- अध्याय 1 श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
- अध्याय 2 भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
- अध्याय 3 भगवान् के अवतारोंका वर्णन
- अध्याय 4 महर्षि व्यासका असन्तोष
- अध्याय 5 भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
- अध्याय 6 नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
- अध्याय 7 अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
- अध्याय 8 गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
- अध्याय 9 युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
- अध्याय 10 श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
- अध्याय 11 द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
- अध्याय 12 परीक्षितका जन्म
- अध्याय 13 विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
- अध्याय 14 अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
- अध्याय 15 पाण्डवों का परीक्षित को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
- अध्याय 16 परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
- अध्याय 17 महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
- अध्याय 18 राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
- अध्याय 19 परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कंध
अध्याय 1 श्रीसूतजी से शौनकादि ऋषियों का प्रश्न
जिससे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं— क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थोंमें अनुगत है और असत् पदार्थोंसे पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्पसे ही जिसने उस वेदज्ञानका दान किया है; जिसके सम्बन्धमें बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियोंमें जलका, जलमें स्थलका और स्थलमें जलका भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत्-स्वप्र सुषुप्तिरूपा सृष्टि मिथ्या होनेपर भी अधिष्ठान सत्तासे सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयंप्रकाश ज्योतिसे सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्यसे पूर्णतः मुक्त रहनेवाले परम सत्यरूप परमात्माका हम ध्यान करते हैं ॥ 1 ॥ महामुनि व्यासदेवके द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें मोक्ष पर्यन्त फलकी कामनासे रहित परम धर्मका निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषोंके जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है, जो तीनों तापोंका जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्रसे क्या प्रयोजन जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है ॥ 2 ॥ रसके मर्मज्ञ भक्तजन। यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका हुआ फल है। श्रीशुकदेवरूप तोतेके* मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है। इस | फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है। जबतक शरीरमे चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो। यह | पृथ्वीपर ही सुलभ है ॥ 3 ॥एक बार भगवान् विष्णु एवं देवताओंके परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्यमें शौनकादि ऋषियोंने भगवत्प्राप्तिकी इच्छासे सहस्र वर्षोंमें पूरे होनेवाले एक महान् यज्ञका अनुष्ठान किया ॥ 4 ॥ एक | दिन उन लोगोंने प्रातः काल अग्रिहोत्र आदि नित्यकृत्योंसे निवृत्त होकर सूतजीका पूजन किया और उन्हें ऊँचे आसनपर बैठाकर बड़े आदरसे यह प्रश्न किया ॥ 5 ॥
ऋषियोंने कहा- सूतजी आप निष्पाप हैं। आपने समस्त इतिहास, पुराण और धर्मशास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है तथा उनकी भलीभाँति व्याख्या भी की है ॥ 6 ॥ वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् बादरायणने एवं भगवान्के सगुण-निर्गुण रूपको जाननेवाले दूसरे मुनियोंने जो कुछ जाना है—उन्हें जिन विषयोंका ज्ञान है, वह सब आप वास्तविक रूपमें जानते हैं। आपका हृदय बड़ा ही सरल और शुद्ध है, इसीसे आप उनकी और अनुग्रहके पात्र हुए हैं। गुरुजन अपने प्रेमी शिष्यको गुप्त से गुप्त बात भी बता दिया करते हैं।। 7-8 ।। आयुष्मन् | आप कृपा करके यह बतलाइये कि उन सब शास्त्रों पुराणों और गुरुजनोंके उपदेशोंमें कलियुगी जीवोंके परम कल्याणका सहज साधन आपने क्या निश्चय किया है ॥ 9 ॥ आप संत-समाजके भूषण है। इस कलियुग में प्रायः लोगोंकी आयु कम हो गयी है। साधन करनेमें लोगोंकी रुचि और प्रवृत्ति भी नहीं है। लोग आलसी हो गये हैं। उनका भाग्य तो मन्द है ही, समझ भी थोड़ी है। इसके साथ ही वे नाना प्रकारकी विघ्न | बाधाओंसे घिरे हुए भी रहते हैं ॥ 10 ॥ शास्त्र भी बहुत-से हैं । परन्तु उनमें एक निश्चित साधनका नहीं, अनेक प्रकारके कर्मोका वर्णन है। साथ ही वे इतने बड़े हैं कि उनका एक अंश सुनना भी कठिन है। आप परोपकारी हैं। अपनी बुद्धिसे उनका सार निकालकर प्राणियोंके परम कल्याणके लिये हम श्रद्धालुओंको सुनाइये, जिससे हमारे अन्तःकरणको शुद्धि प्राप्त हो । 11 ॥
प्यारे सूतजी ! आपका कल्याण हो। आप तो जानते ही हैं कि यदुवंशियोंके रक्षक भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण वसुदेवको धर्मपत्नी देवकीके गर्भसे क्या करने की इच्छासे अवतीर्ण हुए थे ॥ 12 ॥ हम उसे सुनना चाहते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये उसका वर्णन कीजिये; क्योंकि भगवान्का अवतार जीवोंके परम कल्याण और उनकी भगवत्प्रेममयी | समृद्धिके लिये ही होता है। 13। यह जीव जन्म-मृत्युकेर चक्रमें पड़ा हुआ है-इस स्थितिमें भी यदि वह कभी भगवान्के मङ्गलमय नामका उच्चारण कर ले तो उसी क्षण उससे मुक्त हो जाय क्योंकि स्वयं भय भी भगवतरहता है ॥ 14 ॥ सूतजी । परम विरक्त और परम शान्त मुनिजन भगवान्के श्रीचरणोंकी शरणमें ही रहते है, अतएव उनके स्पर्शमात्रसे संसारके जीव तुरन्त पवित्र हो जाते हैं। इधर गङ्गाजीके जलका बहुत दिनोंतक सेवन किया जाय, तब कहीं पवित्रता प्राप्त होती है 15 ॥ ऐसे पुण्यात्मा भक्त जिनकी लीलाओंका गान करते रहते हैं, उन भगवान्का कलिमलहारी पवित्र यश भला आत्मशुद्धिको इच्छावाला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो श्रवण न करे ॥ 16 ॥ वे लीलासे ही अवतार धारण करते हैं। नारदादि महात्माओंने उनके उदार कर्मोंका गान किया है। हम श्रद्धालुओंके प्रति आप उनका वर्णन कीजिये ll 17 ll
बुद्धिमान् सूतजी ! सर्वसमर्थ प्रभु अपनी योगमायासे स्वच्छन्द लीला करते हैं। आप उन श्रीहरिकी मङ्गलमयी अवतार कथाओंका अब वर्णन कीजिये ।। 18 ।। पुण्यकीर्ति भगवान्को लीला सुनने से हमें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि र श्रोताओंको पद-पदपर भगवान्की लीलाओं नये नये रसका अनुभव होता है ॥ 19 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण अपनेको छिपाये हुए थे, लोगोंके सामने ऐसी चेष्टा करते थे। मानो कोई मनुष्य हो। परन्तु उन्होंने बलरामजी के साथ ऐसी लोलाएँ भी की हैं, ऐसा पराक्रम भी प्रकट किया है, जो मनुष्य नहीं कर सकते 20 ॥ कलियुगको आया जानकर इस वैष्णवक्षेत्रमे हम दीर्घकालीन सत्रका संकल्प करके बैठे हैं। श्रीहरिकी कथा सुननेके लिये हमें अवकाश प्राप्त है ॥ 21 ॥ | यह कलियुग अन्तःकरणकी पवित्रता और शक्तिका नाश करनेवाला है। इससे पार पाना कठिन है। जैसे समुद्र पार जानेवालोंको कर्णधार मिल जाय, उसी प्रकार इससे पार पानेकी इच्छा रखनेवाले हम लोगोंसे ब्रह्माने आपको मिलाया है ।। 22 ।। धर्मरक्षक, ब्राह्मणभक्त, योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णके अपने धाममें पधार जानेपर धर्मने अबकी शरण ली है—यह बताइये ॥ 23 ॥
अध्याय 2 भगवत् कथा और भगवदत भक्ति का माहात्य
श्रीव्यासजी कहते हैं— शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियोंके ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाको बड़ा ही | आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियोंके इस मङ्गलमय प्रश्नकाअभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ॥ 1 ॥ सूतजीने कहा- जिस समय श्रीशुकदेवजीका यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कमोंकि अनुशानका अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेनेके उद्देश्यसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरहसे कातर होकर पुकारने लगे- ‘बेटा! बेटा!’ उस समय तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजीकी ओरसे वृक्षोंने उत्तर दिया। ऐसे सबके हृदयमें विराजमान श्रीशुकदेव मुनिको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 2 ॥ यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय – रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूपका | अनुभव करानेवाला और समस्त वेदोंका सार है। संसारमें फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते है, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वोंको प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक हैं। वास्तवमें उन्हींपर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियोंके आचार्य श्रीशुकदेवजीने इसका वर्णन किया है। मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ || 3 || मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ भगवान् के अवतार नर-नारायण ऋषियोंको, सरस्वती देवीको और श्रीव्यासदेवजीको नमस्कार करके तब संसार और अन्तःकरणके समस्त विकारोंपर विजय प्राप्त करानेवाले इस श्रीमद्भागवत महापुराणका पाठ करना चाहिये ॥ 4 ॥
ऋषियो ! आपने सम्पूर्ण विश्वके कल्याणके लिये यह बहुत सुन्दर किया है, क्योंकि यह प्रश्न श्रीकृष्णके सम्बन्धमें है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है ॥ 5 ॥ | मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वहीं है, जिससे भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति हो – भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकारकी कामना न हो और जो नित्य निरन्तर बनी रहे ऐसी भक्तिसे हृदय आनन्दस्वरूप परमात्माको उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है ।। 6 ।। भगवान् श्रीकृष्णमें भक्ति होते ही, अनन्य प्रेमसे उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव हो जाता है 7 धर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेपर भी यदि मनुष्यके हृदयमें भगवान्की लीला-कथाओंके प्रति अनुरागका उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ॥ 8 ॥ धर्मका फल हैं मोक्ष। उसकी सार्थकता अर्थप्राप्तिमें नहीं है। अर्थ केवल धर्मके लिये है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया | है ।। 9 ।। भोगविलासका फल इन्द्रियोंको तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन-निर्वाह। जीवनका फल भी | तत्त्वजिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका | फल नहीं है ॥ 10 ॥ तत्ववेत्तालोग ज्ञाता और शेयके भेदसेरहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानको ही तत्त्व कहते है उसीको कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई 1 भगवान् के नामसे पुकारते हैं ॥ 11 ॥ श्रद्धालु मुनिजन भागवत-श्रवणसे प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तिसे अपने हृदयमें | उस परमतत्त्वरूप परमात्माका अनुभव करते हैं ।। 12 ।। शौनकादि ऋषियो। यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार मनुष्य जो धर्मका अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसीमें है कि भगवान् प्रसन्न हों ॥ 13 ॥ इसलिये | एकाग्र मनसे भक्तवत्सल भगवान्का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ॥ 14 ॥ कर्मोंकी गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान् के चिन्तनकी तलवारसे उस गाँठको काट डालते है तब भला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान्की लीलाकथामें प्रेम न करे ।। 15 ।।
शौनकादि ऋषियों! पवित्र तीर्थो का सेवन करनेसे महत्सेवा, तदनन्तर श्रवणकी इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत् कथामें रुचि होती है ॥ 16 ॥ भगवान् श्रीकृष्णां कें यशका श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करनेवाले हैं। वे अपनी कथा सुननेवालोके हृदयमें आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओंको नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतोंके नित्य सुहृद् है 17 । जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक निरन्तर सेवनसे अशुभ वासनाएं नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णके प्रति स्थायी प्रेमकी प्राप्ति होती है ॥ 18 ॥ तब रजोगुण और तमोगुणके भाव काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्वगुणमें स्थित एवं निर्मल हो जाता है ॥ 19 ॥ इस प्रकार भगवान्की प्रेममयी भक्तिसे जब संसारकी समस्त आसक्तियाँ मिट जाती है, हृदय आनन्दसे भर जाता है, तब भगवान्के तत्त्वका अनुभव अपने-आप हो जाता है ॥ 20 ॥ हृदयमें आत्मस्वरूप भगवान्का साक्षात्कार होते ही हृदयकी ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते है और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है । 29 । इसीसे बुद्धिमान् लोग नित्य निरन्तर बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णके प्रति प्रेम-भक्ति करते है, जिससे आत्मप्रसादकी प्राप्ति होती है ॥ 22 ॥
प्रकृतिके तीन गुण है-सत्व, रज और तम । इनको स्वीकार करके इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति औरप्रलयके लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र – ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्योंका परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करनेवाले श्रीहरिसे ही होता है 23 जैसे पृथ्वी विकार लकड़ीकी अपेक्षा धुआं श्रेष्ठ है और उससे भी है अझिक्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादिके द्वारा अनि सहति देनेवाल है-वैसे ही तमोगुणसे रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुणसे भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान्का दर्शन करानेवाला है ।। 24 ।। प्राचीन युगमें महात्मालोग अपने कल्याणके लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान् विष्णुकी ही आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्होंक समान कल्याणभाजन होते हैं॥ 25 ॥ जो लोग इस संसारसागरसे पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसीकी निन्दा तो नहीं करते, न किसीमें दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूपवाले – तमोगुणी रजोगुणी भैरवादि भूतपतियोंकी उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान् और उनके अंश-कलास्वरूपोंका ही भजन करते हैं ॥ 26 ॥ परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतानकी कामनासे भूत, पितर और प्रजापतियोंकी उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगोंका स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता। | है ॥ 27 ॥ वेदोंका तात्पर्य श्रीकृष्णमें ही है। यज्ञोंके उद्देश्य श्रीकृष्ण ही है। योग श्रीकृष्णके लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मोकी परिसमाप्ति भी श्रीकृष्णमे हो | है । 28 ॥ ज्ञानसे ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्णकी ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्णकी प्रसन्नताके लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मोका अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं ॥ 29 ॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत है, फिर भी अपनी गुणमयी मायासे, जो प्रपक्षको दृष्टि है और तत्वकी दृष्टिसे नहीं है उन्होंने आदिमें इस संसारकी रचना की थी ॥ 30 ॥ ये सत्त्व, रज और तम तीनों गुण उसी मायाके विलास है, इनके भीतर रहकर भगवान् इनसे युक्त सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तवमें तो वे परिपूर्ण विज्ञानानन्दघन है ॥ 39 ॥ अप्रि तो वस्तुतः एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकारकीलकड़ियों में प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान् तो एक ही हैं, परंतु प्राणियोंकी अनेकतासे अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ॥ 32 ॥ भगवान् ही सूक्ष्म भूत – तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्तःकरण आदि गुणोंके विकारभूत भावोंके द्वारा नाना प्रकारकी योनियोंका निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवोंके रूपमें प्रवेश करके उन-उन योनियोंके अनुरूप विषयोंका उपभोग करते-कराते हैं ।। 33 ।। वे ही सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियोंमें लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुणके द्वारा जीवोंका पालन-पोषण करते हैं ॥ 34 ॥
अध्याय 3 भगवान् के अवतारोंका वर्णन
श्रीसूतजी कहते हैं-सृष्टिके आदिमें भगवान्ने लोकोंके निर्माणकी इच्छा की। इच्छा होते ही उन्होंने महत्तत्त्व आदिसे निष्पन्त्र पुरुषरूप ग्रहण किया। उसमें दस इन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत- ये सोलह कलाएँ थीं ॥ 1 ॥ उन्होंने कारण जलमें शयन करते हुए जब योगनिद्राका विस्तार किया, तब उनके नाभि-सरोवरमेंसे एक कमल प्रकट हुआ और उस कमलसे प्रजापतियोंके अधिपति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥ 2 ॥ भगवान्के उस विराट्रूपके अङ्ग-प्रत्यङ्गमें ही समस्त लोकोंकी कल्पना की गयी है, वह भगवान्का विशुद्ध सत्त्वमय श्रेष्ठ रूप है ॥ 3 ॥ योगीलोग दिव्यदृष्टिसे भगवान्के उस रूपका दर्शन करते हैं। भगवान्का वह रूप हजारों पैर, जाँघें, भुजाएँ और मुखोंके कारण अत्यन्त विलक्षण हैं; उसमें सहस्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएँ हैं हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणोंसे वह उल्लसित रहता है ॥ 4 ॥ भगवान्का यही पुरुषरूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेक अवतारोंका अक्षय कोष है— इसीसे सारे अवतार प्रकट होते है। इस रूपके छोटे-से-छोटे अंशसे देवता, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियोंकी सृष्टि होती है ॥ 5 ॥उन्हीं प्रभुने पहले कौमारसर्गमे सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार- इन चार ब्राह्मणोंके रूपमें अवतार ग्रहण करके अत्यन्त कठिन अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन किया ॥ 6 ॥ दूसरी बार इस संसारके कल्याणके लिये समस्त यज्ञोंके स्वामी उन भगवान्ने हो रसातलमें गयी हुई पृथ्वीको निकाल लाने के विचारसे सूकररूप ग्रहण किया ॥ 7 ॥ ऋषियोंकी सृष्टिमें उन्होंने देवर्षि नारदके रूपमें तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्वत तन्त्रका (जिसे ‘नारद-पाञ्चरात्र’ कहते हैं) उपदेश किया; उसमें कर्मोंक द्वारा किस प्रकार कर्मबन्धनसे मुक्ति मिलती है, इसका वर्णन है ॥ 8 ॥ धर्मपत्नी मूर्तिके गर्भ से उन्होंने नर-नारायणके रूपमें चौथा अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियोंका सर्वथा संयम करके बड़ी कठिन तपस्या की ॥ 9 ॥ पांचवे अवतारमें वे सिद्धोंक स्वामी कपिलके रूपमें प्रकट हुए और तत्त्वोंका निर्णय करनेवाले सांख्य-शास्त्रका, जो समयके फेरसे लुप्त हो गया था, आसुरि नामक ब्राह्मणको उपदेश किया ॥ 10 ॥ अनसूयाके वर माँगनेपर छठे अवतारमें वे अत्रिकी सन्तान – दत्तात्रेय हुए। इस अवतारमें उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदिको ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया ॥ 11 ॥ सातवीं बार रुचि प्रजापतिकी आकृति नामक पत्नीसे यज्ञके रूपमें उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र याम आदि देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरकी रक्षा की ॥ 12 ॥ राजा नाभिकी पत्नी मेरु देवीके गर्भसे ऋषभदेवके रूपमें भगवान्ने आठवाँ अवतार ग्रहण किया। इस रूपमें उन्होंने परमहंसोका वह मार्ग, जो सभी आश्रमियोंके लिये वन्दनीय है, दिखाया ॥ 13 ॥ ऋषियोंकी प्रार्थनासे नवीं बार वे राजा पृथुके रूपमें अवतीर्ण हुए। शौनकादि ऋषियो ! इस अवतार में उन्होंने पृथ्वीसे समस्त ओषधियोंका दोहन किया था, इससे यह अवतार सबके लिये बड़ा ही कल्याणकारी हुआ ।। 14 । चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें जब सारी त्रिलोकी समुद्रमें डूब रही थी, तब उन्होंने मत्स्यके रूपमें दसवाँ अवतार ग्रहण किया और पृथ्वीरूपी नौकापर बैठाकर अगले मन्वन्तरके अधिपति वैवस्वत मनुको रक्षा की ।। 15 ।। जिस समय देवता और दैत्य समुद्र मन्थन कर रहे थे, उस समय ग्यारहवाँ अवतार धारण करके कच्छपरूपसे भगवान्ने मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ।। 16 ।। बारहवीं बार धन्वन्तरिके रूपमें अमृत लेकर समुद्रसे प्रकट हुए. और तेरहवीं बार मोहिनीरूप धारण करके दैत्योंको मोहित करते हुए देवताओंको अमृत पिलाया ॥ 17 ॥ चौदहवे अवतारमे उन्होंने नरसिंहरूप धारण किया और अत्यन्त चलवा दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी छाती अपने नखोसे अनायास इस प्रकार फाइ | डाली, जैसे चटाई बनानेवाला सीकको चीर डालता है ।। 18 ।।पंद्रहवीं बार वामनका रूप धारण करके भगवान् दैत्यराज बलिके यज्ञमें गये। वे चाहते तो थे त्रिलोकीका राज्य, परन्तु | माँगी उन्होंने केवल तीन पग पृथ्वी ॥ 19 ॥ सोलहवें परशुराम अवतारमें जब उन्होंने देखा कि राजालोग ब्राह्मणोंके द्रोही हो गये हैं, तब क्रोधित होकर उन्होंने पृथ्वीको इक्कीस बार क्षत्रियोंसे शून्य कर दिया ॥ 20 ॥ इसके बाद सत्रहवें अवतारमें सत्यवतीके गर्भसे पराशरजीके द्वारा वे व्यासके रूपमें अवतीर्ण हुए, उस समय लोगोंकी समझ और | धारणाशक्ति कम देखकर आपने वेदरूप वृक्षकी कई शाखाएँ बना दीं ॥ 21 ॥ अठारहवीं बार देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेकी इच्छासे उन्होंने राजाके रूपमें रामावतार ग्रहण किया और सेतु बन्धन, रावणवध आदि वीरतापूर्ण बहुत-सी लीलाएँ कीं ॥ 22 ॥ उन्नीसवें और बीसवें अवतारोंमें उन्होंने यदुवंशमें बलराम और श्रीकृष्णके नामसे प्रकट होकर पृथ्वीका भार उतारा ॥ 23 ॥ उसके बाद कलियुग आ जानेपर मगधदेश (बिहार) में देवताओंके द्वेषी दैत्योंको मोहित करनेके लिये अजनके पुत्ररूपमें आपका बुद्धावतार होगा ॥ 24 ॥ इसके भी बहुत पीछे जब कलियुगका अन्त समीप होगा और राजालोग प्रायः लुटेरे हो जायँगे, तब जगत्के रक्षक भगवान् विष्णुयश नामक ब्राह्मणके घर कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे * ॥ 25 ॥
शौनकादि ऋषियो! जैसे अगाध सरोवरसे हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान् श्रीहरिके असंख्य अवतार हुआ करते हैं ॥ 26 ॥ ऋषि, मनु, देवता, प्रजापति, मनुपुत्र और जितने भी महान् शक्तिशाली हैं, वे सब-के-सब भगवान् के ही अंश है॥ 27 ॥ ये सब | अवतार तो भगवान्के अंशावतार अथवा कलावतार हैं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान् (अवतारी) ही हैं। जब लोग दैत्योंके अत्याचारसे व्याकुल हो उठते हैं, तब युग युगमें अनेक रूप धारण करके भगवान् उनकी रक्षा करते हैं ॥ 28 ॥ भगवान्के दिव्य जन्मोंकी यह कथा अत्यन्तगोपनीय – रहस्यमयी है; जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे नियमपूर्वक | सायङ्काल और प्रातःकाल प्रेमसे इसका पाठ करता है, वह सब दुःखोंसे छूट जाता है ॥ 29 ॥
प्राकृत स्वरूपरहित चिन्मय भगवान्का जो यह स्थूल जगदाकार रूप है, यह उनकी मायाके महत्तत्त्वादि गुणोंसे भगवान्में ही कल्पित है ।। 30 ।। जैसे बादल वायुके आश्रय रहते हैं और धूसरपना धूलमें होता है, परन्तु अल्पबुद्धि मनुष्य बादलोंका आकाशमें और धूसरपनेका वायुमें आरोप करते हैं—वैसे ही अविवेकी पुरुष सबके साक्षी आत्मामें स्थूल दृश्यरूप जगत्का आरोप करते हैं॥ 31 ॥ इस स्थूलरूपसे परे भगवान्का एक सूक्ष्म अव्यक्त रूप है—जो न तो स्थूलकी तरह | आकारादि गुणोंवाला है और न देखने, सुननेमें ही आ सकता है; वही सूक्ष्मशरीर है। आत्माका आरोप या प्रवेश होनेसे यही जीव कहलाता है और इसीका बार-बार जन्म होता है ॥ 32 ॥ उपर्युक्त सूक्ष्म और स्थूल शरीर अविद्यासे ही आत्मामें आरोपित हैं। जिस अवस्थामें आत्मस्वरूपके ज्ञानसे यह आरोप दूर हो जाता है, उसी समय ब्रह्मका साक्षात्कार होता है ॥ 33 ॥ तत्त्वज्ञानी लोग जानते हैं कि जिस समय यह बुद्धिरूपा परमेश्वरकी माया निवृत्त हो जाती है, उस समय जीव परमानन्दमय हो जाता है और अपनी स्वरूप-महिमामें प्रतिष्ठित होता है ।। 34 । वास्तवमें जिनके जन्म नहीं हैं और कर्म भी नहीं हैं, उन हृदयेश्वर भगवान्के अप्राकृत जन्म और कर्मोंका तत्त्वज्ञानी लोग इसी प्रकार वर्णन करते हैं, क्योंकि उनके जन्म और कर्म वेदोंके अत्यन्त गोपनीय रहस्य ॥ 35 ॥
भगवान की लीला अमोघ है। वे लीलासे ही इस संसारका सृजन, पालन और संहार करते हैं, किंतु इसमें आसक्त नहीं होते। प्राणियोंके अन्तःकरणमें छिपे रहकर ज्ञानेन्द्रिय और मनके नियन्ताके रूपमें उनके विषयोंको ग्रहण भी करते हैं, परंतु उनसे अलग रहते हैं, वे परम स्वतन्त्र हैं—ये विषय कभी उन्हें लिप्त नहीं कर सकते ॥ 36 ॥ जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नटके संकल्प और वचनोंसे की हुई करामातको नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने संकल्प और वेदवाणीके द्वारा भगवान्के प्रकट किये हुए इन नाना नाम और रूपोंको तथा उनकी लीलाओंको कुबुद्धि जीव बहुत-सी तर्क- युक्तियोंके द्वारा नहीं पहचान सकता ॥ 37 ॥ चक्रपाणि भगवान्की शक्ति और पराक्रम अनन्त है— उनकी कोई थाह नहीं पा सकता। वे सारे जगत्के निर्माता होनेपर भी उससे सर्वथा हैं। उनके स्वरूपको अथवा उनकी लीलाके रहस्यको वही जान सकता है, नित्य-निरन्तर निष्कपट भावसे उनके चरणकमलोंकी दिव्य गन्धका सेवन करता है—सेवाभावसे उनके चरणोंका चिन्तन करता रहता है ॥ 38 ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोग बड़े ही सौभाग्यशाली तथा धन्य है जो इस जीवनमें औरविघ्न-बाधाओंसे भरे इस संसारमें समस्त लोकोंके स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे वह सर्वात्मक आत्मभाव, वह अनिर्वचनीय अनन्य प्रेम करते हैं, जिससे फिर इस जन्म-मरणरूप संसारके भयंकर चक्रमें नहीं पड़ना होता ॥ 39 ॥
भगवान् वेदव्यासने यह वेदोंके समान भगवच्चरित्रसे | परिपूर्ण भागवत नामका पुराण बनाया है ॥ 40 ॥ उन्होंने इस श्लाघनीय, कल्याणकारी और महान् पुराणको लोगोंके परम कल्याणके लिये अपने आत्मज्ञानिशिरोमणि पुत्रको ग्रहण कराया ॥ 41 ॥ इसमें सारे वेद और इतिहासोंका सार-सार संग्रह किया गया है। शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को यह | सुनाया ॥ 42 ॥ उस समय वे परमर्षियोंसे घिरे हुए आमरण अनशनका व्रत लेकर गङ्गातटपर बैठे हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण जब धर्म, ज्ञान आदिके साथ अपने परमधामको पधार गये, तब इस कलियुगमें जो लोग अज्ञानरूपी अन्धकारसे अंधे हो रहे हैं, उनके लिये यह पुराणरूपी सूर्य इस समय प्रकट हुआ है। शौनकादि ऋषियो ! जब महातेजस्वी श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ इस पुराणकी कथा कह रहे थे, तब मैं भी वहाँ बैठा था वहीं मैंने उनकी कृपापूर्ण अनुमतिसे इसका अध्ययन किया। मेरा जैसा अध्ययन है और मेरी बुद्धिने जितना जिस प्रकार इसको ग्रहण किया है, उसीके अनुसार इसे मैं आपलोगोंको सुनाऊँगा 43-45 ।।
अध्याय 4 महर्षि व्यासका असन्तोष
व्यासजी कहते हैं–उस दीर्घकालीन सत्रमें सम्मिलित हुए मुनियोंमें विद्यावयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजीने सूतजीकी पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥ 1 ॥
शौनकजी बोले- सूतजी ! आप वक्ताओंमें श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं, जो कथा भगवान् श्रीशुकदेवजीने कही थी, वही भगवान्की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥ 2 ॥वह कथा किस युगमें, किस स्थानपर और किस कारणसे हुई थी? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायनने किसकी प्रेरणासे इस परमहंसोंकी संहिताका निर्माण किया था ? ॥ 3 ॥ उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभावरहित, संसार निद्रासे जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मामें ही स्थिर रहते हैं। वे छिपे रहनेके कारण मूढ़ से प्रतीत होते हैं । 4 । व्यासजी जब संन्यासके लिये वनकी ओर जाते हुए अपने पुत्रका पीछा कर रहे थे, उस समय जलमें स्नान करनेवाली स्त्रियोंने नंगे शुकदेवको देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परंतु वस्त्र पहने हुए व्यासजीको देखकर लज्जासे कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्यको देखकर जब व्यासजीने उन स्त्रियोंसे इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टिमें तो अभी स्त्री-पुरुषका भेद बना हुआ है, परंतु आपके पुत्रको शुद्ध दृष्टिमें यह भेद नहीं है ॥ 5 ॥ कुरुजाङ्गल देशमें पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड़के समान विचरते होंगे। नगरवासियोंने उन्हें कैसे पहचाना ? ॥ 6 ॥ पाण्डवनन्दन राजर्षि परीक्षित्का इन मौनी शुकदेवजीके साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी ? ॥ 7 ॥ महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के घरोको तीर्थरूप बना देनेके लिये उतनी ही देर उनके दरवाजेपर रहते हैं, जितनी देरमें एक गाय दुही जाती है ॥ 8 ॥ सूतजी ! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित् भगवान्के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मोंका भी वर्णन कीजिये ॥ 9 ॥ वे तो पाण्डववंशके गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारणसे साम्राज्यलक्ष्मीका परित्याग करके गङ्गातटपर मृत्युपर्यन्त अनशनका व्रत लेकर बैठे थे ? ॥ 10 ॥ शत्रुगण अपने भलेके लिये बहुत सा धन लाकर उनके चरण रखनेकी चौकीको नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मीको, अपने प्राणोंके साथ भला, क्यों त्याग देनेकी इच्छा की ।। 11 जिन लोगोंका जीवन भगवान्के आश्रित है, वे तो संसारके परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धिके लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरोंके हितके लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया ।। 12 ।। वेदवाणीको छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् है। सूतजी इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हमें कहिये ।। 13 ।।सूतजीने कहा- इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापरमें महर्ष पराशरके द्वारा वसु-कन्या सत्यवतीके गर्भसे भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजीका जन्म हुआ ।। 14 ।। एक दिन वे सूर्योदयके समय सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए ये 15 ।। महर्षि भूत और भविष्यको जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेरसे प्रत्येक युगमें धर्मसङ्करता और उसके प्रभावसे भौतिक वस्तुओं की भी शक्तिका हास होता रहता है। संसारके लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्यका ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगोंकी इस भाग्यहीनताको देखकर उन मुनीश्वरने अपनी दिव्यदृष्टिसे समस्त वर्णों और आश्रमोंका हित कैसे हो, इसपर विचार किया 16-18 ।। उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुकर्म लोगोंका हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टिसे यशोका विस्तार करनेके लिये उन्होंने एक ही वेदके चार विभाग कर दिये ॥ 19 ॥ व्यासजीके द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व – इन चार वेदोंका उद्धार (पृथकरण) हुआ। इतिहास और पुराणोंको पाँचवाँ वेद कहा जाता है॥ 20 ॥ उनमेंसे ऋग्वेदके पैल, साम-गानके विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेदके एकमात्र स्नातक वैशम्पायन | हुए ॥ 21 ॥ अथर्ववेदमें प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि इतिहास और पुराणोके स्नातक मेरे रोमहर्षण थे 22 ॥ इन पूर्वोक्त ऋषियोंने अपनी-अपनी शाखाको और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्योंद्वारा वेदोंकी बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं ॥ 23 ॥ कम समझवाले पुरुषोंपर कृपा करके भगवान् वेदव्यासने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगोंको स्मरणशक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदोंको धारण कर सकें ॥ 24 ॥ .
स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति- तीनों ही वेद-श्रवणके अधिकारी नहीं है। इसलिये कल्याणकारी शास्त्रोक्त | कर्मकि आचरणमें भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजीने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहासकी रचना की ॥ 25 ॥शौनकादि ऋषियो ! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्तिसे सदा-सर्वदा प्राणियोंके कल्याणमें ही लगे रहे, तथापि उनके हृदयको सन्तोष नहीं हुआ ॥ 26 ॥ उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदीके पवित्र तटपर एकान्तमें बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे- ॥ 27 ॥ मैने निष्कपट भावसे ब्रह्मचर्यादि व्रतोंका पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्रियोंका सम्मान किया है और उनकी आज्ञाका पालन किया है । 28 ॥ महाभारतकी रचनाके बहाने मैंने वेदके अर्थको खोल दिया है— जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्मका ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ।। 29 ।। यद्यपि मैं ब्रह्मतेजसे सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है ॥ 30 ॥ अवश्य ही अबतक मैंने भगवान्को प्राप्त करानेवाले धर्मोका प्रायः | निरूपण नहीं किया है। वे हो धर्म परमहंसोंको प्रिय हैं और वे ही भगवान्को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णताका यही कारण है)’ ॥ 31 ॥ श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास इस प्रकार अपनेको अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रमपर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे ॥ 32 ॥ उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओंके द्वारा सम्मानित देवर्षि नारदकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ 33 ॥
अध्याय 5 भगवान् के यश-कीर्तनकी महिमा और देवर्षि नारदजी का चरित्र
सूतजी कहते हैं – तदनन्तर सुखपूर्वक बैठे हुए वीणापाणि परम यशस्वी देवर्षि नारदने मुसकराकर अपने पास ही बैठे ब्रह्मर्षि व्यासजीसे कहा ॥ 1 ॥
नारदजीने प्रश्न किया— महाभाग व्यासजी ! आपके शरीर एवं मन—दोनों ही अपने कर्म एवं चिन्तनसे सन्तुष्ट हैं न ? ॥ 2 ॥ अवश्य ही आपकी जिज्ञासा तो भलीभाँति पूर्ण हो गयी है; क्योंकि आपने जो यह | महाभारतकी रचना की है, वह बड़ी ही अद्भुत है। वह धर्मआदि सभी पुरुषार्थोंसे परिपूर्ण है ॥ 3 ॥ सनातन ब्रह्मतत्त्वको भी आपने खूब विचारा है और जान भी लिया है। फिर भी प्रभु आप अकृतार्थ पुरुषके समान अपने विषयमें शोक क्यों कर रहे हैं ? ।। 4 ।।
व्यासजीने कहा- आपने मेरे विषय जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है। वैसा होनेपर भी मेरा हृदय सन्तुष्ट नहीं है। पता नहीं, इसका क्या कारण है। आपका ज्ञान अगाध है। आप साक्षात् ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं। इसलिये मैं आपसे ही इसका कारण पूछता हूँ ॥ 5 ॥ नारदजी! आप समस्त गोपनीय रहस्योंको जानते हैं; क्योंकि आपने उन पुराणपुरुषकी उपासना की है, जो प्रकृति-पुरुष दोनोंके स्वामी हैं और असङ्ग रहते हुए ही अपने सङ्कल्पमात्रसे गुणों के द्वारा संसारको सृष्टि, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥ 6 ॥ आप सूर्यकी भाँति तीनों लोकोंमें भ्रमण करते रहते हैं और योगबलसे प्राणवायुके समान सबके भीतर रहकर अन्तःकरणोंके साक्षी भी है। योगानुष्ठान और नियमोंके द्वारा परब्रह्म और शब्दमा दोनोंकी पूर्ण प्राप्ति कर लेनेपर भी मुझमें जो बड़ी कमी है, उसे आप कृपा करके बतलाइये ॥ 7 ॥
नारदजीने कहा- व्यासजी आपने भगवान्के निर्मल यशका गान प्रायः नहीं किया। मेरी ऐसी मान्यता है कि जिससे भगवान् संतुष्ट नहीं होते, वह शास्त्र या ज्ञान अधूरा है॥ 8 ॥ आपने धर्म आदि पुरुषार्थीका जैसा निरूपण किया है, भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाका वैसा निरूपण नहीं किया ॥ 9 ॥ जिस वाणीसे― चाहे वह रस-भाव अलङ्कारादिसे युक्त ही क्यों न हो जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता, वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेकनेके स्थानके समान अपवित्र मानी जाती है। मानसरोवर के कमनीय कमलवनमें विहरनेवाले हंसोंकी भाँति ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त कभी उसमें रमण नहीं करते ।। 10 ।। इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान्के | सुयशसूचक नामोंसे युक्त है, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं ॥ 11 ॥वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि | भगवान्को भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो साधन और सिद्धि दोनों ही दशाओंमें सदा ही अमङ्गलरूप है, वह काम्य कर्म, और जो भगवान्को अर्पण नहीं किया गया है. ऐसा अहेतुक (निष्काम कर्म भी कैसे सुशोभित हो सकता है ।। 12 ।। महाभाग व्यासजी ! आपकी दृष्टि अमोघ है। आपकी कीर्ति पवित्र है। आप सत्यपरायण एवं दृढव्रत हैं। इसलिये अब आप सम्पूर्ण जीवोंको बन्धनसे मुक्त करनेके लिये समाधिके द्वारा अचिन्त्यशक्ति भगवान्की लीलाओंका स्मरण कीजिये ॥ 13 ॥ जो मनुष्य भगवान्की लीलाके अतिरिक्त और कुछ कहनेकी इच्छा करता है, वह उस इच्छासे ही निर्मित अनेक नाम और रूपोंके चक्करमे पड़ जाता है। उसकी बुद्धि भेदभावसे भर जाती है। जैसे हवा के झकोरोमाती हुई होगीको कहीं भी ठहरनेका ठौर नहीं मिलता, वैसे ही उसकी चञ्चल बुद्धि कहीं भी स्थिर नहीं हो पाती ॥ 14 ॥ संसारी लोग स्वभावसे ही विषयोंमें फँसे हुए हैं। धर्मके नामपर आपने उन्हें निन्दित (पशुहिंसायुक्त) सकाम कर्म करनेकी भी आज्ञा दे दी है। यह बहुत ही उलटी बात हुई; क्योंकि मूर्खलोग आपके वचनोंसे पूर्वोक्त निन्दित कर्मको ही धर्म मानकर- -‘यही मुख्य धर्म है’ ऐसा निश्चय करके उसका निषेध करनेवाले वचनोंको ठीक नहीं मानते ॥ 15 ॥ भगवान् अनन्त हैं। कोई विचारवान् ज्ञानी पुरुष ही संसारकी ओरसे निवृत्त होकर उनके स्वरूपभूत परमानन्दका अनुभव कर सकता है। अतः जो लोग पारमार्थिक बुद्धिसे रहित | हैं और गुणोंके द्वारा नचाये जा रहे हैं, उनके कल्याणके लिये ही आप भगवान्की लीलाओंका सर्वसाधारणके हितकी दृष्टिसे | वर्णन कीजिये ।। 16 ।। जो मनुष्य अपने धर्मका परित्याग करके भगवान्के चरण-कमलोंका भजन सेवन करता है—भजन परिपक्क हो जानेपर तो बात ही क्या है— यदि इससे पूर्व ही उसका भजन छूट जाय तो क्या कहीं भी उसका कोई अमङ्गल हो सकता है ? परन्तु जो भगवान्का भजन नहीं करते और केवल स्वधर्मका पालन करते हैं, उन्हें कौन-सा लाभ मिलता है ॥ 17 ॥ बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह उसी वस्तुकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करे, जो तिनकेसे लेकर ब्रह्मापर्यन्त समस्त ऊँची-नीची योनियोंमें कर्मोक फलस्वरूप आने-जानेपर भी स्वयं | प्राप्त नहीं होती। संसारके विषयसुख तो जैसे बिना चेष्टा के दु मिलते हैं वैसे ही, कर्मके फलरूपमें अचिन्त्यगति समयके फेरसे सबको सर्वत्र स्वभावसे ही मिल जाते है ।। 18 ।। व्यासजी ! जो भगवान् श्रीकृष्णणके चरणारविन्दका सेवक है वह भजन न करनेवाले कर्मी मनुष्योंके समान देवात् कभी बुरा भाव हो | जानेपर भी जन्म-मृत्युमय संसारमें नहीं आता। वह भगवान्केचरणकमलोके आलिङ्गनका स्मरण करके फिर उसे छोड़ना नहीं चाहता; उसे रसका चसका जो लग चुका है ।। 19 ।। जिनसे जगतकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं, वे भगवान् ही इस विश्वके रूपमें भी है। ऐसा होनेपर भी वे इससे विलक्षण है इस बातको आप स्वयं जानते हैं, तथापि मैने आपको संकेतमात्र कर दिया है ॥ 20 ॥ व्यासजी! आपकी दृष्टि अमोघ है; आप इस बातको जानिये कि आप पुरुषोत्तम भगवान्के कलावतार हैं। आपने अजन्मा होकर भी जगत्के कल्याणके लिये जन्म ग्रहण किया है। इसलिये आप विशेषरूपसे भगवान्की लीलाओंका कीर्तन कीजिये ।। 21 ।। विद्वानोंने इस बातका निरूपण किया है कि मनुष्यकी तपस्या, वेदाध्ययन, यज्ञानुष्ठान, स्वाध्याय, ज्ञान और दानका एकमात्र प्रयोजन यही हैं कि पुण्यकीर्ति श्रीकृष्णके गुणों और लीलाओंका वर्णन किया जाय ।। 22 ।। पिछले कल्पमें अपने पूर्वजीवन में वेदवादी ब्राह्मणोंकी एक दासीका लड़का था। वे योगी वर्षा ऋतुमें एक स्थानपर चातुर्मास्य कर रहे थे। बचपनमें ही मैं उनकी सेवामें नियुक्त कर दिया गया था ॥ 23 ॥ मैं यद्यपि बालक था, फिर भी किसी प्रकारकी चञ्चलता नहीं करता था, जितेन्द्रिय था, खेल-कूदसे दूर रहता था और | आज्ञानुसार उनकी सेवा करता था। मैं बोलता भी बहुत कम था। मेरे इस शील-स्वभावको देखकर समदर्शी मुनियोंने मुझ सेवकपर अत्यन्त अनुग्रह किया ।। 24 ।। | उनकी अनुमति प्राप्त करके बरतनोंमें लगा हुआ जूठन में एक बार खा लिया करता था। इससे मेरे सारे पाप धुल गये। इस प्रकार उनकी सेवा करते-करते मेरा हृदय शुद्ध हो गया और वे लोग जैसा भजन-पूजन करते थे, उसीमें मेरी भी रुचि हो गयी ॥ 25 ॥ प्यारे व्यासजी। उस सत्सङ्गमे उन लीलागानपरायण महात्माओंके अनुग्रहसे में प्रतिदिन श्रीकृष्णकी मनोहर कथाएँ सुना करता । श्रद्धापूर्वक एक-एक पद श्रवण करते-करते प्रियकीर्ति भगवानमें मेरी रुचि हो गयी ।। 26 ।।महामुने । जब भगवान्में मेरी रुचि हो गयी, तब उन मनोहरकीर्ति प्रभुमें मेरी बुद्धि भी निश्चल हो गयी। उस बुद्धिसे मैं इस सम्पूर्ण सत् और असत्-रूप जगत्को अपने परब्रह्मस्वरूप आत्मामें मायासे आत्मामें मायासे कल्पित देखने | लगा ॥ 27 ॥ इस प्रकार शरद और वर्षा इन दो ऋतुओंमें तीनों समय उन महात्मा मुनियोंने श्रीहरिके निर्मल यशका सङ्गीर्तन किया और मैं प्रेमसे प्रत्येक बात सुनता रहा। अन्य चित्तके रजोगुण और तमोगुणको नाश करनेवाली भक्तिका मेरे हृदयमें प्रादुर्भाव हो गया ॥ 28 ॥ मैं उनका बड़ा ही अनुरागी था, विनयी था उन लोगोकी सेवा मेरे पाप नष्ट हो चुके थे। मेरे हृदयमें श्रद्धा थी, इन्द्रियोंमें संयम था एवं शरीर, वाणी और मनसे मैं उनका आज्ञाकारी था ॥ 29 ॥ उन दीनवत्सल महात्माओंने जाते समय कृपा करके मुझे उस गुह्यतम ज्ञानका उपदेश किया, जिसका उपदेश स्वयं भगवान्ने अपने श्रीमुखसे किया है ॥ 30 ॥ उस उपदेशसे ही जगत्के निर्माता भगवान् श्रीकृष्णकी मायाके प्रभावको मैं जान सका, जिसके जान लेनेपर उनके परमपदकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 31 ॥
सत्यसंकल्प व्यासजी पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना ही संसारके तीनों तापकी एकमात्र ओषधि है, यह बात मैंने आपको बतला दी ॥ 32 ॥ प्राणियोंको जिस पदार्थके सेवनसे जो रोग हो जाता है, वही | पदार्थ चिकित्साविधिके अनुसार प्रयोग करनेपर क्या उस | रोगको दूर नहीं करता ? ।। 33 ।। इसी प्रकार यद्यपि सभी कर्म मनुष्योंको जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें डालनेवाले हैं, तथापि जब भगवानको समर्पित कर दिये जाते है, तब उनका कर्मपना ही नष्ट हो जाता है ।। 34 । इस लोकमें जो शास्त्रविहित कर्म भगवान्को प्रसन्नता के लिये किये जाते हैं. उन्हींसे पराभक्तियुक्त ज्ञानकी प्राप्ति होती है ।। 35 ।। उस भगवदर्भ काकि मार्ग भगवान्के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान् श्रीकृष्णके गुण और नामोका कीर्तन तथा स्मरण करते है ।। 36 । ‘प्रभो! आप भगवान् श्रीवासुदेवको नमस्कार है। हम आपका ध्यान करते । प्रद्युम्र, अनिरुद्ध और संकर्षणको भी नमस्कार है’ ॥ 37 ॥ इस प्रकार जो पुरुष चतुरूपी भगवमूर्तियों के नामद्वारा प्राकृत मूर्तिरहित अप्राकृत मन्त्रमूर्ति भगवान् यशपुरुषका । पूजन करता है, उसीका ज्ञान पूर्ण एवं यथार्थ है ।। 38 ।।ब्रह्मन् जब मैंने भगवान्की आज्ञाका इस प्रकार पालन किया, तब इस बातको जानकर भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आत्मज्ञान, ऐश्वर्य और अपनी भावरूपा प्रेमाभक्तिका दान किया ॥ 39 ॥ व्यासजी ! आपका ज्ञान पूर्ण है; आप | भगवान्की ही कीर्तिका — उनकी प्रेममयी लीलाका वर्णन कीजिये। उसीसे बड़े-बड़े ज्ञानियोंकी भी जिज्ञासा पूर्ण होती है। जो लोग दुःखोंके द्वारा बार-बार रौंदे जा रहे हैं, उनके दुःखकी | शान्ति इसीसे हो सकती है और कोई उपाय नहीं है ॥ 40 ॥
अध्याय 6 नारदजी के पूर्वचरित्रका शेष भाग
श्रीसूतजी कहते हैं— शौनकजी! देवर्षि नारदके जन्म और साधनाकी बात सुनकर सत्यवतीनन्दन भगवान् श्रीव्यासजीने उनसे फिर यह प्रश्न किया ॥ 1 ॥
श्रीव्यासजीने पूछा- नारदजी! जब आपको ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण चले गये, तब आपने क्या किया ? उस समय तो आपकी अवस्था बहुत छोटी थी ॥ 2 ॥ स्वायम्भुव ! आपकी शेष आयु किस प्रकार व्यतीत हुई और मृत्यु के समय आपने किस विधिसे अपने शरीरका परित्याग किया ? ॥ 3 ॥ देवर्षे ! काल तो सभी | वस्तुओंको नष्ट कर देता है, उसने आपकी इस पूर्वकल्प की स्मृतिका कैसे नाश नहीं किया ? ॥ 4 ॥
श्रीनारदजीने कहा- मुझे ज्ञानोपदेश करनेवाले महात्मागण जब चले गये, तब मैंने इस प्रकार अपना जीवन व्यतीत किया – यद्यपि उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी ॥ 5 ॥ मैं अपनी माँका इकलौता लड़का था। एक तो वह स्त्री थी, दूसरे मूड और तीसरे दासी थी। मुझे भी उसके सिवा और कोई सहारा नहीं था। उसने अपनेको मेरे स्नेहपाशसे जकड़ रखा था ॥ 6 ॥ वह मेरे योगक्षेमकी चिन्ता तो बहुत करती थी. परंतु पराधीन होने के कारण कुछ | कर नहीं पाती थी। जैसे कठपुतली नचानेवालेकी इच्छा के अनुसार ही नाचती है, वैसे ही यह सारा संसार ईश्वरके अधीन है ।। 7 ।।मै भी अपनी यति स्नेहबन्धनमें बंधकर उस ब्राह्मण बस्ती में ही रहा। मेरी अवस्था केवल पाँच वर्षकी थी: मुझे दिशा, देश और कालके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञान नहीं था ॥ 8 ॥ एक दिनकी बात है, मेरी माँ गौ दुहनेके लिये रातके समय घरसे बाहर निकली। रास्तेमें उसके पैरसे साँप छू गया, उसने उस बेचारीको डस लिया उस साँपका क्या दोष, | कालकी ऐसी ही प्रेरणा थी ।॥ 9 ॥ मैंने समझा, भक्तोका मङ्गल चाहनेवाले भगवान्का यह भी एक अनुग्रह ही है। इसके बाद मैं उत्तर दिशाकी ओर चल पड़ा ।। 10 ।।
उस ओर मार्गमें मुझे अनेकों धन-धान्यसे सम्पन्न देश, नगर, गाँव, अहीरोंकी चलती-फिरती बस्तियाँ, खाने, खेड़े, नदी और पर्वतोंके तटवर्ती पड़ाव, वाटिकाएँ, वन-उपवन और रंग-बिरंगी धातुओंसे युक्त विचित्र पर्वत दिखायी पड़े। कहीं-कहीं जंगली वृक्ष थे, जिनकी बड़ी-बड़ी शाखाएँ हाथियोने तोड़ डाली थीं। शीतल जलसे भरे हुए जलाशय थे, जिनमें देवताओंके काममें आनेवाले कमल थे; उनपर पक्षी तरह-तरहकी बोली बोल रहे थे और भरे मँडरा रहे थे। यह सब देखता हुआ मैं आगे बढ़ा। मैं अकेला ही था। इतना लम्बा मार्ग तै करनेपर मैंने एक घोर गहन जंगल देखा। उसमें नरकट, बाँस, सेंठा, कुश, कीचक आदि खड़े थे। उसको लम्बाई चौड़ाई भी बहुत थी और वह साँप, उल्लू, स्यार आदि भयंकर जीवोंका घर हो रहा था। देखनेमें बड़ा भयावना लगता था ॥ 11-14 ॥ चलते-चलते मेरा शरीर और इन्द्रियाँ शिथिल हो गयीं। मुझे बड़े जोरकी प्यास लगी, भूखा तो था ही। वहाँ एक नदी मिली। उसके कुण्डमें मैंने स्नान, जलपान और आचमन किया। इससे मेरी थकावट मिट गयी ॥ 15 उस विजन वनमें एक पीपलके नीचे आसन लगाकर मैं बैठ गया। उन महात्माओंसे जैसा मैंने सुना था, हृदयमें रहनेवाले परमात्माके उसी स्वरूपका मैं मन-ही-मन ध्यान करने लगा ॥ 16 ॥ भक्तिभावसे वशीकृत चित्तद्वारा भगवान्के चरणकमलोंका ध्यान करते ही भगवत्प्राप्तिको उत्कट लालसे मेरे नेत्रोंमें आँसू छलछला आये और हृदय धीरे-धीरे भगवान् प्रकट हो गये ॥ 17 ॥ व्यासजी। उस समय प्रेमभावके अत्यन्त उद्रेकसे मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा। हृदय अत्यन्त शान्त और शीतल हो गया। उस आनन्दकी बाढ़में मैं ऐसा डूब गया कि मुझे अपना और ध्येय वस्तुका तनिक भी भान न रहा ।। 18 ।। भगवान्का वह अनिर्वचनीय रूप समस्त कोका नाश करनेवाला और मनकेलिये अत्यन्त लुभावना था। सहसा उसे न देख मैं बहुत ही | विकल हो गया और अनमना-सा होकर आसनसे उठ खड़ा हुआ ।। 19 ।।
मैंने उस स्वरूपका दर्शन फिर करना चाहा; किन्तु मनको हृदयमें समाहित करके बार-बार दर्शनको चेष्टा करनेपर भी मैं उसे नहीं देख सका। मैं अतृप्तके समान आतुर हो उठा ॥ 20 ॥ इस प्रकार निर्जन वनमें मुझे प्रयत्न करते देख स्वयं भगवान्ने, जो वाणौके विषय नहीं है, बड़ी गंभीर और मधुर वाणीसे मेरे शोकको शान्त करते हुए-से कहा ॥ 21 ॥ ‘खेद है कि इस जन्ममे तुम मेरा दर्शन नहीं कर सकोगे। जिनकी वासनाएँ पूर्णतया शान्त नहीं हो गयीं हैं, उन अधकचरे योगियोंको मेरा दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है॥ 22 ॥ निष्पाप बालक! तुम्हारे हृदयमें मुझे प्राप्त करनेको लालसा जाग्रत् करनेके लिये ही मैंने एक बार तुम्हें अपने रूपकी झलक दिखायी है। मुझे प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षासे युक्त साधक धीरे-धीरे हृदयको सम्पूर्ण वासनाओंका भलीभाँति त्याग कर देता है ॥ 23 ॥ अल्पकालीन संतसेवासे ही तुम्हारी चित्तवृत्ति मुझमें स्थिर हो गयी है। अब तुम इस प्राकृतमलिन शरीरको छोड़कर मेरे पार्षद हो जाओगे॥ 24 ॥ मुझे प्राप्त करनेका तुम्हारा यह दृढ़ निश्चय कभी किसी प्रकार नहीं टूटेगा। समस्त सृष्टिका प्रलय हो जानेपर भी मेरी कृपासे तुम्हें मेरी स्मृति बनी रहेगी’ ॥ 25 ॥ आकाशके समान अव्यक्त सर्वशक्तिमान् महान् परमात्मा इतना कहकर चुप हो रहे। | उनकी इस कृपाका अनुभव करके मैंने उन श्रेष्ठोसे भी श्रेष्ठतर भगवान्को सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ 26 ॥ तभीसे मैं लज्जा संकोच छोड़कर भगवान् के अत्यन्त रहस्यमय और मङ्गलमय मधुर नामों और लीलाओंका कोर्तन और स्मरण करने लगा। स्पृहा और मद-मत्सर मेरे हृदयसे पहले ही निवृत्त हो चुके थे, अब मैं आनन्दसे कालकी प्रतीक्षा करता हुआ पृथ्वीपर विचरने लगा ॥ 27 ॥
व्यासजी इस प्रकार भगवानको कृपासे मेरा हृदय शुद्ध हो गया, आसक्ति मिट गयी और में श्रीकृष्ण हो गया। कुछ समय बाद, जैसे एकाएक बिजली कौंध जाती है, वैसे ही अपने समयपर मेरी मृत्यु आ गयी ॥ 28 ॥ मुझे शुद्ध भगवत्पार्षद शरीर प्राप्त होनेका अवसर आनेपर प्रारब्धकर्म समाप्त हो जानेके कारण पाञ्चभौतिक शरीर नष्ट हो गया ।। 29 ।। कल्पके अन्तमें जिस समय भगवान् नारायण एकार्णव (प्रलयकालीन समुद्र) के जलमे शयनकरते हैं, उस समय उनके हृदयमें शयन करनेकी इच्छासे इस सारी सृष्टिको समेटकर ब्रह्माजी जब प्रवेश करने लगे, तब उनके श्वासके साथ मैं भी उनके हृदयमें प्रवेश कर गया ।। 30 ।। एक सहस्र चतुर्युगी बीत जानेपर जब ब्रह्मा जगे और उन्होंने सृष्टि करनेकी इच्छा की, तब उनकी इन्द्रियोंसे मरीचि आदि ऋषियोंके साथ मैं भी प्रकट हो गया ।। 31 ।। तभीसे मैं भगवान्की कृपासे वैकुण्ठादिमें और तीनों लोकोंमें बाहर और भीतर बिना रोक-टोक विचरण किया करता हूँ। मेरे जीवनका व्रत भगवद्भजन | अखण्डरूपसे चलता रहता है ॥ 32 ॥ भगवान्की दी हुई इस स्वरब्रह्मसे * विभूषित वीणापर तान छेड़कर मैं उनकी लीलाओंका गान करता हुआ सारे संसारमें विचरता हूँ ॥ 33 ॥ जब मैं उनकी लीलाओंका गान करने लगता हूँ, तब वे प्रभु, जिनके चरणकमल समस्त तीर्थोंके उद्गमस्थान हैं और जिनका यशोगान मुझे बहुत ही प्रिय लगता है, बुलाये हुएकी भाँति तुरन्त मेरे हृदयमें आकर दर्शन दे देते हैं ॥ 34 ॥ जिन लोगोंका चित्त निरन्तर विषय-भोगोंकी कामनासे आतुर हो रहा है, उनके लिये भगवान्की लीलाओंका कीर्तन संसार सागरसे पार जानेका जहाज है, यह मेरा अपना अनुभव है ।। 35 ।। काम और लोभकी चोटसे बार-बार घायल हुआ हृदय श्रीकृष्णसेवासे जैसी प्रत्यक्ष शान्तिका अनुभव करता है, यम-नियम आदि योग मार्गोंसे वैसी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ 36 ॥ व्यासजी ! आप निष्पाप हैं। आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब अपने जन्म और साधनाका रहस्य तथा | आपकी आत्मतुष्टिका उपाय मैने बतला दिया ॥ 37 ॥
श्रीसूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो। देवर्षि नारदने व्यासजी से इस प्रकार कहकर जानेकी अनुमति ली और वीणा बजाते हुए स्वच्छन्द विचरण करनेके लिये वे चल पड़े ।। 38 ।। अहा। ये देवर्षि नारद धन्य है, क्योंकि ये शार्ङ्गपाणि भगवानकी कीर्तिको अपनी वीणापर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमन होते ही है, साथ-साथ इस त्रितापतात जगत्को भी आनन्दित करते रहते हैं ।। 39 ।।
अध्याय 7 अर्जुनके द्वारा अश्वत्थामाका मानमर्दन
श्रीशौनकजीने पूछा—-सूतजी! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यासभागवान्ने नारदजीका अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जानेपर उन्होंने क्या किया ? ॥ 1 ॥
श्रीसूतजीने कहा- ब्रह्मनदी सरस्वतीके पश्चिम तटपर शम्याप्रास नामका एक आश्रम है। वहाँ ऋषियोंके यज्ञ चलते ही रहते हैं॥ 2 ॥ वहीं व्यासजीका अपना | आश्रम है। उसके चारों ओर बेरका सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मनको समाहित किया ॥ 3 ॥ उन्होंने भक्तियोगके द्वारा अपने मनको पूर्णतया एका और निर्मल करके आदिपुरुष परमात्मा और उनके आश्रयसे रहनेवाली मायाको देखा ॥ 4 ॥ इसी मायासे मोहित होकर यह जीव तीनों गुणोंसे अतीत होनेपर भी अपनेको त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यताके कारण होनेवाले अनथको भोगता है ॥ 5 ॥ इन अनर्थोकी शान्तिका साक्षात् साधन है— केवल भगवान्का भक्तियोग परन्तु संसारके लोग है—केवल । इस बातको नहीं जानते। यही समझकर उन्होंने इस परमहंसोंकी संहिता श्रीमद्भागवतकी रचना की ॥ 6 ॥ इसके श्रवणमात्रसे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णके प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीवके शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं ।। 7 ।। उन्होंने इस भागवत-संहिताका निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्तिपरायण पुत्र श्रीशुकदेवजीको पढ़ाया ॥ 8 ॥
श्रीशौनकजीने पूछा— श्रीशुकदेवजी तो अत्यन्त निवृत्तिपरायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तुकी अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मामें ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थका अध्ययन किया ? ॥ 9 ॥
श्रीसूतजीने कहा- जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्याकी गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मामें ही रमण करनेवाले हैं, वे भी भगवान्की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान्के गुण ही ऐसे | मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते है ।। 10 ।।फिर श्रीशुकदेवजी तो भगवान्के भक्तोंके अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यासके पुत्र हैं। भगवान्के गुणने उनके हृदयको अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थका अध्ययन किया ॥ 11 ॥
शैौनकजी अब मैं राजा परीक्षित्के जन्म, कर्म और मोक्षकी तथा पाण्डवोंके स्वर्गारोहणकी कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हींसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनेकों कथाओंका उदय होता है ॥ 12 ॥ जिस समय महाभारत युद्धमें कौरव और पाण्डव दोनों पक्षोंके बहुत से वीर वीरगतिको प्राप्त हो चुके थे और भीमसेनकी गदाके प्रहारसे दुर्योधनकी जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामाने अपने स्वामी दुर्योधनका प्रिय कार्य समझकर द्रौपदीके सोते हुए पुत्रोंके सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधनको भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्मको सभी निन्दा करते हैं ।। 13-14 ॥ उन बालकोंकी माता द्रौपदी अपने पुत्रोंका निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। उसकी आँखोंमें आँसू छलछला आये- वह रोने लगी। अर्जुनने उसे सान्त्वना देते हुए कहा ।। 15 ।। ‘कल्याणि ! मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूंगा, जब उस आततायी * ब्राह्मणाधमका सिर गाण्डीव धनुष के बागोंसे काटकर तुम्हें भेंट करूंगा और पुत्रोको अन्त्येष्टि क्रियाके बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान करोगी’ ॥ 16 ॥ अर्जुनने इन मीठी और विचित्र बातोंसे द्रौपदीको सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्णकी सलाहसे उन्हें सारथि बनाकर कवच धारणकर और अपने भयानक गाण्डीव धनुषको | लेकर वे रथपर सवार हुए तथा गुरुपुत्र अश्वत्थामाके पीछे दौड़ पड़े ॥ 17 ॥ बच्चोंकी हत्यासे अश्वत्थामाका भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूरसे ही | देखा कि अर्जुन मेरी ओर झपटे हुए आ रहे हैं,तब वह अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये पृथ्वीपर जहाँतक भाग सकता था, रुद्रसे भयभीत सूर्यकी भाँति भागता रहा ।। 18 ।। जब उसने देखा कि मेरे रथके घोड़े थक गये हैं। और मैं बिलकुल अकेला है, तब उसने अपने को बचानेका एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ 19 ॥ यद्यपि उसे ब्रह्मास्त्रको लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राणसङ्कट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया ॥ 20 ॥ उस अबसे सब दिशाओंमें एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुनने देखा कि अब तो मेरे प्राणोंपर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की ।। 21 ।।
अर्जुनने कहा – श्रीकृष्ण ! तुम सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तोको अभय देनेवाले हो जो संसारकी कती हुई आग जल रहे हैं, उन जीवोंको उससे उबारनेवाले एकमात्र तुम्हीं हो ॥ 22 ॥ तुम प्रकृतिसे परे रहनेवाले आदिपुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्-शक्ति (स्वरूप शक्ति) से बहिरङ्ग एवं त्रिगुणमयी मायाको दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरूपमें स्थित हो ।। 23 ।। वही तुम अपने प्रभावसे माया मोहित जीवोंके लिये धर्मादिरूप कल्याणका विधान करते हो ।। 24 ।। तुम्हारा यह अवतार पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनोंके निरन्तर स्मरण ध्यान करनेके लिये | है ।। 25 ।। स्वयम्प्रकाशस्वरूप श्रीकृष्ण ! यह भयङ्कर तेज सब ओरसे मेरी ओर आ रहा है। यह क्या है, कहाँसे, क्यों आ रहा है-इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है ! ॥ 26 ॥
भगवान्ने कहा- अर्जुन ! यह अश्वत्थामाका चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राणसङ्कट उपस्थित होनेसे उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्रको लौटना नहीं जानता ॥ 27 ॥ किसी भी दूसरे अमे इसको दवा देनेकी शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्याको भलीभाँति जानते ही हो, ब्रह्मस्वके तेजसे ही इस ब्रह्मास्त्रकी प्रचण्ड आगको बुझा दो ॥ 28 ॥
सूतजी कहते हैं-अर्जुन विपक्षी वीरो को मारनेमें बड़े प्रवीण थे। भगवान्की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवानकी परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्रके निवारण के लिये ब्रह्मास्त्रका ही सन्धान किया ।। 29 ।।बाणोंसे वेष्टित उन दोनों ब्रह्मा तेज कालीन सूर्य एवं अग्रिके समान आपसमें टकराकर सारे आकाश और दिशाओंमें फैल गये और बढ़ने लगे ॥ 30 ॥ तीनों लोकोंको जानेवाली उन दोनों की बड़ी हुई लपटोंसे प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकालकी सांवर्तक अनि है ॥ 31 ॥ उस आगसे प्रजाका और लोकोंका नाश होते देखकर भगवान्की अनुमतिसे अर्जुनने उन दोनोंको ही लौटा लिया ।। 32 ।। अर्जुनको आँखें क्रोधसे लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामाको पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सीसे पशुको बाँध ले, वैसे ही बांध लिया ॥ 33 ॥ अामाको बलपूर्वक बांधकर अर्जुनने जब शिविरकी ओर | ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने कुपित होकर कहा- ।। 34 ।। ‘अर्जुन ! इस ब्राह्मणाधमको छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रातमे सोये हुए निरपराध बालकोंकी हत्या की है ॥ 35 ॥ धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य,
शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रुको | कभी नहीं मारते 36 ॥ परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष | दूसरोंको मारकर अपने प्राणोंका पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदतको लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पापोंके कारण नरकगामी होता है ।। 37 ।। फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदीसे प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती जिसने तुम्हारे पुत्रोंका वध किया है, उसका सिर में उतार लाऊंगा’ ॥ 38 ॥ | इस पापी कुलाङ्गार आततायीने तुम्हारे पुत्रोंका वध किया है। और अपने स्वामी दुर्योधनको भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन! इसे मार ही डालो ।। 39 ।। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनके धर्मको परीक्षा लेनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की. परन्तु अर्जुनका हृदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामाने उनके पुत्रोंकी हत्या की थी, फिर भी अर्जुनके मनमे गुरुपुत्रको मारनेकी इच्छा नहीं हुई ।। 40 ।। इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्णके साथ वे अपने बुद्ध-शिविरमे पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रोंके लिय शोक करती हुई द्रौपदीको उसे सौप दिया ।। 49 ।द्रौपदी ने देखा कि अश्वत्थामा पशुकी तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करनेके कारण उसका मुख नीचेकी ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करनेवाले गुरुपुत्र अश्वत्थामाको इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदीका कोमल हृदय कृपासे भर आया और उसने अश्वत्थामाको नमस्कार किया ।। 42 ।। गुरुपुत्रका इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदीको सहन नहीं हुआ। उसने कहा- ‘छोड़ दो इन्हें छोड़ दो। ये ब्राह्मण है, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय है।। 43 ।। जिनकी कृपासे आपने रहस्यके साथ सारे धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहारके साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्रके रूपमे आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धाङ्गिनी | कृपी अपने वीर पुत्रकी ममतासे ही अपने पतिका अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं ।। 44-45 ।। महाभाग्यवान् आर्यपुत्र! आप तो बड़े धर्मज्ञ है। जिस गुरुवंशकी नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये, उसीको व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है ।। 46 ।। जैसे अपने बच्चोंके मर जानेसे मैं दुःखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखासे बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता पतिव्रता गौतमी न रोयें ।। 47 ।। जो उल राजा अपने कुकृत्यों ब्राह्मणकुलको कुपित कर देते है, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओको सपरिवार शोकाि | डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’ ॥ 48 ॥
सूतजीने कहा- शौनकादि ऋषियों द्रौपदीकी बात धर्म और न्यायके अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिरने रानीके इन हितभरे श्रेष्ठ वचनोंका अभिनन्दन किया ।। 49 ।। साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और वहाँपर उपस्थित सभी नर-नारियोंने द्रौपदीकी बातका | समर्थन किया ॥ 50 ॥ उस समय क्रोधित होकर भीमसेनने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चोंको न अपने लिये और न अपने स्वामीके लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’ ।। 51 ।। भगवान् श्रीकृष्णने द्रौपदी और भीमसेनकी बात सुनकर और अर्जुनकी ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा ।। 52 ।।
भगवान् श्रीकृष्ण बोले- ‘पतित ब्राह्मणका भी वध नहीं करना चाहिये और आततायीको मार ही डालना चाहिये शास्त्रोंमें मैंने ही ये दोनों बातें कही है। इसलिये मेरी दोनों आज्ञाओका पालन करो ।। 53 ।।तुमने द्रौपदीको सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ।। 54 ।
सूतजी कहते हैं – अर्जुन भगवान्के हृदयकी बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवारसे अश्वत्थामाके सिरकी मणि उसके बालोंके साथ उतार ली 55 ॥ बालकोंकी हत्या करनेसे वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेजसे भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने | रस्सीका बन्धन खोलकर उसे शिविरसे निकाल दिया ॥ 56 ॥ मूँड देना, धन छीन लेना और स्थानसे बाहर निकाल देना | यही ब्राह्मणाधमोंका वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक | वधका विधान नहीं है ॥ 57 ॥ पुत्रोंकी मृत्युसे द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई बन्धुओंकी दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की ।। 58 ।।
अध्याय 8 गर्भ में परीक्षित्की रक्षा, कुन्तीके द्वारा भगवान की स्तुति
सूतजी कहते हैं- इसके बाद पाण्डव श्रीकृष्णके साथ जलाञ्जलिके इच्छुक मरे हुए स्वजनोंका तर्पण करनेके लिये स्त्रियोंको आगे करके गङ्गातटपर गये ।। 1 ।। वहाँ उन सबने मृत बन्धुओंको जलदान दिया और उनके गुणोंका स्मरण करके बहुत | विलाप किया। तदनन्तर भगवान्के चरण-कमलोंकी धूलिसे पवित्र गङ्गाजलमें पुनः स्नान किया ॥ 2 ॥ वहां अपने भाइयोंके साथ कुरुपति महाराज युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, पुत्रशोकसे व्याकुल गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी – सब बैठकर मरे हुए स्वजनोंके लिये शोक करने लगे। भगवान् श्रीकृष्णने धौम्यादि मुनियोंके साथ उनको सान्त्वना दी और समझाया कि संसारके सभी प्राणी कालके अधीन हैं, मौतसे किसीको कोई बचा नहीं सकता ॥ 3-4
इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णने अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरको उनका वह राज्य, जो धूर्तनि छलसे छीन लिया था, वापस दिलाया तथा द्रौपदीके केशोंका स्पर्श करनेसे जिनकी आयु क्षीण हो गयी थी, उन दुष्ट राजाओंका वध कराया ॥ 5 ॥साथ ही युधिष्ठिरके द्वारा उत्तम सामग्रियोंसे तथा पुरोहितोंसे तीन अश्वमेध यज्ञ कराये। इस प्रकार युधिष्ठिरके पवित्र यशको सौ यज्ञ करनेवाले इन्द्रके यशकी तरह सब ओर फैला दिया ॥ 6 ॥ |इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने वहाँसे जानेका विचार किया. । | उन्होंने इसके लिये पाण्डवोंसे विदा ली और व्यास आदि ब्राह्मणोंका सत्कार किया। उन लोगोंने भी भगवान्का बड़ा ही सम्मान किया। तदनन्तर सात्यकि और उद्धवके साथ द्वारका जानेके लिये वे रथपर सवार हुए। उसी समय उन्होंने देखा कि उत्तरा भयसे विह्वल होकर सामनेसे दौड़ी चली आ रही है ।। 7-8 ।।
उत्तराने कहा- देवाधिदेव ! जगदीश्वर ! आप | महायोगी हैं। आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपके अतिरिक्त इस लोक में मुझे अभय देनेवाला और कोई नहीं है; | क्योंकि यहाँ सभी परस्पर एक-दूसरेकी मृत्युके निमित्त बन रहे हैं ॥ 9 ॥ प्रभो ! आप सर्व-शक्तिमान् हैं। यह दहकते हुए लोहेका बाण मेरी ओर दौड़ा आ रहा है। स्वामिन्! यह मुझे भले ही जला डाले, परन्तु मेरे गर्भको नष्ट न करे – ऐसी कृपा कीजिये ॥ 10 ॥
सूतजी कहते हैं- भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण उसकी बात सुनते ही जान गये कि अश्वत्थामाने पाण्डवोंके वंशको निर्बीज करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया है ॥ 11 ॥ शौनकजी! उसी समय पाण्डवोंने भी देखा कि जलते हुए पाँच बाण हमारी ओर आ रहे हैं। इसलिये उन्होंने भी अपने-अपने अस्त्र उठा लिये ॥ 12 ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णने अपने अनन्य प्रेमियोंपर – शरणागत भक्तोंपर बहुत बड़ी विपत्ति आयी जानकर अपने निज अस्त्र सुदर्शन चक्रसे उन निज जनोंकी रक्षा की ॥ 13 ॥ योगेश्वर श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके हृदयमें विराजमान आत्मा हैं। उन्होंने उत्तराके गर्भको पाण्डवोंकी वंश-परम्परा चलानेके लिये अपनी मायाके कवचसे ढक दिया || 14 || शौनकजी ! यद्यपि ब्रह्मास्त्र अमोघ है और उसके | निवारणका कोई उपाय भी नहीं है, फिर भी भगवान् श्रीकृष्णके तेजके सामने आकर वह शान्त हो गया ।। 15 ॥ यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं समझनी चाहिये; क्योंकि भगवान् तो सर्वाश्चर्यमय हैं, वे ही अपनी निज शक्ति मायासे स्वयं अजन्मा होकर भी इस संसारकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ 16 ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण जाने लगे, तब ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे मुक्त अपने पुत्रोंके और द्रौपदीके साथ सती कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की ॥ 17 ॥कुन्तीने कहा- आप समस्त जीवो के बाहर और भीतर एकरस स्थित है, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियोंसे देखे नहीं जाते: क्योंकि आप प्रकृतिसे परे आदिपुरुष परमेश्वर है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ 18 ॥ इन्द्रियोंसे जो कुछ जाना जाता है | उसकी तहमें आप विद्यमान रहते हैं और अपनी ही मायाके परदेसे अपनेको ढके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तमको भला, कैसे जान सकती हूँ ? जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नटको प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दीखते हुए भी नहीं दीखते ॥ 19 ॥ आप शुद्ध हृदयवाले विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसों के हृदयमें अपनी प्रेममयी भक्तिका सृजन करनेके लिये अवतीर्ण हुए हैं। फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं ॥ 20 ॥ आप श्रीकृष्ण वासुदेव देवकीनन्दन, नन्द गोपके लाड़ले स्थल गोविन्दको हमारा बारंबार प्रणाम है॥ 21 ॥ जिनकी नाभिसे | ब्रह्माका जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलोंकी माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमलके समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरण-कमलोंमें कमलका चिह्न है— श्रीकृष्ण ऐसे आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ॥ 22 ॥ हृषीकेश ! जैसे आपने दुष्ट कंसके द्वारा कैद की हुई और चिरकालसे शोकग्रस्त देवकीकी रक्षा की थी, वैसे ही पुत्रोंके साथ मेरी भी आपने बार-बार विपत्तियोंसे रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी है। आप सर्वशक्तिमान् हैं। श्रीकृष्ण कहाँक गिना विपरो, लाक्षागृहकी भयानक आगसे, हिडिम्य आदि राक्षसोंकी दृष्टिसे, दुष्टोंकी द्यूत-सभासे, वनवासकी विपत्तियोंसे और अनेक बारके युद्धोंमें अनेक महारथियोंके शस्त्रास्त्रोंसे और अभी-अभी इस अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे भी आपने ही हमारी रक्षा की है ॥ 23-24 ॥ जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियां आती रहें; क्योंकि विपत्तियोंमें ही | निश्चितरूपसे आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जानेपर फिर जन्म-मृत्युके चकरमें नहीं आना पड़ता 25 ॥ ऊँचे कुलमें जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्तिके कारण जिसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगोंको दर्शन देते हैं, जो अकिंचन हैं ।। 26 ।। आप निर्धनों के परम धन हैं। मायाका प्रपञ्च आपका स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप अपने आपमें ही विहार करनेवाले, परम शान्तस्वरूप है। आप ही कैवल्य मोक्षके अधिपति हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ 27 ॥ मैं आपको अनादि, अनन्त, सर्वव्यापक, सबके नियन्तकालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसारके समस्त पदार्थ और प्राणी आपसमें टकराकर विषमताके कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परंतु आप सबमें समानरूपसे विचर रहे हैं ॥ 28 ॥ भगवन् ! आप जब मनुष्योंकी-सी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं. कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न प्रिय है और न अप्रिय । आपके सम्बन्ध में लोगोंकी बुद्धि ही विषम हुआ करती है ।। 29 ।। आप विश्वके आत्मा है, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर आदिमें आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है ॥ 30 ॥ जब बचपनमें आपने दूधकी मटकी फोड़कर यशोदा मैयाको सिझा दिया था और उन्होंने आपको बाँधनेके लिये हाथमें रस्मी ली थी, तब आपकी आँखों आँसू छलक आये थे, काजल कपोलोंपर बह चला था, नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भयको भावनासे आपने अपने मुखको नीचे की ओर झुका लिया था। आपकी उस दशाका – लीला छबिका ध्यान करके मैं मोहित हो जाती है। भला, जिससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा ! 31 ॥ आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचलकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये उसमें चन्दन प्रकट होता है, वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदुकी कीर्तिका विस्तार करनेके लिये ही आपने उनके वंशमें अवतार ग्रहण किया है ॥ 32 ॥ दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकीने पूर्वजन्ममें (सुतपा और पृश्निके रूपमें) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था, इसीलिये आप अजन्मा होते हुए भी जगत्के कल्याण और दैत्योंके नाशके लिये उनके पुत्र बने हैं 33 कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्योंकि अत्यन्त भारसे समुद्रमें डूबते हुए जहाजकी तरह डगमगा रही थी— पीड़ित हो रही थी, तब ब्रह्माकी प्रार्थनासे उसका भार उतारनेके लिये ही आप प्रकट हुए ।। 34 ।। कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसारमें अज्ञान, कामना और कर्मोंकि बन्धनमें जकड़े हुए पीड़ित हो रहे है, उन लोगों के लिये श्रवण और स्मरण करनेयोग्य लीला करनेके विचारसे ही आपने अवतार ग्रहण किया है ।। 35 ।। भक्तजन बार-बार आपके चरित्रका श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं; वे ही अविलम्ब आपके उस चरणकमलका दर्शन कर पाते हैं, जो जन्म-मृत्युके प्रवाहको सदा के लिये रोक देता है ।। 36 ।। भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं? आप जानते हैं कि आपके चरणकमलोंके अतिरिक्त हमें और किसीका सहारा नहींहै। पृथ्वीके राजाओंके तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं॥ 37 ॥ जैसे जीवके बिना इन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती है, वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियोंके और हमारे पुत्र पाण्डवोंके नाम तथा रूपका | अस्तित्व ही क्या रह जाता है ॥ 38 ॥ गदाधर ! आपके विलक्षण चरणचिह्नोंसे चिह्नित यह कुरुजाङ्गल-देशकी भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जानेके बाद न रहेगी ।। 39 ।। आपकी दृष्टिके प्रभावसे ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता वृक्षोंसे समृद्ध हो रहा है। ये वन, पर्वत, नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टिसे ही वृद्धिको प्राप्त हो रहे हैं ॥ 40 ॥ आप विश्वके स्वामी हैं, विश्वके आत्मा हैं और विश्वरूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवोंमें मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनोंके साथ जोड़े हुए इस स्नेहकी दृढ़ फाँसीको काट दीजिये ॥ 41 ॥ श्रीकृष्ण ! जैसे गङ्गाकी अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही निरन्तर प्रेम करती रहे ।। 42 ॥ श्रीकृष्ण ! अर्जुनके प्यारे सखा यदुवंशशिरोमणे आप पृथ्वीके भाररूप राजवेशधारीको जलानेके लिये अग्निस्वरूप है। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द ! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओंका दुःख मिटानेके लिये ही है। योगेश्वर! चराचरके गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ 43
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कुन्तीने बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्की अधिकांश लीलाओंका वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण अपनी मायासे उसे मोहित करते हुए-से मन्द मन्द मुसकराने लगे ।। 44 ।। उन्होंने कुन्तीसे कह दिया- ‘अच्छा ठीक है’ और रथके स्थानसे वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियोंसे विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे उन्हें रोक लिया ।। 45 ।। राजा युधिष्ठिरको अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेका बड़ा शोक हो रहा था। भगवान्की लीलाका मर्म जाननेवाले व्यास आदि महर्षियोंने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझानेकी बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ।। 46 ।। शौनकादि ऋषियो। धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरको अपने स्वजनोंके वधसे बड़ी चिन्ता हुई। ये अविवेकयुक्त चित्तसे खेह और मोहके वश होकर कहने लगे- भला, मुझ दुरात्माके हृदयमें बद्धमूल हुए इस अज्ञानको तो देखो; मैंने सियार कुत्तोंके आहार इस अनात्मा शरीरके लिये अनेक अक्षौहिणी सेनाका नाश कर डाला ।। 47-48मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा-ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनोंसे द्रोह किया है। करोड़ों बरसोंसे भी नरकसे मेरा छुटकारा नहीं हो सकता ।। 49 ।। यद्यपि शास्त्रका वचन है कि | राजा यदि प्रजाका पालन करनेके लिये धर्मयुद्धमें शत्रुओंको मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ॥ 50 ॥ स्त्रियोंके पति और भाई-बन्धुओंको मारनेसे उनका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है। उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकोंके द्वारा मार्जन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥ 51 ॥ जैसे कीचड़से गेंदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरासे मदिराकी अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही बहुत-से हिंसाबहुल यज्ञोंके द्वारा एक भी प्राणीकी हत्याका प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता ॥ 52 ॥
अध्याय 9 युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना
सूतजी कहते हैं – इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोहसे हुए भयभीत हो गये। फिर सब धर्मोका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने कुरुक्षेत्रकी यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्यापर पड़े हुए थे ॥ 1 ॥ शौनकादि ऋषियो ! उस समय उन सब भाइयोंने स्वर्णजटित रथोंपर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिरका अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ॥ 2 ॥ शौनकजी ! अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण भी रथपर चढ़कर चले। उन सब भाइयोंके साथ महाराज युधिष्ठिरकी ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षोंसे घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ।। 3 ॥ अपने अनुचरों और भगवान् श्रीकृष्णके साथ वहाँ जाकर पाण्डवोंने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्गसे गिरे हुए देवताके समान पृथ्वीपर पड़े हुए हैं। उन लोगोंने उन्हें प्रणाम किया || 4 || शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियोंके गौरवरूप भीष्मपितामहको देखनेके लिये सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ॥ 5 ॥ पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान् व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्योंके साथ परशुरामजी,वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान् गौतम, अत्रि विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्यों के सहित कश्यप, अङ्गिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ॥ 6-8 ॥ भीष्मपितामह धर्मको और देश-कालके विभागको–कहाँ | किस समय क्या करना चाहिये, इस बातको जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियोंको सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ 9 ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णका प्रभाव भी जानते थे। अतः उन्होंने अपनी लीलासे मनुष्यका वेष धारण करके यहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वरके रूपमें हृदयमें विराजमान भगवान् श्रीकृष्णकी बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ।। 10 ।।
पाण्डव बड़े विनय और प्रेमके साथ भीष्मपितामहके पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्मपितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा- ॥ 11 ॥ ‘धर्मपुत्रो ! हाय! हाय! यह बड़े कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको ब्राह्मण, धर्म और भगवान्के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ 12 ॥ अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगोंके लिये कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट | झेलने पड़े ॥ 13 ॥ जिस प्रकार बादल वायुके वशमें रहते हैं, वैसे ही लोकपालोंके सहित सारा संसार कालभगवान्के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगोंके जीवनमें ये जो अप्रिय घटनाएं घटित हुई है, वे सब उन्होंकी लीला हैं ।। 14 ।। नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, | गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षाका काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हो—भला, वहाँ भी विपत्तिकी सम्भावना है ? 15 ये कालरूप श्रीकृष्ण कल क्या करना चाहते हैं, इस बातको कभी कोई नहीं जानता। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इसे जानने की इच्छा करके मोहित हो जाते हैं ।। 16 ।। युधिष्ठिर । संसारकी वे सब घटनाएँ ईश्वरेच्छाके अधीन है। उसीका अनुसरण करके तुम इस अनाथ प्रजाका पालन करो; क्योंकि अब तुम्हीं इसके स्वामी और इसे पालन करनेमें समर्थ हो 17 ॥ ये श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान् है। ये सबके आदि कारण और परम पुरुष नारायण हैं। अपनी मायासे लोगोंको मोहित करते हुए ये यदुवंशियोंमें छिपकर लीला कर रहे हैं।। 18 ।।इनका प्रभाव अत्यन्त गूढ़ एवं रहस्यमय है। युधिष्ठिर । उसे भगवान् शङ्कर, देव नारद और स्वयं भगवान कपिल ही जानते हैं ।। 19 । जिन्हें तुम अपना ममेरा भाई, प्रिय मित्र और सबसे बड़ा हि मानते हो तथा तुमने प्रेमव अपना मन्त्री, दूत और सारथितक बनाने में संकोच नहीं किया है, वे स्वयं परमात्मा है॥ 20 ॥ इन सर्वात्मा, समदर्शी, अद्वितीय, अहसहित और पत्न ऊँचे-नीचे कार्यक कारण कभी किसी प्रकार की विपमता नहीं होती ॥ 21 ॥ युधिष्ठिर। इस प्रकार सर्वत्र सम होनेपर भी, देखो तो सही, वे अपने अनन्यप्रेमी भक्तोंपर कितनी कृपा करते हैं। यही कारण है कि ऐसे समय जबकि मैं अपने प्राणों का त्याग करने जा रहा हूँ इन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे साक्षात् दर्शन दिया है ।। 22 ।। भगवत्परायण योगी पुरुष भक्तिभावसे इनमें अपना मन लगाकर और वाणीसे इनके नामका कीर्तन करते हुए शरीरका त्याग करते हैं और कामनाओंसे तथा कर्मके बन्धनसे छूट जाते हैं ॥ 23 ॥ ये ही देवदेव भगवान् अपने प्रसन्न हास्य और रक्तकमलके समान अरुण नेत्रोंसे उल्लसित मुखवाले चतुर्भुजरूपसे, जिसका और लोगोंको केवल ध्यानमें दर्शन होता है, तबतक यहीं स्थित रहकर प्रतीक्षा करें, जबतक में इस शरीरका त्याग न कर दूँ ।। 24 ।।
सूतजी कहते हैं- युधिष्ठिरने उनकी यह बात सुनकर शर-शय्यापर सोये हुए भीष्मपितामहसे बहुत से ऋषियोंके सामने ही नाना प्रकारके धर्मकि सम्बन्धमें अनेकों रहस्य पूछे ।। 25 ।। तब तत्त्ववेत्ता भीष्मपितामहने वर्ण और आश्रमके अनुसार पुरुषके स्वाभाविक धर्म और | वैराग्य तथा रागके कारण विभिन्नरूपसे बतलाये हुए निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप द्विविध धर्म, दानधर्म, राजधर्म, मोक्षधर्म, स्त्रीधर्म और भगवद्धर्मइन सबका अलग अलग संक्षेप और विस्तारसे वर्णन किया। शौनकजी । इनके साथ ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थका तथा इनकी प्राप्तिके साधनोंका अनेकों उपाख्यान और इतिहास सुनाते हुए विभागशः वर्णन किया ।। 26-28 ॥ भीष्मपितामह इस प्रकार धर्मका प्रवचन कर ही रहे थे कि वह उत्तरायणका समय आ पहुंचा, जिसे मृत्युको अपने अधीन रखनेवाले भगवत्परायण योगीलोग चाहा करते हैं ॥ 29 ॥उस समय हजारों रथियोंके नेता भीष्मपितामहने वाणीका संयम करके मनको सब ओरसे हटाकर अपने सामने | स्थित आदिपुरुष भगवान् श्रीकृष्णमें लगा दिया। भगवान् श्रीकृष्ण के सुन्दर चतुर्भुज विग्रहपर उस समय पीताम्बर फहरा रहा था भीष्मजीकी आँखें उसीपर एकटक लग गयीं ॥ 30 ॥ उनको शस्त्रोंकी चोटसे जो पीड़ा हो रही थी, | वह तो भगवान् के दर्शनमात्रसे ही तुरंत दूर हो गयी तथा भगवान्की विशुद्ध धारणासे उनके जो कुछ अशुभ शेष थे, वे सभी नष्ट हो गये। अब शरीर छोड़नेके समय उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियोंके वृत्ति-विलासको रोक दिया और | बड़े प्रेमसे भगवान्की स्तुति की ।। 31 ।।
भीष्मजी ने कहा- अब मृत्युके समय मैं अपनी यह बुद्धि, जो अनेक प्रकारके साधनोंका अनुष्ठान करनेसे अत्यन्त शुद्ध एवं कामनारहित हो गयी है, यदुवंश-शिरोमणि अनन्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें समर्पित करता हूँ, जो सदा-सर्वदा अपने आनन्दमय स्वरूपमें स्थित रहते हुए ही कभी बिहार करनेकी लीला करने की इच्छासे प्रकृतिको स्वीकार कर लेते हैं, जिससे यह सृष्टि परम्परा चलती है ॥ 32 ॥ जिनका शरीर त्रिभुवन सुन्दर एवं श्याम तमालके समान साँवला है, जिसपर सूर्य-रश्मियोंके समान श्रेष्ठ पीताम्बर लहराता रहता है और कमल-सदृश मुखपर घुँघराली अलकें लटकती रहती हैं, उन अर्जुन ससा श्रीकृष्णमें मेरी निष्कपट प्रीति हो । 33 ॥ मुझे युद्धके समयकी उनकी वह विलक्षण छवि याद आती है। उनके मुखपर लहराते हुए घुंघराले बाल घोड़ोंकी टापको धूलसे मटमैले हो गये थे और पसीनेकी छोटी-छोटी बूँदें शोभायमान हो रही थीं। मैं अपने तीखे बाणोंसे उनकी त्वचाको बींध रहा था। उन सुन्दर कवचमण्डित भगवान् श्रीकृष्णके प्रति मेरा शरीर, अन्तःकरण और आत्मा समर्पित हो जाये ।। 34 ।। अपने मित्र अर्जुनकी बात सुनकर, जो तुरंत ही पाण्डव सेना और कौरव सेना के बीचमें अपना रथ से आये और वहाँ स्थित होकर जिन्होंने अपनी दृष्टिसे ही शत्रुपक्षके सैनिकोंकी आयु छीन ली, उन पार्थसला भगवान् श्रीकृष्ण में मेरी परम प्रीति हो । 35 ॥ अर्जुनने जब दूरसे कौरवोंकी सेनाके मुखिया हमलोगोको देखा, तब पाप | समझकर वह अपने स्वजनोंके वधसे विमुख हो गया। उस समय जिन्होंने गीताके रूपमें आत्मविद्याका उपदेश करके उसके सामयिक अज्ञानका नाश कर दिया, उन परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमे मेरी प्रीति बनी रहे ।। 36 ।।मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं श्रीकृष्णको शस्त्र ग्रहण कराकर छोड़ेगा, उसे सत्य एवं ऊँची करनेके लिये उन्होंने अपनी शस्त्र ग्रहण न करनेकी प्रतिज्ञा तोड़ दी। उस समय वे रथसे नीचे कूद पड़े और सिंह जैसे हाथीको मारनेके लिये उसपर टूट पड़ता है, वैसे ही रथका पहिया लेकर मुझपर झपट पड़े। उस समय वे | इतने वेगसे दौड़े कि उनके कंधेका दुपट्टा गिर गया और पृथ्वी | काँपने लगी ।। 37 ।। मुझे आततायीने तीखे बाण मार-मारकर उनके शरीरका कवच तोड़ डाला था, जिससे सारा शरीर लहलुहान हो रहा था, अर्जुनके रोनेपर भी वे बलपूर्वक मुझे मारनेके लिये मेरी और दौड़े आ रहे थे। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण, जो ऐसा करते हुए भी मेरे प्रति अनुग्रह और भक्तवत्सलता से परिपूर्ण थे, मेरी एकमात्र गति हो— आश्रय हों ॥ 38 ॥ अर्जुनके रथकी रक्षामें सावधान जिन श्रीकृष्णके बायें हाथमें घोड़ो की रास थी और दाहिने हाथमें चाबुक, इन दोनों की शोभासे उस समय जिनको अपूर्व छवि बन गयी थी, तथा महाभारतयुद्धमें मरनेवाले वीर जिनकी इस छविका दर्शन करते रहनेके कारण सारूप्य मोक्षको प्राप्त हो गये, उन्हीं पार्थसारथि भगवान् श्रीकृष्णमें मुझे मरणासन्नकी परम प्रीति हो ।। 39 ।। जिनकी लटकोली सुन्दर चाल, हाव-भावयुक्त चेष्टाएँ, मधुर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे अत्यन्त सम्मानित गोपियाँ रासलीलामें उनके अन्तर्धान हो जानेपर प्रेमोन्मादसे मतवाली होकर जिनकी लीलाओंका अनुकरण करके तन्मय हो गयी थीं, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णमें मेरा परम प्रेम हो ॥ 40 ॥ जिस समय युधिष्ठिरका राजसूय यज्ञ हो रहा था, मुनियों और बड़े-बड़े राजाओंसे भरी हुई सभामं सबसे पहले सबकी ओरसे इन्हीं सबके दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्णकी मेरी आँखोंके सामने पूजा हई थी; वे ही सबके आत्मा प्रभु आज इस मृत्युके समय मेरे सामने खड़े हैं ।। 41 ।। जैसे एक ही सूर्य अनेक आँखोंसे अनेक रूपोंमें दीखते हैं, वैसे ही अजन्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने ही द्वारा रचित अनेक शरीरधारियोंके हृदयमें अनेक रूप से जान पड़ते हैं; वास्तवमें तो वे एक और सबके हृदयमें विराजमान हैं। ही उन्हीं इन भगवान् श्रीकृष्णको में भेद-भ्रमसे रहित होकर प्राप्त हो गया है ।। 42 ।
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार भीष्मपितामहने मन, वाणी और दृष्टिकी वृत्तियोंसे आतास्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण में अपने आपको लीन कर दिया। उनके प्राण वहीं विलीन हो गये और वे शान्त हो गये ।। 43 । उन्हें अनन्त ब्रामें लीन जानकर सब लोग वैसे ही चुप हो गये, जैसे दिनके बीत जानेपर पक्षियोंका कलरव शान्त हो जाता है ।। 44 ।।उस समय देवता और मनुष्य नगारे बजाने लगे । साधुस्वभावके राजा उनकी प्रशंसा करने लगे और आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ।। 45 ।। शौनकजी ! युधिष्ठिरने उनके मृत शरीरकी अन्त्येष्टि क्रिया करायी और कुछ समयके लिये वे शोकमग्न हो गये ॥ 46 ॥ उस समय | मुनियोंने बड़े आनन्दसे भगवान् श्रीकृष्णकी उनके रहस्यमय नाम ले-लेकर स्तुति की। इसके पश्चात् अपने हृदयोंको श्रीकृष्णमय बनाकर वे अपने-अपने आश्रमोंको लौट गये ॥ 47 ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णके साथ युधिष्ठिर | हस्तिनापुर चले आये और उन्होंने वहाँ अपने चाचा धृतराष्ट्र और तपस्विनी गान्धारीको ढाढस बँधाया ॥ 48 ॥ फिर धृतराष्ट्रकी आज्ञा और भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे समर्थ राजा युधिष्ठिर अपने वंशपरम्परागत साम्राज्यका धर्मपूर्वक शासन करने लगे ॥ 49 ॥
अध्याय 10 श्रीकृष्णका द्वारका-गमन
शौनकजीने पूछा- धार्मिकशिरोमणि महाराज युधिष्ठिरने अपनी पैतृक सम्पत्तिको हड़प जानेके इच्छुक आततायियोंका नाश करके अपने भाइयोंके साथ किस | प्रकारसे राज्य-शासन किया और कौन-कौन से काम किये, क्योंकि भोगोंमें तो उनकी प्रवृत्ति थी ही नहीं ॥ 1 ॥
सूतजी कहते हैं— सम्पूर्ण सृष्टिको उज्जीवित करनेवाले भगवान् श्रीहरि परस्परकी कलहाग्निसे दग्ध कुरुवंशको पुनः अंकुरितकर और युधिष्ठिरको उनके राज्यसिंहासनपर बैठाकर बहुत प्रसन्न हुए ॥ 2 ॥ भीष्मपितामह और भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशोंके श्रवणसे उनके अन्तःकरणमें विज्ञानका उदय हुआ और भ्रान्ति मिट गयी। भगवान्के आश्रयमें रहकर वे समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वीका इन्द्रके समान शासन करने लगे। भीमसेन आदि । उनके भाई पूर्णरूपसे उनकी आज्ञाओंका पालन करते थे ॥ 3 ॥युधिष्ठिरके राज्यमें आवश्यकतानुसार यथेष्ट वर्षा होती थी, पृथ्वीमें समस्त अभीष्ट वस्तुएँ पैदा होती थीं, बड़े-बड़े थनोंवाली बहुत-सी गौएँ प्रसन्न रहकर गोशालाओंको दूधसे सींचती रहती थीं ॥ 4 ॥ नदियाँ, समुद्र, पर्वत, वनस्पति, लताएँ और औषधियां प्रत्येक ऋतु यथेष्टरूपसे अपनी-अपनी वस्तुएं राजाको देती थीं ॥ 5 ॥ अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिरके राज्यमें किसी प्राणीको कभी भी आधि-व्याधि अथवा दैविक, भौतिक और आत्मिक क्लेश नहीं होते थे ॥ 6 ॥
अपने बन्धुओंका शोक मिटानेके लिये और अपनी बहिन सुभद्राकी प्रसन्नताके लिये भगवान् श्रीकृष्ण कई महीनोंतक हस्तिनापुरमें ही रहे ।। 7 ।। फिर जब उन्होंने राजा युधिष्ठिरसे द्वारका जाने की अनुमति मांगी, तब राजाने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर स्वीकृति दे दी भगवान् उनको प्रणाम करके रथपर सवार हुए। कुछ लोगों (समान उम्रवालों ने उनका आलिङ्गन किया और कुछ (छोटी उम्रवालों) ने प्रणाम ॥ 8 ॥ उस समय सुभद्रा, द्रौपदी, कुन्ती, उत्तरा गान्धारी, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, कृपाचार्य, नकुल, सहदेव, भीमसेन, धौम्य और सत्यवती आदि सब मूर्च्छित से हो गये। वे शार्ङ्गपाणि श्रीकृष्णका विरह नहीं सह सके ।। 9-10 ॥ भगवद्भक्त सत्पुरुषोंके सङ्गसे जिसका दुःसङ्ग छूट गया है, वह विचारशील पुरुष भगवान् के मधुर-मनोहर सुयशको एक बार भी सुन लेनेपर फिर उसे छोड़नेकी कल्पना भी नहीं करता। उन्हीं | भगवान के दर्शन तथा स्पर्शसे, उनके साथ आलाप करनेसे तथा साथ-ही-साथ सोने, उठने-बैठने और भोजन करनेसे जिनका सम्पूर्ण हृदय उन्हें समर्पित हो चुका था, वे पाण्डव भला, उनका विरह कैसे सह सकते थे ।। 11-12 ।। उनका चित्त द्रवित हो रहा था, वे सब निर्निमेष नेत्रोसे भगवान्को देखते हुए खेहबन्धनसे बँधकर जहाँ-तहाँ दौड़ रहे थे ॥ 13 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके घरसे चलते समय उनके बन्धुओंकी स्त्रियोंके नेत्र उत्कण्ठावश उमड़ते हुए असे भर आये; परंतु इस भयसे कि कहीं यात्राके समय अशकुन न हो जाय, उन्होंने बड़ी कठिनाईसे उन्हें रोक लिया ।। 14 ।। भगवान् के प्रस्थानके समय मृदङ्ग, शङ्ख, भेरी,वीणा, ढोल, नरसिंगे, धुन्धुरी, नगारे, घंटे और दुन्दुभियाँ आदि बाजे बजने लगे ॥ 15 ॥ भगवान्के दर्शनकी लालसासे कुरुवंशकी स्त्रियाँ अटारियोंपर चढ़ गयीं और प्रेम, लज्जा एवं मुसकानसे युक्त चितवनसे भगवान्को देखती हुई उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ।। 16 ।। उस समय भगवान्के प्रिय सखा घुँघराले बालोंवाले अर्जुनने अपने प्रियतम श्रीकृष्णका वह श्वेत छत्र, जिसमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी और जिसका डंडा रत्नोंका बना हुआ था, अपने हाथमें ले लिया ॥ 17 ॥ उद्भव और सात्यकि बड़े विचित्र चँवर डुलाने लगे। मार्गमें भगवान् श्रीकृष्णपर चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी। बड़ी ही मधुर झाँकी थी ॥ 18 ॥ जहाँ-तहाँ ब्राह्मणोंके दिये हुए सत्य है, परन्तु आशीर्वाद सुनायी पड़ रहे थे। वे सगुण भगवान्के तो अनुरूप ही थे; क्योंकि उनमें सब कुछ निर्गुणके अनुरूप नहीं थे, क्योंकि उनमें कोई प्राकृत गुण नहीं है ॥ 19 ॥ हस्तिनापुरकी कुलीन रमणियाँ, जिनका चित्त भगवान् श्रीकृष्णमें रम गया था, आपसमें ऐसी बातें कर रही थीं, जो सबके कान और मनको आकृष्ट कर रही थीं ॥ 20 ॥
वे आपसमें कह रही थीं— ‘सखियो ! ये वे ही सनातन परम पुरुष हैं, जो प्रलयके समय भी अपने अद्वितीय निर्विशेष स्वरूपमें स्थित रहते हैं। उस समय सृष्टिके मूल ये तीनों गुण भी नहीं रहते। जगदात्मा ईश्वरमें जीव भी लीन हो जाते हैं और महत्तत्त्वादि समस्त शक्तियाँ अपने कारण अव्यक्तमें सो जाती हैं ॥ 21 ॥ उन्होंने ही फिर अपने नाम रूपरहित स्वरूपमें नामरूपके निर्माणकी इच्छा की तथा अपनी काल- शक्तिसे प्रेरित प्रकृतिका, जो कि उनके अंशभूत जीवोंको मोहित कर लेती है और सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त रहती है, अनुसरण किया और व्यवहारके लिये वेदादि शास्त्रोंकी रचना की ॥ 22 ॥ इस जगत् में जिसके स्वरूपका साक्षात्कार जितेन्द्रिय योगी अपने प्राणोंको वशमें करके भक्तिसे प्रफुल्लित निर्मल हृदयमें किया करते हैं, ये श्रीकृष्ण वही साक्षात् परब्रह्म है। वास्तवमें इन्हींकी भक्तिसे अन्तःकरणकी पूर्ण शुद्धि हो सकती है, | योगादिके द्वारा नहीं ॥ 23 ॥सखी! वास्तवमें ये वही हैं, जिनकी सुन्दर लीलाओंका गायन वेदोंमें और दूसरे गोपनीय शस्त्रो व्यासदि रहस्यवादी ऋषियोंने किया है— जो एक अद्वितीय ईश्वर हैं और अपनी लीलासे जगत्को सृष्टि, पालन तथा संहार करते हैं, परन्तु उनमें आसक्त नहीं होते ॥ 24 ॥ जब तामसी बुद्धिवाले राजा अधर्मसे अपना पेट पालने लगते हैं तब ये ही सत्त्वगुणको स्वीकारकर ऐश्वर्य, सत्य, ऋत दया और यश प्रकट करते और संसार के कल्याणके लिये युग-युगमें अनेकों अवतार धारण करते हैं ।। 25 ।। अहो ! यह यदुवंश परम प्रशंसनीय है; क्योंकि लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम श्रीकृष्णने जन्म ग्रहण करके इस वंशको सम्मानित किया है। वह पवित्र मधुवन (व्रजमण्डल) भी अत्यन्त धन्य है, जिसे इन्होंने अपने शैशव एवं किशोरानाथापन है।। । घूम-फिरकर सुशोभित किया है ॥ 26 बड़े हर्षकी बात है कि द्वारकाने स्वर्गके यशका तिरस्कार करके पृथ्वीके पवित्र यशको बढ़ाया है। क्यों न हो, वहाँकी प्रजा अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णको, जो बड़े प्रेम भन्दन्द मुसकराते हुए उन्हें देखते हैं, निरन्तर निहारती रहती है ।। 27 ।। सखी! जिनका इन्होंने पाणिग्रहण किया है, उन स्त्रियोंने अवश्य ही व्रत, स्नान, हवन आदिके द्वारा इन परमात्माकी आराधना की होगी; क्योंकि वे बार-बार इनकी उस अधर-सुधाका पान करती हैं, जिसके स्मरणमात्रसे ही व्रजवालाई आनन्दसे मूर्च्छित हो जाया करती थीं ॥ 28 ॥ ये स्वयंवरमें शिशुपाल आदि मतवाले राजाओंका मान मर्दन करके जिनको अपने बाहुबलसे हर लाये थे तथा जिनके पुत्र प्रद्युम्न, साम्ब, आम्ब आदि हैं, वे रुक्मिणी आदि आठों पटरानियाँ और भौमासुरको मारकर लायी हुई जो इनकी हजारों अन्य पत्त्रियाँ हैं, वे वास्तवमें धन्य हैं क्योंकि इन सभीने स्वतन्त्रता और पवित्रतासे रहित स्त्रीजीवनको पवित्र और उज्ज्वल बना दिया है। इनकी महिमाका वर्णन कोई क्या करे। इनके स्वामी साक्षात् कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो नाना प्रकारकी प्रिय चेष्टाओं तथा पारिजातादि प्रिय वस्तुओंकी भेंटसे इनके हृदयमें प्रेम एवं आनन्दकी अभिवृद्धि करते हुए कभी एक क्षणके लिये भी इन्हें छोड़कर दूसरी जगह नहीं जाते ।। 29-30 ।।हस्तिनापुरकी स्त्रियाँ इस प्रकार बातचीत कर ही रही थीं कि भगवान् श्रीकृष्ण मन्द मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे उनका अभिनन्दन करते हुए वहाँसे विदा हो गये ॥ 31 ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णकी रक्षाके लिये हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना उनके साथ कर दी; उन्हें स्नेहवश यह शङ्का हो आयी थी कि कहीं रास्तेमें शत्रु इनपर आक्रमण न कर दें ॥ 32 ॥ सुदृढ़ प्रेमके कारण कुरुवंशी पाण्डव | भगवान्के साथ बहुत दूरतक चले गये। वे लोग उस समय | भावी विरहसे व्याकुल हो रहे थे। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें | बहुत आग्रह करके विदा किया और सात्यकि, उद्धव आदि प्रेमी मित्रोंके साथ द्वारकाकी यात्रा की ॥ 33 ॥ शौनकजी ! वे कुरुजाङ्गल, पाञ्चाल, शूरसेन, यमुनाके तटवर्ती प्रदेश ब्रह्मावर्त, कुरुक्षेत्र, मत्स्य, सारस्वत और मरुधन्व देशको पार करके सौवीर और आभीर देशके पश्चिम आनर्त्त देशमें आये। | उस समय अधिक चलनेके कारण भगवान्के रथके घोड़े कुछ थक-से गये थे । 34-35 मार्गमें स्थान-स्थानपर लोग उपहारादिके द्वारा भगवान्का सम्मान करते, सायङ्काल होनेपर वे रथपरसे भूमिपर उतर आते और जलाशयपर जाकर सन्ध्या-वन्दन करते। यह उनकी नित्यचर्या थी ॥ 36 ॥
अध्याय 11 द्वारकामें श्रीकृष्ण का स्वागत
सूतजी कहते हैं— श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगोंकी विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ 1 ॥ भगवान्के होठोंकी लालीसे लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलोंमें ऐसा | शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वरसे मधुर गान कर रहा हो ॥ 2 ॥ भगवान्के शङ्खकी वह ध्वनि संसारके भयको भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ 3 ॥भगवान् श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभसे ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम है, फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान् सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेटोसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ 4 ॥ सबके मुख-कमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान् श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोली में | बातें करते हैं ॥ 5 ॥ स्वामिन्! हम आपके उन चरण कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्रतक करते हैं, जो इस संसारमें परम कल्याण चाहनेवालोंके लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेनेपर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ॥ 6 ॥ विश्वभावन! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ॥ 7 ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये; क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है। प्रेमपूर्ण मुसकानसे मि चितवन। यह दर्शन तो देवताओंके | लिये भी दुर्लभ है ॥ 8 ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप अपने बन्धुवान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रजमण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लम्बा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसे सूर्यके बिना आंखोकी ॥ 9 ॥ भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रहकी वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ।। 10 ।।
जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्की वह द्वारकापुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसीसे भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ।। 11 ।। वह पुरी समस्त ऋतुओंके सम्पूर्ण वैभवसे सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओंके कुझसे युक्त थी। स्थान-स्थानपर | फलोंसे पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें | कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ 12 ॥नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सड़कोपर भगवान के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजापताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर थामका कोई | प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ 13 ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सड़कें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सौंच दिये गये थे और भगवान के स्वागतके लिये वरसाये हुए फल-फूल, अक्षत अङ्कुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ 14 ॥ परोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ 15 ॥
उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रशुन, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य-सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके | आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मङ्गलशकुनके लिये एक गजराजको आगे करके स्वस्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणको साथ लेकर चले शब्द और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्पित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्की अगवानी करने चले ।। 16-18 ॥ साथ ही भगवान् श्रीकृष्णके | दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पढ़नेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढ़कर भगवान्की अगवानीके लिये चली ।। 19 ।। बहुत से नट, नाचनेवाले गानेवाले विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान् श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले ॥ 20 ॥
भगवान् श्रीकृष्ण बन्धुबान्धवों, नागरिकों और सेवकों उनकी योग्यताके अनुसार अलग-अलग मिलकर सबका सम्मान किया ॥ 21 ॥ किसीको सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसीको वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वेदोजनों से विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान् श्रीकृष्णने नगरमें प्रेवश किया ।। 22-23 ।।
शौनकजी ! जिस समय भगवान् राजमार्गसे जा रहे थे, उस | समय द्वारकाकी कुल-कामिनियाँ भगवान् के दर्शनको हीपरमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियोंपर चढ़ गयीं ॥ 24 ॥ भगवान्का वक्षस्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मीका निवासस्थान है। | उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अङ्ग अङ्ग शोभाके धाम है भगवानको इस छवि कवी नित्य निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आंखे एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ 25-26 ॥ द्वारकाके राजपथपर भगवान् श्रीकृष्णके ऊपर श्वेत वर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चैवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए. थे । इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजली से शोभायमान हो । 27 ।।
भगवान् सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्द देवको आदि सालों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ।। 28-29 ।। माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्रियोंके अलग-अलग महल थे 30 ॥ अपने प्राणनाथ भगवान् श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया | देखकर रानियोंके हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट | देखकर वे एकाएक ध्यान छोड़कर उठ खड़ी हुई; उन्होंने केवल आसनको नहीं बल्कि उन नियमों को भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पतिके प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ 31 ॥ भगवान्के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रोंके बहाने शरीरसे उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके नेत्रोंमें जो प्रेमके आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशताके कारण वे ढलक ही गये ॥ 32 ॥ यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण एकान्तमें सर्वदा हो उनके पास रहते थे, तथापि उनके चरण कमल उन्हें पद-पदपर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभावसे ही चञ्चल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षणके लिये भी कभी नहीं छोड़ उनकी संनिधिसे किस स्त्रीको तृप्ति हो सकती है॥ 33 ॥जैसे बाँसोंके संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला वायु देता है, वैसे ही पृथ्वीके भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरेसे मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये || 34 ॥ साक्षात् | परमेश्वर ही अपनी लीलासे इस मनुष्य-लोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने साधारण मनुष्यकी तरह क्रीडा की ॥ 35 ॥ जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया था – वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग भगवान् श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही | समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है ॥ 36-37 ॥ यही तो भगवान्की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती ॥ 38 ॥ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं, क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ।। 39 ।।
अध्याय 12 परीक्षितका जन्म
शौनकजीने कहा- अश्वत्थामाने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तराका गर्भ नष्ट हो गया था; परंतु भगवान्ने उसे पुनः जीवित कर दिया ॥ 1 ॥ उस गर्भसे पैदा | हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्के, जिन्हें शुकदेवजीने ज्ञानोपदेश | दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्तहुई, यह सब यदि आप ठीक समझे तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धा | साथ सुनना चाहते हैं । 2-3 ॥
सूतजीने कहा- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजाको प्रसन्न हुए पिताके समान उसका पालन करने लगे। भगवान् रखते श्रीकृष्णके चरण-कमलोके सेवनसे वे समस्त भोगोंसे निःस्पृह हो गये थे 4
शौनकादि ऋषियों उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकोंका अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्दीपके स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्गतक फैली हुई थी ॥ 5॥ उनके पास भोगकी ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवतालोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्यको भोजनके अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान् के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी ॥ 6 ॥ शौनकजी उत्तराके गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित् जब अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ 7 ॥ वह देखनेमें तो अंगूठेभरका है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोनेका मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लुकेके समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ।। 8-9 ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरेको भगा देते है, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है | 10 || इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशुके सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये 11 ॥
तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सदगुणों को विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ।। 12 ।। पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म संस्कार करवाये ।। 13 ।। महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ * नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी-घोड़े और | उत्तम अन्नका दान दिया ।। 14 ।। ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा- ‘पुरुवंश-शिरोमणे । कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान् विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ।। 15-16 इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ।। 17 ।।
युधिष्ठिरने कहा – महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ।। 18 ।।
ब्राह्मणोंने कहा – धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकुके समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान् श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ 19 ॥ यह उशीनर नरेश शिविके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ 20 ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ।। 21 ।। यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता-पिताके समान सहनशील होगा ॥ 22 ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान् शंकरकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके समान होगा ॥ 23 ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार | होगा और ययातिके समान धार्मिक होगा ।। 24 ॥धैर्यमें बलिके समान और भगवान् श्रीकृष्णके प्रति दृढ़ निष्ठामें यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुत-से अश्वमेध यज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ॥ 25 ॥ इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा ॥ 26 ॥ ब्राह्मणकुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी | आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्के चरणों की शरण लेगा ॥ 27 ॥ राजन्। व्यासनन्दन शुकदेवजीसे यह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ 28 ॥
ज्योतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलप्रका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने अपने घर चले गये ॥ 29 ॥ वही यह बालक संसारमें परीक्षित्के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भमे जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसीको परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है ॥ 30 ॥ जैसे शुरू पक्षमें दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओंसे पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालनसे क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया । 31 ।।
इसी समय स्वजनोंके वधका प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेध यज्ञके द्वारा भगवान्की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुमन) की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये ।। 32 ।। उनका अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोद्वारा छोड़ा हुआ बहुत सा धन ले आये ॥ 33 ॥ उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिरने तीन अश्वमेध यज्ञोके द्वारा भगवान्की पूजा की ॥ 34 ॥ युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान् ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे ।। 35 ।। शौनकजी। इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदीसे अनुमति लेकर अर्जुनके साथ यदुवंशियोंसे घिरे हुए भगवान् श्रीकृष्णने द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ।। 36 ।।
अध्याय 13 विदुरजीके उपदेशसे धृतराष्ट्र और गान्धारीका वन गमन
सूतजी कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे | आत्माका ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जानने की इच्छा थी, वह पूर्ण हो गयी थी॥ 1 ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्न किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले हो श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ 2 ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, युयुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रसहित दूसरी खिर्या सब के सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमे प्राण आ गया हो ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये। यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये युधिष्ठिरने | आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया ।। 3-6 ।। जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ।। 7 ।।
युधिष्ठिरने कहा— चाचाजी! जैसे पक्षी अपने अंडों की छाया नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्यसे अपने कर-कमलोकी छत्रछायामें हमलोगोंको पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माताको विपदान और लाक्षागृहके दाह आदि विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हम लोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? 8 आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया? आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीथों और मुख्य क्षेत्रोका सेवन किया ? ॥ 9 ॥ प्रभो। आप जैसे भगवान् के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप होते हैं आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान्के द्वारा तीथको भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं । 10 ॥चाचाजी! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ 11 ॥
युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछने पर विदुरजीने तीथीं और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाशकी बात नहीं कही ॥ 12 ॥ करुणहदय विदुरजी पाण्डवोंको दुःखी नहीं देख सकते थे इसलिये उन्होंने यह | अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवों को नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी ।। 13 ।।
पाण्डव विदुरजीका देवताके समान सेवा सत्कार करते थे। वे कुछ दिनोंतक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रकी कल्याण कामनासे सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे । 14 ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, | माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे* इतने दिनोंतक यमराजके पदपर अर्थमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ 15 ॥ राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित्को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने | लगे ।। 16 ।। इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युको ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई | टाल नहीं सकता ।। 17 ।।
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा- ‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ 18 ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालने का कहीं भी कोई उपाय नहीं है ।। 19 ।। कालके वशीभूत होकर जीवका अपने प्रियतम प्राणोंसे भी बात-की बातमें वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या है॥ 20 आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे-सम्बन्धी और पुत्र सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप परायेघरमें पड़े हुए हैं ॥ 21 ॥ ओह ! इस प्राणीको जीवित रहनेकी कितनी प्रबल इच्छा होती है! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं॥ 22 ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हींके अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है 23 || आपके अज्ञानकी हद हो | गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है ।। 24 ।। अब इस है शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सघनेवाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममताका बन्धन काट डालिये। जो संसारके सम्बन्धियोंसे अलग रहकर उनके अनजानमें अपने शरीरका त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ 25 ॥ चाहे अपनी समझसे हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दुःखरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्तःकरणको वशमें करके हृदयमें भगवान्को धारणकर संन्यासके लिये घरसे | निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ 26 ॥ इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्रायः मनुष्योंके गुणोंको घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियोंसे छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये ॥ 27 ॥
जब छोटे भाई विदुरने अंधे राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार | समझाया, तब उनकी प्रज्ञाके नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुरके दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ 28 ॥ जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारीने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियोंको वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषोंको | लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ 29 ॥
अजातशत्रु युधिष्ठिरने प्रातःकाल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणोंको नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दनाके लिये राजमहलमें गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ 30 ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्नचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा – ‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ है ? ॥ 31 ॥पुत्रशोकसे पीड़ित दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी ‘चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और वधु बान्धवोंके मारे जानेसे दुःखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ-कहीं | मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजी तो नहीं कूद पड़े ।। 32 जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे नन्हे बसे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दुःखोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ 33 ॥
सूतजी कहते हैं—सञ्जय अपने स्वामी धृतराष्ट्रको न पाकर कृपा और स्नेहकी विकलतासे अत्यन्त पीड़ित और विरहातुर हो रहे थे। वे युधिष्ठिरको कुछ उत्तर न दे सके ।। 34 ।। फिर धीरे-धीरे बुद्धिके द्वारा उन्होंने अपने चित्तको स्थिर किया, हाथोंसे आँखोंके आसू पोछे और अपने स्वामी धृतराष्ट्रके चरणोंका स्मरण करते हुए युधिष्ठिरसे कहा ॥ 35 ॥
सञ्जय बोले- कुलनन्दन ! मुझे आपके दोनों चाचा और गान्धारीके सङ्कल्पका कुछ भी पता नहीं है। महाबाहो ! मुझे तो उन महात्माओंने ठग लिया ॥ 36 ॥ सञ्जय इस प्रकार कह ही रहे थे कि तुम्बुरुके साथ देवर्षि नारदजी वहाँ आ पहुँचे। महाराज युधिष्ठिरने भाइयोंसहित उठकर उन्हें प्रणाम किया और उनका सम्मान करते हुए बोले – ॥ 37 ॥
युधिष्ठिरने कहा- ‘भगवन् मुझे अपने दोनों चाचाओंका पता नहीं लग रहा है; न जाने वे दोनों और पुत्र शोकसे व्याकुल तपस्विनी माता गान्धारी यहाँसे कहाँ चले गये ॥ 38 भगवन् ! अपार समुद्रमें कर्णधारके समान आप ही हमारे पारदर्शक हैं।’ तब भगवान्के परमभक्त भगवन्मय देवर्षि नारदने कहा ।। 39 ।। धर्मराज तुम किसीके लिये शोक मत करो क्योंकि यह सारा जगत् ईश्वरके वशमें है। सारे लोक और लोकपाल विवश होकर ईश्वरकी ही आज्ञाका पालन कर रहे हैं। वही एक प्राणीको दूसरेसे मिलाता है और वही उन्हें अलग करता है ॥ 40 ॥ जैसे बैल बड़ी रस्सीमे वैधे और छोटी रस्सीसे नथे रहकर अपने स्वामीका भार ढोते हैं, उसी प्रकार मनुष्य भी वर्णाश्रमादि अनेक प्रकारके नामोंसे वेदरूप रस्सीमें वैधकर ईश्वरकी ही आज्ञाका अनुसरण करते हैं ॥ 41 ॥जैसे संसार में खिलाड़ीकी इच्छा ही खिलौनों का संयोग और वियोग होता है, वैसे ही भगवान्की इच्छासे ही मनुष्योंका मिलना बिछुड़ना होता है ।॥ 42 ॥ तुम लोगोंको जीवरूपसे नित्य मानो या देहरूपसे अनित्य अथवा जडरूपसे अनित्य और वेतन रूपसे नित्य अथवा शुद्धरूपमे नित्य-अनित्य कुछ भी न मानो किसी भी अवस्थामें मोहजन्य आसक्तिके अतिरिक्त वे शोक करने योग्य नहीं हैं ॥ 43 ॥ इसलिये धर्मराज ! वे दीन-दुःखी चाचा-चाची असहाय अवस्थामें मेरे बिना कैसे रहेंगे, इस अज्ञानजन्य मनकी विफलताको छोड़ | दो ॥ 44 ॥ यह पचभौतिक शरीर काल, कर्म और गुणोंके वशमें है। अजगरके मुँहमें पड़े हुए पुरुषके समान यह पराधीन शरीर दूसरोंकी रक्षा ही क्या कर सकता है ।। 45 ।। हाथवालोंके बिना हाथवाले, चार पैरवाले पशुओंके बिना पैरवाले (तृणादि) और उनमें भी बड़े जीवोंके छोटे जीव आहार हैं। इस प्रकार एक जीव दूसरे जीवके जीवनका कारण हो रहा है ।। 46 ।। इन समस्त रूपोंमें जीवोंके बाहर और भीतर वही एक स्वयंप्रकाश भगवान्, जो सम्पूर्ण आत्माओंके आत्मा हैं, मायाके द्वारा अनेकों प्रकारसे प्रकट हो रहे हैं। तुम केवल उन्हींको देखो ॥ 47 ॥ महाराज ! समस्त प्राणियोंको जीवनदान देनेवाले वे ही भगवान् इस समय इस पृथ्वीतलपर देवद्रोहियोंका नाश करनेके लिये कालरूपसे अवतीर्ण हुए हैं ।। 48 अब वे देवताओंका कार्य पूरा कर चुके हैं। थोड़ा-सा काम और शेष है, उसीके लिये वे रुके हुए हैं। जबतक वे प्रभु यहाँ हैं, तबतक तुमलोग भी उनकी प्रतीक्षा करते रहो ।। 49 ।।
धर्मराज हिमालयके दक्षिण भागमें, जहां सप्तर्षियोंकी | प्रसन्नताके लिये गङ्गाजीने अलग-अलग सात धाराओंके रूपमें अपनेको सात भागोंमें विभक्त कर दिया है, जिसे ‘सप्तस्रोत’ कहते हैं, वहीं ऋषियोंके आश्रमपर धृतराष्ट्र अपनी पत्नी गान्धारी और विदुरके साथ गये हैं । 50-51 ॥ वहाँ वे त्रिकाल स्नान और विधिपूर्वक अग्निहोत्र करते हैं। अब उनके चित्तमें किसी प्रकारकी कामना नहीं है, वे केवल जल पीकर शान्तचित्तसे निवास करते हैं ।। 52 ।। आसन जीतकर प्राणोंको वशमें करके उन्होंने अपनी उस इन्द्रियोंको विषयोंसे लौटा लिया है। भगवान्की धारणासे उनके तमोगुण, । रजोगुण और सत्त्वगुणके मल नष्ट हो चुके हैं ॥ 53 ॥उन्होंने अहङ्कारको बुद्धिके साथ जोड़कर और उसे क्षेत्रज्ञ आत्मामें लीन करके उसे भी महाकाशमें घटाकाशके समान सर्वाधिष्ठान ब्रह्ममें एक कर दिया है। उन्होंने अपनी समस्त इन्द्रियों और मनको रोककर समस्त विषयोंको बाहरसे ही लौटा दिया है और मायाके गुणोंसे होनेवाले परिणामोंको सर्वथा मिटा दिया है। समस्त कर्मोंका संन्यास करके वे इस समय ठूंठकी तरह स्थिर होकर बैठे हुए हैं, अतः तुम उनके मार्गमें विघ्नरूप मत बनना* ॥ 54-55 ॥ धर्मराज ! आजसे पाँचवें दिन वे अपने शरीरका परित्याग कर देंगे और वह जलकर भस्म हो | जायगा ॥ 56 ॥ गार्हपत्यादि अग्नियोंके द्वारा पर्णकुटीके साथ अपने पतिके मृतदेहको जलते देखकर बाहर खड़ी हुई साध्वी गान्धारी भी पतिका अनुगमन करती हुई उसी आगमें प्रवेश कर जायँगी ॥ 57 ॥ धर्मराज ! विदुरजी अपने भाईका आश्चर्यमय मोक्ष देखकर हर्षित और वियोग देखकर दुःखित होते हुए वहाँसे तीर्थ सेवनके लिये चले जायँगे ।। 58 ।। देवर्षि नारद यों कहकर तुम्बुरुके साथ स्वर्गको चले गये। धर्मराज युधिष्ठिरने उनके उपदेशोंको हृदयमें धारण करके शोकको त्याग दिया ।। 59 ।।
अध्याय 14 अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिरका शङ्का करना
सूतजी कहते हैं- स्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैं—यह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ 1 ॥ कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयङ्कर अपशकुन दीखने लगे || 2 || उन्होंने देखा, कालकी गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन | निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ 3 ॥सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा टंटा रहने लगा है ।। 4 ।। कलिकालके आ जानेसे लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेनसे कहा ॥ 5 ॥
युधिष्ठिरने कहा- भीमसेन। अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान् श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं—इसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये || 6 || तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है॥ 7 ॥ कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुंचा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं ? ॥ 8 ॥ उन्हीं भगवान्की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य, स्त्री, प्राण, कुल, संतान, शत्रुओं पर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ 9 ॥ भीमसेन ! तुम तो मनुष्योंमें व्यापके समान बलवान् हो देखो तो सही आकाशमे उल्कापातादि पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरोंमें रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ 10 ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फड़क रही हैं। हृदय जोरसे धड़क रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है। 11 देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यको ओर मुँह करके रो रही है। अरे! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है। यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर है चिल्ला रहा है ।। 12 ।। भीमसेन गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ।। 13 ।। यह मृत्युका दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण कठोर शब्दों मेरे मनको कंपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं ।। 14 ।। दिशाएँ धुंधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोर सेगरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ।। 15 ।। शरीरको छेदनेवाली एवं लिसे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ।। 16 ।। | देखो! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाशमें ग्रह परस्पर टकराया करते हैं। भूतोंकी घनी भीड़में पृथ्वी और अन्तरिक्षमें आग सी लगी हुई है ॥ 17 नदी, नद, है। तालाब और लोगोंके मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घीसे आग नहीं | जलती। यह भयङ्कर काल न जाने क्या करेगा ॥ 18 ॥ बछड़े दूध नहीं पीते, दुहने नहीं देतीं, गोलागीए आँसू बहा बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ 19 ॥ देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई ! ये | देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दुःखकी सूचना दे रहे हैं ॥ 20 ॥ इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवानके उन चरणकमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र अंकुशादि विलक्षण चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है॥ 21 ॥ शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयङ्कर उत्पातोंको देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये ।। 22 ।। युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमे बिलकुल कान्ति नहीं है। उनको इस रूपमें अपने चरणों में पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारदकी बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा ।। 23-24 ।।
युधिष्ठिरने कहा- ‘भाई द्वारकापुरीमें हमारे स्वजन सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आई, सात्यत अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥ 25 ॥ हमारे माननीय नाना शूरसेनजी प्रसन्न हैं? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेवजी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ 26 ॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे तो है ? ॥ 27 ॥जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न? यादवोंके तो बलरामजी आनन्दसे प्रभु हैं ? ॥ 28-29 ॥ वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्न सुखसे तो हैं ? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ 30 ॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ 31 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ।। 32-33 ।।
भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ 34 ॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल, परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान्के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ।। 35-36 ।। सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ 37 ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं ।। 38 ।।भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न? मुझे तुम श्रीहीन से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई ? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ 39 ॥ कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा | किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे | सके ? ॥ 40 ॥ तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ 41 ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्गमें अपने से छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये ? ॥ 42 ॥ अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोड़कर तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ 43 ॥ हो न हो अपने परम प्रियतम अभिन्न-हृदय परम सुहृद् भगवान् श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो। इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं । हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो ॥ 44 ॥
अध्याय 15 पाण्डवों का परीक्षित को राज्य देकर स्वर्ग प्रस्थान
सूतजी कहते हैं- भगवान् श्रीकृष्णके प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्ण के विरहसे कुश हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिरने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषयमें कई प्रकारकी आशङ्काएँ करते हुए प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी ॥ 1 ॥ शोकसे अर्जुनका मुख और हृदय कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णके ध्यानमें ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाईके | प्रश्नोंका कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ 2 ॥ श्रीकृष्णकी आँखों से ओझल हो जानेके कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठाके परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदिके समय भगवान्ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेमसे भरे हुए व्यवहार किये थे,उनकी याद पर याद आ रही थी बड़े करसे उन्होंने अपने शोकका वेग रोका, हाथसे नेत्रोंके आँसू पोंछे और फिर रुंधे हुए गलेसे अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिरसे कहा ।। 3-4 ।।
अर्जुन बोले- महाराज ! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्रका रूप धारणकर श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रमसे बड़े-बड़े देवता भी आचर्यमें डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्णने मुझसे छीन लिया ॥ 5 ॥ जैसे यह शरीर प्राणसे रहित होनेपर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभरके वियोग से यह संसार अप्रिय दीखने लगता है ॥ 6 ॥ उनके आश्रयसे द्रौपदी स्वयंवरमें राजा द्रुपदके घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओंका तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदीको प्राप्त किया था ॥ 7॥ उनकी सत्रिधिमात्रसे मैंने | समस्त देवताओंके साथ इन्द्रको अपने बलसे जीतकर अग्निदेवको उनकी तृमिके लिये खाण्डव वनका दान कर दिया और मय दानवको निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशलसे युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञमें सब ओरसे आ-आकर राजाओंने अनेकों प्रकारकी भेंटें समर्पित कीं ॥ 8 ॥ दस हजार हाथियोंकी शक्ति और बलसे सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेनने उन्हीं की शक्तिसे राजाओंके सिरपर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्धका वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान्ने उन बहुत-से राजाओंको मुक्त किया, जिनको जरासन्धने बहुत महाभैरव यज्ञमे बलि चढ़ानेके लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओंने आपके यज्ञमें अनेकों प्रकारके उपहार दिये थे । 9 । महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञके महान् अभिषेकसे पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशोंको, जिन्हें दुष्टोंने भरी सभामे छूनेका साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखोंमें आँसू भरकर जब श्रीकृष्णके चरणों में गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करके उन धूर्तोकी स्त्रियोंकी ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥ 10 ॥ वनवासके समय हमारे बैरी दुर्योधनके षड्यन्त्रसे दस हजार शिष्योंको साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासाने हमें दुस्तर संकटमें डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदीके पात्रमें बची हुई शाककी एक पत्तीका ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदीमें खान करती हुई मुनिमण्डलीको ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो | बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है ॥ 11उनके प्रतापसे मैंने युद्धमें पार्वतीसहित भगवान् शङ्करको आश्चर्यमें डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालोंने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपासे मैं इसी शरीरसे स्वर्गमें गया और देवराज इन्द्रकी सभायें उनके बराबर आधे आसनपर बैठनेका सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ 12 ॥ उनके आग्रहसे जब मैं स्वर्गमें ही कुछ दिनोंतक रह गया, तब इन्द्रके साथ समस्त देवताओंने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करनेवाली भुजाओंका निवातकवच आदि दैत्योंको मारनेके लिये आश्रय लिया। महाराज! यह सब जिनकी महती कृपाका फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णने मुझे आज ठग लिया ? ।। 13 ।।
महाराज! कौरवोंकी सेना भीष्मद्रोण आदि अजेय महामत्स्योंसे पूर्ण अपार समुद्रके समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथपर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हींकी सहायतासे, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओंसे राजा विराटका सारा गोधन तो वापिस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरोपर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अ अलङ्कारतक छीन लिये थे ॥ 14 ॥ भाईजी कौरवोंकी सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरोंके रथोंसे शोभायमान थी उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टिसे ही उन महारथी यूथपतियोंकी आयु, मन, उत्साह और बलको छीन लिया करते थे ॥ 15 ॥ द्रोणाचार्य, भोषण, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाहीक आदि वीरोंने मुझपर अपने कभी न चूकनेवाले अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लादका स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छूतक नहीं सके। यह श्रीकृष्णके भुजदण्डोंकी छत्रछायामें रहनेका ही प्रभाव था ।। 16 ।।श्रेष्ठ पुरुष संसारसे मुक्त होनेके लिये जिनके चरणकमलोंका सेवन करते हैं, अपने-आपतकको दे | डालनेवाले उन भगवान्को मुझ दुर्बुद्धिने सारथितक बना डाला। अहा ! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथसे उतरकर पृथ्वीपर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझपर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्णके प्रभावसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥ 17 ॥ महाराज! माधवके उन्मुक्त और मधुर मुसकानसे युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन और उनका मुझे ‘पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दन’ आदि कहकर पुकारना, मुझे याद आनेपर मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा देते हैं ॥ 18 ॥ सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्धमें बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करनेमें हम प्रायः एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन में व्यंग्यसे उन्हें कह बैठता, ‘मित्र! तुम तो बड़े सत्यवादी हो !’ उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावताके कारण, जैसे मित्र अपने मित्रका और पिता अपने पुत्रका अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धिके अपराधोंको सह लिया करते थे ।। 19 ।। महाराज! जो मेरे सखा, प्रिय मित्र नहीं नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान् से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान्को पत्नियोको द्वारकासे अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्गमें दुष्ट गोपोने मुझे एक अवलाकी भाँति हरा दिया और में उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥ 20 ॥ वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही वाण हैं, वही रथ हैं, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े- बड़े राजालोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्णके बिना ये सब एक ही क्षणमें नहींके समान सारशून्य हो गये-ठीक उसी तरह, जैसे भस्ममें डाली | हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसरमें बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ।। 21 ।
राजन्! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद सम्बन्धियोंकी बात पूछी है, वे ब्राह्मणोके शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिराके पानसे मदोन्मत होकर अपरिचितोंकी भांति आपसमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये और घूंसोंसे मार-पीट करके सब-के-सब नष्ट हो गये। उनमेंसे केवल चार-पाँच ही बचे हैं ।। 22-23 ॥ वास्तवमे यह सर्वशक्तिमान भगवान्को ही लोला है कि संसारके प्राणी परस्पर एक-दूसरेका पालन-पोषण भी | करते हैं और एक-दूसरेको मार भी डालते हैं ॥ 24 ॥राजन्। जिस प्रकार जलचरोंमें बड़े जन्तु छोटोको, बलवान् दुर्बलोको एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरेको रखा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियोंके द्वारा भगवान्ने दूसरे राजाओंका संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियोंके द्वारा ही एकसे दूसरे यदुवंशीका नाश कराके पूर्णरूपसे पृथ्वीका भार उतार दिया ।। 25-26 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने मुझे जो शिक्षाएं दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजनके अनुरूप तथा हृदयके तापको शान्त करनेवाली थीं, स्मरण आते ही वे हमारे चित्तका हरण कर लेती है ।। 27 ।।
सूतजी कहते हैं- इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेमसे भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंका चिन्तन करते-करते अर्जुनकी चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ।। 28 ।। उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोके अहर्निश चिन्तनसे अत्यन्त बढ़ गयी। भक्तिके वेगने उनके हृदयको मथकर उसमेंसे सारे विकारोंको बाहर निकाल दिया ।। 29 ।। उन्हें युद्धके प्रारम्भ में भगवान्के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता ज्ञान पुनः स्मरण हो आया, जिसको कालके व्यवधान और कर्मकि विस्तारके कारण प्रमादवश कुछ दिनोंके लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ 30 ॥ ब्रह्मज्ञानकी प्राप्तिसे मायाका आवरण भङ्ग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैतका संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भङ्ग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्युके चक्रसे सर्वथा मुक्त हो गये ।। 31 ।।
भगवान के स्वधाम गमन और यदुवंशके संहारका कृतान्त सुनकर लिमतिका निश्चय किया ॥ 32 ॥ कुन्तोने भी अर्जुनके मुखसे यदुवंशियोके नाश और भगवान् के स्वधाम गमनकी बात सुनकर अनन्य भक्तिसे अपने हृदयको भगवान् श्रीकृष्ण लगा दिया और सदाके लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसारसे अपना मुँह मोड़ लिया ॥ 33 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने लोक दृष्टिमें जिस यादवशरीरसे पृथ्वीका भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई कटिसे काँटा निकालकर फिर दोनोको फेंक दे। भगवान्की दृष्टिमें दोनों ही समान थे ।। 34 । जैसे वे नटके समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका | त्याग कर देते हैं, वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीरसे पृथ्वीका भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ।। 35 ।।जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णने जब अपने मनुष्यके से शरीरसे इस पृथ्वीका परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगोंको अधर्ममें फँसानेवाला कलियुग आ धमका ॥ 36 ॥ महाराज युधिष्ठिरसे कलियुगका फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखा देशमें, नगरमे, घरोंमें और प्राणियोंमें लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अथर्मोकी बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थानका निश्चय किया ।। 37 ।। उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित्को, जो गुणोंमें उन्होंके समान थे, समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वीके सम्राट् पदपर हस्तिनापुरमे अभिषिक्त किया ॥ 38 ॥ उन्होंने मथुरामें शूरसेनाधिपतिके रूपमें अनिरुद्ध के पुत्र वज्रका अभिषेक किया। इसके बाद | समर्थ युधिष्ठिरने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अप्रियोको अपने लोन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रम धर्मसे मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया ॥ 39 ॥ युधिष्ठिरने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले ॥ 40 ॥ उन्होंने दृढ भावनासे वाणीको मनमें, मनको प्राणमे, प्राणको अपानमें और अपानको उसकी क्रियाके साथ मृत्युमें तथा मृत्युको पञ्चभूतमय शरीरमें लीन कर लिया ॥ 41 ॥ इस प्रकार शरीरको मृत्युरुप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुणमें मिला दिया, त्रिगुणको मूल प्रकृतिमें, सर्वकारणरूपा प्रकृतिको आत्मामें और आत्माको अविनाशी ब्रह्ममें विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपञ्च ब्रह्मस्वरूप है ॥ 42 ॥ इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूपको ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड़, उन्मत्त या पिशाच हो ।। 43 । फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने. घरसे निकल पड़े। हृदयमें उस परब्रह्मका ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशाको यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्माजन जा चुके है ।। 44 ।।
भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिरके छोटे भाइयोंने भी देखा कि अब पृथ्वीमें सभी लोगोको अधर्मके सहायक कलियुगने | प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणोकी प्राप्तिका दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाईके पीछे-पीछे चल पड़े ।। 45 ।।उन्होंने जीवनके सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; | इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान् श्रीकृष्णके चरण कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदयमें धारण किया ॥ 46 ॥ पाण्डवोंके हृदयमें भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंके ध्यानसे भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान् श्रीकृष्णके उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूपमें अनन्य भावसे स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलतः उन्होंने | अपने विशुद्ध अन्तःकरणसे स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्योंको कभी प्राप्त नहीं हो सकती ।। 47-48 ॥ संयमी एवं श्रीकृष्णके प्रेमावेशमें मुग्ध भगवन्मय विदुरजीने भी अपने शरीरको प्रभास क्षेत्रमें त्याग दिया। उस समय उन्हें लेनेके लिये आये हुए पितरोंके साथ वे अपने लोक (यमलोक) को चले गये ।। 49 ।। द्रौपदीने देखा कि अब पाण्डवलोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेमसे भगवान् श्रीकृष्णका ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं ॥ 50 ॥
भगवान् के प्यारे भक्त पाण्डवोंके महाप्रयाणकी इस परम पवित्र और मङ्गलमयी कथाको जो पुरुष श्रद्धासे सुनता है, वह निश्चय ही भगवान्की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ॥ 51 ॥
अध्याय 16 परीक्षित्की दिग्विजय तथा धर्म-पृथ्वी संवाद
सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! पाण्डवोंके महाप्रयाणके पश्चात् भगवान्के परम भक्त राजा परीक्षित् श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी शिक्षाके अनुसार पृथ्वीका शासन करने लगे। उनके जन्मके समय ज्योतिषियोंने उनके सम्बन्धमें जो कुछ कहा था, वास्तवमें वे सभी महान् गुण उनमें विद्यमान थे ॥ 1 ॥ उन्होंने उत्तरकी पुत्री इरावतीसे विवाह किया। उससे उन्होंने जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न किये ॥ 2 ॥ तथा कृपाचार्यको आचार्य बनाकर उन्होंने गङ्गाके तटपर तीन अश्वमेध यज्ञ किये, जिनमें ब्राह्मणोंको पुष्कल दक्षिणा दी गयी। उन यज्ञोंमें देवताओंने प्रत्यक्ष रूपमें प्रकट होकर अपना भाग ग्रहण किया था ॥ 3 ॥| एक बार दिग्विजय करते समय उन्होंने देखा कि शुद्रके रूपमें कलियुग राजाका वेष धारण करके एक गाय और बैलके जोड़ेको ठोकरोंसे मार रहा है। तब उन्होंने उसे बलपूर्वक | पकड़कर दण्ड दिया ॥ 4 ॥
शौनकजीने पूछा- महाभाग्यवान् सूतजी ! दिग्विजयके समय महाराज परीक्षित्ने कलियुगको दण्ड देकर ही क्यों छोड़ दिया—मार क्यों नही डाला ? क्योंकि राजाका बेष धारण करनेपर भी था तो वह अधम शूद्र ही, जिसने गायको लातसे मारा था ? यदि यह प्रसङ्ग भगवान् श्रीकृष्णकी लीलासे अथवा उनके चरणकमलोंके मकरन्द-रसका पान करनेवाले रसिक महानुभावोंसे सम्बन्ध रखता हो तो अवश्य कहिये। दूसरी व्यर्धकी बातोंसे क्या लाभ उनमें तो आयु व्यर्थ नष्ट होती है ।। 5-6 ॥ प्यारे सूतजी ! जो लोग चाहते तो हैं मोक्ष परन्तु अल्पायु होनेके कारण मृत्युसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके कल्याणके लिये भगवान् यमका आवाहन करके उन्हें यहाँ शान्तिकर्ममे नियुक्त कर दिया गया है ॥ 7 ॥ जबतक यमराज यहाँ इस कर्ममें नियुक्त हैं, तबतक किसीकी मृत्यु नहीं होगी। मृत्युसे प्रस्त मनुष्यलोकके जीव भी भगवान्की सुधातुल्य लीला-कथाका पान कर सके, इसीलिये महर्षियोंने भगवान् यमको यहाँ बुलाया है ॥ 8 ॥ एक तो थोड़ी आयु और दूसरे कम समझ। ऐसी अवस्थामें संसारके मन्दभाग्य विषयी पुरुषोंकी आयु व्यर्थ ही बीती जा रही है—नींदमें रात और व्यर्थके कामोंमें दिन ॥ 9 ॥
सूतजीने कहा- जिस समय राजा परीक्षित् कुरुजाङ्गल देशमें सम्राट के रूपमें निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने सुना कि मेरी सेनाद्वारा सुरक्षित साम्राज्यमें कलियुगका प्रवेश हो गया है। इस समाचारसे उन्हें दुःख तो अवश्य हुआ परन्तु यह सोचकर कि युद्ध करनेका अवसर हाथ लगा, वे उतने दुःखी नहीं हुए। इसके बाद युद्धवीर परीक्षित्ने धनुष हाथमें ले लिया ॥ 10 ॥ वे श्यामवर्णके घोड़ोंसे जुते हुए, सिंहकी ध्वजावाले, सुसज्जित रथपर सवार होकर दिग्विजय करनेके लिये नगरसे बाहर निकल पड़े। उस समय रथ, हाथी, घोड़े और पैदल सेना उनके साथ-साथ चल रही थी ॥ 11 ॥ उन्होंने भद्राश्च केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षोंको जीतकर वहाँके राजाओंसे भेंट ली ।। 12 ।। उन्हें उन देशोंमें सर्वत्र अपने पूर्वज महात्माओंका सुयश सुनने को मिला। उस यशोगान से | पद-पदपर भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा प्रकट होती थी ॥ 13 ॥इसके साथ ही उन्हें यह भी सुननेको मिलता था कि भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रकी ज्वालासे किस प्रकार उनकी रक्षा की थी, यदुवंशी और पाण्डवोंमें परस्पर कितना प्रेम था तथा पाण्डवौकी भगवान् श्रीकृष्ण में कितनी भक्ति थी ।। 14 ।। जो लोग उन्हें ये चरित्र सुनाते, उनपर महामना राजा परीक्षित् बहुत प्रसन्न होते; उनके नेत्र प्रेमसे खिल उठते वे बड़ी उदारतासे उन्हें बहुमूल्य वस्त्र और मणियोंके हार उपहाररूपमें देते ॥ 15 ॥ वे सुनते कि भगवान् श्रीकृष्ण प्रेमपरवश होकर पाण्डवोके सारथिका काम किया, उनके सभासद् बने यहाँतक कि उनके मनके अनुसार काम करके उनकी सेवा भी को उनके सुखा तो थे हो, दूत भी बने। वे रातको शस्त्र ग्रहण करके वीरासनसे बैठ जाते और शिविरका पहरा देते, उनके पीछे-पीछे चलते, स्तुति करते तथा प्रणाम करते; इतना ही नहीं, अपने प्रेमी पाण्डवोंके चरणों में उन्होंने सारे जगतको झुका दिया। तब परीक्षित्की भक्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें और भी बढ़ जाती ॥ 16 ॥ इस प्रकार वे दिन-दिन पाण्डवोंके आचरणका अनुसरण करते हुए दिग्विजय कर रहे थे। उन्हीं दिनों उनके शिविरसे थोड़ी ही दूरपर एक आश्चर्यजनक घटना घटी। वह मैं आपको सुनाता हूँ ॥ 17 धर्म बैलका रूप धारण करके एक पैरसे घूम रहा था। एक स्थानपर उसे गायके रूपमें पृथ्वी मिली। पुत्रकी मृत्युसे दुःखिनी माताके समान उसके नेत्रोंसे आँसुओंके झरने झर रहे थे। उसका शरीर श्रीहीन हो गया था। धर्म पृथ्वीसे पूछने लगा ॥ 18 ॥
धर्मने कहा – कल्याणि ! कुशलसे तो हो न ? तुम्हारा मुख कुछ-कुछ मलिन हो रहा है। तुम श्रीहीन हो रही हो, मालूम होता है तुम्हारे हृदयमें कुछ-न-कुछ दुःख अवश्य है। क्या तुम्हारा कोई सम्बन्धी दूर देशमें चला गया है, जिसके लिये तुम इतनी चिन्ता कर रही हो ? 19 कहीं तुम मेरी तो चिन्ता नहीं कर रही हो कि अब इसके तीन पैर टूट गये, एक ही पैर रह गया है? सम्भव है, तुम अपने लिये शोक कर रही हो कि अब तुम्हारे ऊपर शासन करेंगे। तुम्हें इन देवताओंके लिये भी खेद हो सकता है, जिन्हें अब यज्ञोंमें आहुति नहीं दी जाती अथवा उस प्रजाके लिये भी, जो वर्षा न होनेके कारण अकाल एवं दुर्भिक्षसे पीड़ित हो रही है ॥ 20 ॥ देवि ! क्या तुम राक्षस-सरेखे मनुष्योंके द्वारा सतायी हुई अरक्षित स्त्रियों एवं आर्तबालकोंके लिये | शोक कर रही हो ? सम्भव है, विद्या अब कुकर्मी ब्राह्मणोंके चंगुलमें पड़ गयी है और ब्राह्मण विप्रद्रोही राजाओंकी सेवा करने लगे हैं, और इसीका तुम्हें दुःख हो ॥ 21 ॥आजके नाममात्रके राजा तो सोलहों आने कलियुगी हो गये हैं, उन्होंने बड़े-बड़े देशोंको भी उजाड़ डाला है। क्या तुम उन राजाओं या देशोंके लिये शोक कर रही हो ? आजकी जनता खान-पान, वस्त्र, स्नान और स्त्री-सहवास आदिमें शास्त्रीय नियमोंका पालन न करके स्वेच्छाचार कर रही है; क्या इसके लिये तुम दुःखी हो ? ।। 22 ॥ मा पृथ्वी! अब समझमें आया, हो न हो तुम्हें भगवान् श्रीकृष्णकी याद आ रही होगी; क्योंकि उन्होंने तुम्हारा भार | उतारनेके लिये ही अवतार लिया था और ऐसी लीलाएँ की थीं, जो मोक्षका भी अवलम्बन है। अब उनके लीला | संवरण कर लेनेपर उनके परित्यागसे तुम दुःखी हो रही हो ।। 23 ।। देवि । तुम तो धन रत्नोंकी खान हो। तुम अपने क्लेशका कारण, जिससे तुम इतनी दुर्बल हो गयी हो, मुझे बतलाओ मालूम होता है, बड़े-बड़े बलवानों को भी हरा देनेवाले कालने देवताओंके द्वारा वन्दनीय तुम्हारे सौभाग्यको छीन लिया है ॥ 24 ॥
पृथ्वीने कहा- धर्म ! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब स्वयं जानते हो। जिन भगवान्के सहारे तुम सारे संसारको मुख पहुँचानेवाले अपने चारों चरणोंसे युक्त थे, जिनमें सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा, त्याग, सन्तोष, सरलता, शम, दम, तप, समता, तितिक्षा, उपरति, शास्त्रविचार, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, चोरता, तेज, बल, स्मृति, स्वतन्त्रता, कौशल, कान्ति, धैर्य, कोमलता, निर्भीकता, विनय, शील, साहस, उत्साह, बल, सौभाग्य, गम्भीरता, स्थिरता, आस्तिकता, कीर्ति, गौरव और निरहङ्कारता ये उनतालीस अप्राकृत गुण तथा महत्त्वाकांक्षी पुरुषोंके द्वारा वाञ्छनीय (शरणागतवत्सलता आदि) और भी बहुत-से महान् गुण उनकी सेवा करनेके लिये नित्य निरन्तर निवास करते हैं, एक क्षणके लिये भी उनसे अलग नहीं होते- उन्हीं समस्त गुणोंके आश्रय, सौन्दर्यधाम भगवान् श्रीकृष्ण इस समय इस लोकसे अपनी लीला सेवरण कर ली और यह संसार पापमय कलियुगकी कुदृष्टिका शिकार हो गया। यही | देखकर मुझे बड़ा शोक हो रहा है ।। 25-30 ॥अपने लिये, देवताओंमें श्रेष्ठ तुम्हारे लिये, देवता, पितर, ऋषि, साधु और समस्त वर्णों तथा आश्रमोंके मनुष्योंके लिये मैं | शोकग्रस्त हो रही हूँ ॥ 31 ॥ जिनका कृपाकटाक्ष प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मा आदि देवता भगवान्के शरणागत होकर बहुत दिनोंतक तपस्या करते रहे, वही लक्ष्मीजी अपने निवासस्थान कमलवनका परित्याग करके बड़े प्रेमसे जिनके चरणकमलोंकी सुभग छत्रछायाका सेवन करती हैं, उन्हीं भगवान्के कमल, वज्र, अङ्कश, ध्वजा आदि चिह्नोंसे युक्त श्रीचरणोंसे विभूषित होनेके कारण मुझे महान् वैभव प्राप्त हुआ था और मेरी तीनों लोकोंसे बढ़कर शोभा हुई थी; परन्तु मेरे सौभाग्यका अब अन्त हो गया ! भगवान्ने मुझ अभागिनीको छोड़ दिया ! मालूम होता है मुझे अपने सौभाग्यपर गर्व हो गया था, इसीलिये उन्होंने मुझे यह दण्ड दिया है ।। 32-33 ॥
तुम अपने तीन चरणोंके कम हो जानेसे मन-ही-मन कुढ़ रहे थे; अतः अपने पुरुषार्थसे तुम्हें अपने ही अन्दर पुनः सब अङ्गोंसे पूर्ण एवं स्वस्थं कर देनेके लिये वे अत्यन्त रमणीय श्यामसुन्दर विग्रहसे यदुवंशमें प्रकट हुए और मेरे बड़े भारी भारको, जो असुरवंशी राजाओंकी सैकड़ों अक्षौहिणियों के रूपमें था, नष्ट कर डाला। क्योंकि वे परम स्वतन्त्र थे ॥ 34 ॥ जिन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन, मनोहर मुसकान और मीठी मीठी बातोंसे सत्यभामा आदि मधुमयी मानिनियोंके मानके साथ धीरजको भी छीन लिया था और जिनके चरण-कमलोंके स्पर्शसे मैं निरन्तर आनन्दसे पुलकित रहती थी, उन पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्णका विरह भला कौन सह सकती है ॥ 35 ॥
धर्म और पृथ्वी इस प्रकार आपसमें बातचीत कर ही रहे थे कि उसी समय राजर्षि परीक्षित् पूर्ववाहिनी सरस्वतीके
तटपर आ पहुँचे ।। 36 ।।
अध्याय 17 महाराज परीक्षितद्वारा कलियुगका दमन
सूतजी कहते हैं – शौनकजी ! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित्ने देखा कि एक राजवेषधारी शूद्र हाथमें डंडा लिये हुए है और गाय-बैलके एक जोड़ेको इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो ॥ 1 ॥ वह कमल-तन्तुके समान श्वेत रंगका बैल एक पैरसे खड़ा काँप रहा था तथा शुद्रकी ताड़नासे पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र त्याग कर रहा था ॥ 2 ॥ धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थोको देनेवाली वह गाय भी बार-बार शूद्रके पैरोंकी ठोकरें खाकर | अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखोंसे आँसू बहते जा रहे थे ॥ 3 ॥ स्वर्णजटित रथपर चढ़े हुए राजा परीक्षितूने अपना धनुष चढ़ाकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उसको ललकारा || 4 || अरे ! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्यके इन दुर्बल प्राणियोंको बलपूर्वक मार रहा है ? तूने नटकी भाँति वेष तो राजाका सा बना रखा है, परन्तु कर्मसे तू शूद्र जान पड़ता है ॥ 5 ॥ हमारे दादा अर्जुनके साथ भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इस प्रकार निर्जन स्थानमें निरपराधोंपर प्रहार करनेवाला तू अपराधी है, अतः वधके योग्य है ॥ 6 ॥
उन्होंने धर्मसे पूछा – कमल – नालके समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होनेपर भी आप एक ही पैरसे चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैलके रूपमें कोई देवता है ? ॥ 7 ॥ | अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियोंके बाहुबलसे सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणीकी आँखोसे शोकके आँसू बहते मैंने नहीं देखे ॥ 8 ॥ धेनुपुत्र अब आप शोक न करें। इस शूद्रसे निर्भय हो जायँ। गोमाता ! मैं दुष्टोको दण्ड देनेवाला हूँ। अब आप रोये नहीं। आपका कल्याण हो ॥ 9 ॥ देवि! जिस राजाके राज्यमें दुष्टोंके उपद्रवसे सारी प्रजा त्रस्त रहती है, उस मतवाले राजाकी कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं ॥ 10 ॥ राजाओंका परम धर्म यही है कि वे दुःखियोंका दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियोंको पीड़ित करनेवाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूंगा ॥ 11 ॥ सुरभिनन्दन। आप तो चार पैरवाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले ? श्रीकृष्णके अनुयायी राजाओंके राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो ॥ 12 ॥ वृषभ ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप जैसे निरपराध साधुओंका अङ्ग भङ्ग करके किस दुष्टने पाण्डवों की कीर्ति कल लगाया है ? || 13 || जो किसी निरपराध प्राणीको सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टोंका दमन करनेसे साधुओंका कल्याण हो होता है 14 ॥जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियोंको दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजाको काट डालूँगा ॥ 15 ॥ बिना आपत्तिकालके मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्ममें स्थित लोगोंका पालन करना राजाओंका परम धर्म है 16
धर्मने कहा- राजन् ! आप महाराज पाण्डुके वंशज हैं। आपका इस प्रकार दुःखियोंको आश्वासन देना आपके योग्य ही है; क्योंकि आपके पूर्वजोंके श्रेष्ठ गुणोंने भगवान् श्रीकृष्णको उनका सारथि और दूत आदि बना दिया था ॥ 17 ॥ नरेन्द्र ! शास्त्रोंके विभिन्न वचनोंसे मोहित होनेके कारण हम उस पुरुषको नहीं जानते, जिससे क्लेशोंके कारण उत्पन्न होते है ।। 18 ।। जो लोग किसी भी प्रकारके द्वैतको स्वीकार नहीं करते, वे अपने-आपको ही अपने दुःखका | कारण बतलाते हैं। कोई प्रारब्धको कारण बतलाते हैं, तो कोई कर्मको। कुछ लोग स्वभावको, तो कुछ लोग ईश्वरको दुःखका कारण मानते हैं ॥ 19 ॥ किन्हीं- किन्हींका ऐसा भी निश्चय है कि दुःखका कारण न तो तर्कके द्वारा जाना जा सकता है और न वाणीके द्वारा बतलाया जा सकता है। राजर्षे ! अब इनमें कौन-सा मत ठीक है, यह आप अपनी बुद्धिसे ही विचार लीजिये ॥ 20
सूतजी कहते हैं-ऋषिश्रेष्ठ शौनकी धर्म यह | प्रवचन सुनकर सम्राट् परीक्षित बहुत प्रसन्न हुए, उनका खेद मिट गया। उन्होंने शान्तचित्त होकर उनसे कहा ॥ 21 ॥
परीक्षित्ने कहा- धर्मका तत्त्व जाननेवाले वृषभदेव ! आप धर्मका उपदेश कर रहे हैं। अवश्य ही आप वृषभके रूपमें स्वयं धर्म हैं। (आपने अपनेको दुःख देनेवालेका नाम इसलिये नहीं बताया है कि) अधर्म करनेवालेको जो नरकादि प्राप्त होते हैं, वे ही चुगली करनेवालेको भी मिलते हैं ॥ 22 ॥ अथवा यही सिद्धान्त निश्चित है कि प्राणियोंके मन और वाणी से परमेश्वरकी मायाके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ।। 23 ।। धर्मदेव सत्ययुगमें आपके चार चरण थे-तप, पवित्रता, दया और सत्य। इस समय अधर्मके अंश गर्व, आसक्ति और हैं मदसे तीन चरण नष्ट हो चुके हैं ।। 24 ।। अब आपका चौथा चरण केवल ‘सत्य’ ही बच रहा है। उसीके बलपर आप जी रहे हैं। असत्यसे पुष्ट हुआ यह अधर्मरूप कलियुग उसे भी ग्रास कर लेना चाहता है ॥ 25 ॥ये गौ माता साक्षात् पृथ्वी हैं। भगवान्ने इनका भारी बोझ उतार दिया था और ये उनके राशि राशि सौन्दर्य बिखेरनेवाले चरणचिह्नोंसे सर्वत्र उत्सवमयी हो गये थीं ।। 26 ।। अब ये उनसे बिछुड़ गयी हैं। वे साध्वी | अभागिनी के समान नेत्रोंमें जल भरकर यह चिन्ता कर रही हैं कि अब राजाका स्वाँग बनाकर ब्राह्मणद्रोही शूद्र मुझे भोगेगे ॥ 27 ॥
महारथी परीक्षिने इस प्रकार धर्म और पृथ्वीको सान्त्वना दी। फिर उन्होंने अधर्मके कारणरूप कलियुगको मारनेके लिये तीक्ष्ण तलवार उठायी ॥ 28 ॥ कलियुग ताड़ गया कि ये तो अब मुझे मार ही डालना चाहते हैं; अतः झटपट उसने अपने राजचिह्न उतार डाले और भयविल होकर उनके चरणोंमें अपना सिर रख दिया ॥ 29 ॥ परीक्षित् बड़े यशस्वी, दीनवत्सल और शरणागतरक्षक थे। उन्होंने जब कलियुगको अपने पैरोंपर | पड़े देखा तो कृपा करके उसको मारा नहीं, अपितु हँसते हुए-से उससे कहा ॥ 30 ॥
परीक्षित् बोले- जब तू हाथ जोड़कर शरण आ गया, तब अर्जुनके यशस्वी वंशमें उत्पन्न हुए किसी भी | वीरसे तुझे कोई भय नहीं है। परन्तु तू अधर्मका सहायक है, इसलिये तुझे मेरे राज्यमें बिलकुल नहीं रहना चाहिये ॥ 31 ॥ तेरे राजाओंके शरीरमें रहनेसे ही लोभ, झूठ, चोरी, दुष्टता, स्वधर्मत्याग, दरिद्रता, कपट, कलह, दम्भ और दूसरे पापोंकी बढ़ती हो रही है ॥ 32 ॥ अतः अधर्मके साथी इस ब्रह्मावर्त तू एक क्षणके लिये भी न ठहरना; क्योंकि यह धर्म और सत्यका निवासस्थान है। इस क्षेत्रमें यज्ञविधिके जाननेवाले महात्मा यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुषभगवान्की आराधना करते रहते हैं ।। 33 ।। इस देशमें भगवान् श्रीहरि योंके रूपमें निवास करते हैं. यशोंके द्वारा उनकी पूजा होती है और वे यज्ञ करनेवालोंका कल्याण करते हैं। वे सर्वात्मा भगवान् वायुकी भाँति समस्त चराचर जीवोंके भीतर और बाहर एकरस स्थित | रहते हुए उनकी कामनाओंको पूर्ण करते रहते हैं ।। 34 ।।
सूतजी कहते हैं परीक्षितको यह आज्ञा सुनकर कलियुग सिहर उठा। यमराजके समान मारनेके लिये उद्यत हाथमें तलवार लिये हुए परीक्षित्मे वह बोला ॥ 35 ॥कलिने कहा- सार्वभौम आपकी आज्ञासे जहाँ कहीं भी मैं रहनेका विचार करता हूँ, वहीं देखता हूँ कि आप धनुषपर बाण चढ़ाये खड़े हैं ॥ 36 ॥ धार्मिक शिरोमणे | आप मुझे वह स्थान बतलाइये, जहाँ मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ स्थिर होकर रह सकूँ ॥ 37 ॥
सूतजी कहते हैं- कलियुगकी प्रार्थना स्वीकार करके राजा परीक्षितने उसे चार स्थान दियेद्यूत, मद्यपान, स्त्री-सङ्ग और हिंसा इन स्थानोंमें क्रमशः असत्य, मद, आसक्ति और निर्दयता – ये चार प्रकारके अधर्म निवास करते हैं ।। 38 ।। उसने और भी स्थान माँगे तब समर्थ परीक्षितने उसे रहने के लिये एक और स्थान — ‘सुवर्ण’ (धन) — दिया। इस प्रकार – कलियुगके पाँच स्थान हो गये-झूठ, मद, काम, वैर और रजोगुण ॥ 39 ॥ परीक्षित्के दिये हुए इन्हीं पाँच स्थानों में अधर्मका मूल कारण कलि उनकी आशाओंका पालन करता हुआ निवास करने लगा ।। 40 ।। इसलिये आत्मकल्याणकामी पुरुषको इन पाँचों स्थानोंका सेवन कभी नहीं करना चाहिये। धार्मिक राजा, प्रजावर्गक लौकिक नेता और धर्मोपदेष्टा गुरुओंको तो बड़ी सावधानीसे इनका त्याग करना चाहिये 41 राजा परीक्षितने इसके बाद वृषभरूप धर्मक तीनों चरण- तपस्या, शौच और दया जोड़ दिये और आश्वासन देकर पृथ्वीका संवर्धन किया ॥ 42 ॥ वे ही महाराजा परीक्षित् इस समय अपने राजसिंहासनपर, जिसे उनके पितामह महाराज युधिष्ठिरने वनमें जाते समय उन्हें दिया था, विराजमान है। ।। 43 ।। वे परम यशस्वी सौभाग्यभाजन चक्रवर्ती सम्राट् राजर्षि परीक्षित् इस समय हस्तिनापुरमें. कौरव-कुलकी राज्यलक्ष्मीसे शोभायमान है 44 अभिमन्युनन्दन राजा परीक्षित् वास्तवमे ऐसे ही प्रभावशाली हैं, जिनके शासनकालमें आप लोग इस दीर्घकालीन यज्ञके लिये दीक्षित हुए हैं* ll 45ll
अध्याय 18 राजा परीक्षितको शृङ्गी ऋषिका शाप
सूतजी कहते हैं अद्भुत कर्मा भगवान् श्रीकृ कृपासे राजा परीक्षित् अपनी माताकी कोखमें अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे जल जानेपर भी मरे नहीं ।। 1 ।। जिस समय ब्राह्मणके शापसे उन्हें इसनेके लिये तक्षक आया, उस समय वे प्राणनाशके महान् भयसे भी भयभीत नहीं हुए; क्योंकि उन्होंने अपना चित्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणों में समर्पित कर रखा था ॥ 2 ॥ उन्होंने सबकी आसक्ति छोड़ दी, गङ्गातटपर जाकर श्रीशुकदेव नसे उपदेश महण किया और इस प्रकार भगवान्के स्वरूपको जानकर अपने शरीरको त्याग दिया ॥ जो लोग भगवान् श्रीकृष्णको लीलाकथा कहते रहते हैं, उस कथामृतका पान करते रहते हैं और इन दोनों ही साधनोंके द्वारा उनके चरणकमलोंका स्मरण करते रहते हैं, उन्हें अन्तकालमें भी मोह नहीं होता ॥ 4 ॥ जबतक पृथ्वीपर अभिमन्युनन्दन महाराज परीक्षित सम्राट् रहे, तबतक चारों ओर व्याप्त हो जानेपर भी कलियुगका कुछ भी प्रभाव नहीं था ॥ 5 ॥ वैसे तो जिस दिन, जिस क्षण श्रीकृष्णने पृथ्वीका परित्याग किया, उसी समय पृथ्वीमें अधर्मका मूलकारण कलियुग आ गया था ॥ 6 ॥ भ्रमर के समान सारग्राही सम्राट् परीक्षित् कलियुग कोई द्वेष नहीं रखते थे; क्योंकि इसमें यह एक बहुत बड़ा गुण है कि है पुण्यकर्म तो सङ्कल्पमात्रसे ही फलीभूत हो जाते है, परन्तु पापकर्मका फल शरीरसे करनेपर ही मिलता है; सङ्कल्पमात्रसे नहीं ॥ 7 ॥ यह भेड़ियेके समान बालकों के प्रति शूरवीर और धीर वीर पुरुषोंके लिये बड़ा भी है। यह प्रमादी मनुष्यको अपने वशमें करनेके लिये ही सदा सावधान रहता है ॥ 8 ॥ शैनकादि आपका युक्त राजा परीक्षित्का पवित्र चरित्र सुनाया। आपलोगोंने यही पूछा था ॥ 9 ॥ भगवान् श्रीकृष्ण कीर्तन करनेयोग्य बहुत -सी लीलाएँ करते हैं। इसलिये उनके गुण और लीलाओंसे सम्बन्ध रखनेवाली जितनी भी कथाएँ हैं, कल्याणकामी पुरुषोको उन सबका सेवन करना चाहिये ।। 10 ।।
ऋषियोंने कहा- सौम्यस्वभाव सूतजी आप युग-युग जीये, क्योंकि मृत्यु प्रवाह पड़े हुए हमलोगों को आप भगवान् श्रीकृष्णकी अमृतमयी उज्ज्वल कीर्तिका श्रवण कराते हैं ।। 11 ।।यश करते-करते उसके भूसे हमलोगोंका शरीर भूमिल हो गया है। फिर भी इस कर्मका कोई विश्वास नहीं है। इधर आप तो वर्तमानमें ही भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरण कमलोंका मादक और मधुर मधु पिलाकर हमें तृप्त कर रहे हैं ॥ 12 ॥ भगवत्-प्रेमी भक्तोंके लवमात्रके सत्सङ्गसे स्वर्ग एवं मोक्षकी भी तुलना नहीं की जा सकती; फिर मनुष्योंके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है ॥ 13 ॥ ऐसा कौन रस-मर्मज्ञ होगा, जो महापुरुषोंके एकमात्र जीवन सर्वस्व श्रीकृष्णकी लीला-कथाओंसे तृप्त हो जाय ? समस्त प्राकृत गुणांसे अतीत भगवान्के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणगणोंका पार तो ब्रह्मा, शङ्कर आदि बड़े-बड़े योगेश्वर भी नहीं पा सके ॥ 14 ॥ विद्वन्! आप भगवान्को ही अपने जीवनका ध्रुवतारा मानते हैं। इसलिये आप सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्के उदार और विशुद्ध चरित्रोंका हम श्रद्धालु श्रोताओंके लिये विस्तारसे वर्णन कीजिये ।। 15 ।। भगवान्के परम प्रेमी | महाबुद्धि परीक्षित्ने श्रीशुकदेवजीके उपदेश किये हुए जिस ज्ञानसे मोक्षस्वरूप भगवान्के चरणकमलोको प्राप्त किया, आप कृपा करके उसी ज्ञान और परीक्षित्के परम पवित्र उपाख्यानका वर्णन कीजिये, क्योंकि उसमें कोई बात छिपाकर नहीं कही गयी होगी और भगवत्प्रेमकी अद्भुत योगनिष्ठाका निरूपण किया गया होगा। उसमें पद-पदपर भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओंका वर्णन हुआ होगा। भगवान्के प्यारे भक्तोंको वैसा प्रसङ्ग सुननेमें बड़ा रस मिलता है ।। 16-17 ।।
सूतजी कहते हैं— अहो विलोम जातिमें उत्पन्न होनेपर भी महात्माओंकी सेवा करनेके कारण आज हमारा जन्म सफल हो गया। क्योंकि महापुरुषोंके साथ बातचीत करनेमात्र से ही नीच कुलमें उत्पन्न होनेकी मनोव्यथा शीघ्र ही मिट जाती है ॥ 18 फिर उन लोगोंकी तो बात ही क्या है, जो सत्पुरुषोंके एकमात्र आश्रय भगवान्का नाम लेते हैं। भगवान्की शक्ति अनन्त है, वे स्वयं अनन्त है। वास्तवमें उनके गुणोंकी अनन्तता के कारण ही उन्हें अनन्त कहा गया है ॥ 19 ॥भगवान्के गुणोंकी समता भी जब कोई नहीं कर सकता, तब उनसे बढ़कर तो कोई हो ही कैसे सकता है। उनके गुणोंकी यह विशेषता समझानेके लिये इतना कह देना ही पर्याप्त है कि लक्ष्मीजी अपनेको प्राप्त करनेकी इच्छासे प्रार्थना करनेवाले ब्रहादि देवताओंको छोड़कर भगवान्के न चाहनेपर भी उनके चरणकमलोंकी रजका ही सेवन करती हैं ॥ 20 ॥ ब्रह्माजीने भगवान्के चरणोंका प्रक्षालन करनेके लिये जो जल समर्पित किया था, वही उनके चरणनखोंसे निकलकर गङ्गाजीके रूपमें प्रवाहित हुआ। यह जल महादेवजीसहित सारे जगत्को पवित्र करता है। ऐसी अवस्थामै त्रिभुवनमें श्रीकृष्णके अतिरिक्त ‘भगवान्’ शब्दका दूसरा और क्या अर्थ हो सकता है ॥ 21 ॥ जिनके प्रेमको प्राप्त करके धीर पुरुष बिना किसी हिचकके | देह-गेह आदिकी दृढ़ आसक्तिको छोड़ देते हैं और उस अन्तिम परमहंस आश्रमको स्वीकार करते हैं, जिसमें किसीको कष्ट न पहुँचाना और सब ओरसे उपशान्त हो जाना हो स्वधर्म होता है ॥ 22 ॥ सूर्यके समान प्रकाशमान महात्माओ ! आपलोगोंने मुझसे जो कुछ पूछा है, वह मैं अपनी समझके अनुसार सुनाता हूँ जैसे पक्षी अपनी शक्तिके अनुसार आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही विद्वान्लोग भी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही श्रीकृष्णकी लीलाका वर्णन करते हैं॥ 23 ॥
एक दिन राजा परीक्षित् धनुष लेकर वनमें शिकार खेलने गये हुए थे। हरिणोंके पीछे दौड़ते-दौड़ते वे थक गये और उन्हें बड़े जोरकी भूख और प्यास लगी ॥ 24 ॥ जब कहीं उन्हें कोई जलाशय नहीं मिला, तब वे पासके | ही एक ऋषिके आश्रम में घुस गये। उन्होंने देखा कि वहाँ | आँखें बंद करके शान्तभावसे एक मुनि आसनपर बैठे हुए हैं ॥ 25 ॥ इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धिके निरुद्ध हो जानेसे वे संसारसे ऊपर उठ गये थे। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओंसे रहित निर्विकार ब्रह्मरूप तुरीय पदमें वे स्थित थे ॥ 26 ॥ उनका शरीर बिखरी हुई जटाओंसे और कृष्ण मृगचर्मसे ढका हुआ था। राजा परीक्षितूने ऐसी ही अवस्थामें उनसे जल माँगा, क्योंकि प्याससे उनका गला सूखा जा रहा था ॥ 27 ॥ जब राजाको वहाँ बैठनेके लिये तिनकेका आसन भी न मिला, किसीने उन्हें भूमिपर भी बैठनेको न कहा-अर्घ्य और आदरभरी मीठी बातें तो कहाँसे मिलती तब अपनेको – अपमानित सा मानकर वे क्रोधके वश हो गये ll28llशौनकजी! वे भूख-प्यास से छटपटा रहे थे, इसलियें एकाएक -उन्हें ब्राह्मणके प्रति ईर्ष्या और क्रोध हो आया। उनके जीवनमें इस प्रकारका यह पहला ही अवसर था ॥ 29 ॥ वहाँसे लौटते समय उन्होंने क्रोधवश धनुषकी नोकसे एक मरा साँप उठाकर -ऋषिके गलेमें डाल दिया और अपनी राजधानीमें चले. आये ॥ 30 ॥ उनके मनमें यह बात आयी कि इन्होंने जो अपने नेत्र बंद कर रखे हैं, सो क्या वास्तवमें इन्होंने अपनी सारी इन्द्रियवृत्तियोंका निरोध कर लिया है अथवा इन राजाओंसे हमारा क्या प्रयोजन है, यों सोचकर इन्होंने झूठ-मूठ समाधिका ढोंग रच रखा है ।। 31 ।।
उन शमीक मुनिका पुत्र बड़ा तेजस्वी था। वह दूसरे ऋषिकुमारोंके साथ पास ही खेल रहा था। जब उस बालकने सुना कि राजाने मेरे पिताके साथ दुर्व्यवहार किया है, तब वह इस प्रकार कहने लगा- ॥ 32 ॥ ये नरपति कहलानेवाले लोग उच्छिष्टभोजी कौओंके समान संड-मुसंड होकर कितना अन्याय करने लगे हैं। ब्राह्मणोंके दास होकर भी ये दरवाजेपर पहरा देनेवाले कुत्तेके समान अपने स्वामीका ही तिरस्कार करते हैं ।। 33 ।। ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको अपना द्वारपाल बनाया है। उन्हें द्वारपर रहकर रक्षा करनी चाहिये, घरमें घुसकर | स्वामीके बर्तनोंमें खानेका उसे अधिकार नहीं है ।। 34 ।। अतएव उन्मार्गगामियोंके शासक भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधार जानेपर इन मर्यादा तोड़नेवालोंको आज मैं दण्ड देता हूँ। मेरा तपोबल देखो’ ।। 35 ।। अपने साथी बालकोंसे इस प्रकार कहकर क्रोधसे लाल-लाल आँखोंवाले उस ऋषिकुमारने कौशिकी नदीके जलसे आचमन करके अपने वाणीरूपी वज्रका प्रयोग किया ।। 36 ।। कुलाङ्गार परीक्षितने मेरे पिताका अपमान | करके मर्यादाका उल्लङ्घन किया है, इसलिये मेरी प्रेरणा से आजके सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा’ ॥ 37 ॥
इसके बाद वह बालक अपने आश्रमपर आया और अपने पिताके गलेमें साँप देखकर उसे बड़ा दुःख हुआ तथा वह ढाड़ मारकर रोने लगा ।। 38 ।। विप्रवर शौनकजी । शमीक मुनिने अपने पुत्रका रोना-चिल्लाना सुनकर धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और देखा कि उनके गलेमें एक मरा साँप पड़ा है ।। 39 ।। उसे फेंककर उन्होंने अपने पुत्रसे पूछा – ‘बेटा!
तुम क्यों रो रहे हो ? किसने तुम्हारा अपकार किया है ?’ उनके इस प्रकार पूछनेपर बालकने सारा हाल कह दिया ll 40 llमहर्षि शमीकने राजाके शापकी बात सुनकर अपने पुत्रका अभिनन्दन नहीं किया। उनकी दृष्टिमें परीक्षित् शपके योग्य नहीं थे। उन्होंने कहा- ‘ओह, मूर्ख बालक ! तूने बड़ा पाप किया। खेद है कि उनकी थोड़ी-सी गलती के लिये तूने उनको इतना बड़ा दण्ड दिया ॥ 41 ॥ तेरी बुद्धि अभी कधी है। तुझे भगवत्स्वरूप राजाको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये; क्योंकि राजाके दुस्सह तेजसे सुरक्षित और निर्भय रहकर ही प्रजा अपना कल्याण सम्पादन करती है ।। 42 ।। जिस समय राजाका रूप धारण करके भगवान् पृथ्वीपर नहीं दिखायी देंगे, उस समय चोर बढ़ जायेंगे और अरक्षित भेड़ोंके समान एक क्षणमें ही लोगोंका नाश हो जायगा ॥ 43 ॥ राजाके नष्ट हो जानेपर धन आदि चुरानेवाले चोर जो पाप करेंगे, उसके साथ हमारा कोई सम्बन्ध न होनेपर भी वह हमपर भी लागू होगा। क्योंकि राजाके न रहनेपर लुटेरे बढ़ जाते हैं और वे आपसमें मार-पीट, गाली-गलौज करते हैं, साथ ही पशु, स्त्री और धन-सम्पत्ति भी लूट लेते। हैं ॥ 44 ॥ उस समय मनुष्योंका वर्णाश्रमाचारयुक्त वैदिक आर्यधर्म लुप्त हो जाता है, अर्थ-लोभ और काम-वासनाके विवश होकर लोग कुत्तों और बंदरोंके समान वर्णसङ्कर हो जाते हैं ॥ 45 ॥ सम्राट् परीक्षित् तो बड़े ही यशस्वी और धर्मधुरन्धर है। उन्होंने बहुत-से अश्वमेध यज्ञ किये हैं और वे भगवान्के परम प्यारे भक्त है: वे ही राजर्षि भूख-प्यास से व्याकुल होकर हमारे आश्रमपर आये थे, वे शापके योग्य | कदापि नहीं है ।। 46 ।। इस नासमझ बालकने हमारे निष्पाप सेवक राजाका अपराध किया है, सर्वात्मा भगवान् कृपा करके इसे क्षमा करें ॥ 47 ॥ भगवान्के भक्तोंमें भी बदला लेनेकी शक्ति होती है, परंतु वे दूसरोंके द्वारा किये हुए हुए. अपमान, धोखेबाजी, गाली-गलौज आक्षेप और मार-पीट का कोई बदला नहीं लेते ॥ 48 महामुनि शमीकको पुत्रके अपराधपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। राजा परीक्षितने जो उनका अपमान किया था उसपर तो उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया ।। 49 ।। महात्माओंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि जगत्में जब दूसरे लोग उन्हें सुख-दुःखादि द्वन्द्रोंमें डाल देते हैं, तब भी वे प्रायः हर्पित या व्यथित नहीं होते | आत्माका स्वरूप तो गुणोंसे सर्वथा परे है ॥ 50 ॥
अध्याय 19 परीक्षितका अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन
सूतजी कहते हैं— राजधानीमें पहुँचनेपर राजा परीक्षितको अपने उस निन्दनीय कर्मके लिये बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे अत्यन्त उदास हो गये और सोचने लगे—’मैंने निरपराध एवं अपना तेज छिपाये हुए ब्राह्मणके साथ अनार्य पुरुषोंके समान बड़ा नीच व्यवहार किया। यह बड़े खेदको बात है ॥ 1 ॥ अवश्य ही उन महात्माके अपमानके फलस्वरूप शीघ्र से शीघ्र मुझपर कोई घोर विपत्ति आवेगी। मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ; क्योंकि उससे मेरे पापका प्रायश्चित्त हो जायगा और फिर कभी मैं ऐसा काम करनेका दुःसाहस नहीं करूंगा ॥ 2 ॥ ब्राह्मणोकी क्रोधाग्नि आज ही मेरे राज्य, सेना और भरे-पूरे खजानेको जलाकर खाक कर दे जिससे फिर कभी मुझ दुष्टकी ब्राह्मण, देवता और गौओंके प्रति ऐसी पापबुद्धि न हो || 3 || वे इस प्रकार चिन्ता कर ही रहे थे कि उन्हें मालूम हुआ – ऋषिकुमारके शापसे तक्षक मुझे डसेगा। उन्हें वह धधकती हुई आगके समान तक्षकका डसना बहुत भला मालूम हुआ। उन्होंने सोचा कि बहुत दिनोंसे मैं संसारमें आसक्त हो रहा था, अब मुझे शीघ्र वैराग्य होनेका कारण प्राप्त हो गया ॥ 4 ॥ वे इस लोक और परलोकके भोगोंको तो पहलेसे ही तुच्छ और व्याज्य समझते थे। अब उनका स्वरूपतः त्याग करके भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी सेवाको ही सर्वोपरि मानकर आमरण अनशन-व्रत लेकर वे गङ्गातटपर बैठ गये॥ 5 ॥ गङ्गाजीका जल भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका वह पराग लेकर प्रवाहित होता है, जो श्रीमती तुलसीको गन्धसे मिश्रित है। यही कारण है कि वे लोकपालोके सहित ऊपर-नीचेके समस्त लोकोंको पवित्र करती हैं। कौन ऐसा मरणासन्न पुरुष होगा, जो उनका सेवन न करेगा ? ॥ 6 ॥
इस प्रकार गङ्गाजीके तटपर आमरण अनशनका निश्चय करके उन्होंने समस्त आसक्तियोंका परित्याग कर दिया और वे मुनियोंका व्रत स्वीकार करके अनन्यभावसे श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करने लगे ॥ 7 ॥उस समय त्रिलोकीको पवित्र करनेवाले बड़े-बड़े महानुभाव ऋषि-मुनि अपने शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। संतजन प्रायः तीर्थयात्राके बहाने स्वयं उन तीर्थस्थानोंको ही पवित्र करते हैं॥ 8 ॥ उस समय वहाँपर अत्रि, वसिष्ठ, च्यवन, शरद्वान्, अरिष्टनेमि, भृगू, अङ्गिरा, पराशर, विश्वामित्र, परशुराम, उतथ्य, इन्द्रप्रमद इष्मवाह, मेधातिथि, देवल, आर्ष्टिषण, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, और्व, कवय, अगस्त्य, भगवान् व्यास, नारद तथा इनके अतिरिक्त और भी कई श्रेष्ठ देवर्षि ब्रह्मर्षि तथा अरुणादि राजर्षिवयका शुभागमन हुआ। इस प्रकार विभिन्न गोत्रोंके मुख्य-मुख्य ऋषियोंको एकत्र देखकर राजाने सबका यथायोग्य सत्कार किया और उनके चरणोंपर सिर रखकर वन्दना की ॥ 9-11 ॥ जब सब लोग आरामसे अपने-अपने आसनोपर बैठ गये, तब महाराज परीक्षितने उन्हें फिरसे प्रणाम किया और उनके सामने खड़े होकर शुद्ध हृदयसे अञ्जलि बांधकर वे जो कुछ करना चाहते थे, उसे सुनाने लगे ॥ 12 ॥
राजा परीक्षित्ने कहा-अहो ! समस्त राजाओंमें हम धन्य हैं। धन्यतम हैं। क्योंकि अपने शील स्वभावके कारण हम आप महापुरुषोंके कृपापात्र बन गये हैं। राजवंशके लोग प्रायः निन्दित कर्म करनेके कारण ब्राह्मणोंके चरण-धोवनसे दूर पड़ जाते हैं – यह कितने खेदकी बात है ।। 13 ।। मैं भी राजा ही हूँ। निरन्तर देह-गेहमें आसक्त रहनेके कारण मैं भी पापरूप ही हो गया हूँ। इससे स्वयं भगवान् हो ब्राह्मणके शापके रूपमें मुझपर कृपा करनेके लिये पधारे हैं। यह शाप वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। क्योंकि इस प्रकारके शापसे संसारासक्त पुरुष भयभीत होकर विरक्त हो जाया करते हैं ।। 14 ।। ब्राह्मणो । अब मैंने अपने चित्तकोभगवान् के चरणों में समर्पित कर दिया है। आपलोग और मा गङ्गाजी शरणागत जानकर मुझपर अनुग्रह करें, ब्राह्मणकुमारके शापसे प्रेरित कोई दूसरा कपटसे तक्षकका रूप धरकर मुझे डस ले अथवा स्वयं तक्षक आकर इस ले; इसकी मुझें तनिक भी परवा नहीं है। आपलोग कृपा करके भगवान्की रसमयी लीलाओंका गायन करें ।। 15 ।। मैं आप ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रणाम | करके पुनः यही प्रार्थना करता हूँ कि मुझे कर्मवश चाहे जिस योनिमें जन्म लेना पड़े, भगवान् श्रीकृष्णके | चरणोंमें मेरा अनुराग हो, उनके चरणाश्रित महात्माओंसे विशेष प्रीति हो और जगत् के समस्त प्राणियोंके प्रति मेरी एक-सी मैत्री रहे। ऐसा आप आशीर्वाद दीजिये ॥ 16 ॥
महाराज परीक्षित् परम धीर थे। वे ऐसा दृढ़ निश्चय करके गङ्गाजीके दक्षिण तटपर पूर्वाग्र कुशोंके आसनपर उत्तरमुख होकर बैठ गये। राज-काजका भार तो उन्होंने पहले ही अपने पुत्र जनमेजयको सौंप दिया था ॥ 17 ॥ पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट् परीक्षित् जब इस प्रकार आमरण अनशनका निश्चय करके बैठ गये, तब आकाशमें स्थित | देवतालोग बड़े आनन्दसे उनकी प्रशंसा करते हुए वहाँ पृथ्वीपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे तथा उनके नगारे बार- बार बजने लगे ॥ 18 ॥ सभी उपस्थित महर्षियोंने परीक्षित्के निश्चयकी प्रशंसा की और ‘साधु-साधु’ कहकर उनका अनुमोदन किया। ऋषिलोग तो स्वभावसे ही लोगोंपर अनुग्रहकी वर्षा करते रहते हैं; यही नहीं, उनकी सारी शक्ति लोकपर कृपा करनेके लिये ही होती है। उन लोगोंने भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंसे प्रभावित परीक्षित्के प्रति उनके अनुरूप वचन कहे ।। 19 । ‘राजर्षिशिरोमणे ! भगवान् श्रीकृष्णके सेवक और अनुयायी आप पाण्डुवंशियोंके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आपलोगोंने भगवान्की सन्निधि प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षासे उस राजसिंहासनका एक क्षणमें ही परित्याग कर दिया, जिसकी सेवा बड़े-बड़े राजा अपने मुकुटोंसे करते थे ॥ 20 ॥हम सब तबतक यहीं रहेंगे, जबतक ये भगवान्के परम भक्त परीक्षित अपने नश्वर शरीरको छोड़कर मायादोष एवं शोकसे रहित भगवद्धाममें नहीं चले जाते ॥ 21 ॥
ऋषियोंके ये वचन बड़े ही मधुर, गम्भीर, सत्य और समतासे युक्त थे। उन्हें सुनकर राजा परीक्षित्ने उन योगयुक्त मुनियोंका अभिनन्दन किया और भगवान् के मनोहर चरित्र सुनने की इच्छासे ऋषियोंसे प्रार्थना की ॥ 22 ॥ महात्माओ आप सभी सब ओरसे यहाँ पधारे हैं। आप सत्यलोकमें रहनेवाले मूर्तिमान् वेदोक समान हैं आपलोगोंका दूसरोंपर अनुग्रह करनेके अतिरिक्त, जो आपका सहज स्वभाव ही है, इस लोक या परलोकमें और कोई स्वार्थ नहीं है॥ 23 ॥ विप्रवरो । आपलोगोंपर पूर्ण विश्वास करके मैं अपने कर्तव्यके सम्बन्धमें यह पूछने योग्य प्रश्न करता हूँ। आप सभी विद्वान् परस्पर विचार करके बतलाइये कि सबके लिये सब अवस्थाओंमें और विशेष करके थोड़े ही समय मे भरनेवाले पुरुषों के लिये अन्तःकरण और शरीरसे करनेयोग्य विशुद्ध कर्म कौन-सा है* ॥ 24 ॥
उसी समय पृथ्वीपर स्वेच्छासे विचरण करते हुए. | किसीकी कोई अपेक्षा न रखनेवाले व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी महाराज वहाँ प्रकट हो गये। वे वर्ण अथवा आश्रम के बाह्य चिह्नोंसे रहित एवं आत्मानुभूति में सन्तुष्ट थे। बच्चों और स्त्रियोंने उन्हें घेर रखा था। उनका वेष अवधूतका था ॥ 25 ॥ सोलह वर्षकी अवस्था थी। चरण, हाथ, जङ्घा, भुजाएँ, कंधे, कपोल और अन्य सब | अङ्ग अत्यन्त सुकुमार थे। नेत्र बड़े-बड़े और मनोहर थे। नासिका कुछ ऊँची थी। कान बराबर थे। सुन्दर भौहें थीं, इनसे मुख बड़ा ही शोभायमान हो रहा था। गला तो मानो सुन्दर शङ्ख ही था ।। 26 ।। हँसली ढकी हुई छाती चौड़ी और उभरी हुई, नाभि भैवरके समान गहरी तथा उदर बड़ा ही सुन्दर, त्रिवलीसे युक्त था। लंबी-लंबी भुजाएँ थीं, | मुखपर घुंघराले बाल बिखरे हुए थे। इस दिगम्बर वेषमें वे श्रेष्ठ देवताके समान तेजस्वी जान पड़ते थे ॥ 27 ॥श्याम रंग था। चित्तको चुरानेवाली भरी जवानी थी। वे शरीरको छटा और मधुर मुस्कानसे स्त्रियोंको सदा ही मनोहर जान पड़ते थे। यद्यपि उन्होंने अपने तेजको छिपा रखा था, फिर भी उनके लक्षण जाननेवाले मुनियोंने उन्हें पहचान लिया और वे सब-के-सब अपने-अपने आसन छोड़कर उनके सम्मानके लिये उठ खड़े हुए ।। 28 ।।
राजा परीक्षित्ने अतिथिरूपसे पधारे हुए श्रीशुकदेवजीको सिर झुकाकर प्रणाम किया और उनकी पूजा की। उनके स्वरूपको न जाननेवाले बच्चे और स्त्रियाँ उनकी यह महिमा देखकर वहाँसे लौट गये; सबके द्वारा सम्मानित होकर श्रीशुकदेवजी श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए ।। 29 ।। ग्रह, नक्षत्र और तारोंसे घिरे हुए चन्द्रमाके समान ब्रह्मर्षि, देवर्षि और राजर्षियोंके समूहसे आवृत श्रीशुकदेवजी अत्यन्त शोभायमान हुए। वास्तवमें वे महात्माओंके भी आदरणीय थे ।। 30 ।। जब प्रखरबुद्धि श्रीशुकदेवजी शान्तभावसे बैठ गये भगवान्के परम भक्त परीक्षितने उनके समीप आकर और चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया। फिर खड़े होकर हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उसके पश्चात् बड़ी मधुर वाणीसे उनसे यह पूछा ।। 31 ।।
परीक्षितने कहा- ब्रह्मस्वरूप भगवन्! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होनेपर भी हमें संत समागमका अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूपसे पधारकर आपने हमें तीर्थके तुल्य पवित्र बना दिया ॥ 32 ॥ आप जैसे महात्माओंके स्मरणमात्रसे ही गृहस्थोंके घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसन दानादिका सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है ॥ 33 ॥ महायोगिन् । जैसे भगवान् विष्णु के सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधिसे बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं ।। 34 ।। अवश्य ही पाण्डवोंके सुहद् भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयोंकी ताके लिये उन्होंके कुलमें उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपनका व्यवहार किया है ।। 35 ।। भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्युके समय हम जैसे प्राकृत मनुष्योंको क्यों दर्शन | देते || 36 || आप योगियोंके परम गुरु है, इसलियेमैं आपसे परम सिद्धिके स्वरूप और साधनके सम्बन्धमें प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ? ॥ 37 ॥ भगवन् ! साथ ही यह भी | बतलाइये कि मनुष्यमात्रको क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? ॥ 38 ॥ भगवत्स्वरूप मुनिवर ! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थोंके घरपर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ।। 39 ।।
सूतजी कहते हैं-जब राजाने बड़ी ही मधुर वाणीमें इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मोके मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ॥ 40 ॥