- अध्याय 1 मन्वन्तरोंका वर्णन
- अध्याय 2 ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
- अध्याय 3 गजेन्द्र के द्वारा भगवान्की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
- अध्याय 4 गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
- अध्याय 5 देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
- अध्याय 6 देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
- अध्याय 7 समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
- अध्याय 8 समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्का मोहिनी अवतार
- अध्याय 9 मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
- अध्याय 10 देवासुर संग्राम
- अध्याय 11 देवासुर संग्रामकी समाप्ति
- अध्याय 12 मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
- अध्याय 13 आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
- अध्याय 14 मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
- अध्याय 15 राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
- अध्याय 16 कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
- अध्याय 17 भगवान्का प्रकट होकर अदितिको वर देना
- अध्याय 18 वामनभगवान्का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
- अध्याय 19 भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
- अध्याय 20 भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
- अध्याय 21 बलिका बाँधा जाना
- अध्याय 22 बलिके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान् का प्रसन्न होना
- अध्याय 23 बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
- अध्याय 24 भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
श्रीमद्भागवत महापुराण अष्ठम स्कंध
अध्याय 1 मन्वन्तरोंका वर्णन
राजा परीक्षित्ने पूछा—गुरुदेव । स्वायम्भुव मनुका वंश विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंशमें उनकी कन्याओंक द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तरमें महामहिम भगवान्के जिन-जिन अवतारों और लीलाओंका वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धासे उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ 2 ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान् बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ 3 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- इस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ॥ 4 ॥ स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूति से कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था 5 ॥ परीक्षित्! भगवान् कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान् यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ।। 6 ।।
परीक्षित् ! भगवान् स्वायम्भुव मनुने समस्त कामनाओं और भोगोंसे विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपाके साथ तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये ॥ 7 ॥परीक्षित्! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैरसे खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्की स्तुति करते थे॥ 8 ॥ मनुजी कहा करते थे जिनकी चेतनाके स्पर्शमात्रसे यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतनाका दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं-वही परमात्मा हैं ॥ 9 ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणी – सब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन निर्वाहमात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी है ? ॥ 10 ॥ भगवान् सबके साक्षी है। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञान शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदयमें रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्माकी शरण ग्रहण करो ॥ 11 जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँसे ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-परावे, बाहर और भीतर सब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। यही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ।। 12 । वही परमात्मा विश्वरूप है। उनके अनन्या नाम है। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ 13 ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कर्म्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ 14 ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान् भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभसे पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अतः उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ॥ 15 ॥ भगवान् ज्ञानस्वरूप है, इसलिये उनमें अहङ्कारका लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिनाकिसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोक द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता है मैं उन्हीं प्रभुकी शरण में हूँ ।। 16 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्तसे इस मन्त्रमय उपनिषत् स्वरूप श्रुतिका पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस सा डालने के लिये उनपर टूट पड़े ॥ 17 ॥ यह देखकर अन्तर्यामी भगवान् यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे ।। 18 ।।
परीक्षित् | दूसरे मनु हुए स्वारोचिप वे अधिके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थे-घुमान, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ।। 19 ।। उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ॥ 20 ॥ उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भसे भगवान्ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ 21 ॥ वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हों आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया ll 22 ll
तीसरे मनु थे उत्तम वे वितके पुत्र थे। उनके प्रियव्रतके पुत्रोंके नाम थे— पवन, सृञ्जय, यज्ञहोत्र आदि ॥ 23 ॥ उस मन्वन्तरमे वसिहजी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित् ॥ 24 ॥ उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तम भगवान्ने सत्यसेनके नामसे अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नामके देवगण भी थे ।। 25 ।।उस समयके इन्द्र सत्यजितके सखा बनकर भगवान्ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणोंका संहार किया ।। 26 ।।
चौथे मनुका नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे ॥ 27 ॥ सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओंके प्रधान गण थे। इन्द्रका नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तरमें ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे ॥ 28 ॥ परीक्षित्! उस तामस नामके मन्वन्तरमे विभूतिके पुत्र वैधृति नामके और भी देवता हुए। उन्होंने समयके फेरसे नष्टप्राय वेदों को अपनी शक्तिसे बचाया था, इसीलिये ये ‘वैभूति’ कहलाये ॥ 29 ॥ इस मन्यन्तरमें हरिमेधा ऋषिकी पत्नी हरिणीके गर्भसे हरिके रूपमें भगवान्ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतारमें उन्होंने ग्राहसे गजेन्द्रकी रक्षा की थी ॥ 30 ॥
राजा परीक्षितने पूछा- मुनिवर। हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान्ने गजेन्द्रको ग्राहके फंदेसे कैसे छुड़ाया था ।। 31 । सब कथाओंमें वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मङ्गलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओंके द्वारा गान किये हुए भगवान् श्रीहरिके पवित्र यशका वर्णन रहता है ॥ 32 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित् आमरण अनशन करके कथा सुननेके लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेवजी महाराजको इस | प्रकार कथा कहनेके लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेमसे परीक्षित्का अभिनन्दन करके मुनियोंकी भरी सभामें कहने लगे ॥ 33 ॥
अध्याय 2 ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् क्षीरसागरमे त्रिकूट नामका एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था ॥ 1 ॥ उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सोनेके तीन शिखरोंकी छटासे समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे । 2 ॥ और भी उसके कितने हो शिखर ऐसे थे, जो रत्नों और धातुओंकी रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जातिके वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ थीं। झरनोंकी झर-झरसे वह गुंजायमान होता रहता था ॥ 3 ॥ सब ओरसे समुद्रकी लहरें आ आकर उस पर्वतके निचले भागसे टकराती, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराजके पाँव पखार रही हों। उस पर्वतके हरे पन्नेके पत्थरोंसे वहाकी भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उसपर हरी-भरी दूब लग रही हो 4 ॥ उसकी कन्दराओंमें सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करनेके लिये प्रायः बने ही रहते थे ॥ 5 ॥ जब उसके संगीतकी ध्वनि चट्टानोंसे टकराकर गुफाओंमें प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंहकी ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जनासे उसे दबा देनेके लिये और जोरसे गरजने लगते थे ॥ 6 ॥
उस पर्वतकी तलहटी तरह-तरहके जंगली जानवरोंके झुंडोंसे सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकारके वृक्षोंसे भरे हुए देवताओंके उद्यानमे सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठसे चहकते रहते थे ॥ 7 ॥ उसपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिनपर मणियोंकी बालू चमकती रहती थी। उनमे देवाङ्गनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी ॥ 8 ॥
पर्वतराज त्रिकूटकी तराई भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान् वरुणका एक उद्यान था उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवाङ्गनाएँ क्रीडा करती रहती थीं ॥ 9 ॥उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फ और फूलोंसे सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यानमें मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरहके आम, पवाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर बिजौरा, महुआ, साणू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हरे, आँवला, बेल, कैथ, नीबू और भिलावे आदिके वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यानमें एक बड़ा भारी सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे । 10 – 14 ॥ और भी विविध जातिके कुमुद, उत्पल, कहार, शतदल आदि कमलोंकी अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भरे रहे थे। मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे। हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे। मछली और कछुओंके चलनेसे कमलके फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झड़कर जलको सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्बलता, बेन आदि वृक्षोंसे यह घिरा था ।। 15- 17 ॥
कुन्द, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसोड़ा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्पवृक्ष एवं तटके दूसरे वृक्षोंसे भी जो प्रत्येक ऋतु हरे-भरे रहते थे वह सरोवर शोभायमान रहता था ।। 18-19 ।।
उस पर्वतके घोर जंगलमें बहुत-सी हथिनियोंके साथ एक गजेन्द्र निवास करता था। वह बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियोंका सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वतपर अपनी हथिनियोंके साथ कटेवाले कीचक, बाँस, बेत बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ोंको रौंदता हुआघूम रहा था ॥ 20 ॥ उसकी गन्धमात्रसे सिंह, हाथी, बाघ, गैड़े आदि हिंस्र जन्तु, नाग तथा काले-गोरे शरभ और चमरी गाय आदि डरकर भाग जाया करते थे ॥ 21 ॥ और उसकी कृपासे भेड़िये, सूअर, भैसे, रीत, शल्य, लंगूर तथा कुत्ते, बंदर, हरिन और खरगोश आदि क्षुद्र जीव सब कहीं निर्भय विचरते रहते थे ।। 22 ।। उसके पीछे-पीछे हाथियोंके छोटे-छोटे बसे दौड़ रहे थे। बड़े बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही थीं। उसकी धमकसे पहाड़ एकबारगी काँप उठता था। उसके गण्डस्थलसे टपकते हुए मदका पान करनेके लिये साथ-साथ भरे उड़ते जा रहे थे। मदके कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे। बड़े जोरकी धूप थी, इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियोंको प्यास भी सताने लगी। उस समय दूरसे ही कमलके परागसे सुवासित वायुकी गन्ध संपकर वह उसी सरोवरकी ओर चल पड़ा, जिसकी शीतलता और सुगंध लेकर वायु आ रही थी। थोड़ी ही देरमें वेगसे चलकर वह सरोवरके तटपर जा पहुँचा ।। 23-24 ॥ उस सरोवरका जल अत्यन्त निर्मल एवं अमृतके समान मधुर था। सुनहले और अरुण कमलोंकी केसरसे वह महक रहा था। गजेन्द्रने पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़से उठा-उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जलमें स्नान करके अपनी थकान मिटायी ॥ 25 ॥ गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषोंकी भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सूँड़से जलकी फुहारे छोड़-छोड़कर साथकी हथिनियों और बच्चोंको नहलाने लगा तथा उनके मुँहमें सूँड डालकर जल पिलाने लगा। भगवान्की मायासे मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था। उस बेचारेको इस बातका पता ही न था कि मेरे सिरपर बहुत बड़ी विपत्ति मँडरा रही है ॥ 26 ॥
परीक्षित्! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्धकी प्रेरणासे एक बलवान् प्राहने क्रोधमें भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्तिमें पड़कर उस बलवान् गजेन्द्रने अपनीशक्तिके अनुसार अपनेको छुड़ानेकी बड़ी चेष्टा की, परन्तु छुड़ा न सका || 27 | दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चोंने देखा कि उनके स्वामीको बलवान् ग्राह बड़े वेग से खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बड़ी विकलतासे चिग्घाड़ने लगे। बहुतोंने उसे सहायता पहुँचाकर जलसे बाहर निकाल लेना चाहा, परन्तु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे ।। 28 ।। गजेन्द्र और पाह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राहको बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्रको भीतर खींच ले जाता । परीक्षित् ! इस प्रकार उनको लड़ते लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये ll 29 ll
अन्तमें बहुत दिनोंतक बार-बार जलमें खींचे जानेसे गजेन्द्रका शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीर में बल रह गया और न मनमें उत्साह । शक्ति भी क्षीण हो गयी। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होनेके स्थानपर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साहसे और भी बल लगाकर गजेन्द्रको खींचने लगा ॥ 30 ॥ इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् प्राणसङ्कटमे पड़ गया और अपनेको छुडाने सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देरतक उसने अपने छुटकारेके उपायपर विचार किया, अन्तमें वह इस निश्चयपर पहुँचा ॥ 31 ॥ ‘यह ग्राह विधाताकी फाँसी ही है। इसमें फँसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। जब मुझे मेरे बराबरके हाथी भी इस विपत्तिसे न उबार सके, तब वे बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा ही कैसे सकती है। इसलिये अब मैं सम्पूर्ण विश्वके एकमात्र आश्रय भगवान्की ही शरण लेता हूँ ॥ 32 ॥ काल बड़ा बली है। यह साँपके समान बड़े प्रचण्ड वेगसे सबको निगल जानेके लिये दौड़ता ही रहता है। इससे अत्यन्त भयभीत होकर जो कोई भगवान्की शरणमें चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य अवश्य बचा लेते हैं। उनके भयसे भीत होकर मृत्यु भी अपना काम ठीक-ठीक पूरा करता है। वही प्रभु सबके आश्रय हैं। मैं उन्हींकी शरण ग्रहण करता हूँ’ ॥ 33 ॥
अध्याय 3 गजेन्द्र के द्वारा भगवान्की स्तुति और उसका संकट मुक्त होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! अपनी बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके गजेन्द्रने अपने मनको हृदयमें एकास किया और फिर पूर्वजन्ममें सीखे हुए श्रेश स्तोत्रके जपद्वारा भगवान्की स्तुति करने लगा ॥ 1 ॥
गजेन्द्र ने कहा- जो जगत्के मूल कारण हैं और सबके हृदयमें पुरुषके रूपमें विराजमान हैं एवं समस्त जगत्के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसारमें चेतनताका विस्तार होता है—उन भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेमसे उनका ध्यान करता हूँ ॥ 2 ॥ यह संसार उन्हींमें स्थित है, उन्हींकी सत्तासे प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूपमें प्रकट हो रहे हैं। यह सब होनेपर भी वे इस संसार और इसके कारण प्रकृतिसे सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान्की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ 3 ॥ यह विश्व-प्रपञ्च उन्हींकी मायासे उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों—एक सी रहती है। वे इसके साक्षी है और उन दोनोंको ही देखते रहते है। ये सबके मूल हैं और अपने मूल भी नहीं है कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणोंसे अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ 4 ॥ प्रलयके समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्णरूपसे नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही अन्धकार रहता है। परन्तु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ 5 ॥ उनकी लीलाओंका रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नटकी भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूपको न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है, जो वहाँतक आ सके और उसका वर्णन कर सके ? वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ 6 ॥ जिनके परम मङ्गलमय स्वरूपका दर्शन करनेके लिये महात्मागण संसारकी समस्त आसक्तियोंका परित्याग कर देते है और वनमें जाकर अण्डमान ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतोंका पालन करते हैं तथा अपने आत्माको सबके हृदयमें विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं वे ही मुनियोंके सर्वस्व भगवान् मेरे सहायक है, वे ही मेरी गति हैं ॥ 7 ॥न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्धमें गुण और दोषकी तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्वकी सृष्टि और संहार करनेके लिये समय-समयपर वे उन्हें अपनी मायासे स्वीकार करते हैं॥ 8 ॥ उन्हीं अनन्त शक्तिमान् सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। ये अरूप होनेपर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय है। मैं उनके चरणोंमें नमस्कार करता हूँ। 9॥ स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्माको मैं नमस्कार करता हैं। जो मन, वाणी और चित्तसे अत्यन्त दूर है—उन परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 10 ॥
विवेकी पुरुष कर्म संन्यास अथवा कर्म-समर्पणके द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप है ही, दूसरोंको कैवल्य मुक्ति देनेकी सामर्थ्य भी केवल उन्होंने है—उन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 11 ॥ जो सत्त्व, रज, तम — इन तीन गुणोंका धर्म स्वीकार करके क्रमशः शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभावसे स्थित एवं ज्ञानघन प्रभुको में बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ 12 ॥ आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी है, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूपमें भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार | नमस्कार ।। 13 ।। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयोंके द्रष्टा है, समस्त प्रतीतियोंके आधार हैं। अहङ्कार आदि छायारूप असत् वस्तुओंके द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओंकी सत्ताके रूपमें भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। 14 । आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है। तथा कारण होनेपर भी आपमें विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण है। आपको मेरा बार-बार नमस्कार! जैसे समस्त नदी-झरने आदिका परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रोंके परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।। 15 ।। जैसे यज्ञके काष्ठ अरणिमें अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञानको गुणोंकी मायासे ढक रखा है। गुणोंमें क्षोभ होनेपर उनके द्वारा विविध प्रकारको सृष्टिरचनाका आप सङ्कल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्मसमर्पणके द्वारा आत्मतत्वको भावना करके वेद-शास्त्रोंसे ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्माके रूपमें आप स्वयं ही प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।। 16 ।।
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशुका बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतोंकी फाँसी काट | देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परम करुणामय हैं और भक्तोंका कल्याण करनेमें आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के हृदयमें अपने अंशके द्वारा अन्तरात्माके रूपमें आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वैश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ।। 17 । जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनोंमें आसक्त हैं—उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणोंकी आसक्तिसे रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदयमें आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वेश्वर्यपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ।। 18 ।। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी कामनासे मनुष्य उन्होंका भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकारका सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ।। 19 ।। जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्होंकी शरणमें रहते हुए उनसे किसी भी वस्तुकी — यहाँतक कि मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मङ्गलमयी लीलाओंका गान करते हुए आनन्दके समुद्रमें निमग्न रहते हैं ॥ 20 ॥ जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहनेपर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोगके द्वारा प्राप्त होते हैं उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्माकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ 21 ॥
जिनकी अत्यन्त छोटी कलासे अनेकों नाम-रूपके भेद-भावसे युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और बराचर लोकोंकी सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आगसे लपटें और प्रकाशमान सूर्यसे उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती है, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मासे बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर—जो गुणोंके प्रवाहरूप हैं— बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता है और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं है। न वे गुण है और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सबकुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धारके लिये प्रकट हों ।। 22-24 ॥ मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी योनि बाहर और भीतर- सब ओरसे अज्ञानरूप आवरणके द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाशको ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरणसे छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रमसे अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञानके द्वारा ही नष्ट होता है ॥ 25 ॥ इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्माकी शरणमें हूँ जो विश्वरहित होनेपर भी विश्वके रचयिता और विश्वस्वरूप हैं—साथ ही जो विश्वकी अन्तरात्माके रूपमें विश्वरूप सामग्रीसे क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद-स्वरूप ब्रह्मको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 26 ॥ योगीलोग योगके द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफलको भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदयमें जिन योगेश्वर भगवान्का साक्षात्कार करते हैं—उन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 27 ॥ प्रभो ! आपकी तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तमके रागादि वेग असह्य है। समस्त इन्द्रियों और मनके विषयोंके रूपमें भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्तिका मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ 28 ॥ | आपकी माया अहंबुद्धिसे आत्माका स्वरूप ढक गया है, इसीसे यह जीव अपने स्वरूपको नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान्की मैं शरणमें हूँ ॥ 29 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! गजेन्द्र बिना किसी भेदभाव के निर्विशेषरूपसे भगवान्की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूपको अपना स्वरूप माननेवाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करनेके लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होनेके कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये ॥ 30 ॥ विश्वके एकमात्र आधार भगवान्ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रतासे वहाँके लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त सङ्कटमें पड़ा हुआ था । उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये ॥ 31 ॥सरोवरके भीतर बलवान् ग्राहने गजेन्द्रको पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाशमें गरुड़पर सवार होकर हाथमें चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़में कमलका एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपरको उठाया और बड़े कष्टसे बोला ‘नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन्! आपको नमस्कार है’ ॥ 32 ॥ जब भगवान्ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड़को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्रके साथ ही ग्राहको भी बड़ी शीघ्रतासे सरोवरसे बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओंके सामने ही भगवान् श्रीहरिने चक्रसे ग्राहका मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्रको छुड़ा लिया ॥ 33 ॥
अध्याय 4 गज और ग्राहका पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परीक्षित् ! उस समय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान् के इस कर्मकी प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ 1 ॥ स्वर्गमें दुन्दुभियाँ वजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करने लगे ॥ 2 ॥ इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीरसे सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले ‘हुहू’ नामका एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवलके शापसे उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान्की कृपासे वह मुक्त हो गया ॥ 3 ॥ उसने सर्वेश्वर भगवान्के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान्के सुयशका गान करने लगा। वास्तवमें अविनाशी भगवान् ही सर्वश्रेष्ठ कोर्तिसे सम्पन्न हैं। उन्होंके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने योग्य हैं ॥ 4 ॥ भगवान्के कृपापूर्ण स्पर्शसे उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान्की परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोककी यात्रा की ।। 5 ।।गजेन्द्र भी भगवान्का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञानके बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान्का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया ॥ 6 ॥ गजेन्द्र पूर्वजन्ममें द्रविड देशका पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान्का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था ॥ 7 ॥ एक बार राजा इन्द्र राजपाट छोड़कर मलयपर्वतपर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वीका वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नानके बाद पूजाके समय मनको एकाग्र करके एवं मौन होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान्की आराधना कर रहे थे ॥ 8 ॥ उसी समय दैवयोगसे परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्मका परित्याग करके तपस्वियोंकी तरह एकान्तमें चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्नपर क्रुद्ध हो गये ॥ 9 ॥ उन्होंने राजाको यह शाप दिया – इस राजाने गुरुजनोंसे शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकारसे निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला यह हाथोंके समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथीकी योनि प्राप्त हो’ ॥ 10 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! शाप एवं वरदान देनेमें समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँसे चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्नने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध दी था ॥ 11 इसके बाद आत्माको विस्मृति करा | देनेवाली हाथीकी योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान्की आराधनाका ऐसा प्रभाव है कि हाथी होनेपर भी उन्हें भगवान्की स्मृति हो ही गयी ॥ 12 ॥ भगवान् श्रीहरिने इस प्रकार गजेन्द्रका उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीलाका गान करने लगे और वे पार्थरूप गजेन्द्रको साथ ले गरुड़परसवार होकर अपने अलौकिक धामको चले गये ॥ 13 ॥ कुरुवंश-शिरोमणि परीक्षित् मैंने भगवान् श्रीकृष्णकी महिमा तथा गजेन्द्रके उद्धारको कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसङ्ग सुननेवालोंके कलिमल और दुःखमको मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है ।। 14 । इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दुःस्वप्र आदिकी शान्तिके लिये प्रातःकाल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं ॥ 15 ॥ परीक्षित् ! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान्ने सब लोगों के सामने ही उसे यह बात कही थी ॥ 16 ॥
श्रीभगवान् ने कहा- जो लोग रातके पिछले पहरमें उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्तसे मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शङ्करजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अमि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्त शिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैवे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ।। 17-24 ॥ प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा ॥ 25 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान् श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शङ्ख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये ॥ 26 ॥
अध्याय 5 देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और स्तुति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! भगवान्को यह गजेन्द्रमोक्षकी पवित्र लीला समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तरकी कथा सुनो ॥ 1 ॥ पाँचवें मनुका नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामसके सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ॥ 2 ॥ उस मन्वन्तरमे इन्द्रका नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओंके प्रधान गण थे। परीक्षित्! उस समय हिरण्यरोमा, | वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ॥ 3 ॥उनमें शुभ ऋषिकी पलीका नाम था विकुण्ठा उन्हीक गर्भसे वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ अपने अंशसे स्वयं भगवान्ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ॥ 4 ॥ उन्होंने लक्ष्मीदेवीकी प्रार्थनासे उनको प्रसन्न करनेके लिये वैकुण्ठधामकी रचना की थी। वह लोक समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ है ॥ 5 ॥ उन वैकुण्ठनाथके | कल्याणमय गुण और प्रभावका वर्णन मैं संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। भगवान् विष्णुके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वीके परमाणुओंकी गिनती कर ली हो ।। 6 ।।
छठे मनु चक्षुके पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुष, सुन आदि कई पुत्र थे ॥ 7 ॥ इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे॥ 8 ॥ जगत्पति भगवान्ने उस समय भी वैराजको पनी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ॥ 9 ॥ उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने थे ॥ 10 ॥
राजा परीक्षित्ने पूछा-भगवन्! भगवान्ने क्षीरसागरका मन्थन कैसे किया ? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्यसे मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ? ॥। 11 ॥ देवताओंको उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्रसे निकली ? भगवान्की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ॥ 12 ॥ आप भक्तवत्सल भगवान्की महिमाका ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनोंसे यह | संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ।। 13 ।।सूतजीने कहा- शौनकादि ऋषियो ! भगवान् श्रीशुकदेवजीने राजा परीक्षित्के इस प्रश्नका अभिनन्दन करते हुए भगवान्की समुद्र मन्थन लीलाका वर्णन आरम्भ किया ll 14 ll
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जिस समयकी यह बात है, उस समय असुरोंने अपने तीखे शस्त्रोंसे देवताओंको पराजित कर दिया था। उस युद्धमें बहुतोंके तो प्राणोंपर ही बन आयी, वे रणभूमिमें गिरकर फिर उठ न सके ॥ 15 ॥ दुर्वासाके शापसे तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँतक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मोंका भी लोप हो गया था ॥ 16 ॥ यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओंने आपसमें बहुत कुछ सोचा- विचारा; परन्तु अपने विचारोंसे वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके ॥ 17 ॥ तब वे सब-के-सब सुमेरुके शिखरपर स्थित ब्रह्माजीकी सभा में गये और वहाँ उन लोगोंने बड़ी नम्रतासे ब्रह्माजीकी सेवामें अपनी परिस्थितिका विस्तृत विवरण उपस्थित किया ॥ 18 ॥ ब्रह्माजीने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगोंकी परिस्थिति बड़ी विकट, सङ्कटग्रस्त हो गयी है और असुर इसके विपरीत फल-फूल रहे हैं ।। 19 ।।
समर्थ ब्रह्माजीने अपना मन एकाग्र करके परम पुरुष भगवान् का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुखसे देवताओंको सम्बोधित करते हुए कहा ॥ 20 ॥ ‘देवताओ ! मैं, शङ्करजी, तुमलोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूपके एक अत्यन्त स्वल्पाति स्वल्प अंशसे रचे गये हैं—हमलोग उन अविनाशी प्रभुकी ही शरण ग्रहण करें ॥ 21 ॥यद्यपि उनकी दृष्टिमें न कोई बधका पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदरका पात्र ही फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये समय समयपर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणको स्वीकार किया करते हैं ।। 22 ।। उन्होंने इस समय प्राणियोंके कल्याणके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत्की स्थिति और रक्षाका अवसर है। अतः हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्माकी शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओंके प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय । इसलिये हम निजजनोंका वे अवश्य ही कल्याण करेंगे ll 23 ll
श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित् देवताओंसे यह कहकर ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान् अजितके निजधाम वैकुण्ठमें गये। वह धाम तमोमयी प्रकृतिसे परे है ।। 24 ।। इन लोगोंने भगवान्के स्वरूप और धामके सम्बन्धमें पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जानेपर उन लोगोंको कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मनसे वेदवाणीके द्वारा भगवान्की स्तुति करने लगे ।। 25 ।।
ब्रह्माजी बोले- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष सबके हृदयमें अन्तर्गरूपसे विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ वहाँ आप पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओंके आराधनीय और स्वयंप्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं ॥ 26 आप प्राण, मन, बुद्धि और अहङ्कारके ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृतिके विकार मरने-जीनेवाले शरीरसे भी आप रहित हैं। जीवके दोनों पक्ष अविद्या और विद्या आपमें बिलकुल ही नहीं है। आप अविनाशी और सुखस्वरूप है। सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें तो आप प्रकटरूपसे ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं ।। 27 ।। यह शरीर जीवका एक मनोमय चक्र (रथका पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राणये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण इसकी नाभि है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहङ्कार—ये आठ इसमें नेमि (पहियेका घेरा) हैं। स्वयं माया इसका सञ्चालन करती है और यह बिजलीसे भी अधिक शीघ्रगामी है। इस चके धुरे हैं स्वयं परमात्मा वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरणमें हैं ॥ 28 ॥जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओंके मूलमें स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तुसे जिनका पार नहीं पाया जा सकता — वही प्रभु इस जीवके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोगके द्वारा उन्हीं की | आराधना करते हैं ।। 29 । जिस मायासे मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूपको भूल गया है, वह उन्होंकी है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता । परन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणोंको अपने वशमें करके समस्त प्राणियों के हृदयमें समभावसे विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थसे नहीं, उनकी कृपासे ही उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ॥ 30 ॥ यों तो हम देवता एवं ऋषिगण भी उनके परम प्रिय सत्वमय शरीरसे ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुणप्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं ? उन्हीं प्रभुके चरणोंमें हम नमस्कार करते हैं ॥ 31 ॥
उन्हींकी बनायी हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वीपर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज ये चार प्रकारके प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ॥ 32 ॥ यह परम शक्तिशाली जल उन्हींका वीर्य है। इसीसे तीनो लोक और समस्त लोकोकि लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ॥ 33 ॥ श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभुका मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओंका अन्न, बल एवं आयु है। वहीं वृक्षोंका सम्राट् एवं प्रजाकी वृद्धि करनेवाला है। ऐसे मनको स्वीकार करनेवाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हमपर प्रसन्न हों ।। 34 ।। अग्नि प्रभुका मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेदके यज्ञ यागादि कर्मकाण्ड पूर्णरूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीरके भीतर जठराग्निरूपसे और समुद्रके भीतर बड़वानलके रूपसे रहकर उनमें रहनेवाले अन्न, जल आदि धातुओंका पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्योंकी उत्पत्ति भी उसीसे हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 35 ॥जिनके द्वारा जीव देवयानमार्गसे ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, जो वेदोंकी साक्षात् मूर्ति और भगवान्के ध्यान करनेयोग्य धाम है, जो पुण्यलोकस्वरूप होनेके कारण मुक्तिके द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होनेके कारण मृत्यु भी हैं ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। 36 ।। प्रभुके प्राणसे ही चराचरका प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देनेवाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियोंके अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 37 ॥ जिनके कानोंसे दिशाएँ, हृदयसे इन्द्रियगोलक और नाभिसे वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय) एवं शरीरका आश्रय है— वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। 38 ।। जिनके बलसे इन्द्र, प्रसन्नतासे समस्त देवगण, क्रोधसे शङ्कर, बुद्धिसे ब्रह्मा, इन्द्रियोंसे वेद और ऋषि तथा लिङ्गसे प्रजापति उत्पन्न हुए हैं—वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ।। 39 ।। जिनके वक्षःस्थलसे लक्ष्मी, छायासे पितृगण, स्तनसे धर्म, पीठसे अधर्म, सिरसे आकाश और विहारसे अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥ 40 ॥ जिनके मुखसे ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओंसे क्षत्रिय और बल, जङ्घाओंसे वैश्य और उनकी वृत्ति व्यापारकुशलता तथा चरणोंसे वेदबाह्य शुर और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई है – वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हो ॥ 41 ॥ जिनके अधरसे लोभ और इसे प्रीति, नासिकामे कान्ति स्पर्शसे पशुओंका प्रिय काम, भौंहोंसे यम और नेत्रके रोमोंसे कालकी उत्पत्ति हुई है वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हो ll 42 llपचभूत काल, कर्म, सत्यादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषोंके द्वारा बाधित किये जानेयोग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ है, वे सब-के-सब भगवान्की योगमायासे ही बने है ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥ 43 ॥ जो मायानिर्मित गुणोंमें दर्शनादि वृत्तियोंके द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायुके समान सदा-सर्वदा असङ्ग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं—उन अपने आत्मानन्दके लाभसे परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान्को हमारे नमस्कार हैं ।। 44 ।।
प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द मन्द मुसकानसे युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रोंसे देखें आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये ॥ 45 ॥ प्रभो ! आप समय समयपर स्वयं ही अपनी इच्छासे अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहजमे ही कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान है, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है ।। 46 ।। विषयोंके लोभमें पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करनेमें परिश्रम और श तो बहुत अधिक होता है परन्तु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांशमें तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करनेके समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फलरूप ही हैं ॥ 47 भगवानको समर्पित किया हुआ छोटे से छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान् जीवके परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही है॥ 48 जैसे वृक्षको जढ़को पानीसे सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियोंको भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान्को आराधना सम्पूर्ण प्राणियोंको और अपनी भी आराधना है। ।। 49 ।। जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओंका रहस्य तर्क-वितर्कके परे है, जो स्वयं गुणोंसे परे रहकर भी सब गुणोंके स्वामी हैं। तथा इस समय सत्वगुणमें स्थित है-ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ 50 ॥
अध्याय 6 देवताओं और दैत्योका मिलकर समुद्रमन्थन का विचार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब देवताओंने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीचमें ही प्रकट हो गये। उनके शरीरकी प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों ॥ 1 ॥ भगवानकी उस प्रभासे सभी देवताओंकी आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान्को तो क्या- आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके ॥ 2 ॥ केवल भगवान् शङ्कर और ब्रह्माजीने उस छबिका दर्शन | किया। बड़ी हो सुन्दर झांकी थी मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमलके भीतरी भागके समान सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंगका रेशमी पीताम्बर सर्वाङ्गसुन्दर शरीरके रोम-रोमसे प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुषके समान टेढ़ी भाँहें और बड़ा ही सुन्दर मुख सिरपर महामणिमय किरीट और भुना बाजूबंद कानोंके झकते हुए कुण्डलोंकी चमक पड़नेसे कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमरमें करधनीकी लड़ियाँ, हाथोंमें कंगन, गलेमें हार और चरणोंमें नूपुर शोभायमान थे। वक्षःस्थलपर लक्ष्मी और गलेमें कौस्तुभमणि तथा वनमाला सुशोभित थीं ।। 36 ।। भगवान्के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओंने पृथ्वीपर गिरकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया फिर सारे देवताओंको साथ ले शङ्करजी तथा ब्रह्माजी परम पुरुष “भगवान्की स्तुति करने लगे ॥ 7 ॥
ब्रह्माजीने कहा- जो जन्म, स्थिति और प्रलयसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणोंसे रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्दके महान् समुद्र है जो सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है और जिनका स्वरूप अनन्त है—उन परम ऐश्वर्यशाली | प्रभुको हमलोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥ 8 ॥पुरुषोत्तम ! अपना कल्याण चाहनेवाले साधक वेदोक्त एवं पाञ्चरात्रोक्त विधिसे आपके इसी स्वरूपकी उपासना करते हैं। मुझे भी रचनेवाले प्रभो! आपके इस विश्वमय स्वरूपमें मुझे समस्त देवगणोंके सहित तीनों लोक दिखायो दे रहे हैं ।। 9 ।। आपमें ही पहले यह जगत् लीन था, मध्यमें भी यह आपमें ही स्थित है और अन्तमें भी यह पुनः आपमें ही लीन हो जायगा। आप स्वयं कार्य-कारणसे परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य हैं—वैसे ही जैसे घड़ेका आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है ॥ 10 ॥ आप अपने ही आश्रय रहनेवाली अपनी मायासे इस संसारकी रचना करते हैं और इसमें फिरसे प्रवेश करके अन्तर्वागी के रूपमें विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानीसे अपने मनको एकाग्र करके इन गुणोंकी, विषयोंकी भीड़ भी आपके निर्गुण स्वरूपका ही साक्षात्कार करते है ।। 11 ।। जैसे मनुष्य युक्त्तिके द्वारा लकड़ी से आग, गौसे अमृतके समान दूध, पृथ्वीसे अत्र तथा जल और व्यापारसे अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं— वैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धिसे भक्तियोग, ज्ञानयोग आदिके द्वारा आपको इन विषयोंमें ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूतिके अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं ॥ 12 ॥ कमलनाभ ! जिस प्रकार दावाग्निसे झुलसता हुआ हाथी गङ्गाजलमें डुबकी लगाकर सुख और शान्तिका अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भावसे हमलोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी! हमलोग बहुत दिनोंसे आपके दर्शनोंके लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे ॥ 13 ॥ आप ही हमारे बाहर और भीतरके आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्यसे आपके चरणोंकी शरण में आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी है, अतः इस विषयमें हमलोग आपसे और क्या निवेदन करें ।। 14 ।। प्रभो! मै शङ्करजी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति – सब-के-सब अग्निसे अलग हुई चिनगारीकी तरह आपके ही अंश हैं और अपनेको आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थितिमें प्रभो! हमलोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओंके कल्याणके लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही | दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये ।। 15श्रीशुकदेवजी कहते हैं- ब्रह्मा आदि देवताओंने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लो और सब बड़ी सावधानीके साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदयकी बात जानकर भगवान् मेघके समान गम्भीर वाणीसे बोले ॥ 16 ॥ परीक्षित्! समस्त देवताओंके तथा जगत्के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका सब कार्य करनेमें समर्थ थे, फिर भी समुद्र मन्थन आदि लीलाओंके द्वारा विहार करनेकी इच्छासे वे देवताओंको सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे ॥ 17 ॥
श्रीभगवान् ने कहा-ब्रह्मा, शङ्कर और देवताओ ! तुमलोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याणका यही उपाय है ।। 18 ।। इस समय असुरोंपर कालकी कृपा है। इसलिये जबतक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नतिका समय नहीं आता, तबतक तुम दैत्य और दानवोंके पास जाकर उनसे सन्धि कर लो ॥ 19 ॥ देवताओ कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओंसे भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जानेपर उनके साथ साँप और चूहेवाला बर्ताव कर सकते हैं* ॥ 20 ॥ तुमलोग बिना विलम्बके अमृत निकालनेका प्रयत्न करो। उसे पी लेनेपर मरनेवाला प्राणी भी अमर हो जाता है ॥ 21 ॥ पहले क्षीरसागरमें सब प्रकारके घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुमलोग मन्दराचलकी मथानी और वासुकि नागकी नेती बनाकर मेरी सहायतासे | समुद्रका मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमादका समय नहीं है। देवताओ! विश्वास रखो दल्योको तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगोंको ।। 22-23 ।। देवताओ! असुरलोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्तिसे सब काम बन जाते हैं, क्रोध करनेसे कुछ नहीं होता ॥ 24 ॥पहले समुद्र कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं और किसी भी वस्तुके लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तुकी कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये ।। 25 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं–परीक्षित् देवताओंको यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीचमें ही अन्तन हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतंत्र जो ठहरे। उनकी लीलाका रहस्य कौन समझे ॥ 26 ॥ उनके चले जानेपर ब्रह्मा और शङ्करने फिरसे भगवान्को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकोंको चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलिके पास गये ॥ 27 ॥ देवताओंको बिना अस्त्र-शस्त्रके सामने आते देख दैत्यसेनापतियोंके मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने | देवताओंको पकड़ लेना चाहा। परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोध के अवसरको जाननेवाले एवं पवित्र कीर्तिसे सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्योंको वैसा करनेसे रोक दिया ॥ 28 ॥ इसके बाद देवतालोग बलिके पास पहुँचे। बलिने तीनों लोकोंको जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियोंसे सेवित एवं असुर-सेनापतियोंसे सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासनपर बैठे हुए थे ।। 29 ।। बुद्धिमान् इन्द्रने बड़ी मधुर वाणीसे समझाते हुए राजा बलिसे वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान्ने उन्हें दी थी ॥ 30 ॥ वह बात दैत्यराज बलिको जँच गयी। वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरोंको भी यह बात बहुत अच्छी लगी ॥ 31 ॥ तब देवता और असुरोंने आपसमें सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित्! वे सब मिलकर अमृत मन्थनके लिये पूर्ण उद्योग करने लगे ।। 32 ।। इसके बाद उन्होंने अपनी शक्तिसे मन्दराचलको उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्रतटकी ओर ले चले। उनको भुजाएँ परिधके समान थीं, शरीरमें शक्ति थी और अपने-अपने बलका धर्मड तो था ही ।। 33 ।। परन्तु एक तो वह मन्दरपर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचलको आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्तेमें ही पटक दिया ।। 34 ।।वह सोनेका पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवोंको चकनाचूर कर डाला ।। 35 ।।
उन देवता और असुरोंके हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये || 36 | उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वतके गिरनेसे पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टिसे देवताओंको इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीरमें बिलकुल चोट ही न लगी हो ॥ 37 ॥ इसके बाद उन्होंने खेल ही खेलमें एक हाथसे उस पर्वतको उठाकर गरुड़पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरोंके साथ उन्होंने समुद्रतटकी यात्रा की ॥ 38 ॥ पक्षिराज गरुड़ने समुद्रके तटपर पर्वतको उतार दिया। फिर भगवान्के विदा करनेपर गरुड़जी वहाँसे चले गये ॥ 39 ॥
अध्याय 7 समुद्रमन्थनका आरम्भ और भगवान् शङ्करका विषपान
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! देवता और असुरोंने नागराज वासुकिको यह वचन देकर कि समुद्र मन्थनसे प्राप्त होनेवाले अमृतमें तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगोंने वासुकि नागको नेतीके समान मन्दराचलमें लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्दसे अमृतके लिये समुद्रमन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकिके मुखकी ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे ॥ 1-2 ॥ परन्तु भगवान्की यह चेष्टा दैत्यसेनापतियोंको पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँपका अशुभ अङ्ग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे ॥ 3 ॥हमने वेद-शास्त्रोंका विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंशमें हमारा जन्म हुआ है और वीरताके बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओंसे किस बात में कम है?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृति देखकर भगवान्ने मुसकराकर वासुकिका मुँह छोड़ दिया और देवताओंके साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली ॥ 4 ॥ इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृतप्राप्तिके लिये पूरी तैयारी से समुद्र मन्थन करने लगे ॥ 5 ॥
परीक्षित् । जब समुद्रमन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरोंके पकड़े रहनेपर भी अपने भारकी अधिकता और नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल समुद्रमें डूबने लगा || 6 || इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैवके द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टी में मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँहपर उदासी छा गयी ॥ 7 ॥ उस समय भगवान्ने देखा कि यह तो विराजकी करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारणका उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छपका रूप धारण किया और समुद्रके जलमें प्रवेश करके मन्दराचलको ऊपर उठा दिया। भगवान्को शक्ति अनन्त हैं ये सत्यसङ्कल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी ॥ 8 ॥ देवता और असुरोंने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिरसे समुद्र-मन्थनके लिये उठ खड़े हुए उस समय भगवान्ने जम्बूद्दीपके समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठपर मन्दराचलको धारण कर रखा था ॥ 9 ॥ परीक्षित् ! जब बड़े-बड़े देवता और असुरोंने अपने बाहुबलसे मन्दराचलको प्रेरित किया, तब वह भगवान्की पीठपर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदिकच्छप भगवान्को उस पर्वतका चकर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो ॥ 10 ॥ साथ ही समुद्र मन्थन सम्पन्न करनेके लिये भगवान्ने असुरोंमें उनकी शक्ति और बलको बढ़ाते हुए असुररूपसे प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओंको उत्साहित करते हुए उनमें देवरूपसे प्रवेश किया और वासुकिनागमे निद्राके रूपसे 11 ॥इधर पर्वतके ऊपर दूसरे पर्वतके समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथोंसे उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाशमें ब्रह्मा, शङ्कर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ।। 12 ।। इस प्रकार भगवान्ने पर्वतके ऊपर उसको दबा रखनेवालेके रूपमें, नीचे उसके आधार कच्छपके रूपमें, देवता और असुरकि शरीरमें उनकी शक्तिके रूपमें, पर्वतमें दृढ़ताके रूपमें और नेती बने हुए वासुकिनागमें निद्राके रूपमें जिससे उसे कष्ट न हो— प्रवेश करके सब ओरसे सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बलके मदसे उन्मत्त होकर मन्दराचलके द्वारा बड़े वेगसे समुद्रमन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहनेवाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये 13 नागराज वासुकिके हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासोंसे विषकी आग निकलने लगी। उनके धूऍसे पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानलसे झुलसे हुए साखके पेड़ खड़े हो 14 ।। देवता भी उससे न बच सके। वासुकिके श्वासकी लपटोंसे उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान्की प्रेरणासे बादल देवताओंके ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्रकी तरङ्गोंका स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका सञ्चार करने लगी ।। 15 ।।
इस प्रकार देवता और असुरोके समुद्र-मन्यन करनेपर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान् समुद्र मन्थन करने लगे ॥ 16 ॥ मेघके समान साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर, कानोंमें बिजलीके समान चमकते हुए कुण्डल, सिरपर लहराते हुए मुँपराले बाल, नेत्रोंमें लाल-लाल रेखाएँ और गलेमें वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत्को अभयदान करनेवाले अपने विश्व-विजयी भुजदण्डोंसे वासुकिनागको पकड़कर तथा कूर्मरूपसे पर्वतको धारणकर जब भगवान् मन्दराचलकी मथानीसे समुद्रमन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराजके समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे ।। 17 ।। जब अजित भगवान्ने इस प्रकार समुद्र मन्थन किया, तब समुद्रमें बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमितिमिङ्गिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला ॥ 18 ॥वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था । भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान् सदाशिवकी शरणमें गये ॥ 19 ॥ भगवान् शङ्कर सतीजीके साथ कैलास पर्वत पर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे यहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ॥ 20 ॥
प्रजापतियोंने भगवान् शङ्करकी स्तुति की देवताओंके आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता है। हमलोग आपकी शरणमे आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ 21 ॥ सारे जगत्को बाँधने और मुक्त करनेमें एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी | पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ॥ 22 ॥ प्रभो ! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, | शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ॥ 23 ॥ आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं— उनको जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगत्रूपमें भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ॥ 24 ॥ समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहङ्कार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पञ्चमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियों की वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल है, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्’ इन तीनों अक्षरोंसे युक्त प्रणव है अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति है—ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं ॥ 25 ॥ सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकोंके अभ्युदय करनेवाले शङ्कर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप है। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान है।और वरुण रसनेन्द्रिय है॥ 26 ॥ आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहङ्कार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो! स्वर्ग आपका सिर है ॥ 27 ॥ वेदस्वरूप भगवन् ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम है। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय है ॥ 28 ॥ स्वामिन् । सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख है। उन्होंकि पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपञ्चसे | उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है ‘शिव’। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है । 29 ।। अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरङ्गोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तम आपके तीन नेत्र है। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित है और उनके कर्ता भी हैं ॥ 30 ॥ भगवन् ! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं और न किसी प्रकारका भेदभाव ही। आपके उस स्वरूपको सारे लोकपाल
यहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते ॥ 31 ॥ आपने कामदेव, दक्षके यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायेंगे) और अनेक जीवद्रोही असुरोंको नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहनेसे आपकी कोई स्तुति नहीं होती । क्योंकि प्रलयके समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्रसे निकली हुई आगकी चिनगारी एवं | लपटसे जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता ॥ 32 ॥ जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्यामें ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं | श्मशानवासी होनेके कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते है – वे मूर्ख आपकी लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। | उनका वैसा कहना निर्लज्जतासे भरा है ॥ 33 ॥इस कार्य और कारणरूप जगत्से परे माया है और मायासे भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करनेमें सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामै उनके पुत्रों के पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ है। | गुणगान किया है ।। 34 ।। हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूपको देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप व्यक्तरूपसे भी रहते हैं ॥ 35 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । प्रजाका यह सङ्कट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शङ्करके हृदयमें कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही ॥ 36 ॥
शिवजीने कहा- देवि! यह बड़े खेदकी बात है देखो तो सही, समुद्र-मन्धनसे निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है ॥ 37 ॥ ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति सामर्थ्य है, उनके | जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन दुःलियोंकी रक्षा करें 38 सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्गुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि । अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँध बैठे हैं ॥ 39 ॥ उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ॥ 40 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—विश्वके जीवनदाता भगवान् शङ्कर इस प्रकार सती देवीसे प्रस्ताव करके उस लिएको खानेके लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदयसे इस बातका अनुमोदन किया ॥ 41 ॥भगवान् शङ्कर बड़े कृपालु हैं। उन्हींकी शक्तिसे समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हालाहल विषको अपनी हथेलीपर उठाया और भक्षण कर गये ॥ 42 ॥ वह विष जलका पाप-मल था। उसने शङ्करजीपर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजाका कल्याण करनेवाले भगवान् शङ्करके लिये भूषणरूप हो गया ॥ 43 ॥ परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजाका दुःख टालनेके लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदयमें विराजमान भगवान्की परम आराधना है ॥ 44 ॥
देवाधिदेव भगवान् शङ्कर सबकी कामना पूर्ण करनेवाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्माजी और स्वयं विष्णुभगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 45 ॥ जिस समय भगवान् शङ्कर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथसे थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवोंने एवं विषैली ओषधियोंने ग्रहण कर लिया ॥ 46 ॥
अध्याय 8 समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्का मोहिनी अवतार
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार जय भगवान् शङ्करने विष पी लिया, तब देवता और असुरोको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साहसे समुद्र मथने लगे। तब समुद्रसे कामधेनु प्रकट हुई ॥ 1 ॥ वह अग्निहोत्रकी सामग्री उत्पन्न करनेवाली थी। इसलिये ब्रह्मलोकतक पहुँचानेवाले यज्ञके लिये उपयोगी पवित्र थी, दूध आदि प्राप्त करनेके लिये ब्रह्मवादी ऋषियोंने उसे ग्रहण किया ॥ 2 ॥ उसके बाद उच्चैःश्रवा नामका घोड़ा निकला। वह चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णका था । बलिने उसे लेनेकी इच्छा प्रकट की। इन्द्रने उसे नहीं चाहा; | क्योंकि भगवान्ने उन्हें पहलेसे ही सिखा रखा था ॥ 3 ॥तदनन्तर ऐरावत नामका श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वलवर्ण कैलासकी शोभाको भी मात करते थे ॥ 4 ॥ तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्रसे निकली। उस मणिको अपने हृदयपर धारण करनेके लिये अजित भगवान्ने लेना चाहा ॥ 5 ॥ परीक्षित्! इसके बाद स्वर्गलोककी शोभा बढ़ानेवाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकोंकी इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वीपर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो ॥ 6 ॥ तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुई। वे सुन्दर वस्त्रोंसे सुसज्जित एवं गलेमें स्वर्ण हार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवनसे देवताओंको सुख पहुँचानेवाली हुई ॥ 7 ॥ इसके बाद शोभाकी मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मीदेवी प्रकट हुई। वे भगवान्की नित्यशक्ति हैं। उनकी बिजलीके समान चमकीली छटासे दिशाएँ जगमगा उठीं ॥ 8 ॥ उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमासे सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य-सभीने चाहा कि ये हमें मिल जायँ ॥ 9 ॥ स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठनेके लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियोंने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेकके लिये सोनेके घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया ॥ 10 ॥ पृथ्वीने अभिषेकके योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओंने पञ्चगव्य और वसन्त ऋतु चैत्र वैशाखमें होनेवाले सब फूल-फल | उपस्थित कर दिये ॥ 11 ॥ इन सामग्रियोंसे ऋषियोंने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया। गन्धर्वोने | मङ्गलमय संगीतकी तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच नाचकर गाने लगीं ॥ 12 ॥ बादल सदेह होकर मृदङ्ग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शङ्ख, वेणु और वीणा बड़े जोरसे बजाने लगे ।। 13 ।। तब भगवती लक्ष्मीदेवी हाथमें कमल लेकर सिंहासनपर विराजमान हो गयीं। दिग्गजोंने जलसे भरे कलशोंसे उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेदमन्त्रोका पाठ कर रहे थे ll 14 ll समुद्रने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहननेके लिये दिये। वरुणने ऐसी वैजयन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्धसे भरे मतवाले हो रहे थे ।। 15 ।। प्रजापति विश्वकर्मानि भाँति-भाँतिके गहने, सरस्वतीने मोतियोंका हार, ब्रह्माजीने कमल और नागोंने दो कुण्डल समर्पित किये ॥ 16 ॥
इसके बाद लक्ष्मीजी ब्राह्मणोंके स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकनेपर अपने हाथोंमें कमलकी माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुषके गलेमें डालने चलीं। मालाके आसपास उसकी सुगन्धसे मतवाले हुए भौर गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मीजीके मुखकी शोभा अवर्णनीय हो रही थी । सुन्दर कपोलोंपर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मीजी कुछ लज्जाके साथ मन्द मन्द मुसकरा रही थीं ॥ 17 ॥ उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे। उनपर चन्दन और | केसरका लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेबसे बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोनेकी लता इधर-उधर घूम-फिर रही है ॥ 18 ॥ वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणोंसे नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदिमें कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला । 19 ।। (वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोधपर विजय नहीं प्राप्त की है किन्होंमें ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे कामको नहीं जीत सके है। किन्हींमें ऐश्वर्य भी बहुत है; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस कामका, जब उन्हें दूसरोंका आश्रय लेना पड़ता है ॥ 20 ॥ किन्हींमें धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियोंके प्रति वे प्रेमका पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्तिका कारण नहीं है। किन्हीं किन्हींमें वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी कालके पंजेसे बाहर नहीं है। अवश्य ही कुछ महात्माओंमें विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत समाधिमें ही तल्लीन रहते हैं ।। 21 ।। किसी-किसी ऋषिने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील- मङ्गल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हींमें शील मङ्गल भी है परन्तु उनकी आयुका कुछ ठिकाना नहीं अवश्य ही किन्हींमें दोनों ही बातें हैं, परन्तु वेअमङ्गल – वेषमें रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु । उनमें
सभी मङ्गलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे
चाहते ही नहीं ॥ 22 ॥
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्तमें श्रीलक्ष्मीजीने | अपने चिर अभीष्ट भगवान्को ही वरके रूपमें चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा | आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसीकी भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तवमें लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसीसे उन्होंने उन्हींको वरण किया ॥ 23 ॥ लक्ष्मीजीने भगवान्के गलेमें वह नवीन कमलोंकी सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड के झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुसकान और प्रेमपूर्ण चितवनसे अपने निवासस्थान उनके वक्षःस्थलको देखती हुई वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं ॥ 24 ॥ जगत्पिता भगवान्ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियोंकी अधिष्ठातृ-देवता श्रीलक्ष्मीजीको अपने वक्षःस्थलपर ही सर्वदा निवास करनेका स्थान दिया। लक्ष्मीजीने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणाभरी चितवनसे तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजाकी अभिवृद्धि की ।। 25 ।। उस समय शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व अप्सराओंके साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा 26 ॥ ब्रह्मा, रुद्र, अङ्गिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान्के गुण, स्वरूप और लीला आदिके यथार्थ वर्णन करनेवाले मन्त्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ 27 ॥ देवता, प्रजापति और प्रजा – सभी लक्ष्मीजीकी कृपादृष्टिसे शील आदि उत्तम गुणोंसे सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये ॥ 28 ॥ परीक्षित् ! इधर जब लक्ष्मीजीने दैत्य और दानवोंकी उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये ।। 29 ।।
इसके बाद समुद्रमन्थन करनेपर कमलनयनी कन्याके रूपमें वारुणी देवी प्रकट हुईं। भगवान्की अनुमतिसे दैत्योंने . उसे ले लिया ॥ 30 ॥तदनन्तर महाराज ! देवता और असुरोंने अमृतकी इच्छासे जब और भी समुद्रमन्थन किया, तब उसमेंसे एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ ॥ 31 ॥ उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शङ्खके समान उतार चढ़ाववाला था और आँखोंमें लालिमा थी। शरीरका रंग बड़ा सुन्दर साँवला- साँवला था। गलेमें माला, अङ्ग अङ्ग सब प्रकार के आभूषणोंसे सुसज्जित, शरीरपर पीताम्बर, कानोंमें चमकीले मणियोंके कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंहके समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुंघराले बाल लहराते हुए उस पुरुषकी छवि बड़ी अनोखी थी । 32-33 ॥ उसके हाथोंमें कंगन और अमृतसे भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णु भगवान् के अंशांश अवतार थे ॥ 34 ॥ वे ही आयुर्वेदके प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरिके नामसे सुप्रसिद्ध हुए। जब दैत्योंकी दृष्टि उनपर तथा उनके हाथमें अमृतसे भरे हुए कलशपर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रतासे बलात् उस अमृतके कलशको छीन लिया। वे तो पहलेसे ही इस ताकमें थे कि किसी तरह समुद्रमन्धनसे निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायें। जब असुर उस अमृतसे भरे कलशको छीन ले गये, तब देवताओंका मन विषादसे भर गया। अब वे भगवान्की शरण में आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान्ने कहा- ‘देवताओ ! तुम लोग खेद मत करो मैं अपनी मायासे उनमें आपसकी फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ’ ॥ 35-37 ॥
परीक्षित्! अमृतलोलुप दैत्योंमें उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे ‘पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं ॥ 38 ॥ उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्योंका विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथमें कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्मकी दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि ‘भाई देवताओंने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है. उनको भी यज्ञभागके समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातनधर्म है’ ।। 39-40 ।। इस प्रकार इधर दैत्योंमें ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जाननेवालोंके स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान्ने अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय स्त्रीका रूप धारण किया ।। 41 ।।शरीरका रंग नील कमलके समान श्याम एवं देखने ही योग्य था । अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूलसे सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख ।। 42 ।। नयी जवानीके कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हींके भारसे कमर पतली हो गयी थी। मुखसे निकलती हुई सुगन्धके प्रेमसे गुनगुनाते हुए भौरे उसपर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रोंमें कुछ घबराहटका भाव आ जाता था । 43 ।। अपने लंबे केशपाशोंमें उन्होंने खिले हुए बेलेके पुष्पोंकी माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गलेमें कण्ठके आभूषण और सुन्दर भुजाओंमें बाजूबंद सुशोभित थे ।। 44 ।। इनके चरणोंके नूपुर मधुर ध्वनिसे रुनझुन रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ीसे ढके नितम्बद्वीपपर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी ॥ 45 ॥ अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलासभरी चितवनसे मोहिनीरूपधारी भगवान् दैत्यसेनापतियोंके चित्तमें बार-बार कामोद्दीपन करने लगे ॥ 46 ॥
अध्याय 9 मोहिनीरूपसे भगवान्के द्वारा अमृत बाँटा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! असुर आपसके सद्भाव और प्रेमको छोड़कर एक-दूसरेकी निन्दा कर रहे थे और डाकूकी तरह एक-दूसरेके हाथसे अमृता कलश छीन रहे थे। इसी बीचमें उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है ॥ 1 ॥ वे सोचने लगे- ‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीरमेंसे कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है ! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो !’ बस, अब वे आपसकी लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगोंने काममोहित होकर उससे पूछा- ॥2॥ ‘कमलनयनी ! तुम कौन हो ? कहाँसे आ रही हो ? क्या करना चाहती हो ? सुन्दरी! तुम किसकी कन्या हो ? तुम्हें देखकर हमारे मनमें खलबली मच गयी है ॥ 3 ॥हम समझते हैं कि अबतक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालोंने भी तुम्हें स्पर्शतक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते ? ॥ 4 ॥ सुन्दरी ! अवश्य ही विधाताने दया करके शरीरधारियोंकी सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मनको तृप्त करनेके लिये तुम्हें यहाँ भेजा है ॥ 5 ॥ मानिनी । वैसे हमलोग एक ही जातिके हैं। फिर T भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैरकी गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो ॥ 6 ॥ हम सभी कश्यपजीके पुत्र होनेके नाते सगे भाई हैं। हमलोगोंने अमृतके लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्यायके अनुसार निष्पक्षभावसे इसे बाँट दो, जिससे फिर हमलोगोंमें किसी प्रकारका झगड़ा न हो’ ॥ 7 ॥ असुरोंने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीलासे स्त्री-वेष धारण करनेवाले भगवान्ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवनसे उनकी ओर देखते हुए कहा ॥ 8 ॥
श्रीभगवान्ने कहा- आपलोग महर्षि कश्यपके पुत्र हैं और में कुल्टा आपलोग मुझपर न्यायका भार क्यों डाल रहे हैं ? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियोंका कभी विश्वास नहीं करते ॥ 9 ॥ दैत्यो! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियोंकी मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढ़ा करते हैं ॥ 10 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् । मोहिनीकी परिहासभरी वाणीसे दैत्योंके मनमें और भी विश्वास हो गया। उन लोगोंने रहस्यपूर्ण भावसे हँसकर अमृतका कलश मोहिनीके हाथमें दे दिया ॥ 11 ॥ भगवान्ने अमृतवा कलश अपने हाथमें लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणीसे कहा- ‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुमलोगोंको | स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ ॥ 12 ॥बड़े-बड़े दैत्योंने मोहिनीकी यह मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वरसे कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनीके वास्तविक स्वरूपका पता नहीं था ॥ 13 ॥
इसके बाद एक दिनका उपवास करके सबने खान किया। हविष्यसे अग्रिमें हवन किया। गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियोंको घास चारा, अत्र धनादिका यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणोंसे स्वस्त्ययन कराया ।। 14 ।। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनोंपर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्वकी ओर था || 15 || जब देवता और दैत्य दोनों ही भूपसे सुगन्धित मालाओं और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवनमें पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथमें अमृतका कलश लेकर मोहिनी सभामण्डपमें आयी। वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पहने हुए थी। नितम्बोंके भारके कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मदसे विह्वल हो रही थीं। कलशके समान स्तन और गजशावककी सूँड़के समान जङ्घाएँ थीं। उसके स्वर्णनूपुर अपनी झनकारसे सभाभवनको मुखरित कर रहे थे ।। 16-17 ॥ सुन्दर कानोंमें सोनेके कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे। स्वयं परदेवता भगवान् मोहिनीके रूपमें ऐसे जान पड़ते थे मानो | लक्ष्मीजीकी कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनीने अपनी मुस्कानभरी चितवनसे देवता और दैत्योंकी ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय उनके स्तनोंपरसे अञ्चल कुछ खिसक गया था ॥ 18 ॥ भगवान्ने मोहिनीरूपमें यह विचार किया कि असुर तो जन्मसे ही क्रूर स्वभाववाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पोंको दूध पिलानेके समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरोंको अमृतमें भाग नहीं दिया ॥ 19 ॥ भगवान्ने देवता और असुरोंकी अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनोंको कतार बाँधकर अपने-अपने दलमें बैठा दिया ॥ 20 ॥ इसके बाद अमृतका कलश हाथमें लेकर भगवान् दैत्योंके पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्षसे मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओंके पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे जिसे पी लेनेपर बुढ़ापे और मृत्युका नाश हो जाता है ॥ 21 ॥ परीक्षित् असुर अपनी की हुई प्रतिशाका पालन कर रहे थे। उनका खेह भी हो गया था और वे खीसे झगड़नेमें अपनी निन्दा भी समझते थे इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे । 22 ॥मोहिनीमें उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम सम्बन्ध टूट न जाय। मोहिनीने भी पहले उन लोगोका बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बंध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनीको कोई अप्रिय बात नहीं कहीं ॥ 23 ॥
जिस समय भगवान् देवताओंको अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओंका वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओंके साथ उसने भी अमृत पी लिया । परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्यने उसकी पोल खोल दी ॥ 24 ॥ अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान्ने अपने तीखी धारवाले चक्रसे उसका सिर काट डाला। अमृतका संसर्ग न होनेसे उसका धड़ नीचे गिर गया ।। 25 ।। परन्तु सिर अमर हो गया और ब्रह्माजीने उसे ‘ग्रह’ बना दिया। वही राहु पर्वके दिन (पूर्णिमा और अमावस्याको) वैर भावसे बदला लेनेके लिये चन्द्रमा तथा सूर्यपर आक्रमण किया करता है ॥ 26 ॥ जब देवताओंने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकोंको जीवनदान करनेवाले भगवान्ने बड़े-बड़े दैत्योंके सामने ही मोहिनीरूप त्याराकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया ।। 27 ।। परीक्षित्! देखो-देवता और दैत्य दोनोंने एक ही समय एक स्थानपर एक प्रयोजन तथा एक वस्तुके लिये एक विचारसे एक ही कर्म किया था, परन्तु फलमें बड़ा भेद हो गया। उनमेंसे देवताओंने बड़ी सुगमतासे अपने परिश्रमका फल – अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान्के चरणकमलोंकी रजका आश्रय लिया था। परन्तु उससे विमुख होनेके कारण परिश्रम करनेपर भी असुरगण अमृतसे वञ्चित ही रहे । 28 ॥ मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदिसे शरीर एवं पुत्र आदिके लिये जो कुछ करता है- वह व्यर्थ ही होता है, क्योंकि उसके मूलमे भेदबुद्धि बनी रहती है। परन्तु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओंके द्वारा भगवान्के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभावसे रहित होनेके कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसारके लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्षकी जड़में पानी देनेसे उसका तना, टहनियाँ और पत्ते- सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान्के लिये कर्म करनेसे वे सबके लिये हो जाते है ll 29 ll
अध्याय 10 देवासुर संग्राम
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्। यद्यपि दानवों और दैत्योंने बड़ी सावधानीसे समुद्रमन्धनकी पेट की थी, फिर भी भगवान से विमुख होनेके कारण उन्हें | अमृतकी प्राप्ति नहीं हुई 1 ॥ राजन् ! भगवान् समुद्रको मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओंको पिला दिया। फिर सबके देखते-देखते वे गरुड़पर सवार हुए और वहाँसे चले गये ॥ 2 ॥ जब दैत्योंने देखा कि हमारे शत्रुओंको तो बड़ी सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके। उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओंपर धावा बोल दिया ॥ 3 ॥ इधर देवताओंने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान्के चरणकमलोंका आश्रय था ही। बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो दैत्योंसे भिड़ गये॥ 4 ॥ परीक्षित् क्षीरसागर के तटपर बड़ा ही रोमाशकारी और अत्यन्त भयङ्कर संग्राम हुआ। देवता और दैत्योंकी वह घमासान लड़ाई ही ‘देवासुर संग्राम’ के नामसे कही जाती है ।। 5 ।। दोनों ही एक-दूसरेके प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोधसे भरे हुए थे। एक-दूसरेको आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रोंसे परस्पर चोट पहुँचाने लगे ॥ 6 ॥ उस समय लड़ाईमें शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग, नगारे और डमरू बड़े जोर से बजने लगे; हाथियोंकी चिग्वाड़, घोड़ोंकी हिनहिनाहट, रथोंकी परपराहट और पैदल सेनाको चिल्लाहट बड़ा कोलाहल मच गया ॥ 7 ॥ रणभूमिमें रथियोंके साथ रथी, पैदलके साथ पैदल, घुड़सवारोंके साथ घुड़सवार एवं हाथीवालोंके साथ | हाथीवाले भिड़ गये ॥ 8 उनमें से कोई-कोई वीर ऊँटोपर हाथियोंपर और गधोंपर चढ़कर लड़ रहे थे तो कोई-कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहोंपर ॥ 9 ॥ कोई-कोई सैनिक गिद्ध, कडू, बगुले, बाज और भास पक्षियोंपर च हुए थे तो बहुत-से तिमिङ्गिल मच्छ, शरभ, भैंसे, गैंड़, बैल, नीलगाय और जंगली साँड़ोपर सवार थे ll 10 llकिसी-किसीने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहोंपर ही सवारी कर ली थी तो बहुत-से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग, हंस और सूअरोंपर चढ़े थे ।। 11 ।। इस प्रकार जल, स्थल एवं आकाशमें रहनेवाले तथा देखनेमें भयङ्कर शरीरवाले बहुत से प्राणियोंपर चढ़कर कई दैत्य दोनों सेनाओंमें आगे-आगे घुस गये ।। 12 ।।
परीक्षित् | उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिक मणिके समान श्वेत निर्मल छात्रों, रलोंसे जड़े हुए दण्डवाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चंवरों और वायुसे उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलंगी, कवच, आभूषण तथा सूर्यको किरणोंसे अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरोंको पंक्तियोंके कारण देवता और असुरोंकी सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो जल-जन्तुओंसे भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों ।। 13 – 15 परीक्षित्! रणभूमिमें दैत्योंके सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानवके बनाये हुए वैहायस नामक विमानपर सवार हुए। वह विमान चलानेवालेकी जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था ॥ 16 ॥ युद्धको समस्त सामग्रियों उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित्! वह इतना आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ है जब इस बातका अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था ॥ 17 ॥ उसी श्रेष्ठ विमानपर राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओरसे घेरे हुए थे। उनपर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचलपर चन्द्रमा ॥ 18 ॥ उनके चारों ओर अपने-अपने विमानोंपर सेनाकी छोटी-छोटी टुकड़ियोंके स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कशिरा, कवि मेन्दुभि तारक, चक्र शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय पौलोम कालेय और निवातकवचआदि स्थित थे । 19 – 22 ।। ये सब-के-सब समुद्रमन्थनमें सम्मिलित थे परन्तु इन्हें अमृतका नहीं मिला, केवल फ्रेश ही हाथ लगा था। इन सब अपने एक नहीं, अनेक बार युद्धमें देवताओंको पराजित किया था ॥ 23 ॥ इसलिये वे बड़े उत्साहसे सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वरवाले शङ्ख बजाने लगे। इन्द्रने देखा कि हमारे शत्रुओंका मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया ॥ 24 ॥ वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गजपर सवार हुए। उसके कपोलोंसे मद वह रहा था। इसलिये इन्द्रकी ऐसी शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों ॥ 25 ॥ इन्द्रके चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधोसे युक्त देवगण एवं अपने अपने गणोंके साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये ॥ 26 ॥
दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दोकी जोड़ियाँ बनाकर वे लोग लड़ने लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई-कोई मर्मभेदी वचनोंके द्वारा अपने प्रतिद्वन्द्वीको चिकार रहा था ॥ 27॥ बलि इन्द्रसे, स्वामिकार्तिक तारकासुरसे, वरुण हेतिसे और मित्र प्रहेतिसे भिड़ गये ॥ 28 ॥ यमराज कालनाभसे, विश्वकर्मा मयसे, शम्बरासुर त्वष्टासे तथा सविता विरोचनसे लड़ने लगे ॥ 29 ॥ नमुचि अपराजितसे, अश्विनीकुमार वृषपर्वासे तथा सूर्यदेव बलिके बाण आदि सौ पुत्रोंसे युद्ध करने लगे ॥ 30 ॥ | राहुके साथ चन्द्रमा और पुलोमाके साथ वायुका युद्ध हुआ भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भपर झपट पड़ीं ॥ 31 ॥ परीक्षित् | जम्भासुरसे महोदवजीकी, महिषासुरसे अग्निदेवकी और वातापि तथा इल्वलसे ब्रह्माके पुत्र मरीचि आदिकी उन गयी ॥ 32 ॥दुर्मर्षकी कामदेवसे, उत्कलकी मातृगणोंसे, शुक्राचार्यकी बृहस्पतिसे और नरकासुरकी शनैश्चरसे लड़ाई होने लगी ॥ 33 ॥ निवातकवचोंके साथ मरुद्रण, कालेयोके साथ वसुगण, पौलोमोंके साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधवशोंके साथ रुद्रगणका संग्राम होने लगा ॥ 34 ॥
इस प्रकार असुर और देवता रणभूमिमें द्वन्द्व युद्ध और सामूहिक आक्रमणद्वारा एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर विजयकी इच्छासे उत्साहपूर्वक तीखे बाण, तलवार और भालोसे प्रहार करने लगे। वे तरह-तरहसे युद्ध कर रहे थे ॥ 35 ॥ भुशुण्डि चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक्त, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपालसे एक-दूसरेका सिर काटने लगे || 36 | उस समय अपने सवारोंके साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकारके वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसीकी भुजा, किसीकी जहर, किसीकी गरदन और जङ्घा, किसीके पैर कट गये तो किसी-किसीकी ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये ।। 37 ।। उनके चरणोंकी धमक और रथके पहियोंको रगड़से पृथ्वी खुद गयी। उस समय रणभूमिसे ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा, आकाश और सूर्यको भी ढक दिया। परन्तु थोड़ी ही देरमें खूनकी धारासे भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूलका नाम भी न रहा ॥ 38 ॥ तदनन्तर लड़ाईका मैदान कटे हुए सिरोंसे भर गया किसीके मुकुट और कुण्डल गिर गये थे, तो किसीकी आंखोसे क्रोधको मुद्रा प्रकट हो रही थी। किसी-किसीने अपने दाँतोसे होंठ दबा रखा था। बहुतोंकी आभूषणों और शस्त्रोंसे सुसज्जित लंबी-लंबी भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतों को मोटी-मोटी जाँघें कटी हुई पड़ी थीं। इस प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी । 39 ॥ तब वहाँ बहुत-से धड़ अपने कटकर गिरे हुए सिरोंके नेत्रोंसे देखकर हाथोंगे हथियार उठा वीरो की ओर दौड़ने और उछलने लगे ॥ 40 ॥राजा बलिने दस बाण इन्द्रपर, तीन उनके वाहन ऐरावतपर, चार ऐरावतके चार चरण-रक्षकोंपर और एक मुख्य महावतपर -इस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े ॥ 41 ॥ इन्द्रने देखा कि बलिके बाण तो हमें घायल करना ही चाहते है। तब उन्होंने बड़ी फुर्तीसे उतने ही तीखे भल्ल नामक माणसे उनको बहाँतक पहुँचने के पहले ही हँसते हँसते काट डाला ॥ 42 ॥ इन्द्रकी यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये। उन्होंने एक बहुत बड़ी शक्ति, जो बड़े भारी लूकेके समान जल रही थी, उठायी। किन्तु अभी वह उनके हाथमें ही थी-छूटने नहीं पायी थी कि इन्द्रने उसे भी काट डाला ॥ 43 ॥ इसके बाद बलिने एकके पीछे एक क्रमशः शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी। परन्तु वे जो-जो शस्त्र हाथमें उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते। इस हस्तलाघवसे इन्द्रका ऐश्वर्य और भी चमक उठा ।। 44 ।।
परीक्षित्! अब इन्द्रकी फुर्तीसे घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर उन्होंने आसुरी मायाकी सृष्टि की। तुरंत ही देवताओंकी सेनाके ऊपर एक पर्वत प्रकट हुआ ।। 45 ।। उस पर्वतसे दावाग्निसे जलते हुए वृक्ष और | टाँकी-जैसी तीखी धारवाले शिखरोंके साथ नुकीली शिलाएँ गिरने लगीं। इससे देवताओंकी सेना चकनाचूर होने लगी ।। 46 ।। तत्पशात् बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काटने और डंक मारने लगे। सिंह, बाप और सूअर देवसेना के बड़े-बड़े हाथियोंको फाड़ने लगे ॥ 47 ॥ परीक्षित् । हाथोंमें शूल लिये ‘मारो-काटो’ इस प्रकार चिल्लाती हुई सैकड़ों नंग-धड़ंग राक्षसियाँ और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये ॥ 48 ॥ कुछ ही क्षण बाद आकाशमें बादलोंकी घनघोर घटाएँ मँडराने लगीं, उनके आपसमें टकरानेसे बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ चमकने लगीं और आँधीके झकझोरनेसे बादल अंगारोंकी वर्षा करने लगे ।। 49 ।। दैत्यराज बलिने प्रलयकी अनिके समान बड़ी भयानक आगकी सृष्टि की। वह बात-की बातमें वायुकी सहायतासे देवसेनाको जलाने लगी ॥ 50 ॥ थोड़ी ही देरमें ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधीके धपेड़ोंसे समुद्रमे बड़ी-बड़ी लहरे और भयानक भैवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोड़कर चारों ओरसे देव सेनाको घेरता हुआ उमड़ा आ रहा है ll51 llइस प्रकार जब उन भयानक असुरोंने बहुत बड़ी मायाकी सृष्टि की और स्वयं अपनी मायाके प्रभावसे छिप रहे—न दीखनेके कारण उनपर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था, तब देवताओंके सैनिक बहुत दुःखी हो गये ॥ 52 ॥ परीक्षित् ! इन्द्र आदि देवताओंने उनकी मायाका प्रतीकार करनेके लिये बहुत कुछ सोचा- विचारा, परन्तु उन्हें कुछ न सूझा। तब उन्होंने विश्वके जीवनदाता भगवान्का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट हो गये ॥ 53 ॥ बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। गरुडके कंधेपर उनके चरणकमल विराजमान थे। नवीन कमलके समान बड़े ही कोमल नेत्र थे। पीताम्बर धारण किये हुए थे । आठ भुजाओंमें आठ आयुध, गलेमें कौस्तुभमणि, मस्तकपर अमूल्य मुकुट एवं कानोंमें कुण्डल झलमला रहे थे। देवताओंने अपने नेत्रोंसे भगवान्की इस छबिका दर्शन किया ।। 54 ।। परम पुरुष परमात्माके प्रकट होते ही उनके प्रभावसे असुरोंकी वह कपटभरी माया विलीन हो गयी ठीक वैसे ही, जैसे जग जानेपर स्वप्रकी वस्तुओंका पता नहीं चलता। ठीक ही है, भगवान्की स्मृति समस्त विपत्तियोंसे मुक्त कर देती है ॥ 55 ॥ इसके बाद कालनेमि दैत्यने देखा कि लड़ाईके मैदानमें गरुड़वाहन भगवान् आ गये हैं, तब उसने अपने सिंहपर बैठे-ही-बैठे बड़े वेगसे उनके ऊपर एक त्रिशूल चलाया। वह गरुड़के सिरपर लगनेवाला ही था कि खेल-खेलमें भगवान्ने उसे पकड़ लिया और उसी त्रिशूलसे उसके चलानेवाले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहनको मार डाला ॥ 56 ॥ माली और सुमाली -दो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान्ने युद्धमें अपने चक्रसे उनके सिर भी काट डाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े। तदनन्तर माल्यवान्ने अपनी प्रचण्ड गदासे गरुड़पर बड़े वेगके साथ प्रहार किया। परन्तु गर्जना करते हुए माल्यवान्के प्रहार करते-न-करते ही भगवान्ने चक्रसे उसके सिरको भी धड़से अलग कर दिया ॥ 57 ॥
अध्याय 11 देवासुर संग्रामकी समाप्ति
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! परम पुरुष भगवान्की अहैतुकी कृपासे देवताओंकी घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साहका सञ्चार हो गया। पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमिमें जिन-जिन दैत्योंसे आहत हुए थे, उन्होंके ऊपर अब वे पूरी शक्तिसे प्रहार करने लगे ॥ 1 ॥ परम ऐश्वर्यशाली इन्द्रने बलिसे लड़ते-लड़ते जब उनपर क्रोध करके वज्र उठाया, तब सारी प्रजामें हाहाकार मच गया || 2 || बलि अस्त्र-शस्त्रसे सुसज्जित होकर बड़े उत्साहसे युद्धभूमिमें बड़ी निर्भयतासे डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथमें वज्र लिये हुए इन्द्रने उनका तिरस्कार करके कहा 113 11 ‘मूर्ख जैसे नट बच्चों की ऑंखें बाँधकर अपने जादूसे उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू मायाको वालोंसे हमपर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हमलोग मायाके स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ॥ 4 ॥ जो मूर्ख मायाके द्वारा स्वर्गपर अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपर के लोकोंमें भी धाक जमाना चाहते हैं-उन सुटेरे मूर्खोको मैं उनके | पहले स्थानसे भी नीचे पटक देता हूँ ॥ 5 ॥ नासमझ ! तूने मायाकी बड़ी-बड़ी चाले चली हैं देख आज में अपने सौ धारवाले जसे तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ तू अपने भाई-बन्धुओंके साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले ‘ ॥ 6 ॥
बलिने कहा- इन्द्र जो लोग कालशक्तिकी प्रेरणासे अपने कर्मके अनुसार युद्ध करते हैं उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है ॥ 7 ॥ इसीसे ज्ञानीजन इस जगत्को कालके अधीन समझकर न तो विजय होनेपर हर्षसे फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्युसे शोकके ही वशीभूत होते हैं। तुमलोग इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हो ॥ 8 ॥तुम लोग अपनेको जय-पराजय आदिका कारण-कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओंकी दृष्टिसे तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचनको स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा ? ॥ 9 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—बीर बलिने इन्द्रको इस प्रकार फटकारा। बलिकी फटकारसे इन्द्र कुछ झेंप गये। तबतक वीरोंका मान मर्दन करनेवाले बलिने अपने धनुषको कानतक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे ॥ 10 ॥ सत्यवादी देवशत्रु बलिने इस प्रकार इन्द्रका अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अङ्कुशसे मारे हुए हाथीकी तरह और भी चिढ़ गये। बलिका आक्षेप वे सहन न कर सके ॥ 11 ॥ शत्रुघाती इन्द्रने बलिपर अपने अमोघ वज्रका प्रहार किया। उसकी चोटसे बलि पंख कटे हुए पर्वतके समान अपने विमानके साथ पृथ्वीपर गिर पड़े ।। 12 ।। बलिका एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्रके गिर जानेपर भी उनको मारनेका बदला लेनेके लिये वह इन्द्रके सामने आ खड़ा हुआ ॥ 13 ॥ सिंहपर चढ़कर वह इन्द्रके पास पहुँच गया और बड़े वेग से अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबलीने ऐरावतपर भी एक गदा जमायी ॥ 14 ॥ गदाकी चोटसे ऐरावतको बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलतासे घुटने टेक दिये और फिर मूर्छित हो गया ! ॥ 15 ॥ उसी समय इन्द्रका सारथि मातलि हजार घोड़ोंसे जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र छोड़कर तुरंत रथपर सवार हो गये ॥ 16 ॥ दानवश्रेष्ठ जम्भने रणभूमिमें मातलिके इस कामकी बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया ॥ 17 ॥ मातलिने धैर्यके साथ इस असह्य पीड़ाको सह लिया तब इन्द्रने क्रोधित होकर अपने वज्रसे जम्भका सिर काट डाला ॥ 18 ॥देवर्षि नारदसे जम्भासुरकी मृत्युका समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमिमें आ पहुँचे ॥ 19 ॥ अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणीसे उन्होंने इन्द्रको बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणोंकी झड़ी लगा दी ॥ 20 ॥ | बलने बड़े हस्तलाघवसे एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्रके एक हजार घोड़ोंको घायल कर दिया ॥ 21 ॥ पाकने सौ बाणोंसे मातलिको और सौ बाणोंसे रथके एक-एक अङ्गको छेद डाला युद्धभूमि यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये ॥ 22 ॥ नमुचिने बड़े-बड़े पंद्रह बाणोंसे, जिनमें सोनेके पंख लगे हुए थे, इन्द्रको मारा और युद्धभूमिमें वह जलसे भरे बादलके समान गरजने लगा ॥ 23 ॥ जैसे वर्षाकालके बादल सूर्यको ढक लेते हैं, वैसे ही असुरोंने बाणोंकी वर्षासे इन्द्र और उनके रथ तथा सारथिको भी चारों ओरसे ढक दिया ॥ 24 ॥ इन्द्रको न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओंने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय | देवताओंकी ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्रमे नाव टूट जानेपर व्यापारियोंकी होती. है ।। 25 ।। परन्तु थोड़ी ही देरमें शत्रुओंकि बनाये हुए वाणोंक जिसे घोड़े, रथ, ध्वजा और साधिके साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणोंसे दिशा, आकाश और पृथ्वीको चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्रके तेजसे सब-के-सब जगमगा उठे ॥ 26 ॥ वज्रधारी इन्द्रने देखा कि शत्रुओंने रणभूमिमें हमारी सेनाको रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोधसे शत्रुको मार डालनेके लिये बनसे आक्रमण किया 27 परीक्षित् उस आठ धारवाले पैने बसे उन दैत्योंके भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाकके सिर काट लिये ॥ 28 ॥परीक्षित्! अपने भाइयोंको मरा हुआ देख नमुचिको बड़ा शोक हुआ। वह क्रोधके कारण आपसे बाहर होकर इन्द्रको मार डालनेके लिये जी-जानसे प्रयास करने लगा ॥ 29 ॥ इन्द्र ! अब तुम बच नहीं सकते’ प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्रपर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलादका बना हुआ था, सोनेके आभूषणोंसे विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचिने क्रोधके मारे सिंहके समान गरजकर इन्द्रपर वह त्रिशूल चला दिया ॥ 30 ॥ परीक्षित् । इन्द्रने देखा कि त्रिशूल बड़े वेगसे मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणोंसे आकाशमें ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्रने बड़े क्रोधसे उसका सिर काट लेनेके लिये उसकी गर्दनपर वज्र मारा ॥ 31 ॥ यद्यपि इन्द्रने बड़े वेगसे वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्रसे उसके चमड़ेपर खरोंचतक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्रने महाबली वृत्रासुरका शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचिके गलेकी त्वचाने उसका तिरस्कार कर दिया ॥ 32 ॥ जब वज्र नमुचिका कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोगसे संसारभरको संशयमें डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी ! ॥ 33 ॥ पहले युगमें जब ये पर्वत पाँखोंसे उड़ते थे और घूमते-फिरते ‘भारके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ते थे, तब प्रजाका विनाश होते देखकर इसी वज्रसे मैंने उन पहाड़ोंकी पाँखें काट डाली थीं ॥ 34 ॥ त्वष्टाकी तपस्याका सार ही वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुआ था ! उसे भी मैंने इसी वज्रके द्वारा काट डाला था। और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्रसे जिनके चमड़ेको भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्रसे मैंने मृत्युके घाट उतार दिये थे ।। 35 । वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करनेपर भी इस तुच्छ असुरको न मार सका, अतः अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेजसे बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’ || 36 || इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई –
“यह दानव न तो सूखी वस्तुसे मर सकता है, न गीलीसे ॥ 37 ॥ इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तुसे तुम्हारी मृत्यु न होगी। इसलिये इन्द्र इस शत्रुको मारनेके लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो !” ॥ 38 ॥उस आकाशवाणीको सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रतासे विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्रका फेन तो सूखा भी है, गीला भी; ॥ 39 ॥ इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला । अतः इन्द्रने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेनसे नमुचिका सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्रपर पुष्पोंकी वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ 40 ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्दसे नाचने लगीं ॥ 41 ॥ इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओंने भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंसे विपक्षियोंको वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनोंको मार डालते हैं ॥ 42 ॥ परीक्षित्! इधर ब्रह्माजीने देखा कि दानवोंका तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने | देवर्षि नारदको देवताओंके पास भेजा और नारदजीने वहाँ जाकर देवताओंको लड़नेसे रोक दिया ।। 43 ।।
नारदजीने कहा- देवताओ! भगवान्की भुजाओंकी छत्रछायामें रहकर आपलोगोंने अमृत प्राप्त कर लिया है और •लक्ष्मीजीने भी अपनी कृपा कोरसे आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ।। 44 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-देवताओंने देवर्षि नारदकी बात मानकर अपने क्रोधके वेगको शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्गको चले गये। उस समय देवताओंके अनुचर उनके यशका गान | कर रहे थे ।। 45 ।। युद्धमें बचे हुए दैत्योंने देवर्षि नारदकी सम्मतिसे वज्रकी चोटसे मरे हुए बलिको लेकर अस्ताचलकी यात्रा की ।। 46 वहाँ शुक्राचार्यने अपनी सीवनी विद्यासे उन असुरोको जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे 47 ॥ शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलिकी इन्द्रियोंमें चेतना और मनमें स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसारमें जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होनेपर भी उन्हें किसी प्रकारका खेद नहीं हुआ ।। 48 ।।
अध्याय 12 मोहिनीरूपको देखकर महादेवजीका मोहित होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् । जब भगवान् शङ्करने यह सुना कि श्रीहरिने स्त्रीका रूप धारण करके असुरोको मोहित कर लिया और देवताओंको अमृत पिला दिया, तब वे सती देवीके साथ बैलपर सवार हो समस्त भूतगणोंको लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं 1-2 ॥ भगवान् श्रीहरिने बड़े प्रेमसे गौरी-शङ्कर भगवान्का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुखसे बैठकर भगवान्का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले ॥ 3 ॥
श्रीमहादेवजीने कहा- समस्त आराध्यदेव ! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थोंके मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं ॥ 4 ॥ इस जगत्के आदि, अन्त और मध्य आपसे हो होते हैं; परन्तु आप आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं। आपके अविनाशी स्वरूपमें द्रष्टा, दृश्य, भोक्ता और भोग्यका भेदभाव नहीं है। वास्तवमें आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं 5 ॥ कल्याणकामी महात्मालोग इस लोक और परलोक दोनोंकी आसक्ति एवं समस्त कामनाओंका परित्याग करके आपके चरणकमली ही आराधना करते हैं ॥ 6 ॥ आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित, शोकको छायासे भी दूर स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्वको उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके परम कारण है। आप | समस्त जीवोंके शुभाशुभ कर्मका फल देनेवाले स्वामी हैं। परन्तु यह बात भी जीवोंकी अपेक्षासे ही कही जाती है; वास्तवमें आप सबकी अपेक्षासे रहित, अनपेक्ष है ॥ 7 ॥ स्वामिन्! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत—जो कुछ है. वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणोंके रूपमें स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्णमें कोई अन्तर नहीं है— दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगोंने आपके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण आपमें नाना प्रकारके भेदभाव और विकल्पोंकी कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आपमें किसी प्रकारकी उपाधि न होनेपर भी गुणोंको लेकर भेदकी प्रतीति होती है॥ 8॥प्रभो। कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई | आपको प्रकृति और पुरुषसे परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्मी, सत्या ईशाना और अनुग्रहा – इन नौ शक्तियोंसे युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदिके बन्धनसे रहित, पूर्वजोंके भी पूर्वज, अविनाशी पुरुषविशेषके रूपमें मानते हैं ॥ 9 ॥ प्रभो। मै, ब्रह्मा और मरीचि आदि ऋषि जो सत्वगुणकी सृष्टिके अन्तर्गत है— जब आपकी बनायी हुई सृष्टिका भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त मायाने अपने वशमे कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी क लगे रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या ॥ 10 ॥ प्रभो ! आप सर्वात्मक एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायुके समान आकाशमें अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत्में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियोंके कर्म एवं संसारके बन्धन, मोक्ष- सभीको जानते हैं ॥ 11 ॥ प्रभो! आप जब गुणोंको स्वीकार करके लीला करनेके लिये बहुत से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतारका भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूपमें ग्रहण किया था ॥ 12 ॥ जिससे दैत्योंको मोहित करके आपने | देवताओंको अमृत पिलाया, स्वामिन्! उसीको देखनेके लिये हम सब आये हैं। हमारे मनमें उसके दर्शनका बड़ा कौतूहल है ।। 13 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब भगवान् शङ्करने विष्णुभगवान् से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भावसे | हँसकर शङ्करजीसे बोले ।। 14 ।।
श्रीविष्णुभगवान् ने कहा शङ्करजी उस | समय अमृतका कलश दैत्योंके हाथमें चला गया था। अतः देवताओंका काम बनानेके लिये और दैत्योंका मन एक नये कौतूहलकी ओर खींच लेनेके लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था ॥ 15 ॥ देवशिरोमणे ! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परन्तु वह रूप तो कामी पुरुषोंका ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभावको उत्तेजित करनेवाला है ॥ 16 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं – इस तरह कहते-कहते विष्णुभगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शङ्कर | सती देवीके साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे 17 ॥ इतनेमें ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँतिके वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोपलोंसे भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवनमें एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमर में करधनीको लड़ियाँ लटक रही हैं ॥ 18 ॥ गेंदके उछालने और लपककर पकड़नेसे उसके स्तन और उनपर पड़े हुए हार हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भारसे उसकी पतली कमर परा पगपर टूटते टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवोके समान सुकुमार चरणोंसे बड़ी कलाके साथ ठुमुक ठुमुक चल रही थी ॥ 19 ॥ उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपककर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चञ्चल आँखें कुछ उद्विग्न-सी हो रही थीं। उसके कपोलोंपर कानोंके कुण्डलोंकी आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली काली अलके उनपर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था ॥ 20 ॥ जब कभी साड़ी सरक जाती और केशोंकी वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथसे वह उन्हें सम्हाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहिने हाथसे गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत्को अपनी मायासे मोहित कर रही थी ॥ 21 ॥ गेंद खेलते-खेलते उसने रानिक सलज्जभावसे मुसकराकर तिरछी नजरसे शङ्करजीकी ओर देखा। बस, उनका मन हाथसे निकल गया। वे मोहिनीको निहारने और उसकी चितवनके रसमें डूबकर इतने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने आपकी भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणोंकी तो याद ही कैसे रहती ॥ 22 ॥ एक बार मोहिनीके हाथसे उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसीके पीछे दौड़ी। उसी समय शङ्करजीके देखते-देखते वायुने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनी के साथ ही उड़ा ली ॥ 23 ॥मोहिनीका एक-एक अङ्ग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशामें देखकर भगवान् शङ्कर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी ॥ 24 ॥ उसने शङ्करजीका विवेक छीन लिया। वे उसके हाव भावोंसे कामातुर हो गये और भवानीके सामने ही लज्जा छोड़कर उसकी ओर चल पड़े ।। 25 ।।
मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शङ्करजीको अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्षसे दूसरे वृक्षकी आड़में जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परन्तु कहीं ठहरती न थी ॥ 26 ॥ भगवान् शङ्करकी इन्द्रियाँ अपने वशमें नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अतः हथिनीके पीछे हाथीकी तरह उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे ॥ 27 ॥ उन्होंने अत्यन्त वेगसे उसका पीछा करके पीछेसे उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होनेपर भी उसे दोनों भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया ।। 28 ।। जैसे हाथी हथिनीका आलिङ्गन करता है, वैसे ही भगवान् शङ्करने उसका | आलिङ्गन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ानेकी चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटीमें उसके सिरके बाल बिखर गये || 29 ॥ वास्तवमें वह सुन्दरी भगवान्की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शङ्करजीके भुजपाशसे अपनेको छुड़ा लिया और बड़े वेग से भागी ॥ 30 ॥ भगवान् शङ्कर भी उन मोहिनीवेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णुके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेवने इस समय उनपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 31 ॥ कामुक हथिनीके पीछे दौड़नेवाले मदोन्मत्त हाथीके समान वे मोहिनीके पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। यद्यपि भगवान् शङ्करका वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनीकी मायासे वह स्खलित हो गया ॥ 32 ॥ भगवान् शङ्करका वीर्य पृथ्वीपर जहाँ जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदीकी खानें बन गयीं ॥ 33 ॥ परीक्षित् ! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवनमें एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ वहाँ मोहिनीके पीछे-पीछे भगवान् शङ्कर गये थे ॥ 34 ॥परीक्षित् । वीर्यपात हो जाने के बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान्की मायाने तो मुझे खूब छकाया! वे तुरंत उस दुःखद प्रसङ्गसे अलग हो गये ॥ 35 ॥ इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान्की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान्की शक्तियोंका पार कौन पा सकता है || 36 || भगवान्ने देखा कि भगवान् शङ्करको इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुष- -शरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नतासे उनसे कहने लगे ॥ 37 ॥
श्रीभगवान्ने कहा- देवशिरोमध्ये ! मेरी स्त्रीरूपिणी मायासे विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठामें स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्दकी बात है ॥ 38 ॥ मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी मायाके फंदेमें फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके ।। 39 ।। यद्यपि मेरी यह गुणमयी भाषा बड़ों बड़ोको गोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदिके लिये समयपर उसे शोभित करनेवाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छा विपरीत वह रजोगुण आदिकी सृष्टि नहीं कर सकती ॥ 40 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् विष्णुने भगवान् शङ्करका सत्कार किया। तब उनसे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणोंके साथ कैलासको चले गये ॥ 41 ॥ भरतवंशशिरोमणे ! भगवान् शङ्करने बड़े-बड़े ऋषियोंको सभामें अपनी अर्द्धाङ्गिनी सती देवी से अपने विष्णुरूपकी अंशभूता मायामयी मोहिनीका इस प्रकार बड़े प्रेमसे वर्णन किया ।। 42 ।। ‘देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णुकी माया देखी ? देखो, यों तो मैं समस्त कला-कौशल, विद्या अदिका स्वामी और स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस मायासे विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिरदूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायँ इसमें कहना ही क्या है ॥ 43 ॥ जब मैं एक हजार वर्षकी समाधिसे उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम ‘किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमामें बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है’ ॥ 44 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—प्रिय परीक्षित्! मैंने विष्णुभगवान्की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र मन्थनके समय अपनी पीठपर मन्दराचल धारण करनेवाले भगवान्का वर्णन है ।। 45 ।। जो पुरुष बार-बार इसका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान्के गुण और लीलाओंका गान संसारके समस्त क्लेश और परिश्रमको मिटा देनेवाला है ॥ 46 ॥ दुष्ट पुरुषोंको भगवान्के चरणकमलोंकी प्राप्ति कभी हो नहीं सकती वे तो भक्तिभावसे युक्त पुरुषको ही प्राप्त होते हैं। इसीसे उन्होंने स्त्रीका मायामय रूप धारण करके दैत्योंको मोहित किया और अपने चरणकमलोंके शरणागत देवताओंको समुद्र मन्थनसे निकले हुए अमृतका पान कराया। केवल उन्हींकी बात नहीं— चाहे जो भी उनके चरणोंकी शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभुके चरणकमलोंमें नमस्कार करता हूँ ।। 47 ।।
अध्याय 13 आगामी सात मन्वन्तरोका वर्णन
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! विवस्वान्के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत मनु है। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तानका वर्णन मैं करता हूँ ॥ 1 ॥ वैवस्वत मनुके दस पुत्र हैं— इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करूष, पृषध और वसुमान ॥ 23 ॥ परीक्षित्! इस मन्वन्तरमें आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ये देवताओंक प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है ॥ 4 ॥ कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज ये सप्तर्षि हैं ॥ 5 ॥ इस मन्वन्तरमें भी कश्यपकी पत्नी अदिति के गर्भसे आदित्योंके छोटे भाई वामनके रूपमें भगवान् विष्णुने अवतार ग्रहण किया था ॥ 6 ॥
परीक्षित्! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे तुम्हें सात मन्वन्तरोका वर्णन सुनाया अब भगवान्की शक्तिसे युक्त अगले ( आनेवाले) सात मन्वन्तरोंका वर्णन करता हूँ ॥ 7 ॥
परीक्षित्! यह तो मैं तुम्हें पहले (छठे स्कन्धमें) बता चुका हूँ कि विवस्वान् (भगवान् सूर्य) की दो पत्रियाँ थीं संज्ञा और छाया ये दोनों ही विश्वकर्माकी पुत्री थीं ॥ 8 ॥ कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनकी एक तीसरी पत्नी वडवा भी थी। (मेरे विचारसे तो संज्ञाका ही नाम वडवा हो गया था) उन सूर्यपत्त्रियोंमें संज्ञासे तीन सन्तानें हुई यम यमी और श्राद्धदेव छाया भी तीन सन्ताने हुई— सावर्णि, शनैश्वर और तपती नामकी कन्या जो संवरणकी पत्नी हुई। जब संज्ञाने वडवाका रूप धारणकर लिया, तब उससे दोनों अश्विनीकुमार हुए ॥ 9-10 ॥ आठवें मन्वन्तरमे सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि ॥ 11 ॥ परीक्षित्! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। इन देवताओंके इन्द्र होंगे विरोचनके पुत्र बलि ।। 12 ।।
विष्णुभगवान्ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हींसे तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परन्तु इन्होंने उनको सारी त्रिलोकी | दे दी। राजा बलिको एक बार तो भगवान्ने बाँध दिया था, परन्तु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्गसे भी श्रेष्ठ सुतल लोकका राज्य दे दिया। वे इस समय वहाँ इन्द्रके समान विराजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण इन्द्रपदका भी परित्याग करके परम सिद्धि प्राप्त करेंगे ।। 13-14 ॥ गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यशृङ्ग और हमारे पिता भगवान् व्यास — ये आठवें मन्वन्तरमें सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योगबलसे अपने-अपने आश्रम मण्डलमें स्थित हैं । 15-16 ॥ देवगुह्यकी पत्नी सरस्वतीके गर्भसे सार्वभौम नामक भगवान्का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्रसे स्वर्गका राज्य छीनकर राजा बलिको दे देंगे ll 17 ll
परीक्षित्! वरुणके पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे ॥ 18 पार, मरीचिगर्भ आदि देवताओंके गण होंगे और अद्भुत नामके इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तरमें द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे ॥ 19 आयुष्मानकी पत्नी अम्बुधाराके गर्भसे ऋषभके रूपमें भगवान्का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हींकी दी हुई त्रिलोकीका उपभोग करेंगे ll 20 llदसवें मनु होंगे उपश्लोकके पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें | समस्त सगुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्मान् सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओंके गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु ॥ 21-22 ॥ विश्वसृज्की पत्नी विपूचिके गर्भसे भगवान् विष्वक्सेनके रूपमें अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्रसे मित्रता करेंगे ॥ 23 ॥
ग्यारहवें मनु होगे अत्यन्त संयमी धर्मसावर्णि । उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे ॥ 24 ॥ विहङ्गम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओंके गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे और वैधृत नामके इन्द्र होंगे ॥ 25 ॥ आर्यककी पत्नी वैधृताके गर्भ से धर्मसेतुके रूपमें भगवानका अंशावतार होगा और उसी रूपमें ये त्रिलोकीकी रक्षा करेंगे ।। 26 ।।
परीक्षित्! बारहवें मनु होंगे रुद्रसावर्णि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे ।। 27 ।। उस मन्वन्तरमें ऋतधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण तपोमूर्ति, तपस्वी आनीधक आदि सप्तर्षि होंगे ॥ 28 ॥ सत्यसहाकी पत्नी सूनृताके गर्भसे स्वधामके रूपमें भगवान्का अंशावतार होगा और उसी रूपमें भगवान् उस मन्वन्तरका पालन करेंगे ।। 29 ।।
तेरहवें मनु होंगे परम जितेन्द्रिय देवसावर्णि। चित्रसेन, विचित्र आदि उनके पुत्र होंगे 30 ॥ सुकर्म और सुत्राम आदि देवगण होंगे तथा इन्द्रका नाम होगा दिवस्पति उस समय निमक और तत्त्वदर्श आदि सप्तर्षि होंगे ॥ 31 ॥ देवोत्रकी पत्नीबृहतीके गर्भसे योगेश्वरके रूपमें भगवान्का अंशावतार होगा और उसी रूपमें भगवान् दिवस्पतिको इन्द्रपद देंगे ॥ 32 ॥
महाराज ! चौदहवें मनु होंगे इन्द्रसावर्णि। उरु, गम्भीर बुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे ॥ 33 ॥ उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्रका नाम होगा शुचि । अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे ॥ 34 ॥ उस समय सत्रायणकी पत्नी वितानाके गर्भसे बृहद्भानुके रूपमें भगवान् अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्डका विस्तार करेंगे ॥ 35 ॥
परीक्षित्! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों ही कालमें चलते रहते हैं। इन्हींके द्वारा एक सहस्र चतुर्युगीवाले कल्पके समयकी गणना की जाती है ॥ 36 ॥
अध्याय 14 मनु आदिके पृथक्-पृथक् कर्मोंका निरूपण
राजा परीक्षितने पूछा-भगवन्! आपके द्वारा वर्णित ये मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि आदि अपने-अपने मन्वन्तरमें किसके द्वारा नियुक्त होकर कौन-कौन-सा काम किस प्रकार करते हैं- यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये ॥ 1 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं— परीक्षित्! मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता-सबको नियुक्त करनेवाले स्वयं भगवान् ही हैं ॥ 2 ॥राजन् ! भगवान्के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार शरीरोंका वर्णन मैंने किया है, उन्हींकी प्रेरणासे मनु आदि विश्व व्यवस्थाका सञ्चालन करते हैं ॥ 3 ॥ चतुर्युगी अन्तमे समयके उलट-फेरसे जब श्रुतियाँ नष्टप्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्यासे पुनः उनका साक्षात्कार करते हैं। उन श्रुतियोंसे ही सनातनधर्मकी रक्षा होती है ॥ 4 ॥ राजन्! भगवान्की प्रेरणा से अपने-अपने मन्वन्तरमें बड़ी सावधानी से सब-के-सब मनु पृथ्वीपर चारों चरणसे परिपूर्ण धर्मका अनुष्ठान करवाते हैं ॥ 5 ॥ मनुपुत्र मन्वन्तरभर काल और देश दोनोंका विभाग करके प्रजापालन तथा धर्म-पालनका कार्य करते हैं। पञ्च-महायज्ञ आदि कर्मोंमें जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदिका सम्बन्ध है -उनके साथ देवता उस मन्वन्तरमें यज्ञका भाग स्वीकार करते हैं ॥ 6 ॥ इन्द्र भगवान्की दी हुई त्रिलोकीकी अतुल सम्पत्तिका उपभोग और प्रजाका पालन करते हैं। संसारमें यथेष्ट वर्षा करनेका अधिकार भी उन्हींको है ॥ 7 ॥ भगवान् युग-युगमें सनक आदि सिद्धों का रूप धारण करके ज्ञानका, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियोंका रूप धारण करके कर्मका और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरीके रूपमें योगका उपदेश करते हैं॥ 8 वे मरीचि आदि प्रजापतियोंके रूपमें सृष्टिका विस्तार करते है, सम्राट्के रूपमें लुटेरोंका वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणों को धारण करके कालरूपसे सबको संहारकी ओर ले जाते हैं ॥ 9 ॥ नाम और रूपकी मायासे प्राणियोंकी बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकारके दर्शनशास्त्रोंके द्वारा महिमा तो भगवान्की ही गाते हैं, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूपको नहीं जान पाते ॥ 10 ॥ परीक्षित्! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्पका परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्वके विद्वानोंने प्रत्येक अवान्तर कल्पमें चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं ॥ 11 ॥
अध्याय 15 राजा बलिकी स्वर्गपर विजय
राजा परीक्षितने पूछा- भगवन्। श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन-हीनकी भांति राजा बलिसे तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी ? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जानेपर भी उन्होंने बलिको बाँधा क्यों ? ॥ 1 ॥ मेरे हृदयमें इस बातका बड़ा है कि स्वयं परिपूर्ण महेश्वर भगवान्के द्वारा याचना और निरपराधका बन्धन—ये दोनो ही कैसे सम्भव हुए? हमलोग यह जानना चाहते हैं ॥ 2 ॥
श्रीशुकदेवजीने कहा- परीक्षित् । जब इन्द्रने बलिको पराजित करके उनकी सम्पत्ति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्यने उन्हें अपनी सञ्जीवनी विद्यासे जीवित कर दिया। इसपर शुक्राचार्यजीके शिष्य महात्मा बलिने अपना सर्वस्व उनके चरणोंपर चढ़ा दिया और वे तन-मनसे गुरुजीके साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणोंकी सेवा करने लगे || 3 || इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उनपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्गपर विजय प्राप्त करनेकी इच्छावाले बलिका महाभिषेककी विधिसे अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नामका यज्ञ कराया ॥ 4 ॥ यज्ञकी विधिसे हविष्योंके द्वारा जब अग्निदेवताकी पूजा की गयी, तब यज्ञकुण्डमेसे सोनेकी चद्दरसे मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला। फिर इन्द्रके घोड़ों-जैसे हरे रंगके घोड़े और सिंहके चिह्नसे युक्त रथपर लगानेकी ध्वजा निकली ॥ 5 ॥ साथ ही सोनेके पत्रसे मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होनेवाले दो अक्षय तरकस और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लादजीने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्यने एक श दिया 6 ॥ इस प्रकार ब्राह्मणोंकी कृपासे युद्धकी सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जानेपरराजा बलिने उन ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लादजीसे सम्भाषण करके उनके चरणोंमें नमस्कार किया ॥ 7 ॥ फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणोंके दिये हुए दिव्य रथपर सवार हुए। जब महारथी- राजा बलिने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकस आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादाकी दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई 8 उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथपर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्डमें अग्नि प्रज्वलित हो रही हो ॥ 9 ॥ उनके साथ उन्होंकि समान ऐश्वर्य, बल और विभूतिवाले दैत्यसेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाशको पी जायेंगे और अपने क्रोधभरे प्रज्वलित नेत्रोंसे समस्त दिशाओंको, क्षितिजको भस्म कर डालेंगे ॥ 10 राजा बलिने इस बहुत बड़ी आसुरी सेनाको लेकर उसका युद्धके ढंगसे सञ्चालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्षको कँपाते हुए सकल ऐश्वयोंसे परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावतीपर चढ़ाई की ॥ 11 ॥
देवताओंकी राजधानी अमरावतीमें बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दन वन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनोंमें पक्षियोंके जोड़े चहकते रहते हैं। मधुलोभी भरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं ॥ 12 ॥ लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पोंसे कल्पवृक शाखाएं दी रहती है। यहां सरोवरो हंस, सारस, चकवे और बतखोकी भीड़ लगी रहती है। उन्होंने देवताओंके द्वारा सम्मानित देवाङ्गनाएँ जलक्रीडा करती रहती हैं ॥ 13 ॥ ज्योतिर्मय आकाशगङ्गाने खाईकी भाँति अमरावतीको चारों ओरसे घेर रखा है। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सोनेका परकोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थानपर बड़ी-बड़ी अटारियाँ बनी हुई हैं ॥ 14 ॥ सोनेके किवाड़ द्वार-द्वारपर लगे हुए हैं और स्फटिकमणिके गोपुर (नगरके बाहरी फाटक) अलग-अलग बड़े-बड़े राजमार्ग हैं। स्वयं विश्वकर्माने ही उस । उसमें पुरीका निर्माण किया है ॥ 15 ॥ सभाके स्थान, खेलके चबूतरे और रथ चलनेके बड़े-बड़े मार्गों से वह शोभायमान है। दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते है और मणियोंके बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मूँगेकी वेदियाँ बनी हुई हैं ॥ 16 ॥ वहाँकी स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्षकी सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूपकी छटासे इस प्रकार देदीप्यमान होती हैं, जैसे अपनी ज्वालाओंसे अग्नि ।। 17 ।।देवाङ्गनाओंके जूड़ेसे गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पोंकी सुगन्ध लेकर वहाँके मार्गोमं मन्द मन्द हवा चलती रहती है ॥ 18 ॥ सुनहली खिड़कियोंमेंसे अगरकी सुगन्धसे युक्त सफेद धूआँ निकल-निकलकर वहाँक मार्गोंको ढक दिया करता है। उसी मार्गसे देवाङ्गनाएँ जाती आती हैं ।। 19 ।। स्थान-स्थानपर मोतियोंकी झालरोंसे सजाये हुए चंदोवे तने रहते हैं। सोनेकी मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं। छज्जोंपर अनेकों झंडिया लहराती रहती हैं। मोर, कबूतर और भौर कलगान करते रहते हैं। देवाङ्गनाओंके मधुर संगीतसे वहाँ सदा ही मङ्गल छाया रहता है ॥ 20 ॥ मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं। गन्धर्व बाजकि साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं। इनसे अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटासे छटाकी अधिष्ठात्री देवीको भी जीत लिया है ॥ 21 ॥ उस पुरीमें अधर्मी, दुष्ट, जीवद्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते। जो इन दोषोंसे रहित हैं, वे ही वहाँ जाते हैं ॥ 22 ॥ असुरोंकी सेनाके स्वामी राजा | बलिने अपनी बहुत बड़ी सेनासे बाहरकी ओर सब ओरसे अमरावतीको घेर लिया और इन्द्रपत्रियोंके हृदयमें भयका सञ्चार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्यजीके दिये हुए महान् शङ्खको बजाया। उस शङ्खकी ध्वनि सर्वत्र फैल गयी ।। 23 ।।
इन्द्रने देखा कि बलिने युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। अतः सब देवताओंके साथ वे अपने गुरु बृहस्पतिजीके पास गये और उनसे बोले- ॥ 24 ॥ ‘भगवन्! मेरे पुराने शत्रु बलिने इस बार युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमलोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्तिसे इनकी इतनी बढ़ती गयी है ॥ 25 ॥ मैं देखता हूँ कि इस समय बलिको कोई भी किसी प्रकारसे रोक नहीं सकता। वे प्रलयकी आगके समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुखसे इस विश्वको पी जायँगे, जीभसे दसों दिशाओंको चाट जायँगे और नेत्रोंकी ज्वालासे दिशाओंको भस्म कर देंगे ॥ 26 ॥आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे की इतनी बढ़तीका, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है ? इसके शरीर, मन और इन्द्रियोंमें इतना बल और इतना तेज कहाँसे आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है’ ll 27 ll
देवगुरु बृहस्पतिजीने कहा- ‘इन्द्र ! मैं तुम्हारे शत्रु बलिको उन्नतिका कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियोंने अपने शिष्य बलिको महान् तेज देकर शक्तियोंका खजाना बना दिया है ।। 28 । सर्वशक्तिमान् भगवान्को छोड़कर तुम या तुम्हारे जैसा और कोई भी बलिके सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे कालके | सामने प्राणी ।। 29 । इसलिये तुमलोग स्वर्गको छोड़कर कहीं छिप जाओ और उस समयकी प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रुका भाग्यचक्र पलटे ॥ 30 ॥ इस समय ब्राह्मणोंके तेजसे बलिकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणोंका तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार परिकरके साथ नष्ट हो जायगा ॥ 31 ॥ बृहस्पतिजी देवताओंके समस्त स्वार्थ और परमार्थके ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओंको सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोड़कर चले गये ।। 32 ।। देवताओंके छिप जानेपर विरोचननन्दन बलिने अमरावतीपुरीपर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकोंको जीत लिया ॥ 33 ॥ जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियोंने अपने अनुगत शिष्यसे सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ॥ 34 ॥ उन यज्ञोंके प्रभावसे बलकी कीर्ति कौमुदी तीनों लोकोंसे कीर्ति-कौमुदी बाहर भी दसों दिशाओंमें फैल गयी और वे नक्षत्रोंके राजा चन्द्रमाके समान शोभायमान हुए ।। 35 ।।ब्राह्मण-देवताओंकी कृपासे प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मीका वे बड़ी उदारतासे उपभोग करने लगे और अपनेको | कृतकृत्य-सा मानने लगे ॥ 36 ॥
अध्याय 16 कश्यपनीके द्वारा अदितिको पयोव्रतका उपदेश
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्योंने स्वर्गपर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदितिको बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं ॥ 1 ॥ एक बार बहुत | दिनोंके बाद जब परमप्रभावशाली कश्यप मुनिकी समाधि टूटी, तब वे अदितिके आश्रमपर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकारका उत्साह या सजावट हीं ॥ 2 ॥ परीक्षित्! जब वे वहाँ जाकर आसनपर बैठ गये और अदितिने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदितिसे | जिसके चेहरेपर बड़ी उदासी छायी हुई थी – बोले ॥ 3 ॥ “कल्याणी! इस समय संसारमें ब्राह्मणोंपर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है ? धर्मका पालन तो ठीक-ठीक होता है ? | कालके कराल गालमें पड़े हुए लोगोंका कुछ अमङ्गल तो नहीं हो रहा है ? ॥ 4 ॥ प्रिये ! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योगका फल देनेवाला है। इस गृहस्थाश्रममें रहकर धर्म, अर्थ और कामके सेवनमें किसी प्रकारका विघ्न तो नहीं हो रहा है ? ॥ 5 ॥ यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्बके भरण-पोषणमें व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करनेमें भी असमर्थ रही हो। इसीसे तो तुम उदास नहीं हो रही | हो ? || 6 || जिन घरोंमें आये हुए अतिथिका जलसे भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ोंके घरके समान हैं ॥ 7 ॥प्रिये सम्भव है, मेरे बाहर चले जानेपर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो और समयपर तुमने हविष्यसे अभियों में हवन न किया हो ॥ 8 ॥ सर्वदेवमय भगवान्के मुख हैं—ब्राह्मण और अनि गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनोंकी पूजा करता है तो उसे उन लोकोंकी प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले है ॥ 9 ॥ प्रिये ! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणोंसे मैं देख रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है । तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मङ्गलसे हैं न ?’ ॥ 10 ॥
अदितिने कहा- भगवन्! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी सब सकुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ आश्रम हो अर्थ, धर्म और कामकी साधनामें परम सहायक है ॥ 11 ॥ प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामनासे अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकोका भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है ।। 12 ।। भगवन् ! जब आप जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म पालनका उपदेश करते हैं; तब भला मेरे मनकी ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाय ? ॥ 13 ॥ आर्यपुत्र! समस्त प्रजा- -वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो– आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके सङ्कल्पसे उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीरसे! भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानोंके प्रति — चाहे असुर हों या देवता – एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तोंकी अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं || 14 || मेरे स्वामी! मैं आपकी दासी हूँ। आप मेरी भलाईके सम्बन्धमें विचार कीजिये। मर्यादापालक प्रभो। शत्रुओंने हमारी सम्पत्ति और रहनेका स्थानतक छीन लिया है। आप हमारी रक्षा कीजिये ।। 15 ।। बलवान् दैत्योंने मेरे ऐश्वर्य, धन, यश और पद छीन लिये हैं तथा हमें घरसे बाहर निकाल दिया है। इस प्रकार मैं दुःखके समुद्रमें डूब रही हूँ 16 ॥ आपसे बढ़कर हमारी भलाई करनेवाला और कोई नहीं है। इसलिये मेरे हितैषी स्वामी। आप सोच-विचारकर अपने सङ्कल्पसे ही मेरे कल्याणका कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे कि मेरे पुत्रोंको वे वस्तुएँ फिरसे प्राप्त हो जायें ।। 17 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार अदितिने जब कश्यपजीसे प्रार्थना की, तब वे कुछ | होकर बोले- बड़े आश्चर्यकी बात है। भगवान्की माया भी कैसी प्रबल है ! यह सारा जगत् स्नेहकी रज्जुसे वैधा | हुआ है ॥ 18 ॥ कहाँ यह पञ्चभूतोंसे बना हुआ अनात्मा शरीर और कहाँ प्रकृतिसे परे आत्मा ? न किसीका कोई पति है, न पुत्र है और न तो सम्बन्धी ही है। मोह ही दुःख मनुष्यको नचा रहा है ।॥ 19 ॥ प्रिये ! तुम सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयमें विराजमान अपने भक्तोंके मिटानेवाले जगद्गुरु भगवान् वासुदेवकी आराधना | करो ॥ 20 ॥ वे बड़े दीनदयालु हैं। अवश्य ही श्रीहरि तुम्हारी कामनाएँ पूर्ण करेंगे। मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि भगवान्को भक्ति कभी व्यर्थ नहीं होती। इसके सिवा कोई दूसरा उपाय नहीं है’ ॥ 21 ॥
अदितिने पूछा- भगवन्! मैं जगदीश्वर भगवान्की आराधना किस प्रकार करूँ, जिससे वे | सत्यसङ्कल्प प्रभु मेरा मनोरथ पूर्ण करें ॥ 22 ॥ पतिदेव ! मैं अपने पुत्रोंके साथ बहुत ही दुःख भोग रही हूँ। जिससे वे शीघ्र ही मुझपर प्रसन्न हो जायँ, उनकी आराधनाकी वही विधि मुझे बतलाइये ॥ 23 ॥
कश्यपजीने कहा- देवि! जब मुझे सन्तानकी कामना हुई थी, तब मैंने भगवान् ब्रह्माजीसे यही बात पूछो थी। उन्होंने मुझे भगवान्को प्रसन्न करनेवाले जिसका उपदेश किया था, वही मैं तुम्हें बतलाता हूँ ॥ 24 ॥ फाल्गुनके शुरूपक्षमें बारह दिनतक केवल दूध पीकर रहे और परम भक्तिसे भगवान् कमलनयनको पूज करे ।। 25 ।। अमावस्याके दिन यदि मिल सके तो सूअरकी खोदी हुई मिट्टीसे अपना शरीर मलकर नदीमें | स्नान करे। उस समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिये ॥ 26 ॥हे देवि! प्राणियोंको स्थान देनेकी इच्छासे वराहभगवान्ने रसातलसे तुम्हारा उद्धार किया था। तुम्हें मेरा नमस्कार है। तुम मेरे पापोको नष्ट कर दो ॥ 27 ॥ इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमोंको पूरा करके एकाग्रचित्तसे मूर्ति, वेदी, सूर्य, जल, अग्नि और गुरुदेवके रूपमें भगवान की पूजा करे ।। 28 ।। (और इस प्रकार स्तुति करे) ‘प्रभो! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय है। समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियोंमें निवास करते हैं। इसीसे आपको ‘वासुदेव’ कहते हैं। आप समस्त चराचर जगत् और उसके कारणके भी साक्षी हैं। भगवन्! मेरा आपको नमस्कार है ।। 29 ।। आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूपमें भी आप ही स्थित है। आप चौबीस गुणोके जाननेवाले और गुणोंकी संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक हैं। आपको मेरा नमस्कार है ।। 30 ।। आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय — ये दो कर्म सिर है। प्रातः, मध्याह्न और सायं- ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदोंके द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा हैं स्वयं आप! आपको मेरा नमस्कार हैं ।। 31 । आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप हो प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओंके अधिपति एवं भूतोंके स्वामी हैं। आपको मेरा नमस्कार ।। 32 ।। आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत्के स्वरूप भी हैं। आप योगके कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ ! आपके लिये मेरे नमस्कार ।। 33 ।। आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही नरनारायण ऋषिके रूपमें प्रकट स्वयं भगवान् हैं। आपको मेरा नमस्कार ।। 34 ।। आपका शरीर मरकतमणिके समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यकी देवी लक्ष्मी आपकी सेविका है। पीताम्बरधारी केशव ! आपको मेरा बार-बार नमस्कार ।। 35 ।। आप सब प्रकारके वर देनेवाले हैं। वर देनेवालोंमें श्रेष्ठ है तथा जीवोंके एकमात्र है वरणीय हैं। यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याणके लिये आपके चरणोंकी रजकी उपासना करते हैं ॥ 36 ॥ जिनके चरणकमलोंकी सुगन्ध प्राप्त करनेकी लालसासे समस्त देवता और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवामें लगी रहती हैं, वे भगवान् मुझपर प्रसन्न हों ॥ 37 ॥प्रिये ! भगवान् हृषीकेशका आवाहन पहले ही कर ले। फिर इन मन्त्रोंके द्वारा पाद्य, आचमन आदिके साथ श्रद्धापूर्वक मन लगाकर पूजा करे ॥ 38 ॥ गन्ध, माला | आदिसे पूजा करके भगवान्को दूधसे स्नान करावे। उसके बाद वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पाद्य, आचमन, गन्ध, धूप आदिके द्वारा द्वादशाक्षर मलसे भगवानको पूज करे ॥ 39 ॥ यदि सामर्थ्य हो तो दूधमें पकाये हुए तथा | और गुड़ मिले हुए शालिके चावलका नैवेद्य लगावे और उसीका द्वादशाक्षर मन्त्रसे हवन करे ॥ 40 ॥ उ नैवेद्यको भगवान् के भक्तोंमें बाँट दे या स्वयं पा ले। आचमन और पूजाके बाद ताम्बूल निवेदन करे ।। 41 ।। एक सौ आठ बार द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करे और स्तुतियोंके द्वारा भगवान् का स्तवन करे। प्रदक्षिणा करके बड़े प्रेम और आनन्दसे भूमिपर लोटकर दण्डवत् प्रणाम करे ॥ 42 ॥ निर्माल्यको सिरसे लगाकर देवताका विसर्जन करे। कम-से-कम दो ब्राह्मणोंको यथोचित रीतिसे स्वीरका भोजन करावे ।। 43 ।। दक्षिणा आदि उनका सत्कार करे। इसके बाद उनसे आज्ञा लेकर अपने इष्ट-मित्रोंके साथ बचे हुए अन्नको स्वयं ग्रहण करे। उस दिन ब्रह्मचर्य से रहे और दूसरे दिन प्रातःकाल ही खान आदि करके पवित्रतापूर्वक पूर्वोक्त विधिसे एकाग्र होकर भगवान् की पूजा करे। इस प्रकार जबतक व्रत समाप्त न हो, तबतक दूधसे स्नान कराकर प्रतिदिन भगवान्को पूजा करे ।। 44-45 ।।
भगवान्की पूजामें आदर-बुद्धि रखते हुए केवल |पयोजती रहकर यह व्रत करना चाहिये पूर्ववत् प्रतिदिन हवन और ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिये ॥ 46 इस प्रकार पयोव्रती रहकर बारह दिनतक प्रतिदिन भगवान की आराधना, होम और भोजन कराता रहे ॥ 47 ॥ पूजा करे तथा ब्राह्मण फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीपर्यन्त ब्रह्मचर्यसे। रहे, पृथ्वीपर शयन करे और तीनों समय स्नान करे ॥ 48 ॥झूठ न बोले। पापियोंसे बात न करे। पापकी बात न करे। छोटे-बड़े सब प्रकारके भोगोका त्याग कर दे। किसी भी प्राणीको किसी प्रकारसे कष्ट न पहुँचावे। भगवान्की आराधनामें लगा ही रहे ।। 49 ।। त्रयोदशीके दिन विधि जाननेवाले ब्राह्मणोंके द्वारा शास्त्रोक्त विधिसे भगवान् विष्णुको पञ्चामृतस्नान करावे ॥ 50 ॥ उस दिन धनका सङ्कोच छोड़कर भगवान्की बहुत बड़ी पूजा करनी चाहिये और दूधमें चरु (खीर) पकाकर विष्णुभगवान्को अर्पित करना चाहिये ॥ 51 ॥ अत्यन्त एकाग्र चित्तसे उसी पकाये हुए चरुके द्वारा भगवान्का यजन करना चाहिये और उनको प्रसन्न करनेवाला गुणयुक्त तथा स्वादिष्ट नैवेद्य अर्पण करना चाहिये ॥ 52 ॥ इसके बाद ज्ञानसम्पन्न आचार्य और ऋत्विजोंको वस्त्र, आभूषण और गौ आदि | देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। प्रिये! इसे भी भगवान्की ही आराधना समझो ॥ 53 ॥ प्रिये ! आचार्य और ऋत्विजोंको शुद्ध, सात्त्विक और गुणयुक्त भोजन कराना ही चाहिये; दूसरे ब्राह्मण और आये हुए अतिथियों को भी अपनी शक्तिके अनुसार भोजन कराना चाहिये ॥ 54 ॥ गुरु और ऋत्विजोंको यथायोग्य दक्षिणा देनी चाहिये। जो चाण्डाल आदि अपने-आप वहाँ आ गये हों, उन सभीको तथा दीन, अंधे और असमर्थ पुरुषोंको भी अन्न आदि | देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। जब सब लोग खा चुकें, तब उन सबके सत्कारको भगवान्की प्रसन्नताका साधन समझते हुए अपने भाई-बन्धुओंके साथ स्वयं भोजन करे ।। 55-56 ॥ प्रतिपदासे लेकर त्रयोदशीतक प्रतिदिन नाच-गान, बाजे-गाजे, स्तुति, स्वस्तिवाचन और भगवत्कथाओंसे भगवान्की पूजा करे करावे ।। 57 ।।
प्रिये ! यह भगवान्की श्रेष्ठ आराधना है। इसका नाम है ‘पयोव्रत’ । ब्रह्माजीने मुझे जैसा बताया था, वैसा ही मैंने तुम्हें बता दिया ।। 58 ॥ देवि! तुम भाग्यवती हो। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके शुद्ध भाव एवं श्रद्धापूर्ण चित्तसे इस व्रतका भलीभांति अनुष्ठान करो और इसके द्वारा अविनाशी भगवान्की आराधना करो ॥ 59 ॥कल्याणी ! यह व्रत भगवान्को सन्तुष्ट करनेवाला है, इसलिये इसका नाम है ‘सर्वयज्ञ’ और ‘सर्वव्रत’ । यह समस्त तपस्याओंका सार और मुख्य दान है ॥ 60 ॥ जिनसे भगवान् प्रसन्न हों—वे ही सच्चे नियम हैं, वे ही उत्तम यम हैं, वे ही वास्तवमें तपस्या, दान, व्रत और यज्ञ हैं ॥ 61 ॥ इसलिये देवि ! संयम और श्रद्धासे तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। भगवान् शीघ्र ही तुमपर प्रसन्न होंगे और तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ 62 ॥
अध्याय 17 भगवान्का प्रकट होकर अदितिको वर देना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! अपने पतिदेव महर्षि कश्यपजीका उपदेश प्राप्त करके अदितिने बड़ी सावधानीसे बारह दिनतक इस व्रतका अनुष्ठान किया ॥ 1 ॥ बुद्धिको सारथि बनाकर मनकी लगामसे उसने इन्द्रियरूप दुष्ट पोड़ोंको अपने वशमें कर लिया और | एकनिष्ठ बुद्धिसे वह पुरुषोत्तम भगवान्का चिन्तन करती रही ॥ 2 ॥ उसने एकाग्र बुद्धिसे अपने मनको सर्वात्मा भगवान् वासुदेव पूर्णरूपसे लगाकर पयोजतका अनुष्ठान किया ॥ 3 ॥ तब पुरुषोत्तमभगवान् उसके | सामने प्रकट हुए। परीक्षित् ! वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, चार भुजाएँ थीं और शङ्ख, चक्र, गदा लिये हुए थे ॥ 4 ॥ अपने नेत्रोंके सामने भगवान्को सहसा प्रकट हुए देख अदिति सादर उठ खड़ी हुई और फिर प्रेमसे विह्वल होकर उसने पृथ्वीपर लोटकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया ।। 5 ।। फिर उठकर, हाथ जोड़, भगवान्की स्तुति करने की चेष्टा की; परन्तु नेत्रोंमें आनन्दके आँसू उमड़ आये, उससे बोला न गया। सारा शरीर पुलकित हो रहा था, दर्शनके आनन्दोल्लास से उसके अङ्ग कम्प होने लगा था, वह चुपचाप खड़ी रही। ll 6 llपरीक्षित् । देवी अदिति अपने प्रेमपूर्ण नेत्रोंसे लक्ष्मीपति, विश्वपति यज्ञेश्वर भगवान्को इस प्रकार देख रही थी. मानो वह उन्हें पी जायगी। फिर बड़े प्रेमसे, गद्गद वाणीसे, धीरे-धीरे उसने भगवान्की स्तुति की ॥ 7 ॥ -आप यज्ञके स्वामी है और स्वयं अदितिने कहा यज्ञ भी आप ही हैं। अच्युत! आपके चरणकमलोंका आश्रय लेकर लोग भवसागरसे तर जाते हैं। आपके यश कीर्तनका श्रवण भी संसारसे तारनेवाला है। आपके नामोंके श्रवणमात्र से ही कल्याण हो जाता है। आदिपुरुष! जो आपकी शरणमें आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियोंका आप नाश कर देते हैं। भगवन् ! आप दीनोंके स्वामी हैं। आप हमारा कल्याण कीजिये ।। 8 ।। आप विश्वको उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके कारण हैं और विश्वरूप भी आप ही हैं। अनन्त होनेपर भी स्वच्छन्दतासे आप अनेक शक्ति और गुणोंको स्वीकार कर लेते हैं। आप सदा अपने स्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। नित्य-निरन्तर बढ़ते हुए पूर्ण बोधके द्वारा आप हृदयके अन्धकारको नष्ट करते रहते हैं। भगवान्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥ 9 ॥ प्रभो ! अनन्त ! जब आप प्रसन्न हो जाते हैं, तब मनुष्योंको ब्रह्माजीकी दीर्घ आयु, उनके ही समान दिव्य शरीर, प्रत्येक अभीष्ट वस्तु, अतुलित धन, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल, योगकी समस्त सिद्धियाँ, अर्थ-धर्म-कामरूप त्रिवर्ग और केवल ज्ञानतक प्राप्त हो जाता है। फिर शत्रुओंपर विजय प्राप्त करना आदि जो छोटी-छोटी कामनाएँ हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ 10 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते है-परीक्षित्! जब अदितिने इस प्रकार कमलनयनभगवान्को स्तुति की, तब समस्त प्राणियोंके हृदयमें रहकर उनकी गति-विधि जाननेवाले भगवान्ने यह बात कही ॥ 11 ॥
श्रीभगवान्ने कहा- देवताओंकी जननी अदिति। तुम्हारी चिरकालीन अभिलाषाको मैं जानता हूँ। शत्रुओंने तुम्हारे पुत्रोंकी सम्पत्ति छीन ली है, उन्हें उनके लोक (स्वर्ग) से खदेड़ दिया है ॥ 12 ॥ तुम चाहती हो कि युद्धमे तुम्हारे पुत्र उन मतवाले और बली असुरोंको जीतकर विजयलक्ष्मी प्राप्त करें, तब तुम उनके साथ भगवान्की उपासना करो ॥ 13 ॥तुम्हारी इच्छा यह भी है कि तुम्हारे इन्द्रादि पुत्र जब शत्रुओंको मार डालें, तब तुम उनकी रोती हुई दुःखी स्त्रियोको अपनी आँखों देख सको ॥ 14 ॥ अदिति | तुम चाहती हो कि तुम्हारे पुत्र धन और शक्तिसे समृद्ध हो जायें, उनकी कीर्ति और ऐश्वर्य उन्हें फिरसे प्राप्त हो जायें तथा वे स्वर्गपर अधिकार जमाकर पूर्ववत् विहार करें ॥ 15 ॥ परन्तु देवि ! वे असुर-सेनापति इस समय जीते नहीं जा सकते, ऐसा मेरा निक्षय है; क्योंकि ईश्वर और ब्राह्मण इस समय उनके अनुकूल हैं। इस समय उनके साथ यदि लड़ाई छेड़ी जायगी, तो उससे सुख | मिलनेकी आशा नहीं है ॥ 16 ॥ फिर भी देवि! तुम्हारे इस व्रतके अनुष्ठानसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ, इसलिये मुझे इस सम्बन्धमें कोई-न-कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा। क्योंकि मेरी आराधना व्यर्थ तो होनी नहीं चाहिये। | उससे श्रद्धाके अनुसार फल अवश्य मिलता है ॥ 17 ॥ तुमने अपने पुत्रोंकी रक्षा के लिये ही विधिपूर्वक पयोजनसे मेरी पूजा एवं स्तुति की है। अतः मैं अंशरूपसे कश्यपके वीर्यमें प्रवेश करूंगा और तुम्हारा पुत्र बनकर तुम्हारी सन्तानकी रक्षा करूंगा ॥ 18 ॥ कल्याणी! तुम अपने पति कश्यपमें मुझे इसी रूपमें स्थित देखो और उन निष्याप प्रजापतिकी सेवा | करो ॥ 19 ॥ देवि ! देखो, किसीके पूछनेपर भी यह बात दूसरेको मत बतलाना। देवताओंका रहस्य जितना गुप्त रहता है, उतना ही सफल होता है ॥ 20 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इतना कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। उस समय अदिति यह जानकर कि स्वयं भगवान् मेरे गर्भसे जन्म लेंगे, अपनी कृतकृत्यताका अनुभव करने लगी। भला, यह कितनी दुर्लभ बात है। वह बड़े प्रेमसे अपने पतिदेव कश्यपको सेवा करने लगी कश्यपजी सत्यदर्शी थे, उनके नेत्रों कोई बात छिपी नहीं रहती थी अपने समाधि-योगले 1 उन्होंने जान लिया कि भगवान्का अंश मेरे अंदर प्रविष्ट | हो गया है। जैसे वायु काठमें अग्निका आधान करती है,वैसे ही कश्यपजीने समाहित चित्तसे अपनी तपस्याके द्वारा चिर-सक्षित वीर्यका अदितिमें आधान किया । 21 – 23 ॥ जब ब्रह्माजीको यह बात मालूम हुई कि अदितिके गर्भमें तो स्वयं अविनाशी भगवान् आये हैं, तब वे भगवान्के रहस्यमय नामोंसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ 24 ॥
ब्रह्माजीने कहा—समग्र कीर्तिके आश्रय भगवन्! आपकी जय हो अनन्त शक्तियोंके अधिष्ठान ! आपके चरणों में नमस्कार है। ब्रह्मण्यदेव त्रिगुणोंके नियामक ! आपके चरणोंमें मेरे बार-बार प्रणाम हैं ॥ 25 ॥ पृश्निके पुत्ररूपमें उत्पन्न होनेवाले ! वेदोंके समस्त ज्ञानको अपने अंदर रखनेवाले प्रभो ! वास्तवमें आप ही सबके विधाता हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। ये तीनों लोक आपकी नाभिमे स्थित हैं। तीनों लोकोंसे परे वैकुण्ठमें आप निवास करते हैं। जीवोके अन्तःकरणमें आप सर्वदा विराजमान रहते है। ऐसे सर्वव्यापक विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ ।। 26 ।। प्रभो! आप ही संसारके आदि, अन्त और इसलिये मध्य भी हैं। यही कारण है कि वेद अनन्तशक्ति पुरुषके रूपमें आपका वर्णन करते हैं। जैसे गहरा स्रोत अपने भीतर पड़े हुए तिनकेको वहा ले जाता है, वैसे ही आप कालरूपसे संसारका धाराप्रवाह सञ्चालन करते रहते हैं ॥ 27 ॥ आप चराचर प्रजा और प्रजापतियोंको भी उत्पन्न करनेवाले मूल कारण हैं। देवाधिदेव जैसे जलमें डूबते हुएके लिये नौका ही सहारा है, वैसे ही स्वर्गसे भगाये हुए देवताओंके लिये एकमात्र आप ही आश्रय हैं ॥ 28 ॥
अध्याय 18 वामनभगवान्का प्रकट होकर राजा बलिकी यज्ञशाला में जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् इस प्रकार जय ब्रह्माजीने भगवान्की शक्ति और लीलाकी स्तुति की, तब जन्म-मृत्युरहित भगवान् अदितिके सामने प्रकट हुए। भगवान् के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शङ्ख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे। कमलके सामन कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे। पीताम्बर शोभायमान हो रहा यथा ॥ 1 ॥ विशुद्ध श्यामवर्णका शरीर था। मकराकृति कुण्डली कान्तिसे मुख कमलकी शोभा और भी उल्लसित हो रही थी। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न, हाथोंमें कंगन और भुजाओंमें बाजूबंद, सिरपर किरीट, कमर में करधनीकी लड़ियाँ और चरणोंमें सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे || 2 || भगवान् गलेमें अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड के झुंड भर गुंजार कर रहे थे। उनके कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी। भगवान्की अङ्गकान्तिसे प्रजापति कश्यपजीके घरका अन्धकार नष्ट हो गया ॥ 3 ॥ उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं। नदी और सरोवरोंका जल स्वच्छ हो गया। प्रजाके हृदयमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी। सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं। स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वत — इन सबके हृदयमें हर्षका सञ्चार हो गया ॥ 4 ॥
परीक्षित् जिस समय भगवान्ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्रपर थे। भाद्रपद मासके शुक्लपक्षकी श्रवणनक्षत्रवाली द्वादशी थी। अभिजित् मुहूर्तमें भगवान्का जन्म हुआ था। सभी नक्षत्र और तारे भगवान्के जन्मको मङ्गलमय सूचित कर रहे थे । 5॥ परीक्षित् जिस तिथिमे भगवान्का जन्म हुआ था, उसे ‘विजया द्वादशी’ कहते हैं। जन्मके समय सूर्य आकाशके मध्यभागमे स्थित थे ॥ 6 ॥ भगवान्के अवतारके समय शङ्ख, ढोल, मृदङ्ग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बजने लगे। इन तरह-तरहके बाजों और तुरहियोंकी तुमुल ध्वनि होने लगी ॥7॥अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं। श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे। मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्रि स्तुति करने लगे ॥ 8 ॥ सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओंके अनुचर नाचने-गाने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगोंने अदितिके आश्रमको पुष्पोंकी वर्षासे ढक दिया ll 9-10 ll
जब अदितिने अपने गर्भसे प्रकट हुए परम पुरुष परमात्माको देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्यचकित और परमानन्दित हो गयी। प्रजापति कश्यपजी भी भगवान्को अपनी योगमायासे शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कहने लगे ‘जय हो! जय हो’ ॥ 11 ॥ परीक्षित्! भगवान् स्वयं अव्यक्त एवं चित्स्वरूप हैं। उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधोंसे युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीरसे, कश्यप और अदितिके देखते-देखते वामन ब्रह्मचारीका रूप धारण कर लिया—ठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले । क्यों न हो, भगवान्की लीला तो अद्भुत है ही ।। 12 ।।
भगवान्को वामन ब्रह्मचारीके रूपमें देखकर महर्षियोंको बड़ा आनन्द हुआ। उन लोगोंने कश्यप प्रजापतिको आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये || 13 | जब उनका उपनयन संस्कार होने लगा, तब गायत्रीके अधिष्ठातृदेवता स्वयं सविताने उन्हें गायत्रीका उपदेश किया। देवगुरु बृहस्पतिजीने यज्ञोपवीत और कश्यपने मेखला दी ।। 14 ।। पृथ्वीने कृष्णमृगका चर्म, वनके स्वामी चन्द्रमाने दण्ड, माता अदितिने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाशके अभिमानी देवताने वामन वेषधारी भगवानको छत्र दिया ॥ 15॥ परीक्षित् । अविनाशी प्रभुको ब्रह्माजीने कमण्डलु सप्तर्षियोंने कुश और सरस्वतीने रुद्राक्षकी माला समर्पित की ।। 16 ।। इस रीतिसे जब वामनभगवान्का उपनयन संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेरने उनको भिक्षाका पात्र और सतीशिरोमणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमाने भिक्षा दी ।। 17 ।।इस प्रकार जब सब लोगोंने वटुवेषधारी भगवान्का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियोंसे भरी हुई सभा अपने ब्रह्मतेजके कारण अत्यन्त शोभायमान हुए ।। 18 ।। इसके | बाद भगवान स्थापित और प्रज्वलित अग्रिका कुश परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओंसे हवन किया ॥ 19 ॥
परीक्षित्! उस समय भगवान्ने सुना कि सब प्रकारकी सामग्रियों सम्पन्न यशस्वी बलि गुवंशी ब्राह्मणोंके आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँके लिये यात्रा की। भगवान् समस्त शक्तियोंसे युक्त हैं। उनके चलनेके समय उनके भारसे पृथ्वी पग-पगपर झुकने लगी ॥ 20 ॥ नर्मदा नदीके उत्तर तटपर ‘भृगुकच्छ’ नामका एक बड़ा सुन्दर स्थान है। वहीं बलिके भृगुवंशी ऋत्विज् श्रेष्ठ यज्ञका अनुष्ठान करा रहे थे। उन लोगोंने दूरसे ही वामनभगवान्को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्यदेवका उदय हो रहा हो ॥ 21 ॥ परीक्षित् ! वामनभगवान्के तेजसे ऋत्विज् यजमान और सदस्य- -सब के सब निस्तेज हो गये। वे | लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखनेके लिये सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं ।। 22 ।। भृगुके पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्योंकि साथ इसी प्रकार अनेको कल्पनाएँ कर रहे थे। उसी समय हाथमें छत्र, दण्ड और | जलसे भरा कमण्डलु लिये हुए वामनभगवान्ने अश्वमेघ यज्ञ मण्डप प्रवेश किया ॥ 23 ॥ वे कमरमें जकी मेखला और गलेमें यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे । बगलमें मृगचर्म था और सिरपर जटा थी। इसी प्रकार बौने ब्राह्मणके वेषमे अपनी मायासे ब्रह्मचारी बने हुए भगवान्ने जब उनके यज्ञमण्डपमें प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्योंके साथ उनके तेजसे प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये। वे सब के सब अप्रियोंके साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामनभगवान्का स्वागत-सत्कार किया 24-25 भगवान् के लघुरूपके अनुरूप सारे अङ्ग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे। उन्हें देखकर बलिको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामनभगवान्को एक उत्तम आसन दिया ॥ 26 ॥’फिर स्वागत-वाणीसे उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और सङ्गरहित महापुरुषोंको भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामन भगवानको पूजा की ॥ 27 ॥ भगवान्के चरणकमलोंका धोवन परम मङ्गलमय है। उससे जीवोंके सारे पाप ताप धुल जाते हैं। स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान् शङ्करने अत्यन्त भक्तिभावसे उसे अपने सिरपर धारण किया था। आज वही चरणामृत धर्मके मर्मज्ञ राजा बलिको प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे उसे अपने मस्तकपर रखा ॥ 28 ॥
बलिने कहा- ब्राह्मणकुमार ! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आर्य ! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रह्मर्थियों की तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान् होकर मेरे सामने आयी है ।। 29 ।। आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये। आज मेरा वंश पवित्र हो गया। आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया ॥ 30 ॥ ब्राह्मणकुमार ! आपके पाँव पखारनेसे मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करनेसे, अग्निमें आहुति डालनेसे जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया। आपके इन नन्हें नन्हें चरणों और इनके धोवनसे पृथ्वी पवित्र हो गयी ॥ 31 ॥ ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता है कि आप कुछ चाहते हैं। परम पूज्य ब्रह्मचारीजी आप जो चाहते हो गाय, सोना, सामप्रियोंसे सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पीनेकी वस्तु, विवाहके लिये ब्राह्मणकी कन्या, सम्पत्तियोंसे भरे हुए गाँव, घोड़े, हाथी, रथ- वह सब आप मुझसे माँग लीजिये अवश्य ही यह सब मुझसे माँग लीजिये ॥ 32 ॥
अध्याय 19 भगवान् वामनका बलिसे तीन पग पृथ्वी माँगना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजा बलिके ये वचन धर्मभावसे भरे और बड़े मधुर थे। उन्हें सुनकर भगवान् वामनने बड़ी प्रसन्नतासे उनका अभिनन्दन किया और कहा ।। 1 ।।
श्रीभगवान् ने कहा- राजन्! आपने जो कुछ कहा, वह आपकी कुलपरम्पराके अनुरूप, धर्मभावसे परिपूर्ण, यशको बढ़ानेवाला और अत्यन्त मधुर है। क्यों न हो, परलोकहितकारी धर्मके सम्बन्धमें आप भृगुपुत्र शुक्राचार्यको परम प्रमाण जो मानते हैं। साथ ही अपने कुलवृद्ध पितामह परम शान्त प्रह्लादजीकी आज्ञा भी तो आप वैसे ही मानते हैं ॥ 2 ॥ आपकी वंशपरम्परामें कोई धैर्यहीन अथवा कृपण पुरुष कभी हुआ ही नहीं। ऐसा भी कोई नहीं हुआ, जिसने ब्राह्मणको कभी दान न दिया हो अथवा जो एक बार किसीको कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके बादमें मुकर गया हो ॥ 3 ॥ दानके अवसरपर याचकों को याचना सुनकर और युद्धके अवसरपर शत्रुके ललकारनेपर उनकी ओरसे मुँह मोड़ लेनेवाला कायर | आपके वंशमें कोई भी नहीं हुआ। क्यों न हो, आपकी कुलपरम्परामें प्रह्लाद अपने निर्मल यशसे वैसे ही शोभायमान होते हैं, जैसे आकाशमें चन्द्रमा ॥ 4 ॥ आपके कुलमें ही हिरण्याक्ष जेसे वीरका जन्म हुआ था। वह वीर जब हाथमें गदा लेकर अकेला ही दिग्विजयके | लिये निकला, तब सारी पृथ्वीमें घूमनेपर भी उसे अपनी जोड़का कोई वीर न मिला ॥ 5 ॥ जब विष्णुभगवान् जलमेंसे पृथ्वीका उद्धार कर रहे थे, तब वह उनके सामने आया और बड़ी कठिनाईसे उन्होंने उसपर विजय प्राप्त की। परन्तु उसके बहुत बाद भी उन्हें बार-बार हिरण्याक्षकी शक्ति और बलका स्मरण हो आया करता था और उसे जीत लेनेपर भी वे अपनेको विजयी नहीं समझते थे || 6 || जब हिरण्याक्षके भाई हिरण्यकशिपुको उसके वधका वृत्तान्त मालूम हुआ, तब वह अपने भाईका वध करनेवालेको मार डालनेके लिये क्रोध करके भगवान् के निवासस्थान वैकुण्ठधाम में पहुंचा ॥ 7 ॥विष्णुभगवान् माया रचनेवालोंमें सबसे बड़े हैं और समयको खूब पहचानते हैं। जब उन्होंने देखा कि हिरण्यकशिपु तो हाथमें शूल लेकर कालकी भाँति मेरे ही ऊपर धावा कर रहा है, तब उन्होंने विचार किया ॥ 8 ॥ ‘जैसे संसारके प्राणियोंके पीछे मृत्यु लगी रहती है— वैसे हो मैं जहाँ जहाँ जाऊँगा, वहीं-वहीं यह मेरा पीछा करेगा। इसलिये मैं इसके हृदयमें प्रवेश कर जाऊँ, जिससे यह मुझे देख न सके; क्योंकि यह तो बहिर्मुख है, बाहरकी वस्तुएँ ही देखता है ॥ 9 ॥ असुरशिरोमणे । जिस समय हिरण्यकशिपु उनपर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके हरसे काँपते हुए विष्णुभग अपने शरीरको सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणोंके द्वारा नासिकामेसे होकर हृदयमें जा बैठे ॥ 10 ॥ हिरण्यकशिपुने उनके लोकको भलीभाँति छान डाला, परन्तु उनका कहीं पता न चला। इसपर क्रोधित होकर वह सिंहनाद करने लगा। उस वीरने पृथ्वी, स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और समुद्र – सब कहीं विष्णुभगवान्को ढूँढ़ा, परन्तु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये ॥ 11 ॥ उनको | कहीं न देखकर वह कहने लगा -मैंने सारा जगत् छान डाला, परन्तु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोकमें चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता ॥ 12 ॥ बस, अब उससे वैरभाव रखनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देहके साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोधका कारण अज्ञान है और अहङ्कारसे उसकी वृद्धि होती है ॥ 13 ॥ राजन् ! आपके पिता प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँतक कि उनके शत्रु देवताओंने ब्राह्मणोंका वेष बनाकर उनसे उनकी आयुका दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणोंके छलको जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली || 14 | आप भी उसी धर्मका आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरोंने पालन किया है ।। 15 ।। दैत्येन्द्र ! आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं। इसीसे मैं आपसे थोड़ी-सी पृथ्वी- केवल अपने पैरोंसे तीन डग माँगता हूँ ॥ 16 ॥ माना कि आप सारे जगत्के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान् पुरुषको केवल अपनी आवश्यकताके अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पापसे बच जाता है ॥ 17 ॥राजा बलिने कहा- ब्राह्मणकुमार ! तुम्हारी बातें तो वृद्धों जैसी है, परन्तु तुम्हारी बुद्धि अभी बचोकी-सी ही है। अभी तुम हो भी तो बालक ही न, इसीसे अपना हानि-लाभ नहीं समझ रहे हो ।। 18 । में तीनों लोकोंका एकमात्र अधिपति हूँ और द्वीप-का-द्वीप दे सकता हूँ। जो मुझे अपनी वाणीसे प्रसन्न कर ले और मुझसे केवल तीन डग भूमि माँगे वह भी क्या बुद्धिमान् कहा जा सकता है ? ॥ 19 ॥ ब्रह्मचारीजी! जो एक बार कुछ माँगनेके लिये मेरे पास आ गया, उसे फिर कभी किसीसे कुछ माँगनेकी आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिये। अतः अपनी जीविका चलाने के लिये तुम्हें जितनी भूमिकी आवश्यकता हो, उतनी मुझसे माँग लो ॥ 20 ॥
श्रीभगवान् ने कहा— राजन् ! संसारके सब-के सब प्यारे विषय एक मनुष्यकी कामनाओं को भी पूर्ण करनेमें समर्थ नहीं हैं, यदि वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाला – सन्तोषी न हो ॥ 21 ॥ जो तीन पग भूमिसे सन्तोष नहीं कर लेता, उसे नौ वर्षोंसे युक्त एक द्वीप भी दे • दिया जाय तो भी वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसके मनमें सातों द्वीप पानेकी इच्छा बनी ही रहेगी ॥ 22 ॥ मैने सुना है कि पृभु, गय आदि नरेश सातों द्वीपोंके अधिपति थे परन्तु उतने धन और भोगकी सामग्रियोंके मिलनेपर भी वे | तृष्णाका पार न पा सके ॥ 23 ॥ जो कुछ प्रारब्धसे मिल जाय, उसीसे सन्तुष्ट हो रहनेवाला पुरुष अपना जीवन सुखसे व्यतीत करता है। परन्तु अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला तीनों लोकोंका राज्य पानेपर भी दुःखी ही रहता है। क्योंकि उसके हृदयमें असन्तोषकी आग धधकती रहती है ॥ 24 ॥ धन और भोगोंसे सन्तोष न होना ही | जीवके जन्म-मृत्युके चक्कर में गिरनेका कारण है। तथा जो कुछ प्राप्त हो जाय, उसीमें सन्तोष कर लेना मुक्तिका कारण है । 25 जो स्वयंप्राप्त वस्तुसे ही सन्तुष्ट हो रहता है, उसके तेजकी वृद्धि होती है। उसके असन्तोषी हो जानेपर उसका तेज वैसे ही शान्त हो जाता है जैसे जलसे अनि ॥ 26 ॥ इसमें सन्देह नहीं कि आप मुँहमाँगी | वस्तु देनेवालोंमें शिरोमणि हैं। इसलिये मैं आपसे केवल तीन पग भूमि ही मांगता हूँ इतनेसे ही मेरा काम बन जायगा। धन उतना ही संग्रह करना चाहिये, जितनेकी आवश्यकता हो ॥ 27 ॥श्रीशुकदेवजी कहते हैं- भगवान् के इस प्रकार कहनेपर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा- ‘अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।’ यो कहकर वामनभगवान्को तीन पग पृथ्वीका सङ्कल्प करनेके लिये उन्होंने जलपात्र उठाया ।। 28 ।। शुक्राचार्यजी सब कुछ जानते थे। उनसे भगवान्की यह लीला भी छिपी नहीं थी। उन्होंने राजा बलिको पृथ्वी देनेके लिये तैयार देखकर उनसे कहा ।। 29 ।।
शुकाचार्यजीने कहा- विरोचनकुमार ये स्वयं अविनाशी भगवान् विष्णु हैं। देवताओंका काम बनानेके लिये कश्यपकी पत्नी अदिति के गर्भसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ 30 ॥ तुमने यह अनर्थ न जानकर कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। यह तो दैत्योंपर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है। इसे मैं ठीक नहीं समझता ॥ 31 ॥ स्वयं भगवान् ही अपनी योगमायासे यह ब्रह्मचारी बनकर बैठे हुए है। ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और विश्वविख्यात कीर्ति – सब कुछ तुमसे छीनकर इन्द्रको | दे देंगे ।। 32 ।। ये विश्वरूप हैं। तीन पगमें तो ये सारे लोकोंको नाप लेंगे। मूर्ख ! जब तुम अपना सर्वस्व ही विष्णुको दे डालोगे, तो तुम्हारा जीवन निर्वाह कैसे होगा 33 ये विश्वव्यापक भगवान् एक पगमें पृथ्वी और दूसरे पगमें स्वर्गको नाप लेंगे। इनके विशाल शरीरसे आकाश भर जायगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जायगा ? ।। 34 ।। तुम उसे पूरा न कर सकोगे। ऐसी दशामें मैं समझता हूँ कि प्रतिज्ञा करके पूरा न कर पानेके कारण तुम्हें नरकमे ही जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम अपनी की हुई प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेमें सर्वथा असमर्थ होओगे ॥ 35 ॥ विद्वान् पुरुष उस दानकी प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन निर्वाहके लिये कुछ बचे ही नहीं। जिसका जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता है वही संसारमें दान, यज्ञ, तप और परोपकारके कर्म कर सकता है ।। 36 ।। जो मनुष्य अपने धनको पाँच भागोंमें बाँट देता है—कुछ धर्मके लिये, कुछ यशके लिये कुछ धनको अभिवृद्धि के लिये कुछ भोगोके लिये और कुछ अपने स्वजनोंके लिये वही इस लोक और परलोक दोनोंमें ही सुख पाता है ll 37 llअसुरशिरोमणे ! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जानेकी चिन्ता हो, तो मैं इस विषयमें तुम्हें कुछ ऋग्वेदकी श्रुतियोंका आशय सुनाता हूँ, तुम सुनो। श्रुति कहती है— ‘किसीको कुछ देनेकी बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार कर देना असत्य है ॥ 38 ॥ यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। परन्तु यदि वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि नकार जाना, अपनी वस्तु दूसरेको न देना, दूसरे शब्दोंमें अपना संग्रह है बचाये रखना – यही शरीररूप वृक्षका मूल है ॥ 39 ॥ जैसे जड़ न रहनेपर वृक्ष सूखकर थोड़े ही दिनोंमें गिर जाता है, उसी प्रकार यदि धन देनेसे अस्वीकार न किया जाय तो यह जीवन सूख जाता है— इसमें सन्देह नहीं ॥ 40 ॥ ‘हाँ मैं दूँगा’ – यह वाक्य ही धनको दूर हटा देता है। इसलिये इसका उच्चारण ही अपूर्ण अर्थात् धनसे खाली कर देनेवाला है। यही कारण है कि जो पुरुष ‘हाँ मैं दूँगा’ – ऐसा कहता है, वह धनसे खाली हो जाता है। जो याचकको सब कुछ देना स्वीकार कर लेता है, वह अपने लिये भोगकी कोई सामग्री नहीं रख सकता ll 41 ll इसके विपरीत ‘मैं नहीं दूँगा’ – यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धनको सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करनेवाला है। परन्तु ऐसा सब समय नहीं करना चाहिये। जो सबसे, सभी वस्तुओंके लिये नहीं करता रहता है, उसकी अपकीर्ति हो जाती है। वह तो जीवित रहनेपर भी मृतकके समान ही है ॥ 42 ॥ स्त्रियोंको प्रसन्न करनेके लिये, हास-परिहासमें, विवाहमें, कन्या आदिकी प्रशंसा करते समय, अपनी जीविकाकी रक्षाके लिये, प्राणसङ्कट उपस्थित होनेपर, गौ और ब्राह्मणके हितके लिये तथा किसीको मृत्युसे बचानेके लिये असत्य भाषण भी उतना निन्दनीय नहीं है ॥ 43 ॥
अध्याय 20 भगवान् वामनजीका विराट् रूप होकर दो ही पगसे पृथ
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-राजन्! जब कुलगुरु शुक्राचार्यने इस प्रकार कहा, तब आदर्श गृहस्थ राजा बलिने एक क्षण चुप रहकर बड़ी विनय और सावधानीसे शुक्राचार्यजीके प्रति यों कहा ॥ 1 ॥राजा बलिने कहा- भगवन्! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रममें रहनेवालोंके लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविकामें कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े ॥ 2 ॥ परन्तु गुरुदेव ! मैं प्रह्लादजीका पौत्र हूँ और एक बार देनेकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अतः | अब मैं धनके लोभसे ठगकी भांति इस ब्राह्मणसे कैसे कहूँ कि ‘मैं तुम्हें नहीं दूँगा’ ॥ 3 ॥ इस पृथ्वीने कहा है कि ‘असत्यसे बढ़कर कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सहनेमें समर्थ हूँ, परन्तु झूठे मनुष्यका भार मुझसे नहीं सहा जाता’ ॥ 4 ॥ मैं नरकसे, दरिद्रतासे, दुःखके समुद्रसे, अपने राज्यके नाशसे और मृत्युसे भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मणसे प्रतिज्ञा करके उसे धोखा देनेसे डरता हूँ ॥ 5 ॥ इस संसारमें मर जानेके बाद धन आदि जो-जो वस्तुएँ साथ छोड़ देती हैं, यदि उनके द्वारा दान | आदिसे ब्राह्मणोंको भी सन्तुष्ट न किया जा सका, तो उनके त्यागका लाभ ही क्या रहा ? ॥ 6 ॥ दधीचि, शिबि आदि महापुरुषोंने अपने परम प्रिय दुस्त्यज प्राणोंका दान करके भी प्राणियोंकी भलाई की है। फिर पृथ्वी आदि वस्तुओंको देनेमें सोच-विचार करनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ 7 ॥ ब्रह्मन् ! पहले युगमें बड़े-बड़े दैत्यराजोंने इस पृथ्वीका उपभोग किया है। पृथ्वीमें उनका सामना करनेवाला कोई नहीं था। उनके लोक और परलोकको तो काल खा गया, | परन्तु उनका यश अभी पृथ्वीपर ज्यों-का-त्यों बना हुआ है ॥ 8 ॥ गुरुदेव ! ऐसे लोग संसारमें बहुत हैं, जो युद्धमें पीठ न दिखाकर अपने प्राणोंकी बलि चढ़ा देते हैं; परन्तु ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं, जो सत्पात्रके प्राप्त होनेपर श्रद्धाके साथ धनका दान करें ॥ 9 ॥ गुरुदेव ! यदि उदार और करुणाशील पुरुष अपात्र याचककी कामना पूर्ण करके दुर्गति भोगता है, तो वह दुर्गति भी उसके लिये शोभाकी बात होती है। फिर आप जैसे ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंको दान करनेसे दुःख प्राप्त हो तो उसके लिये क्या कहना है। इसलिये मैं इस ब्रह्मचारीकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा ॥ 10 ॥ महर्षे! वेदविधिके जाननेवाले आपलोग बड़े आदरसे यज्ञ-यागादिके द्वारा जिनकी आराधना करते हैं—वे वरदानी विष्णु ही इस रूपमें अथवा कोई दूसरा हो, मैं इनकी इच्छाके अनुसारइन्हें पृथ्वीका दान करूंगा ॥ 11 ॥ यदि मेरे अपराध न मै करनेपर भी ये अधर्मसे मुझे बांध लेंगे, तब भी मैं इनका अनिष्ट नहीं चाहूँगा। क्योंकि मेरे शत्रु होनेपर भी इन्होंने भयभीत होकर ब्राह्मणका शरीर धारण किया है ॥ 12 ॥ | यदि ये पवित्रकीर्ति भगवान् विष्णु ही हैं तो अपना यश नहीं खोना चाहेंगे (अपनी माँगी हुई वस्तु लेकर ही रहेंगे)। मुझे युद्धमें मारकर भी पृथ्वी छीन सकते हैं और यदि कदाचित् ये कोई दूसरे ही हैं, तो मेरे बाणोंकी चोटसे | सदाके लिये रणभूमिमें सो जायेंगे ॥ 13 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-जब शुक्राचार्यजीने देखा कि मेरा यह शिष्य गुरुके प्रति अश्रद्धालु है तथा मेरी आशाका उल्लङ्घन कर रहा है, तब दैवकी प्रेरणासे उन्होंने राजा बलिको शाप दे दिया—यद्यपि वे सत्यप्रतिज्ञ और उदार होनेके कारण शापके पात्र नहीं थे ॥ 14 ॥ शुक्राचार्यजीने कहा- ‘मूर्ख! तू है तो अज्ञानी, परन्तु अपनेको बहुत बड़ा पण्डित मानता है तू मेरी उपेक्षा करके गर्व कर रहा है। तूने मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है। इसलिये शीघ्र हो तू अपनी लक्ष्मी खो बैठेगा’ ॥ 15 राजा बलि बड़े महात्मा थे। अपने गुरुदेवके शाप देनेपर भी वे सत्यसे नहीं डिगे। उन्होंने वामनभगवान्की विधिपूर्वक पूजा की और हाथमें जल लेकर तीन पग भूमिका सङ्कल्प कर दिया ।। 16 ।। उसी समय राजा बलिकी पत्नी विन्ध्यावली, जो मोतियोंके गहनोंसे सुसज्जित थी, वहाँ आयी। उसने अपने हाथों वामनभगवान्के चरण पसारनेके लिये जलसे भरा सोनेका कलश लाकर दिया ॥ 17 ॥ बलिने स्वयं बड़े आनन्दसे उनके सुन्दर सुन्दर युगल चरणोंको धोया और उनके चरणोंका वह विश्वपावन जल अपने सिरपर चढ़ाया ॥ 18 ॥ उस समय आकाशमें स्थित देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध, चारण-सभी लोग राजा बलिके इस अलौकिक कार्य तथा सरलताकी प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्दसे उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ 19 ॥ एक साथ ही हजारों दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं। गन्धर्व, किम्पुरुष और रिगान करने लगे ‘अहो धन्य है। इन उदारशिरोमणि बलिने ऐसा काम कर दिखाया, जो दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है। देखो तोसही, इन्होंने जान-बूझकर अपने शत्रुको तीनों लोकोंका दान कर दिया । ॥ 20 ॥
इसी समय एक बड़ी अदभुत घटना घट गयी। अनन्त भगवान्का वह त्रिगुणात्मक वामनरूप बढ़ने लगा। वह यहाँतक बढ़ा कि पृथ्वी, आकाश, दिशाएँ, स्वर्ग, पाताल, समुद्र, पशु-पक्षी, मनुष्य, देवता और ऋषि- सब-के-सब उसीमें समा गये ।। 21 ऋत्विज, आचार्य और सदस्योंके साथ बलिने समस्त ऐश्वयक एकमात्र स्वामी भगवान् के उस त्रिगुणात्मक शरीरमें पञ्चभूत, इन्द्रिय, उनके विषय अन्तःकरण और जीवोंके साथ वह सम्पूर्ण त्रिगुणमय जगत् देखा ॥ 22 ॥ राजा बलिने विश्वरूपभगवान्के चरणतलमें रसातल, चरणोंमें पृथ्वी, पिंडलियोंमें पर्वत, घुटनोंमें पक्षी और जाँघोंमें मरुद्गणको देखा ।। 23 ।। इसी प्रकार भगवान्के वस्त्रोंमें सन्ध्या, गुह्यस्थानोंमें प्रजापतिगण, जघनस्थलमें अपने सहित समस्त असुरगण, नाभिमें आकाश, कोखमें सातों समुद्र और वक्षःस्थलमें नक्षत्रसमूह देखे ॥ 24 ॥ उन लोगोंको भगवान् के हृदय में धर्म, स्तनोंमें ऋत (मधुर) और सत्य वचन, मनमें चन्द्रमा, वक्षःस्थलपर हाथोंमें कमल लिये लक्ष्मीजी, कण्ठमे सामवेद और सम्पूर्ण शब्दसमूह उन्हें दीखे ।। 25 । बाहुओंमें इन्द्रादि समस्त देवगण, कानोंमें दिशाएँ, मस्तकमे स्वर्ग, केशोंमें मेघमाला, नासिकामे वायु, नेत्रोंमें सूर्य और मुखमें अग्नि दिखायी पड़े ।। 26 ।। वाणीमें वेद, रसनामें वरुण, भौहोंमें विधि और निषेध, पलकोंमें दिन और रात विश्वरूपके ललाटमें क्रोध और नीचेके ओठमेंलोभके दर्शन हुए ॥ 27 ॥ परीक्षित् | उनके स्पर्शम काम, वीर्यमें जल, पीठमें अधर्म, पद-विन्यासमें यज्ञ, छायामें मृत्यु, हँसीमें माया और शरीरके रोमोंमें सब प्रकारकी ओषधियाँ थीं ॥ 28 ॥ उनकी नाड़ियोंमें नदियाँ, नखोंमें शिलाएँ और बुद्धिमें ब्रह्मा, देवता एवं ऋषिगण दीख पड़े। इस प्रकार वीरवर बलिने भगवान्की इन्द्रियों और शरीरमें सभी चराचर प्राणियोंका दर्शन किया ।। 29 ।।
परीक्षित् सर्वात्मा भगवान्में यह सम्पूर्ण जगत् देखकर सब के सब दैत्य अत्यन्त भयभीत हो गये। इसी समय भगवान् के पास असह्य तेजवाला सुदर्शन चक्र, गरजते हुए मेघके समान भयङ्कर टङ्कार करनेवाला शार्ङ्गधनुष, बादलकी तरह गम्भीर शब्द करनेवाला पाञ्चजन्य शङ्ख, विष्णुभगवान्की अत्यन्त वेगवती कौमोदकी गदा, सौ चन्द्राकार चिह्नोंवाली ढाल और विद्याधर नामकी तलवार, अक्षय बाणोंसे भरे दो तरकस तथा लोकपालोंके सहित भगवान्के सुनन्द आदि पार्षदगण सेवा करनेके लिये उपस्थित हो गये। उस समय भगवान् की बड़ी शोभा हुई। मस्तकपर मुकुट, बाहुओंमें बाजूबंद, कानोंमें मकराकृति कुण्डल वशःस्थलपर श्रीवत्स-चिह्न, गलेमें कौस्तुभमणि, कमरमें मेखला और कंधेपर पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ll 30-32ll वे पाँच प्रकारके पुष्पोंकी बनी वनमाला धारण किये हुए थे, जिसपर मधुलोभी भरे गुंजार कर रहे थे। उन्होंने अपने एक पगसे बलिकी सारी पृथ्वी नाप ली, शरीरसे आकाश और भुजाओंसे दिशाएँ घेर लीं दूसरे पगसे उन्होंने स्वर्गको भी नाप लिया। तीसरा पैर रखनेके लियेबलिकी तनिक सी भी कोई वस्तु न बची। भगवान्का वह दूसरा पग ही ऊपरकी ओर जाता हुआ महर्लोक, जनलोक और तपलोकसे भी ऊपर सत्यलोकमें पहुँच गया ।। 33-34 ॥
अध्याय 21 बलिका बाँधा जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! भगवान्का | चरणकमल सत्यलोकमें पहुँच गया। उसके नखचन्द्रकी छटासे सत्यलोककी आभा फीकी पड़ गयी। स्वयं ब्रह्मा भी उसके प्रकाशमें डूब से गये। उन्होंने मरीचि आदि ऋषियों, सनन्दन आदि नैष्ठिक ब्रह्मचारियों एवं बड़े-बड़े योगियोंके साथ भगवान्के चरणकमलकी अगवानी की ॥ 1 ॥ वेद, उपवेद, नियम, यम, तर्क, इतिहास, वेदाङ्ग और पुराण संहिताएँ— जो ब्रह्मलोकमे मूर्तिमान् होकर निवास करते हैं—तथा जिन लोगोंने योगरूप वायु ज्ञानाधिको प्रज्वलित करके कर्ममलको भस्म कर डाला है, वे महात्मा, सबने भगवान्के चरणकी वन्दना की। इसी चरणकमलके स्मरणकी महिमासे ये सब कर्मके द्वारा प्राप्त न होनेयोग्य ब्रह्माजीके धाममे पहुँचे है॥ 2 भगवान् ब्रह्माकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। विष्णुभगवान्के नाभिकमलसे उत्पन्न हुए हैं। अगवानी करनेके बाद उन्होंने स्वयं विश्वरूपभगवान्के ऊपर उठे हुए चरणका अर्घ्य पाद्यसे पूजन किया, प्रक्षालन किया। पूजा करके बड़े प्रेम और भक्तिसे उन्होंने भगवान्को स्तुति की ॥ 3 ॥ परीक्षित्! ब्रह्माके कमण्डलुका वही जल विश्वरूप भगवान्के पाँव पखारनेसे पवित्र होनेके कारण उन गङ्गाजीके रूपमें परिणत हो गया, जो आकाश मार्गसे पृथ्वीपर गिरकर तीनों लोकोंको पवित्र करती है। ये गङ्गाजी क्या है, भगवान्की मूर्तिमान् उज्ज्वल कीर्ति ll 4 llजब भगवान्ने अपने स्वरूपका कुछ छोटा कर लिया अपनी विभूतियों का कुछ समेट लिया, तब ब्रह्मा आदि लोकपालोंने अपने अनुचरोंके साथ बड़े आदरभावसे अपने स्वामी भगवान्को अनेकों प्रकारकी भेंट समर्पित कीं ॥ 5 ॥ उन लोगोंने जल-उपहार, माला, दिव्य गन्धोंसे भरे अङ्गराग, सुगन्धित धूप, दीप, खील, अक्षत, फल, अङ्गुर, भगवान्की महिमा और प्रभावसे युक्त स्तोत्र, जयघोष, नृत्य, बाजे-गाजे, गान एवं शङ्ख और दुन्दुभिके शब्दोंसे भगवान्की आराधना की ।। 6-7 ।। उस समय ऋक्षराज जाम्बवान् मनके समान वेगसे दौड़कर सब दिशाओंमें भेरी बजा-बजाकर भगवान्की मङ्गलमय विजयकी घोषणा कर आये ॥ 8 ॥
दैत्योंने देखा कि वामनजीने तीन पग पृथ्वी माँगनेके बहाने सारी पृथ्वी ही छीन ली। तब वे सोचने लगे कि हमारे स्वामी बलि इस समय यज्ञमें दीक्षित हैं, वे तो कुछ कहेंगे नहीं इसलिये बहुत चिढ़कर वे आपसमें कहने लगे ॥ 9 ॥ ‘अरे, यह ब्राह्मण नहीं है। यह सबसे बड़ा मायावी विष्णु है। ब्राह्मणके रूपमें छिपकर यह देवताओंका काम बनाना चाहता है | 10 | जब हमारे स्वामी यज्ञमें दीक्षित होकर किसीको किसी प्रकारका दण्ड देनेके लिये उपरत हो गये हैं, तब इस शत्रुने ब्रह्मचारीका वेष बनाकर पहले तो याचना की और पीछे हमारा सर्वस्व हरण कर लिया ॥ 11 ॥ यों तो हमारे स्वामी सदा ही सत्यनि है परन्तु यज्ञमें दीक्षित होनेपर वे इस बातका विशेष ध्यान रखते हैं। वे ब्राह्मणोंके बड़े भक्त है तथा उनके हृदयमे दया भी बहुत है इसलिये वे कभी झूठ नहीं बोल सकते ॥ 12 ॥ ऐसी अवस्थामें हमलोगोंका यही धर्म है कि इस शत्रुको मार डालें। इससे हमारे स्वामी बलिकी सेवा भी होती है। यों सोचकर राजा बलिके अनुचर असुरोने अपने-अपने हथियार उठा लिये ॥ 13 ॥ परीक्षित् । राजा बलिकी इच्छा न होनेपर भी वे सब बड़े क्रोधसे शूल, पट्टिश आदि ले-लेकर वामनभगवान्को मारनेके लिये टूट पड़े ॥ 14 परीक्षित् । जब विष्णुभगवान्के पार्षदोंने देखा कि दैत्योंके सेनापति आक्रमण करनेके लिये दौड़े आ रहे है, तब उन्होंने हँसकर अपने-अपने शस्त्र उठा लिये और उन्हें रोक दिया ॥ 15 ॥नन्द, सुनन्द, जय, विजय, प्रबल, बल, कुमुद, कुमुदाक्ष, विष्वक्सेन, गरुड, जयन्त, श्रुतदेव, पुष्पदन्त और सात्वत- ये सभी भगवान्के पार्षद दस-दस हजार हाथियोंका बल रखते हैं। वे असुरोंकी सेनाका संहार करने लगे ।। 16-17 । जब राजा बलिने देखा कि भगवान् के पार्षद मेरे सैनिकोंको मार रहे हैं और वे भी क्रोधमें भरकर उनसे लड़नेके लिये तैयार हो रहे हैं.. तो उन्होंने शुक्राचार्यके शापका स्मरण करके उन्हें युद्ध करनेसे रोक दिया ।। 18 ।। उन्होंने विप्रचित्ति, राहु, नेमि आदि दैत्योंको सम्बोधित करके कहा- ‘भाइयो! मेरी बात सुनो। लड़ो मत, वापस लौट आओ। यह समय हमारे कार्यके अनुकूल नहीं है ॥ 19 ॥ दैत्यो! जो काल समस्त प्राणियोंको सुख और दुःख देनेकी सामर्थ्य रखता है— उसे यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपने प्रयत्लोंसे दबा दूँ, तो यह उसकी शक्तिसे बाहर है ।। 20 ।। जो पहले हमारी उन्नति और देवताओंकी अवनतिके कारण हुए थे, वही कालभगवान् अब उनकी उन्नति और हमारी अवनतिके कारण हो रहे हैं ॥ 21 ॥ बल, मन्त्री, बुद्धि, दुर्ग, मन्त्र, ओषधि और सामादि उपाय- इनमेसे किसी भी साधनके द्वारा अथवा सबके द्वारा मनुष्य कालपर विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥ 22 ॥ जब दैव तुमलोगों के अनुकूल था, तब तुमलोगोने भगवान् के इन पार्षदोको कई बार जीत लिया था। पर देखो, आज वे ही युद्धमें हमपर विजय प्राप्त करके सिंहनाद कर रहे हैं ।। 23 ।। यदि दैव हमारे अनुकूल हो जायगा, तो हम भी इन्हें जीत लेंगे। इसलिये उस समयकी प्रतीक्षा करो, जो हमारी कार्य सिद्धिके लिये अनुकूल हो’ ।। 24 ।।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! अपने स्वामी बलिकी बात सुनकर भगवान्के पार्षदोंसे हारे हुए दानव और दैत्यसेनापति रसातलमें चले गये ।। 25 । उनके जानेके बाद भगवान्के हृदयकी बात जानकर पक्षिराज गरुडने वरुणके पाशोंसे बलिको बाँध दिया। उस दिन उनके अश्वमेध यज्ञमें सोमपान होनेवाला था ॥ 26 ॥जब सर्वशक्तिमान् भगवान् विष्णुने बलिको इस प्रकार बँधवा दिया, तब पृथ्वी, आकाश और समस्त दिशाओंमें लोग ‘हाय-हाय !’ करने लगे ॥ 27 ॥ यद्यपि बलि वरुणके पाशोंसे बँधे हुए थे, उनकी सम्पत्ति भी उनके हाथोंसे निकल गयी थी- फिर भी उनकी बुद्धि निश्चयात्मक थी और सब लोग उनके उदार यशका गान कर रहे थे। परीक्षित् ! उस समय भगवान्ने बलिसे कहा ॥ 28 ॥ ‘असुर ! तुमने मुझे पृथ्वीके तीन पग दिये थे; दो पगमें तो मैंने सारी त्रिलोकी नाप ली, अब तीसरा पग पूरा करो ॥ 29 ॥ जहाँतक सूर्यकी गरमी पहुँचती है, जहाँतक नक्षत्रों और चन्द्रमाकी किरणें पहुँचती हैं और जहाँतक बादल जाकर बरसते हैं-वहाँतककी सारी पृथ्वी तुम्हारे अधिकारमें थी ll 30 ll तुम्हारे देखते-ही देखते मैंने अपने एक पैरसे भूर्लोक, शरीरसे आकाश और दिशाएँ एवं दूसरे पैरसे स्वर्लोक नाप लिया है। इस प्रकार तुम्हारा सब कुछ मेरा हो चुका है ॥ 31 ॥ फिर भी तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसे पूरा न कर सकनेके कारण अब तुम्हें नरकमें रहना पड़ेगा। तुम्हारे गुरुकी तो इस विषय में सम्मति है ही; अब जाओ, तुम नरकमें प्रवेश करो ॥ 32 ॥ जो याचकको देनेकी प्रतिज्ञा करके मुकर जाता है और इस प्रकार उसे धोखा देता है, उसके सारे मनोरथ व्यर्थ होते हैं। स्वर्गकी बात तो दूर रही, उसे नरकमें गिरना पड़ता ॥ 33 ॥ तुम्हें इस बातका बड़ा घमंड था कि मैं बड़ा धनी हूँ। तुमने मुझसे ‘दूँगा’ – ऐसी प्रतिज्ञा करके फिर धोखा दे दिया। अब तुम कुछ वर्षोंतक इस झूठका फल नरक भोगो’ ।। 34 ।।
अध्याय 22 बलिके द्वारा भगवान्की स्तुति और भगवान् का प्रसन्न होना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित् इस प्रकार भगवान्ने असुरराज वलिका बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्यसे विचलित करना चाहा। परन्तु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्यसे बोले ॥ 1 ॥ दैत्यराज बलिने कहा -देवताओंके आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है। क्या आप मेरी बातको असत्य समझते हैं? ऐसा नहीं है। मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ। आप धोखेमें नहीं पड़ेंगे। आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिरपर रख दीजिये ॥ 2 ॥ मुझे नरकमें जानेका अथवा राज्यसे च्युत होनेका भय नहीं है। मैं पाशमें बँधने अथवा अपार दुःखमें पड़नेसे भी नहीं डरता। मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें – यह भी मेरे भयका कारण नहीं है। मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्तिसे ॥ 3 ॥ अपने पूजनीय गुरुजनोंके द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्रके लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ 4 ॥ आप छिपे रूपसे अवश्य ही हम असुरोको श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदिके मदसे अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं॥ 5 ॥ आपसे हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ? अनन्यभावसे योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते है, यही सिद्धि बहुत-से असुरोंको आपके साथ दृढ़ वैरभाव करनेसे ही प्राप्त हो गयी है ॥ 6 ॥ जिनकी ऐसी महिमा ऐसी अनना लीलाएँ है, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाशसे बाँध रहे हैं। इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकारकी व्यथा ही ॥ 7 ॥ प्रभो । मेरे पितामह प्रह्लादजीकी कीर्ति सारे जगत्मे प्रसिद्ध है। वे आपके भक्त श्रेष्ठ माने गये हैं। उनके पिता हिरण्यकशिपुने आपसे पैर विरोध रखनेके कारण उन्हें अनेकों प्रकारके दुःख दिये। परन्तु वे आपकेही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आपपर ही निछावर कर दिया ॥ 8 ॥ उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीरको लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है। जो धन-सम्पत्ति लेनेके लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओंसे अपना स्वार्थ ही क्या है? पत्नीसे भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसारके चक्रमें डालनेवाली ही है। जब मर ही जाना है, तब घरसे मोह करनेमें भी क्या स्वार्थ है ? इन सब वस्तुओंमें उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना है ।। 9 ।। ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजीने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टिसे उनके भाई-बन्धुओंके नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरणकमलोंकी शरण ग्रहण की थी। क्यों न हो—वे संसारसे परम विरक्त, अगाध बोधसम्पन्न, उदारहृदय एवं संत शिरोमणि जो हैं ।। 10 ।। आप उस दृष्टिसे मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाताने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मीसे अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है। अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य-लक्ष्मीके कारण जीवकी बुद्धि जड हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि ‘मेरा यह जीवन मृत्युके पंजेमें पड़ा हुआ और अनित्य है’ ॥ 11 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमाके समान भगवान्के प्रेम पात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ॥ 12 ॥ राजा बलिने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं। कमलके समान कोमल नेत्र हैं, लंबी लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीरपर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ॥ 13 ॥ बलि इस समय वरुणपाशमें बँधे हुए थे। इसलिये प्रह्लादजीके आनेपर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके। उनके नेत्र आँसुओंसे चञ्चल हो उठे, लज्जाके मारे मुँह नीचा हो गया। उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ।। 14 । प्रह्लादजीने देखा | कि भक्तवत्सल भगवान् वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं। प्रेमके उद्रेकसे प्रह्लादजीका शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखोंमें आँसू छलक आये। वे आनन्दपूर्ण हृदयसिर झुकाये अपने स्वामीके पास गये और पृथ्वीपर सिर रखकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ।। 15 ।।
प्रह्लादजीने कहा—- प्रभो! आपने ही बलिको यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया। आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी मैं समझता हूँ कि आपने इसपर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्माको मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मीसे इसे अलग कर दिया ।। 16 ।। प्रभो । लक्ष्मी मदसे तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूपको ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अतः उस लक्ष्मीको छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत्के महान् ईश्वर सबके हृदयमें विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेवको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 17 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित् प्रह्लादजी अलि बाँधकर खड़े थे। उनके सामने ही भगवान् ब्रह्माजीने वामन भगवान् से कुछ कहना चाहा ।। 18 ।। परन्तु इतनेमें ही राजा बलिकी परम साध्वी पत्नी विश्यावलीने अपने पतिको वैधा देखकर भयभीत हो भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान् से बोली ll 19 ll
विन्ध्यावलीने कहा—प्रभो! आपने अपनी क्रीडाके लिये ही इस सम्पूर्ण जगत्की रचना की है। जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपनेको इसका स्वामी मानते हैं। जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी मायासे मोहित होकर अपनेको झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे ? ॥ 20 ॥
ब्रह्माजीने कहा – समस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्डका पात्र नहीं है॥ 21 ॥इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही है, यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ॥ 22 ॥ प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदयसे कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जलका अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादलसे भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दुःखका भागी कैसे हो सकता है ? ॥ 23 ॥
श्रीभगवान्ने कहा— ब्रह्माजी ! मैं जिसपर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ। क्योंकि जब मनुष्य धनके मदसे मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगोंका तिरस्कार करने लगता है ।। 24 ।। यह जीव अपने कर्मो के कारण विवश होकर अनेक योनियोंमें भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपासे मनुष्यका शरीर प्राप्त करता है ॥ 25 ॥ मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदिके कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ।। 26 ।। कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जडता आदि उत्पन्न करके मनुष्यको कल्याणके समस्त साधनोंसे वञ्चित कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते ।। 27 ।। यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशोंमें अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है। इसने उस मायापर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है। तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख भोगनेपर भी यह मोहित नहीं हुआ ।। 28 ।। इसका धन छीन लिया, राजपदसे अलग कर दिया, तरह-तरहके आक्षेप किये, शत्रुओंने बाँध लिया, भाई-बन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ीं- यहाँतक कि गुरुदेवने भी इसको डाँटा-फटकारा और शापतक दे दिया। परन्तु इस दृढव्रतीने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी। मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मनमें छल रखकर धर्मका उपदेश किया; परन्तु | इस सत्यवादीने अपना धर्म न छोड़ा ॥ 29-30 ॥ अतः मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी बड़ी कठिनाईसे प्राप्त होता है। सावर्णि मन्वन्तरमें यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ 31 ॥तबतक यह विश्वकर्माके बनाये हुए सुतल लोकमें रहे ! वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टिका अनुभव करते हैं। इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओंसे पराजय और किसी प्रकारके विघ्नोंका सामना नहीं करना पड़ता ।। 32 ।। [[बलिको सम्बोधित कर] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके साथ उस सुतल लोकमें जाओ जिसे स्वर्गके देवता भी चाहते रहते हैं ।। 33 ।। बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें | पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरोंकी तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञाका उल्लङ्घन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ 34 ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरोंकी और भोगसामग्रीकी भी सब प्रकारके विघ्नोंसे रक्षा करूँगा। वीर बलि! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ।। 35 ।। दानव और दैत्योंके संसर्गसे तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभावसे तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ।। 36 ।।
अध्याय 23 बलिका बन्धनसे छूटकर सुतल लोकको जाना
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—जब सनातन पुरुष भगवान्ने इस प्रकार कहा, तो साधुओंके आदरणीय | महानुभाव दैत्यराजके नेत्रों में आँसू छलक आये। प्रेमके उद्रेकसे उनका गला भर आया। वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणीसे भगवान्ले कहने लगे ॥ 1 ॥
बलिने कहा- प्रभो! मैंने तो आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, केवल प्रणाम करनेमात्रकी चेष्टाभर की। उसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको प्राप्त होता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ जैसेनीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी ॥ 2 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं परीक्षित यो कहते ही | बलि वरुणके पाशोंसे मुक्त हो गये। तब उन्होंने भगवान्, ब्रह्माजी और शङ्करजीको प्रणाम किया और इसके बाद बड़ी प्रसन्नतासे असुरोंके साथ सुतल लोककी यात्रा की ॥ 3 ॥ इस प्रकार भगवान्ने बलिसे स्वर्गका राज्य लेकर इन्द्रको दे दिया, अदितिकी कामना पूर्ण की और स्वयं उपेन्द्र बनकर वे सारे जगत्का शासन करने लगे ॥ 4 ॥ जब प्रह्लादने देखा कि मेरे वंशधर पौत्र राजा बलि बन्धनसे छूट गये और उन्हें भगवान्का कृपा प्रसाद प्राप्त हो गया, तो वे भक्ति भावसे भर गये। उस समय उन्होंने भगवान्की इस प्रकार स्तुति की ॥ 5 ॥
प्रह्लादजीने कहा प्रभो! यह कृपाप्रसाद तो कभी ब्रह्माजी, लक्ष्मीजी और शङ्करजीको भी नहीं प्राप्त हुआ, तब दूसरोंकी बात ही क्या है अहो! विश्ववन्द्य ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना करते रहते हैं, वही आप हम असुरोंके दुर्गपाल – किलेदार हो गये ॥ 6 ॥ शरणागतवत्सल प्रभो! ब्रह्मा आदि लोकपाल आपके चरणकमलोंका मकरन्द-रस सेवन करनेके कारण सृष्टिरचनाकी शक्ति आदि अनेक विभूतियाँ प्राप्त करते हैं। हमलोग तो जन्मसे ही खल और कुमार्गगामी हैं, हमपर आपकी ऐसी अनुग्रहपूर्ण दृष्टि कैसे हो गयी, जो आप हमारे द्वारपाल ही बन गये ॥ 7 ॥ आपने अपनी योगमायासे खेल ही खेलमें त्रिभुवनकी रचना कर दी। आप सर्वज्ञ, सर्वात्मा और समदर्शी हैं। फिर भी आपकी लीलाएँ बड़ी विलक्षण जान पड़ती हैं। आपका स्वभाव कल्पवृक्षके समान है; क्योंकि आप अपने भक्तोंसे अत्यन्त प्रेम करते है। इसीसे कभी-कभी उपासकोंके प्रति पक्षपात और विमुखोके प्रति निर्दयता भी आपमें देखी जाती है ॥ 8 ॥
श्रीभगवान्ने कहा- बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम भी सुतल लोकमें जाओ। वहाँ अपने पौत्र बलिके साथ आनन्दपूर्वक रहो और जातिबन्धुओंको सुखी करो ॥ 9 ॥वहाँ तुम मुझे नित्य ही गदा हाथमें लिये खड़ा देखोगे। मेरे दर्शनके परमानन्दमें मग्न रहनेके कारण तुम्हारे सारे कर्मबन्धन नष्ट हो जायेंगे ll 10 ll
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! समस्त दैत्यसेनाके स्वामी विशुद्धबुद्धि प्रह्लादजीने ‘जो आज्ञा’ कहकर, हाथ जोड़, भगवान्का आदेश मस्तकपर चढ़ाया। फिर उन्होंने बलिके साथ आदिपुरुष भगवान्की परिक्रमा की, उन्हें प्रणाम किया और उनसे अनुमति लेकर सुतल लोककी यात्रा की ॥ 11-12 ॥ परीक्षित्! उस समय भगवान् श्रीहरिने ब्रह्मवादी ऋत्विजोंकी सभामें अपने पास ही बैठे हुए शुक्राचार्यजीसे कहा ॥ 13 ॥ ‘ब्रह्मन् ! आपका शिष्य यज्ञ कर रहा था। उसमें जो त्रुटि रह गयी है, उसे आप पूर्ण कर दीजिये। क्योंकि कर्म करनेमें जो कुछ भूल-चूक हो जाती है, वह ब्राह्मणोंकी कृपादृष्टिसे सुधर जाती है ॥ 14 ॥
शुक्राचार्यजीने कहा- -भगवन्! जिसने अपना समस्त कर्म समर्पित करके सब प्रकारसे यज्ञेश्वर यज्ञपुरुष आपकी पूजा की है—उसके कर्ममें कोई त्रुटि, कोई विषमता कैसे रह सकती है ? ।। 15 ।। क्योंकि मन्त्रोंकी, अनुष्ठान-पद्धतिकी, देश, काल, पात्र और वस्तुकी सारी भूले आपके नामसंकीर्तनमात्रसे सुधर जाती है, आपका नाम सारी त्रुटियोंको पूर्ण कर देता है ।। 16 ।। तथापि अनन्त ! जब आप स्वयं कह रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञाका अवश्य पालन करूँगा। मनुष्यके लिये सबसे बड़ा कल्याणका साधन यही है कि वह आपकी आज्ञाका पालन करे ॥ 17 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- भगवान् शुक्राचार्यने भगवान् श्रीहरिकी यह आज्ञा स्वीकार करके दूसरे ब्रहार्षियोंके साथ, बलिके यज्ञमे जो कमी रह गयी थी, उसे पूर्ण किया ॥ 18 ॥परीक्षित्! इस प्रकार वामन भगवान्ने बलिसे पृथ्वी की भिक्षा माँगकर अपने बड़े भाई इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया, जिसे उनके शत्रुओंने छीन लिया था ॥ 19 ॥ इसके बाद प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने देवर्षि, पितर, मनु, दक्ष, भृगु, अङ्ग, सनत्कुमार और शङ्करजीके साथ कश्यप एवं अदितिको प्रसन्नताके लिये तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अभ्युदयके लिये समस्त लोक और लोकपालोके स्वामीके पदपर वामनभगवान्का अभिषेक कर दिया ।। 20-21 ॥
परीक्षित् । वेद, समस्त देवता, धर्म, यश, लक्ष्मी, मङ्गल, व्रत, स्वर्ग और अपवर्ग-सबके रक्षकके रूपमें सबके परम कल्याणके लिये सर्वशक्तिमान् वामन भगवान्को उन्होंने उपेन्द्रका पद दिया। उस समय सभी प्राणियोंको अत्यन्त आनन्द हुआ ।। 22-23 ।। इसके बाद ब्रह्माजीकी अनुमतिसे लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्रने वामन भगवान्को सबसे आगे विमानपर बैठाया और अपने साथ स्वर्ग लिवा ले गये ।। 24 ।। इन्द्रको एक तो त्रिभुवनका राज्य मिल गया और दूसरे, वामन भगवान् के करकमलोकी छत्रछाया ! सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्यलक्ष्मी उनकी सेवा करने लगी और वे निर्भय होकर आनन्दोत्सव मनाने लगे ॥ 25 ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, सनत्कुमार, भृगु आदि मुनि, पितर, सारे भूत, सिद्ध और विमानारोही देवगण भगवान् के इस परम अद्भुत एवं अत्यन्त महान् कर्मका गान करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये और सबने अदितिकी भी बड़ी प्रशंसा की ।। 26-27 ।।
परीक्षित्! तुम्हें मैंने भगवान्की यह सब लीला सुनायी। इससे सुननेवालोंके सारे पाप छूट जाते हैं ।। 28 ।। भगवान्की लीलाएँ अनन्त है, उनकी महिमा अपार है। जो मनुष्य उसका पार पाना चाहता है, वह मानो पृथ्वीके परमाणुओंको गिन डालना चाहता है। भगवान् के सम्बन्धमें मन्त्रद्रष्टा महर्षि वसिष्ठने वेदोंमें कहा है कि ‘ऐसा पुरुष न कभी हुआ, न है और न होगा जो भगवान्को महिमाका पार पा सके ll 29 llदेवताओंके आराध्यदेव अद्भुतलीलाधारी वामनभगवान्के अवतार चरित्रका जो श्रवण करता है, उसे परम गतिकी प्राप्ति होती है ॥ 30 ॥ देवयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ किसी भी कर्मका अनुष्ठान करते समय जहाँ जहाँ भगवान्की इस लीलाका कीर्तन होता है, वह कर्म सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है। यह बड़े-बड़े महात्माओंका अनुभव है ॥ 31 ॥
अध्याय 24 भगवान्के मत्स्यावतारकी कथा
राजा परीक्षितने पूछा- भगवान्के कर्म बड़े अद्भुत हैं। उन्होंने एक बार अपनी योगमायासे मत्स्यावतार धारण करके बड़ी सुन्दर लीला की थी, मैं उनके उसी आदि अवतारकी कथा सुनना चाहता हूँ ॥ 1 ॥ भगवान् ! मत्ययोनि एक तो वो ही लोकनिन्दित है, दूसरे तमोगुणी और असहा परतन्त्रतासे युक्त भी है। सर्वशक्तिमान होनेपर भी भगवान्ने कर्मबन्धनमें बँधे हुए जीवकी तरह यह मत्स्यका रूप क्यों धारण किया ? ॥ 2 ॥ भगवन् ! महात्माओंके कीर्तनीय भगवान्का चरित्र समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाला है। आप कृपा करके उनकी वह सब लीला हमारे सामने पूर्णरूपसे वर्णन कीजिये ॥ 3 ॥
सूतजी कहते हैं— शौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षितने भगवान् श्रीशुकदेवजी से यह प्रश्न किया, तब उन्होंने विष्णुभगवान्का वह चरित्र, जो उन्होंने मत्स्यावतार धारण करके किया था, वर्णन किया ॥ 4 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! वो तो भगवान् सबके एकमात्र प्रभु हैं; फिर भी वे गौ, ब्राह्मण, देवता, साधु, वेद, धर्म और अर्थकी रक्षके लिये शरीर धारण किया करते है ll 5 llवे सर्वशक्तिमान् प्रभु वायुकी तरह नीचे-ऊँचे छोटे-बड़े सभी प्राणियोंमें अन्तर्यामीरूपसे लीला करते रहते हैं। परन्तु उन-उन प्राणियोंके बुद्धिगत गुणोंसे वे छोटे-बड़े या ऊँचे-नीचे नहीं हो जाते। क्योंकि वे वास्तवमें समस्त प्राकृत गुणोंसे रहित निर्गुण हैं ॥ 6 ॥ परीक्षित्! पिछले कल्पके अन्तमें ब्रह्माजीके सो जानेके कारण ब्राह्म नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। उस समय भूलोक आदि सारे लोक समुद्रमें डूब गये थे ॥ 7 ॥ प्रलय काल आ जानेके कारण ब्रह्माजीको नींद आ रही थी, वे सोना चाहते थे। उसी समय वेद उनके मुखसे निकल पड़े और उनके पास ही रहनेवाले हयग्रीव नामक बली दैत्यने उन्हें योगबलसे चुरा लिया ॥ 8 ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरिने दानवराज हयग्रीवकी यह चेष्टा जान ली । इसलिये उन्होंने मत्स्यावतार ग्रहण किया ॥ 9 ॥
परीक्षित् ! उस समय सत्यव्रत नामके एक बड़े उदार एवं भगवत्परायण राजर्षि केवल जल पीकर तपस्या कर रहे थे ॥ 10 ॥ वही सत्यव्रत वर्तमान महाकल्पमें विवस्वान् (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेवके नामसे विख्यात हुए और उन्हें भगवान्ने वैवस्वत मनु बना दिया ॥ 11 ॥ एक दिन वे राजा कृतमाला नदीमें जलसे तर्पण कर रहे थे। उसी समय उनकी अञ्जलिके जलमें एक छोटी सी मछली आ गयी ॥ 12 ॥ परीक्षित्! द्रविड देशके राजा सत्यव्रतने अपनी अञ्जलिमें आयी हुई मछलीको जलके साथ ही फिरसे नदीमें डाल दिया || 13 | उस मछलीने बड़ी करुणाके साथ परम दयालु राजा सत्यव्रतसे कहा ‘राजन्! आप बड़े दीनदयालु है। आप जानते ही हैं कि जलमें रहनेवाले जन्तु अपनी जातिवालोंको भी खा डालते हैं। मैं उनके भयसे अत्यन्त व्याकुल हो रही हूँ। आप मुझे फिर इसी नदीके जलमें क्यों छोड़ रहे हैं ? ॥ 14 ॥ राजा सत्यव्रतको इस बातका पता नहीं था कि स्वयं भगवान् मुझपर प्रसन्न होकर कृपा करनेके लिये मछलीके रूपमें पधारे हैं। इसलिये उन्होंने उस मछलीकी रक्षाका मन-ही-मन सङ्कल्प किया ॥ 15 ॥ राजा सत्यव्रतने उस मछलीकी अत्यन्त दीनतासे भरी बात सुनकर बड़ी दयासे उसे अपने पात्रके जलमें रख लिया और अपने आश्रमपर ले आये ॥ 16 ॥आश्रमपर लाने के बाद एक रातमें ही वह मछली उस कमण्डलुमे इतनी बढ़ गयी कि उसमें उसके लिये स्थान ही न रहा। उस समय मछलीने राजासे कहा ॥ 17 ॥ ‘अब तो इस कमण्डलुमे में कष्टपूर्वक भी नहीं रह सकती अतः मेरे लिये कोई बड़ा-सा स्थान नियत कर दें, जहाँ मैं सुखपूर्वक रह सकूं ॥ 18 ॥ राजा सत्यव्रत महलको | कमण्डलुसे निकालकर एक बहुत बड़े पानीके मटके में रख दिया। परन्तु वहाँ डालनेपर वह मछली दो ही घड़ीमें तीन हाथ बढ़ गयी ।। 19 ।। फिर उसने राजा सत्यव्रतसे कहा- ‘राजन् ! अब यह मटका भी मेरे लिये पर्याप्त नहीं है। इसमें मैं सुखपूर्वक नहीं रह सकती मैं तुम्हारी शरणमें हूँ, इसलिये मेरे रहनेयोग्य कोई बड़ा-सा स्थान मुझे दो’ ॥ 20 ॥ परीक्षित् ! सत्यव्रतने वहाँसे उस मछलीको उठाकर एक सरोवरमें डाल दिया। परन्तु वह थोड़ी ही देरमें इतनी बढ़ गयी कि उसने एक महामत्स्यका आकार धारण कर उस सरोवरके जलको घेर लिया ॥ 21 ॥ और कहा— ‘राजन् ! मैं जलचर प्राणी हूँ। इस सरोवरका जल भी गैरे सुखपूर्वक रहनेके लिये पर्याप्त नहीं है। इसलिये आप मेरी रक्षा कीजिये और मुझे किसी अगाध सरोवरमें रख दीजिये ॥ 22 ॥ मत्स्यभगवान् के इस प्रकार कहनेपर | वे एक-एक करके उन्हें कई अटूट जलवाले सरोवरोंमें ले गये परन्तु जितना बड़ा सरोवर होता, उतने ही बड़े वे बन जाते। अन्तमें उन्होंने उन लीलामत्स्यको समुद्रमें छोड़ दिया ॥ 23 ॥ समुद्रमें डालते समय मत्स्यभगवान्ने सत्यव्रतसे कहा- ‘वीर! समुद्रमें बड़े-बड़े बली मगर आदि रहते हैं, वे मुझे खा जायँगे, इसलिये आप मुझे समुद्रके जलमें मत छोड़िये ‘ ॥ 24 ॥
मत्स्यभगवान्की यह मधुर वाणी सुनकर राजा सत्यव्रत मोहमुग्ध हो गये। उन्होंने कहा- ‘मत्स्यका रूप धारण करके मुझे मोहित करनेवाले आप कौन हैं ? ।। 25 ।। आपने एक ही दिनमें चार सौ कोसके विस्तारका सरोवर घेर लिया। आजतक ऐसी शक्ति रखनेवाला जलचर जीव तो न मैंने कभी देखा था और न सुना ही था ।। 26 ।। अवश्य ही आप साक्षात् सर्वशक्तिमान् सर्वान्तर्यामी अविनाशी श्रीहरि हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही आपने जलचरका रूप धारण किया है ॥ 27 ॥पुरुषोत्तम ! आप जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके स्वामी हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। प्रभो ! | हम शरणागत भक्तोंके लिये आप ही आत्मा और आश्रय हैं ।। 28 ।। यद्यपि आपके सभी लीलावतार प्राणियोंके अभ्युदयके लिये ही होते हैं, तथापि मैं यह जानना चाहता जैसे देहादि हूँ कि आपने यह रूप किस उद्देश्यसे ग्रहण किया है ।। 29 ।। कमलनयन प्रभो ! अनात्मपदार्थों में अपनेपनका अभिमान करनेवाले पुरुषोंका आश्रय व्यर्थ होता है, उस प्रकार आपके चरणोंकी शरण तो व्यर्थ हो नहीं सकती; क्योंकि आप सबके हेतु प्रेमी, परम प्रियतम और आत्मा हैं। आपने इस समय जो रूप धारण करके हमें दर्शन दिया है, यह बड़ा ही अद्भुत है ॥ 30 ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंपर अत्यन्त प्रेम करते हैं। जब जगत्पति मत्स्यभगवान् ने अपने प्यारे भक्त राजर्षि सत्यव्रतकी यह प्रार्थना सुनी तो उनका प्रिय और हित करनेके लिये, साथ ही कल्पान्तके प्रलयकालीन समुद्रमे विहार करनेके लिये उनसे कहा ॥ 31 ॥
श्रीभगवान्ने कहा -सत्यव्रत! आजसे सातवें दिन भूलोक आदि तीनों लोक प्रलयके समुद्रमे जायेंगे ।। 32 ।। उस समय जब तीनों लोक प्रलयकालकी जलराशि डूबने लगेंगे, तब मेरी प्रेरणासे तुम्हारे पास एक बहुत बड़ी नौका आयेगी ॥ 33 ॥ उस समय तुम समस्त प्राणियोंके सूक्ष्मशरीरोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उस नौकापर चढ़ जाना और समस्त धान्य तथा छोटे-बड़े अन्य प्रकारके बीजोंको साथ रख लेना ।। 34 ।। उस समय सब ओर एकमात्र महासागर लहराता होगा। प्रकाश नहीं होगा। केवल ऋषियोंकी दिव्य ज्योतिके सहारे ही बिना किसी प्रकारकी विकलताके तुम उस बड़ी नावपर चढ़कर चारों ओर विचरण करना ॥ 35 ॥ जब प्रचण्ड आंधी चलनेके कारण नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं इसी रूपमें वहाँ आ जाऊँगा और तुम लोग वासुकि नाग के | द्वारा उस नावको मेरे सींगमें बाँध देना ॥ 36 ॥सत्यव्रत ! इसके बाद जबतक ब्रह्माजीकी रात रहेगी, तबतक मैं ऋषियोंके साथ तुम्हें उस नावमें बैठाकर उसे खींचता हुआ समुद्र में विचरण करूंगा ।। 37 ।। उस समय जब तुम प्रश्न करोगे, तब मैं तुम्हें उपदेश दूँगा। मेरे अनुग्रहसे मेरी वास्तविक महिमा, जिसका नाम ‘परब्रह्म’ है, तुम्हारे हृदयमें प्रकट हो जायगी और तुम उसे ठीक-ठीक जान लोगे ॥ 38 ॥ भगवान् राजा सत्यव्रतको यह आदेश देकर अन्तर्धान हो गये। अतः अब राजा सत्यव्रत उसी समयकी प्रतीक्षा करने लगे, जिसके लिये भगवान्ने आज्ञा दी थी ॥ 39 ॥ कुशोंका अग्रभाग पूर्वकी ओर करके राजर्षि सत्यन्नत उनपर पूर्वोत्तर मुखसे बैठ गये और मत्स्यरूप भगवान्के चरणोंका चिन्तन करने लगे 40 इतनेमें ही भगवान्का बताया हुआ वह समय आ पहुँचा। राजाने देखा कि समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर बढ़ रहा है। प्रलयकालके भयङ्कर मेघ वर्षा करने लगे। देखते-ही-देखते सारी पृथ्वी डूबने लगी ।। 41 ।। तब राजाने भगवान्की आज्ञाका स्मरण किया और देखा कि नाव भी आ गयी है। तब वे धान्य तथा अन्य बीजोंको लेकर सप्तर्षियोंके साथ उसपर सवार हो गये ।। 42 ।। सप्तर्षियोंने बड़े प्रेमसे राजा सत्यव्रतसे कहा- ‘राजन् ! तुम भगवान्का ध्यान करो। वे ही हमें इस सङ्कटसे बचायेंगे और हमारा कल्याण करेंगे 43 ॥ उनकी आज्ञासे राजाने भगवान्का ध्यान किया। उसी समय उस महान् समुद्रमें मत्स्यके रूपमें भगवान् प्रकट हुए। मत्स्य भगवान्का शरीर सोनेके समान देदीप्यमान था और शरीरका विस्तार था चार लाख कोस। उनके शरीरमें एक बड़ा भारी सींग भी था 44 भगवान्ने पहले जैसी आज्ञा दी थी, उसके अनुसार वह नौका वासुकि नागके द्वारा भगवान्के सींगमें बाँध दी गयी और राजा सत्यव्रतने प्रसन्न होकर भगवान्की स्तुति की ।। 45 ।।
राजा सत्यव्रतने कहा—प्रभो! संसारके जीवोंका आत्मज्ञान अनादि अविद्यासे ढक गया है। इसी कारण वे संसारके अनेकानेक क्लेशोंके भारसे पीड़ित हो रहे हैं। जब | अनायास ही आपके अनुग्रहसे वे आपकी शरणमें पहुँच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं। इसलिये हमें बन्धनसे छुड़ाकर | वास्तविक मुक्ति देनेवाले परम गुरु आप ही हैं ।। 46 ।।यह जीव अज्ञानी है, अपने ही कर्मोंसे बँधा हुआ है। सुखको इच्छासेदुःखप्रद कमका अनुष्ठान करता है। जिनकी सेवासे उसका यह अज्ञान नष्ट हो जाता है, वे ही मेरे परम गुरु आप मेरे हृदयकी गाँठ काट दें ॥ 47 ॥ जैसे अनि तपानेसे सोने-चाँदीके मल दूर हो जाते हैं और | उनका सच्चा स्वरूप निखर आता है, वैसे ही आपकी सेवासे जीव अपने अन्तःकरणका अज्ञानरूप मल त्याग देता है और अपने वास्तविक स्वरूपमें स्थित हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् अविनाशी प्रभु ही हमारे गुरुजनोंके भी परम गुरु हैं। अतः आप ही हमारे भी गुरु बनें ॥ 48 ॥ जितने भी देवता, गुरु और संसारके दूसरे जीव है-ये सब यदि स्वतन्त्ररूपसे एक साथ मिलकर भी कृपा करें, तो आपकी कृपाके दस हजारवें अंशके अंशकी भी बराबरी नहीं कर सकते प्रभो। आप ही सर्वशक्तिमान् हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ ।। 49 ।। जैसे कोई अंधा अंधेको ही अपना पथप्रदर्शक बना ले, वैसे ही अज्ञानी जीव अज्ञानीको ही अपना गुरु बनाते हैं। आप सूर्यके समान स्वयंप्रकाश और समस्त इन्द्रियोंके प्रेरक हैं। हम आत्मतत्त्वके जिज्ञासु आपको ही गुरुके रूपमें वरण करते हैं ॥ 50 अज्ञानी मनुष्य अज्ञानियोंको जिस ज्ञानका उपदेश करता है, वह तो अज्ञान ही है। उसके द्वारा संसाररूप घोर अन्धकारकी अधिकाधिक प्राप्ति होती है। परन्तु आप तो उस अविनाशी और अमोघ ज्ञानका उपदेश करते हैं, जिससे मनुष्य अनायास ही अपने वास्तविक स्वरूपको प्राप्त कर लेता है ।। 51 ।। आप सारे लोकके सुहृद्, प्रियतम, ईश्वर और आत्मा हैं गुरु, उसके द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान और अभीष्टकी सिद्धि भी आपका हो स्वरूप है। फिर भी कामनाओंके बन्धनमें जकड़े जाकर लोग अंधे हो रहे हैं। उन्हें इस बातका पता ही नहीं है कि आप उनके हृदयमें ही विराजमान् है ॥ 52 ॥ आप देवताओंके भी आराध्यदेव, परम पूजनीय परमेश्वर है। मैं आपसे ज्ञान प्राप्त करनेके लिये आपकी शरणमें आया हूँ। भगवन्। आप परमार्थको प्रकाशित करनेवाली अपनी वाणीके द्वारा मेरे हृदयकी ग्रन्थि काट डालिये और अपने स्वरूपको प्रकाशित कीजिये ।। 53 ।।श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित्! जब राजा सत्यव्रतने इस प्रकार प्रार्थना की; तब मत्स्यरूपधारी पुरुषोत्तम भगवान्ने प्रलयके समुद्रमें विहार करते हुए उन्हें आत्मतत्त्वत्का उपदेश किया ॥ 54 ॥ भगवान्ने राजर्षि सत्यव्रतको अपने स्वरूपके सम्पूर्ण रहस्यका वर्णन करते हुए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगसे परिपूर्ण दिव्य पुराणका उपदेश किया, जिसको ‘मत्स्यपुराण’ कहते हैं ॥ 55 ॥ सत्यव्रतने ऋषियोंके साथ नावमें बैठे हुए ही सन्देहरहित होकर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट सनातन ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्वका श्रवण किया ।। 56 ।। इसके बाद जब पिछले प्रलयका अन्त हो गया और ब्रह्माजीकी नींद टूटी, तब भगवान्ने हयग्रीव असुरको मारकर उससे वेद छीन लिये और ब्रह्माजीको दे दिये ॥ 57 ॥ भगवान्की कृपासे राजा सत्यव्रत ज्ञान और विज्ञानसे संयुक्त होकर इस कल्पमें वैवस्वत मनु हुए ।। 58 ।। अपनी योगमायासे मत्स्यरूप करनेवाले भगवान् विष्णु और राजर्षि सत्यव्रतका यह संवाद एवं श्रेष्ठ आख्यान सुनकर मनुष्य सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता । है ।। 59 ।। जो मनुष्य भगवान्के इस अवतारका प्रतिदिन कीर्तन करता है, उसके सारे सङ्कल्प सिद्ध हो जाते हैं और उसे परमगतिकी प्राप्ति होती है ॥ 60 ॥ प्रलयकालीन समुद्रमें जब ब्रह्माजी सो गये थे, उनकी सृष्टिशक्ति लुप्त हो चुकी थी, उस समय उनके मुखसे निकली हुई श्रुतियोंको चुराकर हयग्रीव दैत्य पातालमें ले गया था। भगवान्ने उसे मारकर वे श्रुतियाँ ब्रह्माजीको लौटा दीं एवं सत्यव्रत तथा सप्तर्षियोंको ब्रह्मतत्त्वका उपदेश किया। उन समस्त जगत्के परम कारण लीलामत्स्यभगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ 61 ॥