- अध्याय 1 कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
- अध्याय 2 कलियुगके धर्म
- अध्याय 3 राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
- अध्याय 4 चार प्रकारके प्रलय
- अध्याय 5 श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
- अध्याय 6 परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
- अध्याय 7 अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
- अध्याय 8 मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
- अध्याय 9 मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
- अध्याय 10 मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
- अध्याय 11 भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
- अध्याय 12 श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
- अध्याय 13 विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कंध
अध्याय 1 कलियुगके राजवंशोंका वर्णन
राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण जब अपने परमधाम पधार गये, तब पृथ्वीपर किस वंशका राज्य हुआ ? तथा अब किसका राज्य होगा? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये ॥ 1 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा—प्रिय परीक्षित्! मैंने तुम्हें नवें स्कन्धमें यह बात बतलायी थी कि जरासन्धके पिता बृहद्रथके वंशमें अन्तिम राजा होगा पुरञ्जय अथवा रिपुञ्जय। उसके मन्त्रीका नाम होगा शुनक । वह अपने स्वामीको मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योतको राजसिंहासनपर अभिषिक्त करेगा। प्रद्योतका पुत्र होगा पालक, पालकका विशाखयूप, विशाखयूपका राजक और राजकका पुत्र होगा नन्दिवर्द्धन । प्रद्योतवंशमें यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी ‘प्रद्योतन’। ये एक सौ अड़तीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 24 ॥
इसके पश्चात् शिशुनाग नामका राजा होगा। शिशुनागका काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्माका पुत्र होगा क्षेत्रज्ञ ॥ 5 ॥ क्षेत्रज्ञका विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भकका पुत्र अजय होगा ॥ 6 ॥ अजयसे नन्दिवर्द्धन और उससे महानन्दिका जन्म होगा। शिशुनाग वंशमें ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुगमें तीन सौ साठ वर्षतक पृथ्वीपर राज्य करेंगे। प्रिय परीक्षित्! महानन्दिकी शूद्रा पत्नीके गर्भसे नन्द नामका पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान् होगा। महानन्दि ‘महापद्म’ नामक निधिका अधिपतिहोगा। इसीलिये लोग उसे ‘महापद्म’ भी कहेंगे ।
वह क्षत्रिय राजाओंके विनाशका कारण बनेगा। तभी से
राजालोग प्रायः शूद्र और अधार्मिक हो जायँगे ॥ 7–9॥ महापद्म पृथ्वीका एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासनका उल्लङ्घन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियोंके विनाशमें हेतु होनेकी दृष्टिसे तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये ॥ 10 ॥ उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्षतक इस पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 11 ॥ कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्यके नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रोंका नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जानेपर कलियुगमें मौर्यवंशी नरपति पृथ्वीका राज्य करेंगे ॥ 12 ॥ वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्यको राजाके पदपर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्तका पुत्र होगा वारिसार और वारिसारका अशोकवर्द्धन || 13 || अशोकवर्द्धनका पुत्र होगा सुयश । सुयशका सङ्गत, सङ्गतका शालिशूक और शालिशूकका सोमशर्मा ॥ 14 ॥ सोमशर्माका और शतधन्वाका पुत्र बृहद्रथ होगा। कुरुवंशविभूषण परीक्षित्! मौर्यवंशके ये दस * नरपति कलियुगमें एक सौ सैंतीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। बृहद्रथका सेनापति होगा पुष्पमित्र शुङ्ग वह अपने स्वामीको मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। पुष्पमित्रका अग्निमित्र और अग्निमित्रका सुज्येष्ठ होगा ॥ 15-16 ॥ सुज्येष्ठका वसुमित्र, वसुमित्रका भद्रक और भद्रकका पुलिन्द, पुलिन्दका घोष और घोषका पुत्र होगा वज्रमित्र 17 ॥ वज्रमित्रका भागवत और भागवतका पुत्र होगा देवभूति शुङ्गवंशके ये दस नरपति एक सौ बारह वर्षतक पृथ्वीका पालन करेंगे ॥ 18 ॥ शतधन्वा परीक्षित्! शुङ्गवंशी नरपतियोंका राज्यकाल समाप्त होनेपर यह पृथ्वी कण्ववंशी नरपतियोंके हाथमें चली जायगी। कण्ववंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओंकी अपेक्षा कम गुणवाले होंगे। शुङ्गवंशका अन्तिम नरपति देवभूति बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्रीकण्ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबलसे स्वयं राज्य करेगा। वसुदेवका पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्रका नारायण और नारायणका सुशर्मा। सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा । 19-20 ॥ कण्ववंशके ये चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुगमें तीन सौ पैंतालीस वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे ॥ 21 ॥ प्रिय परीक्षित्! | कण्ववंशी सुशर्माका एक शूद्र सेवक होगा – बली। वह अन्धजातिका एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्माको मारकर कुछ समयतक स्वयं पृथ्वीका राज्य करेगा ।। 22 ।। इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्णका पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा ॥ 23 ॥ पौर्णमासका लम्बोदर और लम्बोदरका पुत्र चिबिलक होगा। चिबिलकका मेघस्वाति, मेघस्वातिका अटमान, अटमानका अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्माका हालेय, हालेयका तलक, तलकका पुरीषभीरु और पुरीषभीरुका पुत्र होगा राजा सुनन्दन ।। 24-25 ॥ परीक्षित् ! सुनन्दनका पुत्र होगा चकोर; चकोरके आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटेका नाम होगा शिवस्वाति । वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओंका दमन करेगा। शिवस्वातिका गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान् ॥ 26 ॥ पुरीमान्का मेदः शिरा, मेदः शिराका शिवस्कन्द, शिवस्कन्दका यज्ञश्री, यज्ञश्रीका विजय और विजयके दो पुत्र होंगे —चन्द्रविज्ञ और लोमधि ॥ 27 ॥ परीक्षित्! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्षतक पृथ्वीका राज्य भोगेंगे ॥ 28 ॥
परीक्षित्! इसके पश्चात् अवभृति-नगरीके सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कङ्क पृथ्वीका राज्य करेंगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे ॥ 29 ॥ इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे ॥ 30 ॥ मौनोंके अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्षतक पृथ्वीका उपभोग करेंगे। तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्षतक पृथ्वीका शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायगा, तब किलिकिला नामकी नगरीमें भूतनन्द नामका राजा होगा। भूतनन्दका वङ्गिरि, वङ्गिरिका भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक-ये एक सौ छः वर्षतक राज्य करेंगे ।। 31-33 ॥इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्रिक कहलायेंगे। उनके पश्चात् पुष्पमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्रका राज्य होगा ॥ 34 ॥ परीक्षित् ! बाह्निकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशोंमें राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्रदेशके तथा सात ही कोसलदेशके अधिपति होंगे, कुछ विदूर भूमिके शासक और कुछ निषधदेशके स्वामी होंगे ॥ 35 ॥
इनके बाद मगध देशका राजा होगा विश्वस्फूर्जि । यह पूर्वोक्त पुरञ्जयके अतिरिक्त द्वितीय पुरञ्जय कहलायेगा। यह ब्राह्मणादि उच्च वर्णोंको पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियोंके रूपमें परिणत कर देगा ॥ 36 ॥ इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंका नाश करके शूद्रप्राय जनताकी रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्यसे क्षत्रियोंको उजाड़ देगा और पद्मवती पुरीको राजधानी बनाकर हरिद्वारसे लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वीका राज्य करेगा ॥ 37 ॥ परीक्षित्! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देशके ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायँगे तथा राजालोग भी शूद्रतुल्य हो जायँगे ॥ 38 ॥ सिन्धुतट, चन्द्रभागाका तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुरी और काश्मीर मण्डलपर प्रायः शूद्रोंका, संस्कार एवं ब्रह्मतेजसे हीन
नाममात्रके द्विजोंका और म्लेच्छोंका राज्य होगा ॥ 39 ॥ परीक्षित्! ये सब-के-सब राजा आचार-विचारमें म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें राज्य करेंगे। ये सब-के-सब परले सिरेके झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करनेवाले होंगे। छोटी-छोटी बातोंको | लेकर ही ये क्रोधके मारे आगबबूला हो जाया करेंगे ॥ 40 ॥ ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणोंको मारनेमें भी नहीं हिचकेंगे। दूसरेकी स्त्री और धन हथिया लेनेके लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो | घटते । क्षणमें रुष्ट तो क्षणमें तुष्ट। इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी ॥ 41 ॥ इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य कर्मका पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुणसे अंधे बने रहेंगे। राजाके वेषमें वे म्लेच्छ ही होंगे। वे लूट-खसोटकर अपनी प्रजाका खून चूसेंगे ॥ 42 ॥जब ऐसे लोगोंका शासन होगा, तो देशकी प्रजामें भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषणकी वृद्धि हो जायगी। राजालोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपसमें भी एक-दूसरेको उत्पीड़ित करेंगे और अन्ततः सब-के सब नष्ट हो जायँगे ॥ 43 ॥
अध्याय 2 कलियुगके धर्म
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् । समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा ॥ 1 ॥ कलियुगमें जिसके पास धन होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और सी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायको व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा ॥ 2 ॥ विवाह सम्बन्धके लिये कुल शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा। व्यवहारकी निपुणता सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषको श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ करेगी ॥ 3 ॥ वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रम में प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या घन सर्च करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोलचालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायगा ॥ 4 असाधुताकी— दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि विधानकी-संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल आदि सैंवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ॥ 5 ॥लोग दूरके तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गङ्गा-गोमती, माता-पिता आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल-काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्यका चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ॥ 6 ॥ योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले। धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं पत्नियोतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी ॥ 7 -9 ॥ कभी वर्षा न होगी- सूखा पड़ जायगा; तो कभी कर पर कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाके की सर्दी पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके सङ्घर्षसे प्रजा अत्यन्त पीड़ित होगी, नष्ट हो जायगी ॥ 10 ॥ लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुःखी रहेंगे रोगोंसे तो उन्हें | छुटकारा ही न मिलेगा कलियुगमें मनुष्योंकी परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी ॥ 11 ॥
परीक्षित्! कलिकालके दोष से प्राणियोंके शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ॥ 12 ॥ धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो जायगी। राजे-महाराजे डाकू लुटेरोंके समान हो जायेंगे। मनुष्य चोरी, | झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोसे जीविका चलाने लगेंगे ॥ 13 ॥ चारों वर्णोंकि लोग शूद्रोके समान हो जायेंगे। गौऐं बकरियोंकी तरह छोटी-छोटी और | कम दूध देनेवाली हो जायेगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक सम्बन्ध है, उन्होंको अपना सम्बन्धी माना जायगा 14 ॥धान, जौ, गेहूं आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायेंगे। बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थोंके घर अतिथि सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट जानेके कारण सूने-सूने हो जायँगे ॥ 15 ॥ परीक्षित् ! अधिक क्या कहें- कलियुगका अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों जैसा दुःसह बन जायगा, लोग प्रायः गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे ॥ 16 ॥
प्रिय परीक्षित् सर्वव्यापक भगवान् विष्णु सर्वशक्तिमान है। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत्के सच्चे शिक्षक – सद्गुरु हैं। वे साधु-सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-म – मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते हैं ॥ 17 ॥ उन दिनों शम्भल – ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्होंके घर कल्किभगवान् अवतार ग्रहण करेंगे 18 श्रीभगवान् ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सगुणों के एकमान आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे ॥ 19 ॥ उनके रोम-रोम अतुलनीय की किरण छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी मोड़ेसे पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि डाकुओंका संहार करेंगे 20 ॥
प्रिय परीक्षित् जब सब डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा; क्योंकि भगवान् कल्किके शरीरमें लगे हुए अङ्गरागका स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्के श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ।। 21 । उनके पवित्र हृदयों में सत्वमूर्ति भगवान् वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनको सन्तान पहलेकी भाँति हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ 22 ॥ प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान् जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तानपरम्परा स्वयं ही सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ॥ 23 ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करते हैं, एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ होता है ॥ 24 ॥ परीक्षित् ! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेपसे वर्णन कर दिया ।। 25 ।। तुम्हारे जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ॥ 26 ॥ जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले उनमें से दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ 27 ॥ उस नक्षत्रके साथ सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ॥ 28 ॥
स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान् ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर दुलक गयी ॥ 29 ॥ जबतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ॥ 30 ॥ परीक्षित्! जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात् मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस वर्षकी है ॥ 31 ॥ | जिस समय सप्तर्षि मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ा नक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभी से कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ॥ 32 ॥ पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी | समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया 33 ॥ परीक्षित् ! जब | देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें फिरसे कल्किभगवान्की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभी से सत्ययुगका प्रारम्भ भी होगा ।। 34 ।।परीक्षित्! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ 35 ॥ राजन्! जिन पुरुषों और महात्माओंका वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ॥ 36 ॥ भीष्मपितामहके पिता राजा शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप – ग्राममें स्थित हैं । वे बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ॥ 37 ॥ कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्की आज्ञासे वे फिर यहाँ आयेंगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ॥ 38 ॥ सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग — ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं ॥ 39 ॥ परीक्षित्! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ॥ 40 ॥ इस शरीरको भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ । क्योंकि प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ॥ 41 ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ 42 ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोड़कर स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं ॥ 43 ॥ प्रिय परीक्षित्! जो-जो नरपति बड़े | उत्साह और बल-पौरुषसे इस पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है 44 ॥
अध्याय 3 राज्य युगधर्म और कलियुगके दोषोंसे बचनेका उपाय
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझपर विजय प्राप्त करनेके लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है— “कितने आश्चर्यकी बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौतके खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं ॥ 1 ॥ राजाओंसे यह बात छिपी नहीं है कि वे एक न एक दिन मर जायेंगे, फिर भी वे र्व्यथमें ही मुझे जीतनेकी कामना करते हैं। | सचमुच इस कामनासे अंधे होनेके कारण ही वे पानीके बुलबुलेके समान क्षणभर शरीरपर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं ।। 2 ।। वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मनके सहित अपनी पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करेंगे – अपने भीतरी शत्रुओंको वशमें करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओंको जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रुके मन्त्रियों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेनाको भी वशमें कर लेंगे। जो भी हमारे विजय मार्गमें काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे || 3 || इस प्रकार धीरे-धीरे क्रमसे सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्यकी खाईंका काम करेगा।’ इस प्रकार वे अपने मनमें अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिरपर काल सवार है 4 यहाँतक नहीं, जब एक द्वीप उनके वशमें हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीपपर विजय करनेके लिये बड़ी शक्ति और उत्साहके साथ समुद्रयात्रा करते हैं। अपने मनको इन्द्रियोंको वश करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं. परन्तु ये लोग उनको वशमें करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसंयमका यह कितना तुच्छ फल है ॥ 5 ॥ परीक्षित् पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँसे आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्धमें जीतकर वशमें करना चाहते हैं ।। 6 ।। जिनके चित्तमे यह बात दृढ़ मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टोंके राज्यमें मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपसमें लड़ बैठते हैं ॥ 7 ॥वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़ ! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं, इस प्रकार राजा लोग एक दूसरेको कहते-सुनते हैं, एक-दूसरेसे स्पर्द्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरेको मारते है और स्वयं मर मिटते हैं ॥ 8 ॥ पृथु, पुरुरवा, गाधि नहुष, भरत, सहस्त्रबाहु अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वाङ्ग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति शन्तनु, गय, भगीरथ, कुवलाश्व, ककुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर और बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभीने दिग्विजयमें दूसरोंको हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्युके ग्रास बन गये। राजन् ! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरणसे मुझसे ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है’। परन्तु विकराल कालने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल पौरुष और शरीर आदिका कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है ।। 9-13 ॥
परीक्षित् संसारमे बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकोंमें अपने यशका विस्तार करके यहाँसे चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्यका उपदेश करनेके लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणीका विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है ॥ 14 ॥ भगवान् श्रीकृष्णका गुणानुवाद समस्त अमङ्गलोंका नाश करनेवाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसीका गान करते रहते हैं। जो भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेममयी भक्तिकी लालसा रखता हो, उसे नित्य निरन्तर भगवान्के दिव्य गुणानुवादका ही श्रवण करते रहना चाहिये ।। 15 ।
राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! मुझे तो कलियुगमें राशि राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपायसे उन दोषोंका नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगोंका स्वरूप, उनके धर्म, कल्पकी स्थिति और प्रलयकालके मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान्के कालरूपका भी यथावत् वर्णन कीजिये 16-17 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! सत्ययुगमें
धर्मके चार चरण होते हैं; वे चरण हैं—सत्य, दया, तप और दान उस समयके लोग पूरी निष्ठाके साथ अपने-अपने धर्मका पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान्का स्वरूप है ॥ 18 ॥ सत्ययुगके लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रताका व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वशमें रहते हैं और सुख-दुःख आदि इन्द्रोको वे समान भावसे सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप स्थितिके लिये अभ्यासमें तत्पर रहते हैं ॥ 19 ॥ परीक्षित्! धर्मके समान अधर्मके भी चार चरण हैं-असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह त्रेतायुगमें इनके प्रभावसे धीरे-धीरे धर्मके सत्य आदि चरणोंका चतुर्थीश क्षीण हो जाता है ॥ 20 ॥ राजन् ! उस समय वर्णोंमें ब्राह्मणोंकी प्रधानता अक्षुण्ण रहती है। लोगोमें अत्यन्त हिंसा और लम्पटताका अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्यामें निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्गका सेवन करते है। अधिकांश लोग कर्मप्रतिपादक वेदोंके पारदर्शी विद्वान् होते हैं ॥ 21 ॥ द्वापरयुगमें हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष- अधर्मके इन चरणोंकी वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्मके चारों चरण–तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं ॥ 22 ॥ उस समयके लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्डी और वेदोंके अध्ययन-अध्यापनमें बड़े तत्पर होते हैं। लोगों के कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णोंमें क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णोंकी प्रधानता रहती है ॥ 23 ॥ कलियुगमें तो अधर्मके चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्मके चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश ही बच रहता है। अन्तमें तो उस चतुर्थीशका भी लोग हो जाता है ।। 24 ।। कलियुगमें लोग लोभी, दुराचारी और कठोरहृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक दूसरेसे वैर मोल ले लेते हैं, एवं लालसा तृष्णाकी तरङ्गमें बहते रहते हैं। उस समय अभागे लोगोंमें शूद्र, केवट आदिकी ही प्रधानता रहती है ॥ 25 ॥
सभी प्राणियोंमें तीन गुण होते हैं—सत्त्व, रज और तम। कालकी प्रेरणासे समय-समयपर शरीर, प्राण और मनमें उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है ॥ 26 ॥ जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्वगुणमें स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती है, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुणकी प्रधानताके समय मनुष्यज्ञान और तपस्यासे अधिक प्रेम करने लगता है ॥ 27 ॥ है जिस समय मनुष्योकी प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-पारलौकिक सुख भोगोंकी ओर होती है तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुणमें स्थित होकर काम करने लगती है बुद्धिमान् परीक्षित् । समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है॥ 28 ॥ जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषका बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचिके साथ सकाम कर्मोंमें लगना चाहे, उस समय द्वापरयुग समझना चाहिये। अवश्य ही रजोगुण और तमोगुणकी मिश्रित प्रधानताका नाम ही द्वापरयुग है ।। 29 ।। जिस समय झूठ कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनताकी प्रधानता हो, उसे तमोगुण प्रधान कलियुग समझना चाहिये ॥ 30 ॥ जब कलियुगका राज्य होता है, तब लोगोंकी दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्तमें कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी स्त्रियोंमें दुष्टता और कुलटापनकी वृद्धि हो जाती है ॥ 31 ॥ सारे देशमें, गाँव-गाँवमें लुटेरोंकी प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंगसे वेदोंका तात्पर्य निकालने लगते हैं। और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलानेवाले लोग प्रजाकी सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मणनामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रियको तृप्त करनेमें ही लग जाते हैं ॥ 32 ॥ ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्यव्रतसे रहित और अपवित्र रहने लगते हैं। गृहस्थ दूसरोंको भिक्षा देनेके बदले स्वयं भीख माँगने लगते हैं, वानप्रस्थी गाँवोंमें बसने लगते हैं और संन्यासी धनके अत्यन्त लोभी – अर्थपिशाच हो जाते हैं ।। 33 ।। स्त्रियोंका आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपनी कुल मर्यादाका उल्लङ्घन करके लाज-हया—जो उनका भूषण है— छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपटमें बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी है बहुत बढ़ जाता है ॥ 34 ॥ व्यापारियोंके हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ीसे लिपटे रहते और छदाम | छदामके लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या आपत्तिकाल न होनेपर तथा धनी होनेपर भी वे निम्नश्रेणीके व्यापारोंको, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं ॥ 35 ॥स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवकलोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो परन्तु जब वह किसी विपत्तिमें पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं, । और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं—दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं ।। 36 ॥
प्रिय परीक्षित् ! कलियुगके मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासनाको तृप्त करनेके लिये ही किसीसे प्रेम करते हैं। वे विषयवासनाके वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रोंको भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालोंसे ही सलाह लेने लगते हैं ॥ 37 ॥ शूद्र तपस्वियोंका वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्मका रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊंचे सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मका उपदेश करने लगते है ।। 38 ।। प्रिय परीक्षित् कलियुगकी प्रजा सूखा पड़नेके कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकोंकी कर वृद्धि प्रजाके शरीरमें केवल अस्थिपञ्जर और मनमें केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण रक्षाके लिये रोटीका टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है ॥ 39 ॥ कलियुगमें प्रजा शरीर ढकनेके लिये वस्त्र और पेटको ज्वाला शान्त करनेके लिये रोटी, पीनेके लिये पानी और सोनेके लिये दो हाथ जमीनसे भी वञ्चित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहननेतककी सुविधा नहीं रहती। लोगोंकी आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचोंकी-सी हो जाती है 40 कलियुगमें लोग, अधिक धनकी तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियोंके लिये | आपसमें वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनोंके सद्भाव तथा मित्रताको तिलाञ्जलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी दमड़ीके लिये अपने सगे-सम्बन्धियोंतक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणोंसे भी हाथ धो बैठते हैं 41 ॥ परीक्षित् कलियुगके क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरनेकी थुनमें ही लगे रहते हैं । पुत्र अपने बूढ़े मा-बापकी भी रक्षा नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने -पालन-पोषण निपुण से निपुण, सब कामोंमें योग्य पुत्रोंकी भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं ।। 42 ।।जो लोग मृत्युके निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकारसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान्का ही ध्यान करना चाहिये । प्यारे परीक्षित् ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करनेवालेको अपने स्वरूपमें लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं ॥ 50 ॥ परीक्षित् ! यों तो कलियुग दोषोंका खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है । वह गुण यही है कि कलियुगमें केवल भगवान् श्रीकृष्णका सङ्कीर्तन करनेमात्रसे ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 51 ॥ सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेतामें बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है ॥ 52 ॥
अध्याय 4 चार प्रकारके प्रलय
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! (तीसरे स्कन्धमें) परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त कालका स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षोंका होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्पकी स्थिति और उसके प्रलयका वर्णन भी सुनो ॥ 1 ॥ राजन् ! एक हजार चतुर्युगीका ब्रह्माका एक दिन होता है। ब्रह्माके इस दिनको ही कल्प भी कहते हैं। एक कल्पमें चौदह मनु होते हैं ॥ 2 ॥ कल्पके अन्तमें उतने ही समयतक प्रलय भी रहता है। प्रलयको ही ब्रह्माकी रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है ॥ 3 ॥ इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलयके अवसरपर सारे विश्वको अपने अंदर समेटकर-लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान् नारायण भी शयन कर जाते हैं ॥ 4 ॥ इस प्रकार रातके बाद दिन और दिनके बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजीकी अपने मानसे सौ वर्षकी और मनुष्योंकी दृष्टिमें दो परार्द्धकी आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा- ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृतिमें लीन हो जाती हैं ॥ 5 ॥राजन् ! इसीका नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलयका कारण उपस्थित होनेपर पञ्चभूतोंके मिश्रणसे बना हुआ ब्रह्माण्ड अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूपमें स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है ॥ 6 ॥ परीक्षित्! प्रलयका समय आनेपर सौ वर्षतक मेघ पृथ्वीपर वर्षा नहीं करते। किसीको अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरेको खाने लगती है ॥ 7 ॥ इस प्रकार कालके उपद्रवसे पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियोंके शरीर और पृथ्वीका सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदाकी भाँति पृथ्वीपर बरसाते नहीं। उस समय सङ्कर्षणभगवान्के से प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है ।। 8-9 वायुके वेगसे वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचेके लोकोंको भस्म कर देती है। वहाँके प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचेसे आगकी करारी लपटें और ऊपरसे सूर्यकी प्रचण्ड गरमी ! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबरका उपला जलकर अंगारेके रूपमें दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तक वायु सैकड़ों वर्षोंतक चलती रहती है। उस समयका आकाश धूएँ और धूलसे तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगे बादल आकाशमें मँडराने लगते हैं और बड़ी भयङ्करता साथ गरज- गरजकर सैकड़ों वर्षोंतक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्डके भीतरका सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है ।। 10- 13 ॥
इस प्रकार जब जल प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वीके विशेष गुण गन्धको प्रस लेता है— अपनेमें लीन कर लेता है। गन्धगुणके जलमें लीन हो जानेपर पृथ्वीका प्रलय हो जाता है, वह जलमें घुल-मिलकर जलरूप बन है जाती है 14 ॥ राजन्। इसके बाद जलके गुण रसको तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेजमें समा जाता है। तदनन्तर वायु तेजके गुण रूपको ग्रस लेता है। और तेज रूपरहित होकर वायुमें लीन हो जाता है। अब आकाश वायुके गुण स्पर्शको अपने में मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाशमें शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहङ्कार आकाशके गुण शब्दको ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहङ्कारमें लीन होजाता है। इसी प्रकार तैजस अहङ्कार इन्द्रियोंको और वैकारिक (सात्त्विक) अहङ्कार इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवता और इन्द्रियवृत्तियोंको अपनेमें लीन कर लेता है ।। 15–17॥ तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहङ्कारको और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्वको ग्रस लेते हैं। परीक्षित्! यह सब कालकी महिमा है। उसीकी प्रेरणासे अव्यक्त प्रकृति गुणोंको ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति ही प्रकृति शेष रह जाती है ॥ 18 ॥ वही चराचर जगत्का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है जब वह अपने कार्योंको लीन करके प्रलयके समय साम्यावस्थाको प्राप्त हो जाती है, तब कालके अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदिके कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकारके विकार नहीं होते ॥ 19 ॥ उस समय प्रकृतिमें स्थूल अथवा सूक्ष्मरूपसे वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते सृष्टिके समय रहनेवाले लोकोंकी कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती ॥ 20 ॥ उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति- ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुएके समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्थाका तर्कके द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्तको ही जगत्का मूलभूत तत्त्व कहते हैं ॥ 21 ॥ इसी अवस्थाका नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनोंकी शक्तियाँ कालके प्रभावसे क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल स्वरूपमें लीन हो जाती हैं ॥ 22 ॥
परीक्षित्! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्षका स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयोंके रूपमें उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठानसे भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे | सर्वथा मिथ्या – मायामात्र हैं ॥ 23 ॥ जैसे दीपक, नेत्र और रूप-ये तीनों तेजसे भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्मसे भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न है; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठानमें अध्यस्त सर्प अपने अधिष्ठानसे पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्पसे अधिष्ठानका कोई सम्बन्ध नहीं है) ॥ 24 ॥परीक्षित् ! जाग्रत्, स्वप्र और सुषुप्ति – ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धिकी ही हैं। अतः इनके कारण अन्तरात्मामें जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्वकी प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्वका एकमात्र सत्य आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है ।। 25 ।। यह विश्व उत्पत्ति और प्रलयसे प्रस्त है, इसलिये अनेक अवयवोंका समूह अवयवी है। अतः यह कभी ब्रह्ममें होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाशमें मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती ॥ 26 ॥ परीक्षित्! जगत्के व्यवहारमें जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होनेपर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवीके न होनेपर भी उसके कारणरूप सूतका अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत्के अभावमे भी इस जगत् के कारणरूप अवयवकी स्थिति हो | सकती है ॥ 27 ॥ परन्तु ब्रह्ममें यह कार्य कारणभाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है। और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकारका जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेषके बिना सामान्य और सामान्यके बिना विशेषकी स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारणभावका आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाधिक भेद-भावके समान सर्वथा अवस्तु है ॥ 28 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपञ्चरूप विकार स्वाप्रिक विकारके समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप आत्मासे भिन्न नहीं है कोई चाहे भी तो आत्मासे भिन्न रूपमें अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मासे पृथक इसकी सत्ता मानी भी जाय तो यह भी चिद्रूप आत्माके समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थितिमें वह आत्माकी भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा ॥ 29 ॥ परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ सत्य वस्तुमें नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तुमें नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाकाश और घटाकाशका, आकाशस्थित सूर्य और जलमें प्रतिबिम्बित सूर्यका तथा बाह्य वायु और आन्तर वायुका भेद मानना ॥ 30 ॥
जैसे व्यवहारमें मनुष्य एक ही सोनेको अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और यह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपोंमें मिलता है; इसी प्रकार व्यवहारमें निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणीके द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान्का भी अनेकोंरूपोंमें वर्णन करते हैं ॥ 31 ॥ देखो न, बादल सूर्यसे उत्पन्न होता है और सूर्यसे ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्यके ही अंश नेत्रोंके लिये सूर्यका दर्शन होनेमें बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहङ्कार भी ब्रह्मसे ही उत्पन्न होता, ब्रह्मसे ही प्रकाशित होता और ब्रह्मके अंश जीवके लिये ब्रह्मस्वरूपके साक्षात्कारमें बाधक बन बैठता है ॥ 32 ॥ जब सूर्यसे प्रकट होनेवाला बादल तितर बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्यका दर्शन करनेमें समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीवके हृदयमें जिज्ञासा जगती है, तब आत्माकी उपाधि अहङ्कार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूपका साक्षात्कार हो जाता | है ॥ 33 ॥ प्रिय परीक्षित्! जब जीव विवेकके खड्गसे मायामय अहङ्कारका बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमें स्थित हो जाता आत्माकी यह मायामुक्त वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है ॥ 34 ॥
हे शत्रुदमन ! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूपसे उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है ॥ 35 ॥ संसारके परिणामी पदार्थ नदी प्रवाह और दीप शिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उनकी बदलती हुई अवस्थाओंको | देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोतेके वेगमें बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षणमें उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है ॥ 36 ॥ जैसे आकाशमें तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्टरूपसे नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान् के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त कालके कारण प्राणियोंकी प्रतिक्षण होनेवाली उत्पत्ति और प्रलयका भी पता नहीं चलता ॥ 37 ॥ परीक्षित्! मैंने तुमसे चार प्रकारके प्रलयका वर्णन किया; उनके नाम हैं – नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय वास्तवमें कालकी सूक्ष्म गति ऐसी ही है ॥ 38 ॥
हे कुरुश्रेष्ठ ! विश्व-विधाता भगवान् नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियोंके आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेपसे कहा है, वह सब उन्हींकी लीला-कथा है। भगवान्की लीलाओंका पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्माजी भी नहीं कर सकते ।। 39 ॥जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागरसे पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकारके दुःख दावानलसे दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुरुषोत्तमभगवान्की लीला-कथारूप रसके सेवनके अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायनका सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं ॥ 40 जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवतपुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायणने पहले देवर्षि नारदको सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायनको ॥ 41 ॥ महाराज उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवतसंहिताका उपदेश किया 42 ॥ कुरुश्रेष्ठ ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्रमें बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करनेपर पौराणिक वक्ता श्रीसूतजी उन लोगोंको इस संहिताका श्रवण करायेंगे ॥ 43 ॥
अध्याय 5 श्रीशुकदेवजीका अन्तिम उपदेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! इस श्रीमद्भागवत महापुराणमें बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरिसे पृथक नहीं हैं, उन्हींकी प्रसाद लीला और क्रोध लीलाकी अभिव्यक्ति हैं ॥ 1 ॥ हे राजन् ! अब तुम यह पशुओंकी-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे-यह बात नहीं है ॥ 2 ॥ जैसे बीजसे और अङ्करसे बीजकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देहसे दूसरे देहकी और दूसरे देहसे तीसरेकी उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसीसे उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकोंके शरीरके रूपमें उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ीसे सर्वथा अलग रहती है-लकड़ीकी उत्पत्ति और विनाशसे सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदिसे सर्वथा अलग हो ॥ 3 ॥स्वप्रावस्थामें ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशानमें जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीरकी ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्माकी नहीं। देखनेवाला तो उन अवस्थाओंसे सर्वथा परे, जन्म और मृत्युसे रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है ॥ 4 ॥ जैसे घड़ा फूट जानेपर आकाश पहलेकी ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशताकी निवृत्ति हो जानेसे लोगोंको ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाशसे मिल गया है— वास्तवमें तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जानेपर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तवमें तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीतिमात्र थी ॥ 5 ॥ मन ही आत्माके लिये शरीर, विषय और कर्मोंकी कल्पना कर लेता है; और उस मनकी सृष्टि करती है माया (अविद्या) । वास्तवमें माया ही जीवके संसार-चक्रमें पड़नेका कारण है ॥ 6 ॥ जबतक तेल, तेल रखनेका पात्र, बत्ती और आगका संयोग रहता है, तभीतक दीपकमें दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जबतक आत्माका कर्म, मन, शरीर और इनमें रहनेवाले चैतन्याध्यासके साथ सम्बन्ध रहता है तभीतक उसे जन्म-मृत्युके चक्र संसारमें भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणकी वृत्तियोंसे उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है ॥ 7 ॥ परन्तु जैसे दीपकके बुझ जानेसे तत्त्वरूप तेजका विनाश नहीं होता, वैसे ही संसारका नाश होनेपर भी स्वयंप्रकाश आत्माका नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाशके समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्माकी उपमा आत्मा ही है ॥ 8 ॥
हे राजन् ! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धिको | परमात्माके चिन्तनसे भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तरमें स्थित परमात्माका साक्षात्कार करो ॥ 9 ॥ देखो, तुम मृत्युओंकी भी मृत्यु हो तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मणके शापसे प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षककी तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओंका समूह भी तुम्हारे पासतक न फटक सकेंगे ॥ 10 ॥ तुम इस प्रकार अनुसंधान- चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूपमें स्थित कर लो ॥ 11 ॥उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठोंके कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखोंसे तुम्हारे पैरोंमें डस ले – कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्मस्वरूपमें स्थित होकर इस शरीरको — और तो क्या, सारे विश्वको भी अपनेसे पृथक् न देखोगे ॥ 12 ॥ आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित्! तुमने विश्वात्मा भगवान्की लीलाके सम्बन्धमें जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे | दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ 13 ॥
अध्याय 6 परीक्षित्की परमगति, जनमेजयका सर्पसत्र
श्रीसूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो । व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत्को अपनी आत्माके रूपमें अनुभव करते हैं और व्यवहारमें सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं भगवान्के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षितने उनका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यानसे श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणोंके तनिक और पास खिसक आये तथा अञ्जलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे ॥ 1 ॥
राजा परीक्षित्ने कहा- भगवन्! आप करुणाके मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझपर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान् श्रीहरिके स्वरूप और लीलाओंका वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपासे परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ ॥ 2 ॥ संसारके प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थके ज्ञानसे शून्य हैं और विभिन्न प्रकारके दुःखोंके दावानलसे दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओंका अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है 3 मैंने और मेरे साथ और बहुत-से | लोगोंने आपके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्भागवत महापुराणका श्रवण किया है। इस पुराणमें पद-पदपर भगवान् श्रीहरिके उस स्वरूप और उन लीलाओंका वर्णन हुआ है, जिसके गानमें बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते रहते हैं ॥ 4 ॥भगवन्! आपने मुझे अभयपदका, ब्रह्म और आत्माकी एकताका साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्तिस्वरूप ब्रह्ममें स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्युके निमित्तसे अथवा दल के दल मृत्युओंसे भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ ॥ 5 ॥ ब्रह्मन् ! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ ही कामनाओंके संस्कारसे भी रहित चित्तको इन्द्रियातीत परमात्माके स्वरूपमें विलीन करके अपने प्राणोंका त्याग कर दूँ ॥ 6 ॥ आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञानमें परिनिष्ठित हो जानेसे मेरा अज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान् के परम कल्याणमय स्वरूपका मुझे साक्षात्कार करा दिया है ॥ 7 ॥ सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो। राजा | परीक्षित्ने भगवान् श्रीशुकदेवजीसे इस प्रकार कहकर बड़े प्रेमसे उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित्से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओंके साथ वहाँसे चले गये ॥ 8 ॥ राजर्षि परीक्षितने भी बिना किसी बाह्य सहायताके स्वयं ही अपने अन्तरात्माको परमात्माके चिन्तनमें समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्षका ठूंठ हो ॥ 9 ॥। उन्होंने गङ्गाजीके तटपर कुशोंको इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाग पूर्वकी ओर हो और उनपर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्माकी एकतारूप महायोगमें स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये ॥ 10 ॥
शौनकादि ऋषियो मुनिकुमार शृङ्गीने क्रोधित होकर परीक्षित्को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित्को इसनेके लिये उनके पास चला। रास्तेमें उसने कश्यप नामके एक ब्राह्मणको देखा ।। 11 ।। कश्यपब्राह्मण सर्पविषकी चिकित्सा करनेमें बड़े निपुण थे। तक्षकने बहुत सा धन देकर कश्यपको वहींसे लौटा दिया, उन्हें राजाके पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मणके रूपमें छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित्के पास गया और उन्हें डस लिया ॥ 12 ॥ राजर्षि परीक्षित् तक्षकके डसनेके पहले ही ब्रह्ममें स्थित हो चुके थे। अब तक्षकके विषकी आगसे उनका शरीर सबके सामने ही जलकर भस्म हो गया ॥ 13 ॥पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओंमें बड़े जोरसे ‘हाय हाय’ की ध्वनि होने लगी देवता, असुर, मनुष्य आदि सब के सब परीक्षित्की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये || 14 || देवताओंकी दुन्दुभियाँ अपने आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। | देवतालोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ 15 ॥
जब जनमेजयने सुना कि तक्षकने मेरे पिताजीको डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणोंके साथ विधिपूर्वक सपका अग्निकुण्डमें हवन करने लगा ॥ 16 ॥ तक्षकने देखा कि जनमेजयके सर्प सत्रकी प्रज्वलित अग्निमें बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्रकी शरणमें गया ॥ 17 ॥ बहुत सपक भस्म होनेपर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षित्नन्दन राजा जनमेजयने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! अबतक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है ? ‘ ॥ 18 ॥ ब्रह्मणोने कहा ‘राजेन्द्र तक्षक इस समय इन्द्रकी शरणमें चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षकको स्तम्भित कर दिया है, इसीसे वह अग्निकुण्डमें गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’ ॥ 19 ॥ परीक्षितनन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान् और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणोंकी बात सुनकर ऋत्विजोंसे कहा कि ‘ब्राह्मणो! आपलोग इन्द्रके साथ तक्षकको क्यों नहीं अप्रि गिरा देते ? ‘ ॥ 20 ॥ जनमेजयकी बात सुनकर ब्राह्मणोंने उस यज्ञमें इन्द्रके साथ तक्षकका अग्निकुण्डमें आवाहन किया। उन्होंने कहा- रे तक्षक ! तू मरुद्गणके सहचर इन्द्रके साथ इस अग्निकुण्डमें शीघ्र आ पड़’ ॥ 21 ॥ जब ब्राह्मणोंने इस प्रकार आकर्षणमन्त्रका पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान–स्वर्गलोकसे विचलित हो गये। विमानपर बैठे हुए इन्द्र तक्षकके साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा 22 ॥ अङ्गिरानन्दन बृहस्पतिजीने देखा कि आकाशसे देवराज इन्द्र विमान और तक्षकके साथ ही अग्निकुण्डमें गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजयसे कहा ॥ 23 ॥ ‘नरेन्द्र सर्पराज तक्षकको मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है ॥ 24 ॥राजन् ! जगत्के प्राणी अपने-अपने कर्मके अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्मके अतिरिक्त और कोई भी किसीको सुख-दुःख नहीं दे सकता ॥ 25 ॥ जनमेजय ! यों तो बहुत-से लोगोंकी मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदिसे तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तोंसे होती है; परन्तु यह तो कहनेकी बात है। वास्तवमें तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्मका ही उपभोग करते हैं ॥ 26 ॥ राजन् ! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पोंको जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञका फल केवल प्राणियोंकी हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत्के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्धकर्मका ही भोग कर रहे हैं ।। 27 ।।
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियों! महर्षि बृहस्पतिजीकी बातका सम्मान करके जनमेजयने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजीकी विधिपूर्वक पूजा की ॥ 28 ॥ ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मणको भी क्रोध आया, राजाको शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजयको क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णुकी महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसीसे भगवान् के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियोंके द्वारा शरीरोंमें मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरेको दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्नसे इसको निवृत्त नहीं कर | सकते ॥ 29 ॥ (विष्णुभगवान्के स्वरूपका निश्चय करके | उनका भजन करनेसे ही मायासे निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूपका निरूपण सुनो) यह दम्भी है, कपटी है— इत्याकारक बुद्धिमें बार-बार जो दम्भ-कपटका स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्माके स्वरूपमें निर्भयरूपसे प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूपमें उसका प्रतिपादन किया गया है। मायाके आश्रित नाना प्रकारके विवाद, मतवाद भी परमात्माके स्वरूपमें नहीं हैं; क्योंकि वे विशेषविषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। | केवल वाद-विवादकी तो बात ही क्या, लोक-परलोकके विषयोंके सम्बन्ध सङ्कल्प-विकल्प करनेवाला मन भी शान्त हो जाता है ॥ 30 ॥ कर्म, उसके सम्पादनकी सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म इन तीनोंसे अन्वित अहङ्कारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्मस्वरूप परमात्मा न तो कभी किसीके द्वारा बाधित होता है और न तो किसीका विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपदके स्वरूपका विचार करता है, वह मनकी मायामयी लहरों, अहङ्कार आदिका बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूपमें विहार करने लगता है ॥ 31 जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपदके अतिरिक्त वस्तुका परित्याग करते हुए ‘नेति नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते है, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग हो, वही विष्णुभगवान्का परमपद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मतसे स्वीकार करती है। अपने चित्तको एकाम करनेवाले पुरुष अन्तःकरणकी अशुद्धियोंको, अनात्म-भावनाओंको सदा-सर्वदाके लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभावसे परिपूर्ण हृदयके द्वारा उसी परमपदका आलिङ्गन करते हैं और उसीमें समा जाते है 32 विष्णुभगवान्का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परमपद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्तःकरणमें शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थोंमें ममता ही। सचमुच जगत्की वस्तुओंगे मैपन और मेरेपनका आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।। 33 । शौनकजी जिसे इस परमपदकी प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरोंकी कटु वाणी सहन कर ले और बदलेमें किसीका अपमान न करे। इस क्षणभङ्गुर शरीरमें अहंता-ममता करके किसी भी प्राणीसे कभी वैर न करे ।। 34 । भगवान् श्रीकृष्णका ज्ञान अनन्त है। उन्होंके चरणकमलोके ध्यानसे मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराणका अध्ययन किया है। मैं अब उन्हींको नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ॥ 35 ॥
शौनकजीने पूछा- साधुशिरोमणि सूतजी ! वेदव्यासजीके शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदोके आचार्य थे उन लोगोंने कितने प्रकारसे वेदोंका विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ।। 36 ।।
सूतजीने कहा- ब्रह्मन् ! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्माजी पूर्वसृष्टिका शन सम्पादन करने के लिये एका चित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाशसे कण्ठ-तालु आदि स्थानोंके सङ्घर्षसे रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियोंको रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नादका अनुभव होता है ॥ 37 ॥शैौनकजी बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नादकी उपासना करते हैं और उसके प्रभावसे अन्तःकरणके द्रव्य (अधिभूत), क्रिया (अध्यात्म) और कारक (अधिदैव) रूप मलको नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र नहीं है ॥ 38 ॥ उसी अनाहत नादसे ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ काररूप तीन मात्राओंसे युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकारकी शक्तिसे ही प्रकृति अव्यक्त व्यक्तरूपमें परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्म स्वरूप होनेके कारण स्वयंप्रकाश भी है। जिस परम वस्तुको भगवान् ब्रह्म अथवा परमात्माके नामसे कहा जाता है, उसके स्वरूपका बोध भी ॐ कारके द्वारा ही होता है ।। 39 ।। जय श्रवणेन्द्रियकी शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकारको – समस्त अथको प्रकाशित करनेवाले स्फोट तत्त्वको जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि अवस्थाओंमें सबके अभावको भी जानता है, वही परमात्माका विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मासे हृदयाकाशमें प्रकट होकर वेदरूपा वाणीको अभिव्यक्त करता है ॥ 40 ॥ ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्मका साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद् और वेदोंका सनातन बीज है ll 41 ll
शौनकजी ! ॐकारके तीन वर्ण हैं। ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम- इन तीन नामों; भूः भुवः स्वः -इन तीन अर्थों और जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति – इन तीन वृत्तियों के रूपमें तीन-तीनकी संख्यावाले भावोंको धारण करते हैं ।। 42 ।। इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्माजीने ॐकारसे ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), ऊष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क से ‘म’ तक) तथा हस्व और दीर्घ आदि लक्षणोंसे युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमालाकी रचना की 43 ॥ उसी वर्णमालाद्वारा उन्होंने अपने चार मुखोंसे होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा इन चार ऋत्विजोके कर्म बतलानेके लिये ॐकार और व्याहृतियोंके सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रहार्षि मरीचि आदिको वेदाध्ययनमें कुशल देखकर उन्हें वेदोंकी शिक्षा दी। वे सभी जब धर्मका उपदेश करनेमें निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रोंको उनका अध्ययन कराया ॥ 44-45 ।।तदनन्तर, उन्हीं लोगोंके नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य प्रशिष्योंके द्वारा चारों युगों में सम्प्रदायके रूपमें वेदोंकी रक्षा होती रही। द्वापरके अन्तमें महर्षियोंने उनका विभाजन भी किया ।। 46 ।। जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियोंने देखा कि समयके ) फेरसे लोगोकी आयु शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय देशमें विराजमान परमात्माकी प्रेरणासे वेदोंके अनेकों विभाग कर दिये ।। 47 ।।
शौनकजी इस वैवस्वत मन्वन्तरमें भी ब्रह्मा शङ्कर आदि लोकपालोंकी प्रार्थनासे अखिल विश्वके जीवनदाता भगवान्ने धर्मको रक्षाके लिये महर्षि पराशरद्वारा सत्यवती के गर्भ से अपने अंशांश कलास्वरूप व्यासके रूपमें अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनकजी! उन्होंने ही वर्तमान युगमें वेदके चार विभाग किये है।। 48-49 ।। जैसे मणियोंके समूहमेंसे विभिन्न जातिकी मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान् व्यासदेवने मन्त्र समुदायमेंसे भिन्न-भिन्न प्रकरणोंके अनुसार मन्त्रोंका संग्रह करके उनसे ऋग्यजुः साम और अथर्वये चार संहिताएं बनायी और अपने चार शिष्योंको बुलाकर प्रत्येकको एक-एक संहिताकी शिक्षा दी ।। 50-51 ॥ उन्होंने ‘बहवच’ नामकी पहली संहिता पैलको, ‘निगद’ नामकी दूसरी यजुः संहिता वैशम्पायनको, सामश्रुतियोंकी ‘छन्दोग संहिता जैमिनिकों और अपने शिष्य सुमन्तुको ‘अथर्वाङ्गिरससंहिता’ का अध्ययन कराया ।। 52-53 शौनकजी पैल मुनिने अपनी संहिताके दो विभाग करके एकका अध्ययन इन्द्रप्रमितिको और दूसरेका बाष्कलको कराया। बाष्कलने भी अपनी शाखाके चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्रको पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्र प्रमितिने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषिको अपनी संहिताका अध्ययन कराया। माण्डूकेयके शिष्य थे—देवमित्र । उन्होंने सौभरि आदि ऋषियोको वेदोका अध्ययन कराया ।। 54 – 56 ॥ माण्डूकेयके पुत्रका नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिताके पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्योंको पढ़ाया ॥ 57 ॥ शाकल्यके एक और शिष्य थे—जातूकर्ण्यमुनि। उन्होंने अपनी संहिताके तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्तके साथ अपने शिष्यबलाक, पैज, वैताल और विरजको पढ़ाया ॥ 58 ॥ बाष्कलके पुत्र बाष्कलिने सब शाखाओंसे एक ‘वालखिल्य’ नामकी शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासारने ग्रहण किया ।। 59 ।। इन ब्रह्मर्षियोंने पूर्वोक्त सम्प्रदायके अनुसार ऋग्वेदसम्बन्धी बहवृच शाखाओंको धारण किया। जो मनुष्य यह वेदोंके विभाजनका इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापोंसे छूट जाता है ॥ 60 ॥
शौनकजी ! वैशम्पायनके कुछ शिष्योंका नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगोंने अपने गुरुदेवके ब्रह्महत्या – जनित पापका प्रायश्चित्त करनेके लिये एक व्रतका अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा ॥ 61 ॥ वैशम्पायनके एक शिष्य याज्ञवल्क्यमुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेवसे कहा – ‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रतपालनसे लाभ ही कितना है ? मैं आपके प्रायश्चित्तके लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’ ॥ 62 ॥ याज्ञवल्क्यमुनिकी यह बात सुनकर वैशम्पायनमुनिको क्रोध आ गया। उन्होंने कहा ‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे जैसे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले शिष्यकी मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अबतक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है उसका शीघ्र से शीघ्र त्याग कर दो और यहाँसे चले जाओ ।। 63 ।। याज्ञवल्क्यजी देवरातके पुत्र थे। उन्होंने गुरुजीकी आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेदका वमन कर दिया और वे वहाँसे चले गये। जब मुनियोंने देखा कि याज्ञवल्क्यने तो यजुर्वेदका वमन कर दिया, तब उनके चित्तमें इस बातके लिये बड़ा लालच हुआ कि हमलोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रोंको ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस संहिताको चुग लिया। इसीसे यजुर्वेदकी वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नामसे प्रसिद्ध हुई ।। 64-65 ।। शौनकजी! अब याज्ञवल्क्यने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजीके पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्यभगवान्का उपस्थान करने लगे ।। 66 ॥
याज्ञवल्क्यजी इस प्रकार उपस्थान करते हैं-मैं ॐकारस्वरूप भगवान् सूर्यको नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत्के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चार प्रकारके प्राणी हैं, उन सबके हृदयदेशमें | और बाहर आकाशके समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधिके धर्मोसे असङ्ग रहनेवाले अद्वितीय भगवान् ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवोंसे सङ्घटित संवत्सरोंके द्वाराएवं जलके आकर्षण – विकर्षण आदान-प्रदानके द्वारा समस्त लोकोंकी जीवनयात्रा चलाते हैं॥ 67 ॥ प्रभो ! आप समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ है। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधिसे आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखोंके बीजोंको आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव ! आप सारी सृष्टिके मूल कारण एवं समस्त ऐश्वयोंकि स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डलका पूरी एकाग्रताके साथ ध्यान करते हैं ।। 68 ।। आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत्में जितने चराचर प्राणी है, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणोंके प्रेरक हैं * ।। 69 ।। यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगरके विकराल मुँहमें पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्र से ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याणके साधन समय-समयके धर्मानुष्ठानोंमें लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टोंको भयभीत करता हुआ अपने राज्यमें विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार आदि दुष्टोंको भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं ॥ 70 ॥ चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थानपर अपनी कमलकी कलीके समान अञ्जलियोंसे आपको उपहार समर्पित करते हैं ॥ 71 ॥ भगवन् ! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकोंके गुरु-सदृश महानुभावोंसे भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलोंकी इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेदकी प्राप्ति हो, जो अबतक किसीको न मिला हो ॥ 72 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो! जब याज्ञवल्क्यमुनिने भगवान् सूर्यकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूपसे प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेदके उन मन्त्रोंका उपदेश किया, जो अबतक किसीको प्राप्त न हुए थे । 73 ।। इसके बाद याज्ञवल्क्यमुनिने यजुर्वेदके असंख्य मन्त्रोंसे उसकी पंद्रह शाखाओंकी रचना की। वही वाजसनेय शाखाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व माध्यन्दिन आदि ऋषियोंने ग्रहण किया ।। 74 ।। यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायनने जैमिनिमुनिको सामसंहिताका अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तुमुनि और पौत्र थे सुन्वान्। जैमिनिमुनिने अपने पुत्र और पौत्रको एक-एक संहिता पढ़ायी ।। 75 ।।जैमिनिमुनिके एक शिष्यका नाम था सुकर्मा । वह एक महान् पुरुष था । जैसे एक वृक्षमें बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्माने सामवेदकी एक हजार संहिताएँ बना दीं ॥ 76 ॥ सुकर्माके शिष्य कोसलदेशनिवासी हिरण्यनाभ, पौष्यञ्जि और ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ आवन्त्यने उन शाखाओंको ग्रहण किया ॥ 77 ॥ पौष्यञ्जि और आवन्त्यके पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशाके निवासी होनेके कारण औदीच्य सामवेदी कहलाते थे। उन्हो प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिताका अध्ययन किया ।। 78 ।। पौष्यञ्जिके और भी शिष्य थे लौगाक्षि, माङ्गलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि इसमें से प्रत्येकने सौ-सौ संहिताओंका अध्ययन किया ॥ 79 ॥ हिरण्यनाभका शिष्य था- -कृत। उसने अपने शिष्योंको चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्यने अपने शिष्योंको दीं। इस प्रकार सामवेदका विस्तार हुआ || 80 ॥
अध्याय 7 अथर्ववेदकी शाखाएँ और पुराणोंके लक्षण
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेदके ज्ञाता सुमन्तुमुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्धको पढ़ायी। कबन्धने उस संहिताके दो भाग करके पथ्य और वेददर्शको उसका अध्ययन कराया ॥ 1 ॥ वेददर्शके चार शिष्य हुए— शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि अब पथ्यके शिष्योंके नाम सुनो ॥ 2 ॥ शौनकजी ! पथ्यके तीन शिष्य थे— कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अङ्गिरा गोत्रोत्पन्न शुनकके दो शिष्य थे- बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगोंने दो संहिताओंका अध्ययन किया। अथर्ववेदके आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादिके शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प,शान्ति, कश्यप, आङ्गिरस आदि कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकोंके सम्बन्धमें सुनाता हूँ ।। 3-4 ॥
शौनकजी पुराणोंके छः आचार्य प्रसिद्ध है त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत ॥ 5 ॥ इन लोगोंने मेरे पिताजीसे एक-एक पुराणसंहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजीने स्वयं भगवान् व्याससे उन संहिताओंका अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्योंसे सभी संहिताओंका अध्ययन किया था ॥ 6 ॥ उन छः संहिताओंके अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएं थीं उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुरामजी के शिष्य अकृतव्रण और उन सबके साथ मैने व्यासजीके शिष्य श्रीरोमहर्षणजीसे, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था ॥ 7 ॥
शौनकजी ! महर्षियोंने वेद और शास्त्रोंके अनुसार पुराणोंके लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो ॥ 8 ॥ शौनकजी । पुराणोंके पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणोंके दस लक्षण हैं—विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय) हेतु (अति) और अपाश्रय । कोई-कोई आचार्य पुराणोंके पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणोंमें दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणोंमें पाँच विस्तार करके दस बतलाते है और संक्षेप करके पाँच ॥ 9-10 ॥ (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृतिमें लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्वसे तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक) तीन प्रकारके अहङ्कार बनते हैं। त्रिविध अहङ्कारसे ही पक्ष तन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयोंकी उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्तिक्रमका नाम ‘सर्ग’ है ॥ 11 ॥ परमेश्वरके अनुग्रहसे सृष्टिका सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकमकि अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओंकी प्रधानतासे जो यह चराचर शरीरात्मक जीवकी उपाधिकी सृष्टि करते हैं, एक बीजसे दूसरे बीजके समान, इसीको विसर्ग कहते हैं ।। 12 ।। चर प्राणियोंकी अचर – पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवननिर्वाहकी सामग्री है चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी इनमेंसे मनुष्योंने कुछ तो स्वभाववश कामनाके अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ शाखके आज्ञानुसार ।। 13 ।।भगवान् युग-युगमें पशु-पक्षी, मनुष्य ऋषि देवता आदिके रूपमें अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारोंमें वे वेदधर्मके विरोधियोंका संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्वकी रक्षाके लिये ही होती है, इसीलिये उसका नाम ‘रक्षा’ है ॥ 14 ॥ मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र साप्तर्षि और भगवान के अंशावतार इन्हीं छः बातोंकी विशेषतासे युक्त समयको ‘मन्वन्तर’ कहते हैं॥ 15 ॥ ब्रह्माजीसे जितने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्पराको ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओंके तथा उनके वंशधरोंके चरित्रका नाम ‘वंशानुचरित’ है ॥ 16 ॥ इस विश्वब्रह्माण्डका स्वभावसे ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं— नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानोंने इन्हींको ‘संस्था’ कहा है॥ 17 ॥ पुराणोके लक्षणमे ‘हेतु’ नामसे जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तवमे वही सर्ग-विसर्ग आदिकर हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकारके कर्मकलापमें उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्यप्रधानकी दृष्टिसे देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृतिमें शयन करनेवाला कहते हैं; और जो उपाधिकी दृष्टिसे कहते है, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृतिरूप कहते हैं ॥ 18 ॥ जीवकी वृत्तियोंके तीन विभाग हैं- जाग्रत्, स्वप्र और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओंमें इनके अभिमानी विश्व, तैस और प्राशके मायामय रूपोंमें प्रतीत होता है और इन |अवस्थाओंसे परे तुरीयतत्त्वके रूपमें भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसीको यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्दसे कहा गया है ।। 19 नामविशेष और रूपविशेषसे युक्त पदार्थोंपर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तुके रूपमें सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असलमें वह सत्ता ही उन विशेषताओंके रूपमें प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्यायसे शरीर और विश्वकी उत्पत्तिसे लेकर मृत्यु और महाप्रलयपर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूपमें परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य भेदसे अधिष्ठान और साक्षीके रूपमें ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है | 20 | जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यासके द्वारा सत्वगुण रजोगुण तमोगुण सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जामत्-स्वप्र आदि स्वाभाविक वृत्तियोका त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्तिमे ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्योंके द्वारा आत्मज्ञानका उदय होता है। उस | समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना औरकर्मप्रवृत्तिसे निवृत्त हो जाता है ॥ 21 ॥ शौनकादि ऋषियो ! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंने इन्हीं लक्षणोंके द्वारा पुराणोंकी यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं ॥ 22 ॥ उनके नाम ये हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिङ्गपुराण, गरुडपुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण यह अठारह हैं ।। 23-24 ॥ शौनकजी ! व्यासजीकी शिष्य-परम्पराने जिस प्रकार वेदसंहिता और पुराणसंहिताओंका अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसङ्ग सुनने और पढ़नेवालोंके ब्रह्मतेजकी अभिवृद्धि करता है ॥ 25 ॥
अध्याय 8 मार्कण्डेयजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति
शौनकजीने कहा – साधुशिरोमणि सूतजी ! आप आयुष्मान् हो। सचमुच आप वक्ताओंके सिरमौर हैं। जो लोग संसारके अपार अन्धकारमें भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँसे निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्नका उत्तर दीजिये ॥ 1 ॥ लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषिके पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलयने सारे जगत्को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे ॥ 2 ॥ परन्तु सूतजी ! वे तो इसी कल्पमें हमारे ही वंशमें उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँतक हमें मालूम है, इस कल्पमें अबतक प्राणियोंका कोई प्रलय नहीं हुआ है || 3 || ऐसी स्थितिमें यह बात कैसे सत्य हो सकती हैं कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्रमें डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेयजी उसमें डूब उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवटके पत्तेके दोनेमें अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्दका दर्शन किया ॥ 4 ॥सूतजी ! हमारे मनमें बड़ा सन्देह है और इस बातको | जाननेकी बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकोंमें सम्मानित हैं। आप कृपा करके हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये ॥ 5 ॥
सूतजीने कहा -शौनकजी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगोंका भ्रम मिट जायगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथामें भगवान् नारायणकी महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं ॥ 6 ॥ शौनकजी ! मृकण्ड ऋषिने अपने पुत्र मार्कण्डेयके सभी संस्कार समय-समयपर किये। मार्कण्डेयजी विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्यायसे सम्पन्न हो गये थे ॥ 7 ॥ उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्यका व्रत ले रखा था। शान्तभावसे रहते थे। सिरपर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षोंकी छालका ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथोंमें कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीरपर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती ॥ 8 ॥ काले मृगका चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश -यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतकी पूर्तिके लिये ही ग्रहण किया था । वे सायङ्काल और प्रातः काल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस पूजा और ‘मैं परमात्माका स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकारकी भावना आदिके द्वारा भगवान्की आराधना करते ॥ 9 ॥ सायं प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेवके चरणोंमें निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरुजीकी आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते ॥ 10 ॥ मार्कण्डेयजीने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर करोड़ों वर्षोंतक भगवान्की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्युपर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियोंके | लिये भी कठिन है ॥ 11 ॥ मार्कण्डेयजीकी मृत्यु-विजयको देखकर ब्रह्मा, भृगु, शङ्कर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्माजीके अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये ॥ 12 ॥ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेयजी इस प्रकार तपस्या, स्वाध्याय और संयम आदिके द्वारा अविद्या आदि सारे क्रेशोंको मिटाकर शुद्ध अन्तःकरणसे इन्द्रियातीत परमात्माका ध्यान करने लगे ॥ 13 ॥ योगी मार्कण्डेयजी महायोगके द्वारा अपना चित्त भगवान्के स्वरूपमें जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय — छः 8 मन्वन्तर व्यतीत हो गये ।। 14 ।।ब्रह्मन् ! इस सातवें मन्वन्तरमें जब इन्द्रको इस बातका पता चला, तब तो वे उनकी तपस्यासे शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्यामें विघ्न डालना आरम्भ कर दिया ।। 15 ।।
शौनकजी ! इन्द्रने मार्कण्डेयजीकी तपस्यामें विन डालनेके लिये उनके आश्रमपर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मदको भेजा ॥ 16 ॥ भगवन्! वे सब उनकी आज्ञाके अनुसार उनके आश्रमपर गये। मार्कण्डेयजीका आश्रम हिमालयके उत्तरकी ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नामकी नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नामकी एक शिला है ॥ 17 ॥ शौनकजी ! | मार्कण्डेयजीका आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षोंकी पंक्तियाँ हैं, उनपर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षोंके झुरमुटमें स्थान-स्थानपर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जलसे भरे जलाशय सब ऋतुओंमें एक-से ही रहते है ॥ 18 ॥ कहीं मतवाले भौरे अपनी सङ्गीतमयी गुंजारसे लोगोंका मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पञ्चम स्वरमें ‘कुहू कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियोंका झुंड खेलता | रहता है । 19 ॥ मार्कण्डेय मुनिके ऐसे पवित्र आश्रममें इन्द्रके भेजे हुए वायुने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनोंकी नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पोंका आलिङ्गन किया और फिर कामभावको उत्तेजित करते हुए धरि-धरि बहने लगा ॥ 20 ॥ कामदेवके प्यारे सखा वसन्तने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्याका समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणोंका विस्तार कर रहे थे। सहस्र – सहस्र | डालियोंवाले वृक्ष लताओंका आलिङ्गन पाकर घरतीतक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलोंके गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे ।। 21 । वसन्तका साम्राज्य देखकर कामदेवने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजानेवाले गन्धर्व झुंड के झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएं चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथमें पुष्पोंका धनुष और उसपर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे ।। 22 ।।उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान्की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों उनको देखनेसे ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्रके आज्ञाकारी सेवकोंने मार्कण्डेय मुनिको इसी अवस्थामें देखा ॥ 23 ॥ अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदङ्ग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वरमें बजाने लगे ॥ 24 ॥ शौनकजी! अब कामदेवने अपने पुष्पनिर्मित धनुषपर पञ्चमुख बाण चढ़ाया। उसके बाणके पाँच मुख हैं— शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगानेकी ताक में था, उस समय इन्द्रके सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनिका मन विचलित करनेके लिये प्रयत्नशील थे ॥ 25 ॥ उनके सामने ही पुञ्जिकस्थली नामकी सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनोंके भारसे बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियोंमें गुथे हुए सुन्दर सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखरकर भरतीपर गिरती जा रही थीं ।। 26 ।। कभी-कभी वह तिरछी चितवनसे इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंदके साथ आकाशकी ओर जाते, कभी धरतीकी ओर और कभी हथेलियोंकी ओर वह बड़े हाव-भाव के साथ गेंदकी ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वागुने उसकी झीनी-सी साड़ीको शरीरसे अलग कर दिया ॥ 27 ॥ कामदेवने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनिको मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनिपर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषों के प्रयत्न विफल हो जाते हैं ।। 28 शौनकजी मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्यासे भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेजसे जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँपको जगाकर भाग जाते है ।। 29 ।। शौनकजी । इन्द्रके सेवकोंने इस प्रकार मार्कण्डेयजीको पराजित करना चाहा, परन्तु वे रतीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मनमें इस बातको लेकर तनिक भी अहङ्कारका भाव न हुआ। सच है, | महापुरुषोंके लिये यह कौन-सी आश्चर्यकी बात है ॥ 30 ॥जब देवराज इन्द्रने देखा कि कामदेव अपनी सेनाके साथ निस्तेज – हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रह्मर्षि मार्कण्डेयजी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ ll 31 ll
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा भगवानमें चित्त लगानेका प्रयत्न करते रहते थे अब उनपर कृपाप्रसादकी वर्षा करनेके लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान् नारायण प्रकट हुए ॥ 32 ॥ उन दोनों में एकका शरीर गौरवर्ण था और दूसरेका श्याम दोनोंके ही नेत्र तुरंतके खिले हुए कमलके समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्षकी छाल । हाथोंमें कुश लिये हुए थे और गलेमें तीन-तीन सूतके यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँसका सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे ॥ 33 ॥ कमलगट्टे की माला और जीवोंको हटानेके लिये वस्त्रकी कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदिके भी पूज्य भगवान् नर-नारायण कुछ ऊंचे कदके थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीर से चमकती हुई बिजलीके समान पीले-पीले रंगकी कान्ति निकल रही थी। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो स्वयं तप ही मूर्तिमान् हो गया हो 34 जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि भगवान्के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभावसे उठकर खड़े हो गये और धरतीपर दण्डवत् लोटकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ 35 ॥ भगवान्के दिव्य दर्शनसे उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियों एवं अन्तःकरण शान्तिके समुद्र में गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। आंसू उमड़ आये, जिनके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते ।। 36 ।। तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनका अङ्ग अङ्ग भगवान् के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदयमें उत्सुकता तो इतनी थी मानो वे भगवान्का आलिङ्गन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणीसे केवल इतना ही कहा— ‘नमस्कार ! नमस्कार || 37 || इसके बाद उन्होंने दोनोंको आसनपर बैठाया, बड़े प्रेमसे उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदिसे उनकी पूजा करने लगे ll 38 ll भगवान् नर-नारायण सुखपूर्वक आसनपर विराजमान थे और मार्कण्डेयजीपर कृपा प्रसादकी वर्षा कर रहे थे। पूजाके अनन्तर मार्कण्डेय मुनिने उन सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर नारायणके चरणोंमें प्रणाम किया और यह स्तुति की ॥ 39 ॥ मार्कण्डेय मुनिने कहा-भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमाका कैसे वर्णन करूँ ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों – ब्रह्मा, शङ्कर तथा मेरे शरीरमें भी प्राणशक्तिका संचार होता है और फिर उसीके कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियोंमें भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जाननेकी शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होनेपर भी आप अपना भजन करनेवाले भक्तोंके प्रेम-बन्धनमें बँधे हुए हैं ॥ 40 ॥ प्रभो ! आपने केवल विश्वको रक्षाके लिये ही जैसे मत्स्य कर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकीके कल्याण, उसकी दुःख निवृत्ति और विश्वके प्राणियोंको मृत्युपर विजय प्राप्त करानेके लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ीके समान अपनेसे ही इस विश्वको प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपनेमें ही लीन भी कर लेते हैं ।। 41 ।। आप चराचरका पालन और नियमन करनेवाले हैं। मैं आपके चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलोकी शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेदके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्तिके लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं ॥ 42 प्रभो! जीवके चारों ओर भय-ही-भयका बोलबाला है। औरोंकी तो बात ही क्या, आपके कालरूपसे स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित – केवल दो परार्धकी है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीरवाले प्राणियोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्थामे आपके चरणकमलोंकी शरण ग्रहण करनेके अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख शान्तिका उपाय हमारी समझमें नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं 43 भगवन्! आप समस्त जीवोंके परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप है। इसलिये आत्मस्वरूपको ढक देनेवाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थोंको त्याग कर मैं आपके चरणकमलोकी ही शरण ग्रहण करता हूँ। | कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है ।। 44 ।।जीवोंके परम सुहृद् प्रभो! यद्यपि सत्त्व, रज और तम ये तीनों गुण आपकी ही मूर्ति हैं— इन्हींके द्वारा आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवोंको शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियोंसे जीवोंको शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दुःख, मोह और भयकी वृद्धि ही होती है ।। 45 ।। भगवन्! इसलिये बुद्धिमान् पुरुष आपकी और आपके भक्तोंकी परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर नारायणकी ही उपासना करते हैं। पाञ्चरात्र-सिद्धान्तके अनुयायी विशुद्ध सत्वको ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसीकी उपासनासे आपके नित्यधाम वैकुण्ठकी प्राप्ति होती है। उस धामकी यह विलक्षणता है कि वह लोक होनेपर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होनेपर भी आत्मानन्दसे परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुणको आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते 46 ॥ भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायणको नमस्कार करता हूँ ॥ 47 ॥ आप यद्यपि प्रत्येक जीवकी इन्द्रियों तथा उनके विषयोंमें, प्राणोंमें तथा हृदयमें भी विद्यमान है तो भी आपकी मायासे जीवकी बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियोंके जालमें फँसकर आपकी झाँकी लक्षित हो जाता है। किन्तु सारे जगत्के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होनेपर भी जब आपकी कृपासे उसे आपके ज्ञान भण्डार वेदोंकी प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है ॥ 48 ॥ प्रभो ! वेदमें आपका साक्षात्कार करानेवाला वह ज्ञान पूर्णरूपसे विद्यमान है, जो आपके स्वरूपका रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करनेका यल करते रहनेपर भी मोहमें पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्धमें जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तवमें आप देह आदि समस्त उपाधियोंमें छिपे हुए विशुद्ध नही है। हे पुरुषोत्तम ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ।। 49 ।।
अध्याय 9 मार्कण्डेयजीका माया दर्शन
सूतजी कहते हैं- जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान् नर-नारायणने प्रसन्न होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ॥ 1 ॥
भगवान् नारायणने कहा- सम्मान्य ब्रह्मर्षि शिरोमणि तुम चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्तिसे सिद्ध हो गये हो ॥ 2 ॥ तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्यव्रतकी निष्ठा देखकर हम तुमपर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो! मैं | समस्त वर देनेवालोंका स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो ॥ 3 ॥ मार्कण्डेय मुनिने कहा- देवदेवेश शरणागत ! भयहारी अच्युत। आपकी जय हो जय हो हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूपका दर्शन कराया ॥ 4 ॥ ब्रह्मा शङ्कर आदि | देवगण योग साधनाके द्वारा एकाग्र हुए मनसे ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलोंका दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये है। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रोंके सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है ॥ 5 ॥ पवित्रकीर्ति महानुभावोंके शिरोमणि कमलनयन ! फिर भी आपकी आज्ञाके अनुसार मैं आपसे घर माँगता हूँ मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रामें अनेकों प्रकारके भेद-विभेद देखने लगते हैं ॥ 6 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकजी! जब इस प्रकार मार्कण्डेय मुनिने भगवान् नर-नारायणकी इच्छानुसार स्तुति पूजा कर ली एवं वरदान माँग लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा- ‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवनको चले गये ॥ 7 ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने आश्रमपर ही रहकर निरन्तर इस बातका चिन्तन करते रहते कि मुझे मायाके दर्शन कब होंगे। वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरणमें— और तो क्या, सर्वत्र भगवान्का ही | दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओंसे उनका पूजन करते | रहते। कभी-कभी तो उनके हृदयमें प्रेमकी ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाहमें डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बातकी भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार
भगवान्की पूजा करनी चाहिये ?॥ 8-9 ॥ शौनकजी। एक दिनकी बात है, सन्ध्याके समय पुष्पभद्रा नदीके तटपर मार्कण्डेय मुनि भगवान्की उपासनामें तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन् ! उसी समय एकाएक बड़े जोरकी आंधी चलने लगी ॥ 10 ॥ उस समय अधीके कारण बड़ी भयङ्कर आवाज होने लगी और बड़े विकराल | बादल आकाशमें मँडराने लगे। बिजली चमक चमककर कड़कने लगी और रथके धुरेके समान जलकी मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वीपर गिरने लगीं ॥ 11 ॥ यही नहीं, मार्कण्डेय मुनिको ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओरसे चारों समुद्र समूची पृथ्वीको निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधीके वेगसे समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही है, बड़े भयङ्कर भँवर पड़ रहे हैं और भयङ्कर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थानपर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं ॥ 12 ॥ उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल ही जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशिमें पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपरसे बड़े वेगसे आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय मुनिने देखा कि इस जल-प्रलयसे सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज, स्वेदन, अण्डज और जरायुज – चारों प्रकारके प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी ॥ 13 ॥ उनके सामने ही प्रलयसमुद्रमें भयङ्कर लहरें उठ रही थीं, आँधीके वेगसे जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस बरसकर समुद्रको और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्रने द्वीप, वर्ष और पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको डुबा दिया ॥ 14 ॥ पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारोंका समूह) और दिशाओंके साथ तीनों लोक जलमें डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधेके समान जटा फैलाकर यहाँसे वहाँ और वहाँसे यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचानेकी चेष्टा कर रहे थे ।। 15 ।। वे भूख – प्याससे व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिङ्गिल मच्छ उनपर टूट पड़ते। किसी ओरसे हवाका झोंका आता, तो किसी ओरसे लहरोंके थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते ‘भटकते वे अपार अज्ञानान्धकारमें पड़ गये-बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाशका भी ज्ञान न रहा ॥ 16 ॥ वे कभी बड़े भारी भँवरमें पड़ जाते, कभी तरल तरङ्गोंकी चोटसे चञ्चल हो उठते। जब कभी जलजन्तु आपसमें एक-दूसरेपर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते ॥ 17 ॥ कहीं शोकप्रस्त हो जाते तो कहीं मोहग्रस्त कभी दुःख-ही दुःखके निमित्त आते तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते. कभी मर जाते तो कभी तरह-तरहके रोग उन्हें सताने लगते ॥ 18 ॥ इस प्रकार मार्कण्डेय मुनि विष्णुभगवान्की मायाके चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकालके समुद्रमें भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोड़ों वर्ष बीत गये ॥ 19 ॥
शौनकजी! मार्कण्डेय मुनि इसी प्रकार प्रलयके जलमें बहुत समयतक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वीके एक टीलेपर एक छोटा-सा बरगदका पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे ॥ 20 ॥ बरगद के पेड़में ईशानकोणपर एक डाल थी, उसमें एक पत्तोंका दोना-सा बन गया था। उसीपर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीर से ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आस-पासका अँधेरा दूर हो रहा था ॥ 21 ॥ वह शिशु मरकतमणिके समान साँवल-साँवला था । मुखकमलपर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शङ्खके समान उतार-चढ़ाववाली थी। छाती चौड़ी थी। तोते की चोचके समान सुन्दर नासिका और भौंहे बड़ी मनोहर थीं ॥ 22 ॥ काली काली घुँघराली 11 अलकें कपोलोंपर लटक रही थीं और श्वास लगनेसे कभी कभी हिल भी जाती थीं । शङ्खके समान घुमावदार कानों में अनारके लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगेके | समान लाल-लाल होठोंकी कान्तिसे उनकी सुधामयी श्वेत मुसकान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी ॥ 23 ॥ नेत्रों के कोने कमलके भीतरी भागके समान तनिक लाल-लाल थे। मुसकान और चितवन बरबस हृदयको पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपलके पत्तेके समान जान पड़ती और श्वास लेनेके समय उसपर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी ॥ 24 ॥ नन्हें-नन्हें हाथोंमें बड़ी सुन्दर सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलोंसे एक चरणकमलको मुखमें डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये ।। 25 ।। नकजी उस दिव्य शिशुको देखते ही मार्कण्डेय मुनिकी सारी थकावट जाती रही। आनन्दसे उनके हृदय कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशुके इस अद्भुत भावको देखकर उनके मनमें तरह-तरहकी शङ्काएँ- ‘यह कौन है इत्यादि आने लगीं और वे उस शिशुसे ये बातें पूछनेके लिये उसके सामने सरक गये ॥ 26 ॥ अभी मार्कण्डेयजी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशुके श्वासके साथ उसके शरीरके भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसीके पेटमें चला जाय। उस शिशुके पेटमें जाकर उन्होंने सब की सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलयके पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके ॥ 27 ॥ उन्होंने उस शिशुके उदरमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानोंके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार व्यवहार, पञ्चमहाभूत, भूतोंसे बने हुए प्राणियोंके शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पोंके भेदसे युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालोंके द्वारा जगत्का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँतक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होनेपर भी वहाँ सत्यके समान प्रतीत होते देखा ॥ 28-29 ।। हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तटपर अपना आश्रम और वहाँ रहनेवाले ऋषियोंको भी मार्कण्डेयजीने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्वको देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशुके श्वासके द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलय-कालीन समुद्रमें गिर पड़े। 30 ।। अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्रके बीचमें पृथ्वीके टीलेपर वही बरगदका पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्तेके दोनेमें वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरोंपर प्रेमामृतसे परिपूर्ण मन्द मन्द मुसकान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवनसे वह मार्कण्डेयजीकी ओर देख रहा है ।। 31 ।। अब मार्कण्डेय मुनि इन्द्रियातीत भगवान्को जो शिशुके रूपमें क्रीडा कर रहे थे और नेत्रोंके मार्गसे पहले ही हृदयमें विराजमान हो चुके थे, आलिङ्गन करने के लिये बड़े श्रम और कठिनाईसे आगे बढ़े ।। 32 ।।परन्तु शौनकजी ! भगवान् केवल योगियोंके ही नहीं, स्वयं योगके भी स्वामी और सबके हृदयमें छिपे रहनेवाले हैं। अभी मार्कण्डेय मुनि उनके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये- -ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषोंके परिश्रमका पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया ? ॥ 33 ॥ शौनकजी ! उस शिशुके अन्तर्धान होते ही वह बरगदका वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय मुनिने देखा कि मैं तो पहलेके | समान ही अपने आश्रममें बैठा हुआ हूँ || 34 ॥
अध्याय 10 मार्कण्डेयजीको भगवान् शङ्करका वरदान
सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियो ! मार्कण्डेय मुनिने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया-वैभवका अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस मायासे मुक्त होनेके लिये मायापति भगवान्की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हींकी शरणमें स्थित हो गये ॥ 1 ॥
मार्कण्डेयजीने मन-ही-मन कहा—प्रभो ! आपकी माया वास्तवमें प्रतीतिमात्र होनेपर भी सत्य ज्ञानके समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलोंमें मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरणकमल ही शरणागतोंको सब प्रकारसे अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है । 2 ॥
सूतजी कहते हैं- मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागतिकी भावनामें तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान् शङ्कर भगवती पार्वतीजीके साथ नन्दीपर सवार | होकर आकाशमार्गसे विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजीको उसी अवस्थामें देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे ॥ 3 ॥ जब भगवती पार्वतीने मार्कण्डेय मुनिको ध्यानकी अवस्थामें देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेहसे उमड़ आया। उन्होंने शङ्करजीसे कहा – ‘भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मणकी ओर तो देखिये । । जैसे तूफान शान्त हो जानेपर समुद्रकी लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती है और समुद्र धीर गम्भीर हो जाता है, | वैसे ही इस ब्राह्मणका शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियोंके दाता आप ही हैं। | इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मणकी तपस्याका प्रत्यक्ष फल दीजिये ॥ 4-5 ॥
भगवान् शङ्करने कहा- देवि! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोककी कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या इनके मनमें कभी मोक्षकी भी आकार नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान्के चरणकमलोंमें इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ॥ 6 ॥ प्रिये ! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये हैं | महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्रके लिये सबसे बड़े लाभकी बात यही है कि संत पुरुषोंका समागम प्राप्त हो ॥ 7 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! भगवान् शङ्कर समस्त विद्याओंके प्रवर्तक और सारे प्राणियों के हृदयमें |विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत्के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती | पार्वतीसे इस प्रकार कहकर भगवान् शङ्कर मार्कण्डेय मुनिके पास गये ॥ 8 ॥ उस समय मार्कण्डेय मुनिकी समस्त मनोवृत्तियां भगवद्भावमें तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत्का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्वके आत्मा स्वयं भगवान् गौरी-शङ्कर पधारे हुए हैं ॥ 9 ॥ शौनकजी ! सर्वशक्तिमान् भगवान् कैलासपतिसे यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाशके स्थानमें अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमायासे मार्कण्डेय मुनिके हृदयाकाशमें प्रवेश कर गये ॥ 10 ॥ मार्कण्डेय मुनिने देखा कि उनके हृदयमें तो भगवान् शङ्करके दर्शन हो रहे हैं। शङ्करजीके सिरपर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही है तीन नेत्र है और दस भुजाएँ लम्बा तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी है ॥ 19 ॥ शरीरपर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथोंमें शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये है । 12 ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने हृदयमे अकस्मात् भगवान् शङ्करका यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है ? कहाँसे आया ?’ इस प्रकारकी वृत्तियोंका उदय हो जाने से उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ।। 13 ।।जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि ताना लाकाक 5 एकमात्र गुरु भगवान् शङ्कर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणोंमें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ 14 ॥ तदनन्तर मार्कण्डेय मुनिने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारोंसे भगवान् शङ्कर, भगवती पार्वती और उनके गणोंकी पूजा की ॥ 15 ॥ इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे- ‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमासे ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुखसे ही सारे जगत्में सुख-शान्तिका विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्थामें मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ 16 ॥ मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूपको और सत्त्वगुणसे युक्त शान्तस्वरूपको नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तक स्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूपको नमस्कार करता हूँ’ ॥ 17 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनिने संतोंके परम आश्रय देवाधिदेव भगवान् शङ्करकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनपर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्न चित्तसे हँसते हुए कहने लगे ॥ 18 ॥
भगवान् शङ्करने कहा- मार्कण्डेयजी! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं — हम तीनों ही वरदाताओंके स्वामी हैं, हमलोगोंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हमलोगोंसे ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्वकी प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ॥ 19 ॥ ब्राह्मण स्वभावसे ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसीके साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होनेपर भी प्राणियोंका कष्ट देखकर उसके निवारणके लिये पूरे हृदयसे जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं ॥ 20 ॥ सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणोंकी वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्न रहते हैं ॥ 21 ॥ ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान्में, ब्रह्मामें, अपनेमें और सब जीवोंमें अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्माका ही | दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे जैसे महात्माओंकी स्तुतिऔर सेवा करते है । 22 ॥ मार्कण्डेयजी केवल | जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं, परन्तु तुमलोग दर्शनमात्रसे ही | पवित्र कर देते हो।। 23 ।। हमलोग तो ब्रह्मणोको ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्तकी एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा हमारे वेदमय शरीरको धारण करते हैं ॥ 24 ॥ मार्कण्डेयजी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे जैसे महापुरुषोंके चरित्र श्रवण और दर्शनसे ही शुद्ध हो जाते हैं; | फिर वे तुमलोगों के सम्भाषण और सहवास आदिसे शुद्ध हो जायँ, इसमें तो कहना ही क्या है ।। 25 ।।
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियों! चन्द्रभूषण भगवान् शङ्करकी एक-एक बात धर्मके गुप्ततम रहस्यसे परिपूर्ण थी। उसके एक-एक अक्षरमें अमृतका समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानोंके द्वारा पूरी तन्मयताके साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ।। 26 ।। चिरकालतक विष्णुभगवान्को मायासे भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान् शिवकी कल्याणी वाणीका अमृतपान करनेसे उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान् शङ्करसे इस प्रकार कहा ॥ 27 ॥
मार्कण्डेयजीने कहा— सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान्की यह लीला सभी प्राणियोंकी समझके परे है। भला, देखो तो सही — ये सारे जगत्के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे जैसे जीवोंकी वन्दना और स्तुति करते हैं ॥ 28 ॥ धर्मके प्रवचनकार प्रायः प्राणियोको धर्मका रहस्य और स्वरूप समझानेके लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्मका आचरण करता है। तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ॥ 29 ॥ जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलोसे उसके प्रभावमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी मायाकी वृत्तियोंको स्वीकार करके किसीकी वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस कामके द्वारा आपकी महिमामें कोई त्रुटि नहीं आती ॥ 30 ॥ आपने स्वप्रद्रष्टाके समान अपने मनसे ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होनेपर भी कर्म करनेवाले गुणोंके द्वारा 1 कर्ताके समान प्रतीत होते हैं 31 ॥भगवन् ! आप त्रिगुणस्वरूप होनेपर भी उनके परे उनकी आत्माके रूपमें स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञानके मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 32 ॥ अनन्त ! आपके श्रेष्ठ दर्शनसे बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदानके रूपमें माँगें ? मनुष्य आपके दर्शनसे ही पूर्णकाम और सत्यसङ्कल्प हो जाता है ॥ 33 ॥ आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तोंकी भी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेनेपर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान्में, उनके शरणागत भक्तोंमें और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे ।। 34 ।
सूतजी कहते हैं— शौनकजी! जब मार्कण्डेय मुनिने सुमधुर वाणीसे इस प्रकार भगवान् शङ्करकी स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वतीकी प्रसाद प्रेरणासे यह बात कही ॥ 35 ॥ महर्षे! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मामें तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ || 36 || ब्रह्मन् ! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमानके समस्त विशेष ज्ञानोंका एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थितिकी प्राप्ति हो जाय। तुम्हें पुराणका आचार्यत्व भी प्राप्त हो । 37 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकजी! इस प्रकार त्रिलोचन | भगवान् शङ्कर मार्कण्डेय मुनिको वर देकर भगवती पार्वतीसे मार्कण्डेय मुनिकी तपस्या और उनके प्रलयसम्बन्धी अनुभवोंका वर्णन करते हुए वहाँसे चले गये ॥ 38 ॥ भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनिको उनके महायोगका परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान्के अनन्यप्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदयसे पृथ्वीपर विचरण किया करते हैं ॥ 39 ॥ परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनिने भगवान्की योगमायासे जिस अद्भुत लीलाका अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगोंको सुना दिया ॥ 40 ॥ शौनकजी ! यह जो मार्कण्डेयजीने अनेक कल्पोंका सृष्टि-प्रलयोंका अनुभव किया, वह भगवान्की मायाका ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हींके लिये था, सर्वसाधारणके लिये नहीं। कोई-कोई इस मायाकी रचनाको न जानकर अनादिकालसे बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्पके हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजीकी आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ? ) ।। 41 ।।भृगुवंशशिरोमणे ! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेयचरित्र सुनाया है, वह भगवान् चक्रपाणिके प्रभाव और महिमासे भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओंके कारण प्राप्त होनेवाले आवागमनके चक्करसे सर्वदाके लिये छूट जाते हैं ॥ 42 ॥
अध्याय 11 भगवान् के अङ्ग, उपाङ्ग और आयुधोंका रहस्य तथा
शौनकजीने कहा- सूतजी ! आप भगवान्के परमभक्त और बहुज्ञोंमें शिरोमणि हैं। हमलोग समस्त शास्त्रोंके सिद्धान्तके सम्बन्धमें आपसे एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं ॥ 1 ॥ हमलोग क्रियायोगका यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करनेसे मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पाञ्चरात्रादि तन्त्रोंकी विधि जाननेवाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान्की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वोंसे उनके चरणादि अङ्ग, गरुडादि उपाङ्ग, सुदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणोंकी कल्पना करते हैं? भगवान् आपका कल्याण करें ।। 2-3 ॥
सूतजीने कहा- शौनकजी ! ब्रह्मादि आचार्योंने, वेदोंने और पाञ्चरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थोंने विष्णुभगवान्की जिन विभूतियोंका वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेवके चरणों में नमस्कार करके आपलोगोंको वही सुनाता हूँ ॥ 4 ॥ भगवान् के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूपमें यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्रा – इन नौ तत्त्वोंके सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पञ्चभूत — इन सोलह विकारोंसे बना हुआ है ॥ 5 ॥ यह भगवान्का ही पुरुषरूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, स्वर्ग मस्तक है, अन्तरिक्ष नाभि है, सूर्य नेत्र हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं ॥ 6 ॥प्रजापति लिङ्ग है, मृत्यु गुदा है, लोकपालगण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं ॥ 7 ॥ लज्जा ऊपरका होठ है, लोभ नीचेका होठ है, चन्द्रमाकी चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुसकान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुषके सिरपर उगे हुए बाल हैं ॥ 8 ॥ शौनकजी ! जिस प्रकार यह व्यष्टि पुरुष अपने परिमाणसे सात बितेका है | उसी प्रकार वह समष्टि पुरुष भी इस लोकसंस्थितिके साथ अपने सात बित्तेका है ॥ 9 ॥
स्वयं भगवान् अजन्मा हैं। वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभाको ही वक्षःस्थलपर श्रीवत्सरूपसे ॥ 10 ॥ वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणोंवाली मायाको वनमालाके रूपसे, छन्दको पीताम्बरके रूपसे तथा अ+उ+म् इन तीन मात्रावाले प्रणवको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण करते हैं ॥ 11 ॥ देवाधिदेव भगवान् सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकोंको अभय करनेवाले ब्रह्मलोकको ही मुकुटके रूपमें धारण करते हैं ॥ 12 ॥ मूलप्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिसपर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादियुक्त सत्वगुण ही उनके नाभिकमलके रूपमें वर्णित हुआ है ॥ 13 ॥ वे मन, इन्द्रिय और शरीर सम्बन्धी शक्तियोंसे युक्त प्राणतत्त्वरूप कौमोदकी गदा, जलतत्त्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्त्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं ॥ 14 ॥ आकाशके समान निर्मल आकाश स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शार्ङ्गधनुष और कर्मका ही तरकस धारण किये हुए है। 15॥ इन्द्रियोको ही भगवान्के बाणोंके रूपमें कहा गया है। क्रियाशक्तियुक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथके बाहरी भाग है और वर अभय आदिकी मुद्राओंसे उनकी वरदान, अभयदान आदिके रूपमें क्रियाशीलता प्रकट होती है ॥ 16 ॥ सूर्यमण्डल अथवा अग्नि-मण्डल ही भगवान की पूजाका स्थान है, अन्तःकरणको शुद्धि ही मन्त्रदीक्षा है और अपने समस्त पापोको नष्ट कर देना ही
भगवान् की पूजा है ॥ 17 ॥ ब्राह्मणो । समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य- इन छः पदार्थोंका नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान् अपने करकमलमे धारण करते है। धर्म और यशको क्रमशः चैवर एवं व्यजन (पंखे) के रूपसे तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठको छत्ररूपसे धारण किये हुए हैं। तीनों वेदोंका ही नाम गरुड है। वे ही अन्तर्यामी परमात्माका वहन करते हैं ।। 18-19 ॥ आत्मस्वरूप भगवान् की उनसे कभी न बिछुड़नेवाली आत्मशक्तिका ही नाम लक्ष्मी है। भगवान्के पार्षदोंके नायक विश्वविश्रुत विश्वक्सेन पाञ्चरात्रादि आगमरूप है। भगवान्के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्टसिद्धियोंको ही नन्द सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं ॥ 20 ॥ शौनकजी स्वयं भगवान् ही वासुदेव, सङ्घर्षण, प्रयु और अनिरुद्ध इन चार मूर्तियोंके रूपमें अवस्थित हैं; | इसलिये उन्होंको चतुर्व्यूहके रूपमें कहा जाता है ।। 21 ।। वे ही जाग्रत अवस्थाके अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयोंको ग्रहण करते और वे हो स्वप्नावस्थाके अभिमानी ‘तेजस’ बनकर बाह्य विषयोंके बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयोंको देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति अवस्थाके अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मनके संस्कारोंसे युक्त अज्ञानसे ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानोंके अधिष्ठान रहते हैं ।। 22 ।। इस प्रकार अङ्ग, उपाङ्ग, आयुध और आभूषणोंसे युक्त तथा वासुदेव, सङ्कर्षण धुम्र एवं अनिरुद्ध इन चार मूर्तियोंके रूपमें प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तेजस, प्राज्ञ एवं तुरीयरूपसे प्रकाशित होते हैं ।। 23 ।।
शौनकजी। वहीं सर्वस्वरूप भगवान् वेदोंके मूल कारण हैं, वे स्वयंप्रकाश एवं अपनी महिमासे परिपूर्ण हैं। वे अपनी मायासे ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामोंसे इस विश्वकी सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कम और नामोंसे उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रों में भिन्नके समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तोंको आत्मस्वरूपसे ही प्राप्त होते हैं ॥ 24 ॥ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुनके सखा है। आपने यदुवंशशिरोमणिके रूपमें अवतार ग्रहण करके | पृथ्वीके द्रोही भूपालोको भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रजकी गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यशका गान करते रहते हैं। गोविन्द आपके नाम, गुण और लीलादिका श्रवण करनेसे ही जीवका मङ्गल हो जाता है। हम सब आपके | सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये 25॥ पुरुषोत्तम भगवान् के चिह्नभूत अङ्ग, उपाङ्ग और आयुध आदिके इस वर्णनका जो मनुष्य भगवान्में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदयमें रहनेवाले ब्रह्मस्वरूप परमात्माका ज्ञान हो जायगा ।। 26 ।।
शौनकजीने कहा- सूतजी ! भगवान् | श्रीशुकदेवजीने श्रीमद्भागवत कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित् (पञ्चम स्कन्धमें कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओंका एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीनेमें बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्योंके साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियोंके नाम क्या है ? सूर्यके रूपमें भी स्वयं भगवान् ही है; इसलिये उनके विभागको हम बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये ।। 27-28 ।।
सूतजीने कहा -समस्त प्राणियोंके आत्मा भगवान् विष्णु ही हैं। अनादि अविद्या अर्थात् उनके वास्तविक | स्वरूपके अज्ञानसे ही समस्त लोकोंके व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डलका निर्माण हुआ है। वही लोकोंगे भ्रमण किया करता है ।। 29 ।। असलमें समस्त लोकोंके आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामीरूपसे सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियोंने उनका बहुत रूपोंमें वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओंके मूल हैं ॥ 30 ॥ शौनकजी ! एक भगवान् ही मायाके द्वारा काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, खुवा आदि करण यागादि कर्म, वेदमन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूपसे नौ प्रकारके कहे जाते हैं ॥ 31 ॥ कालरूपधारी भगवान् सूर्य लोगोंका व्यवहार ठीक-ठीक चलानेके लिये चैत्रादि बारह महीनोंमें अपने भिन्न-भिन्न बारह गणोंके साथ चक्कर लगाया करते हैं ॥ 32 ॥
शौनकजी । धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व-ये चैत्र मासमें अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ।। 33 । अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुञ्जिकस्थली अप्सरा, गन्धर्व और कच्छनीर सर्प ये वैशाख मासके कार्य निर्वाहक हैं ।। 34 ।। मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और | रथस्वन यक्ष-ये ज्येष्ठ मासके कार्यनिर्वाहक हैं ॥ 35 ॥आषाढ़ में वरुण नामक सूर्यके साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्यका निर्वाह करते हैं ॥ 36 ॥ श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्यका कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अङ्गिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्यका सम्पादन करते हैं ॥ 37 ॥ भाद्रपदके सूर्यका नाम है विवस्वान् । उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शङ्खपाल नाग रहते हैं ।। 38 ।। शौनकजी ! माघ मासमें पूषा नामके सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनञ्जय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं ।। 39 । फाल्गुन | मालका कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्यका है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित् अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं ॥ 40 ॥ मार्गशीर्ष मासमें सूर्यका नाम होता है अंशु उनके साथ कश्यप ऋषि, तार्क्ष्य यक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशङ्ख नाग रहते हैं ॥ 41 ॥ पौष मासमें भग नामक सूर्यके साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टनेमि गन्धर्व, ऊर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं । 42 ।। आश्विन मासमें त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्वका कार्यकाल है ॥ 43 ॥ तथा कार्तिकमें विष्णु नामक सूर्यके साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित् यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं ।। 44 ।।
शौनकी वे सब सूर्यरूप भगवान्को विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायङ्काल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ 45 ॥ ये सूर्यदेव अपने छः गणोंके साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोकमें विवेक बुद्धिका विस्तार करते हैं ॥ 46 ॥ सूर्यभगवान्के गणोमें ऋषिलोग तो सूर्यसम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रीद्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयशका गान करते रहते हैं। अपारा आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं ।। 47 ।।नागगण रस्सीकी तरह उनके रथको कसे रहते हैं। यक्षगण रथका साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछेसे ढकेलते हैं ॥ 48 ॥ इनके सिवा वालखिल्य नामके साठ हजार निर्मलस्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्यकी ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुतिपाठ करते चलते हैं ॥ 49 ॥ इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान् श्रीहरि ही कल्प कल्पमें अपने स्वरूपका विभाग करके लोकोंका पालन पोषण करते-रहते हैं ॥ 50 ॥
अध्याय 12 श्रीमद्भागवतकी संक्षिप्त विषय-सूची
सूतजी कहते हैं- भगवद्भक्तिरूप महान् धर्मको नमस्कार है। विश्वविधाता भगवान् श्रीकृष्णको नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणोंको नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मोंका संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ ॥ 1 ॥ शौनकादि ऋषियो! आपलोगोंने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान् विष्णुका यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मनुष्योंके श्रवण करनेयोग्य है ॥ 2 ॥ इस श्रीमद्भागवतपुराणमें सर्वपापापहारी स्वयं भगवान् श्रीहरिका ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदयमें विराजमान, सबकी | इन्द्रियोंके स्वामी और प्रेमी भक्तोंके जीवनधन हैं ॥ 3 ॥ इस श्रीमद्भागवतपुराणमें परम रहस्यमय – अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्वका वर्णन हुआ है। उस ब्रह्ममें ही इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी प्रतीति होती है। इस पुराण में | उसी परमतत्त्वका अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्तिके साधनोंका स्पष्ट निर्देश है ॥ 4 ॥
शौनकजी ! इस महापुराणके प्रथम स्कन्धमें भक्तियोगका भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोगसे उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखनेवाले वैराग्यका भी वर्णन किया गया है। परीक्षित्की कथा और व्यास नारद-संवादके प्रसङ्गसे नारदचरित्र भी कहा गया है ॥ 5 ॥राजर्षि परीक्षित् ब्राह्मणका शाप हो जानेपर किस प्रकार गङ्गातटपर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिवर श्रीशुकदेवजीके साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्धमें ही है ।। 6 ।। योगधारणाके द्वारा शरीरत्यागकी विधि, ब्रह्मा और
नारदका संवाद, अवतारोंकी संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व
| आदिके क्रमसे प्राकृतिक सृष्टिकी उत्पत्ति आदि विषयोंका वर्णन द्वितीय स्कन्धमें हुआ है 7 ॥ तीसरे स्कन्धमें पहले-पहल विदुरजी और उद्धवजीके, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रेयजीके समागम और संवादका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिताके विषय में प्रश्न हैं और फिर प्रलयकालमें परमात्मा किस प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है ॥ 8 ॥ गुणोंके क्षोभसे प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति विकृतियोंके द्वारा कार्य-सृष्टिका वर्णन है। इसके बाद ब्रह्माण्डको उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुषकी स्थितिका स्वरूप समझाया गया है ॥ 9 ॥ तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म कालका स्वरूप, लोक-पद्मकी उत्पत्ति, प्रलय-समुद्रसे पृथ्वीका उद्धार करते समय वराहभगवान् के द्वारा हिरण्याक्षका वध देवता, पशु, पक्षी और मनुष्योंकी सृष्टि एवं रुद्रोंकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग है। इसके पश्चात् उस अर्द्धनारी नरके स्वरूपका विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव मनु और स्त्रियोंकी अत्यन्त उत्तम आधा प्रकृति शतरूपाका जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापतिका चरित्र, उनसे मुनिपलियोंका जन्म, महात्मा भगवान् कपिलका अवतार और फिर कपिलदेव तथा उनकी माता देवहूतिके संवादका प्रसङ्ग आता है । 10 – 13 ॥
चौथे स्कन्धमें मरीचि आदि नौ प्रजापतियोंकी उत्पत्ति, दक्षयज्ञका विध्वंस, राजर्षि ध्रुव एवं पृथुका चरित्र तथा प्राचीनवर्हि और नारदजीके संवादका वर्णन है। पाँचवें स्कन्धमें प्रियव्रतका उपाख्यान; नाभि, ऋषभ और भरतके चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियोंका वर्णन; ज्योतिचक्रके विस्तार एवं पाताल तथा नरकोकी स्थितिका निरूपण हुआ है ।। 14–16 ।।
शौनकादि ऋषियो । छठे स्कन्धमें ये विषय आये है—प्रचेताओंसे दक्षकी उत्पत्तिः दक्ष-पुत्रियोकी सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियोंका जन्म कर्म: वृत्रासुरकी उत्पत्ति और उसकी परम गति (अब सातवें स्कन्धके विषय बतलाये जाते हैं) इस स्कन्धमें | मुख्यतः दैत्यराज हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके जन्म कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लादके उत्कृष्ट चरित्रका निरूपण है ।। 17-18 ॥
आठवें स्कन्धमें मन्वन्तरोकी कथा, गजेन्द्रमोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरों में होनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णुके अवतार कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि अमृत-प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्योंका समुद्र मन्थन और देवासुर संग्राम आदि विषयोंका वर्णन है। नवें स्कन्धमें मुख्यतः राजवंशों का वर्णन है। इक्ष्वाकुके जन्म-कर्म, वंश विस्तार, महात्मा सुद्युम्न, इला एवं ताराके उपाख्यान – इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्यवंशका वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओंका वर्णन, सुकन्याका चरित्र, शर्याति खट्वाङ्ग मान्धाता, सौभरि सगर, बुद्धिमान् ककुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान् रामके सर्वपापहारी चरित्रका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है। तदनन्तर निमिका देह त्याग और जनकोंकी उत्पत्तिका वर्णन है ।। 19-24 ॥ भृगुवंशशिरोमणि परशुरामजीका क्षत्रियसंहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शन्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदिकी संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्धमें ही है। सबके अन्तमें ययातिके बड़े लड़के यदुका वंशविस्तार कहा गया है ।। 25-26 ।।
शौनकादि ऋषियो। इसी यदुवंशमें जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरोका संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी है कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्धमें उनका कुछ कीर्तन किया गया है वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे उनका जन्म हुआ। गोकुलमें नन्दबाबाके घर जाकर बढ़े। पूतनाके प्राणीको दूधके साथ पी लिया। बचपन में ही छकड़ेको उलट दिया 27-28 तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुरको पीस डाला सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुरको मार डाला ॥ 29 ॥ दावानलसे घिरे गोपों की रक्षा की। कालिय नागका दमन किया। अजगरसे नन्दबाबाको छुड़ाया 30 ॥ इसके बाद गोपियोने भगवान्को पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये व्रत किया और भगवान् श्रीकृष्णाने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान्ने यज्ञपलियोंपर कृपा की। उनके पतियों 1। ब्राह्मणोंको बड़ा पश्चत्ताप हुआ ॥ 31 ॥ गोवर्द्धनधारणकी लीला करनेपर इन्द्र और कामधेनुने 2 आकर भगवान्का यज्ञाभिषेक किया। शरद ऋतुकी रात्रियोंमें व्रजसुन्दरियकि साथ रासक्रीडा की ॥ 32 ॥ दुष्ट शङ्खचूड, अरिष्ट, और केशीके वधकी लीला हुई। तदनन्तर अक्रूरजी मथुरासे वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजीने मथुराके लिये प्रस्थान किया ॥ 33 ॥ उस प्रसंगपर बज-सुन्दरियनि जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्यामने मथुरामें जाकर वहाँकी सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदिका संहार किया ।। 34 । सान्दीपनि गुरुके यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्रको लौटा लाये। शौनकादि ऋषियो ! जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण मथुरा निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलरामजी के साथ यदुवंशियोंका सब प्रकारसे प्रिय और हित किया ।। 35 ।। जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सेनाएँ लेकर आया और भगवान्ने उनका उद्धार करके पृथ्वीका भार हलका किया। कालयवनको मुचुकुन्दसे भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको यहाँ पहुँचा दिया ॥ 36 स्वर्गसे कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये भगवान्ने दल-के-दल शत्रुओंको युद्धमें पराजित करके रमणीका हरण किया ।। 37 ।। वाणासुरके साथ युद्धके प्रसङ्गमे महादेवजीपर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जैभाई लेने लगे और इधर बाणसुरकी भुजाएं काट डालीं प्रा ज्योतिषपुरके स्वामी भौमासुरको मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं ।। 38 ।। शिशुपाल, पौण्डूक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पञ्चजन आदि दैत्यंकि बल-पौरुषका वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान्ने उन्हें कैसे-कैसे मारा भगवान्के चलने काशीको जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्धमें पाण्डवोंको निमित्त बनाकर पृथ्वीका बहुत बड़ा भार उतार दिया ।। 39-40 ।।
शौनकादि ऋषियो । ग्यारहवें स्कन्धमें इस बातका वर्णन हुआ है कि भगवान्ने ब्राह्मणों के शाप के बहाने किस प्रकार यदुवंशका संहार किया। इस स्कन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और उद्धवका संवाद बड़ा ही अद्भुत है ॥ 41 ॥ उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णयका निरूपण हुआ है और अन्तमें यह बात बतायी गयी है कि भगवान् श्रीकृष्णने अपने आत्मयोगके प्रभावसे किस प्रकार मर्त्य लोकका परित्याग किया ।। 42 ।।बारहवें स्कन्धमें विभिन्न युगोंके लक्षण और उनमें रहनेवाले लोगोंके व्यवहारका वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुगमें मनुष्योंकी गति विपरीत होती है। चार प्रकारके प्रलय और तीन प्रकारकी उत्पत्तिका वर्णन भी इसी स्कन्धमें है ॥ 43 ॥ इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित्के शरीरत्यागकी बात कही गयी है। तदनन्तर वेदोंके शाखा विभाजनका प्रसङ्ग आया है। मार्कण्डेयजीकी सुन्दर कथा, भगवान्के अङ्ग उपाङ्गका स्वरूपकथन और सबके अन्तमें विश्वात्मा भगवान् सूर्यके गणोंका वर्णन है ॥ 44 ॥ शौनकादि ऋषियो ! आपलोगोंने इस सत्सङ्गके अवसरपर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसरपर मैंने हर तरहसे भगवान्की लीला और उनके अवतार चरित्रोंका ही कीर्तन किया है ।। 45 ।।
जो मनुष्य गिरते पड़ते, फिसलते, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशतासे भी ऊँचे स्वरसे बोल उठता है ‘हरये नमः’, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 46 ॥ यदि | देश, काल एवं वस्तुसे अपरिच्छिन भगवान् श्रीकृष्णके नाम, लीला, गुण आदिका सङ्कीर्तन किया जाय अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदिका श्रवण किया जाय तो वे स्वयं ही हृदयमें आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करनेवाले पुरुषके सारे दुःख मिटा देते हैं—ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकारको और आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ॥ 47 ॥ जिस वाणीके द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान् के नाम, लीला, गुण आदिका उधारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होनेपर भी निरर्थक है— सारहीन है, सुन्दर होनेपर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयोंका प्रतिपादन करनेवाली होनेपर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान् के गुणोंसे परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मङ्गलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं ॥ 48 ॥ जिस वचनके द्वारा भगवान् के परम पवित्र यशका गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया नया जान पड़ता है। है उससे अनन्त कालतक मनको परमानन्दकी अनुभूति होती रहती है। मनुष्योंका सारा शोक, चाहे वह समुद्रके समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचनके प्रभावसे सदाके लिये सूख जाता है ।। 49 ।। जिस वाणीसे-चाहे वह रस, भाव, अलङ्कार आदिसे युक्त ही क्यों न हो – जगत्को पवित्र करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णके यशका कभी गान नहीं होता. वह तो कौओंके लिये उच्छिष्ट फेंकनेके स्थानके समान अत्यन्त अपवित्र है। मानससरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाममें विहार करनेवाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंसभक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदयवाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान् रहते ॥ 50 ॥ इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है और जो व्याकरण आदिकी दृष्टिसे दूषित शब्दोंसे युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोक भगवान्के सुयशसूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगोंके सारे पापोंका नाश कर देती है; क्योंकि सत्पुरुष ऐसी ही वाणीका श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं 51 ॥ वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्षकी प्राप्तिका साक्षात् साधन है, यदि भगवान्की भक्तिसे रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान्को अर्पण नहीं किया गया है- -वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो— सर्वदा अमङ्गलरूप, दुःख देनेवाला ही है; वह तो शोभन—वरणीय हो ही कैसे सकता है ? ॥ 52 ॥ वर्णाश्रमके अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदिके लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है— केवल यश अथवा लक्ष्मीकी प्राप्ति परन्तु भगवान्के गुण, लीला, नाम आदिका श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलोंकी अविचल स्मृति प्रदान करता है ॥ 53 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी अविचल स्मृति सारे पाप ताप और अमङ्गलोको नष्ट कर देती और परम शान्तिका विस्तार करती है। उसीके द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान्की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्यसे युक्त भगवान्के स्वरूपका ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है ।। 54 ।। शौनकादि ऋषियो आपलोग बड़े भाग्यवान् है धन्य है, धन्य हैं क्योंकि आपलोग बड़े प्रेमसे निरन्तर अपने हृदयमें सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा सर्वशक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेवसे रहित नारायण भगवान्को स्थापित करके भजन करते रहते हैं। ॥ 55 ॥ जिस समय राजर्षि परीक्षित् अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियोंकी भरी सभामें सबके सामने श्रीशुकदेवजी महाराजसे श्रीमद्भागवतकी कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षिके मुखसे इस आत्मतत्त्वका श्रवण किया था। आपलोगोंने उसका स्मरण कराकर मुझपर बड़ा अनुग्रह
किया। मैं इसके लिये आपलोगोंका बड़ा ऋणी हूँ ॥ 56 ॥ शौनकादि ऋषियो भगवान् वासुदेवकी एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करनेयोग्य है। मैंने इस प्रसङ्गमें उन्हीं की महिमाका वर्णन किया है, जो सारे अशुभ संस्कारोंको धो बहाती है ॥57॥ जो मनुष्य एकाग्रचित्तसे एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धाके साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीरसहित अपने अन्तःकरणको पवित्र बना लेता है ॥ 58 ॥ जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशीके दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो संयमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहलेके पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पापकी प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है ।। 59 ।। जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरणको अपने वशमें करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारकामें इस पुराण संहिताका पाठ करता है, वह सारे भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 60 ॥ जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तनसे देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ 61 ॥ ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके पाठसे ब्राह्मणको मधुकुल्या, घृतकुल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूधकी नदियाँ अर्थात् सब प्रकारकी सुख समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवतके पाठसे भी मिलता है ।। 62 ।। जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराणसंहिताका अध्ययन करता है, उसे उसी परमपदकी प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान् ने किया है ॥ 63 ॥ इसके अध्ययनसे ब्राह्मणको ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञानको प्राप्त करानेवाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रियको समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेरका पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ 64 ॥
भगवान् ही सबके स्वामी हैं और समूह के समूह कलिमलोंको ध्वंस करनेवाले हैं। यों तो उनका वर्णन करनेके लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान्का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत महापुराणमें तो प्रत्येक कथा प्रसङ्गमें पद-पदपर सर्वस्वरूप भगवान्का ही वर्णन हुआ है ।। 65 वे जन्म-मृत्यु आदि विकारोंसे रहित, देशकालादिकृत परिच्छेदोंसे मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही है। जगत्की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 66 ॥जिन्होंने अपने स्वरूपमें ही प्रकृति आदि नौ शक्तियोंका सङ्कल्प करके इस चराचर जगत्की सृष्टि की है और जो | इसके अधिष्ठानरूपसे स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओंके आराध्यदेव सनातन भगवान्के चरणोंमें मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 67 ॥।
श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानन्दमें ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थितिसे उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरकी मधुमयी, मङ्गलमयी, मनोहारिणी लीलाओंने उनकी वृत्तियोंको अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत्के प्राणियोंपर कृपा करके भगवत्तत्त्वको प्रकाशित करनेवाले इस महापुराणका विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान् श्रीशुकदेवजीके चरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ 68 ॥।
अध्याय 13 विभिन्न पुराणोंकी श्लोक संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा
सूतजी कहते हैं— ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियोंके द्वारा जिनके गुण गानमें संलग्न रहते हैं; सामसङ्गीतके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अङ्ग, पद, क्रम एवं उपनिषदोंके सहित वेदोंद्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगीलोग ध्यानके द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मनसे जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहनेपर भी देवता, दैत्य, मनुष्य कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूपको पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्माको नमस्कार है ॥ 1 ॥ जिस समय भगवान्ने कच्छपरूप धारण किया था और उनकी पीठपर बड़ा भारी मन्दराचल मधानीकी तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचलकी चट्टानोंकी नोकसे खुजलानेके कारण भगवान्को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वासकी गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वास वायुसे जो समुद्रके जलको धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वासवायुके 2 थपेड़ोंके फलस्वरूप ज्वार भाटोंके रूपमें दिन-रात चढ़ताउतरता रहता है, उसे अबतक विश्राम न मिला।
भगवानकी वही परमप्रभावशाली वासवायु आपलोगोंकी रक्षा करे ॥ 2 ॥ शौनकजी! अब पुराणोंकी अलग-अलग श्लोक संख्या, उनका जोड़ श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये इसके दानको पद्धति तथा दान और पाठ आदिकी महिमा भी आपलोग प्रथम कीजिये ॥ 3 ॥ ब्रह्मपुराणमें दस हजार श्लोक, पद्मपुराणमें पचपन हजार श्रीविष्णुपुराणमे तेईस हजार और शिवपुराणकी श्लोकसंख्या चौबीस हजार है ॥ 4 ॥ श्रीमद्भागवतमें अठारह हजार, नारदपुराणमें पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराण नौ हजार तथा अग्निपुराणमें पन्द्रह हजार चार सौ श्लोक हैं ॥ 5 ॥ भविष्यपुराणकी श्लोक संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराणकी अठारह हजार तथा लिङ्गपुराणमें ग्यारह हजार श्लोक है॥ 6॥ वराहपुराणमें चौबीस हजार, स्कन्दपुराणकी लोकसंख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराणको दस हजार ॥ 7 ॥ कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकोंका और मध्यपुराण चौदह हजार श्लोकोंका है गरुडपुराण उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराणमें बारह हजार ॥ 8 ॥ इस प्रकार सब पुराणोंकी श्लोक संख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकोंका है ॥ 9 ॥ शौनकजी ! पहले-पहल भगवान् विष्णुने अपने नाभिकमलपर स्थित एवं संसारसे भयभीत ब्रह्मापर परम करुणा करके इस पुराणको प्रकाशित किया था ॥ 10 ॥ इसके आदि, मध्य और अन्तमें वैराग्य उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराणमें जो भगवान् श्रीहरिकी लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृतस्वरूप हैं ही; उनके सेवन से सत्पुरुष और देवताओंको बड़ा ही आनन्द मिलता है ॥ 11 ॥ आपलोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदोंका सार है ब्रह्म और आत्माका एकत्वरूप अद्वितीय सवस्तु। वहीं श्रीमद्भागवतका प्रतिपाद्य विषय है। इसके निर्माणका प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य मोक्ष 12 ॥
जो पुरुष भाद्रपद मासको पूर्णिमाके दिन श्रीमद्भागवतको सोनेके सिंहासनपर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है ।। 13 ।। संतोंको सभा तभीतक दूसरे पुराणोंकी शोभा होती है, जबतक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवतमहापुराण के दर्शन नहीं होते 14यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदों का सार है। जो इस रस-सुधाका पान करके छक चुका है, वह किसी और पुराण-शास्त्रमें रम नहीं सकता ॥ 15 ॥ जैसे नदियों में गङ्गा, देवताओंमें विष्णु और वैष्णवोंमें श्रीशङ्करजी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है ॥ 16 ॥ शौनकादि ऋषियों जैसे सम्पूर्ण काशी सर्वश्रे वैसे ही पुराणोंमें श्रीमद्भागवतका स्थान सबसे ऊँचा है ॥ 17 ॥ यह श्रीमद्भागवतपुराण सर्वथा निर्दोष है। भगवान् के प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं। पुराणमे जीवन्मुक्त परमहंसोंके सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं मायाके लेशसे रहित ज्ञानका गान किया गया है। इस अन्थको सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् की आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञान-वैराग्य एवं भक्तिसे युक्त है। जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान्को भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है 18 ॥
यह श्रीमद्भागवत भगवत्तत्त्वज्ञानका एक श्रेष्ठ प्रकाशक है। इसकी तुलनामें और कोई भी पुराण नहीं है। इसे पहले-पहल स्वयं भगवान् नारायणने ब्रह्माजीके लिये प्रकट किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्माजीके रूपसे देवर्षि नारदको उपदेश किया और नारदजीके रूपसे भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासको । तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूपसे योगीन्द्र शुकदेवजीको और श्रीशुकदेवजीके रूपसे अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षितको उपदेश किया। वे भगवान् परम शुद्ध एवं मायामलसे रहित हैं। शोक और मृत्यु उनके पासतक नहीं फटक सकते। हम सब उन्हीं परम सत्यस्वरूप परमेश्वरका ध्यान करते हैं ॥ 19 ॥ हम उन सर्वसाक्षी भगवान् वासुदेवको नमस्कार करते हैं, जिन्होंने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्माजीको इस श्रीमद्भागवत महापुराणका उपदेश किया ॥ 20 ॥ साथ हो हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेवजीको भी नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवतमहापुराण सुनाकर संसार-सर्पसे इसे हुए राजर्षि परीक्षितको मुक्त किया ॥ 21 ॥ देवताओंके आराध्यदेव सर्वेश्वर! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं। अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहनेपर भी आपके चरणकमलोंमें हमारी अविचल भक्ति बनी रहे ।। 22 ।।जिन भगवान्के नामोंका सङ्कीर्तन सारे पापोंको सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान्के चरणों में आत्मसमर्पण, उनके चरणोंमें प्रणति सर्वदाके लिये सब प्रकारके दुःखोंको शान्त कर देती है, उन्हीं परमतत्त्वस्वरूप श्रीहरिको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 23 ॥