Shree Naval Kishori

श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कंध

अध्याय 1 नारद युधिष्ठिर संवाद और जय-विजयकी कथा

राजा परीक्षितने पूछा-भगवन् ! भगवान् तो स्वभावसे ही भेदभावसे रहित हैं—सम हैं, समस्त प्राणियोंके प्रिय और सुहृद हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभावसे अपने मित्रका पक्ष ले और शत्रुओंका अनिष्ट करे, उसी प्रकार इन्द्रके लिये दैत्यों वध क्यों किया ? ॥ 1 ॥ वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओंसे कुछ लेना-देना नहीं है। तथा निर्गुण होनेके कारण दैत्योंसे कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है ॥ 2 ॥ भगवत्प्रेमके सौभाग्यसे सम्पन्न महात्मन्! हमारे चित्तमें भगवान्‌ के समत्व आदि गुणोंके सम्बन्धमें बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये || 3 ||

श्रीशुकदेवजीने कहा- महाराज भगवान् के अद्भुत चरित्रके सम्बन्धमें तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसङ्ग प्राद आदि भक्तोको महिमासे परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवणसे भगवान्‌की भक्ति बढ़ती है ॥ 4 ॥ इस परम पुण्यमय प्रसङ्गको नारदादि महात्मागण बड़े प्रेमसे गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनिको नमस्कार करके भगवान्को लीला कथाका वर्णन करता हूँ ॥ 5 ॥ वास्तवमें भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृतिसे परे हैं। ऐसा होनेपर भी अपनी मायाके गुणोंको स्वीकार करके वे बाध्यबाधक भावको अर्थात् मरने और मारनेवाले दोनोंके परस्पर विरोधी रूपोंको ग्रहण करते हैं ॥ 6 ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण —ये प्रकृतिके गुण हैं, परमात्माके नहीं। परीक्षित् । इन तीनों गुणोंकी भी एक साथ ही घटती बढ़ती नहीं होती ॥ 7 ॥ भगवान् समय-समयके अनुसार गुणोंको स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुणकी वृद्धिके समय देवता और ऋषियोंका, रजोगुणकी वृद्धिके समय दैत्योंका और तमोगुणकी वृद्धिके समय वे यक्ष एवं राक्षसोकोअपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं ॥ 8 ॥ जैसे | व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें रहनेपर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करनेपर वह | प्रकट हो जाती है वैसे ही परमात्मा सभी शरीरोंमें रहते विचारशील पुरुष हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु हृदयमन्थन करके उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओंका बाध करके अन्ततः अपने हृदयमें ही अन्तर्यामीरूपसे उन्हें प्राप्त कर लेते हैं ॥ 9 ॥ जब परमेश्वर अपने लिये शरीरोंका निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी मायासे रजोगुणकी अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियोंमें रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुणकी सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुणको बढ़ा देते हैं ॥ 10 ॥ परीक्षित् ! भगवान् सत्यसङ्कल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्तिके निमित्तभूत प्रकृति और पुरुषके | सहकारी एवं आश्रय कालकी सृष्टि करते हैं। इसलिये वे कालके अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है। राजन्। ये कालस्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुणकी वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओंका बल बढ़ाते है और तभी ये परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्योंका संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं ll 11 ll

राजन्। इसी विषयमें देवर्षि नारदने बड़े प्रेमसे एक इतिहास कहा था। यह उस समयकी बात है, जब राजसूय यज्ञमें तुम्हारे दादा युधिष्ठिरने उनसे इस सम्बन्धमें एक प्रश्न किया था ।। 12 ।। उस महान् राजसूय यज्ञमें राजा युधिष्ठिरने अपनी आँखोंके सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्णमें समा गया । 13 ।। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटनासे आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिरने बड़े-बड़े मुनियोंसे भरी हुई सभामें, उस यज्ञमण्डपमें ही | देवर्षि नारदसे यह प्रश्न किया ।। 14 ।।

युधिष्ठिरने पूछा- अहो ! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्णमें समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तोंके लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान्से द्वेष करनेवाले शिशुपालको यह गति कैसे मिली ? ॥ 15 ॥ नारदजी। इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकालमे भगवान्‌को निन्दा करनेके कारण ऋषिय राज वेनको नरकमे डाल दिया था ॥ 16 ॥यह दमघोषका लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र- दोनों ही जबसे तुतलाकर बोलने लगे थे, तबसे अबतक भगवान्से द्वेष ही करते रहे हैं ॥ 17 ॥ अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्णको ये पानी पी-पीकर गाली देते रहे हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभमें कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरकको ही प्राप्ति हुई ।। 18 ।। प्रत्युत जिन भगवान्‌की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हींमें ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये—इसका क्या कारण है ? ॥ 19 ॥ हवाके झोंकेसे लड़खड़ाती हुई दीपककी लौके समान मेरी बुद्धि इस विषयमें बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटनाका रहस्य समझाइये ॥ 20 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं— सर्वसमर्थ देव नारद राजाके ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिरको सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही ॥ 21 ॥

नारदजीने कहा- युधिष्ठिर निन्दा, स्तुति, । सत्कार और तिरस्कार- -इस शरीरके ही तो होते हैं। इस शरीरकी कल्पना प्रकृति और पुरुषका ठीक-ठीक विवेक न होनेके कारण ही हुई है ।। 22 ।। जब इस शरीरको ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभावका मूल है। इसीके कारण ताड़ना और दुर्वचनोंसे पीड़ा होती है ।॥ 23 ॥ जिस शरीरमें अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीरके वधसे प्राणियोंको अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान्‌में तो जीवोंके समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय है। वे जो दूसरोंको दण्ड देते हैं—वह भी उनके कल्याणके लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान्के सम्बन्धमे हिंसाकी कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है ।। 24 । इसलिये चाहे सुद्द वैरभावसे या वैरहीन भक्तिभावसे, भयसे, स्नेहसे अथवा कामनासे-कैसे भी हो, भगवान् ‌में अपना मन पूर्णरूपसे लगा देना चाहिये। भगवान्‌की दृष्टिसे इन भावोंमें कोई भेद नहीं है ॥ 25 ॥युधिष्ठिर ! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य भगवानमें जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोगसे | नहीं होता || 26 ॥ भृङ्गी कीड़ेको लाकर भीतपर अपने छिद्रमें बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग भृङ्गीका चिन्तन करते-करते उसके जैसा ही हो जाता | है ॥ 27 ॥ यही बात भगवान् श्रीकृष्णके सम्बन्धमें भी है। लीलाके द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करनेवाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हींको प्राप्त हो गये ॥ 28 ॥ एक नहीं, अनेकों मनुष्य कामसे, द्वेषसे, भयसे और स्नेहसे अपने मनको भगवान्‌में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान्‌को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्तिसे ॥ 29 ॥ महाराज ! गोपियोंने भगवान्से | मिलनके तीव्र काम अर्थात् प्रेमसे, कंसने भयसे, | शिशुपाल- दन्तवक्त्र आदि राजाओंने द्वेषसे, यदुवंशियोंने परिवारके सम्बन्धसे, तुमलोगोंने स्नेहसे और हमलोगोंने भक्तिसे अपने मनको भगवान्‌में लगाया है ॥ 30 ॥ भक्तोंके अतिरिक्त जो पाँच प्रकारके भगवान्‌का चिन्तन करनेवाले हैं, उनमेंसे राजा वेनकी तो किसीमें भी गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकारसे भगवान्में मन नहीं लगाया था ) । सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना | मन भगवान् श्रीकृष्णमें तन्मय कर देना चाहिये ॥ 31 ॥ महाराज! फिर तुम्हारे मौसेरे भाई शिशुपाल और | दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णुभगवान् के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणोंके शापसे इन दोनोंको अपने पदसे च्युत होना पड़ा था ।। 32 ।।

राजा युधिष्ठिरने पूछा- नारदजी ! भगवान्‌के पार्षदों को भी प्रभावित करनेवाला वह शाप किसने दिया था तथा वह कैसा था ? भगवान्‌के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसारमें आयें, यह बात तो कुछ | अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है ॥ 33 ॥ वैकुण्ठके | रहनेवाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणोंसे रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीरसे सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये ।। 34 ।।

नारदजीने दिन मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकोंमें स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठमें जा पहुँचे ॥ 35 ॥यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानो पाँच-छः बरसके बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालोंने उनको भीतर जानेसे रोक दिया ।। 36 । इसपर वे क्रोधित से हो गये और उन्होंने द्वारपालोंको यह शाप दिया कि ‘मूर्खो! भगवान् विष्णुकेचरण तो जो औरत है। तुम दोनों इनके समीप निवास करनेयोग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँसे पापमयी असुरयोनिमें जाओ’ ॥ 37 ॥ उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठसे नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओंने कहा- -‘अच्छा तीन जन्मोंमें इस शापको भोगकर तुमलोग फिर इसी वैकुण्ठमें आ जाना’ ॥ 38 ॥

युधिष्ठिर । वे ही दोनों दितिके पुत्र हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटेका हिरण्याक्ष दैत्य और दानवोंके समाजमें यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे ॥ 39 ॥ विष्णुभगवान्ने नृसिंहका रूप धारण करके हिरण्यकशिपुको और पृथ्वीका उद्धार करने के समय वराहावतार ग्रहण करके हिरण्याक्षको मारा ।। 40 ।। हिरण्यकशिपुने अपने पुत्र महादको भगवत्प्रेमी होने के कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं ॥। 41 ।। परन्तु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान्‌के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदयमें अटल शान्ति थी। भगवान्‌के प्रभावसे वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरहसे चेष्टा बननेपर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालने में समर्थ न हुआ ॥ 42 ॥

युधिष्ठिर वे ही दोनों विश्रवा मुनिके द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भसे राक्षसोंके रूपमें पैदा हुए। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातोंसे सब लोकों में आग सी लग गयी थी ॥ 43 ॥ उस समय भी भगवान्ने उन्हें शापसे छुड़ानेके लिये रामरूपसे उनका वध किया। युधिष्ठिर । मार्कण्डेय मुनिके मुखसे तुम भगवान् श्रीरामका चरित्र सुनोगे ॥ 44 ॥ वे ही दोनों जय-विजय इस जन्ममें तुम्हारी मौसीके लड़के शिशुपाल और दन्तवकवके रूपमें क्षत्रियकुलमें उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्णके चक्रका स्पर्श प्राप्त हो जानेसे उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादिके शापसे मुक्त हो गये ।। 45 ।। वैरभावके कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान्‌को प्राप्त हो गयेऔर पुनः उनके पार्षद होकर उन्हींके समीप चले गये ॥ 46 ॥ युधिष्ठिरजीने पूछा – भगवन् ! हिरण्यकशिपुने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लादसे इतना द्वेष क्यों किया ? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे। साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधनसे प्रह्लाद भगवन्मय हो गये ॥ 47 ॥

अध्याय 2 हिरण्याक्षका वध होनेपर हिरण्यकशिपुका अपनी माता को समझाना

नारदजीने कहा – युधिष्ठिर! जब भगवान्ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्षको मार डाला, तब भाईके इस प्रकार मारे जानेपर हिरण्यकशिपु रोपसे जल-भुन गया और शोक सन्तप्त हो उठा ॥ 1 ॥ वह क्रोधसे काँपता हुआ अपने दाँतोंसे बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोधसे दहकती हुई आँखोंकी आगके धूएँसे धूमिल हुए आकाशकी ओर देखता हुआ वह कहने लगा ॥ 2 ॥ उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलनेवाली उम्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौहोके कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभामें त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचिति, पुलोमा और शकुन आदिको सम्बोधन करके कहा- ‘दैत्यो और दानवो तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो ॥ 35 ॥ तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओंने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाईको विष्णुसे मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनोंके प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओंने उसे अपने पक्षमें कर लिया है ॥ 6॥यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था। परन्तु अब मायासे वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभावसे च्युत हो गया है। बच्चेकी तरह जो उसकी सेवा करे, उसीकी ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर है नहीं है || 7 || अब मैं अपने इस शूलसे उसका गला काट डालूँगा और उसके खूनकी धारासे अपने रुधिरप्रेमी भाईका तर्पण करूंगा। तब कहीं मेरे हृदयकी पीड़ा शान्त होगी ॥ 8 ॥ उस मायावी शत्रुके नष्ट होनेपर, पेड़की जड़ कट जानेपर डालियोंकी तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है ॥ 9 ॥ इसलिये तुमलोग इसी समय पृथ्वीपर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो ॥ 10 ॥ विष्णुकी जड़ है द्विजातियोंका धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्मका वही परम आश्रय है ॥ 11 ॥ जहाँ-जहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशोंमें तुमलोग जाओ, उन्हें जला दो उजाड़ डालो’ ॥ 12 ॥

दैत्य तो स्वभावसे ही लोगोंको सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी आशा उन्होंने बड़े आदर सिर झुकाकर स्वीकार की और उसीके अनुसार जनताका नाश करने लगे ॥ 13 ॥ उन्होंने नगर, गाँव, गौओंके रहनेके स्थान, बगीचे, खेत, टहलनेके स्थान, ऋषियोंके आश्रम, रत्न आदिकी खानें, किसानोंकी बस्तियाँ, तराईके गाँव, अहीरोंकी बस्तियाँ और व्यापारके केन्द्र बड़े-बड़े | नगर जला डाले || 14 || कुछ दैत्योंने खोदनेके शस्त्रोंसे बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगरके फाटकोंको तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरोंने कुल्हाड़ियोंसे फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्योंने जलती हुई लकड़ियोंसे लोगों के घर जला दिये ॥ 15 ॥ इस प्रकार दैत्योंने निरीह प्रजाका बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवतालोग स्वर्ग छोड़कर | छिपे रूपसे पृथ्वीमें विचरण करते थे ।। 16 ।।

युधिष्ठिर भाईकी मृत्युसे हिरण्यकशिपुको बड़ा दुःख हुआ था जब उसने उसकी अन्येष्टि क्रियासे छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक,कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजोंको सान्त्वना दी ।। 17-18 ॥ उनका माता रुषाभानुको और अपनी माता दितिको देश-कालके अनुसार मधुर वाणीसे समझाते हुए कहा ।। 19 ।।

हिरण्यकशिपुने कहा – मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो ! तुम्हें वीर हिरण्याक्षके लिये किसी प्रकारका शोक | नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरोंके लिये ऐसी ही मृत्यु | श्लाघनीय होती है ॥ 20 ॥ देवि ! जैसे प्याऊपर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देरके लिये ही होता है—वैसे ही अपने कर्मोक फेरसे दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं ।। 21 ।। वास्तवमें आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदिसे पृथक् है। वह अपनी अविद्यासे ही देह आदिकी सृष्टि करके भोगोंके साधन सूक्ष्मशरीरको स्वीकार करता है 22 ॥ जैसे हिलते हुए पानीके साथ उसमें प्रतिबिम्बित होनेवाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँखके साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है, कल्याणी! वैसे ही विषयोंके कारण मन भटकने लगता है और वास्तवमें निर्विकार होनेपर भी उसीके समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म शरीरोंसे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है ।। 23-24 सब प्रकारसे शरीररहित आत्माको शरीर समझ लेना—यही तो अज्ञान है। इसीसे प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओंका मिलना और बिछुड़ना होता है। इसीसे कर्मकि साथ सम्बन्ध हो जानेके कारण संसारमें भटकना पड़ता है ॥ 25 ॥ जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकारके शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेककी विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है ।। 26 । इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्यके सम्बन्धियोंके साथ यमराजकी बातचीत है। तुमलोग ध्यानसे उसे सुनो ॥ 27 ॥उशीनर देशमें एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ लड़ाई में शत्रुओंने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये ।। 28 ।। उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणोंकी मारसे कलेजा फट गया था। शरीर खूनसे लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धंस गयी थीं। क्रोधके मारे दांतोंसे उसके होठ दबे हुए थे। कमलके समान मुख धूलसे ढक गया था। युद्धमें उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं ।। 29-30 ।।

रानियोंको दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेशकी यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा नाथ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं। यों कहकर बार-बार जोरसे छाती पीटती हुई अपने स्वामीके चरणोंके पास गिर पड़ीं ।। 31 ।। वे जोर-जोरसे इतना रोने लगीं कि उनके कुचकुमसे मिलकर बहते हुए आंसुओंने प्रियतमके पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण क्रन्दनके साथ विलाप कर रही थी, जिसे सुनकर मनुष्य हृदयमें शोकका संचार हो जाता था ॥ 32 ॥ ‘हाय ! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन्! उसीने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियोंके जीवनदाता थे। आज उसीने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं ॥ 33 ॥ पतिदेव ! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवाको भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणोंकी चेरी हैं। वीरवर! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलनेकी हमें भी आज्ञा दीजिये 34 वे अपने पतिकी लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्देको वहाँसे दाहके लिये जाने देनेकी उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतनेमें ही सूर्यास्त हो गया ।। 35 । उस समय उशीनरराजाके सम्बन्धियोंने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालकके वेषमें आये और उन्होंने उन लोगोंसे कहा- ।। 36 ।।यमराज बोले- बड़े आश्चर्यकी बात है! ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगोंका मरना जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँस 1 आया था, वहीं चला गया। इन लोगोंको भी एक-न-एक दिन वहाँ जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं ? ॥ 37 ॥ हम तो तुमसे लाखगुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बापने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीरमें पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भमें रक्षा की थी, वही इस जीवनमें भी हमारी रक्षा करता रहता है ॥ 38 ॥ देवियो ! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौजसे इस जगत्को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है—उस प्रभुका यह एक खिलौनामात्र है। वह इस चराचर जगत्‌को दण्ड या पुरस्कार देनेमें समर्थ है ।। 39 ।। भाग्य अनुकूल हो तो रास्तेमें गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्यके प्रतिकूल होनेपर घरके भीतर तिजोरीमें रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारेके दैवकी | दयादृष्टिसे जंगलमें भी बहुत दिनोंतक जीवित रहता है, परंतु दैवके विपरीत होनेपर घरमें सुरक्षित रहनेपर भी मर जाता है ॥ 40 ॥

रानियो ! सभी प्राणियोंकी मृत्यु अपने पूर्वजन्मोंकी कर्मवासना के अनुसार समयपर होती है और उसीके अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीरसे अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहनेपर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मोसे अछूता ही रहता है ।। 41 । जैसे | मनुष्य अपने मकानको अपनेसे अलग और मिट्टीका समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टीका है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानीके विकार, घड़े आदि मिट्टीके विकार और गहने आदि स्वर्णके विकार समयपर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनोंके विकारसे बना हुआ यह शरीर भी समयपर बन बिगड़ जाता है ।। 42 ।। जैसे काठमें रहनेवाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही | उससे अलग है, जैसे देहमें रहनेपर भी वायुका उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहनेपर भी किसीके दोष-गुणसे लिप्त नहीं होता- वैसे ही समस्तदेहेन्द्रियोंमें रहनेवाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है ॥ 43 ॥

मूर्खो! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नामका शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुमलोग इसीको देखते थे। इसमें जो सुननेवाला और बोलनेवाला था, वह तो कभी किसीको नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों ? ।। 44 ।। (तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुननेवाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्तिके समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीरमें सब इन्द्रियोंकी चेष्टाका हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होनेपर भी बोलने या सुननेवाला नहीं है क्योंकि यह जड़ है। देह और इन्द्रियोंके द्वारा सब पदार्थोंका द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनोंसे पृथक् है ।। 45 ।। यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है फिर भी पञ्चभूत, इन्द्रिय और मनसे युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरोंको ग्रहण करता और अपने विवेकवलसे मुक्त भी हो जाता है। वास्तवमें वह इन सबसे अलग है ॥ 46 ॥ जबतक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन इन संग्रह तत्वों से बने हुए लिङ्गारसे युक्त रहता है, तभीतक कर्मोंसे बँधा रहता है और इस बन्धनके कारण ही मायासे होनेवाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं ॥ 47 ॥ प्रकृतिके गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओंको सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठका दुराग्रह है। मनोरथके समयकी कल्पित और स्वप्रके समयकी दीख पड़नेवाली वस्तुओंके समान इन्द्रियोंके द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है ॥ 48 ॥ इसलिये शरीर और आत्माका तत्त्व जाननेवाले पुरुष न तो अनित्य शरीरके लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्माके लिये ही। परन्तु ज्ञानकी दृढ़ता न होनेके कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है ।। 49 ।।

किसी जंगलमें एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाताने मानो उसे पक्षियोंके कालरूपमें ही रच रखा था। जहाँ कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियोंको फँसा लेता ॥ 50 ॥ एक दिन उसने कुलिङ्ग पक्षीके एक जोड़ेको चारा चुगते देखा। उनमेंसे उस बहेलियेने मादा पक्षीको तो शीघ्र ही फँसा लिया ।। 51 ।। कालवश वह जालके फंदोंमें फँस गयी। नर पक्षीको अपनी | मादाकी विपत्तिको देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेहसे उस बेचारीके लिये विलाप करने लगा ।। 52 ।। उसने कहा- ‘यो तो विधाता सब कुछकर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागेके लिये शोक करती हुई। | बड़ी दीनतासे छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या ॥ 53 ॥ उसकी मौज हो तो मुझे ले जाय। इसके बिना मैं अपना यह अधूरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःखसे भरा हुआ है, लेकर क्या करूंगा ।। 54 ।। अभी मेरे अभागे बच्चों पर भी नहीं जमे हैं। स्त्रीके मर जानेपर उन मातहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा ? ओह घोंसले के अपनी माकी बाट देख रहे होंगे’ ॥ 55 ॥ इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। अपनी सहचरीके वियोगसे वह आतुर हो रहा था। आँसुओंके मारे उसका | गला रुँध गया था। तबतक कालकी प्रेरणासे पास ही छिपे हुए उसी बहेलियेने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया ॥ 56 ॥ मूर्ख रानियो ! तुम्हारी भी यही दशा होनेवाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो ! यदि तुमलोग सौ बरसतक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी ।। 57 ।।

हिरण्यकशिपुने कहा-उस छोटेसे बालकको ऐसी ज्ञानपूर्ण बातें सुनकर सब के सब दंग रह गये। उशीनर-नरेशके भाई-बन्धु और स्त्रियोंने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं ॥ 58 ॥ यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई बन्धुओंने भी सुयज्ञकी अपेष्टि क्रिया की ।। 59 ।। इसलिये तुमलोग भी अपने लिये या किसी दूसरेके लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन . अपना है और कौन अपनेसे भिन्न ? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियोंको अज्ञानके कारण ही यह अपने | परायेका दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धिका और कोई कारण नहीं है ॥ 60 ॥

नारदजीने कहा- युधिष्ठिर अपनी पुत्रवधूके साथ दितिने हिरण्यकशिपुकी यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोकका त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मामें लगा दिया ॥ 61 ॥

अध्याय 3 हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरप्राप्ति

नारदजीने कहा— युधिष्ठिरं ! अब हिरण्यकशिपुने यह विचार किया कि मैं अजेय, अजर, अमर और संसारका एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ातक न हो सके ॥ 1 ॥ इसके लिये वह मन्दराचलकी एक घाटीमें जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाशको ओर देखता हुआ वह पैरके अंगूठेके बल पृथ्वीपर खड़ा हो गया ॥ 2 ॥ उसको जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकालके सूर्यको किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्यामें संलग्न हो गया, तब देवतालोग अपने-अपने स्थानों और पदोंपर पुनः प्रतिष्ठित हो गये 3 बहुत दिनोंतक तपस्या करनेके बाद उसको तपस्याकी आग धूएँके साथ सिरसे निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगलके लोकोंको जलाने लगी ।। 4 ।। उसकी लपटसे नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतोंके सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। यह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों दिशाओंमें मानो आग लग गयी ॥ 5 ॥

हिरण्यकशिपुको उस तपोमयी आगकी लपटोंसे स्वर्गके देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्गसे ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजीसे प्रार्थना करने लगे- ‘हे देवताओंके भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्माजी ! हमलोग हिरण्यकशिपुके तपकी ज्वालासे जल रहे हैं। अब हम स्वर्गमे नहीं रह सकते। हे अनन्त! हे सर्वाध्यक्ष ! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करनेवाली जनताका नाश होनेके पहले ही यह ज्वाला शान्त कर | दीजिये 6-7 ॥ भगवन्! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओरसे आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्रायसे यह घोर तपस्या कर रहा है। सुनिये, उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्माजी अपनी तपस्या और योगके प्रभावसे इस चराचर जगत्‌को सृष्टि करके | सब लोकोंसे ऊपर सत्यलोकमें विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उम्र तपस्या और योगके प्रभावसे वही पद और | स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है औरआत्मा नित्य है। एक जन्ममें नहीं, अनेक जन्म; एक युगमें न सही, अनेक युगोंमें ॥ 8-10 ॥ अपनी तपस्या की। शक्तिसे मैं पाप-पुण्यादिके नियमोंको पलटकर इस संसारमें ऐसा उलट-फेर कर दूंगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदोंमें तो रखा ही क्या है। क्योंकि | कल्पके अन्तमें उन्हें भी कालके गालमें चला जाना पड़ता ॥ 11 ॥ हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्यामें जुटा हुआ है। आप तीनों लोकोंके स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें ॥ 12 ॥ ब्रह्माजी ! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओंकी वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजयके लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपुके हाथमें चला गया, तो सज्जनोंपर सङ्कटोंका पहाड़ टूट पड़ेगा ) ॥ 13 ॥

युधिष्ठिर जब देवताओंने भगवान् ब्रह्माजीसे इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियोंके साथ हिरण्यकशिपुके आश्रमपर गये || 14 वहाँ जानेपर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमककी मिट्टी, घास और बाँसोंसे उसका शरीर ढक गया था। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं ॥ 15 ॥ बादलोंसे ढके हुए सूर्यके समान वह अपनी तपस्याके तेजसे लोकोंको तपा रहा था। उसको देखकर जी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा ।। 16 ।।

ब्रह्माजीने कहा- बेटा हिरण्यकशिपु उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देनेके लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखटके माँग लो ॥ 17 ॥ मैने तुम्हारे हृदयका अद्भुत बल देखा। अरे, डॉसने तुम्हारी देह सा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियोंके सहारे टिके हुए हैं ॥ 18 ॥ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषिने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओंके सौ वर्षतक बिना पानीके जीता रहे ।। 19 ।। बेटा हिरण्यकशिपु । तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनतासे कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठासे मुझे अपने वशमें कर लिया है ।। 20 ।। दैत्यशिरोमणे । इसीसे प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ माँगो, दिये देता हूँ। तुम हो | मरनेवाले और मैं हूँ अमर । अतः तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता ।। 21 ।।

नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर! इतना कहकर ब्रह्माजीने उसके चोटियोसे खाये हुए शरीरपर अपने कमण्डलुका दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिड़क दिया ॥ 22 ॥ जैसे लकड़ीके ढेरमेंसे आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिड़कते ही बाँस और दीमकोंकी मिट्टीके बीचसे उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवोंसे पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियोंमें शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अङ्ग वज्रके समान कठोर एवं तपाये हुए सोनेकी तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ ॥ 23 ॥ उसने देखा कि आकाशमें हंसपर चढ़े हुए ब्रह्माजी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वीपर रखकर उसने उनको नमस्कार किया ।। 24 ।। फिर अञ्जलिधिकर प्रभावसे खड़ा हुआ और बड़े प्रेमसे अपने निर्निमेष नयनोंसे उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणीसे स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था ।। 25 ।।

हिरण्यकशिपुने कहा- कल्पके अन्तमें यह सारी सृष्टि कालके द्वारा प्रेरित तमोगुणसे, घने अन्धकारसे ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेजसे पुनः इसे प्रकट किया ।। 26 ।। आप ही अपने त्रिगुणमय रूपसे इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणके आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 27 ॥आप ही जगत्के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति है। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि क द्वारा आपने अपनेको प्रकट किया है ॥ 28 ॥ आप मुख्यप्राण सूत्रात्माके रूपसे चराचर जगत्‌को अ नियन्त्रणमे रखते हैं। आप ही प्रजाके रक्षक भी है। भगवन् ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियोंके स्वामी आप ही हैं। पञ्चभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारोकि | रचयिता भी महत्तत्त्वके रूपमें आप ही हैं ॥ 29 ॥ जो बेट होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता इन ऋत्विजेये होनेवाले यज्ञका प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर है। उन्हींके द्वारा अनिष्टोम आदि सात यज्ञोंका आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियोंके आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं ॥ 30 ॥ आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागोंके द्वारा लोगोंकी आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार है। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवोंके जीवनदाता अन्तरात्मा हैं ॥ 31 ॥ प्रभो ! कार्य, कारण, चल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आपसे भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर है। आप त्रिगुणमयी मायासे अतीत स्वयं ब्रह्म है। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपनेमेंसे ही प्रकट करते हैं ।। 32 ।। प्रभो ! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मनके विषयोंका उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल सूक्ष्मसे परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं ॥ 33 ॥ आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूपसे सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 34 ॥

प्रभो। आप समस्त वरदाताओंमें श्रेष्ठ है। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणीसे― चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा | नागादि – किसीसे भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिनमें रात्रि में, आपके बनाये प्राणियोंके अतिरिक्त और भी किसी जीवसे, अस्त्र-शस्त्रसे, पृथ्वी या आकाशमें-कहींभी मेरी मृत्यु न हो। युद्धमें कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियोंका एकच्छत्र सम्राट् होऊँ ।। 35-37 ॥ इन्द्रादि समस्त लोकपालोंमें जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियोंको जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये ॥ 38 ॥

अध्याय 4 हिरण्यकशिपुके अत्याचार और प्रह्लादके गुणोंका वर्णन

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर ! हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीसे इस प्रकारके अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्यासे प्रसन्न होनेके कारण उसे वे वर दे दिये ॥ 1 ॥

– ब्रह्माजीने कहा- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवोंके लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होनेपर भी मैं तुम्हें वे सब वर दिये देता हूँ ॥ 2 ॥

[ नारदजी कहते हैं— ] ब्रह्माजीके वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवद्रूप ही हैं। वरदान मिल जानेके बाद हिरण्यकशिपुने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोकको चले गये॥ 3 ॥ ब्रह्माजीसे वर प्राप्त करनेपर हिरण्यकशिपुका शरीर सुवर्णके समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाईकी मृत्युका स्मरण करके भगवान्से द्वेष करने लगा ॥ 4 ॥ उस महादैत्यने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड, सर्प, सिद्ध चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरोंके अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियोंके राजाओंको जीतकर अपने वशमें कर लिया। यहाँतक कि उस विश्व-विजयी दैत्यने लोकपालोकीशक्ति और स्थान भी छीन लिये ॥ 57 ॥ अब वह नन्दवन आदि दिव्य उद्यानोंके सौन्दर्यसे युक्त स्वर्ण ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्माका बनाया हुआ इन्द्रका भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवनमें तीनों लोकोंका सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे सम्पन्न था ॥ 8 ॥ उस महलमें गूँगेकी सीढ़ियाँ, पत्रेकी गये, स्फटिकमणिकी दीवारे, वैदूर्यमणिके खंभे और माणिकको कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चैदोवे तथा दूधके फेनके समान शय्याएँ, जिनपर मोतियोंकी झालरें लगी हुई थी, शोभायमान हो रही थीं ॥ 9-10 ॥ सर्वाङ्गसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरोंसे रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमिपर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं ।। 11 ।। उस महेन्द्रके महलमें महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकोंको जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रतासे विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणोंकी वन्दना करते रहते थे ॥ 12 ॥ युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्धवाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बलका वह भंडार था। ब्रह्म, विष्णु और महादेवके सिया और सभी देवता अपने हाथोंमें भेंट ले-लेकर उसकी सेवामें लगे | रहते ॥ 13 ॥ जब वह अपने पुरुषार्थसे इन्द्रासनपर बैठ गया, तब युधिष्ठिर। विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएं बार-बार उसको स्तुति करती थीं ॥ 14 ॥

युधिष्ठिर। यह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रमधर्मका | पालन करनेवाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञ करते, उनके वशोंकी आहुति वह स्वयं छीन लेता ॥ 15 ॥पृथ्वीके सातों द्वीपोंमें उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते बोये धरतीसे अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्षसे उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँतिकी आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था ।। 16 ।। इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानीके समुद्र भी अपनी पत्नी नदियोंके साथ तरङ्गोंके द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे ॥ 17 ॥ पर्वत अपनी घाटियोंके रूपमें उसके लिये खेलनेका स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओंमें फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालोके विभिन्न गुणोंको धारण करता ॥ 18 ॥ इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपनेको प्रिय लगनेवाले विषयोंका स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयोंसे भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियोंका दास ही तो था ।। 19 ।।

युधिष्ठिर । इस रूपमें भी वह भगवान्का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकोंने शाप दिया था। वह ऐश्वर्यके मदसे मतवाला हो रहा था तथा घमंडमें चूर होकर शास्त्रोंकी मर्यादाका उल्लङ्घन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवनका बहुत-सा समय बीत गया ॥ 20 ॥ उसके कठोर शासनसे सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसीका आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान्की शरण ली ॥ 21 ॥ (उन्होंने मन-ही-मन कहा— ) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं। और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान्‌के उस परम धामको हम नमस्कार करते हैं’ ।। 22 ।। इस भावसे अपनी इन्द्रियोंका संयम और मनको समाहित करके उन लोगोंने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदयसे भगवान्‌की आराधना की ।। 23 । एक दिन उन्हें मेघके समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनिसे दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओंको अभय देनेवाली वह वाणी यों थी- 24 ॥ श्रेष्ठ देवताओ डरो मत। तुम सब लोगोंका कल्याण हो मेरे दर्शनसे प्राणियोंको परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है॥ 25 ॥ इस नीच दैत्यकी दुष्टताका मुझे पहलेसे ही पता है। मैं इसको मिटा दूंगा। अभी कुछ दिनोंतक समयकी प्रतीक्षा करो।। 26 ।।कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है || 27 || जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लादसे द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वरके कारण शक्तिसम्पन्न होनेपर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा । ॥ 28 ॥

नारदजी कहते हैं-सबके हृदयमें ज्ञानका सञ्चार | करनेवाले भगवान्ने जब देवताओंको यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग | मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया ।। 29 ।।

युधिष्ठिर। दैत्यराज हिरण्यकशिपुके बड़े ही क्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणोंमें सबसे बड़े थे। वे बड़े संतसेवी थे ॥ 30 ॥ ब्राह्मणभक्त, सौम्यस्वभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियोंके साथ अपने ही समान समताका बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे ॥ 31 ॥ बड़े लोगोंके चरणोंमें सेवककी तरह झुककर रहते थे। गरीबोंपर पिताके समान स्नेह रखते थे। बरारीवालोंसे भाईके समान प्रेम करते और गुरुजनों भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता सम्पत्र होनेपर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छूतक नहीं गयी थी ॥ 32 ॥ बड़े-बड़े दुःखोंमें भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक परलोकके विषयोंको उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मनमें किसी भी वस्तुकी लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वशमे थे। उनके पित्तमे कभी किसी प्रकारकी कामना नहीं उठती थी। जन्मसे असुर होनेपर भी उनमें आसुरी सम्पत्तिका लेश भी नहीं ॥ 33 ॥ जैसे भगवान्‌के गुण अनन्त है, वैसे ही प्रह्लादके श्रेष्ठ गुणोंकी भी कोई सीमा नहीं है। महात्मालोग | सदासे उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये है। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं 34 ॥ युधिष्ठिर। यो तो देवता उनके शत्रु है; परन्तु फिर भी | भक्तोका चरित्र सुननेके लिये जब उन लोगोंकी सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तोंको प्रह्लादके समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त | उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है ॥ 35 ॥उनकी महिमाका वर्णन करनेके लिये अगणित गुणोंके कहने-सुननेकी आवश्यकता नहीं। केवल एक ही गुण भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनको महिमाको प्रकट करनेके लिये पर्याप्त है ।। 36 ।।

युधिष्ठिर। प्रह्लाद बचपनमें ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यानमें जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्णके अनुग्रहरूप ग्रहने उनके हृदयको इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत्की कुछ सुध-बुध ही न रहती ॥ 37 ॥ उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में | लेकर आलिङ्गन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातोंका ध्यान बिलकुल न रहता ॥ 38 ॥ कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावनामें उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोरसे रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेकसे उठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यानके मधुर आनन्दका अनुभव करके जोरसे गाने लगते ॥ 39 ॥ वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक लज्जाका त्याग करके प्रेममें छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीलाके चिन्तनमें इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हींका अनुकरण करने लगते ॥ 40 कभी भीतर ही भीतर भगवान्‌का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्दमें मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्दके रहते 41 ॥ भगवान् श्रीकृष्णके आँसुओंसे भरे रहते ।। 49 ।। चरणकमलोंकी यह भक्ति अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओंके सहसे ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्दमें मन रहते ही थे; जिन बेचारोंका मन कुसङ्गके कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते 42 युधिष्ठिर प्रह्लाद भगवान्के परम प्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटिके महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधु पुत्रको भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करनेकी चेष्टा करने लगा ।। 43 ।।

युधिष्ठिरने पूछा- नारदजी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपुने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्रसे द्रोह क्यों किया ॥ 44 ॥ पिता तो स्वभावसे ही अपने पुत्रोंसे प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देनेके लिये ही डाँटते हैं, शत्रुकी तरह वैर-विरोध तो नहीं करते ।। 45 ।।फिर प्रह्लादजी-जैसे अनुकूल, शुद्धहृदय एवं गुरुजनोंमें भगवद्भाव करनेवाले पुत्रोंसे भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारदजी ! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिताने द्वेषके कारण पुत्रको मार डालना चाहा । आप कृपा करके मेरा यह कुतूहल शान्त कीजिये ॥ 46 ॥

अध्याय 5 हिरण्यकशिपुके द्वारा प्रहादजीके वधका प्रयत्न

नारदजी कहते है— पुधिष्ठिर। दैत्याने भगवान् शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो | पुत्र थे- शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहलके पास ही रहकर हिरण्यकशिपुके द्वारा भेजे हुए नीतिनिपुण बालक प्रह्लादको और दूसरे पढ़ानेयोग्य दला-बालको राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे ॥ 1-2 ॥ प्रह्लाद गुरुजीका पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मनसे अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठका मूल आधार था अपने और परायेका झूठा आग्रह ॥ 3 ॥ बुधिष्ठिर एक दिन अपने पुत्र प्रह्लादको बड़े प्रेमसे गोदमें लेकर पूछा- ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है ?* ॥ 4 ॥

प्रह्लादजीने कहा- पिताजी । संसारके प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रहमें पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियोंके लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतनके मूल कारण, घास के हुए रे के समान इस घरको छोड़कर उनमे चले जाये और भगवान् श्रीहरिकी शरण ग्रहण करें ॥ 5 ॥नारदजी कहते हैं-प्रहादजीके मुँहसे शत्रुपक्षकी प्रशंसासे भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- ‘दूसरोंके बहकानेसे बच्चोंकी बुद्धि यो हो बिगड़ जाया करती है ॥ 6 ॥ जान पड़ता है गुरुजीके घरपर विष्णुके पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालककी भलीभाँति देख-रेख की जाय जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने न पाये ॥ 7 ॥

जब दैत्योंने प्रह्लादको गुरुजीके घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितोंने उनको बहुत पुचक्कर और फुसलाकर बड़ी मधुर वाणीसे पूछा 8 ॥ बेटा प्रह्लाद ! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उल्टी कैसे हो गयी ? और किसी बालककी बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई ॥ 9 ॥ कुलनन्दन प्रह्लाद ! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसीने सचमुच तुमको बहका दिया है ? ॥ 10 ॥

प्रह्लादजीने कहा-जिन मनुष्यों को बुद्धि मोहसे ग्रस्त हो रही है, उन्हींको भगवान्‌की मायासे यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान्‌को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 11 ॥ वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब | मनुष्योंकी पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशुबुद्धिके कारण ही तो यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न हैं’ इस प्रकारका झूठा भेदभाव पैदा होता है ॥ 12 ॥ वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानीलोग अपने और परायेका भेद करके उसीका वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्वको जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषयमें मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आपलोगोंके शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है ॥ 13 ॥ गुरुजी ! जैसे चुम्बकके पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणिभगवान्की स्वच्छन्द इच्छाशक्तिसे मेरा चित भी संसारसे अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है ।। 14 ।।नारदजी कहते हैं— परमज्ञानी प्रह्लाद अपने गुरुजीसे इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे ॥ 15 ॥ राजाके सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोधसे प्रह्लादको झिड़क दिया और कहा ‘अरे, कोई मेरा बेत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति कलङ्क लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलाङ्गारको ठीक करनेके लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा ॥ 16 ॥ दैत्यवंशके चन्दनवनमें यह काँटेदार बबूल कहाँसे पैदा हुआ ? जो विष्णु इस वनकी जड़ काटने में कुल्हाड़ेका काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हींकी वेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है ।। 17 ।। इस प्रकार गुरुजीने तरह-तरहसे डाँट-डपटकर प्रह्लादको धमकाया और अर्थ, धर्म एवं कामसम्बन्धी शिक्षा दी ॥ 18 ॥ | कुछ समयके बाद जब गुरुजीने देखा कि प्रह्लादने साम, दान, भेद और दण्डके सम्बन्धकी सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी माके पास ले गये। माताने बड़े लाड़-प्यारसे उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ोंसे सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपुके पास ले गये ॥ 19 ॥ प्रह्लाद अपने पिताके चरणोंमें लोट गये। हिरण्यकशिपुने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथोंसे उठाकर बहुत देरतक गलेसे लगाये रखा। उस समय दैत्यराजका हृदय आनन्दसे भर रहा था ।। 20 ।। युधिष्ठिर हिरण्यकशिपुने प्रसन्नमुख प्रह्लादको अपनी गोदमे बैठाकर उनका सिर था। उनके नेत्रोंसे प्रेमके आँसू गिर गिरकर प्रह्लादके शरीरको भिगोने लगे। उसने अपने पुत्रसे पूछा ॥ 21 ॥ हिरण्यकशिपुने कहा- चिरजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनोंमें तुमने गुरुजीसे जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमेंसे | कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ ॥ 22 ॥

प्रह्लादजीने कहा—पिताजी! विष्णुभगवान्की भक्ति के नौ भेद है-भगवान्‌के गुण-लीला नाम |आदिका श्रवण, उन्हींका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य, और आत्मनिवेदन यदि भगवान्‌के प्रति समर्पणकेभावसे यह नौ प्रकारकी भक्ति की जाय, तो मैं उसीको उत्तम अध्ययन समझता हूँ ।। 23-24 ॥ प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोधके मारे हिरण्यकशिपुके ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्रसे कहा- ॥ 25 ॥ रे नीच ब्राह्मण ! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि ! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चेको कैसी निस्सार शिक्षा दे दी ? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओंके आश्रित है ॥ 26 ॥ संसारमें ऐसे दुष्टोंकी कमी नहीं है, जो मित्रका बाना धारणकर छिपे छिपे शत्रुका काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करनेवालोंका पाप समयपर रोगके रूपमें प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है ।। 27 ।।

गुरुपुत्रने कहा – इन्द्रशत्रो ! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसीके बहकानेसे नहीं कह रहा है। राजन् ! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये । व्यर्थमें हमें दोष न लगाइये ॥ 28 ॥

नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर जब गुरुजीने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपुने फिर प्रह्लादसे पूछा ‘क्यों रे यदि तुझे ऐसी अहित करनेवाली खोटी बुद्धि गुरुमुखसे नहीं मिली तो बता, कहाँसे प्राप्त हुई ?’ ॥ 29 ॥

प्रह्लादजीने कहा-पिताजी! संसारके लोग तो पिसे हुएको पीस रहे है, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होनेके कारण वे भोगे हुए विषयोंको ही हुए। फिर-फिर भोगनेके लिये संसाररूप घोर नरककी ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषोंकी बुद्धि अपने-आप किसीके सिखानेसे अथवा अपने ही जैसे लोगोंके ससे भगवान् श्रीकृष्णमें नहीं लगती 30 ॥ जो इन्द्रियोंसे दीखनेवाले बाह्य विषयोंको परम इए समझकर मूर्खतावश अन्धोके पीछे अन्योकी तरह गड्ढे में गिरनेके लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रसीके काम्यकर्मोंक दीर्घ बन्धनमे बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं उन्हींप्राप्तिसे हमें सब पुरुषार्थोंकी प्राप्ति हो सकती है । ।॥ 31 ॥ जिनकी बुद्धि भगवान्‌के चरणकमलका स्पर्श कर है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थका सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिञ्चन भगवत्प्रेमी महात्माओंके चरणोंकी धूलमें स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मो का पूरा सेवन करनेपर भी भगवच्चरणोंका स्पर्श नहीं कर सकती ll 32 ll

प्रह्लादजी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपुने क्रोधके मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोदसे उठाकर | भूमिपर पटक दिया ॥ 33 ॥ प्रह्लादकी बातको वह सह न सका। रोषके मारे उसके नेत्र लाल हो गये। वह कहने लगा -दैत्यो! इसे यहाँसे बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है ।। 34 ।। देखो तो सही-जिसने इसके चाचाको मार डाला, अपने सुहृद् वजनोंको छोड़कर यह नीच दासके समान उसी विष्णुके चरणोंकी पूजा करता है! हो न हो, इसके रूपमें मेरे भाईको मारनेवाला विष्णु ही आ गया है ।। 35 ।। अब यह विश्वासके योग्य नहीं है। पाँच बरसकी अवस्थामें ही जिसने अपने माता-पिताके दुस्त्यज वात्सल्यनेहको भुला दिया—वह कृतघ्न भला विष्णुका ही क्या हित करेगा || 36 || कोई दूसरा भी यदि औषधके समान भलाई करे तो वह एक प्रकारसे पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोगके समान वह शत्रु है। अपने शरीर ही किसी असे सारे शरीरको हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देनेसे शेष शरीर सुखसे जी सकता है ॥ 37 ॥ यह स्वजनका बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगीकी भोगलोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे हो यह मेरा अहित करनेवाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदिके समय किसी भी उपायसे इसे मार | डालो’ ॥ 38 ॥

जब हिरण्यकशिपुने दैत्योंको इस प्रकार आश दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी एवं केशवले दैत्य हाथोंमें त्रिशूल ले लेकर ‘मारो, काटो’ – इस प्रकार बड़े जोरसे चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानोंमें शूलसे घाव कर रहे थे ।। 39-40 ।।उस समय प्रह्लादजीका चित्त उन परमात्मामें लगा हुआ था, जो मन-वाणीके अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियोंके आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनोंके बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं ।। 41 ।। युधिष्ठिर ! जब शूलोंकी मारसे प्रह्लादके शरीरपर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपुको बड़ी शङ्का हुई। अब वह प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े हठसे भाँति-भाँति के उपाय करने लगा ।। 42 ।। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवाया, विषधर साँपोंसे सवाया, पुरोहितोंसे कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़की चोटीसे नीचे डलवा दिया, शम्बरासुरसे अनेको प्रकारकी मायाका प्रयोग करवाया, अंधेरी कोठरियोंमें बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया ॥ 43 ॥ बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्रमें बारी-बारीसे डलवाया, आंधी में छोड़ दिया तथा पर्वतोंके नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमेंसे किसी भी उपायसे वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लादका बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपुको बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लादको मारनेके लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा ।। 44 ।। वह सोचने लगा-‘ इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारोंसे बिना किसीकी सहायतासे अपने प्रभावसे ही बचता गया । 45 ।। यह बालक होनेपर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशङ्क भावसे रहता है। हो न हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनःशेप अपने पिताकी करतूतोंसे उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारोंको न भूलेगा ॥ 46 ॥ न तो यह किसीसे डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्तिकी थाह नहीं है। अवश्य ही | इसके विरोधसे मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’ 47 ।।

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्यके पुत्र शण्ड और अमर्कने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्तमें जाकर उससे यह बात कही- ॥ 48 स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकोपर विजय प्राप्त कर ली। आपके भी टेढ़ी करनेपर ही सारे लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने तो आपके लिये चिन्ताकी कोई बात नहीं है। भला बचके खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचनेकी कोई बात है ॥ 49 ॥जबतक हमारे पिता शुक्राचार्यजी नहीं आ जाते, तबतक यह डरकर कहीं भाग न जाय। इसलिये इसे वरुणके पाशोंसे बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्थाकी वृद्धिके साथ-साथ और गुरुजनोंकी सेवासे बुद्धि सुधर जाया करती है’ ॥ 50 ॥

हिरण्यकशिपुने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रोंकी सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मोंका उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं ॥ 51 ॥ युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशालामें गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम-इन तीन पुरुषार्थोंकी शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवककी भाँति रहते थे ।। 52 ।। परन्तु गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय-भोगोंमें रस ले रहे हों ।। 53 ।। एक दिन गुरुजी गृहस्थीके कामसे कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जानेके कारण समवयस्क बालकोंने प्रह्लादजीको खेलनेके लिये पुकारा ॥ 54 ॥ प्रह्लादजी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकोंको ही बड़ी मधुर वाणीसे पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरणकी गति भी छिपी नहीं थी। उनपर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे ॥ 55 ॥ युधिष्ठिर ! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषयभोगी पुरुषोंके उपदेशोंसे और चेष्टाओंसे उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसीसे, और प्रह्लादजीके प्रति आदर-बुद्धि होनेसे उन सबने अपनी खेल कूदकी सामग्रियोंको छोड़ दिया तथा प्रह्लादजीके पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेशमें मन लगाकर बड़े प्रेमसे एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादका हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्रीके भावसे भर गया तथा वे उनसे कहने लगे ॥ 56-57 ।।

अध्याय 6 प्रह्लादजीका असुर बालकोंको उपदेश

प्रह्लादजीने कहा- मित्रो ! इस संसारमें मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको बुढ़ापे या जवानीके भरोसे न रहकर बचपनमें ही भगवान्‌की प्राप्ति करानेवाले साधनोंका अनुष्ठान कर लेना चाहिये ॥ 1 ॥ इस मनुष्य जन्ममें श्रीभगवान्‌के चरणोंकी शरण लेना ही जीवनकी एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियोंके स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ 2 ॥ भाइयो! इन्द्रियोंसे जो सुख भोगा जाता है, वह तो – जीव चाहे जिस योनिमें रहे प्रारब्धके अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकारका प्रयत्न किये, निवारण करनेपर भी दुःख मिलता है ॥ 3 ॥ इसलिये सांसारिक सुखके उद्देश्यसे प्रयत्न करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तुके लिये परिश्रम करना आयु और शक्तिको व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान्‌के परम कल्याण-स्वरूप चरणकमलोंकी प्राप्ति नहीं होती ॥ 4 ॥ हमारे सिरपर अनेकों प्रकारके भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर – जो भगवत्प्राप्तिके लिये पर्याप्त है— जबतक रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्युके मुखमें नहीं चला जाता, तभीतक बुद्धिमान् पुरुषको अपने कल्याणके लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये 5 ॥ मनुष्यकी पूरी आयु सौ वर्षकी है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं कर लिया है, उनकी आयुका आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रातमें घोर तमोगुण — अज्ञानसे ग्रस्त होकर सोते रहते हैं ॥ 6 ॥ बचपनमें उन्हें अपने हित-अहितका ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होनेपर कुमार अवस्थामें वे खेल-कूदमें लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्षका तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीरको ग्रस लेता है, तब अन्तके बीस वर्षोंमें कुछ करने धरनेकी शक्ति ही नहीं रह जाती ॥ 7 ॥रह गयी बीचकी कुछ थोड़ी-सी आयु उसमें कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात पकड़ रखनेवाला मोह है और घर-द्वारकी वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य अकर्तव्यका ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथसे निकल जाती है ॥ 8 ॥ दैत्यबालको! जिसकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थीमें आसक्त और माया ममताकी मजबूत फांसीमे फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके ॥ 9 ॥ जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणोंकी भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणोंसे भी अधिक वाञ्छनीय है-उस धनकी तृष्णाको भला कौन त्याग सकता है ॥ 10 ॥ जो अपनी प्रियतमा पत्नीके एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी बातों और मीठी-मीठी सलाहपर अपनेको निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रोंके स्नेह-पाशमें बंध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओंकी तोतली बोलीपर लुभा चुका है—भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ 11 ॥ जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्थाको प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियोंसे सजे हुए घरों, कुल परम्परागत जीविकाके साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरणमें रम गया है, वह भला, उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ 12 जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रियके सुखोंको ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तुम नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशमके कीड़ेको तरह अपनेको और भी कड़े बन्धनमें जकड़ता जा रहा है और जिसके मोहकी कोई सीमा नहीं है-वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर | सकता है 13 ॥ यह मेरा कुटुम्ब है, इस भावसे उसमें वह इतना रम जाता है कि उसीके पालन-पोषणके लिये अपनी अमूल्य आयुको गवा देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवनका वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमादकी भी कोई सीमा है। यदि इन कामोंमें कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदयको जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्यका उदय नहीं होता कितनी विम्बना है। कुटुम्बको ममता फेरमेपड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धनके चिन्तनमें सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरेका धन चुरानेके लौकिक-पारलौकिक दोषको जानता हुआ भी कामनाओंको वशमें न कर सकनेके कारण इन्द्रियोंके भोगकी लालसासे चोरी कर ही बैठता है ।। 14-15 ।। भाइयो! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियोंके पेट पालनेमें ही लगा रहता है-कभी भगवद्धजन नहीं करता- – वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-परायेका भेद-भाव रहनेके कारण उसे भी अज्ञानियोंके समान ही तमः प्रधान गति प्राप्त होती है ।। 16 ।। जो कामिनियों के | मनोरञ्जनका सामान — उनका क्रीडामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरोंमें सन्तानकी बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब- चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो— किसी भी प्रकारसे अपना उद्धार नहीं कर सकता ॥ 17 ॥ इसलिये, भाइयो। तुमलोग विषयासक्त दैत्योंका सङ्ग दूरसे ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसारकी आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओंके वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं ।। 18 ।।

मित्रो भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ताके रूपमें स्वयंसिद्ध वस्तु हैं ॥ 19 ॥ ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक छोटे-बड़े समस्त प्राणियों पञ्चभूतोंसे बनी हुई वस्तुओंमें, पञ्चभूतो, सूक्ष्म तन्मात्राओंमें, महत्तत्वमें तीनों गुणोंमें और गुणोंकी साम्यावस्था प्रकृतिमें एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वयोंकी खान हैं । 20-21 ॥ वे ही अन्तर्यामी द्रष्टाके रूपमें हैं और वे ही दृश्य जगत्के रूपमें भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होनेपर भी द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापकके | रूपमें उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है ॥ 22 ॥ वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करनेवाली मायाके द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं ।। 23 ।।इसलिये तुमलोग अपने दैत्यपनेका, आसुरी सम्पत्तिका T | त्याग करके समस्त प्राणियोंपर दया करो। प्रेमसे उनकी भलाई करो। इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ 24 ॥ आदिनारायण अनन्त भगवान्‌ के प्रसन्न हो जानेपर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती ? लोक और परलोकके लिये जिन धर्म, अर्थ आदिकी आवश्यकता बतलायी जाती है तो गुणोंके परिणामसे प्रयासके स्वयं ही मिलनेवाले हैं। जब हम श्रीभगवान्के चरणामृतका सेवन करने और उनके नाम गुणोंका कीर्तन करनेमें लगे हैं, तब हमें मोक्षकी भी क्या आवश्यकता है ॥ 25 ॥ यो शास्त्रोंमें धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थोका भी वर्णन है। आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविकाके विविध साधन – ये सभी वेदोंके प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरिको ‘आत्मसमर्पण करनेमें सहायक है, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक ) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं ॥ 26 ॥ यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगोंको बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायणने नारदजीको उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगोंको प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान्‌ के अनन्यप्रेमी एवं अकिञ्चन भक्तोंके चरणकमलोकी धूलिसे अपने शरीरको नहला लिया है॥ 27 यह विज्ञानसहित ज्ञान विशुद्ध भागवतधर्म है। इसे मैंने भगवान‌का दर्शन करानेवाले | देवर्षि नारदजीके मुँहसे ही पहले-पहल सुना था ॥ 28 ॥

प्रह्लादजीके सहपाठियोंने पूछा-प्रह्लादजी ! इन दोनों गुरुपुत्रोंको छोड़कर और किसी गुरुको तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकोंके शासक हैं ।। 29 ।। तुम एक तो अभी छोटी अवस्थाके हो और दूसरे जन्मसे ही महलमें अपनी माँके पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारदजीसे मिलना कुछ असङ्गत-सा जान पड़ता है प्रियवर यदि इस विषय में विश्वास दिलानेवाली कोई । बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शङ्का मिटा दो ॥ 30 ॥

अध्याय 7 प्रह्लादजीद्वारा माताके गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन

नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर ! जब दैत्यबालकोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान्‌के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजीको मेरी बातका स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा ॥ 1 ॥

प्रह्लादजीने कहा- जब हमारे पिताजी तपस्या करनेके लिये मन्दराचलपर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओंने दानवोंसे युद्ध करनेका बहुत बड़ा उद्योग किया ॥ 2 ॥ वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चीटियाँ साँपको चाट जाती हैं, वैसे ही लोगोंको सतानेवाले पापी हिरण्यकशिपुको उसका पाप ही खा गया ॥ 3 ॥ जब दैत्य सेनापतियोंको देवताओंको भारी तैयारीका पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामानकी कुछ भी चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचानेके लिये बड़ी जल्दीमें सब-के-सब इधर-उधर भाग गये ।। 4-5 ।। अपनी जीत चाहनेवाले देवताओने राजमहलमें लूट-खसोट मचा दी। यहाँतक कि इन्द्रने राजरानी मेरी माता कयाधूको भी बन्दी बना लिया ॥ 6 ॥ मेरी मा भयसे घबराकर कुररी पक्षीकी भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्गमें मेरी माको देख लिया || 7 | उन्होंने कहा- ‘देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग। इस सती-साध्वी परनारीका तिरस्कार मत करो इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो ! ॥ 8 ॥

इन्द्रने कहा- इसके पेटमें देवद्रोही हिरण्यकशिपुका अत्यन्त प्रभावशाली है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जानेपर उसे | मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा ॥ 9 ॥नारदजीने कहा- ‘इसके गर्भमें भगवान्का साक्षात् परम प्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारनेकी शक्ति नहीं है’ ॥ 10 ॥ देवर्षि नारदकी यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्रने मेरी माताको छोड़ दिया। और फिर इसके गर्भमें भगवद्भक्त है, इस भावसे उन्होंने मेरी माताकी प्रदक्षिणा की तथा अपने लोकमें चले गये ॥ 11 ॥

इसके बाद देवर्षि नारदजी मेरी माताको अपने आश्रमपर लिवा गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- ‘बेटी ! जबतक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तबतक तुम यहीं रहो’ ॥ 12 ॥ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयतासे देवर्षि नारदके आश्रमपर ही रहने लगी और तबतक रही, जबतक मेरे पिता घोर तपस्यासे लौटकर नहीं आये ॥ 13 ॥ मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशुकी मङ्गलकामनासे और इच्छित समयपर (अर्थात् मेरे पिताके लौटनेके बाद) सन्तान उत्पन्न करनेकी कामनासे बड़े प्रेम तथा भक्तिके साथ नारदजीकी सेवा-शुश्रूषा करती रही ।। 14 ।।

देवर्षि नारदजी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँको भागवतधर्मका रहस्य और विशुद्ध ज्ञान – दोनोंका उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझपर भी थी ॥ 15 ॥ बहुत समय बीत जानेके कारण और स्त्री होनेके कारण भी मेरी माताको तो अब उस ज्ञानकी स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षिकी विशेष कृपा होनेके कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई ॥ 16 ॥ यदि तुमलोग मेरी इस बातपर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धासे स्त्री और बालकोंकी बुद्धि भी मेरे ही समान शुद्ध हो सकती है 17 ॥ जैसे ईश्वरमूर्ति कालको प्रेरणासे वृक्षोंके फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं—वैसे ही जन्म, अस्तित्वकी अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश-ये छः भाव-विकार शरीरमें ही देखे जाते है, आत्मासे इनका कोई सम्बन्ध नहीं है॥ 18 ॥ आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयं-प्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असङ्ग तथा आवरणरहित है । 193ये बारह आत्माके उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्वको जाननेवाले पुरुषको चाहिये कि शरीर आदिमें अज्ञानके कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे ॥ 20 ॥ जिस प्रकार सुवर्णकी खानोंमें पत्थरमें मिले हुए सुवर्णको उसके निकालनेकी विधि जाननेवाला स्वर्णकार उन विधियोंसे उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्वको जाननेवाला पुरुष आत्मप्राप्तिके उपायोंद्वारा अपने शरीररूप क्षेत्रमें ही ब्रह्मपदका साक्षात्कार कर लेता है ।। 21 ।।

आचार्योंनि मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार और पञ्चतन्मात्राएँ—इन आठ तत्त्वोंको प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है ।। 22 ।। इन सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकारका है— स्थावर और जङ्गम। इसीमें अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्म वस्तुओंका ‘यह आत्मा नहीं है’ इस प्रकार बाध करते हुए आत्माको ढूँढ़ना चाहिये || 23 || आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक् । इस प्रकार शुद्ध बुद्धिसे धीरे-धीरे संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलयपर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये ॥ 24 ॥ जाग्रत् स्वप्र और सुषुप्ति – ये तीनों बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं। इन वृत्तियोंका जिसके द्वारा अनुभव होता है—वही सबसे अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है ।। 25 ।। जैसे गन्धसे उसके आश्रय वायुका ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धिकी इन कर्मजन्य एवं बदलनेवाली तीनों अवस्थाओंके द्वारा इनमें साक्षीरूपसे अनुगत आत्माको जाने ।। 26 ।। गुणों और कर्मोके कारण होनेवाला जन्म मृत्युका यह चक्र आत्माको शरीर और प्रकृतिसे पृथक् न करनेके कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्रके समान जीवको इसकी प्रतीति हो रही है ।। 27 ।।

इसलिये तुमलोगोंको सबसे पहले इन गुणोंके अनुसार होनेवाले कमौका बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियोंका प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसीको दूसरे शब्दोंमें योग या परमात्मासे मिलन कहते हैं ॥ 28 ॥ यों तो इन त्रिगुणात्मक कमकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियोंका प्रवाह बंद कर देनेके लिये सहस्रों साधन है; परन्तु जिस उपायसे और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान्‌में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपायसर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान्ने कही है ।। 29 ।। गुरुकी प्रेमपूर्वक सेवा, अपनेको जो कुछ मिले वह सब प्रेमसे भगवान्‌को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओंका सत्सङ्ग, भगवान्‌की आराधना, उनकी कथा और लीलाओंका कीर्तन, उनके वार्ता में श्रद्धा, चरणकमलोंका ध्यान और उनके मन्दिरमूर्ति आदिका दर्शन-पूजन आदि साधनोंसे भगवान्‌में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ।। 30-31 ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियोंमें विराजमान हैं—ऐसी भावनासे यथाशक्ति सभी प्राणियोंकी इच्छा पूर्ण करे और हृदयसे उनका सम्मान करे ॥ 32 ॥ काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान्‌की साधन-भक्तिका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्तिके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें अनन्य प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है ॥ 33 ॥

जब भगवान्के लीलासे किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रोंको श्रवण करके अत्यन्त आनन्दके उद्रेकसे मनुष्यका रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओंके मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह सङ्कोच छोड़कर जोर-जोरसे गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागलकी तरह कभी हँसता है, कभी करुण क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भावसे लोगोंकी वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान्‌में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी सांस खींचता है और सोच छोड़कर ‘हरे जगत्पते !! नारायण’ !!! कहकर पुकारने लगता है— तब भक्तियोगके महान् प्रभावसे उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भावको ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार—भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्युके बीजोंका खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर लेता है 34-36 इस अशुभ संसारके दलदलमें फँसकर अशुभमय हो जानेवाले जीवके लिये भगवान्‌की यह प्राप्ति संसारकेचरको मिटा देनेवाली है। इसी वस्तुको कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण सुखके रूपमें पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुमलोग अपने-अपने हृदयमें हृदयेश्वर भगवान्का भजन करो ॥ 37 ॥ असुरकुमारो ! अपने हृदयमें ही आकाशके समान नित्य विराजमान भगवान्‌काभजन करनेमें कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समानरूपसे समस्त प्राणियोंके अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही है। उनको छोड़कर भोगामी इकट्ठी करनेके लिये भटकना – राम! राम! कितनी मूर्खता है ॥ 38 ॥ अरे भाई ! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँतिकी विभूतियाँ और तो क्या संसारका समस्त धन तथा भोगसामग्रियाँ इस क्षणभङ्गर मनुष्यको क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभङ्गुर हैं ॥ 39 ॥ जैसे इस लोककी सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञोंसे प्राप्त होनेवाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक – एक दूसरेसे छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा न किसीने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्माकी प्राप्तिके लिये अनन्य भक्तिसे उन्हीं परमेश्वरका भजन करना चाहिये ॥ 40 ॥

इसके सिवा अपनेको बड़ा विद्वान् माननेवाला पुरुष इस लोकमें जिस उद्देश्यसे बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्यको प्राप्ति तो दूर रही उल्टा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सन्देह मिलता है ॥ 41 ॥ कर्ममें प्रवृत्त होनेके दो ही उद्देश्य होते हैं—सुख पाना और दुःखसे छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होनेके कारण सुखमें निमग्न रहता था, उसे ही अब कामनाके कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना है पड़ता है ॥ 42 ॥ मनुष्य इस लोकमें सकाम कर्मोंक द्वारा जिस शरीरके लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया—स्यार-कुत्तोंका भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है ।। 43 । जब शरीरकी ही यह दशा है तब इससे अलग रहनेवाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलानेवालोको तो बात ही क्या है ॥ 44 ॥ ये तुच्छ विषय शरीरके साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थके समान, परन्तु है वास्तवमें अनर्थरूप ही आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्दका महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओंकी क्या आवश्यकता है ? ॥ 45 भाइयो! तनिक विचार तो करो जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यन्त सभी अवस्थाओंमें अपने कर्मोक अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगता है, उसका इस संसारमें स्वार्थ ही क्या है 46 यह जीव सूक्ष्मशरीरको ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकारके कर्म करता है और कर्मो के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्मसे शरीर औरशरीरसे कर्मकी परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेकके कारण ।। 47 ।। इसलिये निष्काम भावसे निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरिका भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम सब उन्हींके आश्रित है, बिना उनकी इच्छाके नहीं मिल सकते ॥ 48 ॥ भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियोंके ईश्वर, आत्मा और परम प्रियत हैं। वे अपने ही बनाये हुए पञ्चभूत और सूक्ष्मभूत आदिके द्वारा निर्मित शरीरोंमें जीवके नामसे कहे जाते हैं ।। 49 ।। देवता, दैत्य, मनुष्य यक्ष अथवा गन्धर्व-कोई भी क्यों न हो— जो भगवान्‌के चरणकमलोंका सेवन करता है, यह वह हमारे ही समान कल्याणका भाजन होता है ॥ 50 ॥

दैत्यबालको। भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानोंसे सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े बड़े व्रतोंका अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्तिसे ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बनामात्र हैं । 51-52 ॥ इसलिये दानव बन्धुओ समस्त प्राणियोंको अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान‌की भक्ति करो 53 ॥ भगवान्‌की भक्तिके प्रभावसे दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियां, शूद्र, गोपालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भावको प्राप्त हो गये हैं ।। 54 इस संसार में या मनुष्य-शरीरमें जीवका सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र | परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्णकी अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्तिका स्वरूप है सर्वदा सर्वत्र सब वस्तुओंमें भगवान्का दर्शन ।। 55 ।।

अध्याय 8 नृसिंहभगवान्‌का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपुका वध

नारदजी कहते हैं-प्रह्लादजीका प्रवचन सुनकर दैत्यबालकोंने उसी समयसे निर्दोष होनेके कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरुजीको दूषित शिक्षाकी और उन्होंने ध्यान ही न दिया ॥ 1 ॥ जब गुरुजीने देखा कि उन सभी विद्यार्थियोंकी बुद्धि एकमात्र भगवान्‌में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपुके पास जाकर निवेदन किया ॥ 2 ॥ अपने पुत्र प्रह्लादकी इस असह्य और अप्रिय अनीतिको सुनकर क्रोधके मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्तमें उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लादको अब अपने ही हाथसे मार डालना चाहिये ॥ 3 ॥

मन और इन्द्रियोंको वशमे रखनेवाले महादजी बड़ी नम्रतासे हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपुके सामने खड़े थे और तिरस्कारके सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभावसे ही क्रूर था। वह पैरकी चोट खाये हुए सौंपकी तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर | पापभरी टेढ़ी नजरसे देखा और कठोर वाणीसे डाँटते हुए कहा 4-5 ॥ ‘मूर्ख ! तू बड़ा उद्दण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुलके और बालकोंको भी फोड़ना चाहता है! तूने बड़ी ढिठाईसे मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। आज ही तुझे यमराजके घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ ।। 6 ।। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ. तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख। तूने किसके बल-बूतेपर निडरकी तरह मेरी आज्ञाके विरुद्ध काम किया है ?’ ॥ 7 ॥

प्रह्लादजीने कहा— दैत्यराज | ब्रह्मासे लेकर तिनकेतक सब छोटे-बड़े, पर-अचर जीवोंको भगवान्ने ही अपने वशमें कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसारके समस्त बलवानोंके बल भी | केवल वही हैं॥ 8 ॥ वे ही महापराक्रमीसर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वहीं हैं। वही परमेश्वर अपनी शक्तियोंके द्वारा इस विश्वकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणकि स्वामी हैं ।। 9 ।। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये अपने मनको सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वशमें न रहनेवाले कुमार्गगामी मनके अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मनमें सबके प्रति समताका भाव लाना ही भगवान्की सबसे बड़ी पूजा है ॥ 10 ॥ जो लोग अपना सर्वस्व लूटनेवाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुऑपर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दसों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी | एवं जितेन्द्रिय महात्माने समस्त प्राणियोंके प्रति समताका भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञानसे पैदा होनेवाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर मिट जाते हैं; फिर बाहरके शत्रु तो रहें ही कैसे ll 11 ll

हिरण्यकशिपुने कहा- रे मन्दबुद्धि ! तेरे बहकनेकी भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैरकी बातें बका करते हैं ।। 12 ।। अभागे ! तूने मेरे सिवा जो और किसीको जगत्‌का स्वामी बतलाया है, सो देखूं तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है ? तो इस खंभेमें क्यों नहीं दीखता ? ॥ 13 ॥ अच्छा, तुझे इस खंभेमें भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग हाँक रहा है? मैं अभी अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा वह सर्वस्व हरि, जिसपर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है ।। 14 ।। इस प्रकार वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान्‌के परम प्रेमी प्रह्लादको बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोधके मारे वह अपनेको रोक न सका, तब हाथमें खड्ग लेकर सिंहासनसे कूद पड़ा और बड़े जोरसे उस खंभेको एक घूंसा मारा ॥ 15 ॥ उसी समय | उस खंभेमें एक बड़ा भयङ्कर शब्द हुआ ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकल लोक पहुंची, तब उसे सुनकर महादिकोऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकोंका प्रलय हो रहा हो ।। 16 ।। हिरण्यकशिपु प्रह्लादको मार डालनेके लिये बड़े जोरसे झपटा था; परन्तु दैत्यसेनापतियों को भी भयसे कंपा देनेवाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्दको सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करनेवाला कौन है ? परन्तु उसे सभाके भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा 17 ॥

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्माकी वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थोंमें अपनी व्यापकता दिखानेके लिये सभाके भीतर उसी खभेमें बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंहका ही था और न मनुष्यका ही ॥ 18 ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करनेवालेको इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभेके भीतरसे निकलते हुए उस अद्भुत प्राणीको उसने देखा। वह सोचने लगा-अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशुः फिर यह नृसिंहके रूपमें कौन-सा अलौकिक जीव है ॥ 19 ॥ जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुनमें लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंहभगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था तपाये हुए सोनेके समान पीली-पीली भयानक आँखे थीं। जंभाई लेनेसे गरदनके बाल इधर-उधर लहरा रहे थे ॥ 20 ॥ | दाढ़े बड़ी विकराल थीं। तलवारकी तरह लपलपाती हुई छूरेकी धारके समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहोंसे उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपरकी ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ोंसे उसकी भयङ्करता बहुत बढ़ गयी थी ॥ 21 ॥ विशाल शरीर स्वर्गका स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमाको किरणोंके समान सफेद रोए सारे शरीरपर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुधका काम देते थे ॥ 22 ॥ उनके पास फटकनेतकका साहस किसीको न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ | शस्त्रोंके द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवोंको भगा दिया।हिरण्यकशिपु सोचने लगा- हो न हो महामायावी विष्णुने ही मुझे मार डालनेके लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालोंसे हो ही क्या सकता है ।। 23 ॥

इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथमें गदा लेकर नृसिंहभगवान्पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आगमें गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान‌के तेजके भीतर जाकर लापता हो गया ॥ 24 ॥ समस्त शक्ति और तेजके आश्रय भगवान्‌के सम्बन्धमें ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टिके प्रारम्भ में उन्होंने अपने तेजसे प्रलयके निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकारको भी पी लिया था। तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोधसे लपका और अपनी गदाको बड़े जोरसे घुमाकर उसने नृसिंहभगवान्पर प्रहार किया । 25 ॥ प्रहार करते समय ही — जैसे गरुड़ साँपको पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान्‌ने गदासहित उस दैत्यको पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथसे जैसे हो निकल गया, जैसे क्रीडा करते हुए गरूड़के चंगुलसे साँप छूट जाय ॥ 26 ॥ युधिष्ठिर उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलोंमें छिपकर इस बुद्धको देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपुने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान् के हाथसे छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपुने भी यही समझा कि नृसिंहने मेरे बलवीर्यसे डरकर ही मुझे अपने हाथसे छोड़ दिया है। इस विचारसे उसकी थकान जाती रही और वह युद्धके लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा ।। 27 ।। उस समय वह बाजकी तरह बड़े वेगसे ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवारके पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उसपर आक्रमण करनेका अवसर हो न मिले। तब भगवान्‌ने बड़े ऊंचे स्वरसे प्रचण्ड और भयङ्कर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपुको आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेगसे झपटकर भगवान्‌ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहेको पकड़ लेता है। जिस हिरण्यकशिपुके चमड़ेपर वज्रकी चोटसे भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजेसे निकलनेके लिये जोरसे छटपटा रहा था। भगवान्ने सभाके दरवाजेपर ले जाकर उसे अपनी जाधोपर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखोसे उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँपको चीर डालते हैं ।। 28-29 ।।उस समय उनकी क्रोधसे भरी विकराल आँखोकी ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभसे फैले हुए मुँहके दोनों कोने चाट रहे थे। खूनके छींटोंसे उनका मुँह और गरदनके बाल लाल हो रहे थे। हाथीको मारकर | गलेमें आंतोंकी माला पहने हुए मृगराजके समान उनकी शोभा हो रही थी ।। 30 ।। उन्होंने अपने तीखे नखोसे हिरण्यकशिपुका कलेजा फाड़कर उसे जमीनपर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथोंमें शस्त्र लेकर भगवानपुर प्रहार करनेके लिये आये। पर भगवान्ने अपनी भुजारूपी सेनासे, लातोंसे और नखरूपी शस्त्रोंसे चारों ओर खदेड़-खदेड़कर उन्हें मार डाला ॥ 31 ॥

युधिष्ठिर ! उस समय भगवान् नृसिंहके गरदनके बालोंकी फटकारसे बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रोंकी ज्वालासे सूर्य आदि ग्रहोंका तेज फीका पड़ गया। उनके श्वासके धक्के से समुद्र क्षुध हो गये। उनके सिंहनादसे भयभीत होकर दिग्गज चिग्धाड़ने लगे ॥ 32 ॥ उनके गरदनके बालोसे टकराकर देवताओंके विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरोंकी धमकसे भूकम्प आ गया, वेगसे पर्वत उड़ने लगे और उनके तेजकी चकाचौंधसे आकाश तथा दिशाओंका दीखना बंद हो गया ।। 33 । इस समय नृसिंहभगवान्का सामना करनेवाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपुकी राजसभामें ऊँचे सिंहासनपर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोधभरे भयङ्कर चेहरेको देखकर किसीका भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे ॥ 34 ॥

युधिष्ठिर जब स्वर्गकी देवियोंको यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकोंके सिरकी पीड़ाका मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्धमें भगवान्‌के हाथों मार डाला गया, तब आनन्दके उल्लाससे उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवानूपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगीं ।। 35 ।। आकाशमें आये हुए भगवान्‌ के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओंके ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं ll 36 llतात इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शङ्कर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, फिर और सुनन्द कुमुद आदि भगवान्‌ के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगोंने सिरपर अञ्जलि बाँधकर सिंहासनपर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंहभगवान्की थोड़ी दूरसे अलग-अलग स्तुति की ll 37-39 ll

ब्रह्माजीने कहा— प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तिका कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणोंके द्वारा आप लीलासे ही सम्पूर्ण विश्वकी उत्पत्ति पालन और प्रलय यथोचित ढंगसे करते हैं—फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ 40 ॥

श्रीरुद्रने कहा- आपके क्रोध करनेका समय तो कल्पके अन्तमें होता है। यदि इस तुच्छ दैत्यको मारनेके लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरणमें आया है। भक्तवत्सल प्रभो ! आप अपने इस भक्तकी रक्षा कीजिये ॥ 41 ॥

इन्द्रने कहा- पुरुषोत्तम। आपने हमारी रक्षा की ! है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तवमें आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्योंके आतङ्क सङ्कुचित हमारे हृदयकमलको आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादिका राज्य हमलोगोंको पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब कालका ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है ही क्या? स्वामिन् । जिन्हें आपकी सेवाकी चाह है, वे मुक्तिका भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगोंकी तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है ॥ 42 ॥

ऋषियोंने कहा- पुरुषोत्तम ! आपने तपस्याके द्वारा ही अपनेमें लीन हुए जगत्की फिरसे रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्याका उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्यने उसी तपस्याका उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल ! उस तपस्याकी रक्षाके लिये अवतार ग्रहण करके आपनेहमारे लिये फिरसे उसी उपदेशका अनुमोदन किया है ।। 43 ।।

पितरोंने कहा प्रभो। हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था जब वे पवित्र तीर्थमें या संक्रान्ति आदिके अवसरपर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलाञ्जलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखोसे उसका पेट फाड़कर वह सब का सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मकि एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।। 44 ।।

सिद्धोंने कहा – नृसिंहदेव ! इस दुष्टने अपने योग और तपस्याके बलसे हमारी योगसिद्ध गति छीन ली थी। अपने नखोंसे आपने उस घमंडीको फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीत भावसे नमस्कार करते है ॥ 45 ॥

विद्याधरोंने कहा 1- यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरताके घमंडमें चूर था। यहाँतक कि हम लोगोंने विविध धारणाओंसे जो विद्या प्राप्त की थी, उसे | इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्धमें यज्ञपशुकी तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीलासे नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य निरन्तर प्रणाम करते हैं ।। 46 ।।

नागोंने कहा- इस पापीने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियोको भी छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्रियोंको बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं ।। 47 ।।

मनुओंने कहा- देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु है। इस दैत्यने हमलोगोकी धर्ममर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्टको मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक है। आज्ञा कीजिये, हमआपकी क्या सेवा करें ? ।। 48 ।।

प्रजापतियोंने कहा— परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देनेसे हम प्रजाकी सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीनपर सर्वदाके लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करनेवाले प्रभो! आपका यह अवतार संसारके कल्याणके लिये है । 49 ।।

गन्धर्वोने कहा—प्रभो ! हम आपके नाचनेवाले, अभिनय करनेवाले और संगीत सुनानेवाले सेवक हैं। इस दैत्यने अपने बल, वीर्य और पराक्रमसे हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशाको पहुँचा दिया। सच है, कुमार्गसे चलनेवालेका भी क्या कभी कल्याण हो सकता है ? ।। 50 ।।

चारणोंने कहा— प्रभो! आपने सज्जनोंके हृदयको पहुंचानेवाले इस दुष्टको समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलोंकी शरणमें हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्रसे छुटकारा मिल जाता है ।। 51 ।।

यक्षोंने कहा – भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मो के कारण हमलोग आपके सेवकोंमें प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपुने हमे अपनी पालकी ढोनेवाला कहार बना लिया। प्रकृतिके नियामक परमात्मा ! इसके कारण होनेवाले अपने निजजनोंके कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है 52 ॥

किम्पुरुषोंने कहा- हमलोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुयोंने इसका तिरस्कार किया इसे पिकारा तभी आज आपने इस कुपुरुष — असुराधमको नष्ट कर दिया ।। 53 ।।

वैतालिकोंने कहा -भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञो आपके निर्मल यशका गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्टने हमारीवह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्यकी बात है कि महारोगके समान इस दुष्टको आपने जड़मूलसे उखाड़ दिया ।। 54 ।।

किन्नरोंने कहा 1-हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगारमें हो काम लेता था। भगवन् ! आपने कृपा करके आज इस पापीको नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें ।। 55 ।।

भगवान्‌के पार्षदोंने कहा- -शरणागतवत्सल सम्पूर्ण लोकोंको शान्ति प्रदान करनेवाला आपका यह अलौकिक नृसिंहरूप हमने आज ही देखा है। भगवन्! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादिने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा है करके इसके उद्धारके लिये ही इसका वध किया है ।। 56 ।।

अध्याय 9 प्रह्लादजीके द्वारा नृसिंहभगवान्की स्तुति

नारदजी कहते हैं—इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंहभगवान् के क्रोधावेशको शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसीको उसका ओर छोर नहीं दीखता था ॥ 1 ॥ देवताओंने उन्हें शान्त करनेके लिये स्वयं लक्ष्मीजीको भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान्‌का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भगवश वे भी उनके पासतक न जा सर्कों। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था ॥ 2 ॥ तब ब्रह्माजीने अपने पास ही खड़े प्रह्लादको यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पितापर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’ ॥ 3 ॥भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धरिसे भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वीपर साष्टाङ्ग लोट गये ॥ 4 ॥ नृसिंह भगवान्ने देखा कि नन्हा-सा है बालक मेरे चरणोंके पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दयासे भर गया। उन्होंने प्रह्लादको उठाकर उनके सिरपर अपना वह कर-कमल रख दिया, जो कालसर्पसे भयभीत पुरुषोंको अभयदान करनेवाला है ॥ 5 ॥ भगवान्के करकमलोंका स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्वका साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्दमें मन होकर भगवान्‌के चरणकमलोंको अपने हृदयमें धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदयमें प्रेमकी धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रोंसे आनन्दा झरने लगे ॥ 6 ॥ दी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनोंसे भगवान्‌को देख रहे थे। भावसमाधिसे स्वयं एकाग्र हुए मनके द्वारा उन्होंने भगवान्‌के गुणोंका चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणीसे स्तुति की ॥ 7 ॥

प्रह्लादजीने कहा ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि – और सिद्ध पुरुषोंकी बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुणमें ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणोंसे आपको अबतक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर जातिमें उत्पन्न हुआ हूँ! क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ? ॥ 8 ॥ मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग—ये सभी गुण परमपुरुष भगवान्‌को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं परन्तु भक्तिसे तो भगवान् गजेन्द्रपर भी सन्तुष्ट हो गये थे ॥ 9 ॥ मेरी समझसे इन बारह गुणोंसे युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभके चरण-कमलोंसे विमुख हो तो उससे वह चाण्डाल श्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान्के चरणोंमें समर्पित कर रखे है; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुलतकको पवित्र कर देता है और बड़प्पनका अभिमान रखनेवाला वह ब्राह्मण अपनेको भी पवित्र नहीं कर सकता 10 ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूपके साक्षात्कारसे ही परिपूर्ण है। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषोंसे पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तोंके हितके लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुखका सौन्दर्यदर्पण में दीखनेवाले प्रतिबिम्बको भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान्‌के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है 11 ॥ इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होनेपर भी मैं बिना किसी शङ्काके अपनी बुद्धिके अनुसार सब प्रकारसे भगवान्‌को महिमाका वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमाके गानका ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसार चक्रमें पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है ।। 12 ।।

भगवन्! आप सत्त्वगुणके आश्रय है। ये ब्रह्मा आदि सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त है। ये हम दैत्योंकी तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत्के कल्याण एवं अभ्युदयके लिये तथा उसे आत्मानन्दकी प्राप्ति करानेके लिये अनेकों प्रकारको लोलाएँ करते हैं ॥ 13 ॥ जिस असुर को मारनेके लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँपकी मृत्युसे सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्यके संहारसे सभी लोगोंको बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूपके दर्शनको बाट जोह रहे हैं। नृसिंहदेव ! भयसे मुक्त होनेके लिये भक्तजन आपके इस रूपका स्मरण करेंगे ।। 14 परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आंखें सूर्यके समान हैं। भौहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़े हैं। आंतोंकी माला, खूनसे लथपथ गरदनके बाल, बर्चेकी तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजोंको भी भयभीत कर देनेवाला सिंहनाद एवं शत्रुओंको फाड़ डालनेवाले आपके इन नखोंको देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ ॥ 15 ॥ दीनबन्धो मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उम्र संसार-चक्रमे पिसनेसे। मैं अपने कर्मपाशोंसे बँधकर इन भयङ्कर जन्तुओंके बीचमें डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलोंमें बुलायेंगे, जो समस्त जीवोंकी एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं ? ।। 16 ।। अनन्त ! मैं जिन-जिन योनियोंमें गया, उन सभी योनियोंमें प्रियके वियोग और अप्रियके संयोगसे होनेवाले शोककी आगमें झुलसता रहा। उन दुःखोंको मिटानेकी जो दवा है, वह भी दुःखरूप हो है मैं न जाने कबसे अपनेसे अतिरिक्त वस्तुओंको आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त करसकूँ ।। 17 ।। प्रभो ! आप हमारे प्रिय हैं। अहेतुक हितैषी सुहृद् हैं । आप ही वास्तवमें सबके परमाराध्य है। मैं ब्रह्माजीके द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओंका गान करता हुआ बड़ी सुगमतासे रागादि प्राकृत गुणोंसे मुक्त होकर इस संसारकी कठिनाइयोंको पार कर जाऊँगा; क्योंकि आपके चरणयुगलोंमें रहनेवाले भक्त परमहंस महात्माओंका सङ्ग तो मुझे मिलता ही रहेगा ।। 18 ।। भगवान् नृसिंह! इस लोकमें दुखी जीवोंका दुःखः मिटानेके लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करनेपर एक क्षणके लिये ही होता है। यहाँतक कि. मा-बाप बालककी रक्षा नहीं कर सकते, औषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्रमें डूबते हुएको नौका नहीं बचा सकती ।। 19 ।। सत्त्वादि गुणोंके कारण भित्र-भित्र स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करनेवाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणासे जिस आधारमें स्थित होकर जिस निमित्तसे जिन मिट्टी आदि उपकरणोंसे जिस समय जिन साधनोंके द्वारा जिस अदृष्ट आदिकी सहायतासे जिस प्रयोजनके उद्देश्यसे | जिस विधिसे जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है॥ 20 ॥

पुरुषकी अनुमतिसे कालके द्वारा गुणोंमें क्षोभ होनेपर माया मनः प्रधान लिङ्गशरीरका निर्माण करती है। यह लिङ्गशरीर बलवान् कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपोंमें आसक्त छन्दोमय है। यही अविद्याके द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा—इन सोलह विकाररूप अरोंसे युक्त संसार चक्र है। जन्मरहित प्रभो! आपसे मित्र रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसार चक्रको पार कर जाय ? ॥ 21 ॥ सर्वशक्तिमान् प्रभो ! माया इस सोलह अरोवाले संसार-चक्रमें डालकर ईखके समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्यशक्तिसे बुद्धिके समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते है और कालरूपसे सम्पूर्ण साध्य और साधनोंको अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरणमें आया हूँ, आप मुझे इससे बचाकर अपनी सत्रिधिमें खींच लीजिये ॥ 22 ॥ भगवन् ! जिनके लिये संसारीलोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्गमें मिलनेवाली समस्त लोकपालोंकी वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौहें थोड़ी टेढ़ीं हो जाती थीं, तब उन स्वर्गकी सम्पत्तियोंके लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिताको भी मार डाला || 23 | इसलिये मैं ब्रह्मलोकतककी आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और इन्द्रियभोग जिन्हें संसार के प्राणी चहा करतेहैं, नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली कालका रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासोकी सन्निधिमें ले चलिये ॥ 24 ॥ विषयभोगकी बातें सुनने में हो अच्छी लगती हैं, वास्तव में वे मृगतृष्णाके जलके समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगोंका उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषयभोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर! इन दोनोंकी क्षणभङ्गुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाईसे प्राप्त होनेवाले भोगके नन्हें-नन्हें मधुविन्दुओंसे अपनी कामनाकी आग | बुझानेकी चेष्टा करता है ! ॥ 25 ॥ प्रभो ! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंशमें रजोगुणसे उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है। आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकलसन्तापहारी वह करकमल मेरे सिरपर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शङ्कर और लक्ष्मीजीके सिरपर भी कभी नहीं रखा || 26 || दूसरे संसारी जीवोंके समान आपमें छोटे-बड़ेका भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्प वृक्षके समान आपका कृपा प्रसाद भी सेवन भजनसे ही प्राप्त होता है। सेवाके अनुसार ही जीवोंपर आपकी कृपाका उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है॥ 27 ॥ भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प हँसनेके लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगोंकी इच्छावाले पुरुष उसीमें गिरे हुए हैं। मैं भी सङ्गवश उसके पीछे उसीमें गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन् ! देवर्षि नारदने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनोंकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ ॥ 28 ॥ अनन्त ! जिस समय मेरे पिताने अन्याय करनेके लिये कमर कसकर हाथमें खड्ग ले लिया और वह कहने लगा कि ‘यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणोंकी रक्षा की और मेरे पिताका वध किया। मैं तो समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियोंका वचन सत्य करनेके लिये ही वैसा किया था ।। 29 ।।

भगवन्! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदिमें आप ही कारणरूपसे थे, अन्तमें आप ही अवधिके रूपमें रहेंगे और बीचमें इसकी प्रतीतिके रूपमें भी केवल आप ही हैं। आप अपनी मायासे गुणोंके परिणाम स्वरूप इस जगत्की सृष्टि करके इसमें पहलेसे विद्यमान रहनेपर भी प्रवेशकी लीला करते हैं और उन गुणोंसे युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे है। 30 भगवन्! यह जो कुछ कार्य-कारणके रूपमें प्रतीत हो रहा है, यह सब आप हीहैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने परायेका वह भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दोंकी माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, उसका स्वरूप ही होता है— जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्यकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध तन्मात्रकी दृष्टिसे दोनों एक ही हैं ।। 31 ।।

भगवन् ! आप इस सम्पूर्ण विश्वको स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुखका अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जलमें शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयं सिद्ध योगके द्वारा बाह्य दृष्टिको बंद कर आप अपने स्वरूपके प्रकाशमें निद्राको विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपदसँ स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुणसे ही युक्त होते और न तो विषयोंको ही स्वीकार करते हैं॥ 32 ॥ आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृतिके गुणोंको प्रेरित करते हैं. इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था। जब प्रलयकालीन जलके भीतर शेषशय्यापर शयन करनेवाले आपने योगनिद्राकी समाधि त्याग दी, तब चटके बीजसे विशाल वृक्षके समान आपकी नाभिसे ब्रह्माण्ड | कमल उत्पन्न हुआ ।। 33 ।। उसपर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्माजी प्रकट हुए। जब उन्हें कमलके सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपनेमें बीजरूपसे व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपनेसे बाहर समझकर जलके भीतर घुसकर सौ वर्षतक ढूंढ़ते रहे। परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अङ्कुर उग आनेपर उसमें व्याप्त बीजको कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है 34 ब्रह्माको बड़ा आश्चर्य हुआ। । वे हारकर कमलपर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर तीव्र तपस्या करनेसे जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप अपने शरीरमें ही ओतप्रोत रूपसे स्थित आपके सूक्ष्मरूपका साक्षात्कार हुआ— ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वीमें व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्धका होता है ।। 35 ।।

विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जङ्घा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधोंसे सम्पन्न थाच लोक उसके विभिन्न अङ्गोके रूपमें शोभायमान थे। वह भगवान्की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्माजीको बड़ा आनन्द हुआ 36 रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नामके दो बड़े बलवान् थे। जब वे वेदोको चुराकर ले गये, तब आपने प्रीयअवतार ग्रहण किया और उन दोनोंको मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यन्त प्रिय शरीर है- महात्मालोग इस प्रकार वर्णन करते हैं ।। 37 ।। पुरुषोत्तम ! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि, देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकोंका पालन तथा विश्वके द्रोहियोंका संहार करते हैं। इन अवतारोंके द्वारा आप प्रत्येक युगमें उसके धर्मोकी रक्षा करते हैं। कलियुगमें आप छिपकर गुप्तरूपसे ही रहते हैं, इसीलिये आपका एक नाम ‘त्रियुग’ भी है ll 38 ll

वैकुण्ठनाथ! मेरे मनकी बड़ी दुर्दशा है। वह पाप वासनाओंसे तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्रायः ही कामनाओंके कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय एवं लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदिको चिन्ताओंसे व्याकुल रहता है। इसे आपको लोला-कथाओंमें तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे में दीन हो रहा हूँ। ऐसे मनसे मैं आपके स्वरूपका चिन्तन कैसे करूँ ? ॥ 39 ॥ अच्युत यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वादिष्ट रसोंकी ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्रीकी ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्शकी ओर, पेट भोजनकी ओर, कान मधुर सङ्गीतकी ओर, नासिका भीनी भीनी सुगन्धकी ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्यकी और मुझे खींचते रहते हैं। इनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयोंकी और ले जानेको जोर लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्रियाँ उसे अपने-अपने शयनगृहमें ले जानेके लिये चारों ओरसे घसीट रही हों ॥ 40 इस प्रकार यह जीव अपने कर्मकि बन्धनमें पड़कर इस संसाररूप वैतरणी नदीमें गिरा हुआ है। जन्मसे मृत्यु, मृत्युसे जन्म और दोनोंके द्वारा कर्मभोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है—इस प्रकारके भेद-भावसे युक्त होकर किसीसे मित्रता करता है तो किसीसे शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव जातिको यह दुर्दशा देखकर करुणासे द्रवित हो जाइये। इस भव-नदीसे सर्वदा पार रहनेवाले भगवन्! इन प्राणियोको भी अब पार लगा दीजिये 41 जगद्गुरो ! आप इस सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति तथा पालन करनेवाले हैं। ऐसी अवस्थामें इन जीवोंको इस भव- नदीके पार उतार देनेमें आपको क्या प्रयास है ? दीनजनोंके परमहितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषोंके विशेष अनुग्रहपात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि हम आपके प्रियजनोंकी सेवामें लगे रहते हैं, इसलिये पार जानेकी हमें कभी चिन्ता ही नहीं होती ॥ 42 ॥ परमात्मन्! इस भव-वैतरणीसे पार उतरना दूसरे लोगोंके लिये अवश्य ही | कठिन है, परन्तु मुझे तो इससे तनिक भी भय नहीं है। क्योंकिमेरा चित्त इस वैतरणीमें नहीं, आपकी उन लीलाओंके गानमें मन रहता है, जो स्वर्गीय अमृतको भी तिरस्कृत करनेवाली परमामृतस्वरूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियोंके लिये शोक कर रहा है, जो आपके गुणगानसे विमुख रहकर इन्द्रियोंके विषयोका मायामय झूठा सुख प्राप्त करनेके लिये अपने सिरपर सारे संसारका भार ढोते रहते हैं ।। 43 ।। मेरे स्वामी ! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्तिके लिये निर्जन वनमें जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरोंकी भलाईके लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय गरीबोंको छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियोंके लिये चाहता। आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता ।। 44 ।।

घरमें फँसे हुए लोगोंको जो मैथुन आदिका सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है-जैसे कोई दोनों हाथोंसे खुजला रहा हो तो उस खुजलीमें पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परन्तु पोछेसे दुःख ही दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगर्नपर भी इन विषयोंसे अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहटको सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगोंको भी सह लेते हैं। सहनेसे ही उनका नाश होता है ।। 45 ।। पुरुषोत्तम ! मोक्षके दस साधन प्रसिद्ध हैं- मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियोंसे शास्त्रोंकी व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविकाके साधन- -व्यापारमात्र रह जाते हैं। और दम्मियोंके लिये तो जबतक उनकी पोल खुलती नहीं, तभीतक ये जीवननिर्वाहके साधन रहते हैं और भंडाफोड हो जानेपर वह भी नहीं ।। 46 ।। वेदोंने बीज और अङ्करके समान आपके दो रूप बताये हैं—कार्य और कारण वास्तवमें आप प्राकृत रूपसे रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपोको छोड़कर आपके ज्ञानका कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठमन्थनके द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोगकी साधनासे आपको कार्य और कारण दोनोंमें ही ढूँढ़ निकालते हैं। क्योंकि वास्तवमें ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं ॥ 47 ॥ अनन्त प्रभो। वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पञ्चतन्मात्राएँ प्राण इन्द्रिय, मन, चित्त, अहङ्कार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण-सब कुछ केवल आप ही है। और तो क्या, मन और वाणीके द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है ॥ 48 समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन् ! ये गुण और इन गुणोंके परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जाननेमें समर्थनहीं है; क्योंकि ये सब आदि-अन्तवाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त है। ऐसा विचार करके शानीजन शब्दोंकी मायासे उपरत हो जाते हैं ।। 49 ॥ परम पूज्य आपकी सेवाके छः अङ्ग है- नमस्कार, स्तुति, समस्त कमौका समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलोका चिन्तन और लीला कथाका श्रवण इस पडङ्ग सेवाके बिना आपके चरण-कमलोंकी भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्तिके बिना आपकी प्राप्ति कैसे होगी ? प्रभो। आप तो अपने परम प्रिय भक्तजनोंके, परमहंसोंके ही सर्वस्व है ।। 50 ।।

नारदजी कहते है इस प्रकार भक्त प्रह्लादने बड़े प्रेमसे प्रकृति और प्राकृत गुणोंसे रहित भगवान्के स्वरूपभूत गुणोंवर वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान्के चरणोंमें सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंहभगवान्‌का क्रोध शान्त हो गया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नतासे बोले ॥ 51 ॥

श्रीनृसिंहभगवान् श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा- परम कल्याणस्वरूप प्रह्लाद तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ। मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे मांग लो। मैं जीवोंकी इच्छाओंको पूर्ण करनेवाला हूँ ॥ 52 ॥ आयुष्मन् ! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदयमें किसी प्रकारकी जलन नहीं रह जाती ॥ 53 ॥ मैं समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परम भाग्यवान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियोंसे मुझे प्रसन्न करनेका ही यत्न करते हैं ।। 54 ।।

असुरकुलभूषण प्रह्लादजी भगवान्‌के अनन्य प्रेमी थे इसलिये बड़े-बड़े लोगोंको प्रलोभनमे डालनेवाले वरोंके द्वारा प्रलोभित किये जानेपर भी उन्होंने उनकी इच्छा | नहीं की ।। 55 ।।

अध्याय 10 प्रहादजीके राज्याभिषेक और त्रिपुरदहनकी कथा

नारदजी कहते हैं—प्रह्लादजीने बालक होनेपर भी यही समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्तिका विघ्न है, इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान्से बोले ॥ 1 ॥

प्रह्लादजीने कहा. प्रभो! मैं जन्मसे हो विषय-भोगोंमें आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरोंके द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगोंके सङ्गसे डरकर, उनके द्वारा होनेवाली तीव्र वेदनाका अनुभव कर उनसे छूटने की अभिलाषा से ही आपकी शरण में आया हूँ ॥ 2 ॥ भगवन्! मुझमें भक्तके लक्षण है या नहीं यह जाननेके लिये आपने अपने भक्तको वरदान मांगनेकी ओर प्रेरित किया है। ये विषय भोग हृदयको गाँठको और भी मजबूत करनेवाले तथा बार-बार जन्म- 1- मृत्युके चक्कर में डालनेवाले हैं ॥ 3 ॥ जगहुरो ! परीक्षाके सिवा ऐसा कहनेका और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु है। (अपने भक्तको भोगों में फँसानेवाला वर कैसे दे सकते हैं ?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना। चाहता है, वह सेवक नहीं, वह तो लेन-देन करनेवाला निरा बनिया है ॥ 4 ॥ जो स्वामीसे अपनी कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवकसे सेवा करानेके लिये, उसका स्वामी बननेके लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं ॥ 5 ॥ मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकोंका प्रयोजनवश स्वामी सेवकका सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं ॥ 6 मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदयमे कभी किसी कामनाका बीज अङ्कुरित हो हो ॥ 7 ॥ हृदयमें किसी भी कामनाके उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य – ये सब-के-सब नष्ट हो जाते है ॥ 8 ॥ कमलनयन ! जिस समय मनुष्य अपने मनमें रहनेवाली कामनाओंका परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेता है॥ 9 ॥भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदय में विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंहरूपधारी श्रीहरिके चरणों में बार-बार |प्रणाम करता हूँ ॥ 10 ॥

श्रीनृसिंहभगवान्ने कहा-प्रह्लाद तुम्हारे जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोककी किसी भी वस्तुके लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तरतक मेरी प्रसन्नताके लिये तुम इस लोकमें दैत्याधिपतियोंके समस्त भोग स्वीकार कर लो ॥ 11 ॥ समस्त प्राणियोंके हृदयमें यज्ञोंके भोक्ता ईश्वरके रूपमें मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदयमें मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मकि द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्मका क्षय कर देना ॥ 12 ॥ भोगके द्वारा पुण्यकर्मो के फल और निष्काम पुण्यकमंकि द्वारा पापका नाश करते हुए समयपर शरीरका त्याग करके समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोकमें भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्तिका गान करेंगे ।। 13 ।। तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुतिका जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समयपर कर्मकि बन्धनसे मुक्त हो जायगा ॥ 14 ॥

प्रह्लादजीने कहा- महेश्वर! आप वर देनेवालोंके स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिताने आपके ईश्वरीय तेजको और सर्वशक्तिमान् चराचरगुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णुने मेरे भाईको मार डाला है’ ऐसी मिध्यादृष्टि रखने के कारण पिताजी क्रोधके वेगको सहन करनेमें असमर्थ हो गये थे। इसीसे उन्होंने आपका भक्त होनेके कारण मुझसे भी द्रोह किया ।। 15-16 ।। दीनबन्धो यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होनेवाले दुस्तर दोषसे मेरे | पिता शुद्ध हो जायें 17 ॥श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा – निष्पाप प्रह्लाद !

तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढ़ियोंके पितर होते तो उन | सबके साथ भी वे तर जाते; क्योंकि तुम्हारे जैसा कुलको पवित्र करनेवाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ ॥ 18 ॥ मेरे शान्त, समदर्शी और सुखसे सदाचार पालन करनेवाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं ॥ 19 ॥ दैत्यराज ! मेरे भक्तिभावसे जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जानेके कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणीको किसी भी प्रकारसे कष्ट नहीं पहुँचाते ॥ 20 ॥ संसारमें जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त हो जायँगे। बेटा ! तुम मेरे सभी भक्तोंके आदर्श हो ॥ 21 ॥ यद्यपि मेरे अङ्गोंका स्पर्श होनेसे तुम्हारे पिता पूर्णरूपसे पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे जैसी सन्तानके कारण उन्हें उत्तम लोकोंकी प्राप्ति होगी ॥ 22 ॥ वत्स ! तुम अपने पिताके पदपर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियोंकी आज्ञाके अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरणमें रहकर मेरी सेवाके लिये ही अपने सारे कार्य करो ।। 23 ।।

नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार प्रह्लादजीने अपने पिताकी अन्त्येष्टि क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उनका राज्याभिषेक किया ॥ 24 ॥ इसी समय देवता, ऋषि आदिके साथ ब्रह्माजीने नृसिंहभगवान्‌को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनोंके द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही ॥ 25 ॥

ब्रह्माजीने कहा— देवताओंके आराध्यदेव ! आप सर्वान्तर्यामी, जीवोंके जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगोंको बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि आपने इसे मार डाला ॥ 26 ॥मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टिका कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बलके कारण उच्छृङ्खल होकर इसने वेदविधियोंका उच्छेद कर दिया था ॥ 27 ॥ यह भी बड़े सौभाग्यकी बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्धहृदय नन्हे-से शिशु प्रह्लादको आपने मृत्युके मुखसे छुड़ा दिया; तथा यह भी बड़े आनन्द और मङ्गलकी बात है। कि वह अब आपकी शरणमें है ॥ 28 ॥ भगवन् ! आपके इस नृसिंहरूपका ध्यान जो कोई एकाग्र मनसे करेगा, उसे यह सब प्रकारके भयोंसे बचा लेगा। यहाँतक कि मारने की इच्छासे आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी ।। 29 ।।

श्रीनृसिंहभगवान् बोले- ब्रह्माजी ! आप दैत्योंको ऐसा वर न दिया करें जो स्वभावसे ही क्रूर हैं, उनको दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपोको दूध पिलाना ॥ 30 ॥

नारदजी कहते हैं- युधिष्ठिर! नृसिंहभगवान् इतना कहकर और ब्रह्माजीके द्वारा की हुई पूजाको स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान-समस्त प्राणियोंके लिये अदृश्य हो गये ॥ 31 ॥ इसके बाद प्रह्लादजीने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा शङ्करकी तथा प्रजापति और देवताओंकी पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया ॥ 32 ॥ तब शुक्राचार्य आदि मुनियोंके साथ ब्रह्माजीने प्रह्लादजीको समस्त दानव और दैत्योंका अधिपति बना दिया ॥ 33 ॥ फिर ब्रह्मादि देवताओंने प्रह्लादका अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लादजीने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकोंको चले गये ।। 34 ।।

युधिष्ठिर। इस प्रकार भगवान्‌के वे दोनों पार्षद जय और विजय दितिके पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान्से वैरभाव रखते थे। उनके हृदयमें रहनेवाले भगवान्ने उनका उद्धार करेनेके लिये उन्हें मार डाला ॥ 35 ॥ ऋषियोंके शापके कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिरसे कुम्भकर्ण और रावणके रूपमें राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीरामके पराक्रमसे उनका अन्त हुआ ।। 36 ।।युद्धमें भगवान् रामके बाणोंसे उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्मकी भाँति भगवान्‌का स्मरण करते करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े ॥ 37 ॥ वे ही अब इस युगमें शिशुपाल और दन्तवका के रूपमें पैदा हुए थे। भगवान् के प्रति वैरभाव होनेके कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये ॥ 38 ॥ युधिष्ठिर! श्रीकृष्णसे शत्रुता रखनेवाले सभी राजा अन्तसमय श्रीकृष्णके स्मरणसे तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापोंसे सदाके लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगीके द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भयसे ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है ।। 39 ।। जिस प्रकार भगवान् के प्यारे भक्त अपनी भेद-भावरहित अनन्य भक्तिके | द्वारा भगवत्स्वरूपको प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान्के वैरभावजनित अनन्य चिन्तनसे भगवान् के सारूप्यको प्राप्त हो गये ll 40 ll

युधिष्ठिर तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान्‌ द्वेष करनेवाले शिशुपाल आदिको उनके सारूप्यकी प्राप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ॥ 41 ॥ ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्णका यह परम पवित्र अवतार चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इन दोनों दैत्योंके वधका वर्णन है ।। 42 ।। इस प्रसङ्गमें भगवान्‌के परम भक्त प्रह्लादका चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं संसारकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके स्वामी श्रीहरिके यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओंका वर्णन है। इस आख्यानमें देवता और दैत्योंके पदोंमें कालक्रमसे जो महान् परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है ।। 43-44 जिसके द्वारा भगवान्‌की प्राप्ति होती है, उस भागवत धर्मका भी वर्णन है। अध्यात्मके सम्बन्धमें भी सभी जाननेयोग्य बाते इसमें है 45 ।। भगवान्के पराक्रमसे पूर्ण इस पवित्र आख्यानको जो कोई पुरुष श्रद्धासे कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।। 46 ।। जो मनुष्य परम पुरुष परमात्माकी यह श्रीनृसिंह- लीला, सेनापतियोसहित हिरण्यकशिपुका वध और संतशिरोमणि प्रह्लादजीका पावन प्रभाव एकाग्र मनसेपढ़ता और सुनता है, वह भगवान्‌के अभयपद बैकुण्ठको प्राप्त होता है ।। 47 ।।

युधिष्ठिर। इस मनुष्यलोकमें तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।। 48 ।। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं वे हो तुम्हारे प्रिय, हितैषी ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ।। 49 ।। शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’ – इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 50 ॥ युधिष्ठिर। यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन कालमें बहुत बड़े मायावी मयासुरने जब रुद्रदेवकी कमनीय कीर्तिमें कलङ्क लगाना चाहा था, तब इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने फिरसे उनके यशकी रक्षा और विस्तार किया था ॥ 51 ॥

राजा युधिष्ठिरने पूछा- नारदजी! मयदानव किस कार्यमें जगदीश्वर रुद्रदेवका यश नष्ट करना चाहता था? और भगवान् श्रीकृष्णने किस प्रकार उनके यशकी रक्षा की ? आप कृपा करके बतलाइये ॥ 52 ॥

नारदजीने कहा- एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णसे शक्ति प्राप्त करके देवताओंने युद्धमें असुरोको जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियोंके परमगुरु मयदानवकी शरण में गये ॥ 53 ॥ शक्तिशाली मयासुरने सोने, चांदी और लोहे के तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित | सामग्रियाँ भरी हुई थीं ll 54 llयुधिष्ठिर । दैत्यसेनापतियोंकि तीन लोक और लोकपतियोंके प्रति वैरभाव तो था ही, अब उसकी करके उन तीनों विमानोंके द्वारा से उनमें छिपे रहकर नाश करने लगे ।। 55 ।। तब लोकपाल के साथ सारी प्रजा भगवान् शङ्करकी शरण में गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो त्रिपुरमें रहनेवाले असुर हमारा नाश कर रहे है। हम आपके हैं, अतः देवाधिदेव | आप हमारी रक्षा कीजिये ।। 56 ।।

उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शङ्कर कृपापूर्ण शब्दोंमें कहा-‘डरो मत। फिर उन्होंने अपने धनुषपर बाण चढ़ाकर तीनों पुरोंपर छोड़ दिया ॥ 57 ॥ उनके उस बाणसे सूर्यमण्डलसे निकलनेवाली किरणोंके समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमेंसे मानो आगकी लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरोका दीखना बंद हो गया ॥ 58 ॥ उनके स्पर्शसे सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत से उपाय जानता था, वह उन दैत्योंको उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृतके कुरैमें डाल दिया ।। 59 ।। उस सिद्ध अमृत रसका स्पर्श होते ही असुरोंका शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलोंको विदीर्ण करनेवाली बिजलीकी आगकी तरह उठ खड़े हुए ।। 60 ।।

इन्हीं भगवान् श्रीकृष्णने जब देखा कि महादेवजी तो अपना सङ्कल्प पूरा न होनेके कारण उदास हो गये है, तब उन असुरोंपर विजय प्राप्त करनेके लिये इन्होंने एक युक्ति की ।। 61 । यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्माजी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्नके समय उन तीनों पुरोमें गये और उस सिद्धरसके कुरैका सारा अमृत पी गये ।। 62 ।। यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनोंको देख रहे थे, फिर भी भगवान्की मायासे वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जाननेवालोंमें श्रेष्ठ मयासुरको यह बात मालूम हुई, तब भगवान्‌की इस लीलाका स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करनेवाले अमृत रक्षकोंसे उसने कहा भाई देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने पराये अथवा दोनों के लिये जो प्रारब्धका विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है ?’ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्णने अपनी शक्तियोंके द्वारा भगवान् शङ्करके युद्धकी सामग्री तैयार की ।। 63-65उन्होंने धर्मसे रथ, ज्ञानसे सारथि, वैराग्यसे ध्वजा, ऐश्वर्यसे घोड़े, तपस्यासे धनुष, विद्यासे कवच, क्रियासे बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियोंसे अन्यान्य वस्तुओंका निर्माण किया ॥ 66 ॥ इन सामग्रियोंसे सज-धजकर भगवान् शङ्कर रथपर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शङ्करने अभिजित् मुहूर्तमें धनुषपर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानोंको भस्म कर दिया। युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानोंकी भीड़ लग गयी ।। 67-68 ॥ देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्दसे जय-जयकार करते हुए पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं ॥ 69 ॥ युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन तीनों पुरोंको जलाकर भगवान् शङ्करने ‘पुरारि’ की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकोंकी स्तुति सुनते हुए अपने धामको चले गये ॥ 70 ॥ आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी मायासे जो मनुष्योंकी-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषिलोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओंका गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ? ।। 71 ।।

अध्याय 11 मानवधर्म, वर्णधर्म और स्त्रीधर्मका निरूपण

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- भगवन्मय प्रह्लादजीके साधुसमाजमें सम्मानित पवित्र चरित्र सुनकर संतशिरोमणि युधिष्ठिरको बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने नारदजीसे और भी पूछा ॥ 1 ॥युधिष्ठिरजीने कहा- भगवन् ! अब मैं वर्ण और आश्रमोंके सदाचारके साथ मनुष्योंके सनातनधर्मका श्रवण करना चाहता हूँ, क्योंकि धर्मसे ही मनुष्यको ज्ञान, भगवत्प्रेम और साक्षात् परम पुरुष भगवान्‌की प्राप्ति होती है ॥ 2 ॥ आप स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीके पुत्र हैं और नारदजी ! आपकी तपस्या, योग एवं समाधिके कारण वे अपने दूसरे पुत्रोंकी अपेक्षा आपका अधिक सम्मान भी करते हैं ॥ 3 ॥ आपके समान नारायण-परायण, दयालु, सदाचारी और शान्त ब्राह्मण धर्मके गुप्त से गुप्त रहस्यको जैसा यथार्थरूपसे जानते हैं, दूसरे लोग वैसा नहीं जानते ll 4 ll

नारदजीने कहा- -युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मोके मूल कारण हैं। वही प्रभु चराचर जगत्के कल्याणके लिये धर्म और दक्षपुत्री मूर्तिके द्वारा अपने अंशसे अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रममें तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान्‌को नमस्कार करके उन्होंके मुखसे सुने हुए सनातनधर्मका मैं वर्णन करता हूँ ।। 5-6 ।। युधिष्ठिर ! सर्ववेदस्वरूप भगवान् श्रीहरि, उनका तत्त्व | जाननेवाले महर्षियोंकी स्मृतियाँ और जिससे आत्मग्लानि न होकर आत्मप्रसादकी उपलब्धि हो, वह कर्म धर्मके मूल हैं ॥ 7 ॥ हैं।

युधिष्ठिर ! धर्मके ये तीस लक्षण शास्त्रोंमें कहे गये हैं— सत्य, दया, तपस्या, शौच, तितिक्षा, उचित अनुचितका विचार, मनका संयम, इन्द्रियों का संयम, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, त्याग, स्वाध्याय, सरलता, सन्तोष, समदर्शी महात्माओंकी सेवा, धीरे-धीरे सांसारिक भोगोंकी चेष्टासे निवृत्ति, मनुष्यके अभिमानपूर्ण प्रयत्नोंका फल उलटा ही होता है—ऐसा विचार, मौन, आत्मचिन्तन, प्राणियोंको अन्न आदिका यथायोग्य विभाजन, उनमें और विशेष करके मनुष्यों में अपने आत्मा तथा इष्टदेवका भाव, | संतोंके परम आश्रय भगवान् श्रीकृष्णके नाम-गुण-लीला आदिका श्रवण, कीर्तन, स्मरण, उनकी सेवा, पूजा और नमस्कार; उनके प्रति दास्य, सख्य और आत्म-समर्पण -यह तीस प्रकारका आचरण सभी मनुष्योंका परम धर्म है। | इसके पालनसे सर्वात्मा भगवान् प्रसन्न होते हैं ॥ 8- 12 ॥ धर्मराज! जिनके वंशमें अखण्डरूपसे संस्कार होते. आये हैं और जिन्हें ब्रह्माजीने संस्कारके योग्य स्वीकार किया है, उन्हें द्विज कहते हैं। जन्म और कर्मसे शुद्ध द्विजोंके लिये यज्ञ, अध्ययन, दान और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमोंके विशेष कर्मोका विधान है 13 ॥ अध्ययन, अध्यापन, दान लेना, दान देना और यज्ञ करना, यज्ञ कराना – ये छः कर्म ब्राह्मणके है। क्षत्रियको दान नहीं लेना चाहिये। प्रजाकी रक्षा करनेवाले क्षत्रियका जीवन निर्वाह ब्राह्मणके सिवा और सबसे | यथायोग्य कर तथा दण्ड (जुर्माना) आदिके द्वारा होता है ।। 14 ।। वैश्यको सर्वदा ब्रह्मणवंशका अनुयायी रहकर गोरक्षा, कृषि एवं व्यापारके द्वारा अपनी जीविका चलानी चाहिये। शूद्रका धर्म है द्विजातियोंकी सेवा। उसकी जीविकाका निर्वाह उसका स्वामी करता है ।। 15 ।। ब्राह्मणके जीवन-निर्वाहके साधन चार प्रकारके है वार्ता शालीन, + यायावर और शिलोञ्छन । इनमेंसे पीछे पीछेकी वृत्तियाँ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ हैं ॥ 16 ॥ निम्नवर्णका पुरुष बिना आपत्तिकालके उत्तम वर्णकी वृत्तियोंका अवलम्बन न करे। क्षत्रिय दान लेना छोड़कर ब्राह्मणकी शेष पाँचों वृत्तियोंका अवलम्बन ले सकता है। आपत्तिकालमें सभी सब वृत्तियोको स्वीकार कर सकते हैं 17 ॥ ऋत अमृत, मूत प्रमृत और सत्यानृतइनमेंसे किसी भी वृत्तिका आश्रय ले, परन्तु श्वानवृत्तिका अवलम्बन कभी न करे ।। 18 ।। बाजारमें पड़े हुए अन्न (उञ्छ) तथा खेतोंमें पड़े हुए अन्न (शिल) को बीनकर ‘शिलोव्छ’ वृत्तिसे जीविका निर्वाह करना ‘ऋत’ है। बिना माँगे जो कुछ मिल जाय, उसी अयाचित (शालीन) वृत्तिके द्वारा जीवन निर्वाह करना ‘अमृत’ है। नित्य माँगकर लाना अर्थात् ‘यायावर’ वृत्तिके द्वारा जीवन-यापन करना है ‘मृत’ है। कृषि आदिके द्वारा ‘वार्ता’ वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना ‘प्रमृत’ है ॥ 19 ॥ वाणिज्य ‘सत्यानृत’ है और निम्नवर्णकी सेवा करना ‘श्वानवृत्ति’ है ब्राह्मण और क्षत्रियको इस अन्तिम निन्दित वृत्तिका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय और क्षत्रिय (राजा) सर्वदेवमय है ॥ 20 शम, दम, तप, शौच, सन्तोष, क्षमा, सरलता, ज्ञान, दया,
भगवत्परायणता और सत्य—ये ब्राह्मणके लक्षण हैं ॥ 21 ॥युद्धमें उत्साह, वीरता, धीरता, तेजस्विता, त्याग, मनोजय क्षमा, ब्राह्मणोंके प्रति भक्ति, अनुग्रह और प्रजाकी रक्षा करना-ये क्षत्रियके लक्षण हैं ॥ 22 ॥ देवता, गुरु और भगवान्के प्रति भक्ति, अर्थ, धर्म और काम-इन तीनों पुरुषार्थोकी रक्षा करना; आस्तिकता, उद्योगशीलता और व्यावहारिक निपुणता – ये वैश्यके लक्षण हैं ॥ 23 ॥ उच्च | वर्णोंकि सामने विनम्र रहना, पवित्रता, स्वामीकी निष्कपट सेवा, वैदिक मन्त्रोंसे रहित यज्ञ, चोरी न करना, सत्य तथा गौ ब्राह्मणोंकी रक्षा करना-ये शूद्रके लक्षण हैं ॥ 24 ॥

पतिकी सेवा करना, उसके अनुकूल रहना, पतिके सम्बन्धियोंको प्रसन्न रखना और सर्वदा पतिके नियमोंकी रक्षा करना – ये पतिको ही ईश्वर माननेवाली पतिव्रता स्त्रियोंके धर्म हैं ॥ 25 ॥ साध्वी स्त्रीको चाहिये कि झाड़ने बुहारने, लीपने तथा चौक पूरने आदिसे घरको और मनोहर वस्त्राभूषणोंसे अपने शरीरको अलङ्कृत रखे। सामग्रियोंको साफ-सुथरी रखे ॥ 26 ॥ अपने पतिदेवकी छोटी-बड़ी इच्छाओंको समयके अनुसार पूर्ण करे। विनय, इन्द्रिय-संयम, सत्य एवं प्रिय वचनोंसे प्रेमपूर्वक पतिदेवकी सेवा करे ॥ 27 ॥ जो कुछ उसीमें सन्तुष्ट रहे; किसी भी वस्तुके लिये ललचावे नहीं। सभी | कार्योंमें चतुर एवं धर्मज्ञ हो। सत्य और प्रिय बोले । अपने कर्तव्यमें सावधान रहे। पवित्रता और प्रेमसे परिपूर्ण रहकर, यदि पति पतित न हो तो, उसका सहवास करे ॥ 28 ॥ जो लक्ष्मीजीके समान पतिपरायणा होकर अपने पतिकी उसे साक्षात् भगवान्‌का स्वरूप समझकर सेवा करती है, उसके पतिदेव वैकुण्ठलोकमें भगवत्सारूप्यको प्राप्त होते हैं और वह लक्ष्मीजीके समान उनके साथ आनन्दित होती है ।। 29 ।। मिल जाय, युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप कर्म नहीं करते-उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं ॥ 30 ॥ वेददर्शी ऋषि मुनियोंने युग-युग में प्रायः मनुष्योंके स्वभावके अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोकमें कल्याणकारी है ॥ 31 ॥ जो स्वाभाविक वृत्तिका आश्रय लेकर अपने स्वधर्मका पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मोंसे भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥ 32 ॥महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोनेसे खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कर उगना बंद हो जाता है, यहाँतक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है— उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयोंका अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालनेसे आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह बुझ जाती है ।। 33-34 ॥ जिस पुरुषके वर्णको बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवालेमें भी मिले तो उसे भी उसी वर्णका समझना चाहिये || 35 ॥

अध्याय 12 ब्रह्मचर्य और वानप्रस्थ आश्रमोंके नियम

नारदजी कहते हैं— धर्मराज ! गुरुकुलमें निवास करनेवाला ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर दासके समान अपनेको छोटा माने, गुरुदेवके चरणों में सुदृढ़ अनुराग रखे और उनके हितके कार्य करता रहे ॥ 1 ॥ सायङ्काल और प्रातःकाल गुरु, अग्नि, सूर्य और श्रेष्ठ देवताओंकी उपासना करे और मौन होकर एकाग्रतासे गायत्रीका जप करता हुआ दोनों समयकी सन्ध्या करे ॥ 2 ॥

गुरुजी जब बुलावें तभी पूर्णतया अनुशासनमें रहकर उनसे वेदोंका स्वाध्याय करे। पाठके प्रारम्भ और अन्तमें उनके चरणोंमें सिर टेककर प्रणाम करे || 3 || शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार मेखला, मृगचर्म, वस्त्र, जटा, दण्ड, | कमण्डलु, यज्ञोपवीत तथा हाथमें कुश धारण करे ॥ 4 ॥ सायङ्काल और प्रातःकाल भिक्षा माँगकर लावे और उसे गुरुजीको समर्पित कर दे। वे आज्ञा दें, तब भोजन करे और यदि कभी आज्ञा न दें तो उपवास कर ले ॥ 5 ॥अपने शीलकी रक्षा करे। थोड़ा खाये अपने कामोंको निपुणता के साथ करे। श्रद्धा रखे और इन्द्रियोंको अपने वशमें रखे। स्त्री और स्त्रियोंक वशमें रहनेवालोंके साथ है, उसे जितनी आवश्यकता हो, उतना ही व्यवहार करे ।। 6 ।। जो गृहस्थ नहीं है और ब्रह्मचर्यका व्रत लिये हुए | स्त्रियों की चर्चासे ही अलग रहना चाहिये। इन्द्रियां बड़ी बलवान् है। ये प्रयत्नपूर्वक साधन करनेवालोंके मनको भी | शुन्य करके खींच लेती हैं ॥ 7 ॥ युवक ब्रह्मचारी युवती क्षुब्ध गुरुपलियोंसे बाल सुलझवाना, शरीर मलवाना, खान करवाना, उबटन लगवाना इत्यादि कार्य न करावे ॥ 8 ॥ स्त्रियाँ आगके समान हैं और पुरुष घीके घड़ेके समान। एकान्तमें तो अपनी कन्याके साथ भी न रहना चाहिये। जब वह एकान्तमें न हो, तब भी आवश्यकताके अनुसार ही उसके पास रहना चाहिये ॥ 9 ॥ जबतक यह जीव आत्मसाक्षात्कार के द्वारा इन देह और इन्द्रियोंको | प्रतीतिमात्र निश्चय करके स्वतन्त्र नहीं हो जाता, तबतक ‘मैं पुरुष हूँ और यह स्त्री है यह द्वैत नहीं मिटता और तबतक यह भी निश्चित है कि ऐसे पुरुष यदि स्त्रीके संसर्गमें रहेंगे, तो उनकी उनमें भोग्यबुद्धि हो ही जायगी ॥ 10 ॥

ये सब शील-रक्षादि गुण गृहस्थके लिये और संन्यासीके लिये भी विहित हैं। गृहस्थके लिये गुरुकुलमें रहकर गुरुकी सेवा-शुश्रूषा वैकल्पिक है, क्योंकि ऋतुगमनके कारण उसे वहाँसे अलग भी होना पड़ता है ॥ 11 ॥ जो ब्रह्मचर्यका व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा वा तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियोंके चित्रन बनावें। मांस और मद्यसे कोई सम्बन्ध न रखें। फूलोंके हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणोंका त्याग कर दें॥ 12 ॥ इस प्रकार गुरुकुलमें निवास करके द्विजातिको अपनी शक्ति और आवश्यकता के अनुसार वेद, उनके अङ्ग – शिक्षा, कल्प आदि और उपनिषदोंका अध्ययन तथा ज्ञान प्राप्त करना चाहिये ॥ 13 ॥ फिर यदि सामर्थ्य हो तो गुरुको मुँहमाँगी दक्षिणा देनी चाहिये। इसके बाद उनकी आज्ञासे गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रममें प्रवेश करे या आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए उसी आश्रम में रहे ॥ 14 ॥ यद्यपि भगवान् स्वरूपतः सर्वत्र एकरस स्थित है, अतएव उनका कहीं प्रवेश करना या निकलना नहीं हो सकता-फिर भी अग्नि, गुरु, आत्मा और समस्त प्राणियोंमें अपने आश्रित जीवोंके साथ ये विशेषरूपसे विराजमान है। इसलिये उनपर सदा दृष्टि जमी रहनी चाहिये ॥ 15 ॥ इस प्रकार आचरण करनेवाला ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, संन्यासीअथवा गृहस्थ विज्ञानसम्पन्न होकर परब्रह्मतत्त्वका अनुभव प्राप्त कर लेता है ॥ 16 ॥ अब मैं ऋषियोंके मतानुसार वानप्रस्थ आश्रमके नियम बतलाता हूँ। इनका आचरण करनेसे वानप्रस्थ आश्रमीको अनायास ही ऋषियोंके लोक महलौककी प्राप्ति हो जाती है ॥ 17 ॥ वानप्रस्थ आश्रमीको जोती हुई भूमिमें उत्पन्न होनेवाले चावल, गेहूँ आदि अन्न नहीं खाने चाहिये। बिना जोते पैदा हुआ अन्न भी यदि असमय में पका हो, तो उसे भी न खाना चाहिये। आगसे पकाया हुआ या कच्चा अन्न भी न खाय। केवल सूर्यके तापसे पके हुए कन्द, मूल, फल आदिका ही सेवन करे ॥ 18 ॥ जंगलोंमें अपने-आप पैदा हुए धान्योंसे नित्यनैमित्तिक चरु और पुरोडाशका हवन करे। जब नये-नये अन्न, फल, फूल आदि मिलने लगें, तब पहलेके इकट्ठे किये हुए अन्नका परित्याग कर दे ।। 19 ।। अग्निहोत्रके अग्रिकी रक्षाके लिये ही घर, पर्णकुटी अथवा पहाड़की गुफाका आश्रय ले । स्वयं शीत, वायु, अग्नि, वर्षा और घामका सहन करे ।। 20 ।। सिरपर जटा धारण करे और केश, रोम, नख एवं दाढ़ी-मूंछ न कटवाये तथा मैलको भी शरीरसे अलग न करे। कमण्डलु, मृगचर्म, दण्ड, वल्कल-वस्त्र और अग्निहोत्रकी सामग्रियोंको अपने पास रखे ॥ 21 ॥ विचारवान् पुरुषको चाहिये कि बारह, आठ, चार, दो या एक वर्षतक वानप्रस्थ आश्रमके नियमोंका पालन करे। ध्यान रहे कि कहीं अधिक तपस्याका क्लेश सहन करनेसे बुद्धि बिगड़ न जाय ॥ 22 ॥

वानप्रस्थी पुरुष जब रोग अथवा बुढ़ापेके कारण अपने कर्म पूरे न कर सके और वेदान्त-विचार करनेकी भी सामर्थ्य न रहे, तब उसे अनशन आदि व्रत करने चाहिये ॥ 23 ॥ अनशनके पूर्व ही वह अपने आहवनीय आदि अग्रियोंको अपनी आत्मामें लीन कर ले। ‘मैपन” और ‘मेरेपन’ का त्याग करके शरीरको उसके कारणभूत तत्त्वोंमें यथायोग्य भलीभाँति लीन करे ।। 24 ॥ जितेन्द्रिय पुरुष अपने शरीर के छिद्राकाशोंको आकाशमे प्राणोंको वायुमें, गरमीको अभिये, रक्त, कफ, पीव आदि जलीय तत्त्वोंको जलमें और हड्डी आदि ठोस वस्तुओंको पृथ्वीमें लीन करे ।। 25 । इसी प्रकार वाणी और उसके कर्म भाषणको उसके अधिष्ठातृदेवता अभिमे हाथ और | उसके द्वारा होनेवाले कला-कौशलको इन्द्रमें चरण औरउसकी गतिको कालस्वरूप विष्णुमें, रति और उपस्थको प्रजापतिमें एवं पायु और मलोत्सर्गको उनके आश्रयके | अनुसार मृत्युमें लीन कर दे। श्रोत्र और उसके द्वारा सुने जानेवाले शब्दको दिशाओंमें, स्पर्श और त्वचाको वायुमें, नेत्रसहित रूपको ज्योतिमें, मधुर आदि रसके सहित * रसनेन्द्रियको जलमें और युधिष्ठिर ! घ्राणेन्द्रिय एवं उसके द्वारा सूँघे जानेवाले गन्धको पृथ्वीमें लीन कर दे ।। 26–28 ॥ मनोरथोंके साथ मनको चन्द्रमामें, समझमें आनेवाले पदार्थों क सहित बुद्धिको ब्रह्मामें तथा अहंता और ममतारूप क्रिया करनेवाले अहङ्कारको उसके कर्मोंके साथ रुद्रमें लीन कर दे। इसी प्रकार चेतना सहित चित्तको क्षेत्रज्ञ (जीव) में और गुणोंके कारण विकारी-से प्रतीत होनेवाले जीवको परब्रह्ममें लीन कर दे ॥ 29 ॥ साथ ही पृथ्वीका जलमें, जलका अग्निमें अग्निका वायुमें, वायुका आकाशमें, आकाशका अहङ्कारमें, अहङ्कारका महत्तत्त्वमें, महत्तत्त्वका अव्यक्तमें और अव्यक्तका अविनाशी परमात्मामें लय कर दे ॥ 30 ॥ इस प्रकार अविनाशी परमात्माके रूपमें अवशिष्ट जो चिद्वस्तु है, वह आत्मा है, वह मैं हूँ — यह जानकर अद्वितीय भावमें स्थित हो जाय। जैसे अपने आश्रय काष्ठादिके भस्म हो जानेपर अनि शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है, वैसे ही वह भी उपरत हो जाय ॥ 31 ॥

अध्याय 13 यतिधर्मका निरूपण और अवधूत प्रह्लाद-संवाद

नारदजी कहते हैं— धर्मराज! यदि वानप्रस्थी में ब्रह्मविचारका सामर्थ्य हो, तो शरीरके अतिरिक्त और सब कुछ छोड़कर वह संन्यास ले ले; तथा किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान और समयकी अपेक्षा न रखकर एक गाँवमें एक ही रात ठहरनेका नियम लेकर पृथ्वीपर विचरण करे ॥ 1 ॥यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अङ्ग ढक जायें। और जबतक कोई आपत्ति न आवे, तबतक दण्ड तथा अपने आश्रमके चिह्नोंके सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तुको ग्रहण न करे ॥ 2 ॥ संन्यासीको चाहिये कि वह समस्त प्राणियोंका हितैषी हो, शान्त रहे, भगवत्परायण रहे और किसीका आश्रय न लेकर अपने आपमें ही रमे एवं अकेला ही विचरे ॥ 3 ॥ इस सम्पूर्ण विश्वको कार्य और कारणसे अतीत परमात्मामें अध्यस्त जाने और कार्य-कारणस्वरूप इस जगत्में ब्रह्मस्वरूप अपने आत्माको परिपूर्ण देखे ॥ 4 ॥ आत्मदर्शी संन्यासी सुषुप्ति और जागरणकी सन्धिमें अपने स्वरूपका अनुभव करे और बन्धन तथा मोक्ष दोनों ही | केवल माया हैं, वस्तुतः कुछ नहीं – ऐसा समझे ॥ 5 ॥ न तो शरीरको अवश्य होनेवाली मृत्युका अभिनन्दन करे और न अनिश्चित जीवनका केवल समस्त प्राणियोंकी 1 उत्पत्ति और नाशके कारण कालकी प्रतीक्षा करता रहे ।। 6 ।। असत्य-अनात्मवस्तुका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रोंसे प्रीति न करे। अपने जीवन-निर्वाहके लिये कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिये कोई तर्क न करे और संसारमें किसीका पक्ष न ले ॥ 7 ॥ शिष्य मण्डली न जुटावे, बहुत से प्रन्थोंका अभ्यास न करे, व्याख्यान न दे और बड़े-बड़े कामोंका आरम्भ न करे ॥ 8 ॥ शान्त, समदर्शी एवं महात्मा संन्यासीके लिये किसी आश्रमका बन्धन धर्मका कारण नहीं है। वह अपने आश्रमके चिह्नोंको धारण करे, चाहे छोड़ दे ॥ 9 ॥ उसके पास कोई आश्रमका चिह्न न हो, परन्तु वह आत्मानुसन्धानमें मम हो हो तो अत्यन्त विचारशील, परन्तु जान पड़े पागल और बालककी तरह। वह अत्यन्त प्रतिभाशील होनेपर भी साधारण मनुष्योंकी दृष्टिसे ऐसा जान पड़े मानो कोई गूँगा है ॥ 10 ॥

युधिष्ठिर। इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहासका वर्णन करते हैं। वह है दत्तात्रेय मुनि और भक्तराज प्रह्लादका संवाद ॥ 11 ॥ एक बार भगवान्‌के परम प्रेमी प्रह्लादजी कुछ मन्त्रियों के साथ लोगों के हृदयकी बात जानने की इच्छासे लोकोंमें विचरण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि सहा पर्वतकी तलहटीमें कावेरी नदीके तटपर पृथ्वीपर ही एक मुनि पड़े हुए हैं। उनके शरीरकीनिर्मल ज्योति अङ्गों पूलिधूसरित होनेके कारण दकी हुई थी ।। 12-13 ।। उनके कर्म, आकार, वाणी और वर्ण आश्रम आदिके चिह्नोंसे लोग यह नहीं समझ सकते थे कि वे कोई सिद्ध पुरुष हैं या नहीं ॥ 14 ॥ भगवान्के परम प्रेमी भक्त प्रह्लादजीने अपने सिरसे उनके चरणोंका स्पर्श करके प्रणाम किया और विधिपूर्वक उनकी पूजा करके जानने की इच्छासे यह प्रश्न किया ।। 15 ।। ‘भगवन्। आपका शरीर उद्योगी और भोगी पुरुषोंकि समान दृष्ट-पुष्ट है। संसारका यह नियम है कि उद्योग करनेवालोंको धन मिलता है, धनवालोंको ही भोग प्राप्त होता है और भोगियों का ही शरीर दृष्ट-पुष्ट होता है और कोई दूसरा कारण तो हो नहीं सकता ॥ 16 ॥ भगवन् ! आप कोई उद्योग तो करते नहीं, यों ही पड़े रहते हैं। इसलिये आपके पास धन है नहीं। फिर आपको भोग कहाँसे प्राप्त होंगे ? ब्राह्मणदेवता बिना भोगके ही आपका यह शरीर इतना हृष्ट-पुष्ट कैसे है ? यदि हमारे सुननेयोग्य हो, तो अवश्य बतलाइये ॥ 17 ॥ आप विद्वान्, समर्थ और चतुर हैं। आपकी बातें बड़ी अद्भुत और प्रिय होती है। ऐसी अवस्थामें आप सारे संसारको कर्म करते हुए देखकर भी समभावसे पड़े हुए हैं, इसका है. क्या कारण है ?’ ll 18 ll

नारदजी कहते हैं— धर्मराज जब प्रह्लादजीने महामुनि दत्तात्रेयजीसे इस प्रकार प्रश्न किया, तब वे उनकी अमृतमयी वाणीके वशीभूत हो मुसकराते हुए बोले ॥ 19 ॥

दत्तात्रेयजीने कहा- दैत्यराज ! सभी श्रेष्ठ पुरुष तुम्हारा सम्मान करते हैं। मनुष्योंको कर्मोंकी प्रवृत्ति और उनकी निवृत्तिका क्या फल मिलता है, यह बात तुम अपनी शनदृष्टि से जानते ही हो 20 ॥ तुम्हारी अनन्य भक्तिके कारण देवाधिदेव भगवान् नारायण सदा तुम्हारे हृदयमें विराजमान रहते हैं और जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते है, वैसे ही वे तुम्हारे अज्ञानको नष्ट करते रहते हैं ॥ 21 ॥तो भी प्रह्लाद मैंने जैसा कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं तुम्हारे प्रश्नोंका उत्तर देता हूँ। क्योंकि आत्मशुद्धि के अभिलाषियोंको तुहारा सम्मान अवश्य करना चाहिये ll 22 ll

प्रह्लादजी! तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगोंके प्राप्त होनेपर भी पूरी नहीं होती। उसीके कारण जन्म | मृत्युके चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णाने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियोंमें मुझे डाला ॥ 23 ॥ कर्मो के कारण अनेकों योनियों में भटकते-भटकते दैववश मुझे यह मनुष्ययोनि मिली है, जो स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानवदेहकी भी प्राप्तिका द्वार है— इसमें पुण्य करें तो स्वर्ग, पाप करें तो पशु-पक्षी आदिकी योनि, निवृत्त हो जायें तो मोक्ष और दोनों प्रकारके कर्म किये जायें तो फिर मनुष्ययोनिकी ही प्राप्ति हो सकती है ।। 24 ।। परन्तु मैं देखता हूँ कि संसारके स्त्री-पुरुष कर्म तो करते हैं। सुखकी प्राप्ति और दुःखकी निवृत्तिके लिये, किन्तु उसका फल उलटा होता ही है-वे और भी दुःखमें पड़ जाते हैं। इसीलिये मैं कर्मोंसे उपरत हो गया हूँ ॥ 25

सुख ही आत्माका स्वरूप है। समस्त चेष्टाओंकी निवृत्ति ही उसका शरीर उसके प्रकाशित होनेका स्थान है। इसलिये समस्त भोगोंको मनोराज्यमात्र समझकर मैं अपने प्रारब्धको भोगता हुआ पड़ा रहता हूँ ॥ 26 ॥ मनुष्य अपने सच्चे स्वार्थ अर्थात् वास्तविक सुखको, जो अपना स्वरूप ही है, भूलकर इस मिथ्या द्वैतको सत्य मानता हुआ अत्यन्त भयङ्कर और विचित्र जन्मों और मृत्युओंमें भटकता रहता है॥ 27 ॥ जैसे अज्ञानी मनुष्य जलमें उत्पन्न तिनके और सेवारसे ढके हुए जलको जल न समझकर जलके लिये मृगतृष्णाकी ओर दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मासे भिन्न वस्तुमें सुख समझनेवाला पुरुष
आत्माको छोड़कर विषयोंकी ओर दौड़ता है॥ 28 ॥ प्रह्लादजी! शरीर आदि तो प्रारब्धके अधीन हैं। उनके द्वारा जो अपने लिये सुख पाना और दुःख मिटाना चाहता है, वह कभी अपने कार्यमें सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं ।। 29 ।। मनुष्य सर्वदा शारीरिक, मानसिक आदि दुःखोंसे आक्रान्त ही रहता है। मरणशील तो है ही, यदि उसने बड़े श्रम और कष्टसे कुछ धन और भोग प्राप्त कर भी लिया तो क्या लाभ है ? ॥ 30 ॥ लोभी और इन्द्रियों के वशमें रहनेवाले धनियोंका दुःख तो मैं देखता ही रहता हूँ। भयके मारे उन्हें नींद नहीं आती। सबपर उनका सन्देह बना रहता है ॥ 31 ॥ जो जीवन और धनके लोभी हैं—वे राजा,चोर, शत्रु, स्वजन, पशु-पक्षी, याचक और कालसे, यहाँतक कि ‘कहीं मैं भूल न कर बैठूं अधिक न खर्च कर दूँ – इस आशङ्कासे अपने-आप भी सदा डरते रहते है 32 ॥ इसलिये बुद्धिमान पुरुषको चाहिये कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग, कायरता और श्रम आदिका शिकार होना पड़ता है— उस घन और जीवनको स्पृहाका त्याग कर दे ॥ 33 ॥

इस लोकमें मेरे सबसे बड़े गुरु हैं- अजगर और मधुमक्खी उनको शिक्षासे हमें वैराग्य और सन्तोषको प्राप्ति हुई है ॥ 34 ॥ मधुमक्खी जैसे मधु इकट्ठा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्टसे धन सञ्चय करते हैं; परन्तु दूसरा ही कोई उस धन राशिके स्वामीको मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय-भोगोंसे विरक्त ही रहना चाहिये ।। 35 ।। मैं अजगरके समान निश्चेष्ट पड़ा रहता हूँ और दैववश जो कुछ मिल जाता है, उसीमें सन्तुष्ट रहता हूँ और यदि कुछ नहीं मिलता, तो बहुत दिनोंतक धैर्य धारण कर यों ही पड़ा रहता हूँ।। 36 ।। कभी थोड़ा अन्न खा लेता हूँ तो कभी बहुत; कभी स्वादिष्ट तो कभी नीरस – बेस्वाद; और कभी अनेकों गुणोंसे युक्त, तो कभी सर्वथा गुणहीन ॥ 37 ॥ कभी बड़ी श्रद्धासे प्राप्त हुआ अन्न खाता हूँ तो कभी अपमानके साथ और किसी-किसी समय अपने-आप हो मिल जानेपर कभी दिनमें, कभी रातमें और कभी एक बार भोजन करके भी दुबारा कर लेता हूँ ॥ 38 ॥ मैं अपने प्रारब्धके भोगमें ही सन्तुष्ट रहता हूँ। इसलिये मुझे रेशमी या सूती, मृगचर्म या चीर, वल्कल या और कुछ — जैसा भी वस्त्र मिल जाता है, वैसा ही पहन लेता हूँ 39 कभी मैं पृथ्वी, घास, पत्ते, पत्थर या राखके ढेरपर ही पड़ रहता हूँ, तो कभी दूसरोंकी इच्छासे महलोंगे पलंगों और गोपर सो लेता हूँ 40 दैत्यराज ! कभी नहा धोकर, शरीरमें चन्दन लगाकर सुन्दर वस्त्र, फूलोंके हार और गहने पहन रथ, हाथी और घोड़े पर चढ़कर चलता हूँ, तो कभी पिशाचके समान बिलकुल नंग-धड़ंग विचरता हूँ। 41 मनुष्योके स्वभाव भिन्न-भिन्न होते ही हैं। अतः न तो मैं किसीकी निन्दा करता हूँ और न स्तुति ही। मैं केवल इनका परम कल्याण और परमात्मासे एकता चाहता हूँ ॥ 42 ॥सत्यका अनुसन्धान करनेवाले मनुष्यको चाहिये कि जो नाना प्रकारके पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्तिमें हवन कर दे। चित्तवृत्तिको इन पदार्थोंके सम्बन्धमें विविध भ्रम उत्पन्न करनेवाले मनमें, मनको सात्त्विक अहङ्कारमें और सात्त्विक अहङ्कारको महत्तत्त्वके द्वारा भायामें हवन कर दे। इस प्रकार ये सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस मायाको आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे। इस प्रकार आत्मसाक्षात्कारके द्वारा आत्मस्वरूपमें स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय ।। 43-44 ॥ प्रह्लादजी ! मेरी यह आत्मकथा अत्यन्त गुप्त एवं लोक और शास्त्रसे परेकी वस्तु है। तुम भगवान्‌के अत्यन्त प्रेमी हो, इसलिये मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है ॥ 45 ॥

नारदजी कहते हैं— महाराज ! प्रह्लादजीने दत्तात्रेय मुनिसे परमहंसोंके इस धर्मका श्रवण करके उनकी पूजा की और फिर उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नतासे अपनी राजधानीके लिये प्रस्थान किया ॥ 46 ॥

अध्याय 14 गृहस्थसम्बन्धी सदाचार

राजा युधिष्ठिरने पूछा— देवर्षि नारदजी मेरे जैसा गृहासक्त गृहस्थ बिना विशेष परिश्रमके इस पदको किस साधनसे प्राप्त कर सकता है, आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 1 ॥

नारदजीने कहा – युधिष्ठिर ! मनुष्य गृहस्थाश्रममें रहे और गृहस्थधर्मके अनुसार सब काम करे, परन्तु उन्हें भगवान् के प्रति समर्पित कर दे और बड़े-बड़े संत-महात्माओंकी सेवा भी करे ॥ 2 ॥ अवकाशके अनुसार विरक्त पुरुषोंमें निवास करे और बार-बार श्रद्धापूर्वक भगवान्‌के अवतारोंकी लीला-सुधाका पान करता रहे ॥ 3 ॥जैसे स्वम टूट जानेपर मनुष्य स्वप्रके सम्बन्धियोंसे आसक्त नहीं रहता -वैसे ही ज्यों-ज्यों सत्सङ्गके द्वारा बुद्धि शुद्ध हो, त्यों-ही-त्यों शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदिकी आसक्ति स्वयं छोड़ता चले। क्योंकि एक न एक दिन ये छूटनेवाले ही है ॥ 4 ॥ बुद्धिमान् पुरुषको आवश्यकता के अनुसार ही घर और शरीरकी सेवा करनी चाहिये, अधिक नहीं भीतरसे विरक्त रहे और बाहरसे रागी के समान लोगों में साधारण मनुष्यों जैसा ही व्यवहार करे ॥ 5 ॥ माता-पिता, भाई-बन्धु, पुत्र- मित्र, जातिवाले और दूसरे जो कुछ कहें अथवा जो कुछ चाहे, भीतरसे ममता न रखकर उनका अनुमोदन कर दे ॥ 6 ॥

बुद्धिमान् पुरुष वर्षा आदिके द्वारा होनेवाले अन्नादि, पृथ्वीसे उत्पन्न होनेवाले सुवर्ण आदि, अकस्मात् प्राप्त होनेवाले द्रव्य आदि तथा और सब प्रकारके धन भगवान् के ही दिये हुए हैं—ऐसा समझकर प्रारब्धके अनुसार उनका उपभोग करता हुआ सञ्चय न करे, उन्हें पूर्वोक्त साधुसेवा आदि कर्मोम लगा दे 7 ॥ मनुष्योंका अधिकार केवल उतने ही धनपर है, जितनेसे उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्तिको जो अपनी मानता है, वह चोर है, उसे दण्ड मिलना चाहिये ॥ 8 हरिन, ऊँट, गधा, बंदर, चूहा, सरीसृप (रेंगकर चलनेवाले प्राणी), पक्षी और मक्खी आदिको अपने पुत्रके समान ही समझे। उनमें और पुत्रोंमें अन्तर ही कितना है ॥ 9 ॥ गृहस्थ मनुष्यों को भी धर्म, अर्थ और के लिये बहुत कष्ट नहीं उठाना चाहिये; बल्कि देश, काल और प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसीसे सन्तोष करना चाहिये 10 ॥ अपनी समस्त भोग-सामग्रियोंको कुत्ते, पतित और चाण्डालपर्यन्त सब प्राणियोंको यथायोग्य बाँटकर ही अपने काममें लाना चाहिये। और तो क्या, अपनी स्त्रीको भी— जिसे मनुष्य समझता है कि यह मेरी हैं—अतिथि आदिकी निर्दोष सेवामें नियुक्त रखे ।। 11 ।। लोग स्त्रीके लिये अपने प्राणतक दे डालते हैं। यहाँतक कि अपने मा-बाप और गुरुको भी मार डालते हैं। उस स्त्रीपरसे जिसने अपनी ममता हटा ली, उसने स्वयं नित्यविजयी भगवानूपर भी विजय प्राप्त कर ली 12 यह शरीर अन्तमें कीड़े, विष्ठा या राखकी ढेरी होकर रहेगा। कहाँ तो यह तुच्छ शरीर और इसके लिये जिसमें आसक्ति होती है वह स्त्री और कहाँ अपनी महिमासे आकाशको भी ढक रखनेवाला अनन्त आत्मा ! ।। 13 ।। गृहस्थको चाहिये कि प्रारब्धसे प्राप्त और पञ्चयज्ञ आदिसे बचे हुए अन्नसे ही अपना जीवन-निर्वाह करे जो बुद्धिमान् पुरुष इसके सिवा और किसी वस्तु स्वत्व नहीं रखते, उन्हें संतोंका पद प्राप्त होता है। 14 ॥अपनी वर्णाश्रमविहित वृत्तिके द्वारा प्राप्त सामग्रियोंसे प्रतिदिन देवता, ऋषि, मनुष्य, भूत और पितृगणका तथा अपने आत्माका पूजन करना चाहिये। यह एक ही परमेश्वरकी भिन्न भिन्न रूपोंमें आराधना है ॥ 15 ॥ यदि अपनेको अधिकार आदि यज्ञके लिये आवश्यक सब वस्तुएँ प्राप्त हों तो बड़े-बड़े यज्ञ या अग्रिहोत्र आदि द्वारा भगवान्‌की आराधना करनी चाहिये 16 युधिष्ठिर। वैसे तो समस्त यज्ञोंके भोला भगवान् ही है; परन्तु ब्राह्मणके मुखमें अर्पित किये हुए हविष्यानसे उनकी जैसी तृप्ति होती है, वैसी अनिके मुखमें हवन करनेसे नहीं ॥ 17 ॥ इसलिये ब्राह्मण, देवता, मनुष्य आदि सभी प्राणियों में यथायोग्य, उनके उपयुक्त सामग्रियोंके द्वारा सबके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान भगवान‌को पूजा करनी चाहिये। इनमें प्रधानता ब्राह्मणोंकी ही है ।। 18 ।।

धनी द्विजको अपने धनके अनुसार आश्विन मासके कृष्णपक्ष अपने माता-पिता तथा उनके बन्धुओं (पितामह, मातामह आदि) का भी महालय श्राद्ध करना चाहिये 19 ॥ इसके सिवा अयन (कर्क एवं मकरकी संक्रान्ति) विषुव (तुला और मेषकी संक्रान्ति), व्यतीपात, दिनक्षय, चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहणके समय, द्वादशीके दिन, श्रवण, धनिष्ठा और अनुराधा नक्षत्रोंमें, वैशास्त्र शु तृतीया (अक्षय तृतीया), कार्तिक शुरू नवमी (अक्षय नवमी), अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन- इन चार महीनोंकी कृष्णाष्टमी, मापशु सप्तमी, माघकी मघा नक्षत्रसे युक्त पूर्णिमा और प्रत्येक महीनेकी वह पूर्णिमा, जो अपने मास-नक्षत्र, चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, आदिसे युक्त हो चाहे चन्द्रमा पूर्ण हों या अपूर्ण, द्वादशी तिथिका अनुराधा, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपदाके साथ योग, एकादशी तिथिका तीनों उत्तरा नक्षत्रोंसे योग अथवा जन्म नक्षत्र या श्रवण नक्षत्रसे योगये सारे समय पितृगणोंका श्राद्ध करने योग्य एवं श्रेष्ठ हैं। ये योग केवल श्राद्धके लिये ही नहीं, सभी पुण्यकर्मोकि लिये उपयोगी है ये कल्याणकी साधनाके उपयुक्त और शुभकी अभिवृद्धि करनेवाले हैं। इन अवसरोंपर अपनी पूरी शक्ति लगाकर शुभ कर्म करने चाहिये। इसीमें जीवनकी सफलता है ।। 20 – 24 ॥ इन शुभ संयोगोंमें जो स्नान, जप, होम, व्रत तथा देवता और ब्राह्मणोंकी पूजा की जाती है अथवा जो कुछ देवता, पितर, मनुष्य एवं प्राणियोंको समर्पित किया जाता है, उसका फल अक्षय होता है ।। 25 ।।युधिष्ठिर। इसी प्रकार स्त्रीके पुंसवन आदि, सन्तानके जातकर्मादि तथा अपने यज्ञ-दीक्षा आदि संस्कारोंके समय, शव दाहके दिन या वार्षिक श्राद्धके उपलक्ष्यमें अथवा अन्य माङ्गलिक कर्मोंमें दान आदि शुभ कर्म करने चाहिये ।। 26 ।।

युधिष्ठिर ! अब मैं उन स्थानोंका वर्णन करता हूँ, जो धर्म आदि श्रेयकी प्राप्ति करानेवाले हैं। सबसे पवित्र देश वह है, जिसमें सत्पात्र मिलते हों ।। 27 ।। जिनमें यह सारा चर और अचर जगत् स्थित है, उन भगवान्की प्रतिमा जिस देशमें हो, जहाँ तप, विद्या एवं दया आदि गुणोंसे युक्त ब्राह्मणोंके परिवार निवास करते हों तथा जहाँ-जहाँ भगवान्‌ की पूजा होती हो और पुराणोंमें प्रसिद्ध गङ्गा आदि नदियाँ हों, वे सभी स्थान परम कल्याणकारी हैं ॥ 28-29 ॥ पुष्कर आदि सरोवर, सिद्ध पुरुषोंके द्वारा सेवित क्षेत्र, कुरुक्षेत्र, गया, प्रयाग, पुलहाश्रम (शालग्राम (क्षेत्र) नैमिषारण्य, फाल्गुनक्षेत्र, सेतुबन्ध, प्रभास, द्वारका, काशी, मथुरा, पम्पासर, बिन्दुसरोवर, बदरिकाश्रम, अलकनन्दा, भगवान् सीतारामजीके आश्रम-अयोध्या चित्रकूटादि, महेन्द्र और मलय आदि समस्त कुलपर्वत और जहाँ-जहाँ भगवान्‌के अर्चावतार हैं—वे सब-के सब देश अत्यन्त पवित्र हैं। कल्याणकामी पुरुषको बार-बार इन देशोंका सेवन करना चाहिये। इन स्थानोंपर जो पुण्यकर्म किये जाते हैं, मनुष्योंको उनका हजारगुना फल मिलता है ll 30-33 ll

युधिष्ठिर । पात्र निर्णयके प्रसङ्गमें पात्रके गुणोंको जाननेवाले विवेकी पुरुषोंने एकमात्र भगवान्‌को ही सत्पात्र बतलाया है। यह चराचर जगत् उन्हींका स्वरूप है ॥ 34 ॥ अभी तुम्हारे इसी यज्ञकी बात है; देवता, ऋषि, सिद्ध और सनकादिकोंके रहनेपर भी अग्रपूजाके लिये भगवान् श्रीकृष्णको ही पात्र समझा गया ।। 35 ।। असंख्य जीवोंसे भरपूर इस ब्रह्माण्डरूप महावृक्षके एकमात्र मूल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। इसलिये उनकी | पूजासे समस्त जीवोंकी आत्मा तृप्त हो जाती है ॥ 36 ॥उन्होंने मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि और देवता आदिके शरीररूप पुरोंकी रचना की है तथा वे ही इन पुरोंमें जीवरूपसे शयन भी करते हैं। इसीसे उनका एक नाम ‘पुरुष’ भी है ॥ 37 ॥ युधिष्ठिर ! एकरस रहते हुए भी भगवान् इन मनुष्यादि शरीरोंमें उनकी विभिन्नताके कारण न्यूनाधिकरूपसे प्रकाशमान हैं। इसलिये पशु-पक्षी आदि शरीरोंकी अपेक्षा मनुष्य ही श्रेष्ठ पात्र हैं और मनुष्योंमें भी, जिसमें भगवान्का अंश-तप-योगादि जितना ही अधिक पाया जाता है, वह उतना ही श्रेष्ठ है ॥ 38 ॥

युधिष्ठिर त्रेता आदि युगोंमें जब विद्वानोंने देखा कि मनुष्य परस्पर एक-दूसरेका अपमान आदि करते हैं, तब उन लोगोंने उपासनाकी सिद्धिके लिये भगवान्‌की प्रतिमाकी प्रतिष्ठा की ॥ 39 ॥ तभीसे कितने ही लोग बड़ी श्रद्धा और सामग्रीसे प्रतिमामें ही भगवान्‌की पूजा करते हैं। परन्तु जो मनुष्यसे द्वेष करते हैं, उन्हें प्रतिमाकी उपासना करनेपर भी सिद्धि नहीं मिल सकती ॥ 40 ॥ युधिष्ठिर मनुष्योंमें भी ब्राह्मण विशेष सुपात्र माना गया है। क्योंकि वह अपनी तपस्या, विद्या और सन्तोष आदि गुणोंसे भगवान्‌के वेदरूप शरीरको धारण करता ॥ 41 ॥ महाराज हमारी और तुम्हारी तो बात ही क्या—ये जो सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण हैं, | इनके भी इष्टदेव ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि उनके चरणोंकी धूलसे तीनों लोक पवित्र होते रहते हैं ॥ 42 ॥

अध्याय 15 गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

नारदजी कहते हैं—युधिष्ठिर ! कुछ ब्राह्मणोंकी निष्ठा कर्ममें, कुछकी तपस्यामें, कुछकी वेदोंके स्वाध्याय और प्रवचनमें कुछकी आत्मज्ञानके सम्पादनमें तथा | कुछकी योगमें होती है ॥ 1 ॥ गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि श्राद्ध अथवा देवपूजाके अवसरपर अपने कर्मका अक्षय फल प्राप्त करनेके लिये ज्ञाननिष्ठ पुरुषको ही ह कव्यका दान करे। यदि वह न मिले तो योगी, प्रवचनकार आदिको यथायोग्य और यथाक्रम देना चाहिये ॥ 2 ॥देवकार्यमें दो और पितृकार्यमें तीन अथवा दोनोंमें एक-एक ब्राह्मणको भोजन कराना चाहिये। अत्यन्त धनी होनेपर भी श्राद्धकर्ममें अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये || 3 || क्योंकि सगे-सम्बन्धी आदि स्वजनोंको | देनेसे और विस्तार करनेसे देश-कालोचित श्रद्धा, पदार्थ, पात्र और पूजन आदि ठीक-ठीक नहीं हो पाते ॥ 4 ॥ देश और कालके प्राप्त होनेपर ऋषि-मुनियों के भोजन करनेयोग्य शुद्ध हविष्यान्न भगवान्‌को भोग लगाकर श्रद्धासे विधिपूर्वक योग्य पात्रको देना चाहिये। वह समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला और अक्षय होता है ॥ 5 ॥ देवता, ऋषि, पितर, अन्य प्राणी, स्वजन और अपने आपको भी अन्नका विभाजन करनेके समय परमात्म स्वरूप ही देखे || 6 ll

धर्मका मर्म जाननेवाला पुरुष श्राद्धमें मांसका अर्पण न करे और न स्वयं ही उसे खाय; क्योंकि पितरोंको ऋषि-मुनियोंके योग्य हविष्यान्नसे जैसी प्रसन्नता होती है, पशु-हिंसा नहीं होती ॥ 7 ॥ जो लोग सद्धर्मपालनको अभिलाषा रखते है, उनके लिये इससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है कि किसी भी प्राणीको मन, वाणी और शरीरसे किसी प्रकारका कष्ट न दिया जाय ॥ 8 ॥ इसीसे कोई-कोई यज्ञ-तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी ज्ञानके द्वारा प्रज्वलित आत्मसंयमरूप अग्निमें इन कर्ममय यज्ञोका हवन कर देते है और बाह्य कर्म-कलापों से उपरत हो जाते हैं ॥ 9 ॥ जब कोई इन द्रव्यमय यज्ञोंसे यजन करना चाहता है, तब सभी प्राणी डर जाते हैं; वे सोचने लगते हैं कि यह अपने प्राणोंका पोषण करनेवाला निर्दयी मूर्ख मुझे अवश्य मार डालेगा ॥ 10 ॥ इसलिये धर्मज्ञ मनुष्यको यही उचित है कि प्रतिदिन प्रारब्धके द्वारा प्राप्त मुनिजनोचित हविष्यान्नसे ही अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म करे तथा उसीसे सर्वदा सन्तुष्ट रहे ॥ 11 ॥ अधर्मकी पाँच शाखाएँ हैं—विधर्म, परधर्म, आभास, उपमा और छल । धर्मज्ञ पुरुष अधर्मके समान ही इनका भी त्याग कर दे ॥ 12 ॥ जिस कार्यको धर्मबुद्धिसे करनेपर भी अपने धर्ममें बाधा पड़े, वह “विधर्म’ है। किसी अन्यके द्वारा अन्य पुरुषके लिये उपदेश किया हुआ धर्म ‘परधर्म’ है। पाखण्ड या दम्भका नाम ‘उपधर्म’ अथवा ‘उपमा’ है। शास्त्रके वचनोंका दूसरे प्रकारका अर्थ कर देना ‘छल’ है ॥ 13 ॥मनुष्य अपने आश्रमके विपरीत स्वेच्छासे जिसे धर्म मान लेता है, वह ‘आभास’ है। अपने-अपने स्वभावके अनुकूल जो वर्णाश्रमोचित धर्म हैं, वे भला किसे शान्ति नहीं देते ।। 14 ।। धर्मात्मा पुरुष निर्धन होनेपर भी धर्मके लिये अथवा शरीर निर्वाहके लिये धन प्राप्त करनेकी चेष्टा न करे। क्योंकि जैसे बिना किसी प्रकारकी चेष्टा किये अजगरकी जीविका चलती ही है, वैसे ही निवृतिपरायण पुरुषको निवृत्ति ही उसकी जीविकाका निर्वाह कर देती है ।। 15 ।। जो सुख अपनी आत्मामें रमण करनेवाले निष्क्रिय सन्तोषी पुरुषको मिलता है, वह उस मनुष्यको भला कैसे मिल सकता है, जो कामना और लोभसे धनके लिये हाय-हाय करता हुआ इधर-उधर दौड़ता फिरता है ॥ 16 ॥ जैसे पैरोंमें जूता पहनकर चलनेवालेको कंकड़ और काँटोंसे कोई डर नहीं होता वैसे ही जिसके मन सन्तोष है, उसके लिये सर्वदा और सब कहीं सुख ही सुख है, दुःख है ही नहीं ॥ 17 ॥ युधिष्ठिर न जाने क्यों मनुष्य केवल जलमात्र से ही सन्तुष्ट रहकर अपने जीवनका निर्वाह नहीं कर लेता। अपितु | रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रियके फेरमें पड़कर यह बेचारा घरकी | चौकसी करनेवाले कुत्तेके समान हो जाता है ॥ 18 ॥ जो ब्राह्मण सन्तोषी नहीं है, इन्द्रियोंकी लोलुपताके कारण उसके तेज, विद्या, तपस्या और यश क्षीण हो जाते है और यह विवेक भी खो बैठता है ।। 19 ।। भूख और प्यास मिट जानेपर खाने-पीनेकी कामनाका अन्त हो जाता है। क्रोध भी अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है। परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वीकी समस्त दिशाओंको जीत ले और भोग ले, तब भी लोभका अन्त नहीं होता || 20 || अनेक विषयोंके ज्ञाता, शङ्काओंका समाधान करके चितमें शास्त्रोक्त अर्थको बैठा देनेवाले और विद्वत्सभाओंके सभापति बड़े-बड़े विद्वान् भी असन्तोषके कारण गिर जाते हैं ।। 21 ।।

धर्मराज! सङ्कल्पोंके परित्यागसे कामको, कामनाओंके त्यागसे क्रोधको, संसारी लोग जिसे ‘अर्थ’ , कहते हैं उसे अनर्थ समझकर लोभको और तत्त्वके विचारसे भवको जीत लेना चाहिये ॥ 22 ॥ अध्यात्म विद्यासे शोक और मोहपर, संतोंकी उपासनासे दम्भपर, मौनके द्वारा योगके विनोपर और शरीर प्राण आदिको निशेष्ट करके हिंसापर विजय प्राप्त करनी चाहिये ॥ 23 ॥ आधिभौतिक दुःखको दयाके द्वारा, आधिदैविक वेदनाको समाधिके द्वारा और आध्यात्मिक, दुःखको योगबलसे एवं निद्राको सात्त्विकभोजन, स्थान, सङ्ग आदिके सेवनसे जीत लेना चाहिये ॥ 24 ॥ सत्वगुणके द्वारा रजोगुण एवं तमोगुणपर और उपरतिके द्वारा सत्त्वगुणपर विजय प्राप्त करनी चाहिये। श्रीगुरुदेवकी भक्तिके द्वारा साधक इन सभी दोषोंपर सुगमतासे विजय प्राप्त कर सकता है ॥ 25 ॥ हृदयमें ज्ञानका दीपक जलानेवाले गुरुदेव साक्षात् भगवान् ही है जो दुर्बु पुरुष उन्हें मनुष्य समझता है, उसका समस्त शास्त्र श्रवण हाथीके स्नानके समान व्यर्थ है ।। 26 ।। बड़े-बड़े योगेश्वर जिनके चरण कमलोंका अनुसन्धान करते रहते हैं, प्रकृति और पुरुषके अधीश्वर वे स्वयं भगवान् ही गुरुदेवके रूपमें प्रकट हैं। इन्हें लोग भ्रमसे मनुष्य मानते हैं ॥ 27 ॥

शास्त्रों में जितने भी नियमसम्बन्धी आदेश हैं, उनका एकमात्र तात्पर्य यही है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर — इन छः शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर ली जाय अथवा पाँचों इन्द्रिय और मन ये छः वशमें हो जायें। ऐसा होनेपर भी यदि उन नियमोंके द्वारा भगवान्‌के ध्यान-चित्तन आदिकी प्राप्ति नहीं होती, तो उन्हें केवल श्रम-ही-श्रम समझना चाहिये ॥ 28 ॥ जैसे खेती, व्यापार आदि और उनके फल भी योग साधनाके फल भगवत्प्राप्ति या मुक्तिको नहीं दे सकते वैसे ही दुष्ट पुरुषके औत-स्मार्त कर्म भी कल्याणकारी नहीं होते, प्रत्युत उलटा फल देते हैं ।। 29 ।।

जो पुरुष अपने मनपर विजय प्राप्त करनेके लिये उद्यत हो, वह आसक्ति और परिग्रहका त्याग करके संन्यास ग्रहण करे एकान्तमें अकेला ही रहे और भिक्षावृत्तिसे शरीर निर्वाहमात्रके लिये स्वल्प और परिमित भोजन करे ।। 30 ।। युधिष्ठिर पवित्र और समान भूमिपर अपना आसन बिछाये और सीधे स्थिर भावसे समान और सुखकर आसनसे उसपर बैठकर ॐ कारका जप करे 31 ॥ जबतक मन सङ्कल्प-विकल्पोंको छोड़ न दे, तबतक नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर पूरक, कुम्भक और रेचकद्वारा प्राण तथा अपानकी गतिको रोके ॥ 32 ॥ कामकी चोटसे घायल चित्त इधर-उधर चक्कर काटता हुआ जहाँ-जहाँ जाय, विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह वहाँ-वहाँसे उसे लौटा लाये और धीरे-धीरे हृदयमें रोके ॥ 33 ॥ जब साधक निरन्तर इस प्रकारका अभ्यास करता है, तब ईंधनके बिना जैसे अग्नि बुझ जाती है, वैसे ही थोड़े समयमें उसका चित्त शान्त हो जाता है ।। 34 ।। इस प्रकार जब काम-वासनाएँ चोट करना बंद कर देती हैं और समस्त वृत्तियाँ अत्यन्त शान्त हो जाती हैं, तब चित्त ब्रह्मानन्दके संस्पर्शमें मग्न हो जाता है और फिरउसका कभी उत्थान नहीं होता ॥ 35 ॥

जो संन्यासी पहले तो धर्म, अर्थ और कामके मूल कारण गृहस्थाश्रमका परित्याग कर देता है और फिर उन्हींका सेवन करने लगता है, वह निर्लज्ज अपने उगले हुएको खानेवाला कुत्ता ही है ।। 36 ।। जिन्होंने अपने शरीरको अनात्मा, मृत्युग्रस्त और विष्ठा, कृमि एवं राख समझ लिया था -वे ही मूढ़ फिर उसे आत्मा मानकर उसकी प्रशंसा करने लगते हैं 37 ॥ कर्मत्यागी गृहस्थ, व्रतत्यागी ब्रह्मचारी, गाँवमें रहनेवाला तपस्वी (वानप्रस्थ) और इन्द्रियलोलुप संन्यासी—ये चारों आश्रमके कलङ्क हैं और व्यर्थ ही आश्रमोका ढोंग करते हैं। भगवान्की मायासे विमोहित उन मूढ़ोंपर तरस खाकर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये ।। 38-39 ।। आत्मज्ञानके द्वारा जिसकी सारी वासनाएँ निर्मूल हो गयी है और जिसने अपने आत्माको परब्रह्मस्वरूप जान लिया है, वह किस विषयकी इच्छा और किस भोक्ताकी तृप्तिके लिये इन्द्रियलोलुप होकर अपने शरीरका पोषण करेगा ? ll 40 ll

उपनिषदोंमें कहा गया है कि शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं, इन्द्रियोंका स्वामी मन लगाम है, शब्दादि विषय मार्ग हैं, बुद्धि सारथि है, चित्त ही भगवान्के द्वारा निर्मित बाँधनेकी विशाल रस्सी है, दस प्राण धुरी हैं, धर्म और अधर्म पहिये हैं और इनका अभिमानी जीव रथी कहा गया है। ॐ कार ही उस रथीका धनुष है, शुद्ध जीवात्मा बाण और परमात्मा लक्ष्य है। (इस ॐ कारके द्वारा अन्तरात्माको परमात्मामें लीन कर देना चाहिये) 41-42 राग, द्वेष, लोभ, शोक, मोह, भय, मद, मान, अपमान, दूसरेके गुणोंमें दोष निकालना, छल, हिंसा, दूसरेकी उन्नति देखकर जलना, तृष्णा, प्रमाद, भूख और नींद-ये सब, और ऐसे ही जीवोंके और भी बहुत-से शत्रु हैं उनमें रजोगुण और तमोगुणप्रधान वृत्तियाँ अधिक है, कहीं-कहीं कोई-कोई सत्वगुणप्रधान ही होती हैं ।। 43-44 यह मनुष्य शरीररूप रथ जबतक अपने वशमें है और इसके इन्द्रिय मन आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान है, तभीतक श्रीगुरुदेवके चरणकमलोकी सेवा-पूजासे शान धरावी हुई ज्ञानको तीखी तलवार लेकर भगवान्‌के आश्रयसे इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वाराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जायऔर फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दे ॥ 45 ॥ नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूप दृष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथके स्वामी जीवको उल्टे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरोंके हाथोंमें डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ोंके सहित इस जीवको मृत्युसे अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसारके कुएँ में गिरा देंगे || 46 ।।

वैदिक कर्म दो प्रकारके हैं—एक तो थे जो वृत्तियोंको उनके विषयों की ओर ले जाते हैं-प्रवृत्तिपरक, और दूसरे वे जो वृत्तियों को उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कारके योग्य बना देते हैं— निवृत्तिपरक प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्म-मृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृतिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ 47 ॥ श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म ‘इष्ट’ कहलाते है और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना ‘पूर्तकर्म’ हैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभावसे युक्त होनेपर अशान्तिके ही कारण बनते हैं ।। 48-49 ।। प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरनेपर चरु पुरोडाशदि यज्ञसम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओंके पास जाता है। फिर क्रमशः रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायनके अभिमानी देवताओंके पास जाकर चन्द्रलोकमें पहुँचता है। वहाँसे भोग समाप्त होनेपर अमावस्याके चन्द्रमाके समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमशः ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान मार्ग से पुनः संसारमें हो लेता है ॥ 50-51 ॥ युधिष्ठिर। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टिपर्यत सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको ‘दिन’ कहते हैं। उनमें से कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्गका अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्गका) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट पूर्त आदि कर्मोंसे होनेवाले समस्त यज्ञोंको विषयोंका ज्ञान करानेवाले इन्द्रियोंमें हवन कर देता है ।। 52 ।। इन्द्रियोंको दर्शनादि सङ्कल्परूप मनमें, वैकारिक मनको परा वाणीमें और परा वाणीको वर्णसमुदायमें, वर्णसमुदायको ‘अ उ म्’ इन तीन स्वरोंके रूपमें रहनेवाले 33 कारमें, ॐ कारको विन्दु | बिन्दुको नादमें, नादको सूत्रात्मारूप प्राणमें तथाप्राणको ब्रहामें लीन कर देता है ॥ 53 ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमशः अग्नि, सूर्य, दिन, सायङ्काल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और वहाँके भोग समाप्त होनेपर वह स्थूलोपाधिक ‘विश्व’ अपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मो पाधिक ‘तेजस’ हो जाता है फिर सूक्ष्म उपाधिको कारणमें लय करके कारणोपाधिक ‘प्राज्ञ’ रूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूपसे सर्वत्र अनुगत होनेके कारण साक्षीके ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके ‘तुरीय’ रूपसे स्थित होता है। इस प्रकार दृश्योंका लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ 54 ॥ इसे ‘देवयान’ मार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसारकी ओरसे निवृत्त होकर क्रमशः एकसे दूसरे देवताके पास होता हुआ ब्रह्मलोकमें जाकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गकि समान फिर जन्म-मृत्युके चक्करमें नहीं पड़ता ।। 55 ।।

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग है। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वतः जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ 56 ॥ पैदा होनेवाले | शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है तथा ऊँच और नीच जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ 57 ॥ दर्पण आदिमें दीख पड़नेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभव असम्भव होनेके कारण वस्तुतः न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ 58 ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे | देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतोंका सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ 59 ॥ इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवों-सूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलतावह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भीअसत्य ही हैं ॥ 60 ॥ जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्रमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्र आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र रहते हैं—वैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ॥ 61 ॥

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैं वे जाग्रत, स्वप्र सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकारके है-भावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्या द्वैत ॥ 62 ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार ‘भावाद्वैत’ है ॥ 63 ॥ युधिष्ठिर । मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे है, उसीमें अध्यस्त है— इस भावसे समस्त कमको समर्पित कर देना ‘क्रियाद्वैत’ है ॥ 64 ॥ स्त्री पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंकि तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही है, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं है इस प्रकारका विचार ‘द्रव्याद्वैत’ है॥ 65 ॥

युधिष्ठिर! जिस पुरुष के लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना शाखाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपतिकालको छोड़कर इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ 66 ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कमक तथा अन्यान्य सकर्मक अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त करता है ॥ 67 युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णकी कृपा और सहायता से बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्होंके चरणकमलोकी सेवा समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं॥ 68 ॥

पूर्वजन्ममें इसके पहलेके महाकल्पमें मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वों में मेरा बड़ा सम्मान था। 69 मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व ॥ थी मेरे शरीरमे सुगन्धिनिकला करती और देखनेमें में बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करती और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ॥ 70 ॥ एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्‌को लोलाका गान करनेके लियेउन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ॥ 71 ॥ मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्‌की लौलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हम लोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि ‘तुमने हमलोगों की अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य-सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ’ ॥ 72 ॥ उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र- जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ॥ 73 ॥ संतोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत सेवासे ही भगवान् प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ।। 74 ।।

युधिष्ठिर! इस मनुष्यलोकमें तुमलोगोंके भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ।। 75 ।। बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूंढते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं—ये ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं । 76 ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’ – इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 77 ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान् श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ 78 देवर्षि नारद भगवान् श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है, यह सुनकर युधिष्ठिरके आर्यको सीमा न रही ।। 79 ।। परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष पुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्होंके वंशमें देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि हुई है ll 80 ll