Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कंध

अध्याय 1 उद्भव और विदुरकी भेंट

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकालमें अपने सुख-समृद्धिसे पूर्ण घरको छोड़कर बनमें गये हुए विदुरजीने भगवान् मैत्रेयजीसे पूछी थी ॥ 1 ॥ जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंके दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधनके महलोंको छोड़कर, उसी विदुरजीके घरमें उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे ॥ 2 ॥

राजा परीक्षितने पूछा-प्रभो। यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेयके साथ विदुरजीका समागम कहाँ और किस समय हुआ था ? | 3 || पवित्रात्मा विदुरने महात्मा मैत्रेयजीसे कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि, उसे तो मैत्रेयजी जैसे साधुशिरोमणिने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था ॥ 4 ॥

सूतजी कहते हैं-सर्वज्ञ शुकदेवजीने राजा परीक्षित्के इस प्रकार पूछनेपर अति प्रसन्न होकर कहा- सुनो ।। 5 ।।

श्रीशुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित्! यह उन दिनोंकी बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्रने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रोंका पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डुके अनाथ बालकोंको लाक्षाभवनमें भेजकर आग लगवा दी || 6 || जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिरकी पटरानी द्रौपदीके केश दुःशासनने भरी सभामें खींचे, उस समय द्रौपदीकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा वह चली और उस प्रवाहसे उसके वक्षःस्थलपर लगा हुआ केसर भी वह चला; किन्तु धृतराष्ट्रने अपने पुत्रको उस कुकर्मसे नहीं रोका ॥ 7 ॥दुर्योधनने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिरका राज्य जूएमें अन्यायसे जीत लिया और उन्हें वनमें निकाल दिया। किन्तु बनसे लौटनेपर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिरको उनका हिस्सा नहीं दिया ॥ 8 ॥ महाराज युधिष्ठिरके भेजनेपर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्णने कौरवोंको सभामें हितभरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनोंको अमृत-से लगे, पर कुरुराजने उनके कथनको कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे ? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे ।। 9 ।। फिर जब सलाहके लिये विदुरजीको बुलाया गया, तब मन्त्रि श्रेष्ठ विदुरजीने राज्यभवनमें जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्रके पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जाननेवाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं ।। 10 ।।

उन्होंने कहा “महाराज! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिरको उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहनेयोग्य अपराधको भी सह रहे हैं। भीमरूप काले नागसे तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयोंके सहित बदला लेनेके लिये बड़े क्रोधसे फुफकारें मार रहा है || 11 | आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्णने पाण्डवको अपना लिया है। वे यदुवीरोंके आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरीमें विराजमान है। उन्होंने पृथ्वीके सभी बड़े-बड़े राजाओंको अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्होंके पक्षमें हैं ।। 12 ।। जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ में हाँ मिलाते जा रहे है, उस दुर्योधनके रूपमें तो मूर्तिमान् दोष ही आपके घरमें घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाला है। इसीके कारण आप भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुलकी कुशल चाहते हैं तो इस दुष्टको तुरन्त ही त्याग दीजिये ॥ 13 ॥

विदुरजीका ऐसा सुन्दर स्वभाव था कि साधुजन भी उसे प्राप्त करनेकी इच्छा करते थे। किंतु उनकी यह बात सुनते ही कर्ण, दुःशासन और शकुनिके सहित दुर्योधनके होठ अत्यन्त क्रोधसे फड़कने लगे और उसने उनका तिरस्कार करते हुए कहा- ‘अरे । इस कुटिल दासीपुत्रको यहाँ किसने बुलाया है ? यह जिनके टुकड़ेखा-खाकर जीता है, उन्होंके प्रतिकूल होकर शत्रुका | काम बनाना चाहता है। इसके प्राण तो मत लो, परंतु | इसे हमारे नगरसे तुरन्त बाहर निकाल दो ।। 14-15 ।। भाईके सामने ही कानोंमें बाणके समान लगनेवाले इन अत्यन्त कठोर वचनोंसे मर्माहत होकर भी विदुरजीने कुछ बुरा न माना और भगवान्की मायाको प्रबल समझकर अपना धनुष राजद्वारपर रख वे हस्तिनापुरसे चल दिये ।। 16 ।। कौरवोंको विदुर-जैसे महात्मा बड़े पुण्यसे प्राप्त हुए थे वे हस्तिनापुर से चलकर पुण्य करनेकी इच्छासे भूमण्डल तीर्थपाद भगवान्‌के क्षेत्रों विचरने लगे, जहाँ श्रीहरि, ब्रह्मा, रुद्र, अनन्त आदि अनेकों मूर्तियोंके रूपमे विराजमान हैं ।। 17 ।। जहाँ-जहाँ भगवान्की प्रतिमाओंसे सुशोभित तीर्थस्थान, नगर, पवित्र वन, पर्वत, निकुञ्ज और निर्मल जलसे भरे हुए नदी-सरोवर आदि थे, उन सभी स्थानोंमें वे अकेले ही विचरते रहे ।। 18 ।। वे अवधूत-वेषमें स्वच्छन्दता पूर्वक पृथ्वीपर विचरते थे, जिससे आत्मीय जन उन्हें | पहचान न सके। वे शरीरको सजाते न थे, पवित्र और साधारण भोजन करते, शुद्धवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते, प्रत्येक तीर्थमें स्नान करते, जमीनपर सोते और भगवान्‌को प्रसन्न करनेवाले व्रतोंका पालन करते रहते थे ।। 19 ।।

इस प्रकार भारतवर्षमें ही विचरते विचरते जबतक वे प्रभासक्षेत्रमें पहुँचे, तबतक भगवान् श्रीकृष्णको सहायतासे महाराज युधिष्ठिर पृथ्वीका एकच्छत्र अखण्ड | राज्य करने लगे थे 20 ॥ वहाँ उन्होंने अपने कौरव बन्धुओंके विनाशका समाचार सुना, जो आपसकी। कलहके कारण परस्पर लड़-भिड़कर उसी प्रकार नष्ट हो गये थे, जैसे अपनी ही रगड़से उत्पन्न हुई आगसे बाँसोका सारा जंगल जलकर खाक हो जाता है। यह सुनकर वे | शोक करते हुए चुपचाप सरस्वतीके तीरपर आये ॥ 21 ॥वहाँ उन्होंने त्रित, उशना, मनु, पृथु, अग्नि, असित, वायु, सुदास, गौ, गुह और श्राद्धदेवके नामोंसे प्रसिद्ध ग्यारह तीर्थोंका सेवन किया ॥ 22 ॥ इनके सिवा पृथ्वीमें ब्राह्मण और देवताओंके स्थापित किये हुए जो भगवान् विष्णुके और भी अनेकों मन्दिर थे, जिनके शिखरोंपर भगवान्‌के प्रधान आयुध चक्रके चिह्न थे और जिनके दर्शनमात्रसे श्रीकृष्णका स्मरण हो आता था, उनका भी सेवन किया ॥ 23 ॥ वहाँसे चलकर वे धन-धान्यपूर्ण सौराष्ट्र, सौवीर, मत्स्य और कुरुजाङ्गल आदि देशोंमें होते हुए जब कुछ दिनोंमें यमुना-तटपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने परमभागवत उद्धवजीका दर्शन किया ॥ 24 ॥ वे भगवान् श्रीकृष्णके प्रख्यात सेवक और अत्यन्त शान्तस्वभाव थे। वे पहले बृहस्पतिजीके शिष्य रह चुके थे। विदुरजीने उन्हें देखकर प्रेमसे गाढ़ आलिङ्गन किया और उनसे अपने आराध्य भगवान् श्रीकृष्ण और उनके आश्रित अपने स्वजनोंका कुशल समाचार पूछा ॥ 25 ॥

विदुरजी कहने लगे– उद्धवजी ! पुराणपुरुष बलरामजी और श्रीकृष्णने अपने ही नाभिकमलसे उत्पन्न हुए ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे इस जगत् में अवतार लिया है। वे पृथ्वीका भार उतारकर सबको आनन्द देते हुए अब श्रीवसुदेवजीके घर कुशलसे रह रहे हैं न ? ॥ 26 ॥ प्रियवर ! हम कुरुवंशियोंके परम सुहृद् और पूज्य वसुदेवजी, जो पिताके समान उदारतापूर्वक अपनी कुन्ती आदि बहिनोंको उनके स्वामियोंका सन्तोष कराते हुए उनकी सभी मनचाही वस्तुएँ देते आये हैं, आनन्दपूर्वक हैं न? ॥ 27 ॥ प्यारे उद्धवजी ! यादवोंके सेनापति वीरवर प्रद्युम्रजी तो प्रसन्न हैं न, जो पूर्वजन्ममें कामदेव थे तथा जिन्हें देवी रुक्मिणीजीने ब्राह्मणोंकी आराधना करके भगवान्‌से प्राप्त किया सात्वत, वृष्णि, भोज और दाशार्हवंशी यादवोंके अधिपति महाराज उग्रसेन तो सुखसे हैं न, जिन्होंने राज्य पानेकी आशाका सर्वथा परित्याग कर दिया था किंतु कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने जिन्हें फिरसे राजसिंहासनपर बैठाया ॥ 29 ॥सौम्य अपने पिता श्रीकृष्ण के समान समस्त रथियों में अग्रगण्य श्रीकृष्णतनय साम्ब सकुशल तो हैं? ये पहले पार्वतीजीके द्वारा गर्भमे धारण किये हुए स्वामिकार्तिक है अनेको व्रत करके जाम्बवतीने इन्हें जन्म दिया था ॥ 30 ॥ जिन्होंने अर्जुनसे रहस्ययुक्त धनुर्विद्या शिक्षा पायी है, वे सात्यकि तो कुशलपूर्वक है? वे भगवान् श्रीकृष्णकी सेवासे अनायास ही भगवनोंकी उस महान् स्थितिपर पहुँच गये हैं, जो बड़े-बड़े योगियों को भी दुर्लभ है ॥ 31 ॥ भगवान्के शरणागत निर्मल भक्त बुद्धिमान् अक्रूरजी भी प्रसन्न हैं। न, जो श्रीकृष्णके चरण-चिह्नोंसे अङ्कित व्रजके मार्गकी रजमें प्रेमसे अधीर होकर लोटने लगे थे ? ॥ 32 ॥ भोजवंशी देवककी पुत्री देवकीजी अच्छी तरह हैं न, जो देवमाता अदितिके समान ही साक्षात् विष्णुभगवान्‌की माता हैं ? जैसे वेदत्रयी यज्ञविस्ताररूप अर्थको अपने मन्त्रोंमें धारण किये रहती है, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णको अपने गर्भमें धारण किया था ।। 33 ।। आप भक्तजनोंकी कामनाएँ पूर्ण करनेवाले भगवान् अनिरुद्धजी सुखपूर्वक हैं न, जिन्हें शास्त्र वेदोंके आदिकारण और अन्तःकरणचतुष्टयके चौथे अंश मनके अधिष्ठाता बतलाते हैं ॥ 34 ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी! अपने हृदयेश्वर भगवान् श्रीकृष्णका अनन्यभावसे अनुसरण करनेवाले जो हृदीक, सत्यभामानन्दन चारुदेष्ण और गद आदि अन्य भगवान्के पुत्र हैं, वे सब भी कुशलपूर्वक हैं न ? ।। 35 ।।

महाराज युधिष्ठिर अपनी अपनी अर्जुन और श्रीकृष्णरूप दोनों भुजाओंकी सहायतासे धर्ममर्यादाका न्यायपूर्वक पालन करते है न? मयदानव की बनायी हुई सभामे इनके राज्यवैभव और दबदबेको | देखकर दुर्योधनको बड़ा डाह हुआ था । 36 ।।| अपराधियोंके प्रति अत्यन्त असहिष्णु भीमसेनने सर्पके | समान दीर्घकालीन क्रोधको छोड़ दिया है क्या ? जब वे गदायुद्धमें तरह-तरहके पैंतरे बदलते थे, तब उनके पैरोंकी धमकसे धरती डोलने लगती थी ।। 37 ।। जिनके बाणोंके जालसे छिपकर किरातवेषधारी, अतएव किसीकी पहचानमें न आनेवाले भगवान् शङ्कर प्रसन्न हो गये थे, वे रथी और यूथपतियोंका सुयश बढ़ानेवाले गाण्डीवधारी अर्जुन तो प्रसन्न हैं न ? अब तो उनके सभी शत्रु शान्त हो चुके होंगे ? ॥ 38 ॥ पलक जिस प्रकार नेत्रोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीके पुत्र युधिष्ठिरादि जिनकी सर्वदा सँभाल रखते हैं और कुन्तीने ही जिनका लालन-पालन किया है, वे माद्रीके यमज पुत्र नकुल सहदेव कुशलसे तो हैं न ? उन्होंने युद्धमें शत्रुसे | अपना राज्य उसी प्रकार छीन लिया, जैसे दो गरुड़ इन्द्रके | मुखसे अमृत निकाल लायें ॥ 39 ॥ अहो ! बेचारी कुन्ती तो राजर्षिश्रेष्ठ पाण्डुके वियोगमें मृतप्राय-सी होकर भी इन बालकोंके लिये ही प्राण धारण किये हुए है। रथियोंमें श्रेष्ठ महाराज पाण्डु ऐसे अनुपम वीर थे कि उन्होंने केवल एक धनुष लेकर ही अकेले चारों दिशाओंको जीत लिया था ॥ 40 ॥ सौम्यस्वभाव उद्धवजी ! मुझे तो अधः पतनकी ओर जानेवाले उन धृतराष्ट्रके लिये बार-बार शोक होता है, जिन्होंने पाण्डवोंके रूपमें अपने परलोकवासी भाई पाण्डुसे ही द्रोह किया तथा अपने पुत्रोंकी हाँ में हाँ मिलाकर अपने हितचिन्तक मुझको भी नगरसे निकलवा दिया ॥ 41 ॥ किंतु भाई मुझे इसका कुछ भी खेद अथवा आश्चर्य नहीं है। जगद्विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ही मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करके लोगोंकी मनोवृत्तियोंको भ्रमित कर देते हैं। मैं तो उन्हींकी कृपासे उनकी महिमाको देखता हुआ दूसरोंकी दृष्टिसे दूर रहकर सानन्द विचर रहा हूँ ।। 42 ।। यद्यपि कौरवोंने उनके बहुत-से अपराध किये, फिर भी भगवान्ने उनकी इसीलिये उपेक्षा कर दी थी कि वे उनके साथ उन दुष्ट राजाओंको भी मारकर अपने शरणागतोंका दुःख दूर करना चाहते थे, जो धन, विद्या और जातिके मदसे अंधे होकर कुमार्गगामी हो रहे थे और बार-बार अपनी सेनाओंसे पृथ्वीको कँपा रहे थे ।। 43 ।।उद्धवजी भगवान् श्रीकृष्ण जन्म और कर्मसे रहित हैं, फिर भी दुष्टों का नाश करनेके लिये और लोगोंको अपनी | ओर आकर्षित करनेके लिये उनके दिव्य जन्म कर्म हुआ करते हैं। नहीं तो, भगवान्‌की तो बात ही क्या दूसरे जो लोग गुणोंसे पार हो गये हैं, उनमें भी ऐसा कौन है, जो इस कर्माधीन देहके बन्धनमें पड़ना चाहेगा ।। 44 । अतः मित्र ! जिन्होंने अजन्मा होकर भी अपनी शरणमें आये हुए समस्त लोकपाल और आज्ञाकारी भक्तोंका प्रिय करनेके लिये यदुकुलमें जन्म लिया है, उन पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी बातें सुनाओ ॥ 45 ॥

अध्याय 2 उद्धवजीद्वारा भगवान्की बाललीलाओंका वर्णन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब विदुरजीने परम भक्त श्रीशुक उवाच उद्धवसे इस प्रकार उनके प्रियतम श्रीकृष्णसे सम्बन्ध रखनेवाली बातें पूछी, तब उन्हें अपने स्वामीका स्मरण हो आया और वे हृदय भर आनेके कारण कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ 1 ॥ जब ये पाँच वर्षके थे, तब बालकोंकी तरह खेलमें ही श्रीकृष्णकी मूर्ति बनाकर उसकी सेवा-पूजामें ऐसे तन्मय हो जाते थे कि कलेवेके लिये माताके बुलानेपर भी उसे छोड़कर नहीं जाना चाहते थे ॥ 2 ॥ अब तो दीर्घकालसे उन्हीं की सेवामें रहते-रहते ये बूढ़े हो चले थे; अतः विदुरजीके पूछनेसे उन्हें अपने प्यारे प्रभुके चरणकमलोंका स्मरण हो आया- -उनका चित्त विरहसे व्याकुल हो गया। फिर वे कैसे उत्तर दे सकते थे। 3 । उद्धवजी श्रीकृष्णा चरणारविन्द मकरन्द-सुधासे सराबोर होकर दो घड़ीतक कुछ भी नहीं बोल सके। तीव्र भक्तियोगसे उसमें डूबकर वे आनन्द-मन हो। गये ॥ 4 ॥ उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया तथा बुँदे हुए नेत्रोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहने लगी। उद्धवजीको इस प्रकार प्रेम-प्रवाहमें डूबे हुए देखकर विदुरजीने उन्हें कृतकृत्य माना ।। 5 ।। कुछ समय बाद जब उद्धवजी भगवान्‌के प्रेमधामसे उतरकर पुनः धीरे-धीरे संसारमे आये, तब अपने नेत्रोको पोछकर भागवल्लीलाओंका स्मरण हो आनेसे विस्थित हो विदुरजीसे इस | प्रकार कहने लगे ॥ 6 ॥उद्धवजी बोले- विदुरजी। श्रीकृष्णरूप सूर्यके छिप जानेसे हमारे घरोंको कालरूप अजगरने खा डाला है, वे श्रीहीन हो गये हैं; अब मैं उनकी क्या कुशल सुनाऊँ || 7 | ओह ! यह मनुष्यलोक बड़ा ही अभागा है, इसमें भी यादव तो नितान्त भाग्यहीन हैं, जिन्होंने निरन्तर श्रीकृष्णके साथ रहते हुए भी उन्हें नहीं पहचाना जिस तरह अमृतमय चन्द्रमाके समुद्रमे रहते समय मछलियाँ उन्हें नहीं पहचान सकी थीं ॥ 8 ॥ यादवलोग मनके भावको तानेवाले, बड़े समझदार और भगवानके साथ एक ही स्थानमें रहकर क्रीडा करनेवाले थे, तो भी उन सबने समस्त विश्वके आश्रय, सर्वोत्तम श्रीकृष्णको एक श्रेष्ठ यादव ही समझा ॥ 9 ॥ किंतु भगवान्‌को मायासे मोहित इन यादव और इनसे व्यर्थका पैर ठाननेवाले शिशुपाल आदिके अवहेलना और निन्दासूचक वाक्योंसे भगवत्प्राण महानुभाको बुद्धि भ्रममें नहीं पड़ती थी ।। 10 ।। जिन्होंने कभी तप नहीं किया, उन लोगोंको भी इतने दिनोंतक दर्शन देकर अब उनकी दर्शनलालसाको किये बिना ही वे भगवान् श्रीकृष्ण अपने त्रिभुवन मोहन श्रीविग्रहको छिपाकर अन्तर्धान हो गये हैं और इस प्रकार उन्होंने मानो उनके नेत्रोको ही छीन लिया है ।। 11 ।। भगवान् ने अपनी योगमायाका प्रभाव दिखानेके लिये मानवलीलाओंके योग्य जो दिव्य श्रीविग्रह प्रकट किया था, वह इतना सुन्दर था कि उसे देखकर सारा जगत् तो मोहित हो हो जाता था, वे स्वयं भी विस्मित हो जाते थे। सौभाग्य और सुन्दरताको पराकाष्ठा थी उस रूपमें उससे आभूषण (अक गहने) भी विभूषित हो जाते थे ।। 12 ।।

धर्मराज युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें जब भगवान् के उस नयनाभिराम रूपपर लोगों की दृष्टि पड़ी थी, तब त्रिलोकोने यही माना था कि मानवसृष्टिको रचनामे विधाताको जितनी चतुराई है, सब इसी रूपमें पूरी हो गयी है ॥ 13 ॥ उनके प्रेमपूर्ण हास्य-विनोद और लीलामय चितवनसे सम्मानित होनेपर व्रजबालाओंकी ऑंखें उन्हीं की ओर लग जाती थीं और उनका चित्त भी ऐसा तल्लीन हो जाता था कि वे परके काम-धंधोको अधूरा ही छोड़कर जड पुतलियोंकी तरह खड़ी रह जाती थीं ॥ 14 ॥ चराचर जगत् और प्रकृतिके स्वामी भगवान्ने जब अपने शान्त-रूप महात्माओको अपने ही घोररूप असुरांसे सताये जाते देखा, तब वे करुणाभावसे द्रवित हो गये और अजन्मा होनेपर भी अपने अंश बलरामजीक साथ काष्ठमें अनिके समान प्रकट हुए ।। 15 ।।अजमा होकर भी वसुदेवजीके यहां जन्म लेने की लीला करना, सबको अभय देनेवाले होनेपर भी मानो कंसके भयसे व्रजमें जाकर छिप रहना और अनन्तपराक्रमी होनेपर भी कालयवनके सामने मथुरापुरीको छोड़कर भाग जाना- भगवान्‌की ये लीलाएँ याद आ आकर मुझे बेचैन कर डालती हैं। ॥ 16 ॥ उन्होंने जो | देवकी-वसुदेवकी चरण-वन्दना करके कहा था ‘पिताजी, माताजी! कंसका बड़ा भय रहनेके कारण मुझसे आपकी कोई सेवा न बन सकी, आप मेरे इस अपराधपर ध्यान न देकर मुझपर प्रसन्न हों।’ श्रीकृष्णकी ये बातें जब याद आती हैं, तब आज भी मेरा चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ।। 17 । जिन्होंने कालरूप अपने भुकुटिविलाससे ही पृथ्वीका सारा भार उतार दिया था, उन श्रीकृष्णके पाद-पद्म-परागका सेवन करनेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उसे भूल सके ।। 18 ।। आपलोगोंने राजसूय यज्ञमें प्रत्यक्ष ही देखा था कि श्रीकृष्णसे द्वेष करनेवाले शिशुपालको वह सिद्धि मिल गयी, जिसकी बड़े-बड़े हैं योगी भलीभाँति योग-साधना करके स्पृहा करते रहते हैं। उनका विरह भला कौन सह सकता है ॥ 19 ॥ शिशुपालके ही समान महाभारत युद्धमें जिन दूसरे योद्धाओंने अपनी आँखोंसे भगवान् श्रीकृष्ण के नयनाभिराम मुख कमलका मकरन्द पान करते हुए अर्जुनके बाणोंसे बिंधकर प्राणत्याग किया, वे पवित्र होकर सब-के-सब भगवान् के परमधामको प्राप्त हो गये ॥ 20 ॥ स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तीनों लोकोंके अधीश्वर है। उनके समान भी कोई नहीं है, उनसे बढ़कर तो कौन होगा। वे अपने स्वतः सिद्ध ऐश्वर्यसे ही सर्वदा पूर्णकाम हैं। इन्द्रादि असंख्य लोकपालगण नाना प्रकारकी भेंट ला लाकर अपने-अपने मुकुटोके अग्रभागसे उनके चरण रखनेकी चौकीको प्रणाम किया करते हैं ॥ 21 ॥ विदुरजी वे ही भगवान् श्रीकृष्ण राजसिंहासनपर बैठे हुए उग्रसेनके सामने खड़े होकर निवेदन करते थे, ‘देव हमारी प्रार्थना सुनिये।’ उनके इस सेवा भावकी याद आते ही हम जैसे सेवकोंका चित्त अत्यन्त व्यथित हो जाता है ।। 22 ।। पापिनी पूतनाने अपने स्तनोंमें हलाहल विष लगाकर श्रीकृष्णको मार डालने की नियतसे उन्हें दूध पिलाया था; उसको भी भगवान्‌ने वह परम गति दी, जो धायको मिलनी चाहिये। उन भगवान् श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कौन दयालु है, जिसकी शरण ग्रहण करें ॥ 23 ॥मै असुरोंको भी भगवान्‌का भक्त समझता हूँ, क्योंकि वैरभाव जनित क्रोधके कारण उनका चित्त सदा श्रीकृष्णमें लगा रहता था और उन्हें रणभूमिमें सुदर्शन चक्रधारी भगवान्‌को कंधेपर चढ़ाकर झपटते हुए गरुड़जीके दर्शन हुआ करते थे ।। 24 ।। ब्रह्माजीकी प्रार्थना पृथ्वीका भार उतारकर उसे सुखी करनेके लिये कंसके कारागारमे वसुदेव-देवकीके यहाँ भगवान् अवतार लिया था ।। 25 ।। उस समय कंसके इरसे पिता वसुदेवजीने उन्हें नन्दबाबाके व्रजमें पहुँचा दिया था। वहाँ वे बलरामजीके साथ ग्यारह वर्षतक इस प्रकार छिपकर रहे कि उनका प्रभाव व्रजके बाहर किसीपर प्रकट नहीं हुआ ॥ 26 ॥ यमुनाके उपवनमें, जिसके हरे-भरे वृक्षोंपर कलरव करते हुए पक्षियोंके झुंड के झुंड रहते हैं, भगवान् श्रीकृष्णने बछड़ोंको चराते हुए ग्वाल-बालोंकी मण्डलीके साथ विहार किया था ।। 27 ।। वे व्रजवासियोंकी दृष्टि आकृष्ट करनेके लिये अनेकों बाल-लीला उन्हें दिखाते थे। कभी रोने से लगते, कभी हँसते और कभी सिंह शावकके समान मुग्ध दृष्टिसे देखते ॥ 28 ॥ फिर कुछ बड़े होनेपर वे सफेद बैल और रंग-बिरंगी शोभाकी मूर्ति गौओको चराते हुए अपने साथी गोपों को वाँसुरी बजा-बजा कर रिझाने लगे ।। 29 ।। इसी समय जब कसने उन्हें मारनेके लिये बहुत से मायावी और मनमाना रूप धारण करनेवाले राक्षस भेजे, तब उनको खेल ही खेलमें भगवान्ने मार डाला – जैसे बालक खिलौनोंको तोड़-फोड़ डालता है॥ 30॥ कालिय नागका दमन करके विष मिला हुआ जल पीनेसे मरे हुए ग्वालबालों और गौओको जीवितकर उन्हें कालियदहका निर्दोष जल पीनेकी सुविधा कर दी ॥ 31 ॥ भगवान् श्रीकृष्णने बड़े हुए धनका सद्व्यय करानेकी इच्छासे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा नन्दबाबा गोवर्धन पूजारूप गोयज्ञ करवाया ॥ 32 ॥ भद्र! इससे अपना मानभङ्ग होनेके कारण जब इन्द्रने क्रोधित होकर व्रजका विनाश करनेके लिये मूसलधार जल बरसाना आरम्भ किया, तब भगवाकरणवश खेल हो खेलमें उनके समान गोवर्धन पर्वतको उठा लिया और अत्यन्त घबराये हुए व्रजवासियोंकी तथा उनके पशुओंकी रक्षा की ॥ 33 ॥ समय जब सारे वृन्दावनमें शरतूके चन्द्रमाकी चाँदनी छिटक जाती, तब श्रीकृष्ण उसका सम्मान करते हुए मधुर गान करते और गोपियोंके मण्डलकी शोभा बढ़ाते हुए उनके साथ रासविहार करते ।। 34 ।।

अध्याय 3 भगवान् के अन्य लीलाचरित्रोंका वर्णन

उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवको सुख पहुँचानेकी इच्छासे | बलदेवजीके साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रुसमुदायके स्वामी कंसको ऊँचे सिंहासनसे नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाशको बड़े जोरसे पृथ्वीपर घसीटा ॥ 1 ॥ सान्दीपनि मुनिके द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए साङ्गोपाङ्ग वेदका अध्ययन करके दक्षिणास्वरूप उनके मरे हुए पुत्रको पञ्चजन नामक राक्षसके पेट से ( यमपुरीसे) लाकर दे दिया ॥ 2 ॥ भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मीके बुलानेसे जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिरपर पैर रखकर गान्धर्व विधिके द्वारा विवाह करनेके लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणीको वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड़ अमृत कलशको ले आये थे ॥ 3 ॥ | स्वयंवरमें सात बिना नथे हुए बैलोको नाथकर नाग्नजिती (सत्या) से विवाह किया। इस प्रकार मानभङ्ग हो जानेपर मूर्ख राजाओंने शस्त्र उठाकर राजकुमारीको छीनना चाहा। | तब भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रोंसे उन्हें मार डाला 4 भगवान् विषयी पुरुषोंकी-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामाको प्रसन्न करनेकी इच्छासे उनके लिये स्वर्गसे कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्रने क्रोधसे अंधे | होकर अपने सैनिकोंसहित उनपर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियोंका क्रीडाग बना हुआ है ॥ 5 ॥ अपने विशाल डीलडौलसे आकाशको भी ढक देनेवाले अपने पुत्र भौमासुरको भगवान् के हाथसे मरा हुआ देखकर पृथ्वीने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुरके पुत्र भगदत्तको उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तः पुरमें प्रवेश किया ॥ 6 ॥ वहाँ भौमासुरद्वारा हरकर लगी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्रको देखते ही खड़ी हो गयीं और सबने महान् हर्प, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवनसे तत्काल ही भगवान्‌को | पतिरूपमें वरण कर लिया ॥ 7 ॥तब भगवान् ने अपनी निजशक्ति योगमायासे उन ललनाओंके अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलोंमें एक ही मुहूर्तमें विधिवत् पाणिग्रहण किया ॥ 8 ॥ अपनी लीलाका विस्तार करनेके लिये उन्होंने उनमेंसे प्रत्येकके गर्भसे सभी गुणोंमें अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ 9 ॥ जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादिने अपनी सेनाओंसे मथुरा और द्वारकापुरीको घेरा था, तब भगवान्ने निजजनोंको अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था ॥ 10 ॥ शम्बर, द्विविद, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओंमेंसे भी किसीको उन्होंने स्वयं मारा था और किसीको दूसरोंसे मरवाया ॥ 11 ॥ इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डुके पुत्रोंका पक्ष लेकर आये हुए राजाओंका भी संहार किया, जिनके सेनासहित कुरुक्षेत्रमें पहुँचनेपर पृथ्वी डगमगाने लगी थी ॥ 12 ॥ कर्ण, दुःशासन और शकुनिकी खोटी सलाहसे जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थीं, तथा भीमसेनकी गदासे जिसकी जाँघ टूट चुकी थी, उस दुर्योधनको अपने साथियोंके सहित पृथ्वीपर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई ॥ 13 ॥ वे सोचने लगे-यदि द्रोण, भीष्म, अर्जुन और भीमसेनके द्वारा इस अठारह अक्षौहिणी सेनाका विपुल संहार हो भी गया, तो इससे पृथ्वीका कितना भार हलका हुआ। अभी तो मेरे अंशरूप प्रद्युम्न आदिके बलसे बढ़े हुए यादवोंका दुःसह | दल बना ही हुआ है ।। 14 । जब ये मधु-पानसे मतवाले हो लाल-लाल आँखें करके आपसमें लड़ने लगेंगे, तब उससे ही इनका नाश होगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है। असलमें मेरे संकल्प करनेपर ये स्वयं ही अन्तर्धान हो जायेंगे ॥ 15 ॥

यो सोचकर भगवान्ने युधिष्ठिरको अपनी पैतृक राजगद्दीपर बैठाया और अपने सभी सगे-सम्बन्धियोंको सत्पुरुषोंका मार्ग दिखाकर आनन्दित किया । 16 ।। उत्तराके उदरमें जो अभिमन्युने पूरुवंशका बीज स्थापित किया था, वह भी अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे नष्ट-सा हो | चुका था, किन्तु भगवान्‌ने उसे बचा लिया ।। 17 ।।उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिरसे तीन अश्वमेध यज्ञ करवाये और वे भी श्रीकृष्णके अनुगामी होकर अपने छोटे भाइयोंकी सहायतासे पृथ्वीकी रक्षा करते हुए बड़े आनन्दसे रहने लगे ॥ 18 ॥ विश्वात्मा श्रीभगवान्‌ने भी द्वारकापुरीमें रहकर लोक और वेदकी मर्यादाका पालन करते हुए सब प्रकारके भोग भोगे, किन्तु सांख्ययोगकी स्थापना करनेके लिये उनमें कभी आसक्त नहीं हुए ।। 19 । मधुर मुस्कान, स्नेहमयी चितवन, सुधामयी वाणी, निर्मल चरित्र तथा समस्त शोभा और सुन्दरताके निवास अपने श्रीविग्रहसे लोक-परलोक और विशेषतया यादवोंको आनन्दित किया तथा रात्रिमें अपनी प्रियाओंके साथ क्षणिक अनुरागयुक्त होकर समयोचित विहार किया और इस प्रकार उन्हें भी सुख दिया ।। 20-21 ।। इस तरह बहुत वर्षोंतक विहार करते-करते उन्हें गृहस्थ आश्रम-सम्बन्धी भोग सामग्रियोंसे वैराग्य हो गया ॥ 22 ॥ ये भोग सामग्रियाँ ईश्वरके अधीन हैं और जीव भी उन्होंके अधीन है। जब योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको ही उनसे वैराग्य हो गया तब भक्तियोगके द्वारा उनका अनुगमन करनेवाला भक्त तो उनपर विश्वास ही कैसे | करेगा ? ।। 23 ।।

एक बार द्वारकापुरीमें खेलते हुए यदुवंशी और भोजवंशी बालकोने खेल-खेल में कुछ मुनीश्वरोंको चिढ़ा दिया। तब यादवकुलका नाश ही भगवान्‌को अभीष्ट है—यह समझकर उन ऋषियोंने बालकोंको शाप दे दिया ।। 24 ।। इसके कुछ ही महीने बाद भावीवश वृष्णि, भोज और अन्धकवंशी यादव बड़े हर्षसे रथोंपर चढ़कर प्रभासक्षेत्रको गये ।। 25 ।। वहाँ स्नान करके उन्होंने उस तीर्थके जलसे पितर देवता और ऋषियोंका तर्पण किया तथा ब्राह्मणोको श्रेष्ठ गौएँ दीं ॥ 26 ॥ उन्होंने सोना, चाँदी, शय्या, वस्त्र, मृगचर्म, कम्बल, पालकी, रथ, हाथी, कन्याएँ और ऐसी भूमि जिससे जीविका चल सके तथा नाना प्रकारके सरस अत्र भी भगवदर्पण करके ब्राह्मणोंको दिये। इसके पश्चात् गौ और ब्राह्मणोंके लिये ही प्राण धारण करनेवाले उन वीरोंने पृथ्वीपर सिर टेककर उन्हें प्रणाम किया ।। 27-28 ।।

अध्याय 4 उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना

उद्धवजीने कहा – फिर ब्राह्मणोंकी आज्ञा पाकर यादवोंने भोजन किया और वारुणी मंदिरा पी। उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनोंसे एक-दूसरेके हृदयको चोट पहुँचाने लगे ।। 1 ।। मदिराके नशेसे उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपसकी रगड़से बॉसमि आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी ॥ 2 ॥ भगवान् अपनी मायाकी उस विचित्र गतिको देखकर सरस्वतीके जलसे आचमन करके एक वृक्षके नीचे बैठ गये ॥ 3 ॥ इससे पहले ही शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने अपने कुलका संहार करनेकी इच्छा होनेपर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ 4 ॥ विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामीके चरणोंका वियोग न सह सकनेके कारण मैं | उनके पीछे-पीछे प्रभासक्षेत्रमें पहुँच गया ॥ 5 ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वतीके तटपर अकेले ही बैठे हैं॥ 6 ॥ दिव्य विशुद्ध सत्त्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्तिसे भरी रतनारी आँखें हैं। उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दूरसे ही पहचान लिया। ॥ 7 ॥ वे एक पीपलके छोटे-से वृक्षका सहारा लिये बायाँ जोधपर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे। भोजन-पानका त्याग कर देनेपर भी वे आनन्दसे प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ 8 ॥ इसी समय व्यासजीके प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकोंमें स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ 9 मैत्रेय मुनि भगवान्‌के अनुरागी भक्त है। आनन्द और भक्तिभावसे उनकी गर्दन झुक रही थी। उनके सामने ही श्रीहरिने प्रेम एवं मुसकानयुक्त चितवनसे मुझे आनन्दित करते हुए कहा ।। 10 ।।

श्रीभगवान् कहने लगे- मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ, इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है उद्धव तुम पूर्व जन्ममें वसु थे। विश्वको रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओंके यज्ञमे मुझे पानेको इच्छासे ही तुमने मेरी आराधना की थी ।। 11 ।।साधुस्वभाव उद्धव ! संसारमें तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है। अब मैं मर्त्यलोकको छोड़कर अपने धाममें जाना चाहता हूँ। इस समय यहाँ एकान्तमें तुमने अपनी अनन्य भक्तिके कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्यकी बात है ॥ 12 ॥ पूर्वकाल- (पाद्मकल्प ) के आरम्भमें मैंने अपने नाभि कमलपर बैठे हुए ब्रह्माको अपनी महिमाके प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञानका उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वहीं मैं तुम्हें देता हूँ ।। 13 ।।

विदुरजी मुझपर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुषकी कृपा बरसा करती थी। इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कहनेसे स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आंसुओंकी धारा बहने लगी। उस समय मैंने हाथ जोड़कर उनसे कहा 14 ॥ ‘स्वामिन्! आपके चरण-कमलोंकी सेवा करनेवाले पुरुषोंको इस संसारमें अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इन चारोंमेंसे कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं है; तथापि मुझे उनमेंसे किसीकी इच्छा नहीं है। मैं तो केवल आपके चरणकमलोंकी सेवाके लिये ही लालायित रहता हूँ ।। 15 ।। प्रभो ! आप निःस्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रुके डरसे भागते हैं और द्वारकाके किलेमें जाकर छिप रहते हैं | तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियोंके साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रोंको देखकर विद्वानोंकी बुद्धि भी चक्करमें पड़ जाती है ।। 16 ।। देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेनेके लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्योंकी तरह बड़ी सावधानीसे मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो! आपकी वह लीला मेरे मनको मोहित-सा कर देती है ॥ 17 ॥ स्वामिन्! अपने स्वरूपका गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजीको बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार दुःखको सुगमतासे पार कर जाऊँ’ ll 18 ll
जब मैंने इस प्रकार अपने हृदयका भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने मुझे अपने स्वरूपकी परम स्थितिका उपदेश दिया ।। 19 ।। इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्णसे आत्मतत्त्वकी उपलब्धिका साधन सुनकर तथा उन प्रभुके चरणोंकी वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरहसे | मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है ॥ 20 ॥ विदुरजी ! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे हृदयको उनकी विरहव्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रमको जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरोंको सुख पहुँचानेवाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं ।। 21-22 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- इस प्रकार उद्धवजीके मुखसे अपने प्रिय बन्धुओंके विनाशका असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजीको जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञानद्वारा शान्त कर दिया ।। 23 । जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरोंमें प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजीने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ।। 24 ।।

विदुरजीने कहा- उद्धवजी योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने अपने स्वरूपके गूढ़ रहस्यको प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान‌के सेवक तो अपने सेवकका कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं ।। 25 ।।

उद्धवजीने कहा- उस तत्त्वज्ञानके लिये आपको -उस मुनिवर मैत्रेयजीकी सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोकको छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान्‌ने हो आपको उपदेश करनेके लिये उन्हें आज्ञा दी थी ।। 26 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- इस प्रकार विदुरजीके साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंकी चर्चा होनेसे उस कथामृतके द्वारा उद्धवजीका वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजीके तीरपर उनकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँसे चल दिये ।। 27 ।।राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! वृष्णिकुल और भोजवंशके सभी रथी और यूथपतियोंके भी यूथपति नष्ट हो गये थे यहतिक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरिको भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ? ।। 28 ।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरिने ब्राह्मणोंके शापरूप कालके बहाने अपने कुलका संहार कर अपने श्रीविग्रहको त्यागते समय विचार किया ।। 29 । ‘अब इस लोकसे मेरे चले जानेपर संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञानको ग्रहण करनेके सच्चे अधिकारी हैं ॥ 30 ॥ उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं है, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयोंसे कभी विचलित नहीं हुए। अतः लोगोंको मेरे ज्ञानकी शिक्षा देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ 31 ॥ वेदोंके मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्णके इस प्रकार आज्ञा देनेपर उद्धवजी बदरिकाश्रममें जाकर समाधियोगद्वारा श्रीहरिकी आराधना करने लगे ।। 32 ।। कुरुश्रेष्ठ परीक्षित् परमात्मा श्रीकृष्णने लीलासे ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीलासे ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया। उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषोंका उत्साह बढ़ानेवाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुष्कर था। परम भागवत उद्धवजीके मुखसे उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होनेका समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान्‌ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजीके चले जानेपर प्रेमसे विह्वल होकर रोने लगे ।। 33-35 ॥ इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुनातटसे चलकर कुछ दिनोंमें गङ्गाजीके किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी | रहते थे ।। 36 ।।

अध्याय 5 विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्ण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्र में विराजमान थे। भगवद्भक्तिसे शुद्ध हुए हृदयवाले विदुरजी उनके पास जा पहुंचे और उनके साधुस्वभावसे आप्यायित होकर उन्होंने पूछा ॥ 1 ॥

विदुरजीने कहा- भगवन् ! संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु उनसे न तो उन्हें मुख ही मिलता है और न उनका दुःख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दुःखकी वृद्धि ही होती है। अतः इस विषय में क्या करना उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ 2 ॥ जो लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख, अधर्मपरायण और अत्यन्त दुःखी है, उनपर कृपा करनेके लिये ही आप-जैसे भाग्यशाली भगवद्भक्त संसारमें विचरा करते हैं ॥ 3 ॥ साधुशिरोमणे! आप मुझे उस शान्तिप्रद साधनका उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करनेसे भगवान् अपने भक्तोंके भक्तिपूत हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने स्वरूपका अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ 4 ॥ त्रिलोकीके नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं, जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्पके आरम्भमें इस सृष्टिकी रचना की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत्के जोवोंकी जीविकाका विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाशमें लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमायाका आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होनेपर भी इस ब्रह्माण्ड अन्तर्यामीरूपसे अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपोंमें प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ।। 5-6 ।। ब्राह्मण, गौ और देवताओंके कल्याण के लिये जो अनेको अवतार धारण करके लीलासे ही नाना प्रकार के दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये यशस्त्रियों के मुकुटमणि श्रीहरिके मृतका पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ॥ 7 ॥हमें यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियोंके स्वामी श्रीहरिने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक पर्वतसे बाहरके भागोंको, जिनमें ये सब प्रकारके प्राणियोंके अधिकारानुसार भिन्न-भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं, किन तत्त्वोंसे रचा है ॥ 8 ॥ द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायणने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है ? भगवन्! मैंने श्रीव्यासजीके मुखसे ऊँच-नीच वर्णोंक धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृतके प्रवाहको छोड़कर अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मोसे मेरा चित्त ऊब गया है ॥ 9-10 ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप जैसे साधुओंके समाज में कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्धोंमें प्रवेश करते है, तब उनकी संसारचक्रमें डालनेवाली घर-गृहस्थीकी आसक्तिको काट डालते हैं ॥ 11 ॥ भगवन्! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायनने भी भगवान् के गुणोंका वर्णन करनेकी इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखोंका उल्लेख करते हुए मनुष्योंकी बुद्धिको भगवान्‌की कथाओंकी ओर लगानेका ही प्रयत्न किया गया है ॥ 12 ॥ यह भगवत्कथाकी रुचि श्रद्धालु पुरुषके हृदयमें जब बढ़ने लगती है, तब अन्य विषयोंसे उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणोंके निरन्तर चिन्तनसे आनन्दमग्न हो जाता है और उस पुरुषके सभी दुःखोंका तत्काल अन्त हो जाता है ॥ 13 ॥ मुझे तो उन शोचनीयोंके भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषोंके लिये निरन्तर खेद रहता है, जो अपने पिछले पापोंके कारण श्रीहरिकी कथाओंसे विमुख रहते हैं। हाय! कालभगवान् उनके अमूल्य जीवनको काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मनसे व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और व्यर्थ चिन्तनमें लगे रहते हैं ॥ 14 ॥ मैत्रेयजी! आप दीनोंपर कृपा करनेवाले हैं; अतः भौरा जैसे फूलोंमेंसे रस निकाल लेता है, उसी प्रकार इन लौकिक कथाओंमेंसे इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याणके लिये सुनाइये ॥ 15 ॥उन सर्वेश्वरने संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करनेके लिये अपनी मायाशक्तिको स्वीकार कर राम-कृष्णादि अवतारोंके द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये 16

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— जब विदुरजीने जीवोंक कल्याणके लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजीने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा ॥ 17 ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले- साधुस्वभाव विदुरजी ! आपने सब जीवोंपर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान्‌में ही लगा रहता है, तथापि | इससे संसारमें भी आपका बहुत सुयश फैलेगा || 18 || आप श्रीव्यासजीके औरस पुत्र है; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि आप अनन्यभावसे सर्वेश्वर श्रीहरिके ही आश्रित हो गये हैं ।। 19 ।। आप प्रजाको दण्ड देनेवाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषिका शाप होनेके कारण ही आपने श्रीव्यासजीके वीर्यसे उनके भाई विचित्रवीर्यकी भोगपत्त्री दासीके गर्भसे जन्म लिया है ॥ 20 ॥ आप सर्वदा ही श्रीभगवान् और उनके भक्तोंको अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करने की आज्ञा दे गये हैं ।। 21 । इसलिये अब मैं जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये योगमायाके द्वारा विस्तारित हुई भगवान्‌की विभिन्न लीलाओंका क्रमशः वर्णन करता हूँ ॥ 22 ॥

सृष्टिरचनाके पूर्व समस्त आत्माओंके आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य! सृष्टिकालमें अनेक वृत्तियोंके भेदसे जो अनेकता दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि उनकी इच्छा अकेले रहनेकी थी ॥ 23 ॥ वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस समय वे ही अद्वितीय रूपसे प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्थामें वे अपनेको असत्के समान समझने लगे। | वस्तुतः वे असत् नहीं थे, क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञानका लोप नहीं हुआ था ।। 24 ।। यह द्रष्टा और दृश्यका अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही कार्यकारणरूपा माया है। महाभाग विदुरजी ! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय मायाके द्वारा ही भगवान्ने इस विश्वका निर्माण किया है॥ 25 ॥ कालशक्तिसे जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभको प्राप्त हुई, तब उन इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्माने अपने अंश पुरुषरूपसे उसमें चिदाभासरूप बीज़ स्थापित किया ॥ 26तब कालंकी प्रेरणासे उस अव्यक्त मायासे महत्तत्त्व प्रकट हुआ। वह मिथ्या अज्ञानका नाशक होनेके कारण विज्ञानस्वरूप और अपनेमें सूक्ष्मरूपसे स्थित प्रपञ्चकी | अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ 27 ॥ फिर चिदाभास, गुण और कालके अधीन उस महत्तत्त्वने भगवान्‌की दृष्टि पड़नेपर इस विश्वकी रचनाके लिये अपना रूपान्तर किया ॥ 28 ॥ महत्तत्त्वके विकृत होनेपर अहङ्कारकी उत्पत्ति हुई जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्त्ता (अधिदैव) रूप होनेके कारण भूत, इन्द्रिय और मनका कारण है ।। 29 ।। वह अहङ्कार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस (राजस) और तामस भेदसे तीन प्रकारका है; अतः अहंतत्त्वमें विकार होनेपर वैकारिक अहङ्कारसे मन और जिनसे विषयोंका ज्ञान होता है। | वे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता हुए ॥ 30 ॥ तैजस अहङ्कारसे | ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हुईं तथा तामस अहङ्कारसे सूक्ष्म भूतोंका कारण शब्दतन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्तरूपसे आत्माका बोध करानेवाला आकाश उत्पन्न हुआ ।। 31 ।। भगवान् की दृष्टि जब आकाशपर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभासके योगसे स्पर्शतन्मात्र हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायुकी उत्पत्ति हुई ॥ 32 ॥ अत्यन्त बलवान् वायुने आकाशके सहित विकृत होकर रूपतन्मात्र की रचना की और उससे संसारका प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ ।। 33 ।। फिर परमात्माकी दृष्टि पड़नेपर वायुयुक्त तेजने काल, माया और चिदंशके योगसे विकृत होकर रसतन्मात्रके कार्य जलको उत्पन्न किया ॥ 34 ॥ तदनन्तर तेजसे युक्त जलने ब्रह्मका दृष्टिपात होनेपर काल, माया और चिदंशके योगसे गन्धगुणमयी पृथ्वीको उत्पन्न किया ।। 35 ।। विदुरजी ! इन आकाशादि भूतोंमेंसे जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतोंके गुण भी अनुगत समझने चाहिये ॥ 36 ॥ ये महत्तत्त्वादिके अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान्‌के ही अंश हैं किन्तु पृथक्-पृथक् रहनेके कारण जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्यमें सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे ।। 37 ।।देवताओंने कहा- देव! हम आपके चरण कमलोंकी वन्दना करते हैं। ये अपनी शरणमें आये हुए • जीवोंका ताप दूर करनेके लिये छत्रके समान है | तथा इनका आश्रय लेनेसे यतिजन अनन्त संसार दुःखको सुगमतासे ही दूर फेंक देते हैं ॥ 38 ॥ जगत्कर्ता जगदीश्वर ! इस संसारमें तापत्रयसे व्याकुल रहनेके कारण जीवोंको जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन्! हम आपके चरणोंकी ज्ञानमयी छायाका आश्रय लेते हैं ॥ 39 ॥ मुनिजन एकान्त स्थानमें रहकर आपके मुखकमलका आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियोंके द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजीके उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मोंका हम आश्रय लेते हैं ॥ 40 ॥ हम आपके चरणकमलोंकी उस चौकीका आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादिरूप भक्तिसे परिमार्जित अन्तःकरणमें धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञानके द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ 41 ॥ ईश! आप संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलोंकी शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करनेवाले भक्तजनोंको अभय कर देते हैं ।। 42 ।। जिन पुरुषोंका देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थोंमें अहंता, ममताका दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीरमें (आपके अन्तर्यामीरूपसे) रहनेपर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दोंको हम भजते हैं ॥ 43 ॥ परम यशस्वी परमेश्वर ! इन्द्रियोंके विषयाभिमुख रहनेके कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यासकी शोभाके विशेषज्ञ भक्तजनोंका दर्शन नहीं कर पाते; इसीसे वे आपके चरणोंसे दूर रहते हैं ॥ 44 ॥ देव! आपके कथामृतका पान करनेसे उमड़ी हुई भक्तिके कारण जिनका अन्तः करण निर्मल हो गया है, वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है-ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधामको चले जाते हैं । 45 ।।दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधिके बलसे आपकी बलवती मायाको जीतकर आपमें ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है; किन्तु आपकी सेवाके मार्गमें कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ 46 ॥

आदिदेव ! आपने सृष्टि रचनाको इच्छासे हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये विभिन्न स्वभाववाले होनेके कारण हम आपसमै मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडाके साधनरूप ब्रह्माण्डकी रचना करके उसे आपको समर्पण करनेमें असमर्थ हो रहे हैं ॥ 47 ॥ अतः जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आपको सब प्रकारके भोग समयपर समर्पण कर सके और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यताके अनुसार अन्न ग्रहण कर सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकारको विवाधाओंसे दूर रहकर हम और आप दोनोंको भोग समर्पण करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई उपाय कीजिये ॥ 48 ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्गके सहित हम देवताओंके आदि कारण हैं। देव! पहले आप अजन्माहीने सत्त्वादि गुण और जन्मादि कमी कारणरूपा गायाशक्तिमें चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ 49 ॥ परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्यके लिये उत्पन्न हुए हैं, उसके सम्बन्धमें हम क्या करे ? देव ! हमपर आप ही अनुग्रह करनेवाले हैं। इसलिये ब्रह्माण्डरचना के लिये आप हमें क्रियाशक्तिके सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ 50 ॥

अध्याय 6 विराट् शरीरकी उत्पत्ति

मैत्रेय ऋषिने कहा— सर्वशक्तिमान् भगवान्ने जब देखा कि आपसमें संगठित न होनेके कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व रचनाके कार्यमें असमर्थ हो रही हैं, तब वे कालशक्तिको स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा और मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ – इन तेईस तत्त्वोंके समुदायमें प्रविष्ट हो गये ॥ 1-2 ॥ उनमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवोंके सोये हुए अदृष्टको जात् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्त्वसमूहको अपनी क्रियाशक्तिके द्वारा आपसमें मिला दिया || 3 || इस प्रकार जब भगवान्‌ने अदृष्टको कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्वोंके समूहने भगवान्‌की प्रेरणासे अपने अंशोंद्वारा अधिपुरुष विराट्को उत्पन्न किया ॥ 4॥ अर्थात् जब भगवान्‌ने अंशरूपसे अपने उस शरीरमें प्रवेश किया, तब वह विश्वरचना करनेवाला महत्तत्त्वादिका समुदाय एक-दूसरेसे मिलकर परिणामको प्राप्त हुआ यह तत्त्वोंका परिणाम ही विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है ॥ 5 ॥ जलके भीतर जो अण्डरूप आश्रयस्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवोंको साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षोंतक रहा ॥ 6 ॥ वह विश्वरचना करनेवाले तत्वोंका गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्तिसे सम्पन्न था। इन शक्तियोंसे उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (हृदयरूप), दस (प्राणरूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये ॥ 7 ॥ यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होनेके कारण समस्त जीवोंका आत्मा, जीवरूप होनेके कारण परमात्माका अंश और प्रथम अभिव्यक्त होनेके कारण भगवान्‌का आदि-अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसीमें प्रकाशित होता है ॥ 8 ॥ यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैवरूपसे तीन प्रकारका, प्राणरूपसे दस प्रकारका और हृदयरूपसे एक प्रकारका है ॥ 9 ॥

फिर विश्वकी रचना करनेवाले महत्तत्त्वादिके अधिपति श्रीभगवान्ने उनकी प्रार्थनाको स्मरण कर उनकी वृत्तियोंको जगानेके लिये अपने चेतनरूप तेजसे उस विराट् पुरुषको प्रकाशित किया, उसे जगाया ॥ 10 ॥ उसके जाग्रत होते ही देवताओंके लिये कितने स्थान प्रकट हुए—यह मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ 11 ॥ विराट् पुरुषके पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अनि अपने अंश वागिन्द्रियके समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है ॥ 12 फिर विराट्पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रियके | सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता है ॥ 13 ॥इसके पश्चात् उस विराट् पुरुषके नथुने प्रकट हुए उनमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रियके सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है ।। 14 ।। इसी प्रकार जब उस विराट् देहमें आँखें प्रकट हुई, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रियके सहित लोकपति सूर्यने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रियसे पुरुषको विविध रूपोंका ज्ञान होता है ।। 15 ।। फिर उस विराट् विग्रहमें त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रियके सहित वायु स्थित हुआ, जिस त्वगिन्द्रियसे जीव स्पर्शका अनुभव करता है ।। 16 ।। जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उनमें अपने अंश श्रवणेन्द्रियके सहित दिशाओंने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रियजीवको शब्दका ज्ञान होता है ।। 17 ।। फिर विराट् शरीरमें चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमोंके सहित ओषधियाँ स्थित हुई, जिन रोमोंसे जीव खुजली आदिका अनुभव करता है ।। 18 ।। अब उसके लिङ्ग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रयमें प्रजापतिने अपने अंश वीर्यके सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्दका अनुभव करता है ।। 19 । फिर विराट् पुरुषके गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्रने अपने अंश पायु-इन्द्रियके सहित प्रवेश किया, इससे जीव मलत्याग करता है ।। 20 ।। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए उनमें अपनी ग्रहण त्यागरूपा शक्तिके सहित देवराज इन्द्रने प्रवेश किया, इस शक्तिसे जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है ॥ 21 ॥ जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गतिके सहित लोकेश्वर विष्णुने प्रवेश किया – इस गति शक्तिद्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थानपर | पहुँचता है || 22 | फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थानमें अपने अंश बुद्धिशक्तिके साथ वाक्पति ब्रह्माने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्तिसे जीव ज्ञातव्य विषयोंको जान सकता है॥ 23 ॥ फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मनके सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्तिके द्वारा जीव सङ्कल्प-विकल्पादिरूप विकारोंको प्राप्त होता है ॥ 24 ॥ तत्पश्चात् विराट् पुरुषमें अहङ्कार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रयमें क्रियाशक्तिसहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्यको स्वीकार करता है ।। 25 ।। अब इसमें चित प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्तिके सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्तिसे जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है ।। 26 ।।इस विराट् पुरुषके सिरसे स्वर्गलोक, पैरोंसे पृथ्वी और नाभिसे अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्त्व, रज और तम — इन तीन गुणोंके परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं ॥ 27 ॥ इनमें देवतालोग सत्त्वगुणकी अधिकताके कारण स्वर्गलोकमें, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुणकी प्रधानताके कारण पृथ्वीमें तथा तमोगुणी स्वभाववाले होनेसे रुद्रके पार्षदगण (भूत, प्रेत आदि) दोनोंके बीच में स्थित भगवान्के नाभिस्थानीय अन्तरिक्षलोकमें रहते हैं ।। 28-29 ।।

विदुरजी ! वेद और ब्राह्मण भगवान्‌के मुखसे प्रकट हुए। मुखसे प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णोंम श्रेष्ठ और सबका गुरु है ॥ 30 ॥ उनकी भुजाओंसे क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करनेवाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान्‌का अंश होनेके कारण जन्म लेकर सब वर्णोंकी चोर आदिके उपद्रवोंसे रक्षा करता है ॥ 31 ॥ भगवान्‌की दोनों जाँघोंसे सब लोगोंका निर्वाह करनेवाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न और उन्होंसे वैश्य वर्णका भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्तिसे सब जीवोंकी जीविका चलाता है ।। 32 ।। फिर सब धर्मोकी सिद्धिके लिये भगवान्के चरणोंसे सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हींसे पहले-पहल उस वृत्तिका अधिकारी शूद्रवर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्तिसे ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं * ॥ 33 ॥ ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियोंके सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरिका अपने-अपने धर्मोसे चित्तशुद्धिके लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं ॥ 34 ॥ विदुरजी ! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभावशक्तिसे युक्त भगवान्‌की योगमायाके प्रभावको प्रकट करनेवाला है। इसके स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन करनेका कौन साहस कर सकता है ॥ 35 ॥ तथापि प्यारे विदुरजी ! अन्य व्यावहारिक चर्चाओंसे अपवित्र हुई अपनी वाणीको पवित्र करनेके लिये, जैसी मेरी बुद्धि है। और जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना है वैसा, श्रीहरिका सुयश | वर्णन करता हूँ ॥ 36 ॥ महापुरुषोंका मत है किपुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरिके गुणोंका गान करना ही मनुष्योंकी वाणीका तथा विद्वानोंके मुखसे भगवत्कथामृतका पान करना ही उनके कानोंका सबसे बड़ा लाभ है ॥ 37 ॥ वत्स ! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्माजीने एक हजार दिव्य वर्षोंतक अपनी योगपरिपक्व बुद्धिसे विचार किया; तो भी क्या वे भगवान्की अमित महिमाका पार पा | सके ? ॥ 38 ॥ अतः भगवान्‌की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देनेवाली है। उसकी चक्करमें डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान् भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है ॥ 39 ॥ जहाँ न पहुँचकर मनके सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पानेमें अहङ्कारके अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन | श्रीभगवान्‌को हम नमस्कार करते हैं ।। 40 ।।

अध्याय 7 विदुरजीके प्रश्न

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- मैत्रेयजीका यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजीने उन्हें अपनी वाणीसे प्रसन्न करते हुए कहा ॥ 1 ॥

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! भगवान् तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीलासे भी गुण और क्रियाका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ॥ 2 ॥ बालकमें तो कामना और दूसरोंके साथ खेलनेकी इच्छा रहती है, इसीसे वह खेलनेके लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान् तो स्वतः नित्यतृप्त पूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडाके लिये भी क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ 3 ॥ भगवान्‌ने अपनी गुणमयी | मायासे जगत्की रचना की है, उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसीसे संहार भी करेंगे ॥ 4 ॥ जिनके ज्ञानका देश, काल अथवा अवस्थासे, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्तसे भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ 5 ॥एकमात्र ये भगवान् ही समस्त क्षेत्रमें उनके साक्षीरूपसे स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित देशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ 6 ॥ भगवन्! इस अज्ञानसङ्कटमें पड़कर मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोहको कृपा करके दूर कीजिये ॥ 7 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-तत्त्वजिज्ञासु विदुरजीकी यह प्रेरणा प्राप्तकर अहङ्कारहीन श्रीमैत्रेयजीने भगवान्‌का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ 8 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धनको प्राप्त हो—– यह बात युत्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान्की माया है ॥ 9 ॥ जिस प्रकार स्वप्न देखनेवाले पुरुषको अपना सिर कटना आदि व्यापार न होनेपर भी अज्ञानके कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीवको बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ 10 ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वरमें इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिविम्वमे न होनेपर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीवमें हो देहके मिथ्या धर्मोकी प्रतीति होती है, परमात्मामें नहीं ॥ 11 ॥ निष्कामभावसे धर्मोका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्तियोगके द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ 12 ॥ जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयोंसे हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरिमें निश्चलभावसे स्थित हो जाती हैं, उस समय | गाढ़ निद्रामें सोये हुए मनुष्यके समान जीवके राग-द्वेषादि सारे | फ्रेश सर्वथा नष्ट हो जाते है ।। 13 ।। श्रीकृष्णके गुणोंका वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशिको शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदयमें उनके चरणकमलकी के सेवनका प्रेम जग पड़े. तब तो कहना ही क्या है ?।। 14 ।।।

विदुरजीने कहा- भगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान्की स्वतन्त्रता और जीवकी परतन्त्रता – दोनों हो विषयोंमें खूब प्रवेश कर रहा है ।। 15 ।। विद्वन्! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीवको जो क्लेशादिकी प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान‌को माया हो है। वह फ्रेशमिया एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्वका मूल कारण ही मायाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।। 16 ।।इस संसारमें दो ही प्रकारके लोग सुखी हैं—या तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त ) हैं या जो बुद्धि आदिसे अतीत श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर चुके हैं। बीचकी श्रेणीके संशयापन्न लोग तो दुःख ही भोगते रहते हैं ॥ 17 ॥ भगवन्! आपकी कृपासे मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुतः हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं। अब मैं आपके चरणोंकी सेवाके प्रभावसे उस प्रतीतिको भी हटा दूँगा ।। 18 ।। इन श्रीचरणोंकी सेवासे नित्यसिद्ध भगवान् श्रीमधुसूदनके चरणकमलोंमें उत्कट प्रेम और आनन्दकी वृद्धि होती है, जो आवागमनकी यन्त्रणाका नाश कर देती है ।। 19 ।। महात्मालोग भगवत्प्राप्तिके साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरिके गुणोंका गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुषको उनकी सेवाका अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ll20ll

भगवन्! आपने कहा कि सृष्टिके प्रारम्भमें भगवान्‌ने क्रमशः महदादि तत्त्व और उनके विकारोंको रचकर फिर उनके अंशोंसे विराट्को उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गये ॥ 21 ॥ उन विराट्के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हीं को वेद आदिपुरुष कहते हैं उन्हींमें ये सब लोक विस्तृतरूपसे स्थित है।। 22 ।। उन्होंने इन्द्रिय विषय और इन्द्रियाभिमानी देवताओंके सहित दस प्रकारके प्राणोंका- जो इन्द्रियबल मनोबल और शारीरिक बलरूपसे तीन प्रकारके हैं—आपने वर्णन किया है और उन्हींसे ब्राह्मणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियोंका वर्णन सुनाइये – जिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियोंके सहित तरह-तरहकी प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर गया ।। 23-24 ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियोंका भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियोंको उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्यन्तरोके अधिपति मनुओ की भी किस क्रमसे रचना की ? ॥ 25 ॥ मैत्रेयजी ! उन मनुओंके वंश और वंशधर राजाओंके चरित्रोंका पृथ्वीके ऊपर और नीचेके लोकों तथा भूलोकके विस्तार और स्थितिका भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्वादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदन, अण्डज और उद्भिज ये चार प्रकारके प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए । 26-27 ।। श्रीहरिने सृष्टि करते समय जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूपसे जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ 28 ॥ वेष, आचरण और स्वभावके अनुसार वर्णाश्रमका विभाग, ऋषियोंके जन्म-कर्मादि, वेदोंका विभाग, यज्ञोंका विस्तार, योगका मार्ग,ज्ञानमार्ग और उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान्‌के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्डमागेकि प्रचारसे होनेवाली विषमता, नीचवर्णके पुरुषसे उच्चवर्णकी स्त्रीमें होनेवाली सन्तानोंके प्रकार | तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मकि कारण जीवकी जैसी और जितनी गतियाँ होती हैं, वे सब हमें सुनाइये ।। 29-31

ब्रह्मन् ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके परस्पर अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्रश्रवणकी विधियोका श्राद्धकी विधिका पितृगणोंकी सृष्टिका तथा कालचक्रमे ग्रह, नक्षत्र और तारागणकी स्थितिका भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ 32-33 ।। दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मोका क्या फल हैं ? प्रवास और आपत्तिके समय मनुष्यका क्या धर्म होता है ? ।। 34 ।। निष्पाप मैत्रेयजी धर्मके मूल कारण श्रीजनार्दनभगवान् किस आचरणसे सन्तुष्ट होते हैं और किनपर अनुग्रह करते है, यह वर्णन कीजिये ।। 35 ।। द्विजवर दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रोंको बिना पूछे भी उनके हितकी बात बतला दिया करते हैं ॥ 36 ॥ भगवन् ! उन महदादि तत्त्वोंका प्रलय कितने प्रकारका है ? तथा जब भगवान् योगनिद्रामे शयन करते हैं, तब उनमेंसे कौन-कौन तत्त्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ 37 ॥ जीवका तत्त्व, परमेश्वरका स्वरूप, उपनिषत् प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्यका पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ 38 ॥ पवित्रात्मन् विद्वानोंने उस ज्ञानकी प्राप्तिके क्या-क्या उपाय बतलाये हैं? क्योंकि मनुष्यों को ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्यकी प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ।। 39 ।। ब्रह्मन्। माया-मोहके कारण मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अझ हूँ, आप मेरे परम सुहद है अतः श्रीहरिलीलाका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छासे मैंने जो प्रश्न किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये 40 पुण्यमय मैत्रेयजी! भगवत्तत्त्वके उपदेशद्वारा जीवको जन्म-मृत्युसे छुड़ाकर उसे अभय कर देनेमें जो पुण्य होता है, समस्त वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादिसे होनेवाला पुण्य उस पुण्यके | सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकता ॥ 41 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- – राजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजीने मुनिवर मैत्रेयजीसे इस प्रकार पुराणविषयक प्रश्न किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये जानेके कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे ॥ 42 ॥

अध्याय 8 ब्रह्माजीकी उत्पत्ति

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी !आपभगवद्भक्तोंमें प्रधान लोकपाल यमराज ही है, आपके | पूरुवंशमें जन्म लेनेके कारण वह वंश साधुपुरुषोंके लिये भी सेव्य हो गया है। धन्य हैं! आप निरन्तर पद-पदपर श्रीहरिको कीर्तिमयी मालाको नित्य नूतन बना रहे हैं ॥ 1 ॥ अब मैं, क्षुद्र विषय-सुखकी कामनासे महान् दुःखको मोल लेनेवाले पुरुषोंकी दुःखनिवृत्तिके लिये, श्रीमद्भागवतपुराण प्रारम्भ करता हूँ-जिसे स्वयं श्रीसङ्कर्षणभगवान् सनकादि ऋषियों को सुनाया था ॥ 2 ॥

अखण्ड ज्ञानसम्पन्न आदिदेव भगवान् सङ्कर्षण | पाताललोकमें विराजमान थे। सनत्कुमार आदि ऋषियोंने परम पुरुषोत्तम ब्रह्मका तस्य जानने के लिये उनसे प्र किया ॥ 3 ॥ उस समय शेषजी अपने आश्रयस्वरूप उन परमात्माकी मानसिक पूजा कर रहे थे, जिनका वेद वासुदेवके नामसे निरूपण करते हैं। उनके कमलकोश सरीखे नेत्र बंद थे। प्रश्न करनेपर सनत्कुमारादि ज्ञानीजनोंके आनन्दके लिये उन्होंने अधखुले नेत्रोंसे देखा ॥ 4 ॥

सनत्कुमार आदि ऋषियोंने मन्दाकिनी के जलसे भीगे अपने जटासमूहसे उनके चरणोंकी चौकीके रूपमें स्थित कमलका स्पर्श किया, जिसकी नागराजकुमारियाँ अभिलषित वरकी प्राप्तिके लिये प्रेमपूर्वक अनेकों उपहार सामग्रियोंसे पूजा करती हैं ॥ 5 ॥सनत्कुमारादि उनकी लीलाके मर्मज्ञ है। उन्होंने बार-बार प्रेम गद्गद वाणीसे उनकी लीलाका गान किया। उस समय शेष भगवान्‌के उठे हुए सहस्रों फण किरीटोंकी सहस्र सहस्र श्रेष्ठ मणियोंकी छिटकती हुई रश्मियोंसे जगमगा रहे थे ॥ 6 ॥ भगवान् सङ्कर्षणने निवृत्तिपरायण सनत्कुमारजीको यह भागवत सुनाया था—ऐसा प्रसिद्ध है। सनत्कुमारजीने फिर इसे परम व्रतशील सांख्यायन मुनिको उनके प्रश्न करनेपर सुनाया ॥ 7 ॥ परमहंसोंमें प्रधान श्रीसांख्यायनजीको जब भगवान्‌की विभूतियोंका वर्णन करनेकी इच्छा हुई, तब उन्होंने इसे अपने अनुगत शिष्य, हमारे गुरु श्रीपराशरजीको और बृहस्पतिजीको सुनाया ॥ 8 ॥ | इसके पश्चात् परम दयालु पराशरजीने पुलस्त्य मुनिके कहनेसे वह आदिपुराण मुझसे कहा। वत्स! श्रद्धालु और सदा अनुगत देखकर अब वहीं पुराण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥ 9 ॥

सृष्टिके पूर्व यह सम्पूर्ण विश्व जलमें डूबा हुआ था। उस समय एकमात्र श्रीनारायणदेव शेषशय्यापर पौठे हुए थे वे अपनी ज्ञानशक्तिको अक्षुण्ण रखते हुए ही, योगनिद्राका आश्रय ले अपने नेत्र मूंदे हुए थे। सृष्टिकर्मसे अवकाश लेकर आत्मानन्दमें मन थे। उनमें किसी भी क्रियाका उन्मेष नहीं था ॥ 10 ॥ जिस प्रकार अग्नि अपनी दाहिका आदि शक्तियोंको छिपाये हुए कालमें व्याप्त रहता है, उसी प्रकार श्रीभगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंके सूक्ष्म शरीरोंको अपने शरीरमें लीन करके अपने आधारभूत उस जलमें शयन किया, उन्हें सृष्टिकाल आनेपर पुनः जगानेके लिये केवल कालशक्तिको कालशक्तिको जाग्रत् रखा ।। 11 ।। इस प्रकार अपनी स्वरूपभूता चिच्छक्तिके साथ एक सहस्र चतुर्युगपर्यन्त जलमें शयन करनेके अनन्तर जब उन्होंक द्वारा नियुक्त उनकी कालशक्तिने उन्हें जीवोंके कर्मोकी प्रवृत्तिके लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने अपने शरीरमें लीन हुए अनन्त लोक देखे ॥ 12 ॥जिस समय भगवान्‌को दृष्टि अपने निहित लिङ्गशरीरादि सूक्ष्मतत्त्वपर पड़ी, तब वह रजोगुणसे क्षुभित होकर सृष्टिरचनाके निमित्त उनके नाभिदेशसे बाहर निकला ।। 13 ।। कर्मशक्तिको जात् करनेवाले कालके द्वारा विष्णुभगवान्की नाभिसे प्रकट हुआ वह सूक्ष्मतत्त्व कमलकोशके रूपमें सहसा ऊपर उठा और उसने सूर्यके समान अपने तेजसे उस अपार जलराशिको देदीप्यमान कर दिया ।। 14 ।। सम्पूर्ण गुणोंको प्रकाशित करनेवाले उस सर्वलोकमय कमलमे वे विष्णुभगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे प्रविष्ट हो गये। तब उसमेंसे बिना पढ़ाये हो स्वयं सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाले साक्षात् वेदमूर्ति श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए, जिन्हें लोग स्वयम्भू कहते | हैं ।। 15 ।। उस कमलको कर्णिका (गद्दी) में बैठे हुए ब्रह्माजीको जब कोई लोक दिखायी नहीं दिया, तब वे आँखें फाड़कर आकाशमें चारों ओर गर्दन घुमाकर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओंमें चार मुख हो गये ।। 16 ।। उस समय प्रलयकालीन पवनके थपेड़ोंसे, उछलती हुई जलकी तरङ्गमालाओंके कारण उस जलराशिसे ऊपर उठे हुए कमलपर विराजमान आदिदेव | ब्रह्माजीको अपना तथा उस लोकतत्त्वरूप कमलका कुछ भी रहस्य न जान पड़ा ।। 17 ।।

वे सोचने लगे, ‘इस कमलकी कर्णिकापर बैठा हुआ मैं कौन हूँ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधारके जलमें कहाँसे उत्पन्न हो गया ? इसके नीचे अवश्य कोई ऐसी वस्तु होनी चाहिये, जिसके आधारपर यह स्थित है’ ।। 18 ।।

ऐसा सोचकर वे उस कमलकी नालके सूक्ष्म छिद्रोंमें होकर उस जलमें घुसे। किन्तु उस नलके आधारको खोजते खोजते नाभिदेशके समीप पहुँच जानेपर भी वे उसे पा न सके ।। 19 । विदुरजी उस अपार अन्धकारमेंअपने उत्पत्ति-स्थानको खोजते खोजते ब्रह्माजीको बहुत काल बीत गया। यह काल ही भगवान्‌का चक्र है, जो प्राणियोंको भयभीत (करता हुआ उनकी आयुको क्षीण) करता रहता है ॥ 20 ॥ अन्तमें विफलमनोरथ हो वे वहाँसे लौट आये और पुनः अपने आधारभूत कमलपर बैठकर धीरे-धीरे प्राणवायुको जीतकर चित्तको निःसङ्कल्प किया और समाधिमें स्थित हो गये ॥ 21 ॥ इस प्रकार पुरुषकी पूर्ण आयुके बराबर कालतक (अर्थात् दिव्य सौ वर्षतक) अच्छी तरह योगाभ्यास करनेपर ब्रह्माजीको ज्ञान प्राप्त हुआ; तब उन्होंने अपने उस अधिष्ठानको, जिसे वे पहले खोजनेपर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अन्तःकरणमें प्रकाशित होते देखा ॥ 22 ॥ उन्होंने देखा कि उस प्रलयकालीन जलमें शेषजीके कमलनालसदृश गौर और विशाल विग्रहकी शय्यापर पुरुषोत्तमभगवान् अकेले ही लेटे हुए हैं। शेषजीके दस हजार फण छत्रके समान फैले हुए हैं। उनके मस्तकोंपर किरीट शोभायमान हैं, उनमें जो मणियाँ जड़ी हुई हैं, उनकी कान्तिसे चारों ओरका अन्धकार दूर हो गया है ।। 23 ।। वे अपने श्याम | शरीरकी आभासे मरकतमणिके पर्वतकी शोभाको लज्जित कर रहे हैं। उनकी कमरका पीतपट पर्वतके प्रान्त देशमें छाये हुए सायंकालके पीले-पीले चमकीले मेघोंकी | आभाको मलिन कर रहा है, सिरपर सुशोभित सुवर्णमुकुट सुवर्णमय शिखरोंका मान मर्दन कर रहा है। उनकी वनमाला पर्वतके रत्न, जलप्रपात, ओषधि और पुष्पोंकी शोभाको परास्त कर रही है तथा उनके भुजदण्ड वेणुदण्डका और चरण वृक्षोंका तिरस्कार करते हैं ॥ 24 ॥ उनका वह श्रीविग्रह अपने परिमाणसे लंबाई-चौड़ाई में त्रिलोकीका संग्रह किये हुए है। वह अपनी शोभासे विचित्र एवं दिव्य वस्त्राभूषणोंकी शोभाको सुशोभित करनेवाला होनेपर भी पीताम्बर आदि अपनी वेष-भूषासे सुसज्जित है ॥ 25 ॥ अपनी-अपनी अभिलाषाको पूर्तिके लिये भिन्न-भिन्न मार्गों से पूजा करनेवाले भक्तजनोंको कृपापूर्वक अपने भक्तवाञ्छाकल्पतरु चरणकमलोंका दर्शन दे रहे हैं, जिनके सुन्दर अंगुलिदल नखचन्द्रकी चन्द्रिकासे अलग-अलग स्पष्ट चमकते रहते हैं ।। 26 ।।| सुन्दर नासिका, अनुग्रहवर्षी भौहें, कानोंमें झिलमिलाते हुए कुण्डलोंकी शोभा, बिम्बाफलके समान लाल-लाल अधरोंकी कान्ति एवं लोकार्तिहारी मुसकानसे युक्त | मुखारविन्दके द्वारा वे अपने उपासकोंका सम्मान | अभिनन्दन कर रहे हैं ॥ 27 ॥ वत्स ! उनके नितम्बदेशमें कदम्बकुसुमकी केसरके समान पीतवस्त्र और सुवर्णमयी मेखला सुशोभित है तथा वक्षःस्थलमें अमूल्य हार और सुनहरी रेखावाले श्रीवत्सचिह्नकी अपूर्व शोभा हो रही है ॥ 28 ॥ वे अव्यक्तमूल चन्दनवृक्षके समान हैं। | महामूल्य केयूर और उत्तम – उत्तम मणियोंसे सुशोभित | उनके विशाल भुजदण्ड ही मानो उसकी सहस्रों शाखाएँ हैं और चन्दनके वृक्षोंमें जैसे बड़े-बड़े साँप लिपटे रहते हैं, उसी प्रकार उनके कंधोंको शेषजीके फणोंने लपेट रखा है ।। 29 । वे नागराज अनन्तके बन्धु श्रीनारायण ऐसे जान पड़ते हैं, मानो कोई जलसे घिरे हुए पर्वतराज ही हों। पर्वतपर जैसे अनेकों जीव रहते हैं, उसी प्रकार वे सम्पूर्ण चराचरके आश्रय हैं; शेषजीके फणोंपर जो सहस्रों मुकुट हैं वे ही मानो उस पर्वतके सुवर्णमण्डित शिखर हैं तथा वक्षःस्थलमें विराजमान कौस्तुभमणि उसके गर्भसे प्रकट हुआ रत्न है ॥ 30 प्रभुके गलेमें वेदरूप भौरोंसे गुञ्जायमान अपनी कीर्तिमयी वनमाला विराज रही है; सूर्य, चन्द्र, वायु और अग्नि आदि देवताओंकी भी आपतक पहुँच नहीं है तथा त्रिभुवनमें बेरोक-टोक विचरण करनेवाले सुदर्शनचक्रादि आयुध भी प्रभुके आस-पास ही घूमते रहते हैं, उनके लिये भी आप अत्यन्त दुर्लभ हैं ॥ 31 ॥

तब विश्वरचनाकी इच्छावाले लोकविधाता ब्रह्माजीने भगवान्‌के नाभिसरोवरसे प्रकट हुआ वह कमल, जल, आकाश, वायु और अपना शरीर—केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, इनके सिवा और कुछ उन्हें दिखायी न दिया ।। 32 ।। रजोगुणसे व्याप्त ब्रह्माजी प्रजाकी रचना करना चाहते थे। जब उन्होंने सृष्टिके कारणरूप केवल ये पाँच ही पदार्थ देखे, तब लोकरचनाके लिये उत्सुक होनेके कारण वे अचिन्त्यगति श्रीहरिमें चित्त लगाकर उन परमपूजनीय प्रभुकी स्तुति करने लगे ।। 33 ।।

अध्याय 9 ब्रह्माजीद्वारा भगवान्‌की स्तुति

ब्रह्माजीने कहा- प्रभो ! आज बहुत समयके बाद मैं आपको जान सका हूँ। अहो ! कैसे दुर्भाग्यकी बात है कि देहधारी जीव आपके स्वरूपको नहीं जान पाते। भगवन्! आपके सिवा और कोई वस्तु नहीं है। जो वस्तु प्रतीत होती है, वह भी स्वरूपतः सत्य नहीं है, क्योंकि मायाके गुणोंके क्षुभित होनेके कारण केवल आप ही अनेकों रूपोंमें प्रतीत हो रहे हैं ॥ 1 ॥ देव ! आपकी चित् शक्तिके प्रकाशित रहनेके कारण अज्ञान आपसे सदा ही दूर रहता है। आपका यह रूप, जिसके नाभि-कमलसे मैं प्रकट हुआ हूँ, सैकड़ों अवतारोंका मूल कारण है। इसे आपने सत्पुरुषोंपर कृपया करनेके लिये ही पहले-पहल प्रकट किया है ॥ 2 ॥ परमात्मन् ! आपका जो आनन्दमात्र, भेदरहित, अखण्ड तेजोमय स्वरूप है, उसे मैं इससे भिन नहीं समझता। इसलिये मैंने विश्वकी रचना करनेवाले होनेपर भी विश्वातीत आपके इस अद्वितीय रूपकी ही शरण ली है। यहाँ सम्पूर्ण भूत और इन्द्रियोंका भी अधिष्ठान है ॥ 3 ॥ हे विश्वकल्याणमय! मैं आपका उपासक हूँ, आपने मेरे हितके लिये ही मुझे ध्यानमें अपना यह रूप दिखलाया है। जो पापात्मा विषयासक्त जीव हैं, वे ही इसका अनादर करते हैं। मैं तो आपको इसी रूपमें बार बार नमस्कार करता हूँ ।। 4 ॥ मेरे स्वामी ! जो लोग वेदरूप वायुसे लायी हुई आपके चरणरूप कमलकोशको गन्धको अपने कर्णपुटोंसे ग्रहण करते हैं, उन अपने भक्तजनोंके हृदय कमलसे आप कभी दूर नहीं होते; क्योंकि वे पराभक्तिरूप डोरीसे आपके पादपद्मोंको बाँध लेते हैं ॥ 5 ॥ जबतक पुरुष आपके अभयप्रद चरणारविन्दोंका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे धन, घर और बन्धुजनोंके कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, लालसा, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे मैं मेरेपनका दुराग्रह रहता है, जो दुःखका एकमात्र कारण है ।। 6 ।। जो लोग सब प्रकारके अमङ्गलोको नष्ट करनेवाले आपके श्रवण-कीर्तनादि सो इन्द्रियोंको हटाकर लेशमात्र विषय-सुखके लिये दीन और मन-ही-मन लालायित होकर निरन्तर दुष्कमोंमें लगे । रहते हैं, उन बेचारोकी बुद्धि देवने हर ली है ॥ 7 ॥अच्युत। उरुक्रम इस प्रजाको भूख-प्यास, वात, पित्त, कफ, सर्दी, गर्मी, हवा और वर्षासे, परस्पर एक-दूसरेसे तथा कामानि और दुःसह क्रोधसे बार-बार कष्ट उठाते देखकर मेरा मन बड़ा वित्र होता है॥ 8 ॥ स्वामिन् जबतक मनुष्य इन्द्रिय और विषयरूपी मायाके प्रभावसे आपसे अपनेको भिन्न देखता है, | तबतक उसके लिये इस संसारचक्रकी निवृत्ति नहीं होती। यद्यपि यह मिथ्या है, तथापि कर्मफल भोगका क्षेत्र होनेके कारण उसे नाना प्रकारके दुःखोंमें डालता रहता है ॥ 9 ॥

देव! औरोंकी तो बात ही क्या—जो साक्षात् मुनि हैं, वे भी यदि आपके कथाप्रसङ्गसे विमुख रहते हैं तो उन्हें संसारमें फँसना पड़ता है। वे दिनमें अनेक प्रकारके व्यापारोंके कारण विक्षिप्तचित्त रहते हैं, रात्रिमें निद्रामें अचेत पड़े रहते हैं; उस समय भी तरह-तरहके मनोरथोंके कारण क्षण-क्षणमें उनकी नींद टूटती रहती है तथा दैववश उनकी अर्थसिद्धि सब उद्योग भी विफल होते रहते हैं ॥ 10 नाथ! आपका मार्ग केवल गुण-श्रवणसे ही जाना जाता है। आप निश्चय ही मनुष्योंके भक्तियोगके द्वारा परिशुद्ध हुए हृदयकमलमें निवास करते हैं। पुण्यश्लोक प्रभी आपके भक्तजन जिस-जिस भावनासे आपका चिन्तन करते हैं, उन साधु पुरुषोंपर अनुग्रह करनेके लिये आप वही वही रूप धारण कर लेते हैं ॥ 11 ॥ भगवन् ! है। आप एक हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तःकरणोंमें स्थित उनके परम हितकारी अन्तरात्मा है। इसलिये यदि देवतालोग भी हृदयमें तरह-तरहकी कामनाएँ रखकर भाँति-भाँतिकी विपुल सामप्रियोंसे आपका पूजन करते हैं, तो उससे आप उतने प्रसन्न नहीं होते जितने सब प्राणियोंपर दया करनेसे होते हैं। किन्तु वह सर्वभूतदया असत् पुरुषोंको अत्यन्त दुर्लभ है ॥ 12 ॥ जो कर्म आपको अर्पण कर दिया जाता है, उसका कभी नाश नहीं होता- यह अक्षय हो जाता है। अतः नाना प्रकारके कर्मयज्ञ, दान, कठिन तपस्या और प्रतादिके द्वारा आपकी प्रसन्नता प्राप्त करना ही मनुष्यका सबसे बड़ा कर्मफल है, क्योंकि आपकी प्रसन्नता होनेपर ऐसा कौन फल है जो सुलभ नहीं हो जाता ।। 13 ।। आप सर्वदा अपने खरूपके प्रकाशसे ही प्राणियोंके भेद-भ्रमरूप अन्धकारका नाश करते रहते हैं तथा ज्ञानके अधिष्ठान साक्षात् परमपुरुष है, मैं आपको नमस्कार करता है। संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारके निमित्तसे जो मायाकी लीला होती है, वह आपका ही खेल है, अतः आप परमेश्वरको में बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। 14 ।।जो लोग प्राणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कमको सूचित करनेवाले देवकीनन्दन, जर्नादन, कंसनिकन्दन आदि नामोंका विवश होकर भी उच्चारण करते हैं, वे अनेकों जयों के पापोंसे तत्काल छूटकर मायादि आवरणोंसे रहित ब्रह्मपद प्राप्त करते हैं। आप नित्य अजन्मा हैं, मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥ 15 ॥ भगवन् ! इस विश्ववृक्षके रूपमें आप ही विराजमान है। आप ही अपनी मूलप्रकृतिको स्वीकार करके जगत्‌को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये मेरे, अपने और महादेवजीके रूपमें तीन प्रधान शाखाओंमें विभक्त हुए हैं और फिर प्रजापति एवं मनु आदि शाखा प्रशाखाओंके रूपमें फैलकर बहुत विस्तृत हो गये हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 16 ॥ भगवन्! आपने अपनी आराधनाको ही लोकोंके लिये कल्याणकारी स्वधर्म बताया है, किन्तु वे इस ओरसे उदासीन रहकर सर्वदा विपरीत (निषिद्ध) कर्मो में लगे रहते हैं। ऐसी प्रमादकी अवस्था में पड़े हुए इन जीवों की जीवन- आशाको जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघ्रतासे काटता रहता है, वह बलवान् काल भी आपका ही रूप है; मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ 17 ॥ यद्यपि मैं सत्यलोकका अधिष्ठाता हूँ, जो दो परार्द्धपर्यन्त रहनेवाला और समस्त लोकोंका वन्दनीय है, तो भी आपके उस कालरूपसे डरता रहता हूँ। उससे बचने और आपको प्राप्त करनेके लिये ही मैंने बहुत समयतक तपस्या की है। आप ही अधियज्ञरूपसे मेरी इस तपस्याके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 18 ॥ आप पूर्णकाम है, आपको किसी विषयसुखको इच्छा नहीं है, तो भी आपने अपनी बनायी हुई धर्ममर्यादाकी रक्षा के लिये पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आदि जीवयोनियोंमें अपनी ही इच्छासे शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवानको मेरा नमस्कार है ।। 19 ।। प्रभो! आप अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश- पाँचोमेंसे किसीके भी अधीन नहीं है; तथापि इस समय जो सारे संसारको अपने उदरमें लीनकर भयङ्कर तरङ्गमालाओंसे विक्षुब्ध प्रलयकालीन जलमें अनन्तविग्रहकी कोमल शय्यापर शयन कर रहे हैं, वह पूर्वकल्पकी कर्मपरम्परासे श्रमित हुए जीवोंको विश्राम देनेके लिये ही है 20 आपके नाभिकमलरूप भवन मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूर्ण विश्व आपके उदरमें समाया हुआ है। आपकी कृपासे ही मैं त्रिलोकीको रचनारूप उपकार में प्रवृत्त हुआ । इस समय योगनिद्राका अन्त हो जानेके कारण आपके नेत्र-कमल विकसित हो रहे हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ 21 ॥आप सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र सुहृद और आत्मा है तथा शरणागतोंपर कृपा करनेवाले हैं। अतः अपने जिस ज्ञान और ऐश्वर्यसे आप विश्वको आनन्दित करते हैं, उसीसे मेरी बुद्धिको भी युक्त करें जिससे मैं पूर्वकल्पके समान इस समय भी जगत्की रचना कर सकूँ ॥ 22 ॥ आप भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनी शक्ति लक्ष्मीजीके सहित अनेकों गुणावतार लेकर आप जो-जो अद्भुत कर्म करेंगे, | मेरा यह जगत्की रचना करनेका उद्यम भी उन्हींमेंसे एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे चित्तको प्रेरित करें शक्ति प्रदान करें, जिससे मैं हिरचनाविषयक अभिमानरूप मलसे दूर रह सकूँ ।। 23 ।। प्रभो इस प्रलयकालीन जलमें शयन करते हुए आप अनन्तशक्ति परमपुरुषके नाभि कमलसे मेरा प्रादुर्भाव हुआ है और मैं हूँ भी आपको ही विज्ञानशक्ति अतः इस जगत्के विचित्र रूपका विस्तार करते समय आपकी कृपासे मेरी वेदरूप वाणीका उच्चारण लुप्त न हो 24 आप अपार करुणामय पुराणपुरुष हैं। आप परम प्रेममयी मुसकानके हैं सहित अपने नेत्रकमल खोलिये और शेष शय्यासे उठकर विश्वके उद्भव के लिये अपनी सुमधुर वाणीसे मेरा विषाद दूर कीजिये ।। 25 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार तप, विद्या और समाधिके द्वारा अपने उत्पत्तिस्थान श्रीभगवान्को देखकर तथा अपने मन और वाणीकी शक्ति अनुसार उनकी स्तुति कर थके-से होकर मौन हो गये॥ 26 ॥ श्रीमधुसूदन भगवान् देखा कि ब्रह्माजी इस प्रलयजलराशि बहुत घबराये हुए है तथा लोकरचनाके विषयमें कोई निश्चित विचार न होनेके कारण | उनका चित्त बहुत खिन्न है। तब उनके अभिप्रायको जानकर वे अपनी गम्भीर वाणीसे उनका खेद शान्त करते हुए कहने लगे ।। 27-28 ।।

श्रीभगवान् ने कहा-वेदगर्भ तुम विपादके वशीभूत हो आलस्य न करो, सृष्टिरचनाके उद्यममें तत्पर हो जाओ तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, उसे तो मैं पहले | ही कर चुका हूँ ।। 29 ।। तुम एक बार फिर तप करो और भागवत ज्ञानका अनुष्ठान करो। उनके द्वारा तुम सब लोकोंको स्पष्टतया अपने अन्तःकरणमें देखोगे ॥ 30 ॥फिर भक्तियुक्त और समाहितचित्त होकर तुम सम्पूर्ण लोक और अपने मुझको व्याप्त देखोगे तथा मुझमें सम्पूर्ण लोक और अपने-आपको देखोगे ।। 31 ।। जिस समय जीव काष्ठमें व्याप्त अग्निके समान समस्त भूतोंमें मुझे ही स्थित | देखता है, उसी समय वह अपने अज्ञानरूप मलसे मुक्त हो जाता है ॥ 32 ॥ जब वह अपनेको भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित तथा स्वरूपतः मुझसे अभिन्न देखता है, तब मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ॥ 33 ॥ ब्रह्माजी ! नाना प्रकारके कर्मसंस्कारों के अनुसार अनेक प्रकारकी जीवसृष्टिको रचनेकी इच्छा होनेपर भी तुम्हारा चित्त मोहित नहीं होता, यह मेरी अतिशय कृपाका ही फल है ।। 34 ।। तुम सबसे पहले मन्त्रद्रष्टा हो। प्रजा उत्पन्न करते समय भी तुम्हारा मन मुझमें ही लगा रहता है, इसीसे पापमव रजोगुण तुमको बाँध नहीं पाता 35 ॥ तुम मुझे भूत, इन्द्रिय, गुण और अन्तःकरणसे रहित समझते हो; इससे जान पड़ता है। कि यद्यपि देहधारी जीवोंको मेरा ज्ञान होना बहुत कठिन है, तथापि तुमने मुझे जान लिया है ॥ 36 ॥ ‘मेरा आश्रय कोई है या नहीं इस सन्देहसे तुम कमलनालके द्वारा जलमें उसका मूल खोज रहे थे, सो मैंने तुम्हें अपना यह स्वरूप – अन्तःकरणमें ही दिखलाया है ।। 37 ।।

ब्रह्माजी तुमने जो मेरी कथाओंके वैभवसे युक्त मेरी स्तुति की है और तपस्वामें जो तुम्हारी निष्ठा है, वह भी मेरी ही कृपाका फल है ॥ 38 ॥ लोक-रचनाकी इच्छासे तुमने सगुण प्रतीत होनेपर भी जो निर्गुणरूपसे मेरा वर्णन करते हुए स्तुति की है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ तुम्हारा कल्याण हो ।। 39 । मैं समस्त कामनाओं और मनोरथोंको पूर्ण करनेमें समर्थ हूँ। जो पुरुष नित्यप्रति इस | स्तोत्रद्वारा स्तुति करके मेरा भजन करेगा, उसपर मैं शीघ्र ही प्रसन्न हो जाऊँगा ॥ 40 ॥ तत्त्ववेत्ताओंका मत है कि पूर्त, तप, यज्ञ, दान, योग और समाधि आदि साधनोंसे प्राप्त होनेवाला जो परम कल्याणमय फल है, वह मेरी प्रसन्नता ही है ॥ 41 ॥ विधाता ! मैं आत्माओंका भी आत्मा और स्त्री-पुत्रादि प्रियोंका भी प्रिय हूँ। देहादि भी मेरे ही लिये प्रिय हैं। अतः मुझसे ही प्रेम करना चाहिये ।। 42 ।। ब्रह्माजी ! त्रिलोकीको तथा जो प्रजा इस समय मुझमें लीन है, उसे तुम पूर्वकल्पके समान मुझसे उत्पन्न हुए अपने | सर्ववेदमय स्वरूपसे स्वयं ही रचो ।। 43 ।।श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—प्रकृति और पुरुषके स्वामी कमलनाथ भगवान् सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीको इस प्रकार जगत्की अभिव्यक्ति करवाकर अपने उस नारायणरूपसे अदृश्य हो गये || 44 ॥

अध्याय 10 दस प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्गका जो सूक्ष्मतम अंश है जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जे कार्यरूपको प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओंके साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे ही मनुष्योंको भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवीको प्रतीति होती है॥ 1 ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है है, अपने सामान्य स्वरूपमें स्थित उस पृथ्वी आदि कार्योंकी एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेदकी स्फूर्ति होती है, न नवीन प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घटपटादि वस्तुभेदकी ही कल्पना | होती है || 2 || साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तुके सूक्ष्मतम और महत्तम | स्वरूपका विचार हुआ। इसीके सादृश्यसे परमाणु आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थोंको भोगनेवाले सृष्टि आदिमें समर्थ, अव्यक्त स्वरूप भगवान् कालकी भी सूक्ष्मता और स्थूलताका अनुमान किया जा सकता है ॥ 3 ॥ जो काल प्रपञ्चकी परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टिसे लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओंका भोग करता है, वह परम महान् है ll4ll

दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है ॥ 5 ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेधका एक ‘लव’ होता है ॥ 6 ॥ तीन लवको एक ‘निमेष’ और तीन निमेषको एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षणकी एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठाका एक ‘लघु’ ॥ 7 ॥ पन्द्रह लघुकी एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाटिकाका एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिनके घटने-बढ़ने के अनुसार दिन एवं रात्री दोनों सन्धियोंके दो महलोंको छोड़कर) या सात नाडिकाका एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्यके दिन या रातका चौथा भाग होता है ॥ 8 ॥ छः पल तांबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पैसे छेद करके उसे जलमे छोड़ दिया जाय। जितने समय एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक ‘नाडिका’ कहते हैं ।। 9 ।। विदुरजी ! चार-चार पहरके मनुष्यके ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन-रातका एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेदसे दो प्रकारका माना गया है ।। 10 ।।इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ‘ऋतु’ और छः मासका एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेदसे दो प्रकारका है ॥ 11 ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोकमें ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है ॥ 12 ॥ चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डलके अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणुसे लेकर संवत्सरपर्यन्त कालमें द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोशकी निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ 13 ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनोंके भेदसे यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है ।। 14 ।। विदुरजी ! इन पाँच प्रकारके वर्षोंकी प्रवृत्ति करनेवाले भगवान् सूर्यकी तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पञ्चभूतोंमेंसे तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्तिसे बीजादि पदार्थोंकी अङ्कर उत्पन्न करनेकी शक्तिको अनेक प्रकारसे कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषोंकी मोहनिवृत्तिके लिये उनकी आयुका क्षय करते हुए आकाशमें विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषोंको यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलोंका विस्तार करते हैं ।। 15 ।।

विदुरजीने कहा- मुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्योंकी परमायुका वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकीसे बाहर कल्पसे भी अधिक कालतक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयुका वर्णन कीजिये ।। 16 ।। आप भगवान् कालकी गति भलीभांति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी | योगसिद्ध दिव्य दृष्टिसे सारे संसारको देख लेते हैं ॥ 17 ॥

मैत्रेयजीने कहा- विदुरजी । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग अपनी सन्ध्या और संन्ध्यांशोंके सहित | देवताओंके बारह सहस्र वर्षतक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ 18 ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येकमें जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशोंमें होते हैं * ॥ 19 ॥ युगकी आदिमें सन्ध्या होती है और अन्तमें सन्ध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ोंकी संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीचका जो काल होता है, उसीको कालवेत्ताओंने युग कहा है। प्रत्येक युगमें एक-एक विशेष धर्मका विधान पाया जाता है ॥ 20 ॥सत्ययुगके मनुष्योंमें धर्म अपने चारों चरणोंसे रहता है; फिर अन्य युगोंमें अधर्मकी वृद्धि होनेसे उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ 21 ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकीसे बाहर महर्लोकसे ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँकी एक सहस्र चतुर्युगीका एक दिन होता है। और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ।। 22 ।। उस रात्रिका अन्त होनेपर इस लोकका कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जबतक ब्रह्माजीका दिन रहता है। तबतक चलता रहता है। उस एक कल्पमें चौदह मनु हो जाते हैं॥ 23 ॥ प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगीसे कुछ अधिक काल (71 6/14 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तरमें भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते है ।। 24 ।। यह ब्रह्माजीकी प्रतिदिनकी सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकोंकी रचना होती है। उसमें अपने अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओंकी उत्पत्ति होती है॥ 25 इन मन्वन्तरोंमें भगवान् सत्त्वगुणका आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियोंके द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्वका पालन करते हैं ॥ 26 ॥ कालक्रमसे जब बह्माजीका दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुणके सम्पर्कको स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुषको स्थगित करके निश्चेष्टभावसे स्थित हो जाते हैं ।। 27 ।। उस समय सारा विश्व उन्हींमें लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादिसे रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः भुवः स्वः – तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजीके शरीर में छिप जाते हैं ॥ 28 ॥ उस अवसरपर तीनों लोक शेषजीके मुखसे निकली हुई अप्रिरूप भगवान्‌की शक्तिसे जलने लगते है। इसलिये उसके तापसे व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महलोंक से जनलोकको चले जाते हैं॥ 29 ॥ इतनेमें ही सात समुद्र प्रलयकालके प्रचण्ड पवनसे | उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गोसे त्रिलोकीको डुबो देते हैं ॥ 30 ॥ तब उस जलके भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रासे नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोक निवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ।। 31 । | इस प्रकार कालकी गतिसे एक-एक सहस्र चतुर्युगके रूपमें प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेर-फेर जोको सौ वर्षको परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है ॥ 32 ॥

ब्रह्माजीको आयुके आधे भागको परार्थ कहते है। अबतक | पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है ॥ 33 ॥पूर्व परार्धके आरम्भ में ब्राह्म नामक महान् कल्प हुआ था। उसीमें ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ 34 ॥ उसी परार्धके अन्तमें जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान्‌के नाभिसरोवरसे सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था ॥ 35 ॥ विदुरजी ! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्धका आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प-नामसे विख्यात है, इसमें भगवान्ने सूकररूप धारण किया था ॥ 36 ॥ यह दो परार्धका काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरिका एक निमेष माना जाता है ॥ 37 ॥ यह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरिपर किसी प्रकारकी प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादिमें अभिमान रखनेवाले जीवोंका ही शासन करनेमें समर्थ है ॥ 38 ॥

प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्र – इन आठ प्रकृतियोंके सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पञ्चभूत – इन सोलह विकारोंसे मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतरसे पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें परमाणुके समान पड़ा हुआ दीखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्डराशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणोंका कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान्का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है ।। 39– 41 ॥

अध्याय 11 मन्वन्तरादि कालविभागका वर्णन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्गका जो सूक्ष्मतम अंश है जिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जे कार्यरूपको प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओंके साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओंके परस्पर मिलनेसे ही मनुष्योंको भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवीको प्रतीति होती है॥ 1 ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है है, अपने सामान्य स्वरूपमें स्थित उस पृथ्वी आदि कार्योंकी एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेदकी स्फूर्ति होती है, न नवीन प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घटपटादि वस्तुभेदकी ही कल्पना | होती है || 2 || साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तुके सूक्ष्मतम और महत्तम | स्वरूपका विचार हुआ। इसीके सादृश्यसे परमाणु आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थोंको भोगनेवाले सृष्टि आदिमें समर्थ, अव्यक्त स्वरूप भगवान् कालकी भी सूक्ष्मता और स्थूलताका अनुमान किया जा सकता है ॥ 3 ॥ जो काल प्रपञ्चकी परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्था में व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टिसे लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओंका भोग करता है, वह परम महान् है ll4ll

दो परमाणु मिलकर एक ‘अणु’ होता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक ‘त्रसरेणु’ होता है, जो झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है ॥ 5 ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे ‘त्रुटि’ कहते हैं। इससे सौगुना काल ‘वेध’ कहलाता है और तीन वेधका एक ‘लव’ होता है ॥ 6 ॥ तीन लवको एक ‘निमेष’ और तीन निमेषको एक ‘क्षण’ कहते हैं। पाँच क्षणकी एक ‘काष्ठा’ होती है और पन्द्रह काष्ठाका एक ‘लघु’ ॥ 7 ॥ पन्द्रह लघुकी एक ‘नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाटिकाका एक ‘मुहूर्त’ होता है और दिनके घटने-बढ़ने के अनुसार दिन एवं रात्री दोनों सन्धियोंके दो महलोंको छोड़कर) या सात नाडिकाका एक ‘प्रहर’ होता है। यह ‘याम’ कहलाता है, जो मनुष्यके दिन या रातका चौथा भाग होता है ॥ 8 ॥ छः पल तांबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पैसे छेद करके उसे जलमे छोड़ दिया जाय। जितने समय एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक ‘नाडिका’ कहते हैं ।। 9 ।। विदुरजी ! चार-चार पहरके मनुष्यके ‘दिन’ और ‘रात’ होते हैं और पन्द्रह दिन-रातका एक ‘पक्ष’ होता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेदसे दो प्रकारका माना गया है ।। 10 ।।इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक ‘मास’ होता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ‘ऋतु’ और छः मासका एक ‘अयन’ होता है। अयन ‘दक्षिणायन’ और ‘उत्तरायण’ भेदसे दो प्रकारका है ॥ 11 ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोकमें ये ‘वर्ष’ या बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है ॥ 12 ॥ चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डलके अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान् सूर्य परमाणुसे लेकर संवत्सरपर्यन्त कालमें द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोशकी निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ 13 ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनोंके भेदसे यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है ।। 14 ।। विदुरजी ! इन पाँच प्रकारके वर्षोंकी प्रवृत्ति करनेवाले भगवान् सूर्यकी तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पञ्चभूतोंमेंसे तेजःस्वरूप हैं और अपनी कालशक्तिसे बीजादि पदार्थोंकी अङ्कर उत्पन्न करनेकी शक्तिको अनेक प्रकारसे कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषोंकी मोहनिवृत्तिके लिये उनकी आयुका क्षय करते हुए आकाशमें विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषोंको यज्ञादि कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलोंका विस्तार करते हैं ।। 15 ।।

विदुरजीने कहा- मुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्योंकी परमायुका वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकीसे बाहर कल्पसे भी अधिक कालतक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयुका वर्णन कीजिये ।। 16 ।। आप भगवान् कालकी गति भलीभांति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी | योगसिद्ध दिव्य दृष्टिसे सारे संसारको देख लेते हैं ॥ 17 ॥

मैत्रेयजीने कहा- विदुरजी । सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग अपनी सन्ध्या और संन्ध्यांशोंके सहित | देवताओंके बारह सहस्र वर्षतक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ 18 ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमशः चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येकमें जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशोंमें होते हैं * ॥ 19 ॥ युगकी आदिमें सन्ध्या होती है और अन्तमें सन्ध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ोंकी संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीचका जो काल होता है, उसीको कालवेत्ताओंने युग कहा है। प्रत्येक युगमें एक-एक विशेष धर्मका विधान पाया जाता है ॥ 20 ॥सत्ययुगके मनुष्योंमें धर्म अपने चारों चरणोंसे रहता है; फिर अन्य युगोंमें अधर्मकी वृद्धि होनेसे उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ 21 ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकीसे बाहर महर्लोकसे ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँकी एक सहस्र चतुर्युगीका एक दिन होता है। और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत्कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ।। 22 ।। उस रात्रिका अन्त होनेपर इस लोकका कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जबतक ब्रह्माजीका दिन रहता है। तबतक चलता रहता है। उस एक कल्पमें चौदह मनु हो जाते हैं॥ 23 ॥ प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगीसे कुछ अधिक काल (71 6/14 चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तरमें भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते है ।। 24 ।। यह ब्रह्माजीकी प्रतिदिनकी सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकोंकी रचना होती है। उसमें अपने अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओंकी उत्पत्ति होती है॥ 25 इन मन्वन्तरोंमें भगवान् सत्त्वगुणका आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियोंके द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्वका पालन करते हैं ॥ 26 ॥ कालक्रमसे जब बह्माजीका दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुणके सम्पर्कको स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुषको स्थगित करके निश्चेष्टभावसे स्थित हो जाते हैं ।। 27 ।। उस समय सारा विश्व उन्हींमें लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादिसे रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भूः भुवः स्वः – तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजीके शरीर में छिप जाते हैं ॥ 28 ॥ उस अवसरपर तीनों लोक शेषजीके मुखसे निकली हुई अप्रिरूप भगवान्‌की शक्तिसे जलने लगते है। इसलिये उसके तापसे व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महलोंक से जनलोकको चले जाते हैं॥ 29 ॥ इतनेमें ही सात समुद्र प्रलयकालके प्रचण्ड पवनसे | उमड़कर अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गोसे त्रिलोकीको डुबो देते हैं ॥ 30 ॥ तब उस जलके भीतर भगवान् शेषशायी योगनिद्रासे नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोक निवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ।। 31 । | इस प्रकार कालकी गतिसे एक-एक सहस्र चतुर्युगके रूपमें प्रतीत होनेवाले दिन-रात के हेर-फेर जोको सौ वर्षको परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है ॥ 32 ॥

ब्रह्माजीको आयुके आधे भागको परार्थ कहते है। अबतक | पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है ॥ 33 ॥पूर्व परार्धके आरम्भ में ब्राह्म नामक महान् कल्प हुआ था। उसीमें ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ 34 ॥ उसी परार्धके अन्तमें जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान्‌के नाभिसरोवरसे सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था ॥ 35 ॥ विदुरजी ! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्धका आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प-नामसे विख्यात है, इसमें भगवान्ने सूकररूप धारण किया था ॥ 36 ॥ यह दो परार्धका काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरिका एक निमेष माना जाता है ॥ 37 ॥ यह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरिपर किसी प्रकारकी प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादिमें अभिमान रखनेवाले जीवोंका ही शासन करनेमें समर्थ है ॥ 38 ॥

प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्र – इन आठ प्रकृतियोंके सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पञ्चभूत – इन सोलह विकारोंसे मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतरसे पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सबके सहित यह जिसमें परमाणुके समान पड़ा हुआ दीखता है और जिसमें ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्डराशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणोंका कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान्का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है ।। 39– 41 ॥

अध्याय 12 सृष्टिका विस्तार

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! यहाँतक मैंने आपको भगवान्‌की कालरूप महिमा सुनायी। अब जिस प्रकार ब्रह्माजीने जगत्की रचना की, वह सुनिये ॥ 1 ॥ सबसे पहले उन्होंने अज्ञानकी पाँच वृत्तियाँ — तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), तामिस्र (द्वेष) और अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) रचीं ॥ 2 ॥ किन्तु इस अत्यन्त पापमयी सृष्टिको देखकर उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई। तब उन्होंने अपने मनको भगवान्‌के | ध्यानसे पवित्र कर उससे दूसरी सृष्टि रची ॥ 3 ॥इस बार ब्रह्माजीने सनक, सनन्दन, सनातन और | सनत्कुमार- ये चार निवृत्तिपरायण ऊर्ध्वरेता मुनि उत्पन्न किये ॥ 4 ॥ अपने इन पुत्रोंसे ब्रह्माजीने कहा, ‘पुत्रो ! तुमलोग सृष्टि उत्पन्न करो।’ किंतु वे जन्मसे हैं। मोक्षमार्ग (निवृत्तिमार्ग ) का अनुसरण करनेवाले और भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर थे, इसलिये उन्होंने ऐसा करना नहीं चाहा ॥ 5 ॥ जब ब्रह्माजीने देखा कि मेरी आज्ञा न मानकर ये मेरे पुत्र मेरा तिरस्कार कर रहे हैं, तब उन्हें असह्य क्रोध हुआ। उन्होंने उसे रोकनेका प्रयत्न किया ॥ 6 ॥ किंतु बुद्धिद्वारा उनके बहुत रोकनेपर भी वह क्रोध तत्काल प्रजापतिकी भौंहोंके बीचमेंसे एक नीललोहित (नीले और लाल रंगके) बालकके रूपमें प्रकट हो गया ॥ 7 ॥ वे देवताओंके पूर्वज भगवान् भव (रुद्र) रो-रोकर कहने लगे- ‘जगत्पिता ! विधाता! मेरे नाम और रहनेके स्थान बतलाइये ॥ 8 ॥

तब कमलयोनि भगवान् ब्रह्माने उस बालककी प्रार्थना पूर्ण करनेके लिये मधुर वाणीमें कहा, ‘रोओ मत, मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करता हूँ ॥ 9 ॥ देवश्रेष्ठ ! तुम जन्म लेते ही बालकके समान फूट-फूटकर रोने लगे, इसलिये प्रजा तुम्हें ‘रुद्र’ नामसे पुकारेगी 10॥ तुम्हारे रहने के लिये मैंने पहले ही हृदय, इन्द्रिय, प्राण, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रमा और तप ये स्थान रच दिये हैं ॥ 11 ॥ तुम्हारे नाम मन्यु, मनु, महिनस, महान्, शिव, ऋतध्वज, उग्ररेता, भव, काल, वामदेव और धृतव्रत होंगे ॥ 12 तथा धी, वृत्ति, उशना, उमा, नियुत्, सर्प, इला, अम्बिका इरावती सुधा और दीक्षा—ये ग्यारह रुद्राणियाँ तुम्हारी पत्नियाँ होंगी ।। 13 ।। तुम उपर्युक्त नाम, स्थान और स्त्रियों को स्वीकार करो और इनके द्वारा बहुत सी प्रजा उत्पन्न करो; क्योंकि तुम प्रजापति हो ।। 14 ।।

लोकपिता ब्रह्माजीसे ऐसी आज्ञा पाकर भगवान् नीललोहित बल आकार और स्वभावमे अपने ही जैसी प्रजा उत्पन्न करने लगे ॥ 15 ॥ भगवान् रुद्रके द्वारा उत्पन्न हुए उन रुद्रोंको असंख्य यूथ बनाकर सारे संसारको भक्षण करते देख ब्रह्माजीको बड़ी शङ्का हुई ।। 16 ।। तब उन्होंने रुद्रसे कहा, ‘सुरश्रेष्ठ !तुम्हारी प्रजा तो अपनी भयङ्कर दृष्टिसे मुझे और सारी दिशाओंको भस्म किये डालती है; अतः ऐसी सृष्टि और न रचो ॥ 17 ॥ तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम समस्त प्राणियोंको सुख देनेके लिये तप करो। फिर उस तपके प्रभावसे ही तुम पूर्ववत् इस संसारकी रचना करना ॥ 18 ॥ पुरुष तपके द्वारा ही इन्द्रियातीत, सर्वान्तर्यामी, ज्योतिःस्वरूप श्रीहरिको सुगमतासे प्राप्त कर सकता है’ ॥ 19 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— जब ब्रह्माजीने ऐसी आज्ञा दी, तब रुद्रने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे शिरोधार्य किया और फिर उनकी अनुमति लेकर तथा उनकी परिक्रमा करके वे तपस्या करनेके लिये वनको चले गये ॥ 20 ॥

इसके पश्चात् जब भगवान्की शक्तिसे सम्पन्न ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये सङ्कल्प किया, तब उनके दस पुत्र और उत्पन्न हुए। उनसे लोककी बहुत वृद्धि हुई ।। 21 ।। उनके नाम मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और दसवें नारद थे ॥ 22 ॥ इनमें नारदजी प्रजापति ब्रह्माजीकी गोदसे, दक्ष अंगूठेसे, वसिष्ठ प्राणसे, भृगु त्वचासे, ऋतु हाथसे, पुलह नाभिसे, पुलस्यापि कानोसे अद्वरा मुख, आने और मरीचि मनसे उत्पन्न हुए ।। 23-24 । फिर उनके दायें स्तनसे धर्म उत्पन्न हुआ, जिसकी पत्नी मूर्तिसे स्वयं नारायण अवतीर्ण हुए तथा उनकी पीठसे अधर्मका जन्म हुआ उससे संसारको भयभीत करनेवाला मृत्यु उत्पन्न हुआ ॥ 25 ॥ इसी प्रकार ब्रह्माजीके हृदयसे काम, भाँहाँसे क्रोध, नीचेके होठसे लोभ, मुखसे वाणीकी अधिष्ठात्री देवी सरस्वती, लिङ्गसे समुद्र, गुदासे पापका निवासस्थान (राक्षसोंका अधिपति) निर्ऋति ॥ 26 ॥ छायासे देवहूतिके पति भगवान् कर्दमजी उत्पन्न हुए। इस तरह यह सारा जगत् जगत्कर्ता ब्रह्माजीके शरीर और मनसे उत्पन्न हुआ ॥ 27 ॥ और विदुरजी! भगवान् ब्रह्माकी कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी। हमने सुना है एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काममोहित हो गये थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी ॥ 28 ॥उन्हें ऐसा अथर्ममय सङ्कल्प करते देख उनके पुत्र मरोधि आदि यो उन्हें विश्वासपूर्वक समझाया-29॥ पिताजी आप समर्थ है, फिर भी अपने मनमें उत्पन्न हुए कामके वेगको न रोककर पुत्रीगमन जैसा दुस्तर पाप करनेका सल्प कर रहे हैं। ऐसा तो आपसे पूर्ववर्ती किसी भी ब्रह्माने नहीं किया और न आगे ही कोई करेगा ॥ 30 ॥ जगद्गुरो ! आप जैसे तेजस्वी पुरुषोंको भी ऐसा काम शोभा नहीं देता; क्योंकि आपलोगोंके आचरणोंका अनुसरण करनेसे ही तो संसारका कल्याण होता है ॥ 31 ॥ जिन श्रीभगवान्ने अपने स्वरूपमें स्थित इस जगत्‌को अपने ही तेजसे प्रकट किया है, उन्हें नमस्कार है। इस समय वे ही धर्मकी रक्षा कर सकते हैं ॥ 32 ॥ अपने पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियोंको अपने सामने इस प्रकार कहते देख प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी बड़े लज्जित हुए और उन्होंने उस शरीरको उसी समय छोड़ दिया। तब उस घोर शरीरको दिशाओंने ले लिया। वहीं कुहरा हुआ, जिसे अन्धकार भी कहते हैं ।। 33 ।।

एक बार ब्रह्माजी यह सोच रहे थे कि ‘मैं पहलेकी तरह सुव्यवस्थित रूपसे सब लोकोंकी रचना किस प्रकार करूँ ?’ इसी समय उनके चार मुखोंसे चार वेद प्रकट हुए ।। 34 ।। इनके सिवा उपवेद, न्यायशास्त्र होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा-इन चार ऋत्विजोंके कर्म, यज्ञोंका विस्तार, धर्मके चार चरण और चारों आश्रम तथा उनकी वृत्तियाँ – ये सब भी ब्रह्माजीके से ही उत्पन्न हुए ।। 35 ।।

विदुरजीने पूछा- तपोधन। विश्वरचयिताओंके स्वामी श्रीब्रह्माजीने जब अपने मुसोंसे इन वेदादिको रचा, तो उन्होंने अपने किस मुखसे कौन वस्तु उत्पन्न की यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये ll 36 ll

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! ब्रह्माने अपने पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तरके मुखसे क्रमशः ऋक्, यजुः साम और अथर्ववेदोंको रचा तथा इसी क्रमसे शस्त्र (होताका कर्म), इज्या (अध्वर्युका कर्म), स्तुतिस्तोम (उद्गाताका कर्म) और प्रायश्चित्त (ब्रह्माका कर्म) – इन चारोंकी रचना की ।। 37 । इसी प्रकार आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (शस्त्रविद्या), गान्धर्ववेद (सङ्गीतशास्त्र) और स्थापत्यवेद (शिल्पविद्या) इन चार उपवेदोंको भी क्रमशः उन पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न किया ।। 38 ।। फिर सर्वदर्शी भगवान् ब्रह्माने अपने चारों मुखोंसे इतिहास-पुराणरूप पाँचवाँ वेद बनाया ॥ 39 ॥इसी क्रमसे षोडशी और उक्थ, चयन और अग्निष्टोम, आप्तोर्याम और अतिरात्र तथा वाजपेय और गोसव-ये दो-दो याग भी उनके पूर्वादि मुखोंसे ही उत्पन्न हुए ॥ 40 ॥ विद्या, दान, तप और सत्य-ये धर्मके चार | पाद और वृत्तियोंके सहित चार आश्रम भी इसी क्रमसे प्रकट हुए ॥ 41 ॥ सावित्र, प्राजापत्य, ब्राह्म3 और बृहत् – ये चार वृत्तियाँ ब्रह्मचारीकी हैं तथा वार्ता’, सञ्चय6, शालीन और शिलोञ्छ’ – ये चार वृत्तियाँ गृहस्थकी हैं ॥ 42 ॥ इसी प्रकार वृत्तिभेदसे वैखानस 9, वालखिल्य 10, औदुम्बर 11 और फेनप12 – ये चार भेद वानप्रस्थोंके तथा कुटीचक 1, बहूदक और निष्क्रिय (परमहंस 16) -ये चार भेद संन्यासियोंके हैं ॥ 43 ॥ इसी क्रमसे आन्वीक्षिकी 17. त्रयी 18, वार्ता 19 और दण्डनीति 2 – ये चार विद्याएँ | तथा चार व्याहृतियाँ 21 भी ब्रह्माजीके चार मुखोंसे उत्पन्न | हुईं तथा उनके हृदयाकाशसे ॐकार प्रकट हुआ ॥ 44 ॥ उनके रोमोंसे उष्णिक्, त्वचासे गायत्री, मांससे त्रिष्टुप् स्नायुसे अनुष्टुप् अस्थियोंसे जगती, मज्जासे पंक्ति और प्राणोंसे बृहती छन्द उत्पन्न हुआ। ऐसे ही उनका जीव स्पर्शवर्ण (कवर्गादि पञ्चवर्ग) और देह स्वरवर्ण (अकारादि) कहलाया ।। 45-46 ।। उनकी इन्द्रियोंको ऊष्मवर्ण (श ष स ह) और बलको अन्तःस्थ (य र ल व) कहते हैं, तथा उनकी क्रीडासे निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत और पञ्चम—ये सात स्वर हुए ॥ 47 ॥ हे तात ! ब्रह्माजी शब्दब्रह्मस्वरूप हैं। वे वैखरीरूपसे व्यक्त और ओङ्काररूपसे अव्यक्त हैं। तथा उनसे परे जो सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म है, वही अनेकों प्रकारकी शक्तियोंसे विकसित होकर इन्द्रादि रूपोंमें भास रहा है ।। 48 ।।

अध्याय 13 वाराह अवतारकी कथा

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन् ! मुनिवर मैत्रयजीके मुखसे यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजीने फिर पूछा; क्योंकि भगवान्‌की लीलाकथामें इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था ॥ 1 ॥

विदुरजीने कहा- मुने ! स्वयम्भू ब्रह्माजीके प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनुने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपाको पाकर फिर क्या किया ? ॥ 2 ॥आप साधुशिरोमणि हैं। आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनुका पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णुभगवान् के शरणापत्र थे, इसलिये उनका चरित्र सुननेमें मेरी बहुत श्रद्धा है ॥ 3 ॥ जिनके हृदयमें श्रीमुकुन्दके चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनोंके गुणोंको श्रवण करना ही मनुष्योंके बहुत दिनोंतक किये हुए शास्त्राभ्यासके श्रमका मुख्य फल है, ऐसा विद्वानोंका श्रेष्ठ मत है ॥ 4 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— राजन् ! विदुरजी सहस्रशीर्षा भगवान् श्रीहरिके चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान्‌की कथाके लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेयका रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा ॥ 5 ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले- जब अपनी भार्या शतरूपाके साथ स्वायम्भुव मनुका जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रतासे हाथ जोड़कर श्रीब्रह्माजी से कहा ॥ 6 ॥ ‘भगवन्! एकमात्र आप ही समस्त जीवोंके जन्मदाता और जीविका प्रदान करनेवाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? ॥ 7 ॥ पूज्यपाद ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्यके लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोकमें हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोकमें सद्गति प्राप्त हो सके ॥ 8 ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा—तात ! पृथ्वीपते! तुम दोनोंका कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भावसे ‘मुझे आज्ञा दीजिये’ यों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है ॥ 9 ॥ वीर ! पुत्रोंको अपने पिताकी इसी रूपमें पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरोंके प्रति ईर्ष्याका भाव न रखकर जहाँतक बने, उनकी आज्ञाका आदरपूर्वक सावधानीसे पालन करें ।। 10 ।। तुम अपनी इस भार्यासे अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करो और यज्ञोंद्वारा श्रीहरिकी आराधना करो ।। 11 ।। राजन्! प्रजापालनसे मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजाका पालन करते देखकर भगवान् श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान् प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकिवे तो एक प्रकारसे अपने आत्माका ही अनादर करते हैं ।। 12-13 ।।

मनुजीने कहा -पापका नाश करनेवाले पिताजी! मैं आपकी आज्ञाका पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजाके रहनेके लिये स्थान बतलाइये ॥ 14 ॥ देव ! सब जीवोंका निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलयके जलमें डूबी हुई है। आप इस देवीके उद्धारका प्रयत्न कीजिये ।। 15 ।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा— पृथ्वीको इस प्रकार अथाह जलमें डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देरतक मनमें यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ ।। 16 ।। जिस समय मैं लोकरचनामें लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जलमें डूब जानेसे रसातलको चली गयी। हमलोग सृष्टिकार्यमें नियुक्त है, अतः इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके सङ्कल्पमात्रसे मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें ॥ 17 ॥

निष्पाप विदुरजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर | हो रहे थे कि उनके नासाछिद्रसे अकस्मात् अँगूठेके बराबर आकारका एक वराह-शिशु निकला ।। 18 ।। भारत ! बड़े आश्चर्यकी बात तो यही हुई कि आकाशमें खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजीके देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभरमें हाथीके बराबर हो गया ।। 19 ।। उस विशाल वराह मूर्तिको देखकर मरीचि आदि मुनिजन, सनकादि और स्वायम्भुव मनुके सहित श्रीब्रह्माजी तरह तरहके विचार करने लगे- ॥ 20 ॥ अहो! सूकरके रूपमें आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ | प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है। यह अभी-अभी मेरी नाकसे निकला था ॥ 21 ॥ पहले तो यह अंगूठेके पोरुएके बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षणमें ही बड़ी भारी शिलाके समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान् हमलोगों के मनको मोहित कर रहे हैं । 22 ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि | भगवान् यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे ॥ 23 ॥| सर्वशक्तिमान् श्रीहरिने अपनी गर्जनासे दिशाओंको प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको हर्षसे भर दिया 24 अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराहभगवान्‌की घुरघुराहटको सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदोंके परम पवित्र मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे ।। 25 ।। भगवान् के स्वरूपका वेदोंमें विस्तारसे वर्णन किया गया है; अतः उन मुनीश्वरोंने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओंके हितके लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जलमें घुस गये || 26 || पहले वे सूकररूप | भगवान् पूँछ उठाकर बड़े वेगसे आकाशमें उछले और अपनी गर्दनके बालोंको फटकारकर खुरोंके आघात से बादलोंको छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचापर कड़े कड़े बाल थे, दाढ़े सफेद थीं और नेत्रोंसे तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ 27 भगवान् स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकररूप धारण करनेके कारण अपनी नाकसे सूँघ सूँघकर पृथ्वीका पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़े बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करनेवाले मरीचि आदि मुनियोंको ओर बड़ी सौम्य दृष्टिसे निहारते हुए उन्होंने जलमें प्रवेश किया ।। 28 ।। जिस समय उनका वज्रमय पर्वतके समान कठोर कलेवर जलमें गिरा, तब उसके वेगसे मानो समुद्रका पेट फट गया और उसमें बादलोंकी गड़गड़ाहटके समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओंको उठाकर वह बड़े आर्तस्वरसे हे यज्ञेश्वर ! मेरी रक्षा करो। इस प्रकार पुकार रहा है ।। 29 ।। तब भगवान् यज्ञमूर्ति अपने बाणके समान पैने खुरोंसे जलको चीरते हुए उस अपार जलराशिके उस पार पहुंचे। वहाँ रसातलमे उन्होंने समस्त जीवोंकी आश्रयभूता पृथ्वीको देखा, जिसे कल्पान्तमें शयन करनेके लिये उद्यत श्रीहरिने स्वयं अपने ही उदरमें लीन कर लिया था ॥ 30 ॥फिर वे जलमें इबी हुई पृथ्वीको अपनी दाहोपर लेकर रसातलसे ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जलसे बाहर आते समय उनके मार्गमें विघ्न डालनेके लिये महापराक्रमी हिरण्याक्षने जलके भीतर ही उनपर गदासे आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्रके समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीलासे ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथीको मार डालता है। उस समय उसके रक्तसे थूथनी तथा कनपटी सन जानेके कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टीके टीलेमें टक्कर मारकर आया हो । 31-32 ॥ तात ! जैसे गजराज अपने दाँतोंपर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतोंकी नोकपर पृथ्वीको धारण कर जलसे बाहर निकले हुए, तमालके समान नीलवर्ण वराहभगवान्‌को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदिको निश्चय हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्योंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ 33 ॥

ऋषियोंने कहा- भगवान् अजित्! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रहको फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है। आपके रोम कूपोंमें सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये ही यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है || 34 ॥ देव! दुराचारियोंको आपके इस शरीरका दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है। इसकी त्वचामें गायत्री आदि छन्द, रोमावलीमें कुश, नेत्रोंमें घृत तथा चारों चरणोंमें होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन चारों ऋत्विजोंके कर्म हैं ।। 35 ।। ईश ! आपकी थूथनी (मुखके अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिका छिद्रोंमें स्रुवा है, उदरमें इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानोंमें चमस है, मुखमें प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्रमें ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन्! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है ।। 36 ।। बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं, दोनों दाढ़े प्रायणीय (दीक्षाके बादकी इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्तिकी इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य (प्रत्येक उपसदके पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अनि) और आवसथ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं॥ 37 ॥देव आपका वीर्य सोम है आसन (बैठना) प्रातः सवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अनिष्टोम, अत्यमिष्टोम, उपथ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नामकी सात संस्थाएँ है तथा शरीरकी सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित बाग) और ऋतु (सोमसहित याग) रूप है। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्गको मिलाये रखनेवाली मांसपेशियां है ॥ 38 ॥ समसा मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप है; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मनकी एकाग्रतासे जिस ज्ञानका अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु है; आपको पुनः पुनः प्रणाम है ॥ 39 ॥ पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवन्! आपकी दादोंकी नोकपर रखी हुई यह पर्वतादि मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वनमेसे निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराजके दाँतोंपर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ 40 ॥ आपके दाँतोंपर रखे हुए भूमण्डलके सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरोपर छायी हुई मेघमालासे कुलपर्वतकी शोभा होती है ॥ 41 ॥ नाथ! चराचर | जीवोंके सुखपूर्वक रहनेके लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वीको जलपर स्थापित कीजिये आप जगत् के पिता है और अरणिमें अग्निस्थापनके समान आपने इसमें धारण शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है हम आपको और इस पृथ्वीमाताको प्रणाम करते है ।। 42 ।। प्रभो ! रसातलमें डूबी हुई इस पृथ्वीको निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किंतु आप तो सम्पूर्ण आशयकि आश्रय हैं, | आपके लिये यह कोई आश्चर्यको बात नहीं है। आपने ही तो अपनी मायासे इस अत्याश्चर्यमय विश्वकी रचना की है ।। 43 ।। जब आप अपने वेदमय विग्रहको हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदनके बालोंसे झरती हुई शीतल जलकी बूँदें गिरती है। ईश। उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोकमे | रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ॥ 44 ॥जो पुरुष आपके कमका पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मोंका कोई पार ही नहीं है। आपकी ही योगमायाके सत्त्वादि गुणोंसे यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन्! आप इसका कल्याण कीजिये ।। 45 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियोंके इस प्रकार स्तुति करनेपर सबकी रक्षा करनेवाले वराहभगवान् ने अपने खुरोंसे जलको स्तम्भितकर उसपर पृथ्वीको स्थापित कर दिया ।। 46 ।। इस प्रकार रसातलसे लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वीको जलपर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान् श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ।। 47 ।।

विदुरजी ! भगवान्के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकारके पाप-तापको दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथाको भक्तिभावसे सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् अन्तस्तलसे बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 48 ॥ भगवान् तो सभी कामनाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ हैं उनके प्रसन्न होनेपर संसारमें क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओंकी आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभावसे भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ।। 49 ।। अरे! संसारमें पशुओंको छोड़कर अपने पुरुषार्थका सार जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमनसे छुड़ा देनेवाली भगवान्‌की प्राचीन कथाओंमेंसे किसी भी अमृतमयी कथाका अपने कर्णपुटोंसे एक बार पान करके फिर उनकी ओरसे मन हटा लेगा ।। 50 ।।

अध्याय 14 दितिका गर्भधारण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरिकी कथाको मैत्रेयजीके मुखसे सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजीकी पूर्ण तृप्ति न हुई; अतः उन्होंने हाथ जोड़कर फिर पूछा ॥ 1 ॥विदुरजीने कहा- मुनिवर। हमने यह बात आपके मुखसे अभी सुनी है कि आदित्य हिरण्याक्षको भगवान् यज्ञमूर्तिने ही मारा था ॥ 2 ॥ ब्रह्मन् । जिस समय भगवान् लीलासे ही अपनी दाढ़ोंपर रखकर पृथ्वीको जलमेंसे निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्षकी मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ 3 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी तुम्हारा प्रश्न बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरिकी अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्योंके मृत्युपाशका छेदन करनेवाली है ॥ 4 ॥ देखो, उत्तानपादका पुत्र ध्रुव बालकपनमें श्रीनारदजीकीसुनायी हुई हरिकथाके प्रभावसे ही मृत्युके सिरपर पैर रखकर भगवान् के परमपदपर आरूढ़ हो गया था ॥ 5 ॥ पूर्वकालमें एक बार इसी वाराहभगवान् और हिरण्याक्षके युद्धके विषयमें देवताओंके प्रश्न करनेपर देवदेव श्रीब्रह्माजीने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसीके परम्परासे मैंने सुना है ॥ 6 ॥ विदुरजी । एक बार दक्षकी पुत्री दितिने पुत्रप्राप्तिको इच्छासे कामातुर होकर साङ्गालके समय अपने पति मरीचिदन कश्यपजीसे प्रार्थना की ॥ 7 ॥ उस समय कश्यपजी खोरको आहुतियोद्वारा अमिजिह्न भगवान् यज्ञपतिको आराधना कर सूर्यास्तका समय जान अमिशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे ॥ 8 ॥

दितिने कहा- विद्वन्! मतवाला हाथी जैसे | केलेके वृक्षको मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबलापर जोर जताकर आपके लिये मुझे बेचैन कर रहा है ।। 9 ।। अपनी पुत्रवती सौतोंकी सुख-समृद्धिको देखकर में ईष्योंकी आग से जली जाती हूँ। अतः आप मुझपर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ 10 ॥ जिनके गर्भ से आप जैसा पति पुत्ररूपसे उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियोंसे सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसारमें सर्वत्र फैल जाता | है ।। 11 हमारे पिता प्रजापति दक्षका अपनी पुत्रियोपर | बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती | हो ?’ ।। 12 ।। वे अपनी सन्तानकी सन प्रकारकीचिन्ता रखते थे। अतः हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमेंसे हम तेरह पुत्रोको जो आपके गुण-स्वभावके अनुरूप थी, आपके साथ व्याह दिया ॥ 13 ॥ अतः मङ्गलमूर्ते ! कमलनयन ! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम! आप जैसे महापुरुषोंके पास दीनजनोंका आना निष्फल नहीं होता ।। 14 ।। विदुरजी ! दिति कामदेवके वेगसे अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर की प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ॥ 15 ॥ भीरु ! तुम्हारी इच्छाके अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम- तीनोंकी सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नीकी कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ 16 ॥ जिस प्रकार जहाजपर चढ़कर मनुष्य महासागरको पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमोंको आश्रय देता हुआ अपने आश्रमद्वारा स्वयं भी दुःखसमुद्रके पार हो जाता है ॥ 17 ॥ मानिनि । खोको तो विविध पुरुषार्थको कामना पुरुषका आधा अङ्ग कहा गया है। उसपर अपनी गृहस्थीका भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ 18 ॥ इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालोंके लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार क्रिलेका स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओंको अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नीका आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओंको सहजमें ही जीत लेते हैं ॥ 19 ॥ गृहेश्वरि ! तुम जैसी भार्याक | उपकारोंका बदला तो हम अथवा और कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तरमें भी पूर्णरूपसे नहीं चुका सकते ॥ 20 ॥ तो भी तुम्हारी इस सन्तान प्राप्तिकी इच्छाको मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूंगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ।। 21 ।। यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवोंका है और देखनेमें भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान् भूताय गण भूत-प्रेतादि घूमा करते है ।। 22 ।। साध्वि इस सन्ध्याकालमें भूतभावन भूतपति भगवान् शङ्कर अपने गण भूत-प्रेतादिको साथ लिये बैलपर चढ़कर विचरा करते है ।। 23 ।। जिनका जटाजूट श्मशानभूमिसे उठे हुए हरी भूलिधूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्णमय र शरीरमें भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (शु) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंसे सभीको देखते रहते हैं ॥ 24 ॥संसारमें उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हमलोग तो अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन करके उनकी मायाको ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात है मार दी है । 25 ॥ विवेकी पुरुष अविद्याके आवरणको हटानेकी इच्छासे उनके निर्मल चरित्रका गान किया करते हैं; उनसे बढ़कर तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उनतक केवल सत्पुरुषोंकी ही पहुँच है। यह सब होनेपर भी वे स्वयं पिशाचोका-सा आचरण करते हैं ।। 26 । यह नरशरीर कुत्तोंका भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादिसे इसीको सजाते-सँवारते रहते हैं—वे अभागे ही आत्माराम भगवान् शङ्करके आचरणपर हँसते हैं ॥ 27 ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हींकी बाँधी हुई धर्म-मर्यादाका पालन करते हैं; वे ही इस विश्वके अधिष्ठान है तथा यह माया भी उन्होंकी आज्ञाका अनुसरण करनेवाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतोंका-स -सा आचरण करते है। अहो! उन जगद्व्यापक प्रभुकी यह अद्भुत लीला कुछ समझमें नहीं आती’ ॥ 28

मैत्रेयजी कहते हैं- पतिके इस प्रकार समझानेपर भी कामातुरा दितिने वेश्याके समान निर्लज्ज होकर ब्रह्मर्षि कश्यपजीका वस्त्र पकड़ लिया ।। 29 ।। तब कश्यपजीने उस निन्दित कर्ममें अपनी भार्याका बहुत आग्रह देख दैवको नमस्कार किया और एकान्तमें उसके साथ समागम किया ॥ 30 ॥ फिर जलमें स्नानकर प्राण और वाणीका संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्मका ध्यान करते हुए उसीका जप करने लगे ॥ 31 ॥ विदुरजी दितिको भी उस निन्दित कर्मके कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मर्षिके पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी ॥ 32 ॥ दिति बोलीं- ब्रह्मन् भगवान् रुद्र भूतोंके स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है; किन्तु वे
भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भको नष्ट न करें ।। 33 ।।मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेवको नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषोंके लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देनेके भावसे रहित हैं, किन्तु दुष्टोंके लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ।। 34 ।। हम स्त्रियोंपर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु है; अतः वे मुझपर प्रसन्न हो ॥ 35 ॥

श्रीमैत्रेयीने कहा- विदुरजी प्रजापति कश्यपने सायङ्कालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्मसे निवृत्त होनेपर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तानकी लौकिक और पारलौकिक उन्नतिके लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा ।। 36 ।।

कश्यपजीने कहा- तुम्हारा चित्त कामवासनासे मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओंकी भी अवहेलना की ॥ 37 ॥ अमङ्गलमयी चण्डी! तुम्हारी कोखसे दो बड़े ही अमङ्गलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालोंको अपने अत्याचारोंसे रुलायेंगे || 38 जब उनके हाथसे बहुत से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियोंपर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओंको क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतोंका दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे ।। 39-40 ।।

दितिने कहा- प्रभो! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रोंका वध हो तो वह साक्षात् भगवान् चक्रपाणिके हाथसे ही हो, कुपित ब्राह्मणोंके शापादिसे न हो ॥ 41 जो जीव ब्राह्मणोंके शापसे दग्ध अथवा प्राणियोंको भय देनेवाला होता है, वह किसी भी योनिमें जाय उसपर नारकी जीव भी दया नहीं करते ।। 42 ।।

कश्यपजीने कहा -देवि! तुमने अपने कियेपर शोक और पक्षाताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचितका विचार भी हो गया तथा भगवान् विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुक्के चार पुसे एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पत्रको भक्तजन भगवान् के गुणोंके साथ गायेंगे ॥ 43-44 ।।जिस प्रकार खोटे सोनेको बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभावका अनुकरण करनेके लिये निर्वैरता आदि उपायोंसे अपने अन्तःकरणको शुद्ध करेंगे ।। 45 ।। जिनकी कृपासे उन्हींका स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान् भी उसकी अनन्य भक्तिसे सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ 46 ॥ दिति ! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषोंका भी पूज्य होगा, तथा प्रौढ़ भक्तिभावसे विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्तःकरणमें श्रीभगवान्‌को स्थापित करके देहाभिमानको त्याग देगा ॥ 47 ॥ वह विषयोंमें अनासक्त, शीलवान् गुणोंका भंडार तथा दूसरोंकी समृद्धिमें सुख और दुःखमें दुःख माननेवाला होगा। उसका कोई शत्रु न होगा, तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतुके तापको हर लेता है, वैसे ही वह संसारके शोकको शान्त करनेवाला होगा ।। 48 ।। जो इस संसारके बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तोंके इच्छानुसार समय-समयपर मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललनाकी भी शोभा बढ़ानेवाले हैं, तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलोंसे सुशोभित है—उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरिका तुम्हारे पौत्रको प्रत्यक्ष दर्शन होगा ॥ 49 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दितिने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान्का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरिके हाथसे मारे जायँगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ ॥ 50 ॥

अध्याय 15 जय-विजयको सनकादिका शाप

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! दितिको अपने पुत्रोंसे देवताओंको कष्ट पहुँचनेकी आशङ्का थी, इसलिये उसने | दूसरोंके तेजका नाश करनेवाले उस कश्यपजीके तेज (वीर्य) को सौ वर्षोंतक अपने उदरमें ही रखा ॥ 1 ॥ उस गर्भस्थ तेजसे ही लोकोंमें सूर्यादिका प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये। तब उन्होंने ब्रह्माजीकेपास जाकर कहा कि सब दिशाओंमें अन्धकारके कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है ॥ 2 ॥

देवताओंने कहा- भगवन् काल आपकी ज्ञानशक्तिको कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है आप इस अन्धकारके विषयमें भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं॥ 3 ॥ देवाधिदेव ! आप जगत्के रचयिता और समस्त लोकपालोके मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवोंका भाव जानते हैं 4 देव! आप विज्ञानबलसम्पन्न हैं; आपने मायासे ही यह चतुर्मुख रूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्तिके वास्तविक कारणको कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं 5 आपमें सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च आपका शरीर है; किन्तु वास्तवमें आप इससे परे हैं। जो समस्त जीवोंके उत्पत्तिस्थान आपका अनन्य भावसे ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियोका किसी प्रकार भी हास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्षसे कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और मनको जीत लेनेके कारण उनका योग भी परिपक्क हो जाता है ।। 6-7 ।। रस्सीसे बंधे हुए बैलोंकी भाँति आपकी वेदवाणीसे जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनतामें नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान | करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ 8 भूमन् ! इस अन्धकारके कारण दिन-रातका विभाग अस्पष्ट हो जानेसे लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुःखी हो रहे है; उनका कल्याण कीजिये और हम शरणागतोंकी ओर अपनी अपार दयादृष्टिसे निहारिये ॥ 9 ॥ देव ! आग जिस प्रकार ईंधन में पड़कर बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यपजीके वीर्यसे स्थापित हुआ यह दितिका गर्भ सारी दिशाओंको अन्धकारमय करता हुआ है क्रमशः बढ़ रहा है 10 ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-महाबाहो देवताओको प्रार्थना सुनकर भगवान् ब्रह्माजी हँसे और उन्हें अपनी मधुर वाणी से आनन्दित करते हुए कहने लगे ॥ 11 ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा- देवताओ! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानसपुत्र सनकादि लोकोंकी आसक्ति त्यागकर समस्त लोकोंमें आकाशमार्गसे विचरा करते थे ।। 12 ।। एक बार वे भगवान् विष्णुके शुद्ध सत्त्वमय सब लोकोंके शिरोभाग में स्थित, | वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे ॥ 13 ॥ वहाँ सभी लोग विष्णुरूपहोकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्होंको होता है, जो अन्य सब | प्रकारको कामनाएँ छोड़कर केवल भगवच्चरण-शरणकी प्राप्तिके लिये हो अपने धर्मद्वारा उनको आराधना करते हैं ।। 14 । वहाँ वेदासप्रतिपाद्य धर्ममूर्ति श्री आदिनारायण हम अपने भक्तोको सुख देनेके लिये शुद्धसत्त्वमय स्वरूप धारणकर हर समय विराजमान रहते हैं ।। 15 ।। उस लोकमे नैःश्रेयस नामका एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले वृक्षोंसे सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओंकी शोभासे सम्पन्न रहते हैं ॥ 16 वहाँ विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं, जो लोगोंको सम्पूर्ण पापराशिको भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरोंमें खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लताकी सुमधुर गन्ध उनके चित्तको अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वर उस गन्धको उड़ाकर लानेवाले वायुको ही बुरा-भला कहते हैं ॥ 17 जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वरसे गुंजार करते हुए मानो हरिकथाका गान करते हैं, उस समय थोड़ी देरके लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तोतर और मोरोका कोलाहल बंद हो जाता है— मानो वे भी उस कीर्तनानन्दमें बेसुध हो जाते हैं ।। 18 ।। श्रीहरि तुलसीसे अपने श्रीविग्रहको सजाते हैं और तुलसीको गन्धका ही अधिक | आदर करते हैं—यह देखकर वहाँक मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रिमें खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिनमें खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होनेपर भी तुलसीका ही तप अधिक मानते हैं ॥ 19 वह लोक वैदूर्य, मरकतमणि (पत्रे) और सुवर्णके विमानोंसे भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफलसे नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरिके पादपद्मोकी बन्दना करनेसे ही प्राप्त होते हैं। उन विमानोंपर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तोके चित्तोंमें बड़े-बड़े नितम्बोंवाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुसकान एवं मनोहर हास-परिहाससे कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं ॥ 20 ॥

परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करनेके लिये देवगण भी यनशील रहते हैं, श्रीहरिके भवनमें चञ्चलतारूप दोषको त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरण कमलोके नूपुरोकी झनकार करती हुई वे अपनालीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवनकी स्फटिकमय दीवारोंमें उनका प्रतिबिम्ब पड़नेसे ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें | बुहार रही हो ॥ 21 ॥ प्यारे देवताओ जिस समय दासियोको साथ लिये वे अपने क्रोडावनमें तुलसीदलद्वारा भगवान्‌का पूजन करती हैं, तब वहाँके निर्मल जलसे भरे हुए सरोवरोंमें, जिनमें मूँगेके घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावलो और उन्नत नासिकासे सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान्‌का चुम्बन किया हुआ है यो जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती है।। 22 ।। जो लोग भगवान्की पापापहारिणी लीलाकथाओंको छोड़कर बुद्धिको नष्ट करनेवाली अर्थ- कामसम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोकमें नहीं जा सकते। हाय! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातोंको सुनते हैं, तब ये उनके पुण्योंको नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकोंमें डाल देती हैं ॥ 23 ॥ अहा ! इस मनुष्ययोनिकी बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इसकी चाह करते हैं। इसीमें तत्त्वज्ञान और धर्मको भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवानको आराधना नहीं करते, वे वास्तवमें उनकी | सर्वत्र फैली हुई मायासे ही मोहित हैं 24 देवाधिदेव श्रीहरिका निरन्तर चिन्तन करते रहनेके कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं. आपमें प्रभुके सुयशको चर्चा चलनेपर अनुरागजन्य विलाश जिनके नेत्रोंसे अविरत अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीरमे रोमाञ्च हो जाता है और जिनके से शील स्वभावकी हमलोग भी इच्छा करते हैं—वे परमभागवत ही हमारे लोकोसे ऊपर उस वैकुण्ठधाममे जाते हैं॥ 25 जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरिके निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओंके विचित्र विमानोंसे विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाममें अपने योगबल से पहुंचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ।। 26 ।।

भगवदर्शनको लालसासे अन्य दर्शनीय सामग्रीको उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधामकी छ उदियों पार करके जब वे सातवींपर पहुंचे, तब वहाँ उन्हें हाथमें गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखायी दिये जो बाजूबंद कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषण ॥ 27 ॥ उनकी चार श्यामल भुजाओंके बीचमे मतवाले मधुकरोंसे गुञ्जायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाकी भौहे, फड़कते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनोंके कारण उनके चेहरेपर कुछ क्षोभके-से चिह्न दिखायी दे रहे थे ॥ 28 ॥ उनके इस प्रकारदेखते रहनेपर भी वे मुनिगण उनसे बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ोंसे युक्त पहली छः ड्यौढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वारमें भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे निःशङ्क होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोकके विचरते थे ॥ 29 ॥ वे चारों कुमार पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्माकी सृष्टिमें आयुमें सबसे बड़े होनेपर भी देखनेमें पाँच वर्षके बालकों से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्तिसे (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार निःसङ्कोचरूपसे भीतर जाते देख उन द्वारपालोंने भगवान् के शील स्वभावके विपरीत सनकादिके तेजकी हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहारके योग्य नहीं थे ॥ 30 ॥ जब उन द्वारपालोंने वैकुण्ठवासी देवताओंके सामने पूजाके सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारोंको इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभुके दर्शनोंमें विघ्न पड़नेके कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोधसे लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे ॥ 31 ॥

मुनियोंने कहा – अरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान्‌की महती सेवाके प्रभावसे इस लोकको प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान्‌के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हींमेंसे हो, किन्तु तुम्हारे स्वभावमें यह विषमता क्यों है ? भगवान् तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसीसे विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिसपर शङ्का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरोंपर शङ्का करते हो ॥ 32 ॥ भगवान्‌के उदरमें यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है; इसलिये यहाँ रहनेवाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरिसे अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाशमें घटाकाशकी भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देव-रूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान् के साथ कुछ भेदभावके कारण होनेवाले भयकी कल्पना कर ली । 33 ॥ तुम हो तो इन भगवान् वैकुण्ठनाथके पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करनेके लिये हम तुम्हारे अपराधके योग्य दण्डका विचार करते हैं। तुम अपनी मन्द भेदबुद्धिके दोषसे इस वैकुण्ठलोकसे निकलकर उन पापमय योनियोंमें जाओ, जहाँ काम, क्रोध, लोभ- प्राणियोंके ये तीन शत्रु निवास करते हैं ॥ 34 ॥ 19. सनकादिके ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणोंके शापको किसी भी प्रकारके शस्त्रसमूहसे निवारण होनेयोग्य न जानकर श्रीहरिके वे दोनों पार्षद अत्यन्त दीनभावसे उनके चरण पकड़कर पृथ्वीपर लोट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणोंसे बहुत डरते हैं ll 35 ll
फिर उन्होंने अत्यन्त आतुर होकर कहा- ‘भगवन्! हम अवश्य अपराधी हैं; अतः आपने हमें जो दण्ड दिया है, वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिये। हमने भगवान्का अभिप्राय समझकर उनकी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। इससे हमें जो पाप लगा है, वह आपके दिये हुए दण्डसे सर्वथा धुल जायगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशाका विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा-सा भी अनुताप हो, तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियोंमें जानेपर भी हमें भगवत्स्मृतिको नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो ।। 36 ।।

इधर जब साधुजनोंके हृदयधन भगवान् कमलनाभको मालूम हुआ कि मेरे द्वारपालोंने सनकादि साधुओंका अनादर किया है, तब वे लक्ष्मीजीके सहित अपने उन्हीं श्रीचरणों चलकर ही, वहाँ पहुँचे, जिन्हें परमहंस मुनिजन भी ढूँढ़ते रहते हैं—सहजमें पाते नहीं ॥ 37 ॥ सनकादिने देखा कि उनको समाधिके विषय श्रीवैकुण्ठनाथ स्वयं उनके नेत्रगोचर होकर पधारे हैं, उनके साथ-साथ पार्षदगण छत्र-चामरादि लिये चल रहे हैं. तथा प्रभुके दोनों ओर राजहंसके पंखोंके समान दो श्वेत वर डुलाये जा रहे हैं। उनकी शीतल वायुसे उनके क्षेत उनमें लगी हुई मोतियोंकी झालर हिलती हुई ऐसी शोभा दे रही है मानो चन्द्रमाक किरणोंसे अमृतकी बूँदें झर रही हों ॥ 38 प्रभु समस्त सद्गुणों के आश्रय हैं, उनकी सौम्य मुखमुद्राको देखकर जान पड़ता था मानो वे सभीपर अनवरत कृपासुधाकी वर्षा कर रहे है। अपनी स्नेहमयी चितवनसे वे भक्तोंका हृदय स्पर्श कर रहे थे तथा उनके सुविशाल श्याम वक्षःस्थलपर स्वर्णरखाके रूपमें जो साक्षात् लक्ष्मी विराजमान थीं, उनसे मानो वे समस्त दिव्यलोकोंके चूडामणि वैकुण्ठधामको सुशोभित कर रहे थे ।। 39 ।। उनके पीताम्बरमण्डित विशाल नितम्बोंपर झिलमिलाती हुई करधनी और गलेमें भ्रमरोंसे मुखरित वनमाला विराज रही थी; तथा वे कलाइयोंमें सुन्दर कंगन पहने अपना एक हाथ गरुड़जीके कंपेपर रख दूसरेसे कमलका पुष्प घुमा रहे थे ॥ 40 उनके अमोल कपोल बिजलीको प्रभाको भी कृती शेोभा बढ़ा रहे थे, उभरी हुई सुघड़ नासिका थी, बड़ा ही सुन्दर मुख था, सिरपर मणिमय मुकुट विराजमान था तथा चारों भुजाओंके बीच महामूल्यवान् मनोहर हारकी और गलेमें कौस्तुभमणिकी अपूर्व शोभा थी ।। 41 ।। भगवान्‌का श्रीविग्रह बड़ा ही सौन्दर्यशाली था उसे देखकर भक्तों में ऐसा त होता था कि इसके सामने लक्ष्मीजीका सौन्दर्याभिमान भी गलित हो गया है। हाजी कहते है-देवताओं इस प्रकार मेरेमहादेवजीके और तुम्हारे लिये परम सुन्दर विग्रह धारण करनेवाले श्रीहरिको देखकर सनकादि मुनीश्वरोंने उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। उस समय उनकी अद्भुत छविको निहारते-निहारते उनके नेत्र तुम नहीं होते थे । 42 ।।

सनकादि मुनीश्वर निरन्तर ब्रह्मानन्दमें निमन रहा करते थे। किन्तु जिस समय भगवान कमलनयनके चरणारविन्दमकरन्दसे मिली हुई तुलसीमञ्जरीके गन्धसे सुवासित वायुने नासिकार धोके द्वारा उनके अन्तःकरणमें प्रवेश किया, उस समय वे अपने शरीरको सँभाल न सके और उस दिव्य गन्धने उनके मनमें भी खलबली |पैदा कर दी ।। 43 । भगवान्का मुख नील कमलके समान था, अति सुन्दर अधर और कुन्दकलीके समान मनोहर हाससे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। उसकी झाँकी करके वे कृतकृत्य हो गये। और फिर पद्मरागके समान लाल-लाल नखोंसे सुशोभित उनके चरणकमल देखकर वे उन्हींका ध्यान करने लगे ।। 44 ।। इसके पश्चात् वे मुनिगण अन्य साधनोंसे सिद्ध न होनेवाली, स्वाभाविक अष्टसिद्धियोंसे सम्पन्न श्रीहरिकी स्तुति करने लगे-जो योगमार्गद्वारा मोक्षपदकी खोज करनेवाले पुरुषोंके लिये उनके ध्यानका विषय, अत्यन्त आदरणीय और नयनानन्दकी वृद्धि करनेवाला पुरुषरूप प्रकट करते हैं ।। 45 ।।

सनकादि मुनियोंने कहा – अनन्त ! यद्यपि आप अन्तर्यामीरूपसे दुष्टचित्त पुरुषोंके हृदयमें भी स्थित रहते हैं, तथापि उनकी दृष्टिसे ओझल ही रहते हैं। किन्तु आज हमारे नेत्रोंके सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजीने आपका रहस्य वर्णन किया था, उसी समय श्रवणद्वारा हमारी बुद्धिमें तो आप आ विराजे थे किन्तु प्रत्यक्ष दर्शनका महान सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है ॥ 46 ॥ भगवन् ! हम आपको साक्षात् परमात्मतत्त्व ही जानते हैं। इस समय आप अपने विशुद्ध सत्त्वमय विग्रहसे अपने इन भक्तोंको आनन्दित कर रहे हैं। आपकी इस सगुण-साकार मूर्तिको राग और अहङ्कारसे मुक्त मुनिजन आपकी कृपादृष्टिसे प्राप्त हुए सुद्द भक्तियोगके द्वारा अपने हृदयमें उपलब्ध करते हैं । 47 ॥ प्रभो! आपका सुयश अत्यन्त कीर्तनीय और सांसारिक दुःखोंकी निवृत्ति करनेवाला है। आपके चरणोंकी शरणमें रहनेवाले जो महाभाग आपकी कथाओंके रसिक है, वे आपके आत्यन्तिक प्रसाद मोक्षपदको भी कुछ अधिक नहीं गिनते; फिर जिन्हें आपकी जरा-सी टेढ़ी भौंह ही भयभीत कर देती है, उन इन्द्रपद आदि अन्य भोगोंके विषयमें तो कहना ही क्या है ॥ 48 ॥ भगवन् ! यदि हमारा चित भौरकी तरह आपके चरण-कमलोंमें ही रमण करता रहे, हमारी वाणी तुलसीके समान आपके चरण सम्बन्धसे हीसुशोभित हो और हमारे कान आपकी सुयश-सुधासे परिपूर्ण रहे तो अपने पापोंके कारण भले ही हमारा जन्म नरकादि योनियोंमें हो जाय – इसकी हमें कोई चिन्ता नहीं है ॥ 49 ॥ विपुलकीर्ति प्रभो! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है, | उससे हमारे नेत्रोंको बड़ा ही सुख मिला है; विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यन्त कठिन है। आप साक्षात् भगवान् हैं और इस प्रकार स्पष्टतया हमारे नेत्रोंके सामने | प्रकट हुए हैं। हम आपको प्रणाम करते हैं ॥ 50 ॥

अध्याय 16 जय-विजयका वैकुण्ठसे पतन

श्रीब्रह्माजीने कहा—देवगण! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियोंने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ निवास श्रीहरिने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा ॥ 1 ॥

श्रीभगवान् ने कहा – मुनिगण! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका | बहुत बड़ा अपराध किया है ॥ 2 ॥ आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करनेके कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है ॥ 3 ॥ ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरोंके द्वारा आपलोगोंका जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता । इसलिये मैं आपलोगोंसे प्रसन्नताकी भिक्षा माँगता हूँ ॥ 4 सेवकोंके अपराध करनेपर संसार उनके स्वामीका ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्तिको इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचाको चर्मरोग ॥ 5 ॥ मेरी निर्मल सुयश-सुधामें गोता लगानेसे चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आपलोगोंसे ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा ही क्यों न हो—मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा ।। 6 ।।आपलोगोंकी सेवा करनेसे ही मेरी चरण-रजको ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापोंको तत्काल नष्ट कर | देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहनेपर भी लक्ष्मीजी मुझे एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ती- यद्यपि इन्होंके लेशमात्र कृपाकटाक्षके लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकारके नियमों एवं व्रतोंका पालन करते हैं॥ 7 ॥ जो अपने सम्पूर्ण कर्मफल हैं मुझे अर्पणकर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास ग्रासपर तृप्त होते हुए घीसे तर तरह-तरहके पकवानोंका जब भोजन करते हैं, तब उनके मुखसे में जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञमें अभिरूप मुखसे यजमानकी दी हुई आहुतियोंको ग्रहण करके नहीं होता ॥ 8 ॥ योगमायाका अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गङ्गाजी चन्द्रमाको मस्तकपर धारण करनेवाले भगवान् शङ्करके सहित समस्त लोकोंको पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनको पवित्र चरण-रजको अपने मुकुटपर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणोंके कर्मको कौन नहीं सहन करेगा ॥ 9 ॥ ब्राह्मण, दूध देनेवाली गौएँ और अनाथ प्राणी – ये मेरे ही शरीर है। पापोंके द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जानेके कारण जो | लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्तः यमराजके गृध जैसे दूत – जो सर्पके समान क्रोधी हैं अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचोंसे नोचते हैं ॥ 10 ॥ ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें | मेरी भावना करके प्रसन्नचित्तसे तथा अमृतभरी मुसकानसे | युक्त मुखकमलसे उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिताको पुत्र और आपलोगोंको मैं मनाता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनोंसे प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ॥ 11 ॥ मेरे इन सेवकोंने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आपलोगोका अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोधसे आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासनकाल शीघ्र ही समाप्त हो जाय, ये अपने अपराधके अनुरूप अधम गतिको भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें ।। 12 ।। श्रीब्रह्माजी कहते हैं— देवताओ ! सनकादि मुनि क्रोधरूप सर्पसे इसे हुए थे, तो भी उनका चित्त अन्तः करणको प्रकाशित करनेवाली भगवान्की मन्त्रमयी सुमधुर वाणी सुनते-सुनते तुम नहीं हुआ। 13 ।।भगवान‌की उक्ति बड़ी ही मनोहर और थोड़े अक्षरोंवाली थी किन्तु वह इतनी अर्थपूर्ण, सारयुक्त, दुर्विज्ञेय और गम्भीर थी कि बहुत ध्यान देकर सुनने और विचार करनेपर भी वे यह न जान सके कि भगवान् क्या करना चाहते हैं ॥ 14 ॥ भगवान्‌की इस अद्भुत उदारताको देखकर वे बहुत आनन्दित हुए और उनका अङ्ग अङ्ग | पुलकित हो गया। फिर योगमायाके प्रभावसे अपने परम ऐश्वर्यका प्रभाव प्रकट करनेवाले प्रभुसे वे हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ 15 ॥

मुनियोंने कहा- स्वप्रकाश भगवन्! आप सर्वेश्वर होकर भी जो यह कह रहे हैं कि ‘यह आपने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया’ सो इससे आपका क्या अभिप्राय है- यह हम नहीं जान सके हैं ।। 16 ।। प्रभो! आप ब्राह्मणोंके परम हितकारी हैं; इससे लोक-शिक्षा के लिये आप भले ही ऐसा मानें कि ब्राह्मण मेरे आराध्यदेव हैं। वस्तुतः तो ब्राह्मण तथा देवताओंके भी देवता ब्रह्मादिके भी आप ही आत्मा और आराध्यदेव हैं ॥ 17 ॥ सनातनधर्म आपसे ही उत्पन्न हुआ है, आपके अवतारोंद्वारा ही समय-समयपर उसकी रक्षा होती है तथा निर्विकारस्वरूप आप ही धर्मके परम गुहा रहस्य हैं—यह शास्त्रोंका मत है ॥ 18 ॥ आपकी कृपासे निवृत्तिपरायण योगीजन सहजमें ही मृत्युरूप संसार-सागरसे पार हो जाते हैं; फिर भला, दूसरा कोई आपपर क्या कृपा कर सकता है ॥ 19 ॥ भगवन्! दूसरे अर्थार्थी जन जिनकी चरण-रजको सर्वदा अपने मस्तकपर धारण करते हैं, वे लक्ष्मीजी निरन्तर आपकी सेवामें लगी रहती हैं; सो ऐसा जान पड़ता है कि भाग्यवान् भक्तजन आपके चरणोंपर जो नूतन तुलसीकी मालाएँ अर्पण करते हैं, उनपर गुंजार करते हुए भौरोंके समान वे भी आपके पादपद्मोंको ही अपना निवासस्थान बनाना चाहती हैं 20 किन्तु अपने पवित्र चरित्रोंसे निरन्तर सेवामें तत्पर रहनेवाली उन लक्ष्मीजीका भी आप विशेष आदर नहीं करते, आप तो अपने भक्तोंसे ही विशेष प्रेम रखते हैं। आप स्वयं ही सम्पूर्ण भजनीय गु आश्रय है क्या जहाँ-तहाँ विचरते हुए ब्राह्मणोंके चरणोंमें लगने से पवित्र हुई मार्गकी भूलि और श्रीवत्सका चिह्न आपको पवित्र कर सकते हैं? क्या इनसे आपकी शोभा बढ़ सकती है ? ।। 21 ।।

भगवन्! आप साक्षात् धर्मस्वरूप हैं। आप सत्यादि तीनों युगोंमें प्रत्यक्षरूपसे विद्यमान रहते हैं तथा ब्राह्मण और देवताओंके लिये तप, शौच और दया- अपने इन तीन चरणोंसे इस चराचर जगत्‌की रक्षा करते हैं। अब आप अपनी शुद्धीवादी मूर्ति हमारे धर्मविरोधी रजोगुण- तमोगुणको दूर कर दीजिये ॥ 22 ॥ देव यह ब्राह्मणकुल आपके द्वारा अवश्य रक्षणीय है। यदि साक्षात् धर्मरूप होकर भी आप सुमधुर वाणी और पूजनादिके द्वारा इस उत्तम कुलकी रक्षा न करें तो आपकानिश्चित किया हुआ कल्याणमार्ग ही नष्ट हो जाय; क्योंकि लोक तो श्रेष्ठ पुरुषोंके आचरणको ही प्रमाणरूपसे ग्रहण करता है ।। 23 ।। प्रभो ! आप सत्त्वगुणकी खान है और सभी है जीवोंका कल्याण करनेके लिये उत्सुक हैं। इसीसे आप अपनी शक्तिरूप राजा आदिके द्वारा धर्मके शत्रुओंका संहार करते हैं; क्योंकि वेदमार्गका उच्छेद आपको अभीष्ट नहीं है। आप त्रिलोकीनाथ और जगत्प्रतिपालक होकर भी ब्राह्मणोंके प्रति इतने नम्र रहते हैं, इससे आपके तेजकी कोई हानि नहीं होती; यह तो आपकी लीलामात्र है । 24 ॥ सर्वेश्वर ! इन द्वारपालोंको आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें, अथवा पुरस्काररूपमें इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपट भावसे सब प्रकार आपसे सहमत हैं। अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरोंको शाप दिया है, इसके लिये हमको उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है ।। 25 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- -मुनिगण! आपने इन्हें जो शाप दिया है— सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणासे हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनिको प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेशसे बढ़ी हुई एकाग्रताके कारण सुदृढ़ योगसम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे ।। 26 ।।

श्रीब्रह्माजी कहते हैं- तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठ धामके दर्शन करके प्रभुकी परिक्रमा की और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान्‌के ऐश्वर्यका वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँसे लौट गये । 27-28 ॥ फिर भगवान्‌ने अपने अनुचरोंसे कहा, ‘जाओ, मनमें किसी प्रकारका भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करनेमें समर्थ होकर भी ब्रह्मतेजको मिटाना नहीं चाहता क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है ।। 29 । एक बार जब मैं योगनिद्रामें स्थित हो गया था, तब तुमने द्वारमें प्रवेश करती हुई लक्ष्मीजीको रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया। था ।। 30 ।। अब दैत्ययोनिमें मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र तिरस्कारजनित | पापसे मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समयमे मेरे पास लौट आओगे ।। 31 ।। द्वारपालोंको इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान्ने विमानोंकी श्रेणियोंसे सुसज्जित अपने सर्वाधिक श्रीसम्पन्न धाममें प्रवेश किया ।। 32 ।। वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशापके कारण उस अलङ्घनीय भगवद्धाममें ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया ॥ 33 ॥पुत्रो! फिर जब वे वैकुण्ठलोकसे गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानोंपर बैठे हुए वैकुण्ठवासियोंमें महान् हाहाकार | मच गया ॥ 34 ॥ इस समय दितिके गर्भमें स्थित जो कश्यपजीका उग्र तेज है, उसमें भगवान्‌के उन पार्षदप्रवरोंने ही प्रवेश किया है ॥ 35 ॥ उन दोनों असुरोंके तेजसे ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। | इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं ॥ 36 ॥ जो आदिपुरुष संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और लयके कारण हैं, जिनकी योगमायाको बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी | कठिनतासे पार कर पाते हैं—वे सत्त्वादि तीनों गुणोंके नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषयमें हमारे विशेष विचार करनेसे क्या लाभ हो सकता है ।। 37 ।।

अध्याय 17 हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षका जन्म

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी! ब्रह्माजीके कहने से अन्धकारका कारण जानकर देवताओंकी शङ्का निवृत्त हो गयी और फिर वे सब स्वर्गलोकको लौट आये ॥ 1 ॥

इधर दितिको अपने पतिदेवके कथनानुसार पुत्रोंकी ओरसे उपद्रवादिकी आशङ्का बनी रहती थी। इसलिये जब पूरे सौ वर्ष बीत गये, तब उस साध्वीने दो यमज (जुड़वे) पुत्र उत्पन्न किये ॥ 2 ॥ उनके जन्म लेते समय स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें अनेकों उत्पात होने लगे—जिनसे लोग अत्यन्त भयभीत हो गये॥ 3॥ जाँहाँ पृथ्वी और पर्वत काँपने लगे सब दिशाओंमें दाह होने लगा। जगह-जगह उल्कापात होने लगा, बिजलियाँ गिरने लगी और आकाश अनिष्टसूचक धूमकेतु (पुच्छल तारे) दिखायी देने लगे ॥ 4 ॥ बार-बार साथै साथै करती और बड़े-बड़े को उलाहती हुई वहाँ विकट और असह्य वायु चलने लगी। उस समय आंधी उसकी सेना और उड़ती हुई धूल ध्वजाके समान जान पड़ती थी ॥ 5 बिजली जोर-जोरसे चमककर मानो खिलखिला रही थी। घटाओंने ऐसा सघन रूप धारण किया कि सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहोंके लुप्त हो जानेसे आकाशमें गहरा अंधेरा छा गया। | उस समय कहीं कुछ भी दिखायी न देता था ॥ 6 ॥समुद्र दुःखी मनुष्यकी भाँति कोलाहल करने लगा, उसमें ऊँची ऊँची तरंगे उठने लगीं और उसके भीतर रहनेवाले जीवोंमें बड़ी हलचल मच गयी। नदियों तथा अन्य जलाशयोंमें भी बड़ी खलबली मच गयी और उनके कमल सूख गये ॥ 7 ॥ सूर्य और चन्द्रमा बार-बार प्रसे जाने लगे तथा उनके चारों ओर अमङ्गलसूचक मण्डल बैठने लगे। बिना बादलोंके ही गरजनेका शब्द होने लगा तथा गुफाओंमेंसे रथकी घरघराहटका सा शब्द निकलने लगा ॥ 8 ॥ गाँवोंमें गीदड़ और उल्लुओंके भयानक शब्दके साथ ही सियारिया मुखसे दहकती हुई आग उगलकर बड़ा अमङ्गल शब्द करने लगीं ॥ 9 ॥ जहाँ-तहाँ कुत्ते अपनी गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने और कभी रोनेके समान भाँति-भाँतिके शब्द करने लगे ॥ 10 विदुरजी ! झुंड के झुंड गधे अपने कठोर खुरोंसे पृथ्वी खोदते और रेंकनेका शब्द करते मतवाले होकर इधर-उधर दौड़ने लगे ॥ 11 ॥ पक्षी गधोंके शब्दसे डरकर रोते-चिल्लाते अपने पौलोसे उड़ने लगे। अपनी रिकामें वैसे हुए और वनमें चरते हुए गाय-बैल आदि पशु डरके मारे मल-मूत्र त्यागने लगे ॥ 12 गौएँ ऐसी डर गयीं कि दुहनेपर उनके थनोंसे खून निकलने लगा, बादल पौबकी वर्षा करने लगे, देवमूर्तियोंकी आँखोंसे आँसू बहने लगे और आँधीके बिना ही वृक्ष उखड़ उखड़कर गिरने लगे ॥ 13 ॥ शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र, बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा बहुत-से नक्षत्रोंको लाँघकर वक्रगतिसे चलने लगे तथा आपसमें युद्ध करने लगे ॥ 14 ऐसे ही और भी अनेकों भयङ्कर उत्पात देखकर सनकादिके सिवा और सब जीव भयभीत हो गये तथा उन उत्पातोंका मर्म न जाननेके कारण उन्होंने यही समझा कि अब संसारका प्रलय होनेवाला है ।। 15 ।।

वे दोनों आदित्य जन्मके अनन्तर शीघ्र ही अपने फौलादके समान कठोर शरीरोंसे बढ़कर महान् पर्वतोंके सदृश हो गये तथा उनका पूर्व पराक्रम भी प्रकट हो गया ॥ 16 वे इतने ऊँचे थे कि उनके सुवर्णमय मुकुटोंका अग्रभाग स्वर्गको स्पर्श करता था और उनके विशाल शरीरोंसे सारी दिशाएँ आच्छादित हो जाती थीं। उनकी भुजाओं में सोनेके बाजूबंद चमचमा रहे थे। पृथ्वीपर जो वे एक-एक कदम रखते थे, उससे भूकम्प होने लगता था और जब वे खड़े होते थे, तब उनकी जगमगाती हुई चमकीली करघनसे सुशोभित कमर अपने प्रकाशसे सूर्यको भी मात करती थी ॥ 17 ॥वे दोनों यमज थे। प्रजापति कश्यपजीने उनका नामकरण किया। उनसे जो उनके वीर्थसे दिति के गर्भ में पहले स्थापित हुआ था, उसका नाम हिरण्यकशिपु रखा और जो दितिके उदरसे पहले निकला, वह हिरण्याक्षके नामसे विख्यात हुआ ।। 18 ।।

हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीके वरसे मृत्युभयसे मुक्त हो जानेके कारण बड़ा उद्धत हो गया था। उसने अपनी भुजाओंके बलसे लोकपालक सहित तीनों लोकोंको अपने वशमें कर लिया ।। 19 । वह अपने छोटे भाई हिरण्याक्षको बहुत चाहता था और वह भी सदा अपने बड़े भाईका प्रिय कार्य करता रहता था। एक दिन वह हिरण्याक्ष हाथमें गदा लिये युद्धका अवसर ढूँढता हुआ स्वर्गलोकमें जा पहुँचा ॥ 20 ॥ उसका वेग बड़ा असह्य था। उसके पैरोंमें सोनेके नूपुरोकी झनकार हो रही थी, गलेमें विजयसूचक | माला धारण की हुई थी और कंधेपर विशाल गदा रखी हुई थी ॥ 21 ॥ उसके मनोबल, शारीरिक बल तथा ब्रह्माजीके | वरने उसे मतवाला कर रखा था, इसलिये वह सर्वथा निरङ्कुश और निर्भय हो रहा था। उसे देखकर देवतालोग डरके मारे वैसे ही जहाँ-तहाँ छिप गये, जैसे गरुड़के डर से साँप छिप जाते हैं ॥ 22 ॥ जब दैत्यराज हिरण्याक्षने देखा कि मेरे तेजके सामने बड़े-बड़े गले इन्द्रादि देवता भी छिप गये हैं, तब उन्हें अपने सामने न देखकर वह बार-बार भयङ्कर गर्जना करने लगा ।। 23 ।। फिर वह महाबली दैत्य वहाँसे लौटकर जलक्रीडा करनेके लिये मतवाले हाथी के समान गहरे समुद्रमे घुस गया, जिसमें लहरोंकी बड़ी भयङ्कर गर्जना हो रही थी ॥ 24 ॥ ज्यों ही उसने समुद्रमें पैर रखा कि डरके मारे वरुणके सैनिक जलचर जीव हकबका गये और किसी प्रकारकी छेड़छाड़ न करनेपर भी वे उसकी धाकसे ही घबराकर बहुत दूर भाग गये 25 ॥ महाबली हिरण्याक्ष अनेक क्तक समुद्र ही घूमता और सामने किसी प्रतिपक्षीको न पाकर बार-बार वायुवेगसे उठी हुई उसकी प्रचण्ड तरङ्गोंपर ही अपनी लोहमयी गदाको आजमाता रहा। इस प्रकार घूमते-घूमते वह वरुणको राजधानी विभावरीपुरीमें जा पहुँचा ।। 26 ।। वहाँ पाताललोकके स्वामी, जलचरोके अधिपति वरुणजीको देखकर उसने उनकी हंसी उड़ाते हुए नीच मनुष्यकी भांति प्रणाम किया और कुछ मुसकराते हुए व्यङ्गसे कहा- ‘महाराज! मुझे युद्धकी भिक्षा दीजिये ॥ 27प्रभो ! आप तो लोकपालक, राजा और बड़े कीर्तिशाली हैं। जो लोग अपनेको बाँका वीर समझते थे, उनके वीर्यमदको भी आप चूर्ण कर चुके हैं और पहले एक बार आपने संसारके समस्त दैत्य-दानवोंको जीतकर राजसूय यज्ञ भी किया था’ ॥ 28 ॥

उस मदोन्मत्त शत्रुके इस प्रकार बहुत उपहास करनेसे भगवान् वरुणको क्रोध तो बहुत आया, किंतु अपने बुद्धिबलसे वे उसे पी गये और बदलेमें उससे कहने लगे ‘भाई ! हमें तो अब युद्धादिका कोई चाव नहीं रह गया है ।। 29 ॥ भगवान् पुराणपुरुषके सिवा हमें और कोई ऐसा दीखता भी नहीं, जो तुम जैसे रणकुशल वीरको युद्धमें सन्तुष्ट कर सके। दैत्यराज ! तुम उन्हींके पास जाओ, वे ही तुम्हारी कामना पूरी करेंगे। तुम जैसे वीर उन्हींका गुणगान किया करते हैं ॥ 30 ॥ वे बड़े वीर हैं। उनके पास पहुँचते ही तुम्हारी सारी शेखी पूरी हो जायगी और तुम कुत्तोंसे घिरकर वीरशय्यापर शयन करोगे। वे तुम-जैसे दुष्टोंको मारने और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये अनेक प्रकारके रूप धारण किया करते हैं’ ॥ 31 ॥

अध्याय 18 हिरण्याक्षके साथ वाराहभगवान्‌का युद्ध

श्रीमैत्रेयजीने कहा-तात! वरुणजीकी यह बात सुनकर वह मदोन्मत्त दैत्य बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने उनके इस कथनपर कि ‘तू उनके हाथसे मारा जायगा’ कुछ भी ध्यान नहीं दिया और चट नारदजीसे श्रीहरिका पता लगाकर रसातलमें पहुँच गया ॥ 1 ॥ वहाँ उसने विश्वविजयी वराहभगवान्‌को अपनी दाढ़ोंकी नोकपर पृथ्वीको ऊपरकी ओर ले जाते हुए देखा। वे अपने लाल-लाल चमकीले नेत्रोंसे उसके तेजको हरे लेते थे। उन्हें देखकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ा और बोला, ‘अरे ! यह जंगली पशु यहाँ जलमें कहाँसे आया’ ॥ 2 ॥फिर वराहजीसे कहा, ‘अरे नासमझ इधर आ, इस पृथ्वीको छोड़ दे इसे विश्वविधाता ब्रह्माजीने हम रसातलवासियोंके हवाले कर दिया है। रे सूकररूपधारी सुराधम! मेरे देखते-देखते तू इसे लेकर कुशलपूर्वक नहीं जा सकता ॥ 3 ॥ तू मायासे लुक-छिपकर ही दैत्योंको जीत लेता और मार डालता है। क्या इसीसे हमारे शत्रुओंने हमारा नाश करानेके लिये तुझे पाला है? मूढ़ तेरा बल तो योगमाया ही है; और कोई पुरुषार्थ तुझमें थोड़े ही है। आज तुझे समाप्तकर मैं अपने बन्धुओंका शोक दूर करूंगा ॥ 4 ॥ जब मेरे हाथसे छूटी हुई गदा प्रहारसे सिर फट जानेके कारण तू मर जायगा, तब तेरी आराधना करनेवाले जो देवता और ऋषि हैं, वे सब भी जड़ कटे हुए वृक्षोंकी भाँति स्वयं ही नष्ट हो जायँगे ॥ 5 ॥

हिरण्याक्ष भगवान‌को दुर्वचन- बाणोंसे छेदे जा रहा था; परन्तु उन्होंने दाँतकी नोकपर स्थित पृथ्वीको भयभीत देखकर वह चोट सह ली तथा जलसे उसी प्रकार बाहर निकल आये, जैसे ग्राहकी चोट खाकर हथिनीसहित गजराज ॥ 6 ॥ जब उसकी चुनौतीका | कोई उत्तर न देकर वे जलसे बाहर आने लगे, तब ग्राह जैसे गजका पीछा करता है, उसी प्रकार पीले केश और तीखी दाढ़ोंवाले उस दैत्यने उनका पीछा किया तथा | वज्रके समान कड़ककर वह कहने लगा, ‘तुझे भागने में लज्जा नहीं आती? सच है, असत् पुरुषोंके लिये कौन-सा काम न करनेयोग्य है ?’ ॥ 7 ॥

भगवान्ने पृथ्वीको ले जाकर जलके ऊपर व्यवहार योग्य स्थानमें स्थित कर दिया और उसमें अपनी आधारशक्तिका सञ्चार किया। उस समय हिरण्याक्षके सामने ही ब्रह्माजीने उनकी स्मृति की और देवताओंने फूल बरसाये ॥ 8 ॥ तब श्रीहरिने बड़ी भारी गदा लिये अपने पीछे आ रहे हिरण्याक्षसे, जो सोने के आभूषण और अद्भुत कवच धारण किये था तथा अपने कटुवाक्योंसे उन्हें निरन्तर मर्माहत कर रहा था, अत्यन्त क्रोधपूर्वक हंसते हुए कहा ।। 9 ।।श्रीभगवान् ने कहा- अरे! सचमुच ही हम जंगली जीव हैं, जो तुझ-जैसे ग्राम-सिंहों (कुत्तों) को ढूँढ़ते फिरते हैं दुष्ट वीर पुरुष तुझ जैसे मृत्यु-पाशमे हैं। दुष्ट! वैधे अभागे जीवोंकी आत्मश्लाघापर ध्यान नहीं | देते ॥ 10 ॥ हाँ, हम रसातलवासियोंकी धरोहर चुराकर और लगा छोड़कर तेरी गदाके भयसे यहाँ भाग आये है। हममें ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ कि तेरे जैसे अद्वितीय वीरके सामने युद्धमें ठहर सकें। फिर भी हम जैसे-तैसे तेरे सामने खड़े हैं; तुझ जैसे बलवानोंसे वैर बांधकर हम जा भी कहाँ सकते हैं ? ॥ 11 ॥ तू पैदल वीरोंका सरदार है, इसलिये अब निःशङ्क होकर—उधेड़-बुन छोड़कर हमारा अनिष्ट करनेका प्रयत्न कर और हमें मारकर अपने भाई-बन्धुओंके आँसू पोछ। अब इसमें देर न कर। जो अपनी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असभ्य है भले आदमियोंमें बैठनेलायक नहीं है ।। 12 ।।

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी! जब भगवान्ने रोषसे उस दैत्यका इस प्रकार खूब उपहास और तिरस्कार किया, तब वह पकड़कर खेलाये जाते हुए सर्पके समान क्रोधसे तिलमिला उठा ॥ 13 ॥ वह खीझकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा, उसकी इन्द्रियाँ क्रोधसे क्षुब्ध हो उठीं और उस दुष्ट दैत्यने बड़े वेगसे लपककर भगवान्पर गदाका प्रहार किया ॥ 14 ॥ किन्तु भगवान्‌ने अपनी छातीपर चलायी हुई शत्रुकी गदाके प्रहारको कुछ टेढ़े होकर बचा लिया- ठीक वैसे ही, जैसे योगसिद्ध पुरुष मृत्युके आक्रमणसे अपनेको बचा लेता है ।। 15 ।। फिर जब वह क्रोधसे होठ चबाता अपनी गदा लेकर बार-बार घुमाने लगा, तब श्रीहरि कुपित होकर बड़े वेगसे उसकी ओर झपटे ॥ 16 ॥ सौम्यस्वभाव विदुरजी तब प्रभुने शत्रुकी दायीं भौहपर गदाकी चोट की, किन्तु गदायुद्धमें कुशल हिरण्याक्षने उसे बीचमें ही अपनी गदापर ले लिया ॥ 17 ॥ इस प्रकार श्रीहरि और हिरण्याक्ष एक दूसरेको जीतनेकी इच्छासे अत्यन्त क्रुद्ध होकर आपसमें | अपनी भारी गदाओंसे प्रहार करने लगे ॥ 18 ॥उस समय उन दोनोंमें ही जीतनेकी होड़ लग गयी, दोनोंके ही अंग गदाओंकी चोटोंसे घायल हो गये थे, अपने अलोंके पासे बहनेवाले रुधिरको गन्धसे दोनोंका ही क्रोध बढ़ रहा था और वे दोनों ही तरह-तरहके पैतरे बदल रहे थे। इस प्रकार गौके लिये आपसमें लड़नेवाले दो साँड़ोंके समान उन दोनोंमें एक-दूसरेको जीतने की इच्छा बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ ॥ 19 ॥ विदुरजी ! जब इस प्रकार हिरण्याक्ष और मायासे वराहरूप धारण करनेवाले भगवान् यज्ञमूर्ति पृथ्वीके लिये द्वेष बाँधकर युद्ध करने लगे, तब उसे देखने के लिये यहाँ ऋषियोंके सहित आये ॥ 20 ॥ वे हजारों ऋषियोंसे घिरे हुए थे। जब उन्होंने देखा कि वह दैत्य बड़ा शूरवीर है, उसमें भयका नाम भी नहीं है, वह मुकाबला करनेमें भी समर्थ है और उसके पराक्रमको चूर्ण करना बड़ा कठिन काम है, तब वे भगवान् आदिसूकररूप नारायणसे इस प्रकार कहने लगे ॥ 21 ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा- देव! मुझसे वर पाकर यह दुष्ट दैत्य बड़ा प्रबल हो गया है। इस समय यह आपके चरणोंकी शरण में रहनेवाले देवताओं, ब्राह्मणों, गौओ तथा अन्य निरपराध जीवों को बहुत ही हानि पहुँचानेवाला, दुःखदायी और भयप्रद हो रहा है। इसकी जड़का और कोई योद्धा नहीं है, इसलिये यह महाकण्टक अपना मुकाबला करनेवाले वीरकी खोजमें समस्त लोकोंमें घूम रहा है ।। 22-23 ॥ यह दुष्ट बड़ा ही मायावी, घमण्डी और निरङ्कुश है बच्चा जिस प्रकार क्रुद्ध हुए साँपैसे खेलता है; वैसे ही आप इससे खिलवाड़ न करें ॥ 24 ॥ देव! अच्युत ! जबतक यह दारुण दैत्य अपनी बलवृद्धिकी वेलाको पाकर प्रबल हो, उससे पहले-पहले ही आप अपनी योगमायाको स्वीकार करके इस पापीको मार डालिये ॥ 25॥ प्रभो देखिये, लोकोका संहार करनेवाली सन्ध्याको भयङ्कर वेला आना ही चाहती है। सर्वान् आप उससे पहले ही इस असुरको मारकर देवताओंको विजय प्रदान कीजिये ॥ 26 ॥इस समय अभिजित् नामक मङ्गलमय मुहूर्तका भी योग आ गया है। अतः अपने सुहृद् हमलोगोंके कल्याणके लिये शीघ्र ही इस दुर्जय दैत्यसे निपट लीजिये ॥ 27 ॥ प्रभो ! इसकी मृत्यु आपके ही हाथ बदी है। हमलोगोंके बड़े भाग्य हैं कि स्वयं | ही अपने कालरूप आपके पास आ पहुँचा है। अब आप युद्धमें बलपूर्वक इसे मारकर लोकोंको शान्ति प्रदान कीजिये ॥ 28 ॥

अध्याय 19 हिरण्याक्षवध

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! ब्रह्माजीके ये कपटरहित अमृतमय वचन सुनकर भगवान् ने उनके भोलेपनपर मुसकराकर अपने प्रेमपूर्ण कटाक्षके द्वारा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली ॥ 1 ॥ फिर उन्होंने झपटकर अपने सामने निर्भय विचरते हुए शत्रुकी ठुड्डीपर गदा मारी। किन्तु हिरण्याक्षकी गदासे टकराकर वह गदा भगवान्‌के हाथसे छूट गयी और चक्कर काटती हुई जमीनपर गिरकर सुशोभित हुई। किंतु यह बड़ी अद्भुत-सी घटना हुई । 2-3 ॥ उस समय शत्रुपर वार करनेका अच्छा अवसर पाकर भी हिरण्याक्षने उन्हें निरस्त्र | देखकर युद्धधर्मका पालन करते हुए उनपर आक्रमण नहीं किया। उसने भगवान्‌का क्रोध बढ़ानेके लिये ही ऐसा किया था ॥ 4 ॥ गदा गिर जानेपर और लोगोंका हाहाकार बंद हो जानेपर प्रभुने उसकी धर्मबुद्धिकी प्रशंसा की और अपने सुदर्शनचक्रका स्मरण किया ॥ 5 ॥

चक्र तुरंत ही उपस्थित होकर भगवान्‌के हाथमें घूमने लगा। किंतु वे अपने प्रमुख पार्षद दैत्याधम हिरण्याक्षके साथ विशेषरूपसे क्रीडा करने लगे। उस | समय उनके प्रभावको न जाननेवाले देवताओंके ये विचित्र वचन सुनायी देने लगे- ‘प्रभो! आपकी जय हो; इसे और न खेलाइये, शीघ्र ही मार डालिये ॥ 6 ॥ जब हिरण्याक्षने देखा कि कमल-दल-लोचन श्रीहरि उसके सामने चक्र लिये खड़े हैं, तब उसकी सारी इन्द्रियाँ क्रोधसे तिलमिला उठीं और वह लम्बी साँसे लेता हुआ अपने दाँतोंसे होठ चबाने लगा ॥ 7 ॥ उस समय वहतीखी दावाला दैत्य, अपने नेत्रोंसे इस प्रकार उनकी ओर घूरने लगा मानो वह भगवान्‌को भस्म कर देगा। उसने उछलकर ‘ले, अब तू नहीं बच सकता’ इस प्रकार ललकारते. हुए श्रीहरिपर गदासे प्रहार किया ॥ 8 ॥ साधुस्वभाव विदुरजी ! यज्ञमूर्ति श्रीवराहभगवान्ने शत्रुके देखते-देखते लीलासे ही अपने बायें पैरसे उसकी वह वायुके समान | वेगवाली गदा पृथ्वीपर गिरा दी और उससे कहा, ‘अरे दैत्य ! तू मुझे जीतना चाहता है, इसलिये अपना शस्त्र उठा ले और एक बार फिर वार कर भगवानके इस प्रकार कहनेपर उसने फिर गदा चलायी और बड़ी भीषण गर्जना करने लगा । 9-10 ॥ गदाको अपनी ओर आते देखकर भगवान्ने, जहाँ खड़े थे वहाँसे, उसे आते ही अनायास इस प्रकार पकड़ लिया, जैसे गरुड सॉपिनको पकड़ ले ॥ 11 ॥

अपने उद्यमको इस प्रकार व्यर्थ हुआ देख उस महादैत्यका घमंड ठंडा पड़ गया और उसका तेज नष्ट हो गया। अबकी बार | भगवान्के देनेपर उसने उस गदाको लेना न चाहा ।। 12 ।। किंतु जिस प्रकार कोई ब्रह्मणके ऊपर निष्फल अभिचार ( मारणादि प्रयोग) करे-मूठ आदि चलाये, वैसे ही उसने श्रीयज्ञपुरुषपर प्रहार करनेके लिये एक प्रज्वलित अग्निके समान लपलपाता हुआ त्रिशूल लिया || 13 || महाबली हिरण्याक्षका अत्यन्त वेगसे छोड़ा हुआ वह तेजस्वी त्रिशूल आकाशमें बड़ी तेजीसे चमकने लगा। तब भगवान्ने उसे अपनी तीखी धारवाले चक्रसे इस प्रकार काट डाला, जैसे इन्द्रने गरुडजीके छोड़े हुए तेजी पंखको काट डाला था * ॥ 14 ॥ भगवान्‌के चक्रसे अपने त्रिशूलके बहुत-से टुकड़े हुए देखकर उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने | पास आकर उनके विशाल वक्षःस्थलपर, जिसपर श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है, कसकर घूँसा मारा और फिर बड़े जोरसे गरजकर अन्तर्धान हो गया ।। 15 ।।

विदुरजी जैसे हाथीपर पुष्पा चोटका कोई असर नहीं होता, उसी प्रकार उसके इस प्रकार घूँसा मारनेसे भगवान् आदिवराह तनिक भी टस से मस नहीं हुए ।। 16 ।। तब वह महामायावी दैत्य मायापति श्रीहरिपर अनेक प्रकारको मायाओंका प्रयोग करने लगा, जिन्हें देखकर सभी प्रजा बहुत डर गयी और समझने लगी कि अब संसारका प्रलय होनेवाला है ॥ 17 ॥बड़ी प्रचण्ड आंधी चलने लगी, जिसके कारण धूलसे सब ओर अन्धकार छा गया। सब ओरसे पत्थरोंकी वर्षा होने लगी, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी क्षेपणयन्त्र (गुलेल) से फेंके जा रहे हों ॥ 18 ॥ बिजलीकी चमचमाहट और कड़कके साथ बादलोके घिर आनेसे आकाशमें सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह छिप गये तथा उनसे निरन्तर पीव, केश, रुधिर, विष्ठा, मूत्र और हड्डियोंकी वर्षा होने लगी ।। 19 । विदुरजी ऐसे-ऐसे पहाड़ दिखायी देने लगे, जो तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र बरसा रहे थे। हाथमें त्रिशूल लिये बाल खोले नंगी राक्षसियां दीखने लगीं ॥ 20 ॥ बहुत से पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों पर चढ़े हुए सैनिकोंके साथ आततायी यक्ष-राक्षसोंका ‘मारो मारो, काटो काटो’ ऐसा अत्यन्त क्रूर और हिंसामय कोलाहल सुनायी देने लगा ॥ 21 ॥

इस प्रकार प्रकट हुए उस आसुरी माया जालका नाश करनेके लिये यज्ञमूर्ति भगवान् वराहने अपना प्रिय सुदर्शनचक्र छोड़ा ।। 22 ।। उस समय अपने पतिका कथन स्मरण हो आनेसे दितिका हृदय सहसा काँप उठा और उसके स्तनोंसे रक्त बहने लगा || 23 || अपना माया जाल नष्ट हो जानेपर वह दैत्य फिर भगवान्के पास आया। उसने उन्हें क्रोधसे दबाकर चूर-चूर करनेकी इच्छासे भुजाओंमें भर लिया, किंतु देखा कि वे तो बाहर ही खड़े हैं॥ 24 ॥ अब वह भगवान्‌को यजके समान कठोर मुकोसे मारने लगा। तब इन्द्रने जैसे वृत्रासुरपर प्रहार किया था, उसी प्रकार भगवान्‌ने उसकी कनपटीपर एक तमाचा मारा ।। 25 ।।

विश्वविजयी भगवान्ने यद्यपि बड़ी उपेक्षासे तमाचा मारा था, तो भी उसकी चोटसे हिरण्याक्षका शरीर घूमने लगा, उसके नेत्र बाहर निकल आये तथा हाथ-पैर और बाल छिन्न-भिन्न हो गये और वह निष्प्राण होकर आँधीसे उखड़े हुए विशाल वृक्षके समान पृथ्वीपर गिर | पड़ा ।। 26 ।। हिरण्याक्षका तेज अब भी मलिन नहीं हुआ था। उस कराल दाढ़ीवाले दैत्यको दाँतोंसे होठ चबाते पृथ्वीपर पड़ा देख वहाँ युद्ध देखनेके लिये आये हुए ब्रह्मादि देवता उसकी प्रशंसा करने लगे कि ‘अहो। ऐसी अलभ्य मृत्यु किसको मिल सकती है ॥। 27 ॥अपनी मिथ्या उपाधिसे छूटनेके लिये जिनका योगिजन समाधियोगके द्वारा एकान्तमें ध्यान करते हैं, उन्होंके चरण प्रहारसे उनका मुख देखते-देखते इस दैत्यराजने अपना शरीर त्यागा ॥ 28 ॥ ये हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु भगवान्‌के ही पार्षद हैं। इन्हें शापवश यह अधोगति प्राप्त हुई है। अब कुछ जन्मोंमें ये फिर अपने स्थानपर पहुँच जायेंगे ॥ 29 ॥

देवतालोग कहने लगे- प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है। आप सम्पूर्ण यज्ञोंका विस्तार करनेवाले हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये शुद्धसत्त्वमय मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं। बड़े आनन्दकी बात है कि | संसारको कष्ट देनेवाला यह दुष्ट दैत्य मारा गया। अब | आपके चरणोंकी भक्तिके प्रभावसे हमें भी सुख-शान्ति मिल गयी ॥ 30 ॥

मैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! इस प्रकार हिरण्याक्षका वध करके भगवान् आदिवराह अपने अखण्ड आनन्दमय धामको पधार गये। उस समय ब्रह्मादि देवता उनकी स्तुति कर रहे थे ॥ 31 ॥ भगवान् अवतार लेकर जैसी लीलाएँ करते हैं और जिस प्रकार उन्होंने भीषण संग्राममें खिलौनेकी भाँति महापराक्रमी हिरण्याक्षका वध कर डाला, मित्र |विदुरजी ! वह सब चरित जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना था, तुम्हें सुना दिया ॥ 32 ॥

सूतजी कहते हैं— शौनकजी! मैत्रेयजीके मुखसे भगवान्‌की यह कथा सुनकर परम भागवत विदुरजीको बड़ा आनन्दं हुआ ।। 33 ।। जब अन्य पवित्रकीर्ति और परम यशस्वी महापुरुषोंका चरित्र सुननेसे ही बड़ा आनन्द होता है, तब श्रीवत्सधारी भगवान्की ललित-ललाम लीलाओंकी तो बात ही क्या है ॥ 34 ॥ जिस समय ग्राहके पकड़नेपर गजराज प्रभुके चरणोंका ध्यान करने लगे और उनकी हथिनियाँ दुःखसे चिग्घाड़ने लगीं, उस समय जिन्होंने उन्हें तत्काल दुःखसे छुड़ाया और जो सब ओरसे निराशहोकर अपनी शरणमें आये हुए सरलहृदय भक्तोंसे सहजमें ही प्रसन्न हो जाते हैं, किंतु दुष्ट पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुराराध्य हैं— उनपर जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उन प्रभुके उपकारोंको जाननेवाला ऐसा कौन पुरुष है, जो उनका सेवन न | करेगा ? ।। 35-36 ॥ शौनकादि ऋषियो ! पृथ्वीका उद्धार करनेके लिये वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी इस हिरण्याक्ष-वध नामक परम अद्भुत लीलाको जो पुरुष सुनता, गाता अथवा अनुमोदन करता है, वह ब्रह्महत्या जैसे घोर पापसे भी सहजमें ही छूट जाता है ॥ 37 ॥ यह चरित्र अत्यन्त पुण्यप्रद परम पवित्र, धन और यशकी प्राप्ति करानेवाला आयुवर्द्धक और कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला तथा युद्धमें | प्राण और इन्द्रियोंकी शक्ति बढ़ानेवाला है। जो लोग इसे सुनते हैं, उन्हें अन्तमें श्रीभगवान‌का आश्रय प्राप्त होता है ॥ 38 ॥

अध्याय 20 ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टि

शौनकजी कहते हैं- सूतजी ! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनुने आगे होनेवाली सन्ततिको उत्पन्न करनेके लिये | किन-किन उपायोंका अवलम्बन किया ? ॥ 1 ॥ विदुरजी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य सुहृद् । इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रको उनके पुत्र दुर्योधनके सहित, भगवान् श्रीकृष्णका अनादर करनेके कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था ॥ 2 ॥ वे महर्षि द्वैपायनके पुत्र थे और महिमामें | उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान् श्रीकृष्णके आश्रित और कृष्णभक्तोंके अनुगामी थे ॥ 3 ॥ तीर्थसेवनसे उनका अन्तःकरण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त्तक्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेयजीके पास जाकर और क्या पूछा ? ॥ 4 ॥ सूतजी ! उन दोनोंमें वार्तालाप होनेपर श्रीहरिके चरणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणोंसे निकले हुए गङ्गाजलके समान सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली होंगी ॥ 5 ॥ सूतजी ! आपका मङ्गल हो, आप | हमें भगवान्‌की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभुके उदार चरित्र तो कीर्तन करनेयोग्य होते हैं। भला ऐसा कौन रसिक होगा, जोश्रीहरिके लीलामृतका पान करते-करते तृप्त हो जाय ।। 6 । नैमिषारण्यवासी मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर उग्रश्रवा सूतजीने भगवान्में चित्त लगाकर उनसे कहा
‘सुनिये’ ॥ 7 ॥

सूतजीने कहा- मुनिगण अपनी मायासे वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी रसातलसे पृथ्वीको निकालने और खेलमें ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्षको मार डालनेकी लीला सुनकर विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मनिवर | मैत्रेयजीसे कहा ॥ 8 ॥

विदुरजीने कहा- ब्रह्मन् ! आप परोक्ष विषयोंको भी जाननेवाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियोंके पति श्रीजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंको उत्पन्न करके फिर सृष्टिको बहानेके लिये क्या किया ॥ 9 ॥ मरीचि आदि मुनीश्वरोने और स्वायम्भुव मनुने भी ब्रह्माजीकी आशासे किस प्रकार प्रजाकी वृद्धि की ? ॥ 10 ॥ क्या उन्होंने इस जगत्‌को पतियोंके सहयोग से उत्पन्न किया था अपने-अपने कार्यमे स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत्की रचना की ? ॥ 11 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! जिसकी गतिको जानना अत्यन्त कठिन है—उस जीवोंके प्रारब्ध, प्रकृतिके नियन्ता पुरुष और काल – इन तीन हेतुओंसे तथा भगवान्‌को संधि त्रिगुणमय प्रकृति क्षोभ होनेपर उससे महत्व उत्पन्न हुआ ॥ 12 ॥ दैवकी प्रेरणासे रजः प्रधान महत्तत्त्वसे वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस– तीन प्रकारका अहङ्कार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वोंके अनेक वर्ग * प्रकट किये ।। 13 ।। वे सब अलग-अलग रहकर भूतोंके कार्यरूप ब्रह्माण्डकी रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्‌की शक्तिसे परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्डकी रचना की ॥ 14 ॥ वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्थामें एक हजार वर्षोंसे भी अधिक समयतक कारणाब्धिके जलमें पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान्‌ने प्रवेश किया ।। 15 ।। उसमें अधिष्ठित होनेपर उनकी नाभिसे सहस्र सूयोंकि समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदायका आश्रय था। उसीसे स्वयं ब्रह्माजीका भी आविर्भाव हुआ है ।। 16 ।।जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणदेवने ब्रह्माजीके अन्तःकरणमें प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम- रूपमयी | व्यवस्थाके अनुसार लोकोंकी रचना करने लगे ॥ 17 ॥ सबसे | पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोह-यों पाँच प्रकारकी अविद्या उत्पन्न की ॥ 18 ॥ ब्रह्माजीको अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसे त्याग दिया। तब, जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती है – ऐसे रात्रिरूप उस शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोने ग्रहण कर लिया ।। 19 । उस समय भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे- ‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’ क्योंकि वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे ॥ 20 ॥ ब्रह्माजीने घबराकर उनसे कहा- ‘अरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो। (उनमेंसे जिन्होंने कहा ‘खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा ‘रक्षा मत करो’. वे राक्षस कहलाये) ॥ 21 ॥

फिर ब्रह्माजीने सात्त्विकी प्रभासे देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओंकी रचना की। उन्होंने क्रीडा करते हुए, ब्रह्माजीके त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया ।। 22 ।। इसके पश्चात् ब्रह्माजीने अपने जघनदेशसे कामासक्त असुरोंको उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते ही मैथुनके लिये ब्रह्माजीकी ओर चले || 23 || यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरोंको अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे भागे ॥ 24 ॥ तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरिके पास जाकर कहा- ॥ 25 ॥ परमात्मन् ! मेरी रक्षा कीजिये; मैने तो आपकी ही आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पापमें प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है॥ 26 ॥ नाथ ! एकमात्र आप ही दुःखी जीवोंका दुःख दूर करनेवाले हैं और जो आपकी चरण-शरणमें नहीं आते, उन्हें दुःख देनेवाले भी एकमात्र आप ही हैं ॥ 27 ॥

प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदयकी जाननेवाले हैं। उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा- ‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।’ भगवान् के यो कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ 28 ॥(ब्रह्माजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्री-संध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके चरणकमलोंके पायजेब झङ्कृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनीकी लड़ोंसे सुशोभित सजीली साड़ीसे ढकी हुई थी ॥ 29 ॥ उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक-दूसरे से सटे हुए थे कि उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर मधुर मुस्कराती हुई असुरोकी ओर हाव भावपूर्ण दृष्टिसे देख रही थी ॥ 30 ॥ वह नीली-नीली अलकावलीसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे अपने अञ्चलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ॥ 31 ॥ ‘अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नवी अवस्था है देखो, हम कामपीड़ितोंके बीचमें यह कैसी बेपरवाह सी विचर रही है ॥ 32 ॥

इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योंने स्त्रीरूपिणी संध्याके विषयमें तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर बनते हुए प्रेमपूर्वक पूछा- ॥ 33 ॥ ‘सुन्दरि तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है? तुम अपने अनूप रूपका यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोंको क्यों तरसा रही हो 34 ॥ अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआ यह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकोंके मनको मधे डालती | हो ॥ 35 ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर अपनी हथेलीकी थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है’ ॥ 36 ॥ इस प्रकार स्त्रीरूपसे प्रकट हुई उस सायङ्कालीन सन्ध्याने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ोंने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ।। 37 ।।

तदनन्तर ब्रह्माजीने गम्भीर भावसे हँसकर अपनी कान्तिमयो मूर्तिसे, जो अपने सौन्दर्यका मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओंको उत्पन्न किया ॥ 38 ॥ उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका) रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीरको त्याग दिया। उसीको विश्वावसु आदि गभवन प्रसन्नतापूर्वक प्रण किया ।। 39 ।।

इसके पश्चात् भगवान् ब्रह्मने अपनी तन्द्रासे भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखरे देशउन्होंने आँखें मूंद लीं ॥ 40 ॥ ब्रह्माजीके त्यागे हुए उस जैभाईरूप शरीरको भूत-पिशाचोंने ग्रहण किया। इसीको निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवोंको इन्द्रियोंमें शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुँह सो जाता है तो उसपर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसीको उत्पाद कहते हैं ॥ 41

फिर भगवान् ब्रह्माने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्य रूपसे साध्यगण एवं पितृगणको उत्पन्न किया ।। 42 पितरों ने अपनी उत्पत्तिके स्थान उस अदृश्य शरीरको ग्रहण कर लिया। इसी को लक्ष्यमें रखकर पण्डितजन श्रद्धादिके द्वारा पितर और साध्यगणोंको क्रमशः कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं ।। 43 ।।

अपनी तिरोधानशक्ति ब्रह्माजीने सिद्ध और विद्याधरोकी सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धान नामक अद्भुत शरीर दिया ।। 44 एक बार ब्रह्माजीने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपनेको बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये 45 उन्होंने ब्रह्माजीके त्याग देनेपर उनका वह प्रतिविम्व शरीर ग्रहण किया। इसलिये ये सब उषःकालमें अपनी पत्नियोंके साथ मिलकर ब्रह्माजीके गुण-कर्मादिका गान किया करते हैं ।। 46 ।।

एक बार ब्रह्माजी सृष्टिको वृद्धि न होनेके कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवको फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीरको त्याग दिया ।। 47 ।। उससे जो बाल झड़कर गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोड़कर | चलने से क्रूरस्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फागरूपसे कंधेके पास बहुत फैला होता है ॥ 48 ॥

एक बार ब्रह्माजीने अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्तमें उन्होंने अपने मनसे मनुओं की सृष्टि की। ये सब प्रजाको वृद्धि करनेवाले हैं॥ 49 ॥ मनस्वी ब्रह्माजीने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओको देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता- गन्धर्वादि ब्रह्माजीकी स्तुति करने लगे ।। 50 ।। वे बोले, विश्वकर्ता ब्रह्माजी! आपकी यह (मनुओको) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्रिहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित है। इसकी सहायतासे हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे’ ।। 51 ।। फिर आदिऋषि ब्रह्माजीने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधिसे सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान अधिगणको रचना को और उनमेंसे प्रत्येकको अपने समाधि योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीरका अंश दिया ।। 52-53 ।।

अध्याय 21 कर्दमजीकी तपस्या और भगवान्‌का वरदान

विदुरजीने पूछा- भगवन् ! स्वायम्भुव मनुका वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुनधर्मके द्वारा प्रजाकी वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसीकी कथा | सुनाइये ॥ 1 ॥ ब्रह्मन् ! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपादने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री, जो देवहूति नामसे विख्यात थी, कर्दमप्रजापतिको ब्याही ग थी । ।। 2-3 ॥ देवहूति योगके लक्षण यमादिसे सम्पन्न थी. | उससे महायोगी कर्दमजीने कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं ? वह सब प्रसङ्ग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुननेकी बड़ी | इच्छा है ॥ 4 ॥ इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिने भी मनुजीकी कन्याओंका पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ 5 ॥

मैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! जब ब्रह्माजीने | भगवान् कर्दमको आज्ञा दी कि तुम संतानकी उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षोंतक सरस्वती नदीके तौरपर तपस्या | की ॥ 6 ॥ वे एकाग्र चित्तसे प्रेमपूर्वक पूजनोपचारद्वारा शरणागतवरदायक श्रीहरिकी आराधना करने लगे ॥ 7 ॥ तब सत्ययुगके आरम्भमें कमलनयन भगवान् श्रीहरिने उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्दब्रह्ममय स्वरूपसे मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ 8 ॥

भगवान्की वह भव्य मूर्ति सूर्यके समान तेजोमयी थी। | वे गलेमें श्वेत कमल और कुमुदके फूलोंकी माला धारण | किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावलीसे सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये। थे ॥ 9 ॥ हुए सिरपर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानोंमें जगमगाते हुए कुण्डल और कर-कमलोंमें शङ्ख, चक्र, गदा | आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथमें क्रीडाके | लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभुकी मधुर मुसकानभरी चितवन चित्तको चुराये लेती थी ॥ 10 ॥ उनके चरणकमल गरुड़जीके कंधोंपर विराजमान थे तथा वक्षःस्थलमें श्रीलक्ष्मीजी और कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी । प्रभुकी इस आकाशस्थित मनोहर मूर्तिका दर्शन करकेकर्दमजीको बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्द हृदयसे पृथ्वीपर सिर टेककर भगवान्‌को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवण चित्तसे हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे ।। 11-12 ।।

कर्दमजीने कहा- स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर आप सम्पूर्ण सत्त्वगुणके आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें योगस्थ होनेपर आपके दर्शनोंकी इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रोंका फल मिल गया || 13 | आपके चरणकमल भवसागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी मायासे मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय सुखोंके लिये, जो नरकमें भी मिल सकते हैं, उन चरणोंका आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन्! आप तो उन्हें वे विषय भोग भी दे देते हैं ।। 14 ।। प्रभो! आप कल्पवृक्ष है। आपके चरण समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। मेरा हृदय काम-कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्मके पालन में सहायक शीलवती कन्यासे विवाह करनेके लिये आपके चरणकमलों की शरणमें आया हूँ 15 ॥ सर्वेश्वर आप सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति हैं। नाना प्रकारकी कामनाओंमें फंसा हुआ यह लोक आपकी वेद वाणीरूप डोरीमें बंधा है। धर्ममूर्ते! उसीका अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको | आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित करता हूँ ॥ 16 ॥

प्रभो! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हीक मार्गका अनुसरण करनेवाले मुझ जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणोंकी छत्रच्छायाका ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधाका ही पान करके अपने क्षुधा पिपासादि देहधर्मोको शान्त करते रहते हैं ॥ 17 ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। | साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमनेकी धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं, छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि है। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत्की आयुका छेदन करता हुआ घूमता रहता है, किंतु आपके भक्तोंकी आयुका हास नहीं कर सकता ।। 18 ।। भगवन्! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जालेको फैलाती उसकी रक्षा करती और अन्तमें उसे निगल जाती है उसी प्रकार आप अकेले ही जगत्की रचना करनेके लिये अपनेसे अभिन्न अपनी योगमायाको स्वीकारकर उससे अभिव्यक्तहुई अपनी सत्त्वादि शक्तियोंद्वारा स्वयं ही इस जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं ।। 19 ।। प्रभो ! इस समय आपने हमें अपनी तुलसीमालामण्डित, मायासे परिच्छिन-सी | दिखायी देनेवाली सगुणमूर्तिसे दर्शन दिया है। आप हम भक्तोंको जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होनेके कारण यद्यपि आपको पसंद नहीं है, तथापि परिणाम हमारा शुभ करनेके लिये वे हमें प्राप्त हों ॥ 20 ॥

नाथ! आप स्वरूपसे निष्क्रिय होनेपर भी मायाके द्वारा सारे संसारका व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवालेपर भी समस्त अभिलषित वस्तुओंकी वर्षा करते रहते हैं। आपके चरणकमल वन्दनीय है, मै आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ।। 21 ।। ।

मैत्रेयजी कहते हैं- भगवान्‌की भी प्रणय मुसकानभरी चितवनसे चञ्चल हो रही थीं, वे गरुड़जीके कंधेपर विराजमान थे। जब कर्दमजीने इस प्रकार निष्कपटभावसे उनको स्तुति की तब वे उनसे अमृतमयी वाणीसे कहने लगे ।। 22 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादिके द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदयके उस भावको जानकर मैंने पहलेसे ही उसकी व्यवस्था कर दी है ।। 23 ।। प्रजापते! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूपसे ही लगा रहता है, उन तुम जैसे महात्माओंके द्वारा की हुई उपासनाका तो और भी अधिक फल होता है ।। 24 ।। प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तमें रहकर सात समुद्रवाली सारी पृथ्वीका शासन करते हैं ।। 25 ।। विप्रवर ! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपाके साथ तुमसे मिलनेके लिये परसों यहाँ आयेंगे ।। 26 ।। उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणोंसे सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाहके योग्य है। प्रजापते! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हींको वह कन्या अर्पण करेंगे ॥ 27 ॥ ब्रह्मन् ! गत अनेकों वर्षोंसे तुम्हारा चित्त जैसी भार्याके लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी ॥ 28 ॥ वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओंसे लोकरीतिके अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगे ॥ 29 ॥तुम भी मेरी आज्ञाका अच्छी तरह पालन करनेसे शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मोंका फल मुझे अर्पणकर | मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ 30 ॥ जीवोंपर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत्‌को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे ।। 31 । महामुने। मैं भी अपने अंश- कलारूपसे तुम्हारे वीर्यद्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूतिके अवतीर्ण होकर सांख्यशास्त्रकी गर्भमें अवतीर्ण करूँगा ॥ 32 ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी कर्दमऋषिसे इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियोंके अन्तर्मुख होनेपर प्रकट होनेवाले श्रीहरि सरस्वती नदीसे घिरे हुए बिन्दुसर तीर्थसे (जहाँ कर्दमऋषि तप कर रहे थे अपने लोकको चले गये ॥ 33 ॥ भगवान्के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठमार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दमजीके देखते देखते अपने लोकको सिधार गये। उस समय गरुड़जीके पक्षोंसे जो सामकी आधारभूता ऋचाएँ निकल रही थी, उन्हें वे सुनते जाते थे ।। 34 ।।

विदुरजी श्रीहरिके चले जानेपर भगवान् कर्दम उनके बताये हुए समयकी प्रतीक्षा करते हुए बिन्दु सरोवरपर ही ठहरे रहे ।। 35 ।। वीरवर ! इधर मनुजी भी महारानी शतरूपाके साथ सुवर्णजटित रथपर सवार होकर तथा उसपर अपनी कन्याको भी बिठाकर पृथ्वीपर विचरते हुए, जो दिन भगवान् ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दमके उस आश्रमपर पहुँचे ।। 36-37 ॥ सरस्वतीके जलसे भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत भक्त | कर्दमके प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणाके वशीभूत हुए भगवान के नेत्रोंसे आँसुओं की बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृतके समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं ।। 38-39 ।। उस समय बिन्दुसरोवर पवित्र वृक्ष-लताओंसे घिरा हुआ था, जिनमें तरह तरहकी बोली | बोलनेवाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओंके फल और फूलोंसे सम्पन्न था और सुन्दर वनश्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी ॥ 40 ॥वहाँ झुंड के झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भर मंडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला फैलाकर नटकी भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू कुहू करके मानो एक-दूसरेको बुला रहे थे ॥ 41 ॥ वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करञ्ज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आमके वृक्षोंसे अलंकृत था ।। 42 ।। वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जलपर तैरनेवाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वरसे कलरव कर रहे थे ॥ 43 ॥ हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लंगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरीमृग | आदि पशुओंसे भी वह आश्रम घिरा हुआ था ।। 44 ।।

आदिराज महाराज मनुने उस उत्तम तीर्थमें कन्याके सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्रिहोत्रसे निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ।। 45 ।। बहुत दिनोंतक उम्र तपस्या करने के कारण वे शरीरसे बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान्के खेहपूर्ण चितवनके दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनोंको सुननेसे, इतने दिनोंतक तपस्या करनेपर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे । 46 ।। उनका शरीर लम्बा था, नेत्र कमलदलके समान विशाल और मनोहर थे, सिरपर जटाएँ सुशोभित थीं और कमरमें चीर-वस्त्र थे। वे निकटसे देखनेपर बिना सानपर चढ़ी हुई महामूल्य मणिके समान मलिन जान पड़ते थे ॥ 47 ॥ महाराज स्वायम्भुव मनुको अपनी कुटीमें आकर प्रणाम करते देख उन्होंने उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्यकी रीतिसे उनका स्वागत-सत्कार किया ।। 48 ।।

जब मनुजी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थ चित्तसे आसनपर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दमने भगवान्‌की आज्ञाका स्मरण कर उन्हें मधुर वाणीसे प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा- ॥ 49 ॥ ‘देव ! आप भगवान् विष्णुकी | पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना निःसन्देह सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंके संहारके लिये ही होता है ।। 50 ।। आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप है तथा भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है ॥ 51 ॥ आप मणियोंसे जड़े हुए जयदायक रथपर सवार हो, अपने प्रचण्ड धनुषकी टङ्कार करते हुए उस रथकीघरघराहटसे ही पापियोंको भयभीत कर देते हैं और अपनी सेनाके चरणोंसे रौंदे हुए भूमण्डलको कँपाते अपनी उस विशाल सेनाको साथ लेकर पृथ्वीपर सूर्यके समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर डाकू भगवान्‌की बनायी हुई वर्णाश्रमधर्मकी मर्यादाको तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरङ्कुश मानवोंद्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाय। यदि आप संसारकी ओरसे निश्चिन्त हो जायँ तो यह लोक दुराचारियोंके पंजे में पड़कर नष्ट हो जाय ॥ 52 – 55 ॥ तो भी वीरवर ! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजनसे हुआ है; मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भावसे सहर्ष स्वीकार करूँगा ॥ 56 ॥

अध्याय 22 देवहूतिके साथ कर्दम प्रजापतिका विवाह

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! इस प्रकार जब कर्दमजीने मनुजीके सम्पूर्ण गुणों और कर्मोंकी श्रेष्ठका वर्णन किया, तो उन्होंने उन निवृत्तिपरायण मुनिसे कुछ सकुचाकर कहा ।। 1 ।।

मनुजीने कहा- मुने वेदमूर्ति भगवान् ब्रह्माने अपने वेदमय विग्रहकी रक्षाके लिये तप, विद्या और योगसे सम्पत्र तथा विषयोंमें अनासक्त आप ब्राह्मणोंको अपने मुखसे प्रकट किया है और फिर उन सहस्र चरणोंवाले विराट् पुरुषने आपलोगोंकी रक्षाके लिये ही अपनी सहस्रों भुजाओंसे हम क्षत्रियोंको उत्पन्न किया है। इस प्रकार ब्राह्मण उनके हृदय और क्षत्रिय शरीर कहलाते हैं । 2-3 ॥ अतः एक ही शरीरसे सम्बद्ध होनेके कारण अपनी-अपनी और एक-दूसरेकी रक्षा करनेवाले उन ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी वास्तवमें श्रीहरि ही रक्षा करते हैं, जो समस्त कार्यकारणरूप होकर भी वास्तवमें निर्विकार हैं 4 आपके दर्शनमात्रसे ही मेरे सारे सन्देह दूर हो गये, क्योंकि आपने मेरी प्रशंसाके मिससे स्वंय ही प्रजापालनकी इच्छावाले राजाके धर्मोका बड़े प्रेमसे निरूपण किया है ॥ 5 ॥ आपका दर्शन अजितेन्द्रिय पुरुषोंको बहुत दुर्लभ है: मेरा बड़ा भाग्य है, जो मुझे आपका दर्शन हुआ और मैं आपके चरणोंकी मङ्गलमयी रज अपने सिरपर चढ़ा सका ।। 6 ।।| मेरे भाग्योदयसे ही आपने मुझे राजधर्मोकी शिक्षा देकर मुझपर महान् अनुग्रह किया है और मैंने भी शुभ प्रारब्धका उदय होनेसे ही आपकी पवित्र वाणी कान खोलकर सुनी है ॥ 7 ॥

मुने! इस कन्याके स्नेहवश मेरा चित्त बहुत चिन्ताग्रस्त हो रहा है; अतः मुझ दीनकी यह प्रार्थना आप कृपापूर्वक सुनें ॥ 8 ॥ यह मेरी कन्या- -जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहिन है— अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पतिको पानेकी इच्छा रखती है ॥ 9 ॥ जबसे इसने नारदजीके मुखसे आपके शील, विद्या, रूप, आयु और गुणोंका वर्णन सुना है, तभीसे यह आपको अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है ॥ 10 ॥ द्विजवर ! मैं बड़ी श्रद्धासे आपको यह कन्या समर्पित करता हूँ, आप इसे स्वीकार कीजिये। यह गृहस्थोचित कार्योंके लिये सब प्रकार आपके योग्य है ॥ 11 ॥ जो भोग स्वतः प्राप्त हो जाय, उसकी अवहेलना करना विरक्त पुरुषको भी उचित नहीं है; फिर विषयासक्तकी तो बात ही क्या है ॥ 12 ॥ जो पुरुष स्वयं प्राप्त हुए भोगका निरादर कर फिर किसी कृपणके आगे हाथ पसारता है, उसका बहुत फैला हुआ यश भी नष्ट हो जाता है और दूसरों के तिरस्कारसे मानभङ्ग भी होता है ॥ 13 ॥ विद्वन् ! मैंने सुना है, आप विवाह करनेके लिये उद्यत हैं। आपका ब्रहचर्य एक सीमातक है, आप नैष्ठिक ब्रह्मचारी तो हैं नहीं। इसलिये अब आप इस कन्याको स्वीकार कीजिये, मैं इसे आपको अर्पित करता हूँ ॥ 14 ॥

श्रीकर्दम मुनिने कहा- ठीक है, मैं विवाह करना चाहता हूँ और आपकी कन्याका अभी किसीके साथ वाग्दान नहीं हुआ है, इसलिये हम दोनोंका सर्वश्रेष्ठ ब्राह्म * विधिसे विवाह होना उचित ही होगा ।। 15 ।। राजन् ! वेदोक्त विवाह-विधिमें प्रसिद्ध जो ‘गृभ्णामि ते’ इत्यादि मन्त्रोंमें बताया हुआ काम (संतानोत्पादनरूप मनोरथ) है, वह आपकी इस कन्याके साथ हमारा सम्बन्ध होनेसे सफल होगा। भला, जो अपनी अङ्गकान्तिसे आभूषणादिकी शोभाको भी तिरस्कृत कर रही है, | आपकी उस कन्याका कौन आदर न करेगा ? ॥ 16 ॥एक बार यह अपने महलकी छतपर गेंद खेल रही थी। गेंदके पीछे इधर-उधर दौड़नेके कारण इसके नेत्र चञ्चल हो रहे थे तथा पैरोंके पायजेब मधुर झनकार करते | जाते थे उस समय इसे देखकर विश्वावसु गन्धर्व मोहवश अचेत होकर अपने विमानसे गिर पड़ा था ॥ 17 ॥ वही इस समय यहाँ स्वयं आकर प्रार्थना कर रही है; ऐसी अवस्थामें कौन समझदार पुरुष इसे स्वीकार न करेगा ? यह तो साक्षात् आप महाराज श्रीस्वायम्भुवमनुकी दुलारी कन्या और उत्तानपादकी प्यारी बहिन है तथा यह रमणियोंमें रखके समान है। जिन लोगोंने कभी श्रीलक्ष्मीजीके चरणोंकी उपासना नहीं की है, उन्हें तो इसका दर्शन भी नहीं हो सकता ॥ 18 ॥ अतः मैं आपकी इस साध्वी कन्याको अवश्य स्वीकार करूँगा, किन्तु एक शर्तके साथ। जबतक इसके संतान न हो जायगी, तबतक मैं गृहस्थ धर्मानुसार इसके साथ रहूंगा उसके बाद भगवान्‌के बताये हुए संन्यासप्रधान हिंसारहित शमदमादि धर्मो को ही अधिक महत्त्व दूंगा ॥ 19 ॥ जिनसे इस विचित्र जगत्‌को उत्पत्ति हुई है. जिनमें यह लीन हो जाता है और जिनके आश्रयसे यह स्थित है— मुझे तो वे प्रजापतियोंके भी पति भगवान् श्री अनन्त ही सबसे अधिक मान्य हैं ॥ 20 ॥

मैत्रेयजी कहते हैं-प्रचण्ड धनुर्धर विदुर ! कर्दमजी केवल इतना ही कह सके, फिर वे हृदयमें भगवान् | कमलनाभका ध्यान करते हुए मौन हो गये। उस समय उनके मन्द हास्ययुक्त मुखकमलको देखकर देवहूतिका चित्त लुभा गया ॥ 21 मनुजीने देखा कि इस सम्बन्धमें महारानी शतरूपा और राजकुमारीकी स्पष्ट अनुमति है, अतः उन्होंने अनेक गुणोंसे सम्पन्न कर्दमजीको उन्हींके समान गुणवती कन्याका प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिया ॥ 22 ॥ महारानी शतरूपाने भी बेटी और दामादको बड़े प्रेमपूर्वक बहुत से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्रादि दहेज में दिये ॥ 23 ॥ इस प्रकार सुयोग्य वरको अपनी कन्या देकर महाराज मनु निश्चिन्त हो गये। चलती बार उसका वियोग न सह सकनेके कारण उन्होंने उत्कण्ठाव विह्वलचित्त होकर उसे अपनी छाती से चिपटा लिया और ‘बेटी बेटी’ कहकर रोने लगे। उनकी आँखों आँसुओं की झड़ी लग गयी और उनसे उन्होंने देवहूतिके सिरके सारे बाल भिगो दिये ll 24-25 llफिर वे मुनिवर कर्दमसे पूछकर उनकी आज्ञा ले रानीके सहित रथपर सवार हुए और अपने सेवकोंसहित ऋषिकुलसेवित सरस्वती नदीके दोनों तीरोंपर मुनियोंक | आश्रमोंको शोभा देखते हुए अपनी राजधानीमें चले आये ।। 26-27 ।।

जब ब्रह्मावर्तकी प्रजाको यह समाचार मिला कि उसके स्वामी आ रहे हैं तब वह अत्यन्त आनन्दित होकर स्तुति, गीत एवं बाजे-गाजेके साथ अगवानी करनेके लिये ब्रह्मावर्तकी राजधानीसे बाहर आयी ॥ 28 ॥ सब प्रकारकी सम्पदाओंसे युक्त बर्हिष्मती नगरी मनुजीको राजधानी थी, जहाँ पृथ्वीको रसातलसे ले आनेके पश्चात् शरीर कंपाते समय श्रीभगवान के रोम झड़कर गिरे थे ।। 29 ।। वे रोम ही निरन्तर हरे-भरे रहनेवाले कुश और कास हुए, जिनके द्वारा मुनियोंने यज्ञमें विघ्न डालनेवाले दैत्योंका तिरस्कार कर भगवान् यज्ञपुरुषकी यज्ञोंद्वारा आराधना की है ।। 30 ।। महाराज मनुने भी श्रीवराह भगवान् से भूमिरूप निवासस्थान प्राप्त होनेपर इसी स्थानमें कुश और कासकी बर्हि (चटाई बिछाकर श्रीयज्ञभगवान् की पूजा की थी ।। 31 ।।

जिस बर्हिष्मती पुरीमें मनुजी निवास करते थे, उसमें पहुँचकर उन्होंने अपने त्रितापनाशक भवनमें प्रवेश किया ।। 32 । वहाँ अपनी भार्या और सन्ततिके सहित वे धर्म, अर्थ और मोक्षके अनुकूल भोगोको भोगने लगे। प्रातःकाल होनेपर गन्धर्वगण अपनी स्त्रियोंके सहित उनका गुणगान करते थे, किन्तु मनुजी उसमें आसक्त न होकर प्रेमपूर्ण हृदयसे श्रीहरिकी कथाएँ ही सुना करते थे ॥ 33 वे इच्छानुसार भोगोका निर्माण करनेमें कुशल थे; किन्तु मननशील और भगवत्परायण होनेके कारण भोग उन्हें किंचित् भी विचलित नहीं कर पाते थे ।। 34 ।। भगवान् विष्णुकी कथाओंका श्रवण, ध्यान, रचना और निरूपण करते रहने के कारण उनके मन्वन्तरको व्यतीत करनेवाले क्षण कभी व्यर्थ नहीं जाते इस प्रकार अपनी जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं अथवा तीनों गुणोको अभिभूत करके उन्होंने भगवान् वासुदेवके कथाप्रसङ्गमे अपने मन्वन्तरके इकहत्तर चतुर्युग पूरे कर दिये ॥ 36 ॥व्यासनन्दन विदुरजी ! जो पुरुष श्रीहरिके आश्रित रहता है, उसे शारीरिक, मानसिक, दैविक, मानुषिक अथवा भौतिक | दुःख किस प्रकार कष्ट पहुँचा सकते हैं ॥ 37 ॥ मनुजी निरन्तर समस्त प्राणियोंके हितमें लगे रहते थे। मुनियोंके पूछनेपर उन्होंने मनुष्योंके तथा समस्त वर्ण और आश्रमोंके अनेक प्रकारके मङ्गलमय धर्मोंका भी वर्णन किया (जो मनुसंहिताके रूपमें अब भी उपलब्ध है) ॥ 38 ॥

जगत्के सर्वप्रथम सम्राट् महाराज मनु वास्तवमें कीर्तनके योग्य थे। यह मैंने उनके अद्भुत चरित्रका वर्णन किया, अब उनकी कन्या देवहूतिका प्रभाव सुनो ॥ 39 ॥

अध्याय 23 कर्दम और देवहूतिका विहार

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी! माता-पिताके चले जानेपर पतिके अभिप्रायको समझ लेनेमें कुशल साध्वी देवहूति कर्दमजीकी प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वतीजी भगवान् शङ्करकी सेवा करती हैं ॥ 1 ॥ उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मदका त्यागकर बड़ी सावधानी और लगनके साथ सेवामें तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुरभाषणादि गुणोंसे अपने परम तेजस्वी पतिदेवको | सन्तुष्ट कर लिया ।। 2-3 ॥ देवहूति समझती थी कि मेरे | पतिदेव दैवसे भी बढ़कर हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवामें लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनोंतक अपना अनुवर्तन करनेवाली उस मनुपुत्रीको व्रतादिका पालन करनेसे दुर्बल हुई देख देवर्षि-श्रेष्ठ कर्दमको दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणीमें कहा ।। 4-5 ।।

कर्दमजी बोले – मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्तिसे बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी | देहधारियोंको अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदरकी वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवाके आगे । उसके क्षीण होनेकी भी कोई परवा नहीं की ॥ 6 ॥अतः अपने धर्मका पालन करते रहनेसे मुझे तप, समाधि, उपासना और योगके द्वारा जो भय और शोकसे रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुई है, उनपर मेरी सेवाके प्रभावसे अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो || 7 || अन्य जितने भी भोग है, वे तो भगवान् श्रीहरिके अकुटि विलासमाजसे नष्ट हो जाते है. अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवासे भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पतिव्रत धर्मका पालन करनेसे तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्योंको इन दिव्य भोगोंकी प्राप्ति होनी कठिन है ॥ 8 ॥ कर्दमजीके इस प्रकार कहने से अपने पतिदेवको सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओंमें कुशल जानकर उस अबलाकी सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख किञ्चित् संकोचभरी चितवन और मधुर मुस्कानसे खिल उठा और वह विनय एवं प्रेमसे गद्गद वाणीमें इस प्रकार कहने लगी ।। 9 ।।

देवहूतिने कहा — द्विजश्रेष्ठ ! स्वामिन्! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होनेवाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिका मायापर अधिकार रखनेवाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो! आपने विवाहके समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होनेतक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ सुखका उपभोग करूंगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पतिके द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्रीके लिये महान् लाभ है ॥ 10 ॥ हम दोनोंके | समागमके लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी | सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलनकी इच्छासे अत्यन्त दीन, दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अङ्ग-संगके योग्य हो जाय क्योंकि आपकी ही बढ़ायी हुई कामवेदनासे में पीडित हो रही हूँ। स्वामिन्! इस कार्यके लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाय, इसका भी विचार कीजिये ॥ 11 ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी कर्दम मुनिने अपनी प्रियाकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये उसी समय योगमें स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था ।। 12 ।। यह विमान सब प्रकारके इच्छित भोग-सुख प्रदान करनेवाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकारके रत्नोंसे युक्त, सब सम्पत्तियोंकी उत्तरोत्तर वृद्धिसे सम्पन्न तथा मणिमय खंभोंसे सुशोभित था ॥ 13 ॥ वह सभी ऋतुओगे सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सम प्रकारकी दिव्य सामग्रियाँ रखी हुई थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओंसे खूब सजाया गया था 14जिनपर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पोंकी मालाओंसे तथा अनेक प्रकारके सूती और रेशमी वस्त्रोंसे वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था ।। 15 ।। एकके ऊपर एक बनाये हुए कमरोंमें अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनोंके कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था 16 ॥ जहाँ-तहाँ दीवारोंमें की हुई शिल्परचनासे उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्नेका फर्श था और बैठनेके लिये मूँगेकी वेदियाँ बनायी गयी थीं ॥ 17 ॥ मूँगेकी ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारोंमें हीरेके किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणिके शिखरोंपर सोनेके कलश रखे [ थे ।। 18 ।। उसकी हुए हीरेकी दीवारोंमें बढ़िया लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमानकी आँखें हों तथा उसे रंग-बिरंगे चंदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारोंसे सजाया गया था ॥ 19 ॥ उस विमानमें जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव से मालूम पड़ते थे; उन्हें | अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे ॥ 20 ॥ उसमें सुविधानुसार क्रीडास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे— जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दमजीको भी विस्मित-सा कर रहा था ॥ 21 ॥

ऐसे सुन्दर घरको भी जब देवहूतिने बहुत प्रसन्न चित्तसे नहीं देखा, तो सबके आन्तरिक भावको परख लेनेवाले कर्दमजीने स्वयं ही कहा- ॥ 22 ॥ भीरु ! तुम इस बिन्दुसरोवरमें स्नान करके विमानपर चढ़ जाओ; यह विष्णुभगवान्‌का रचा हुआ तीर्थ मनुष्योंको सभी कामनाओंकी प्राप्ति करानेवाला है’ ।। 23 ।।

कमललोचना देवहूतिने अपने पतिकी बात मानकर सरस्वतीके पवित्र जलसे भरे हुए उस सरोवरमें प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहने हुए थी, उसके सिरके बाल चिपक जानेसे उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीरमें मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे ।। 24-25 ॥ सरोवरमें गोता लगानेपर उसने उसके भीतर एक महलमें एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर अवस्थाकी थीं और उनके शरीरोंसे कमलकी-सी आती गन्ध थी ॥ 26 ॥देवहूतिको देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ है. हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ?’ ॥ 27 ॥

विदुरजी ! तब स्वामिनीको सम्मान देनेवाली उन रमणियन बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदिसे मिश्रित | जलके द्वारा मनस्विनी देवहूतिको स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहनने को दिये ॥ 28 ॥ फिर | उन्होंने ये बहुत मूल्यके बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण, सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीनेके लिये अमतके समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये ॥ 29 ॥ अब देवहूतिने दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा तो उसे मालूम हुआ कि वह भांति-भांतिके सुगंधित फूलोंके हारोसे विभूषित है, स्वच्छ वस्त्र धारण किये हुए है, उसका शरीर भी निर्मल और कान्तिमान् हो गया है तथा उन कन्याओंने बड़े आदरपूर्वक उसका माङ्गलिक शृङ्गार किया है ॥ 30 ॥ उसे सिरसे स्नान कराया गया है, स्नानके पश्चात् अङ्ग अङ्गमें सब प्रकारके आभूषण सजाये गये हैं तथा उसके गलेमें हार हुमेल, हाथोंमें कङ्कण और पैरोंमें छमछमाते हुए सोनेके पायजेब सुशोभित हैं ॥ 31 ॥ कमर में पड़ी हुई सोनेकी रत्नजटित करधनीसे, बहुमूल्य मणियोंके हारसे और अङ्ग अङ्गमें लगे हुए कुङ्कुमादि मङ्गलद्रव्योंसे उसकी अपूर्व शोभा हो रही है ।। 32 । उसका मुख सुन्दर दन्तावली, मनोहर भौहें, कमलकी कलीसे स्पर्धा करनेवाले प्रेमकटाक्षमय सुन्दर नेत्र और नीली अलकावलीसे बड़ा ही सुन्दर जान पड़ता है ॥ 33 ॥ विदुरजी जब देवहूतिने अपने प्रिय पतिदेवका स्मरण किया, तो अपनेको सहेलियोंके सहित वहीं पाया, जहाँ प्रजापति कर्दमजी विराजमान थे । 34 ॥ उस समय अपनेको सहस्रों स्त्रियोंके सहित अपने प्राणनाथके सामने देख और इसे उनके योगका प्रभाव समझकर देवहूतिको बड़ा विस्मय हुआ ॥ 35 ॥ शत्रुविजयी विदुर जब कर्दमजीने देखा कि देवहूतिका शरीर खान करनेसे अत्यन्त निर्मल हो गया है, | और विवाहकालसे पूर्व उसका जैसा रूप था, उसी रूपको पाकर वह अपूर्व शोभासे सम्पन्न हो गयी है। उसका सुन्दर | वक्षःस्थल चोलीसे ढका हुआ है, हजारों विद्याधरियाँउसकी सेवामें लगी हुई हैं तथा उसके शरीरपर बढ़िया-बढ़िया वस्त्र शोभा पा रहे है, तब उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे विमानपर चढ़ाया ॥ 36-37 ।। उस समय अपनी प्रियाके प्रति अनुरक्त होनेपर भी कदमजीको महिमा (मन और इन्द्रियोंपर प्रभुता) कम नहीं हुई। विद्याधरियाँ उनके शरीरकी सेवा कर रही थीं। खिले हुए कुमुदके फूलोंसे शृङ्गार करके अत्यन्त सुन्दर बने हुए वे विमानपर इस प्रकार शोभा पा रहे थे, मानो आकाशमें तारागणसे घिरे हुए चन्द्रदेव विराजमान हो ॥ 38 ॥ उस विमानपर निवासकर उन्होंने दीर्घकालतक कुबेरजीके समान मेरुपर्वतकी घाटियोंमें बिहार किया ये घाटियाँ आठों लोकपालोंकी विहारभूमि हैं; इनमें कामदेवको बढ़ानेवाली शीतल, मन्द, सुगा वायु चलकर इनकी कमनीय शोभाका विस्तार करती है तथा श्रीगङ्गाजीके स्वर्गलोकसे गिरनेको मङ्गलमय धनि निरन्तर गूंजती रहती है। उस समय भी दिव्य विद्याधरियोंका समुदाय उनकी सेवामें उपस्थित था और सिद्धगण वन्दना किया करते थे ।। 39 ।।

इसी प्रकार प्राणप्रिया देवहूतिके साथ उन्होंने वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र और चैत्ररथ आदि अनेकों देवोद्यानों तथा मानस सरोवरमें अनुरागपूर्वक विहार किया ॥ 40 ॥ उस कान्तिमान् और इच्छानुसार चलनेवाले श्रेष्ठ विमानपर बैठकर वायुके समान सभी लोकोंमें विचरते हुए कर्दमजी विमानविहारी देवताओंसे भी आगे बढ़ गये ॥ 41 ॥ विदुरजी ! जिन्होंने भागवान् के भवभयहारी पवित्र पादपद्योंका आश्रय लिया है, उन धीर पुरुषोंके लिये कौन-सी वस्तु या शक्ति दुर्लभ है ।। 42 ।।

इस प्रकार महायोगी कर्दमजी यह सारा भूमण्डल, जो द्वीप वर्ष आदिकी विचित्र रचनाके कारण बड़ा आर्यमय प्रतीत होता है, अपनी प्रियाको दिखाकर अपने आश्रमको लौट आये ॥ 43 ॥ फिर उन्होंने अपनेको नौ रूपोंमें विभक्त कर रतिमुसके लिये अत्यन्त उत्सुक मनुकुमारी देवहूतिको आनन्दित करते हुए उसके साथ बहुत वर्षोंतक विहार किया, किन्तु उनका इतना लम्बा समय एक मुहूर्तके समान बीत गया ॥ 44 ॥ उस विमानमें रतिसुखको बढ़ानेवाली बड़ी सुन्दर शय्याका आश्रय ले अपने परम रूपवान् प्रियतमके साथ रहती हुई देवहूतिको इतना काल कुछ भी न जान पड़ा ।। 45 ।। इस प्रकार उस कामासक्त दम्पतिको अपने योगबलसे सैकड़ों वर्षोंतक विहार करते हुए भी वह काल बहुत थोड़े समयके समान निकल गया ॥ 46 ॥ आत्मज्ञानी कर्दमजी सब प्रकार के सङ्कल्योंको जानते थे; अतः देवहूतिको सन्तानप्राप्तिके लिये उत्सुक देख तथा भगवान्‌के आदेशको स्मरणकर उन्होंने अपने स्वरूपके नौ विभाग किये तथा | कन्याओं की उत्पत्तिके लिये एकाचितसे अर्धाङ्गरूपमें अपनीपालीको भावना करते हुए उसके गर्भ में वीर्य स्थापित किया ॥ 47 ॥ इससे देवहूतिके एक ही साथ नौ कन्याएँ पैदा हुई। वे सभी सर्वाङ्गसुन्दरी थीं और उनके शरीरसे लाल कमलकी-सी सुगन्ध निकलती थी ॥ 48 ॥

इसी समय शुद्ध स्वभाववाली सती देवहूतिने देखा कि पूर्व प्रतिज्ञाके अनुसार उसके पतिदेव संन्यासाश्रम ग्रहण करके वनको जाना चाहते हैं, तो उसने अपने आँसुओंको रोककर ऊपरसे मुसकराते हुए व्याकुल एवं संतप्त हृदयसे धीर-धीरे अति मधुर वाणीमें कहा। उस समय वह सिर नीचा किये हुए अपने नखमणिमण्डित चरणकमलसे पृथ्वीको कुरेद रही थी । 49-50 ॥

देवहूतिने कहा- भगवन्! आपने जो कुछ प्रतिज्ञा की थी, वह सब तो पूर्णतः निभा दी; तो भी मैं आपकी शरणागत हूँ, अतः आप मुझे अभयदान और दीजिये ॥ 51 ॥ ब्रह्मन् ! इन कन्याओंके लिये योग्य वर खोजने पड़ेंगे और आपके वनको चले जानेके बाद मेरे जन्म-मरणरूप शोकको दूर करनेके लिये भी कोई होना | चाहिये ।। 52 ।। प्रभो ! अबतक परमात्मासे विमुख रहकर मेरा जो समय इन्द्रियसुख भोगनेमें बीता है, वह तो निरर्थक ही गया ।। 53 ।। आपके परम प्रभावको न जाननेके कारण ही मैंने इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त रहकर आपसे अनुराग किया, तथापि यह भी मेरे संसार भयको दूर करनेवाला ही होना चाहिये ॥ 54 ॥ अज्ञानवश असत्पुरुषोंके साथ किया हुआ जो संग संसार-बन्धनका कारण होता है, वही सत्पुरुषोंके साथ किये जानेपर असङ्गता प्रदान करता है ॥ 55 ॥ संसारमें जिस पुरुषके कर्मोसे न तो धर्मका सम्पादन होता है, न वैराग्य उत्पन्न होता है और न भगवान्‌की सेवा ही सम्पन्न होती है वह पुरुष जीते ही मुर्देके समान है ॥ 56 ॥ अवश्य ही मैं भगवान्‌की मायासे बहुत ठगी गयी, जो आप जैसे मुक्तिदाता पतिदेवको पाकर भी मैंने संसार-बन्धनसे छूटनेकी इच्छा नहीं की ॥ 57 ॥

अध्याय 24 श्रीकपिलदेवजीका जन्म

श्रीमैत्रेयजी कहते है- उत्तम गुणोंसे सुशोभित मनुकुमारी देवहूतिने जब ऐसी वैराग्ययुक्त बातें कहीं, तब | कृपालु कर्दम मुनिको भगवान् विष्णुके कथनका स्मरण हो आया और उन्होंने उससे कहा ॥ 1 ॥

कर्दमजी बोले- दोषरहित राजकुमारी तुम अपने विषयमें इस प्रकार खेद न करो; तुम्हारे गर्भमे अविनाशी भगवान् विष्णु शीघ्र ही पधारेंगे ॥ 2 ॥ प्रिये ! | तुमने अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन किया है, अतः | तुम्हारा कल्याण होगा। अब तुम संयम, नियम, तप और दानादि करती हुई श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का भजन करो ।। 3 ।। इस प्रकार आराधना करनेपर श्रीहरि तुम्हारे गर्भसे अवतीर्ण होकर मेरा यश बढ़ावेंगे और ब्रह्मज्ञानका | उपदेश करके तुम्हारे हृदयकी अहङ्कारमयी ग्रन्थिका छेदन करेंगे ll 4 ll

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! प्रजापति कर्दमके आदेशमें गौरव बुद्धि होनेसे देवहूतिने उसपर पूर्ण विश्वास किया और वह निर्विकार, जगद्गुरु भगवान् श्रीपुरुषोत्तमकी आराधना करने लगी ॥ 5 ॥ इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भगवान् मधुसूदन कर्दमजीके वीर्यका आश्रय ले उसके गर्भसे इस प्रकार प्रकट हुए, जैसे काष्ठ से अग्नि ॥ 6 ॥ उस समय आकाशमे मेघ जल बरसाते हुए गरज-गरजकर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दित होकर | नाचने लगीं ॥ 7 ॥ आकाशसे देवताओंके बरसाये हुए दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी; सब दिशाओंमें आनन्द छा गया, जलाशयोंका जल निर्मल हो गया और सभी जीवोंके मन प्रसन्न हो गये ॥ 8 ॥ इसी समय सरस्वती नदीसे घिरे हुए कर्दमजीके उस आश्रम में मरोधि आदि मुनियोंके संहित श्रीब्रह्माजी आये ॥ 9 ॥ शत्रुदमन विदुरजी ! स्वतःसिद्ध ज्ञानसे सम्पन्न अजन्मा ब्रह्माजीको यह मालूम हो गया था कि साक्षात् परब्रह्म भगवान् विष्णु सांख्यशास्त्रका उपदेश करनेके लिये अपने विशुद्ध | सत्त्वमय अंशसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ 10 ॥अतः भगवान् जिस कार्यको करना चाहते थे, उसका उन्होंने विशुद्ध चितसे अनुमोदन एवं आदर किया और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे प्रसन्नता प्रकट करते हुए कर्दमजीसे इस प्रकार कहा ।। 11 ।। श्रीब्रह्माजीने कहा—प्रिय कर्दम ! तुम दूसरोंको मान देनेवाले हो। तुमने मेरा सम्मान करते हुए जो मेरी आज्ञाका पालन किया है, इससे तुम्हारे द्वारा निष्कपट भावसे मेरी पूजा सम्पन्न हुई है ॥ 12 ॥ पुत्रोंको अपने पिताकी सबसे बड़ी सेवा यही करनी चाहिये कि ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर आदरपूर्वक उनके आदेशको स्वीकार करें ॥ 13 ॥ बेटा ! तुम सभ्य हो, तुम्हारी ये सुन्दरी | कन्याएँ अपने वंशद्वारा इस सृष्टिको अनेक प्रकारसे बढ़ावेंगी ।। 14 । अब तुम इन मरीचि आदि मुनिवरोंको इनके स्वभाव और रुचिके अनुसार अपनी कन्याएँ समर्पित करो और संसारमें अपना सुयश फैलाओ || 15 || मुने ! मैं जानता हूँ, जो सम्पूर्ण प्राणियोंकी निधि हैं—उनके अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेवाले हैं, वे आदिपुरुष श्रीनारायण ही अपनी योगमायासे कपिलके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ 16 ॥ [ फिर देवहूतिसे बोले- ] राजकुमारी सुनहरे बाल, कमल-जैसे विशाल नेत्र और कमलाङ्कित चरणकमलोंवाले शिशुके रूपमें कैटभासुरको मारनेवाले साक्षात् श्रीहरिने ही, ज्ञान-विज्ञानद्वारा कर्मोकी वासनाओंका मूलोच्छेदन करनेके लिये तेरे गर्भ प्रवेश किया है। ये अविद्याजनित मोहकी ग्रन्थियोंको काटकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचरेंगे 17-18 ॥ ये सिद्धगणोंके स्वामी और सांख्याचायोंकि भी माननीय होंगे। लोकमें तेरी कीर्तिका विस्तार करेंगे और ‘कपिल’ नामसे विख्यात होंगे ।। 19 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरी जगत्‌को सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी उन दोनोंको इस प्रकार आश्वासन | देकर नारद और सनकादिको साथ ले, हंसपर चढ़कर ब्रहालोकको चले गये ॥ 20 ॥ ब्रह्माजीके चले जानेपर कर्दमजीने उनके आज्ञानुसार मरीचि आदि प्रजापतियोंके साथ अपनी कन्याओंका विधिपूर्वक विवाह कर दिया ॥ 21 ॥ उन्होंने अपनी कला नामकी कन्या मरीचिको अनसूख अत्रिको, श्रद्धा अङ्गिराको और | रवि पुलस्त्यको समर्पित की ॥ 22 ॥पुलहको उनके अनुरूप गति नामकी कन्या दी, क्रतुके साथ परम साध्वी क्रियाका विवाह किया, भृगुजीको ख्याति और वसिष्ठजीको अरुन्धती समर्पित की ॥ 23 ॥ अथर्वा ऋषिको शान्ति नामकी कन्या दी, जिससे यज्ञकर्मका विस्तार किया जाता है। कर्दमजीने उन विवाहित ऋषियोंका उनकी पत्नियोंके सहित खूब सत्कार किया ।। 24 ।। विदुरजी ! इस प्रकार विवाह हो जानेपर वे सब ऋषि कर्दमजीकी आज्ञा ले अति आनन्दपूर्वक अपने-अपने आश्रमोंको चले गये ।। 25 ।।

कर्दमजीने देखा कि उनके यहाँ साक्षात् देवाधिदेव श्रीहरिने ही अवतार लिया है, तो वे एकान्तमें उनके पास गये और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे ॥ 26 ॥ ‘अहो! अपने पापकर्मक कारण इस दुःखमय संसारमें नाना प्रकारसे पीडित होते हुए पुरुषोंपर देवगण तो बहुत काल बीतनेपर प्रसन्न होते हैं ॥ 27 ॥ किन्तु जिनके स्वरूपको योगिजन अनेकों जन्मकि साधनसे सिद्ध हुई सुदृढ़ समाधिके द्वारा एकान्तमें देखनेका प्रयत्न करते हैं, अपने भक्तोंकी रक्षा करनेवाले वे ही श्रीहरि हम विषयलोलुपोंके द्वारा होनेवाली अपनी अवज्ञाका कुछ भी विचार न कर आज हमारे घर अवतीर्ण हुए हैं ।। 28-29 ।। आप वास्तवमें अपने भक्तोंका मान बढ़ानेवाले हैं। आपने अपने वचनोको सत्य करने और सांख्ययोगका उपदेश करनेके लिये ही मेरे यहाँ अवतार लिया है ॥ 30 भगवन्। आप प्राकृतरूपसे रहित हैं, | आपके जो चतुर्भुज आदि अलौकिक रूप हैं, वे ही आपके योग्य है तथा जो मनुष्य सदृश रूप आपके भक्तोंको प्रिय लगते हैं, ये भी आपको रुचिकर प्रतीत होते है ॥ 31 ॥ आपका पाद पीठ तत्त्वज्ञानकी इच्छासे विद्वानोंद्वारा सर्वदा वन्दनीय है तथा आप ऐश्वर्य, वैराग्य, यश, ज्ञान, वीर्य और श्री — इन छहों ऐश्वर्योंसे पूर्ण हैं। मैं आपकी शरण में हूँ ।। 32 भगवन्! आप परब्रह्म है; सारी शक्तियाँ आपके अधीन हैं; प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व, काल, त्रिविध अहङ्कार, समस्त लोक एवं लोकपालोके रूपमें आप ही प्रकट है तथा आप सर्वज्ञ परमात्मा ही इस सारे प्रपञ्चको चेतनशक्तिके द्वारा अपनेमें लीन कर लेते हैं। अतः इन सबसे परे भी आप ही हैं। मैं आप भगवान् कपिलकी शरण लेता हूँ ॥ 33 ॥ प्रभो ! आपकी कृपासे मैं तीनों ऋणोंसे मुक्त हो गया हूँ। और मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो चुके हैं। अब मैं संन्यास-मार्गको ग्रहणकर आपका चिन्तन करते हुए शोकरहित होकर विचरूंगा। आप समस्त प्रजाओंके स्वामी हैं, अतएव इसके लिये मैं आपकी आज्ञा चाहता हूँ ।। 34 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- मुने! वैदिक और लौकिक | सभी कर्मी संसारके लिये मेरा कथन ही प्रमाण है। इसलिये मैंने जो तुमसे कहा था कि ‘मैं तुम्हारे यहाँ जन्म लूँगा’, उसे सत्य करनेके लिये ही मैंने यह अवतार लिया है ।। 35 ।। इस लोकमें मेरा यह जन्म लिङ्गशरीरसे मुक्त होनेकी इच्छावाले मुनियोंके लिये आत्मदर्शनमें उपयोगी प्रकृति आदि तत्वका विवेचन करनेके लिये ही हुआ है ॥ 36 ॥ आत्मज्ञानका यह सूक्ष्म मार्ग बहुत समय से लुप्त हो गया है। इसे फिरसे प्रवर्तित करनेके लिये ही मैंने यह शरीर ग्रहण किया है ऐसा जानो ॥ 37 ॥ मुने! मैं आज्ञा देता हूँ, इस जाओ और अपने सम्पूर्ण कर्म मुझे अर्पण करते हुए दुर्जय मृत्युको जीतकर मोक्षपद प्राप्त करनेके लिये मेरा भजन करो ।। 38 ।। मैं स्वयंप्रकाश और सम्पूर्ण जीवोंके अन्तःकरणोंमें रहनेवाला परमात्मा ही हूँ। अतः जब तुम विशुद्ध बुद्धिके द्वारा अपने अन्तःकरणमें मेरा साक्षात्कार कर लोगे, तब सब प्रकारके शोकोंसे छूटकर निर्भय पद (मोक्ष) प्राप्त कर लोगे ॥ 39 ॥ माता देवहूतिको भी मैं सम्पूर्ण कानेवाला आत्मज्ञान प्रदान करूँगा, जिससे यह संसाररूप भवसे पार हो जायगी ।। 40 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवान् कपिलके इस प्रकार कहनेपर प्रजापति कर्दमजी उनकी परिक्रमा कर प्रसन्नतापूर्वक वनको चले गये ॥ 41 ॥ वहाँ अहिंसामय संन्यास धर्मका पालन करते हुए वे एकमात्र श्रीभगवान्‌की शरण हो गये तथा अग्नि और आश्रमका त्याग करके निःसङ्गभावसे पृथ्वीपर विचरने लगे ।। 42 ।। जो कार्यकारणसे अतीत है, सत्त्वादि गुणोंका प्रकाशक एवं निर्गुण है और अनन्य भक्तिसे ही प्रत्यक्ष होता है, उस परब्रह्ममें उन्होंने अपना मन लगा दिया ।। 43 ।। वे अहंकार, ममता और सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंसे छूटकर समदर्शी (भेददृष्टिसे रहित) हो, सबमें अपने आत्माको हो देखने लगे। उनको बुद्धि अन्तर्मुख एवं शान्त हो गयी। उस समय धीर कर्दमजी शान्त लहरोंवाले समुद्रके समान जान पड़ने लगे ।। 44 ।।परम भक्तिभावके द्वारा सर्वान्तर्यामी सर्वज्ञ श्रीवासुदेवमें चित्त स्थिर हो जानेसे वे सारे बन्धनोंसे मुक्त हो गये ॥ 45 ॥ सम्पूर्ण भूतोंमें अपने आत्मा श्रीभगवान्‌को और सम्पूर्ण भूतोंको आत्मस्वरूप श्रीहरिमें स्थित देखने लगे ॥ 46 ॥ इस प्रकार इच्छा और द्वेषसे रहित, सर्वत्र समबुद्धि और भगवद्भक्तिसे सम्पन्न होकर श्रीकर्दमजीने भगवान्‌का परमपद प्राप्त कर लिया ।। 47 ।।

अध्याय 25 देवहूतिका प्रश्न तथा भगवान् कपिलद्वारा भक्तियोग का वर्णन

शौनकजीने पूछा- सूतजी ! तत्त्वोंकी संख्या करनेवाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगोंको आत्मज्ञानका उपदेश करनेके लिये अपनी | मायासे उत्पन्न हुए थे ॥ 1 ॥ मैंने भगवान्‌के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिलजीकी कीर्तिको सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं ॥ 2 ॥ सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमायाद्वारा भक्तोंकी | इच्छाके अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करनेयोग्य हैं; अतः आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुननेमें बड़ी श्रद्धा है ॥ 3 ॥

सूतजी कहते हैं— मुने! आपकी ही भाँति जब विदुरने भी यह आत्मज्ञानविषयक प्रश्न किया, तो श्रीव्यासजीके सखा भगवान् मैत्रेयजी प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगे ॥ 4 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! पिताके वनमें चले जानेपर भगवान् कपिलजी माताका प्रिय करनेकी इच्छासे उस बिन्दुसर तीर्थमें रहने लगे ॥ 5 ॥ एक दिन | तत्त्वसमूहके पारदर्शी भगवान् कपिल कर्मकलापसे विरत हो आसनपर विराजमान थे। उस समय ब्रह्माजीके वचनोंका स्मरण करके देवहूतिने उनसे कहा ॥ 6 ॥देवहूति बोली- भूमन् प्रभो! इन दुष्ट इन्द्रियोंकी विषय- लालसा में बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकारमें पड़ी हुई हूँ || 7|| अब आपकी कृपासे मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसीसे इस दुस्तर अज्ञानान्धकारसे पार लगानेके लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं ॥ 8 ॥ आप सम्पूर्ण जीवोंकि स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकारसे अन्धे पुरुषोंके लिये नेत्रस्वरूप सूर्यकी भाँति उदित हुए हैं ॥ 9 ॥ देव ! इन देह-गेह आदिमें जो मैं मेरेपनका दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है, अतः अब आप मेरे इस महामोहको दूर कीजिये ।। 10 ।। आप अपने भक्तोंके संसाररूप वृक्षके लिये कुठारके समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुषका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे आप शरणागतवत्सलकी शरणमें आयी हूँ। आप भागवतधर्म जाननेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ॥ 11 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— इस प्रकार माता देवहूतिने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगोंका मोक्षमार्गमें अनुराग उत्पन्न करनेवाली थी, उसे सुनकर आत्मश सत्पुरुषों की गति श्रीकपिलजी उसकी मन ही मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुसकानसे सुशोभित मुखारविन्दसे इस प्रकार कहने लगे ॥ 12 ॥

भगवान् कपिलने कहा-माता! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्योंके आत्यन्तिक कल्याणका मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुखकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है ॥ 13 ॥ साध्वि ! सब अङ्गोसे सम्पन्न उस योगका मैंने पहले नारदादि ऋषियोंके सामने, उनकी सुननेकी इच्छा होनेपर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ।। 14 ।।

इस जीवके बन्धन और मोक्षका कारण मन ही माना गया है। विषयोंमें आसक्त होनेपर वह बन्धनका हेतु होता है और परमात्मामें अनुरक्त होनेपर वही मोक्षका कारण बन जाता है ॥ 15 ॥ जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होनेवाले काम-लोभ आदि विकारोंसे मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःखसे छूटकर सम | अवस्थामें आ जाता है ॥ 16 ॥तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्तिसे युक्त हृदयसे आत्माको प्रकृतिसे परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखण्ड और उदासीन (सुख-दुःखशून्य) देखता है तथा प्रकृतिको शक्तिहीन अनुभव करता है ॥ 17-18 ॥ योगियोंके लिये भगवत्प्राप्तिके निमित्त सर्वात्मा श्रीहरिके प्रति की हुई भक्तिके समान और कोई मङ्गलमय मार्ग नहीं है ॥ 19 ॥ विवेकीजन सङ्ग या आसक्तिको ही आत्माका अच्छेद्य बन्धन मानते हैं, किन्तु वही सङ्ग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषोंके प्रति हो जाती है, तो मोक्षका खुला द्वार बन जाती है ॥ 20 ॥

जो लोग सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियोंके अकारण हितू, किसीके प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषोंका सम्मान करनेवाले होते हैं, जो मुझमें अनन्यभावसे सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिये सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-सम्बन्धियोंको भी त्याग देते हैं, और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओंका श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाये रहते हैं- -उन भक्तोको संसारके तरह-तरहके ताप कोई कष्ट नहीं पहुँचाते हैं ॥ 21–23 ॥ साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसङ्गपरित्यागी महापुरुष ही साधु होते हैं, तुम्हें उन्हींके सङ्गकी इच्छा करनी चाहिये; क्योंकि वे आसक्तिसे उत्पन्न सभी दोषोंको हर लेनेवाले हैं ॥ 24 ॥ सत्पुरुषोंके समागमसे मेरे पराक्रमोंका यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानोंको प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं। उनका सेवन करनेसे शीघ्र ही मोक्षमार्गमें श्रद्धा, प्रेम और भक्तिका क्रमशः विकास होगा ।। 25 ।। फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओंका चिन्तन करनेसे प्राप्त हुई भक्तिके द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखोंमें वैराग्य हो जानेपर मनुष्य सावधानतापूर्वक योगके भक्तिप्रधान सरल उपायोंसे समाहित होकर मनोनिग्रहके लिये यत्न करेगा ।। 26 । इस प्रकार प्रकृतिके गुणोंसे उत्पन्न हुए शब्दादि विषयोंका त्याग करनेसे, वैराग्ययुक्त ज्ञानसे, योगसे और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्तिसे मनुष्य मुझ अपने अन्तरात्माको इस देहमें ही प्राप्त कर लेता है ॥ 27 ॥देवहूतिने कहा- भगवन्! आपकी समुचित भक्तिका स्वरूप क्या है ? और मेरी जैसी अबलाओंके लिये | कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहजमें ही आपके निर्वाणपदको प्राप्त कर सकूँ ? || 28 ।। निर्वाणस्वरूप प्रभो। जिसके द्वारा तत्त्वज्ञान होता है और जो लक्ष्यको बेधनेवाले बाणके समान भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाला है | वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अङ्ग हैं ? ।। 29 ।। हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइये जिससे कि आपकी कृपासे मैं मन्दमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषयको सुगमतासे समझ सकूँ ॥ 30 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी। जिसके शरीर से उन्होंने स्वयं जन्म लिया था, उस अपनी माताका ऐसा अभिप्राय जानकर कपिलजीके हृदयमें स्नेह उमड़ आया और उन्होंने प्रकृति आदि तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले शाखका, जिसे सांख्य कहते हैं, उपदेश किया। साथ ही भक्ति-विस्तार एवं योगका भी वर्णन किया ।। 31 ।।

श्रीभगवान्ने कहा-माता जिसका चित्त एकमात्र ! भगवान्में ही लग गया है. ऐसे मनुष्यकी वेदविहित कर्मम लगी हुई तथा विषयोंका ज्ञान करानेवाली ( कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय- दोनों प्रकारको इन्द्रियोंकी जो सत्यमूर्ति श्रीहरिके प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान्की अतुको भक्ति है। यह मुक्तिसे भी बढ़कर है; क्योंकि जठरानल जिस | प्रकार खाये हुए अन्नको पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारोंके भरहाररूप लिङ्गशरीरको तत्काल भस्म कर देती है ।। 32-33 ।। मेरी चरणसेवामें प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिये समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक-दूसरेसे मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमोंकी चर्चा किया करते हैं, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ॥ 34 ॥ मा ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविन्दसे युक्त मेरे परम | सुन्दर और वरदायक दिव्य रूपोंकी झाँकी करते हैं और उनके साथ सप्रेम सम्भाषण भी करते है, जिसके लिये बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं ।। 35 ।। दर्शनीय अङ्ग-प्रत्य उदार हास-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त मेरे उन रूपी माधुरीमें उनका मन और इन्द्रियाँ फँस जाती है। ऐसी मेरी भक्तिन चाहनेपर भी उन्हें परमपदकी प्राप्ति | करा देती है ।। 36 ।।अविद्याकी निवृत्ति हो जानेपर यद्यपि वे मुझ मायापतिके सत्यादि लोकोंकी भोगसम्पत्ति, भक्तिकी प्रवृत्तिके पश्चात् स्वयं प्राप्त होनेवाली अष्टसिद्धि अथवा वैकुण्ठलोकके भगवदीय ऐश्वर्यकी भी इच्छा नहीं करते, | तथापि मेरे धाममें पहुँचनेपर उन्हें ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ 37 ॥ जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद् और इष्टदेव हूँ-वे मेरे ही आश्रयमें रहनेवाले भक्तजन शान्तिमय वैकुण्ठधाममें पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगोंसे रहित नहीं होते और न उन्हें मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ॥ 38 ॥

माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकोंमें साथ जानेवाले वासनामय लिङ्गदेहको तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ हैं, उन सबको और अन्यान्य संग्रहोंको भी छोड़कर अनन्य भक्तिसे सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं— उन्हें मैं मृत्युरूप संसारसागरसे पार कर देता हूँ ॥ 39-40 ॥ मैं साक्षात् भगवान् हूँ, प्रकृति और पुरुषका भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियोंका आत्मा हूँ; मेरे सिवा और किसीका आश्रय लेनेसे मृत्युरूप महाभयसे छुटकारा नहीं मिल सकता ॥ 41 ॥ मेरे भयसे यह वायु चलती है, मेरे भयसे सूर्य तपता है, मेरे भयसे इन्द्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भयसे मृत्यु अपने कार्यमें प्रवृत्त होता है ॥ 42 ॥ योगिजन ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तियोगके द्वारा शान्ति प्राप्त करनेके लिये मेरे निर्भय चरणकमलोंका आश्रय लेते हैं ॥ 43 संसारमें मनुष्यके लिये सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र | भक्तियोगके द्वारा मुझमें लगकर स्थिर हो जाय ॥ 44 ॥

अध्याय 26 महदादि भिन्न-भिन्न तत्त्वोंकी उत्पत्तिका वर्णन

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! अब मैं तुम्हें प्रकृति आदि सब तत्त्वोंके अलग-अलग लक्षण बतलाता हूँ; इन्हें जानकर मनुष्य प्रकृतिके गुणोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 1 ॥ आत्मदर्शनरूप ज्ञान ही पुरुषके मोक्षका कारण है। और वही उसकी अहङ्काररूप हृदयग्रन्थिका छेदन करनेवाला है, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। उस ज्ञानका में तुम्हारे आगे वर्णन करता हूँ ॥ 2 ॥ यह सारा जगत् जिससे व्याप्त होकर प्रकाशित होता है, वह आत्मा ही पुरुष है। वह अनादि, निर्गुण, प्रकृतिसे परे, अन्तःकरणमें स्फुरित होनेवाला और स्वयंप्रकाश है ॥ 3 ॥ उस सर्वव्यापक पुरुषने अपने पास लीला-विलासपूर्वक आयी हुई अव्यक्त और त्रिगुणात्मिका वैष्णवी मायाको स्वेच्छासे स्वीकार कर लिया ॥ 4 ॥ लीलापरायण प्रकृति अपने सत्त्वादि गुणोंद्वारा उन्हींके अनुरूप प्रजाकी सृष्टि करने लगी; यह देख पुरुष ज्ञानको आच्छादित करनेवाली उसकी आवरणशक्तिसे मोहित हो गया, अपने स्वरूपको भूल गया ॥ 5 ॥ इस प्रकार अपनेसे भिन्न प्रकृतिको ही अपना स्वरूप समझ लेनेसे पुरुष प्रकृतिके गुणोंद्वारा किये जानेवाले कर्मो में अपनेको ही कर्ता मानने लगता है ॥ 6 ॥ इस कर्तृत्वा भिमानसे ही अकर्ता, स्वाधीन, साक्षी और आनन्दस्वरूप पुरुषको जन्म-मृत्युरूप बन्धन एवं परतन्त्रताकी प्राप्ति होती है ॥ 7 ॥ कार्यरूप शरीर, कारणरूप इन्द्रिय तथा कर्तारूप
इन्द्रियाधिष्ठातृ-देवताओंमें पुरुष जो अपनेपनका आरोप कर लेता है, उसमें पण्डितजन | प्रकृतिको की कारण मानते हैं तथा वास्तवमें प्रकृतिसे परे होकर भी जो प्रकृतिस्थ हो रहा है, उस पुरुषको सुख दुःखोंके भोगने में कारण मानते हैं ॥ 8 ॥ देवहूतिने कहा- पुरुषोत्तम ! इस विश्वके स्थूल सूक्ष्म कार्य जिनके स्वरूप हैं तथा जो इसके कारण हैं उन प्रकृति और पुरुषका लक्षण भी आप मुझसे कहिये ॥ 9 ॥ श्रीभगवान् ने कहा- जो त्रिगुणात्मक, अव्यक्त, नित्य और कार्य-कारणरूप है तथा स्वयं निर्विशेष होकर भी | सम्पूर्ण विशेष धर्मोका आश्रय है, उस प्रधान नामक तत्त्वको ही प्रकृति कहते हैं ॥ 10 ॥ पाँच महाभूत, पाँच तन्मात्रा, चार अन्तःकरण और दस इन्द्रिय-इन चौबीस तत्त्वोंके समूहको विद्वान् लोग प्रकृतिका कार्य मानते हैं ॥11॥पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ये पाँच महाभूत हैं; गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँच तन्मात्र माने गये। हैं 12 श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, नासिका, वाक्, पाणि, पाद, उपस्थ और पायु—ये दस इन्द्रियाँ हैं ।। 13 ।। मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार इन चारके रूपमें एक ही अन्तःकरण अपनी सङ्कल्प, निश्चय, चिन्ता और अभिमानरूपा चार प्रकारको वृत्तियांसे लक्षित होता है ।। 14 ।। इस प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुषनि सगुण ब्रह्मके सन्निवेशस्थान इन चौबीस तत्त्वोंकी संख्या बतलायी है। इनके सिवा जो काल है, वह पचीसवाँ तत्त्व है ।। 15 ।। कुछ लोग कालको पुरुषसे भिन्न तत्त्व न मानकर पुरुषका प्रभाव अर्थात् ईश्वरकी संहारकारिणी शक्ति बताते हैं। जिससे मायाके कार्यरूप देहादिमें आत्मत्वका अभिमान करके अहङ्कारसे मोहित और अपनेको कर्ता माननेवाले जीवको निरन्तर भय लगा रहता है ॥ 16 ॥ मनुपुत्रि । जिनकी प्रेरणासे गुणांकी साम्यावस्थारूप निर्विशेष प्रकृतिमें गति उत्पन्न होती है, वास्तवमें वे पुरुषरूप भगवान् ही ‘काल’ कहे जाते हैं ।। 17 ।। है इस प्रकार जो अपनी मायाके द्वारा सब प्राणियोंके भीतर जीवरूपसे और बाहर कालरूपसे व्याप्त हैं, वे भगवान् ही पचीसवें तत्त्व हैं॥ 18 ॥

जब परमपुरुष परमात्माने जीवो के अदृष्टवश क्षोभको प्राप्त हुई सम्पूर्ण जीवोंकी उत्पत्तिस्थानरूपा अपनी माया में चिच्छक्तिरूप वीर्य स्थापित किया, तो उससे तेजोमय महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ।। 19 ।। लय-विक्षेपादि रहित तथा जगत्के अङ्कुररूप इस महत्तत्त्वने अपने में स्थित विश्वको प्रकट करनेके लिये अपने स्वरूपको आच्छादित करनेवाले प्रलयकालीन अन्धकारको अपने ही तेजसे पी लिया ।। 20 ।।

जो सत्त्वगुणमय, स्वच्छ, शान्त और भगवान्‌को उपलब्धिका स्थानरूप चित्त है, वही महत्तत्त्व है और उसीको ‘वासुदेव’ कहते हैं * ॥ 21 ॥ जिस प्रकार पृथ्वी आदि अन्य पदार्थकि संसर्गसे पूर्व जल अपनी स्वाभाविक (फेन तरङ्गादिरहित) अवस्था में अत्यन्त स्वच्छ, विकारशून्य एवं शान्त होता है, उसी प्रकार अपनी स्वाभाविकी अवस्थाकी दृष्टिसे स्वच्छत्व, अविकारित्व और शान्तत्व ही वृत्तियोसहित चित्तका | लक्षण कहा गया है ।। 22 ।। तदनन्तर भगवान्‌की वीर्यरूपचित्-शक्ति उत्पन्न हुए महत्तत्त्वके विकृत होनेपर उससे क्रियाशक्तिप्रधान अहङ्कार उत्पन्न हुआ वह वैकारिक, तैजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है। उसीसे मन, इन्द्रियों और पञ्चमहाभूतोंकी उत्पत्ति हुई ॥ 23-24 ॥ इस भूत, इन्द्रिय और मनरूप अहङ्कारको ही पण्डितजन साक्षात् ‘सङ्कर्षण’ नामक सहस्र सिरवाले अनन्तदेव कहते हैं ।। 25 । इस अहङ्कारका देवतारूपसे कर्तृत्व, इन्द्रियरूपसे करणत्व और पञ्चभूतरूपसे कार्यत्व लक्षण है तथा सत्त्वादि गुणक सम्बन्धसे शान्तत्व, घोरत्व और मूढत्व भी इसीके लक्षण है॥ 26 ॥ उपर्युक्त तीन प्रकारके अहङ्कारमेंसे वैकारिक अहङ्कारके विकृत होनेपर उससे मन हुआ, जिसके सङ्कल्प-विकल्पोंसे कामनाओंकी उत्पत्ति होती है ॥। 27 ॥ यह मनस्तत्त्व ही इन्द्रियोंके अधिष्ठाता ‘अनिरुद्ध’ के नामसे प्रसिद्ध है। योगिजन शरत्कालीन नीलकमलके समान श्याम वर्णवाले इन अनिरुद्धजीकी शनैः-शनैः मनको वशीभूत करके आराधना करते हैं ॥ 28 ॥ साध्वि ! फिर तैजस अहङ्कारमें विकार होनेपर उससे बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ। वस्तुका स्फुरणरूप विज्ञान और इन्द्रियोंके व्यापारमें सहायक होना -पदार्थोंका विशेष ज्ञान करना-ये बुद्धिके कार्य हैं ।। 29 । वृत्तियोंके भेदसे संशय, विपर्यय (विपरीत ज्ञान), निशय स्मृति और निद्रा भी बुद्धिके ही लक्षण हैं। यह बुद्धितत्त्व ही ‘प्रद्युम्न’ है ॥ 30 ॥ इन्द्रियाँ भी तेजस अहङ्कारका ही कार्य है। कर्म और ज्ञानके विभागसे उनके कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय दो भेद हैं। इनमें कर्म प्राणकी शक्ति है और ज्ञान बुद्धिकी ।। 31

भगवान्‌की चेतनशक्तिको प्रेरणासे तामस अहङ्कारके विकृत होनेपर उससे शब्दतन्मात्रका प्रादुर्भाव हुआ। शब्दतन्मात्रसे आकाश तथा शब्दका ज्ञान करानेवाली श्रोत्रेन्द्रिय उत्पन्न हुई ॥ 32 ॥ अर्थका प्रकाशक होना, ओटमें खड़े हुए वक्ताका भी ज्ञान करा देना और आकाशका सूक्ष्म रूप होना—विद्वानोंके मतमें यही शब्दके लक्षण हैं ॥ 33 ॥ भूतोंको अवकाश देना, सबके बाहर-भीतर वर्तमान रहना तथा प्राण, इन्द्रिय और मनका आश्रय होना—ये आकाशके वृत्ति (कार्य) रूप | लक्षण है ।। 34 ।।फिर शब्दतन्मात्र के कार्य आकाशमें कालगतिसे विकार होनेपर स्पर्शतन्मात्र हुआ और उससे वायु तथा स्पर्शका ग्रहण करानेवाली त्वगिन्द्रिय (त्वचा) उत्पन्न हुई ॥ 35 ॥ कोमलता, कठोरता, शीतलता और उष्णता तथा वायुका सूक्ष्म रूप होना—ये स्पर्शके लक्षण हैं ।। 36 ।। वृक्षकी शाखा आदिको हिलाना, तृणादिको इकट्ठा कर देना, सर्वत्र पहुंचना गन्धदियुक्त द्रव्यको घ्राणादि इन्द्रियोंके पास तथा शब्दको श्रोत्रेन्द्रियके समीप ले जाना तथा समस्त इन्द्रियोंको कार्यशक्ति देना – ये वायुकी वृत्तियों के लक्षण हैं ॥ 37 ॥

तदनन्तर देवकी प्रेरणासे स्पर्शतधारविशिष्ट वायुके विकृत होनेपर उससे रूपतन्मात्र हुआ तथा उससे तेज और रूपको उपलब्ध करानेवाली नेत्रेन्द्रियका प्रादुर्भाव हुआ ॥ 38 ॥ साध्वि ! वस्तुके आकारका बोध कराना, गौण होना- द्रव्यके अङ्गरूपसे प्रतीत होना, द्रव्यका जैसा आकार-प्रकार और परिमाण आदि हो, उसी रूपमें उपलक्षित होना तथा तेजका स्वरूपभूत होना ये सब रूपतन्मात्रकी वृत्तियाँ हैं ॥ 39 ॥ चमकना, पकाना, शीतको दूर करना, सुखाना, भूख-प्यास पैदा करना और उनकी निवृत्तिके लिये भोजन एवं जलपान कराना—ये तेजकी वृत्तियाँ हैं ॥ 40 ॥

फिर दैवकी प्रेरणा से रूपतन्मात्रमय तेजके विकृत होनेपर उससे रसतन्मात्र हुआ और उससे जल तथा रसको ग्रहण करानेवाली रसनेन्द्रिय (जिह्वा) उत्पन्न हुई ॥ 41 ॥ रस अपने शुद्ध स्वरूपमें एक ही है; किन्तु अन्य भौतिक पदार्थोक संयोगसे वह कसैला, मीठा, तीखा, कड़वा, खट्टा और नमकीन आदि कई प्रकारका हो जाता है ॥ 42 ॥ गीला करना, मिट्टी आदिको पिण्डाकार बना देना, तृप्त करना, जीवित रखना, प्यास बुझाना, | पदार्थोौको मृदु कर देना, तापको निवृत्ति करना और कूपादिमेसे निकाल लिये जानेपर भी वहाँ बार-बार पुनः प्रकट हो जाना ये जलकी वृत्तियाँ हैं ॥ 43 ॥

इसके पश्चात् दैवप्रेरित रसस्वरूप जलके विकृत होनेपर उससे गन्धतन्मात्र हुआ और उससे पृथ्वी तथा गन्धको ग्रहण करानेवाली घाणेन्द्रिय प्रकट हुई 44 गन्ध एक ही है; तथापि परस्पर मिले हुए द्रव्यभागको न्यूनकितासे वह मिश्रितगन्ध, दुर्गन्ध, सुगन्ध, मृदु, तीव्र और अम्ल (खट्टा) आदि अनेक प्रकारका हो जाता है ।। 45 ।। प्रतिमादिरूपसे ब्रह्मकी साकार भावनाका आश्रय होना, जल आदि कारण तत्त्वोंसे भिन्न किसी दूसरे आश्रयकी अपेक्षा किये बिना ही स्थितरहना, जल आदि अन्य पदार्थोंको धारण करना, आकाशादिका अवच्छेदक होना (घटाकाश, मठाकाश आदि भेदोंको सिद्ध करना) तथा परिणामविशेषसे सम्पूर्ण प्राणियोंक [स्त्रीत्व, पुरुषत्व
आदि) गुणोंको प्रकट करना-ये पृथ्वीके कार्यरूप लक्षण
है, वायुका 4 ॥ 46 ॥ आकाशका विशेष गुण शब्द जिसका विषय है, वह श्रोत्रेन्द्रिय विशेष गुण स्पर्श जिसका विषय है, वह त्वगिन्द्रिय है; ।। 47 ।। तेजका विशेष गुण रूप जिसका विषय है, वह नेत्रेन्द्रिय है; जलका विशेष गुण रस जिसका विषय है, वह रसनेन्द्रिय है और | पृथ्वीका विशेष गुण गन्ध जिसका विषय है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते है ॥ 48 ॥ वायु आदि कार्य-तत्त्वोंमें आकाशादि कारण तत्वोंके रहनेसे उनके गुण भी अनुगत देखे जाते हैं; इसलिये समस्त महाभूतों के गुण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध केवल पृथ्वी पाये जाते हैं ।। 49 । जब महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चभूत- ये सात तत्त्व परस्पर मिल न सके पृथक् पृथक् ही रह गये, तब जगत्के आदिकारण श्रीनारायणने काल, अदृष्ट और सत्त्वादि गुणोंके सहित उनमें प्रवेश किया ।। 50 ।।

फिर परमात्माके प्रवेशसे क्षुब्ध और आपसमें मिले हुए उन तत्त्वोंसे एक जड अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्डसे इस विराट् पुरुषकी अभिव्यक्ति हुई ॥ 51 ॥ इस अण्डका नाम विशेष है, |इसीके अन्तर्गत हरिके रूपभूत चौदों का विस्तार है। यह चारों ओरसे क्रमशः एक-दूसरेसे दसगुने जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहङ्कार और महत्तत्त्व – इन छः आवरणोंसे घिरा हुआ है। इन सबके बाहर सातवाँ आवरण प्रकृतिका है॥ 52 ॥ कारणमय जलमें स्थित उस तेजोमय अण्डसे उठकर उस विराद् पुरुषने पुनः उसमें प्रवेश किया और फिर उसमें कई प्रकारके छिद्र किये ।। 53 ।। सबसे पहले उसमें मुख प्रकट हुआ, उससे वाकू इन्द्रिय और उसके अनन्तर वाक्का अधिष्ठाता अग्नि उत्पन्न हुआ। फिर नाकके छिद्र (नथुने) प्रकट हुए, उनसे प्राणसहित घ्राणेन्द्रिय उत्पन्न हुई ।। 54 ।। घ्राणके बाद उसका अधिष्ठाता वायु उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् नेत्रगोलक प्रकट हुए, उनसे चक्षु-इन्द्रिय प्रकट हुई और उसके अनन्तर उसका अधिष्ठाता सूर्य उत्पन्न हुआ। फिर कानोंके छिद्र प्रकट हुए, उनसे उनकी इन्द्रिय श्रोत्र और उसके अभिमानी दिग्देवता प्रकट हुए ॥ 55 ॥ इसके बाद उस विराद् पुरुषके त्वचा उत्पन्न हुई। उससे रोम, मूँछ दाढ़ी तथा सिरके बाल प्रकट हुए और उनके बाद त्वचाकी अभिमानी ओषधियाँ (अन्न) आदि) उत्पन्न हुई। इसके पश्चात् लिङ्ग प्रकट हुआ ॥ 56 ॥ उससे वीर्य और वीर्यके बाद लिङ्गका अभिमानी आपोदेव (जल) उत्पन्नहुआ। फिर गुदा प्रकट हुई, उससे अपानवायु और अपानके बाद उसका अभिमानी लोकोको भयभीत करनेवाला मृत्युदेवता उत्पन्न हुआ ॥ 57 ॥ तदनन्तर हाथ प्रकट हुए, उनसे बल और बलके बाद हस्तेन्द्रियका अभिमानि इन्द्र उत्पन्न हुआ। फिर चरण प्रकट हुए, उनसे गति (गमनकी क्रिया) और फिर पादेन्द्रियका अभिमानी विष्णुदेवता उत्पन्न हुआ ।। 58 ।। इसी प्रकार जब | विराट् पुरुषके नाडियाँ प्रकट हुई, तो उनसे रुधिर उत्पन्न हुआ और उससे नदियाँ हुई। फिर उसके उदर (पेट) प्रकट | हुआ ।। 59 ।। उससे क्षुधा पिपासाकी अभिव्यक्ति हुई और फिर उदरका अभिमानी समुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् उसके हृदय प्रकट हुआ, हृदयसे मनका प्राकट्य हुआ ॥ 60 ॥ मनके बाद उसका अभिमानी देवता चन्द्रमा हुआ। फिर हृदयसे ही बुद्धि और उसके बाद उसका अभिमानी ब्रह्मा हुआ। तत्पश्चात् अहङ्कार और उसके अनन्तर उसका अभिमानी रुद्रदेवता उत्पन्न हुआ। इसके बाद चित्त और उसका अभिमानी क्षेत्रज्ञ प्रकट हुआ ।। 61 ।।

जब ये क्षेत्रज्ञके अतिरिक्त सारे देवता उत्पन्न होकर भी विराट् पुरुषको उठाने में रहे तो उसे उठाने के लिये क्रमशः फिर अपने-अपने उत्पत्तिस्थानोंमें प्रविष्ट होने लगे ।। 62 ।। अग्रिने वाणीके साथ मुखमें प्रवेश किया, परन्तु इससे विराट् पुरुष न उठा। वायुने घ्राणेन्द्रियके सहित नासाछिद्रोंमें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा ॥ 63 ॥ सूर्यने चक्षुके सहित नेत्रोंमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। दिशाओंने श्रवणेन्द्रियके सहित कानोंमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। 64 ।। ओषधियोंने रोमोंके सहित त्वचामें प्रवेश किया फिर भी विराट् पुरुष न उठा। जलने वीर्यके साथ लिङ्गमे प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ।। 65 ।। मृत्युने अपानके साथ गुदामें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। इन्द्रने बलके साथ हाथोंमें प्रवेश किया, परन्तु इससे भी विराट् पुरुष न उठा ।। 66 ।। विष्णुने गतिके सहित चरणोंमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा। नदियोंने रुधिरके सहित नाडियोंमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा ॥ 67 ॥ समुद्रने क्षुधा पिपासाके सहित उदरमें प्रवेश किया, फिर भी विराट् पुरुष न उठा। चन्द्रमाने मनके सहित हृदय प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। 68 ।। ब्रह्माने बुद्धिके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तब भी विराट् पुरुष न उठा। रुद्रने अहङ्कारके सहित उसी हृदयमें प्रवेश किया, तो भी विराट् पुरुष न उठा ।। 69 ।।किन्तु जब चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञने चित्तके सहित हृदयमें प्रवेश किया, तो विराट् पुरुष उसी समय जलसे उठकर खड़ा हो गया ॥ 70 ॥ जिस प्रकार लोकमें प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि चित्तके अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञकी सहायताके बिना सोये हुए प्राणीको अपने बलसे नहीं उठा सकते, उसी प्रकार विराट् पुरुषको भी वे क्षेत्रज्ञ परमात्माके बिना नहीं उठा सके ॥ 71 ॥ अतः भक्ति, वैराग्य और चित्तकी एकाग्रतासे प्रकट हुए ज्ञानके द्वारा उस अन्तरात्मस्वरूप क्षेत्रज्ञको इस शरीरमें स्थित जानकर उसका चिन्तन करना चाहिये ॥ 72 ॥

अध्याय 27 प्रकृति-पुरुषके विवेकसे मोक्ष प्राप्तिका वर्णन

श्रीभगवान् कहते हैं-माताजी जिस तरह जलमें प्रतिविम्बित सूर्यके साथ जलके शीतलता, चञ्चलता आदि गुणोंका सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार प्रकृतिके कार्य शरीरमें स्थित रहनेपर भी आत्मा वास्तवमें उसके सुख-दुःखादि धर्मोसे लिए नहीं होता; क्योंकि वह स्वभावसे निर्विकार, अकर्ता और निर्गुण है ॥ 1 ॥ किन्तु जब वही प्राकृत गुणोंसे अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है, तब अहङ्कारसे मोहित होकर ‘मैं कर्ता हूँ – ऐसा मानने लगता है ।। 2 ।। उस अभिमानके कारण वह है देहके संसर्गसे किये हुए पुण्य-पापरूप कर्मकि दोषसे अपनी स्वाधीनता और शान्ति खो बैठता है तथा उत्तम, मध्यम और नीच योनियोंमें उत्पन्न होकर संसारचक्रमें घूमता रहता है ॥ 3 ॥ जिस प्रकार स्वप्नमें भय-शोकादिका कोई कारण न होनेपर भी स्वप्रके पदार्थों में आस्था हो जानेके कारण दुःख उठाना पड़ता है, उसी प्रकार भय-शोक, अहं मम एवं जन्म-मरणादिरूप संसारकी कोई सत्ता न होने भी अविद्यावश विषयोंका चिन्तन करते रहने से जीवका संसार-चक्र कभी निवृत्त नहीं होता ॥ 4 इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि असमार्ग (विषय चिन्तन) में फंसे हुए चितको तीव्र भक्तियोग और वैराग्यके द्वारा धीरे-धीरे अपने वशमें लावे ॥ 5 ॥

यमादि योगसाधनों के द्वारा श्रद्धापूर्वक अभ्यास चित्तको बारंबार एकाग्र करते हुए मुझमें सच्चा भाव रखने, मेरी कथा श्रवण करने, समस्त प्राणियोंमें समभाव रखने, किसीसेवैर न करने, आसक्तिके त्याग, ब्रह्मचर्य, मौन व्रत और बलिष्ठ (अर्थात् भगवानको समर्पित किये हुए) स्वधर्मसे जिसे ऐसी स्थिति प्राप्त हो गयी है कि प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाता है उसीमें सन्तुष्ट रहता है, परिमित भोजन करता है, सदा | एकान्तमें रहता है, शान्तस्वभाव है, सबका मित्र है, दयालु और धैर्यवान है, प्रकृति और पुरुष वास्तविक अनुभव | प्राप्त हुए तत्त्वज्ञान के कारण स्त्री-पुत्रादि सम्बन्धियोंके सहित इस देह मैं मेरेपनका मिथ्या अभिनिवेश नहीं करता, बुद्धिकी जाग्रदादि अवस्थाओंसे भी अलग हो गया है तथा परमात्माके सिवा और कोई वस्तु नहीं देखता – वह आत्मदर्शी मुनि नेत्रोंसे सूर्यको देखनेकी भाँति अपने शुद्ध अन्तःकरणद्वारा परमात्माका साक्षात्कार कर उस अद्वितीय ब्रह्मपदको प्राप्त हो जाता है, जो | देहादि सम्पूर्ण उपाधियोंसे पृथक्, अहङ्कारादि मिथ्या वस्तुओंमें सत्यरूपसे भासनेवाला, जगत्कारणभूता प्रकृतिका अधिष्ठान, | महदादि कार्यवर्गका प्रकाशक और कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण पदार्थो में व्याप्त है ।। 6- 11 ।।

जिस प्रकार जलमें पड़ा हुआ सूर्यका प्रतिबिम्ब दीवालपर पड़े हुए अपने आभासके सम्बन्धसे देखा जाता है और जलमें दीखनेवाले प्रतिबिम्बसे आकाशस्थित सूर्यका ज्ञान होता है, उसी प्रकार वैकारिक आदि भेदसे तीन प्रकारका अहङ्कार देह, इन्द्रिय और मनमें स्थित अपने प्रतिबिम्बोंसे लक्षित होता है और फिर सत् परमात्मा के प्रतिविम्बयुक्त उस अहङ्कारके द्वारा सत्य ज्ञानस्वरूप परमात्माका दर्शन होता है— जो सुषुप्तिके समय निद्रासे शब्दादि भूतसूक्ष्म इन्द्रिय और मनबुद्धि आदिके अव्याकृतमें लीन हो जानेपर स्वयं जागता रहता है और सर्वथा अहङ्कारशून्य है ॥ 12-14 ॥ (जाग्रत अवस्थामें यह आत्मा भूतसूक्ष्मादि दृश्यवर्गके द्रष्टारूपमें स्पष्टतया अनुभव आता है; किन्तु सुपतिके समय अपने उपाधिभूत अहङ्कारका नाश होनेसे वह भ्रमवश अपनेको ही नष्ट हुआ मान लेता है और जिस प्रकार धनका नाश हो जानेपर मनुष्य अपनेको भी नष्ट | हुआ मानकर अत्यन्त व्याकुल हो जाता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त विवश होकर नष्टवत् हो जाता है ॥ 15 ॥ माताजी ! इन सब बातोंका मनन करके विवेकी पुरुष अपने आत्माका अनुभव कर लेता है, जो अहङ्कारके सहित सम्पूर्ण तत्त्वोंका अधिष्ठान और प्रकाशक है ।। 16 ।।

देवहूतिने पूछा-प्रभो। पुरुष और प्रकृति दोनों ही नित्य और एक-दूसरेके आश्रयसे रहनेवाले है, इसलिये प्रकृति
तो पुरुषको कभी छोड़ ही नहीं सकती ॥ 17 ॥ ब्रह्मन् ! जिस प्रकार गन्ध और पृथ्वी तथा रस और जलकी पृथक्-पृथक्स्थिति नहीं हो सकती, उसी प्रकार पुरुष और प्रकृति भी एक-दूसरेको छोड़कर नहीं रह सकते ॥ 18 ॥ अतः जिनके आश्रयसे अकर्ता पुरुषको यह कर्मबन्धन प्राप्त हुआ है, उन प्रकृतिके गुणोंके रहते हुए उसे कैवल्यपद कैसे प्राप्त होगा ? ॥ 19 ॥ यदि तत्त्वोंका विचार करनेसे कभी यह संसारबन्धनका तीव्र भय निवृत्त हो भी जाय, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणोंका अभाव न होनेसे वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ।। 20 ।।

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी। जिस प्रकार अधिका उत्पत्तिस्थान अरणि अपनेसे ही उत्पन्न अग्निसे जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार निष्कामभावसे किये हुए स्वधर्मपालनद्वारा अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बहुत समयतक भगवत्कथा श्रवणद्वारा पुष्ट हुई मेरी तीव्र भक्तिसे, तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाले ज्ञानसे, प्रबल वैराग्यसे, व्रतनियमादिके सहित किये हुए ध्यानाभ्याससे और चित्तकी प्रगाढ़ एकाग्रतासे पुरुषकी प्रकृति (अविद्या) दिन-रात क्षीण होती हुई धीरे-धीरे लीन हो जाती है । 21 – 23 ॥ फिर नित्यप्रति दोष दीखनेसे भोगकर त्यागी हुई वह प्रकृति अपने स्वरूप में स्थित और स्वतन्त्र (बन्धनमुक्त) हुए उस पुरुषका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ 24 ॥ जैसे सोये हुए पुरुषको स्वप्रमें कितने ही अनथका अनुभव करना पड़ता है, किन्तु जग पड़नेपर उसे उन स्वप्रके अनुभवोंसे किसी प्रकारका मोह नहीं होता ॥ 25 ॥ उसी प्रकार जिसे तत्त्वज्ञान हो गया है और जो निरन्तर मुझमें ही मन लगाये रहता है, उस आत्माराम मुनिका प्रकृति कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती ॥ 26 ॥ जब मनुष्य अनेकों जन्मोंमें बहुत समयतक इस प्रकार आत्मचिन्तनमें ही निमग्न रहता है, तब उसे ब्रह्मलोक-पर्यन्त सभी प्रकारके भोगोंसे वैराग्य हो जाता है ॥ 27 ॥ मेरा वह धैर्यवान् भक्त मेरी ही महती कृपासे तत्त्वज्ञान प्राप्त करके आत्मानुभवके द्वारा सारे संशयोंसे मुक्त हो जाता है और फिर लिङ्गदेहका नाश होनेपर एकमात्र मेरे ही आश्रित अपने स्वरूपभूत कैवल्यसंज्ञक मङ्गलमय पदको | सहजमें ही प्राप्त कर लेता है, जहाँ पहुँचनेपर योगी फिर लौटकर नहीं आता ।। 28-29 ॥ माताजी! यदि योगीका चित्त योगसाधनासे बढ़ी हुई मायामयी अणिमादि सिद्धियोंमें, जिनकी प्राप्तिका योगके सिवा दूसरा कोई साधन नहीं है, नहीं फँसता, तो उसे मेरा वह अविनाशी परमपद प्राप्त होता है जहाँ मृत्युकी कुछ भी दाल नहीं गलती ॥ 30 ॥

अध्याय 28 अष्टाङ्गयोगकी विधि

कपिलभगवान् कहते हैं- माताजी ! अब मैं तुम्हें सबीज (ध्येयस्वरूपके आयुक्त योगका क्षणा हूँ, जिसके द्वारा चित्त शुद्ध एवं प्रसन्न होकर परमात्मा के मार्गमें प्रवृत्त हो जाता है ॥ 1 ॥ यथाशक्ति शास्त्रविहित स्वधर्मका पालन | करना तथा शास्त्रविरुद्ध आचरणका परित्याग करना, प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहना, आत्मज्ञानियोंके चरणोंकी पूजा करना, ॥ 2 ॥ विषयवासनाओंको बढ़ानेवाले कर्मोसे दूर रहना, संसारबन्धनसे छुड़ानेवाले धर्मों में प्रेम करना, पवित्र और परिमित भोजन करना, निरन्तर एकान्त और निर्भय स्थानमें रहना ॥ 3 ॥ मन, वाणी और शरीरसे किसी जीवको न सताना, सत्य बोलना, चोरी न करना, आवश्यकतासे अधिक वस्तुओंका संग्रह न करना, ब्रह्मचर्यका पालन करना, तपस्या करना (धर्मपालनके लिये कष्ट सहना), बाहर-भीतरसे पवित्र रहना, शास्त्रोंका अध्ययन करना, भगवान्‌की पूजा करना, ॥ 4 ॥ वाणीका संयम करना, उत्तम आसनोंका अभ्यास करके स्थिरता पूर्वक बैठना धीरे-धीरे प्राणायामके द्वारा शासको जीतना, इन्द्रियोंको मनके द्वारा विषयोंसे हटाकर अपने हृदयमें ले जाना ॥ 5 ॥ मूलाधार आदि किसी एक केन्द्रमें मनके सहित प्राणों को स्थिर करना, निरन्तर भगवान्‌की लीलाओंका चिन्तन और चित्तको समाहित करना ॥ 6 ॥ इनसे तथा व्रत-दानादि दूसरे साधनों से भी सावधानीके साथ प्राणोंको जीतकर बुद्धिके द्वारा अपने कुमार्गगामी दुष्ट चित्तको धीर-धीरे एकाग्र करे. परमात्माके ध्यानमें लगावे ॥ 7 ॥

पहले आसनको जीते, फिर प्राणायामके अभ्यासके लिये पवित्र देशमें कुश-मृगचर्मादिसे युक्त आसन बिछावे। उसपर | शरीरको सीधा और स्थिर रखते हुए सुखपूर्वक बैठकर अभ्यास करे ॥ 8 ॥ आरम्भमें पूरक, कुम्भक और रेचक क्रमसे अथवा इसके विपरीत रेचक, कुम्भक और पूरक करके प्राणके मार्गका शोधन करे जिससे चित्त स्थिर और निश्चल हो जाय ॥ 9 ॥

जिस प्रकार वायु और अभिसे तपाया हुआ सोना अपने मलको त्याग देता है, उसी प्रकार जो योगी प्राणवायुको जीत लेता है, उसका मन बहुत शीघ्र शुद्ध हो जाता है ॥ 10 ॥ अतः योगीको उचित है कि प्राणायामसे वात-पित्तादिजनित दोषों को, धारणासे पापोंको, प्रत्याहारसे विषयोंके सम्बन्धको और ध्यानसे भगवद्विमुख करनेवाले राग-द्वेषादि दुर्गुणों को दूर करे ।। 11 ।। जब योगका अभ्यास करते-करते चित निर्मल और एकाग्र होजाय, तब नासिकाके अग्रभागमें दृष्टि जमाकर इस प्रकार भगवान्‌की मूर्तिका ध्यान करे ।। 12 ।।

भगवान्का मुखकमल आनन्दसे प्रफुल्ल है. ने | कमलकोशके समान रतनारे हैं, शरीर नीलकमलदलके समान श्याम है; हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये है ॥ 13 ॥ कमलकी केसरके समान पीला रेशमी वस्त्र लहरा रहा है, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिड़ है और गलेमें कौस्तुभमणि झिलमिला रही है ।। 14 ।। वनमाला चरणांतक लटकी हुई है, जिसके चारों ओर और सुगन्धसे मतवाले होकर मधुर गुंजार कर रहे हैं. अङ्ग-प्रत्यये महामूल्य हार, कण, किरोट, भुजबन्ध और नूपुर आदि आभूषण विराजमान हैं ॥ 15 ॥ कमरमें करधनीकी लड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही हैं; भक्तोंके हृदयकमल ही उनके आसन हैं, उनका दर्शनीय श्यामसुन्दर स्वरूप अत्यन्त शान्त एवं मन और नयनोंको आनन्दित करनेवाला है ।। 16 ।। उनकी अति सुन्दर किशोर अवस्था है, वे भक्तोंपर कृपा करनेके लिये आतुर हो रहे हैं। बड़ी मनोहर झाँकी है। भगवान् सदा सम्पूर्ण लोकोंसे वन्दित हैं ॥ 17 ॥ उनका पवित्र यश परम कीर्तनीय है और वे राजा बलि आदि परम यशस्वियोंके भी यशको बढ़ानेवाले हैं। इस प्रकार श्रीनारायणदेवका सम्पूर्ण अङ्गोके सहित तबतक ध्यान करे, जबतक चित्त वहांसे हटे नहीं ॥ 18 ॥ भगवान्‌की लोलाएँ बड़ी दर्शनीय है; अतः अपनी रुचि के अनुसार सड़े हुए, चलते हुए बैठे हुए, पौड़े हुए अथवा अन्तर्यामीरूपमें स्थित हुए उनके स्वरूपका विशुद्ध भावयुक्त चित्तसे चिन्तन करे ।। 19 ।। इस प्रकार योगी जब यह अच्छी तरह देख ले कि भगवद्विप्रहमें चित्तकी स्थिति हो गयी, तब वह उनके समस्त अङ्गमें लगे हुए चित्तको विशेष रूपसे एक-एक अङ्गमे लगावे ।। 20 ।।

भगवान्के चरणकमलोंका ध्यान करना चाहिये। वे | वज्र, अङ्कुश, ध्वजा और कमलके मङ्गलमय चिह्नोंसे युक्त . तथा अपने उभरे हुए लाल-लाल शोभामय नखचन्द्र मण्डलकी चन्द्रिकासे ध्यान करनेवालोके हृदयके | अज्ञानरूप घोर अन्धकारको दूर कर देते हैं ॥ 21 ॥ इन्हींकी धोवनसे नदियोंमें श्रेष्ठ श्रीगङ्गाजी प्रकट हुई थीं, जिनके पवित्र जलको मस्तकपर धारण करनेके कारण स्वयं मङ्गलरूप श्रीमहादेवजी और भी अधिक मङ्गलमय हो गये। ये अपना ध्यान करनेवालोंके पापरूप पर्वतोंपर छोड़े हुए इन्द्रके वज्रके समान है। भगवान् के इन चरणकमलोंका चिरकालतक चिन्तन करे ॥ 22 ॥भवभयहारी अजन्मा श्रीहरिकी दोनों पिंडलियों एवं घुटनोंका ध्यान करे, जिनको विश्वविधाता ब्रह्माजी की माता सुरवन्दिता कमललोचना लक्ष्मीजी अपनी जाँघोंपर रखकर अपने कान्तिमान् करकिसलयोंकी कान्तिसे लाड़ लड़ाती रहती हैं ॥ 23 ॥ भगवान्‌की जाँघोंका ध्यान करे, जो अलसीके फूलके समान नीलवर्ण और बलकी निधि हैं तथा गरुडजीकी पीठपर शोभायमान हैं। भगवान्‌के नितम्बबिम्बका ध्यान करे, जो एड़ीतक लटके हुए पीताम्बरसे ढका हुआ है और उस पीताम्बरके ऊपर पहनी हुई सुर्वणमयी करधनीकी लड़ियोंको आलिङ्गन कर रहा है ।। 24 ॥

सम्पूर्ण लोकोंके आश्रयस्थान भगवान्‌के उदरदेशमें स्थित नाभिसरोवरका ध्यान करे; इसीमेंसे ब्रह्माजीका आधारभूत सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ है। फिर प्रभुके श्रेष्ठ मरकतमणिसदृश दोनों स्तनोंका चिन्तन करे, जो वक्षःस्थलपर पड़े हुये शुभ्र हारोंकी किरणोंसे गौरवर्ण जान पड़ते हैं ||25|| इसके पश्चात् पुरुषोत्तम भगवान्‌के वक्षःस्थलका ध्यान करे, जो महालक्ष्मीका निवासस्थान और लोगोंके मन एवं नेत्रोंको आनन्द देनेवाला है। फिर सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय भगवान्के गलेका चिन्तन करे, जो मानो कौस्तुभमणिको भी सुशोभित करनेके लिये ही उसे धारण करता है ॥ 26 ॥

समस्त लोकपालोंकी आश्रयभूता भगवान्‌की चारों भुजाओंका ध्यान करे, जिनमें धारण किये हुए कङ्कणादि आभूषण समुद्रमन्थनके समय मन्दराचलकी रगड़से और भी उजले हो गये हैं। इसी प्रकार जिसके तेजको सहन नहीं किया जा सकता, उस सहस्र धारोंवाले सुदर्शनचक्रका तथा उनके कर-कमलमें राजहंसके समान विराजमान | शङ्खका चिन्तन करे ।। 27 ।। फिर विपक्षी वीरोंके रुधिरसे सनी हुई प्रभुकी प्यारी कौमोदकी गदाका, भौरोंके शब्दसे गुञ्जायमान वनमालाका और उनके कण्ठमें सुशोभित सम्पूर्ण जीवोंके निर्मलतत्त्वरूप कौस्तुभमणिका ध्यान करे * ।। 28 ।।

भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही यहाँ साकाररूप धारण | करनेवाले श्रीहरिके मुखकमलका ध्यान करे, जो सुधड़ नासिकासेसुशोभित है और झिलमिलाते हुए मकराकृत कुण्डल हिलनेसे अतिशय प्रकाशमान स्वच्छ कपोलोंके कारण बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है ॥ 29 ॥ काली काली घुँघराली | अलकावलीसे मण्डित भगवान्‌का मुखमण्डल अपनी छवि के द्वारा भ्रमरोंसे सेवित कमलकोशका भी तिरस्कार कर रहा है और | उसके कमलसदृश विशाल एवं चञ्चल नेत्र उस कमलकोशपर उछलते हुए मछलियों के जोड़ेकी शोभाको मात कर रहे हैं। उन्नत भूलताओंसे सुशोभित भगवान्के ऐसे मनोहर मुखारविन्दकी मनमें धारणा करके आलस्यरहित हो उसीका ध्यान करे ।। 30 ।।

हृदयगुहा चिरकालतक भक्तिभाव भगवान नेत्री चितवनका ध्यान करना चाहिये, जो कृपासे और प्रेमभरी मुस्कानसे क्षण-क्षण अधिकाधिक बढ़ती रहती है, व प्रसादकी वर्षा करती रहती है और भक्तजनोंक अत्यन्त घोर तीनों तापको शान्त करनेके लिये ही प्रकट हुई है ॥ 31 ॥ श्रीहरिका हास्य प्रणतजनोंके तीव्र से तीव्र शोकके अश्रुसागरको सुखा देता है और अत्यन्त उदार है। मुनियोंके हित के लिये कामदेवको मोहित करनेके लिये हो अपनी मायसे श्रीहरिने अपने भ्रूमण्डलको बनाया है— उनका ध्यान करना चाहिये ॥ 32 ॥ अत्यन्त प्रेमार्द्रभावसे अपने हृदयमें विराजमान श्रीहरिके । खिलखिलाकर हँसनेका ध्यान करे, जो वस्तुतः ध्यानके ही योग्य है तथा जिसमें ऊपर और नीचेके दोनों होठोंकी अत्यधिक अरुण कान्तिके कारण उनके कुन्दकलीके समान शुभ्र छोटे-छोटे दाँतोंपर लालिमा सी प्रतीत होने लगी है। इस प्रकार ध्यानमें तन्मय होकर उनके सिवा किसी अन्य पदार्थको देखनेकी इच्छा न करे ।। 33 ।।

इस प्रकारके ध्यानके अभ्याससे साधकका श्रीहरिमें प्रेम हो जाता है, उसका हृदय भक्तिसे द्रवित हो जाता है, शरीरमें आनन्दातिरेकके कारण रोमाञ्च होने लगता है, उत्कण्ठाजनित प्रेमाश्रुओकी धारामें वह बारबार अपने शरीरको नहलाता है और फिर मछली पकड़नेके कॉटेके समान श्रीहरिको अपनी ओर आकर्षित करनेके साधनरूप अपने चित्तको भी धीर-धीरे ध्येय वस्तुसे हटा लेता है ।। 34 ।। जैसे तेल आदिके चुक जानेपर दीपशिखा अपने कारणरूप तेजस्-तत्त्वमें लीन हो जाती है, वैसे ही आश्रय, विषय और रागसे रहित होकर मन शान्त ब्रह्माकार हो जाता है। इस अवस्थाके प्राप्त होनेपर जीव गुणप्रवाहरूप देहादि उपाधिके निवृत्त हो जानेके कारण ध्याता, ध्येय आदि विभागसे रहित एक अखण्ड परमात्माको ही सर्वत्र अनुगत देखता है ।। 35 ।।योगाभ्याससे प्राप्त हुई चित्तकी इस अविद्यारहित लयरूप निवृत्तिसे अपनी सुख-दुःखरहित ब्रह्मरूप महिमामें स्थित होकर परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार कर लेनेपर वह योगी जिस सुख-दुःखके भोक्तृत्वको पहले अज्ञानवश अपने स्वरूपमें देखता था, उसे अब अविद्याकृत अहङ्कारमें ही देखता है ॥ 36 ॥ जिस प्रकार मदिराके मदसे मतवाले पुरुषको अपनी कमरपर लपेटे हुए वस्त्रके रहने या गिरनेकी कुछ भी सुधि नहीं रहती, उसी प्रकार चरमावस्थाको प्राप्त हुए सिद्ध पुरुषको भी अपनी देहके बैठने-उठने अथवा दैववश कहीं जाने या लौट आनेके विषयमें कुछ भी ज्ञान नहीं रहता; क्योंकि वह अपने परमानन्दमय स्वरूपमें स्थित है ॥ 37 ॥ उसका शरीर तो पूर्वजन्मके संस्कारोंके अधीन है, अतः जबतक उसका आरम्भक प्रारब्ध शेष है तबतक वह इन्द्रियोंके सहित जीवित रहता है; किन्तु जिसे समाधिपर्यन्त योगकी स्थिति प्राप्त हो गयी है और जिसने परमात्मतत्त्वको भी भलीभाँति जान लिया है, वह सिद्धपुरुष पुत्र कलत्रादिके सहित इस शरीरको स्वप्रमें प्रतीत होनेवाले शरीरोंके समान फिर स्वीकार नहीं करता – फिर उसमें अहंता-ममता नहीं करता ॥ 38 ॥

जिस प्रकार अत्यन्त स्नेहके कारण पुत्र और धनादिमें भी साधारण जीवोंकी आत्मबुद्धि रहती है, किन्तु थोड़ा-सा विचार करनेसे ही वे उनसे स्पष्टतया अलग दिखायी देते हैं, उसी प्रकार जिन्हें यह अपना आत्मा मान बैठा है, उन देहादिसे भी उनका साक्षी पुरुष पृथक् ही है ।। 39 ।। जिस प्रकार जलती हुई लकड़ीसे, चिनगारीसे, स्वयं अग्निसे ही प्रकट हुए धूऍसे तथा अग्निरूप मानी जानेवाली उस जलती हुई लकड़ीसे भी अनि वास्तवमें पृथक् ही है-उसी प्रकार भूत, इन्द्रिय और | अन्तःकरणसे उनका साक्षी आत्मा अलग है तथा जीव कहलानेवाले उस आत्मासे भी ब्रह्म भिन्न है और प्रकृतिसे उसके सञ्चालक पुरुषोत्तम भिन्न हैं । 40-41 ॥ जिस प्रकार | देहदृष्टिसे जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चारों प्रकारके प्राणी पञ्चभूतमात्र हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवोंमें आत्माको और आत्मामें सम्पूर्ण जीवोंको अनन्यभावसे अनुगत देखे ।। 42 ।। जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक् पृथक् आश्रयोंमें उनकी विभिन्नताके कारण भिन्न भिन्न आकारका दिखायी देता है, उसी प्रकार देव-मनुष्यादि शरीरोंमें रहनेवाला एक ही आत्मा अपने आश्रयोंके गुण भेदके कारण भिन्न-भिन्न प्रकारका भासता है ॥ 43 ॥अतः भगवान्‌का भक्त जीवके स्वरूपको छिपा देनेवाली कार्यकारणरूपसे परिणामको प्राप्त हुई भगवान्‌की इस अचिन्त्य शक्तिमयी मायाको भगवान्‌की कृपासे ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप — ब्रह्मरूपमें स्थित होता है ॥ 44 ॥

 

अध्याय 29 भक्तिका मर्म और कालकी महिमा

देवहूतिने पूछा-प्रभो। प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादिका जैसा लक्षण सांख्यशास्त्रमें कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोगको ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोगका मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ 1-2 ॥ इसके सिवा जीवोंकी जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकारको गतियोंका भी वर्णन कीजिये जिनके सुननेसे जीवको सब प्रकारको वस्तुओंसे वैराग्य होता है ॥ 3 ॥ जिसके भयले लोग शुभ कर्ममि प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादिका भी शासन करनेवाला है, उस सर्वसमर्थ कालका स्वरूप भी आप मुझसे कहिये ॥ 4 ॥ ज्ञानदृष्टिके लुप्त हो जानेक कारण देहादि मिथ्या वस्तुओंमें जिन्हें आत्माभिमान हो गया है तथा बुद्धिके कर्मासक्त रहनेके कारण अत्यन्त श्रमिक होकर जो चिरकालसे अपार अन्धकारमय संसारमें सोये पड़े हैं, उन्हें जगानेके लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं ।। 5 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! माताके ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिलजीने उनकी प्रशंसा की और जीवोके प्रति दया द्रवीभूत हो बड़ी प्रसन्नताके साथ उनसे इस प्रकार बोले ॥ 6 ॥

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी साधकोंके कहा-माताजी! भावके अनुसार भक्तियोगका अनेक प्रकारसे प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणोंके भेदसे मनुष्योंके भावमें भी विभिन्नता आ जाती है ॥ 7 ॥जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदयमें हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्यका भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है ॥ 8 जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्यकी कामनासे प्रतिमादिमें मेरा भेदभावसे पूजन करता है, वह राजस भक्त है ॥ 9 ॥ जो व्यक्ति पापोंका क्षय करनेके लिये परमात्माको अर्पण करनेके लिये और पूजन करना कर्तव्य है—इस बुद्धिसे मेरा भेदभावसे पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है ॥ 10 ॥ जिस प्रकार गङ्गाका प्रवाह अखण्डरूपसे समुद्रकी ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणोंके श्रवणमात्रसे मनकी गतिका तैलधारावत् अविच्छिन्नरूपसे मुझ सर्वान्तर्यामीके प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तममें निष्काम और अनन्य प्रेम होना—यह निर्गुण भक्तियोगका लक्षण कहा गया है । 11-12 ॥ ऐसे निष्काम भक्त, दिये जानेपर भी, मेरी सेवाको छोड़कर सालोक्य’, सार्थि, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य’ मोक्षतक नहीं लेते 13 ॥ भगवत् सेवाके लिये मुक्तिका तिरस्कार करनेवाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणोंको लांघकर मेरे भावको मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूपको प्राप्त हो जाता है ।। 14 ।।

निष्कामभावसे श्रद्धापूर्वक अपने नित्यनैमित्तिक कर्तव्यों का पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोगका अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमाका दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियोंमें मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्यके अवलम्बन, महापुरुषोंका मान, दीनोंपर दया और समान स्थितिवालोके प्रति मित्रताका व्यवहार करने, यम नियमोंका पालन, अध्यात्मशास्त्रोंका श्रवण और मेरे नामोंका उच्च स्वरसे कीर्तन करनेसे तथा मनकी सरलता, सत्पुरुषोंके सङ्ग और अहङ्कारके त्यागसे मेरे धर्मोकाभागवतका अनुशान करनेवाले पुरुषका ति अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्रसे अनायास ही मुझमें लग जाता है ।। 15-19 ।।

जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़कर जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्पसे घ्राणेन्द्रियतक पहुँच जाता है, उसी प्रकार भक्तियोगमें तत्पर और राग-द्वेषादि विकारोंसे शून्य चित्त परमात्माको प्राप्त कर लेता है ॥ 20 ॥ मैं आत्मारूपसे सदा सभी जीवोंमें स्थित हूँ; इसलिये जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्माका अनादर करके केवल प्रतिमामें ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वाँगमात्र है ।। 21 ।। मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतोंमें स्थित हूँ; ऐसी दशामें जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा पूजनमें ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्ममें ही हवन करता है ॥ 22 ॥ जो भेददर्शी और अभिमानी पुरुष दूसरे जीवोंके साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीरोंमें विद्यमान मुझ आत्मासे ही द्वेष करता है, उसके मनको कभी शान्ति नहीं मिल सकती ॥ 23 ॥ माताजी ! जो दूसरे जीवोंका अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढ़िया सामग्रियोंसे अनेक प्रकारके विधि-विधान के साथ मेरी मूर्तिका पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता ॥ 24 ॥ मनुष्य अपने धर्मका अनुष्ठान करता हुआ तबतक मुझ ईश्वरकी प्रतिमा आदिमें पूजा करता रहे, जबतक उसे अपने हृदयमें एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्माका अनुभव न हो जाय ।। 25 ।। जो व्यक्ति आत्मा और परमात्मा के बीचमें थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शीको मैं मृत्युरूपसे महान् भय उपस्थित करता हूँ ।। 26 ।। अतः सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर घर बनाकर उन प्राणियोंके ही रूप में स्थित मुझ परमात्माका यथायोग्य दान, मान, मित्रताके व्यवहार तथा समदृष्टिके द्वारा पूजन करना चाहिये ॥ 27 ॥

माताजी पायगादि अचेतनोंकी अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ है. उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रियकी वृत्तियोंसे युक्त प्राणी श्रेष्ठ है। सेन्द्रिय प्राणियोंमें भी केवल स्पर्शका अनुभव करनेवालोंकी अपेक्षा रसका ग्रहण कर सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट है तथा रसवेताओंको अपेक्षा गन्धका अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्धका ग्रहण करनेवालोंसे भी शब्दका ग्रहण करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ है ।। 28-29 ।। उनसे भी रूपका अनुभव करनेवाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ है उनमें भी बिना पैरवालोंसे बहुत-से चरणोंवाले श्रे हैं तथा बहुत चरणोंवालोंसे चार चरणवाले और चार चरणकलोंसे भी दो चरणवाले मनुष्य श्रेष्ठ है 30 ॥मनुष्योगे भी चार वर्ण श्रेष्ठ है उनमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणोंगे वेदको जाननेवाले उत्तम है और वेदशोंमें भी वेदकर तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ है ।। 31 ।। तात्पर्य जाननेवालोंसे संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्मका पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्तिका त्याग और अपने धर्मक निष्कामभावसे आचरण करनेवाले श्रेष्ठ है ।। 32 ।। उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीरको भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोड़कर मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकर्त्ता और समदर्शी पुरुषसे बढ़कर मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता ॥ 33 ॥ अतः यह मानकर कि जीवरूप अपने अंशसे साक्षात् भगवान् ही सबमें अनुगत है, इन समस्त प्राणियोंको बड़े आदरके साथ मनसे प्रणाम करे ।। 34 ।।

माताजी! इस प्रकार मैने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टाङ्गयोगका वर्णन किया। इनमेंसे एकका भी साधन करनेसे जीव परमपुरुष भगवान्‌को प्राप्त कर सकता है ।। 35 । भगवान् परमात्मा परब्रह्मका अद्भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक | पदार्थोके नानाविध वैचित्र्यका हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक भी है। नाना प्रकारके कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ।। 36-37 ।। जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतोद्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत्का शासन करनेवाले ब्रह्मादिका भी प्रभु भगवान् काल ही यज्ञोंका फल देनेवाला विष्णु है ॥ 38 ॥ इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा सम्बन्धी ही है। यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान्‌को भूलकर भोगरूप प्रमादमें पड़े हुए प्राणियोंपर आक्रमण करके उनका संहार करता है ।। 39 ।। इसीके भवसे वायु चलता है, इसीके भयसे सूर्य तपता है, इसीके भयसे इन्द्र वर्षा करते हैं और इसीके भवसे तारे चमकते है ॥ 40 ॥ इसीसे भयभीत होकर औषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती है ।। 41 । इसीके डरसे नदियाँ बहती है और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता इसीके भयसे अनि होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ॥ 42 ॥इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ॥ 43 ॥ इस कालके ही भयसे सत्त्वादि गुणोंके नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना | आदि कार्योंमें युगक्रमसे तत्पर रहते हैं ॥ 44 ॥ यह अविनाशी | काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरोंका आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका | अन्त कर देता है ॥ 45 ॥

अध्याय 30 देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

श्रीकपिलदेवजी कहते हैं-माताजी! जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बलको नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणासे भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियोंमें भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रमको नहीं जानता ॥ 1 ॥ जीव सुखकी अभिलाषासे जिस-जिस वस्तुको बड़े कष्टसे प्राप्त करता है, उसी उसीको भगवान् काल विनष्ट कर देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ।। 2 । इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियोंके घर, खेत और धन आदिको मोहवश नित्य मान लेता है ॥ 3 ॥ इस संसारमें यह जीव जिस-जिस योनिमें जन्म लेता है, उसी उसीमें आनन्द मानने लगता है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ 4 ॥ यह भगवान्की मायासे ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियोंमें जन्म लेनेपर भी वहाँके विष्ठा आदि भोगोंमें ही सुख माननेके कारण उसे भी छोड़ना नहीं चाहता ॥ 5 ॥ यह मूर्ख अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु बान्धवोंमें अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्धमें नाना प्रकारके मनोरथ करता हुआ | अपनेको बड़ा भाग्यशाली समझता है ॥ 6 ॥ इनके पालन पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओंसे दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर | इन्होंके लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है ॥ 7 ॥कुलटा स्त्रियोंके द्वारा एकान्तमें सम्भोगादिके समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेममें तथा बालकों की मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियोंके फँस जानेसे गृहस्थ पुरुष घरके दुःख-प्रधान कपटपूर्ण कमंग लिए हो जाता है। उस समय बहुत सावधानी करनेपर यदि उसे किसी दुःखका प्रतीकार करने में सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है ।। 8-9 जहाँ-तहाँस भयङ्कर हिंसावृत्तिके द्वारा धन सञ्चयकर यह ऐसे लोगोंका पोषण करता है, जिनके पोषणसे नरकमें जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नको ही खाकर रहता है 10 बार-बार प्रयत्न करनेपर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जानेसे दूसरेके धनकी इच्छा करने लगता है ॥ 11 ॥ जब मन्दभाग्यके कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्बके भरण-पोषणमे असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ने लगता है ।। 12 ।।

इसे अपने पालन पोषणमें असमर्थ देखकर वे स्त्री पुत्रादि इसका पहलेके समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैलकी उपेक्षा कर देते हैं ।। 13 ।। फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता। जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्थाके कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अनि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घरमें पड़ा रहता है और कुत्तेकी भाँति स्त्री-पुत्रादिके अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है ।। 14-15 ।। मृत्युका समय निकट आनेपर वायुके उत्क्रमणसे इसकी पुल चढ़ जाती है, आस-प्रश्वासको नलिकाएँ ककसे रुक जाती हैं, खांसने और सांस लेने में भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जानेके कारण कण्ठमे घुरघुराहट होने लगती है ॥ 16 ॥ यह अपने शोकातुर बन्धुबान्धवों से घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाशके वशीभूत हो जानेसे उनके बुलानेपर भी नहीं बोल सकता ।। 17 ।।

इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियोंको न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषण में ही लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनोंके बीच अत्यन्त वेदनासे अचेत होकर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ 18 ॥ इस अवसरपर उसे लेनेके लिये अति भयङ्कर और रोषयुक्त नेत्रोंवाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भयके कारण मल-मूत्र कर | देता है ॥ 19 ॥ वे यमदूत उसे यातनादेहमें डाल देते हैंऔर फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधीको ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके गलेमें रस्सी बांधकर बलात् यमलोककी लंबी यात्रामें उसे ले जाते हैं ॥ 20 ॥ उनकी घुड़कियोंसे उसका हृदय फटने और शरीर काँपने लगता है, मार्गमे उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापको याद करके वह व्याकुल हो उठता है ॥ 21 ॥ भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा धाम, दावानल और लूऑसे वह तप जाता है। ऐसी अवस्थामें जल और विश्राम स्थानसे रहित | उस तप्तबालुकामय मार्गमें जब उसे एक पग आगे बढ़नेकी भी शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी पीठपर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्टसे उसे चलना ही पड़ता है ॥ 22 ॥ वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्छा आ जाती है, चेतना आनेपर फिर उठता है। इस प्रकार अति दुःखमय अंधेरे मार्गसे अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रतासे यमपुरीको ले जाते हैं ।। 23 ।। यमलोकका मार्ग निन्यानबे हजार योजन है इतने लम्बे मार्गको दोही-तीन मुहूर्त करके वह नरकमें तरह-तरहकी यातनाएँ भोगता है ।। 24 ।। वहाँ उसके शरीरको धधकती लकड़ियों आदिके बीचमें डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरोंके द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है ॥ 25 ॥ यमपुरीके कुत्तों अथवा गिद्धोंद्वारा जीते-जी उसकी आंतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू और डाँस आदि दसनेवाले तथा डंक मारनेवाले जीवोंसे शरीरको पीड़ा पहुँचायी जाती है ॥ 26 ॥ शरीरको काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियोंसे चिरवाया जाता है, पर्वतशिखरोंसे गिराया जाता है अथवा जल या गढ़में डालकर बन्द कर दिया जाता है ॥ 27 ॥ ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्र, अन्धतामिस्र एवं रौरव आदि कोंकी और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीवको पारस्परिक संसर्गसे होनेवाले पापके कारण भोगनी ही पड़ती है॥ 28 ॥ माताजी कुछ लोगो का कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोकमें हैं, क्योंकि जो नारकी यातनाएं है, वे यहाँ भी देखी जाती है ।। 29 ।।

इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्बका हो पालन करनेवाला अथवा केवल अपना ही पेट भरनेवाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर दोनोंको यहीं छोड़कर मरनेके बाद अपने किये हुए पापोंका ऐसा फल भोगता है॥ 30 ॥अपने इस शरीरको यहीं छोड़कर प्राणियोंसे द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेयको साथ लेकर वह अकेला ही नरकमें जाता है ॥ 31 ॥ मनुष्य अपने कुटुम्बका पेट पालनेमें जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरकमें जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो ॥ 32 ॥ जो पुरुष निरी पापकी कमाईसे ही अपने परिवारका पालन करनेमें व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्र नरकमें जाता है— जो नरकों में चरम सीमाका कष्टप्रद स्थान है ॥ 33 ॥ मनुष्य जन्म | मिलनेके पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर- कूकरादि योनियोंके जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रमसे भोगकर शुद्ध | जानेपर वह फिर मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है ll 34 ll

अध्याय 31 मनुष्ययोनिको प्राप्त हुए जीवकी गतिका वर्णन

श्रीभगवान् कहते हैं- माताजी । जब जीवको मनुष्यशरीरमें जन्म लेना होता है, तो वह भगवान्की प्रेरणासे अपने पूर्वकर्मानुसार | देहप्राप्ति के लिये पुरुषके वीर्यकणके द्वारा स्त्रीके उदरमें प्रवेश करता है ॥ 1 ॥ वहाँ वह एक रात्रिमें स्त्रीके रजमें मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रिमें बुदबुदरूप हो जाता है, दस दिनमें ब्रेरके समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियोंमें अण्डेके रूपमें परिणत हो जाता है ॥ 2 ॥ एक महीनेमें उसके सिर निकल आता है, दो मासमें हाथ-पाँव आदि अङ्गोका विभाग हो जाता है और तीन मासमें नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुषके चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ॥ 3 ॥ चार मासमें उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लगने लगती हैं और छठे मासमें झिल्लीसे लिपटकर वह दाहिनी कोखमें घूमने लगता है ॥ 4 ॥ उस समय माताके खाये हुए अन्न-जल आदिसे उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जन्तुओंके उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्रके गढ़में पड़ा रहता है ॥ 5 ॥ वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँके भूखे कीड़े उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग नोचते हैं, तब अत्यन्त फ्रेशके कारण वह क्षण-क्षणमें अचेत हो जाता है || 6 || माताके खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उम्र पदार्थोंका स्पर्श होने से उसके सारे शरीरमें पीड़ा होने लगती है ॥ 7 ॥वह जीव माताके गर्भाशयमें झिल्लीसे लिपटा और आंतों से घिरा | रहता है। उसका सिर पेटकी और तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ॥ 8 ॥

वह पिंजड़े में बंद पक्षीके समान पराधीन एवं अङ्गोको हिलाने इत्यनेमें भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्टकी प्रेरणये से स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैकड़ों जन्मोंके कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्थामें उसे क्या शान्ति मिल सकती है ? ॥ 9 ॥ सातवाँ महीना आरम्भ होनेपर उसमें ज्ञानशक्तिका भी उन्मेष हो जाता है परन्तु प्रसूतिवायुसे चलायमान रहनेके कारण वह उसी उदरमें उत्पन्न हुए विष्ठाके कीड़ोंके समान एक स्थानपर नहीं रह सकता ॥ 10 ॥ समयमय स्थूलशरीरये वंधा हुआ वह देहात्मदर्शी | अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणीसे कृपा-याचना करता हुआ, हाथ | जोड़कर उस प्रभुकी स्तुति करता है, जिसने उसे माताके गर्भमें डाला है ।। 11 ।।

जीव कहता है— मैं बड़ा अधम हूँ ; भगवान् ने मुझे जो इस प्रकारकी गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत्‌की रक्षाके लिये ही अनेक प्रकारके रूप धारण करते हैं; अतः मैं भी भूतलपर विचरण करनेवाले उन्होंके निर्भय चरणारविन्दोंकी शरण लेता हूँ ॥ 12 ॥ जो मैं (जीव) इस माताके उदरमें देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा मायाका आश्रय कर पुण्य पापरूप कर्मोंसे आच्छादित रहनेके कारण बद्धकी तरह हूँ, वहीं मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदयमें प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्माको नमस्कार करता हूँ ।। 13 ।। मैं वस्तुतः शरीरादिसे रहित (असङ्ग) होनेपर भी देखने में पाइभौतिक शरीरसे सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहङ्कार) रूप जान पड़ता हूँ। अतः इस शरीरादिके आवरण से जिनको महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुषके नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुषकी मैं वन्दना करता हूँ ।। 14 ।। उन्होंकी मायासे अपने स्वरूपकी स्मृति नष्ट हो जानेके कारण यह जीव अनेक प्रकारके सत्त्वादि गुण और कर्मके बन्धनसे युक्त इस | संसारमार्ग में तरह-तरहके कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अतः उन परमपुरुष परमात्मा की कृपा के बिना और किस युक्तिसे इसे अपने स्वरूपका ज्ञान हो सकता है ॥ 15 ॥ मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, वह भी उनके सिवा और किसने दिया है क्योंकि जंगम समस्त प्राणियों में एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंशसे विद्यमान है। अतः जीवरूप कर्मजनित पदवीका अनुवर्तन | करनेवाले हम अपने त्रिविध तापोको शान्तिके लिये उन्हींका भजनकरते हैं ॥ 16 ॥

भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देहके उदरके भीतर मल, मूत्र और रुधिरके कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्निसे इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलनेकी इच्छा करता हुआ यह अपने महोने गिन रहा है। भगवन्! अब इस दीनको यहाँसे कब निकाला) जायगा ? ॥ 17 ॥ स्वामिन्! आप बड़े दयालु हैं, आप जैसे उदार प्रभुने ही इस दस मासके जीवको ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकारसे ही आप प्रसन्न हो, क्योंकि आपको हाथ जोड़नेके सिवा आपके उस उपकारका बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ll 18 ll

प्रभो संसारके ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धिके अनुसार अपने शरीर होनेवाले सुखदुखादिका हो अनुभव करते हैं, किन्तु मैं तो आपकी कृपासे शमदमादि साधनसम्पन्न शरीरसे युक्त हुआ हूँ, अतः आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धिसे आप पुराणपुरुषको अपने शरीरके बाहर और भीतर अहङ्कारके आश्रयभूत आत्माकी भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ।। 19 ॥ भगवन्! इस अत्यन्त दुःखसे भरे हुए गर्भाशय में यद्यपि मैं बड़े कष्टसे रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूपमें गिरनेको मुझे बिलकुल इन्सा नहीं है क्योंकि उसमें जानेवाले जीवको आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीरमें अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाममें उसे फिर इस संसारचक्रमें ही पड़ना होता है ॥ 20 ॥ अतः मैं व्याकुलताको छोड़कर हृदयमें श्रीविष्णुभगवान्के चरणको स्थापितकर अपनी बुद्धिकी सहायतासे ही अपनेको बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्रके पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकारके दोषोसे युक्त यह संसार दुःख फिर न प्राप्त हो ॥ 21 ॥

कपिलदेवजी कहते हैं-माता! वह दस महीनेका जीव गर्भमे ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान्को स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालकको प्रसवकालको वायु तत्काल बाहर आनेके लिये ढकेलती है॥ 22 ॥ उसके सहसा ठेलनेपर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्टसे बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वासको गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ।। 23 ।। पृथ्वीपर माताके रुधिर और मूत्रमें पड़ा हुआ यह बालक विष्ठाके कीड़ेके समान छटपटाता है। उसका गर्भवासका सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह विपरीत गति ( देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा) को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोर से रोता है ।। 24 ॥फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करनेकी शक्ति भी उसमें नहीं | होती ॥ 25 ॥ जब उस जीवको शिशु अवस्थामें मैली-कुचैली | खाटपर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीरको खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलने की भी सामर्थ्य न होनेके कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ 26 ॥ उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीहेको छोटे कोड़े। इस समय उसका गर्भावस्थाका सारा शान जाता रहता है, सिवा रोनेके वह कुछ नहीं कर सकता ।। 27 ।।

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड अवस्था ओके | दुःख भोगकर वह बालक युवावस्थामें पहुँचता है। इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उदीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है॥ 28 देहके साथ ही साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जानेके कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करनेके लिये दूसरे कामी पुरुषोंके साथ वैर ठानता है ।। 29 ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतोंसे रचे हुए इस देशमें मिथ्याभिनिवेश के कारण निरन्तर मैं मेरेपनका अभिमान करने लगता है ॥ 30 ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह-तरहके कर्म करता रहता है— जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसार-चक्रमें पड़ना होता है ॥ 31 ॥ सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगों में लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्होंका अनुगमन करने लगता है, तो पहले सम्मान ही फिर कारको योनियोंमें पड़ता है। 32 ।। जिनके सबसे इसके सत्य, शौच (बाहर-भीतरकी पवित्रता), दया, वाणीका संयम, बुद्ध, धन-सम्पत्ति, लज्जा, यश, क्षमा, मन और इन्द्रियोंका संयम तथा ऐश्वर्य आदि सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। उन अत्यन्त शेचनीय स्त्रियोंके क्रीडामुग (खिलौना), अशान्त, मूढ़ देशमदर्शी असत्पुरुषोंका सङ्ग कभी नहीं करना और | चहिये 33-34 क्योंकि इस जीवको किसी औरका सङ्ग करनेसे ऐसा मोह और बन्धन नहीं होता, जैसा स्त्री और स्त्रियों के सङ्गियोंका सङ्ग करनेसे होता है ।। 35 । एक बार अपनी पुत्री | सरस्वतीको देखकर ब्रह्माजी भी उसके रूप लावण्यसे मोहित होगये थे और उसके मृगरूप होकर भागनेपर उसके पीछे निर्लज्जतापूर्वक मृगरूप होकर दौड़ने लगे || 36 | उन्हीं ब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंकी तथा मरीचि आदिने कश्यपादिकी और कश्यपादिने देवमनुष्यादि प्राणियोंकी सृष्टि की। अतः इनमें एक ऋषिप्रवर नारायणको छोड़कर ऐसा कौन पुरुष हो सकता है, जिसकी बुद्धि स्त्रीरूपिणी मायासे मोहित न हो ॥ 37 ॥ अहो ! मेरी इस स्त्रीरूपिणी मायाका बल तो देखो, जो अपने भ्रुकुटि विलासमात्रसे बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरोंको पैरोंसे कुचल देती है ॥ 38 ॥

जो पुरुष योगके परम पदपर आरूढ़ होना चाहता हो अथवा जिसे मेरी सेवाके प्रभावसे आत्मा अनात्माका विवेक हो गया हो, वह स्त्रियोंका सङ्ग कभी न करें; क्योंकि उन्हें ऐसे पुरुषके लिये नरकका खुला द्वार बताया गया है ॥ 39 ॥ भगवान्‌की रची हुई यह जो स्त्रीरूपिणी माया धीरे-धीरे सेवा आदिके मिससे पास आती है, इसे तिनकोंसे ढके हुए कुएँके समान अपनी मृत्यु ही समझे ॥ 40 ॥

स्त्री आसक्त रहनेके कारण तथा अन्त समयमें स्त्रीका ही ध्यान रहनेसे जीवको स्त्रीयोनि प्राप्त होती है। इस प्रकार स्त्रीयोनिको प्राप्त हुआ जीव पुरुषरूपमें प्रतीत होनेवाली मेरी माया ही धन् पुत्र और गृह आदि देनेवाला अपना पति मानता रहता है; सो जिस प्रकार व्याधेका गान कानोंको प्रिय लगनेपर भी बेचारे भोले-भाले पशु-प -पक्षियोंको फँसाकर उनके नाशका ही कारण होता है— उसी प्रकार उन पुत्र, पति और गृह आदिको विधाताकी निति की हुई अपनी मृत्यु ही जाने ।। 41-42 देखि जीवके उपाधिभूत लिङ्गदेश के द्वारा पुरुष एक लोकसे दूसरे लोकमे जाता है और अपने प्रारब्धकर्मो को भोगता हुआ निरन्तर अन्य देहोंकी प्राप्तिके लिये दूसरे कर्म करता रहता है ।। 43 ।। जीवका उपाधिरूप लिङ्गशरीर तो मोक्षपर्यन्त उसके साथ रहता है तथा भूत, इन्द्रिय और मनका कार्यरूप स्थूलशरीर इसका भोगाधिष्ठान है। इन दोनोंका परस्पर संगठित होकर कार्य न करना ही प्राणीको ‘मृत्यु’ है और दोनोंका साथ-साथ प्रकट होना ‘जन्म’ कहलाता है ।। 44 ।। पदार्थोंकी उपलब्धिके स्थानरूप इस स्थूलशरीरमें जब उनको ग्रहण करनेकी योग्यता नहीं रहती, यह उसका मरण है और यह स्थूलशरीर ही मैं इस अभिमानके साथ उसे देखना उसका जन्म है ।। 45 ।। नेत्रोंमें जब किसी दोषके कारण रूपादिको | देखनेकी योग्यता नहीं रहती, तभी उनमें रहनेवाली चक्षु-इन्द्रिय भी रूप देखनेमें असमर्थ हो जाती है और जब नेत्र और उनमें रहनेवाली इन्द्रिय दोनों ही रूप देखनेमें असमर्थ हो जाते हैं, तभी इन दोनोंके सभी जीव भी वह योग्यता नहीं रहती ।। 46 ।।अतः मुमुक्ष पुरुषको मरणादिसे भय, दीनता अथवा मोह नहीं होना चाहिये। उसे जीवके स्वरूपको जानकर धैर्यपूर्वक निःसङ्गभावसे विचरना चाहिये तथा इस मायामय संसारमें योग-वैराग्य-युक्त सम्यक् ज्ञानमयी बुद्धिसे शरीरको निक्षेप (धरोहर) की भाँति रखकर उसके प्रति अनासक्त रहते हुए विचरण करना चाहिये ।। 47-48 ।।

अध्याय 32 धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गति

कपिलदेवजी कहते हैं— माताजी! जो पुरुष घरमें रहकर सकामभावसे गृहस्थके धर्मोका पालन करता है और उनके | फलस्वरूप अर्थ एवं कामका उपभोग करके फिर उन्हींका अनुष्ठान करता रहता है, वह तरह-तरहकी कामनाओंसे मोहित रहनेके कारण भगवद्धमोंसे विमुख हो जाता है और यज्ञोद्वारा श्रद्धापूर्वक | देवता तथा पितरोंकी ही आराधना करता रहता है ॥ 1-2 ॥ उसकी बुद्धि उसी प्रकारकी श्रद्धासे युक्त रहती है, देवता और पितर ही उसके उपास्य रहते हैं; अतः वह चन्द्रलोकमें जाकर उनके साथ | सोमपान करता है और फिर पुण्य क्षीण होनेपर इसी लोकमें लौट आता है ॥ 3 ॥ जिस समय प्रलयकालमें शेषशायी भगवान् शेषशय्यापर शयन करते हैं, उस समय सकाम गृहस्थाश्रमियोंको प्राप्त होनेवाले ये सब लोक भी लीन हो जाते हैं॥ 4 ॥

जो विवेकी पुरुष अपने धर्मोका अर्थ और भोग विलासके लिये उपयोग नहीं करते, बल्कि भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही उनका पालन करते हैं—वे अनासक्त, प्रशान्त, शुद्धचित्त, निवृत्तिधर्मपरायण, ममतारहित और अहङ्कारशून्य पुरुष स्वधर्मपालनरूप सत्त्वगुणके द्वारा सर्वथा शुद्धचित्त हो जाते हैं ।। 5-6 ॥ वे अन्तमें सूर्यमार्ग (अर्चिमार्ग या देवयान) के द्वारा सर्वव्यापी पूर्णपुरुष श्रीहरिको ही प्राप्त होते हैं—जो कार्य-कारणरूप जगत्के नियन्ता, संसारके उपादान-कारण और उसकी उत्पत्ति, पालन एवं संहार करनेवाले हैं ॥ 7 ॥ जो लोग परमात्मदृष्टिसे हिरण्यगर्भकी उपासना करते हैं, वे दो परार्द्धमें होनेवाले ब्रह्माजीके प्रलयपर्यन्त उनके सत्यलोकमें ही रहते हैं ॥ 8 ॥ जिस समय देवतादिसे श्रेष्ठब्रह्माजी अपने द्विपरार्द्धकालके अधिकारको भोगकर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, इन्द्रिय, उनके विषय (शब्दादि) और अहङ्कारादिके सहित सम्पूर्ण विश्वका संहार करनेकी इच्छासे त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके साथ एकरूप होकर निर्विशेष परमात्मामें लीन हो जाते हैं, उस समय प्राण और मनको जीते हुए वे विरक्त योगिगण भी देह त्यागकर उन भगवान् ब्रह्माजी ही प्रवेश करते हैं और फिर उन्होंके साथ परमानन्दस्वरूप पुराणपुरुष परब्रह्ममें लीन हो जाते हैं। इससे पहले वे भगवान्में लीन नहीं हुए, क्योंकि अबतक उनमें अहङ्कार शेष था ।। 9-10 ॥ इसलिये माताजी ! अब तुम भी अत्यन्त भक्तिभावसे उन श्रीहरिकी ही चरण-शरणमें जाओ; समस्त प्राणियोंका हृदय-कमल ही उनका मन्दिर है और तुमने भी मुझसे उनका प्रभाव सुन ही लिया है ॥ 11 ॥ वेदगर्भ ब्रह्माजी भी जो समस्त स्थावरजङ्गम प्राणियोंके आदिकारण है— मरीचि आदि ऋषियों, योगेश्वरों, सनकादिकों तथा योगप्रवर्तक सिद्धोंके सहित निष्काम कर्मके द्वारा आदिपुरुष पुरुष श्रेष्ठ संगुण ब्रह्मको प्राप्त होकर भी भेददृष्टि और कर्तृत्वाभिमान के कारण भगवदिच्छासे, जब सर्गकाल उपस्थित होता है राय, कालरूप ईश्वरको प्रेरणासे गुणोंमें क्षोभ होनेपर फिर पूर्ववत् प्रकट हो जाते हैं ।। 12-14 ॥ इसी प्रकार पूर्वोक्त ऋषिगण भी अपने-अपने कर्मानुसार ब्रह्मलोक के ऐश्वर्यको भोगकर भगवदिच्छासे गुणोंमें क्षोभ होनेपर पुनः इस लोकमें आ जाते हैं ।। 15 ।।

जिनका चित्त इस लोकमें आसक्त है और जो कर्मोमें श्रद्धा रखते हैं, वे वेदमें कहे हुए काम्य और नित्य कर्मोंका साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान करनेमें ही लगे रहते है ।। 16 ।। उनकी बुद्धि रजोगुणकी अधिकताके कारण कुण्ठित रहती है, हृदयमें कामनाओंका जाल फैला रहता है और इन्द्रियाँ उनके वशमें नहीं होती; बस, अपने घरोंमें ही आसक्त होकर वे नित्यप्रति पितरोंकी पूजामें लगे रहते हैं॥ 17 ॥ ये लोग अर्थ, धर्म और कामके ही परायण होते हैं; इसलिये जिनके महान् पराक्रम अत्यन्त कीर्तनीय हैं, उन भवभयहारी श्रीमधुसूदन भगवान्‌की कथा-वार्ताओंसे तो ये विमुख ही रहते हैं ॥ 18 ॥ हाय ! विष्ठा भोजी कृकर सूकर आदि जीवोंके विष्ठा चाहनेके समान जो मनुष्य भगवत्कथामृतको छोड़कर निन्दित विषय वार्ताओंको सुनते हैं—वे तो अवश्य ही विधाताके मारे हुए हैं, उनका बड़ा ही मन्द भाग्य है ॥ 19 ॥गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टितक सब संस्कारोंको विधिपूर्वक करनेवाले ये सकामकर्मी सूर्यसे दक्षिण ओरके पितृयान या धूमारि अर्यमा लोकगे जाते हैं और फिर अपनी सन्ततिके वंशमें उत्पन्न होते हैं ॥ 20 ॥ माताजी ! पितृलोकके भोग भोग लेनेपर जब उनके पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब देवतालोग उन्हें वहाँके ऐश्वर्यसे च्युत कर देते हैं और फिर उन्हें विवश होकर तुरन्त ही इस लोकमें गिरना पड़ता है ॥ 21 ॥ इसलिये माताजी! जिनके चरण-कमल सदा भजनेयोग्य हैं, उन भगवान्‌का तुम उन्हींके गुणोंका आश्रय लेनेवाली भक्तिके द्वारा सब प्रकारसे (मन, वाणी और शरीरसे) भजन करो ॥ 22 ॥ भगवान् वासुदेवके प्रति किया हुआ भक्तियोग तुरंत ही संसारमे वैराग्य और ब्रह्मसाक्षात्काररूप ज्ञानकी प्राप्ति करा देता है ॥ 23 ॥ वस्तुतः सभी विषय भगवद्रूप होनेके कारण समान हैं। अतः जब इन्द्रियोंकी वृत्तियोंके द्वारा भी भगवद्भक्तका चित्त उनमें प्रिय अप्रियरूप विषमताका अनुभव नहीं करता – सर्वत्र भगवान्‌का ही दर्शन करता है— उसी समय वह सङ्गरहित, सब समानरूपस्थित, त्याग और पहण करनेयोग्य, दोष और गुणोंसे रहित, अपनी महिमामें आरूढ़ अपने आत्माका ब्रह्मरूपसे साक्षात्कार करता है ।। 24-25 ॥ वही ज्ञानस्वरूप है, वहीं पर है, यही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वहीं पुरुष है; यहाँ एक भगवान् स्वयं जीव शरीर विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपाने प्रतीत होता है ।। 26 । सम्पूर्ण संसारमे आता अभाव हो जाना—बस, यही योगियोंके सब प्रकारके योग साधनका एकमात्र अभीष्ट फल है ॥ 27 ॥ ब्रह्म एक है, शनस्वरूप और निर्गुण है, तो भी यह बाह्य-वृतियोंवाली इन्द्रियोंके द्वारा अन्तिवश शब्दादि धर्मोनले विभिन्न पदार्थोंके रूपमें भास रहा है ।। 28 जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस – तीन प्रकारका अहङ्कार, पञ्चमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोगसे जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीवका शरीररूप यह बाद भी वस्तुतः ही है, क्योंकि ब्रह्मसे ही इसको उत्पत्ति हुई है ।। 29 ।। किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तरके योगाभ्यास के द्वारा एकाति और असङ्गबुद्धि हो गया है ।। 30 ।।

पूजनीय माताजी! मैंने तुम्हें यह ब्रह्मसाक्षात्कारका साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुषकेयथार्थस्वरूपका बोध हो जाता है ॥ 31 ॥ देवि ! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग- इन दोनोंका फल एक ही है। उसे ही भगवान् कहते है ।। 32 ।। जिस प्रकार रूप रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणोंका आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियोंद्वारा विभिन्नरूपसे अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गोंद्वारा एक ही भगवान्‌की अनेक प्रकारसे अनुभूति होती है ॥ 33 ॥ नाना प्रकारके कर्मकलाप, यज्ञ, है दान, तप, वेदाध्ययन, वेदविचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियोंके संयम, कमेकि त्याग, विविध अङ्गोंवाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके धर्म, आत्मतत्त्वके ज्ञान और दृढ़ वैराग्य- इन सभी साधनोंसे सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान्‌को ही प्राप्त किया जाता है ।। 34-36 ।।

माताजी! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण भेदसे चार प्रकारके भक्तियोगका और जो प्राणियों के जन्मादि विकारोंका हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस कालका स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ ।। 37 ॥ देवि ! अविद्याजनित कर्मके कारण जीवको अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जानेपर वह अपने स्वरूपको नहीं पहचान सकता ॥ 38 ॥ मैने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है— उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषोको नहीं सुनाना चाहिये ।। 39 ।। जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तोंसे द्वेष करनेवाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे ।। 40 ।। जो अत्यन्त श्रद्धालु भक्त, विनयी, दूसरोंके प्रति दोषदृष्टि न रखनेवाला, सब प्राणियोंसे मित्रता रखनेवाला, गुरुसेवामें तत्पर बाह्य विषयोंमें अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम माननेवाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे ।। 41-42 ।। मा! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपदको प्राप्त होगा ।। 43 ।।

अध्याय 33 देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

मैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! श्रीकपिल भगवान्के ये वचन सुनकर कर्दमजीकी प्रिय पत्नी माता | देवहूतिके मोहका पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञानको आधारभूमि श्रीकपिलजीको प्रणाम करके उनको स्तुति करने भगवान् लगीं ॥। 1 ।।

देवहूतिजीने कहा- कपिलजी ! ब्रह्माजी आपके ही नाभिकमलसे प्रकट हुए थे। उन्होंने प्रलयकालीन जलमें शयन करनेवाले आपके पञ्चभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रहका, जो सत्त्वादि गुणोंके प्रवाहसे युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनोंका बीज है, ध्यान ही किया था ॥ 2 ॥ आप निष्क्रिय, सत्यसङ्कल्प सम्पूर्ण जीवोंके प्रभु तथा सहस्रों अचिनय शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अपनी शक्तिको गुणप्रवाहरूपसे ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियोंमें विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्वको रचना आदि करते हैं ॥ 3 ॥ नाथ ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदरमें प्रलयकाल आनेपर यह सारा प्रपञ्च लीन हो जाता है और जो कल्पान्तमें मायामय बालकका रूप धारण कर अपने चरणका अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वटवृक्षके पत्तेपर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भमे धारण किया ॥ 4 ॥ विभो ! आप पापियोंका दमन और अपने | आज्ञाकारी भक्तोंका अभ्युदय एवं कल्याण करनेके लिये। स्वेच्छासे देह धारण किया करते हैं। अतः जिस प्रकार आपके वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओंको ज्ञानमार्ग दिखानेके लिये हुआ है ॥ 5 ॥ भगवन्! आपके नामोंका श्रवण या कीर्तन करनेसे तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करनेसे ही कुत्तेका मांस खानेवाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मणके समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाय- इसमें तो कहना ही क्या है ।। 6 ।। अहो !वह चाण्डाल भी इसीसे सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिड़ाके अग्रभागमें आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचारका पालन और वेदाध्ययन – सब कुछ कर लिया ॥ 7 ॥ कपिलदेवजी ! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियोंके प्रवाहको अन्तर्मुख करके अन्तःकरणमें आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेजसे मायाके कार्य गुण प्रवाहको शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदरमें सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हैं ॥ 8 ॥

मैत्रेयजी कहते हैं— माताके इस प्रकार स्तुति | करनेपर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान् कपिलदेवजीने उनसे गम्भीर वाणीमें कहा ।। 9 ।।

कपिलदेवजीने कहा-माताजी! मैंने तुम्हें जो मेरे इस यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करनेसे तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी ॥ 10 ॥ तुम मतमें विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगोंने इसका सेवन किया। है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूपको प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मतको नहीं जानते, वे जन्म-मृत्युपक्रमे पड़ते हैं ।। 11 ।।

मैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञानका उपदेश कर श्रीकपिलदेवजी अपनी महावादिनी जननीको अनुमति लेकर वहाँ चले गये ॥ 12 ॥ तब देवहूतिजी भी सरस्वतीके मुकुटसदृश अपने आश्रम में अपने पुत्रके उपदेश किये हुए योगसाधनके द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधिमें स्थित हो गयीं ।। 13 ।। त्रिकाल स्नान करनेसे उनकी घुँघराली अल्के भूरी-भूरी जटाओंमें परिणत हो गयीं तथा चीर वस्त्रोंसे ढका हुआ शरीर उग्र तपस्याके कारण दुर्बल हो गया ।। 14 ।। उन्होंने प्रजापति कर्दमके तप और योगबल से प्राप्त अनुपम गार्हस्थ्यमुखको, जिसके लिये देवता भी तरसते थे, त्याग दिया ॥ 15 ॥ जिसमें दुग्धफेनके समान स्वच्छ और सुकोमल शव्यासे युक्त हाथी दांत के पलंग, सुवर्णके पात्र, सोनेके सिंहासन और उनपर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकीस्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणिकी भीतों में रत्नोंकी बनी हुई रमणी-मूर्तियोंके सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलोंसे लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकारके पक्षियोंका कलरव और मतवाले भौरोंका गुंजार होता रहता था, जहाँकी कमलगन्धसे सुवासित बावलियोंमें कर्दमजीके साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीडाके लिये प्रवेश करनेपर उसका (देवहूतिका) गन्धर्वगण गुणगान किया करते थे और जिसे पानेके लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं—उस गृहोद्यानकी भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्रवियोगसे व्याकुल होनेके कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया ॥ 16-20 ॥

पतिके वनगमनके अनन्तर पुत्रका भी वियोग हो जानेसे वे आत्मज्ञानसम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़ेके बिछुड़ जानेसे उसे प्यार करनेवाली गौ ॥ 21 ॥ वत्स विदुर ! अपने पुत्र कपिलदेवरूप | भगवान् हरिका ही चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनों में ऐसे ऐश्वर्यसम्पन्न घरसे भी उपरत हो गयीं ॥ 22 ॥ फिर वे, कपिलदेवजीने भगवान्के जिस ध्यान करनेयोग्य प्रसन्नवदनारविन्दयुक्त स्वरूपका वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयवका तथा उस समग्र रूपका भी चिन्तन करती हुई ध्यानमें तत्पर हो गयीं ॥ 23 ॥ भगवद्भक्तिके प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित्त कर्मानुष्ठानसे उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार करानेवाले ज्ञानद्वारा चित्त शुद्ध हो | जानेपर वे उस सर्वव्यापक आत्माके ध्यानमें मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूपके प्रकाशसे मायाजनित आवरणको दूर कर देता है ।। 24-25 ॥ इस प्रकार जीवके अधिष्ठानभूत परब्रहा श्रीभगवान्‌में ही बुद्धिकी स्थिति हो जानेसे उनका जीवभाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशोंसे मुक्त होकर परमानन्दमें निमग्न हो गयीं ॥ 26 ॥ अब निरन्तर समाधिस्थ रहनेके कारण उनकी विषयोंके सत्यत्वकी भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि न रही—जैसे जागे हुए पुरुषको अपने स्वप्रमें देखे हुए शरीरकी नहीं रहती ।। 27 ।। उनके शरीरका पोषण भी दूसरोंके द्वारा ही होता था। किन्तु किसी प्रकारका मानसिक | क्लेश न होनेके कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैलके कारण धूमयुक्त,अफ्रिके समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल विथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान में ही चित्त लगा रहनेके कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीरकी कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था ।। 28-29 ।।

विदुरजी इस प्रकार देवहूतिजीने कपिलदेवजीके बताये हुए मार्गद्वारा थोड़े ही समयमें नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर लिया ॥ 30 ॥ वीरवर! जिस स्थानपर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकीमें ‘सिद्धपद’ नामसे विख्यात हुआ ॥ 31 ॥ साधुस्वभाव विदुरजी ! योगसाधनके द्वारा उनके शरीरके सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदीके रूपमें परिणत हो गया, जो सिद्धगणसे सेवित और सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली है ।। 32 ।।

महायोगी भगवान् कपिलजी भी माताकी आज्ञा ले पिताके आश्रम से ईशानकोणकी ओर चले गये ।। 33 वहाँ स्वयं समुद्रने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकोको शान्ति प्रदान करनेके लिये योगमार्गका अवलम्बन कर समाधिमें स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं ।। 34-35 ।।

निष्पाप विदुरजी तुम्हारे पूछनेसे मैने तुम्हें यह भगवान् कपिल और देवहूतिका परम पवित्र संवाद सुनाया ।। 36 ।। यह कपिलदेवजीका मत अध्यात्मयोगका गूढ़ रहस्य है। जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान् गरुडध्वजको भक्तिसे युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरिके चरणारविन्दों को प्राप्त करता है ।। 37 ।।