Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कंध

अध्याय 1 अजामिलोपाख्यानका प्रारम्भ

राजा परीक्षित्ने कहा- भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्धमें) निवृत्तिमार्गका वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्गसे जीव क्रमशः ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और फिर ब्रह्माके साथ मुक्त हो जाता है ॥ 1 ॥ मुनिवर ! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्तिमार्गका भी (तृतीय स्कन्धमें) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकोंकी प्राप्ति होती है। और प्रकृतिका सम्बन्ध न छूटनेके कारण जीवोंको बार-बार जन्म-मृत्युके चक्कर आना पड़ता है ॥ 2 ॥ आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करनेसे अनेक नरकोंकी प्राप्ति होती है। और (पाँचवें स्कन्धमें) उनका विस्तारसे वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्धमें) आपने उस प्रथम मन्वन्तरका वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वायम्भुव मनु थे || 3 || साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्धमें) प्रियव्रत और उत्तानपादके वंशों तथा चरित्रोंका एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपोंके वृक्षोंका भी निरूपण किया ॥ 4 ॥ भूमण्डलकी स्थिति, उसके द्वीप वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रोंकी स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात-पाताल) और भगवान्ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की उसका वर्णन भी सुनाया ॥ 5 ॥ महाभाग ! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठानसे मनुष्योंको अनेकानेक भयङ्कर यातनाओंसे पूर्ण नरकोंमें न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये ॥ 6 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे पाप करता है। यदि वह उन पापका इसी जन्ममेंप्रायश्चित्त न कर ले, तो मरनेके बाद उसे अवश्य ही उन | भयङ्कर यातनापूर्ण नरकोंमें जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैरे तुम्हें (पाँचवें स्कन्धके अन्तमें) सुनाया है ॥ 7 ॥ इसलिये बड़ी सावधानी और सजगताके साथ रोग एवं मृत्युके पहले ही शीघ्र से शीघ्र पापों की गुरुता और लघुतापर विचार करके उनका प्रायश्चित कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगोंका कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है ll 8 ll

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टोंसे यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पापवासनाओंसे विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें उसके पापोंका प्रायश्चित कैसे सम्भव है ? ।। 9 ।। मनुष्य कभी तो प्रायश्चित्त आदिके द्वारा पापोंसे छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करनेके बाद धूल डाल लेनेके कारण हाथीका स्नान व्यर्थ हो जाता है,

वैसे ही मनुष्यका प्रायश्चित्त करना भी व्यर्थ ही है 10 ॥ श्रीशुकदेवजीने कहा- वस्तुतः कर्मके द्वारा ही कर्मका निर्बीज नाश नहीं होता; क्योंकि कर्मका अधिकारी अज्ञानी है अज्ञान रहते पापवासनाएँ सर्वधा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ही है ॥ 11 ॥ जो पुरुष केवल सुपथ्यका ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वशमे नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित् । जो पुरुष नियमोंका पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप वासनाओंसे मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेमें समर्थ होता है ॥ 12 ॥ जैसे बाँसके झुरमुटमे लगी आग बाँसोको जला डालती है— वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मनकी स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतरकी पवित्रता तथा यम एवं नियम- इन नौ साधनोंसे मन, वाणी और शरीरद्वारा किये | गये बड़े-से-बड़े पापोंको भी नष्ट कर देते हैं ।। 13-14 ।। भगवान्की शरणमें रहनेवाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्तिके द्वारा अपने सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरेको ।। 15 ।।परीक्षित् पापी पुरुषकी जैसी शुद्धि भगवान्‌को आत्मसमर्पण करनेसे और उनके भक्तोका सेवन करनेसे होती है, वैसी तपस्या आदिके द्वारा नहीं होती ।। 16 ।। जगत्में यह भक्तिका पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्गपर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं ॥ 17 ॥ परीक्षित् जैसे शराब से भरे घड़ेको नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बार-बार किये जानेपर भी भगवद्विमुख मनुष्यको पवित्र करनेमें असमर्थ हैं ॥ 18 ॥ जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकरको भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्द मकरन्दका एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित्त कर लिये वे स्वप्रमें भी 1 यमराज और उनके पाशधारी दूतोंको नहीं देखते। फिर नरककी तो बात ही क्या है ॥ 19 ॥

परीक्षित् इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराजके दूतों का संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो ॥ 20 ॥ कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासीके संसर्गसे दूषित होनेके कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था ॥ 21 ॥ वह पतित कभी बटोहियोंको बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगोंको जूके छलसे हरा देता, किसीका धन धोखा घड़ीसे ले लेता तो किसीका चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्तिका आश्रय लेकर वह अपने कुटुम्बका पेट भरता था और दूसरे प्राणियोंको बहुत ही सताता था ॥ 22 ॥ परीक्षित् इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासीके बच्चोंका लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयुका बहुत बड़ा बहुत बड़ा भाग अट्ठासी वर्ष बीत गया ।। 23 ।। बूढ़े अजामिलके दस पुत्र थे उनमें सबसे । छोटेका नाम था ‘नारायण’ माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे ।। 24 ।। वृद्ध अजामिलने अत्यन्त मोहके कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायणको सौंप दिया था। वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बालसुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था ।। 25 ।।अजामिल बालकके स्नेह बन्धनमें बंध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बातका पता ही न चला कि पहुँची है ।। 26 ।।

वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्युका समय आ पहुँचा। अब वह अपने पुत्र बालक नारायणके सम्बन्धमें ही सोचने-विचारने लगा ॥ 27 ॥ इतनेमें ही अजामिलने देखा कि उसे ले जानेके लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये है उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े रे हैं और शरीरके रोएँ खड़े हुए हैं ॥ 28 ॥ उस समय बालक नारायण वहाँसे कुछ दूरीपर खेल रहा था। यमदूतोंको देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वरसे पुकारा ‘नारायण !’ ॥ 29 ॥ भगवान्के पार्षदोंने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायणका नाम ले रहा है, उनके नामका कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से | झटपट वहाँ आ पहुँचे 30 ॥ उस समय यमराजके दूत दासीपति अजामिलके शरीरमेंसे उसके सूक्ष्मशरीरको खींच रहे थे। विष्णुदूतोंने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया ॥ 31 ॥ उनके रोकनेपर यमराजके दूतोंने उनसे कहा- ‘अरे, धर्मराजकी आज्ञावर निषेध करनेवाले तुमलोग हो कौन ? 32 ॥ तुम किसके दूत हो, कहाँ आये हो और इसे ले जानेसे हमें क्यों रोक रहे हो ? क्या तुमलोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो ? ।। 33 ।। हम देखते हैं कि तुम सब लोगोके नेत्र कमलदलके समान कोमलतासे भरे है, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और गलोंमें कमलके हार लहरा रहे हैं ।। 34 ।। सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभीके | करकमलोंमें धनुष, तरकस, तलवार, गदा, शङ्ख, चक्र, कमल आदि सुशोभित है ॥ 35 ॥ तुमलोगोंकी अङ्गकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराजके सेवक हैं। हमें तुमलोग क्यों | रोक रहे हो ?’ ॥ 36 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब यमदूतोंने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायणके आज्ञाकारी पार्षदोंने हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनके प्रति यों कहा- ॥ 37 ॥

भगवान्‌के पार्षदोंने कहा- यमदूतो! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराजके आज्ञाकारी हो तो हमें धर्मका लक्षण और धर्मका तत्त्व सुनाओ ॥ 38 ॥ दण्ड किस प्रकार दिया जाता है ? दण्डका पात्र कौन है ? मनुष्यों में सभी पापाचारी दण्डनीय है अथवा उनमेंसे कुछ ही ? ।। 39 ।।

यमदूतोंने कहा- वेदोंने जिन कमका विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप है। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं— ऐसा हमने सुना है ॥ 40 ॥ जगत्के रजोमय, सत्त्वमय और तमोमय- सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान्‌में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदिके अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं । 41 ।। जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियोंसे जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं—सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म ।। 42 ।। इनके द्वारा अधर्मका पता चल जाता है और तब दण्डके पात्रका निर्णय होता है। पाप कर्म करनेवाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मोक अनुसार दण्डनीय होते हैं ॥ 43 ॥ निष्पाप पुरुषो जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणोंसे सम्बन्ध रहता ही है। इसीलिये सभीसे कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता ।। 44 ।। इस लोकमें जो मुनष्य जिस प्रकारका और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोकमें उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है ।। 45 ।।देवशिरोमणियो सत्य, रज और तम इन तीन गुणोंके भेदके कारण इस लोकमें भी तीन प्रकारके प्राणी टीस पड़ते हैं- पुण्यात्मा पापात्मा और पुण्य-पाप दोनो से युक्त, अथवा सुखी, दुःखी और सुख-दुःख दोनों गुरु वैसे ही परलोक भी उनकी विविधताका अनुमान किया जाता है ।। 46 ।। वर्तमान समय ही भूत और भविष्यका अनुमान करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्मके पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य जन्मोंके पाप-पुण्यका अनुमान करा देते है ।। 47 ।। हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्तःकरणोंमें ही विराजमान है। इसलिये वे अपने मनसे ही सबके पूर्वरूपों को देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूपका भी विचार कर लेते हैं ॥ 48 ॥ जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्रके समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीरको ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये । हुए अथवा जागनेवाले शरीरको भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्वजन्मोंकी याद भूल जाता है और वर्तमान शरीरके सिवा पहले और पिछले शरीरोंके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जानता ॥ 49 ॥ सिद्धपुरुषो! जीव इस शरीरमें पाँच कर्मेन्द्रियोंसे लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियोंसे रूप-रस आदि पाँच विषयोंका अनुभव करता है और सोलहवें मनके साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय-इन तीनोंके विषयोंको भोगता है ॥ 50 ॥ जीवका यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणोंवाला लिङ्गशरीर अनादि है। यही जीवको बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देनेवाले जन्म-मृत्युके चकरमें डालता है ।। 51 ।। जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओंके अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। | वैसी स्थितिमें वह रेशमके कीड़े के समान अपनेको कर्मके जालमें जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोहका शिकार बन जाता है 52 ॥ कोई शरीरधारी जीवन कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणीके स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते है 53 जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय संस्कारोंके अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर | प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ।कभी उसे माताके जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिताके जैसा (पुरुषरूप) ॥ 54 ॥ प्रकृतिका संसर्ग होनेसे ही पुरुष अपनेको अपने वास्तविक स्वरूपके विपरीत लिङ्गशरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान्के भजनसे शीघ्र ही दूर हो जाता है ।। 55 ।।

देवताओ! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणोंका तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था ॥ 56 ॥ इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा की थी। अहङ्कार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियोंका हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकताके अनुसार ही बोलता और किसीके गुणोंमें दोष नहीं ढूँढ़ता था ॥ 57 ॥ एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिताके आदेशानुसार वनमें गया और वहाँसे फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घरके लिये लौटा।। 58 ।। लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्याके साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशेके कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्द्धनग्न अवस्थामें हो रही है। वह शूद्र उस वेश्याके साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरहकी चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है ।। 59-60 ।। निष्पाप पुरुषो ! शूद्रकी भुजाओंमें अङ्गरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थीं और वह उनसे उस कुलटाका आलिङ्गन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस अवस्थामें देखकर सहसा मोहित और कामके वश हो गया ॥ 61 ॥ यद्यपि अजामिलने अपने धैर्य और ज्ञानके अनुसार अपने काम-वेगसे विचलित मनको रोकनेकी बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देनेपर भी वह अपने मनको रोकनेमें असमर्थ रहा ।। 62 ।। उस वेश्याको निमित्त बनाकर काम-पिशाचने अजामिलके मनको ग्रस लिया। इसकी सदाचार और शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्याका चिन्तन करने लगा और अपने धर्मसे विमुख हो गया ।। 63 ।। अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र – आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँतक कि इसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटाको रिझाया। यह ब्राह्मण उसी प्रकारकी चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो ॥ 64 ॥उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटाकी तिरछी चितवनने इसके मनको ऐसा लुभा लिया कि इसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नीतकका परित्याग कर दिया। इसके पापकी भी भला कोई सीमा है ।। 65 ।। यह कुबुद्धि न्यायसे, अन्यायसे जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहींसे उठा लाता। उस वेश्याके बड़े कुटुम्बका पालन करनेमें ही यह व्यस्त रहता ॥ 66 ॥ इस पापीने शास्त्राज्ञाका उल्लङ्घन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषोंके द्वारा निन्दित है । इसने बहुत दिनोंतक वेश्याके मल-समान अपवित्र अन्नसे अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है ॥ 67 ॥ इसने अबतक अपने पापोंका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापीको दण्डपाणि भगवान् यमराजके पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापोंका दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा ॥ 68 ॥

अध्याय 2 विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान्‌के नीतिनिपुण एवं धर्मका मर्म जाननेवाले पार्षदोंने यमदूतोंका यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा ॥ 1 ॥

भगवान्‌के पार्षदोंने कहा – यमदूतो! यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि धर्मज्ञोंकी सभामें अधर्म प्रवेश कर रहा है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियोंको व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है ॥ 2 ॥ जो प्रजाके रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं यदि वे ही प्रजाके प्रति विषमताका व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी ? ॥ 3 ॥सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरणके द्वारा जिस कर्मको धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसीका अनुकरण करने लगते हैं ॥ 4 ॥ साधारण लोग पशुओंके समान धर्म और अधर्मका स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुषपर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोदमें सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं ॥ 5 ॥ वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियोंका अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभावसे अपना हितैषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है, उन अज्ञानी | जीवोंके साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है ? ॥ 6 ॥

यमदूतो इसने कोटि-कोटि जन्मोंकी पापराशिका पूरा-पूरा प्रायश्चित्त कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान्‌के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद ) नामका उच्चारण तो किया है ॥ 7 ॥ जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरोंका उच्चारण किया, उसी समय केवल उतनेसे ही इस पापीके समस्त पापका प्रायश्चित्त हो गया ॥ 8 ॥ चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपलीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी स्त्री, राजा, पिता और गायको मारनेवाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभीके लिये यही — इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है कि भगवान्‌के नामोंका उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवत्रामोंक उच्चारणसे मनुष्यको बुद्धि भगवान्के गुण, लीला और स्वरूपमें रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।। 9-10 ।। बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियोंने पापोंके बहुत से प्रायश्चित्त—कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत बतलाये है; परन्तु उन प्रायश्चित्तोंसे पापीकी वैसी जड़से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामोंका, उनसे गुम्फित पदोंकाउधारण करनेसे होती है क्योंकि वे नाम पवित्रकर्ति भगवान्के गुणोंका ज्ञान करानेवाले हैं ॥ 11 ॥ यदि प्रायश्चित करनेके बाद भी मन फिरसे कुमार्गमें पापकी ओर दौड़े, तो वह चरम सीमाका पूरा-पूरा प्रायश्चित नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित्त करना चाहें कि जिससे पापकर्मों और वासनाओंकी जड़ ही उखड़ जाय उन्हें भगवान्के गुणोंका ही गान करना चाहिये क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है ॥ 12 ॥

इसलिये यमदूतो ! तुमलोग अजामिलको मत ले जाओ। इसने सारे पापका प्रायश्चित्त कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान्‌के नामका उच्चारण किया है ॥ 13 ॥

बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि सङ्केतमे (किसी दूसरे अभिप्रायसे), परिहासमें, तान अपने अथवा किसीकी अवहेलना करनेमें भी यदि कोई भगवान्के नामोंका उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ।। 14 । जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अङ्ग भङ्ग होते समय और साँपके हँसते, आगमें जलते तथा चोट लगते समय भी विवशतासे ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नामका उच्चारण कर लेता है, वह यमयातनाका पात्र नहीं रह जाता ।। 15 ।। महर्षियोंने जानबूझकर बड़े पापोंके लिये बड़े और छोटे पापक लिये छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं। 16 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तोंके द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापोंसे मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान्‌के चरणोंकी सेवासे वह भी शुद्ध हो जाता है ॥ 17 ॥ यमदूतो ! जैसे जान या अनजानमें ईंधनसे अग्रिका स्पर्श हो जाय तो वह भस्म हो हो जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजानमे भगवान् के नामोंका सङ्गीर्तन करनेसे मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं ।। 18 ।। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृतको उसका गुण न जानकर अनजानमें पी ले तो भी वह अवश्य ही पीनेवालेको अमर बना देता है, वैसे ही अनजानमें उच्चारण करनेपर भी भगवान्‌का नाम + अपना फल देकरही रहता है (वस्तुशक्ति श्रद्धाकी अपेक्षा नहीं करती )॥ 19 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! इस प्रकार भगवान्‌के पार्षदोंने भागवत धर्मका पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिलको यमदूतोंके पाशसे छुड़ाकर मृत्युके मुखसे बचा लिया ॥ 20 ॥ प्रिय परीक्षित् ! पार्षदोंकी यह बात सुनकर यमदूत यमराजके पास गये और उन्हें यह सारा वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया 21 ॥अजामिल यमदूतोंके फंदेसे छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान्के पार्षदोंके दर्शनजनित आनन्दमें मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ 22 ॥ निष्पाप परीक्षित्! भगवान्के पार्षदोंने देखा कि अजामिलकुछ कहना चाहता है, तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 23 ॥ इस अवसरपर अजामिलने भगवान् पार्षदोंसे विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतोंके मुखसे वेदोक्त सगुण (प्रवृत्तिविषयक) धर्मका श्रवण किया था ॥ 24 ॥ सर्वपापापहारी भगवान्‌की महिमा सुननेसे अजामिलके हृदयमें शीघ्र ही भक्तिका उदय हो गया। अब उसे अपने पापोंको याद करके बड़ा पश्चात्ताप होने लगा ॥ 25 ॥ (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा-) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियोंका दास हूँ ! मैंने एक दासीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया यह बड़े दुःखकी बात है ॥ 26 ॥ धिक्कार है ! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतोंके द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ ! मैंने अपने कुलमें कलङ्कका टीका लगा दिया ! हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नीका परित्याग कर दिया और शराब पीनेवाली कुलटाका संसर्ग किया ॥ 27 ॥मैं कितना नीच हूँ ! मेरे मा-बाप बूढ़े और तपस्वी थे । वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करनेवाला और कोई नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह ! मैं कितना कृतघ्न हूँ ॥ 28 ॥ मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरकमें गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकारकी यमयातना भोगते हैं ॥ 29 ॥

‘मैंने अभी जो अद्भुत दृश्य देखा, क्या यह स्वप्न है ? अथवा जाग्रत् अवस्थाका ही प्रत्यक्ष अनुभव है ? अभी अभी जो हाथोंमें फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये ? ॥ 30 ॥ अभी-अभी वे मुझे अपने फंदोंमें फँसाकर पृथ्वीके नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धोंने आकर मुझे छुड़ा लिया ! वे अब कहाँ चले गये ॥ 31 ॥ यद्यपि मैं इस जन्मका महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मोंमें अवश्य ही शुभकर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओंके दर्शन हुए। उनकी स्मृतिसे मेरा हृदय अब भी आनन्दसे भर रहा है ॥ 32 ॥ मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ । यदि पूर्वजन्ममें मैंने पुण्य न किये होते, तो मरनेके समय मेरी जीभ भगवान्‌के मनोमोहक नामका उच्चारण कैसे कर पाती ? ॥ 33 ॥ कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेजको नष्ट करनेवाला तथा कहाँ भगवान्का वह परम मङ्गलमय ‘नारायण’ नाम ! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया) ॥ 34 ॥ अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपनेको घोर अन्धकारमय नरकमें न डालूँ ॥ 35 अज्ञानवश मैंने अपनेको शरीर समझकर उसके लिये बड़ी बड़ी कामनाएँ कीं और उनकी पूर्तिके लिये अनेकों कर्म किये। उन्हींका फल है यह बन्धन ! अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियोंका हित करूँगा, वासनाओंको शान्त कर दूँगा, सबसे मित्रताका व्यवहार करूँगा, दुखियोंपर दया करूँगा और पूरे संयमके साथ रहूँगा ॥ 36 ॥ भगवान्की मायाने स्त्रीका रूप धारण करके मुझ अधमको फाँस लिया |और क्रीडामुगकी भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब मैं | अपने-आपको उस मायासे मुक्त करूँगा ॥ 37 ॥मैंने सत्य वस्तु परमात्माको पहचान लिया है; अतः अब मैं शरीर आदिमें ‘मैं’ तथा ‘मेरे’का भाव छोड़कर भगवन्नामके कीर्तन आदिसे अपने मनको शुद्ध करूंगा और उसे भगवान्में लगाऊँगा ll 38 ll

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! उन भगवान् के पार्षद महात्माओंका केवल थोड़ी ही देरके लिये सत्सङ्ग हुआ था। इतनेसे ही अजामिलके चित्तमें संसारके प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबके सम्बन्ध और | मोहको छोड़कर हरद्वार चले गये ।। 39 ।। उस देवस्थानमें जाकर वे भगवान्‌ मन्दिरमें आसनसे बैठ गये और उन्होंने योगमार्गका आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर मनमें लीन कर लिया और मनको बुद्धिमे मिला दिया ॥ 40 ॥ इसके बाद आत्मचिन्तनके द्वारा उन्होंने बुद्धिको विषयोंसे पृथक् कर लिया तथा भगवान्के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्ममें जोड़ दिया ।। 41 ।। इस प्रकार जब अजामिलकी बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृतिसे ऊपर उठकर भगवान् के स्वरूपमें स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने से ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिलने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ।। 42 ।। उनका दर्शन पानेके बाद उन्होंने उस तीर्थस्थानमें गङ्गाके तटपर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान्‌के पार्षदोंका स्वरूप प्राप्त कर लिया ॥ 43 ॥ अजामिल भगवान्‌के पार्षदोंके साथ स्वर्णमय विमानपर आरूढ़ होकर आकाशमार्गसे भगवान् लक्ष्मीपतिके निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये ।। 44 ।।

परीक्षित्! अजामिलने दासीका सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्मके कारण पतित हो गये थे। नियमोंसे च्युत हो जानेके कारण उन्हें नरकमें गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान्‌के एक नामका उच्चारण करनेमात्रसे वे उससे तत्काल मुक्त हो गये ।। 45 ।। जो लोग इस संसारबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणोंके स्पर्शसे तीभौंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान् के नामसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नामका आश्रय लेनेसे मनुष्यका मन फिर कर्मके पचड़ोंमें नहीं पड़ता। भगवन्नामके अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित्तका आश्रय लेनेपर मन रजोगुण और तमोगुणसे ग्रस्त ही रहता है तथा पापका पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता ll 46 ll परीक्षित्! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्तिके साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरकमें कभी नहीं जाता । यमराजके दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देखतक नहीं सकते। उस पुरुषका जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोकमें उसकी पूजा होती है ।। 47-48॥ परीक्षित्! देखो – अजामिल -जैसे पापीने मृत्युके समय पुत्रके बहाने भगवान्‌के नामका उच्चारण किया ! उसे भी वैकुण्ठकी प्राप्ति हो गयी ! फिर जो लोग श्रद्धाके साथ भगवन्नामका उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।। 49 ।।

अध्याय 3 यम और यमदूतोंका संवाद

राजा परीक्षितने पूछा— भगवन्! देवाधिदेव धर्मराजके वशमें सारे जीव हैं और भगवान्‌के पार्षदोंने उन्हींकी आज्ञा भङ्ग कर दी तथा उनके दूतोंको अपमानित कर दिया। जब उनके दूतोंने यमपुरीमें जाकर उनसे अजामिलका वृत्तान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतोंसे क्या कहा ? ॥ 1 ॥ ऋषिवर! मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसीने किसी भी कारणसे धर्मराजके शासनका उल्लङ्घन किया हो। भगवन्! इस विषयमें लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है ॥ 2 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा – परीक्षित् ! भगवान्‌के पार्षदोंने यमदूतोंका प्रयत्न विफल कर दिया, तब उन लोगोंने संयमनीपुरीके स्वामी एवं अपने शासक यमराजके पास जाकर निवेदन किया ॥ 3 ॥ जब यमदूतोंने कहा- प्रभो ! संसारके जीव तीन प्रकारके कर्म करते हैं—पाप, पुण्य अथवा दोनोंसे मिश्रित । इन जीवोंको उन कर्मोंका फल देनेवाले शासकसंसारमें कितने हैं ? ॥ 4 ॥ यदि संसारमें दण्ड देनेवाले बहुत से शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दुःख – इसकी व्यवस्था एक-सी न हो सकेगी ॥ 5 ॥ संसारमें कर्म करनेवालोंके अनेक होनेके कारण यदि उनके शासक भी अनेक हों, तो उन शासकोंका शासकपना नाममात्रका ही होगा, जैसे एक सम्राट्के अधीन बहुत-से नाममात्रके सामन्त होते हैं ॥ 6 ॥ इसलिये हम तो ऐसा समझते है कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियोंके भी अधीश्वर है। आप ही मनुष्योंके पाप और पुण्यके निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं ॥ 7 ॥ प्रभो! अबतक संसारमें कहीं भी आपके द्वारा नियत किये हुए दण्डकी अवहेलना नहीं हुई थी; किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धोंने आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया है ॥ 8 ॥ प्रभो ! आपकी आज्ञासे हमलोग एक पापीको यातनागृहकी ओर ले जा रहे थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया । 9 । हम आपसे उनका रहस्य जानना चाहते है। यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो बड़े ही आश्चर्यकी बात हुई कि इधर तो अजामिलके मुँहसे ‘नारायण ! यह शब्द निकला और उधर वे ‘डरो मत’, डरो मत!’ कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे ॥ 10 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब दूतोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब देवशिरोमणि प्रजाके शासक भगवान् यमराजने प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए उनसे कहा ॥ 11 ॥

यमराजने कहा- दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत्के स्वामी है। उन्होंने यह सम्पूर्ण जगत् सूतमें वस्त्रके समान ओतप्रोत है। उन्होंक अंश ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर इस जगत्की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्होंने इस सारे जगत्को नथे हुए बैलके समान अपने अधीन कर रखा है ॥ 12 ॥ मेरे प्यारे दूतो जैसे किसान अपने बैलोको पहले छोटी-छोटी रस्सियोंमें बाँधकर फिर उन रस्सियोको एक बड़ी आड़ी रस्सीमें बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वरभगवान्ने भी ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नामकी रस्सियोंमें बाँधकर फिर सब नामोंको वेदवाणी रूप बड़ी रस्सीमें बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धनमें बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे है ॥ 13 ॥ दूतो मै इन्द्र, निऋति, वरुण, चन्द्रमा, अभि, शङ्कर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मस्तु, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता-सब-के-सब सत्त्वप्रधान होनेपर भी उनकी मायाके अधीन है तथा भगवान् कब क्या किस रूपमें करना चाहते हैं—इस बातको नहीं जानते। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है ।। 14-15 ॥ दूतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्रको नहीं देख सकते वैसे ही अन्तःकरणमे अपने साक्षीरूपसे स्थित परमात्माको कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधनके द्वारा नहीं जान सकता ॥ 16 ॥ वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं उन्हीं मायापति पुरुषोत्तमके दूत उन्हींके समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभावसे सम्पन्न होकर इस लोकमें प्रायः विचरण किया करते हैं ।। 17 ।।

विष्णुभगवान् के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान्‌के भक्तजनोंको उनके शत्रुओंसे, मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियोंसे सर्वथा सुरक्षित रखते हैं ॥ 18 ॥

स्वयं भगवान्ने ही धर्मकी मर्यादाका निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थिति में मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं ॥ 19 ॥भगवान् के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो ! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं— ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शङ्कर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं (धर्मराज) ॥ 20-21 ॥ इस जगत्में जीवोंके लिये बस यही सबसे बड़ा कर्तव्य – परम धर्म है कि वे नाम कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें ॥ 22 ॥ प्रिय दूतो ! भगवान्‌के नामोच्चारणकी महिमा तो देखो, अजामिल जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करनेमात्र से मृत्युपाशसे छुटकारा पा गया ।। 23 ।। भगवान् के गुण, लीला और नामोंका भलीभाँति कीर्तन मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिलने मरनेके समय चञ्चल चित्तसे अपने पुत्रका नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। इस नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्तिकी प्राप्ति भी हो गयी ।। 24 ।। बड़े-बड़े विद्वानोंकी बुद्धि कभी भगवान्की मायासे मोहित हो जाती है। वे कर्मकि मीठे-मीठे फलोंका वर्णन करनेवाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणीमें ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कम ही संल रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नामकी महिमाको नहीं जानते। यह कितने खेदकी बात है ।। 25 ।।

प्रिय दूतो बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्तमें ही सम्पूर्ण अन्तःकरणसे अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्डके पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान्का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है ॥ 26 ॥ जो समदर्शी साधु भगवान्‌को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उनपर निर्भर है, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं। मेरे दूतो भगवान्‌की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुमलोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हेंदण्ड देनेकी सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् कालमें ही ॥ 27 ॥ बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रसके लोभसे सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदिसे भी अपनी अर्हता ममता हटाकर, अकिञ्चन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्दके पादारविन्दका मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रससे विमुख हैं और नरकके दरवाजे घर-गृहस्थीको तृष्णाका बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हींको मेरे पास बार-बार लाया करो ॥ 28 ॥ जिनकी जीभ भगवान्‌के गुणों और नामोंका उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दोंका चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नहीं झुकता, उन भगवत्सेवाविमुख पापियोंको ही मेरे पास लाया करो ॥ 29 ॥ आज मेरे दूतोंने भगवान्‌के पार्षदोंका अपराध करके स्वयं भगवान्‌का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हमलोगों का यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होनेपर भी हैं उनके निजजन, और उनकी आज्ञा पानेके लिये अञ्जलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम महिमान्वित भगवान्‌के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुको नमस्कार करता हूँ ॥ 30 ॥ [श्रीशुकदेवजी कहते है-] परीक्षित इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापोंका सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओंको भी निर्मूल कर डालनेवाला प्रायश्चित्त यही है कि केवल भगवान् के गुणों, लीलाओं और नामोंका कीर्तन किया जाय। इसीसे संसारका कल्याण हो सकता है ॥ 31 ॥ जो लोग बार-बार भगवान्‌ के उदार और कृपापूर्ण चरित्रका श्रवणकोर्तन करते हैं, उनके हृदयमें प्रेममयी भक्तिका उदय हो जाता है। उस भक्तिसे जैसी आत्मशुद्धि होती है है, वैसी कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि व्रतोंसे नहीं होती ॥ 32 ॥ जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्द मकरन्द-रसका लोभी भ्रमर है, वह स्वभावसे ही मायाके आपातरम्य, दुःखद और पहलेसे ही छोड़े हुए विषयोंगे फिर नहीं रमता किन्तु जो लोग उस दिव्य रससे विमुख हैं, कामनाओंने जिनकी विवेकबुद्धिपर पानी फेर दिया है, वे अपने पापोंका मार्जन करनेके लिये पुनः प्रायश्चित्तरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मोंकी वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते हैं ।॥ 33 ॥ परीक्षित्! जब यमदूतोंने अपने स्वामी धर्मराजके मुखसे इस प्रकार भगवानकी महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। तभीसे वे धर्मराजकी बातपर विश्वास करके अपने नाशकी आशङ्कासे भगवान्‌के आश्रित भक्तोंके पास नहीं जाते और तो क्या वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं ॥ 34 ॥प्रिय परीक्षित्! यह इतिहास परम गोपनीय- – अत्यन्त रहस्यमय है मलयपर्वतपर विराजमान भगवान् अगस्त्यजीने श्रीहरिकी पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था ||36||

अध्याय 4 दक्षके द्वारा भगवान्‌की स्तुति

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् ! आपने संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) इस बातका वर्णन किया कि स्वायम्भुव मन्वन्तरमें देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदिकी सृष्टि कैसे हुई ॥ 1 ॥ अब मैं उसीका विस्तार जानना चाहता हूँ । प्रकृति आदि कारणोंके भी परम कारण भगवान् अपनी जिस शक्तिसे जिस प्रकार उसके बादकी सृष्टि करते हैं, उसे जाननेकी भी मेरी इच्छा है ॥ 2 ॥

सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! परम योगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजीने राजर्षि परीक्षित्का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा ॥ 3 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- राजा प्राचीनबर्हिके दस लड़के- जिनका नाम प्रचेता था— जब समुद्रसे बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिताके निवृत्तिपरायण हो जानेसे सारी पृथ्वी पेड़ोंसे घिर गयी है ॥ 4 ॥ उन्हें वृक्षोंपर बड़ा क्रोध आया। उनके तपोबलने तो मानो क्रोधकी आगमें आहुति ही डाल दी। बस, उन्होंने वृक्षोंको जला डालनेके लिये अपने मुखसे वायु और अग्निकी सृष्टि की ॥ 5 ॥ परीक्षित् ! जब प्रचेताओंकी छोड़ी हुई अग्नि और वायु उन वृक्षोंको जलाने लगी, तब वृक्षोंके राजाधिराज चन्द्रमाने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा || 6 || ‘महाभाग्यवान् प्रचेताओ ! ये वृक्ष बड़े दीन हैं। आपलोग इनसे द्रोह मत कीजिये; क्योंकि आप तो प्रजाकी अभिवृद्धि करना चाहते हैं और सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं ॥ 7 ॥ महात्मा प्रचेताओ ! प्रजापतियोंके अधिपति अविनाशी भगवान् श्रीहरिने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियोंको प्रजाके हितार्थ उनके खान-पानके लिये बनाया है ॥ 8 ॥संसारमें पाँखोंसे उड़नेवाले चर प्राणियोंके भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं। पैरसे चलनेवालोंके घास-तृणादि बिना पैरवाले पदार्थ भोजन हैं; हाथवालोंके वृक्ष लता आदि बिना हाथवाले और दो पैरवाले मनुष्यादिके लिये धान, गेहूं आदि अन्न भोजन है। चार पैरवाले बैल, ऊँट आदि खेती प्रभूतिके द्वारा अनकी उत्पत्तिमें सहायक हैं ॥ 9 ॥ निष्पाप प्रचेताओ! आपके पिता और देवाधिदेव भगवान्ने आपलोगोंको यह आदेश दिया है कि प्रजाकी सृष्टि करो। ऐसी स्थितिमें आप वृक्षोंको जला डालें, यह कैसे उचित हो सकता है ॥ 10 ॥ आपलोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदिके द्वारा सेवित सत्पुरुषोंके | मार्गका अनुसरण करें ।। 11 । जैसे मा-बाप बालकोंकी, पलकें नेत्रोंकी, पति पत्नीकी, गृहस्थ भिक्षुकोंकी और ज्ञानी अज्ञानियोंकी रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैं—वैसे ही प्रजाकी रक्षा और हितका उत्तरदायी राजा होता है ।। 12 ।। प्रचेताओ! समस्त प्राणियोंके हृदयमें सर्वशक्तिमान् भगवान् आत्माके रूपमें विराजमान हैं। | इसलिये आपलोग सभीको भगवान्का निवासस्थान समझें। यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान्‌को प्रसन्न कर लेंगे || 13 | जो पुरुष हृदयके उबलते हुए भयङ्कर क्रोधको आत्मविचारके द्वारा शरीरमें ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रमसे तीनों गुणोंपर विजय प्राप्त कर लेता है ॥ 14 ॥ प्रचेताओ! इन दीन-हीन वृक्षोंको और न जलाइये जो कुछ बच रहे हैं. उनकी रक्षा कीजिये। इससे आपका भी कल्याण होगा। इस श्रेष्ठ कन्याका पालन इन वृक्षोंने ही किया है, इसे आपलोग पत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये ॥ 15 ॥

परीक्षित्] वनस्पतियोंकि राजा चन्द्रमाने प्रचेताओको इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सराकी सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँसे चले गये। प्रचेताओंने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥ 16 ॥ उन्हीं प्रचेताओंके द्वारा उस कन्याके गर्भसे प्राचेतस् दक्षको उत्पत्ति हुई। फिर दक्षकी प्रजा सृष्टिसे तीनों लोक भर गये ॥ 17 ॥ इनका अपनी पुत्रियोंपर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकार अपने सङ्कल्प और विविध प्राणियोंकी सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो ॥ 18 ॥ परीक्षित्। पहले प्रजापति दक्षने जल, थल औरआकाशमे रहनेवाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजाकी सृष्टि अपने सङ्कल्पसे ही की ।। 19 । जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचलके निकटवर्ती पर्वतोंपर जाकर बड़ी घोर तपस्या की ॥ 20 ॥ वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है—अघमर्षण। वह सारे पापोंको धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थमें त्रिकाल स्नान करते और तपस्याके द्वारा भगवान्‌की आराधना करते ॥ 21 ॥ प्रजापति दक्षने इन्द्रियातीत भगवान्‌को ‘हंसा’ नामक स्तोत्र स्तुति की थी। उसीसे भगवान् उनपर प्रसन्न हुए थे। मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ ॥ 22 ॥

दक्ष प्रजापतिने इस प्रकार स्तुति की भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृतिसे परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देनेवाले है जिन जीवने प्रगुणमयी सृष्टिको ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूपका साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आपतक किसी भी प्रमाणकी पहुँच नहीं है- आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयंप्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 23 ॥ यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरेके सखा है तथा इसी शरीरमें इकट्ठे ही निवास करते हैं परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभावको नहीं जानता -ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करनेवाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियोंको नहीं जानते। क्योंकि आप जीन और जगत्के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर! मैं आपके श्रीचरणोंमें नमस्कार करता हूँ ॥ 24 ॥ देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरणकी वृत्तियाँ, पञ्चमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ — ये सब जड होनेके कारण अपनेको और अपनेसे अतिरिक्तको भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणोंको भी जानता है। परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूपसे आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो। मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ ॥ 25 ॥ जब समाधिकालमें प्रमाण, विकल्प और विपर्ययरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्तिका लोप हो जानेसे इस नाम रूपात्मक| जगत्का निरूपण करनेवाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मनके भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूपस्थितिके द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं। प्रभो! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय मन्दिर ही आपका निवासस्थान है। आपको मेरा नमस्कार है ।। 26 ।। जैसे याज्ञिक लोग कामे छिपे हुए अग्रिको ‘सामिधेनी’ नामके पन्द्रह मन्त्रोंके द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियोंके भीतर गूढभावसे छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धिके द्वारा हृदयमें ही ढूँढ़ निकालते हैं ॥ 27 ॥ जगत्में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब मायाकी ही हैं। मायाका निषेध कर देनेपर केवल परम सुखके साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूपमें मायाकी उपलब्धि – निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं। प्रभो ! आप मुझपर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसादसे पूर्ण कर दीजिये ॥ 28 ॥ प्रभो ! जो कुछ वाणीसे कहा जाता है। अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणोंकी उत्पत्ति और प्रलयके अधिष्ठान है। आपमे केवल उनकी प्रतीतिमात्र है ॥ 29 ॥ है भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित है आपसे ही निकला है और आपने और किसीके सहारे नहीं अपने-आपसे ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूपमें बननेवाले भी आप हैं और बनानेवाले भी आप ही हैं। बनने-बनानेकी विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेनेवाले भी हैं। जब कार्य और कारणका भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूपसे स्थित थे। इसीसे आप सबके कारण भी है। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव जगत्के भेद और स्वगतभेदसे सर्वथा रहित एक अद्वितीय है। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझपर प्रसन्न हों ॥ 30 ॥ प्रभो ! आपकी ही शक्तियाँ वादी प्रतिवादियोंके विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोहमें डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणोंसे युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 31 ॥ भगवन् ! उपासकलोग कहते | हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादिसे युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त पादादि विग्रहसेरहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तुके दो परस्परविरोधी धर्मोका वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तुमें स्थित हैं। बिना आधारके हाथ-पैर आदिका होना सम्भव नहीं और निषेधकी भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेधकी अवधि है। इसलिये आप साकार, निराकार दोनोंसे ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं ॥ 32 ॥ प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलोंका भजन करते हैं, उनपर अनुग्रह करनेके लिये आप अनेक रूपोंमें प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन उन रूपों एवं लीलाओंके अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझपर कृपा प्रसाद कीजिये ॥ 33 ॥ लोगोंकी उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटिकी होती हैं। अतः आप सबके हृदयमें रहकर उनकी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओंके रूपमें प्रतीत होते रहते हैं—ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्धका आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तवमें सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओंका अनुसरण करनेवाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ।। 34 ।। श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ।

विध्याचलके अधमर्पण तीर्थमें जब प्रजापति दक्षने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए ।। 35 ।। उस समय भगवान् गरुड़के कंधोंपर चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनमें चक्र, शङ्ख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष, पाश और गदा धारण किये हुए थे ॥ 36 ॥ वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल शरीरपर पीताम्बर फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रोंसे प्रसादकी वर्षा हो रही थी। घुटनोंतक वनमाला लटक रही थी। वक्षःस्थलपर सुनहरी रेखा श्रीवत्सचिह्न और गलेमें कौस्तुभमणि – – जगमगा रही थी ॥ 37 ॥ बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृति कुण्डल, करधनी, अंगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थानपर सुशोभित थे ॥ 38 ॥ त्रिभुवनपति भगवान्ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थेतथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान्‌के गुणोंका गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौकिक रूप देखकर दक्षप्रजापति कुछ सहम गये । 39-40 ।। प्रजापति दक्षने आनन्दसे भरकर भगवान्‌के चरणोंये साष्टाङ्ग प्रणाम किया। जैसे झरनोंके जलसे नदियाँ भर जाती है, वैसे ही परमानन्दके उदकसे उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्दपरवश हो जानेके कारण वे | कुछ भी बोल न सके ॥ 41 ॥ परीक्षित् ! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रतासे झुककर भगवान्‌के सामने खड़े हो गये। भगवान् सबके हृदयकी बात जानते ही है, उन्होंने दक्ष प्रजापतिकी भक्ति और प्रजावृद्धिको कामना देखकर उनसे यों कहा ।। 42 ।।

श्रीभगवान्ने कहा- -परम भाग्यवान् दक्ष ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझपर श्रद्धा करनेसे तुम्हारे हृदयमें मेरे प्रति परम प्रेमभावका उदय हो गया है ।। 43 । प्रजापते! तुमने इस विश्वकी वृद्धिके लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत् के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों ॥ 44 ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वायम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर – ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियों की अभिवृद्धि करनेवाले हैं ॥ 45 ॥ ब्रह्मन् ! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अङ्ग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं ।। 46 ।। जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रियरूपमें। बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल | ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब और सुषुप्ति ही सुषुप्ति छा रही हो ।। 47 ।। प्रिय दक्ष मै अनन्त गुणोंका आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ। जब गुणमयी मायाके क्षोभसे यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदिपुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए 48 ॥ जब मैंने उनमें शक्ति और चेतनाका सञ्चार किया तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करनेके लिये उद्यत हुए। परन्तु उन्होंने अपनेको सृष्टिकार्यमें असमर्थ सा पाया ।। 49 ।। उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्याके प्रभावसे पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियोंकी सृष्टि की ॥ 50 ॥प्रिय दक्ष ! देखो, यह पञ्चजन प्रजापतिकी कन्या असिनी है। इसे तुम अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण करो ।। 51 ।। अब तुम गृहस्थोचित स्त्रीसहवासरूप धर्मको स्वीकार करो। यह असिक्नी भी उसी धर्मको स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे ।। 52 ।। प्रजापते ! अबतक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी मायासे स्त्री-पुरुषके संयोगसे ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवामें तत्पर रहेगी ॥ 53 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-विश्वके जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्षके सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्नमें देखी हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है ॥ 54 ॥

अध्याय 5 श्रीनारदजीके उपदेशसे दक्षपुत्रोंकी विरक्ति तथा

श्रीशुकदेवजी कहते है- परीक्षित्! भगवान्‌के शक्तिसञ्चारसे दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पञ्चजनकी पुत्री असिक्रीसे हर्यश्व नामके दस हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ 1 ॥ राजन् ! दक्षके ये सभी पुत्र एक आचरण और एक स्वभावके थे। जब उनके पिता दक्षने उन्हें सन्तान उत्पन्न करनेकी आज्ञा दी, तब वे तपस्या करनेके विचारसे पश्चिम दिशाकी ओर गये ॥ 2 ॥ पश्चिम दिशामें सिन्धुनदी और समुद्रके सङ्गमपर नारायण-सर नामका एक महान् तीर्थ है। बड़े-बड़े मुनि और सिद्ध पुरुष वहाँ निवास करते हैं ॥ 3 ॥ नारायण सरमें स्नान करते ही हर्यश्वोंके अन्तःकरण शुद्ध हो गये, उनकी बुद्धि भागवतधर्ममें लग गयी। फिर भी अपने पिता दक्षकी आज्ञासे बँधे होनेके कारण वे उग्र तपस्या ही करते रहे। जब देवर्षि नारदने देखा कि भागवतधर्ममें रुचि होनेपर भी ये प्रजावृद्धिके लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पासआकर कहा – ‘अरे हर्यश्वो! तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तवमें तो तुमलोग मूर्ख ही हो। बतलाओ तो, जब तुमलोगोंने पृथ्वीका अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? बड़े खेदकी बात है! ॥ 46 ॥ देखो-एक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलनेका रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहुरूपिणी है। एक ऐसा पुरुष है, जो व्यभिचारिणीका पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थोंसे बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्रसे बना हुआ है और अपने-आप घूमता रहता है। मूर्ख हर्यश्वो! जबतक तुमलोग अपने सर्वज्ञ पिताके उचित आदेशको समझ नहीं लोगे और इन उपर्युक्त वस्तुओंको देख नहीं लोगे, तबतक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?’ ॥ 7–9॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! हर्यश्व जन्मसे ही बड़े बुद्धिमान् थे । वे देवर्षि नारदकी यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धिसे स्वयं ही विचार करने लगे – ॥ 10 ॥ (देवर्षि नारदका कहना तो सच है) यह लिङ्गशरीर ही, जिसे साधारणतः जीव कहते हैं, पृथ्वी है और यही आत्माका अनादि बन्धन है। इसका अन्त (विनाश) देखे बिना मोक्षके अनुपयोगी कर्मोंमें लगे रहनेसे क्या लाभ है? ॥ 11 ॥ सचमुच ईश्वर एक ही है। वह जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं और उनके अभिमानियोंसे भिन्न, उनका साक्षी तुरीय है। वही सबका आश्रय है, परन्तु उसका आश्रय कोई नहीं है। वही भगवान् हैं। उस प्रकृति आदिसे अतीत, नित्यमुक्त परमात्माको देखे बिना भगवान्‌के प्रति असमर्पित कर्मोंसे जीवको क्या लाभ है? ॥ 12 ॥ जैसे मनुष्य बिलरूप पातालमें प्रवेश करके वहाँसे नहीं लौट पाता – वैसे ही जीव जिसको प्राप्त होकर फिर संसारमें नहीं लौटता, जो स्वयं अन्तर्ज्योतिःस्वरूप है, उस परमात्माको जाने बिना विनाशवान् स्वर्ग आदि फल देनेवाले कर्मोंको करनेसे क्या लाभ है? ।। 13 ।। यह अपनी बुद्धि ही बहुरूपिणी और सत्त्व, रज आदि गुणोंको धारण करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रीके समान है। इस जीवनमें इसका अन्त जाने बिना विवेक प्राप्त किये बिना अशान्तिको अधिकाधिकबढ़ानेवाले कर्म करनेका प्रयोजन ही क्या है ? ॥ 14 ॥ यह बुद्धि ही कुलटा स्त्रीके समान है। इसके सङ्गसे जीवरूप पुरुषका ऐश्वर्य — इसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी है। इसीके पीछे-पीछे वह कुलटा स्त्रीके पतिकी भाँति न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। इसकी विभिन्न गतियों, चालोंको जाने बिना ही विवेकरहित कर्मोंसे क्या सिद्धि मिलेगी ? ॥ 15 ॥ माया ही दोनों ओर बहनेवाली नदी है। यह सृष्टि भी करती है और प्रलय भी। जो लोग इससे निकलनेके लिये तपस्या, विद्या आदि तटका सहारा लेने लगते हैं, उन्हें रोकनेके लिये क्रोध, अहंकार आदिके रूपमें वह और भी वेगसे बहने लगती है। जो पुरुष उसके वेगसे विवश एवं अनभिज्ञ है, वह मायिक कमसे क्या लाभ उठावेगा ? ।। 16 ।। ये पचीस तत्त्व ही एक अद्भुत घर हैं। पुरुष उनका आश्चर्यमय आश्रय है। वही समस्त कार्य-कारणात्मक जगत्का अधिष्ठाता है। यह बात न जानकर सच्चा स्वातन्त्र्य प्राप्त किये बिना झूठी स्वतन्त्रतासे किये जानेवाले कर्म व्यर्थ ही हैं ॥ 17 ॥ भगवान्का स्वरूप बतलानेवाला शास्त्र हंसके समान नीर-क्षीर विवेकी है। वह बन्ध-मोक्ष, चेतन और जडको अलग-अलग करके दिखा देता है। ऐसे
अध्यात्मशास्त्ररूप हंसका आश्रय छोड़कर उसे जाने बिना बहिर्मुस बनानेवाले कमसे लाभ ही क्या है ? ॥ 18 ॥ यह काल ही एक चक्र है। यह निरन्तर घूमता रहता है। इसकी धार छुरे और वज्रके समान तीखी है और यह सारे जगत्‌को अपनी ओर खींच रहा है। इसको रोकनेवाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है। यह बात न जानकर कर्मकि फलको नित्य समझकर जो लोग सकामभावसे उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मोंसे क्या लाभ होगा ? ।। 19 । शास्त्र ही पिता है; क्योंकि दूसरा जन्म शास्त्रके द्वारा ही होता है और उसका आदेश कम लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि विषयोंपर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मोंसे निवृत्त होनेकी आज्ञाका पालन भला कैसे कर सकता है ?’ 20 परीक्षित् होने एक मतसे यही निश्चय किया और नारदजीकी परिक्रमा करके वे उस मोक्षपथके पथिक बन गये, जिसपर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता 21 ॥ इसके बाद देवर्षि नारद खखामे संगीतलहरीमें अभिव्यक्त हुए, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणकमलोंमें अपने चित्तको अखण्डरूपसेपरीक्षित् ! जब दक्षप्रजापतिको मालूम हुआ कि मेरे शीलवान् पुत्र नारदके उपदेशसे कर्तव्यच्युत हो गये हैं, तब वे शोकसे व्याकुल हो गये। उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। सचमुच अच्छी सन्तानका होना भी शोकका ही कारण है ॥ 23 ॥ ब्रह्माजीने दक्षप्रजापतिको बड़ी सान्त्वना दी। तब उन्होंने पञ्चजन-नन्दिनी असिक्नीके गर्भसे एक हजार पुत्र और उत्पन्न किये। उनका नाम था शबलाश्व ॥ 24 ॥ वे भी अपने पिता दक्षप्रजापतिकी आज्ञा पाकर प्रजासृष्टिके उद्देश्यसे तप करनेके लिये उसी नारायणसरोवरपर गये, जहाँ जाकर उनके बड़े भाइयोंने सिद्धि प्राप्त की थी ॥ 25 ॥ शबलाश्वोंने वहाँ जाकर उस सरोवरमें स्नान किया। स्नानमात्रसे ही उनके अन्तःकरणके सारे मल धुल गये। अब वे परब्रह्मस्वरूप प्रणवका जप करते हुए महान् तपस्या में लग गये ॥ 26 ॥ कुछ महीनोंतक केवल जल और कुछ महीनोंतक केवल हवा पीकर ही उन्होंने ‘हम नमस्कारपूर्वक ओङ्कारस्वरूप भगवान् नारायणका ध्यान करते हैं, जो विशुद्धचित्तमें निवास करते हैं सबके अन्तर्यामी हैं तथा सर्वव्यापक एवं परमहंसस्वरूप हैं।’ इस मन्त्रका अभ्यास करते हुए मन्त्राधिपति भगवान्‌की आराधना की ।। 27-28 ॥ परीक्षित्! इस प्रकार दक्षके पुत्र शबलाश्व प्रजासृष्टिके लिये तपस्यामें संलग्न थे। उनके पास भी देवर्षि नारद आये और उन्होंने पहलेके समान ही कूट वचन कहे ।। 29 । उन्होंने कहा- ‘दक्षप्रजापतिके पुत्रो ! मैं तुमलोगोंको जो उपदेश देता हूँ, उसे सुनो। तुमलोग तो अपने भाइयोंसे बड़ा प्रेम करते हो। इसलिये उनके मार्गका अनुसन्धान करो ॥ 30 ॥ जो धर्मज्ञ भाई अपने बड़े भाइयोंके श्रेष्ठ मार्गका अनुसरण करता है, वही सच्चा भाई है ! वह पुण्यवान् पुरुष परलोकमें मरुद्गणोंके साथ आनन्द भोगता है ॥ 31 ॥ परीक्षित्! शबलाश्वोंको इस प्रकार उपदेश देकर देवर्षि नारद वहाँसे चले गये और उन लोगोने भी अपने भाइयोंके मार्गका ही अनुगमन किया; क्योंकि नारदजीका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता ।। 32 ॥ वे उस पथके पथिक बने, जो अन्तर्मुखी वृत्तिसे प्राप्त होनेयोग्य, अत्यन्त सुन्दर और भगवत्प्राप्तिके अनुकूल है। वे बीती हुई रात्रियोंके समान न तो उस मार्गसे अबतक लौटे हैं और नआगे लौटेंगे ही ॥ 33 ॥

दक्षप्रजापतिने देखा कि आजकल बहुत-से अशकुन हो रहे हैं। उनके चित्तमें पुत्रोंके अनिष्टकी आशङ्का हो आयी। इतनेमें ही उन्हें मालूम हुआ कि पहलेकी भाँति अबकी बार भी नारदजीने मेरे पुत्रोंको चौपट कर दिया ॥ 34 ॥ उन्हें अपने पुत्रोंकी कर्तव्यच्युतिसे बड़ा शोक हुआ और वे नारदजीपर बड़े क्रोधित हुए उनके मिलनेपर क्रोधके मारे दक्षप्रजापतिके होठ फड़कने लगे और वे आवेशमें भरकर नारदजीसे बोले ॥ 35 ॥

दक्षप्रजापतिने कहा—ओ दुष्ट ! तुमने झूठमूठ साधुओंका बाना पहन रखा है। हमारे भोलेभाले बालकोंको भिक्षुकोंका मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अपकार किया है ॥ 36 ॥ अभी उन्होंने ब्रह्मचर्यसे ऋषि ऋण, यज्ञसे देव ऋण और पुत्रोत्पत्तिसे पितृ-ऋण नहीं उतारा था। उन्हें अभी कर्मफलकी नश्वरताके सम्बन्धमें भी कुछ विचार नहीं था। परन्तु पापात्मन् ! तुमने उनके दोनों लोकोंका सुख चौपट कर दिया ॥ 37 ॥ सचमुच तुम्हारे हृदयमें दयाका नाम भी नहीं है। तुम इस | प्रकार बच्चोंकी बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान्‌के पार्षदोंमें रहकर उनकी कीर्तिमें कलङ्क ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो ॥ 38 ॥ मैं जानता हूँ कि भगवान्‌के पार्षद सदा-सर्वदा दुःखी प्राणियोंपर दया करनेके लिये व्यग्र रहते हैं। परन्तु तुम प्रेमभावका विनाश करनेवाले हो। तुम उन लोगोंसे भी वैर करते हो, जो किसीसे वैर नहीं करते ॥ 39 ॥ यदि तुम ऐसा समझते हो कि वैराग्यसे ही स्नेहपाश विषयासक्तिका बन्धन कट सकता है, तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है; क्योंकि तुम्हारे जैसे झूठमूठ वैराग्यका स्वाँग भरनेवालोंसे किसीको वैराग्य नहीं हो सकता ॥ 40 ॥ नारद । मनुष्य विषयोंका अनुभव किये बिना उनकी कटुता नहीं जान सकता। | इसलिये उनकी दुःखरूपताका अनुभव होनेपर स्वयं जैसा वैराग्य होता है, वैसा दूसरोंके बहकानेसे नहीं होता ॥ 41 ॥ हमलोग सद्गृहस्थ हैं, अपनी धर्ममर्यादाका पालन करते हैं। एक बार पहले भी तुमने हमारा असह्य अपकार किया था। तब हमने उसे सह लिया ॥ 42 ॥ तुम तो हमारी वंशपरम्पराका उच्छेद करनेपर ही उतारू हो रहे हो। तुमने फिर हमारे साथ वही दुष्टताका व्यवहार किया। इसलिये मूढ़ जाओ, लोक-लोकान्तरोंमें भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरनेको ठौर नहीं होगी ॥ 43 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित् !

संतशिरोमणि देवर्षि नारदने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दक्षका शाप स्वीकार कर लिया। संसारमें बस, साधुता इसीका नाम है कि बदला लेनेकी शक्ति रहनेपर भी दूसरेका किया हुआ अपकार सह लिया जाय ॥ 44 ॥

अध्याय 6 दक्षप्रजापतिकी साठ कन्याओंके वंश का विवरण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् । तदनन्तर ब्रह्माजीके बहुत अनुनय-विनय करनेपर दक्षप्रजापतिने अपनी पत्नी असिक्नीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। वे सभी अपने पिता दक्षसे बहुत प्रेम करती थीं ॥ 1 ॥ दक्षप्रजापतिने उनमें से दस कन्याएँ धर्मको, तेरह कश्यप सत्ताईस चन्द्रमाको, दो भूतको दो अङ्गको दो को और शेष चार तार्क्ष्यनामधारी कश्यपको ही ब्याह दीं ॥ 2 ॥ परीक्षित् ! तुम इन दक्षकन्याओं और इनकी सन्तानोंके नाम मुझसे सुनो। इन्हींकी वंशपरम्परा तीनों लोकोंमें फैली हुई है ॥ 3 ॥

धर्मकी दस पत्नियाँ थीं—भानु, लम्बा, ककुम् जामि, विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता और सङ्कल्पा। इनके पुत्रोंके नाम सुनो ॥ 4 ॥ राजन् ! भानुका पुत्र देवऋषभ और उसका इन्द्रसेन था। लम्बाका पुत्र हुआ विद्योत और उसके मेघगण ॥ 5 ॥ ककुभु‌का पुत्र हुआ सङ्कट, उसका कीकट और कोकटके पुत्र हुए पृथ्वीके सम्पूर्ण दुर्गा (किलो) के अभिमानी देवताः। जामिके पुत्रका नाम था स्वर्ग और उसका पुत्र हुआ नन्दी ॥ 6 ॥ विश्वाके विश्वेदेव हुए। उनके कोई सन्तान न हुई। साध्यासे साध्यगण हुए और उनका पुत्र हुआ अर्थसिद्धि ।। 7 ।।मरुत्वतीके दो पुत्र हुए — मरुत्वान् और जयन्त । जयन्त भगवान् वासुदेवके अंश है, जिन्हें लोग उपेन्द्र भी कहते हैं ॥ 8 ॥ मुहूर्तासे मूहूर्तके अभिमानी देवता उत्पन्न हुए। ये अपने-अपने मूहूर्तमें जीवोंको उनके कर्मानुसार फल देते हैं ॥ 9 ॥ सङ्कल्पाका पुत्र हुआ सङ्कल्प और | उसका काम वसुके पुत्र आठों वसु हुए। उनके नाम मुझसे सुनो ॥ 10 ॥ द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। द्रोणकी पत्नीका नाम है अभिमति । उससे हर्ष, शोक, भय आदिके अभिमानी देवता उत्पन्न हुए ।। 11 ।। प्राणकी पत्नी ऊर्जस्वतीके गर्भसे सह, आयु और पुरोजव नामके तीन पुत्र हुए। ध्रुवकी पत्नी धरणीने अनेक नगरोंके अभिमानी देवता उत्पन्न किये ॥ 12 ॥ अर्ककी पत्नी वासनाके गर्भसे तर्प (तृष्णा) आदि पुत्र हुए। अनि नामक वसुकी पत्नी धाराके गर्भसे द्रविणक आदि बहुत से पुत्र उत्पन्न हुए ।। 13 ।। कृत्तिकापुत्र स्कन्द भी अग्निसे ही उत्पन्न हुए। उनसे विशाख आदिका जन्म हुआ। दोषकी पत्नी शर्वरीके गर्भसे शिशुमारका जन्म हुआ। वह भगवान्‌का कलावतार है ।। 14 ।। वसुकी पत्नी आङ्गिरसी शिल्पकलाके अधिपति विश्वकर्माजी हुए विश्वकमकि उनकी भार्या कृतीके गर्भसे चाक्षुष मनु हुए और उनके पुत्र विश्वेदेव एवं साध्यगण हुए ।। 15 ।। विभावसुकी पत्नी उषासे तीन पुत्र हुए — व्युष्ट, रोचिष् और आतप। उनमेंसे आतपके पञ्चयाम (दिवस) नामक पुत्र हुआ, उसीके कारण सब जीव अपने-अपने कार्यों में लगे रहते हैं ।। 16 ।।

भूतकी पत्नी दक्षनन्दिनी सरूपाने कोटि-कोटि रुद्रगण उत्पन्न किये। इनमें रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उप, वृषाकपि, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, बहुरूप, और महान्ये ग्यारह मुख्य हैं। भूतकी दूसरी पत्नी भूतासे भयङ्कर भूत और विनायकादिका जन्म हुआ। ये सब ग्यारहवें प्रधान रुद्र महान्के पार्षद हुए ।। 17-18 ।।अङ्गिरा प्रजापतिकी प्रथम पत्नी स्वधाने पितृगणको उत्पन्न किया और दूसरी पत्नी सतीने अथर्वाङ्गिरस नामक वेदको ही पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया ॥ 19 ॥ कृशाची पत्नी अर्थिसे धूम्रकेशका जन्म हुआ और धिषणासे चार पुत्र हुए- वेदशिरा, देवल, वयुन और मनु ॥ 20 ॥ तार्क्ष्यनामधारी कश्यपकी चार स्त्रियाँ थीं विनता, कडू, पतङ्गी और यामिनी पतङ्गीसे पक्षियोंका और यामिनीसे शलभों (पतिंगों) का जन्म हुआ ॥ 21 ॥ विनताके पुत्र गरुड़ हुए, ये ही भगवान् विष्णुके वाहन हैं। विनताके ही दूसरे पुत्र अरुण हैं, जो भगवान् सूर्यके सारथि हैं। कहुसे अनेकों नाग उत्पन्न हुए ।। 22 ।।

परीक्षित्! कृत्तिका आदि सत्ताईस नक्षत्राभिमानिनी देवियाँ चन्द्रमाकी पत्नियाँ हैं। रोहिणीसे विशेष प्रेम करनेके कारण चन्द्रमाको दक्षने शाप दे दिया, जिससे उन्हें क्षयरोग हो गया था। उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई || 23 | उन्होंने दक्षको फिरसे प्रसन्न करके कृष्णपक्षकी क्षीण कलाओंके शुक्लपक्षमें पूर्ण होनेका वर तो प्राप्त कर लिया, (परन्तु नक्षत्राभिमानी देवियोंसे उन्हें कोई सन्तान न हुई) अब तुम | कश्यपपत्त्रियोंके मङ्गलमय नाम सुनो। वे लोकमाताएँ हैं। उन्हीं से यह सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है। उनके नाम हैं अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमि इनमें तिमिके पुत्र हैं— जलचर जन्तु और सरमाके बाघ आदि हिंसक जीव ॥ 24 – 26 ॥ सुरभिके पुत्र हैं- भैंस, गाय तथा दूसरे दो खुरवाले पशु। ताम्राकी सन्तान हैं—बाज, गीध आदि शिकारी पक्षी मुनिसे अप्सराएँ उत्पन्न हुई ॥ 27 ॥ क्रोधवशाके पुत्र हुए—साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तु । इलासे वृक्ष, लता आदि पृथ्वीमें उत्पन्न होनेवाली वनस्पतियाँ और सुरसासे यातुधान (राक्षस) ॥ 28 ॥ अरिष्टासे गन्धर्व और काष्ठासे घोड़े आदि एक सुरवाले पशु उत्पन्न हुए। दनुके इकसठ पुत्र हुए। उनमें प्रधान प्रधानके नाम सुनो ।। 29 ।।द्विमूर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शङ्कुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण, पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरूपाक्ष, विप्रचित्ति और दुर्जय ॥। 30-31 ॥ स्वर्भानुकी कन्या सुप्रभासे नमुचिने और वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठासे महाबली नहुषनन्दन ययातिने विवाह किया ॥ 32 ॥ दनुके पुत्र वैश्वानरकी चार सुन्दरी कन्याएँ थीं। इनके नाम थे— उपदानवी, हयशिरा, पुलोमा और कालका ॥ 33 ॥ इनमेंसे उपदानवीके साथ हिरण्याक्षका और हयशिराके साथ क्रतुका विवाह हुआ। ब्रह्माजीकी आज्ञासे प्रजापति भगवान् कश्यपने ही वैश्वानरकी शेष दो पुत्रियों—पुलोमा और कालकाके साथ विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नामके साठ हजार रणवीर दानव हुए। इन्हींका दूसरा नाम निवातकवच था। ये यज्ञकर्ममें विघ्न डालते थे, इसलिये परीक्षित्! तुम्हारे दादा अर्जुनने अकेले ही उन्हें इन्द्रको प्रसन्न करनेके लिये मार डाला। यह उन दिनों की बात है, जब अर्जुन स्वर्गमें गये हुए ।। 34-36 ॥ विप्रचित्तिकी पत्नी सिंहिकाके गर्भसे एक सौ एक पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सबसे बड़ा था राहु, जिसकी गणना ग्रहोंमें हो गयी। शेष सौ पुत्रोंका नाम केतु था ॥ 37 ॥

परीक्षित्! अब क्रमशः अदितिकी वंशपरम्परा सुनो। इस वंशमें सर्वव्यापक देवाधिदेव नारायणने अपने अंशसे वामनरूपमें अवतार लिया था ॥ 38 ॥ अदितिके पुत्र थे – विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (वामन)। यही बारह आदित्य कहलाये ॥ 39 ॥ विवस्वानकी पत्नी महाभाग्यवती संज्ञाके गर्भसे श्राद्धदेव (वैवस्वत) मनु एवं यम-यमीका जोड़ा पैदा हुआ संज्ञाने ही घोड़ीका रूप धारण करके भगवान् सूर्यके द्वारा भूलोकमें दोनों अश्विनीकुमारोंको जन्म दिया ॥ 40 ॥विवस्वान्‌की दूसरी पत्नी थी छाया। उसके शनैश्चर और सावर्णि मनु नामके दो पुत्र तथा तपती नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। तपतीने संवरणको पतिरूपमें वरण किया ॥ 41 ॥ अर्यमाकी पत्नी मातृका थी। उसके गर्भसे चर्षणी नामक पुत्र हुए। वे कर्तव्य-अकर्तव्यके ज्ञानसे युक्त थे। इसलिये ब्रह्माजीने उन्हींके आधारपर मनुष्यजातिकी (ब्राह्मणादि वर्णोंकी) कल्पना की ॥ 42 ॥ पूषाके कोई सन्तान न हुई। प्राचीनकालमें जब शिवजी दक्षपर क्रोधित हुए थे, तब पूषा दाँत दिखाकर हँसने लगे थे; इसलिये वीरभद्रने इनके दाँत तोड़ दिये थे। तबसे पूषा पिसा हुआ अन्न ही खाते हैं ॥ 43 ॥ दैत्योंकी छोटी बहिन कुमारी रचना त्वष्टाकी पत्नी थी। रचनाके गर्भसे दो पुत्र हुए—संनिवेश और पराक्रमी विश्वरूप ॥ 44 ॥ इस प्रकार विश्वरूप यद्यपि शत्रुओंके भानजे थे—फिर भी जब देवगुरु बृहस्पतिजीने इन्द्रसे अपमानित होकर देवताओंका परित्याग कर दिया, तब देवताओंने विश्वरूपको ही अपना पुरोहित बनाया था ॥ 45 ॥

अध्याय 7 बृहस्पतिजीके द्वारा देवताओंका त्याग

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्! देवाचार्य बृहस्पतिजीने अपने प्रिय शिष्य देवताओंको किस कारण त्याग दिया था ? देवताओंने अपने गुरुदेवका ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 1 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा— राजन् ! इन्द्रको त्रिलोकीका ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्डके कारण वे धर्ममर्यादाका, सदाचारका उल्लङ्घन करने लगे थे। एक दिनकी बात है, वे भरी सभामें अपनी पत्नी शचीके साथ ऊँचे सिंहासनपर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वेदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवामें उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण,विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वरसे देवराज इन्द्रकी कीर्तिका गान हो रहा था। ऊपरकी ओर चन्द्रमण्डलके समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथास्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समाजमें देवराज बड़े ही सुशोभित हो रहे थे ॥ 26 ॥ इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओंके परम आचार्य बृहस्पतिजी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्रने देख लिया कि वे सभामें आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरुका सत्कार ही किया। यहाँतक कि वे अपने आसनसे हिले-डुलेतक नहीं ।। 7-8 ।। त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पतिजीने देखा कि यह ऐश्वर्यमदका दोष है! बस, वे झटपट वहाँसे निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये ।। 9 ।।

परीक्षित् | उसी समय देवराज इन्द्रको चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेवकी अवहेलना की है। वे भरी सभामें स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे ॥ 10 ॥ ‘हाय-हाय ! बड़े खेदकी बात है कि भरी सभामें मूर्खतावश मैंने ऐश्वर्य नशेमें चूर होकर अपने गुरुदेवका तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है ॥ 11 ॥ भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्गकी राजलक्ष्मीको पानेकी इच्छा करेगा ? देखो तो सही, आज इसीने मुझ देवराजको भी असुरोंके से रजोगुणी भावसे भर दिया ।। 12 ।। जो लोग यह कहते हैं। कि सार्वभौम राजसिंहासनपर बैठा हुआ सम्राट् किसीके आनेपर राजसिंहासनसे न उठे, वे धर्मका वास्तविक स्वरूप नहीं जानते ।। 13 ।। ऐसा उपदेश करनेवाले कुमार्गकी ओर ले जानेवाले हैं। वे स्वयं घोर नरकमे गिरते हैं। उनकी बातपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थरकी नावकी तरह डूब जाते हैं ।। 14 ।।मेरे गुरुदेव बृहस्पतिजी ज्ञानके अथाह समुद्र है। बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणोंमें अपना माथा उन्हें मनाऊँगा ।। 15 ।।

परीक्षित्! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पतिजी अपने घरसे निकलकर योगबलसे अन्तर्धान हो गये ॥ 16 ॥ देवराज इन्द्रने अपने गुरुदेवको बहुत ढूंढ़ा-ढूंढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरुके बिना अपनेको सुरक्षित न समझकर देवताओंके साथ अपनी बुद्धिके अनुसार स्वर्गकी रक्षाका उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके ! उनका चित्त अशान्त ही बना रहा ॥ 17 ॥ परीक्षित्! दैत्योंको भी | देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्रकी अनबनका पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरोंने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेशनुसार देवताऔपर विजय पानेके | लिये धावा बोल दिया ॥ 18 ॥ उन्होंने देवताओंपर इतने तीखे तीखे बाणोंकी वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्रके साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्माजीकी शरणमें गये ॥ 19 ॥ स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्माजीने देखा कि देवताओंकी तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणासे भर गया। वे देवताओंको धीरज बँधाते कहने लगे हुए ll 20 ll

ब्रह्माजीने कहा- देवताओ यह बड़े खेदकी बात है। सचमुच तुमलोगोंने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे! तुमलोगोंने ऐश्वर्यके मदसे अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्राह्मणका सत्कार नहीं किया ॥ 21 ॥ देवताओ ! तुम्हारी उसी अनीतिका यह फल है कि आज समृद्धिशाली होनेपर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओंके सामने नीचा देखना पड़ा ।। 22 ।। देवराज देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्यका तिरस्कार करनेके कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभावसे उनकी आराधना करके वे फिर धन-जनसे सम्पन्न हो गये हैं। देवताओ! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्यको अपना आराध्यदेव माननेवाले ये दैत्यलोग कुछ दिनोंमें मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे ॥ 23 ॥ भृगुवंशियोंने इन्हें अर्थशास्त्रकी पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुमलोगोंको नहीं मिल पाता। उनकी सलाह बहुत गुप्तहोती है। ऐसी स्थितिमें वे स्वर्गको तो समझते ही क्या है, वे चाहे जिस लोकको जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओको अपना सर्वस्व मानते हैं और जिनपर उनकी कृपा रहती हैं, उनका कभी अमङ्गल नहीं होता || 24 | इसलिये अब तुमलोग शीघ्र ही त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके पास जाओ और उन्हीं की सेवा करो। वे सचे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुमलोग उनके असुरोंके प्रति प्रेमको क्षमा कर सकोगे और उनका सम्मान करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे ।। 25 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं–परीक्षित्! जब ब्रह्माजीने देवताओंसे इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टाके पुत्र विश्वरूप ऋषिके पास गये और उन्हें हृदयसे लगाकर यों कहने लगे ॥ 26 ॥

देवताओंने कहा- बेटा विश्वरूप तुम्हारा कल्याण हो। हम तुम्हारे आश्रमपर अतिथिके रूपमें आये हैं। हम एक प्रकारसे तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगोकी समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो ॥ 27 ॥ जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रोका भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनोंकी सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है ॥ 28 ॥ वत्स! आचार्य वेदकी, पिता ब्रह्माजीकी, भाई इन्द्रकी और माता साक्षात् पृथ्वीकी मूर्ति होती है ॥ 29 ॥ (इसी प्रकार) बहिन दयाकी, अतिथि धर्मको, अभ्यागत अफ्रिकी और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्माकी ही मूर्ति – आत्मस्वरूप होते हैं ॥ 30 ॥ पुत्र ! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओंने हमें जीत लिया है। हम बड़े दुःखी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबलसे हमारा यह दुःख, दारिद्र्य, पराजय टाल दो। पुत्र! तुम्हें हमलोगोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये ॥ 31 ॥ तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्मसे ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्यके रूपमें वरण करके तुम्हारी शक्तिसे अनायास ही शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर लेंगे ॥ 32 ॥पुत्र ! आवश्यकता पड़नेपर अपनेसे छोटोंका पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञानको छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पनका कारण भी नहीं है ॥ 33 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब देवताओंने इस प्रकार विश्वरूपसे पुरोहिती करने की प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूपने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दोंमें कहा ।। 34 ।।

विश्वरूपने कहा- पुरोहितीका काम ब्रह्मतेजको क्षीण करनेवाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओ उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में मेरे जैसा व्यक्ति भला, आपलोगोको कोरा जवाब कैसे दे सकता है ? मैं तो आपलोगोंका सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओंका पालन करना ही मेरा स्वार्थ है ।। 35 ।। देवगण ! हम अकिञ्चन हैं। खेती कट जानेपर अथवा अनाजकी हाट उठ जानेपर उसमेंसे गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसीसे अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो ! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहितीकी निन्दनीय यत्ति क्यों करूँ ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है ।। 36 ।। जो काम आपलोग मुझसे कराना चाहते है वह निन्दनीय है फिर भी मैं आपके कामसे मुँह नहीं मोड़ सकता क्योंकि आपलोगोंकी माँग ही कितनी है। इसलिये आपलोगोका मनोरथ मैं तन-मन-धनसे पूरा करूँगा ॥ 37 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओंसे ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करनेपर वे बड़ी लगनके साथ उनकी पुरोहिती करने लगे ।। 38 ।। यद्यपि शुक्राचार्यने अपने नीतिबलसे असुरोंकी सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूपने वैष्णवी विद्याके प्रभावसे उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्रको दिला दी ॥ 39 ॥राजन् ! जिस विद्यासे सुरक्षित होकर इन्द्रने असुरोंकी सेनापर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूपने ही उन्हें उपदेश किया था ll 40 ll

अध्याय 8 नारायण कवच का उपदेश

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन् । देवराज इन्द्रने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओंकी चतुरङ्गिणी सेनाको खेल-खेल में- अनायास ही जीतकर त्रिलोकीकी राजलक्ष्मीका उपभोग किया, आप उस नारायणकवचको मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमिमें किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओंपर विजय प्राप्त की ।। 1-2 ।।

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! | देवताओंने विश्वरूपको पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्रके प्रश्न करनेपर विश्वरूपने उन्हें नारायणकवचका उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्तसे उसका श्रवण करो ॥ 3 ॥

जब विश्वरूपने कहा- देवराज इन्द्र ! भयका अवसर उपस्थित होनेपर नारायणकवच धारण करके अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथमें कुशकी पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जाय। इसके बाद कवचधारणपर्यन्त और कुछ न बोलनेका निश्चय करके पवित्रता ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इन मन्त्रोंके द्वारा हृदयादि अङ्गन्यास तथा अङ्गुष्ठादि-करन्यास करे। पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्तके ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जांघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिरमें न्यास करे। अथवा पूर्वोक्त मन्तके मकारसे लेकर ॐकारपर्यन्त आठ अक्षरोंका सिरसे आरम्भ करके उन्हीं आठ अङ्गो विपरीत क्रमसे न्यास करे ॥ 4-6 ।।तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ – इस द्वादशाक्षर मन्त्रके ॐ आदि बारह अक्षरोंका दाय तर्जनीसे बायीं तर्जनीतक दोनों हाथकी आठ अंगुलियों और दोनों अंगूठोंकी दो-दो गाँठोंमें न्यास करे ॥ 7 ॥ फिर ‘ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्रके पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदयमें ‘वि’ का प्रहारन्धमें, ‘प्’ का भौहोंके बीचमे ‘ण’ का चोटीमें, ‘वे’ का दोनों नेत्रोंमें और ‘न’ का शरीरकी सब गाँठोंमें न्यास करे। तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट् ‘ कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करनेसे इस विधिको जाननेवाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है ।। 8-10 ॥ इसके बाद समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्यसे परिपूर्ण इष्टदेव भगवान्‌का ध्यान करे और अपने को भी तद्रूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवचका पाठ करे- ॥ 11 ॥

‘भगवान् श्रीहरि गरुड़जीकी पीठपर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथोंमें शङ्ख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकारसे, सब ओरसे मेरी रक्षा करें ॥ 12 ॥ मत्स्यमूर्ति भगवान् जलके भीतर जलजन्तुओंसे और वरुणके पाशसे मेरी रक्षा करें। मायासे ब्रह्मचारीका रूप धारण करनेवाले वामनभगवान् स्थलपर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रमभगवान् आकाशमें मेरी रक्षा करें ।। 13 ।। जिनके घोर अट्टहाससे सब दिशाएँ गूंज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्रियों के गर्भ गिर गये थे, वे | दैत्य यूथपतियोंके शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानोंमें मेरी रक्षा करें ॥ 14 ॥ अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले यज्ञमूर्ति वराहभगवान् मार्गमें, परशुरामजी पर्वतोंके शिखरोंपरऔर लक्ष्मणजीके सहित भरतके बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवासके समय मेरी रक्षा करें ॥ 15 ॥ भगवान् नारायण मारण मोहन आदि भयङ्कर अभिचारों और सब प्रकारके प्रमादोंसे मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्वसे, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योगके विघ्नोंसे और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धनोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 16 परमर्षि सनत्कुमार कामदेवसे, हयग्रीवभगवान् मार्गमें चलते समय देवमूर्तियोंको नमस्कार आदि न करनेके अपराधसे, देवर्षि नारद सेवापराधोंसे * और भगवान् कच्छप सब प्रकारके नरकोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 17 ॥ भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्यसे, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वोंसे, यज्ञभगवान् लोकापवादसे, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टोंसे और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पोंके गणसे मेरी रक्षा करें ॥ 18 ॥ भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञानसे तथा बुद्धदेव पाखण्डियोंसे और प्रमादसे मेरी रक्षा करें। धर्मरक्षाके लिये महान् अवतार धारण करनेवाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकालके दोषोंसे मेरी रक्षा करें ॥ 19 ॥ प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आनेपर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहरके पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहरको भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ॥ 20 ॥तीसरे पहरमें भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकालमें ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्तके बाद हृषीकेश, अर्धरात्रिके पूर्व तथा अर्धरात्रिके समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ॥ 21 ॥ रात्रिके पिछले प्रहरमें श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकालमें खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदयसे पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओंमें कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ॥ 22 ॥

‘सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथके पहिये) की तरह है। आपके किनारेका भाग प्रलयकालीन अनिके समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान्‌की प्रेरणासे सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायुकी सहायतासे सूखे घास फूसको जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु सेनाको शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ॥ 23 ॥ कौमोदकी गदा ! आपसे छूटनेवाली चिनगारियोंका स्पर्श वज्रके समान असह्य है। आप भगवान् अजितकी प्रिया हैं। और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहोंको अभी | कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओंको चूर-चूर कर दीजिये ॥ 24 ॥ शङ्ख श्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्णके | फूँकनेसे भयङ्कर शब्द करके मेरे शत्रुओंका दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियोंको यहाँसे झटपट भगा | दीजिये ॥ 25 ॥ भगवान्‌की प्यारी तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान्‌की प्रेरणासे मेरे शत्रुओंको छिन्न-भिन्न कर दीजिये। भगवान्‌की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दृष्टि पापात्मा शत्रुओंकी आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदाके लिये अंधा बना दीजिये ।। 26 ।।सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्वादि रेंगनेवाले जन्तु दावाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियोंसे हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मङ्गलके विरोधी हों—वे सभी भगवान्‌ के नाम, रूप तथा आयुधोंका कीर्तन करनेसे तत्काल नष्ट हो जायँ ।। 27-28 ॥ बृहद् रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रोंसे जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड और निजी अपने नामोचारण के प्रभावसे हमें सब प्रकरकी विपत्तियोंसे बचायें ॥ 29 ॥ श्रीहरिके नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणोंको सब प्रकारकी आपत्तियोंसे बचायें ॥ 30 ॥

“जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तवमें भगवान् ही है’- -इस सत्यके प्रभावसे हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायँ ॥ 31 ॥ जो लोग ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टिमें भगवान्‌का स्वरूप समस्त विकल्पों—भेदोंसे रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्तिके द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियोंको धारण करते हैं, यह बात निश्चितरूपसे सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपोंसे हमारी रक्षा करें ।। 32-33 ।। जो अपने भयङ्कर अट्टाहाससे सब लोगोंके भयको भगा देते हैं और अपने तेजसे सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशामें, नीचे ऊपर, बाहर-भीतर -सब ओर हमारी रक्षा करें’ ।। 34 ।।

देवराज इन्द्र ! मैंने तुम्हें यह नारायणकवच सुना दिया। इस कवचसे तुम अपनेको सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य यूथपतियों को जीत लोगे ।। 35 ।। इस नारायणकवचको धारण करनेवाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रोंसे देख लेता अथवा पैर छू देता है, वह तत्काल समस्त भयोंसे मुक्त हो जाता | है || 36 | जो इस वैष्णवी विद्याको धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पिशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवोंसे कभी किसी प्रकारका भय नहीं होता ॥ 37 ॥देवराज ! प्राचीन कालकी बात है, एक कौशिकगोत्री ब्राह्मणने इस विद्याको धारण करके योगधारणासे अपना शरीर मरुभूमिमें त्याग दिया ॥ 38 ॥ जहाँ उस ब्राह्मणका शरीर पड़ा था, उसके ऊपरसे एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियोंके साथ विमानपर बैठकर निकले ॥ 39 ॥ वहाँ आते ही वे नीचेकी ओर सिर किये विमानसहित आकाशसे पृथ्वीपर गिर पड़े। इस घटनासे उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियोंने बतलाया कि यह नारायणकवच धारण करनेका प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवताकी हड्डियोंको ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदीमें प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोकको गये ॥ 40 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जो पुरुष इस नारायणकवचको समयपर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी जाते हैं और वह सब प्रकारके भयोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 41 ॥ परीक्षित्! शतक्रतु इन्द्रने आचार्य विश्वरूपजीसे यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमिमें असुरोंको जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मीका उपभोग आदरसे झुक करने लगे ॥ 42 ॥

अध्याय 9 विश्वरूपका वध, वृत्रासुरद्वारा देवताओंकी हार

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! हमने सुना है कि विश्वरूपके तीन सिर थे। वे एक मुँहसे सोमरस तथा दूसरेसे सुरा पीते थे और तीसरेसे अन्न खाते थे ॥ 1 ॥ उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञके समय प्रत्यक्षरूपमें ऊँचे स्वरसे बोलकर बड़े विनयके साथ देवताओंको आहुति देते थे ॥ 2 ॥साथ ही वे छिप छिपकर असुरोको भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुर-कुलको थी, इसीलिये वे मातृस्नेहके वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार | अमुरोको भाग पहुंचाया करते थे॥ 3॥ इन्द्र देखा कि इस प्रकार से देवताओंका अपराध और धर्मकी ओटमें कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और कोष भरकर उन्होंने बड़ी फुर्तीसे उनके तीनों सिर काट लिये ॥ 4 ॥ विश्वरूपका सोमरस पीनेवाला सिर पपीहा, सुरापान करनेवाला गौरैया और अन खानेवाला तोतर हो गया ॥ 5 ॥ इन्द्र चाहते तो विरूपके से लगी हुई हत्याको दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरं हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्षतक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्याको चार हिस्सोंमे बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया ॥ 6 ॥ परीक्षित् | पृथ्वीने बदले यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्डा होगा, वह समयपर अपने-आप भर जायगा, इन्द्रकी ब्रह्महत्याका चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वीमे कहीं-कहीं ऊसरके रूपमें दिखायी पड़ती है ॥ 7 ॥ दूसरा चतुर्थांश वृक्षोंने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जानेपर फिर जम जायगा। उनमें अब भी गोंदके रूपमें ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है ॥ 8 ॥ स्त्रियोंने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुषका सहवास कर सके, ब्रह्महत्याका तीसरा चतुर्थाश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीनेमें रजके रूपसे दिखायी पड़ती है ॥ 9 ॥ जलने यह वर पाकर कि सर्व करते रहनेपर भी निर्झर आदिके रूपमें तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्याका चौथा चतुर्थाश स्वीकार किया। फेन, बुदबुद आदिके रूपमें वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं ।। 10 ॥

विश्वरूपकी मृत्युके बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो। तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से शीघ्र तुम अपने शत्रुको मार डालो’ – इस मन्नसे इन्द्रका शत्रु उत्पन्न करनेके लिये हवन करने लगे ॥। 11 ॥ यज्ञ समाप्त होनेपर अन्वाहार्य पचन नामक अधि (दक्षिणाति) से एक बड़ाभयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकोका नाश करनेके लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो ॥ 12 ॥ परीक्षित् ! वह प्रतिदिन अपने शरीरके सब ओर बाणके बराबर बढ़ जाया करता था। वह | जले हुए पहाड़के समान काला और बड़े डील-डौलका था। उसके शरीरमेंसे सन्ध्याकालीन बादलोंके समान दीजि निकलती रहती थी ॥ 13 ॥ उसके सिरके बाल और दाढ़ी मूँछ तपे हुए तबके समान लाल रंगके तथा नेत्र दोपहर के सूर्यके समान प्रचण्ड थे ॥ 14 ॥ चमकते हुए तीन त्रिशूलको लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और | कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूलपर उसने अन्तरिक्षको उठा रखा है ।। 15 ।। वह बार-बार जँभाई लेता था। इससे जब उसका कन्दराके समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाशको पी जायगा, जीभसे सारे नक्षत्रोंको चाट जायगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ोंवाले मुँहसे तीनों लोकोंको निगल जायगा । उसके भयावने रूपको देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे ।। 16-17 ।।

परीक्षित् । स्वष्टाके तमोगुणी पुत्रने सारे लोकोंको धेर लिया था। इसीसे उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुषका नाम वृत्रासुर पड़ा ॥ 18 ॥ बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुपायियोंके सहित एक साथ ही उसपर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रोंको निगल गया ॥ 19 ॥ अब तो देवताओंके आश्चर्यकी सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाम चित्तसे अपने हृदयमें विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायणकी शरणमें गये ॥ 20 ॥

देवताओंने भगवान से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी ये पांचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस कालसे डरकर उसे पूजा सामग्रीकी भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान्से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं ॥ 21 ॥ प्रभो ! आपके लिये कोई नयी बात न होनेके कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे हीसर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरेकी शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्तेकी पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है॥ 22 ॥ वैवस्वत मनु पिछले कल्पके अन्तमें जिनके विशाल सींगमें पृथ्वीरूप नौकाको बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन सङ्कटसे बच गये, वे ही मत्स्यभगवान् हम शरणागतोंको वृत्रासुरके द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भयसे अवश्य बचायेंगे ।। 23 ।। प्राचीन कालमें प्रचण्ड पवनके थपेड़ोंसे उठी हुई उत्ताल तरङ्गोंकी गर्जनाके कारण ब्रह्माजी भगवान्के नाभिकमलसे अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जलमें गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि जिनकी कृपासे वे उस विपत्तिसे बच सके, वे ही भगवान् हमें इस सङ्कटसे पार करें ।। 24 ।। उन्हीं प्रभुने अद्वितीय होनेपर भी अपनी मायासे हमारी रचना की और उन्होंके अनुग्रहसे हमलोग सृष्टिकार्यका सञ्चालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकारकी चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि ‘हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’ – अपने इस अभिमानके कारण हमलोग उनके स्वरूपको देख नहीं पाते ।। 25 ।। वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओंसे बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तवमें निर्विकार रहनेपर भी अपनी मायाका आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों अवतार लेते है, तथा युग-युगमें हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं ॥ 26 ॥ वे ही सबके आत्मा और परमाराध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूपसे विवके कारण है। वे विश्व पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरिकी शरण ग्रहण करते हैं। उदारशिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओंका कल्याण करेंगे ।। 27 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-महाराज! जब देवताओंने इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति की, तब स्वयं शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिमकी ओर (अन्तर्देशमें) प्रकट हुए ॥ 28 ॥भगवान के नेत्र शरत्कालीन कमलके समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवामें लगे हुए थे। वे देखनेमें सब प्रकारसे भगवान्‌के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न और गलेमें कौस्तुभमणि नहीं थी ॥ 29 ॥ परीक्षित् । भगवान्क दर्शन पाकर सभी देवता आनन्दसे विह्वल हो गये। उन लोगोंने धरतीपर लोटकर साष्टाङ्ग दण्डवत् किया और फिर ‘धीरे-धीरे उठकर वे भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ 30 ॥

देवताओंने कहा- भगवन्! यज्ञमें स्वर्गादि देनेकी शक्ति तथा उनके फलकी सीमा निश्चित करनेवाले काल भी आप ही हैं। यज्ञमें विघ्न डालनेवाले दैत्योंको आप चक्रसे छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामोकी कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ 31 ॥ विधातः ! सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणोंके अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही है। आपके परमपदका वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत्का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता ॥ 32 ॥

भगवन्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत्के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परम मङ्गलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परम दयालु हैं। आप ही सारे जगत्के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत्के स्वामी है। आप सर्वेश्वर है तथा सौन्दर्य और मृदुलताकी अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मीके परम पति है। प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परम समाधिसे भलीभांति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदयमें परमहंसो के धर्म वास्तविक भगवद्भजनका उदय होता है। इससे उनके हृदयके अज्ञान किवाड़ खुल जाते हैं और उनके आत्मलोकमें आप आत्मानन्दके रूपमें बिना किसी आवरणके प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ 33 ॥ भगवन्! आपकी लीलाका रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीरके, हमलोगोंके सहयोगकी अपेक्षा न करके निर्गुण और निर्विकार होनेपर भी स्वयं ही इस सगुण जगत्की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं ॥ 34 ॥ भगवन् ! हमलोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्ममे आप देवदत्त आदि किसी व्यक्तिके समान गुणोंके कार्यरूप इसजगत्मे जीवरूपसे प्रकट हो जाते हैं और कमकि अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मोंका फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन—साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं ॥ 35 ॥ हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहे तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है। और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकारके विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्कपूर्ण शास्त्रोंका अध्ययन करके अपने हृदयको दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवादके लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थोंसे परे, केवल है। जब आप उसीमें अपनी मायाको छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती ? इसलिये आप साधारण पुरुषोंके समान कर्ता भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषोंके समान उदासीन भी इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व भोक्तृत्व है और न तो उदासीनता ही आप तो दोनोंसे विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं ॥ 36 ॥ जैसे एक ही रस्सीका टुकड़ा भ्रान्त पुरुषोंको | सर्प, माला, धारा आदिके रूपमें प्रतीत होता है, किन्तु जानकारको रस्सीके रूपमें वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धिवालको कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपोंमें दीखते हैं और ज्ञानीको शुद्ध सच्चिदानन्दके रूपमें। आप सभीकी बुद्धिका अनुसरण करते हैं॥ 37 ॥ विचारपूर्वक देखनेसे मालूम होता है कि आप हो समस्त वस्तुओंमें वस्तुत्वके रूपसे विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत्‌के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदिके भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा है इसलिये जगत्‌में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही सङ्केत करती हैं और श्रुतियोंने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्तमें निषेध की अवधिके | रूपमें केवल आपको ही शेष रखा है ॥ 38 ॥ मधुसूदन ! आपकी अमृतमयी महिमा रसका अनन्त समुद्र है। उसके नन्हे से सीकरका भी, अधिक नहीं—एक बार भी स्वाद चख लेनेसे हृदयमें नित्य निरन्तर परमानन्दकी धारा बहने लगती है। उसके कारण अबतक जगत्‌मेंविषय-भोगोंके जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुखका अनुभव हुआ है या परलोक आदिके विषयमें सुना गया है, वह सब का सब जिन्होंने भुला दिया है, समस्त प्राणियोंके परम प्रियतम हितैषी, सुहद और सर्वात्मा आप ऐश्वर्य निधि परमेश्वरमें जो अपने मनको नित्य निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तनका ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्यप्रेमी परम भक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और | परमार्थमें निपुण है। मधुसूदन आपके वे प्यारे और सु भक्तजन भला, आपके चरणकमलोंका सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्करसे सदाके लिये छुटकारा मिल जाता है ॥ 39 ॥ प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगोंसे सारे जगत्‌को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकोंके सञ्चालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकीका मन हरण करनेवाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ है तथापि यह उनकी उन्नतिका समय नहीं है—यह सोचकर आप अपनी योगमायासे देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरोंके रूपमें अवतार ग्रहण करते और उनके अपराधके अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो ! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरोंके समान इस वृत्रासुरका भी नाश कर डालिये ॥ 40 ॥ भगवन् ! आप हमारे पिता, पितामह — सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलोंका ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हींके प्रेमबन्धनसे वैध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणोंसे युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है इसलिये प्रभो हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुसकान युक्त चितवनसे तथा अपने मुखारविन्दसे टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दुसे हमारे हृदयका ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तरकी जलन बुझाइये ॥ 41 ॥ प्रभो जिस प्रकार अफ्रिकी ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्निको प्रकाशित करनेमें असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ परमार्थ निवेदन करनेमें असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है ! क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और लय करनेवाली दिव्य मायाके साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवोंके अन्तःकरणमे ब्रहा और अन्तर्यामीके रूपमें विराजमान रहते है केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृतिके रूपसे आप ही विराजमान है। जगत्में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि है, उनके उपादान और प्रकाशकके रूपमें आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों के साक्षी है। आप आकाशके समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं ॥ 42 ॥ अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें—इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषासे हमलोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पत्र और जगत्‌के परमगुरु हैं। हम | आपके चरणकमलोकी छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापोंके फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसारमें भटकनेकी थकावटको मिटानेवाली है ।। 43 ।। सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण ! वृत्रासुरने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रोंको तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकोंको भी ग्रस रहा है आप उसे मार डालिये 44 ॥ प्रभो ! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्वल कीर्तिसम्पन्न है। संतलोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसारके पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरणमें आ पहुँचते हैं, तब अन्तमें आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तरके कष्टको हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं ।। 45 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जब देवताओंने बड़े आदरके साथ इस प्रकार भगवान्का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे ।। 46 ।।

श्रीभगवान् ने कहा— श्रेष्ठ देवताओ तुमलोगोने स्तुतियुक्त ज्ञानसे मेरी उपासना की है, इससे मैं तुमलोगों पर प्रसन्न हूँ। इस स्तुतिके द्वारा जीवोंको अपने वास्तविक स्वरूपकी स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है ॥ 47 ॥ देवशिरोमणियो ! मेरे प्रसन्न हो जानेपर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्यप्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते ।। 48 ।। जो पुरुष जगत्के विषयोंको सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याणको नहीं जानता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो यह भी | वैसा ही नासमझ है ॥ 49 ॥ जो पुरुष मुक्तिका स्वरूप जानता है, वह अज्ञानीको भी कमोंगे फँसनेका उपदेश नहीं देता जैसे रोगी के चाहते रहनेपर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता ॥ 50 ॥ देवराज इन्द्र । तुमलोगोका कल्याण हो ।अब देर मत करो। ऋषिशिरोमणि दधीचिके पास जाओ और उनसे उनका शरीर जो उपासना, व्रत तथा तपस्याके कारण अत्यन्त दृढ़ हो गया है— माँग लो ॥ 51 ॥ दधीचि ऋषिको शुद्ध ब्रह्मका ज्ञान है। अश्विनीकुमारोंको घोड़ेके सिरसे उपदेश करनेके कारण उनका एक नाम ‘अश्वशिर’ भी है। उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्याके प्रभावसे ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये ॥ 52 ॥ अथर्ववेदी दधीचि ऋषिने ही पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायणकवचका त्वष्टाको उपदेश किया था। त्वष्टाने वही विश्वरूपको दिया और विश्वरूपसे तुम्हें मिला ॥ 53 ॥ | दधीचि ऋषि धर्मके परम मर्मज्ञ हैं। वे तुमलोगोंको, अश्विनीकुमारके माँगनेपर, अपने शरीरके अङ्ग अवश्य दे देंगे। इसके बाद विश्वकर्माके द्वारा उन अङ्गोंसे एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना । देवराज! मेरी शक्तिसे युक्त | होकर तुम उसी शस्त्रके द्वारा वृत्रासुरका सिर काट लोगे ॥ 54 ॥ देवताओ ! वृत्रासुरके मर जानेपर तुम लोगोंको फिरसे तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जायँगी। तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागतोंको कोई सता नहीं सकता ॥ 55 ॥

अध्याय 10 देवताओं द्वारा दधीचि ऋषिकी अस्थियोंसे वज्र बनाना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! विश्वके जीवनदाता श्रीहरि इन्द्रको इस प्रकार आदेश देकर देवताओंके सामने वहीं के वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 1 ॥अब देवताओंने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषिके पास जाकर भगवान के आज्ञानुसार याचना की। | देवताओंकी याचना सुनकर दधीचि ऋषिको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने हँसकर देवताओंसे कहा ॥ 2 ॥ ‘देवताओ! आपलोगोंको सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियोको बड़ा कष्ट होता है। उन्हें जबतक चेत रहता है, बड़ी असहा पीड़ा सहनी पड़ती है। और अन्तमें वे मूर्छित हो जाते हैं॥ 3 ॥ जो जीव जगत्में जीवित रहना चाहते हैं, उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम एवं अभीष्ट वस्तु है। ऐसी स्थितिमें | स्वयं विष्णुभगवान् भी यदि जीवसे उसका शरीर माँगें तो कौन उसे देनेका साहस करेगा ll 4 ll

देवताओंने कहा -ब्रह्मन्! आप जैसे उदार और प्राणियोंपर दया करनेवाले महापुरुष, जिनके कर्मोंकी बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियोंकी भलाई के लिये कौन सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते ॥ 5 ॥ भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि माँगनेवाले लोग स्वार्थी होते हैं। उनमें देनेवालोंकी कठिनाईका विचार करनेकी बुद्धि नहीं होती। यदि उनमें इतनी समझ होती तो वे माँगते ही क्यों। इसी प्रकार दाता भी माँगनेवालेकी विपत्ति नहीं जानता। अन्यथा उसके मुँहसे कदापि नाहीं न निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये ।) ॥ 6 ॥

दधीचि ऋषिने कहा- देवताओ! मैंने आपलोगोंके मुँहसे धर्मकी बात सुननेके लिये ही आपकी मांगके प्रति उपेक्षा दिखी थी यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीरको आप लोगों के लिये अभी छोड़े देता हूँ। क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़नेवाला है ॥ 7 ॥ देवशिरोमणियो जो मनुष्य इस विनाशी शरीरसे दुःखी प्राणियोंपर दया करके मुख्यतः धर्म और गौणतः यशका सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधोंसे भी गया-बीता है ॥ 8 ॥ बड़े-बड़े महात्माओंने इस अविनाशी धर्मको उपासना की है। उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणीके दुःखमे दुःखका अनुभव करे और सुखमे सुखका ॥ 9 ॥ जगत्के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षणभर हैं। ये अपने किसी काम नहीं आते, अन्तमें दूसरोंके ही काम आयेंगे। ओह! यह कैसी कृपणता है, कितने दुःखकी बात है कि यह मरणधर्मामनुष्य इनके द्वारा दूसरोंका उपकार नहीं कर लेता ॥ 10 ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्। अथर्ववेदी महर्षि दधीचिने ऐसा निश्चय करके अपनेको परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान्में लीन करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया ।। 99 ।। उनके इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि संवत थे, दृष्टि तत्त्वमयी थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे। अतः जब वे भगवान् से अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बातका पता ही न चला कि मेरा शरीर छूट गया ।। 12 ।।

भगवान्की शक्ति पाकर इन्द्रका बल-पौरुष उन्नतिकी सीमापर पहुँच गया। अब विश्वकर्माजीने दधीचि ऋषिकी हड्डियोंसे वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथमें लेकर ऐरावत हाथीपर सवार हुए। उनके साथ साथ सभी देवतालोग तैयार हो गये। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि | देवराज इन्द्रकी स्तुति करने लगे। अब उन्होंने त्रिलोकीको हर्षित करते हुए वृत्रासुरका वध करनेके लिये उसपर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल दिया-ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं कालपर ही आक्रमण कर रहे हो। परीक्षित् । वृत्रासुर भी दैत्य सेनापतियोंकी बहुत ! बड़ी सेनाके साथ मोर्चेपर डटा हुआ था 13 – 15॥ जो वैवस्वत मन्वन्तर इस समय चल रहा है, इसकी पहली चतुर्युगीका त्रेतायुग अभी आरम्भ ही हुआ था। उसी समय नर्मदातटपर देवताओंका दैत्योंके साथ यह भयंकर संग्राम हुआ ।। 16 ।। उस समय देवराज इन्द्र हाथमें वज्र लेकर रुद्र, वसु, आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण, अग्नि, मरुद्गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव आदिके साथ अपनी कान्तिसे शोभायमान हो रहे थे। वृत्रासुर आदि दैत्य उनको अपने सामने आया देख और भी चिढ़ गये ।। 17-18 तब नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति हेति उत्कल, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्यदानव एवं यक्ष-राक्षस स्वर्णके साज-सामानसे सुसज्जित होकर देवराज इन्द्रकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोकने लगे। परीक्षित्। उस समयदेवताओंकी सेना स्वयं मृत्युके लिये भी अजेय थी 19 – 21 वे घमंडी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानीसे देवसेनापर प्रहार करने लगे। उन लोगोंने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र शस्त्रोंकी बौछारसे देवताओंको सब ओरसे ढक दिया ।। 22-23 ।। एक पर एक इतने बाण चारों ओरसे आ रहे थे कि उनसे ढक जानेके कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे— जैसे बादलोंसे ढक जानेपर आकाशके तारे नहीं दिखायी देते ॥ 24 ॥ परीक्षित्! वह शस्त्रों और अस्त्रोंकी वर्षा देवसैनिकोको छूतक न सकी। उन्होंने अपने हस्तलाघवसे आकाशमें ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये ।। 25 । जब असुरोंके अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओंकी सेनापर पर्वतोंके शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे। परन्तु देवताओंने उन्हें पहले की ही भाँति काट गिराया ।। 26 ।।

परीक्षित् । जब के अनुयायी असुरोने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देव सेनाका कुछ न बिगाड़ सके यहाँतक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ोंके बड़े-बड़े शिखरोंसे भी उनके शरीरपर खरोंचतक नहीं आयी, सब-के-सब सकुशल हैं— तब तो वे बहुत डर गये ! दैत्यलोग देवताओंको पराजित करनेके लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब के सब निष्फल हो जाते—ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित भक्तोंपर शुद्र मनुष्यों के कठोर और अमङ्गलमय दुर्वचनोंका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।। 27-28 ॥ भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये। उनका वीरताका घमंड जाता रहा। अब वे अपने सरदार वृत्रासुरको युद्धभूमिमें ही छोड़कर भाग खड़े हुए, क्योंकि देवताओंने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था ।। 29 ।।जब धीर-वीर वृत्रासुरने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा ॥ 30 ॥ वीरशिरोमणि वृत्रासुरने समयानुसार वीरोचित वाणीसे विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा- ‘असुरो ! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो ॥ 31 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक न एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा। इस जगत्में विधाताने मृत्युसे बचनेका कोई उपाय नहीं बताया है। ऐसी स्थितिमें यदि मृत्युके द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उस उत्तम मृत्युको न अपनायेगा || 32 || संसारमें दो प्रकारकी मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है—एक तो योगी पुरुषका अपने प्राणोंको वशमें करके ब्रह्मचिन्तनके द्वारा शरीरका परित्याग और दूसरा युद्धभूमिमें सेनाके आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुमलोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो ) ‘ ॥ 33 ॥

अध्याय 11 वृत्रासुरकी वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! असुरसेना भयभीत होकर भाग रही थी। उसके सैनिक इतने अचेत हो रहे थे कि उन्होंने अपने स्वामीके धर्मानुकूल वचनोंपर भी ध्यान न दिया ॥ 1 ॥ वृत्रासुरने देखा कि समयकी अनुकूलताके कारण देवतालोग असुरोंकी सेनाको खदेड़ रहे हैं और वह इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो रही है, मानो बिना नायककी हो ॥ 2 ॥राजन्! यह देखकर वृत्रासुर असहिष्णुता और क्रोधके मारे तिलमिला उठा। उसने बलपूर्वक देवसेनाको आगे बढ़ने से रोक दिया और उन्हें डाँटकर ललकारते हुए कहा ॥ 3 ॥ क्षुद्र देवताओ! रणभूमिमे पीठ दिखानेवाले कायर असुरोंपर पीछेसे प्रहार करनेमें क्या लाभ है। ये लोग तो अपने मा बापके मल-मूत्र हैं। परन्तु अपनेको शूरवीर माननेवाले तुम्हारे जैसे पुरुषोंके लिये भी तो डरपोकोंको मारना कोई प्रशंसाकी बात नहीं है और न इससे तुम्हें स्वर्ग ही मिल सकता है ॥ 4 ॥ यदि तुम्हारे मनमें युद्ध करने की शक्ति और उत्साह है तथा अब जीवित रहकर विषय-सुख भोगनेकी लालसा नहीं है, तो क्षणभर मेरे सामने डट जाओ और युद्धका मजा चख लो’ ॥ 5 ॥

परीक्षित् वृत्रासुर बड़ा बली था। वह अपने डील-डौलसे ही शत्रु देवताओंको भयभीत करने लगा। उसने क्रोधमें भरकर इतने जोरका सिंहनाद किया कि बहुत से लोग तो उसे सुनकर ही अचेत हो गये।। 6 ।। वृत्रासुरकी भयानक गर्जनासे सब-के-सब | देवता मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े, मानो उनपर बिजली गिर गयी हो ॥ 7 ॥ अब जैसे मदोन्मत्त गजराज नरकटका वन रौंद डालता है, वैसे ही रणबांकुरा वृत्रासुर हाथमें त्रिशूल लेकर भयसे नेत्र बंद किये पड़ी हुई देवसेनाको पैसे कुचलने लगा। उसके वेगसे धरती डगमगाने लगी ॥ 8 ॥ वज्रपाणि देवराज इन्द्र उसकी यह करतूत सह न सके। जब वह उनकी ओर झपटा, तब उन्होंने और भी चिढ़कर अपने शत्रुपर एक बहुत बड़ी गदा चलायी। अभी वह असहा गदा वृत्रासुरके पास पहुँची भी न थी कि उसने खेल-ही खेलमें बायें हाथसे उसे पकड़ लिया ॥ 9 ॥ राजन् ! परम पराक्रमी वृत्रासुरने क्रोधसे आग-बबूला होकर उसी गदासे इन्द्रके वाहन ऐरावतके सिरपर बड़े जोरसे गरजते हुए प्रहार किया। उसके इस कार्यकी सभी लोग बड़ी प्रशंसा करने लगे ॥ 10 ॥ वृत्रासुरकी गदाके आघातसे ऐरावत हाथी वज्राहत पर्वतके समान तिलमिला उठा ।सिर फट जाने से वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और खून | उगलता हुआ इन्द्रको लिये हुए ही अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया ॥ 11 ॥ देवराज इन्द्र अपने वाहन ऐरावतके मूर्च्छित हो जानेसे स्वयं भी विषादग्रस्त हो गये। यह देखकर युद्धधर्मके मर्मज्ञ वृत्रासुरने उनके ऊपर फिरसे गदा नहीं चलायी। तबतक इन्द्रने अपने अमृतस्त्रावी हाथके स्पर्शसे घायल ऐरावतकी व्यथा मिटा दी और वे फिर रणभूमिमें आ डटे ॥ 12 ॥ परीक्षित्! जब वृत्रासुरने देखा कि मेरे भाई विश्वरूपका वध करनेवाला शत्रु इन्द्र युद्धके लिये हाथ बज्र लेकर फिर सामने आ गया है, तब उसे उनके उस क्रूर पापकर्मका स्मरण हो आया और वह शोक और मोहसे युक्त हो हँसता हुआ उनसे कहने लगा ॥ 13 ॥

वृत्रासुर बोला- आज मेरे लिये बड़े सौभाग्यका दिन है कि तुम्हारे जैसा शत्रु – जिसने विश्वरूपके रूपमें ब्राह्मण, अपने गुरु एवं मेरे भाईकी हत्या की है— मेरे सामने खड़ा है। अरे दुष्ट ! अब शीघ्र से शीघ्र मैं तेरे पत्थरके समान कठोर हृदयको अपने शूलसे विदीर्ण करके भाईसे उऋण होऊँगा। अहा! यह मेरे लिये कैसे आनन्दकी बात होगी ।। 14 । इन्द्र तूने मेरे आत्मवेत्ता और निष्पाप बड़े भाईके, जो ब्राह्मण होनेके साथ ही यज्ञमें दीक्षित और तुम्हारा गुरु था, विश्वास दिलाकर तलबारसे तीनों सिर उतार लिये-ठीक वैसे ही जैसे स्वर्गकामी निर्दय मनुष्य यज्ञमें पशुका सिर काट डालता है ॥ 15 ॥ दया, लज्जा, लक्ष्मी और कीर्ति तुझे छोड़ चुकी है। तूने ऐसे-ऐसे नीच कर्म किये हैं, जिनकी निन्दा मनुष्योंकी तो बात ही क्या राक्षसतक करते हैं। आज मेरे त्रिशूलसे तेरा शरीर टूक-टूक हो जायगा। बड़े कष्टसे तेरी मृत्यु होगी। तेरे-जैसे पापीको आग भी नहीं जलायेगी, तुझे तो गीध नोच-नोचकर खायेंगे ।। 16 ।। ये अज्ञानी देवता तेरे-जैसे नीच और क्रूरके अनुयायी बनकर मुझपर शस्त्रोंसे प्रहार कर रहे हैं। मैं अपने तीखे त्रिशूलसे उनकी गरदन काट डालूँगा और उनके द्वारा गणोंके सहित भैरवादि भूतनाथोंको बलि चढ़ाऊँगा ।। 17 ।।वीर इन्द्र यह भी सम्भव है कि मेरी सेनाको छिन्न-भिन्न करके अपने वज्रसे मेरा सिर काट ले। तब तो मैं अपने शरीरकी बलि पशु-पक्षियोंको समर्पित करके, कर्म-बन्धनसे मुक्त हो महापुरुषोंकी चरण-रजका आश्रय ग्रहण करूँगा — जिस लोकमें महापुरुष जाते हैं, वहाँ पहुँच जाऊँगा ॥ 18 ॥ देवराज मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तेरा शत्रु हूँ, अब तू मुझपर अपना अमोघ वज्र क्यों नहीं छोड़ता ? तू यह सन्देह न कर कि जैसे तेरी गदा निष्फल हो गयी, कृषण पुरुषसे की हुई याचनाके समान यह वज्र भी वैसे ही निष्फल हो जायगा ।। 19 ।। इन्द्र ! तेरा यह वज्र श्रीहरिके तेज और दधीचि ऋषिकी तपस्यासे शक्तिमान् हो रहा है। विष्णुभगवान्ने मुझे मारनेके लिये तुझे आज्ञा भी दी है। इसलिये अब तू उसी वज्रसे मुझे मार डाल। क्योंकि जिस पक्षमें भगवान् श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं ॥ 20 ॥ देवराज ! भगवान् सङ्कर्षणके आज्ञानुसार मैं अपने मनको उनके चरणकमलोंमें लीन कर दूंगा। तेरे वज्रका वेग मुझे नहीं, मेरे विषय-भोगरूप फंदेको काट डालेगा और मैं शरीर त्यागकर मुनिजनोचित गति प्राप्त करूँगा ॥ 21 ॥ जो पुरुष भगवान् से अनन्य प्रेम करते हैं—उनके निजजन हैं उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातलकी सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्दकी उपलब्धि तो होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हाथ लगते हैं ॥ 22 ॥ इन्द्र ! हमारे स्वामी अपने भक्त अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी प्रयासको व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसीसे भगवान्की कृपाका अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा प्रसाद अकिञ्चन भक्तोंके लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरोंके लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है ।। 23 ।।

(भगवान्को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुरने प्रार्थना की) ‘प्रभो आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्यभावसे आपके चरणकमलोंके आश्रित सेवकोंकी सेवा करनेका अवसर मुझे अगले जन्ममें भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ । मेरा मन आपके मङ्गलमय गुणोंका स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हींका गान करे और शरीर आपकी सेवामें ही संलग्न रहे ॥ 24सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डलका साम्राज्य, रसातलका एकच्छत्र राज्य, योगकी सिद्धियाँ—यहाँतक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ॥ 25 ॥ जैसे पक्षियोंके पंखहीन बच्चे अपनी माकी बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतमसे मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती है— वैसे ही कमलनयन ! मेरा मन आपके | दर्शनके लिये छटपटा रहा है ॥ 26 ॥ प्रभो ! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मोंके फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनिमें जन्म, वहाँ-वहाँ भगवान्‌के प्यारे भक्तजनोंसे मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे। स्वामिन् ! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी मायासे देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदिमें आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकारका भी सम्बन्ध न हो’ ॥ 27 ॥

अध्याय 12 वृत्रासुरका वध

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- राजन् ! वृत्रासुर रणभूमिमें अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचारसे इन्द्रपर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पानेकी अपेक्षा मरकर भगवान्‌को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जलमें कैटभासुर भगवान् विष्णुपर चोट करनेके लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्रपर टूट पड़ा ॥ 1 ॥ वीर वृत्रासुरने प्रलयकालीन अग्निकी लपटोंके समान तीखी नोकोंवाले त्रिशूलको घुमाकर बड़े वेगसे इन्द्रपर चलाया और अत्यन्त क्रोधसे सिंहनाद करके बोला- ‘पापी इन्द्र ! अब तू बच नहीं सकता’ ॥ 2 ॥इन्द्रने यह देखकर कि वह भयङ्कर त्रिशूल ग्रह और | उल्काके समान चक्कर काटता हुआ आकाशमें आ रहा है, किसी प्रकारको अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूलके साथ ही वासुकि नागके समान वृत्रासुरको विशाल भुजा अपने सौ गाँठोवाले वज्रसे काट ● डाली ॥ 3 ॥ एक बाँह कट जानेपर वृत्रासुरको बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्रके पास जाकर उनकी ठोड़ी में और गजराज ऐरावतपर परिघसे ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथसे वह वज्र गिर पड़ा ॥ 4 ॥

वृत्रासुरके इस अत्यन्त अलौकिक कार्यको देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्रका सङ्कट देखकर वे ही लोग बार-बार “हाय हाय!’ कहकर चिल्लाने लगे ॥ 5 ॥ परीक्षित्! वह वज्र इन्द्रके हाथसे छूटकर वृत्रासुरके पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्रने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुरने कहा- ‘इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रुको मार डालो। यह विषाद करनेका समय नहीं है ॥ 6 ॥ (देखो – ) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान् ही जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेमें समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्धके लिये उत्सुक आततायियोंको सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं ॥ 7 ॥ ये सब लोक और लोकपाल जालमें फँसे हुए पक्षियोंकी भाँति जिसकी अधीनतामें विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजयका कारण है ॥ 8 ॥ वही काल मनुष्य के मनोबल इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण, जीवन और मृत्युके रूपमें स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड़ शरीरको ही जय-पराजय आदिका कारण समझता है ॥ 9 ॥ इन्द्र ! जैसे काठकी पुतली और यन्त्रका हरिण नचानेवालेके हाथमें होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियोंको भगवानके अधीन समझो ॥ 10 ॥भगवान् के कृपा प्रसादके बिना पुरुष, प्रकृति, महत्त्व, अहङ्कार, पञ्चभूत, इन्द्रियों और अन्तःकरणचतुष्टय-ये कोई भी इस विश्वको उत्पत्ति आदि करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ॥ 11 ॥ जिसे इस बातका पता नहीं है कि ‘भगवान् ही सबका नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीवको स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुतः स्वयं भगवान् ही प्राणियोंके द्वारा प्राणियोंकी रचना और उन्होंके द्वारा उनका संहार करते हैं ।। 12 ।। जिस प्रकार इच्छा न होनेपर भी समय विपरीत होनेसे मनुष्यको मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैं—वैसे ही समयकी अनुकूलता होनेपर इच्छा न होनेपर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं ॥ 13 ॥ इसलिये यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण इनमें से किसी एक्की इच्छा-अनिच्छा न रखकर सभी परिस्थितियोंमें समभावसे रहना चाहिये-हर्ष- शोकके वशीभूत नहीं होना चाहिये ॥ 14 ॥ सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृतिके हैं, आत्माके नहीं; अतः जो पुरुष आत्माको उनका साक्षीमात्र जानता है, वह उनके गुण-दोषसे लिए नहीं होता ।। 15 ।। देवराज इन्द्र ! मुझे भी तो देखो; तुमने मेरा हाथ और शस्त्र काटकर एक प्रकारसे मुझे परास्त कर दिया है, फिर भी मैं तुम्हारे प्राण | लेनेके लिये यथाशक्ति प्रयत्न कर ही रहा हूँ ॥ 16 ॥ यह युद्ध क्या है, एक जूएका खेल। इसमें प्राणकी बाजी लगती है, बाणोंके पासे डाले जाते हैं और वाहन ही चौसर है। इसमें पहलेसे यह बात नहीं मालूम होती कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा ॥ 17 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! वृत्रासुरके ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्रने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद बिना किसी प्रकारका आश्चर्य किये मुसकराते हुए वे कहने लगे ॥ 18 ॥

देवराज इन्द्रने कहा- अहो दानवराज! सचमुच तुम | सिद्ध पुरुष हो। तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव | इतना विलक्षण है। तुमने समस्त प्राणियों के सुहृद् आत्मस्वरूप जगदीश्वरकी अनन्य भावसे भक्ति की है ॥ 19 ॥अवश्य ही तुम लोगोंको मोहित करनेवाली भगवान्की मायाको पार कर गये हो। तभी तो तुम असुरोचित भाव छोड़कर महापुरुष हो गये हो ॥ 20 ॥ अवश्य ही यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि तुम रजोगुणी प्रकृतिके हो तो भी विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान् वासुदेवमे तुम्हारी बुद्धि दृढ़तासे लगी हुई है ॥ 21 ॥ जो परम कल्याणके स्वामी भगवान् श्रीहरिके चरणोंमें प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत्के भोगोंकी क्या आवश्यकता है। जो अमृतके समुद्रमें विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढोंके जलसे प्रयोजन ही क्या हो सकता है ।। 22 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! इस प्रकार योद्धाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी देवराज इन्द्र और वृत्रासुर धर्मका तत्त्व जाननेकी अभिलाषासे एक-दूसरेके साथ बातचीत करते हुए आपसमें युद्ध करने लगे ॥ 23 ॥ राजन् ! अब शत्रुसूदन वृत्रासुरने बायें हाथसे फौलादका बना हुआ एक बहुत भयावना परिष उठाकर आकाशमें घुमाया और उससे इन्द्रपर प्रहार किया ।। 24 ।। किन्तु देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वह परिघ तथा हाथीकी सूँडके समान लंबी भुजा अपने सौ गाँठोंवाले वज्रसे एक साथ ही काट गिरायी ॥ 25 ॥ जड़से दोनों भुजाओंके कट जानेपर वृत्रासुरके बायें और दायें दोनों कंधोंसे खूनको धारा बहने लगी। उस समय वह ऐसा जान पड़ा, मानो इन्द्रके वज्रकी चोटसे पंख कट जानेपर कोई पर्वत ही आकाशसे गिरा हो ।। 26 । अब पैरोंसे चलने-फिरनेवाले पर्वतराजके समान अत्यन्त दीर्घकाय वृत्रासुरने अपनी ठोड़ीको धरतीसे और ऊपरके होठको स्वर्गसे लगाया तथा आकाशके समान गहरे मुँह, साँपके समान भयावनी जीभ एवं मृत्युके समान कराल दाढ़ोंसे मानो त्रिलोकीको निगलता, अपने पैरोकी चोटसे पृथ्वीको रौंदता और प्रबल वेगसे पर्वतों को उलटता पलटता वह इन्द्रके पास आया और उन्हें उनके वाहन ऐरावत हाथीके सहित इस प्रकार लील गया, जैसे कोई परम पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् अजगर हाथीको निगल जाय। प्रजापतियों और महर्षियोंके साथ | देवताओंने जब देखा कि वृत्रासुर इन्द्रको निगल गया,तब तो वे अत्यन्त दुःखी हो गये तथा ‘हाय-हाय ! बड़ा अनर्थ हो गया।’ यों कहकर विलाप करने लगे ॥ 27 – 30 ॥ बल दैत्यका संहार करनेवाले देवराज इन्द्रने महापुरुष-विद्या (नारायणकवच) से अपनेको सुरक्षित कर रखा था और उनके पास योगमायाका बल था ही। इसलिये वृत्रासुरके निगल लेनेपर—उसके पेटमें पहुँचकर भी वे मरे नहीं ॥ 31 ॥ उन्होंने अपने वज्रसे | उसकी कोख फाड़ डाली और उसके पेटसे निकलकर बड़े वेगसे उसका पर्वत-शिखरके समान उँचा सिर काट डाला ॥ 32 ॥ सूर्यादि ग्रहोंकी उत्तरायण दक्षिणायनरूप गतिमें जितना समय लगता है, उतने दिनोंमें अर्थात् एक वर्षमें वृत्रवधका योग उपस्थित होनेपर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्रने उसकी गरदनको सब ओरसे काटकर भूमिपर गिरा दिया ॥ 33 ॥

उस समय आकाशमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं । महर्षियोंके साथ गन्धर्व, सिद्ध आदि वृत्रघाती इन्द्रका पराक्रम सूचित करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करके बड़े आनन्दके साथ उनपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ 34 ॥ शत्रुदमन परीक्षित् ! उस समय वृत्रासुरके शरीरसे उसकी आत्मज्योति बाहर निकली और इन्द्र आदि सब लोगोंके देखते-देखते सर्वलोकातीत भगवान्‌के स्वरूपमें लीन हो गयी ।। 35 ।।

अध्याय 13 इन्द्रपर ब्रह्महत्याका आक्रमण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— महादानी परीक्षित्! वृत्रासुरकी मृत्युसे इन्द्रके अतिरिक्त तीनों लोक और लोकपाल तत्क्षण परम प्रसन्न हो गये। उनका भय, उनकी चिन्ता जाती रही ॥ 1 ॥युद्ध समाप्त होनेपर देवता, ऋषि, पितर, भूत, दैत्य और देवताओंके अनुचर गन्धर्व आदि इन्द्रसे बिना पूछे ही अपने-अपने लोकको लौट गये। इसके पश्चात् ब्रह्मा शङ्कर और इन्द्र आदि भी चले गये ॥ 2 ॥

राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! मैं देवराज इन्द्रकी अप्रसन्नताका कारण सुनना चाहता हूँ। जब | वृत्रासुरके वघसे सभी देवता सुखी हुए, तब इन्द्रको दुःख होनेका क्या कारण था ? ॥ 3 ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! जब वृत्रासुरके पराक्रमसे सभी देवता और ऋषि महर्षि अत्यन्त भयभीत हो गये, तब उन लोगोंने उसके वधके लिये | इन्द्रसे प्रार्थना की; परन्तु वे ब्रह्महत्याके भयसे उसे मारना नहीं चाहते थे ॥ 4 ॥

देवराज इन्द्रने उन लोगोसे कहा- देवताओ और ऋषियो मुझे विश्वरूपके से जो ब्रह्महत्या लगी थी, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षोंने कृपा करके बाँट लिया। अब यदि मैं वृत्रका वध करूँ तो उसकी हत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा ? ॥ 5 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—देवराज इन्द्रकी बात सुनकर ऋषियोंने उनसे कहा— ‘देवराज! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो। क्योंकि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापोंसे मुक्त कर देंगे || 6 || अश्वमेध यज्ञके द्वारा सबके अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् परमात्मा नारायणदेवकी आराधना करके तुम सम्पूर्ण जगत्का वध करनेके पापसे भी मुक्त हो सकोगे; फिर वृत्रासुरके वधकी तो बात ही क्या है ॥ 7 ॥ देवराज भगवान् के नाम कीर्तनमात्र से ही ब्राह्मण, पिता, गौ, माता, आचार्य आदिकी हत्या करनेवाले महापापी, | कुत्तेका मांस खानेवाले चाण्डाल और कसाई भी शुद्ध हो जाते हैं ॥ 8 ॥ हमलोग ‘अश्वमेध’ नामक महायज्ञका अनुष्ठान करेंगे। उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान् कीआराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत्की | हत्याके भी पापसे लिप्त नहीं होगे। फिर इस दुष्टको दण्ड देनेके पापसे छूटनेकी तो बात ही क्या है ॥ 9 ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् इस प्रकार ब्राह्मणोंसे प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्रने वृत्रासुरका वध किया था। अब उसके मारे जानेपर ब्रह्महत्या इन्द्रके पास आयी ॥ 10 ॥ उसके कारण इन्द्रको बड़ा फ्रेश, बड़ी जलन सहनी पड़ी। उन्हें एक क्षणके लिये भी चैन नहीं पड़ता था। सच है, जब किसी सङ्कोची सज्जनपर कलङ्क लग जाता है, तब उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी नहीं कर पाते ।। 11 ।। देवराज इन्द्रने देखा कि ब्रह्महत्या साक्षात् चाण्डालीके समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही है। बुढ़ापेके कारण उसके सारे अङ्ग काँप रहे हैं और क्षयरोग उसे सता रहा है। उसके सारे वस्त्र खूनसे लथपथ हो रहे हैं ॥ 12 ॥ वह अपने सफेद-सफेद बालोंको बिखेरे ‘ठहर जा! ठहर जा !!’ इस प्रकार चिल्लाती आ रही है। उसके श्वासके साथ मछलीकी-सी दुर्गंध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा है ।। 13 ।। राजन् ! देवराज इन्द्र उसके भयसे दिशाओं और आकाशमे भागते फिरे। अन्तमें कहीं भी शरण न मिलनेके कारण उन्होंने पूर्व और उत्तरके कोनेमें स्थित मानसरोवर में शीघ्रता से प्रवेश किया ।। 14 ।। देवराज इन्द्र मानसरोवरके कमलनालके तन्तुओंमें एक हजार वर्षोंतक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्यासे मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनोंतक उन्हें भोजनके लिये किसी प्रकारकी सामग्री न मिल सकी। क्योंकि वे अग्निदेवताके मुखसे भोजन करते हैं और अग्निदेवता जलके भीतर कमलतन्तुओंमें जा नहीं सकते थे ॥ 15 ॥ जबतक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओंमें रहे, तबतक अपनी विद्या, तपस्या और योगबलके प्रभावसे राजा नहुष स्वर्गका शासन करते रहे। परन्तु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐ मदसे अंधे होकर इन्द्रपली शचीके साथ अनाचार करना चाहा, तब शचीने उनसे ऋषियोंका अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दिया—जिससे वे साँप हो गये ।। 16 ।। तदनन्तर जब सत्यके परम पोषक भगवान् का ध्यान करनेसे इन्द्रके पाप नष्टप्राय हो गये, | तब ब्राह्मणोंके बुलवाने पर वे पुनः स्वर्गलोकमें गये।कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी इन्द्रकी रक्षा कर रही थीं और पूर्वोत्तर दिशाके अधिपति रुद्रने पापको पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्रपर आक्रमण नहीं कर सका ।। 17 ॥

परीक्षित् । इन्द्रके स्वर्गमें आ जानेपर ब्रह्मर्षियोंने वहाँ आकर भगवान्की आराधनाके लिये इन्द्रको अश्वमेध यज्ञकी दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया ॥ 18 ॥ जब वेदवादी ऋषियोंने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्रने उस यज्ञके द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान्‌की आराधना की, तब भगवान्‌की आराधनाके प्रभावसे वृत्रासुरके वधकी वह बहुत बड़ी पापराशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदयसे कुहरेका नाश हो जाता है 19-20 ॥ जब मरीचि आदि मुनीश्वरोने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान्की आराधना करके इन्द्र सब पापोंसे छूट गये और पूर्ववत् फिर पूजनीय हो गये ॥ 21 ॥

परीक्षित् इस श्रेष्ठ आख्यानमें इन्द्रकी विजय, उनकी पापोंसे मुक्ति और भगवान्‌के प्यारे भक्त वृत्रासुरका वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान् के अनुग्रह आदि गुणोंका सङ्कीर्तन है। यह सारे पापोंको धो बहाता है और भक्तिको बढ़ाता है ।। 22 ।। बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि वे इस इन्द्रसम्बन्धी आख्यानको सदा-सर्वदा पढ़े और सुने। विशेषतः पर्वोंकि अवसरपर तो अवश्य ही इसका सेवन करें। यह धन और यशको बढ़ाता है, सारे पापोंसे छुड़ाता है, शुत्रुपर विजय प्राप्त कराता है, तथा आयु और मङ्गलकी अभिवृद्धि करता है ।। 23 ।।

अध्याय 14 वृत्रासुरका पूर्वचरित्र

राजा परीक्षित्ने कहा – भगवन् ! वृत्रासुरका स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओंको कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थितिमें भगवान् नारायणके चरणोंमें उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? ॥ 1 ॥ हम देखते हैं कि प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान्‌की परम प्रेममयी अनन्य भक्तिसे वञ्चित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान्की भक्ति बड़ी दुर्लभ है ॥ 2 ॥ भगवन्! इस जगत्के प्राणी पृथ्वीके धूलिकणोंके समान ही असंख्य हैं। उनमेंसे कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याणकी चेष्टा करते हैं ॥ 3 ॥ ब्रह्मन् ! उनमें भी संसारसे मुक्ति चाहनेवाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारोंमें मुक्ति या | सिद्धि लाभ तो कोई सा ही कर पाता है ॥ 4 ॥ महामुने ! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषोंमें भी वैसे शान्तचित्त महापुरुषका मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो ॥ 5 ॥

ऐसी अवस्थामें वह वृत्रासुर, जो सब लोगोंको सताता था और बड़ा पापी था, उस भयङ्कर युद्धके अवसरपर भगवान् श्रीकृष्णमें अपनी वृत्तियोंको इस प्रकार दृढ़तासे लगा सका — इसका क्या कारण है ? ॥ 6 ॥ प्रभो ! इस विषय में हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुननेका बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुरका बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमिमें देवराज इन्द्रको भी सन्तुष्ट कर दिया ॥ 7 ॥

सूतजी कहते हैं. शौनकादि ऋषियो ! भगवान् शुकदेवजीने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित्‌का यह श्रेष्ठ |प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ॥ 8 ॥श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित्! तुम सावधान
होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यासजी देवर्षि नारद और महादेवलके मुँह भी विधिपूर्वक सुना है ॥ 9 ॥ प्राचीन कालकी बात है, शूरसेन देशमें चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्यमें पृथ्वी स्वयं ही प्रजाकी इच्छा अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी ॥ 10 ॥ उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करनेमें समर्थ भी थे। परन्तु उन्हें उनमेंसे किसीके भी गर्मसे कोई सन्तान न हुई ॥ 11 ॥ यों महाराज चित्रकेतुको किसी बातकी कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणोंसे वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी ॥ 12 ॥ वे सारी पृथ्वीके एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वशमें थी। सब प्रकारको सम्पत्तियाँ उनकी सेवामें उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं ॥ 13 ॥ एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अङ्गिरा ऋषि स्वच्छन्दरूपसे विभिन्न लोकोंमें विचरते हुए राजा चित्रकेतुके महलमें पहुँच गये 14 ॥ राजाने प्रत्युत्थान और अर्घ्य आदिसे | उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य सत्कार हो जानेके बाद जब अङ्गिरा ऋषि सुखपूर्वक आसनपर विराज गये, तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभावसे उनके पास ही बैठ गये ।। 15 ।। महाराज महर्षि अङ्गिराने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वीपर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतुको सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही ।। 16 ।।

अङ्गिरा ऋषिने कहा- राजन् ! तुम अपनी प्रकृतियों—गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्रके साथ सकुशल तो हो न ? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणोंसे घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियोंसे घिरा रहता है। उनके कुशलसे हो राजाकी कुशल है 17 ॥ नरेन्द्र जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियोंके अनुकूल रहनेपर ही राज्यसुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियां भी अपनी रक्षाका भार राजापर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर | सकती है ।। 18 ।।राजन् तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मत्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वशमें तो हैं न ? ॥ 19 ॥ सी बात तो यह है कि जिसका मन अपने वशमें है, उसके ये सभी वशमें होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानीसे उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं ॥ 20 ॥ परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सन्तुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँहपर किसी आन्तरिक चिन्ताके चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोषका कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो ? ॥ 21 ॥ परीक्षित् | महर्षि अङ्गिरा यह जानते थे कि राजाके मनमें किस बातकी चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ताके सम्बन्धमें अनेको प्रश्न पूछे चित्रकेतुको सन्तानकी कामना थी। अतः महर्षिक पूछनेपर उन्होंने विनयसे झुककर निवेदन किया ।। 22 ।।

सम्राट् चित्रकेतुने कहा- भगवन्! जिन योगियोंके तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं— उनके लिये प्राणियोंके बाहर या भीतरकी ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों | 23 | ऐसा होनेपर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर | मुझसे मेरे मनकी चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणासे अपनी चिन्ता आपके चरणोंमें निवेदन करता हूँ ॥ 24 ॥ मुझे पृथ्वीका साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। | परन्तु सन्तान न होनेके कारण मुझे इन सुखभोगोंसे उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणीको अन्न-जलके सिवा दूसरे भोगोंसे 25 ॥ महाभाग्यवान् महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न | मिलने की आशङ्कासे मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोकमें प्राप्त होनेवाले घोर नरकसे उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोकके सब दुःखोंसे छुटकारा पा लूँ ॥ 26 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जब राजा चित्रकेतुने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परम कृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अङ्गिराने त्वष्टा देवताके योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया ।। 27 ।। परीक्षित् राजा चित्रकेतुकी रानियोंमें सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अङ्गने उन्हींको यज्ञका अवशेष प्रसाद दिया ॥ 28 ॥और राजा चित्रकेतुसे कहा- ‘राजन् तुम्हारी पत्नीके गर्भसे एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।’ यो कहकर अङ्गिरा ऋषि चले गये ।। 29 । उस यज्ञावशेष प्रसादके खानेसे ही महारानी कृतद्युतिने महाराज चित्रकेतुके द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृतिकाने अपने गर्भमें अग्निकुमारको धारण किया था ॥ 30 ॥ राजन् ! शूरसेन देशके राजा चित्रकेतुके तेजसे कृतद्युतिका गर्भ शुक्लपक्षके चन्द्रमाके समान दिनोंदिन क्रमशः बढ़ने लगा ॥ 31 ॥

तदनन्तर समय आनेपर महारानी कृतद्युतिके गर्भसे एक सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। उसके जन्मका समाचार पाकर शूरसेन देशकी प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई ।। 32 ।। सम्राट् चित्रकेतुके आनन्दका तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित हो, ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्रका जातकर्म संस्कार करवाया ।। 33 ।। उन्होंने उन ब्राह्मणोंको सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं ॥ 34 ॥ उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतुने पुत्रके धन, यश और आयुकी वृद्धिके लिये दूसरे लोगोंको भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दो — ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवोंका मनोरथ पूर्ण करता है ॥ 35 ॥ परीक्षित्! जैसे यदि किसी कंगालको बड़ी कठिनाईसे कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाईसे प्राप्त हुए उस पुत्रमें राजर्षि चित्रकेतुका स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा 36 माता कृतद्युतिको भी अपने पुत्रपर मोहके कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियोंके मनमें पुत्रकी कामनासे और भी जलन होने लगी ।। 37 ।। प्रतिदिन बालकका लाड़-प्यार करते रहनेके कारण सम्राट् चित्रकेतुका जितना प्रेम बच्चेकी माँ कृतद्युतिमें था, उतना दूसरी रानियोंमें न रहा ।। 38 ।। इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होनेके कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतुने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः वे डाहसे अपनेको धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं ॥। 39 ।।वे आपसमें कहने लगीं—‘अरी बहिनो ! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्रवाली सौतें तो दासीके समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, यं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कारके योग्य है ॥ 40 ॥ भला, दासियोंको क्या दुःख है ? वे तो अपने स्वामीकी सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती है। परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही है और दासियोंकी दासीके समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं ॥ 41 ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौतकी गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओरसे उदासीन हो गये थे। फलतः उनके मनमें कृतद्युतिके प्रति बहुत अधिक द्वेष हो गया ॥ 42 ॥ द्वेषके कारण रानियोंकी बुद्धि मारी गयी। उनके चित्तमें क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतुका पुत्र स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने विकर नन्हेसे राजकुमारको विष दे दिया ।। 43 ।। महारानी कृतधुतिको सोतोंकी इस घोर पापमवी करतूतका कुछ भी पता न था। उन्होंने दूरसे देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महलमें इधर-उधर डोलती रहीं ॥ 44 ॥ बुद्धिमती रानीने यह देखकर कि बच्चा बहुत देरसे सो रहा है, घायसे कहा -कल्याण मेरे लालको ले आ’ ॥ 45 ॥ घायने सोते हुए बालकके पास जाकर देखा कि उसकी पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्माने भी उसके शरीरसे विदा ले ली है। यह देखते ही ‘हाय रे ! मैं मारी गयी!’ इस प्रकार कहकर वह धरतीपर गिर पड़ी ॥ 46 ॥

अपने दोनों हाथोंसे छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वरमें जोर-जोरसे रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतयुति जल्दी-जल्दी अपने पुत्रके शयनगृहमें पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् | मर गया है ! 47 ॥ तब वे अत्यन्त शोकके कारण मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उनके सिरके बाल बिखर गये और शरीरपरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये ॥ 48 तदनन्तर महारानीका रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोनेका ढोंग करने लगीं ।। 49 ।।जब राजा चित्रकेतुको पता लगा कि मेरे पुत्रकी अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेहके कारण शोकके आवेंगसे उनकी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणोंके साथ मार्गमें गिरते पड़ते मृत बालकके पास पहुँचे और मूर्छित होकर उसके पैरोंके पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओंकी अधिकतासे उनका गला रुँध गया और वे कुछ भी बोल न सके ।। 50-51 पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतुको अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हे से बच्चेको मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये 52 ॥ महारानीके नेत्रोंसे इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखोका अंजन लेकर केसर और चन्दनसे चर्चित वक्षःस्थलको भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पुत्रके लिये कुररी पक्षीके समान उच्चस्वरमें विविध प्रकारसे विलाप कर रही थीं ll 53 ll

वे कहने लगीं- ‘अरे विधाता! सचमुच तू बड़ा मूर्त है, जो अपनी सृष्टिके प्रतिकूल चेष्टा करता है। बड़े आश्चर्यकी बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायें। यदि वास्तवमें तेरे स्वभावमें ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवोंका अमर शत्रु है 54 ॥ यदि संसारमें प्राणियोके जीवन मरणका कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्धके अनुसार जन्मते मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियोंमें स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टिको बढ़ायें ? परन्तु तू इस प्रकार बच्चोंको मारकर अपने किये-करायेपर अपने हाथों पानी फेर रहा है’ ॥ 55 फिर वे अपने मृत पुत्रकी ओर देखकर कहने लगीं- ‘बेटा! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ। मुझे छोड़कर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोगमें कितने शोक सन्तप्त हो रहे हैं। बेटा! जिस घोर नरकको निःसन्तान पुरुष बड़ी कठिनाईसे पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अनायास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा ! तुम इस यमराजके साथ दूर मत जाओ। यह तो बड़ा ही निर्दयी है ।। 56 ।।मेरे प्यारे लल्ला ! ओ राजकुमार ! उठो ! बेटा ! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलनेके लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी । उठो, कुछ खा लो। और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हमलोगोंका शोक दूर | करो ॥ 57 ॥ प्यारे लाल ! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्दपर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्दभरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय ! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है। क्या सचमुच निठुर यमराज तुम्हें उस परलोकमें ले गया, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता? ॥ 58 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् ! जब सम्राट् चित्रकेतुने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पुत्रके लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब वे शोकसे अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे ॥ 59 ॥ राजा रानीके इस प्रकार विलाप करनेपर उनके अनुगामी स्त्री पुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर ही शोकसे अचेत-सा हो गया ॥ 60 ॥ राजन् ! महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारदने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोकके कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँतक कि उन्हें समझानेवाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ आये ।। 61 ।।

अध्याय 15 चित्रकेतुको अङ्गिरा और नारदजीका उपदेश

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर मुर्देके समान अपने मृत पुत्रके पास ही पड़े हुए थे। अब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद उन्हें सुन्दर-सुन्दर उक्तियोंसे समझाने लगे ॥ 1 ॥ उन्होंने कहा- राजेन्द्र ! जिसके लिये तुम इतना शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म और पहलेके जन्मोंमें तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? और अगले जन्मोंमें भी | उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा ? ॥ 2 ॥जैसे जलके वेगसे बालूके कण एक-दूसरे से जुड़ते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहमें प्राणियोंका भी मिलन और विछोह होता रहता है ॥ 3 ॥ राजन् ! जैसे कुछ बीजोंसे दूसरे बीज उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही भगवान्‌की मायासे प्रेरित होकर प्राणियोंसे अन्य प्राणी उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं ॥ 4 ॥ राजन् ! हम, तुम और हमलोगोंके साथ इस जगत्में जितने भी चराचर प्राणी वर्तमान है—वे सब अपने जन्मके पहले नहीं थे और मृत्युके पश्चात् नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक सी रहती है ॥ 5 ॥ भगवान् ही समस्त प्राणियोंके अधिपति हैं। उनमें जन्म-मृत्यु आदि विकार बिलकुल नहीं है। उन्हें न किसीको इच्छा है और न अपेक्षा। वे अपने आप परतन्त्र प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं और उनके द्वारा अन्य प्राणियोंकी रचना, पालन तथा संहार करते हैं-ठीक वैसे ही जैसे बच्चे घर-घरौदे, खेल-खिलौने बना-बनाकर बिगाड़ते रहते हैं ॥ 6 ॥ राजन् ! जैसे एक बीजसे दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिताकी देहद्वारा माताकी देहसे पुत्रकी देह उत्पन्न होती है। पिता-माता और पुत्र जीवके रूपमें देही हैं और केवल शरीर उनमें देही जीव घट आदि | कार्योंमें पृथ्वीके समान नित्य है ॥ 7 ॥ राजन् ! जैसे एक ही मृत्तिकारूप वस्तुमें घटत्व आदि जाति और घट आदि व्यक्तियोंका विभाग केवल कल्पनामात्र है, उसी प्रकार यह देही और देहका विभाग भी अनादि एवं अविद्या कल्पित है * ॥ 8 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! जब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारदने इस प्रकार राजा चित्रकेतुको समझाया बुझाया, तब उन्होंने कुछ धीरज धारण करके शोकसे मुरझाये हुए मुखको हमसे पोछा और उनसे कहा ॥ 9 ॥

राजा चित्रकेतु बोले- आप दोनों परम ज्ञानवान् और महानसे भी महान् जान पड़ते हैं तथा अपनेको अवभूतये छिपकर यहाँ आये है। कृपा करके बतलाइये, आपलोग हैं कौन ? ॥ 10 ॥ मैं जानता हूँ कि बहुत-से भगवान् के प्यारे ब्रह्मवेत्ता मेरे जैसे विषयासक्तप्राणियोको उपदेश करनेके लिये उन्मत्तका-सा वेष बनाकर पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते हैं॥ 11 ॥ सनत्कुमार, नारद, ऋभु, अङ्गिरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान् परशुराम, कपिलदेव, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतञ्जलि, वेदशिरा, बोध्यमुनि, पञ्चशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव और ऋतब ये सब तथा दूसरे सिद्धेश्वर ऋषि-मुनि ज्ञानदान करनेके लिये पृथ्वीपर विचरते रहते हैं ।। 12-15 ।। स्वामियो ! मैं विषयभोगों में फँसा हुआ, मृदबुद्धि ग्राम्य पशु हूँ और अज्ञानके धोर अन्धकारमें डूब रहा हूँ। आपलोग मुझे ज्ञानकी ज्योतिसे प्रकाशके केन्द्रमें लाइये ।। 16 ।।

महर्षि अङ्गिराने कहा- राजन् ! जिस समय तुम पुत्रके लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अङ्गिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्माजीके पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं ॥ 17 ॥ जब हमलोगोंने देखा कि तुम पुत्रशोकके कारण बहुत ही प अज्ञानान्धकारमें डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान् के भक्त हो, शोक करनेयोग्य नहीं हो। अतः तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं राजन् । सो बात तो यह है कि जो भगवान् और ब्राह्मणोका भक्त है, उसे किसी अवस्थामें शोक नहीं करना चाहिये ॥ 18-19 ।।

जिस समय पहले-पहल में तुम्हारे घर आया था. उसी समय मैं तुम्हें परम ज्ञानका उपदेश देता, परन्तु मैंने देखा कि अभी तो तुम्हारे हृदयमें पुत्रकी उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया ॥ 20 ॥ अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुनको कितना दुःख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकारके ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ,शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सबके लिये है; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं 21-22 ।। शूरसेन अतएव ये सभी शोक, मोह, भव और दुःखके कारण है, मनके खेल-खिलौने है, सर्वथा कल्पित और मिथ्या है, क्योंकि ये न होनेपर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखनेपर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं ये गन्धर्वनगर, स्वञ जादू और मनोरथकी वस्तुओंके समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओंसे प्रेरित होकर विषयोंका चिन्तन करते रहते हैं उन्हींका मन अनेक प्रकारके कर्मोकी सृष्टि करता है । 23-24 ॥ जीवात्माका यह देह जो पञ्चभूत ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियोंका संघात है— जीवको विविध प्रकारके फ्रेश और सन्ताप देनेवाली कही जाती है ॥ 25 ॥ इसलिये तुम अपने मनको विषयों में भटकनेसे रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मनके द्वारा अपने वास्तविक स्वरूपका विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रम नित्यत्वकी बुद्धि छोड़कर परम शान्तिस्वरूप परमात्मामें स्थित हो जाओ ॥ 26 ॥

देवर्षि नारदने कहा- राजन् ! तुम एकाग्रचित्तसे मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करनेसे सात रातमें ही तुम्हें भगवान् सङ्कर्षणका दर्शन होगा ।। 27 ।। नरेन्द्र! प्राचीन कालमें भगवान् शङ्कर आदिने श्रीसङ्कर्षणदेवके ही चरणकमलोका आश्रय लिया था। इससे उन्होंने द्वैतमका परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमाको प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान्‌के उसी परमपदको प्राप्त कर लोगे ॥ 28 ॥

अध्याय 16 चित्रकेतुका वैराग्य तथा सङ्कर्षणदेव के दर्शन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् तदनन्तर देवा नारदने मृत राजकुमारके जीवात्माको शोकाकुल स्वजनोंके सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा ॥ 1 ॥

देवर्षि नारदने कहा- जीवात्मन्! तुम्हारा कल्याण हो। देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुहृद् सम्बन्धी तुम्हारे वियोगसे अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं ॥ 2॥ इसलिये तुम अपने शरीरमें आ जाओ और शेष आयु अपने सगे सम्बन्धियोंके साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिताके दिये हुए भोगोंको भोगो और राजसिंहासनपर बैठो ॥ 3 ॥

जीवात्माने कहा- देवर्षिजी मैं अपने कर्मोकि अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियोंमें न जाने कितने जन्मोंसे भटक रहा हूँ। उनमेंसे ये लोग किस जन्ममे मेरे माता-पिता हुए ? ॥ 4 ॥ विभिन्न जन्मोंमें सभी एक-दूसरेके भाई-बन्धु, नाती-गोती, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन और द्वेषी होते रहते है ॥ 5 ॥ जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रयकी वस्तुएँ एक व्यापारीसे दूसरेके पास जाती आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियोंमें उत्पन्न होता रहता है ।। 6 ।। इस प्रकार विचार करनेसे पता लगता है कि मनुष्योंकी अपेक्षा अधिक दिन ठहरनेवाले सुवर्ण आदि पदार्थोंका सम्बन्ध भी मनुष्योंके साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता है; और जबतक जिसका जिस ‘वस्तुसे सम्बन्ध रहता है, तभीतक उसकी उस वस्तुसे ममता भी रहती है ॥ 7 ॥ जीव नित्य और अहङ्काररहित है। वह गर्भमें आकर जबतक जिस शरीरमें रहता है, तभीतक उस शरीरको अपना समझता है ॥ 8 ॥ यह जीव नित्य अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं है। फिर भी यह ईश्वररूप होनेके कारण अपनी मायाके गुणोंसे ही अपने-आपको विश्वके रूपमेंप्रकट कर देता है ।। 9 ।। इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया क्योंकि गुण-दोष (हित अहित) करनेवाले मित्र शत्रु आदिको भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्तियों का यह अकेला ही साक्षी है; वास्तवमें यह अद्वितीय है ॥ 10 ॥ यह आत्मा कार्य-कारणका साक्षी और स्वतन्त्र है। इसलिये यह शरीर आदिके गुण-दोष अथवा कर्मफलको ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भावसे स्थित रहता है ॥ 11 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया। उसके सगे सम्बन्धी उसकी बात सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका स्नेह बन्धन कट गया और उसके मरनेका शोक भी जाता रहा ।। 12 ।। इसके बाद जातिवालोंने बालककी मृत देहको ले जाकर | तत्कालोचित संस्कार और और्ध्वदेहिक क्रियाएँ पूर्ण को और उस दुस्त्यज स्नेहको छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और दुःखकी प्राप्ति होती है ॥ 13 ॥ परीक्षित्! जिन रानियोंने बच्चेको विष दिया था, वे बालहत्याके कारण श्रीहीन हो गयी थीं और लज्जाके मारे आँखतक नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने अङ्गिरा ऋषिके उपदेशको याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुनाजीके तटपर ब्राह्मणोंके आदेशानुसार बालहत्याका प्रायश्चित्त किया ॥ 14 परीक्षित्! इस प्रकार अङ्गिरा और नारदजीके उपदेशसे विवेकबुद्धि जाग्रत् हो जानेके कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थीके अँधेरे कुएँसे उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, | जैसे कोई हाथी तालाबके कीचड़से निकल आये 15 ॥ उन्होंने यमुनाजीमें विधिपूर्वक स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ कीं। तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिराके चरणोंकी वन्दना की ॥ 16 भगवान् नारदने देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और शरणागत हैं। अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्याका उपदेश किया ॥ 17 ॥

(देवर्षि नारदने यो उपदेश किया) ‘ॐकार स्वरूप भगवन्! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और सङ्कर्षणके रूपमें क्रमशः चित्त, बुद्धि, मन और अहङ्कारके अधिष्ठाता है। मैं आपके इस चतुर्व्यूहरूपका बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ ॥ 18 आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप है। आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है। आप अपने स्वरूपभूत आनन्दमें ही मन और परम शान्त हैं।द्वैतदृष्टि आपको छूतक नहीं सकती। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 19 ॥ अपने स्वरूपभूत आनन्दकी अनुभूतिसे ही आपने मायाजनित राग-द्वेष आदि दोषोंका तिरस्कार कर रखा है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबकी समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 20 ॥ मनसहित वाणी आपतक न पहुँचकर बीचसे ही लौट आती है। उसके उपरत हो जानेपर जो अद्वितीय, नाम रूपरहित, चेतनमात्र और कार्य-कारणसे परेकी वस्तु रह जाती है-वह हमारी रक्षा करे ।। 21 ।। यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित है और जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टीकी वस्तुओंमें व्याप्त मृत्तिकाके समान सबमें ओत-प्रोत हैं—उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 22 ॥ यद्यपि आप आकाशके समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति नहीं जान सकती और प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्तिसे स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। 23 ।। शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओंमें आपके चैतन्यांशसे युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छाकी अवस्थाओंमें आपके चैतन्यांशसे युक्त न होनेके कारण अपना-अपना काम करनेमें असमर्थ हो जाते हैं-ठीक वैसे ही जैसे लोहा अग्निसे तप्त होनेपर जला सकता है, अन्यथा नहीं। जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओंमें आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तवमें आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है ॥ 24 ॥ ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुषको नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तोंका समुदाय अपने करकमलोकी कलियोंसे आपके युगल चरणकमलोंकी सेवामें सेल रहता है। प्रभो। आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ’ ।। 25 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतुको इस विद्याका उपदेश करके महर्षि अङ्गिराके साथ ब्रह्मलोकको चले गये ।। 26 ।। राजा चित्रकेतुने देवर्षि नारदके द्वारा उपदिष्ट विद्याका उनके आज्ञानुसार सात दिनतक केवल जलपीकर बड़ी एकाग्रताके साथ अनुष्ठान किया ॥ 27 ॥ तदनन्तर उस विद्याके अनुष्ठानसे सात रातके पश्चात् राजा चित्रकेतुको विद्याधरोका अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ ॥ 28 ॥ इसके बाद कुछ ही दिनोंमें इस विद्याके प्रभावसे उनका मन और भी शुद्ध हो गया। अब वे देवाधिदेव भगवान् शेषजीके चरणोंके समीप पहुँच गये ॥ 29 ॥। उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी सिद्धेश्वरोंके मण्डलमें विराजमान हैं। उनका शरीर कमलनालके समान गौरवर्ण है। उसपर नीले रंगका वस्त्र फहरा रहा है। सिरपर किरीट, बाहोंमें बाजूबंद, कमरमें करधनी और कलाईमें कंगन आदि आभूषण चमक रहे हैं। नेत्र रतनारे हैं और मुखपर प्रसन्नता छा रही है ॥ 30 ॥ भगवान् शेषका दर्शन करते ही राजर्षि चित्रकेतुके सारे पाप नष्ट हो गये। उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो गया। हृदयमें भक्तिभावको बाढ़ आ गयी। नेत्रोंमें प्रेमके आँसू छलक आये। शरीरका एक-एक रोम खिल उठा। उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेषको नमस्कार किया ॥ 31 ॥ उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे। इससे भगवान् शेषके चरण रखनेकी चौकी भीग गयी। प्रेमोद्रेकके कारण उनके मुँहसे एक अक्षर भी न निकल सका। वे बहुत देरतक शेषभगवान्को कुछ भी स्तुति न कर सके ।। 32 ।। थोड़ी देर बाद उन्हें बोलनेकी कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने विवेकबुद्धिसे मनको समाहित किया और सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी बाह्यवृत्तिको रोका। फिर उन जगद्गुरुकी, जिनके स्वरूपका पाश्चरात्र आदि भक्तिशास्त्रों में वर्णन किया गया है, इस प्रकार स्तुति की ।। 33 ।।

चित्रकेतुने कहा- अजित जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओंने आपको जीत लिया है। आपने भी अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि गुणोंसे उनको | अपने वशमें कर लिया है। अहो, आप धन्य है। क्योंकि जो निष्कामभावसे आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं ।। 34 ।। भगवन् । जगत्‌को उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास है। विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदिआपके अंशके भी अंश है। फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपनेको जगत्कर्त्ता मानकर झूठमूठ एक-दूसरेसे स्पर्धा करते हैं ॥ 35 ॥ नन्हे-से-नन्हे परमाणुसे लेकर बड़े-से-बड़े महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण वस्तुओंके आदि, अन्त और मध्यमें आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्यसे रहित हैं। क्योंकि किसी भी पदार्थके आदि और अन्तमें जो वस्तु रहती है, वही मध्यमें भी रहती है ॥ 36 ॥ यह ब्रह्माण्डकोष, जो पृथ्वी आदि एक-से-एक दसगुने सात आवरणोंसे घिरा हुआ है, अपने ही समान दूसरे करोड़ों ब्रह्माण्डोंके सहित आपमें एक परमाणुके समान घूमता रहता है और फिर भी उसे आपकी हैं सीमाका पता नहीं है। इसलिये आप अनन्त हैं ॥ 37 ॥ जो नरपशु केवल विषयभोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि देवताओंकी उपासना करते हैं। प्रभो ! जैसे राजकुलका नाश होने के पश्चात् उसके अनुयायियोंकी जीविका भी जाती रहती है, | वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवोंका नाश होनेपर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो जाते हैं ॥ 38 ॥ परमात्मन्! आप ज्ञानस्वरूप और निर्गुण हैं। इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मकि समान जन्म-मृत्युरूप | फल देनेवाली नहीं होती, जैसे भुने हुए बीजोंसे अङ्कुर नहीं उगते। क्योंकि जीवको जो सुख-दुःख आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणोंसे ही होते हैं, निर्गुणसे नहीं ।। 39 ।। हे अजित! जिस समय आपने विशुद्ध भागवत धर्मका उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया। क्योंकि अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखनेवाले, किसी भी वस्तुमें अहंता-ममता न करनेवाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परम साम्य और मोक्ष प्राप्त करनेके | लिये उसी भागवतधर्मका आश्रय लेते हैं 40 ॥ वह भागवतधर्म इतना शुद्ध है कि उसमें सकाम धर्मोके समान मनुष्योंकी वह विबुद्धि नहीं होती कि ‘यह मैं हूँ यह मेरा है, यह तू है और यह तेरा है।’ इसके विपरीत जिस धर्मके मूलमें ही विषमताका बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्मबहुल होता है ।। 41 ।। सकाम धर्म अपना और दूसरेका भी अहित करनेवाला है। उससे अपना या पराया—किसीका कोई भी प्रयोजन और | हित सिद्ध नहीं होता। प्रत्युत सकाम धर्मसे जब अनुष्ठान करनेवालेका चित्त दुखता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरेका चित्त दुखता है, तब वह धर्म नहीं रहताअधर्म हो जाता है ॥ 42 ॥ भगवन्! आपने जिस दृष्टिसे भागवतधर्मका निरूपण किया है, वह कभी परमार्थसे विचलित नहीं होती। इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियोंमें समदृष्टि रखते हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं । 43 ॥ भगवन्! आपके दर्शनमात्र से ही मनुष्योंके सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है; क्योंकि आपका नाम एक बार सुननेसे ही नीच चाण्डाल भी संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ 44 ॥ भगवन्! इस समय आपके दर्शनमात्रसे ही मेरे अन्तःकरणका सारा मल धुल गया है, सो ठीक ही है क्योंकि आपके अनन्यप्रेमी भक्त देवर्षि नारदजीने जो कुछ कहा है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है ।। 45 ।। है अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत्के आत्मा हैं। अतएव संसारमें प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं। इसलिये जैसे जुगनू सूर्यको प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही परमगुरु आपसे मैं क्या निवेदन करू ॥ 46 भगवन् आपकी ही अध्यक्षतामें सारे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं। कुयोगीजन भेददृष्टिके कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते। आपका स्वरूप वास्तवमें अत्यन्त शुद्ध है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 47 ॥ आपकी चेष्टासे शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करनेमें समर्थ होते हैं आपकी दृष्टिसे जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंको ग्रहण करनेमें समर्थ होती हैं। यह भूमण्डल आपके सिरपर सरसोके दानेके समान जान पड़ता है। मैं आप सहस्रशीर्षा भगवान्‌को | बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 48 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब विद्याधरोके अधिपति चित्रकेतुने अनन्तभगवान्‌को इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा ।। 49 ।।

श्रीभगवान् ने कहा- चित्रकेतो। देवर्षि नारद और महर्षि अङ्गिराने तुम्हें मेरे सम्बन्धमे जिस विद्याका उपदेश दिया है, उससे और मेरे दर्शनसे तुम भलीभाँति | सिद्ध हो चुके हो ॥ 50 ॥ मैं ही समस्त प्राणियोंके रूपमें हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ। शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं ।। 51 ।। आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत्‌में व्याप्त है। और कार्य कारणात्मक जगत् आत्मामें स्थित है तथा इन दोनोंमें मैं अधिष्ठानरूपसे व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों | कल्पित हैं ॥ 52 ॥ जैसे स्वप्नमें सोया हुआ पुरुष स्वप्रान्तर होनेपर सम्पूर्ण जगत्‌को अपनेमें ही देखता है और स्वप्रान्तर टूट जानेपर स्वप्रमें ही जागता है तथा अपनेको संसारके एक कोने में स्थित देखता है, परन्तु वास्तवमें वह भी स्वप्न ही है, वैसे ही जीवकी जाग्रत् आदि अवस्थाएँ परमेश्वरकी ही माया हैं—यों जानकर सबके साक्षी मायातीत परमात्माका ही स्मरण करना चाहिये ।। 53-54 ।। सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायतासे अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ; उसे तुम अपनी आत्मा समझो || 55 ॥ पुरुष निद्रा और जागृति- इन दोनों अवस्थाओंका अनुभव करनेवाला है। वह उन अवस्थाओंमें अनुगत होनेपर भी | वास्तवमे उनसे पृथक् है। वह सब अवस्थाओंमें रहनेवाला अखण्ड एकरस ज्ञान ही ब्रह्म है, वही परब्रह्म | है ॥ 56 ॥ जब जीव मेरे स्वरूपको भूल जाता है, तब वह | अपनेको अलग मान बैठता है; इसीसे उसे संसारके चकरमें पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है ॥ 57 ॥ यह मनुष्ययोनि ज्ञान और विज्ञानका मूल स्रोत है जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्माको नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनिमें शान्ति नहीं मिल सकती ।। 58 ।।राजन्! सांसारिक सुखके लिये जो पेश की जाती है, उनमें श्रम है, फ्रेश है, और जिस परम सुखके उद्देश्यसे वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परम दुःख देती हैं; किन्तु कर्मोंसे निवृत्त हो जानेमें किसी प्रकारका भय नहीं है- यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि किसी प्रकारके कर्म अथवा उनके फलोंका सङ्कल्प न करे 59 ॥ जगत्के सभी स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखोंसे पिण्ड छूटे; परन्तु उन कर्मोंसे न तो उनका दुःख दूर होता है और न उन्हें सुखकी ही प्राप्ति होती है 60 जो मनुष्य अपनेको बहुत बड़ा बुद्धिमान् मानकर कर्मके पचड़ोंमें पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है—यह बात समझ लेनी चाहिये; साथ ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्माका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत् स्वप्र, सुषुप्ति – इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियोंसे विलक्षण है ।। 61 ।। यह जानकर इस लोकमें देखे और परलोकके सुने हुए विषय-भोगोंसे विवेकबुद्धिके द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और ज्ञान तथा विज्ञानमें ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाय ।। 62 । जो लोग योगमार्गका तत्त्व समझने में निपुण हैं, उनको भलीभांति समझ लेना चाहिये कि जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्माकी एकताका अनुभव कर ले ॥ 63 ॥ राजन् ! यदि तुम मेरे इस उपदेशको सावधान होकर श्रद्धाभावसे धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञानसे सम्पन्न होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे ॥ 64 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन् ! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतुको इस प्रकार समझा बुझाकर उनके सामने ही वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ 65 ॥

अध्याय 17 चित्रकेतुको पार्वतीजीका शाप

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशामें भगवान् सङ्कर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाशमार्गसे स्वच्छन्द विचरने लगे ॥ 1 ॥ महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षातक सब प्रकारके सङ्कल्योंको पूर्ण करनेवाली सुमेरु पर्वती घाटियोंमें विहार करते रहे। उनके शरीरका बल और इन्द्रियोंकी शक्ति अक्षुण्ण रही। बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते। उनकी प्रेरणासे विद्याधरों की स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान्‌के गुण और लीलाओंका गान करती रहतीं ॥ 2-3 ॥ एक दिन चित्रकेतु भगवान् के दिये हुए तेजोमय विमानपर सवार होकर कहीं जा रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शङ्कर बड़े-बड़े मुनियोंकी सभामें सिद्ध-चारणोंके बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वतीको अपनी हुए गोदमें बैठाकर एक हाथसे उन्हें आलिङ्गन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमानपर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वतीको सुना-सुनाकर जोरसे हँसने और कहने लगे ।। 4-5 ।।

चित्रकेतुने कहा- अहो! ये सारे जगत्के धर्मशिक्षक और गुरुदेव हैं। ये समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ हैं। इनकी यह दशा है कि भरी सभामें अपनी पत्नीको शरीरसे चिपकाकर बैठे हुए हैं 6 जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियोंके सभापति होकर भी साधारण पुरुषके समान निर्लज्जतासे गोदमें स्त्री लेकर बैठे हैं॥ 7 ॥ प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्तमें ही स्त्रियोंके साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभा में लिये बैठे हैं ॥ 8 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते है-भगवा शङ्करकी बुद्धि अगाध है। चित्रकेतुका यह कटाक्ष सुनकर | वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं। उस सभामें बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे। चित्रकेतुको भगवान् | शङ्करका प्रभाव नहीं मालूम था। इसीसे वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक रहे थे। उन्हें इस बातका घमण्डहो गया था कि ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ।’ पार्वतीजीने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोधसे कहा ॥ 9-10 ॥ –

पार्वतीजी बोलीं- अहो! हम जैसे दुष्ट और निर्लजोका दण्डके बलपर शासन एवं तिरस्कार करनेवाला प्रभु इस संसारमें यही है क्या ? 11 ॥ जान पड़ता है कि ब्रह्माजी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्मका रहस्य नहीं जानते। तभी तो वे | धर्ममर्यादाका उल्लङ्घन करनेवाले भगवान् शिवको इस कामसे नहीं रोकते 12 ॥ ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलोंका ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मङ्गलोंको मङ्गल बनानेवाले साक्षात् जगद्गुरु भगवान्का और उनके अनुयायी महात्माओंका इस अधम क्षत्रियने तिरस्कार किया है और शासन करनेकी चेष्टा की है इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्डका पात्र है ।। 13 ।। इसे अपने बड़प्पनका घमण्ड है। यह मूर्ख भगवान् श्रीहरिके उन चरणकमलोंमें रहनेयोग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं ॥ 14 [चित्रकेतुको सम्बोधन कर] अतः दुर्मते! तुम पापमय असुरयोनिमें जाओ। ऐसा होनेसे बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुषका अपराध नहीं कर सकोगे ॥ 15 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब पार्वतीजीने इस प्रकार चित्रकेतुको शाप दिया, तब वे विमानसे उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे ॥ 16 ॥

चित्रकेतुने कहा- माता पार्वतीजी । मैं बड़ी प्रसन्नतासे अपने दोनों हाथ जोड़कर आपका शाप स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवतालोग मनुष्यों के लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलनेवाले फलकी पूर्वसूचनामात्र होती है ॥ 17 ॥देवि! यह जीव अज्ञानसे मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसार-चक्रमें भटकता रहता है तथा सदा सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है ॥ 18 ॥ माताजी! सुख और दुःखको देनेवाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा जो अज्ञानी हैं, वे ही अपनेको अथवा दूसरेको सुख-दुःखका कर्ता माना करते हैं ॥ 19 ॥ यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणोंका स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख ll 20 ll

एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसीकी सहायताके अपनी आत्मस्वरूपिणी मायाके द्वारा समस्त प्राणियोंकी तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःखकी रचना करते हैं ॥ 21 माताजी! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मलसे रहित हैं। उनका कोई प्रिय अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना पराया नहीं है। जब उनका सुखमें राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है ॥ 22 ॥ तथापि उनकी मायाशक्तिके कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियोंके सुख-दुःख, हित-अहित, बन्ध-मोक्ष, मृत्यु-जन्म और आवागमनके कारण बनते हैं ॥ 23 पतिप्राणा देवि ! मैं शापसे मुक्त होनेके लिये | आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें ।। 24 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शङ्कर और पार्वतीजीको इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमानपर सवार होकर वहाँसे | चले गये। इससे उन लोगोंको बड़ा विस्मय हुआ ॥ 25 ॥ तब भगवान् शङ्करने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदोंके सामने ही भगवती पार्वतीजीसे यह बात कही ।। 26 ।।भगवान् शङ्करने कहा—सुन्दरि । दिव्यलीला विहारी भगवान् के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासोंकी महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली ॥ 27 ॥ जो लोग भगवान् के शरणागत होते हैं, वे किसीसे भी नहीं डरते। क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकोंमें भी एक ही वस्तुके- केवल भगवानके ही समान भावसे दर्शन होते है ॥ 28 ॥ जीवोंको भगवान्‌की लीलासे ही देहका संयोग होनेके कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप अनुग्रह आदि द्वन्द्व प्राप्त होते हैं ।। 29 ।। जैसे स्वप्रमें भेद-भ्रमसे सुख-दुःख आदिकी प्रतीति होती है और जाग्रत् अवस्थामें भ्रमवश मालामें ही सर्पबुद्धि हो जाती है वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मामें देवता, मनुष्य आदिका भेद तथा गुण-दोष आदिकी कल्पना कर लेता है ॥ 30 ॥ जिनके पास ज्ञान और वैराग्यका बल है और जो भगवान् वासुदेवके चरणोंमें भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत्में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें ॥ 31 मैं, ब्रह्माजी, सनकादि, नारद, ब्रह्माजीके पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता- कोई भी भगवान्‌की लोलाका रहस्य नहीं जान पाते। ऐसी अवस्थामें जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश है और अपनेको उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूपको जान ही कैसे सकते हैं ? ॥ 32 ॥ भगवान्‌को न कोई प्रिय है और न अप्रिय उनका न कोई अपना है और न पराया। वे सभी प्राणियोंके आत्मा है, इसलिये सभी प्राणियोंके प्रियतम हैं॥ 33 ॥ प्रिये। यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हींका प्रिय अनुचर, शान्त एवं समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरिका ही प्रिय हूँ ॥ 34 इसलिये तुम्हें भगवान्के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषोंके सम्बन्धमें किसी प्रकारका आशर्य नहीं करना चाहिये ।। 35 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित् । भगवान् शङ्करका यह भाषण सुनकर भगवती पार्वतीकी चित्तवृत्ति | शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा 36 ॥भगवान्‌के परमप्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वतीको बदलेमें शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया ! यही साधु पुरुषका लक्षण है ॥ 37 ॥ यही विद्याधर चित्रकेतु दानवयोनिका आश्रय लेकर त्वष्टाके दक्षिणाग्निसे पैदा हुए। वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्स्वरूपके ज्ञान एवं भक्तिसे परिपूर्ण ही रहे ॥ 38 ॥ तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुरका दैत्ययोनिमें जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान्की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई। उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया ॥ 39 ॥ महात्मा चित्रकेतुका यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, समस्त विष्णुभक्तोंका माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 40 ॥ जो पुरुष प्रातः काल उठकर | मौन रहकर श्रद्धाके साथ भगवान्‌का स्मरण करते हुए इस इतिहासका पाठ करता है, उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है ॥ 41 ॥

अध्याय 18 अदिति और दितिकी सन्तानोंकी तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! सविताकी पीके गर्भ से आठ सत्ताने हुई सावित्री, व्यति त्रयी, अग्निहोत्र, पशु सोम, चातुर्मास्य और |पञ्चमहायज्ञ ॥ 1 ॥ भगकी पत्नी सिद्धिने महिमा, विभु और प्रभु ये तीन पुत्र और आशिष नामकी एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी । ॥ धाताकी चार पत्नियाँ थीं— कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं दर्श, प्रातः और | पूर्णमास-ये चार पुत्र हुए ॥ 3 ॥धाताके छोटे भाईका नाम था- विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी उससे पुरीष्य नामके पाँच अग्नियोंकी उत्पत्ति हुई। वरुणजीकी पत्नीका नाम चर्षणी था। उससे भृगुजीने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्माजीके पुत्र थे ॥ 4 ॥ महायोगी वाल्मीकिजी भी वरुणके पुत्र थे। वल्मीकसे पैदा होनेके कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ | गया था। उर्वशीको देखकर मित्र और वरुण दोनोंका वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगोंने घड़ेमें रख दिया। उसीसे मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठजीका जन्म हुआ। मित्रकी पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए- उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल ।। 5-6 ।। प्रिय परीक्षित् । देवराज इन्द्रकी पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये -जयन्त, ऋषभ और मीवान् ॥ 7 ॥ स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलिपर अनुग्रह करने और इन्द्रका राज्य लौटानेके लिये) मायासे वामन (उपेन्द्र) के रूपमें अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नीका नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्लोक नामका पुत्र हुआ। उसके सौभग आदि कई सन्तानें हुईं ॥ 8 ॥ कश्यपनन्दन भगवान् वामनने माता अदितिके गर्भसे क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये—इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्धमें) करूँगा ॥ 9 ॥

प्रिय परीक्षित् अब मैं कश्यपजीकी दूसरी पत्नी दितिसे उत्पन्न होनेवाली उस सन्तान परम्पराका वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान्‌के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लादजी और बलिका जन्म हुआ ॥ 10 ॥ दितिके दैत्य और दानवोंके कन्दनीय दो ही पुत्र हुए हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्धमें) सुना चुका हूँ ॥ 11 ॥ हिरण्यकशिपुकी पत्नी दानवी कयाधु थी उसके पिता जम्भने उसका विवाह हिरण्यकशिपुसे कर दिया था। कयाधुके चार पुत्र हुए—संहाद, अनुहाद, हाद और प्रह्लाद। इनकी सिंहिका नामकी एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानवसे हुआ। | उससे राहु नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई ।। 12-13 ॥ यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनी रूपधारी भगवान्ने चक्रसे काट लिया था हादकी पत्नी | थी कृति। उससे पञ्चजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ll 14 llहादकी पत्नी थी धमनि उसके दो पुत्र हुए वातापि और इल्वल । इस इल्वलने ही महर्षि अगस्त्यके आतिथ्य के समय वातापिको पकाकर उन्हें खिला दिया था ॥ 15 ॥ अनुहादकी पत्नी सूयी थी, उसके दो पुत्र हुए बाष्कल और महिषासुर प्रह्लादका पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवीके गर्भ से दैत्यराज बलिका जन्म हुआ ।। 16 ।। बलिकी पत्नीका नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलिकी महिमा गान करनेयोग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्धमें सुनाऊंगा ॥ 17 ॥ बलिका पुत्र बाणासुर भगवान् शङ्करकी आराधना करके उनके गणोंका मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शङ्कर उसके नगरकी रक्षा करनेके लिये उसके पास ही रहते हैं ।। 18 ।। दितिके हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्षके अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे उन्हें मरुद्रण कहते हैं वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्रने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया ।। 19 ।।

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्! मरुद्गणने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोचित भावको छोड़ सके और देवराज | इन्द्रके द्वारा देवता बना लिये गये ? ॥ 20 ॥ ब्रह्मन् ! मेरे साथ यहाँको सभी समण्डली यह बात जाननेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तारसे वह रहस्य बतलाइये 21 ॥

सूतजी कहते हैं— शौनकजी राजा परीक्षित्का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदरसे पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराजने बड़े ही प्रसन्न चित्तसे उनका अभिनन्दन करके यो कहा ।। 22 ।।

श्रीशुकदेवजी कहने लगे- परीक्षित्! भगवान् विष्णुने इन्द्रका पक्ष लेकर दितिके दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु | और हिरण्याक्षको मार डाला। अतः दिति शोककी आगसे उद्दीप्त क्रोधसे जलकर इस प्रकार सोचने लगी ॥ 23 ॥’सचमुच इन्द्र बड़ा विषयों, क्रूर और निर्दयी है। राम ! राम ! उसने अपने भाइयोंको ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापीको मरवाकर आरामसे सोऊँगी ।। 24 ।। लोग राजाओं के देवताओंके शरीरको ‘प्रभु’ कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राखका ढेर हो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियोंको सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थका पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरकमें जाना पड़ेगा ।। 25 ।। मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीरको नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाशका पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्रका घमण्ड चूर-चूर कर दे ॥ 26 ॥ दिति अपने मनमें ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय प्रेम और जितेन्द्रियता आदिके द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यपजीको प्रसन्न रखने लगी ॥ 27 ॥ वह अपने पतिदेवके हृदयका एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुसकानभरी तिरछी चितवनसे उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती | रहती थी ॥ 28 ॥ कश्यपजी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होनेपर भी चतुर दितिकी सेवासे मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।’ स्त्रियोंके सम्बन्धमें यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है 29 ॥ सृष्टिके प्रभातमें ब्रह्माजीने | देखा कि सभी जीव असङ्ग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीरसे स्त्रियोंकी रचना की और स्त्रियोंने पुरुषोंकी मति अपनी ओर आकर्षित कर ली 30 ॥ हाँ तो भैया ! मैं कह रहा था कि दितिने भगवान् कश्यपकी बड़ी सेवा की। इससे वे उसपर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दितिका अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा ॥ 31 ॥

कश्यपजीने कहा- अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। रहूँ। पतिके प्रसन्न हो जानेपर पालीके लिये लोक या परलोकमें कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है ।। 32 ।। शास्त्रोंमें यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियोंका परमाराध्य इष्टदेव है प्रिये लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियोंकि हृदयमें विराजमान है। 33 विभिन्न देवताओंके रूपमें नाम और रूपके भेदसे उन्हींकी कल्पना | हुई है। सभी पुरुष चाहे किसी भी देवताको उपासनाकरें— उन्हींकी उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियोंके लिये भगवान्ने पतिका रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूपमें पूजा करती हैं ।। 34 ।। इसलिये प्रिये ! अपना कल्याण चाहनेवाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमभावसे अपने पतिदेवकी ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं ॥ 35 ॥ कल्याणी तुमने बड़े प्रेमभावसे, भक्तिसे मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूंगा। असतियोंके जीवनमें ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है ।। 36 ।।

दितिने कहा- ब्रह्मन् ! इन्द्रने विष्णुके हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्रको मार डाले ॥ 37 ॥

परीक्षित्! दितिकी बात सुनकर कश्यपजी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘हाय ! हाय! आज मेरे जीवनमें बहुत बड़े अधर्मका अवसर आ पहुँचा ॥ 38 ॥ देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियोंके विषयों में सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी मायाने मेरे चित्तको अपने वशमें कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन हीन अवस्थामें हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरकमें गिरना पड़ेगा ॥ 39 ॥ इस स्त्रीका कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभावका ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है—जो मैं अपनी इन्द्रियोंको अपने वशमें न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थको न समझ सका। मुझ मूढको बार-बार धिक्कार है ॥ 40 ॥ सच है, स्त्रियोंके चरित्रको कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरदका खिला हुआ कमल बातें सुननेमें ऐसी मोटी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरेकी पैनी धार हो । 41 ।। इसमें सन्देह नहीं कि खियाँ अपनी लालसाओ | कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसीसे प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाईतकको मार | डालती है या मरवा डालती हैं ॥ 42 ॥ अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करनेयोग्य नहीं है। अच्छा, | अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ ॥ 43 ॥प्रिय परीक्षित् । सर्वसमर्थ कश्यपजीने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनानेका उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दितिसे कहा ।। 44 ।।

कश्यपजी बोले- कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रतका एकवर्षतक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्रको मारनेवाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमोंमें त्रुटि हो गयी तो वह देवताओंका मित्र बन जायगा ॥ 45 ॥

दितिने कहा -ब्रह्मन्! मैं उस व्रतका पालन – करूंगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौनसे काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भङ्ग नहीं होता ।। 46 ।।

कश्यपजीने उत्तर दिया-प्रिये! इस व्रतमें किसी भी प्राणीको मन, वाणी या क्रियाके द्वारा सताये नहीं, किसीको शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीरके नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तुका स्पर्श न करे ।। 47 ।। जलमें घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनोंसे बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसीकी पहनी हुई माला न पहने ॥ 48 ॥ जूठा न खाय, भद्रकालीका प्रसाद या मांसयुक्त अन्नका भोजन न करे। शूद्रका लाया हुआ और रजस्वलाका देखा हुआ अन्न भी न खाय और अञ्जलिसे जलपान न करे ।। 49 ।। जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्याके समय, बाल खोले हुए, बिना शृङ्गारके, वाणीका संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घरसे बाहर न निकले ॥ 50 ॥ बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्थामें गीले पाँवोंसे, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरेके साथ, नग्नावस्थामें तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये ॥ 51 ॥ इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मका त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, भुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्यके चिह्नोंसे सुसज्जित रहे । प्रातःकाल कलेवा करनेके पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मीजी और भगवान् नारायणकी पूजा करे॥ 52 ॥इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादिसे सुहागिनी स्त्रियोंकी पूजा करे तथा पतिकी पूजा करके उसकी सेवामें संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पतिका तेज मेरी कोखमें स्थित है ।। 53 ।। प्रिये ! इस व्रतका नाम ‘पुंसवन’ है। यदि एक वर्षतक तुम इसे बिना किसी त्रुटिके पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोखसे इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा ।। 54 ।।

परीक्षित्! दिति बड़ी मनस्विनी और दृढ़ निश्चयवाली थी। उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यपका वीर्य और जीवनमें उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमोंका पालन करने लगी ।। 55 ।। प्रिय परीक्षित् । देवराज इन्द्र अपनी मौसी दितिका अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानीसे अपना वेष बदलकर दितिके आश्रमपर आये और उसकी सेवा करने लगे ॥ 56 ॥ वे दितिके लिये प्रतिदिन समय-समयपर वनसे फूल-फल, कन्दमूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवामें समर्पित करते ॥ 57 ॥ राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिनको मारनेके लिये हरिनकी-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट-वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति प्रत पालनकी त्रुटि पकड़नेके लिये उसकी सेवा करने लगे 58 ॥ सर्वदा पैनी दृष्टि रखनेपर भी उन्हें उसके व्रतमें किसी प्रकारकी त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा टहलमें लगे रहे। अब तो इन्द्रको बड़ी चिन्ता हुई वे सोचने लगे मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ जिससे मेरा कल्याण हो ? ।। 59 ।।

दिति व्रतके नियमोंका पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाताने भी उसे मोहमें डाल दिया। | इसलिये एक दिन सन्ध्याके समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी ॥ 60 ॥ योगेश्वर इन्द्रने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योगबलसे झटपट सोयी हुई दितिके गर्भ में प्रवेश कर गये ॥ 61 ॥ उन्होंने वहाँ जाकर सोनेके समान चमकते हुए गर्भके वज्रके द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातोंटुकड़ोंगे एक-एकके और भी सात टुकड़े कर दिये ॥ 62 ॥ राजन् ! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबने हाथ जोड़कर इन्द्रसे कहा ‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो ? हम तो तुम्हारे भाई | मरुद्रण हैं ।। 63 ।। तब इन्द्रने अपने भावी अनन्यप्रेमी पार्षद मरुद्रणसे कहा- ‘अच्छी बात है, तुमलोग मेरे भाई हो। अब मत डरो ! ॥ 64 ॥ परीक्षित्! जैसे अश्वत्थामाके ब्रह्मास्त्रसे तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरिकी कृपासे दितिका वह गर्भ वज्रके द्वारा टुकड़े-टुकड़े होनेपर भी मरा नहीं ।। 65 । इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदि पुरुष भगवान् नारायणकी आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दितिने तो कुछ ही दिन कम एक वर्षतक भगवान्‌की आराधना की थी ॥ 66 ॥ अब वे उनचास मरुद्रण इन्द्रके साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्रने भी सौतेली माताके पुत्रोंके साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया ॥ 67 ॥ जब दितिकी आँख खुली तब उसने देखा कि उसके अग्रिके समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्रके साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाववाली दितिको बड़ी प्रसन्नता हुई ।। 68 ।। उसने इन्द्रको सम्बोधन करके कहा ‘बेटा! मैं इस इच्छासे इस अत्यन्त कठिन व्रतका पालन कर रही थी कि तुम अदितिके पुत्रोंको भयभीत करनेवाला पुत्र उत्पन्न हो ॥ 69 मैंने केवल एक ही पुत्रके लिये सङ्कल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये ? बेटा इन्द्र ! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो । झूठ न बोलना’ ॥ 70 ॥

इन्द्रने कहा- माता ! मुझे इस बातका पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्यसे व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके उद्देश्यसे मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मनमें तनिक भी धर्म-भावना नहीं। थी। इसीसे तुम्हारे व्रतमें त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भके टुकड़े टुकड़े कर दिये ।। 71 ।। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एकके सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये ॥ 72 ॥यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान्‌ की उपासनाकी यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है || 73 ॥ जो लोग निष्काम भावसे भगवान्की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या, मोक्षकी भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थमें निपुण हैं 74 ॥ भगवान् जगदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आपतकका दान कर देते हैं। भला ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उनकी आराधना करके विषयभोगोंका वरदान माँगे। माताजी ! ये विषयभोग तो नरकमें भी मिल सकते हैं ॥ 75 ॥ मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैंने मूर्खतावश बड़ी दुष्टताका काम किया है। तुम मेरे अपराधको क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जानेसे एक प्रकार मर जानेपर भी फिरसे जीवित हो गया ।। 76 ।।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! दिति | देवराज इन्द्रके शुद्धभावसे सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा | लेकर देवराज इन्द्रने मरुद्गणोंके साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्गमें चले गये ॥ 77 ॥ राजन् ! यह मरुद्गणका जन्म बड़ा ही मङ्गलमय है। इसके विषयमें तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्ररूपसे मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ 78 ॥

अध्याय 19 पुंसवन-व्रतकी विधि

राजा परीक्षित्ने पूछा- भगवन्! आपने अभी-अभी पुंसवन-व्रतका वर्णन किया है और कहा है कि उससे भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं। सो अब मैं | उसकी विधि जानना चाहता हूँ ॥ 1॥श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् ! यह पुंसवन व्रत समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है। स्त्रीको चाहिये कि वह अपने पतिदेवकी आज्ञा लेकर मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदासे इसका आरम्भ करे ॥ 2 ॥ पहले मरुद्गणके जन्मकी कथा सुनकर ब्राह्मणोंसे आज्ञा ले। फिर प्रतिदिन सबेरे दाँतुन आदिसे दाँत साफ करके स्नान करे, दो श्वेत वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले । प्रातः काल कुछ भी खानेसे पहले ही भगवान् लक्ष्मी नारायणकी पूजा करे ।। 3 ।। (इस प्रकार प्रार्थना करे ) ‘प्रभो! आप पूर्णकाम है। अतएव आपको किसीसे भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियोंके स्वामी और सकलसिद्धिस्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ ॥ 4 ॥ मेरे आराध्यदेव ! आप कृपा, विभूति, रोज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणोंसे नित्ययुक्त है। इन्हीं भगोऐश्वयसे नित्ययुक्त रहनेके कारण आपको भगवान् कहते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं ॥ 5 ॥ माता लक्ष्मीजी ! आप भगवान्की अर्द्धाङ्गिनी और महामायास्वरूपिणी हैं। भगवान्के सारे गुण आपमें निवास करते हैं। महाभाग्यवती जगन्माता! आप मुझपर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’ ॥ 6 ॥

परीक्षित्! इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्तसे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्वलिमुपहराणि ।’ ‘ओङ्कारस्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियोंक स्वामी भगवान् पुरुषोत्तमको और उनकी महाविभूतियोंको मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहारकी सामग्री समर्पण करती हूँ इस मन्त्रके द्वारा प्रतिदिन स्थिर चित्तसे विष्णुभगवान्का आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, खान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे ॥ 7 ॥ जो नैवेद्य बच रहे, उससे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूति पतये स्वाहा’ ‘महान् ऐश्वयक अधिपति भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार है। मैं उन्हींके लिये इस हविष्यका हवन कर रही हूँ।’—यह मन्त्र बोलकर अग्निमें बारह आहुतियाँ दे ॥ 8 ॥ परीक्षित्! जो सब प्रकारकी सम्पत्तियोंको प्राप्त करना चाहता हो, उसे
चाहिये कि प्रतिदिन भक्तिभाव सेभगवान् लक्ष्मीनारायणकी पूजा करे; क्योंकि वे ही दोनों समस्त
अभिलाषाओंके पूर्ण करनेवाले एवं श्रेष्ठ वरदानी है ॥ 9 ॥इसके बाद भक्तिभावसे भरकर बड़ी नम्रतासे भगवान्‌को साष्टाङ्ग दण्डवत् करे। दस बार पूर्वोक्त मन्त्रका जप करे और फिर इस स्तोत्रका पाठ करे – ॥ 10 ॥

“हे लक्ष्मीनारायण आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत्के अन्तिम कारण हैं- आपका और कोई कारण नहीं है। भगवन् ! माता लक्ष्मीजी आपकी माया शक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है ॥ 11 ॥ प्रभो ! आप ही इन महामायाके अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं। आप समस्त यज्ञ हैं हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया। आप फलके भोक्ता है और ये हैं उसको उत्पन्न करनेवाली क्रिया ॥ 12 ॥ माता लक्ष्मीजी तीनों गुणोंको अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करनेवाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं और लक्ष्मीजी शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मीजी नाम एवं रूप हैं और आप नाम रूप दोनोंके प्रकाशक तथा आधार हैं ।। 13 प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों के दानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा- अभिलाषाएँ आपकी कृपासे पूर्ण हो ll 14 ll

परीक्षित्! इस प्रकार परम वरदानी भगवान् लक्ष्मी नारायणकी स्तुति करके वहाँसे नैवेद्य हटा दे और आचमन कराके पूजा करे ॥ 15 ॥ तदनन्तर भक्तिभावभरित हृदयसे भगवान्‌की स्तुति करे और यज्ञावशेषको सूथकर फिर भगवान्‌को पूजा करे ।। 16 । भगवान्‌की पूजाके बाद अपने पतिको साक्षात् भगवान् समझकर परम प्रेमसे उनकी प्रिय वस्तुएं सेवामें उपस्थित करे। पतिका भी यह कर्तव्य है कि वह आन्तरिक प्रेमसे अपनी पत्नी के प्रिय पदार्थ ला- लाकर उसे दे और उसके छोटे-बड़े सब प्रकारके काम करता रहे ॥ 17 ॥ परीक्षित्! पति-पत्नीमेंसे एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनोंको होता है। इसलिये यदि पत्नी (रजोधर्म आदिके समय) यह व्रत करनेके अयोग्य हो जाय तो बड़ी एकता और सावधानीसे पतिको ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये ।। 18 ।। यह भगवान् विष्णुका व्रत है। इसका नियम लेकर बीचमें कभी नहीं छोड़ना चाहिये जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चन्दन, नैवेद्य और आभूषण आदिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मण और सुहागिनी स्त्रियोंका पूजन करे तथा भगवान् विष्णुकी भी पूजा करे॥ 19 ॥ इसके बाद भगवान्‌को उनके धाममें पधरा दे, विसर्जन कर दे। तदनन्तर आत्म शुद्धि और समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पहले से ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे ॥ 20 ॥साध्वी स्त्री इस विधिसे बारह महीनोंतक – पूरे सालभर | इस व्रतका आचरण करके मार्गशीर्षकी अमावस्याको उद्यापनसम्बन्धी उपवास और पूजन आदि करे ।। 21 ।। उस दिन प्रातःकाल ही स्नान करके पूर्ववत् विष्णुभगवान्का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञकी विधिसे घृतमिश्रित खीरकी अझिमें बारह आहुति | दे ।। 22 ।। इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें, तो बड़े आदरसे सिर झुकाकर उन्हें स्वीकार करे। भक्तिभावसे माथा टेककर उनके चरणोंमें प्रणाम करे और उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे ॥ 23 ॥ पहले आचार्यको भोजन कराये, फिर मौन होकर भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे। इसके बाद हवनसे बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नीको दे। वह प्रसाद स्त्रीको सत्पुत्र और सौभाग्य दान करनेवाला होता है ।। 24 ।।

परीक्षित्! भगवान् के इस पुंसवन-व्रतका जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रतका पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है ।। 25 । इस व्रतका अनुष्ठान करनेवाली कन्या समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रतसे निष्पाप होकर वैकुण्ठ जाती है। जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभावसे चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। धनवती किन्तु अभागिनी स्त्रीको सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरूपाको श्रेष्ठ रूप मिल जाता है। रोगी इस व्रतके प्रभावसे रोगमुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रियशक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य माङ्गलिक श्राद्धकम इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनन्त तृप्ति लाभ करते हैं ।। 26-27 ॥ वे सन्तुष्ट होकर हवनके समाप्त होनेपर व्रतीकी समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं। ये सब तो सन्तुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञोंके एकमात्र भोक्ता भगवान् लक्ष्मीनारायण भी सन्तुष्ट हो जाते हैं और व्रतीकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। परीक्षित् मैंने तुम्हें मरुद्रणकी आदरणीय और पुण्यप्रद जन्म कथा सुनायी और साथ ही दितिके श्रेष्ठ पुंसवन व्रतका वर्णन भी सुना दिया ॥ 28 ॥