Shree Naval Kishori

श्रीविष्णुपुराण प्रथमअंश

प्रत्येक कल्प और अनुकल्प में विस्तारपूर्वक रचा हुआ यह समस्त मायामय जगत जिनसे प्रकट होता, जिनमें स्थित रहता और अन्तकाल में जिनके भीतर पुन: लीन हो जाता हैं, जो इस दृश्य-प्रपंच से सर्वथा पृथक हैं, जिनका ध्यान करके मुनिजन सनातन मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं, उन नित्य, निर्मल, निश्चल तथा व्यापक भगवान् पुरषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ । जो शुद्ध, आकाश के समान निर्लेप, नित्यानंदमय, सदा प्रसन्न, निर्मल, सबके स्वामी, निर्गुण, व्यक्त और अव्यक्त से परे, प्रपंच से रहित, एकमात्र ध्यान में ही अनुभव करनेयोग्य तथा व्यापक हैं, समाधिकाल में विद्वान पुरुष इसी रूप में जिनका ध्यान करते है, जो संसार की उत्पत्ति और विनाश के एकमात्र कारण हैं, जरा-अवस्था जिनका स्पर्श भी नहीं कर सकती तथा जो मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीहरि को मैं वन्दना करता हूँ ।

अध्याय-01 ग्रन्थ का उपोदधात

श्रीसूतजी बोले – मैत्रेयजी ने नित्यकर्मों से निवृत्त हुए मुनिवर पराशरजी को प्रणाम कर एवं उनके चरण छूकर पूछा ॥ १ ॥
हे गुरुदेव ! मै आपही से सम्पूर्ण वेद, वेदांग और सकल धर्मशास्त्रों का क्रमश: अध्ययन किया है ॥ २ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मेरे विपक्षी भी मेरे लिये यह नही कह सकेंगे कि ‘मैंने सम्पूर्ण शास्त्रों के अभ्यास में परिश्रम नही किया ‘ ॥ ३ ॥
हे धर्मज्ञ ! हे महाभाग ! अब मैं आपके मुखारविन्द से यह सुनना चाहता हूँ कि यह जगत किसप्रकार उत्पन्न हुआ और आगे भी (दूसरे कल्प के आरम्भ में ) कैसे होगा ? ॥ ४ ॥
हे ब्रह्मन ! इस संसार का उपादान-कारण क्या है ? यह सम्पूर्ण चराचर किससे उत्पन्न हुआ हैं ? यह पहले किस में लीन था और आगे किसमें लीन हो जायगा ? ॥ ५ ॥
इसके अतिरिक्त (आकाश आदि) भूतों का परिमाण, समुद्र, पर्वत तथा देवता आदि की उत्पत्ति, पृथ्वी का अधिष्ठान और सूर्य आदिका परिमय तथा उनका आधार, देवता आदि के वंश, मनु, मन्वन्तर, (बार-बार आनेवाले) चारों युगों में विभक्त कल्प और कल्पों के विभाव, प्रलय का स्वरूप, युगों के पृथक-पृथक सम्पूर्ण धर्म, देवर्षि और राजर्षियों के चरित्र, श्रीव्यासजीकृत वैदिक शाखाओं की यथावत रचना तथा ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के धर्म – ये सब, हे महामुनि शक्तिनंदन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ॥ ६-१० ॥
हे ब्रह्मन ! आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोंमुख कीजिये जिससे हे महामुने ! मैं आपकी कृपासे यह सब जान सकूँ “ ॥ ११ ॥
श्रीपराशरजी बोले – ‘हे धर्मज्ञ मैत्रेय ! मेरे पिताजी के पिता श्रीवसिष्ठजी ने जिसका वर्णन किया था, उस पूर्व प्रसंग का तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया ॥ १२ ॥
हे मैत्रेय ! जब मैंने सुना कि पिताजी को विश्वामित्र की प्रेरणासे राक्षस ने खा लिया हैं, तो मुझको बड़ा भारी क्रोध हुआ ॥ १३ ॥
तब राक्षसों का ध्वंस करने के लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया । उस यज्ञ में सैकड़ों राक्षस जलकर भस्म हो गये ॥ १४ ॥
इसप्रकार उन राक्षसों को सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामह वसिष्ठजी मुझसे बोले – ॥ १५ ॥
‘हे वत्स ! अत्यंत क्रोध करना ठीक नहीं, अब इसे शांत करो । राक्षसों का कुछ भी अपराध नहीं है, तुम्हारे पिता के लिये तो ऐसा ही होना था ॥ १६ ॥
क्रोध तो मुखों को ही हुआ करता है, विचारवानों को भला कैसे हो सकता हैं ? भैया ! भला कौन किसीको मारता हैं ? पुरुष स्वयं ही अपने किये का फल भोगता हैं ॥ १७ ॥
हे प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्य के अत्यंत कष्ट से संचित यश और तप का भी प्रबल नाशक है ॥ १८ ॥
हे तात ! इस लोक और परलोक दोनों को बिगाड़नेवाले इस क्रोध का महर्षिगण सर्वदा त्याग करते हैं, इसलिये तू इसके वशीभूत मत हो ॥ १९ ॥
अब इन बेचारे निरपराध राक्षसों को दग्ध करने से कोई लाभ नहीं; अपने इस यज्ञ को समाप्त करो । साधुओं का धन तो सदा क्षमा ही है ‘ ॥ २० ॥
महात्मा दादाजी के इसप्रकार समझानेपर उनकी बातों के गौरव का विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त कर दिया ॥ २१ ॥
इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान वसिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए । उसी समय ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्यजी वहाँ आये ॥ २२ ॥
हे मैत्रेय ! पितामह वसिष्ठजी ने उन्हें अर्घ्य दिया, तब वे महर्षि पुलह के ज्येष्ठ भ्राता महाभाग पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ॥ २३ ॥
पुलस्त्यजी बोले – तुमने, चित्त में बड़ा वैरभाव रहनेपर भी अपने बड़े – बूढ़े वसिष्ठजी के कहने से क्षमा स्वीकार की है, इसलिये तुम सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता होंगे ॥ २४ ॥
हे महाभाग ! अत्यंत क्रोधित होनेपर भी तुमने मेरी सन्तान का सर्वथा मूलोच्छेद नही किया; अत” मैं तुम्हे एक और उत्तम वर देता हूँ ॥ २५ ॥
हे वत्स ! तुम पुराणसंहिता के वक्ता होंगे और देवताओं के यथार्थ स्वरूप को जानोंगे ॥ २६ ॥ तथा मेरे प्रसाद से तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवुत्ति और निवृत्ति (भोग और मोक्ष ) के उत्पन्न करनेवाले कर्मों में नि:सन्देह हो जायगी ॥ २७ ॥
फिर मेरे पितामह भगवान वसिष्ठजी बोले ‘पुलस्त्यजी ने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य होगा ‘ ॥ २८ ॥
हे मैत्रेय ! इसप्रकार पूर्वकाल में बुद्धिमान वसिष्ठजी और पुलस्त्यजी ने जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हारे प्रश्न से मुझे स्मरण हो आया है ॥ २९ ॥ अत: हे मैत्रेय ! तुम्हारे पूछने से मैं उस सम्पूर्ण पुराणसंहिता को तुम्हे सुनाता हूँ; तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो ॥ ३० ॥
यह जगत विष्णु से उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित हैं, वे ही इसकी स्थिति और लय के कर्ता हैं तथा यह जगत भी वे ही हैं ॥ ३१ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे प्रथमोऽध्यायः

अध्याय-02 चौबीस तत्त्वों के विचार के साथ जगत के उत्पत्तिक्रम का वर्णन और विष्णु की महिमा

श्रीपराशरजी बोले – जो ब्रह्मा, विष्णु और शंकररूप से जगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण है तथा अपने भक्तों को संसार-सागर से तारनेवाले हैं, उन विकाररहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्वविजयी भगवान वासुदेव विष्णु को नमस्कार हैं ॥ १ – २ ॥ जो एक होकर भी नाना रूपवाले हैं, स्थूल-सूक्ष्ममय है, अव्यक्त एवं व्यक्त रूप है तथा मुक्ति के कारण है ॥ ३ ॥ जो विश्वरूप प्रभु विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के मूल कारण हैं, उन परमात्मा विष्णुभगवान् को नमस्कार हैं ॥ ४ ॥ जो विश्व के अधिष्ठान है, अतिसूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, सर्व प्राणियों में स्थित पुरुषोत्तम और अविनाशी है, जो परमार्थत: अति निर्मल ज्ञानस्वरूप है, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूप से प्रतीत होते है, तथा जो जगत की उत्पत्ति और स्थिति में समर्थ एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान विष्णु को प्रणाम करके तुम्हे वह सारा प्रसंग क्रमश: सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनिश्रेष्ठों के पूछनेपर पितामह भगवान् ब्रह्माजी ने उनसे कहा था ॥ ५ – ८ ॥
वह प्रसंग दक्ष आदि मुनियों ने नर्मदा – तटपर राजा पुरुकुत्स को सुनाया था तथा पुरुकुत्स ने सारस्वत से और सारस्वत ने मुझसे कहा था ॥ ९ ॥ ‘जो पर से भी पर, परमश्रेष्ठ, अंतरात्मा में स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदि से रहित है; जिसमें जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश – इन छ: विकारों का सर्वथा अभाव है; जिसको सर्वदा केवल “ है ” इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध है कि ‘वे सर्वत्र हैं और उनमे समस्त विश्व बसा हुआ है – इसलिये ही विद्वान जिसको वासुदेव कहते हैं’ वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणों के अभाव के कारण निर्मल परब्रह्म है ॥ १० – १३ ॥ वही इन सब व्यक्त और अव्यक्त जगत के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकारण काल के रूप से स्थित है ॥ १४ ॥
हे द्विज ! परब्रह्म का प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त और व्यक्त उसके अन्य रूप हैं तथा काल उसका परमरूप हैं ॥१५॥
इसप्रकार जो प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल – इन चारों से परे हैं तथा जिसे पंडितजन ही देख पाते हैं वही भगवान विष्णु का परमपद है ॥ १६ ॥ प्रधान, पुरुष, व्यक्त और काल – ये भगवान विष्णु के रूप पृथक-पृथक संसार की उत्पत्ति, पालन और संहार के प्रकाश तथा उत्पादन में कारण है ॥ १७ ॥ भगवान विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष और कालरूप से स्थित होते हैं, इसे उनकी बालव्रत क्रीडा ही समझो ॥ १८ ॥
उनमें से अव्यक्त कारण को, जो सदसद्रूप [कारण शक्तिविशिष्ट ] और नित्य [सदा एकरस ] हैं, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते हैं ॥ १९ ॥ वह क्षयरहित हैं, उसका कोई अन्य आधार भी नही हैं तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल शब्द-स्पर्शीदिशून्य और रुपादिरहित हैं ॥ २० ॥ वह त्रिगुणमय और जगत का कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उत्पत्ति और लय से रहित हैं । यह सम्पूर्ण प्रपंच प्रलयकाल से लेकर सृष्टि के आदितक इसीसे व्याप्त था ॥ २१ ॥ हे विद्वन ! श्रुति के मर्म को जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थ को लक्ष्य करके प्रधान के प्रतिपादक इस श्लोक को कहा करते हैं ॥ २२ ॥

नाहो न रात्रिर्न नभो न भूमिर्नासीत्तमोज्योतिरभूद्य नान्यत ।
श्रोत्रादिबुद्धयानुपलभ्यमेकं प्राधानिकं ब्रह्म पुमांस्तदासीत ॥

‘उससमय (प्रलयकाल में) न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथ्वी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था । बस, श्रोत्रादि इन्दिर्यों और बुद्धि आदि का अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था’ ॥ २३ ॥
हे विप्र ! विष्णु के परम (उपाधिरहित) स्वरूप से प्रधान और पुरुष – ये दो रूप हुए; उसी (विष्णु) के जिस अन्य रूप के द्वारा वे दोनों [सृष्टि और प्रलयकाल में ] संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तर का ही नाम ‘काल’ हैं ॥ २४ ॥ बीते हुए प्रलयकाल में यह व्यक्त प्रपंच प्रकतिमें लीन था, इसलिये प्रंपच के इस प्रलय को प्राकृत प्रलय कहते हैं ॥ २५ ॥ हे द्विज ! कालरूप भगवान अनादि हैं, इनका अंत नही है इसलिये संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते [ वे प्रवाहरूप से निरंतर होते रहते हैं ] ॥ २६ ॥
हे मैत्रेय ! प्रलयकाल में प्रधान (प्रकृति) के साम्यावस्था में स्थित हो जानेपर और पुरुष के प्रकृति से पृथक स्थित हो जानेपर विष्णुभगवान् का कालरूप प्रवृत्त होता है ॥ २७ ॥ तदनंतर [सर्गकाल उपस्थित होनेपर] उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वर ने अपनी इच्छा से क्षोभित किया ॥ २८ – २९ ॥ जिसप्रकार क्रियाशील न होनेपर भी गंध अपनी सन्निधिमात्र से ही मनको क्षुभित कर देता हैं उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमात्र से ही प्रधान और पुरुष को प्रेरित करते हैं ॥ ३० ॥ हे ब्रह्मन ! वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच (साम्य) और विकास (क्षोभ) युक्त प्रधानरूप से भी वे ही स्थित हैं ॥ ३१ ॥ ब्रह्मादि समस्त ईश्वरों के ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि-व्यष्टिरूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्त्वरूप से स्थित हैं ॥ ३२ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! सर्गकाल के प्राप्त होनेपर गुणों की साम्यावस्थारूप प्रधान जब विष्णु के क्षेत्रज्ञरूप से अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्त्व की उत्पत्ति हुई ॥ ३३ ॥ उत्पन्न हुए महान को प्रधानतत्त्व ने आवृत् किया; महत्तत्त्व सात्त्विक, राजस और तामस, भेद से तीन प्रकार का है । किन्तु जिस प्रकार बीज छिलके से समभाव से ढँका रहता हैं वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व से ही वैकारिक (सात्त्विक) तेजस (राजस) और तामस भूतादि तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ । हे महामुने ! वह त्रिगुणात्मक होने से भूत और इन्द्रिय आदि का कारण है और प्रधान से जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है, वैसे ही महत्तत्त्व से वह (अहंकार) व्याप्त है ॥ ३४- ३६ ॥ भूतादि नामक तामस अहंकार ने विकृत होकर शब्द-तन्मात्रा और उससे शब्द-गुणवाले आकाश की रचना की ॥ ३७ ॥ उस भूतादि तामस अहंकार ने शब्द-तन्मात्रारूप आकाश को व्याप्त किया । फिर शब्द तन्मात्रारूप आकाश ने विकृत होकर स्पर्श-तन्मात्रा को रचा ॥ ३८ ॥ उस (स्पर्श-तन्मात्रा) से बलवान वायु हुआ, उसका गुण स्पर्श माना गया हैं । शब्द-तन्मात्रारूप आकाश ने स्पर्श-तन्मात्रावाले वायु को आवृत किया है ॥ ३९ ॥ फिर स्पर्श-तन्मात्रारूप वायु ने विकृत होक रूप-तन्मात्रा की सृष्टि की । रूप-तन्मात्रायुक्त वायुसे तेज उत्पन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है ॥ ४० ॥ स्पर्श-तन्मात्रा वायु ने रूप – तन्मात्रावाले तेज को आवृत किया । फिर रूप – तन्मात्रामय तेज ने भी विकृत होकर रस-तन्मात्रा की रचना की ॥ ४१ ॥ उस रस- तन्मात्रारूप से रस-गुणवाला जल हुआ । रस-तन्मात्रावाले जल को रूप-तन्मात्रामय तेज ने आवृत किया ॥ ४२ ॥ रस- तन्मात्रारूप जलने विकार को प्राप्त होकर गंध-तन्मात्रा की सृष्टि की, उससे पृथ्वी उत्पन्न हुई है जिसका गुण गंध नाना जाता हैं ॥ ४३ ॥ उन – उन आकाशादि भूतों ने तन्मात्रा हैं इसलिये वे तन्मात्रा (गुणरूप) ही कहे गये हैं ॥ ४४ ॥ तन्मात्राओं में विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा हैं ॥ ४५ ॥ वे अविशेष तन्मात्राएँ शांत, घोर अथवा मूढ़ नहीं हैं [ अर्थात उनका सुख-दुःख या मोहरूप से अनुभव नही हो सकता ] इसप्रकार तामस अहंकार से यह भूत-तन्मात्रारूप सर्ग हुआ है ॥ ४६ ॥
दस इन्द्रियाँ तेजस अर्थात राजस अहंकार से और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न हुए कहे जाते हैं । इसप्रकार इन्दिर्यों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकारिक (सात्त्विक ) हैं ॥ ४७ ॥ हे द्विज ! त्वक, चक्षु , नासिका, जिव्हा और श्रोत्र – ये पाँचों बुद्धिकी सहायता से शब्दादि विषयों को ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ॥ ४८ ॥ हे मैत्रेय ! पायु (गुदा), उपरथ (लिंग), हस्त, पाद और वाक् – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ है । इनके कर्म (मूल-मूत्र का ) त्याग, शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते हैं ॥ ४९ ॥ आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी – ये पाँचों भूत उत्तरोत्तर (क्रमश:) शब्द-स्पर्श आदि पाँच गुणों से युक्त है ॥ ५० ॥ ये पाँचों भूत शांत घोर और मूढ़ है [ अर्थात सुख, दुःख और मोहयुक्त है ] अत: ये विशेष कहलाते हैं ॥ ५१ ॥
इन भूतों में पृथक-पृथक नाना शक्तियाँ है । अत: वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसार की रचना नहीं कर सके ॥ ५२ ॥ इसलिये एक-दूसरे के आश्रय रहनेवाले और एक ही संघात की उत्पत्ति के लक्ष्यवाले महत्तत्त्व से लेकर विशेषपर्यन्त प्रकृति के इन सभी विकारों ने पुरुष से अधिष्ठित होने के कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधानतत्त्व अनुग्रह से अंड की उत्पत्ति की ॥ ५३ – ५४ ॥ हे महाबुद्धे ! जल के बुलबुले के समान क्रमश: भूतों से बढ़ा हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान अंड ब्रह्म ( हिरण्यगर्भ ) रूप विष्णु का अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ ॥ ५५ ॥ उसमें वे अव्यक्त-स्वरूप जगत्पति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूप से स्वयं ही विराजमान हुए ॥ ५६ ॥ उन महात्मा हिरण्यगर्भ का सुमेरु उल्ब (गर्भ को ढँकनेवाली झिल्ली), अन्य पर्वत, जरायु (गर्भाशय ) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस था ॥ ५७ ॥ हे विप्र ! उस अंड में ही पर्वत और द्विपादिके सहित समुद्र, ग्रह-गण के सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए ॥ ५८ ॥ वह अंड पूर्व-पूर्व की अपेक्षा दस-दस गुण अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात तामस-अहंकार से आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्व घिरा हुआ है ॥ ५९ ॥ और इन सबके सहित वह महत्तत्त्व भी अव्यक्त प्रधान से आवृत है । इसप्रकार जैसे नारियल के फल का भीतरी बीज बाहर से कितने ही छिलकों से ढँका रहता है वैसे ही यह अंड इन सात प्राकृत आवरणों से घिरा हुआ है ॥ ६० ॥
उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुण का आश्रय लेकर इस संसार की रचना में प्रवृत्त होते हैं ॥ ६१ ॥ तथा रचना हो जानेपर सत्त्वगुण-विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान विष्णु उसका कल्पांतपर्यन्त युग-युगमें पालन करते हैं ॥ ६२ ॥ हे मैत्रेय ! फिर कल्प का अंत होनेपर अति दारुण तम: प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतों का भक्षण कर लेते हैं ॥ ६३ ॥ इसप्रकार समस्त भूतों का भक्षण कर संसार को जलमय करके वे परमेश्वर शेष-शय्यापर शयन करते हैं ॥ ६४ ॥ वह एक ही भगवान जनार्दन जगत की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव – इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं ॥ ६६ ॥ वे प्रभु विष्णु स्रष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अंत में स्वयं ही संहारक (शिव) तथा स्वयं ही उपसंहत (लीन) होते हैं ॥ ६७ ॥ पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अंत:करण आदि जितना जगत है सब पुरुषरूप है और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतों के अंतरात्मा है, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियों में स्थित सर्गादिक भी उन्हीं के उपकारक है ॥ ।६८ – ६९ ॥ वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य (प्रार्थना के योग्य) भगवान विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले है, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते हैं, वे ही पालित होते है तथा वे ही संहार करते हैं [ और स्वयं ही संह्र्त होते है ] ॥ ७० ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वितीयोऽध्यायः

अध्याय-03 ब्रह्मादि की आयु और काल का स्वरूप

श्रीमैत्रेयजी बोले हे भगवन ! जो ब्रह्म निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादिका कर्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? ॥ १ ॥

श्रीपराशरजी बोले हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव-पदार्थों की शक्तियाँ अचिन्त्य ज्ञान की विषय होती है; अत: अग्नि की शक्ति उष्णता के समान ब्रह्म की भी सर्गादिरचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक है ॥ २ ॥ अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामह भगवान ब्रह्माजी सृष्टि की रचना में प्रवृत्त होते हैं सो सुनो । हे विद्वन ! वे सदा उपचार से ही ‘उत्पन्न हुए’ कहलाते हैं ॥ ३ – ४ ॥ उनके अपने परिमाण से उनकी आयु सौ वर्ष की कही जाती है । उस (सौ वर्ष) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है ॥ ५ ॥

हे अनघ ! मैंने जो तुमसे विष्णुभगवान का कालस्वरूप कहा था उसी के द्वारा उस ब्रह्मा की तथा और भी जो पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव है उनकी आयुका परिमाण किया जाता है ॥ ६ – ७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! पन्द्रह निमेष को काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठा की एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है ॥ ८ ॥ तीस मुहूर्त का मनुष्य का एक दिन-रात कहा जाता हैं और उतने ही दिन-रात का दो पक्षयुक्त एक मास होता है ॥ ९ ॥ छ: महीनों का एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है । दक्षिणायन देवताओं की रात्रि है और उत्तरायण दिन ॥ १० ॥ देवताओं के बारह हजार वर्षो के सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते है उनका अलग-अलग परिमाण मैं तुम्हे सुनाता हूँ ॥ ११ ॥ पुरातत्त्व के जाननेवाले सतयुग आदि का परिमाण क्रमश: चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते है ॥ १२ ॥ प्रत्येक युग के पूर्व उतने ही सौ वर्ष की संध्या बतायी जाती है और युग के पीछे उतने ही परिमाणवाले संध्यांश होते है ॥ १३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्यांशो के बीच का जितना काल होता है., उसे ही सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये ॥ १४ ॥

हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युग का ब्रह्मा का एक दिन होता है १५ हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह मनु होते है । उनका कालकृत परिमाण सुनो ॥ १६ ॥ सप्तर्षि, देवगण, इंद्र, मनु और मनु के पुत्र राजालोग [ पूर्व कल्पानुसार] एक ही काल में रचे जाते है और एक ही काल में उनका संहार किया जाता हैं ॥ १७ ॥ हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्युग से कुछ अधिक काल का एक मन्वन्तर होता है । यही मनु और देवता आदिका काल है ॥ १८ ॥ इसप्रकार दिव्य वर्ष-गणना से एक मन्वन्तर में आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते है ॥ १९ ॥ तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष गणना के अनुसार मन्वन्तर का परिमाण पुरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नही ॥ २० -२१ ॥ इस काल का चौदह गुना ब्रह्मा का दिन होता है, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला ब्राह्म-प्रलय होता है ॥ २२ ॥

उस समय भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनों जलने लगते है और महर्लोक में रहनेवाले सिद्धगण अति संतप्त होकर जनलोक को चले जाते हैं ॥ २३ ॥ इसप्रकार त्रिलोकी के जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकी के ग्रास से तृप्त होकर दिन के बराबर ही परिमाणवाली उस रात्रि में शेषशय्यापर शयन करते हैं और उनके बीत जानेपर पुन: संसार की सृष्टि करते है ॥ २४ – २५ ॥ इसीप्रकार [पक्ष, मास आदि ] गणना से ब्रह्मा का एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते है । ब्रह्मा के सौ वश ही उस महात्मा [ब्रह्मा] की परमायु है ॥ २६ ॥ हे अनघ ! उन ब्रह्माजी का एक परार्द्ध बीत चूका है उसके अंत में पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था २७ हे द्विज ! इससमय वर्तमान उनके दूसरे परार्द्ध का यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है २८

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे तृतीयोऽध्यायः

अध्याय-04 ब्रह्माजी की उत्पत्ति वराहभगवान्द्वारा पृथ्वी का उद्धार और ब्रह्माजी की लोक-रचना

श्रीमैत्रेय बोले – हे महामुने ! कल्प के आदिमें नारायणाख्य भगवान ब्रह्माजी ने जिसप्रकार समस्त भूतों की रचना की वह आप वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

कुछ श्लोकों के हिंदी ट्रांसलेट नहीं हैं ———————————————————–

कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जरा को छोडकर फिरसे नवयुवक से हो गये ॥ २ ॥

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हे गोविन्द ! सबको भक्षणकर अंत में आप ही मनिषिजनोंद्वारा चिंतित होते हुए जल में शयन करते हैं ॥ १६ ॥ हे प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अत: आपका जो रूप अवतारों में प्रकट होता है उसीकी देवगण पूजा करते हैं ॥ १७ ॥ आप परब्रह्म की ही आराधना करके मुमुक्षुजन मुक्त है । भला वासुदेव की आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता हैं ? ॥ १८ ॥ मनसे जो कुछ ग्रहण (संकल्प) किया जाता हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों से जो कुछ ग्रहण (विषय) करनेयोग्य है, बुद्धिद्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आपही का रुप है ॥ १९ ॥ हे प्रभो ! मैं आपही का रूप हूँ, आपही के आश्रित हूँ और आपही के द्वारा रची गयी हूँ तथा आपही की शरण में हूँ । इसीलिये लोक में मुझे ‘माधवी’ भी कहते हैं ॥ २० ॥ हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय ! हे अव्यय ! आपकी जय हो । हे अनंत ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो ॥ २१ ॥ हे परापर-स्वरुप ! हे विश्वात्मन ! जे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो । हे प्रभो ! आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषटकार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही अग्नियाँ हैं ॥ २२ ॥ हे हरे ! आप ही वेद, वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह, तारे, नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत भी आप ही है ॥ २३ ॥ हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त-अमूर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैंने कहा है और जो नही कहा, वह सब आप ही है । अत: आपको नमस्कार हैं, बारंबार नमस्कार है ॥ २४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – पृथ्वी इसप्रकार स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान धरणीधर ने घर्घर शब्द से गर्जना की ॥ २५ ॥ फिर विकसित कमल के समान नेत्रोंवाले उन महावराह ने अपनी दाढोसे पृथ्वी को उठा लिया और वे कमल-दल के समान श्याम तथा नीलाचल के सदृश विशालकाय भगवान रसातल से बाहर निकले ॥ २६ ॥ निकलते समय उनके मुख श्वास से उछलते हुए जलने जनलोक में रहनेवाले महातेजस्वी एयर निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरों को भिगो दिया ॥ २७ ॥ जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरों से विदीर्ण हुए रसातल में नीचे की ओर जाने लगा और जनलोक में रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास-वायु से विक्षिप्त होकर इधर-उधर भागने लगे ॥ २८ ॥ जिनकी कुक्षि जल में भीगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीर को कँपाते हुए पृथ्वी को लेकर बाहर निकले उससमय उनकी रोमावली में स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे ॥ २९ ॥ उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान की जनलोक में रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरों ने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इसप्रकार स्तुति की ॥ ३० ॥

‘हे ब्रह्मादि ईश्वरों के भी परम ईश्वर ! हे केशव ! हे शंख-गदाधर ! हे खंड-चक्रधारी प्रभो ! आपकी जय हो । आप ही संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश के कारण है, तथा आप ही ईश्वर है और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ ३१ ॥ हे यूपरूपी दाढोवाले प्रभो ! आप ही यज्ञपुरुष है । आपके चरणों में चारों वेद हैं, दाँतों में यज्ञ है, मुख में [श्येन चित्त आदि] चित्तियाँ हैं । हुताशन (यज्ञाग्नि) आपकी जिव्हा है तथा कुशाएँ रोमावलि है ॥ ३२ ॥ हे महात्मन ! रात और दिन आपके नेत्र है तथा सबका आधारभूत परबह्म आपका सिर है । हे देव ! वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप (स्कन्ध के रोम गुच्छ) है और समस्त हवि आपके प्राण है ॥ ३३ ॥ हे प्रभो ! स्त्रुक आपका तुंड (थूथनी) हैं, सामस्वर धीर-गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश (यजमानगृह) शरीर है तथा सत्र शरीर की सन्धियाँ है । हे देव ! इष्ट (श्रौत) और पुर्त (स्मार्त) धर्म आपके कान है । हे नित्यस्वरूप भगवन ! प्रसन्नं होइये ॥ ३४ ॥ हे अक्षर ! हे विश्वमूर्ते ! अपने पाद-प्रहार से भूमंडल को व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्व के आदिकारण समझते हैं । आप सम्पूर्ण चराचर जगत के परमेश्वर और नाथ है; अत: प्रसन्न होइये ॥ ३५ ॥ हे नाथ ! आपकी दाढ़ोंपर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवन को रौंदते हुए गजराज के दाँतों से कोई कीचड़ में सना हुआ कमल का पत्ता लगा हो ॥ ३६ ॥ हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथ्वी और आकाश के बीच में जितना अंतर है वह आपके शरीर से ही व्याप्त है । हे विश्व को व्याप्त करने में समर्थ तेजयुक्त प्रभो ! आप विश्व का कल्याण कीजिये ॥ ३७ ॥ हे जगत्पते ! परमार्थ (सत्य वस्तु) तो एकमात्र आप ही है, आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं हैं । यह आपकी ही महिमा (माया) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है ॥ ३८ ॥ यह जो कुछ भी मूर्तिमान जगत दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप आपही का रूप है । अजितेन्द्रिय लोग भ्रम से इसे जगत-रूप देखते है ॥ ३९ ॥ इस सम्पूर्ण ज्ञान-स्वरूप जगत को बुद्धिहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अत: वे निरंतर मोहमय संसार-सागर से भटका करते है ॥ ४० ॥ हे परमेश्वर ! जो लोग शुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसार को आपका ज्ञानात्मक स्वरूप ही देखते हैं ॥ ४१ ॥ हे सर्व ! जे सर्वात्मन ! प्रसन्न होइये । हे अप्रमेयात्मन ! हे कमलनयन ! संसार के निवास के लिये पृथ्वी का उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥ ४२ ॥ हे भगवन ! हे गोविन्द ! इससमय आप सत्त्वप्रधान है; अत: हे ईश ! जगत के उद्भव के लिये आप इस पृथ्वी का उद्धार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥ ४३ ॥ आपके द्वारा यह सर्ग की प्रवृत्ति संसार का उपकार करनेवाली हो । हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥ ४४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – इसप्रकार स्तुति किये जानेपर पृथ्वी को धारण करनेवाले परमात्मा वराहजी ने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जल के ऊपर स्थापित कर दिया ॥ ४५ ॥ उस जलसमूह के ऊपर वह एक बहुत बड़ी नौका के समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होने के कारण उसमें डूबती नहीं है ॥ ४६ ॥ फिर उन अनादि परमेश्वर ने पृथ्वी को समतल कर उसपर जहाँ-तहाँ पर्वतों को विभाव करके स्थापित कर दिया ॥ ४७ ॥ सत्यसंकल्प भगवान ने अपने अमोघ प्रभाव से पूर्वकल्प के अंत में दग्ध हुए समस्त पर्वतों को पृथ्वी तलपर यथास्थान रच दिया ॥ ४८ ॥ तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वीपादि क्रम से पृथ्वीका यथायोग्य विभाग लार भूलोकादि चारों लोको की पूर्ववत कल्पना कर दी ॥ ४९ ॥ फिर उन भगवान हरि ने रजोगुण से युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्र्ह्मारूप धारण कर सृष्टि की रचना की ॥ ५० ॥ सृष्टि की रचना में भगवान तो केवल निमित्तमात्र ही है, क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो स्रुज्य पदार्थों की शक्तियाँ ही है ॥ ५१ ॥ हे तपस्वियों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! वस्तुओं की रचनामें निमित्तमात्र को छोडकर और किसी बात की आवश्यकता भी नही है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही (परिणाम) शक्ति से वस्तुता (स्थूलरूपता) को प्राप्त हो जाती है ॥ ५२ ॥

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे चतुर्थोऽध्यायः

अध्याय-05 अविद्यादि विविध सर्गों का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले हे द्विजराज ! सर्ग के आदि में भगवान ब्रह्माजी ने प्रथ्वी, आकाश और जल आदि में रहनेवाले देव, ऋषि पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक और वृक्षादि को जिसप्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ॥ १ – २ ॥

श्रीपराशरजी बोलेहे मैत्रेय ! भगवान विभुने जिसप्रकार इस सर्ग की रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो सर्ग के आदि में ब्रह्माजी के पूर्ववत सृष्टि का चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक तमोगुणी सृष्टि का आविर्भाव हुआ उस महात्मा से प्रथम तं (अज्ञान), मोह, महामोह (भोगेच्छा), तामिस्त्र (क्रोध) और अन्भतामिस्र (अभिनिवेश) नामक पञ्चपर्वा (पाँच प्रकार की) अविद्या उत्पन्न हुई उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य, बाहरभीतर से तमोमय और जड नगादि (वृक्षगुल्मलतावीरुततृण ) रूप पाँच प्रकार का सर्ग हुआ [वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होने के कारण ] नगादि को मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख सर्ग कहलाता है

उस सृष्टिको पुरुषार्थ की असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्ग के लिये ध्यान किया तो तिर्यकस्त्रोतसृष्टि उत्पन्न हुई यह सर्ग (वायु के समान) तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यकस्त्रोत कहलाता है ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध हैऔर प्राय: तमोमय (अज्ञानी), विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते है ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्टाईस वधोंसे युक्त आंतरिक सुख आदि को ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एकदूसरे की प्रवृत्ति को जाननेवाले होते है १०११

उस सर्ग को भी पुरुषार्थ का असाध्क समझ पुन:चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ वह ऊर्ध्वस्त्रोतनामक तीसरा सात्त्विक सर्ग ऊपर के लोकों में रहने लगा १२ वे ऊर्ध्वस्त्रोत सृष्टि से उत्पन्न हुए प्राणी विषयसुख के प्रेमी, बाह्य और आंतरिक दृष्टिसम्पन्न, ततः बाह्य और आंतरिक ज्ञानयुक्त थे १३ यह तीसरा देवसर्ग कहलाता हैं इस सर्ग के प्रादुर्भूत होनेसे संतुष्टचित्त ब्रह्माजी को अति प्रसन्नता हुई १४

फिर, इन मुख सर्ग आदि तीनों प्रकार की सृष्टियों में उत्पन्न हुए प्राणियों को पुरुषार्थ का असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्ग के लिये चिन्तन किया १५ उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजी के इसप्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त (प्रकृति) से पुरुषार्थ का साधक अर्वाकस्त्रोत नामक सर्ग प्रकट हुआ १६ इस सर्ग के प्राणी नीचे (पृथ्वीपर) रहते हैं इसलिये वेअर्वाकस्त्रोतकहलाते हैं उनमे सत्त्व, रज और तम तीनोंही की अधिकता होती है १७ इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यंत क्रियाशील एवं बाह्यआभ्यन्तर ज्ञान से युक्त और साधक है इस सर्ग के प्राणी मनुष्य है १८

हे मुनिश्रेष्ठ ! इसप्रकार अबतक तुमसे : सर्ग कहे उनमें महत्तत्त्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये १९ दूसरा सर्ग तन्मात्राओं का है, जिसे भूतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक (इन्द्रिय सम्बन्धी) कहलाता है २० इस प्रकार बुद्धिपूर्वक उत्पन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ चौथा मुख्यसर्ग हैं पर्वतवृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्ग के अंतर्गत है २१ पाँचवाँ जो तिर्यकस्त्रोत बतलाया उसे तिर्यक (कीटपतंगादि) योनि भी कहते है फिर छठा सर्ग ऊर्ध्वस्त्रोताओं का है जोदेवसर्गकहलाता है उसके पश्चात सातवाँ सर्ग अर्वाकस्त्रोताओं का है, वह मनुष्य सर्ग है २२२३ आठवाँ अनुग्रह सर्ग हैं वह सात्त्विक और तामसिक है ये पाँच वैकृत (विकारी) सर्ग है एयर पहले तीनप्राकृत सर्गकहलाते है २४ नवाँ कौमर सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है इसप्रकार सृष्टि रचना में प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापति के प्राकृत और वैकृत नामक उए जगत के मुलभुत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये अब और क्या सुनना चाहते है ? २५२६

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे मुने ! आपने इस देवादिकों के स्रगोंका संक्षेप से वर्णन किया । अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविंद से विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ २७ ॥

श्रीपराशरजी बोले हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पूर्व-शुभाशुभ कर्मों से युक्त है; अत: प्रलयकाल में सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारों से मुक्त नहीं होती ॥ २८ ॥ हे ब्रह्मन ! ब्रह्माजी के सृष्टि कर्म में प्रवृत्त होनेपर देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकार की सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ॥ २९ ॥

फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्यइन चारों की तथा जल की सृष्टि करनेकी इच्छा से उन्होंने अपने शरीर का उपयोग किया ३० सृष्टिरचना की कामना से प्रजापति के युक्तचित्त होनेपर तमोगुण की वृद्धि हुई अत: सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उत्पन्न हुए ३१ तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीर को छोड़ दिया, वह छोड़ा हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ ३२ फिर अन्य देह में स्थित होनेपर सृष्टि की कामनावाले उन प्रजापति को अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुख से सत्त्वप्रधान देवगण उत्पन्न हुए ३३ तदनंतर उस शरीर को भी उन्होंने त्याग दिया वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ इसलिये रात्रि में असुर बलवान होते है और दिनमें देवगणों का बल विशेष होता है ३४ फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपने को पितृवत मानते हुये [अपने पार्श्वभागसे] पितृगणकी रचना की ३५ पितृगण की रचना कर उन्होंने उस शरीर को भी छोड़ दिया वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रि के बीच में स्थित संध्या हुई ३६ तत्पश्चात उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रज: प्रधान मनुष्य उत्पन्न हुए ३७ फिर शीघ्र ही प्रजापति ने उस शरीर को भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्वसंध्या अर्थात प्रात:काल कहते हैं ३८ इसीलिए, हे मैत्रेय ! प्रात:काल होनेपर मनुष्य और सायंकाल के समय पितर बलवान होते है ३९ इस प्रकार रात्रि, दिन, प्रात:काल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजी के ही शरीर है तीनों गुणों के आश्रय है ४०

फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया उसके द्वारा ब्रह्माजी से क्षुधा उत्पन्न हुई और क्षुधा से काम की उत्पत्ति हुई ४१ तब भगवान् प्रजापति ने अंधकार में स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टि की रचना की उसमें बड़े कुरूप और दाढ़ीमूँछवाले व्यक्ति उत्पन्न हुए वे स्वयं ब्रह्माजी की ओर ही [ उन्हें भक्षण करने के लिये ] दौड़े ४२ उनमे से जिन्होंने यह कहा किऐसा मत करो, इनकी रक्षा करोवेराक्षसकहलाये और जिन्होंने कहाहम खायेंगेवे खाने की वासनावाले होने सेयक्षकहे गये ४३

उनकी इन अनिष्ट प्रवृत्ति को देखकर ब्रह्माजी के केश सिरसे गिरे गये और फिर पुन: उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए इसप्रकार ऊपर चढने के कारण वेसर्पकहलाये और नीचे गिरने के कारणअहिकहे गये तदनंतर जगतरचयिता ब्रह्माजी ने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियों की रचना की; वे कपिश (कालापन लिये हुए पीले) वर्ण के, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए ४४४५ फिर गान करते समय उनके शरीर से तुरंत ही गन्धर्व उत्पन्न हुए हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलियेगन्धर्वकहलाये ४६

इस सबकी रचना करके भगवान ब्रह्माजी ने पक्षियों को, उनके पूर्वकर्मों से प्रेरित होकर स्वछंदतापूर्वक अपनी आयु से रचा ४७ तदनन्तर अपने वक्ष:स्थल से भेड़, मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभाग से गौ, पैरों से घोड़े, हाथी, गधे, वनगाय, मृग, ऊँट, खचर, और न्यंक आदि पशुओं की रचना की ४८४९ उनके रोमोसे फलमूलरूप ओषधियाँ उत्पन्न हुई हे द्विजोत्तम ! कल्प के आरम्भ में ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदि की रचना करके फिर त्रेतायुग के आरम्भ में उन्हें यज्ञादि कर्मों में सम्मिलित किया ५० गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खचर और गधे ये सब गाँवों में रहनेवाले पशु है जंगली पशु ये हैश्वापद, (व्याघ्र आदि), दो खुरवाले (वनगाय आदि), हाथी, बदंर और पाँचवे पक्षी, छठे जल के जीव तथा सातवें सरीसूप आदि ५१५२ फिर अपने प्रथम मुख से ब्रह्माजी ने गायत्री, ऋक, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञों को निर्मित किया ५३ दक्षिणमुख से यजु, त्रैष्टपछंद, पंचदश स्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की ५४ पश्चिम मुख से साम, जगतीछंद, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्र को उत्पन्न किया ५५ तथा उत्तर मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम , अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुपछंद और वैराज की सृष्टि की ५६

इसप्रकार उनके शरीर से समस्त ऊँचनीच प्राणी उत्पन्न हुए उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान ब्रह्माजी ने देव, असुर, पितृगण और मनुष्यों की सृष्टि कर तदनन्तर कल्प का आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जंगम जगत की रचना की उनमें से जिनके जैसेजैसे कर्म पूर्वकल्पों में थे पुन: पुन : सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीं में फिर प्रवृत्ति हो जाती है ५७६० उससमय हिंसाअहिंसा, मृदुताकठोरता, धर्मअधर्म, सत्यमिथ्थाये सब अपनी पूर्व भावना के अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ६१

इसप्रकार प्रभु विधाता ने ही स्वयं इन्दिर्यों के विषय भूत और शरीर आदि में विभिन्नता और व्यवहार को उत्पन्न किया है ६२ उन्हीं ने कल्प के आरम्भ में देवता आदि प्राणियों के वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्यविभाग को निश्चित किया है ६३ ऋषियों तथा अन्य प्राणियों के भी वेदानुकूल नाम और यथायोग्य कर्मों को उन्हीने निर्दिष्ट किया है ६४ जिस प्रकार भिन्नभिन्न ऋतुओं के पुनपुनआनेपर उनके चिन्ह और नामरूप आदि पूर्ववत रहते हैं उसीप्रकार युगादि में भी उनके पूर्व भाव ही देखे जाते हैं ६५ सिसृक्षाशक्ति (सृष्टिरचना की प्रारब्ध) की प्रेरणा से कल्पों के आरम्भ में बारम्बार इसी प्रकार सृष्टि की रचना किया करते है ६६

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे पञ्चमोऽध्यायः

अध्याय-06 चातुर्वर्ण्यं-व्यवस्था, पृथ्वी-विभाग और अन्नादिकी उत्पत्ति का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे भगवन ! आपने जो अर्वाक-स्त्रोता मनुष्यों के विषय में कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजी ने किसप्रकार की – यह विस्तारपूर्वक कहिये ॥ १ ॥ श्रीप्रजपति ने ब्राह्मणादि वर्ण को जिन-जिन गुणों से युक्त और जिसप्रकार रचा था उनके जो-जो कर्तव्य-कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन कीजिये ॥ २ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विजश्रेष्ठ ! जगतरचना की इच्छा से युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजी के मुख से पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उत्पन्न हुई तदनन्तर उनके वक्ष:स्थल से रज:प्रधान तथा जंघाओं से रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई हे द्विजोतम ! चरणों से ब्रह्माजी ने एक और प्रकार की प्रजा उत्पन्न की, वह तम:प्रधान थी ये ही सब चारों वर्ण हुए इसप्रकार हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र ये चारों क्रमश: ब्रह्माजी के मुख, वक्ष:स्थल, जानू और चरणों से उत्पन्न हुए

हे महाभाग ! ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान के लिये ही यज्ञ के उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्य की रचना की थी ॥ ७ ॥ हे धर्मज्ञ ! यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजा को तृप्त करते है; अत: यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है ॥ ८ ॥ जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते है उन्हींसे यज्ञका यथावत अनुष्ठान हो सकता है ॥ ९ ॥ हे मुने ! [यज्ञ के द्वारा] मनुष्य इस मनुष्य-शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते है; तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते है ॥ १० ॥

हे मुनिलत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्यविभाग में स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओं से रहित, शुद्ध अंत:करणवाली, सत्कुलोत्पत्र और पुण्य कर्मों के अनुष्ठान से परम पवित्र थी १११२ उसका चित्त शुद्ध होने के कारण उसमें निरंतर शुद्धस्वरूप श्रीहरि के विराजमान रहने से उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवान के उसविष्णुनामक परम पदको देख पाते थे १३ फिर (त्रेतायुग के आरम्भ में ), हमने तुमसे भगवान के जिस काल नामक अंश का पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले (सुखवाले) तुच्छ और घोर (दुःखमय) पापों को प्रजा में प्रवृत्त कर देता है १४ हे मैत्रेय ! उससे प्रजा में पुरुषार्थ का विघातक तथा अज्ञान और लोभ को उत्पन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्म का बीज उत्पन्न हो जाता है १५ तभी से उसे वह विष्णुपदप्राप्तिरूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्टसिद्धियाँ नहीं मिलती १६

अष्टसिद्धि –

सत्ययुग में रसका स्वयं ही उल्लास होता था यही रसोल्लास नाम की सिद्धि है, उसके प्रभाव से मनुष्य भूख को नष्ट कर देता है उससमय प्रजा स्त्री आदि भोगों की अपेक्षा के बिना ही सदा तृप्त रहती थी, इसीको मुनिश्रेष्ठों नेतृप्तिनामक दूसरी सिद्धि कहा है उनका जो उत्तम धर्म था वही उनकी तीसरी सिद्धि कही जाती है उससमय सम्पूर्ण प्रजा के रूप और आयु एकसे थे, यही उनकी चौथी सिद्धि थी बल की ऐकान्तिकी अधिकतायहविशोकानामकी पाँचवी सिद्धि है परमात्मपरायण रहते हुए तपध्यानादि में तत्पर रहना छठी सिद्धि है स्वेच्छानुसार विचरना सातवीं सिद्धि कही जाती है तथा जहाँतहाँ मन की मौज पड़े रहना आठवी सिद्धि कही गयी है

उन समस्त सिद्धियों के क्षीण हो जाने और पाप के बढ़ जाने से फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्द,ह्रास और दुःख से आतुर हो गयी ॥ १७ ॥ तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदि के स्वाभाविक तथा कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट आदि स्थापित किये ॥ १८ ॥ हे महामते ! उन पुर आदिकों में शीत और घाम आदि बाधाओं से बचने के लिये उसने यथायोग्य घर बनाये ॥ १९ ॥

इसप्रकार शीतोष्णादि बचने का उपाय करके उस प्रजाने जीविका के साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ॥ २० ॥ हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, कांगनी, ज्वार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूँग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई, चना और सन – ये सत्रह ग्राम्य ओषधियों की जातियाँ है । ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकार की मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक है । उनके नाम ये है – धान, जौ, उड़द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी – ये आठ तथा श्यामक, नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट (मक्का) ॥ २१- २५ ॥ ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठान की सामग्री है और यज्ञ इनकी उत्पत्ति का प्रधान हेतु है ॥ २६ ॥ यज्ञों के सहित ये ओषधियाँ प्रजाकी बुद्धि का परम कारण है इसलिये इहलोक-परलोक के ज्ञाता पुरुष यज्ञों का अनुष्ठान किया करते हैं ॥ २७ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शांत करनेवाला है ॥ २८ ॥

हे महामुने ! जिनके चित्त में काल की गति से पाप का बीज बढ़ता है उन्हीं लोगों का चित्त यज्ञ में प्रवृत्त नहीं होता ॥ २९ ॥ उन यज्ञ के विरोधियों ने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म – सभी की निंदा की है ॥ ३० ॥ वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद-विनिन्द्क और प्रवृत्तिमार्ग का उच्छेद करनेवाले ही थे ॥ ३१ ॥

हे धर्मवानों में श्रेष्ठ मैत्रेय ! इसप्रकार कृषि आदि जीविका के साधनों के निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजी ने प्रजा की रचना कर उनके स्थान और गुणों के अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमों के धर्म तथा अपने धर्म का भलीप्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णों के लोक आदि की स्थापना की ३२३३ कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों का स्थान पितृलोक है, युद्धक्षेत्र कभी हटनेवाले क्षत्रियों का इंद्रलोक है ३४ तथा अपने धर्म का पालन करनेवाले वैश्यों का वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रों का गन्धर्वलोक है ३५ अठ्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि है; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियों का स्थान है ३६ इसीप्रकार वनवासी वानप्रस्थों का स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थों का पितृलोक और सन्यासियों का ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभव से तृप्त योगियों का स्थान अमरपद (मोक्ष) है ३७३८ जो निरंतर एकांतसेवी और ब्रह्मचिन्तन में मग्न रहनेवाले योगिजन है उनका जो परमस्थान है उसे पंडितजन ही देख पाते हैं ३९ चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपनेअपने लोकों में जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्र (  नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपद से नही लौटे ४० तामिस, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक है, वे वेदों की निंदा और यज्ञों का उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्मविमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं ४१४२

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे षष्ठोऽध्यायः

अध्याय-07 मरीचि आदि प्रजापतिगण, तामसिक सर्ग, स्वायम्भुवमनु और शतरूपा तथा उनकी सन्तान का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – फिर उन प्रजापति के ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतों से उत्पन्न हुए शरीर और इन्दिर्यों के सहित मानस प्रजा उत्पन्न हुई । उस समय मतिमान ब्रह्माजी के जड शरीर से ही चेतन जीवों का प्रादुर्भाव हुआ ॥ १ ॥ मैंने पहले जिनका वर्णन किया है, देवताओं से लेकर स्थावरपर्यन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव इसीप्रकार उत्पन्न हुए ॥ २ – ३ ॥

जब महाबुद्धिमान प्रजापति की वह प्रजा पुत्रपौत्रादिक्रम से और बढ़ी तब उन्होंने भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि, दक्ष, अत्रि और वसिष्ठइन अपने ही सदृश अन्य मानसपुत्रों की सृष्टि की पुराणों में ये नौ ब्रह्मा माने गये है

फिर ख्याति, भूति, सम्भूति, क्षमा, प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओं को उत्पन्न कर, इन्हें उन महात्माओं कोतुम इनकी पत्नी होऐसा कहकर सौंप दिया

ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादि को उत्पन्न किया था वे निरपेक्ष होने के कारण सन्तान और संसार आदि में प्रवृत्त नहीं हुए ॥ ९ ॥ वे सभी ज्ञानसम्पन्न, विरक्त और मत्सरादि दोषों से रहित थे । उन महात्माओं को संसार-रचना से बह्माजी को त्रिलोकी को भस्म कर देनेवाला महान क्रोध उत्पन्न हुआ । हे मुने ! उन ब्रह्माजी के क्रोध के कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओं से अत्यंत देदीप्यमान हो गयी ॥ १०- ११ ॥

उससमय उनकी टेढ़ी भृकुटि और क्रोध-संतप्त ललाटसे दोपहर के सूर्य के समान प्रकाशमान रूद्र की उत्पत्ति हुई ॥ १२ ॥ उसका अति प्रचंड शरीर आधा नर और आधा नारीरूप था । तब ब्रह्माजी ‘अपने शरीर का विभाग कर’ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये ॥ १३ ॥ ऐसा कहे जानेपर उस रूद्र ने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भागों को अलग-अलग कर दिया और फिर पुरुष-भाग को ग्यारह भागों में विभक्त किया ॥ १४ ॥ तथा स्त्री-भाग को भी सौम्य, क्रूर, शांत-अशांत और श्याम – गौर आदि कई रूपों में विभक्त कर दिया ॥ १५ ॥

तदनन्तर, हे द्विज ! अपने से उत्पन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुव को ब्रह्माजी ने प्रजा-पालन के लिये प्रथम मनु बनाया ॥ १६ ॥ उन स्वायम्भुव मनुने [अपने ही साथ उत्पन्न हुई ] तप के कारण निष्पाप शतरूपा नाम की स्त्री को अपनी पत्नीरूप से ग्रहण किया ॥ १७ ॥ हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनु से शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणों से सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उत्पन्न की । उनमें से प्रसूति को दक्ष के साथ तथा आकूति को रूचि प्रजापति के साथ विवाह दिया ॥ १८ – १९ ॥

हे महाभाग ! रूचि प्रजापति ने उसे ग्रहण कर लिया । तब उन दम्पती के यज्ञ और दक्षिणा – ये युगल (जुड़वाँ) सन्तान उत्पन्न हुई ॥ २० ॥ यज्ञ के दक्षिणा से बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भुव मन्वन्तर से वाम नामके देवता कहलाये ॥ २१ ॥ तथा दक्ष ने प्रसूति से चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की । मुझसे उनके शुभ नाम सुनो ॥ २२ ॥ श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, मेधा, पुष्टि, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवी कीर्ति – इन दक्ष कन्याओं को धर्म ने पत्नीरूप से ग्रहण किया । इनसे छोटी शेष ग्यारह कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्तति, अनसूया, ऊर्ज्जा, स्वाहा और स्वधा थीं ॥ २३ – २५ ॥ हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि कन्याओं को क्रमशः भृगु, शिव, मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ – इन मुनियों तथा अग्नि और पितरों ने ग्रहण किया ॥ २६ – २७ ॥

श्रद्धासे काम, चला (लक्ष्मी) से दर्प, धृति से नियम, तुष्टि से संतोष और पुष्टि से लोभ की उत्पत्ति हुई ॥ २८ ॥ तथा मेधासे श्रुत, क्रियासे दंड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे उसका पुत्र व्यवसाय, शान्ति से क्षेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआ; ये ही धर्म के पुत्र हैं । रतिने कामसे धर्म के पौत्र हर्ष को उत्पन्न किया ॥ २९ – ३१ ॥

अधर्म की स्त्री हिंसा थी, उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उत्पन्न हुई । उन दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हुई । उनमें से मायाने समस्त प्राणियों का संहारकर्ता मृत्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ३२ – ३३ ॥ वेद्नाने भी रौरव (नरक) के द्वारा अपने पुत्र दुःख को जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक, तृष्णा और क्रोध की उत्पत्ति हुई ॥ ३४ ॥ ये सब अधर्मरूप है और ‘दु:खोंत्तर’ नामसे प्रसिद्ध है, [ क्योंकि इनसे परिणाम में दुःख ही प्राप्त होता है ] इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान । ये सब ऊर्ध्वरेता हैं ॥ ३५ ॥ हे मुनिकुमार ! ये भगवान विष्णु के बड़े भयंकर रूप है और ये ही संसार के नित्य-प्रलय के कारण होते है ॥ ३६ ॥ हे महाभाग ! दक्ष, मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत के नित्य-सर्ग के कारण है ॥ ३७ ॥ तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण और शूर – वीर पुत्र राजागण इस संसार की नित्य-स्थिति के कारण है ॥ ३८ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्य-स्थिति, नित्य-सर्ग और नित्य-प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये ॥ ३९ ॥

श्रीपराशरजी बोलेजिनकी गति कहीं नहीं रूकती वे अचिंत्यात्मा सर्वव्यापक भगवान मधुसुदन निरंतर इन मनु आदि रूपों से संसार की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करते रहते है ४० ॥ हे द्विज ! समस्त भूतों का चार प्रकारका प्रलय हैनैमित्तिक, प्राकृतिक, आत्यंतिक और नित्य ४१ उनमें से नैमित्तिक प्रलय ही ब्राह्मपल्य है, जिसमें जगत्पति प्रलय में ब्रह्मांड प्रकृति में लीन हो जाता है ४२ ज्ञान के द्वारा योगी का परमात्मा में लीन हो जाना आत्यंतिक प्रलय है और रातदिन जो भूतों का क्षय होता है वही नित्यपल्य है ४३ प्रकृति से महत्तत्त्वादि क्रम से जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवांतर- प्रलय के अनन्तर जो [ ब्रह्मा के द्वारा ] चराचर जगत की उत्पत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है ॥ ४४ ॥ और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियों की उत्पत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थ में कुशल महानुभावों ने नित्य – सृष्टि कहा है ॥ ४५ ॥

सप्रकार समस्त शरीर में स्थित भूतभावन भगवान विष्णु जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते है ४६ हे मैत्रेय ! सृष्टि, स्थिति और विनाशकी इन वैष्णवी शक्तियों का समस्त शरीरों में समान भावसे अहर्निश संचार होता रहता है ४७ हे ब्रह्मन ! ये तीनों महती शक्तियाँ त्रिगुणमयी हैं; अत: जो उन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह परमपद को ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्ममरणादि के चक्र में नहीं पड़ता ४८

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे सप्तमोऽध्यायः

अध्याय-08 रौद्र – सृष्टि और भगवान तथा लक्ष्मीजी की सर्वव्यापकता का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजी के तामस-सर्ग का वर्णन किया, अब मैं रूद्र – सर्ग का वर्णन करता हूँ, सो सुनो ॥ १ ॥ कल्प के आदि में अपने समान पुत्र उत्पन्न होने के लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजी की गोद में नीललोहित वर्ण के एक कुमार का प्रादुर्भाव हुआ ॥ २ ॥

हे द्विजोत्तम ! जन्म के अनन्तर ही वह जोरजोर से रोने और इधरउधर दौड़ने लगा उसे रोता देख ब्रह्माजी ने उससे पूछा – ‘तू क्यों रोता है ?’ उसने कहा – ‘मेरा नाम रखो तब ब्रह्माजी बोले – ‘ हे देव ! तेरा नाम रूद्र है, अब तू मत रो, धैर्य धारण कर ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया तब भगवान ब्रह्माजी ने उसके सात नाम और रखे; तथा उन आठों के स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये हे द्विज ! प्रजापति ने उसे भव, शर्व, ईशान, पशुपति, भीम, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये सूर्य, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, आकाश, [यज्ञ में ] दीक्षित ब्राह्मण और चंद्रमाये क्रमश: उनकी मूर्तियाँ है हे द्विजश्रेष्ठ ! रूद्र आदि नामों के साथ उन सूर्य आदि मूर्तियों की क्रमश: सुवर्चला, ऊषा, विकेशी, अपरा, शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ है हे महाभाग ! अब उनके पुत्रों के नाम सुनो; उन्हीं के पुत्रपौत्रादिकों से यह सम्पूर्ण जगत परिपूर्ण है १० शनैश्वर, शुक्र, लोहितांग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुधये क्रमश: उनके पुत्र है ११ ऐसे भगवान रूद्र ने प्रजापति दक्ष की अनिंदिता पुत्री सती को अपनी भार्यारूप से ग्रहण किया १२ हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होने के कारण अपना शरीर त्याग दिया था फिर वह मेना के गर्भ से हिमाचल की पत्नी (उमा) हुई भगवान शंकर ने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया १३१४ भृगु के द्वारा ख्याति ने धाता और विधातानामक दो देवताओं को तथा लक्ष्मीजी को जन्म दिया जो भगवान विष्णु की पत्नी हुई १५

श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवन ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृतमंथन के समय क्षीरसागर से उत्पन्न हुई थी, फिर आप ऐसा कैसे कहते है कि वे भृगु के द्वारा ख्याति से उत्पन्न हुई १६

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विजोत्तम ! भगवान का कभी संग छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही है और जिसप्रकार श्रीविष्णुभगवान सर्वव्यापक है वैसे ही ये भी है १७ विष्णु अर्थ है और ये वाणी है, हरि नियम है और ये निति है, भगवान विष्णु बोध है और ये बुद्धि है तथा वे धर्म है और ये सत्क्रिया है १८ हे मैत्रेय ! भगवान जगत के स्त्रष्टा है और लक्ष्मीजी सृष्टि है, श्रीहरि भूधर (पर्वत अथवा राजा) है और लक्ष्मीजी भूमि है तथा भगवान संतोष है और लक्ष्मीजी नित्य तुष्टि है १९ भगवान काम है और लक्ष्मीजी इच्छा है, वे यज्ञ है और वे दक्षिणा है, श्रीजनार्दन पुरोडाश है और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति (घृत की आहुति ) है २० हे मुने ! मधुसुदन यजमानगृह है और लक्ष्मीजी पत्नीशाला है, श्रीहरि युप है और लक्ष्मीजी चिति है तथा भगवान कुशा है और लक्ष्मीजी इध्मा है २१ भगवान सामस्वरूप है और श्रीकमलादेवी उद्भिति है, जगत्पति भगवान वासुदेव हुताशन है और लक्ष्मीजी स्वाहा है २२ हे द्विजोत्तम ! भगवान विष्णु शंकर है और श्रीलक्ष्मीजी गौरी है तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य है और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा है २३ श्रीविष्णु पितृगण है और श्रीकमला नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा है, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश है और लक्ष्मीजी स्वर्गलोक है २४ भगवान श्रीधर चन्द्रमा है और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति है, हरि सर्वगामी वायु है और लक्ष्मीजी जगचेष्टा (जगतकी गति) और धृति (आधार) है २५ हे महामुने ! श्रीगोविंद समुद्र है और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग है, भगवान मधुसुदन देवराज इंद्र है और लक्ष्मीजी इंद्राणी है २६ चक्रपाणि भगवान यम है और श्रीकमला यमपत्नी धुमोर्णा है, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर है और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात ऋद्धि है २७ श्रीकेशव स्वयं वरुण है और महाभागा लक्ष्मीजी गौरी है, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय है और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना है २८ हे द्विजोत्तम ! भगवान गदाधर आश्रय है और लक्ष्मीजी शक्ति है, भगवान निमेष है और लक्ष्मीजी काष्ठा है, वे मुहूर्त है और ये कला है २९ सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक है और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति है, श्रीविष्णु वृक्षरूप है और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता है ३० चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन है और लक्ष्मीजी रात्रि है, वरदायक श्रीहरि वर है और पद्मनिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधु है ३१ भगवान नद है और श्रीजी नदी है, कमलनयन भगवान ध्वजा है और कमलालया लक्ष्मीजी पताका है ३२ जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ है और लक्ष्मीजी और गोविन्दरूप ही है ३३ अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेप में, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान हरि है और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नही है ३४३५

इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टमोऽध्यायः

अध्याय-09 दुर्वासाजी के शाप से इंद्र का पराजय, ब्रह्माजी की स्तुति से प्रसन्न हुए, भगवान का प्रकट होकर देवताओं को समुद्र – मंथन का उपदेश करना तथा देवता और दैत्यों का समुद्र – मंथन

श्रीपराशरजी बोले हे मैत्रेय ! तुमने इस समय मुझसे जिसके विषय में पूछा है वह श्रीसम्बन्ध मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, सुनो ॥ १ ॥ एक बार शंकर के अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथ्वीतल में विचर रहे थे । घूमते – घूमते उन्होंने एक विद्याधरी के हाथों में संतानक पुष्पों की एक दिव्य माला देखी । हे ब्रह्मन ! उसकी गंध से सुवासित होकर वह वन वनवासियों के लिये अति सेवनिय हो रहा था ॥ २ – ३ ॥ तब उन उन्मत्तवृत्तिवाले विप्रवर ने वह सुंदर माला देखकर उसे उस विद्याधर – सुन्दरी से माँगा ॥ ४ ॥ उनके माँगनेपर उस बड़े- बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरी ने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी ॥ ५ ॥

हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवर ने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल दिया और पृथ्वीपर विचरने लगे ॥ ६ ॥ इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढकर देवताओं के साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इंद्र को देखा ॥ ७ ॥ उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्त के समान वह मतवाले भौरों से गुज्जायमान माला अपने सिरपर से उतारकर देवराज इंद्र के ऊपर फेंक दी ॥ ८ ॥ देवराज ने उसे लेकर ऐरावत के मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वत के शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हो ॥ ९ ॥ उस मदोन्मत्त हाथी ने भी उसकी गंधसे आकर्षित हो उसे सूँड से सूँपकर पृथ्वीपर फेंक दिया ॥ १० ॥ हे मैत्रेय ! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इंद्र से इसप्रकार बोले ॥ ११ ॥

दुर्वासाजी ने कहा – अरे ऐश्वर्य के मदसे दूषितचित्त इंद्र ! तू बड़ा ढीठ हैं, तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभा की धाम माला का कुछ भी आदर नहीं किया ! ॥ १२ ॥ अरे ! तूने न तो प्रणाम करके ‘बड़ी कृपा की’ ऐसा ही कहा और न हर्ष से प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा ॥ १३ ॥ रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई मालका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकी का वैभव नष्ट हो जायगा ॥ १४ ॥ इंद्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणों के समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इसप्रकार अपमान किया है ॥ १५ ॥ अच्छा, तूने मेरी दी हुई माला को पृथ्वीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा ॥ १६ ॥ रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्व से इसप्रकार अपमान किया ॥ १७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब तो इंद्र ने तुरंत ही ऐरावत हाथी से उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजी को [अनुनय-विनय करके ] प्रसन्न किया ॥ १८ ॥ तब उसके प्रनामादि करने से प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे ॥ १९ ॥

दुर्वासाजी बोले – इंद्र ! मैं कृपालु – चित्त नहीं हूँ, मेरे अंत:करण में क्षमा को स्थान नहीं है । वे मुनिजन तो और ही है; तुम समझो, मैं तो दुर्वासा हूँ न ? ॥ २० ॥ गौतमादि अन्य मुनिजनों ने व्यर्थ ही तुझे इतना मूँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासा का सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है ॥ २१ ॥ दयामूर्ति वसिष्ठ आदि के बढ़-बढ़कर स्तुति करने से तू इतना गर्वीला हो गया कि आज मेरा भी अपमान करने चला है ॥ २२ ॥ अरे ! आप त्रिलोकी में भृकुटि को देखकर भयभीत न हो जाय ? ॥ २३ ॥ रे शतक्रतो ! तू बारंबार अनुनय-विनय करने का ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस कहने सुनने से क्या होगा ? मैं क्षमा नही कर सकता ॥ २४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे ब्रह्मन ! इसप्रकार कह वे विप्रवर वहाँ से चल दिये और इंद्र भी ऐरावतपर चढकर अमरावती को चले गये ॥ २५ ॥ हे मैत्रेय ! तभीसे इंद्र के सहित तीनों लोक वृक्ष – लता आदि के क्षीण हो जाने से श्रीहीन और नष्ट – भ्रष्ट होने लगे ॥ २६ ॥ तबसे यज्ञों का होना बंद हो गया, तपस्वियों ने त्प करना छोड़ दिया तथा लोगों का दान आदि धर्मों में चित्त नहीं रहा ॥ २७ ॥ हे द्विजोत्तम ! सम्पूर्ण लोक लोभादि के वशीभूत हो जाने से सत्त्वशुन्य (सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओं के लिये भी लालायित रहने लगे ॥ २८ ॥ जहाँ सत्त्व होता है वही लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है । श्रीहीनों में भला सत्त्व कहा ? और बिना सत्त्व के गुण कैसे ठहर सकते है ? ॥ २९ ॥ बिना गुणों के पुरुष में बल, शौर्य आदि सभी का अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभी से अपमानित होता है ॥ ३० ॥ अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित पुरुष की बुद्धि बिगड़ जाती है ॥ ३१ ॥

इसप्रकार त्रिलोकी के श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवों ने देवताओंपर चढाई कर दी ॥ ३२ ॥ सत्त्व और वैभव से शून्य होनेपर भी दैत्यों ने लोभवश नि:सत्त्व और श्रीहीन देवताओं से घोर युद्ध ठाना ॥ ३३ ॥ अंत में दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए । तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेव को आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजी की शरण गये ॥ ३४ ॥ देवताओं से सम्पूर्ण वृतांत सुनकर श्रीब्रह्माजी ने उनसे कहा, ‘ हे देवगण ! तुम दैत्य – दलन परावरेश्वर भगवान विष्णु की शरण जाओ, जो [ आरोप से] संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण है किन्तु [ वास्तव में] कारण भी नहीं है और जो चराचर के ईश्वर, प्रजापतियों के स्वामी, सर्वव्यापक, अनंत और अजेय है तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूप में परिणत हुए प्रधान [ मूलप्रकृति ] और पुरुष के कारण है एवं शरणागतवत्सल है । [ शरण जानेपर ] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे’ ॥ ३५ – ३७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण देवगणों से इसप्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागर के उत्तरी तटपर गये ॥ ३८ ॥ वहाँ पहुंचकर पितामह ब्रह्माजी ने समस्त देवताओं के साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान् की अति मंगलमय वाक्यों से स्तुति की ॥ ३९ ॥

ब्रह्माजी कहने लगे – जो समस्त अणुओं से भी अणु और पृथ्वी आदि समस्त गुरुओं [ भारी पदार्थों ] से भी गुरु [ भारी] है उन निखिललोकविश्राम, पृथ्वी के आधारस्वरूप, अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनंत, अज और अव्यय नारायण को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ४० – ४१ ॥ मेरे सहित सम्पूर्ण जगत जिसमें स्थित है, जिससे उत्पन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर [प्रधानादि ] से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है, मुक्ति-लाभ के लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वर में सत्त्वादि प्राकृतिक गुणों का सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थों से भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हो ॥ ४२ – ४४ ॥ जिस शुद्धस्वरूप भगवान की शक्ति [ विभूति ] कला-काष्ठा और मुहर्त आदि काल-क्रम का विषय नहीं हैं, वे भगवान विष्णु हमपर प्रसन्न हों ॥ ४५ ॥ जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचार से परमेश्वर (परमामहालक्ष्मीईश्वरपति ) अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियों के आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ४६ जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारण के भी कारण और कार्य के भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हो ४७ जो कार्य [ महत्तत्त्व ] के कार्य [ अहंकार ] का भी कार्य [ तन्मात्रापंचक ] है उसके कार्य [ भूतपंचक ] का भी कार्य [ ब्रह्मांड] जो स्वयं है उअर जो उसके कार्य [ ब्रह्माद्क्षादि ] का भी कार्यभूत [ प्रजापतियों के पुत्रपौत्रादि ] है उसे हम प्रणाम करते है ४८ तथा जो जगत के कारण [ ब्रह्मादि ] का कारण [ ब्रह्मांड ] और उसके कारण [ भूतपंचक ] के कारण [ पंचतन्मात्रा ] के कारणों [ अहंकारमहत्तत्त्वादि ] का भी हेतु [ मूलप्रकृति] है उस परमेश्वर को हम प्रणाम करते है ४९ जो भोक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपद को हम प्रणाम करते हैं ५० जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णु का परमपद [परस्वरूप ] है ५१ जो स्थूल हैं सूक्ष्म और किसी अन्य विशेषण का विषय है वही भगवान विष्णु का नित्यनिर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते है ५२ जिसके अयुतांश [ दस हजारवे अंश] के अयुतांश में यह विश्वरचना की शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्यय को हम प्रणाम करते है ५३ नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य पापादि का क्षय हो जानेपर ॐकार द्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पद का साक्षात्कार करते है वही भगवान विष्णु का परमपद है ५४ जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर और मैंकोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णु का परमपद है ५५ जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप शक्तियाँ है वही भगवान विष्णु का परमपद है ५६ हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन ! हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ५७

श्रीपराशरजी बोले – ब्रह्माजी के इन उद्गारों को सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले – ‘प्रभो ! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ॥ ५८ ॥ हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भगवान ब्रह्माजी भी नही जानते, आपके उस परमपद को हम प्रणाम करते है ॥ ५९ ॥

तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणों के बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे ॥ ६० ॥ ‘ जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ – पुरुष है और पूर्वजों के भी पूर्वमूल्य हैं उन जगत के रचयिता निर्विशेष परमात्मा को हम नमस्कार करते है ॥ ६१ ॥ हे भूत – भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन ! हे अव्यय ! हम सब शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये ॥ ६२ ॥ हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रों के सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्यों के सहित भगवान पूषा, अग्नियों के सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्रण, साध्यगण, विश्वेदेव तथा देवराज इंद्र ये सभी देवगण दैत्य – सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरण में आये है ॥ ६३ – ६५ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! इसप्रकार स्तुति किये जानेपर शंख-चक्रधारी भगवान परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए ॥ ६६ ॥ तब उस शंख – चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्ति को देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोमवश चकित-नयन हो उन कमलनयन भगवान की स्तुति करने लगे ॥ ६७ – ६८ ॥

देवगण बोले हे प्रभो ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा है, आप ही शंकर हैं तथा आप ही इंद्र, अग्नि, पवन, वरुण, सूर्य और यमराज है ॥ ६९ ॥ हे देव ! वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही है तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्त्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्योंकि आप सर्वत्र परिपूर्ण है ॥ ७० ॥ आप ही यज्ञ हैं, आप ही वषटकार हैं तथा आप ही ॐकार और प्रजापति हैं । हे सर्वात्मन ! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत आपही का स्वरूप तो है ॥ ७१ ॥ हे विष्णो ! दैत्यों से परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरण में आये हैं; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिये ॥ ७२ ॥ हे प्रभो ! जबतक जीव सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाले आपकी शरण में नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता, इच्छा, मोह और दुःख आदि रहते है ७३ हे प्रसन्नात्मन ! हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्ति से हम सब देवताओं के [ खोये हुए ] तेज को फिर बढ़ाइये ॥ ७४ ॥

क्रमशः

अध्याय-10 नवाँ [ शेष भाग ] दुर्वासाजी के शाप से इंद्र का पराजय, ब्रह्माजी की स्तुति से प्रसन्न हुए, भगवान का प्रकट होकर देवताओं को समुद्र – मंथन का उपदेश करना तथा देवता और दैत्यों का समुद्र – मंथन

श्रीपराशरजी बोले – विनीत देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्मा भगवान हरि प्रसन्न होकर इसप्रकार बोले ॥ ७५ ॥ हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढ़ाऊँगा; तुम इससमय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो ॥ ७६ ॥ तुम दैत्यों के साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृत के लिये क्षीर-सागर में डालो और मन्दराचल को मथानी तथा वासुकि नाग को नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवों के सहित मेरी सहायता से मथकर अमृत निकालो ॥ ७७ – ७८ ॥ तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्यों से कहो कि ‘इस काम में सहायता करने से आपलोग भी इसके फल में समान भाग पायेंगे’ ॥ ७९ ॥ समुद्र के मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करने से तुम सबल और अमर हो जाओगे ॥ ८० ॥ हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्यों को अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्से में केवल समुद्र-मंथन का क्लेश ही आयेगा ॥ ८१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब देवदेव भगवान विष्णु के ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्यों से संधि करके अमृतप्राप्ति के लिये यत्न करने लगे ॥ ८२ ॥ हे मैत्रेय ! देव, दानव और दैत्यों ने नाना प्रकार की ओषधियाँ लाकर उन्हें शरद – ऋतू के आकाशकी –सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर-सागर के जलमें डाला और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नाग को नेती बनाकर बड़े वेग से अमृत मथना आरम्भ किया ॥ ८३ – ८४ ॥ भगवान ने जिस ओर वासुकि की पूँछ थी उस ओर देवताओं को तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्यों को नियुक्त किया ॥ ८५ ॥ महातेजस्वी वासुकि के मुखसे निकलते हुए नि:श्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्योंगण निस्तेज हो गये ॥ ८६ ॥ और उसी श्वास-वायुसे विक्षिप्त हुए मेषोंके पूँछ की ओर बरसते रहने से देवताओं की शक्ति बढती गयी ॥ ८७ ॥

हे महामुने ! भगवान स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर-सागर में घूमते हुए मन्दराचल के आधार हुए ॥ ८८ ॥ और वे ही चक्र – गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूपसे देवताओं में और एक रूप से दैत्यों में मिलकर नागराज को खींचने लगे थे ॥ ८९ ॥ तथा हे मैत्रेय ! एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्यों को दिखायी नहीं देता था, श्रीकेशव ने ऊपरसे पर्वत को दबा रखा था ॥ ९० ॥ भगवान श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकि में बलका संचार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओं का बल बढ़ा रहे थे ॥ ९१ ॥

इसप्रकार देवता और दानवोंद्वारा क्षीर-समुद्र के मथे जानेपर पहले हवि [यज्ञ-सामग्री] की आश्रयरूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई ॥ ९२ ॥ हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनंदित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी ॥ ९३ ॥ फिर स्वर्गलोक में ‘यह क्या है ? यह क्या है ? ‘ इसप्रकार चिंता करते हुए सिद्धों के समक्ष मद से घूमते हुए नेत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई ॥ ९४ ॥ और पुन: मंथन करनेपर उस क्ष्रीर-सागर से, अपनी गंध से त्रिलोकी को सुगन्धित करनेवाला तथा सुर-सुन्दरियों का आनंदवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥ ९५ ॥ हे मैत्रेय ! तत्पश्चात क्षीर-सागर से रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई ॥ ९६ ॥ फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेवजी ने ग्रहण कर लिया । इसीप्रकार क्ष्रीर-सागर से उत्पन्न हुए विष को नागोंने ग्रहण किया ॥ ९७ ॥ फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात भगवान धन्वन्तरिजी अमृत से भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए ॥ ९८ ॥ हे मैत्रेय ! उससमय मुनिगण के सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ-चित्त होकर अति प्रसन्न हुए ॥ ९९ ॥

उसके पश्चात विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथों में कमल-पुष्प धारण किये क्षीर-समुद्र से प्रकट हुई ॥ १०० ॥ उससमय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसुक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगी ॥ १०१ – १०२ ॥ उन्हें अपने जलसे स्नान कराने के लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हुई और दिग्गजों ने सुवर्ण-कलशों में भरे हुए उनके निर्मल जल से सर्वलोक-महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवी को स्नान कराया ॥ १०३ ॥ क्षीर-सागर ने मूर्तिमान होकर उन्हें विकसित कमल-पुष्पों की माला दी तथा विश्वकर्मा ने उनके अंग-प्रत्यंग में विविध आभूषण पहनाये ॥ १०४ ॥ इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसे स्नान कर, दिव्य आभूषणों से विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओं के देखतेदेखते श्रीविष्णुभगवान के वक्ष:स्थल में विराजमान हुई १०५

हे मैत्रेय ! श्रीहरि के वक्ष:स्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजी का दर्शन कर देवताओं को अकस्मात अत्यंत प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥ १०६ ॥ और हे महाभाग ! लक्ष्मीजी से परित्यक्त होने के कारण भगवान विष्णु के विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्दिग्न (व्याकुल) हुए ॥ १०७ ॥ तब उन महाबलवान दैत्यों इ श्रीधन्वन्तरिजी के हाथ से वह कमंडलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था ॥ १०८ ॥ अत: स्त्री (मोहिनी) रूपधारी भगवान विष्णु ने अपनी माया से दानवों को मोहित कर उनसे वह कमण्डलु लेकर देवताओं को दे दिया १०९

तब इंद्र आदि देवगण उस अमृत को पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खंड आदि शस्त्रों से सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पड़े ॥ ११० ॥ किन्तु अमृत-पान के कारण बलवान हुए देवताओंद्वारा मारी-काटी जाकर दैत्यों की सम्पूर्ण सेना दिशा-विदिशाओं में भाग गयी और कुछ पाताललोक में भी चली गयी ॥ १११ ॥ फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख – चक्र – गदा – धारी भगवान को प्रणाम कर पहले ही के समान स्वर्ग का शासन करने लगे ॥ ११२ ॥

हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समय से प्रखर तेजोयुक्त भगवान सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने-अपने मार्गसे चलने लगे ॥ ११३ ॥ सुंदर दीप्तिशाली भगवान अग्निदेव अत्यंत प्रज्वलित हो उठे और उसी समय से समस्त प्राणियों की धर्म में प्रवृत्ति हो गयी ॥ ११४ ॥ हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसंपन्न हो गयी और देवताओं में श्रेष्ठ इंद्र भी पुन: श्रीमान हो गये ॥ ११५ ॥

तदनंतर इंद्र ने स्वर्गलोक में जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरूढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजी की इसप्रकार स्तुति की ११६

इंद्र बोले सम्पूर्ण लोको की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रोंवाली, भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ११७ कमल ही जिनका निवासस्थान हैं, कमल ही जिनके करकमलों में सुशोभित है, तथा कमलदल के समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाथप्रिया श्रीकमलादेवी की मैं वन्दना करता हूँ ११८ हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकी को पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ११९

हे शोभने ! यज्ञविद्या (कर्मकाण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इंद्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तुम्हीं मुक्तिफलदायिनी आत्मविद्या हो १२० हे देवि ! आन्विक्षीकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवानिज्यादि ) और दंडनिति (राजनीति) भी तुम्हीं हो तुम्हींने अपने शांत और उग्र रूपों से यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है १२१ हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान गदाधर के योगिजन चिंतित सर्वयज्ञमय शरीर का आश्रय पा सके १२२ हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हीने उसे पुन: जीवनदान दिया है १२३ हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुह्रद ये सब सदा आपही के दृष्टिपात से मनुष्यों को मिलते हैं १२४ हे देवि ! तुम्हारी कृपा दृष्टि के पात्र पुरुषों के लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रुपक्ष का नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है १२५ तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान हरि पिता है हे मात: ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान् से यह सक; चराचर जगत व्याप्त है १२६ हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुशाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहे १२७ अग्नि विष्णुवक्ष:स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुह्रद, पशु और भूषण आदिको आप कभी छोड़े १२८ हे अमले ! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं १२९ और तुम्हारी कृपादृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हो जाते हैं १३० हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है , वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है १३१ हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरंत अवगुणरूप हो जाते हैं १३२ हे देवि ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्रीब्रह्माजी की रसना भी समर्थ नहीं हैं अत: हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी छोडो १३३

श्रीपराशरजी बोलेहे द्विज ! इसप्रकार सम्यक स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थित श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओं के सुनते हुए इंद्र से इसप्रकार बोली १३४

श्रीलक्ष्मीजी बोलीहे देवेश्वर इंद्र ! मैं तेरे इस स्तोत्र से अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले मैं तुझे वर देने के लिये ही यहाँ आयी हूँ १३५

इंद्र बोले हे देवि ! यदि आप वर देना चाहती है और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकी का कभी त्याग करें १३६ और हे समुद्रसम्भवे ! दूसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्र के स्तुति करे उसे आप कभी त्यागे १३७

श्रीलक्ष्मीजी बोलीहे देवश्रेष्ठ इंद्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को कभी छोड़ूँगी तेरे स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ १३८ तथा जो कोई मनुष्य प्रात:काल और सायंकाल के समय इस स्तोत्र से मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख होऊँगी १३९

श्रीपराशरजी बोलेहे मैत्रेय ! इसप्रकार पूर्वकाल में महाभागा श्रीलक्ष्मीजी ने देवराज की स्तोत्ररूप आराधना से संतुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये १४० लक्ष्मीजी पहले भृगुजी के द्वारा ख्याति नामक स्त्री से उत्पन्न हुई थी, फिर अमृतमंथन के समय देव और दानवों के प्रयन्त से वे समुद्र से प्रकट हुई १४१ इसप्रकार संसार के स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान जबजब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं १४२ जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्म से फिर उत्पन्न हुई [ और पद्मा कहलायी ] तथा जब वे परशुराम हुए तो ये पृथ्वी हुई १४३ श्रीहरि के राम होनेपर ये सीताजी हुई और कृष्णावतार में श्रीरुक्मिणीजी हुई इसी प्रकार अन्य अवतारों में भी ये भगवान से कभी पृथक नहीं होती १४४ भगवान के देवरूप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती है और मनुष्य होनेपर मानवीरूप से प्रकट होती है विष्णुभगवान के शरीर के अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती है १४५ जो मनुष्य लक्ष्मीजी के जन्म की इस कथा को सुनेगा अथवा पढ़ेगा उसके घर में [ वर्तमान आगामी और भूत ] तीनों कुलों के रहते हुए कभी लक्ष्मी का नाश होगा १४६ हे मुने ! जिन घरों में लक्ष्मीजी के इस स्तोत्र का पाठ होता है उनमें कलह की आधारभूत दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती १४७ हे ब्रह्मन ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजी की पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीरसमुद्र से कैसे उत्पन्न हुई सो मैंने तुमसे यह सब वृतांत कह दिया १४८ इसप्रकार इंद्र के मुख से प्रकट हुई यह लक्ष्मीजी की स्तुति सकल विभूतियों की प्राप्ति का कारण है, जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी १४९

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे नवमोऽध्यायः

अध्याय-10 भृगु, अग्नि और अग्निष्ठात्तादि पितरों की संन्तान का वर्णन

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे मुने ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने वर्णन किया; सब भृगुजी की सन्तान से लेकर सम्पूर्ण सृष्टि का आप मुझसे फिर वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

श्रीपराशरजी बोले – भृगुजी के द्वारा ख्याति से विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी और धाता, विधाता नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए ॥ २ ॥ महात्मा मेरु की आयति और नियतिनाग्नी कन्याएँ धाता और विधाता की स्त्रियाँ थीं; उनसे उनके प्राण और मृकंडू नामक दो पुत्र हुए । मृकंडू से मार्कण्डेय और उनसे वेदशिरा का जन्म हुआ । अब प्राण की सन्तान का वर्णन सुनो ॥ ३ – ४ ॥ प्राण का पुत्र द्युतिमान् और उसका पुत्र राजवान हुआ । हे महाभाग ! उस राजवान से फिर भृगुवंश का बड़ा विस्तार हुआ ॥ ५ ॥

मरीचि की पत्नी सम्भूति ने पौर्णमास को उत्पन्न किया । उस महात्मा के विरजा और पर्वत दो पुत्र थे ॥ ६ ॥ हे द्विज ! उनके वंश का वर्णन करते समय मैं उन दोनों की सन्तान का वर्णन करूँगा । अंगिरा की पत्नी स्मृति थी, उसके सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति नामकी कन्याएँ हुई ॥ ७ ॥ अत्रि की भार्या अनसूया ने चंद्रमा, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय – इन निष्पाप पुत्रों को जन्म दिया ॥ ८ ॥ पुलस्त्य की स्त्री प्रीति से द्त्तोलि का जन्म हुआ जो अपने पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मन्वन्तर में अगस्त्य कहा जाता था ॥ ९ ॥ प्रजापति पुलहकी पत्नी क्षमा से कर्दम, उर्वरीयान और सहिष्णु ये तीन पुत्र हुए ॥ १० ॥

क्रतु की सन्तति नामक भार्याने अंगूठे के पोरुओं के समान शरीरवाले तथा प्रखर सूर्य के समान तेजस्वी वालखिल्यादि साथ हजार ऊर्ध्वरेता मुनियों को जन्म दिया ॥ ११ ॥ वसिष्ठ की ऊर्जा नामक स्त्री से रज, गोत्र, ऊर्ध्वबाहू, सवन, अनघ, सुतपा और शुक्र ये सात पुत्र उत्पन्न हुए । ये निर्मल स्वभाववाले समस्त मुनिगण [ तीसर मन्वन्तर में ] सप्तर्षि हुए ॥ १२ – १३ ॥

हे द्विज ! अग्निका अभिमानी देव, जो ब्रह्माजी का ज्येष्ठ पुत्र है, उसके द्वारा स्वाहा नामक पत्नी से अति तेजस्वी पावक, पवमान और जलको भक्षण करनेवाला शुचिये तीन पुत्र हुए १४१५ इन तीनों के [प्रत्येक के पन्द्रहपन्द्रह पुत्र के क्रम से ] पैतालीस सन्तान हुई पिता अग्नि और उसके तीन पुत्रों को मिलाकर ये सब अग्नि ही कहलाते है इसप्रकार कुल उनचास (४९) अग्नि कहे गये है १६१७ हे द्विज ! ब्रह्माजीद्वारा रचे गये जिन अनग्निक अग्निष्ठात्ता और साग्निक बर्हिषद आदि पितरों के विषय में तुमसे कहा था । उनके द्वारा स्वधा ने मेना और धारिणी नामक दो कन्याएँ उत्पन्न की । वे दोनों ही उत्तम ज्ञान से सम्पन्न और सभी गुणों से युक्त ब्रह्मवादिनी तथा योगिनी थी ॥ १८- २० ॥

इसप्रकार यह दक्षकन्याओं की वंशपरम्परा का वर्णन किया जो कोई श्रद्धापूर्वक इसका स्मरण करता है वह नि:सन्तान नही रहता २१

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे दशमोऽध्यायः –

अध्याय-11 ध्रुव का वनगमन और मरीचि आदि ऋषियों से भेट

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हे स्वायम्भुवमनु के प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे ॥ १ ॥ हे ब्रह्मन ! उनमें से उत्तानपाद की प्रेयसी पत्नी सुरुचि से पिता का अत्यंत लाडला उत्तम नामक पुत्र हुआ ॥ २ ॥ हे द्विज ! उस राजा की जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था । उसका पुत्र ध्रुव हुआ ॥ ३ ॥

एक दिन राजसिंहासन पर बैठे हुए पिताकी गोद में अपने भाई उत्तम को बैठा देख ध्रुव की इच्छा भी गोदमें बैठने की हुई ॥ ४ ॥ किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचि के सामने, गोदमें चढने के लिये उत्कंठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्र का आदर नहीं किया ॥ ५ ॥ अपनी सौत के पुत्र को गोद में चढने के लिये उत्सुक और अपने पुत्र को गोद में बैठा देख सुरुचि इसप्रकार कहने लगी ॥ ६ ॥ ‘अरे लल्ला ! बिना मेरे पेट से उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्री का पुत्र होकर भी तू व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? ॥ ७ ॥ तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तु की इच्छा करता है । यह ठीक है कि तू भी इन्ही राजाका पुत्र है, तथापि मैंने तो तुझे अपने गर्भ में धारण नहीं किया ॥ ८ ॥ समस्त चक्रवर्ती राजाओं का आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्र के योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्त को संताप देता है ? ॥ ९ ॥ मेरे पुत्र के समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नही जानता कि तेरा जन्म सुनीति से हुआ है ?’ ॥ १० ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोडकर अपनी माता के महल को चल दिया ॥ ११ ॥ हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ-कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्र को क्रोधयुक्त देख सुनीति ने उसे गोद में बिठाकर पूछा ॥ १२ ॥ ‘बेटा ! तेरे क्रोध का क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नही किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजी का अपमान करने चला है ?’ ॥ १३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – ऐसा पुछ्नेपर ध्रुव ने अपनी मातासे वे सब बातें कह दी जो अति गर्वीली सुरुचि ने उससे पिताके सामने कही थी ॥ १४ ॥ अपने पुत्र के सिसक-सिसककर ऐसा कहनेपर दु:खिनी सुनीति ने खिन्न चित्त और दीर्घ नि:श्वास के कारण मलिननयना होकर कहा ॥ १५ ॥

सुनीति बोली – बेटा ! सुरुचि ने ठीक ही कहा है, अवश्य ही तू मंदभाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानों से उनके विपक्षी ऐसा नही कह सकते ॥ १६ ॥ बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकि तूने पूर्व-जन्मों में जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नही किया वह तुझे दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्यों से खेद नही करना चाहिये ॥ १७ – १८ ॥ हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है, उसीको राजासन, राजच्छत्र तथा उत्तम-उत्तम घोड़े और हाथी आदि मिलते है – ऐसा जानकर तू शांत हो जा ॥ १९ ॥ अन्य जन्मों में किये हुए पुण्य-कर्मों के कारण ही सुरुचि में राजा की सुरुचि (प्रीति) है और पुण्यहीना होने से ही मुझ-जैसी स्त्री केवल भार्या (भरण करने योग्य) ही कही जाती है ॥ २० ॥ उसीप्रकार उसका पुत्र उत्तम भी बड़ा पुण्य-पुज्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रुव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान हैं ॥ २१ ॥ तथापि बेटा ! तुझे दु:खी नही होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्य को जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजी में मग्न रहता है ॥ २२ ॥ और यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख ही हुआ है तो सर्वफलदायक पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर ॥ २३ ॥ तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियों का हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने – आप ही पात्र में आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्य के पास स्वत: ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती है ॥ २४ ॥

ध्रुव बोला – माताजी ! तुमने मेरे चित्त को शांत करने के लिये जो वचन कहे है वे दुर्वाक्यों से बिंधे हुए मेरे ह्रदय में तनिक भी नही ठहरते ॥ २५ ॥ इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों से आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ ॥ २६ ॥ राजा की प्रेयसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदर से जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भ में बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना ॥ २७ ॥ उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भ से धारण किया है , मेरा भाई ही है । पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । [ भगवान करे ] ऐसा ही हो ॥ २८ ॥ माताजी ! मैं किसी दूसरे की दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजी ने भी नही प्राप्त किया है ॥ २९ ॥

श्रीपराशरजी बोले – मातासे इसप्रकार कह ध्रुव उसके महल से निकल पड़ा उअर फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवन में पहुँचा ॥ ३० ॥

वहाँ ध्रुव ने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरों को कृष्ण मृग-चर्म के बिछौनो से युक्त आसनोंपर बैठे देखा ॥ ३१ ॥ उस राजकुमार ने उस सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा ॥ ३२ ॥

ध्रुव ने कहा – हे महात्माओं ! मुझे आप सुनीति से उत्पन्न हुआ राजा उत्तानपाद का पुत्र जाने । मैं आत्मग्लानि के कारण आपके निकट आया हूँ ॥ ३३ ॥

ऋषि बोले – राजकुमार ! अभी तो तू चार – पाँच वर्षका ही बालक है । अभी तेरे निर्वेद का कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता । । ३४ ॥ तुझे कोई चिंता का विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नही देता ॥ ३५ ॥ तथा हमें तेरे शरीर में भी कोई व्याधि नहीं दीख पडती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? ॥ ३६ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब सुरुचि ने तुमसे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया । उसे सुनकर वे ऋषिगण आपस में इसप्रकार कहने लगे ॥ ३७ ॥ ‘अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालक में भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाता का कथन उसके ह्रदय से नहीं टलता ॥ ३८ ॥ हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेद के कारण तूने जो कुछ करने का निश्चय किया है, यदि तुझे रुचे तो वह हमलोगों से कह दे ॥ ३९ । और हे अतुलिततेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकि हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तू कुछ कहना चाहता है ॥ ४० ॥

ध्रुव ने कहा – हे द्वीजश्रेष्ठ ! मुझे न तो धन की इच्छा है और न राज्य की, मैं तो केवल एक उसी स्थान को चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोग हो ॥ ४१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भलीप्रकार यह बता दें कि क्या करने से वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है ॥ ४२ ॥

मरीचि बोले – हे राजपुत्र ! बिना गोविन्द की आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नही मिल सकता, अत: तू श्रीअच्युत की आराधना कर ॥ ४३ ॥

अत्रि बोलेजो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे संतुष्ट होते है उसी को वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्यसत्य कहता हूँ ४४

अंगिरा बोले – यदि तू अग्रयस्थान का इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युत में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है उन गोविन्द की ही आराधना कर ॥ ४५ ॥

पुलस्त्य बोलेजो परब्रह्म परमधाम और परस्वरूप है उन हरि की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है ४६

पुलह बोले हे सुव्रत ! जिन जगत्पति की आराधना से इंद्र ने अत्युत्तम इंद्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर ॥ ४७ ॥

क्रतु बोले – जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं उन जनार्दन के संतुष्ट होनेपर कौन-सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ॥ ४८ ॥

वसिष्ठ बोले – हे वत्स ! विष्णुभगवान् की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के उत्तमोत्तम स्थान की तो बात ही क्या है ॥ ४९ ॥

ध्रुव ने कहा – हे महर्षिगण ! मुझ विनीत को आपने आराध्यदेव तो बता दिया । अब उसको प्रसन्न करने के लिये मुझे क्या जपना चाहिये – यह बताइये । उस महापुरुष की मुझे जिसप्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥ ५० – ५१ ॥

ऋषिगण बोले हे राजकुमार ! विष्णु भगवान की आराधना में तत्पर पुरुषों को जिसप्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत श्रवण कर ॥ ५२ ॥ मनुष्य को चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयों से चित्त को हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधार में ही स्थिर कर दे ॥ ५३ ॥ हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित्त होकर तन्मयभाव से जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन ५४ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्धज्ञानस्वरूप वासुदेव को नमस्कार है ५५ इस ( नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्त्र को पूर्वकाल में तेरे पितामह भगवान स्वायम्भुवमनुने जपा था तब उनसे संतुष्ट होकर श्रीजनार्दन ने उन्हें त्रिलोकी में दुर्लभ मनोवांछित सिद्धि दी थी उसी प्रकार तू भी इसका निरंतर जप करता हुआ श्रीगोविंद को प्रसन्न कर ५६५७

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकादशोऽध्यायः –

अध्याय-12 ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न हुए भगवान का आविर्भाव और उसे ध्रुवपद – दान

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियों को प्रणामकर उस वन से चल दिया ॥ १ ॥ और हे द्विज ! अपने को कृतकृत्यसा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधुनामक वन में आया आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतल में मधुवन नामसे विख्यात हुआ वही मधु के पुत्र लवण नामक महाबली राक्षस को मारकर शत्रुघ्न ने मधुरा (मथुर) नामकी पूरी बसायी जिस मधुवन में निरंतर देवदेव श्रीहरि की सन्निधि रहती है उसी सर्वपापापहारी तीर्थ में ध्रुव ने तपस्या की मरीचि आदि मुनीश्वरों ने उसे जिसप्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने ह्रदय में विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवान का ध्यान करना आरम्भ किया \ इसप्रकार हे विप्र ! अनन्यचित्त होकर ध्यान करते रहने से उसके ह्रदय में सर्वभूतांतर्यामी भगवान हरि सर्वतोभाव से प्रकट हुए

मैं मैत्रेय ! योगी ध्रुव के चित्त में भगवान विष्णु के स्थित हो जानेपर सर्वभूतों को धारण करनेवाली पृथ्वी उसका भार न सँभाल सकी ॥ ८ ॥ उसके बायें चरनपर खड़े होने से पृथ्वी का बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दायें चरणपर खड़े होने से दायाँ भाग झुक गया ॥ ९ ॥ और जिस समय वह पैर के अँगूठे से पृथ्वी को [बीच से ] दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतों के सहित समस्त भूमंडल विचलित हो गया ॥ १० ॥ हे महामुने ! उससमय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यंत क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोम से देवताओं में भी बड़ी हलचल मची ॥ ११ ॥ हे मैत्रेय ! तब याम नामक देवताओं ने अत्यंत व्याकुल हो इंद्र के साथ परामर्श कर उसके ध्यान को भंग करने का आयोजन किया ॥ १२ ॥ हे महामुने ! इंद्र के साथ अति आतुर कुष्मांड नामक उपदेवताओं ने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करने आरम्भ किया ॥ १३ ॥

उससमय मायाही से रची हुई उसकी माता सुनीति नेत्रों में आँसू भरे उसके सामने प्रकट हुई और ‘हे पुत्र ! हे पुत्र ! ‘ ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी – बेटा ! तू शरीर को घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे । मैंने बड़ी-बड़ी कामनाओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है ॥ १४- १५ ॥ अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखिया को सौत के कटु वाक्यों से छोड़ देना मुझे उचित नही है । बेटा ! मुझ आश्रयहीना का तो एकमात्र तू ही सहारा है ॥ १६ ॥ कहाँ तो पाँच वर्ष का तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेशकारी आग्रह से अपना मन मोड़ ले ॥ १७ ॥ अभी तो तेरे खेलने – कूदने का समय है, फिर अध्ययन का समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगों के भोगने का और फिर अंत में तपस्या करना भी ठीक होगा ॥ १८ ॥ बेटा ! तुझ सुकुमार बालक का ‘जो खेल-कूद का समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपने सर्वनाश में तत्पर हुआ है ? ॥ १९ ॥ तेरा परम धर्म तो मुझ को प्रसन्न रखना ही है, अत: तू अपनी आयु और अवस्था के अनुकूल कर्मों में ही लग, मोह्का अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्म से निवृत्त हो ॥ २० ॥ बेटा ! यदि आज तू इस तपस्या को न छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ॥ २१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! भगवान विष्णु में चित्त स्थिर रहने के कारण ध्रुव ने उसे आँखों में आँसू भरकर इसप्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा ॥ २२ ॥

तब ‘अरे बेटा ! यहाँ से भाग-भाग ! देख, इस महाभयंकर वन में ये कैसे घोर राक्षस अस्त्र-शस्त्र उठाये आ रहे हैं ‘ – ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्नि की लपटे निकल रही थी ऐसे अनेकों राक्षसगण अस्त्र-शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ॥ २३ – २४ ॥ उन राक्षसों ने अपने अति चमकीले शस्त्रों को घुमाते हुए उस राजपुत्र के सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया ॥ २५ ॥ उस नित्य-योगयुक्त बालक को भयभीत करने के लिये अपने मुख से अग्नि की लपटे निकालती हुई सैकड़ो स्थारियाँ घोर नाद करने लगी ॥ २६ ॥ वे राक्षसगण भी ‘इसको मारो-मारो, काटो-काटो, खाओ – खाओ’ इस प्रकार चिल्लाने लगे ॥ २७ ॥ फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिर के से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्र को त्राण देने के लिये नाना प्रकार से गरजने लगे ॥ २८ ॥

किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालक को वे राक्षस, उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र-शस्रादी कुछ भी दिखायी नहीं दिये ॥ २९ ॥ वह राजपुत्र एकाग्रचित्त से निरंतर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवान् को ही देखता रहा और उसने किसी की ओर किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥ ३० ॥

तब सम्पूर्ण माया के लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंका से देवताओं को बड़ा भय हुआ ॥ ३१ ॥ अत: उसके तपसे संतप्त हो वे सब आपस में मिलकर जगत के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनंत श्रीहरि की शरण में गये ॥ ३२ ॥

देवता बोले – हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुव की तपस्या से संतप्त होकर आपकी शरण में आये है ॥ ३३ ॥ हे देव ! जिसप्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओं से प्रतिदिन बढ़ता है उसी प्रकार यह भी तपस्या के कारण रात-दिन उन्नत हो रहा है ॥ ३४ ॥ हे जनार्दन ! इस उत्तानपाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर हम आपकी शरण में आये है , आप उसे तपसे निवृत्त कीजिये ॥ ३५ ॥ हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है ॥ ३६ ॥ अत: हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपाद के पुत्र को तपसे निवृत्त करके हमारे ह्रदय का काँटा निकालिये ॥ ३७ ॥

श्रीभगवान बोले – हे सुरगण ! उसे इंद्र, सूर्य, वरुण अथवा कुबेर आदि किसी के पदकी अभिलाषा नहीं हैं, उसकी जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करूँगा ॥ ३८ ॥ हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने-अपने स्थानों को जाओ । मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक को निवृत्त करता हूँ ॥ ३९ ॥

श्रीपराशरजी बोले – देवाधिदेव भगवान के ऐसा कहनेपर इंद्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने-अपने स्थानों को गये ॥ ४० ॥ सर्वात्मा भगवान हरि ने भी ध्रुव की त्न्म्याता से प्रसन्न हो उसके निकट चतुर्भुजरूप से इसप्रकार कहा ॥ ४१ ॥

श्रीभगवान बोले – हे उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुझे वर देने के लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग ॥ ४२ ॥ तूने सम्पूर्ण बाह्य विषयों से उपरत होकर अपने चित्त को मुझ में ही लगा दिया । अत: मैं तुझसे अति संतुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥ ४३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – देवाधिदेव भगवान के ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुव ने आँखे खोली और अपनी ध्यानावस्था में देखे हुए भगवान हरि को साक्षात अपने सम्मुख खड़े देखा ॥ ४४ ॥ श्रीअच्युत को किरीट तथा शंख, चक्र, गदा, शांगधनुष और खड्ग धारण किये देख उसने पृथ्वीपर सिर रखकर प्रणाम किया ॥ ४५ ॥ और सहसा रोमांचित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेव की स्तुति करने की इच्छा की ॥ ४६ ॥ किन्तु इनकी स्तुति के लिये मैं क्या कहूँ ? काया कहने से वह चित्त में व्याकुल हो गया और अंत में उसने उन देवदेव की ही शरण ली ॥ ४७ ॥

ध्रुव ने कहा भगवन ! आप यदि मेरी तपस्या से संतुष्ट है तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये ॥ ४८ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्रीगोविंद ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपाद के पुत्र को अपने (वेदमय) शब्द के अंत (वेदान्तमय) भागसे छू दिया ॥ ४९ ॥ तब तो एक क्षण में ही वह राजकुमार प्रसन्न-मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युत की स्तुति करने लगा ॥ ५० ॥

ध्रुव बोले पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल-प्रकृति – ये सब जिनके रूप है उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५१ ॥ जो अति सूक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधान से भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण-भोक्ता परमपुरुष को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५२ ॥ हे परमेश्वर ! पृथ्वी, आदि समस्त भूत, गंधादि उनके गुण, बुद्धि आदि अंत:करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष (जीव) से भी परे जो सनातन पुरुष है, उन आप निखिलब्रह्मांडनायक के ब्रह्मभूत शुद्धस्वरूप आत्मा की मैं शरण हूँ ॥ ५३ – ५४ ॥ हे सर्वात्मन ! हे योगियों के चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होने के कारण आपका जो ब्रह्म नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूप को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५५ ॥ हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोंवाले परमपुरुष है, आप सर्वत्र व्याप्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर दस गुण महाप्रमान स्थित है ॥ ५६ ॥

श्रीभगवान बोले – हे ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी, परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता ॥ ५७ ॥ इसलिये तुझको जिस वर की इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुष को सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥ ५८ ॥

ध्रुव बोले – हे भूतभव्येश्वर भगवन ! आप सभी के अंत:करणों में विराजमान है । हे ब्रह्मन ! मेरे मन की जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? ॥ ५९ ॥ तो भी, हे देवेश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तु की ह्रदय से इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ॥ ६० ॥ हे समस्त संसार को रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर (संसार में ) क्या दुर्लभ है ? इंद्र भी आपके कृपाकटाक्ष के फलरूप से ही त्रिलोकी को भोगता है ॥ ६१ ॥

प्रभो ! मेरी सौतेली माता ने गर्व से अति बढ़-बढकर मुझसे यह कहा था कि ‘जो मेरे उदर से उत्पन्न नही है उसके योग्य यह राजासन नहीं है ‘ ॥ ६२ ॥ अत: हे प्रभो ! आपके प्रसाद से मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थान को प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्व का आधारभूत हो ॥ ६३ ॥

श्रीभगवान बोले – अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थान की इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा ॥ ६४ ॥ पूर्वजन्म में तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरंतर एकाग्रचित्त रहनेवाला, मातापिता का सेवक तथा स्वधर्म का पालन करनेवाला था ६५ कालान्तर में एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया वह अपनी युवावस्था में सम्पूर्ण भोगों से सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था ६६ उसके संग से उसके दुर्लभ वैभव को देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई किमैं भी राजपुत्र होऊँ ६७ ॥ अत: हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवांछित राजपुत्रता प्राप्त हुई और जिन स्वायम्भुवमनु के कुल में और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीं के घर में तूने उत्तानपाद के यहाँ जन्म लिया ॥ ६८ – ६९ ॥ अरे बालक ! जिसने तुझे संतुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यंत तुच्छ है मेरी आराधना करने से तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसका चित्त निरंतर मुझमें हु लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकों का तो कहना ही क्या है ? ७०७१ हे ध्रुव ! मेरी कृपासे तू निस्संदेह उस स्थान में , जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामंडल का आश्रय बनेगा ७२ हे ध्रुव ! मैं तुझे वह धुव (निश्चल) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों, सप्तर्षियों और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणों से ऊपर है ७३७४ देवताओं में से कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तर तक ही रहते है; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतक की स्थिति देता हूँ ७५

तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूप से उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी ७६ और जो लोग समाहित चित्तसे सायंकाल और प्रात:काल के समय तेरा गुणकीर्तन करेंगे उनको महान पुण्य होगा ७७

श्रीपराशरजी बोले – हे महामते ! इसप्रकार पूर्वकाल में जगत्पति देवाधिदेव भगवान जनार्दन से वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थान में स्थित हुए ॥ ७८ ॥ हे मुने ! अपने माता-पिता की धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर मन्त्र के माहात्म्य और तप के प्रभाव से उनके मान, वैभव एवं प्रभाव की वृद्धि देखकर देव और असुरों के आचार्य शुक्रदेव ने ये श्लोक कहे है ॥ ७९ – ८० ॥

‘अहो ! इस ध्रुव के तप का कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भूत फल है जो इस ध्रुव को ही आगे रखकर सप्तर्षिगण स्थित हो रहे है ॥ ८१ ॥ इसकी यह सुनीति नामवाली माता भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है । संसार में ऐसा कौन है जो इसकी महिमा का वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोख में उस ध्रुव को धारण करके त्रिलोकी का आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है ॥ ८२ – ८३ ॥

जो व्यक्ति ध्रुव के इस दिव्यलोक प्राप्ति के प्रसंग का कीर्तन करता है वह सब पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक में पूजित होता है ८४ वह स्वर्ग में रहे अथवा पृथ्वी में, कभी अपने स्थान से च्युत नही होता तथा समस्त मंगलों से भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ८५

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वादशोऽध्यायः –

अध्याय-13 राजा वेन और पृथु का चरित्र

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! ध्रुव से [उसकी पत्नी] शिष्टि और भव्य को उत्पन्न किया और भव्य से शम्भु का जन्म हुआ तथा शिष्टि के द्वारा उसकी पत्नी सुच्छाया ने रिपु, रिपुज्जय, विप्र, वृकल और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उतन्न किये उनमे से रिपु के द्वारा बृहती के गर्भ से महातेजस्वी चाक्षुष का जन्म हुआ चाक्षुष ने अपनी भार्या पुश्करणी से, जो वरुणकुल में उत्पन्न और महात्मा वीरण प्रजापति की पुत्री थी, मनु को उत्पन्न किया [ जो छठे मन्वन्तर के अधिपति हुए ] तपस्वियों में श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापति की पुत्री नडवला के कुरु, पुरु, शतध्युम्र, तपस्वी, सत्यवान, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्र और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ कुरु के द्वारा उसकी पत्नी आग्रेयी ने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन : परम तेजस्वी पुत्रों को उत्पन्न किया अंग से सुनीथा के वेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ऋषियों ने उस (वेन) जे दाहिने हाथ का सन्तान के लिये मंथन किया था हे महामुने ! वेनके हाथ का मंथन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उत्पन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात है और जिन्होंने प्रजा के हित के लिये पूर्वकाल में पृथ्वी को दुहा था ॥ ८ – ९ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! परमर्षियोने वेन के हाथ को क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथु का जन्म हुआ ? ॥ १० ॥

श्रीपराशरजी बोले हे मुने ! मृत्यु की सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंग को पत्नीरूप से दी (व्याही) गयी थी उसीसे वेन का जन्म हुआ ११ हे मैत्रेय ! वह मृत्यु की कन्याका पुत्र अपने मातामह (नाना) के दोष से स्वभाव से ही दुष्टप्रकृति हुआ ॥ १२ ॥ उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथ्वीपति ने संसारभर में यह घोषणा कर दी कि ‘भगवान, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ, मुझसे अतिरिक्त यज्ञ का भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है ? इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करे ‘ ॥ १३ – १४ ॥ हे मैत्रेय ! तब ऋषियों ने उस पृथ्वीपति के पास उपस्थित हो पहले उसकी खूब प्रशंसा कर सांत्वनायुक्त मधुर वाणी से कहा ॥ १५ ॥

ऋषिगण बोले – हे राजन ! हे पृथ्वीपते ! तुम्हारे राज्य और देह के उपकार तथा प्रजा के हित के लिये हम जो बात कहते है, सुनो ॥ १६ ॥ तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बड़े-बड़े यज्ञोंद्वारा जो सर्व-यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान हरि का पूजन करेंगे उसके फल में से तुमको भी भाग मिलेगा ॥ १७ ॥ हे नृप ! इस प्रकार यज्ञों के द्वारा यज्ञपुरुष भगवान विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगों के साथ तुम्हारी भी सफल कामनाएँ पूर्ण करेंगे ॥ १८ ॥ हे राजन जिन राजाओं के राज्य में यज्ञेश्वर भगवान हरि का यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं ॥ १९ ॥

वेन बोलामुझसे भी बढकर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वहहरिकहलानेवाला कौन है ? २० ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इंद्र, वायु , यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथ्वी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करने में समर्थ है वे सभी राजा के शरीर में निवास करते हैं, इसप्रकार राजा सर्वदेवमय है २१२२ हे ब्राह्मणों ! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो । देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे ॥ २३ ॥ हे द्विजगण ! स्त्री का परमधर्म जैसे अपने पति की सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगों का धर्म भी मेरी आज्ञा का पालन करना ही है ॥ २४ ॥

ऋषिगण बोले – महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्म का क्षय न हो । देखिये, यह सारा जगत हवि का ही परिणाम है ॥ २५ ॥

श्रीपराशरजी बोले – महर्षियों के इस प्रकार बारंबार समझाने और कहने-सुननेपर भी जब वेन ने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यंत क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपस में कहने लगे – ‘इस पापी को मारो, मारो ! ॥ २६ – २७ ॥ जो अनादि और अनंत यज्ञपुरुष प्रभु विष्णु की निंदा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथ्वीपति होने के योग्य नहीं है’ ॥ २८ ॥ ऐसा कह मुनिगणों ने, भगवान् की निंदा आदि करने के कारण पहले ही मरे हुए उस राजा को मन्त्र से पवित्र किये हुए कुशाओं से मार डाला ॥ २९ ॥

हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने सब ओर बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोसे पूछा – ‘ यह क्या है ? ‘ ॥ ३० ॥ उन परुषों ने कहा – ‘राष्ट्र के राजाहीन हो जाने से दीन-दु:खिया लोगों ने चोर बनकर दूसरों का धन लूटना आरम्भ कर दिया है ॥ ३१ ॥ हे मुनिवरो ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चोरों के उत्पात से ही यह बड़ी भारी धूलि उडती दीख रही है’ ॥ ३२ ॥

तब उन सब मुनीश्वरों ने आपस में सलाह कर उस पुत्रहीन राजा की जंघा का पुत्र के लिये यत्नपूर्वक मंथन किया ॥ ३३ ॥ उसकी जंघा के मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ठूँठ के समान काला, अत्यंत नाटा और छोटे मुखवाला था ॥ ३४ ॥ उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणों से कहा – ‘मैं क्या करूँ ? ‘ उन्होंने कहा – ‘निषीद (बैठ) ‘ अत: वह ‘निषाद’ कहलाया ॥ ३५ ॥ इसलिये हे मुनिशार्दुल ! उससे उत्पन्न हुए लोग विंधाचलनिवासी पाप-परायण निषादगण हुए ॥ ३६ ॥ उस निषादरूप द्वार से राजा वेन का सम्पूर्ण पाप निकल गया । अत: निषादगण वेन के पापों का नाश करने वाले हुए ॥ ३७ ॥

फिर उन ब्राह्मणों ने उसके दायें हाथ का मंथन किया । उसका मंथन करने से परमप्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीर से प्रज्वलित अग्नि के समान देदीप्यमान थे ॥ ३८ – ३९ ॥ इसी समय आजगव नामक आद्य (सर्वप्रथम) शिव-धनुष और दिव्य वाण तथा कवच आकाश से गिरे ॥ ४० ॥ उनके उत्पन्न होने से सभी जीवों को अति आनंद हुआ और केवल सत्पुत्र के ही जन्म लेने से वेन भी स्वर्गलोक को चला गया । इसप्रकार महात्मा पुत्र के कारण ही उसकी पुम अर्थात नरक से रक्षा हुई ॥ ४१ – ४२ ॥

महाराज पृथु के अभिषेक के लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकार के रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए ॥ ४३ ॥ उस समय आंगिरस देवगणों के सहित पितामह ब्रह्माजी ने और समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों ने वहाँ आकर महाराज वैन्य (वेनपुत्र ) का राज्याभिषेक किया ॥ ४४ ॥ उनके दाहिने हाथ में चक्र का चिन्ह देखकर उन्हें विष्णु का अंश जान पितामह ब्रह्माजी को परम आनंद हुआ ॥ ४५ ॥ यह श्रीविष्णुभगवान के चक्र का चिन्ह सभी चक्रवर्ती राजाओं के हाथ में हुआ करता है । उनका प्रभाव कभी देवताओं से भी कुंठित नही होता ॥ ४६ ॥

इसप्रकार महातेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान राजराजेश्वरपद पर अभिषिक्त हुए ॥ ४७ ॥ जिस प्रजा को पिताने अपरक्त (अप्रसन्न) किया था उसीको उन्होंने अनुरंजित (प्रसन्न) किया, इसलिये अनुरंजन करने से उनका नाम ‘राजा’ हुआ ॥ ४८ ॥ जब वे समुद्र में चलते थे, तो जल बहने से रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नही हुई ॥ ४९ ॥ पृथ्वी बिना जोते-बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्र से ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते-पत्ते में मधु भरा रहता था ॥ ५० ॥

राजा पृथु ने उत्पन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषक के दिन सूति (सोमाभिषवभूमि) से महामति सूत की उत्पत्ति हुई ॥ ५१ ॥ उसी महायज्ञ में बुद्धिमान मागध का भी जन्म हुआ । तब मुनिवरों ने उन दोनों सूत और मागधों से कहा ॥ ५२ ॥ ‘तुम इन प्रतापवान वेनपुत्र महाराज पृथु की स्तुति करो । तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्तुति के ही योग्य है’ ॥ ५३ ॥ तब उन्होंने हाथ जोडकर सब ब्राह्मणों से कहा – ‘ ये महाराज तो आज ही उत्पन्न हुए है, हम इनके कोई कर्म तो जानते ही नहीं है ॥ ५४ ॥ अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए है और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें’ ॥ ५५ ॥

ऋषिगण बोले ये महाबली चक्रवर्ती महाराज भविष्य में जो- जो कर्म करेंगे और इनके जो – जो भावी गुण होंगे उन्हीं से तुम इनका स्तवन करो ॥ ५६ ॥

श्रीपराशरजी बोले – यह सुनकर राजा को भी परम संतोष हुआ, उन्होंने सोचा ‘ मनुष्य सद्गुणों के कारण ही प्रशंसा का पात्र होता है; अत: मुझ को भी गुण उपार्जन करने चाहिये ॥ ५७ । इसलिये अब स्तुति के द्वारा ये जिन गुणों का वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा ॥ ५८ ॥ यदि यहाँपर वे कुछ त्याज्य अवगुणों को भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा ।’ इसप्रकार राजा ने अपने चित्त में निश्चय किया ॥ ५९ ॥ तदनन्तर उन (सूत और मागध ) दोनों ने परम बुद्धिमान वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कर्मों के आश्रय से स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया ॥ ६० ॥ ‘ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्यमर्यादावाले, लज्जाशील, सुह्रद, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टों का दमन करनेवाले है ॥ ६१ ॥ ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान, प्रियभाषी, माननीयों को मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्मण्य, साधूसमाज में सम्मानित और शत्रु तथा मित्र के साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं ॥ ६२ – ६३ ॥ इसप्रका सूत और मागध के कहे हुए गुणों को उन्हों अपने चित्त में धारण किया और उसी प्रकार के कार्य किये ॥ ६४ ॥ तब उन पृथ्वीपति ने पृथ्वी का पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले महान यज्ञ किये ॥ ६५ ॥ अराजकता के समय ओषधियों के नष्ट हो जानेसे भूख से व्याकुल हुई प्रजा पृथ्वीनाथ पृथु के पास आयी और उनके पूछनेपर प्रणाम करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया ॥ ६६ ॥

प्रजाने कहा – हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकता के समय पृथ्वी ने समस्त ओषधियाँ अपने में लीन कर ली है, अत: आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है ॥ ६७ ॥ विधाता ने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अत: क्षुधारूप महारोग से पीड़ित हम प्रजाजनों को आप जीवनरूप ओषधि दीजिये ॥ ६८ ॥

श्रीपराशरजी बोले यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर अत्यंत क्रोधपूर्वक पृथ्वी के पीछे दौड़े ६९ तब भय से अत्यंत व्याकुल हुई पृथ्वी गौ का रूप धारणकर भागी और ब्रह्मलोक आदि सभी लोकों में गयी ७० समस्त भूतों को धारण करनेवाली पृथ्वी जहाँजहाँ भी गयीं वहीँवहीँ उसने वेनपुत्र पृथु को शस्त्रसंधान किये अपने पीछे आते देखा ७१ तब इन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथु से, उनके वाणप्रहार से बचने की कामना से काँपती हुई पृथ्वी इसप्रकार बोली ७२

पृथ्वी ने कहा – हे राजेन्द्र ! क्या आपको स्त्री-वधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे हैं ? ॥ ७३ ॥

पृथु बोले – वहाँ एक अनर्थकारी को मार देने से बहुतों को सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पुण्यप्रद है ॥ ७४ ॥

पृथ्वी बोलीहे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रजा के हित के लिये ही मुझे मारना चाहते है तो आपकी प्रजा का आधार क्या होगा ? ७५

पृथु ने कहाअरी वसुधे ! अपनी आज्ञा का उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबल से ही इस प्रजा को धारण करूँगा ७६

श्रीपराशरजी बोले – तब अत्यंत भयभीत एवं काँपती हुई पृथ्वी ने उन पृथ्वीपति को पुन: प्रणाम करके कहा ॥ ७७ ॥

पृथ्वी बोलीहे राजन ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं अत: मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी हो तो वैसा ही करें ७८ हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त औषधियों को पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूप से मैं दे सकती हूँ ७९ अत: हे धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाराज ! आप प्रजा के हित के लिये कोई ऐसा वत्स (बछड़ा) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूप से निकाल सकूँ ८० और मुझ को आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससे मैं उत्तमोत्तम ओषधियों के बीजरूप दुग्ध को सर्वत्र उत्पन्न कर सकूँ ८१

श्रीपराशरजी बोले – तब महाराज पृथु ने अपने धनुष की कोटि से सैकड़ो हजारों पर्वतों को उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकठ्ठा कर दिया ॥ ८२ ॥ इससे पूर्व पृथ्वी के समतल न होने से पुर और ग्राम आदि का कोई नियमित विभाग नही था ॥ ८३ ॥ हे मैत्रेय ! उससमय अन्न, गोरक्षा, कृषि और व्यापार का भी कोई क्रम न था । यह सब तो वेनपुत्र पृथु के समय से ही आरम्भ हुआ है ॥ ८४ ॥ हे द्विजोत्तम ! जहाँ – जहाँ भूमि समतल थी वहीँ –वहीपर प्रजाने निवास करना पसंद किया ॥ ८५ ॥ उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मुलादि ही था; यह भी ओषधियों के नष्ट हो जाने से बड़ा दुर्लभ हो गया था ॥ ८६ ॥

तब पृथ्वीपति पृथु ने स्वायम्भुवमनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ में ही पृथ्वी से प्रजा के हित के लिये समस्त धान्यों को दुहा हे तात ! उसी अन्न के आधार से अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है ८७८८ महाराज पृथु प्राणदान करने के कारण भूमि के पिता हुए, [ जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, भय से रक्षा करनेवाला तथा जो विद्यादान करेये पाँचो पिता माने गये है ] इसलिये उस सर्वभूतधारिणी कोपृथ्वीनाम मिला ८९

हे मुने ! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर्व, सर्प, यक्ष और पितृगण आदि ने अपनेअपने पात्रों में अपना अभिमत दूध दुहा तथा दुहानेवालों के अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए ९०९१ इसीलिये विष्णुभगवान के चरणों से प्रकट हुई यह पृथ्वी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली हैं ९२ इस प्रकार पूर्वकाल में वेन के पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान हुए प्रजा का रंजन करने के कारण वेराजाकहलाये ९३

जो मनुष्य महाराज पृथु के इस चरित्र का कीर्तन करता हैं उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नही होता ९४ पृथु का यह अत्युत्तम जन्मवृतांत और उनका प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषों के दु:स्वप्नों को सर्वदा शांत कर देता हैं ९५

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः –

अध्याय-14 प्राचीनबर्हिका जन्म और प्रचेताओं का भगवदाराधन

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! पृथु के अन्तर्ध्दान और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए; उनमें से अन्तर्ध्दान से उसकी पत्नी शिखंडीनीने हविर्धान को उत्पन्न किया हविर्धान से अग्निकुलीना धिषणा ने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिनये : पुत्र उत्पन्न किये हे महाभाग ! हविर्धान से उत्पन्न हुए भगवान प्राचीनबर्हि एक महान प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञ के द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की हे मुने ! उनके समय में [ यज्ञानुष्ठान की अधिकता के कारण] प्राचिनाग्र कुश समस्त पृथ्वी में फैले हुए थे, इसलिये वे महाबलीप्राचीनबर्हिनामसे विख्यात हुए

हे महामते ! उन महीपति ने महान तपस्या के अनन्तर समुद्र को पुत्री सवर्णासे विवाह किया ॥ ५ ॥ उस समुद्रकन्या सवर्णा के प्राचीनबर्हि से दस पुत्र हुए । वे प्रचेता नामक सभी पुत्र धनुर्विद्या के पारगामी थे ॥ ६ ॥ इन्होने समुद्र के जल में रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्म का आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥ ७ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले हे महामुने ! उन महात्मा प्रचेताओं ने जिस लिये समुद्र के जल में तपस्या की थी सो आप कहिये ॥ ८ ॥

श्रीपराशरजी कहने लगे – हे मैत्रेय ! एक बार प्रजापति की प्रेरणा से प्रचेताओं के महात्मा पिता प्राचीनबर्हि ने उनसे अति सम्मानपूर्वक संतानोत्पत्ति के लिये इसप्रकार कहा ॥ ९ ॥

प्राचीनबर्हि बोले – हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजी ने मुझे आज्ञा दि है कि ‘तुम प्रजाकी वृद्धि करो’ और मैंने भी उनसे ‘बहुत अच्छा’ कह दिया है ॥ १० ॥ अत: हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नता के लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापति की आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥ ११ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मुने ! उन राजकुमारों ने पिता के ये वचन सुनकर उनसे ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर फिर पूछा ॥ १२ ॥

प्रचेता बोले – हे तात ! जिस कर्म से हम प्रजावृद्धि में समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥ १३ ॥

पिताने कहा – वरदायक भगवान विष्णु की आराधना करने से ही मनुष्यको नि:संदेह इष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है और किसी उपाय से नही । इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ॥ १४ ॥ इसलिये यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजावृद्धि के लिये सर्वभूतों के स्वामी श्रीहरि गोविन्द की उपासना करो १५ धर्म, अर्थ, काम या मोक्ष की इच्छावालों को सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान विष्णु की ही आराधना करनी चाहिये १६ कल्प के आरम्भ में जिनकी उपासना करके प्रजापति के संसार की रचना की है, तुम उन अच्युत की ही आराधना करो । इससे तुम्हारी सन्तान की वृद्धि होगी ॥ १७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रों ने समुद्र के जलमे डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया ॥ १८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकाश्रय जगत्पति श्रीनारायण में चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहीँ (जलमे ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरि की एकाग्रचित्त से स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालों की सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं १९२०

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्र के जल में स्थित रहकर प्रचेताओं ने भगवान विष्णु की जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये ॥ २१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! पूर्वकाल में समुद्र में स्थित रहकर प्रचेताओं ने तन्मय-भाव से श्रीगोविंद की जो स्तुति की, वह सुनो ॥ २२ ॥

प्रचेताओं ने कहा – जिनमें सम्पूर्ण वाक्यों की नित्य-प्रतिष्ठा है [ अर्थात जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपाद्य है ] तथा जो जगत की उत्पत्ति और प्रलय के कारण है उन निखिल-जगन्नायक परमप्रभु को हम नमस्कार करते हैं ॥ २३ ॥ जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनंत, अपार और समस्त चराचर के कारण है, तथा जिन रूपहीन परमेश्वर के दिन, रात्रि और संध्या ही प्रथम रूप है, उन कालस्वरूप भगवान को नमस्कार है ॥ २४ – २५ ॥ समस्त प्राणियों के जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूप को देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते है – उन सोमस्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥ २६ ॥ जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमंडल को प्रकाशित करते हुए अन्धकार को भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जल के उद्गमस्थान है उन सूर्यस्वरूप [नारायण] को नमस्कार है ॥ २७ ॥ जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसार को धारण करते है और शब्द आदि पाँचो विषयों के आधार तथा व्यापक है, उन भुमिरूप भगवान को नमस्कार है ॥ २८ ॥ जो संसार का योनिरूप है और समस्त देहधारियों का बीज है, भगवान हरि के उस जलस्वरूप को हम नमस्कार करते है ॥ २९ ॥ जो समस्त देवताओं का हव्यभूक और पितृगण का कव्यभूक मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान को नमस्कार है ॥ ३० ॥ जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकार से देह में स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान को नमस्कार है ॥ ३१ ॥ जो समस्त भूतों को अवकाश देता है उस अनंतमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभु को नमस्कार है ॥ ३२ ॥ समस्त इन्द्रिय-सृष्टि के जो उत्तम स्थान है उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार है ॥ ३३ ॥ जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूप से नित्य विषयों को ग्रहण करते है उन ज्ञानमूल हरि को नमस्कार है ॥ ३४ ॥ इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये विषयों को जो आत्मा के सम्मुख उपस्थित करता है उस अंत:करणरूप विश्वात्मा को नमस्कार है ॥ ३५ ॥ जिस अनंत में सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है और जो उसके लय का भी स्थान है उस प्रकृतिस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ३६ जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त से दिखायी देते है ३७ जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णु का परमपद है उस ब्रह्मस्वरूप को हम नमस्कार करते है ॥ ३८ ॥ जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्नेह (द्रव), कान्ति तथा शरीर से रहित एवं अनासक्त और अशरीरी (जीवसे भिन्न) है ॥ ३९ ॥ जो अवकाश स्पर्श, गंध और रस से रहित तथा आँख – कान – विहीन, अचल एवं जिव्हा, हाथ और मन से रहित है ॥ ४० ॥ जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है, जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण – इन अवस्थाओं का अभाव है ॥ ४१ ॥ जो अरज (रजोगुणरहित), अशब्द, अमृत, अप्लुत (गतिशुन्य) और असंवृत (अनाच्छादित) है एवं जिसमें पुर्वापर व्यवहार की गति नहीं है वही भगवान विष्णुका परमपद है ४२ जिसका ईशन (शासन) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिव्हा और दृष्टि का अविषय है, भगवान विष्णु के उस परमपद को हम नमस्कार करते है ॥ ४३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – इस प्रकार श्रीविष्णु भगवान में समाधिस्त होकर प्रचेताओं ने महासागर में रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की ॥ ४४ ॥ तब भगवान श्रीहरि ने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी – सी आभायुक्त दिव्य छवि से जल के भीतर ही दर्शन दिया ॥ ४५ ॥ प्रचेताओं ने पक्षिराज गरुडपर चढ़े हुए श्रीहरि को देखकर उन्हें भक्तिभाव के भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया ॥ ४६ ॥

तब भगवानने उससे कहा – “मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हे वर देने के लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो” ॥ ४७ ॥ तब प्रचेताओं ने वरदायक श्रीहरि को प्रणाम कर, जिसप्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धि के लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की ॥ ४८ ॥ तदनन्तर, भगवान उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥ ४९ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे चतुर्दशोऽध्यायः –

अध्याय-15 प्रचेताओं का मारिषा नामक कन्या के सात विवाह, दक्ष प्रजापति की उत्पत्ति एवं दक्ष की आठ कन्याओं के वंश का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – प्रचेताओं के तपस्या में लगे रहने से [ कृषि आदिद्वारा ] किसी प्रकार की रक्षा न होने के कारण पृथ्वी को वृक्षोने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी ॥ १ ॥ आकाश वृक्षों से भर गया था । इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकार की चेष्टा कर सकी ॥ २ ॥ जलसे निकलनेपर उन वृक्षों को देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्नि को छोड़ा ॥ ३ ॥ वायु ने वृक्षों को उखाड़-उखाडकर सुखा दिया और प्रचंड अग्नि ने उन्हें जला डाला । इसप्रकार उस समय वहाँ वृक्षों का नाश होने लगा ॥ ४ ॥

तब वह भयंकर वृक्ष – प्रलय देखकर थोड़े-से वृक्षों के रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओं के पास जाकर कहा – ॥ ५ ॥ ‘हे नृपतिगण ! आप क्रोध शांत कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये । मैं वृक्षों के साथ आपलोगों की संधि करा दूँगा ॥ ६ ॥ वृक्षों से उत्पन्न हुई सुंदर व्र्न्वाली रत्नस्वरूपा कन्या का मैंने पहले से ही भविष्य को जानकर अपनी [ अमृतमयी ] किरणों से पालन-पोषण किया है ॥ ७ ॥ वृक्षों की यह कन्या मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, वह महाभागा इसलिये ही उत्पन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढानेवाली तुम्हारी भार्या हो ॥ ८ ॥ मेरे और तुम्हारे आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान दक्ष नामक प्रजापति उत्पन्न होगा ॥ ९ ॥ वह तुम्हारे तेज के सहित मेरे अंश से युक्त होकर अपने तेज के कारण अग्नि के समान होगा और प्रजा की खूब वृद्धि करेगा ॥ १० ॥

पूर्वकाल में वेद्वेत्ताओं में श्रेष्ठ एक कंडू नामक मुनीश्वर थे उन्होंने गोमती नदी के परम रमणीक तटपर घोर तप किया ११ तब इंद्र ने उन्हें तपोभ्रष्ट करने के लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सरा को नियुक्त किया उस मझुहासिनोने उन ऋषिश्रेष्ठ को विचलित कर दिया १२ उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौ से भी अधिक वर्षतक विषयासक्तचित्त से मन्दराचल की कन्दारा में रहे १३

तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कंडू ऋषि से कहा – ‘हे ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गलोक को जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दीजिये’ ॥ १४ ॥ उसके ऐसा कहनेपर उसमे आसक्त चित्त हुए मुनिने कहा – ‘भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो’ ॥ १५ ॥ उनके ऐसा कहनेपर उस सुन्दरी ने महात्मा कंडू ने साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकार के भोग भोगे ॥ १६ ॥ तब भी, उसके यह पुछ्नेपर कि ‘भगवन ! मुझे स्वर्गलोक को जाने की आज्ञा दीजिये’ ऋषीने यही कहा कि ‘अभी और ठहरो’ ॥ १७ ॥ तदनंतर सौ वर्ष से कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखी ने प्रणययुक्त मुसकान से सुशोभित वचनों में फिर कहा – ‘ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्ग को जाती हूँ’ ॥ १८ ॥ यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षी को आलिंगनकर कहा – ‘अयि सुश्रु ! अब तो तू बहुत दिनों के लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर’ ॥ १९ ॥ तब वह सुश्रोणी (सुंदर कमरवाली) उस ऋषि के साथ क्रीडा करती हुई दो सौ वर्ष से कुछ कम और रही ॥ २० ॥

हे महाभाग ! इसप्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोक को जाने के लिये कहती तभी – तभी कंडू ऋषि उससे यही कहते कि ‘अभी ठहर जा’ ॥ २१ ॥ मुनि के इसप्रकार कहनेपर, प्रणयभंग की पीड़ा को जाननेवाली उस दक्षिणाने [ दक्षिणा नायिका का लक्षण इसप्रकार कहा हैया गौरवं भयं प्रेम सद्भावं पूर्वनायके मुच्चल्यन्मसक्तापि सा ज्ञेया दक्षिणा वुधै: अन्य नायक में आसक्त रहते हुए भी जो अपने पूर्वनायक को गौरव, भय, प्रेम और सद्भाव के कारण छोडती हो उसेदक्षिणाजानना चाहिये ] अपने दाक्षिन्यवश तथा मुनि के शापसे भयभीत होकर उन्हें छोड़ा २२ तथा उन महर्षि महोदय का भी, कामासक्तचित्त से उसके साथ अहर्निश रमन करतेकरते उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया २३

एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रता से अपनी कुटी से निकले । उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली– ‘आप कहाँ जाते हैं’ ॥ २४ ॥ उसके इसप्रकार पुछ्नेपर मुनिने कहा – ‘हे शुभे ! दिन अस्त हो चूका है, इसलिये मैं संध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य-क्रिया नष्ट हो जायगी ‘ ॥ २५ ॥ तब उस सुंदर दाँतोवाली ने उन मुनीश्वर ने हँसकर कहा – ‘हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? ॥ २६ ॥ हे विप्र ! अनेकों वर्षों के पश्चात आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा ? ‘ ॥ २७ ॥

मुनि बोले – भद्रे ! नदी के इस सुंदर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो । मैंने आज ही तुमको अपने आश्रम में प्रवेश करते देखा था ॥ २८ ॥ अब दिन के समाप्त होनेपर वह संध्याकाल हुआ है । फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? ॥ २९ ॥

प्रम्लोचा बोली – ब्रह्मन ! आपका यह कथन कि ‘तुम सबेरे ही आयी हो’ ठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समय को तो आज सैकड़ों वर्ष बीत चुके ॥ ३० ॥

सोम ने कहा तब उन विप्रवर ने उस विशालाक्षी से कुछ घबडाकर पूछा – ‘अरी भीरु ! ठीक – ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ? ‘ ॥ ३१ ॥

प्रम्लोचा ने कहा – अबतक नौ सौ सात वर्ष, छ: महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके है ॥ ३२ ॥

ऋषि बोले – अयि भीरु ! यह तू ठीक कहती ही, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ ॥ ३३ ॥

प्रम्लोचा बोली – हे ब्रह्मन ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हूँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म-मार्ग का अनुसरण करने में तत्पर होकर मुझसे पूछ रहे है ॥ ३४ ॥

सोम ने कहा – हे राजकुमारों ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने ‘मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार है ! ‘ ऐसा कहकर स्वयं ही अपने को बहुत कुछ भला-बुरा कहा ॥ ३५ ॥

मुनि बोले ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओं का धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी । अहो ! स्त्री को किसीने मोह उपजाने के लिये ही रचा है ! ॥ ३६ ॥ ‘मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियों [ क्षुधा, पिपासा, लोभ, मोह, जरा और मृत्यु – ये छ: ऊर्मियाँ है ] से अतीत परब्रह्म को जानना चाहिये’ – जिसने मेरी इस प्रकार की बुद्धि को नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रह को धिक्कार है ॥ ३७ ॥ नरकग्राम के मार्गरूप इस स्त्री के संग से वेदवेद्य भगवान की प्राप्ति के कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये ॥ ३८ ॥

इसप्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवर ने अपने – आप ही अपनी निंदा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरा से कहा – ॥ ३९ ॥ ‘अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तूने अपनी भायभंगी से मुझे मोहित करके इंद्र का जो कार्य था वह पूरा कर लिया ॥ ४० ॥ मैं अपने क्रोधसे प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ , क्योंकि सज्जनों की मित्रता सात पग साथ रहने से हो जाती है और मैं तो तेरे साथ निवास कर चूका हूँ ॥ ४१ ॥ अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकि मैं बड़ा ही अजितेन्द्रिय हूँ ॥ ४२ ॥ तू महामोह की पिटारी और अत्यंत निंदनिया है । हाय ! तूने इंद्र के स्वार्थ के लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !! ॥ ४३ ॥

सोमने कहा – वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरी से जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह [भय के कारण ] पसीने में सराबोर होकर अत्यंत काँपती रही ॥ ४४ ॥ इसप्रकार जिसका समस्त शरीर पसीने में डूबा हुआ था और जो भय से थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचा से मुनिश्रेष्ठ कंडू ने क्रोधपूर्वक कहा – ‘अरी ! तू चली जा ! चली जा !! ॥ ४५ ॥

तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाशमार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्ष के पत्तों से पोंछा ४६ वह बाला वृक्षों के नवीन लाललाल पत्तोंसे अपने पसीने से तर शरीर को पोंछती हुई एक वृक्ष से दूसरे वृक्षपर चलती गयी ४७ उस समय ऋषीने उसके शरीर में जो गर्भ स्थापित किया था वह भी रोमांच से निकले हुए पसीने के रुपमे उसके शरीरसे बाहर निकल आया ४८ उस गर्भ को वृक्षों ने ग्रहण कर लिया, उसे वायु ने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणों से उसे पोषित करने लगा इससे वह धीरेधीरे बढ़ गया ४९ वृक्षाग्र से उत्पन्न हुई वह मारिषा नामकी सुमुखी कन्या तुम्हे वृक्षगण समर्पण करेंगे अत: अब यह क्रोध शांत करो ५० इसप्रकार वृक्षों से उत्पन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचा की पुत्री है तथा कंडू मुनि की, मेरी और वायु की भी सन्तान है ५१

श्रीपराशरजी बोलेहे मैत्रेय ! साधुश्रेष्ठ भगवा कंडू भी तपके क्षीण हो जाने से पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान विष्णु की निवासभूमि को गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठ होकर एकाग्र चित्तसे ब्रह्मपार मन्त्र का जप करते हुए ऊर्ध्वबाहू रहकर श्रीविष्णुभगवान् की आराधना करने लगे ५२५३

प्रचेतागण बोलेहम कंडू मुनिका ब्रहमपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशव की आराधना की थी ५४

सोमने कहा – [हे राजकुमारों ! वह मन्त्र इस प्रकार है ] – ‘श्रीविष्णुभगवान् संसार-मार्ग की अंतिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर (आकाशादि ) से भी पर अर्थात अनंत है, अत: सत्यस्वरूप है । तपोनिष्ठ महात्माओं को ही वे प्राप्त हो सकते है, क्योंकि वे पर (अनात्म-प्रपंच) से परे है तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा है और (भक्तों के ) पालक एवं [उनके अभीष्ट को] पूर्ण करनेवाले है ॥ ५५ ॥ वे कारण (पंचभूत) के कारण (पंचतन्मात्रा) के हेतु (तामस-अहंकार) और उसके भी हेतु (महत्तत्त्व) के हेतु (प्रधान)के भी परम हेतु है और इसप्रकार समस्त कर्म और कर्त्ता आदि के सहित कार्यरूप से स्थित सकल प्रपंच का पालन करते है ॥ ५६ ॥ ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति (रक्षक) तथा अविनाशी है । वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारों से शून्य विष्णु है ॥ ५७ ॥ क्योंकि वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान विष्णु है, इसलिये मेरे राग आदि दोष शांत हो ‘ ॥ ५८ ॥

इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्र का जप करते हुए श्रीकेशव की आराधना करने से उन मुनीश्वर ने परमसिद्धि प्राप्त की ५९ [ जो पुरुष इस स्तव को नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवांछित फल प्राप्त करता है ]

अब मैं तुम्हे यह बताता हूँ कि यह मारिषा पूर्वजन्म में कौन थी । यह बता देने से तुम्हारे कार्य का गौरव सफल होगा । अर्थात तुम प्रजा-वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे ॥ ६० ॥

यह साध्वी अपने पूर्व जन्म में एक महारानी थी पुत्रहीन अवस्था में ही पति के मर जानेपर इस महाभागा ने अपने भक्तिभाव से विष्णुभगवान् को संतुष्ट किया ६१ इसकी आराधना से प्रसन्न हो विष्णुभगवान ने प्रकट होकर कहा – ‘हे शुभे ! वर माँग !’ तब इसने अपनी मनोभिलाषा इसप्रकार कह सुनायी ६२ भगवन ! बालविधवा होने के कारण मेरा जन्म व्यर्थ हु हुआ हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन (पुत्रहीन) ही उत्पन्न हुई ६३ अत: आपकी कृपा से जन्मजन्मों मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हो और प्रजापति (ब्रह्माजी) के समान पुत्र हो ६४ और हे अधोक्षज ! आपके प्रसाद से मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिन्य (कार्यकुशलता), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता (उल्टा कहना), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणों से तथा सुंदर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा (माताके गर्भ से जन्म लिये बिना ) ही उत्पन्न होऊँ ६५६६

सोम बोले – उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीह्रषीकेश ने प्रणाम के लिये झुकी हुई उस बाला को उठाकर कहा ॥ ६७ ॥

भगवान बोले तेरे एक ही जन्म में बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसीसमय तुझे प्रजापति के समान एक महावीर्यवान एवं अत्यंत बल-विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा ॥ ६८ -६९ ॥ वह इस संसार में कितने ही वंशों को चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकी में फ़ैल जायगी ॥ ७० ॥ तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूपगुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्यों के चित्त को प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उत्पन्न होगी ७१ हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षी से ऐसा कह भगवान अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषा के रूपसे उत्पन्न हुई तुम्हारी पत्नी है ७२

श्रीपराशरजी बोलेतब सोमदेव के कहने से प्रचेताओं ने अपना क्रोध शांत किया और इस मारिषा को वृक्षों से पत्नीरूप से ग्रहण किया ७३ उन दसों प्रचेताओं से मारिषा के महाभाग दक्ष प्रजपतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजी से उत्पन्न हुआ थे ७४

हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजी की आज्ञा पालते हुए सर्गरचना के लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढाने और सन्तान उत्पन्न करने के लिये नीचऊँच तथा द्विपदचतुष्पद आदि नाना प्रकार के जीवों को पुत्ररूप से उत्पन्न किया ७५७६ प्रजापति दक्ष ने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियों की उत्पत्ति की उनमें से दस धर्म को और तेरह कश्यप को दी तथा कालपरिवर्तन में नियुक्त [अश्विनी आदि ] सत्ताईस चन्द्रमा को विवाह दीं ७७ उन्हींसे देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उत्पन्न हुए ७८ हे मैत्रेय ! दक्ष के समय से ही प्रजाका मैथुन (स्त्रीपुरुष सम्बन्ध) द्वारा उत्पन्न होना आरम्भ हुआ है उससे पहले तो अत्यंत तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषों के तपोबल से उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्र से ही प्रजा उत्पन्न होती थी ७९

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्ष का जन्म ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से हुआ था, फिर वे प्रचेताओं के पुत्र किसप्रकार हुए ? ॥ ८० ॥ हे ब्रह्मन ! मेरे ह्रदय में यह बड़ा संदेह है कि सोमदेव के दौहित्र (धेवते) होकर भी फिर वे उनके श्वसुर हुए ! ॥ ८१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! प्राणियों के उत्पत्ति और नाश [ प्रवाहरूप से ] निरंतर हुआ करते है । इस विषय में ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि – पुरुषों को कोई मोह नही होता ॥ ८२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग-युग में होते है और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वान को किसी प्रकार का संदेह नहीं होता ॥ ८३ ॥ हे द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकार की ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी । उस समय तप और प्रभाव ही उनकी जेष्ठ्ता का कारण होता था ॥ ८४ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोलेहे ब्रह्मन ! आप मुझसे देव, दानव, गंधर्व, सर्प और राक्षसों की उत्पत्ति विस्तारपूर्वक कहिये ८५

श्रीपराशरजी बोले – हे महामुने ! स्वयम्भू भगवान ब्रह्माजी की ऐसी आज्ञा होनेपर कि ‘तुम प्रजा उत्पन्न करो’ दक्ष ने पूर्वकाल में जिसप्रकार प्राणियों की रचना की थी वह सुनो ॥ ८६ ॥ उस समय पहले तो दक्ष ने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियों को ही उत्पन्न किया ८७ इसप्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और बढ़ी तो उन प्रजापति ने सृष्टि की वृद्धि के लिये मन में विचारकर मैथुनधर्म से नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से वीरण प्रजापति की अति तपस्विनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्री से विवाह किया ८८८९

तदनन्तर वीर्यवान प्रजापति दक्ष ने सर्ग की वृद्धि के लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उत्पन्न किये ९० उन्हें प्रजावृद्धि के इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारद ने उनके निकट जाकर इसप्रकार कहा ९१ हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगों की ऐसी चेष्टा प्रतीत होती है कि आप प्रजा उत्पन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो ९२ खेद की बात है, तुम लोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथ्वी का मध्य, ऊर्ध्व (ऊपरी भाग) और अध: (नीचे के भाग) कुछ भी नहीं जानते, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, तुम्हारी गति इस ब्रह्मांड में ऊपरनीचे और इधरउधर सब ओर अप्रतिहत है; अत: हे अज्ञानियों ! तुम सब मिलकर इस पृथ्वी का अंत क्यों नही देखते ?” ९३९४ नारदजी के ये वचन सुनकर वे सब भिन्नभिन्न दिशाओं को चले गये और समुद्र में जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटती उसी प्रकार वे भी आजतक नही लौटे ९५

हर्यश्वों के इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओं के पुत्र दक्ष ने वैरुणी से एक सहस्त्र पुत्र और उत्पन्न किये ॥ ९६ ॥ वे शबलाश्वगण भी प्रजा बढाने के इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन ! उनसे नारदजी ने ही फिर पूर्वोक्त बाते कह दी । तब वे सब आपसमें एक-दूसरे से कहने लगे – ‘महामुनि नारदजी ठीक कहते है; हमको भी, इससे संदेह नहीं, अपने भाइयों के मार्ग का ही अवलम्बन करना चाहिये । हम भी पृथ्वी का परिणाम जानकर ही सृष्टि करेंगे ।’ इसप्रकार वे भी उसी मार्ग से समस्त दिशाओं को चले गये और समुद्रगत नदियों के समान आजतक नही लौटे ॥ ९७ – ९९ ॥ हे द्विज ! तबसे ही यदि भाईको खोजने के लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अत: विंझ पुरुष को ऐसा न करना चाहिये ॥ १०० ॥

महाभाग दक्ष प्रजापति ने उन पुत्रों को भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया १०१ हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान प्रजापति ने सर्गवृद्धि की इच्छा से वैरुणी में साथ कन्याएँ उत्पन्न कीं १०२ उनमें से उन्होंने दस धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस सोम (चन्द्रमा) को और चार अरिष्टनेमि को दी १०३ तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्व को विवाहीं अब उनके नाम सुनो १०४ अरुंधती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वाये दस धर्म की पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रों का विवरण सुनो १०५ विश्वा के पुत्र विश्वेदेवा थे, साध्या से साध्यगण हुए, मरुत्वती से मरुत्वान और वसु से वसुगण हुए तथा भानु से भानु और मुहूर्ता से मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए १०६ लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुंधती से समस्त पृथ्वी विषयक प्राणी हुए तथा संकल्पा से सर्वात्मक संकल्प की उत्पत्ति हुई १०७१०८

नाना प्रकार का वसु (तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योंति आदि जो आठ वसुगण विख्यात है, अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ १०९ उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल (अग्नि), प्रत्युष और प्रभास कहे जाते हैं ११० आपके पुत्र वैतंड, श्रम, शांत और ध्वनि हुए तथा ध्रुव के पुत्र लोकसंहारक भगवान काल हुए १११ भगवान वर्चा सोम के पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी (तेजस्वी) हो जाता है और धर्म के उनकी भार्या मनोहर से द्रविण, हट एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ११२११३

अनिल की पत्नी शिवा थी; उससे अनिल के मनोजव और अविज्ञातगतिये दो पुत्र हुए ११४ अग्नि के पुत्र कुमार शरस्तम्ब (सरकंडे) से उत्पन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओं के पुत्र होने कार्तिकेय कहलाये शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे ११५११६ देवल नामक ऋषिको प्रत्युष का पुत्र कहा जाता है इन देवल के भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए ११७

बृहस्पतिजी की बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्मचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्तभाव से समस्त भूमंडल विचरती थी, आठवे वसु प्रभास की भार्या हुई ११८ उससे सहस्त्रो शिल्पों (कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओं के शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्मा का जन्म हुआ ११९ जो समस्त शिल्पकारों में श्रेष्ठ और सब प्रकार के आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होंने देवताओं के सम्पूर्ण विमानों की रचना की और जिन महात्मा की [आविष्कृता ] शिल्पविद्या के आश्रय से बहुतसे मनुष्य जीवननिर्वाह करते है १२० उन विश्वकर्मा के चार पुत्र थे, उनके नाम सुनो वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरुषार्थी रूद्र थे उनमें से त्वष्टा के पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे १२१ हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपालीये त्रिलोकी के अधीश्वर ग्यारह रूद्र कहे गये है ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रूद्र प्रसिद्ध है १२२१२३

जो [ दक्षकन्याएँ ] कश्यपजी की स्त्रियाँ हुई उनके नाम सुनोवे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, स्त्रसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु और मुनि थी हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तान का विवरण श्रवण करो १२४१२५

पूर्व (चाक्षुष ) मन्वन्तर में तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे । वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तर के पश्चात वैवस्वत-मन्वन्तर के उपस्थित होनेपर एक- दूसरे के पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे ॥ १२६ – १२७ ॥

हे देवगण ! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदिति के गर्भ से प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तर में जन्म लें, इसीमें हमारा हित है १२८ इस प्रकार चाक्षुषमन्वन्तर में निश्चयकर उन सबने मरीचिपुत्र कश्यपजी के यहाँ दक्षकन्या अदिति के गर्भ से जन्म लिया १२९ वे अति तेजस्वी उससे उत्पन्न होकर विष्णु, इंद्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान, सविता, मैत्र, वरुण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये १३०१३१ इसप्रकार पहले चाक्षुष मन्वन्तर में जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत मन्वन्तर में द्वादश आदित्य हुए १३२

सोम की जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियों के विषय में पहले कह चुके है वे सब नक्षत्रयोगिनी है और इन नामों से ही विख्यात है १३३ उन अति तेज्स्विनियों से अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उत्पन्न हुए अरिष्टनेमिकी पत्नियों के सोलह पुत्र हुए बुद्धिमान बहुपुत्र की भार्या [ कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता नामक ] चार प्रकार की विद्युत् कही जाती है १३४१३५ ब्रह्मर्षियों से सत्कृत ऋचाओं के अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरा से उत्पन्न हुए है तथा शास्त्रों के अभिमानी देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्व की सन्तान कहे जाते है १३६ हे तात ! [ आठ वसु, ग्यारह रूद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्कार ] ये तैतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले है कहते है, इस लोक में इनके उत्पत्ति और निरोध निरंतर हुआ करते है ये एक हजार युग के अनन्तर पुन: पुन: उत्पन्न होते रहते है १३७१३८ हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोक में सूर्य के अस्त और उदय निरंतर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युगयुग में उत्पन्न होते रहते है १३९

हमने सुना है दिति के कश्यपजी के वीर्य से परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचिती को विवाही गयी १४०१४१ हिरण्यकशिपु के अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्राद , ह्राद , बुद्धिमान प्रल्हाद और संह्राद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यवंश को बढ़ानेवाले थे १४२

हे महाभाग ! उनमे प्रल्हादजी सर्वत्र समदर्शी और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान की परम भक्ति का वर्णन किया था १४३ जिनको दैत्यराजद्वारा दीप्त किये हुए अग्नि ने उनके सर्वांग में व्याप्त होकर भी, ह्रदय में वासुदेव भगवान के स्थित रहने से नही जला पाया १४४ जिन महाबुद्धिमान के पाशबद्ध होकर समुद्र के जल में पड़ेपड़े इधरउधर हिलनेडुलने से सारी पृथ्वी हिलने लगी थी १४५ जिनका पर्वत के समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवंचित रहने के कारण दैत्यराज के चलाये हुए अस्त्रशस्त्रों से भी छिन्नभिन्न नहीं हुआ १४६ दैत्यराजद्वारा प्रेरित विषाग्नि से प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वी का अंत नहीं कर सके ॥ १४७ ॥ जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहने के कारण पुरुषोत्तम भगवान का स्मरण करते हुए पत्थरों की मार पड़नेपर भी अपने प्राणों को नहीं छोड़ा ॥ १४८ ॥ स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपर से गिराये जानेपर जिन महामति को पृथ्वी ने पास जाकर बीचही में अपनी गोद में धारण कर लिया ॥ १४९ ॥ चित्त में श्रीमधुसुदनभगवान् के स्थित रहने से दैत्यराज का नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीर में लगने से शांत हो गया ॥ १५० ॥ दैत्येन्द्रद्वारा आक्रमण के लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजों के दाँत जिनके वक्ष:स्थल में लगने से टूट गये और उनका सारा मद चूर्ण हो गया ॥ १५१ ॥ पूर्वकाल में दैत्यराज के पुरोहितों की उत्पन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविंदासक्तचित्त भक्तराज के अंत का कारण नहीं हो सकी ॥ १५२ ॥ जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुर की हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्र के चक्र से व्यर्थ हो गयी ॥ १५३ ॥ जिन मतिमान और निर्मत्सरने दैत्यराज के रसोइयों के लाये हुए हलाहल विष को निर्विकार भाव से पचा लिया ॥ १५४ ॥ जो इस संसार में समस्त प्राणियों के प्रति समानचित्त और अपने समान ही दूसरों के लिये भी परमप्रेमयुक्त थे ॥ १५५ ॥ और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणों की खानि तथा समस्त साधू-पुरुषों के लिये उपमास्वरूप हुए थे ॥ १५६ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे पंचदशोऽध्यायः –

अध्याय-16 नृसिंहावतार विषयक प्रश्न

श्रीमैत्रेयजी बोले – आपने महात्मा मनुपुत्रों के वंशों का वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगत के सनातन कारण भगवान विष्णु ही है ॥ १ ॥ किन्तु, भगवन ! आपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रल्हादजी को न तो अग्नि ने ही भस्म किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से आघात किये जानेपर ही अपने प्राणों को छोड़ा ॥ २ ॥ तथा पाशबद्ध होकर समुद्र के जल में पड़े रहनेपर उनके हिलते-डुलते हुए अंगों से आहत होकर पृथ्वी डगमगाने लगी ॥ ३ ॥ और शरीरपर पत्थरों की बौछार पड़नेपर भी वे नहीं मरे । इसप्रकार जिन महाबुद्धिमान का आपने बहुत ही माहात्म्य वर्णन किया है ॥ ४ ॥ हे मुने ! जिन अति तेजस्वी माहात्मा के ऐसे चरित्र है, मैं उन परम विष्णुभक्तका अतुलित प्रभाव सुनना चाहता हूँ ॥ ५ ॥ हे मुनिवर ! वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्यों ने उन्हें क्यों अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित किया और क्यों समुद्र के जल में डाला ? ॥ ६ ॥ उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतों से दबाया ? किस कारण सर्पों से डंसाया ? क्यों पर्वतशिखर से गिराया और क्यों अग्नि से डलवाया ? ॥ ७ ॥ उन महादैत्यों ने उन्हें दिग्गजों के दाँतों से क्यों रूँधवाया और क्यों सर्वशोषक वायु को उनके लिये नियुक्त किया ? ॥ ८ ॥ हे मुने ! उनपर दैत्यगुरुओं ने किसलिये कृत्या का प्रयोग किया और शम्बरासुर ने क्यों अपनी सहस्त्रो मायाओं का वार किया ? ॥ ९ ॥ उन महात्मा को मारने के लिये दैत्यराज के रसोइयों ने, जिसे वे महाबुद्धिमान पचा गये थे ऐसा हलाहल विष क्यों दिया ? ॥ १० ॥

हे महाभाग ! महात्मा प्रल्हाद का यह सम्पूर्ण चरित्र, जो उनके महान माहात्म्य का सूचक है, मैं सुनना चाहता हूँ ११ यदि दैत्यगण उन्हें नही मार सके तो इसका मुझे कोई आश्चर्य नही है, क्योंकि जिसका मन अनन्यभाव से भगवान विष्णु में लगा हुआ है उसको भला कौन मार सकता है ? १२ जो नित्यधर्मपरायण और भगवदाराधना में तत्पर रहते थे, उनसे उनके ही कुल में उत्पन्न हुए दैत्यों ने ऐसा अति दुष्कर द्वेष किया ! १३ उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्सरहीन विष्णु-भक्त को दैत्योंने किस कारण से इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये ॥ १४ ॥

महात्मालोग तो ऐसे गुणसम्पन्न साधू पुरुषों के विपक्षी होनेपर भी उनपर किसी प्रकार का प्रहार नहीं करते, फिर स्वपक्ष में होनेपर तो कहना ही क्या है ? १५ इसलिये हे मुनिश्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण वृतांत विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । मैं उन दैत्यराज का सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ १६ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे षोडशोऽध्यायः –

अध्याय-17 हिरण्यकशिपु का दिग्विजय और प्रल्हाद – चरित

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान महात्मा प्रल्हादजी का चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो ॥ १ ॥ पूर्वकाल में दिति के पुत्र महाबली हिरण्यकशिपु ने, ब्रह्माजी के वर से गर्वयुक्त (सशक्त) होकर सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लिया था ॥ २ ॥ वह दैत्य इन्द्रपद का भोग करता था । वह महान असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था ॥ ३ ॥ वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ-भागों का भोगता था ॥ ४ ॥ हे मुनिसत्तम ! उसके भय से देवगण स्वर्ग को छोडकर मनुष्य-शरीर धारणकर भूमंडल में विचरते रहते थे ॥ ५ ॥ इसप्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकी को जीतकर त्रिभुवन के वैभव से गर्वित हुआ और गन्धर्वों से अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपने अभीष्ट भोगों को भोगता था ॥ ६ ॥

उससमय उस मद्यपानासक्त महाकाय हिरण्यकशिपु की ही समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे ॥ ७ ॥ उस दैत्यराज के सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते ॥ ८ ॥ तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिलाके बने हुए मनोहर महल में, जहाँ अप्सराओं का उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नता के साथ मद्यपान करता रहता था ॥ ९ ॥ उसका प्रल्हाद नामक महाभाग्यवान पुत्र था । वह बालक गुरु के यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढने लगा ॥ १० ॥ एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरूजी के साथ अपने पिता दैत्यराज के पास गया जो उस समय मद्यपान में लगा हुआ था ॥ ११ ॥ तब, अपने चरणों में झुके हुए अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रल्हादजी को उठाकर पिता हिरण्यकशिपु ने कहा ॥ १२ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – वत्स ! अबतक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमें सुनाओ ॥ १३ ॥

प्रल्हाद जी बोले – पिताजी ! मेरे मन में जो सबके सारांशरूप से स्थित है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ १४ ॥ जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि – क्षय – शून्य और अच्युत है, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अंतकर्ता उन श्रीहरि को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १५ ॥

श्रीपराशरजी बोले – यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने क्रोध से नेत्र लाल कर प्रल्हाद के गुरु की ओर देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा ॥ १६ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा कर इस बालक को मेरे विपक्षी की स्तुति से युक्त असार शिक्षा दी है ॥ १७ ॥

गुरूजी ने कहा – दैत्यराज ! आपको क्रोध के वशीभूत न होना चाहिये । आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कह रहा है ॥ १८ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – बेटा प्रल्हाद ! बताओं तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजो कहते है कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया नही है ॥ १९ ॥

प्रल्हादजी बोलेपिताजी ! ह्रदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक है उन परमात्मा को छोडकर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? २०

हिरण्यकशिपु बोला – अरे मुर्ख ! जिस विष्णु का तू मुझ जगदीश्वर के सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारंबार वर्णन करता है, वह कौन है ? ॥ २१ ॥

प्रल्हादजी बोलेयोगियों के ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणी का विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है २२

हिरण्यकशिपु बोला – अरे मूढ़ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इच्छा से बारंबार ऐसा बक रहा है ॥ २३ ॥

प्रल्हादजी बोलेहे तात ! वह ब्रह्मभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियंता और परमेश्वर है आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते है २४

हिरण्यकशिपु बोले – अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालक के ह्रदय में घुस बैठा है जिससे आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? ॥ २५ ॥

प्रल्हादजी बोले – पिताजी ! वे विष्णुभगवान तो मेरे ही ह्रदय में नही, बल्कि सम्पूर्ण लोकों में स्थित है । वे सर्वगामी तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियों को अपनी-अपनी चेष्टाओं में प्रवृत्त करते है ॥ २६ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – इस पापीको यहाँ से निकालो और गुरु के यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो । इस दुर्मति को न जाने किसने मेरे विपक्षी की प्रशंसा में नियुक्त कर दिया है ॥ २७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालक को फिर गुरूजी के यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरूजी की रात-दिन भली प्रकार सेवा-शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करने लगे ॥ २८ ॥ बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराज ने प्रल्हादजी को फिर बुलाया और कहा – ‘बेटा ! आज कोई गाथा (कथा) सुनाओ’ ॥ २९ ॥

प्रल्हादजी बोलेजिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत उत्पन्न हुआ है वे सकल प्रपंच के कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हो ३०

हिरण्यकशिपु बोले – अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वपक्ष की हानि करनेवाला होने से यह तो अपने कुल के लिये अंगाररूप हो गया है ॥ ३१ ॥

श्रीपराशरजी बोले उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बड़े अस्त्र – शस्त्र लेकर उन्हें मारने के लिये तैयार हुए ॥ ३२ ॥

प्रल्हादजी बोलेअरे दैत्यों ! भगवान विष्णु तो शस्त्रों में, तुमलोगों में और मुझमेंसर्वत्र ही स्थित है इस सत्य के प्रभाव से इन अस्त्रशस्त्रों का मेरी ऊपर कोई प्रभाव हो ३३

श्रीपराशरजी ने कहा – तब तो उन सैकड़ो दैत्यों के शस्त्र-समूह का आघात होनेपर भी उनको तनिक-सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- के – त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे ॥ ३४ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षी की स्तुति करना छोड़ दें; जा, मैं तुझे अभय-दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो ॥ ३५ ॥

प्रल्हादजी बोलेहे तात ! जिनके स्मरणमात्र से जन्म, जरा और मृत्यु आदि के समस्त भय दूर हो जाते है, उन सकलभयहारी अनंत के ह्रदय के स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है ३६

हिरण्यकशिपु बोला – अरे सर्पो ! इस अत्यंत दुर्बुद्धि और दुराचारी को अपने विषाग्नि-संतप्त मुखों से काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो ॥ ३७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पों ने उनके समस्त अंगों में काटा ॥ ३८ ॥ किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्र में आसक्त-चित्त रहने के कारण भगवत्स्मरण के परमानंद में डूबे रहने से उन महासर्पों के काटनेपर भी अपने शरीर की कोई सूचि नहीं हुई ॥ ३९ ॥

सर्प बोले – हे दैत्यराज ! देखो, हमारी दाधें टूट गयी, मणियाँ चटखने लगी, फणों में पीड़ा होने लगी और ह्रदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी नही कटी । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये ॥ ४० ॥

हिरण्यकशिपु बोला – हे दिग्गजों ! तुम सब अपने संकीर्ण दाँतों को मिलाकर मेरे शत्रु-पक्षद्वारा मुझसे विमुख किये हुए इस बालक को मार डालो । देखो, जैसे अरणी से उत्पन्न हुआ अग्नि उसी को जला डालता है उसीप्रकार कोई-कोई जिससे उत्पन्न होते है उसी के नाश करनेवाले हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब पर्वत-शिखर के समान विशालकाय दिग्गजों ने उस बालक को पृथ्वीपर पटककर अपने दाँतों से खूब रौंदा ॥ ४२ ॥ किन्तु श्रीगोविंद का स्मरण करते रहेने से हाथियों के हजारों दाँत उनके वक्ष:स्थल से टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपु से कहा ॥ ४३ ॥ ‘ये जो हाथियों के वज्र के समान कठोर दाँत टूट गये है इसमें मेरा कोई बल नहीं है, यह तो श्रीजनार्दनभगवान के महाविपत्ति और क्लेशों के नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है’ ॥ ४४ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – अरे दिग्गजों ! तुम हट जाओ । दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम अग्नि को प्रज्वलित करो जिससे इस पापी को जला डाला जाय ॥ ४५ ॥

श्रीपराशरजी बोले तब अपने स्वामी की आज्ञा से दानवगण काष्ठ के एक बड़े ढेर में स्थित उस असुर राजकुमार को अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे ॥ ४६ ॥

प्रल्हादजी बोले – हे तात ! पवन से प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नही जलाता । मुझ को तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती है मानो मेरे चारों और कमल बिछे हुए हो ॥ ४७ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तदनन्तर शुक्रजी के पुत्र बड़े वाग्मी महात्मा [ षंडामर्क आदि ] पुरोहितगण सामनीति से दैत्यराज की बड़ाई करते हुए बोले ॥ ४८ ॥

पुरोहित बोले – हे राजन ! अपने इस बालक पुत्र के प्रति अपना क्रोध शांत कीजिये; आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी सफलता तो वही है ॥ ४९ ॥ हे राजन ! हम आपके इस बालक को ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्ष के नाश का कारण होकर आपके प्रति अति विनीत हो जायगा ॥ ५० ॥ हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकार के दोषों का आश्रय होती ही है, इसलिये आपको इस बालकपर अत्यंत क्रोध का प्रयोग नही करना चाहिये ॥ ५१ ॥ यदि हमारे कहने से भी यह विष्णु का पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करने के लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उत्पन्न करेंगे ॥ ५२ ॥

श्रीपराशरजी कहा पुरोहितों के इसप्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराज ने दैत्योंद्वारा प्रल्हाद को अग्निसमूह से बाहर निकलवाया ॥ ५३ ॥ फिर प्रल्हादजी, गुरूजी के यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारों को बार-बार उपदेश देने लगे ॥ ५४ ॥

प्रल्हादजी बोले – हे दैत्यकुलोत्पन्न असुर-बालको ! सुनो, मैं तुम्हें परमार्थ का उपदेश करता हूँ, तुम इसे अन्यथा न समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहने में किसी प्रकार का लोभादि कारण नहीं है ॥ ५५ ॥ सभी जीव जन्म, बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात दिन-दिन वृद्धावस्थाकी प्राप्ति भी अनिवार्य ही है ॥ ५६ ॥ और हे दैत्यराजकुमारो ! फिर यह जीव मृत्यु के मुख में चला जाता है, यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते है ॥ ५७ ॥ मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नहीं टलता । इस विषय में [ श्रुति-स्मृतिरूप ] आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादान के कोई वस्तु उत्पन्न नही होती ॥ ५८ ॥ पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ है उन सबको दुःखरूप ही जानो ॥ ५९ ॥ मनुष्य मुर्खतावश क्षुधा, तृष्णा और शीतादिकी शान्ति को सुख मानते है, परन्तु वास्तव में तो वे दुःखमात्र ही है ॥ ६० ॥ जिनका शरीर [ वातादि दोष से ] अत्यंत शिथिल हो जाता है उन्हें जिसप्रकार व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसीप्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञान से ढँकी हुई है उन्हें दुःख ही सुखरूप जान पड़ता है ६१ अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थों का समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति, शोभा, सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? ६२ यदि किसी मूढ़ पुरुष की मांस, रुधिर, पीब, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मज्जा और अस्थियों के समूहरूप इस शरीर में प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है ६३ अग्नि, जल और भात शीत, तृषा और क्षुधा के कारण ही सुखकारी होते है और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपने से भिन्न अग्नि आदि के कारण ही सुख के हेतु होते है ६४

हे दैत्यकुमारो ! विषयों का जितनाजितना संग्रह किया जाता है उतनाउतना ही वे मनुष्य के चित्त में दुःख बढाते है ६५ जीव अपने मन को प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धों को बढाता जाता है उतने ही उसके ह्रदय में शोकरुपी शल्य स्थिर होते जाते है ६६ घर में जो कुछ धनधान्यादि होते है मनुष्य के जहाँतहाँ रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्त में बने रहते है और उनके नाश और दाह आदि की सामग्री भी उसी में मौजूद रहती है ६७ इस प्रकार जीतेजी तो यहाँ महान दुःख होता ही है, मरनेपर भी यमयातनाओं का और गर्भप्रवेश का उग्र कष्ट भोगना पड़ता है ६८ यदि तुम्हे गर्भवास में लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो सारा संसार इसी प्रकार अत्यंत दुःखमय है ६९ इसलिये दु:खों के परम आश्रय इस संसारसमुद्र में एकमात्र विष्णुभगवान ही आप लोगों की परमगति हैयह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ ७०

ऐसा मत समझो कि हम तो अभी बालक है, क्योंकि जरा, यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देह के ही धर्म है, शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है, उसमें यह कोई धर्म नहीं है ७१ जो मनुष्य ऐसी दुराशाओं से विक्षिप्तचित्त रहता है कि ‘अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल-कूद लूँ, युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण-साधन का यत्न करूँगा ।’ [ फिर युवा होंनेपर कहता है कि ] ‘अभी तो मैं युवा हूँ, बुढापे में आत्मकल्याण कर लूँगा ।’ और [वृद्ध होनेपर सोचता है कि ] ‘अब मैं बुढा हो गया, अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मों में प्रवृत्त ही नही होती, शरीर के शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नही ।’ वह अपने कल्याण-पथपर कभी अग्रसर नही होता; केवल भोग-तृष्णा में ही व्याकुल रहता है ॥ ७२ – ७४ ॥ मुर्खलोग अपनी बाल्यावस्था में खेलकूद में लगे रहते है, युवावस्था में विषयों में फँस जाते है और बुढापा आनेपर उसे असमर्थता के कारण व्यर्थ ही काटते हैं ७५ इसलिये विवेकी पुरुष को चाहिये कि देह की बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओं की अपेक्षा करके बाल्यावस्था में ही अपने कल्याण का यत्न करें ७६

मैंने तुम लोगों से जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नही समझते तो मेरी प्रसन्नता के लिये ही बंधन को छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान का स्मरण करो ॥ ७७ ॥ उनका स्मरण करने में परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्र से ही वे अति शुभ फल देते है तथा रातदिन उन्हीं का स्मरण करनेवालों का पाप भी नष्ट हो जाता है ७८ उन सर्वभूतस्थ प्रभु में तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरंतर तुम्हारा प्रेम बढ़े; इसप्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे ७९

जब कि यह सभी संसार तापत्रय से दग्ध हो रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवों से कौन बुद्धिमान द्वेष करेगा ? ८० यदिऔर जीव तो आनंद में है, मैं ही परम शक्तिहीन हूँतब भी प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि द्वेष का फल तो दुःखरूप ही है ८१ यदि कोई प्राणी वैरभाव से द्वेष भी करें तो विचारवानों के लिये तो वेअहो ! ये महामोह से व्याप्त है इसप्रकार अत्यंत शोचनीय ही है ८२

हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न=भिन्न दृष्टिवालों के विकल्प कहे । अब उनका समन्वयपूर्वक संक्षिप्त विचार सुनो ॥ ८३ ॥ यह सम्पूर्ण जगत सर्वभूतमय भगवान विष्णु का विस्तार है, अत: विचक्षण पुरुषों को इसे आत्मा के समान अभेदरूप से देखना चाहिये ८४ इसलिये दैत्यभाव को छोडकर हम और तुम ऐसा यत्न करें जिससे शान्ति लाभ कर सके ॥ ८५ ॥ जो अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध, राक्षस, यक्ष, दैत्यराज, सर्प, किन्नर,मनुष्य, पशु और अपने दोषों से तथा ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा और गुल्म आदि रोगों से एवं द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग, लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती, और जो सर्वदा अत्यंत निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशव में मनोंनिवेश करने से प्राप्त कर लेता है ॥ ८६ – ८९ ॥

हे दैत्यों ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ, तुम इस असार संसार के विषयों में कभी संतुष्ट मत होना तुम सर्वत्र समदृष्टि करो, क्योंकि समता ही श्रीअच्युत की आराधना है ९० उन अच्युत के प्रसन्न होनेपर फिर संसार में दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म, अर्थ और काम की इच्छा कभी करना; वे तो अत्यंत तुच्छ है उसे ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो नि:संदेह [ मोक्षरूप ] महाफल प्राप्त कर लोगे ९१

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे सप्तदशोऽध्यायः –

अध्याय-18 प्रल्हाद को मारने के लिये विष, शस्त्र और अग्नि आदिका प्रयोग एवं प्रल्हादकृत भगवत – स्तुति

श्रीपराशरजी बोले – उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्यों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपु से डरकर उससे सारा वृतांत कह सुनाया, और उसने भी तुरंत अपने रसोइयों को बुलाकर कहा ॥ १ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – अरे सुदगण ! मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरों को भी कुमार्ग का उपदेश देता है, अत: तुम शीघ्र ही इसे मार डालो ॥ २ ॥ तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थों में हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकार का शोच – विचार न कर उस पापी को मार डालो ॥ ३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब उन रसोइयों ने महात्मा प्रल्हाद को, जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दि थी उसी के अनुसार विष दे दिया ॥ ४ ॥ हे मैत्रेय ! तब वे उस घोर हलाहल विष को भगवान्नाम के उच्चारण से अभिमंत्रित कर अन्नके साथ खा गये ॥ ५ ॥ तथा भगवन्नाम के प्रभाव से निस्तेज हुए उस विष को खाकर उसे बिना किसी विकार के पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे ॥ ६ ॥ उस महान विष को पचा हुआ देख रसोइयों ने भय से व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा ॥ ७ ॥

सूदगण बोले – हे दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यंत तीक्ष्ण विष दिया था, तथापि आपके पुत्र प्रल्हाद ने उसे अन्नके साथ पचा लिया ॥ ८ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो, शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करने के लिये अब कृत्या उत्पन्न करो; और देरी न करो ॥ ९ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब पुरोहितों ने अति विनीत प्रल्हाद से, उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा ॥ १० ॥

पुरोहित बोले – हे आयुष्मन ! तुम त्रिलोकी में विख्यात ब्रह्माजी के कुल में उत्पन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र हो ॥ ११ ॥ तुम्हे देवता अनंत अथवा और भी किसीसे क्या प्रयोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकों के आश्रय है और तुम भी ऐसे ही होंगे ॥ १२ ॥ इसलिये तुम यह विपक्ष की स्तुति करना छोड़ दो । तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओं में परम गुरु है ॥ १३ ॥

प्रल्हादजी बोले – हे महाभागगण ! यह ठीक ही है । इस सम्पूर्ण त्रिलोकी में भगवान मरीचि का यह महान कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है । इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नही कह सकता ॥ १४ ॥ और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत में बहुत बड़े पराक्रमी है; यह भी मैं जानता हूँ । यह बात भी बिलकुल ठीक है, अन्यथा नहीं ॥ १५ ॥ और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओं में पिता ही परम गुरु है – इसमें भी मुझे लेशमात्र संदेह नही है ॥ १६ ॥ पिताजी परम गुरु है और प्रयन्तपूर्वक पूजनीय है – इसमें कोई संदेह नहीं । और मेरे चित्त में भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नही करूँगा ॥ १७ ॥ किन्तु आपने जो यह कहा कि ‘तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ?’ सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है ॥ १८ ॥

ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखने के लिये चुप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे – ‘तुझे अनंत में क्या प्रयोजन है ? इस विचार को धन्यवाद है ॥ १९ ॥ हे मेरे गुरुगण ! आप कहते है कि तुझे अनंत से क्या प्रयोजन है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको । अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनंत से जो प्रयोजन है सो सुनिये ॥ २० ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चार पुरुषार्थ कहे जाते है । ये चारों ही जिनसे सिद्ध होते है, उनसे क्या प्रयोजन ? – आपके इस कथन को क्या कहा जाय ! ॥ २१ ॥ उन अनंत से ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषिश्वरों को धर्म, किन्ही अन्य मुनीश्वरों को अर्थ एवं अन्य किन्हीं को काम की प्राप्ति हुई है ॥ २२ ॥ किन्हीं अन्य महापुरुषों ने ज्ञान, ध्यान और समाधि के द्वारा उन्हीं के तत्त्व को जानकर अपने संसार-बंधन को काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है ॥ २३ ॥ अत: सम्पत्ति, ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान, सन्तति और कर्म तथा मोक्षइन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरि की आराधना ही उपार्जनीय है २४ हे द्विजगण ! इसप्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष – ये चारों ही फल प्राप्त होते है उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते है कि ‘अनंत से तुझे क्या प्रयोजन है ? ‘ ॥ २५ ॥ और बहुत कहने से क्या लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु है; उचित-अनुचित सभी कुछ कह सकते है । और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है ॥ २६ ॥ इस विषय में अधिक क्या कहा जाय ? सबके अंत:करणों में स्थित एकमात्र वे ही संसार के स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक है २७ वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर है हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभाव से यदि कुछ अनुचित कहा हो तो आप क्षमा करने २८

पुरोहितगण बोले – अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्नि में जलने से बचाया है । हम यह नही जानते थे कि तू ऐसा बुद्धिहीन है ? ॥ २९ ॥ रे दुर्मते ! यदि तू हमारे कहने से अपने इस मोहमय आग्रह को नही छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करने के लिये कृत्या उत्पन्न करेंगे ॥ ३० ॥

प्रल्हादजी बोले कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणों के द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है ॥ ३१ ॥ कर्मों के कारण ही सब उत्पन्न होते है और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियों के साधन है । इसलिये प्रयत्नपूर्वक शुभकर्मों का ही आचरण करना चाहिये ॥ ३२ ॥

श्रीपराशरजी बोले – उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराज के पुरोहितों ने क्रोधित होकर अग्निशिखा के समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्न कर दि ॥ ३३ ॥ उस अति भयंकरी ने अपने पादाघात से पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रल्हादजी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया ॥ ३४ ॥ किन्तु उस बालक के वक्ष:स्थल में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरने से भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ ३५ ॥ जिस ह्रदय से निरंतर अक्षुण्णभाव से श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें लगने से तो वज्र के भी टूकटूक हो जाते है, त्रिशूल की तो बात ही क्या है ? ३६

उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालकपर कृत्या का प्रयोग किया था; इसलिये तुरंत ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी ॥ ३७ ॥ अपने गुरुओं को कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रल्हाद ‘ हे कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनंत ! बचाओ !’ ऐसा कहते हुए उनकी ओर दौड़े ॥ ३८ ॥

प्रल्हादजी कहने लगे – हे सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्त्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणों की इस मंत्राग्निरूप दु:सह दुःख से रक्षा करो ॥ ३९ ॥ ‘सर्वव्यापी जगद्गुरु भगवान विष्णु सभी प्राणियों में व्याप्त है’ – इस सत्य के प्रभाव से ये पुरोहितगण जीवित हो जायें ॥ ४० ॥ यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षय श्रीविष्णुभगवान को अपने विपक्षियों में भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥ ४१ ॥ जो लोग मुझे मारने के लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंने आग में जलाया, जिन्होंने दिग्गजों से पीड़ित कराया और सर्पों से डँसाया उन सबके प्रति यदि मैं समान मित्रभाव से रहा हूँ और मेरी कभी पापबुद्धि नहीं हुई तो उस सत्य के प्रभाव से ये दैत्यपुरोहित जी उठे ॥ ४२ – ४३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और इस विनयावनत बालक से कहने लगे ॥ ४४ ॥

पुरोहितगण बोले – हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है । तू दीर्घायु, निर्द्वन्द, बल-वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्यादि से सम्पन्न हो ॥ ४५ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे महामुने ! ऐसा कह पुरोहितों ने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥ ४६ ॥

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे अष्टोदशोऽध्यायः –

अध्याय-19 प्रल्हादकृत भगवत – गुण – वर्णन और प्रल्हाद की रक्षा के लिये भगवान का सुदर्शनचक को भेजना

श्रीपराशरजी बोले – हिरण्यकशिपु ने कृत्या को भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रल्हाद को बुलाकर उनके इस प्रभाव का कारण पूछा ॥ १ ॥

हिरण्यकशिपु पूछा – अरे प्रल्हाद ! तू बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित है या स्वाभाविक ही है ॥ २ ॥

श्रीपराशरजी बोले – पिता के इसप्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रल्हादजी ने उसके चरणों में प्रणाम कर इसप्रकार कहा ॥ ३ ॥ “पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिस – जिस के ह्रदय में श्रीअच्युतभगवान का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है ॥ ४ ॥ जो मनुष्य अपने समान दूसरों का बुरा नही सोचता, हे तात ! कोई कारण न रहने से उसका भी कभी बुरा नहीं होता ॥ ५ ॥ जो मनुष्य मन, वचन या कर्म से दूसरों को कष्ट देता है उसके इस परपीड़ारूप बीजसे ही उत्पन्न हुआ उसको अत्यंत अशुभ फल मिलता है ॥ ६ ॥ अपनेसहित समस्त प्राणियों में श्रीकेशव को वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ ॥ ७ ॥ इसप्रकार सर्वत्र शुभचित्त होने से मुझ को शारीरिक , मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥ ८ ॥ इसीप्रकार भगवान को सर्वभूतमय जानकर विद्वानों को सभी प्राणियों में अविचल भक्ति (प्रेम) करनी चाहिये “ ॥ ९ ॥

श्रीपराशरजी बोले – अपने महल की अट्टालिकापर बैठे हुए उस दैत्यराज ने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य-अनुचरों से कहा ॥ १० ॥

हिरण्यकशिपु बोला – यह बड़ा दुरात्मा है, इसे इस सौ योजन ऊँचे महल से गिरा दो, जिससे यह इस पर्वत के ऊपर गिरे और शिलाओं से इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायें ॥ ११ ॥

तब उन समस्त दैत्य और दानवोंने उन्हें महल से गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलने से ह्रदयमें श्रीहरि का स्मरण करते-करते नीचे गिरे गये ॥ १२ ॥ जगत्कर्ता भगवान केशव के परमभक्त प्रल्हादजी के गिरते समय उन्हें जगध्दात्री पृथ्वी ने निकट जाकर अपनी गोद में ले लिया ॥ १३ ॥ तब बिना किसी हड्डी – पसली के टूटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुर से कहा ॥ १४ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे वह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप माया से ही इसे मार डालिये ॥ १५ ॥

शम्बरासुर बोला – हे दैत्येन्द्र ! इस बालक को मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी माया का बल देखो । देखो, मैं तुम्हे सैकड़ों – हजारों – करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ ॥ १६ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुर ने समदर्शी प्रल्हाद के लिये, उनके नाश की इच्छा से बहुत-सी मायाएँ रचीं ॥ १७ ॥ किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुर के प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रल्हादजी सावधान चित्त से श्रीमधुसूदनभगवान का स्मरण करते रहे ॥ १८ ॥ उससमय भगवान की आज्ञा से उनकी रक्षा के लिये वहाँ ज्वाला-मालाओं से युक्त सुदर्शनचक्र आ गया ॥ १९ ॥ उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्र ने उस बालक की रक्षा करते हुए शम्बरासुर की सहस्त्रों मायाओं को एक – एक करके नष्ट कर दिया ॥ २० ॥

तब दैत्यराज ने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञा से तुम शीघ्र ही इस दुरात्मा को नष्ट कर दो ॥ २१ ॥ अत: उस अति तीव्र शीतल और रुक्ष वायुने, जो अति असहनीय था ‘जो आज्ञा’ कह उनके शरीर को सुखाने के लिये उसमें प्रवेश किया ॥ २२ ॥ अपने शरीर में वायु का आवेश हुआ ज्ञान दैत्यकुमार प्रल्हाद ने भगवान धरणीधर को ह्रदय में धारण किया ॥ २३ ॥ उनके ह्रदय में स्थित हुए श्रीजनार्दन ने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायु को पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया ॥ २४ ॥

इसप्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओं के क्षीण हो जानेपर महामति प्रल्हादजी अपने गुरु के घर चले गये ॥ २५ ॥ तदनन्तर गुरूजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजी की बनायी हुई राज्यफलप्रदायिनी राजनीति का अध्ययन कराने लगे ॥ २६ ॥ जब गुरूजी ने उन्हें नीतिशास्त्र में निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा – ‘अब यह सुशिक्षित हो गया है’ ॥ २७ ॥

आचार्य बोले – हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्र को नीतिशास्त्र में पूर्णतया निपुण कर दिया है, भृगुनन्दन शुक्राचार्यजी ने जो कुछ कहा है उसे प्रल्हाद तत्त्वत: जानता ही ॥ २८ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – प्रल्हाद ! राजा को मित्रों से कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओं से कैसा ? ततः त्रिलोकी में जो मध्यस्थ हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? ॥ २९ ॥ मंत्रियों, अमात्यों, बाह्य और अंत”पुर के सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किसप्रकार व्यवहार करना चाहिये ? ॥ ३० ॥ हे प्रल्हाद ! यह ठीक-ठीक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्यों का विधान किसप्रकार करे, दुर्ग और आदविक (जंगली मनुष्य) आदिको किसप्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरूप कटिको कैसे निकाले ? ॥ ३१ ॥ यह सब तथा और भी जो कुछ तूने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मैं तेरे मनके भावों को जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥ ३२ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब विनयभूषण प्रल्हादजी ने पिता के चरणों में प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु से हाथ जोडकर कहा ॥ ३३ ॥

प्रल्हादजी बोले – पिताजी ! इसमें संदेह नही, गुरूजी ने तो मुझे इन सभी विषयों की शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नही है ॥ ३४ ॥ साम, दान तथा दंड और भेदये सब उपाय मित्रादि के साधने के लिये बतलाये गये है ३५ किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध करें, मुझे तो कोई शत्रुमित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे महाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन साधनों से लेना ही क्या है ? ३६ हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्द में भला शत्रुमित्र की बात ही कहाँ है ? ३७ श्रीविष्णुभगवान तो आपमें, मुझ में और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान है, फिरयह मेरा मित्र है और यह शत्रु हैऐसे भेदभाव को स्थान ही कहाँ है ? ३८ इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मो में प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जाल को सर्वथा छोडकर अपने शुभ के लिये ही यत्न करना चाहिये ३९ हे दैत्यराज ! अज्ञान के कारण की मनुष्यों की अविद्या में विद्या बुद्धि होती है बालक क्या अज्ञानवश स्वद्योतको ही अग्नि नही समझ लेता ? ४० कर्म वही है जो बंधन का कारण हो और विद्या भी वही है जो मुक्ति की साधिका हो इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कलाकौशलमात्र ही है ४१

हे महाभाग ! इसप्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये ४२ राज्य पानेकी चिंता किसे नहीं होती और धन की अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हीं को है जिन्हें मिलनेवाले होते है ४३ हे महाभाग ! महत्त्वप्राप्ति के लिये सभी यत्न करते है, तथापि वैभव का कारण तो मनुष्य का भाग्य ही है , उद्यम नही ४४ हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्वल और अनितिज्ञों को भी भाग्यवश नाना प्रकार के भोग और राज्यादि प्राप्त होते है ४५ इसलिये जिसे महान वैभव की इच्छा हो उसे केवल पुण्यसंचय का ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्ष की इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये ४६ देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष और सरीसृपये सब भगवान विष्णु से भिन्नसे स्थित हुए भी वास्तव में श्रीअनंत के ही रूप है ४७ इस बात को जाननेवाला पुरुष सम्पूर्ण चराचर जगत को आत्मवत देखे, क्योंकि यह सब विश्वरूपधारी भगवान विष्णु ही है ४८ ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान अच्युत प्रसन्न होते है और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते है ४९

श्रीपराशरजी बोले – यह सुनकर हिरण्यकशिपुने क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासन से उठकर पुत्र प्रल्हाद के वक्ष:स्थल में लात मारी ॥ ५० ॥ और क्रोध तथा अमर्ष से जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसार को मार डालेगा इसप्रकार हाथ मलता हुआ बोला ॥ ५१ ॥

हिरण्यकशिपुने कहा – हे विप्रचित्ते ! हे राहो ! हे बल ! तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाश से बाँधकर महासागर में डाल दो, देरी मत करो ॥ ५२ ॥ नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य-दानव आदि भी इस मूढ़ दुरात्मा के मतका ही अनुगमन करेंगे [ अर्थात इसकी तरह व् भी विष्णुभक्त हो जायेंगे] ॥ ५३ ॥ हमने इसे बहुतेरा रोका, तथापि यह दुष्ट शत्रु की ही स्तुति किये जाता है । ठीक है, दुष्टों को तो मार देना ही लाभदायक होता है ॥ ५४ ॥

श्रीपराशरजी बोले – तब उन दैत्यों ने अपने स्वामीकी आज्ञा को शिरोधार्य कर तुरंत ही उन्हें नागपाश से बाँधकर समुद्र में डाल दिया ॥ ५५ ॥ उससमय प्रल्हादजी के हिलने-डुलने से सम्पूर्ण महासागर में हलचल मच गयी और अत्यंत क्षोम के कारण उसमें सब ओर ऊँची – ऊँची लहरे उठने लगीं ॥ ५६ ॥ हे महामते ! उस महान जल-पूर से सम्पूर्ण पृथ्वी को डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्यों से इसप्रकार कहा ॥ ५७ ॥

हिरण्यकशिपु बोला – अरे दैत्यों ! तुम इस दुर्मति को इस समुद्र के भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरसे सम्पूर्ण पर्वतों से दबा दो ॥ ५८ ॥ देखो, इसे न तो अग्नि ने जलाया, न यह शस्त्रों से कटा, न सर्पों से नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मायाओं से, ऊपरसे गिराने से अथवा दिग्गजों से ही मारा गया । यह बालक अत्यंत दुष्ट-चित्त है, अब इसके जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है ॥ ५९ – ६० ॥ अत: अब यह पर्वतों से लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ॥ ६१ ॥

तब दैत्य और दानवों ने उसे समुद्र में ही पर्वतों से ढँककर उसके ऊपर हजारों योजन का ढेर कर दिया ॥ ६२ ॥ उन महामति ने समुद्र से पर्वतों से लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मों के समय एकाग्र चित्तसे श्रीअच्युतभगवान की इसप्रकार स्तुति की ॥ ६३ ॥

प्रल्हादजी बोलेहे कमलनयन ! आपको नमस्कार है हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है हे सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारंबार नमस्कार है ६४ गोब्राह्मणहितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान कृष्ण को नमस्कार है जगतहितकारी श्रीगोविंद को बारंबार नमस्कार है ६५

आप ब्रह्मारूप से विश्व की रचना करते है, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरूप से पालन करते है और अंत में रुद्ररूप से संहार करते हैऐसे त्रिमूर्तिधारी आपको नमस्कार है ६६ हे अच्युत ! देव, यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका (चींटी ), सरीसृप, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुजइन सबके पारमार्थिक रूप आप ही है, वास्तव में आप ही ये सब है ६७६९ आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत है तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म है ७० हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मों के भोक्ता और उनकी सामग्री है तथा सर्व कर्मों के जितने भी फल है वे सब भी आप ही है ७१ हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनों में आपही के गुण और ऐश्वर्य की सूचिका व्याप्ति हो रही है ७२ योगिगण आपही का ध्यान करते है और याज्ञिकगण आपही का यजन करते है, तथा पितृगण और देवगण के रूप से एक आप ही हव्य और कव्य के भोक्ता है ७३

हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूलरप है, उससे सूक्ष्म यह संसार (पृथ्वीमंडल) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्नभिन्न रूपधारी समस्त प्राणी है; उनमें भी जो अंतरात्मा है वह और भी अत्यंत सूक्ष्म है ७४

उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणों का अविषम आपका कोई अचिन्त्य परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है ७५ हे सर्वात्मन ! समस्त भूतों में आपकी जो गुणाश्रया पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणी को नमस्कार है ७६ जो वाणी और मन के परे है, विशेषरहित तथा ज्ञानियों के ज्ञान से परिच्छेद्य है उस स्वतंत्रा पराशक्ति की मैं वन्दना करता हूँ ७७ उन भगवान् वासुदेव को सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त (असंग) है ७८ जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्र से ही उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है ७९ जिनके परस्वरूप को जानते हुए ही देवतागण उनके अवतारशरीर को सम्यक अर्चन करते है उन महात्मा को नमस्कार है ८० जो ईश्वर सबके अंत:करणों में स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मों को देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ ८१

जिनसे यह जगत सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान् को नमस्कार है वे जगत के आदिकारण और योगियों के ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हो ८२ जिनमे यह सम्पूर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हो ८३ जीनमे सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार है, उन श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार है, उन्हें बारंबार नमस्कार है ८४ भगवान अनंत सर्वगामी है; अत: वे ही मेरे रूपसे स्थित है, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत मुझही से हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातन में ही यह सब स्थित है ८५ मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं ही जगत के आदि के अंत में स्थित ब्रह्मसंज्ञक परमपुरुष हूँ ८६

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकोनविंशतितमोऽध्यायः –

अध्याय-20 प्रल्हादकृत भगवत-स्तुति और भगवान का आविर्भाव

श्रीपराशरजी बोले – हे द्विज ! इसप्रकार भगवान विष्णु को अपने से अभिन्न चिन्तन करते-करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जाने से उन्होंने अपने को अच्युत रुप ही अनुभव किया ॥ १ ॥ वे अपने-आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान के अतिरिक्त और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस, केवल यही भावना चित्त में थी कि मैं ही अव्यय और अनंत परमात्मा हूँ ॥ २ ॥ उस भावना के योग से वे क्षीण-पाप हो गये और उनके शुद्ध अंत:करण में ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए ॥ ३ ॥

हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबल से असुर प्रल्हादजी के विष्णुमय हो जानेपर उनके विचलित होने से वे नागपाश एक क्षणभर में ही टूट गये ॥ ४ ॥ भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतरंगों से पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनों से पूर्ण समस्त पृथ्वी हिलने लगी ॥ ५ ॥ तथा महामति प्रल्हादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत-समूह को दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ॥ ६ ॥ तब आकाशादिरूप जगत को फिर देखकर उन्हें चित्त में यह पुन: भान हुआ कि मैं प्रल्हाद हूँ ॥ ७ ॥ और उन महाबुद्धिमान ने मन, वाणी और शरीर के संयमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्रचित्त से पुन: भगवान अनादि पुरुषोत्तम की स्तुति की

प्रल्हादजी कहने लगेहे परमार्थ ! हे अर्थ (दृश्यरूप ) ! हे स्थूलसूक्ष्म (जाग्रतस्वप्रदृश्यस्वरूप) ! हे क्षराक्षर (कार्यकारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त (दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरंजन देव ! आपको नमस्कार है हे गुणों को अनुरंजित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणस्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामुर्तिमन ! हे सूक्ष्ममूर्ते ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरुप ! (आपको नमस्कार है ] १० हे विकराल और सुंदररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत (कार्यकारण) रूप जगत के उद्भवस्थान और सदसज्जगत के पालक ! ११ हे नित्यानित्य (आकाशघटादिरूप ) प्रपंचात्मन ! हे प्रपंच से पृथक रहनेवाले हे ज्ञानियों के आश्रयरूप ! हे एकानेकरूप आदिकारण वासुदेव ! १२ जो स्थूलसूक्ष्मरूप और स्फुटप्रकाशमय है, जो अधिष्ठानरूप से सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुत: सम्पूर्ण भूतादि से परे है, विश्व के कारण होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उत्पन्न हुआ है, उन पुरुषोत्तम भगवान को नमस्कार है १३

श्रीपराशरजी बोले उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान हरि प्रकट हुए ॥ १४ ॥ हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खड़े हो गये और गदगद वाणी से ‘विष्णुभगवान् को नमस्कार है ! विष्णुभगवान् को नमस्कार है !’ ऐसा बारंबार कहने लगे ॥ १५ ॥

प्रल्हादजी बोले – हे शरणागत-दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये हे अच्युत ! अपने पुण्यदर्शनों से मुझे फिर भी पवित्र कीजिये ॥ १६ ॥

श्रीभगवान बोले – हे प्रल्हाद ! मैं तेरी अनन्यभक्ति से अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वर की इच्छा हो माँग ले ॥ १७ ॥

प्रल्हादजी बोलेहे नाथ ! सहस्त्रों योनियों में से मैं जिसजिसमें भी जाऊँ उसीउसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे १८ अविवेकी पुरुषों की विषयों में जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपको स्मरण करते हुए मेरे ह्रदय से कभी दूर हो १९

श्रीभगवान बोले – हे प्रल्हाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वर की इच्छा हो मुझसे माँग ले ॥ २० ॥

प्रल्हादजी बोले – हे देव ! आपकी स्तुति में प्रवृत्त होने से मेरे पिता के चित्त में मेरे प्रति जो द्वेष हुआ है उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय ॥ २१ ॥ इसके अतिरिक्त मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये – मुझे अग्निसमूह में डाला गया, सर्पों से कटवाया गया, भोजन में विष दिया गया, बाँधकर समुद्र में डाला गया, शिलाओं से दबाया गया तथा और भी जो-जो दुर्व्यवहार पिताजी ने मेरे साथ किये है, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुष के प्रति द्वेष होने से, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जाये ॥ २२- २४ ॥

श्रीभगवान बोले – हे प्रल्हाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होगी । हे असुरकुमार ! मैं तुम को एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥ २५ ॥

प्रल्हादजी बोलेहे भगवन ! मैं तो आपके इस वर से ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आप में मेरी निरंतर अविचल भक्ति रहेगी २६ हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत के कारणरूप आप में जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठी में रहती है, फिर धर्म, अर्थ, काम से तो उसे लेना ही क्या है ? २७

श्रीभगवान बोले – हे प्रल्हाद ! मेरी भक्ति से युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपा से परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान उनके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये; और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिता के चरणों की वन्दना की ॥ २९ ॥ हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकार से पीड़ित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखों में आँसू भरकर कहा – ‘बेटा, जीता तो हा !’ ॥ ३० ॥ वह महान असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रल्हाद्से प्रेम करने लगा और इसीप्रकार धर्मज्ञ प्रल्हादजी भी अपने गुरु और माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा करने लगे ॥ ३१ ॥ हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान विष्णुद्वारा पिता के मारे जानेपर वे दैत्यों के राजा हुए ॥ ३२ ॥ हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत से पुत्र पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकार के क्षीण होनेपर पुण्य-पापसे रहित हो भगवान का ध्यान करते हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया ॥ ३३-३४ ॥

हे मैत्रेय ! जिनके विषय में तुमने पूछा था वे परम भगवद्भक्त महामति दैत्यप्रवर प्रल्हादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ॥ ३५ ॥ उन महात्मा प्रल्हादजी के इस चरित्र को जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते है ३६ हे मैत्रेय ! इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य प्रल्हादचरित्र के सुनने या पढने से दिनरात के (निरंतर) किये हुए पापसे अवश्य छुट जाता है ३७ हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावास्या, अष्टमी अथवा द्वादशी को इसे पढने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है ३८ जिसप्रकार भगवान ने प्रल्हादजी की सम्पूर्ण आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा क्र्नते है जो उनका चरित्र सुनता है ३९

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे विशोऽध्यायः –

अध्याय-21 कश्यपजी की अन्य स्त्रियों के वंश एवं मरुद्गण की उत्पत्ति का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – संह्राद के पुत्र आयुष्मान शिवि और बाष्कल थे तथा प्रल्हाद के पुत्र विरोचन थे और विरोचन से बलि का जन्म हुआ ॥ १ ॥ हे महामुने ! बलि के सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बढ़ा था । हिरण्याक्ष के पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसंतापन, महानाभ, महाबाहू तथा कालनाभ आदि सभी महाबलवान थे ॥ २ – ३ ॥

दनु के पुत्र द्विमुर्धा, शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र, महाबाहू, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचिति थे । ये सब दनु के पुत्र विख्यात है ॥ ४ – ६ ॥ स्वर्भानु की कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा – ये वृषपर्वा की परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात है ॥ ७ ॥ वैश्वानर की पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं । हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजी की भार्या हुई ॥ ८ ॥ उनके पुत्र साथ हजार दानव-श्रेष्ठ हुए । मरीचिनन्दन कश्यपजी के वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये ॥ ९ ॥ इनके सिवा विप्रचित्ति के सिंहिका के गर्भ से और भी बहुत से महाबलवान, भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १० ॥ वे व्यंश, शल्य, बलवान नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसृम, अंधक, नरक, कालनाभ, महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे ॥ ११ – १२ ॥ ये सब दानवश्रेष्ठ दनु के वंश को बढ़ानेवाले थे । इनके और भी सैकड़ो – हजारों पुत्र – पौत्रादि हुए ॥ १३ ॥ महान तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रल्हादजी के कुल में निवातकवच नामक दैत्य उत्पन्न हुए १४

कश्यपजी की स्त्री ताम्रा की शुकी, श्येनी, भासी, सुग्रीवी, शुचि और गृदध्रिका – ये छ: अति प्रभावशालीनी कन्याएँ कही जाती है ॥ १५ ॥

शुकीसे शुक, उलूक एवं उलुकों के प्रतिपक्षी काक आदि उत्पन्न हुए तथा श्येनी से श्येन (बाज), भासी से भास् और गृदध्रिका से गृद्धो का जन्म हुआ १६ शुचि से जल के एक्षिगण और सुग्रीव्री से अश्व, उष्ट्र और गर्दभों की उत्पत्ति हुई इसप्रकार यह ताम्रा का वंश कहा जाता है १७ विनता के गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात है इनमें पक्षियों में श्रेष्ठ सुपर्ण (गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पों को खानेवाले है १८ हे ब्रह्मन ! सुरसा से सहस्त्रो सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े ही प्रभावशाली, आकाश में विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे १९ और कद्रू के पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जी गरूडजी के वशवर्ती थे २० उनमें से शेष, वासुकि, तक्षक शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनजंय तथा और भी अनेकों उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान है २१२२ क्रोधवशा के पुत्र क्रोधवशगण हैं वे सभी बड़ीबड़ी दाढ़ोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण है २३ महाबली पिशाचों को भी क्रोधाने ही जन्म दिया है सुरभि से गौ और महिष आदि की उत्पत्ति हुई तथा इशसे वृक्ष, लता, बेल और सब प्रकार के तृण उत्पन्न हुए है २४ खसाने यक्ष और राक्षसों को, मुनिने अप्सराओं को तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वो को जन्म दिया २५ हे ब्रह्मन ! यह खारोचिष मन्वन्तर की सृष्टि का वर्णन कहा जाता है २७ वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में महान वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ ॥ २८ ॥

हे साधूश्रेष्ठ ! पूर्व मन्वन्तर में जो सप्तर्षिगण स्वयं ब्रह्माजी के मानसपुत्ररूप से उत्पन्न हुए थे, उन्हींको ब्रह्माजी ने इस कल्प में गन्धर्व, नाग, देव और दानवादि के पितृरूप से निश्चित किया २९ पुत्रों के नष्ट हो जानेपर दिति ने कश्यपजी को प्रसन्न किया । उसकी सम्यक आराधना से संतुष्ट हो तपस्वियों में श्रेष्ठ कश्यपजी ने उसे वर देकर प्रसन्न किया । उस समय उसने इंद्र के वध करने में समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्र का वर माँगा ॥ ३० – ३१ ॥

मुनिश्रेष्ठ कश्यपजी ने अपनी भार्या दिति को वह वर दिया और उस अति उग्र वर को देते हुए वे उससे बोले ॥ ३२ ॥ यदि तुम भगवान के ध्यान में तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच [ हे सुन्दरी ! गर्भिणी स्त्री को चाहिये कि सायंकाल में भोजन करें, वृक्षों के नीचे जाय और वहाँ ठहरे ही तथा लोगों के साथ कलह और अँगड़ाई लेना छोड़ दे, कभी केश खुला रखे और अपवित्र ही रहे ] और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इंद्र को मारनेवाला होगा’   ।३३ ऐसा कहकर मुनि कश्यपजी ने उस देवी से संगमन किया और उसने बड़े शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया ॥ ३४ ॥

उस गर्भ को अपने वधका कारण जान देवराज इंद्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करने के लिये आ गये ॥ ३५ ॥ उसके शौचादि में कभी कोई अंतर पड़े – यही देखने की इच्छासे इंद्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे । अंत में सौ वर्षमे कुछ ही कमी रहनेपर उन्होंने एक अंतर देख ही लिया ॥ ३६ ॥ एक दिन दिति बिना चरण शुद्धि किये ही अपनी शय्यापर लेट गयी । उससमय निद्रा ने उसे घेर लिया । तब इंद्र हाथ में वज्र लेकर उसकी कुक्षि में घुस गये और उस महागर्भ के सात टुकड़े कर डाले । इसप्रकार वज्र से पीड़ित होने से वह गर्भ जोर-जोर से रोने लगा ॥ ३७ -३८ ॥ इंद्र ने उससे पुन: पुन: कहा किमत रो किन्तु जब वह गर्भ सात भागों में विभक्त हो गया तो इंद्र ने अत्यंत कुपित हो अपने शत्रु विनाशक वज्र से एकएक के सातसात टुकड़े और कर दिये वे ही अति वेगवान मरुत नामक देवता हुए ३९४० भगवान इंद्र ने जो उससे कहा था किमा रोदी:’ (मत रो) इसीलिये वे मरुत कहलाये ये उनचास मरुद्गण इंद्र के सहायक देवता हुए ४१

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे एकविशोऽध्यायः –

अध्याय-22 विष्णुभगवान् की विभूति और जगत की व्यवस्था का वर्णन

श्रीपराशरजी बोले – पूर्वकाल में महर्षियों ने जब महाराज पृथु को राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लोक-पितामह श्रीब्रह्माजी ने भी क्रम से राज्यों का बँटवारा किया ॥ १ ॥ ब्रह्माजी नक्षत्र, ग्रह, ब्राह्मण, सम्पूर्ण वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदि के राज्यपर चन्द्रमा को नियुक्त किया ॥ २ ॥ इसी प्रकार विश्रवा के पुत्र कुबेरजी को राजाओं का , वरुण को जलों का, विष्णु को आदित्यों का और अग्नि को वसुगणों का अधिपति बनाया ॥ ३ ॥ दक्ष को प्रजापतियों का , इंद्र को मरुद्गण का तथा प्रल्हादजी को दैत्य और दानवों का आधिपत्य दिया ॥ ४ ॥ पितृगण के राज्यपदपर धर्मराज यम को अभिषिक्त किया और सम्पूर्ण गजराजों का स्वामित्व ऐरावत को दिया ॥ ५ ॥ गरुड को पक्षियों का, इंद्र को देवताओं का, उच्चै:श्रवा को घोड़ों का और वृषभ को गौओं का अधिपति बनाया ॥ ६ ॥ प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों (वन्यपशुओं) का राज्य सिंह को दिया और सर्पों का स्वामी शेषनाग को बनाया ॥ ७ ॥ स्थावरों का स्वामी हिमालय को, मुनिजनों का कपिलदेवजी को और नख तथा दाढ़वाले मृगगण का राजा व्याघ्र )बाघ) को बनाया ॥ ८ ॥ तथा प्लक्ष (पाकर) को वनस्पतियों का राजा किया । इसी प्रकार ब्रह्माजी ने और – और जातियों के प्राधान्य की भी व्यवस्था की ॥ ९ ॥

इस प्रकार राज्यों का विभाग करने के अनन्तर प्रजापतियों के स्वामी ब्रह्माजी ने सब ओर दिक्पालों की स्थापना की ॥ १० ॥ उन्होंने पूर्व-दिशामें वैराज प्रजापति के पुत्र राजा सुधन्वा को दिक्पालपद पर अभिषिक्त किया ॥ ११ ॥ तथा दक्षिण- दिशामें कर्दम प्रजापति के पुत्र राजा शंखपद की नियुक्ति की ॥ १२ ॥ कभी च्युत न होनेवाले रजसपुत्र महात्मा केतुमान को उन्होंने पश्चिम दिशामे स्थापित किया ॥ १३ ॥ और पर्जन्य प्रजापति के पुत्र अति दुर्द्भर्ष राजा हिरण्यरोमा को उत्तर दिशामे अभिषिक्त किया ॥ १४ ॥ वे आजतक सात द्वीप और अनेकों नगरों से युक्त इस सम्पूर्ण पृथ्वी का अपने – अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते है ॥ १५ ॥

हे मुनिसत्तम ! ये तथा अन्य भी जो सम्पूर्ण राजालोग है वे सभी विश्व के पालन में प्रवृत्त परमात्मा श्रीविष्णुभगवान के विभूतिरूप है ॥ १६ ॥ हे द्विजोत्तम ! जोजो भूताधिपति पहले हो गये है और जोजो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश हे १७ जो – जो भी देवताओं, दैत्यों, दानवों और मांसभोजियों के अधिपति है, जो – जो पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों, सर्पो और नागों के अधिनायक है, जो – जो वृक्षों, पर्वतों और ग्रहों के स्वामी है तथा और भी भूत, भविष्यात एवं वर्तमानकालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान विष्णु के अंश से उत्पन्न हुए है ॥ १८ – २० ॥ हे महाप्राज्ञ ! सृष्टि के पालन-कार्य में प्रवृत्त सर्वेश्वर श्रीहरि को छोडकर और किसीमे भी पालन करने की शक्ति नहीं है ॥ २१ ॥ रज: और सत्त्वादि गुणों के आश्रय से वे सनातन प्रभु ही जगत की रचना के समय रचना करते हैं, स्थिति के समय पालन करते है और अंतसमय में कालरूप से संहार करते है ॥ २२ ॥

वे जनार्दन चार विभाग से सृष्टि के और चार विभागसे ही स्थिति के समय रहते है तथा चार रूप धारण करके ही अंत में प्रलय करते है ॥ २३ ॥ एक अंश से वे अव्यक्तस्वरूप ब्रह्मा होते है, दूसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होते है, उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी । इसप्रकार वे रजोगुण विशिष्ट होकर चार प्रकार से सृष्टि के समय स्थित होते है ॥ २४ -२५ ॥ फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुण का आश्रय लेकर जगत की स्थिति करते है । उस समय वे एक अंश से विष्णु होकर पालन करते है, दूसरे अंश से मनु आदि होते है तथा तीसरे अंश से काल और चौथे से सर्वभूतों में स्थित होते है ॥ २६ – २७ ॥ तथा अन्तकाल में वे अजन्मा भगवान तमोंगुण की वृत्तिका आश्रय ले एक अंश से रुद्ररूप, दूसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप, तीसरे से कालरूप और चौथे से सम्पूर्ण भूतस्वरूप हो जाते है ॥ २८ – २९ ॥ हे ब्रह्मन ! विनाश करने के लिये उन महात्मा की यह चार प्रकार की सार्वकालिक विभागकल्पना कही जाती है ॥ ३० ॥ ब्रह्मा, दक्ष आदि प्रजापतिगण, काल तथा समस्त प्राणीये श्रीहरि की विभूतियाँ जगतकी सृष्टि की कारण है ३१

हे द्विज ! विष्णु, मनु आदि, काल और समस्त भूतगणये जगत की स्थिति के कारणरूप भगवान विष्णु की विभूतियाँ है ३२ तथा रूद्र, काल, अन्तकादि और सकल जीवश्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलय की कारणरूप है ३३

हे द्विज ! जगत के आदि और मध्य में तथा प्रलयपर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथा भिन्न – भिन्न जीवों से ही सृष्टि हुआ करती है ॥ ३४ ॥ सृष्टि के आरम्भ में पहले ब्रह्माजी रचना करते है, फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण- क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते है ॥ ३५ ॥ हे द्विज ! काल के बिना ब्रह्मा, प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि-रचना नहीं कर सकते [अत: भगवान कालरूप विष्णु ही सर्वदा सृष्टि के कारण है ] ॥ ३६ ॥ हे मैत्रेय ! इसी प्रकार जगत की स्थिति और प्रलय में भी उन देवदेव के चार-चार विभाग बताये जाते है ॥ ३७ ॥ हे द्विज ! जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उत्पन्न हुए जीव की उत्पत्ति में सर्वथा श्रीहरि का शरीर ही कारण है ३८ हे मैत्रेय ! इसीप्रकार जो कोई स्थावर जंगम भूतोंमें से किसी को नष्ट करता है, वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दन का अंतकारक रौद्ररूप ही है ३९ इसप्रकार वे जनार्दनदेव ही समस्त संसार के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक है तथा वे ही स्वयं जगतरूप भी है ४० जगत की उत्पत्ति, स्थिति और अंत के समय वे इसी प्रकार तीनों गुणों को प्रेरणा से प्रवृत्त होते है, तथापि उनका परमपद महान निर्गुण है ॥ ४१ ॥ परमत्मा का वह स्वरूप ज्ञानमय, व्यापक, स्वसंवेद्य (स्वयं-प्रकाश) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकार का ही है ॥ ४२ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोले – हे मुने ! आपने जो भगवान का परम पद कहा, वह चार प्रकार का कैसे है ? यह आप मुझसे विधिपूर्वक कहिये ॥ ४३ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! सब वस्तुओं का जो कारण होता है वही उनका साधन भी होता है और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है ॥ ४४ ॥ मुक्ति की इच्छावाले योगिजनों के लिये प्राणायाम आदि साधन है और परब्रह्म ही साध्य है, जहाँ से फिर लौटना नहीं पड़ता ॥ ४५ ॥ हे मुने ! जो योगी की मुक्ति का कारण है, वह ‘साधनालम्बन – ज्ञान’ ही उस ब्रह्मभूत परमपद का प्रथम भेद है ॥ ४६ ॥ क्लेश-बंधन से मुक्त होने के लिये योगाभ्यासी योगी का साध्यरूप जो ब्रह्म है, हे महामुने ! उसका ज्ञान ही ‘आलम्बन-विज्ञान’ नामक दूसरा भेद है ॥ ४७ ॥ इन दोनों साध्य-साधनों का अभेद्पुर्वक जो ‘अद्वैतमय ज्ञान’ है उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ ॥ ४८ ॥ और हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकार के ज्ञान की विशेषता का निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूप के समान ज्ञानस्वरूप भगवान विष्णु का जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय, व्याप्तिमात्र, अनुपम, आत्मबोधस्वरुप, सत्तामन्न, अलक्षण, शांत, अभय, शुद्ध, भावनातीत और आश्रयहीन रूप है, वह ‘ब्रह्म’ नामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद] है ॥ ४९ – ५१ ॥ हे द्विज ! जो योगीजन अन्य ज्ञानों का निरोधकर इस (चौथे भेद ) में ही लीन हो जाते है वे इस संसार-क्षेत्र के भीतर बीजारोपणरूप कर्म करने में निर्बीज (वासनारहित) होते है ॥ ५२ ॥ इसप्रकार का वह निर्मल, नित्य, व्यापक, अक्षय और समस्त हेय गुणों से रहित विष्णु नामक परमपद है ॥ ५३ ॥ पुण्यपापका क्षय और क्लेशों की निवृत्ति होनेपर जो अत्यंत निर्मल हो जाता है वही योगी उस परब्रह्म का आश्रय लेता है जहाँ से वह फिर नहीं लौटता ५४

उस ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो रूप है, जो क्षर और अक्षररूप से समस्त प्राणियों से स्थित है ५५ अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत है जिसप्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परब्रह्म की ही शक्ति है ५६ हे मैत्रेय ! अग्नि की निकटता और दूरता के भेद से जिसप्रकार उसके प्रकाश में भी अधिकता और न्यूनता का भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्म की शक्ति में भी तारतम्य है ॥ ५७ ॥ हे ब्रह्मन ! ब्रह्मा, विष्णु और शिव ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, उनसे न्यून देवगण है तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण है ॥ ५८ ॥ उनसे भी न्यून मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग और सरीसृपादि है तथा उनसे भी अत्यंत न्यून वृक्ष, गुल्म और लता आदि है ॥ ५९ ॥ अत: हे मुनिवर ! आविर्भाव (उत्पन्न होना) तिरोभाव (छिपा जाना) जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत वास्तव में नित्य और अक्षय ही है ॥ ६० ॥

सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्म के परस्वरूप तथा मूर्तरूप है जिनका योगिजन योगारम्बके पूर्व चिन्तन करते है ६१ हे मुने ! जिनमें मन को सम्यकप्रकार से निरंतर एकाग्र करनेवालों को आलम्बनयुक्त सबीज (सम्प्रज्ञात) महायोगकी प्राप्ति होती है, हे महाभाग ! हे सर्वब्रह्ममय श्रीविष्णुभगवान समस्त परा शक्तियों में प्रधान और ब्रह्म के अत्यंत निकटवर्ती मूर्तब्रह्मस्वरूप है ६२६३ हे मुने ! उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत ओतप्रोत है, उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हीं में स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत है ६४ क्षराक्षरमय (कार्यकारणरूप) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत की अपने आभूषण और आयुधरूप से धारण करते है ६५

श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवान विष्णु इस संसार को भूषण और आयुधरूप से किसप्रकार धारण करते है यह आप मुझसे कहिये ॥ ६६ ॥

श्रीपराशरजी बोले – हे मुने ! जगत का पालन करनेवाले अप्रेमय श्रीविष्णुभगवान को नमस्कार कर अब मैं, जिसप्रकार वसिष्ठजी ने मुझसे कहा था वह तुम्हे सुनाता हूँ ॥ ६७ ॥ इस जगत के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्मा को अर्थात शुद्ध क्षेत्रज्ञ – स्वरूप को श्रीहरि कौस्तुभमणिरूप से धारण करते है ॥ ६८ ॥ श्रिअनन्त ने प्रधान को श्रीवत्सरूप से आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधव की गदारूप से स्थित है ॥ ६९ ॥ भूतों के कारण तामस अहंकार और इन्द्रियों के कारण राजस अहंकार इन दोनों को वे शंख और शांक धनुषरूप से धारण करते है ॥ ७० ॥ अपने वेगसे पवन को भी पराजित करनेवाला अत्यंत चंचल, सात्त्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णु भगवान के कर-कमलों में स्थित चक्र का रूप धारण करता है ॥ ७१ ॥ हे द्विज ! भगवान गदाधर की जो [मुक्ता, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरकमयी ] पंचरूपा वैजयन्ती माला है वह पंचतन्मात्राओं और पंचभूतों का ही संघात है ॥ ७२ ॥ जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ है उन सबको श्रीजनार्दन भगवान बाणरूपसे धारण करते है ॥ ७३ ॥ भगवान अच्युत जो अत्यंत निर्मल खड्ग धारण करते है वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है ॥ ७४ ॥ हे मैत्रेय ! इसप्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहंकार, मन, पंचभूत, इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीऋषिकेश में आश्रित है ॥ ७५ ॥ श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूप से प्राणियों के कल्याण के लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूप से धारण करते है ॥ ७६ ॥ इसप्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान (निर्विकार), पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत को धारण करते है ॥ ७७ ॥ जो कुछ भी विद्याअविद्या, सतअसत तथा अव्ययरूप है, हे मैत्रेय ! वह सब सर्वभुतेश्वर श्रीमधुसुदन में ही स्थित है ७८ कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतू, अयन और वर्षरूप से वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान है ७९

हे मुनिश्रेष्ठ ! भूर्लोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक तथा मह, जन, तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान ही है ॥ ८० ॥ सभी पूर्वजों के पूर्वज तथा समस्त विद्याओं के आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूप से स्थित है ॥ ८१ ॥ निराकार और सर्वेश्वर श्रीअनंत ही भूतस्वरूप होकर देव, मनुष्य और पशु आदि नानारूपों से स्थित है ॥ ८२ ॥ ऋक, यजु:, साम और अर्थववेद, इतिहास (महाभारतादि), उपवेद (आयुर्वेदादि), वेदान्तवाक्य, समस्त वेदांग, मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र, पुराणादि सकल शास्त्र, आख्यान, अनुवाक (कल्पसूत्र) तथा समस्त काव्य-चर्चा और रागरागिनी आदि जो कुछ भी है वे सब शब्दमुर्तिधारी परमात्मा विष्णु का ही शरीर है ॥ ८३ – ८५ ॥ इस लोक में अथवा कहीं और भी जितने मूर्त, अमूर्त पदार्थ है, वे सब उन्हींका शरीर है ॥ ८६ ॥ मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत जनार्दन श्रीहरि ही है; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्यकारणादि नहीं है’ – जिसके चित्त में ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य रागद्वेषादि द्वन्दरूप रोग की प्राप्ति नहीं होती ८७

हे द्विज ! इसप्रकार तुमसे उस पुराण के पहले अंशका यथावत वर्णन किया इसका श्रवण करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ८८ हे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मास में पुष्करक्षेत्र में स्नान करने से जो फल होता है, वह सब मनुष्य को इसके श्रवणमात्र से मिल जाता है ८९ हे मुने ! देव, ऋषि, गन्धर्व, पितृ और यक्ष आदिकी उत्पत्ति का श्रवण करनेवाले पुरुष की वे देवादि वरदायक हो जाते है ९०

– इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेऽशे द्वाविशोऽध्यायः –

 

 ॥ इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णु-महापुराणे प्रथमोऽश: समाप्त ॥