभूमि है, इसलिये उसे तीर्थ कहते हैं। पहले मैंने तुम्हें जो बताये हैं, वे सब तीर्थ भारतवर्षमें ही हैं। हिमालय और विन्ध्यपर्वतकै बीचमें छः ऐसी नदियाँ हैं, जिनका प्राकट्य ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव-इन देवताओंसे हुआ है। इसी प्रकार दक्षिणसमुद्र तथा विन्यपर्वतके बीचमैं भी छः देवसम्भव नदियाँ हैं। ये बारह नदियं प्रधानरूपसे बतलायी गयी हैं। गोदावरी, भीमरथी, हुङ्गभद्रा, कृष्णवेणी, तापी और पयोष्णी-वे विध्यपर्वतके दक्षिणकी नदियाँ हैं। भागीरथी, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशको और वितस्ता-ये विन्ध्याचल औंर हिमालय पर्वतसे सम्बध रखनेवाली नदियाँ हैं। इन पुण्यमयी नदियों को देवतीर्थ बताया गया है। गय, कोलासुर, वृत्त, त्रिपुर, अन्धक, हयमूर्धा, लवण, नमुचि, शृङ्गक, यम, पातालकेतु, मय तथा पुष्कर-इनके द्वारा आवृत तीर्थ आसुर कहलते हैं। प्रभास, भार्गव, अगस्ति, नर-नारायण, वसिष्ठ, भरद्वाज, गौतम और कश्यप-इन ऋषि-मुनियोंद्वारा सेवित तीर्थ ऋषितीर्थ हैं। अम्बरीष, हरिश्चन्द्र, मान्धाता, मनु, कुरु, कनखल, भाद्वाश्य, सगर, अयूप, नचिकेता, वृषाकपि तथा अरिन्दम आदि मानवोंद्वारा निर्मित तीर्थ मानुष कहलाते हैं। ये सब था तथा उत्तम फलकी सिसिके लिये निर्मित हुए हैं। तीनों लोकोंमें कहीं भी जो स्वतः प्रकट हुए दैव तीर्थ हैं, उन्हें पुण्यतीर्थ कहा गया है। इस प्रकार मैंने तीर्थ-भेद बतलाये हैं।
महादैत्य राजा बलि देवताओंके अजेय शत्रु हुए। उन्होंने धर्म, यश, प्रजापालन, गुरुभक्ति, सत्यभाषण, चल, पराक्रम, त्याग और क्षमाके द्वारा वह सम्मान प्राप्त किया, जिसकी तीनों लोकों में कहीं उपमा नहीं हैं। उनकी बढ़ती हुई समृद्धि देखकर देवताओंको बट्टी चिन्ता हुई। वे आपसमें सलाह करने लगे कि हम बलिको कैसे जीतें। राजा बलिके शासनकालमें तीनों लोक निष्कपटक थे। कहींपर आधि-व्याधि अथवा शत्रुओंको बाधा नहीं थी। अनावृष्टि और अधर्मका तो नाम भी नहीं था। स्वप्नमें भी किसीको दुष्ट पुरुषका दर्शन नहीं होता था। देवताओंको उनकी उन्नति बाणकी तरह चुभती थी। बलिकी कीर्तिरूपी तलवारसे वे टुकड़े-टुकड़े हुए जाते थे तथा उनके शासनरूपी शक्तिसे देवताओंके समस्त अङ्ग विदीर्ण हो रहे थे। अत: उन्हें कभी शन्ति नहीं मिलत थी। देवता इनसे द्वेष करने लगे। उनके यशरूपी अग्रिसे जलने लगे। अतः वे व्याकुल होकर भगवान् विष्णुको शरणमैं गये ।
देवता बोले- शङ्ख चक्र और गदा धारण करनेवाले जगन्नाथ! हम पीड़ित हैं। हमारी सत्ता छिन गयी हैं। आप हमारी ही रक्षाकै लिये अस्त्र शस्त्र धारण करते हैं । आप-जैसे स्वामीकै हौते हुए हमपर ऐसा दुःख आ पड़ा है। हमारी शो वाणी आपको प्रणाम करती थी, वही एक दैत्यको कैसे नमस्कार करेगी। सुरेश्वर! आपके ऐश्वर्यसे पुष्ट हो अपने ही पराक्रमसे तीनों लोकोंको जीतकर हम स्थिर होंगे। दैत्यको कैसे नमस्कार करें।
देवताओंका यह वचन सुनकर दैत्योंका संहार करनेवाले भगवान्ने देवकार्यकी सिद्धिके लिये इस प्रकार कहा—
श्रीभगवान् बोले- देवताओ ! बलि मेरा भक्त है, उसे देवता और असुर कोई भी नहीं मार सकते। जैसे तुमलोग मेरे द्वारा पालन-पोषणके योग्य हो, वैसे अति भी है। मैं बिना युद्धके ही स्वर्गमें बलिका राज्य छीन लँगा और बलिको आँधकर तुम्हारा राज्य तुम्हें लौटा दूंगा।
ब्रह्माजी कहते हैं- ‘बहुत अच्छा’ कहकर देवता स्वर्गमें चले गये। इधर देवताओंके स्वामी भगवान् विष्णुने अदितिके गर्भमें प्रवेश किया। उनके जमके समय अनेक प्रकार के उत्सव होने लगे। यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष स्वयं ही वामनरूपमें अवतीर्ण हुए। इसी समय बलवानों में श्रेष्ठ बलिने अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा ली। प्रधान-प्रधान ऋषि तथा वेद-वेदाङ्गोंके ज्ञाता पुरोहित शुक्राचार्यने उस यज्ञका आरम्भ कराया। स्वयं शुक्र ही यज्ञके आचार्य थे। उस यज्ञमें हविष्यका भाग लेनेके लिये जब सब देवता निकट आये, ‘दान दो.’ ‘भोजन करो’, सबका सत्कार करो,’ ‘पूर्ण हो गया’, ‘पूर्ण हो गया’ इत्यादि शब्द यज्ञमण्डपमें गूंजने लगे, उसी समय विचित्र कुण्डल धारण किये साम-गान करते हुए वामनर्जी धीरे-धीरे | यज्ञशालामें आये। आनेपर वे यज्ञकी प्रशंसा करने लगे। शुक्राचार्यने उन्हें देखते ही समझ लिया कि ये ब्राह्मणरूपधारी वामन देवता वास्तवमें दैत्योंके विनाशक, यज़ और तपस्याके फल देनेवाले और राक्षसकुलका संहार करनेवाले साक्षात् विष्णु हैं। अलवान में श्रेष्ठ महातेजस्वी राजा बलि शत्रियधर्मके अनुसार बिजयी होकर भक्तिपूर्वक धनका दान करते हुए अपनी पत्नौके साथ यज्ञकी दीक्षा लेकर बैठे थे और हविष्यका हवन करते हुए यज्ञपुरुषका ध्यान कर रहे थे। शुक्राचार्यजीने वामनजीको पहचानकर तुरंत ही राजा बलिने कहा- ‘राजन् ! ये जो बौने शरीरवाले ब्राह्मण तुम्हारे यज्ञमें आये हैं, वे वास्तवमें ब्राह्मण नहीं, यज्ञवाड्न यज्ञेश्वर विष्णु हैं। प्रभो ! इसमें तनिक संदेह नहीं कि ये देवताका हित करनेके लिये बालकरूप धारणकर तुमसे कुछ याचना करने आये हैं। अत: पहले मुझसे सलाह लेकर पीछे इन्हें कुछ देना चाहिये।
यह सुनकर शत्रुविजयी बलिने अपने पुरोहित शुक्राचार्यसे कहा- ‘मैं धन्य हैं, जिसके घरपर साक्षात् यज्ञेश्वर मूर्तिमान होकर पधारते और कुछ याचना करते हैं। अब इसमें सलाह लेनेके योग्य कौन-सी बात रह जाती है।’ यों कहकर पत्नी और पुरोहित शुक्राचार्यके साथ राजा बलि उस स्थानपर आये, जहाँ अदितिनन्दन वामनजी विराजमान थे। राजाने हाथ जोड़कर पूछा- ‘भगवन् ! बताइये, आप क्या चाहते हैं?’ तब वामनजीने कहा ‘महाराज ! केवल तीन पग भूमि दे दीजिये और किसी धनकी मुझे आवश्यकता नहीं है।”बहुत अच्छा’ कहकर राजा बलिने रत्नजटित कलशसे जल लिया और वामनजीको भूमि संकल्प करके दे दी। सभी महर्षि और शुक्राचार्य चुपचाप देखते रहे । वामनजीने धीरे से कहा- ‘राजन् ! स्वस्ति, आप सुखी रहें। मुझे मेरी नापी हुई तीन पग भूमि दे दीजिये।’ अलिने ‘तथास्तु’ कहकर ज्यों ही वामनजीकी ओर देखा, वे विरा-रूप हो गये। चन्द्रमा और सूर्य उनको छातीके सामने आ गये। उन्हें इस रूपमें देखकर स्त्रीसहित दैत्यराज बलिने विनयपूर्वक कहा- ‘ जगन्मय विष्णो ! आप अपनी शक्तिभर पैर बढ़ाइये !’
विष्णु बोले- दैत्यराज ! देखो, मैं पैर बढ़ाता हैं।
बलिने कहा- बढ़ाइये, अवश्य बढ़ाइये।
तब भगवान्ने पृथ्वीके नोचे स्थित कच्छपकी पौठपर पैर रखकर पहला पग वलिके यज्ञमें रखा, किंतु उनका दूसरा पग ब्रह्मलोकतक जा पहुँचा। उस समय उन्होंने बलिसे कहा-दैत्यराज ! मेरा तीसरा पग रखनेके लिये तो स्थान ही नहीं है, कहाँ ? स्थान दो।’
यह सुनकर बलिने हँसते हुए कहा- ‘जगन्मय देवेश्वर ! आपने ही तो जगत्को सृष्टि की है, मैं तो इसका स्रष्टा नहीं हैं। यदि यह छोटा या थोड़ा हो गया तो इसमें आपका ही दोष है, मैं क्या करें। केशव ! फिर भी मैं कभी असत्य नहीं बोलता, अत: मेरे सत्यकी रक्षा करते हुए आप अपना तीसरा पग मेरी पीठपर ही रखिये।’
बलिका यह वचन सुनकर वेदत्रयीरूप देवपूजित भगवान् प्रसन्न होकर बोले- ‘दैत्यराज ! मैं तुम्हारी भक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो, कोई वर माँगो।’ तब बलिने जगत्के स्वामी भगवान् त्रिविक्रमले कहा-‘ अब मैं आपसे याचना नहीं करूंगा।’ तब भगवान्नै स्वयं ही प्रसन्न होकर उन्हें मनोवाञ्छित वर दिया। अर्तमान समयमें रसातलका राज्य, भविष्य इन्द्रपद, स्वतन्त्रता तथा अविनाशी यश आदि प्रदान किये । इस प्रकार दैत्यराज बलिको यह सब कुछ देकर भगवान्ने उन्हें पुत्र और पत्नीसहित रसातलमें भेज दिया और इन्द्रको देवताओंका राज्य अर्पित किया। इसी । बीचमें उनका जो दूसरा पग मेरे सोकमें पहुँचा था, उसे देखकर मैंने सोचा, ‘यह मेरे जन्मदाता भगवान् विष्णुका चरण है, जो सौभाग्यवश मेरे घरपर आ पहुँचा है। इसके लिये मैं क्या करूँ जिससे मेरा कल्याण हो? मेरे पास जो यह श्रेष्ठ कमण्डलु है, इसमें भगवान् शंकरका दिया हुआ पवित्र जल है। यह जल उत्तम, वरदायक, शान्तिकारक, शुभद्, भोग और मोक्षका दाता, विश्वके लिये मातृरूप, अमृतमय, पवित्र औषध, पावन, पूज्य, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, गुणमय तथा स्मरणमात्रसे लोकको पवित्र करनेवाला है। यह जल मैं अपने पिताको अर्ध्वरूपसे अर्पित करूंगा।’ यह सोचकर मैंने वह जल भगवान्के चरणोंमें अर्ध्यरूपसे चढ़ा दिया। वह मन्त्रयुक्त अयंजल भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिरकर मेरुपर्वतपर पड़ा और चार भागोंमें बँटकर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशामें पृथ्वीपर जा पहुँचा। दक्षिणमें गिरे हुए जलको भगवान् शंकरने जटाओंमें रख लिया। पश्चिममें जो जल गिरी, वह फिर कमण्डलुमें ही चला आया। उत्तरमें गिरे हुए जलको भगवान् विष्णुने ग्रहण किया तथा पूर्वमें जो जल गिरा, उसे देवताओं, पितरों और लोकपालोंने ग्रहण किया; अत: वह जल अत्यन्त श्रेष्ठ कहा जाता है। भगवान् विष्णुके चरणोंसे निकलकर दक्षिण दिशामें गया हुआ जल, जो भगवान् शंकरको जटामें स्थित हुआ, पर्वके समय शुभोदय करनेवाला है। उसके प्रभावका स्मरण करनेसे समस्त अभिलषित वस्तुओंकी प्राप्ति होती है।
अध्याय- 38 गौतम के द्वारा भगवान शंकर की स्तुति, शिव का गौतम को जटासहित गंगा का अर्पण तथा गौतमी गंगा का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – महामते ! भगवान शंकर की जटा में जो दिव्य जल आकर स्थित हुआ, उसके दो भेद हुए; क्योंकि उसे पृथ्वीपर उतारनेवाले दो व्यक्ति थे । उस जल के एक भाग को तो व्रत, दान और समाधि में तत्पर रहनेवाले गौतम नामक ब्राह्मण ने भगवान् शिव की आराधना करके भूतलतक पहुँचाया, जो सम्पूर्ण लोक में विख्यात हुआ; तथा दूसरा भाग बलवान क्षत्रिय राजा भगीरथ ने इस पृथ्वीपर उतारा । इसके लिये उन्हें नियमों का पालन करते हुए तपस्याद्वारा भगवान शंकर की आराधना करनी पड़ी थी । इसप्रकार एक ही गंगा के दो स्वरुप हो गये ।
एक समय की बात है, महर्षि गौतम कैलासपर्वत पर गये और मौनभाव से कुशा बिछाकर उसपर बैठे; फिर पवित्र होकर इस स्तोत्र का गान करने लगे ।
गौतम बोले – भोग की अभिलाषा रखनेवाले जीवों को मनोवांछित भोग प्रदान करने के लिये पार्वतीसहित भगवान शंकर उत्तम गुणों से युक्त आठ विराट स्वरूप धारण करते हैं । इसप्रकार विद्वान पुरुष प्रतिदिन भगवान महादेवजी की स्तुति किया करते हैं । महेश्वर का जो प्रुथ्विमय शरीर है, वह अपने विषयोंद्वारा सुख पहुँचाने, समस्त चराचर जगत का भरण-पोषण करने, उसकी सम्पत्ति बढाने तथा सबका अभ्युदय करने के लिये है । शांतिमय शरीरवाले भगवान् शिवने जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने के लिये पृथ्वीके आधारभूत जल का स्वरुप धारण किया है । उनका वह लोक-प्रतिष्ठित रूप सब लोगों को सुख पहुँचाने तथा धर्म की सिद्धि करने का भी हेतु है । महेश्वर ! आपने समय की व्यवस्था करने, अमृत का स्त्रोत बहाने, जीवों की सृष्टि, पालन और संहार करने तथा प्रजा को मोह, सुख एवं उन्नति का अवसर देने के लिये सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि का शरीर धारण किया है । ईश ! आपने जो वायु का रूप ग्रहण किया है, उसमें भी एक रहस्य है । सब लोग प्रतिदिन बढ़े, चलें, फिरें, शक्ति का उपार्जन करें, अक्षरों का उच्चारण कर सकें, जीवन कायम रहे और अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोद की सृष्टि हो, इसीलिये आपका वह रूप है । भगवान ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि अपने-आपको आप ही ठीक-ठीक जानते हैं । भेद (अवकाश) के बिना न कोई क्रिया हो सकती है न धर्म हो सकता हैं, न अपने या पराये का बोध होगा न दिशा, अन्तरिक्ष, द्युलोक, पृथ्वी तथा भोग और मोक्ष का ही अंतर जान पड़ेगा; अत: महेश्वर ! आपने यह आकाशरूप ग्रहण किया है । धर्म की व्यवस्था करने का निश्चय करके आपने ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, उनकी शाखाओं और शास्त्रों का विभाग किया है तथा लोक में भी इसी उद्देश्य से गाथाओं, स्मृतियों और पुराणों का प्रसार किया है । ये सब शब्दस्वरूप ही है । शम्भो ! यजमान, यज्ञ, यज्ञों के साधन, ऋत्विक यज्ञका स्थान, फल, देश और काल – ये सब आप ही हैं । आप ही परमार्थतत्व हैं । विद्वान पुरुष आपके शरीर को यज्ञांगमय बतलाते हैं । केवल वाग्विलास करने से क्या लाभ-कर्ता, दाता, प्रतिनिधि, दान, सर्वज्ञ, साक्षी, परम पुरुष, सबका अंतरात्मा तथा परमार्थस्वरुप सब कुछ आप ही है । भगवन ! वेद, शास्त्र और गुरु भी आपके तत्त्व का भलीभांति उपदेश नहीं कर सके हैं । निश्चय ही आपतक बुद्धि आदि की भी पहुँच नहीं है । आप आजन्मा, अप्रमेय और शिव-शब्द से वाच्य है, आप ही सत्य हैं । आपको नमस्कार है ! किसी समय भगवान् शिव ने अपनी प्रकृतिको इस भाव से देखा कि यह मेरी सम्पत्ति है; उसी समय वे एक से अनेक हो गये, विश्वरूप में प्रकट हो गये । वास्तव में उनका प्रभाव अतर्क्य और अचिन्त्य है । भगवान शिवकी प्रिया शिवा देवी भी नित्य हैं । भव (भगवान शंकर) में उनका भाव (हार्दिक अनुराग) पूर्णरूप से बढ़ा हुआ है; वे इस भव (संसार) की उत्पत्ति में स्वयं कारण हैं तथा सर्वकारण महेश्वर के आश्रित हैं । शिवा समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा विश्वविधाता शिव की विलक्षण शक्ति है । संसार की उत्पत्ति, स्थिति, अन्न की वृद्धि तथा लय – ये सनातन भाव जहाँ होते रहते हैं, वह एकमात्र पार्वतीदेवी का ही स्वरुप है । वे भगवान् शंकर की प्राणवल्लभा हैं । उनके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है । समस्त जीव जिनके लिये अन्नदान देते और तपस्या करते हैं, वे जगज्जननी माता पार्वती ही है । उनकी उत्तम कीर्ति बहुत बड़ी है । वे शिवकी प्रियतमा हैं । इंद्र भी जिनकी कृपादृष्टि चाहते हैं, जिनका नाम लेनेसे मंगल की प्राप्ति होती है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो इसे निर्मल बनाती है, वे भगवती उमा ही हैं । उनका रूप सदा चन्द्रमा के समान ही मनोरम हैं । जिनके प्रसाद्से ब्रह्मा आदि चराचर जीवों की बुद्धि, नेत्र, चेतना और मन में सदा सुख की प्राप्ति होती है, वे जगद्गुरु शिव की सुन्दरी शक्ति शिवा वाणी की अधीश्वरी हैं । आज ब्रह्माजी का भी मन मलिन हो रहा है, फिर अन्य जीवों की तो बात ही क्या – यह सोचकर जगन्माता उमाने अनेक उपायों से सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने के लिये गंगा का अवतार धारण किया है । श्रुतियों को देखकर तथा सब प्रमाणों से भगवान शंकर की प्रभुतापर विश्वास करके लोग जो धर्मों का अनुष्ठान करते और उनके फलस्वरूप जो उत्तम भोग भोगते हैं, यह भगवान् सदाशिव की ही विभूति हैं । वैदिक अथवा लौकिक कार्य, क्रिया, कारक और साधनों का जो सबसे उत्तम एवं प्रिय साध्य है, वह अनादि कर्त्ता शिव की प्राप्ति ही है } जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म, परप्रधान, सारभूत और उपासना के योग्य है, जिसका ध्यान तथा जिसकी प्राप्ति करके श्रेष्ठ योगी पुरुष मुक्त हो जाते- पुन: संसार में जन्म नहीं लेते, वे भगवान् उमापति ही मोक्ष हैं । माता पार्वती ! भगवान शंकर जगत का कल्याण करने के लिये जैसे-जैसे अपार मायामय रूप धारण करती हो । इसप्रकार तुम में पातिव्रत्य जाग्रत रहता है ।
गौतमजी के इसप्रकार स्तुति करनेपर वृषभांकित ध्वजावाले साक्षात भगवन शिव उनके समाने प्रकट हुए और प्रसन्न होकर बोले – ‘गौतम ! तुम्हारी भक्ति, स्तुति तथा उत्तम व्रत से मैं बहुत संतुष्ट हूँ । माँगों, तुम्हें क्या दूँ ? जो वस्तु देवताओं के लिये भी दुर्लभ हो, वह भी तुम माँग सकते हो ।’
गौतमने कहा – जगदीश्वर ! समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली इन पावन देवी को, जो आपकी जटा में स्थित और आपको परम प्रिय हैं, ब्रह्मगिरिपर छोड़ दीजिये । ये समुद्र में मिलनेतक सबके लिये तीर्थरूप होकर रहें । इनमें स्नान करनेमात्र से मन, वाणी और शरीरद्वारा किये हुए ब्रह्महत्या आदि समस्त पाप नष्ट हो जायँ । चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, अयनारम्भ, विषुवयोग, संक्रान्ति तथा वैधृतयोग आनेपर अन्य पुण्यतीर्थों में स्नान करने से जो फल मिलता है, वह इनके स्मरणमात्र से ही प्राप्त हो जाय । य समुद्र में पहुँचने तक जहाँ-जहाँ जायँ, वहाँ –वहाँ आप अवश्य रहें । यह श्रेष्ठ वर मुझे प्राप्त हो तथा इनके तट से एक योजन से लेकर दस योजनतक की दूरी के भीतर आये हुए महापातकी मनुष्य भी यदि स्नान किये बिना ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ तो वे भी मुक्ति के भागी हो ।
ब्रह्माजी कहते हैं – गौतम की यह बात सुनकर भगवान् शंकर बोले – ‘इससे बढकर दूसरा कोई तीर्थ न तो हुआ हैं न होगा; यह बात सत्य है, सत्य है, सत्य है और वेदमें भी निश्चित की गयी है कि गौतमी गंगा (गोदावरी) सब तीर्थों से अधिक पवित्र हैं ।’ यों कहकर वे अन्तर्धान हो गये । लोकपुजित भगवान शिवके चले जानेपर गौतम ने उनकी आज्ञा से जटासहित सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा को साथ ले देवताओं से घिरकर ब्रह्मगिरी में प्रवेश किया । उससमय महाभाग महर्षि, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय भी आनंदमग्न होकर जय-जयकार करते हुए ब्रह्मर्षि गौतम की प्रशंसा करने लगे ।
पवित्र एवं संयत चित्तवाले गौतम ने जटा को ब्रह्मगिरी के शिखरपर रखा और भगवान् शंकर का स्मरण करते हुए गंगाजी से हाथ जोडकर कहा – ‘तीन नेत्रोंवाले भगवान् शिव की जटा से प्रकट हुई माता गंगा ! तुम सब अभिष्टों को देनेवाली और शांत हो । मेरा अपराध क्षमा करो और सुखपूर्वक यहाँसे प्रवाहित होकर जगत का कल्याण करो । देवि ! मैंने तीनों लोकों का उपकार करने के लिये तुम्हारी याचना की है और भगवान शंकर ने भी इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिये तुम्हें दिया है । अत: हमारा यह मनोरथ असफल नहीं होना चाहिये ।’
गौतम का यह वचन सुनकर भगवती गंगा ने उसे स्वीकार किया और अपने-आपको तीन स्वरूपों से विभक्त करके स्वर्गलोक, मर्त्यलोक एवं रसातल में फ़ैल गयीं । स्वर्गलोक में उनके चार रूप हुए, मर्त्यलोक में वे सात धाराओं में बहने लगी तथा रसातल में भी उनकी चार धाराएँ हुई । इसप्रकार एक ही गंगा के पन्द्रह आकर हो गये । गंगा देवी सर्वत्र है, सर्वभूतस्वरूपा हैं, सब पापों का नाश करनेवाली तथा सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली हैं । वेदमें सदा उन्हीं के यश का गान किया जाता हैं । जिनकी बुद्धि अज्ञान से मोहित हैं, वे मर्त्यलोक के निवासी समझते हैं कि गंगा केवल मर्त्यलोक में ही हैं, पाताल अथवा स्वर्ग में नहीं हैं । भगवती गंगा जहाँतक सागर में मिली है, वहाँतक वे देवमयी मानी गयी हैं । महर्षि गौतम में छोडनेपर वे पूर्वसमुद्र की ओर चली गयीं । उससमय देवर्षियों द्वारा सेवित कल्याणमयी जगन्माता गंगा की मुनिश्रेष्ठ गौतम में परिक्रमा की । इसके बाद उन्होंने देवेश्वर भगवान त्र्यम्बक का पूजन किया । उनके स्मरण करते ही करूणासिन्धु भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गये । पूजा करके महर्षि गौतम ने कहा – ‘देवदेव महेश्वर ! आप सम्पूर्ण लोकों के हित के लिये मुझे इस तीर्थ में स्नान करने की विधि बताइये ।’
भगवान शिव बोले – महर्षे ! गोदावरी में स्नान करने की सम्पूर्ण विधि सुनो । पहले नांदीमुख श्राद्ध करके शरीर की शुद्धि करे, फिर ब्राह्मणों को भोजन कराये और उनसे स्नान करने की आज्ञा ले । तदनंतर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गोदावरी नदीमें स्नान करने के लिये जाय । उससमय पतित मनुष्यों के साथ वार्तालाप न करे । जिसके हाथ, पैर और मन भलीभांति संयम में रहते हैं, वही तिर्थका पूरा फल पाटा हैं । भावदोष (दुर्भावना) का परित्याग करके अपने धर्म में स्थिर रहे और थके-मांदे, पीड़ित मनुष्यों की सेवा करते हुए उन्हें यथायोग्य अन्न दे । जिनके पास कुछ नहीं है, ऐसे साधुओं को वस्त्र और कम्बल दे । भगवान विष्णु की तथा गंगाजी के प्रकट होने की दिव्य कथा सुने । इस विधि से यात्रा करनेवला मनुष्य तीर्थ के उत्तम फलका भागी होता है ।
गौतम ! गोदावरी नदी में दो-दो हाथ भूमिपर तीर्थ होंगे । उनमें मैं स्वयं सर्वत्र रहकर सबकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करता रहूँगा । सरिताओं में श्रेष्ठ नर्मदा अमरकण्टकपर्वतपर अधिक उत्तम मानी गयी हैं । यमुना का विशेष महत्त्व उस स्थानपर हैं, जहाँ वे गंगा से मिली है । सरस्वती नदी प्रभासतीर्थ में श्रेष्ठ बतायी गयी हैं । तृष्णा, भीमरथी और तुंगभद्रा – इन तीन नदियों का जहाँ समागम हुआ है, वह तीर्थ मनुष्यों को मुक्ति देनेवाला हैं । इसीप्रकार पयोष्नी नदी भी जहाँ तपती में मिली हैं, वह तीर्थ मोक्षदायक हैं; परन्तु ये गौतमी गंगा मेरी आज्ञा से सर्वत्र सर्वदा और सब मनुष्यों को स्नान करनेपर मोक्ष प्रदान करेंगी । कोई –कोई तीर्थ किसी विशेष समय में देवताका शुभागमन होनेपर अधिक पुण्यमय माना जाता हैं, किन्तु गोदावरी नदी सदा ही सबके लिये तीर्थ है । मुनिश्रेष्ठ ! दो सौ योजन के भीतर गोदावरी नदी में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ होंगे । ये गंगा निम्नांकित नामोंसे प्रसिद्ध होंगी – माहेश्वरी, गंगा, गौतमी, वैष्णवी, गोदावरी, नंदा, सुनंदा, कामदायिनी, ब्रह्मतेज: समानीता तथा सर्वपापप्रणाशिनी । गोदावरी मुझे सदा ही प्रिय हैं । वे स्मरणमात्र से पाप-राशिका विनाश करनेवाली हैं । पाँचों भूतों में जल श्रेष्ठ हैं ! जल में भी जो तीर्थ का जल है, वह सर्वश्रेष्ठ माना गया है । तीर्थ जल में भी भागीरथी गंगा श्रेष्ठ है और उनसे भी गौतमी गंगा उत्कृष्ट मानी गयी हैं; क्योंकि वे भगवान् शंकर की जटा के साथ लायी गयी थीं । अत: इनसे बढकर कल्याणकारी तीर्थ दूसरा कोई नहीं हैं । मुने ! स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में भी गंगा सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है ।
ब्रह्माजी कहते है – नारद ! इसप्रकार साक्षात भगवान शंकर ने संतुष्ट होकर महात्मा गौतम को गोदावरी का जो माहात्म्य बतलाया था । वही मैंने तुमको सुनाया है ।
अध्याय- 39 भागीरथी गंगा के अवतरण की कथा
नारदजी ने कहा – सुरश्रेष्ठ ! एक ही गंगा के आपने दो भेद बतलाये हैं । एक तो वह है, जो गौतम नामक ब्राह्मण के द्वारा लाया गया और दूसरा अंश भगवान शंकर की जटा में ही रह गया, जिसे क्षत्रिय राजा भगीरथ ले आये । अत: उसीका प्रसंग मुझे सुनाइये ।
ब्रह्माजी बोले – देवर्षे ! वैवस्वत मनु के वंश में राजा इक्ष्वाकु के कुल में सगर नामके एक अत्यंत धार्मिक राजा हो गये हैं । वे यज्ञ करते, दान देते और सदा धार्मिक आचार-विचार से रहते थे । उनके दो पत्नियाँ थीं । वे दोनों ही पतिभक्ति परायणा थी, किन्तु उनमें से किसी को भी सन्तान न हुई । इसलिए राजा के मन में बड़ी चिंता थी । एक दिन उन्होंने महर्षि वसिष्ठ को अपने घर बुलाया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके पूछा – ‘किस उपाय से मुझे सन्तान होगी ?’ उनकी यह बात सुनकर महर्षि वसिष्ठ ने कुछ कालतक ध्यान किया । उसके बाद राजासे कहा- ‘राजन ! तुम पत्नीसहित सदा ऋषि-महर्षियों का सेवन करते रहो ।’ यों कहकर महर्षि वसिष्ठ अपने आश्रम को चले गये । एक समयकी बात है – राजर्षि सगर के घरपर एक तपस्वी महात्मा पधारे । राजाने उन महर्षि का पूजन किया । इससे संतुष्ट होकर वे बोले – ‘महाभाग ! वर माँगों ।’ यह सुनकर राजाने पुत्र होने के लिये प्रार्थना की । मुनि बोले – ‘तुम्हारी एक पत्नी के गर्भ से एक ही पुत्र होगा, किन्तु वह वंशधर होगा; और दूसरी स्त्री के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्पन्न होंगे ।’ वरदान देकर जब मुनि चले गये, तब उनके कथनानुसार यथासमय राजा के हजारों पुत्र हुए । राजा सगर ने उत्तम दक्षिणा से युक्त बहुतेरे अश्वमेध-यज्ञ किये । फिर एक अश्वमेध-यज्ञ के लिये उन्होंने विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की और अश्व की रक्षा के लिये सेनासहित अपने पुत्रों को नियुक्त किया । अश्व पृथ्वीपर भ्रमण करने लगा । इसी बीच में कहीं अवसर पाकर इंद्र ने उस अश्व्को हर लिया और रक्षकों को सौंप दिया । राजकुमार घोड़े को इधर-उधर ढूँढने लगे, परन्तु कहीं भी वह उन्हें दिखायी न दिया । तब उन्होंने देवलोक में जाकर ढूँढा, पर्वतों और सरोवरों में कही भी उसका पता न लगा । इसी समयी आकाशवाणी हुई – ‘सगरपुत्रों ! तुम्हारा घोडा रसातल में बंधा है और कहीं नहीं है ।’ यह सुनकर वे रसातल में जाने के लिये सब ओरसे पृथ्वी को खोदने लगे । क्षुधा से पीड़ित होनेपर वे सुखी मिटटी खाते और दिन-रात भूमि खोदते रहते । इसप्रकार वे शीघ्र ही रसातल में जा पहुँचे । सगर के बलवान पुत्रों को वहाँ आया सुनकर रक्षक थर्रा उठे और उनके वध का उपाय करने लगे । वे बिना युद्ध किये ही भयभीत हो उस स्थानपर आये, जहाँ महामुनि कपिल सो रहे थे । कपिलजी का क्रोध बड़ा प्रचंड था । रक्षकों ने वह घोडा ले जाकर तुरन्त कपिलजी के सिरहाने की और बाँध दिया और स्वयं चुपचाप दूर खड़े होकर देखने लगे कि अब क्या होता है । इतने में ही सगर के पुत्र रसातल में घुसकर देखते हैं कि घोडा बाँधा है और पास ही कोई पुरुष सो रहा है । उन्होंने कपिलजी को ही अश्व चुराकर यज्ञ में विघ्न डालनेवाला माना और यह निश्चय किया कि इस महापापी को मारकर हमलोग अपना अश्व महाराज के निकट ले चलें । कोई बोले – ‘अपना पशु बाँधा हैं, इसे ही खोलकर ले चलें । इस सोये हुए पुरुष को मारने से क्या लाभ ।’ यह सुनकर दूसरे बोल उठे –‘हम शूरवीर राजा हैं, शासक हैं । इस पापी को उठायें और क्षत्रियोंचित्त तेजसे इसका वध कर डालें ।’ फिर क्या था, वे मुनिको कटु वचन सुनाते हुए लातों से मारने लगे ।
इससे मुनिश्रेष्ठ कपिल को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने सगरपुत्रों की ओर रोषपूर्ण दृष्टि से देखा और भस्म कर डाला । वे सब – के – सब जलकर राख हो गये । नारद ! यज्ञ में दीक्षित महाराज सगर को इन सब बातों का पता न लगा । उससमय तुमने ही जाकर सगर को यह सब समाचार सुनाया । इससे राजा को बड़ी चिंता हुई । अब क्या करना चाहिये, यह बात उनकी समझ में न आयी । राजा सगर के एक दूसरा पुत्र भी था, जिसका नाम असमंजा था । वह मूर्खतावश नगर के बालकों को उठाकर पानी में फेंक देता था । तब पुरवासियों ने एकत्रित होकर राजा सगर को इस बात की सूचना दी । पुत्र का यह अन्याय जानकर महाराज को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने अपने अमात्यों से कहा – ‘यह असमंजा बालकों की हत्या करनेवाला तथा क्षत्रियधर्म का त्यागी हैं । अत: यह इस देशका त्याग कर दे ।’ महाराज का यह आदेश सुनकर अमात्यों ने राजकुमार को तुरंत देशनिकाला दे दिया । असमंजा वन में चला गया । अब राजा सगर चिंता करने लगे कि ‘हमारे सब पुत्र ब्राह्मण के शाप से रसातल में नष्ट हो गये । एक बचा था, वह भी वनमें चला गया । इससमय मेरी क्या गति होगी ? ‘
असमंजा के एक पुत्र था, जो अंशुमान नामसे विख्यात हुआ । यद्यपि अंशुमान अभी बालक था तप भी राजाने उसे बुलाकर अपना कार्य बतलाया । अंशुमान ने भगवान कपिल की आराधना की और घोडा ले आकर राजा सगर को दे दिया । इससे वह यज्ञ पूर्ण हुआ । अंशुमान के तेजस्वी पुत्रका नाम दिलीप था । दिलीप के पुत्र परम बुद्धिमान भगीरथ हुए । भगीरथ ने जब अपने समस्त पितामहों की दुर्गति का हाल सुना, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ । उन्होंने नृपश्रेष्ठ सगर से विनयपूर्वक पूछा – ‘महाराज ! उन सबका उद्धार कैसे होगा ?’ राजाने उत्तर दिया – ‘बेटा ! यह तो भगवान् कपिल ही जानते हैं ।’ यह सुनकर बालक भगीरथ रसातल में गये और कपिल को नमस्कार करके अपना सब मनोरथ उन्हें कह सुनाया । कपिल मुनि बहुत देरतक ध्यान करके बोले –राजन ! तुम तपस्याद्वारा भगवान् शंकर की आराधना करो और उनकी जटा में स्थित गंगा के जलसे अपने पितरों की भस्म को आप्लावित करो । इससे तुम तो कृतार्थ होगे ही, तुम्हारे पितर भी कृतकृत्य हो जायेंगे ।’ यह सुनकर भगीरथ ने कहा – ‘भुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा । मुनिश्रेष्ठ ! बताइये,मैं कहाँ जाऊँ और कौन-सा कार्य करूँ ?’
कपिलजी बोले – नरश्रेष्ठ ! कैलासपर्वतपर जाकर महादेवजी की स्तुति करो और अपनी शक्ति के अनुसार तपस्या करते रहो । इससे तुम्हारे अभीष्ट की सिद्धि होगी ।
मुनिका यह वचन सुनकर भगीरथ ने उन्हें प्रणाम किया और कैलासपर्वत की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर पवित्र हो बालक भगीरथ ने तपस्या का निश्चय किया और भगवान शंकर को सम्बोधित करके इसप्रकार कहा – ‘प्रभो ! मैं बालक हूँ, मेरी बुद्धि भी बालक की ही है और आप भी अपने मस्तकपर बाल चंद्रमा को धारण करते हैं । मैं कुछ भी नहीं जानता । आप मेरे इस अनजानपन से ही प्रसन्न होइये । अमरेश्वर ! जो लोग वाणीसे, मनसे और क्रिया से कभी मेरा उपकार करते हैं तथा हितसाधन में संलग्न रहते हैं, उनका कल्याण करने के लिये मैं उमासहित आपको प्रणाम करता हूँ । आप देवता आदि के लिये भी पूज्य हैं । जिन पूर्वजों ने मुझे अपने सगोत्र और समानधर्मा के रूप में उत्पन्न किया और पाल-पोसकर बड़ा बनाया, भगवान् शिव उनका अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करें । मैं बालचन्द्र का मुकुट धारण करनेवाले भगवान शंकर को नित्य प्रणाम करता हूँ ।’
भगीरथ के यों कहते ही भगवान् शिव उनके सामने प्रकट हो गये और बोले – ‘महामते ! तुम निर्भय होकर कोई वर माँगों । जो वस्तु देवताओं के लिये भी सुलभ नहीं हैं, वह भी मैं तुम्हें निश्चय ही दे दूँगा ।’ यह आश्वासन पाकर भगीरथ ने महादेवजी को प्रणाम किया और प्रसन्न होकर कहा – ‘देवेश्वर ! आपकी जटामें जो सरिताओं में श्रेष्ठ गंगाजी विराजमान हैं, उन्हें ही मेरे पितरों का उद्धार करने के लिये दे दीजिये । इससे मुझे सब कुछ मिल जायगा ।’ तब महेश्वर ने हँसकर कहा – ‘बेटा ! मैंने तुम्हें गंगा दे दी । अब तुम उनकी स्तुति करो ।’ महादेवजी का वचन सुनकर भगीरथ गंगाजी की प्राप्ति के लिये भारी तपस्या की और मनको संयम में रखकर भक्तिपूर्वक गंगा का स्तवन किया । बालक होनेपर भी भगीरथ ने अबालकोचित पुरुषार्थ करके गंगाजी की भी कृपा पाप्त की । महादेवजी से प्राप्त हुई गंगा को पाकर उन्होंने उनकी परिक्रमा की और हाथ जोडकर कहा – ‘देवि ! महामुनि कपिल के शाप से मेरे पितर दुर्गति में पड़े हुए हैं । माता ! आप उनका उद्धार करें ।’
देवनदी गंगा सबका उपकार करनेवाली हैं । वे स्मरणमात्र से सब पापों का नाश कर देती हैं । उन्होंने भगीरथ की प्रार्थना सुनकर ‘तथास्तु’ कहा और लोकों का उपकार एवं पितरों का उद्धार करने के लिये भगीरथ के कथनानुसार सब कार्य किया । राजा सगर के जो पुत्र भस्म होकर रसातल में पड़े थे, उन्हें अपने जलसे आप्लावित करके गंगाजी ने उनके खोदे हुए गडढे को भर दिया । महामुने ! इसप्रकार तुम्हें क्षत्रिया गंगा का वृतांत सुनाया । ये माहेश्वरी, वैष्णवी, ब्राह्मी, पावनी, भागीरथी, देवनदी तथा हिमगिरीशिखराश्रया (हिमालय की चोटीपर रहनेवाली) आदि नामों से पुकारी जाती हैं । इसप्रकार महादेवजी की जटा में स्थित गंगा का जल दो स्वरूपों में विभक्त हुआ । विन्ध्यागिरि के दक्षिणभाग में जो गंगा हैं, उन्हें गौतमी (गोदावरी) कहते हैं और विन्ध्यागिरि के उत्तरभाग में स्थित गंगा भगीरथी कहलाती हैं ।
अध्याय- 40 वाराहतीर्थ, कुशावर्त, नीलगंगा और कपोततीर्थ की महिमा; कपोत और कपोती के अद्भुत त्याग का वर्णन
नारदजीने कहा – भगवन ! आपके मुखसे कथा सुनते-सुनते मेरे मनको तृप्ति नहीं होती । पहले गौतम ब्राह्मण के द्वारा लायी हुई गंगा का वर्णन कीजिये । उनके पृथक-पृथक तीर्थों के फल, पुण्य तथा इतिहासपर भी क्रमश: प्रकाश डालिये ।
ब्रह्माजी बोले – नारद ! गोदावरी के पृथक – पृथक तीर्थों, फलों और माहात्म्यों का पूरा-पूरा वर्णन न तो मैं कर सकता हूँ और न तुम सुनने में ही समर्थ हो; तथापि कुछ बतलाता हूँ । जहाँ भगवान त्र्यम्बक गौतम के सामें प्रत्यक्ष प्रकट हुए थे, वह तीर्थ त्र्यम्बक के नामसे प्रसिद्ध है । (वही गौतमी गंगा का उद्गमस्थान हैं ) । वह भोग और मोक्ष देनेवाला है । दूसरा वाराहतीर्थ हैं, जो तीनों लोकों में विख्यात हैं । उसका स्वरूप बतलाता हूँ । पूर्वकाल की बात हैं, सिन्धुसेन नामक राक्षस देवताओं को परास्त करके यज्ञ छीनकर रसातल में जा पहुँचा । यज्ञ के रसातल चले जानेपर पृथ्वीपर उसका सर्वथा अभाव हो गया । देवताओं ने सोचा, यज्ञ के बिना न तो यह लोक रह जायगा और न परलोक ही; अत: अपने शत्रु के पीछे उन्होंने रसातल में भी धावा किया । परन्तु इंद आदि देवता सिन्धुसेन को जीत न सके । तब उन्होंने पुराणपुरुष भगवान विष्णु के पास जाकर यज्ञापहरण आदि राक्षस की सब करतूत कह सुनायी । भगवान ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा – ‘मैं वाराहरूप धारण करके शंख, चक्र और गदा हाथ में ले रसातल में जाऊँगा और मुख-मुख्य राक्षसों का संहार करके पुण्यमय यज्ञ को लौटा लाऊँगा । देवताओं ! तुम सब लोग स्वर्ग में जाओ । तुम्हारी मानसिक चिंता दूर हो जानी चाहिये ।’
गंगाजी जिस मार्ग से रसातल में गयी थी, उसी मार्ग से पृथ्वी को छेदकर चक्रधारी भगवान भी रसातल में पहुँच गये । उन्होंने वाराहरूप धारण करके रसातलवासी राक्षसों और दानवों का वध किया तथा महायज्ञ को मुख में रखकर रसातल में निकल आये । उससमय देवता ब्रह्मगिरीपर श्रीहरि की प्रतीक्षा करते थे । उस मार्ग से निकलकर भगवान गंगास्रोत में आये और रक्तसे लथपथ हुए अपने अंगों को गंगाजी के जलसे धोया । उस स्थानपर वाराह नामक कुंड हो गया । इसके बाद भगवान ने मुँह में रखे हुए महायज्ञ को दे दिया । इस प्रकार उनके मुख से यज्ञ का प्रादुर्भाव हुआ, इसलिये वाराहतीर्थ परम पवित्र और सम्पूर्ण अभिलाषित वस्तुओं को देनेवाला हैं । वहाँ किया हुआ स्नान और दान सब यज्ञों का फल देता है । जो पुण्यात्मा पुरुष वहाँ रहकर अपने पितरों का स्मरण करता है, उसके पितर सब पापों से मुक्त हो स्वर्ग में चले जाते हैं । त्र्यम्बक में एक कुशावर्त नामक तीर्थ है, उसके स्मरणमात्र से मनुष्य कृतार्थ हो जाता हैं । वह समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं । कुशावर्त उस तीर्थ का नाम हैं, जहाँ महात्मा गौतम ने गंगा का कुशों से आवर्तन किया था । वे वहाँ गंगा को कुश से लौटाकर ले आये थे । कुशावर्त में किया हुआ स्नान और दान पितरों को तृप्ति देनेवाला है । जहाँ नदियों में श्रेष्ट गंगा नीलपर्वत से निकली हैं, वहाँ वे नीलगंगा के नामसे विख्यात हैं । मनुष्य शुद्धचित्त होकर नीलगंगा में स्नान आदि जो कुछ भी शुभ कर्म करता हैं, वह सब अक्षय जानना चाहिये । उससे पितरों को बड़ी तृप्ति होती है ।
गोदावरी में परम उत्तम कपोततीर्थ भी है, जिसकी तीनों लोकों में प्रसिद्धि हैं । मुने ! मैं उस तीर्थ का स्वरुप और महान फल बतलाता हूँ, सुनो ! ब्रह्मगिरीपर एक बड़ा भयंकर व्याध रहता था । वह ब्राह्मणों, साधुओं, यतियों, गौओं, पक्षियों तथा मृगों की हत्या किया करता था । वह पापात्मा बड़ा ही क्रोधी और असत्यवादी था । उसके हाथमे सदा पाश और धनुष मौजूद रहते थे । उस महापापी व्याध के मन में सदा पाप के ही संकल्प उठते थे । उसकी स्त्री और पुत्र भी उसी स्वभावके थे । एक दिन अपनी पत्नी की प्रेरणा से वह घने जंगल में घुस गया । वहाँ उस पापी ने अनेक प्रकार के मृगों और पक्षियों का वध किया । कितनों को जीवित ही पकडकर पिंजड़े में डाल दिया । इसप्रकार बहुत दुरतक घूम-फिरकर वह अपने घर की ओर लौटा । तीसरे पहर का समय था । चैत्र और वैशाख बीत चुके थे । एक ही क्षण में बिजली कौंध ने लगी और आकाश में मेघों की घटा छा गयी । हवा चली और पानी के साथ पत्थरों की वर्षा होने लगी । मुसलाधार वर्षा होने के कारण बड़ी भयंकर अवस्था हो गयी । व्याध राह चलते-चलते थक गया था । जल की अधिकता के कारण मार्ग का ज्ञान नहीं हो पाता था । जल, थल और गड्ढे की पहचान असम्भव हो गयी थी । उस समय वह पापी सोचने लगा, ‘कहाँ जाऊँ, कहाँ ठहरूँ, क्या करूँ? मैं यमराज की भांति सब प्राणियों के प्राण लिया करता हूँ । आज मेरा भी प्राणांत कर देनेवाली पत्थरों की वृष्टि हो रही हैं । आसपास कोई ऐसी शिला अथवा वृक्ष नहीं दिखलायी देता, जहाँ मेरी रक्षा हो सके ।’
इस प्रकार भांति –भांति चिंता में पड़े हुए व्याध ने थोड़ी ही दूरपर एक उत्तम वृक्ष देखा, जो शाखा और पल्लवों से सुशोभित हो रहा था । वह उसी की छाया में आकर बैठ गया । उसके सब वस्त्र भीग गये थे । वह इस चिन्तामें पड़ा था कि मेरे स्त्री-बच्चे जीवित होंगे या नहीं । इसी समय सूर्यास्त भी हो गया । उसी वृक्षपर एक कबूतर अपनी स्त्री और पुत्र-पौत्र के साथ रहता था । वह वहाँ सुख से निर्भय होकर पूर्ण तृप्त और प्रसन्न था । उस वृक्षपर रहते हुए उसके कई वर्ष बीत चुके थे । उसकी स्त्री कबूतरी बड़ी पतिव्रता थी । वह अपने पति के साथ उस वृक्ष के खोखले में रहा करती थी । वहाँ हवा और पानीसे परा बचाव था । उस दिन दैववश कपोत और कपौती दोनों ही चारा चुगने के लिए गये थे, किन्तु केवल कपोत ही लौटकर उस वृक्षपर आया । भाग्यवश कपोती भी वहीँ व्याध के पिंजड़े में पड़ी थी । व्याध ने उसे पकड़ लिया था, परन्तु अभीतक उसके प्राण नहीं गये थे । कपोत अपनी संतानों को मातृहीन देखकर चिंतित हुआ । भयानक वर्षा हो रही थी । सूर्य डूब चूका था, फिर भी वह वृक्ष का खोखला कपोती से खाली ही रह गया – यह विचारकर कपोत विलाप करने लगा । उसे इस बातका पता नहीं था कि कपोती यहीं पिजड़े में बँधी पड़ी हैं । कपोत ने अपनी प्रिया के गुणों का वर्णन आरम्भ किया- ‘हाय ! मेरे हर्ष को बढानेवाली कल्याणमयी कपोती न जाने क्यों अभीतक नहीं आयी । वही मेरे धर्म की जननी हैं – उसकी सहयोग से ही मैं धर्म का सम्पादन कर पाता हूँ । मेरे इस शरीर की स्वामिनी भी वही है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि में वही सर्वदा मेरी सहायता करती है । मुझे प्रसन्न देखकर वह हंसती है और खिन्न जानकर मेरे दु:खोंका निवारण करती है । उचित सलाह देनेमें वह मेरी सखी है और सदा मेरी आज्ञा के ही पालन में संलग्न रहती है । सूर्य अस्त हो गया तो भी वह कल्याणी अभीतक नहीं आयी । वह पति के सिवा दूसरा कोई व्रत, मन्त्र, देवता, धर्म अथवा अर्थ नहीं जानती । वह पतिव्रता हैं । पति में ही उसके प्राण बसते हैं । पीटीआई ही उसका मन्त्र और पति ही उसका प्रियतम हैं । मेरी कल्याणमयी भार्या अभीतक नहीं आयी । क्या करूँ, कहा जाऊँ ? मेरा यह घर उसके बिना आज जगंल-सा दिखायी देता है । उसके रहनेपर भयंकर स्थान भी शोभासम्पन्न और सुंदर दिखायी देता हैं । जिसके रहनेपर यह भर वास्तव में घर कहलाता हैं, वह मेरी प्रिय भार्या अबतक नहीं आयी । मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकूँगा ।अपने प्रिय शरीर को भी त्याग दूँगा । किन्तु ये बच्चे क्या करेंगे । ओह ! आज मेरा धर्म लुप्त हो गया हैं ।’
इस प्रकार विलाप करते हुए स्वामी के वचन सुनकर पिंजड़े में पड़ी हुई कपोती बोली – ‘खगश्रेष्ठ ! मैं यहाँ पिंजड़े में बँधी हुई बेबस हो गयी हूँ । महामते ! यह व्याध मुझे जाल में फँसाकर ले आया हैं । आज मैं धन्य हूँ और अनुगृहित हूँ; क्योंकि पतिदेव मेरे गुणों का बखान करते हैं । मुझ में जो गुण हैं और जो नहीं हैं, उन सबका मेरे पतिदेव गान कर रहे हैं । इससे मैं निस्संदेह कृतार्थ हो गयी । पति के संतुष्ट होनेपर स्त्रियोंपर सम्पूर्ण देवता सन्तुष हो जाते हैं । इसके विपरीत यदि पति असंतुष्ट हो तो स्त्रियों का अवश्य नाश हो जाता हैं । प्राणनाथ ! तुम्हीं मेरे देवता, तुम्ही प्रभु, तुम्हीं सुहृद, तुम्हीं शरण, तुम्हीं व्रत, तुम्हीं स्वर्ग, तुम्हीं परब्रह्म और तुम्हीं मोक्ष हो । आर्य ! मेरे लिये चिंता न करो । अपनी बुद्धि को धर्म में स्थिर करो । तुम्हारी कृपासे मैंने बहुतेरे भोग भोग लिये हैं ।’
अपनी प्रिया कपोती का यह वचन सुनकर कपोत उस वृक्ष से उतर आया और पिंजड़े में पड़ी हुई कपोती के पास गया । वहाँ पहुँचकर उसने देखा, मेरी प्रिया जीवित है और व्याध मृतक की भांति निश्चेष्ट हो रहा है । तब उसने उसे बंधन से छुडाने का विचार किया । कपोती ने रोकते हुए कहा – ‘महाभाग ! संसार का सम्बन्ध स्थिर रहनेवाला नहीं है, ऐसा जानकर मुझे बंधन से मुक्त न करो । इसमें मुझे व्याध का अपराध नहीं जान पड़ता । तुम अपनी धर्ममयी बुद्धि को दृढ़ करो । बाह्मणों के गुरु अग्नि हैं । सब वर्णों का गुरु ब्राह्मण हैं । स्त्रियों का गुरु उसका पति हैं और सब लोगों का गुरु अभ्यागत हैं । जो लोग अपने घरपर आये हुए अतिथि को वचनोंद्वारा संतुष्ट करते हैं, उनके उन वचनों से वाणी की अधीश्वरी सरस्वती देवी तृप्त होती है । अतिथि को अन्न देने से इंद्र तृप्त होते हैं । उसके पैर धोने से पितर, उसके भोजन करने से प्रजापति, उसकी सेवा-पूजा से लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु तथा उसके सुखपूर्वक शयन करनेपर सम्पूर्ण देवता तृप्त होते है । अत: अतिथि सबके लिये परम पूजनीय हैं । यदि सूर्यास्त के बाद थका-मांदा अतिथि घरपर आ जाय तो उसे देवता समझे; क्योंकि वह सब यज्ञों का फलरूप है । थके हुए अतिथि के साथ गृहस्थ के घरपर सम्पूर्ण देवता, पितर और अग्नि भी पधारते हैं । यदि अतिथि तृप्त हुआ तो उन्हें भी बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि वह निराश होकर चला गया तो वे भी निराश होकर ही लौटते हैं । अत:प्राणनाथ ! आप सर्वथा दुःख छोडकर शान्ति धारण कीजिये और अपनी बुद्धि को शुभ में लगाकर धर्म का सम्पादन कीजिये । दूसरों के द्वारा किये हुए उपकार और अपकार दोनों ही साधू पुरुषों के विचार से श्रेष्ठ हैं । उपकार करनेवालेपर तो सभी उपकार करते हैं । अपकार करनेवालों के साथ जो अच्छा बर्ताव करे, वही पुण्य का भागी बताया गया है ।
कपोत बोला – सुमुखि ! तुमने हम दोनों के योग्य ही उत्तम बात कही हैं; किन्तु इस विषय में मुझे कुछ और भी कहना हैं, उसे सुनो । कोई एक हजार प्राणियों का भरण – पोषण करता है । दूसरा दसका ही निर्वाह करता हैं और कोई ऐसा है, जो सुखपूर्वक केवल अपनी जीविका का काम चला लेता है; किन्तु हमलोग ऐसे जीवों में से हैं, जो अपना ही पेट बड़े कष्ट से भर पाते हैं । कुछ लोग खाई खोदकर उसमें अन्न भरकर रखते हैं । कुछ लोग कोठेभर धान के धनी होते हैं और कितने ही घड़ों में धान भरकर रखते हैं; परन्तु हमारे पास तो उतना ही संग्रह होता है, जितना अपनी चोंच में आ जाय । शुभे ! तुम्हीं बताओं, ऐसी दशा में इस थके-मांदे अतिथिका आदर-सत्कार मैं किस प्रकार करूँ?
कपोती ने कहा – नाथ ! अग्नि, जल, मीठी वाणी, तृण और काष्ठ आदि जो भी सम्भव हो, वह अतिथिको देना चाहिये । यह व्याध सर्दी से कष्ट पा रहा है ।
अपनी प्यारी स्री का कथन सुनकर पक्षिराज कपोत ने पेडपर चढकर सब ओर देखा तो कुछ दूरीपर उसे आग दिखायी दी । वहाँ जाकर वह चोंच से एक जलती हुई लकड़ी उठा लाया और व्याध के आगे रखकर अग्नि को प्रज्वलित किया; फिर सूखे काठ, पत्ते और तिनके बार-बार आगमें डालने लगा । आग प्रज्वलित हो उठी । उसे देखकर सर्दी से दु:खी व्याध ने अपने जडवत बने हुए अंगों को तपाया । इससे उसको बड़ा आराम मिला । कपोती ने देखा व्याध क्षुधा की आग में जल रहा है, तब उसने अपने स्वामीसे कहा – ‘महाभाग ! मुझे आग में डाल दीजिये । मैं अपने शरीरसे इस दु:खी व्याध को तृप्त करूँगी । सुव्रत ! ऐसा करनेसे तुम अतिथि-सत्कार करनेवाले पुण्यात्माओं के लोक में जाओंगे ।’
कपोत बोला – शुभे ! मेरे जीते-जी यह तुम्हारा धर्म नहीं हैं । मुझे ही आज्ञा दो । मैं ही आज अतिथि-यज्ञ करूँगा ।
यों कहकर कपोत ने सबको शरण देनेवाले भक्तवत्सल विश्वरूप चतुर्भुज महाविष्णु का स्मरण करते हुए अग्नि की तीन बार परिक्रमा की; फिर व्याधसे यह कहते हुए अग्नि में प्रवेश किया कि ‘मुझे सुखपूर्वक उपयोग में लाओ।’ कपोत ने अपने जीवन को अग्नि में होम दिया, यह देख व्याध कहने लगा – ‘अहो ! मेरे इस मनुष्य-शरीर का जीवन धिक्कार देने योग्य हैं, क्योंकि मेरे ही लिये पक्षिराज ने यह साहसपूर्ण कार्य किया है ।’ यों कहते हुए व्याध से कपोतीने कहा – ‘महाभाग ! अब मुझे छोड़ दो । देखो, मेरे ये पतिदेव मुझ से दूर चले जा रहे हैं ।’ उसकी बात सुनकर व्याध सहम गया और तुरंत ही पिंजड़े में पड़ी हुई कपोती को उसने छोड़ दिया । तब उसने भी पति और अग्नि की परिक्रमा करके कहा – ‘स्वामी के साथ चिता में प्रवेश करना स्रियों के लिये बहुत बड़ा धर्म हैं । वेड में इस मार्गका विधान है और लोकमें भी सबने इसकी प्रशंसा की है । जैसे साँप पकडनेवाला मनुष्य साँप को बिल से बलपूर्वक निकाल लेता है, उसीप्रकार पति का अनुगमन करनेवाली नारी पति के साथ ही स्वर्गलोक में जाती है ।
यों कहकर कपोती ने पृथ्वी, देवता, गंगा तथा वनस्पतियों को नमस्कार किया और अपने बच्चों को सांत्वना देकर व्याध से कहा – ‘महाभाग ! तुम्हारी ही कृपा से मेरे लिये ऐसा शुभ अवसर प्राप्त हुआ हैं । मैं पति के साथ स्वर्गलोक में जाती हूँ ।’ यों कहकर वह पतिव्रता कपोती आग में प्रवेश कर गयी । इसी समय आकाश में जय-जयकार की ध्वनि गुंज उठी । तत्काल ही सूर्य के समान तेजस्वी अत्यंत सुंदर विमान उतर आया । दोनों दम्पति देवता के समान दिव्य शरीर धारण करके उसपर आरूढ़ हुए और आश्चर्य में पड़े हुए व्याध से प्रसन्न होकर बोले – ‘महामते ! हम देवलोक में जाते हैं और तुम्हारी आज्ञा चाहते है । तुम अतिथि के रूप में हम दोनों के लिये स्वर्ग की सीढी बनकर आ गये । तुम्हे नमस्कार हैं ।’
उन दोनों को श्रेष्ठ विमानपर बैठे देख व्याध ने अपना धनुष और पिंजड़ा फेंक दिया और हाथ जोडकर कहा – ‘महाभाग ! मेरा त्याग न करो । मैं अज्ञानी हूँ । मुझे भी कुछ दो । मैं तुम्हारे लिये आदरणीय अतिथि होकर आया था, इसलिये मेरे उद्धार का उपाय बतलाओ ।’
उन दोनों ने कहा – व्याध ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम भगवती गोदावरी के तटपर जाओ और उन्हीं को अपना पाप भेंट कर दो । वहाँ पंद्रह दिनोंतक डुबकी लगाने से तुम सब पापों से मुक्त हो जाओगे । पापमुक्त होनेपर जब पुन: गौतमी गंगा में स्नान करोगे, तब अश्वमेध-यज्ञ का फल पाकर अत्यंत पुन्यवान हो जाओगे । नदियों में श्रेष्ठ गोदावरी ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेवजी के अंश से प्रकट हुई है । उनके भीतर पुन: गोते लगाकर जब तुम अपने मलिन शरीर को त्याग दोगे, तब निश्चय ही श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हो स्वर्गलोक में पहुँच जाओगे ।
उन दोनों की बात सुनकर व्याध ने वैसा ही किया, फिर वह भी दिव्यरूप धारण करके एक श्रेष्ठ विमानपर जा बैठा । कपोत, कपोती और व्याध – तीनों ही गौतमी गंगा के प्रभाव से स्वर्ग में चले गये । तभीसे वह स्थान कपोततीर्थ के नाम से विख्यात हुआ । वहाँ स्नान, दान, पितरों की पूजा, जप और यज्ञ आदि कर्म करनेपर वे अक्षय फल को देनेवाले होते हैं ।
अध्याय- 41 दशाश्वमेधिक और पैशाचतीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – गोदावरी गंगा में कार्तिकेय जी का भी एक तीर्थ हैं, जो बहुत उत्तम है । वह कौमारतीर्थ के नामसे भी प्रसिद्ध है । उसका नाम सुननेमात्र से मनुष्य कुलीन और रूपवान होता है । उसके आगे कृत्तिकातीर्थ हैं, जिसके श्रवणमात्र से सोमपान का फल मिलता हैं । महामुने ! अब दशाश्वमेधिक तीर्थ का माहात्म्य सुनो । उसके श्रवणमात्र से अश्वमेध-यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है । विश्वकर्मा के पुत्र महाबली विश्वरूप हुए । विश्वरूप के प्रथम नामक पुत्र हुआ । उसके पुत्रका नाम भौवन हुआ । महाबाहू भौवन सार्वभौम राजा हुए । उनके पुरोहित कश्यप थे , जो सब प्रकार के ज्ञान में निपुण थे । एक दिन महाबाहु भौवन ने अपने पुरोहित से पूछा – ‘मुने ! मैं एक ही साथ दस अश्वमेध-यज्ञ करना चाहता हूँ । वह यज्ञ कहाँ करूँ? कश्यप ने प्रयाग का नाम लिया और उन-उन स्थानोंपर यज्ञ करने को बताया, जहाँ श्रेष्ठ द्विजों ने पूर्वकाल में बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया था । राजा के यज्ञ में बहुत-से ऋषि ऋत्विज हुए । पुरोहित ने एक ही साथ दस अश्वमेध-यज्ञ आरम्भ किये, किन्तु उनमें से एक भी पूर्ण न हुआ । यह देखकर राजा को बड़ी चिंता हुई । उन्होंने प्रयाग छोडकर अन्य स्थानों में उन यज्ञों का आरम्भ किया, किन्तु वहाँ भी विघ्न-दोष आ पहुँचे । इसप्रकार अपने यज्ञों को अपूर्ण देख राजाने पुरोहित से कहा – ‘देश और काल के दोष से अथवा मेरे और आपके दोष से हमारे दस अश्वमेध-यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाते ।’ यों कहकर दु:खी हुए राजा भौवन अपने पुरोहित कश्यप के साथ बृहस्पतिजी के जेष्ठ भ्राता संवर्त के पास गये और इसप्रकार बोले – ‘भगवान ! मुझे ऐसा कोई उत्तम प्रदेश बतलाइये, जहाँ एक ही साथ आरम्भ किये हुए दस अश्वमेध-यज्ञ पूर्ण हो जायँ ।’ तब मुनिश्रेष्ठ संवर्त ने कुछ कालतक ध्यान करके महाराज भौवन से कहा – ‘ब्रह्माजी के पास जाओ । वे ही उत्तम प्रदेश बतायेंगे ।’
महाबुद्धिमान भौवन महात्मा कश्यप को साथ ले मेरे पास आ पहुँचे और मुझ से भी उत्तम देश आदि के विषय में प्रश्न करने लगे । उससमय मैंने भौवन और कश्यप से कहा– ‘राजेन्द्र ! तुम गोदावरी के तटपर जाओ । वही यज्ञ के लिये पुण्यवान प्रदेश हैं । वेदों के पारगामी विद्वान ये महर्षि कश्यप ही श्रेष्ठ गुरु हैं । इनकी कृपा और गौतमी गंगा के प्रसाद से एक ही अश्वमेध से अथवा वहाँ स्नान करनेमात्र से तुम्हारे दस अश्वमेध-यज्ञ सिद्ध हो जायेंगे ।’ यह सुनकर राजा भौवन कश्यपजी के साथ गौतमी के तटपर आये और वहाँ अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा ग्रहण की । वह महायज्ञ आरम्भ होकर जब पूर्ण हो गया , तब राजा इस पृथ्वी का दान करने को उद्दत हुए । उसी समय आकाशवाणी हुई – ‘राजन ! तुमने पुरोहित कश्यपजी को पर्वत, वन और काननोंसहित पृथ्वी देने की कामना करके सब कुछ दान कर दिया । अब भूमिदान की अभिलाषा छोडकर अन्नदान करो । वह महान फल देनेवाला हैं । तीनों लोकों में अन्नदान के समान दूसरा पुण्यकार्य नहीं है । विशेषत: गंगाजी के तटपर श्रद्धा के साथ किये हुए अन्नदान की महिमा अकथनीय है ।
भूमिदानस्पृहां त्यक्त्वा अन्नं देहि महाफलम । नान्नदानसमं पुण्यं त्रिषु लोकेषु विद्यते ।। विशेषतस्तू गंगाया: श्रद्धया पुलिने मुने ।।
तुमने जो प्रचुर दक्षिणा से युक्त यह अश्वमेध-यज्ञ किया हैं, इससे तुम कृतार्थ हो गये । अब इस विषय में तुम्हें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । तिल, गौ, धन, धान्य – जो कुछ भी गोदावरी के तटपर दिया जाता हैं, वह सब अक्षय हो जाता है ।
यह सुनकर सम्राट भौवन ने ब्राह्मणों को बहुत-सा अन्नदान किया । तबसे वह तीर्थ दशाश्वमेधिक के नामसे विख्यात हुआ । वहाँ स्नान करने से दस अश्वमेध-यज्ञों का फल प्राप्त होता है ।
उससे आगे पैशाचतीर्थ हैं, जो ब्रह्मवादी महर्षियोंद्वारा सम्मानित हैं । यह गोदावरी के दक्षिण-तटपर स्थित है । अब मैं उसका स्वरूप बतलाता हूँ, सुनो । मुनिश्रेष्ठ नारद ! ब्रह्मगिरी के पार्श्वभाग में अंजन नामसे प्रसिद्ध एक पर्वत है । वहाँ एक सुन्दरी अप्सरा शापभ्रष्ट होकर उत्पन्न हुई । उसका नाम अंजना था । उसके सब अंग बहुत सुंदर थे, किन्तु मुँह वानरी का था । केसरी नामक श्रेष्ठ वानर अंजना के पति थे । केसरी के एक दूसरी भी स्त्री थी, जिसका नाम अद्रिका था । वह भी शापभ्रष्ट अप्सरा ही थी । उसके भी सब अंग सुंदर थे । किन्तु मुँह बिल्ली के समान था । अद्रि का भी अंजन पर्वतपर ही रहती थी । एक समय केसरी दक्षिणसमुद्र के तटपर ही रहती थी । इसी बीच में महर्षि अगस्त्य अंजन पर्वतपर आये । अंजना और अद्रिका दोनों ने महर्षि का यथोचित पूजन किया । इससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कहा – ‘तुम दोनों वर माँगों ।’ वे बोलीं –‘मुनीश्वर ! हमें ऐसे पुत्र दीजिये, जो सबसे बलवान, श्रेष्ठ और सब लोगों का उपकार करनेवाले हों ।’ ‘तथास्तु’ कहकर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य दक्षिण दिशा में चले गये । कुछ काल के बाद अंजना ने वायु के अंश से हनुमानजी को जन्म दिया और अद्रिका के गर्भ से निऋति के अंश से पिशाचों का राजा अद्रि उत्पन्न हुआ । इसके बाद उन दोनों स्त्रियों ने उक्त देवताओं से कहा- ‘हमें मुनि के वरदान से पुत्र तो प्राप्त हुए, किन्तु इंद्र के शाप से हमारा मुख कुरूप होने के कारण सारा शरीर ही विकृत हो गया है । इसे दूर करने के लिये हम क्या उपाय करें – इसे आप दोनों बतायें ।’ तब भगवान् वायु और निऋति ने कहा –‘गोदावरी में स्नान और दान करने से तुम्हें शाप से छुटकारा मिल जायगा ।’ यों कहकर वे दोनों वहीँ अन्तर्धान हो गये । तब पिशाचरूप धारी अद्रि ने अपने भाई हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिये माता अंजना को लाकर गोदावरी में नहलाया । इसीप्रकार हनुमानजी भी अद्रिका को लेकर बड़ी उतावली के साथ गौतमी गंगा के तटपर आये । तबसे वह पैशाच और आंजनतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । वह समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला शुभ तीर्थ हैं । ब्रह्मगिरी से तिरपन योजन पूर्वकी ओर मार्जार-तीर्थ है । मार्जार-तीर्थ से आगे हनुमान-तीर्थ और वृषाकपि – तीर्थ है । उसके आगे फेना-संगमतीर्थ बताया गया हैं, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला हैं ।
अध्याय- 42 क्षुधातीर्थ और अहल्या-संगम-तीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! अब क्षुधातीर्थ का वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो । वह परम पुण्यमय तीर्थ मनुष्यों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला हैं । पूर्वकाल में कण्व नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि थे । वे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ और तपस्वी थे । महर्षि कण्व भूख से पीड़ित होकर अनेक आश्रमों पर घुमा करते थे । एक दिन वे गौतम के पवित्र आश्रमपर आये । वह आश्रम अन्न और जलसे सम्पन्न था । अपनेको क्षुधा से पीड़ित आर गौतम को वैभवशाली देख कण्व का मन विरक्ति से भर गया । वे सोचने लगे – ‘गौतम भी एक श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं और मैं भी उन्हीं की भान्ति तपोनिष्ठ हूँ । बराबरवालें के पास याचना करना कदापि उचित नहीं हैं । अत: यद्यपि मैं भूख से व्याकुल हूँ और मेरे शरीर में पीड़ा भी हो रही हैं, तथापि गौतम के घर में भोजन नहीं करूँगा । इस समय गौतमी गंगा के तटपर चलूँ और उन्हीं से सम्पत्ति माँगूँ ।’ ऐसा निश्चय करके महर्षि कण्व परम पावन गंगाजी के तटपर गये और स्नान करके पवित्र एवं संयतचित्त हो कुशासनपर बैठकर गौतमी गंगा तथा क्षुधादेवी की स्तुति करने लगे ।
कण्व बोले – भारी पीडाओं को हरनेवाली भगवती गंगा ! तुम्हें नमस्कार हैं तथा सब लोगों को पीड़ा देनेवाली क्षुधादेवी ! तुमको भी नमस्कार हैं । महादेवजी की जटा से प्रकट हुई कल्याणमयी गौतमी ! तुम्हे नमस्कार है तथा महामृत्यु के मुखसे निकली हुई क्षुधादेवी ! तुम्हे भी नमस्कार हैं । देवि ! तुम्हीं पुण्यात्माओं के लिये शान्तिरुपा और दुरात्माओं के लिये क्रोधस्वरूपा हो । नदी के रूप से सबके पाप-ताप हर लेती हो और क्षुधारूप में आकर सबको पाप-ताप देती रहती हो । कल्याणकारिणी देवी ! तुम्हें नमस्कार है । पापों का दमन करनेवाली गंगा ! तुम्हें प्रणाम हैं । भगवती शान्तिकरी ! तुम्हें नमस्कार हैं । दरिद्रता का विनाश करनेवाली देवी ! तुम्हें प्रणाम हैं ।
कण्व के इसप्रकार स्तुति करनेपर उनके समाने दो रूप प्रकट हुए – ‘एक तो गंगा का मनोहर स्वरूप और दूसरी क्षुधा की भयानक मूर्ति । द्विजश्रेष्ठ कण्व ने पुन: हाथ जोडकर नमस्कार करते हुए कहा –‘देवि गोदावरी ! शुभे ! ब्राह्मी, माहेश्वरी, वैष्णवी और त्र्यम्बका – ये सब तुम्हारे ही नाम हैं । तुम्हे नमस्कार हैं । भगवान त्र्यम्बक की जटा से प्रकट होकर महर्षि गौतम का पाप नष्ट करनेवाली गोदावरी ! तुम सात धाराओं में विभक्त होकर समुद्र में मिलती हो । तुम्हें नमस्कार हैं । क्षुधादेवी ! तुम समस्त पापियों के लिये पापमयी, दुःखमयी और लोभमयी हो । धर्म, अर्थ और काम का नाश करनेवाली भी तुम्हीं हो । तुम्हें बारंबार नमस्कार हैं ।’
कण्व का यह वचन सुनकर गंगा और क्षुधा दोनों ही बहुत प्रसन्न हुई और बोलीं – ‘सुव्रत ! तुम मनोवांछित वर माँगों ।’ तब कण्व ने गंगाजी को प्रणाम करके कहा – ‘देवि ! मुझे मनके अनुकूल भोग, वैभव, आयु, धन और मोक्ष प्रदान कीजिये ।’ गंगा से यों कहकर द्विजश्रेष्ठ कण्व ने क्षुधादेवी से कहा – ‘क्षुधे ! तुम तृष्णा एवं दरिद्रतारूपिणी, अत्यंत पापमयी तथा रुक्ष स्वभाववाली हो । मेरे अथवा मेरे वंशजों के यहाँ तुम कभी न रहना । जो क्षुधातुर मनुष्य इस स्त्रोत्र से तुम्हारी स्तुति करें, उनके दारिद्रय और दुःख का नाश हो जाय ।’
मयि मद्वंशजे चापि क्षुधे तृष्णे दरिद्रिणि । याहि पापतरे रुक्षे न भुयास्त्वं कदाचन ।। अनेन स्तवेन ये वै त्वां स्तुवन्ति क्षुधातुरा: । तेषां दारिद्र्यदु:खानि न भयेयुर्वरोऽपर: ।।
जो लोग इस परम पुण्यमय तीर्थ में भक्तिपूर्वक स्नान, दान और जप आदि करें, वे धन-सम्पत्ति के भागी हों । जो तीर्थ अथवा अपने घर में इस स्त्रोत्र का पाठ करे, उसे दरिद्रता और दुःख से कभी भय न हो ।’
‘एवमस्तु’ कहकर गंगा और क्षुधा दोनों अपने-अपने स्थान को चली गयी । तबसे उस तीर्थ के तीन नाम हो गये –कान्वतीर्थ, गांगतीर्थ और क्षुधातीर्थ । नारद ! वह तीर्थ सब पापों को दूर करनेवाला और पितरों की प्रसन्नता को बढानेवाला हैं ।
गोदावरी में अहल्यासंगम नामक एक तीर्थ हैं, जो तीनों लोकों को पवित्र करनेवाला हैं । मुनिश्रेष्ठ ! उस तीर्थ की उत्पत्ति का वृतांत सुनो । पूर्वकाल की बात हैं, मैंने अत्यंत कौतूहलवश कुछ सुन्दरी कन्याओं की सृष्टि की । उनमें से एक कन्या सबसे श्रेष्ठ और उत्तम लक्षणों से युक्त थी । उसके सब अंग बड़े मनोहर तथा रूप और गुणों से सम्पन्न थे । उससमय मेरे मन में यह विचार हुआ कि कौन पुरुष इस कन्या का पालन-पोषण करने में समर्थ हैं । सोचनेपर महर्षि गौतम ही मुझे समस्त गुणों में श्रेष्ठ, तपस्वी, बुद्धिमान, समस्त शुभ लक्षणों से सुशोभित और वेड-वेदांगो ले ज्ञाता प्रतीत हुए । अत: उन्हों को मैंने वह कन्या दे दी और कहा – ‘मुनिश्रेष्ट ! जबतक यह युवती न हो जाय, तबतक तुम्हीं इसका पालन-पोषण करना । युवावस्था होनेपर पुन” इस साध्वी कन्याको मेरे पास ले आना ।’ यों कहकर मैंने गौतम को वह कन्या समर्पित कर दी । गौतम अपने तपोबल से निष्पाप हो चुके थे । उन्होंने विधिपूर्वक उस कन्याका पालन-पोषण किया और युवती होनेपर उसे वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके मेरे पास ले आये । उससमय उनके मनमें कोई विकार नहीं था । अहल्या को देखकर इंद्र, अग्नि और वरुण आदि सब देवता बारी-बारी से मेरे पास आये और कहने लगे –‘सुरेश्वर ! यह कन्या मुझे दे दीजिये ।’ इंद्र का तो उसके लिये विशेष आग्रह था । महर्षि गौतम की महत्ता, गम्भीरता और धीरता का विचार करके मुझे बड़ा विस्मय हुआ । मैंने सोचा – ‘यह सुमुखी कन्या गौतम को ही देने योग्य है और किसी को नहीं । अत: उन्हीं को दूँगा ।’ ऐसा निश्चय करके मैंने देवताओं और ऋषियों से कहा – ‘यह सुन्दरी कन्या उसी को दी जायगी, जो सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके सबसे पहले यहाँ उपस्थित हो जाय; दूसरे किसी को नहीं मिलेगी ।
मेरी बात सुनकर सब देवता अहल्या की प्राप्ति के लिये पृथ्वी की परिक्रमा करने चले गये । इसी बीचमें कामधेनु सुरभि बच्चा देने लगी । अभी बच्चेका आधा शरीर ही बाहर निकला था । उसी अवस्था में गौतम ने उसे देखा और उसी को पृथ्वीभाव से देखते हुए उसकी परिक्रमा की । साथ ही उन्हों से शिवलिंग की भी प्रदक्षिणा की । इसके बाद सोचा, सम्पूर्ण देवताओं ने अभी पृथ्वी की एक परिक्रमा भी पूरी नहीं की और मेरे द्वारा दो परिक्रमाएँ पूरी हो गयीं । ऐसा निश्चय करके ये मेरे समीप आये और मुझे प्रणाम करके बोले – ‘कमलासन ! विश्वात्मन ! आपको बारंबार नमस्कार हैं । ब्रह्मन ! मैंने सारी वसुधा की प्रदक्षिणा कर ली ।’ मैंने ध्यान के द्वारा सब बातें जानकर गौतम से कहा – ‘ब्रह्मर्षे ! तुम्हीं को यह सुन्दरी कन्या दी जाती है । वास्तव में तुमने पृथ्वी की परिक्रमा पूरी कर लीं । जो वेदों के लिये भी दुर्बोध हैं, उस धर्म का स्वरूप तुम जानते हो । जो गाय आधा प्रसव कर चुकी हो, वह सात द्विपोवाली पृथ्वी के तुल्य है । उसकी परिक्रमा कर ली जाय तो समूची पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती हैं । शिवलिंग की प्रदक्षिणा का भी यही फल है । अत: उत्तम व्रत का पालन करनेवाले गौतम ! मैं तुम्हारे धैर्य, ज्ञान और तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ ।’ यों कहकर मैंने गौतम को अहल्या सौप दी । उन दोनों का विवाह हो जानेपर देवतालोग पृथ्वी की परिक्रमा करके धीरे-धीरे आने लगे । आनेपर सबने अहल्या के साथ गौतम का विवाह हुआ देखा । इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । अंत में सब देवता स्वर्ग में चले गये, परन्तु इंद्र के मन में इससे बड़ी ईर्ष्या हुई । मैंने प्रसन्न होकर महात्मा गौतम को रहने के लिये ब्रह्मगिरी प्रदान किया, जो परम पवित्र, समस्त अभिलषित वस्तुओं को देनेवाला तथा मंगलमय हैं । मुनिश्रेष्ठ गौतम वहाँ अहल्या के साथ विहार करने लगे ।
इंद्र ने स्वर्ग में भी गौतम की पवित्र कथा सुनी । अत: मुनि को, उनके आश्रम को और उनकी सुन्दरी पत्नी को देखने के लिये वे ब्राह्मण का वेष धारण करके आये । वहाँ आनेपर उन्होंने मन में पापकी भावना लेकर अहल्या को देखा । उससमय वे अपने-आपको भी भूल गये । देशकाल की भी सुध न रही और ऋषि के शाप का भी उन्होंने भुला दिया । उनका हृदय काम के वशीभूत हो रहा था ।
एक समय महर्षि गौतम मध्यान्ह से पहले की क्रिया समाप्त करके शिष्यों के साथ आश्रम से बाहर गये । उससमय अवसर देखकर इंद्र ने अपने मनके अनुकूल कार्य किया । वे गौतम का रूप धारण करके आश्रम में आये और सर्वांगसुन्दरी अहल्या से बोले – ‘प्रिये ! मैं तुम्हारे गुणोंसे आकृष्ट हूँ । तुम्हारे रूपक स्मरण करके मेरा मन विचलित हो गया हैं । पाँव लडखडा रहे हैं ।’ यों कहकर हँसते-हँसते उन्होंने अहल्या का हाथ पकड़ लिया और आश्रम के भीतर चले गये । अहल्या ने उन्हें गौतम ही समझा । यह कोई जार पुरुष हैं – यह बात उसके ध्यान में नहीं आयी । वह इंद्र के साथ सुखपूर्वक रमण करने लगी । इतने में ही महर्षि गौतम पुन: अपने शिष्यों के साथ लौट आये । प्रतिदिन का ऐसा नियम था कि जब वे बाहर से आश्रमपर आते तब प्रियवादिनी अहल्या आगे बढकर उनका स्वागत करती, प्रिय लगनेवाली बातें कहती और अपने सदगुणों से उन्हें संतुष्ट करती थी । उस दिन अहल्या को न देखकर परम बुद्धिमान गौतम को ऐसा जान पड़ा मानो कोई बड़ी अद्भुत बात हो गयी । मुनिश्रेष्ठ गौतम द्वारपर खड़े हैं और सब लोग उनकी ओर देखते हैं । अग्निहोत्र और शाला के रक्षक तथा घरमें कामकाज करनेवाले अनुचर उन्हें देखकर बड़े विस्मय में पड़े और भयभीत होकर बोले – ‘भगवन ! यह कैसी विचित्र बात है कि आप भीतर और बाहर दोनों जगह देखे जाते हैं । अहो ! आपकी तपस्या का ही यह प्रभाव हैं कि आप अनेक रूप धारण करके विचरते हैं ।’
यह सुनकर गौतम के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ । वे सोचने लगें – आश्रम के भीतर कौन गया हैं । उन्होंने पुकारा – ‘प्रिये ! अह्ल्ये ! आज तुम मुझसे बोलती क्यों नहीं ?’ महर्षि का वचन सुनकर अहल्या ने उस जार से कहा –‘अरे ! तू कौन हैं, जो मोनिका रूप धारण करके तूने मेरे साथ यह पापकर्म किया हैं ?’ यह कहती हुई वह भय के मारे शय्या से सहसा उठकर खड़ी हो गयी । पापाचारी इंद्र भी मुनि के भय से बिलाव बन गया । अहल्या थर-थर काँप रही थी । उसके वेश-भूषा बिगड़ चुके थे । अपनी प्यारी पत्नी को कलंकित हुई देख महर्षि ने क्रोध से आकर कहा –‘तुमने यह दु:साहस कैसे किया?’ उनके इसप्रकार पुछ्नेपर देवी अह्ल्याने लज्जावश कोई उत्तर नहीं दिया । तब मुनि उस जार की खोज करने लगे । इतने में उस बिलावपर उनकी दृष्टी पड़ी । अरे ! ठीक-ठीक बता, तू कौन हैं? यदि झूठ बोलेगा तो मैं तुझे अभी भस्म कर दूँगा ।’
इंद्र हाथ जोडकर खड़ा हो गया और बोला – ‘तपोधन ! मैं शची का स्वामी इंद्र हूँ, मुझसे ही यही पाप हो गया हैं । मैंने जो कुछ कहा हैं, वह सत्य हैं । ब्रह्मन ! कामदेव के बाणों से जिनका हृदय विदीर्ण हो चूका हैं, वे कौन-सा दुष्कर्म नहीं करते । आप करुणा के सागर हैं, मुझ महापापी को क्षमा करें । साधू पुरुष अपराधीपर भी कठोरता नहीं दिखाते ।’
गौतम बोले – इंद्र ! तूने स्त्री की योनि में आसक्त होकर यह पापकर्म किया हैं, अत: मेरे शरीर में योनि के सहस्त्रो चिन्ह हो जायेंगे ।
इसके बाद मुनिने अहल्या से भी कुपित होकर कहा – ‘तू सुखी नदी हो जा ।’
अहल्या बोली – भगवन ! जो पापिनी स्त्रियाँ मनसे भी दूसरे पुरुष की कामना करती हैं, वे तथा उनके समस्त पूर्वज भी अक्षय नरकों से पड़ते हैं । आप कृपा करके मेरी बातोंपर ध्यान दें । यह इंद्र आपका रूप धारण करके मेरे पास आया था । ये सब लोग इस बातके साक्षी हैं ।
रक्षकों ने कहा – ‘ऐसी ही बात हैं । अहल्या ठीक कहती हैं ।’ मुनिने भी ध्यान के द्वारा सच्ची बात को जान लिया और शातं होकर अपनी पतिव्रता पत्नी से कहा – ‘कल्याणी ! नदी होनेपर जब तुम सरिताओं में श्रेष्ठ गौतमी गंगा से मिलोगी, उस समय पुन: अपने स्वरूप को प्राप्त कर लोगी ।’ महर्षि का वचन सुनकर पतिव्रता अहल्या ने वैसा ही किया । गौतमी गंगा से मिलनेपर पुन” उसका वही स्वरूप हो गया, जैसा मैंने बनाया था । तत्पश्चात देवराज इंद्र ने हाथ जोड़कर महर्षि गौतम से कहा – ‘मुनिश्रेष्ठ ! अपने घरपर आये हुए मुझ पापिष्ठ की रक्षा कीजिये ।’ यों कहकर इंद्र उनके चरणों में गिर पड़े । यह देख महर्षि ने कृपापूर्वक कहा – ‘पुरंदर ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम गोदावरी के तटपर जाओ और उसमें स्नान करो । इससे तुम्हारे सारे पाप क्षणभर में धुल जायेंगे । तुम्हारे शरीर में योनि के जो सहस्त्रो चिन्ह हैं, वे नेत्रों के रूप में परिणत हो जायेंगें । तुम सहस्राक्ष हो जाओंगे । नारद ! गौतमी के प्रभाव से ये दो आश्चर्यजनक बातें मैंने देखी हैं – अहल्या नदी होकर पुन: अपने स्वरूप को प्राप्त हुई और शचीपति इंद्र सहस्राक्ष हो गये । तब से वह तीर्थ अहल्या-संगम के नामसे विख्यात हुआ, उसे इंद्रतीर्थ भी कहते हैं । वह मनुष्यों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला हैं
अध्याय- 43 जनस्थान, अश्वतीर्थ, भानुतीर्थ और अरुणा-वरुणा–संगम की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – उसके बाद विश्वविख्यात जनस्थान नामक तीर्थ है, जिसका विस्तार चार योजन का है । वह स्मरणमात्र से मनुष्यों को मुक्ति देनेवाला है । पूर्वकाल की बात है, वैवस्वत मनु के वंश में जनक नामसे प्रसिद्ध एक राजा हुए । उन्होंने वरुण की पुत्री गुनार्णवा के साथ विवाह किया था । गुनार्णवा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि करनेवाली थी । जंक में भी ये ही गुण थे, अत: राजा को अपने गुणों के अनुरूप सुयोग्य भार्या मिली । विप्रवर याज्ञवल्क्य राजा जनक में पुरोहित थे । एक दिन राजाने अपने पुरोहित से पूछा – ‘द्विजश्रेष्ठ ! बड़े-बड़े मुनियों ने यह निर्णय किया है कि भोग और मोक्ष दोनों श्रेष्ठ हैं; अंतर इतना ही है कि भोग अंत में विरस हो जाता हैं और मुक्ति नित्य एवं निर्विकार है । अत: भोगसे भी मुक्ति को ही श्रेष्ठ माना गया हैं । आप बतायें, भोगसे भी मुक्ति की प्राप्ति कैसे होती है ? सब प्रकार की आसक्तियों का त्याग करने से जो मुक्ति प्राप्त होती हैं, वह तो अत्यंत दुःखसाध्य हैं; अत: जिस उपाय से अत्यंत सुखपूर्वक मुक्ति हो सके, वह बताइये ।
याज्ञवल्क्य बोले – राजन ! साक्षात भगवान वरुण तुम्हारे गुरुजन, श्वशुर और हितकारी हैं । उन्हीं के पास चलकर पूछो । वे तुम्हें हितका उपदेश देंगे ।
तदनंतर याज्ञवल्क्य और जनक दोनों राजा वरुण के पास गये और वहाँ उन्होंने मुक्ति का मार्ग पूछा ।
वरुण ने कहा – दो प्रकार से मुक्ति प्राप्त होती हैं – एक तो कर्म करनेसे और एक कर्म न करनेसे । वेदमें यह मार्ग निश्चित किया गया हैं कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चारों पुरुषार्थ कर्म से बंधे हुए हैं । नृपश्रेष्ठ ! कर्मद्वारा सब प्रकार के साध्यों की सिद्धि होती है, इसलिये मनुष्यों को सब तरह से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिये । इससे वे इस लोक में भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं । अकर्म से कर्म पवित्र हैं । कर्म भिन्न-भिन्न आश्रमों और वर्णों के अनुसार अनेक प्रकार के होते हैं । वर्णों और आश्रमों में भी चार आश्रम कर्म के द्वारा माने गये हैं । उनमें भी गृहस्थाश्रम अधिक पुण्यदायक हैं । उससे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो सकते हैं ।
अकर्मण : कर्म पुण्यं कर्म चाप्याश्रमेषु च । जात्याश्रितं च राजेन्द्र तत्रापि श्रृणु धर्मवित ।। आश्रमाणि च चत्वारि कर्मद्वाराणि मानद । चतुर्णामाश्रमाणां च गार्हस्थ्यं पुण्यदं स्मृतं ।।
गृहस्थ-आश्रम में भोग की प्राप्ति तो स्वाभाविक हैं और मोक्षकी प्राप्ति निष्काम धर्म का अनुष्ठान करने से होती है ।
यह सुनकर राजा जंक और बुद्धिमान याज्ञवल्क्य ने वरुण का पूजन किया और पुन: यह बात पूछी – ‘सुरश्रेष्ठ ! आपको नमस्कार है । आप सर्वज्ञ हैं । बताइये, कौन-सा देश और तीर्थ ऐसा हैं जो भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं ?
वरुणने कहा – इस पृथ्वीपर भारतवर्ष और उसमें भी दंडकवन पुण्यदायक है । इसमें किया हुआ शुभ कर्म मनुष्यों को भोग तथा मोक्ष दोनों प्रदान करता हैं । तीर्थों में गौतमी गंगा श्रेष्ठ हैं । वे मुक्तिदायिनी मानी गयी हैं । वहाँ यज्ञ और दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होगी ।
वरुणका यह उपदेश सुनकर याज्ञवल्क्य और जनक उनकी आज्ञा ले अपनी पूरी में लौट आये, फिर गंगातीर्थपर जाकर राजा जनक ने अश्वमेध आदि यज्ञ किये और विप्रवर याज्ञवल्क्य ने उन यज्ञों में आचार्य का कार्य किया । गौतमी गंगा के तटपर यज्ञ करने से राजा को मोक्ष की प्राप्ति हुई । तत्पश्चात जनकवंश के बहुत-से राजा क्रमश: वहाँ आकर यज्ञ करते और गोदावरी को कृपासे मोक्ष के भागी होते रहे । तभीसे यह तीर्थ जनस्थान के नामसे विख्यात हुआ । जनकों का यज्ञस्थान होनेसे उसका नाम जनस्थान पड गया । वहाँ स्नान, दान और पितरों का तर्पण करने से तथा उस तीर्थ का चिंतन करने, वहाँ जाने और भक्तिपूर्वक उसका सेवन करने से मुनष्य सब अभिलषित वस्तुओं को पाता और मोक्ष का भागी होता है ।
अरुणा और वरुणा नामकी दो परम पवित्र नदियाँ हैं । उन दोनों का गोदावरी में संगम हुआ हैं, जो बहुत ही पवित्र तीर्थ हैं । उसकी उत्पत्ति की कथा सब पापों का नाश करनेवाली हैं । उसे बताता हूँ, सुनो ! महर्षि कश्यप के जेष्ठ पुत्र आदित्य (सूर्य) समस्त लोकों में विख्यात हैं । वे तीनों लोकों के नेत्र हैं । उनकी किरणें अत्यंत दुस्सह हैं । भगवान् सूर्य के रथ में सात घोड़े जूते होते हैं । सूर्यदेव सम्पूर्ण लोकोंद्वारा पूजित हैं । उनकी पत्नी का नाम उषा हैं । उषा विश्वकर्मा की पुत्री और त्रिभुवन की अद्वितीय सुन्दरी हैं । उसे अपने स्वामी के तीव्र तापका सहन नहीं तो पाता था । वह सदा इसी चिंता में पड़ी रहती कि ‘मुझे क्या करना चाहिये ?’ उषा के दो बुद्धिमान पुत्र थे – वैवस्वत मनु और यम । एक कन्या भी थी, जो परम पवित्र यमुना नदी के रूप में विख्यात हुई । एक दिन उषाने अपने ही समान रूपवाली अपनी छाया उत्पन्न की और उससे कहा – ‘तू मेरी-ही-जैसी होकर मेरी आज्ञा से पति की सेवा तथा मेरे पुत्रों का पालन कर । मैं जबतक लौट न आऊँ , तबतक तुम्हीं पति की प्रेयसी बनकर रहो; यह रहस्य किसीको न बताना । मेरी संतानोंपर भी यह भेद प्रकट न होने पाये ।’ छाया ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उषा की आज्ञा स्वीकार कर ली और उषा घर से निकल गयी । उसने तपस्या के लिये उत्तरकुरु नामक देश को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर उसने घोड़ी का रूपधारण करके कठोर तपस्या आरम्भ की । जब सूर्यदेव को इसका पता लगा, तब वे भी घोड़े का रूपधारण करके उसके पास गये । पतिव्रता उषा परपुरुष की आशंका से भागकर भारतवर्ष में गौतमी के तटपर आयी । वहाँ उसका पति के साथ समागम हुआ, जिससे अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई । वह स्थान अश्वतीर्थ, भानुतीर्थ और पंचवटी आश्रम के नामसे विख्यात हुआ । तापी और यमुना दोनों सुर्यकी कन्याएँ थीं । वे गौतमी- तटपर अपने पितासे मिलने के लिये अरुणा-वरुणा नामक नदियों के रूपमें आयी थीं । उन दोनों का जहाँ गंगा में संगम हुआ हैं, वह बहुत उत्तम तीर्थ हैं । उसमें भिन्न-भिन्न देवताओं और तीर्थों का पृथक-पृथक समागम हुआ है । उक्त संगम में सत्ताईस हजार तीर्थों का समुदाय हैं । वहाँ किया हुआ स्नान और दान अक्षय पुण्य देनेवाला हैं । नारद ! उस तीर्थ के स्मरण, कीर्तन और श्रवण से भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो धर्मवान और सुखी होता है ।
अध्याय- 44 गारुडतीर्थ और गोवर्धनतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! गारुड नामक तीर्थ सब विघ्नों की शान्ति करनेवाला हैं । उसके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, ध्यान देकर सुनो । शेषनाग के एक महाबली पुत्र था, जो मणिनाग के नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसे सदा गरुड़ का भय बना रहता था, अत: उसने अपनी भक्ति के द्वारा भगवान शंकर को संतुष्ट किया । प्रसन्न होनेपर भगवान महेश्वर ने कहा – ‘नाग ! कोई वर माँगों ।’ नागने कहा – ‘प्रभो ! मुझे गरुड़ से अभय-दान दीजिये ।’ भगवान् शिव ने कहा – ‘ऐसा ही होगा । तुम्हें गरुड़ से भय न हो ।’ वरदान पाकर मणिनाग गरुड़ से निर्भय हो बाहर निकला । वह क्षीरसागर के समीप, जहाँ भगवान विष्णु शयन करते हैं, इधर-उधर विचरने लगा । जहाँ गरुड निवास करते थे, उस स्थानपर भी वह जाया करता । गरुड ने उस नाग को निर्भय विचरते देख पकड़ लिया उअर अपने घरमें लाकर डाल दिया ।
इसी बीचमें नंदी ने जगदीश्वर भगवान शिव से कहा – ‘देवेश्वर ! अब मणिनाग नहीं आता हैं । जान पड़ता हैं गरुड ने उसे खा लिया या बाँध रखा है । यदि वह जीवित होता तो यहाँ आये बिना न रहता ।’ नंदी की बात सुनकर भगवान् शिव ने नाग की अवस्था को जान लिया और कहा – ‘वह नाग गरुड ने घरमें बँधा पड़ा है । तुम शीघ्र जाकर जगदीश्वर भगवान् विष्णु की स्तुति करो और गरुड के द्वारा बंधन में डाले हुए नाग को मेरे कहने से ले आओं ।’ प्रभु की बात सुनकर नंदी स्वयं ही लक्ष्मीपति के पास उपस्थित हुए और भगवान नारायण ने प्रसन्न होकर गरुड़ से कहा – ‘विनतानंदन ! मेरी बात मानकर नंदी को वह नाग लौटा दो ।’ गरुड़ ने नाग देना स्वीकार नहीं किया और गर्व से कहा – मैं आपका भृत्य हूँ; मैं नाग को लाया, आप उसे नंदी को दे रहे हैं । स्वामी तो सेवकों को दिया करते हैं, परन्तु आप तो मेरी प्राप्य वस्तुको छीन रहे हैं । मेरी शक्ति आप जानते ही हैं । मेरे ही बलसे तो आपने संग्राम में दैत्योंपर विजय प्राप्त की है ।’
भगवान् विष्णु ने गरुड़ की बात सुनकर सबके सामने हँसकर कहा – ‘पक्षिराज ! ठीक है, तुम्हारे ही बलसे मैंने असुरोंपर विजय पायी हैं ।’ फिर भगवान ने क्रोध न करके कहा – ‘गरुड़ ! मैं मानता हूँ तुममें विलक्षण शक्ति हैं; पर तुम मेरी इस कनिष्ठ अँगुली को तो वहन करो ।’ इतना कहकर भगवान् ने अपनी अँगुली गरुड के मस्तकपर रख दी । गरुड़ अंगुली का भार सह नहीं सके । तब गरुड ने दीनभाव से लज्जित होकर हाथ जोडकर प्रार्थना की और कहा – ‘मैं आपका अपराधी सेवक हूँ । मेरा परित्राण कीजिये ।’ फिर उन्होंने माता लक्ष्मी से प्रार्थना की । लक्ष्मीजी ने कृपाकुल होकर जनार्दन से कहा – ‘नाथ ! विपन्न भृत्य गरुड़ की रक्षा कीजिये ।’ तब भगवान ने नंदी से कहा – ‘नन्दिकेश्वर ! तुम गरुड के साथ ही नाग को महादेवजी के पास ले जाओ ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर नंदी गरुड और नाग के साथ धीरे-धीरे शंकरजी के पास गये और सब समाचार उन्हें कह सुनाया ।
तब शंकरजी ने गरुड से कहा – ‘महाबाहो ! तुम लोकपावनी गौतमी गंगा के पास जाओ । वे समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली हैं । उस शांतिमयी सरिता में स्नान करने से तुम्हें समस्त इच्छित वस्तुएँ सौगुनी अथवा सहस्त्रगुनी होकर मिलेंगी । गरुड ! जो सब प्रकार के पापों से संतप्त हैं, दुर्दैव से जिनका उद्योग नष्ट हो गया हैं, उन प्राणियों के लिये मनोवांछित फल देनेवाली गोदावरी नदी ही शरण हैं ।’ भगवान् शिव की यह बात सुनकर गरुड प्रणाम करके चले गये । गोदावरी के तटपर पहुँचकर उन्होंने जल में स्नान किया और भगवान् शिव तथा विष्णु के चरणों में मस्तक झुकाया । फिर उनमें पूर्ववत वेग आ गया और वे उडकर भगवान् विष्णु के समीप चले गये । तबसे वह समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देंनेवाला तीर्थ ‘गारुडतीर्थ’ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वत्स नारद ! मनुष्य मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए वहाँ स्नान आदि जो भी कर्म करता हैं, वह सब अक्षय तथा शिव और विष्णु को प्रिय लगनेवाला होता हैं ।
उसके आगे सब पापों का नाश करनेवाला गोवर्धनतीर्थ हैं । वह पितरों के लिये पुण्यजनक तथा स्मरणमात्र से पाप दूर करनेवाला है । नारद ! मैंने उसका प्रभाव प्रत्यक्ष देखा हैं । पूर्वकाल में जाबालि नामसे प्रसिद्ध एक किसान ब्राह्मण रहता था । वह दोपहर हो जानेपर भी हल से बैलों को खोलता नहीं था । उनके दोनों बगल में और पीठपर चाबुक मारता रहता था । उसके दोनों बैल सदा आँखों से आँसू बहाते रहते थे । एक दिन कामधेनु गौ जगन्माता सुरभि ने नंदी से सब हाल कहा । नंदी ने भी खिन्न होकर भगवान् शंकर को सब बातें बतायी । तब शंकरजी ने नंदी से कहा – ‘तुम्हारी प्रत्येक बात सिद्ध हो ।’
महादेवजी की यह आज्ञा पाकर नंदी ने समस्त गोजाति को अपने में समेत लिया । स्वर्गलोक और मर्त्यलोक की समस्त गौएँ अदृश्य हो गयीं । तब देवताओं ने मेरे पास आकर कहा – ‘भगवन ! गौओं के बिना जीवन नही रह सकता ।’ उस समय मैंने देवताओं से कहा – ‘जाओ, भगवान् शंकर से याचना करो ।’ तदनंतर उन्होंने भगवान् शंकर की स्तुति करके उनसे सब हाल कहा । महादेवजी ने भी देवताओं को उत्तर दिया – ‘इस विषय में नंदी जानते हैं ।’ तब सब देवता नंदिकेश्वर के पास जाकर बोले – ‘हमें जगत का उपकार करनेवाली गौएँ दीजिये ।’ नंदी बोले – ‘आपलोग गो-यज्ञ कीजिये, तभी दिव्य और मानस गौएँ प्राप्त होंगी ।’ तत्पश्चात गौतमी गंगा के तटपर देवताओं ने गोयज्ञ का आयोजन किया । फिर वहाँ से गौएँ बढने लगीं । तभीसे वह तीर्थ ‘गोवर्धन’ नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह देवताओं की प्रीति बढ़ानेवाला हैं । मुनिश्रेष्ठ ! वहाँ किया हुआ केवल स्नान भी सहस्त्र गो-दानों का फल देनेवाला हैं ।
अध्याय- 45 श्वेततीर्थ, शुक्रतीर्थ और इंद्रतीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! श्वेततीर्थ तीनों लोकों में विख्यात हैं । उसके श्रवणमात्र से मनुष्य सब पापों से छुटकारा पा जाता हैं । पूर्वकाल में श्वेत नामके एक ब्राहण थे, जो महर्षि गौतम के प्रिय सखा थे । वे गोदावरी के तटपर रहकर अतिथियों के स्वागत-सत्कार में लगे रहते और मन-वाणी तथा क्रियाद्वारा भगवान् शिवका भजन करते थे । वे सदा भगवान सदाशिव की पूजा और ध्यान करते रहते थे । शिव के भजन में ही उनकी आयु पूरी हो गयी । तब यमराज के दूत उन्हें ले जाने के लिये आये, परन्तु नारदजी ! वे ब्राह्मण-देवता के घरमें प्रवेश न कर सके । जब ब्राह्मण की मृत्यु का समय व्यतीत हो गया, तब चित्रकने मुर्त्युसे पूछा –‘मृत्यों ! श्वेतका जीवन समाप्त हो चूका हैं, वह अबतक क्यों नहीं आया ? तुम्हारे दूत भी अभीतक नहीं लौटे । ऐसा होंना उचित नहीं ।’ यह सुनकर मृत्यु को बड़ा क्रोध हुआ और वे स्वयं ही श्वेत के घरपर पधारे । उनके दूत भयभीत होकर बाहर ही खड़े थे । उन्हें देखकर मृत्युने पूछा – ‘दूतो ! यह क्या बात हैं ?’ दूत बोले – ‘श्वेत भगवान् शिवके द्वारा सुरक्षित हैं । हम उनकी और आँख उठाकर देख भी नहीं सकते । जिनके ऊपर भगवान् शंकर प्रसन्न हो जायँ उन्हें भय कैसा ।’
तब मृत्युने अपना फंदा हाथमें लेकर स्वयं ही ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया । ब्राह्मण तो भक्तिपूर्वक भगवान शिव की पूजा कर रहे थे । उन्हें न तो मृत्युके आनेका पता था और न यमदूतों के । श्वेत के समीप पाशधारी मृत्यु को खड़ा देख दंडधारी भैरव ने विस्मित होकर पूछा – ‘मृत्युदेव ! यहाँ क्या देखते हो ?’ मृत्युने उत्तर दिया – ‘मैं श्वेत को ले जानेके लिये यहाँ आया हूँ, अत: इन्हीं को देखता हूँ ।’ भैरव ने कहा –‘ लौट जाओ ।’ मृत्युने श्वेतप्र अपना फंदा फेंका । यह देखकर भैरव कुपित हो उठे । उन्होंने शिव के दिये हुए दंड से मृत्युपर गहरी चोट की । मृत्युदेवता पाश हाथ में लिये हुए ही धरतीपर गिर पड़े । मृत्यु को मारा गया देख यमदूत भाग गये । उन्होंने मृत्यु के वध का समाचार यमराज से कहा । यह सुनकर महिषवाहन यमराज को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने अधिक बलवान चित्रगुप्त, अपनी रक्षा करनेवाले यमदंड, महिष, भूत, वेताल तथा आधि-व्याधियों को शीघ्रतापूर्वक चलने का आदेश दे तुरंत वहाँ से प्रस्थान किया । अपने साथियोंसहित यमराज उस स्थानपर पहुँचे,जहाँ द्विजश्रेष्ठ श्वेत भगवान् शिव की आराधना में संलग्न थे ।
उस समय यमराज तथा भगवान् शिव के पार्षदों में अत्यंत भयानक संग्राम छिड़ गया । कार्तिकेय ने स्वयं ही शक्ति सँभाली और यमराज के दूतों को विदीर्ण कर डाला । साथ ही दक्षिण दिशाके स्वामी अत्यंत बलवान यमराज को भी मौत के घात उतार दिया । मरने से बचे हुए यमदूतों ने भगवान् सूर्य को यह सब समाचार कह सुनाया । यह अद्भुत बात सुनकर सूर्य समस्त देवताओं और लोकपालों के साथ मेरे समीप आये । फिर मैं, भगवान् विष्णु, इंद्र, अग्नि, वरुण तथा अन्य बहुत से देवता यमराज के पास गये । वे गोदावरी के तटपर मरे पड़े थे । यमराज को सेनासहित मरा देख देवता भयसे व्याकुल हो उठे और हाथ जोडकर बारंबार भगवान शिवकी आराधना करने लगे ।
देवता बोले – भगवन ! आपको अपने भक्त सदा ही प्रिय हैं तथा आप दुष्टोंका वध किया करते हैं । संसार के आदि स्त्रष्टा नीलकंठ ! आपको नमस्कार हैं, नमस्कार हैं । ब्रह्मप्रिय ! आपको नमस्कार हैं ।, देवप्रिय ! आपको नमस्कार हैं । विप्रवर श्वेत आपके भक्त हैं । इनकी आयु क्षीण हो जानेपर भी यम आदि सब लोग उन्हें ले जानेमें समर्थ न हो सके । आपको अपने भक्तोपर ऐसा महान प्रेम देखकर हम सबको बड़ा संतोष हुआ । नाथ ! सचमुच ही आप बड़े भक्तवत्सल हैं । जो लोग आप-जैसे दयालु परमेश्वर की शरण में आ गये हैं, उन्हें यमराज भी नहीं देख सकता । यह जानकर ही सब लोग पराभक्ति के साथ आपका भजन करते हैं । शंकर ! आप ही इस जगत के स्वामी हैं । क्या यह बात आप भूल गये ? आपके बिना यहाँ व्यवस्था करने में कौन समर्थ हो सकता हैं ।
इसप्रकार स्तुति करनेवाले देवताओं के समक्ष भगवान शंकर स्वयं प्रकट हो गये और बोले – ‘देवताओं ! तुम्हें क्या दूँ ?’
देवताओं ने कहा – देवेश्वर ! ये सूर्य के पुत्र धर्म हैं, जो समस्त देहधारियों का नियंत्रण करते हैं । इन्हें धर्म और अधर्म की व्यवस्था में नियुक्त किया गया हैं । ये लोकपाल हैं । आपराधि और पापी नहीं हैं । अत: इनका वध नहीं होना चाहिये । इनके बिना ब्रह्माजीका कोई कार्य नहीं चल सकता । इसलिए सेना और वाहनोंसहित यमराज को जीवित कर दीजिये । नाथ ! महात्माओं के सामने की हुई प्रार्थना सफल ही होती हैं । वह कभी व्यर्थ नहीं जाती ।
भगवान् शिव बोले – देवताओं ! मेरी बात सुनो – जो मेरे तथा भगवान् विष्णु के भक्त हैं, गौतमी गंगा का निरंतर सेवन करनेवाले हैं, उनके स्वामी हमलोग स्वयं ही हैं । मृत्यु का उनके ऊपर कोई अधिकार नहीं हैं । यमराज को तो कभी उनकी बाततक नहीं चलानी चाहिये । व्याधि-आधि के द्वारा उनका पराभव करना कदापि उचित नहीं हैं । जो मेरी शरण में आ जाते हैं, वे तत्काल मुक्त हो जाते हैं । यमराज को तो चाहिये अपने अनुचरोंसहित उन्हें प्रणाम करें ।
‘बहुत अच्छा’ कहकर देवताओं ने भगवान् शिव की बात का अनुमोदन किया । तब भगवान् शिव ने अपने वाहन नंदी से कहा – ‘तुम गौतमी का जल लेकर मरे हुए यमराज आदि के शरीरपर छिडक दो ।’ आज्ञा पाकर नंदी ने यम आदि सब लोगोंपर गोदावरी का जल छिड़का । इससे वे जीवित होकर उठ बैठे और दक्षिण दिशाकी ओर चले गये । गौतमी के उत्तर-तटपर विष्णु आदि सब देवता ठहर गये और देवाधिदेव महेश्वर की पूजा करने लगे । उससमय वहाँ एक लाख बारह हजार तीर्थ एकत्रित हुए थे । इसीप्रकार गोदावरी के दक्षिण-तटपर तीस हजार तीर्थ एकत्रित हुए । यही श्वेततीर्थ का पवित्र उपाख्यान हैं । जहाँ मृत्यु देवता मरकर गिरे थे, वह स्थान मृत्युतीर्थ कहलाता हैं । वहाँ किया हुआ स्नान और दान सब पापों का नाश करनेवाला हैं । उसके माहात्म्य का श्रवण, पठन और स्मरण अंत:करण के मलको धोनेवाला और सब लोगों को भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हैं ।
इसके आगे शुक्रतीर्थ हैं, जो मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला हैं । वह सब पापों को शांत करनेवाला तथा सब प्रकार की व्याधियों का नाशक है । अंगिरा और भृगु – ये दो परम धर्मात्मा ऋषि हुए हैं । इन दोनों के दो-दो पुत्र हुए, जो बड़े ही विद्वान और रूप तथा बुद्धि से सुशोभित थे । अंगिरा के पुत्र का नाम था जीव और भृगु के पुत्र का नाम था कवि । ये दोनों अपने माता-पिता के अधीन रहते थे । हब दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार हो गया, तब उनके पिता परस्पर कहने लगे – ‘हम दोनों में से एक ही इन दोनों पुत्रों का शिक्षक हो । इससे एक ही शासन करेगा और दूसरा सुख से बैठा रहेगा ।’ यह सुनकर अंगिरा ने कहा – ‘मैं कवि को भी अपने पुत्र के समान ही पढ़ाऊँगा । वह सुखपूर्वक मेरे यहाँ रहे ।’
अंगिरा की बात सुनकर भृगु ने कहा –‘ठीक हैं’ और उन्होंने अपने पुत्र शुक्र को अंगिरा की सेवामे सौंप दिया । परन्तु अंगिरा उन दोनों बालकों में विषम बुद्धि रखते थे । इसलिए दोनों को पृथक-पृथक पढाते ते । बहुत दिनोंतक किसी प्रकार चलता रहा, तब एक दिन शुक्र ने कहा – ‘गुरुदेव ! आप मुझे प्रतिदिन विषमभाव से पढ़ाते हैं । गुरुओं के लिये यह उचित नहीं कि वे पुत्र और शिष्य में भेदभाव समझें । जो लोग विषम बुद्धि रखते हैं, उनके पाप की कोई गणना नहीं हैं । आचार्य ! अब मैंने आपको अच्छी तरह समझ लिया । आपको बारंबार नमस्कार करता हूँ । अब दूसरे किसी गुरु के यहाँ जाऊँगा । मुझे जाने की आज्ञा दीजिये ।’
इस प्रकार गुरु और बृहस्पति से पूछकर उनकी आज्ञा ले शुक्त चले गये । उन्होंने सोचा अब पूर्ण विद्या प्राप्त करके ही पिता के पास चलूँ । किन्तु किससे पूछूँ, कौन सबसे श्रेष्ठ गुरु हो सकता हैं ? इन्हीं सब बातों का विचार करते हुए शुक्र ने महाप्राज्ञ गौतम के पास जाकर पूछा – ‘मुनिश्रेष्ठ ! बताइये, कौन मेरा गुरु हो सकता है ? जो तीनों लोकों का गुरु हो, उसीसे पास मैं जाऊँगा ।’
गौतम ने कहा – जगद्गुरु भगवान शंकर ही गुरु होने योग्य हैं ।
शुक्रने पूछा – मैं कहाँ रहकर शंकरजी की आराधना करूँ ?
गौतम बोले – गौतमी गंगा में स्नान करके पवित्र हो स्तोत्रोंद्वारा भगवान् शंकर को संतुष्ट करो । संतुष्ट होनेपर वे जगदीश्वर तुम्हें विद्या प्रदान करेंगे ।
गौतम के कहनेसे शुक्र गोदावरी के तटपर गये और वहाँ स्नान करके पवित्र हो भगवान शिव की स्तुति करने लगे ।
शुक्र बोले – प्रभो ! मैं बालक हूँ । मेरी बुद्धि बालक की ही है और आप बालचंद्रमा को मस्तकपर धारण करनेवाले हैं । मुझे आपकी स्तुति करने का कुछ भी ज्ञान नहीं हैं । केवल आपको नमस्कार करता हूँ । गुरुने मुझे त्याग दिया हैं । मेरा कोई सुह्रद अथवा सखा नही हैं । आप ही सब प्रकार से मेरे प्रभु हैं । जगन्नाथ ! आपको नमस्कार हैं । आप गुरुवालों के भी गुरु और बड़ों के भी बड़े है । मैं छोटा बच्चा हूँ । मुझपर कृपा कीजिये । जगन्मय ! आपको नमस्कार हैं । सुरेश्वर ! मैं विद्या के लिये आपकी शरण में आया हूँ । मुझे आपके स्वरुप का कुछ भी ज्ञान नहीं है । आप स्वयं ही कृपा करके मेरी ओर देखें । लोकसाक्षी शिव ! आपको नमस्कार हैं ।
शुक्र के इसप्रकार स्तुति करनेपर भगवान शंकर प्रसन्न होकर बोले – ‘वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम इच्छानुसार वर माँगों, भले ही वह देवताओं के लिये भी दुर्लभ क्यों न हो ।’ उदारबुद्धि कविने भी हाथ जोडकर कहा – ‘नाथ ! ब्रह्मा आदि देवताओं तथा ऋषियों को भी जो विद्या नहीं प्राप्त हुई हो, उसके लिये मैं याचना करता हूँ । आप ही मेरे गुरु और देवता हैं ।’
ब्रह्माजी कहते हैं – शुक्रने जब इसप्रकार प्रार्थना की, तब देवश्रेष्ठ भगवान शिव ने उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की, जिसका ज्ञान देवताओं को भी नहीं था । साथ ही उन्होंने लौकिकी, वैदिकी तथा अन्यान्य विद्याएँ भी दी । जब साक्षात भगवान् शंकर ही प्रसन्न हो गये थे, तब क्या बाकी रह जाता । वह महाविद्या पाकर शुक्र अपने पिता और गुरु के पास गये । अपनी विद्यासे पूजित होकर वे दैत्यों के गुरु हुए । किसी समय कुछ कारणवश बृहस्पति से पृथक-पृथक देवताओं ने उस विद्याको ग्रहण किया । गौतमी ने उत्तरतटपर, जहाँ भगवान् महेश्वर की आराधना करके शुक्र ने विद्या पायी थी, वह स्थान शुक्रतीर्थ कहलाता हैं । मृत्यु-संजीवनीतीर्थ भी उसका नाम हैं । वह आयु और आरोग्य की वृद्धि करनेवाला हैं । वहाँ स्नान, दान आदि जो कुछ भी शुभ कर्म किया जाता हैं, वह अक्षय पुण्य देनेवाला होता है ।
शुक्रतीर्थ के बाद इंद्रतीर्थ हैं । वह ब्रह्महत्या का विनाश करनेवाला हैं । उसके स्मरणमात्र से पापराशि तथा क्लेशसमुदाय का नाश हो जाता हैं । नारद ! पूर्वकाल की बात है । जब इंद्र ने वृत्रासुरका वध किया, तब ब्रह्महत्या उनके पीछे लग गयी । उसे देखकर इंद्र को बड़ा भय हुआ । वे इधर-उधर भागने लगे । किन्तु जहाँ-जहाँ वे जाते, ब्रह्महत्या उनका पीछा नहीं छोडती थी । तब वे एक बहुत बड़े सरोवर में प्रवेश करके कमल की नालमें छिप गये और उसमें तंतुकी भांति होकर रहने लगे । ब्रह्महत्या भी उस सरोवर के तटपर एक हजार दिव्य वर्षोतक बैठी रही । इस बीच में सब देवता बिना इंद्र के हो गये थे । उन्होंने आपस में सलाह की, किसप्रकार इंद्र प्रकट हों ? उससमय मैंने देवताओं से कहा – ‘ब्रह्महत्या के लिये दूसरा स्थान दे दिया जाय और इंद्र को शुद्ध करने के लिये गोदावरी नदी में नहलाया जाय । उसमें स्नान करनेसे इंद्र पुन: शुद्ध हो जायेंगे ।’
इंद्र का प्रथम अभिषेक नर्मदा-तटपर हुआ । वहाँ उनके मलका शोधन होने के कारण उस देश का नाम मालव पड़ा । तत्पश्चात वे गौतमी गंगा के तटपर लाये गये । वहाँ पुण्या नदी के जलमें गौतमी का जल लाकर उसीसे समस्त देवता, ऋषि, मैं, विष्णु, वसिष्ठ, गौतम, अगस्त्य, अत्रि, कश्यप, अन्यान्य ऋषि, यक्ष तथा पन्नगोंने इंद्र का अभिषेक किया । तत्पश्चात मैंने उन्हें अपने कमण्डलुके जलसे भी अभिषिक्त किया । इसप्रकार वहाँ ‘पुण्या’ और ‘सिक्ता’ दो नदियाँ हो गयी और वे दोनों गौतमी गंगा में आकर मिलीं । उन दोनों के संगम मुनियोंद्वारा सेवित विख्यात तीर्थ बन गये । तबसे उस तीर्थ को पुण्यासंगम कहते हैं । सिक्तासंगम का ही नाम इंद्रतीर्थ हो गया । वहाँ सात हजार मंगलमय तीर्थं निवास करने लगे । उन तीर्थों में तथा विशेषत: संगम के जल में जो स्नान-दान किया जाता हैं, वह सब अक्षय जानना चाहिये । इसमें अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है । जो इस पवित्र उपाख्यान को पढ़ता अथवा सुनता हैं, वह मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा होनेवाले समस्त पापों से मुक्त हो जाता हैं ।
अध्याय- 46 पौलस्त्य, अग्नि और ऋणमोचन नामक तीर्थों का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – उसके आगे पौलस्त्य तीर्थ हैं, जो मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला है । मैं उसके प्रभाव का वर्णन करता हूँ – वह छिने हुए राज्य की भी प्राप्ति कराता हैं । विश्रवा मुनिके जेष्ठ पुत्र कुबेर, जो ऋद्धि-सिद्धि से सम्पन्न और उत्तर दिशाके स्वामी हैं, पहले लंका के राजा थे । उनके सौतेले भाई रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण बड़े बलवान थे । यद्यपि वे भी विश्रवा के ही पुत्र थे, तथापि राक्षसपुत्री कैकसी के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण राक्षस कहलाते थे । वे तीनों भाई तपस्या करने के लिये वनमें गये । वहाँ उन्होंने बड़ी भारी तपस्या की और मुझसे वरदान प्राप्त किया । तदनंतर अपने मामा मारीच के तथा नाना और माता के कहने से रावण ने कुबेर से लंका की राजधानी अपने लिये माँगी । इस बातको लेकर दोनों भाइयों में भारी शत्रुता हो गयी । फिर तो देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध हुआ । रावण ने अपने बड़े भाई कुबेर को युद्ध में हराकर पुष्पक विमान और लंकापुरीपर अधिकार जमा लिया तथा तीनों लोकों में घोषणा करा दी कि जो मेरे भाई को आश्रय देगा, वह मेरे हाथ से मारा जायगा । कुबेर को कही आश्रय न मिला । तब वे अपने पितामह पुलस्त्य के पास गये और उन्हें प्रणाम करके बोले –‘मेरे दुष्ट भ्राता ने मुझे लंकासे निकाल दिया । बताइये, अब क्या करूं ? अब मेरे लिए दैव और तीर्थ ही आश्रय या शरण हैं ।’ पौत्र की यह बात सुनकर पुलस्त्यने कहा –‘बेटा ! तुम गौतमी गंगा में जाकर भगवान् शंकर की स्तुति करो । वहाँ गंगा के जल में रावण का प्रवेश नहीं हो सकता । अत: मेरे साथ वहीँ चलकर कल्याणमयी सिद्धि प्राप्त करो ।’
कुबेरने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की और पत्नी, पिता, माता तथा वृद्ध महर्षि पुलस्त्य के साथ गौतमी गंगा के तटपर गये । वहाँ गंगा में स्नान करके पवित्र हो कुबेर भोग-मोक्ष के दाता देवदेवेश्वर भगवान शिव की स्तुति करने लगे – ‘शम्भो ! आप ही इस चराचर जगत के स्वामी हैं, दूसरा कोई नहीं । जो लोग आपकी भी अवहेलना करके मोहवश धृष्टता करते हैं , वे शोक के ही योग्य हैं । आप अपनी आठ मूर्तियोंद्वारा सम्पूर्ण जगतका भरण-पोषण करते हैं । आपकी आज्ञा से ही सब लोग चेष्टा करते हैं, तथापि विद्वान पुरुष ही आपकी महिमा को कुछ-कुछ जान पाते हैं । अज्ञानी पुरुष आप पुरातन प्रभु को कभी नहीं जान सकता । एक दिन जगदम्बा पार्वती ने अपने शरीर के मैल से एक पुतला बनाकर रख दिया और परिहास में आपसे कहा – ‘देव ! यह आपका शूरवीर पुत्र हैं ।’ उसपर आपकी कृपादृष्टि हुई और विघ्नों का राजा गणेश बन गया । आहों, महेश्वर की दृष्टी का कितना अद्भुत प्रभाव हैं । जब कामदेव भस्म हो गया और रति उसके लिये विलाप करने लगी, तब दयामयी माता पार्वती ने आँसू बहाते हुए आपकी ओर देखकर कहा – ‘भगवान ! इन बेचारों का दाम्पत्य-सुख छिन गया ।’ तब आपने उसपर भी कृपा की । कामदेव मनोभव हो गया – वह रति की मनोभूमि में प्रकट हो गया । इसप्रकार उमासहित महादेवजी की कृपा से रतिने पूर्ण सौभाग्य प्राप्त किया ।’
इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् शंकर कुबेर के सामने प्रकट हुए । उन्होंने वर माँगने के लिये कहा, किन्तु हर्षातिरेक के कारण कुबेर के मुख से कोई बात नहीं निकली । इसीसमय आकाशवाणी हुई । उसने मानो पुलस्त्य, विश्रवा और कुबेर के हार्दिक अभिप्राय को जानकर यह कल्याणमय वचन कहा – ‘भगवन ! ये लोग धनका प्रभुत्त्व प्राप्त करना चाहते हैं । इनके लिये भविष्य भूत-सा बन जाय । जिस वस्तु को ये किसीके लिये देना चाहें, वह दी हुई के समान हो जाय तथा जो वस्तु ये स्वयं प्राप्त करना चाहें, वह पहले ही इनके सामने प्रस्तुत हो जाय । ये भगवान् शंकर की आराधना करके इस बात की अभिलाषा रखते हैं कि हमारे शत्रु परास्त हो, दुःख दूर हो जाय, दिक्पाल का पद प्राप्त हो, धनका प्रभुत्त्व मिले, अपरिमित दान-शक्ति हो । साथ ही स्त्री और पुत्र का सुख भी बना रहें ।’
कुबेरने वह आकाशवाणी सुनकर त्रिशूलधारी भगवान शंकर से कहा – ‘देव ! ऐसा ही हो ।’ ‘तथास्तु’ कहकर शिवने उस दैवी वाणी का अनुमोदन किया । इसप्रकार पुलस्त्य, विश्रवा और कुबेर का वरदान से अभिनंदन करके भगवान् शिव अन्तर्धान हो गये । तबसे उस तीर्थ के तीन नाम पड़े – पौलस्त्यतीर्थ, धनदतीर्थ और वैश्रवसतीर्थ । वह समस्त कामनाओं को देनेवाला शुभ तीर्थ हैं । वहाँ स्नान आदि जो कुछ भी पुण्यकर्म किया जाता हैं, वह अधिक पुण्यदायक होता हैं ।
पौलस्त्य-तीर्थ के बाद अग्नितीर्थ हैं । वह सब यज्ञों का फल देनेवाला और समस्त विघ्नों को शांत करनेवाला हैं । उस तीर्थ का फल सुनों । अग्नि के भाई जातवेदा हैं, जो देवताओं के पास हविष्य पहुँचाया करते हैं । एक दिन की बात हैं – गोदावरी के तटपर ऋषियों के यज्ञमंडप में यज्ञ हो रहा था । अग्नि के प्रिय भाई जातवेदा देवताओं के हविष्य का वहन कर रहे थे । उसी समय दिति के बलवान पुत्र मधुने प्रधान-प्रधान ऋषियों और देवताओं के देखते-देखते जातवेदा को मार डाला । उनके मरनेपर देवताओं को हविष्य मिलाना बंद हो गया । इधर अपने प्रिय भाई जातवेदा के मारे जानेसे अग्नि को बड़ा क्रोध हुआ । वे गौतमी गंगा के जलमें समा गये । अग्नि के जल में प्रवेश करनेपर देवता और मनुष्य जीवन का त्याग करने लगे, क्योंकि अग्नि ही उनका जीवन हैं । अग्निदेव जहाँ जलमें प्रविष्ट हुए थे, उस स्थानपर सम्पूर्ण देवता, ऋषि और पितर आये और यह सोचकर कि बिना अग्नि के हम जीवित नहीं रह सकते, उनकी स्तुति करने लगे । इतने में ही जलके भीतर उन्हें अग्नि का दर्शन हुआ । उन्हें देखकर देवता बोले –‘अग्नि ! आप हविष्य के द्वारा देवताओं को, कव्य (श्राद्ध) से पितरों को तथा अन्न को पचाने और बीज को गलाने आदि के द्वारा मनुष्यों को जीवित कीजिये ।’
अग्नि ने उत्तर दिया – ‘मेरा छोटा भाई, जो इस कार्य में समर्थ था, चला गया । आपलोगों का काम करनेमें जातवेदा की जो गति हुई हैं, वह मेरी भी हो सकती हैं । अत: मुझे आपलोगों के कार्य-साधन में उत्साह नहीं हैं ।’ तब देवताओं और ऋषियों ने सब प्रकार से अग्नि की प्रार्थना करते हुए कहा – ‘हव्यवाहन ! हमलोग आपको आयु, कर्म करनेमें उत्साह और सर्वत्र व्यापक होने की शक्ति देते हैं । साथ ही प्रयाज और अनुयाज भी देंगे । देवताओं के आप ही श्रेष्ठ मुख होंगे । पहली आहुतियाँ आपको ही मिलेगी । आप जो द्रव्य हमें देंगे, वही हम भोजन करेंगे ।’
इस आश्वासन से अग्निदेव प्रसन्न हुए । उन्हें इस लोक और परलोक में व्यापक रहने की शक्ति प्राप्त हुई । वे सर्वत्र निर्भय हो गये । जातवेदा, बृहभ्दानु, सप्तार्ची, नीललोहित, जलगर्भ, शमीगर्भ और यज्ञगर्भ – इन नामों से उन्हों का बोध होने लगा । देवताओं ने अग्नि को जलसे निकाला और जातवेदा तथा अग्नि दोनों के पदपर उनका अभिषेक किया । कार्य सिद्ध होनेपर देवता भी अपने-अपने स्थान को चले गये । तभी से वह स्थान ‘वह्रीतीर्थ’ कहलाता हैं । वहाँ सात सौ उत्तम तीर्थों का निवास हैं । जो जितात्मा पुरुष उन तीर्थों में स्नान और दान करता हैं, उसे अश्वमेध-यज्ञ का पूरा फल प्राप्त होता हैं । वहीँ देवतीर्थ, अग्नितीर्थ और जातवेदस्तीर्थ भी हैं । अग्निद्वारा स्थापित अनेक वर्णों के शिवलिंग का भी वहाँ दर्शन होता हैं । उसके दर्शन से सब यज्ञों का फल प्राप्त होता हैं ।
उसके बाद ‘ऋणमोचन’ नामक तीर्थ हैं । जिसके महत्त्व को वेदवेत्ता पुरुष जानते हैं । नारद ! मैं उसके स्वरुप को बतलाता हूँ, मन लगाकर सुनो । कक्षीवान का जेष्ठ पुत्र पृथुश्रवा था । वह वैराग्य के कारण न तो विवाह करता था और न अग्निहोत्र ही । कक्षीवान का कनिष्ठ पुत्र भी विवाह के योग्य हो गया था तो भी उसने परिवित्ति (बड़े भाईकी अविवाहित अवस्था में विवाह कर लेनेवाला छोटा भाई परिवित्ति कहलता हैं । इसे शास्त्रों में दोष माना गया हैं। ) होने के भय से विवाह और अग्निहोत्र नहीं किये । तब पितरों ने कक्षीवान के दोनों पुत्रों से पृथक-पृथक कहा – ‘तुम देव-ऋण, ऋषि-ऋण और पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिए विवाह करो ।’ जेष्ठ पुत्रने कहा, ‘नहीं, कैसा ऋण और कौन उससे मुक्त होता हैं ।’ छोटे पुत्र ने उत्तर दिया, ‘बड़े भाई के अविवाहित रहते मेरा विवाह करना उचित नहीं हैं । अन्यथा परिवित्ति होने का भय हैं ।’ तब पितरों ने उन दोनों से कहा – ‘तुमलोग गौतमी गंगा में जाकर स्नान करो । गौतमी का स्नान सब मनोरथों को सिद्ध करनेवाला हैं । गौतमी गंगा तीनों लोकों की पवित्र करनेवाली हैं । उनके जलमें श्रद्धापूर्वक स्नान और तर्पण करो । गौतमी का दर्शन, वन्दन और ध्यान करनेसे वे समस्त कामनाएँ पूर्ण करती है । वहाँ स्नान करने के लिये कोई देश, काल और जाति आदि का नियम नहीं हैं । गौतमी में स्नान करने से बड़े भाईपर कोई ऋण नहीं रहता और छोटा भाई परिवित्ति नहीं होता ।’
पितरों के आदेश में कक्षीवान का जेष्ठ पुत्र पृथुश्रवा गौतमी में स्नान और तर्पण करके तीनों ऋणों से मुक्त हो गया । तबसे वह तीर्थ ‘ऋणमोचन’ कहलाता हैं । वहाँ स्नान और दान करनेसे ऋणवान मनुष्य श्रौत-स्मार्त तथा अन्य ऋणों से भी मुक्त होकर सुखी होता हैं ।
अध्याय- 47 सुपर्णा-संगम, पुरुरवस्तीर्थ, पंचतीर्थ, शमीतीर्थ, सोम आदि तीर्थ तथा वृद्धा-संगम-तीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – इसके बाद सुपर्णा-संगम तथा काद्र्वा-संगम नामक तीर्थ हैं, जहाँ भगवान महेश्वर गंगा के तटपर स्थित हैं । वहीँ अग्निकुंड, रुद्र्कुंड, विष्णुकुंड, सूर्यकुंड, सोमकुंड, ब्रह्मकुंड, कुमारकुंड तथा वरुणकुंड भी हैं । उस स्थानपर अप्सरा नाम की नदी गौतमी गंगा में मिली हैं । उस तीर्थ के स्मरणमात्र से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता हैं । वह सब पापों का निवारण करनेवाला हैं ।
उससे आगे पुरुरवस नामक तीर्थ हैं । उसके दर्शन की तो बात ही क्या, स्मरणमात्र से ही पापों का नाश हो जाता हैं । एक समय राजा पुरुरवा ब्रह्माजी की सभा में गये । वहाँ देवनदी सरस्वती ब्रह्माजी के पास बैठी हँस रही थी । उस रूपवती देवी को देखकर राजाने उर्वशी से पूछा, ‘ब्रह्माजी के पास यह रूपवती साध्वी स्त्री कौन हैं ? यह तो सबसे सुन्दरी युवती है और अपने सौन्दर्य के प्रकाश से इस सभा को उद्दीप्त कर रही हैं ।’ उर्वशी ने कहा – ‘ये कल्याणमयी ब्रह्मकुमारी देवनदी सरस्वती हैं । ये प्रतिदिन आती-जाती रहती हैं ।’ यह सुनकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने उर्वशी से कहा –इसको मेरे पास बुला लाओ ।’ उर्वशीने जाकर राजाका संदेश सुना दिया । सरस्वती ने स्वीकार कर लिया तथा अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह पुरुरवा के पास आयी । राजाने सरस्वती नदी के तटपर उसके साथ अनेक वर्षोतक विहार किया । यह देख मैंने सरस्वती को शाप दे दिया । मेरे शाप के कारण वह मृत्युलोक में कहीं लुप्त हो गयी हैं और कही दिखायी देती हैं । जहाँ सरस्वती नदी गंगा में मिली हैं, वहाँ पहुँचकर राजा पुरुरवा ने तपस्या की एयर महादेवजी की आराधना करके गंगाजी के प्रसाद से सम्पूर्ण अभीष्ट प्राप्त कर लिया । तबसे उस स्थान का नाम पुरुरवस्तीर्थ, सरस्वती-संगम और ब्रह्मतीर्थ पड़ गया । वहाँ सिद्धेश्वर नामसे प्रसिद्ध महादेवजी रहते हैं । वह तीर्थ समस्त कामनाओं को देनेवाला हैं ।
उसके सिवा सावित्री, गायत्री, श्रद्धा, मेधा और सरस्वती – ये पाँच पुण्य तीर्थ हैं । वहाँ स्नान और जलपान करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैं । ये पाँचों मेरी कन्याएँ हैं, जो नदीरूप में परिणत हो गयी हैं । जहाँ वे भगवती गंगा से मिली हैं, वही पाँच तीर्थ हैं । वे पाँच नदियाँ और सरस्वती पवित्र तीर्थ हैं । मनुष्य उनमें स्नान, दान आदि जो कुछ भी करता हैं, वह सब अभिलषित वस्तुओं को देनेवाला तथा नैष्कर्म्य से भी बढकर मोक्षका साधक माना गया हैं ।
शमीतीर्थ के नामसे जिसकी प्रसिद्धि हैं, वह भी सब पापों की शान्ति करनेवाला है । नारद ! उस तीर्थ की कथा सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनो ! पूर्वकाल में प्रियव्रत नामसे प्रसिद्ध क्षत्रिय राजा हो गये हैं । उन्होंने गोदावरी के दक्षिण-तटपर अश्वमेध-यज्ञ की दीक्षा ली । उस यज्ञ के पुरोहित हुए वसिष्ठजी । एक दिन उस यज्ञ में हिरण्यक नामका दानव आया । महर्षि वसिष्ठ ने अपने ब्रह्मदंड से सब दैत्यों को मार भगाया । तदनंतर पुन: यज्ञ आरम्भ हुआ । दैत्य अपनी सेना के साथ भाग खड़ा हुआ । वहाँ निम्नांकित तीर्थों ने अश्वमेध-यज्ञ के फल दिये – शमीतीर्थ, विष्णुतीर्थ, अर्कतिर्थ, शिवतीर्थ, सोमतीर्थ और वसिष्ठतीर्थ । यज्ञ समाप्त होनेपर देवताओं और ऋषियों ने वसिष्ठ और प्रियव्रत से कहा – इन तीर्थोंने अश्वमेध-यज्ञ का फल दिया हैं; अत: इनमें स्नान-दान करने से मनुष्य अश्वमेध-यज्ञ का पुण्य-फल प्राप्त करेगा-इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं हैं ।
मुने ! गौतमी में एक स्थानपर अनेक नद-नदियाँ मिली हैं । उन सबके नामपर पृथक-पृथक तीर्थ हैं । उन तीर्थों के नाम ये हैं – सोमतीर्थ, गन्धर्वतीर्थ, देवतीर्थ, पूर्णातीर्थ, शालतीर्थ, श्रीपर्णासंगम, स्वागता-संगम, कुसुमा-संगम, पुष्टि-संगम, कर्णिका-संगम, वैणवी-संगम, कृशरा-संगम, वासवी-संगम, शिवशर्मा, शिखी, कुसुम्भिका, उपारथ्या, शान्तिजा, देवजा, अज, वृद्ध, सुर और भद्र आदि । ये तथा और भी बहुत से नद-नदीगण गौतमी में मिले हैं । पृथ्वीपर जितने तीर्थ हैं, वे सभी देवगिरीपर गये थे । फिर वे ही क्रमश: गंगा में आ मिले । कोई नदीरूपमें था और कोई नदरूप में । किसीका रूप सरोवर के आकर में था उअर किसीका स्त्रोत के आकर में । वे ही सब तीर्थ पृथक-पृथक विख्यात हुए । उन सबमें किया हुआ स्नान, जप, होम, पितृ-तर्पण आदि कर्म समस्त कामनाओं की पूर्ति करनेवाला और मुक्तिदायक माना गया हैं । जो इनके नामों का पाठ अथवा स्मरण करता हैं, वह सब पापों से मुक्त हो भगवान विष्णु के धाम में जाता हैं ।
वृद्धा-संगम नामक एक प्रसिद्ध तीर्थ है, जहाँ वृद्धेश्वर नामक शिवका निवास हैं । उस तीर्थ की कथा सब पापों का नाश करनेवाली हैं । पूर्वकाल में एक महातपस्वी मुनि थे । उनका नाम वृद्धगौतम था । वे जब बालक थे, तब किसी तरह पिताने उनका यज्ञोपवीतमात्र कर दिया । इसके बाद वे बाहर भ्रमण करने को चले गये । उन्हें केवल गायत्री-मन्त्र याद था । वे वेदों का अध्ययन और शास्त्रों का अभ्यास नहीं कर सके । केवल गायत्री का जप और अग्निहोत्र नियमपूर्वक कर लेते थे । इतने से ही उनका ब्राह्मणत्व सुरक्षित था । विधिपूर्वक अग्नि की उपासना और गायत्री-जप करने से उनकी आयु बहुत बढ़ गयी । यों भी उनकी अवस्था अधिक हो चुकी थी । किन्तु विवाह न हो सका, कोई उन्हें कन्या देनेवाला नहीं मिला ।
गौतम भिन्न-भिन्न तीर्थो, वनों और पवित्र आश्रमों में भ्रमण करते रहे । घूमते-घूमते शीत-गिरिपर चले गये और वहीँ रहने लगे । वहाँ उन्होंने एक रमणीय गुफा देखी, जो लताओं और वृक्षों से घिरी हुई थी । उसमें एक अत्यंत दुर्बल वृद्धा तपस्विनी रहती थी, उसके सब अंग शिथिल हो गये थे । वह वीतरागा ब्रह्मचारिणी थी और एकांत में रहा करती थी । उसे देख मुनिश्रेष्ठ गौतम नमस्कार के लिये खड़े हो गये ।
तब वृद्धाने कहा – आप मेरे गुरु होंगे, अत: मुझे प्रणाम न करें । जिसे गुरु नमस्कार करता हैं, उसकी आयु, विद्या, धन, कीर्ति, धर्म और स्वर्ग आदि सब नष्ट हो जाते हैं ।
यह सुनकर गौतम बड़े आश्चर्य में पड़े । वे हाथ जोडकर बोले – ‘तुम वृद्धा तपस्विनी हो, गुणों में भी मुझसे बढ़ी-चढ़ी हो । मैं बहुत कम पढ़ा-लिखा और अवस्था में भी छोटा हूँ, फिर तुम्हारा गुरु कैसे हो सकता हूँ ।’
वृद्धा ने कहा – आर्ष्टिषेण के पित्र्य पुत्र ऋत ध्वज थे; वे बड़े गुणवान, बुद्धिमान, शूरवीर तथा क्षत्रिय-धर्म में तत्पर रहनेवाले थे । एक दिन वे शिकार खेलने के लिये वन में आये और इसी गुफामें आकर विश्राम करने लगे । यहाँ उनपर एक सुन्दरी अप्सरा की दृष्टि पड़ी, उसका नाम सुश्यामा था । वह गन्धर्वराज की कन्या थी । राजाने भी उसे देखा । दोनों के मन में एक-दूसरे से मिलने की इच्छा हुई । ऋतध्वज ने सुश्यामा के साथ विहार किया । भोगेच्छा निवृत्त होनेपर राजा उसकी अनुमति ले अपने घर चले गये । तदनंतर सुश्यामा के गर्भ से मेरा जन्म हुआ । जब माता यहाँ से जाने लगी, तब बोली – ‘कल्याणी ! जो पुरुष इस गुफा में पहले आ जाय, वही तुम्हारा पति होगा ।’ तब से आजतक तुम्ही यहाँ आये हो । दूसरा कोई पुरुष कभी यहाँ नहीं आया । ब्रह्मन ! और किसीने मेरा वरण नहीं किया हैं । न मेरी माता हैं, न पिता । मैं आप ही अपनी मालिक हूँ । अबतक ब्रह्मचर्य-व्रत में रही । अब पुरुष की इच्छा रखती हूँ, आप मुझे स्वीकार करें ।
गौतम बोले – भद्रे ! मेरी अवस्था तो अभी एक हजार वर्ष की ही है और तुम नब्बे हजार वर्ष की हो गयी हो । मैं बालक और तुम वृद्धा; यह सम्बन्ध योग्य नहीं जान पड़ता ।
वृद्धाने कहा – पूर्वकाल में ही आप मेरे पति नियत कर दिये गये हैं । अब दूसरा कोई मेरा पति नहीं हो सकता, विधाताने आपको मुझे दिया हैं; अत: अब आप मुझे अस्वीकार न करें । मुझमें कोई दोष नहीं है । मैं आपमें भक्ति रखती हूँ; तब भी यदि आप मुझे ग्रहण करना नहीं चाहते तो आपके देखते-देखते अभी अपने प्राण त्याग दूँगी । यदि अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो तो प्राणियों के लिये मर जाना ही अच्छा है । प्रेमीजन के परित्याग से जो पातक लगता हैं, उसका अंत नहीं है ।
वुद्धा की बात सुनकर गौतम ने कहा – ‘मुझमें न तपस्या हैं न विद्या । मैं कुरूप और निर्धन हूँ, अत: तुम्हारे लिये योग्य वर नहीं हो सकता । पहले सुंदर रूप और उत्तम विद्या की प्राप्ति करके मुझे तुम्हारी बात माननी चाहिये ।’
वृद्धाने कहा – ब्रह्मन ! मैंने अपनी तपस्या से सरस्वतीदेवी को संतुष्ट किया है, साथ ही रूप देनेवाले अग्नि भी मुझपर प्रसन्न है; अत: वागीश्वरी देवी आपको विद्या देंगी और रूपवान अग्निदेव रूप प्रदान करेंगे ।
यों कहकर वुद्धाने सरस्वती और अग्नि की प्रार्थना करके गौतम को विद्वान और सुरुपवान बना दिया । तब उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ वृद्धा को अपनी पत्नी बनाया और कितने ही वर्षोतक उसके साथ विहार किया । एक दिन वसिष्ठ और वामदेव आदि महर्षि पुण्यतीर्थों में भ्रमण करते हुए उस गुफा में आये । गौतम और उनकी पत्नी ने वहाँ आये हुए ऋषि-मुनियों का विधिवत स्वागत-सत्कार किया । उनमें से कुछ लोगोंने गौतम का उपहास करते हुए पूछा –‘बूढी माँ ! यह तो बताओ, ये गौतम तुम्हारे पुत्र लगते हैं या पोते ? कल्याणी ! सच-सच बताना । वृद्ध पुरुष के लिये युवती स्त्री विष के समान हैं और वृद्धा स्त्री के लिये युवा पुरुष अमृत के समान । प्रिय और अप्रिय का संयोग हमने दीर्घकाल के पश्चात यही देखा हैं ।’ गौतम और उनकी पत्नी दोनों इस परिहास को सुनकर चुप रह गये । आतिथ्य ग्रहण करके सब महर्षि चले गये । उनकी बातों को याद करके ये दोनों दम्पति बहुत दु:खी हुए । एक दिन स्त्रीसहित गौतम ने मुनिवर अगस्त्यजी से पूछा – ‘महर्षे ! कौन-सा देश या तीर्थ ऐसा हैं, जहाँ जाने से कल्याण की प्राप्ति होती है ?’
अगस्त्यने कहा – ब्रह्मन ! मैंने मुनियों के मुख से सुना हैं, गोदावरी नदी में स्नान करने से सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं ।
अगस्त्य की यह बात सुनकर गौतम उस वृद्धा के साथ गौतमी-तटपर गये और कठोर तपस्या करने लगे । उन्होंने भगवान शंकर और विष्णु का स्तवन किया तथा पत्नी के लिये गंगाजी को भी संतुष्ट किया ।
गौतम बोले – शिव ! जिनका ह्रदय व्यथित हैं, ऐसे पुरुषों के लिये संसार में पार्वतीसहित आप ही शरण हैं – ठीक वैसे ही , जिस प्रकार मरुभूमि के पथिकों के लिये वृक्ष ही आश्रय होता हैं । भगवान् श्रीकृष्ण ! आप ही छोटे-बड़े सब भूतों के पापों का सर्वथा निवारण करनेवाले हैं, जैसे सूखती हुई खेती को मेघ ही सींचकर हरा-भरा करता हैं । सुधामयी तरंगों से सुशोभित गौतमी ! तुम वैकुण्ठरूपी दुर्गमे पहुँचने के लिये सीढी हो । हम अधोगतिमें पडकर संतप्त हो रहे हैं, माता ! तुम हमारे लिये शरण हो जाओ ।
सबको शरण देनेवाली गौतमी गंगा गौतम के स्तोत्र से प्रसन्न होकर बोली – ‘ब्रह्मन ! तुम मन्त्र पढ़ते हुए मेरे जलसे अपनी पत्नी का अभिषेक करो । इससे यह रूपवती हो जायगी । इसके सभी अंग मनोहर होंगे । नेत्रों में भी सुन्दरता आ जायगी तथा यह सब प्रकार के शुभ लक्षणों से शोभा पाने लगेगी ।’
गंगाजी के आदेश से दोनों ने ऐसा ही किया, अत: उनकी कृपा से दोनों पति-पत्नी सुंदर रूपवाले हो गये । उनके अभिषेक का जो जल था, वह नदीरूप में ख्याति हुई । गौतम ने जो शिवलिंग की स्थापना की, वह भी वृद्धा के ही नामपर ‘वृद्धेश्वर’ कहलाया । वाही मुनिश्रेष्ठ गौतम ने वृद्धा के साथ पूर्ण आनंद प्राप्त किया । तब से उस तीर्थ का नाम ‘वृद्धा-संगम’ हो गया । वहाँ किया हुआ स्नान और दान सब मनोरथों को सिद्ध करनेवाला हैं ।
अध्याय- 48 इलातीर्थ के आविर्भाव की कथा
ब्रह्माजी कहते हैं – इलातिर्थ के नामसे जिस तीर्थ की प्रसिद्धि हैं, वह मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला, ब्रह्महत्या आदि पापों को दूर करनेवाला तथा सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाला हैं । वैवस्वत मनु को वंश में इल नामक एक राजा हो गये हैं । वे बहुत बड़ी सेना साथ लेकर शिकार खेलने के लिये वन में गये । वहाँ उनकी बुद्धि में कुछ दूसरा ही निश्चय हुआ । उन्होंने अमात्यों से कहा – ‘आप सब लोग मेरे पुत्रद्वारा पालित नगर में चले जायँ । देश, कोष, बल, राज्य तथा मेरे पुत्र की भी रक्षा करें । महर्षि वसिष्ठ भी हमारे लिये पिता के समान हैं । वे भी अग्निहोत्र की अग्नियों को लेकर मेरी पत्नियों के साथ लौट जायँ । मैं अभी इस वन में ही निवास करूँगा ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर सब लोग चले गये और राजा धीरे-धीरे रत्नमय हिमालय पर्वतपर जाकर वहीँ निवास करने लगे । एक दिन उन्होंने उस पर्वतपर एक गुफा देखी, जो नाना प्रकार के रत्नों से विचित्र शोभा पा रही थी । उस गुफामें यक्षों का राजा समन्यु रहता था । उसके साथ उसकी पतिव्रता पत्नी समा भी रहा करती थी । उससमय वह यक्ष मृगरुप धारण करके अपनी पत्नी के साथ विचर रहा था । भांति-भांति के रत्नोंसे चित्रित, उसका वह विशाल गृह सूना पड़ा था । अत: राजा अपनी भारी सेना के साथ वही ठहर गये । वह यक्ष अधर्म के कोपसे पत्नी के साथ मृगरुप धारण करके रहता था । उसने सोचा – ‘इस राजाने मेरा घर छीन लिया । मैं इसे जीत सकता नहीं और यह माँगनेपर देगा नहीं । अब क्या करूँ ?’ इसी चिंतामें पडकर वह मृगीरूपधारिणी अपनी पत्नी से बोला – ‘कान्ते ! इस राजाका मन मृगया के व्यसन में आसक्त हैं । यह कैसे विपत्ति में फँसे – इसके लिये कोई उपाय सोचो । मेरा विचार हैं कि तुम मनोहर मृगीका रूपधारण करके इसके सामने से निकलो और इसे अपनी ओर आकृष्ट करके किसी तरह अम्बिका वन में पहुँचा दो । उसके भीतर प्रवेश करते ही यह राजा स्त्री हो जायगा । भद्रे ! यह काम तुम्हीं कर सकती हो । मेरे लिये यह उचित न होगा ।’
यक्षिणी ने पूछा – नाथ ! अम्बिका वन तो बड़ा सुंदर हैं । तुम उसमें क्यों नहीं जा सकते ? यदि तुम भी चले जाओ तो क्या दोष होगा ? यह हमें ठीक-ठीक बताओ ।
यक्ष ने कहा – एक समय पार्वतीने एकांत बैठे हुए भगवान् शंकर से कहा – ‘देवेश्वर ! स्त्रियों की यह स्वाभाविक इच्छा होती हैं कि उनकी रतिक्रीड़ा सदा गुप्त रहे । इसलिये मुझे ऐसा नियत स्थान दीजिये, जो आपकी आज्ञा से सुरक्षित हो । मैं स्थान वही चाहती हूँ, जो उमावन के नामसे प्रसिद्ध है । उसमें आप, गणेश, कार्तिकेय और नंदी के सिवा जो कोई भी प्रवेश करे, वह स्त्री हो जाय ।’ शंकरजी ने प्रसन्न होकर कहा – ‘ऐसा ही हो ।’ इसलिये उमाके उस वनमें मुझे नहीं जाना चाहिये ।
अपने स्वामीका यह वचन सुनकर इच्छानुसार रूपधारण करनेवाली वह यक्षिणी विशाल नेत्रोंवाली मृगी बनकर राजाके सामने आयी । यक्ष वहीँ ठहर गया । राजाने मृगीको देखा । मृगया में तो उनकी आसक्ति थी ही । मृगीपर दृष्टि पड़ते ही वे अकेले घोड़ेपर जा बैठे और उसका पीछा करने लगे । वह धीरे-धीरे राजाको अम्बिका वनतक खींच ले गयी । गब घोड़ेपर बैठे-ही-बैठे उमावन में प्रविष्ट हो गये, तब यक्षिणी ने मृगी का रूप छोडकर दिव्य रूपधारण कर लिया और अशोक वृक्ष के नीचे खड़ी हो राजाको देखकर हँसने लगी । पतिकी कही हुई बातोंको याद करके वह राजसे बोली – ‘सुन्दरी इला ! तुम अकेली अबला घोड़ेपर चढकर पुरुष के वेष में कहाँ जाती हो, किसके पास जाओगी ?’ उसके मुख से ‘इला’ शब्द सुनकर राजा क्रोध से मुर्च्छित हो उठे और यक्षिणी को डाँटकर मृगीका पता पूछने लगे । यक्षिणी ने पुन: कहा – ‘इले ! इले ! अपने-आपको अच्छी तरह देख तो लो, फिर मुझे मिथ्थावादिनी या सत्यवादिनी कहना ।’ तब राजाने देखा – उनकी छाती में दो ऊँचे-ऊँचे स्तन उभार आये थे । ‘यह मुझे क्या हो गया’ यह कहते हुए राजा चकित हो गये । उन्होंने यक्षिणी से पूछा – ‘सुव्रते ! यह मुझे क्या हो गया – इस बातको आप ठीक-ठीक जानती हैं । अत: बताइये । आप कौन हैं ? इसका भी परिचय दीजिये ।’
यक्षिणी बोली – हिमालय की श्रेष्ठ गुफा में मेरे पति यक्षराज समन्यु निवास करते हैं । मैं उन्हीं की पत्नी हूँ । जिस शीतल कन्दरा में आप ठहरे हुए हैं, वह हमारा ही घर हैं । मैं ही मृगी बनकर आपको यहाँतक ले आयी हूँ । यह उमावन हैं । यहाँ के लिये पूर्वकाल में महादेवजी यह वर दे चुके हैं कि जो पुरुष इसमें प्रवेश करेगा, वह स्त्री हो जायगा । अत: आप भी स्त्री हो गये, इससे आपको दु:खी नहीं होना चाहिये । कोई कितना ही प्रौढ़ क्यों न हो, भवितव्यता को कोई नहीं जानता ।
इस प्रकार इलाको आश्वासन दे वह सुन्दरी यक्षिणी अन्तर्धान हो गयी । उसने पति से सारा हाल कह सुनाया । यक्ष भी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इधर इला गाती और नृत्य करती हुई उमावन में ही रहने लगी । वह कर्म की गतिका स्मरण करती हुई स्त्रीस्वभाव के अनुसार ही चेष्टा करती थी । एक दिन जब इला नृत्य कर रही थी, बुधने उसे देखा । वे अपने पिताको नमस्कार करनेके लिये जा रहे थे । इलापर दृष्टी पड़ते ही उन्होंने यात्रा स्थगित कर दी और उसके पास आकर कहा – ‘देवि ! तू स्वर्गमें रहकर मेरी प्रिया भार्या हो जा ।’ इलाने भक्तिपूर्वक बुध की आज्ञा का अभिनंदन करके उसे स्वीकार कर लिया । बुध अपने उत्तम स्थानपर ले जाकर इलाके साथ प्रेमपूर्वक विहार करने लगे । उसने भी सब प्रकार की सेवाओं से पति को संतुष्ट किया । इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर बुधने प्रसन्न हो अपनी प्रियासे कहा – ‘कल्याणी ! मैं तुझे क्या दूँ ? तेरे मनमें जो प्रिय वस्तु हो, उसे माँग ले ।’ इला सहसा बोल उठी – ‘पुत्र दीजिये ।’
बुध ने कहा – यह मेरा वीर्य अमोघ तथा प्रेमसे प्रकट हुआ है । अत: तेरे गर्भ से विश्वविख्यात क्षत्रिय – पुत्र उत्पन्न होगा । उससे चन्दवंश की वृद्धि होगी । वह तेजमें सूर्य, बुद्धिमें बृहस्पति, क्षमा में पृथ्वी, युद्धसम्बन्धी पराक्रम में भगवान् विष्णु तथा क्रोध में अग्नि के समान होगा ।
समय आनेपर महात्मा बुधका पुत्र उत्पन्न हुआ । उससमय देवलोक में सब ओर जयजयकार का शब्द गूँज उठा । उसके जन्मोत्सव में सभी प्रधान-प्रधान देवता आये । मैं भी बड़ी प्रसन्नता के साथ उसमें सम्मिलित हुआ । वह बालक जन्म लेते ही उच्च स्वरसे रोया था । अत: वहाँ एकत्रित हुए देवताओं तथा ऋषियों ने एक-दुसरे से कहा – ‘इस बालकने पुरु (अत्यंत उच्च स्वर से ) रव (शब्द) किया है, अत: इसका नाम पुरुरवा होना चाहिये ।’ सबने संतुष्ट होकर यही नाम रखा । तदनंतर बुध ने अपने पुत्र को क्षत्रियोचित विद्या पढायी और प्रयोगसहित धनुर्वेद का ज्ञान कराया । पुरुरवा शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की भांति शीघ्र ही बढकर बड़ा हो गया । उसने अपनी माताको दु:खी देख विनीत भावसे नमस्कार करके कहा – ‘माताजी ! बुध मेरे पिता और आपके प्रियतम पति हैं । मुझ-जैसा कर्मठ पुरुष आपका पुत्र हैं । फिर आपके मनमें चिंता किस बातकी हैं ?’
इला बोली – बेटा ! ठीक कहते हो । बुध मेरे स्वामी हैं और तुम मेरे गुणाकर पुत्र हो । अत: मुझे पति और पुत्र के लिये कभी चिंता नहीं होती । तथापि मेरे मनमें पहले का ही कुछ दुःख है, जिसका बारंबार स्मरण हो आनेसे मैं चिंता में डूब जाती हूँ ।
पुरुरवाने कहा – माँ ! पहले मुझे अपना वही दुःख बताओ ।
तब इलाने पुरुरवा को इक्ष्वाकुवंश का परिचय देते हुए अपने जन्म, नाम, राज्यप्राप्ति, पुत्रजन्म, पुरोहित वशिष्ठ, प्रिय पत्नी, वनमें आगमन, हिमालय की कन्दरा में निवास, उमावन में प्रवेश, स्त्रीतत्व की प्राप्ति, बुध से समागम, प्रेम तथा पुन: पुत्रजन्म आदिसे सम्बन्ध रखनेवाली सब बातें कह सुनायी । सुनकर पुरुरवा ने माता से पूछा – ‘मैं क्या करूँ ? क्या करने से शुभ परिणाम होगा ?’
इला बोली – बेटा ! तुम्हारे अनुग्रह से मैं पुरुषत्त्व की प्राप्ति, उत्तम राज्य, तुम्हारा तथा अन्य पुत्रोंका अभिषेक, दान देना, यज्ञ करना तथा मुक्ति के मार्ग का अवलोकन करना आदि सब कुछ चाहती हूँ । तुम अपने पिता बुध के पास जाकर सब बातें यथार्थरूप से पूछो । वे सब जानते हैं । तुम्हारे लिये हितकर उपदेश देंगे ।
माता के कहने से पुरुरवा अपने पिता के पास गये और उन्हें प्रणाम करके उन्होंने अपनी माता का तथा अपना कर्तव्य पूछा ।
बुध ने कहा – ‘महामते ! मैं राजा इल को जानता हूँ । उनके इला होनेका वृतांत भी मुझसे छिपा नहीं हैं । उमाके वन में आना और उस वन के विषय में भगवान शंकर की आज्ञा का हाल भी मुझे मालुम हैं । बेटा ! भगवान् शिव और माता पार्वती के प्रसाद से इल का शाप दूर हो सकता हैं । उन दोनों की आराधना के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं हैं । तुम गोदावरी नदी के तटपर जाओ । वहाँ भगवान् शिव पार्वतीजी के साथ सदा विराजमान रहते हैं । वे ही वरदान देकर शाप का नाश करेंगे ।
पिता की बात सुनकर पुरुरवा बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने माता को पुरुषत्व प्राप्त होने की इच्छा से हिमालय पर्वत, माता, पिता तथा गुरु को मस्तक झुकाया और तपस्या करने के लिये तुरंत ही त्रिभुवनपावनी गौतमी गंगाकी ओर प्रस्थान किया । पुत्रके पीछे-पीछे इला और बुध भी गये । वे सब लोग गौतमी के तटपर पहुँचे और वहाँ स्नान करके तपस्या करते हुए भगवान् की स्तुति करने लगे । पहले बुधने, फिर इलाने, तत्पश्चात पुरुरवा ने देवी पार्वती तथा भगवान् शंकर का स्तवन किया ।
बुध बोले – जो अपने शरीर की केसर से स्वभावत: सुवर्ण के सदृश कान्तिमान एवं सुंदर दिखायी देते हैं, कार्तिकेय और गणेशजी के द्वारा जिनकी सदा अर्चना होती रहती हैं, वे शरणागतवत्सल उमा-महेश्वर मुझे शरण दें ।’
इला बोली – संसार के त्रिविध तापरुपी दावानल से दग्ध होनेवाले देहधारी जिनका चिन्तन करने से तत्काल परम शान्ति को प्राप्त होते हैं, वे कल्याणकारी उमा-महेश्वर मुझे शरण दें । देव ! मैं आर्त हूँ । मेरे ह्रदय में बड़ी पीड़ा है । क्लेश आदिसे मेरी रक्षा करनेवाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं हैं । शरणागत की रक्षा करनेवाले आपके जो दोनों परम पवित्र चरण हैं, वे मुझे शरण दें ।
पुरुरवा बोले – जिनसे इस जगत की उत्पत्ति होती है तथा प्रलयकाल में यह सब जिनके ही भीतर लय को प्राप्त होता हैं, वे संसार को शरण देनेवाले जगदात्मा उमा-महेश्वर मुझे शरण दें । देवताओं के समुदाय में एक महान उत्सव के अवसरपर गिरिराजकुमारी पार्वती ने महादेवजी से कहा था – ‘ईश ! आप मेरे दोनों चरण पकड़ें ।’ इसपर शिवजी ने अत्यंत प्रीतिवश पार्वती के जिन दोनों शरणागतपालक चरणों को ग्रहण किया था, वे मुझे शरण दें ।
यह स्तुति सुनकर उमावर महेश्वर प्रकट हो गये । भगवती उमाने कहा – ‘तुमलोगों का मनोरथ क्या हैं ? बताओ, मैं उसे पूर्ण करूंगी । तुम्हारा कल्याण हो । तुम सब लोग कृतार्थ हो गये । जो वस्तु देवताओं के लिये भी दुर्लभ हो, वह भी मैं तुम्हें दूँगी ।’
पुरुरवा बोले – ‘जगदम्बिके ! राजा इल अज्ञानवश आपके वनमें घुस गये थे । देवेश्वरि ! आप उनके उस अपराध को क्षमा करें और पुन: उन्हें पुरुषत्व दें ।
पार्वती ने भगवान् शंकर की सम्मति के अनुसार ‘तथास्तु’ कहकर उन सबकी प्रार्थना स्वीकार की । इसके बाद शिवजी ने कहा – ‘राजा इल गौतमी गंगा में स्नान करनेमात्र से पुरुष हो जायेंगे ।’ तब बुध के पत्नी इलाने गंगा में स्नान किया । स्नान के पश्चात इलाके शरीर से जो जल चू रहा था, उसके साथ उसके नारिजनोचित सौन्दर्य, नृत्य और संगीत भी गंगा की धारा में मिल गये । वे ही नृत्या, गीता और सौभाग्या नामकी नदियों के रूप में परिणत हुए । वे नदियाँ भी गंगा में आ मिलीं । इससे वहाँ तीन पवित्र संगम हो गये । उनमें किया हुआ स्नान और दान इन्द्रपद की प्राप्ति करानेवाला हैं । शिव और पार्वती के प्रसाद से पुरुषत्व प्राप्त करने के पश्चात राजा इल ने महान अभ्युदय की सिद्धि के लिये वहाँ अश्वमेध-यज्ञ किया । पुरोहित वसिष्ठ, अपनी पत्नी, पुत्र, अमात्य, सेना और कोश को भी लाकर उन्होंने वह यज्ञ सम्पन्न किया । दंडक वन में इल ने चतुरंगिनी सेनासहित राज्य की स्थापना की । वहाँ इल के नामसे विख्यात उनका नगर भी हैं । सुर्यवंश की परम्परा में जो उन्होंने पहले पुत्र उत्पन्न किये थे, उनको राज्यपर अभिषिक्त करने पीछे स्नेहवश पुरुरवा का भी अभिषेक किया । ये राजा पुरुरवा ही चन्द्रवंश के प्रवर्तक हुए । जहाँ राजाको पुरुषत्व की प्राप्ति हुई, वहाँ गौतमी के दोनों तटोंपर सोलह हजार तीर्थों का निवास हैं । वहाँ इलेश्वर नामक भगवान् शंकर की भी स्थापना हुई हैं । उन तीर्थों में स्नान और दान करने से सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त होता हैं ।
अध्याय- 49 चक्रतीर्थ और पिप्पलतीर्थ की महिमा, महर्षि दधिचि, उनकी पत्नी गभस्तिनी तथा उनके पुत्र पिप्पलाद के त्याग की अद्भुत कथा
ब्रह्माजी कहते हैं – चक्रतीर्थ ब्रह्महत्या आदि पापों का नाश करनेवाला हैं । वहाँ भगवान् शंकर चक्रेश्वर के नामसे निवास करते हैं । उन्हीसे भगवान् विष्णु को चक्र प्राप्त हुआ था । श्रीविष्णु ने वहाँ रहकर चक्र के लिये भगवान शंकर की आराधना की थी । इसीलिये उसे चक्रतीर्थ कहते हैं । उसके श्रवणमात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता हैं । चक्रतीर्थ के बाद पिप्पलतीर्थ हैं । उसकी महिमा का वर्णन करने में शेषनाग भी समर्थ नहीं हैं । नारद ! चक्रेश्वर ही पिप्पलेश्वर हैं । उनके नामका कारण सुनो । दधीचि नामसे विख्यात एक मुनि थे । वे सभी उत्तम गुणों से सुशोभित थे । उनकी पत्नी श्रेष्ठ वंश की कन्या और पतिव्रता थीं । उनका नाम गभस्तिनी था । वे लोपामुद्रा की बहिन थी । दधीचि की पत्नी सदा भारी तपस्या में लगी रहती थी । दधीचि प्रतिदिन अग्नि की उपासना करते और गृहस्थ-धर्म के पालन में तत्पर रहते थे । उनका आश्रम गंगा के तटपर था । वे देवता और अतिथियों की सेवा करते, अपनी ही पत्नी में अनुराग रखते और शांतभाव से रहते थे । उनके प्रभाव से उस देशमें शत्रुओं और दैत्य-दानवों का आक्रमण नहीं होता था ।
एक दिन की बात हैं – दधीचि मुनिके आश्रमपर रूद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, इंद्र, विष्णु, यम और अग्नि पधारे । वे दैत्यों को परास्त करके वहाँ आये थे और उस विजय के कारण उनके ह्रदय में हर्ष की हिलोरें उठ रही थी । मुनिवर दधीचि को देखकर सब देवताओं ने प्रणाम किया । दधीचि भी देवताओं को देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने सबका पृथक-पृथक पूजन किया, फिर पत्नी के साथ देवताओं के लिये गृह्स्थोचित स्वागत-सत्कार का प्रबंध किया । इसके बाद उन्होंने देवताओं से कुशल पूछी और देवता भी उनसे वार्तालाप करने लगे ।
देवता बोले – मुने ! आप इस पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं । आप-जैसा महर्षि जब हमलोगों पर इतनी कृपा रखता हैं, तब अब हमारे लिये संसार में कौन-सी वस्तु दुर्लभ होगी । मुनिश्रेष्ठ ! जीवित पुरुषों के जीवन का इतना ही फल हैं कि वे तीर्थों में स्नान, समस्त प्राणियोंपर दया और आप – जैसे महात्माओं का दर्शन करें । मुने ! इस समय स्नेहवश हम आपसे जो कुछ कहते हैं, उसे ध्यान देकर सुनें । हम बड़े-बड़े राक्षसों और दैत्यों को जीतकर यहाँ आये हैं । इससे हम बहुत सुखी हैं । विशेषत: आपका दर्शन करके हमें बड़ी प्रसन्नता हुई है । अब हमें अस्त्र-शस्रोंके रखने से कोई लाभ नहीं दिखाई देता । हम उन अस्त्रों का बोझ ढो भी नहीं सकते । हम स्वर्ग में जब इन अस्त्रों को रखते हैं, तब हमारे शत्रु इनका पता लगाकर वहाँ से हडप ले जाते हैं । इसलिये हम आपके पवित्र आश्रमपर इन सब अस्त्रोंको रख देते हैं । ब्रह्मन ! यहाँ दानवों और राक्षसों से तनिक भी भी नहीं हैं । आपकी आज्ञा से यह सारा प्रदेश पवित्र और सुरक्षित हो गया हैं । तपस्याद्वारा आपकी समानता करनेवाला दूसरा कोई हैं ही नहीं । अब हम कृतार्थ होकर इंद्र के साथ अपने-अपने स्थान की चले जाते हैं । अब इन आयुधों की रक्षा आपके अधीन हैं ।
देवताओं की यह बात सुनकर दधीचि ने कहा – ‘एवमस्तु’ । उससमय उनकी प्यारी पत्नी ने उन्हें रोका – ‘मुने ! यह देवताओं का कार्य विरोध उत्पन्न करनेवाला हैं । अत: इसमें आपको पड़ने की क्या आवश्यकता हैं । जो शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके परमाथ-तत्त्व में स्थित हो चुके हैं, संसार के कार्यों में जिनकी कोई आसक्ति नहीं हैं, उन्हें दूसरों के लिये ऐसा संकट मोल लेने से क्या लाभ, जिससे न इस लोकमं सुख हैं और न परलोक में । विप्रवर ! मेरी बातें ध्यान देकर सुनो । यदि आपने इन आयुधों को स्थान दे दिया तो इन देवताओं के शत्रु आपसे द्वेष करेंगे । यदि इनमेंसे कोई अस्त्र नष्ट हुआ या चोरी चला गया तो ये देवता भी कुपित होकर हमारे शत्रु बन जायेंगे । अत: मुनीश्वर ! आप वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं । आपके लिये इस पराये द्रव्य में ममत्त्व जोड़ना ठीक नहीं । यदि धन देने की शक्ति हो तो याचक को देना ही चाहिये – उसमें कुछ विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं । यदि धन देने की शक्ति न हो तो साधू पुरुष केवल मन, वाणी तथा शारीरिक क्रियाओंद्वारा दूसरों का कार्य-साधन करते हैं । प्राणनाथ ! पराये धनको अपने यहाँ धरोहर के रूप में रखना साधू पुरुषोंने कभी स्वीकार नहीं किया हैं । इसका उन्होंने सदा बहिष्कार ही किया हैं । अत: आप यह कार्य न कीजिये ।’
अपनी प्यारी पत्नी की यह बात सुनकर ब्राह्मण ने कहा – “भद्रे ! मैं देवताओं की प्रार्थनापर पहले ही ‘हाँ’ कह चूका हूँ । अब ‘नहीं’ कर दूँ तो मुझे सुख नहीं मिलेगा ।’ पतिका कथन सुनकर ब्राह्मणी यह सोचकर चुप हो गयी कि दैव के सिवा और किसीका किसीपर वश नहीं चल सकता । देवतालोग अपने अत्यंत तेजस्वी अस्त्र आश्रमपर रखकर मुनीश्वर को नमस्कार करके कृतार्थ हो अपने-अपने लोकमें चले गये । देवताओं के चले जानेपर मुनि अपनी पत्नी के साथ धर्म में तत्पर हो प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने लगे । इसप्रकार एक हजार दिव्य वर्ष बीत गये । तब दधिचिने अपनी पत्नी से कहा – ‘देवि ! देवता यहाँ से अस्त्र ले जाना नहीं चाहते और दैत्य मुझसे द्वेष करते हैं । अब तुम्ही बताओ – क्या करना चाहिये ?’ पत्नीने विनयपूर्वक कहा – ‘नाथ ! मैंने तो पहले ही निवेदन किया था । अब आप ही जाने और जो उचित हो, सो करें । दैत्यों में जो बड़े-बड़े वीर, तपस्वी और बलवान हैं, वे इन अस्त्र-शस्त्रों को निश्चय ही हडप लेंगे ।’ तब दधीचि ने उन अस्त्रों की रक्षा के लिये एक काम किया – उन्होंने पवित्र जल से मन्त्र पढ़ते हुए अस्त्रों को नहलाया । फिर वह सर्वास्त्रमय परम पवित्र और तेजयुक्त जल स्वयं पी लिया । तेज निकल जाने से वे सभी अस्त्र-शस्स्र शक्तिहीन हो गये, अत: क्रमश: समयानुसार नष्ट हो गये । तदनंतर देवताओं ने आकर दधीचि से कहा – ‘मुनिवर ! हमारे ऊपर शत्रुओं का महान भय आ पहुँचा हैं । अत: हमने जो अस्त्र आपके यहाँ रख दिये थे , उन्हें इस समय दे दीजिये ।’ दधीचि ने कहा – ‘आपलोग बहुत दिनोंतक उन्हें लेने नहीं आये । अत: दैत्यों के भय से हमने उन अस्त्रों को पी लिया हैं । अब वे हमारे शरीर में स्थित हैं । इसलिये जो उचित हो, वह कहें ।’ यह सुनकर देवताओं ने विनीत भावसे कहा – ‘मुनीश्वर ! इससमय तो हम इतना ही कह सकते हैं कि अस्त्र दे दीजिये ।’ ब्राह्मण ने कहा – ‘सब अस्त्र मेरी हड्डियों में मिल गये हैं । अत: उन हड्डियों को ही ले जाओ ।’उससमय प्रिय वचन बोलनेवाली दधीचि की पत्नी प्रातिथेयी उनके पास नहीं थी । देवता उनसे बहुत डरते थे । उन्हें न देखकर दधीचिसे बोले – ‘विप्रवर ! जो कुछ करना हो, शीघ्र करें ।’ दधीचिने अपने दुस्त्यज प्राणों का परित्याग करते हुए कहा – ‘देवताओं ! तुम सुखपूर्वक मेरा शरीर ले ली । मेरी हड्डियों से प्रसन्नता प्राप्त करो । मुझे इस देहसे क्या काम हैं ।’
यों कहकर दधीचि पद्मासन बाँधकर बैठ गये । उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभागपर स्थिर हो गयी । मुखपर प्रकाश और प्रसन्नता विराज रही थी । उन्होंने ह्रदयाकाश में स्थित अग्निसहित वायुको धीरे-धीरे ऊपरकी ओर उठाकर अप्रमेय परम पद ब्रह्म के स्वरूप में स्थापित कर दिया । इस प्रकार महात्मा दधीचिने ब्रह्मसायुज्य प्राप्त किया । उनका शरीर निष्प्राण हो गया । यह देख देवताओं ने विश्वकर्मा से उतावलीपूर्वक कहा – ‘अब आप अभी बहुत-से अस्त्र-शस्त्र बना डालिये ।’ विश्वकर्मा ने कहा – ‘देवताओं ! यह ब्राह्मणका शरीर हैं । मैं इसका उपयोग कैसे करूँ । तब केवल इनकी हड्डियाँ रह जायँगी, तभी उनका अस्त्रनिर्माण करूँगा ।’ तब देवताओं ने गौओं से कहा – ‘हम तुम्हारा मुख वज्र के समान किये देते हैं । तुम हमारे हित के लिये अस्त्र-शस्त्र निर्माण करने के उद्देश्य से दधीचि के शरीर को क्षणभर में विदीर्ण कर डालो और शुद्ध हड्डियाँ निकालकर दे दो ।’ देवताओं के आदेश से गौओं ने वैसा ही किया । उन्होंने दधीचि के शरीर को चाट-चाटकर हड्डियाँ निकाल लीं और देवताओं को दे दिन । देवता उत्साह के साथ अपने लोक में चले गये और गौएँ भी अपने स्थान को लौट गयीं ।
तदनंतर बहुत देर के बाद दधीचि की सुशीला पत्नी हाथ में जल से भरा हुआ कलश ले फल और फूलों से पार्वती देवी की अर्चना और वन्दना करके अग्नि, पति तथा आश्रम के दर्शन की उत्सुकता से शीघ्रतापूर्वक पैर बढाती हुई आयी । उससमय उनके गर्भ में बालक आ गया था । आश्रमपर पहुँचनेपर जब उन्होंने अपने स्वामी को नहीं देखा, तब बड़े विस्मय में पडकर अग्नि से पूछा – ‘मेरे पतिदेव कहाँ चले गये ?’ अग्नि ने जो कुछ हुआ था, सब सुना दिया । पति की मृत्यु का दुःखडी समाचार सुनकर वे दुःख और उद्वेग से पृथ्वीपर गिर पड़ी । उससमय अग्निदेव ने ही उन्हें धीरे-धीरे आश्वासन दिया ।
प्रातिथेयी बोली – मैं देवताओं को शाप देने में समर्थ नहीं हूँ, अत: स्वयं ही अग्नि में प्रवेश करूँगी । अब जीवन रखकर क्या होगा । संसार में जो वस्तु उत्पन्न होती हैं, वह सब नश्वर हैं; अत: उसके लिये शोक नहीं होना चाहिये । परन्तु मनुष्यों में वे ही पुण्य के भागी होते हैं जो गौ, ब्राह्मण तथा देवताओं के लिये अपने प्यारे प्राणों का उत्सर्ग कर देते हैं ।’
उत्पद्यते यत्तु विनाशि सर्व न शौच्यमस्तीति मनुष्यलोके । गोविप्रदेवार्थमिह त्पजन्ति प्राणान प्रियानुपुण्यभाजोमनुष्य: ।।
इस परिवर्तनशील संसारचक्र में धर्मपरायण तथा शक्तिशाली शरीर पाकर जो प्राणी देवताओं तथा ब्राह्मणों के लिये अपने प्यारे प्राणों का त्याग करते हैं, वे ही धन्य हैं । जिसने देह धारण किया हैं, उसके प्राण एक – न – एक दिन अवश्य जायेंगे – यह जानकर जो ब्राह्मण, गौ, देवता तथा दीन आदि के लिये इन प्राणों का उत्सर्ग करते हैं, वे ईश्वर हैं ।
प्राणा: सर्वेऽस्यापि देहान्वितस्य यातारो यै संदेहलेश: । एवं ज्ञात्वा विप्रगोदेवदिनाद्यर्थ घैनानुतसृजन्तिश्वरास्ते ।।
यों कहकर उन्होंने अग्नियों का यथावत पूजन किया और अपना पेट चीरकर गर्भ के बालक को हाथ से निकाल दिया; फिर गंगा, पृथ्वी, आश्रम तथा आश्रम के वनस्पतियों और अन्न आदि ओषधियों को प्रणाम करके पति की त्वचा और लोम आदि के साथ चिता में प्रवेश करने का विचार किया । उससमय वे बोली – ‘मेरे गर्भका यह बालक पिता-मातासे हीन हैं, इसके कोई सगोत्र बन्धु भी नहीं हैं; अत: सम्पूर्ण भुतगण, ओषधियाँ तथा लोकपाल इसकी रक्षा करें । जो लोग माता-पितासे हीन बालक को अपने औरस पुर्त्रों के समान देखते और उसी भावसे रक्षा करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा आदि देवताओं के भी वन्दनीय हैं ।
ये बालकं मातृपितृप्रहीणं सनिर्विशेषं स्वतनुप्ररुढै : । पश्यन्ति रक्षन्ति तं एव नूनं ब्रह्मदिकानामपि वन्दनीय: ।।
यों कहकर दधीचिकी पत्नी ने बालक को पीपल के समीप रख दिया और स्वामी में चित्त लगाकर अग्निको प्रणाम किया; फिर अग्नि की परिक्रमा करके यज्ञपात्रों के साथ ही चिता में प्रवेश किया और पतिसहित दिव्यलोक को चली गयी । उससमय आश्रम के वनवासी वृक्ष भी रोने ले । प्रातिथेयी और दधीचि ने उनका अपने पुत्रों की भांति पालन किया था । मृग, पक्षी तथा वृक्ष सब रो –रोकर एक-दूसरे से कहने लगे – ‘हम पिता दधीचि और माता प्रातिथेय के बिना जीवित नहीं रह सकते । जो लोग स्वर्गवासी माता-पिता की संतानोंपर निरंतर स्वाभाविक स्नेह रखते हैं, वे ही पुण्यात्मा और कृतार्थ हैं ।
स्वर्गमासेदुषो: पित्रोंस्तदपत्येप्यकृत्रिमम । ये कुर्वन्त्यनिशं स्नेहं त एव कृतिनो नरा : ।।
दधीचि और प्रातिथेयी हमें जिस स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखा करते थे, वैसे सगे माता-पिता भी नहीं देखते । हमे धिक्कार हैं । हम पापी हैं, जो उनके दर्शन से वंचित हो गये । आजसे हम सब लोगों का यही निश्चय होना चाहिये कि यह बालक ही हमलोगों के लिये दधीचि और प्रातिथेयी हैं तथा यह बालक ही हमारा सनातन धर्म हैं ।’
यों कहकर वनस्पतियों और ओषधियों ने अपने राजा सोम के पास जाकर उत्तम अमृत की याचना की । सोमने उन्हें बहुत उत्तम अमृत दिया और वनस्पतियों ने वह लाकर बालक को दे दिया । अमृतसे तृप्त हुआ बालक शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा । पीपल के वृक्षोंने उसका पालन किया था, इसलिए वह पिप्पलाद के नामसे प्रसिद्ध हुआ । बड़ा होनेपर पिप्पलादने पीपल के वृक्षों से अत्यंत विस्मित होकर कहा – ‘लोक में यह देखा जाता हैं कि मनुष्यों से मनुष्य, पक्षियों से पक्षी तथा वनस्पतियों से वनस्पति उत्पन्न होते हैं; इसमें कहीं विषमता नहीं दिखायी देती । परन्तु मैं वृक्ष का पुत्र होकर हाथ-पैर आदिसे विशिष्ट जिव कैसे हो गया ।’ उनकी बात सुनकर वृक्षों ने क्रमश: उनके पिता दधीचि की मृत्यु और पतिव्रता माता के अग्निप्रवेश का सब समाचार कह सुनाया । सुनते ही वे दुःख से व्याप्त होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । उससमय वृक्षों ने धर्म और अर्थयुक्त वचन कहकर उन्हें सांत्वना दी । आश्वस्त होनेपर उन्होंने ओषधियों और वनस्पतियों से कहा, ‘जिन्होंने मेरे पिताकी हत्या की हैं, उनका मैं भी वध करूँगा, अन्यथा जीवित नहीं रह सकता । जो पिताके मित्र और शत्रु होते हैं, उनके साथ पुत्र भी वैसा ही बर्ताव करता हैं । जो ऐसा करता हैं, वही पुत्र हैं । जो इसके विपरीत आचरण करता हैं, वह पुत्र के रूपमें शत्रु माना गया हैं ।’
तब वृक्षों ने कहा – महाद्युते ! तुम्हारी माता ने परलोक में जाते समय यह उद्धार प्रकट किया था – ‘जो दूसरों के द्रोह में लगे रहते हैं, जो अपने कल्याण की बातें भूल जाते हैं तथा जो भ्रांतचित्त होकर इधर-उधर भटकते हैं, वे नरक के गड्डे में गिरते हैं ।’ माताकी कही हुई वह बात सुनकर पिप्पलाद कुपित होकर बोले –‘जिसके अंत:करण अपमान की आग प्रज्वलित हो रही हो, उसके सामने साधुता की बातें व्यर्थ हैं ।’ फिर उन्होंने भगवान् चक्रेश्वर महादेव के स्थानपर जाकर उनसे कहा – ‘मुझे तो शत्रुओं का नाश करने के लिये कोई शक्ति दीजिये ।’ पिप्पलाद के इतना कहते ही भगवान् शंकर के नेत्रों से भयंकर कृत्या प्रकट हुई । उसकी आकृति बडवा (घोड़ी) के समान थी } सम्पूर्ण जीवों का विनाश करने के लिये उसने अपने गर्भ में भयंकर अग्नि छिपा रखी थी । मृत्यु की लपलपाती हुई जीभ के समान वह महारौद्ररूपा भीषण कृत्या पिप्पलाद से बोली- ‘बताओ, मुझे क्या करना है ?’ पिप्पलादने कहा – ‘देवता मेरे शत्रु हैं । उन्हें खा जा ।’ फिर तो उस बडवाके गर्भ से महाभयंकर अग्नि प्रकट हुई, जो समस्त लोकों का प्रलय करने में समर्थ थी । देवता उसे देखते ही थर्रा उठे और पिप्पलादद्वारा आराधित पिप्प्लेश नामसे प्रसिद्ध भगवान् शिवकी शरण में आये । उन्होंने भयभयित होकर शिवजी की स्तुति करते हुए कहा – ‘शम्भो ! आप हमारी रक्षा करें । कृत्या और उससे प्रकट हुई आग हमें बड़ा कष्ट दे रही हैं । सर्वेश्वर ! आप भयभीत मनुष्यों को अभय देनेवाले हैं । शिव ! जो सब ओर से सताये हुए, पीड़ित तथा श्रांतचित्त प्राणी हैं, उन सबकी आप ही शरण हैं । जगन्मय ! आप पिप्पलाद को शांत कीजिये ।’
‘बहुत अच्छा’ कहकर जगदीश्वर शिव ने पिप्पलाद के पास आकर उससे कहा – ‘बेटा ! देवताओं का नाश कर दिया जाय तो भी तुम्हारे पिता लौटकर नहीं आयेंगे । उन्होंने देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिये अपने प्राण दिये हैं । संसार में उनके समान दीन-दु:खियों का दयामय बन्धु कौन होगा । तुम्हारी पतिव्रता माता भी उन्हीं के साथ दिव्यलोक में चली गयी । यहाँ उनकी समता करनेवाली कौन स्त्री है । क्या लोपामुद्रा और अरुंधती भी उनकी बराबरी कर सकती हैं ? जिनकी हड्डियों से सम्पूर्ण देवता सदा विजयी और सुखी बने रहते हैं, वे तुम्हारे पिता कितने शक्तिशाली थे । उन्होंने जिस उज्ज्वल सुयश-राशिका उपार्जन किया हैं, उसे तुम्हारी माताने अपने दिव्य त्यागसे अक्षय बना दिया हैं । तुम उन्हीं के पुत्र हो । उनसे बढकर तुमने अभीतक कुछ नहीं किया । तुम्हारे प्रताप और भय से आज देवता स्वर्ग से भ्रष्ट हो चुके हैं । वे सोच नहीं पाते कि हम किस दिशाको भागकर जायँ । तुम उन्हें बचाओ । अमरों की रक्षा करो । आर्त्त प्राणियों की रक्षा से बढकर पुण्य कही भी नहीं हैं । मनुष्यलोक में जबतक मनोहर यश फैला रहता हैं तबतक एक-एक दिन के बदले एक-एक वर्ष के क्रम से दीर्घकालतक स्वर्गलोक में मनुष्य निर्विकार चित्तसे निवास करते हैं । इस जगतमें वे ही मुर्दे के समान हैं, जिन्होंने यश का उपार्जन नही किया, वे ही अंधे हैं, जिन्होंने शास्त्र नहीं पढ़े । वे ही नपुंसक हैं, जो सदा दान नहीं देते तथा वे ही शोक के योग्य हैं, जो सदा धर्मपालन में संलग्न नहीं रहते ।
मृतास्त एवात्र यशो न येशामन्धास्त एव श्रुतवर्जिता ये । ये दानशीला न नपुंसकास्ते ये धर्मशीला न त एव शोच्या: ।।
देवाधिदेव महादेवजी का यह वचन सुनकर पिप्पलाद मुनि शांत हो गये । उन्होंने भगवान् शिवको नमस्कार किया और हाथ जोडकर कहा – ‘जो मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा मेरे हितमें संलग्न रहकर मेरा उपकार करते रहते हैं, उनका तथा अन्य लोगों का हित करने के लिये मैं देवता आदि के पूजनीय उमासहित भगवान् शंकर को प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने मेरी रक्षा की, हमें पाल-पोसकर बड़ा किया, अपना सगोत्र और सहधर्मी बनाया, भगवान् शिव उनके मनोरथ पूर्ण करें । मैं बाल-चन्द्रमा का मुकुट धारण करनेवाले महादेवजी को नित्य प्रणाम करता हूँ । प्रभो ! जिन्होंने माता-पिता की भांति मेरा भरण-पोषण किया हैं, उनके नामसे तीनों लोकों के लिये यह तीर्थ हो । इससे उनका यश होगा और मैं उनके ऋण से उऋण हो जाऊँगा । पृथ्वीपर देवताओं के जो-जो क्षेत्र और तीर्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा इस तीर्थ का अधिक माहात्म्य हो । इस बात का यदि देवता लोग अनुमोदन करें तो मैं उनके अपराध क्षमा कर सकता हूँ ।’
पिप्पलाद ने यह बात इंद्र आदि सम्पूर्ण देवताओं के समाने कहीं और सबने आदरपूर्वक इसका समर्थन किया । बालक पिप्पलाद की बुद्धि, विनय, विद्या, शौर्य, बल, साहस, सत्यभाषण, माता-पिताके प्रति भक्ति तथा भाव-शुद्धि को जानकर शंकरजी ने उनसे कहा – ‘बेटा ! जो तुम्हारा अभीष्ट हो, उसे बताओं । वह तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा । तुम अपने मनमें अन्यथा विचार न करना ।’
पिप्पलाद बोले – महेश्वर ! जो धर्मनिष्ठ पुरुष गंगाजी में स्नान करके आपके चरणकमलों का दर्शन करते हैं, उन्हें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त हों और शरीरका अंत होनेपर वे शिव के धाम में जायँ । नाथ ! मेरे पिता और माता आपके चरणों में पड़े थे । ये पीपल और देवता भी आपके स्थान में आकर सुखी हुए हैं । ये सब लोग सदा आपका दर्शन करें और आपके ही धाम जायँ ।
पिप्पलाद की यह बात सुनकर देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे उनके भयसे मुक्त हो इस प्रकार बोले – ‘ब्रह्मन ! तुमने वही किया हैं, जो देवताओं को अभीष्ट था । देवाधिदेव भगवान् शिवकी आज्ञा का भी पालन किया और पहले वरदान भी दूसरों के ही लिये माँगा, अपने लिये नहीं; इसलिये हम भी संतुष्ट होकर तुम्हें कुछ देना चाहते हैं । तुम हमसे कोई वर माँगों ।’
पिप्पलाद ने कहा – देवताओं ! मैं अपने माता-पिताको देखना चाहता हूँ । मैंने केवल उनका नाम सुना हैं । संसार में वे ही प्राणी धन्य हैं, जो माता-पिता के अधीन रहकर उनकी सेवा-शुश्रूषा करते हैं । अपनी इन्दिर्यों को, शरीर को, कुल, शक्ति और बुद्धि को माता-पिताके कार्यमें लगाकर पुत्र कृतकृत्य हो जाता हैं । यदि मैं उनका दर्शन भी पा जाऊँ तो मेरे मन, वचन, शरीर और क्रियाओं का फल प्राप्त हो जायगा ।
पिप्पलाद मुनिका यह कथन सुनकर देवताओं ने परस्पर सलाह करके कहा – ‘ब्रह्मन ! तुम्हारे माता-पिता दिव्य विमानपर आरूढ़ हो तुम्हें देखने के लिये आते हैं । तुम भी निश्चय ही उन्हें देखोगे । विषाद छोडकर अपने मनको शांत करो । देखो, देखो, वे श्रेष्ठ विमानपर बैठे आ रहे हैं । उनके दिव्य शरीरपर स्वर्गीय आभूषण शोभा पाते हैं ।’ पिप्पलाद ने भगवान् शिवके समीप अपने माता-पिताको देखकर प्रणाम किया । उससमय उनके नेत्रों में आनंद के आँसू भर आये थे । वे किसी तरह गद्गद कंठ से बोले – ‘अन्य कुलीन पुत्र अपने माता-पिताको तारते हैं; किन्तु मैं ऐसा भाग्यहीन हूँ, जो अपनी माताके उदर को विदीर्ण करनेमें कारण बना ।’
उस समय उसके माता-पिताने कहा – ‘पुत्र ! तुम धन्य हो, जिसकी कीर्ति स्वर्गलोकतक फैली हैं । तुमने भगवान् शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया और देवताओं को सांत्वना दी । तुम-जैसे पुत्रसे पितरों के उत्त्तम लोक कभी क्षीण नहीं होते ।’ इसीसमय पिप्पलाद के मस्तकपर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । देवताओं ने जय-जयकार किया । पत्नीसहित दधिचिने भी पुत्र को आशीर्वाद दिया और शंकर, गंगा तथा देवताओं को नमस्कार करके पिप्पलाद से कहा – ‘बेटा ! विवाह करके भगवान शिव की भक्ति और गंगाजी का सेवन करो । पुत्रों की उत्पत्ति करके विधिपूर्वक दक्षिणासहित यज्ञों का अनुष्ठान करो और सब प्रकार से कृतार्थ हो दीर्घकाल के लिये दिव्यलोक में स्थान प्राप्त करो ।’
पिप्पलाद ने कहा – पिताजी ! मैं ऐसा ही करूँगा । तदनंतर पत्नीसहित दधिची पुत्र को बारंबार सांत्वना दे देवताओं की आज्ञा ले पुन: दिव्यलोक में चले गये । इसके बाद देवताओं ने भगवान् शिवसे कहा – ‘जगदीश्वर ! अब दधीचि की हड्डियों की , हमारी तथा इन गौओं की पवित्रता के लिये कोई उपाय बताइये ।’ शिवने कहा – ‘गंगाजी में स्नान करके सम्पूर्ण देवता और गौएँ पापमुक्त हो सकती हैं । इसीप्रकार दधीचि के शरीर शरीर की हड्डियाँ भी गंगाजी के जल में धोने से पवित्र हो जायँगी ।’ शिवजी की आज्ञा के अनुसार देवता स्नान करके शुद्ध हो गये और हड्डियाँ धोनेमात्र से पवित्र हो गयीं । जहाँ देवता पापमुक्त हुए, वह ‘पापनाशन’ तीर्थ कहलाता हैं । वहाँ का स्नान और दान ब्रह्महत्याका नाश करनेवाला हैं । जहाँ गौएँ पवित्र हुई, उस स्थान का नाम ‘गो-तीर्थ’ हुआ । जहाँ दधीचि की हड्डियाँ पवित्र की गयीं, उसे ‘पितृतीर्थ’ जानना चाहिये । वह पितरों की प्रसन्नता को बढानेवाला हैं । जिस किसी प्राणी के, वह कितना ही पापी क्यों न हो, शरीर की राख, हड्डी, नख और रोएँ , उस तीर्थ में पड जाते हैं, वह तबतक स्वर्गलोक में निवास करता है जबतक कि चन्द्रमा, सूर्य और तारों का अस्तित्व बना रहता हैं । इसप्रकार उस तीर्थ से तीन तीर्थ प्रकट हुए । उससमय देवताओं और गौओं ने पवित्र होकर भगवान शंकर से कहा – ‘हमलोग अपने-अपने स्थान को जायँगे । यहाँ सूर्यदेव की प्रतिष्ठा की गयी हैं । इनके प्रतिष्ठित होने से सब देवता प्रतिष्ठित हो जायेंगे । इसलिये आप हमें आज्ञा दें । सनातन सूर्यदेव स्थावर-जंगमरूप जगत के आत्मा हैं । जहाँ जगज्जननी गंगा और साक्षात भगवान् त्रिम्बक विराज रहे हैं, वहाँ प्रतिष्ठान नामक तीर्थ भी हो ।’
यों कहकर देवताओं ने पिप्पलाद से भी अनुमति ली और अपने –अपने निवासस्थान को चले गये । वहाँ जितने पीपल थे, कालान्तर में अक्षय स्वर्ग को प्राप्त हुए । प्रतापी पिप्पलाद ने उस क्षेत्र के अधिष्ठाता देवताके रुपमे भगवान् शंकर की स्थापना करके उनका पूजन किया । फिर गौतम की कन्या को पत्नीरूप में प्राप्त करके कई पुत्र उत्पन्न किये, लक्ष्मी और यज्ञ का उपार्जन किया तथा अंत में वे सुहज्जनों के साथ स्वर्गलोक को चले गये । तबसे वह क्षेत्र पिप्पलेश्वरतीर्थ कहलाने लगा । वह सब यज्ञों का फल देनेवाला पवित्र तीर्थ हैं । उसके स्मरणमात्र से पापों का नाश हो जाता हैं । फिर स्नान, दान और सूर्य के दर्शन से जो लाभ होता हैं, उसके लिये तो कहना ही क्या हैं । वहाँ देवाधिदेव महादेवजी के दो नाम हैं – चक्रेश्वर और पिप्पलेश्वर । इस रहस्य को जानकर मनुष्य सब अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं । देवमंदिर में सूर्य की प्रतिष्ठा होने से वह क्षेत्र प्रतिष्ठान कहलाया, जो देवताओं को भी बहुत प्रिय है । यह उपाख्यान अत्यंत पवित्र हैं । जो मनुष्य इसका पाठ अथवा श्रवण करता हैं , वह दीर्घजीवी, धनवान और धर्मात्मा होता हैं तथा अंत में भगवान् शंकर का स्मरण करके उन्हीं को प्राप्त कर लेता हैं ।
अध्याय- 50 नागतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – नागतीर्थ के नामसे जो प्रसिद्ध क्षेत्र हैं, वह सब अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला तथा मंगलमय हैं । वहां भगवान् नागेश्वर निवास करते है । उनके माहात्म्य की विस्तृत कथा भी सुनो । प्रतिष्ठानपुर में चन्द्रवंशी राजा शूरसेन राज्य करते थे । वे समस्त गुणों के सागर और बुद्धिमान थे । उन्होंने अपनी पत्नी के साथ पुत्र उत्पन्न होने के लिये बड़े-बड़े यत्न किये । दीर्घकाल के पश्चात उन्हें एक पुत्र हुआ, किन्तु वह भयानक आकारवाला सर्प था । राजाने उस पुत्र को बहुत छिपाकर रखा । किसीको इस बातका पता न लगा कि राजाका पुत्र सर्प हैं । अंत:पुर अथवा बाहरका मनुष्य भी इस भेदसे परिचित न हो सका । माता-पिता के सिवा धाय, अमात्य और पुरोहित भी यह बात नहीं जानते थे । उस भयंकर सर्पको देखकर पत्नीसहित राजाको प्रतिदिन बड़ा संताप होता था । वे सोचते, सर्परूप पुत्रकी अपेक्षा तो पुत्रहीन रहना ही अच्छा हैं । वह था तो बहुत बड़ा सर्प, किन्तु बातें मनुष्यों की –सी करता था । उसने पितासे कहा – ‘मेरे चूडाकरण, उपनयन तथा वेदाध्ययन-संस्कार कराइये । द्विज जबतक वेदका अध्ययन नहीं करता, तबतक शुद्र के समान रहता हैं ।’
पुत्रकी यह बात सुनकर शूरसेन बहुत दु:खी हुए । उन्होंने किसी ब्राह्मण को बुलाकर उसके संस्कार आदि कराये । वेदाध्ययन समाप्त करके सर्पने अपने पितासे कहा – ‘नृपश्रेष्ठ ! मेरा विवाह कर दीजिये । मुझे स्त्री प्राप्त करनेकी इच्छा हो रही हैं । मेरा विश्वास हैं, ऐसा किये बिना आपका कोई भी कार्य सिद्ध न हो सकेगा । पुत्रका यह निश्चय जानकर राजाने अमात्यों को बुलाया और उसके विवाह के लिये इसप्रकार कहा – ‘मेरा पुत्र युवराज नागेश्वर सब गुणों की खान हैं । वह बुद्धिमान, शुर, दुर्जय तथा शत्रुओं को संताप देनेवाला हैं । उसका विवाह करना हैं । मैं बूढ़ा हुआ । अब पुत्रको राज्यका भार सौंपकर निश्चिन्त होना चाहता हूँ । आपलोग मेरे हित-साधन में तत्पर हो उसके विवाह के लिये प्रयत्न करे ।’
राजाकी बात सुनकर अमात्यगण हाथ जोडकर बोले – ‘महाराज ! आपके पुत्र सब गुणों में श्रेष्ठ हैं और आप भी सर्वत्र विख्यात हैं । फिर आपके पुत्रका विवाह करने के लिये क्या मन्त्रणा करनी है और किस बातकी चिंता ।’ अमात्यों के यों कहनेपर नृपश्रेष्ठ शूरसेन कुछ गम्भीर हो गये । वे उन अमात्यों को यह बताना नहीं चाहते थे कि मेरा बेटा सर्प हैं; तथा वे भी इस बातसे अपरिचित ही रहे । राजाने फिर कहा – ‘कौन कन्या गुणों में सबसे अधिक है तथा कौन राजा ऊँचे कुल में उत्पन्न, श्रीमान और उत्तम गुणों के आश्रय हैं ?’ राजाका यह कथन सुनकर अमात्यों में से एक परम बुद्धिमान पुरुष, जो महाराज के संकेत को समझनेवाले थे, उनका विचार जानकर बोले – ‘महाराज ! पुर्वदेश में विजय नामके एक राजा हैं । उनके पास घोड़े, हाथी और रत्नों की गिनती नहीं हैं । महाराज विजय के आठ पुत्र हैं, जो बड़े धनुर्धर हैं । उनकी बहिन भोगवती साक्षात लक्ष्मी के समान हैं । राजन ! वह आपके पुत्र के लिये सुयोग्य पत्नी होगी ।’
बूढ़े अमात्य की बात सुनकर राजाने उत्तर दिया – ‘राजा विजय की वह कन्या मेरे पुत्र के लिये कैसे प्राप्त हो सकती हैं, बताओ ।’
बूढ़े अमात्यने कहा – ‘महाराज ! आपके मनमें जो बात हैं, मैं उसे समज गया । अब आप मुझे कार्य-सिद्धि के लिये जानेकी आज्ञा दें ।’ महाराज शूरसेन ने भूषण, वस्त्र तथा मधुर वाणीसे बूढ़े मन्त्रीका सत्कार करके उन्हें बहुत बड़ी सेनाके साथ भेजा । वे पुर्वदेश में जाकर महाराज विजय से मिले और नाना प्रकार के वचनों तथा नीतिजनित उपायों से राजा को संतुष्ट किया । मंत्री ने राजकुमारी भोगवती और युवराज नाग का विवाह तय कर लिया । बूढ़े मंत्री लौट आये और शूरसेन से उन्होंने विवाह निश्चित होनेका सब वृतांत सुना दिया । तदनंतर बहुत समय व्यतीत हो जानेपर वृद्ध मंत्री अन्य सब सचिवों को साथ लेकर सहसा राजा विजय के वहाँ पहुँचे और इसप्रकार बोले – ‘राजन ! महाराज शूरसेन के राजकुमार नाग बड़े ही बुद्धिमान और गुणों के समुद्र हैं । वे स्वयं यहाँ आना नहीं चाहते । क्षत्रियों के विवाह अनेक प्रकारसे होते हैं । अत: यह विवाह शस्त्रों द्वारा हो जाय तो अच्छा हैं ।’
वृद्ध मंत्री की बात सुनकर राजा विजय ने उसे सत्य ही माना और भोगवती का विवाह शस्त्र के साथ ही शास्त्र विधि के अनुसार सम्पन्न हुआ । विवाह के पश्चात महाराज ने बड़े हर्ष के साथ बहुत सी गौएँ, सुवर्ण और अश्व आदि सामग्री दहेज में देकर क्न्याको विदा किया । साथ ही अपने अमात्यों को भी भेजा । बूढ़े मंत्री आदि सचिवों ने प्रतिष्ठान में आकर महाराज शूरसेन को उनकी पुत्रवधू समर्पित कर दी । राजा विजय ने जो विनयपूर्ण वचन कहे थे, उनको भी सुनाया और उनकी दी हुई दहेज की सामग्री – विचित्र आभूषण, दासियाँ तथा वस्त्र आदि निवेदन किये । इन सब कार्यों का सम्पादन करके वे लोग कृतकृत्य हो गये । राजकुमारी भोगवती के साथ जो विजय के अमात्य पधारे थे, उनका महाराज शूरसेन ने बड़े सम्मान के साथ स्वागत-सत्कार किया । जिसे सुनकर राजा विजय को प्रसन्नता हो, ऐसा बर्ताव करके सबको विदा किया । राजा विजय की कन्या रूपवती थी । वह सुन्दरी सदा अपने सास-ससुरकी सेवामें संलग्न रहती थी । भोगवती का पति अत्यंत भीषण महानाग रत्नों से सुशोभित एकांत गृह में सुगन्धित पुष्पों से बिछी हुई सुखद शय्यापर आराम करता था । उसने अपने माता-पितासे बार-बार कहा, ‘मेरी पत्नी राजकुमारी मेरे समीप क्यों नहीं आती ? ‘ पुत्रकी यह बात सुनकर उसकी माताने धाय से कहा – ‘तुम भोगवती से जाकर कहो. ‘तुम्हारा पति एक सर्प हैं । देखो, इसपर क्या कहती हैं ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर धाय भोगवती के पास गयी और एकांत में विनीत भाव से बोली – ‘कल्याणी ! मैं तुम्हारे पतिको जानती हूँ । वे देवता हैं । किन्तु यह बात किसीपर प्रकट न करना – वे मनुष्य नहीं, सर्प के रूपमें हैं ।’ धाय की बात सुनकर भोगवती ने कहा – ‘मनुष्य क्न्याको सामान्यत: मनुष्य ही पति मिला करता हैं; यदि देवजाति का पुरुष पतिरूप से प्राप्त हो, तब तो क्या कहना । वह तो बड़े पुण्य से मिलता हैं ।’ धाय ने भोगवती की बात सर्प से, उसकी मातासे और महाराज शूरसेन से भी कही । भोगवती ने भी धाय को बुलाकर कहा – ‘तुम्हारा कल्याण हो, मुझे मेरे स्वामीका दर्शन तो कराओ ।’
तब धाय ने उसे ले जाकर अत्यंत भयानक सर्प का दर्शन कराया । वह सुगन्धित फूलों से आच्छादित पलंगपर विराजमान था । एकांत गृह में रत्नों से विभूषित भयानक सर्प के आकर में बैठे हुए अपने स्वामी को देखकर भोगवती ने हाथ जोडकर कहा – ‘मैं धन्य और अनुगृहित हूँ, जिसके पति देवता हैं । पति ही स्त्री की गति हैं ।’ यह सुनकर नाग को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने हँसकर कहा – ‘सुन्दरी ! मैं तुम्हारी भक्ति से संतुष्ट हूँ । बोलो, तुम्हें क्या अभीष्ट वरदान दूँ ? तुम्हारे अनुग्रह से मेरी सम्पूर्ण स्मरणशक्ति जाग उठी हैं । मुझे पिनाकधारी देवाधिदेव भगवान् शंकर ने शाप दिया हैं । शेषनाग का पुत्र महाबलवान नाग जो भगवान् शंकर के हाथ का कंगण बना रहता है, वही मैं तुम्हारा पति हूँ और तुम भी वही पूर्वजन्म की मेरी पत्नी भोगवती हो । एक दिन भगवान् शंकर एकांत में पार्वतीजी के साथ बैठे थे । वहाँ पार्वतीजी ने एक बात कही, जिसे सुनकर भगवान् शिव ठठाकर हँस पड़े । उससमय मुझे भी हँसी आ गयी । इससे कुपित होकर भगवान् ने मुझे यह शाप दिया – ‘तू मनुष्य-योनिमें सर्परूप से जन्म लेकर ज्ञानी होगा ।’ कल्याणी ! यह शाप सुनकर तुमने और मैंने भी भगवान् को प्रसन्न करने की चेष्टा की । तब उन्होंने कहा –‘जब तुम गौतमी के तटपर मेरा पूजन करोगे और मैं तुम्हारे अंत:करण में ज्ञान का आधान करूँगा, उससमय तुम भोगवती के प्रसाद से शापमुक्त हो जाओंगे ‘ इसीलिये मुझपर यह संकट आया हैं । तुम मुझे गौतमी के तटपर ले चलो और मेरे साथ ही भगवान् की पूजा करो । इससे मेरा शाप छुट जायगा और हम दोनों पुन: भगवान् शिव का सान्निध्य प्राप्त करेंगे । कष्ट में पड़े हुए समस्त प्राणियों के लिये सदा भगवान् शिव ही परम गति हैं ।” पतिकी यह बात सुनकर भोगवती उन्हें साथ ले गौतमी-तटपर गयी और वहाँ गौतमी में स्नान करके उसने शिवका पूजन किया । इससे प्रसन्न होकर भगवान् नें उस सर्प को दिव्य रूप प्रदान किया । तब वह अपने माता-पितासे पूछकर शिवलोक में जानेको उद्यत हुआ । यह जानकर पिताने कहा – ‘बेटा ! तुम एक ही मेरे पुत्र और युवराज हो; इसलिये इस समस्त राज्य का पालन करो और बहुत-से पुत्र उत्पन्न करके मेरे स्वर्गगमन के पश्चात शिवलोक में जाओ ।’ पिताका यह कथन सुनकर नागराज ने कहा – ‘अच्छा, ऐसा ही करूँगा ।’ फिर वे इच्छानुसार रूपधारण करके अपनी पत्नी के साथ रहने लगे । पिता, माता और पुत्रों के साथ उन्होंने उस विशाल राज्यका उपभोग किया और जब पिता स्वर्गलोक में चले गये, तब अपने पुत्रों को राज्यपर बिठाकर वे पत्नी और अमात्य आदि के साथ शिवपुर में गये । तबसे वह तीर्थ नागतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । वहाँ भोगवती के द्वारा स्थापित भगवान नागेश्वर निवास करते हैं । उस तीर्थ में किया हुआ स्नान और दान सब तीर्थों का फल देनेवाला हैं ।
अध्याय- 51 मातृतीर्थ, अविघ्नतीर्थ और शेषतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – गौतमी के तटपर मातृतीर्थ के नाम से विख्यात जो उत्तम तीर्थ हैं, वह मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला हैं । जीव उसके स्मरण करनेमात्र से समस्त मानसिक चिंताओं से मुक्त हो जाता हैं । पूर्वकाल में देवताओं और असुरों के बीच बड़ा भयंकर संग्राम छिड़ा था । उससमय देवतालोग दानवों को परास्त न कर सके । तब मैं सब देवताओं के साथ शूलपाणि भगवान् शंकर के पास गया और हाथ जोडकर नाना प्रकार के वाक्योंद्वारा उनका स्तवन करने लगा _ ‘महेश ! जिस समय सम्पूर्ण देवताओं और असुरों ने एक-दूसरे से सलाह करके समुद्र का मंथन किया और उसमें से एक कालकूट विष निकला, उसे खा लेने में आपके सिवा दूसरा कौन समर्थ हो सकता था । जिसके सामने दूसरे देवता मस्तक झुकाते हैं तथा जो केवल फूलों की मार से तीनों लोकों को अपने अधीन करने में समर्थ हैं, वही कामदेव जब आपपर आक्रमण करने चला, तब स्वयं ही नष्ट हो गया । अत: आपसे बढकर शक्तिशाली दूसरा कौन हैं ।’
यह स्तुति सुनकर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और बोले –‘देवताओं ! बतलाओं, क्या चाहते हो ? मैं तुम्हें अभीष्ट वरदान दूँगा ।’ देवता बोले – ‘वृषभध्वज ! हमपर दानवों की ओर से बड़ा भारी भय उपस्थित हुआ हैं । आप वहाँ चलकर शत्रुओं का संहार और देवताओं की रक्षा करें । प्रभो ! हम आपसे सनाथ हैं ।’ देवताओं के इतना कहते ही भगवान् शंकर उस स्थानपर आये, जहाँ दैत्य युद्ध के लिये खड़े थे । वहाँ दैत्यों का शंकरजी के साथ घमासन युद्ध करते समय शंकरजी के ललाटसे पसीने की बुँदे गिरने लगीं । वे बुँदे जहाँ-जहाँ गिरी, वहाँ-वहाँ शिव के आकार की ही माताएँ प्रकट हो गयी । वे भगवान् महेश्वर से बोली – ‘आप आज्ञा दें तो हम सब असुरों को खा जायँ ।’ तब देवताओं से घिरे हुए भगवान् ने कहा –‘शत्रु जहाँ-जहाँ जायँ, सर्वत्र उनका पीछा करो । इस समय वे मेरे डर से रसातल में जा पहुँचे हैं । तुम भी रसातलतक उनके पीछे-पीछे जाओ ।’ यह आज्ञा पाकर सब माताएँ पृथ्वी छेदकर रसातल में पास लौट आयीं । माताओं के जाने से देवताओं के पास लौट आयी । माताओं के जाने से लौटने तक देवता गौतमी ने तटपर खड़े रहे । लौटनेपर देवताओं ने माताओं को वर दिया –‘संसार में जिसप्रकार शिव की पूजा होती है, उसीप्रकार माताओं की भी हो ।’ यों कहकर देवता अन्तर्धान हो गये और माताएँ वाही रह गयीं । जहाँ-जहाँ वे देवियाँ स्थित हुई, वह सब स्थान मातृतीर्थ माना जाता हैं । वे सभी तीर्थ देवताओं के लिये भी सेव्य हैं, फिर मनुष्य आदि के लिये तो बात ही क्या है । शिवजी के कथनानुसार उन तीर्थों में किया हुआ स्नान, दान और तर्पण – सब अक्षय होता है । जो मनुष्य मातृतीर्थों के इस उपाख्यान को प्रतिदिन सुनता, स्मरण रखता और पढ़ता हैं, वह दीर्घायु और सुखी होता हैं ।
मातृतीर्थ के अनन्तर अविघ्नतीर्थ हैं, जो सब विघ्नों का नाश करनेवाला हैं । नारद ! वहाँ का वृतांत भी बतलाता हूँ, भक्तिपूर्वक सुनो । “एक बार गौतमी के उत्तर-तटपर देवताओं का यज्ञ आरम्भ हुआ, किन्तु विघ्न-दोष के कारण उसकी समाप्ति नहीं हुई । तब सब देवताओं ने मुझ से और भगवान् विष्णु से इसका कारण पूछा । उससमय मैंने ध्यानस्थ होकर कारणका पता लगाया और कहा – ‘इसमें गणेशजी विघ्न डाल रहे हैं । इसीलिये इस यज्ञ की समाप्ति नहीं हो पाती । अत: सबलोग आदिदेव विनायक की स्तुति करे ।’ मेरा आदेश पाकर सब देवता गौतमी में स्नान करके आदिदेव गणेश की भक्तिपूर्वक स्तुति करने लगे ।
देवता बोले – सदा सब कार्यों में सम्पूर्ण देवता तथा शिव, विष्णु और ब्रह्माजी भी जिनका पूजन, नमस्कार और चिन्तन करते हैं, उन विघ्नराज गणेश की हम शरण लेते हैं । विघ्नराज गणेश के समान मनोवांछित फल देनेवाला कोई देवता नहीं हैं, ऐसा निश्चय करके त्रिपुरारि महादेवजी ने भी त्रिपुरवध के समय पहले उनका पूजन किया था । जिनका ध्यान करने से सम्पूर्ण देहधारियों के मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, वे अम्बिकानंदन गणेश इस महायज्ञ में शीघ्र ही हमारे विघ्नों का निवारण करें । ‘देवी पार्वती के चिन्तनमात्र से ही गणेशजी –जैसा पुत्र उत्पन्न हो गया । इससे सम्पूर्ण जगत में महान उत्सव छा गया हैं ।’ यह बात उन देवताओं ने अपने मुख से कही थी, जो नवजात शिशु के रूप में गणेशजी को नमस्कार करके कृतार्थ हुए थे । माताकी गोद में बैठे हुए और माता के मना करनेपर भी उन्होंने पिता के ललाट में स्थित चन्द्रमा को बलपूर्वक पकड़कर उनकी जटाओं में छिपा दिया, यह गणेशजी का बालविनोद था । यद्यपि वे पूर्ण तृप्त थे तो भी अधिक देरतक माताके स्तनों का दूध इसलिये पीते रहे कि कहीं बड़े भैया कार्तिकेय भी आकर न पीने लगें । उनकी बुद्धि में बालस्वभाववश भाई के प्रति ईर्ष्या भर गयी थी । यह देखकर भगवान शंकर ने विनोदवश कहा – ‘विघ्नराज ! तुम बहुत दूध पीते हो, इसलिये लम्बोदर हो जाओ ।’ यों कहकर उन्होंने उनका नाम ‘लम्बोदर; रख दिया । देवसमुदायसे घिरे हुए महेश्वर ने कहा – ‘बेटा ! तुम्हारा नृत्य होना चाहिये ।’ यह सुनकर उन्होंने अपने घुँघुर की आवाज से ही शंकरजी को संतुष्ट कर दिया । इससे प्रसन्न होकर शिवने अपने पुत्रको गणेश के पदपर अभिषिक्त कर दिया । जो एक हाथ में विघ्नपाश और दूसरे हाथ से कंधेपर कुठार लिये रहते हैं तथा पूजा न पानेपर अपनी माता के कार्य मेभी विघ्न डाल देते हैं, उन विघ्नराज के समान दूसरा कौन हैं । जो धर्म, अर्थ और काम आदि में सबसे पहले पूजनीय हैं तथा देवता और असुर भी प्रतिदिन जिनकी पूजा करते हैं, जिनके पूजन का फल कभी नष्ट नहीं होता , उन प्रथम-पूजनीय गणेश को हम पहले मस्तक नवाते हैं । जिनकी पूजा से सबको प्रार्थना के अनुरूप सब प्रकार के फलकी सिद्धि दृष्टीगोचर होती हैं, जिन्हें अपने स्वतंत्र सामर्थ्यपर अत्यंत गर्व हैं, उन बंधूप्रिय मूषकवाहन गणेशजी की हम स्तुति करते हैं । जिन्होंने अपने सरस संगीत, नृत्य, समस्त मनोरथों की सिद्धि तथा विनोद के द्वारा माता पार्वती को पूर्ण संतुष्ट किया है, उन अत्यंत संतुष्ट ह्रदयवाले श्रीगणेश की हम शरण लेते हैं ।
इस प्रकार देवताओं के स्तवन करनेपर गणेशजी ने उनसे कहा – देवताओं ! अब तुम्हारे यज्ञ में विघ्न नहीं पड़ेगा ।’ जब देवयज्ञ निर्विघ्न पूरा हो गया तब गणेशजी ने उन देवताओं से कहा- ‘जो लोग इस स्तोत्र से भक्तिपूर्वक मेरी स्तुति करेंगे, उन्हें कभी दरिद्रता और दुःख का सामना नहीं करना पड़ेगा । जो इस तीर्थ में आलस्य छोडकर भक्तिपूर्वक स्नान और दान करेंगे, उनके शुभ कार्य निर्विघ्न सिद्ध होंगे । इस बातका आपलोग भी अनुमोदन करें ।’ उनके इतना कहने के साथ ही देवताओं ने एक स्वर से कहा – ‘ऐसा ही होगा ।’ यज्ञ समाप्त होनेपर देवता अपने-अपने स्थान को चले गये । तबसे वह तीर्थ ‘अविघ्न’ तीर्थ कहलाने लगा । वह मनुष्यों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला तथा सम्पूर्ण विघ्नों का मिटानेवाला हैं ।
अविघ्नतीर्थ के बाद शेषतीर्थ हैं, वह भी समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं । मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ । रसातल के स्वामी महानाग शेष सम्पूर्ण नागों के साथ रसातल में रहने के लिये गये । परन्तु राक्षसों, दैत्यों और दानवों ने , जिनका रसातल में पहलेसे ही प्रवेश हो चूका था, नागराज को वहाँ से निकाल दिया । तब वे मेरे पास आकर बोले = ‘भगवन ! आपने राक्षसों को तथा हमलोगों को भी रसातल दे रखा हैं, किन्तु दैत्य और राक्षस हमें वहाँ स्थान नहीं देना चाहते; इसलिये आपकी शरण में आया हूँ ।’ तब मैंने नागसे कहा – ‘तुम गौतमी के तटपर जाओ, वहाँ महादेवजी की स्तुति करने से तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा । उनके सिवा दूसरा कोई तीनों लोकों में ऐसा नहीं हैं, जो सबके मनोरथ सिद्ध कर सके । मेरे कहने से शेषनाग वहाँ गये और गंगा में स्नान करके हाथ जोडकर देवेश्वर महादेवकी स्तुति करने लगे – ‘तीनों लोकों में स्वामी भगवान शंकर को नमस्कार हैं । जो दक्षयज्ञ के विध्वंसक, जगत के आदि विधात तथा त्रिभुवनरूप हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार हैं । जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, उन भगवान् सदाशिव को नमस्कार हैं । सबका संहार करनेवाले रुद्रदेव को नमस्कार हैं । भगवन ! आप सोम, सूर्य, अग्नि और जलरूप हैं; आपको नमस्कार हैं । जो सर्वदा सर्वस्वरूप और कालरूप हैं, उन भगवान् शिवको नमस्कार हैं । सर्वेश्वर शंकर ! मेरी रक्षा कीजिये । सर्वव्यापी सोमेश्वर ! शंकर ! मेरी रक्षा कीजिये । जगन्नाथ ! आपको नमस्कार हैं । मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ।’
इस स्तुतिसे प्रसन्न होकर महेश्वर ने नागराज को मनोवांछित वर दिया, जो देवताओं से शत्रुता रखनेवाले दैत्य, दानव तथा राक्षसों के विनाश में सहायक था । भगवान् ने शेषनाग को शूल देकर कहा – ‘इससे अपने शत्रुओं का संहार करो ।’ भगवान् शिव की यह आज्ञा पाकर शेषनाग सर्पों के साथ रसातल में गये । वहाँ उन्होंने शूल से अपने शत्रु दैत्य, दानव तथा राक्षसों का वध किया और फिर भगवान् शेशेश्वर का दर्शन करने के लिये वे गौतमी तटपर लौट आये । नागराज जिस मार्ग से आये थे, उसमें रसातल से वहाँतक छेद हो गया था । उस बिल से गौतमी गंगा का अत्यंत पुण्यदायक जल पातालगंगा में जा मिला । इसप्रकार उन दोनों का संगम हुआ । भगवान शेषेश्वर के सामने एक विशाल कुंड बनाकर शेषनाग ने उसमें हवन किया । उस कुंड में सदा अग्निदेव स्थित रहते हैं । उसमें गंगा के जलका संगम होने से वह जल गरम हो गया । महायशस्वी शेषनाग महादेवजी की आराधना करके पुन: अपने अभीष्ट स्थान रसातल में चले गये । तबसे वह तीर्थ नागतीर्थ एवं शेषतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला, पवित्र तथा रोग और दरिद्रता का नाशक हैं । उससे आयु एवं लक्ष्मी की भी प्राप्ति होती है । वह पवित्र तीर्थ स्नान और दान से मोक्ष देनेवाला है । जो मनुष्य इस प्रसंग का भक्तिपूर्वक श्रवण, पाठ अथवा मनन करता हैं, उसकी सब कामनाएँ पूर्ण होती हैं । जहाँ शेषेश्वरतीर्थ हैं और जहाँ शक्ति प्रदान करनेवाले भगवान् शिव हैं, वहाँ गौतमी के दोनों तटोपर इक्कीस सौ तीर्थ हैं, जो सब प्रकार की सम्पत्ति देनेवाले हैं ।
अध्याय- 52 अश्वत्थ-पिप्पलतीर्थ, शनैश्वरतीर्थ, सोमतीर्थ, धान्यतीर्थ और विदर्भा-संगम तथा रेवती –संगम-तीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – गोदावरी के उत्तर तटपर अश्वत्थ-तीर्थ, पिप्पल-तीर्थ और शनैश्वर-तीर्थ हैं । उनका फल सुनो । पूर्वकाल की बात हैं – देवताओं ने महर्षि अगस्त्य से अनुरोध किया था कि आप विन्ध्यपर्वत को आदेश देकर ऊपर उठने से रोकें । महर्षि अगस्त्य धीरे-धीरे सहस्त्रों मुनियों के साथ विन्ध्यपर्वत के समीप गये । उन्होंने देखा नगश्रेष्ठ विन्ध्य असंख्य वृक्षों से व्याप्त, सैकड़ो शिखरों से घिरा हुआ और बहुत ही ऊँचा हैं । ऊँचाई में वह मेरुगिरी और सूर्य से टक्कर ले रहा हैं । मुनिके आनेपर विन्ध्यपर्वत ने उनका आतित्य-सत्कार किया । मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य ने सब ब्राह्मणों के साथ विन्ध्यगिरी की प्रशंसा की और देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये इसप्रकार कहा – ‘पर्वतश्रेष्ठ ! मैं तत्त्वदर्शी मुनियों के साथ तीर्थयात्रा के उद्देश्य से दक्षिण दिशा की यात्रा करना चाहता हूँ , तुम मुझे जाने का मार्ग दो । मैं तुमसे आतिथ्य में यही माँगता हूँ – जबतक लौट न आऊँ, तबतक तुम नीचे होकर ही रहना । इसके विपरीत न करना ।’ विन्ध्यपर्वत ने कहा –‘बहुत अच्छा । ऐसा ही करूँगा ।’ महर्षि अगस्त्य उन मुनियों के साथ दक्षिण दिशा में चले गये । वे धीरे-धीरे गौतमी के तटपर पहुँचकर सांवत्सरिक यज्ञ में दीक्षित हो गये । उन्होंने ऋषियों के साथ एक वर्षतक के लिये यज्ञ आरम्भ कर दिया ।
उन दिनों कैटभ के दो पापी पुत्र राक्षस धर्म के कंटक हो रहे थे । उनका नाम था –अश्वत्थ और पिप्पल । वे देवलोक में भी प्रसिद्ध थे । ब्राह्मणों को पीड़ा देना उनका नित्यका काम था । ब्राह्मणों का कष्ट देख महर्षिगण गोदावरी के दक्षिणतटपर नियमपूर्वक तपस्या करनेवाले सुर्यपुत्र शनैश्वर के पास गये और उनसे उन राक्षसों के सब अत्याचार कह सुनाये । यह सुनकर शनैश्वर ब्राह्मण के वेश में रहनेवाले अश्वत्थ नामक राक्षस के पास गये और स्वयं भी ब्राह्मण बनकर उन्होंने उसकी परिक्रमा की । उन्हें परिक्रमा करते देख राक्षस ने ब्राह्मण ही समझा और प्रतिदिन की भांति माया करके उस पापी राक्षस ने उनको भी अपना ग्रास बना लिया । उसके शरीर में प्रवेश करके शनिने उनकी आँतों को देखा । शनि की दृष्टी पड़ते ही वह पापात्मा राक्षस वज्र के मारे हुए पर्वत की भांति क्षणभर में जलकर भस्म हो गया । अश्वत्थ को भस्म करके वे ब्राह्मणरूपधारी शनि दूसरे राक्षस के पास गये । वहाँ उन्होंने अपने को वेदाध्ययन करनेवाले ब्राह्मण के रूप में उपस्थित किया, मानो वे विनीत शिष्य थे और पिप्पल गुरु । पिप्पल ने पहले की ही भांति अन्य शिष्यों के समान शनिश्वर को भी अपना आहार बनाया, किन्तु उदर में प्रवेश करनेपर शनि ने उसकी आँतोपर दृष्टि डाली । उनके देखते ही वह भी जलकर भस्म हो गया । इसप्रकार उन दोनों को मारकर सुर्यपुत्र शनैश्वर मुनियों से पूछा –‘अब मेरे लिये कौन-सा कार्य है ? आपलोग बतायें ।’ मुनियों को बड़ा हर्ष हुआ । उन्होंने शनि को इच्छानुसार वर देना चाहा । शनैश्वर बोले – ‘जो मेरे दिन को नियम से रहकर अश्वत्थ का स्पर्श करें, उनके सब कार्य सिद्ध हो जायँ और मेरेद्वारा होनेवाली पीड़ा भी उन्हें न हो । जो मनुष्य अश्वत्थ-तीर्थ में स्नान करें, उनके भी सब कार्य सिद्ध हो जायँ । जो मानव शनिवार को प्रात: काल उठकर अश्वत्थ का स्पर्श करते हैं, उनकी समस्त ग्रहपीड़ा दूर हो जाय ।’ तबसे उस तीर्थ को अश्वत्थतीर्थ, पिप्पलतीर्थ और शनैश्वरतीर्थ भी कहते हैं । अगस्त्य, सात्रिक, याज्ञिक और संग आदि सोलह हजार एक सौ आठ तीर्थ वहाँ वास करते हैं । उन तीर्थों में किया हुआ स्नान और दान सम्पूर्ण यज्ञों का फल देनेवाला हैं ।
इसके आगे विख्यात सोमतीर्थ हैं । उसमें स्नान और दान करने से सोमपान का फल मिलता हैं । औषधियाँ पूर्वकाल से ही सम्पूर्ण जगत की माताएँ हैं । उन्हों में यज्ञ, स्वाध्याय और धर्मकार्य प्रतिष्ठित है । ओषधियों से ही समस्त रोगों का निवारण होता हैं । उन्हीं से अन्न की उत्पत्ति और सब के प्राणों की रक्षा होती है । एक दिन ओषधियों ने मुझसे कहा – ‘सर्वश्रेष्ठ ! हमलोगों को एक ऐसा पति दीजिये, जो राजा हो ।’ उनकी बात सुनकर मैंने कहा – ‘तुम सबको राजा पतिरूप में प्राप्त होगा ।’ तब उन्होंने पुन: प्रश्न किया – ‘इसके लिए हमें कहाँ जाना होगा ? ‘ मैंने कहा – ‘माताओं ! तुम गौतमी के तटपर जाओ । गौतमी के प्रसन्न होनेपर तुम्हें लोक्पुजित राजा की प्राप्ति होगी ।’ यह सुनकर वे वहाँ गयी और गौतमी की स्तुति करने लगी ।
ओषधियाँ बोली – भगवान शंकर की प्रियतमा पुण्यसलिला गौतमी ! यदि आप इस भूतलपर न आती तो संसार के प्राणी, जो नाना प्रकार की पापराशियों से तिरस्कृत एवं दु:खी हो रहे हैं, क्या करते । नदिश्वरि ! भूमंडल के मनुष्यों के सौभाग्य का अनुमान कौन कर सकता हैं, जिनके महापातकों का नाश करनेवाली आप जगन्माता गंगा उनके लिये सदा ही सुलभ हैं । तीनों लोकों की वन्दनीया जगज्जननी गंगा ! आपके वैभव को कोई नहीं जानता; क्योंकि कामदेव के शत्रु भगवान् शंकर भी आपको सदा मस्तकपर लिये रहते हैं । मनोवांछित फल देनेवाली माता । तुम्हें नमस्कार हैं । पापों का विनाश करनेवाली ब्रह्ममयी देवी ! तुम्हे नमस्कार हैं । भगवान् विष्णु के चरणकमलों से निकली हुई गंगा ! तुम्हे नमस्कार हैं । भगवान् शंकर की जटासे प्रकट हुई गौतमी देवी ! तुम्हें नमस्कार है ।
इसप्रकार स्तुति करनेवाली ओषधियों से गंगाजी ने कहा –‘देवियों ! बताओ, तुम्हें क्या दूँ ?’ औषधियाँ बोली –‘जगन्माता ! हमें अत्यंत तेजस्वी राजा को पतिरूप में दीजिये ।’
गंगाजी ने कहा – ‘माता औषधियों ! मैं अमृतरूप हूँ । तुन भी अमृतस्वरुपा हो । अत: तुम्हें तुम्हारे योग्य ही अम्रुतात्मा सोम को पतिरूप देती हूँ ।’ गौतमी के इस वरदान का देवताओं, ऋषियों, चन्द्रमा तथा औषधियों ने भी अनुमोदन किया । इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थान को चली गयी । जिस स्थानपर औषधियों ने समस्त पाप-संताप का निवारण करनेवाले, अमृतस्वरूप राजा सोम को पतिरूप में प्राप्त किया, वह सोमतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वहाँ स्नान और दान करने से पितर स्वर्ग में जाते हैं । जो प्रतिदिन इस प्रसंगको पढ़ता, सुनता अथवा भक्तिपूर्वक स्मरण करता हैं, वह दीर्घायु, पुत्रवान और धनवान होता हैं ।
तदनंतर धान्यतीर्थ हैं, जो मनुष्यों की सब अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं । वह सुकाल उपस्थित करनेवाला, कल्याणप्रद तथा मनुष्यों को सब प्रकार की आपत्ति से मुक्त करनेवाला हैं । राजा सोम को पतिरूप में पाकर औषधियां बहुत प्रसन्न हुई थी । उन्होंने सब लोगों तथा गंगाजी के सामने यह अभीष्ट वचन कहा – ‘वेदमें एक पवित्र गाथा हैं, जिसे वेदों के विद्वान जानते हैं । जिस भूमि में फसल उगी हुई है, वह माता के समान किंवा साक्षात माता ही हैं । जो गंगाजी के समीप उसका दान करता हैं, वह समस्त अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं । जो मानव खेती लगी हुई भूमि, गौ तथा ओषधियों को ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवरूप ब्राह्मण के लिये भक्तिपूर्वक दान देता हैं, उसका किया हुआ सब दान अक्षय होता हैं तथा वह अपने सम्पूर्ण अभिष्टों को प्राप्त कर लेता हैं । ओषधियाँ सोम राजा की प्रिया हैं और सोम भी ओषधियो के पति है – यह जानकर जो ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण को ओषधि (अन्न) दान करता हैं, वह सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं को पाता और ब्रह्म लोक में प्रतिष्ठित होता है । ओषधियाँ राजा सोम से बातचीत करती हुई कहती हैं – ‘राजन ! हम ब्रह्मरूपिणी और प्राणरूपिणी हैं । जो हमें ब्राह्मणों को दान करे, उसे तुम पार लगाओ । स्थावर-जंगमरूप जितना भी जगत हैं, वह सब हमलोगों से व्याप्त है । हव्य, कव्य, अमृत तथा जो कुछ भी भोजन के काम आता हैं, वह हमारा ही श्रेष्ठ अंश है – यह जानकर जो अन्न का दान करता हैं, राजन ! उसे पार लगाओ । राजा सोम ! जो भक्तिपूर्वक इस वैदिकी गाथा का श्रवण, स्मरण अथवा पाठ करे, उसे तुम पार लगाओ ।’
गंगा के किनारे जिस स्थानपर राजा सोम के साथ ओषधियों ने इस वैदिकी गाथा का पाठ किया था, वह धान्य-तीर्थ कहलाता हैं । उस दिनसे उसके कई नाम हो गये – ओषध्यतीर्थ, सौम्यतीर्थ, अमृततीर्थ, वेदगाथातीर्थ और मातृतीर्थ । जो मनुष्य इन तीर्थों में स्नान, जप, होम, दान, पितृ-तर्पण और अन्न-दान करता है, उसका वह सब कर्म अक्षय फल देनेवाला होता है । वहाँ दोनों तटपर एक हजार छ: सौ तीर्थ हैं, जो सब पापों का नाश करनेवाले और सब प्रकार की सम्पत्ति बढानेवाले हैं ।
वहाँ विदर्भा-संगम और रेवती-संगमतीर्थ भी हैं । अब उनका वृतांत बतलाऊँगा । पुराणवेत्ता पुरुष उसे जानते हैं । महर्षि भरद्वाज एक बड़े तपस्वी महात्मा थे । उनकी बहिन का नाम रेवती था । वह कुरुपा थी । उसका स्वर बड़ा विकृत था । प्रतापी भरद्वाज गंगाजी के दक्षिण-तटपर बैठकर बड़ी चिंता करने लगे कि ‘इस भयंकर आकारवाली अपनी बहिन का विवाह किसके साथ करूँ ? कोई भी तो इसे ग्रहण नहीं करता । अहो, किसीके कन्या न हो । कन्या केवल दुःख देनेवाली होती है । जिसके कन्या हो, उस प्राणी की जीते-जी पग-पगपर मृत्यु होती रहती है ।’ इसप्रकार वे अपने सुंदर आश्रमपर तरह – तरह विचार कर रहे थे । इतने में ही कठ नामके एक मुनि वहाँ भरद्वाज मुनि का दर्शन करने के लिये आये । उनकी अवस्था सोलह वर्ष की थी । शरीर सुंदर था । वे शांत, जितेन्द्रिय और सद्गुणों की खान थे । कठ ने आते ही भरद्वाज को प्रणाम किया । भरद्वाज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और आश्रमपर पधारने का कारण पूछा । कठ ने कहा – ‘मैं विद्यार्थी हूँ और इसी उद्देश्य से आपका दर्शन करने आया हूँ । जो उचित हो, वह कीजिये ।’ भरद्वाज ने कठ से कहा – ‘महामते ! तुम्हारी जो इच्छा हो, पढ़ो । मैं पुराण, स्मृति, वेद तथा अनेक प्रकार के धर्मशास्त्र-सब जानता हूँ । तुम शीघ्र अपनि रूचि बतलाओ । कुलीन, धर्मपरायण, गुरु-सेवक तथा सुनी हुई विद्या को तत्काल धारण करनेवाला शिष्य बड़े पुण्य से प्राप्त होता हैं ।
कठ ने कहा – ब्रह्मन ! मैं निष्पाप, सेवापरायण, भक्त, कुलीन और सत्यवादी शिष्य हूँ । मुझे अध्ययन कराइये ।
‘एवमस्तु’ कहकर भरद्वाज ने कठ को सम्पूर्ण विद्या पढायी । विद्या पाकर कठ बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने भरद्वाज से कहा –‘गुरुदेव ! आपको नमस्कार हैं । मैं आपके मनके अनुकूल दक्षिणा देना चाहता हूँ । आप कोई दुर्लभ वस्तु भी मांग सकते हैं । बताइये, क्या दूँ ? जो शिष्य अपने गुरु से विद्या प्राप्त करके भी उन्हें मोहवश दक्षिणा नहीं देते, वे जबतक सूर्य और चन्द्रमा की सत्ता रहती है तबतक नरक में पड़े रहते हैं ।’
भरद्वाज ने कहा – यह मेरी बहिन अभी कुमारी है; इसको विधिपूर्वक ग्रहण करो और पत्नी बनाओ । इसके प्रति प्रेमपूर्ण बर्ताव करना, यही मैं दक्षिणा माँगता हूँ ।
कठ ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरु के आदेश से विधिपूर्वक दी हुई रेवती का पाणिग्रहण किया और उसके सुंदर रूपकी प्राप्ति के लिये वहीँ रहकर देवेश्वर शंकर की आराधना की । रेवती ने भी शिव की प्रसन्नता के लिये उनका पूजन किया । इससे वह सुंदर रूपवती हो गयी । उसका प्रत्येक अंग मनोहर दिखायी देने लगा । अब उसके रूपकी कहीं समता नहीं थी । वहाँ रेवती के स्नान करने से जो जलकी धारा प्रकट हुई, वह ‘रेवती; नामकी नदी हुई,. जो रूप और सौभाग्य प्रदान करनेवाली हैं । फिर कठ ने उसकी पुण्यरूपता की सिद्धि के लिये नाना प्रकार के दभों (कुशों) से अभिषेक किया । इससे ‘विदर्भा’ नामक की नदी प्रकट हुई । जो मनुष्य रेवती और गंगा में श्रद्धापूर्वक स्नान करता हैं, वह सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता हैं । इसीप्रकार जो विदर्भा और गौतमी के संगम में स्नान करता हैं, उसे तत्काल भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है । वहाँ दोनों तटपर सौ उत्तम तीर्थ हैं, जो सब पापों के नाशक तथा सम्पूर्ण सिद्धियों के दाता हैं ।
अध्याय- 53 पूर्णतीर्थ और गोविन्द आदि तीर्थों की महिमा, धन्वन्तरि और इन्द्र्पर भगवान् की कृपा
ब्रह्माजी कहते हैं – गौतमी गंगा के उत्तर तटपर पूर्णतीर्थ हैं । वहाँ यदि मनुष्य अनजान में नहा ले तो भी कल्याण का भागी होता हैं । पूर्णतीर्थ के महात्म्य का वर्णन कौन कर सकता हैं, जहाँ स्वयं चक्रधारी भगवान् विष्णु और पिनाकधारी भगवान शंकर निवास करते हैं । पूर्वकाल में आयु के पुत्र धन्वन्तरि राजा थे । उन्होंने अश्वमेध आदि अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया, भांति-भांति के दान दिये तथा प्रचुर भोग भोगे । फिर भोगों की विषमता का अनुभव करके उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ । धन्वन्तरि यह जानते थे कि पर्वत के शिखरपर, गंगा नदी के किनारे, समुद्र के तटपर, शिव और विष्णु के मन्दिर में अथवा विशेषत: किसी पवित्र संगमपर किया हुआ जप, तप, होम-सब अक्षय होता हैं, इसलिये उन्होंने गंगा-सागर-संगमपर भारी तपस्या आरम्भ की ।
एक बार राजा धन्वन्तरि ने राज्य करते समय एक महान असुर को रणभूमि से मार भगाया था । इसका नाम था तम । वह एक हजार वर्षोतक राजा के भय से समुद्र में छिपा रहा । जब उसे मालुम हुआ कि राजा धन्वन्तरि विरक्त होकर वन में चले आये हैं और उनका पुत्र राज्यसिंहासनपर आसीन हुआ है, तब वह समुद्र से निकला और इस स्थानपर आया, जहाँ महाराज धन्वन्तरि गंगा तट का आश्रय ले जप और होम में संलग्न तथा ब्रह्मचिंतन में तत्पर थे । उसने सोचा, ‘इस बलवान राजाने मुझे अनेक बार नष्ट करने का प्रयत्न किया हैं, अत: मैं भी क्यों न अपने इस शत्रु को नष्ट कर डालूँ ।’ ऐसा निश्चय करके उसने माया से एक स्त्री का रूप बनाया और राजा के पास आया । वह मायामयी सुन्दरी तरुणी देखने में बड़ी मनोहर थी । उसने हँसते हुए नाचना और गाना आरम्भ किया । उस सुन्दरी को बहुत समयतक इस अवस्था में देख राजाने कृपापूर्वक पूछा – ‘कल्याणी ! तुम कौन हो ? किसके लिये इस गहन वनमें निवास करती हो और किसे देखकर तुम्हें इतना उल्लास-सा हो रहा हैं ?’
तरुणी बोली – राजन ! आपके रहते संसार में दूसरा कौन हैं, जो मेरे उल्लास का कारण हो सके । मैं इंद की लक्ष्मी हूँ । आपको सब भोगों से सम्पन्न देख बारंबार आपके सामने विचरती हूँ । अंसख्य पुण्य के बिना मैं सभीके लिये अत्यंत दुर्लभ हूँ ।
उसकी यह बात सुनकर राजा ने वह अत्यंत कठोर तपस्या त्याग दी और मन-ही-मन उसी का चिन्तन करने लगे । उसी के आश्रय तहत उसी के आज्ञा-पालन में रहने लगे । जब सब तरह से वे एकमात्र उसी की शरण में चले गये तब उनकी भारी तपस्या का नाश करके तम अन्तर्धान हो गया । इसी बीचमें मैं राजाको वर देने के लिये गया । वे तपोभ्रष्ट एवं विव्हल होकर मृतक के समान रो रहे थे । मैंने अनेक प्रकार की युक्तियों से महाराज धन्वन्तरि को सांत्वना दी और कहा – राजन ! तुम्हारा शत्रु तम तुम्हें तपस्या से भ्रष्ट करके कृतकार्य होकर चला गया । तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । प्राय: सभी तरुणी स्त्रियाँ पुरुष को पहले कुछ आनंद और पीछे भारी संताप देती हैं, फिर वह तो मायामयी थी; अत: उसका संतापप्रद होना क्या आश्चर्य की बात है ।
आनंदयन्ति प्रमदास्तापयन्ति च मानवम । सर्वा एव विशेषेण किमु मायावती तु सा ।।
तब राजा धन्वन्तरि का भ्रम दूर हुआ । वे हाथ जोडकर बोले – ब्रह्मन ! क्या करूँ ? तपस्या के पार कैसे जाऊँ ? मैंने उत्तर दिया – देवाधिदेव जनार्दन की यत्नपूर्वक स्तुति करो । उससे तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी । भगवान् विष्णु वेदवेद्य पुरातन परमात्मा हैं । उन्होएँ ही सम्पूर्ण जगत सृष्टि की है । तीनों लोकों में उनके सिवा दूसरा कोई पुरुष ऐसा नहीं हैं, जो प्राणियों के समस्त मनोरथों की सिद्धि कर सके । मेरी आज्ञा मानकर राजा धन्वन्तरि गिरिराज हिमालयपर चले गये और वहाँ दोनों हाथ जोडकर भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णु की स्तुति करने लगे ।
धन्वन्तरि बोले – सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले विष्णो ! आपकी जय हो । अचिन्त्य परमेश्वर ! आपकी जय हो । विजयशील अच्युत ! आपकी जय ह । गोपाल ! आपकी जय हो । लक्ष्मी के स्वामी, जगन्मय श्रीकृष्ण ! आपकी जय हो । भूतपते ! आपकी जय हो । नाथ ! आपकी जय हो । आप शेषनाग की शय्यापर शयन करनेवाले हैं, आपको नमस्कार हैं । सर्वव्यापी गोविन्द ! आपकी जय हो, जय हो । आप विश्वकी सृष्टि करनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । देव ! आपकी जय हो, जय हो । आप विश्वका पालन और धारण करनेवाले है । ईश ! आपकी जय हो । आप सदसत्स्वरूप हैं । माधव ! आपकी जय हो । आप धर्मनिष्ट परमात्मा को नमस्कार हैं । कामनाओं को पूर्ण करनेवाले और कामस्वरूप केशव ! आपकी जय हो । गुणों के सागर श्रीराम । आपकी जय हो । आप पुष्टि देनेवाले और पुष्टि के स्वामी हैं । आपकी जय हो, जय हो । कल्याणदाता । आपको नमस्कार हैं । सम्पूर्ण भूतों के पालक । आपकी जय हो । भूतेश्वर ! आपकी जय हो । आप मौन धारण करनेवाले हैं । आपको नमस्कार है । कर्मस्वरुप हैं । पीताम्बरधारी प्रभो ! आपकी जय हो । सर्वेश्वर ! आपकी जय हो । आप सर्वस्वरुप हैं । आप मंगलरूप प्रभु को नमस्कार हैं । नाथ ! आप सत्त्वगुण के अधिनायक हैं । आपकी जय हो, जय हो । आप सम्पूर्ण वेदों के ज्ञाता हैं । आपको मेरा नमस्कार है । आप ही जन्मदाता हैं और आप ही जन्म लेनेवाले प्राणियों के भीतर निवास करते हैं । आपकी जय हो ।परमात्मन ! आपको नमस्कार है । मुक्तिदाता ! आपकी जय हो । आप ही मुक्ति हैं । भोग प्रदान करनेवाले केशव ! आपकी जय हो । लोकप्रद परमेश्वर ! आपकी जय हो । पापों का नाश करनेवाले लोकेश्वर ! आपकी जय हो । भक्तवत्सल ! आपकी जय हो, जय हो । चक्र धारण करनेवाले परमेश्वर आपको प्रणाम है । मानदाता ! आपकी जय हो । आप ही मान है । विश्ववन्दित देव ! आपकी जय हो । धर्मदाता ! आपकी जय हो । आप धर्मस्वरुप हैं । संसार से पार लगानेवाले परमात्मन ! आपकी जय हो । अन्नदाता ! आपकी जय हो , जय हो । आप ही अन्न है । वाचस्पते ! आपको नमस्कार हैं । शक्तिदाता ! आपकी जय हो, आप ही शक्ति है । विजयका वरदान देनेवाले ईश्वर ! आपकी जय हो । यज्ञदाता ! आपकी जय हो । आप ही यज्ञ है । आपके नेत्र पद्मपत्र की तरह विशाल हैं । आपकी जय हो । दान देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । आप ही दान हैं । कैटभ का नाश करनेवाले नारायण ! आपकी जय हो । कीर्तिदाता ! आपकी जय हो । आप ही मूर्ति धारण करनेवाले हैं । सौख्यदाता । आपकी जय हो । आप ही सौख्यस्वरुप हैं । पावन को भी पावन बनानेवाले परमात्मन ! आपकी जय हो । शांतिदाता ! आपकी जय हो ! आप ही शान्ति है । भगवान् शंकर की भी उत्पात्ति के कारण ! आपकी जय हो । वित्तेश ! आपकी जय हो । वामन ! आपकी जय हो । ज्योति:स्वरुप ! आपकी जय हो । धूममयी पताकावाले ! आपकी जय हो । सम्पूर्ण जगत के लिए दातारूप परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । पुण्डरीकाक्ष ! आप ही त्रिलोकी में रहनेवाले जीवसमुदाय का क्लेश निवारण करने में दक्ष है । कृपानिधे ! विष्णो ! आप मेरे मस्तकपर अपना वरद हाथ रखिये ।
समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले शंख-चक्र-गदाधार भगवान् विष्णु ने इसप्रकार स्तुति करनेवाले धन्वन्तरि से वर माँगने को कहा । तब राजाने विनीत होकर कहा – ‘मैं देवताओं का राजा होना चाहता हूँ ।’ ‘तथास्तु’ कहकर भगवान वहाँ से अन्तर्धान हो गये और राजा धन्वन्तरि क्रमश: उन्नति करते हुए देवेन्द्रपद प्राप्त किया । पूर्वजन्म में किये हुए अनेक कर्मों के परिणामवश इंद्र को तीन बार अपने पद से भ्रष्ट होना पड़ा । वृत्रासुर का वध होनेपर नहुष के द्वारा इंद्र का पद छीना गया । इसके बाद इंद्र ने सिन्धुसेन की हत्या कर डाली । अत: उस पाप से भी उनके पदकी हानि हुई । तीसरी बार अहल्याके साथ समागम करने के कारण तथा अन्य कारणों से भी उन्हें पदभ्रष्ट होना पड़ा । इंद्र उन बातों को याद करके चिन्ताजनित संताप से उदास रहा करते थे । तदनंतर एक दिन उन्होंने बृहस्पतिजी से पूछा – ‘वागीश्वर ! क्या कारण हैं कि बीच-बीच में मुझे अपने राज्य से भ्रष्ट होना पड़ता हैं ? इसप्रकार पदभ्रष्ट होने की अपेक्षा तो निर्धन हो जजाना ही अच्छा है । कर्मों की गहन गतिको कौन ठीक-ठीक जानता है । सब पदार्थों के रहस्य को जानने में आपके सिवा और कोई समर्थ नहीं हैं ।’
तब बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा – ‘चलकर ब्रह्मजी से पूछो । वे ही भूत, भविष्य और वर्तमान की बातें जानते हैं । महामते ! जिस कारण से ऐसा होता है, वह सब वे बता देंगे ।’ ऐसा निश्चय करके वे दोनों मेरे पास आये और मूझे नमस्कार करके हाथ जोडकर बोले – -‘भगवान् ! किस दोष से शचिपति इंद्र अपने राज्य से भ्रष्ट होते हैं ? नाथ ! इस संदेह का निवारण कीजिये ।’
उनका यह प्रश्न सुनकर मैंने बहुत देरतक विचार किया । तत्पश्च्यत बृहस्पतिसे कहा – ‘ब्रह्मन ! खंडधर्म नामक दोष के कारण इंद्र को राज्यपद से च्युत होना पड़ता हैं । देश-काल आदि के दोष से, श्रद्धा और मन्त्र का अभाव होने से, यथावत दक्षिणा न देनेसे, असत वस्तुका दान करने से और विशेषत: देवता तथा ब्राह्मणों की अवहेलना के पातक से जो देहधारियों का अपना धर्म खंडित हो जाता हैं, उससे अत्यधिक मानसिक संताप का सामना करना पड़ता हैं । क्षोभपूर्ण चित्तसे किया हुआ धर्म भी अनिष्टका ही कारण होता है । उससे कार्य की सिद्धि नहीं होती । अपन धर्म पूर्ण न होनेपर कौन-सा अनिष्ट नहीं होता ।’ यों कहकर मैंने उनके पूर्वजन्म का वृतांत भी बतलाया । ‘पूर्वजन्म में इंद्र राजा आयु के पुत्र धन्वंतरि थे । उनकी तपस्या में तम नामक राक्षस ने विघ्न डाल दिया, फिर भगवान् विष्णु ने उस विघ्न का निवारण किया । इसतरह इनके पूर्वजन्मों में ऐसे वृतांत अनेक हो सकते हैं । उन्हों के फल से इन्हें कभी-कभी अपने राज्य से वंचित रहना पड़ता हैं ।’
मेरी बात सुनकर इंद्र और ब्रहस्पति दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने फिर मुझसे ही पूछा – ‘सुरश्रेष्ठ ! खंडधर्मत्व दोषका निवारण कैसे होगा ?’ तब मैंने पुन: सोचकर कहा – ‘सुनो; एक उपाय बताता हूँ, जो समस्त दोषों का हारक, समस्त सिद्धियों का कारक और दुःखमय संसारसागर से समस्त प्राणियों का तारक हैं । जिनके चित्त में संताप रहता हैं, उनको इसी उपाय की शरण लेनी चाहिये । यह समस्त जीवों को शान्ति प्रदान करनेवाला हैं । वह उपाय है – गौतमी देवी के तटपर जाकर भगवान् विष्णु और शिव की स्तुति करना ।’ यह सुनकर वे उसीसमय गौतमी के तटपर गये और स्नान करके बड़ी प्रसन्नता के साथ भगवान विष्णु और शिव की स्तुति करने लगे । इंद्र ने श्रीविष्णु की स्तुति की और बृहस्पति ने श्रीशिव की ।
इंद्र बोले – मत्स्य, कूर्म और वाराहरूप धारण करनेवाले भगवान् विष्णु को बारंबार नमस्कार है । नरसिंहदेव तथा वामन को भी नमस्कार है । हयग्रीवरूपधारी भगवान् को नमस्कार है । त्रिविक्रम ! आपको नमस्कार है । श्रीराम, बुद्ध और कल्किरूप भगवान को नमस्कार है । परमेश्वर ! आप अनंत एवं अच्युत हैं । आपको नमस्कार है । परशुरामरूपधारी ! आपको नमस्कार है । मैं इंद्र, वरुण और यम आपके ही स्वरुप हैं । आपको नमस्कार है । त्रिलोकीरूपधारी देवता परमेश्वर को नमस्कार है । भगवन ! आप अपने मुख में सरस्वती को धारण करते हैं और सर्वज्ञ हैं । आप लक्ष्मीवान है । अतएव लक्ष्मी को वक्ष:स्थलपर धारण करते हैं । पाप-ताप आपको छू भी नहीं सकते । आपकी बाँहे, जंघा तथा चरण अनेक हैं । कान, नेत्र तथा मस्तक भी बहुत हैं । आप ही वास्तव में सुखी है । आपको पाकर बहुत-से जीव सुखी हो गये । हरे ! आप करुणा के सागर हैं । मनुष्यों को तभीतक निर्धनता, मलिनता और दीनता का सामान करना पड़ता है, जबतक वे आपकी शरण में नहीं जाते ।
बृहस्पति बोले – ईश ! आप परम सूक्ष्म, ज्योतिर्मय, अनंत, ओंकारमात्र से अभिव्यक्त होनेवाले, प्रकृति से परे, चित्स्वरूप, आनंदमय और पूर्णरूप हैं । मुमुक्षु पुरुष आपका स्वरूप ऐसा ही बतलाते हैं । भगवन ! जिनके ह्रदय में एक भी कामना नहीं हैं अथवा जो सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर चुके हैं, वे भी पंचमहायज्ञोंद्वारा आपकी आराधना करते हैं और उसके फलस्वरूप आपके दिव्य धाम अथवा दिव्य स्वरूप में, जो संसार-सागर से परे हैं, प्रवेश कर जाते हैं । शम्भो ! वे निष्काम अथवा आप्तकाम पुरुष समत्वबुद्धि के द्वारा सब प्राणियों में आपका दर्शन करके क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जरा-मृत्युरूप छ: ऊर्मियों के प्राप्त होनेपर शांतभाव से रहते, ज्ञान के द्वारा कर्मफलों को त्याग देते और ध्यान के द्वारा आप में प्रवेश कर जाते हैं । मुझमें न जाति के धर्म हैं न वेद-शास्त्र का ज्ञान हिन् । न ध्यान का अभ्यास है और न मैं समाधि ही लगाता हूँ । केवल शांतचित्त भगवान शिव को, जो रूद्र, शिव और सोम आदि नामों से पुकारे जाते हैं, भक्ति के साथ प्रणाम करता हौं । भगवन ! आपके चरणों में भक्ति रखने से मुर्ख मनुष्य भी आपके मोक्षमय स्वरूप को प्राप्त कर लेता हैं । ज्ञान, यज्ञ, तप, ध्यान तथा बड़े-बड़े फल देनेवाले होम आदि कर्मों का सर्वोत्तम फल यही है कि भगवान सोमनाथ में निरंतर भक्ति बनी रहे । जगदाधार शिव ! सब जीवों के लिये सदा देखे और सुने हुए प्रिय फल की, स्वर्ग की तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिये आपकी यह भक्ति ही सीढी हैं । धीर पुरुष आपके चरणों की प्राप्तिरूपी फल के लिये दूसरी किसी सीढी को नहीं बतलाते । दयालो ! इसलिये आपके प्रति मेरी भक्ति बनी रहे । आपके श्रीविग्रह की सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता रहे । दूसरा कोई उपाय नहीं है । ईश्वर ! यद्यपि हमलोग पापी हैं, तथापि आप अपनी महिमा की ओर देखकर हमपर कृपा कीजिये । आप स्थूल, सूक्ष्म, अनादि, नित्य, पिता, माता, असत और सत्स्वरूप अं – श्रुतियों और पुरानों ने इसप्रकार जिनका स्तवन किया है, उन परमेश्वर सोमनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ ।
इन दोनों की स्तुतियों से भगवान विष्णु और शिव बहुत प्रसन्न हुए और बोले – ‘तुम दोनों अत्यंत दुर्लभ अभीष्ट वर मांगो ।’ तब इंद्र ने कहा – ‘भगवन ! मेरा राज्य बार-बार अधिकार में आता और छिन जाता हैं । जिस पापके कारण ऐसा होता हैं , वह पाप नष्ट हो जाय । यदि आप दोनों देवेश्वर अत्यंत प्रसन्न हों तो मेरा सब कुछ सदा स्थिर रहे ।’ यह सुनकर भगवान् शिव और विष्णु ने मुस्कराते हुए इंद्र के वाक्य का अनुमोदन किया और इसप्रकार कहा – ‘यह गोदावरी नदी ब्रह्मा, विष्णु और शिव – इन तीनों देवताओं से सम्बन्ध रखनेवाला महान तीर्थ हैं । यहाँ सबके मनोरथ पूर्ण होते हैं । तुम दोनों यहाँ श्रद्धापूर्वक स्नान करो । इंद्र के मंगल के लिये तथा उनके वैभव की स्थिरता के लिये बृहस्पति हम दोनों का स्मरण करते हुए इंद्र का अभिषेक करें तथा उससमय निम्नांकित मन्त्र भी पढ़े –
इह जन्मनि पूर्वस्मिन यत्किंचित सुकृतं कृतम । तत सर्व पूर्णतामेतु गोदावरि नमोऽस्तु ते ।।
‘गोदावरि ! मैंने इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में जो कुछ भी पुण्यकर्म किया हो, वह सब पूर्णता को प्राप्त हो । आपको नमस्कार है ।’
जो इसप्रकार स्मरण करके गौतमी गंगा में स्नान करता हैं, उसका धर्म हम दोनों की कृपासे परिपूर्ण होता है तथा वह साधक अपने पूर्वजन्म के दोष से भी मुक्त होकर पुण्यवान हो जाता हैं ।’
इंद्र और बृहस्पति ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान की आज्ञा स्वीकार की और दोनों प्रसन्न होकर उस कार्य में लग गये । देवगुरु ने इंद्र का महाभिषेक किया । उससे एक नदी प्रकट हुई, जो पुण्या और मंगला कहलायी । उस नदी के साथ जो गंगाजी का संगम हुआ, वह बड़ा ही पवित्र एवं कल्याणकारक है । इंद्र की स्तुति से प्रसन्न होकर जगन्मय भगवान विष्णु प्रत्यक्ष प्रकट हुए और उनसे इंद्र ने त्रिलोकी का राज्य प्राप्त किया । अत: (इन्द्रं गामविन्दयत – इस व्युत्पत्ति के अनुसार) भगवान वहाँ गोविन्द के नामसे विख्यात हुए, क्योंकि इंद्र ने उनसे त्रिलोकमयी गौ प्राप्त की थी । देवगुरु बृहस्पति ने जहाँ इंद्र के राज्य की स्थिरता के लिये महादेवजी का स्तवन किया, वहाँ वे सिद्धेश्वर नामसे निवास करते हैं । सिद्धेश्वर नामक शिवलिंग की सम्पूर्ण देवता भी पूजा करते हैं । तबसे वह तीर्थ गोविन्दतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । वहीँ मंगलासंगम, पूर्णतीर्थ, इंद्रतीर्थ और बार्हंस्पत्यतीर्थ भी है । उन तीर्थों में जो स्नान, दान अथवा किंचिन्मात्र भी पुण्य का उपार्जन किया जाता है, वह सब अक्षय होता हैं । वहाँ का श्राद्ध पितरों को अत्यंत प्रिय है । जो मनुष्य प्रतिदिन इस तीर्थ के माहात्म्य को सुनता, पढ़ता और स्मरण करता हैं उसे खोये हुए राज्य की प्राप्ति होती हैं । नारद ! वहाँ गौतमी के दोनों तटोंपर सैतीस हजार तीर्थ रहते हैं, जो सब प्रकार की सिद्धि देनेवाले हैं ।
अध्याय- 54 श्रीरामतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! रामतीर्थ भ्रूणहत्या का नाश करनेवाला हैं । उसकी महिमा के श्रवणमात्र से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है । इक्ष्वाकुवंश में दशरथ नाम के क्षत्रिय राजा हुए, जो सम्पूर्ण विश्व में विख्यात थे । वे इंद्र की ही भांति बलवान, बुद्धिमान और शूरवीर थे तथा बलि की भांति अपने पिता-पितामहों के राज्य का पालन करते थे । महाराज दशरथ के तीन रानियाँ थीं – कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी । वे तीनों कुलीन, सौभाग्यशालिनी, रूपवती और सुलक्षणा थीं । राजा दशरथ जब अयोध्या के राजसिंहासनपर आसीन थे और ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ वसिष्ठजी उनके पुरोहित के पदपर प्रतिष्ठित थे, उससमय देश में न रोग थे न मानसिक चिंताएँ । न तो अनावृष्टि होती थी और न अकाल ही पड़ता था । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों को और चारों आश्रमों को भी पृथक-पृथक बड़ा सुख मिलता था । एक समय की बात है, देवताओं और दानवों में राज्य के लिये युद्ध छिड़ गया । न तो उसमें देवताओं की जीत होती थी और न दैत्यों एवं दानवों की ही । वह युद्ध कई दिनोंतक लगातार चलता रहा । इसी बीचमें आकाशवाणी हुई – ‘राजा दशरथ जिनका पक्ष ग्रहण करेंगे, वे ही विजयी होंगे, दूसरे नहीं ।’ यह सुनकर देवता उअर दानव दोनों अपनी विजय के लिये राजा के पास चले । देवताओं की ओरसे वायु शीघ्र जा पहुँचे और राजा से बोले – ‘महाराज ! देव-दानव-संग्राम में आपको चलना चाहिये । वहाँ यह आकाशवाणी सुनायी दी है कि जिस ओर आज दशरथ रहेंगे, उसी पक्षकी जीत होगी; अत: आप देवताओं का पक्ष ग्रहण कीजिये, जिससे देवता विजयी हों ।’
वायुकी यह बात सुनकर राजा दशरथ ने कहा – ‘वायुदेव ! आप सुखपूर्वक पधारें । मैं अवश्य चलूँगा ।’ वायु के चले जानेपर दैत्यगण राजा के पास आये और बोले – ‘भगवन ! हमारी सहायता कीजिये । महाराज ! विजय आपपर ही अवलम्बित हैं, अत: आप दैत्यराज की सहायता करें ।’
राजा बोले – ‘वायुदेव ने पहले मुझसे प्रार्थना की है और मैंने देवताओं की सहायता करने का वचन दे दिया हैं; अत: दैत्य और दानव लौट जायँ ।’ राजा दशरथ ने वैसा ही किया । स्वर्ग में पहुँचकर उन्होंने दैत्यों, दानवों तथा राक्षसों के साथ लोहा लिया । उससमय नमुचि के भाइयों ने देवताओं के देखते-देखते तीखे बाण मारकर राजा के रथ की धुरी तोड़ डाली । राजा बड़े वेगसे युद्ध में लगे थे । उन्हें धुरी टूटने का पता न लगा । नारद ! उस युद्ध में रानी कैकेयी भी राजा के पास ही बैठी थी । उसे रथ की अवस्था का पता लग गया, परन्तु उसने राजाको इस बात की सूचना नहीं दी । धुरी टूटी देख उसने उसकी जगह अपना हाथ ही लगा दिया । यह बड़ा अद्भुत कार्य था । रथियों में श्रेष्ठ महाराज दशरथ ने कैकेयी के हाथ से थाँमें हुए रथ के द्वारा दैत्यों और दानवोंपर विजय पापी, फिर देवताओं से अनेक वर पाकर उनकी अनुमति ले वे पुन: अयोध्या लौट आये । आते समय मार्ग के बीच में जब महाराज दशरथ ने अपनी प्रिया कैकेयी की ओर दृष्टिपात किया, तब उसका वह साहसपूर्ण कार्य देखकर उन्हें बड़ा विस्मय हुआ । नारद ! इस कार्य से प्रसन्न होकर राजा ने कैकेयी को वर दिये । रानी कैकेयी ने भी राजाकी आज्ञा स्वीकार करके इसप्रकार कहा – ‘महाराज ! आपके दिये हुए ये वर आपके ही पास रहें ।
स तु मध्ये महाराजो मार्गे वीक्ष्य तदा प्रियाम । कैकेय्या: कर्म तद दृष्ट्वा विस्मयं परमं गत: ।। ततस्तस्यै वरान प्रादात्त्रींस्तु नारद सा अपि । अनुमान्य नृपप्रोर्क्त कैकेयी वाक्यमत्रवीत ।। त्वयि तिष्ठन्तु राजेन्द्र त्वया दत्ता वरा अमी ।।
राजा दशरथ पुरस्कार में अनेक आभूषण देकर अपनी प्रिया कैकेयी के साथ अपने नगर को गये । विजयी होने से वे बहुत प्रसन्न थे । तदनंतर बहुत समय के बाद मुनीश्वर ऋष्यश्रुंगकी कृपा से देवताओं की कार्यसिद्धि के लिये राजा दशरथ के चार देवोपम पुत्र हुए । कौसल्या से राम, कैकेयी से बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भरत तथा सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुए । वे सभी पुत्र बुद्धिमान, प्रिय तथा राजा के आज्ञाकारी थे । एक वार महर्षि विश्वामित्र आये और उन्होंने यज्ञ की रक्षा के लिये राजा से राम और लक्ष्मण को माँगा । विश्वामित्र उनके महत्त्व को जानते थे ।
राजा दशरथ बोले – मुने ! इस बुढापेमें किसी तरह दैवयोग से मेरे ये बालक उत्पन्न हुए हैं, जो मेरे मनको आनंद देनेवाले हैं । मैं अपना शरीर और यह राज्य दे दूँगा, किन्तु इन पुत्रों को न दे सकूँगा ।
उस समय वशिष्ठने राजा दशरथसे कहा – ‘राजन ! रघुवंशियों ने किसी की प्रार्थना को ठुकराना नहीं सीखा हैं ।’ उनके यों कहनेपर राजाने किसी तरह श्रीराम और लक्ष्मण से कहा – ‘पुत्रो ! तुम ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करो ।’ यों कहकर उन्होंने अपने दोनों पुत्र विश्वामित्रजी को सौंप दिये । राम और लक्ष्मण ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजा दशरथ को नमस्कार किया और यज्ञ की रक्षा के लिये विश्वामित्रजी के साथ प्रसन्नतापूर्वक चल दिये । तब महर्षि विश्वामित्र ने उन दोनों भाइयों को माहेश्वरी महाविद्या, धनुर्वेद, शस्त्रविद्या, अश्वविद्या, गदाविद्या तथा मन्त्रद्वारा अस्त्रों के आवाहन और विसर्जन की शिक्षा दी । इसप्रकार सम्पूर्ण विद्याएँ प्राप्तकर श्रीराम और लक्ष्मण ने वनवासियों का हित करने के लिये वन में ताड़का को मार डाला और हाथ में धनुष लेकर यज्ञ की रक्षा करने लगे । तत्पश्चात महायज्ञ पूर्ण होनेपर मुनिवर विश्वामित्र दोनों राजकुमारों के साथ राजा जनक से मिलने गये । वहाँ लक्ष्मणसहित श्रीराम ने राजाओं को मंडली में आपने गुरुसे सीखी हुई अद्भुत धनुर्विद्या का परिचय दिया । इससे प्रसन्न होकर राजा जनक ने अपनी अयोनिजा कन्या लक्ष्मीस्वरूपा सीता का श्रीराम के साथ विवाह कर दिया । इसीप्रकार लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का विवाह भी राजा जनक के ही घर हुआ । तदनन्तर दीर्घकाल व्यतीत होनेपर राजा दशरथ समस्त प्रजा और गुरु की अनुमति से श्रीराम को राज्य देने लगे । उससमय मंथरारूपी दुर्दैव से प्रेरित होकर रानी कैकेयी ईर्ष्या से व्याकुल हो उठी । उसने श्रीराम के राज्याभिषेक में विघ्न डाला और उन्हें वनवास भेजने के लिये कहा । साथ ही उसने वही राज्य भरत के लिये माँगा, परन्तु राजाने स्वीकार नही किया । पिताके सत्य की रक्षा के लिये श्रीराम स्वयं ही घोर जगंल में चले गये । सीता और लक्ष्मण ने भी उन्हीं का साथ दिया । श्रीराम ने अपने सद्गुणों के कारण सत्पुरुषों के शुद्ध ह्रदय में घर बना लिया था । जब श्रीराम राज्य की तृष्णा से रहित और वनवास के लिये दीक्षित हो लक्ष्मण और सीता के साथ चले गये, तब राम, लक्ष्मण और गुणशालिनी सीता का स्मरण करके महाराज को बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने प्राण त्याग दिये । इधर श्रीरामचंद्रजी चलते-चलते चित्रकूट में आये । वहीँ उन्होंने तीन वर्ष व्यतीत किये । फिर वहाँ से दक्षिण दिशाकी ओर चलकर वे क्रमशः दण्डकारण्य में पहुँचे, जो समस्त देशों में पवित्र और तीनों लोकों में विख्यात है । वह महान वन दैत्यों से सेवित होने के कारण बड़ा भयंकर था । ऋषियों ने भयभीत होकर उसे छोड़ दिया था । श्रीराम ने वहाँ दैत्यों और राक्षसों को मारकर दंडकवनको ऋषि-मुनियों के रहनेयोग्य बना दिया । फिर पाँच योजन आगे जाकर वे धीरे-धीरे गौतमी के तटपर पहुँचे । भगवान शिव की जो पुंजीभूत एवं अनिवर्चनीय पराशक्ति हैं, वही जलस्वरूप में प्रकट हुई गौतमी नदी है – ऐसे संत-महात्माओं का कथन हैं । गौतमी ब्रह्मा, विष्णु और शिव के लिये भी माननीय तथा वन्दनीय है ।
श्रीराम बोले – अहो, गंगा का कैसा अद्भुत प्रभाव है ! तीनों लोकों में इनकी कहीं उपमा नहीं है । हम धन्य हैं कि इन त्रिभुवनपावनी गंगा का दर्शन पा सके ।
यों कहकर श्रीराम ने बड़े हर्ष के साथ महादेवजी की स्थापना की और यत्नपूर्वक षोडशोपचार से छत्तीस कलाओंवाले महादेवजीकी आवरणसहित पूजा करके हाथ जोड़ उनकी स्तुति करने लगे ।
श्रीराम बोले – मैं पुराणपुरुष शम्भु को नमस्कार करता हूँ । जिनकी असीम सत्ताका कहीं पार या अंत नहीं है, उन सर्वज्ञ शिव को मैं प्रणाम करता हूँ । अविनाशी प्रभु रूद्र को नमस्कार करता हूँ । सबका संहार करनेवाले शर्व को मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । अविनाशी परमदेव को नमस्कार करता हूँ । लोकगुरु उमापति को प्रणाम करता हूँ । दरिद्रता का विनाश करनेवाले शिव को नमस्कार करता हूँ । रोगों का अपहरण करनेवाले महेश्वर को प्रणाम करता हूँ । जिनका रूप चिन्तन का विषय नहीं हैं, उन कल्याणमय शिवको नमस्कार करता हूँ । विश्व की उत्पत्ति के बीजभूत भगवान भव को प्रणाम करता हूँ । जगतका पालन करनेवाले परमात्मा को नमस्कार करता हूँ । संहारकारी रूद्रको बारंबार प्रणाम करता हूँ । पार्वतीजी के प्रियतम अविनाशी प्रभु को नमस्कार करता हूँ । नित्य, क्षर-अक्षरस्वरूप शंकर को प्रणाम करता हूँ । जिनका स्वरूप चिन्मय है और अप्रमेय हैं, उन भगवान् त्रिलोचन को मैं मस्तक झुकाकर बारंबार नमस्कार करता हूँ । करुणा करनेवाले भगवान शिव को प्रणाम करता हूँ तथा संसार को भय देनेवाले भगवान् भूतनाथ को सर्वदा नमस्कार करता हूँ । मनोवांछित फलों के दाता महेश्वर को प्रणाम करता हूँ । भगवती उमाके स्वामी श्रीसोमनाथ को नमस्कार करता हूँ । तीनों वेद जिनके तीन नेत्र हैं, उन त्रिलोचन को प्रणाम करता हूँ । त्रिविध मुर्तिसे रहित सदा शिव को नमस्कार करता हूँ । पुण्यमय शिव को प्रणाम करता हूँ । सत-असतसे पृथक परमात्मा को नमस्कार करता हूँ । पापों का अपहरण करनेवाले भगवान हर को प्रणाम करता हूँ । जो सम्पूर्ण विश्व के हितमें लगे रहते हैं, उन भगवान को नमस्कार करता हूँ । जो बहुत-से रूपधारण करते हैं, उन भगवान् शंकर को प्रणाम करता हूँ । जो संसार के रक्षक तथा सत और असत के निर्माता हैं, उन्हें नमस्कार करता हूँ । जो सम्पूर्ण विश्व के स्वामी हैं, उन विश्वनाथ को प्रणाम करता हूँ । हव्य-कव्यस्वरुप यज्ञेश्वर को नमस्कार करता हूँ । सम्पूर्ण लोकों का सर्वदा कल्याण करनेवाले जो भगवान शिव आराधना करनेपर उत्तम गति एवं सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करते हैं , उन दानप्रिय इष्टदेव को मैं नमस्कार करता हूँ । भगवान सोमनाथ को प्रणाम करता हूँ । जो स्वतंत्र न रहकर भक्तों के पराधीन रहते हैं, उन विजयशील उमानाथ को मैं नमस्कार करता हूँ । विघ्नराज गणेश तथा नंदी के स्वामी पुत्रप्रिय भगवान शिवको मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । संसार के दुःख और शोक का नाश करनेवाले देवता भगवान चंदशेखर को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ । जो स्तुति करने योग्य और मस्तकपर गंगा को धारण करनेवाले हैं, उन महेश्वर को नमस्कार करता हूँ । देवताओं में श्रेष्ठ उमापति को प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा आदि ईश्वर, इंद्र आदि देवता तथा असुर भी जिनके चरण-कमलों की पूजा करते हैं, उन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने पार्वतीदेवी के मुख से निकलनेवाले वचनोंपर दृष्टिपात करने के लिये मानो तीन नेत्र धारण कर रखे हैं, उन भगवान् को प्रणाम करता हूँ । पंचामृत, चन्दन, उत्तम, धुप, दीप, भांति-भांति के विचित्र पुष्प, मन्त्र तथा अन्न आदि समस्त उपचारों से पूजित भगवान सोम को मैं नमस्कार करता हूँ ।
तदनंतर भगवान शंकर ने प्रकट होकर श्रीराम और लक्ष्मण से कहा –‘तुम्हारा कल्याण हो, वर माँगो ।’
श्रीराम बोले – सुरश्रेष्ठ ! महेश्वर ! जो लोग इस स्तोत्र के द्वारा भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति करें, उनके सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायँ ।शम्भो ! जिनके पितर नरक के समुद्र में डूबे हों, उनके वे पितर यहाँ पिंड आदि देने से पवित्र हो स्वर्गलोक में चले जायँ । जन्मभर के कमाये हुए मानसिक, वाचिक और शारीरिक पाप यहाँ स्नान करनेमात्र से तत्काल नष्ट हो जायँ । जो लोग यहाँ याचकों को भक्तिपूर्वक थोडा भी दान दें, वह सब अक्षय होकर दाताओं के लिये उत्तम फल देनेवाला हो ।
यह सुनकर शंकरजी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने ‘एवमस्तु’ कहकर श्रीरामचन्द्रजी की बात का अनुमोदन किया । सुरश्रेष्ठ भगवान शिव के अन्तर्धान हो जानेपर श्रीराम अपने अनुगामियों के साथ धीरे-धीरे उस प्रदेश में गयें, जहाँ से गोदावरी नदी प्रकट हुई है । तबसे वह तीर्थ श्रीरामतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । जहाँ लक्ष्मण ने स्नान और शंकर का पूजन किया, वह लक्ष्मणतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ और जहाँ सीताने स्नानादि किया, वह सीतातीर्थ के नामसे कहलाया । सीतातीर्थ नाना प्रकार की समस्त पापराशि को निर्मल करनेमें समर्थ हैं । जिसके चरणों से त्रिभुवनपावनी गंगा प्रकट हुई, उन्होंने ही जहाँ स्नान किया, उस तीर्थ की विशिष्टता के विषय में क्या कहा जा सकता हैं । अत: श्रीरामतीर्थ के समान कही कोई भी तीर्थ नहीं है ।
अध्याय- 55 शपुत्रतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – गौतमी तटपर जो विख्यात पुत्रतीर्थ है, वह पुण्यतीर्थ कहलाता हैं । उसकी महिमा के श्रवणमात्र से मनुष्य सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं । नारद ! मैं उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सावधान होकर सुनो । जब दिति एवं दनु के पुत्र दैत्य और दानवों का देवताओंद्वारा क्षय होने लगा, तब दिति पुत्र वियोग के दुःख से मनमें स्पर्धा लेकर अपनी बहन दनु के पास आयी और इसप्रकार कहने लगी – ‘भद्रे ! हम दोनों के ही पुत्र क्षीण होते जा रहे हैं । हम संसार में कौन ऐसा गुरुतर कार्य करें, जिससे हमारा यह संकट दूर हो । देखो, अदिति का वंश कितना संगठित और उत्तम है । उसका कभी क्षय नहीं होता । वह उत्तम राज्य, सुयश और विजय लक्ष्मी से सुशोभित हैं । अदितिकी संतानों का वैभव और अभ्युदय देखकर मैं दुबली होती जा रही हूँ । सम्भव है, जीवित न रह सकूँ । अदिति के महान ऐश्वर्यपर दृष्टि डालते ही मैं अवर्णनीय दुरवस्था का अनुभव करने लगती हूँ । दावानल में प्रवेश कर जाना भी सुखद हैं, किन्तु स्वप्न में भी सौत की समृद्धि नहीं देखि जाती ।
दनु बोली – भद्रे ! तुम अपने गुणों से पतिदेव कश्यपजी को संतुष्ट करो । यदि स्वामी संतुष्ट हो गये तो तुम सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर लोगी ।
‘बहुत अच्छा’ कहकर दितिने सब प्रकार से कश्यपजी को संतुष्ट किया । तब प्रजापति भगवान कश्यप ने दिति से कहा –‘सुव्रते ! तुम्हें क्या दूँ ? तुम कोई अभीष्ट वर माँगों ।’ यह सुनकर दितिने स्वामीसे कहा – ‘नाथ ! मुझे ऐसा पुत्र दीजिये, जो अनेक गुणों से सम्पन्न, विश्वविजयी और जगद्वंध हो तथा जिसके जन्म लेनसे मैं संसार में वीरजननी कहला सकूँ ।’ कश्यपजी ने कहा – ‘देवी ! मैं तुम्हें एक श्रेष्ठ व्रत का उपदेश करता हूँ, जो बारह वर्षोतक पालन करने के बाद फल देता हैं । उसके बाद आकर तुम्हारे मन के अनुकूल गर्भ का आधान करूँगा, क्योंकि व्रत आदि के द्वारा निष्पाप हो जानेपर ही सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं ।’
पतिका यह वचन सुनकर दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसने कश्यपजी को नमस्कार करके उनके बताये हुए व्रत का विधिपूर्वक पालन किया । जो लोग तीर्थों की सेवा, सुपात्रों को दान तथा व्रत का पालन आदि नहीं करते, वे अपनी अभीष्ट वस्तुओ को कैसे प्राप्त कर सकते हैं । दिति का व्रत पूरा होनेपर कश्यपजी ने गर्भाधान किया और एकांत में अपनी प्रिय पत्नी दितिसे कहा –
‘शुचिस्मिते ! तपस्वी मुनि भी विहित कर्म की अवहेलना करने से मनोवांछित पदार्थ नहीं पा सकते । अत: तुम्हें कोई निन्दित कर्म नहीं करना चाहिये । दोनों संध्याओं के समय सोना, कहीं जाना अथवा बाल खोले रहना निषिद्ध है । संध्याकाल भूतों से व्याप्त रहता हैं । अत: उससमय छीकना, जँभाई लेना तथा भोजन करना भी मना ई । ये सब कार्य सदा ओट में ही करने चाहिये । विशेषत: हँसना तो दूसरों के सामने हो ही नहीं । संध्याकाल में कभी कमरे के भीतर न रहे । प्रिये ! मुसल, ऊखल, सूप, पीढ़ा और ढक्कन आदि को दिन या रातमें कभी न लाँघना । उत्तर की ओर सिरहाना करके तथा संध्याकाल में कभी न सोना । झूठ न बोलना । दूसरों के घर न जाना । पति के सिवा और किसी पुरुषपर कहीं भी दृष्ठि न डालना । यदि निरंतर इन नियमों का पालन करती रहोगी तो तुम्हारा पुत्र त्रिभुवन के ऐश्वर्य का भागी होगा ।’ दितिने स्वामी के समक्ष प्रतिज्ञा की – मैं इन नियमों का ठीक-ठीक पालन करूँगी । फिर कश्यपजी देवताओं के वहाँ चले गये । इधर दिति का पुण्यजनित बलवान गर्भ दिनोंदिन बढने लगा । इन सब बातों को मय नामक दैत्य अपनी माया के बलसे जानता था । उसकी इंद्र से मित्रता थी । दोनों में बड़ा प्रेम था । उसने इंद्र के पास एकांत में जाकर विनयपूर्वक कहा – ‘दिति और दनु ने विशेष अभिप्राय से कश्यपजी को संतुष्ट किया है । दितिका गर्भ दिनोंदिन बढ़ता है, उसमें नाना प्रकार की शक्तियाँ हैं ।’
नारदजी ने पूछा – देवेश्वर ! महाबली मय नामक दैत्य तो नमुचि का प्रिय भ्राता है और नमुचि इंद्र के हाथ से मारा गया था । फिर उसकी अपने भाई के शत्रु से मित्रता कैसे हुई ?
ब्रह्माजी बोले – पूर्वकाल में नमुचि दैत्यों का राजा था, उसका इंद्र के साथ बड़ा भयंकर वैर हुआ । एक समयकी बात है – इंद्र युद्ध छोडकर कहीं जा रहे थे । यह देखकर दैत्यराज नमुचि भी उनके पीछे लग गया । उसे आगे देख इंद्र भय से व्याकुल हो गये और ऐरावत हाथी को छोडकर समुद्र के फेन में घुस गये । फिर वज्र में फेन लपेटकर उस फेन से ही इंद्र ने अपने शत्रु का संहार कर डाला । जब नमुचि की मृत्यु हो गयी तब उसके छोटे भाई मय ने अपने बड़े भाई के घातक का विनाश करने के लिये बड़ी भारी तपस्या की । उसने अनेक प्रकार की माया प्राप्त की, जो देवताओं के लिये अत्यंत भयंकर थी । उसने सम्पूर्ण लोकों को शरण देनेवाले भगवान विष्णु से भी वर प्राप्त किया । मय दानी और प्रियभाषी था । उसने इंद्र को जीतने के लिये अग्नि और ब्राह्मणों का पूजन आरम्भ किया । वह याचकों को मुँहमाँगी वस्तुएँ देने लगा । वन्दीजन सदा उसकी स्तुति करते थे । इंद्र ने वायु से अपने मायावी शत्रु मय की गति-विधि जान ली । तब वे ब्राह्मण का वेष बनाकर उसके पास गये और बोले – ‘दैत्यराज ! मैं याचक हूँ, मुझे मनोवांछित वर दीजिये । मैंने सुना हैं – आप दाताओं के सिरमौर हैं ।
अत: आपके पास आया हूँ ।’ मय ने उन्हें ब्राह्मण जानकर कहा – ‘दिया हुआ ही समझो । सामने याचक को पाकर दाता यह विचार नहीं करते कि थोडा दूँ या अधिक ।’ उसके यों कहनेपर इंद्र बोले- ‘मैं तुम्हारे साथ मित्रता चाहता हूँ ।’ यह सुनकर मय दैत्य ने कहा – ‘विप्रवर ! ऐसे वरसे क्या लाभ । आपके साथ मेरा वैर तो है नहीं ।’ इंद्र ने हँसकर मय को ह्रदय से लगाया और कहा – ‘विद्वान पुरुष किसी भी उपाय से अपने अभीष्ट कार्य की सिद्धि करते हैं ।’ तब से मय के साथ इंद्र की गहरी मैत्री हो गयी । मय सदा के लिये इंद्र का हितैषी हो गया । उसने इंद्रभवन में जाकर सब बातें बतायी, साथ ही इंद्र को माया भी प्रदान की । इंद्र ने प्रसन्न होकर पूछा – ‘मय ! बताओ, अब मुझे क्या करना चाहिये ?’
मय ने कहा – अगस्त्य के आश्रमपर जाओ । वहीँ गर्भवती दिति रहती है । उसकी सेवा करते हुए आश्रम में कुछ दिन निवास करो; फिर अवसर देखकर वज्र हाथ में लिये दिति के गर्भ से प्रवेश कर जाओ और वज्र से उस बढ़ते हुए गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर डालो । इससे तुम्हारे उस शत्रु का अस्तित्त्व ही मिट जायगा ।
इंद्र ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर मय की प्रशंसा की और विनीत की भांति दिति के पास गये । वहाँ जाकर दैत्यमाता की सेवा-शुश्रूषा में लग गये । उनके मन में क्या है, इस बात को दिति नहीं जानती थी । उनके गर्भ में जो मोनिका अमोघ तेज था, वह किसीके लिये भी दुर्धर्ष था । इंद्र गर्भ के भीतर प्रवेश करने की इच्छा से अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बहुत समयतक वहाँ रहे । एक दिन दिति संध्याकाल में उत्तर की ओर सिरहाना करके सो रही । इंद्र ने मन में कहा – ‘यही अच्छा अवसर हैं ।’ यों कहकर वे वज्र हाथ में ले दितिके उदर में प्रवेश कर गये । गर्भ में जो बालक था, वह आयुध लिये मारने की इच्छा से आये हुए इंद्र को देखकर भी भयभीत न हुआ और बोला – ‘वज्रधारी इंद्र ! मैं तुम्हारा भाई हूँ । तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करते ? क्या मुझे मारना चाहते हो ? युद्ध के बिना अन्य अवसरपर किसी को मारने से बढकर दूसरा कोई पातक नहीं हैं । मैं गर्भ से निकलूँ, तब मुझसे युद्ध कर लेना । यहाँ आकर इसप्रकार मारना तुम्हारे लिये उचित नहीं होगा । बड़े लोग विपत्ति में पड़नेपर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते । मैंने न तो अभी विद्या पढ़ी है, न शस्र चलाना सीखा हैं और न आयुधों का ही संग्रह किया है । तुम विद्वान हो । तुम्हारे हाथ में वज्र शोभा पा रहा है । क्या मुझे मारते समय तुम्हें लज्जा नहीं आती ? कुलीन पुरुष कभी भी कुत्सित कर्म नहीं करते । मुझे मारने से तुम्हें क्या मिलेगा, यश अथवा पुण्य ? गर्भ में आये हुए प्राणी इच्छानुसार मारे जा सकते हैं, किन्तु इसमें कौन-सा पुरुषार्थ हैं । भाई ! यदि तुम्हें युद्ध से प्रेम है और मुझसे ही भिड़ना चाहते हो तो नि:संदेह चले आओं ।’ यों कहकर वह बालक भी इंद्र की ओर मुक्का तानकर खड़ा हो गया और बोला – ‘इंद्र ! मुझे मारने से तुम बालघाती, ब्रह्मघाती तथा विश्वासघाती कहलाओंगे । यही तुम्हें फल मिलेगा । फिर किसलिये मुझे मारने को उद्यत हुए हो । सम्पूर्ण चराचर जगत जिसकी आज्ञा के अधीन चल रहा हो, वह मुझ-जैसे बालक की हत्या करे – इसमें कौन-सा यश और क्या पुरुषार्थ हैं ?’
गर्भ का बालक यों ही कहता रहा, किन्तु इंद्र ने अपने वज्र से उस बालक के टुकड़े-टुकड़े कर दिये । सच है, क्रोधान्ध और लोभी मनुष्यों को किसीपर भी दया नहीं आती । इतनेपर भी गर्भस्थ बालक की मृत्यु नहीं हुई । सभी टुकड़े जीवित बालकों के रूपमें परिणत हो गये और दुःख से रोते हुए बोले – ‘क्यों मारते हो, हम तुम्हारे भाई हैं ।’ किन्तु इंद्र ने एक न सुनी, उन खंडों के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले । वे भी जीवित होकर बोले – ‘इंद्र ! हमें न मारो । हम तुमपर विश्वास करते हैं, माता के गर्भ में पड़े हैं और तुम्हारे ही भाई हैं ।’ परन्तु कौन सुनता था । जिनकी बुद्धि द्वेष से नष्ट हो गयी हैं, उनके चित्त में करुणा का एक कण भी नहीं रह जाता । गर्भ के सभी टुकड़े हाथ-पैर तथा नूतन जीव से युक्त हो गये । उनमें किसी प्रकार का विकार नहीं रह गया । उनकी संख्या एक से बढकर उनचास हो गयी । यह देखकर इंद्र को बड़ा विस्मय हुआ । वे सब-के-सब रो रहे थे । इंद्र ने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा – ‘मा रुत’ (मत रोओं) । इनके ऐसा कहने से उनका नाम मरुत हो गया । वे गर्भ में ही अत्यंत बलवान और महापराक्रमी हो गये थे । उन्होंने गर्भ के भीतर से ही मुनिवर अगस्त्य को, जिनके आश्रम में माता टिकी हुई थी, पुकारकर कहा – ‘मुने ! हमारे पिता आपके भाई हैं । वे आपकी मैत्री का बहुत आदर करते हैं । हम यह भी जानते हैं कि आपके मन में हमलोगों के प्रति बड़ा स्नेह हैं; तथापि आपके रहते हुए यह वज्रधारी इंद्र ऐसे कार्य में प्रवृत्त हुआ है , जिसे कोई चाण्डाल भी नहीं करता ।’ गर्भ के बालकों की वह पुकार सुनकर अगस्त्य मुनि दौड़े हुए आये । उन्होंने दिति को जगाया । वे गर्भ की वेदना से पीड़ित थी । उससमय अगस्त्य ने अत्यंत कुपित होकर शचीपति इंद्र को शाप दिया – ‘इंद्र ! संग्राम में शत्रु तुम्हारी पीठ देखेंगे ।’ दिति ने भी गर्भ में समाये हुए इंद्र को रोषपूर्वक शाप दिया – ‘तूने बच्चों को मारकर कोई पुरुषार्थ नहीं किया हैं; अत: मैं शाप देती हूँ कि तू राज्य से भ्रष्ट हो जायगा ।’ इसीसमय वहाँ प्रजापति कश्यपजी भी आ पहुँचे । अगस्त्य के मुख से इंद्र की यह कुत्सित चेष्टा सुनकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ ।
कश्यपजी ने कहा – बेटा ! गर्भ के बाहर निकलो । तुमने यह क्या पाप कर डाला । उत्तम कुलमें उत्पन्न पुरुष कभी पापमें मन नहीं लगाते ।
पिताका आदेश सुनकर वज्रधारी इंद्र गर्भ से बाहर निकले । उससमय लज्जा के मारे उनका मुँह नीचा हो रहा था । वे बोले – ‘पिताजी ! जिस साधन से मेरा कल्याण हो, वह बताइये । मैं उसे अवश्य करूँगा ।’ तब कश्यपजी लोकपालों के साथ मेरे पास आये और सब बातें बताकर पूछने लगे – ‘दिति के गर्भ की शान्ति, गर्भस्थ बालकों की इंद्र के साथ मित्रता, उन बालकों की निरोगता, इंद्र की निर्दोषता तथा अगस्त्य के दिये हुए शाप का क्रमश: उद्धार कैसे हो ?’ तब मैंने कश्यप से कहा – ‘प्रजापते ! तुम वसुओं , लोकपालों तथा इंद्र को साथ लेकर शीघ्र ही गौतमी नदी के तटपर जाओ और वहाँ स्नान करके सबके साथ महादेवजी की स्तुति करो । फिर शिव की कृपा से सब कल्याण ही होगा ।’ ‘अच्छा, ऐसा ही करूँगा ‘ यों कहकर कश्यप मुनि गौतमी नदी के तटपर गये और देवेश्वर भगवान शिव की स्तुति करने लगे । समस्त दु:खों को दूर करने के लिये दो ही देवता समर्थ बताये गये हैं – एक तो परम पवित्र गौतमी नदी और दुसरे करुणानिधि शिव ।
कश्यप बोले – देवेश्वर शंकर ! मेरी रक्षा कीजिये । लोकवन्दित परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये । सबको पवित्र करनेवाले वागीश ! रक्षा कीजिये । सर्पों का आभूषण पहननेवाले शिव ! रक्षा कीजिये । धर्मस्वरुप वृषभपर सवारी करनेवाले देवता ! रक्षा कीजिये । तीनों वेद जिनके नेत्र हैं, ऐसे भगवान त्रिलोचन ! रक्षा कीजिये । गोधर लक्ष्मीश ! (गो अर्थात वृषभ (नंदी) को धारण करनेसे ‘गोधर’ और लक्ष्मीस्वरुप पार्वती के स्वामी होने से ‘लक्ष्मीश’ है ।) रक्षा कीजिये । त्रिपुरहर ! रक्षा कीजिये । अर्द्धचन्द्र से विभूषित नाथ ! रक्षा कीजिये । यज्ञेश्वर सोमनाथ ! रक्षा कीजिये । मनोवांछित फलों के दाता ! रक्षा कीजिये । करुणाधाम ! रक्षा कीजिये । मंगलदाता ! रक्षा कीजिये । सबकी उत्पत्ति के हेतुभूत परमात्मन ! रक्षा कीजिये । पालन करनेवाले वासव ! रक्षा कीजिये । भास्कर ! वित्तेश ! रक्षा कीजिये । ब्रह्मवन्दित शिव ! रक्षा कीजिये । विश्वेश्वर ! सिद्धेश्वर ! पूर्ण परमेश्वर ! आपको नमस्कार है । रक्षा कीजिये । करुणासागर शिव ! भयंकर संसाररूपी दुर्गम प्रदेश में विचरने के कारण जिनका चित्त उद्धिग्न हो रहा है, ऐसे जीवों के लिये आप ही शरण हैं ।
इसप्रकार स्तुति करनेवाले कश्यपजी के समक्ष भगवान् शंकर प्रकट हुए और उनसे वर माँगने के लिये कहा । कश्यपजी ने विनीत होकर भगवान शिव से इंद्र की समस्त चेष्टाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया । साथ ही यह भी बताया कि मेरे पुत्रों का जो नाश हो रहा हैं, उनमें परस्पर शत्रुता बढ़ रही है, इंद्र को पाप और शाप की प्राप्ति हुई हैं, यह सब शांत हो जाय । यह सुनकर भगवान शंकर ने कहा – ‘आपके जो उनचास पुत्र मरुद्रण हैं, वे सब सौभाग्यशाली और इंद्र के साथ सदा यज्ञ के भागी होंगे । जिस-जिसे यज्ञ में इंद्र का भाग होगा, उसमें उनसे भी पहले मरुद्रणों का भाग होगा – इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं । मरुद्रणों के साथ रहनेपर कभी कोई इंद्र को जीत नहीं सकता । फिर तो वे ही सदा विजयी रहेंगे ।’ इतना कहकर शंकरजी ने मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य से कहा – ‘मुने ! तुम शचीपति इन्द्र्पर क्रोध न करो । महामते ! शांत हो जाओ । मरुद्रण अमर हो गये ।’ फिर दिति से भी शिवजी ने कहा – ‘देवि ! मेरे एक ऐसा पुत्र हो, जो तीनों लोकों के ऐश्वर्य से सुशोभित रहे – इस बात का चिन्तन करती हुई तुम तपस्या में प्रवृत्त हुई थी । तुम्हारा वह मनोरथ अब सफल हो गया । तुम्हारे ये पुत्र अधिक गुणशाली, बलवान और शूरवीर हैं । अत: अब तुम अपनी मानसिक चिंता छोड़ दो । सुन्दरी ! तुम संशयरहित होकर अन्य वर भी माँगो ।’
दिति बोली – भगवन ! लोक में यही बड़ी बात समझी जाती है कि माता-पिता को पुत्र का दर्शन हो । विशेषत: माता के लिये यह बहुत ही प्रिय बात है । इसमें भी रूप, सम्पत्ति, शौर्य और पराक्रम से सम्पन्न एक भी पुत्र हो तो बड़े भाग्य की बात है । फिर यदि बहुत-से उत्तम और गुणवान पुत्र प्राप्त हों तो क्या कहना । मेरे पुत्र आपके प्रभाव से विजयी और बली हुए । वे वास्तव में इंद्र के भाई और प्रजापति के पुत्र है । देव ! जहाँ अगस्त्य और गौतमी गंगा के प्रसाद के साथ-साथ आपका भी प्रसाद प्राप्त हो, वहाँ शुभ होने में क्या संदेह है । यद्यपि मैं कृतार्थ हो गयी, तथापि भक्तिपूर्वक आपसे कुछ निवेदन करती हूँ । देव ! मेरी बात सुने और संसार का कल्याण करें । देववन्ध ! सन्तान की प्राप्ति संसार में दुर्लभ हैं । विशेषत: माता के लिये पुत्र का होना और भी प्रिय है । पुत्र भी यदि गुणवान, धनवान और आयुष्मान हुआ, तब तो कहना ही क्या हैं । इहलोक और परलोक में उत्तम फलकी इच्छा रखनेवाले सभी प्राणियों की गुणवान पुत्र की प्राप्ति सदा ही अभीष्ट है । अत: यहाँ स्नान करनेसे इस दुर्लभ फल की प्राप्ति हो सके – ऐसा अनुग्रह कीजिये ।
भगवान शंकर बोले – नि:सन्तान होना बहुत बड़े पापका फल है । स्त्री या पुरुष – कोई भी यदि नि:सन्तान हो तो वहाँ स्नान करनेमात्र से उसके इस दोष का नाश हो जाता हैं । जो इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे यहाँ स्नान करनेका फल प्राप्त होगा । जो तीन मासतक यहाँ स्नान और दान करता हैं, उसे पुत्र की प्राप्ति होती है । पुत्रहीन स्त्री यहाँ स्नान करके पुत्र पा सकती है । ऋतूस्त्राता स्त्री यदि यहाँ आकर स्नान करे तो उसे अनेकों पुत्र प्राप्त होते हैं । वह तीन महीने के भीतर ही गर्भवती हो जाती है । जो पितृदोष से तथा धन अपहरण करने के दोष से पुत्र लाभ से वंचित हैं, उनके लिये यह गौतमी नदी परम उद्धार का कारण है । यहाँ पितरों को पिंडदान देने, तर्पण करने तथा कुछ सुवर्ण-दान करने से निश्चय ही पुत्र होता है । जो धरोहर हडप लेते, रत्नों की चोरी करते तथा पितरों का श्राद्ध कर्म छोड़ देते हैं, उनके वंश की वृद्धि नहीं होती ।
ये न्यासाद्यपहर्तारो रत्नापह्रवकरका: । श्राद्धकर्मविहिनाश्च तेषां वंशो न वर्द्धते ।।
जो पाप करके उसका प्रायश्चित्त किये बिना ही मर जाते हैं, उन सबकी यही गति होती है । जो तीर्थों का सेवन करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें श्रेष्ठ सन्तान की प्राप्ति होती है । जो दिति और गंगा के संगम में स्नान करके अनादि, अपार, अजय, सच्चिदानंदमय, लिंगस्वरुप, ज्योतिर्मय तथा अनामय महादेव भगवान सिद्धेश्वर का अनेक उपचारों में भक्तिपूर्वक पूजन करता है, चतुर्दशी और अष्टमी को इस स्तोत्रद्वारा स्तुति करता है तथा यहाँ गंगा के तटपर ब्राह्मणों को अपनी शक्ति के अनुसार सुवर्ण देता और भोजन कराता हैं, उसे अनेक पुत्र प्राप्त होते हैं । वह सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त करके अंत में भगवान शिव के धाम में जाता है । जो इस स्तोत्र के द्वारा कहीं भी मेरी छ: महीने स्तुति करता हैं, उसे पुत्र प्राप्त होता हैं । यदि उसकी स्त्री वन्ध्या हो तो भी वह नि:संदेह पुत्रवती होती है ।
तबसे उस तीर्थ का नाम पुत्रतीर्थ हो गया । वहाँ स्नान-दान आदि करने से समस्त कामनाओं की पूर्ति होती है । मरुद्रणों के साथ मैत्री होने के कारण उसे मित्रतीर्थ भी कहते हैं । यहाँ स्नान करने से इंद्र निष्पाप हुए थे, इसलिये वह इंद्रतीर्थ या शक्रतीर्थ भी कहलाता हैं । जहाँ इंद्र को अपनी खोयी हुई लक्ष्मी प्राप्त हुई, वह कमलातीर्थ कहलाया । ये सब तीर्थ समस्त अभीष्ट पदार्थो को देनेवाले हैं । भगवान शिव यह कहकर कि ‘यहाँ सब कामनाएँ पूर्ण होंगी’ अन्तर्धान हो गये और कश्यप आदि सब लोग कृतकृत्य होकर जैसे आये थे, वैसे लौट गये ।
अध्याय- 56 यम, आग्नेय, कपोत और उलूक-तीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – यमतीर्थ पितरों की प्रसन्नता को बढानेवाला है । वह प्रत्यक्ष और परोक्ष – सब प्रकार की अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है । सम्पूर्ण देवता और मुनि उस तीर्थ का सेवन करते हैं । मैं उसके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, जो सब पापों का नाश करनेवाला है । एक बलवान कपोत था, जो अनुह्राद के नामसे विख्यात था । उसकी पत्नी हेति नाम की यक्षिणी थी, जो इच्छानुसार रूप धारण कर सकती थी । अनुह्राद मृत्यु के पुत्र का पुत्र था और हेति मृत्यु की पुत्री की पुत्री थी । समयानुसार उन दोनों के भी अनेक पुत्र-पौत्र हुए । पक्षियों का राजा उलूक अनुह्राद का प्रबल शत्रु था । गंगा के उत्तर-तटपर कपोत का आश्रम था और दक्षिण किनारे पक्षिराज उलूक रहता था । उलूक भी अपने पुत्र-पौत्रों के साथ निवास करता था । कपोत और उलूक दोनों बहुत समयतक एक-दुसरे के विरोधी होकर युद्ध करते रहे । दोनों ही अपने पुत्र –पौत्रों को साथ लेकर लड़ते थे । यह बलवान शत्रुओं के साथ बलवानों का युद्ध था । उनमेसे उलूक अथवा कपोत – किसी की भी जय-पराजय नहीं होती थी । कपोत ने यमराज तथा अपने पितामह मृत्युकी आराधना करके याम्य-अस्त्र प्राप्त किया, अत: वह सबसे अधिक शक्तिशाली हो गया । इसीप्रकार उलूक भी अग्नि की आराधना करके अत्यंत बलवान हो गया । वर पाकर दोनों ही उन्मत्त हो गये थे, अत: फिर उनमें बड़ा भयंकर युद्ध छिड़ गया । उसमें उलूक ने कपोत के ऊपर आग्नेय-अस्त्र का प्रहार किया । कपोत ने भी उलूकपर यमपाश तथा यमदंड का प्रयोग किया । कपोत की स्त्री हेति बड़ी पतिव्रता थी । उस महायुद्ध में अपने स्वामी के निकट अग्नि को प्रज्वलित देख वह दुःख से विव्हल हो गयी । विशेषत: पुत्रों को अग्निसे आवृत्त देख उसकी व्याकुलता और भी बढ़ गयी । उसने अग्निदेव के पास जाकर नाना प्रकार की उक्तियों से स्तवन करना आरम्भ किया ।
हेति बोली – जिनका रूप और दान प्रत्यक्ष हैं, सम्पूर्ण पदार्थ जिनके आत्मस्वरूप हैं और देवता जिनके द्वारा हवनीय पदार्थों का भोजन करते हैं, उन यज्ञभोक्ता स्वाहापति अग्नि को मैं नमस्कार करती हूँ । जो देवताओं के मुख, देवताओं के हविष्य को वहन करनेवाले, देवताओं के होता और देवताओं के दूत हैं, उन आदिदेव भगवान अग्नि की मैं शरण लेती हूँ । जो शरीर के भीतर प्राणरूप में स्थित हैं और बाहर अन्नदातारूप में विद्यमान हैं तथा जो यज्ञ के साधन हैं, उन धनंजय (अग्निदेव) की मैं शरण लेती हूँ ।
अग्नि बोले – पतिव्रते ! मेरा यह अस्र अमोघ हैं; जिस लक्ष्यपर इसका विश्राम हो सके, उसको बताओ ।
कपोती ने कहा – अग्निदेव ! आपका अस्त्र मुझपर ही विश्राम करे, मेरे पुत्र और पतिपर नहीं । मुझे मारकर आप सत्यवादी हों । आपको नमस्कार हैं ।
अग्निदेव ने कहा – पतिव्रते ! तुम्हारे सुवचन और पतिभक्ति से मैं बहुत संतुष्ट हूँ । तुम्हारे स्वामी और पुत्रों का अनिष्ट नहीं होगा । मैं उनकी रक्षा का वचन देता हूँ । यह मेरा आग्नेय-अस्त्र तुम्हारे पतिको, पुत्रों की तथा तुमको भी नहीं जलायेगा; अत: तुम सुखपूर्वक लौट जाओ ।
इसी बीचमें उलुकी ने भी अपने पतिको देखा । वे यमपाश में बंधकर यमदंड से ताड़ित हो रहे थे । सती-साध्वी उलुकी यह देखकर बहुत दु:खी हुई और भय से व्याकुल हो यमराज के पास गयी ।
उलुकी बोली – देव ! मनुष्य आपसे भयभीत होकर भागते हैं, आपसे डरकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं । आपके ही भयसे धीर पुरुष उत्तम बर्ताव करते हैं और आपके ही डर से कर्मों के अनुष्ठान में लगते हैं । आपसे भय पाकर लोग उपवास करते और गाँव छोडकर वनमें जाते हैं । आपके ही डर से सौम्यभाव ग्रहण करते और आपके ही भय से सोमपान करते हैं । आपसे भयभीत पुरुष ही अन्नदान और गोदान में प्रवृत्त होते है और आपसे डरकर ही मुमुक्षु ब्रह्मवादी की चर्चा करते हैं ।
इसप्रकार स्तुति करती हुई उलुकी से दक्षिण दिशा के स्वामी यमराज ने कहा – ‘तुम्हारा कल्याण हो । तुम वर माँगों । मैं तुम्हें मन के अनुकूल वर दूँगा ।’ यमराज की यह बात सुनकर पतिव्रता उलुकी ने उनसे कहा – ‘सुरश्रेष्ठ ! मेरे स्वामी आपके पाश में बंधे हैं और आपके ही दंड से पीड़ित हो रहे हैं । आप उससे मेरे पति और पुत्रों की रक्षा करें ।’ उसकी यह कातर वाणी सुनकर यमराज को बड़ी दया आयी । उन्होंने बार-बार कहा – ‘सुमुखि ! मेरे ये पाश और दंड किसपर पड़ें ? इनके लिये स्थान बताओ ।’ उसने कहा – ‘जगदीश्वर ! आपके पाश मुझे ही बाँधे और आपका दंड भी मुझपर ही पड़े ।’
यमराजने कहा – शुभे ! तुम्हारे पुत्र, पति और तुम सब लोग निश्चिन्त होकर जीवन व्यतीत करो ।
यों कहकर यमराजने अपने पाश समेत लिये और अग्निदेव ने आग्नेयास्त्र का निवारण कर दिया । इतना ही नहीं, उन दोनों देवताओं ने मिलकर कपोत और उलूक में प्रेम करा दिया । फिर पक्षियों से कहा – ‘तुमलोग इच्छानुसार वर माँगो ।’ दोनों पक्षी बोले – ‘भगवन ! हमने आपस के वैर के कारण आपलोगों का दुर्लभ दर्शन प्राप्त किया । हम तो पापयोनि पक्षी हैं । वरदान लेकर क्या करेंगे तथापि यदि आपलोग प्रेमपूर्वक वर देना ही चाहते है तो हमलोग उस कल्याणमय वर को अपने लिये नहीं चाहते । देवेश्वरो ! जो अपने लिये याचना करता हैं, वह शोक का पात्र है । जो सदा परोपकार के लिये उद्यत रहता हैं, उसीका जीवन सफल हैं । अग्नि, जल, सूर्य, पृथ्वी और नाना प्रकार के धान्यों का तथा विशेषत: संत-महात्माओं का उपयोग सदा दूसरों के भले के लिये ही होता हैं । क्योंकि ब्रह्मा आदि देवता भी एक दिन मृत्यु को प्राप्त होते हैं, देवेश्वरो ! यह जानकर स्वार्थ-सिद्धि के लिये परिश्रम करना व्यर्थ है । विधाताने प्राणियों के जन्म के साथ ही उनके लिये जो विधान रच दिया है, वह कभी बदल नहीं सकता । अत: जीव व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं । इसलिये हम जगत के कल्याण के लिये ही कुछ याचना करते हैं । हमारी यह याचना सबके लिये गुणदायक हैं । आप दोनों इसका अनुमोदन करें । गंगा के दोनों तटपर जो हमारे आश्रम हैं, वे तीर्थरूप में परिणत हो जायँ । वहाँ कोई पापी या पुण्यात्मा जिस किसी तरह जो कुछ भी स्नान, दान, जप, होम और पितरों का पूजन आदि करें, वह सब अक्षय पुण्य देनेवाला हो ।
यमराज बोले – जप लोग गौतमी के उत्तर- तटपर यमस्तोत्र का पाठ करेंगे, उनके वंश में सात पीढ़ियों तक किसीकी अकालमृत्यु नहीं होगी । वे पुरुष सदा सब प्रकार की सम्पत्तियों के भागी होंगे । जो जितात्मा पुरुष प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह अठ्ठासी हजार व्याधियों से कभी पीड़ित न होगा । इस तीर्थ में तीन मासतक स्नान करने से सती-साध्वी स्त्री गर्भवर्ती होगी । वन्ध्या भी छ: महीनेतक स्नान करने से गर्भवर्ती होगी । गर्भिणी स्त्री एक सप्ताह स्नान करे तो वह वीर पुत्र की जननी होगी और उसका पुत्र भी सौ वर्ष की आयुवाला, धनवान, बुद्धिमान, शूरवीर तथा पुत्र- पौत्रों का विस्तार करनेवाला होगा । इस तीर्थ में पिंड आदि देने से पितरों की मुक्ति हो जायगी । कोई भी मनुष्य इसमें स्नान करने से मन, वाणी तथा शरीरजन्य पापसे मुक्त हो जायगा ।
अग्निदेव ने कहा – जो लोग नियमपूर्वक रहते हुए दक्षिण-तटपर मेरे स्तोत्र का पाठ करेंगे, उन्हें मैं आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी तथा रूप प्रदान करूँगा । जो कोई मानव कहीं भी इस स्तोत्र का पाठ करेगा अथवा लिखकर भी इसे घर में रख देगा, उसको तथा उसके घर को कभी भी अग्नि से भय न होगा । जो मनुष्य पवित्र होकर अग्नितीर्थ में स्नान और दान करेगा, उसे निश्चय ही अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलेगा ।
तबसे वह तीर्थ याम्यतीर्थ, आग्नेयतीर्थ, कपोततीर्थ, उलूकतीर्थ और हेत्युलुकतीर्थ के नामसे विद्वानों में प्रसिद्ध हुआ । वहाँ तीन हजार तीन सौ नब्बे तीर्थ हैं और उनमें से प्रत्येक तीर्थ मोक्ष देनेवाला हैं । उन तीर्थों में स्नान करने से मनुष्य पवित्र होते, पुत्र और धन पाते तथा अंत में स्वर्गलोक को जाते हैं ।
अध्याय- 57 तपस्तीर्थ, इन्द्र्तीर्थ और वृषाकपि एवं अब्जकतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – तपस्तीर्थ बहुत बड़ा तीर्थ हैं । वह तपस्या की वृद्धि करनेवाला, समस्त अभिलषित वस्तुओं का दाता, पवित्र तथा पितरों की प्रसन्नता को बढानेवाला है । उस तीर्थ में जो पापनाशक घटना घटी है, उसे बतलाता हूँ; सुनो । ऋषियों में अग्नि और जल की श्रेष्ठता को लेकर परस्पर संवाद हाउ । एक पक्ष कहता था, जल श्रेष्ठ हैं और दुसरे पक्ष के लोग अग्नि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते थे । अग्नि की श्रेष्ठता बतलानेवाले अपनी युक्तियाँ इसप्रकार उपस्थित करते थे – ‘अग्नि के बिना जीवन कहाँ रह सकता है, क्योंकि अग्नि ही जीवरूप हैं । आत्मा और हविष्य भी वही हैं । अग्निने समस्त विश्व को धारण कर रखा है । अग्नि ही ज्योतिर्मय जगत हैं । अत: अग्नि से बढकर दूसरा कोई भी अत्यंत पावन देवता नहीं हैं । अग्निको ही अंतर्ज्योती तथा परमज्योति कहते हैं । अग्निके बिना कोई भी वस्तु नहीं हैं । यह त्रिलोकी अग्निका धाम हैं । इसलिये पाँचो भूतों में अग्नि से श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं हैं । नारिकी योनि में पुरुष जो वीर्य स्थापित करता हैं और उसमें जो देह आदि के निर्माण की शक्ति होती हैं, वह सब अग्नि की ही है । अग्नि देवताओं का मुख है; अत: उससे बड़ा कुछ भी नहीं हैं ।’
दूसरे वेदवादी पुरुष जलको श्रेष्ठ मानते थे । उनका कहना था, ‘जलसे ही अन्न की उत्पत्ति होती है तथा जल से ही मनुष्य शुद्ध होता है । जलने ही सबको धारण कर रखा है, अत: जलको माता माना गया है । पुराणवेत्ताओं का कथन है कि जल ही तीनों लोकों का जीवन है । जलसे ही अमृत उत्पन्न हुआ है और जलसे ही ओषधियाँ होती हैं ।’ इसप्रकार एक पक्ष अग्नि को श्रेष्ठ कहता था और दूसरा पक्ष जल को । यों ही मीमांसा करते हुए एक – दूसरे के विरुद्ध तर्क उपस्थित करनेवाले वेदवादी ऋषि मेरे पास आकर बोले – ‘भगवान ! आप तीनों लोकों के प्रभु हैं । बतलाइये, अग्नि श्रेष्ठ हैं या जल ?’ मैंने कहा – ‘दोनों ही इस जगत में परम पूजनीय हैं । दोनों से जगत उत्पन्न होता हैं । दोनों से हव्य-कव्य और अमृत प्राकट्य होता हैं । दोनों से ही जीवन है । दोनों ही शरीर को धारण करनेवाले हैं । इनमें परस्पर कोई विशेषता नहीं है । दोनों समानरूप से ही श्रेष्ठ माने गये हैं ।’
मेरे कथन से यह बात सिद्ध हुई कि दोनों ही श्रेष्ठ हैं, कोई एक नहीं; परन्तु वे ऋषि ऐसा ही मानते थे कि इन दोनों में से एक ही श्रेष्ठ है । अत: उन्हें मेरी बातों से संतोष नहीं हुआ । तब वे क्षीरसागर में शयन करनेवाले शंख –चक्र – गदाधारी भगवान विष्णु के पास गये और नाना प्रकार के स्तोत्रों स उनकी स्तुति करने लगे ।
ऋषि बोले – जो भविष्यमें होनेवाला हैं, जो जन्म ले चूका है तथा जो अभी गुहा (गर्भ) – में प्रविष्ट हुआ है, उस सम्पूर्ण भुवन को जो सदा अपनी ज्ञानदृष्टि में रखते हैं, यह चित्र-विचित्र रूपोंवाली समस्त त्रिलोकी अन्तमें जिनके भीतर लीन होती हैं, जिन्हें महर्षिगण अक्षर, सनातन, अप्रमेय तथा वेदवेद्य बतलाते हैं, जिनकी शरण में गये हुए प्राणी अपने अभीष्ट पदार्थ को प्राप्त कर लेते हैं, उन परमार्थवस्तुरूप परमेश्वर की हम शरण लेते हैं । जगन्निवास ! महाभूतमय जगत में जो भुत सबसे प्रधान और श्रीविष्णु का स्वरुप हैं, जिसे योगी भी नहीं जान पाते, उसीका प्रतिपादन करने के लिये ये महर्षिगण यहाँ आये हुए हैं । आप यहाँ सत्य को प्रकट कर दें । जगदीश्वर ! आप सम्पूर्ण देहधारियों के अंतरात्मा हैं । आप ही सब कुछ हैं । आपमें ही यह सम्पूर्ण जगत स्थित हैं तथापि कितने आश्चर्य की बात हैं कि प्रकृति से प्रभावित होने के कारण कोई कहीं भी आपकी सत्ता का अनुभव नहीं करते । वास्तव में आप बाहर और भीतर सब ओर विद्यमान हैं । सम्पूर्ण विश्व के रूप में आप ही सब ओर उपलब्ध हो रहे हैं ।
ऋषियों के इसप्रकार स्तुति करनेपर जगज्जननी दैवी वाक् (आकाशवाणी) ने कहा – ‘तुमलोग तपस्या भक्ति और नियम के साथ दोनों की आराधना करो । जिसकी आराधना से पहले सिद्धि प्राप्त हो, वही भुत सबसे श्रेष्ठ कहा जायगा ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर सम्पूर्ण लोकमान्य महर्षि वहाँ से चल दिये । वे थक गये थे । उनका अंत:करण खिन्न हो रहा था । उन्होंने उत्तम वैराग्य का आश्रय लिया और तपस्या करने का दृढ़ संकल्प लेकर वे सब लोग त्रिभुवन को पवित्र करनेवाली जगज्जननी गौतमी के तटपर आये और जलदेवता तथा अग्निदेवता की पृथक-पृथक पूजा करने को उद्यत हुए । जो अग्नि के पूजक थे, वे जल के पूजन में प्रवृत्त हुए । उससमय वहाँ वेदमाता दैवी वाणी सरस्वती ने फिर कहा – ‘जलसे ही शुद्धि होती है । जो अग्नि के पूजक है, वे विचार तो करें – बिना जलका पूजन कैसा । जल होनेपर ही मनुष्य सब कर्मों के अनुष्ठान का अधिकारी होता हैं । वेदवेत्ता पुरुष जबतक शीतल जल में श्रद्धापूर्वक स्नान नहीं कर लेता, तबतक अपवित्र, मलिन एवंशुभ कर्मका अनधिकारी रहता हैं । इसलिए जल सबसे श्रेष्ठ हैं । उसे माता की पदवी दी गयी है । अत: जल ही श्रेष्ठ हैं ।’
वेदवादी ऋषियों ने यह आकाशवाणी सुनी । इससे उन्हें निश्चय हो गया कि जल ही श्रेष्ठ है । जिस तीर्थ में यह ऋषिसत्र सम्पन्न हुआ, उसे तपस्तीर्थ और सत्रतीर्थ भी कहते हैं । अग्नितीर्थ और सारस्वततीर्थ भी उसीके नाम हैं । वहाँ चौदह सौ पुण्यदायक तीर्थों का निवास हैं । उनमें किया हुआ स्नान और दान स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति करानेवाला है । जहाँ आकाशवाणी ने ऋषियों का संदेह निवारण किया था, वहाँ सरस्वती नामकी नदी प्रकट हुई, जो गंगामे मिली है । सरस्वती और गंगा के संगम का माहात्म्य बतलाने में कौन मनुष्य समर्थ हो सकता हैं ।
गौतमी – तटपर इंद्रतीर्थ के नामसे जो प्रसिद्ध तीर्थ हैं, वही वृषाकपितीर्थ भी है । उसे ही फेनासंगम, हनुमत्तीर्थ तथा अब्जकतीर्थ भी कहते हैं । वहाँ भगवान् त्रिविक्रम का निवास हैं । उस तीर्थ में स्नान और दान करने से संसार में लौटना नहीं पड़ता । अब वहाँ का वृतांत बतलाते हैं । गंगा के दक्षिण और उत्तर-तटपर इन्द्रेश्वरतीर्थ है । पूर्वकाल में नमुचि नामक दैत्य देवराज इंद्रका प्रबल शत्रु था । वह मदसे उन्मत रहता था । एक बार इंद्र के साथ उसका युद्ध हुआ । इंद्र ने फेन से उसका मस्तक काट डाला । वह वज्ररूपधारी फेन शत्रु का मस्तक काटने के पश्चात गंगा के दक्षिण तटपर गिरा और पृथ्वी को छेदकर रसातल में समा गया । रसातल में जो गंगाजी का जल है, वह सम्पूर्ण विश्व को पवित्र करनेवाला हैं । वज्र ने पृथ्वी को छेदकर जो मार्ग बना दिया था, उसी मार्गसे वह पातालगंगा का जल पृथ्वी के ऊपर निकल आया । उसीको फेना नदी कहते हैं । गंगाजी के साथ जो उसका पवित्र संगम हुआ है, वह सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात है । गंगा-यमुना के संगम की भांति वह भी समस्त पापों का नाश करनेवाला हैं । वहाँ स्नान करनेमात्र से हनुमानजी की उपमाता, जिनका मुख बिलावका – सा हो गया था, उस संकट से मुक्त हुई थी । उस तीर्थ को मार्जारतीर्थ और हनुमत्तीर्थ भी कहते हैं । उसका उपाख्यान पहले कहा जा चूका हैं ।
हिरण्य नामसे विख्यात एक दैत्यों का पूर्वज था, वह तपस्या करके सम्पूर्ण देवताओं से अजेय हो गया था । हिरण्य बड़ा भयंकर दैत्य था । उसका बलवान पुत्र महाशनि के नामसे विख्यात था । वह भी देवताओं के लिये सदा दुर्जय था । उसकी स्त्री का नाम पराजिता था । एक बार महापराक्रमी महाशनि ने युद्ध के मुहानेपर ऐरावतसहित इंद्र को परास्त किया और उन्हें ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया । इंद्रपर विजय पाने के बाद महाशनि ने वरुण को जीतने के लिये उनपर आक्रमण किया; किन्तु वरुण बड़े बुद्धिमान थे, उन्होंने महाशनि को अपनी कन्या ब्याह दी । इधर तीनों लोक बिना इंद्र के हो गये । तब सब देवताओं ने मिलकर सलाह की कि ‘भगवान विष्णु ही पुन: इन्द्रको दे सकते हैं; क्योंकि वे ही दैत्यों के हन्ता हैं । मन्त्रद्रष्टा भी वे ही हैं । अत: वे दूसरे को भी इंद्र बना देंगे ।’
ऐसा निश्चय करके सब देवता भगवान विष्णु के पास गये और उन्हें सब हाल कह सुनाया । भगवान विष्णु ने कहा – ‘महादैत्य महाशनि मेरे लिये अवध्य है ।’ यों कहकर वे महाशनि के श्वशुर वरुण के पास गये और उन्हें इंद्र के पराभव का समाचार बतलाते हुए बोले – ‘तुम्हें ऐसा यत्न करना चाहिये, जिससे इंद्र पुन: अपने पदपर लौट आयें ।’ भगवान विष्णु के आदेश से वरुण शीघ्र ही वहाँ गये । दैत्य ने विनयपूर्वक अपने श्वशुर से वहाँ पधारने का कारण पूछा । वरुण ने कहा – ‘महाबाहो ! कुछ दिन पहले तुमने इंद्र को परास्त करके रसातल में बंदी बना लिया है । वे देवताओं के राजा है । उन्हें लौटा दो । यदि शत्रु को बाँधकर फिर छोड़ दिया जाय तो वह सत्पुरुषों के लिये महान कारण होता हैं ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर दैत्यराज महाशनि ने ऐरावतसहित इंद्र को लौटा दिया और उनसे यह बात कही – ‘इंद्र ! आजसे तुम शिष्य हुए और मेरे श्वशुर वरुणजी तुम्हारे गुरु हुए; क्योंकि इन्होने तुम्हें मुक्ति दिलायी है । अब तुम वरुण के प्रति स्वामिभाव रखकर स्वयं भृत्यका-सा बर्ताव करना, नहीं तो फिर तुम्हें बाँधकर रसातल के कारागृह में डाल दूँगा ।’
इसप्रकार इन्द्रको फटकारकर उसने बारंबार हँसते हुए कहा – ‘जाओ, जाओ; वरुणजी का सदा आदर करना ।’ इंद्र अपने घर आये । वे अपमानपूर्ण लज्जासे काले पड़ गये थे । उन्होने शत्रुद्वारा तिरस्कृत होने की सारी बातें इन्द्राणी को कह सुनायी और पूछा – ‘सुमुखि ! शत्रु ने मुझ से इस तरह कठोर बातें कहीं और मेरे साथ ऐसा अनुचित बर्ताव किया । इससे मेरे ह्रदय में आग लग रही हैं । तुम्हीं बताओं – कैसे अपने ह्रदय को शीतल करूँ ?’
इन्द्राणीने कहा – बलसूदन ! मैं दानवों की उत्पत्ति, पराजय, माया, वरदान तथा मृत्यु – सब जानती हूँ । महाशनि को तपस्या से ही यह शक्ति प्राप्त हुई हैं । तपस्या से कुछ भी असाध्य नहीं हैं । यज्ञ-कर्म से कोई बात असम्भव नहीं हैं । जगन्नाथ भगवान विष्णु तथा विश्वनाथ शिव की भक्ति से कोई भी कार्य ऐसा नही हैं, जो सिद्ध न हो सके ।
नासाध्यमस्ति तपसो नासाध्यं यज्ञकर्मण: । नासाध्यं लोकनाथस्य विष्णोर्भक्त्या हरस्य च ।।
प्राणनाथ ! मैंने और भी एक बहुत सुंदर बात सुन रखी है । कारण कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों के स्वभाव को जानती हैं । प्रभो ! भूमि तथा जल की अधिष्ठात्री देवियों के द्वारा कोई भी कार्य असाध्य नहीं हैं । तपस्या अथवा यज्ञ आदि उन्हीं दोनों के सहयोग से होते हैं । उसमें भी जो तीर्थभूमि हो, वहीँ आप चलें । उस स्थानपर भगवान विष्णु तथा शिवकी पूजा करके सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुएँ प्राप्त कर लेंगे । मैंने यह भी सुना है कि जो स्त्रियाँ पतिव्रता हैं, वे ही सब कुछ जानती हैं । उन्होंने ही चराचर जगत को धारण कर रखा हैं । पृथ्वीपर सबसे सारभूत स्थान हैं दंडकवन । वहाँ जगज्जननी गंगा बहती हैं । वहीँ चलकर आप दीन-दु:खियों की पीड़ा दूर करनेवाले जगदीश्वर श्रीविष्णु अथवा शिव की आराधना करे । दुःख के समुद्र में डूबनेवाले अनाथ मनुष्यों को श्रीशिव तथा श्रीविष्णु अथवा गंगा के सिवा दूसरा कोई कही भी शरण देनेवाला नहीं हैं । अत: एकाग्रचित्त होकर पूर्ण प्रयत्न करके आप इनको संतुष्ट करें । मेरे साथ रहकर भक्ति, स्तोत्र तथा तपस्या के द्वारा इनकी आराधना करें । तत्पश्चात भगवान शिव और विष्णु के प्रसाद से आप कल्याण के भागी होंगे । बिना जाने किया हुआ कर्म कर्मनिष्ठ पुरुष को एक्गुना फल देता हैं । उसके विधि – विधान और तत्त्व को अच्छी प्रकार जानकर करने से सौ-गुना फल मिलता हैं और पत्नी के साथ उसका अनुष्ठान करने से वही कर्म अनंत फल देनेवाला होता हैं । गृहस्थ पुरुष के सब कार्यों में यहाँ पत्नी ही सहायता करनेवाली हैं । उसके सहयोग बिना छोटे-से-छोटे कार्य भी सिद्ध नहीं होते । नाथ ! पुरुष अकेले जो कर्म करता हैं, उसका आधा फल ही उसे मिलता हैं । किन्तु पत्नी के साथ जो कर्म किया जाता है, उसका पूरा फल पुरुष को प्राप्त होता है । सुना जाता हैं – दंडकारण्य में सरिताओं में श्रेष्ठ गौतमी गंगा बहती हैं । वे समस्त पापों का नाश करनेवाली तथा सम्पूर्ण अभिलषित वस्तुओं को देनेवाली हैं । अत: मेरे साथ वहाँ चलिये और महान फलदायक पुण्यकर्म का अनुष्ठान कीजिये । इससे आप संग्राम में अपने शत्रुओं का संहार करके महान सुख के भागी होंगे ।
‘अच्छा, ऐसा ही करूँगा’ यों कहकर अपने गुरु बृहस्पति और पत्नी शची को साथ ले इंद्र जगज्जननी गौतमी के तटपर गये । दंडकारण्य के भीतर उनकी पावन धारा का दर्शन करके इंद्र को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने देवाधिदेव शिव की प्रसन्नता के लिये तपस्या करने का विचार किया । पहले गंगा में स्नान करके उन्होंने हाथ जोडकर प्रणाम किया तथा एकमात्र भगवान शिवके शरण होकर स्तवन आरम्भ किया ।
इंद्र बोले – जो अपनी माया से सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, किन्तु उसमें आसक्त नहीं होते, जो एक, स्वतंत्र तथा अद्वैत चिदानंदस्वरुप हैं, वे पिनाकधारी भगवान शंकर हमपर प्रसन्न हों । वेदान्त के रहस्यों को भलीभांति जाननेवाले सनकादि मुनि भी जिनके तत्त्व को ठीक-ठीक नहीं जानते, वे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं के दाता अंधकासुरविनाशक पार्वतीपति भगवान् शिव हमपर प्रसन्न हों । जब पाप, दरिद्रता, लोभ, याचना, मोह और विपत्ति आदि अनंत सांसारिक दुःख प्रकट हुए, उनका प्रभाव फैलने लगा और उनसे सम्पूर्ण जगत व्याप्त हो गया, तब यह सब अवस्था देखकर देवेश्वर महादेवजी बड़े चकित हुए और देवी पार्वती से बोले – ‘लोकेश्वरि ! यह सम्पूर्ण जगत नष्ट होना चाहता है । तुम इसकी रक्षा करो । लोकमाता उमा ! तुम सबको शरण देनेवाली, उत्तम ऐश्वर्य से युक्त, परम कल्याणमयी तथा सम्पूर्ण जगत की प्रतिष्ठा हो । वरदायिनी ! तुम्हारी जय हो । तुम भोग, समाधि, परम मुक्ति, स्वाहा, स्वधा, स्वस्ति, आनादि सिद्धि, वाणी, बुद्धि तथा अजर-अमर हो । मेरी आज्ञा के अनुसार तीनों लोकों में विद्या आदि रूप से तुम रक्षा करती हो । तुमने ही प्रकृतिरूप से इस विचित्र त्रिलोकी की सृष्टि की है ।’ शंकरजी के यों कहनेपर उनकी प्राणवल्लभा भगवती उमा उनका आलिंगन करके प्रेमालाप करने लगी और थककर भगवान् के आधे शरीर में लग गयीं तथा अपने हाथ की अँगुलियों से पसीने का जल पोछकर फेंका । उस जलसे पहले धर्म का प्रादुर्भाव हुआ । उसके बाद लक्ष्मी प्रकट हुई । फिर दान, उत्तम वृष्टि, सत्त्व, सरोवर, धान्य, पुष्प, फल, शस्त्र, शास्त्र, गृहोपयोगी अस्त्र, तीर्थ, वन तथा चराचर जगत का आविर्भाव हुआ । देवी ! यह सब पापरहित सृष्टि थी । भगवती उमा ! तुम्हारे प्रभाव से संसार में प्रचुर सुख की वृद्धि हुई । सदा सब और मगंलमय कृत्य शोभा पाने लगे । जगदम्ब ! तुम सम्पूर्ण जगत की स्वामिनी हो और हम भय से डरे हुए हैं । अत: तुम हमारी रक्षा करो । कोई तर्क करते-करते मोहित हो जाते हैं और कोई उसीमें लीन रहते हैं । परन्तु हम तो शिव और शक्ति के सुंदर अद्वैत रूप को सर्वदा नमस्कार करते हैं ।
इसप्रकार स्तुति करनेवाले इंद्र के समक्ष भगवान शंकर प्रकट हुए और बोले – ‘देवराज ! तुम क्या चाहते हो ? अपना अभीष्ट मनोरथ कहो ।’ इंद्र ने कहा – ;भगवन ! मेरा बलवान शत्रु महाशनि, जो देखने में वज्र के समान भयंकर है, मुझे बाँधकर रसातल ले गया था । वहाँ उसने अनेक बार मेरा तिरस्कार किया और वचनरूपी बाणोंसे बांधता रहा । मेरा यह प्रयत्न उसीका वध करने के लिये है । आप मुझे वह शक्ति प्रदान कीजिये, जिससे शत्रु का नाश कर सकूँ । जिसने मेरा अपमान किया हैं, उसका नाश करनेपर ही मैं अपना नया जन्म मानूँगा । विजय और लक्ष्मी की अपेक्षा कीर्ति ही श्रेष्ठ हैं ।’ यह सुनकर शिव ने इंद्र से कहा – ‘अकेले मेरे द्वारा तुम्हारे शत्रु का वध नहीं हो सकता । अत: तुम अविनाशी भगवान जनार्दन की भी आराधना करो । शची भी ऐसा ही करें । भगवान नारायण तीनों लोकों के एकमात्र आश्रय हैं । उनकी अनन्य चित्तसे उपासना करो ।’
भगवान् शिव की आज्ञा से इंद्र गंगाजी के दक्षिण तटपर मुनीश्वर आपस्तम्ब के पास गये और उनको साथ लेकर फेना तथा गंगा के पवित्र संगमपर भांति – भांति के वैदिक मन्त्रों एवं तपस्या के द्वारा भगवान् जनार्दन की स्तुति करने लगे । उनकी स्तुति से भगवान् विष्णु को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे प्रत्यक्ष प्रकट होकर बोले – ‘इंद्र ! तुम्हें क्या वरदान दूँ ?’ वे बोले – ‘मुझे एक ऐसा वीर दीजिये, जो मेरे शत्रुका वध कर सके ।’ भगवान् ने कहा – ‘दे दिया ।’ फिर तो शिव, गंगा तथा विष्णु के प्रसाद से जल के भीतर से एक पुरुष प्रकट हुआ । उसने भगवान शिव और विष्णु दोनों के स्वरुप धारण किये थे । उसके हाथ में चक्र भी था और त्रिशूल भी । उसने रसातल में जाकर इंद्रशत्रु महाशनि का वध किया । उसका नाम अब्जक और वृषाकपि हुआ । वह इंद्र का सखा बन गया । इंद्र स्वर्ग में रहते हुए भी प्रतिदिन वृषाकपि के पास आते थे । उन्हें अन्यत्र आसक्त देख शची के ह्रदय में प्रणयकोप का उदय हुआ ।
तब इंद्र ने हँसकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा – ‘प्रिये ! मैं अपने शरीर की शपथ खाकर कहता हूँ – मित्रपर वृषाकपि के सिवा और किसी के घर नही जाता । अत: तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये । तुम पतिव्रता और मेरी प्रियतमा हो । धर्म करने तथा उचित सलाह देने में मेरी सदा सहायता करती ही । साथ ही संतानवती और कुलीन भी हो । फिर तुम्हारे सिवा दूसरी कौन स्त्री मेरी प्रियतमा हो सकती हैं । तुम्हारे ही उपदेश से मैं महानदी गौतमी गंगा के तटपर गया और वहाँ भगवान विष्णु, शिव तथा मित्र वृषाकपि के प्रसाद से दुःखसागर के पार हुआ और अब यहाँ राज्य से च्युत न होनेवाला इंद्र हूँ । यह सब तुम्हारे सहयोग का फल हैं । जहाँ स्वामी के चित्त का अनुसरण करनेवाली पतिव्रता स्त्री हो, वहाँ कौन-सा कार्य असाध्य हैं । वहाँ तो मोक्ष भी दुर्लभ नहीं हैं । फिर अर्थ, काम आदिकी तो बात ही क्या हैं । पत्नी भी परम मित्र हैं । वह लोक और परलोक दोनों में हितकारिणी होती हैं । पत्नी भी यदि कुलीन, प्रिय बोलनेवाली, पतिव्रता, रूपवती, गुणवती तथा सम्पत्ति और विपत्ति में समान रूप से साथ देनेवाली हो तो उसके द्वारा इस त्रिलोकी में कुछ भी असाध्य नहीं हैं । प्रिये ! तुम्हारी बुद्धि से ही मुझे यह मंगलमय अवसर प्राप्त हुआ है । अब तो तुम जो कहो, वही मुझे करना हैं; और कुछ नहीं । परलोक और धर्म के लिये उत्तम पुत्र के समान कोई सहायक नहीं हैं । संकट में पड़े हुए पुरुष के लिये स्त्री के समान दूसरी कोई ओषधि नहीं हैं । नि:श्रेयस-पद की प्राप्ति तथा पाप से मुक्ति कराने के लिये गंगा के समान कोई नदी नहीं हैं । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि तथा पापसे छुटकारा पानेके लिये श्रीशिव और श्रीविष्णु के एकत्व-ज्ञान से बढकर दूसरा कोई साधन नहीं हैं । पतिव्रते ! तुम्हारी बुद्धि से तथा श्रीशिव, श्रीविष्णु और गंगा के प्रसाद से मुझे यह सब अभीष्ट वस्तु प्राप्त हुई है । मैं समझता हूँ मेरे मित्र के बलसे अब यह इन्द्रपद स्थिर रहेगा ।
तीर्थों में गौतमी गंगा और देवताओं में भगवान विष्णु और शिव श्रेष्ठ हैं ।
इन्हीं की कृपासे मुझे सब मनोवांछित वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं । यह त्रिलोकविख्यात तीर्थ मेरी प्रसन्नता को बढानेवाला हैं । अत: मैं क्रमश: सम्पूर्ण देवताओं से यह प्रार्थना करता हूँ; महर्षिगण, गंगा, विष्णु तथा शिव भी मेरी प्रार्थना का अनुमोदन करें । देवताओं ! गंगा के दोनों तटोंपर एक ओर इन्द्रेश्वरतीर्थ हैं और दूसरी ओर अब्जकतीर्थ । इन्द्रेश्वर में भगवान शिव रहते हैं और अब्जकतीर्थ में साक्षात भगवान् विष्णु । वे अपनी उपस्थिति से दंडकवन को पवित्र करते हैं । इनके बीचमें जो-जो तीर्थ हैं, वे सब पुण्यदायक हैं । उनमें स्नान करनेमात्र से सबकी मुक्ति होती हैं । पापी पाप से मुक्त होते हैं और धर्मात्मा पुरुष अपनी पाँच –पाँच पीढ़ी के पितरोंसहित परममोक्ष के भागी होते हैं । यहाँ आकर जो लोग याचकों को तिलभर भी दान करते हैं, वह दान दाताओं के लिये अक्षय होता हैं तथा मनोवांछित भोग और मोक्ष प्रदान करता हैं । यहाँ भगवान श्रीविष्णु और शिव के उपाख्यान को जानकर स्नान करने से मुक्ति प्राप्त होती हैं । यह उपाख्यान धन, यश, आयु, आरोग्य और पुण्य की वृद्धि करनेवाला हैं । जो लोग इस तीर्थ के माहात्म्य को सुनते और पढ़ते हैं, वे पुण्य के भागी होते हैं । उन्हें यही – इसी जीवन में भगवान विष्णु और शिव की स्मृति प्राप्त होती हैं, जो समस्त पापराशिका संहार करनेवाली हैं तथा जिसके लिये जितेन्द्रिय एवं मनोजयी मुनि भी प्रार्थना करते रहते हैं ।
अध्याय- 58 आपस्तम्बतीर्थ, शुक्लतीर्थ और श्रीविष्णुतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – आपस्तम्बतीर्थ तीनों लोकों में विख्यात हैं । वह स्मरण करनेमात्र से समस्त पापराशिका विध्वंस करने में समर्थ है । आपस्तम्ब एक मुनि थे । वे परम बुद्धिमान और महायशस्वी थे । उनकी पत्नी का नाम अक्षसुतरा था, वह पातिव्रत-धर्म का पालन करनेवाली थी । मुनि के एक पुत्र थे, जो ‘कर्की’ नामसे विख्यात थे । वे बड़े विद्वान और तत्त्ववेत्ता थे । एक दिन उनके आश्रमपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी आये । शिष्योंसहित मुनीश्वर आपस्तम्भ ने अगस्त्यजी का पूजन किया और इसप्रकार पूछा – ‘मुनिवर ! तीनों देवताओं में कौन पूज्य हैं ? अनादि और अनंत कौन है तथा वेदों में किस का यशोगान किया गया हैं ? महामुने ! यही मेरा संशय हैं, इसे दूर करने के लिये आप कुछ उपदेश करें ।’
अगस्त्यजी बोले – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि में शब्द प्रमाण बतलाया जाता है । उसमें भी वैदिक शब्द सबसे श्रेष्ठ प्रमाण हैं । वेदके द्वारा जिनका यशोगान होता है, वे परात्पर पुरुष परमात्मा हैं । जो मृत्यु के अधीन होता हैं, उसे अपर (क्षर पुरुष) जानना चाहिये और जो अमृत है, उसे पर (अक्षर पुरुष) कहते हैं । अमृत के भी दो स्वरुप हैं – मूर्त और अमूर्त । जो अमूर्त (निराकार) हैं, उसे परब्रह्म जानना चाहिये और मूर्त को अपर ब्रह्म कहते हैं । गुणों की व्यापकता के अनुसार मूर्त के भी तीन भेद हैं – ब्रह्मा, विष्णु और शिव । ये एक होते हुए भी तीन कहलाते हैं । इन तीनों देवताओं का भी वेद्यतत्त्व एक ही है । उसे ही परब्रह्म कहते हैं । गुण और कर्म के भेदसे एक की ही अनेक रूपों से अभिव्यक्ति होती है । लोकों का उपकार करने एक लिये एक ही ब्रह्म के तीन रूप हो जाते हैं । जो इस परमतत्त्व को जानता हैं, वही विद्वान हैं; दूसरा नहीं । जो इन तीनों में भेद बतलाता हैं, उसे लिंगभेदी कहते हैं । उसके लिये कोई प्रायश्चित नहीं है ।
लोकानामुपकारार्थमाकृतित्रितयं भवेत् । यस्तत्वं वेत्ति परमं स च विद्वान चेतर : ।। तत्र यो भेदमाचष्टे लिंगभेदी स उच्यते । प्रायश्चितं न तस्यास्ति यश्चैषां व्याहरेद भिदाम ।।
तीनों देवताओं के रूप एक-दूसरे से भिन्न और पृथक-पृथक हैं । सम्पूर्ण साकार रूपों में पृथक-पृथक वेद प्रमाण हैं । जो निराकार तत्त्व हैं, वह एक है । वह उन तीनों की अपेक्षा उत्कृष्ट माना गया हैं ।
आपस्तम्ब बोले – इससे मैं किसी निर्णयपर नहीं पहुँच सका । इसमें जो रहस्य की बात हो, उसे विचारकर बतलाइये ।
अगस्त्यजी ने कहा – यद्यपि इन देवताओं में परस्पर कोई भेद नहीं है तथापि सुखसुरूप शिव से ही सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । मुने ! पराभक्ति के साथ भगवान शिव की ही आराधना करो । दंडकरण्य में गौतमी के तटपर भगवान शिव समस्त पापराशि का निवारण करते हैं ।
महर्षि अगस्त्य की यह बात सुनकर आपस्तम्ब मुनि को बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंने गंगा में जाकर स्नान किया और व्रतपालन का नियम लेकर भगवान शंकर का स्तवन करना आरम्भ किया ।
आपस्तम्ब बोले – जो काष्टोंमें अग्नि, फूलों में सुगंध, बीजों में वृक्ष आदि, पत्थरों में सुवर्ण तथा सम्पूर्ण भूतों में आत्मारूप से छिपे रहते हैं , उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिन्होंने खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना की, जो तीनों लोकों के भरण-पोषण करनेवाले तथा उसके रचयिता हैं , सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप हैं और जो सत-असत से प्रे हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिनका स्मरण करने से देहधारी जीव को दरिद्रता के महान अभिशाप और रोग आदि स्पर्श नहीं करते तथा जिनकी शरण में गये हुए मनुष्य अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त कर लेते हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिन्होंने पहले तीनों वेदों में वर्णित धर्म का साक्षात्कार करके उसमे ब्रह्मा आदि देवताओं को नियुक्त किया और इसप्रकार जिन्होंने दो शरीर धारण किये, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । नमस्कार, मंत्रोच्चारणपूर्वक हवन किया हुआ हविष्य तथा श्रद्धापूर्वक किया हुआ पूजन- ये सब जिनको प्राप्त होते हैं तथा सम्पूर्ण देवता जिनकी दी हुई हविको ग्रहण करते हैं, उन भगवान् सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिनसे बढकर अत्यंत सूक्ष्म भी कोई नहीं हैं तथा जिनसे बढकर महान-से-महान वस्तु भी दूसरी नहीं हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिनकी आज्ञा से यह विचित्र, अचिन्त्य, नाना प्रकार का और महान विश्व एक ही कार्य में संलग्न हो निरंतर परिचालित रहता हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जिनमें ऐश्वर्य, सबका आधिपत्य, कर्तव्य, दातृत्व, महत्त्व, प्रीति, यश और सौख्य – ये अनादि धर्म हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ । जो सदा शरण लेने योग्य, सबके पूजनीय, शरणागत के प्रिय, नित्य कल्यानमय तथा सर्वस्वरुप हैं, उन भगवान सोमनाथ की मैं शरण लेता हूँ ।
इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर कहा – ‘मुने ! कोई वर माँगो ।’ आपस्तम्ब ने कहा – ‘मेरा और दूसरों का कल्याण हो । जो मनुष्य यहाँ स्नान करके सम्पूर्ण जगत के स्वामी आपका दर्शन करें, वे अपनी समस्त अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्त करें ।’ भगवान शिवने ‘एवमस्तु’ कहकर इसका अनुमोदन किया । तबसे वह तीर्थ आपस्तम्ब के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह अनादि अविद्यामय अन्धकारराशि का उन्मूलन करने में समर्थ हैं ।
शुक्लतीर्थ मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करनेवाला हैं । उसके स्मरणमात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्ति होती है । भरद्वाज नामसे विख्यात एक बड़े धर्मात्मा मुनि थे । उनकी पत्नी का नाम पैठीनसी था । वह पातिव्रत-धर्म का पालन करती हुई पति के साथ गौतमी के तटपर निवास करती थी । एक बार मुनिने अग्नि और सोम देवताओं के लिये तथा इंद्र और अग्नि देवताओं के लिये पुरोडाश (खीर) बनाया । पुरोडाश जब पक रहा था, तब धूँये से एक पुरुष प्रकट हुआ, जो तीनों लोकों को भयभीत करनेवाला था । उसने पुरोडाश खा लिया । यह देखकर मुनिने क्रोधपूर्वक पूछा– ‘तू कौन हैं, जो मेरा यज्ञ नष्ट कर रहा हैं ?’ ऋषि की बात सुनकर राक्षस ने उत्तर दिया – ‘मेरा नाम हव्यघ्न ( यज्ञघ्न ) हैं । मैं संध्या का पुत्र हूँ । प्राचीनबर्हिष का जेष्ठ पुत्र मैं ही हूँ । ब्रह्माजीने मुझे वरदान दिया है कि तुम सुखपूर्वक यज्ञों का भक्षण करो । मेरा छोटा भाई कलि भी बलवान और अत्यंत भीषण हैं । मैं काला, मेरे पिता काले, मेरी माँ काली तथा मेरा छोटा भाई भी काला ही है । मैं कृतांत बनकर यज्ञ का नाश और यूपका छेदन करूँगा ।’
भारद्वाज ने कहा – तुम मेरे यज्ञ की रक्षा करो, क्योंकि यह प्रिय एवं सनातन धर्म हैं । मैं जानता हूँ तुम यज्ञ का नाश करनेवाले हो तो भी मेरा अनुरोध हैं कि तुम ब्राह्मणोंसहित मेरे यज्ञकी रक्षा करो ।
यज्ञघ्न ने कहा – भरद्वाज ! तुम संक्षेप से मेरी बात सुनो । पूर्वकाल में देवताओं और दानवों के समीप ब्रह्माजीने मुझे शाप दिया । उससमय मैंने लोकपितामह ब्रह्माजी को प्रार्थना करके प्रसन्न किया । तब उन्होंने कहा – ‘जब श्रेष्ठ मुनि तुम्हारे ऊपर अमृतका छींटा दें, तब तुम शापसे मुक्त हो जाओगे । इसके सिवा और कोई उपाय नहीं हैं ।’ ब्रह्मन ! जब आप ऐसा करेंगे, तब आपकी जो-जो इच्छा होगी, वह सब पूर्ण होगी । यह बात कभी मिथ्था नहीं हो सकती ।
भरद्वाज ने फिर कहा – महामते ! तुम मेरे सखा हो । अत: जिस उपाय से यज्ञ की रक्षा हो, वह बताओ । मैं उसे अवश्य करूँगा । देवताओं और दैत्यों ने एकत्रित होकर कभी क्षीरसमुद्र का मंथन किया था । उससमय बड़े कष्ट से उन्हें अमृत मिला । वही अमृत मुझे कैसे सुलभ हो सकता हैं । यदि तुम प्रेमवश प्रसन्न हो तो जो सुलभ वस्तु हो, वही माँगो । ऋषि की यह बात सुनकर राक्षस ने प्रसन्नतापूर्वक कहा – ‘गौतमी गंगा का जल अमृत है । सुवर्ण अमृत कहलाता हैं । गाय का घी भी अमृत हैं और सोमको भी अमृत ही माना जाता हैं । इन सबके द्वारा मेरा अभिषेक करो । अथवा गंगा का जल, घी और सुवर्ण – इन तीनों वस्तुओं से ही अभिषेक करो । सबसे उत्कृष्ट एवं दिव्य अमृत हैं – गौतमी गंगा का जल ।’
यह सुनकर भरद्वाज मुनिको बड़ा संतोष हुआ । उन्होंने बड़े आदर के साथ गंगा का अमृतमय जल हाथ में लिया और उससे राक्षस का अभिषेक किया । इससे वह महाबली राक्षस शुक्लवर्ण का होकर प्रकट हुआ । जो पहले काला था, वह क्षणभर में गोरा हो गया । प्रतापी भरद्वाज ने सम्पूर्ण यज्ञ समाप्त करके ऋत्विजों को विदा किया । इसके बाद राक्षसने पुन: भरद्वाज से कहा – ‘मुने ! अब मैं जाता हूँ । तुमने मुझे गौर वर्ण का कर दिया । तुम्हारे इस तीर्थमें जो लोग स्नान, दान और पूजन आदि करें, उन सबके अभीष्ट फलों की सिद्धि हो । उसके स्मरणमात्र से सब पाप नष्ट हो जायँ ।’ तबसे वह शुक्लतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । दंडकारण्य में गौतमी गंगा के तटपर वह तीर्थ स्वर्ग का खुला हुआ दरवाजा है । वहाँ गंगाजी के दोनों तटोंपर सात हजार तीर्थ हैं, जो सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं ।
श्रीविष्णुतीर्थ के नाम से जो विख्यात तीर्थ है , उसका वृतांत सुनो । मुदगल के पुत्र मौदगल्य एक प्रसिद्ध महर्षि थे । उनकी पत्नी का नाम जाबाला था । वह उत्तम पुत्रों की जननी थी । मौदगल्य के पिता मुदगल ऋषि भी सम्पूर्ण विश्व में विख्यात थे । उनकी पत्नी भागीरथी के नामसे प्रसिद्ध थी । मौदगल्य ऋषि प्रात:काल ही गंगा स्नान करते थे । यह उनका नित्यका कार्य था । गंगा के तटपर कुश, मिटटी और शमी के फूलों से वे प्रतिदिन भगवान का पूजन करते थे । गुरु के बताये हुए मार्ग से अपने ह्रदयकमल के भीतर वे प्रतिदिन भगवान विष्णु का आवाहन करते थे । उनके आवाहन करते ही शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले लक्ष्मीपति जगन्नाथ गरुडपर आरूढ़ हो तुरंत वहाँ आते थे । फिर मौदगल्य ऋषि के द्वारा यत्नपूर्वक पूजित होनेपर वे कुछ कालतक उन्हें विचित्र-विचित्र कथाएँ सुनाया करते थे । कथावार्ता में जब तीसरे पहर का समय हो जाता, तब भगवान विष्णु उनसे बार-बार कहते – ‘बेटा ! अब अपने घर जाओ, तुम बहुत थक गये होंगे ।’ इसप्रकार भगवान के आग्रह करनेपर वे घर लौटते थे । उनके जानेपर भगवान देवताओं के साथ अपने धाम को लौटते थे । मौदगल्य भी प्रतिदिन कुछ लेकर अपने घर आते और पत्नी को अपना उपार्जित धन देते थे । मौदगल्य की पत्नी जाबाला बड़ी पतिव्रता थी । उसके स्वामी शाक, फल अथवा मूल – जो कुछ भी ला देते, उसे ही लेकर वह उसका संस्कार करती और पहले अतिथियों, बालकों तथा अपने पतिको परोसती थी । इन सबको भोजन देकर वह पीछे स्वयं अन्न ग्रहण करती । जब सब लोग भोजन कर लेते तब मौदगल्य मुनि प्रतिदिन रात में प्रसन्नतापूर्वक श्रीविष्णु के मुख से सुनी हुई कथाएँ सबको सुनाते थे । इसप्रकार बहुत समय व्यतीत होने के बाद मौदगल्य मुनिने पत्नी, पुत्र, भाई, बन्धु और माता-पिता के साथ उत्तम भोग भोगे और अन्तमें मोक्ष भी प्राप्त कर लिया । तबसे वह तीर्थ मौदगल्यतीर्थ और श्रीविष्णुतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वहाँ का स्नान और दान भोग एवं मोक्ष देनेवाला हैं । यदि किसी तरह उस तीर्थ के नामका श्रवण अथवा उसका स्मरण ही हो जाय तो भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और वह मनुष्य पापों से मुक्त होकर सुखी हो जाता है । वहाँ गौतमी के दोनों तटोंपर ग्यारह हजार तीर्थ हैं, जो स्नान, दान और जप आदि करनेसे सब पदार्थ देनेवाले हैं ।
अध्याय- 59 लक्ष्मीतीर्थ और भानुतीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! विष्णुतीर्थ के बाद लक्ष्मीतीर्थ हैं, जो लक्ष्मीकी वृद्धि और दरिद्रता का नाश करनेवाला है । उसका पवित्र इतिहास बतलाता हूँ, सुनो । पूर्वकाल की बात है – लक्ष्मी और दरिद्रादेवी में संवाद हुआ । वे दोनों एक-दूसरी का विरोध करती हुई संसार में आयी । तीनों लोकों में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं हैं, जहाँ ये व्याप्त न हों । दोनों ही कहने लगी – मैं बड़ी हूँ, मैं बड़ी हूँ । लक्ष्मी ने युक्ति दी – ‘देहधारियों का कुल, शील और जीवन मैं ही हूँ । मेरे बिना वे जीते हुए भी मृतक के समान हैं ।’ दरिद्रा ने भी तर्क उपस्थित किया – ‘मैं ही सबसे बड़ी हूँ । क्योंकि मुक्ति सदा मेरे ही अधीन है । जहाँ मैं हूँ, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ और मात्सर्य – ये दोष कभी नहीं रहते । भय, उन्माद, ईर्ष्या और उदंडता का भी अभाव रहता हैं ।’ दरिद्रा की बात सुनकर लक्ष्मी ने प्रतिवाद किया – ‘मुझसे अलंकृत होनेपर सभी प्राणी सम्मानित होते हैं । निर्धन मनुष्य शिव के ही तुल्य क्यों न हो, सबके द्वारा तिरस्कृत होता रहता हैं । ‘मुझे कुछ दीजिये’ यह वाक्य मुँह से निकालते ही बुद्धि, श्री, लज्जा, शान्ति और कीर्ति – ये शरीर के पाँच देवता तुरंत निकलकर चल देते हैं । गुण और गौरव तभीतक टिके रहते हैं, जबतक मनुष्य दूसरों के सामने हाथ नही फैलाता । जब पुरुष याचक बन गया, तब कहाँ गुण और कहाँ गौरव । जीव तभीतक सबसे उत्तम, समस्त गुणों का भंडार और सब लोगों का वन्दनीय रहता हैं, जबतक वह दूसरे से याचना नहीं करता । प्राणियों के लिए निर्धनता सबसे बड़ा कष्ट और पाप हैं । क्योंकि निर्धन मनुष्य को न तो कोई आदर देता, न उससे बात करता और न उसका स्पर्श ही करता है ।
देहीति वचनद्वारा देह्स्था: पंच देवता: । सद्यो निर्गत्य गच्छन्ति धीश्रीहिशान्तिकीर्तय: ।। तावद गुणा गुरत्वं च यावन्न्रार्थवते परम । अर्थी चेत पुरुषो जात: क्व गुणा: क्व च गौरवम ।। तावत्सर्वोत्तमो जंतुस्तावत्सर्वगुणालय” । नमस्य: सर्वलोकानां यावन्नार्थयते परम ।। कष्ट्मेतन्महत्पापं निर्धनत्वं शरीरिणाम । न मानयति नो वक्ति न स्पृशत्पधनं जन: ।।
अत: दरिद्रे ! मैं ही श्रेष्ठ हूँ । तू मेरी बात कान खोलकर सुन ले ।’
लक्ष्मी का यह दर्पयुक्त वचन सुनकर दरिद्रा बोली – ‘लक्ष्मी ! मैं बड़ी हूँ – यह बारंबार कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? तू श्रेष्ठ पुरुषों को छोडकर सदा पापियों में ही रमती रहती हैं । जो तेरा विश्वास करता हैं, उसके साथ तू वंचना करती है । फिर बड़ी-बड़ी डींगे कैसे हाँक रही है । तेरे मिलनेपर मनुष्य को जैसा भारी पश्चाताप सहना पड़ता हैं, वैसा उसे सुख नहीं मिलता । मदिरा पीनेसे भी पुरुष को वैसा भयंकर नशा नही होता, जैसा तेरे समीप रहनेमात्र से विद्वानों को भी हो जाता हैं । लक्ष्मी ! तू सदा प्राय: पापियों के साथ ही क्रीडा करती हैं । मैं योग्य और धर्मशील पुरुषों में सदा निवास करती हूँ । भगवान शिव और श्रीविष्णु के भक्त, कृतज्ञ, महात्मा, सदाचारी, शांत, गुरुसेवा-परायण, साधू, विद्वान, शूरवीर तथा पवित्र बुद्धिवाले श्रेष्ठ पुरुषों में मेरा निवास हैं । तेजस्वी ब्राह्मण, व्रतपरायण सन्यासी तथा निर्भय मनुष्यों के साथ मैं रहा करती हूँ । किन्तु तू कहाँ रहती हैं – यह भी सुन ले । पापपरायण राजकर्मचारी, निष्ठुर, खल, चुगलखोर, लोभी, विकृतांग, शठ, अनार्य, कृतघ्न, धर्मघाती, मित्रद्रोही, अनिष्टकारी तथा ह्रदयहीन मनुष्यों में ही तेरा निवास हैं ।
इस तरह विवाद करती हुई वे दोनों मेरे पास आयीं । मैंने उनकी बातें सुनी और इसप्रकार कहा – ‘पृथ्वी तथा आप (जल) – ये दोनों देवियाँ मुझसे ही प्रकट हुई हैं । स्त्री होने के कारण वे ही स्त्री के विवाद को समझ सकती हैं और कोई नहीं । उनमे भी जो कमण्डलु से प्रकट होनेवाली नदियाँ हैं, वे श्रेष्ठ हैं । उन सरिताओं में भी गौतमी देवी तो सर्वश्रेष्ठ हैं । अत: वे ही तुम्हारे विवाद का निर्णय करेंगी । वे ही सबकी पीडाओं को हरनेवाली तथा सबके संदेह का निवारण करनेवाली हैं ।’ मेरे कहने से वे दोनों पृथ्वी और जल के पास गयीं और उन सबको साथ ले गौतमीदेवी के समीप पहुँची । भूदेवी और आपोदेवी ने गौतमी से लक्ष्मी और दरिद्रा का विवाद स्पष्टरूप से कह सुनाया । उन दोनों के विवाद को समस्त लोकपाल, पृथ्वी और जल ये मध्यस्थ की भांति सुन रहे थे ।
उससमय गंगा ने दरिद्रा से कहा – ‘ब्रह्मजी, तप:श्री, यज्ञश्री, कीर्ति, धनश्री, यश:श्री, विद्या, प्रज्ञा, सरस्वती, भोगश्री, मुक्ति, स्मृति, लज्जा, धृति, क्षमा, सिद्धि, तुष्टि, पुष्टि, शान्ति, जल, पृथ्वी, अहंशक्ति, ओषधि, श्रुति, शुद्धि, रात्रि, द्युलोक, ज्योत्स्ना, आशी:, स्वस्ति, व्याप्ति, माया, उषा, शिवा आदि जो कुछ भी संसार में विद्यमान हैं, वह सब लक्ष्मी के द्वारा व्याप्त है । ब्राह्मण, धीर, क्षमावान, साधू, विद्वान, भोग्पारायण पुरुषों में जो-जो रमणीय अथवा सुंदर हैं, वह सब लक्ष्मी का ही विस्तार हैं । अधिक सुनने से क्या लाभ – समस्त जगत लक्ष्मीमय ही है । जिस किसी व्यक्ति में जो कुछ भी उत्कृष्ट वस्तु दिखायी देती हैं, वह सब लक्ष्मीमय हैं । लक्ष्मी से शून्य कोई वस्तु नहीं हैं । दरिद्रे ! क्या तू इन सुन्दरी लक्ष्मी देवी के साथ स्पर्द्धा करती हुई लज्जित नहीं होती ? जा, चली जा यहाँसे ।’
तबसे गंगा का जल दरिद्रा का शत्रु हो गया । तभीतक दरिद्रता का कष्ट उठाना पड़ता हैं, जबतक गंगाजी का सेवन न किया जाय । तबसे लक्ष्मीतीर्थ अलक्ष्मीनाशक हो गया । वहाँ स्नान और दान करनेसे मनुष्य लक्ष्मीवान तथा पुण्यवान होता हैं । महामते ! वहाँ देवताओं तथा ऋषि-मुनियोंद्वारा सेवित छ: हजार तीर्थ हैं, जो सब – के – सब सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं ।
तदनंतर विख्यात भानुतीर्थ हैं, जो मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला हैं । वहाँ का वृतांत महापातकों का नाश करनेवाला हैं । उसे बतलाता हूँ, सुनो । शर्याति नामसे विख्यात एक परम धर्मात्मा राजा थे । उनकी स्त्री का नाम स्थविष्ठा था । रानी इस भूतलपर अप्रतिम सुन्दरी थी । संयमी पुरुषों में श्रेष्ठ विश्वामित्रकुमार ब्रह्मर्षि मधुच्छन्दा राजा शर्याति के पुरोहित थे । एक समय की बात हैं – वीरवर राजा शर्याति अपने पुरोहित को साथ ले दिग्विजय के लिये निकले । सम्पूर्ण दिशाओंपर विजय पाकर लौटते समय राजा ने मार्ग में सेनाका पडाव डाला । उससमय उन्होंने अपने पुरोहित को उदास देखकर पूछा – ‘विप्रवर ! आप खिन्न क्यों हैं ? मैंने पृथ्वी को जीता और बड़े- बड़े राजाओंपर विजय पायी, यह तो महान हर्ष का अवसर हैं । ऐसे समय में आप दु:खी क्यों हैं ? सच-सच बताइये ।’ तब मधुच्छन्दा ने राजाको सम्बोधित करके कहा – ‘राजन ! जब एक पहर दिन रहेगा, तब हमलोग यात्रा करेंगे । इसीमें रात आधी बीत जायगी । उधर इस शरीर की स्वामिनी मेरी प्रियतमा काम के वशीभूत होकर मेरी राह देखती हैं । उसका स्मरण करके मेरा शरीर सूखा जाता हैं । कामजनित विकार उत्पन्न होनेपर वह कमल के समान मुखवाली सुन्दरी जीवित तो मिलेगी न ? ‘
यह सुनकर राजा हँस पड़े और पुरोहित से बोले – ‘ब्रह्मन ! आप मेरे गुरु और मित्र हैं । फिर अपने-आपको क्यों विडम्बना में डाल रहे हैं । संसार का सुख तो क्षणभंगुर है । उसमें आप –जैसे महात्माओं की आस्था कैसी ।’ मधुच्छन्दा बोले – ‘राजन ! जहाँ पति-पत्नी दोनों एक-दुसरे के अनुकूल रहते हैं, वहीँ धर्म, अर्थ और काम की वृद्धि होती हैं । अत: अपनी पत्नी के प्रति यह अनुराग दूषण नहीं, भूषण ही मानना चाहिये ।’
तदनंतर राजा विशाल सेना के साथ अपने देश में आये । उन्होंने पत्नी के प्रेम की परीक्षा करने के लिये नगरसे यह संदेश भेज दिया – ‘राजा शर्याति दिग्विजय के लिये गये थे । वहाँ एक राक्षस पुरोहितसहित राजा को मारकर रसातल में चला गया ।; दूत के मुख से यह संदेश सुनकर रानी इसकी सत्यता का पता लगाने लगीं, किन्तु मधुच्छन्दा की पत्नी ने तुरंत प्राण त्याग दिये । यह एक अद्भुत बात हो गयी । दूतों ने उसकी मृत्यु का हाल महाराज से जाकर कहा । साथ ही रानियों की चेष्टा भी बतायी । इससे राजा को बड़ा विस्मय और दुःख हुआ; उन्होंने दुतोंसे कहा – ‘तुमलोग जाकर ब्राह्मणी के शरीर की रक्षा करो और नगर में यह बात फैला दो कि राजा अपने पुरोहित के साथ राजधानी में आ रहें हैं ।’
यों कहकर राजा चिन्तासे व्याकुल हो उठे । इसीसमय आकाशवाणी हुई – ‘राजन ! इस पृथ्वीपर गौतमी गंगा सब प्रकार के संकटों की शान्ति करनेवाली तथा पावन हैं, वे आपका सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध करेंगीं ।’ आकाशवाणी सुनकर शर्याति गौतमी के तटपर गये । उन्होंने ब्राह्मणों को धन दिया, पितरों और द्विजों को तृप्त किया और अपने पुरोहित को धन के साथ यह कहकर भेजा – ‘आप अन्य तीर्थों में जाकर धन-दान करें ।’ राजा का यह सब कार्य पुरोहित नहीं जानते थे । उनके चले जानेपर राजा ने सेनाको भी भेज दिया और स्वयं अकेले ही गंगा तटपर रह गये । उन्होंने गंगा, सूर्य तथा देवताओं को सुनाकर कहा – ‘यदि मैंने दान, होम और प्रजा-पालन किया हो तो इस सत्य के प्रभाव से वह पतिव्रता ब्राह्मणी मेरी आयु लेकर जीवित हो जाय ।’ यों कहकर राजा अग्नि में प्रवेश कर गये । उसी समय पुरोहित की पत्नी जीवित हो गयी ।
राजगुरु मधुच्छन्दा को जब यह बात मालुम हुई कि ‘राजा अग्नि में प्रवेश कर गये, मेरी पतिव्रता पत्नी मरकर फिर जी उठी और उसी के लिये महाराज ने अपने जीवन का परित्याग किया हैं, ‘ तब उनका ध्यान अपने कर्तव्य की ओर गया । उन्होंने सोचा, ‘मैं भी अग्नि में प्रवेश करके अपने प्रिय मित्र के पास जाऊँ अथवा यहीं रहकर तपस्या करूँ ?’ अंत में वे इस निश्चयपर पहुँचे कि ‘मेरा कर्तव्य तथा पुण्यकार्य यही हैं कि पहले राजाको जीवित करूँ, उसके बाद प्रिया के पास जाऊं ।’ यह विचारकर उन्होंने सूर्यदेव का स्तवन किया, क्योंकि उनके सिवा दूसरा कोई सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला नहीं हैं ।
मधुच्छन्दा बोले – मुक्तिस्वरुप, अमित तेजस्वी भगवान सूर्य को नमस्कार हैं । ओंकार के अर्थभूत छ्न्दोमय देव को नमस्कार हैं । ओंकार के अर्थभूत छ्न्दोमय देव को नमस्कार हैं । जो विरूप, सुरूप, त्रिगुण, त्रिमूर्ति, सृष्टि, पालन और संहार के हेतु तथा सबके प्रभु हैं, उन भगवान् सूर्य को नमस्कार हैं ।
इस स्तोत्र से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने कहा – ‘कोई वर माँगों ।’ मधुच्छन्दा बोले – ‘देवेश्वर ! राजा का जीवनदान दीजिये । प्रिय वचन बोलनेवाली मेरी पत्नी को भी जीवित रखिये और मुझे तथा राजा के लिये भी उत्तम पुत्र प्रदान कीजिये ।’ जगदीश्वर भगवान सूर्यं ने रत्नमय आभूषणों से विभूषित राजा शर्याति को जीवित करके दे दिया, बाह्मण की पत्नी को भी जिलाया तथा और भी श्रेष्ठ एवं कल्याणमय वर प्रदान किये । तदनंतर राजा प्रसन्न हो पुरोहित के साथ प्रियजनों से घिरे हुए सुखपूर्वक अपने देश को गये । उस स्थानपर तीन हजार गुणवान तीर्थों का निवास हैं ।
मुने ! उसी समय से उस स्थान का नाम भानुतीर्थ, मृतसंजीवनतीर्थ, शर्यातितीर्थ और माधुच्छन्दसतीर्थ हो गया । वह स्मरणमात्र से पापों को दूर भगाता हैं । उन तीर्थों में किया हुआ स्नान और दान सम्पूर्ण यज्ञों का फल देनेवाला हैं ।
अध्याय- 60 खड्गतीर्थ और आत्रेयतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – गौतमी के उत्तर-तटपर खड्गतीर्थ है, जहाँ स्नान और दान करने से मनुष्य मोक्षका भागी होता हैं । नारद ! मैं वहाँ का वृतांत बतलाता हूँ । पैलूष नामसे विख्यात एक ब्राह्मण थे, जो कवष के पुत्र थे । वे कुटुंब के भार से विवश हो धनके लिए इधर-उधर दौड़ा करते थे, किन्तु उन्हें कहींसे भी कुछ नहीं मिलता था । देव तो अत्यंत विमुख था ही, पुरुषार्थ भी निष्फल हो गया । इससे पैलूष को बड़ा वैराग्य हुआ । वे सोचने लगे, ‘यह तृष्णा मुझे बलपूर्वक पाप की ओर खींचती है । तृष्णे ! तूने मेरे अज्ञानवश बड़ा अपकार किया हैं, किन्तु अब तुझे दूरसे ही नमस्कार हैं ।’ यह सोचकर बुद्धिमान पैलूषने मन-ही-मन विचार किया – ‘इस तृष्णाका नाश करने के लिये क्या होना चाहिये ?’ फिर उन्होंने अपने पिता कवष से पूछा – ‘तात ! मैं ज्ञानरूपी खड्ग से क्रोध और लोभ का तथा अत्यंत दुस्तर संसार का कैसे छेदन करूँ ? इसका उपाय बतलाइये ।’
कवष ने कहा – वैदिक श्रुतिका कथन है कि ईश्वर से ज्ञान की इच्छा करे; अत: तुम महादेवजी की आराधना करो । उससे तुम्हें ज्ञान प्राप्त होगा ।
‘बहुत अच्छा’ कहकर पैलूष ने ज्ञान- प्राप्ति के उद्देश्य से महेश्वर की अर्चना की । इससे संतुष्ट होकर उन्होंने ब्राह्मण को ज्ञान प्रदान किया । ज्ञान प्राप्त होनेपर परम बुद्धिमान कवष ने इसप्रकार मुक्तिदायिनी गाथा का गान किया – ‘मनुष्यका पहला शत्रु हैं क्रोध । उसका फल तो कुछ भी नहीं है, उलटे वह शरीर का नाश करता हैं; अत: ज्ञानरूपी खड्ग से उसका नाश करके परम आनंद को प्राप्त करे । नाना प्रकार की तृष्णा बंधन में डालनेवाली माया हैं, वह पाप कराती है; अत: ज्ञानरूपी खड्ग से उसका नाश कर देनेपर मनुष्य सुखसे रहता हैं ।
क्रोधस्तु प्रथमं शत्रुनिष्फलो देहनाशन: । ज्ञानखड्गेन तं छित्त्वा परमं सुखमाप्नुयात ।। तृष्णा बहुविधा माया बन्धनी पापकारिणी । छित्त्वैतां ज्ञानखड्गेन सुखं तिष्ठति मानव: ।।
आसक्ति देवता आदि के लिये भी बहुत बड़ा अधर्म हैं । आत्मा असंग हैं, उसके लिये भी आसक्ति महान शत्रु है । ज्ञानरुपी खड्गसे इस आसक्ति का नाश करके शिव-सायुज्य प्राप्त करे । संशय महानाश का कारण है । वह धर्म और अर्थका भी विनाश करनेवाला है । उस संशय का नाश करके जीव अपने परम अभीष्ट की सिद्धि कर सकता हैं । आशा पिशाची की भांति चित्त में प्रवेश करती हैं और सम्पूर्ण सुखों को भस्म कर डालती हैं । पूर्ण अहंता (अपरिच्छिन्न आत्मबोध) रूपी खड्ग से उसका नाश करके जीवन्मुक्ति प्राप्त करनी चाहिये ।’
तदनंतर पैलुश ज्ञान प्राप्त करके गंगा-तटपर रहने लगे । ज्ञानरुपी खड्ग से उनका मोह नष्ट हो गया था, अत: उन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया । तबसे वह स्थान खड्गतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । ज्ञानतीर्थ, कवषतीर्थ, पैलूषतीर्थ और सर्वकालदतीर्थ आदि छ: हजार तीर्थ वहाँ वास करते हैं, जो पापराशि के नाशक और अभीष्ट वस्तुओं के दाता हैं ।
उसके बाद आत्रेयतीर्थ हैं । उसीको अविन्द्रतीर्थ भी कहते हैं । वह बहुत ही उत्तम हैं । वह खोये हुए राज्य की प्राप्ति करानेवाला है । उसका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो । एक बार गौतमी के उत्तर तटपर आत्रेय ऋषि ने अनेकों ऋत्विज मुनियों के साथ सत्र आरम्भ किया । उसमें हव्यवाहन अग्नि ही होता थे । इसप्रकार सत्र पूरा होनेपर महर्षि ने माहेश्वरी इष्टि का अनुष्ठान किया । इससे अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति हुई तथा उनमें सर्वत्र आने-जाने की शक्ति हो गयी । वे परम मनोहर इन्द्रभवन,स्वर्गलोक तथा रसातल में अपनि तपस्या के प्रभावसे आने-जाने लगे । एक समय वे इन्द्रलोक में गये । वहाँ उन्होंने देवताओं से घिरे हुए इंद्र को देखा, जो अप्सराओं का उत्तम नृत्य देख रहे थे । सिद्ध और साध्यगण उनकी स्तुति कर रहे थे । वह सब देखकर पुन: अपने आश्रमपर लौट आये । कहाँ पवित्र गुणोंवाले रत्नों से भरी हुई अत्यंत रमणीय इन्द्रपुरी और कहाँ श्रीहीन, सुवर्णरहित अपना आश्रम ! यह देखकर ब्राह्मण को अपने आश्रम से वैराग्य-सा हो गया । उनके मनमें शीघ्र ही देवताओं का राज्य प्राप्त करने की अभिलाषा हुई । तब उन्होंने अपनी प्रियासे कहा – ‘देवि ! अब मैं उत्तम – से – उत्तम फल-मूल भी, चाहे वे कितने ही अच्छे ढंग से क्यों न बने हो, नहीं खा सकता । मुझे तो स्वर्गलोक के अमृत, परम पवित्र भक्ष्य-भोजन, श्रेष्ठ आसन, स्तुति, दान, सुंदर सभा, अस्त्र-शस्त्र, मनोहर वस्त्र, अमरावतीपूरी और नंदनवन की याद आती हैं ।’ यों कहकर महात्मा आत्रेय ने तपस्या के प्रभाव से विश्वकर्मा को बुलाया और इसप्रकार कहा – ‘महात्मन ! मैं इंद्र का पद चाहता हूँ । आप शीघ्र ही यहाँ इन्द्रपुरी का निर्माण कीजिये । इसके विपरीत यदि आपने कोई बात मुँह से निकाली तो मैं निश्चय ही आपको भस्म कर डालूँगा ।’
आत्रेय के यों कहनेपर प्रजापति विश्वकर्मा ने तत्काल ही वहाँ मेरुपर्वत, देवपुरी, कल्पवृक्ष, कल्पलता, कामधेनु, वज्र आदि मणियों से विभूषित, सुंदर तथा अत्यंत चित्रकारी किये हुए गृह बनाये । इतना ही नहीं, उन्होंने सर्वांगसुन्दरी शची की भी आकृति बनायी, जो कामदेव की विहारशाला-सी प्रतीत होती थी । क्षणभर में सुधर्मा सभा, मनोहारिणी, अप्सराएँ, उच्चै:श्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, वज्र आदि अस्त्र और सम्पूर्ण देवताओं का निर्माण हो गया । अपनी पत्नी के मना करनेपर भी आत्रेय ने शची के समान रूपवाली उस स्त्री को अपनी भार्या बना लिया । वज्र आदि अस्त्रों को भी धारण किया । नृत्य और संगीत आदि सब कुछ वहाँ उसी तरहसे होने लगा, जिस प्रकार वह इन्द्रपुरी में देखा गया था । स्वर्गलोक का सम्पूर्ण सुख पाकर मुनिवर आत्रेय का चित्त बहुत प्रसन्न हुआ । आपातरमणीय विषयों की भी भला, किस पुरुष को अपेक्षा नहीं होती । दैत्यों और दानवों ने जब स्वर्ग का वैभव पृथ्वीपर उतरा हुआ सुना, तब उन्हें बड़ा क्रोध हुआ । वे परस्पर कहने लगे – ‘क्या कारण है कि इंद्र स्वर्गलोक को छोडकर पृथ्वीपर सुख भोगने के लिये चलें ।’ ऐसा निश्चय करके असुरों ने वहाँ आकर महर्षि आत्रेय को और उनके द्वारा निर्मित इंद्रपूरी को भी घेर लिया । फिर तो उनपर बड़े-बड़े शस्त्रों की मार पड़ने लगी । इससे भयभीत होकर आत्रेय ने कहा – ‘मैं इंद्र नहीं हूँ । मेरी यह भार्या भी शची नहीं हैं । न तो यह इंद्रपूरी हैं और न यहाँ इंद्र का नन्दनवन हैं । वृत्रहन्ता, वज्रधारी और सहस्त्र नेत्रोवाले इंद्र तो स्वर्ग में ही है । मैं तो वेदवेत्ता ब्राह्मण हूँ और ब्राह्मणों के साथ ही गौतमी के तटपर निवास करता हूँ । दुर्दैव की प्रेरणा से मैंने यह कर्म कर डाला, जो न तो वर्तमान कालमें सुख देनेवाला हैं और न भविष्य में ही ।’
असुर बोले – मुनिश्रेष्ठ आत्रेय ! यह इंद्र का अनुकरण छोडकर यहाँ का सारा वैभव समेत लो, तभी तुम कुशल से रह सकते हो; अन्यथा नहीं ।
तब आत्रेयने कहा – ‘मैं अग्निकी शपथ खाकर सच-सच कहता हूँ – आपलोग जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगा ।’ दैत्यों से यों कहकर वे पुन: विश्वकर्मा से बोले – ‘प्रजापते ! आपने मेरी प्रसन्नता के लिये जो इंद्रपद का निर्माण किया था, इसका फिर उपसंहार कर लीजिये और ऐसा करके मुझ ब्राह्मण मुनि की शीघ्र रक्षा कीजिये । मुझे फिर अपना वही आश्रम लौटा दीजिये, जहाँ मृग, पक्षी, वृक्ष और जल हैं । मुझे इन दिव्य भोगों की कोई आवश्यकता नहीं हैं । शास्त्रीय मर्यादा का उल्लंघन करके प्राप्त की हुई कोई भी वस्तु सुखद नहीं होती ।’
‘बहुत अच्छा’ कहकर प्रजापति ने उस इंद्रपूरी के वैभव को समेत लिया । उस देश को निष्कंटक बनाकर दैत्य फिर अपने स्थान को चले गये । विश्वकर्मा भी हँसते-हँसते अपने धाम को पधारे । आत्रेय भी अपने शिष्यों और पत्नी के साथ गौतमी तटपर रहते हुए तपस्या में संलग्न हो गये । उनका जो यज्ञ चल रहा था, उसमें उन्होंने लज्जित होकर कहा- ‘अहो ! मोहकी कैसी महिमा हैं कि मेरे चित्त में भी भ्रान्ति आ गयी । यह क्या मैंने महेंद्रपद पाया और क्या-क्या उसके लिये किया ।’
इसप्रकार लज्जित हुए आत्रेय से देवताओं ने कहा- ‘महाबाहो ? लज्जा छोडो । इससे तुम्हारी बड़ी ख्याति होगी । जो लोग इस आत्रेयतीर्थ में स्नान करेंगे, वे भविष्य में इंद्र होंगे और इसके स्मरण से उन्हें सुख की प्राप्ति होगी ।’ यों कहकर देवता चले गये और आत्रेय मुनि भी बहुत संतुष्ट हुए ।
अध्याय- 61 परूष्णीतीर्थ, नारसिंहतीर्थ, पैशाचनाशनतीर्थ, निम्नभेदतीर्थ और शंखह्रदतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – परुष्णी नामक तीर्थ तीनों लोकों में विख्यात हैं । उसके पापनाशक स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सुनो । एक बार महर्षि अत्रिने ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी की आराधना की । उब तीनों के संतुष्ट होनेपर महर्षि ने कहा – ‘आपलोक मेरे पुत्र हों । साथ ही मेरे एक परम सुन्दरी कन्या भी हो ।’ इस वरदान के अनुसार वे तीनों देवता उनके पुत्र हुए । महर्षिंने जो कन्या उत्पन्न की, उसका नाम आत्रेयी हुआ । अत्रि के तीनों पुत्र क्रमश: दत्त, सोम और दुर्वासा के नामसे प्रसिद्ध हुए । अग्नि से अंगिरा की उत्पत्ति हुई थी । अंगार से उत्पन्न होने के कारण ही उन्हें अंगिरा कहते हैं । महर्षि अत्रि ने अंगिरा से ही अपनी तेजस्वी कन्या आत्रेयी को ब्याह दिया । अंगिरा में अग्नि की तीव्रता का प्रभाव था । अत: वे आत्रेयी से सदा परुष (कठोर) भाषण किया करते थे । आत्रेयी भी सदा पतिकी सेवा में संलग्न रहती थी । आत्रेयी के गर्भ से महान बलवान और पराक्रमी आंगिरस नामक पुत्र हुए । अंगिरा आत्रेयी को प्रतिदिन कटु वचन सुनाते और आंगिरस नामवाले पुत्र सदा अपने पिता को शांत किया करते थे । एक दिन आत्रेयी पतिके कठोर वाक्य से उद्धिग्न हो उठी और दीनभाव से हाथ जोडकर अपने श्वशुर अग्निदेव से बोली – ‘भगवान हव्यवाह ! मैं अत्रि की कन्या और आपके पुत्र की पत्नी हूँ, पुत्रों और पति की सेवामें सदा संलग्न रहती हूँ; तो भी पतिदेव मुझे कटु वचन सुनाते और व्यर्थ ही रोषपूर्ण दृष्टि से देखा करते हैं । सुरश्रेष्ठ ! आप मेरे पति-देवताको समझा दें ।
अग्नि बोले – कल्याणी ! तुम्हारे पति अंगिरा ऋषि अंगार से प्रकट हुए हैं । वे जिस प्रकार शांत हो सकें, वैसी नीति वर्तनी चाहिये । तुम्हारे पति अंगिरा जब अग्नि में प्रवेश करें, तब तुम मेरी आज्ञा से जलरूप होकर उन्हें बहा ले जाना ।
आत्रेयी ने कहा – भगवन ! मैं उनकी कठोर बातें सह लूँगी, किन्तु मेरे स्वामी अग्नि में प्रवेश न करें । जो स्त्रियाँ अपने स्वामी से प्रतिकूल चलती है, उनके जीवन से क्या लाभ । मैं तो इतना ही चाहती थी कि वे शांतिमय वचन बोले ।
अग्नि बोले – जलमें, शरीर में तथा स्थावर-जंगमरूप जगत में सर्वत्र मेरा निवास हैं । मैं तुम्हारे पतिका नित्य आश्रय हूँ, क्योंकि मैं ही उनका जनक हूँ । जो मैं हूँ, वही वे भी हैं । यह जानकर तुम्हे चिंता नहीं करनी चाहिये । एक बात और हैं – जलको तो तुम माता समझो और अग्नि को श्वशुर । इस बात का अपनी बुद्धि से भलीभांति निश्चय करके तूम विषाद न करो ।
आत्रेयीने कहा – भगवन ! आप जलको माता कहते हैं और मैं आपके पुत्र की पत्नी हूँ । जननी होकर फिर पत्नी कैसे रह सकूँगी, जलका रूप धारण करने से यह विरोध सामने आता हैं ।
अग्नि बोले – स्त्री पहले तो पत्नी होती हैं । फिर स्वामी का भरण-पोषण करने से भार्या बनती हैं । पुत्रका जन्म देनेपर उसे जाया कहते हैं । इसीप्रकार अपने गुणों के कारण वह कलत्र कहलाती हैं । भद्रे ! तुम भी यही रूपधारण करती हो । अत: मेरी आज्ञा का पालन करो । जो एक बार पत्नी के गर्भ में आकर पुत्ररूप से उत्पन्न हो चूका, वह वास्तव में उसका पुत्र ही है और वह स्त्री भी जननी ही है । अत: वैदिक तत्त्व के विद्वान कहते हैं कि पुत्र उत्पन्न हो जानेपर नारी पत्नी नहीं रह जाती ।
श्वशुर के मुखसे यह वचन सुनकर आत्रेयी ने अग्निरूप में आयें हुए अपने पतिको जलसे आप्लावित कर दिया । फिर वे दोनों पति-पत्नी गंगाजी के जलसे जा मिले । उससमय दोनों के स्वरूप शांत थे । जैसे लक्ष्मी के साथ श्रीविष्णु, उमाके साथ शंकर तथा रोहिणी के साथ चंद्रमा हैं, उसीप्रकार वे दोनों शोभा पाने लगे । पतिको आप्लावित करती हुई आत्रेयी ने जलमय शरीर धारण किया था, अत: वह परुष्णी नदी के नामसे विख्यात हुई और गंगा में जा मिली । उसमें स्नान करने से सौ गोदानों का पुण्य प्राप्त होता हैं । आंगिरस नामवाले पुत्रने गंगा और परुष्णी के संगमपर बहुत – से यज्ञ किये । वहाँ स्नान-दान आदि से जो पुण्य होता हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता ।
गंगा के उत्तर तटपर नारसिंह नामक विख्यात तीर्थ है, जो सबकी रक्षा करनेवाला है । उसके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सुनो । पूर्वकाल में हिरण्यकशिपु नामक दैत्य हुआ था, जो बलवानों में श्रेष्ठ था । तपस्या और पराक्रम की दृष्टि से भी वह बहुत बढ़ा हुआ था । देवता भी उसे परास्त नहीं कर पाते थे । उसका पुत्र भगवान का भक्त हुआ । उसके साथ द्वेष करने के कारण हिरण्यकशिपु का अंत:करण मलिन हो गया था । उससमय भगवान अपनी विश्वरूपता का परिचय देते हुए सभामंडप के खंभे से नरसिंहरूप में प्रकट हुए और उस दैत्य का वध करके उन्होंने उसकी सेना को भी मार भगाया । क्रमश: युद्ध में समस्त दैत्यों का संहार करके रसातल के शत्रुओंपर विजय पायी । उसके बाद वे स्वर्गलोक में गये । वहाँ रहनेवाले दैत्यों को परास्त करके वे पुन: पृथ्वीपर आये । यहाँ पर्वत, समुद्र, नदी, ग्राम और वनों में नानारूप धारण करके जो दैत्य निवास करते थे, उन सबका भगवान नृसिंह ने संहार कर डाला । आकाश, वायु तथा ज्योतिर्मय लोक में पहुँचे हुए दैत्यों को भी जीवित नहीं छोड़ा । उनके नख वज्रपात से भी कठोर थे । गर्दन और मुखपर बड़े-बड़े बाल थे । उनकी गर्जना सुनकर दैत्यपत्नीयों के गर्भ गिर जाते थे । उन्होंने समस्त राक्षसों को परास्त किया । भयंकर सिंहनाद, प्रल्याग्नि के समान दृष्टि, थप्पड़ और शरीर के धक्के से समस्त असुरों को चूर्ण कर डाला ।
इसप्रकार अनेक दैत्यों का संहार करके नरसिंहजी गौतमी के तटपर गये, जो उन्हीं के चरणकमलों से निकली हुई और मन तथा नेत्रों को आनंद देनेवाली थी । वहाँ दण्डकारण्य का स्वामी आम्बर्य्य नामक दैत्य रहता था, जो देवताओं के लिये भी दुर्जय था । उसके पास बहुत बड़ी सेना थी । भगवान नृसिंह का उस दैत्य के साथ अत्यंत भयंकर एवं रोमांचकारी युद्ध हुआ । श्रीहरि ने गोदावरी के उत्तरतटपर अपने शत्रुका संहार कर डाला । वह स्थान तीनों लोकों में नारसिंहतीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । वहाँ किया स्नान, दान आदि पुण्यकर्म समस्त पापरूपी ग्रहों का शमन, वृद्धावस्था और मृत्यु का निवारण तथा सबकी रक्षा करनेवाला हैं । जैसे सम्पूर्ण देवताओं में कोई भी भगवान विष्णु के समान नहीं हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थों में नारसिंहतीर्थ अनुपम और सर्वोत्तम हैं । उस तीर्थ में स्नान करके मनुष्य भगवान नृसिंह का पूजन करे तो उसे स्वर्ग, मर्त्यलोक और पाताल का भी कोई सुख दुर्लभ नहीं रहता । बिना श्रद्धा भी जिनका नाम लेनेपर समस्त पापों का संहार हो जाता हैं, वे साक्षात भगवान नरसिंह ही जहाँ विराजमान हैं, उस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होनेवाले फलका कौन वर्णन कर सकता हैं । जैसे नृसिंहजी से बड़ा कही कोई देवता नहीं हैं, उसी प्रकार नृसिंहतीर्थ के समान कहीं कोई तीर्थ नहीं हैं ।
गंगा के उत्तर-तटपर पैशाचनाशनतीर्थ विख्यात हैं । नारद ! वहाँ पूर्वकाल में एक ब्राह्मण पिशाच-योनि से मुक्त हुआ था । सुयज्ञ के पुत्र अजीगर्ति एक विख्यात ब्राह्मण थे । एक समय अकाल पड़नेपर कुटुंब-पालन के भार से दु:खी एवं पीड़ित होकर उन्होंने अपने मझले पुत्र शुन:शेष को वध के लिये क्षत्रिय के हाथ बेच दिया । उसके बदलें में अजीगर्ति को बहुत धन मिला था । शुन:शेष ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ था । ऐसे पुत्रको भी अजीगर्ति ने धनके लोभ से बेच डाला । आपत्ति में पड़नेपर विद्वान पुरुष भी कौन-सा पाप नहीं कर डालता । समय आनेपर अजीगर्ति की मृत्यु हुई और वे नरक में डाले गये । क्योंकि इस लोक में पूर्वजन्म के किये हुए पापों का भोग के बिना क्षय नहीं होता । अनेक पाप-योनियों में पड़ने के पश्चात अजीगर्ति भयंकर आकारवाले पिशाच हुए । उन्हें निर्जल और निर्जन वन में सूखे काठपर रहना पड़ता था । गर्मी में जहाँ दावानल फ़ैल जाता, वही यमराज के दूत उस प्रेत को डाल देते थे । कन्या, पुत्र, पृथ्वी, अश्व तथा गौओं का विक्रय करनेवाले मनुष्य महाप्रलय-कालतक नरक से छुटकारा नहीं पाते ।
कन्यापुत्रमहीबाजिगवां विक्रयकारिण: । नरकांत निवर्तन्ते यावदाभूतसंप्लवम ।।
अपने किये हुए पापों के फलस्वरूप भयंकर यमदूतोंद्वारा नरक में पकाये जानेपर वह प्रेत जोर-जोर से रोने लगा ।
एक दिन अजीगर्ति का मझला पुत्र शुन:शेष मार्ग में कहीं जा रहा था । उसने रोते हुए पिशाच की कातर वाणी सुनी और पूछा – ‘आप कौन हैं, जो अत्यंत दु:खी होकर रोते हैं ? अजीगर्ति ने बड़े दुःख से कहा – ‘मैं शुन:शेष का पिता हूँ । भारी पापकर्म करके भयानक प्रेतयोनिमें पड़ा हूँ । पहले तो बारंबार नरकों में यातनाएँ सहता रहा और अब प्रेतयोनि को प्राप्त हुआ हूँ । जो- जो पापकर्म करनेवाले हैं, उन सबकी यही गति होती हैं ।’ यह सुनकर अजीगर्ति के पुत्र को बड़ा दुःख हुआ । उसने कह – ‘पिताजी ! मैं ही आपका पुत्र शुन:शेष हूँ । हाय, मेरे दोष से आपकी यह दशा हुई । मुझे बेचने के कारण आपको इसप्रकार नरकों में आना पड़ा हैं । अब मैं आपको स्वर्ग में पहुँचाऊँगा ।’ ऐसी प्रतिज्ञा करके उसने गंगाजी का चिन्तन किया और पिता को उत्तम लोक प्राप्त कराने की चेष्टा में संलग्न हो वहाँ से चल दिया । उसने सोचा – ‘जो सम्पूर्ण दुःखरूपी अग्नि से संतप्त हैं और मोह के महासागर में डूब रहे हैं, उन देहधारियों के लिये गंगाजी को छोडकर तीनों लोकों में दूसरा कोई सहारा नहीं हैं । ऐसा निश्चय करके पिताका दुर्गति से उद्धार करने की कामना लेकर शुन:शेष पवित्र भाव से गौतमी के तटपर गया और वहाँ स्नान करके भगवान विष्णु और शिवका स्मरण करते हुए उसने प्रेतरूपी दु:खी पिताको जल दिया । जलांजलि देते ही अजीगर्ति ने पवित्र होकर परम पुण्यमय दिव्य शरीर धारण कर लिया और विमानपर बैठकर देवसमुदाय से सेवित वैकुण्ठधाम को प्रस्थान किया । गंगा भगवान विष्णु, शिव और ब्रह्माजी के प्रभाव से अजीगर्ति हजारों सूर्यों के समान तेजस्वी रूपधारण करके वैकुण्ठधाम में रहने लगे । तबसे यह स्थान पैशाचनाशतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । उसके स्मरणमात्र से मनुष्यों के बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं । नारद ! इसप्रकार मैंने तुमसे इस तीर्थ का माहात्म्य सुनाया । यहाँ और भी तीन सौ तीर्थ हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं ।
निम्नभेद नामक तीर्थ सब पापों का नाश करनेवाला हैं । वह गंगा के उत्तर-तटपर हैं । उसकी प्रसिद्धि तीनों लोकों में हैं । उसके स्मरणमात्र से सम्पूर्ण पापों का क्षय हो जाता हैं । वहीँ वेदद्वीप हैं । उसके दर्शन से मनुष्य वेदों का विद्वान होता है । एक समय की बात है – परम धर्मात्मा राजा पुरुरवा ने उर्वशी नामक अप्सरा की कामना की । मादक नेत्रोवाली कामिनी को देखकर कौन पुरुष मोह में नहीं पड़ता । उर्वशी राजा के स्थानपर गयी । उसने राजा से यह शर्त की कि मैं जबतक आपको नग्न न देखूँ, तभीतक आपके पास रह सकती हूँ } उसके रहने की यह अवधि स्वीकार करके राजाने उस रमणीया अप्स्राको ग्रहण किया । एक दिन जब वह पलंगपर सोयी हुई थी, राजा पुरुरवा उठे । उसी समय उन्हें नग्न देखकर उर्वशी वहाँ से चली गयी । उसके जाने से राजाको बड़ा दुःख हुआ । उनका अग्निहोत्र और भोजन छुट गया । वे न किसीकी बात सुनते थे और न किसीकी ओर देखते थे । मृतककी – सी अवस्था में पड़े रहते थे । उससमय पुरोहित ने युक्तियुक्त वचनोंद्वारा उन्हें समझाया – ‘राजन ! तुम तो बुद्धिमान हो; क्या तुम्हें मालुम नहीं है कि इन स्त्रियों का ह्रदय भेदियों की तरह कठोर होता है । तुम शोक न करो । महाराज ! इस संसार में कौन ऐसा पुरुष है, जो कामिनियों से ठगा न गया हो । वंचना, क्रूरता, चंचलता और दुश्चरित्रता – ये जिन स्त्रियों के स्वाभाविक दुर्गुण हैं, वे सुखदायिनी कैसेहो सकती हैं ? काल ने किसको नहीं मारा । याचक होनेपर किसको गौरव प्राप्त हुआ । धन-सम्पत्ति से किसका मन भ्रांत नहीं हुआ और युवती स्त्रियों ने किसको धोखा नहीं दिया ।
को नाम लोके राजेन्द्र कामिनीभिर्न वंचित: । वज्रकत्वं नृशंसत्वं चंचलत्वं कुशीलता ।। इति स्वाभाविकं यासां ता: कथं सुखहेतव: । कालेन को न निहत: कोऽर्थी गौरवमागत: ।। श्रिया न भ्रामित: को वा योषिभ्दी: को न खंडित: ।
राजन ! जिनका ह्रदय मदसे उन्मत रहता हैं, वे युवतियाँ स्वप्न और माया के समान मिथ्था हैं । वे किसको सुख दे सकती हैं । यह जानकर तुम निश्चित हो जाओ ।महामते ! भगवान शंकर, विष्णु तथा गोदावरी नदी को छोडकर तीनों लोकों में दूसरा कोई नहीं हैं, जो दु:खियों को शरण दे सके ।’
पुरोहित का यह कथन सुनकर राजाने यत्नपूर्वक अपने दुःख को दूर किया । वे गोदावरी के मध्यभाग में (जहाँ रेत थी ) रहकर भगवान शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, गंगा तथा अन्यान्य देवताओं की आराधना करने लगे । जो विपत्तिमें पड़ने पर तीर्थो और देवताओं का सेवन नहीं करता, वह काल के वश में पड़ा हुआ जीव किस दशाको प्राप्त होगा । राजा पुरुरवा एकमात्र भगवान के शरण हो उत्सुकतापूर्वक गौतमी का सेवन करने लगे । संसार की ओरसे उनका मन हट गया और भगवान के भजन में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गयी । उन्होंने ऋत्विजों को साथ लेकर बहुत दक्षिणावाले अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया । तबसे वह स्थान वेदद्वीप और यज्ञद्वीप कहलाने लगा । वहाँ सदा ही पूर्णिमा की रात में उर्वशी आया करती हैं । जो मनुष्य उस द्वीप की प्रदक्षिणा करता हैं, उसके द्वारा समुद्रसहित पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती हैं । जो पुण्यात्मा वहाँ वेदों और यज्ञों का स्मरण करता हैं, उसे वेदों के स्वाध्याय और यज्ञों का स्मरण करता हैं, उसे वेदों के स्वाध्याय और यज्ञों के अनुष्ठान का फल मिलता हैं । उसको ऐलतीर्थ जानना चाहिये । वही पुरुरवस तीर्थ हैं । उसे ही वसिष्टतीर्थ और निम्नभेदतीर्थ भी कहते हैं । राजा पुरुरवा के किसी भी कार्य में कुछ भी निम्नता (न्यूनता) नहीं होती थी । एक ही कार्य उनसे निम्नश्रेणी का हुआ, यह कि वे सर्वथा उर्वशी में आसक्त हो गये थे; परन्तु गौतमी गंगा और महर्षि वसिष्ठ ने उनके इस निम्नभेद के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के अभीष्ट की सिद्धि देनेवाला है । जो निम्नभेदतीर्थ में स्नान करके इन देवताओं का दर्शन करता हैं, उसके इस लोक और परलोक में कुछ भी निम्न नहीं होता । वह सब प्रकार से उन्नति को प्राप्त हो स्वर्ग में इंद्र की भांति सुख भोगता हैं ।
उसके आगे शंखह्र्द नामक तीर्थ है । वहाँ शंख और गदा धारण करनेवाले भगवान निवास करते हैं । उस तीर्थ में स्नान करके मनुष्य भवबंधन से मुक्त हो जाता है । वहाँ का इतिहास बतलाता हूँ, जो भोग और मोक्ष देनेवाला हैं । पूर्वकाल में सत्ययुग के आरम्भ में ब्रह्माण्ड के भीतर अनेक रूपधारी राक्षस उत्पन्न हुए, जो सामवेद का गान करनेवाले थे । वे बलोंमत्त राक्षस हाथ में आयुध धारण किये मुझे खा जाने के निमित्त आये । उस समय मैंने अपनी रक्षा के लिये जगदगुरु भगवान विष्णु को पुकारा । उन्होंने अपने चक्र से राक्षसों का संहार करके पाताल को निष्कंटक और स्वर्ग को शत्रुशून्य बना दिया । फिर उन्होंने अत्यंत हर्ष में भरकर शंख बजाया, जिससे समस्त राक्षस नष्ट हो गये । श्रीविष्णु के शंख के प्रभाव से जिस स्थानपर यह घटना हुई, वह शंखतीर्थ कहलाया, जो मनुष्यों के लिये सब प्रकार से कल्याणकारक, समस्त अभीष्ट वस्तुओं का दाता, स्मरणमात्र से मंगलदायक, आयु और आरोग्य का जंक तथा लक्ष्मी और पुत्र की वृद्धि करनेवाला है । उसके माहात्म्य के स्मरण अथवा पाठमात्र से मनुष्य समस्त अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त कर लेता हैं ।
अध्याय- 62 किष्किन्धातीर्थ और व्यासतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – किष्किन्धातीर्थ बहुत विख्यात है । वह मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और समस्त पापों को शांत करनेवाला है । वहाँ भगवान शंकर निवास करते है । नारद ! उस तीर्थ के स्वरूप का वर्णन करता हूँ, भक्तिपूर्वक सुनो ।
पूर्वकाल में दशरथनन्दन भगवान श्रीराम ने किष्किन्धानिवासी वानरों को साथ लेकर जब समस्त लोकों की रुलानेवाले रावण को युद्ध में सेना और पुत्रोंसहित मार डाला, तब सीता को पुन: प्राप्त करके अपने भाई लक्ष्मण, महाबली वानर, बलवान विभीषण और देवताओं के साथ वे स्वस्तिवाचनपूर्वक पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर लौटे । पुष्पक विमान कुबेर का था । वह शीघ्रगामी और इच्छानुसार चलनेवाला था । भगवान राम शत्रुओं का संहार करनेवाले और शरणार्थी पुरुषों को शरण देनेवाले थे । उन्होंने विमान से अयोध्या लौटते समय मार्गमें लोकपावनी गौतमी गंगा को देखा, जो समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाली तथा मन और नेत्रों के संताप का निवारण करनेवाली है । गंगाजी का दर्शन करके महाराज श्रीराम उनके तटपर उतरे और हनुमान आदि सम्पूर्ण वानरों को सम्बोधित करके हर्षगदगद वाणी में कहने लगे – ‘ये गौतमी गंगा सम्पूर्ण जीवों की जननी हैं । ये भोग तो देती ही हैं, मोक्ष भी दे सकती है । भयंकर पापों का भी संहार कर डालती है । इनकी समानता करनेवाली दूसरी कौन नदी है, जिन्हें महर्षि गौतम ने सबको शरण देनेवाले भगवान शंकर की आराधना करके जटासहित प्राप्त किया था । ये सम्पूर्ण अभिलषित फलों की जननी और अमंगलों का नाश करनेवाली है । ये समस्त संसार को पवित्र करने में समर्थ हैं । समस्त सरिताओं को जननी गंगा का आज प्रत्यक्ष दर्शन हुआ । मैं मन, वाणी और शरीरद्वारा सदा ही इन शरणागतवत्सला गंगाजी की शरण लेता हूँ ।’
भगवान श्रीराम का यह वचन सुनकर समस्त वानरों ने गंगाजी में डुबकी लगायी और सम्पूर्ण लौकिक उपहारों तथा अनेक प्रकार के पुष्पोंद्वारा उनकी विधिवत पूजा की । महाराज श्रीरामचंद्रजी ने श्रीमहादेवजी का यथावत पूजन करके सर्वभावोपयुक्त वाक्योंद्वारा स्तवन किया । सम्पूर्ण वानरों ने भी प्रसन्न होकर नृत्य और गान किया । भगवान श्रीराम ने अपनी प्रिया जानकी तथा प्रेमी वानरों के साथ सुखपूर्वक वह रात व्यतीत की । सबेरे उठकर भगवान अत्यंत प्रसन्नतापूर्वक गोदावरी देवी की स्तुति करने लगे ।। फिर अपने भृत्यगणों का सम्मान करके वे वहाँ अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव करने लगे । उस निर्मल प्रभात में सूर्योदय होनेपर विभीषण ने दशरथनंदन श्रीराम से कहा – ‘भगवान ! हमलोग इस तीर्थ में रहने से अभी तृप्त नहीं हुए । अत: कुछ समय और निवास करें । मेरा विचार है, चार रात और यहाँ ठहरें । फिर सब लोग साथ ही अयोध्या चलेंगे ।’ विभीषण की बात का वानरों में भी अनुमोदन किया । फिर भगवान शिव की पूजा करते हुए चार रात और ठहरे । वहाँ महादेवजी सिद्धेश्वर के नामसे प्रसिद्ध थे और उन्हीं के प्रभाव से रावण अत्यंत प्रबल हो गया था । इसप्रकार सब लोग अपने द्वारा स्थापित किये हुए शिवलिंग की पूजा करते हुए पाँच दिनोंतक वहाँ ठहरे रहे । श्रीराम ने अपने सम्पूर्ण सहायको के साथ शुद्धातिशुद्ध ह्रदय से सम्पूर्ण शिवलिंगों को मस्तक झुकाया । किष्किन्धानिवासी सभी वानरोंद्वारा सेवित होने के कारण वह स्थान किष्किन्धातीर्थ कहलाया । वहाँ स्नान करनेमात्र से बड़े-बड़े पाप भी नष्ट हो जाते हैं । भगवान ने गौतमी गंगाको भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और कहा –‘माता गौतमी ! मुझपर प्रसन्न होओं ।’ इसतरह बारंबार कहकर वे विस्मित चित्तसे गोदावरी को देखते और उन्हें प्रणाम करते जाते थे । तबसे विद्वान पुरुष उस पुण्यमय तीर्थ को किष्किन्धातीर्थ कहने लगे । जो इस प्रसंग का पाठ, स्मरण अथवा भक्तिपूर्वक श्रवण करता हैं, उसके पापको भी यह तीर्थ हर लेता हैं । फिर जो लोग वहाँ स्नान और दान करते हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है ।
उसके बाद व्यासतीर्थ और प्राचेतसतीर्थ हैं । उनका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो ।
मेरे दस मानस पुत्र हुए, जो जगतकी सृष्टि करनेवाले थे । वे पृथ्वीका अंत कहाँ है – इस बातका पता लगाने के लिये चले गये । तब मैंने पुन: अन्य पुत्रों को उत्पन्न किया, किन्तु वे भी अपने भाइयों की खोज करने के लिये चले गये । जो पहले के गये थे, वे तो गये ही थे; ये भी लौटकर नहीं आये । उससमय परम बुद्धिमान दिव्य आंगिरस नामक मुनि उत्पन्न हुए, जो वेद-वेदांगों के तत्व को जाननेवाले और सम्पूर्ण शास्त्र में प्रवीण थे । वे अंगीरा की आज्ञा से पिता को नमस्कार करके तपस्या के लिये उद्यत हुए । गुरुजनों में गौरव की दृष्टी से माता का स्थान सबसे ऊँचा हैं तो भी माता से बिना पूछे ही आंगिरसों ने तपस्या करने का निश्चय कर लिया । इससे कुपाति होकर माताने अपने पुत्रों को शाप दिया – ‘जो पुत्र मेरी अवहेलना करके तपस्या में प्रवृत्त हुए है, उन्हें कीसी प्रकार सिद्धि नहीं प्राप्त होगी ।’ आंगिरसों ने अनेकों देशों में जाकर तपस्या की, किन्तु उन्हें कही भी सिद्धि न मिली । वे सब इधर-उधर दौड़ते रहे, परन्तु सभी स्थानों में कोई-न-कोई विघ्न आ जाता था । कहीं राक्षसों से, खाई मनुष्यों से, कहीं युवती स्त्रियों से और कहीं अपने शरीर के ही दोषसे तपस्या में विघ्न पड जाता था । इसप्रकार भटकते हुए सब आंगिरस तपस्वियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके विनीत भावसे बोले – ‘भगवन ! हम अनेक उपायों से बारंबार प्रयत्न करते हैं तो भी किस दोषसे हमारी तपस्या सिद्ध नहीं होती ? आप तपस्या में सबसे बढ़े-चढ़े हैं; अत: कोई उपाय हो तो बतायें । ब्रह्मन ! आप ज्ञानियों में भी ज्ञानी, बक्ताओं में भी श्रेष्ठ वक्ता, संयमी पुरुषों में भी सबसे अधिक शांत, दयावान, प्रियकारी, क्रोधशून्य तथा द्वेष से रहित है । अत: हमने जो पूछा है, उसे बताइये । जो अहंकारी, दयावान, गुरु-सेवारहित, असत्यवादी और क्रूर हैं, वे तत्त्व को नहीं जानते ।’
साहंकारा दयाहीना गुरुसेवाविवर्जिता: । असत्यवादिन: क्रूरा न ते तत्त्वं विजानते ।
अगस्त्य ने थोड़ी देरतक ध्यान किया, उसके बाद उन सब लोगों से धीरे-घिरे कहा – ‘आपलोग शांतचित्त महात्मा हैं । ब्रह्माजी ने आपको प्रजापति बनाया है । अबतक आपलोगों की तपस्या पूर्ण नहीं हुई – इसमें कोई-न-कोई अवश्य है । आपलोग उस कारण का स्मरण करें । ब्रह्माजी ने पहले जिन मानस पुत्रों को उत्पन्न किया था, वे चले गये और बहुत सुखी हुए; परन्तु जो उनकी खोज में गये, वे ही फिर आंगिरस हुए हैं । वे ही आप लोग हैं, जो समय पाकर इस रूपमें आये हैं । आप धीरे-धीरे प्रयत्न करते रहे तो प्रजापति से भी बढ़-चढकर हो जायेंगे – इसमें तनिक भी संदेह नहीं हैं । यहाँ से तपस्या करने के लिये आप त्रिभुवनपावनी गंगा के तटपर जायँ । संसार में शिववल्लभा गंगा के सिवा दूसरा कोई सिद्धिका उपाय नहीं हैं । वहाँ पावन प्रदेश में आश्रम के भीतर ज्ञानद गुरु की पूजा करें । वे आप लोगों के सब संशयों का निवारण करेंगे ।’
तब आंगिरसों ने महर्षि अगस्त्य से पूछा –‘ज्ञानद किसको कहते हैं ? ब्रह्मा, विष्णु, महेश, आदित्य, चन्द्रमा, अग्नि और वरुण – इनमें कौन ज्ञानद हैं ?’ अगस्त्यजी ने फिर कहा – ‘ज्ञानद का स्वरूप बतलाता हूँ’ सुनो । जो जल हैं, वही अग्नि हैं । जो अग्नि है, वही सूर्य कहलाता हैं । जो सूर्य है, वही विष्णु है और जो विष्णु है, वही सूर्य । जो ब्रह्मा है, वही रूद्र हैं । जो रूद्र है, वही सब कुछ है । इसप्रकार जिसको एक की सर्वरूपताका ज्ञान हो, उसीको ज्ञानद कहते हैं । देशिक, प्रेरक, व्याख्याकार, उपाध्याय और शरीर का जनक आदि बहुत-से गुरु हैं; किन्तु उनमें जो ज्ञानदाता गुरु हैं, वह सबसे बड़ा हैं । यहाँ उस ज्ञान की बात कही गयी है, जिससे भेद-बुद्धिका नाश हो । एकमात्र अद्वितीय शिव ही सब कुछ हैं । विद्वान ब्राह्मण उन्हीं का इंद्र, मित्र और अग्नि आदि अनेक नामों से वर्णन करते हैं । अनेक नाम और अनेक रूपों में जो भगवान के तत्त्व का वर्णन किया जाता हैं, वह अज्ञानीजनों का उपकार करने के लिये है ।’
मुनि का यह वचन सुनकर वे गाथा-गान करते हुए वहाँ से चले गये । उनमें से पाँच तो उत्तर गंगाके तटपर गये और पाँच दक्षिण गंगा के । वहाँ महर्षि अगस्त्य के बताये हुए देवताओं की विधिपूर्वक पूजा करने लगे । विशेषत: आसनों पर बैठकर वे तत्त्व का विचार किया करते थे । इससे उनके ऊपर समस्त देवता प्रसन्न हुए और बोले – ‘विश्वयोनि ब्रह्माजीने युग के आदिमें जो स्त्रष्टा के पदकी कल्पना की थी, वह इसलिये कि अधर्मों की निवृत्ति हो, वेदों की स्थापना हो, सम्पूर्ण लोकों का उपकार हो, धर्म, अर्थ और कामकी सिद्धि हो तथा पुराण, स्मृति, वेद और धर्मशास्त्रों के अर्थ का ठीक-ठीक निश्चय हो । इसके अनुसार तुम सब लोगों को जगत-स्त्रष्टा का पद प्राप्त होगा । तुम सब उस पदके अनुरूप होओगे ।’ नारद ! वे क्रमश: धीरे-धीरे प्रजापति होंगे । जब अधर्म बढ़ेगा, वेदों का पराभव होगा और उनपर संकट आयेगा, उससमय वेदों का उद्धार करने के लिये वे भावी व्यास होंगे । गंगा का उत्तम तट ही उनकी तपस्या का उत्तम स्थान होगा और वहाँ शिव, विष्णु, मैं, सूर्य, अग्नि और जल – ये सब उपस्थित रहेंगे । इनसे बढकर पवित्र और इनसे श्रेष्ठ कहीं कुछ भी नहीं हैं । केवल परब्रह्म ही इन सबके आकारों में प्रकट हुआ है । सर्वस्वरूप शिव, जो व्यापक तथा सम्पूर्ण भावपदार्थों का रूपधारण करनेवाले हैं, समस्त प्राणियोंपर कृपा करने के लिये उस तीर्थ में विशेष रूप से रहते हैं । उनके साथ सम्पूर्ण देवता भी निवास करते हैं । भगवान शिव सबपर अनुग्रह करनेवाले हैं । वे आंगिरस धर्मव्यास और वेदव्यास के नामसे प्रसिद्ध होंगे । उनका तीर्थ भी व्यासतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध होंगे । उनका तीर्थ भी व्यासतीर्थ के नामसे ही तीनों लोकों में विख्यात हैं । व्यासतीर्थ बहुत ही उत्तम है । उसका जल पापरूपी कीचड़ को धोनेवाला, मोहरूप अन्धकार और मद का नाश करनेवाला तथा मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला हैं ।
अध्याय- 63 कुशतर्पंण एवं प्रणीता – संगम – तीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! कुशतर्पण एवं प्रणीता-संगम नामक तीर्थ सब लोकों में प्रसिद्ध हैं । वे भोग और मोक्ष देनेवाले हैं । मैं उनके पापहारी स्वरूप का वर्णन करता हूँ, सुनो । विन्ध्यपर्वत के दक्षिणभाग में सह्य नामक महान पर्वत हैं । उसी के शाखा-पर्वतों से गोदावरी और भीमरथी आदि नदियाँ निकली हैं । वही विरजतीर्थ और एकवीरा नदी भी है । उस पर्वत की महिमा का कोई वर्णन नहीं कर सकता । उसी सह्यगिरी के पावन प्रदेश में जो वृत्तान्त घटित हुआ था, वह गोपनीय से भी गोपनीय हैं; साक्षात वेदमें उसका वर्णन है । उसे देवता, मुनि, पितर और असुर भी नहीं जानते वही गुह्य रहस्य आज मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिये प्रकट करता हूँ, वह श्रवणमात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला है ।
जो अव्यक्त एवं अक्षर परमात्मा है, उसे परम पुरुष जानना चाहिये । वही जब प्रकृति से संयुक्त होता है, तब क्षर एवं अपर कहलाता हैं । पुरुष पहले निराकार से साकाररूप में प्रकट हुआ । फिर उससे जल की उत्पत्ति हुई । जल से पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ । फिर जल और पुरुष से कमल प्रकट हुआ । उस कमल से मेरी उत्पत्ति हुई । मुने ! पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – ये पाँच तत्त्व मुझसे पहले एक ही समय में प्रकट हुए थे । मैंने उत्पन्न होनेपर सबसे पहले इन्हीं को देखा और कोई स्थावर-जंगम भूत मेरे देखने में नहीं आये । उस समय वेद नहीं प्रकट हुए थे । दूसरी कोई वस्तु ही मैंने नहीं देखी । अधिक क्या कहूँ-जिनसे स्वयं मेरी उत्पत्ति हुई, उनको भी मैं न देख सका । उससमय मैं मौन बैठा था । इतने में ही उत्तम आकाशवाणी सुनायी दी – ‘ब्रह्मन ! तुम स्थावर और जंगम जगत की सृष्टि करो ।’ नारद ! यह आकाशवाणी सुनकर मैंने कहा – ‘कैसे सृष्टि करूँगा, कहाँ सृष्टि करूँगा और किस साधन से इस जगत की सृष्टि करूँगा ?’ आकाशवाणी ने पुन: उत्तर दिया – ‘ब्रह्मन ! यज्ञ करो, इससे तुम्हें शक्ति प्राप्त होगी । यज्ञ ही विष्णु है – यह सनातन श्रुतिका कथन है । यज्ञ करनेवालों के लिये इस लोक और परलोक में कौन सी वस्तु असाध्य है ।’ मैंने फिर पूछा – ‘कहाँ और किस वस्तुसे यज्ञ करूँ ?’ पुन: आकाशवाणी सुन पड़ी – ‘कर्मभूमि में यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष का यजन करो । स्वयं पुरुष ही तुम्हारे यज्ञ के साधन होंगे । तुम उन्हीं से उनका यजन करो । यज्ञ, स्वाहा, स्वधा, मन्त्र, ब्राह्मण और हविष्य आदि सब कुछ श्रीहरि ही है । उन्हीं में सबकी प्राप्ति होती हैं ।’
नारद ! उससमय भागीरथी, नर्मदा, यमुना, तापी, सरस्वती, गौतमी, समुद्र, नद, सरोवर तथा अन्यान्य निर्मल सरिताएँ नहीं थी । अत: मैंने पूछा – ‘कर्मभूमि कहाँ है ?’ आकाशवाणी से उत्तर मिला – ‘मेरुगिरी के दक्षिण हिमालय, विन्ध्य और सह्य से भी दक्षिण जो प्रदेश हैं, उन्हें कर्मभूमि कहते हैं । वह सबके लिये सर्वदा कल्याणका उदय करनेवाली हैं ।’ यह सुनकर मैंने मेरुगिरी को त्याग दिया और सह्यगिरी के समीप आकर सोचने लगा – ‘कहाँ ठहरूँ ?’ इतने में ही फिर आकाशवाणी हुई – ‘इधर आओ । यहाँ रहो और बैठकर यज्ञ का संकल्प करो । संकल्प करने के बाद सम्पूर्ण वेद प्रकट होंगे । फिर वे जो कुछ भी कहें, वही करो ।’
तदनंतर इतिहास, पुराण तथा अन्य जो भी वांडमय शास्त्र हैं, वह मेरे मुख में स्वत: आ गया और मुझे उसका स्मरण होने लगा । तत्काल ही सम्पूर्ण वेदार्थ भी मुझे ज्ञात हो गया । तब मैंने लोकविख्यात पुरुषसूक्त का स्मरण किया । वेदमें जो यज्ञ की सामग्री बतायी गयी थी, उसके अनुसार ही मैंने उसकी कल्पना की । वेदोक्त प्रकारसे ही यज्ञपात्र भी कल्पित हुए । मैंने जहाँ पवित्रता और संयमपूर्वक बैठकर यज्ञ की दीक्षा ग्रहण की, वह मेरे यज्ञका स्थान मेरे ही नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह ब्रह्मगिरी कहलाने लगा । ब्रह्मगिरी से पूर्व की ओर चौरासी हजार योजनतक मेरे यज्ञ का स्थान है । उस भूमि के मध्यभाग में वेदी थी तथा दक्षिणभाग में गार्हपत्य-अग्नि की स्थापना हुई । इसीप्रकार एक ओर आहवनीय अग्नि की प्रतिष्ठा की गयी । श्रुति में यह कहा है कि बिना पत्नी के यज्ञ सिद्ध नहीं होता, इसलिये मैंने शरीर के दो भाग किये । पूर्वार्द्ध से मेरी पत्नी प्रकट हुई, जो यज्ञसिद्धि के लिये सहधर्मिणी बनी । उत्तरार्द्ध से मैं स्वयं पुरुषरूप में स्थित हुआ । श्रुति भी कहती है ‘अर्द्धो जाया’ – पत्नी आधा अंग है । नारद ! मैंने वसंत-ऋतू को उत्तम घृत बनाया । ग्रीष्म से ईंधन का काम लिया । शरद-ऋतू को हविष्य बनाया । वर्षा को कुश के स्थान में रखा । सात छंद सात परिधि हुए । कला, काष्ठा और निमेश – ये क्रमश: समिधा, पात्र और कुश माने गये । जो अनादि और अनंत काल है, वही युप के रूप में कल्पित हुआ । इसके बाद पशु बाँधने के लिये रस्सी की आवश्यकता हुई । सत्त्व आदि तीनों गुण ही रस्सी की जगह काम आये, किन्तु उसमें बाँधने के लिये पशुका अभाव था । तब मैंने आकाशवाणी से कहा – ‘बिना पशु के यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकता ।’ उत्तर मिला – ‘पुरुषसूक्त से परमपुरुष की स्तुति करो ।’
‘बहुत अच्छा’ – कहकर मैंने अपने जन्मदाता देवाधि जनार्दन का भक्तिपूर्वक पुरुषसूक्त के मन्त्रोद्वारा स्तवन किया । उससमय फिर आकाशवाणी हुई – ‘ब्रह्मन ! तुम मुझे ही पशु बनाओ ।’ मैं समझ गया, ये मेरे जन्मदाता अविनाशी पुरुष है । मैंने त्रिगुणमयी डोरियों से कालयूप के पार्श्वभाग में उन्हें बाँध दिया । सबसे पहले प्रकट हुए पुरुषरूपी पशुका, जो कुशोंपर विराजमान थे, प्रोक्षण किया । इसी समय पुरुष से ये सब वस्तुएँ प्रकट हुई – उनके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, मुख से इंद्र और अग्नि, प्राण से वायु, कान से दिशाएँ तथा मस्तक से सम्पूर्ण स्वर्गलोक की उत्पत्ति हुई । मन से चन्द्रमा, नेत्र से सूर्य, नाभि से अन्तरिक्ष, दोनों जाँघों से वैश्य और चरणों से शुद्र तथा पृथ्वी का प्राकट्य हुआ । रोमकूपों से ऋषि और केशों से ओषधियाँ प्रकट हुई । नखों से ग्रामीण तथा जंगली पशु हुए । पायु और उपस्थ से कृमि, कीट एवं पतंग आदिका जन्म हुआ । इनके सिवा जो कुछ भी स्थावर-जंगम तथा दृश्य-अदृश्य जगत है, वह सब पुरुष से प्रकट हुआ । इसी समय भगवान की दैवी वाणी ने पुन: मुझसे कहा – ‘ब्रह्मन ! सब पूरा हो गया । मनोवांछित सृष्टि उत्पन्न हुई । इस समय जितने पात्र है, उन सबकी अग्नि में आहुति कर दो । यूप, प्रणीता, कुश, ऋत्विक, यज्ञ, स्त्रुवा, पुरुष और पाश – सबका विसर्जन कर दो ।’
आकाशवाणी के इतना कहते ही मैंने क्रमश: गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीयाग्नि में हवन किया । प्रत्येक होम में विश्व की उत्पत्ति के कारणभुत पुरुष का ध्यान किया । लोककर्ता जगन्नाथ भगवान विष्णु शुक्लरूप धारण करके आहवनीयाग्नि में स्थित हुए, श्यामरूप से दक्षिणाग्नि में और पीतरूप से गार्हपत्याग्नि में स्थित हुए । उन सभी देशों में भगवान विष्णु का नित्य निवास है । कोई ऐसा स्थान या वस्तु नहीं हैं, जहाँ विश्वयोनि भगवान विष्णु न हों । उस यज्ञ में मन्त्रोद्वारा मैंने प्रणितापात्र का भी सम्पादन किया था । वह प्रणीता का जल ही प्रणीता नदी के रूप में परिणत हुआ । फिर कुशों से मार्जन करके प्रणीता का मैंने विसर्जन कर दिया । मार्जन करते समय जो प्रणीता के जल की बूँदे इधर-उधर गिरी, वे गुणवान तीर्थों के रूप में प्रकट हुई । वे तीर्थ स्नान करने से यज्ञ के फल देनेवाले हैं । देवाधिदेव भगवान विष्णु ने जिसे सदा सुशोभित किया है, वह गौतमी वैकुण्ठ धामपर पहुँचने के लिये सीढियों की पंक्ति है । संमार्जन करने के बाद जहाँ कुश इस पृथ्वीपर गिरे थे, वह स्थान कुशतर्पण नामक तीर्थ हुआ, जो बहुत पुण्यफल देनेवाला हैं । मैंने विन्ध्यपर्वत के उत्तर जहाँ यूप खड़ा किया था, वह स्थान भगवान विष्णु का आश्रय बना तथा वह यूप अक्षयवट के रूप में परिणत हुआ । वह वृक्ष नित्य एवं कालस्वरूप है और स्मरण करनेमात्र से यज्ञका पुण्य देनेवाला हैं । मेरे यज्ञ का मुख्य स्थापन यह दंडकारण्य है । जब यज्ञ पूरा हुआ, तब मैंने भक्तिपूर्वक भगवान विष्णु को प्रसन्न किया । जिन्हें वेद में विराट कहते हैं, जिनमें मूर्तिमान जगत की उत्पत्ति हुई है तथा जिनसे मेरा जन्म हुआ है, उन देवदेवेश्वर भगवान विष्णु की आराधना करके मैंने उनका विसर्जन कर दिया ।
नारद ! मेरे देवयजन का स्थान चौबीस योजन हैं । आज भी वहाँ तीन कुंड हैं, जो यज्ञेश्वरस्वरूप हैं । तभी से वह स्थान मेरे देवयजन के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वहाँ रहनेवाले जो कीडे – मकोडे आदि हैं, वे भी अंत में मोक्ष के भागी होते हैं । दंडकारण्य धर्म और मोक्ष का बीज बताया जाता है । विशेषत: वह प्रदेश, जिसे गौतमी गंगा ने स्पर्श किया है, अधिक पुण्यमय हो गया है । प्रणीता –संगम तथा कुशतर्पणतीर्थ में जो स्नान और दान आदि करते हैं, वे परमपद को प्राप्त होते हैं । उनके वृतांत का स्मरण, पठन अथवा भक्तिपूर्वक श्रवण भी मनुष्यों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाला और भोग एवं मोक्ष को देनेवाला । मुने ! कुशतर्पणतीर्थ काशी से भी उत्तम हैं । चराचर जगत में इसके समान दूसरा कोई भी तीर्थ नहीं हैं । इसके स्मरणमात्र से ब्रह्महत्या आदि पापों का नाश हो जाता हैं । नारद ! यह तीर्थ इस पृथ्वीपर स्वर्ग का द्वार बताया जाता हैं ।
अध्याय- 64 सारस्वत तथा चिच्चिक तीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – सारस्वत नामक तीर्थ समस्त अभीष्ट वस्तुओं के साथ भोग और मोक्ष को भी देनेवाला है । वह मनुष्यों के सब पापों का नाशक, समस्त रोगों को दूर करनेवाला और सम्पूर्ण सिद्धियों का दाता हैं । नारद ! उसके माहात्म्य का वृतांत विस्तारपूर्वक सुनो । पुष्पोत्कट से पूर्व और गौतमी के दक्षिणतटपर एक विश्वविख्यात पर्वत हैं, जिसे शुभ्रगिरि कहते हैं । शाकल्य नामसे प्रसिद्ध एक परम निष्ठावान मुनि उस पुण्यमय शुभ्र पर्वतपर उत्तम तपस्या कर रहे थे । गौतमी के तटपर रहकर तपस्या करनेवाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मण को सभी भूतगण प्रतिदिन प्रणाम और उनका स्तवन किया करते थे । ऋषियों, गन्धर्वो तथा देवताओं से सेवित उस परमपवित्र पर्वतपर देवताओं और ब्राह्मणों को भय पहुँचनेवाला परशु नामक एक राक्षस रहता था । वह यज्ञ से द्वेष रखता, ब्राह्मणों की हत्या करता और इच्छानुसार अनेक रूप धारण करके वनमें विचरता रहता था । जहाँ विद्वान ब्राह्मण शाकल्यमुनि रहते थे, वहाँ भी वह महापापी राक्षस आया करता था । विप्रवर शाकल्य बड़े तेजस्वी थे । पापाचारी परशु प्रतिदिन उन्हें उठा ले जाने अथवा मार डालने की चेष्टा में लगा रहता था, किन्तु वह अपने उद्योग में सफल न हो सका । एक दिन द्विजश्रेष्ठ शाकल्य देवताओं की पूजा करके भोजन करने की इच्छा से आश्रमपर आये । इसी समय परशु ब्राह्मणका रूप धारण करके किसी कन्या को साथ लिये वहाँ आया । उसका शरीर शिथिल हो गया था, सिर के बाल पक गये थे और वह अत्यंत दुर्बल दिखायी देता था । उसने शाकल्य से कहा – ‘ब्रह्मन ! आप मुझे और इस कन्या को भोजनार्थी जानिये । मानद ! हमलोग आतिथ्य के समयपर आये हैं । आप कृतकृत्य हो गये । इस संसार में वे ही धन्य है, जिनके घरसे अतिथि अपनी अभिलाषा को पूर्ण करके निकलते हैं । जो अतिथि-सत्कार नहीं करते, वे जीते हुए भी मृतक के समान हैं । जो भोजन के लिये बैठकर भी अपने लिये बने हुए अन्नको अतिथि के लिये दे देता हैं, उसने मानो पृथ्वी का दान कर दिया ।’
यह सुनकर शाकल्य ने कहा – ‘मैं तुम्हें भोजन देता हूँ ।’ यों कहकर उन्होंने उसे आसनपर बिठाया और विधिवत पूजा करके भोजन परोसा । परशु ने हाथ में आचमन के लिये जल लेकर कहा – ‘दुरसे थके – माँदे आये हुए अतिथि के पीछे देवता भी आते हैं । जब अतिथि तृप्त होता है, तब वे भी तृप्त हो जाते हैं । यदि अतिथि की तृप्ति न हुई तो वे भी अतृप्त रह जाते हैं । अतिथि और निंदक – ये दोनों विश्व के बन्धु है । निंदक तो पाप हर लेता हैं और अतिथि स्वर्ग की सीढी बन जाता है । जो मार्ग से ठक्कर आये हुए अतिथि को अवहेलनापूर्वक देखता हिन्, उसके धर्म, यश और लक्ष्मीका तत्काल नाश हो जाता है ।
अतिथिश्चापवादी च द्वावेतौ विश्वबान्धवों । अपवादी हरेत्पापमतिथि: स्वर्गसंक्रम: ।। अभ्यागतं पथि श्रान्तं सावज्ञं योऽभिविक्षते । तत्क्षणादेव नत्यन्ति तस्य धर्मयश:श्रिय: ।।
इसलिये मैं थका-माँदा अभ्यागत आपसे कुछ याचना करता हूँ । आप मुझे अभीष्ट वस्तु देंगे, तभी भोजन करूँगा; अन्यथा नहीं ।’ शाकल्य ने कहा – ‘उसे दिया हुआ ही समझो । तुम निश्चिन्त होकर भोजन करो ।’ तब राक्षसों में श्रेष्ठ परशु ने कहा – ‘मुने ! मैं पके बालोंवाला दुर्बल एवं बुढा ब्राह्मण नहीं, तुम्हारा शत्रु हूँ । तुम्हें मारकर खा जानेका अवसर देखते-देखते मेरे कितने वर्ष व्यतीत हो गये । जैसे थोडा जल गर्मी में सुख जाता हैं, वैसे ही मेरे सब अंग भूख के मारे सुख रहे है । अत: मैं तुम्हारे अनुचरोंसहित तुम्हें ले चलूँगा और अपना आहार बनाऊंगा ।’
परशु का यह कथन सुनकर शाकल्य ने कहा – ‘जो उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हैं और जिन्हें सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान हैं, उनकी की हुई प्रतिज्ञा कभी झूठी नहीं होती । अत: सखे ! तुम्हें जैसा उचित जान पड़े, करो । तथापि मेरी एक बात सुन लो; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुषों का कर्तव्य हैं कि जो मारने को उद्यत हों, उनसे भी हितकी ही बात कहे । यह बात ध्यान में रखो कि मैं ब्राह्मण हूँ । मेरा शरीर वज्र के समान कठोर हैं और भगवान श्रीहरि मेरी सब ओरसे रक्षा करते हैं । भगवान विष्णु मेरे पैरों की रक्षा करें । देव जनार्दन मेरे मस्तक की, भगवान् वाराह दोनों भुजाओं की, कुर्मराज पृष्ठभाग की, कृष्ण ह्रदय की, नृसिंहजी अँगुलियों की, वाणी के अधीश्वर मुख की, गरुडवाहन नेत्रों की, धनेश दोनों कानों की और भगवान भव सब ओरसे मेरे शरीर की रक्षा करें । नाना प्रकार की आपत्तियों में एकमात्र साक्षात भगवान नारायण ही मेरे लिये शरण हैं ।’
यों कहकर शाकल्य ने कहा – ‘राक्षसराज ! अब तुम्हारी इच्छा हो तो इस समय आलस्य छोडकर मुझे यहाँ से उठा ले चलो या वहीँ सुखपूर्वक खा जाओ ।’ उनके यों कहनेपर भी वह राक्षस खाने को तैयार हो गया । सच हैं, पापी के ह्रदय में करुणा का एक कण भी नहीं होता । बड़ी-बड़ी दाढे और विकराल मुख बनावे जब वह ब्राह्मण के समीप पहुँचा, तब उन्हें देखकर बोला – ‘विप्रवर ! तुमको तो शंख, चक्र और गदा हाथ में लिये देखता हूँ । तुम्हारे सहस्त्रो चरण, सहस्त्रों मस्तक, सहस्त्रों हाथ हैं । तुम सर्वव्यापी दिखायी देते हो । सम्पूर्ण भूतों के एकमात्र निवास हो । तुम्हारा स्वरूप छ्न्दोमय हैं । तुम जगन्मय हो ! इस रूपमें आज मैं तुम्हें देखता हूँ । तुम्हारा पहला शरीर इससमय नहीं हैं । इसलिये मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ – अब तुम्हीं मुझे शरण दो । महामते ! मुझे ज्ञान प्रदान करो और ऐसा कोई तीर्थ बताओ, जो मेरा पापों से उद्धार करनेवाला हो । ब्रह्मन ! महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो । लोहे का पारसमणि से प्रसंग या प्रमाद से भी स्पर्श हो जाय तो भी वह उस सोना ही बनाता हैं ।’
महतां दर्शनं ब्रह्मन जायते न हि निष्फलम । द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसंगद्वा प्रमादत: ।। अवस:स्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते ।
राक्षस का यह वचन सुनकर शाकल्य को बड़ी दया आयी । वे बोले – ‘दैत्यराज ! तुम्हें शीघ्र ही सरस्वती का वरदान प्राप्त होगा । इससे तुममें भगवत्स्वन की शक्ति आ जायगी । फिर तुम भगवान जनार्दन की स्तुति करना । मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति के लिये श्रीनारायण की स्तुति के सिवा दूसरा कोई साधन नहीं हैं ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर परशु त्रिभुवनपावनी गंगा के तटपर गया और स्नान करके पवित्र हो गंगाजी की और मुँह करके खड़ा हुआ । उसी समय उसने देखा, शाकल्य मुनि के कथनानुसार जगज्जननी सरस्वती सामने खड़ी हैं । उनका रूप दिव्य है । उन्होंने दिव्य चन्दन का लेप कर रखा है । संसार की जड़ता दूर करनेवाली जगन्माता जगदम्बा भुवनेश्वरी का दर्शन करके परशु ने विनीतभाव से कहा – ‘देवि ! मेरे गुरु शाकल्य ने कहा है कि तुम लक्ष्मीकान्त भगवान गरुडध्वज की स्तुति करो । आपके प्रसाद से वह शक्ति मुझे प्राप्त हो जाय – ऐसी कृपा कीजिये ।’ सरस्वती ने ‘तथास्तु’ कहा । उनकी कृपासे शक्ति पाकर परशु ने भगवान जनार्दन की भांति-भांति के वचनोंद्वारा स्तुति की । इससे भगवान श्रीहरि बहुत संतुष्ट हुए । उन कृपासिंधु ने राक्षस को वरदान दिया – ‘तुम्हारे सब मनोरथ पूर्ण होंगे ।’
इसप्रकार शाकल्य मुनि, गौतमी गंगा, सरस्वती देवी तथा भगवान नरसिंह के प्रसाद से वह राक्षस महापापी होनेपर भी स्वर्गलोक में चला गया । जिनके चरणकमलों में सम्पूर्ण तीर्थों का निवास हैं, उन शारंगधनुषधारी भगवान विष्णु की कृपा का ही यह फल हैं । तबसे वह तीर्थ सारस्वत नामसे विख्यात हुआ । वहाँ स्नान और दान करनेसे मनुष्य श्रीविष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है ।
चिच्चिकतीर्थ सब रोगों का नाश, सब प्रकार की चिंताओं का निवारण और मनुष्यों को सब प्रकार से शान्ति का दान करनेवाला हैं । उस तीर्थ के स्वरूप का वर्णन करता हूँ । पूर्वोक्त शुभ्रगिरिपर, जहाँ गौतमी के उत्तरतटपर भगवान गदाधर विराजमान हैं, पक्षियों का राजा चिच्चिक रहता था । उसीको भेरुंड भी कहते हैं । वह मांसाहारी पक्षी सदा उस पर्वतपर ही रहता था । वहाँ नाना प्रकार के फुल और फलों से लदे हुए तथा सभी ऋतुओं में फूलनेवाले वृक्ष व्याप्त थे । श्रेष्ठ ब्राह्मण भी उस पर्वत के शिखरपर निवास करते थे । गौतमी गंगा से उस पर्वत की शोभा और भी बढ़ गयी थी । इसप्रकार वह शुभ्रगिरि विविध गुणों से सम्पन्न और अनेकों मुनिजनों से घिरा हुआ था । एक दिन पुर्वदेश के राजा पवमान, जो क्षत्रियधर्मपरायण, श्रीसम्पन्न और देवताओं तथा ब्राह्मणों के रक्षक थे, बहुत बड़ी सेना और पुरोहित के साथ वनमें आये । वन में घूमते –घूमते थककर किसी समय वे एक वृक्ष के नीचे आये, जो गौतमी के तटपर था । बहुत से पक्षी उस वृक्षपर निवास करते थे । वहाँ पहुँचकर राजाने चिच्चिक पक्षी को देखा, जिसके दो मुँह थे । वह स्थूलकाय और सुंदर था । उसे चिंतामें निमग्न देख राजाने पूछा – ‘तुम दो मुखवाले पक्षी के रूपमें कौन हो ? चिंतित से दिखायी देते हो । यहाँ तो कोई भी दुःख से पीड़ित नहीं हैं । फिर तुम कैसे कष्ट पा रहे हो ?
राजाने इस प्रश्न से पक्षी का मन कुछ आश्वस्त हुआ । उसने बारंबार लम्बी साँसे लेकर धीरे-धीरे कहा – ‘राजन ! मुझसे न तो दूसरों को भय है और न दूसरों से मुझे भय की आशंका हैं । यह पर्वत भांति –भांति के फूलों और फलों से भरा हैं । अनेकानेक मुनि यहाँ निवास करते हैं । फिर भी यह पर्वत मुझे सूना ही दिखायी देता हैं । अत: मैं अपने लिये शोक करता हूँ । मुझे न तो यहाँ कुछ सुख मिलता हैं और न मेरी कभी तृप्ति ही होती हैं । इतना ही नहीं, मैं निद्रा, विश्राम और शान्ति से भी वंचित हूँ ।’ दो मुखवाले पक्षी को यह बात सुनकर राजाको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने पूछा – ‘तुम कौन हो ? तुमने कौन-सा पाप किया हैं ? और क्यों तुम्हे यह पर्वत सुना दिखायी देता है ? यहाँ रहनेवाले प्राणी तो एक मुखसे ही तृप्त रहते हैं । तुम्हारे तो दो मुख हैं । तुम्हें क्यों नही तृप्ति होती ? तुमने इस जन्म में अथवा पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया है ? ये सब बातें मुझसे सच-सच बताओं । मैं तुम्हें महान भयसे बचाऊँगा ।’
चिच्चिकने पुन: लंबी साँस लेकर राजासे कहा – ‘महाराज ! मैं तुम्हें अपने पूर्वजन्म का वृतांत सुनाता हूँ, सुनो ! पूर्वजन्म में मैं वेद-वेदांगों में पारंगत श्रेष्ठ ब्राह्मण था । उत्तम कुल में मेरा जन्म हुआ था और अच्छे पंडित के रूपमें मेरी प्रसिद्धि थी; किन्तु मैं सबका कार्य बिगाड़नेवाला और कलहप्रिय था । लोगों के मुँहपर कुछ और कहता तथा पीठ-पीछे कुछ और । दूसरों की उन्नति देखकर सदा दु:खी होता और माया फैलाकर संसार को ठगा करता था । मैं कृतघ्न, असत्यवादी, परनिंदाकुशल, मित्रद्रोही, स्वामीद्रोही, गुरुद्रोही, दम्भाचारी और अत्यंत निर्दय था । मन, वाणी और क्रियाद्वारा बहुत लोगों को कष्ट पहुँचाता था । दूसरों की हिंसा करना ही मेरा सदाका मनोरंजन था ।स्त्री – पुरुष के जोड़े में फुट डाल देना, समूह – के – समूह का विनाश करना, मर्यादा तोडना आदि दुष्कर्म मैं बिना विचारे किया करता था । विद्वान पुरुषों की सेवासे दूर ही रहता था । तीनों लोकों में मेरे –जैसा पापी दूसरा कोई नहीं था । इसीसे मेरे दो मुँह हो गये । दूसरों को दुःख देनेसे मैं स्वयं भी दुःख का भागी हुआ हूँ और इसीलिये यह पर्वत सूना दिखायी देता हैं । राजन ! और भी धर्मयुक्त वचन सुनो, जिसके पालन किये बिना ब्रह्महत्या के समान पाप लगता हैं । क्षत्रिय युद्ध में जाकर अथवा युद्ध से अन्यत्र भी यदि भागनेवाले, हथियार रख देनेवाले, अपना विश्वास करनेवाले, युद्ध में पीठ दिखानेवाले, अपरिचित, बैठे हुए तथा ‘मैं डरता हूँ’ यों कहनेवाले मनुष्य को मार डालता है तो उसे ब्रह्महत्यारा कहते हैं । जो सामने प्रिय बोलता, परोक्ष में कटुवचन कहता, मन में दूसरी बात सोचता, वाणी से दूसरी बात कहता और क्रियारूप में सदा दूसरा ही कार्य करता हैं, जो गुरुजनों की शपथ खाता, द्वेष रखता, ब्राह्मणों की वह पापात्मा ब्रह्म हत्यारा हैं । जो द्वेषवश देवता, वेद, अध्यात्मशास्त्र, धर्म और ब्राह्मण के संग की निंदा करता है, वह ब्रह्मघाती हैं । राजन ! मैं ऐसा ही था तो भी लज्जावश दिखाने के लिये सदाचारी-सा बना रहता था; इससे मुझे पक्षी होना पड़ा है । इस अवस्था में रहनेपर भी मुझसे कहीं कुछ पुण्यकर्म भी बन गया था, जिससे मुझे स्वत: ही अपने पूर्वजन्म की बातों का स्मरण हो आया है ।’
चिच्चिक की बात सुनकर राजा पवमान को बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा – ‘किस कर्म से तुम्हारी मुक्ति होगी ?’ उसने कहा – ‘सुव्रत ! गौतमी के उत्तर तटपर गदाधर नामक तीर्थ हैं । वही मुझे ले चलो । वह तीर्थ परम पवित्र और सब पापों का नाश करनेवाला हैं । मैंने बड़े-बड़े मुनियों से सुना है कि वह सब अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं । गौतमी गंगा तथा भगवान् विष्णु के सिवा दूसरा कोई क्लेशों का नाश करनेवाला नहीं हैं । मैं चाहता हूँ ‘सर्वतोभावेन’ उस तीर्थ का दर्शन करूँ । किन्तु मेरे प्रयत्न से यह कभी सम्भव नहीं हैं । भला, पापियों को मनोवांछित वस्तुकी प्राप्ति कैसे हो सकती हैं । वीर ! मैं यत्न करनेपर भी उस तीर्थ का दर्शन नही कर पाता । यह कार्य मेरे लिये अत्यंत दुष्कर हैं । तुम्हारी कृपा हो तो मैं भगवान गदाधर का दर्शन कर सकता हूँ । भगवान करुणा के सागर हैं । वे बिना बताये ही सबके दु:खों को जानते हैं । उनका दर्शन कर लेनेपर पुन: मनुष्यों को सांसारिक क्लेश का अनुभव नहीं करना पड़ता । राजन ! मैं तुम्हारे प्रसाद से भगवान का दर्शन करते ही स्वर्गलोक को चला जाऊँगा ।’
पक्षी के यों कहनेपर राजा पवमान ने उसे उठा लिया और ले जाकर उसे गौतमी गंगा तथा भगवान् गदाधर का दर्शन कराया । चिच्चिक ने स्नान करके त्रैलोक्यपावनी गंगा से कहा – ‘माता गौतमी ! तुम तीनों लोकों को पवित्र करनेवाली हो । मनुष्य जबतक तुम्हारा दर्शन नही करता, तभीतक इस लोक और परलोक में पातकी कहलाता है । यद्यपि मैंने सब प्रकार के पाप किये हैं तो भी अब तुम्हारी शरण में आया हूँ । मेरा उद्धार करो । तुम भगवान विष्णु के चरणकमलों से निकली हो । संसार के प्राणियों की तुम्हारे सिवा कहीं कोई भी गति नहीं हैं ।’
पक्षी का अंत:करण श्रद्धा से शुद्ध हो गया था । उसने एकमात्र गंगा की शरण ली और ‘गंगे ! मेरी रक्षा करो’ इसप्रकार कहते हुए स्नान किया । तदनंतर भगवान गदाधर को प्रणाम करके राजा पवमान से विदा ले पर्वतनिवासियों के देखते-देखते वह स्वर्ग में चला गया । पवमान भी अपनी सेना के साथ अपने नगर को लौट गये । तबसे वेदवेत्ता विद्वानों ने उस तीर्थ का नाम पावमानतीर्थ, चिच्चिकतीर्थ और गदाधरतीर्थ रख दिया । उस तीर्थ में किया हुआ पुण्यकर्म कोटि – कोटि गुना हो जाता हैं ।
अध्याय- 65 भद्रतीर्थ, पतत्रितीर्थ और विप्रतीर्थ की महिमा
ब्रह्माजी कहते हैं – भद्रतीर्थ सब प्रकार के अनिष्टों का निवारण करनेवाला है । वह समस्त पापों का नाशक तथा परम शान्तिदायक है । विश्वकर्मा की पुत्री उषा भगवान् सूर्य की पतिव्रता एवं प्रिया भार्या हैं । छाया भी उनकी ही भार्या हैं । छाया के पुत्र शनैश्वर हैं । शनैश्वर की बहिन विष्टि हुई । उसकी आकृति भयानक थी } वह पापमयी थी । भगवान सूर्य ने सोचा, ‘यह कन्या किसको दूँ ?’ वे जिस – जिसको कन्या देना चाहते, वही-वही उसकी भयंकरता का समाचार सुनकर उसे लेना अस्वीकार कर देता और कहता, ‘ऐसी भार्या लेकर हम क्या करेंगे ।’ ऐसी अवस्था में विष्टि ने दु:खी होकर अपने पितासे कहा – ‘पिताजी ! धनवान, विद्वान, तरुण, कुलीन, यशस्वी, उदार और सनाथ वर को कन्या देनी चाहिये । जो पिता इसके विपरीत आचरण करता हैं, वह नरक में पड़ता हैं । सूर्यदेव ! कन्या विद्वानों के लिये भी धर्म का साधन है । एक ओर पर्वत, वन और काननोंसहित समूची पृथ्वी और दूसरी ओर वस्त्राभूषणों से अलंकृत नीरोग कन्या-दोनों एक समान हैं । उस कन्या के दान से पृथ्वीदान का फल होता है । जो कन्या, अश्व, गौ और तिल की बिक्री है, उसका रौरव आदि नरकों से कभी छुटकारा नहीं होता । कन्या के विवाह में कभी विलम्ब नहीं करना चाहिये । उसमें विलम्ब करनेपर पिता को जो पाप होता है, उसका वर्णन कौन कर सकता हैं । कन्या के पिता जो उसके लिये दान-पूजन आदि करते हैं, वही सफल समझना चाहिये । कन्याओं को जो कुछ दिया जाता हैं, उसका पुण्य अक्षय होता है ।’
कन्याके यों कहनेपर भगवान सूर्य बोले – ‘बेटी ! मैं क्या करूँ । तुम्हारी आकृति भयंकर हैं, इसलिये कोई तुम्हें ग्रहण नहीं करता । स्त्री और पुरुष के विवाहसम्बन्ध में लोग एक – दूसरे के कुल, रूप, वय, धन, विद्या, सदाचार और सुशीलता आदि देखा करते हैं । मेरे यहाँ सब कुछ हैं, केवल तुममें गुणों का अभाव है । क्या करूँ, कहाँ तुम्हारा विवाह करूँ ? यदि तुम्हारा ऐसा विचार हो कि जिस किसी के साथ विवाह कर दिया जाय तो तुम अपनी स्वीकृति दो । मैं आज ही तुम्हारा विवाह किये देता हूँ ।; यह सुनकर विष्टि ने अपने पितासे कहा – ‘पति, पुत्र, धन, सुख, आयु, रूप और परस्पर प्रेम – ये पूर्वजन्म में किये हुए कर्मो के अनुसार प्राप्त होते हैं । जीव पहले जन्म में जो बुरा-भला कर्म किये रहता है, उसके अनुकूल ही दूसरे जन्म में उसे फल मिलता हैं; अत: पिताको तो उचित हैं कि वह अपने दोष से मुक्त हो जाय – कन्यका कहीं योग्य वर के साथ विवाह कर दे । फल तो उसे पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही मिलेगा । पिता अपने वंश की मर्यादा के अनुसार कन्या का दान और विवाह – सम्बन्ध करता हैं ।। शेष बातें जो प्रारब्ध में होती है, वे मिल जाती हैं ।’
कन्याका यह कथन सुनकर भगवान सूर्य ने अपनी लोकभयंकरी भीषण कन्या विष्टि का विवाह विश्वकर्मा के पुत्र विश्वरूप से कर दिया । विश्वरूप भी वैसे ही भयंकर आकारवाले थे । उन दोनों के शील और रूप में समानता थी, अत: सदा आपस में प्रेम बना रहता था । उस दम्पति से गंड, अतिगंड, रक्ताक्ष, क्रोधन, व्यय और दुर्मुख नामक पुत्र उत्पन्न हुए । इन सबसे छोटा एक पुत्र और हुआ, जिसका नाम हर्षण था । वह पुण्यात्मा, सुशील, सुंदर, शांत, शुद्धचित्त तथा बाहर-भीतर से पवित्र था । एक दिन वह अपने मामा को देखने के लिये यमराज के घर आया । वहाँ उसने बहुत-से ऐसे जीव देखे, जो स्वर्ग की ही भांति सुखी थे और बहुतेरे दु:खी भी दिखायी दिये । हर्षण ने सनातन धर्मस्वरुप अपने मामाको प्रणाम करके पूछा – ‘तात ! ये कौन सुखी है और कौन नरक में कष्ट भोगते हैं ?’
उसके इसप्रकार पुछ्नेपर धर्मराज ने सब बातें ठीक-ठीक बता दी । उन्होंने कर्मों की सम्पूर्ण गतियों का पूर्णरूप से निरूपण किया । वे बोले – ‘जो मनुष्य विहित कर्म का कभी उल्लंघन नहीं करते, उन्हें नरक नहीं देखना पड़ता । जो शास्त्र और शास्त्रीय सदाचार को नहीं मानते, बहुश्रुत विद्वानों का आदर नहीं करते और विहित कर्मों का उल्लंघन करते है, वे मनुष्य नरकगामी होते है ।’ धर्मराज का यह वचन सुनकर हर्षण ने पुन” कहा: ‘सुरश्रेष्ठ ! मेरे पिता विश्वरूप बड़े भयंकर हैं । मेरी माता विष्टि भी भयानक ही है । मेरे महाबली भ्राता भी वैसे ही है । जिस उपाय से उन लोगों की बुद्धि शांत हो, वे सुरूप, निर्दोष और मंगलदायक हो जायँ, वह मुझे बताइये । मैं उसे करूँगा, अन्यथा मैं उनके पास लौटकर नहीं जाऊँगा ।’ हर्षण के यों कहनेपर धर्मराज ने उस शुद्ध बुद्धिवाले बालक से कहा – ‘हर्षण ! तुम वास्तव में हर्षण ही हो । पुत्र तो बहुत-से होते है, किन्तु वे सभी कुलका विस्तार करनेवाले नहीं होते । एक ही कोई ऐसा पुत्र होता है, जो समूचे कुलको धारण करता हैं । जो कुलका आधारभूत, पिता-माता का प्रियकारक और पूर्वजों का उद्धार करनेवाला हैं, वही वास्तव में पुत्र है; अन्य जितने हैं, वे रोग हैं । हर्षण ! तुमने मेरे मनके अनुकूल बात कही हैं । यह तुम्हारे नाना भगवान् सूर्य को भी पसंद आयेगी । अत: तुम गौतमी-तटपर जाओ और वहाँ स्नान करके मन को वशमें रखते हुए प्रसन्नचित्त से जगदयोनि शांतस्वरुप भगवान विष्णु की स्तुति करो । वे यदि प्रसन्न हो जायँ तो तुम्हारे समस्त मनोरथों को पूर्ण कर देंगे ।’
यह सुनकर हर्षण गौतमी तटपर गया और स्नान आदिसे पवित्र हो देवेश्वर भगवान विष्णु की स्तुति करने लगा । इससे प्रसन्न होकर श्रीहरि ने हर्षण को वरदान दिया – ‘तुम्हारे कुल का कल्याण हो । समस्त अभद्रों (अमंगलों) की शान्ति होकर भद्र (मंगल) का विस्तार हो ।’ ‘भद्रम अस्तु’ कहनेसे हर्षण के पिता भद्र कहलाये और माता विष्टि का नाम भद्रा हुआ । तबसे वह स्थान भद्रतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वह सब प्रकार से मंगलदायक तथा तीर्थसेवी पुरुषों को सब प्रकार की सिद्धि देनेवाला है । वहाँ भद्रपति के नामसे प्रसिद्ध होकर साक्षात देवाधिदेव भगवान भगवान जनार्दन श्रीहरि निवास करते हैं, जो मंगल के एकमात्र भंडार हैं ।
पतत्रितीर्थ रोगों तथा पापोंका नाश करनेवाला है । उसके स्मरणमात्र से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है । कश्यप के दो पुत्र हुए – अरुण और गरुड़ । उनके कुलमें पक्षियों में श्रेष्ठ सम्पाति उत्पन्न हुए । सम्पाति के छोटे भाई का नाम जटायु था । वे दोनों अपने बलसे उन्मत्त और एक-दुसरे से लाग-डाट रखनेवाले थे । एक दिन वे दोनों भगवान सूर्य को नमस्कार करने के लिये आकाश में गये । ज्यों ही सूर्य के समीप पहुँचे, दोनों के पंख जल गये और दोनों थककर पर्वत के शिखरपर गिर पड़े । दोनों भाइयों को निश्चेष्ट एवं अचेत होकर गिरा देख सूर्य से बोले – ‘भगवन ! ये दोनों पक्षी पृथ्वीपर गिर पड़े हैं । इन्हें आश्वासन दें, जिससे इनकी मृत्यु न हो ।’ ‘तथास्तु’ कहकर सूर्य ने उनको जीवित कर दिया । गरुड़ भी उनकी अवस्था सुनकर भगवान विष्णु के साथ वहाँ आये और उन्हें सांत्वना देकर सुख पहुँचाया । तदनंतर सब लोग अपने संताप का निवारण करने के लिये गंगातटपर गये । जटायु, अरुण, सम्पाति, गरुड, सूर्य तथा भगवान विष्णु – सबने उस प्रचुर पुण्यदायक तीर्थ में प्रवेश किया । तबसे वह तीर्थ पतत्रितीर्थ के नामसे विख्यात हुआ । वह विष का नाशक तथा सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला हैं । साक्षात सूर्य तथा विष्णु गरुड़ और अरुण के साथ वहाँ गौतमी-तटपर रहते हैं । भगवान शिव का भी उस तीर्थ में निवास हैं । इन तीनों देवताओं की उपस्थिति से वह तीर्थ बहुत उत्तम हो गया है । जो वहाँ स्नान करके पवित्र हो उन देवताओं को नमस्कार करता हैं, वह आधि-व्याधि से मुक्त हो परम सौख्य का भागी होता है ।
गौतमी के तटपर विप्रतीर्थ भी बहुत विख्यात हैं । उसे नारायणतीर्थ भी कहते हैं । उसका उपाख्यान आश्चर्य में डालनेवाला हैं । अंतर्वेदी (गंगा – यमुना के बीच के भूभाग) में एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेदों के पारंगत विद्वान थे । उनके कई पुत्र हुए, जो बड़े विद्वान, गुणवान, रूपवान और दयालु थे । उनमें जो सबसे छोटे भाई थे, वे अनेक गुणों से सम्पन्न, शांत, सर्वज्ञ और परम बुद्धिमान थे । उनका नाम आसन्दिव था । आसन्दिव के पिता उनका विवाह करने के लिये प्रयत्नशील थे । इसी बीच में एक दिन रात को ब्राह्मण-कुमार आसन्दिव सोये हुए थे । उस दिन उन्होंने भगवान विष्णु का स्मरण नही किया था । वे उत्तर ओर सिरहाना करके सोये थे और उनका चित्त एकाग्र नहीं था, इसलिये इच्छानुसार रुपधारण करनेवाली एक क्रूर राक्षसी वहाँ आयी और आसन्दिव को वह उस ब्राह्मण के साथ इच्छानुसार रूपधारण करके गोदावरी के दक्षिण किनारे की भूमिपर विचरती रहती थे । उसके शरीर में बुढापा आ गया था । एक दिन उस भयानक राक्षसी ने ब्राह्मण से कहा – ‘विप्रवर ! ये गंगाजी हैं । तुम अन्य ब्राह्मणों के साथ मिलकर यहाँ संध्योंपासन करो । जो ब्राह्मण समयपर यत्नपूर्वक संध्योपासन नहीं करते, वे ही देवेश्वरोंद्वारा नीच बताये गये हैं । वे चांडालों से भी बढकर हैं } तुम यहाँ सब लोगों से मुझको अपनी जन्मदायिनी माता बतलाना, नही तो अभी तुम्हारा नाश हो जायगा । द्विजश्रेष्ठ ! यदि मेरी बात मानते रहोगे तो मैं तुम्हें सुख दूँगी और तुम्हारा जो प्रिय कार्य होगा, उसे भी पूर्ण करूँगी । कुछ काल के बाद फिर मैं तुम्हारे देशमें, तुम्हारे घरमें और तुम्हारे गुरुजनों के पास पहुँचा दूँगी । यह मैं सत्य कहती हूँ ।’ ब्राह्मण ने पूछा – ‘तुम कौन हो?’ कामरूपिणी राक्षसी ने कहा- ‘मेरा नाम कंकालिनी हैं । मैं संसार में प्रसिद्ध हूँ ।’ परिचय पाकर मुनिकुमार आसन्दिव का चित्त भय से व्याकुल हो उठा, परन्तु राक्षसी ने अनेक प्रकार की शपथ खाकर उन्हें अपना विश्वास दिलाया । तब ब्राह्मण ने कहा – ‘तूमने जो कुछ कहा है, मैं वैसा ही करूँगा । तुम्हें जो प्रिय लगेगा, वही बात बोलूँगा और वही कार्य करूँगा ।’
ब्राह्मण की बात सुनकर इच्छानुसार रूपधारण करनेवाली राक्षसी ने बुड्डी होनेपर भी मनोहर रूप धारण किया और दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो ब्राह्मण को अपने साथ ले इधर-उधर घुमने लगी । वह सर्वत्र यही कहती कि ‘यह मेरा पुत्र गुणाकर हैं । ब्राह्मणकुमार रूप, सौभाग्य, वय और विद्यासे विभूषित थे और यह वृद्धा भी गुणवती दिखायी देती थी; अत: सब लोग उसे ब्राह्मण की माता ही समझते थे । वहाँ किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण ने वस्त्राभूषणोंसे विभूषित अपनी सुन्दरी कन्या उस राक्षसी को आगे क्रेक आसन्दिव को ब्याह दी । ऐसे सुयोग्य पति लप पाकर कन्याने अपने को कृतार्थ माना । किन्तु वे ब्राह्मण अपनी गुणवती पत्नी को देखकर बहुत दु:खी हुए । उन्होंने मन-ही-मन सोचा, ‘यह पापिनी राक्षसी एक दिन मुझे खा ही जायगी । क्या करूँ ? कहाँ जाऊं ? अथवा किससे यह बात कहूँ ? मैं भारी संकट में पड़ा हूँ । कौन वहाँ मेरी रक्षा करेगा ? मेरी यह कल्याणमयी पत्नी गुणवती, रूपवती और नयी अवस्थाकी हैं । इसे भी वह राक्षसी अकस्मात अपना आहार बना लेगी ।’
इसी बीचमें वह बुढिया कही चली गयी । उस समय अपने पति को दु:खित जानकर ब्राह्मण की पतिव्रता पत्नी ने एकांत में विनीत भावसे पूछा – ‘नाथ ! आप क्यों कष्ट में पड़े हैं ? ठीक-ठीक बताइये ।’ ‘ब्राह्मण ने सब बातें विस्तार के साथ बता दी । प्रिय मित्र और कुलीन पत्नी से कौन-सी बात अकथनीय हैं । पतिकी बात सुनकर स्त्रीने कहा –‘प्राणनाथ ! जिसका मन अपने वशमें नहीं हैं, उसको तो सब ओर भय हिन् । वह घरमें भी निर्भय नहीं हैं । परन्तु जिन्होंने अपने आत्मापर अधिकार प्राप्त कर लिया है, उन्हें किससे भय है ! वह भी गौतमी तटपर जहाँ कितने ही वैष्णव, विरक्त और विवेकी पुरुष निवास करते हैं । यहाँ स्नान करके पवित्र हो भगवान नारायण की स्तुति कीजिये ।’ यह सुनकर ब्राह्मण ने गंगा में स्नान किया और गौतमी के तटपर भगवान नारायण का स्तवन आरम्भ किया – ‘नाथ ! आप इस जगत के अंतरात्मा हैं । मुकुंद ! आप ही इसकी सृष्टि और संहार करनेवाले हैं । अनाथबन्धु नृसिंह ! आप ही सबके पालक हैं । मुझ दीन लो रक्षा क्यों नहीं करते ?’ यह प्रार्थना सुनकर संसार का शोक दूर करनेवाले भगवान नारायण ने सहस्त्र अरोवालें तेजोमय सुदर्शनचक्र से उस पापिनी राक्षसी को मार डाला और उस ब्राह्मण को अभीष्ट वरदान दे उसे माता-पिता के पास पहुँचा दिया । तबसे वह स्थान विप्रतीर्थ और नारायणतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध हुआ । वहाँ स्नान, दान और पूजा आदि करने से मनोवांछित फल की सिद्धि होती है ।
अध्याय- 66 चक्षुस्तीर्थ का माहात्म्य
ब्रह्माजी कहते हैं – चक्षुस्तीर्थ रूप और सौभाग्य देनेवाला हैं । जहाँ भगवान योगेश्वर गौतमी के दक्षिण तटपर निवास करते हैं, वहाँ पर्वत के शिखरपर भौवन नगर विख्यात स्थान है । यह क्षात्र-धर्मपरायण राजा भौवन निवास करते थे । उसी नगर में वृद्धकौशिक नाम के एक ब्राह्मण थे, जिनके वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ गौतम नामक पुत्र हुआ । गौतमी की एक वैश्य के साथ मित्रता हुई । वैश्यका नाम मणिकुंडल था । इनमें एक दरिद्र और दूसरा धनी था तो भी दोनों एक-दुसरे के हितैषी थे । एक दिन गौतम ने अपने धनि मित्र मणिकुंडल से एकांत में प्रेमपूर्वक कहा- ‘मित्र ! हमलोग धन का उपार्जन करने के लिये पर्वतों और समुद्रों की यात्रा करें । यदि अनुकूल सुख न प्राप्त हुआ तो समझना चाहिये जवानी व्यर्थ गयी । धन के बिना सौख्य कैसे प्राप्त हो सकता हैं । अहो ! निर्धन मनुष्य को धिक्कार है ।’ कुंडल ने ब्राह्मण से कहा – ‘मेरे पिताने बहुत धन कमाया है । अब अधिक धन लेकर क्या करूँगा ।’ तब ब्राह्मण ने पुन: मणिकुंडल से कहा – ‘जो धर्म, अर्थ, ज्ञान और भोगों से तृप्त हो जाय, ऐसा कौन पुरुष प्रशंसनीय माना जाता हैं । सखे ! इन सबकी अधिकाधिक वृद्धि ही समस्त शरीरधारियों को अभीष्ट होती है । जो प्राणी अपने ही व्यवसाय से जीवन-निर्वाह करते हैं, वे धन्य हैं । जो दुसरे के दिये हुए धन से संतोष-लाभ करते हैं, वे कष्ट से ही जीते हैं । जो पुत्र अपने बाहुबल का आश्रय लेकर धन का उपार्जन करता हैं और पिताके धन को हाथ से नहीं छूता, वह संसार में कृतार्थ होता हैं ।’
धनाभिलाषी ब्राह्मणका यह कथन सुनकर वैश्य ने उसे सत्य माना और घरसे रत्न लाकर गौतम को देते हुए कहा – ‘मित्र ! इस धन से हमलोग सुखपूर्वक देश-देशान्तरों में भ्रमण करेंगे और धन कमाकर फिर अपने घरको लौट आयेंगे ।’ वैश्य तो अपनी सद्भावना के अनुसार सत्य ही कहता था, किन्तु ब्राह्मण उसे धोखा दे रहा था । उसके मनमें पाप था । किन्तु वैश्य उसे ऐसा नही समझता था । दोनोने आपस में सलाह की और माता-पिताको सूचना दिये बिना ही धन कमाने के लिये देश-देशांतर में चल दिये । ब्राह्मण सोचने लगा – ‘जिस किसी उपाय से हो सके, वैश्य का धन ले लूँ । अहो, पृथ्वीपर सहस्त्रों सुंदर नगर हैं, जहाँ काम की अधिष्ठात्री देवी- जैसे अभीष्ट भोग प्रदान करनेवाली युवतियाँ है । यदि यत्नपूर्वक धन लाकर उनको दिया जाय तो वे सदा भोगी जा सकती हैं और वही जीवन सफल है । किसप्रकार वैश्य से अपने हाथमें आये हुए धनको हडपकर उसका इच्छानुसार उपभोग करूँ’ यह सोचते हुए गौतम ने मणिकुंडल से हँसते-हँसते कहा – ‘पापसे ही जीवों को उन्नति होती है और वे मनोवांछित सुख प्राप्त करते हैं । संसार में धर्मात्मा लोग दुःख के ही भागी देखे जाते हैं । अत: एक मात्र दुःख ही जिसका फल है, उस धर्म से क्या लाभ ।’
वैश्यने कहा – ऐसी बात नहीं हैं । धर्म में ही सुख की स्थिति हैं । पापमें तो केवल दुःख, भय, शोक, दरिद्रता और क्लेश ही रहते हैं । जहाँ धर्म है, वही मुक्ति हैं । भला, अपना धर्म क्या नष्ट हो सकता हैं ?
नेत्युवाच ततो वैश्य: सुखं धर्मे प्रतिष्टितम । पापे दु:खं भयं शोको दारिद्रयं क्लेश एव च ।। यतो धर्मस्ततो मुक्ति: स्वधर्म: किं विनश्यति ।।
इसप्रकार विवाद करते हुए दोनों में यह शर्त लग गयी कि जिसका पक्ष श्रेष्ठ हो, वह दूसरे का धन ले ले । वे बोले – ‘अब चलकर हम दोनों किसीसे पूछें – धर्मात्मा प्रबल होता है या अधर्मी ? वेद से लोक का ही मत श्रेष्ठ है, क्योंकि लोक में ही धर्म से सुख होता हैं ।’ इसप्रकार विवाद करके दोनों सब लोगों से पूछने लगे कि ‘पृथ्वीपर धर्म प्रबल हैं या अधर्म ?’ यह प्रश्न सामने आनेपर कोई बोले – ‘जो धर्म के अनुसार चलते हैं, उन्हें दुःख भोगना पड़ता हैं और बड़े-बड़े पापी मनुष्य सुखी है ।’ यह निर्णय सुनकर वैश्यने अपना सारा धन ब्राह्मण को दे दिया । मणिमान से पूछा- ‘क्या तुम अब भी धर्म की प्रशंसा करते हो ?’ वैश्य बोला – ‘हाँ ! ब्राह्मण फिर कहने लगा – ‘वैश्य ! मैंने तुम्हारा सारा धन जीत लिया, फिर भी निर्लज्ज की तरह धर्म की बात क्यों करते हो ? देखो, स्वेच्छाचारी होनेपर भी मैंने ही धर्म को जीता है ।’
ब्राह्मणकी बात सुनकर वैश्य ने मुस्कारते हुए कहा – ‘सखे ! जैसे धान्यों में पुलाक (पैया) और पंखधारी चिड़ियों में छोटी मक्खियाँ होती है, वैसे ही मैं उन मनुष्यों को भी सारहीन मानता हूँ, जिनमें धर्म नहीं होता । चारों पुरुषार्थों में पहले धर्म का नाम आता हैं । अर्थ और काम उसके बाद आते हैं । वह धर्म मुझ में मौजूद है । फिर तुम कैसे कहते हो कि मैंने जीत लिया ।’ यह सुनकर ब्राह्मण ने पुन: वैश्य से कहा – ‘अब दोनों हाथों की बाजी लगायी जाय ।’ वैश्य बोला – ‘ठीक हैं ।’ फिर दोनों ने जाकर पहले की ही भांति लौकिंक मनुष्यों से पूछा, निर्णय ज्यों-का-त्यों रहा । ब्राह्मण बोला – ‘फिर मेरी विजय हुई ।’ यों कहकर उसने वैश्य के दोनों हाथ काट डाले और पूछा – ‘अब धर्म को कैसा मानते हो ?’ ब्राह्मण के इसप्रकार आक्षेप करनेपर वैश्य ने कहा – ‘मेरे प्राण कंठतक आ जायँ तो भी मैं धर्म को ही श्रेष्ट मानता रहूँगा । धर्म ही देहधारियों की माता, पिता, सुह्रद और बन्धु है ।’ इस तरह दोनों का विवाद चलता रहा । ब्राह्मण धनवान हो गया और वैश्य धन के साथ-साथ दोनों बाँहों से भी हाथ धो बैठा । इस तरह भ्रमण करते हुए दोनों गौतमी गंगा के तटपर आ पहुँचे । जहाँ योगेश्वर श्रीहरि का निवासस्थान है, वहाँ आनेपर फिर दोनों में विवाद आरम्भ हो गया । वैश्य गंगा, योगेश्वर और धर्म की ही प्रशंसा करता था । इससे ब्राह्मण को बड़ा क्रोध हुआ । वह वैश्यपर आक्षेप करते हुए बोला – ‘धन चला गया । दोनों हाथ कट गये । अब केवल तुम्हारे प्राण बाकी हैं । यदि फिर मेरे मत के विपरीत कोई बात मुँह से निकालोगे तो मैं तलवार से तुम्हारा सिर काट लूँगा ।’ वैश्य हँस पड़ा । उसने पुन: गौतम को चुनौती देते हुए कहा – ‘मैं तो धर्म को ही बड़ा मानता हूँ; तुम्हारी जैसी इच्छा हो, कर लो । जो ब्राह्मण, गुरु, देवता, वेद, धर्म आर भगवान विष्णु की निंदा करता है, वह पापाचारी मनुष्य पापरूप है । वह स्पर्श करने योग्य नहीं है । धर्म को दूषित करनेवाले उस दुराचारी पापात्मा का परित्याग कर देना चाहिये ।’
धर्ममेव परं मन्ये यथेच्छसि तथा कुरु । ब्राह्मणांश्व गुरून देवान वेदान धर्म जनार्दनम ।। यस्तु नींदयते पापो नासौ स्पृश्योऽथ पापकृत । उपेक्षणीयों दुर्वृत्त: पापात्मा धर्मदूषक: ।।
तब ब्राह्मण ने कुपित होकर कहा – ;यदि तुम धर्म की प्रशंसा करते हो तो हम दोनों के प्राणों की बाजी लग जाय ।’ वैश्य ने कहा – ‘ठीक हैं ।’ फिर दोनों ने साधारण लोगों से पूछा, किन्तु लोगों ने पहले-ही-जैसा उत्तर दिया ।
उस समय गौतमी के दक्षिण-तटपर भगवान योगेश्वर के सामने ब्राह्मण ने वैश्य को गिरा दिया और उसकी आँखे निकाल लीं । फिर कहा – ‘वैश्य ! प्रतिदिन धर्म की प्रशंसा करने से ही तुम इस दशा को पहुँचे हो । तुम्हारा धन गया, आँखे गयीं और दोनों हाथ काट लिये गये । मित्र ! अब तुमसे बिदा लेकर जाता हूँ । फिर कभी बातचीत में इसतरह धर्म की प्रशंसा न करना ।’ यों कहकर गौतम चला गया । उसके जानेपर वैश्यप्रवर मणिकुंडल धन, बाहू और नेत्र से रहित होने के कारण शोकग्रस्त हो गया । तथापि वह निंरतर धर्मका ही स्मरण करता था । अनेक प्रकार की चिंता करते हुए वह भूतलपर निश्चेष्ट होकर पड़ा था । उसके ह्रदय में उत्साह नहीं रह गया था । वह शोक सागर में डूबा हुआ था । दिन बीता, रजनी का आगमन हुआ और चंद्रमंडल का उदय हो गया । उस दिन शुक्ल पक्षकी एकादशी थी । एकादशी को वहाँ लंका से विभीषण आया करते थे । उस दिन भी आये; उन्होंने पुत्र और राक्षसोंसहित गौतमी गंगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान विष्णु की विधिपूर्वक पूजा की । विभीषण का पुत्र भी दूसरे विभीषण के ही समान धर्मात्मा था । उसे लोग वैभिषणि कहते थे । वैभिषणिने वैश्य को देखा और उससे वार्तालाप किया । वैश्य का यथावत वृतांत जानकर उस धर्मज्ञ ने अपने पिता लंकापति महात्मा विभीषण को बतलाया । लंकेश्वर ने अपने गुणाकर पुत्र से प्रसन्नतापूर्वक कहा – ‘बेटा ! भगवान श्रीराम मेरे गुरु – आराध्यदेव हैं और उनके आदरणीय भक्त हनुमानजी मेरे सखा है । आजसे बहुत पहले एक कार्य अ पड़नेपर हनुमानजी बहुत बड़ा पर्वत उठा लाये थे, जो सब प्रकार की औषधियों का भंडार था । उससमय दो ओषधियों की आवश्यकता थी – विशल्यकरणी और मृतसंजीवनी । उन दोनों ओषधियों को लाकर उन्होंने भगवान श्रीराम को अर्पित किया । जब उनकी आवश्यकता पूर्ण हो गयी, तब वे पुन: उस पर्वत को उठाकर हिमालयपर ले गये और वही रख आये । हनुमानजी बड़े वेग से जा रहे थे, इसलिये विशल्यकरणी नामकी ओषधि गौतमी गंगा के तटपर गिर पड़ी थी । जहाँ भगवान योगेश्वर का स्थान है, वही वह ओषधि है । उसे ले आकर तुम भगवान का स्मरण करते हुए इसके ह्रदयपर रख दो । इससे यह उदारबुद्धि वैश्य अपने सम्पूर्ण अभिष्टों को प्राप्त कर लेगा ।’
वैभिषणि बोला – पिताजी ! मुझे शीघ्र ही वह ओषधि दिखा दीजिये । बिलम्ब न कीजिये । दूसरों की पीड़ा दूर करने से बढकर तीनों लोकों में दूसरा कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है ।
विभीषण ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर पुत्र को वह ओषधि दिखा दी । उसने ‘इषे त्वा.’ इत्यादि मन्त्र को पढकर उस वृक्ष की एक शाखा तोड़ ली और उसे ले आकर वैश्य के ह्रदयपर रख दिया । उसका स्पर्श होते ही वैश्य के नेत्र और हाथ ज्यों–के-त्यों हो गये । मणि, मन्त्र और ओषधियों के प्रभाव को कोई नहीं जानता । वैश्य ने धर्म का चिन्तन करते हुए गौतमी गंगा में स्नान किया और योगेश्वर भगवान विष्णु को नमस्कार करके पुन: वहाँ से यात्रा की । उसने अपने साथ ओषधि की टूटी हुई शाखा भी ले ली थी । देश-देशान्तरों में भ्रमण करता हुआ मणिकुंडल एक राजधानी में पहुँचा, जो महापुर के नामसे विख्यात थी । वहाँ के महाबली राजा महाराज के नामसे प्रसिद्ध थे । राजाके कोई पुत्र नहीं था, एक पुत्री थी; उसकी भी आँखें नष्ट हो चुकी थी । वह कन्या ही राजा के लिये पुत्र थी । राजाने यह निश्चय किया था कि, ‘ देवता, दानव, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, गुणवान या निर्गुण – कोई भी क्यों न हो, मैं उसीको यह कन्या दूँगा, जो इसकी आँखे अच्छी कर देगा । मुझे अपने राज्य के साथ ही कन्या का दान करना है ।’ महाराज ने यह घोषणा सब ओर करा दी थी । वैश्य ने वह घोषणा सुनकर कहा – ‘मैं निश्चय ही राजकुमारी की खोयी हुई आँखे पुन: ला दूँगा ।’
राजकर्मचारी शीघ्र ही वैश्य को लेकर गया और महाराज को उसने सब बातें बतायिन । वैश्य ने उस काष्ठका स्पर्श कराया और राजकुमारी के नेत्र ठीक हो गये । यह देखकर राजा को बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने पूछा – ‘आप कौन हैं ?’ वैश्य ने राजा से अपना सब हाल ठीक-ठीक कह सुनाया । फिर बोला – ‘बाह्मणों के प्रसाद से तथा धर्म, तपस्या, दान, यज्ञ और दिव्य ओषधि के प्रभाव से मुझ में ऐसी शक्ति आयी है ।’ वैश्य का यह कथन सुनकर महाराज को अत्यंत आश्वर्य हुआ । वे बोले – ‘अहो, वे महानुभाव कोई देवता ही होंगे । अन्यथा देवेतर मनुष्य में ऐसी शक्ति कैसे देखी जाती । अत: इन्हें राज्य के साथ ही अपनी कन्या अवश्य दूँगा ।’ मन में ऐसा संकल्प करके राजाने कन्यासहित राज्य वैश्य को दे दिया । मणिकुंडल राज्य को पाकर भी मित्र के बिना संतुष्ट न हुआ । वह सोचने लगा – ‘मित्र के बिना न तो राज्य अच्छा है और न सुख ही अच्छा लगता है ।’ इस प्रकार वह सदा गौतम ब्राह्मण का ही चिन्तन किया करता था । इस पृथ्वीपर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए साधूपुरुषों का यही लक्षण हैं कि अहित करनेवालों के प्रति भी उनके मन में सदा कारुण्य ही भरी रहती है ।
एतदेव सुजातानां लक्षणं भुवि देहिनाम । कृपादं यन्मनो नित्यं तेषामप्याहितेषु हि ।।
एक दिन महाराज मणिकुंडल वन में गये थे । वहाँ उन्होंने अपने पूर्व मित्र गौतम ब्राह्मण को देखा । पापी जुआरिओं ने उसका सब धन छीन लिया था । धर्मज्ञ मणिकुंडल ने अपने ब्राह्मण मित्र को साथ ले लिया, उसका विधिपूर्वक पूजन किया और धर्म का सब प्रभाव भी बतलाता । फिर समस्त पापों की निवृत्ति के लिये गौतम को गंगा में स्नान कराया । वैश्य के देश में जो सगोत्र बन्धु-बांधव वृद्धकौशिक आदि को उन्होंने बुलवाया और सबके साथ देवपूजनपूर्वक गौतमी के तटपर यज्ञ किया । तदनंतर शरीर का अंत होनेपर वे स्वर्गलोक में गये । वह स्थान मृतसंजीवनतीर्थ, चक्षुस्तीर्थ और योगेश्वरतीर्थ कहलाने लगा । वह स्मरणामात्र से पुण्य देनेवाला, मनको प्रसन्न रखनेवाला और समस्त दुर्भावनाओं का नाश करनेवाला है ।
अध्याय- 67 सामुद्र ऋषि सत्र आदि तीर्थो की महिमा, गौतमी माहात्म्य का उपसंहार
ब्रह्माजी कहते हैं – नारद ! सामुद्रतीर्थ सब तीर्थों का फल देनेवाला है । उसके स्वरूप का वर्णन करता हूँ, मन लगाकर सुनो । गौतम के विदा करनेपर पापनाशिनी गंगा जब तीनों लोकों का उपकार करने के लिये ब्रह्मगिरी से पूर्व-समुद्र की ओर चलीं, तब मार्ग में मैंने उनके जलको लेकर कमंडलु में धारण किया । परमात्मा शिवने उन्हें मस्तकपर चढाया । वे भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई है ।ब्रह्मर्षि गौतम ने मर्त्यलोक में उनका अवतरण कराया हैं । वे स्मरणमात्र से सब पापों का नाश करनेवाली हैं और गुरुओं की भी गुरु हैं । समुद्र ने जब उन्हें अपनी ओर आते देखा, तब मन-ही-मन विचार किया – ‘जो सम्पूर्ण जगत की वन्दनीया और सबकी ईश्वरी हैं, जिन्हें ब्रह्मा तथा शिव आदि देवता भी मस्तक झुकाते हैं, उनके स्वागतमें मुझे कुछ दूर आगेतक जाना चाहिये । नहीं तो मेरे धर्म में दोष आयेगा । जो अपने घर आते हुए महापुरुष को लेने के लिये मोहवश स्वयं उपस्थित नहीं होता, उस पापी की रक्षा करनेवाला दोनों लोकों में कोई नहीं हैं ।’ यों विचारकर समुद्र मूर्तिमान हो हाथ जोड़े विनीत भावसे गंगाजी के समीप आया और इसप्रकार बोला – ‘देवि ! तुम्हारा यह जल, जो आकाश, पाताल और मर्त्यलोक में फैला हुआ है, मुझ में आकर मिले – इसके लिये मैं कुछ नही कहूँगा । मेरे भीतर रत्न, अमृत, पर्वत, राक्षस और असुर रहते हैं । इनकी तथा अन्यान्य भयंकर जलजन्तुओं को भी मैं धारण करता हूँ । मेरे जल में लक्ष्मीसहित भगवान विष्णु सदा शयन करते हैं । इस चराचर जगत में मेरे लिये कुछ भी असम्भव नहीं हैं । मैं तुम्हारे स्वागत में यहाँतक आया हूँ । जो अपने से बड़े के आनेपर अहंकारवश आगे बढकर उसका स्वागत नही करता, वह धर्म आदिसे भ्रष्ट होकर नरक में पड़ता हैं ।
महत्यभ्यागते कुर्यात्प्रत्युत्थानं न यो मदात । स धर्मादिपरिभ्रष्टो निरयं तु समाप्नुयात ।
भगवती गंगा ! तुमसे एक प्रार्थना करता हूँ । तुम सात धाराओं में आकर मूझसे मिलो । यदि एक ही धारा के रूप में आकर मिलोगी तो मैं तुम्हारे दू:सह वेग को धारण न कर सकूँगा ।’ समुद्र का यह वचन सुनकर गौतमी गंगा ने कहा – ‘तुम मेरी यह बात मानो ; सप्तर्षियों की जो अरुंधती आदि पत्नियाँ हैं उन सबको उनके पतियोंसहित ले आओ; तब मैं छोटे रूपमें हो जाऊँगी ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर समुद्र सप्तर्षियों और उनकी पत्नियों को ले आया । तब गोदावरी देवी सात धाराओं में विभक्त हो गयी और उसी रूप में उनका समुद्र से संगम हुआ । सप्तर्षियों के नामपर वे सप्तगंगा के नामसे विख्यात हुई । वहाँ भक्तिपूर्वक जो स्नान, दान, श्रवण, पाठ और स्मरण आदि शुभ कर्म किया जाता है, वह समस्त अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला होता हैं । पाप की हानि, भोग और मोक्ष की प्राप्ति तथा मन की प्रसन्नता के लिये तीनों लोकों में सामुद्रतीर्थ से बढकर दूसरा कोई तीर्थ नहीं हैं ।
सामुद्रतीर्थ के अतिरिक्त वहाँ ऋषिसत्रतीर्थ भी है, जहाँ सातों ऋषि तपस्या के लिये बैठे थे और जहाँ भीमेश्वर शिव विराजमान हैं । वहाँ का वृतांत इसप्रकार है ।
सात ऋषियों ने गंगा को सात धाराओं में विभक्त किया । सबसे दक्षिण की धारा वासिष्ठी कहलायी । उससे उत्तर वैश्वामित्री, उससे उत्तर वामदेवी, बीच की धारा गौतमी, उससे उत्तर भारद्वाजी, उससे उत्तर आत्रेयी और अंतिम धारा जामद्ग्नी है } उन सब ऋषियों ने मिलकर वहाँ बहुत बड़े सत्र का अनुष्ठान किया । इसी बीच में देवताओं का प्रबल शत्रु विश्वरूप वहाँ आया और ब्रह्मचर्य तथा तपस्या के द्वारा उन ऋषियों को प्रसन्न करके विनयपूर्वक पूछा – ‘मुनिवरो ! यज्ञ अथवा तपस्या – जिस उपाय से भी मुझे बलवान पुत्र प्राप्त हो, जिसे देवता भी परास्त न कर सकें, वह उपाय बतलाइये ।’
तब परम बुद्धिमान विश्वामित्र ने कहा – ‘तात ! कर्मसे नाना प्रकार के फल प्राप्त होते हैं । तीन कारणों में कर्म ही पहला कारण है । दूसरा कारण कर्ता हैं तथा तीसरे कारण के अंतर्गत उपादान और बीज आदि अन्य उपकरण हैं । उपादान और बीज को विद्वानों ने कर्म नहीं माना हैं । जहाँ बहुतसे कारण उपस्थित हों, वहाँ कर्म ही प्रधान कारण सिद्ध होता है । क्योंकि कर्म करने से फल की सिद्धि देखी जाती है और न करने से नहीं । अत: फलकी सिद्धि कर्म के ही अधीन हैं । कर्म भी दो प्रकार के जानने चाहिये – क्रियमाण और कृत । क्रियमाण कर्म का जो-जो साधन है, वह कर्तव्य बताया गया है । विद्वान पुरुष कर्म करते हुए जो-जो भावना करता हूँ, उसके अनुरूप ही फलकी सिद्धि होती है । यदि बिना भावना के विधिपूर्वक कर्म का अनुष्ठान करता हैं तो उसे अन्य प्रकार का फल मिलता हैं । किन्तु भावना करनेपर सम्पूर्ण फल उस भावना के अनुरूप ही होता हैं, अत: तप, दान, व्रत, जप और यज्ञ आदि क्रियाएँ कर्म के अनुरूप भाव होने से ही अभीष्ट फल देती हैं । भाव भी तीन प्रकार का जानना चाहिये – सात्त्विक, राजस और तामस । जिस भावना के अनुरूप कर्म होगा, वैसा ही फल मिलेगा । अत: फल की प्राप्ति कर्म के अनुसार और भावना के अनुरूप भी होती है; इसलिये कर्मों की स्थिति विचित्र है, यों समझकर विद्वान पुरुष को अपनी इच्छा के अनुकूल भाव भी बनाना चाहिये । फिर उसके अनुकूल भाव भी बनाना चाहिये । फल देनेवाला भी जब फल चाहनेवालों को फल देने में प्रवृत्त होता है, तब उसके कर्म और भावना के अनुसार ही फल देता हैं । कर्म धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चारों पुरुषार्थों का कारण हैं । यदि निष्कामभाव से कर्म हो तो वह मुक्तिदायक होता है और सकामभाव से होनेपर वही बंधन का कारण बन जाता हैं । अपने भाव के अनुसार ही कर्म बनता हैं तथा वही इस लोक और परलोक में भाति-भांति के फल देता हैं । भाव के अनुकूल कर्म होता और तदनुसार भोग मिलता हैं; अत: भाव सबसे बढकर हैं । तुम भी भाव के अनुसार कर्म करो । फिर जो चाहोगे, प्राप्त कर लोगे ।’
बुद्धिमान विश्वामित्र मुनिका कथन सुनकर विश्वरूप ने तामस भावका आश्रय ले दीर्घकालतक तपस्या की । प्रधान-प्रधान ऋषियों के मना करनेपर भी उसने अपने क्रोध के अनुरूप देवताओं के लिये भयंकर कार्य किया । भयंकर कुंड खोदकर उसमें भयानक अग्निदेव को प्रज्वलित किया और उसीमें बैठकर मन-ही-मन अत्यंत भयंकर रौद्रपुरुष का आत्मरूप से चिन्तन किया । उसे उस प्रकार तपस्या करते देख आकाशवाणी हुई – ‘भीमस्वरुप जगदीश्वर शिव की महिमा को कौन जानता है । वे सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करते हैं तो भी उसकी आसक्ति से लिप्त नहीं होते ।’ यों कहकर आकाशवाणी मौन हो गयी । मुनीश्वरगण भगवान भीमेश्वर को नमस्कार करके अपने-अपने आश्रम को चले गये । विश्वरूप महाभीम (अत्यंत भयंकर) था । उसके कर्म भी भयंकर थे । उसकी आकृति भी बड़ी भयानक थी । उसके ह्रदय का भाव भी भयंकर ही था । उसने भीमस्वरुप भगवान रूद्र का ध्यान करके अग्नि में अपनी आहुति दे दी । तबसे उसके द्वारा आराधित भगवान शंकर भीमेश्वर कहलाते हैं । वहाँ किया हुआ स्नान और दान निस्संदेह मोक्ष देनेवाला होता है । जो सदा भक्तिपूर्वक इस प्रसंग का पाठ और श्रवण करता है तथा देवताओं के स्वामी भीमस्वरुप भगवान शिव को प्रणाम करता हैं, उसे भगवान शिव अपने सर्वपापपहारी चरणों की शरण में लेकर मुक्ति प्रदान करते हैं । यों तो भगवती गोदावरी सर्वत्र और सदा ही सम्पूर्ण पापराशि का विनाश करनेवाली तथा परम पुरुषार्थ (मोक्ष ) देनेवाली हैं, तथापि जहाँ वे समुद्र में मिली हैं, वहाँ उनका माहात्म्य विशेषरूप से बढ़ा हुआ है । जो पुण्यात्मा प्राणी गोदावरी-सागर-संगम में स्नान कर लेता हैं, वह अपने पूर्वजों का दू:सह नरक से उद्धार करके स्वयं भी भगवान् शिव के धाम में जाता है । जो वेदान्तद्वारा जानने योग्य तथा सबका उपास्य है, साक्षात वह ब्रह्म ही भीमेश्वर के रूप में प्रकट है । भीमेश्वर का दर्शन कर लेनेपर जीव फिर भयंकर दुःख देनेवाले संसार में नहीं प्रवेश करते ।
देवताओं की भी वन्दनीया गंगा जब समुद्र में मिलीं, तब सम्पूर्ण देवता और मुनि उनके पीछे-पीछे स्तुति करते हुए गये । वशिष्ठ, जाबालि, याज्ञवल्क्य, क्रतु, अंगिरा, दक्ष, मरीचि, अन्यान्य वैष्णवगण, शातातप, शौनक, देवरात, भृगु, अग्निवेश, अत्रि, मनु, गौतम, कौशिक, तुम्बुरु, पर्वत, अगस्त्य, मार्कण्डेय, पिप्पल, गालव, योगीजन, वामदेव, आंगिरस तथा भार्गव – ये समस्त पुराणवेत्ता महर्षि प्रसन्नचित्त से वैदिक मन्त्रोद्वारा देवी गोदावरी की स्तुति करते थे । गोदावरी को समुद्र से मिली हुई देख भगवान शिव और विष्णु ने भी मुनियों को प्रत्यक्ष दर्शन दिया । देवताओं और पितरों ने भी सबकी पीड़ा दूर करनेवाले उन दोनों देवताओं का दर्शन और स्तवन किया । आदित्य, वसु, रूद्र, मरुद्रण, लोकपाल – ये सब हाथ जोडकर भगवान् शिव और विष्णु की स्तुति करते थे । समुद्र और गंगा के सातों प्रसिद्ध संगमोंपर सदा भगवान् शिव और विष्णु स्थित रहते हैं । वहाँ महादेवजी गौतमेश्वर के नामसे विख्यात हैं । लक्ष्मीसहित भगवान विष्णु भी वहाँ नित्य निवास करते हैं । मैंने जो वहाँ शिव की स्थापना की है, वह शिवलिंग ब्रह्मेश्वर के नामसे प्रसिद्ध है । देवताओंसहित मैंने अपने लिये कारण उपस्थित होनेपर सम्पूर्ण लोकों के उपकार के लिये भगवान विष्णु का भी स्तवन किया था । वे विष्णु वहाँ चक्रपाणि के नामसे विख्यात हैं । वही ऐन्द्रतीर्थ भी है और उसी को हयग्रीवतीर्थ भी कहते हैं । वहाँ सोमतीर्थ भी है, जहाँ भगवान शिव सोमेश्वर के नामसे प्रसिद्ध हैं । एक समय इन्द्रने बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा मेरी आराधना करके मेरे प्रसाद से अपना मनोरथ सिद्ध किया था । तबसे मैं भी वही सब लोगों का उपकार करने के लिये रहता हूँ, विष्णु और शिव तो वहाँ हैं ही । अग्नि ने जहाँ यज्ञ किया, वह स्थान आग्नेयतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध है । तदनंतर आदित्यतीर्थ हैं, जहाँ वेदमय आदित्य प्रतिदिन मध्यान्हकाल में दूसरा रूप धारण करके मेरा, शिवका तथा विष्णुका दर्शन एवं उपासना करने के लिये आते हैं । वहाँ मध्यान्हकाल में सब लोग वन्दनीय हैं, क्योंकि न मालुम सूर्य वहाँ किस रूपमें आ जायें । उसके सिवा पर्वतश्रेष्ठ इंद्रगोपपर एक दूसरा तीर्थ भी है । वहाँ किसी कारणवश गिरिराज हिमालय ने महान शिवलिंग की स्थापना की थी, अत: उसे अद्रितिर्थ कहते हैं । वहाँ किया हुआ स्नान और दान सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देनेवाला तथा शुभ हैं । इसप्रकार गौतमी गंगा ब्रह्मगिरी से निकलकर जहाँ समुद्र में मिली है, वहाँतक के कुछ तीर्थों का मैंने संक्षेप से वर्णन किया हैं । गौतमी गंगा वेद और पुराणों में भी प्रसिद्ध हैं । ऋषियोंद्वारा भी उनकी बड़ी ख्याति हुई है । सम्पूर्ण विश्व ने उनके चरणों में मस्तक झुकाया है । उनका प्रभाव अत्यंत महान हैं । नारद ! किस में इतनी शक्ति है, जो गोदावरी की महिमा का पूरा-पूरा वर्णन कर सके । जो भक्तिपूर्वक उनके गुणगान में प्रवृत्त हो यथाकंथचित उनकी महिमाका दिग्दर्शन कराता हैं, उसके ऐसा करने इ नि:संदेह कोई अपराध नहीं है; इसलिये मैंने भी लोक-कल्याण के उद्देश्य से अत्यंत प्रयास करके गंगा के माहात्म्य को संक्षेप से सूचित किया है । कौन गोदावरी के प्रत्येक तीर्थ का प्रभाव बता सकता हैं । कहीं, किसी स्थानपर, किसी विशेष समय में कोई उत्तम तीर्थ प्रकट होते हैं; परन्तु गौतमी में सर्वत्र और सदा ही तीर्थों का वास हैं । वे मनुष्यों के लिये सब जगह और सब समय पवित्र हैं । उनके गुणों का वर्णन कौन कर सकता हैं । उनके लिये तो केवल नमस्कार करना ही उचित जान पड़ता है ।
नारदजी ने कहा – सुरेश्वर ! आप गंगा को तीनों देवताओं से सम्बन्ध रखनेवाली बताते है । ब्रह्मर्षि गौतमद्वारा लायी हुई लोकपावनी गंगा परम पवित्र और कल्याणमयी हैं । उनके आदि, मध्य और अंत में दोनों तटोंपर भगवान विष्णु, शिव तथा आप व्याप्त हैं । उनकी महिमा सुनने से मुझे तृप्ति नहीं होती , आप पुन: संक्षेप से उनका महत्त्व बतलाइये ।
ब्रह्माजी बोले – बेटा ! गंगा पहले मेरे कमण्डलु में थी, फिर भगवान के चरणों से प्रकट हुई । उसके बाद महादेवजी के जटा-जुट में निवास करने लगी । महर्षि गौतम ने अपने ब्रह्मतेज के प्रभाव से यत्नपूर्वक भगवान शिवकी आराधना की, जिससे ये ब्रह्मगिरीपर आयी और वहाँ से चलकर पूर्व-समुद्र में जा मिली । भगवती गोदावरी सर्वतीर्थयी हैं । वे मनुष्यों को मनोवांछित फल देती है । उनका प्रभाव सबसे बढकर हैं । मैं तीनों लोकों में कोई भी तीर्थ गोदावरी से बड़ा नहीं मानता । उन्हीं के प्रभाव से मन की सारी अभिलाषा पूर्ण होती है । आज भी उनकी महिमा का यथावत वर्णन कोई नहीं कर सकता । सब लोग भक्ति से सदा उनकी वन्दना करते हैं । वे वस्तुत: साक्षात ब्रह्म है । नारद ! मुझे तो यही सबसे बढकर आश्चर्य की बात जान पडती है कि मेरी वाणी में गंगा के गुणों का वर्णन सुनकर भी तीनों लोकों में रहनेवाले सब प्राणियों की बुद्धि उन्हीं की ओर क्यों नहीं लग जाती ।
नारदजी ने कहा – भगवन ! आप धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के ज्ञाता और उपदेशक हैं । आपके वचनों में रहस्योंसहित छंद (वेद), पुराण, स्मृति और धर्मशास्त्र आदि समस्त वाड्मय प्रतिष्टित है । अत: आप बताइये – तीर्थ, दान, यज्ञ, तप, देवपूजन, मन्त्र-जप और सेवामें सबसे श्रेष्ट क्या है ? भगवन ! आप जैसा कहेंगे, वैसा ही होगा । उसके विपरीत कोई बात नही हो सकती । अत: मेरे इस संशय का निवारण कीजिये ।
ब्रह्माजी बोले – नारद ! सुनो, मैं रहस्यमय उत्तम धर्म का वर्णन करता हूँ । चार प्रकार के तीर्थ हैं । चार ही युग है । तिन गुण, तीन पुरुष और तीन ही सनातन देवता हैं । स्मृतियोंसहित वेद चार बनाये गये हैं । पुरुषार्थ भी चार ही है और वाणी के भी चार ही भेद हैं । ये सब समान हैं । धर्म सर्वत्र एक ही है । क्योंकि वह सनातन है । साध्य और साधन के भेद से उसके अनेक रूप माने गये हैं । धम्र के दो आश्रय हैं, देश और काल । काल के आश्रित जो धर्म है, वह सदा घटता-बढ़ता रहता है । युगों के अनुसार उसमें एक-एक चरण की न्यूनता होती जाती है । कालाश्रित धर्म भी देशमे सदा प्रतिष्ठित रहता है । युगों का क्षय होनेपर भी देशाश्रित धर्म की हानि नहीं होती । जो धर्म दोनों आश्रयों से हीन हैं, उसका अभाव हो जाता हैं । अत: देश के आश्रित रहनेवाला धर्म अपने चारों चरणों के साथ प्रतिष्ठित होता है । देशाश्रित धर्म भिन्न-भिन्न देशों में तीर्थरूप से स्थित रहता हैं । सत्ययुग में धर्म देश और काल दोनों के आश्रित होता है । त्रेता में उसके एक चरण की, द्वापर में दो चरणों की और कलियुग में उसके तीन चरणों की हानि होती है । द्वापर और कलि में क्रमश: आधे और चौथाई रुपमे शेष रहकर धर्म चालु रहता हैं । कलि में उसकी संकटमयी स्थिति होती है । जो इसप्रकार धर्मको जानता हैं, उसके धर्म की हानि नहीं होती ।
जो घरसे तीर्थयात्रा के लिये निकलना चाहता है, उसके सामने अनेक प्रकार के विघ्न आते हैं; परन्तु जो उन विघ्नों के मस्तकपर पैर रखकर गंगाजी के पास नहीं पहुँचता, उसने अपने जीवन में क्या फल पाया । गौतमी के प्रभाव का कौन वर्णन कर सकता है । साक्षात सदाशिव भी उसके वर्णन में असमर्थ हैं । मैंने संक्षेप से इतिहाससहित गंगा के माहात्म्य का प्रतिपादन किया है । चराचर जगत में धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका जो भी साधन है, वह सब इस विस्तृत इतिहास में मौजूद है । इसमें वेदोक्त श्रुतियों का सम्पूर्ण रहस्य बताया गया हैं । जगत के कल्याण के लिये जो उत्तम साधन, जो उत्तम नामवाला प्राचीन तीर्थ देखा गया है, उसीका वर्णन किया गया है । जो इस माहात्म्य का एक श्लोक अथवा एक पद भी भक्तिपूर्वक पढ़ता और सुनता हैं अथवा ‘गंगा-गंगा’ यों उच्चारण करता है, वह पुण्य का भागी होता है । गंगा का यह उत्तम माहात्म्य कलि के कलंक का विनाश करनेवाला, सब प्रकार की सिद्धि और मंगल देनेवाला है । संसार में यह समादर के योग्य है । इसके पढने और सुनने से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । जो सौ योजन दूर से भी ‘गंगा-गंगा’ का उच्चारण करता है, वह सब पापों से मुक्त होता और भगवान विष्णु के धाम में जाता हैं । तीनों लोकों में साढ़े तीन करोड़ तीर्थ है । वे सभी बृहस्पति के सिंहराशि में स्थित होनेपर गौतमी गंगा में स्नान करने के लिये आते है ।
गंगा गंगेति यो ब्रूयाद्योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्यों विष्णुलोकं स गच्छति ।। तिस्र: कोट्योंऽर्धकोटि च तीर्थानि भुवनत्रये । तानि स्नान्तु समायान्ति गंगाया सिंहगे गुरौ ।।
बेटा ! ये गौतमी मेरी आज्ञा से सदा सब मनुष्यों को स्नान करनेपर मोक्ष प्रदान करेंगी । हजार अश्वमेध और सौ वाजपेय-यज्ञ करनेपर जो फल मिलता हैं, वह इस माहात्म्य के श्रवणमात्र से प्राप्त हो जाता है । नारद ! जिसके घरमें यह मेरा कहा हुआ पुराण मौजूद है, उसे कलिकाल का कोई भय नहीं है । यह उत्तम पुराण जिस किसी मनुष्य के सामने कहने योग्य नहीं है । श्रद्धालु , शांत एवं वैष्णव महात्मा के सामने ही इसका कीर्तन करना चाहिये । यह भोग और मोक्ष देनेवाला तथा पापों का नाश करनेवाला हैं । इसके श्रवणमात्र से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता हैं । जो अपने हाथसे लिखकर यह पुस्तक ब्राह्मणों को देता हैं, वह सब पापों से मुक्त होकर फिर कभी गर्भ में नहीं आता ।
अध्याय- 68 अनंत वासुदेव की महिमा, पुरुषोतम क्षेत्र का माहात्म्य का उपसंहार
मुनि बोले – देव ! भगवान की यह कथा सुनने से हमें तृप्ति नहीं होती । आप पुन: परम गोपनीय रहस्य का वर्णन कीजिये । अनंत वासुदेवकी महिमा का आपने भलीभांति वर्णन नहीं किया । अब हम उसी को सुनना चाहते हैं । आप विस्तारपूर्वक बतलायें ।
ब्रह्माजी ने कहा – मुनिवरो ! अनंत वासुदेव का माहात्म्य सारसे भी अत्यंत सारतर वस्तु हैं । वह इस पृथ्वीपर दुर्लभ है । विप्रगण ! आदिकल्प की बात हैं, मैंने देवशिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा को बुलाकर कहा – ‘तुम पृथ्वीपर भगवान वासुदेवकी शिलामयी प्रतिमा बनाओ, जिसका दर्शन करके इंद्र आदि देवता और मनुष्य भक्तिपूर्वक भगवान वासुदेव की आराधना करें और उनकी कृपासे स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह सुशोभित था । ह्रदयदेश वनमाला से आवुत्त हो रहा था । मस्तकपर मुकुट और भुजाओं में अंगद शोभा पाते थे । कंधे मोटे जान पड़ते थे । कानों में कुंडल झिलमिला रहे थे । श्याम अंगपर पीताम्बर की अपूर्व शोभा थी । इस प्रकार वह प्रतिमा दिव्या थी । स्थापना का समय आनेपर स्वयं मैंने ही गूढ़ मन्त्रोद्वारा उसे स्थापित किया ।
चकार प्रतिमां शुद्धां शंखचक्रगदाधराम । सर्वलक्षणसंयुक्ता पुंडरीकायतेक्षणाम । श्रीवत्सलक्ष्मसंयुक्तामत्युग्रां प्रतिमोत्तमाम ।।
उस समय देवराज इंद्र ऐरावतपर सवार हो समस्त देवताओं के साथ मेरे लोक में आये । उन्होंने स्नान-दान आदिके द्वारा भगवत्पतिमाको प्रसन्न किया और उसे लेकर वे अपनी अमरावती पूरी में चले गये । वहाँ इन्द्रभवन में उसे पधराकर उन्होंने मन, वाणी और शरीर को संयम में रखते हुए दीर्घकालतक भगवान की आराधना की और उन्हीं के प्रसाद से वृत्त एवं नमुचि आदि क्रूर राक्षसों तथा भयंकर दानवों का संहार करके तीनों लोकों का राज्य भोगा ।
द्वितीय युग त्रेता आनेपर महापराक्रमी राक्षसराज रावण बड़ा प्रतापी हुआ । उसने दस हजार वर्षोतक निराहार और जितेन्द्रिय रहकर अत्यंत कठोर व्रतका पालन करते हुए भारी तपस्या की, जो दूसरों के लिये अत्यंत दुष्कर थी । उस तपस्या से संतुष्ट होकर मैंने रावण को वरदान दिया, ‘तुम्हें सम्पूर्ण देवताओं, दैत्यों, नागों और राक्षसों में से कोई नही मार सकेगा । शाप के भयंकर प्रहार से भी तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी । तुम यमदूतों से भी अवध्य रहोगे ।’ ऐसा वर पाकर वह राक्षस सम्पूर्ण यक्षों और उनके इंद्र को भी जीतने के लिये उद्यत हुआ । उसने देवताओं के साथ बड़ा भयंकर संग्राम किया । उसके पुत्र का नाम मेघनाद था । मेघनाद ने इंद्र को जीत लिया, अत: वह इन्द्रजीत के नामसे प्रसिद्ध हुआ । तदनंतर बलवान रावण ने अमरावतीपूरी में प्रवेश करके देवराज इंद्र के सुंदर भवन में भगवान वासुदेव की प्रतिमा देखी, जो अंजन के समान श्यामवर्ण और समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न थी । पद्मपत्र के समान विशाल नेत्र, वनमाला से ढके हुए वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का सुंदर चिन्ह, मस्तकपर मुकुट, भुजाओं में भुजबंध, हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म, शरीरपर पीताम्बर, चार भुजाएँ तथा अंगों में समस्त आभूषण शोभा दे रहे थे । वह प्रतिमा समस्त मनोवांछित फलों को देनेवाली थी । रावण ने यहाँ रखे हुए ढेर-के-ढेर रत्नों को तो छोड़ दिया और उस सुंदर प्रतिमा को तुरंत ही पुष्पक विमान से लंका में भेज दिया ।
वहाँ रावण के छोटे भाई धर्मात्मा विभीषण नगराध्यक्ष थे । वे सदा भगवान नारायण के भजन में लगे रहते थे । देवराज की भूमि से आयी हुई उस दिव्य प्रतिमा को देखकर उनके शरीर में रोमांस हो आया । उन्हे बड़ा विस्मय हुआ । विभीषण ने प्रसन्नचित्त से मस्तक झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और कहा – ‘आज मेरा जन्म सफल हो गया । आज मेरी तपस्या का फल मिला गया ।’ यों कहकर धर्मात्मा विभीषण बारंबार भगवान को प्रणाम करके अपने बड़े भाई के पास गये और हाथ जोडकर बोले – ‘राजन ! आप वह प्रतिमा देकर मुझपर कृपा कीजिये । मैं उसकी आराधना करके भवसागर से पार होना चाहता हूँ ।’ भाई की बात सुनकर रावण ने कहा – ‘वीर ! तुम प्रतिमा ले लो, मैं उसे लेकर क्या करूँगा । मैं तो ब्रह्माजी की आराधना करके तीनों लोकोंपर विजय पा रहा हूँ ।’ विभीषण बड़े बुद्धिमान थे । उन्होंने वह कल्याणमयी प्रतिमा ले ली और उसके द्वारा एक सौ आठ वर्षोतक भगवान विष्णु की आराधना की । इससे उन्होंने अणिमा आदि आठों सिद्धियों के साथ अजर-अम्र रहने का वरदान प्राप्त कर दिया ।
रावण बड़ा पापी और क्रूर राक्षस था । उसने देवता, गन्धर्व, किन्नर, लोकपाल, मनुष्य, मुनि और सिद्धों को भी युद्ध में जीतकर उनकी स्त्रियों को हर लिया और लंका नगरी में लाकर रखा । फिर सीता के लिये मोहित होकर उसने उनको भी हर लानेका प्रयत्न किया । श्रीराम के सम्मुख जानेमें उसे भय होता था; इसलिये मारीच को सुवर्णमय मृग के रूप में भेजकर उन्हें आश्रम से दूर हटा दिया और सीताको अकेली पाकर हर लिया । इसका पता लगनेपर लक्ष्मणसहित श्रीराम को बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने रावण को मार डालने का निश्चय किया । इस कार्य में सुग्रीव सहायक हुए । सुग्रीव का बाली के साथ वैर था, अत: श्रीराम ने बालीका मारकर सुग्रीव को किष्किन्धा के राज्यपर अभिषिक्त कर दिया और अंगद को युवराज बनाया । फिर हनुमान, नल, नील, जाम्बवान, पनस, गवय, गवाक्ष और पाठीन आदि असंख्य महाबली वानरों के साथ कमलनयन श्रीराम ने लंका की यात्रा की । उन्होंने समुद्र में पर्वतों की बड़ी-बड़ी चट्टाने डालकर पुल बँधाया और विशाल सेना के साथ समुद्र को पार किया । रावण ने राक्षसों को साथ लेकर भगवान श्रीराम के साथ घोर संग्राम किया । परम पराक्रमी श्रीरघुनाथजी ने महोदर, प्रहस्त, निकुम्भ, कुम्भ, नरान्तक, यमान्तक, माल्यवान, इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण तथा रावण को मारकर विदेहकुमारी सीता को अग्निपरीक्षाद्वारा शुद्ध प्रमाणित किया और विभीषण को राज्य दे भगवान वासुदेव की प्रतिमा को साथ लेकर वे पुष्पक विमानपर आरूढ़ हुए और अनायास ही पूर्वजोंद्वारा पालित अयोध्या नगरी में जा पहुँचे । भक्तवत्सल श्रीरघुनाथजी ने अपने छोटे भाई भरत और शत्रुघ्न को भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषिक्त किया और स्वयं सम्राट की भांति समस्त भूमंडल के राज्यपर आसीन हुए । उन्होंने अपने पुरातन स्वरूप श्रीविष्णु की उस प्रतिमा का आराधन करते हुए समुद्रपर्यंत पृथ्वी का ग्यारह हजार वर्षोतक पालन किया । उसके बाद वे अपने वैष्णव धाम में प्रवेश कर गये । उससमय श्रीराम ने वह प्रतिमा समुद्र को दे दी और कहा – ‘अपने जल और रत्नों के साथ तुम इस प्रतिमा की भी रक्षा करना ।’
द्वापर आनेपर जब जगदीश्वर भगवान विष्णु पृथ्वी की प्रार्थना से कंस आदिका वध करने के लिये बलभद्रजी के साथ वासुदेवजी के कुल में अवतीर्ण हुए, उससमय नदियों के स्वामी समुद्र ने उस परम दुर्लभ पुण्यमय पुरुषोत्तमक्षेत्र में सम्पूर्ण लोकों का हित करने के लिये उक्त प्रतिमा को प्रकट किया, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलों को देनेवाली थी । तबसे उस मुक्तिदायक क्षेत्र में ही देवाधिदेव अनंत वासुदेव विराजमान है, जो मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाले हैं । जो लोग मन, वाणी और क्रियाद्वारा सदा सर्वेश्वर भगवान अनंत वासुदेव की भक्तिपूर्वक शरण लेते हैं, वे परमपद को प्राप्त होते हैं । भगवान अनंत का एक बार दर्शन, भक्तिपूर्वक पूजन और प्रणाम करके मनुष्य राजसूय और अश्वमेध-यज्ञों से दसगुना फल पाता है । वह समस्त भोग-सामग्री से सम्पन्न छोटी-छोटी घंटियों से सुशोभित, सूर्य के समान तेजस्वी और इच्छानुसार चलनेवाले विमान से वैकुण्ठधाम में जाता हैं । उससमय दिव्यांगनाएँ उसकी सेवामें रहती हैं और गन्धर्व उसके यशका गान करते हैं । वह अपने साथ कुल की इक्कीस पीढ़ियों का भी उद्धार कर देता हैं । मुनिवरो ! इसप्रकार मैंने भगवान अनंत के सम्बन्ध में कुछ निवेदन किया । कौन ऐसा मनुष्य हैं, जो सौ वर्षो में भी उनके गुणों का वर्णन कर सके ।
इसप्रकार मनुष्यों को भोग और मोक्ष देनेवाले परम दुर्लभ पुरुषोत्तमक्षेत्र तथा अनंत वासुदेव के माहात्म्यका वर्णन किया गया । पुरुषोत्तमक्षेत्र में शंख, चक्र, गदा, पद्म और पीताम्बर धारण करनेवाले कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं, जिन्होंने कंस और केशीका संहार किया था । जो लोग वहाँ देव-दानव-वन्दित श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्रा का दर्शन करते हैं, वे धन्य है । भगवान श्रीकृष्ण तीनों लोकों के स्वामी तथा सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं के दाता हैं । जो सदा उनका ध्यान करते हैं, वे निश्चय ही मुक्त हो जाते हैं । जो सदा श्रीकृष्ण में अनुरक्त रहते हैं, रातको सोते समय श्रीकृष्ण का चिन्तन करते हैं और फिर सोकर उठने के बाद श्रीकृष्ण का स्मरण करते हैं, वे शरीर त्यागने के बाद श्रीकृष्ण में ही प्रवेश करते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मंत्रोच्चारणपूर्वक होम किया हुआ हविष्य अग्नि में लीन हो जाता हैं ।
कृष्णे रता: कृष्णमनुस्मरन्ति रात्रौ च कृष्णं पुनरुत्थिता ये । ते भिन्नदेहा: प्रविशन्ति कृष्णं हविर्यथा मन्त्रहुतं हुताशम ।।
अत: मुनिवरो । मोक्ष की इच्छा रखनेवाले पुरुषों को पुरुषोत्तमक्षेत्र में सदा यत्नपूर्वक कमलनयन श्रीकृष्ण का दर्शन करना चाहिये । जो मनीषी पुरुष शयन और जागरणकाल में श्रीकृष्ण, बलभद्र तथा सुभद्रा का दर्शन करते हैं, वे श्रीहरि के धाममें जाते हैं । जो हर समय भक्तिपूर्वक पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण, रोहिणीनंदन बलभद्र और सुभद्रादेवी का दर्शन करते हैं, वे भगवान विष्णु के लोकमें जाते हैं । जो वर्षा के चार महीनों में पुरुषोत्तमक्षेत्र के भीतर निवास करते हैं, उन्हें साड़ी पृथ्वी की तीर्थयात्रा से भी अधिक फल प्राप्त होता है । जो इन्द्रियों को जीतकर और क्रोध को वशीभूत करके सदा पुरुषोत्तमक्षेत्र से ही निवास करते हैं, वे तपस्या का फल पाते हैं । मनुष्य अन्य तीर्थों में दस हजार वर्षोतक तपस्या करके जो फल पाता है, उसे पुरुषोत्तमक्षेत्र में एक ही मासमें प्राप्त कर लेता हैं । तपस्या, ब्रह्मचर्यपालन तथा आसक्ति-त्याग से जो फल मिलता हैं, उसे मनीषी पुरुष वहाँ सदा ही पाते रहते हैं । सब तीर्थों में स्नान-दान करने का जो पुण्य फल बताया गया हैं, वह मनीषी पुरुषों को यहाँ सर्वदा प्राप्त होता है । विधिपूर्वक तीर्थसेवन तथा व्रत और नियमों के पालनसे जो फल बताया गया है, उसे वहाँ इन्द्रियसंयमपूर्वक पवित्रता से रहनेवाला पुरुष प्रतिदिन प्राप्त करता हैं । नाना प्रकार के यज्ञों से मनुष्य जो फल प्राप्त करता हैं, वह जितेन्द्रिय पुरुष को वहाँ प्रतिदिन मिला करता हैं । जो पुरुषोत्तमक्षेत्र में कल्पवृक्ष (अक्षयवट) के पास जाकर शरीरत्याग करते हैं, वे नि:संदेह मुक्त हो जाते हैं । जो मानव बिना इच्छा के भी वहाँ प्राणत्याग करता हैं, वह भी दुःख से मुक्त हो दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लेता है । कृमि, कीट, पतंग आदि तथा पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए जीव भी वहाँ देहत्याग करनेपर परमगति को प्राप्त करते हैं । जो मनुष्य एक बार भी श्रद्धापूर्वक भगवान पुरुषोत्तम का दर्शन कर लेता हैं, वह सहस्त्रों पुरुषों में उत्तम है । भगवान प्रकृति से प्रेम और पुरुष से भी उत्तम है । इसलिये वे वेद, पुराण तथा इस लोकमं पुरुषोत्तम कहलाते हैं । जो पुराण और वेदान्त में परमात्मा कहे गये है, वे ही सम्पूर्ण जगत का उपकार करने के लिये उस क्षेत्र में पुरुषोत्तमरूप से विराजमान हैं । पुरुषोत्तमक्षेत्र के भीतर मार्ग में, श्मशानभूमि में, घर के मंडप में, सडकों और गलियों में – जहाँ कहीं इच्छा या अनिच्छा से भी शरीरत्याग करनेवाला मनुष्य मोक्ष का भागी होता है । पुरुषोत्तमतीर्थ के समान किसी तीर्थ का माहात्म्य न हुआ है और न होगा । मैंने उस क्षेत्र के गुणों का एक अंशमात्र यहाँ बताया है । कौन पुरुष सौ वर्षो में भी उसके समस्त गुणों का वर्णन कर सकता हैं । मुनिवरो ! यदि तुम सनातन मोक्ष पाना चाहते हो तो आलस्य छोडकर उस पवित्र तीर्थ में निवास करो ।
व्यासजी कहते है – अव्यक्तजन्म ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर मुनियों ने वहाँ निवास किया और परमपद प्राप्त कर लिया । द्विजवरो ! यदि आपलोग भी मोक्ष प्राप्त करना चाहते हों तो परम उत्तम पुरुषोत्तमक्षेत्र में निवास करें ।