- अध्याय 1 ध्यान-विधि और भगवान्के विराट्स्वरूपका वर्णन
- अध्याय 2 भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
- अध्याय 3 कामनाओंके अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना (1)
- अध्याय 4 सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजीका कथारम्भ
- अध्याय 5 सृष्टि-वर्णन
- अध्याय 6 विराट स्वरूप की विभूतियोंका वर्णन
- अध्याय 7 भगवान्के लीलावतारोंकी कथा
- अध्याय 8 राजा परीक्षित्के विविध प्रश्न
- अध्याय 9 ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवानके द्वारा चतु:श्लोकी भगवत का उपदेश
- अध्याय 10 भागवतके दस लक्षण
श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कंध
अध्याय 1 ध्यान-विधि और भगवान्के विराट्स्वरूपका वर्णन
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम्हारा लोकहितके लिये किया हुआ यह प्रश्न बहुत ही उत्तम है। मनुष्योंके लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करनेकी हैं, उन सबमे यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्नका बड़ा आदर करते हैं ॥ 1 ॥ राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घरके काम-धंधोंमें उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ॥ 2 ॥ उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसङ्गसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषणमें समाप्त हो जाता है ॥ 3 ॥ संसारमें जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं है, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्युका प्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ॥ 4 ॥ इसलिये परीक्षित्! जो अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीकृष्णकी ही लीलाओंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ।। 5 ।। मनुष्य जन्मका यही इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो— ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्मकी निष्ठासे जीवनको ऐसा बना लिया जाय कि मृत्युके समय भगवान्की स्मृति अवश्य बनी रहे ॥ 6 ॥ परीक्षित् । जो निर्गुण स्वरूपमें स्थित है एवं विधि-निषेधकी मर्यादाको लाँघ चुके हैं, वे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी प्रायः भगवान्के अनन्त कल्याणमय गुणगणोंके वर्णनमें रमे रहते है ॥ 7 ॥| द्वापरके अन्तमें इस भगवद्रूप अथवा वेदतुल्य श्रीमद्भागवत नामके महापुराणका अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपावनसे मैने अध्ययन किया था ॥ 8॥ राजर्षे मेरी निर्गुणस्वरूप परमात्मामें पूर्ण निष्ठा है। फिर भी भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंने बलात् मेरे हृदयको अपनी ओर आकर्षित कर लिया। यही कारण है कि मैंने | इस पुराणका अध्ययन किया 9 ॥ तुम भगवान्के परमभक्त हो इसलिये तुम्हें मैं इसे सुनाऊंगा जो इसके प्रति श्रद्धा रखते हैं, उनकी शुद्ध चित्तवृत्ति भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेमके साथ बहुत शीघ्र लग जाती है ॥ 10 ॥ जो लोग लोक या परलोकको किसी भी वस्तुकी इच्छा रखते हैं, या इसके विपरीत | संसारमें दुःखका अनुभव करके जो उससे विरक्त हो गये हैं और निर्भय मोक्षपदको प्राप्त करना चाहते हैं, उन साधकोंके लिये तथा योगसम्पन्न सिद्ध ज्ञानियोंके लिये भी समस्त शास्त्रोंका यही निर्णय | है कि वे भगवान् के नामोंका प्रेमसे सङ्कीर्तन करें ।। 11 ।। अपने कल्याण साधनकी ओरसे असावधान रहनेवाले पुरुषको वर्षों लम्बी आयु भी अनजानमें ही व्यर्थ बीत जाती है। उससे क्या लाभ! सावधानी से ज्ञानपूर्वक बितायी हुई घड़ी, दो घड़ी भी श्रेष्ठ है; क्योंकि उसके द्वारा अपने कल्याणकी चेष्टा तो की जा सकती है 12 ॥ राजर्षि वाङ्ग अपनी आबुकी समाप्तिका समय जानकर दो घड़ीमें ही सब कुछ त्यागकर भगवान्के अभयपदको प्राप्त हो गये ॥ 13 ॥ परीक्षित् अभी तो तुम्हारे जीवनको अवधि सात दिनकी है। इस बीचमें ही तुम अपने परम कल्याणके लिये है जो कुछ करना चाहिये, सब कर लो 14 ॥
मृत्युका समय आनेपर मनुष्य घबराये नहीं। उसे चाहिये कि वह वैराग्यके शस्त्रसे शरीर और उससे सम्बन्ध रखनेवालोंके प्रति | ममताको काट डाले ॥ 15 ॥ धैर्यके साथ घरसे निकलकर पवित्र तीर्थके जलमें स्नान करे और पवित्र तथा एकान्त स्थानमें विधिपूर्वक आसन लगाकर बैठ जाय ।। 16 ।। तत्पश्चात् परम पवित्र ‘अ उ म्’ इन तीन मात्राओंसे युक्त प्रणवका मन-ही-मन जप करे प्राणवायुको वशमें करके मनका दमन करे और एक क्षणके लिये भी प्रणवको न भूले ॥ 17 ॥ बुद्धिकी सहायता मनके द्वारा इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे हटा ले और कर्मको वासनाओंसे चशल हुए मनको विचारके द्वारा रोककर भगवान् के मङ्गलमय रूपये लगाये ।। 18 ।। स्थिर चित्तसे भगवान श्रीविग्रहमेसे किसी एक अङ्गका ध्यान करे। इस प्रकार एक-एक अङ्गका ध्यान करते-करते विषय-वासनासे रहित मनको पूर्णरूप | से भगवान्में ऐसा तल्लीन कर दे कि फिर और किसो विषयका चिन्तन ही न हो। वही भगवान् विष्णुका परमपद है, जिसे प्राप्त करके मन भगवत्प्रेमरूप आनन्दसे भर जाता है ।॥ 19 ॥यदि भगवान्का ध्यान करते समय मन रजोगुणसे विक्षिप्त या तमोगुणसे मूढ़ हो जाय तो घबराये नहीं। धैर्यके साथ योगधारणाके द्वारा उसे वशमें करना चाहिये, क्योंकि धारणा उक्त दोनों गुणोंके दोषोंको मिटा देती है ।। 20 ।। धारणा स्थिर हो जानेपर ध्यानमें जब योगी अपने परम मङ्गलमय आश्रय (भगवान्) को देखता है, तब उसे तुरंत ही भक्तियोगकी प्राप्ति हो जाती है ।। 21 ।।
परीक्षित्ने पूछा – ब्रह्मन् ! धारणा किस साधनसे किस वस्तुमें किस प्रकार की जाती है और उसका क्या | स्वरूप माना गया है, जो शीघ्र ही मनुष्यके मनका मैल मिटा देती है ? ॥ 22 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् आसन, श्वास, आसक्ति और इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके फिर बुद्धिके द्वारा मनको भगवान् के स्थूल रूपमें लगाना | चाहिये ॥ 23 ॥ यह कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व जो कुछ कभी था, है या होगा – सब का सब जिसमें दीख पड़ता है, वही भगवान्का स्थूल से स्थूल और विराद शरीर है 24 जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहङ्कार, महत्तत्त्व और प्रकृति — इन सात आवरणोंसे घिरे हुए इस ब्रह्माण्ड-शरीरमें जो विराट् पुरुष भगवान् हैं, वे ही धारणाके आश्रय हैं, उन्हींकी धारणा की जाती है ॥ 25 ॥ तत्त्वज्ञ पुरुष उनका इस प्रकार वर्णन करते हैं- पाताल विराट् पुरुषके तलवे हैं, उनकी एड़ियाँ और पंजे रसातल हैं, दोनों गुल्फ- एड़ीके ऊपरकी गाँठे महातल हैं, उनके पैरके पिंड़े तलातल हैं, ॥ 26 ॥ विश्व मूर्तिभगवान् के दोनों घुटने सुतल है, जो तिल और अतल है, पेड़ भूतल है, और परीक्षित्! उनके नाभिरूप सरोवरको ही आकाश कहते हैं 27 आदिपुरुष परमाको छातीको स्वर्गलोक, गलेको महलक, मुखको जनलोक और ललाटको तपोलोक कहते हैं। उन सहस्र सिरवाले भगवान्का मस्तकसमूह ही सत्यलोक है ॥ 28 ॥ इन्द्रादि | देवता उनकी भुजाएं हैं। दिशाएँ कान और शब्द श्रवणेन्द्रिय है। दोनों अधिनीकुमार उनको नासिकाकेछिद्र हैं; गन्ध घ्राणेन्द्रिय है और धधकती हुई आग उनका मुख है ॥ 29 ॥ भगवान् विष्णुके नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उनमें देखनेकी शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रह्मलोक है। तालु जल है और जिह्वा रस ॥ 30 ॥ वेदोंको भगवान्का ब्रह्मरन्ध्र कहते हैं और यमको दाढ़ें। सब प्रकारके स्नेह दाँत हैं और उनकी जगन्मोहिनी मायाको ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी मायाका कटाक्ष विक्षेप है ॥ 31 ॥ लज्जा ऊपरका होठ और लोभ नीचेका होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समुद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं ॥ 32 ॥ राजन् ! विश्वमूर्ति विराट् पुरुषकी नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास काल उनकी चाल है और गुणोंका चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है ।। 33 ।। परीक्षित्! बादलोंको उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्तका वस्त्र है। महात्माओंने अव्यक्त (मूलप्रकृति) को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारोंका खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है ॥ 34 ॥ महत्तत्त्वको सर्वात्मा भगवान्का चित्त कहते हैं और रुद्र उनके अहङ्कार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वनमें रहनेवाले सारे मृग और पशु उनके कटिप्रेदशमें स्थित हैं ।। 35 ।। तरह-तरहके पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल है। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनुकी सन्तान मनुष्य उनके निवासस्थान है। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरोकी स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं ॥ 36 ॥ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जङ्घाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुषके चरण हैं। विविध देवताओंके नामसे जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म परीक्षित्! विराट्भगवान् के स्थूलशरीरका यही स्वरूप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसीमें मुमुक्षु पुरुष बुद्धिके द्वारा मनको स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है ॥ 38 ॥ जैसे स्वप्न देखनेवाला स्वप्नावस्थामें अपने-आपको ही विविध पदार्थोंके रूपमें देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियोंके द्वारा सब कुछ अनुभव करनेवाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरूप आनन्दनिधि भगवान्का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तुमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि | यह आसक्ति जीवके अधःपतनका हेतु है ॥ 39 ॥
अध्याय 2 भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म रूपोंकी धारणा
श्रीशुकदेवजी कहते है मुष्टिप्रारम्भ ने इसी धारणाके द्वारा प्रसन्न हुए भगवान्से वह सृष्टिविषयक स्मृति प्राप्त की थी, जो पहले प्रलयकालमें विलुप्त हो गयी थी। इससे उनको दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी तब उन्होंने इस जगत्को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलयके पहले था ॥ 1 ॥
वेदोंकी वर्णन-शैली हो इस प्रकारकी है कि लोगोको बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामोंके फेरमें फँस जाती है, जीव वहाँ सुखकी वासनासे स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उन मायामय लोकोंमें कहीं भी उसे सधे सुखकी प्राप्ति नहीं होती ॥ 2 ॥ इसलिये विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह विविध नामवाले पदार्थोंसे उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजनीय हो। अपनी बुद्धिको उनकी निस्सारताके निश्चयसे परिपूर्ण रखे और एक क्षणके लिये भी असावधान न हो। यदि संसारके पदार्थ प्रारब्ध वश बिना परिश्रमके यों ही मिल जायें, तब उनके उपार्जनका | परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे ॥ 3 ॥जब जमीनपर सोनेसे काम चल सकता है, तब पलंगके लिये प्रयत्न करनेसे क्या प्रयोजन जब भुजाएँ अपनेको भगवान्को कृपासे स्वयं ही मिली हुई हैं, तब तकियोंकी क्या आवश्यकता । जब अञ्जलिसे काम चल सकता है, तब बहुत-से वर्तन क्यों बटोरें। वृक्षकी छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रोंकी क्या आवश्यकता ॥ 4 ॥ | पहननेको क्या रास्तोंमें चिथड़े नहीं हैं? भूख लगनेपर दूसरोंके लिये ही शरीर धारण करनेवाले वृक्ष क्या फल-फूलकी भिक्षा नहीं देते ? जल चाहनेवालोंके लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी है? रहनेके लिये क्या पहाड़ोंकी गुफाएँ बंद कर दी गयी हैं? अरे भाई! सब न सही, क्या भगवान् भी अपने शरणगतोंकी रक्षा नहीं करते ? ऐसी स्थितिमें बुद्धिमान् लोग भी धनके नशे में चूर घमंडी धनियाँकी चापलुसी क्यों करते है ? || 5 || इस प्रकार विरक्त हो जानेपर अपने हृदयमें नित्य विराजमान, स्वतःसिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान् है, बड़े प्रेम और आनन्दसे दृढ़ निश्चय करके उन्हींका भजन करे; क्योंकि उनके भजनसे जन्म-मृत्युके चक्कर में | डालनेवाले अज्ञानका नाश हो जाता है ॥ 6 ॥ पशुओंकी बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है, जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरकर अपने कर्मजन्य दुःसोको भोगते हुए देखकर भी भगवान्का मङ्गलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगोंमें ही अपने चित्तको भटकने देगा ? ॥ 7 ॥
कोई-कोई साधक अपने शरीरके भीतर हृदयाकाशमें विराजमान भगवान के प्रादेशमात्र स्वरूपकी धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान्की चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म है ॥ 8 ॥ उनके मुखपर प्रसन्नता झलक रही है। कमलके समान विशाल और कोमल नेत्र है। कदम्बके पुष्पकी केसरके समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओंमें श्रेष्ठ रलोंसे जड़े हुए सोनेके बाजूबंद शेभायमान है। सिरपर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानोंमें कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे है ।। 9 ।। उनके चरण-कमल योगेश्वरोंके खिलं हुए हृदयकमलकी कर्णिकापर विराजित हैं। उनके हृदयपर श्रीवत्सका चिह्न एक सुनहरी रेखा है। गलेमें कौस्तुभमणि लटक रही है। वक्षःस्थल कभी न | कुम्हलानेवाली वनमालासे घिरा हुआ है ll 10ll इस प्रकार परमात्मासे भिन्न पदार्थोंका त्याग करना चाहते हैं और शरीर तथा उसके सम्बन्धी पदार्थोम आत्मबुद्धिका त्याग करके हृदयके द्वारा पद-पदपर भगवान्के जिस परम पूज्य स्वरूपका आलिङ्गन करते हुए अनन्य प्रेमसे परिपूर्ण रहते हैं, वही भगवान् विष्णुका परम पद है-इस विषयमें समस्त शास्त्रोंकी सम्मति है ।। 18 ।।
ज्ञानदृष्टिके बलसे जिसके चित्तकी वासना नष्ट हो गयी है, उस ब्रह्मनिष्ठ योगीको इस प्रकार अपने शरीरका त्याग करना चाहिये। पहले एड़ीसे अपनी गुदाको दबाकर स्थिर हो जाय और तब बिना घबड़ाहटके प्राणवायुको षट्चक्रभेदनकी रीतिसे ऊपर ले जाय ।। 19 ॥ मनस्वी योगीको चाहिये कि चक्र मणिपूरकमे स्थित वायुको हृदयचक्र अनाहतमें, वहाँसे उदानवायुके द्वारा वक्षःस्थलके ऊपर विशुद्ध चक्रमे फिर उस वायुको धीरे-धीरे तालुमूलमे (विशुद्ध चक्र के अग्रभागमे) चढ़ा दे ॥ 20 ॥ तदनन्तर दो आँख, दो कान, दो नासाछिद्र और मुखइन सातों छिद्रों को रोककर उस तालुमूलमें स्थित वायुको भौहोंके बीच आज्ञाचक्रमें ले जाय। यदि किसी लोकमे जानेकी इच्छा न हो तो आधी घड़ीतक उस वायुको वहीं रोककर स्थिर लक्ष्यके साथ उसे सहस्रारमें ले जाकर परमात्मामें स्थित् हो जाय। इसके बाद ब्रह्मरन्धका भेदन करके शरीर-इन्द्रियादिको छोड़ दे ॥ 21 ॥
परीक्षित् ! यदि योगीकी इच्छा हो कि मैं ब्रह्मलोकमे जाऊं, आठों सिद्धियाँ प्राप्त करके आकाशचारी सिद्धोंके साथ विहार करूँ अथवा त्रिगुणमय ब्रह्माण्डके किसी भी प्रदेशमें विचरण करूँ, तो उसे मन और इन्द्रियोंको साथ ही लेकर शरीरसे निकलना चाहिये ॥ 22 ॥ योगियोंका शरीर वायुकी भाँति सूक्ष्म होता है। उपासना, तपस्या, योग और ज्ञानका सेवन करनेवाले योगियोंको किलोकीके बाहर और भीतर सर्वत्र स्वछन्दरूपसे विचरण करनेका अधिकार होता है। केवल कर्मकि द्वारा इस प्रकार बेरोक-टोक विचरना नहीं हो सकता ॥ 23 ॥ परीक्षित् । योगी ज्योतिर्मय मार्ग सुषुम्णाके द्वारा जब ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थान करता है, तब पहले वह आकाशमार्ग अमिलोकमे जाता है, वहाँ उसके बचे-खुचेल भी जल जाते हैं। इसके बाद वह वहाँसे ऊपर भगवान् श्रीहरिके शिशुमार नामक ज्योतिर्मय चक्रपर पहुँचता है ।। 24 ।।भगवान् विष्णुका यह शिशुमार चक्र विश्वब्रह्माण्डके भ्रमणका केन्द्र है। उसका अतिक्रमण करके अत्यन्त सूक्ष्म एवं निर्मल शरीरसे वह अकेला ही महलोंकमे जाता है। वह लोक ब्रह्मवेत्ताओंके द्वारा भी वन्दित है और उसमें कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले देवता विहार करते रहते हैं । 25 ॥ फिर जब प्रलयका समय आता है, तब नीचेके लोकोंको शेषके मुखसे निकली हुई आगके द्वारा भस्म होते देख वह ब्रह्मलोकमें चला जाता है, जिस ब्रह्मलोकमें बड़े-बड़े सिद्धेश्वर विमानोपर निवास करते हैं। उस ब्रह्मलोककी आयु ब्रह्माकी आयुके समान ही दो परार्द्धकी है॥ 26 ॥ वहाँ न शोक है न दुःख, न बुढ़ापा है न मृत्यु। फिर वहाँ किसी प्रकारका उद्वेग या भय तो हो ही कैसे सकता है। वहाँ यदि दुःख है तो केवल एक बातका। वह यही कि इस परमपदको न जाननेवाले लोगोंके जन्ममृत्युमय अत्यन्त घोर सङ्कटोंको देखकर दयावश वहाँके लोगोंके मनमें बड़ी व्यथा होती है॥ 27 ॥ सत्यलोक पहुँचनेके पश्चात् वह योगी निर्भय होकर अपने सूक्ष्म शरीरको पृथ्वीसे मिला देता है और फिर उतावली न करते हुए सात आवरणोंका भेदन करता है। पृथ्वीरूपसे जलको और जलरूपसे अधिमय आवरणको प्राप्त होकर वह ज्योतिरूपसे वायुरूप आवरणमें आ जाता है और वहाँसे समयपर ब्रह्मकी अनन्तताका बोध करानेवाले आकाशरूप आवरणको प्राप्त करता है ।। 28 । इस प्रकार स्थूल आवरणोंको पार करते समय उसकी इन्द्रियाँ भी अपने सूक्ष्म अधिष्ठानमें लीन होती जाती है। प्राणेन्द्रिय गन्धतयात्रामें, रसना रसतयात्रामें नेत्र रूपतन्मात्रा, त्वचा स्पर्शतमा श्रोत्र शब्दयात्रा और कर्मेन्द्रियाँ अपनी-अपनी क्रिया शक्तिमें मिलकर अपने-अपने सूक्ष्मस्वरूपको प्राप्त हो जाती हैं ।। 29 ।। इस प्रकार योगी पञ्चभूतोंके स्थूल सूक्ष्म आवरणोंको पार करके अहङ्कारमें प्रवेश करता है। वहाँ सूक्ष्म भूतोंको तामस अहङ्कारमें, इन्द्रियोंको राजस अहङ्कारमें तथा मन और इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओंको साविक अहङ्कारमेलोन कर देता है। इसके बाद अहङ्कारके सहित लयरूप गतिके द्वारा महत्तत्त्वमें प्रवेश करके अन्तमें समस्त गुणोंके लयस्थान प्रकृतिरूप आवरणमें जा मिलता है ॥ 30 ॥ परीक्षित्! महाप्रलय के समय प्रकृतिरूप आवरणका भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूपसेआनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है, उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता ॥ 31 ॥ परीक्षित् ! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तरमें मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्तिका तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान् वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गोंकी बात ब्रह्माजीसे कही थी ।। 32 ।।
संसार-चक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये, जिस साधनके द्वारा उसे भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ॥ 33 ॥ | भगवान् ब्रह्माने एकाग्र चित्तसे सारे वेदोंका तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धिसे यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ॥ 34 ॥ समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके आत्मारूपसे भगवान् श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य | पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी | एकमात्र द्रष्टा हैं ॥ 35 ॥ परीक्षित्! इसलिये मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान् श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ॥ 36 ॥ राजन् ! संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान्की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कानके दोनोंमें भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान् श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ॥ 37 ॥
अध्याय 3 कामनाओंके अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना (1)
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् तुमने मुझसे जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान मनुष्यको क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैने तुम्हें दे दिया ॥ 1 ॥ जो ब्रह्मतेजका इच्छुक हो, वह बृहस्पतिकी, जिसे इन्द्रियोंकी विशेष शक्तिको कामना हो, वह इन्द्रकी और जिसे सन्तानकी लालसा हो, वह प्रजापतियोंकी उपासना करे ॥ 2 ॥ जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवीकी, जिसे तेज चाहिये वह अफ्रिकी, जिसे धन चाहिये यह वसुओंकी और जिस प्रभावशाली पुरुषको वीरताकी चाह हो उसे रुद्रोंकी उपासना करनी चाहिये ॥ 3॥ जिसे बहुत अन्न प्राप्त करने की इच्छा हो वह अदितिका, जिसे स्वर्गकी कामना हो वह अदितिके पुत्र देवताओंका जिसे राज्यकी अभिलाषा हो यह विश्वेदेवोंका और जो प्रजाको अपने अनुकूल बनानेकी इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओंका आराधन करना | चाहिये ॥ 4 ॥ आयुकी इच्छासे अश्विनीकुमारोका, पुष्टिको इच्छासे पृथ्वीका और प्रतिष्ठाको चाह हो तो लोकमाता पृथ्वी और धौ (आकाश) का सेवन करना चाहिये ॥ 5 ॥ सौन्दर्यको चाहसे गन्धवोंकी, पत्नीकी प्राप्तिके लिये उर्वशी असराको और सबका स्वामी बननेके लिये ब्रह्माको आराधना करनी चाहिये ।। 6 ।। जिसे यशकी इच्छा हो वह यज्ञपुरुषको जिसे खजाने की लालसा हो वह वरुणकी; विद्या प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षा हो तो भगवान् शङ्करकी और पति-पत्नीमें परस्पर प्रेम बनाये रखनेके लिये पार्वतीजीको उपासना करनी चाहिये 7 ॥ धर्म-उपार्जन करनेके लिये विष्णुभगवान्की, वंशपरम्पराको रक्षाके लिये पितरोंकी, बाधाओंसे बचनेके लिये यक्षोंकी और बलवान् होनेके लिये मरुद्गणीको आराधना करनी चाहिये 8 ॥ राज्यके लिये मन्वन्तरोके अधिपति देवोंको, अभिचारके लिये निर्ऋतिको, भोगोंके लिये चन्द्रमाको और निष्कामता प्राप्त करनेके लिये परम पुरुष नारायणको भजना | चाहिये ।। 9 ।। और जो बुद्धिमान पुरुष है वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओंसे युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो उसे तो तीव्र भक्तियोग द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान्को ही आराधना करनी चाहिये ||10|| जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसमें है कि वे भगवान्के प्रेमी भक्तोका सङ्ग करके भगवान्मे अविचल प्रेम प्राप्त कर ले 1.1 ॥ऐसे पुरुषोंके जो भगवानकी लीलाकथाएँ होती है. उनसे उस दुर्लभ ज्ञानकी प्राप्ति होती है, जिससे संसार सागरकी त्रिगुणमयी तरङ्गमालाओंके थपेड़े शान्त हो जाते हैं, हृदय शुद्ध होकर आनन्दका अनुभव होने लगता है, इन्द्रियोंके विषयों में आसक्ति नहीं रहती केवल्यमोका सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान्की ऐसी रसमयी कथाओंका चस्का लग जानेपर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ।। 12 ।।
शौनकजीने कहा-सूतजी ! राजा परीक्षितने शुकदेवजीकी यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा? वे तो सर्वज्ञ होने के साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करनेमें भी बड़े निपुण थे ॥ 13 ॥ सूतजी ! आप तो सब कुछ जानते हैं, हमलोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेमसे सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतोंकी सभामें ऐसी ही बातें होती हैं, जिनका पर्यवसान भगवान्की रसमयी लीला-कथामें ही होता है ॥ 14 ॥ पाण्डुनन्दन महारथी राजा परीक्षित् बड़े | भगवद्भक्त थे। बाल्यावस्थामें खिलौनोंसे खेलते समय भी वे श्रीकृष्णलीलाका ही रस लेते थे ॥ 15 ॥ भगवन्मयः श्रीशुकदेवजी भी जन्मसे ही भगवत्परायण हैं। ऐसे संतोंके भगवान् महलय गुणको दिव्य वर्षा अवश्य ही हुई होगी ॥ 16 ॥ जिसका समय भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंके गान अथवा श्रवणमें व्यतीत हो रहा है, उसके अतिरिक्त सभी मनुष्योंकी आयु व्यर्थ जा रही है। ये भगवान् सूर्य प्रतिदिन अपने उदय और अस्तसे उनकी आयु छीनते जा रहे हैं ।। 17 ।। क्या वृक्ष नहीं जीते ? क्या लुहारकी धौंकनी साँस नहीं लेती ? गाँवके अन्य पालतू पशु क्या मनुष्य पशुकी ही तरह खाते-पीते या मैथुन नहीं करते ? || 18 | जिसके कानमें भगवान् श्रीकृष्णकी लीला-कथा कभी नहीं पड़ी, वह नर पशु, कुत्ते, ग्रामसूकर, ऊँट और गधेसे भी गया बीता है ॥ 19 ॥
सूतजी ! जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णकी कथा कभी नहीं सुनता, उसके कान बिलके समान है। जो जीभ भगवान्की लीलाओंका गायन नहीं करती, वह मेढककी जोभके समान टर्र-टर्र करनेवाली है; उसका तो न रहना ही अच्छा है ॥ 20 ॥ जो सिर कभी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें झुकता नहीं, वह | रेशमी वस्त्रसे सुसज्जित और मुकुटसे युक्त होनेपर भी बोझामात्र ही है। जो हाथ भगवान्की सेवा-पूजा नहीं करते, वे सोनेके कंगनसे भूषित होनेपर भी मुर्दे हाथ है।॥ 29॥
अध्याय 4 सृष्टिविषयक प्रश्न और शुकदेवजीका कथारम्भ
सूतजी कहते हैं- शुकदेवजी के वचन भगवत्तत्त्वका निश्चय करानेवाले थे। उत्तरानन्दन राजा परीक्षितने उन्हें सुनकर अपनी शुद्ध बुद्धि भगवान् श्रीकृष्णके चरणो अनन्यभावसे समर्पित कर दी ॥ 1 ॥ शरीर, पत्नी, पुत्र, महल, भाई पशु, धन, और निष्कण्टक राज्यमें नित्यके अभ्यासके ई-बन्धु कारण उनकी दृढ़ ममता हो गयी थी। एक क्षणमे ही उन्होंने उस ममताका त्याग कर दिया ॥ 2 ॥ शौनकादि ऋषियो । महामनस्वी परीक्षितने अपनी मृत्युका निश्चित समय जान लिया था। इसलिये उन्होंने धर्म, अर्थ और कामसे सम्बन्ध रखनेवाले जितने भी कर्म थे, उनका संन्यास कर दिया। इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण में मुद्दाको प्राप्त होकर बड़ी श्रद्धा भगवान् श्रीकृष्णकी | महिमा सुनने के लिये उन्होंने श्रीशुकदेवजी यही प्रश्न किया, जिसे आपलोग मुझसे पूछ रहे हैं ।। 3-4 ।।
परीक्षितने पूछा- भगवत्स्वरूप मुनिवर! आप परम पवित्र और सर्वज्ञ हैं। आपने जो कुछ कहा है, वह सत्य एवं उचित है। आप ज्यों-ज्यों भगवान्की कथा कहते जा रहे हैं, त्यों-त्यों मेरे अज्ञानका परदा फटता जा रहा है ॥ 5 ॥ मैं आपसे फिर भी यह जानना चाहता हूँ कि भगवान् अपनी मायासे इस संसार की सृष्टि कैसे करते हैं। इस संसारकी रचना तो इतनी रहस्यमयी है कि यदि समर्थ लोकल भी इसके भूल कर बैठते हैं ॥ 6 ॥ भगवान् कैसे इस विश्वकी रक्षा और फिर संहार करते हैं? अनन्तशक्ति परमात्मा किन-किन शक्तियोंका आश्रय लेकर अपने-आपको ही खिलौने बनाकर खेलते हैं? वे बच्चोंके बनाये हुए घरौंदोंकी तरह ब्रह्माण्डोंको कैसे बनाते हैं और फिर किस प्रकार बात की बातमें मिटा देते हैं ? ॥ 7 ॥ भगवान् श्रीहरिकी लीलाएँ बड़ी ही अदभुत-अचिन्त्य हैं। इसमें संदेह नहीं कि बड़े-बड़े विद्वानोंके लिये भी उनकी लीलाका रहस्य समझना अत्यन्त कठिन • प्रतीत होता है ॥ 8 ॥ भगवान् तो अकेले ही हैं। वे बहुत-से कर्म करनेके लिये पुरुषरूपसे प्रकृतिके विभिन्न गुणोको एक साथ ही धारण करते हैं अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमशः धारण करते हैं ॥ 9 ॥ मुनिवर। आप वेद और ब्रह्मतत्त्व दोनोंके पूर्ण मर्मज्ञ हैं, इसलिये मेरे इस सन्देहका निवारण कीजिये 10 ॥सूतजी कहते हैं— जब राजा परीक्षित्ने भगवान्के | गुणोंका वर्णन करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीने भगवान् श्रीकृष्णका बार-बार स्मरण करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया । 11 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- उनके चरणकमलोंमें मेरे कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करनेके लिये सत्त्व, रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियोंको स्वीकार कर ब्रह्मा, विष्णु और शङ्करका रूप धारण करते हैं; जो समस्त चर-अचर प्राणियोंके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान है, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धिका मार्ग बुद्धिके विषय नहीं है; जो स्वयं अनन्त हैं तथा जिनकी महिमा भी अनन्त है ।। 12 ।। हम पुनः बार-बार | उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषोंका दुःख मिटाकर उन्हें अपने प्रेमका दान करते हैं, दुष्टोकी सांसारिक बढ़ती रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रम में स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अभीष्ट वस्तुका दान करते हैं। क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हींको मूर्ति है, इसलिये किसीसे भी उनका | पक्षपात नहीं है ।। 13 ।। जो बड़े ही भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी किसीका ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो हो कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्यसे युक्त होकर जो निरन्तर ब्रह्मस्वरूप अपने धाममें विहार करते रहते हैं, उन भगवान् श्रीकृष्णको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 14 ॥ जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन जीवोंके पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार नमस्कार है ॥ 15 ॥ विवेकी पुरुष जिनके चरणकमलोकी शरण लेकर अपने हृदयसे इस लोक और परलोककी आसक्ति निकाल डालते है और बिना किसी परिश्रमके ही ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेते हैं, उन मङ्गलमय कोर्तिवाले भगवान् श्रीकृष्णको अनेक बार नमस्कार है ॥ 16 बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मन्त्रवेत्ता जबतक अपनी साधनाओंको तथा अपने-आपको उनके चरणों में समर्पित नहीं कर देते, तबतक उन्हें कल्याणको प्राप्ति नहीं होती। जिनके प्रति आत्मसमर्पणकी ऐसी महिमा है, उन कल्याणमयी कीर्तिवाले भगवान्को बार-बार नमस्कार है ।। 17 ।। किरात, हूण, आन्ध, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कडू, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा दूसरे पापी जिनके शरणागत भक्तोको शरण ग्रहण करनेसे ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् | भगवान्को बार-बार नमस्कार है ।। 18 ।।ये ही भगवान् ज्ञानियों के आप है, भलोके स्वामी है, कर्मकाण्डियों के लिये वेदमूर्ति है, धार्मिको के लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियोंके लिये तर स्वरूप है। ब्रहा, शहूर आदि बड़े-बड़े देवता भी अपने शुद्ध | हृदयसे उनके स्वरूपका चिन्तन करते और आश्चर्यचकित होकर देखते रहते हैं। वे मुझपर अपने अनुग्रहकी— प्रसादकी वर्षा | करें ॥ 19 ॥ जो समस्त सम्पत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीदेवीके पति हैं, समस्त यश के भीतर एवं फलदाता है, प्रजाके रक्षक है, सबके अन्तर्यामी और समस्त लोकोंके पालनकर्ता है तथा पृथ्वीदेवीके स्वामी है, जिन्होंने यदुवंशमें प्रकट होकर अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंशके लोगोंकी रक्षा की है, तथा जो उन लोगोंके एकमात्र आश्रय रहे हैं—वे भक्तवत्सल, संतजनोंके सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों ॥ 20 ॥ विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलोके चिन्तनरूप समाधिसे शुद्ध हुई बुद्धिके द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं तथा उनके दर्शनके अनन्तर अपनी-अपनी मति और रुचिके अनुसार जिनके स्वरूपका वर्णन करते रहते हैं, वे प्रेम और मुक्तिके लुटानेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हो ॥ 21 ॥ जिन्होंने सृष्टिके समय ब्रह्मा के हृदयमें पूर्वकल्पकी स्मृति जागरित करनेके लिये ज्ञानकी अधिष्ठात्री देवीको प्रेरित किया और वे अपने अङ्गोंके सहित वेदके रूपमें उनके मुखसे प्रकट हुई, ये ज्ञानके मूलकारण भगवान् मुझपर कृपा करें, मेरे हृदयमें प्रकट हों ॥ 22 ॥ भगवान् ही पञ्चमहाभूतोंसे इन शरीरोंका निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन इन सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह विषयोंका भोग करते हैं। वे सर्वभूतमय भगवान् मेरी वाणीको अपने गुणोंसे अलङ्कृत कर दें || 23 || संत पुरुष जिनके मुखकमलसे मकरन्दके समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधाका पान करते रहते हैं उन वासुदेवावतार सर्वज्ञ भगवान् व्यासके चरणोंमें मेरा बार-बार नमस्कार -इन है ।। 24 ।। परीक्षित् वेदगर्भ स्वयम्भू ब्रह्माने नारदके प्रश्न करनेपर यही बात कही थी, जिसका स्वयं भगवान् नारायणने उन्हें उपदेश किया था (और वही मैं तुमसे कह रहा हूँ) ॥ 25 ॥
अध्याय 5 सृष्टि-वर्णन
नारदजीने पूछा-पिताजी! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओंसे श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता है। आपको मेरा प्रणाम है। आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्मतत्त्वका साक्षात्कार हो जाता है॥ 1 ॥ पिताजी । इस संसारका क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तवमे यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्त्व बतलाइये ॥ 2 ॥ आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके त्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेलीपर रखे हुए आंवले के समान आपकी ज्ञान दृष्टिके अन्तर्गत ही है ॥ 3 ॥ पिताजी! आपको यह ज्ञान कहाँसे मिला? आप किसके आधारपर ठहरे हुए हैं? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरूप क्या है? आप अकेले ही अपनी मायासे पञ्चभूतोंके द्वारा प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है ! 4 जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें खेलने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्तिके आश्रयसे जीवोको अपने में ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आपमें कोई विकार नहीं होता || 5 ॥ जगत्मे नाम, रूप और गुणोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसमें में ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जो आपके सिवा और किसीसे उत्पन्न हुई हो।। 6 ।। इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाप्र चित्तसे घोर तपस्या की, इस बात से मुझे मोहके साथ-साथ बहुत बड़ी शङ्का भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या ॥ 7 ॥ पिताजी! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेशको ठीक-ठीक समझ सकूँ ॥ 8 ॥
ब्रह्माजीने कहा- बेटा नारद! तुमने जीवोंके प्रति करुणाके भावसे भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है; क्योंकि इससे भगवान्के गुणोंका वर्णन करनेको प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ।। 9 ।। तुमने मेरे विषयमे जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जबतक मुझसे परेका तत्त्व- जो स्वयं भगवान् ही है-जान नहीं लिया जाता, तबतक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ 10जैसे सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हों प्रकाशसे प्रकाशित होकर जगत् प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवानके चिन्मय प्रकाशसे प्रकाशित | होकर संसारको प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ 11 ॥ उन भगवान् वासुदेवकी मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय माथासे मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ।। 12 ।। यह माया तो उनकी आँखोंके सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूरसे ही भाग जाती है। परन्तु संसारके अज्ञानी जन उसीसे मोहित होकर ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार बकते रहते हैं ।। 13 ।। भगवत्स्वरूप नारद! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव- वास्तवमे भगवान भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ॥ 14 ॥ वेद नारायणके परायण हैं। देवता भी नारायणके ही अङ्गोंमें कल्पित हुए हैं और समस्त यज्ञ भी नारायणको प्रसन्नताके लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकोकी प्राप्ति होती है, वे भी नारायणमें ही कल्पित है ॥ 15 ॥ सब प्रकारके योग भी नारायणकी प्राप्तिके ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायणकी ओर ही ले जानेवाली हैं, ज्ञानके द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधनोंका पर्यवसान भगवान् नारायणमें ही है ।। 16 ।। वे द्रष्टा होनेपर भी ईश्वर हैं, स्वामी है; निर्विकार होनेपर भी सर्वस्वरूप है। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टिसे ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि रचना करता हूँ ॥ 17 ॥ भगवान् मायाके गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण— ये तीन गुण मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये है ॥ 18 ॥ ये ही तीनो गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर मायातीत नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामें स्थित होनेपर कार्य, कारण और कर्तापन के अभिधानसे बाँध लेते हैं ।। 19 । नारद! इन्द्रियातीत भगवान् गुणोके इन तीन आवरणोंसे अपने स्वरूपको भलीभांति दक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते सारे संसारके और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ॥ 20 ॥
मायापति भगवान्ने एकसे बहुत होने की इच्छा होनेपर अपनी मायासे अपने स्वरूपमें स्वयं प्राप्त काल, कर्म और | स्वभावको स्वीकार कर लिया ॥ 21 ॥ भगवान्की शक्ति से ही काल तीनों गुणों क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभावने उन्हें | रूपान्तरित कर दिया और कर्मने महत्तत्त्वको जन्म दिया ॥ 22 ॥रजोगुण और सत्वगुणकी वृद्धि होनेपर महत्तत्त्वका जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तमः प्रधान विकार हुआ ।। 23 ।। वह अहंकार कहलाया और विकारको प्राप्त होकर तीन प्रकारका हो गया। उसके भेद है—वैकारिक, तैजस और तामस नारदजी वे क्रमशः ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और | द्रव्यशक्तिप्रधान हैं ॥ 24 ॥ जब पञ्चमहाभूतोके कारणरूप तामस अहंकारमें विकार हुआ, तब उससे आकाशको उत्पत्ति हुई आकाशको तन्मात्रा और गुण शब्द है। इस शब्द के द्वारा हो द्रष्टा और दृश्यका बोध होता है ।। 25 ।। जब आकाशमें विकार हुआ, तब उससे वायुकी उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारणका गुण आ जानेसे यह शब्दवाला भी है। इन्द्रियोंमें स्फूर्ति, शरीरमें जीवनीशक्ति, ओज और बल इसीके रूप है ॥ 26 ॥ काल, कर्म और स्वभावसे वायुमें भी विकार हुआ। उससे तेजको | उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायुके गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें है ।। 27 ।। तेजके विकारसे जलकी उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस कारण तत्त्वांके गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें है॥ 28 ॥ जलके विकारसे पृथ्वीको उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध कारणके गुण कार्यमें आते हैं इस न्यायसे शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चारों गुण भी इसमें विद्यमान है ।। 29 । वैकारिक अहङ्कारसे मनकी और इन्द्रियोंके दस अधिष्ठात देवताओंकी भी उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैं-दिशा, वायु, सूर्य, वरुण अश्विनीकुमार, अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति 37 ॥ तेजस अहङ्कारके विकारसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राणये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रिय-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। साथ ही ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तेजस अहङ्कारसे ही उत्पन्न हुए ।। 31 ।।
श्रेष्ठ ब्रह्मवित्! जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन और सत्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहनेके लिये भोगोके साधनरूप शरीरकी रचना नहीं कर सके ।। 32 ।। जब भगवान्ने इन्हें अपनी शक्तिसे प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक-दूसरेके साथ मिल गये और उन्होंने आपसमें कार्य कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि समष्टिरूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनोंकी रचना की ।। 33 ।। वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहस्र वर्षतक निर्जीवरूपसे जलमें पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभावको स्वीकार करनेवाले भगवान्ने उसे जीवित कर दिया ।। 34 ।। उस अंडेको फोड़कर उसमेसे वही विराट् पुरुष निकला, जिसको जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रोंकी संख्या में है ॥ 35विद्वान् पुरुष (उपासनाके लिये) उसीके अङ्गोंमें समस्त लोक और उनमें रहनेवाली वस्तुओंकी कल्पना करते हैं। उसकी कमरसे नीचेके अङ्गोंमें सातों पातालकी और उसके पेड़से ऊपरके अङ्गोंमें सातों स्वर्गकी कल्पना की जाती है ।। 36 । ब्राह्मण इस विराट् पुरुषका मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ 37 ॥ पैरोंसे लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोककी कल्पना की गयी है; नाभिमें भुवर्लोककी, हृदयमें स्वर्लोककी और परमात्माके वक्षःस्थलमें महलोंककी कल्पना की गयी है ॥ 38 ॥ उसके गलेमें जनलोक, दोनों स्तनोंमें तपोलोक और मस्तकमें ब्रह्माका नित्य निवासस्थान सत्यलोक है ॥ 39 ॥ उस विराट् पुरुषकी कमरमें अतल, जाँघोंमें वितल, घुटनोंमें पवित्र सुतललोक और जङ्घाओंमें तलातलकी कल्पना की गयी है ॥ 40 ॥ एड़ीके ऊपरकी गाँठोंमें महातल, पंजे और एड़ियोंमें रसातल और तलुओंमें पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है ॥ 41 ॥ विराट् भगवान् के अङ्गोंमें इस प्रकार भी लोकोंकी कल्पना की जाती है कि उनके चरणोंमें पृथ्वी है, नाभिमें भुवर्लोक है | और सिरमें स्वर्लोक है ।। 42 ।।
अध्याय 6 विराट स्वरूप की विभूतियोंका वर्णन
ब्रह्माजी कहते हैं उन्हीं विराट् पुरुषके मुखसे वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द • उनकी सात धातुओंसे निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और | देवताओंके भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकारके रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुषकी जिहासे उत्पन्न हुए है ॥ 1 ॥ उनके नासाछिद्रोंसे प्राण, अपान, है व्यान, उदान और समान ये पांचों प्राण और वायु तथा घाणेन्द्रियसे अश्विनीकुमार, समस्त औषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥ 2 ॥ उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और | तेजकी तथा नेत्र गोलक स्वर्ग और सूर्यको जन्मभूमि है। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानोंसे तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से निकले हैं। उनका शरीर संसारकी सभी वस्तुओंके सारभाग तथा सौन्दर्यका खजाना है॥ 3 ॥ सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी त्वचासे निकले है, उनके रोम सभी उद्भिज पदार्थकि जन्मस्थान है, अथवा केवल उन्होंके, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥ 4 ॥ उनके केश दाढ़ी-मूंछ और नखोंसे मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओंसे प्रायः संसारको रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं । 5॥ उनका चलना-फिरना भूः भुवः स्वः तीनो लोकोका आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्तको रक्षा करते हैं और भयोको भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति उन्होंसे होती है ॥ 6 ॥ विराट् पुरुषका लिङ्ग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापतिका आधार है तथा उनको जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्दका उद्गम है ॥ 7 ॥ नारदजी ! विराट् पुरुषको पायु-इन्द्रिय यम मित्र और मलत्यागका तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु उत्पत्तिस्थान है । 8 ।। उनकी पीठसे पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाड़ियोंसे नद नदी और हड्डियोंसे पर्वतोका निर्माण हुआ है ।। 9 । उनके उदरमे मूल प्रकृति, रस नामकी धातु तथा समुद्र समस्त प्राणी और उनको मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय हो मनको जन्मभूमि है ॥ 10 ॥ नारद। हम तुम, धर्म, सनकादि, शङ्कर, विज्ञान और अन्त करण -सब-के-सब उनके चित्तके आश्रित है ।। 11 ।। (कहाँतक गिनाये) में तुम तुम्हारे बड़े भाई सनकादि शङ्कर, देवता दैत्य मनुष्य, नाग, पक्षी मृग, रंगनेवाले जन्तु गन्धर्व, अप्सराएं यक्ष राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और नाना प्रकारके जोव – जो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैं-ग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे) तारे, बिजली और बादल – ये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्व-जो कुछ कभी था, है या होगा—सबको वह घेरे हुए हैं बहुए और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके परिमाणमें ही स्थित है । 12 – 15 ॥ जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही | पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रहको प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतर सर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ 16 ॥ मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और सङ्कल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ॥ 17 ॥ सम्पूर्ण लोक भगवान्के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकोंमें क्रमशः अमृत, क्षेम एवं अभयका नित्य निवास है ।। 18 ।।
जन, तप और सत्य — इन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते हैं ।। 19 ।। शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैं-एक अविद्यारूप कर्ममार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है। मनुष्य दोनोंमें से किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है, किन्तु | पुरुषोत्तमभगवान् दोनोंके आधारभूत हैं ॥ 20 ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे इस अण्डकी और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की उत्पत्ति हुई है – वे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत है॥ 21 ॥
जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभि-कमलसे मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुषके अङ्गोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री नहीं मिली ॥ 22 ॥ तब मैंने उनके अङ्गों में ही | यज्ञके पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके योग्यउत्तम कालकी कल्पना की ।। 23 ।। ऋषिश्रेष्ठ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छः रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजुः साम, चातुर्होत्र यज्ञोंके नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ, सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पण – यह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुषके | अङ्गोसे ही इकट्ठी की ॥। 24 – 26 ।। इस प्रकार विराट् पुरुषके अङ्गोंसे ही सारी सामग्रीका संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियोंसे उन यज्ञस्वरूप परमात्माका यज्ञके द्वारा यजन किया ॥ 27 ॥ तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियोंने अपने चित्तको पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूपसे स्थित उस पुरुषकी आराधना की ।। 28 । इसके पश्चात् समय-समयपर मनु, ऋषि, पितर देवता, दैत्य और मनुष्याने यशेोके द्वारा भगवान्की आराधना की ।। 29 ।। नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान् नारायणमें स्थित है, जो स्वयं तो प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, परन्तु सृष्टिके प्रारम्भमें मायाके द्वारा बहुत से गुण ग्रहण कर लेते हैं॥ 30 ॥ उन्हींकी प्रेरणासे मैं इस संसारकी रचना करता हूँ। उन्होंके अधीन होकर रुद्र | इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णुके रूपसे इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तमकी तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ।। 31 ।। बेटा ! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारणके रूपमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो भगवान् से भिन्न हो ।। 32 ।।
प्यारे नारद। मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदयसे भगवान् के स्मरणमें मन रहता हूँ, इसीसे मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य सङ्कल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादाका उल्लङ्घन करके कुमार्गमे नहीं जातीं ॥ 33 ॥ मैवेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठासे योगका सर्वारङ अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने | मूलकारण परमात्माके स्वरूपको नहीं जान सका ।। 34 ।।(क्योंकि वे तो एकमात्र भक्तिसे ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मङ्गलमय एवं शरण आये हुए भक्तोंको जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले परम कल्याणस्वरूप भगवान्के चरणोंको नमस्कार करता हूँ। उनकी मायाकी शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्तको नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमाका विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थितिमें दूसरे तो उसका | पार पा ही कैसे सकते हैं ? ।। 35 ॥ मैं, मेरे पुत्र तुमलोग और शङ्करजी भी उनके सत्यस्वरूपको नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो | रहे है कि उनकी मायाके द्वारा रचे हुए जगत्को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही अटकल लगाते हैं॥ 36 ॥
हमलोग केवल जिनके अवतारकी लीलाओंका गान ही करते रहते हैं, उनके तत्वको नहीं जानते उन भगवान्के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 37 ॥ वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्पमें वे स्वयं अपने-आपमें अपने आपको हो सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ।। 38 ।। वे मायाके लेशसे रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्माके रूपमें एकरस स्थित हैं। वे तीनों कालमें सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणोंसे रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ।। 39 ।। नारद ! महात्मालोग जिस समय अपने अन्तःकरण, इन्द्रिय और शरीरको शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषोंके द्वारा कुतकों का जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ॥ 40 ॥
परमात्माका पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पञ्चभूत, अहङ्कार, तोनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जङ्गम जीव – सब-के-सब उन अनन्त भगवान् के ही रूप है ।। 41 ।। मैं, शङ्कर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम और तुम्हारे जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोकके रक्षक, पक्षियोके राजा, मनुष्यलोकके राजा, नीचे लोकोंके राजा गंधर्व विद्यार और चारणों के अधिनायक, पक्ष, राक्षस, साँप और नागके स्वामी: महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कुष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षि स्वामी एवं संसारमें और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य तेज इंद्रिय मनोबल शरीरबल मासे युक्त है अथव जो [ भीषन्द वैभव तथा विभूतिसे मुक्त है, एवंजितनी भी वस्तुएँ अद्भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैं—वे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्त्वरूप ही | हैं ॥ 42 – 44 ॥ नारद! इनके सिवा परम पुरुष |परमात्माके परम पवित्र एवं प्रधान प्रधान लीलावतार भी शास्त्रोंमें वर्णित हैं। उनका क्रमशः वर्णन करता हूँ । उनके चरित्र सुननेमें बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रियके दोषोंको दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ।। 45 ।।
अध्याय 7 भगवान्के लीलावतारोंकी कथा
ब्रह्माजी कहते है-अनन्त भगवान्ने प्रलबके जलमें डूबी हुई पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये समस्त यज्ञमय वराह शरीर ग्रहण किया था। आदिदैत्य हिरण्याक्ष जलके अंदर ही लड़नेके लिये उनके सामने आया। जैसे इन्द्रने अपने वसे पर्वतोंके पंख काट डाले थे, वैसे ही वराहभगवान्ने अपनी दादोसे उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ॥ 1 ॥
फिर उन्हीं प्रभुने रुचि नामक प्रजापतिकी पत्नी आकूतिके गर्भसे सुयज्ञके रूपमें अवतार ग्रहण किया। उस अवतारमें उन्होंने दक्षिणा नामकी पत्नीसे सुगम नाम के देवताओंको उत्पन्न किया और तीनों लोकोंके बड़े-बड़े सङ्कट हर लिये। इसीसे स्वायाय मनुने उन्हें ‘हरि’ के नाम से पुकारा ॥ 2 ॥
नारद कर्दम प्रजापतिके घर देवहूतिके गर्भ से नौ बहिनोंके साथ भगवान्ने कपिलके रूपमें अवतार ग्रहण किया। उन्होंने अपनी माताको उस आत्मज्ञानका उपदेश किया, जिससे वे इसी जन्म में अपने हृदयके सम्पूर्ण मल तीनों गुणोंकी | आसक्तिका सारा कीचड़ धोकर कपिल भगवान के वास्तविक स्वरूपको प्राप्त हो गयीं ॥ 3 ॥
महर्षि अत्रि भगवान्को पुत्ररूपमें प्राप्त करना चाहते थे।
उनपर प्रसन्न होकर भगवान्ने उनसे एक दिन कहा कि ‘मैने
अपने-आपको तुम्हें दे दिया।’ इसीसे अवतार लेनेपर
भगवान्का नाम ‘दत्त’ (दत्तात्रेय) पड़ा। उनके चरणकमलोके परागसे अपने शरीरको पवित्र करके राजा यदु और सहस्रार्जुनआदिने योगकी, भोग और मोक्ष दोनों ही सिद्धियाँ प्राप्त की4 ।। नारद सृष्टिके में मैने विविध लोकोको रचनेकी इच्छासे तपस्या की। मेरे उस अखण्ड तपसे प्रसन्न होकर उन्होंने ‘तप’ अर्थवाले ‘सन’ नामसे युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमारके रूपमें अवतार ग्रहण किया। इस अवतारमें उन्होंने प्रलयके कारण पहले कल्पके भूले हुए आत्मज्ञानका ऋषियोंके प्रति यथावत् उपदेश किया, जिससे उन लोगोंने तत्काल परम तत्त्वका अपने हृदयमें साक्षात्कार कर लिया ॥ 5 ॥
धर्मकी पत्नी दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे वे नर-नारायणके रूपमें प्रकट हुए। उनकी तपस्याका प्रभाव उन्होंके जैसा है। इन्द्रकी भेजी हुई कामकी सेना अप्सराएं उनके सामने जाते ही अपना स्वभाव खो बैठीं। वे अपने हाव-भावसे उन आत्मस्वरूप भगवानकी तपस्या में विघ्न नहीं डाल सकीं ॥ 6 ॥ नारद । शङ्कर आदि महानुभाव अपनी रोषभरी दृष्टिसे कामदेवको जला देते हैं, परंतु अपने-आपको जलानेवाले असह्य क्रोधको वे नहीं जला पाते। वही क्रोध नर-नारायणके निर्मल हृदयमें प्रवेश करनेके पहले ही डरके मारे काँप जाता है। फिर भला उनके हृदयमें कामका प्रवेश तो हो ही कैसे सकता है ॥ 7 ॥
अपने पिता राजा उत्तानपादके पास बैठे हुए पाँच वर्षके बालक ध्रुवको उनकी सौतेली माता सुरुचिने अपने वचन वाणोंसे बेध दिया था। इतनी छोटी अवस्था होनेपर भी वे उस ग्लानिसे तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। उनकी प्रार्थनासे प्रसन्न होकर भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने ध्रुवको ध्रुवपदका वरदान दिया। आज भी ध्रुवके ऊपर-नीचे प्रदक्षिणा करते हुए दिव्य महर्षिगण उनकी स्तुति करते रहते हैं ॥ 8 ॥
कुमार्गगामी नका ऐश्वर्य और पौरुष ब्राह्मणों के हुाररूपी वज्रसे जलकर भस्म हो गया। वह नरकमें गिरने लगा। ऋषियोंकी प्रार्थना भगवान्ने उसके शरीरमन्धनसे पृथुके रूपमें अवतार धारण कर उसे नरकोंसे उबारा और इस प्रकार ‘पुत्र’ शब्दको चरितार्थ किया। उसी अवतारमें पृथ्वीको गाय बनाकर उन्होंने उससे जगत् के लिये समस्त ओषधियोंका दोहन किया ॥ 9 ॥
राजा नाभिकी पत्नी सुदेवीके गर्भगवान् देवके रूपमें जन्म लिया। इस अवतारमें समस्त आसक्तियोसे रहित रहकर, अपनी इन्द्रियों और मनको अत्यन्त शान्त करके एवं अपने स्वरूपमें स्थित होकर समदर्शक रूपमें उन्होंने जोको भाँति योगचर्याका आचरण किया। इस स्थितिको महर्षिलोग परमहंसपद अथवा अवधूतचर्या कहते हैं ।। 17 ।।
इसके बाद स्वयं उन्हीं यज्ञपुरुषने मेरे यज्ञमें स्वर्णके समानकान्तिवाले हयग्रीवके रूपमें अवतार ग्रहण किया। भगवान्का वह विग्रह वेदमय, यज्ञमय और सर्वदेवमय है। उन्होंकी नासिकासे श्वासके रूपमें वेदवाणी प्रकट हुई ।। 11 ।
चाक्षुष मन्वन्तरके अन्तमें भावी मनु सत्यवतने मत्स्यरूपमें भगवान्को प्राप्त किया था। उस समय पृथ्वीरूप नौकाके आश्रय होनेके कारण वे ही समस्त जीवोंक आश्रय बने। प्रलयके उस भयंकर जलमें मेरे मुखसे गिरे हुए वेदोंको लेकर वे उसीमें बिहार करते रहे ।। 12 ।।
जब मुख्य-मुख्य देवता और दानव अमृतकी प्राप्तिके लिये। क्षीरसागरको मथ रहे थे, तब भगवान्ने कच्छपके रूपमें अपनी पीठपर मन्दराचल धारण किया। उस समय पर्वतके घूमने के कारण उसकी रगड़से उनकी पीठको खुजलाहट थोड़ी मिट गयी, जिससे वे कुछ क्षणोंतक सुखकी नींद सो सके ।। 13 ।। देवताओंका महान् भय मिटानेके लिये उन्होंने नृसिंहका रूप धारण किया। फड़कती हुई भौहों और तीखी दाढ़ोंसे उनका मुख बड़ा भयावना लगता था। हिरण्यकशिपु उन्हें देखते ही हाथमें गदा लेकर उनपर टूट पड़ा। इसपर भगवान् नृसिंहने दूरसे ही उसे पकड़कर अपनी जाँघोंपर डाल लिया और उसके छटपटाते रहनेपर भी अपने नखोसे उसका पेट फाड़ डाला ।। 14 ।।
बड़े भारी सरोवरमें महाबली ग्राहने गजेन्द्रका पैर पकड़ लिया। जब बहुत थककर वह घबरा गया, तब उसने अपनी सूँड़में कमल लेकर भगवान्को पुकारा-‘हे आदिपुरुष ! हे समस्त लोकोंके स्वामी! हे श्रवणमात्रसे कल्याण करनेवाले ! ॥ 15 ॥ उसकी पुकार सुनकर अनन्तशक्ति भगवान् चक्रपाणि गरुडकी पीठपर चढ़कर वहाँ आये और अपने चक्रसे उन्होंने ग्राहका मस्तक उखाड़ डाला। इस प्रकार कृपापरवश भगवान्ने अपने शरणागत गजेन्द्रको सूँड पकड़कर उस विपत्तिसे उसका उद्धार किया ।। 16 ।।
भगवान् वामन अदितिके पुत्रोंमें सबसे छोटे थे, परन्तु गुणोंकी दृष्टिसे वे सबसे बड़े थे। क्योंकि यज्ञपुरुष भगवान्ने इस अवतारमें बलिके संकल्प छोड़ते ही सम्पूर्ण लोकोंको अपने चरणोंसे ही नाप लिया था। वामन बनकर उन्होंने तीन पग पृथ्वीके बहाने बलिसे सारी पृथ्वी ले तो ली, परन्तु इससे यह बात सिद्ध कर दी कि सन्मार्गपर चलनेवाले पुरुषोंको याचनाके सिवा और किसी उपायसे समर्थ पुरुष भी अपने स्थानसे नहीं हटा सकते, ऐश्वर्यसे च्युत नहीं कर सकते ॥ 17 ॥दैत्यराज बलिने अपने सिरपर स्वयं वामन भगवान्का चरणामृत धारण किया था। ऐसी स्थितिमें उन्हें जो देवताओंके राजा इन्द्रकी पदवी मिली, इसमें कोई बलका पुरुषार्थ नहीं था। | अपने गुरु शुक्राचार्य के मना करनेपर भी वे अपनी प्रतिज्ञा | विपरीत कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए। और तो क्या, भगवान्का तीसरा पग पूरा करने के लिये उनके चरणोंगे सिर रखकर उन्होंने अपने-आपको भी समर्पित कर दिया ।। 18 ।।
नारद । तुम्हारे अत्यन्त प्रेमभावसे परम प्रसन्न होकर इसके रूपये भगवान् तुम्हें योग, शन और आत्मतत्त्वको प्रकाशित करनेवाले भागवतधर्मका उपदेश किया। यह केवल भगवानके शरणागत भक्तोंको ही सुगमतासे प्राप्त होता है ।। 19 । वे ही भगवान् स्वायम्भुव आदि मन्यन्तयेंगे मनुके रूपमें अवतार लेकर मनुवंशकी रक्षा करते हुए दसों दिशाओंगे अपने सुदर्शनचक्रके समान तेजसे बेरोक-टोक निष्कण्टक राज्य करते हैं। तीनों लोकोंके ऊपर सत्यलोकतक उनके चरित्रोंकी कमनीय कीर्ति फैल जाती है और उसी रूपमें वे समय-समयपर पृथ्वीके भारभूत दुष्ट राजाओंका दमन भी करते रहते हैं ॥ 20 ॥
स्वनामधन्य भगवान् धन्वन्तरि अपने नामसे ही बड़े-बड़े
रोगियोंके रोग तत्काल नष्ट कर देते हैं। उन्होंने अमृत पिलाकर देवताओंको अमर कर दिया और दैत्योंके द्वारा हरण किये हुए उनके यज्ञ-भाग उन्हें फिरसे दिला दिये। उन्होंने ही अवतार लेकर संसारमें आयुर्वेदका प्रवर्तन किया ।। 21 ।। जब संसारमें ब्राह्मणद्रोही आर्यमर्यादाका उल्लङ्घन करनेवाले नारकीय क्षत्रिय अपने नाशके लिये ही देववश बढ़ जाते हैं और पृथ्वीके कटि बन जाते हैं, तब भगवान् महापराक्रमी परशुरामके रूपमें अवतीर्ण होकर अपनी तीखी धारवाले फरसेसे इक्कीस बार उनका संहार करते हैं ।। 22 ।
मायापति भगवान् हमपर अनुग्रह करनेके लिये अपनी कलाओ भरत, शत्रु और लक्ष्मणके साथ श्रीराम के रूपसे इश्वाकु वंशमे अवतीर्ण होते हैं। इस अवतारमे अपने पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये अपनी पत्नी और भाईके साथ वे वनमें निवास करते हैं। उसी समय उनसे विरोध करके रावण उनके हाथों मरता है ।। 23 ।। त्रिपुर विमानको जलाने के लिये उद्यत शङ्करके समान, जिस समय भगवान् राम शत्रुको नगरी लङ्काको भस्म करनेके लिये समुद्रतटपर पहुँचते हैं, उस समय सीताके वियोग के कारण बड़ी हुई क्रोधाधि उनकी अ इतनी लाल हो जाती है कि उनको दृष्टिसे ही समुद्रकेमगरमच्छ, साँप और ग्राह आदि जीव जलने लगते हैं और भयसे थर-थर काँपता हुआ समुद्र झटपट उन्हें मार्ग दे देता है ।। 24 ।। जब रावणकी कठोर छातीसे टकराकर इन्द्रके वाहन ऐरावतके दाँत चूर-चूर होकर चारों ओर फैल गये थे, जिससे दिशाएँ सफेद हो गयी थीं, तब दिग्विजयी रावण घमंडसे फूलकर हँसने लगा था। वहीं रावण जब श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीको चुराकर ले जाता है और लड़ाईके मैदानमें उनसे लड़नेके लिये गर्वपूर्वक आता है, तब भगवान् श्रीरामके धनुषको टङ्कारसे ही उसका यह घमंड प्राणोंके साथ तत्क्षण विलीन हो जाता है ।। 25 ।।
जिस समय झुंड के झुंड दैत्य पृथ्वीको रौंद डालेंगे उस समय उसका भार उतारनेके लिये भगवान् अपने सफेद और काले केशसे बलराम और श्रीकृष्णके रूपमें कलावतार ग्रहण करेंगे। वे अपनी महिमाको प्रकट करनेवाले इतने अद्भुत चरित्र करेंगे कि संसारके मनुष्य उनकी लीलाओंका रहस्य बिलकुल नहीं समझ सकेंगे ॥ 26 ॥ बचपनमें ही पूतनाके प्राण हर लेना, तीन महीनेकी अवस्थामें पैर उछालकर बड़ा भारी छकड़ा उलट देना और घुटनो के बल चलते-चलते आकाशको धूनेवाले यमलार्जुन वृक्षोंके बीच जाकर उन्हें उखाड़ डालना ये सब ऐसे कर्म है, जिन्हें भगवान् के सिवा और कोई नहीं कर सकता ॥ 27 ॥ जब कालियनागके विषसे दूषित हुआ यमुना जल पीकर बछड़े और गोपबालक मर जायेंगे, तब वे अपनी सुधामयी कृपा दृष्टिकी वर्षा से ही उन्हें जीवित कर देंगे और यमुना जलको शुद्ध करनेके लिये वे उसमें बिहार करेंगे तथा विषकी शक्तिसे जीभ लपलपाते हुए कालियनागको वहाँसे निकाल देंगे ॥ 28 ॥ उसी दिन रातको जब सब लोग वहीं यमुना तटपर सो जायँगे और दावाग्निसे आस-पासका मुँजका वन चारों ओरसे जलने लगेगा, तब बलरामजी के साथ वे प्राणसङ्कट में पड़े हुए व्रजवासियोंको उनकी आँखें बंद कराकर उस अग्निसे बचा लेंगे। उनकी यह लीला भी अलौकिक हो होगी। उनकी शक्ति वास्तवमे अचिन्त्य है ।। 29 ।। उनकी माता उन्हें बाँधने के लिये जो-जो रसी लायेगी वही उनके उदरमें पूरी नहीं पड़ेगी, दो अंगुल छोटी ही रह जायगी तथा जंभाई लेते समय श्रीकृष्णके मुखमें चौदहों भुवन देखकर पहले तो यशोदा भयभीत हो जायेंगी, परन्तु फिर वे संभल जायेगी ॥ 30 वे दवावाको अजगरके भयसे और वरुणके पाशसे छुड़ायेंगे। मय दानवका पुत्र व्योमासुर व गोपबालोको पहाड़कीगुफाओमें बन्द कर देगा, तब वे उन्हें भी वहाँसे बचा लायेंगे। गोकुलके लोगोंको, जो दिनभर तो काम-धंधों में व्याकुल रहते हैं और रातको अत्यन्त थककर सो जाते हैं, साधनाहीन होनेपर भी, वे अपने परमधाममें ले जायेंगे ।। 31 । निष्याप नारद। जब श्रीकृष्णकी सलाहसे गोपलोग इन्द्रका यज्ञ बंद कर देंगे, तब इन्द्र व्रजभूमिका नाश करनेके लिये चारों ओरसे मूसलधार वर्षा करने लगेंगे। उससे उनकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा करनेके लिये। भगवान् कृपापरवश हो सात वर्षकी अवस्थामें ही सात दिनोंतक गोवर्द्धन पर्वतको एक ही हाथसे छत्रकपुष्प (कुकुरमुत्ते की तरह खेल-खेल में ही धारण किये रहेंगे ॥ 32 ॥ वृन्दावनमें बिहार करते हुए रास करने की इच्छासे वे रात के समय जब चन्द्रमाकी उज्ज्वल चांदनी चारों ओर छिटक रही होगी, अपनी बांसुरीपर मधुर सङ्गीतकी लम्बी तान छेड़ेंगे। उससे प्रेमविवश होकर आयी हुई गोपियोंको जब कुबेरका सेवक शब्चूड़ हरण करेगा, तब वे उसका सिर उतार लेंगे ॥ 33 ॥ और भी बहुत-से प्रलम्बासुर, धेनुकासुर, बकासुर, केशी, अरिष्टासुर, आदि दैत्य, चाणूर आदि पहलवान, कुवलयापीड हाथी, कंस, कालयवन, भौमासुर, मिथ्यावासुदेव, शाल्व, द्विविद वानर, बल्वल, दन्तवक्त्र, राजा नग्नजितके सात बैल, शम्बरासुर, विदूरथ और रुक्मी आदि तथा काम्बोज, मत्स्य, कुरु, कैकय और सृञ्जय आदि देशोंके राजालोग एवं जो भी गोद्धा धनुष धारण करके युद्धके मैदान में सामने आयेंगे, वे सब बलराम, भीमसेन और अर्जुन आदि नामोंकी आइये स्वयं भगवान के द्वारा मारे जाकर उन्होंके धाममें चले जायँगे ।। 34-35 ।।
समय के फेरसे लोगोंकी समझ कम हो जाती है. आयु भी कम होने लगती है। उस समय जब भगवान् देखते हैं कि अब ये लोग मेरे तत्वको बतलानेवाली वेदवाणीको समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं, तब प्रत्येक कल्पने सत्यवतीके गर्भसे व्यासके रूपमें प्रकट होकर वे वेदरूपी वृक्षका विभिन्न शाखाओंके रूपमें | विभाजन कर देते हैं ।। 36 ।।
देवताओंके शत्रु देवलोग भी वेदमार्गका सहारा लेकर मदानवके बनाये हुए अदृश्य वेगवाले नगरोंमें रहकर लोगोंका सत्यानाश करने लगेंगे, तब भगवान् लोगोको बुद्धि मोह और अपना लोभ उत्पन्न करनेवाला वेष धारण करके बुद्धके रूपमें बहुत-से उपधमका उपदेश करेंगे। 30 कलियुगके अ जब सत्पुरुयोंके घर भी भगवान्को कथा होने में बाधा पड़ने लगेगी, ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य पाखण्डी और शुद्ध राजा हो जायेंगे, यहाँतक कि कहीं भी ‘स्वाहा’, ‘स्वधा’ और’वषट्कार’ की ध्वनि-देवता- पितरोंके यज्ञश्राद्धकी बाततक नहीं सुनायी पड़ेगी, तब कलियुगका शासन करनेके लिये भगवान् कल्कि अवतार ग्रहण करेंगे ।। 38 ।।
जब संसारकी रचनाका समय होता है, तब तपस्या, नौ प्रजापति, मरीचि आदि ऋषि और मेरे रूपमें; जब सृष्टिकी रक्षाका समय होता है, तब धर्म, विष्णु, मनु, देवता और राजाओंके रूपमें तथा जब सृष्टिके प्रलयका समय होता है, तब अधर्म, रुद्र तथा क्रोधवश नामके सर्प एवं दैत्य आदिके रूपमें सर्वशक्तिमान् भगवान्की माया विभूतियाँ ही प्रकट होती हैं ।। 39 ।। अपनी प्रतिभाके बलसे पृथ्वीके एक-एक धूलि कणको गिन चुकनेपर भी जगत्में ऐसा कौन पुरुष है, जो भगवान्की शक्तियोंकी गणना कर सके। जब वे त्रिविक्रम अवतार लेकर त्रिलोकीको नाप रहे थे, उस समय उनके चरणोंके अदम्य वेगसे प्रकृतिरूप अन्तिम आवरणसे लेकर सत्यलोकतक सारा ब्रह्माण्ड काँपने लगा था। तब उन्होंने ही अपनी शक्तिसे उसे स्थिर किया था ॥ 40 ॥ समस्त सृष्टिकी रचना और संहार करनेवाली माया उनकी एक शक्ति है। ऐसी-ऐसी अनन्त शक्तियोंके आश्रय उनके स्वरूपको न मैं जानता हूँ और न वे तुम्हारे बड़े भाई सनकादि ही; फिर दूसरोंका तो कहना ही क्या है। आदिदेव भगवान् शेष सहस्त्र मुखसे उनके गुणोंका गायन करते आ रहे हैं, परन्तु वे अब भी उसके अन्तकी कल्पना नहीं कर सके ॥ 41 ॥ जो निष्कपटभावसे अपना सर्वस्व और अपने-आपको भी उनके चरणकमलोंमें निछावर कर देते हैं, उनपर वे अनन्त भगवान् स्वयं ही अपनी ओरसे दया करते हैं और उनकी दयाके पात्र ही उनकी दुस्तर मायाका स्वरूप जानते हैं और उसके पार जा पाते हैं। वास्तवमे ऐसे पुरुष ही कुत्ते और सियारोंके कलेवारूप अपने और पुत्रादिके शरीरमें ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव नहीं करते ॥ 42 ॥ प्यारे नारद ! परम पुरुषकी उस योगमायाको मैं जानता हूँ तथा तुमलोग, भगवान् शङ्कर, दैत्यकुलभूषण प्रह्लाद, शतरूपा, मनु, मनुपुत्र प्रियव्रत आदि प्राचीनवर्हि, ऋभु और ध्रुव भी जानते है।। 43 ।। इनके सिवा इक्ष्वाकु, पुरूरवा, मुचुकुन्द, जनक, गाधि, रघु, अम्बरीष, सगर, गय, ययाति आदि तथा मान्धाता, अलर्क, शतधन्वा, अनु, रन्तिदेव, भीष्म, बलि अमूर्तरय, दिलीप, सौभरि, उत्तङ्क, शिबि, देवल, पिप्पलाद, सारस्वत, उद्भव, पराशर, भूरिषेण एवं विभीषण, हनुमान्, शुकदेव, अर्जुन, आर्ष्टिषेण, | विदुर और श्रुतदेव आदि महात्मा भी जानते हैं । 44-45 ।।जिन्हें भगवान् के प्रेमी भक्तोंका-सा स्वभाव बनानेकी शिक्षा मिली है, वे स्त्री, शूद्र, हूण, भील और पापके कारण पशु-पक्षी आदि योनियोंमें रहनेवाले भी भगवान्की मायाका रहस्य जान जाते हैं और इस संसार सागरसे सदाके लिये पार हो जाते हैं; फिर जो लोग वैदिक सदाचारका पालन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ 46 ॥
परमात्माका वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरूप है। न उसमें मायाका मल है और न तो उसके द्वारा रची विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनोंसे परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्दकी वहाँतक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकारके साधनोंसे सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका फल भी | वहाँतक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है ॥ 47 ॥ परमपुरुष भगवान्का वही परमपद है। महात्मालोग उसीका शोकरहित अनन्त आनन्दखरूप ब्रह्मके रूपमें साक्षात्कार करते हैं। संयमशील पुरुष उसीमें अपने मनको समाहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघरूपसे विद्यमान होनेके कारण जलके लिये कुआँ खोदनेकी कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करनेवाले ज्ञान-साधनों को भी छोड़ देते हैं ॥ 48 ॥ समस्त कर्मक फल भी भगवान् ही देते हैं। क्योंकि मनुष्य अपने स्वभावके अनुसार जो शुभकर्म करता है, वह सब उन्हींकी प्रेरणासे होता है। इस शरीर में रहनेवाले पञ्चभूतोंके अलग-अलग हो जानेपर जब यह शरीर नष्ट हो जाता है, तब भी इसमें रहनेवाला अजन्मा पुरुष आकाशके समान नष्ट नहीं होता 49 ॥
बेटा नारद ! सङ्कल्पसे विश्वकी रचना करनेवाले षडैश्वर्यसम्पत्र श्रीहरिका मैंने तुम्हारे सामने संक्षेपसे वर्णन किया। जो कुछ कार्य कारण अथवा भाव अभाव है, वह सब भगवान्से भिन्न नहीं है। फिर भी भगवान् तो इससे पृथक् भी हैं ही ॥ 50 ॥ भगवान्ने मुझे जो उपदेश किया था, वह यही ‘भागवत’ है। इसमें भगवान्की विभूतियोंका संक्षिप्त वर्णन है। तुम इसका विस्तार करो ॥ 51 ॥ जिस प्रकार सबके आश्रय और सर्वस्वरूप भगवान् श्रीहरिमें लोगोंकी प्रेममयी भक्ति हो, ऐसा निश्चय करके इसका वर्णन करो ॥ 52 ॥ जो पुरुष भगवान्की अचिन्त्य शक्ति मायाका वर्णन या दूसरेके द्वारा किये हुए वर्णनका अनुमोदन करते हैं अथवा श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण करते हैं, उनका चित्त मायासे कभी मोहित नहीं होता ।। 53 ।।
अध्याय 8 राजा परीक्षित्के विविध प्रश्न
राजा परीक्षितने कहा-भगवन्! आप वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रह्माजीने निर्गुण भगवान्के गुणों का वर्णन करनेके लिये नारदजीको आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किनको किस रूपमें उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियोंके आश्रय भगवान्की कथाएँ ही लोगों का परम मङ्गल करनेवाली है, दूसरे देव नारदका सबको भगवद्दर्शन करानेका स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥ 1-2 ॥ महाभाग्यवान् शुकदेवजी! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मनको सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्णमें तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ || 3 || जो लोग उनकी लीलाओंका श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदयमें थोड़े ही समयमें भगवान् प्रकट हो जाते हैं ॥ 4 ॥ श्रीकृष्ण कानके छिद्रोंके द्वारा अपने भक्तोके भावमय हृदयकमलपर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जलका गँदलापन मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तोंके मनोमलका नाश कर देते हैं ॥ 5 ॥ जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्णके चरणकमलोंको एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ता -जैसे मार्गके समस्त क्लेशोंसे छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घरको नहीं छोड़ता ।। 6 ।।
भगवन् ! जीवका पञ्चभूतोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पञ्चभूतोंसे ही बनता है। तो क्या स्वभावसे ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारणवश – आप इस बातका मर्म पूर्णरीति से जानते हैं ॥ 7 ॥ (आपने बतलाया कि) भगवान्की नाभिसे वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकोंकी रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवोंसे जैसे परिधि है, वैसे ही आपने परमात्माको भी सीमित अवयवोंसे परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) ॥ 8 ॥ जिनकी कृपासे सर्वभूतमय ब्रह्माजी प्राणियोकी सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमलसे पैदा होनेपर भी जिनको पासे ही ये उनके रूपका दर्शन कर सके थे, वे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके हेतु सर्वान्तर्यामी और गाया के स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी मायाका त्याग करके किसमें किस रूपसे | शयन करते हैं ? ।। 9-10 ॥ पहले आपने बतलाया था कि| विराट् पुरुषके अङ्गसे लोक और लोकपालोंकी रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालोंके रूपमें उसके अङ्गोंकी कल्पना हुई। इन दोनों बातोंका तात्पर्य क्या है ? ॥ 11 ॥ महाकल्प और उनके अन्तर्गत अवान्तर कल्प कितने हैं ? भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालका अनुमान किस प्रकार किया जाता है ? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवोंकी आयु भी बँधी हुई है ॥ 12 ॥ ब्राह्मणश्रेष्ठ ! कालकी सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकारसे जानी जाती है ? विविध कर्मोंसे जीवोंकी कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं ॥ 13 ॥ देव, मनुष्य आदि योनियाँ सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणोंके फलस्वरूप ही प्राप्त होती हैं। उनको चाहनेवाले जीवोंमें से कौन-कौन किस-किस योनिको प्राप्त करनेके लिये किस-किस प्रकारसे कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं ? ॥ 14 ॥ पृथ्वी, पाताल, दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहनेवाले जीवोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ? ॥ 15 ॥ ब्रह्माण्डका परिमाण भीतर और बाहर दोनों प्रकारसे बतलाइये। साथ ही महापुरुषोंके चरित्र, वर्णाश्रमके भेद और उनके धर्मका निरूपण कीजिये ॥ 16 ॥ युगोंके भेद, उनके परिमाण और उनके अलग-अलग धर्म तथा भगवान्के विभिन्न अवतारोंके परम आश्चर्यमय चरित्र भी बतलाइये ॥ 17 ॥ मनुष्योंके साधारण और विशेष धर्म कौन-कौन-से हैं ? विभिन्न व्यवसायवाले लोगोंके, राजर्षियोंके और विपत्तिमें पड़े हुए लोगोंके धर्मका भी उपदेश कीजिये ॥ 18 ॥ तत्त्वोंकी संख्या कितनी है, उनके स्वरूप और लक्षण क्या हैं? भगवान्की आराधनाकी और अध्यात्मयोगकी विधि क्या है ? ॥ 19 ॥ योगेश्वरोंको क्या-क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं तथा अन्तमें उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? योगियोंका लिङ्गशरीर किस प्रकार भङ्ग होता है? वेद, उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणोंका स्वरूप एवं तात्पर्य क्या है ? ॥ 20 ॥ समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता है? बावली, कुआँ खुदवाना आदि स्मार्त, यज्ञ-यागादि वैदिक, एवं काम्य कर्मोकी तथा अर्थ-धर्म-कामके साधनोंकी विधि क्या है ? ॥ 21 ॥ प्रलयके समय जो जीव प्रकृतिमें लीन रहते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है ? पाखण्डकी उत्पत्ति कैसे होती है ? | आत्माके बन्ध-मोक्षका स्वरूप क्या है ? और वह अपने स्वरूपमें किस प्रकार स्थित होता है ? ॥ 22 ॥ भगवान् तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी मायासे किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोड़कर साक्षीके समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? ॥ 23 ॥ भगवन् ! मैं यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरणमें हूँ। महामुने! आप कृपा करके क्रमशः इनका तात्त्विक निरूपण कीजिये 24 ॥इस विषयमें आप स्वयम्भू ब्रह्माके समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परासे सुनी-सुनायी बातोंका ही अनुष्ठान करते हैं ॥ 25 ॥ ब्रह्मन् ! आप मेरी भूख-प्यासकी चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मणके शापके अतिरिक्त और किसी कारणसे निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्दसे निकलनेवाली भगवान्की अमृतमयी लीला कथाका पान कर रहा हूँ ।। 26 ।।
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्ने संतोंकी सभामें भगवान्की लीला-कथा सुनानेके लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ 27 ॥ उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्पके आरम्भ में स्वयं भगवान्ने ब्रह्माजीको सुनाया था ॥ 28 ॥ पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित्ने उनसे जो-जो प्रश्न किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमशः देने लगे ॥ 29 ॥
अध्याय 9 ब्रह्माजीका भगवद्धामदर्शन और भगवानके द्वारा चतु:श्लोकी भगवत का उपदेश
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! जैसे स्वप्रमे देखे जानेवाले पदार्थकि साथ उसे देखनेवालेका कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादिसे अतीत अनुभवस्वरूप आत्माका मायाके बिना दृश्य पदार्थोक साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ 1 ॥ विविध रूपवाली मायाके कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणोंमें रम जाता है तब ‘यह मैं हूँ. यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है॥ 2 ॥ किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली माया – इन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता है- आत्माराम हो जाता है; तब यह मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीनगुणातीत हो जाता है ॥ 3 ॥ ब्रह्माजीको निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ॥ 4 ॥तीनों लोकोंके परम गुरु आदिदेव ब्रह्माजी अपने जन्मस्थान कमलपर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छासे विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टिसे सृष्टिका निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापार के लिये वान्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ।। 5 ।। एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्रमे उन्होंने व्यञ्जनोंके सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को ‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना परीक्षित्! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ॥ 6 ॥ यह सुनकर ब्रह्माजीने वक्ताको देखनेकी इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और ‘मुझे तप करनेकी प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चयकर और उसीमें अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनकी तपस्यायें लगा दिया ॥ 7 ॥ ब्रह्माजी तपस्वियोंमें सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोध है। उन्होंने उस समय एक सहल दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चितसे अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकोको प्रकाशित करनेमें समर्थ हो सके ॥ 8 ॥
उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोकमें किसी भी प्रकारके क्लेश, मोह और भव नहीं है। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उसकी स्तुति करते रहते है ॥ 9॥ वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न कालकी दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर मायाके बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवानके वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ॥ 10 ॥ | उनका उज्ज्वल आभासे युक्त श्याम शरीर शतदल कमलके समान कोमल नेत्र और पीले रंगके वस्त्रसे शोभायमान है। अङ्ग अङ्गसे राशि राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलताकी मूर्ति है। सभीके चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्णके प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनको छबि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमलके उज्ज्वल तन्तुके समान है। उनके कानोंमें कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और कण्ठमें मालाएँ शोभायमान हैं॥ 11 ॥जिस प्रकार आकाश बिजलीसहित बादलोंसे शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियोंकी कान्तिसे युक्त महात्माओंके दिव्य तेजोमय विमानोंसे स्थान-स्थानपर सुशोभित होता रहता है ॥ 12 ॥ उस वैकुण्ठलोकमें लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियोंके द्वारा भगवान्के चरणकमलोंकी अनेकों प्रकारसे सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूलेपर बैठकर अपने प्रियतम भगवानकी लीलाओंका गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभिसे उन्मत्त होकर भौरे स्वयं उन लक्ष्मीजीका गुण-गान करने लगते हैं ॥ 13 ॥
ब्रह्माजीने देखा कि उस दिव्य लोकमें समस्त भक्तोंके रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान् विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अर्हण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभुकी सेवा कर रहे हैं ॥ 14 ॥ उनका मुख कमल प्रसाद-मधुर मुसकानसे युक्त है। आँखोंमें लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्तको अपना सर्वस्व दे देंगे। सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कंधेपर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्षःस्थलपर एक सुनहरी रेखाके रूपमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं 15 वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूत—ये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्य – इन छः नित्यसिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य निरन्तर निमग्र रहते हैं ॥ 16 ॥ उनका दर्शन करते ही ब्रह्माजीका हृदय आनन्दके उद्रेकसे लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रोंमें प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रह्माजीने भगवान्के उन चरणकमलोंमें, जो परमहंसोंके निवृत्तिमार्गसे प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ 17 ॥ ब्रह्माजीके प्यारे भगवान् अपने प्रिय ब्रह्माको प्रेम और दर्शनके आनन्दमें निमग्न, शरणागत तथा प्रजा सृष्टिके लिये आदेश देनेके योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजीसे हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकानसे अलंकृत वाणीमें कहा- ॥ 18
श्रीभगवान्ने कहा- ब्रह्माजी! तुम्हारे हृदयमें तो समस्त वेदोंका ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टिरचनाकी इच्छासे चिरकालतक तपस्या करके मुझे भलीभाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मनमें कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ॥ 19 ॥ तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझेसे माँग लो। क्योंकि मैं मुँहमाँगी वस्तु देनेमें समर्थहूँ। ब्रह्माजी! जीवके समस्त कल्याणकारी साधनोंका विश्राम – पर्यवसान मेरे दर्शनमें ही है ।। 20 ।। तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जलमें मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है. इसीसे मेरी इच्छासे तुम्हें मेरे लोकका दर्शन हुआ है। 21 ॥ तुम उस समय सृष्टिरचनाका कर्म करनेमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसीसे मैने तुम्हें तपस्या करनेकी आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्याका आत्मा हूँ ॥ 22 ॥ मैं तपस्यासे ही इस संसारको सृष्टि करता हूँ, तपस्यासे ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्या से ही इसे अपनेमें लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लदृष्य शक्ति है ॥ 23 ॥
ब्रह्माजीने कहा- भगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरणमे साक्षीरूपसे विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञानसे यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ।। 24 ॥ नाथ ! आप कृपा करके मुझ याचककी यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपोंको जान सकूँ ।। 25 ॥ आप मायाके स्वामी है, आपका सङ्कल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी मायाका आश्रय लेकर इस विविध शक्तिसम्पन्न जगत्को उत्पत्ति पालन और संहार करनेके लिये अपने-आपको ही अनेक रूपोंमें बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार आप कैसे करते हैं इस मर्मको में जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ॥ 26-27 ॥ आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानी से आपकी आज्ञाका पालन कर सकूँ और सृष्टिकी रचना करते समय भी कर्तापन आदिके अभिमानसे वैध न जाऊँ ।। 28 ।। प्रभो! आपने एक मित्रके समान हाथ पकड़कर मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अतः जब मैं आपकी इस सेवा सृष्टि रचनामे लगे और सावधानीसे पूर्वसृष्टिके – लगूँ गुण-कर्मानुसार जीवोंका विभाजन करने लगू, तब कहीं अपनेको जन्म-कर्मसे स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूं ।। 29 ।। श्रीभगवान्ने कहा- अनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनों से युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान में तुम्हें कहता हूँ तुम उसे ग्रहण करो ॥ 30 ॥ मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लोलाएँ है मेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ।। 39 ।।सृष्टिके पूर्व केवल मैं ही मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान । जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं – | ही मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ 32 ॥ वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मामें दो चन्द्रमाओंकी तरह मिथ्या हो प्रतीत हो रही है, अथवा | विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रोंमें राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ 33 ॥ जैसे प्राणियों के पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े शरीरोंमें आकाशादि पञ्चभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी है और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ 34 यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहीं इस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म है इस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान् ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं जो आत्मा अथवा परमात्माका तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जाननेकी आवश्यकता है ।। 35 ।। ब्रह्माजी ! तुम अविचल समाधिके द्वारा मेरे इस सिद्धान्त पूर्ण निष्ठा कर लो इससे तुम्हें कल्प-कल्पमे विविध प्रकारको सृष्टि रचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा ॥ 36 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- लोकपितामह ब्रह्माजीको इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान्ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूपको छिपा लिया ॥ 37 ॥ जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजीने देखा कि भगवान् ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूपको हमारे नेत्रोंके सामने से हटा लिया है, तब उन्होंने अधिक उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्पमें जैसी सृष्टि थी, उसी रूपमें इस विश्वकी रचना की ।। 38 ।। एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजीने सारी जनताका कल्याण हो, अपने इस स्वार्थकी पूर्ति लिये विधि पूर्वक यम-नियमोंको धारण किया ॥ 39 ॥ उस समय उनके पुत्रों में सबसे अधिक प्रिय परम भक्त देवर्षि नारदजीने मायापति भगवान्की मायाका तत्त्व जाननेकी इच्छासे बड़े संयम, विनय और सौम्यता अनुगत होकर उनकी सेवा की और उन्होंने सेवासे ब्रह्माजीको बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ।। 40-41 परीक्षित् | जब देवर्षि नारदने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न है, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्न किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ।। 42 ।। उनके प्रश्नसे ब्रह्माजी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारदको सुनाया,जिसका स्वयं भगवान्ने उन्हें उपदेश किया था ।। 43 ॥ परीक्षित् ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वतीके तटपर बैठकर परमात्माके ध्यानमें मग्न थे, उस समय देवर्षि नारदजीने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ 44 ॥ तुमने मुझसे जो यह प्रश्न किया है कि विराट्पुरुषसे इस जगत् की उत्पत्ति कैसे हुई तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराणके |रूपमें देता हूँ ॥45ll
अध्याय 10 भागवतके दस लक्षण
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित्! इस भावगतपुराणमें सर्ग, विसर्ग, स्थान, पोषण, ऊति, मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध, मुक्ति और आश्रय- इन दस विषयोंका वर्णन है ॥ 1 ॥ इनमें जो दसवाँ आश्रय-तत्त्व है, उसीका ठीक-ठीक निश्चय करनेके लिये कहीं श्रुतिसे, कहीं तात्पर्यसे और कहीं दोनोंके अनुकूल अनुभवसे महात्माओंने अन्य नौ विषयोंका बड़ी सुगम रीतिसे वर्णन किया | है || 2 || ईश्वरकी प्रेरणासे गुणोंमें क्षोभ होकर रूपान्तर होनेसे जो आकाशादि पञ्चभूत, शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहङ्कार और महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है, उसको ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट पुरुषसे उत्पन्न ब्रह्माजीके द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियोंका निर्माण होता है, उसका नाम है ‘विसर्ग’ ॥ 3 ॥ प्रतिपद नाशकी ओर बढ़नेवाली सृष्टिको एक मर्यादामें स्थिर रखनेसे भगवान् विष्णुकी जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टिमें भक्तोंके ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरोंके अधिपति जो भगवद्भक्ति और | प्रजापालनरूप शुद्ध धर्मका अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवोंकी वे वासनाएँ, जो कर्मके द्वारा उन्हें बन्धनमें डाल देती हैं, ‘ऊति’ नामसे कही जाती हैं ॥ 4 ॥ भगवान् के विभिन्न अवतारोंके और उनके प्रेमी भक्तोको विविध आख्यानोंसे युक्त गाथाएँ ‘ईशकथा’ हैं ॥ 5 ॥ जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके शयन करते हैं, तब इस जीवका अपनी उपाधियोंके साथ उनमें लीन हो जाना ‘निरोध’ है। अज्ञानकल्पित कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभावका परित्याग करके अपने वास्तविक स्वरूप परमात्माम स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है ॥ 6 ॥ परीक्षित् | इस चराचर जगत्को उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्वसे प्रकाशित होते हैं. वह परम ब्रह्म ही’आश्रय’ है। शास्त्रोंमें उसीको परमात्मा कहा गया है ॥ 7 ॥ जो नेत्र आदि इन्द्रियोंका अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियोंके अधिदेवता सूर्य आदिके रूपये भी है और जो नेत्रगोलक आदिसे युक्त दृश्य देह है, वहीं उन दोनोंको अलग-अलग करता है। || इन तीनों में यदि एकका भी अभाव हो जाय तो दूसरे दोकी उपलब्धि नहीं हो सकती। अतः जो इन तीनोंको जानता है, वह परमात्मा ही सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है, दूसरा कोई नहीं ॥ 9 ॥
जब पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्डको फोड़कर निकला, तब वह अपने रहनेका स्थान ढूंढने लगा और स्थानकी इच्छासे उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुषने अत्यन्त पवित्र जलकी सृष्टि की ॥ 10 ॥ विराट् पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होनेके कारण ही जलका नाम ‘नार’ पड़ा और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’ में वह पुरुष एक हजार वर्षांतक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥ 11 ॥ उन नारायणभगवान्की कृपासे ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदिकी सत्ता है। उनके उपेक्षा कर देनेपर और किसीका अस्तित्व नहीं रहता ॥ 12 ॥ उन अद्वितीय भगवान् नारायणने योगनिद्रासे जगकर अनेक होनेकी इच्छा की तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल ब्रह्माण्डके वीजस्वरूप अपने सुवर्णम वीर्यको तीन भागों में विभक्त कर दिया – अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत परीक्षित्! विराट् पुरुषका एक ही वीर्य तीन भागोंमें कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो ।। 13-14 ।।
विराट् पुरुषके हिलने बोलनेपर उनके शरीर में रहने आकाशसे इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबलकी उत्पत्ति हुई। | उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥ 15 ॥ जैसे सेवक अपने स्वामी राजाके पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे ही सबके शरीरोंमें प्राणके प्रबल रहनेपर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती है और जब वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती है ।। 16 ।। जब प्राण जोरसे आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुषको भूख-प्यासका अनुभव हुआ। खाने-पीनेकी इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीरमें मुख प्रकट हुआ ।। 17 ।। मुखसे तालु और तालु रन्द्रय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों प्रकारके रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करतो है ।। 18 ।। जब उनकी इच्छा बोलनेकी हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके अधिष्ठान देवता अप्रि और उनका विषय बोलना-ये तीनों प्रकट हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमे ही वे | रुके रहे ।। 19 ।।श्वासके वेगसे नासिका छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघनेकी इच्छा हुई, तब उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्धको फैलानेवाले वायुदेव प्रकट हुए ।। 20 ।। पहले उनके शरीरमें प्रकाश नहीं था; फिर जब उन्हें अपनेको तथा दूसरी वस्तुओंको देखनेकी इच्छा हुई, तब नेत्रोंके छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय प्रकट हो गये। इन्हींसे रूपका ग्रहण होने लगा || 21 | जब वेदरूप ऋषि विराट् पुरुषको स्तुतियोंके द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुननेकी इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी अधिष्ठातृ-देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसीसे शब्द सुनायी पड़ता है ॥ 22 ॥ जब उन्होंने वस्तुओंकी कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीरमें चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वीमेंसे जैसे वृक्ष निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्ममें रोएँ पैदा हुए और उसके भीतर-बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया । स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा इन्द्रिय भी साथ-ही-साथ शरीरमें चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्शका अनुभव होने लगा ॥ 23 ॥ जब उन्हें अनेकों प्रकारके कर्म करनेकी इच्छा हुई, तब उनके हाथ उग आये। उन हाथोंमें ग्रहण करनेकी शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनोंके आश्रयसे होनेवाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट हो गया ॥ 24 ॥ जब उन्हें अभीष्ट स्थानपर जानेकी इच्छा हुई, तब उनके शरीरमें पैर उग आये। चरणोंके साथ ही चरण इन्द्रियके अधिष्ठातारूपमें वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हींमें चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रियसे चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते हैं ॥ 25 ॥ सन्तान, रति और स्वर्ग-भोगकी कामना होनेपर विराट् पुरुषके शरीर लिङ्गको उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा इन दोनोंके आश्रय रहनेवाले कामसुखका आविर्भाव हुआ || 26 || जब उन्हें मलत्यागकी इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें पायु-इन्द्रिय और मित्र देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनोंके द्वारा मलत्यागकी क्रिया सम्पन्न होती है॥ 27 ॥ अपानमार्ग द्वारा एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेकी इच्छा होनेपर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनोंके आश्रयसे ही प्राण और अपानका विछोह यानी मृत्यु • होती है ॥ 28 ॥ जब विराट् पुरुषको अन्न-जल ग्रहण करनेकी इच्छा हुई, तब कोख, आंत और नाड़ियाँ उत्पन्न हुई। साथ ही कुक्षिके देवता समुद्र, नाड़ियोंके देवता नदियाँ | एवं तुष्टि और पुष्टि ये दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न| हुए ।। 29 ।। जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना चाहा, | तब हृदयको उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मनसे उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए 30 ॥ विराटपुरुषके शरीर में पृथ्वी, जल और तेजसे सात धातुएँ प्रकट हुई— त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि। इसी प्रकार आकाश, जल और वायुसे प्राणोंकी उत्पत्ति हुई ॥ 31 ॥ श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय अहङ्कारसे उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारोंका उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त पदार्थोंका बोध करानेवाली है ॥ 32 ॥ मैंने भगवान् के इस स्थूलरूपका वर्णन तुम्हें सुनाया है। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहङ्कार, महत्तत्त्व और प्रकृति- इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ 33 ॥ इससे परे भगवान्का अत्यन्त सूक्ष्मरूप है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि, मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं है ।। 34 ।।
शब्द और मैंने तुम्हें भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म-व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान्की मायाके द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन दोनोंको ही स्वीकार नहीं करते ।। 35 । वास्तवमें भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी शक्तिसे ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्माका या विराट् रूप धारण करके वाच्य और वाचक उसके अर्थके रूपमें प्रकट होते हैं और अनेकों नाम, रूप तथा | क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥ 36 ॥ परीक्षित्! प्रजापति, मनु, देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, असुर, यक्ष, किन्नर, अप्सराएँ, नाग, सर्प, किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ, राक्षस, पिशाच, प्रेत, भूत, विनायक, कूष्माण्ड, उन्माद, वेताल, यातुधान, यह पक्षी, मृग, पशु, वृक्ष, पर्वत, सरीइत्यादि जितने भी संसारमें नाम रूप हैं, सब भगवान्के ही हैं ।। 37 – 39 ॥ संसारमें चर और अचर भेदसे दो प्रकारके तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेदसे चार प्रकारके जितने भी जलचर, थलचर तथा आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ अशुभ और मिश्रित कर्मो के तदनुरूप फल है ।। 40 ।। सत्त्वकी प्रधानतासे देवता, रजोगुणकी प्रधानता से मनुष्य और तमोगुणकी प्रधानतासे नारकीय योनियाँ मिलती है। इन गुणोंमें भी जब एक गुण दूसरे दो गुणोंसे अभिभूत हो जाता है, तब प्रत्येक गतिके तीन-तीन भेद और हो जाते हैं। ।। 49 ।।वे भगवान् जगत्के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार करके देवता, मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपोंमें अवतार लेते हैं तथा विश्वका पालन-पोषण करते हैं ।। 42 ।। प्रलयका समय आनेपर वे ही भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्वको कालाग्निस्वरूप रुद्रका रूप ग्रहण करके अपनेमें वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमालाको ।। 43 ।।
परीक्षित् ! महात्माओंने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान्का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु तत्त्वज्ञानी पुरुषोंको केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय करनेवाले रूपमें ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वे तो इससे परे भी हैं। 44 ।। सृष्टिको रचना आदि कमका निरूपण करके पूर्ण परमात्मासे कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है ।। 45 ।। यह मैंने ब्रह्माजीके महाकल्पका अवान्तर कल्पोंके साथ वर्णन किया है। सब कल्पोंमें सृष्टिक्रम एक-सा ही है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्पके प्रारम्भमें प्रकृति से क्रमशः महत्तत्वादिकी उत्पत्ति होती है और कल्पोंके प्रारम्भ प्राकृत सृष्टि तो ज्यों की रहती ही है, चराचर प्राणियोंकी वैकृत सृष्टि नवीन रूपसे होती है । 46 ।। परीक्षित् कालका परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम | पाद्मकल्पका वर्णन सावधान होकर सुनो ।। 47 ।।
शौनकजीने पूछा- सूतजी आपने हमलोगों से कहा ! था कि भगवान्के परम भक्त विदुरजीने अपने अति दुस्त्यज कुटुम्बियोंको भी छोड़कर पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था 48 उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वत्का उपदेश किया ? ।। 49 ।। सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजीका वह चरित्र हमें सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओंको क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये ? ।। 50 ।।
सूतजीने कहा- शौनकादि ऋषियो राजा परीक्षितने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्नोंके उत्तरमें श्रीशुकदेवजी महाराजने जो कुछ कहा था, वहीं मैं आपलोगोसे कहता हूँ। सावधान | होकर सुनिये ॥ 51 ॥