Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कंध

अध्याय 1 स्वायम्भुव मनुकी कन्याओंके वंशका वर्णन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! स्वायम्भुव मनुके महारानी शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद — इन दो पुत्रोंके सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं ॥ 1 ॥ आकूतिका, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपाकी अनुमतिसे उन्होंने रुचि प्रजापतिके साथ ‘पुत्रिकाधर्म’ के अनुसार विवाह किया ॥ 2 ॥

प्रजापति रुचि भगवान् के अनन्य चिन्तनके कारण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न थे उन्होंने आकूतिके गर्भसे एक पुरुष और स्त्रीका जोड़ा उत्पन्न किया ॥ 3 ॥ उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान् विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान् से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजीकी अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी 4 ॥ मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परमतेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे अपने घर ले आये और दक्षिणाको रुचि प्रजापतिने अपने पास रखा ॥ 5 ॥ जब दक्षिणा विवाहके योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान्‌को ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा की, तब भगवान् यज्ञपुरुषने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणाको बड़ा सन्तोष हुआ। भगवान्ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये ॥ 6 ॥। उनके नाम हैं-तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन ॥ 7 ॥ ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तरमें ‘तुषित’ नामके देवता हुए। उस मन्वन्तरमें मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान् यज्ञ ही देवताओंके अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनोंके बेटों, पोतों और दौहित्रोंके वंशसे छा गया ।। 8-9 ।।प्यारे विदुरजी । मनुजीने अपनी दूसरी कन्या देवहूति | कर्दमजीको ब्याही थी। उसके सम्बन्धको प्रायः सभी बातें पुत्र तुम मुझसे सुन चुके हो | 10 || भगवान् मनुने अपनी तीसरी कन्या प्रसूतिका विवाह ब्रह्माजीके | दक्षप्रजापतिसे किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकीमें फैली हुई है ॥ 11 ॥

मैं कर्दमजीकी नौ कन्याओंकर, जो नौ ब्रह्मर्पियो ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनको वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ 12 ॥ मरीचि ऋषिकी पत्नी कर्दमजीकी बेटी कलासे कश्यप और | पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंशसे यह सारा जगत् भरा हुआ है ।। 13 ।। शत्रुतापन विदुरजी पूर्णिम विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नामको एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्ममें श्रीहरिके चरणोंक धोवनसे देवनदी गङ्गाके रूपमें प्रकट हुई ॥ 14 ॥ अत्रिकी पत्नी अनसूयासे दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नामके तीन परम यशस्वी पुत्र हुए। ये क्रमशः भगवान् विष्णु, शङ्कर और ब्रह्माके अंशसे उत्पन्न हुए थे 15 ॥

विदुरजीने पूछा- गुरुजी कृपया यह बतलाइये कि जगतकी उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करनेवाले इन | सर्वश्रेष्ठ देवोंने अत्रिमुनिके यहाँ क्या करने की इच्छासे अवतार लिया था ? ।। 16 ।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा -जब ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मिणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये ॥ 17 ॥ वहाँ पलाश और अशोकके वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलोंके गुच्छोंसे लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ 18 ॥ उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमे करके सौ तक केवल वायु पीकर सरदी गरमी आदि द्वन्द्वोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े | रहे ।। 19 । उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत्‌के ईश्वर है, मैं उनकी शरण हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें ॥ 20 ॥

तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी ईंधनसे प्रचलित हुआ अत्रिमुनिका तेज उनके मस्तक निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है-ब्रह्मा, विष्णु और महादेव-तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उससमय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग-उनका सुयश गा रहे थे ।। 21-22 ॥ उन तीनोंका एक ही साथ प्रादुर्भाव होनेसे अत्रिमुनिका अन्तःकरण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैरसे खड़े-खड़े ही उन देवदेवोंको देखा और फिर पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर प्रणाम करनेके अनन्तर अर्घ्य पुष्पादि पूजनकी सामग्री हाथमें ले उनकी पूजा की। वे तीनों अपने-अपने वाहन हंस, गरुड और बैलपर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नोंसे सुशोभित थे ।। 23-24 ।। उनकी आँखोंसे कृपाकी वर्षा हो रही थी। उनके मुखपर मन्द हास्यकी रेखा थी— जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेजसे चौधियाकर मुनिवरने अपनी आँखे मूंद लीं ॥ 25 ॥ वे चित्तको उन्हींकी ओर लगाकर हाथ जोड़ अतिमधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनोंमें लोकमें सबसे बड़े उन तीनों देवों की स्तुति करने लगे ।। 26 ।।

अत्रिमुनिने कहा- भगवन्! प्रत्येक कल्पके आरम्भ में जगत्‌को उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये जो मायाके सत्यादि तीनों गुणका विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये – मैंने जिनको बुलाया था, आपमेंसे वे कौन महानुभाव हैं ? | 27 ।। क्योंकि मैंने तो सन्तानप्राप्तिकी इच्छा केवल एक सुरेश्वर भगवान्‌का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनोंने यहाँ पधारनेकी कृपा कैसे की ? आपलोगोंतक तो | देहधारियोंके मनकी भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपलोग कृपा करके मुझे इसका
रहस्य बतलाइये ॥ 28 ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- समर्थ विदुरजी ! अत्रिमुनिके वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणीमें कहने लगे ।। 29 ।।

देवताओंने कहा – ब्रह्मन् ! तुम सत्यसङ्कल्प हो । अतः तुमने जैसा सङ्कल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था? तुम जिस ‘जगदीश्वर का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही है ॥ 30 ॥ प्रिय महर्षे ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे हो अंशस्वरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुन्दर यशका विस्तार करेंगे ॥ 31 ॥उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनोंसे भलीभांति पूजित होकर उनके देखते-ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकोंको चले गये ॥ 32 ॥ ब्रह्माजीके अंशसे चन्द्रमा, विष्णुके अंशसे योगता दत्तात्रेयजी और महादेवजीके अंशसे दुर्वासा ऋषि अत्रिके पुत्ररूपमें प्रकट हुए। अब अङ्गिरा ऋषिकी सन्तानोंका वर्णन सुनो ।। 33 ।।

अङ्गी पत्नी श्रद्धाने सिनीवाली कुराका और अनुमति – इन चार कन्याओंको जन्म दिया ॥ 34 ॥ इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान् उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिप मन्वन्तरमें विख्यात हुए ।। 35 ।। पुलस्त्यजीके उनकी पत्नी हविर्भूसे महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा – ये दो पुत्र हुए। इनमें अगरूयजी दूसरे जन्ममे जठराि हुए ।। 36 ।। विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज | कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनीसे | रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए ।। 37 ।।

महामते। महर्षि पुलहकी स्त्री परम साध्यी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए ।। 38 ।। इसी प्रकार क्रतुकी पत्नी क्रियाने ब्रह्मतेजसे | देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया ॥ 39 ॥ शत्रुतापन विदुरजी! वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित ब्रह्मर्षियोंका जन्म हुआ 40 ॥ उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि विरजा, मित्र, उत्चण, वसुभूधान और घुमान् थे। थे इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नी शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए 41 ॥ अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगुके वंशका वर्णन सुनो ।। 42 ।।

महाभाग भृगुजीने अपनी भार्या ख्यातिसे धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नामकी एक भगवत्परायणा | कन्या उत्पन्न की ।। 43 ।। मेरुऋषिने अपनी आयति और नियति नामकी कन्याएँ क्रमशः धाता और विधाताको व्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए ।। 44 ।।उनमे कण्डके मार्कण्डेय और के मुनिवर वेदशिराका जन्म हुआ। भृगुजीके एक कविनामक पुत्र भी थे। उनके भगवान् उशना (शुक्राचार्य) हुए। 45 ।। विदुरजी ! इन सब मुनीश्वरोंने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टिका विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दमजीके दौहित्रोंकी सन्तानका वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापोंको यह तत्काल नष्ट कर देता है ।। 46 ।।

ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापतिने मनुनन्दिनी प्रसूतिसे विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं ॥ 47 ॥ भगवान् दक्षने उनमेंसे तेरह धर्मको, एक अग्रिको, एक समस्त पितृगणको और एक संसारका संहार करनेवाले तथा जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले भगवान् शङ्करको दी ॥ 48 श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ही और मूर्तिये धर्मकी पत्रियाँ हैं ।। 49 ।। इनमेंसे श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मोद और पुष्टिने अहङ्कारको जन्म दिया ॥ 50 ॥ क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बुद्धिने अर्थ, मेधाने स्मृति, तितिक्षाने क्षेम और ही (लज्जा) ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया ।। 51 ।। समस्त गुणोंकी खान मूर्तिदेवीने नर-नारायण ऋषियोंको जन्म दिया ।। 52 ।। इनका जन्म होनेपर इस सम्पूर्ण विश्वने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगों के मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत सभीमें प्रसन्नता छा गयी ।। 53 ।। आकाशमें मङ्गलवा बने लगे, देवतालोग फूलों की वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे 54 अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस | समय बड़ा ही आनन्द-मङ्गल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रोद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे ।। 55 ।।

देवताओंने कहा- जिस प्रकार आकाशमें तरह-तरहके रूपोंकी कल्पना कर ली जाती है-उसी प्रकार जिन्होंने अपनी मायाके द्वारा अपने ही स्वरूपके अन्दर इस संसारकी रचना की है और अपने उस स्वरूपको प्रकाशित करनेके लिये इस समय इस ऋषि-विग्रहके साथ धर्मके घरमें अपने-आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुषको हमारा नमस्कार है ।। 56 ।।जिनके तत्त्वका शास्त्र के आधारपर हमलोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते—उन्हीं भगवान्ने देवताओंको संसारकी मर्यादामै किसी प्रकारकी गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्वगुणसे उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रंसि जो समस्त शोभा और सौन्दर्यके निवासस्थान निर्मल दिव्य कमलको भी नीचा दिखानेवाले हैं—हमारी ओर निहारे ॥ 57 ॥

प्यारे विदुरजी प्रभुका साक्षात् दर्शन पाकर देवताओंने उनको इस प्रकार स्तुति और पूजा की। तदनन्तर भगवान् नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वतपर चले गये ॥ 58 ॥ भगवान् श्रीहरिके अंशभूत वै नर-नारायण ही इस समय पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलभूषण श्रीकृष्ण और उन्होंके सरीखे श्यामवर्ण, कुन कुलतिलक अर्जुनके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं।। 59 ।।

अग्निदेवकी पत्नी स्वाहाने अनिके ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचिये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थोंका भक्षण करनेवाले हैं ॥ 60 ॥ इन्हीं तीनोंसे पैंतालीस प्रकारके अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामहको साथ लेकर उनचास अनि कहलाये ॥ 61 ॥ वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्ममें जिन उनचास अग्नियोंके नामोसे आग्नेयी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं ।। 62 ।।

अनिष्ठात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यपये पितर हैं; इनमें साग्निक भी हैं और निरमिक भी। इन सब पितरोंकी पत्नी दक्षकुमारी स्वधा हैं ।। 63 ।। इन पितरोंसे स्वधाके धारिणी और वयुना नामकी दो कन्याएँ हुई। वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञानमें पारङ्गत और ब्रह्मज्ञानका उपदेश करनेवाली हुई ।। 64 ।। महादेवजीकी पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेवकी सेवामें से रहनेवाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शीलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ ।। 65 ।। क्योंकि सतीके पिता दक्षने बिना हो किसी अपराधके भगवान् शिवजीके प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सतीने युवावस्थामें ही क्रोधवश योगके द्वारा स्वयं | ही अपने शरीरका त्याग कर दिया था ।। 66 ।।

अध्याय 2 भगवान् शिव और दक्ष प्रजापतिका मनोमालिन्य

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियोंसे बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सतीका अनादर करके शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेवजीसे द्वेष क्यों किया ? ॥ 1 ॥ महादेवजी भी चराचरके गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत्के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा ? ॥ 2 ॥

भगवन् ! उन ससुर और दामादमें इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सतीने अपने दुस्त्यज प्राणोंतककी बलि दे दी ? यह आप मुझसे कहिये ॥ 3 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एकत्र हुए थे ॥ 4 ॥ उसी समय प्रजापति दक्षने भी उस सभामें प्रवेश किया। वे अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा भवनका अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्माजी और महादेवजीके अतिरिक्त अग्निपर्यन्त सभी सभासद् उनके तेजसे प्रभावित होकर अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ।। 5-6 ।। इस प्रकार समस्त सभासदोंसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्माजीको प्रणाम कर उनकी आज्ञासे अपने आसनपर बैठ गये 7 ॥

परन्तु महादेवजीको पहलेसे ही बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादिके रूपमें कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजरसे इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्निसे जला डालेंगे। फिर कहने लगे-॥ 8॥ ‘देवता और अग्नियोंके सहित समस्त अहार्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचारकी बात कहता हूँ ॥ 9 ॥ यह निर्लज महादेव समस्त लोकपालोकी पवित्र कीर्तिको धूलमें मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डीने सत्पुरुषोंके आचरणको लाञ्छित एवं मटियामेट कर दिया है ।। 10 बन्दरके से नेत्रवाले इसने सत्पुरुषोंके समान मेरी सावित्री सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्याका अग्नि और ब्राह्मणोंके सामने पाणिग्रहण किया था, | इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्रके समान हो गया है।उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परंतु इसने वाणीसे भी मेरा सत्कार नहीं किया ।। 11-12 ।। हाय ! जिस प्रकार शूद्रको कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी ! इसने सत्कर्मका लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्मकी मर्यादाको तोड़ रहा है ॥ 13 ॥ यह प्रेतोंके निवासस्थान भयङ्कर श्मशानपि भूत-प्रेतोंको साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागलको तरह सिरके बाल बिखेरे नंग-धड़ंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है ॥ 14 ॥ यह सारे शरीरपर चिताकी अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गलेमें भूतोंके पहननेयोग्य नरमुण्डोंकी माला और सारे शरीरमें हड्डियों के गहने पहने रहता है। यह बस, नामभरका ही शिव है, वास्तवमें है पूरा अशिव अमङ्गलरूप जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाववाले जीवो यह नेता है ।। 15 ।। अरे ! मैंने केवल ब्रह्माजीके बहकावे में आकर ऐसे भूलोके सरदार आधारहीन और दुष्ट स्वभाववालेको अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी ।। 16 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी दक्षने इस प्रकार महादेवजीको बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इस दक्षके क्रोधका पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथमें लेकर उन्हें शाप देनेको तैयार हो गये ॥ 17 ॥ दक्षने कहा, ‘यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले ॥ 18 ॥ उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने | किसीकी न सुनी महादेवजीको शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यन्त क्रोधित हो उस सभासे निकलकर अपने घर चले गये ॥ 19 ॥ जब श्रीशङ्करजीके अनुयायियोमे अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उनको जिन्होंने दक्षदुर्वचन अनुमोदन किया था, बड़ा भयङ्कर शाप दिया ॥ 20 ॥ बोले- ‘जो इस मरण-धर्मा शरीरमे ही अभिमान करके किसी भी न करनेवाले भगवान् र द्वेष करता है, वह भे बुद्धिवाद तत्त्वमुख हो रहे ॥ 21 ॥ यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त होता हैं आदि अर्थवादरूप वेदवाक्योंसे मोहित एवं विवेकहो विषयसुखको इच्छा कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममे आसक्त रहकरकर्मकाण्डमें ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया। है; यह साक्षात् पशुके ही समान है, अतः अत्यन्त स्त्रीलम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरेका हो जाय ॥ 22-23 ॥ यह मूर्ख कर्ममयी अविद्याको ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शङ्करका अपमान करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले है, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें ॥ 24 ॥ वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पोंसे सुशोभित है, उसके कर्मफलरूप मनोमोहक गन्धसे इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे है। इससे ये शङ्करद्रोही कमेकि जालमें ही फँसे रहें । 25 ॥ ये ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोड़कर केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या, तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियोंके सुखको हो सुख मानकर उन्होंके गुलाम बनकर दुनियामें भीख माँगते भटका करें ॥ 26 ॥

नन्दीश्वर के मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदले में भृगुजीने यह दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया ॥ 27 ॥ ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले और पाखण्डी हो ॥ 28 ॥ जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं—वे ही शैव सम्प्रदाय में दीक्षित हो, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं ॥ 29 ॥ अरे ! तुमलोग जो धर्ममर्यादाके संस्थापक एवं वर्णाश्रमियोंके रक्षक वेद और ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्डका आश्रय ले रखा है। ॥ 30 ॥ यह वेदमार्ग ही लोगोंके लिये कल्याणकारी और सनातन | मार्ग है। पूर्वपुरुष इसीपर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णुभगवान् हैं ॥ 31 ॥ तुमलोग सत्पुरुषोंके परम पवित्र और सनातन मार्गस्वरूप वेदकी निन्दा करते हो— इसलिये उस पाखण्डमार्गमें जाओ, जिसमें भूतोंके सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं ।। 32 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी भृगुऋषिके इस प्रकार शाप देनेपर भगवान् शङ्कर कुछ खिन्न से हो वहाँसे अपने अनुयायियोंसहित चल दिये ॥ 33 ॥ वहाँ प्रजापतिलोग जो यज्ञ | कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे और वह यज्ञ एक हजार वर्षमें समाप्त होनेवाला था। उसे समाप्त कर उन प्रजापतियोंने श्रीगङ्गा-यमुनाके सङ्गममें यज्ञान्त स्नान किया और फिर प्रसन्न मनसे वे अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।। 34-35 ।।

अध्याय 3 सतीका पिताके यहाँ यज्ञोत्सवमें जानेके लिये आग्रह

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार छन ससुर और दामाद को आपसमें वैर-विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया ॥ 1 ॥ इसी समय ब्रह्माजीने दक्षको समस्त प्रजापतियोंका अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया ॥ 2 ॥ उसने भगवान् शङ्कर आदि ब्रह्मनिष्ठोंको यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नामका महायज्ञ आरम्भ किया ॥ 3 ॥ उस यज्ञोत्सवमें सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियोंके साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ माङ्गलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्षके द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया ॥ 4 ॥

उस समय आकाशमार्गसे जाते हुए देवता आपसमें उस यज्ञकी चर्चा करते जाते थे। उनके मुखसे दक्षकुमारी सतीने अपने पिताके घर होनेवाले यज्ञकी बात सुन लो ॥ 5 ॥ उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलासके पाससे होकर सब ओरसे चञ्चल नेत्रोंवाली गन्धर्व और यक्षोंकी स्त्रियाँ चमकीले कुण्डल और हार पहने खूब सज-धजकर अपने-अपने पतियोंके साथ विमानोंपर बैठी उस यज्ञोत्सवमे जा रही हैं। इससे उन्हें भी बड़ी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान् भूतनाथसे कहा ।। 6-7 ।।

सतीने कहा- वामदेव ! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्षप्रजापतिके यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें ॥ 8 ॥ इस समय अपने आत्मीयोंसे मिलनेके लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियोंके सहित वहाँ अवश्य आयेगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिताके दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूं ॥ 9 ॥ वहाँ अपने पतियोंसे सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहदया जननीको देखनेके लिये मेरा मन बहुत दिनोंसे उत्सुक है । कल्याणमय! इसके सिवा वहाँ महर्षियोंका रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखनेको मिलेगा ॥ 10 ॥ अजन्मा प्रभो! आप जगत्कीउत्पत्तिके हेतु है। आपकी मायासे रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आपहीमें भास रहा है। किंतु मैं तो स्वीस्वभाव होनेके कारण आपके तत्त्वसे अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय अपनी जन्मभूमि देखने को बहुत उत्सुक हो रही हूँ ॥ 11 ॥ जन्मरहित नीलकण्ठ ! देखिये- इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्षसे कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियोंके सहित खूब सज-धजकर झुंड की झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जानेवाली इन | देवाङ्गनाओंके राजहंसके समान श्वेत विमानोंसे आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है ॥ 12 ॥ सुरश्रेष्ठ! ऐसी अवस्थामें अपने पिताके यहाँ उत्सवका समाचार पाकर उसकी बेटीका शरीर उसमें सम्मिलित होनेके लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदोके यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं ।। 13 ।। अतः देव! आप मुझपर प्रसन्न हों; | आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परम ज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अङ्गमें स्थान दिया है। अब मेरी इस याचनापर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये ॥ 14 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—प्रिया सतीजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर अपने आत्मीयोंका प्रिय करनेवाले भगवान् शङ्करको दक्षप्रजापतिके उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप वाणोंका स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियोंके | सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले ॥ 15 ॥

भगवान् शङ्करने कहा-सुन्दरि ! तुमने जो कहा कि अपने वसुजनके यहाँ बिना बुलाये भी जा सकते हैं, सो तो ठीक ही है; किंतु ऐसा तभी करना चाहिये, जब उनकी दृष्टि अतिशय प्रबल देहाभिमानसे उत्पन्न हुए मद और क्रोधके कारण द्वेष-दोषसे युक्त न हो गयी हो ॥ 16 ॥ विद्या, तप, धन, सुदृढ़ शरीर, युवावस्था और उच्च कुल छः सत्पुरुषोंके तो गुण है, परन्तु नीच पुरुषोंमें ये ही अवगुण हो जाते हैं; क्योंकि इनसे उनका अभिमान बढ़ जाता है और दृष्टि दोषयुक्त हो जाती है एवं विवेक शक्ति नष्ट हो जाती है। इसी कारण वे महापुरुषोंका प्रभाव नहीं देख पाते ।। 17 ।।इसीसे जो अपने यहाँ आये हुए पुरुषोंको कुटिल बुद्धिसे भौं चढ़ाकर रोषभरी दृष्टिसे देखते हैं, उन अव्यवस्थितचित लोगोंके यहाँ ‘ये हमारे बान्धव है’ ऐसा समझकर कभी नहीं जाना चाहिये ।। 18 ।। देवि ! शत्रुओंके बाणोंसे बिंध जानेपर भी ऐसी व्यथा नहीं होती, जैसी अपने कुटिलबुद्धि स्वजनोंके कुटिल वचनोंसे होती है। क्योंकि बाणोंसे शरीर छिन्न-भिन्न हो जानेपर तो जैसे-जैसे निद्रा आ जाती है, | किन्तु कुवाक्योंसे मर्मस्थान विद्ध हो जानेपर तो मनुष्य हृदयकी पीड़ासे दिन-रात बेचैन रहता है ॥ 19 ॥

सुन्दरि ! अवश्य ही मैं यह जानता हूँ कि तुम परमोन्नतिको प्राप्त हुए दक्षप्रजापतिको अपनी कन्याओंमें सबसे अधिक प्रिय हो । तथापि मेरी आश्रिता होनेके कारण तुम्हें अपने पितासे मान नहीं मिलेगा; क्योंकि वे | मुझसे बहुत जलते हैं ॥ 20 ॥ जीवकी चित्तवृत्तिके साक्षी अहङ्कारशून्य महापुरुषोंकी समृद्धिको देखकर जिसके हृदयमें सन्ताप और इन्द्रियोंमें व्यथा होती है, वह पुरुष उनके पदको तो सुगमतासे प्राप्त कर नहीं सकता; बस, | दैत्यगण जैसे श्रीहरिसे द्वेष मानते हैं, वैसे ही उनसे कुढ़ता रहता है ।। 21 ।।

सुमध्यमे ! तुम कह सकती हो कि आपने प्रजापतियोंकी सभामें उनका आदर क्यों नहीं किया। सो ये सम्मुख जाना, नम्रता दिखाना, प्रणाम करना आदि क्रियाएँ जो लोकव्यवहारमे परस्पर की जाती है. तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा बहुत अच्छे ढंगसे की जाती हैं। वे अन्तर्यामीरूपसे सबके अन्तःकरणोंमें स्थित परमपुरुष वासुदेवको ही प्रणामादि करते हैं; देहाभिमानी पुरुषको नहीं करते ॥ 22 ॥ विशुद्ध अन्तःकरणका नाम ही ‘वसुदेव’ है, क्योंकि उसीमें भगवान् वासुदेवका अपरोक्ष अनुभव होता है उस शुद्ध चित्तमें स्थित इन्द्रा भगवान् वासुदेवको ही मैं नमस्कार किया करता हूँ ।। 23 । इसीलिये प्रिये जिसने प्रजापतियों के यज्ञमें, मेरेद्वारा कोई अपराध न होनेपर भी, मेरा कटुवाक्योंसे तिरस्कार किया था, वह दक्ष यद्यपि तुम्हारे शरीरको उत्पन्न करनेवाला पिता है, तो भी मेरा शत्रु होनेके कारण तुम्हे उसे अथवा उसके अनुयाथियोंको | देखनेका विचार भी नहीं करना चाहिये ।। 24 ।।यदि तुम मेरी बात न मानकर वहाँ जाओगी, तो तुम्हारे लिये अच्छा न होगा; क्योंकि जब किसी प्रतिष्ठित व्यक्तिका अपने आत्मीयजनोंके द्वारा अपमान होता है, तब वह । तत्काल उनकी मृत्युका कारण हो जाता है ॥ 25 ॥

अध्याय 4 सतीका अग्निप्रवेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी। इतना कहकर भगवान् शङ्कर मौन हो गये। उन्होंने देखा कि दक्षके यहाँ जाने देने अथवा जानेसे रोकने—दोनों ही अवस्थाओंमें सतीके प्राणत्यागकी सम्भावना है। इधर, सतीजी भी कभी बन्धुजनोंको देखने जानेकी इच्छासे बाहर आती और कभी ‘भगवान् शङ्कर रुष्ट न हो जायँ, इस शङ्कासे फिर लौट जातीं। इस प्रकार कोई एक बात निश्चित न कर सकनेके कारण वे दुविधामें पड़ गयल हो गयीं बन्धुजनोंसे मिलने की इच्छा बाधा पड़नेसे वे बड़ी अनमनी हो गयीं। स्वजनोंके स्नेहवश उनका हृदय भर आया और वे आँखोंमें आँसू भरकर अत्यन्त व्याकुल हो रोने लगीं। उनका शरीर थरथर काँपने लगा और वे अप्रतिम पुरुष भगवान् शङ्करकी ओर इस प्रकार रोषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगीं मानो उन्हें भस्म कर देंगी ॥ 2 ॥ शोक और क्रोधने उनके चित्तको बिलकुल बेचैन कर दिया तथा स्त्रीत्वभावके कारण उनकी बुद्धि मूढ़ हो गयी। जिन्होंने प्रीतिवश उन्हें अपना आधा अङ्गतक दे दिया था, उन सत्पुरुषोंके प्रिय भगवान् शहरको भी छोड़कर वे लंबी-लंबी साँस लेती हुई अपने माता पिताके घर चल दीं ॥ 3 ॥ सतीको बड़ी फुर्तीसे अकेली जाते देख श्रीमहादेवजी के मणिमान् एवं मद आदि हजारों सेवक भगवान् के वाहन वृषभराजको आगे कर तथा और भी अनेकों | पार्षद और वक्षों को साथ ले बड़ी तेजीसे निर्भयतापूर्वक उनके पीछे हो लिये ॥ 4 ॥ उन्होंने सतीको बैलपर सवार करा दिया तथा मैना पक्षी, गेंद, दर्पण और कमल आदि खेलकी सामग्री, श्वेत छत्र, चंवर और माला आदि राजचिह्न तथा दुन्दुभि, शङ्ख और बाँसुरी आदि गाने-बजानेके सामानोंसे सुसज्जित हो वे उनके साथ चल दिये ll 5 llतदनन्तर सतो अपने समस्त सेवकोंके साथ दक्षको यज्ञशाला पहुँची। वहाँ वेदध्वनि करते हुए ब्राह्मणोंमें परस्पर होड़ लग रही थी कि सबसे ऊँचे स्वरमें कौन बोले सब ओर महार्षि और देवता विराजमान थे तथा जहाँ-तहाँ मिट्टी, काठ, लोहे, सोने, डाभ और चर्मके पात्र रखे हुए | ॥ 6 ॥ वहाँ पहुँचनेपर पिताके द्वारा सतीकी अवहेलना | हुई, यह देख यज्ञकर्ता दक्षके भयसे सतीकी माता और बहनोंके सिवा किसी भी मनुष्यने उनका कुछ भी आदर-सत्कार नहीं किया। अवश्य ही उनकी माता और बहिने बहुत प्रसन्न हुई और प्रेमसे गद्गद होकर उन्होंने सीजीको आदरपूर्वक गले लगाया ॥ 7 ॥ किन्तु सतीजीने पितासे अपमानित होनेके कारण, बहिनोंके कुशल प्रश्नसहित प्रेमपूर्ण वार्तालाप तथा माता और मौसियों के सम्मानपूर्वक दिये हुए उपहार और सुन्दर आसनादिको स्वीकार नहीं किया ॥ 8 ॥

सर्वलोकेश्वरी देवी सतीका यज्ञमण्डपमें तो अनादर हुआ ही था, उन्होंने यह भी देखा कि उस यज्ञमें भगवान् शङ्करके लिये कोई भाग नहीं दिया गया है और पिता दक्ष उनका बड़ा अपमान कर रहा है। इससे उन्हें बहुत क्रोध हुआ ऐसा जान पड़ता था मानो वे अपने रोषसे सम्पूर्ण लोकोंको भस्म कर देंगी ॥ 9 ॥ दक्षको कर्ममार्गके अभ्याससे बहुत घमण्ड हो गया था। उसे शिवजीसे द्वेष करते देख जब सतीके साथ आये हुए भूत उसे मारनेको | तैयार हुए तो देवी सतीने उन्हें अपने तेजसे रोक दिया और सब लोगोंको सुनाकर पिताकी निन्दा करते लड़खड़ाती हुई वाणीमें कहा ॥ 10 ॥ हुए क्रोधसे देवी सतीने कहा – पिताजी! भगवान् शङ्करसे बड़ा तो संसारमें कोई भी नहीं है। वे तो सभी देहधारियोंके प्रिय आत्मा हैं। उनका न कोई प्रिय हैं, न अप्रिय, अतएव उनका किसी भी प्राणीसे वैर नहीं है। वे तो सबके कारण एवं सर्वरूप है; आपके सिवा और ऐसा कौन है जो उनसे विरोध करेगा ? ॥ 11 ॥ द्विजवर ! आप जैसे लोग दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ही देखते हैं, किन्तु कोई साधुपुरुष ऐसा नहीं करते। जो लोग दोष देखनेकी बात तो अलग रही—दूसरोंके थोड़ेसे गुणको भी बड़े रूपमें देखना चाहते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ है। खेद है कि आपने ऐसे महापुरुषोंपर भी दोषारोपण ही किया ॥ 12 ॥जो दुष्ट मनुष्य इस शवरूप जडशरीरको ही आत्मा मानते हैं, वे यदि ईर्ष्यावश सर्वदा ही महापुरुषोंकी निन्दा करें तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। क्योंकि महापुरुष तो उनकी इस चेष्टापर कोई ध्यान नहीं देते, परन्तु उनके चरणोंकी धूलि उनके इस अपराधको न सहकर उनका तेज नष्ट कर देती है। अतः महापुरुषोंकी निन्दा-जैसा जघन्य कार्य उन दुष्ट पुरुषों को ही शोभा देता है ॥ 13 ॥ जिनका ‘शिव’ यह दो अक्षरोंका नाम प्रसङ्गवश एक बार भी मुखसे निकल जानेपर मनुष्यके समस्त पापोंको तत्काल नष्ट कर देता है और जिनकी आज्ञाका कोई भी उल्लङ्घन नहीं कर सकता, अहो! उन्हीं पवित्रकीर्ति मङ्गलमय भगवान् शङ्करसे आप द्वेष करते हैं! अवश्य हो आप अमङ्गलरूप है ॥ 14 ॥ अरे । महापुरुषकि मन-मधुकर ब्रह्मानन्दमय रसका पान करने की इच्छासे जिनके चरणकमलोंका | निरन्तर सेवन किया करते हैं और जिनके चरणारविन्द सकाम पुरुषोंको उनके अभीष्ट भोग भी देते हैं, उन विश्वबन्धु भगवान् शिवसे आप वैर करते हैं ।। 15 ।।

वे केवल नाममात्रके शिव हैं, उनका वेष अशिवरूप अमङ्गलरूप है; इस बातको आपके सिवा दूसरे कोई देवता सम्भवतः नहीं जानते; क्योंकि जो भगवान् शिव श्मशानभूमिस्थ समुण्डको माता पिताकी और पहने जा मिल भूत-पिशाचोंके साथ श्मशानमें निवास करते हैं, उन्होंके चरणोंपर से गिरे हुए निर्माल्यको ब्रह्मा आदि देवता अपने सिरपर धारण करते हैं ॥ 16 ॥ यदि निरङ्कुशलोग धर्ममर्यादाको रक्षा करनेवाले अपने पूजनीय स्वामीकी निन्दा करें तो अपनेमें उसे दण्ड देनेकी शक्ति न होनेपर कान बंद करके वहाँसे चला जाय और यदि शक्ति हो तो बलपूर्वक पकड़कर उस बकवाद करनेवाली अमङ्गलरूप दुष्ट जिह्वाको काट डाले। इस पापको रोकनेके लिये स्वयं अपने प्राणतक दे दे, यही धर्म है 17 आप भगवान् नीलकण्ठकी निन्दा करनेवाले हैं, इसलिये आपसे उत्पन्न हुए इस शरीरको अब मैं नहीं रख सकती; यदि भूलसे कोई निन्दित वस्तु खा ली जाय तो उसे वमन करके निकाल देनेसे ही मनुष्यकी शुद्धि बतायी जाती है ॥ 18 जो महामुनि निरन्तर अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं, उनकी बुद्धि सर्वथा वेदके विधिनिषेधमय वाक्योंका अनुसरण नहीं करती। जिस प्रकार देवता और मनुष्योंकी गतिमें भेद रहता है, उसी प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी स्थिति भी एक सी नहीं होती। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने ही धर्ममार्गमें स्थित रहते हुए भी | दूसरेक मार्गकी निन्दा न करे ॥ 19 प्रवृत्ति (यज्ञ-यागादि) और निवृत्ति ( शमदमादि) रूप दोनों ही प्रकारके कर्म ठीक हैं। वेदमें उनके अलग-अलग रागी और विरागी दो प्रकारके अधिकारी बताये गये हैं। परस्पर विरोधी होनेके कारण उक्त दोनों प्रकारके कर्मोंका एक साथ एक ही पुरुषके द्वारा आचरण नहीं किया जा सकता भगवान् शङ्कर तो परब्रह्म परमात्मा हैं उन्हें इन दोनोंमेंसे किसी भी प्रकारका कर्म करने की आवश्यकता नहीं है ॥ 20 ॥पिताजी! हमारा ऐश्वर्य अव्यक्त है, आत्मज्ञानी महापुरुष ही उसका सेवन कर सकते हैं। आपके पास वह ऐश्वर्य नहीं है और यज्ञशालाओंमें यज्ञानसे तृप्त होकर प्राणपोषण करनेवाले कर्मठलोग उसकी प्रशंसा भी नहीं करते ॥ 21 ॥ आप भगवान् शङ्करका अपराध करनेवाले हैं। अतः आपके शरीरसे उत्पन्न इस निन्दनीय देहको रखकर मुझे क्या करना है। आप जैसे दुर्जनसे सम्बन्ध होनेके कारण मुझे लज्जा आती है। जो महापुरुषोंका अपराध करता है, उससे होनेवाले जन्मको भी धिक्कार हैं ॥ 22 ॥ जिस समय भगवान् शिव आपके साथ मेरा सम्बन्ध दिखलाते हुए मुझे हँसीमें ‘दाक्षायणी’ (दक्षकुमारी) के नामसे पुकारेंगे, उस समय हँसीको भूलकर मुझे बड़ी ही लज्जा और खेद होगा। इसलिये उसके पहले ही मैं आपके अङ्गसे उत्पन्न इस शवतुल्य शरीरको त्याग दूँगी ॥ 23 ॥

श्रीमैत्रेयी कहते है-कामादि शत्रुओंको जीतनेवाले विदुरजी ! उस यज्ञमण्डपमें दक्षसे इस प्रकार कह देवी सती मौन होकर उत्तर दिशामें भूमिपर बैठ गयीं। उन्होंने आचमन करके पीला वस्त्र ओढ़ लिया तथा आँखें मूंदकर शरीर छोड़नेके लिये वे योगमार्ग में स्थित हो गयीं ॥ 24 ॥ उन्होंने आसनको स्थिरकर प्राणायामद्वारा प्राण और अपानको एकरूप करके नाभिचक्रमें स्थित किया; फिर उदानवायुको नाभिचक्रसे ऊपर उठाकर धीरे-धीरे बुद्धिके साथ हृदयमें स्थापित किया। इसके पश्चात् अनिन्दिता सती उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके कुटियों के बीच बीचमें ले गयीं 25 ॥ इस प्रकार, जिस शरीरको महापुरुषोंके भी पूजनीय भगवान् शङ्करने कई बार बड़े आदरसे अपनी गोदमें बैठाया था, दक्षपर कुपित होकर उसे त्यागनेकी इच्छासे महामनस्विनी सतीने अपने सम्पूर्ण अङ्गोमें वायु और अग्निकी धारणा की ।। 26 ।। अपने पति जगद्गुरु भगवान् शङ्करके चरण-कमल-मकरन्दरका चिन्तन करते-करते सतीने और सब ध्यान भुला दिये; उन्हें उन चरणोंके अतिरिक्त कुछ भी दिखायी न दिया। इससे वे सर्वथा निर्दोष, अर्थात् मैं दक्षकन्या हूँ-ऐसे | अभिमानसे भी मुक्त हो गयीं और उनका शरीर तुरंत ही | योगामिसे जल उठा ॥ 27 ॥उस समय वहाँ आये हुए देवता आदिने जब सतीका | देहत्यागरूप यह महान् आश्चर्यमय चरित्र देखा, तब वे सभी हाहाकार करने लगे और वह भयङ्कर कोलाहल. आकाशमें एवं पृथ्वीतलपर सभी जगह फैल गया। सब ओर यही सुनायी देता था- ‘हाय दक्षके दुर्व्यवहारसे कुपित होकर देवाधिदेव महादेवकी प्रिया सतीने प्राण त्याग दिये ॥ 28 ॥ देखो, सारे चराचर जीव इस दक्षप्रजापतिकी ही सन्तान हैं; फिर भी इसने कैसी भारी दुष्टता की है। इसकी पुत्री शुद्धहृदया सती सदा ही मान पानेके योग्य थी, किन्तु इसने उसका ऐसा निरादर किया कि उसने प्राण त्याग दिये ॥ 29 ॥ वास्तवमें यह बड़ा ही असहिष्णु और ब्राह्मणद्रोही है। अब इसकी संसारमें बड़ी अपकीर्ति होगी। जब इसकी पुत्री सती इसीके अपराधसे प्राणत्याग करने को तैयार हुई, तब भी इस शङ्करद्रोहीने उसे रोकातक नहीं !’ ॥ 30 ॥

जिस समय सब लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजीके पार्षद सतीका यह अद्भुत प्राणत्याग देख, अस्त्र-शस्त्र लेकर दक्षको मारनेके लिये उठ खड़े हुए ।। 31 । उनके आक्रमणका वेग देखकर भगवान् भृगुने यज्ञमें विघ्न डालनेवालोंका नाश करनेके लिये ‘अपहतं रक्ष… इत्यादि मन्त्रका उच्चारण करते हुए दक्षिणधिमें आहुति दी ।। 32 अध्वर्यु भृगु ज्यों ही आहुति छोड़ी कि यज्ञकुण्डसे ‘ऋभु’ नामके हजारों तेजस्वी देवता प्रकट हो गये। इन्होंने अपनी तपस्याके प्रभावसे चन्द्रलोक प्राप्त किया था ॥ 33 ॥ उन ब्रह्मतेजसम्पन्न देवताओंने जलती हुई लकड़ियोंसे आक्रमण किया, तो समस्त गुह्यक और प्रमथगण इधर-उधर भाग गये ।। 34 ।।

अध्याय 5 वीरभद्रकृत दक्षयज्ञविध्वंस और दक्षवध

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- महादेवजीने जब देवर्षि नारदके मुखसे सुना कि अपने पिता दशसे अपमानित होनेके कारण देवी सतीने प्राण त्याग दिये हैं और उसको यज्ञवेदीसे प्रकट हुए ऋभुओंने उनके पार्षदोंकी सेनाको मारकर भगा दिया है, तब उन्हें बड़ा ही क्रोध हुआ ॥ 1 ॥ उन्होंने उग्र रूप धारण कर क्रोधके मारे होठ चबाते हुए अपनी एक जटा उखाड़ ली – जो बिजली और आगकी लपटके समान दीप्त हो रही थी और सहसा खड़े होकर बड़े गम्भीर अट्टहासके साथ उसे पृथ्वीपर पटक दिया ॥ 2 ॥ उससे तुरंत ही एक बड़ा भारी लंबा-चौड़ा पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका शरीर इतना विशाल था कि वह स्वर्गको स्पर्श कर रहा था। उसके हजार भुजाएँ थीं। मेघके समान श्यामवर्ण था, सूर्यके समान जलते हुए तीन नेत्र थे, विकराल दाढ़ें थीं और अग्निको ज्वालाओंके समान लाल-लाल जटाएँ थीं। उसके गलेमें नरमुण्डों की माला थी और हाथोंमें तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र थे ॥ 3 ॥ जब उसने हाथ जोड़कर पूछा, ‘भगवन् ! मैं क्या करूँ ?’ तो भगवान् भूतनाथने कहा- ‘वीर रुद्र ! तू मेरा अंश है, इसलिये मेरे पार्षदोंका अधिनायक बनकर तू तुरंत ही जा और दक्ष तथा उसके यज्ञको नष्ट कर दे 4 ॥

प्यारे विदुरजी जब देवाधिदेव भगवान् शङ्कर क्रोधमें भरकर ऐसी आज्ञा दी, तब वीरभद्र उनकी परिक्रमा करके चलनेको तैयार हो गये। उस समय उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि मेरे वेगका सामना करनेवाला संसारमे कोई नहीं है और मैं बड़े-से-बड़े वीरका भी वेग सहन कर सकता हूँ ॥ 5 वे भयङ्कर सिंहनाद करते हुए एक अति कराल त्रिशूल हाथमें लेकर दक्षके यज्ञमण्डपकी ओर दौड़े। उनका त्रिशूल संसारसंहारक मृत्युका भी संहार करनेमें समर्थ था। भगवान् रुद्रके और भी बहुत-से सेवक गर्जना करते हुए उनके पीछे हो लिये। उस समय वीरभद्रके पैरोंके नूपुरादि आभूषण झनन झनन बजते जाते थे ॥ 6 ॥

इधर यज्ञशाला में बैठे हुए ऋत्विज्, यजमान, सदस्य तथा अन्य ब्राह्मण और ब्राह्मणियोंने जब उत्तर दिशाकी ओर धूल उड़ती देखी, तब वे सोचने लगे- ‘अरे यह अंधेरा-सा कैसे होता आ रहा है? यह धूल कहाँसे छा गयी ? ॥ 7 ॥इस समय न तो आँधी ही चल रही है और न कहीं लुटेरे ही सुने जाते हैं; क्योंकि अपराधियोंको कठोर दण्ड देनेवाला राजा प्राचीनवर्हि अभी जीवित है। अभी गौओके | आनेका समय भी नहीं हुआ है। फिर यह धूल कहाँसे आयो ? क्या इसी समय संसारका प्रलय तो नहीं होनेवाला है ?’ ॥ 8 ॥ तव दक्षपत्त्री प्रसूति एवं अन्य स्त्रियोंने व्याकुल होकर कहा-प्रजापति दक्षने अपनी सारी कन्याओंके सामने बेचारी निरपराधा सतीका तिरस्कार किया था; मालूम होता है यह उसी पापका फल, है ॥ 9 ॥ (अथवा हो न हो यह संहारमूर्ति भगवान् रुद्रके अनादरका ही परिणाम है।) प्रलयकाल उपस्थित होनेपर जिस समय वे अपने जटाजूटको बिखेरकर तथा शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित अपनी भुजाओंको ध्वजाओंके | समान फैलाकर ताण्डव नृत्य करते हैं, उस समय उनके त्रिशूलके फलोंसे दिग्गज बिंध जाते हैं तथा उनके मेघगर्जनके समान भयङ्कर अट्टहासे दिशाएँ विदीर्ण हो | जाती हैं ॥ 10 ॥ उस समय उनका तेज असह्य होता है, वे अपनी भौहें टेडी करनेके कारण बड़े दुर्धर्ष जान पड़ते हैं और उनकी विकराल दाढ़ोंसे तारागण अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। उन क्रोधमें भरे हुए भगवान् शङ्करको बार-बार कुपित करनेवाला पुरुष साक्षात् विधाता ही क्यों न हो-क्या कभी उसका कल्याण हो सकता है ? ॥ 11 ॥ जो लोग महात्मा दक्षके यज्ञमें बैठे थे, वे भयके कारण
एक-दूसरेकी और कातर दृष्टिसे निहारते हुए ऐसी ही तरह तरहकी बातें कर रहे थे कि इतने ही आकाश और पृथ्वीमें सब ओर सहलो भयङ्कर उत्पात होने लगे ॥ 12 ॥ विदुरजी ! इसी समय दौड़कर आये हुए रुद्रसेवकोंने उस महान् यज्ञमण्डपको सब ओरसे घेर लिया। वे सब तरह | तरहके अस्त्र-शस्त्र लिये हुए थे। उनमें कोई बौने, कोई भूरे रंगके, कोई पीले और कोई मगरके समान पेट और मुखवाले थे ।। 13 ।। उनमेंसे किन्होंने प्राग्वंश (यज्ञशालाके पूर्व और पश्चिम के बीच में आड़े रखे हुए डे) को तोड़ डाला, किन्होंने यज्ञशाला पश्चिमकी ओर स्थित पीशालाको नष्ट कर दिया, किन्होंने यज्ञशालाके सामनेका सभामण्डप और मण्डपके आगे उत्तरकी ओर स्थित आग्नीधशालाको तोड़ दिया, किन्होंने यजमानगृह और पाकशालाको तहस-नहस कर डाला ।। 14 ।।किन्होंने यज्ञके पात्र फोड़ दिये, किन्होंने अशियोंको बुझा दिया, किन्होंने यज्ञकुण्डोंमें पेशाब कर दिया और किन्होंने बेटीकी सीमाके सूत्रों को तोड़ डाला ॥ 15॥ कोई-कोई मुनियोंको तंग करने लगे, कोई स्त्रियों को डराने-धमकाने लगे और किन्होंने अपने पास होकर भागते हुए देवताओंको पकड़ लिया 16 ॥ मणिमान्ने भृगु ऋषिको बाँध लिया, वीरभइने प्रजापति दक्षको कैद कर लिया तथा चण्डीशने पुषाको और नन्दीश्वरने भग देवताको पकड़ लिया ॥ 17 ॥

भगवान् शङ्करके पार्षदोंकी यह भयङ्कर लीला देखकर तथा उनके कंकड़-पत्थरोंकी मारसे बहुत तंग आकर वहाँ जितने | ऋत्विज्, सदस्य और देवतालोग थे, सब-के-सब जहाँ-तहाँ भाग गये ॥ 18 ॥ भृगुजी हाथमें स्स्रुवा लिये हवन कर रहे थे। वीरभद्रने इनकी दादी-नोच लीं क्योंकि इन्होंने प्रजापतियोंकी सभामें छे ऐसे हर महादेवजीका उपहास किया था । 19 । उन्होंने क्रोध भरकर भगदेवताको पृथ्वीस पटक दिया और उनकी आँखें निकाल लीं; क्योंकि जब दक्ष देवसभामें श्रीमहादेवजीको बुरा भला कहते हुए शाप दे रहे थे, उस समय इन्होंने दक्षको सैन देकर उकसाया था ॥ 20 ॥ इसके पश्चात् जैसे अनिरुद्धके विवाहके समय बलरामजी कलिके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार उन्होंने पूषाके दाँत तोड़ दिये; क्योंकि जब दक्षने महादेवजीको गालियाँ दी थीं, उस समय ये दाँत दिखाकर हँसे थे ॥ 21 ॥ फिर वे दक्षको छातीपर बैठकर एक तेज तलवारसे उसका सिर काटने लगे, परन्तु बहुत प्रसन्न करनेपर भी वे उस समय उसे घड़ अलग न कर सके 22 || जब किसी भी प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे दक्षकी त्वचा नहीं कटी, तब वीरभद्रको बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बहुत देरतक विचार करते रहे ।। 23 ।। तब उन्होंने यज्ञमण्डपमें यज्ञपशुओंको जिस प्रकार मारा जाता था, उसे देखकर उसी प्रकार दक्षरूप उस यजमान पशुका सिर धड़से अलग कर दिया ॥ 24 ॥ यह देखकर भूत, प्रेत और पिशाचादि तो उनके इस कर्मको प्रशंसा करते हुए ‘वाह-वाह करने लगे और दक्षके दलवालोंमें हाहाकार मच गया ॥ 25 ॥ वीरभद्रने अत्यन्त कुपित होकर दक्षके सिरको यज्ञकी दक्षिणाग्निमें डाल दिया और उस यज्ञशालामें आग लगाकर | यज्ञको विध्वंस करके वे कैलासपर्वतको लौट गये ॥ 26 ॥

अध्याय 6 ब्रह्मादि देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-विदुरजी ! इस प्रकार जब रुद्रके सेवकोंने समस्त देवताओंको हरा दिया और उनके सम्पूर्ण अङ्ग-प्रत्यङ्ग भूत-प्रेतोंके त्रिशूल, पट्टिश, खड्ग, गदा, परिच और मुद्गर आदि आयुधों छिन्न-भिन्न हो गये तब वे ऋत्विज् और सदस्योंके सहित बहुत ही डरकर ब्रह्माजीके पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया ।। 1-2 ।। भगवान् ब्रह्माजी और सर्वान्तर्यामी श्रीनारायण पहले से ही इस भावी उत्पातको जानते थे, इसीसे वे दक्ष यज्ञमें नहीं गये थे ॥ 3 ॥ अब देवताओंके मुखसे वहाँकी सारी बात सुनकर उन्होंने कहा, ‘देवताओ ! परम समर्थ तेजस्वी पुरुषसे कोई दोष भी बन जाय तो भी उसके बदले अपराध करनेवाले मनुष्योंका भला नहीं हो सकता ॥ 4 ॥ फिर तुमलोगोंने तो यज्ञमें भगवान् शङ्करका प्राप्य भाग न देकर उनका बड़ा भारी अपराध किया है। परन्तु शङ्करजी बहुत शीघ्र प्रसन्न होनेवाले हैं, इसलिये तुमलोग शुद्ध हृदयसे उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो— उनसे क्षमा माँगो ॥ 5 ॥ दक्षके दुर्वचनरूपी बाणोंसे उनका हृदय तो पहलेसे ही बिंध रहा था, उसपर उनकी प्रिया सतीजीका वियोग हो गया। इसलिये यदि तुमलोग चाहते हो कि यह यज्ञ फिरसे आरम्भ होकर पूर्ण हो, तो पहले जल्दी जाकर उनसे अपने अपराधोंके लिये क्षमा माँगो नहीं तो, उनके कुपित होनेपर लोकपालोके सहित इन समस्त लोकोंका भी बचना असम्भव है || 6 || भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र है, उनके तत्व और शक्ति सामर्थ्यको न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यश-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता है; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्थामें उन्हें शान्त करनेका उपाय कौन कर सकता है ॥ 7 ॥ देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी

उनको, प्रजापतियोंको और पितरोंको साथ ले अपने लोकसे पर्वतश्रेष्ठ कैलासको गये, जो भगवान् शङ्करका
प्रिय धाम है ।। 8 ।।उस कैलासपर औषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उप सिद्धिको प्राप्त हुए और जमसे ही सिद्ध देवता नित्य निवास करते हैं, किन्नर, गन्धर्व और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते. हैं।। 9 ।। उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकारकी धातुओंसे रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं उसपर अनेक प्रकारके वृक्ष ला और गुल्मादि खाये हुए हैं, जिनमें झुंड के झुंड जंगली विचरते रहते हैं ॥ 10 ॥ वहाँ निर्मल जलके अनेकों झरने बहते है और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊंचे शिखरोंके कारण वह | पर्वत अपने प्रियतमोंके साथ विहार करती हुई सिद्धपनियोंका | क्रीडा-स्थल बना हुआ है ॥ 11 ॥ वह सब ओर मोरोंके शोर, मदान्ध भ्रमरोंके गुंजार, कोयलोंकी कुहू कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियोंके कलरवसे गूंज रहा है ॥ 12 ॥ उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियोंको हिला हिलाकर मनो पक्षियोंको बुलाते रहते हैं तथा हाथियोंके चलने-फिरनेके | कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनोंकी कलकल-ध्वनिसे बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है ॥ 13 ॥

मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुनके वृक्षोंसे वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है ॥ 14 ॥ आम, कदम्ब, नीप, नाग, पुन्नाग, चम्पा, गुलाब, अशोक, मौलसिरी, कुन्द, कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालतीकी मनोहर लताएँ तथा कुल्लक मोगरा और माधवीकी बेलें भी उसकी शोभा बढ़ाती | ।। 15-16 ।। कटहल, गूलर, पीपल, पाकर, बड़, गूगल, भोजवृक्ष, ओषध जातिके पेड़ (केले आदि, जो फल आनेके बाद काट दिये जाते हैं), सुपारी, राजपूग, जामुन, खजूर, आमड़ा, आम, पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न | प्रकारके वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँसके झुरमुटोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है ।। 17-18 ।। उसके सरोवरोंमें | कुमुद, उत्पल, कल्हार और शतपत्र आदि अनेक जातिके | कमल खिले रहते हैं। उनकी शोभासे मुग्ध होकर कलरव करते हुए झुंड के झुंड पक्षियोंसे वह बड़ा ही भला लगता है ॥ 19 ॥ वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन, वानर, सूअर, सिंह, रोछ, साही, नीलगाय, शरभ, बाघ, कृष्णमृग, भैसे, कर्णान्त्र, एकपट अश्वमुख, भेड़िये और कस्तूरी मृग घूमते रहते हैं तथा वहाँक सरोवरोंके तट केलोंकी पङ्क्तियोंसे घिरे होनेके कारणबड़ी शोभा पाते हैं। उसके चारों ओर नन्दा नामकी नदी बहती है, जिसका पवित्र जल देवी सतीके स्नान करनेसे और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो गया है। भगवान् भूतनाथके निवासस्थान उस कैलासपर्वतकी ऐसी रमणीयता देखकर देवताओंको बड़ा | आश्चर्य हुआ 20-22 ॥

वहाँ उन्होंने अलका नामकी एक सुरम्य पुरी और सौगन्धिक वन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलानेवाले सौगन्धिक नामके कमल खिले हुए थे ॥ 23 ॥ उस नगरके बाहरकी ओर नन्दा और अलकनन्दा नामकी दो नदियाँ हैं; वे तीर्थपाद श्रीहरिकी चरण-रजके संयोगसे अत्यन्त पवित्र हो गयी है ।। 24 विदुरजी उन नदियोंमें रतिविलाससे थकी हुई देवाङ्गनाएँ अपने-अपने निवासस्थानसे आकर जलक्रीडा करती हैं और उसमें प्रवेशकर अपने प्रियतमोंपर जल उलीचती हैं ॥ 25 ॥ स्नानके समय उनका तुरंतका लगाया हुआ कुचकुडुम घुल जानेसे जल पीला हो जाता है। उस कुममिश्रित जलको हाथी प्यास न होनेपर भी गन्धके लोभसे स्वयं पीते और अपनी हथिनियोंको पिलाते हैं।। 26 ।।

अलकापुरीपर चाँदी, सोने और बहुमूल्य मणियोंके सैकड़ों विमान छाये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपलियाँ निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी बिजली और बादलोंसे छाये हुए आकाशके समान जान पड़ती थी ॥ 27 ॥ यक्षराज कुबेरकी राजधानी उस अलकापुरीको पीछे छोड़कर देवगण सौगन्धिक बनमें आये वह वन रंग-बिरंगे फल, फूल और पत्तोंवाले अनेकों कल्पवृक्षोंसे सुशोभित था ॥ 28 ॥ उसमें कोकिल आदि पक्षियोंका कलरव और भौरोंका गुंजार हो रहा था तथा राजहंसोंके परमप्रिय कमलकुसुमोंसे सुशोभित अनेकों सरोवर थे ।। 29 ॥ वह वन जंगली हाथियोंके शरीरकी रगड़ लगनेसे घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षोंका स्पर्श करके चलनेवाली सुगन्धित वायुके द्वारा यक्षपत्त्रियोंके मनको विशेषरूपसे मथे डालता था ॥ 30 ॥ बावलियोंकी सीढ़ियाँ वैदूर्यमणिकी बनी हुई थीं। उनमें बहुत-से कमल खिले रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलानेके लिये आये हुए थे। इस प्रकार उस वनकी शोभा निहारते जब देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही एक वटवृक्ष दिखलायी दिया ॥ 31 ॥

वह वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा उसकी शाखाएँ पचहत्तर योजनतक फैली हुई थीं। उसके चारों ओर सर्वदा अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घामका कष्ट कभी नहीं होता था; तथा उसमें कोई घोंसला भी न था । 32 ॥उस महायोगमय और मुमुक्षुओंके आश्रयभूत | वृक्षके नीचे देवताओंने भगवान् शङ्करको विराजमान देखा। वे साक्षात् क्रोधहीन कालके समान जान पड़ते थे ॥ 33 ॥ भगवान् भूतनाथका श्रीअङ्ग बड़ा ही शान्त सनन्दनादि शान्त सिद्धगण और सखा-यक्ष-राक्षसोंके स्वामी कुबेर उनकी सेवा कर | रहे थे 34 ॥ जगत्पति महादेवजी सारे संसारके सुहृद् हैं, स्नेहवश सबका कल्याण करनेवाले हैं; वे लोकहित के लिये ही उपासना, चित्तकी एकाग्रता और समाधि आदि साधनोंका आचरण करते रहते | है ॥ 35 ॥ सन्ध्याकालीन मेयकी-सी कान्तिवाले शरीरपर वे तपस्वियोंके अभीष्ट चिह्न – भस्म, दण्ड, जटा और मृगचर्म एवं मस्तकपर चन्द्रकला धारण किये | हुए थे || 36 || वे एक कुशासनपर बैठे थे और अनेकों साधु श्रोताओंके बीचमें श्रीनारदजीके पूछनेसे सनातन ब्रह्मका उपदेश कर रहे थे ॥ 37 ॥ उनका बायाँ चरण दाय जोधपर रखा था। वे बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे, कलाईमें रुद्राक्षकी माला डाले तर्कमुद्रासे* | विराजमान थे 38 वे योगपट्ट (काठकी बनी हुई टेकनी) का सहारा लिये एकाग्र चित्तसे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। लोकपालोंके सहित समस्त मुनियोंने मननशीलोंमें सर्वश्रेष्ठ भगवान् शङ्करको हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ 39 ॥ यद्यपि समस्त देवता और दैत्योंके अधिपति भी श्रीमहादेवजीके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, तथापि वे श्रीमह्माजीको अपने स्थानपर आया देख तुरंत खड़े हो गये और जैसे | वामनावतारमें परमपूज्य विष्णुभगवान् कश्यपजीकी वन्दना करते हैं, उसी प्रकार सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ।। 40 ।। इसी प्रकार शङ्करजीके चारों ओर जो महर्षियोंसहित अन्यान्य सिद्धगण बैठे थे, उन्होंने भी ब्रह्माजीको प्रणाम किया। सबके नमस्कार कर चुकनेपर ब्रह्माजीने चन्द्रमौलि भगवान्से, जो अबतक प्रणामकी मुद्रामें ही खड़े थे, हँसते हुए कहा ।। 41 ।।श्रीब्रह्माजीने कहा- देव ! मैं जानता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत्के स्वामी है; क्योंकि विश्वकी योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष) से परे जो एकरस परब्रह्म है, वह आप ही हैं ॥ 42 ॥ भगवन् ! आप मकड़ीके समान ही अपने स्वरूपभूत शिव-शक्ति के रूपमें क्रीडा करते हुए लीलासे ही संसारकी रचना, पालन और संहार करते रहते हैं ।। 43 ।। आपने ही धर्म और अर्थकी प्राप्ति करानेवाले वेदको रक्षाके लिये दक्षको निमित्त बनाकर यज्ञको प्रकट किया है। आपकी ही बाँधी हुई ये वर्णाश्रमकी मर्यादाएँ हैं, जिनका नियमनिष्ठ ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं ।। 44 ।। मङ्गलमय महेश्वर! आप शुभ कर्म करनेवालोंको स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करनेवालोंको घोर नरकोंमें डालते हैं। फिर भी किसी-किसी व्यक्तिके लिये इन कर्मोंका फल उलटा कैसे हो जाता है ? ।। 45 ।।

जो महानुभाव आपके चरणोंमें अपनेको समर्पित कर देते हैं, जो समस्त प्राणियोंमें आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवोंको अभेददृष्टिसे आत्मामें ही | देखते हैं, वे पशुओंके समान प्रायः क्रोधके अधीन नहीं होते ॥ 46 ॥ जो लोग भेदबुद्धि होनेके कारण कर्मोंमें ही आसक्त हैं, जिनकी नीयत अच्छी नहीं है, दूसरोंकी उन्नति देखकर जिनका चित्त रात-दिन कुछ करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनोंसे दूसरोंका चित्त दुखाया करते हैं, आप जैसे महापुरुषोंके लिये उन्हें भी मारना उचित नहीं है; क्योंकि वे बेचारे तो विधाताके ही मारे हुए हैं 47 देवदेव भगवान् कमलनाभकी प्रबल मायासे मोहित हो जानेके कारण यदि किसी पुरुषकी कभी किसी स्थानमें भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु पुरुष अपने परदुःखकातर स्वभावके कारण उसपर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकनेका प्रयत्न नहीं करते ॥ 48 ॥ प्रभो! आप सर्वज्ञ हैं, परम पुरुष भगवान्‌की दुस्तर मायाने आपकी बुद्धिका स्पर्श भी नहीं किया है। अतः जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्गम आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाय, तो भी उनपर आपको कृपा ही करनी चाहिये ।। 49 ।।भगवन्! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञोंको पूर्ण करनेवाले हैं। यज्ञभाग पानेका भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञके बुद्धिहीन याजकोंने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसीसे यह आपके द्वारा | विध्वस्त हुआ। अब आप इस अपूर्ण यज्ञका पुनरुद्धार | करनेकी कृपा करें ॥ 50 ॥ प्रभो ! ऐसा कीजिये, जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवताको नेत्र मिल जायँ, भृगुजीके दाढ़ी-मूँछ आ जायँ और पूषाके पहलेके ही समान दाँत निकल आयें ॥ 51 ॥ रुद्रदेव ! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरोंकी बौछारसे जिन देवता और ऋत्विजोंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग घायल हो गये हैं, आपकी कृपासे वे फिर | ठीक हो जायँ ॥ 52 ॥ यज्ञ सम्पूर्ण होनेपर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक ! आज । यह यज्ञ आपके ही भागसे पूर्ण हो ॥ 53 ॥

अध्याय 7 दक्षयज्ञकी पूर्ति

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-महाबाहो विदुरजी ! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान् शङ्करने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा – सुनिये ॥ 1 ॥

श्रीमहादेवजीने कहा- ‘प्रजापते ! भगवान्‌की मायासे मोहित हुए दक्ष-जैसे नासमझोंके अपराधकी न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करनेके लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया ॥ 2 ॥ दक्षप्रजापतिका सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरेका सिर लगा दिया जाय; भगदेव मित्रदेवताके नेत्रोंसे अपना यज्ञभाग देखें || 3 || पूषा पिसा हुआ अन्न खानेवाले हैं, वे उसे यजमानके दाँतोंसे भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी स्वस्थ हो जायँ; क्योंकि उन्होंने यज्ञसे बचे हुए पदार्थोंको मेरा भाग निश्चित किया | है || 4 || अध्वर्यु आदि याज्ञिकॉमेंसे जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमारकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषाके हाथोंसे काम करें तथा भृगुजीके बकरेकी-सी दाढ़ी मूँछ हो जाय’ ॥ 5 ॥श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- वत्स विदुर ! तब भगवान् शङ्करके वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्तसे ‘धन्य ! धन्य !’ कहने लगे ॥ 6 ॥ फिर सभी देवता और ऋषियोंने महादेवजीसे दक्षकी यज्ञशालामें पधारनेकी प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्माजीको साथ लेकर वहाँ गये ॥ 7 ॥ वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शङ्करने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्षकी घड़से यज्ञपशुका सिर जोड़ दिया ॥ 8 ॥ सिर जुड़ जानेपर रुद्र-देवकी दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागनेके समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिवको | देखा ॥ 9 ॥ दक्षका शङ्करद्रोहकी कालिमासे कलुषित हृदय उनका दर्शन करनेसे शरत्कालीन सरोवरके समान स्वच्छ हो गया ॥ 10 ॥ उन्होंने महादेवजीकी स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सतीका स्मरण हो आनेसे स्नेह और उत्कण्ठाके कारण उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये। उनके मुखसे शब्द न निकल सका ॥ 11 ॥ प्रेमसे विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापतिने जैसे-तैसे अपने हृदयके | आवेगको रोककर विशुद्धभावसे भगवान् शिवकी स्तुति करनी आरम्भ की ॥ 12 ॥

दक्षने कहा- भगवन्! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदलेमें मुझे दण्डके द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो ! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्रके ब्राह्मणोंकी भी उपेक्षा नहीं करते – फिर हम जैसे यज्ञ-यागादि करनेवालोंको क्यों भूलेंगे ॥ 13 ॥ विभो ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्वकी रक्षाके लिये अपने मुखसे विद्या, तप और व्रतादिके धारण करनेवाले ब्राह्मणोंको उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणोंकी सब विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं ॥ 14 ॥ मैं आपके तत्त्वत्को नहीं जानता था, इसीसे मैंने भरी सभामें आपको अपने वाग्बाणोंसे बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराधका कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप जैसे पूज्यतम महानुभावोंका अपराध करनेके कारण नरकादि नीच लोकोंमें गिरनेवाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टिसे मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करनेयोग्य मुझमें कोई गुण नहीं है; बस, आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्तावसे मुझपर प्रसन्न हों ॥ 15 ॥श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- आशुतोष शङ्करसे इस प्रकार

अपना अपराध क्षमा कराकर दक्षने ब्रह्माजीके कहनेपर उपाध्याय, आदिको सहायता यज्ञकार्य आरम्भ किया ॥ 16 ॥ तब ब्राह्मणोंने यह सम्पन्न करनेके उद्देश्यसे रुद्रगण सम्बन्धी भूत-पिशाचके संसर्गजनित दोषकी शान्तिके लिये तीन पात्रों विष्णुभगवान् के लिये तैयार किये हुए पुरोडाश नामक चरुका हवन किया ॥ 17 ॥ विदुरजी ! उस हविको हाथमें लेकर खड़े हुए अध्वर्युके साथ यजमान दक्षने ज्यों ही विशुद्ध चित्तसे श्रीहरिका ध्यान किया, त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये ॥ 18 ॥ ‘बृहद’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, उन गरुडजीके द्वारा समीप लाये हुए भगवान्ने दसों दिशाओंको प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्तिसे सब देवताओंका तेज हर लिया- उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी ॥ 19 ॥ उनका श्याम वर्ण था, कमरमें सुवर्णकी करधनी तथा पीताम्बर सुशोभित थे। सिरपर सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौरोके समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलोंसे शोभायमान था, उनके सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तोकी रक्षाके लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओंमें वे शङ्ख, पद्म, चक्र, बाण, धनुष, गदा, खड्ग और ढाल लिये हुए थे तथा इन सब आयुधोंके कारण वे फूले हुए कनेरके वृक्षके समान जान पड़ते थे ॥ 20 ॥ प्रभुके हृदय में श्रीवत्सका चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे अपने उदार हास और लीलामय कटाक्षसे सारे संसारको आनन्दमन कर रहे थे। पार्षदगण दोनों ओर राजहंसके समान सफेद पंखे और चैवर डुला रहे थे। भगवान्के मस्तकपर चन्द्रमाके समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था ॥ 21 ॥

भगवान् पधारे है यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेवजी आदि देवेश्वरों सहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदिने सहसा खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ॥ 22 ॥ उनके तेजसे सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी, जिला लड़खड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये और मस्तकपर अञ्जलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये 23 यद्यपि भगवानकी महिमातक ब्रह्मा आदिकी मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये दिव्यरूपमें | प्रकट हुए श्रीहरिकी वे अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार स्तुति करने लगे 24 सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्रमें पूजाको सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदोंसे घिरे हुए, प्रजापतियोंके परम गुरु भगवान् यज्ञेश्वर के पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभाव । हाथ जोड़कर प्रार्थना करते प्रभुके शरणापन्न हुए ॥ 25 ॥दक्षने कहा – भगवन् ! अपने स्वरूपमें आप बुद्धिकी जाप्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंसे रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित, अतएव निर्भय हैं। आप मायाका तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूपसे विराजमान है, तथापि जब मायासे ही जीवभावको स्वीकारकर उसी मायामें स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी से दीखने लगते हैं ॥ 26 ॥

ऋत्विजोंने कहा- उपाधिरहित प्रभो! भगवान् रुद्रके प्रधान अनुचर नन्दीश्वर के शापके कारण हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्डमें ही फंसी हुई है, अतएव हम आपके तत्वको नहीं | जानते। जिसके लिये ‘इस कर्मका यहाँ देवता है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है उस धर्मप्रवृत्ति प्रयोजक, वेदत्रयीसे प्रतिपादित यज्ञको ही हम आपका स्वरूप समझते हैं ॥ 27 ॥

सदस्योंने कहा- जीवोंको आश्रय देनेवाले प्रभो। जो अनेक प्रकारके क्लेशोंके कारण अत्यन्त दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताकमें बैठा हुआ है, द्वन्द्वरूप अनेकों गढ़े हैं, जंगली जीवोंका भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है ऐसे, विश्राम स्थलसे रहित संसारमार्गमें जो अज्ञानी जीव कामनाओंसे पीड़ित होकर विषयरूप मृगतृष्णा जलके लिये ही देह-गेहका भारी बोझा सिरपर लिये जा रहे हैं. वे भला आपके चरणकमलोकी शरणमें कब आने लगे ॥ 28 ॥

रुद्रने कहा- वरदायक प्रभो! आपके उत्तम चरण इस संसारमें सकाम पुरुषोंको सम्पूर्ण पुरुषार्थोकी प्राप्ति करानेवाले हैं; और जिन्हें किसी भी वस्तुकी कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहनेके कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचार भ्रष्ट कहते हैं, वे कहें, आपके परम अनुग्रहसे मैं उनके कहने-सुननेका कोई विचार नहीं करता ।। 29 ।।

भृगुजीने कहा- आपकी गहन मायासे आत्मज्ञान म हो जानेके कारण जो अज्ञान-निद्रामें सोये हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञानमें उपयोगी आपके तत्त्वको अभीतक नहीं जान सके ऐसे होनेपर भी आप अपने शरणागत भक्तोंके तो आत्मा और सुहृद् हैं; अतः आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ 30 ॥

ब्रह्माजीने कहा – प्रभो! पृथक्-पृथक् पदार्थोंको जाननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा पुरुष जो कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है, क्योंकि आप ज्ञान शब्दादि विषय और श्रोत्रादि इन्द्रियोंकि अधिष्ठान है— ये सब आपमें अध्यस्त है। अतएव | आप इस मायामय प्रपञ्चसे सर्वथा अलग है ।। 31 ।।इन्द्रने कहा— अच्युत ! आपका यह जगत्‌को प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहियोंका संहार करनेवाली आठ भुजाओंसे सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना प्रकारके आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रोंको परम आनन्द देनेवाला है ।। 32 ।

याज्ञिकोंकी पत्नियोंने कहा— भगवन् ! ब्रह्माजीने आपके पूजनके लिये ही इस यज्ञकी रचना की थी; परन्तु दक्षपर कुपित होनेके कारण इसे भगवान् पशुपतिने अब नष्ट कर दिया है। यज्ञमूर्ते ! श्मशानभूमिके समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञको आप नील कमलकी-सी कान्तिवाले अपने नेत्रोंसे निहारकर पवित्र कीजिये ।। 33 ।।

ऋषियोंने कहा- भगवन्! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभवकी भूखसे जिन | लक्ष्मीजीकी उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवामें लगी रहती है; तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे | निःस्पृह रहते हैं ।। 34 ।।

सिद्धोंने कहा प्रभो! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकारके फ्रेशरूप दावानलसे दग्ध एवं अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथारूप विशुद्ध अमृतमयी सरितामें घुसकर गोता लगाये बैठा है। यहां ब्रह्मानन्दमें लीन-सा हो जानेके कारण उसे न तो संसाररूप दावानलका ही स्मरण है और न वह उस नदीसे बाहर ही निकलता है ॥ 35 ॥

यजमानपत्त्रीने कहा— सर्वसमर्थ परमेश्वर ! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप मुझपर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते! अपनी प्रिया लक्ष्मीजीके सहित आप हमारी रक्षा कीजिये। यज्ञेश्वर ! जिस प्रकार सिरके बिना मनुष्यका धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अङ्गोसे पूर्ण होनेपर भी आपके बिना यज्ञकी शोभा नहीं होती ।। 36 ।।

लोकपालोंने कहा -अनन्त परमात्मन्! आप – | समस्त अन्तःकरणोंके साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थोंको ग्रहण करनेवाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियोंसे कभी आप प्रत्यक्ष हो सके है ? वस्तुतः आप है तो पञ्चभूतोंसे पृथ फिर भी पाचभौतिक शरीरो के साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह आपकी माया ही है ।। 37 ।।योगेश्वरोंने कहा— प्रभो! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्वके आता आपमें और अपनेमें कोई भेद नहीं देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल ! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्तिसे आपकी सेवा करते हैं, उनपर भी आप कृपा कीजिये ॥ 38 ॥ जीवोंके अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणोंमें बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी मायाके द्वारा जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी स्वरूप स्थितिसे आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणोंसे सर्वथा दूर हैं। ऐसे आपको हमारा नमस्कार है ॥ 39 ॥

ब्रह्मस्वरूप वेदने कहा- आप ही धर्मादिकी उत्पत्तिके लिये शुद्ध सत्यको स्वीकार करते हैं, साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और न ब्रह्मादि कोई और ही जानते है; आपको नमस्कार है ॥ 40 ll

अनिदेवने कहा- भगवन्! आपके ही तेजसे प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञोंमें देवताओंके पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञकी रक्षा करनेवाले हैं। अग्रिहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और पशु-सोम-ये पाँच प्रकारके यज्ञ आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, ‘अस्तु श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’- इन पाँच प्रकारके यजुर्मन्त्रोंसे आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ 41 ॥

देवताओंने कहा- देव ! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्पका अन्त होनेपर अपने कार्यरूप इस प्रपक्षको उदरमें लीनकर आपने ही प्रलयकालीन जलके भीतर शेषनागकी उत्तम शय्यापर शयन किया था। आपके आध्यात्मिक स्वरूपका जनलोकादिवासी सिद्वगण भी अपने हृदयमें चिन्तन करते हैं। अहो! वही आप आज हमारे नेत्रोंके विषय होकर अपने भक्तोंकी रक्षा कर रहे हैं ॥। 42 ।।

गन्धर्वोने कहा -देव! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्रादि देवतागण आपके अंशके भी अंश है। महत्तम ! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेलकी सामग्री है। नाथ ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं ।। 43 ।।विद्याधरोंने कहा—प्रभो! परम पुरुषार्थकी | प्राप्तिके साधनरूप इस मानवदेहको पाकर भी जीव | आपकी मायासे मोहित होकर इसमें मैं मेरेपनका अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि अपने आत्मीयोंसे तिरस्कृत होनेपर भी असत् विषयोंकी ही लालसा करता रहता है। किन्तु ऐसी अवस्थामें भी जो आपके कथामृतका सेव करता है, वह इस अन्तःकरणके मोहको सर्वथा त्याग देता है ।। 44 ।।

ब्राह्मणोंने कहा- -भगवन्! आप ही यज्ञ हैं, आप – ही हवि हैं, आप ही अग्नि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य, ऋत्विज, यजमान एवं उसकी धर्मपत्री, देवता, अग्रिहोत्र, स्वधा, सोमरस, भूत और पशु हैं 45 ॥ वेदमूर्ते यश ॥ ॥ ! यज्ञ और उसका सङ्कल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकालमें आप ही अति विशाल वराहरूप धारणकर रसातलमें डूबी हुई पृथ्वीको लीलासे ही अपनी दादोंपर उठाकर इस प्रकार निकाल लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनीको उठा लाये। उस समय आप धीरे-धीरे गरज रहे थे और | योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते जाते थे । 46 ॥ यज्ञेश्वर ! जब लोग आपके नामका कीर्तन करते हैं, तब यज्ञके सारे विन नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट हो गया था, अतः हम आपके दर्शनोंकी इच्छा कर रहे थे। अब आप हमपर प्रसन्न होइये आपको नमस्कार है ।। 47 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते है- भैया विदुर जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान् हृषीकेशकी स्तुति करने लगे, तब परम चतुर दक्षने रुद्रपार्षद वीरभद्रके ध्वंस किये | हुए यज्ञको फिर आरम्भ कर दिया ॥ 48 ॥ सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभीके भागोंके भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल- पुरोडाशरूप अपने भागसे और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्षको सम्बोधन करके कहा ।। 49 ।।

श्रीभगवान्ने कहा—जगत्का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ, मैं सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयम्प्रकाश और उपाधिशून्य हूँ ॥ 50 ॥ विप्रवर। अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही जगत्की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन कर्मकि अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर | नाम धारण किये हैं॥ 51 ॥ ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं हूँ, उसीमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र तथा अन्य समस्त जीवोंको विभिन्न | रूपसे देखता है ॥ 52 ॥ जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर, हाथ आदि अङ्ग मुझसे भिन्न है’ ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा भक्त प्राणिमात्रको मुझसे भिन्न नहीं देखता ॥ 53 ॥ ब्रह्मन् ! हम — ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर – तीनों स्वरूपतः एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप है, अतः जो हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ।। 54 ।।

श्रीमैत्रेपनी कहते हैं- भगवान् के इस प्रकार आज्ञा देनेपर प्रजापतियोंके नायक दक्षने उनका त्रिकपाल-यज्ञके द्वारा पूजन करके फिर अङ्गभूत और प्रधान दोनों प्रकारके यज्ञोंसे अन्य सब देवताओंका अर्चन किया ।। 55 ।। फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शङ्करका यज्ञशेषरूप उनके भागसे यजन किया तथा समाप्तिमें किये जानेवाले उदवसान नामक कर्मसे अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओंका यजन कर यज्ञका उपसंहार किया और अन्तमें अविजेोंकि सहित | अवभृथ स्नान किया ।। 56 ।। फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थसे ही सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्षप्रजापतिको ‘तुम्हारी सदा धर्ममे बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर सब देवता स्वर्गलोकको चले गये ।। 57 ।।

विदुरजी सुना है कि दक्षसुता सतीजीने इस प्रकार अपना पूर्वशरीर त्यागकर फिर हिमालयकी पत्नी मेनाके गर्भसे जन्म लिया था ॥ 58 ॥ जिस प्रकार प्रलयकालमें लीन हुई शक्ति सृष्टिके आरम्भ में फिर ईश्वरका ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार अनन्यपरायणा श्री अम्बिकाजीने उस जन्ममे भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान् शङ्करको ही वरण किया ।। 59 ।। विदुरजी ! दक्ष यज्ञका विध्वंस करनेवाले भगवान् शिवका यह चरित्र मैंने बृहस्पतिजीके शिष्य परम भागवत उद्धवजीके मुखसे सुना था ॥ 60 ॥ कुरुनन्दन ! श्रीमहादेवजीका यह पावन चरित्र यश और आयुको बढ़ाने वाला तथा पापपुञ्जको नष्ट करनेवाला है। जो पुरुष भक्तिभावसे इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है, वह अपनी पापराशिका नाश कर देता है ।। 69 ।।

अध्याय 8 ध्रुवका वन-गमन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— शत्रुसूदन विदुरजी सनकादि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति ब्रह्माजीके इन नैष्ठिक ब्रह्मचारी पुत्रोंने गृहस्थाश्रममें प्रवेश नहीं किया (अतः उनके कोई सन्तान नहीं हुई)। अधर्म भी ब्रह्माजीका ही पुत्र था, उसकी पत्नीका नाम था मृषा । उसके दम्भ नामक पुत्र और माया नामकी कन्या हुई उन दोनोंको निर्ऋति ले गया, क्योंकि उसके कोई सन्तान न थी ॥ 1-2 ॥ दम्भ और मायासे लोभ और निकृति (शठता) का जन्म हुआ, उनसे क्रोध और हिंसा तथा उनसे कलि (कलह) और उसकी बहिन दुरुक्ति (गाली) उत्पन्न हुए || 3 || साधुशिरोमणे ! फिर दुरुक्तिसे कलिने भय और मृत्युको उत्पन्न किया तथा उन दोनों के संयोगसे यातना और निरय (नरक) का जोड़ा उत्पन्न हुआ ॥ 4 ॥ निष्पाप विदुरजी ! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें प्रलयका कारणरूप यह अधर्मका वंश सुनाया। यह अधर्मका त्याग कराकर पुण्य-सम्पादनमें हेतु बनता है; अतएव इसका वर्णन तीन बार सुनकर मनुष्य अपने मनकी मलिनता दूर कर | देता है ॥ 5 ॥ कुरुनन्दन ! अब मैं श्रीहरिके अंश (ब्रह्माजी) के अंशसे उत्पन्न हुए पवित्रकीर्ति महाराज स्वायम्भुव मनुके पुत्रोंके वंशका वर्णन करता हूँ ॥ 6 ॥

महारानी शतरूपा और उनके पति स्वायम्भुव मनुसे प्रियव्रत और उत्तानपाद – ये दो पुत्र हुए। भगवान् वासुदेवकी कलासे उत्पन्न होनेके कारण ये दोनों संसारकी रक्षामें तत्पर रहते थे ॥ 7 ॥ उत्तानपादके सुनीति और सुरुचि नामकी दो पत्त्रियाँ थीं। उनमें सुरुचि राजाको अधिक प्रिय थी सुनीति, जिसका पुत्र ध्रुव था, उन्हें वैसी प्रिय नहीं थी ॥ 8 ॥

एक दिन राजा उत्तानपाद सुरुचिके पुत्र उत्तमको गोदमें बिठाकर प्यार कर रहे थे। उसी समय धुवने भी गोदमें बैठना चाहा, परन्तु राजाने उसका स्वागत नहीं किया । 9 । उस समय धमण्डसे भरी हुई सुरुचिने अपनी सौतके पुत्र ध्रुवको महाराजकी गोदमें आनेका यत्न करते देख उनके सामने ही उससे डाहभरे शब्दोंमें कहा ॥ 10 ॥ ‘बच्चे तू राजसिंहासनपर बैठनेका अधिकारी नहीं है। तू भी राजाका ही बेटा है, इससे क्या हुआ; तुझको मैंने तो अपनी कोख में नहीं धारण किया 11 ॥तू अभी नादान है, तुझे पता नहीं है कि तूने किसी दूसरी स्त्रीके गर्भ से जन्म लिया है तभी तो ऐसे दुर्लभ विषयकी इच्छा कर रहा है ॥ 12 ॥ यदि तुझे राजसिंहासनकी इच्छा है तो तपस्या करके परम पुरुष श्रीनारायणकी आराधना कर और उनकी कृपासे मेरे गर्भमें आकर जन्म ले’ ।। 13 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते है-विदुरजी जिस प्रकार | डंडेकी चोट खाकर साँप फुंफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँके कठोर वचनोंसे घायल होकर ध्रुव क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँहसे एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिताको छोड़कर ध्रुव रोता हुआ अपनी माताके पास आया ।। 14 ।। उसके दोनों होठ फड़क रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीतिने बेटेको गोदमें उठा लिया और जब महलके दूसरे लोगोंसे अपनी सौत सुरुचिकी कही हुई बातें सुनी, तब उसे भी बड़ा दुःख हुआ ॥ 15 ॥ | उसका धीरज टूट गया। वह दावानलसे जली हुई बेलके समान शोकसे सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौतकी बातें याद आनेसे उसके कमल सरीखे नेत्रोंमें आँसू भर आये ।। 16 ।। उस बेचारीको अपने दुःखपारावारका कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुवसे कहा, ‘बेटा! तू दूसरोंके लिये किसी प्रकारके अमङ्गलकी कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरोंको दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है ॥ 17 ॥ सुरुचिने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराजको मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करनेमें भी लज्जा आती है तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूधसे तू पला है ।। 18 ।। बेटा ! सुरुचिने तेरी सौतेली माँ होनेपर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तमके समान राजसिंहासनपर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसीका पालन श्री अधोक्षजभगवान के चरणकमलोकी कर। बस, श्री अधोक्षजभगवान्के आराधनामें लग जा ।। 19 ।।संसारका पालन करनेके लिये सत्त्वगुणको अङ्गीकार करनेवाले उन श्रीहरिके चरणोंकी आराधना करनेसे ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजीको वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणोंको जीतनेवाले मुनियोंके द्वारा भी वन्दनीय है ॥ 20 ॥ इसी प्रकार तेरे दादा स्वायम्भुव मनुने भी बड़ी बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा अनन्यभावसे उन्हीं भगवान्‌की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरोंके लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुखकी प्राप्ति हुई ॥ 21 ॥ ‘बेटा! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान्‌का ही आश्रय ले । जन्म-मृत्युके चक्रसे छूटनेकी इच्छा करनेवाले मुमुक्षुलोग निरन्तर उन्होंके चरणकमलोंके मार्गकी खोज | किया करते हैं। तू स्वधर्मपालनसे पवित्र हुए अपने चित्तमें श्रीपुरुषोत्तमभगवान्‌को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हींका भजन कर ॥ 22 ॥ बेटा ! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरिको छोड़कर मुझे तो तेरे दुःखको दूर करनेवाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मीजी भी दीपककी भाँति हाथमें कमल लिये निरन्तर उन्हीं श्रीहरिकी खोज किया करती हैं’ ॥ 23 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—माता सुनीतिने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिका मार्ग दिखलानेवाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुवने बुद्धिद्वारा अपने चित्तका समाधान किया। इसके बाद वे पिताके नगरसे निकल पड़े ॥ 24 ॥ यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बातको जानकर नारदजी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुवके | मस्तकपर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही मन विस्मित होकर कहा ॥ 25 ॥ ‘अहो ! क्षत्रियोंका कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान भङ्ग नहीं सह सकते। | देखो, अभी तो यह नन्हा सा बच्चा है; तो भी इसके हृदयमें सौतेली माताके कटु वचन घर कर गये हैं’ ॥ 26 ॥

तत्पश्चात् नारदजीने ध्रुवसे कहा- बेटा अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूदमें ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बातसे तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है ।। 27 ॥ यदि तुझे मानापमानका विचार ही हो, तो बेटा! असलमें मनुष्यके असन्तोषका कारण मोहके सिवा और कुछ नहीं है। संसारमें मनुष्य अपने कर्मानुसार ही मान-अपमान या सुख-दुःख आदिको प्राप्त होता है ॥ 28 ॥तात ! भगवान्‌की गति बड़ी विचित्र है। इसलिये उसपर विचार करके बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि दैववश उसे जैसी भी परिस्थितिका सामना करना पड़े, उसीमें सन्तुष्ट रहे ॥ 29 ॥ अब, माताके उपदेशसे तू योगसाधनद्वारा जिन भगवान्‌की कृपा प्राप्त करने चला है— मेरे विचारसे साधारण पुरुषोंके लिये उन्हें प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है ॥ 30 ॥ योगीलोग अनेकों जन्मोंतक अनासक्त रहकर समाधियोगके द्वारा बड़ी-बड़ी | कठोर साधनाएँ करते रहते हैं, परन्तु भगवान्‌के मार्गका पता नहीं पाते ।। 31 ।। इसलिये तू यह व्यर्थका हठ छोड़ तू दे और घर लौट जा; बड़ा होनेपर जब परमार्थ-साधनका समय आवे, तब उसके लिये प्रयत्न कर लेना ॥ 32 ॥ विधाताके विधानके अनुसार दुःख जो कुछ भी प्राप्त सुख-दुःख हो, उसीमें चित्तको सन्तुष्ट रखना चाहिये। यों करनेवाला | पुरुष मोहमब संसारसे पार हो जाता है ॥ 33 ॥ मनुष्यको चाहिये कि अपनेसे अधिक गुणवान्‌को देखकर प्रसन्न हो; जो कम गुणवाला हो, उसपर दया करे और जो अपने समान गुणवाला हो, उससे मित्रताका भाव रखे। यों करनेसे उसे दुःख कभी नहीं दबा सकते ।। 34 ।।

धुवने कहा- भगवन् सुख-दुःखसे जिनका | चित्त चञ्चल हो जाता है, उन लोगोंके लिये आपने कृपा करके शान्तिका यह बहुत अच्छा उपाय बतलाया परन्तु मुझ जैसे अज्ञानियोंकी दृष्टि यहाँतक नहीं पहुँच पाती ॥ 35 ॥ इसके सिवा, मुझे घोर क्षत्रियस्वभाव प्राप्त हुआ है, अतएव मुझमें विनयका प्रायः अभाव है; सुरुचिने अपने कटुवचनरूपी बाणोंसे मेरे हृदयको विदीर्ण | कर डाला है; इसलिये उसमें आपका यह उपदेश नहीं ठहर पाता ।। 36 ।। ब्रह्मन् ! मैं उस पदपर अधिकार करना चाहता हूँ, जो त्रिलोकीमें सबसे श्रेष्ठ है तथा जिसपर मेरे बाप-दादे और दूसरे कोई भी आरूढ़ नहीं हो सके हैं। आप मुझे उसीकी प्राप्तिका कोई अच्छा-सा मार्ग बतलाइये ॥ 37 ॥ आप भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र हैं और संसारके कल्याणके लिये ही वीणा बजाते सूर्यकी भांति त्रिलोकीमें विचरा करते हैं ॥ 38 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-धुक्की बात सुनकर भगवान् नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और उसपर कृपा करके इस प्रकार सदुपदेश देने लगे ।। 39 ।।श्रीनारदजीने कहा- बेटा । तेरी माता सुनीतिने तुझे जी कुछ बताया है, वही तेरे लिये परम कल्याणका मार्ग है। भगवान् वासुदेव ही वह उपाय हैं, इसलिये तू चित लगाकर | उन्हींका भजन कर ।। 40 ।। जिस पुरुषको अपने लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थकी अभिलाषा हो, उसके लिये उनकी प्राप्तिका उपाय एकमात्र श्रीहरिके चरणोंका सेवन ही है ॥ 41 ॥ बेटा ! तेरा कल्याण होगा, अब तू श्रीयमुनाजीके तटवर्ती परम पवित्र मधुवनको जा। वहाँ श्रीहरिका नित्य-निवास है ।। 42 ।। वहाँ श्रीकालिन्दीके निर्मल जलमें तीनों समय स्नान करके नित्यकर्मसे निवृत्त हो यथाविधि आसन | बिछाकर स्थिरभावसे बैठना ।। 43 ।। फिर रेचक, पूरक और कुम्भक-तीन प्रकारके प्राणायामसे धीरे-धीरे प्राण, मन और | इन्द्रियके दोषोंको दूरकर धैर्ययुक्त मनसे परमगुरु श्रीभगवान्‌का इस प्रकार ध्यान करना ।। 44 ।।

भगवान्‌के नेत्र और मुख निरन्तर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें | देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि वे प्रसन्नतापूर्वक भक्तको वर | देनेके लिये उद्यत हैं। उनकी नासिका, भौंहें और कपोल बड़े ही सुहावने हैं; वे सभी देवताओंमें परम सुन्दर हैं ।। 45 ।। उनकी तरुण अवस्था है; सभी अङ्ग बड़े सुडौल हैं; लाल-लाल होठ और रतनारे नेत्र हैं। वे प्रणतजनोंको आश्रय देनेवाले, अपार सुखदायक, शरणागतवत्सल और दयाके समुद्र हैं ॥ 46 ॥ उनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न है; उनका शरीर सजल | जलधरके समान श्यामवर्ण है; वे परम पुरुष श्यामसुन्दर गलेमें वनमाला धारण किये हुए हैं और उनकी चार भुजाओं में शङ्ख, चक्र, गदा एवं पद्म सुशोभित हैं ।। 47 ।। उनके अङ्ग-प्रत्यङ्ग किरीट, कुण्डल, केयूर और कङ्कणादि आभूषणोंसे विभूषित हैं; गला कौस्तुभमणिकी भी शोभा बढ़ा रहा है तथा शरीरमें रेशमी पीताम्बर है ।। 48 ।। उनके कटिप्रदेशमें काञ्चनकी करधनी और चरणोंमें सुवर्णमय नूपुर (पैजनी) सुशोभित हैं। भगवान्का स्वरूप बड़ा ही दर्शनीय, शान्त तथा मन और नयनोंको | आनन्दित करनेवाला है ।। 49 ।। जो लोग प्रभुका मानस पूजन करते हैं, उनके अन्तःकरणमें वे हृदयकमलकी कर्णिकापर अपने नख मणिमण्डित मनोहर पादारविन्दोंको स्थापित करके | विराजते हैं ॥ 50 ॥ इस प्रकार धारणा करते-करते जब चित्त स्थिर और एकाग्र हो जाय, तब उन वरदायक प्रभुका मन-ही-मन इस प्रकार ध्यान करे कि वे मेरी ओर अनुरागभरी दृष्टिसे निहारते हुए मन्द मन्द मुसकरा रहे हैं ।। 51 ।।भगवानको मङ्गलमयी मूर्तिका इस प्रकार निरन्तर ध्यान करनेसे मन शीघ्र ही परमानन्दमें डूबकर तल्लीन हो जाता है और फिर वहांसे लौटता नहीं ।। 52 ।।

राजकुमार ! इस ध्यानके साथ जिस परम गुह्य मन्त्रका जप करना चाहिये, वह भी बतलाता हूँ-सुन इसका सात रात जप करने से मनुष्य आकाशमें विचरनेवाले सिद्धोंका दर्शन कर सकता है ।। 53 ।। वह मन्त्र है- ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ किस देश और किस कालमें कौन वस्तु उपयोगी है इसका विचार करके बुद्धिमान पुरुषको इस मलके द्वारा तरह-तरह की सामग्रियोंसे भगवान्‌को द्रव्यमयी पूजा करनी चाहिये ॥ 54 ॥ प्रभुका पूजन विशुद्ध जल, पुष्पमाला, जंगली | मूल और फलादि, पूजामें विहित दूर्वादि अङ्कुर वनमें ही प्राप्त होनेवाले वल्कल वस्त्र और उनकी प्रेयसी तुलसीसे करना चाहिये ॥ 55 ॥ यदि शिला आदिको मूर्ति मिल सके तो उसमें, नहीं तो पृथ्वी या जल आदिमें ही भगवान्‌की पूजा करे। सर्वदा संवतचित्त, मननशील, शान्त और मौन रहे तथा जंगली फलमूलादिका परिमित आहार करें ॥ 56 ॥ इसके सिवा पुण्यकीर्ति श्रीहरि अपनी अनिर्वचनीया मायाके द्वारा अपनी ही इच्छासे अवतार लेकर जो जो मनोहर चरित्र करनेवाले हैं, उनका मन-ही-मन चिन्तन करता रहे ।। 57 ॥ प्रभुकी पूजाके लिये जिन-जिन उपचारोंका विधान किया गया है, उन्हें मन्त्रमूर्ति श्रीहरिको द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा ही अर्पण करे ।। 58 ।।

इस प्रकार जब हृदयस्थित हरिका मन, वाणी और शरीरसे भक्तिपूर्वक पूजन किया जाता है, तब वे निश्चलभावसे भलीभाँति भजन करनेवाले अपने भक्तोंके भावको बढ़ा देते हैं और उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्षरूप कल्याण प्रदान करते हैं ।। 59-60 ।। यदि उपासकको इन्द्रियसम्बन्धी भोगोंसे वैराग्य हो गया हो, तो वह मोक्षप्राप्तिके लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक अविच्छिन्नभावसे भगवान्का भजन करे ।। 61 ।।

श्रीनारदजीसे इस प्रकार उपदेश पाकर राजकुमार धुवने परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर उन्होंने भगवान्के चरणचिह्नोंसे अङ्कित परम पवित्र मधुवनकी यात्रा की ।। 62 ।। ध्रुवके तपोवनकी ओर चले जानेपर नारदजी महाराज उत्तानपादके महल पहुँचे। राजाने उनकी यथायोग्य उपचारोंसे पूजा की; तब उन्होंने आरामसे आसनपर बैठकर | राजासे पूछा ।। 63 ।।श्रीनारदजीने कहा- राजन्! तुम्हारा मुख सूखा है, तुम बड़ी देरसे किस सोच-विचारमें पड़े हो हुआ तुम्हारे धर्म, अर्थ और काममेंसे किसीमें कोई कमी तो नहीं आ गयी ? ॥ 64 ॥

राजाने कहा- ब्रह्मन् ! मैं बड़ा ही स्त्रैण और निर्दय हूँ। हाय, मैने अपने पाँच वर्षके नन्हेसे बच्चेको उसकी माताके साथ घरसे निकाल दिया। मुनिवर ! वह बड़ा ही बुद्धिमान् था ॥ 65 ॥ उसका कमल-सा मुख भूखसे कुम्हला गया होगा, वह थककर कहीं रास्तेमें पड़ गया होगा। ब्रह्मन् ! उस असहाय बच्चेको वनमें कहीं भेड़िये न खा जायँ ॥ 66 ॥ अहो ! मैं कैसा स्त्रीका गुलाम हूँ मेरी कुटिलता तो देखिये- वह ! बालक प्रेमवश मेरी गोदमें चढ़ना चाहता था, किन्तु मुझ दुष्टने उसका तनिक भी आदर नहीं किया ॥ 67 ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! तुम अपने बालककी चिन्ता मत करो उसके रक्षक भगवान् हैं | तुम्हें उसके प्रभावका पता नहीं है, उसका यश सारे जगत्‌में फैल रहा है ।। 68 ।। वह बालक बड़ा समर्थ है। जिस कामको बड़े-बड़े लोकपाल भी नहीं कर सके, उसे पूरा करके वह शीघ्र ही तुम्हारे पास लौट आयेगा। उसके कारण तुम्हारा यश भी बहुत बढ़ेगा ।। 69 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— देवर्षि नारदजीकी बात सुनकर महाराज उत्तानपाद राजपाटकी ओरसे उदासीन होकर निरन्तर पुत्रकी ही चिन्तामें रहने लगे ॥ 70 ॥ इधर ध्रुवजीने मधुवनमें पहुँचकर यमुनाजीमें खान किया और उस रात पवित्रतापूर्वक उपवास करके श्रीनारदजी के उपदेशानुसार एकाग्रचित्तसे परमपुरुष श्रीनारायणकी उपासना आरम्भ कर दी ।। 71 । उन्होंने तीन-तीन रात्रिके अन्तरसे शरीरनिर्वाहके लिये केवल कैथ और बेरके फल खाकर श्रीहरिकी उपासना करते हुए एक मास व्यतीत किया ॥ 72 ॥ दूसरे महोनेमें उन्होंने छः-छः दिनके पीछे सूखे भास और | पत्ते खाकर भगवान्‌का भजन किया ॥ 73 ॥तीसरा महीना नौ-नौ दिनपर केवल जल पीकर समाधियोगके द्वारा श्रीहरिकी आराधना करते हुए बिताया ॥ 74 ॥ चौथे महीनेमें उन्होंने श्वासको जीतकर बारह-बारह दिनके बाद केवल वायु पीकर ध्यानयोगद्वारा भगवान्‌को आराधना की ।। 75 । पाँचवाँ मास लगनेपर राजकुमार ध्रुव श्वासको जीतकर परब्रहाका चिन्तन करते हुए एक पैरसे खंभेके समान निश्चल भावसे खड़े हो गये ।। 76 ।। उस समय उन्होंने शब्दादि विषय और इन्द्रियोंके नियामक अपने मनको सब ओरसे खींच लिया तथा हृदयस्थित हरिके स्वरूपका चिन्तन करते हुए चितको किसी दूसरी ओर न जाने दिया ॥ 77 ॥ जिस समय उन्होंने महदादि सम्पूर्ण तत्वोंके आधार तथा प्रकृति और पुरुषके भी अधीश्वर परब्रह्मकी धारणा की, उस समय (उनके तेजको न सह सकनेके कारण) तीनों लोक काँप उठे ॥ 78 ॥ जब राजकुमार ध्रुव एक पैरसे खड़े हुए, तब उनके अंगूठे से दबकर आधी पृथ्वी इस प्रकार झुक गयी, जैसे किसी गजराजके चढ़ जानेपर नाव पद-पदपर दायीं बायीं ओर डगमगाने लगती है ।। 79 ।। धुवजी अपने इन्द्रियद्वार तथा प्राणोंको रोककर अनन्यबुद्धिसे विश्वात्मा श्रीहरिका ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राणसे अभिन्नता हो जानेके कारण सभी जीवोंका श्वासप्रश्वास रुक गया। इससे समस्त लोक और लोकपालोंको बड़ी पीड़ा हुई और वे सब घबराकर श्रीहरिकी शरणमें गये ll 80 ll

देवताओंने कहा- भगवन्! समस्त स्थावरजङ्गम जीवोंके शरीरोंका त्राण एक साथ ही रुक गया है ऐसा तो हमने पहले कभी अनुभव नहीं किया। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं, अपनी शरणमें आये हुए हमलोगोंको इस दुःखसे छुड़ाइये ।। 81 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- देवताओ। तुम डरो मत। उत्तानपादके पुत्र ध्रुवने अपने चित्तको मुझ विश्वात्मामें लीन कर दिया है, इस समय मेरे साथ उसकी अभेदधारणा सिद्ध हो गयी है, इसीसे उसके प्राणनिरोधसे तुम सबका प्राण भी रुक गया है। अब तुम अपने-अपने लोकोंको जाओ, मैं उस बालकको इस दुष्कर तपसे निवृत्त कर दूंगा ॥ 82 ॥

अध्याय 9 ध्रुवका वर पाकर घर लौटना

श्रीमैजेवजी कहते हैं-विदुरजी भगवान्के इ प्रकार आश्वासन देनेसे देवताओंका भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़पर चढ़कर अपने भक्तको देखनेके लिये मधुवनमें आये ॥ 1 ॥ उस समय ध्रुवजी तीव्र योगाभ्याससे एकाग्र हुई बुद्धिके द्वारा भगवान्‌को बिजलीके समान देदीप्यमान जिस मूर्तिका अपने हृदयकमलमें ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान्के उसी रूपको बाहर अपने सामने खड़ा देखा ॥ 2 ॥ | प्रभुका दर्शन पाकर बालक ध्रुवको बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेममें अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डके समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टिसे उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रोंसे उन्हें पी जायेंगे, मुखसे चूम लेंगे और भुजाओंमें कस लेंगे॥ 3 ॥ वे हाथ जोड़े प्रभु सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मनको बात जान गये उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शङ्खको उनके गालसे छुआ दिया 4 ध्रुवजी भविष्यमें अविचल पद प्राप्त करनेवाले थे। इस समय शङ्खका स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्यवाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्मके स्वरूपका भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभावसे धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ll 54 ll

ध्रुवजीने कहा प्रभो। आप सर्वशक्तिसम्पन्न है, आप ही मेरे अन्तःकरणमें प्रवेशकर अपने तेजसे मेरी इस सोयी हुई वाणीको सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणोंको भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान्‌को प्रणाम करता हूँ ।। 6 ।। भगवन्! आप एक ही है, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति इस महदादि सम्पूर्ण पक्षको रचकर अन्तर्यामीरूपसे उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणोंमें उनके अधिष्ठातृ-देवताओंके रूपमें स्थित होकर अनेकरूप भासते है ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरहकी लकड़ियों प्रकट हुई आग अपनी उपाधियोंके अनुसार भित्र-भित्र रूपोंमें भासती है ॥ 7 ॥ नाथ सृष्टिके आरम्भ में ब्रह्माजीने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञानके प्रभावसे हो इस जगत्‌को सोकर उठे हुए पुरुषके समान देखा था। दीनबन्धो ! उन्हीं आपके चरणतलका मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है ? ॥8॥ प्रभो इन शवतुल्य शरीरोंके द्वारा भोगा जानेवाला, इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे उत्पन्न सुख तो मनुष्योंको नरकमें भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुखके लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरणके बन्धनसे छुड़ा देनेवाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत्प्राप्तिके सिवा किसी अन्य उद्देश्यसे करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी मायाके द्वारा ठगी गयी है ॥ 9 ॥ नाथ! आपके चरणकमलोंका ध्यान करनेसे और आपके भक्तोंके पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें कालकी तलवार काटे डालती है उन स्वर्गीय विमानोंसे गिरनेवाले पुरुषोंको तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है ।। 10 ll

अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन विशुद्धहृदय महात्मा भक्तोंका सङ्ग दीजिये, जिनका आपमें अविच्छिन्न भक्तिभाव है। उनके सङ्गमें मैं आपके गुणों और लीलाओंकी कथा-सुधाको पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज ही इस अनेक प्रकारके दुःखोंसे पूर्ण भयङ्कर संसारसागरके उस पार पहुँच जाऊँगा ॥ 11 ॥ कमलनाभ प्रभो। जिनका चित्त आपके चरणकमलकी सुगन्धमें लुभाया हुआ है, उन महानुभावोंका जो लोग करते हैं वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदिकी सुधि भी नहीं करते ॥ 12 ॥ अजन्मा परमेश्वर मैं तो पशु, वृक्ष, पर्वत, पक्षी, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु), देवता, दैत्य और मनुष्य आदिसे परिपूर्ण तथा महदादि अनेकों कारणोंसे सम्पादित आपके इस सदसदात्मक स्थूल विश्वरूपको ही जानता हूँ; इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणीकी गति नहीं है, उसका मुझे पता नहीं है ।। 13 ।।भगवन्! कल्पका अन्त होनेपर योगनिद्रामे स्थित के परमपुरुष इस सम्पूर्ण विश्वको अपने उदरमें लीन करके शेषजीके साथ उन्हींकी गोदमें शयन करते हैं तथा जिनके नाभि-समुद्रसे प्रकट हुए सर्वलोकमय सुवर्णवर्ण कमलसे परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान् आप ही हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ ।। 14 ।।

प्रभो ! आप अपनी अखण्ड चिन्मयी दृष्टिसे बुद्धिकी सभी अवस्थाओंके साक्षी हैं तथा नित्यमुक्त शुद्धसत्वमय, सर्वज्ञ, परमात्मस्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, पडैश्वर्य-सम्पन्न एवं तीनों गुणोंके अधीश्वर हैं। आप जीवसे सर्वथा भिन्न हैं तथा संसारकी स्थितिके लिये यज्ञाधिष्ठाता विष्णुरूपसे विराजमान है।। 15 ।। आपसे ही विद्या अविद्या आदि विरुद्ध गतियोंवाली अनेकों शक्तियाँ धारावाहिक रूपसे निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। आप जगत्के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय निर्विकार ब्रह्मस्वरूप है। मैं आपकी शरण ॥ 16 ॥ भगवन्! आप परमानन्दमूर्ति है जो लोग ऐसा समझकर निष्कामभावसे आपका निरन्तर भजन करते हैं, उनके लिये राज्यादि भोगोंकी अपेक्षा आपके चरणकमलोकी प्राप्ति ही भजनका सच्चा फल है। स्वामिन्! यद्यपि बात ऐसी ही है, तो भी गौ जैसे अपने तुरंतके जन्में हुए बछड़ेको दूध पिलाती और व्याघ्रादिसे बचाती रहती है, उसी प्रकार आप भी भक्तोंपर कृपा करने के लिये निरन्तर विकल रहनेके कारण हम-जैसे सकाम जीवोंकी भी कामना पूर्ण करके उनकी संसार-भयसे रक्षा करते रहते हैं ॥ 17 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जब शुभ सङ्कल्पवाले मतिमान् ध्रुवजीने इस प्रकार स्तुति की तब भक्तवत्सल भगवान् उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ।। 18 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- उत्तम व्रतका पालन करनेवाले राजकुमार ! मैं तेरे हृदयका सङ्कल्प जानता हूँ। यद्यपि उस पदका -प्राप्त होना बहुत कठिन है, तो भी मैं तुझे वह देता हूँ। तेरा कल्याण हो ॥ 19 ॥

भद्र! जिस तेजोमय अविनाशी लोकको आजतक किसीने -प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र और तारागणरूप ज्योतिश्चक्र उसी प्रकार चक्कर काटता रहता है जिस प्रकार मेढीके * चारों ओर देवरीके बैल घूमते रहते हैं। अवान्तर -कल्पपर्यन्त रहनेवाले अन्य लोकोका नाश हो जानेपर भी जो स्थिर रहता है तथा तारागण सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षिगण जिसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं, वह ध्रुवलोक मैं तुझे देता हूँ ।। 20-21 ll यहाँ भी जब तेरे पिता तुझे राजसिंहासन देकर वनको चले जायेंगे; तब तू छत्तीस हजार वर्षतक धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करेगा। तेरी इन्द्रियोंकी शक्ति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी ।। 22 ।। आगे चलकर किसी समय तेरा भाई | उत्तम शिकार खेलता हुआ मारा जायगा, तब उसकी माता सुरुचि पुत्र-प्रेममें पागल होकर उसे वनमें खोजती हुई दावानलमें प्रवेश कर जायगी ॥ 23 ॥ यज्ञ मेरी प्रिय मूर्ति है, तू अनेकों बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञोंके द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ उत्तम उत्तम भोग भोगकर अन्तमें | मेरा ही स्मरण करेगा ।। 24 । इससे तू अन्तमें सम्पूर्ण लोकोंके वन्दनीय और सप्तर्षियोंसे भी ऊपर मेरे निज धामको जायगा, जहाँ पहुँच जानेपर फिर संसारमें लौटकर नहीं आना होता है॥ 25 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—बालक ध्रुवसे इस प्रकार पूजित हो और उसे अपना पद प्रदानकर भगवान् श्रीगरुडध्वज उसके देखते-देखते अपने लोकको चले गये ॥ 26 ॥ प्रभुकी चरणसेवासे सङ्कल्पित वस्तु प्राप्त हो जानेके कारण यद्यपि ध्रुवजीका सङ्कल्प तो निवृत्त हो गया, ( किन्तु उनका चित्त विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। फिर वे अपने नगरको लौट गये ॥ 27 ॥

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! मायापति श्रीहरिका परमपद तो अत्यन्त दुर्लभ है और मिलता भी उनके चरणकमलोंकी उपासनासे ही है। ध्रुवजी भी सारासारका – पूर्ण विवेक रखते थे; फिर एक ही जन्ममें उस परमपदको पा लेनेपर भी उन्होंने अपनेको अकृतार्थ क्यों समझा ? ॥ 28 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- ध्रुवजीका हृदय अपनी सौतेली माताके वाग्बाणोंसे बिंध गया था तथा वर माँगने के समय भी उन्हें उनका स्मरण बना हुआ था; इसीसे उन्होंने मुक्तिदाता श्रीहरिसे मुक्ति नहीं माँगी। अब -जब भगवद्दर्शनसे वह मनोमालिन्य दूर हो गया तो उन्हें अपनी इस भूलके लिये पश्चात्ताप हुआ ॥ 29 ॥

ध्रुवजी मन-ही-मन कहने लगे-अहो ! -सनकादि ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) सिद्ध भी जिन्हें समाधिद्वारा अनेकों जन्मोंमें प्राप्त कर पाते हैं, उन भगवच्चरणोंकी छायाको मैंने छः महीनेमें ही पा लिया, किन्तु चित्तमें दूसरी वासना रहनेके कारण मैं फिर उनसे दूर हो गया ॥ 30 ॥अहो ! मुझ मन्दभाग्यकी मूर्खता तो देखो, मैंने संसार-पाशको काटनेवाले प्रभुके पादपद्योंमें पहुँचकर भी उनसे नाशवान वस्तुकी ही याचना की ! 31 ॥ देवताओंको स्वर्गभोगके | पश्चात् फिर नीचे गिरना होता है, इसलिये वे मेरी भगवत्प्राप्तिरूप उच्च स्थितिको सहन नहीं कर सके; अतः उन्होंने ही मेरी बुद्धिको नष्ट कर दिया। तभी तो मुझ दुष्टने नारदजीकी यथार्थ बात भी स्वीकार नहीं की ॥ 32 ॥ यद्यपि संसारमें आत्माके सिवा दूसरा कोई भी नहीं है; तथापि सोया हुआ मनुष्य जैसे स्वप्रमें अपने ही कल्पना किये हुए व्याघ्रादिसे डरता है, उसी प्रकार मैंने भी भगवान्की मायासे मोहित होकर भाईको ही शत्रु मान लिया और व्यर्थ ही द्वेषरूप हार्दिक रोगसे जलने लगा ॥ 33 ॥ जिन्हें प्रसन्न करना अत्यन्त कठिन है; उन्हीं विश्वात्मा श्रीहरिको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके मैंने जो कुछ माँगा है, वह सब व्यर्थ है; ठीक उसी तरह, जैसे गतायु पुरुषके लिये चिकित्सा व्यर्थ होती है। ओह! मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ, संसार-बन्धनका नाश करनेवाले प्रभुसे मैंने संसार ही माँगा ।। 34 । मैं बड़ा ही पुण्यहीन हूँ ! जिस प्रकार कोई कंगला किसी चक्रवर्ती सम्राटको प्रसन्न करके उससे तुपसहित चावलोकी की माँगे, उसी प्रकार मैंने भी आत्मानन्द प्रदान करनेवाले श्रीहरिसे मूर्खतावश व्यर्थका अभिमान बढ़ानेवाले उच्चपदादि ही मांगे हैं ।। 35 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—तात तुम्हारी तरह जो लोग ! श्रीमुकुन्दपादारविन्द मकरन्दके ही मधुकर हैं—जो निरन्तर प्रभुकी चरण-रजका ही सेवन करते हैं और जिनका मन अपने आप आयी हुई सभी परिस्थितियोंमे सन्तुष्ट रहता है, वे भगवान्से उनकी सेवाके सिवा अपने लिये और कोई भी पदार्थ नहीं माँगते ॥ 36 ॥

इधर जब राजा उत्तानपादने सुना कि उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा है, तो उन्हें इस बातपर कैसे हो विश्वास नहीं हुआ जैसे कोई किसीके यमलोकसे लौटनेको बातपर विश्वास न करे। उन्होंने यह सोचा कि ‘मुझ अभागेका ऐसा भाग्य कहाँ ‘ ॥ 37 ॥ | परन्तु फिर उन्हें देवर्षि नारदकी बात याद आ गयी। इससे उनका | इस बात में विश्वास हुआ और वे आनन्दके वेगसे अधीर हो उठे। उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर यह समाचार लानेवालेको एक बहुमूल्य हार दिया ।। 38 ।। राजा उत्तानपादने पुत्रका मुख देखने के लिये उत्सुक होकर बहुत-से ब्राह्मण कुलके बड़े-बड़े मन्त्री और वन्धुजनोंको साथ लिया तथा एक बढ़िया घोड़ा सुवर्णजटित रथपर सवार होकर वे झटपट नगरके बाहर आये। उनके आगे-आगे वेदध्वनि होती जाती थी तथा शङ्खदुन्दुभि एवं वंशी आदि अनेकों माङ्गलिक बाजे बजते जाते थे ।। 39-40 ॥उनकी दोनों रानियाँ सुनीति और सुरुचि भी सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो राजकुमार उत्तमके साथ पालकियोंपर चढ़कर चल रही थीं ॥ 41 ॥ ध्रुवजी उपवनके पास आ पहुँचे, उन्हें देखते ही महाराज उत्तानपाद तुरंत रथसे उतर पड़े। पुत्रको देखनेके लिये वे बहुत दिनों से उत्कण्ठित हो रहे थे। उन्होंने झटपट आगे बढ़कर प्रेमातुर हो, लंबी लंबी साँसें लेते हुए, ध्रुवको भुजाओंमें भर लिया। अब ये पहले के ध्रुव नहीं थे, प्रभुके परमपुनीत पादपद्मोंका स्पर्श होनेसे इनके समस्त पाप-बन्धन कट गये थे । 42-43 ।। राजा उत्तानपादकी एक बहुत बड़ी कामना पूर्ण हो गयी। उन्होंने बार-बार पुत्रका सिर सूँघा और आनन्द तथा प्रेमके कारण निकलनेवाले ठंडे-ठंडे * आँसुओंसे उन्हें नहला दिया ।। 44 ।।

तदनन्तर सज्जनोंमें अग्रगण्य ध्रुवजीने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और उनसे आशीर्वाद पाकर, कुशल प्रश्नादिसे सम्मानित हो दोनों माताओंको प्रणाम किया ॥ 45 ॥ छोटी माता सुरुचिने अपने चरणोंपर झुके हुए बालक ध्रुवको उठाकर हृदयसे लगा लिया और अश्रुगद्गद वाणीसे ‘चिरञ्जीवी रहो’ ऐसा आशीर्वाद दिया ॥ 46 ॥ जिस प्रकार जल स्वयं ही नीचेकी ओर बहने लगता है—उसी प्रकार मैत्री आदि गुणोंके कारण जिसपर श्रीभगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, उसके आगे सभी जीव झुक जाते हैं ॥ 47 ॥ इधर उत्तम और ध्रुव दोनों ही प्रेमसे विह्वल होकर मिले। एक दूसरेके अङ्गोंका स्पर्श पाकर उन दोनोंके ही शरीरमें रोमाञ्च हो आया तथा नेत्रोंसे बार-बार आसुओंकी धारा बहने लगी ।। 48 ।। ध्रुवकी माता सुनीति अपने प्राणोंसे भी प्यारे पुत्रको गले लगाकर सारा सन्ताप भूल गयी। उसके सुकुमार अङ्गोंके स्पर्शसे उसे बड़ा ही आनन्द प्राप्त हुआ ।। 49 ।। वीरवर विदुरजी ! वीरमाता सुनीतिके स्तन उसके नेत्रोंसे झरते हुए मङ्गलमय आनन्दाश्रुओंसे भीग गये और उनसे बार-बार दूध बहने | लगा ॥ 50 ॥ उस समय पुरवासी लोग उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘महारानीजी ! आपका लाल बहुत दिनोंसे खोया हुआ था; सौभाग्यवश अब वह लौट आया, यह हम सबका दुःख दूर करनेवाला है। बहुत दिनोंतक भूमण्डलकी रक्षा करेगा ।। 51 ।। आपने अवश्य ही शरणागतभयभञ्जन श्रीहरिकी उपासना की है। उनका निरन्तर ध्यान करनेवाले धीर पुरुष परम दुर्जय मृत्युको भी जीत लेते हैं’ ll 52 ll

विदुरजी ! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुवके प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तमके सहित हथिनीपर चढ़ाकर महाराज उत्तानपादने बड़े हर्षके साथ राजधानीमें प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्यकी बड़ाई कर रहे थे ।। 53 ।।नगरमे जहाँ-तहाँ मगरके आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये | गये थे तथा फल-फूलोके गुच्छोंके सहित केलेके सम्मे और सुपारीके पौधे सजाये गये थे ।। 54 ।। द्वार-द्वारपर दीपकके सहित जलके कलश रखे हुए थे— जो आमके पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोतीकी लड़ियोंसे सुसज्जित थे ॥ 55 ॥ जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलोंसे नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्णकी सामग्रियोंसे सजाया गया था तथा | उनके कँगूरे विमानोंके शिखरोंके समान चमक रहे थे ॥ 56 ॥ नगरके चौक, गलियों, अटारियों और सड़कोको झड़-बुहार कर उनपर चन्दनका छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य माङ्गलिक उपहार सामग्रियाँ सजी रखी थीं ॥ 57 ॥ ध्रुवजी राजमार्गसे जा रहे। थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगरकी शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखनेको एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभावसे अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उनपर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलोंकी वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुवजीने अपने पिताके महलमें प्रवेश किया ।। 58-59 ।।

वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियोंसे सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजीके लाड़-प्यारका सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्गमें देवतालोग रहते हैं ॥ 60 वहाँ दूधके फेनके समान सफेद और कोमल शय्याएँ हाथी- दतिके पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोनेका सामान था ॥ 61 ॥ उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारोंमें रत्नोंकी बनी हुई स्त्रीमूर्तियोंपर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे ॥ 62 ॥ उस महलके चारों ओर अनेक जातिके दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित उद्यान थे, जिनमें नर और मादा पक्षियोंका | कलरव तथा मतवाले भौरोंका गुंजार होता रहता था ।। 63 ।। उन बगीचोंमें वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियोंसे सुशोभित बालियां थी जिनमें लाल, नीले और सफेद रंगके कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीडा करते रहते थे ॥ 64 ॥

राजर्षि उत्तानपादने अपने पुत्रके अति अद्भुत प्रभावकी बात देवर्षि नारदसे पहले ही सुन रखी थी अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ ।। 65 ।।फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदरकी दृष्टिसे देखते हैं तथा प्रजाका भी उनपर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया ॥ 66 ॥ और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूपका चिन्तन | करते हुए संसारसे विरक्त होकर वनको चल दिये ॥ 67 ॥

अध्याय 10 उत्तमका मारा जाना, ध्रुवका यक्षोंके साथ युद्ध

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-विदुरजी भुवने प्रजापति शिशुमारकी पुत्री अणिके साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नामके दो पुत्र हुए ॥ 1 ॥ महाबली ध्रुवकी दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नामके एक पुत्र और एक कन्यारत्नका जन्म हुआ ॥ 2 ॥ उत्तमका अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वतपर एक बलवान् यक्षने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी ॥ 3 ॥

ध्रुवने जब भाईके मारे जानेका समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेगसे भरकर एक विजयप्रद रथपर सवार हो यक्षोंके देशमें जा पहुँचे ॥ 4 ॥ उन्होंने उत्तर दिशामें जाकर हिमालयको घाटीमें यक्षोंसे भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे ॥ 5 ॥ विदुरजी ! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुवने अपना शङ्ख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओंको गुँजा दिया। उस शङ्खध्वनिसे यक्ष-पत्रियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखे भयसे कातर हो उठीं ॥ 6 ॥

वीरवर विदुरजी महाबलवान् यक्षवीरोंको वह शङ्खनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरहके अस्त्र-शस्त्र लेकर नगरके बाहर निकल आये और ध्रुवपर टूट पड़े ॥ 7॥ महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमेंसे प्रत्येकको तीन-तीन बाण मारे ॥ 8 ॥उन सभीने जब अपने-अपने मस्तकोंमें तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य | होगी। वे ध्रुवजीके इस अद्भुत पराक्रमकी प्रशंसा करने लगे ॥ 9 ॥ फिर जैसे सर्प किसीके पैरोंका आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुवके इस पराक्रमको न सहकर उन्होंने भी उनके बाणोंके जवाबमें एक ही साथ उनसे दूने-छ छः बाण छोड़े ॥ 10 ॥ यक्षोंकी संख्या तेरह अयुत (130000) थी। उन्होंने ध्रुवजीका बदला लेनेके लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथीके सहित उनपर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणोंकी वर्षा की ।। 11-12 ।। इस भीषण शस्त्रवर्षासे ध्रुवजी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी | वर्षासे पर्वतका ॥ 13 ॥ उस समय जो सिद्धगण आकाशमें | स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे—’आज यक्षसेनारूप समुद्रमें डूबकर यह मानव सूर्य अस्त हो गया’ ॥ 14 ॥ यक्षलोग अपनी | विजयकी घोषणा करते हुए युद्धक्षेत्रमें सिंहकी तरह गरजने लगे। इसी बीचमें ध्रुवजीका रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो | गया, जैसे कुहरेमेंसे सूर्यभगवान् निकल आते हैं ।। 15 ।। ध्रुवजीने अपने दिव्य धनुषकी टङ्कार करके शत्रुओंके दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणोंकी वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रोंको इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलोंको तितर-बितर कर देती है ॥ 16 ॥ उनके धनुषसे छूटे हुए तीखे तीर यक्ष-राक्षसोंके कवचको भेदकर इस प्रकार उनके शरीरोंमें घुस गये, जैसे इन्द्रके छोड़े हुए वज्र पर्वतोंमें प्रवेश कर गये थे ॥ 17 ॥ विदुरजी ! महाराज ध्रुवके बाणोंसे कटे हुए यक्षोंके सुन्दर कुण्डलमण्डित मस्तकोंसे सुनहरी तालवृक्षके समान जधिसे, वलयविभूषित बाहुओंसे, हार, भुजबन्ध, मु और बहुमूल्य पगड़ियोंसे पटी हुई वह वीरोंके मनको लुभानेवाली समरभूमि बड़ी शोभा पा रही थी ।। 18-19 ॥ जो यक्ष किसी प्रकार जीवित बचे, वे क्षत्रियप्रवर ध्रुवजीके बाणोंसे प्रायः अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जानेके कारण युद्धक्रीडामें सिंहसे परास्त हुए गजराजके समान मैदान छोड़कर भाग गये ॥ 20 ॥नरश्रेष्ठ ध्रुवजीने देखा कि उस विस्तृत रणभूमिमें अब एक भी शत्रु अस्त्र-शस्त्र लिये उनके सामने नहीं है, तो उनकी इच्छा अलकापुरी देखनेकी हुई किन्तु वे पुरीके भीतर नहीं गये ‘ये मायावी क्या करना चाहते हैं इस बातका मनुष्यको पता नहीं लग सकता’ सारथिसे इस प्रकार कहकर वे उस विचित्र रथमें बैठे रहे तथा शत्रुके नवीन आक्रमणकी आशङ्कासे सावधान हो गये। इतनेमें ही उन्हें समुद्रकी गर्जनाके समान आँधीका भीषण शब्द सुनायी दिया तथा दिशाओंमें उठती हुई धूल भी दिखायी दी ।। 21-22 ।।

एक क्षणमें ही सारा आकाश मेघमालासे घिर गया। सब ओर भयङ्कर गड़गड़ाहटके साथ बिजली चमकने लगी ॥ 23 ॥ निष्पाप विदुरजी ! उन बादलोंसे खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बीकी वर्षा होने लगी और ध्रुवजीके आगे आकाशसे बहुत-से घड़ गिरने लगे ।। 24 ।। फिर आकाशमें एक पर्वत दिखायी दिया और सभी दिशाओंमें पत्थरोंकी वर्षाके साथ गदा, परिघ, तलवार और मूसल गिरने लगे ।। 25 । उन्होंने देखा कि बहुत-से सर्प वज्रकी तरह फुफकार मारते रोषपूर्ण नेत्रोंसे आगकी चिनगारियाँ उगलते आ रहे हैं, झुंड के झुंड – मतवाले हाथी, सिंह और बाघ भी दौड़े चले आ रहे | हैं ॥ 26 ॥ प्रलयकालके समान भयङ्कर समुद्र अपनी | उत्ताल तरङ्गोंसे पृथ्वीको सब ओरसे डुबाता हुआ बड़ी भीषण गर्जनाके साथ उनकी ओर बढ़ रहा है ॥। 27 ॥ क्रूरस्वभाव असुरोंने अपनी आसुरी मायासे ऐसे ही बहुत-से कौतुक दिखलाये, जिनसे कायरोंके मन काँप | सकते थे ॥ 28 ॥ ध्रुवजीपर असुरोंने अपनी दुस्तर माया फैलायी है, यह सुनकर वहाँ कुछ मुनियोंने आकर उनके लिये मङ्गल कामना की ।। 29 ।।

मुनियोंने कहा -उत्तानपादनन्दन ध्रुव ! शरणागत-भयभञ्जन शार्ङ्गपाणि भगवान् नारायण तुम्हारे शत्रुओंका संहार करें भगवान्‌का तो नाम ही ऐसा है, जिसके सुनने और कीर्तन करनेमात्र से मनुष्य दुस्तर मृत्युके । मुखसे अनायास ही बच जाता है ॥ 30 ॥

अध्याय 11 स्वायम्भुव मनुका ध्रुवजीको युद्ध बंद करने

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी। ऋषियोंका ऐसा कथन सुनकर महाराज ध्रुवने आचमन कर श्रीनारायण के बनाये हुए नारायणास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया ॥ 1 ॥ उस बाणके चढ़ाते ही यक्षोंद्वारा रची हुई नाना प्रकारकी माया उसी क्षण नष्ट हो गयी, जिस प्रकार ज्ञानका उदय होनेपर अविद्यादि क्लेश नष्ट हो जाते हैं ॥ 2 ॥ ऋषिवर नारायणके द्वारा आविष्कृत उस अस्त्रको धनुषपर चढ़ाते ही उससे राजहंसके से पक्ष और सोनेके फलवाले बड़े तीखे बाण निकले और जिस प्रकार मयूर केकारव करते वनमें घुस जाते हैं, उसी प्रकार भयानक साय-साय शब्द करते हुए वे शत्रुकी सेनामें घुस गये ॥3॥ उन तीखी धारवाले बागोंने शत्रुओंको बेचैन कर दिया। तब उस राङ्गणमें अनेकों पक्षोंने अत्यन्त कुपित होकर अपने अस्त्र-शस्त्र सँभाले और जिस प्रकार गरुड़के छेड़नेसे बड़े-बड़े सर्प फन उठाकर उनकी ओर दौड़ते हैं, उसी प्रकार वे इधर-उधरसे ध्रुवजीपर टूट पड़े ॥4॥ उन्हें सामने आते देख ध्रुवजीने अपने बाणोंद्वारा उनकी भुजाएँ, जाँघें, कंधे और उदर आदि अङ्ग-प्रत्यङ्गोको छिन्न-भिन्न कर उन्हें उस सर्वश्रेष्ठ लोक (सत्यलोक) में भेज दिया, जिसमे ऊध्यरिता मुनिगण सूर्यमण्डलका भेदन करके जाते हैं ॥ 5 ॥ अब उनके पितामह स्वायम्भुव मनुने देखा कि | विचित्र रथपर चढ़े हुए ध्रुव अनेकों निरपराध यक्षोंको मार रहे हैं, तो उन्हें उनपर बहुत दया आयी। वे बहुत-से ऋषियोंको साथ लेकर वहाँ आये और अपने पौत्र ध्रुवको समझाने लगे ।। 6 ।।

मनुजीने कहा- बेटा ! बस, बस ! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं। यह पापी नरकका द्वार है। इसीके वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षोंका वध किया है ॥ 7 ॥ तात ! तुम जो निर्दोष यक्षोंके संहारपर उतर रहे हो, यह हमारे कुलके योग्य कर्म नहीं है; साधु पुरुष इसकी बड़ी निन्दा करते हैं 8 बेटा तुम्हारा अपने भाईपर बड़ा अनुराग था, यह तो ठीक है; परन्तु देखो, उसके वधसे सन्तार होकर तुमने एक दशके अपराध करने पर प्रसङ्गवश कितनोंकी हत्या कर डाली ॥ 9 ॥इस जड शरीरको ही आत्मा मानकर इसके लिये पशुओंकी भाँति प्राणियोंकी हिंसा करना यह भगवत्सेवी साधुजनोंका मार्ग नहीं है ॥ 10 ॥ प्रभुकी आराधना करना बड़ा कठिन है, परन्तु तुमने तो लड़कपन में ही सम्पूर्ण भूतोके आश्रयस्थान श्रीहरिकी सर्वभूतात्मभावसे आराधना करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया है ॥ 11 ॥ तुम्हें तो प्रभु भी अपना प्रिय भक्त समझते हैं। तथा भक्तजन भी तुम्हारा आदर करते हैं तुम साधुजनोंके पथप्रदर्शक हो फिर भी तुमने ऐसा निन्दनीय कर्म कैसे किया? ॥ 12 ॥ सर्वात्मा श्रीहरि तो अपनेसे बड़े पुरुषोंके प्रति सहनशीलता, छोटोंके प्रति दया, बराबरवालोंके साथ मित्रता और समस्त जीवोंके साथ समताका बर्ताव करनेसे ही प्रसन्न होते हैं ।। 13 ।। और प्रभुके प्रसन्न हो जानेपर पुरुष प्राकृत गुण एवं उनके कार्यरूप लिङ्गशरीरसे छूटकर परमानन्दस्वरूप ब्रह्मपद प्राप्त कर लेता है ।। 14 ।।

बेटा ध्रुव ! देहादिके रूपमें परिणत हुए पञ्चभूतोंसे स्त्री-पुरुषका आविर्भाव होता है और फिर उनके पारस्परिक समागमसे दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं॥ 15 ॥ ध्रुव इस ! प्रकार भगवान्‌की मायासे सत्त्वादि गुणोंमें न्यूनाधिकभाव होनेसे ही जैसे भूतोंद्वारा शरीरोंकी रचना होती है, वैसे ही उनकी स्थिति और प्रलय भी होते हैं ॥ 16 ॥ पुरुषश्रेष्ठ ! निर्गुण परमात्मा तो इनमें केवल निमित्तमात्र है; उसके आश्रयसे यह कार्य कारणात्मक जगत् उसी प्रकार भ्रमता रहता है, जैसे चुम्बकके आश्रयसे लोहा ॥ 17 ॥ काल-शक्तिके द्वारा क्रमशः सत्त्वादि गुणोंमें क्षोभ होनेसे लीलामय भगवान्‌की शक्ति भी सृष्टि आदिके रूपमें विभक्त हो जाती है; अतः भगवान् अकर्ता होकर भी जगत्की रचना करते हैं और संहार करनेवाले न होकर भी | इसका संहार करते हैं। सचमुच उन अनन्त प्रभुकी लीला सर्वधा अचिन्तनीय है ॥ 18 ॥ ध्रुव ! वे कालस्वरूप अव्यय परमात्मा ही स्वयं अन्तरहित होकर भी जगत्का अन्त करनेवाले हैं तथा अनादि होकर भी सबके आदिकर्ता हैं। वे ही एक जीवसे दूसरे जीवको उत्पन्न कर संसारकी सृष्टि करते हैं तथा मृत्युके द्वारा मारनेवालेको भी मरवाकर उसका संहार करते हैं ।। 19 ।। वे कालभगवान् सम्पूर्ण सृष्टिमें समानरूपसे अनुप्रविष्ट हैं। उनका न तो कोई मित्रपक्ष है और न शत्रुपक्ष जैसे वायुके चलनेपर धूल उसके साथ-साथ उड़ती है, उसी प्रकार समस्त जीव अपने-अपने कर्मकि अधीन होकर कालकी गतिका अनुसरण करते हैं—अपने-अपने कर्मानुसार सुख-दुःखादि फल भोगते हैं ll 20 ll सर्वसमर्थ श्रीहरि कर्मबन्धनमें बंधे हुए जीवकी आयुकी वृद्धि और क्षयका विधान करते हैं, परन्तु वे स्वयं इन दोनोंसे रहित और अपने स्वरूपमें स्थित हैं ॥ 21 ॥ राजन! इन परमात्माको ही मीमांसकलोग कर्म, चाक स्वभाव, वैशेषिकमतावलम्बी काल, ज्योतिषी दैव और | कामशास्त्री काम कहते हैं ॥ 22 ॥ वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाणके विषय नहीं है। महदादि अनेक शक्तियाँ भी उन्हींसे प्रकट हुई हैं। वे क्या करना चाहते हैं, इस बातको भी संसारमें कोई नहीं जानता; फिर अपने मूल कारण उन प्रभुको तो जान ही कौन सकता है ॥ 23 ॥

बेटा ! ये कुबेरके अनुचर तुम्हारे भाईको मारनेवाले नहीं हैं, क्योंकि मनुष्यके जन्म-मरणका वास्तविक कारण तो ईश्वर है ॥ 24 ॥ एकमात्र वही संसारको रचता, पालता और नष्ट करता है, किन्तु अहङ्कारशून्य होनेके कारण इसके गुण और कर्मोंसे वह सदा निर्लेप रहता है ।। 25 ।। वे सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तरात्मा नियन्ता और रक्षा करनेवाले प्रभु ही अपनी मायाशक्तिसे युक्त होकर समस्त जीवोंका सृजन, पालन और संहार करते हैं ॥ 26 ॥ जिस | प्रकार नाकमें नकेल पड़े हुए बैल अपने मालिकका बोझा ढोते रहते हैं, उसी प्रकार जगत्‌की रचना करने वाले ब्रह्मादि भी नामरूप डोरीसे बँधे हुए उन्हींकी आज्ञाका पालन करते हैं। वे अभक्तोंके लिये मृत्युरूप और भक्तोंके लिये | अमृतरूप हैं तथा संसारके एकमात्र आश्रय हैं। तात ! तुम सब प्रकार उन्हीं परमात्माकी शरण लो ॥ 27 ॥ तुम पाँच वर्षकी ही अवस्थामें अपनी सौतेली माताके वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर माँकी गोद छोड़कर वनको चले गये थे वहाँ तपस्याद्वारा जिन हषीकेश भगवानकी | आराधना करके तुमने त्रिलोकीसे ऊपर ध्रुवपद प्राप्त किया है और जो तुम्हारे वैरभावहीन सरल हृदयमें वात्सल्यवश विशेषरूपसे विराजमान हुए थे, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्माको अध्यात्मदृष्टिसे अपने अन्तःकरणमें ढूंढ़ो। उनमें यह भेदभावमय प्रपञ्च न होनेपर भी प्रतीत हो रहा है ।। 28-29 ।। ऐसा करनेसे सर्वशक्तिसम्पन्न परमानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी भगवान् अनन्तमें तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति होगी और उसके प्रभावसे तुम मैं मेरेपनके रूपमें दृढ़ हुई अविद्याकी गाँठको काट | डालोगे ll 30 ll राजन् ! जिस प्रकार ओषधिसे रोग शान्त किया जाता है— उसी प्रकार मैंने तुम्हें जो कुछ उपदेश दिया है, उसपर | विचार करके अपने क्रोधको शान्त करो। क्रोध कल्याण मार्गका बड़ा ही विरोधी है। भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें ॥ 31 ॥ क्रोधके वशीभूत हुए पुरुषसे सभी लोगोंको बड़ा भय होता है; इसलिये जो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा चाहता है कि मुझसे किसी भी प्राणीको भय न हो और मुझे भी किसीसे भय न हो, उसे क्रोधके वशमें कभी न होना चाहिये ॥ 32 ॥ तुमने जो यह समझकर कि ये मेरे भाईके मारनेवाले हैं, इतने यक्षोंका संहार किया है, इससे तुम्हारे द्वारा भगवान् शङ्करके सखा कुबेरजीका बड़ा अपराध हुआ है ॥ 33 ॥ इसलिये बेटा ! जबतक कि महापुरुषोंका तेज हमारे कुलको आक्रान्त नहीं कर लेता; इसके पहले ही विनम्र भाषण और विनयके द्वारा शीघ्र उन्हें प्रसन्न कर लो ॥ 34 ॥ इस प्रकार स्वायम्भुव मनुने अपने पौत्र ध्रुवको शिक्षा दी। तब ध्रुवजीने उन्हें प्रणाम किया। इसके पश्चात् वे महर्षियोंके सहित अपने लोकको चले गये || 35 ॥

अध्याय 12 ध्रुवजीको कुबेरका वरदान और विष्णुलोककी प्राप्ति

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं – विदुरजी ! ध्रुवका हो गया है और वे यक्षोंके वधसे निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नरलोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुवजी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेरने कहा ॥ 1 ॥

श्रीकुबेरजी बोले- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार ! | तुमने अपने दादाके उपदेशसे ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग दिया; इससे मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ॥ 2 ॥ वास्तवमें न तुमने | यक्षोंको मारा है और न यक्षोंने तुम्हारे भाईको समस्त जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण तो एकमात्र काल ही है ॥ 3 ॥ यह मैं तू आदि मिथ्याबुद्धि तो जीवको अज्ञानवश स्वप्रके समान शरीरादिको ही आत्मा माननेसे उत्पन्न होती है। इसीसे मनुष्यको बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओंकी प्राप्ति होती है ॥ 4 ॥ध्रुव । अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मङ्गल करें। तुम संसारपाशसे मुक्त होनेके लिये सब जीवोंमें समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरिका भजन करो। वे संसारपाशका छेदन करनेवाले हैं तथा संसारकी उत्पत्ति आदिके लिये अपनी त्रिगुणात्मिका मायाशक्तिसे युक्त होकर भी वास्तवमें उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करनेयोग्य हैं ।। 5-6 ।। प्रियवर ! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभके चरणकमलोंके समीप रहनेवाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पानेयोग्य हो। धुव! तुम्हें जिस वरकी इच्छा हो, मुझसे निःसङ्कोच एवं निःशङ्क होकर माँग लो ॥ 7 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— विदुरजी ! यक्षराज कुबेरने जब | इस प्रकार वर माँगनेके लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुवजीने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरिकी अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसारसागरको पार कर जाता है ॥ 8 ॥ इडविडाके पुत्र कुबेरजीने बड़े प्रसन्न मनसे उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुवजी भी अपनी राजधानीको लौट आये ॥ 9 ॥ वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफलके दाता भी है ॥ 10 ॥ सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युतमें प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुवजी अपनेमें और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरिको ही विराजमान देखने लगे ॥ 11 ॥ ध्रुवजी बड़े ही शीलसम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादाके रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिताके समान मानती थी ।। 12 ।। इस प्रकार तरह-तरहके ऐश्वर्यभोगसे पुण्यका और भोगोंके त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मो के अनुष्ठानसे पापका क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्षतक पृथ्वीका शासन किया ॥ 13 ॥ जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुवने इसी तरह अर्थ, धर्म और कामके सम्पादनमें बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कलको राजसिंहासन सौप दिया ।। 14 ।। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपञ्चको अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगरके समान मायासे अपनेमें ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहारभूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डलका| राज्य- ये सभी कालके गालमें पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रमको चले गये ।। 15-16 ।। वहाँ उन्होंने पवित्र जलमें स्नानकर इन्द्रियोंको विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसनसे बैठकर प्राणायामद्वारा वायुको वशमें किया। तदनन्तर मनके द्वारा इन्द्रियोंको बाह्य विषयोंसे हटाकर मनको भगवान्‌ के स्थूल विराट्स्वरूपमें स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूपका चिन्तन करते-करते वे अन्तमें ध्याता और ध्येयके भेदसे शून्य निर्विकल्प समाधिमें लीन हो गये और उस अवस्थामें विराट्रूपका भी परित्याग कर दिया ।। 17 ।। इस प्रकार भगवान् श्रीहरिके प्रति निरन्तर भक्तिभावका प्रवाह चलते रहनेसे उनके नेत्रोंमें बार-बार आनन्दाश्रुओंकी बाढ़ सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीरमें रोमाञ्च हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जानेसे उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही ॥ 18 ॥

इसी समय धुवजीने आकाशसे एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाशसे दसों दिशाओंको आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमाका चन्द्र ही उदय हुआ हो ॥ 19 ॥ उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओंका सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमलके समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे ॥ 20 ॥ उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरिके सेवक जान धुवजी हमें पूजा आदिका क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान्‌के पार्षदोंमें प्रधान है ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदनके नामोंका कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया ।। 21 ।। धुवजीका मन भगवान्‌के चरणकमलोंमें तल्लीन हो गया और वे हाथ जोड़कर बड़ी नम्रतासे सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरिके प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्दने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा ।। 22 ।।सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन् ! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्षकी अवस्थामें ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान्‌को प्रसन्न कर लिया था ॥ 23 ॥ हम उन्हीं निखिलजगन्नियन्ता शार्ङ्गपाणि भगवान् विष्णुके सेवक हैं और आपको भगवान्के धाममें ले जानेके लिये यहाँ आये हैं ॥ 24 ॥ आपने अपनी भक्तिके प्रभावसे विष्णुलोकका अधिकार प्राप्त किया है, जो औरोंके लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँतक नहीं पहुँच सके, वे नीचेसे केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाममें निवास कीजिये ।। 25 ॥ प्रियवर ! आजतक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पदपर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णुका वह परमधाम सारे संसारका वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों ॥ 26 ॥ आयुष्मन् ! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोकशिखामणि श्रीहरिने आपके लिये ही भेजा है, आप इसपर चढ़नेयोग्य हैं ॥ 27 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवान्‌के प्रमुख पार्षदोंके ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुवजीने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्मसे निवृत्त हो माङ्गलिक अलङ्कारादि धारण किये। बदरिकाश्रममें रहनेवाले मुनियोंको प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया ॥ 28 ॥ इसके बाद उस श्रेष्ठ विमानकी पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदोंको प्रणाम कर सुवर्णके समान कान्तिमान् दिव्य रूप धारण कर उसपर चढ़नेको तैयार हुए ॥ 29 ॥ इतनेमें ही ध्रुवजीने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्युके सिरपर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमानपर चढ़ गये ॥ 30 ॥ उस समय आकाशमें दुन्दुभि, मृदङ्ग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलोंकी वर्षा होने लगी ॥ 31 ॥

विमानपर बैठकर ध्रुवजी ज्यों ही भगवान्‌के धामको जानेके लिये तैयार हुए, त्यों ही उन्हें अपनी माता सुनीतिका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माताको छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधामको | जाऊँगा ?’ ॥ 32 ॥नन्द और सुनन्दने ध्रुवके हृदयकी बात जानकर उन्हें | दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमानपर जा रही हैं ।। 33 । उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे । मार्गमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलोंकी वर्षा करते जाते थे ।। 34 ।। उस दिव्य विमानपर बैठकर ध्रुवजी त्रिलोकीको सप्तर्षिमण्डलसे भी ऊपर भगवान् विष्णुके नित्यधाममें पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की ।। 35 ।। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है, इसीके प्रकाशसे तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवोंपर निर्दयता करनेवाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हींकी पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियोंके कल्याणके लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं ॥ 36 ॥ जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियोंको प्रसन्न रखनेवाले हैं तथा भगवद्भक्तोंको ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद् मानते हैं—ऐसे लोग सुगमतासे ही इस भगवद्धामको प्राप्त कर लेते हैं ॥ 37 ॥

इस प्रकार उत्तानपादके पुत्र भगवत्परायण श्रीधुवजी तीनों लोकोंके ऊपर उसकी निर्मल चूडामणिके समान विराजमान हुए ॥ 38 ॥ कुरुनन्दन ! जिस प्रकार दाय चलानेके समय खम्भेके चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेगवाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोकके आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है ॥ 39 ॥ उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारदने प्रचेताओंकी यज्ञशालामें वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे ॥ 40 ॥

नारदजीने कहा था- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीतिके पुत्र ध्रुवने तपस्याद्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मोकी आलोचना करके वेदवादी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओंकी तो बात ही क्या है ॥ 41 ॥ अहो ! वे पाँच वर्षकी अवस्थामें ही सौतेली माताके वाग्बाणोंसे मर्माहत होकर दुःखी हृदयसे वनमें चले गये और मेरे उपदेशके अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभुको जीत लिया, जो केवल अपने भक्तोंके गुणोंसे ही वशमें होते हैं ॥ 42 ॥धवजीने तो पाँच-छः वर्षकी अवस्थामें कुछ दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान्‌को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पदको भूमण्डलमें कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षोंतक तपस्या करके भी पा सकता है ? ॥ 43 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुवजीके चरित्रके विषयमें पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा का पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्रकी बड़ी | प्रशंसा करते हैं ।। 44 ।। यह धन, यश और आयुकी वृद्धि करनेवाला, परम पवित्र और अत्यन्त मङ्गलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह | देवत्वकी प्राप्ति करानेवाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है ॥ 45 ॥ भगवद्भक्त ध्रुवके इस पवित्र चरित्रको जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान्‌की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखोंका नाश हो जाता है ॥ 46 ॥ इसे श्रवण करनेवालेको शीलादि गुणोंकी प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्वकी प्राप्ति करानेवाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियोंका मान बढ़ता है ॥ 47 ॥ पवित्रकीर्ति ध्रुवजीके इस महान् चरित्रका प्रातः और सायंकाल ब्राह्मणादि द्विजातियोंके समाजमें एकाग्र चित्तसे कीर्तन करना चाहिये ॥ 48 ॥ भगवान्के परम पवित्र चरणोंकी शरणमें रहनेवाला जो पुरुष इसे निष्कामभावसे पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवारके दिन श्रद्धालु पुरुषोंको सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मामें ही सन्तुष्ट रहने लगता है। और सिद्ध हो जाता है ॥ 49-50 यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्गके मर्मसे अनभिज्ञ है—उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुषपर देवता अनुग्रह करते हैं ॥ 51 ॥

ध्रुवजीके कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माताके घर और खिलौनोंका मोह छोड़कर श्रीविष्णुभगवान्‌की शरणमे चले गये थे। कुरु नन्दन ! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया ॥ 52 ॥

अध्याय 13 ध्रुववंशका वर्णन, राजा अङ्गका चरित्र

श्रीसूतजी कहते हैं— शौनकजी! श्रीमैत्रेय मुनिके मुखसे धुवजीके विष्णुपदपर आरूढ़ होनेका वृत्तान्त सुनकर विदुरजीके हृदयमें भगवान् विष्णुकी भक्तिका उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेयजीसे प्रश्न करना आरम्भ किया ॥ 1 ॥

विदुरजीने पूछा- भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंशमें प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था ? ॥ 2 ॥ भगवान्‌ के दर्शनसे कृतार्थ नारदजी परम भागवत है—ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने पाञ्चरात्रका निर्माण करके श्रीहरिकी पूजापद्धतिरूप क्रियायोगका उपदेश किया है ॥ 3 ॥ जिस समय प्रचेतागण स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान् यज्ञेश्वरकी आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारदजीने ध्रुवका गुणगान किया था 4 ब्रह्मन् ! उस स्थानपर उन्होंने भगवानकी जिन-जिन लीला का वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूपसे मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुनने की है। बड़ी इच्छा है ॥ 5 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! महाराज ध्रुवके वन चले जानेपर उनके पुत्र उत्कलने अपने पिताके सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासनको अस्वीकार कर दिया ॥ 6 वह जन्मसे ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था तथा सम्पूर्ण लोकोको अपनी आत्मामें और अपनी आत्माको सम्पूर्ण लोकोमे स्थित देखता था ॥ 7 ॥ उसके अन्तःकरणका वासनारूप मल अखण्ड योगाग्निसे भस्म हो गया था। इसलिये वह अपनी आत्माको विशुद्ध बोधरसके साथ अभिन्न, आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सब प्रकारके भेदसे रहित प्रशान्त ब्रह्मको ही वह अपना स्वरूप समझाता था तथा अपनी आत्मासे भिन्न कुछ भी नहीं देखता था ।। 8-9 वह अज्ञानियोंको रास्ते आदि साधारण स्थानोंमें बिना लपटकी आपके समान मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूँगा-सा प्रतीत होता था वास्तव में ऐसा था नहीं ll 10 ll इसलिये कुलकेबड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियोंने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई अमिपुत्र वत्सरको राजा
बनाया ।। 11 ।।

वत्सरकी प्रेयसी भार्या स्वर्वार्थिके गर्भसे पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नामके छः पुत्र हुए ।। 12 ।। पुष्पार्णके प्रभा और दोषा नामकी दो स्त्रियाँ थीं, उनमेंसे प्रभाके प्रातः, मध्यन्दिन और सायं—ये तीन पुत्र हुए ।। 13 ।। दोषाके प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट- ये तीन पुत्र हुए। व्युष्टने अपनी भार्या पुष्करिणीसे सर्वतेजा नामका पुत्र उत्पन्न किया ।। 14 ।। | उसकी पत्नी आकूतिसे चक्षुः नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तरमें वही मनु हुआ। चक्षु मनुकी स्त्री नड्वलासे पुरु, कुल्स, त्रित, घुघ्र, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम अतिरात्र, प्रद्युम्र, शिखि और उल्मुकये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए ।। 15-16 ॥ इनमें उल्मुकने अपनी पत्नी पुष्करिणीसे अङ्ग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अङ्गिरा और गय- ये छः उत्तमं पुत्र उत्पन्न किये ॥ 17 ॥ अङ्गकी पत्नी सुनीथाने क्रूरकर्मा वेनको | जन्म दिया, जिसकी दुष्टतासे उग्र होकर राजर्षि अङ्ग | नगर छोड़कर चले गये थे ॥ 18 प्यारे विदुरजी ! मुनियोंके वाक्य वज्रके समान अमोघ होते हैं; उन्होंने कुपित होकर वेनको शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहनेके कारण लोकमें लुटेरोंके द्वारा प्रजाको बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेनकी दाहिनी भुजाका मन्थन किया, जिससे भगवान् विष्णुके अंशावतार आदिसम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए ।। 19-20 ।।

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् ! महाराज अङ्ग तो बड़े शीलसम्पन्न, साधुस्वभाव, ब्राह्मण-भक्त और महात्मा थे। उनके वेन-जैसा दुष्ट पुत्र कैसे हुआ, जिसके कारण दुःखी होकर उन्हें नगर छोड़ना पड़ा ॥ 21 ॥ राजदण्डधारी वेनका भी ऐसा क्या अपराध था, जो धर्मज्ञ मुनीश्वरोने उसके प्रति शापरूप ब्रह्मदण्डका प्रयोग किया ॥ 22 ॥ प्रजाका कर्तव्य है कि वह प्रजापालक राजासे कोई पाप बन जाय तो भी उसका तिरस्कार न करे; क्योंकि वह अपने प्रभावसे आठ लोकपालोंके तेजको धारण करता है ॥ 23 ॥ब्रह्मन् ! आप भूत-भविष्यकी बातें जाननेवालोंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिये आप मुझे सुनीथाके पुत्र वेनकी सब करतूतें सुनाइये। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ ॥ 24 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी एक बार राजर्षि अङ्गने अश्वमेध महायज्ञका अनुष्ठान किया। उसमें वेदवादी ब्राह्मणोंके आवाहन करनेपर भी देवतालोग अपना भाग लेने नहीं आये ॥ 25॥ तब ऋत्विजोंने विस्मित होकर यजमान अङ्गसे कहा- ‘राजन्! हम आहुतियोंके रूपमें | आपका जो घृत आदि पदार्थ हवन कर रहे हैं, उसे देवता लोग स्वीकार नहीं करते ।। 26 ।। हम जानते हैं आपकी | होम-सामग्री दूषित नहीं है; आपने उसे बड़ी श्रद्धासे जुटाया है तथा वेदमन्त्र भी किसी प्रकार बलहीन नहीं है; क्योंकि उनका प्रयोग करनेवाले ऋत्विजगण याजकोचित सभी नियमोंका पूर्णतया पालन करते हैं ॥ 27 ॥ हमें ऐसी कोई बात नहीं दीखती कि इस यज्ञमें देवताओंका किञ्चित् भी तिरस्कार हुआ है-फिर भी कर्माध्यक्ष देवतालोग क्यों अपना भाग नहीं ले रहे हैं ?’ ॥ 28 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-ऋत्विजोंकी बात सुनकर यजमान अङ्ग बहुत उदास हुए तब उन्होंने याजकोंकी अनुमतिसे मौन तोड़कर सदस्योंसे पूछा ॥ 29 ॥ ‘सदस्यो ! देवतालोग आवाहन करनेपर भी यज्ञमें नहीं आ रहे हैं और न सोमपान हो ग्रहण करते हैं; आप बतलाइये मुझसे ऐसा | क्या अपराध हुआ है ? ‘ ॥ 30 ॥

सदस्योंने कहा- राजन् इस जन्ममें तो आपसे तनिक भी अपराध नहीं हुआ; हाँ, पूर्वजन्मका एक अपराध अवश्य है, जिसके कारण आप ऐसे सर्वगुण सम्पन्न होनेपर भी पुत्रहीन हैं ॥ 31 ॥ आपका कल्याण हो ! इसलिये पहले आप सुपुत्र प्राप्त करनेका कोई उपाय कीजिये। यदि आप पुत्रकी कामनासे यज्ञ करेंगे, तो भगवान् यज्ञेश्वर आपको अवश्य पुत्र प्रदान करेंगे ॥ 32 ॥ जब सन्तानके लिये साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीहरिका आवाहन किया जायगा, तब देवतालोग स्वयं ही अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे ।। 33 ।। भक्त जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, श्रीहरि उसे वही वही पदार्थ देते हैं उनकी जिस प्रकार आराधना की जाती है उसी प्रकार उपासकको फल भी | मिलता है ।। 34 ।।इस प्रकार राजा अङ्गको पुत्रप्राप्ति करानेका निश्चय कर ऋत्विजोंने पशुमें यज्ञरूपसे रहनेवाले श्रीविष्णुभगवान्के पूजनके लिये पुरोडाश नामक चरु समर्पण किया ।। 35 ।। अग्निमें आहुति डालते ही अग्निकुण्डसे सोनेके हार और शुभ वस्त्रोंसे विभूषित एक पुरुष प्रकट हुए; वे एक स्वर्णपात्रमें सिद्ध खीर लिये हुए थे || 36 || उदारबुद्धि राजा अङ्गने याजकोंकी अनुमतिसे अपनी अञ्जलिमें वह खीर ले ली और उसे स्वयं सूँघकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नीको दे दिया ॥ 37 ॥ पुत्रहीना रानीने वह पुत्र प्रदायिनी खीर खाकर अपने पतिके सहवाससे गर्भ धारण किया। उससे यथासमय उसके एक पुत्र हुआ ॥ 38 ॥ वह बालक बाल्यावस्थासे ही अधर्मके वंशमें उत्पन्न हुए अपने नाना मृत्युका अनुगामी था (सुनीथा मृत्युकी ही पुत्री थी); इसलिये वह भी अधार्मिक ही हुआ ।। 39 ।।

वह दुष्ट बालक धनुष-बाण चढ़ाकर वनमें जाता और व्याधके समान बेचारे भोले-भाले हरिणोंकी हत्या करता। उसे देखते ही पुरवासीलोग ‘वेन आया! वेन आया!’ कहकर पुकार उठते ॥ 40 ॥ वह ऐसा क्रूर और निर्दयी था कि मैदान में खेलते हुए अपनी बराबरीके बालकोंको पशुओंकी भाँति बलात् | मार डालता ॥ 41 ॥ वेनकी ऐसी दुष्ट प्रकृति देखकर महाराज अङ्गने उसे तरह-तरहसे सुधारनेकी चेष्टा की; परन्तु वे उसे सुमार्गपर लानेमें समर्थ न हुए। इससे उन्हें बड़ा ही दुःख हुआ ॥ 42 ॥ (वे मन-ही-मन कहने लगे) ‘जिन गृहस्थोंके पुत्र नहीं हैं, उन्होंने अवश्य ही पूर्वजन्ममें श्रीहरिकी आराधना की होगी, इसीसे उन्हें कुपूतकी करतूतोंसे होनेवाले असह्य क्लेश नहीं सहने पड़ते ॥ 43 ॥ जिसकी करनीसे माता | पिताका सारा सुयश मिट्टीमें मिल जाय, उन्हें अधर्मका भागी होना पड़े, सबसे विरोध हो जाय, कभी न छूटनेवाली चिन्ता मोल लेनी पड़े और घर भी दुःखदायी हो जाय ऐसी नाममात्रकी सन्तानके लिये कौन समझदार पुरुष ललचावेगा ? वह तो आत्माके लिये एक प्रकारका मोहमय बन्धन ही है ॥ 44-45 मैं तो सपूतकी अपेक्षा कुपूतको ही अच्छा समझता हूँ; क्योंकि सपूतको छोड़ने में बड़ा क्लेश होता है। कुपूत घरको नरक बना | देता है, इसलिये उससे सहज ही छुटकारा हो जाता है’ ॥ 46 ॥

इस प्रकार सोचते-सोचते महाराज अङ्गको रातमें नींद नहीं आयी। उनका चित्त गृहस्थीसे विरक्त हो गया। वे आधी रातके समय बिछौनेसे उठे। इस समय वेनकी माता नींदमें बेसुध पड़ी थी। राजाने सबका मोह छोड़ दिया और उसी समय किसीको भी मालूम न हो, इस प्रकार चुपचाप उस महान् ऐश्वर्यसे भरे राजमहलसे निकलकर वनको चल दिये ॥ 47 ॥महाराज विरक्त होकर घरसे निकल गये हैं, यह जानकर सभी प्रजाजन, पुरोहित, मन्त्री और सुहृद्गण आदि अत्यन्त शोकाकुल होकर पृथ्वीपर उनकी खोज करने लगे। ठीक वैसे ही जैसे योगका यथार्थ रहस्य न जाननेवाले पुरुष अपने | हृदयमें छिपे हुए भगवान्‌को बाहर खोजते हैं ॥ 48 ॥ जब उन्हें अपने स्वामीका कहीं पता न लगा, तब वे निराश होकर नगरमें लौट आये और वहाँ जो मुनिजन एकत्रित हुए थे, | उन्हें यथावत् प्रणाम करके उन्होंने आँखोंमें आँसू भरकर महाराजके न मिलनेका वृत्तान्त सुनाया ॥ 49 ।।

अध्याय 14 राजा वेनकी कथा

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-वीरवर विदुरजी सभी | लोकोंकी कुशल चाहनेवाले भृगु आदि मुनियोंने देखा कि अङ्गके चले जानेसे अब पृथ्वीकी रक्षा करनेवाला कोई | नहीं रह गया है, सब लोग पशुओंके समान उच्छृङ्खल होते जा रहे हैं ॥ 1 ॥ तब उन्होंने माता सुनीथाकी सम्मतिसे, मन्त्रियोंके सहमत न होनेपर भी वेनको भूमण्डलके राजपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ 2 ॥ वेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर डाकुओंने सुना कि वही राजसिंहासनपर बैठा है, तब सर्पसे डरे हुए चूहोंके समान वे सब तुरंत ही जहाँ-तहाँ छिप गये ॥ 3 ॥ राज्यासन पानेपर वेन आठों लोकपालोंकी ऐश्वर्यकलाके कारण उन्मत्त हो गया और अभिमानवश अपनेको ही सबसे बड़ा मानकर महापुरुषोंका अपमान करने लगा ॥ 4 ॥ वह ऐश्वर्यमदसे अंधा हो रथपर चढ़कर निरङ्कुश गजराजके | समान पृथ्वी और आकाशको कँपाता हुआ सर्वत्र विचरने लगा ॥ 5 ॥ ‘कोई भी द्विजातिय वर्णका पुरुष कभी किसी प्रकारका यज्ञ, दान और हवन न करे’ अपने राज्यमें यह ढिढोरा पिटवाकर उसने सारे धर्म-कर्म बंद करवा दिये ।। 6 ।।

दुष्ट वेनका ऐसा अत्याचार देख सारे ऋषि-मुनि एकत्र हुए और संसारपर सङ्कट आया समझकर करुणावश आपसमें कहने लगे ॥ 7 ॥ ‘अहो! जैसे दोनों| ओर जलती हुई लकड़ीके बीचमें रहनेवाले चींटी आदि जीव महान् सङ्कटमें पड़ जाते हैं, वैसे ही इस समय सारी प्रजा एक ओर राजाके और दूसरी ओर चोर-डाकुओंके अत्याचारसे महान् सङ्कटमें पड़ रही है ॥ 8 ॥ हमने | अराजकताके भयसे ही अयोग्य होनेपर भी वेनको राजा बनाया था; किन्तु अब उससे भी प्रजाको भय हो गया। ऐसी अवस्थामें प्रजाको किस प्रकार सुख-शान्ति मिल सकती है ? ॥ 9 ॥ सुनीथाकी कोखसे उत्पन्न हुआ यह वेन स्वभावसे ही दुष्ट है। परन्तु साँपको दूध पिलाने के समान इसको पालना, पालनेवालोंके लिये अनर्थका कारण हो गया ।। 10 ।। हमने इसे प्रजाकी रक्षा करनेके लिये नियुक्त किया था, यह आज उसीको नष्ट करनेपर तुला हुआ है। इतना सब होनेपर भी हमें इसे समझाना | अवश्य चाहिये; ऐसा करनेसे इसके किये हुए पाप हमें | स्पर्श नहीं करेंगे ॥ 11 ॥ हमने जान-बूझकर दुराचारी वेनको राजा बनाया था। किन्तु यदि समझानेपर भी यह हमारी बात नहीं मानेगा, तो लोकके रिसे दग्ध हुए इस दुष्टको हम अपने तेजसे भस्म कर देंगे।’ ऐसा विचार करके मुनिलोग वेनके पास गये और अपने क्रोधको छिपाकर उसे प्रिय वचनोंसे समझाते हुए इस प्रकार कहने लगे ।। 12-13 ।।

मुनियोंने कहा- राजन्! हम आपसे जो बात कहते हैं, उसपर ध्यान दीजिये। इससे आपकी आयु, श्री. बल और कीर्तिकी वृद्धि होगी ॥ 14 ॥ तात ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धिसे धर्मका आचरण करे, तो उसे स्वर्गादि शोकरहित लोकोंकी प्राप्ति होती है। यदि | उसका निष्काम भाव हो, तब तो वही धर्म उसे अनन्त मोक्षपदपर पहुँचा देता है ।। 15 । इसलिये वीरवर ! प्रजाका कल्याणरूप वह धर्म आपके कारण नष्ट नहीं होना चाहिये। धर्मके नष्ट होनेसे राजा भी ऐश्वर्यसे च्युत हो जाता है ।। 16 ।। जो राजा दुष्ट मन्त्री और चोर आदिसे अपनी प्रजाकी रक्षा करते हुए न्यायानुकूल कर लेता है, वह इस लोकमे और परलोकमें दोनों जगह सुख पाता है। 17 ॥ जिसके राज्य अथवा नगरमे वर्णाश्रम धर्मोका पालन करनेवाले पुरुष स्वधर्मपालनके द्वारा भगवान् यज्ञपुरुषकी आराधना करते हैं, महाभाग । अपनी आज्ञाका पालनकरनेवाले उस राजासे भगवान् प्रसन्न रहते हैं; क्योंकि वे ही सारे विसकी आत्मा तथा सम्पूर्ण भूतोंके रक्षक हैं 18-19 ।। भगवान् ब्रह्मादि जगदीधरोके भी ईश्वर हैं, | उनके प्रसन्न होनेपर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तभी तो इन्द्रादि लोकपालोके सहित समस्त लोक उन्हें बड़े आदरसे पूजोपहार समर्पण करते हैं ॥ 20 ॥ राजन् । भगवान् श्रीहरि समस्त लोक, लोकपाल और यज्ञोंके नियन्ता हैं; वे वेदत्रयीरूप, द्रव्यरूप और तपःस्वरूप हैं। | इसलिये आपके जो देशवासी आपकी उत्पतिके लिये अनेक प्रकारके बसे भगवान‌का वजन करते हैं, आपको उनके अनुकूल ही रहना चाहिये ॥ 21 ॥ जब आपके राज्यमें ब्राह्मणलोग यज्ञोका अनुष्ठान करेंगे, तब उनकी पूजासे प्रसन्न होकर भगवान् के अंशस्वरूप देवता आपको मनचाहा फल देंगे। अतः परिवर! आपको यशादि धर्मानुष्ठान बंद करके देवताओंका तिरस्कार नहीं करना चाहिये ॥ 22 ॥

वेनने कहा- तुमलोग बड़े मूर्ख हो ! खेद है, तुमने अधर्म ही धर्मबुद्धि कर रखी है। तभी तो तुम जीविका | देनेवाले मुझ साक्षात् पतिको छोड़कर किसी दूसरे |जारपतिकी उपासना करते हो ॥ 23 ॥ जो लोग मूर्खतावश राजारूप परमेश्वरका अनादर करते हैं, उन्हें न तो इस लोकमें | सुख मिलता है और न परलोकमें ही ॥ 24 ॥ अरे ! जिसमें तुमलोगोंकी इतनी भक्ति है, वह यज्ञपुरुष है कौन ? यह तो | ऐसी ही बात हुई जैसे कुलटा स्त्रियाँ अपने विवाहित पतिसे | प्रेम न करके किसी परपुरुषमें आसक्त हो जायँ ॥ 25 ॥ विष्णु, ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, मेघ, कुबेर, चन्द्रमा, पृथ्वी, अग्नि और वरुण तथा इनके अतिरिक्त जो | दूसरे वर और शाप देनेमें समर्थ देवता है, वे सब-के-सब राजाके शरीरमें रहते हैं; इसलिये राजा सर्वदेवमय है और देवता उसके अंशमात्र है । 26-27 ॥ इसलिये ब्राह्मणो ! तुम मत्सरता छोड़कर अपने सभी कमद्वारा एक मेरा हो पूजन करो और मुझीको बलि समर्पण करो। भला मेरे सिवा और कौन अग्रपूजाका अधिकारी हो सकता है ॥ 28 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-इस प्रकार विपरीत बुद्धि होनेके कारण वह अत्यन्त पापी और कुमार्गगामी हो गया था। उसका पुण्य क्षीण हो चुका था, इसलिये मुनियोंके बहुत विनयपूर्वक प्रार्थना करनेपर भी | उसने उनकी बातपर ध्यान न दिया ।। 29 ॥ कल्याणरूप|विदुरजी अपनेको बड़ा बुद्धिमान् समझनेवाले वेनने जब उन मुनियोंका इस प्रकार अपमान किया, तब अपनी माँगको व्यर्थ हुई देश वे उसपर अत्यन्त कुपित हो गये ॥ 30 ॥ मार डालो। इस स्वभावसे ही दुष्ट पापीको मार डालो। यह यदि जीता रह गया तो कुछ ही दिनोंमें संसारको अवश्य भस्म कर डालेगा ।। 31 ।। यह दुराचारी किसी प्रकार राजसिंहासन के योग्य नहीं है, क्योंकि यह निर्लज्ज साक्षात् यज्ञपति श्रीविष्णुभगवान्‌की निन्दा करता है ।। 32 ।। अहो | जिनकी कृपासे इसे ऐसा ऐश्वर्य मिला, उन श्रीहरिकी निन्दा अभागे वेनको छोड़कर और कौन कर सकता है’ ? ।। 33 ।।

इस प्रकार अपने छिपे हुए क्रोधको प्रकट कर उन्होंने उसे मारनेका निश्चय कर लिया। वह तो भगवान्की निन्दा करनेके कारण पहले ही मर चुका था, इसलिये केवल हुङ्कारोंसे ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया || 34 ॥ जब मुनिगण अपने-अपने आश्रमोंको चले गये, तब इधर वेनकी शोकाकुला माता सुनीथा मन्त्रादिके बलसे तथा अन्य युक्तियोंसे अपने पुत्रके शवकी रक्षा | करने लगी ।। 35 ।।

एक दिन वे मुनिगण सरस्वतीके पवित्र जलमें स्नान कर अग्निहोत्रसे निवृत्त हो नदीके तीरपर बैठे हुए हरिचर्चा कर रहे थे ॥ 36 ॥ उन दिनों लोकोंमें आतङ्क फैलानेवाले बहुत-से उपद्रव होते देखकर वे आपसमें कहने लगे, ‘आजकल पृथ्वीका कोई रक्षक नहीं है; इसलिये चोर डाकुओंके कारण उसका कुछ अमङ्गल तो नहीं होनेवाला है ?’ ॥ 37 ऋषिलोग ऐसा विचार कर ही रहे थे कि उन्होंने सब दिशाओंगे पावा करनेवाले चोरों और डाकुओंके कारण उठी हुई बड़ी भारी धूल देखी ॥ 38 ॥ देखते ही वे समझ गये कि राजा वेनके मर जानेके कारण देशमें अराजकता फैल गयी है, राज्य शक्तिहीन हो गया है और चोर डाकू बढ़ गये है; यह सारा उपद्रव लोगों का धन लूटनेवाले तथा एक-दूसरेके खूनके प्यासे लुटेरोंका ही है। अपने तेजसे अथवा तपोबलसे लोगोंको ऐसी कुप्रवृत्तिसे रोकने में समर्थ होनेपर भी ऐसा करनेमें हिंसादि दोष देखकर उन्होंने इसका कोई निवारण नहीं किया ।। 39-40 ।। फिर सोचा कि ‘ब्राह्मण यदि समदर्शी और | शान्तस्वभाव भी हो तो भी दीनोंकी उपेक्षा करनेसे उसका तप उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जैसे फूटे हुए घड़ेमेंसे जल बह जाता है ॥ 41 फिर राजर्षि अङ्गका वंश भी नष्ट नहीं होना चाहिये, क्योंकि इसमें अनेक अमोघ शक्ति और भगवत्परायण राजा हो। चुके हैं 42 ऐसा निश्चय कर उन्होंने बड़े | जोरसे मथा तो उसमेंसे एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ ।। 43 ।।वह कौएके समान काला था उसके सभी अङ्ग और खासकर भुजाएँ बहुत छोटी थीं, जबड़े बहुत बड़े, टाँगे छोटी, नाक चपटी, नेत्र लाल और केश तबके से रंगके थे ।। 44 ।। उसने बड़ी दीनता और नम्रभावसे पूछा कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तो ऋषियोंने कहा- ‘निषीद (बैठ जा) ।’ इसीसे वह ‘निषाद’ कहलाया ॥ 45 ॥ उसने जन्म लेते ही राजा वेनके भयङ्कर पापोंको अपने ऊपर ले लिया, इसीलिये उसके वंशधर नेपाद भी हिंसा, लूट-पाट आदि पापकमेभि रत रहते हैं; अतः वे गाँव और नगरमें न टिककर वन और पर्वतोंमें ही निवास करते हैं ।। 46 ।।

अध्याय 15 महाराज पृथुका आविर्भाव और राज्याभिषेक

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! इसके बाद ब्राह्मणोंने पुत्रहीन राजा वेनकी भुजाओंका मन्थन किया, तब उनसे एक स्त्री-पुरुषका जोड़ा प्रकट हुआ ॥ 1 ॥ ब्रह्मवादी ऋषि उस जोड़ेको उत्पन्न हुआ देख और उसे भगवान्‌का अंश जान बहुत प्रसन्न हुए और बोले ॥ 2 ॥

है वह ऋषियोंने कहा- यह पुरुष भगवान् विष्णुकी विश्वपालिनी कलासे प्रकट हुआ है और यह स्त्री उन परम पुरुषकी अनपायिनी (कभी अलग न होनेवाली) शक्ति लक्ष्मीजीका अवतार है ।। 3 ।। इनमेंसे जो पुरुष अपने सुयशका प्रथन- विस्तार करनेके कारण परम यशस्वी ‘पृथु’ नामक सम्राट् होगा। राजाओंमें यही सबसे पहला होगा ॥ 4 ॥ यह सुन्दर दाँतोंवाली एवं गुण और आभूषणोंको भी विभूषित करनेवाली सुन्दरी इन पृथुको ही अपना पति बनायेगी। इसका नाम अर्चि होगा ॥ 5 ॥पृथुके रूपमें साक्षात् श्रीहरिके अंशने ही संसारकी | रक्षाके लिये अवतार लिया है और अर्चिके रूपमें, निरन्तर भगवान्की सेवामें रहनेवाली उनकी नित्य सहचरी श्रीलक्ष्मीजी ही प्रकट हुई हैं ॥ 6 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उस समय ब्राह्मणलोग पृथुकी स्तुति करने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्वोने गुणगान किया, सिद्धोंने पुष्पोंकी वर्षा की, अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ 7 ॥ आकाशमें शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और | दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे। समस्त देवता, ऋषि और पितर अपने-अपने लोकोंसे वहाँ आये ॥ 8 ॥ जगद्गुरु ब्रह्माजी देवता और देवेश्वरोंके साथ पधारे। उन्होंने वेनकुमार पृथुके दाहिने हाथमें भगवान् विष्णुकी हस्तरेखाएँ और चरणोंमें कमलका चिह्न देखकर उन्हें श्रीहरिका ही अंश समझा; क्योंकि जिसके हाथमें दूसरी | रेखाओंसे बिना कटा हुआ चक्रका चिह्न होता है, वह भगवान्का ही अंश होता है ।। 9-10 ।।

वेदवादी ब्राह्मणोंने महाराज पृथुके अभिषेकका आयोजन किया। सब लोग उसकी सामग्री जुटाने में लग गये ॥ 11 ॥ उस समय नदी, समुद्र, पर्वत, सर्प, गौ, पक्षी, मृग, स्वर्ग, पृथ्वी तथा अन्य सब प्राणियोंने भी उन्हें तरह-तरहके उपहार भेंट किये ।। 12 ।। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे अलङ्कृत महाराज पृथुका विधिवत् राज्याभिषेक हुआ। उस समय अनेकों अलङ्कारोंसे सजी हुई महारानी अर्चिके साथ वे दूसरे अग्निदेवके सदृश जान पड़ते थे ॥ 13 ॥

वीर विदुरजी । उन्हें कुबेरने बड़ा हो सुन्दर सोनेका सिंहासन दिया तथा वरुणने चन्द्रमाके समान श्वेत और प्रकाशमय छत्र दिया, जिससे निरन्तर जलकी फुहियाँ | झरती रहती थीं ॥ 14 ॥ वायुने दो चँवर, धर्मने कीर्तिमयी माला, इन्द्रने मनोहर मुकुट, यमने दमन करनेवाला दण्ड, ब्रह्माने वेदमय कवच, सरस्वतीने सुन्दर हार, विष्णुभगवान्ने सुदर्शनचक्र, विष्णुप्रिया लक्ष्मीजीने अविचल सम्पत्ति, रुद्रने दस चन्द्राकार चिह्नोंसे युक्तकोपवाली तलवार, अम्बिकाजीने सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल, चन्द्रमाने अमृतमय अश्व, त्वष्टा (विश्वकर्मा) ने सुन्दर रथ, अग्निने बकरे और गौके सींगोंका बना हुआ सुदृढ धनुष, सूर्यने तेजोमय बाण, पृथ्वीने चरणस्पर्श मात्र से अभीष्ट स्थानपर पहुँचा देनेवाली योगमयी पादुकाएं, आकाशके अभिमानी द्यौ देवताने नित्य नूतन पुष्पोंकी माला, आकाशविहारी सिद्ध गन्धर्वादिने नाचने-गाने, बजाने और अन्तर्धान हो जानेकी शक्तियाँ, ऋषियोंने अमोघ आशीर्वाद, | समुद्रने अपनेसे उत्पन्न हुआ शङ्ख तथा सातों समुद्र, पर्वत और नदियोंने उनके रथके लिये बेरोक-टोक मार्ग उपहारमें दिये। इसके पश्चात् सूत, मागध और वन्दोजन उनकी स्तुति करनेके लिये उपस्थित हुए । 15 – 20 ॥ तब उन स्तुति करनेवालोंका अभिप्राय समझकर वेनपुत्र परम प्रतापी महाराज पृथुने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणी में कहा ll 21 ll

पृथुने कहा- -सौम्य सूत, मागध और वन्दीजन ! अभी तो लोकमें मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ। फिर तुम किन गुणोको लेकर मेरी स्तुति करोगे ? मेरे विषयमें तुम्हारी वाणी व्यर्थ नहीं होनी चाहिये। इसलिये मुझसे भिन्न किसी औरकी स्तुति करो ।। 22 ।। मृदुभाषियों ! कालान्तरमे जब मेरे अप्रकट गुण प्रकट हो जायें, तब भरपेट अपनी मधुर वाणीसे मेरी स्तुति कर लेना। देखो, शिष्ट पुरुष पवित्रकीर्ति श्रीहरिके गुणानुवादके रहते हुए तुच्छ मनुष्योंकी स्तुति नहीं किया करते ।। 23 । महान् गुणोको धारण करनेमें समर्थ होनेपर भी ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष है, जो उनके न रहनेपर भी केवल सम्भावनामात्रसे स्तुति करनेवालोंद्वारा अपनी स्तुति करायेगा ? यदि यह विद्याभ्यास करता तो इसमें अमुक-अमुक गुण हो जाते- इस प्रकारकी स्तुतिसे तो मनुष्यकी वञ्चना की जाती है। वह मन्दमति यह नहीं समझता कि इस प्रकार तो लोग हैं उसका उपहास ही कर रहे हैं ।। 24 ।। जिस प्रकार लज्जाशील उदार पुरुष अपने किसी निन्दित पराक्रमकी चर्चा होनी बुरी समझते हैं, उसी प्रकार लोकविख्यात समर्थ पुरुष अपनी स्तुतिको भी निन्दित मानते हैं ॥ 25 ॥ सूतगण ! अभी हम अपने श्रेष्ठ कर्मो के द्वारा लोकमें अप्रसिद्ध ही हैं; हमने अबतक कोई भी ऐसा काम नहीं किया है, जिसकी प्रशंसा की जा सके। तब तुम लोगोंसे बच्चोंके समान अपनी कीर्तिका किस प्रकार गान करावें ? ।। 26 ।।

अध्याय 16 बन्दीजनद्वारा महाराज पृथुकी स्तुति

श्रीमैत्रेयजी कहते है- महाराज पृथुने जब इस प्रकार कहा, तब उनके वचनामृतका आस्वादन करके सूत आदि गायकलोग बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे मुनियोंकी प्रेरणासे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ 1 ॥ ‘आप साक्षात् देवप्रवर श्रीनारायण ही हैं’ जो अपनी मायासे अवतीर्ण हुए हैं; हम आपकी महिमाका वर्णन करनेमें समर्थ नहीं हैं। आपने जन्म तो राजा वेनके मृतक शरीरसे लिया है, किन्तु आपके पौरुषोंका वर्णन करनेमें साक्षात् ब्रह्मादिकी बुद्धि भी चकरा जाती है ॥ 2 ॥ तथापि आपके कथामृतके आस्वादन आदर-बुद्धि रखकर मुनियोंके उपदेश के अनुसार उन्हींकी प्रेरणासे हम आपके परम प्रशंसनीय | कर्मोंका कुछ विस्तार करना चाहते हैं, आप साक्षात् श्रीहरिके कलावतार हैं और आपकी कीर्ति बड़ी उदार है ॥ 3 ॥

‘ये धर्मधारियोंमें श्रेष्ठ महाराज पृथु लोकको धर्ममें प्रवृत्त करके धर्ममर्यादाकी रक्षा करेंगे तथा उसके विरोधियोंको दण्ड देंगे ॥ 4 ॥ ये अकेले ही समय-समयपर प्रजाके पालन, पोषण और अनुरञ्जन आदि कार्यके अनुसार अपने शरीरमें भिन्न-भिन्न लोकपालोंकी मूर्तिको धारण करेंगे तथा यज्ञ आदिके प्रचारद्वारा स्वर्गलोक और वृष्टिकी व्यवस्थाद्वारा भूलोक—दोनोंका ही हित साधन करेंगे ॥ 5 ॥ ये सूर्यके समान अलौकिक महिमान्वित प्रतापवान् और समदर्शी होंगे। जिस प्रकार सूर्य देवता आठ महीने तपते रहकर जल खींचते हैं और वर्षा ऋतुमें उसे उड़ेल देते हैं, उसी प्रकार ये कर आदिके द्वारा कभी धन सञ्चय करेंगे और कभी उसका प्रजाके हितके लिये | व्यय कर डालेंगे || 6 || ये बड़े दयालु होंगे। यदि कभी कोई दीन पुरुष इनके मस्तकपर पैर भी रख देगा, तो भी ये पृथ्वीके समान उसके इस अनुचित व्यवहारको सदा सहन करेंगे 7 कभी वर्षा न होगी और प्रजाके प्राण सङ्कटमें पड़ जायेंगे, तो ये राजवेषधारी श्रीहरि इन्द्रको भाँति जल बरसाकर अनायास ही उसकी रक्षा कर लेंगे ॥ 8 ॥ ये अपने अमृतमय मुखचन्द्रकी मनोहर मुसकान और प्रेमभरी चितवनसे सम्पूर्ण लोकोंको आनन्दमन कर देंगे । 9 ॥ इनकी गतिको कोई समझ न सकेगा, इनके कार्य भी गुप्त होंगे तथा उन्हें सम्पन्न करनेका ढंग भी बहुत गम्भीर होगा। इनका धन सदा सुरक्षित रहेगा। ये अनन्त माहात्म्य और गुणोंके एकमात्र आश्रय होंगे। इस प्रकार मनस्वी पृथु साक्षात् वरुणके ही समान होंगे ॥ 10 ॥’महाराज पृथु वेनरूप अरणिके मन्थनसे प्रकट हुए अप्रिके समान हैं। शत्रुओंके लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और दुःसह होंगे। ये उनके समीप रहनेपर भी, सेनादिसे सुरक्षित रहनेके कारण, बहुत दूर रहनेवाले से होंगे। शत्रु कभी इन्हें हरा न सकेंगे ॥ 11 ॥ जिस प्रकार प्राणियोंके भीतर रहनेवाला प्राणरूप सूत्रात्मा शरीरके भीतर-बाहरके समस्त व्यापारोंको देखते रहनेपर भी उदासीन रहता है, उसी प्रकार ये गुप्तचरोंके द्वारा प्राणियोंके गुप्त और प्रकट सभी प्रकारके व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और स्तुति आदिके प्रति उदासीनवत् रहेंगे ।। 12 ।। ये धर्ममार्ग में स्थित रहकर अपने शत्रुके पुत्रको भी, दण्डनीय न होनेपर, कोई दण्ड न देंगे और दण्डनीय होनेपर तो अपने पुत्रको भी दण्ड देंगे ॥ 13 ॥ भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वततक जितने प्रदेशको अपनी किरणोंसे प्रकाशित करते हैं, उस सम्पूर्ण क्षेत्रमें इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा ।। 14 ।। ये अपने कार्योंसे सब लोकोको सुख पहुँचावेंगे-उनका रञ्जन करेंगे; इससे उन मनोरञ्जनात्मक व्यापारोंके कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी ॥ 15 ॥ ये बड़े दृढसङ्कल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मणभक्त, वृद्धोंकी सेवा करनेवाले, शरणागतवत्सल, सब प्राणियोंको मान देनेवाले और दीनोंपर दया करनेवाले होंगे ॥ 16 ॥ ये परस्त्रीमें माताके समान भक्ति रखेंगे, पत्नीको अपने आधे अङ्गके समान मानेंगे, प्रजापर पिताके समान प्रेम रखेंगे और ब्रह्मवादियोंके सेवक होंगे ॥ 17 ॥ दूसरे प्राणी इन्हें उतना ही चाहेंगे जितना अपने शरीरको। ये सुहृदोंके आनन्दको बढ़ायेंगे। ये सर्वदा वैराग्यवान् पुरुषोंसे विशेष प्रेम करेंगे और दुष्टोंको दण्डपाणि यमराजके समान सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहेंगे ॥ 18 ॥

‘तीनों गुणोके अधिष्ठाता और निर्विकार साक्षात् श्रीनारायणने ही इनके रूपमें अपने अंशसे अवतार लिया है, जिनमें पण्डितलोग अविद्यावश प्रतीत होनेवाले इस नानात्वको मिथ्या ही समझते हैं ।। 19 ।। ये अद्वितीय वीर और एकछत्र सम्राट होकर अकेले ही उदयाचलपर्यन्त समस्त भूमण्डलकी रक्षा करेंगे तथा अपने जयशील रथपर चढ़कर धनुष हाथमें लिये सूर्यके समान सर्वत्र प्रदक्षिणा करेंगे || 20 | उस समय जहाँ-तहाँ सभी लोकपाल और पृथ्वीपाल इन्हें भेंटे समर्पण करेंगे, उनकी स्त्रियाँ इनका गुणगान करेंगी और इन आदिराजको साक्षात् श्रीहरि ही समझेगी ॥ 21 ॥ये प्रजापालक राजाधिराज होकर प्रजाके जीवननिर्वाहके लिये गोरूपधारिणी पृथ्वीका दोहन करेंगे और इन्द्रके समान अपने धनुषके कोनोंसे बातों की बातमें पर्वतोंको तोड़-फोड़कर पृथ्वीको समतल कर देंगे ।। 22 ।। रणभूमिमें कोई भी इनका वेग नहीं सह सकेगा। जिस | समय ये जंगलमें पूँछ उठाकर विचरते हुए सिंहके समान अपने ‘आजगव’ धनुषका टंकार करते हुए भूमण्डलमें विचरेंगे, उस समय सभी दुष्टजन इधर-उधर छिप जायँगे ॥ 23 ॥ ये सरस्वतीके उद्गमस्थानपर सौ अश्वमेधयज्ञ करेंगे। तब अन्तिम यज्ञानुष्ठानके समय इन्द्र इनके घोड़ेको हरकर ले जायँगे || 24 || अपने महलके बगीचेमें इनकी एक बार भगवान् सनत्कुमारसे भेंट होगी। अकेले उनकी भक्तिपूर्वक सेवा करके ये उस निर्मल ज्ञानको प्राप्त करेंगे, जिससे परब्रह्मकी प्राप्ति होती है । 25 ॥ इस प्रकार जब इनके पराक्रम जनताके सामने आ जायेंगे, तब ये परमपराक्रमी महाराज जहाँ-तहाँ अपने चरित्रकी ही चर्चा सुनेंगे ॥ 26 ॥ इनकी आज्ञाका विरोध कोई भी न कर सकेगा तथा ये सारी दिशाओंको जीतकर और अपने तेजसे प्रजाके फ्रेशरूप काँटेको निकालकर सम्पूर्ण भूमण्डलके शासक होगे। उस समय देवता और असुर भी इनके विपुल प्रभावका वर्णन करेंगे’ ।। 27 ।।

अध्याय 17 महाराज पृथुका पृथ्वीपर कुपित होना

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- इस प्रकार जब वन्दीजनने महाराज पृथुके गुण और कर्मोंका बखान करके उनकी प्रशंसा की, तब उन्होंने भी उनकी बड़ाई करके तथा उन्हें मनचाही वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया ॥ 1 ॥उन्होंने ब्राह्मणादि चारों वर्णों, सेवकों, मन्त्रियों, पुरोहितों, पुरवासियों, देशवासियों, भिन्न-भिन्न व्यवसायियों तथा अन्यान्य आज्ञानुवर्तियोंका भी सत्कार किया ॥ 2 ॥

विदुरजीने पूछा- ब्रहान् पृथ्वी तो अनेक रूप धारण कर सकती है, उसने गौका रूप ही क्यों धारण किया ? और जब महाराज पृथुने उसे दुहा, तब बछड़ा कौन बना? और दुहनेका पात्र क्या हुआ ? ॥ 3 ॥ पृथ्वी देवी तो पहले स्वभावसे ही ऊँची-नीची थी। उसे उन्होंने समतल किस प्रकार किया और इन्द्र उनके यज्ञसम्बन्धी धोडेको क्यों हर ले गये ? ॥ 4 ॥ ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमारजीसे ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करके वे | राजर्षि किस गतिको प्राप्त हुए ? ॥ 5 ॥ पृथुरूपसे सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्णने ही अवतार ग्रहण किया था; अतः पुण्यकीर्ति श्रीहरिके उस पृथु अवतारसे सम्बन्ध रखनेवाले जो और भी पवित्र चरित्र हो, वे सभी आप मुझसे कहिये। मैं आपका और श्रीकृष्णचन्द्रका बड़ा अनुरक्त भक्त हूँ ।। 6-7 ।।

श्रीसूतजी कहते हैं-जब विदुरजीने भगवान् वासुदेवकी कथा कहनेके लिये इस प्रकार प्रेरणा की, तब श्रीमैत्रयजी प्रसन्नचित्तसे उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे ॥ 8 ॥

श्रीमैत्रेवजीने कहा- विदुरजी ! ब्राह्मणोंने | महाराज पृथुका राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजाका रक्षक उद्घोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, | इसलिये भूखके कारण प्रजाजनोंके शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। उन्होंने अपने स्वामी पृथुके पास आकर कहा ॥ 9 ॥ राजन् जिस प्रकार कोटरमें सुलगती हुई आगसे पेड़ जल जाता है, उसी प्रकार हम पेटकी भीषण ज्वालासे जले जा रहे हैं। आप शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले हैं और हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, इसलिये हम आपकी शरणमें आये हैं ll 10 ll आप समस्त लोकोंकी रक्षा करनेवाले हैं, आप ही हमारी जीविकाके भी स्वामी हैं। अतः राजराजेश्वर ! आप हम क्षुधापीड़ितोंको शीघ्र ही अन्न देनेका प्रबन्ध कोजिये, ऐसा न हो कि अन्न मिलनेसे पहले ही हमारा अन्त हो जाय’ ॥ 11 ॥श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— कुरुवर !

प्रजाका करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देरतक विचार करते रहे। अन्तमें उन्हें अन्नाभावका कारण मालूम हो गया ॥ 12 ॥ ‘पृथ्वीने स्वयं ही अत्र एवं औषधादिको अपने भीतर छिपा लिया है अपनी बुद्धिसे इस बातका निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और त्रिपुरविनाशक भगवान् शङ्करके समान अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वीको लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया ॥ 13 ॥ उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याधके पीछा करनेपर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौका रूप धारण करके भागने लगी ।। 14 ।।

यह देखकर महाराज पृथुकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे जहाँ-जहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुषपर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे ।। 15 ।। दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें जहाँ-जहाँ भी वह दौड़कर जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते ।। 16 ।। जिस प्रकार मनुष्यको मृत्युसे कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकीमें वेनपुत्र पृथुसे बचानेवाला कोई भी न मिला। तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्तसे पीछेकी ओर लौटी ॥ 17 ॥ और महाभाग पृथुजीसे कहने लगी- ‘धर्मके तत्त्वको | जाननेवाले शरणागतवत्सल राजन्! आप तो सभी प्राणियोंकी रक्षा करनेमें तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये || 18 मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्रीका वध आप कैसे कर सकेंगे ? ॥ 19 ॥ स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उनपर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं ? ॥ 20 ॥ मैं तो एक सुदृढ़ नौकाके समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधारपर स्थित हैं। मुझे तोड़कर आप अपनेको और अपनी प्राको जलके ऊपर कैसे रखेंगे ?’ ॥ 21 ॥

महाराज पृथुने कहा- पृथ्वी! तू मेरी आशका उल्लङ्घन करनेवाली है। तू यज्ञमें देवतारूपसे भाग तो लेती है, ‘किन्तु उसके बदले में हमें अन्न नहीं देती इसलिये आज मैं तुझे -मार डालूँगा ॥ 22 ॥ तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने धनका दूध नहीं देती-ऐसी दुष्टता करनेपर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता ॥ 23 ॥तू नासमझ है, तूने पूर्वकालमें ब्रह्माजीके उत्पन्न किये हुए अन्नादिके बीजोंको अपनेमें लीन कर लिया है और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भसे निकालती नहीं ।। 24 ।। अब मैं अपने बाणोंसे तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदेसे इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनोंका करुण क्रन्दन शान्त करूंगा ॥ 25 ॥ जो दुष्ट अपना ही पोषण करनेवाला तथा अन्य प्राणियोंके प्रति निर्दय हो वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो—उसका मारना राजाओंके लिये न | मारनेके ही समान है ॥ 26 ॥ तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय मायासे ही यह गौका रूप बनाये हुए है। मैं बाणोंसे तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबलसे प्रजाको धारण करूँगा ॥ 27 ॥

इस समय महाराज पृथु कालकी भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभावसे हाथ जोड़कर कहा ।। 28 ।।

पृथ्वीने कहा -आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा – अपनी मायासे अनेक प्रकारके शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते है; वास्तव आत्मानुभव के द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादिसे सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ 29 ॥ आप सम्पूर्ण जगत्के विधाता है; अपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवोंका आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो! जब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारनेको तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरणमें जाऊँ ? ॥ 30 ॥ कल्पके आरम्भमें आपने अपने आश्रित रहनेवाली अनिर्वचनीया मायासे ही इस चराचर जगत्की रचना की थी और उस मायाके ही द्वारा आप इसका पालन करनेके लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूपधारिणीको किस प्रकार मारना चाहते हैं ? ।। 31 ।। आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्माको रचकर उनसे विश्वकी रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओंको अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं ? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय मायासे विक्षिप्त हो रही है।। 32 ।।आप ही पशभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहङ्काररूप अपनी शक्तियोंके द्वारा क्रमशः जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये समय-समयपर आपकी शक्तियोंका आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परमपुरुष और जगद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है ॥ 33 ॥ अजन्मा प्रभो! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप जगत्की स्थितिके लिये आदिवराहरूप होकर मुझे रसातलसे जलके बाहर लाये थे ।। 34 ।। इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने धराधर नाम पाया था, आज वही आप | वीरमूर्तिसे जलके ऊपर नौकाके समान स्थित मेरे ही आश्रय रहनेवाली प्रजाकी रक्षा करनेके अभिप्रायसे पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देनेके अपराधमें मुझे मारना चाहते हैं ॥ 35 ॥ इस त्रिगुणात्मक सृष्टिकी रचना करनेवाली आपकी मायासे मेरे-जैसे साधारण जीवोंके चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ जैसे लोग तो आपके भक्तोंकी लीलाओंका भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रियाका उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अतः जो इन्द्रिय-संयमादिके द्वारा वीरोचित यज्ञका विस्तार करते हैं, । ऐसे आपके भक्तोंको भी नमस्कार है ॥ 36 ॥

अध्याय 18 पृथ्वी - दोहन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी ! इस समय महाराज पृथुके होठ क्रोधसे काँप रहे थे। उनकी इस प्रकार स्तुति कर पृथ्वीने अपने हृदयको विचारपूर्वक समाहित किया और डरते-डरते उनसे कहा ॥ 1 ॥ ‘प्रभो! आप अपना | क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो प्रार्थना करती हूँ, उसे ध्यान | देकर सुनिये। बुद्धिमान् पुरुष भ्रमरके समान सभी जगहसे सार ग्रहण कर लेते हैं ॥ 2 ॥ तत्त्वदर्शी मुनियोंने इस लोक और परलोकमें मनुष्योंका कल्याण करनेके लिये कृषि, अग्निहोत्र आदि बहुत-से उपाय निकाले और काममें लिये हैं ॥ 3 ॥ उन प्राचीन ऋषियोंके बताये हुए उपायोंका इस समय भी जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, । वह सुगमतासे अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है ॥ 4 ॥परन्तु जो अज्ञानी पुरुष उनका अनादर करके अपने मनःकल्पित उपायोंका आश्रय लेता है, उसके सभी उपाय और प्रयत्न बार-बार निष्फल होते रहते हैं ॥ 5 ॥ राजन् ! पूर्वकालमे ब्रह्माजीने जिन धान्य आदिको उत्पन्न किया था, मैंने देखा कि यम-नियमादि व्रतौका पालन न करनेवाले दुराचारीलोग ही उन्हें खाये जा रहे हैं ।। 6 ।। लोकरक्षक ! आप राजालोगोंने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया, इसलिये सब लोग चोरोंके समान हो गये हैं। इसीसे यज्ञके लिये ओषधियोको मैंने अपनेमे छिपा लिया ॥ 7 ॥ अब अधिक समय हो जानेसे अवश्य ही वे धान्य मेरे उदरमें जीर्ण हो गये है; आप उन्हें पूर्वाचार्योंकि बतलाये हुए उपायसे निकाल लीजिये ॥ 8 ॥ लोकपालक वीर! यदि आपको समस्त प्राणियोंके अभीष्ट एवं बलकी वृद्धि करनेवाले अनकी आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य बछड़ा, दोहनपात्र और दुहनेवालेकी व्यवस्था कीजिये: मैं उस बछड़ेके खेहसे पिन्हाकर दूधके रूपमें आपको सभी अभीष्ट वस्तुएँ दे दूँगी ॥ 9-10 ॥ राजन् । एक बात और है; आपको मुझे समतल करना होगा, जिससे कि वर्षाऋतु बीत जानेपर भी मेरे ऊपर इन्द्रका बरसाया हुआ जल सर्वत्र बना रहे मेरे भीतरको आर्द्रता सूखने न पावे। यह आपके लिये बहुत मङ्गलकारक होगा’ ॥ 11 ॥

पृथ्वीके कहे हुए ये प्रिय और हितकारी वचन स्वीकार कर, महाराज पृथुने स्वायम्भुव मनुको बछड़ा बना अपने हाथमें ही समस्त धान्योको दुह लिया ।। 12 ।। पृथुके समान अन्य विज्ञजन भी सब जगहसे सार ग्रहण कर लेते हैं, अतः उन्होंने भी पृथुजीके द्वारा वशमें की हुई वसुन्धरा अपनी-अपनी अभीष्ट वस्तुएं दुह लीं 13 ॥ ऋषियोंने बृहस्पतिजीको बछड़ा बनाकर इन्द्रिय (वाणी, पन और श्रोत्र) रूप पात्रमें पृथ्वीदेवीसे वेदरूप पवित्र दूध दुहा ।। 14 ।। देवताओंने इन्द्रको बछड़े के रूपमें कल्पना कर सुवर्णमय पात्रमें अमृत, वीर्य (मनोबल), ओज (इन्द्रियबल) और शारीरिक बलरूप दूध दुहा ॥ 15 दैत्य और दानवोंने असुरश्रेष्ठ प्रहादजीको वत्स बनाकर लोहेके पात्रमें मंदिरा और आसव (ताड़ी आदि) रूप दूध दुहा ॥ 16 ॥ गन्धर्व और अप्सराओंने विश्वावसुको बछड़ा बनाकर कमलरूप पात्रमें संगीतमाधुर्य और सौन्दर्यरूप दूध दुहा ll 17 llश्राद्धके अधिष्ठाता महाभाग पितृगणने अर्यमा नामके पित्रीश्वरको वत्स बनाया तथा मिट्टीके कच्चे पात्रमें श्रद्धापूर्वक कव्य (पितरोंको अर्पित किया जानेवाला अन्न) रूप दूध दहा ।। 18 ।। फिर कपिलदेवजीको बछड़ा बनाकर आकाशरूप पात्रमें सिद्धोंने अणिमादि अष्टसिद्धि तथा विद्याधरोंने आकाशगमन आदि विद्याओंको दुहा ॥ 19 ॥ किम्पुरुषादि अन्य मायावियोंने मयदानवको बछड़ा बनाया तथा अन्तर्धान होना, विचित्र रूप धारण कर लेना आदि सङ्कल्पमयी मायाओंको दुग्धरूपसे दुहा ॥ 20 ॥

इसी प्रकार यक्ष-राक्षस तथा भूत-पिशाचादि मांसाहारियोंने भूतनाथ रुद्रको बछड़ा बनाकर कपालरूप पात्रमें रुधिरासवरूप दूध दुहा ॥ 21 ॥ बिना फनवाले साँप, फनवाले साँप, नाग और बिच्छू आदि विषैले जन्तुओंने तक्षकको बछड़ा बनाकर मुखरूप पात्रमें विषरूप दूध दुहा ॥ 22 ॥ पशुओंने भगवान् रुद्रके वाहन बैलको वत्स बनाकर वनरूप पात्रमें तृणरूप दूध दुहा। बड़ी-बड़ी दाढ़ोंवाले मांसभक्षी जीवोंने सिंहरूप बछड़ेके द्वारा अपने शरीररूप पात्रमें कच्चा मांसरूप दूध दुहा तथा गरुडजीको वत्स बनाकर पक्षियोंने कीटपतङ्गादि चर और फलादि अचर पदार्थोंको दुग्धरूपसे दुहा ॥ 23-24 ॥ वृक्षोंने वटको वत्स बनाकर | अनेक प्रकारका रसरूप दूध दुहा और पर्वतोंने हिमालयरूप बछड़ेके द्वारा अपने शिखररूप पात्रोंमें अनेक प्रकारकी धातुओंको दुहा ॥ 25 ॥ पृथ्वी तो सभी अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है और इस समय वह पृथुजीके अधीन थी। अतः उससे सभीने अपनी-अपनी जातिके मुखियाको बछड़ा बनाकर अलग-अलग पात्रोंमें भिन्न-भिन्न प्रकारके पदार्थोंको दूधके रूपमें दुह लिया 26 ॥

कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ! इस प्रकार पृथु आदि सभी अन्न-भोजियोंने भिन्न-भिन्न दोहन पात्र और वत्सोंके द्वारा अपने-अपने विभिन्न अन्नरूप दूध पृथ्वीसे दुहे ॥ 27 ॥ इससे महाराज पृथु ऐसे प्रसन्न हुए कि सर्वकामदुहा पृथ्वीके प्रति उनका पुत्रीके समान स्नेह हो गया और उसे उन्होंने अपनी कन्याके रूपमें स्वीकार कर लिया ॥ 28 ॥ फिर राजाधिराज पृथुने अपने धनुषकी नोकसे पर्वतोंको फोड़कर इस सारे भूमण्डलको प्रायः समतल कर दिया ॥ 29 ॥ वे पिताके समान अपनी प्रजाके पालन-पोषणकी व्यवस्थामें लगे हुए थे। उन्होंने इस समतल भूमिमें प्रजावर्गके लिये “जहाँ-तहाँ यथायोग्य निवासस्थानोंका विभाग किया ॥ 30 ॥अनेकों गाँव, कस्बे, नगर, दुर्ग, अहीरोंकी बस्ती, | पशुओंके रहनेके स्थान, छावनियाँ, खानें, किसानोंके गाँव और पहाड़ोंकी तलहटीके गाँव बसाये ॥ 31 ॥ महाराज पृथुसे पहले इस पृथ्वीतलपर पुर-ग्रामादिका विभाग नहीं था; सब लोग अपने-अपने सुभीतेके अनुसार बेखटके जहाँ-तहाँ बस जाते थे ॥ 32 ॥

अध्याय 19 महाराज पृथुके सौ अश्वमेध यज्ञ

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी महाराज मनुके ब्रह्मावर्त क्षेत्रमें, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, राजा पृथुने सौ अश्वमेध यज्ञोंकी दीक्षा ली ॥ 1 ॥ यह | देखकर भगवान् इन्द्रको विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथुके कर्म मेरे कर्मो की अपेक्षा भी बढ़ जायँगे। इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सवको सहन न कर सके ॥ 2 ॥ महाराज पृथुके यज्ञमें सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान् हरिने यज्ञेश्वररूपसे साक्षात् दर्शन दिया था ॥ 3 ॥ उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरोंके सहित लोकपालगण भी पधारे थे। उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभुकी कीर्ति गा रहे थे ॥ 4 ॥ सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान्‌के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान्‌की सेवाके लिये उत्सुक रहते हैं—वे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे ।। 5-6 ॥ भारत ! उस यज्ञमें यज्ञसामग्रियोंको देनेवाली भूमिने | कामधेनुरूप होकर यजमानकी सारी कामनाओंको पूर्ण किया था ॥ 7 ॥ नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकारके रसोंको बहा लाती थीं तथा जिनसे मधु चूता रहता था – ऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरहकी सामग्रियाँ समर्पण करते थे ॥ 8 ॥समुद्र बहुत-सी राशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेहा चार प्रकारके अत्र तथा लोकपालोंके सहित सम्पूर्णलोक तरह-तरहके उपहार उन्हें समर्पण करते थे ॥ 9 ॥ महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरिको ही अपना प्रभु मानते थे। उनको कृपासे उस यज्ञानुष्ठानमें उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ। किन्तु यह बात देवराज इन्द्रको सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की ॥ 10 ॥ जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञद्वारा भगवान् यज्ञपतिकी आराधना कर रहे थे, इन्द्रने ईष्यवश गुप्तरूपसे उनके यज्ञका घोड़ा हर लिया ॥ 11 ॥ इन्द्र अपनी रक्षाके लिये कवचरूपसे पाखण्डवेष धारण कर लिया। था, जो अधर्ममें धर्मका भ्रम उत्पन्न करनेवाला है—जिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है। इस वेषमें वे घोड़ेको लिये बड़ी शीघ्रतासे आकाशमार्गसे जा रहे थे। कि उनपर भगवान् अत्रिकी दृष्टि पड़ गयी। उनके कहने से महाराज पृथुका महारथी पुत्र इन्द्रको मारनेके लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोधसे बोला, ‘अरे खड़ा रह! खड़ा रह ।। 12-13 ।। इन्द्र सिरपर जटाजूट और शरीरमें भस्म धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमारने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उनपर बाण नहीं छोड़ा ।। 14 ।। जब वह इन्द्रपर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रिने पुनः उसे इन्द्रको मारनेके लिये आज्ञा दी ‘वत्स ! इस देवताघम इन्द्रने तुम्हारे यज्ञमें विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो’ ॥ 15 ॥

अत्रि मुनिके इस प्रकार उत्साहित करनेपर पृथुकुमार क्रोधमें भर गया। इन्द्र बड़ी तेजीसे आकाशमें जा रहे थे। उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावणके पीछे जटायु 16 स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख उस वेष और घोड़ेको छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिताकी यज्ञशालामें लौट आया ॥ 17 ॥ शक्तिशाली विदुरनी उसके इस अद्भुत पराक्रमको देखकर महर्षियोने उसका नाम विजिताश्च रखा ।। 18 ।।

यज्ञपशुको चपाल और यूपमें बांध दिया गया था। शक्तिशाली इन्द्रने घोर अन्धकार फैला दिया और उसीमे छिपकर वे फिर उस घोड़ेको उसकी सोनेकी जंजीर समेत ले गये ॥ 19 ॥ अत्रि मुनिने फिर उन्हें आकाशमें तेजीसे जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वाङ्ग देखकर पृथुपुत्रने उनके मार्गमें कोई बाधा न डाली ॥ 20 ॥ तब अराजकुमारको फिर उकसाया और उसने गुस्से में भरकरइन्द्रको लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया। यह देखते ही देवराज उस वेष और घोड़ेको छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 21 ॥ वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिताकी यज्ञशाला में लौट आया। तबसे इन्द्रके उस निन्दित वेषको मन्दबुद्धि पुरुषोंने ग्रहण कर लिया ॥ 22 ॥ इन्द्रने अश्वहरणकी इच्छासे जो-जो रूप धारण किये थे, वे पापके खण्ड होनेके कारण पाखण्ड कहलाये। यहाँ ‘खण्ड’ शब्द चिह्नका वाचक है ।। 23 ।। इस प्रकार पृथुके यज्ञका विध्वंस करनेके लिये यज्ञपशुको चुराते समय इन्द्रने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था. उन ‘नग्न’, ‘रक्ताम्बर’ तथा ‘कापालिक’ आदि पाखण्डपूर्ण आचारोंमें मनुष्योंकी बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती है; क्योंकि ये नास्तिकमत देखनेमें सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियोंसे अपने पक्षका समर्थन करते हैं। वास्तवमे ये उपधर्ममात्र है। लोग भ्रमवश धर्म मानकर उनमें आसक्त हो जाते है ।। 24-25 ।।

इन्द्रकी इस कुचालका पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज | पृथुको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उसपर बाण चढ़ाया ॥ 26 ॥ उस समय क्रोधावेशके कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजोंने देखा कि असा पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्रका वध करनेको तैयार है, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन्! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर | शास्त्रविहित यज्ञपशुको छोड़कर और किसीका वध करना उचित नहीं है॥ 27 ॥ इस यज्ञकार्यमें विघ्न डालनेवाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयशंसे ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोध आवाहन मन्त्रोद्वारा उसे यहाँ बुला लेते हैं और बलात् अग्निमें हवन किये देते हैं’ ॥ 28 ॥

विदुरजी ! यजमानसे इस प्रकार सलाह करके उसके याजकोंने क्रोधपूर्वक इन्द्रका आवाहन किया। वे सुवाद्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्माजीने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया ॥ 29 ॥ वे बोले, ‘याजको ! तुम्हें इन्द्रका वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान्की ही मूर्ति है। तुम यज्ञद्वारा जिन देवताओंकी आराधना कर रहे हो, वे इन्द्रके ही तो.. अङ्ग हैं और उसे तुम यज्ञद्वारा मारना चाहते हो ॥ 30 ॥ पृथुके इस | यज्ञानुष्ठानमें विघ्न डालने के लिये इन्द्रने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्मका उच्छेदन करनेवाला है। इस बातपर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो, नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गीका प्रचार करेगा ।। 31 । अच्छा, परमयशस्वी महाराज | पृथुके निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो। फिर राजर्षि पृथुसे कहा,’राजन्! आप तो मोक्षधर्मके जाननेवाले हैं; अतः अब आपको इन यज्ञानुष्ठानोंकी आवश्यकता नहीं है ।। 32 ।।

आपका मङ्गल हो ! आप और इन्द्र-दोनोंकी पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीहरिके शरीर है; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्रके प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये ॥ 33 ॥ आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआ— इसके लिये आप चिन्ता न करें। हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये। देखिये, जो मनुष्य विधाताके बिगाड़े हुए कामको बनानेका विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोधमें भरकर भयङ्कर मोहमें फँस जाता है ।। 34 । बस, इस यज्ञको बंद कीजिये । इसीके कारण इन्द्रके चलाये हुए पाखण्डोंसे धर्मका नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओंमें बड़ा दुराग्रह होता है ॥ 35 ॥ जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़ेको चुराकर आपके यज्ञमें विघ्न डाल रहा था, उसीके रचे हुए इन मनोहर पाखण्डोंकी ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही | है || 36 || आप साक्षात् विष्णुके अंश हैं। वेनके दुराचारसे धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्मकी रक्षाके लिये ही आपने उसके शरीरसे अवतार लिया है ।। 37 ॥ अतः प्रजापालक पृथुजी ! अपने इस अवतारका उद्देश्य विचारकर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरोका सङ्कल्प पूर्ण कीजिये। यह प्रचण्ड पाखण्ड पथरूप इन्द्रकी माया अधर्मकी जननी है। आप इसे नष्ट कर डालिये ॥ 38 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-लोकगुरु भगवान् ब्रह्माजीके | इस प्रकार समझानेपर प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुने यज्ञका आग्रह छोड़ दिया और इन्द्रके साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली ॥ 39 ॥ इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञोंसे तृप्त हुए देवताओंने उन्हें अभीष्ट वर दिये ।। 40 ।। आदिराज पृथुने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणोंने उनके सत्कारसे सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये 41 वे कहने लगे, ‘महाबाहो ! आपके बुलानेसे जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभीका आपने दान मानसे खूब | सत्कार किया ॥ 42 ॥

अध्याय 20 महाराज पृथुकी यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान‌ का आगमन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी महाराज पृथुके निन्यानबे यज्ञोंसे यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुको भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्रके सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा ।। 1 ।।

श्रीभगवान् ने कहा- राजन्! (इन्द्रने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करनेके सङ्कल्पमें विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो ॥ 2 ॥ नरदेव। जो श्रेष्ठ मानव साधु और सदबुद्धिसम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवोंसे द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही | आत्मा नहीं है ॥ 3 ॥ यदि तुम जैसे लोग भी मेरी मायासे मोहित हो जायँ, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनोंतककी हुई ज्ञानीजनों की सेवासे केवल श्रम ही हाथ लगा ॥ 4 ॥ ज्ञानवान् पुरुष इस शरीरको अविद्या, वासना और कमका ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता ॥ 5 ॥ इस प्रकार जो इस शरीरमें ही आसक्त नहीं है, वह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदिमें भी किस प्रकार ममता रख सकता है ॥ 6 ॥

यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणोंका आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मासे रहित है; अतएव शरीरसे भिन्न है ॥ 7 ॥ जो पुरुष इस देहस्थित आत्माको इस प्रकार शरीरसे भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणोंसे लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मामें रहती है ॥ 8 ॥ राजन् । जो पुरुष किसी प्रकारकी कामना न रखकर अपने वर्णाश्रमके धर्मोद्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो • जाता है ॥ 9 ॥ चित्त शुद्ध होनेपर उसका विषयोंसे सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थितिको प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है ॥ 10 ॥ जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मनका साक्षी होनेपर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है ll 11 llराजन् ! गुणप्रवाहरूप आवागमन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास-इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन लिङ्गशरीरका ही हुआ करता है, | इसका सर्वसाक्षी आत्मासे कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होनेपर कभी हर्ष-शोकादि विकारोंके वशीभूत नहीं होते ।। 12 ।। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषोंमें समानभाव रखकर सुख-दुःखको भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियोंको जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषोकी सहायतासे सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षा करो ।। 13 ।। राजाका कल्याण प्रजापालनमें ही है। इससे उसे परलोकमें प्रजाके पुण्यका छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजाकी रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदलेमें उसे प्रजाके पापका भागी होना पड़ता है ॥ 14 ॥ ऐसा विचारकर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सम्मति और पूर्व | परम्परासे प्राप्त हुए धर्मको ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वीका न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनोंमें तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धोंके दर्शन होंगे 15 राजन् तुम्हारे गुणने और स्वभावने मुझको वशमें कर लिया है। अतः तुम्हें जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणोंसे रहित यज्ञ, तप अथवा योगके द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्होंक हृदयमें रहता हूँ जिनके चित्तमें समता रहती है ।। 16 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी। सर्वलोकगुरु श्रीहरिके इस प्रकार कहनेपर जगद्विजयी महाराज पृथुने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की ।। 17 ।। देवराज इन्द्र अपने कर्मसे लक्षित होकर उनके चरणोंपर गिरना ही चाहते थे कि जाने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदयसे लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया ।। 18 ।। फिर महाराज पृथुने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान्‌का पूजन किया और क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव निम होकर प्रभुके चरणकमल पकड़ लिये ।। 19 ।। श्रीहरि वहाँसे जाना चाहते थे, किन्तु पृथुके प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदलके समान नेत्रोसे उनकी ओर देखते ही रह गये, बहाँसे जान सके ॥ 20 ॥आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रोंमें जल भर आनेके कारण न तो भगवान्‌का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जानेसे कुछ बोल हो सके उन्हें हृदयसे 1 आलिङ्गन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये ॥ 21 ॥ प्रभु अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीको स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुडजीके ऊंचे कंधेपर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रोंके आँसू पोछकर अतृप्त दृष्टिसे उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे ।। 22 ।।

महाराज पृथु बोले- मोक्षपति प्रभो! आप वर देनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको भी वर देनेमें समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियोंके भोगने योग्य विषयोंको कैसे माँग सकता है ? वे तो नारकी जीवोंको भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयोंको आपसे नहीं माँगता ।। 23 ।। मुझे तो उस मोक्षपदकी भी इच्छा नहीं है जिसमें महापुरुषोंके हृदयसे उनके मुखद्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलोंका मकरन्द नहीं है— जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुननेका सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलगुणों को सुनता ही रहूँ 24 ॥ पुण्यकीर्ति प्रभो। आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत को लेकर महापुरुषोंके मुखसे जो वायु निकलती है, उसीमें इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्वको भूले हुए हम कुयोगियोंको पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरोंकी कोई आवश्यकता नहीं है ॥ 25 ॥ उत्तम कीर्तिवाले प्रभो । सत्सङ्गमे आपके मङ्गलमय सुयशको दैववश एक बार भी सुन लेनेपर कोई पशुबुद्धि पुरुष भले ही तुम हो जाय गुणजी उसे कैसे छोड़ सकता है ? सब प्रकारके पुरुषार्थोंकी सिद्धिके लिये स्वयं लक्ष्मीजी भी आपके सुयशको सुनना चाहती है ।। 26 ।। अब लक्ष्मीजीके समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकतासे आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तमकी सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पतिकी सेवा प्राप्त करनेकी होड़ होनेके कारण आपके चरणोंमें ही मनको एकाग्र करनेवाले हम दोनोंमें कलह छिड़ जाय ॥ 27 ॥जगदीश्वर जगजननी लक्ष्मीजीके हृदयमें मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्यमें उनका अनुराग है, उसीके लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दोनोंपर दया करते हैं, उनके तुच्छ कमको भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे | झगड़े भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूपमें ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मीजीसे भी क्या लेना है ॥ 28 ॥ इसीसे निष्काम महात्मा ज्ञान हो जानेके बाद भी | आपका भजन करते हैं। आपमें मायाके कार्य अहङ्कारादिका सर्वथा अभाव है। भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलोका निरन्तर चिन्तन करनेके सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता ।। 29 ।। मैं भी बिना किसी इच्छाके आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस वाणीको तो मैं संसारको मोहमें डालनेवाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणीने भी तो जगत्‌को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सीसे लोग बंधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते ? ॥ 30 ॥ प्रभो ! आपकी मायासे ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादिकी इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्रकी प्रार्थनाकी अपेक्षा न रखकर अपने आप ही पुत्रका कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छाकी अपेक्षा न करके हमारे हितके लिये स्वयं ही प्रयत्न करें ।। 31 ।

श्रीमैत्रेजी कहते हैं- आदिराज पृथुके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वसाक्षी श्रीहरिने उनसे कहा, ‘राजन् तुम्हारी मुझमें भक्ति हो। बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होनेपर तो पुरुष सहज ही मेरी उस मायाको पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानीसे मेरी आज्ञाका पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश ! जो पुरुष मेरी आज्ञाका | पालन करता है, उसका सर्वत्र मङ्गल होता है ॥ 32-33 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- विदुरजी इस प्रकार | भगवान्ने राजर्षि पृथुके सारगर्भित वचनोंका आदर किया। फिर पृथुने उनकी पूजा की और प्रभु उनपर सब प्रकार कृपा | कर वहाँसे चलने को तैयार हुए ।। 34 ।। महाराज पृथुने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अपारा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकारके प्राणी एवं भगवान्के पार्षद आये थे, उन सभीका भगवदबुद्धिसेभक्तिपूर्वक वाणी और धनके द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानोंको चले गये ।। 35-36 ॥ भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितोंका चित्त चुराते हुए अपने धामको सिधारे ॥ 37 ॥ तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान्‌को नमस्कार करके राजा | पृथु भी अपनी राजधानीमें चले आये ॥ 38॥

अध्याय 21 महाराज पृथुका अपनी प्रजाको उपदेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उस समय महाराज पृथुका नगर सर्वत्र मोतियोंकी लड़ियों, फूलोंकी मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्रों, सोनेके दरवाजों और अत्यन्त सुगन्धित धूपसे सुशोभित था ॥ 1 ॥ उसकी गलियाँ, चौक और सड़कें चन्दन और अरगजेके जलसे सींच दी गयी थीं तथा उसे पुष्प, अक्षत, | फल, यवाङ्कुर, खील और दीपक आदि माङ्गलिक द्रव्योंसे सजाया गया था ॥ 2 ॥ वह ठौर-ठौरपर रखे हुए फल-फूलके गुच्छोंसे युक्त केलेके खंभों और सुपारीके पौधोंसे बड़ा ही मनोहर जान पड़ता था तथा सब ओर आम आदि वृक्षोंके नवीन पत्तोंकी बंदनवारोंसे विभूषित था || 3 || जब महाराजने नगरमें प्रवेश किया, तब दीपक, उपहार और अनेक प्रकारकी माङ्गलिक सामग्री लिये हुए प्रजाजनोंने तथा मनोहर कुण्डलोंसे सुशोभित सुन्दरी कन्याओंने उनकी अगवानी की ॥ 4 ॥ शङ्ख और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे, ऋत्विजगण वेदध्वनि करने लगे, वन्दीजनोंने स्तुतिगान आरम्भ कर दिया। यह सब | देख और सुनकर भी उन्हें किसी प्रकारका अहङ्कार नहीं हुआ। इस प्रकार वीरवर पृथुने राजमहलमें प्रवेश किया ॥ 5 ॥ मार्गमें जहाँ-तहाँ पुरवासी और देशवासियोंने उनका अभिनन्दन किया। परम यशस्वी महाराजने भी उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर देकर सन्तुष्ट किया || 6 || महाराज पृथु महापुरुष • और सभीके पूजनीय थे। उन्होंने इसी प्रकारके अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वीका शासन किया और अन्तमें अपने विपुल यशका विस्तार कर भगवान्का परमपद प्राप्त किया ।। 7 ।।सूतजी कहते हैं-मुनिवर शौनकजी! इस प्रकार भगवान् मैत्रेयके मुखसे आदिराज पृथुका अनेक प्रकारके गुणोंसे सम्पन्न और गुणवानोंद्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर परम भागवत विदुरजी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा ॥ 8 ॥

विदुरजी बोले- ब्रह्मन् ! ब्राह्मणोंने पृथुका अभिषेक किया। समस्त देवताओंने उन्हें उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओं में वैष्णव तेजको धारण किया और उससे पृथ्वीका दोहन किया ।। 9 ।। उनके उस पराक्रमके उच्छिष्टरूप विषयभोगोंसे ही आज भी सम्पूर्ण राजा तथा लोकपालोंक सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। भला ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न चाहेगा। अतः अभी आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये ॥ 10 ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहा- साधुश्रेष्ठ विदुरजी महाराज पृथु गङ्गा और यमुनाके मध्यवर्ती देशमें निवास कर अपने | पुण्यकमक क्षयकी इच्छासे प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगोंको ही. भोगते थे । 11 ॥ ब्राह्मणवंश और भगवान्‌के सम्बन्धी विष्णुभक्तको छोड़कर उनका सात द्वीपोंके सभी पुरुषोत अखण्ड एवं अबाध शासन था ।। 12 ।। एक बार उन्होंने एक महासत्रको दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रह्मर्षियों और राजर्षियोंका बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ ॥ 13 ॥ उस समाजमें महाराज पृथुने उन पूजनीय अतिथियोंका यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभामें, नक्षत्रमण्डलमें चन्द्रमा के समान खड़े हो गये ।। 14 । उनका शरीर ऊँचा, भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमलके समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़, मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुसकानसे युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी ॥ 15 उनकी छाती चौड़ी, कमरका पिछला भाग स्थूल और उदर | पीपल के पत्तेके समान सुडौल तथा बल पड़े हुए होनेसे और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवरके समान गम्भीर थी, शरीर तेजस्वी था, जाएँ सुवर्णके समान देदीप्यमान थीं तथा पैरोंके पंजे उभरे हुए थे ।। 16 ।। उनके बाल बारीक, घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शङ्खके समान उतार चढ़ाववाली तथा रेखाओंसे युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे ll 17 llदीक्षाके नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये थे; इसीसे उनके शरीरके अङ्ग-प्रत्यङ्गकी शोभा अपने स्वाभाविक रूपमें स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीरपर कृष्णमृगका चर्म और हाथोंमें कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीरकी कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे । 18 ॥ राजा पृथुने मानो सारी सभाको हर्षसे सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रोंसे चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया ।। 19 । उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र पदोंसे युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था मानो उस समय वे सबका उपकार करनेके लिये अपने अनुभवका ही अनुवाद कर रहे हों ॥ 20 ॥

राजा पृथुने कहा- सज्जनो ! आपका कल्याण हो। आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुने– जिज्ञासु पुरुषोंको चाहिये कि संत-समाजमें अपने निश्चयका निवेदन करें ॥ 21 ॥ इस लोकमें मुझे प्रजाजनोंका शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजीविकाका प्रबन्ध तथा उन्हें अलग-अलग अपनी मर्यादामें रखनेके लिये राजा बनाया गया है । 22 ॥ अतः इनका यथावत् पालन करनेसे मुझे उन्हीं मनोरथ पूर्ण करनेवाले लोकोंकी प्राप्ति होनी चाहिये, जो वेदवादी मुनियोंके मतानुसार सम्पूर्ण कर्मोक साक्षी श्रीहरिके प्रसन्न होनेपर मिलते हैं ।। 23 ।। जो राजा प्रजाको धर्ममार्गकी शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करनेमें लगा रहता है, वह केवल प्रजाके पापका ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्यसे हाथ धो बैठता है ।। 24 ।। अतः प्रिय प्रजाजन अपने इस राजाका परलोकमें हित करनेके लिये | आपलोग परस्पर दोषदृष्टि छोड़कर हृदयसे भगवान्‌को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसीमें है और इस प्रकार मुझपर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा ॥ 25 ॥ विशुद्धचित्त देवता, पितर और महर्षिगण आप भी मेरी इस प्रार्थनाका अनुमोदन कीजिये क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरनेके अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थकको उसका समान फल मिलता है ॥ 26 ॥ माननीय सज्जनो किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावोंके मतमें तो कर्मोंका फल देनेवाले भगवान् यज्ञपति ही है; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं 27 मनु, उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अङ्ग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटिके अन्यान्य महानुभावोंके मतमें तो धर्म-अर्थ-काममोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्गके स्वाधीन नियामक, कर्मफलदातारूपसे भगवान् गदाधरकी आवश्यकता है ही। इस विषयमें तो केवल मृत्युके दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगोंका ही मतभेद है। अतः उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता ।। 28-30 ॥

जिनके चरणकमलोंकी सेवाके लिये निरन्तर बढ़नेवाली अभिलाषा उन्होंके चरणनखसे निकली हुई गङ्गाजीके समान, संसारतापसे संतप्त जीवोंके समस्त जन्मोंके सञ्चित मनोमलको तत्काल नष्ट कर देती है, जिनके चरणतलका आश्रय लेनेवाला पुरुष सब प्रकारके मानसिक दोषोंको धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर फिर इस दुःखमय संसारचक्रमें नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले हैं उन प्रभुको आपलोग अपनी-अपनी आजीविकाके उपयोगी वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान स्तुति पूजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओंके द्वारा भजें। हृदयमें किसी प्रकारका कपट न रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त होगा ।। 31-33 ॥

भगवान् स्वरूपतः विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणोंसे रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्गमें जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं | मल्लोंके द्वारा और अर्थ, आशय (सङ्कल्प), लिङ्ग (पदार्थ शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामोंसे सम्पन्न होनेवाले, अनेक विशेषणयुक्त यज्ञके रूपमें प्रकाशित होते हैं ।। 34 ।। जिस प्रकार एक ही अनि भिन्न-भिन्न काष्ठोंमें उन्होंके आकारादिके अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल, वासना और अदृष्टसे उत्पन्न हुए शरीरमें विषयाकार बनी हुई बुद्धिमें स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओंके फलरूपसे अनेक प्रकारके जान पड़ते हैं ॥ 35 ॥ अहो ! इस पृथ्वीतलपर मेरे जो प्रजाजन भोक्ताओंके अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरिका एकनिष्ठभावसे अपने-अपने धर्मोके द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे मुझपर बड़ी कृपा करते हैं ।। 36 ।। सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान इन विशिष्ट विभूतियोंके कारण वैष्णव और ब्राह्मणोंके वंश स्वभावतः ही उज्ज्वल होते हैं। उनपर राजकुलका तेज, धन, । ऐश्वर्य आदि समृद्धियोंके कारण अपना प्रभाव न डाले ॥ 37 ॥ब्रह्मादि समस्त महापुरुषोंमें अग्रगण्य, ब्राह्मणभक्त, पुराणपुरुष श्रीहरिने भी निरन्तर इन्होंके चरणोंकी वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसारको पवित्र करनेवाली कीर्ति प्राप्त की है ॥ 38 ॥ आपलोग भगवान्के लोकसंग्रहरूप धर्मका पालन करनेवाले हैं तथा सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मणप्रिय श्रीहरि विप्रवेशकी सेवा करनेसे ही परम सन्तुष्ट होते हैं, अतः आप सभीको सब प्रकारसे विनयपूर्वक ब्राह्मणकुलकी सेवा करनी चाहिये ।। 39 ।। इनकी नित्य सेवा करनेसे शीघ्र ही चित्त शुद्ध हो जानेके कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और अभ्यास आदिके बिना ही) परम शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः लोकमें इन ब्राह्मणोंसे बढ़कर दूसरा कौन है जो हविष्यभोजी देवताओंका मुख हो सके ? ॥ 40 ॥ उपनिषदों के ज्ञानपरक वचन एकमात्र जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान् अनन्त इन्द्रादि यज्ञीय देवताओंके नामसे | तत्त्वज्ञानियोंद्वारा ब्राह्मणोंके मुखमें श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थको जैसे चावसे ग्रहण करते हैं, वैसे चेतनाशून्य अग्रिमें होमे हुए द्रव्यको नहीं ग्रहण करते ॥ 41 ॥ सभ्यगण ! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पणमें प्रतिबिम्बका भान होता है-उसी प्रकार जिससे इस सम्पूर्ण प्रपञ्चका ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य, शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो परमार्थ-तत्त्वकी उपलब्धिके लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण, स्वाध्यायविरोधी वार्तालापके त्याग तथा संयम और समाधिके अभ्यासद्वारा धारण करते है, उन ब्राह्मणोंके चरणकमलोकी धूलिको मैं आयुपर्यन्त अपने मुकुटपर धारण करूँ, क्योंकि उसे सर्वदा सिरपर चढ़ाते रहनेसे मनुष्यके सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं ।। 42-43 ।। उस गुणवान्, शीलसम्पन्न, कृतज्ञ और गुरुजनोंकी सेवा करनेवाले पुरुषके पास सारी सम्पदाएँ अपने आप आ जाती हैं। अतः मेरी तो यही अभिलाषा है। कि ब्राह्मणकुल, गोवंश और भक्तोके सहित श्रीभगवान् मुझपर सदा प्रसन्न रहें ।। 44 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाराज पृथुका यह भाषण सुनकर देवता पितर और ब्राह्मण आदि सभी साधुजन बड़े प्रसन्न हुए और ‘साधु साधु।’ | यों कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 45 ॥उन्होंने कहा, ‘पुत्रके द्वारा पिता पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है’ यह श्रुति यथार्थ है; पापी वेन ब्राह्मणोंके शापसे मारा गया था: फिर भी इनके पुण्यबलसे उसका नरकसे निस्तार हो गया ॥ 46 ॥ इसी प्रकार हिरण्यकशिपु भी भगवान्की निन्दा करनेके कारण नरकोंमें गिरनेवाला ही था कि अपने पुत्र | प्रह्लादके प्रभावसे उन्हें पार कर गया ।। 47 ।। वीरवर पृथुजी ! आप तो पृथ्वीके पिता ही हैं और सब लोकोंके एकमात्र स्वामी श्रीहरिमें भी आपकी ऐसी अविचल भक्ति है, इसलिये आप अनन्त वर्षोंतक जीवित रहें ।। 48 ।। आपका सुयश बड़ा पवित्र है; आप उदारकीर्ति ब्रह्मण्यदेव श्रीहरिकी कथाओंका प्रचार करते हैं। हमारा बड़ा सौभाग्य है; आज आपको अपने स्वामीके रूपमें पाकर हम अपनेको भगवान्‌के ही राज्यमें समझते हैं ॥ 49 ॥ स्वामिन्! अपने आश्रितोंको इस प्रकारका श्रेष्ठ उपदेश देना आपके लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि अपनी प्रजाके ऊपर प्रेम रखना तो करुणामय महापुरुषोंका स्वभाव ही होता है ॥ 50 ॥ हमलोग प्रारब्धवश विवेकहीन होकर संसारारण्यमें भटक रहे थे; सो प्रभो ! आज आपने हमें इस अज्ञानान्धकारके पार पहुँचा दिया ॥ 51 ॥ आप शुद्ध सत्त्वमय परमपुरुष हैं, जो ब्राह्मणजातिमें प्रविष्ट होकर क्षत्रियोंकी और क्षत्रियजातिमें प्रविष्ट होकर ब्राह्मणोंकी तथा दोनों जातियोंमें प्रतिष्ठित होकर सारे जगत्की रक्षा करते हैं। हमारा आपको नमस्कार है ।। 52 ।।

अध्याय 22 महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं–जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथुकी इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्यके समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये ॥ 1 ॥ राजा और उनके अनुचरोंने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्तिसे सम्पूर्ण लोकोंको पापनिर्मुक्त करते हुए आकाशसे उतरकर आ रहे हैं ॥ 2 ॥ राजाके प्राण सनकादिकोंका दर्शन करते ही, जैसे विषयी जीव विषयोंकी ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े- -मानो उन्हें रोकनेके लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियोंके साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये || 3 || जब वे मुनिगण अर्घ्य स्वीकारकर आसनपर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथुने उनके गौरवसे प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की ॥ 4 ॥फिर उनके चरणोदक अपने सिरके बाल इस प्रकार शिष्टजनोचित आचारका आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषोंको ऐसा व्यवहार करना चाहिये ॥ 5 ॥ सनकादि मुनीश्वर भगवान् शङ्करके भी अप्रज हैं। सोनेके सिंहासनपर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानोंपर अग्नि देवता महाराज पृथुने बड़ी श्रद्धा और संयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा ।। 6 ।।

पृथुजीने कहा- मङ्गलमूर्ति मुनीश्वरो। आपके दर्शन तो योगियोंको भी दुर्लभ है; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ || 7 || जिसपर ब्राह्मण अथवा अनुचरोंके सहित श्रीशङ्कर या विष्णुभगवान् प्रसन्न हो, उसके लिये इहलोक और परलोकमें कौन-सी वस्तु दुर्लभ है॥ 8 ॥ | इस दृश्य प्रपक्षके कारण महत्तत्त्वादि यद्यपि सर्वगत है, तो भी दृश्य-5 वे सर्वसाक्षी आत्माको नहीं देख सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकोंमें विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारीलोग आपको | देख नहीं पाते ।। 9 ।। जिनके घरोंमें आप जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य | पदार्थको स्वीकार कर लेते है, वे गृहस्थ धनहीन होनेपर भी धन्य हैं ॥ 10 ॥ जिन घरोंमें कभी भगवद्भक्तोंके परमपवित्र चरणोदकके छींटे नहीं पड़े, वे सब प्रकारकी ऋद्धि-सिद्धियोंसे भरे होनेपर भी ऐसे वृक्षोंके समान है कि जिनपर साँप रहते है ।। 11 ।। मुनीश्वरो आपका स्वागत है आपलोग तो बाल्यावस्था ही मुमुक्षुओंके मार्गका अनुसरण करते हुए एकाप्रचित्तसे महाचर्यादि महान् व्रतोंका बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं ॥ 12 ॥ स्वामियो ! हम लोग अपने कर्मोक वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसारमें पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगोंको ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं, सो क्या हमारे निस्तारका भी कोई उपाय है ।। 13 ॥ आपलोगोंसे कुशल प्रश्न करना उचित नहीं है, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा हो रमण करते हैं। आपमें यह कुशल है और यह अकुशल है—इस प्रकारको वृत्तियाँ कभी होती ही नहीं ॥ 14 ॥ आप संसारानलसे सन्तप्त जीवोके परम सुहृद है, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसारमें मनुष्यका किस प्रकार सुगमतासे कल्याण हो सकता है ? ।। 15 ।। यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषोंमें ‘आत्मा’ रूपसे प्रकाशित होते हैं। और उपासकोंके हृदयमें अपने स्वरूपको प्रकट करनेवाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तोंपर कृपा करनेकेलिये आप जैसे सिद्ध पुरुषोंके रूपमें इस पृथ्वीपर विचरा करते हैं ।। 16 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— राजा पृथुके ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमारजी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे ॥ 17 ॥

श्रीसनत्कुमारजीने कहा- महाराज ! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियोंके कल्याणकी दृष्टिसे बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषोंकी बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है ॥ 18 ॥ सत्पुरुषोंका समागम श्रोता और वक्ता दोनोंको ही अभिमत होता है, क्योंकि उनके प्रश्नोत्तर सभीका कल्याण करते हैं ॥ 19 ॥ राजन् ! श्रीमधुसूदन भगवान्के चरणकमलोंके गुणानुवादमें अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसीको इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जानेपर यह हृदयके भीतर रहनेवाले उस वासनारूप मलको सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपायसे जल्दी नहीं छूटता ॥ 20 ॥ शास्त्र जीवोंके कल्याणके लिये भलीभाँति विचार करनेवाले हैं; उनमें आत्मासे भिन्न देहादिके प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्ममें सुदृढ़ अनुराग होना—यही कल्याणका साधन निश्चित किया गया है ॥ 21 ॥ शास्त्रोंका यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रके वचनोंमें विश्वास रखनेसे, भागवतधर्मोका आचरण करनेसे, तत्त्वजिज्ञासासे, ज्ञानयोगको निष्ठासे, योगेश्वर श्रीहरिकी उपासनासे, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान्‌की पावन कथाओंको सुननेसे, जो लोग धन और इन्द्रियोंके भोगोंमें ही रत हैं उनकी गोष्ठीमें प्रेम न रखनेसे, उन्हें प्रिय लगनेवाले पदार्थोंका आसक्तिपूर्वक संग्रह न करनेसे, भगवद्गुणामृतका पान करनेके सिवा अन्य समय आत्मामें ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवनमें प्रेम रखनेसे, किसी भी जीवको कष्ट न देनेसे, निवृत्तिनिष्ठासे, आत्महितका अनुसन्धान करते रहनेसे, श्रीहरिके पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृतका आस्वादन करनेसे, निष्कामभावसे यम-नियमोंका पालन करनेसे, कभी किसीकी निन्दा न करनेसे, योगक्षेमके लिये प्रयत्न न करनेसे, शीतोष्णादि द्वन्द्वोंको सहन करनेसे, भक्तजनोंके कानोंको सुख देनेवाले श्रीहरिके गुणोंका बार-बार वर्णन करनेसे और बढ़ते हुए भक्तिभावसे मनुष्यका कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड प्रपञ्चसे वैराग्य होजाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्ममें अनायास ही उसकी प्रोति हो जाती है॥ 22-25 ॥ परब्रह्ममें सुदृढ़ प्रीति हो जानेपर पुरुष सद्गुरुकी शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेगके कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकारके फ्रेशोंसे युक्त अहङ्कारात्मक अपने लिङ्गशरीरको वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ीसे प्रकट होकर फिर उसीको जला डालती है । 26 । इस प्रकार लिङ्ग देहका नाश हो जानेपर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणोंसे मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्थामें तरह-तरहके पदार्थ देखनेपर भी उससे जग पड़नेपर उनमेंसे कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीरके बाहर दिखायी देनेवाले घटपटादि और भीतर अनुभव होनेवाले सुख-दुःखादिको भी नहीं देखता। इस स्थितिके प्राप्त होनेसे पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्माके बीचमें रहकर उनका भेद कर रहे थे । 27 ॥

जबतक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभीतक पुरुषको जीवात्मा, इन्द्रियोंके विषय और इन दोनोंका सम्बन्ध करानेवाले अहङ्कारका अनुभव होता है; इसके बाद नहीं ॥ 28 ॥ बाह्य जगत्‌में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तोके रहनेपर ही अपने बिम्ब और प्रतिविम्बका भेद दिखायी देता है. अन्य समय नहीं ॥ 29 ॥ जो लोग विषयचिन्तनमें लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयोंमें फँस जाती हैं तथा मनको भी उन्हींकी ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशयके तीरपर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ोंसे उसका जल खोचते रहते है, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धिकी विचारशक्तिको क्रमशः हर लेता है ॥ 30 ॥ विचारशक्तिके नष्ट हो जानेपर पूर्वापरकी स्मृति जाती रहती है और स्मृतिका नाश हो जानेपर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञानके नाशको ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं ॥ 31 ॥ जिसके उद्देश्यसे अन्य सब पदार्थोंमें प्रियताका बोध होता है-उस आत्माका अपनेद्वारा ही नाश होनेसे जो स्वार्थहानि होती है, उससे बढ़कर लोकमें जीवकी और कोई हानि नहीं है ll 32 ll

धन और इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करना मनुष्यके सभी पुरुषार्थीका नाश करनेवाला है; क्योंकि इनकी चिन्तासे वह ज्ञान और विज्ञानसे भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पाता है ॥ 33 ॥ इसलिये जिसे अज्ञानान्धकारसे पार होनेकी इच्छा हो, उस पुरुषको विषयोंमें आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिमें बड़ी बाधक है ।। 34 ।। इन चार पुरुषार्थोंमें भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों में सर्वदा कालका भय लगा रहता है ।। 35 ।।प्रकृतिमें गुणक्षोभ होनेके बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव-पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशलसे रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। कालभगवान् उन सभीके कुशलोंको कुचलते रहते हैं ॥ 36 ॥ अतः राजन् ! जो भगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहङ्कारसे आवृत सभी स्थावरजङ्गम प्राणियोंके हृदयमि जीवके नियामक अन्तर्यामी आत्मारूपसे सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं—उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ’ ऐसा जानो ॥ 37 ॥ जिस प्रकार मालाका ज्ञान हो जानेपर उसमें | सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होनेपर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपञ्च जिसमें कार्य-कारणरूपसे प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल- कलुषित प्रकृतिसे परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्माको मैं प्राप्त हो रहा हूँ ॥ 38 ॥ संत-महात्मा जिनके चरणकमलोंके अङ्गुलिदलकी छिटकती हुई छटाका स्मरण करके अहङ्कार-रूप हृदयग्रन्थिको, जो कर्मोंसे गठित है. इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियोंका प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरणको निर्विषय करनेवाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेवका भजन करो ॥ 39 ॥ जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरोंसे भरे हुए इस संसारसागरको योगादि दुष्कर साधनोंसे पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है, क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरिका आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान्‌के आराधनीय चरणकमलोंको नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्रको पार कर लो ॥ 40 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— विदुरजी ! ब्रह्माजीके पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमारजीसे इस प्रकार आत्मतत्त्वत्का उपदेश पाकर महाराज पृथुने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा ।। 41 ।।

राजा पृथुने कहा- भगवन्! दीनदयाल श्रीहरिने मुझपर पहले कृपा की थी, उसीको पूर्ण करनेके लिये आपलोग पधारे हैं ॥ 42 ॥ आपलोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्यके लिये आपलोग पधारे थे, उसे आपलोगोंने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदले में मैं आपलोगोंको क्या दूँ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषोंका ही प्रसाद है ॥ 43 ॥ ब्रह्मन् प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकारकी सामग्रियोंसे भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश – यह सब कुछ आप ही लोगोंका है, अतः आपके ही श्रीचरणोंमें अर्पित है ।। 44 ।।वास्तवमे तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकोंके शासनका अधिकार वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता ब्राह्मणोंको ही है ।। 45 ।। ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है। | और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे क्षत्रिय आदि तो उसीकी कृपासे अन्न खानेको पाते हैं ।। 46 ।। आपलोग वेदके पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्वका विचार करके हमें निश्चितरूपसे समझा दिया है कि भगवान्के प्रति इस प्रकारकी अभेद-भक्ति ही उनकी उपलब्धिका प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्मसे ही सर्वदा सन्तुष्ट रहे। आपके इस उपकारका बदला कोई क्या दे सकता है ? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हंसी कराना ही है ।। 47 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! फिर आदिराज पृथुने आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ सनकादिकी पूजा की और वे उनके शीलकी प्रशंसा करते हुए सब लोगोके सामने ही आकाशमार्गसे चले गये ॥ 48 ॥ महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनसे आत्मोपदेश पाकर चित्तकी एकाग्रतासे आत्मामें ही स्थित रहनेके कारण अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे ।। 49 ।। वे ब्रह्मार्पण-बुद्धिसे समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धनके अनुसार सभी कर्म करते थे ।। 50 ।। इस प्रकार एकाग्र चित्तसे समस्त कर्मो का फल परमात्माको अर्पण करके आत्माको कर्मोका साक्षी एवं प्रकृतिसे अतीत देखनेके कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे ।। 51 ।। जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करनेपर भी वस्तुओंके गुण-दोषसे निशेष रहते हैं, उसी प्रकार स्वाभीम साम्राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न और गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी अहङ्कारशून्य होनेके कारण वे इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त नहीं हुए ।। 52 ।।

इस प्रकार आत्मनिष्ठामें स्थित होकर सभी कर्तव्यकमका यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अधिक गर्भसे अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये ॥ 53 ॥ उनके नाम विजिताश्व धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और बुक थे महाराज पृथु भगवान् के अंश थे। वे समय-समयपर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत्के प्राणियोंकी रक्षाके लिये अकेले ही समस्त लोकपालोके गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणोंके द्वारा प्रजाका रञ्जन करते रहने से दूसरे चन्द्रमाके समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमीमें पृथ्वीका जल खोंचकर वर्षाकालमें उसे पुनः पृथ्वीपर बरसा देता है तथा अपनी किरणोंसे सबको ताप पहुंचाता है, उसी प्रकार वे कररूपसे प्रजाका धन लेकर उसे दुष्कालादिके समयमुक्तहस्तसे प्रजाके हितमें लगा देते थे तथा सबपर अपना प्रभाव जमाये रखते थे । 54 – 56 ॥ वे तेजमें अग्रिके समान दुर्धर्ष, इन्द्रके समान अजेय, पृथ्वीके समान क्षमाशील और स्वर्गके समान मनुष्योंकी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेवाले थे ।। 57 ॥ समय-समयपर प्रजाजनोंको तृप्त करनेके लिये वे मेघके समान उनके अभीष्ट अर्थोको खुले हाथसे लुटाते रहते थे। वे समुद्रके समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरुके समान धैर्यवान् भी थे ll 58 ll

महाराज पृथु दुष्टोंके दमन करनेमें यमराजके समान, | आश्चर्यपूर्ण वस्तुओंके संग्रहमें हिमालयके समान, कोशकी समृद्धि करनेमें कुबेरके समान और धनको छिपानेमें वरुणके समान थे । 59 ।। शारीरिक बल, इन्द्रियोंकी | पटुता तथा पराक्रममें सर्वत्र गतिशील वायुके समान और तेजकी असह्यतामें भगवान् शङ्करके समान थे ॥ 60॥ सौन्दर्यमें कामदेवके समान, उत्साहमें सिंहके समान, वात्सल्यमें मनुके समान और मनुष्योंके आधिपत्यनें सर्वसमर्थ ब्रह्माजीके समान थे ॥ 61 ॥ ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजयमें साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तोंकी भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणोंमें अपने ही समान (अनुपम) थे ॥ 62 ॥ लोग त्रिलोकीमें सर्वत्र उच्च स्वरसे उनकी कीर्तिका गान करते थे, इससे वे स्त्रियोंतकके कानोंमें वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे जैसे सत्पुरुषोंके हृदयमें श्रीराम ॥ 63 ॥

अध्याय 23 राजा पृथुकी तपस्या और परलोकगमन

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं— इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति | पृथुके स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामादि सर्गकी व्यवस्था करके स्थावरजङ्गम सभीकी आजीविकाका सुभीता कर दिया तथा | साधुजनोचित धर्मोंका भी खूब पालन किया। ‘मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोकमें जन्म लिया था, उस प्रजारक्षणरूप ईश्वराज्ञाका पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ – मोक्षके लिये प्रयत्न करना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने अपने विरहमें रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वीका भार पुत्रोंको सौंप दिया और सारी प्रजाको बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवनको चल दिये ॥ 1-3 ॥वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रमके नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्यामें लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रममें अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वीको विजय करनेमें लगे थे !॥ 4 ॥ कुछ दिन तो उन्होंने कन्द मूल फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर

कुछ पखवाड़ोंतक जलपर ही रहे और इसके बाद केवल वायुसे ही निर्वाह करने लगे ॥ 5 ॥ वीरवर पृथु मुनिवृत्तिसे रहते थे। गर्मियोंमें उन्होंने पञ्चाग्नियोंका सेवन किया, वर्षाऋतुमें खुले मैदानमें रहकर अपने शरीरपर जलकी धाराएँ सहीं और जाड़े में गलेतक जलमें खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टीकी वेदीपर ही शयन करते थे || 6 | उन्होंने शीतोष्णादि सब प्रकारके द्वन्द्वोंको सहा तथा वाणी और मनका संयम करके ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए प्राणोंको अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णकी आराधना करनेके लिये उन्होंने उत्तम तप किया ॥ 7 ॥ इस क्रमसे उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभावसे कर्ममल नष्ट हो जानेके कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायामोंके द्वारा मन और इन्द्रियोंके निरुद्ध हो जानेसे उनका वासनाजनित बन्धन भी कट गया ॥ 8 ॥ तब, भगवान् सनत्कुमारने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोगकी शिक्षा दी थी, उसीके अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरिकी आराधना करने लगे ॥ 9 ॥ इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचारका पालन करते हुए निरन्तर साधन करनेसे परब्रह्म परमात्मामें उनकी अनन्यभक्ति हो गयी ॥ 10 ॥

इस प्रकार भगवदुपासनासे अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जानेपर निरन्तर भगवच्चिन्तनके प्रभावसे प्राप्त हुई इस अनन्य भक्तिसे उन्हें वैराग्यसहित ज्ञानकी प्राप्ति हुई और फिर उस तीव्र ज्ञानके द्वारा उन्होंने जीवके उपाधिभूत अहङ्कारको नष्ट कर दिया, जो सब प्रकारके संशय-विपर्ययका आश्रय है ॥ 11 ॥ इसके पश्चात् देहात्मबुद्धिकी निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्णकी अनुभूति होनेपर अन्य सब प्रकारकी सिद्धि आदिसे भी उदासीन हो जानेके कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञानके लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायतासे पहले अपने जीवकोशका नाश किया था, क्योंकि जबतक साधकको योगमार्गके द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृतमें अनुराग नहीं होता, तबतक केवल योगसाधनासे उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता – भ्रम नहीं मिटता ॥ 12 ॥ फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथुने अपने चित्तको दृढ़तापूर्वक परमात्मामें स्थिर कर ब्रह्मभावमें स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया ॥ 13 ॥ उन्होंने एड़ीसे गुदाके द्वारको रोककर प्राणवायुको धीरे-धीरे मूलाधारसे ऊपरकी ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, | वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तकमें स्थित किया ॥ 14 ॥फिर उसे और ऊपरकी ओर ले जाते हुए क्रमशः ब्रह्मरन्धमें | स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकारके सांसारिक भोगोंकी लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायुको | समष्टि वायुमें, पार्थिव शरीरको पृथ्वीमें और शरीरके तेजको समष्टि तेजमें लीन कर दिया ।। 15 ।। हृदयाकाशादि | देहावच्छिन्न आकाशको महाकाशमें और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंशको समष्टि जलमें लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वीको जलमें, जलको तेजमें, तेजको वायुमें और वायुको आकाशमें लीन किया ॥ 16 ॥ तदनन्तर मनको [ सविकल्प ज्ञानमें जिनके अधीन वह रहता है, उन ] इन्द्रियोंमें, इन्द्रियोंको उनके कारणरूप तन्मात्राओंमें और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहङ्कारके द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओंको उसी अहङ्कारमें लीन कर, अहङ्कारको महत्तत्त्वमें लीन किया ॥ 17 ॥ फिर सम्पूर्ण गुणोंकी अभिव्यक्ति करनेवाले उस महत्तत्त्वको मायोपाधिक जीवमें स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीवकी उपाधिको भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होकर त्याग दिया ॥ 18 ॥

महाराज पृथुकी पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वनको गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरोंसे भूमिका स्पर्श करनेयोग्य भी नहीं थीं ॥ 19 ॥ फिर भी उन्होंने अपने स्वामीके व्रत और नियमादिका पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्तिके अनुसार कन्द-मूल आदिसे निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतमके करस्पर्शसे सम्मानित होकर उसीमें आनन्द माननेके कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था ॥ 20 ॥ अब पृथ्वीके स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथुकी देहको जीवनके चेतना आदि सभी धर्मोंसे रहित देख उस सतीने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वतके ऊपर चिता बनाकर उसे उस चितापर रख दिया ॥ 21 ॥ इसके बाद उस समयके सारे कृत्य कर नदीके जलमें स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पतिको जलाञ्जलि दे आकाशस्थित देवताओंकी वन्दना की तथा तीन बार चिताकी परिक्रमा कर पतिदेवके | चरणोंका ध्यान करती हुई अग्निमें प्रवेश कर गयी ॥ 22 ॥ परमसाध्वी अर्चिको इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथुका अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियोंने अपने अपने पतियोंके साथ उनकी स्तुति की ॥ 23 ॥वहाँ देवताओंके बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचलके शिखरपर ये देवाङ्गनाएँ पुष्पोंकी वर्षा करती हुई आपस इस प्रकार कहने लगीं ।। 24 ।। देवियोंने कहा – अहो ! यह स्त्री धन्य है ! इसने अपने

पति राजराजेश्वर पृथुकी मन-वाणी शरीरसे ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मीजी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णुकी करती। है ।। 25 ।। अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्मक प्रभावसे यह सती हमें भी लाँघकर अपने पतिके साथ उच्चतर लोकोंको जा रही है ॥ 26 ॥ इस लोकमें कुछ ही दिनोंका जीवन होनेपर भी जो लोग भगवान्के परमपदकी प्राप्ति करानेवाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसारमें कौन पदार्थ दुर्लभ है ।। 27 ।। अतः जो पुरुष बड़ी कठिनतासे भूलोकमें मोक्षका साधनस्वरूप मनुष्य शरीर पाकर भी विषयोंमें आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ढंगा गया ! ॥ 28 ॥

श्रीमंयजी कहते है-विदुरजी जिस समय देवाङ्गनाएं इस प्रकार स्तुति कर रही थी, भगवान्के जिस परमधामको आत्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोकको गयीं ॥ 29 ॥ परमभागवत पृथुजी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार है. मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया ।। 30 ।। जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्रको श्रद्धापूर्वक (निष्कामभावसे) एकाति पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है— वह भी महाराज पृथुके पद – भगवान् के परमधामको प्राप्त होता है ॥ 31 ॥ इसका सकामभावसे पाट करनेसे ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियोंमें प्रधान हो जाता है और शूद्रमें साधुता आ जाती है ।। 32 ।। स्त्री हो अथवा पुरुष – जो कोई इसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्रका कल्याण करनेवाला और अमङ्गलको दूर करनेवाला है ।। 33-34।। यह धन, यश और आयुको वृद्धि करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला और कलियुगके दोषोंका नाश करनेवाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्गकी प्राप्तिमें भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हो, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये ।। 35 ।। जो राजा विजयके लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजालोग उसी प्रकार भेंट रखते हैं जैसे पृथुके सामने रखते थे ।। 36 ।।मनुष्यको चाहिये कि अन्य सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर भगवान्‌में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथुके इस निर्मल चरितको सुने, सुनावे और पढ़े ॥ 37 ॥ विदुरजी ! मैंने भगवान्के माहात्म्यको प्रकट करनेवाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करनेवाला पुरुष महाराज पृथुकी-सी गति पाता है ॥ 38 ॥ जो पुरुष इस पृथु-चरितका प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्कामभावसे श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसारसागरको पार करनेके लिये नौकाके समान हैं, उन श्रीहरिमें सुदृढ़ अनुराग हो जाता है ।। 39 ।।

अध्याय 24 पृथुकी वंशपरम्परा और प्रचेताओंको भगवान् रुद्र का उपदेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! महाराज पृथुके बाद उनके पुत्र परम यशस्वी विजिताश्च राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयोंपर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारोंको एक-एक | दिशाका अधिकार सौंप दिया ॥ 1 ॥ राजा विजिताश्वने हर्यक्षको पूर्व, धूम्रकेशको दक्षिण, वृकको पश्चिम और द्रविणको उत्तर दिशाका राज्य दिया ॥ 2 ॥ उन्होंने इन्द्रसे अन्तर्धान होनेकी शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें ‘अन्तर्धान’ भी कहते थे। उनकी पत्नीका नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए 3 ॥ | उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे। पूर्वकालमें वसिष्ठजी का शाप होनेसे उपर्युक्त नामके अग्नियोंने ही उनके रूपमें जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्गसे ये फिर अग्निरूप हो गये ॥ 4 ॥

अन्तर्धानके नभस्वती नामकी पत्नीसे एक और पुत्र रत्र हविर्धन प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिताके अश्वमेघ यज्ञका घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जानेपर भी उनका वध नहीं किया था ॥ 5 ॥ राजा अन्तर्धानने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्योंको बहुत कठोर एवं दूसरोंके लिये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञमें दीक्षित होनेके बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया ॥ 6 ॥ यज्ञकार्यमें लगे रहनेपर भी उन आत्मज्ञानी राजाने भक्तभयभञ्जन पूर्णतम परमात्माकी आराधना करके सुदृढ़ समाधिके द्वारा भगवान्के दिव्य लोकको प्राप्त किया ॥ 7 ॥

विदुरजी ! हविर्धनकी पत्नी हविर्धानीने बर्हिषद्, गय, शुरू कृष्ण, सत्य और जितन्नत नामके छः पुत्र पैदा किये ॥ 8 ॥ कुरुश्रेष्ठ विदुरजी। इनमें हविर्धनके पुत्र महाभाग बर्हिषद्यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यासमें कुशल थे। उन्होंने प्रजापतिका पद प्राप्त किया । 9 । उन्होंने एक स्थानके बाद दूसरे स्थानमें लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्वकी ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशसे पट गयी थी। (इसीसे आगे चलकर वे ‘प्राचीनवर्हि’ नामसे विख्यात हुए) ॥ 10 ॥

राजा प्राचीनवरिन ब्रह्माजीके कहने से समुद्रकी कन्या शतद्रुतिसे विवाह किया था। सर्वाङ्गसुन्दरी किशोरी शतद्वति सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे सज-धजकर विवाह मण्डपमें जब भाँवर देनेके लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकीको चाहा था ॥ 11 ॥ नवविवाहिता शतद्रुतिने अपने नूपुरोकी झनकारसे ही दिशा-विदिशाओंके देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग सभीको वशमें कर लिया था ।। 12 ।। शतदुतिके गर्भ से प्राचीनवर्हिके प्रचेता नामके दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरणवाले थे ॥ 13 ॥ जब पिताने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेका आदेश दिया, तब उन सबने तपस्या करनेके लिये समुद्रमें प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्षतक तपस्या करते हुए उन्होंने तपका फल देनेवाले श्रीहरिकी आराधना की ।। 14 ।। घरसे तपस्या करनेके लिये जाते समय मार्ग श्रीमहादेवजीने उन्हें दर्शन देवर कृपापूर्वक जिस तत्त्वत्का उपदेश दिया था, उसीका वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे ॥ 15 ॥

विदुरजीने पूछा- मार्गमे प्रचेताओंका श्रीमहादेवजीके साथ किस प्रकार समागम हुआ और उनपर प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये ॥ 16 ॥ ब्रह्मर्षे ! शिवजीके साथ समागम होना तो देहधारियोंके लिये बहुत कठिन है। औरोंकी तो बात ही क्या है— मुनिजन भी सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर उन्हें पानेके लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहजमें पाते नहीं ॥ 17 ॥ यद्यपि भगवान् शङ्कर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना तो भी इस सृष्टिकी रक्षाके लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं ।। 18 ।।

श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिताकी आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्यामे चित्त लगा पश्चिमकी और चल दिये ।। 19 ।। चलते-चलते उन्होंने समुद्रके समान विशाल एक सरोवर देखा वह महापुरुषोंके चित्तके समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहनेवाले | मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे ॥ 20 ॥उसमें नीलकमल, लालकमल, रातमें, दिनमें और सायंकालमें खिलनेवाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकारके कमल सुशोभित थे। उसके तटोंपर हंस, सारस, चकवा, और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे ।। 21 ।। उसके चारों ओर तरह तरहके वृक्ष और लताएँ थीं, उनपर मतवाले भौर गूंज रहे थे। उनकी मधुर ध्वनिसे हर्षित होकर मानो उन्हें रोमाञ्च हो रहा था। कमलकोशके परागपुञ्ज वायुके झकोरोंसे चारों ओर उड़ रहे थे मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है ।। 22 ।। वहाँ मृदङ्ग, पणव आदि बाजोंके साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियोंके क्रमसे गायनकी मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारोको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ 23 ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शङ्कर अपने अनुचरोंके सहित उस सरोवरसे बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशिके समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओंको बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शङ्करजीके चरणोंमें प्रणाम किया ।। 24-25 ।। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शङ्करने अपने दर्शनसे प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारोंसे प्रसन्न होकर कहा ॥ 26 ॥

श्रीमहादेवजी बोले- तुमलोग राजा प्राचीनवर्हिके पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी | मुझे मालूम है। इस समय तुमलोगों पर कृपा करनेके लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है ॥ 27 ॥ जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञक पुरुष—इन दोनोके नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है॥ 28 ॥ अपने वर्णाश्रमधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाला पुरुष सौ जन्मके बाद ब्रह्माके पदको प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होनेपर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान्का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्युके बाद ही सीधे भगवान् विष्णुके उस सर्वप्रपञ्चातीत परमपदको प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूपमें स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकारकी समाप्तिके बाद प्राप्त करेंगे ॥ 29 ॥ तुमलोग भगवद्भक्त होनेके नाते मुझे भगवान्‌के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान्‌के भक्तोको भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता ॥ 30 ॥ अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मङ्गलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ।

इसका तुमलोग शुद्धभावसे जप करना ।। 31 ।। श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिवने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रोंको यह स्तोत्र सुनाया ।। 32 ।।भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे-भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्कोटिके आत्मज्ञानियोंके कल्याणके लिये निजानन्द लाभके लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्द-स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। 33 ॥ आप पद्मनाभ (समस्त) लोकोंके आदि कारण) है; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियोंके नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्तके अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है ।। 34 ।। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखानिके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंका संहार करनेवाले अहङ्कारके अधिष्ठाता सङ्कर्षण तथा जगत्‌के प्रकृष्ट ज्ञानके उद्गमस्थान बुद्धिके अधिष्ठाता प्रद्युम्न है; आपको नमस्कार है ।। 35 ।। आप हो इन्द्रियोंके स्वामी, मनस्तत्त्वके अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध है; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेजसे जगत्‌को व्याप्त करनेवाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होनेके कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है ।। 36 ।। | आप स्वर्ग और मोक्षके द्वार निरन्तर पवित्र हृदयमें रहनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूपवीर्यसे युक्त और चातुर्होत्र कर्मके साधन तथा विस्तार करनेवाले अग्निदेव हैं: आपको नमस्कार है ।। 37 ।। आप पितर और देवताओंके पोषक सोम है तथा तीनों वेदोके अधिष्ठाता है; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप हो समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाले सर्वरस (जल) रूप हैं, आपको नमस्कार है ।। 38 ।। आप समस्त प्राणियोंके देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकीकी रक्षा करनेवाले मानसिक, ऐन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं आपको नमस्कार है ॥ 39 ॥ आप ही अपने गुण शब्दके द्वारा समस्त पदार्थोंका ज्ञान करानेवाले तथा बाहर भीतरका भेद करनेवाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्योंसे प्राप्त होनेवाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक है; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है ।। 40 ।। आप पितृलोककी प्राप्ति करानेवाले प्रवृत्ति कर्मरूप और देवलोकको प्राप्तिके साधन निवृत्तिकर्मरूप हैं तथा आप ही | अधर्मके फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु है; आपको नमस्कार है ।। 41 ।। नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योगके अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण है, आप सब प्रकारको कामनाओंकी पूर्तिके कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप है; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होनेवाली नहीं है, आपको नमस्कार है, नमस्कार है ।। 42 ।। आप ही कर्ता, करण और कर्म – तीनों शक्तियकि एकमात्र आश्रय हैं, आप ही अहङ्कारके अधिष्ठाता रुद्र हैं, आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चार प्रकारको वाणीकी | अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है ।। 43 ।।प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनोंको अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूपकी आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणोंसे समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाला है ॥ 44 ॥ वह वर्षाकालीन मेघके समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दयका सार सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएं महामनोहर मुखारविन्द, कमलदलके समान नेत्र, सुन्दर भौह सुघड़ नसिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहा | मुखमण्डल और शोभाशाली समान कर्ण-युगल हैं ।। 45-46 ॥ प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली काली घुँघराली अलके, कमलकुसुमकी केरके समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कङ्कण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभमणिके कारण उसकी अपूर्व शोभा है ॥ 47-48 ॥ उसके सिंहके समान स्थूल कंधे हैं— जिनपर हार, | केयूर एवं कुण्डलादिकी कान्ति झिलमिलाती रहती है-तथा कौस्तुभमणिकी कान्तिसे सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नके रूपमें लक्ष्मीजीका नित्य निवास होनेके कारण कसौटीकी शोभाको भी मात करता है ॥ 49 ॥ उसका त्रिवलीसे सुशोभित, पीपलके पत्तेके समान सुडौल उदर श्वासके आने-जानेसे हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवरके समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसीमें लीन होना चाहता है ॥ 50 ॥ श्यामवर्ण कटिभागमें पीताम्बर और सुवर्णकी मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण पिड़ली, ध और पुनके कारण आपका दिव्य वियह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है ॥ 51 ॥ आपके चरणकमलोंकी शोभा शरद् ऋतुके कमल दलकी कान्तिका भी तिरस्कार करती है। उनके नखोंसे जो प्रकाश निकलता है, वह जीवोंके हृदयान्धकारको तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तोंके भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूपका दर्शन कराइये। जगद्गुरो ! हम अज्ञानावृत प्राणियों को अपनी प्रारिक मार्ग बतलानेवाले आप हो हमारे गुरु हैं ll 52 ll

प्रभो चित्तशुद्धिकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको आपके इस रूपका निरन्तर ध्यान करना चाहिये, इसकी भक्ति हो स्वधर्मका पालन करनेवाले पुरुषको अभय करनेवाली है 53 ॥ स्वर्गका शासन करनेवाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियोंकी गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियोंके लिये अत्यन्त दुर्लभ है; केवल भक्तिमान् पुरुष हीआपको पा सकते हैं ॥ 54 ॥ सत्पुरुषोंके लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्तिसे भगवान्‌को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधनासे दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतलके अतिरिक्त और कुछ चाहेगा ॥ 55 ॥ जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रमसे फड़कती हुए भौहके इशारेसे सारे संसारका संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणोंकी शरणमें गये हुए प्राणीपर अपना अधिकार नहीं मानता ॥ 56 ॥ ऐसे भगवानके प्रेमी भक्तोंका यदि आधे क्षणके लिये भी समागम हो जाय तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्षको कुछ नहीं समझता; फिर मर्त्यलोकके तुच्छ भोगोकी तो बात ही क्या है ।। 57 ।। प्रभो! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशिको हर लेनेवाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगोंने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गङ्गाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकारके पापोंको धो डाला है तथा जो जीवोंके प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणोंसे युक्त हैं, उन आपके भक्तजनोंका सङ्ग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हमपर आपकी बड़ी कृपा होगी ।। 58 ।। जिस साधकका चित्त भक्तियोगसे अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयोंमें भटकता है और न अज्ञान-गुहारूप प्रकृतिमें ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूपका दर्शन पा जाता है॥ 59 ॥ जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत्‌में भास रहा है, वह आकाशके समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं ॥ 60 ॥

भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकारके रूप धारण करती है। इसीके द्वारा आप इस प्रकार जगत्की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकारका विकार नहीं आता। मायाके कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मापर वह अपना प्रभाव डालनेमें असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं ॥ 61 ॥ आपका स्वरूप पञ्चभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूपसे उपलक्षित होता है। जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करनेके लिये तरह-तरहके कर्मोद्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूपका श्रद्धापूर्वक भलीभांति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रोंके सच्चे मर्मज्ञ है ॥ 62 ॥ प्रभो! आप ही अद्वितीय आदिपुरुष है। सृष्टिके पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसीके द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणका भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणोंसे महत्तत्त्व, अहङ्कार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियोंसे युक्त इस जगत्की उत्पत्ति होती है ll 63 llफिर आप अपनी ही मायाशक्तिसे रचे हुए इन जरायुज, अण्डर खेद और उसे चार प्रकारके शरीरोंमें अंशरूपसे प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियों अपने ही उत्पन्न किये हुए मधुका आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरोंमें रहकर इन्द्रियोंके द्वारा इन तुच्छ विषयोंको भोगता है। आपके उस अंशको ही पुरुष या जीव कहते हैं॥ 64 ॥

प्रभो ! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्षसे नहीं अनुमानसे होता है। प्रलयकाल उपस्थित होनेपर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असा वेगसे पृथ्वी आदि भूतोंको अन्य भूतोंसे विचलित | कराकर समस्त लोकोंका संहार कर देते हैं—जैसे वायु अपने असहनीय एवं प्रचण्ड झोंकोंसे मेघेोंक द्वारा ही मेको तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है ॥ 65 ॥ भगवन् । यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्तामें रहता है कि ‘अमुक कार्य करना है’। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयोंकी ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं: भूससे जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहेको चट कर जाता है, उसी प्रकार आप अपने कालस्वरूपसे उसे सहसा लील जाते हैं ॥ 66 ॥ आपकी अवहेलना करनेके कारण अपनी आयुको व्यर्थ माननेवाला ऐसा कौन विद्वान होगा, जो आपके चरणकमलोंको बिसारेगा ? इसकी पूजा तो कालकी आशङ्कासे ही हमारे पिता जी और स्वायम्भुव आदि चौदह गनुओंने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धासे ही की थी ॥ 67 ॥ ब्रह्मन् ! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप कालके भयसे व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्वको जाननेवाले हमलोगोंके तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं ।। 68 ।।

राजकुमारो ! तुमलोग विशुद्धभावसे स्वधर्मका आचरण करते हुए भगवान्‌में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जप करते रहो; भगवान् तुम्हारा मङ्गल करेंगे ॥ 69 ॥ तुमलोग अपने अन्तःकरणमें स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरिका हो बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो ॥ 70 ॥ मैने तुम्हें यह योगादेश नामका स्तोत्र सुनाया है। तुमलोग इसे मनसे धारणकर मुनिव्रतका आचरण करते हुए इसका एकाग्रतासे आदरपूर्वक अभ्यास करो ॥ 71 ॥ यह स्तोत्र पूर्वकालमें जगद्विस्तारके इच्छुक प्रजापतियोंके पति भगवान् महाजीने प्रजा उत्पन्न करनेकी इच्छावाले हम भृगु आदि अपने पुत्रोंको सुनाया था ।। 72 ।। जब हम प्रजापतियोंको प्रजाका विस्तार करनेकी आज्ञा हुई, तब इसीके द्वारा हमने अपना अज्ञान | निवृत्त करके अनेक प्रकारकी प्रजा उत्पन्न की थी ॥ 73 ॥अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्र चित्तसे नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो इस लोकमें प्रकारके कल्याणसाधनोंमें मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है । ज्ञान-नौकापर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसारसागरको पार कर लेता है ॥ 75 ॥ यद्यपि | भगवान्‌की आराधना बहुत कठिन है-किन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्रका जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमतासे ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा ॥ 76 ॥ भगवान् ही सम्पूर्ण कल्याणसाधनोंके एकमात्र प्यारे प्राप्तव्य हैं। अतः मेरे गाये हुए इस स्तोत्रके गानसे उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, | प्राप्त कर लेगा || 77 ॥ जो पुरुष उषःकालमें उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकारके कर्मबन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 78 ।। राजकुमारो मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्माका स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्तसे जपते हुए तुम महान् तपस्या | करो। तपस्या पूर्ण होनेपर इसीसे तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायगा ll 79 ll

अध्याय 25 पुरञ्जनोपाख्यानका प्रारम्भ

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी इस प्रकार भगवान् शङ्करने प्रचेताओंको उपदेश दिया। फिर प्रचेताओंने शङ्करजीकी बड़े भक्तिभावसे पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारोके सामने ही अन्तर्धान हो गये ॥ 1॥ सब-के-सब प्रचेता जलमें खड़े रहकर भगवान् रुद्रके बताये स्तोत्रका जप करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या करते रहे ।। 2 ।। इन दिनों राजा प्राचीनवर्हिका चित्त कर्मकाण्डमें बहुत रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारदजीने उपदेश दिया ॥ 3 ॥ उन्होंने कहा कि राजन्! इन कर्मो के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो ? दुःखके आत्यन्तिक नाश और परमानन्दकी प्राप्तिका नाम कल्याण है; वह तो कर्मोंसे नहीं मिलता’ ॥ 4 ॥राजाने कहा – महाभाग नारदजी ! मेरी बुद्धि कर्ममें फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याणका कोई | पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञानका उपदेश दीजिये जिससे में इस कर्मबन्धनसे छूट जाऊँ ॥ 5 ॥ जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममें ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धनको ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्यमें ही भटकता रहनेके कारण उस परम | कल्याणको प्राप्त नहीं कर सकता ।। 6 ।।

श्रीनारदजीने कहा- देखो देखो राजन्! तुमने यज्ञमें निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओंकी बलि दी है—उन्हें आकाशमें देखो || 7 | ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त | हुई पीड़ाओंको याद करते हुए बदला लेनेके लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोकमें जाओगे, तब | ये अत्यन्त क्रोधमें भरकर तुम्हें अपने लोहेके से सींगों से छेदेंगे ॥ 8 ॥ अच्छा, इस विषयमें मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता हूँ। वह राजा पुरञ्जनका चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान होकर सुनो ॥ 9 ॥

राजन् ! पूर्वकालमें पुरञ्जन नामका एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओंको समझ नहीं सकता था ॥ 10 ॥ राजा पुरञ्जन अपने रहने योग्य स्थानकी खोजमें सारी पृथ्वीमें घूमा; | फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास सा हो गया ।। 11 । उसे तरह-तरहके भोगोंको लालसा थी; उन्हें भोगने के लिये उसने संसारमें जितने नगर देखे, उनमें से कोई भी उसे ठीक न जैचा ।। 12 ।।

एक दिन उसने हिमालयके दक्षिण तटवर्ती शिखरों | पर कर्मभूमि भारतखण्डमें एक नौ द्वारोंका नगर देखा। वह सब प्रकारके सुलक्षणोंसे सम्पन्न था ॥ 13 ॥ सब ओरसे परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारोंसे सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहेके शिखरोंवाले विशाल भवनोंसे खचाखच भरा था ।। 14 ।। उसके महलोकी फ नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालोंकी बनी हुई थीं। अपनी कान्तिके कारण वह नागोंकी राजधानी भोगवतीपुरीके समान जान पड़ता था ॥ 15 ॥ उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा-भवन, चौराहे, सड़कें, क्रीडाभवन, बाजार, विश्राम स्थान, ध्वजा पताकाएँ और मूँगेके चबूतरे सुशोभित थे ।। 16 ।।उस नगरके बाहर दिव्य वृक्ष और लताओंसे पूर्ण एक सुन्दर बाग था; उसके बीचमें एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँतिकी बोली बोल रहे थे तथा भौरे गुंजार कर रहे थे ॥ 17 ॥ सरोवरके तटपर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनोंके जलकणोंसे मिली हुई वासन्ती वायुके झकोरोंसे हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमिकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ 18 ॥ वहाँके वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतोंका पालन करनेवाले थे, इसलिये उनसे किसीको कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिलकी कुह-ध्वनि होती थी, उससे मार्गमें चलनेवाले बटोहियोंको ऐसा भ्रम होता था मानो वह | बगीचा विश्राम करनेके लिये उन्हें बुला रहा है ।। 19 ।।

राजा पुरञ्जनने उस अद्भुत वनमें घूमते-घूमते एक सुन्दरीको आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमेंसे प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओंका पति था 20 ॥ एक पाँच फनवाला साँप उसका द्वारपाल था, वही उसकी सब ओरसे रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी और विवाहके लिये श्रेष्ठ पुरुषकी खोजमें थी ॥ 21 ॥ उसकी नासिका, दन्तपङ्क्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान कानोंमें कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ 22 ॥ उसका रंग साँवला था। कटिप्रदेश सुन्दर था। वह पीले रंगकी साड़ी और सोनेकी करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणोंसे नूपुरोंकी झनकार करती जाती थी। अधिक क्या, वह साक्षात् कोई देवी-सी जान | पड़ती थी ॥ 23 ॥ वह गजगामिनी बाला किशोरावस्थाकी सूचना देनेवाले अपने गोल-गोल समान और परस्पर सटे हुए लज्जावश बार-बार अञ्चलसे ढकती जाती थी 24 ॥ स्तनोंको उसकी प्रेमसे मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवनके बाणसे घायल होकर वीर पुरञ्जनने लज्जायुक्त मुसकानसे और भी सुन्दर लगनेवाली उस देवीसे मधुरवाणीमें कहा ।। 25 ।। ‘कमलदललोचने’ ! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो ? साध्वी ! इस समय आ कहाँसे रही हो, भीरु ! इस पुरीके समीप तुम क्या करना चाहती हो ? ॥ 26 ॥ सुश्रु तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शूरवीरसे सञ्चालित ये दस सेवक कौन हैं | और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे-आगे चलनेवाला यह सर्प कौन है ? 27 सुन्दरि ! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्रह्माणीमेंसे कोई हो ? यहाँ वनमें मुनियोंकी तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेवको खोज रही हो ? तुम्हारे प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणोंकी कामना करती हो’, इतने से ही पूर्णकाम हो जायँगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तो तुम्हारे हाथका क्रीड़ाकमल कहाँ गिर गया ॥ 28 ॥सुभगे ! तुम इनमेंसे तो कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वीका स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मीजी जिस प्रकार भगवान् विष्णुके साथ वैकुण्ठकी शोभा बढ़ाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरीको अलङ्कृत करो। देखा, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ ॥ 29 ॥ परंतु आज तुम्हारे कटाक्षोंने मेरे मनको बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिभावसे भरी मुसकानके साथ भौहोंके संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिये सुन्दरि ! अब तुम्हें मुझपर कृपा करनी चाहिये ॥ 30 ॥ शुचिस्मिते ! सुन्दर भौहें और सुघड़ नेत्रोंसे सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियोंसे घिरा हुआ है; तुम्हारे मुखसे निकले हुए वाक्य बड़े हो मीठे और मन हरनेवाले हैं, परंतु वह मुख तो लाजके मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके | अपने उस सुन्दर मुखड़ेका मुझे दर्शन तो कराओ’ ॥ 31 ॥

श्रीनारदजीने कहा- वीरवर! जब राजा पुरखनने अधीर से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस वालाने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजाको देखकर | मोहित हो चुकी थी ॥ 32 ॥ वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें | अपने उत्पन्न करनेवालेका ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम | अपने या किसी दूसरेके नाम या गोत्रको ही जानती हैं ॥ 33 ॥ वीरवर! आज हम सब इस पुरीमें हैं—इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने बनायी है ॥ 34 ॥ प्रियवर ! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरीकी रक्षा करता रहता है ।। 35 ।। शत्रुदमन ! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये | सौभाग्यकी बात है। आपका मङ्गल हो। आपको विषय-भोगों की इच्छा है, उसकी पूर्तिके लिये मैं अपने साथियोंसहित सभी प्रकारके भोग प्रस्तुत करती रहूँगी ॥ 36 ॥ प्रभो ! इस नौ द्वारों वाली पुरीमें मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगोंको भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षोंतक निवास कीजिये ॥ 37 ॥ भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करूँगी ? दूसरे लोग तो न रति सुखको जानते हैं, न विहित भोगोंको ही भोगते हैं, न परलोकका ही विचार करते हैं और न कल क्या होगा—इसका | ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य है ॥ 38 ॥ अहो ! इस लोकमें गृहस्थाश्रममें ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकोंकी प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते ।। 39 ।।महापुरुषोंका कथन है कि इस लोकमें पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके और अपने भी कल्याणका आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है ॥ 40 ॥ वीरशिरोमणे ! लोकमें मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पतिको वरण न करेगी ॥ 41 ॥ महाबाहो ! इस पृथ्वीपर आपकी | साँप जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओंमें स्थान पानेके लिये किस कामिनीका चित्त न ललचावेगा ? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टिसे हम जैसी अनाथाओंके मानसिक सन्तापको शान्त करनेके लिये ही पृथ्वीमें विचर रहे हैं ॥ 42 ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन स्त्री-पुरुषोंने इस प्रकार एक-दूसरेकी बातका समर्थन कर फिर सौ वर्षोंतक उस पुरीमें रहकर आनन्द भोगा ॥ 43 ॥ गायक लोग सुमधुर स्वरमें जहाँ-तहाँ राजा पुरञ्जनकी कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्मऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियोंके साथ सरोवरमें घुसकर जलक्रीड़ा करता ॥ 44 ॥ उस नगरमें जो नौ द्वार थे, उनमेंसे सात नगरीके ऊपर और दो नीचे थे। उस नगरका जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशोंमें जानेके लिये ये द्वार बनाये गये थे ॥ 45 ॥ राजन् ! इनमेंसे पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिमकी ओर थे। उनके नामोंका वर्णन करता हूँ ॥ 46 ॥ पूर्वकी ओर खद्योता और आविर्मुखी नामके दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरञ्जन अपने मित्र घुमान के साथ विभ्राजित नामक देशको जाया करता था ॥ 47 ॥ इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नामके दो द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूतके | साथ सौरभ नामक देशको जाता था ॥ 48 ॥ पूर्वदिशाकी ओर मुख्या नामका जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह | रसज्ञ और विपणके साथ क्रमशः बहूदन और आपण नामके देशोंको जाता था ।। 49 ।। पुरीके दक्षिणकी ओर जो पितृहू नामका द्वार था, उसमें होकर राजा पुरञ्जन श्रुतधरके साथ दक्षिणपाञ्चाल देशको जाता था ।। 50 ।। उत्तरकी ओर जो देवहू नामका द्वार था, उससे श्रुतधरके ही | साथ वह उत्तरपाञ्चाल देशको जाता था ॥ 51 ॥पश्चिम दिशामें आसुरी नामका दरवाजा था, उसमें होकर वह | दुर्मदके साथ ग्रामक देशको जाता था ॥ 52 ॥ तथा निर्ऋि नामका जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धकके साथ वह वैशस नामके देशको जाता था ॥ 53 ॥ इस नगरके निवासियोंमें | निर्वाक् और पेशस्कृत् —ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरञ्जन आँखवाले नागरिकोंका अधिपति होनेपर भी इन्हींकी सहायतासे | जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकारके कार्य करता था ll 54 ll

जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीनके साथ अन्तःपुरमें जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रोंके कारण होनेवाले मोह, प्रसत्रता एवं हर्ष आदि विकारोंका अनुभव होता ।। 55 ।। उसका चित्त | तरह-तरहके कर्मोंमें फँसा हुआ था और काम-परवश होनेके कारण वह मूढ़ रमणीके द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था ॥ 56 ॥ वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मदसे उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी भोजन करने लगता और जब कुछ चबाती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था ।। 57 ।। इसी प्रकार कभी उसके गानेपर गाने लगता, रोनेपर रोने लगता, हँसनेपर हँसने लगता और बोलनेपर बोलने लगता ॥ 58 ॥ वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसीके साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता ॥ 59 कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीजको छूती तो आप भी छूने लगता ॥ 60 ॥ कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीनके समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होनेपर आप भी आनन्दित हो जाता ॥ 61 ॥ (इस प्रकार) राजा पुरञ्जन अपनी सुन्दरी रानीके द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग—परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होनेपर भी खेलके लिये घरपर पाले हुए | बंदरके समान अनुकरण करता रहता ।। 62 ।।

अध्याय 26 राजा पुरञ्जनका शिकार खेलने वनमें जाना

श्रीनारदजी कहते हैं—राजन्। एक दिन राजा पुरञ्जन अपना विशाल धनुष, सोनेका कवच और अक्षय तरकस धारणकर अपने ग्यारहवें सेनापतिके साथ पाँच घोड़ोंके शीघ्रगामी रथमें बैठकर पञ्चप्रस्थ नामके वनमें गया। उस रथमें दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठनेका स्थान, दो जुए पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकारकी चालोंसे चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था ॥ 13 ॥ यद्यपि राजाके लिये अपनी प्रियाको क्षणभर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकारका ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्वसे धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा ॥ 4 ॥ इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जानेसे उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणोंसे बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरोंका वध कर डाला ॥ 5 ॥ जिसकी मांसमें अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कमेकि लिये | वनमें जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओंका वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छृङ्खल प्रवृत्तिको नियन्त्रित करता है ॥ 6 ॥ राजन् जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कमका आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठानसे प्राप्त |हुए ज्ञानके कारणभूत कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ॥ 7 ॥ नहीं तो, मनमाना कर्म करनेसे मनुष्य अभिमानके वशीभूत होकर कर्मोमि | बँध जाता है तथा गुण प्रवाहरूप संसारचक्रमें पड़कर विवेक | बुद्धिके नष्ट हो जानेसे अधम योनियोंमें जन्म लेता है ॥ 8 ॥

पुरञ्जनके तरह-तरहके पंखोंवाले वाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्टके साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीवसंहार देखकर सभी दयालु पुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके ॥ 9 ॥ इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओंका वध करते-करते राजा पुरअन बहुत थक गया ।। 10 तब वह भूख-प्याससे अत्यन्त शिथिल हो वनसे लौटकर राजमहलमें आया। वहाँ उसने यथायोग्य रोतिसे स्नान और भोजनसे निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की ।। 11 फिर गन्ध, चन्दन और माला आदिसे सुसज्जित हो सब अङ्गो सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रियाकी याद आयी ।। 12 ।।वह भोजनादिसे तृप्त, हृदयमें आनन्दित, मदसे उत्पत्त और कामसे व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भाको ढूंढ़ने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी ।। 13 ।।

प्राचीनवर्हि ! तब उसने चित्तमें कुछ उदास होकर अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे पूछा, ‘सुन्दरियो! अपनी स्वामिनीके सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशलसे हो न ? ॥ 14 ॥ क्या कारण है आज इस घरकी सम्पत्ति पहले जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती ? घरमें माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहियेके रथके समान हो जाता है; फिर उसमें कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषोंके समान रहना पसंद करेगा ॥ 15 ॥ अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख- समुद्रमें डूबनेपर मेरी विवेक-बुद्धिको पद-पदपर जाग्रत् करके मुझे उस सङ्कटसे उबार लेती है ?’ ।। 16 ।। स्त्रियोंने कहा – नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रियाने क्या ठानी है। शत्रुदमन ! देखिये, वे बिना बिछौनेके पृथ्वीपर ही पड़ी हुई हैं ॥ 17 श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! उस स्त्रीके सङ्गसे राजा पुरञ्जनका विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानीको पृथ्वीपर अस्त-व्यस्त अवस्थामें पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया ॥ 18 उसने दुःखित हृदयसे उसे मधुर वचनोंद्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसीके अंदर अपने प्रति प्रणय-कोपका कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया ॥ 19 ॥ वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरञ्जनने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छूए और फिर गोदमें बिठाकर बड़े प्यारसे कहने लगा ॥ 20 ॥

पुरञ्जन बोला— सुन्दरि ! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करनेपर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षाके लिये उचित दण्ड नहीं देते ॥ 21 ॥ सेवकको दिया हुआ स्वामीका दण्ड तो उसपर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्होंको क्रोधके कारण अपने हितकारी स्वामीके किये हुए उस उपकारका पता नहीं चलता ॥ 22 ॥सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौंहोंसे शोभा पानेवाली मनस्विनि ! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जासे झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवनसे सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो ! भ्रमरपंक्तिके समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणीके कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनोमोहक जान पड़ता है ॥ 23 ॥ वीरपनि ! यदि किसी दूसरेने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मणकुलका नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान्‌के भक्तोंको छोड़कर त्रिलोकीमें अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके ॥ 24 ॥ प्रिये ! मैंने आजतक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोधके कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनोंको ही शोकाश्रुओंसे भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरोंको स्निग्ध केसरकी लालीसे रहित देखा है ॥ 25 ॥ मैं व्यसनवश तुमसे | बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ; कामदेवके विषम बाणोंसे अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पतिको उचित कार्यके लिये भला कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती ॥ 26 ॥

अध्याय 27 पुरञ्जनपुरीपर चण्डवेगकी चढ़ाई

श्रीनारदजी कहते हैं—महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरोंसे पुरञ्जनको पूरी तरह अपने वशमें कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी ॥ 1 ॥ उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकारके माङ्गलिक शृङ्गार किये तथा भोजनादिसे तृप्त होकर वह राजाके पास आयी। राजाने तूम उस मनोहर मुखवाली राजमहिषीका सादर अभिनन्दन किया ॥ 2 ॥ पुरञ्जनीने राजाका आलिङ्गन किया और राजाने उसे गले लगाया। फिर एकान्तमें मनके अनुकूल रहस्यको बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनीमें ही चित्त लगा रहनेके कारण उसे दिन-रातके भेदसे निरन्तर बीतते हुए कालकी दुस्तर गतिका भी कुछ पता न चला ॥ 3 ॥मदसे छका हुआ मनस्वी पुरञ्जन अपनी प्रियाको भुजापर सिर रखे महामूल्य शय्यापर पड़ा रहता । उसे तो वह रमणी ही जीवनका परम फल जान पड़ती थी। अज्ञानसे आवृत्त हो जानेके कारण उसे आत्मा अथवा परमात्माका कोई ज्ञान न रहा ॥ 4 ॥

राजन् ! इस प्रकार कामातुर चित्तसे उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरञ्जनकी जवानी आधे क्षणके समान बीत गयी ॥ 5 ॥ प्रजापते ! उस पुरञ्जनीसे राजा पुरञ्जनके ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुई, जो सभी माता-पिताका सुयश बढ़ानेवाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न थीं। ये पौरञ्जनी नामसे विख्यात हुईं। इतनेमें ही उस सम्राट्की लंबी आयुका आधा भाग निकल | गया ।। 6-7 ।। फिर पाञ्चालराज पुरञ्जनने पितृवंशकी वृद्धि करनेवाले पुत्रोंका वधुओंके साथ और कन्याओंका उनके | योग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया।। 8 ।। पुत्रोंमेंसे प्रत्येकके सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धिको प्राप्त होकर पुरञ्जनका वंश | सारे पाञ्चाल देशमें फैल गया ॥ 9 ॥ इन पुत्र, पौत्र, गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदिमें दृढ़ ममता हो जानेसे वह | इन विषयोंमें ही बँध गया ॥ 10 ॥ फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकारके भोगोंकी कामनासे यज्ञको दीक्षा ले तरह-तरहके पशुहिंसामय घोर यज्ञोंसे देवता पितर और भूतपतियोंकी आराधना की ।। 11 ।। इस प्रकार वह जीवनभर आत्माका कल्याण करनेवाले कर्मोंकी ओरसे असावधान और कुटुम्बपालनमें व्यस्त रहा। अन्तमें वृद्धावस्थाका वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषोंको बड़ा अप्रिय होता है ।। 12 ।।

राजन् ! चण्डवेग नामका एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते है ।। 13 ।। इनके साथ मिथुनभावसे स्थित कृष्ण और शुक्र वर्णकी उतनी ही गन्धर्वियां भी है ये बारी-बारीसे चक्कर लगाकर भोग-विलासकी सामग्रियोंसे भरी-पूरी नगरीको लूटती रहती हैं ॥ 14 गन्धर्वराज चण्डवेगके उन अनुचरोंने जब राजा पुरञ्जनका नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फनके सर्प प्रजागरने रोका ।। 15 ।। यह पुरञ्जनपुरीकी चौकसी करनेवाला महाबलवान् सर्प सौ वर्षतक अकेला ही उन सात सौ बोस | गन्धर्वगन्धर्वयों युद्ध करता रहा ।। 16 ।।बहुत से वीरोंके साथ अकेले ही युद्ध करनेके कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागरको बलहीन हुआ देख राजा पुरञ्जनको अपने राष्ट्र और नगरमें रहनेवाले अन्य बान्धवोके सहित बड़ी चिन्ता हुई ।। 17 ।। वह इतने दिनोंतक पाञ्चाल देशके उस नगरमें अपने दूतोंद्वारा लाये हुए करको लेकर विषयभोगों में मस्त रहता था। स्त्रीके वशीभूत रहनेके कारण इस अवश्यम्भावी भयका उसे पता हो न चला ॥ 18 ॥

बर्हिष्मन् ! इन्हीं दिनों कालकी एक कन्या वरकी खोजमें त्रिलोकीमें भटकती रही, फिर भी उसे किसीने स्वीकार नहीं किया ।। 19 । वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते थे। एक बार राजर्षि पूरुने पिताको अपना यौवन देनेके लिये अपनी ही इच्छासे उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्तिका वर दिया था ॥ 20 ॥ एक दिन मैं ब्रह्मलोकसे पृथ्वीपर आया, तो वह घूमती घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होनेके कारण उसने वरना चाहा ॥ 21 ॥ मैने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इसपर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थानपर अधिक देर न ठहर सकोगे ॥ 22 ॥

तब मेरी ओरसे निराश होकर उस कन्याने मेरी सम्मति से यवनराज भयके पास जाकर उसका पतिरूपसे वरण किया ॥ 23 ॥ और कहा, ‘वीरवर ! आप यवनोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे | प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ जीवोंका सङ्कल्प कभी विफल नहीं होता ।। 24 ।। जो | मनुष्य लोक अथवा शास्त्रकी दृष्टिसे देनेयोग्य वस्तुका दान नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टिसे अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ हैं, अतएव शोचनीय | हैं ॥ 25 ॥ भद्र । इस समय मैं आपकी सेवामें उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुषका सबसे बड़ा धर्म दोनोंपर दया करना ही है 26 ।।

कालकन्याकी बात सुनकर यवनराजने विधाताका एक गुप्त कार्य करानेको इच्छासे मुसकराते हुए उससे कहा ॥ 27 ॥ मैंने योगदृष्टिसे देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करनेवाली है, इसलिये किसीको भी अच्छी नहीं लगती और इसीसे लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोकको तू अलक्षित होकर बलात् भोग तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायतासे तू सारी प्रजाका नाश करनेमें समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा 28-29 ।।यह प्रज्वार नामका मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा । तुम दोनोंके साथ मैं अव्यक्त गतिसे भयङ्कर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूँगा’ ll 30 ll

अध्याय 28 पुरञ्जनको स्त्रीयोनिकी प्राप्ति

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! फिर भय नामक यवनराजके आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्याके साथ इस पृथ्वीतलपर सर्वत्र विचरने लगे ।। 1 ।। एक बार उन्होंने बड़े वेगसे बूढ़े साँपसे सुरक्षित और संसारकी सब प्रकारकी सुख सामग्रीसे सम्पन्न पुरञ्जनपुरीको घेर लिया ॥ 2 ॥ तब, जिसके | चंगुलमें फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरीकी प्रजाको भोगने लगी ॥ 3 ॥ उस समय वे यवन भी कालकन्याके द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरीमें चारों ओरसे भिन्न भिन्न द्वारोंसे घुसकर उसका विध्वंस करते लगे 4 पुरीके इस प्रकार पीड़ित किये जानेपर उसके स्वामित्वका अभिमान रखनेवाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरञ्जनको भी नाना प्रकारके क्लेश सताने लगे ॥ 5 ॥

कालकन्या आलिङ्गन करनेसे उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होनेके कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनोंने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया || 6 | उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य और अमात्यवर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देशको कालकाने वंशमे कर रखा है और पाञ्चालदेश शत्रुओंके हाथमें पड़कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरञ्जन अपार चिन्तामें डूब गया और उसे उस विपत्तिसे छुटकारा पानेका कोई उपाय न दिखायी दिया ।। 7-8 ॥ कालकन्याने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगोंकी लालसासे वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनोंके स्नेहसे वचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्रके लालन-पालनमें ही लगा हुआ था ॥ 9 ॥ ऐसी अवस्थामें उनसे बिछुड़नेकी इच्छा न होनेपर भी उसे उस पुरीको छोड़नेके लिये बाध्य होना पड़ा क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनोंने घेर रखा था तथा कालकल्याने कुचल दिया था ॥ 10 ॥ इतनेमें ही यवनराज भयके बड़े भाई प्रज्यारने अपने भाईका प्रिय करनेके लिये उस सारी पुरीमें आग लगा दी ।। 11 ।।जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी सेवकवृन्द, सन्तानवर्ग और कुटुम्बकी स्वामिनीके सहित कुटुम्बवत्सल | पुरञ्जनको बड़ा दुःख हुआ ।। 12 । नगरको कालकन्याके हाथमें पड़ा देख उसकी रक्षा करनेवाले सर्पको भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थानपर भी यवनोंने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उसपर भी आक्रमण कर रहा था ॥ 13 ॥ जब उस नगरकी रक्षा करनेमें वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्षके कोटरमें रहनेवाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्टसे काँपते हुए वहांसे भागने की इच्छा की ।। 14 ।। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वोने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओंने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा ।। 15 ।।

गृहासक पुरन देह-गेहादिमें मैं मेरेपनका भाव रखनेसे अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्वीके प्रेमपाशमें फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़नेका समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थोंमें उसको ममताभर शेष थी. (उनका भोग तो कभीका छूट गया था), उन सबके लिये इस | प्रकार चिन्ता करने लगा ।। 16-17 ॥ हाय ! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थीवाली है; जब मैं परलोकको चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी ? इसे इन बाल-बच्चोंकी चिन्ता ही खा जायगी ॥ 18 ॥ यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवामें तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी । 19 ॥ मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इसका इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथासे सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रमका व्यवहार चला सकेगी ? ॥ 20 ॥ मेरे चले जानेपर एकमात्र मेरे ही सहारे रहनेवाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्रमे नाव टूट जानेसे व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेगे ॥ 21 ॥

यद्यपि ज्ञानदृष्टिसे उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरञ्जन इस प्रकार दीनबुद्धिसे अपने स्त्री-पुत्रादिके लिये शोकाकुल हो रहा था। इसी समय उसे | पकड़नेके लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका ।। 22 ।।जब यवनलोग उसे पशुके समान बाँधकर अपने स्थानको ले | चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल | होकर उसके साथ हो लिये ॥ 23 ॥ यवनोंद्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरीको छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके | जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारणमें लीन हो गया ।। 24 ।। इस प्रकार महाबली यवनराजके बलपूर्वक खींचनेपर भी राजा पुरञ्जनने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञातका स्मरण नहीं किया ।। 25 ।।

उस निर्दय राजाने जिन यज्ञपशुओंकी बलि दी थी, वे | उसकी दी हुई पीड़ाको याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारोंसे काटने लगे ।। 26 । वह वर्षोंतक विवेकहीन अवस्थामें अपार अन्धकारमें पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा। स्त्रीकी आसक्तिसे उसकी यह दुर्गति हुई थी 27 ॥ अन्त समयमें भी पुरञ्जनको उसीका चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्ममें वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराजके यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न | हुआ || 28 || जब यह विदर्भनन्दिनी विवाहयोग्य हुई, तब विदर्भराजने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही व्याह सकेगा। तब शत्रुओंके नगरोंको जीतनेवाले पाण्ड्यनरेश महाराज मलयध्वजने समरभूमिमें समस्त राजाओंको जीतकर उसके साथ विवाह किया ॥ 29 ॥ उससे महाराज मलयध्वजने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविडदेशके सात राजा हुए ॥ 30 ॥ राजन् ! फिर उनमेंसे प्रत्येक पुत्रके बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वीको मन्वन्तरके अन्ततक तथा उसके बाद भी भोगेंगे ॥ 31 ॥ राजा मलयध्वजकी पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषिका विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नामका पुत्र हुआ और दृढ़च्युतके इध्मवाह हुआ ।। 32 ।।

अन्तमें राजर्षि मलयध्वज पृथ्वीको पुत्रोंमें बाँटकर भगवान् श्रीकृष्णकी आराधना करनेकी इच्छासे मलय पर्वतपर चले गये ।। 33 ।। उस समय चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेवका अनुसरण करती है उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भीने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगोंको तिलाञ्जलि दे पाण्ड्यनरेशका अनुगमन किया ।। 34 । वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नामको तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जलमें स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरणको निर्मल करते थे ।। 35 ।।वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जलसे ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया ॥ 36 ॥ महाराज मलयध्वजने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्द्रोंको जीत लिया ॥ 37 ॥ तप और उपासनासे वासनाओंको निर्मूल कर तथा यम-नियमादिके द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मनको वशमें करके वे आत्मामें ब्रह्मभावना करने लगे ।। 38 ।। इस प्रकार सौं दिव्य वर्षोंतक स्थाणुके समान निश्चलभावसे एक ही स्थानपर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समयतक उन्हें शरीरादिका भी भान न हुआ ॥ 39 ॥ राजन् ! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरिके उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण सब ओर स्फुरित होनेवाले विशुद्ध विज्ञानदीपकसे उन्होंने देखा कि अन्तःकरणकी वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्रावस्थाकी भाँति देहादि समस्त उपाधियोंमें व्याप्त तथा उनसे पृथक भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओरसे उदासीन हो गये ।। 40-41 ।। फिर अपनी आत्माको परब्रह्ममें और परब्रह्मको आत्मामें अभिन्नरूपसे देखा और अन्तमें इस अभेद चिन्तनको भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये ll 42 ll

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकारके भोगोंको त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वजकी सेवा बड़े प्रेमसे करती थी ।। 43 ।। वह चीर वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादिके कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिरके बाल आपसमें उलझ जानेके कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेवके पास वह अङ्गारभावको प्राप्त भूमरहित अधिके समीप अफ्रिकी शान्त शिखाके समान सुशोभित हो रही थी ।। 44 ।। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसनसे विराजमान थे। इस रहस्यको न जाननेके कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी ।। 45 ।। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणोंमे गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडसे बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्तमें अत्यन्त व्याकुल हो गयी || 46 | उस बीहड़ वनमें अपनेको अकेली और दीन अवस्थामें देखकर यह बड़ी शोकाकुल हुई और आंसुओं की धारासे स्तनोंको भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी ॥ 47 ॥ वह बोली, ‘राजर्षे उठिये, उठिये; समुद्रसे | घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधार्मिक राजाओसे भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये ॥ 48 ॥पतिके साथ वनमें गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पति के चरणोंमें गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने | लगी ।। 49 ।। लकड़ियोकी चिता बनाकर उसने उसपर पतिका शव रखा और अग्नि लगाकर विलाप करते-करते स्वयं सती | होनेका निश्चय किया ॥ 50 ॥ राजन् ! इसी समय उसका कोई पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबलाको मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ll 51 ll

ब्राह्मणने कहा- तू कौन है ? किसकी पुत्री है ? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है ? क्या तुम मुझे नहीं जानती ? मैं वही तेरा मित्र हूँ. | जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी ॥ 52 ॥ सखे ! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय में तुम्हारा अविज्ञात नामका सखा था ? तुम पृथ्वीके भोग भोगनेके लिये निवासस्थानको खोजमें मुझे छोड़कर चले गये थे ॥ 53 ॥ आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरेके मित्र एवं मानसनिवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षोंतक बिना किसी निवास स्थान के ही रहे थे ।। 54 ।। किन्तु मित्र ! तुम विषयभोगोंकी इच्छासे मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वीपर चले आये ! यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्रीका रचा हुआ स्थान देखा ।। 55 ।। उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान कारणोंसे बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी ।। 56 ।। महाराज ! इन्द्रियोंके पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अप्र-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ वैश्य थे क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियां ही बाजार थीं, पांच भूत ही उसके कभी क्षीण न होनेवाले उपादान कारण थे और बुद्धि | शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करनेपर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है— अपने स्वरूपको भूल जाता है।। 57-58 ।। भाई उस नगरमे उसको स्वामिनीके फंदे | पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूपको भूल गये और उसीके सङ्गसे तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है ।। 59 ।।

देखो तुम न तो दर्भराजकी पुत्री ही हो और न यह कोर मलयध्वज तुम्हारा पति ही जिसने तुम्हें नौ द्वारोंके नगरमें बंद किया था. उस पुरञ्जनीके पति भी तुम नहीं हो ॥ 60 तुम पहले जन्मने अपनेको पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है। वास्तव तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो ॥ 61 ॥मित्र ! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भित्र नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनोंमें कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते ।। 62 ।। जैसे एक पुरुष अपने शरीरकी परछाईंको शीशेमें और किसी व्यक्तिके नेत्रमें भिन्न-भिन्न रूपसे देखता है वैसे ही एक ही आत्मा विद्या और अविद्याकी उपाधिके भेदसे अपनेको ईश्वर और जीवके रूपमें दो प्रकारसे देख रहा है ।। 63 ।।

इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवरका हंस (जीव) अपने स्वरूपमें स्थित हो गया और उसे अपने मित्रके विछोहसे भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया ॥ 64 ॥ प्राचीनवर्हि! मैंने तुम्हें परोक्षरूपसे यह आत्मज्ञानका दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वरको परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है ।। 65 ।।

अध्याय 29 पुरञ्जनोपाख्यानका तात्पर्य

राजा प्राचीनबर्हिने कहा- भगवन्! मेरी समझमें आपके वचनोंका अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं ॥ 1 ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन् पुरञ्जन (नगरका निर्माता) जोव है— जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरोंवाला या बिना पैरोंका शरीररूप पुर तैयार कर लेता | है || 2 || उस जीवका सखा जो अविज्ञात नामसे कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकारके नाम, गुण अथवा कर्मोसे जीवोंको उसका पता नहीं चलता ॥ 3 ॥ जीवने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयोंको भोगनेकी इच्छा की तब उसने दूसरे शरीरोंको अपेक्षा नौ द्वार दो हाथ और दो पैरोंवाला मानव देह ही पसंद किया 4 ॥ बुद्धि अथवा अविद्याको ही तुम पुरञ्जनी नामकी स्त्री जानो; इसीके कारण देह और इन्द्रिय आदिमें मैं मेरेपनका भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसीका आश्रय लेकर शरीरमें इन्द्रियोद्वारा विषयोंको भोगता है ॥ 5 ॥ दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकारके ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ ही उसकी सखियां और प्राण-अपान-व्यान उदान समानरूप पाँच वृत्तियोंवाला | प्राणवायु ही नगरकी रक्षा करनेवाला पाँच फनका सर्प है ॥ 6 ॥दोनों प्रकारको इन्द्रिय नायक मनको ही ग्यारह मह योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय देश है जिसके बीचमें वह नौ द्वारोंवाला नगर बसा हुआ है ॥ 7 ॥

उस नगरमें जो एक-एक स्थानपर दो-दो द्वार बताये गये थे—वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिङ्ग और गुदा ये तीन और मिलाकर कुल नी हैं; इन्हींमें होकर वह जीव इन्द्रियोंके साथ बाह्य विषयोंमें जाता है ॥ 8 ॥ इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुखये पाँच पूर्वके द्वार हैं; दाहिने कानको दक्षिणका और बायें कानको उत्तरका द्वार समझना चाहिये ॥ 9 ॥ गुदा और लिङ्ग-ये नीचेक दो छिद्र पश्चिमके द्वार है खद्योता और आर्मुिखी नामके जो दो द्वार एक स्थानपर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभाजित नामका देश है, जिसका इन द्वारोंसे जीवचक्षु-इन्द्रियको सहायता अनुभव करता है। (चक्षु-इन्द्रियोंको ही पहले घुमान् नामका सखा कहा गया है) ॥ 10 ॥ दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नामके द्वार हैं और नासिकाका विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नामका मित्र है। मुख मुख्य नामका द्वार है उसमें रहनेवाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय सि (रसज्ञ) नामका मित्र है ॥ 11 ॥ वाणीका व्यापार आपण है और है तरह-तरहका अत्र बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है।। 12॥ कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्गका शास्त्र और उपासनाकाण्डरूप निवृत्तिमार्गका शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पाचाल देश है। इन्हें श्रवणेन्द्ररूप धरकी सहायतासे सुनकर जीव क्रमशः पितृचान और देवयान मार्गे जाता है॥ 13 ॥ ही आसुरी नामका पश्चिमी द्वार है, नामक नामका देश है और लिङ्गमें रहनेवाला उपस्थेन्द्रियदुनंद नामका मित्र है। गुदा निर्ऋति नामका पश्चिमी द्वार है ॥ 14 ॥ नरक वैशस नामका देश है और गुदामें स्थित पायु-इन्द्रिय क नामका मित्र है। इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्होंकी सहायता क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है ।। 15 ।। हृदय अन्त: पुर है, उसमें रहनेवाला मन ही विषूचि (विषूचीन) नमा प्रधान सेवक है। जीव उस मनके सत्त्वादि गुणोंके कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोहको प्राप्त होता है ॥ 16 ॥ बुद्धि (राजमहिषी पुरञ्जनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्रावस्थामे विकारको प्राप्त होती है और जाग्रत अवस्थामे इन्द्रियादिको करती है, उसके गुणोंसे लिए होकर आत्मा (जीव) भी उसी उसी रूपमें उसकी वृत्तियोका अनुकरण करने को बाध्य होता | है यद्यपि वस्तुतः यह उनका निर्विकार साक्षीमात्र हो है ॥ 17॥शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखनेमें संवत्सररूप कालके समान हो उसका अप्रतिहत बंग है, वास्तवमें वह गतिहीन है। पुण्य और पाप ये दो प्रकारके कर्म ही उसके पहिये हैं, तीन गुण ध्वजा है, पाँच प्राण डोरियाँ है । 18 ॥ मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठनेका स्थान है, सुख-दुःखादि इन्द्र जुए हैं, इन्द्रियोंके पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं ।। 19 । पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसको पाँच प्रकारको गति है। इस रथपर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णाके समान मिथ्या विषयोंकी और दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना है तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियोंक द्वारा उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है ।। 20 ।।

जिसके द्वारा कालका ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन सौ साठ गन्धर्वियां रात्रि है। ये बारी-बारीसे चक्कर लगाते हुए मनुष्यको आयुको हरते रहते हैं। ।। 21 ।। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराजने लोकका संहार करनेके लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया ।। 22 ।। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) हो उस यवनराजके पैदल चलनेवाले सैनिक हैं तथा प्राणियोंको पीड़ा पहुंचाकर शीघ्र ही मृत्युके मुखमें ले जानेवाला शीत और उष्ण दो प्रकारका ज्वर ही प्रज्वार नामका उसका भाई है ll 23 ll

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञानसे आच्छादित होकर अनेक प्रकारके आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्यशरीरमें पड़ा रहता है ।। 24 ।। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मनके धर्मोको अपनेमें आरोपित कर मैं मेरे पनके अभिमानसे बँधकर क्षुद्र विषयोंका चिन्तन करता हुआ तरह तरहके कर्म करता रहता है ।। 25 ।। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जबतक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान्‌के स्वरूपको नहीं जानता, तबतक प्रकृतिक गुणोंमें हो वैधा रहता है॥ 26 ॥ उन गुणोंका अभिमानी होनेसे वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मोंक अनुसार भित्र-भित्र योनियोंमें जन्म लेता है॥ 27 ॥ वह कभी तो सात्त्विक | कर्मकि द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कमकि द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकोंमें जाता है-जहाँ उसे तरह-तरहके कर्मोका फ्रेश उठाना पड़ता है और कभी तमोगुणी कर्मकि द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियोंमें जन्म लेता है ॥ 28 ॥ इस प्रकार अपने कर्म और गुणोंके अनुसार देवयोनि मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव | कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है ।। 29 ।।। जिस प्रकार बेचारा भूखसे व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ | अपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता है उसी प्रकार यह जीव चित्तमें नाना प्रकारकी वासनाओंको लेकर ऊँचे-नीचे मार्गसे ऊपर, नीचे अथवा मध्यके लोकोंमें भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है ॥ 30-31 ॥

आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक प्रकारके टू खोसे किसी भी एकसे जीवका सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति हो है ।। 32 । वह ऐसी ही है जैसे कोई सिरपर भारी बोझा ढोकर ले जानेवाला पुरुष उसे कंधेपर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये-यदि किसी उपायसे मनुष्य एक प्रकारके दुःखसे छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिरपर सवार हो जाता है॥ 33 ॥ शुद्धहृदय नरेन्द्र! जिस प्रकार स्वप्रमें होनेवाला स्वप्नान्तर उस स्वमसे सर्वथा छूटने का उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफलभोगसे सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफलभोग दोनों ही अविधायुक्त होते हैं ।। 34 ।। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिङ्गशरीरसे विचरनेवाले प्राणीको स्वप्रके पदार्थ न होनेपर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्यपदार्थ वस्तुतः न होनेपर भी, जबतक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते हैं और जीवको जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्ति नहीं मिलती (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्तिका उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है) 35 ॥

राजन्! जिस अविद्याके कारण परमार्थस्वरूप आत्माको यह जन्म-मरणरूप अनर्थपरम्परा प्राप्त हुई है, उसको निवृति गुरुस्वरूप श्रीहरिमें सुदृढ़ भक्ति होनेपर हो सकती है ॥ 36 ॥ भगवान् वासुदेव एकापतापूर्वक सम्यक प्रकारसे किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव कर देता है 37 ॥ राजये। यह भक्तिभाव भगवान्‌की कथाओंके आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 38 राजन् जहाँ भगवद्गुणोंको कहने और सुननेमें तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाजमे सब ओर महापुरुषोंके मुख से निकले हुए श्रीमदभगवान्के चरित्ररूप शुद्ध अमृतको अनेको नदियाँ बहती रहती है। जो लोग अपने कर्ण कुहराद्वारा उस अमृतका छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते ।। 39-40।। हाय। स्वभावत प्राप्त होनेवाले इन क्षुधा पिपासादि विनोसे सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि कथामृत सिन्धुसे प्रेम नहीं करता ॥ 41 ॥साक्षात् प्रजापतियोंके पति ब्रह्माजी, भगवान् शङ्कर, स्वायम्भुव मनु, दक्षदि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रहाचारी, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं—ये | जितने ब्रह्मवादी मुनिगण है, समस्त वायके अधिपति होनेपर भी तप, उपासना और समाधिके द्वारा ढूंढ-ढूंढकर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वरको आजतक न देख सके ।। 42-44 ।। वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचन करके बताये हुए वज्रहस्तत्वादि गुणोंसे युक्त इन्द्रादि देवताओंके रूपमें, भिन्न-भिन्न कर्मकि द्वारा, यद्यपि उस परमात्माका ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूपको वे भी नहीं जानते 45 हृदयमें बार-बार चिन्तन किये जानेपर भगवान् जिस समय जिस जीवपर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्गकी बद्धमूल आस्थासे छुट्टी पा जाता है ।। 46 ।।

बर्हिष्मन् तुम इन कर्मोंमें परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थका तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है 47 जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेदको कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तवमें उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं ।। 48 पूर्वकी ओर अग्रभागवाले कुशाओंसे सम्पूर्ण भूमण्डलको आच्छादित करके अनेकों पशुओंका वध करनेसे तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तवमें तुम्हें कर्म या उपासना किसीके भी रहस्यका पता नहीं है। वास्तवमें कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरिको प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान्में चित्त लगे ॥ 49 श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियोंके आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्योंके एकमात्र आश्रय हैं और उन्हींसे संसारमें सबका कल्याण हो सकता है. ॥ 50 ॥ ‘जिससे किसीको अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है’ ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है. और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है ॥ 51 ॥

श्रीनारदजी कहते हैं। यहां जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्नका उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभांति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनों ॥। 52 ।। पुष्पवाटिकामें अपनी हरिनीके साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अङ्कुरोको चर रहा है। उसके कान भौरोंके मधुर गुंजारमें लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवोंको मारकर अपना पेट पालनेवाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं। और पीछेसे शिकारी व्याधने बींधनेके लिये उसपर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ भी पता नहीं है।’एक बार इस हरिनकी दशापर विचार करो ।। 53 ।।

राजन् ! इस रूपकका आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशापर विचार करो। पुष्पोंकी तरह ये स्त्रियाँ केवल देखनेमें सुन्दर हैं, इन स्त्रियोंके रहनेका घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पोंके मधु और गन्धके समान क्षुद्र सकाम कर्मोक फलरूप, जीभ और जननेन्द्रियको प्रिय लगनेवाले भोजन तथा स्वीसङ्ग आदि तुच्छ भोगोंको ढूँढ रहे हो। स्त्रियोंसे घिरे रहते हो और अपने मनको तुमने उन्होंमें फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रोंका मधुर भाषण ही भौरोंका मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसीमें अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियोंके झुंडके समान कालके अंश दिन और रात तुम्हारी आयुको हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थोके सुखोंमें मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाणसे तुम्हारे हृदयको दूरसे ही बाँध डालना चाहता है ॥ 54 ॥ इस प्रकार अपनेको मृगकी सो स्थितिमें देखकर तुम अपने वित्तको हृदयके भीतर निरुद्ध करो और नदीकी भांति प्रवाहित होनेवाली की वावृत्तिको बितमें स्थापित करो (अन्तर्मुखी करो) । जहाँ कामी पुरुषोंकी चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रमको छोड़कर परमहंसोंके आश्रय श्रीहरिको प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयोंसे विरत हो जाओ ।। 55 ।।

राजा प्राचीनवर्हिने कहा- भगवन्! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उसपर विशेषरूपसे विचार भी किया। मुझे कर्मका उपदेश देनेवाले इन आचार्योंको निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषयको जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते ॥ 56 ॥ विप्रवर ! मेरे उपाध्यायोंने आत्मतत्त्वके विषयमें मेरे हृदयमें जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरहसे काट दिया। इस विषयमें इन्द्रियोंकी गति न होनेके कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियोंको भी मोह हो जाता है ।। 57 वेदवादियोंका कथन जगह-जगह सुना जाता है कि ‘पुरुष इस लोकमे जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूलशरीरको यहीं छोड़कर परलोकमें कमसे ही बने हुए दूसरी | देहसे उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है ? क्योंकि उन कमका कर्ता तो यहाँ नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षणमें अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोकमे फल देनेके लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं ? ।। 58-59 ॥

श्रीनारदजीने कहा- राजन्। (स्थूल शरीर तो लिङ्गशरीर के अधीन है, अतः का उत्तरदायित्व उसपर है) जिस मनः प्रधान लिङ्गशरीरकी सहायतासे मनुष्य कर्म करता है, | वह तो मरनेके बाद भी उसके साथ रहता ही है; अतः वहपरलोकमे अपरोक्षरूपसे स्वयं उसीके द्वारा उनका फल भोगता है, ।। 60 ।। स्वप्रावस्थामें मनुष्य इस जीवित शरीरका अभिमान तो छोड़ | देता है, किन्तु इसीके समान अथवा इससे भिन्न प्रकारके पशु-पक्षी आदि शरीरसे वह मनमें संस्काररूपसे स्थित कमका फल भोगता | रहता है ।। 61 ।। इस मनके द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादिको ‘ये मेरे है और देहादिको ‘यह मैं हूँ’ ऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मोंको भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है ।। 62 ।। जिस प्रकार है ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनोंकी चेष्टाओंसे उनके प्रेरक चित्तका अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्तकी भिन्न-भिन्न प्रकारकी वृतियोंसे पूर्वजन्मके कर्मोंका भी अनुमान होता है (अतः कर्म अदृष्टरूपसे फल देनेके लिये कालान्तरमें मौजूद रहते हैं) ।। 63 ।। कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तुका इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया जिसे न कभी देखा, न सुना ही उसका स्वप्नमें, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है ।। 64 । राजन् ! तुम निश्चय मानो कि लिङ्गदेहके अभिमानी जीवको उसका अनुभव पूर्वजन्ममे हो चुका है; क्योंकि जो वस्तु पहले अनुभव की हुई नहीं होती, उसकी मनमें वासना भी नहीं हो सकती ॥ 65 ॥

राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्यके पूर्वरूपोंको तथा भावी शरीरादिको भी बता देता है; और जिनका भावी जन्म होनेवाला नहीं होता, उन तत्त्ववेत्ताओंकी विदेहमुक्तिका पता भी उनके मनसे ही लग जाता है॥ 66 ॥ कभी-कभी स्वप्रमें देश, काल अथवा क्रियासम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं (जैसे पर्वतकी चोटीपर समुद्र, दिनमें तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) । इनके दीखने में निद्रादोषको ही कारण मानना चाहिये ॥ 67 ॥ मनके सामने इन्द्रियोंसे अनुभव होने योग्य पदार्थ हो भोगरूपमें बार-बार आते हैं। और भोग समाप्त होनेपर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियोंसे अनुभव हो न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मनसहित हैं।। 68 । साधारणतया तो सब पदार्थोंका क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तनमें लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्वमें स्थित हो जाय, तो उसमें भगवान्‌का संसर्ग होनेसे एक साथ समस्त विश्वका भी भान हो सकता है— जैसे राहु दृष्टिका विषय न होनेपर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमाके संसर्गसे | दीखने लगता है ।। 69 ।। राजन्। जबतक गुणोंका परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयोंका सङ्घात यह अनादि लिङ्गदेह बना हुआ है, तबतक जीवके अंदर स्थूलदेहके प्रति ‘मैं मेरा’ इस भावका अभाव नहीं हो सकता ॥ 70 ॥ सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादिके समय भी इन्द्रियोंकी व्याकुलताके कारण ‘मैं’ और ‘मैरेचन’ की स्पष्टप्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है। ।। 71 ।। जिस प्रकार अमावास्याकी रात्रि चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्थामे स्पष्ट प्रतीत होनेवाला यह एकादश इन्द्रियविशिष्ट लिङ्गशरीर गर्भावस्था और बाल्यकालमें रहते हुए भी इन्द्रियोंका पूर्ण विकास न होनेके कारण प्रतीत नहीं होता ।। 72 ।। जिस प्रकार स्वप्रमें किसी वस्तुका अस्तित्व न होनेपर भी जागे बिना स्वमजनित अनर्थक निवृति नहीं होती उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि अस हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है, इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसारसे छुटकारा नहीं हो पाता ॥ 73 ॥

इस प्रकार पञ्चतन्मात्राओंसे बना हुआ तथा सोलह तत्त्वोंकि रूपमें विकसित यह त्रिगुणमय सङ्घात हो लिङ्गशरीर है। यहीं चेतनाशक्तिसे युक्त होकर जीव कहा जाता है ।। 74 । इसीके द्वारा है। पुरुष भिन्न-भिन्न देहोंको ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसीसे उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदिका अनुभव होता है ।। 75 ।। जिस प्रकार जोंक, जबतक दूसरे तृणको नहीं पकड़ लेती, तबतक पहलेको नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होनेपर भी जबतक देहारम्भक कर्मोकी समाप्ति होनेपर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तबतक पहले शरीरके अभिमानको नहीं छोड़ता। राजन्! यह मनः प्रधान लिङ्गशरीर ही जीवके जन्मादिका कारण है । 76-77 ।। जोव जब इन्द्रियजनित भोगोंका चिन्तन करते हुए बार-बार उन्होंके लिये कर्म करता है, तब उन कर्मोक होते रहनेसे अविद्यावश वह | देहादिके कर्मोंमें बंध जाता है ॥ 78 ॥ अतएव उस कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेके लिये सम्पूर्ण विश्वको भगवदूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरिका भजन करो। उन्हींसे इस विश्वकी उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हींमें लय होता है ।। 79 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं विदुरजी भक्तश्रेष्ठ श्रीनारदजीने राजा प्राचीनवर्हिको जीव और ईश्वरके स्वरूपका दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोकको चले गये ॥ 80 ॥ तब राजर्षि प्राचीनवर्हि भी प्रजापालनका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर तपस्या करनेके लिये कपिलाश्रमको चले गये । 81 ।। वहाँ उन वीरवरने समस्त विषयोंकी आसक्ति छोड़ एका मनसे भक्तिपूर्वक हरिकेचरणकमलोक चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया ।। 82 ।।

निष्पाप विदुरजी देवर्षि नारदके परोक्षरूपसे कहे हुए इस आत्मज्ञानको जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा वह शीघ्र ही लिङ्गदेहके बन्धनसे छूट जायगा ll 83 llदेवर्षि नारदके मुखसे निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्दके यशसे सम्बद्ध होनेके कारण त्रिलोकोको पवित्र करने वाला, अन्तःकरणका शोधक तथा परमात्मपदको प्रकाशित करने वाला है। जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जायगा और फिर उसे इस संसार-चक्रमें नहीं भटकना पड़ेगा ॥ 84 ॥ विदुरजी ! गृथाश्रमी पुरञ्जनके रूपकसे परोक्षरूपये कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरुजीकी कृपासे प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेनेसे बुद्धियुक्त जीवका देहाभिमान निवृत्त हो जाता है तथा उसका ‘परलोकमें जीव किस प्रकार कर्मोका फल भोगता है’ यह संशय भी मिट जाता है ।। 85 ।।

अध्याय 30 प्रचेताओंको श्रीविष्णुभगवान्‌का वरदान

विदुरजीने पूछा- ब्रह्मन् आपने राजा प्राचीनवर्हिके जिन पुत्रोंका वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीतके द्वारा श्रीहरिकी स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की ? ॥ 1 ॥ बार्हस्पत्य | मोक्षाधिपति श्रीनारायणके अत्यन्त प्रिय भगवान् शङ्करका अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओंने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी इससे पहले इस लोकमें अथवा परलोकमें भी उन्होंने क्या पाया—वह बतलाने की कृपा करें ॥ 2 ॥ श्रीमैत्रेयजीने कहा- विदुरजी ! पिताके आज्ञाकारी प्रचेताओंने समुद्रके अंदर खड़े रहकर रुद्रगीतके जपरूपी यज्ञ और तपस्याके द्वारा समस्त शरीरोंके उत्पादक भगवान् श्रीहरिको प्रसन्न कर लिया ।। 3 ।। तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जानेपर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्तिद्वारा उनके तपस्याजनित क्लेशको शान्त करते हुए सौम्य विग्रहसे उनके सामने प्रकट हुए ।। 4 ।। गरुड़जीके कंधेपर बैठे हुए श्रीभगवान् ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरुके शिखरपर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअट्टमे मनोहर पीताम्बर और कमे कौस्तुभमणि सुशोभित थी अपनी दिव्य प्रभासे वे सब दिशाओंका अन्धकार दूर कर रहे थे ॥ 5 ॥चमकीले सुवर्णमय आभूषणोंसे युक्त उनके कमनीय क और मनोहर मुखमण्डलकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तकपर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभुको आठ भुजाओंगे आठ आयुध थे, देवता, मुनि और पार्षदगर | सेवामें उपस्थित थे तथा गरुडजी किन्नरोंकी भाँति साममय | पंखोंकी ध्वनिसे कीर्तिगान कर रहे थे ।। 6 ।। उनकी आठ लंबी | लंबी स्थूल भुजाओंके बीच लक्ष्मीजी स्पर्धा करनेवाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायणने इस प्रकार | पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओंकी ओर से हुए मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा || 7 ||

श्रीभगवान् ने कहा- राजपुत्रो ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सबमें परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्मका | पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्दसे में बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर माँगे ॥ 8 जो पुरुष सायङ्कालके समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयोंमें अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवोंके प्रति मित्रताका भाव हो जायगा 9 ॥ जो लोग सायङ्काल और प्रातःकाल एकाग्रचित्तसे रुद्रगीतद्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट कर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा ॥ 10 ॥ तुमलोगोंने बड़ी सतासे अपने पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी | कमनीय कीर्ति समस्त लोकोंमें फैल जायगी ॥ 11 ॥ तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणोंमें किसी भी प्रकार ब्रह्माजीसे कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तानसे तीनों लोकोंको | पूर्ण कर देगा ।। 12 ।।

राजकुमारो ! कण्डु ऋषिके तपोनाशके लिये इन्द्रको भेजी हुई प्रम्लोचा अपारासे एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई श्री उसे छोड़कर वह स्वर्गलोकको चली गयी। तब वृक्ष 1 उस कन्याको लेकर पाला-पोसा ॥ 13 ॥ जब वह भूखसे व्याकुल होकर रोने लगी तब ओषधियोंके राजा चन्द्रमाने दवावश उसके हमें अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अंगुली दे | दी ।। 14 ।। तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी है। अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्यासे विवाह कर लो ।। 15 ।। तुम सब एक ही धर्ममें तत्पर हो और तुम्हारा | स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाववाली यह सुन्दरी कन्या तुम सभीको पत्नी होगी तथा तुम सभीमें उसका समान अनुराग होगा ।। 16 ।।तुमलोग मेरी कृपासे दस लाख दिव्य वर्षोंतक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकारके पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे ।। 17 । अन्तमें मेरी अविचल भक्तिसे हृदयका समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जानेपर तुम इस लोक तथा परलोकके नरकतुल्य भोगोंसे उपरत होकर मेरे परमधामको जाओगे ॥ 18 ॥ जिन लोगोंके कर्म भगवदर्पणबुद्धिसे होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथावार्ताओंमें ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रममें रहें तो भी घर उनके बन्धनका कारण नहीं होते ॥ 19 ॥ वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओंके द्वारा मैं ज्ञान स्वरूप परब्रह्म उनके हृदयमें नित्य नया नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेनेपर जीवोंको न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही ॥ 20 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवान् के दर्शनोंसे प्रचेताओंका रजोगुण तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरुषार्थोंके आश्रय और सबके परम सुहद् श्रीहरिने इस प्रकार कहा, तब वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीसे कहने लगे ॥ 21 ॥ प्रचेताओंने कहा प्रभो! आप भक्तोंके क्लेश दूर – करनेवाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामोंका निरूपण करते हैं। आपका वेग मन और वाणीके वेगसे भी बढ़कर है तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियोंकी गतिसे परे है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ।। 22 ।। आप अपने स्वरूपमें स्थित | रहनेके कारण नित्य शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्तके कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तवमें जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये आप मायाके गुणोंको स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ 23 ॥ आप विशुद्ध सत्वस्वरूप है, आपका ज्ञान संसारबन्धनको दूर कर देता है। आप हो समस्त भागवतके प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है ।। 24 ।। आपकी ही नाभिसे ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठमें कमलकुसुमकी माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमलके समान कोमल हैं; कमलनयन ! आपको नमस्कार है ॥ 25 ॥आप कमलकुसुमकी केसरके समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतोके आश्रयस्थान है तथा सबके साक्षी है। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ 26 ॥

भगवन्! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशोंकी निवृत्ति करनेवाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्रेशों पीड़ितों के सामने आपने इसे प्रकट किया है इससे बढ़कर हमपर और क्या कृपा होगी ॥ 27 ॥ अमङ्गलहारी प्रभो। दोनोंपर दया करनेवाले समर्थ पुरुषोंको इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समयपर उन दीनजनोंको ‘ये हमारे हैं’ इस प्रकार स्मरण कर लिया करें ।। 28 । इसीसे उनके आश्रितोंका चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र से क्षुद्र प्राणियोंके भी अन्तःकरणोंमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक हमलोग जो जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओंको आप क्यों न जान लेंगे ॥ 29 ॥ जगदीश्वर ! आप मोक्षका मार्ग दिखानेवाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं। आप हमपर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है ॥ 30 ॥ तथापि, नाथ! हम एक वर आपसे अवश्य माँगते हैं। प्रभो ! आप प्रकृति आदिसे परे हैं और आपकी विभूतियोंका भी कोई अन्त नहीं है; इसलिये आप ‘अनन्त’ कहे जाते हैं॥ 31 ॥ यादि भ्रमरको अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाय, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्षका सेवन करेगा ? तब आपकी चरणशरणमें आकर अब हम क्या क्या माँगें ॥ 32 ॥ हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जबतक आपकी मायासे मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसारमें भ्रमते रहें, तबतक जन्म जन्ममें हमें आपके प्रेमी भक्तोंका सङ्ग प्राप्त होता रहे ॥ 33 ॥ हम तो भगवद्भक्तोंके क्षणभरके सङ्गके सामने स्वर्ग और मोक्षको भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगोंकी तो बात ही क्या है ।। 34 ।। भगवद्भक्तोंके समाजमे सदा-सर्वदा भगवान्‌की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्र से भोगतृष्णा शान्त हो जाती है वहाँ प्राणियोंमे किसी प्रकारका वैर-विरोध उद्वेग नहीं रहता ।। 35 अच्छे-अच्छे कथा प्रसङ्गोद्वारा निष्कामभावसे संन्यासियोंके एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेवका बार-बार गुणगान होता रहता है। 36 ॥ आपके वे भक्तजन तीथोंको पवित्र करनेके उद्देश्यसे पृथ्वीपर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसारसे भयभीत हुए पुरुषों को कैसे रुचिकर न होगा ।। 37 ।।भगवन्! आपके प्रिय सखा भगवान् शङ्करके क्षणभरके समागमसे ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दुःसाध्य रोगके श्रेष्ठतम वैद्य है, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है।। 38 ।। प्रभो! हमने समाहित चित्तसे जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनोंको प्रसन्न किया है तथा दोयबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियोंकी वन्दना की है और अन्नादिको त्यागकर दीर्घकालतक जलमें खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तमके सन्तोषका कारण हो—यही वर माँगते हैं ।। 39-40 ॥ स्वामिन्! आपकी महिमाका पार न पाकर भी स्वायम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्माजी, भगवान् शङ्कर तथा तप और ज्ञानसे शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अतः हम भी अपनी बुद्धिके अनुसार आपका यशोगान करते हैं । 41 ।। आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परम पुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं ।। 42 ।।

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं-विदुरजी ! प्रचेताओंके इस प्रकार स्तुति करनेपर शरणागतवत्सल श्रीभगवान्ने होकर कहा- ‘तथास्तु’। अप्रतिहतप्रभाव श्रीहरिकी मधुर मूर्तिके दर्शन अभी प्रयेताओंक नेत्र तूल नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधामको चले गये ।। 43 ।। इसके पश्चात् प्रचेताओंने समुद्रके जलसे बाहर निकलकर देखा कि सारी पृथ्वीको ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंने ढक दिया है, जो मानो स्वर्गका मार्ग रोकने के लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षोंपर बड़े कुपित हुए ॥ 44 ॥ तब उन्होंने पृथ्वीको वृक्ष, लता आदिसे रहित कर देनेके लिये अपने मुखसे प्रचण्ड वायु और अधिको छोड़ा, जैसे कालाग्निरुद्र प्रलयकालमें छोड़ते हैं ।। 45 ।। जब ब्रह्माजीने देखा कि वे सारे वृक्षोंको भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनवर्हिके पुत्रोंको उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त प्रसन्न किया ।। 46 ।।फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्माजीके कहने से वह कन्या लाकर प्रचेताओंको दी ।। 47 ।। प्रचेताओंने भी ब्रह्माजीके आदेशसे उस मारिषा नामकी कन्यासे विवाह कर लिया। इसीके गर्भसे ब्रह्माजीके पुत्र दक्षने, श्रीमहादेवजीकी अवज्ञाके कारण अपना पूर्वशरीर त्यागकर जन्म लिया ॥ 48 ॥ | इन्हीं दक्षने चाक्षुष मन्वन्तर आनेपर, जब कालक्रमसे पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान्की प्ररेणासे इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की ॥ 49 ॥ इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्तिसे समस्त तेजस्वियोंका तेज छीन लिया। ये कर्म करनेमें बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसीसे इनका नाम ‘दक्ष’ हुआ ॥ 50 ॥ इन्हें ब्रह्माजीने प्रजापतियोंके नायकके पदपर अभिषिक्त कर सृष्टिकी रक्षाके लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियों को अपने-अपने कार्यमें नियुक्त किया ।। 51 ।।

अध्याय 31 प्रचेताओंको श्रीनारदजीका उपदेश

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दस लाख वर्ष बीत जानेपर जब प्रचेताओंको विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान्‌के वाक्योंकी याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषाको पुत्रके पास छोड़कर तुरंत घरसे निकल पड़े ॥ 1 ॥ वे पश्चिम दिशामें समुद्रके तटपर – जहाँ जाजलि मुनिने सिद्धि प्राप्त की थी जा पहुँचे और जिससे ‘समस्त भूतोंमें एक ही आत्मतत्त्व विराजमान है’ ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्रका सङ्कल्प करके बैठ गये ॥ 2 ॥ उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टिको वशमें किया तथा शरीरको निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसनको जीतकर चित्तको विशुद्ध परब्रह्ममें लीन कर दिया। ऐसी स्थितिमें उन्हें देवता और असुर दोनोंके ही वन्दनीय श्रीनारदजीने देखा || 3 || नारदजीको आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की। जब नारदजी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे ॥ 4 ॥

प्रचेताओंने कहा- देवर्षे! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्यसे हमें आपका दर्शन हुआ। ब्रह्मन् ! सूर्यके -समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोकसे समस्त जीवोंको अभयदान देनेके लिये ही होता है ॥ 5 ॥प्रभो। भगवान् शङ्कर और श्रीविष्णुभगवान्ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थीमें आसक्त रहनेके कारण हमलोग प्रायः भूल गये है ॥ 6 ॥ अतः आप हमारे हृदयोंमें उस परमार्थतत्त्वका साक्षात्कार करानेवाले अध्यात्मज्ञानको फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमतासे ही इस दुस्तर संसार सागरसे पार हो जायें ॥ 7 ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं- भगवन्मय श्रीनारदजीका चित्त सर्वदा भगवान् श्रीकृष्णमें ही लगा रहता है। वे प्रचेताओंके इस प्रकार पूछनेपर उनसे कहने लगे 8 श्रीनारदजीने कहा-राजाओ! इस लोकमें मनुष्यका वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरिका सेवन किया जाता है ।। 9 ।। जिनके द्वारा अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाले श्रीहरिको प्राप्त न किया जाय, उन माता-पिताकी पवित्रतासे, यज्ञोपवीत संस्कारसे एवं यज्ञदीक्षासे प्राप्त होनेवाले उन तीन प्रकारके श्रेष्ठ जन्मोंसे, वेदोक्त कमसे, देवताओंके समान दीर्घ आयुसे, शास्त्रज्ञानसे, तपसे, वाणीको चतुराईसे, अनेक प्रकारकी बातें याद रखनेकी शक्तिसे, तीव्र बुद्धिसे, बलसे, इन्द्रियोंकी पटुतासे योगसे, सांख्य (आत्मानात्मविवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययनसे तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण साधनोंसे भी पुरुषका क्या लाभ है ? ।। 10–12 ॥ वास्तवमें समस्त कल्याणोंकी अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करनेवाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियोंकी प्रिय आत्मा हैं ॥ 13 ॥ जिस है प्रकार वृक्षकी जड़ सींचनेसे उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभीका पोषण हो जाता है और जैसे भोजनद्वारा प्राणीको तृप्त करनेसे समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती है, उसी प्रकार श्रीभगवान‌की पूजा ही सबकी पूजा है ।। 14 ।। जिस प्रकार वर्षाकालमें जल सूर्यके तापसे उत्पन्न होता है और ग्रीष्म ऋतु उसीकी किरणोंमे पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वीसे उत्पन्न होते है और फिर उसीमें मिल जाते है, उसी प्रकार चेतनाचेतनात्मक यह समस्त प्रपञ्च श्रीहरिसे ही उत्पन्न होता है और उन्होंमें लीन हो जाता है ।। 15 ।।वस्तुतः यह विश्वात्मा श्रीभगवानका वह शास्त्रप्रसिद्ध सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है जैसे सूर्यको प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगरके समान स्फुरित होनेवाला यह जगत् भगवान्से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जयत् जाग्रत् अवस्थामें इन्द्रियां क्रियाशील रहती है किन्तु सुषुतिमें उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती है, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकालमे भगवान प्रकट हो जाता है और कल्पाना होनेपर उन्होंने लीन हो जाता है। स्वरूपतः तो भगवान्‌में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी विविध अहङ्कारके कार्योंकी तथा उनके निमित्तसे होनेवाले भेदभ्रमकी सत्ता है ही नहीं ॥ 16 ॥ नृपतिगण जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश —ये क्रमशः आकाशसे प्रकट होते हैं और उसीमें लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्मसे उत्पन्न होती हैं और कभी उसीमें लीन हो जाती हैं। इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाशके समान असङ्ग परमात्मामें कोई विकार नहीं होता ॥ 17 ॥ अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालकि भी अधीश्वर श्रीहरिको अपनेसे अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त दहधारियोंके एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत्के निमित्तकारण काल, उपादानकारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम है तथा अपनी कालशक्तिसे वे ही इस गुणोंके प्रवाहरूप प्रपञ्चका संहार कर देते हैं ।। 18 ।।

वे भक्तवत्सल भगवान् समस्त जीवोंपर दया करनेसे, जो कुछ मिल जाय उसीमें सन्तुष्ट रहनेसे तथा समस्त इन्द्रियोंको विषयोंसे निवृत्त करके शान्त करनेसे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 19 ॥ पुत्रैषणा आदि सब प्रकारकी वासनाओंके निकल जानेसे जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतोंके हृदयमें उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तनसे सिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनताको चरितार्थ करते हुए हृदयाकाशकी भाँति वहांसे हटते नहीं 20 भगवान् तो अपनेको (भगवान्‌को) ही सर्वस्व माननेवाले निर्धन पुरुषोंपर ही प्रेम करते हैं; क्योंकि वे परम रम है—उन अकिञ्चनोकी अनन्याश्रया अहेतुकी भक्तिमें कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जाते हैं। जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कमंकि मदसे उन्मत्त होकर, ऐसे निष्कशन साधुजनोंका तिरस्कार करते हैं, उन दुर्बुद्धियोंकी पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते ॥ 21 ॥ भगवान् स्वरूपानन्दसे ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरन्तर अपनी सेवामें रहनेवाली लक्ष्मीजी तथा उनकी इच्छा करनेवाले नरपति और देवताओंकी भी कोई परवा नहीं है। इतनेपर भी वे अपने भक्तोंके तो अधीन ही रहते हैं। अहो ! ऐसे करुणा सागर श्रीहरिको कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देरके लिये भी कैसे छोड़ सकता है ? ।। 22 ।।श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी भगवान् नारदने प्रचेताओंको इस उपदेशके साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोकको चले गये ॥ 23 ॥ प्रचेतागण भी उनके मुखसे सम्पूर्ण जगत्के पापरूपी मलको दूर करनेवाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान्के चरणकमलोका ही चिन्तन करने लगे और अन्तमें भगवद्धामको प्राप्त हुए ॥ 24 ॥ इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारदजी और प्रचेताओंके भगवत्कथासम्बन्धी संवादके विषयमें पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया ll 25 ll

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! यहाँतक स्वायम्भुव मनुके पुत्र उत्तानपादके वंशका वर्णन हुआ, अब प्रियव्रतके | वंशका विवरण भी सुनो ॥ 26 ॥ राजा प्रियव्रतने श्रीनारदजीसे आत्मज्ञानका उपदेश पाकर भी राज्यभोग किया था तथा अन्तमें इस सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने पुत्रोंमें बाँटकर वे भगवान्‌के परमधामको प्राप्त हुए थे ॥ 27 ॥

राजन् ! इधर श्रीमैत्रेयजीके मुखसे यह भगवद् गुणानुवादयुक्त पवित्र कथा सुनकर विदुरजी प्रेममग्न हो गये, | भक्तिभावका उद्रेक होनेसे उनके नेत्रोंसे पवित्र आँसुओंकी धारा बहने लगी तथा उन्होंने हृदयमें भगवच्चरणोंका स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेयजीके चरणोंपर रख दिया ॥ 28 ॥ विदुरजी कहने लगे-महायोगिन् ! आप बड़े ही करुणामय हैं। आज आपने मुझे अज्ञानान्धकारके उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ अकिञ्चनोंके सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं ॥ 29 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— मैत्रेयजीको उपर्युक्त कृतज्ञता सूचक वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुरजीने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनोंसे मिलनेके लिये वे हस्तिनापुर चले गये ॥ 30 ॥ राजन्! जो पुरुष भगवान्‌के शरणागत परमभागवत राजाओंका यह पवित्र चरित्र सुनेगा, उसे दीर्घ आयु, धन, सुयश, क्षेम, सद्गति और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी ॥ 31 ॥

अध्याय 32 प्रियव्रत चरित्र

राजा परीक्षितने पूछा- मुने। महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रममें कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्यको अपने स्वरूपकी विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धनमें बंध जाता है ? ॥ 1 ॥ विप्रवर ! निश्चय ही ऐसे निःसङ्ग महापुरुषोंका इस प्रकार गृहस्थाश्रममें अभिनिवेश होना उचित नहीं है॥ 2 ॥ इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरिके चरणोंकी शीतल छायाका आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषोंकी कुटुम्बादिमें कभी आसक्ति नहीं हो सकती ॥ 3 ॥ ब्रह्मन् ! मुझे इस बातका बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रतने स्त्री, घर और पुत्रादिमें आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्णमें अविचल भक्ति हुई 4 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरिके परम मधुर चरणकमल-मकरन्दके रसमें सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधाके कारण रुकावट आ जानेपर भी भगवद्भक्त परमहंसोंके प्रिय श्रीवासुदेव भगवान्‌के कथाश्रवणरूपी परम कल्याणमय मार्गको प्रायः छोड़ते नहीं ॥ 5 ॥ राजन् ! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भगवद्भक्त थे, श्रीनारदजीके चरणोंकी सेवा करनेसे उन्हें सहजमें ही परमार्थतत्त्वका बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्रकी दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यासमें जीवन बितानेका नियम लेनेवाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनुने उन्हें पृथ्वी पालनके लिये शास्त्रमें बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणोंसे पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासनके लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोगके द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओंको भगवान् वासुदेवके चरणोंमें ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिताकी आज्ञा किसी प्रकार उल्लङ्घन करनेयोग्य न होनेपर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपञ्चसे आच्छादित हो जायगा — राज्य और कुटुम्बकीचितामें फँसकर में परमार्थतत्वको प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया ॥ 6 ॥

आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माजीको निरन्तर इस गुणमय प्रपञ्चकी वृद्धिका ही विचार रहता है। वे सारे संसारके जीवोंका अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियजतकी ऐसी प्रवृत्ति | देखी तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पाटोको साथ लिये अपने लोकसे उतरे ॥ 7 ॥ आकाशमें जहाँ-तहाँ विमानोंपर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान प्रधान देवताओंने उनका पूजन किया तथा मार्गमें टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजनने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमाके समान गन्धमादनकी पाटीको प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के | पास पहुँचे ॥ 8 ॥ प्रियव्रतको आत्मविद्याका उपदेश देनेके लिये वहाँ नारदजी भी आये हुए थे। ब्रह्माजीके वहाँ पहुँचनेपर उनके वाहन हंसको देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्माजी पधारे हैं, अतः वे स्वायम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया ॥ 9 ॥ परीक्षित् नारदजीने उनकी अनेक प्रकारसे पूजा की और सुमधुर वचनोंमें उनके गुण और अवतारकी उत्कृष्टताका वर्णन किया तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्माजीने प्रियव्रतकी ओर मन्द मुसकानयुक्त यादृष्टिसे देखते हुए इस प्रकार कहा ।। 10 ॥

श्रीब्रह्माजीने कहा- बेटा में तुमसे सत्य सिद्धानको बात कहता हूँ ध्यान देकर सुनो तुम्हे अप्रमेय श्रीहरिके प्रति किसी प्रकारको दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या हम, महादेवजी, तुम्हारे पिता स्वायम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हींको आशाका पालन करते हैं ॥ 11 ॥ उनके विधानको कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, | योगबल या बुद्धिबलसे, न अर्थ या धर्मको शक्तिसे और न स्वयं या किसी दूसरेकी सहायतासे ही टाल सकता है12 प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वरके दिये हुए शरीरको सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुखका भोग करने तथा कर्म करनेके लिये सदा धारण करते हैं।.13 ॥वत्स ! जिस प्रकार रस्सीसे नथा हुआ पशु मनुष्योंका बोझ ढोता है. उसी प्रकार परमात्माकी वेदवाणीरूप बड़ी रस्सीमें सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्योंकी मजबूत डोरीसे जकड़े हुए हम सब लोग उन्हींके इच्छानुसार कर्ममें लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। ॥ 14 ॥ हमारे गुण और कर्मोके अनुसार प्रभुने हमें जिस योनिमें डाल दिया है उसीको स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं उसीके अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छाका उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधेको आँखवाले पुरुषका ।। 15 ।।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्धका भोग करता हुआ भगवान्‌की | इच्छाके अनुसार अपने शरीरको धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यकी निद्रा टूट जानेपर भी स्वप्नमें अनुभव किये हुए पदार्थोंका स्मरण होता है। इस अवस्थामें भी उसको अभिमान नहीं होता और विषय-वासनाके जिन संस्कारोंके कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता ॥ 16 ॥ जो पुरुष इन्द्रियोंके वशीभूत है, वह वन-वनमें विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरणका भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं | छोड़ते जो बुद्धिमान पुरुष इन्द्रियोको जीतकर अपनी आत्मामें ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है ? ।। 17 ।। जिसे इन छः शत्रुओंको जीतनेकी इच्छा हो, वह पहले घरमें रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वशमें करनेका प्रयत्न करे। किलेमें सुरक्षित रहकर लड़नेवाला राजा अपने प्रबल शत्रुओंको भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओंका बल अत्यन्त क्षीण हो जाय, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है ॥ 18 ॥ तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमलकी कलीरूप किलेके आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओंको जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुषके दिये हुए भोगोंको भोगो; इसके बाद निःसङ्ग होकर अपने आत्मस्वरूपमें स्थित हो जाना ।। 19 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब त्रिलोकीके गुरु श्रीब्रह्माजीने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रतने छोटे होनेके कारण नम्रतासे सिर झुका लिया और जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया ।। 20 ।। तब स्वायम्भुव मनुने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्माजीकी विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणीके अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्मका चिन्तन करतेहुए अपने लोकको चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारदजी सरल भावसे उनकी ओर देख रहे थे ।। 21 ।।

मनुजीने इस प्रकार ब्रह्माजीकी कृपासे अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेपर देवर्षि नारदकी आज्ञासे प्रियव्रतको सम्पूर्ण भूमण्डली रक्षाका भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जलसे भरे गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशयकी भोगेच्छासे निवृत्त हो गये || 22 || अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान्‌की इच्छास राज्यशासनके कार्यमें नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत्‌को बसे छुड़ाने में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवानके चरणयुगलका निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ोंका मान रखनेके लिये वे पृथ्वीका शासन करने | लगे ॥ 23 ॥ तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्माकी पुत्र बर्हिष्मतीसे विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे स्व उन्होंके समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ट, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नामकी एक कन्या भी हुई ॥ 24 ॥ पुत्रोंके नाम आग्नीध, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्निके भी हैं ।। 25 ।। इनमें कवि, महावीर और सवन-वे तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्थासे आत्मविद्याका अभ्यास करते हुए अन्तमें संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया ॥ 26 ॥ इन निवृत्तिपरायण महर्षियोंने संन्यासाश्रममें ही रहते हुए समस्त जीवोंके अधिष्ठान और भवबन्धनसे डरे हुए लोगोको आश्रय देनेवाले भगवान् वासुदेवके परम सुन्दर चरणारविन्दोंका निरन्तर | चिन्तन किया। उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं श्रेष्ठ भक्तियोगसे उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान्‌का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधिकी निवृत्ति हो जानेसे उनकी आत्माकी सम्पूर्ण जीवोंके आत्मभूत प्रत्यगात्मामें एकीभावसे स्थिति हो गयी || 27 ॥ महाराज प्रियव्रतको दूसरी भार्यासे उत्तम्, तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नामवाले मन्वन्तरोंके अधिपति हुए ॥ 28 ॥

इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रोंके निवृत्तिपरायण हो जानेपर राजा प्रियव्रतने ग्यारह अर्बुद वर्षोंतक पृथ्वीका शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी और वीर्यशालिनी भुजाओंसे धनुषकी डोरी खींचकर टङ्कार करते थे, उस समय डरके मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मतीके दिन-दिन बढ़नेवाले आमोद-प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीडाओंके कारण तथा उसके स्त्रीजनोचितहाव-भाव, लज्जासे सङ्कुचित मन्दहास्ययुक्त चितवन और मनको भानेवाले विनोद आदिसे महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्तिकी गति आर्थविस्तृत से होकर सब भोगोंको भोगने लगे। किन्तु वास्तवमें ये उनमें आसक्त नहीं थे ।। 29 ।।

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरुकी परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वीके जितने भागको आलोकित करते हैं, उसमेंसे आधा ही प्रकाशमें रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रातको भी दिन बना दूंगा;’ सूर्यके समान ही वेगवान एक ज्योतिर्मय स्थर चढ़कर द्वितीय सूर्यकी ही भाँत उनके पीछे-पीछे पृथ्वीकी सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान्‌की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था ।। 30 ।। उस समय इनके रथके पहियोंसे जो लोकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए: उनसे पृथ्वीमें सात द्वीप हो गये ॥ 31 ॥ उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्रक्ष, शल्मलि, कुश, क्रोड, शाक और पुष्कर द्वीप है। इनमेसे पहले-पहलेकी अपेक्षा आगे-आगेके द्वीपका परिमाण दूना है और ये समुद्रके बाहरी भागमें पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं ॥ 32 ॥ सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईखके रस, मदिरा, घी, दूध, मट्टे और मीठे जलसे भरे हुए है। ये सातों द्वीपको खाइयोंके समान हैं और परिमाणमें अपने भीतरवाले द्वीपके बराबर हैं। इनमेंसे एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपोंको बाहरसे घेरकर स्थित हैं। * बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रतने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध इध्मजिह्न, यज्ञवाह, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्रमेंसे क्रमशः एक-एकको उक्त जम्बू आदि द्वीपोंमेंसे एक-एकका राजा बनाया ॥ 33 ॥ उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वतीका विवाह शुक्राचार्यजीसे किया; उसीसे शुक्रकन्या देवयानीका जन्म हुआ || 34 ॥ राजन् ! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दोंकी रजके प्रभावसे शरीरके भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु – इन छः गुणोंको अथवा मनके सहित छ इन्द्रियोंको जीत लिया है, उन भगवद्भक्तोका ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आर्यको बात नहीं है क्योंकि वर्णवहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनिका पुरुष भी भगवान्‌के नामका केवल एक बार उच्चारण करनेसे तत्काल संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ 35 इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रमसे युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपनेको देवर्षि नारदके चरणोंकी शरणमें जाकर भी पुनःदैववश प्राप्त हुए प्रपञ्चमें फँस जानेसे अशान्त-सा देख, मन-ही मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे || 36 || ‘ओह ! बड़ा बुरा हुआ ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियोंने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूपमें गिरा दिया। बस, ! बस ! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्रीका क्रीडामृग ही बन गया! उसने मुझे बंदरकी भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!’ इस प्रकार उन्होंने अपनेको बहुत कुछ बुरा-भला कहा ।। 37 ।। परमाराध्य श्रीहरिकी | कृपासे उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रोंको बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरहके भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानीको साम्राज्यलक्ष्मीके सहित मृतदेहके समान छोड़ दिया तथा हृदयमें वैराग्य धारणकर भगवान्‌की लीलाओंका चिन्तन करते हुए उसके प्रभावसे श्रीनारदजीके बतलाये हुए मार्गका पुनः अनुसरण करने लगे ॥ 38 ॥ महाराज प्रियव्रतके विषयमें निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध ‘राजा प्रियव्रतने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वरके सिवा और कौन कर सकता है ? उन्होंने रात्रिके अन्धकारको मिटानेका प्रयत्न करते हुए अपने रथके पहियोंसे बनी हुई लीकोंसे ही सात समुद्र बना दिये || 39 ॥ प्राणियोंके सुभीतेके लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपोंके द्वारा पृथ्वीके विभाग किये और प्रत्येक द्वीपमें अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदिसे उसकी सीमा निश्चित कर दी ॥ 40 ॥ वे भगवद्भक्त नारदादिके प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताललोकके, देवलोकके, मर्त्यलोकके तथा कर्म और योगकी शक्तिसे प्राप्त हुए ऐश्वर्यको भी नरकतुल्य समझा था’ ॥ 41 ॥