Shree Naval Kishori

श्रीनरसिंहपुराण

अध्याय - १ प्रयागमें ऋषियोंका समागम; सूतजीके प्रति भरद्वाजजीका प्रश्न; सूतजीद्वारा कथारम्भ और सृष्टिक्रमका वर्णन

अन्तर्यामी भगवान् नारायण ( श्रीकृष्ण ) उनके सखा नरश्रेष्ठ नर ( अर्जुन ) तथा इनकी लीला प्रकट करनेवाली सरस्वती देवीको नमस्कार करनेके पश्चात् ‘ जय ‘ ( इतिहासपुराण ) – का पाठ करे ॥१॥

 

दिव्य सिंह ! तपाये हुए सुवर्णके समान पीले केशोंके भीतर प्रज्वलित अग्निकी भाँति आपके नेत्र देदीप्यमान हो रहे हैं तथा आपके नखोंका स्पर्श वज्रसे भी अधिक कठोर है, इस प्रकार अमित प्रभावशाली आप परमेश्वरको मेरा नमस्कार है । भगवान् नृसिंहके नखरुपी हलके अग्रभाग, जो हिरण्यकशिपु नामक दैत्यके वक्षः स्थलरुपी खेतकी रक्तमयी कीचड़के लगनेसे लाल हो गये हैं, आप लोगोंकी रक्षा करें ॥२-३॥

 

एक समय हिमालयकी घाटियोंमें रहनेवाले, वेदोंके पारगामी एवं त्रिकालवेत्ता समस्त महात्मा मुनिगण, नैमिषारण्य, अर्बुदारण्य और पुष्करारण्यके निवासी मुनि, महेन्द्र पर्वत और विन्ध्यगिरिके निवासी ऋषि, धर्मारण्य, दण्डकारण्य, श्रीशैल और कुरुक्षेत्रमें वास करनेवाले मुनि तथा कुमार पर्वत एवं पम्पासरके निवासी ऋषि – ये तथा अन्य भी बहुत – से शुद्ध हदयवाले महर्षिगण अपने शिष्योंके साथ माघके महीनेमें स्नान करनेके लिये प्रयाग – तीर्थमें आये ॥४ – ७१/२॥

 

वहाँपर यथोचित रीतिसे स्नान और जप आदि करके उन्होंने भगवान् वेणीमाधवको नमस्कार किया; फिर पितरोंका तर्पण करके उस पावन तीर्थके निवासी भरद्वाज मुनिका दर्शन किया।

 

वहाँ उन ऋषियोनें भरद्वाजजीके द्वारा पूजित हुए । तपश्चात् वे सभी तपोधन भरद्वाज मुनिके दिये हुए वृषी आदि विचित्र आसनोंपर विराजमान हुए और परस्पर भगवान् श्रीकृष्णसे सम्बन्ध रखनेवाली कथाएँ कहने लगे।

 

उन शुद्ध अन्तः करणवाले मुनियोंकी कथा हो ही रही थी कि व्यासजीके शिष्य लोमहर्षण नामक सूतजी वहाँ आ पहुँचे । वे अत्यन्त तेजस्वी, परम बुद्धिमान् और पुराणोंके विद्वान् थे ।

 

सूतजीने वहाँ बैठे हुए सभी ऋषियोंको यथोचित विधिसे प्रणाम किया और स्वयं भी उनके द्वारा सम्मानित हुए । फिर भरद्वाजजीकी अनुमतिसे वे यथायोग्य आसनपर बैठे । इस प्रकार जब वे सुखपूर्वक विराजमान हुए, तब उस समय उन व्यासशिष्य लोमहर्षणजीसे भरद्वाजजीने सभी मुनियोंके समक्ष यह प्रश्न किया ॥८ – १४॥

 

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! पूर्वकालमें शौनकजीके महान् यज्ञमें हम सभी लोगोंने आपसे ‘ वाराह – संहिता ‘ सुनी थी । अब हम ‘ नरसिंहपुराण ‘ की संहिता सुनना चाहते हैं तथा ये ऋषि लोग भी उसे ही सुननेके लिये यहाँ उपस्थित हैं । अतः

 

महामुने सूतजी ! आज प्रातः काल इन महात्मा मुनियोंके समक्ष हम आपसे ये प्रश्न पूछते हैं – ‘ यह चराचर जगत् कहाँसे उत्पन्न हुआ है ? कौन इसकी रक्षा करता है ? अथवा किसमें इसका लय होता है ? महाभाग ! इस भूमिका प्रमाण क्या है तथा

 

महामते ! भगवान् नृसिंह किस कर्मसे संतुष्ट होते हैं – यह हमें बताइये । सृष्टिका आरम्भ कैसे हुआ ? उसका अवसान ( अन्त ) किस प्रकार होता है ? युगोंकी गणना कैसे होती है ? चतुर्युगका स्वरुप क्या है ? उन चारों युगोंमें क्या अन्तर होता है ? कलियुगमें लोगोंकी क्या अवस्था होती है ? तथा देवतालोग भगवान् नरसिंहकी किस प्रकार आराधना करते हैं ? पुण्यक्षेत्र कौन – कौन हैं ? पावन पर्वत कौन – से हैं ? और मनुष्योंके पापोंको हर लेनेवाली परम पावन एवं उत्तम नदियाँ कौन – कौन – सी हैं ? देवताओंकी सृष्टि कैसे हुई ? मनु, मन्वन्तर एवं विद्याधर आदिकी सृष्टि किस प्रकार होती है ? कौन – कौन राजा यज्ञ करनेवाले हुए हैं और किस – किसने परम उत्तम सिद्धि प्राप्त की है ?’

 

महाभाग ! ये सारी बातें आप क्रमशः बताइये ॥१५ – २४॥

 

सूतजी बोले – तपोधनो ! मैं जिन गुरुदेव व्यासजीके प्रसादसे पुराणोंका ज्ञान प्राप्त कर सका हूँ, उनकी भक्तिपूर्वक वन्दना करके आपलोगोंसे नरसिंहपुराणकी कथा कहना आरम्भ करता हूँ । जो समस्त देवताओंके एकमात्र कारण और वेदों तथा उनके छहों अङ्गोंद्वारा जाननेयोग्य परम पुरुष विष्णुके स्वरुप हैं; जो विद्यावान्, विमल बुद्धिदाता, नित्य शान्त, विषयकामनाशून्य और पापरहित हैं, उन विशुद्ध तेजोमय महात्मा पराशरनन्दन वेदव्यासजीको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । उन अमित तेजस्वी भगवान् व्यासजीको नमस्कार है, जिनकी कृपासे मैं भगवान् वासुदेवकी इस कथाको कह सकूँगा ।

 

मुनिगण ! आपलोगोंने भलीभाँति विचार करके मुझसे जो महान् प्रश्न पूछे हैं, उनका उत्तर भगवान् विष्णुकी कृपा हुए बिना कौन बतला सकता है ? तथापि

 

भरद्वाजजी ! भगवान् नरसिंहकी कृपाके बलसे ही आपके प्रश्नोंके उत्तरमें अत्यन्त पवित्र नरसिंहपुराणकी कथा आरम्भ करता हूँ । आप ध्यानसे सुनें । अपने शिष्योंके साथ जो-जो मुनि यहाँ उपस्थित हैं, वे सब लोग भी सावधान होकर सुनें । मैं सभीको यथावत् रुपसे नरसिंहपुराणकी कथा सुनाता हूँ ॥२५ – ३०॥

 

यह समस्त चराचर जगत् भगवान् नारायणसे ही उत्पन्न हुआ और वे ही नरसिंहादि रुपोंसे सबका पालन करते हैं । इसी प्रकार अन्तमें यह जगत् उन्हीं ज्योतिः स्वरुप भगवान् विष्णुमें लीन हो जाता है । भगवान् जिस प्रकार सृष्टि करते हैं, उसे मैं बतलाता हूँ, आप सुनें ।

 

सृष्टिकी कथा पुराणोंमें ही विस्तारके साथ वर्णित है, अतः पुराणोंका लक्षण बतानेके लिये यह एक श्लोक साधारणता सभी पुराणोंमें कहा गया है ।

 

मुने ! इस श्लोकको पहले सुनकर फिर सारी बातें सुनियेगा । यह श्लोक इस प्रकार है –

सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित – इन्हीं पाँच लक्षणोंसे युक्त ‘ पुराण ‘ होता है ।

आदिसर्ग, अनुसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित – इन सबका मैं क्रमशः संक्षिप्तरुपसे वर्णन करता हूँ ॥३१ – ३५॥

द्विजगण ! आदिसर्ग महान् है, अतः पहले मैं उसीका वर्णन करता हूँ । वहाँसे सृष्टिका वर्णन आरम्भ करनेपर देवताओं और राजाओंके चरित्रोंका तथा सनातन परमात्माके तत्त्वका भी रहस्यसहित ज्ञान हो जाता है ।

 

द्विजोत्तम ! सृष्टिके पहले महाप्रलय होनेके बाद कुछ भी शेष नहीं था । उस समय एकमात्र ‘ ब्रह्म ‘ नामक तत्त्व ही विद्यमान था, जो परम प्रकाशमय और सबका कारण है । वह नित्य, निरञ्जन, शान्त, निर्गुण एवं सदा ही दोषरहित हैं । मुमुक्षु पुरुष विशुद्ध आनन्दमहासागर परमेश्वरकी अभिलाषा किया करते हैं । वह ज्ञानस्वरुप होनेके कारण सर्वज्ञ, अनन्त, अजन्मा और अव्यय है । सृष्टि-रचनाका समय आनेपर उसी ज्ञानीश्वर परब्रह्मने जगतको अपनेमें लीन जानकर पुनः उसकी सृष्टि आरम्भ की ॥३६ – ४०॥

 

उस ब्रह्मसे प्रधान ( मूलप्रकृति ) – का आविर्भाव हुआ । प्रधानसे महत्तत्व प्रकट हुआ । सात्त्विक, राजस और तामस – भेदसे महत्तत्व तीन प्रकारका है । महत्तत्वसे वैकारिक ( सात्विक ), तैजस ( राजस ) और भूतादिरुप ( तामस ) – इन तीन भेदोंसे युक्त अहंकार उत्पन्न हुआ । जिस प्रकार प्रधानसे महत्तत्व आवृत है, उसी प्रकार महत्तत्वसे अहंकार भी व्याप्त है ।

 

तदनन्तर ‘ भूतादि ‘ नामक तामस अहंकाराने विकृत होकर शब्दतन्मात्राकी सृष्टि की और उससे ‘ शब्द ‘ गुणवाला आकाश उत्पन्न हुआ । तब उस भूतादिने शब्द गुणवाले आकाशको आवृत किया । आकाशने भी विकृत होकर स्पर्शतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे बलवान् वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुका गुण स्पर्श माना गया है । फिर शब्द गुणवाले आकाशको आवृत्त किया । आकाशने भी विकृत होकर स्पर्शतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे बलवान् वायुकी उत्पत्ति हुई । वायुका गुण स्पर्श माना गया है । फिर शब्द गुणवाले आकाशने ‘ स्पर्श ‘ गुणवाले वायुको आवृत्त किया । तत्पश्चात् वायुने विकृत होकर रुपतन्मात्राकी सृष्टि की । उससे ज्योतिर्मय अग्निका प्रादुर्भाव हुआ । ज्योतिका गुण ‘ रुप ‘ कहा गया है । फिर स्पर्शतन्मात्रारुप वायुने रुपतन्मात्रावाले तेजको आवृत्त किया । तब तेजने विकृत होकर रस-तन्मात्राकी सृष्टि की । उससे रस गुणवाला जल प्रकट हुआ । रुप गुणवाले तेजने रस गुणवाले जलको आवृत्त किया । तब जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध – तन्मात्राकी सृष्टि की । उससे यह पृथिवी उत्पन्न हुई जो आकाशादि सभी भूतोंके गुणोंसे युक्त होनेके कारण उनसे अधिक गुणवाली है ।

 

गन्धतन्मात्रारुप पार्थिवतत्त्वसे ही स्थूल पिण्डकी उत्पत्ति होती है । पृथिवीका गुण ‘ गन्ध ‘ है । उन-उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्राएँ हैं अर्थात् केवल उनके गुण शब्द आदि ही हैं । इसलिये वे तन्मात्रा ( गुण ) रुप ही कहे गये हैं । तन्मात्राएँ अविशेष कही गयी हैं; क्योंकि उनमें ‘ अमुक तन्मात्रा आकाशकी है और अमुक वायुकी ‘ इसका ज्ञान करानेवाला कोई विशेष भेद ( अन्तर ) नहीं होता ।

 

किंतु उन तन्मात्राओंसे प्रकट हुए आकाशादि भूत क्रमशः विशेष ( भेद ) – युक्त होते हैं । इसलिये उनकी ‘ विशेष ‘ संज्ञा है ।

 

भरद्वाजजी ! तामस अहंकारसे होनेवाली यह पञ्चभूतों और तन्मात्राओंकी सृष्टि मैंने आपसे थोड़ेमें कह दी ॥४१ – ५२॥

 

सृष्टि-तत्त्वपर विचार करनेवाले विद्वानोंने इन्द्रियोंको तैजस अहंकारसे उत्पन्न बतलाया है और उनके अभिमानी दस देवताओं तथ ग्यारहवें मनको वैकारिक अहंकारसे उत्पन्न कहा है ।

 

कुलको पवित्र करनेवाले भरद्वाजजी ! इन इन्द्रियोंमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कमेंन्द्रियाँ हैं । अब मैं उन सम्पूर्ण इन्द्रियों तथा उनके कर्मोंका वर्णन कर रहा हूँ । कान, नेत्र, जिह्वा, नाक और पाँचवीं त्वचा – ये पाँच ‘ ज्ञानेन्द्रियाँ ‘ कही गयी हैं, जो शब्द आदि विषयोंका ज्ञान करानेके लिये हैं । तथा पायु ( गुदा ), उपस्थ ( लिङ्ग ), हाथ, पाँव और वाक् – इन्द्रिय – ये ‘ कर्मेन्द्रियाँ ‘ कहलाती हैं । विसर्ग ( मल – त्याग ), आनन्द ( मैथुनजनित सुख ), शिल्प ( हाथकी कला ), गमन और बोलना – ये ही क्रमशः इन कर्मेंन्द्रियोके पाँच कर्म कहे गये हैं ॥५३ – ५६॥

 

विप्र ! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथिवी – ये पाँच भूत क्रमशः शब्द, स्पर्श, रुप, रस और गन्ध – इन गुणोंसे उत्तरोत्तर युक्त हैं, अर्थात् आकाशमें एकमात्र शब्द गुण है, वायुमें शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, तेजमें शब्द, स्पर्श और रुप तीन गुण हैं, इसी प्रकार जलमें चार और पृथिवीमें पाँच गुण हैं ।

 

ये पञ्चभूत अलग – अलग भिन्न – भिन्न प्रकारकी शक्तियोंसे युक्त हैं । अतः परस्पर पूर्णतया मिले बिना ये सृष्टि – रचना नहीं कर सके । तब एक ही संघातको उत्पन्न करना जिनका लक्ष्य है, उन महत्तत्वसे लेकर पञ्चभूतपर्यन्त सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर एक – दूसरेका आश्रय ले, सर्वथा एकरुपताको प्राप्त हो, प्रधानतत्त्वके अनुग्रहसे एक अण्डकी उत्पत्ति की । वह अण्ड क्रमशः बड़ा होकर जलके ऊपर बुलबुलेके समान स्थित हुआ ।

 

महाबुद्धे ! समस्त भूतोंसे प्रकट हो जलपर स्थित हुआ । वह महान् प्राकृत अण्ड ब्रह्मा ( हिरण्यगर्भ ) – रुप भगवान् विष्णुका अत्यन्त उत्तम आधार हुआ । उसमें वे अव्यक्तस्वरुप जगदीश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ही हिरण्यगर्भरुपसे विराजमान हुए । उस समय सुमेरु पर्वत उन महात्मा भगवान् हिरण्यगर्भका उल्ब ( गर्भको ढँकनेवाली झिल्ली ) था । अन्यान्य पर्वत जरायुज ( गर्भाशय ) थे और समुद्र ही गर्भाशयके जल थे ॥५७ – ६३॥

 

पर्वत, द्वीप, समुद्र और ग्रह-ताराओंसहित समस्त लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यादि प्राणी सभी उस अण्डसे ही प्रकट हुए हैं । परमेश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ही रजोगुणसे युक्त ब्रह्माका स्वरुप धारणकर संसारकी सृष्टिमें प्रवृत्त होते हैं । जबतक कल्पकी सृष्टि रहती हैं, तबतक वे ही नरसिंहादिरुपसे प्रत्येक युगमें अपने रचे हुए इस जगतकी रक्षा करते हैं और कल्पान्तमें रुद्ररुपसे इसका संहार कर लेते हैं । भगवान् अनन्त स्वयं ही ब्रह्मारुपसे सम्पूर्ण जगतकी सृष्टि करते हैं, फिर इसके पालनकी इच्छासे रामादि अवतार धारणकर इसकी रक्षा करते है और अन्तमें रुद्ररुप होकर जगतका नाश कर देते हैं ॥६४ – ६७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सर्गका निरुपण ‘ विषयक पहला अध्याय पुरा हुआ ॥१॥

अध्याय - २ ब्रह्मा आदिकी आयु और कालका स्वरूप

सूतजी कहते हैं – भरद्वाज ! भगवान् नरसिंह जिस प्रकार ब्रह्मा होकर जगतकी सृष्टिके कार्यमें प्रवृत्त होते हैं, उसका मैं आपसे वर्णन करता हूँ, सुनिये ।

विद्वन् ! ‘ नारायण ‘ नामसे प्रसिद्ध लोकपितामह भगवान् ब्रह्मा नित्य-सनातन पुरुष हैं, तथापि वे ‘ उत्पन्न हुए हैं ‘ – ऐसा उपचारसे कहा जाता है । उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी बतायी जाती है । उस सौ वर्षका नाम ‘ पर ‘ हैं । उसका आधा ‘ परार्ध ‘ कहलाता है ।

निष्पाप महर्षे ! साधुशिरोमणे ! मैंने तुमसे भगवान् विष्णुके जिस कालस्वरुपका वर्णन किया था, उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा दूसरे भी जो पृथ्वी, पर्वत और समुद्र आदि पदार्थ एवं चराचर जीव हैं, उनकी आयुका परिमाण नियत किया जाता है ।

अब मैं आपसे मनुष्योंकी ‘ काल – गणना ‘ का ज्ञान बता रहा हूँ, सुनिये ॥१ – ५१/२॥

अठारह निमेषोंकी एक ‘ काष्ठा ‘ कही गयी है, तीस काष्ठाओंकी एक ‘ कला ‘ समझनी चाहिये तथा तीस कलाओंका एक ‘ मुहूर्त ‘ होता है । तीस मुहूर्तोका एक मानव ‘ दिन-रात ‘ माना गया है । उतने ही ( तीस ही ) दिन-रात मिलकर एक ‘ मास ‘ होता है । इसमें दो पक्ष होते हैं । छः महीनोंका एक ‘ अयन ‘ होता है । अयन दो हैं – ‘ दक्षिणायन ‘ और ‘ उत्तरायण ‘ । दक्षिणायण देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण दिन । दो अयन मिलकर मनुष्योंका एक ‘ वर्ष ‘ कहा गया है । मनुष्योंका एक मास पितरोंका एक दिन – रात बताया गया है और मनुष्योंका एक वर्ष वसु आदि देवताओंका एक दिन-रात कहा गया है ।

देवताओंके बारह हजार वर्षोंका त्रेता आदि नामक चतुर्युग होता है । उसका विभाग आपलोग मुझसे समझ लें ॥६ – ११॥ पुराण-तत्त्ववेत्ताओंने कृत आदि युगोंका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाया है । ब्रह्मन् ! प्रत्येक युगके पूर्व उतने पीछे उतने ही परिमाणवाले ‘ संध्यांश ‘ होते हैं । विप्र ! संध्या और संध्यांशके बीचका जो काल है, उसे सत्ययुग और त्रेता आदि नामोंसे प्रसिद्ध युग समझना चाहिये । ‘ सत्ययुग ‘, ‘ त्रेता ‘, ‘ द्वापर ‘ और ‘ कलि ‘ – ये चार युग मिलकर ‘ चतुर्युग ‘ कहलाते हैं ।

द्विज ! एक हजार चतुर्युग मिलकर ‘ ब्रह्माका एक दिन ‘ होता है । ब्रह्मन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं । उनका कालकृत परिमाण सुनिये । सप्तर्षि, इन्द्र, मनु और मनु-पुत्र- ये पूर्व कल्पानुसार एक ही समय उत्पन्न किये जाते हैं तथा इनका संहार भी एक ही साथ होता है । ब्रह्मन् ! इकहत्तर चतुर्युगसे कुछ अधिक काल एक ‘ मन्वन्तर ‘ कहलाता है । यही मनु तथा इन्द्रादि देवोंका काल है । इस प्रकार दिव्य वर्ष-गणनाके अनुसार यह मन्वन्तर आठ लाख बावन हजार वर्षोंका समय कहा गया है । महामुने ! द्विजवर ! मानवीय वर्ष-गणनाके अनुसार पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख, बीस हजार वर्षोंका काल एक मन्वन्तरका परिमाण है, इससे अधिक नहीं ॥१२ – २१॥

इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका एक दिन होता है । ब्रह्माजीने विश्व-सृष्टिके आदिकालकें प्रसन्न मनसे देवताओं तथा पितरोंकी सृष्टि करके गन्धर्व, राक्षस, यक्ष, पिशाच, गुह्यक, ऋषि, विद्याधर, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर ( वृक्ष, पर्वत आदि ), पिपीलिका ( चींटी ) और साँपोंकी रचना की हैं । फिर चारों वर्णोंकी सृष्टि करके वे उन्हें यज्ञकर्ममें नियुक्त करते हैं । तत्पश्चात् दिन बीतनेपर वे अविनाशी प्रभु त्रिभुवनका उपसंहार करके दिनके ही बराबर परिमाणवाली रात्रिमें शेषनागकी शय्यापर सोते हैं ।

उस रात्रिकें बीतनेपर ‘ ब्राह्य ‘ नामक विख्यात महाकल्प हुआ, जिसमें भगवानका मत्स्यावतार और समुद्र – मन्थन हुआ । इस ब्राह्य-कल्पके ही समान तीसरा ‘ वाराह-कल्प ‘ हुआ, जिसमें कि भगवती वसुंधरा ( पृथ्वी ) – का उद्धार करनेके लिये साक्षात् भगवान् विष्णुने प्रसन्नतापूर्वक वाराहरुप धारण किया । उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति करते थे । स्थलचर और आकाशचारी जीवोंके द्वारा जिनकी इयत्ताको जान लेना नितान्त असम्भव है, वे आदिदेव भगवान् विष्णु समस्त प्रजाओंकी सृष्टि कर ‘ नैमित्तिक प्रलय ‘ में सबका संहार करके शयन करते हैं ॥२२ – २८॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सृष्टिरचनाविषयक ‘ दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥

अध्याय - ३ ब्रह्माजीद्वारा लोकरचना और नौ प्रकारकी सृष्टियोंका निरूपण

सूतजी बोले – महाभाग ! नैमित्तिक प्रलयकालमें सोये हुए भगवान् नारायणकी नाभिमें एक महान् कमल उत्पन्न हुआ । उसीसे वेद-वेदाङ्गोंके पारगामी ब्रह्माजीका प्रादुर्भाव हुआ । तब उनसे भगवान् नारायणने कहा –

 

‘ महामते ! तुम प्रजाकी सृष्टि करो ‘ और यह कहकर वे अन्तर्धान हो गये । उन भगवान् विष्णुसे ‘ तथास्तु ‘ कहकर ब्रह्माजी सोचने लगे – ‘ क्या जगतकी सृष्टिका कोई बीज है ? ‘ परंतु बहुत सोचनेपर भी उन्हें किसी बीजका पता न लगा । तब महात्मा ब्रह्माजीको महान् रोष हुआ । रोष होते ही उनकी गोदमें एक बालक प्रकट हो गया, जो उनके रोषसे ही प्रादुर्भूत हुआ था । उस बालकको रोते देख स्थूळ शरीरधारी ब्रह्माजीने उसे रोनेसे मना किया । फिर उसके यह कहनेपर कि ‘ मेरा नाम रख दीजिये ‘, उन्होंने उसका ‘ रुद्र ‘ नाम रख दिया ॥१ – ५॥

 

इसके बाद ब्रह्माजीने उससे कहा कि ‘ तुम इस लोककी सृष्टि करो ‘ – यह कहनेपर उस कार्यमें असमर्थ होनेके कारण वह सादर तपस्याके लिये जलमें निमग्न हो गया । उसके जलमें निमग्न हो जानेपर भूतनाथ प्रजापति ब्रह्माजीने फिर अपने दाहिने अँगूठेसे ‘ दक्ष ‘ नामक एक दूसरे पुत्रको उत्पन्न किया, तत्पश्चात् बायें अँगूठेसे उसकी पत्नी प्रकट हुई । प्रभु दक्षने उस स्त्रीसे स्वायम्भुव मनुको जन्म दिया । तब ब्रह्मजीने उसी मनुसे प्रजाओंकी सृष्टि बढ़ायी ।

 

मुनिवर ! वसुधाकी सृष्टि करनेवाले उस विधाताकी सृष्टि-रचनाका यह क्रम मैंने आपसे वर्णन किया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥६ – ९॥

 

भरद्वाजजी बोले – लोमहर्षणजी ! आपने यह सब वृत्तान्त मुझसे पहले संक्षेपसे कहा है । महामते ! अब आप विस्तारके साथ आदिसर्गका वर्णन कीजिये ॥१०॥

 

सूतजी बोले – पिछले कल्पका अन्त होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेके बाद सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त ( नारायणस्वरुप ) भगवान् ब्रह्माजीने उस समय सम्पूर्ण लोकको शून्यमय देखा । वे ब्रह्मस्वरुपी भगवान् ब्रह्मजीने उस समय सम्पूर्ण लोकको शून्यमय देखा । वे ब्रह्मस्वरुपी भगवान् नारायण सबसे परे हैं, अचिन्त्य हैं, पूर्वजोंके भी पूर्वज हैं, अनादि हैं और सबकी उत्पत्तिके कारण हैं । इस जगतकी उत्पत्तिके कारणभूत उन ब्रह्मस्वरुप नारायणदेवके विषयमें पुराणवेत्ता विद्वान् यह श्लोक कहते हैं –

” जल भगवान् नर-पुरुषोत्तमसे उत्पन्न है, इसलिये ‘ नार ‘ कहलाता है । नार ( जल ) ही उनका प्रथम अयन ( आदि शयन – स्थान ) है, इसलिये वे भगवान् ‘ नारायण ‘ कहे जाते हैं ।” इस प्रकार कल्पके आदिमें पूर्ववत् सृष्टिका चिन्तन करते समय ब्रह्माजीके बिना जाने ही असावधानता हो जानेके कारण तमोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ ॥११ – १५॥

 

उस समय उन महात्मासे तम ( अज्ञान ), मोह, महामोह ( भोगेच्छा ), तामिस्त्र ( क्रोध ) और अन्धतामिस्त्र ( अभिनिवेश ) नामक पञ्चपर्वा ( पाँच प्रकारकी ) अविद्या उत्पन्न हुई ।

फिर सृष्टिके लिये ध्यान करते हुए ब्रह्माजीसे वृक्ष, गुल्म, लता, वीरुध् एवं तृणरुप पाँच प्रकारका स्थावरात्मक सर्ग हुआ, जो बाहर-भीतरसे प्रकाशरहित, अविद्यासे आवृत्त एवं ज्ञानशून्य था ।

 

सर्गसिद्धिके ज्ञाता विद्वान् इसे ‘ मुख्य सर्ग ‘ समझे; ( क्योकिं अचल वस्तुओंको मुख्य कहा गया है । )

 

फिर सृष्टिके लिये ध्यान करनेपर उन ब्रह्माजीसे तिर्यक्-स्त्रोत नामक सृष्टि हुई । तिरछा चलनेके कारण उसकी ‘ तिर्यक् ‘ संज्ञा है । उससे उत्पन्न हुआ सर्ग ‘ तिर्यग्योनि ‘ कहा जाता है । वे विख्यात पशु आदि जो कुमार्गसे चलनेवाले हैं, तिर्यग्योनि कहलाते हैं ।

 

चतुर्मुख ब्रह्माजीने उस तिर्यक्स्त्रोता सर्गको पुरुषार्थका असाधक मानकर जब पुनः सृष्टिके लिये चिन्तन किया, तब उनसे तृतीय ‘ ऊर्ध्वस्त्रोता ‘ नामक सर्ग हुआ । यह सत्त्वगुणसे युक्त था ( यही ‘ देवसर्ग ‘ है ) ।

 

तब भगवानने प्रसन्न होकर पुनः अन्य सृष्टिके लिये चिन्तन किया । तदनन्तर सर्गकी वृद्धिके विषयमें चिन्तन करते हुए उन प्रजापतिसे ‘ अर्वाकस्त्रोता ‘ नामक सर्गकी उत्पत्ति हुई ।

 

इसीके अन्तर्गत मनुष्य हैं, जो पुरुषार्थाके साधक माने गये हैं । इनमें प्रकाश ( सत्त्वगुण ), और रज – इन दो गुणोंको अधिकता है और तमोगुण भी है । इसलिये ये अधिकतर दुःखी और अत्याधिक क्रियाशील होते हैं ॥१६ – २२॥

 

मुनिश्रेष्ठ ! इन बहुत-से सर्गोका मैंने आपसे वर्णन किया है । इनमें ‘ महत्तत्व’ को पहला सर्ग कहा गया है । दूसरा सर्ग ‘ तन्मात्राओं‘ का है । तीसरा वैकारिक सर्ग है, जो ‘ ऐन्द्रिय ‘ ( इन्द्रियसम्बन्धी ) कहलाता है । चौथा ‘ मुख्य ‘ कहे गये हैं । स्थावर ( वृक्ष, तृण, लता आदि ) ही ‘ मुख्य ‘ कहे गये हैं । तिर्यक्स्त्रोता नामक जो पाँचवाँ सर्ग कहा गया है, वह ‘ तिर्यग्योनि ‘ कहलाता है । इसके बाद छठा ‘ ऊर्ध्वस्तोत्राओं ‘ का सर्ग है । उसे ‘ देवसर्ग ‘ कहा जाता है । फिर सातवाँ अर्वाक्स्त्रोताओंका सर्ग है, उसे ‘ मानव – सर्ग ‘ कहते हैं । आठवाँ ‘अनुग्रह-सर्ग’ हैं, जिसे ‘ सात्त्विक ‘ कहा गया है । नवाँ रुद्रसर्ग है – ये ही नौ सर्ग प्रजापतिसे उत्पन्न हुए हैं ।

 

इनमें पहलेके तीन ‘ प्राकृत सर्ग ‘ कहे गये हैं । उसके बादवाले पाँच ‘ वैकृत सर्ग ‘ हैं और नवाँ जो ‘ कौमार सर्ग ‘ है, वह प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टि-रचनामें प्रवृत्त हुए ब्रह्माजीसे उत्पन्न हुए जो जगतकी उत्पत्तिके मूलकारण प्राकृत और वैकृत सर्ग हैं, उनका मैंने वर्णन किया । सबके आत्मरुपसे जाननेयोग्य अव्यक्तस्वरुप परमात्मा परमेश्वर भगवान् अनन्तदेव अपनी मायाका आश्रय लेकर प्रेरित होते हुए-से-उन विकारोंकी सृष्टि करते हैं ॥२३ – २९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सृष्टिरचनाका प्रकार ‘ नामक तीसरा अध्याय पुरा हुआ ॥३॥

अध्याय - ४ अनुसर्गके स्रष्टा

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! अव्यक्त जन्मा ब्रह्माजीसे जो नौ प्रकारकी सृष्टि हुई, उसका विस्तार किस प्रकार हुआ ? यही इस समय आप हमें बतलाइये ॥१॥

 

सूतजी बोले – ब्रह्माजीने पहले जिन मरीचि आदि ऋषियोंको उत्पन्न किया, उनके नाम इस प्रकार हैं – मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पुलह, क्रतु, महातेजस्वी पुलस्त्य, प्रचेता, भृगु, नारद और दसवें महाबुद्धिमान् वसिष्ठ हैं । सनक आदि ऋषि निवृत्तिधर्ममें तत्पर हुए और एकमात्र नारद मुनिको छोड़कर शेष सभी मरीचि आदि मुनि प्रवृत्तिधर्ममें नियुक्त हुए ॥२ – ४॥

 

ब्रह्माजीके दायें अङ्गसे उत्पन्न जो ‘ दक्ष ‘ नामक दूसरे प्रजापति कहे गये हैं, उनके दौहित्रोंके वंशसे यह चराचर जगत् व्याप्त है ।

 

देव, दानव, गन्धर्व, उरग ( सर्प ) और पक्षी – ये सभी, जो सब-के-सब बड़े धर्मात्मा थे, दक्षकी कन्याओंसे उत्पन्न हुए । चार प्रकारके चराचर प्राणी अनुसर्गमें उत्पन्न होकर वृद्धिको प्राप्त हुए ।

 

महाभाग ! पूर्वोक्त मरीचिसे लेकर वसिष्ठतक सभी श्रीब्रह्मजीकी मानस संतान हैं । ये सब अनुसर्गके स्रष्ठा हैं । सर्ग अर्थात् आदिसृष्टिमें महात्मा भगवान् नारायण पाँच महाभूत, बुद्धि तथा पूर्वोक्त इन्द्रियवर्ग-इन सबको उत्पन्न करते हैं । इसके पश्चात् ( अनुसर्गकालमें ) वे अनन्तदेव स्वयं ही चतुर्मुख ब्रह्मा और मरीचि आदि मुनियोंके रुपसे प्रकट हो जगतकी सृष्टि करते हैं ॥५ – ९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें चौथा अध्याय पुरा हुआ ॥४॥

अध्याय - ५ रुद्र आदि सर्गों और अनुसर्गोका वर्णन; दक्ष प्रजापतिकी कन्याओंकी संततिका विस्तार

श्रीभरद्वाजजी बोले – महामते ! अब मुझसे ‘ रुद्रसर्ग ‘ का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि मरीचि आदि ऋषियोंने पहले किस प्रकार सृष्टि की ?

महाबुद्धिमान् सूत ! वसिष्ठजी तो पहले ब्रह्माजीके मनसे उत्पन्न हुए थे; फिर वे मित्रवारुणके पुत्र कैंसे हो गये ? ॥१ – २॥

 

सूतजी बोले – साधुशिरोमणे ! आपके प्रश्नानुसार मैं अब रुद्र-सृष्टिका तथा उसमें होनेवाले सर्गोका वर्णन करुँगा, साथ ही मुनियोंद्वारा सम्पादित प्रतिसर्ग ( अनुसर्ग ) – को भी मैं विस्तारके साथ बताऊँगा; आपलोग ध्यानसे सुनें ।

 

कल्पके आदिमें प्रभु ब्रह्माजी अपने ही समान शक्तिशाली पुत्र होनेका चिन्तन कर रहे थे । उस समय उनकी गोदमें एक नीललोहित वर्णका बालक प्रकट हुआ । उसका आधा शरीर स्त्रीका और आधा पुरुषका था । वह प्रचण्ड एवं विशालकाय था और अपने तेजसे दिशाओं तथा अवान्तर दिशाओंको प्रकाशित कर रहा था । उसे तेजसे देदीप्यमान देख प्रजापतिने कहा –

 

‘ महामते ! इस समय मेरे कहनेसे तुम अपने शरीरके दो भाग कर लो ।

 

‘ विप्र ! ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर प्रतापी रुद्रने अपने स्त्रीरुप और पुरुषरुपको उन्होंनें ग्यारह स्वरुपोंमें विभक्त किया; मैं उन सबके नाम बतलाता हूँ, सुनें । अजैकपात, अहिर्बुन्ध, कपाली, हर, बहुरुप, त्र्यम्बक, अपाराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी और रैवत – ये ‘ ग्यारह रुद्र ‘ कहे गये हैं, जो तीनोम भुवनेकि स्वामी हैं । पुरुषकी भाँति स्त्रीरुपके भी रुद्रने ग्यारह विभाग किये । भगवती उमा ही अनेक रुप धारण कर इन सबकी पत्नी हैं ॥३ – ११॥

 

विप्रेन्द ! पूर्वकालमें प्रतापी रुद्रदेव जलमें घोर तपस्या करके जब चाहर निकले, तब अपेने तपोबलसे उन्होंने वहाँ नाना प्रकारके भूतोंकी सृष्टि की । सिंह, ऊँट और मगरके समान मुँहवाले पिशाचों, राक्षसों तथा वेताल आदि अन्य सहस्त्रों भूतोंको उत्पन्न किया । साढ़े तीस करोड उग्र स्वभाववाले विनायकगणोंकी सृष्टि की तथा दूसरे कार्यके उद्देश्यसे स्कन्दकरो किया । इस प्रकार भगवान् रुद्र तत्था उनके सर्गका मैंने पसे वर्णन किया ॥१२ – १५॥

 

अब मरीचि आदि ऋषियोंके अनुसर्गका वर्णन करता हूँ, आप सुनें । स्वयम्भू ब्रह्माजीने देवताओंसे लेकर स्थावरोंतक सारी प्रजाओंकी सृष्टि की । किंतु इन बुद्धिमान् ब्रह्माजीकी ये सब प्रजाएँ जब वृद्धिको प्राप्त नहीं हुईं, तब इन्होंने अपने ही समान मानस-पुत्रोंकी सृष्टि की । मरीचि अत्रि, अङ्गिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ और महाबुद्धिमान् भृगुको उत्पन्न किया । ये लोग पुराणमें नौ ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं ।

 

ब्रह्मन् ! अग्नि और पितर भी ब्रह्माके ही मानस-पुत्र हैं । इन दोनों महाभागोंको सृष्टिकालमें स्वयम्भू ब्रह्मजीने उत्पन्न किया । फिर उन्होंने ‘ शतरुपा ‘ नामक कन्याकी सृष्टि करके उसे मनुको दे दिया ॥१६ – २०॥

 

उन स्वायम्भुव मनुसे देवी शतरुपाने ‘ प्रियव्रत ‘ और ‘ उत्तानपाद ‘ नामक दो पुत्र उत्पन्न किये और ‘ प्रसूति ‘ नामवाली एक कन्याको जन्म दिया । स्वायम्भुव मनुने अपनी कन्या प्रसूति दक्षको ब्याह दी । दक्षने प्रसूतिसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न कीं । अब मुझसे उन कन्याओंके नाम सुनें – श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तुष्टि, पुष्टि, मेधा, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति थी । भगवान् धर्मने संतानोत्पत्तिके लिये इन ते ह कन्याओंका पाणिग्रहण किया । धर्मकी इन श्रद्धा आदि पत्नियोंके गर्भसे काम आदि पुत्र उत्पन्न हुए । अपने पुत्र और पौत्र आदिसे धर्मका वंश खूब बढ़ा ॥२१ – २५॥

 

द्विजश्रेष्ठ ! श्रद्धा आदिसे छोटी अवस्थावाली जो उनकी शेष बहनें थीं, उनके नाम बता रहा हूँ – सम्भूति, अनसूया, स्मृति, प्रीति, क्षमा, संनति, सत्या, ऊर्जा, ख्याति, दसवीं स्वाहा और ग्यारहवीं स्वधा है । दक्षके ‘ मातरिश्चा ‘ और ‘ सत्यवान् ‘ नामक दो महाभाग पुत्र भी हुए । उपर्युक्त ग्यारह कन्याओंको दक्षने पुण्यात्मा ऋषियोंको दिया ॥२६ – २८॥

 

मरीचि आदि मुनियोंके जो पुत्र हुए, उन्हें मैं आपसे बतलाता हूँ । मरीचिकी पत्नी सम्भूति थी । उसने कश्यप मुनिको जन्म दिया । अङ्गिराकी भार्या स्मृति थी । उसने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति – इन चार कन्याओंको उत्पन्न किया । इसी प्रकार अत्रि मुनिकी पत्नी अनसूयाने सोम, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय – इन तीन पापरहित पुत्रोंको जन्म दिया ।

 

द्विज ! ब्रह्माजीका ज्येष्ठ पुत्र, जो अग्निका अभिमानी देवता है, उससे उसकी पत्नी स्वाहाने पावक, पवमान और जलका भक्षण करनेवाले शुचिइन अत्यन्त तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया । इन तीनोंके ( प्रत्येकके पंद्रह-पंद्रहके क्रमसे ) अन्य पैंतालीस अग्निस्वरुप संतानें हुईं । पिता अग्नि, उसके तीनों पुत्र तथा उनके भी ये पूर्वोक्त पैतालीस पुत्र सब मिलकर ‘ अग्नि ‘ ही कहलाते हैं । इस प्रकार उनचास अग्नि कहे गये हैं । ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये जिन पितरोंका मैंने आपके समक्ष वर्णन किया था, उनसे उनकी पत्नी स्वधाने मेना और धारिणी – इन दो कन्याओंको जन्म दिया ॥२९ – ३५॥

 

साधुशिरोमणे ! पूर्वकालमें स्वयम्भू ब्रह्मजीके द्वारा ‘ तुम प्रजाकी सृष्टि करो ‘ यह आज्ञा पाकर दक्षने जिस प्रकार सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि की थी, उसे सुनिये ।

 

विप्रवर ! दक्षमुनिने पहले देवता, ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प – इन सभी भूतोंको मनसे ही उत्पन्न किया । परंतु जब मनसे उत्पन्न किये हुए ये देवादि सर्ग वृद्धिको प्राप्त नहीं हुए, तब उन दक्ष प्रजापति ऋषिने सृष्टिके लिये पूर्णतः विचार करके मैथुनधर्मके द्वारा ही नाना प्रकारकी सृष्टि रचनेकी इच्छा मनमें लिये वीरण प्रजापतिकी कन्या असिक्नीके साथ विवाह किया । हमने सुना है कि दक्ष प्रजापतिने वीरण-कन्या असिक्नीके गर्भसे साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं । उनमेंसे दस कन्याएँ उन्होंने धर्मको और तेरह कश्यप मुनिको ब्याह दीं । फिर सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमाको, चार अरिष्टनेमिको, दो बहुपुत्रको, दो अङ्गिराको और दो कन्याएँ विद्वान् कृशाश्चको समर्पित कर दीं । अब इन सबकी संतानोंका वर्णन सुनिये ॥३६ – ४११/२॥

 

जो विश्वा नामकी कन्या थी, उसने विश्वेदेवोंको और साध्याने साध्योंको जन्म दिया । मरुत्वतीके मरुत्वान् ( वायु ), वसुके वसुगण, भानुके भानुदेवता और मुहूर्तके मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए । लम्बासे घोष नामक पुत्र हुआ, जामिस्से नागवीथि नामवाली कन्या हुई और अरुन्धतीसे पृथिवीके समस्त प्राणी उत्पन्न हुए ।

 

महाबुद्धे ! संकल्पा नामक कन्यासे संकल्पका जन्म हुआ, अनेक प्रकारके वसु ( तेज अथवा धन ) ही जिनके प्राण हैं, ऐसे जो आठ ज्योतिर्मय वसु देवता कहे गये हैं, उनके नाम सुनिये – आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास – ये ‘ आठ वसु ‘ कहलाते हैं । इनके पुत्रों और पौत्रोंकी संख्या सैकड़ों और हजारोंतक पहुँच गयी हैं ॥४२ – ४७॥

 

इसी प्रकार साध्यगणोंकी भी संख्या बहुत है और उनके भी हजारों पुत्र हैं । जो ( दक्ष – कन्याएँ ) कश्यप मुनिकी पत्नियाँ हुए, उनके नाम सुनिये – वे अदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रू और मुनि थीं ।

 

धर्मज्ञ ! अब आप मुझसे उनकी संतानोंका विवरण सुनिये ।

 

महामते ! अदितिके कश्यपजीसे बाराह सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुए । उनके नाम बता रहा हूँ, सुनिये –

 

महामते ! भग, अंशु, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान्, त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं । दितिके कश्यपजीसे दो पुत्र हुए थे, ऐसा हमने सुना है। पहला महाकाय हिरण्याक्ष हुआ, जिसे भगवान् वाराहने मारा और दूसरा हिरण्यकशिपु हुआ, जो नृसिंहजीके द्वारा मारा गया । इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से दैत्य दितिसे उत्पन्न हुए । दनुके पुत्र दानव हुए और अरिष्टाके कश्यपजीसे गन्धर्वगण उत्पन्न हुए । सुरसाचे अनेक विद्याधरगण हुए और सुरभिसे कश्यप मुनिने गौओंको जन्म दिया ॥४८ – ५५॥

 

विनताके ‘ गरुड ‘ और ‘ अरुण ‘ नामक दो विख्यात पुत्र हुए । गरुडजी प्रेमवश अमित-तेजस्वी देवदेव भगवान् विष्णुके वाहन हो गये और अरुण सूर्यके सारथि बने । ताम्राके कश्यपजीसे छः पुत्र हुए, उन्हें आप मुझसे सुनिये – घोड़ा, ऊँट, गदहा, हाथी, गवय और मृग । पृथ्वीपर जितने दुष्ट जीव है, वे क्रोधासे उत्पन्न हुए हैं । इराने वृक्ष, लता, वल्ली और ‘ सन ‘ जातिके तृणवर्गको जन्म दिया । खसाने यक्ष और राक्षसों तथा मुनिने अप्सराओंको प्रकट किया । कद्रूके पुत्र प्रचण्ड विषवाले ‘ दंदशूक ‘ नामक महासर्प हुए । विप्रवर ! चन्द्रमाकी सुन्दर व्रतवाली जिन सत्ताईस स्त्रियोंकी चर्चा की गयी हैं, उनसे बुध आदि महान् पराक्रमी पुत्र हुए । अरिष्टनेमिकी स्त्रियोंके गर्भसे सोलह संतानें हुई ॥५६ – ६१॥

 

विद्वान बहुपुत्रकी संतानें कपिला, अतिलोहिता, पीता और सिता-इन चार वर्णोवाली चार बिजलियाँ कही गयी हैं । प्रत्यङ्गिराके पुत्रगण ऋषियोंद्वारा सम्मानित उत्तम ऋषि हुए । देवर्षि कृशाश्चके पुत्र देवर्षि ही हुए । ये एक-एक हजार युग ( अर्थात् एक कल्प ) – के बीतनेपर पुनः-पुनः उत्पन्न होते रहते हैं । इस प्रकार कश्यपके वंशमें उत्पन्न हुए चर-अचर प्राणियोंका वर्णन किया गया ।

 

विप्रवर ! धर्मपूर्वक पालनकर्ममें लगे हुए भगवान् नरसिंहकी इन विभूतियोंका यहाँ मैंने आपके समक्ष वर्णन किया है । साथ ही दक्षकन्याओंकी वंश – परम्परा भी बतलायी है । जो श्रद्धापूर्वक इन सबका स्मरण करता है, वह सुन्दर संतानसे युक्त होता है ।

 

ब्रह्मन ! सृष्टि – विस्तारके लिये ब्रह्मा तथा अन्य प्रजापतियोंद्वारा जो सर्ग और अनुसर्ग सम्पादित हुए, उन सबको मैंने संक्षेपसे आपको बता दिया । जो द्विजाति मानव भगवान् विष्णुमें मन लगाकर इन प्रसङ्गोंको सदा पढेंगें वे निर्मल हो जायँगे ॥६२ – ६७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें पाँचवाँ अध्याय पुरा हुआ ॥५॥

अध्याय - ६ अगस्त्य तथा वसिष्ठजीके मित्रावरुणके पुत्ररूपमें उत्पन्न होनेका प्रसङ्ग

सूतजी बोले – ब्रह्मन् ! परमात्मा भगवान् विष्णुसे जिस प्रकार देव, दानव और यक्ष आदि उत्पन्न हुए, वह जगतकी सृष्टिका वृत्तान्त मैंने आपसे कह दिया । अब ऋषियोंके निकट जिस उद्देश्यको लेकर पहले आपने मुझसे प्रश्न किया थाकि ‘ वसिष्ठजी मित्रावरुणके पुत्र कैसे हो गये ? ‘ उसी पुरातन पवित्र कथाको कहूँगा ।

 

भरद्वाजजी ! आप एकाग्रचित्त हो, विशेष सावधानीके साथ उसे सुनिये ॥१ – ३॥

सम्पूर्ण धर्म और अर्थोंके तत्त्वको जाननेवाले, समस्त वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा समग्र विद्याओंके पारदर्शी ‘ दक्ष ‘ नामक प्रजापतिने अपनी तेरह सुन्दरी कन्याओंको, जो सभी कमलके समान नेत्रोंवाली और समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं, कश्यप मुनिको दिया था । उनके नाम बतलाता हूँ, आप लोग इस इस समय मुझसे उनके नाम जान लें – अदिति, दिति, दनु, काला, मुहूर्ता, सिंहिका, मुनि, इरा, क्रोधा, सुरभि, विनता, सुरसा, खसा, कद्रू और सरमा, जो देवताओंकी कुतिया कही गयी हैं – ये सभी दक्षप्रजापतिकी कन्याएँ हैं । इनको दक्षने कश्यपजीको समर्पित किया था ।

 

विप्रवर ! अदिति नामकी जो कन्या थी, वही इन सबमें श्रेष्ठ और बड़ी थी ॥४ – ८॥

अदितिने बारह पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो अग्निके समान कान्तिमान् एवं तेजस्वी थे । उन सबके नाम बतला रहा हूँ, आप मुझसे उन्हें सुनें । उन्हींके द्वारा सर्वदा क्रमशः दिन और रात होते रहते हैं । भग, अंशु, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान् , त्वष्टा, पूषा, इन्द्र और बारहवें विष्णु हैं । ये बारह आदित्य तपते वर्षा करते हैं ॥९ – १११/२॥

 

अदितिके मध्यम पुत्र वरुण ‘ लोकपाल ‘ कहे गये हैं; इनकी स्थिति वरुण – दिशा ( पश्चिम ) – में बतलायी जाती हैं । ये पश्चिम दिशामें पश्चिम समुद्रके तटपर सुशोभित होते हैं । वहाँ एक सुन्दर सुवर्णमय पर्वत हैं । उसके शिखर सब रत्नमय हैं । उनपर नाना प्रकारकी धातुएँ और झरने हैं । इनसे युक्त और नाना प्रकारके रत्नोंसे परिपूर्ण वह सुन्दर पर्वत बड़ी शोभा पाता है । उसमें बड़े – बड़े दरें और गुहाएँ हैं, जहाँ बाघ और सिंह दहाड़ते रहते हैं । वहाँके अनेकानेक एकान्त स्थलोंपर सिद्ध और गन्धर्व वास करते हैं । जब सुर्य वहाँ पहुँचते हैं, तब समस्त संसार अन्धकारसे पूर्ण हो जाता है । उसी पर्वतके शिखरपर विश्वकर्माकी बनायी हुई एक ‘ विश्वावती ‘ नामकी शोभनपुरी है, जो बड़ी, दिव्य तथा सुवर्णसे बनी हुई है और उसमें मणियोंके खंभे लगे हैं । इस प्रकार वह पुरी रमणीय एवं सम्पूर्ण भोग – साधनोंसे सम्पन्न है । उसीमें अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए ‘ वरुण ‘ नामक आदित्य ब्रह्माजीकी प्रेरणासे इन सम्पूर्ण लोकोंका पालन करते हैं । वहाँ उनकी सेवामें गन्धर्व और अप्सराएँ रहा करती हैं ॥१२ – १९॥

 

एक दिन वरुण अपने अङ्गोंमें दिव्य चन्दनका अनुलेप लगाये, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो ‘ मित्र ‘ के साथ वनको गये । ब्रह्मर्षिगण सदा जिसका सेवन करते हैं, जो नाना प्रकारके फल और फूलोंसे युक्त तथा अनेक तीर्थोसे व्याप्त है; जहाँ ऊर्ध्वरेता मुनियोंके आश्रम दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो प्रचुर फल – फूल और जलसे पूर्ण हैं, उस सुन्दर सुरम्य कुरुक्षेत्र तीर्थमें पहुँचकर वे दोनों देवता चीर और कृष्णमृगचर्म धारण करके तपस्या करने लगे । वहाँपर वनके एक भागमें निर्मल जलसे भरा हुआ एक सुन्दर सरोवर हैं जो बहुत – सी झाड़ियों और बेलोंसे आवृत्त है; अनेकानेक पक्षी उसका सेवन करते हैं । वह भाँति – भाँतिके वृक्षसमूहोंसे आच्छन्न और कमलोंसे सुशोभित है । उस सरोवरकी ‘ पौण्डरीक ‘ नामसे प्रसिद्धि है । उसमें बहुत – सी मछलियाँ और कछुए निवास करते हैं । तप आरम्भ करनेके पश्चात् वे दोनों भाई – मित्र और वरुणदेवता एक दिन वनमें विचरण करते और स्वेच्छानुसार घूमते हुए उस सरोवरकी ओर गये ॥२० – २५॥

 

वहाँ उन दोनोंने उस समय श्रेष्ठ एवं सुन्दरी अप्सरा उर्वशीको देखा, जो अपनी अन्य सहेलियोंके साथ स्नान कर रही थी । वह सुमुखी अप्सरा उस निर्जन वनमें विश्वस्त होकर हँसती और गाती थी । उसका वर्ण गोरा था । कमलके भीतरी भागके समान उसकी कान्ति थी । उसकी अलकें काली-काली और चिकनी थीं, आँखें कमल-दलके समान बड़ी-बड़ी थीं, होठ लाल थे, उसका भाषण बहुत ही मधुर था । उसके दाँत शङ्ख, कुन्द और चन्द्रमाके समान श्वेत, परस्पर मिले हुए और बराबर थे । उस मनस्विनीकी भौंहें, नासिका, मुख और ललाट-सभी सुन्दर थे । कटिभाग सिंहके कटिप्रदेशकी भाँति पतला था । उरोज, ऊरु और जघन – ये मोटे और घने थे । वह मधुर भाषण करनेमें चतुर थी । उसका मध्यभाग सुन्दर और मुस्कान मनोहर थी । दोनों हाथ लाल कमलके समान सुन्दर एवं कोमल थे । शरीर पतला और पैर सुन्दर थे । वह बाला बड़ी ही विनीता थी । उसका मुख पूर्णचन्द्रके समान आह्वादजनक और गति मत्त गजराजके समान मन्द थी । उर्वशीके उस दिव्य रुपको देखकर वे दोनों देवता विस्मयमें पड़ गये । उसके लास्य ( नृत्य ), हास्य, ललितभाव-मिश्रित मन्द मुसकान और मधुर सुरीले गानसे तथा शीतल-मन्द-सुगन्धित मलयानिलके स्पर्शसे एवं मतवाले भौंरोंके संगीत और कोकिलोंके स्पर्शसे एवं मतवाले भौरोंके संगीत और कोकिलोंके कलरवसे उन दोनोंका मज और भी मुग्ध हो गया । साथ ही उर्वशीकी तिरछी चितवनके शिकार होकर वे दोनों ही वहाँ स्खलित हो गये ( उनके वीर्यका पतन हो गया ) ।

 

मुनिसत्तम ! इसके बाद निमिके शापवश वसिष्ठजीका जीवात्मा अपने शरीरसे पृथक् होकर ( मित्रावरुणके वीर्यमें आविष्ट हुआ ) ॥२६ – ३३॥

 

‘ वसिष्ठ ! तुम मित्रावरुणके पुत्र होगोगे ‘ – इस प्रकार विश्वेदेवोंने ( निमिके शुक्रमें ) आकर कहा था तथा ब्रह्मजीका भी यही कथन था; अतएव मित्रावरुणके तीन स्थानोंपर गिरे हुए वीर्यमेंसे जो भाग कमलपर गिरा था, उसीसे वसिष्ठजी हुए । उन दोनों देवताओंका वीर्य तीन भागोंमें विभक्त होकर कमल, जल और स्थलपर ( घड़ेमें ) गिरा । कमलपर गिरे हुए वीर्यसे मुनिवर वसिष्ठ उत्पन्न हुए, स्थलपर गिरे हुए रेतससे अगस्त्य और जलमें गिरे हुए शुक्रसे अत्यन्त कान्तिमान् मत्स्यकी उत्पत्ति हुई । इस तरह उस कमलपर बुद्धिमान् वसिष्ठ, कुम्भमें अगस्त्य और जलमें मत्स्यका आविर्भाव हुआ; क्योंकि मित्रावरुणका वीर्य तीनों स्थानोंपर बराबर गिरा था । इसी समय उर्वशी स्वर्गलोकमें चली गयी । वसिष्ठ और अगस्त्य-इन दोनों ऋषियोंको साथ लेकर वे दोनों देवता पुनः अपने आश्रममें लौट आये और पुनः उन दोनोंने अत्यन्त उग्र तप आरम्भ किया ॥३४ – ३७ ॥

 

तपस्याके द्वारा सनातन परम ज्योति ( ब्रह्मधाम ) – को प्राप्त करनेकी इच्छावाले उन दोनों तपस्वी देवेश्वरोंसे ब्रह्माजीने आकर यह कहा-‘ महान् कान्तिमान् और पुत्रवान् मित्र तथा वरुण देवताओ ! तुम दोनोंको पुनः वैष्णवी सिद्धि प्राप्त होगी । इस समय संसारके साक्षीरुपसे तुम लोग अपने अधिकारपर स्थित हो जाओ ।‘ यों कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये और वे दोनों देवता अपने अधिकृत पदपर स्थित हुए ॥३८ – ४०॥

 

ब्राह्मण ! इस प्रकार महात्मा वसिष्ठजी और बुद्धिमान् अगस्त्यजी जिस तरह मित्रावरुणके पुत्र हुए थे, वह सब प्रसङ्ग मैंने आपसे कह दिया । यह वरुणदेवता-सम्बन्धी पुंसनाख्यान पाप नष्ट करनेवाला है । जो लोग पुत्रकी कामनासे शुद्ध व्रतका आचरण करते हुए इसका श्रवण करते हैं, वे शीघ्र ही नेक पुत्र प्राप्त करते हैं-इसमें संदेह नहीं है । जो उत्तम ब्राह्मण हव्य ( देवयाग ) और कव्य ( पितृयाग ) – में इसका पाठ करता है, उसके देवता तथा पितर तृप्त होकर अत्यन्त सुख प्राप्त करते हैं । जो वह पृथ्वीपर सुखपूर्वक प्रसन्नताके साथ रहता है और फिर विष्णुलोकको प्राप्त करता है । वेदवेत्ताओंके द्वारा प्रतिपादित इस पुरातन उपाख्यानको, जिसे मैंने कहा है, जो लोग सादर पढ़ेंगे और सुनेंगे, वे शुद्ध होकर अनायास ही विष्णुलोकको प्राप्त कर लेंगे ॥४१ – ४५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ पुंसवन ‘ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥६॥

अध्याय - ७ मार्कण्डेयजीके द्वारा तपस्यापूर्वक श्रीहरिकी आराधना; 'मृत्युञ्जय-स्तोत्र का पाठ और मृत्युपर विजय प्राप्त करना

श्रीभरद्वाजजी बोले – सूतजी ! मार्कण्डेयमुनिने मृत्युको कैसे पराजित किया ? यह मुझे बताइये । आपने पहले यह सूचित किया था कि वे मृत्युपर विजयी हुए थे ॥१॥

 

सूतजी बोले – भरद्वाजजी ! इस महान् पुरातन इतिहासको आप और ये सभी ऋषि सुनें; मैं कह रहा हूँ । अत्यन्त पवित्र कुरुक्षेत्रमें, व्यासपीठपर, एक सुन्दर आश्रममें स्नान तथा जप आदि समाप्त करके व्यासासनपर बैठे हुए और शिष्यभूत मुनियोंसे धिरे हुए मुनिवर महर्षि कृष्णद्वैपायनसे, जो वेद और वेदार्थोंके तत्त्ववेता तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ थे, परम धर्मात्मा शुकदेवजीने हाथ जोड़ उन्हें यथोचितरुपसे प्रणाम कर इसी विषयको जाननेके लिये प्रश्न किया था, जिसके लिये कि इन मुनियोंके निकट आप पुण्यतीर्थनिवासी नृसिंहभक्तने मुझसे पूछा है ॥२ – ६॥

 

श्रीशुकदेवजी बोले – पिताजी ! मार्कण्डेय मुनिने मृत्युपर कैसे विजय पायी ? यह कथा कहिये । इस समय मैं आपसे यही सुनना चाहता हूँ ॥७॥

 

व्यासजी बोले – महामते पुत्र ! मार्कण्डेय मुनिने जिस प्रकार मृत्युपर विजय पायी, वह तुमसे कहता हूँ, सुनो ! मुझसे कहे जानेवाले इस महान् एवं उत्तम उपाख्यानको ये सभी मुनि और मेरे शिष्यगण भी सुनें । भृगुजीके उनकी पत्नी ख्यातिके गर्भसे ‘ मृकण्डु ‘ नामक एक पुत्र हुआ । महात्मा मृकण्डुकी पत्नी सुमित्रा हुई । वह धर्मको जाननेवाली, धर्मपरायणा और पतिकी सेवामें लगी रहनेवाली थी । इसीके गर्भसे मृकण्डुके पुत्र मेधानी मार्कण्डेयजी हुए । ये भृगुके पौत्र महाभाग मार्कण्डेय बचपनमें भी बड़े बुद्धिमान् थे । पिताके द्वारा जातकर्म आदि संस्कार कर देनेपर माँ-बापके लाड़ले बालक मार्कण्डेयजी क्रमशः बढ़ने लगे; उनके जन्म लेते ही किसी भविष्यवेत्ता ज्योतिषीने यह कहा था कि ‘ बारहवाँ ‘ वर्ष पूर्ण होते ही इस बालककी मृत्यु हो जायगी ।’ यह सुनकर उनके मातापिता बहुत ही दुःखी हुए ।

 

महामते ! उन्हें देख-देखकर उन दोनोंका हदय व्यथित होता रहता था, तथापि उनके पिताने उनके नामकरण आदि सभी संस्कार किये । तत्पश्चात् मेधावी बालक मार्कण्डेय गुरुके घर ले जाये गये । वहाँ उनका उपनयन-संस्कार हुआ । वहाँ वे गुरुकी सेवामें तत्पर रहकर वेदाभ्यास करते हुए ही रहने लगे । वेदशास्त्रोंका यथावत् अध्ययन करके वे पुनः अपने घर लौट आये । घर आनेपर बुद्धिमान् महामुनि मार्कण्डेयने विनयपूर्वक माता-पिताके चरणोंमें शीश झुकाया और तबसे वे घरपर ही रहने लगे ॥१३ – १७॥

 

शुक्रदेव ! उस समय उन परम बुद्धिमान् महात्मा एवं विद्वान पुत्रको देखकर माता-पिता शोकसे बहुत ही दुःखी हुए । उन्हें दुःखी रहा करती हो ?  मैं पूछता हूँ, मुझसे अपने दुःखका कारण बतलाओ ।’ अपने पुत्र मार्कण्डेयजीके इस प्रकार पूछनेपर उन महात्माकी माताने, ज्योतिषी जो कुछ कह गया था, वह सब कह सुनाया । यह सुनकर मार्कण्डेयमुनिने माता-पितासे कहा – ‘ माँ ! तुम और पिताजी तनिक भी दुःख न मानो । मैं तपस्याके द्वारा अपनी मृत्युको दूर हटा दूँगा, इसमें संशय नहीं है । मैं ऐसा तप करुँगा, जिससे चिरजीवी हो सकूँ ॥१८ – २३॥

 

इस प्रकार कहकर, माता-पिताको आश्वासन देकर, वे अनेक ऋषियोंसे सुसेवित ‘ वल्लीवट ‘ नामक वनमें गये । वहाँ पहुँचकर महामति मार्कण्डेयजीने मुनियोंके साथ विराजमान अपने पितामह धर्मात्मा भृगुजीका दर्शन किया । उनके साथ ही अन्य ऋषियोंका भी यथोचित अभिवादन करके धर्मपरायण मार्कण्डेयजी मनोनिग्रहपूर्वक दोनों हाथ जोड़कर भृगुजीके समक्ष खड़े हो गये । महामति भृगुजीने अपने बालक पौत्र महाभाग मार्कण्डेयको, जिसकी आयु प्रायः बीत चुकी थी, देखकर कहा – ‘ वत्स ! तुम यहाँ कैसे आये ? अपने माता-पिता और बान्धवजनोंका कुशल कहो तथा यह भी बतलाओ कि यहाँ तुम्हारे आनेका क्या कारण है ?’ भृगुजीके इस प्रकार पूछनेपर महाप्राज्ञ मार्कण्डेयजीने उनसे उस समय ज्योतिषीकी कही हुई सारी बात कह सुनायी । पौत्रकी बात सुनकर भृगुजीने पुनः कहा – ‘ महाबुद्धे ! ऐसी स्थितिमें तुम कौनसा कर्म करना चाहते हो ?’ ॥२४ – ३०॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – भगवन् ! मैं इस समय प्राणियोंका अपहरण करनेवाले मृत्युको जीतना चाहता हूँ, इसीलिये आपकी शरणमें आया हूँ । इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये आप मुझे कोई उपाय बतायें ॥३१॥

 

भृगुजी बोले – पुत्र ! बहुत बड़ी तपस्याके द्वारा भगवान् नारायणकी आराधना किये बिना कौन मृत्युको जीत सकता है ? इसलिये तुम तपस्याद्वारा उन्हींका अर्चन करो । भक्तोंके प्रियतम और देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ उन अनन्त, अजन्मा, अच्युत पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ ।

 

वत्स ! पूर्वकालमें नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ ।

 

वत्स ! पूर्वकालमें नारदमुनि भी महान् तपके द्वारा उन्हीं अनामय भगवान् नारायणकी शरणमें गये थे ।

 

महाभाग ! ब्रह्मपुत्र नारदजी उन्हींकी कृपासे जरा और मृत्युको शीघ्र ही जीतकर दीर्घायु हो सुखपूर्वक रहते हैं ।

 

पुत्न ! उन कमललोचन नृसिंहस्वरुप भगवान् जनार्दनके बिना कौन मनुष्य यहाँ मृत्युकी सत्ताका निवारण कर सकता है ? तुम निरन्तर उन्हीं अनन्त, अजन्मा, विजयी, कृष्णवर्ण, लक्ष्मीपति, गोविन्द, गोपति भगवान् विष्णुकी शरणमें जाओ !

 

वत्स ! यदि तुम सदा उन महान् देवता भगवान् नरसिंहकी पूजा करते रहोगे तो सदाके लिये मृत्युपर विजय प्राप्त कर लोगे, इसमें संशय नहीं है ॥३२ – ३८॥

 

व्यासजी बोले – पितामह भृगुके इस प्रकार कहनेपर महान् तेजस्वी मार्कण्डेयजीने उनसे विनयपूर्वक कहा ॥३९॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – तात ! गुरो ! आपने विश्वपति भगवान् विष्णुको आराध्य तो बतलाया, परंतु मैं उन अच्युतकी आराधना कहाँ और किस प्रकार करुँ ? जिससे वे शीघ्र प्रसन्न होकर मेरी मृत्युको दूर कर दें ॥४०॥

 

भृगुजी बोले – सह्यपर्वतपर जो ‘ तुङ्गभद्रा ‘ नामसे विख्यात नदी है, वहाँ ‘ भद्रवट ‘ नामक वृक्षके नीचे जगन्नाथ भगवान् केशवकी स्थापना कर क्रमशः गन्ध और पुष्प आदिसे उनकी पूजा करो । इन्द्रियोंको मनमें नियन्त्रित कर, मनको भी पूर्णतः संयममें रखते हुए एकाग्रचित हो, ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ – इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करो और अपने हदयकमलमें शङ्ख, चक्र, गदा ( एवं पद्म ) धारण किये देवेश्वर भगवान् विष्णुका ध्यान किया करो । जो देवाधिदेव शाङ्गधन्वा विष्णुके इस द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करता है, उसके ऊपर वे विश्वात्मा प्रसन्न होते हैं । तुम भी इसका जप करो, जिससे प्रसन्न होकर वे तुम्हारी मृत्यु दूर कर देंगे ॥४१ – ४४॥

 

व्यासजी कहते हैं – वत्स ! भृगुजीके इस प्रकार कहनेपर उन्हें प्रणाम करके मार्कण्डेयजी सह्यपर्वतकी शाखासे निकली हुई तुङ्गभद्राके उत्तम तटपर विविध प्रकारके वृक्ष और लताओंसे भरे हुए नाना भाँतिके पुष्पोंसे सुशोभित, गुल्म, लता और वेणुओंसे व्याप्त तथा अनेकानेक मुनिजनोसें पूर्ण तपोवनमें गये । वहाँ वे महामुनिने देवेश्वर भगवान् विष्णुकी स्थापना करके क्रमशः गन्धधूप आदिसे उनकी पूजा करने लगे । भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने पूजा करने लगे । भगवानकी पूजा करते हुए वहाँ उन्होंने निरालस्यभावसे निराहार रहकर सालभर अत्यन्त दुष्कर तप किया । माताका बतलाया हुआ समय निकट आनेपर उस दिन महामति मार्कण्डेयजीने वहाँ स्नान करके पूर्वोक्त विधिसे विष्णुकी पूजा की और स्वस्तिकासन बाँध इन्द्रियसमूहको मनमें संयत कर विशुद्ध अन्तः करणसे युक्त हो प्राणायाम किया । फिर ॐ कारके उच्चारणसे हदयकमलको विकसित करते हुए उसके मध्यभागमें क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निमण्डलकी कल्पना करके भगवान् विष्णुका पीठ निश्चित किया और उस स्थानपर पीताम्बर तथा शङ्ख, चक्र, गदा धारण करनेवाले सनातन भगवान् श्रीकृष्णकी भावमय पुष्पोंसे पूजा करके उनमें चितको लगा दिया । फिर उन ब्रह्मस्वरुप श्रीहरिका ध्यान करते हुए वे ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ – इस मन्त्रका जप करने लगे ॥४५ – ५४॥

 

व्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! इस प्रकार ध्यान करते हुए बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीका मन उन देवाधिदेव जगदीश्वरमें लीन हो गया । तदनन्तर यमराजकी आज्ञासे उन्हें ले जानेके लिये हाथोंमें पाश लिये हुए यमदूत वहाँ आये; परंतु भगवान् विष्णुके दूतोंने उन्हें मार भगाया । शूलोंसे मारे जानेपर वे उस समय विप्रवर मार्कण्डेयको छोड़कर भाग चले और यह कहते गये कि ‘ हमलोग तो लौटकर चले जा रहे हैं, परंतु अब साक्षात् मृत्युदेव ही यहाँ आयेंगे ‘ ॥५५ – ५७॥

 

विष्णुदूत बोले – जहाँ हमारे स्वामी जगदीश्वर शार्ङ्गधन्वा भगवान् विष्णुका नाम जपा जाता हो, वहाँ उनकी क्या बिसात है ? ग्रसनेवालोमें श्रेष्ठ काल, मृत्यु अथवा यमराज कौन होते हैं ? ॥५८॥

 

व्यासजी कहते हैं – यमदूतोंके लौटनेके बाद साक्षात् मृत्युने ही वहाँ आकर उन्हें यमलोक चलनेको कहा, परंतु श्रीविष्णुदूतोंके डरसे वे महात्मा मार्कण्डेयके आसपास ही घूमते रह गये; उन्हें स्पर्श करनेका साहन न कर सके । इधर विष्णुदूत भी शीघ्र ही लोहेके मूसल उठाकर खड़े हो गये । उन्होंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था कि ‘ आज हमलोग विष्णुकी आज्ञासे मृत्युका वध कर डालेंगे ।’ तत्पश्चात् महामति मार्कण्डेयजी भगवान् विष्णुमें चित्त लगाये उन देवाधिदेव जनार्दनको प्रणाम करते हुए स्तुति करने लगे । भगवान् विष्णुने ही वह स्तोत्र उन महात्माके कानमें कह दिया । उसी सुभाषित स्तोत्रद्वारा उन्होंने मनोयोगपूर्वक भगवान् लक्ष्मीपतिकी स्तुति की ॥५९ – ६२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – जो सहस्रों नेत्रोंसे युक्त, इन्द्रियोंके स्वामी, पुरातन पुरुष तथा पद्मनाभ ( अपनी नाभिसे ब्रह्माण्डमय कमलको प्रकट करनेवाले ) हैं, उन श्रीनारायणदेवको मैं प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगा ? मैं अनन्त, अजन्मा, अविकारी, गोविन्द, कमलनयन भगवान् केशवकी शरणमें आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा ? मैं संसारकी उत्पत्तिके स्थान, सूर्यके समान प्रकाशमान् , इन्द्रियातील वासुदेव ( सर्वव्यापी देवता ) भगवान् दामोदरकी शरणमें आ गया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ?

जिनका स्वरुप अव्यक्त है, जो विकारोंसे रहित हैं, उन शङ्ख – चक्रधारी भगवान् अधोक्षजकी मैं शरणमें आ गया; मृत्यु मेरा क्या कर लेगा ? मैं वाराह, वामन, विष्णु, नरसिंह, जनार्दन एवं माधवकी शरणमें हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? मैं पवित्र, पुष्कररुप अथवा पुष्कल ( पूर्ण ) रुप, कल्याणबीज, जगत् – प्रतिपालक एवं लोकनाथ भगवान् पुरुषोत्तमकी शरणमें आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा ? जो समस्त भूतोंके आत्मा, महात्मा ( परमात्मा ) एवं जगतकी योनि ( उत्पत्तिके स्थान ) होते हुए भी स्वयं अयोनिज हैं, उन भगवान् विश्वरुपकी मैं शरणमें आया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, जो व्यक्ताव्यक्त स्वरुप हैं, उन महायोगी सनातन देवकी मैं शरणमें आया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा ? ॥६३ – ७०॥

 

महात्मा मार्कण्डेयके द्वारा उच्चारित हुए उस स्तोत्रको सुनकर विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित हुए मृत्युदेव वहाँसे भाग चले । इस प्रकार बुद्धिमान् मार्कण्डेयने मृत्युपर विजय पायी । सच है, कमललोचन भगवान् नृसिंहके प्रसन्न होनेपर कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता । स्वयं भगवान् विष्णुने ही मार्कण्डेयजीके हितके लिये मृत्युको शान्त करनेवाले इस परम पावन मङ्गलमय मृत्युञ्जय – स्तोत्रका उपदेश दिया था । जो नित्य नियमपूर्वक पवित्रभावसे भक्तियुक्त होकर सायं, प्रातः और मध्याह्न – तीनों समय इस स्तोत्रका पाठ करता है, भगवान् अच्युतमें चित्त लगानेवाले उस पुरुषका अकालमरण नहीं होता । योगी मार्कण्डेयने अपने हदय – कमलमें सूर्यसे भी अधिक प्रकाशमान सनातन पुराण – पुरुष आदिदेव नारायणका चिन्तन करके तत्काल मृत्युपर विजय प्राप्त कर ली ॥७१ – ७५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ मार्कण्डेयकी मृत्युपर विजय ‘ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥७॥

अध्याय - ८ मृत्यु और दूतोंको समझाते हुए यमका उन्हें वैष्णवोंके पास जानेसे रोकना; उनके मुंहसे श्रीहरिके नामकी महिमा सुनकर नरकस्थ जीवोंका भगवानको नमस्कार करके श्रीविष्णुके धाममें जाना

श्रीव्यासजी बोले – विष्णुदूतोंके द्वारा अत्यन्त पीड़ित हुए मृत्युदेव और यमदूत अपने राजा यमके भवनमें जाकर बहुत रोने – कलपने लगे ॥१॥

मृत्यु और मृत्युदेव बोले – राजन् । आपके आगे हम जो कुछ कह रहे है, हमारी इन बातोंको आप सुनें । हमलोगोंने आपकी आज्ञाके अनुसार यहाँसे जाकर मृत्युको तो दूर ठहरा दिया और स्वयं भृगुके पौत्र ब्राह्मण मार्कण्डेयके समीप गये । परंतु सत्पुरुषशिरोमणे ! वह उस समय एकाग्रचित होकर किसी देवताका ध्यान कर रहा था ।

महामते ! हम सभी लोग उसके पासतक पहुँचने भी नहीं पाये थे कि बहुत – से महाकाय पुरुष मूसलसे हमें मारने लगे । तब हमलोग तो लौट पड़े, परंतु यह देखकर मृत्युदेव वहाँ फिर पधारे । तब हमें डाँट – फटकारकर उन लोगोंने इन्हे भी मूसलोंसे मारा ।

प्रभो ! इस प्रकार तपस्यामें स्थित हुए उस ब्राह्मणको यहाँतक लानेमें मृत्युसहित हम सब लोग समर्थ न हो सके ।

महाभाग ! उस ब्राह्मणका जो तप है, उसे आप बतलाइये, वह किस देवताका ध्यान कर रहा था और जिन लोगोंनें हमें मारा, वे कौन थे ? ॥२ – ७॥

व्यासजी कहते हैं – महामते ! मृत्यु तथा समस्त दूतोंके इस प्रकार कहनेपर महाबुद्धि सूर्यकुमार यमने क्षणभर ध्यान करके कहा ॥८॥

यम बोले – मृत्यु तथा मेरे अन्य सभी किंकर आज मेरी बात सुनें – योगमार्ग ( समाधि ) – के द्वारा मैंने इस समय जो कुछ जाना है, वही सच-सच बतला रहा हूँ । भृगुके पौत्र महाबुद्धिमान् महाभाग मार्कण्डेयजी आजके दिन अपनी मृत्यु जानकर मृत्युको जीतनेकी इच्छासे तपोवनमें गये थे । वहाँ उन बुद्धिमानने भृगुजीके बतलाये हुए मार्गके अनुसार भगवान् विष्णुकी आराधना एवं द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करते हुए उत्कृष्ट तपस्या की है ।

दूतो ! वे मुनि निरन्तर योगयुक्त होकर वहाँ एकाग्रचित्तसे अपने हदयमें केशवका ध्यान कर रहे हैं ।

किंकरो ! उस महामुनिको भगवान विष्णुके ध्यानकी महादीक्षाका ही बल प्राप्त हैं; क्योंकि जिसका मरणकाल प्राप्त हो गया है, उसके लिये मैं दूसरा कोई बल नहीं देखता । भक्तवत्सल, कमललोचन भगवान् विष्णुके निरन्तर हदयस्थ हो जानेपर उस विष्णुस्वरुप भगवच्छरणागत पुरुषकी ओर कौन देख सकता है ? ॥९ – १४॥

वे पुरुष भी, जिन्होंने तुम्हें बहुत मारा है, भगवान् विष्णुके ही दूत हैं । आजसे जहाँ वैष्णव हों, वहाँ तुमलोग न जाना । उन महात्माओंके द्वारा तुम्हारा मारा जाना आश्चर्यकी बात नहीं है । आश्चर्य तो यह है कि उन दयालु महापुरुषोंने तुम्हें जीवित रहने दिया है । भला, नारायणके ध्यानमें तत्पर हुए उस ब्राह्मणको देखनेका भी साहस कौन कर सकता है ? तुम महापापियोंने भगवानके प्रिय भक्त मार्कण्डेयजीको जो यहाँ लानेका प्रयत्न किया है, यह अच्छा नहीं किया । आजसे तुमलोग मेरी आज्ञा मानकर उन महात्माओंके पास न जाना, जो महादेव भगवान् नृसिंहकी उपासना करते हों ॥१५ – १८॥

श्रीव्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! यमने अपने सामने खड़े हुए मृत्युदेव और दूतोंसे इस प्रकार कहकर नरकमें पड़े हुए पीडित मनुष्योंकी ओर देखा तथा अत्यन्त कृपा एवं विशेषतः विष्णुभक्तिसे युक्त होकर नारकीय जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये जो बातें कहीं, उन्हें तुम सुनो । नरकमें यातना सहते हुए जीवोंसे यमने कहा – ‘ पापसे कष्ट पानेवाले जीव ! तुमने क्लेशनाशक भगवान् केशवकी पूजा क्यों नहीं की ? पूजन – सम्बन्धी द्रव्योंके न मिलनेपर केवल जलमात्रसे भी पूजित होनेपर जो भगवान् पूजकको अपना लोकतक दे डालते हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की ? क्रमलके समान लोचनोंवाले, नरसिंहरुपधारी जो भगवान् हषीकेश स्मरणमात्रसे ही मनुष्योंको मुक्ति देनेवाले हैं, उनकी पूजा तुमने क्यों नहीं की ? ‘नरकमें पड़े हुए जीवोंके प्रति यों कहकर विष्णुभक्तिसे युक्त सूर्यनन्दन यमने अपने किंकरोंसे पुनः कहा –

किंकरो ! अविनाशी विश्वात्मा भगवान् विष्णुने नारदजीसे जैसा कहा था और अन्य वैष्णवों तथा सिद्धोंसे जैसा सदा ही सुना गया है, वह अत्यन्त उत्तम भगवद्वाक्य मैं प्रसन्न होकर तुम लोगोंसे शिक्षाके लिये कह रहा हूँ । तुम सभी भगवानके शरणागत होकर सुनो ॥२४ – २६॥

भगवान् कहते हैं – ‘ हे कृष्ण ! कृष्ण ! कृष्ण ! ‘ – इस प्रकार जो मेरा नित्य स्मरण करता है, उसको मैं उसी प्रकार नरकसे निकाल लेता हूँ, जैसे जलको भेदकर कमल बाहर निकल आता है । ‘ पुण्डरीकाक्ष ! देवेश्वर नरसिंह ! त्रिविक्रम ! मैं आपकी शरणमें पड़ा हूँ ‘ – यों जो कहता है, उसका मैं उद्धार कर देता हूँ ‘ – इस प्रकार जो मेरा शरणागत होता है, उसे मैं क्लेशसे मुक्त कर देता हूँ ॥२७ – २९॥

व्यासजी कहते हैं – वत्स ! यमराजके कहे हुए इस भगद्वाक्यको सुनकर नरकमें पड़े हुए जीव ‘ कृष्ण ! कृष्ण ! नरसिंह !’ इत्यादि भगवन्नामोंका जोरसे उच्चारण करने लगे । नारकीय जीव वहाँ ज्यों-ज्यों भगवन्नामका कीर्तन करते थे, त्यों-ही-त्यों भगवदेभक्तिसे युक्त होते जाते थे । इस तरह भक्तिभावसे पूर्ण हो वे इस प्रकार कहने लगे ॥३० – ३१॥

नरकस्थ जीव बोले – ‘ ॐ ‘ जिनका नाम कीर्तन करनेसे नरककी ज्वाला तत्काल शान्त हो जाती है, उन महात्मा भगवान् केशवको नमस्कार है । जो यज्ञोंके ईश्वर, आदिमूर्ति, शान्तस्वरुप और संसारके स्वामी हैं, उन भक्तप्रिय, विश्वपालक भगवान् विष्णुको नमस्कार है । अनन्त, अप्रमेय नरसिंहस्वरुप, शङ्ख – चक्र-गदा धारण करनेवाले, लोकगुरु आप श्रीनारायणको नमस्कार है । वेदोंके प्रिय, महान् एवं विशिष्ट गतिवाले भगवानको नमस्कार है । तर्कके अविषय, वेदस्वरुप, पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवान् वाराहको प्रणाम है । ब्राह्मणकुलमें अवतीर्ण, वेद-वेदाङ्गोंके ज्ञाता और अनेक विषयोंका ज्ञान रखनेवाले कान्तिमान् भगवान् वामनको नमस्कार है । बलिको बाँधनेवाले, वेदके पालक, देवताओंके स्वामी, व्यापक, परमात्मा आप वामनरुपधारी विष्णुभगवानको प्रणाम है । शुद्ध द्रव्यमय, शुद्धस्वरुप भगवान् चतुर्भुजको नमस्कार है । दुष्ट क्षत्रियोंका अन्त करनेवाले जमदग्रिनन्दन भगवान् परशुरामको प्रणाम है । रावणका वध करनेवाले आप महात्मा श्रीरामको नमस्कार है । गोविन्द ! आपको बारंबार प्रणाम है । आप इस दुर्गन्धपूर्ण नरकसे हमारा उद्धार करें ॥३२ – ३९॥

व्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! इस प्रकार नरकर्मे पड़े हुए जीवोंने जब भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुका कीर्तन किया, तब उन महात्माओंकी नरक – पीड़ा तत्काल दूर हो गयी । वे सभी अपने अङ्गोंमें दिव्य गन्धका अनुलेप लगाये, दिव्य वस्त्र और भूषणोंसे विभूषित हो, श्रीकृष्णस्वरुप हो गये । फिर भगवान् विष्णुके किंकर यमदूतोंकी भर्त्सना करके उन्हें दिव्य विमानोंपर बिठाकर विष्णुधामको ले गये । विष्णुदूतोंद्वारा सभी नरकस्थ जीवोंके विष्णुलोकमें ले जाये जानेपर यमराजने पुनः भगवान् विष्णुको प्रणाम किया । ‘ जिनके नामकीर्तनसे नरकमें पड़े हुए जीव विष्णुधामको चले गये, उन गुरुदेव नरसिंहभगवानको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । उन अमित तेजस्वी नरसिंहस्वरुप भगवान् विष्णुको जो प्रणाम करते हैं, उन्हें भी मेरा बार – बार नमस्कार हैं ‘ ॥४० – ४५॥

उग्र नरकाग्रिको शान्त और सभी यन्त्र आदिको विपरीत दशामें पड़े देखकर यमराजने स्वयं ही पुनः अपने दूतोंको शिक्षा देनेके लिये मनमें विचार किया ॥४६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ यमगीता ‘ नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥८॥

अध्याय - ९ यमाष्टक-यमराजका अपने दूतके प्रति उपदेश

श्रीव्यासजी बोले – अपने किंकरको हाथमें पाश लिये कहीं जानेको उद्यत देखकर यमराज उसके कानमें कहते हैं – ” दूत ! तुम भगवान् मधुसूदनकी शरणमें गये हुए प्राणियोंको छोड़ देना; क्योंकि मेरी प्रभूता दूसरे मनुष्योंपर ही चलती है, वैष्णवोंपर मेरा प्रभुत्व नहीं हैं । देवपूजित ब्रह्माजीने मुझे ‘ यम ‘ कहकर लोगोंके पुण्यपापका विचार करनेके लिये नियुक्त किया है । जो विष्णु और गुरुसे विमुख हैं, मैं उन्हीं मनुष्योंका शासन करता हूँ । जो श्रीहरिके चरणोंमें शीश झुकानेवाले हैं, उन्हें तो मैं स्वयं ही प्रणाम करता हूँ । भगवद्भक्तोंके चिन्तन एवं स्मरणमें अपना मन लगाकर मैं भी भगवान् वासुदेवसे अपनी सुगति चाहता हूँ । मैं मधुसूदनके वशमें हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ । भगवान् विष्णु मेरा भी नियन्त्रण करनेमें समर्थ हैं । जो भगवानसे विमुख है, उसे कभी सिद्धि ( मुक्ति ) नहीं प्राप्त हो सकती; विष अमृत हो जाय, ऐसा कभी सम्भव नहीं हैं; लोहा सैकड़ों वर्षोंतक आगमें तपाया जाय, तो भी कभी सोना नहीं हो सकता; चन्द्रमाकी कलङ्कित कान्ति कभी निष्कलङ्क नहीं हो सकती; वह कभी सूर्यके समान प्रकाशमान नहीं हो सकता; परंतु जो अनन्यचित्त होकर भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा है, वह मनुष्य अपने शरीरसे अत्यन्त मलिन होनेपर भी बड़ी शोभा पाता है । महान् लोकतत्त्वका अच्छी तरह विचार करनेपर भी यही निश्चित होता है कि भगवानकी उपासनाके बिना सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती; इसलिये देवगुरु बृहस्पतिके ऊपर सुदृढ अनुकम्पा करनेवाले भगवच्चरणोंका तुमलोग मोक्षके लिये स्मरण करते रहो । जो लोग सैकड़ों पुण्योंके फलस्वरुप इस सुन्दर मनुष्य – शरीरको पाकर भी व्यर्थ विषयसुखोंमें रमण करते हैं, मोक्षपथका अनुसरण नहीं करते, वे मानो राखके लिये जल्दी-जल्दी चन्दनकी लकड़ीको फूँक रहे हैं । बड़े-बड़े देवेश्वर हाथ जोड़कर मुकुलित कर पङ्कज-कोषद्वारा जिन भगवानके चरणारविन्दोंको प्रणाम करते हैं तथा जिनकी गति कभी और कहीं भी प्रतिहत नहीं होती,  उन भवजन्मनाशक एवं सबके अग्रज सनातन पुरुष भगवान् विष्णुको नमस्कार है ” ॥१ – ८॥

 

श्रीव्यासजी कहते हैं – इस पवित्र यमाष्टकको जो पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकको चला जाता है । भगवान् विष्णुकी भक्तिको बढ़ानेवाला यमराजका यह उत्तम वचन मैंने इस समय तुमसे कहा हैं; अब पुनः उसी पुरानी कथाको अर्थात् भृगुके पौत्र मार्कण्डेयजीने पूर्वकालमें जो कुच किया था, उसको कहूँगा ॥९ – १०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ यमाष्टक नाम ‘ नवाँ पूरा हुआ ॥९॥

अध्याय - १० मार्कण्डेयका विवाह कर वेदशिराको उत्पन्न करके प्रयागमें अक्षयवटके नीचे तप एवं भगवान्की स्तुति करना; फिर आकाशवाणीके अनुसार स्तुति करनेपर भगवानका उन्हें आशीर्वाद एवं वरदान देना तथा मार्कण्डेयजीका क्षीरसागरमें जाकर पुन: उनका दर्शन करना

श्रीव्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! इस प्रकार तपस्याद्वारा अपनी जीतकर प्रशंसित व्रतवाले महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी पिताके घर गये । वहाँ भृगुजीके विशेष आग्रहसे धर्मपूर्वक विवाह करके उन्होंने विधिके अनुसार ‘ वेदशिरा ‘ नामक एक पुत्र उत्पन्न किया । तत्पश्चात् निरामय ( निर्विकार ) देवेश्वर भगवान् नारायणका यज्ञोंद्वारा यजन करते हुए उन्होंने श्राद्धसे पितरोंका और अन्नदानसे अतिथियोंका पूजन किया । इसके बाद पुनः प्रयागमें जाकर वहाँके श्रेष्ठतम तीर्थ त्रिवेणीमें स्नान करके महातेजस्वी मार्कण्डेयजी अक्षयवटके नीचे तप करने लगे । जिनके कृपाप्रसादसे उन्होंने पूर्वकालमें मृत्युपर विजय प्राप्त की थी, उन्हीं देवाधिदेवके दर्शनकी इच्छासे उन्होंने उत्कृष्ट तपस्या आरम्भ की । दीर्घकालतक केवल वायु पीकर तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाते हुए वे महातेजस्वी महाबुद्धिमान् मार्कण्डेयजी एक दिन गन्ध – पुष्प आदि शुभ उपकरणोंसे भगवान् वेणीमाधवकी आराधना करके उनके सम्मुख स्वस्थचित्तसे खड़े हो गये और हदयमें उन्हीं शङ्ख-चक्र-गदाधारी गरुडध्वज भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए उनकी स्तुति करने लग ए ॥१ – ७॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – जो भगवान् श्रेष्ठ नर, नृसिंह और नरनाथ ( मनुष्योंके स्वामी ) हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी हैं, नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान विशाल हैं तथा चरणारविन्द असंख्य भूपतियोंद्वारा पूजित हैं, उन पुरातन पुरुष भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ । जो संसारके पालक हैं, क्षीरसमुद्र जिनका निवास – स्थान है, जो हाथमें शार्ङ्गधनुष धारण किये रहते हैं, मुनिवृन्द जिनकी वन्दना करते हैं, जो लक्ष्मीके पति हैं और लक्ष्मीको निन्तर अपने हदयमें धारण करते हैं, उन सर्वसमर्थ, सर्वेश्वर, अनन्त तेजोमय भगवान् गोविन्दको मैं प्रणम करता हूँ । जो अजन्मा, सबके वरणीय, जन-समुदायके दुःखोंका नाश करनेवाले, गुरु, पुराण-पुरुषोत्तम एवं सबके स्वामी हैं, सहस्रों सूर्योंके समान जिनकी कान्ति है तथा जो अच्युतस्वरुप हैं, उन आदिमाधव भगवान् विष्णुको मैं भक्तिभावसे प्रणाम करता हूँ । जो पुण्यात्मा भक्तोंके ही समक्ष सगुण-साकार रुपसे प्रकट होते हैं, सबकी परमगति हैं, भूमि, लोक और प्रजाओंके पति हैं, ‘ पर ‘ अर्थात् कारणोंके भी परम कारण हैं तथा तीनों लोकोंके कर्मोंके साक्षी हैं, उन भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ । जो अनादि विधाता भगवान् पूर्वकालमें क्षीरसमुद्रके भीतर ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनागके शरीररुपी शय्यापर सोये थे, क्षीरसिन्धुकी तरङ्गोंके जलकणोंसे अभिषिक्त होनेवाले उन लक्ष्मीनिवास भगवान् केशवको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने नरसिंहस्वरुप धारण किया है, जो महान् देवता हैं, मुर दैत्यके शत्रु हैं, मधु तथा कैटभ नामक दैत्योंका अन्त करनेवाले हैं और समस्त लोकोंकी पीड़ा दूर करनेवाले एवं हिरण्यगर्भ हैं, उन भगवान् विष्णुको मैं सदा नमस्कार करता हूँ । जो अनन्त, अव्यक्त, इन्द्रियातीत, सर्वव्यापी और अपने विभिन्न रुपोंमें स्वयं ही प्रतिष्ठित हैं तथा योगेश्वररगण जिनके चरणोंमें सदा ही मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान् जनार्दनको मैं भक्तिपूर्वक निरन्तर प्रणाम करता हूँ । जो आनन्दमय, एक ( अद्वितीय ), रजोगुणसे रहित, ज्ञानस्वरुप, वृन्दा ( लक्ष्मी ) – के धाम और योगियोंद्वारा पूजित हैं; जो अणुसे भी अत्यन्त अणु और वृद्धि तथा क्षयसे शून्य हैं, उन भक्तप्रिय भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ ॥८ – १५॥

 

श्रीव्यासजी कहते हैं – वत्स ! इस प्रकार स्तुति समाप्त होनेपर उस तीर्थमें तपस्या करनेवाले उन महाभाग मार्कण्डेयजीसे आकाशवाणीने कहा – ‘ ब्रह्मन ! क्यों क्लेश उठा रहे हो, तुम्हें जो भगवान् माधवका दर्शन नहीं हो रहा है, वह तभीतक जबतक तुम समस्त तीर्थोमें स्नान नहीं कर लेते ‘ उसके यों कहनेपर महामति मार्कण्डेयजीने समस्त तीर्थोंमें स्नान किया ( परंतु जब फिर भी दर्शन नहीं हुआ, तब उन्होंने आकाशवाणीको लक्ष्य करके कहा – ) ‘ जो कार्य करनेसे समस्त तीर्थोमें स्नान करना सफल होता है, अथवा समस्त तीर्थोमें स्नानका फल मिल जाता है, वह कार्य मुझे प्रसन्न होकर आप बतलाइये । आप जो भी हों , आपको नमस्कार हैं ‘ ॥१६ – १८॥

 

आकाशवाणीने कहा – विप्रेन्द्र ! सुव्रत ! इस स्तोत्रसे प्रभुवर नारायणका स्तवन करो; और किसी उपायसे तुम्हें समस्त तीर्थोंका फल नहीं प्राप्त होगा ॥१९॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – भगवन् ! जिसका जप करनेसे तीर्थस्रानका सम्पूर्ण फल प्राप्त हो जाता है, वह तीर्थफलदायक स्तोत्र कौन – सा है ? उसे ही मुझे बताइये ॥२०॥

 

आकाशवाणीने कहा – देवदेव ! माधव ! केशव ! आपकी जय हो, जय हो ! आपके नेत्र प्रफुल्ल कमलदले समान शोभा पाते हैं । गोविन्द ! गोपते ! आपकी जय हो, जय हो । पद्मनाभ ! वैकुण्ठ ! वामन ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । पद्मस्वरुप हषीकेश ! आपकी जय हो ! दामोदर ! अच्युत ! आपकी जय हो । लक्ष्मीपते ! अनन्त ! आपकी जय हो । लोकगुरो ! आपकी जय हो, जय हो ! शङ्ख और गदा धारण करनेवाले तथा पृथ्वीको उठानेवाले भगवान् वाराह ! आपकी जय हो, जय हो । यज्ञेश्वर ! पृथ्वीका धारण तथा पोषण करनेवाले वाराह ! आपकी जय हो, जय हो ! योग और धर्मके प्रवर्तक ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो । उत्तम ब्राह्मणोंकी वन्दना करने – उन्हें सम्मान देनेवाले देवता ! आपकी जय हो और नारदजीको सिद्धि देनेवाले परमेश्वर ! आपकी जय हो । पुण्यवानोंके आश्रय, वैदिक वाणीके चरम तात्पर्यभूत एवं वेदोक्त कर्मोंके परम आश्रय नारायण ! आपकी जय हो, जय हो । चतुर्भुज ! आपकी जय हो । दैत्योको भय देनेवाले श्रीजयदेव ! आपकी जय हो, जय हो । सर्वज्ञ ! सर्वात्मन् आपकी जय हो ! सनातदेव ! कल्याणकारी भगवान् ! आपकी जय हो, जय हो । महादेव ! विष्णो ! अधोक्षज ! देवेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये और आज मुझे अपने स्वरुपका प्रत्यक्ष दर्शन कराइये ॥२१ – २८॥

 

श्रीव्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! आकाशवाणीके कथनानुसार जब बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीने इस प्रकार भगवन्नामोंका कीर्तन किया, तब पीताम्बरधारी भगवान् जनार्दन वहाँ प्रकट हो गये । वे सनातन भगवान् विष्णु हाथोंमें शङ्ख चक्र और गदा लिये, समस्त आभूषणोंसे भूषित हो अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे थे । भृगुवंशको आनन्दित करनेवाले मार्कण्डेयजीने भगवानको, जिनका दर्शन चिरकालसे प्रार्थित था, सहसा सामने प्रकट हुआ देख, भक्तिविवश हो, भूमिपर मस्तक रखकर प्रणाम किया । भूमिपर गिर – गिरकर बारंबार साष्टांग प्रणाम करके खड़े हो, महामना मार्कण्डेय दोनों हाथ जोड़ सामने उपस्थित हुए भगवानकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥२९ – ३२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – महामना ! महाकाय ! महामते ! महादेव ! महायशस्वी ! देवाधिदेव ! आपको नमस्कार हैं । ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्रमा तथा रुद्र निरन्तर आपके युगलचरणारविन्दोंकी अर्चना करते हैं । आपके हाथमें शोभाशाली कमल सुशोभित होता है; आपने दैत्योंके शरीरींको मसल डाला है, आपको नमस्कार है । आप ‘ अनन्त ‘ नामसे विख्यात शेषनागके शरीरकी शय्याको अपने सम्पूर्ण अङ्ग समर्पित और सनत्कुमार आदि योगीजन अपने नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर सुस्थिर करके नित्यनिरन्तर जिस मोक्षतत्त्वका चिन्तन करते हैं, वह आप ही हैं । गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष, किंनर और किम्पुरुष प्रतिदिन आपके ही दिव्य सुयशका गान करते रहते हैं । नृसिंह ! नारायण ! पद्मनाभ ! गोविन्द ! गिरिराज गोवर्धनकी कन्दरामें क्रीड़ा – विश्रामादिके लिये निवास करनेवाले ! योगीश्वर ! देवेश्वर ! महामायाधर ! विद्याधर ! यशोधर ! कीर्तिधर ! सत्त्वादि तीनों गुणोंके आश्रय ! त्रितत्त्वधारी तथा गार्हपत्यादि तीनों अग्नियोंको धारण करनेवाले देव ! आपको प्रणाम है । आप ऋक, साम और यजुष – इन तीनों वेदोंके परम प्रतिपाद्य, त्रिनिकेत ( तीनों लोकोंके आश्रय ), त्रिसुपर्ण, मन्त्ररुप और त्रिदण्डधारी हैं, ऐसे आपको प्रणाम है । स्निग्ध मेघकी आभाके सदृश सुन्दर श्यामकान्तिसे सुशोभित, पीताम्बरधारी, किरीट, वलय, केयूर और हारोंमें जटित मणिरत्नोंकी किरणोंसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले नारायणदेव ! आपको नमस्कार है । सुवर्ण और मणियोंसे बने हुए कुण्डलोंद्वारा अलंकृत कपोलोंवाले मधुसूदन ! विश्वमूर्ते ! आपको प्रणाम है । लोकनाथ ! यज्ञेश्वर ! यज्ञप्रिय ! तेजोमय ! भक्तिप्रिय वासुदेव ! पापहारिन् ! आराध्यदेव पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है ॥३३ – ४०॥

 

श्रीव्यासजी बोले – इस प्रकार स्तवन सुनकर देवदेव भगवान् जनार्दनने प्रसन्नचित्त होकर मार्कण्डेयजीसे कहा ॥४१॥

 

श्रीभगवान् बोले – वत्स ! मैं तुम्हारे महान् तप और फिर स्तोत्रपाठसे तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ ।

 

महाबुद्धें ! इस समय तुम्हारा सारा पाप नष्ट हो चुका है । विप्रेन्द्र ! मैं तुम्हारे सम्मुख वर देनेके लिये उपस्थित हूँ; वर माँगो ।

 

ब्रह्मन् ! जिसने तप नहीं किया है, ऐसा कोई भी मनुष्य अनायास ही मेरा दर्शन नहीं पा सकता ॥४२ – ४३॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – देवेश्वर ! इस समय आपके दर्शनसे ही मैं कृतार्थ हो गया । जगत्पते ! अब तो मुझे एकमात्र अपनी अविचल भक्ति ही दिजिये । माधव ! श्रीपते ! हषीकेश ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे चिरकालिक आयु दीजिये मैं चिरकालतक आपकी आराधना कर सकूँ ॥४४ – ४५॥

 

श्रीभगवान् बोले – मृत्युको तो तुम पहले ही जीत चुके हो, अब चिरकालिक आयु भी तुम्हें प्राप्त हुई । साथ ही, मेरी मुक्तिदायिनी अविचल वैष्णवी भक्ति भी तुम्हें प्राप्त हो । महाभाग ! यह तीर्थ आजसे तुम्हारे ही नामसे विख्यात होगा; अब पुनः तुम क्षीरसमुद्रमें योगानिद्राका आश्रय लेकर सोये हुए मेरा दर्शन पाओंगे ॥४६ – ४७॥

 

श्रीव्यासजी बोले – यों कहकर कमललोचन भगवान् विष्णु वहीं अदृश्य हो गये । धर्मात्मा, साधुशिरोमणि, तपोधन मार्कण्डेयजी भी शुद्धस्वरुप देवदेवेश्वर मधुसुदनका ध्यान, पूजन, जप और नमस्कार करते हुए वहीं रहकर मुनियोंको पवित्र वेदशास्त्र, अखिल पुराण, विविध प्रकारकी गाथाएँ, पावन इतिहास और पितृतत्त्व भी सुनाने लगे । तदनन्तर किसी समय भगवान् पुरुषोत्तमके कहे हुए वचनको स्मरण कर, वे शास्त्रवेताओंमें श्रेष्ठ उग्रतेजस्वी मुनि उन सुरेश्वर भगवान् श्रीहरिका दर्शन करनेके लिये घूमते हुए समुद्रकी ओर चले । हदयमें भगवानकी भक्ती धारण किये चिरकालतक परिश्रमपूर्वक चलते-चलते क्षीरसागरमें पहुँचकर उन भृगुके पौत्रने नागराजके शरीररुपी पर्यङ्कपर निद्रामग्र हुए सुरेश्वर भगवान् विष्णुका दर्शन किया ॥४८ – ५२॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ मार्कण्डेयके चरित्र ‘ वर्णनके प्रसंगमें दसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१०॥

अध्याय - ११ मार्कण्डेयजीद्वारा शेषशायी भगवान्का स्तवन

व्यासजी बोले – शुकदेव ! तदनन्तर मार्कण्डेयजी शेषशय्यापर सोये हुए उन चराचरगुरु जगदीश्वर भगवान् विष्णुको प्रणाम करके उनका स्तवन करने लगे ॥१॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – भगवन् ! विष्णो ! आप प्रसन्न हों । पुरुषोत्तम ! आप प्रसन्न हों । देवदेवेश्वर ! गरुडध्वज ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लक्ष्मीपते विष्णो ! धरणीधर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लोकनाथ ! आदिपरमेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । कमलके समान नेत्रोंवाले सर्वदेवेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ! समुद्रमन्थनके समय मन्दर पर्वतको धारण करनेवाले मधुसूदन ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लक्ष्मीकान्त ! भुवनपते ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों, । आदिपुरुष महादेव ! केशव ! आप मुझपर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ॥२ – ५॥

 

कृष्ण ! अचिन्तनीय कृष्ण ! अव्यय विष्णो ! विश्वके रुपमें रहनेवाले एवं व्यापक व्यक्त होते हुए भी अव्यक्त ! परमेश्वर ! आपकी जय हो, आपको मेरा प्रणाम है । अजेय देव ! आपकी जय हो, जय हो । अविनाशी सत्य ! आपकी जय हो, जय हो । सबका शासन करनेवाले काल ! आपकी जय हो, जय हो ! सर्वमय ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है । यज्ञेश्वर ! नाथ ! व्यापक विश्वनाथ ! आपकी जय हो, जय हो ! स्वामिन् ! भूतनाथ ! सर्वेश्वर ! विभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको प्रणाम है । पापहारी ! अनन्त ! जन्म तथा वृद्धावस्थाके भयको नष्ट करनेवाले देव ! आपकी जय हो, जय हो ! भद्र ! अतिभद्र ! ईश ! कल्याणमय प्रभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ककुत्स्थकुलोत्पन्न श्रीराम ! सम्मान देनेवाले माधव ! आपकी जय हो, जय हो । देवेश्वर शंकर ! लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कुडकुमके समान अरुण कान्तिवाले कमलनयन ! आपकी जय हो, जय हो ! चन्दनसे अनुलिप्त श्रीअङ्गोंवाले श्रीराम ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । देव ! जगन्नाथ ! देवकीनन्दन ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । नील कमलकीसी आभावाले श्यामसुन्दर ! सुन्दरी श्रीराधाके प्राणवल्लभ ! आपकी जय हो, जय हो । सर्वाङ्गसुन्दर ! वन्दनीय प्रभो ! आपको नमस्कार है; आपकी जय हो, जय हो ! सब कुछ देनेवाले सर्वेश्वर ! कल्याणदायी सनातन पुरुष ! आपकी जय हो, जय हो । भक्तोंकी कामनाओंको देनेवाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है ॥६ – १४॥

 

जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है तथा जो कमलकी माला पहने हुए हैं, उन भगवानको नमस्कार है । लोकनाथ ! वीरभद्र ! आपको बार – बार नमस्कार है । चतुर्व्यूहस्वरुप जगदीश्वर ! आप त्रिभुवननाथ देवाधिदेव नारायणको नमस्कार है । पीताम्बरधारी वासुदेवको प्रणाम है, प्रणाम है । शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले नरसिंहस्वरुप आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है, नमस्कार है । भुवनेश्वर ! चक्रधारी विष्णु, कृष्ण, राम और भगवान् शिवके रुपमें वर्तमान आपको बार – बार नमस्कार है । सबके स्वामी श्रीधर ! अच्युत ! वेदान्त शास्त्रके द्वारा जाननेयोग्य आप अन्तरहित भगवान् विष्णुको बारम्बार नमस्कार है । लोकाध्यक्ष ! जगत्पूज्य परमात्मन् ! आपको नमस्कार है ॥१५ – १९१/२॥

 

आप ही समस्त संसारकी माता और आप ही सम्पूर्ण जगतके पिता हैं । आप पीड़ितोंके सुहद हैं; आप सबके मित्र, प्रियतम, पिताके भी पितामह, गुरु, गति, साक्षी, पति और परम आश्रय हैं । आप ही ध्रुव, वषटकर्ता, हवि, हुताशन ( अग्रि ), शिव, वसु, धाता, ब्रह्मा, सुरराज इन्द्र, यम, सूर्य, वायु, जल, कुबेर, मनु, दिन – रात, रजनी, चन्द्रमा, धृति, श्री, कान्ति, क्षमा और धराधर शेषनाग हैं । चराचरस्वरुप मधुसूदन ! आप ही जगतके स्रष्टा, शासक और संहारक हैं तथा आप ही समस्त संसारके रक्षक हैं । आप ही करण, कारण, कर्ता और परमेश्वर हैं । हाथमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले माधव ! आप मेरा उद्धार करें । कमलदललोचन प्रियतम ! शेषशय्यापर शयन करनेवाले पुरुषोत्तम आपको ही मैं सदा भक्तिके साथ प्रणाम करता हूँ । देव ! जिसमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पाता है, जो जगतका आदिकारण है, जिसका वर्ण श्यामल और नेत्र कमलके समान हैं तथा जो कलिके दोषोंको नष्ट करनेवाला है, आपके उस श्रीविग्रहको मैं नमस्कार करता हूँ ॥२० – २७॥

 

जो लक्ष्मीजीको अपने हदयमें धारण करते हैं, जिनका शरीर सुन्दर है, जो दिव्यमालासे विभूषित हैं, जिनका पृष्ठदेश सुन्दर और भुजाएँ बड़ी – बड़ी हैं, जो सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत हैं, जिनकी नाभिसे पद्म प्रकट हुआ है, जिनके नेत्र कमलदलके समान सुन्दर और विशाल हैं, नासिका बड़ी ऊँची और लम्बी है, जो नील मेघके समान श्याम हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी, शरीर सुरक्षित और वक्षःस्थल रत्नोंके हारसे प्रकाशमान हैं, जिनकी भौंहें, ललाट और मुकुटसभी सुन्दर हैं, दाँत चिकने और नेत्र मनोहर हैं, जो सुन्दर भुजाओं और रुचिर अरुण अधरोंसे सुशोभित हैं, जिनके कुण्डल रत्नजटित होनेके कारण जगमगा रहे हैं, कण्ठ वर्तुलाकार है और कंधे मांसल हैं, उन रसिकशेखर श्रीधर हरिको नमस्कार है ॥२८ – ३१॥

जो अजन्मा एवं नित्य होनेपर भी सुकुमारस्वरुप धारण किये हुए हैं, जिनके केश काले – काले और घुँघराले हैं, कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल विशाल हैं, आँखें कानोंतक फैली हुई हैं, मुखारविन्द सुवर्णमय कमलके समान परम सुन्दर है, जो लक्ष्मीके निवासस्थान एवं सबके शासक हैं, सम्पूर्ण लोकोंके स्रष्ट और समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं, समग्र शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सभी जीवोंके लिये मनोरम हैं तथा जो सर्वव्यापी, अच्युत, ईशान, अनन्त एवं पुरुषोत्तम हैं, वरदाता, कामपूरक, कमनीय, अनन्त, मधुरभाषी एवं कल्याणस्वरुप हैं, उन निरामय भगवान् नारायण श्रीहरिको मैं सदा हदयमे नमस्कार करता हूँ ॥३२ – ३५॥

 

भक्तवत्सल विष्णो ! मैं सदा आपको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । इस भयंकर एकार्णवमें, जो प्रलयकालिक वायुकी प्रेरणासे विक्षुब्ध एवं चञ्चल हो रहा है, सहस्त्र फणोंसे सुशोभित ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनागके शरीरकी विचित्र एवं रमणीय शय्यापर, जहाँ मन्द – मन्द वायु चल रही है, आपके भुजपाशमें बँधी हुई श्रीलक्ष्मीजीसे आप सेवित हैं; मैंने इस समय सर्वस्वरुप आपके रुपका यहाँपर जी भरकर दर्शन किया है ॥३६ – ३८॥

 

इस समय आपकी मायासे मोहित होकर मैं अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो रहा हूँ । दुःखरुपी पङ्कसे भरे हुए, व्याधिपूर्ण एवं अवलम्बशून्य इस एकार्णवमें समस्त स्थावरजङ्गम नष्ट हो चुके हैं । सब ओर शून्यमय अपार अन्धकार छाया हुआ है । मैं इसके भीतर शीत, आतप, जरा, रोग, शोक और तृष्णा आदिके द्वारा सदा चिरकालसे अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ । तात ! अच्युत ! इस भवसागरमें शोक और मोहरुपी ग्राहसे ग्रस्त होकर भटकता हुआ आज मैं यहाँ दैववश आपके चरणकमलोंके निकट आ पहुँचा हूँ । इस महाभयानक दुस्तर एकार्णवमें बहुत कालतक भटकते रहनेके कारण दुःखपीड़ित एवं थका हुआ मैं आज आपकी शरणमें आया हूँ । महामायी कमललोचन भगवन् ! विष्णो ! आप मुझपर प्रसन्न हों ॥३९ – ४३॥

 

कुलनन्दन कृष्ण ! आप विश्वकी उत्पत्तिके स्थान, विशाललोचन, विश्वोत्पादक और विश्वात्मा हैं; अतः दूसरेकी शरणमें न जाकर एकमात्र आपकी ही शरणमें आये हुए मुझ आतुरका आप कृपापूर्वक यहाँ उद्धार करें । पुराणपुरुषोत्तम पुण्डरीकलोचन ! आपको नमस्कार है । कज्जलके समान श्याम कान्तिवाले हषीकेश ! मायाके आश्रयभूत महेश्वर ! आपको नमस्कार है । महाबाहो ! संसार – सागरमें डूबे हुए मूझ शरणागतका उद्धार कर दें । वरदाता ईश्वर ! गोविन्द ! क्लेशरुपी महान् ग्राहोंसे भरे हुए, दुःख और क्लेशोंसे युक्त, दुस्तर एवं गहरे भवसागरमें गिरे हुए मुझ दीन, अनाथ एवं कृपणका उद्धार करें । त्रिभुवनाथ विष्णु और धरणीधर अनन्तको नमस्कार है । देवदेव ! श्रीवल्लभ ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥४४ – ४८॥

 

कृष्ण ! कृष्ण ! आप दयालु और आश्रयहीनके आश्रय हैं । मधुसूदन ! संसार – सागरमें निमग्न हुए प्राणियोंपर आप प्रसन्न हों । आज मैं एक ( अद्वितीय ), आदि, पुराणपुरुष, जगदीश्वर, जगतके कारण, अच्युतस्वरुप, सबके स्वामी और जन्म – जरा एवं पीड़ाको नष्ट करनेवाले, देवेश्वर, परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दनको प्रणाम करता हूँ । जिनकी भुजाएँ बड़ी हैं, जो श्यामवर्ण, कोमल, सुशोभन, सुमुख और कमलदललोचन हैं, क्षीरसागरकी तरंगभङ्गीके समान जिनके लम्बे – लम्बे घुँघराले केश हैं, उन परम कमनीय, सनातन ईश्वर भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । भगवन् ! वही जिह्वा सफल हैं, जो आपके चरणोंमें समर्पित हो चुका है तथा केवल वे ही हाथ श्लाघ्य हैं, जो आपकी पूजा करते हैं । गोविन्द ! हजारों जन्मान्तरोंमें मैंने जो – जो पाप किये हों, उन सबको आप ‘ वासुदेव ‘ इस नामका कीर्तन करनेमात्रसे हर लीजिये ॥४९ – ५३॥

 

व्याजसी बोले – तदनन्तर बुद्धिमान् मार्कण्डेय मुनिके इस प्रकार स्तुति करनेपर गरुडचिह्नित ध्वजावाले विश्वात्मा भगवान् विष्णुने संतुष्ट होकर उनसे कहा ॥५४॥

 

श्रीभगवान् बोले – विप्र ! भृगुनन्दन ! मैं तुम्हारी तपस्या और स्तुतिसे प्रसन्न हूँ । तुम्हारा कल्याण हो । तुम मुझसे वर माँगो । मैं तुम्हें मुँहमाँगा वर दूँगा ॥५५॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – देवेश्वर ! यदि आज आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मैं यही माँगता हूँ कि ‘ आपके चरणकमलोंमें मेरी भक्ति सदा बनी रहे । ‘ इसके सिवा एक दूसरा वर भी मैं माँग रहा हूँ – ‘

 

 देव ! देवेश्वर ! जगत्पते ! जो इस स्तोत्रसे आपकी नित्य स्तुति करे, उसे आप अपने वैकुण्ठधाममें निवास प्रदान करें ।‘ पूर्वकालमें तपस्या करते हुए मुझको जो आपने दीर्घायु होनेका वरदान दिया था, वह सब आज आपके दर्शनसे सफल हो गया । देवेश ! भगवन् ! अब मैं आपके चरणारविन्दोंका पूजन करता हुआ जन्म और मृत्युसे रहित होकर यहाँ ही नित्य निवास करना चाहता हूँ ॥५६ – ५९॥

 

श्रीभगवान् बोले – भृगुश्रेष्ठ ! मुझमें तुम्हारी अनन्य भक्ति बनी रहे तथा साधुशिरोमणे ! समय आनेपर इस भक्तिसे तुम्हारी मुक्ति भी अवश्य ही हो जायगी । तुम्हारे कहे हुए इस स्तोत्रका जो लोग नित्य प्रातः काल और संध्याके समय पाठ करेंगे, वे मुझमें सुदृढ़ भक्ति रखते हुए मेरे लोकमें आनन्दपूर्वक रहेंगे ।

 

भृगुश्रेष्ठ ! मैं दान्त ( स्ववश ) होनेपर भी भक्तोंके वशमें रहता हूँ; आतः तुम जहाँ – जहाँ रहकर मेरा स्मरण करोगे, वहाँ – वहाँ मैं पहुँच जाऊँगा ॥६० – ६२॥

 

व्यासजी बोले – मुनिवर मार्कण्डेयसे यों कहकर भगवान् लक्ष्मीपति मौन हो गये तथा वे मुनि इधर – उधर विचरते हुए सर्वत्र भगवान् विष्णुका साक्षात्कार करने लगे ।

 

विप्र ! बुद्धिमान् मार्कण्डेय मुनिके इस चरित्रका, जिसे पूर्वकालमें उन्होंने स्वयं ही मुझसे कहा था, मैंने तुमसे वर्णन किया । जो लोग भृगुके पौत्र मार्कण्डेयजीके इस पुरातन चरित्रका भगवान् विष्णुमें भक्ति रखते हुए नित्य पाठ करते हैं, वे पापोंसे मुक्त हो, भक्तोसे पूजित होते हुए भगवान् नृसिंहके लोकमें निवास करते हैं ॥६३ – ६५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ मार्कण्डेय – चरित ‘ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥११॥

अध्याय - १२ यम और यमीका संवाद

सूतजी बोले – समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली और अमृतके समान मधुर इस पावन कथाको सुनकर धर्मात्मा शुकदेवजी तृप्त न हुए – उनकी श्रवणविषयक इच्छा बढ़ती ही गयी; अतः वे व्यासजीसे बोले ॥१॥

 

श्रीशुकदेवजी बोले – पिताजी ! बुद्धिमान् मार्कण्डेयजीकी तपस्या बड़ी भारी और अद्भुत है, जिन्होंने साक्षात् भगवान् विष्णुका दर्शन किया और मृत्युपर विजय पायी ।

 

तात ! पापोंको नष्ट करनेवाली इस विष्णु-सम्बन्धिनी पावन कथाको सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही हैं; अतः अब मुझसे कोई दूसरी कथा कहिये ।

 

महामते ! जिनका मन सुदृढ़ है, जो इस जगतमें कभी निषिद्ध कर्म नहीं करते, उन मनुष्योंको जिस पुण्यकी प्राप्ति ऋषियोंने बतायी है, उसे ही आप कहिये ॥२ – ४॥

 

व्यासजी बोले – मुनिश्रेष्ठ शुकदेव ! स्थिर चित्तवाले पुरुषोंको इस लोकमें या परलोकमें जो पुण्य प्राप्त होता है, उसे मैं बतलाता हूँ; तुम सुनो । इसी विषयमें विद्वान् पुरुष यमीके साथ महात्मा यमके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया करते हैं ।

 

अदितिके पुत्र जो विवस्वान् ( सूर्य ) हैं, उनके दो तेजस्वी संतानें हुईं । उनमें प्रथम तो ‘ यम ‘ नामक पुत्र था और दूसरी उससे छोटी ‘ यमी ‘ नामकी कन्या थी । वे दोनों अपने पिताके उत्तम भवनमें दिनोंदिन भलीभाँति बढ़ने लगे । वे बाल-स्वभावके अनुसार साथ-साथ खेलते-कूदते और इच्छानुसार घूमते-फिरते थे । एक दिन यमकी बहिन यमीने अपने भाई यमके पास जाकर कहा – ॥५ – ९॥

 

यमी बोली – जो भाई अपनी योग्य बहिनको उसके चाहनेपर भी न चाहे, जो बहिनका पति न हो सके, उसके भाई होनेसे क्या लाभ ? जो स्वामीकी इच्छा रखनेवाली अपनी कुमारी बहिनका स्वामी नहीं बनता, उस भ्राताको ऐसा समझना चाहिये कि वह पैदा ही नहीं हुआ । किसी तरह भी उसका उत्पन्न होना नहीं माना जा सकता ।

 

भैया ! यदि बहिन अपने भाईको ही अपना स्वामी-अपना पति बनाना चाहती है,  इस दशामें जो बहिनको नहीं चाहता, वह पुरुष मुनिशिरोमणि ही क्यों न हो, इस संसारमें भ्राता नहीं कहा जा सकता । यदि किसी दूसरेकी ही कन्या उसकी पत्नी हो तो भी उससे क्या लाभ, यदि उस भाईकी अपनी बहिन उसके देखते-देखते कामसे दग्ध हो रही है । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने नहीं हैं । मेरे होश, इस समय अपने ठिकाने नहीं हैं । मैं इस समय जो काम करना चाहती हूँ, तुम भी उसीकी इच्छा करो; नहीं तो मैं तुम्हारी ही चाह लेकर प्राण त्याग दूँगी, मर जाऊँगी ।

 

भाई ! कामकी वेदना असह्य होती है । तुम मुझे क्यों नहीं चाहते ?

 

 प्यारे भैया ! कामाग्निसे अत्यन्त संतप्त होकर मैं मरी जा रही हूँ; अब देर न करो ।

 

कान्त ! मैं कामपीड़िता स्त्री हूँ । तुम शीघ्र ही मेरे अधीन हो जाओ । अपने शरीरसे मेरे शरीरका संयोग होने दो ॥१० – १६॥

 

यम बोले – बहिन ! सारा संसार जिसकी निन्दा करता है, उसी इस पापकर्मको तू धर्म कैसे बता रही है ?

 

 भद्रे ! भला कौन सचेत पुरुष यह न करने योग्य पापकर्म कर सकता है ?

 

भामिनि ! मैं अपने शरीरसे तुम्हारे शरीरका संयोग न होने दूँगा । कोई भी भाई अपनी कामपीड़िता बहिनकी इच्छा नहीं पूरी कर सकता । जो बहिनके साथ समागम करता है, उसके इस कर्मको महापातक बताया गया है –

 

शुभे ! यह तिर्यग्-योनिमें पड़े हुए पशुओंका धर्म हैं-देवता या मनुष्यका नहीं ॥१७ – १९॥

 

यमी बोली – भैया ! हम दोनों जुड़वी संतानें हैं और माताके गर्भमें एक साथ रहे हैं । पहले माताके गर्भमें एक ही स्थानपर हम दोनोंका जो संयोग हुआ था, वह जैसे दूषित नहीं हो सकता ।

 

भाई ! अभीतक मुझे पतिकी प्राप्ति नहीं हुई है । तुम मेरा भला करना क्यों नहीं चाहते ? ‘ निऋति ‘ नामक राक्षस तो अपनी बहिनके साथ नित्य ही समागम करता है ॥२० – २१॥

 

यम बोले – बहिन ! कुत्सित लोकव्यवहारकी निन्दा ब्रह्माजीने भी की है । इस संसारके लोग श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा आचरित धर्मका ही अनुसरण करते हैं । इसलिये श्रेष्ठ पुरुषको चाहिये कि वह उत्तम धर्मका ही आचरण करे और निन्दित कर्मको यत्नपूर्वक त्याग दे – यही धर्मका लक्षण है । श्रेष्ठ पुरुष जिस – जिस कर्मका आचरण करता है, उसीको अन्य लोग भी आचरणमें लाते हैं और वह जिसे प्रमाणित कर देता है, लोग उसीका अनुसरण करते हैं ।

 

सुभगे ! मैं तो तुम्हारे इस वचनको अत्यन्त पापपूर्ण समझता हूँ । इतना ही नहीं, मैं इसे सब धर्मो और विशेषतः समस्त लोकोंके विपरीत मानता हूँ । मुझसे अन्य जो कोई भी रुप और शीलमें विशिष्ट हो, उसके साथ तुम आनन्दपूर्वक रहो; मैं तुम्हारा पति नहीं हो सकता ।

 

भद्रे ! मैं दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला हूँ, अतः अपने शरीरसे तुम्हारे शरीरका स्पर्श नहीं करुँगा । जो बहिनको ग्रहण करता है, उसे मुनियोंने ‘ पापी ‘ कहा है ॥२२ – २७॥

 

यम बोली – मैं देखती हूँ, इस संसारमें ऐसा ( तुम्हारे समान ) रुप दुर्लभ हैं । भला, पृथ्वीपर ऐसा स्थान कहाँ है, जहाँ रुप और समान अवस्था – दोनों एकत्र वर्तमान हों । मैं नहीं समझती, तुम्हारा यह चित्त इतना स्थिर कैसे है, जिसके कारण तुम अपने समान रुप और गुणसे युक्त होनेपर भी मुझ मोहिता स्त्रीकी इच्छा नहीं करते हो । वृक्षमें संलग्न हुई लताके समान मैं स्वेच्छानुसार तुम्हारी शरणमें आयी हूँ । मेरे मुखपर पवित्र मुसकान शोभा पाती है । अब मैं अपनी दोनों भुजाओंसे तुम्हारा आलिङ्गन करके ही रहूँगी ॥२८ – ३०॥

 

यम बोले – श्यामलोचने ! सुश्रोणि ! मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करनेमें असमर्थ हूँ । तुम किसी दूसरे देवताका आश्रय लो ।

 

वरवर्णिनि ! तुम्हें देखकर काममोहसे जिसका चित्त विभ्रान्त हो उठे, उसी देवताकी तुम देवी हो जाओ । जिसे समस्त प्राणी कहते है, मानवगण जिसे वरणीय बतलाते हैं, कल्याणमयी, सर्वाङ्गसुन्दरी और सुसंस्कृता कहते हैं, उसके लिये भी विद्वान् पुरुष कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे ।

 

महाप्राज्ञे ! मेरा व्रत अटल है । मैं यह पश्चात्तापजनक पाप कदापि नहीं करुँगा ।

 

भद्रे ! मेरा चित्त निर्मल है, भगवान् विष्णु और शिवके चिन्तनमें लगा हुआ है । इसलिये मैं दृढ़संकल्प एवं धर्मात्मा होकर निश्चय ही यह पापकर्म नहीं करना चाहता ॥३१ – ३४॥

 

श्रीव्यासजी कहते हैं – शुकदेव ! यमीके बारंबार कहनेपर भी दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले यमने वह पाप – कर्म नहीं किया; इसलिये वे देवत्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार स्थिरचित्त होकर पाप न करनेवाले मनुष्योंके लिये अनन्त पुण्यफलकी प्राप्ति बतलायी गयी हैं । ऐसे लोगोंको स्वर्गरुप फल उपलब्ध होता है । यह यमीका उपाख्यान, जो प्राचीन एवं सनातन इतिहास है, सब पापोंको दूर करनेवाला और पवित्र है । असूया त्यागकर इसका श्रवण करना चाहिये । जो ब्राह्मण देवयाग और पितृयागमें सदा इसका पाठ करता है, उसके पितृगण पूर्णतः तृप्त होते हैं । उन्हें कभी यमराजके भवनमें प्रवेश नहीं करना पड़ता । जो इसका नित्य पाठ करता है, वह पितृऋणसे मुक्त हो जाता है तथा उसे तीव्र यम – यातनाओंसे छुटकारा मिल जाता है ।

 

बेटा शुकदेव ! मैंने तुमसे यह सर्वोत्तम एवं पुरातन उपाख्यान कह सुनाया, जो वेदके पदों तथा अर्थोंद्वारा निश्चित है । इसका पाठ करनेपर यह सदा ही मनुष्योंका पाप हर लेता है । मुझे बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ ? ॥३५ – ४०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ यमी – यम – संवाद ‘ नामक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१२॥

अध्याय - १३ पतिव्रताकी शक्ति; उसके साथ एक ब्रह्मचारीका संवाद; माताकी रक्षा परम धर्म है, इसका उपदेश

श्रीशुकदेवजी बोले – तात ! आपने जो यह वैदिक कथा मुझे सुनायी है, बड़ी विचित्र है । अब दूसरी पापनाशक कथाओंका मेरे सम्मुख वर्णन कीजिये ॥१॥

व्यासजी बोले – बेटा ! अब मैं तुमसे उस परम उत्तम प्राचीन इतिहासका वर्णन करुँगा, जो किसी ब्रह्मचारी और एक पतिव्रता स्त्रीका संवादरुप है । ( मध्यदेशमें ) एक कश्यप नामक ब्राह्मण रहते थे, जो बड़े ही नीतिज्ञ, वेद – वेदाङ्गोंके पारंगत विद्वान्, समस्त शास्त्रोंके अर्थ एवं तत्त्वके ज्ञाता, व्याख्यानमें प्रवीण, अपने धर्मके अनुकूल कार्योंमे तत्पर और परधर्मसे विमुख रहनेवाले थे । वे ऋतुकाल आनेपर ही पत्नी-समागम करते और प्रतिदिन अग्निहोत्र किया करते थे ।

महाभाग ! कश्यपजी नित्य सायं और प्रातःकाल अग्निमें हवन करनेके पश्चात् ब्राह्मणों तथा घरपर आये हुए अतिथियोंको तृप्त करते हुए भगवान् नृसिंहका पूजन किया करते थे । उनकी परम हुए भगवान् नृसिंहका पूजन किया करते थे । उनकी परम सौभाग्यशालिनी पत्नीका नाम सावित्री था । महाभागा सावित्री पतिव्रता होनेके कारण पतिके ही प्रिय और हितसाधनमें लगी रहती थी । अपने गुणोंके कारण उसका बड़ा सम्मान था । वह कल्याणमयी अनिन्दिता सतीसाध्वी दीर्घकालतक पतिकी शुश्रूषामें संलग्न रहनेके कारण परोक्ष-ज्ञानसे सम्पन्न हो गयी थी- परोक्षमें घटित होनेवाली घटनाओंका भी उसे ज्ञान हो जाता था । मध्यदेशके निवासी वे धर्मात्मा एवं परम बुद्धिमान् कश्यपजी अपनी उसी धर्मपत्नीके साथ नन्दिग्राममें रहते हुए स्वधर्मके अनुष्ठानमें लगे रहते थे ॥२ – ८॥

उन्हीं दिनों कोशलदेशमें उत्पन्न यज्ञशर्मा नामक एक परम बुद्धिमान् ब्राह्मण थे, जिनकी सती-साध्वी स्त्रीका नाम रोहिणी था । वह समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी और पतिकी सेवामें सदा तत्पर रहती थी । उस उत्तम आचार-विचारवाली स्त्रीने अपने स्वामी यज्ञशर्मसे एक पुत्र उत्पन्न किया । पुत्रके उत्पन्न होनेपर यायावर-वृतिवाले बुद्धिमान् पण्डित यज्ञशर्माने स्नान करके मन्त्रोंद्वारा उसका जातकर्म-संस्कार किया और जन्मके बारहवें दिन उन्होंने विधिपूर्वक पुण्याहवाचन कराकर उसका ‘ देवशर्मा ‘ नाम रखा । इसी प्रकार चौथे महीनेमें यत्नपूर्वक उसका उपनिष्क्रमण हुआ अर्थात् वह घरसे बाहर लाया गया और छठे मासमें उन्होंने उस पुत्रका विधिपूर्वक अन्नप्राशन – संस्कार किया ॥९ – १३॥

तदनन्तर एक वर्ष पूर्ण होनेपर धर्मज्ञ पिताने उसका चूडाकर्म और गर्भसे आठवें वर्षभर उनयन – संस्कार हो अध्ययन पूर्ण हो जानेपर उसके पिता । उनके पिता स्वर्गगामी हो गये । पिताकी मृत्यु होनेपर वह अपनी माताके साथ बहुत दुःखी हो गया । फिर श्रेष्ठ पुरुषोंकी आज्ञासे उस बुद्धिमान् पुत्रने धैर्य धारण करके पिताका प्रेतकार्य किया । इसके पश्चात् ब्राह्मणकुमार देवशर्मा घरसे निकल गया ( विरक्त हो गया ) वह गङ्गा आदि उत्तम तीर्थोंमे विधिपूर्वक स्नान करके घूमता हुआ वहीं जा पहुँचा । जहाँ वह पतिव्रता सावित्री निवास करती थी ।

महासते ! वहाँ जाकर वह ‘ ब्रह्मचारी ‘ के रुपमें विख्यात हुआ । भिक्षाटन करके जीवन-निर्वाह करता हुआ वह आलस्यरहित हो वेदके स्वाध्याय तथ अग्निहोत्रमें तत्पर रहकर उसी नन्रिग्राममे रहने लगा । इधर उस की माता अपने स्वामीके मरने और पुत्रके विरक्त होकर घरसे निकल जानेके बाद किसी नियत रक्षकके न होनेसे दुःख-पर-दुःख भोगने लगी ॥१४ – २०॥

तदनन्तर एक दिन ब्रह्मचारीने नदीमें स्नान करके अपना वस्त्र सुखानेके लिये पृथ्वीपर फैला दिया और स्वयं मौन होकर जप करने लगा । इसी समय एक कौआ और बगुला-दोनों वह वस्त्र लेकर शीघ्रतासे उड़ चले । तब उन्हें इस प्रकार करते देख देवशर्मा ब्राह्मणने डाँट बतायी । उसकी डाँट सुनकर वे पक्षी उस वस्त्रपर बीट करके उसे वहीं छोड़कर चले गये । तब ब्राह्मणने आकाशमें जाते हुए उन पक्षियोंकी ओर क्रोधपूर्वक देखा । वे पक्षी उसकी क्रोधाग्रिसे भस्म होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । उन्हें पृथ्वीपर गिरा देख ब्रह्मचारी बहुत ही विस्मित हुआ । फिर वह यह समझकर कि इस पृथ्वीपर तपस्यामें मेरी बराबरी करनेवाला कोई नहीं है, अनायास ही गाँवमें भिक्षा माँगने चला ॥२१ – २५॥

वत्स ! तपस्याका अभिमान रखनेवाला वह ब्रह्मचारी ब्राह्मणोंके घरोंमें भीख माँगता हुआ उस घरमें गया, जहाँ वह पतिव्रता सावित्री रहती थी । पतिव्रताने उसे देखा, ब्रह्मचारीने भिक्षाके लिये उससे याचना की, तो भी वह मौन ही रही । पहले उसने अपने स्वामीके आदेशकी ओर ध्यान दे उसीका पालन किया; फिर गरम जलसे पतिके चरण धोये-इस प्रकार स्वामीको आराम देकर वह भिक्षा देनेको उद्यत हुई । तब ब्रह्मचारी क्रोधसे लाल आँखें करके अपने तपोबलके द्वारा पतिव्रताको जला देनेकी इच्छासे उसकी ओर बारंबार देखने लगा । सावित्री उसे यों करते देख हँसती हुई बोली –

‘ ऐ क्रोधी ब्राह्मण ! मैं कौआ और बगुला नहीं हूँ, जो आज नदीके तटपर तुम्हारे कोपसे जलकर भस्म हो गये थे । मुझसे यदि भीख चाहते हो, तो चुपचाप ले लो ‘ ॥२६ – ३०॥

सावित्रीके यों कहनेपर उससे भिक्षा लेकर वह आगे चला और उसकी दूरवर्ती घटनाको जान लेनेवाली शक्तिका मन-ही-मन चिन्तन करता हुआ अपने आश्रमपर पहुँचा । वहाँ भिक्षापात्रको यत्नपूर्वक मठमें रखकर जब पतिव्रता भोजनसे निवृत्त हो गयी और जब उसका गृहस्थ पति घरसे बाहर चला गया, तब वह पुनः उसके घर आया और उस पतिव्रतासे बोला ॥३१ – ३२१/२॥

ब्रह्मचारीने कहा – महाभागे ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, तुम मुझे यथार्थरुपसे बताओ, तुम्हें दूरकी घटनाका ज्ञान इतना शीघ्र कैसे हो गया ? ॥३३१/२॥

उसके यों कहनेपर वह साध्वी पतिव्रता सावित्री घर आकर प्रश्न करनेवाले उस ब्रह्मचारीसे यों बोली – ‘

ब्रह्मन् ! तुम मुझसे जो कुछ पूछते हो, उसे सावधान होकर सुनो स्वधर्म-पालनसे बढ़े हुए अपने परोक्षज्ञानके विषयमें मैं तुमसे भलीभाँति बताऊँगी । पतिकी सेवा करना ही स्त्रियोंका सुनिश्चित परम धर्म है ।

महामते ! मैं सदा उसी धर्मका पालन करती हूँ, किसी अन्य धर्म नहीं । निस्संदेह मैं दिन-रात श्रद्धापूर्वक पतिको संतुष्ट करती रहती हूँ, इसीलिये मुझे दूर होनेवाली घटनाका भी ज्ञान हो जाता है । मैं तुम्हें कुछ और भी बताऊँगी; तुम्हारी इच्छा हो, तो सुनो-‘ तुम्हारे पिता यज्ञशर्मा यायावर – वृत्तिके शुद्ध ब्राह्मण थे । उनसे ही तुमने वेदाध्ययन किया था । पिताके मर जानेपर उनका प्रेतकार्य करके तुम यहाँ चले आये । दीन-अवस्थामें पड़कर कष्ट भोगती हुई उस अनाथ विधवा वृद्धा माताकी देख-भाल करना छोड़कर तुम यहाँ रोज अपना ही पेट भरनेमें लगे हुए हो ।

ब्राह्मण ! जिसने पहले तुम्हें गर्भसें धारण किया और जन्मके बाद तुम्हारा लालन-पालन किया, उसे असहायावस्थामें छोड़कर वनमें धर्माचरण करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती ?

ब्रह्मन ! जिसने बाल्यावस्थामें तुम्हारा मल-मूत्र साफ किया था, उस दुखिया माताको घरमें अकेली छोड़कर वनमें घूमनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा ? माताके कष्टसे तुम्हारा मुँह दुर्गन्धयुक्त हो जायगा । तुम्हारे पिताने ही तुम्हारा उत्तम संस्कार कर दिया था, जिससे तुम्हें यह शक्ति प्राप्त हुई है ।

दुर्बुद्धि पापात्मन ! तुमने व्यर्थ ही पक्षियोंको जलाया । इस समय तुम्हारा किया हुआ स्नान, तीर्थसेवन, जप और होम-सब व्यर्थ है ।

ब्रह्मन् ! जिसकी माता अत्यन्त दुःखमें पड़ी हो, वह व्यर्थ ही जीवन धारण करता है । जो पुत्र मातापर दया करके भक्तिपूर्वक निरन्तर उसकी रक्षा करता है, उसका किया हुआ सब कर्म यहाँ और परलोकमें भी फलप्रद होता है ।

ब्रह्मन् ! जिन उत्तम पुरुषोंने माताके वचनका पालन किया है, वे इस लोक और परलोकमें भी माननीय तथा नमस्कारके योग्य हैं । अतः जहाँ तुम्हारी माता है, वहाँ जाकर उसके जीते-जी उसीकी रक्षा करो । उसकी रक्षा करना ही तुम्हारे लिये परम तपस्या है । इस क्रोधको त्याग दो; क्योंकि यह तुम्हारे दृष्ट और अदृष्ट सभी कर्मोंको नष्ट करनेवाला है । उन पक्षियोंकी हत्याके पापसे अपनी शुद्धिके लिये तुम प्रायश्चित करो । यह सब मैंने तुमसे यथार्थ बातें कही है ।

ब्रह्मचारिन् ! यदि तुम सत्पुरुषोंकी गतिको प्राप्त करना चाहते हो तो मेरे कहे अनुसार करो ‘ ॥३४ – ४९१/२॥

ब्राह्मणकुमारसे यों कहकर वह पतिव्रता चुप हो गयी । तब ब्रह्मचारी भी पुनः अपने अपराधके लिये क्षमा माँगता हुआ सावित्रीसे बोला – ‘

वरवर्णिनि ! अनजानमें किये हुए मेरे इस पापको क्षमा करो ।

महाभागे ! पतिव्रते ! तुमने मेरे हितकी ही बात कही है । मैंने जो क्रोधपूर्वक तुम्हारी ओर देखकर तुम्हारा अपराध किया था, उसे क्षमा कर दो ।

शुभव्रते ! अब मुझे माताके पास जाकर जिन कर्तव्योंका पालन करना चाहिये, उन्हें बताओ, जिनके करनेसे मेरी शुभगति हो ‘ ॥५० – ५३॥

उसके इस प्रकार कहनेपर उस पूछनेवाले ब्राह्मणसे पतिव्रता सावित्री पुनः बोली –

 ब्रह्मन् ! वहाँ तुमको जो कर्म करने चाहिये, उन्हें बतलाती हूँ; सुनो – ‘ तुम्हे भिक्षावृत्तिसे जीवननिर्वाह करते हुए वहाँ माताका निश्चय ही पोषण करना चाहिये और पक्षियोंकी हत्याका प्रायश्चित यहाँ अथवा वहाँ अवश्य करना चाहिये । यज्ञशर्माकी पुत्री तुम्हारी पत्नी होगी । उसे ही तुम धर्मपूर्वक ग्रहण करो । तुम्हारे जानेपर यज्ञशर्मा अपनी कन्या तुम्हें दे देंगे । उसके गर्भसे तुम्हारी वंश-परम्पराको बढ़ानेवाला एक पुत्र होगा । पिताकी भाँति यायावरवृत्तिसे प्राप्त हुए धनसे ही तुम अपनी जीविका चलाओगे । फिर तुम अपनी पत्नीकी मृत्युके बाद त्रिदण्डी ( संन्यासी ) हो जाओंगे । वहाँ संन्यासाश्रमके लिये शास्त्रविहित धर्मका यथावत् रुपसे पालन करनेपर भगवान् नरसिंहकी प्रसन्नतासे तुम विष्णुपदको प्राप्त कर लोगे । ‘ तुम्हारे पूछनेपर मैंने ये भविष्यमें होनेवाली बातें तुमसे बताला दी हैं । यदि तुम इन्हें असत्य नहीं मानते, तो मेरे सब वचनोंका पालन करो ” ॥५४ – ५९॥

ब्राह्मण बोला – पतिव्रते ! मैं माताकी रक्षाके लिये आज ही जाता हूँ ।

शुभेक्षणे ! वहाँ जाकर तुम्हारी सब बातोंका मैं पालन करुँगा ॥६०॥

ब्रह्मन् ! यों कहकर देवशर्मा वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चला गया और क्रोध तथा मोहसे रहित होकर उसने यत्नपूर्वक माताकी रक्षा की । फिर विवाह करके एक सुन्दर वंशवर्धक पुत्र उत्पन्न किया और कुछ कालके बाद पत्नीकी मृत्यु हो जानेपर संन्यासी होकर ढेले और मिट्टीको बराबर समझते हुए उसने भगवान् नृसिंहकी कृपासे परमसिद्धि ( मोक्ष ) प्राप्त कर ली ।

यह मैंने तुमसे पतिव्रताकी शक्ति बतायी और यह भी बतलाया कि माताकी रक्षा करना परम धर्म है । संसारवृक्षका उच्छेद करके सब बन्धनोंको तोड़ देनेपर मनुष्य विष्णुपदको प्राप्त करता है ॥६१ – ६३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ पतिव्रता और ब्रह्मचारीका संवाद ‘ विषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१३॥

अध्याय - १४ तीर्थसेवन और आराधनसे भगवान्की प्रसन्नता; 'अनाश्रमी' रहनेसे दोष तथा आश्रमधर्मके पालनसे भगवत्प्राप्तिका कथन

व्यासजी बोले – महाबुद्धिमान् पुत्र शुकदेव ! तुम और मेरे अन्य शिष्यगण भी मेरे द्वारा कही जानेवाली इस पापहारिणी कथाको सुनो ॥१॥

पूर्वकालमें कोई वेदशास्त्रविशारद श्रेष्ठ ब्राह्मण अपनी पत्नीकी मृत्यु हो जानेपर तीर्थमें गया और वहाँ उसने विधिपूर्वक स्नान किया और विजन ( एकान्त ) – में रहकर उत्तम तपस्या की । तत्त्पश्चात् दारकर्म ( विवाह ) – की इच्छा न रखकर वह परदेशमें रहता हुआ भिक्षा माँगकर जीवननिर्वाह करने और जप, स्नान आदि उत्तम कर्ममें तत्पर रहने लगा । गङ्गा, यमुना, सरस्वती, पावन वितस्ता ( झेलम ) और गोमती आदिमें स्नान करके वह गयामें पहुँचा और वहाँ अपने पिता – पितामह आदिका तर्पण करके महेन्द्र पर्वतपर गया । वहाँ उस परम बुद्धिमान् द्विजने पर्वतीय कुण्डोंमें स्नान करनेके पश्चात् ऋषिश्रेष्ठ भृगुनन्दन परशुरामजीका दर्शन किया; फिर पूर्ववत् पितरोंके लिये तर्पण करके चलते – चलते एक वनमें प्रवेश किया, जो पापोंका नाश करनेवाला था ॥२ – ५॥

वहाँ एक पर्वतसे बहुत बड़ी धारा गिरती थी, जो निश्शेष पापराशिका विनाश करनेवाली थी । उसके जलको लेकर ब्राह्मणने भक्तिपूर्वक भगवान् नृसिंहके मस्तकपर चढ़ाया । इससे उसी समय उसका शरीर विशुद्ध हो गया । फिर विन्ध्याचल पर्वतपर स्थित होकर भक्तों और मुनीश्वरोंसे सदा पूजित होनेवाले अनन्त अच्युत भगवान् विष्णुकी सुन्दर पर्वतीय पुष्पोंसे पूजा करता हुआ वह ब्राह्मण सिद्धिकी कामनासे वहीं ठहर गया ॥६ – ७॥

इस तरह दीर्घकालतक उसने पूजा की । उससे प्रसन्न होकर वे भगवान् नृसिंह गाढ़ निद्रामें सोये हुए अपने उस भक्तसे स्वप्नमें दर्शन देकर बोले –  

ब्रह्मन ! किसी आश्रमधर्मको स्वीकार करके न चलना गृहस्थकी मर्यादाके भङ्गका कारण होता है; अतः यदि तुम्हें गृहस्थ नहीं रहना है तो किसी दूसरे उत्तम आश्रमको ग्रहण करो ।

ब्रह्मन् ! जो किसी आश्रममें स्थित नहीं है, वह यदि वेदोंका पारगामी विद्वान् हो, तो भी मैं यहाँ उसपर अनुग्रह नहीं करता; परंतु

साधुवर ! तुम्हारी निष्ठा देखकर मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, इसीसे मैंने तुमसे यह बात कही हैं ‘ ॥८ – ९॥

उन परमेश्वरके इस प्रकार कहनेपर उस ब्राह्मणने भी अपनी बुद्धिसे नृसिंहस्वरुप श्रीहरिके उस कथनपर विचार करके उसे अलङ्घनीय माना और सम्पूर्ण जगतका बाध ( त्याग ) करके वह संन्यासी हो गया ॥१०॥

फिर प्रतिदिन उस पापहारी जलमें डुबकी लगाकर तथा उसीमें खड़ा रहकर त्रिदण्ड और अक्षमाला धारण करनेसे पवित्र हाथोंवाला वह ब्राह्मण मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण करता हुआ निर्दोष गायत्री – मन्त्रका जप करने लगा । नित्यप्रति शुद्ध आदिदेव भगवान् विष्णुका हदयमें ध्यान करके उनके नृसिंह – विग्रहका पूजन करता और वनवासी हो किसी प्रकार शाक आदि खाकर भिक्षावृत्तिसे ही संतोषपूर्वक रहता था । विस्तृत एकान्त प्रदेशमें कुशासनपर बैठकर वह इन्द्रियोंके समस्त बाह्य विषयों तथा भेदबुद्धिको हदयस्थित भगवान् अनन्तमें विलीन करके विज्ञेय, अजन्मा, विराटू, सत्यस्वरुप, श्रेष्ठ, कल्याणधाम आनन्दमय परमेश्वरका चिन्तन करता हुआ आयु पूरी होनेपर शरीर त्यागकर मुक्त एवं परमात्मस्वरुप हो गया ॥११ – १४॥

जो लोग मोक्ष – सम्बन्धिनी अथवा मोक्षको ही उत्कृष्ट बनानेवाली इस कथाको भगवान् नृसिंहका स्मरण करते हुए पढ़ते हैं, वे प्रयागातीर्थमें स्नान करनेसे जो फल होता है, उसे पाकर अन्तमें भगवान् विष्णुके महान् पदको प्राप्त कर लेते हैं ।

बेटा ! तुम्हारे पूछनेसे मैंने यह उत्तम, पवित्र, पुण्यतम एवं पुरातन उपाख्यान, जो संसारवृक्षका नाश करनेवाला है, तुमसे कहा है; अब और क्या सुनना चाहते हो ? अपना मनोरथ प्रकट करो ॥१५ – १६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१४॥

अध्याय - १५ संसारवृक्षका वर्णन तथा इसे नष्ट करनेवाले ज्ञानकी महिमा

श्रीशुकदेवजी बोले – तात ! मैं इस समय मुनियोंके साथ संसारवृक्षका वर्णन सुनना चाहता हूँ, जिसके द्वारा यह परिवर्तनका सम्पूर्ण चक्र चलता रहता है । तात ! आपने ही पहले इस वृक्षको सूचित किया है; अतः आप ही इसका वर्णन करनेके योग्य हैं । महाभाग ! आपके सिवा दूसरा कोई इस संसारवृक्षका लक्षण नहीं जानता ॥१ – २॥

सूतजी बोले – भरद्वाज ! अपने शिष्योंके बीचमें बैठे हुए पुत्र शुकदेवजीके इस प्रकार पूछनेपर श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यासजी ) – ने उन्हें संसारवृक्षका लक्षण इस प्रकार बताया ॥३॥

श्रीव्यासजी बोले – मेरे सभी शिष्य इस विषयको सुनें; तथा वत्स ! तुम भी सावधान होकर सुनो- मैं संसारवृक्षका वर्णन करता हूँ, जिसने इस सारे दृश्यप्रपञ्चको व्याप्त कर रखा है । यह संसार-वृक्ष अव्यक्त परमात्मारुपी मूलसे प्रकट हुआ हैं । उन्हींसे प्रकट होकर हमारे सामने इस रुपमें खड़ा है । बुद्धि ( महत्तत्व ) उसका तना है, इन्द्रियाँ ही उसके अङ्कुर और कोटर हैं, पञ्चमहाभूत उसकी बड़ी-बड़ी डालियाँ हैं, विशेष पदार्थ ही उसके पत्ते और टहनियाँ है, धर्म-अधर्म फूल हैं, उससे ‘ सुख ‘ और ‘ दुःख ‘ नामक फल प्रकट होते हैं, प्रवाहरुपसे सदा रहनेवाला यह संसारवृक्ष ब्रह्मकी भाँति सभी भूतोंका आश्रय है । यह अपरब्रह्म और परब्रह्म भी इस संसार-वृक्षका कारण है ।

पुत्र ! इस प्रकार मैंने तुमसे संसारवृक्षका लक्षण बतलाया है । इस प्रकार मैंने तुमसे संसारवृक्षका लक्षण बतलाया है । इस वृक्षपर चढ़े हुए देहाभिमानी जीव मोहित हो जाते हैं । प्रायः ब्रह्मज्ञानसे विमुख प्राकृत मनुष्य सदा सुख-दुःखसे युक्त होकर होकर इस संसारमें फँसे रहते है, ब्रह्मज्ञानी विद्वान् इस संसारवृक्षको नहीं प्राप्त होते । वे इसका उच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं ।

महाप्राज्ञ शुकदेव ! जो पापी हैं, वे कर्म – क्रियाका उच्छेद नहीं कर पाते । ज्ञानी पुरुष ज्ञानरुपी उत्तम खङ्गके द्वारा इस वृक्षको छिन्न-भिन्न करके उस अमरपदको प्राप्त करते हैं, जहाँसे जीव पुनः इस संसारमें नहीं आता । शरीर तथा स्त्रीरुपी बन्धनोंसे दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ पुरुष भी ज्ञानके द्वारा मुक्त हो जाता है; अतः श्रेष्ठतम पुरुषोंको ज्ञानकी प्राप्ति ही परम अभीष्ट होती है; क्योंकि ज्ञान ही भगवान् नृसिंहको संतोष देता है । ज्ञानहीन पुरुष तो पशु ही है । मनुष्योंके आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि कर्म तो पशुओंके ही समान होते हैं; उनमें केवल ज्ञान ही अधिक होता है । जो ज्ञानहीन हैं, वे पशुओंके ही तुल्य हैं ॥४ – १३॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें पन्द्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१५॥

अध्याय - १६ भगवान् विष्णुके ध्यानसे मोक्षकी प्राप्तिका प्रतिपादन

श्रीशुक्रदेवजी बोले – पिताजी ! जो संसार – वृक्षपर आरुढ़ हो; राग – द्वेषादि द्वन्द्वमय सैकड़ों सुदृढ़ पाशों तथा पुत्र और ऐश्वर्य आदिके बन्धनसे बँधकर योनि – समुद्रमें गिरा हुआ है तथा काम, क्रोध, लोभ और विषयोंसे पीड़ित होकर अपने कर्ममय मुख्य बन्धनों तथा पुत्रैषणा और दारैषणा आदि गौण बन्धनोंसे आबद्ध है, वह मनुष्य इस दुस्तर भवसागरको कैसे शीघ्र पार कर सकता है ? उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? हमारे इस प्रश्नका समाधान कीजिये ॥१ – ३॥

श्रीव्यासजी बोले – महाप्राज्ञ पुत्न ! मैंने पूर्वकालमें नारदजीके मुखसे जिसका श्रवण किया था और जिसे जान लेनेपर मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है, उस दिव्य ज्ञानका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ ।

यमराजके भवनमें जहाँ घोर रौरव नरकके भीतर धर्म और ज्ञानसे रहित प्राणी अपने पापकर्मोंके कारण महान् कष्ट पाते हैं, वहाँ एक बार नारदजी गये । उन्होंने देखा, पापी जीव अपने महान् पापोंके फलस्वरुप घोर संकटमें पड़े हैं । यह देखकर नारदजी शीघ्र ही उस स्थानपर गये, जहाँ त्रिलोचन महादेवजी थे । वहाँ पहुँचकर सिरपर गङ्गाजीको धारण करनेवाले महान् देवता शूलपाणि भगवान् शंकरको उन्होंने विधिवत् प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा ॥४ – ७॥

नारदजी बोले – ‘ भगवन् ! जो संसारमें महान् द्वन्द्वों, शुभाशुभ कामभोगों और शब्दादि विषयोंसे बँधकर छहों ऊर्मियोंद्वारा पीड़ित हो रहा है, वह मृत्युमय संसारसागरसे किस प्रकार शीघ्र ही मुक्त हो सकता है ? कल्याणस्वरुप भगवान् शिव ! यह बात मुझे बताइये । मैं यही सुनना चाहता हूँ ।’ नारदजीका वह वचन सुनकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हरका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा । वे उन महर्षिसे बोले ॥८ – १०॥

श्रीमहेश्वरने कहा – मुनिश्रेष्ठ ! सुनो; मैं सब प्रकारके बन्धनोंका भय और दुःख दूर करनेवाले गोपनीय रहस्यभूत ज्ञानामृतका वर्णन करता हूँ । तृणसे लेकर चतुरानन ब्रह्माजीतक, जो चार प्रकारका प्राणिसमुदाय है, वह अथवा समस्त चराचर जगत् जिनकी मायासे सुप्त हो रहा है, उन भगवान् विष्णुकी कृपासे यदि कोई जाग उठता है – ज्ञानवान् हो जाता है तो वही देवताओंके लिये भी दुस्तर इस संसार – सागरको पार कर जाता है । जो मनुष्य भोग और ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त और तत्त्वज्ञानसे विमुख है, वह संसाररुपी महान् पङ्कमें उस तरह डूब जाता है, जैसे कीचड़में फँसी हुई बूढ़ी गाय । जो रेशमके कीड़ेकी भाँति अपनेको कर्मोंके बन्धनसे बाँध लेता है, उसके लिये करोड़ों जन्मोंमें भी मैं मुक्तीकी सम्भावना नहीं देखता । इसलिये

नारद ! सदा समाहितचित्त होकर सर्वेश्वर अविनाशी देवदेव भगवान् विष्णुका सदा भलीभाँति आराधन और ध्यान करना चाहिये ॥११ – १६॥

जो सदा उन विश्वस्वरुप, आदि-अन्तसे रहित, सबके आदिकारण, आत्मनिष्ठ, अमल एवं सर्वज्ञ भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह मुक्त हो जाता है । जो विकल्पसे रहित, अवकाशशून्य, प्रपञ्चसे परे, रोग – शोकसे हीन एवं अजन्मा हैं, उन वासुदेव ( सर्वव्यापी भगवान् ) विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो सब दोषोंसे रहित, परम शान्त, अच्युत, प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले तथा देवताओंके भी उत्पत्तिस्थान हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म – मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है । जो सम्पूर्ण पापोंसे शून्य, प्रमाणरहित, लक्षणहीन, शान्त तथा निष्पाप हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा चिन्तन करनेवाला मनुष्य कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो अमृतमय, परमानन्दस्वरुप, सब पापोंसे रहित, ब्राह्मणप्रिय तथा सबका कल्याण करनेवाले हैं, उन भगवान् विष्णुका निरन्तर नामकीर्तन करनेसे मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो योगोंके ईश्वर, पुराण, प्राकृत देहहीन, बुद्धिरुप गुहामें शयन करनेवाले, विषयोंके सम्पर्कसे शून्य और अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म-मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है ॥१७ – २२॥

जो शुभ और अशुभके बन्धनसे रहित, छः ऊर्मियोंसे परे, सर्वव्यापी, अचिन्तनीय तथा निर्मल हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है । जो समस्त द्वन्द्वोंसे मुक्त और सब दुःखोंसे रहित हैं, उन तर्कके अविषय, अजन्मा भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करता हुआ पुरुष मुक्त हो जाता है । जो नामगोत्रसे शून्य, अद्वितीय और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओंसे परे तुरीय परमपद हैं, समस्त भूतोंके हदय-मन्दिरमें विद्यमान उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष मुक्त हो जाता है । जो रुपरहित, सत्यसंकल्प और आकाशके समान परम शुद्ध हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा एकाग्रचित्तसे चिन्तन करनेवाला मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । जो सर्वरुप, स्वभावनिष्ठ और आत्मचैतन्यरुप हैं, उन प्रकाशमान एकाक्षर ( प्रणवमय ) भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो विश्वके आदिकारण, विश्वके रक्षक, विश्वका भक्षण ( संहार ) करनेवाले तथा सम्पूर्ण काम्यवस्तुओंके दाता हैं, तीनों अवस्थाओंसे अतीत उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है । समस्त दुःखोके नाशक, सबको शान्ति प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण पापोंको हर लेनेवाले भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है । ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, भुनि, सिद्ध, चारण और योगियोंद्वारा सेवित भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष पाप-तापसे मुक्त हो जाता है । यह विश्व भगवान् विष्णुमें स्थित है और भगवान् विष्णु इस विश्वमें प्रतिष्ठित हैं । सम्पूर्ण विश्वके स्वामी, अजन्मा भगवान् विष्णुका कीर्तन करनेमात्रसे मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो संसार-बन्धनसे मुक्ति तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह यदि भक्तिपूर्वक वरदायक भगवान् विष्णुका ध्यान करे तो सफलमनोरथ होकर संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥२३ – ३३॥

श्रीव्यासजी कहते हैं – बेटा ! इस प्रकार पूर्वकालमें देवर्षि नारदजीके पूछनेपर उन वृषभचिह्नित ध्वजावाले भगवान् शंकरने उस समय उनके प्रति जो कुछ कहा था, वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया । तात ! निर्बीज ब्रह्मरुप उन अद्वितीय विष्णुका ही निरन्तर ध्यान करो; इससे तुम अवश्य ही सनातन अविनाशी पदको प्राप्त करोगे ॥३४ – ३५॥

देवर्षि नारदने शंकरजीके मुखसे इस प्रकार भगवान् विष्णुकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन सुनकर उनकी भलीभाँति आराधना करके उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली । जो भगवान् नृसिंहमें चित्त लगाकर इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, उसका सौ जन्मोंमें किया हुआ पाप भी नष्ट हो जाता है । महादेवजीके द्वारा कथित भगवान् विष्णुके इस पावन स्तोत्रका जो प्रतिदिन प्रातः काल स्नान करके पाठ करता है, वह अमृतपद ( मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है । जो लोग अपने हदय-कमलके मध्यमें विराजमान अनन्त भगवान् अच्युतका सदा ध्यान करते हैं और उपासकोंके प्रभु उन परमेश्वर भगवान् विष्णुका कीर्तन करते हैं, वे परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि ( विष्णु – सायुज्य ) प्राप्त कर लेते हैं ॥३६ – ३९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीविष्णुस्तवराजनिरुपण ‘ विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१६॥

अध्याय - १७ अष्टाक्षरमन्त्र और उसका माहात्म्य

श्रीशुकदेवजी बोले – तात ! पिताजी ! मनुष्य सदा भगवान् विष्णुके भजनमें तत्पर रहकर किस मन्त्रका जप करनेसे सांसारिक कष्टसे मुक्त होता है ? यह मुझे बताइये । इससे सब लोगोंका हित होगा ॥१॥

श्रीव्यासजी बोले – बेटा ! मैं तुम्हें सभी मन्त्रोंमें उत्तम अष्टाक्षरमन्त्र बतलाऊँगा, जिसका जप करनेवाला मनुष्य जन्म और मृत्युसे युक्त संसाररुपी बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥२॥

द्विजको चाहिये कि अपने हदय-कमलके मध्यभागमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णुका एकाग्रचित्तसे ध्यान करते हुए जप करे । एकान्त, जनशून्य स्थानमें, श्रीविष्णुमूर्तिके सम्मुख अथवा जलाशयके निकट मनमें भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए अष्टाक्षरमन्त्रका जप करना चाहिये । साक्षात् भगवान् नारायण ही अष्टाक्षरमन्त्रके ऋषि हैं, देवी गायत्री छन्द है, परमात्मा देवता हैं, ॐकार शुक्लवर्ण है, ‘ न ‘ रक्तवर्ण है, ‘ मो ‘ कृष्णवर्ण है, ‘ ना ‘ रक्त है, ‘ रा ‘ कुङ्कुम – रंगका है, ‘ य ‘ पीतवर्णका है, ‘ णा ‘ अञ्जनके समान कृष्णवर्णवाला है और ‘ य ‘ विविध वर्णोसे युक्त है । तात ! यह ॐ नमो नारायणाय ‘ मन्त्र समस्त प्रयोजनोंका साधक है और भक्तिपूर्वक जप करनेवाले लोगोंको स्वर्ग तथा मोक्षरुप फल देनेवाला है ॥३ – ७१/२॥

यह सनातन मन्त्र वेदोंके प्रणव ( सारभूत अक्षरों )से सिद्ध होता है । यह सभी मन्त्रोंमें उत्तम, श्रीसम्पन्न और सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाला है । जो सदा संध्याके अन्तमें इस अष्टाक्षरमन्त्रका जप करता है, वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है । यही उत्तम मोक्ष तता यही स्वर्ग कहा गया है । पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने वैष्णवजनोंके हितके लिये सम्पूर्ण वेदरहस्योंसे यह सारभूत मन्त्र निकला है । इस प्रकार जानकर ब्राह्मणको चाहिये कि इस अष्टाक्षर – मन्त्रका स्मरण ( जप ) करे ॥८ – १२॥

स्नान करके, पवित्र होकर, शुद्ध स्थानमें बैठकर पापशुद्धिके लिये इस मन्त्रका जप करना चाहिये । जप, दान, होम, गमन, ध्यान तथा पर्वके अवसरपर और किसी कर्मके पहले तथा पश्चात् इस नारायण – मन्त्रका जप करना चाहिये । भगवान् विष्णुके भक्तश्रेष्ठ द्विजको चाहिये कि वह प्रत्येक मासकी द्वादशी तिथिको पवित्र-भावसे एकाग्रचित्त होकर सहस्त्र या लक्ष मन्त्रका जप करे ॥१३ – १४१/२॥

स्नान करके पवित्रभावसे जो ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ मन्त्रका सौ ( एक सौ आठ ) बार जप करता है, वह निरामय परमदेव भगवान् नारायणको प्राप्त करता है । जो इस मन्त्रके द्वारा गन्ध-पुष्प आदिसे भगवान् विष्णुकी आराधना करके इसका जप करता है, वह महापातकसे युक्त होनेपर भी निस्संदेह मुक्त हो जाता है । जो हदयमें भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए इस मन्त्रका जप करता है, वह समस्त पापोंसे विशुद्धचित्त होकर उत्तम गतिको प्राप्त करता है ॥१५ – १७१/२॥

एक लक्ष मन्त्रका जप करनेसे चित्तशुद्धि होती है, दो लक्षके जपसे मन्त्रकी सिद्धि होती है, तीन लक्षके जपसे मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त कर सकता है, चार लक्षसे भगवान् विष्णुकी समीपता प्राप्त होती है और पाँच लक्षसे निर्मल ज्ञानकी प्राप्ति होती है । इसी प्रकार छः लक्षसे भगवान् विष्णुमें चित्त स्थिर होता है, सात लक्षसे भगवत्स्वरुपका ज्ञान होता है और आठ लक्षसे पुरुष निर्वाण ( मोक्ष ) प्राप्त कर लेता है । द्विजमात्रको चाहिये कि अपने-अपने धर्मसे युक्त रहकर इस मन्त्रका जप करे । यह अष्टाक्षरमन्त्र सिद्धिदायक है । आलस्य त्यागकर इसका जप करना चाहिये । इसे जप करनेवाले पुरुषके पास दुःस्वप्न, असुर, पिशाच, सर्प, ब्रह्मराक्षस, चोर और छोटी-मोटी मानसिक व्याधियाँ भी नहीं फटकती हैं ॥१८ – २२१/२॥

विष्णुभक्तको चाहिये कि वह दृढ़संकल्प एवं स्वस्थ होकर एकाग्रचित्तसे इस नारायण-मन्त्रका जप करे । यह मृत्यु भयका नाश करनेवाला है । मन्त्रोंमें सबसे उत्कृष्ट मन्त्र और देवताओंका भी देवता ( आराध्य ) है ।

यह ॐकारादि अष्टाक्षर-मन्त्र गोपनीय वस्तुओंमें परम गोपनीय है । इसका जप करनेवाला मनुष्य आयु, धन, पुत्र, पशु, विद्या, महान् यश एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है । यह वेदों और श्रुतियोंके कथनानुसार धर्मसम्मत तथा सत्य है । इसमें कोई संदेह नहीं कि ये मन्त्ररुपी नारायण मनुष्योंको सिद्धि देनेवाले हैं । ऋषि, पितृगण, देवता, सिद्ध, असुर और राक्षस इसी परम उत्तम मन्त्रका जप करके परम सिद्धिको प्राप्त हुए हैं । जो ज्यौतिष आदि अन्य शास्त्रोंके विधानसे अपना अन्तकाल निकट जानकर इस मन्त्रका जप करता है, वह भगवान् विष्णुके प्रसिद्ध परमपदको प्राप्त होता है ॥२४ – २९॥

भव्य बुद्धिवाले विरक्त पुरुष प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनें – मैं दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर उच्चस्वरसे यह उपदेश देता हूँ कि ” संसाररुपी सर्पके भयानक विषका नाश करनेके लिये यह ‘ ॐ नारायणाय नमः ‘ मन्त्र ही सत्य ( अमोघ ) औषध है ” ।

पुत्र और शिष्यो ! सुनो – आज मैं दोनों बाँहें ऊपर उठारक सत्यपूर्वक कह रहा हूँ कि ‘ अष्टाक्षरमन्त्र ‘ से बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं है । मैं भुजाओंको ऊपर उठाकर सत्य, सत्य और सत्य कह रहा हूँ, ‘ वेदसे बढ़कर दूसरा शास्त्र और भगवान् विष्णुसे बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है ।’ सम्पूर्ण शास्त्रोंकी आलोचना तथा बार बार उनका विचार करनेसे एकमात्र यही उत्तम कर्तव्य सिद्ध होता है कि ‘ नित्य – निरन्तर भगवान् नारायणका ध्यान ही करना चाहिये ‘ ।

बेटा ! तुमसे और शिष्योंसे यह सारा पुण्यदायक प्रसंग मैंने कह सुनाया तथा नाना प्रकारकी कथाएँ भी सुनायीं; अब तुम भगवान् जनार्दनका भजन करो ।

महाबुद्धिमान् पुत्र ! यदि तुम सिद्धि चाहते हो तो इस सर्वदुःखनाशक अष्टाक्षरमन्त्रका जप करो । जो पुरुष श्रीव्यासजीके मुखसे निकले हुए इस स्तोत्रका त्रिकाल संध्याके समय पाठ करेंगे, वे धूले हुए श्वेत वस्त्र तथा राजहंसोंके समान निर्मल ( विशुद्ध ) – चित्त हो निर्भयतापूर्वक संसार-सागरसे पार हो जायँगे ॥३० – ३६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ अष्टाक्षरमन्त्रका माहात्म्य ‘ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१७॥

अध्याय - १८ भगवान् सूर्यद्वारा संज्ञाके गर्भसे मनु, यम और यमीकी, छायाके गर्भसे मनु, शनैश्चर एवं तपतीकी उत्पत्ति तथा अश्वारूपधारिणी संज्ञासे अश्विनीकुमारोंका प्रादुर्भाव

सूतजी बोले – मुनिवरो तथा महामते भरद्वाज ! पूर्वकालमें श्रीकृष्णद्वैपायनसे इस प्रकार नाना भाँतिकी पावन पापनाशक कथाएँ सुनकर महाभाग शुक अन्य सिद्धगणोंके साथ भगवान् नारायणकी आराधना में तत्पर हो गये । ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने आपसे पाप-नाश करनेवाली मार्कण्डेय आदिकी विचित्र कथाएँ कहीं; अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥१ – ३॥

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! आपने पहले मुझसे वसु आदि देवताओंकी सृष्टिका उस प्रकार वर्णन किया; परंतु अश्विनीकुमारों तथा मरुद्रणोंकी उत्पत्ति नहीं कही; अतः अब उसे ही कहिये ॥४॥

सूतजी बोले – महामते ! पूर्वकालमें शक्तिनन्दन श्रीपराशरजीने विष्णुपुराणमें मरुद्रणोकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है तथा वायुदेवताने वायुपुराणमें अश्विनीकुमारोंकी उत्पत्ति भी विस्तारपूर्वक कही हैं; अतः मैं यहाँ संक्षेपसे ही इस सृष्टिका वर्णन करुँगा, सुनिये ॥५ – ६॥

प्रजापति दक्षकी एक कन्या अदिति नामसे प्रसिद्ध है । उनके गर्भसे ‘ आदित्य ‘ नामक पुत्र हुआ । अदितिकुमार आदित्यको त्वष्टा प्रजापतिने अपनी संज्ञा नामकी कन्या ब्याह दी । आदित्य भी त्वष्टाकी रुपवती एवं मनोरमा कन्या संज्ञाको पाकर उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगे । संज्ञा अपने पतिके तापको न सह सकनेके कारण कुछ कालके बाद अपने पिताके घर चली गयी । उस कन्याको देखकर पिताने कहा – ‘

बेटी ! तुम्हारे स्वामी सूर्यदेव तुम्हारा स्नेहपूर्वक पालन करते हैं या तुम्हारे साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार करते हैं ? ‘ पिताको ऐसी बात सुनकर संज्ञा उनसे बोली – ‘

तात ! मैं स्वामीके प्रचण्ड तापसे जल गयी हूँ ।’ यह सुनकर पिताने उससे कहा – ‘

बेटी ! तुम पतिके घर चली जाओ । पतिकी सेवा करना ही युवती स्त्रियोंका परम उत्तम धर्म है । मैं भी कुछ दिनोंके बाद आकर जामाता आदित्यदेवकी उष्णताको उनके शरीरसे कुछ कम कर दूँगा ‘ ॥७ – १२॥

पिताके यों कहनेपर वह पुनः पतिके घर लौट आयी तथा कुछ दिनोंके बाद क्रमशः मनु, यम और यमी ( यमुना ) – इन तीन संतानोंको जन्म दिया । किंतु पुनः जब सूर्यका ताप उससे नहीं सहा गया, तब संज्ञाने अपनी बुद्धिके बलसे स्वामीके उपभोगके लिये अपनी छाया ( प्रतिबिम्ब ) – स्वरुपा एक स्त्रीको उत्पन्न किया तथा उसे ही घरमें रखकर वह उत्तरकुरुदेशमें चली गयी और वहाँ घोड़ीका रुप धारण करके इधर-उधर विचरने लगी ॥१३॥

अदितिनन्दन सूर्यने भी उसे संज्ञा ही मानकर उस अपनी जाया ( भार्या ) – रुपधारिणी छायाके गर्भसे पुनः मनु, शनैश्चर तथा तपती – इन तीन संतानोंको उत्पन्न किया । छायाको अपनी संतानोंके प्रति पक्षपातपूर्ण बर्ताव करते देखकर यमने अपने पितासे कहा – ‘

तात ! यह हमलोगोंकी माता नहीं है । ‘ पिताने भी जब यह सुना, तब उस भार्यासे कहा – ‘ सब संतानोंके प्रति समानरुपसे ही बर्ताव करो ।’ फिर भी छायाको अपनी ही संतानोंके प्रति अधिक स्नेहपूर्ण बर्ताव करते देख यम और यमीने उसे बहुत कुछ बुराभला कहा, किंतु जब सूर्यदेव पास आये, तब वे दोनों चुप हो रहे । यह देख छायाने उन दोनोंको शाप देते हुए कहा – ”

यम ! तुम प्रेतोंके राजा बनो और यमी ! तू ‘ यमुना ‘ नामक नदी हो जा ।” छायाका यह क्रूरतापूर्ण बर्ताव देखकर भगवान् सूर्य भी कुपित हो उठे और उसके पुत्रोंको शाप देते हुए बोले – ”

बेटा शनैश्वर ! तू क्रूरतापूर्ण दृष्टिसे देखनेवाला मन्दगामी ग्रह हो जा । तेरी गणना पापग्रहोंमें होगी । बेटी तपती ! तू भी ‘ तपती ‘ नामकी नदी हो जा ! ” इसके बाद भगवान् सूर्य ध्यानस्थ होकर विचार करने लगे कि ‘ संज्ञा ‘ कहाँ है ॥१४ – २०॥

उन्होंने ध्यान-नेत्रसे देखा, संज्ञा उत्तरकुरुमें ‘ अश्वा ‘ का रुप धारण करके विचर रही है । तब वे स्वयं भी अश्वका रुप धारण करके वहाँ गये । जाकर उन्होंने उसके साथ समागम किया । उस अश्वारुपधारिणी संज्ञाके ही गर्भसे सूर्यके वीर्यसे दोनों ‘ अश्विनीकुमार ‘ उत्पन्न हुए । उनके शरीर सब देवताओंसे अधिक सुन्दर थे । साक्षात् ब्रह्मजीनें वहाँ पधारकर उन दोनों कुमारोंको देवत्व तथा यज्ञोंमें भाग प्राप्त करनेका अधिकार प्रदान किया । साथ ही उन्हें देवताओंका प्रधान वैद्य बना दिया । इसके बाद ब्रह्माजी चले गये । फिर सूर्यदेवने अश्वका रुप त्यागकर अपना स्वरुप धारण कर लिया । त्वष्टा प्रजापतिकी पुत्री संज्ञा भी अश्वाका रुप छोड़कर अपने साक्षात् स्वरुपमें प्रकट हो गयी । उस अवस्थामें सूर्यदेव त्वष्टाकी पुत्री अपनी पत्नी संज्ञाको आदित्यलोकमें ले गये । तदनन्तर विश्वकर्मा सूर्यके पास आये और उन्होंने विविध नामोंद्वारा उनका स्तवन किया तथा उनकी अनुमतिसी ही उनके श्रीअङ्गोंकी अतिशय उष्णताके अंशको कुछ शान्त कर दिया ॥२१ – २३॥

महामते भरद्वाज तथा अन्य ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे दोनों अश्विनीकुमारोंके जन्मकी उत्तम, पुण्यमयी, पवित्र एवं पापनाशक कथा कह सुनायी । सूर्यके वे दोनों पुत्र देवताओंके वैद्य हैं । अपने दिव्यरुपसे सदा प्रकाशित होते रहते हैं । उन दोनोंके जन्मकी कथा सुनकर मनुष्य इस भूतलपर सुन्दर रुपसे सुशोभित होता है और अन्तमें स्वर्गलोकमें जाकर वहाँ आनन्दका अनुभव करता है ॥२४ – २५॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ दोनों अश्विनीकुमारोंकी उत्त्पत्ति ‘ नामक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१८॥

अध्याय - १९ विश्वकर्माद्वारा १०८ नामोंसे भगवान् सूर्यका स्तवन

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! विश्वकर्माने जिन नामोंके द्वारा भगवान् सूर्यका स्तवन किया था, उन्हें मैं सुनना चाहता हूँ । आप सूर्यदेवके उन नामोंका वर्णन करें ॥१॥

सूतजीने कहा – ब्रह्मन् ! विश्वकर्माने जिन नामोंद्वारा भगवान् सविताका स्तवन किया था, उन सर्वपापहारी नामोंको तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो ॥२॥

१. आदित्यः – अदितिके पुत्र, २. सविताः- जगतके उत्पादक, ३. सूर्यः- सम्पत्ति एवं प्रकाशके स्रष्टा. ४. खगः- आकाशमें विचरनेवाले, ५. पूषाः- सबका पोषण करनेवाले, ६. गभस्तिमान् – सहस्रों किरणोंसे युक्त, ७. तिमिरोन्मथनः- अन्धकारनाशक, ८. शम्भुः- कल्याणकारी, ९. त्वष्टाः- विश्वकर्मा अथवा विश्वरुपी शिल्पके निर्माता, १०. मार्तण्डः- मृत अण्डसे प्रकट, ११. आशुगः- शीघ्रगामी ॥३॥

१२. हिरण्यगर्भः- ब्रह्मा, १३. कपिलः- कपिलवर्णवाले अथवा कपिलमुनिस्वरुप, १४. तपनः- तपने या ताप देनेवाले, १५. भास्करः- प्रकाशक, १६. रविः- रव – वेदत्रयीकी ध्वनिसे युक्त अथवा भूतलके रसोंका आदान ( आकर्षण ) करनेवाले, १७. अग्निगर्भः- अपने भीतर अग्निमय तेजको धारण करनेवाले, १८. अदितेः पुत्रः- अदितिदेवीके पुत्र, शम्भुः- कल्याणके उत्पादक, १९. तिमिरनाशनः- अन्धकारका नाश करनेवाले ॥४॥

२०. अंशुमान् – अनन्त किरणोंसे प्रकाशमान, २१. अंशुमाली – किरणमालामण्डित, २२. तमोघ्नः- अन्धकारनाशक, २३. तेजसां निधिः- तेज अथवा प्रकाशके भण्डार, २४. आतपीः- आतप या घाम प्रकट करनेवाले, २५. मण्डलीः- अपने मण्डल या विम्बसे युक्त, २६. मृत्युः- मृत्युस्वरुप अथवा मृत्युके अधिष्ठाता यमको जन्म देनेवाले, २७. कपिलः सर्वतापनः- भूरी या सुनहरी किरणोंसे युक्त होकर सबको संताप देनेवाले ॥५॥

२८. हरिः- सूर्य अथवा पापहारी, २९. विश्वः- सर्वरुप, ३०. महातेजाः- महातेजस्वी, ३१. सर्वरत्न प्रभाकरः- सम्पूर्ण रत्नों तथा प्रभापुञ्जको प्रकट करनेवाले, ३२. अंशुमाली तिमिरहाः- किरणोंकी माला धारण करके अन्धकारको दूर करनेवाले, ३३. ऋग्यजुस्सामभावितः- ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद – इन तीनोंके द्वारा भावित या प्रतिमादित ॥६॥

३४. प्राणाविष्करणः- प्राणोंके आधारभूत अन्न आदिकी उत्पत्ति और जलकी वृष्टि करनेवाले, ३५. मित्रः- ‘ मित्र ‘ नामक आदित्य अथवा सबके सुहद, ३६. सुप्रदीपः- भलीभाँति प्रकाशित होनेवाले अथवा सर्वत्र उत्तम प्रकाश बिखेरनेवाले, ३७. मनोजवः- मनके समान या उससे भी अधिक तीव्र वेगवाले, ३८. यज्ञेशः- यज्ञोंके स्वामी नारायणस्वरुप, ३९. गोपतिः- किरणोंके स्वामी अथवा भूमि एवं गौओंके पालक, ४०. श्रीमान् – कान्तिमान्, ४१. भूतज्ञः- सम्पूर्ण भूतोंके ज्ञाता अथवा भूतकालकी बातोंको भी जाननेवाले, ४२. क्लेशनाशनः- सब प्रकारके क्लेशोंका नाश करनेवाले ॥७॥

४३. अमित्रहाः- शत्रुनाशक, ४४. शिवः- कल्याणस्वरुप, ४५. हंसः- आकाशरुपी सरोवरमें विचरनेवाले एकमात्र राजहंस अथवा सबके आत्मा, ४६. नायकः- नेता अथवा नियन्ता, ४७. प्रियदर्शनः- सबका प्रिय देखने या चाहनेवाले अथवा जिनका दर्शन प्राणिमात्रको प्रिय है, ऐसे, ४८. शुद्धः- मलिनतासे रहित, ४९. विरोचनः- अत्यन्त प्रकाशमान, ५०. केशीः- किरणरुपी केशोंसे युक्त, ५१. सहस्त्रांशुः- असंख्य किरणोंके पुञ्ज, ५२. प्रतर्दनः- अन्धकार आदिका विशेषरुपसे संहार करनेवाले ॥८॥

५३. धर्मरश्मिः- धर्ममयी किरणोंसे युक्त अथवा धर्मके प्रकाशक, ५४. पतंगः- किरणरुपी पंखोंसे उड़नेवाले आकाशचारी पक्षिस्वरुप, ५५. विशालः- महान् आकारवाले अथवा विशेषरुपसे शोभायमान, ५६. विश्वसंस्तुतः- समस्त जगत् जिनकी स्तुति – गुणगान करता है, ऐसे, ५७. दुर्विज्ञेयगतिः- जिनके स्वरुपको जानना या समझना अत्यन्त कठिन है, ऐसे, ५८. शूरः- शौर्यशाली, ५९. तेजोराशिः- तेजके समूह, ६०. महायशाः- महान् यशसे सम्पन्न ॥९॥

६१. भ्राजिष्णुः- दीप्तिमान्, ६२. ज्योतिषामीशः- तेजोमय ग्रह – नक्षत्रोंके स्वामी, ६३. विजिष्णुः- विजयशील, ६४. विश्वभावनः- जगतके उत्पादक, ६५. प्रभविष्णुः- प्रभावशाली अथवा जगतकी उत्पत्तिके कारण, ६६. प्रकाशात्माः- प्रकाशस्वरुप, ६७. ज्ञानराशिः- ज्ञाननिधि, ६८. प्रभाकरः- उत्कृष्ट प्रकाश फैलानेवाले ॥१०॥

६९. आदित्यो विश्वदृक् – आदित्यरुपसे जगतके द्रष्टा या साक्षी अथवा सम्पूर्ण संसारके नेत्ररुप, ७०. यज्ञकर्ताः- जगतको जल एवं जीवन प्रदान करके दानयज्ञ सम्पन्न करनेवाले, ७१. नेताः- अन्धकारका नयन अपसारण कर देनेवाले, ७२. यशस्करः- यशका विस्तार करनेवाले । ७३. विमलः- निर्मलस्वरुप, ७४. वीर्यवान् – शक्तिशाली, ७५. ईशः ईश्वर, ७६. योगज्ञः- भगवान् श्रीहरिसे कर्मयोगका ज्ञान प्राप्त करके उसका मनुको उपदेश करनेवाले, ७७. योगभावनः- योगको प्रकट करनेवाले ॥११॥

७८. अमृतात्मा शिवः- अमृतस्वरुप शिव, ७९. नित्यः- सनातन, ८०. वरेण्यः- वरणीय – आश्रय लेनेयोग्य, ८१. वरदः- उपासकको मनोवाञ्छित वर देनेवाले, ८२. प्रभुः- सब कुछ करनेमें समर्थ, ८३. धनदः- धनदान करनेवाले, ८४. प्राणदः- प्राणदाता, ८५. श्रेष्ठः- सबसे उत्कृष्ट, ८६. कामदः- मनोवाञ्छित वस्तु देनेवाले, ८७. कामरुपधृक् – इच्छानुसार रुप धारण करनेवाले ॥१२॥

८८. तरणिः- संसारसागरसे तारनेवाले, ८९. शाश्वतः सनातन पुरुष, ९०. शास्ताः- शासक या उपदेशक, ९१. शास्त्रज्ञः- समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता, तपनः- तपनेवाले या ताप देनेवाले, ९२. शयः सबके अधिष्ठान या आश्रय, ९३. वेदगर्भः- शुक्लयजुर्वेदको प्रकट करनेवाले, ९४. विभुः- सर्वत्र व्यापक, ९५. वीरः- शूरवीर, ९६. शान्तः शमयुक्त, ९७. सावित्रिवल्लभः- गायत्रीमन्त्रके अधिदेवता ॥१३॥

९८. ध्येयः- ध्यान करनेयोग्य, ९९. विश्वेश्वरः- सम्पूर्ण जगतके ईश्वर, १००. भर्ताः- सबका भरण पोषण करनेवाले, १०१. लोकनाथः- संसारके रक्षक, १०२. महेश्वरः- परमेश्वर, १०३. महेन्द्रः- देवराज इन्द्रस्वरुप, १०४. वरुणः- पश्चिम दिशाके अधिपति ‘ वरुण ‘ नामक आदित्य, १०५. धाताः- जगतका धारण पोषण करनेवाले अथवा ‘ धाता ‘ नामक आदित्य, १०६. विष्णुः- व्यापक अथवा ‘ विष्णु ‘ नामक आदित्य, १०७. अग्निः- अग्निस्वरुप, १०८. दिवाकरः- रात्रिका अंधकार दूर करके प्रकाशपूर्ण दिनको प्रकट करनेवाले ॥१४॥

उन महात्मा विश्वकर्माने उपर्युक्त नामोंद्वारा भगवान् सूर्यका स्तवन किया । इससे भगवान् सूर्यको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे उन विश्वकर्मासे बोले ॥१५॥

प्रजापते ! आपकी बुद्धिमें जो बात हैं – आप जिस उद्देश्यको लेकर आये हैं, वह मुझे ज्ञात हैं । अतः आप मुझे शाणचक्रपर चढ़ाकर मेरे मण्डलको छाँट दें; इससे मेरी उष्णता कुछ कम हो जायगी ॥१६॥

ब्रह्मन् ! भगवान् सूर्यके यों कहनेपर विश्वकर्माने वैसा ही किया । विप्रवर ! उस दिनसे प्रकाशस्वरुप सविता विश्वकर्माकी बेटी संज्ञाके लिये शान्त हो गये तथा उनकी उष्णता कम हो गयी । इसके बाद वे त्वष्टासे बोले ॥१७१/२॥

अनघ ! चूँकि आपने एक सौ आठ नामोंके द्वारा मेरी स्तुति की है, इसलिये मैं प्रसन्न होकर आपको वर देनेके लिये उद्यत हूँ । कोई वर माँगिये ॥१८१/२॥

भगवान् सूर्यके यों कहनेपर विश्वकर्मा बोले – देव ! यदि आप मुझे वर देनेको उद्यत हैं तो यह मुझे वर प्रदान कीजिये – ‘ देव भास्कर ! जो मनुष्य इन नामोंके द्वारा प्रतिदिन आपकी स्तुति करे, उस भक्तपुरुषके सारे पापोंका आप नाश कर दें ‘ ॥१९ – २१॥

विश्वकर्माके यों कहनेपर दिन प्रकट करनेवाले भगवान् भास्कर उनसे ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर चुप हो गये, तत्पश्चात् सूर्यमण्डलमें निवास करनेवाली संज्ञाको निर्भय करके, सूर्यदेवको संतुष्टकर विश्वकर्मा अपने स्थानको चले गये ॥२२॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें उन्नीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१९॥

अध्याय - २० मारुतोंकी उत्पत्ति

श्रीसूतजी बोले – द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं मारुतोंको उत्पत्तिका वर्णन करुँगा ।

पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें इन्द्र आदि देवताओंद्वारा दितिके पुत्र दैत्यगण पराजित हो गये थे । उस समय दिति, जिसके पुत्र नष्ट हो गये थे, महेन्द्रके अभिमानको चूर्ण करनेवाले पुत्रकी इच्छा मनमें लेकर अपने पति कश्यप ऋषिकी आराधना करने लगी । तपस्यासे संतुष्ट होकर ऋषिने दितिके भीतर गर्भका आधान किया । फिर वे उससे इस प्रकार बोले – ‘ यदि तुम पवित्र रहती हुई सौ वर्षोंतक इस गर्भको धारण कर सकोगी तो उसके बाद इन्द्रका दर्प चूर्ण करनेवाला पुत्र तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होगा ।’ कश्यपजीके यों कहनेपर दितिने उस गर्भको धारण किया ॥१ – ४॥

इन्द्रको भी जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तब वे बूढ़े ब्राह्मणके वेषमें दितिके पास आये और रहने लगे । जब सौ वर्ष पूर्ण होनेमें कुछ ही कमी रह गयी, तब एक दिन दिति ( भोजनके पश्चात ) पैर धोये बिना ही शय्यापर आरुढ़ हो, सो गयी । इधर इन्द्रने भी अवसर प्राप्त हो जानेसे वज्र हाथमें ले, दितिके उदरमें प्रविष्ट हो, वज्रसे उस गर्भके सात टुकड़े कर दिये । उनके द्वारा काटे जानेपर वह गर्भ रोने लगा । तब इन्द्रने ‘ मा रोदीः ‘ ( मत रोओ ) – यों कहते हुए पुनः एक-एकके सात-सात टुकड़े कर डाले । इस तरह सात-सात टुकड़ोमें बँटे हुए वे सातों खण्ड ‘ मारुत ‘ नामसे विख्यात हुए; क्योंकि जन्म होते ही इन्द्रने उन्हें ‘ मा रोदीः ‘ – इस प्रकार कहा था । ये सभी इन्द्रके सहायक ‘ मरुत् ‘ नामक देवता हुए ॥५ – ८॥

मुने ! इस प्रकार मैंने तुमसे देवता, असुर, नर, नाग, राक्षस और आकाश आदि भूतोंकी सृष्टिका वर्णन किया । जो इसका भक्तिपूर्वक पाठ अथवा श्रवण करता है, वह विष्णुलोकको प्राप्त होता है ॥९॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ मरुतोंकी उत्पत्ति ‘ नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२०॥

अध्याय - २१ सूर्यवंशका वर्णन

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! आपने ‘ सर्ग ‘ और ‘ अनुसर्ग ‘ का वर्णन किया, विचित्र कथाएँ सुनायीं; अब मुझसे राजाओंके वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरितका वर्णन करें ॥१॥

 

सूतजी बोले – पुराणोंमें राजाओंके वंशका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है; यहाँ मैं राजाओंके वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरितका संक्षेपसे वर्णन करुँगा ।

 

महामते विप्रवर ! इसे आप तथा अन्य मुनि भी, जो कथाश्रवणके लिये यहाँ आकर ठहरे हुए हैं, सुनें ॥२ – ३॥

 

सबसे पहले ब्रह्माजी प्रकट हुए; उनसे मरीचि, मरीचिसे कश्यप, कश्यपसे सूर्य, सूर्यसे मनु, मनुसे इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकुसे विकुक्षि, विकुक्षिसे द्योत, द्योतसे वेन, वेनसे पृथु और पृथुसे पृथाश्वकी उत्पत्ति हुई । पृथाश्वसे असंख्याताश्व, असंख्याताश्वसे मान्धाता, मान्धातासे पुरुकुत्स, पुरुकुत्ससे दृषद, दृषदसे अभिशम्भु, अभीशाम्भुसे दारुण, दारुणसे सगर, सगरसे हर्यश्च, हर्यश्वसे हारीत, हारीतसे रोहिताश्व, रोहिताश्वसे अंशुमान् तथा अंशुमानसे भगीरथ उत्पन्न हुए । भगीरथसे सौदास, सौदाससे शत्रुंदम्, शत्रुंदमसे अनरण्य, अनरण्यसे दीर्घबाहु, दीर्घबाहुसे अज, अजसे दशरथ, दशरथसे श्रीराम, श्रीरामसे लव, लवसे पद्म, पद्मसे अनुपूर्ण और अनुपर्णसे वस्त्रपाणिका जन्म हुआ । वस्त्रपाणिसे शुद्धोदन और शुद्धोदनसे बुध ( बुद्ध ) – की उत्पत्ति हुई । बुधसे सूर्यवंश समाप्त हो जाता है ॥४ – १५॥

 

सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए जो क्षत्रिय हैं, उनमेंसे मुख्य-मुख्य लोगोंका यहाँ वर्णन किया गया है, जिन्होंने पूर्वकालमें इस पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया है ।

 

मुने ! यह मैने सूर्यवंशका वर्णन किया है, जिसमें प्राचीन कालमें अनेकानेक नरेश हो गये हैं । अब मेरे द्वारा बतलाये जानेवाले चन्द्रवंशीय परम उत्तम राजाओंका वर्णन आपलोग सुनें ॥१६ – १७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सूर्यवंशका वर्णन ‘ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२१॥

अध्याय - २२ चन्द्रवंशका वर्णन

सूतजी बोले – महामुने भरद्वाज ! अब चन्द्रवंशका वर्णन सुनो । ( अन्य ) पुराणोंमें इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, अतः इस समय मैं यहाँ संक्षेपसे इसका वर्णन करता हूँ ॥१॥

 

सर्वप्रथम ब्रह्माजी हुए, उनके मानसपुत्र मरीचि हुए, मरीचिसे दाक्षायणीके गर्भसे कश्यपजी उत्पन्न हुए । कश्यपसे अदितिके गर्भसे सूर्यका जन्म हुआ । सूर्यसे सुवर्चला ( संज्ञा ) – के गर्भसे मनुकी उत्पत्ति हुई । मनुके द्वारा सुरुपाके गर्भसे सोम और सोमके द्वारा रोहिणीके गर्भसे बुधका जन्म हुआ तथा बुधके द्वारा इलाके गर्भसे राजा पुरुरवा उत्पन्न हुए । पुरुरवासे आयुका जन्म हुआ, आयुद्वारा रुपवतीके गर्भसे नहुष हुए । नहुषके द्वारा पितृवतीके गर्भसे ययाति हुए और ययातिसे शर्मिष्ठाके गर्भसे पूरुका जन्म हुआ । पूरुके द्वारा वंशदाके गर्भसे सम्पाति और उससे भानुदत्ताके गर्भसे सार्वभौम हुआ । सार्वभौमसे वैदेहीके गर्भसे भोजका जन्म हुआ । भोजके लिङ्गाके गर्भसे दुष्यन्त और दुष्यन्तके शकुन्तलासे भरत हुआ । भरतके नन्दासे अजमीढ नामक पुत्र हुआ, अजमीढके सुदेवीके गर्भसे पृश्नि हुआ तथा पृश्निके उग्रसेनाके गर्भसे प्रसरका आविर्भाव हुआ । प्रसरके बहुरुपाके गर्भसे शंतनु हुए, शंतनुसे योजनगन्धाने विचित्रवीर्यको जन्म दिया । विचित्रवीर्यके अम्बिकाके गर्भसे पाण्डुका जन्म हुआ । पाण्डुसे कुन्तीदेवीके गर्भसे अर्जुन हुआ, अर्जुनसे सुभद्राने अभिमन्युसे उत्तराके गर्भसे परीक्षित् हुआ, परीक्षितके मातृवतीसे जनमेजय उत्पन्न हुआ और जनमेजयके पुण्यवतीके गर्भसे शतानीककी उत्पत्ति हुई । शतानीकके पुष्पवतीसे सहस्त्रानीक हुआ, सहस्त्रानीकसे मृगवतीसे उदयन उत्पन्न हुआ और उदयनके वासवदत्ताके गर्भसे नरवाहन हुआ । नरवाहनके अश्वमेधासे क्षेमक हुआ । यह क्षेमक ही पाण्डववंशका अन्तिम राजा है, इसके बाद सोमवंश निवृत्त हो जाता है ॥२ – १३॥

 

जो पुरुष इस उत्तम राजवंशका सदा श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त एवं विशुद्धचित्त होकर विष्णुलोकको प्राप्त होता है । जो इस पवित्र वंश – वर्णनको प्रतिदिन स्वयं पढ़ता अथवा श्राद्धकालमें पितृगणोंको सुनाता है उसके पितरोंको दिया हुआ दान अक्षय हो जाता है ।

 

द्विज ! यह मैंने आपसे सोमवंशी राजाओंका पाप-नाशक वंशानुकीर्तन सुनाया ।

 

विप्रवर ! अब मेरे द्वारा बताये जानेवाले चौदह मन्वन्तरोंको सुनिये ॥१४ – १६॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सोमवंशका वर्णन ‘ नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२२॥

अध्याय - २३ चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन

सूतजी बोले – प्रथम ‘ स्वायम्भुव ‘ मन्वन्तर है, उसका स्वरुप पहले बतलाया जा चुका है ।

 

सृष्टिके आदिकालमें ‘ स्वारोचिष ‘ नामक द्वितीय मनु हुए थे । उस समयके देवता ‘ पारावत ‘ और ‘ तुषित ‘ नामसे प्रसिद्ध थे । ऊर्जस्तम्ब, सुप्राण, दन्त, निऋषभ, वरीयान्, ईश्वर और सोम – ये उस मन्वन्तरमें सप्तर्षि थे ।

 

इसी प्रकार ‘ स्वारोचिष ‘ मनुके किम्पुरुष आदि पुत्र उन दिनों भूमण्डलके राजा थे । तृतीय मनु ‘ उत्तम ‘ नामसे प्रसिद्ध हुए । उनके समयमें सुधामा, सत्य, शिव, प्रतर्दन और वंशवर्ती ( अथवा वशवर्ती ) – ये पाँच देवगण थे । इनमेंसे प्रत्येक गणमें बारह – बारह व्यक्ति थे । इन देवताओंके इन्द्रका नाम था – ‘ सुशान्ति ‘ । उन दिनों जो सप्तर्षि थे, उनकी ‘ वन्द्य ‘ संज्ञा थी । इस मन्वन्तरन्में ‘ परशु ‘ और ‘ चित्र’ आदि मनुपुत्र राजा थे ।

 

चौथे मनुका नाम था ‘ तामस ‘ । उनके मन्वन्तरमें देवताओंके पर, सत्य और सुधी नामवाले गण थे । इनमेंसे प्रत्येक गणमें सत्ताईस – सत्ताईस देवता थे । इन देवताओंके राजा इन्द्रका नाम था – ‘ भुशुण्डी ‘ । उस समय हिरण्यरोमा, देवश्री, ऊर्ध्वबाहु, देवबाहु, सुधामा, पर्जन्य और मुनि – ये सप्तर्षि थे । ज्योतिर्धाम, पृथु, काश्य, अग्नि और धनक – ये तामस मनुके पुत्र इस भूमण्डलके राजा थे ।

 

पाँचवें मनुका नाम था – ‘ रैवत ‘ । उनके मन्वन्तरमें अमित, निरत, वैकुण्ठ और सुमेधा – ये देवताओंके गण थे । इनमेंसे प्रत्येक गणमें चौदह – चौदह व्यक्ति थे । इन देवताओंके जो इन्द्र थे, उनका नाम था – ‘ असुरान्तक ‘ । उस समय सप्तक आदि मनुपुत्र भूतलके राजा थे । शान्त, शान्तमय, विद्वान्, तपस्वी, मेधावी और सुतपा – ये सप्तर्षि थे ।

 

छठे मनुका नाम ‘ चाक्षुष ‘ था । उनके समयमें पुरु और शतद्युम्र आदि मनुपुत्र राजा थे । उस समय अत्यन्त शान्त रहनेवाले लेख, आप्य, प्रसूत, भव्य और प्रथित – ये पाँच महानुभाव देवगण थे । इन पाँचों गणोंमें आठ – आठ व्यक्ति थे । इनके इन्द्र का नाम ‘ मनोजव ‘ था । उन दिनों मेधा, सुमेधा, विरजा, हविष्मान्, उत्तम, मतिमान् और सहिष्णु – ये सप्तर्षि थे ।

 

सातवें मनुको ‘ वैवस्वत ‘ कहते हैं, जो इस समय वर्तमान हैं । इनके इक्ष्वाकु आदि क्षत्रियजातीय पुत्र भूपाल हुए । इस मन्वन्तरमें आदित्य, विश्ववसु और रुद्र आदि देवगण हैं और ‘ पुरंदर ‘ इनके इन्द्र हैं । वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भरद्वाज – ये इस मन्वन्तरके सप्तर्षि हैं ॥१ – १६॥

 

अब भविष्य मन्वन्तरोंका वर्णन किया जाता है – आदित्यसे संज्ञाके गर्भसे उत्पन्न हुए जो ‘ मनु ‘ हैं, उनकी चर्चा पहले हो चुकी है और छायाके गर्भसे उत्पन्न दूसरे ‘ मनु ‘ हैं । इनमें प्रथम उत्पन्न हुए जो ‘ सावर्ण ‘ मनु हैं, उनके ही ‘ सावर्णिक ‘ नामक आठवें मन्वन्तरका वर्णन सुनिये । ‘ सावर्ण ‘ ही आठवें मनु होंगे । उस समय सुतप आदि देवगण होंगे और ‘ बलि ‘ उनके इन्द्र होंगे । दीप्तिमान्, गालव, नामा, कृप, अश्वत्थामा, व्यास और ऋष्यश्रृङ्ग ये सप्तर्षि होंगे । विराज, उर्वरीय और निर्मोक आदि सावर्ण मनुके पुत्र राजा होंगे ।

 

नवें भावी मनु ‘ दक्षसावर्णि ‘ हैं । धृति, कीर्ति, दीप्ति, केतु, पञ्चहस्त, निरामय तथा पृथुश्रवा आदि दक्षसावर्णि मनुके पुत्र उस समय राजा होंगे । उस मन्वन्तरमें मरीचिगर्भ, सुधर्मा और हविष्मान्ये देवता होंगे और उनके इन्द्र ‘ अद्भुत ‘ नामसे प्रसिद्ध होंगे । सवग, कृतिमान्, हव्य, वसु, मेधातिथि तथा ज्योतिष्मान् ( और सत्य ) – ये सप्तर्षि होंगे ।

 

दसवें मनु ‘ ब्रह्मसावर्णि ‘ होंगे । उस समय विरुद्ध आदि देवता और उनके ‘ शान्ति ‘ नामक इन्द्र होंगे । हविष्मान्, सुकृति, सत्य, तपोमूर्ति, नाभाग, प्रतिमोक और सप्तकेतु – ये सप्तर्षि होंगे । सुक्षेत्र, उत्तम, भूरिषेण आदि ‘ ब्रह्मसावर्णि ‘ के पुत्र राजा होंगे ।

 

ग्यारहवें मन्वन्तरमें ‘ धर्मसावर्णि ‘ नामक मनु होंगे । उस समय सिंह, सवन आदि देवगण और उनके ‘ दिवस्पति ‘ नामक इन्द्र होंगे । निर्मोह, तत्त्वदर्शी, निकम्प, निरुत्साह, धृतिमान् और रुच्य – ये सप्तर्षि होंगे । चित्रसेन और विचित्र आदि धर्मसावर्णि मनुके पुत्र राजा होंगे ।

 

बारहवें मनु ‘ रुद्रसावर्णि ‘ होंगे । उस मन्वन्तरमें ‘ कृतधामा ‘ नामक इन्द्र और हरित, रोहित, सुमना, सुकर्मा तथा सुतपा नामक देवगण होंगे । तपस्वी, चारुतपा, तपोमूर्ति, तपोरति, तपोधृति, ज्योति और तप ये सप्तर्षि होंगे । रुद्रसावर्णिके पुत्र देववान् और देवश्रेष्ठ आदि भूमण्डलके राजा होंगे ।

 

तेरहवें मनुका नाम ‘ रुचि ‘ होगा । उस समय स्रग्वी, बाण और सुधर्मा नामक देवगण तथा उनके ‘ ऋषभ ‘ नामक इन्द्र होंगे । निश्चित, अग्नितेजा, वपुष्मान्, धृष्ट, वारुणि, हविष्मान् और भव्यमूर्ति नहुषये सप्तर्षि होंगे । उस मनुके सुधर्मा तथा देवानीक आदि पुत्र भूपाल होंगे ।

 

चौदहवें भावी मनुका नाम ‘ भौम ‘ होगा । उस समय ‘ सुरुचि ‘ नामक इन्द्र और चक्षुष्मान्, पवित्र तथा कनिष्ठाभ नामक देवगण होंगे । अग्रिबाहु, शुचि, शुक्र, माधव, शिव, अभीम और जितश्वास – ये सप्तर्षि होंगे तथा उस भौम मनुके पुत्र ऊरु, गम्भीर और ब्रह्मा आदि भूतलके राजा होंगे ।

 

इस प्रकार मैंने आपसे चौदह मन्वन्तरोंका और उन – उन मनुके पुत्र तत्कालीन राजाओंका वर्णन किया, जिनके द्वारा इस वसुधाका पालन होता है ॥१७ – ३६॥

 

प्रत्येक मन्वन्तरमें मनु, सप्तर्षि, देवता और भूपाल मनुपुत्र तथा इन्द्र – ये अधिकारी होते हैं ।

 

ब्रह्मन् ! इन चौदह मन्वन्तरोंके व्यतीत हो जानेप्र एक हजार चतुर्युगका समय बीत जाता है । यह ( ब्रह्मजीका ) एक दिन कहलाता है ।

 

साधुशिरोमणे ! फिर उतने ही प्रमाणकी उनकी रात्रि होती है । उस समय सब भूतोंके आत्मा साक्षात्‍ भगवान् नृसिंह ब्रह्मरुप धारण करके शयन करते हैं ।

 

विप्रवर ! सर्वत्र व्यापक एवं आदिविधाता सर्वरुप भगवान् जनार्दन उस समय समस्त त्रिभुवनको अपनेमें लीन करके अपनी योगमायाका आश्रय ले शयन करते हैं । फिर जाग्रत् होनेपर वे भगवान् पुरुषोत्तम् पूर्वकल्पके अनुसार पुनः युग-व्यवस्था तथा सृष्टि करते हैं ।

 

ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने मनु, देवगण, भूपाल, मनुपुत्र और ऋषि-इन सबका आपसे वर्णन किया । आप इन सबको पालनकर्ता भगवान् विष्णुकी विभूतियाँ ही समझें ॥३७ – ४२॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन ‘ नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२३॥

अध्याय - २४ सूर्यवंश-राजा इक्ष्वाकुका भगवत्प्रेम; उनका भगवदर्शनके हेतु तपस्याके लिये प्रस्थान

श्रीसूतजी कहते हैं – अब मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओंके ‘ वंशानुचरित ‘ का वर्णन करुँगा, जो श्रोताओंका भी पाप नष्ट करनेवाला है ।

 

मुने ! मैंने पहले सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए जिन मनुपुत्र ‘ इक्ष्वाकु ‘ नामक भूपालकी चर्चा की थी, उनके चरित्रका वर्णन आप मुझसे सुनें ॥१ – २॥

 

महाभाग ! इस पृथ्वीपर सरयू नदीके किनारे ‘ अयोध्या ‘ नामसे प्रसिद्ध एक शोभायमान दिव्य पुरी है । वह अमरावतीसे भी बढ़कर सुन्दर और तीस योजन लंबी – चौड़ी थी । हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंके समूह तथा कल्पवृक्षके समान कान्तिमान् वृक्ष उस पुरीकी शोभा बढ़ाते थे । चहारदीवारी, अट्टालिका, प्रतोली ( गली या राजमार्ग ) और सुवर्णकी – सी कान्तिवाले फाटकोंसे वह बड़ी शोभा पा रही थी । अलग – अलग बने हुए मंजिल ऊँचे थे । नाना प्रकारके भाण्डों ( भाँति – भाँतिके सामानों ) – का सुन्दर ढंगसे क्रय – विक्रय होता था । कमलों और उत्पलोंसे सुशोभित जलसे भरी हुई बावलियाँ उस पुरीकी शोभा बढ़ा रही थीं । दिव्य देवालय तथा वेदमन्त्रोंके घोष उस नगरीकी श्री – वृद्धि करते थे । वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदिके उत्कृष्ट शब्दोंसे वह पुरी गूँजती रहती थी । शाल ( साखू ), ताल ( ताड़ ), नारियल, कटहल, आँवला, जामुन, आम और कपित्थ ( कैथ ) आदिके वृक्षों तथा अशोकपुष्पोंसे अयोध्यापुरीकी बड़ी शोभा होती थी ॥३ – ८॥

 

वहाँ सब जगह नाना प्रकारके बगीचे और फलवाले वृक्ष पुरीकी शोभा बढ़ाते थे । मल्लिका ( मोतिया या बेला ), मालती, चमेली, पाड़र, नागकेसर, चम्पा, कनेर, चनकचम्पा और केतकी ( केवड़ा ) आदि पुष्पोंसे मानो उस पुरीका श्रृङ्गार किया गया था । केला, हरफा, रेवड़ी, जायफल और बिजौरा नीबू, चन्दनकी – सी गन्धवाले तथा दूसरे प्रकारके संतरे आदि बड़े – बड़े फल उसकी शोभा बढ़ाते थे । गीत और वाद्यमें कुशल पुरुष उस पुरीमें प्रतिदिन आनन्दोत्सव मचाये रहते थे । वहाँके स्त्री – पुरुष रुप – वैभव तथा सुन्दर नेत्रोंसे सम्पन्न थे ॥९ – ११॥

 

वह पुरी नाना देशोंके मनुष्योंसे भरी-पुरी, ध्वजापताकाओंसे सुशोभित तथा अनेकानेक कान्तिमान् देवोपम राजकुमारोंसे युक्त थी । वहाँ देवाङ्गनाओंके समान श्रेष्ठ एवं रुपवती वनिताएँ निवास करती थीं । बृहस्पतिके समान तेजस्वी सत्कवि ब्राह्मण उस नगरीकी शोभा बढ़ाते थे । कल्पवृक्षसे भी बढ़कर उदार नागरिकों और वैश्यों, उच्चैः श्रवाके समान श्रेष्ठ घोड़ों और दिग्गजोंके समान विशालकाय हाथियोंसे वह पुरी बड़ी शोभा पाती थी । इस प्रकार नाना वस्तुओंसे भरी – पूरी अयोध्यापुरी इन्द्रपुरी अमरावतीकी समता करती थी । पूर्वकालमें नारदजीने उस पुरीको देखकर भरी सभामें यह श्लोक कहा था – ‘ स्वर्गकी सृष्टि करनेवाले विधाताका वह सारा प्रयत्न व्यर्थ हो गया; क्योंकि अयोध्यापुरी उससे भी बढ़कर मनोवाञ्छित भोगोंसे सम्पन्न हो गयी ‘ ॥१२ – १६॥

 

इक्ष्वाकु इसी अयोध्यामें निवास करते थे । वे राजाके पदपर अभिषिक्त हो, पृथ्वीका पालन करने लगे । उन महान् बलशाली नरेशने धर्मयुद्धके द्वारा समस्त भूपालोंको जीत लिया था । मानिकके बने मुकुटोंसे अलंकृत अनेक छोटे-छोटे मण्डलोंके शासक राजाओंके भक्ति तथा भयपूर्वक प्रणाम करनेसे उनके दोनों चरणोंमें मुकुटोंकी रगड़से चिह्न बन गया था ॥१७ – १८॥

 

मनुपुत्र प्रतापी राजा इक्ष्वाकु अपने राजोचित तेजसे इन्द्रकी समानता करते थे । वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण थे । उनका बल कभी क्षीण नहीं होता था । वे धर्मात्मा भूपाल वेदवेत्ता ब्राह्मणोंके साथ धर्म और न्यायपूर्वक इस समुद्रपर्यन्त पृथिवीका पालन करते थे । उन बलशाली नरेशने संग्राममें अपने तीखे शस्त्रोंसे समस्त भूपोंको जीतकर उनका मण्डल अपने अधिकारमें कर लिया था ॥१९ – २१॥

 

ब्रह्मन् ! प्रतापी राजा इक्ष्वाकुने प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञ और नाना प्रकारके दान करके परलोकोंपर भी विजय प्राप्त कर ली थी । वे अपनी दोनों भुजाओंद्वारा पृथ्वीका, जिह्नके अग्रभागसे सरस्वतीका, वक्षः स्थलसे राजलक्ष्मीका और हदयसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी भक्तिका भार वहन करते थे । एक वस्त्रपर खड़े हुए भगवान् हरिका, बैठे हुए लक्ष्मीपतिका और सोये हुए अनन्तदेवका निर्मल चित्र बनवाकर क्रमशः प्रातः कल, मध्याह्नकाल और संध्याकालमें तीनों समय वे महात्मा भगवान् विष्णुके उन तीनों रुपोंका गन्ध तथा पुष्प आदिके द्वारा पूजन करते और उस पटपर प्रतिदिन भगवान् विष्णुका दर्शन करके प्रसन्न रहते थे । उन्हें स्वप्नमें भी नागराज अनन्तकी शय्यापर सोये हुए, काले मेघके समान श्यामवर्ण, कमललोचन, पीताम्बरधारी भगवान् श्रीकृष्ण ( विष्णु ) – का दर्शन हुआ करता था । राजाने भगवानके समान श्यामवर्णवाले मेघमें अत्यन्त सम्मानपूर्ण बुद्धि कर ली थी । भगवान् श्रीकृष्णके नामसे युक्त कृष्णसार मृगमें और कृष्णवर्णवाले कमलमें वे पक्षपात रखते थे ॥२२ – २७॥

 

साधुशिरोमणे ! उस राजाके मनमें भगवान् विष्णुके दिव्य स्वरुपको प्रत्यक्ष देखनेकी अत्यन्त उत्कट अभिलाषा जाग्रत् हुई; उनकी वह तृष्णा अपूर्व ही थी । जब उनकी तृष्णा बहुत बढ़ गयी, तब वे बुद्धिमान् भूपाल मन-ही-मन सारे राज्य-भोगको निस्सार-सा समझने लगे । उन्होंने सोचा-‘ जिस पुरुषने गेह, स्त्री, पुत्र और क्षेत्र आदि दुःखद भोगोंको वैराग्य और ज्ञानपूर्वक त्याग दिया है, उसके समान बड़भागी इस संसारमें कोई नहीं है ।’ इस प्रकार सोच-विचारकर, तपस्यामें आसक्तचित्त हो उन्होंने उसके लिये अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे उपाय पूछा – ‘

 

मुने ! मैं तपस्याके बलसे देवेश्वर, अजन्मा भगवान् नारायणका दर्शन करना चाहता हूँ; इसके लिये आप मुझे कोई उत्तम उपाय बताइये ‘ ॥२८ – ३२॥

 

उनके इस प्रकार कहनेपर राजाके हितमें सदा लगे रहनेवाले सर्वधर्मज्ञ मुनिवर वसिष्ठजीने तपमें आसक्तचित्त उन नरेशसे कहा – ‘

 

महाराज ! यदि तुम परमात्मा नारायणका साक्षात्कार करना चाहिये हो तो तपस्या और शुभकर्मोंके द्वारा उन भगवान् जनार्दनकी आराधना करो । कोई भी पुरुष तपस्या किये बिना देवदेव जनार्दनका दर्शन नहीं पा सकता । इसलिये तुम तपस्याके द्वारा उनका पूजन करो । यहाँसे पाँच योजन दूर सरयूके तटपर पूर्व और दक्षिण भागमें एक पवित्र स्थान है, जहाँ गालव आदि ऋषियोंका आश्रम है । वह स्थान नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त तथा विविध भाँतिके पुष्पोंसे परिपूर्ण है ।

 

राजन् ! अपने बुद्धिमान् एवं नीतिज्ञ मन्त्री अर्जुनको राज्यका भार तथा सारा कार्य-कलाप सौंप, तत्पश्चात् गणनायक भगवान् विनायककी स्तुति एवं आराधना करके तपस्याकी सिद्धिरुप प्रयोजनकी इच्छा मनमें लेकर यहाँसे उस आश्रमकी यात्रा करो और वहाँ पहुँचकर तपस्यामें संलग्न हो जाओ । तपस्वीका वेष धारणकर, साग और फल-मूलका आहार करते हुए, भगवान् नारायणके ध्यानमें तत्पर रहकर सदा ही ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।’ – इस मन्त्रका जप करो । यह ‘ द्वादशाक्षर ‘ – संज्ञक मन्त्र अभीष्टको सिद्ध करनेवाला है । प्राचीन कालके ऋषियोंने इस मन्त्रका जप करके परम सिद्धि प्राप्त की है । चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रह जा-जाकर पुनः लौट आते हैं, परंतु द्वादशाक्षर-मन्त्रका चिन्तन करनेवाले पुरुष आजतक नहीं लौटे – भगवानको पाकर आवागमनसे मुक्त हो गये ।

 

नरेश्वर ! बाह्य इन्द्रियोंको हदयमें स्थापितकर तथा मनको सूक्ष्म परात्मत्त्वमें स्थिर करके इस मन्त्रका जप करो; इससे तुम्हें भगवान् मधुसूदनका दर्शन होगा । इस प्रकार इस समय तुम्हारे पूछनेपर मैंने तपरुप कर्मसे भगवानकी प्राप्तिका उपाय बतलाया; अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो ‘ ॥३३ – ३४॥

 

मुनिवर वसिष्ठके इस प्रकार कहनेपर वे राजा इक्ष्वाकु अपने श्रेष्ठ मन्त्रीको भूमण्डलके राज्यका भार सौंपकर, पुष्पोंद्वारा गणेशजीका पूजन तथा स्तवन करके, तपस्या करनेका दृढ़ निश्चय मनमें लेकर, अपने नगरसे चल दिये ॥४५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ इक्ष्वाकुका चरित्र ‘ विषयक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२४॥

अध्याय - २५ इक्ष्वाकुकी तपस्या और ब्रह्माजीद्वारा विष्णुप्रतिमाकी प्राप्ति

भरद्वाजजीने पूछा – महामते ! उन महात्मा राजाने किस प्रकार गणेशजीका स्तवन किया ? तथा उन्होंने जिस प्रकार तपस्या की, उसका आप मुझसे वर्णन करें ॥१॥

 

सूतजी बोले – द्विज ! गणेश-चतुर्थीके दिन राजाने त्रिकाल स्नान करके रक्तवस्त्र धारण किया और लाल चन्दन लगाकर मनोहर लाल फूलों तथा रक्तचन्दनमिश्रित जलसे गणेशजीको स्नान कराके विधिवत् उनका पूजन किया । स्नान करानेके बाद उनके श्रीअङ्गोंमें लाल चन्दन लगाया । फिर रक्तपुष्पोंसे उनकी पूजा की । तदनन्तर उन्हें घृत और चन्दन मिला हुआ धूप निवेदन किया । अन्तमें हल्दी, घी और गुडखण्डके मेलसे तैयार किया हुआ मधुर नैवेद्य अर्पण किया । इस प्रकार सुन्दर विधिपूर्वक भगवान् विनायकका पूजन करके राजाने उनकी स्तुति आरम्भ की ॥२ – ४१/२॥

 

इक्ष्वाकु बोले – मैं महान् देव गणेशजीको प्रणाम करके उन विघ्नराजका स्तवन करता हूँ, जो महान् देवता एवं गणोंके स्वामी हैं, शूरवीर तथा अपराजित हैं और ज्ञानवृद्धि करानेवाले हैं । जो एक, दो तथा चार दाँतोंवाले हैं, जिनकी चार भुजाएँ हैं, जो तीन नेत्रोंसे युक्त और हाथमें त्रिशूल धारण करते हैं, जिनके नेत्र रक्तवर्ण हैं, जो वर देनेवाले हैं, जो माता पार्वतीके पुत्र हैं, जिनके सूप – जैसे कान हैं, जिनका वर्ण कुछ – कुछ लाल है, जो दण्डधारी तथा अग्निमुख हैं एवं जिन्हें होम प्रिय है तथा जो प्रथम पूजित न होनेपर मनुष्योंके सभी कार्योंमें विघ्नकारी होते हैं, उन भीमकाय और उग्र स्वभाववाले पार्वतीनन्दन गणेशजीको मैं नमस्कार करता हूँ । जो मदसे मत्त रहते हैं, जिनके नेत्र भयंकर हैं और जो भक्तोंके विघ्न दूर करनेवाले हैं, करोड़ों सूर्यके समान जिनकी कान्ति है, खानसे काटकर निकाले हुए कोयलेकी भाँति जिनकी श्याम प्रभा है तथा जो विमल और शान्त हैं, उन भगवान् विनायकको मैं नमस्कार करता हूँ । मेरुगिरिके समान रुप और हाथीके मुख – सदृश मुखवाले, कैलासवासी गणपतिको नमस्कार है । विनायक देव ! आप विरुपधारी ओर ब्रह्मचारी हैं, भक्तजन आपकी स्तुति करते हैं, आपको बारंबार नमस्कार है ॥५ – १२॥

 

पुराणपुरुष ! आपने पूर्ववर्ती देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये हाथीका स्वरुप धारण करके समस्त दानवोंको भयभीत किया था । शिवपुत्र ! आपने ऋषि और देवताओंपर अपना स्वामित्व प्रकट कर दिया है, इसीसे देवगण आपकी प्रथम पूजा करते हैं । सर्वविघ्नेश्वर ! यदि मनुष्य रक्तवस्त्र धारणकर नियमित आहार करके अपने कार्यकी सिद्धिके लिये लाल पुष्पों और रक्तचन्दन – युक्त जलसे चतुर्थीके दिन तीनों काल या एक कालमें आप कामरुपी सर्वज्ञ गणपतिका पूजन करे तथा आपका नाम जपे तो वह पुरुष राजा, राजकुमार, राजमन्त्रीको राज्य अथवा समस्त राष्ट्रसहित अपने वशमें कर सकता है ॥१३ – १७॥

 

विनायक ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ । आप मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक स्तवन एवं विशेषरुपसे पूजन किये जानेपर मेरी तपस्याके विघ्नको दूर कर दें ।

 

सम्पूर्ण तीर्थो और समस्त यज्ञोंमें जो फल प्राप्त होता है, उसी फलको मनुष्य भगवान् विनायकका स्तवन करके पूर्णरुपसे प्राप्त कर लेता है । उसपर कभी संकट नहीं आता, उसका कभी तिरस्कार नहीं होता और न उसके कार्यमें विघ्न ही पड़ता है; वह जन्म लेनेके बाद पूर्वजन्मकी बातोंको स्मरण करनेवाला होता है । जो प्रतिदिन इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह छः महीनोंतक निरन्तर पाठ करनेसे गणेशजीसे मनोवाञ्छित वर प्राप्त करता है और एक वर्षमें पूर्णतः सिद्धि प्राप्त कर लेता है – इसमे तनिक भी संशय नहीं है ॥१८ – २१॥

 

सूतजी बोले – द्विजोत्तमगण ! इस प्रकार राजा इक्ष्वाकु पहले गणेशजीका स्तवन करके, फिर तपस्वीका वेष धारणकर तप करनेके लिये वनमें चले गये । साँपकी त्वचाके समान मुलायम एवं बहुमूल्य वस्त्र त्यागकर वे श्रेष्ठ महाराज कमरमें वृक्षोंकी कठोर छाल पहनने लगे । दिव्य रत्नोंके हार और कड़े निकालकर हाथमें अक्षसूत्र तथा गलेमें कमलगट्टोंकी बनी हुई सुन्दर माला धारण करने लगे । इसी प्रकार वे नरेश मस्तकपरसे रत्न तथा सुवर्णसे सुशोभित मुकुट हटाकर वहाँ तपस्याके लिये जटाजूट रखने लगे ॥२२ – २५॥

 

इस प्रकार वसिष्ठजीके कथनानुसार तापस-वेष धारणकर तपोवनमें प्रविष्ट हो, वे शाक और फलमूलका आहार करते हुए तपस्यामें प्रवृत्त हो गये । महातपस्वी राजा इक्ष्वाकु ग्रीष्म ऋतुमें पञ्चाग्निके बीच स्थित होकर तपस्या करते थे, वर्षाके समय खुले मैदानमें रहते और शीतकालमें सरोवरके जलमें खड़े होकर तप करते थे । इस प्रकार समस्त इन्द्रियोंको मनमें निरुद्ध करके, मनको भगवान् विष्णुमें लीन कर द्वादशाक्षरमन्त्रका जप करते और वायु पीकर रहते हुए उन महात्मा राजाके समक्ष लोक-पितामह भगवान् ब्रह्माजी प्रकट हुए । उन चार मुखोंवाले पद्मयोनि ब्रह्माजीको आया देख राजाने उन्हें भक्तिभावसे प्रणाम एवं उनकी स्तुति करके संतुष्ट किया ॥२६ – ३०॥

 

( राजा बोले – ) ‘ संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा वेद – शास्त्रोंके मर्मज्ञ, चार मुखोंवाले महात्मा हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीको नमस्कार है ।’

 

 इस प्रकार स्तुति की जानेपर जगत्स्त्रष्टा ब्रह्माजीने राज्य त्यागकर तपस्यामें लगे हुए उन शान्त एवं महान् सुखी श्रेष्ठ नरेशसे कहा ॥३११/२॥

 

ब्रह्माजी बोले – राजन् ! समस्त विश्वको प्रकाशित करनेवाले तुम्हारे पितामह सूर्य तथा पिता मनु भी सदा ही सभी मुनियोंके मान्य हैं । तुम्हारे पिता और पितामहने भी पूर्वकालमें तीव्र तपस्या की थी । ( उन्हींके समान आज तुम भी तप कर रहे हो । )

 

महामते नृपश्रेष्ठ ! सारा राज्य – भोग छोड़कर किसलिये यह घोर तप कर रहे हो ? इसका कारण बताओ ॥३२ – ३४॥

 

ब्रह्माजीके इस प्रकार पूछनेपर राजने उनको प्रणाम करके कहा – ‘ ब्रह्मन् ! मैं तपोबलसे शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् मधुसूदनका प्रत्यक्ष दर्शन करनेकी इच्छा लेकर ही ऐसा तप कर रहा हूँ । ‘ राजाके यों कहनेपर कमलजन्मा ब्रह्माजीने हँसते हुए – से उनसे कहा ॥३५ – ३६॥

 

” राजन् ! सर्वत्र व्यापक भगवान् नारायणका दर्शन तुम केवल तपस्यासे नहीं कर सकोगे । ( औरोंकी तो बात ही क्या है, ) हमारे-जैसे लोगोंको भी क्लेशनाशन भगवान् केशवका दर्शन नहीं हो पाता ।

महामते ! मैं तुम्हें एक पुरातन पवित्र कथा सुनाता हूँ, सुनो – ‘ प्रलयकी रातमें कमललोचन भगवान् विष्णुने समस्त लोकोंको अपनेमें लीन कर लिया और सनन्दन आदि मुनियोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वे ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनागकी शय्यापर योगनिद्राका आश्रय ले सो गये ।

 

राजन् ! उन सोये हुए भगवानकी नाभिसे प्रकाशमान एक बहुत बड़ा कमल उत्पन्न हुआ । पूर्वकालमें उस प्रकाशमान कमलपर सर्वप्रथम मुझ वेदवेत्ता ब्रह्माका ही आविर्भाव हुआ । तत्पश्चात् नीचेकी ओर दृष्टि करके मैंने खानसे काटकर निकाले हुए कोयलेके समान श्यामवर्णवाले भगवान् विष्णको शेषनागकी शय्यापर सोते देखा । उनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति अलसीके फूलकी भाँति सुन्दर जान पड़ती थी, दिव्य रत्नोंके आभरणोंसे उनके श्रीविग्रहकी विचित्र शोभा हो रही थी और उनका मस्तक मुकुटसे शोभायमान था ॥३७ – ४२॥

 

‘ महामते ! उस समय मैंने उन अनन्तदेव शेषनागका भी दर्शन किया, जिनका आकार कुन्द और चन्द्रमाके समान श्वेत था तथा जो हजारों फणोंकी मणियोंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे ।

 

नृपश्रेष्ठ ! क्षणभर ही वहाँ उन्हें देखकर मैं फिर उनका दर्शन न पा सका, इससे अत्यन्त दुःखी हो गया । तब मैं कौतुहलवश निरामय भगवान् नारायणका दर्शन करनेके लिये कमलनालका सहारा ले वहाँसे नीचे उतरा; परंतु

 

राजेन्द्र ! उस समय जलके भीतर बहुत खोजनेपर भी मैं उन लक्ष्मीपतिका पुनः दर्शन न पा सका । तब मैं फिर उसी कमलका आश्रय ले वासुदेवके उसी रुपका चिन्तन करता हुआ उनके दर्शनके लिये बड़ी भारी तपस्या करने लगा । तत्पश्चात् अन्तरिक्षके भीतरसे किसी अव्यक्त शरीरवाली वाणीने मुझसे कहा ॥४३ – ४७॥

 

” ब्रह्मन् ! क्यों व्यर्थ क्लेश उठा रहे हो ? इस समय मेरी बात मानो । बहुत बड़ी तपस्यासे भी तुम्हें भगवान् विष्णुका दर्शन नहीं हो सकेगा । यदि यहाँ शुद्ध स्फटिकमणिके समान श्वेत नाग-शय्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णुका दर्शन करना चाहते हो तो उनके आज्ञानुसार सृष्टि करो ।

 

महामते ! तुमने ‘ शार्ङ्ग ‘ धनुष धारण करनेवाले उन भगवानका, जो अञ्जन-पुञ्जके समान श्याम सुषमासे युक्त तथा स्वभावतः प्रतिभाशालीरुप विमान ( शेषशय्या )-पर स्थित देखा है, उसीका आलस्यरहित होकर भजन-ध्यान करो, तब उन माधवको देख सकोगे ॥४८ – ५०१/२॥

 

” राजन् ! उस आकाशवाणीद्वारा इस प्रकार प्रेरित हो मैंने निरन्तर की जानेवाली तीव्र तपस्याका अनुष्ठान त्यागकर इस जगतके प्राणियोंकी सृष्टि की । सृष्टि करके स्थित होनेपर मेरे हदयमें प्रजापति विश्वकर्माका प्राकट्य हुआ । उन्होंने ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनाग और भगवान् विष्णुकी दो चमकीली प्रतिमाएँ बनायीं ।

 

नरेश्वर ! मैंने पहले जलके भीतर शेष-शय्यापर जिस रुपमें देख चुका था, उसी रुपमें भगवान् श्रीहरिकी वह प्रतिमा बनायी गयी थी । तब मैं उन श्रीहरिके उस श्रीविग्रहकी भक्तिपूर्वक पूजा करके और उन्हींके प्रसादसे श्रेष्ठ तपरुप परम उत्तम ज्ञान प्राप्त करके विकाररहित नित्यानन्दमय मोक्ष-सुखका अनुभव करने लगा ॥५१ – ५४१/२॥

 

” राजराजेश्वर ! इस समय मैं तुम्हारे हितकी बात बता रहा हूँ, सुनो –

 

राजन् ! इस घोर तपस्याको छोड़कर अब अपनी पुरीको लौट जाओ । प्रजाओंका पालन करना ही राजाओंका धर्म तथा तप है । मैं सिद्धों और ब्राह्मणोंसहित उस विमानको, जिसपर भगवानकी प्रतिमा है, तुम्हारे पास भेजूँगा । उसीमें तुम सुन्दर बाह्य उपचारोंद्वारा उन देवेश्वरकी आराधना करो ।

 

नृपश्रेष्ठ ! तुम यज्ञोंद्वारा ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनागकी शय्यापर शयन करनेवाले भगवान् नारायणका निष्कामभावसे यज्ञोंद्वारा आराधन करते हुए धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करो ।

 

नृप ! भगवान् वासुदेवकी कृपासे अवश्य ही तुम्हारी मुक्ति हो जायगी । ” राजासे यों कहकर लोकपितामह ब्रह्माजी अपने धामको चले गये ॥५५ – ५९॥

 

द्विज ! ब्रह्माजीके चले जानेपर राजा इक्ष्वाकु उनकी बातोंपर विचार ही कर रहे थे, तबतक उनके समक्ष वह विष्णु और अनन्तकी प्रतिमाओंका शुभ विमान, जिसे ब्रह्मजीने दिया था , सिद्ध ब्राह्मणोंसहित प्रकट हो गया । उन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करके उन्होंने बड़ी भक्तिके साथ उन्हें प्रणाम किया तथा साथमें आये हुए ऋषियों एवं ब्राह्मणोंको भी नमस्कर करके वे उस विमानको लेकर अपनी पुरीको गये । वहाँ नगरके सभी शोभायमान स्त्री-पुरुषोने राजाका दर्शन किया और लावा छींटते हुए वे उन्हें राजभवनमें ले गये । राजाने अपने विशाल मन्दिरमें उस सुन्दर वैष्णव-विमानको स्थापित किया और साथ आये हुए उन ब्राह्मणोंद्वारा पूजित भगवान् विष्णुकी वे आराधना करने लगे । उनकी सुन्दरी रानियाँ चन्दन घिसकर और सुगन्धित फूलोंका हार गूँथकर अर्पण करती थीं, इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता होती थी । इसी प्रकार नगर-निवासी जन कपूर, श्रीखण्ड, कुङ्कुम, अगुरु आदि सभी उपचार और विशेषतः वस्त्र, गुग्गुल तथा श्रीविष्णुके योग्य पुष्प ला-लाकर राजाको अर्पित करते थे ॥६० – ६६॥

 

राजा तीनों संध्याओंमें विमानपर विराजमान भगवान् श्रीहरिकी क्रमशः गन्ध-पुष्प आदि उपचारोंद्वारा बड़ी भक्तिसे पूजा करते थे । श्रीविष्णुके नामोंका जप, उनके स्तोत्रोंका पाठ, उनके गुणोंका गान और शङ्ख आदि वाद्योंका शब्द करते-कराते थे । शास्त्रोक्त विधिसे प्रेमपूर्वक सजायी हुई भगवानको झाँकियों तथा रात्रिमें जागरण आदिके द्वारा वे सदा ही देरतक भगवत्सम्बन्धी उत्सव कराया करते थे । निष्कामभावसे किये गये यज्ञ, दान, तथा धर्माचरणोंद्वारा उन सर्वदेवमय भगवान् विष्णुको संतुष्ट करके राजाने परम उत्तम ज्ञान प्राप्त कर लिया । यज्ञोंका अनुष्ठान, पृथ्वीका पालन और भगवान् केशवका पूजन करते हुए राजाने पितृगणोंकी तृप्तिके निमित्त श्राद्ध आदि कर्म करनेके लिये पुत्रोंको उत्पन्न किया और केवल ब्रह्मका चिन्तन करते हुए ध्यानके द्वारा ही शरीरका त्यागकर भगवान् विष्णुके धामको प्राप्त कर लिया । इस प्रकार राजा इक्ष्वाकु अनन्त दुःखोंसे पूर्ण संसारका त्याग करके अज, अशोक, अमल, विशुद्ध, शान्त एवं सच्चिदानन्दमय विष्णुपदको प्राप्त हो गये ॥६७ – ७२॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत ‘ इक्ष्वाकुचरित्र ‘ विषयक पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२५॥

अध्याय - २६ इक्ष्वाकुकी संततिका वर्णन

श्रीसूतजी बोले — इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रका नाम था विकुक्षि । वह अपने पिताके मुक्त हो जानेपर महर्षियोंद्वारा राज्यपदपर अभिषिक्त हुआ और धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करने लगा । राजा विकुक्षिने विमानपर विराजमान शेषशायी भगवान् विष्णुकी आराधना करते हुए अनेक यज्ञोंद्वारा देवताओंका भी यजन किया । अन्तमें वे अपने पुत्र सुबाहुको राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं स्वर्गगामी हो गये । अब तेजस्वी राजा सुबाहुके पुत्र उद्योतका यशोगान किया जाता है । उद्योतने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया । उन्होंने अपने पितामह राजा इक्ष्वाकुकी ही भाँति भगवान् नारायणमें पराभक्ति करके प्रचुर दक्षिणावाले यज्ञोंद्वारा यज्ञपति विष्णुका निष्कामभावसे यजन किया तथा नित्य, निरञ्जन, निर्विकल्प, अमृत, अक्षर, परम, ज्योतिर्मय परमात्मरुपका चिन्तन करते हुए श्रीविष्णु और अनन्तकी आराधना करके वे परमधामको प्राप्त हुए ॥१॥

 

उनके पुत्र युवनाश्च हुए, युवनाश्वके उपत्र मांधता । मांधाता स्वभावसे ही भगवान् विष्णुके भक्त थे । महर्षियोने जब उनका राज्याभिषेक कर दिया, तब शेषशायी भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक आराधन तथा विविध यज्ञोंद्वारा यजन करते हुए उन्होंने सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका पालन किया और अन्तमें उनका वैकुण्ठवास हुआ ॥२॥

 

मांधाताके ही विषयमें यह श्लोक अबतक गाया जाता है –

‘ जहाँसे सूर्य उदय होता और जहाँतक जाकर अस्त होता है, वह सब युवनाश्वके पुत्र मांधाताका ही क्षेत्र कहलाता है ‘ ॥३॥

 

मांधाताका पुत्र पुरुकुश्य ( या पुरुकुत्स ) हुआ, जिसने यज्ञ और दानके द्वारा देवताओं तथा ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया था । पुरुकुश्यसे दृषद और दृषदसे अभिशम्भु हुआ । अभिशम्भुसे दारुण और दारुणसे सगरका जन्म हुआ । सगरसे हर्यश्च, हर्यश्वसे हारीत, हारीतसे रोहिताश्च, रोहिताश्वसे अंशुमान और अंशुमानसे भगीरथ हुए, जो पूर्वकालमें बहुत बड़ी तपस्या करके समस्त पापोंका नाश करनेवाली और चारों पुरुषार्थोको देनेवाली गङ्गाजलके स्पर्शसे अपने ‘ सागर ‘ संज्ञक पितरोंको, जो महर्षि कपिलके शापसे दग्ध होकर अस्थि-भस्मामात्र शेष रह गये थे, स्वर्गलोकको पहुँच दिया । भगीरथसे सौदास और सौदाससे सत्रसवका जन्म हुआ । सत्रसवसे अनरण्य और अनरण्यसे दीर्घबाहु हुआ । दीर्घबाहुसे अज तथा अजसे दशरथ हुए । इनके घरमें साक्षात् भगवान् नारायण रावणका नाश करनेके लिये ‘ राम ‘ रुपमें अवतीर्ण हुए थे ॥४ – ९॥

 

राम अपने पिताके कहनेसे छोटे भाई लक्ष्मण तथा पत्नीसहित दण्डकारण्यमें जाकर तपस्या करने लगे । उस वनमें रावणने इनकी पत्नी सीताका अपहरण कर लिया । इससे दुःखी होकर वे अपने भाई लक्ष्मणको साथ लेकर अनेक करोड़ वानर-सेनाके अधिपति सुग्रीवको सहायक बनाकर चले और महासागरमें पुल बाँधकर उन सबके साथ लङ्कामें जा पहुँचे । वहाँ देवताओंके मार्गका काँटा बने हुए रावणको उसके बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर सीताको साथ ले पुनः अयोध्यामें लौट आये । अयोध्यामें भरतजीने उनका ‘ राजा ‘ के पदपर अभिषेक किया । श्रीरामने विभीषणको लङ्काका राज्य तथा ( विष्णुप्रतिमायुक्त ) विमान देकर अयोध्यासे विदा किया । विमानपर विराजमान परमेश्वर विष्णु विभीषणद्वारा ले जाये जानेपर भी राक्षसपुरी लङ्कामें निवास करना नहीं चाहते थे, अतः विभीषणने वहाँ जिस पवित्र वनकी स्थापना की थी, उसको देखकर वे उसीमें स्थित हो गये । वहाँ महान् सर्प-शरीरकी शय्यापर भगवान् शयन करते हैं । विभीषण भी जब वहाँसे उस विमानको ले जानेमें असमर्थ हो गये, तब भगवानके ही कहनेसे वे उन्हें वहीं छोड़ अपनी पुरी लङ्काको चले गये ॥१० – ११॥

 

भगवान् नारायणकी उपस्थितिसे वह स्थान महान् वैष्णवतीर्थ हो गया, जो आज भी श्रीरङ्गक्षेत्रके नामसे प्रसिद्ध देखा जाता है । रामसे लव, लवसे पद्म, पद्मसे ऋतुपर्ण, ऋतुपर्णसे अस्त्रपाणि, अस्त्रपाणिसे शुद्धोदन और शुद्धोदनसे बुध ( बुद्ध ) – की उत्पत्ति हुई; बुधसे इस वंशकी समाप्ति हो जाती है ॥१२॥

 

मैंने यहाँ आपके समक्ष पूर्ववती उन प्रधान-प्रधान महाबली सूर्यवंशी राजाओंका नामोल्लेख किया है, जिन्होंने धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन और यज्ञ-क्रियाओंद्वारा देवताओंका भी पोषण किया था ॥१३॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सूर्यवंशका अनुचरित ‘ नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२६॥

अध्याय - २७ चन्द्रवंशका वर्णन

सूतजी बोले – अब संक्षेपसे चन्द्रवंशी राजाओंके चरित्रका वर्णन किया जाता है । कल्पके आदिकी बात है । ऋक, यजुष, साम और अथर्ववेदस्वरुप भगवान् नारायण समस्त त्रिभुवनको अपने उदरमें लीन करके एकार्णवकी अगाध जलराशिमें शेषनागकी शय्यापर योगनिद्राका आश्रय ले सो रहे थे । सोये हुए उन भगवानकी नाभिसे एक महान् कमल प्रकट हुआ । उस कमलमें चतुर्मुख ब्रह्माका आविर्भाव हुआ । उन ब्रह्माजीके मानसपुत्र अत्रि हुए । अत्रिसे अनसूयाके गर्भसे चन्द्रमाका जन्म हुआ । उन्होंने दक्ष प्रजापतिकी रोहिणी आदि तैंतीस कन्याओंको पत्नी बनानेके लिये ग्रहण किया और ज्येष्ठ भार्या रोहिणीसे उसके प्रति अधिक प्रसन्न रहनेके कारण, ‘ बुध ‘ नामक पुत्र उत्पन्न किया । बुध भी समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता होकर प्रतिष्ठानपुरमें निवास करने लगे । उन्होंने इलाके गर्भसे पुरुरवा नामक पुत्रको जन्म दिया । पुरुरवा बहुत ही सुन्दर थे, अतः उर्वशी नामक अप्सरा बहुत कालतक स्वर्गके भोगोंको त्यागकर इनकी भार्या बनी रही । पुरुरवाद्वारा उर्वशीके गर्भसे आयु नामक पुत्रका जन्म हुआ । वह धर्मपूर्वक राज्य करके अन्तमें स्वर्गलोकको चला गया । आयुके रुपवतीसे नहुष नामक पुत्र हुआ, जिसने इन्द्रत्व प्राप्त किया था । नहुषके भी पितृमतीके गर्भसे ययाति हुए, जिनके वंशज वृष्णि कहलाते हैं । ययातिके शर्मिष्ठाके गर्भसे पूरु हुए । पूरुके वंशदासे संयाति नामक पुत्र हुआ, जिसको इस पृथ्वीपर सभी तरहके मनोवाञ्छित भोग प्राप्त थे ॥१ – ९॥

 

संयातिसे भानुदत्ताके गर्भसे सार्वभौम नामक पुत्र हुआ । उसने सम्पूर्ण पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन करते हुए यज्ञ-दान आदिके द्वारा भगवान् नृसिंहकी आराधना करके सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त कर ली । उपर्युक्त सार्वभौमसे वैदेहीके गर्भसे भोज उत्पन्न हुआ , जिसके वंशमें कालनेमि नामक राक्षस, जो पहले देवासुर-संग्राममें भगवान विष्णुके चक्रसे मारा गया था, कंसके रुपमें उत्पन्न हुआ और वृष्णिवंशी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णके हाथसे मारा जाकर मृत्युको प्राप्त हुआ ॥१० – ११॥

 

भोजकी पत्नी कलिङ्गासे दुष्यन्तका जन्म हुआ । वह भगवान् नृसिंहकी आराधना करके उनकी प्रसन्नतासे धर्मपूर्वक निष्कण्टक राज्य भोगकर जीवनके अन्तमें स्वर्गको प्राप्त हुआ । दुश्यन्तको शकुन्तलाके गर्भसे भरत नामक पुत्र प्राप्त हुआ । वह धर्मपूर्वक राज्य करता हुआ प्रचुर दक्षिणवाले यज्ञोंसे सर्वदेवमय भगवान् विष्णुकी आराधना करके कर्माधिकारसे निवृत्त एवं ब्रह्मध्यानपरायण हो परम ज्योतिर्मय वैष्णवधाममें लीन हो गया ॥१२॥

 

भरतके उसकी पत्नी आनन्दाके गर्भसे अजमीढ नामक पुत्र हुआ । वह परम वैष्णव था । राजा अजमीढ भगवान् नृसिंहकी आराधनासे पुत्रवान् होकर धर्मपूर्वक राज्य करनेके पश्चात् श्रीविष्णुधामको प्राप्त हुए । अजमीढके सुदेवीके गर्भसे वृष्णि नामक पुत्र हुआ । वह भी बहुत वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्य करता रहा । दुष्टोंका दमन और सज्जनोंका पालन करते हुए उसने सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीको अपने वशमें कर लिया था । वृष्णिके उग्रसेनाके गर्भसे प्रत्यञ्च नामक पुत्र हुआ । वह भी धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करता था । उसने प्रतिवर्ष ज्योतिष्टोमयागका अनुष्ठान करते हुए आयुका अन्त होनेपर निर्वाणपद ( मोक्ष ) प्राप्त कर लिया । प्रत्यञ्चको बहुरुपाके गर्भसे शांतनु नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिनमें देवताओंके दिये हुए रथपर चढ़नेकी पहले शक्ति नहीं थीं, परंतु पीछे उसपर चढ़नेकी शक्ति हो गयी ॥१३ – १६॥.

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ सोमवंशवर्णन ‘ नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२७॥

अध्याय - २८ शांतनुका चरित्र

भरद्वाजजीने पूछा – शांतनुको पहले देवताओंके रथपर चढ़नेकी शक्ति क्यों नहीं थी ? और फिर उनमें वह शक्ति कैसे आ गयी ? इसे आप हमें बतलायें ॥१॥

 

सूतजी बोले – भरद्वाजजी ! यह पुराना इतिहास है; इसे मैं कहता हूँ, सुनिये । शांतनुका चरित्र मनुष्योंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है । शांतनु पूर्वकालमें नृसिंहरुपधारी भगवान् विष्णुके भक्त थे और नारदजीकी बतायी हुई विधिसे भगवान् लक्ष्मीपतिकी सदा पूजा किया करते थे ।

 

विप्रवर ! एक बार राजा शांतनु भूलसे श्रीनृसिंहदेवके निर्माल्यको लाँघ गये, अतः वे उसी क्षण देवताओंके दिये हुए उत्तम रथपर चढ़नेमें असमर्थ हो गये । तब वे सोचने लगे – ‘ यह क्या बात है ? इस रथपर चढ़नेमें हमारी गति सहसा कुण्ठित क्यों हो गयी ?’ कहते हैं, इस प्रकार दुःखी होकर सोचते हुए उन राजाके पास नारदजी आये और उन्होंने राजा शांतनुसे पूछा – ‘ राजन् ! तुम क्यों विषादमें डूबे हुए हो ? ‘ ॥२ – ६॥

 

राजाने कहा – ‘ नारदजी ! मेरी गति कुण्ठित कैसे हुई, इसका कारण मुझे ज्ञात नहीं हो रहा है, इसीसे मैं चिन्तित हूँ । ‘ उनके यों कहनेपर नारदजीने ध्यान लगाया और उसका कारण जानकर राजा शांतनुसे, जो विनीतभावसे वहाँ खड़े थे, कहा – ‘

 

राजन् ! अवश्य ही तुमने कहीं-न-कहीं भगवान् नृसिंहके निर्माल्यका लङ्घन किया है । इसीसे रथपर चढ़नेमें तुम्हारी गति अवरुद्ध हो गयी है । महाराज ! इसका कारण सुनो ॥७ – ९॥

 

‘ राजन् ! पूर्वकालकी बात है, अन्तर्वेदीमें कोई बड़ा बुद्धिमान् माली रहता था । उसका नाम था रवि । उसने तुलसीका बगीचा लगाया था और उसका नाम ‘ वृन्दावन ‘ रख दिया था । उसमें फूलोंके लिये सब ओर मल्लिका, मालती, जाती तथा बकुल ( मौलसिरी ) आदि नाना प्रकारके वृक्षोंके बाग सुंदर ढंगसे लगाये थे । उस वनकी चहारदीवारी बहुत ऊँची और चौड़ी बनवाकर, उसे अलङ्घनीय और दुर्गम करके भीतरकी भूमिपर उसने अपने रहनेके लिये घर बताया था ।

 

साधुशिरोमणे ! उसने ऐसा प्रबन्ध किया था कि घरमें प्रवेश करनेके बाद ही उस वाटिकाका द्वार प्राप्त हो सकता था, दूसरी ओरसे उसका मार्ग नहीं था ॥१० – १२१/२॥

 

‘ ऐसी व्यवस्था करके निवास करते हुए उस मालीका वह वृन्दावन फूलोंसे भरा रहता था और उसकी सुगन्धसे सारी दिशाएँ सुवासित होती रहती थीं । वह प्रतिदिन अपनी पत्नीके साथ फूलोंका संग्रह करके यथोचित मालाएँ तैयार करता था । उनमेंसे कुछ मालाएँ तो वह भगवान् नृसिंहको अर्पण कर देता था, कुछ ब्राह्मणोंको दे डालता था और कुछको बेचकर उससे अपना तथा पत्नी आदिका पालन-पोषण करता था । मालासे जो कुछ प्राप्त होता, उसीके द्वारा वह अपनी जीविका चलाता था ॥१३ / १५१/२॥

 

‘ कुछ कालके बाद वहाँ इन्द्रका पुत्र जयन्त प्रतिदिन रातमें स्वर्गसे अप्सराओंके साथ रथपर चढ़कर आने और फूलोंकी चोरी करने लगा । उस वनके पुष्पोंकी सुगन्धके लोभसे वह सारे फूल तोड़ लेता और लेकर चल देता था । जब प्रतिदिन फूलोंकी चोरी होने लगी, तब मालीको बड़ी चिन्ता हुई । उसने मन-ही-मन-सोचा-‘ इस वनका कोई दूसरा द्वार तो है नहीं । चहारदीवारी भी इतनी ऊँची है कि वह लाँघी नहीं जा सकती । मनुष्योंकी ऐसी शक्ती मैं नहीं देखता कि इसे लाँघकर वे सारे फूल चुरा ले जानेमें समर्थ हों । फिर इन फूलोंके लुप्त होनेका क्या कारण है, आज अवश्य ही इसका पता लगाऊँगा । ‘ यह सोचकर वह बुद्धिमान् माली उस रातमें जागता हुआ बगीचेमें ही बैठा रहा । अन्य दीनोंकी भाँति उस दिन भी वह पुरुष आया और फूल लेकर चला गया ॥१६ – २०॥

 

‘ उसे देखकर मालाओंसे ही जीविका चलानेवाला वह माली उस उपवनमें बहुत ही दुःखी हुआ । तदनन्तर रातको नींद आनेपर उसने स्वप्नमें साक्षात् भगवान् नृसिंहको देखा तथा उन नृसिंहदेवका यह वचन भी सुना – ‘ पुत्र ! तुम शीघ्र ही फूलोंके बगीचेके समीप मेरा निर्माल्य लाकर छींट दो । उस दुष्ट इन्द्रपुत्रको रोकनेका कोई दूसरा उपाय नहीं ॥२१ – २२१/२॥

 

‘ बुद्धिमान् भगवान नृसिंहका यह वचन सुनकर माली जाग उठा और उसने निर्माल्य लाकर उनके कथनानुसार वहाँ छीट दिया । जयन्त भी पहलेके ही समान अलक्षित रथसे आया और उससे उतरकर फूल तोड़ने लगा । उसी समय अपना अनिष्ट करनेवाला इन्द्रपुत्र वहाँ भूमिपर पड़े हुए निर्माल्यको लाँघ गया । इससे उसमें रथपर चढ़नेकी शक्ति नहीं रह गयी । तब सारथिने उससे कहा – ‘ नृसिंहका निर्माल्य लाँघ जानेके कारण अब तुममें इस रथपर चढ़नेकी योग्यता नहीं रह गयी है । मैं तो स्वर्गलोकको लौटता हूँ, किंतु तुम यहाँ भूतलपर ही रहो; रथपर न चढ़ो ‘ ॥२३ – २७॥

 

‘ सारथिके इस प्रकार कहनेपर मतिमान् इन्द्रकुमारने उससे कहा – ‘ सारथे ! जिस कर्मसे यहाँ मेरे पापका निवारण हो, उसे बताकर तुम शीघ्र स्वर्गलोकको जाओ ‘ ॥२८१/२॥

 

सारथ बोला – ‘ कुरुक्षेत्रमें परशुरामजीका एक यज्ञ हो रहा है, जो बारह वर्षोंमे समाप्त होनेवाला है । उसमें जाकर तुम प्रतिदिन ब्राह्मणोंका जूठा साफ करो; इससे तुम्हारी शुद्धि होगी ।’ यों कहकर सारथि देवसेवित स्वर्गलोकको चला गया ॥२९ – ३०॥

 

‘ इधर इन्द्रपुत्र जयन्त कुरुक्षेत्रमें सरस्वतीके तटपर आया और परशुरामजीके यज्ञमें ब्राह्मणोंकी जूठन साफ करने लगा । जब बारहवाँ वर्ष पूर्ण हुआ, तब ब्राह्मणोंने शङ्कित होकर उससे पूछा – ‘

 

महाभाग ! तुम कौन हो ? जो नित्य जूठन साफ करते हुए भी हमारे यज्ञमें भोजन नहीं करते । इससे हमारे मनमें महान् संदेह हो रहा हैं ।’ उनके इस प्रकार पूछनेपर इन्द्रकुमार क्रमशः अपना सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बताकर तुरंत रथसे स्वर्गलोकको चला गया ॥३१ – ३३१/२॥

 

‘ इसलिये, हे भूपाल ! तुम भी परशुरामजीके द्वादशवार्षिक यज्ञमें आदरपूर्वक ब्राह्मणोंकी जूठन साफ करो । ब्राह्मणोसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो पापोंका अपहरण कर सके ।

 

महीपाल ! इस प्रकार प्रायश्चित्त कर लेनेपर तुम्हें देवताओंके दिये हुए रथपर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो जायगी ।

महामते ! आजसे तुम भी श्रीनृसिंहदेवका तथा अन्य देवताओंके भी निर्माल्यका उल्लंघन न करना ‘ ॥३४ – ३७॥

 

नारदजीके ऐसा कहनेपर शांतनुने बारह वर्षोतक ब्राह्मणोंकी जूठन साफ की । इसके बाद वे शक्ति पाकर उस रथपर चढ़नेमें समर्थ हुए ।

 

विप्रवर ! इस प्रकार पूर्वकालमें राजाकी उस रथपर चढ़नेकी शक्ति जाती रही और फिर उक्त उपाय करनेसे उनमें पुनः वह शक्ति आ गयी ॥३८ – ३९॥

 

ब्रह्मन ! इस प्रकार मैंने निर्माल्य लाँघनेमें जो दोष है, वह बताया तथा ब्राह्मणोंका जूठा साफ करनेमें जो पुण्य है, उसका भी वर्णन किया । जो मनुष्य इस लोकमें पवित्र होकर, अपने चित्तको एकाग्र करके, भक्तिपूर्वक ब्राह्मणोंका जूठा साफ करता है, वह पापबन्धनसे मुक्त हो स्वर्गमें निवास करत और गौओंके दानका फल भोगता है ॥४० – ४१॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ‘ शांतनुचरित्र ‘ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२८॥

अध्याय - २९ शांतनुकी संततिका वर्णन

श्रीसूतजी कहते हैं – शांतनुके योजनगन्धासे ‘ विचित्रवीर्य ‘ नामक पुत्र हुआ । राजा विचित्रवीर्य हस्तिनापुरमें रहकर धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते रहे और यज्ञोंद्वारा देवताओंको तथा श्राद्धके द्वारा पितरोंको तृप्त करके पुत्र पैदा होनेपर स्वर्गलोकको प्राप्त हुए । विचित्रवीर्यके अम्बालिकाके गर्भसे ‘ पाण्डु ‘ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । पाण्डु भी धर्मपूर्वक राज्यपालन करके मुनिके शापसे शरीर त्यागकर देवलोकको चले गये । उन राजा पाण्डुके कुन्तीदेवीके गर्भसे ‘ अर्जुन ‘ नामक पुत्र हुआ । अर्जुनने बड़ी भारी तपस्या करके शंकरजीको प्रसन्न किया, उनसे ‘ पाशुपत ‘ नामक अस्त्र प्राप्त किया और स्वर्गलोकके अधिपति इन्द्रके शत्रु ‘ निवातकवच ‘ नामक दानवोंका वध करके अग्निदेवको उनकी रुचिके अनुसार खाण्डववन समर्पित किया । खाण्डववनको जलाकर, तृप्त हुए अग्निदेवसे अनेक दिव्य वर प्राप्त कर, दुर्योधनद्वारा अपना राज्य छिन जानेपर उन्होंने ( अपने भाई ) धर्म ( युधिष्ठिर ), भीम, नकुल, सहदेव और ( पत्नी ) द्रौपदीके साथ विराटनगरमें अज्ञातवास किया । वहाँ जब शत्रुओंने आक्रमण करके विराटकी गौओंको अपने अधिकारमें कर लिया, तब अर्जुनने भीष्म, द्रोण, कृप, दुर्योधन और कर्ण आदिको हराकर समस्त गौओंकिओ वापस घुमाया । फिर विराटराजके द्वारा भाइयोंसहित सम्मानित होकर कुरुक्षेत्रमें भगवान् वासुदेवको साथ ले अत्यन्त बलशाली धृतराष्ट्रपुत्रोंके साथ युद्ध किया और भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य, कर्ण आदि महापराक्रमी क्षत्रियों तथा नाना देशोंसे आये हुए अनेकों राजपुत्रोंसहित दुर्योधनादि धृतराष्टपुत्रोंका उन्होंने भीम आदिके सहयोगसे वध करके अपना राज्य प्राप्त कर लिया । फिर भाइयोंसहित वे धर्मके अनुसार ( अपने सबसे बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिरको राजाके पदपर अभिषेक करके ) राज्यका पालन करके अन्तमें सबके साथ प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोकमें चले गये ॥१ – ३॥

 

अर्जुनको सुभद्राके गर्भसे ‘ अभिमन्यु ‘ नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने महाभारत – युद्धमें चक्रव्यूहके भीतर प्रवेश करके अनेक राजाओंको मृत्युके घाट उतारा था । अभिमन्युके उतराके गर्भसे परीक्षितका जन्म हुआ । धर्मनन्दन युधिष्ठिर जब वानप्रस्थ धर्मके अनुसार वनमें जाने लगे, तब वे भी धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके अन्तमें वैकुण्ठधाममें जाकर अक्षय सुखके भागी हुए । परीक्षितसे मातृवतीके गर्भसे जनमेजयका जन्म हुआ, जिन्होंने ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त होनेके लिये व्यासशिष्य वैशम्पायनके मुखसे सम्पूर्ण महाभारत आदिसे अन्ततक सुना था । वे भी धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके अन्तमें स्वर्गवासी हुए । जनमेजयको अपनी पत्नी पुष्पवतीके गर्भसे ‘ शतानीक ‘ नामक पुत्र प्राप्त हुआ । उन्होंने धर्मपूर्वक राज्यका पालन करते हुए संसार-दुःखसे विरक्त हो, शौनकके उपदेशसे यागादि कर्मोंके द्वारा समस्त लोकोंके अधीश्वर भगवान् विष्णुकी निष्कामभावसे आराधना की और अन्तमें वैष्णवधामको प्राप्त कर लिया । शतानीकके फलवतीके गर्भसे सहस्रानीककी उत्पत्ति हुई । सहस्त्रानीक बाल्यावस्थामें ही राजाके पदपर अभिषिक्त हो भगवान् नृसिंहके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखने लगे । उनके चरित्रका आगे वर्णन किया जायगा । सहस्त्रानीकके मृगवतीसे उदयन हुए । वे कौशाम्बीमें धर्मपूर्वक राज्यका पालन करके नारायणकी आराधन करते हुए वैकुण्ठधामको प्राप्त हुए । उदयनके वासवदत्ताके गर्भसे नरवाहन नामक पुत्र हुआ । वह भी न्यायतः राज्यका पालन करके स्वर्गको प्राप्त हुआ ।

 

नरवाहनके अश्वमेधदत्ताके गर्भसे क्षेमक नामक पुत्रका जन्म हुआ । क्षेमक राजाके पदपर प्रतिष्ठित होनेके पश्चात् प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करने लगे । उन्हीं दिनों म्लेच्छोंका आक्रमण हुआ और सम्पूर्ण जगत् उनके द्वारा पददलित होने लगा । तब वे ज्ञानके बलसे कलापग्राममें चले आये ॥४ – १२॥

 

जो उपर्युक्त राजाओंकी हरिभक्ति तथा चरित्रका श्रद्धापूर्वक पाठ या श्रवण करता है, वह विशुद्ध कर्म करनेवाला पुरुष संतति प्राप्त करके अन्तमें स्वर्गलोकमें पहुँचकर वहाँ सुदीर्घ कालतक सुखी रहता है ॥१३॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ‘ शांतनुकी संतातिका वर्णन ‘ नामक उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥२९॥

अध्याय - ३० भूगोल तथा स्वर्गलोकका वर्णन

श्रीसूतजी बोले – द्विजवरो ! अब मै सब ओर नदी तथा पर्वतोंसे व्याप्त भूगोल ( भूमिमण्डल ) – का संक्षेपसे वर्णन करुँगा ॥१॥

 

इस पृथ्वीपर जम्बू प्लक्ष, शाम्ललि, कुश, क्रौञ्च, शाक और पुष्कर नामके सात द्वीप हैं । इनमें जम्बूद्वीप तो लाख योजन लंबा-चौड़ा है और प्लक्ष आदि जम्बूद्वीपसे उत्तरोत्तर दुगुने बड़े हैं । ये द्वीप क्रमशः अपनेसे दूने प्रमाणावाले लवण, इक्षुरस, सुरा, घृत, दधि, दुग्ध और शुद्धोदक नामसे विख्यात सात वलयाकार समुद्रोंसे घिरे हुए हैं ।

 

मनुके जो ‘ प्रियव्रत ‘ नामक पुत्र थे, वे ही सात द्वीपोंके अधिपति हुए । उनके अग्रीध आदि दस पुत्र हुए । इनमेंसे तीन तो सर्वत्यागी संन्यासी हो गये और शेष सातोंको उनके पिताने एक-एक द्वीप बाँट दिया । इनमें जन्मूद्वीपके अधिपति ‘ अग्निध्र ‘ के नौ पुत्र हुए । उनके नाम ये हैं – नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्य, हिरण्मय, कुरु, भद्र और केतुमान ॥२ – ५॥

 

राजा अग्रीध्र जब ( घर त्यागकर ) वनमें जाने लगे तब उन्होंने जम्बूद्वीपको उसके नौ खण्ड करके अपने पुत्रोंको बाँट दिया । हिमालय पर्वतसे मिला हुआ वर्ष अग्रीध्र ( नाभी ) – को मिला था । इसके अधिपति राजा नाभिसे ‘ ऋषभ ‘ नामक पुत्र हुआ ॥६॥

 

ऋषभसे भरतका जन्म हुआ, जिनके द्वारा चिरकालतक धर्मपूर्वक पालित होनेके कारण इस देशका नाम ‘ भारतवर्ष ‘ पड़ा ।

 

इलावृत वर्षके बीचमें मेरु नामक सुवर्णमय पर्वत हैं । उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योगज है । वह सोलह हजार योजनतक नीचे जमीनमें गड़ा है और इससे दूनी ( बत्तीस हजार योजन ) इसकी चोटीके चौड़ाई है । इसीके मध्यभागमें ब्रह्माजीकी पुरी हैं, पूर्वभागमें इन्द्रकी ‘ अमरावती ‘ है, अग्निकोणमें अग्निकी ‘ तेजोवती ‘ पुरी हैं, दक्षिणमें यमराजकी ‘ संयमनी ‘ है, नैऋत्यकोणमें निऋतिकी ‘ भयंकरी ‘ नामक पुरी हैं, पश्चिममें वरुणकी ‘ विश्वावती ‘ है, वायव्यकोणमें वायुकी ‘ गन्धवती ‘ नगरी है और उत्तरमें चन्द्रमाकी ‘ विभावरी ‘ पुरी है ।

 

नौ खण्डोसे युक्त किम्पुरुष आदि आठ वर्ष पुण्यवानोंके भोगस्थान हैं; केवल एक भारतवर्ष ही चारों वर्णोंसे युक्त कर्मक्षेत्र है ।

 

भारतवर्षमें ही कर्म करनेसे मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करेंगे और वहाँ ही ज्ञान-साधकको निष्काम कर्मोंसे मुक्ति भी प्राप्त होती है ।

 

विप्रवर ! पाप करनेवाले पुरुष यहाँसे अधोगतिको प्राप्त होते हैं । जो पापी हैं, उन करोड़ों मनुष्योंको पातालस्थ नरकमें पड़े हुए समझिये ॥७ – ११॥

अब सात कुलपर्वतोंका वर्णन किया जाता है – महेन्द्र, मलय, शुक्तिमान्, ऋष्यमूक, सह्य, विन्ध्य और पारियात्र । ये ही भारतवर्षमें कुलपर्वत हैं ।

 

नर्मदा, सुरसा, ऋषिकुल्या, भीमरथी, कृष्णावेणी, चन्द्रभागा तथा ताम्रपणीं – ये सात नदियाँ हैं तथा गङ्गा, यमुना, गोदावरी, तुङ्गभद्रा, कावेरी और सरयू – ये छः महानदियाँ सब पापोंको नष्ट करनेवाली हैं ॥१२ – १३॥

 

यह सुन्दर जम्बूद्वीप जम्बू ( जामुन ) – के नामसे विख्यात है । इसका विस्तार एक लाख योजन है । इस द्वीपमें यह भारतवर्ष ही सबसे श्रेष्ठ स्थान है ॥१४॥

 

ऋक्षद्वीप आदि पुण्य देश हैं । जो लोग निष्कामभावसे अपने-अपने वर्णधर्मका आचरण करते हुए भगवान् नृसिंहका यजन करते हैं, वे ही उन पुण्य देशोंमें निवास करते हैं तथा कर्माधिकारका क्षय हो जानेपर मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं ।

 

जम्बूद्वीपसे लेकर ‘ शुद्धोदक ‘ संज्ञक समुद्रपर्यन्त सात द्वीप और सात समुद्र हैं । उसके बाद स्वर्णमयी भूमि हैं । उसके आगे लोकालोक पर्वत हैं – यह सब ‘ भूलोक ‘ का वर्णन हुआ ॥१५ – १६॥

 

इसके ऊपर अन्तरिक्षलोक है, जो अन्तरिक्षचारी प्राणियोंके लिये परम रमणीय है । इसके ऊपर स्वर्गलोक है । अब महापुण्यमय स्वर्गलोकका वर्णन किया जाता है, उसे आपलोग मुझसे सुनें ।

 

जिन्होंने भारतवर्षमें रहकर पुण्यकर्म किये हैं, उनका तथा देवताओंका वहाँ निवास है ।

 

भूमण्डलके बीचमें पर्वतोंका राजा मेरु है, जो सुवर्णमय होनेके कारण अपनी प्रभासे उद्भासित होता रहता है । वह पर्वत चौरासी हजार योजन ऊँचा है और सोलह हजार योजनतक पृथ्वीमें नीचेकी ओर धँसा हुआ है । साथ ही उसके चारों ओर उतने ही प्रमाणवाली पृथिवी है ॥१७ – २०॥

 

मेरुगिरिके ऊपरी भागमें तीन शिखर हैं, जहाँ स्वर्गलोक बसा हुआ है । मेरुके वे स्वर्गीय शिखर नाना प्रकारके वृक्ष और लताओंसे आवृत तथा भाँति – भाँतिके पुष्पोंसे सुशोभित हैं । मध्यम, पश्चिम और पूर्व – ये ही तीन मेरुके शिखर है । इनमें मध्यम श्रृङ्ग स्फटिक तथा वैदूर्यमणिमय हैं, पूर्व श्रृङ्ग इन्द्रनीलमय और पश्चिम शिखर माणिक्यमय कहा जाता है । इनमेंसे मध्यम श्रृङ्ग चौदह लाख चौदह हजार योजन ऊँचा है, जहाँ ‘ त्रिविष्टप ‘ नामका स्वर्गलोक प्रतिष्ठित है । पूर्व श्रृङ्ग मेरुके ऊपर छत्राकार स्थित है । मध्यम श्रृङ्ग और उसके बीच अन्धकारका व्यवधान है । वह मध्यम श्रृङ्ग और उसके बादवाले पश्चिम शिखरके बीचमें स्थित है । नाकपृष्ठ – त्रिविष्टपमें आनन्दमयी अपसराएँ निवास करती हैं; मेरुके मध्यवर्ती शिखरपर विराजमान स्वर्गमें आनन्द और प्रमोदका वास है । पश्चिम शिखरपर श्वेत, पौष्टिक उपशोभन और काम एवं स्वर्गके राजा आह्लाद निवास करते हैं ।

 

द्विजश्रेष्ठ ! पूर्व शिखरपर निर्मम, निरहंकार, सौभाग्य और अतिनिर्मल नामक स्वर्ग सुशोभित होते हैं । मेरु पर्वतकी चोटीपर कुल इक्वीस स्वर्ग सुशोभित होते हैं । जो अहिंसाधर्मका पालन करनेवाले और दानी हैं तथा जो यज्ञ और तपका अनुष्ठान करनेवाले हैं, वे क्रोधरहित मनुष्य इन स्वर्गोंमें निवास करते हैं ॥२६ – २९॥

जो धर्मपालनके लिये जलमें प्रविष्ट होकर प्राण त्याग करते हैं, वे ‘ आनन्द ‘ नामक स्वर्गको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार जो धर्मरक्षाके ही लिये अग्निमें जलनेका साहस करते हैं, उन्हें ‘ प्रमोद ‘ नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है और जो धर्मार्थ पर्वतशिखरसे कूदकर प्राण देते हैं, उन्हें ‘ सौख्य ‘ संज्ञक स्वर्ग प्राप्त होता है । संग्रामकी मृत्युसे ‘ निर्मल ‘ ( या अतिनिर्मल ) नामक स्वर्गकी उपलब्धि होती है । उपवास-व्रत एवं संन्यासावस्थामें मृत्युको प्राप्त होनेवाले लोग ‘ त्रिविष्टप ‘ नामक स्वर्गमें जाते हैं । श्रौत यज्ञ करनेवाला ‘ नाकपृष्ठ ‘ में और अग्निहोत्री ‘ निर्वृत्ति ‘ नामक स्वर्गमें जाते हैं ।

 

द्विज ! पोखरा और कुआँ बनवानेवाला मनुष्य ‘ पौष्टिक ‘ स्वर्गको पाता है, सोना दान करनेवाला पुरुष तपस्याके फलभूत ‘ सौभाग्य ‘ नामक स्वर्गको जाता है । जो शीतकालमें सब प्राणियोंके हितके लिये लकड़ियोंके ढेरको जलाकर बड़ी भारी अग्निराशि प्रज्वलित करता और उन्हें गरमी पहुँचाता है, वह ‘ अप्सरा ‘ संज्ञक स्वर्गको उपलब्ध करता है । सुवर्ण और गोदान करनेपर दाता ‘ निरहंकार ‘ नामवाले स्वर्गको पाता है और शुद्धभावसे भूमिदान करके मनुष्य ‘ शान्तिक ‘ नामसे प्रसिद्ध स्वर्गधामको उपलब्ध करता है । चाँदी दान करनेसे मनुष्यको ‘ निर्मल ‘ नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है । अश्वदानसे दाता ‘ पुण्याह ‘ का और कन्यादानसे ‘ मङ्गल ‘ का लाभ करता है । ब्राह्मणोंको तृप्त करके उन्हें भक्तिपूर्वक वस्त्र दान करनेसे मनुष्य ‘ श्वेत ‘ नामक स्वर्गको पाता है, जहाँ जाकर वह कभी शोकका भागी नहीं होता ॥३० – ३६॥

 

कपिला गौका दान करनेसे दाता ‘ परमार्थ ‘ नामक स्वर्गमें पूजित होता है और उत्तम साँड़का दान करनेके उसे ‘ मन्मथ ‘ नामक स्वर्गकी प्राप्ति होती है । जो माघके महीनेमें नित्य नदीमें स्नान करता, तिलमयी धेनु देता और छत्र तथा जूतेका दान करता है, वह ‘ उपशोभन ‘ नामक स्वर्गमें जाता है । जिसने देवमन्दिर बनवाया है, जो द्विजोंकी सेवा करता है तथा सदा तीर्थयात्रा करता रहता है, वह ‘ स्वर्गराज ‘ ( आह्लाद ) – में प्रतिष्ठित होता है । जो मनुष्य नित्य एक ही अन्न भोजन करता, जो प्रतिदिन केवल रातमें ही खाता तथा त्रिरात्र आदि व्रतोंके द्वारा उपवास किया करता है, वह ‘ शुभ ‘ नामक स्वर्गको पाता है । नदीमें स्नान करनेवाला, क्रोधको जीतनेवाला एवं दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाला ब्रह्मचारी सम्पूर्ण जीवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले पुरुषके समान ‘ निर्मल ‘ नामक स्वर्गको पाता है । मेधावी पुरुष विद्यादान करके ‘ निरहंकार ‘ नामक स्वर्गको प्राप्त होता है ॥३७ – ४१॥

 

मनुष्य जिस-जिस भावनासे जो-जो दान देता है और उससे जो-जो फल चाहता है, तदनुसार ही विभिन्न स्वर्गलोकोंको पाता है । कन्या, गौ, भूमि तथा विद्याइन चारोंके दानको ‘ अतिदान ‘ कहा गया है । ये चार वस्तुएँ दान की जानेपर दाताका नरकसे उद्धार कर देती हैं । इतना ही नहीं, बैलपर सवारी करने और गायको दुहनेसे जो दोष होता है, उससे भी मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो ब्राह्मणोंको सब प्रकारके दान अर्पित करता है, वह शान्त एवं निरामय स्वर्गलोकको प्राप्त होकर फिर वहाँसे नहीं लौटता है । मेरुगिरिके पश्चिम शिखरपर, जहाँ स्वयं ब्रह्माजी विराजमान है, वहीं वह स्वयं भी वास करता है । पूर्वश्रृङ्गपर साक्षात् भगवान् विष्णु और मध्यम श्रृङ्गपर शिवजी विराजमान हैं ॥४२ – ४५॥

 

विप्रेन्द्र ! इसके बाद आप स्वर्गके इन ‘ निर्मल ‘ तथा ‘ विशाल ‘ मार्गका वर्णन सुनें । स्वर्गलोकके दस मार्ग हैं । ये सभी एकके ऊपर दूसरोंके क्रमसे स्थित हैं । प्रथम मार्गपर कुमार कर्तिकेय और दूसरेके मातृकाएँ रहती हैं ।

द्विज ! तीसरे मार्गापर सिद्ध-गन्धर्व, चौथेपर विद्याक्षर, पाँचवोंपर नागराज और छठेपर विनतानन्दन गरुडजी विराजमान हिं सातवेंपर दिव्य पितृगण, आठवेंपर धर्मराज, नवेंपर दक्ष और दसवें मार्गपर आदित्यकी स्थिति हैं ॥४६ – ४८॥

 

भूलोकसे एक लाख दो हजार योजनकी ऊँचाईपर सूर्यदेव विचरते हैं । उस ऊँचाईपर सब ओर उनके रुकनेके लिये आधार हैं तथा उस ऊँचाईसे तीन गुने प्रमाणमें सूर्युमण्डलका दीर्घ विस्तर है । जिस जम होते – से प्रतीत होती हैं । जिस समय अमरावतीपुनती मध्याह्ने समय सूर्य रहते हैं । उस समय संयकमती पुरीमें उदित होते दीख पड़ते हैं । भगवान् सूर्य सदा मेरुगिरिकी पक्रिमा करते हुए ही सुशोभित होते हैं । वे ध्रुवके आधारपर स्थित हैं । उनक उदय होते हैं । वे ध्रुवके आधारपर स्थित हैं । उनके उदय होते समय बालखिल्यादि ऋषि उनकी स्तुति करते हैं ॥४९ – ५२॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ भूगोलवर्णन ‘ विषयक तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३०॥

अध्याय - ३१ धुव-चरित्र तथा ग्रह, नक्षत्र एवं पातालका संक्षिप्त वर्णन

भरद्वाजजीने पूछा – सूतजी ! ध्रुव कौन हैं ? किसके पुत्र हैं ? तथा वे सूर्यके आधार कैसे हुए ? ये सब बातें भलीभाँति सोच – विचारकर बताइये । हमारी यह कामना है कि आप हमें कथा सुनाते हुए सैकड़ों वर्षोतक जीवित रहें ॥१॥

 

सूतजी बोले – विप्रवर ! स्वायम्भुव मनुके एक पुत्र थे राजा उत्तानपाद । उन भूपालके दो पुत्र हुए । एक तो सुरुचिके गर्भसे उत्पन्न हुआ था, जिसका नाम उत्तम था । वह ज्येष्ठ था और दूसरा पुत्र ‘ ध्रुव ‘ था, जो सुनीतिके गर्भसे उत्पन्न हुआ था । एक दिन जब राजा राजसभामें बैठे हुए थे, सुनीतिने अपने पुत्र ध्रुवको वस्त्राभूषणसे विभूषित करके राजाकी सेवाके लिये भेजा । विनयशील ध्रुवने धायके पुत्रोंके साथ राजसभामें जाकर राजा उत्तानपादको प्रणाम किया । वहाँ उत्तमको पिताकी गोदमें बैठा देख ध्रुव सिंहासनपर आसीन राजाके पास जा पहुँचा और बालोचित चपलताके कारण राजाकी गोदमें चढ़नेकी इच्छा करने लगा । यह देख सुरुचिने ध्रुवसे कहा ॥२ – ६॥

 

सुरुचि बोली – अभागिनीके बच्चे ! क्या तू भी महाराजकी गोदमें चढ़ना चाहता है ? बालक ! मूर्खतावश ही ऐसी चेष्टा कर रहा है । तू इसके योग्य कदापि नहीं है; क्योंकि तू एक भाग्यहीना स्त्रीके गर्भसे पैदा हुआ है । बता तो सही, तूने इस सिंहासनपर बैठनेके लिये कौनसा पुण्यकर्म किया है ? यदि पुण्य ही किया होता तो क्या अभागिनीके गर्भसे जन्म लेता ? राजकुमार होनेपर भी तू मेरे उदरकी शोभा नहीं बढ़ा सका है । इसी बातसे जान ले कि तेरा पुण्य बहुत कम है । उत्तम कोखसे पैदा हुआ है-कुमार ‘ उत्तम ‘ जो सर्वश्रेष्ठ है; देखो, वह कितने सम्मानके साथ पृथ्वीनाथ महाराजके दोनों घुटनोंपर बैठा है ॥७ – १०१/२॥

 

सूतजी कहते हैं – राजसभाके बीच सुरुचिके द्वारा इस प्रकार झिड़के जानेपर बालक ध्रुवकी आँखोंसे अश्रुबिन्दु झरने लगे; किंतु वह धैर्यपूर्वक कुछ भी न बोला । इधर राजा भी रानीके सौभाग्य – गौरवसे आबद्ध हो, उसका कार्य उचित था या अनुचित, कुछ भी न कह सके । जब सभासदगण बिदा हुए, तब अपनी शैशवोचित चेष्टाओंसे शोकको दबाकर वह बालक राजाको प्रणाम करके अपने घरको गया ॥११ – १३१/२॥

 

सुनीतिने अपने नीतिके खजाने बालकको देखकर उसके मुखकी कान्तिसे ही जान लिया कि ध्रुवका राजाके द्वारा अपमान किया गया है । माता सुनीतिको अन्तः पुरके एकान्त स्थानमें देखकर ध्रुव अपने दुःखके आवेगको न रोक सका । वह माताके गलेसे लगकर लम्बी साँस खींचता हुआ फूट – फूटकर रोने लगा । सुनीतिने उसे सान्त्वना देकर कोमल हाथसे उसका मुख पोंछा और साड़ीके अञ्चलसे हवा करती हुई माता अपने लालसे पूछने लगी – ‘ बेटा ! अपने रोनेका कारण बताओ । राजाके रहते हुए किसने तुम्हारा अपमान किया है ? ॥१४ – १७१/२॥

 

ध्रुव बोला – माँ ! मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ, मेरे आगे तुम ठीक – ठीक बताओ । जैसे सुरुचि राजाकी धर्मपत्नी है, वैसे ही तुम भी हो; फिर उन्हें सुरुचि ही क्यों प्यारी है ? माता, तुम उन नरेशको क्यों प्रिय नहीं हो ? सुरुचिका पुत्र उत्तम क्यों श्रेष्ठ है ? राजकुमार होनेमें तो हम दोनों एक समान हैं । फिर क्या कारण है कि मैं उत्तम नहीं हूँ ? तुम क्यों मन्दभागिनी हो और सुरुचि क्यों उत्तम कोखवाली है ? राजसिंहासन क्यों उत्तमके ही योग्य है ? मेरे योग्य क्यों नहीं है ? मेरा पुण्य तुच्छ और उत्तमका पुण्य उत्तम कैसे है ? ॥१८ – २११/२॥

 

सुनीति अपने पुत्रके इस नीतियुक्त वचनको सुनकर धीरेसे थोड़ी लम्बी साँस खींच बालकका दुःख शान्त करनेके लिये स्वभावतः मधुर वाणीमें बोलने लगी ॥२२ – २३॥

 

सुनीति बोली – तात ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो । तुमने जो कुछ पूछा है, वह सब शुद्ध हदयसे मैं निवेदन करती हूँ; तुम अपमानकी बात मनमें न लाओ । सुरुचिने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक ही है, अन्यथा नहीं है । यदि वह पटरानी है तो सभी रानियोंसे बढ़कर राजाकी प्यारी है ही । राजकुमार उत्तमने बहुत बड़े पुण्योंका संग्रह करके उस पुण्यवती रानीके उत्तम गर्भमें निवास किया था, अतः वही राजसिंहासनपर बैठनेके योग्य है । चन्द्रमाके समान निर्मल श्वेत छत्र, सुन्दर युगल चँवर, उच्च सिंहासन, मदमत्त गजराज, शीघ्रगामी तुरग, आधिव्याधियोंसे रहित जीवन, शत्रुरहित सुन्दर राज्य – ये वस्तुएँ भगवान् विष्णुकी कृपासे प्राप्त होती हैं ॥२४ – २८॥

 

सूतजी बोले – माता सुनीतिके इस उत्तम वचनको सुनकर सुनीतिकुमार ध्रुवने उन्हें उत्तर देनेके लिये बोलना आरम्भ किया ॥२९॥

 

ध्रुव बोला – जन्मदायिनी माता सुनीते ! आज मेरे शान्तिपूर्वक कहे हुए वचन सुनो ।

 

शुभे ! आजतक मैं यही समझता था कि पिता उत्तानपादसे बढ़कर और कुछ नहीं है । परंतु

 

अम्ब ! यदि अपने आश्रितजनोंकी कामना पूर्ण करनेवाला कोई और भी है तो यह जानकर आज मैं कृतार्थ हो गया ।

 

माँ ! तुम ऐसा समझो कि उन सर्वाराध्य जगदीश्वरको आराधना करके जो-जो स्थान दूसरोंके लिये दुर्लभ है, वह सब मैंने आज ही प्राप्त कर लिया ।

 

माता ! तुम्हें मेरी एक ही सहायता करनी चाहिये । केवल आज्ञा दे दो, जिससे मैं भगवान् विष्णुकी आराधना करुँ ॥३० – ३२१/२॥

 

सुनीति बोली – बेटा ! उत्तानपादनन्दन ! मैं तुम्हें आज्ञा नहीं दे सकती । मेरे बच्चे ! इस समय तुम्हारी सात-आठ वर्षकी अवस्था है । अभी तो तुम खेलने-कूदनेके योग्य हो ।

 

तात ! एकमात्र तुम्हीं मेरी संतान हो; मेरा जीवन एक तुम्हारे ही आधारपर टिका हुआ है । कितने ही कष्ट उठाकर, अनेक इष्ट देवी-देवताओंकी प्रार्थना करके मैंने तुम्हें पाया है ।

 

तात ! तुम जब-तब मेरे प्राण तुम्हारे पीछे-ही-पीछे लगे रहते हैं ॥३३ – ३५॥

 

ध्रुव बोला – माँ ! अबतक तो तुम और राजा उत्तानापाद ही मेरे माता-पिता थे; परंतु आजसे मेरे माता और पिता दोनों भगवान् विष्णु ही हैं, इसमें संदेह नहीं है ॥३६॥

 

सुनीति बोली – मेरे सुयोग्य पुत्न ! मैं भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे तुम्हें रोकती नहीं । यदि रोकूँ तो मेरी जिह्वाके सैकड़ों टुकड़े हो जायँ ॥३७॥

 

इस प्रकार आज्ञा-सी पाकर ध्रुव माताके चरणकमलोंकी परिक्रमा और उन्हें प्रणाम करके तपस्याके लिये प्रस्थित हुआ । सुनीतिने धैर्यपूर्वक सूत्रमें नील कमलकी माला गूँथकर पुत्रको उपहार दिया । मार्गमें पुत्रकी रक्षाके लिये माताने अपने शत-शत आशीर्वाद, जिनका प्रभाव शत्रु भी नहीं रोक सकते थे, उसके पीछे लगा दिये ॥३८ – ४०॥

 

[ वह बोली – ] ‘ पुत्र ! शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले दयासागर जगद्व्यापी भगवान् नारायण सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें ‘ ॥४१॥

 

सूतजी बोले – बालोचित पराक्रम करनेवाले बालक ध्रुवने अपने महलसे निकलकर अनुकूल वायुके द्वारा दिखायी हुई राह पकड़कर उपवनमें प्रवेश किया । माताको ही देवता माननेवाला और केवल राजमार्गको ही जाननेवाला वह राजकुमार वनके मार्गको नहीं जानता था, अतः एक क्षणतक आँखे बंद करके कुछ सोचने लगा ॥४२ – ४३॥

 

नगरके उपवनमें आकर बालक ध्रुव इस प्रकार चिन्ता करने लगा – ‘ क्या करुँ ? कहाँ जाऊँ ? कौन मुझे सहायता देनेवाला होगा ? ‘ ऐसा विचार करते हुए उसने ज्यों ही आँखें खोलकर देखा, त्यों ही उस उपवनमें अप्रत्याशित गतिवाले सप्तर्षि उसे दिखायी दिये । उन सूर्यतुल्य तेजस्वी सप्तर्षियोको, जो मानो भाग्यसूत्रसे ही खिंचकर ले आये गये थे, देखकर ध्रुव बहुत प्रसन्न हुआ । उनके सुन्दर ललाटमें तिलक लगे थे । उन्होंने अँगुलियोंमें कुशकी पवित्री पहन रखी थी तथा यज्ञोपवीतोंसे विभूषित होकर वे काले मृगचर्मपर बैठे हुए थे । उनके पास जाकर ध्रुवने गर्दन झुका दी, दोनों हाथ जोड़ लिये और प्रणाम करके मधुर वाणीमें उन्हें अपना अभिप्राय निवेदित किया ॥४४ – ४८॥

 

ध्रुव बोला – मुनिवरो ! आप मुझे सुनीतिके गर्भसे उत्पन्न राजा उत्तानपादका पुत्र ध्रुव जानें । इस समय मेरा चित्त जगतकी ओरसे विरक्त है ॥४९॥

 

सूतजी कहते हैं – अमूल्य नीति ही जिसका भूषण है – ऐसे मधुर और गम्भीर भाषण करनेवाले एवं स्वभावतः मनोहर आकृतिवाले उस तेजस्वी बालकको देखकर ऋषियोंने अत्यन्त विस्मित्त हो उसे अपने पास बिठाया और कहा – ‘

 

वत्स ! अभीतक तुम्हारे वैराग्य या निवेदका कारण हम नहीं जान सके । वैराग्य तो उन मनुष्योंको होता है, जिनकी मनः कामनाएँ पूर्ण नहीं हो पातीं । तुम तो सातों द्वीपोंके अधीश्वर सम्राटके पुत्र हो; तुम अपूर्णमनोरथ कैसे हो सकते हो ? हमसे तुम्हें क्या काम है ? तुम्हारी मनोवाञ्छा क्या है ‘ ॥५० – ५२१/२॥

 

ध्रुव बोला – ‘ मुनिगण ! मेरे जो उत्तमोत्तम बन्धु उत्तमकुमार हैं – उनके ही लिये पिताका दिया हुआ शुभ सिंहासन रहे । उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुनीश्वरो ! मैं आपलोगोंसे इतनी ही सहायता चाहता हूँ कि जिस स्थानका किसी दूसरे राजाने उपभोग न किया हो, जो अन्य सभी स्थानोंसे उत्कृष्ट हो और इन्द्रादि देवताओंके लिये भी दुर्लभ हो, वह स्थान मुझे किस उपायसे प्राप्त हो सकता है, यह बता दें ।’ उस समय उस बालककी ये बातें सुनकर मरीचि आदि ऋषियोंने उसे यथार्थ ही उत्तर दिया ॥५३ – ५६॥

 

मरीचि बोले – जिसने गोविन्द – चरणारविन्दोंके परागके रसका आस्वादन नहीं किया, वह मनोरथ – पथसे अतीत ( ध्यानमें भी न आ सकनेवाले ) परमोज्ज्वल फलको नहीं प्राप्त कर सकता ॥५७॥

 

अत्रि बोले – जिसने अच्युतके चरणोंकी अर्चना नहीं की है, वह पुरुष उस पदको, जो इन्द्रादि देवताओंके लिये भी दुर्लभ और मनुष्योंके लिये तो अत्यन्त दुष्प्राय है, कैसे पा सकता है ? ॥५८॥

 

अङ्गिरा बोले – जो भगवान् कमलाकान्तके कमनीय चरणकमलोंका अनुशीलन ( चिन्तन ) करता है, उसके लिये त्रिभुवनकी सारी सम्पदाओंका स्थान दूर ( दुर्लभ ) नहीं हैं ॥५९॥

 

पुलस्त्य बोले – ध्रुव ! जिनके स्मरणमात्रसे महापातकोंकी परम्परा अत्यन्त नाशको प्राप्त हो जाती है, वे भगवान् विष्णु ही सब कुछ देनेवाले हैं ॥६०॥

 

पुलह बोले – जिन्हें प्रधान ( प्रकृति ) और पुरुष ( जीव ) – से विलक्षण परमब्रह्म कहते हैं, जिनकी मायास्से समस्त प्रपञ्च रचा गया है, उन भगवान् विष्णुका यदि कीर्तन किया जाय तो वे अपने भक्तके अभीष्ट मनोरथको पूर्ण कर देते हैं ॥६१॥

 

क्रतु बोले – जो यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य हैं तथा जो जनार्दन इस समस्त जगतके अन्तरात्मा हैं, वे प्रसन्न हों तो क्या नहीं दे सकते ? ॥६२॥

 

वसिष्ठ बोले – राजकुमार ! जिनकी भौंहोंके नर्तनमात्रमें आठों सिद्धियाँ वर्तमान है, उन भगवान् हषीकेशकी आराधना करनेसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये चारों पुरुषार्थ दूर नहीं रहते ॥६३॥

 

ध्रुव बोले – द्विजवरो ! भगवान् विष्णुकी आराधनाके सम्बन्धमें आपलोगोंने जो विचार प्रकट किया, वह सत्य है । अब मुझे यह बताइये कि उन भगवानकी पूजा कैसे करनी चाहिये ? उसकी विधिका मुझे उपदेश कीजिये । जो बहुत कुछ दे सकते हैं, उनकी आराधना भी कठिन ही होगी । मैं राजकुमार हूँ और बालक हूँ; मुझसे विशेष कष्ट नहीं सहा जा सकता ॥६४ – ६५॥

 

मुनिगण बोले – खड़े होते-चलते, सोते-जागते, लेटते और बैठते हुए प्रतिक्षण भगवान् नारायणका स्मरण करना चाहिये । भगवान् वासुदेवके नामका जप करनेवाला मनुष्य पुत्र, स्त्री, मित्र, राज्य, स्वर्ग तथा मोक्ष-सब कुछ पा लेता है – इसमें संशय नहीं है । वासुदेवस्वरुप द्वादशाक्षर मन्त्र ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) – के द्वारा चार भुजाधारी भगवान् विष्णुका ध्यान और जप करके किसने सिद्धि नहीं प्राप्त कर ली ? राजकुमार ! पितामह ( ब्रह्माजी ) – ने भी इस महामन्त्रकी उपासना की थी । विष्णुभक्त मनुने भी राज्यकी कामनासे इस मन्त्रद्वारा भगवानकी आराधना की थी । सत्पुरुषशिरोमणे ! तुम भी इस मन्त्रद्वारा भगवान् वासुदेवकी आराधनामें लग जाओ । इससे बहुत शीघ्र ही अपनी मनोवाञ्छित समृद्धि प्राप्त कर लोगे ॥६६ – ७०॥

 

सूतजी कहते हैं-यों कहकर वे सभी महात्मा मुनीश्वर वहीं अन्तर्हित हो गये और ध्रुव भी भगवान् वासुदेवमें मन लगाकर तपस्याके लिये चला गया । द्वादशाक्षर मन्त्र सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाला है । ध्रुव मधुवनमें यमुनाके तटपर मुनियोंकी बतायी हुई पद्धतिसे उस मन्त्रका जप करने लगा ।

 

श्रद्धापूर्वक उस मन्त्रका जप करते हुए राजकुमार ध्रुवने तपके प्रभावसे तत्काल ही हदयमें भगवान् कमलनयनको प्रकट प्रत्यक्षवत् देखा । उनकी मन्त्रका जप करने लगा । उस समय भूख, प्यास, वर्षा, आँधी और अधिक गर्मी आदि दैहिक दुःखोंमेंसे कोई भी उसे नहीं व्यापा । उस राजकुमारका मन अनुपम आनन्द-महासागरमें गोता लगा रहा था । अतः उस समय उसे अपने शरीरकी भी सुध नहीं रह गयी थी । कहते हैं, उसकी तपस्यासे शङ्कित हुए देवताओंने कितने ही विघ्न खड़े किये; परंतु उस तीव्र तपस्वी बालकके लिये वे सभी निष्फल, ही सिद्ध हुए । शीत और धूप आदिकी ही तरह ये एकदेशीय विघ्न भी उस विष्णुस्वरुप मुनिको व्यथित नहीं कर पाते थे ॥७१ – ७५॥

 

कुछ समयके बाद भक्तजनोंके प्रियतम वरदाता भगवान् विष्णु बालक ध्रुवके ध्यान-बलसे संतुष्ट होकर पक्षिराज गरुडपर सवार हो, अपने उस भक्तको देखनेके लिये आये । मणिसमूहद्वारा निर्मित मुकुटसे मण्डित और शोभाशाली कौस्तुभरत्नसे समलंकृत, महामेघके समान श्यामकान्तिवाले वे भगवान् श्रीहरि ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो उदयाचलके प्रति डाह रखनेके कारण अपने श्रृङ्गपर बालरविको धारण किये साक्षात् कज्जलगिरि प्रकाशित हो रहा हो । निश्चल और स्नेहपूर्ण दृष्टिवाले वे भगवान् अपने दाँतोंकी किरणरुप जलके अमित प्रवाहद्वारा तपस्यामें लगे हुए राजकुमार ध्रुवके शरीरकी धूलिको धोते हुए-से उससे इस प्रकार बोले ॥७६ – ७८॥

 

वत्स ! मैं तुम्हारी तपस्या, ध्यान, इन्द्रिय-निग्रह और दुस्साध्य मनः संयमसे तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । अतः तुम्हारे मनमें जो अभीष्ट हो, वह उत्तम वर मुझझे माँग लो ‘ ॥७९॥

 

भगवानकी वह सम्पूर्ण गम्भीर वाणी सुनते ही ध्रुवने सहसा आँखें खोल दीं । उस समय उन्हीं चतुर्भुज ब्रह्मको, जिनका वह अपने हदयमें चिन्तन कर रहा था, उसने सामने मूर्तिमान् होकर खड़ा देखा ॥८०॥

उन परम पूजनीय त्रिभुवनपतिको सहसा सामने देख वह राजकुमार सकपका गया और ‘ मैं यहाँ इनसे क्या कहूँ ? क्या करुँ ?’ इत्यादि बातें सोचता हुआ क्षणभर न तो कुछ बोला और न कुछ कर ही सका । उसके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भरे थे, शरीरके रोएँ खड़े हो गये थे । वह भगवानके सामने उच्चस्वरसे ‘ हे त्रिभुवननाथ !’ यों कहता हुआ दण्डवत्-प्रणाम करनेके लिये पृथ्वीपर पड़ गया । उस समय उसकी भौंहे काँप रही थीं । दण्डकी भाँति प्रणाम करके जगदगुरु भगवानकी ओर एकटक दृष्टि लगाये वह आनन्दतिरेकसे चारों ओर लोट-पोट होकर देरतक रोता रहा । नारद, सनन्दन, सनक और सनत्कुमार आदि तथा अन्य योगी जिन योगीश्वरका श्रवण-कीर्तन एवं स्तवन किया करते हैं और जिनके नेत्र करुणाके आँसुओंसे भीगे हुए थे, उन्हीं कमललोचन भगवानको आज ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक्रधर भगवानने आज ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक धर भगवानने अपने ध्रुवने प्रत्यक्ष देखा । उस समय चक्रधर भगवानने अपसे हाथसे पकड़कर ध्रुवको उठा लिया । इतना ही नहीं, उन्होंने अपने दोनों कोमल हाथोंसे उसके धूलिधूसरित शरीरको सब ओरसे पोंछा और उसे हदयसे लगाकर कहा ॥८१ – ८६॥

 

बच्चा ! तुम्हारे मनमें जो भी इच्छा है, उसके अनुसार वर माँग लो । मैं निस्संदेह वह सब तुम्हें दे दूँगा । तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु अदेय नहीं हैं ‘ ॥८७॥

 

तब राजकुमारने भगवान् विष्णुसे यही वर माँगा कि ‘ मुझे आपकी स्तुति करनेकी शक्ति प्राप्त हो ।’ यह सुनकर भगवानने मूर्तिमान् विज्ञानके समान निर्मल शङ्खसे ध्रुवके मुखको छुआ दिया । मरीचि आदि देवर्षियोंके दिये हुए ज्ञानरुपी चन्द्रमाकी किरणोंसे क्षालित होकर ध्रुवका चित्त पूर्णतया निर्मल हो गया था । फिर त्रिभुवनगुरु भगवानके शङ्ख-स्पर्शसे उसके अन्तः करणमें ज्ञानरुपी सूर्यका उदय हो जानेपर उसमें पूर्ण प्रकाश हो गया । इससे वह आनन्दित होकर भगवानकी सुन्दर स्तुति करने लगा ॥८८ – ८९॥

 

ध्रुव बोला – समस्त मुनिगण जिनके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, जो खर राक्षस अथवा गर्दभरुपधारी धेनुकासुरका संहार करनेवाले हैं, जिनकी बाललीलाएँ चपलतासे पूर्ण हैं, देवगण जिनके चरणोदक ( गङ्गाजी ) – की आराधना करते हैं, सजल मेघके समान जिनका श्याम वर्ण है, सौभ विमानके अधिपति शाल्वके धाम ( तेज ) – को जिन्होंने सदाके लिये शान्त कर दिया है, जिन्होंने सुन्दर गोपवनिताओंके अत्यन्त विनयवश नूतन प्रेमरसमय रासलीलाको प्रकट किया और उससे मोहित होनेवाली देववनिताओंके अन्तः करणमें भी आनन्दका संचार किया, जिनका आदि और अन्त नहीं है, जिन्होंने अपने निर्धन मित्र सुदामा नामक ब्राह्मणका धीरतापूर्वक दैन्यदुःखसे उद्धार किया, देवराज इन्द्रकी प्रार्थनासे जिन्होंसे उनके शत्रुपक्षको पराजित किया, ऋक्षराज जाम्बवानकी गुहामें प्रवेश करके खोयी हुई स्यमन्तक मणिको लाकर जिन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलङ्करुप दुरितको दूर करके त्रिभुवनका भार हल्का किया है, जो द्वारकापुरीमें नित्य निवास करते हैं, जो अपनी मधुर मु ली बजाकर श्रुतिमधुर अतीन्द्रिय – ज्ञानको प्रकट करते तथा यमुनातटपर विचरते हैं, जिनके वंशीनादको सुननेके लिये पक्षी, गौ और भृङ्गण अपना – अपना आहार त्याग देते हैं, जिनके चरणकमल दुस्तर संसार – सागरसे पार करनेके लिये जहाजरुप हैं, जिन्होंने अपनी प्रतापाग्रिमें कालयवनको होम दिया है, जो वनमालाधारी हैं, जिनके श्रवण सुन्दर मणिमय कुण्डलोंसे अलंकृत हैं, जिनके अनेक प्रसिद्ध नाम हैं, जो वेदवाणी तथा देवता और मुनियोंके भी मन – वाणीके अगोचर हैं, जो भगवान् सुवर्णके समान पीत रेशमी वस्त्र धारण करते हैं, जिनका वक्षः स्थल भृगुजीके चरण – चिह्न तथा कौस्तुभमणिसे अलंकृत है, जो अपने प्रिय भक्त अक्रूर, माता देवकी और गोकुलके पालक हैं तथा जो अपनी चारों भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये नूतन तुलसीदलकी माला, मुक्ताहार, केयूर, कड़ा और मुकुट आदिसे विभूषित हैं, सुनन्दन आदि भगवद्भक्त जिन विश्वरुप हरिकी उपासना करते हैं, जो पुराण – पुरुषोत्तम हैं, पुण्ययशवाले हैं तथा समस्त लोकोंके आवास – स्थान वासुदेव हैं, जो देवकीके उदरसे प्रकट हुए हैं, भूतनाथ शिव तथा तथा ब्रह्मजीने जिनके चरणारविन्दोंपर मस्तक झुकाया है, जो वृन्दावनमें की गयी लीलासे थकी हुई गोपियोंके श्रमको दूर करनेवाले हैं, सज्रनोंके मनोरथोंको जो सर्वदा पूर्ण किया करते हैं, ऐसी महिमावाले हे सर्वेश्वर ! जो कुन्दके समान उज्ज्वल शङ्ख धारण करते हैं, जिसका चन्द्रमाके समान सुन्दर मुख हैं, सुन्दर नेत्र हैं तथा अत्यन्त मनोहर मुसकान है, ऐसे अत्यन्त हदयहारी आपके इस रुपको, जो ज्ञानियोंद्वारा वन्दित है, मैं प्रणाम करता हूँ ।

 

मैं उत्तम स्थान प्राप्त करनेकी इच्छासे तपस्यामें प्रवृत्त हुआ और बड़े-बड़े मुनीश्वरोंके लिये भी जिनका दर्शन पाना असम्भव है, उन्हीं आप परमेश्वरका दर्शन पा गया ठीक उसी तरह, जैसे काँचकी खोज करनेवाला कोई मनुष्य भाग्यवश दिव्य रत्न हस्तगत कर ले ।

स्वामिन् ! मैं कृतार्थ हो गया, अब मैं कोई वर नहीं माँगता । हे नाथ ! जिनका दर्शन अपूर्व है-पहले कभी उपलब्ध नहीं हुआ है, उन आपके चरणकमलोंका दर्शन पाकर अब मैं इन्हें छोड़ नहीं सकता । मैं अब भोगोंकी याचना नहीं करुँगा; ऐसा कोई मूर्ख ही होगा, जो कल्पवृक्षसे केवल भूसी पाना चाहेगा ? देव ! आज मैं मोक्षके कारणभूत आप परमेश्वरकी शरणमें आ पड़ा हूँ, अब बाह्य विषय-सुखोंको मैं नहीं भोग सकता । जब रत्नोंकी खान समुद्र अपना मालिक हो जाय, तब काँचका भूषण पहनना कभी उचित नहीं हो सकता । अतः ईश ! अब मैं दूसरा कोई वर नहीं माँगता;आपके चरण-कमलोंमें मेरी सदा भक्ति बनी रहे, देववर ! मुझे यही वर दीजिये । मैं बारंबार आपसे यही प्रार्थना करता हूँ ॥९० – ९३॥

 

श्रीसूतजी कहते हैं – इस प्रकार अपने दर्शनमात्रसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करके स्तुति करते हुए धुव्रको देखकर भगवानने उससे कहा ॥९४॥

 

श्रीभगवान् बोले – ‘ध्रुवने विष्णुकी आराधना करके क्या पा लिया ? ‘ तरह तरहका अपवाद लोगोंमें न फैल जाय । इसके लिये तुम अपने अभीष्ट सर्वोत्तम स्थानको ग्रहण करो, पुनः समय आनेपर शुद्धभाव हो तुम मुझे प्राप्त कर लोगे । मेरे प्रसादसे समस्त ग्रहोंके आधारभूत, कल्पवृक्ष और सब लोगोंके वन्दनीय होकर तुम और तुम्हारी माता आर्या सुनीति मेरे निकट निवास करोगे ॥९५ – ९६॥

 

श्रीसूतजी कहते हैं – इस प्रकार प्रत्यक्ष प्रकट हो, उपर्युक्त वरदानोंसे ध्रुवका मनोरथ पूर्ण करके, भगवान् मुकुन्द धीरेसे अपना वह दिव्य रुप छिपा, बारंबार घूमकर उस भक्तकी ओर देखते हुए अपने वैकुण्ठधामको चले गये । इसी बीचमें देवताओंका समुदाय भगवान् विष्णु और उनके भक्तके उस अविनाशी ध्रुवका स्तवन भी करने लगा । सुनीतिकुमार ध्रुव आज श्री और सम्मान – दोनोंसे सम्पन्न होकर देवताओंका भी वन्दनीय हो, शोभा पा रहा है । यह अपने दर्शन तथा गुणकीर्तनसे मनुष्योंकी आयु, यश तथा लक्ष्मीकी भी वृद्धि करता रहेगा ॥९७ – ९९॥

 

इस प्रकार ध्रुव भगवान् विष्णुके प्रसादसे दुर्लभ पद पा गया-यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं । उन गरुडवाहन भगवानके प्रसन्न हो जानेपर भक्तोंके लिये कुछ भी दुर्लभ नहीं रह जाता ।

 

सूर्यमण्डलका जितना मान है, उससे दूना चन्द्रमण्डलका मान है । चन्द्रमण्डलसे पूरे दो लाख योजन दूर ऊपर नक्षत्रमण्डल है, नक्षत्रमण्डलसे भी दो लाख योजन ऊँचे बुधका स्थान है और बुधके भी स्थानसे उतनी हई दूरीपर शुक्रकी स्थिति है । शुक्रसे भी दो लाख योजन दूर मङ्गल है और मङ्गलसे दो लाख योजनपर देवपुरोहित बृहस्पतिका निवास है । बृहस्पतिसे भी दो लाख योजन ऊपर सप्तर्षियोंका मण्डल है । सप्तर्षि – मण्डलसे एक लाख योजन ऊपर ध्रुव स्थित है । साधुशिरोमणे ! वह समस्त ज्योतिर्मण्डलका केन्द्र है ॥१०० – १०५॥

 

विप्रवर ! सूर्यदेव स्वभावतः अपनी किरणोंद्वारा नीचे तथा ऊपरके लोकोंमें ताप पहुँचाते हैं । वे ही प्रत्येक युगमें त्रिभुवनकी कालसंख्या निश्चित करते हैं ।

 

द्विजोत्तम ! मुनिश्रेष्ठ ! ब्रह्माजीके द्वारा विष्णुभक्तीसे अभ्युदयको प्राप्त होकर सूर्य अपनी ऊर्ध्वगत किरणोंसे ऊपरके जन, तप तथा सत्य लोकोंमें गर्मी पहुँचाते हैं और अधोगत किरणोंसे भूलोकको प्रकाशित करते हैं ॥१०६ – १०८॥

 

समस्त पापोंको हरनेवाले सूर्यदेव त्रिभुवनकी सृष्टि करते हैं । वे छत्रकी भाँति स्थित हो एक मण्डलसे दूसरे मण्डलको दर्शन देते और प्रकाशित करते हैं । सूर्यमण्डलके नीचे भुवलोंक प्रतिष्ठित है । तीनों भुवनोंका आधिपत्य भगवान् विष्णुने शतक्रतु इन्द्रको दे रखा है । वे समस्त लोकपालोंके साथ धर्मपूर्वक लोकोंकी रक्षा करते हैं ।

 

महाभाग ! वे यशस्वी देवेन्द्र स्वर्गलोकमें निवास करते हैं ।

 

मुने ! इन सात लोकोंसे नीचे यह प्रभापूर्ण पाताल लोक स्थित है, ऐसा आप जानें । वहाँ न सूर्यका ताप है, न चन्द्रमाका प्रकाश, [ न दिन है ] न रात ।

 

द्विजश्रेष्ठ ! पातालवासी जन दिव्यरुप धारण करके सदा अपने तेजसे प्रकाशित होते हुए तपते हैं । स्वर्गलोकसे करोड़ योजन ऊपर महर्लोक स्थित है ।

 

हे विप्र ! उससे दूने दो करोड़ योजनपर मुनिसेवित जनलोक, जो पाँचवाँ लोक है, स्थित है । उससे चार करोड़ योजन ऊपर तपोलोककी स्थिति है । उससे चार करोड़ योजन ऊपर तपोलोककी स्थिति है । तपोलोकसे ऊपर आठ करोड़ योजनपर सत्यलोक ( ब्रह्मलोक ) स्थित है । ये सभी भुवन एक – दूसरेके ऊपर छत्रकी भाँति स्थित हैं । ब्रह्मलोकसे सोलह करोड़ योजनपर विष्णुलोककी स्थिति है ।

 

लोकचिन्तकोंने वाराहपुराणमें उसके माहात्म्यका वर्णन किया है ।

 

द्विजश्रेष्ठ ! इसके आगे परम पुरुषकी स्थिति है, जो ब्रह्माण्डसे विलक्षण साक्षात् परमात्मा है ।

 

इस प्रकार जाननेवाला मनुष्य तप और ज्ञानसे युक्त होकर पशुपाश ( अविद्या – बन्धन ) – से मुक्त हो जाता है ॥१०९ – ११८१/२॥

 

अनघ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें भूगोलकी स्थिति बतलायी । जो पुरुष सम्यक् प्रकारसे इसका ज्ञान रखता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है । मनुष्यों और देवताओंसे पूजित नृसिंहस्वरुप अप्रमेय भगवान् विष्णु लोककी रक्षा करनेवाले हैं । वे अनादि मूर्तिमान् परमेश्वर प्रत्येक युगमें शरीर धरणकर दृष्टोंका वध करके विश्वका पालन करते हैं ॥११९ – १२०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३१॥

अध्याय - ३२ सहस्त्रानीक-चरित्र; श्रीनृसिंह-पूजनका माहात्म्य

भरद्वाजजी बोले-सूतजी! अब मैं सहस्त्रानीकका चरित्र और भगवान् विष्णुके अवतारोंकी कथा सुनना चाहता हूँ; महामते! कृपा करके वह मुझसे कहिये॥१॥

 

सूतजीने कहा-ब्रह्मन् ! बहुत अच्छा, अब मैं बुद्धिमान् सहस्रानीकके चरित्रका और भगवान्के अवतारोंका वर्णन करूँगा, सुनिये॥२॥

 

राजकुमार सहस्रानीकको जब उत्तम ब्राह्मणोंने उसके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया, तब वे धर्मपूर्वक राज्यका पालन करने लगे। राज्यके पालनमें लगे हुए बुद्धिमान राजकुमारकी देवेश्वर, देवश्रेष्ठ भगवान् नृसिंहमें भक्ति हो गयी। पूर्वकालमें एक बार उन विष्णुभक्त नरेशका दर्शन करनेके लिये स्वयं भृगुजी आये। राजाने अर्घ्य, पाद्य और आसनादिके द्वारा भृगुजीका सम्मान करके उनसे यह कहा-‘मुनिष्ठ! इस समय मैं आपके दर्शनसे पवित्र हो गया। जिन्होंने पुण्य नहीं किया है, ऐसे मनुष्योंके लिये इस कलियुगमें आपका दर्शन परम दुर्लभ है। मैं सनातन देवदेव नरसिंहकी स्थापना करके उनकी आराधना करना चाहता हूँ, आप कृपया मुझे इसका विधान बतायें। तथा मैं देवदेव श्रीहरिके सम्पूर्ण अवतारोंको भी सुनना चाहता हूं: अतः आप उन सभी पुण्यावतारोंकी कथा मुझसे कहिये’॥३-८॥

 

भृगुजी बोले-राजकुमार! सुनो; इस कलियुगमें कोई भी भगवान् नृसिंहके प्रति अत्यन्त भक्तिभाव रखकर उनकी आराधना नहीं कर रहा है। देववर भगवान् नृसिंहमें जिसकी स्वभावतः भक्ति हो जाती है, उसके सारे शत्रु नष्ट हो जाते हैं और उसे प्रत्येक कार्यमें सिद्धि प्राप्त होती है। इस पाण्डुवंशमें तुम ही श्रेष्ठ पुरुष और भगवान्के अत्यन्त भक्त हो; अत: तुमसे मैं तुम्हारी पूछी हुई सब बातें बताऊंगा; एकाग्रचित्त होकर सुनो॥९-११॥

 

जो भक्तिपूर्वक नृसिंहदेवका सुन्दर मन्दिर निर्माण कराता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर भगवान् विष्णुके लोकमें स्थान पाता है। जो भगवान् नृसिंहको सुन्दर लक्षणोंसे युक्त प्रतिमा बनवाता है, वह सब पापोंसे छुटकारा पाकर विष्णुलोकको जाता है।

नरश्रेष्ठ! जो निष्कामभावसे नृसिंहदेवको विधिवत् प्रतिष्ठा करता है, वह दैहिक दुःखोंसे मुक्त हो जाता है। जो भगवान् नृसिंहको स्थापना करके सदा उनको पूजा करता है, उसके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं तथा वह परम पदको प्राप्त कर लेता है। ब्रह्मादि सभी देवता पूर्वकालमें भगवान् विष्णुकी आराधना करके उनके प्रसादसे अपनेअपने लोकको प्राप्त हुए थे। राजन् ! मांधाता आदि जोजो प्रधान नरेश हो गये हैं, वे सभी भगवान् विष्णुको आराधना करके यहाँसे स्वर्गलोकको चले गये। जो सुरेश्वर नृसिंहका प्रतिदिन पूजन करता है, वह स्वर्ग और मोक्षका भागी होता है-इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। इसलिये तुम भी प्रतिज्ञापूर्वक एकचित होकर जीवनपर्यन्त भगवान् नृसिंहकी पूजा करते हुए अपना मनोरथ प्राप्त करोगे। नूप! जो भगवान् जनार्दनकी प्रतिमा बनवाकर विधिवत् उसकी स्थापना करता है, उसका विष्णुलोकसे कभी निष्क्रमण नहीं होता। यदि मनुष्य उन अनन्त विक्रमशाली भगवान् नरसिंहकी, जिनके चरण-कमलोंकी देवता तथा असुर, दोनों ही पूजा करते हैं, विधिवत् स्थापना करके भक्तिपूर्वक पूजा करे तो वह साक्षात् परमेश्वर भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है।१२-२१॥

अध्याय - ३३ भगवान्के मन्दिरमें झाड़ देने और उसको लीपनेका महान् फल-राजा जयध्वजकी कथा

राजा बोले – भगवन् ! मैं आपके प्रसादसे भगवानके पूजनकी पावन विधिको विशेषरुपसे यथावत् सुनना चाहता हूँ; कृपया आप मुझे विस्तारसे बतायें । भगवान् नृसिंहके मन्दिरमें जो झाडू देता है वह, तथा जो उसे लीपता-पोतता है, ह पुरुष किस पुण्यको प्राप्त करता है ? केशवको शुद्ध जलसे स्नान करानेपर कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है तथा दूध, दही, मधु, घी एवं पञ्चगव्यद्वारा स्नान करानेसे क्या पुण्य होता है ? भगवानकी प्रतिमाको गर्म जलसे भक्तिपूर्वक स्नान करानेपर तथा कर्पूर और अगुरु मिले हुए जलसे स्नान करानेपर कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है ? भगवानको अर्घ्य देनेसे, पाद्य और आचमन अर्पण करनेसे, मन्त्रोच्चारपूर्वक नहलानेसे और वस्त्र-दान करनेसे क्या पुण्य होता है ? ॥१ – ५॥

 

चन्दन और केसरद्वारा पूजा करनेपर तथा फूलोंसे पूजा करनेपर क्या फल होता है ? तथा धूप और दीप देनेका क्या फल है ? नैवेद्य निवेदन करनेका और प्रदक्षिणा करनेका क्या फल है ? इसी प्रकार नमस्कार करनेसे एवं स्तुति और यशोगान करनेसे कौन-सा फल प्राप्त होता है ? भगवान् विष्णुके लिये पंखा दान करने, चँवर प्रदान करने, ध्वजाका दान करने और शङ्ख-दान करनेसे क्या फल होता है ?

 

ब्रह्मन् ! मैंने जो कुछ पूछा है, वह तथा अज्ञानवश मैंने जो नहीं पूछा है, वह सब भी मुझझे कहिये; क्योंकि भगवान् केशवके प्रति मेरी हार्दिक भक्ति है ॥६ – ९॥

 

सूतजी बोले – राजाके इस प्रकार पूछनेपर वे ब्रह्मर्षि भृगु मुनि मार्कण्डेयजीको उत्तर देनेके लिये नियुक्त करके स्वयं चले गये । भृगुजीकी प्रेरणासे मुनिवर मार्कण्डेयजीने राजापर उनकी हरिभक्तिसे विशेष प्रसन्न होकर उनके प्रति इस प्रकार कहना आरम्भ किया ॥१० – ११॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – पाण्डुकुलन्दन राजकुमार ! भगवान् विष्णुकी इस पूजा-विधिको क्रमशः सुनो; तुम विष्णुके भक्त हो, अतः मैं तुम्हें यह सब बताऊँगा । जो भगवान् नरसिंहके मन्दिरमें नित्य झाडू लगाता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें आनन्दित होता है । जो गोबर, मिट्टी तथा जलसे वहाँकी भूमि लीपता है, वह अक्षय फल प्राप्त करके विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।

 

सत्तम ! इस विषयमें एक प्राचीन सत्य इतिहास है, जिसे सुनकर सब पापोंसे मुक्ति मिल जाती है ॥१२ – १५॥

 

राजेन्द्र ! पूर्वकालमें राजा युधिष्ठिर द्रौपदी तथा अपने पाँच भाइयोंके साथ वनमें विचरते थे । घूमते-घूमते वे पाँचों पाण्डव शूल और कण्टकमय मार्गको पार करके एक उत्तम तीर्थकी ओर प्रस्थित हुए । उसके पहले भगवान् नारदजी भी उस उत्तम तीर्थका सेवन करके स्वर्गलोकको लौट गये थे । क्रोध और पिशुनतासे रहित धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर उस उत्तम तीर्थकी ओर प्रस्थान करके तीर्थधर्मका उपदेश करनेवाले किसी मुनिवरके दर्शनकी बात सोच रहे थे, इसी बीचमें बहुरोमा तथा स्थूलशिरा नामक दानव वहाँ आये ।

 

भूपाल ! पाण्डवोंको जाते देख द्रौपदीका अपहरण करनेकी इच्छासे बहुरोमा नामक दानव मुनिका रुप धारण करके वहाँ आया । वह कुशके आसनपर बैठकर ध्यानमग्न हो गया । उसके पार्श्वमें कमण्डलु था और हाथमें उसने कुशकी पवित्री पहन रखी थी । वह नासिकाके अग्रभागका अवलोकन करता हुआ रुद्राक्षकी मालासे मन्त्र-जप कर रहा था । नर्मदा-तटवर्ती वनमें भ्रमण करते हुए पाण्डवोंने वहाँ उसे देखा ॥१६ – २२॥

 

तदनन्तर उसे देखकर राजा युधिष्ठिरने भाइयोंसहित प्रणाम करके उससे यह बात कही – महामुने ! भाग्यसे आप यहाँ विद्यमान हैं । इस रुद्रदेहा ( रेवा ) – के समीपवर्ती परम गोपनीय तीर्थोंको हमें बताइये

 

नाथ ! हमने सुना है कि मुनियोंका दर्शन धर्मका उपदेश करनेवाला होता है ॥२३ – २४॥

 

धर्मपुत्र युधिष्ठिर जबतक उस मायावी मुनिसे बात कर ही रहे थे, तबतक ही स्थूलशिरा नामक दूसरा दानव मुनिरुप धारण किये वहाँ आ पहुँचा । वह बड़े ही आतुरभावसे इस प्रकार पुकार रहा था – अहो ! यहाँ कौन हमारी रक्षा करेगा, उसके पुण्यफलका तो कहना ही क्या है । एक ओर मेरुपर्वतकी दक्षिणापूर्वक सम्पूर्ण पृथिवीका दान और दूसरी ओर पीड़ित प्राणियोंके प्राण – संकटका निवारण – दोनों बराबर हैं । जो पुरुष दुष्टोंद्वारा सताये जाते हुए ब्राह्मण, गौ, स्त्री और बालकोंकी उपेक्षा करता है, वह रौरव नरकमें पड़ता है । मेरा सर्वस्व लूट लिया गया है । मैं दानवोंसे अपमानित होकर प्राण त्याग देनेको उद्यत हूँ । इस समय कौन ऐसा वीर पुरुष है, जो मेरी रक्षा कर सके ? दुष्ट दानवने मेरी स्फटिककी माला, सुन्दर कमण्डलु और मनोहर खाट छीनकर मुझे थप्पड़से मारा है और सर्वस्व लूट लिया है ॥२५ – ३१॥

 

इस प्रकारके कातर वचन सुनकर पाण्डव हड़बड़ा गये । वे रोमाञ्चित हो, आग जलाकर उस मुनिके पीछे चले । द्रौपदीको उन लोगोंने पहलेवाले महात्मा मुनिके पास ही छोड़ दिया और स्वयं रोषसे भरकर वहाँसे बहुत दूर निकल गये ॥३२ – ३३॥

 

तदनन्तर युधिष्ठिरने कहा – हमें तो यहाँ कुछ भी दिखायी नहीं देता । अर्जुन ! तुम द्रौपदीकी रक्षाके लिये यहाँसे लौट जाओ । तब भाईके वचनमे प्रेरित होकर अर्जुन वहाँसे चल दिये ।

 

राजन् ! फिर राजा युधिष्ठिरने उस गहन वनके भीतर सूर्यमण्डलकी ओर देखकर यह सत्य वचन कहा – मेरी सत्यवादिता, पुण्यकर्म तथा धर्मपूर्वक भाषण करनेसे संतुष्ट होकर देवगण संशयमें पड़े हुए मुझको सत्य बात बतला दें ॥३४ – ३६१/२॥

 

राजन् ! युधिष्ठिरके यों कहनेपर आकाशमें इस प्रकारका शब्द हुआ, यद्यपि वहाँ बोलनेवाला कोई व्यक्ति नहीं था – महाराज ! यह ( जो आपके पास खड़ा है, वह मुनि नहीं ) दानव हैं । स्थूलशिरा नामक मुनि तो सुखपूर्वक हैं, उनपर किसीके द्वारा कोई उपद्रव नहीं है । यह तो इस दुष्टकी माया है ॥३७ – ३८॥

 

तब भीमने अत्यन्त क्रोधसे युक्त हो उस भागते हुए दानवके मस्तकपर बड़े वेगसे मुष्टिप्रहार किया । फिर तो दानवने भी अपना रौद्ररुप धारण किया और भीमको मुक्का मारा । इस प्रकार भीम और दानवमें वहाँ दारुण संग्राम छिड़ गया । भीमने उस वनमें बड़े कष्टसे उसके स्थूल मस्तकका छेदन किया ॥३९ – ४०१/२॥

 

इधर अर्जुन भी जब मुनिके आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें न तो वह मुनि दिखायी दिया और न प्राणप्रिया साध्वी भार्या द्रौपदी ही दीख पड़ी । तब अर्जुनने वृक्षपर चढ़कर ज्यों ही इधर-उधर दृष्टि डाली, त्यों ही देखा कि एक दानव द्रौपदीको अपने कंधेपर बिठाकर बड़ी शीघ्रतासे भागा जा रहा है और उस दुष्टके द्वारा हरी गयी द्रौपदी कुररीकी भाँति ‘ हा धर्मपुत्र ! हा भीम ! ‘ इत्यादि रटती हुई विलाप कर रही है । द्रौपदीको उस अवस्थामें देखकर वीर अर्जुन अपनी आवाजसे दिशाओंको गुँजाते हुए चले । उस समय उनके बड़े वेगसे पैर रखनेके कारण अनेकानेक वृक्ष गिर गये । तब वह दैत्य भी उस तन्वङ्गीको छोड़कर अकेला ही वेगसे भागा; तथापि अर्जुनने क्रोधके कारण उस असुरका पीछा न छोड़ा । भागते-भागते वह दानव एक जगह पृथ्वीपर गिर पड़ा और गिरते ही चार भुजाओंसे युक्त हो, शङ्ख तथा चक्र आदि धारण किये पीताम्बरधरी विष्णुके रुपमें दीख पड़ा । तब कुन्तीनन्दन अर्जुन बड़े ही विस्मित हुए और प्रणाम करके बोले ॥४१ – ४७॥

 

अर्जुनने कहा – भगवन् ! आपने यहाँ वैष्णवी माया क्यों फैला रखी थी ? मैंने भी जो आपका अपकार किया है, उसके लिये हे नाथ ! मेरे अपराधकी क्षमा करें; आपको नमस्कार है । हे जगन्नाथ ! अज्ञानके कारण ही मैंने यह दारुण कर्म किया है; इसलिये इसे क्षमा कर दें । भला, एक साधारण मनुष्यमें इतनी समझ कहाँ हो सकती है, जिससे आपको अन्य वेषमें भी पहचान ले ॥४८ – ४९॥

 

चतुर्भुज बोला – महाबाहो ! मैं विष्णु नहीं, बहुरोमा नामक दानव हूँ । मैंने अपने पूर्वकर्मके प्रभावसे भगवान् विष्णुका सारुप्य प्राप्त किया है ॥५०॥

 

अर्जुन बोले – बहुरोमन् ! तुम अपने पूर्वजन्म और कर्मका ठीक-ठीक वर्णन करो । तुमने किस कर्मके परिणामसे विष्णुका सारुप्य प्राप्त किया है ? ॥५१॥

 

चतुर्भुज बोला – महाभाग अर्जुन ! आप अपने भाइयोंके साथ मेरे अत्यन्त विचित्र चरित्रको सुनिये; यह श्रोताओंके आनन्दको बढ़ानेवाला है । मैं पूर्वजन्ममें चन्द्रवंशमें उत्पन्न जयध्वज नामसे भजनमें लगा रहता और उनके मन्दिरमें झाडू लगाया करता था । प्रतिदिन उस मन्दिरको लीपता और ( रात्रिमें ) वहाँ दीप जलाया करथा था । उन दिनों वीतिहोत्र नामक एक साधु ब्राह्मण मेरे यहाँ पुरोहित थे । प्रभो ! वे मेरे इस कार्यको देखकर बहुत विस्मित हुए ॥५२ – ५५॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – एक दिन वेद-वेदाङ्गोंके पूर्ण विद्वान् पुरोहित वीतिहोत्रजीने बैठे हुए उन विष्णुभक्त राजासे इस प्रकार प्रश्न किया-

 

परम धर्मज्ञ भूपाल ! हरिभक्तिपरायण नरश्रेष्ठ ! आप विष्णुभक्त पुरुषोमें सबसे श्रेष्ठ हैं; क्योंकि आप भगवानके मन्दिरमें प्रतिदिन झाडू तथा लेप दिया करते हैं । अतः महाभाग ! आप मुझे बताइये कि भगवानके मन्दिरमें झाडू देने और वहाँ लीपने-पोतनेका कौन-सा उत्तम फल आप जानते हैं । यद्यपि भगवानको अत्यन्त प्रिय लगनेवाले अन्य कर्म भी हैं ही, तथापि महाभाग ! आप इन्हीं दो कर्मोंमें सदा सर्वथा लगे रहते हैं । नरेश ! यदि आपको इनसे होनेवाला महान् पुण्यरुप फल ज्ञात हो और वह छिपानेयोग्य न हो तथा यदि आपका मुझपर प्रेम हो तो अवश्य ही उस फलको मुझे बताइये ॥५६ – ६०॥

 

जयध्वज बोले – विप्रवर ! इस विषयमें आप मेरा ही पूर्वजन्मका चरित्र सुनें । मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण है, इसीसे मैं सब जानता हूँ । मेरा चरित्र श्रोताओंको आश्चर्यमें डालनेवाला है । विप्रेन्द ! पूर्वजन्ममें मैं रैवत नामका ब्राह्मण था । जिनको यज्ञ करनेका अधिकार नहीं हैं, उनसे भी मैं सदा ही यज्ञ कराता था और अनेकों गाँवोंका पुरोहित था । इतना ही नहीं, मैं दूसरोंकी चुगली खानेवाला, निर्दय और नहीं बेचने योग्य वस्तुओंका विक्रय करनेवाला था । निषिद्ध कर्मोंका आचरण करनेके कारण मेरे बान्धवोंने मुझे त्याग दिया था । मैं महान् पापी और सदा ही ब्राह्मणोंसे द्वेष रखनेवाला था । परायी स्त्री और पराये धनका लोभी था, प्राणियोंकी हिंसा किया करता था । सदा ही मद्य पीता और ब्राह्मणोसे द्वेष रखता था । इस प्रकार मैं प्रतिदिन पापमें लगा रहता और बहुधा लूटपाट भी करता था ॥६१ – ६५१/२॥

 

एक दिन रातमें स्वेच्छाचारिताके कारण मैं कुछ ब्राह्मण-पत्नियोंको पकड़कर एक सूने ठाकुर-मन्दिरमें ले गया । उस मन्दिरमें कभी पूजा नहीं होती थी । [ यों ही खण्डहर – सा पड़ा रहता था । ] वहाँ स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी इच्छासे मैंने अपने वस्त्रके किनारेसे उस मन्दिरका कुछ भाग बुहारकर साफ किया और हे द्विजोत्तम ! [ प्रकाशके लिये ] दीप जलाकर रख दिया । [ यद्यपि मैंने अपनी पाप – वासना पूर्ण करनेके लिये ही मन्दिरमें झाडू लगायी और दीप जलाया था, तथापि ] उससे भी मेरा सारा पापकर्म नष्ट हो गया ।

 

ब्राह्मण ! इस प्रकार जब मैं उस विष्णुमन्दिरमें भोगकी इच्छासे ठहरा हुआ था, उसी समय वहाँ दीपक देखकर नगरके रक्षक आ पहुँचे और यह कहकर कि ‘ यह किसी शत्रुका दूत है, यहाँ चोरी करने आया है, ‘ उन्होंने मुझे पृथ्वीपर गिरा दिया तथा तीखी धारवाली तलवारसे मेरा मस्तक काटकर वे चले गये । तब मैं भगवानके पार्षदोंसे युक्त दिव्य विमानपर आरुढ़ हो, गन्धर्वोद्वारा अपना यशोगान सुनता हुआ स्वर्गलोकको चला गया ॥६६ – ७१॥

 

चतुर्भुज बोला – इस प्रकार मैंने दिव्यरुप धारणकर, दिव्य भोगोंसे सम्पन्न होकर स्वर्गलोकमें सौ कल्पोंसे भी अधिक कालतक निवास किया । फिर उसी पुण्यके भोगसे चन्द्रवंशमें उत्पन्न जयध्वज नामसे विख्यात कमलके समान नेत्रोंवाला राजा हुआ । उस जन्ममें भी कालवश मृत्युको प्राप्त होनेपर मैं स्वर्गलोकमें आया । फिर यहाँसे रुद्रलोकको प्राप्त हुआ । एक बार रुद्रलोकसे ब्रह्मलोकको जाते समय मैंने नारदमुनिको देखा, परंतु देखनेपर भी उन्हें प्रणाम नहीं किया और उनकी हँसी उड़ाने लगा । इससे कुपित होकर उन्होंने शाप दिया – ‘ राजन् ! तू राक्षस हो जा ।’ उन ब्राह्मणके दिये हुए इस शापको सुनकर मैंने क्षमा माँगकर ( किसी तरह ) उन्हें प्रसन्न किया । तब मुनिने मुझपर शापानुग्रहके रुपमें कृपा की । [ उन्होंने कहा – ]

 

राजन् ! जिस समय बुद्धिमान् धर्मपुत्र युधिष्ठिरकी भार्याका हरण करके तुम रेवा-तटवर्ती मठमें चले जाओंगे, उस समय तुम्हें शापसे मुक्ति मिल जायगी ।’ भूपाल ! धर्मपुत्र युधिष्ठिर ! अर्जुन ! मैं वही राजा जयध्वज हूँ । इस समय भगवान् विष्णुके सारुप्यको प्राप्त हुआ हूँ । अब मैं निश्चय ही वैकुण्ठधामको जाऊँगा ॥७२ – ७८१/२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – यह कहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरके देखते-ही-देखते वे राजा जयध्वज गरुडपर आरुढ हो विष्णुधामको चले गये, जहाँ लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ।

 

इसीसे विष्णुमन्दिरके बुहारने और लीपनेसे बड़ी महत्ता प्राप्त होनेका वर्णन किया गया है ।

 

[ राजा जयध्वजने पूर्वजन्ममें ] कामके वशीभूत होकर भी जिस कर्मको करनेसे ऐसी दिव्य सम्पत्ति प्राप्त कर ली, उसीको यदि भक्तिमान् और शान्त पुरुष करे तथा भलीभाँति भगवानका पूजन करे तो उनको प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें क्या कहना है ? ॥७९ – ८१॥

 

सूतजी बोले – मार्कण्डेयजीके उपर्युक्त वचन सुनकर पाण्डुवंशमें उत्पन्न राजा सहस्त्रानीक भगवानके पूजनमें संलग्न हो गये । इसलिये

 

विप्रवृन्द ! आपलोग यह सुन लें कि अविनाशी भगवान् नारायण जानकर अथवा अनजानमें भी पूजा करनेवाले अपने भक्तोंके मुक्ति प्रदान करते हैं ।

 

द्विजो ! मैं यह बारंबार कहता हूँ कि यदि आपलोग दुस्तर भवसागरके पार जाना चाहते हैं तो भगवान् जगन्नाथकी पूजा करें । जो भक्त प्रणतजनोंका कष्ट दूर करनेवाले भगवान् विष्णुका पूजन करते हैं, वे वन्दनीय, पूजनीय और विशेषरुपसे नमस्कार करनेयोग्य हैं ॥८२ – ८५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत सहस्त्रानीक – चरित्रके प्रसङ्गमें मार्कण्डेयमुनिद्वारा उपदिष्ट ‘ मन्दिरमें झाडू देने और उसके लीपनेकी महिमाका वर्णन ‘ नामक तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३३॥

अध्याय - ३४ भगवान् विष्णुके पूजनका फल

श्रीसहस्त्रानीकने पूछा – महामते द्विजवर मार्कण्डेयजी ! अब पुनः यह बताइये कि भगवान् विष्णुके निर्माल्य ( चन्दन – पुष्प आदि ) – को हटानेसे कौनसा पुण्य प्राप्त होता है ॥१॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! नृसिंहस्वरुप भगवान् केशवको निर्माल्य हटाकर जलसे स्नान करानेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है तथा सम्पूर्ण तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्तकर, विमानपर आरुढ हो स्वर्गको चला जाता है और वहाँसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होकर अक्षयकालपर्यन्त आनन्दका उपभोग करता है । ‘ भगवन् नरसिंह ! आप यहाँ पधारें – इस प्रकार अक्षत और पुष्पोंके द्वारा यदि भगवानका आवाहन करे तो राजेन्द्र ! इतनेसे भी वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । देवदेव नृसिंहको विधिपूर्वक आसन, पाद्य ( पैर धोनेके लिये जल ), अर्घ्य ( हाथ धोनेके लिये जल ) और आचमनीय ( कुल्ला करनेके लिये जल ) अर्पण करनेसे भी सब पापोंसे छुटकारा मिल जाता है । नराधिप ! भगवान् नृसिंहको दूध और जलसे स्नान कराकर मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । जो एक बार भी भगवानको दहीसे स्नान कराता है, वह निर्मल एवं सुन्दर शरीर धारणकर सुरवरोंसे पूजित होता हुआ विष्णुलोकको जाता है । जो मनुष्य मधुसे भगवानको नहलाता हुआ उनकी पूजा करता है, वह अग्निलोकमें आनन्दोपभोग करके पुनः विष्णुपुर ( वैकुण्ठधाम ) – में निवास करता है । जो स्नानकालमें श्रीनरसिंहके विग्रहको शङ्ख और नगारेका शब्द कराते हुए विशेषरुपसे घीसे स्नान कराता है, वह पुरुष पुरानी केंचुलको छोड़नेवाले साँपकी भाँति पाप-कञ्चुकको त्यागकर दिव्य विमानपर आरुढ हो, विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥२ – १०॥

 

महाराज ! जो देवेश्वर भगवानको भक्तिपूर्वक मन्त्रपाठ करते हुए पञ्चगव्यसे स्नान कराता है, उसका पुण्य अक्षय होता है । जो गेहूँके आटेसे देवदेवेश्वर भगवानको उबटन लगाकर गरम जलसे उन्हें नहलता है, वह वरुणालोकको प्राप्त होता है । जो भगवानके पादपीठ ( पैर रखनेके पीढ़े, चौकी या चरणपादुका ) – को भक्तिपूर्वक बिल्वपत्रसे रगड़कर गरम जलसे धोता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । कुश और पुष्पमिश्रित जलसे भगवानको स्नान कराकर मनुष्य ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है, रत्नयुक्त जलसे स्नान करानेपर सूर्यलोकको और सुवर्णयुक्त जलसे नहलानेपर कुबेरलोकको प्राप्त करता है । जो कपूर और अगुरुमिश्रित जलसे भगवान् नृसिंहको नहलाता है, वह पहले इन्द्रलोकमें सुखोपभोग करके फिर विष्णुधाममें निवास करता है । जो पुरुषश्रेष्ठ तीर्थोंके पवित्र जलसे गोविन्दको भक्तिपूर्वक स्नान कराता है, वह आदित्यलोकको प्राप्त करके पुनः विष्णुलोकमें पूजित होता है । जो भक्तिपूर्वक भगवानको युगल वस्त्र पहनाकर उनकी पूजा करता है, वह चन्द्रलोकमें सुखभोग करके पुनः विष्णुधाममें सम्मानित होता है ॥११ – १६१/२॥

 

राजेन्द्र ! जो कुङ्कुम ( केसर ), अगुरु और चन्दनके अनुलेपनसे भगवानके विग्रहको भक्तिपूर्वक अनुलिप्त करता है, वह करोड़ों कल्पोंतक स्वर्गलोकमें निवास करता है । जो मनुष्य मल्लिका, मालती, जाती, केतकी, अशोक, चम्पा, पुंनाग, नागकेसर, बकुल ( मौलसिरी ), उत्पल जातिके कमल, तुलसी, कनेर, पलाश – इनसे तथा अन्य उत्तम पुष्पोंसे भगवानकी पूजा करता है, वह प्रत्येक पुष्पके बदले दस सुवर्ण मुद्रा दान करनेका फल प्राप्त करता है । जो यथाप्राप्त उपर्युक्त पुष्पोंकी माला बनाकर उससे भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, वह सैंकड़ों और हजारों करोड़ कल्पोंतक दिव्य विमानपर आरुढ हो विष्णुलोकमे आनन्दित होता है । जो छिद्ररहित अखण्डित बिल्वपत्रों और तुलसीदलोंमें भक्तिपुर्वक श्रीनृसिंहका पूजना करता है, वह सब पापोंसे सर्वथा मुक्त हो, सब प्रकारके भूषणोंसे भूषित होकर सोनेक मुक्त हो, सब प्रकारके भूषणोंसे भूषित होकर सोनेके विमानपर आरुढ हो विष्णुलोकमें सम्मान पाता है ॥१७ – २३१/२॥

 

राजेन्द्र ! जो माहिषु गुग्गुल, घी और शक्करसे तैयार की हुई धूपको भगवान् नरसिंहके लिये भक्तिपूर्वक अर्पित करता है, वह सब दिशाओंमे धूप करनेसे सब पापोंसे रहित हो अप्सराओंसे पूर्ण विमानद्वारा वायुलोकमें विराजमान होता है और वहाँ आनन्दोपभोगके पश्चात् पुनः विष्णुधाममें जाता है । जो मनुष्य विधिपूर्वक भक्तिके साथ घी अथवा तेलसे भगवान् विष्णुके लिये दीप प्रज्वलित करता है, उस पुण्यका फल सुनिये । वह पाप-पङ्कसे मुक्त होकर हजारों सुर्यके समान कान्ति धारणकर ज्योतिर्मय विमानसे विष्णुलोकको जाता है । जो विद्वान हविष्य, घी-शक्करसे युक्त अगहनीका चावल, जौकी लपसी और खीर भगवान् नरसिंहको निवेदन करता है, वह वैष्णव चावलोंकी संख्याके बराबर वर्षोंतक विष्णुलोकमें महान् भोगोंका उपभोग करता है । भगवान् विष्णुसम्बन्धी बलिसे सम्पूर्ण देवता तृप्त होकर पूजा करनेवालेको शान्ति, लक्ष्मी तथा आरोग्य प्रदान करते हैं ॥२४ – ३१॥

 

राजकुमार ! भक्तिपूर्वक देवदेव विष्णुकी एक बार प्रदक्षिणा करनेसे मनुष्योंको जो फल मिलता है, उसे सुनिये । वह सारी पृथ्वीकी परिक्रमा करनेका फल प्राप्त करके वैकुण्ठधाममें निवास करता है । जिसने कभी भक्तिभावसे भगवान् लक्ष्मीपतिको नमस्कार किया है, उसने अनायास ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरुप फल प्राप्त कर लिया । जो स्तोत्र और जपके द्वारा मधुसूदनकी उनके समक्ष होकर स्तुति करता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें पूजित होता है । जो भगवानके मन्दिरमें शङ्ख, तुरही आदि बाजोंके शब्दसे युक्त गानाबजाना और नाटक करता है, वह मनुष्य विष्णुधामको प्राप्त होता है । विशेषतः पर्वके समय उक्त उत्सव करनेसे मनुष्य कामरुप होकर सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त होता है और सुन्दर संगीत जाननेवाली अप्सराओंसे शोभायमान बहुमूल्य मणियोंसे जड़े हुए देदीप्यमान विमानके द्वारा एक स्वर्गसे दूसरे स्वर्गकी प्राप्त होकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है । जो भगवान् विष्णुके लिये गरुडचिह्नसे युक्त ध्वजा अर्पण करता है, वह भी ध्वजामण्डित जगमगाते हुए विमानपर आरुढ़ हो, अप्सराओंसे सेवित होकर विष्णुलोकको प्राप्त होता है ॥३२ – ३९॥

 

नरेश्वर ! जो सुवर्णके बने हुए दिव्य हार, केयूर, कुण्डल और मुकुट आदि आभरणोंसे भगवान् विष्णुकी पूजा करता है, वह बुद्धिमान सब पापोंसे मुक्त और सब आभूषणोंसे भुषित होकर जबतक चौदह इन्द्र राज्य करते हैं, तबतक ( अर्थात् पूरे एक कल्पतक ) इन्द्रलोकमें निवास करता है । जो विष्णुकी आराधना करके उनके लिये दुधार कपिला गौ दान करता है और उन भगवान् नृसिंहके समक्ष उसका उत्तम दूध थोड़ा-सा भी अर्पण करता है, वह विष्णुलोकमें सम्मानित होता है तथा राजन् ! उसके पितर चिरकालतक श्वेतद्वीपमें आनन्द भोगते हैं ।

 

भूपाल ! इस प्रकार जो नरश्रेष्ठ नरसिंहस्वरुप भगवान् विष्णुका पूजन करता है, उसे स्वर्ग और मोक्ष दोनों ही प्राप्त होते हैं, इसमें संशय नहीं हैं ॥४० – ४४॥

 

नृप ! जहाँ मनुष्योंद्वारा इस प्रकार भगवान् नरसिंहका पूजन होता है, वहाँ रोग, अकाल और राजा तथा चोर आदिका भय नहीं होता । इस विधिसे लक्ष्मीपति नरसिंहकी आराधना करके मनुष्य नाना प्रकारके स्वर्ग-मुख भोगता है और पुनः उसे [ संसारमें जन्म लेकर ] माताका दूध नहीं पीना पड़ता [ वह मुक्त हो जाता है ] । जिस गाँवमें [ भगवानके मन्दिरके निकट ] प्रतिदिन घी और तिलसे होम होता है, उस गाँवमे अनावृष्टि, महामारी आदि दोष तथा अग्निदाह आदि किसी प्रकारका भय नहीं होता । जिस गाँवमें गाँवका मालिक वेदवेत्ता ब्राह्मणोंद्वारा नरसिंहकी आराधना कराकर एक लक्ष होम कराता है, वहाँ मेरे कथनानुसार यह कार्य सम्पन्न होनेपर महामारी आदि प्रत्यक्ष उपद्रवसे कर्ताका तथा उस गाँवमें रहनेवाली प्रजाका अकालमरण नहीं होता ।

 

इसलिये भगवान् नरसिंहके मन्दिरमें भली प्रकारसे आराधना करनी चाहिये ॥४५ – ५०॥

 

नरेश ! इसी प्रकार शङ्करजीके मन्दिरमें भी संयमशील ब्राह्मणोंके द्वारा उन्हें भोजन और दक्षिणा देकर एक करोड़की संख्यामें हवन कराना चाहिये ।

 

नृपश्रेष्ठ ! उसके करनेपर भगवान् नरसिंहके प्रसादसे प्रजावर्गका आकस्मिक उपद्रव तथा मृत्युभय शान्त हो जाता है । घोर दुःस्वप्न देखनेपर और अपने ऊपर ग्रहजन्य कष्ट आनेपर होम और ब्राह्मणभोजन करान से उसका दोष मिट जाता है ।

 

दक्षिणायन या उत्तरायण आरम्भ होनेपर, विषुवकालमें, अथवा चन्द्रमा तथा सूर्यका ग्रहण होनेपर भगवान् नरसिंहकी आराधना करके लक्षहोम कराना चाहिये ।

 

राजेन्द्र ! यों करनेसे उस स्थानके निवासियोंके विघ्नकी शान्ति हो जाती है ।

 

नरेश्वर ! भगवान् नरसिंहकी पूजाके ऐसे अनेकों फल हैं ।

 

भूपालनन्दन ! यदि तुम सद्गति चाहते हो तो नृसिंहका पूजन करो । इससे बढ़कर कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जो स्वर्ग और मोक्षरुप फल देनेवाला हो । देवदेव नृसिंहका पूजन राजाओंके लिये तो बहुत ही सुकर है । परंतु जो अरण्यमें रहते हैं, उन्हें भी भगवानकी पूजाके लिये वृक्षोंके पत्र-पुष्प बिना मूल्य प्राप्त हो सकते हैं । जल नदी और तडाग आदिमें सुलभ है ही और भगवान् नृसिंह भी सबके लिये समान हैं; केवल उन उपासनाके साधनभूत कर्ममें मनकी एकाग्रता चाहिये । जिसने मनका नियमन कर लिया है, मुक्ति उसके हाथमें ही है ॥५१ – ५९॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – इस प्रकार भृगुजीकी आज्ञासे मैंने तुमसे यहाँ भगवान् विष्णुके पूजनका वर्णन किया है । तुम प्रतिदिन भगवान् विष्णुके पूजनका वर्णन किया है । तुम प्रतिदिन भगवान् विष्णुका पूजन करो और बोलो, अब मैं तुम्हें और क्या बताऊँ ? ॥६०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत सहस्त्रानीक – चरित्रके प्रसङ्गमें ‘ श्रीविष्णुके पूजनकी विधि ‘ नामक चौतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३४॥

अध्याय - ३५ लक्षहोम और कोटिहोमकी विधि तथा फल

राजा बोले – हो ! आपने श्रीविष्णुकी आराधनासे होनेवाले बहुत बड़े फलका वर्णन किया । मुनिश्रेष्ठ ! जो भगवान् विष्णुकी पूजा नहीं करते, वे अवश्य ही [ मोहनिद्रामें ] सोये हुए हैं । मैंने आपकी कृपासे भगवान् नृसिंहके पूजनका यह क्रम सुना; अब मैं भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करुँगा । आप कृपा करके ( लक्षहोम तथा ) कोटिहोमका फल बताइये ॥१ – २॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – नृप ! पूर्वकालमें इसी विषयको बृहस्पतिजीने शौनक ऋषिसे पूछा था, इसके उत्तरमें उनसे शौनकजीने जो कुछ बताया, वही मैं तुमसे कह रहा हूँ । सुखपूर्वक बैठे हुए शौनकजीसे बृहस्पतिजीने इस प्रकार प्रश्न किया ॥३१/२॥

 

बृहस्पतिजी बोले – विप्रेन्द्र ! लक्षहोम और कोटिहोमके लिये जो भूमि प्रशस्त हो, उसको मुझे बताइये उओर होमकर्मकी विधिका भी वर्णन कीजिये ॥४१/२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – नृपवर ! बृहस्पतिजीके इस प्रकार कहनेपर शौनकजीने लक्षहोम आदिकी विधिका यथावत् वर्णन आरम्भ किया ॥५१/२॥

 

शौनकजी बोले – देवपुरोहित ! मैं लक्षहोमके उपयुक्त विस्तृत भूमि और उसकी शुद्धिका विशेषरुपसे यथावत् वर्णन करुँगा, आप सुनें । यज्ञकर्मके लिये प्रशस्त भूमिका उत्तम लक्षण ( संस्कार ) इस प्रकार हैं ॥६ – ७॥

 

जो भूमि अच्छी तरह संस्कार की हुई हो, बराबर हो और चिकनी हो [ ये सब बातें हों तो परम उत्तम भूमि है; सभी बातें न संघटित हों तो ] पूर्व – पूर्वकी भूमि उत्तम है । [ अर्थात् चिकनीकी अपेक्षा बराबर भूमि अच्छी है और उससे भी सुसंस्कृत भूमि उत्तम है । ] ऐसी उत्तम भूमिको ऊरु ( कमर ) – पर्यन्त खोदकर उसका विशेषरुपसे [ गङ्गजल एवं पञ्चगव्यादि छिड़ककर ] शोधन करे कुण्डके बाहर स्वच्छताके लिये मिट्टी [ तथा गोबर ] डालकर लिपाये । कुण्ड सब ओरसे एक हाथ लम्बा और उतना ही चौड़ा होना चाहिये – यही कुण्डका लक्षण है । एक हाथका सूत लेकर उसीसे माप करके चारों ओरसे बराबर और चौकोरा कुण्ड बनाना चाहिये । कुण्डके ऊपर सब ओरसे बराबर और खूब विस्तृत मेखला बनवाये । उसकी ऊँचाई भी चार अंगुलकी ही हो और वह सूतसे परिवेष्टित हो ॥८ – १०१/२॥

 

इसके बाद यजमानको चाहिये कि वह ब्राह्मणोचित कर्मका पालन करनेवाले वेदवेत्ता ब्राह्मणोंको शास्त्रोक्त रीतिसे आमन्त्रित करे । यजमान और उन ब्राह्मणोंको तीन रात्रितक विशेषरुपसे ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करना चाहिये ॥११ – १२॥

 

यजमान एक दिन और एक रात्रि उपवास करके दस हजार गायत्रीका जप करे । [ हवन आरम्भ होनेके दिन ] विप्रगण भी स्त्रान करके शुद्धं एवं श्वेत वस्त्र धारण करें । फिर गन्ध, पुष्प और माला धारण करके पवित्र, संतुष्ट और जितेन्द्रिय होकर, भोजन किये बिना ही कुशके बने हुए आसनपर एकाग्रचित्तसे बैठें । तदनन्तर वे यत्नपूर्वक निरालस्यभावसे हवन आरम्भ करें । पहले गृह्यसूत्रोक्त विधिसे भूमिपर [ कुशोंसे ] रेखा करके उसे सींचे और वहाँ यत्नसे अग्नि – स्थान करे । फिर उस अग्निमें हवनीय पदार्थोंका होम करे ।

 

सर्वप्रथम आघार और आज्यभाग ये दो होम करने चाहिये । विद्वान् पुरुष जौ, चावल और तिल [ एवं घृत आदिसे ] मिश्रित प्रथम आहुतिका गायत्रीमन्त्रद्वारा [ अन्तमें ] स्वाहाके उच्चारणपूर्वक एकाग्रचित्तसे हवन करे । गायत्री छन्दोंकी माता और ब्रह्म ( वेद ) – की योनिरुपसे प्रतिष्ठित है । उसके देवता सविता हैं और ऋषि विश्वामित्रजी हैं । ( इस प्रकार गायत्रीका विनियोग बताया गया । ) ॥१३ – १८॥

 

केवल गायत्रीसे हवन कर लेनेके पश्चात् [ ‘ भूर्भुवः स्वः ‘– इन ] तीन व्याहतियोंसहित गायत्री – मन्त्रसे केवल तिलका हवन करे । जबतक हवनकी संख्या एक लाख या एक करोड़ न हो जाय, तबतक भगवान् विष्णुके पूजनपूर्वक तिलद्वारा हवन करते रहना चाहिये और जबतक हवन करे, तबतक यजमानको चाहिये कि वह यत्नपूर्वक दीनों और अनाथोंको भोजन दे । हवन समाप्त होनेपर ऋत्विजोंको श्रद्धापूर्वक लोभ त्यागकर यथोचित दक्षिणा दे । तत्पश्चात् [ प्रथम स्थापित किये हुए ] शान्तिकलशके जलसे उस ग्राममें रहनेवाले सभी मनुष्योंविशेषतः रोगियोंको अभिषेक करे ।

 

महाभाग ! इस प्रकार विधिवत् होमका अनुष्ठान करनेपर पुर ( गाँव ), नगर, जनपद ( प्रान्त ) और समस्त राष्ट्रकी सारी बाधाको दूर करनेवाली शान्ति निरन्तर बनी रहती है ॥१९ – २३॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – नृपनन्दन ! इस प्रकार शौनक मुनिका बताया हुआ लक्षहोम-विधिका अनुष्ठान जो समस्त राष्ट्रमें शुभ शान्ति प्रदान करनेवाला हैं, मैंने तुम्हें बताया । यदि ब्राह्मणोंद्वारा यह पूर्वोक्त होम-विधि ग्राममें, घरमें अथवा पुरके बाहर प्रयत्नपूर्वक करायी जाय तो वहाँ भी मनुष्योंको, गौओंको और अनुचरोंसहित राजाको पूर्णतया शान्ति प्राप्त हो सकती हैं ॥२४ – २५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ लक्षहोमविधिका वर्णन ‘ नामक पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३५॥

अध्याय - ३६ अवतार-कथाका उपक्रम

मार्कण्डेयजी बोले – महीपाल ! अब मैं देवदेव भगवान् विष्णुके पवित्र एवं पापनाशक अवतारोंका वर्णन करुँगा; उन्हें सुनो ॥१॥

 

महात्मा भगवान् विष्णुने जिस प्रकार मत्स्यरुप धारणकर [ प्रलयकालीन समुद्रमें खोये हुए ] वेद लाकर ब्रह्माजीको अर्पित किये और मधु तथा कैटभ नामक दैत्योंको मौतके घाट उतारा; फिर उन भगवान् विष्णुने जिस प्रकार कूर्मरुपसे मन्दराचल पर्वत धारण किया और महाकाय वराह अवतार लेकर [ अपनी दाढ़ोंपर ] इस पृथ्वीको उठाया तथा राजन् ! उन्हींके हाथसे जिस प्रकार महाबली, महापराक्रमी और महाकाय दितिकुमार हिरण्याक्ष मारा गया; राजन् ! फिर उन भगवानने नृसिंहरुप धारणकर पूर्वकालमें जिस प्रकार देवताओंके शत्रु हिरण्यकशिपुका वध किया; और राजकुमार ! जिस प्रकार उन महात्माने वामनरुप होकर पूर्वकालमें राजा बलिको बाँधा तथा इन्द्रको ( फिरसे ) त्रिभुवनका अधीश्वर बना दिया; और राजन् ! भगवान् विष्णुने श्रीरामचन्द्रका अवतार धारणकर जिस प्रकार रावणकी मारा एवं देवताओंके लिये कण्टकरुप अद्भुत राक्षसोंका उनके गणोंसहित संहार कर दिया; फिर पूर्वकालमें परशुराम – अवतार ले, जिस प्रकार क्षत्रियकुलका ;उच्छेद किया तथा बलभद्ररुपसे जिस प्रकार प्रलम्बादि दैत्योंका वध किया; कृष्णरुप होकर कंस आदि देवशत्रु दैत्योंका जिस तरह संहार किया; इसी प्रकार कलियुग प्राप्त होनेपर जिस प्रकार भगवान् नारायण बुद्धरुप धारण करेंगे; फिर कलियुग समाप्त होनेपर जिस प्रकार वे कल्किरुप धारणकर म्लेच्छोंका नाश करेंगे, वह सब वृत्तान्त उसी प्रकार मैं तुमसे कहूँगा ॥२ – १०॥

 

भूपाल ! जो एकाग्रचित्त होकर मेरेद्वारा बताये जानेवाले अनन्त भगवान् विष्णुके इन पराक्रमोंका श्रवण करेगा, वह सब पापोंसे मुक्त होकर भगवानके अत्यन्त उदार परमपदको प्राप्त होगा ॥११॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीहरिके अवतारोंकी अनुक्रमणिका ‘ ( गणना ) विषयक छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३६॥

अध्याय - ३७ मत्स्यावतार तथा मधु-कैटभ-वध

मार्कण्डेयजी बोले – महात्मा भगवान् अच्युतके बहुतसे अवतार हैं, सुतरां उनका विस्तारपूर्वक वर्णन नहीं किया जा सकता; इसलिये मैं उन्हें संक्षेपसे ही कहता हूँ । यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकालमें जगतकी सृष्टि करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तम ‘ अनन्त ‘ नामक शेषनागके शरीरकी शय्यापर योगनिद्राका आश्रय लेकर सोये हुए थे ।

 

नृप ! कुछ कालके बाद उन गहरी नींदमें सोये हुए देवदेव शार्ङ्गधन्वा विष्णुके कानोंसे पसीनेकी दो बूँदे निकलकर जलमें गिरीं । उन दोनों बूँदोंसे मधु और कैटभ नामके दो दैत्य उत्पन्न हुए, जो महाबली, महान् शक्तिशाली, महापराक्रमी और महाकाय थे ।

 

नृपश्रेष्ठ ! इसी समय उन सोये हुए भगवानकी नाभिके बीचमें महान् कमल प्रकट हुआ और उससे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए ॥१ – ५॥

 

राजन् ! भगवान् विष्णुने ब्रह्माजीसे कहा – ‘ महामते ! तुम प्रजाजनोंकी सृष्टि करो ।’ यह सुन उन कमलोद्भव ब्रह्मजीने ‘ तथास्तु ‘ कहकर भगवान् जगन्नाथकी आज्ञा स्वीकार कर ली तथा वेदों और शास्त्रोंकी सहायतासे वे ज्यों ही सृष्टि-रचनाके लिये उद्यत हुए, त्यों ही उनके पास वे दोनों दैत्य-मधु और कैटभ आये । आते ही वे बलाभिमानी घोर दानव क्षणभरमें ब्रह्माजीके वेद और शास्त्र-ज्ञानको लेकर चले गये ।

 

राजन् ! तब ब्रह्माजी एक ही क्षणमें ज्ञानशून्य हो दुःखी हो गये और सोचने लगे ” हाय ! अब मैं कैसे प्रजाकी सृष्टि करो ।’ परंतु अब तो मैं सृष्टिविज्ञानसे रहित हो गया, अतः किस प्रकार सृष्टिरचना करुँगा ? अहो ! मुझपर यह बहुत बड़ा कष्ट आ पहुँचा ।” लोकपितामह ब्रह्माजी इस प्रकार चिन्ता करते – करते शोकसे कातर हो गये । वे प्रयत्नपूर्वक वेदशस्त्रोंका स्मरण करने लगे, तथापि उन्हें उनकी स्मृति नहीं हुई । तब वे मन-ही-मन अत्यन्त दुःखी हो, एकाग्रचित्तसे भगवान् पुरुषोत्तमकी शास्त्रानुकूल विधिसे स्तुति करने लगे ॥६ – १२॥

 

ब्रह्माजी बोले – जो वेद, शास्त्र, विज्ञान और कर्मोंकी निधि हैं, उन ॐकार – प्रतिपाद्य परमेश्वरको मेरा बार-बार नमस्कार है । समस्त विद्याओंको धारण करनेवाले वाणीपति भगवानको प्रणाम है । अचिन्त्य एवं सर्वज्ञ परमेश्वरको नित्य बारंबार नमस्कार है । महाबाहो अधोक्षज ! आप निराकार एवं यज्ञस्वरुप हैं । आ साममूर्ति एवं सदा सर्वरुपधारी हैं । अच्युत ! आप सर्वज्ञानमय हैं; आप सबके हदयमें ज्ञानरुपमें विराजमान हैं । देवदेव ! आप मुझे सब प्रकारका ज्ञान दीजिये; आपको बारंबार नमस्कार है ॥१३ – १६॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – ब्रह्माजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवेश्वर विष्णुने उनस्से कहा – ‘ मै तुम्हें उत्तम ज्ञान प्रदान करुँगा ।

 

 राजन् ! भगवान् विष्णु यों कहकर तब सोचने लगे – ‘ कौन इसका विज्ञान हर ले गया और किस रुपसे उसने उसे धारण कर रखा है ? ‘

भूपाल ! अन्तमें यह जानकर कि यह सब मधु और कैटभकी करतूत है, भगवान् जनार्दनने अनेकों योजन लंबा-चौड़ा पूर्णज्ञानमय मत्स्यरुप धारण किया । फीर मत्स्यरुपधारी हरिने तुरंत ही जलमें प्रविष्ट होकर उसे क्षुब्ध कर डाला और भीतर-ही-भीतर पाताललोकमें पहुँचकर मधु तथा कैटभको देखा । तब मुनियोंद्वारा स्तवन किये जानेपर भगवान् मधुसूदनने मधु और कैटभ-दोनोंको मोहितकर वह वेदशास्त्रमय ज्ञान ले लिया और उसे ले आकर ब्रह्माजीको दे दिया ।

 

राजन् ! तत्पश्चात् वे भगवान् उस मत्स्यरुपको त्यागकर जगतके हितके लिये पुनः योगनिद्रामें स्थित हो गये ॥१७ – २२॥

 

तदनन्तर मोह निवृत्त होनेपर [ वेद – शास्त्रको न देख ] मधु तथा कैटभ-दोनों ही बहुत कुपित हुए और वहाँसे आकर उन्होंने अविनाशी भगवान् विष्णुको सोते देखा । तब वे परस्पर कहने लगे – ‘ यह वही धूर्त पुरुष है, जिसने हम दोनोंको मायासे मोहित करके वेदशास्त्रोंको ले आकर ब्रह्माको दे दिया और अब यहाँ साधुकी भाँति सो रहा है । ‘

 

राजन् ! यों कहकर उन महाघोर दानव मधु और कैटभने वहाँ सोये हुए भगवान् केशवको तत्काल जगाया और कहा – ‘ महामते ! हम दोनों यहाँ तुम्हारे साथ युद्ध करने आये हैं; तुम हमें संग्रामकी भिक्षा दो और अभी उठकर हमसे युद्ध करो ‘ ॥२३ – २६॥

 

नृपवर ! उनके इस प्रकार कहनेपर देवदेव भगवानने ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर अपने शार्ङ्ग धनुषपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी । उस समय भगवान् माधवने लीलापूर्वक धनुषकी टंकार और शङ्खनादसे आकाश, दिशाओं और अवान्तरदिशाओं ( कोणों ) – को भर दिया ॥२७ – २८॥

 

राजन् ! फिर उन महापराक्रमी महाभयानक मधु और कैटभने भी उस समय अपनी प्रत्यञ्चको टंकार दी और वे भगवान् विष्णुके साथ युद्ध करने लगे । जगत्पत्ति भगवान् विष्णु भी लीलास्से ही उनके साथ युद्ध करने लगे । इस प्रकार परस्पर अस्त्र-शास्त्रका प्रहार करते हुए उन दोनों पक्षोंमें समानरुपसे युद्ध हुआ । भगवान् विष्णुने अपने शार्ङ्ग धनुषद्वारा छोड़े हुए सर्पके समान तीखे बाणोंसे उन दैत्योंके समस्त अस्त्र-शस्त्र तिलकी भाँति टुकड़े-टुकड़े कर डाले । वे दोनों उन्मत्त दानव-मधु और कैटभ चिरकालतक भगवानके साथ लड़कर अन्तमें उनके शार्ङ्ग धनुषसे छूटे हुए बाणोंद्वारा मारे गये ।

 

राजन् ! तब श्रीविष्णुभगवानने उन दोनों दैत्योंके मेदेसे इस पृथ्वीका निर्माण किया । इसीसे इस वसुंधराका नाम ‘ मेदिनी ‘ हुआ ॥२९ – ३३॥

 

भूपाल ! इस प्रकार भगवान् विष्णुकी कृपासे वेदोंको प्राप्तकर प्रजापति ब्रह्माजीने वेदोक्त विधिसे प्रजाकी सृष्टि की ।

 

नृप ! जो भगवानकी इस अवतार – कथाका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह [ शरीर – त्यागके बाद ] चन्द्रलोकमें निवास करके [ पुनः इस लोकमें ] वेदवेत्ता ब्राह्मण होता है । भूमिपाल ! जो भगवान् विष्णु लोकहितके लिये पर्वतके समान भीमकाय मत्स्यरुप धारणकर जनलोकनिवासियोंद्वारा स्तुत हुए थे, उनका ही तुम सदा स्मरण करो ॥३४ – ३६॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ मत्स्यावतार ‘ नामक सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३७॥

अध्याय - ३८ कूर्मावतार; समुद्रमन्थन और मोहिनी-अवतार

मार्कण्डेयजी बोले – पूर्वकालमें देवासुर-संग्राममें जब देवगण दैत्योंद्वारा पराजित हो गये, तब वे सभी मिलकर क्षीरसागरनन्दिनी श्रीलक्ष्मीजीके पति भगवान् विष्णुकी शरणमें गये ।

राजन् ! वहाँ ब्रह्मा आदि सभी देवता जगदीश्वरकी आराधना करके हाथ जोड़ निम्नाङ्कित स्तोत्रसे उनकी स्तुति करने लगे ॥१ – २॥

 

देवगण बोले – जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है, जो समस्त लोकोंके स्वामी है, उन शार्ङ्ग धनुषधारी आप परमेश्वरको नमस्कार है । सम्पूर्ण विश्व और सारे देवता जिनके स्वरुप हैं, उन मधुकैटभनाशक केशवको बारंबार प्रणाम है । करुणाकर ! भगवान् ! हम सभी देवता बलवान् दैत्योंद्वारा युद्धमें हरा दिये गये हैं, हमें विजय प्राप्त करनेका कोई उपाय बतलाइये; आपको नमस्कार हैं ॥३ – ५॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तवन किये जानेपर देवदेव भगवान् जनार्दनने उनके समक्ष प्रकट होकर कहा ॥६॥

 

श्रीभगवान् बोले – देवगण ! तुम सब लोग वहाँ ( समुद्र – तटपर ) जाकर दानवोंके साथ संधि कर लो और मन्दराचलको मथानी बानकर वासुकि नागसे रस्सीका काम लो । फिर शीघ्रतापूर्वक समस्त ओषधियोंको लाकर समुद्रमें डालो और दानवोंके साथ मिलकर ही क्षीरसागरका मन्थन करो ।

 

देवताओ ! इस कार्यमें मैं भी तुम लोगोंकी सहायता करुँगा । समुद्रसे अमृत प्रकट होगा, जिसको पान करके उसके प्रभावसे देवता क्षणभरमें ही अत्यन्त बलशाली हो जायँगे ।

 

महाभागो ! उस उत्तम अमृतको प्राप्तकर इन्द्रादि तुम सभी देवता अत्यन्त तेजस्वी, रणमें पराक्रम दिखानेवाले और महान् उत्साहसे सम्पन्न हो जाओगे । तदनन्तर तुम लोग दानवोंको जीतनेमें समर्थ हो सकोगे – इसमें संशय नहीं है ॥७ – ११॥

 

देवदेव भगवानके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सभी देवता उन जगदीश्वरको प्रणाम करके अपने स्थानपर आये और दानवोंके साथ संधि करके क्षीरसागरके मन्थके लिये उत्तम उद्योग करने लगे ।

 

राजन् ! बलिने अकेले ही ‘ मन्दर ‘ नामक महान् पर्वतको उखाड़कर समुद्रमें डाल दिया तथा देवता और दैत्योंने समस्त ओषधियोंको लाकर समुद्रमें डाला ।

 

राजन् ! भगवान् नारायणकी आज्ञासे वासुकि नाग वहाँ आये और समस्त देवताओंका हित-साधन करनेके लिये स्वयं भगवान् विष्णु भी वहाँ पधारे ॥१२ – १५॥

 

तदनन्तर सभी देवता और असुरगण वहाँ भगवान् विष्णुके पास आये और सब लोग मित्रभावसे एकत्र होकर क्षीरसागरके तटपर उपस्थित हुए ।

 

नृप ! उस समय मन्दराचलको मथानी और वासुकि नागको रस्सी बनाकर अमृत निकालनेके उद्देश्यसे अत्यन्त वेगपूर्वक समुद्रका मन्थन आरम्भ हुआ । भगवान् विष्णुने उस समय समुद्रमन्थनके लिये दानवोंको वासुकिके मुखकी ओर और देवताओंको पुच्छ भागकी ओर नियुक्त किया ।

 

राजन् ! इस प्रकार मन्थन आरम्भ होनेपर नीचे कोई आधार न होनेके कारण मन्दराचल जलके भीतर प्रविष्ट होकर डूब गया । पर्वतको डूबा देख भगवान् मधुसूदन विष्णुने समस्त लोकोंके हितके लिये सहसा कूर्मरुप धारण किया और उस रुपमें अपनेको मन्दराचलके नीचे प्रविष्ट करके, आधाररुप हो, उस मन्दर पर्वतको धारण किया तथा दूसरे रुपसे वे भगवान् केशव पर्वतको ऊपरसे भी दबाये रहे और एक अन्यरुपसे वे भगवान् जनार्दन देवताओंके साथ रहकर नागराज वासुकिको खींचते भी रहे । तब वे बलवान् देवता तथा असुर पूर्णशक्ति लगाकर बड़े वेगसे क्षीरसागरका मन्थन करने लगे ॥१६ – २२१/२॥

 

नृपश्रेष्ठ ! तदनन्तर उस मथे जाते हुए क्षीरसागरसे अत्यन्त दुस्सह ‘ कालकूट ‘ नामक विष प्रकट हुआउस विषको सभी सर्पोने ग्रहण कर लिया । उनसे बचे हुए विषको भगवान् विष्णुकी आज्ञासे शङ्करजीने पी लिया । इससे कण्ठमें काला दाग पड़ जानेके कारण उनकी ‘ नीलकण्ठ ‘ संज्ञा हुई । इसके बाद द्वितीय बारके मन्थनसे ऐरावत गजराज और उच्चैः श्रवा घोड़ा – ये दोनों प्रकट हुए, यह बात हमारे सुननेमें आयी है । तृतीय आवृत्तिसे परमसुन्दरी अप्सरा ( उर्वशी ) – का आविर्भाव हुआ और चौथी बार महान वृक्ष पारिजात प्रकट हुआ । पाँचवों आवृत्तिमें क्षीरसागरसे चन्द्रमा प्रकट हुए ।

 

नरेश्वर ! चन्द्रमाको भगवान शिव अपने मस्तकपर धारण करते हैं; ठीक उसी तरह जैसे नारी ललाटमें स्वस्तिक ( बेंदी या आभूषण ) धारण करती हैं । इसी प्रकार क्षीरसागरसे नाना प्रकारके दिव्य रत्न, आभूषण और हजारों गन्धर्व प्रकट हुए । इन अत्यन्त विस्मयजनक वस्तुओंकी उस प्रकार उत्पन्न देख सभी देवता और असुर बहुत प्रसन्न हुए ॥२३ – २९१/२॥

 

तदनन्तर भगवान् विष्णुकी आज्ञासे मेघगण देवताओंके दलमें स्थित हो मन्द-मन्द वर्षा करने लगे और देव-वृन्दको सुख देनेवाली वायु बहने लगी । [ इस कारण देवता थके नहीं । ] किंतु महामते ! वासुकिके विषमिश्रित श्वासकी वायुसे कितने ही दैत्य मर गये और जो बचे, वे भी तेज एवं पराक्रमसे हीन हो गये ॥३० – ३११/२॥

 

तत्पश्चात उस समुद्रसे हाथमें कमल धारण किये हुए श्रीलक्ष्मीजी प्रकट हुईं । राजेन्द्र ! वे अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशमान कर रही थीं ।

 

शत्रुसूदन ! उन्होंने तीर्थके जलसे स्नान किया, शरीरमें दिव्य गन्धका अनुलेप लगाया और वे कमलालया लक्ष्मी दिव्य वस्त्र, पुष्पहार और सुन्दर भूषणॊसे विभूषित हो देवपक्षमें जाकर क्षणभर खड़ी रहीं; फिर भगवान् विष्णुके वक्षः स्थलमें विराजमान हुईं ॥३२ – ३४१/२॥

 

नरेश्वर ! इसके बाद क्षीरसागरसे अमृतपूर्ण घटका दोहन करके हाथमें लिये भगवान् धन्वन्तरि प्रकट हुए । उनके प्राकट्यसे देवता बहुत प्रसन्न हुए । किंतु राजन् ! लक्ष्मीद्वारा त्याग दिये जानेके कारण असुरगण बहुत दुःखी हुए और उस भरे हुए अमृतघटको लेकर इच्छानुसार चल दिये ।

 

नृपवर ! तब भगवान् विष्णुने देवताओंका हित करनेके लिये अपनेको सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त स्त्रीरुपमें प्रकट किया । इसके बाद भगवान् उस नारीरुपसे ही असुरोंकी ओर गये । उस दिव्य रुपवाली नारीको देख दैत्यगण मोहित हो गये ।

 

साधुशिरोमणे ! वे असुर तत्काल मोहके वशीभूत हो कामपीड़ित हो गये और उन्होंने मोहवश वह अमृतका घड़ा भूमिपर रख दिया । अवनीपते ! इस प्रकार असुरोंको मोहित करके भगवानने वह अमृत ले देवताओंको दे दिया । देवदेव भगवानकी कृपासे अमृत पीकर बली और महावीर्यवान् हो देवता संग्राममें आ डटे और असुरोंको युद्धमें जीतकर उन्होंने अपने राज्यपर अधिकार कर लिया ।

 

राजन् ! भगवानके इस ‘ कूर्म ‘ नामक अवतारको कथा मैंने तुमसे कह दी । यह पढ़ने और सुननेवाले मनुष्योंको पुण्य देनेवाली है ॥३५ – ४३॥

 

अद्भुत कर्म करनेवाले भगवान नारायणने केवल देवताओंके हितके लिये अनन्त तेजस्वी परमपावन कूर्मरुप प्रकट किया था, सो इस प्रसङ्गका वर्णन मैंने तुमसे कर दिया ॥४४॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ कूर्मावतार ‘ नामक अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३८॥

अध्याय - ३९ वाराह-अवतार; हिरण्याक्षवध

मार्कण्डेयजी कहते हैं – नरेश्वर ! इसके बाद मैं भगवान् विष्णुके ‘ वराह ‘ नामक पावन अवतारका वर्णन करुँगा – तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥१॥

 

सत्तम ! ब्रह्माजीका दिन बीत जानेपर जब अवान्तर प्रलय होता है, तब सम्पूर्ण त्रिलोकीको व्याप्त करके केवल जल-ही- जल रह जाता है ।

 

राजेन्द्र ! उस समय त्रिभुवनमें जो भी प्राणी हैं, उन सबका ग्रास करके ब्रह्मस्वरुप जगदीश्वर भगवान् विष्णु उस एकार्णव जलके भीतर सहस्त्रों फणोंसे सुशोभित शेषनागकी शय्यापर सहस्त्र युगोंतक चलनेवाली रात्रिमें शयन करते हैं ।

 

पूर्वकालमें कश्यपजीसे दितिके पुत्ररुपमें ‘ हिरण्याक्ष ‘ नामक महान् दैत्य उत्पन्न हुआ था, ऐसी बात हमने सुनी है । वह महान् बलवान् और पराक्रमी था । वह दैत्य पातालमें निवास करता था और स्वर्गके देवताओंपर आक्रमण करके उनकी पुरीपर घेरा डाल देता था । इतना ही नहीं, वह पृथ्वीपर यज्ञ करनेवाले मनुष्योंका भी अपकार करनेके लिये सदा प्रयत्नशील रहता था ॥२ – ६॥

 

एक बार उसने सोचा – ‘ मर्त्यलोकमें रहनेवाले पुरुष पृथ्वीपर रहकर देवताओंका यजन करेंगे, इससे उनका बल, वीर्य और तेज बढ़ जायगा ।’ यह सोचकर महान् असुर हिरण्याक्षने ब्रह्माजीद्वारा सृष्टि- रचना की जानेपर उसे धारण करनेके लिये भूमिकी जो धारणा-शक्ति थी, उसे लेकर जलके भीतर-ही-भीतर रसातलमें चला गया । आधारशक्तिसे रहित होकर यह पृथ्वी भी रसातलमें ही चली गयी ॥७ – ९॥

 

योगनिद्राका अन्त होनेपर जब सर्वात्मा श्रीहरिने विचार किया कि ‘ पृथ्वी कहाँ है ?’, तब उन्होंने योगबलसे यह जान लिया कि ‘ वह रसातलको चली गयी है ‘ ।

 

नराधिप ! तब उन्होंने वेदमय लम्बा-चौड़ा दिव्य वराह-शरीर धारण किया, जिसके चारों वेद ही चरण थे, यूप ( पशु – बन्धनके लिये बना हुआ काष्ठस्तम्भ ) ही दाढ़ था और चिति ( श्येनचित् आदि ) मुख । मुखमण्डल स्थूल और छाती चौ़ड़ी थी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं, अग्नि ही जिह्वा और स्रुक् ( स्त्रुवा ) ही थूथुन थी । चन्द्रमा और सूर्य विशाल नेत्र थे, पूर्त ( बावली आदि खुदवाना ) और इष्ट-धर्म ( यज्ञ- यागादि ) उनके कान थे, साम ही स्वर था । प्राग्वंश ( पत्नीशाला या यजमान – गृह ) ही शरीर था, हवि ही नासिका था, कुश-दर्भ ही रोमावलियाँ थे । इस प्रकार उनका सम्पूर्ण शरीर वेदमय था, पवित्र वैदिक सूक्त ही उनके बड़े-बड़े अयाल थे । नक्षत्र और तारे उनके हार थे तथा प्रलयकालीन आवर्त ( भँवरें ) ही उनके लिये भूषणका काम दे रहे थे ॥१० – १४१/२॥

 

नृपश्रेष्ठ ! भगवान् विष्णुने ऐसे वाराहरुपको धारणकर रसातलमें प्रवेश किया । उस समय सनकादि योगीजन उनकी स्तुति करते थे । वहाँ जाकर भगवानने युद्धमें हिरण्याक्षको मारकर उसपर विजय पायी और अपनी दाढ़ोंके अग्रभागसे पृथ्वीको स्थापित किया । पृथ्वीको स्थिर करनेके पश्चात् उसपर यथास्थान पर्वतोंका संनिवेश किया । तदनन्तर वैष्णवोंके हितके लिये कोकामुख तीर्थमें वाराहरुपका त्याग किया । वह वाराह-क्षेत्र उत्तम एवं गुप्त तीर्थ है । फिर ब्रह्माजीका रुप धारणकर उन्होंने सृष्टि-रचना की । इस प्रकार भगवान् विष्णु युग-युगमें अवतार लेकर सम्पूर्ण जगतकी रक्षा करते हैं । फिर वे जनार्दन रुद्ररुप धारणकर अन्तकालमें समस्त लोकोंका संहार करते हैं ॥१५ – १९॥

 

जो मनुष्य वेदान्तवेद्य भगवान् विष्णुकी इस कथाको श्रवण करता है, वह भगवान् यज्ञमूर्तिमें अपनी सुदृढ़ बुद्धि लगाकर समस्त पापोंसे मुक्त हो, उन भगवान् हरिको ही प्राप्त करता है ॥२०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ वाराहवतार ‘ नामक उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥३९॥

अध्याय - ४० नृसिंहावतार; हिरण्यकशिपुकी वरदान प्राप्ति और उससे सताये हुए देवोंद्वारा भगवान्की स्तुति

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे भगवान् विष्णुके वराह – अवतारका वर्णन किया । अब ‘ नृसिंहावतार ‘ का वर्णन करुँगा; सुनो ॥१॥

 

पूर्वकालमें दितिका पुत्र हिरण्यकशिपु महान् प्रतापी हुआ । उसने अनेक सहस्त्र वर्षोंतक निराहार रहते हुए तपस्या की । उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माजीने उस दानवसे कहा –

 

‘ दैत्येन्द्र ! तुम्हारे मनको जो प्रिय लगे, वही वर माँग लो । ‘ दैत्य हिरण्यकशिपुने ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर उन देवेश्वरसे विनयपूर्वक प्रणाम करके कहा ॥२ – ४॥

 

हिरण्यकशिपु बोला – ब्रह्मन् ! भगवन् ! यदि आप मुझे वर देनेको उद्यत हैं तो मैं जो-जो माँगता हूँ, वह सब देनेकी कृपा करें । मैं न सुखी वस्तुसे मरुँ न गीलीसे; न जलसे न आगसे; न काठसे न कीड़ेसे और न पत्थर या हवासे ही मेरी मृत्यु हो । न शूल अथवा किसी और शस्त्रसे न पर्वतसे; न मनुष्योंसे न देवता, असुर, गन्धर्व अथवा राक्षसोंसे ही मरुँ । न किंनरोंसे न यक्ष, विद्याधर अथवा भुजंगोंसे; न वानत तथा अन्य पशुओंसे और न दुर्गा आदि मातृगणोंसे ही मेरी मृत्यु हो । मैं न घरके भीतर मरुँ न बाहर; न दिनमें मरुँ न रातमें तथा आपकी कृपासे मृत्युके हेतुभूत अन्य कारणोंसे भी मेरी मृत्यु न हो । देवदेवेश्वर ! मैं आपसे यही वर माँगता हूँ ॥५ – ९१/२॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – राजन् ! दैत्यराज हिरण्यकशिपुके यों कहनेपर ब्रह्माजीने उससे कहा – ‘ दैत्येन्द्र ! तुम्हारे महान् तपसे संतुष्ट होकर मैं इन परम अद्भुत वरोंको दुर्लभ होनेपर भी तुम्हें दे रहा हूँ । दुसरे किसीको मैंने ऐसा वर नहीं दिया है और न दूसरोंने ऐसी तपस्या ही की है ।

 

दैत्यपते ! तुम्हारे माँगे हुए सभी वर मैंने तुम्हें दे दिये; वे सब तुम्हें प्राप्त हों ।

 

महाबाहो ! अब जाओ और अपने तपके बढ़े हुए उत्कृष्ट फलको भोगो । ‘ इस प्रकार पूर्वकालमें दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अभीष्ट वर देकर ब्रह्माजी अपने परम उत्तम लोकको चले गये । उस बलवान् दैत्यने भी वर पाकर बलसे उन्मत्त हो श्रेष्ठ देवताओंको युद्धमें जीतकर उन्हें स्वर्गसे पृथ्वीपर गिरा दिया तथा वह स्वयं स्वर्गलोकमें रहकर वहाँका सर्वशक्तिसम्पन्न राज्य भोगने लगा ॥१० – १५॥

 

नरेश्वर ! इन्द्रादि देवता, रुद्र तथा ऋषिगण भी उसके भयसे मनुष्यरुप धारणकर पृथ्वीपर विचरते थे ।

 

राजेन्द्र ! त्रिभुवनका राज्य प्राप्त कर लेनेपर हिरण्यकशिपुने समस्त प्रजाओंको बुलाकर उनसे यह वाक्य कहा – ‘

 

प्रजागण ! तुम लोग देवताओंके लिये यज्ञ, होम और दान न करो । अब मैं ही त्रिभुवनका अधीश्वर हूँ; अतः यज्ञ और दानादि कर्मोंद्वारा मेरी ही पूजा करो ।’

 

राजन् ! यह और दानादि कर्मोंद्वारा मेरी ही पूजा करो । यह सुनकर वे सभी प्रजाएँ उसके भयसे वैसा ही करने लगीं ।

 

नृपश्रेष्ठ ! वहाँ ऐसा व्यवहार चालू होनेपर चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिभुवन अधर्मपरायण हो गया । स्वधर्मका लोप हो जानेसे सबकी बुद्धि पापमें प्रवृत्त हो गयी । इस तरह बहुत समय बीतनेपर इन्द्रसहित सब देवताओंने मिलकर समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता तथा नीतिवेत्ता बृहस्पतिजीसे विनयपूर्वक पूछा – ‘ मुनिश्रेष्ठ ! त्रिलोकीका राज्य छीननेवाले इस हिरण्यकशिपुके विनाशका समय और उसका उपाय हमें शीघ्र बताइये ‘ ॥१६ – २२१/२॥

 

बृहस्पतिजी बोले – देवताओं ! तुम लोग अपने स्थानकी प्राप्तिके लिये मेरे ये वाक्य सुनो – ‘ इस महान् असुर हिरण्यकशिपुके पुण्यका अंश प्रायः क्षीण हो चुका है [ इसे अपने भाई हिरण्याक्षकी मृत्युसे बहुत शोक हुआ है । ] यह शोक बुद्धिको नष्ट और शास्त्रज्ञानको चौपट कर देता है, विचारशक्तिको भी क्षीण कर डालता है; अतः शोकके समान कोई शत्रु नहीं है ।

 

नरेश्वर ! अपने शरीरपर अग्निका स्पर्श और दारुण शस्त्र-प्रहार भी सहा जा सकता है, परंतु शोकजन्य दुःखका सहन नहीं किया जा सकता ।

 

देवताओं ! इस शोकसे और कालरुप निमित्तसे हम हिरण्यकशिपुका नाश निकट देख रहे हैं । इसके अतिरिक्त सभी विद्वान् सर्वत्र परस्पर यही कहा करते हैं कि दुष्ट हिरण्यकशिपु अब शीघ्र ही नष्ट होनेवाला है । मेरे शकुन भी यही बताते हैं कि देवताओंको अपने पद-स्वर्ग-साम्राज्यकी प्राप्तिरुप महती समृद्धि मिलनेवाली है और हिरण्यकशिपुका नाश होना चाहता है । चूँकि ऐसा ही होनेवाला है, इसलिये तुम सभी देवता क्षीरसागरके उत्तरतटपर, जहाँ भगवान् विष्णु शयन करते हैं, शीघ्र ही जाओ । तुम लोगोंके भलीभाँति स्तवन करनेपर वे भगवान् क्षणभरमें ही प्रसन्न हो जायँगे और प्रसन्न होनेपर वे ही उस दैत्यके वधका उपाय बतायेंगे ॥२३ – ३०॥

 

श्रीबृहस्पतिजीके इस प्रकार कहनेपर सभी देवता कहने लगे – ‘ भगवन् ! आपने बहुत अच्छा कहा, बहुत अच्छा कहा ।’ और वे अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक वहाँ जानेका उद्योग करने लगे ।

 

नृपवर ! वे देवगण किसी पुण्यतिथिको शुभ लग्नमें मुनिवरोंद्वारा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन और मङ्गलपाठ कराकर दुष्ट दैत्य ( हिरण्यकशिपु ) – के विनाश और अपनी ऐश्वर्य-वृद्धिके लिये महादेवजीको आगे करके क्षीरसागरके उत्तर तटकी ओर प्रस्थित हुए । वहाँ पहुँचकर सभी देवता विजयशील जनार्दन भगवान् विष्णुका नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा स्तवन-पूजन करते हुए वहाँ खड़े रहे । भगवान् शङ्कर भी भक्तिपूर्वक एकाग्रचित्तसे भगवान् जनार्दनके पवित्र नामोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे ॥३१ – ३५॥

 

श्रीमहादेवजी बोले – विष्णु, जिष्णु, विभु, देव, यज्ञेश, यज्ञपालक, प्रभविष्णु, ग्रसिष्णु, लोकात्मा, लोकपालक, केशव, केशिहा, कल्प, सर्वकारणकारण, कर्मकृत्, वामनाधीश, वासुदेव, पुरुष्टुत, आदिकर्ता, वराह, माधव, मधुसूदन, नारायण, नर, हंस, विष्णुसेन, हुताशन, ज्योतिष्मान्, द्युतिमान् , श्रीमान् , आयुष्मान् , पुरुषोत्तम, वैकुण्ठ, पुण्डरीकाक्ष, कृष्ण, सूर्य, सुरार्चित, नरसिंह, महाभीम, वज्रदंष्ट, नखायुध, आदिदेव, जगत्कर्ता, योगेश, गरुडध्वज, गोविन्द, गोपति, गोप्ता, भूपति, भुवनेश्वर, पद्मनाभ, हषीकेश, विभु, दामोदर, हरि, त्रिविक्रम, त्रिलोकेश, ब्रह्मेश, प्रीतिवर्धन, वामन, दुष्टदमन, गोविन्द, गोपवल्लभ, भक्तिप्रिय, अच्युत, सत्य, सत्यकीर्ति, ध्रुव, शुचि, कारुण्य, करुण, व्यास, पापहा, शान्तिवर्धन, संन्यासी, शास्त्रतत्त्वज्ञ, मन्दारगिरिकेतन, बदरीनिलय, शान्त, तपस्वी, वैद्युतप्रभ, भूतावास, गुहावास, श्रीनिवास, श्रियः पति, तपोवास, दम, वास, सत्यवास, सनातन पुरुष, पुष्कल, पुण्य, पुष्कराक्ष, महेश्वर, पूर्ण, पूर्ति, पुराणज्ञ, पुण्यज्ञ, पुण्यवर्द्धन, शङ्खी, चक्री, गदी, शाङ्गी, लाङ्गली, मुशली, हली, किरीटी, कुण्डली, हारी, मेखली, कवची, ध्वजी, जिष्णु, जेता, महावीर, शत्रुघ्न, शत्रुतापन, शान्त, शान्तिकर, शास्ता, शंकर, शंतनुस्तुत, सारथि, सात्त्विक, स्वामी, सामवेदप्रिय, सम, सावन, साहसी, सत्त्व, सम्पूर्णांश, समृद्धिमान्, स्वर्गद, कामद, श्रीद, कीर्तिद, कीर्तिनाशन, मोक्षद, पुण्डरीकाक्ष, क्षीराब्धिकृतकेतन, सुरासुरैः स्तुत, प्रेरक और पापनाशन आदि नामोंसे कहे जानेवाले परमेश्वर ! आप ही यज्ञ, वषटकार, ॐकार तथा आहवनीयादि अग्निरुप हैं । पुरुषोत्तम ! देव ! आप ही स्वाहा, स्वधा और सुधा है, आप सनातन देवदेव भगवान् विष्णुको नमस्कार है । गरुडध्वज ! आप प्रमाणोंके अविषय तथा अनन्त हैं ॥३६ – ५२१/२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – इन दिव्य नामोंद्वारा स्तुति किये जानेपर भगवान् मधुसूदनने प्रत्यक्ष प्रकट होकर सम्पूर्ण देवताओंसे यह वचन कहा ॥५३१/२॥

 

श्रीभगवान् बोले – देवगण ! तुम लोगोंने केवल कल्याणकारी नामोंद्वार मेरा स्तवन किया है, अतः मैं तुमपर प्रसन्न हूँ; कहो, तुम्हारा क्या कार्य सिद्ध करुँ ? ॥५४१/२॥

 

देवता बोले – हे देवदेव ! हे हषीकेश ! हे कमलनयन ! हे लक्ष्मीपते ! हे हरे ! आप तो सब कुछ जानते हैं; फिर हमसे क्यों पूछ रहे हैं ? ॥५५१/२॥

 

श्रीभगवान् बोले – असुरनाशक देवताओ ! तुम लोगोंके आनेका सारा कारण मुझे ज्ञात है । जगतका कल्याण करनेवाले महादेवजीने तथा तुमने हिरण्यकशिपु दैत्यका नाश करानेके लिये मेरे एक सौ पुण्यनामोंद्वारा मेरा स्तवन किया है ।

 

महामते शिव ! तुम्हारे कहे हुए इन सौ नामोंसे जो मेरा नित्य स्तवन करेगा, उस पुरुषद्वारा मैं उसी प्रकार प्रतिदिन पूजित होऊँगा, जैसे इस समय तुम्हारे द्वारा हुआ हूँ ।

 

देव शम्भो ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, अब तुम अपने शुभ कैलासशिखरको जाओ । तुमने मेरी स्तुति की है, अतः तुम्हारी प्रसन्नताके लिये मैं जाओ और कुछ कालतक प्रतीक्षा करो । जब इस हिरण्यकशिपुके प्रह्लाद नामक बुद्धिमान् विष्णुभक्त पुत्र होगा और जिस समय यह दैत्य प्रह्लादसे द्रोह करेगा, उस समय वरोंसे रक्षित होकर देवताओं और दानवोंसे भी नहीं जीते जा सकनेवाले इस असुरका मैं अवश्य वध कर डालूँगा । राजन् ! भगवान् विष्णुके इस प्रकार कहनेपर देवगण उन्हें प्रणाम करके चले गये ॥५६ – ६१॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ विष्णुका नाममय स्तोत्र ‘ नामक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४०॥

अध्याय - ४१ प्रह्लादकी उत्पत्ति और उनकी हरि-भक्तिसे हिरण्यकशिपुकी उद्विग्नता

सहस्त्रानीकने कहा – सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता महाप्राज्ञ मार्कण्डेयजी ! आप भगवान् नृसिंहके प्रादुर्भावकी कथा यथोचित्तरुपसे कहें । अनघ ! भक्तवर प्रह्लादजीका चरित्र मुझे विस्तारपूर्वक सुनायें । महायोगिन् ! महामुने ! हम लोग धन्य हैं; क्योंकि आपकी कृपासे हमें भगवान् विष्णुकी कथारुप दुर्लभ सुधाका पान करनेका अवसर मिला है ॥१ – २ १/२॥

 

श्रीमार्कण्डेयजी बोले – पूर्वकालमें एक समय वह महाकाय हिरण्यकशिपु जब तपस्या करनेके लिये वनमें जानेको उद्यत हुआ, उस समय समस्त दिशाओंमें दाह और भूकम्प होने लगा । यह देखकर उसके हितकारी बन्धुओं, मित्रों और भृत्योंने उसे मना किया – ‘

 

 राजन् ! इस समय बुरे शकुन हो रहे हैं । इनका फल अच्छा नहीं है । सौम्य ! आप त्रिभुवनके एकच्छत्र स्वामी हैं, समस्त देवताओंपर आपने विजय प्राप्त की है, आपको किसीसे भय भी नहीं है; फिर किसलिये तप करना चाहते हैं ? हम सभी लोग जब अपनी बुद्धिसे विचारते हैं, तब कोई भी प्रयोजन नहीं दिखायी देता [ जिसके लिये आपको तप करनेकी आवश्यकता हो ]; क्योंकि जिसकी कामना अपूर्ण होती है, वही तपस्या करता है ‘ ॥३ – ६ १/२॥

 

अपने बन्धुजनोंके इस प्रकार मना करनेपर भी वह दुर्मद एवं मदमत्त दैत्य अपने दो-तीन मित्रोंको साथ लेकर ( तपके लिये ) कैलास-शिखरको चला ही गया ।

 

महीपाल ! वहाँ जाकर जब वह परम दुष्कर तपस्या करने लगा, तब पद्मयोनि ब्रह्माजीको उसके कारण बड़ी चिन्ता हो गयी । वे सोचने लगे – ‘ अहो ! अब क्या करुँ ? वह दैत्य कैसे तपसे निवृत्त हो ?’

 

भूपाल ! इस चिन्तासे ब्रह्माजी जब व्याकुल हो रहे थे, उसी समय उनके अङ्गसे उत्पन्न मुनिवर नारदजीने उन्हें प्रणाम करके कहा – ॥७ – १०॥

 

नारदजी बोले – पिताजी ! आप तो भगवान् नारायणके आश्रित हैं, फिर आप क्यों खेद कर रहे हैं ? जिनके हदयमें भगवान् गोविन्द विराजमान हैं, उन्हें इस प्रकार सोच नहीं करना चाहिये । तपस्यामें प्रवृत्त हुए उस दैत्य हिरण्यकशिपुको मैं उससे निवृत्त करुँगा । जगदीश्वर भगवान् नारायण मुझे इसके लिये सुबुद्धि देंगे ॥११ -१२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – अपने पितासे इस प्रकार कहकर मुनिश्रेष्ठ नारदजीने उन्हें प्रणाम किया और मन-ही-मन भगवान् वासुदेवका स्मरण करते हुए वे पर्वतमुनिके साथ वहाँसे चल दिये । वे दोनों मुनि कलविङ्क पक्षीका रुप धारणकर उस उत्तम कैलास पर्वतपर आये, जहाँ दैत्यश्रेष्ठ हिरण्यकशिपु अपने दो-तीन मित्रोंके साथ रहता था । वहाँ स्नान करके नारदमुनि वृक्षकी शाखापर बैठ गये और उस दैत्यके सुनते-सुनते गम्भीर वाणीमें भगवन्नामका उच्चारण करने लगे । उदारबुद्धि नारद लगातार तीन बार ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – इस मन्त्रका उच्च स्वरसे उच्चारण कर मौन हो गये ।

भूपाल ! कलविङ्कके द्वारा किये गये उस आदरयुक्त नामकीर्तनको सुनकर हिरण्यकशिपुने कुपित हो धनुष उठाया और उसपर बाणका संधान करके ज्यों ही उन दोनों पक्षियोंके प्रति छोड़ने लगा, त्यों ही नारद और पर्वतमुनि उड़कर अन्यत्र चले गये ।

 

महीपते ! तब हिरण्यकशिपु भी क्रोधसे भर गया और उसी समय वह उस आश्रमको त्यागकर अपने नगरको चला आया ॥१३ – १९॥

 

वहाँ उसी समय उसकी कयाधू नामकी सुन्दरी पत्नी दैवयोगसे रजस्वला होकर ऋतु-स्नाता हुई थी । रात्रिमें एकान्तवासके समय कयाधूने दैत्यराजसे पूछा- ‘ स्वामिन् ! आप जिस समय तप करनेके लिये घरसे वनको गये थे, उस समय तो आपने यह कहा था कि ‘ मेरी यह तपस्या दस हजार वर्षोंतक चलेगी ।’ फिर महाराज ! आपने अभी क्यों उस व्रतको त्याग दिया ? स्वामिन् ! दैत्यराज ! मैं प्रेमपूर्वक आपसे यह प्रश्न करती हूँ, कृपया मुझे सच-सच बताइये ‘ ॥२० – २२ १/२॥

 

हिरण्यकशिपु बोला – सुन्दरि ! सुनो, मैं वह बात तुम्हें सच-सच सुनाता हूँ, जिसके कारण मेरे व्रतका भङ्ग हुआ है । वह बात मेरे क्रोधको अत्यन्त बढ़ानेवाली और देवताओंको आनन्द देनेवाली थी । देवि ! कैलासशिखरपर जो महान् आनन्द-कानन है, उसमें दो पक्षी ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – इस शुभवाणीका उच्चारण करते हुए आ गये ।

 

शुभे ! उन्होंने [ मुझे सुना – सुनाकर ] दो बार, तीन बार उक्त वचनको दुहराया । वरानने ! पक्षियोंके उस शब्दको सुनकर मेरे मनमें बड़ा क्रोध हुआ और भामिनि ! उन्हें मारनेके लिये धनुषपर बाण चढ़ाकर ज्यों ही मैंने छोड़ना चाहा, त्यों ही वे दोनों पक्षी भयभीत हो उड़कर अन्यत्र चले गये । तब मैं भी भावीकी प्रबलतासे अपना व्रत त्यागकर यहाँ चला आया ॥२३ – २७॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – [ हिरण्यकशिपु अपनी पत्नीके साथ ] जब इस प्रकार बातें कर रहा था, उसी समय उसका वीर्य स्खलित हुआ; पत्नीका ऋतुकाल तो प्राप्त था ही, तत्काल गर्भ स्थापित हो गया । माताके उदरमें बढ़ते हुए उस गर्भसे बुद्धिमान् नारदजीके उपदेशके कारण विष्णुभक्त पुत्र उत्पन्न हुआ ।

भूप ! इस प्रसङ्गको आगे कहूँगा; इस समय जो प्रसङ्ग चल रहा है, उसे श्रद्धापूर्वक सुनो । हिरण्यकशिपुका वह भक्त पुत्र प्रह्लाद जन्मस्से ही वैष्णव हुआ । जैसे पापपूर्ण कलियुगमें संसार बन्धनसे मुक्त करनेवाली भगवान श्रीहरिकी भक्ति बढ़ती रहती हैं, उसी प्रकार उस मलिन कर्म करनेवाले असुरवंशमें भी प्रह्लाद निर्मल भावसे रहकर दिनोंदिन बढ़ने लगा । वह बालक त्रिलोकीनाथ भगवान् विष्णुके चरणोंमें बढ़ती हुई भक्तिके साथ ही स्वयं भी बढ़ता हुआ शोभा पा रहा था । शरीर छोटा होनेपर भी उस बालकका हदय महान् था; वह विष्णुभक्तिक प्रसार करता हुआ उसी तरह शोभा पाता था, जैसे चौथा युग ( कलियुग ) [ महत्त्वमें सब युगोंसे छोटा होकर भी ] भगवद्भजनसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको देनेवाला तथा यशका विस्तार करनेवाला होता है । प्रह्लाद अन्य बालकोंके साथ खेलते, पहेली बुझाते और खिलौने आदिसे मनोरज्जन करते समय तथा बातचीतके प्रसङ्गमें भी सदा भगवन् विष्णुकी ही चर्चा करता था; क्योंकि उसका स्वभाव भगवन्मय हो गया था । इस प्रकार शैशव – कालमें भी विचित्र कार्य करनेवाला वह प्रह्लाद भगवत्स्मरणरुपी अमृतका पान करता हुआ दिन-दिन बढ़ने लगा ॥२८ – ३४॥

 

एक दिन बहुत-सी स्त्रियोंके बीचमें बैठे हुए दुष्ट दैत्यराज हिरण्यकशिपुने गुरुजीके घरसे आये हुए कमलसे मुखवाले अपने बालक पुत्र प्रह्लादको देखा; उसकी आँखे बड़ी-बड़ी और सुन्दर थीं तथा वह हाथमें पट्टी लिये हुए था । उसकी पट्टी बड़ी सुन्दर थी, उसके सिरेपर चक्रका चिह्न बना हुआ था और पट्टीपर आदरपूर्वक श्रीकृष्णका नाम लिखा गया था । उसे देख हिरण्यकशिपुको बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने पुत्रको पास बुलाकर उसे प्यार करते हुए कहा – ‘ बेटा ! तुम्हारी बुद्धिमती माता मुझसे तुम्हारी बड़ी प्रशंसा किया करती है । अतः तुमने गुरुजीके घर जो कुछ सीखा है, वह मुझसे कहो । पहले सोच लो, जो तुम्हें बहुत आनन्ददायी प्रतीत होता और भलीभाँति याद हो, वही पाठ सुनाओ ‘ ॥३५ – ३८॥

 

यह सुनकर जन्मसे ही विष्णुकी भक्ति करनेवाले प्रह्लादने प्रसन्नतापूर्वक पितासे कहा – ‘ त्रिभुवनके वन्दनीय भगवान् गोविन्दको प्रणाम करके मैं अपना पढ़ा हुआ पाठ आपको सुनाता हूँ ।’ अपने पुत्रके मुखसे इस प्रकार शत्रुकी स्तुति सुनकर स्त्रियोंसे धिरा हुआ वह दुष्ट दैत्य यद्यपि बहुत क्रुद्ध हुआ, तथापि प्रह्लादसे उस क्रोधको छिपानेके लिये वह प्रसन्न पुरुषकी भाँति जोर-जोरसे हँसने लगा । फीर पुत्रको गलेसे लगाकर बोला -” बच्चा ! मेरा हितकर वचन सुनो – बेटा ! जो लोग ‘ राम, कृष्ण, गोविन्द्र, विष्णो, माधव, श्रीपते ! ‘ इस प्रकार कहा करते हैं, वे सभी मेरे शत्रु हैं; ऐसे लोग मेरे द्वारा शासित दण्डित हुए हैं । तुमने यह हरिनामकीर्तन इस अवस्थामें कहाँ सुन लिया ?” ॥३९ – ४२॥

 

पिताकी बात सुनकर बुद्धिमान प्रह्लाद निर्भय होकर बोला – आर्य ! आपको कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये । जो मनुष्य सम्पूर्ण ऐश्वर्योंको देनेवाले तथा धर्म आदिकी वृद्धि करनेवाले ‘ कृष्ण ‘ इस मन्त्रका उच्चारण करता है, वह अभय पदको प्राप्त कर लेता है । भगवान् कृष्णकी निन्दासे होनेवाले पापका कहीं अन्त नहीं है; अतः अब आप अपनी शुद्धिके लिये भक्तिपूर्वक ‘ राम, माधव और कृष्ण ‘ इत्यादि नाम लेते हुए भगवानका स्मरण करें । जो बात मैं आपसे कह रहा हूँ, वह सबसे बढ़कर हितसाधक है, इसीलिये मेरे गुरुजन होनेपर भी आपसे मैं निवेदन करता हूँ कि आप समस्त पापोंका क्षय करनेवाले सर्वेश्वर भगवान् विष्णुकी शरणमें जायँ ॥४३ – ४६॥

 

प्रह्लादके यों कहनेपर देवशत्रु हिरण्यकशिपु अपने क्रोधको रोक न सका, उसने रोषको प्रकट करके पुत्रको फटकारते हुए कहा – ‘ हाय ! हाय ! किसने इस बालकको अत्यन्त मध्यम कोटिकी अवस्थाको पहुँचा दिया ? रे दुष्ट पुत्र ! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है ! तूने क्यों मेरा महान् अपराध किया ? ओ दुराचारी नीच पुरुष ! अरे पापिष्ठ ! तू यहाँसे चला जा, चला जा ।’ यों कहकर उसने अपने चारों ओर निहारकर फिर कहा – ‘ नृशंस पराक्रमी क्रूर दैत्य जायँ और इसके गुरुको बाँधकर यहाँ ले आयें ॥४७ – ४८ १/२॥

 

यह सुन दैत्योंने प्रह्लादके गुरुको वहाँ लाकर उपस्थित कर दिया । बुद्धिमान् गुरुने उस दुष्ट दैत्यराजसे विनयपूर्वक कहा – देवान्तक ! थोड़ा विचार तो कीजिये । आपने समस्त त्रिभुवनको अनायास ही अनेकों बार पराजित किया है, खेल-खेलमें ही सबको जीता है, रोषसे कभी काम नहीं लिया । फिर मुझ-जैसे तुच्छ प्राणीपर क्रोध करनेसे क्या लाभ होगा ? ॥४९ – ५०॥

 

ब्राह्मणके इस शान्त वचनको सुनकर दैत्यराज बोला – ‘ अरे पापी ! तूने मेरे बालक पुत्रको विष्णुका स्तोत्र पढ़ा दिया है ।’ गुरुसे यों कहकर राजा हिरण्यकशिपुने अपने निर्दोष पुत्रके प्रति सान्त्वनापूर्वक कहा – ” बेटा ! तू मेरा आत्मज है, तुझमें यह जड-बुद्धि कैसे आ सकती है ? यह तो इन ब्राह्मणोंकी ही करतूत है । मूर्ख बालक ! आजसे तू सदा विष्णुकिए पक्षमें रहनेवाले धूर्त ब्राह्मणोंका साथ छोड़ दे, ब्राह्मणमात्रका सङ्ग त्याग दे; ब्राह्मणोंकी संगति अच्छी नहीं होती; क्योंकि इन ब्राह्मणोंने ही तेरे उस तेजको छिपा दिया, जो हमारे कुलके लिये सर्वथा उचित था । जिस पुरुषको जिसकी संगति मिल जाती है, उसमें उसीके गुण आने लगते हैं – ठीक उसी तरह, जैसे मणि कीचड़में पड़ी हो तो उसमें उसके दुर्गन्ध आदि दोष आ जाते हैं । अतः बुद्धिमान् पुरुषको उचित है कि वह अपने कुलकी समृद्धिके लिये आत्मीय जनोंका ही आश्रय ले । बुद्धिहीन बालक ! मेरे पुत्रके लिये तो उचित कर्तव्य यह है कि वह विष्णुके पक्षमें रहनेवाले लोगोंका नाश करे; परंतु तू इस उचित कार्यको त्यागकर इसके विपरीत स्वयं ही विष्णुका भजन कर रहा है ! बता तो सही, क्या यों करते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? अरे ! मुझ सम्पूर्ण जगतके सम्राटका पुत्र होकर तू दूसरेको अपना स्वामी बनाना चाहता है ? बेटा ! मैं तुझे संसारका तत्त्व बताता हूँ, सुन; यहाँ कोई भी अपना स्वामी नहीं है । जो शूरवीर है, वही लक्ष्मीका उपभोग करता है तथा वही प्रभु है, वही महेश्वर है ॥५१ – ५७॥

 

” वही सबका अध्यक्ष देवता है, जैसा कि तीनों लोकोंपर विजय पानेवाला मैं हूँ । इसलिये तू अपनी यह जडता त्याग दे और अपने कुलके लिये उचित वीरताका आश्रय ले । तेरी यह कायरता देखकर दूसरे लोग भी तुझे मारेंगे और कहेंगे कि ‘ अरे ! यह असुर होकर भी देवताओंकी उसी प्रकार स्तुति करता है, जैसे बिल्ली चूहेकी स्तुति करे और मोर अपने द्वेषपात्र सर्पोंकी प्रार्थना करे । ऐसा करना अवश्य ही अनिष्टका सूचक है । मूर्ख प्राणी महान् ऐश्वर्य पाकर भी [ अपने खोटे कर्मोंके द्वारा ] नीचे गिर जाते हैं, जैसे मेरा पुत्र प्रह्लाद, जो स्वयं स्तुतिके योग्य था, आज नीच जनोंकी भाँति उन लोगोंकी स्तुति कर रहा है, जो स्वयं हमारी स्तुति करनेवाली हैं । रे मूर्ख ! तू मेरा ऐश्वर्य देखकर भी मेरे सामने ही हरिका नाम ले रहा है ? वह हरि इस सम्मानके योग्य नहीं है, उसकी स्तुति विडम्बनामात्र है ” ॥५८ – ६१ १/२॥

 

भूप ! अपने पुत्रसे इस प्रकार कहकर वह इतना कुपित हुआ कि उसका स्वरुप भयानक हो गया; फिर प्रह्लादके गुरुको टेढ़ी नजरसे देखकर उन्हें अपने रोषसे कँपाता हुआ बोला – ‘ मूर्ख ब्राह्मण ! यहाँसे चला जा, चला जा । अबकी बार मेरे पुत्रको अच्छी शिक्षा देना ।’ दुष्ट राजाकी सेवा करनेवाला वह ब्राह्मण ‘ बड़ी कृपा हुई ‘ यों कहता हुआ घर चला गया और विष्णुका भजन त्यागकर दैत्यराज ( हिरण्यकशिपु ) – का अनुसरण करने लगा । सच है, लोभी मनुष्य अपना पेट पालनेके लिये क्या नहीं कर सकते ? ॥६२ – ६४॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ नरसिंहावतार ‘ नामक इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४१॥

अध्याय - ४२ प्रादपरहिरण्यकशिपुका कोप और प्रादका वध करनेके लिये उसकेद्वारा किये गये अनेक प्रयल

मार्कण्डेयजी कहते हैं – भगवान् विष्णुकी भक्ति ही जिनका भूषण है, वे दैत्यराजकुमार योगी प्रह्लादजी शीघ्र ही सारथिके साथ गुरुके घर भेजे गये । वहाँ वे कालक्रमसे सम्पूर्ण विद्याओंके ज्ञानके साथ कुमारावस्थाको प्राप्त हुए । संसारके अन्य लोग कौमार अवस्थाको पाकर प्रायः नास्तिक विचार और बुरे आचार – व्यवहारके पोषक बन जाते हैं, परंतु उसी उम्रमें प्रह्लादको बाह्य विषयोंसे वैराग्य हुआ और भगवानमें उनकी भक्ति हो गयी – यह अद्भुत बात है । तदनन्तर जब प्रह्लादने गुरुके यहाँ अपनी पढ़ाई समाप्त कर ली, तब एक दिन दैत्यराजने उन्हें अपने पास बुलवाया और ईश्वर – तत्त्वके ज्ञाता प्रह्लादको अपने सामने प्रणाम करके खड़े देख उनसे कहा – ॥१ – ३॥

 

सुरसूदन ! तुम अज्ञानकी निधिरुपा बाल्यावस्थासे मुक्त हो गये – यह बहुत अच्छा हुआ । इस समय तुम कुहिरेसे निकले हुए सूर्यकी भाँति अपने तेजसे प्रकाशित हो रहे हो ।

 

पुत्र ! बचपनमें तुम्हारी ही तरह हमें भी जडबुद्धि सिखानेके लिये ब्राह्मणोंने मोहित कर रखा था; किंतु अवस्था बढ़नेपर जब हम समझदार हुए, तब इस प्रकार अपने कुलके अनुरुप सुन्दर शिक्षा ग्रहण कर सके थे । अतः शत्रुरुपी काँटोंसे युक्त इस राज्य-शासनके भारको, जिसे मैंने बहुत दिनोंसे धारण कर रखा है, अब तुझ सामर्थ्यवान् पुत्रपर रखकर मैं तुम्हारी राज्य लक्ष्मीको देखते हुए सुखी होना चाहता हूँ । पिता जब-जब अपने पुत्रकी निपुणता देखता है, तब-तब अपनी मानसिक चिन्ता त्यागकर महान् सुखका अनुभव करता है । तुम्हारे गुरुने भी मेरे समक्ष तुम्हारी योग्यताका बड़ा बखान किया है । यह तुम्हारे लिये कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । आज मेरे कान तुम्हारी कुछ बातें सुनना चाहते हैं । नेत्रोंके समने शत्रुकी दरिद्रता देखना, कानोंमें पुत्रकी सुन्दर वाणीका पड़ना और अङ्गोंमें युद्धके आघातसे घाव होना- यह सब ऐश्वर्यवान् वीरो अथवा मायावी दैत्योंके लिये महान् उत्सवके समान है ॥४ – ९॥

 

उस समय दैत्यराजके ये शठतापूर्ण वचन सुनकर योगी प्रह्लादने पिताको प्रणाम करके निर्भीकतापूर्वक कहा –

महाराज ! आपका यह कथन सत्य है कि अच्छी बातें सुनना कानोंके लिये महान् उत्सवके समान हैं; किंतु वे बातें भगवान् विष्णुसे सम्बन्ध रखनेवाली हों, तभी ऐसा होता है । उनको छोड़कर दूसरी बातें सुननेका विचार भी नहीं करना चाहिये । जो संसारके दुःखसमुदायरुपी तृणोंको भस्म करने के लिये अग्निके समान हैं, उन भगवानविष्णुका जिसमें गुणगान किया जात हो, वही वचन नीतियुक्त है, वही सूक्ति ( सुन्दर वाक्य ) है, वही सुनने योग्य कथा और श्रवण करने योग्य काव्य है । जिसमें भक्तोंको अभीष्ट वस्तु देनेवाले अचिन्त्य परमेश्वरका भक्तिपूर्वक स्तवन किया जाता हो, वही शास्त्र है । तात ! उस अर्थशास्त्रसे क्या लाभ, जिसमें संसार-चक्रमें डालनेवाली ही बातें कही गयी हैं ।

 

पिताजी ! उस शास्त्रमें परिश्रम करनेसे क्या सिद्ध होगा, जिससे आत्माका ही हनन होता है; इसलिये मुमुक्षु पुरुषोंको सदा वैष्णव शास्त्रोंका ही श्रवण और सेवन करना चाहिये । अन्यथा सांसारिक कष्टसे छुटकारा नहीं मिलता और न मनुष्य सुखी ही हो पात है ॥११ – १४ १/२॥

 

जिस प्रकार तपाया हुआ घी जलके छीटे पड़नेसे और अधिक प्रज्वलित हो उठता है, वैसे ही दैत्यराज हिरण्यकशिपु प्रह्लादकी उपर्युक्त बातें सुनकर क्रोधसे जल उठा । जैसे उल्लू सूर्यकी प्रभा नहीं देख सकता, उसी प्रकार वह क्षुद्र असुर जीवके संसार – बन्धनको नष्ट करनेवाली प्रह्लादकी पवित्र वाणी न सह सका । उस क्रोधीने चारों ओर देखकर दैत्य वीरोंसे कहा – ॥१५ – १७॥

 

अरे ! इस कुटिलको शस्त्रोंके भयंकर आघातसे मार डालो, इसके मर्मस्थानोंके टुकड़े-टुकड़े कर दो; आज इसका भगवान् स्वयं आकर इसकी रक्षा करे । विष्णुकी स्तुति करनेका फल यह आज इसी समय अपनी आँखोंसे देखे । इसका अङ्ग-अङ्ग काटकर कौओं, काँकों और गिद्धोंको बाँट दो ‘ ॥१८ – १९॥

 

तब अपने स्वामी हिरण्यकशिपुद्वारा प्रेरित दैत्यगण अपनी विकट गर्जनासे डराते हुए, हाथमें शस्त्र लेकर भगवानके प्रिय भक्त उन प्रह्लादजीको मारने लगे । प्रह्लादने भी भगवानको नमस्कार करके ध्यानरुपी वज्र ग्रहण किया । तब भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले भगवान् विष्णु स्वभावतः प्रेम करनेवाले भक्त प्रह्लादके शरीरमें स्पर्श किये बिना ही नील-कमलके टुकडोंकी भाँति खण्ड-खण्ड होकर गिर जाने लगे । भला, ये प्राकृत शस्त्र भगवानके प्रिय भक्तका क्या कर सकते हैं । उससे तो सम्पूर्ण त्रितापरुपी महान् अस्त्रसमूह भी भय मानता है । व्याधि, राक्षस और ग्रह – ये तभीतक मनुष्योंको पीडा पहुँचाते हैं, जबतक उनका चित्त हदय-गुहामें सूक्ष्मरुपसे स्थित भगवान् विष्णुको नहीं प्राप्त कर लेता । भक्तके अपमानका मानो तत्काल फल देनेवाले वे भग्न अस्त्रखण्ड उलटे चलकर दैत्योंका संहार करने लगे । इनसे पीड़ित होनेके कारण वे दैत्य इधर-उधर भाग गये ।

 

विद्वानोंकी दृष्टिमें ऐसा होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, अज्ञानीजनोंको ही इस घटनासे विस्मय हो सकता है ॥२० – २६॥

 

वैष्णवोंका बल देखकर राजा हिरण्यकशिपुको अवश्य ही महान् भय हुआ; कितु उस दुर्बुद्धिने पुनः प्रह्लादके वधका उपाय सोचते हुए, अत्यन्त भयंकर विषवाले सर्पोंको बुलाकर उन्हें आदेश दिया – ‘

 

गरलायुधो ! विष्णुको संतुष्ट करनेवाला यह निश्शङ्क बालक किसी शस्त्रसे नहीं मारा जा सकता; अतः तुम सभी मिलकर इसे अति शीघ्र मार डालो ।’ हिरण्यकशिपुकी यह बात सुनकर उसकी आज्ञा माननेवाले सभी सर्पोंने उसके आदेशको हर्षपूर्वक शिरोधार्य किया ॥२७ – २९॥

 

तदनन्तर जिनके दाँत विषसे जल रहे हैं तथा जिनकी दाढ़ें विकराल हैं, जो स्फुट दिखायी देनेवाले हजारों चमकीले दाँतोंके कारण भयानक जान पड़ते हैं, ऐसे सर्पगण क्रोधसे फुफकारते हुए बड़े वेगसे उस हरिभक्तके ऊपर टूट पड़े । भगवानके स्मरणके बलसे जिनका आकार दुर्भेद्य हो गया था, उन प्रह्लादजीके शरीरका थोड़ा-सा चमड़ा भी काटनेमें वे विषधर सर्प समर्थ न हो सके । इतना ही नहीं, जिनका शरीर भगवन्मय हो गया था, उन प्रह्लादजीको केवल डँसनेमात्रसे वे सर्प अपने सारे दाँत खो बैठे । तदनन्तर रक्तकी धारा बहनेसे जिनका आकार विषादग्रस्त हो रहा है, जिनके अद्भुत दाँतोंके दो-दो टुकड़े हो गये हैं तथा बार-बार उच्छवास लेनेके कारण जिनके फन चञ्चल हो रहे हैं, उन भुजंगमोंने परस्पर मिलकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुको सूचित किया – ॥३० – ३२॥

 

प्रभो ! हम पर्वतोंको भी भस्म करनेमें समर्थ हैं, यदि उनमें हमारी शक्ति न चले तो आप तत्काल हमारा वध कर सकते हैं । परंतु आपके महानुभाव पुत्रका वध करनेमें लगाये जाकर तो हम अपने दाँतोंसे भी हाथ धो बैठे ।’ इस प्रकार बड़ी कठिनाईसे निवेदन करके स्वामी हिरण्यकशिपुके आदेश देनेपर भी अपने कार्यमें असफल हुए वे सर्प अत्यन्त आश्चर्यके साथ प्रह्लादके अद्भुत सामर्थ्यका क्या कारण है, इसका विचार करते हुए चले गये ॥३३ – ३४॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – इसके बाद असुरराज हिरण्यकशिपुने मन्त्रियोंके साथ विचारकर अपने पुत्रको दण्डसे अजेय मानकर उसे शान्तिपूर्वक अपने पास बुलाया और जब वह आकर प्रणाम करके खड़ा हो गया, तब उस निर्मल एवं पवित्र हदयवाले अपने पुत्रसे कहा – ‘

 

प्रह्लाद ! अपने शरीरसे यदि दुष्ट पुत्र भी उत्पन्न हो जाय तो वह वधके योग्य नहीं है, यह सोचकर अब तुझपर मुझे दया आ गयी हैं; तत्पश्चात् तुरंत ही वहाँ दैत्यराजके पुरोहित आये । शास्त्रविशारद होनेपर भी वे मूढ ही रह गये थे । उन ब्राह्मणोंने हाथ जोड़कर कहा – ‘

 

देव ! तुम्हारी युद्धविषयक इच्छा होते ही सारा त्रिभुवन थरथर काँपने लगता है । यह अल्प बलवाला प्रह्लाद कुपित हुए आप महान् बलशालीको नहीं जानता । अतः

 

देव ! आपको क्रोधका परित्याग करके इसपर दया करनी चाहिये; क्योंकि पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाय, परंतु माता-पिता कभी कुमाता अथवा कुपिता नहीं होते ‘ ॥३६ – ३८॥

 

दैत्यराजके पुरोहितोंने उस दुर्बुद्धि दैत्य हिरण्यकशिपुसे यों कहकर उसकी आज्ञासे प्रह्लादको साथ लेकर अपने भवनको चले गये ॥३९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ नरसिंहावतारविषयक ‘ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४२॥

अध्याय - ४३ प्रहादजीका दैत्यपुत्रोंको उपदेश देना; हिरण्यकशिपुकी आज्ञासे प्रह्लादका समुद्रमें डाला जाना तथा वहीं उन्हें भगवानका प्रत्यक्ष दर्शन होना

मार्कण्डेयजी बोले – तदनन्तर सकल शास्त्राके ज्ञाता प्रह्लादजी गुरुके घरमें रहकर भी अपने पवित्र मनको भगवान् विष्णुमें लगाये रहनेके कारण सम्पूर्ण जगतको नारायणका स्वरुप समझकर बाह्य-लौकिक कर्मोंमें जडकी भाँति व्यवहार करते हुए विचरते थे । एक दिन, उनके साथ ही गुरुकुलमें निवास करनेवाले छात्र-बालक पाठ-श्रवण बंद करके, एकत्र हो, प्रसादसे कहने लगे – ‘

 

राजकुमार ! अहो ! आपका चरित्र बड़ा ही विचित्र हैं; क्योंकि आपने विषय-भोगोंका लोभ त्याग दिया है ।

 

प्रिय ! आप अपने हदयमें किसी अनिर्वचनीय वस्तुका चिन्तन करके सदा पुलकित रहते हैं । यदि वह वस्तु छिपानेयोग्य न हो तो हमें भी बताइये ‘ ॥१ – २॥

 

नृप ! प्रह्लादजी सबपर स्नेह करनेवाले थे, अतः इस प्रकार पूछते हुए मन्त्रिकुमारोंसे वे यों बोले – ” हे दैत्यपुत्रो ! एकमात्र भगवानमें अनुराग रखनेवाला मैं तुम्हरे पूछनेपर जो कुछ भी बता रहा हूँ, उसे तुमलोग प्रसन्नचित्त होकर सुनो । यह जो धन, जन और स्त्री-विलास आदिसे अत्यन्त रमणीय प्रतीत होनेवाला सांसारिक वैभव दृष्टिगोचर हो रहा है, इसपर विचार करो । क्या यह लोक-वैभव विद्वानोंके सेवन करने योग्य है या जल्दी-जल्दी दूरसे ही त्याग देनेयोग्य ?

 

अहो ! जिनके अङ्ग गर्भाशयमें टेढ़े-मेढ़े पड़े हैं, जो जठरानलकी ज्वालासे संतप्त हो रहे हैं तथा जिन्हें अपने अनेक पूर्वजन्मोंका स्मरण हो रहा है, वे माताके गर्भमें पड़े हुए जीव जिस महान् कष्टका अनुभव करते हैं, पहले उसपर तो विचार करो; ‘ गर्भमें पड़ा हुआ दुःखी जीव कहता है – ‘

 

हाय ! कारागारमें बँधे हुए चोरकी भाँति मैं विष्ठा, कृमियों और मूत्रसे भरे हुए इस [ देहरुपी ] घरमें जरायु ( झिल्ली ) – से बँधा पड़ा हूँ । मैंने जो एक बार भी भगवान् मुकुन्दके चरणारविन्दोंका स्मरण नहीं किया, उसीके कारण होनेवाले कष्टको आज मैं इस गर्भमें भोग रहा हूँ ।’ अतः गर्भमें सोनेवाले जीवको बचपन, जवानी और बुढ़ापेमें भी सुख नहीं है ।

 

दैत्यकुमारो ! जब इस प्रकार यह संसार सदा दुःखमय है, तब विज्ञ पुरुष इसका सेवन कैसे कर सकते हैं ? इस तरह इस संसारमें ढूँढ़नेपर हमें सुखका लेशमात्र भी दिखायी नहीं देता । हम जैसे-जैसे इसपर ठीक विचार करते हैं, वैसे-ही-वैसे इस जगतको अत्यन्त दुःखमय समझते हैं । इसलिये ऊपरसे सुन्दर दिखायी देनेवाले इस दुःखपूर्ण संसारमें साधु पुरुष आसक्त नहीं होते । जो तत्त्वज्ञानसे रहित अत्यन्त मूढ़ लोग हैं, वे ही देखनेमें सुन्दर दीपकपर गिरकर नष्ट होनेवाले पतंगोंकी भाँति सांसारिक भोगोंमें आसक्त होते हैं । यदि सुखके लिये कोई दूसरा सहारा न होता, तब तो सुखमय-से प्रतीत होनेवाले इस जगतमें आसक्त होना उचित था- जैसे अन्न न पानेके कारण जो अत्यन्त दुबले हो रहे हैं, उनके लिये खली-भूसी आदि खा लेना ठीक हो सकता है; परंतु भगवान् लक्ष्मीपतीके युगल चरणारविन्दोंकी सेवासे प्राप्त होनेवाला आदि, अविनाशी, अजन्मा एवं नित्य सुख ( परमात्मा ) तो है ही, फिर इस क्षणिक संसारका आश्रय क्यों लिया जाय ? ॥६ – १०॥

 

” जो बिना कष्टके ही प्राप्त होनेयोग्य इस महान् सुख ( परमेश्वर )- को त्यागकर अन्य तुच्छ सुखोंकी इच्छा करता है, वह दीनहदय मूर्ख पुरुष मानो हाथमें आये हुए अपने राज्यको त्यागकर भीख माँगता है । भगवान् लक्ष्मीपतिके युगल-चरणारविन्दोंका यथार्थ पूजन वस्त्र, धन और परिश्रमसे नहीं होता; किंतु मनुष्य यदि अनन्यचित्त होकर ‘ केशव ‘, ‘ माधव ‘ आदि भगवन्नामोंका उच्चारण करे तो वही उनकी वास्तविक पूजा है ।

 

दैत्यकुमारो ! इस प्रकार संसारको दुःखमय जानकर भगवानका ही भलीभाँति भजन करो । इस प्रकार करनेसे ही मनुष्यका जन्म सफल हो सकता है; नहीं तो ( भगवद्भजन न करनेके कारण ) अज्ञानी पुरुष भवसागरमें ही नीचेसे और नीचे स्तरमें ही गिरता रहता है । इसलिये इस संसारमें समस्त कामनाओंसे रहित हो तुम सभी लोग अपने हदयके भीतर विराजमान शङ्ख-चक्र-गदाधारी, वरदाता, अविनाशी स्तवनीय भगवान् मुकुन्दका सच्चे भक्तिभावसे सदा चिन्तन करो ।

 

भवसागरमें पड़े हुए दैत्यपुत्रो ! तुम लोग नास्तिक नहीं हो, इसलिये दयावश मैं तुमसे यह गोपनीय बात बतलाता हूँ – समस्त प्राणियोंके प्रति मित्रभाव रखो; क्योंकि सबके भीतर भगवान् विष्णु ही विराजमान हैं ” ॥११ – १५॥

 

दैत्यपुत्र बोले – महाबुद्धिमान् प्रह्लादजी ! बचपनसे लेकर आजतक आप और हम भी शण्डामर्कके सिवा दूसरे किसी गुरु तथा मित्रको नहीं जान सके । फिर आपने यह ज्ञान कहाँ सीखा ? हमसे पर्दा न रखकर सच्ची बात बताइये ॥१६ १/२॥

 

प्रह्लादजी बोले – कहते हैं, जिस समय मेरे पिताजी तपस्या करनेके लिये महान् वनमें चले गये, उसी समय इन्द्रने यहाँ आकर पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपुको मरा हुआ समझकर उनके इस नगरको घेर लिया । इन्द्र कामाग्निसे पीड़ित हो मेरी महाभागा माताजीको पकड़कर यहाँसे चल दिये । वे मार्गमें बड़ी तेजीसे पैर बढ़ाते हुए चले जा रहे थे । इसी समय देवदर्शन नारदजी मुझे माताके गर्भमें स्थित जान सहसा वहाँ पहुँचे और चिल्लाकर इन्द्रसे बोले – ‘

 

मूर्ख ! इस पतिव्रताको छोड़ दो । इसके गर्भमें जो बालक है, वह भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ है ।’ नारदजीका कथन सुनकर इन्द्रने विष्णुभक्तिके कारण मेरी माताको प्रणाम करके छोड़ दिया और वे अपने लोकको चले गये । फिर शुभ सङ्कल्पवाले नारदजी मेरी माताक्लो अपने आश्रममें ले आये और मेरे उद्देश्यसे मेरी महाभागा माताके प्रति इस पूर्वोक्त ज्ञानका वर्णन किया ।

 

दानवो ! बाल्यकालके अभ्यास, भगवानकी कृपा तथा नारदजीका उपदेश होनेसे वह ज्ञान मुझे भूला नहीं है ॥१७ – २३ १/२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – एक दिन राक्षसराज हिरण्यकशिपु रात्रिके समय गुप्तरुपसे नगरमें घूम रहा था । उस समय उसे ‘ जय राम ‘ का कीर्तन सुनायी देने लगा । तब बलवान् दानवराजने यह सब अपने पुत्रकी ही करतूत समझी । तब उस दैत्यराजने क्रोधान्ध होकर पुरोहितोंको बुलाया और कहा – ‘ नीच ब्राह्मणो ! जान पड़ता है, तुमलोग मरनेके लिये अत्याधिक उत्सुक हो गये हो । तुम्हारे देखते-देखते यह प्रह्लाद स्वयं तो व्यर्थकी बातें बकता ही है, दूसरोंको भी यही सिखाता है ।’ इस प्रकार उन ब्राह्मणोंको फटकारकर राजा हिरण्यकशिपु लम्बी साँसें खींचता हुआ घरमें आया । उस समय भी वह पुत्रवधके विषयमें होनेवाली चिन्ताको, जो उसका ही नाश करनेवाली थी, नहीं छोड़ सका । उसकी मृत्यु निकट थी; अतः उसने अमर्षवश एक ऐसा काम सोचा, जो वास्तवमें न करने योग्य ही था । हिरण्यकशिपुने दैत्यादिकोंको बुलाया और उनसे एकान्तमें कहा – ‘ देखो, आज रातमें प्रह्लाद जब गाढ़ी नींदमें सो जाय, उस समय उस दुष्टको भयंकर नागपाशोंद्वारा खूब कसकर बाँध दो और बीच समुद्रमें फेंक आओ ‘ ॥२४ – २९ १/२॥

 

उसकी आज्ञा शिरोधार्य करके उन दैत्योंने प्रह्लादजीके पास जाकर उन्हें देखा । वे रात्रिके ही प्रेमी थे ( क्योंकि रातमें ही उन्हें ध्यान लगानेकी सुविधा रहती थी ) । प्रह्लादजी समाधिमें स्थित होकर जाग रहे थे, फिर भी खूब सोये हुएके समान स्थित थे । उन्होंने राग और लोभ आदिके महान् बन्धनोंको काट डाला था, तो भी उन महात्मा प्रह्लादकी निशाचरोंने तुच्छ नागपाशोंसे बाँध दिया । जिनकी ध्वजामें साक्षात् गरुडजी विराजमान हैं, उन भगवानके भक्त प्रह्लादको उन मूर्खोंने सर्पोंद्वारा बाँधा और जलशायीके प्रियजनको ले जाकर जलराशि समुद्रमें डाला । तदनन्तर उन बली दैत्योंने प्रह्लादके ऊपर पर्वतकी चट्टनें रख दीं और तुरंत ही जाकर राजा हिरण्यकशिपुको यह प्रिय संवाद कह सुनाया । उसे सुनकर उस दैत्यराजने भी उन सबका सम्मान किया ॥३० – ३३ १/२॥

 

बीच समुद्रमें पड़े हुए प्रह्लादको भगवानके तेजसे दूसरे बडवानलकी भाँति प्रज्वलित देख अत्यन्त भयके कारण ग्राहोंने उन्हें दूरसे ही त्याग दिया । प्रल्हाद भी अपनेसे अभिन्न चिदानन्दमय समुद्र ( परमेश्वर ) – में समाहित होनेके कारण यह न जान सके कि ‘ मैं बाँधकर खारे पानीके सागरमें डाल दिया गया हूँ ।’ मुनि ( प्रह्लाद ) जब ब्रह्मानन्दामृतके समुद्ररुप अपने आत्मामें स्थित हो गये, उस समय समुद्र इस प्रकार क्षुब्ध हो उठा, मानो उसमें दूसरे महासागरका प्रवेश हो गया हो । फिर समुद्रकी लहरें प्रह्लादको धीरे-धीरे कठिनाईसे ठेलकर उस नौकरहित सागरके तटकी ओर ले गयी-ठीक उसे प्रकार, जैसे ज्ञानी गुरुके वचन क्लेशोंका उन्मूलन करके शिष्यको भवसागरसे पार पहुँचा देते हैं । ध्यानके द्वारा विष्णुस्वरुप हुए उन प्रह्लादजीको तीरपर पहुँचाकर भगवान् वरुणालय ( समुद्र ) बहुत-से रत्न ले उनका दर्शन करनेके लिये आये । इतनेमें ही भगवानकी आज्ञा पाकर सर्पभक्षी गरुडजी वहाँ आ पहुँचे और बन्धनभूत सर्पोंको अत्यन्त हर्षपूर्वक खाकर चले गये ॥३४ – ३९ १/२॥

 

तत्पश्चात् गम्भीर घोषवाला दिव्यरुपधारी समुद्र समाधिनिष्ठ भगवद्भक्त प्रह्लादको प्रणाम करके यों बोला ‘ भगवद्भक्त प्रह्लाद ! पुण्यात्मन् ! मैं समुद्र हूँ । अपने पास आये हुए मुझ प्रार्थीको अपने नेत्रोंद्वरा देखकर पवित्र कीजिये ।’ समुद्रके ये वचन सुनकर भगवानके प्रिय भक्त महात्मा असुर – नन्दन प्रह्लादने सहसा उनकी ओर देखकर प्रणाम किया और कहा – ‘ श्रीमान् कब पधारे ? ‘ तब उनसे समुद्रने कहा – ॥४० – ४३॥

 

‘ योगिन् ! आपको यह बात ज्ञात नहीं हैं, असुरोंने आपका बड़ा अपराध किया है । वैष्णव ! आपको साँपोंसे बाँधकर दैत्योंने आज मेरे भीतर फेंक दिया; तब मैंने तुरंत ही आपको किनारे लगाया और उन साँपोंको अभी-अभी महात्मा गरुडजी भक्षण करके गये हैं ।

 

महात्मन् ! मैं सत्सङ्गका अभिलाषी हूँ, आप मुझपर अनुग्रह करें और इन रत्नोंको भेंटरुपमें स्वीकार करें । मेरे लिये आप भगवान् विष्णुके समान ही पूज्य हैं । यद्यपि आपको इन रत्नोंकी कोई आवश्यकता नहीं है, तथापि मैं तो इन्हें आपको दूँगा ही; क्योंकि भगवान् सूर्यका भक्त उन्हें दीप निवेदन करता ही है । घोर आपत्तियोंमें भी भगवान् विष्णुने ही आपकी रक्षा की है । सूर्यकी भाँति आप-जैसे शुद्धचित्त महात्मा संसारमें अधिक नहीं हैं । बहुत क्या कहूँ ? आज मैं कृतार्थ हो गया; क्योंकि आज मुझे आपके साथ स्थित होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ । इस समय क्षणभर भी जो आपके साथ्य बातचीत कर रहा हूँ, इससे प्राप्त होनेवाले फलकी उपमा मैं कहीं नहीं देखता ‘ ॥४४ – ४९॥

 

इस प्रकार समुद्रने साक्षात् भगवान् लक्ष्मीपतिके माहात्म्यसूचक वचनोंद्वारा जब उनकी स्तुति की, तब भगवानके प्रिय भक्त प्रह्लादजीको बड़ी लज्जा हुई और हर्ष भी । स्नेही प्रह्लादने समुद्रके दिये हुए रत्न ग्रहणकर उनसे कहा – ‘

 

महात्मन् ! आप विशेष धन्यवादके पात्र हैं; क्योंकि भगवान् आपके ही भीतर शयन करते हैं । यह प्रसिद्ध है कि जगन्मय प्रभु प्रलयकालमें भी सम्पूर्ण जगतको अपनेमें लीन करके एकार्णवरुपमें स्थित आप महात्मा महासागरमें ही शयन करते हैं ।

 

समुद्र ! मैं इन स्थूल नेत्रोंसे भगवान् जगन्नाथका दर्शन करना चाहता हूँ । आप धन्य हैं; क्योंकि सदा भगवानका दर्शन करते रहते हैं । कृपया मुझे भी उनके दर्शनका उपाय बताइये ‘ ॥५० – ५३॥

 

यों कहकर प्रह्लादजी समुद्रके चरणोंपर गिर पड़े तब समुद्रने उनको शीघ्र ही उठाकर कहा – ‘ योगीन्द्र ! आप तो सदा ही अपने हदयमें भगवानका दर्शन करते हैं; तथापि यदि इन नेत्रोंसे भी देखना चाहते हैं तो उन भक्तवत्सल भगवानका स्तवन कीजिये ।’ यों कहकर समुद्रदेव अपने जलमें प्रविष्ट हो गये ॥५४ – ५५॥

 

समुद्रके चले जानेपर दैत्यनन्दन प्रह्लादजी रात्रिमें वहाँ अकेले ही रहकर भगवानके दर्शनको एक असम्भव कार्य मानते हुए भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ॥५६॥

 

प्रह्लादजी बोले – धीर पुरुष जिनके दर्शनकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये सदा ही सैकड़ों वेदान्त-वाक्यरुप वायुद्वारा अत्यन्त बढ़ी हुई वैराग्यरुप अग्निकी ज्वालासे अपने चित्तको तपाकर भलीभाँति शुद्ध किया करते हैं, वे भगवान् विष्णु, भला, मेरे दृष्टिपथमें कैसे आ सकते हैं । एकके ऊपर एकके क्रमसे ऊपर-ऊपर जिनका आवरण पड़ा हुआ है – ऐसे मात्सर्य, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद आदि छः सुदृढ़ बन्धनोंसे भलीभाँति बँधा हुआ मेरा मन अंधा ( विवेकशून्य ) हो रहा है । कहाँ भगवान् श्रीहरि और कहाँ मैं ! भय उपस्थित होनेपर उसकी शान्तिके लिये क्षीरसागरके तटपर जाकर ब्रह्मादि देवता उत्तम रीतिसे स्तवन करते हुए किसी प्रकार जिनका दर्शन कर पाते हैं, उन्हीं भगवानके दर्शनकी मुझ – जैसा दैत्य आशा करे-यह कैसा आश्चर्य हैं ! ॥५७ – ५९॥

 

राजन् ! इस प्रकार अपनेको भगवानका दर्शन पानेके योग्य न मानते हुए प्रह्लादजी उनकी अप्राप्तिके दुःखसे कातर हो उठे । उनका चित्त उद्वेग और अनुतापके समुद्रमें डूब गया । वे नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहाते हुए मूर्च्छित होकर गिर पडे ।

 

भूप ! फिर तो क्षणभरमें ही भक्तजनोंके एकमात्र प्रियतम सर्वव्यापी कृपानिधान भगवान् विष्णु सुन्दर चतुर्भुज रुप धारणकर दुःखी प्रह्लादको अमृतके समान सुखद स्पर्शवाली अपनी भुजाओंसे उठाकर गोदमें लगाते हुए वहाँ प्रकट हो गये ॥६० – ६१॥

 

उनके अङ्गस्पर्शसे होशमें आनेपर प्रह्लादने सहसा नेत्र खोलकर भगवानको देखा । उनका मुख प्रसन्न था । नेत्र कमलके समान सुन्दर और विशाल थे । भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं और शरीर यमुनाजलके समान श्याम था । वे परम तेजस्वी और अपरिमित ऐश्वर्यशाली थे । गदा, शङ्ख, चक्र और पद्म आदि सुन्दर चिह्नोंसे पहचाने जा रहे थे । इस प्रकार अपनेको अङ्कमें लगाये हुए भगवानको खड़ा देख प्रह्लाद भय, विस्मय और हर्षसे काँप उठे, वे इस घटनाको स्वप्न ही समझते हुए सोचने लगे – ‘ अहा ! स्वप्नमें भी मुझे पूर्णकाम भगवानका दर्शन तो मिला गया ।’ यह सोचकर उनका चित्त हर्षके महासागरमें गोता लगाने लगा और वे पुनः स्वरुपानन्दमयी मूर्च्छाको प्राप्त हो गये । तब अपने भक्तोंके एकमात्र बन्धु भगवान् पृथ्वीपर ही बैठ गये और पाणिपल्लवसे धीरे-धीरे उन्हें हिलाने लगे । स्नेहमयी माताकी भाँति प्रह्लादके गात्रका स्पर्श करते हुए उन्हें बार-बार छातीसे लगाने लगे ॥६२ – ६५॥

 

कुछ देरके बाद प्रह्लादने भगवानके सामने आँखें खोलकर विस्मितचित्तसे उन जगदीश्वरको देखा । फिर बहुत देरके बाद अपनेको भगवान् लक्ष्मीपतिकी गोदमें सोया हुआ अनुभवकर वे भय और आवेगसे युक्त हो सहसा उठ गये तथा ‘ भगवन् ! प्रसन्न होइये ‘ यों बार-बार कहते हुए उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करनेके लिये पृथ्वीपर गिर पड़े । बहुज्ञ होनेपर भी उन्हें उस समय घबराहटके कारण अन्य स्तुतिवाक्योंका स्मरण न हुआ । तब गदा, शङ्ख और चक्र धारण करनेवाले दयानिधि भगवानने प्रह्लादको अपने भक्तभयहारी हाथके पकड़कर खड़ा किया । भगवानके कर-कमलोंका स्पर्श होनेसे अत्यन्त आनन्दके आँसू बहाते उर काँपते हुए प्रह्लादको और अधिक आनन्द देनेके लिये प्रभुने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा ॥६६ – ७०॥

 

 वत्स ! मेरे प्रति गौरव-बुद्धिसे होनेवाले इस भय और घबराहटको त्याग दो । मेरे भक्तोंमें तुम्हारे समान कोई भी मुझे प्रिय नहीं है, तुम स्वाधीनप्रणयी हो जाओ [ अर्थात् यह समझो कि तुम्हारा प्रेमी मैं तुम्हारे वशमें हूँ ] । मैं नित्य पूर्णकाम हूँ, तथापि भक्तोंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेके लिये मेरे अनेक अवतार हुआ करते हैं; अतः तुम भी बताओ, तुम्हें कौन-सी वस्तु प्रिय है ? ‘ ॥७१ – ७२॥

 

तदनन्तर खिले हुए नेत्रोंसे भगवानके सतृष्णभावसे देखते हुए प्रह्लादने हाथ जोड़ नमस्कारपूर्वक उनसे यों निवेदन किया – ‘ भगवन् ! यह वरदानका समय नहीं है, केवल मुझपर प्रसन्न होइये । इस समय मेरा मन आपके दर्शनरुपी अमृतका आस्वादन करनेसे तृप्त नहीं हो रहा है ।

 

प्रभो ! ब्रह्मादि देवताओंके लिये भी जिनका दर्शन पाना कठिन है, ऐसे आपका दर्शन करते हुए मेरा मन दस लाख वर्षोंमें भी तृप्त न होगा । इस प्रकार आपके दर्शनसे अतृप्त रहनेवाले मुझ सेवकका चित्त आपके दर्शनके बाद और क्या माँग सकता है ?’ ॥७३ – ७५ १/२॥

 

तब मुस्कानमयी सुधाका स्रोत बहाते हुए उन जगदीश्वरने अपने परम प्रिय भक्त प्रह्लादको मोक्षलक्ष्मीसे संयुक्त-सा करते हुए उससे कहा – ‘ वत्स ! यह सत्य है कि तुम्हें मेरे दर्शनसे बढ़कर दूसरा कुछ भी प्रिय नहीं हैं; किंतु मेरी इच्छा तुम्हें कुछ देनेकी है । अतः तुम मेरा प्रिय करनेके लिये ही मुझसे कुछ माँग लो ‘ ॥७६ – ७७ १/२॥

 

तब बुद्धिमान् प्रह्लादने कहा- ‘ देव ! मैं जन्मान्तरोंमें भी गरुडजीकी भाँति आपमें ही भक्ति रखनेवाला आपका दास होऊँ ! ‘ यह सुनकर भगवानने कहा- ‘ यह तो तुमने मेरे लिये कठिन समस्या रख दी – मैं तो तुम्हें स्वयं अपने-आपको दे देना चाहता हूँ और तुम मेरी दासता चाहते हो ! बुद्धिमान् दैत्यराजकुमार ! दूसरे – दूसरे वर माँगो ‘ ॥७८ – ८०॥

 

तब प्रह्लादने भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले भगवान् विष्णुसे पुनः कहा – ‘ नाथ ! आप प्रसन्न हों; मुझे तो यही चाहिये कि आपमें मेरी सात्विक भक्ति सदा स्थिर रहे । यही नहीं, इस भक्तिसे युक्त होकर मैं आपका स्तवन किया करुँ और आपके ही परायण रहकर सदा नाचा करुँ ‘ ॥८१ १/२॥

 

भगवानने संतुष्ट होकर प्रिय भाषण करनेवाले प्रिय भक्त प्रह्लादसे तब कहा – ‘ वत्स ! तुम्हें जो-जो अभीष्ट हो, वह सब प्राप्त हो; तुम सुखी रहो । एक बात और है – महामते ! यहाँसे मेरे अन्तर्धान हो जानेपर भी तुम खेद न करना । मैं अपने परमप्रिय स्थान क्षीरसागरकी भाँति तुम्हारे शुद्धचित्तसे कभी अलग न होऊँगा । तुम दो-ही-तीन दिनोंके बाद मुझे दुष्ट हिरण्यकशिपुका वध करनेके लिये उद्यत अपूर्व शरीर धारण किये नृसिंहरुपमें, जो पापियोंके लिये भयानक है, पुनः प्रकट देखोंगे ।’ यों कहकर भगवान् हरि, अपनेको प्रणाम करके अत्यन्त ललचायी हुई दृष्टिसे देखते रहनेपर भी तृप्त न होनेवाले उस भक्त प्रह्लादके सामने ही मायासे अन्तर्धान हो गये ॥८२ – ८५ १/२॥

 

तत्पश्चात् वे सहसा सब ओर दृष्टि डालनेपर भी जब भक्तवत्सल भगवानको न देख सके, तब आँसू बहाते हुए उच्चस्वरसे हाहाकार करके बड़ी देरतक भगवानकी वन्दना करते रहे । फिर जब प्रातः काल जगे हुए जन्तुओंकी वानी सब ओर सुनायी देने लगी, तब बुद्धिमान प्रह्लाद समुद्र-तटसे उठकर अपने नगरको चले गये । इसके बाद दैत्यनन्दन प्रह्लादजी परम प्रसन्न होकर अपने स्मरणबलसे संसारमें सब और भगवानका ही दर्शन करते हुए तथा भगवान् एवं मनुष्यकी गतिको भलीभाँति समझते हुए रोमाञ्चित होकर धीरे-धीरे गुरुके घर गये ॥८६ – ८९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ नरसिंहावतारविषयक ‘ तैंतालीसवाँ अध्याय पुरा हुआ ॥४३॥

अध्याय - ४४ नृसिंहका प्रादुर्भाव और हिरण्यकशिपुका वध

मार्कण्डेयजी बोले – तदनन्तर प्रह्लादको [ कुशलपूर्वक समुद्रसे ] लौटा देखकर, जिन्होंने उन्हें महासागरसे डाला था, वे दैत्य बड़े विस्मित हुए और उन्होंने तुरंत यह समाचार दैत्यराज हिरण्यकशिपुको दिया । उन्हें स्वस्थ लौटा सुन दैत्यराज विस्मयसे व्याकुल हो उठा और क्रोधवश मृत्युके अधीन होकर बोला – ‘ उसे यहाँ बुला लाओ ।’ असुरोंके द्वारा बुरी तरहसे पकड़कर लाये जानेपर दिव्यदृष्टिवाले प्रह्लादने सिंहासनपर बैठे हुए दैत्यराज हिरण्यकशिपुको देखा । उसकी मृत्यु निकट थी, उसका तेज बहुत बढ़ा हुआ था । उसके मृत्यु निकट थी, उसका तेज बहुत बढ़ा हुआ था । उसके आभूषण नीलप्रभायुक्त माणिक्योंकी कान्तिसे आच्छन्न थे, अतएव वह धूमयुक्त फैली हुई अग्निके समान शोभित हो रहा था । वह ऊँचे सिंहासन-मञ्चपर विराजमान था और उसे मेघके समान काले दाढ़ोंके कारण विकराल, अत्यन्त भयानक, कुमार्गदर्शी एवं यमदूतोंके समान क्रूर दैत्य घेरे हुए थे ॥१ – ५॥

 

प्रह्लादजीने दूरसे ही हाथ जोड़कर पिताको प्रणाम किया और खड़े हो गये । तब मृत्युके निकट पहुँचनेवालेकी भाँति अकारण ही क्रोध करनेवाले उस दुष्टने भगवद्भक्त पुत्रको उच्चस्वरसे डाँटते हुए कहा – ‘ अरे मूर्ख ! तू मेरा यह अन्तिम और अटल वचन सुन; इसके बाद मैं तुझस्से कुछ न कहूँगा; इसे सुनकर तेरी जैसी इच्छा हो, वही करना ।’ यह कहकर उसने शीघ्र ही चन्द्रहास नामक अपनी अद्भुत तलवार खींच ली । उस समय सब लोग उसकी ओर आश्चर्यपूर्वक देखने लगे । उसने तलवार चलाते हुए पुनः प्रह्लादसे कहा – ‘ रे मूढ़ ! तेरा विष्णु कहाँ है ? आज वह तेरी रक्षा करे ! तूने कहा था कि वह सर्वत्र है । फिर इस खंभेमें क्यों नहीं दिखायी देता ? यदि तेरे विष्णुको इस खंभेके भीतर देख लूँगा, तब तो तुझे नहीं मारुँगा; यदि ऐसा न हुआ तो इस तलवारसे तेरे दो टुकड़े कर दिये जायँगे ‘ ॥६ – १० १/२॥

 

प्रह्लादने भी ऐसी बात देखकर उन परमेश्वरका ध्यान किया और पहले कहे हुए वचनको याद करके हाथ जोड़ उन्हें प्रणाम किया । इतनेमें ही दैत्यनन्दन प्रह्लादने देखा कि वह दर्पणके समान स्वच्छ खंभा, जो अभीतक खड़ा था, दैत्यराजकी तलवारके आघातसे फट पड़ा तथा उसके भीतर अनेक योजन विस्तारवाला, अत्यन्त रौद्र एवं महाकाय नरसिंहरुप दिखायी दिया, जो दानवोंको भयभीत करनेवाला था । उसके बड़े-बड़े नेत्र, विशाल मुख, बड़ी-बड़ी दाढ़ें और लंबी-लंबी भुजाएँ थीं । उसके नख बहुत बड़े और पैर विशाल थे । उसका मुख कालाग्निके समान देदीप्यमान था, जबड़े कानतक फैले हुए थे और वह बहुत भयानक दिखायी देता था ॥११ – १५॥

 

इस प्रकार नरसिंहरुप धारणकर त्रिविक्रम भगवान् विष्णु खंभेके भीतरसे निकल पड़े और लगे बड़े जोर जोरसे दहाड़ने ।

 

नरेश्वर ! यह गर्जना सुनकर दैत्योंने भगवान् नरसिंहको घेर लिया । तब उन्होंने अपने पौरुष एवं पराक्रमसे उन सबको मौतके घाट उतारकर हिरण्यकशिपुका दिव्य सभाभवन नष्ट कर दिया ।

 

राजन् ! उस समय जिन महाभटोंने निकट आकर नृसिंहजीको रोका, उन सबको उन्होंने क्षणभरमें मार डाला । तत्पश्चात् प्रतापी नरसिंहभगवानपर असुर सैनिक अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे ॥१६ – १९॥

 

भगवान् नृसिंहने क्षणभरमें ही अपने तेजसे समस्त दैत्यसेनाका संहार कर दिया और दिशाओंको अपनी गर्जनासे गुँजाते हुए वे भयंकर सिंहनाद करने लगे । उपर्युक्त दैत्योंको मरा जान महासुर हिरण्यकशिपुने पुनः हाथमें शस्त्र लिये हुए अट्ठासी हजार असुर सैनिकोंको नृसिंहदेवसे लड़नेकी आज्ञा दी । उन असुरोंने भी आकर भगवानको सब ओरसे घेर लिया । तब युद्धमें लड़ते हुए भगवान् उन सभीका वध करके पुनः सिंहनाद करने लगे । उन्होंने हिरण्यकशिपुके दूसरे सुन्दर सभा भवनको भी पुनः नष्ट कर दिया ।

 

राजन् ! अपने भेजे हुए इन असुरोंको भी मारा गया जान क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके महाबली हिरण्यकशिपु स्वयं बाहर निकला और बलाभिमानी दानवोंसे बोला – ‘ अरे, इसे पकड़ो-पकड़ो; मार डालो, मार डालो । इस प्रकार कहते हुए हिरण्यकशिपुके सामने ही युद्ध करनेवाले नृसिंह गर्जने लगे । तब मरनेसे बचे हुए दैत्य दसों दिशाओंमें वेगपूर्वक भाग चले ॥२० – २६॥

 

जबतक सूर्यदेव अस्ताचलको नहीं चले गये, तबतक भगवान् नृसिंह अपने साथ युद्ध करनेवाले हजारों करोड़ दैत्योंका संहार करते रहे ।

 

राजन् ! किंतु जब सूर्य डूबने लगे, तब महाबली भगवान् नृसिंहने अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करनेमें कुशल हिरण्यकशिपुको बड़े वेगसे बलपूर्वक पकड़ लिया । फिर संध्याके समय घरके दरवाजेपर बैठकर, उस वज्रके समान कठोर विशाल वक्षवाले शत्रु हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघोंपर गिराकर जब भगवान् नृसिंह रोषपूर्वक नखोंसे पत्तेकी भाँति उसे विदीर्ण करने लगे, तब उस महान् असुरने जीवनसे निराश होकर कहा – ॥२६ – २९॥

 

हाय ! युद्धके समय देवराज इन्द्रके वाहन गजराज ऐरावतके मूसल-जैसे दाँत जहाँ टकराकर टुकड़े-टुकड़े हो गये थे, जहाँ पिनाकपाणि महादेवके फरसेकी तीखी धार भी कुण्ठित हो गयी थी, वही मेरा वक्षःस्थल इस समय नृसिंहके नखोंद्वारा फाड़ा जा रहा है । सच है, जब भाग्य खोटा हो जाता है, तब तिनका भी प्रायः अनादर करने लगता है ‘ ॥३०॥

 

दैत्यराज हिरण्यकशिपु इस प्रकार कह ही रहा था कि भगवान् नृसिंहने उसका हदयदेश विदीर्ण कर दिया – ठीक उसी तरह, जैसे हाथी कमलके पत्तेको अनायास ही छिन्न-भिन्न कर देता है । उसके शरीरके दोनों टुकड़े महात्मा नृसिंहके नखोंके छेदमें घुसकर छिप गये ।

 

राजन् ! तब भगवान् सब ओर देखकर अत्यन्त विस्मित हो सोचने लगे – ‘अहो ! वह दुष्ट कहाँ चला गया ? जान पड़ता है, मेरा यह सारा उद्योग ही व्यर्थ हो गया ‘ ॥३१ – ३२ १/२॥

 

राजेन्द्र ! महाबली नृसिंह इस प्रकार चिन्तामें पड़कर अपने दोनों हाथोंको बड़े जोरसे झाड़ने लगे ।

 

राजन् ! फिर तो वे दोनों टुकड़े उन भगवानके नख-छिद्रसे निकलकर भूमिपर गिर पड़े, वे कुचलकर धूलिकणके समान हो गये थे । यह देख रोषहीन हो वे परमेश्वर हँसने लगे । इसी समय ब्रह्मादि सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो वहाँ आये और भगवन् नरसिंहके मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे । पास आकर उन सबने उन परम प्रभु नरसिंहदेवका पूजन किया ॥३३ – ३६॥

 

तदनन्तर ब्रह्माजीने प्रह्लादको दैत्योंके राजाके पदपर अभिषिक्त किया । उस समय समस्त प्राणियोंका धर्ममें अनुराग हो गया । सम्पूर्ण देवताओंसहित भगवान् विष्णुने इन्द्रको स्वर्गके राज्यपर स्थापित किया । भगवान् नृसिंह भी सम्पूर्ण लोकोंका हित करनेके लिये श्रीशैलके शिखरपस जा पहुँचे । वहाँ देवताओंसे पूजित हो वे प्रसिद्धिको प्राप्त हुए । वे भक्तोंका हित और अभक्तोंका नाश करनेके लिये वहीं रहने लगे ॥३७ – ३९॥

 

नृपश्रेष्ठ ! जो मनुष्य भगवान् नरसिंहके इस माहात्म्याको पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । नर हो या नारी-जो भी इस उत्तम आख्यानको सुनता है, वह दुष्टोंका सङ्ग करनेके दोषसे, दुःखसे, शोकसे एवं वैधव्यके कष्टसे छुटकारा पा जाता है । जो दुष्ट स्वभाववाला, दुराचारी, दुष्ट संतानवाला, दूषित कर्मोंका आचरण करनेवाला, अधर्मात्मा और विषयभोगी हो, वह मनुष्य भी इसका श्रवण करनेसे शुद्ध हो जाता है ॥४० – ४२॥

 

मनुष्यलोकपूजित देवेश्वर भगवान् हरिने पूर्वकालमें चराचर जगतके हितके लिये अपनी मायासे भयानक आकारवाला नरसिंहरुप धारण करके दुःखदायी दैत्य हिरण्यकशिपुको नखोंद्वारा नष्ट कर दिया था ॥४३॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ नरसिंहका प्रादुर्भाव ‘ नामक चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४४॥

अध्याय - ४५ वामन-अवतारकी कथा

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! जिन्होंने पूर्वकालमें राजा बलिके यज्ञमें सहस्त्रों दैत्योंका संहार किया था, उन भगवान् वामनका चरित्र संक्षेपसे सुनो ॥१॥

 

पहलेकी बात है, विरोचनका पुत्र बलि महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न हो इन्द्र आदि समस्त देवताओंको जीतकर त्रिभुवनका राज्य भोग रहा था ।

 

नृपवर ! उसके द्वारा खण्डित हुए देवतालोग बहुत दुबले हो गये थे । राज्य नष्ट हो जानेसे इन्द्र और अधिक कृश हो गये थे । राज्य नष्ट हो जानेसे इन्द्र और अधिक कृश हो गये थे । उन्हें इस दशामें देखकर देवमाता आदितिने बहुत बड़ी तपस्या की । उन्होंने भगवान् जनार्दनको प्रणाम करके अभीष्ट वाणीद्वारा उनका स्तवन किया । अदितिकी स्तुतिसे प्रसन्न हो देवाधिदेव मधुसूदन जनार्दन उनके सम्मुख उपस्थित हो बोले – ‘ सौभाग्यशालिनि ! मैं बलिको बाँधनेके लिये तुम्हारा पुत्र होऊँगा ।’ उनसे योम कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये और अदिति भी अपने घर चली गयीं ॥२ – ६॥

 

राजन् ! तदनन्तर समय आनेपर अदितिने कश्यपजीसे गर्भ धारण किया । उस गर्भसे वामनरुपमें साक्षात् भगवान् जगन्नाथ ही प्रकट हुए । वामनजीका अवतार होनेपर लोकपितामह ब्रह्मजी वहाँ आये । उन्होंने उनके जातकर्मादि सम्पूर्ण समयोचित संस्कार सम्पन्न किये । उपनयन-संस्कारके बाद वे सनातन भगवान् ब्रह्मचारी होकर अदितिकी आज्ञा ले राजा बलिकी यज्ञशालामें गये । चलते समय उनके चरणोंके आघातसे पृथ्वी काँप उठती थी । दानवगण बलिके यज्ञसे हविष्य ग्रहण करनेमें असमर्थ हो गये । वहाँकी आग बुझ गयी । ऋत्विकगण मन्त्रोच्चारणमें त्रुटि करने लगे । यह विपरीत कार्य देखकर महाबली बलिने शुक्राचार्यसे कहा ‘

 

मुने ! ये महान् असुरगण यज्ञका भाग क्यों नहीं ग्रहण कर रहे हैं ? अग्नि क्यों शान्त हो रही है ?

 

विप्रवर ! यह पृथ्वी क्यों डगमगा रही है तथा ये सम्पूर्ण ऋत्विज् मन्त्रभ्रष्ट क्यों हो रहे हैं ? ‘ बलिके इस प्रकार पूछनेपर शुक्राचार्यने उस दानवराजसे कहा – ॥७ – १३॥

 

शुक्र बोले – असुरराज बलि ! तुम मेरी बात सुनो । तुमने देवताओंको जीतकर स्वर्गसे निकाल दिया है ; उन्हें पुनः उनका राज्य देनेके लिये जगतके उत्पत्तिस्थान देवदेव भगवान् विष्णु अदितिके गर्भसे वामनरुपमें प्रकट हुए हैं ।

 

असुरराज ! वे ही तुम्हारे यज्ञमें आ रहे हैं, अतः उन्होंके पादविन्यास ( पाँव रखने ) – से कम्पित हो यह सारी पृथ्वी आज हिलने लगी है तथा उन्हींके निकट आ जानेके कारण असुरगण आज यज्ञमें हविष्य ग्रहण नहीं कर रहे हैं ।

 

बले ! वामनके आगमनसे ही तुम्हारे यज्ञकी आग भी बुझ गयी है और ऋत्विज् भी श्रीहीन हो गये हैं । इस समयका होममन्त्र असुरोमकी सम्पत्तिको नष्ट कर रहा है और देवताओंका उत्तम वैभव बढ़ रहा है ॥१४ – १७ १/२॥

 

उनके इस प्रकार कहनेपर बलिने नीतिज्ञोमें श्रेष्ठ शुक्राचार्यजीसे कहा – ‘ ब्रह्मन् ! महाभाग ! आप मेरी बात सुनें । यज्ञमें वामनजीके पधारनेपर उन बुद्धिमान् वामनजीके लिये मुझे क्या करना चाहिये, वह हमें बताइये; क्योंकि आप मेरे परम गुरु हैं ‘ ॥१८ – १९ १/२॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – नरेश्वर ! राजा बलिके इस प्रकार पूछनेपर शुक्राचार्यजीने उनसे कहा – ” राजन् ! अब मेरी भी राय सुनो । बले ! वे देवताओंका हित करने और तुम लोगोंके विनशाके लिये ही तुम्हारे यज्ञमें पधार रहे हैं, इसमें संदेह नहीं हैं । अतः जब भगवान् वामन यहाँ आ जायँ, तब उन महात्माके लिये ‘ मैं आपको यह वस्तु देता हूँ ‘ यों कहकर कुछ देनेकी प्रतिज्ञा न करना ‘ ॥२० – २२ १/२॥

 

उनकी यह बात सुनकर बलवानोंमें श्रेष्ठ बलिने अपने पुरोहित शुक्राचार्यजीसे यह सुन्दर बात कही ‘ गुरुदेव शुक्र ! यज्ञमें मधुसूदन भगवान् वामनके पधारनेपर मैं उन्हें कुछ भी देनेसे इनकार नहीं कर सकता । अभी-अभी मैं आपसे कह चुका हूँ कि दूसरे प्राणी भी यदि मुझसे कुछ याचना करेंगे तो मैं उन्हें वह वस्तु देनेसे इनकार नहीं कर सकता; फिर शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् विष्णु ( वासुदेव ) मेरे यज्ञमें पधारें और मैं उनकी मुँहमाँगी वस्तु उन्हें देनेसे इनकार कर दूँ, यह कैसे सम्भव होगा ?

 

ब्राह्मणदेव ! यहाँ भगवान् वामनके पदार्पण करनेपर आप उनके कार्यमें विघ्न न डालियेगा । वे जो-जो द्रव्य माँगेंगे, वही-वही मैं उन्हें दूँगा ।

 

मुनिश्रेष्ठ ! यदि सचमुच ही यहाँ भगवान् वामन पधार रहे हैं तो मैं कृतार्थ हो गया ‘ ॥२३ – २७॥

राजा बलि जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वामनजीने आकर यज्ञशालामें प्रवेश किया और वे उनके उस यज्ञकी प्रशंसा करने लगे ।

 

राजन् ! उन्हें देखते ही दैत्याधिपति राजा बलिने सहसा उठकर पूजन-सामाग्रियोंसे उनकी पूजा की, फिर इस प्रकार कहा – ‘ देवदेव ! आप धन आदि जो-जो वस्तु माँगेंगे, वह सब मैं आपको दूँगा; इसलिये वामनजी ! आज आप मुझसे याचना कीजिये ‘ ॥२८ – ३०॥

 

‘ नृपेन्द्र ! बलिके यों कहनेपर उस समय देवेश्वर भगवान् वामनने उनसे यही याचना की कि मुझे अग्निशालाके लिये केवल तीन पग भूमि दीजिये, मुझे धनकी आवश्यकता नहीं है’ ॥३१ १/२॥

 

भगवान् वामनके यों कहनेपर बलिने उनसे कहा – ‘ यदि तीन पग भूमिसे ही आपको संतोष है तो तीन पग भूमि मैंने आपको दे दी ‘ ॥३२ १/२॥

 

बलिके द्वारा यों कहे जानेपर भगवान् वामन उनसे बोले – ‘ यदि आपने मुझे तीन पग भूमि दे दी तो मेरे हाथमें संकल्पका जल दीजिये ‘ ॥३३ १/२॥

कहते हैं, उस समय वहाँ देवदेव भगवान् वामनजीके इस प्रकार आज्ञा देनेपर स्वयं राजा बलि जलसे भरे हुए सुवर्णकलशको लेकर भक्तिपूर्वक खड़े हो गये और ज्यों ही वामनजीके हाथमें जल देनेको उद्यत हुए, त्यों ही शुक्राचार्यने [ योगबलसे ] कलशमें घुसकर गिरती हुई जलधारा रोक दी ।

 

सत्तम ! तब वामनजीने क्रुद्ध होकर पवित्र ( कुश )-के अग्रभागसे कलशके छेदमें जल निकलनेके मार्गपर स्थित हुए शुक्राचार्यकी एक आँख छेद डाली ।

 

नरोत्तम ! एक आँख छिद जानेपर शुक्राचार्य उसमेंसे निकल भागे ॥३४ – ३७॥

 

तत्पश्चात् वामनजीके हाथमें जलकी धारा गिरी । हाथपर जल पड़ते ही वामनजी क्षणभरमें ही बहुत बड़े हो गये ।

 

सत्तम ! उन्होंने एक पगसे यह सम्पूर्ण पृथ्वी नाप ली, द्वितीय पगसे अन्तरिक्षलोक तथा तृतीय पगसे स्वर्गलोकको आक्रान्त कर लिया । फिर अनेक दानवोंका संहार करके बलिसे त्रिभुवनका राज्य छीन लिया और यह त्रिलोकी इन्द्रको अर्पितकर पुनः बलिसे कहा – ‘ तुमने भक्तिपूर्वक आज मेरे हाथमें संकल्पका जल अर्पित किया है, इसलिये इस समय मैंने तुम्हें उत्तम पाताललोकका राज्य दिया ।

 

महाभाग ! वहाँ जाकर तुम मेरे प्रसादसे राज्य भोगो; वैवस्वत मन्वन्तर व्यतीत हो जानेपर तुम पुनः इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित होओंगे ‘ ॥३८ – ४२॥

 

तब बलिने भगवानको प्रणाम करके पातालतलमें जाकर वहाँ उत्तम भोगोंको प्राप्त किया । राजन् ! शुक्राचार्य भी भगवान् वामनकी कृपासे त्रिभुवनकी राजधानी स्वर्गमें आकर सब देवताओंके साथ सुखपूर्वक रहने लगे । जो मनुष्य प्रातः काल उठकर भगवान् वामनकी इस कथाका स्मरण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ।

 

नृप ! इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने वामनरुप धारणकर त्रिभुवनका राज्य बलिसे ले लिया और उसे कृपापूर्वक देवराज इन्द्रको अर्पित कर दिया । तत्पश्चात् वे क्षीरसागरको चले गये ॥४३ – ४६॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ वामनावतार ‘ विषयक पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४५॥

अध्याय - ४६ परशुरामावतारकी कथा

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! अब मैं भगवान् विष्णुके जामदग्न्य ( परशुराम ) नामक शुभ अवतारका वर्णन करता हूँ, जिसने पूर्वकालमें क्षत्रियवंशका उच्छेद किया था; उस प्रसङ्गको सुनो ॥१॥

 

नरेश्वर ! पहलेकी बात है, क्षीरसागरके तटपर देवताओं और महाभाग ऋषियोंने भगवान् विष्णुकी स्तुति की; इससे वे जमदग्नि मुनिके पुत्रके रुपमें अवतीर्ण हुए । वे भगवान् सम्पूर्ण लोकोंमें ‘ परशुराम ‘ नामसे विख्यात थे और दुष्ट राजाओंका नाश करनेके लिये ही इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे । उनके अवतारसे पूर्व राजा कृतवीर्यका पुत्र ‘ कार्तवीर्य ‘ हुआ था, जिसने दत्तात्रेयजीकी आराधना करके सार्वभौम राज्य प्राप्त कर लिया था । एक समय वह महाभाग नरेश जमदग्नि ऋषिके आश्रमपर गया । उसके साथ चतुरङ्गिणी सेना थी । उस राजाको चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आश्रमपर आया देख जमदग्निने नृपवर कार्तवीर्यसे मधुर वाणीमें कहा – ‘

 

महामते ! आप मेरे अतिथि होकर यहाँ पधारे हैं; अतः आज अपनी सेनाका पड़ाव यहीं डालिये और मेरे दिये हुए वन्य फल आदिका भोजन करके कल यहाँसे जाइयेगा’ ॥२ – ६॥

 

महानुभाव राजा कार्तवीर्य मुनिके वाक्यका गौरव मानकर अपनी सेनाको वहीं ठहरनेका आदेश दे वहाँ रह गया । इधर अलङ्घ्य यशवाले मुनिने राजाको आमन्त्रित करके अपनी कामधेनु गौका दोहन किया । राजन् ! उन्होंने अनेकानेक गजशाला, अश्वशाला, मनुष्योंके रहनेयोग्य विचित्र गृह और तोरण ( द्वार ) आदिका दोहन किया । सामन्त नरेशोंके रहनेयोग्य सुन्दर भवन, जिनमें बगीचे आदिकी इच्छा रखनेवालोंके लिये सुन्दर उद्यान थे, दोहनद्वारा प्रस्तुत किये । फिर अनेक मंजिलोंका श्रेष्ठ महल, जिसमें सुन्दर एवं उपयोगी सामान संचित थे, गोदोहनके द्वारा उपलब्ध करके मुनिने भूपालसे कहा – ‘

 

राजन् ! आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके लिये महल तैयार है । आप इसमें प्रवेश कीजिये । आपके ये श्रेष्ठ मन्त्री तथा और लोग भी शीघ्र ही इन दिव्य गृहोंमे प्रवेश करें । विभिन्न जातियोंके हाथी और घोड़े आदि भी गजशाला और अश्वशालामें रहें तथा भृत्यगण भी इन छोटे घरोंमें निवास करें ॥७ – १०॥

 

मुनिके इस प्रकार कहते ही राजा कार्तवीर्यने इस उत्तम गृहमें प्रवेश किया । फिर दूसरे लोग दूसरे-दूसरे गृहोंमे प्रविष्ट हुए । इस प्रकार सबके यथास्थान स्थित हो जानेपर मुनिने पुनः राजा कार्तवीर्यसे कहा- ‘

 

नरेश्वर ! आपको स्नान करानेके लिये मैंने इन सौ उत्तम स्त्रियोंको नियत किया है । जैसे स्वर्गमें देवराज इन्द्र अप्सराओंके नृत्य-गीत सुनते हुए स्त्रान करते हैं, उसी प्रकार आप भी इन स्त्रियोंके नृत्य – गीतसे आनन्दित हो इच्छानुसार स्त्रान कीजिये ‘ ॥११ – १२॥

 

भूप ! ( मुनिको आज्ञासे ) वहाँ राजा कार्तवीर्यने इन्द्रकी भाँति मधुर वाद्यों और गीत आदिके शब्दोंसे आनन्दिन होते हुए स्त्रान किया । स्त्रान कर लेनेपर मुनिने उन्हें दो सुन्दर सुशोभित वस्त्र दिये । धौतवस्त्र पहन और ऊपरसे चादर ओढ़कर राजाने नित्य-नियम करनेके बाद भगवान् विष्णुकी पूजा की । फिर उन मुनिवरने गौसे अन्नमय महान् पर्वतका दोहन करके राजा तथा राजसेवकवृन्दको अर्पित किया ।

 

नृप ! राजा तथा उनके भृत्यगणोंने जबतक भोजनका कार्य सम्पन्न किया, तबतक सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये । तब उन्होंने रातको भी मुनिके बनाये हुए उस भवनमें गीत आदि विनोदोंसे आनन्दित हो शयन किया ॥१३ – १५॥

 

तदनन्तर निर्मल प्रभातकाल होते ही स्वप्नमें मिली हुई सम्पत्तिके समान सब कुछ लुप्त हो गया । फिर वहाँ केवल कोई भूभागमात्र ही अवशिष्ट देख राजाने मन-ही-मन विचार किया और अपने पुरोहितसे पूछा – ‘

 

महाभाग पुरोहितजी ! यह महात्मा जमदग्रि मुनिके तपकी शक्ति थी या कामधेनु गौकी ? इसे आप मुझे बताइये ।’ कार्तवीर्यके इस प्रकार पूछनेपर पुरोहितने उससे कहा – ‘

 

राजन् ! मुनिमें भी सामर्थ्य है, परंतु यह सिद्धि तो गौकी ही थी । तो भी नरेश्वर ! आप लोभवश उस गौका अपहरण न करें; क्योंकि जो उसे हर लेनेकी इच्छा करता है, उसका निश्चय ही विनाश हो जाता है ‘ ॥१६ – १९॥

 

यह सुनकर राजाके प्रधान मन्त्रीने कहा – ‘ महाराज ! ब्राह्मण ब्राह्मणका ही प्रेमी होता है, वह अपने पक्षका पोषण करनेके कारण राजाके कार्यकी कोई परवाह नहीं करता । राजन् ! उस गौको पाकर आपके पास तत्काल गुप्त हो जानेवाले नाना प्रकारके घर, सोनेके पात्र, शय्यादि तथा सुन्दरी स्त्रियाँ-ये सब सामान प्रस्तुत रहेंगे, जिन्हें हम लोगोंने वहाँ प्रत्यक्ष देखा है । इस उत्तम धेनुको आप अवश्य ले चलें ।

 

महामते राजेन्द्र ! यह गौ आपके ही योग्य है । भूपाल ! यदि आपकी इच्छा हो तो मैं स्वयं जाकर इसे ले आऊँगा । आप केवल मुझे आज्ञा दीजिये ‘ ॥२० – २३॥

 

नृपवर ! मन्त्रीके इस प्रकार कहनेपर राजाने ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर अनुमति दे दी । फिर राजमन्त्री आश्रमपर जाकर गौका अपहरण करने लगा । तब जमदग्नि मुनिने उसे सब ओरसे मना किया, किंतु उसने उनकी बात न मानते हुए कहा – ‘ महाबुद्धिमान् ब्राह्मण ! यह गौराजाके योग्य है; अतः इसे राजाको ही दे दीजिये । आप तो साग और फल खानेवाले हैं; आपको इस गायसे क्या काम है ?’ यों कहकर मन्त्री उस गौको बलपूर्वक ले जाने लगा ।

 

राजन् ! तब उस मुनिने स्त्रीसहित आकर उसे पुनः रोका । इसपर उस दुष्टात्मा और ब्रह्महत्यारे मन्त्रीने उस मुनिका वध करके गौको ज्यों ही ले जाना चाहा, त्यों ही वह दिव्य गौ आकाशमार्गसे चली यगी और राजा मन-ही-मन क्षुब्ध होकर माहिष्मती नगरीकी लौट आया ॥२४ – २८॥

 

राजन् ! उस समय मुनिकी पत्नी दुःखसे पीडित होकर अत्यन्त विलाप करने लगी और प्राण त्याग देनेकी इच्छासे अपनी कुक्षि ( उदर ) – में उसने इक्वीस बार मुक्का मारा । माताका विलाप सुनक्र परशुरामजी वनसे फूल आदि लेकर हाथमें कुल्हाड़ी लिये उसी समय आये और मातासे बोले – ‘ मा ! इस प्रकार छाती पीटनेकी आवश्यकता नहीं है । मैं सब कुछ शकुनसे जान गया हूँ । उस दुष्ट मन्त्रीवाले दुराचारी राजा अर्जुनका मैं अवश्य वध करुँगा ।

 

मातः ! चूँकि तुमने अपनी कुक्षिमें इक्वीस बार प्रहार किया है, इसलिये मैं इस भूमण्डलके क्षत्रियोंका इक्वीस बार संहार करुँगा ॥२९ – ३२॥

 

इस प्रकार प्रतिज्ञा करके फरसा लेकर वे वहाँसे चल दिये और माहिष्मती पुरीमें जाकर उन्होंने राजा कार्तवीर्य अर्जुनको ललकारा । तब वह अनेक अक्षौहिणी सेनाके साथ युद्धके लिये आया । वहाँ उन दोनोंमें महाभयानक रोमाञ्चकारी युद्ध हुआ, जो सैकड़ों अस्त्रशस्त्रोंके प्रहारसे व्याप्त तथा मांस खानेवाले प्राणियोंको आनन्द देनेवाला था । उस समय परशुरामजी अपनेमें अचिन्त्यस्वरुप, परम ज्योतिर्मय, कारणमूर्ति भगवान् विष्णुकी भावना करके महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न हो गये । उन्होंने परम आश्चर्यमय पौरुष प्रकट करते हुए कार्तवीर्यकी असंख्य क्षत्रियोंमें युक्त सम्पूर्ण सेनाको मारकर भूमिपर गिरा दिया और रोषसे भरकर कार्तवीर्यकी समस्त भुजाएँ काट डाली । उसके बाहुवनका उच्छेद हो जानेपर भृगुनन्दन परशुरामने उसका मस्तक भी धड़से अलग कर दिया ॥३३ – ३७॥

 

इस प्रकार वह चक्रवती राजा कार्तवीर्य श्रीभगवान् विष्णुके हाथसे वधको प्राप्त होकर दिव्यरुप धरण करके, श्रीसम्पन्न एवं दिव्य चन्दनोंसे अनुलिप्त होकर, दिव्य विमानपर आरुढ़ हो, विष्णुधामको प्राप्त हुआ । फीर महान् बल और पराक्रमवाले परशुरामजीने भी इस पृथ्वीके क्षत्रियोंका इक्वीस बार संहार किया । इस प्रकार क्षत्रियोंका वध करके उन्होंने भूमिका भार उतार और सम्पूर्ण पृथ्वी महात्मा कश्यपजीको दान कर दी ॥३८ – ४० १/२॥

 

इस प्रकार मैंने तुमसे यह ‘ जामदग्न्य ‘ ( परशुराम ) नामक अवतारका वर्णन किया । जो भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

 

राजन् ! इस तरह पृथ्वीपर अवतीर्ण होनेके बाद ये साक्षात् भगवान् विष्णुस्वरुप परशुरामजी इक्वीस बार क्षत्रियोंको मारकर, क्षत्रियतेजको छिन्न – भिन्न करके आज भी महेन्द्र पर्वतपर विराजमान हैं ॥४१ – ४३॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ परशुरामावतार ‘ नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४६॥

अध्याय - ४७ श्रीरामावतारकी कथा-श्रीरामके जन्मसे लेकर विवाहतकके चरित्र

श्रीमार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! अब मैं भगवान् विष्णुके उस शुभ अवतारका वर्णन करुँगा, जिसके द्वारा देवताओंके लिये कण्टकस्वरुप रावण अपने गणोंसहित मारा गया । तुम [ ध्यान देकर ] सुनो ॥१॥

ब्रह्माजीके मानस पुत्र जो महामुनि पुलस्त्यजी हैं, उनके ‘ विश्रवा ‘ पुत्र हुआ । विश्रवाका पुत्र राक्षस रावण हुआ । समस्त लोकोंको रुलानेवाला महावीर रावण विश्रवासे ही उत्पन्न हुआ था । वह महान् तपसे युक्त होकर समस्त लोकोंपर धावा करने लगा ।

 

राजन् ! उसने इन्द्रसहित समस्त देवताओं, गन्धर्वों और किंनरोंको जीत लिया तथा यक्षों और दानवोंको भी अपने वशीभूत कर लिया ।

 

नृपश्रेष्ठ ! उस दुरात्माने देवता आदिकी सुन्दरी स्त्रियाँ और नाना प्रकारके रत्न भी हर लिये । बलाभिमानी रावणने युद्धमें कुबेरको जीतकर उनकी पुरी लङ्का और पुष्पक विमानपर भी अधिकार जमा लिया ॥२ – ६॥

 

उस लङ्कापुरीमें दशमुख रावण राक्षसोंका राजा हुआ । उसके अनेक पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपरिमित बलसे सम्पन्न थे ।

 

राजन् ! लङ्कामें जो कई करोड़ महाबली और पराक्रमी राक्षस निवास करते थे, वे सभी रावणका सहारा लेकर देवता, पितर, मनुष्य, विद्याधर और यक्षोंका दिन-रात संहार किया करते थे ।

 

नराधिप ! समस्त चराचर जगत् उसके भयसे भीत और अत्यन्त दुःखी हो गया था ॥७ – १०॥

 

नरेश ! इसी समय जिनका पुरुषार्थ प्रतिहत हो गया था, वे इन्द्रसहित समस्त देवता, महर्षि, सिद्ध, विद्याधर, गन्धर्व, किंनर, गुह्यक, सर्प, यक्ष तथा जो अन्य स्वर्गवासी थे, वे ब्रह्मा और शङ्करजीको आगे करके क्षीरसागरके उत्तम तटपर गये । वहाँ उस समय देवतालोग भगवानकी आराधना करके हाथ जोड़कर खड़े हो गये । फिर ब्रह्माजीने गन्ध – पुष्प आदि सुन्दर उपचारोंद्वारा भगवान् वासुदेव विष्णुकी आराधना की और हाथ जोड़, प्रणाम करके वे उनकी स्तुति करने लगे ॥११ – १४॥

 

ब्रह्माजी बोले – जो क्षीरसागरमें निवास करते हैं, सर्पकी शय्यापर सोते हैं, जिनके दिव्य चरण भगवती श्रीलक्ष्मीजीके कर-कमलोंद्वारा सहलाये जाते हैं, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । योग ही जिनकी निद्रा है, योगके द्वारा अन्तःकरणमें जिनका ध्यान किया जाता है और जो गरुडजीके ऊपर आसीन होते हैं, उन आप भगवान् गोवन्दको नमस्कार है । क्षीरसागरकी लहरें जिनके शरीरका स्पर्श करती हैं, जो ‘ शार्ङ्ग ‘ नामक धनुष धारण करते हैं, जिनके चरण कमलके समान हैं तथा जिनकी नाभिसे कमल प्रकट हुआ है, उन भगवान् विष्णुको नमस्कार है । जिनके सुन्दर चरण भक्तोंद्वारा पूजित हैं, जिन्हें योग प्रिय है तथा जिनके अङ्ग और नेत्र सुन्दर हैं, उन भगवान् लक्ष्मीपतिको बारंबार नमस्कार है । जिनके केश, नेत्र, ललाट, मुख और कान बहुत ही सुन्दर हैं, उन चक्रपाणि भगवान् श्रीधरको प्रणाम है । जिनके वक्षः स्थल और नाभि मनोहर हैं, उन भगवान् पद्मनाभको नमस्कार है । जिनकी भौंहें सुन्दर, शरीर मनोहर और दाँत उज्ज्वल हैं, उन भगवान् शार्ङ्गधन्वाको प्रणाम है । रुचिर पिंडलियोंवाले दिव्यरुपधारी भगवान् केशवको नमस्कार है । जो सुन्दर नखोंवाले, परमशान्त और सद्विद्याओंके आश्रय हैं, उन भगवान् गदाधरको नमस्कार है । धर्मप्रिय भगवान् वामनको बारंबार प्रणाम है । असुर और राक्षसोंके हन्ता उग्र ( नृसिंह ) – रुपधारी भगवानको नमस्कार है । देवताओंकी पीड़ा हरनेके लिये भयंकर कर्म करनेवाले तथा रावणके संहारक आप भगवान् जगन्नाथको प्रणाम है ॥१५ – २३॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार स्तुति की जानेपर भगवान् हषीकेश प्रसन्न हो गये और अपना स्वरुप प्रत्यक्ष दिखाकर वे भगवान् ब्रह्माजीसे बोले – ‘ पितामह ! तुम देवताओंके साथ किसलिये यहाँ आये हो ?

ब्रह्मन् ! जो कार्य आ पड़ा हो और जिसके लिये तुमने मेरी स्तुति की है, वह बताओ ।’ समस्त लोकोंकी उत्पन्न करनेवाले भगवान् विष्णुके द्वारा इस प्रकार प्रश्न किये जानेपर सम्पूर्ण देवगणोंके साथ विराजमान ब्रह्माजीने उन जनार्दनसे कहा ॥२४ – २६॥

 

ब्रह्माजी बोले – विभो ! दुरात्मा रावणने समस्त जगतमें भीषण संहार मचा रखा है । उस राक्षसने इन्द्रसहित देवताओंको कई बार परास्त किया है । रावणके पार्श्ववर्ती राक्षसोंने असंख्य मनुष्योंको खा लिया और उनके यज्ञोंको दूषित कर दिया है । स्वयं रावणने सैकड़ों-हजारों देवकन्याओंका अपहरण किया है । कमलनयन ! चूँकि आपको छोड़कर दूसरे देवता रावणका वध करनेमें समर्थ नही हैं, अतः आप ही उसका वध करें ॥२७ – २९॥

 

ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेपर भगवान् विष्णु उनसे यों बोले – ‘

 

ब्रह्मन ! मैं तुम लोगोंके हितके लिये जो बात कहता हूँ, उसे ध्यान देकर सुनो । पृथ्वीपर सूर्यवंशमें उत्पन्न श्रीमान् दशरथ नामसे प्रसिद्ध जो पराक्रमी राजा है, मैं उन्हींका पुत्र होऊँगा ।

 

सत्तम ! रावणका वध करनेके लिये मैं अंशतः चार स्वरुपोंमें प्रकट होऊँगा ।

 

विश्वस्त्रष्टा ब्रह्माजी ! आप सभी देवताओंको आदेश दें कि वे अपने-अपने अंशसे वानररुपमें अवतीर्ण हों । इस प्रकार करनेसे ही रावणका संहार होगा ।’ देवदेव भगवानके यों कहनेपर लोक-पितामह ब्रह्माजी तथा अन्य देवता उनको प्रणाम करके मेरुशिखरपर चले गये और पृथ्वीतलपर अपने-अपने अंशसे वानररुपमें अवतीर्ण हुए ॥३० – ३४॥

 

तदनन्तर पुत्रहीन राजा दशरथने वेदके पारगामी मुनियोंद्वारा पुत्रकी प्राप्ति करानेवाले ‘ पुत्रेष्टि ‘ नामक यज्ञका अनुष्ठान कराया । तब भगवानकी प्रेरणासे अग्निदेव सुवर्णपात्रमें रखी हुई होमकी खीर हाथमें लिये कुण्डसे प्रकट हुए । मुनियोंने वह खीर ले ली और मन्त्र पढ़ते हुए उसके दो सुन्दर पिण्ड बनाये । उन्हें मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर उन दोनों पिण्डोंको कौसल्या तथा कैकेयीके हाथमें दे दिया ।

 

महामते ! पिण्ड – भोजनके समय उन दोनों रानियोंने दोनों पिण्डोंमेंसे थोड़ा-थोड़ा निकालकर सौभाग्यवती सुमित्राको दे दिया । फिर उन तीनों रानियोंने विधिपूर्वक उन क्षीरपिण्डोंका भोजन किया । उन देवनिर्मित पिण्डोंका भक्षण करनेके कारण उन सभी रानियोंने उत्तम गर्भ धारण किये ॥३५ – ३९॥

 

पृथ्वीनाथ ! इस प्रकार भगवान् विष्णु लोकहितके लिये ही राजा दशरथसे उनकी तीनों रानियोंके गर्भसे अपने चार अंशोंद्वारा वे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्य्न नामक चार रुप धारण करके प्रकट हुए । मुनियोंद्वारा जातकर्मादि संस्कर हो जानेपर वे मन्त्रयुक्त पिण्डके अनुसार दो-दो एक साथ रहते हुए सामान्य बालकोंकी भाँति विचरने लगे । इनमें राम और लक्ष्मण सदा एक साथ रहते थे ।

 

नरपाल ! जातकर्मादि संस्कारोंमे सम्पन्न हो, वे दोनों महान् शक्तिशाली भाई पिताकी प्रसन्नता बढ़ाते हुए बढ़ने लगे । उनके शुभ लक्षण अश्रुतपूर्व एवं वर्णनातीत थे । अथवा वे वेद और व्याकरणादि शास्त्रोंमें पारंगत होनेके शुभलक्षणसे सुशोभित थे ।

 

राजन् ! कैकेयीनन्दन भरत अपने अनुज शत्रुघ्नके साथ प्रायः घरपर ही रहते थे ।

 

नृपोत्तम ! उन्होंने वेदशास्त्र और अस्त्रविद्या भी सीख ली थी ॥४० – ४४॥

 

इन्हीं दिनों महातपस्वी विश्वामित्रजीने यज्ञविधिसे भगवान् मधुसूदनका यजन आरम्भ किया । परंतु पहले उस यज्ञमें बहुत बार राक्षसोद्वारा विघ्न डाला गया था,

 

नृपश्रेष्ठ ! इसलिये इस बार विश्वामित्रजी यज्ञकी रक्षाके लिये राम तथा लक्ष्मणको ले जानेके निमित्त उनके पिताके सुन्दर महलमें आये । महाबुद्धिमान् दशरथजी उन्हें देखकर उठ खड़े हुए और अर्घ्य-पाद्यादि उपचारोंद्वारा उन्होंने विधिवत् उनकी पूजा की । इस प्रकार उनके द्वारा सम्मानित हो, मुनिने अन्य राजाओंके निकट विराजमान राजा दशरथसे कहा – ‘ राजसिंह महाराज दशरथ ! सुनो – मैं जिस कार्यके लिये आया हूँ, वह तुम्हारे सामने निवेदन करता हूँ । मेरे यज्ञको दुर्धर्ष राक्षसोंने अनेक बार नष्ट किया है; अतः उसकी रक्षाके लिये तुम राम और लक्ष्मणको मुझे दे दो ‘ ॥४५ – ५०॥

 

नरेश्वर ! विश्वामित्रजीकी बात सुननेपर राजा दशरथके मुखपर विषाद छा गया । वे उनसे बोले – ‘ भगवन् ! मेरे ये दोनों पुत्र अभी बालक हैं । इनसे आपका कौनसा कार्य सिद्ध होगा ? मैं स्वयं आपके साथ चलकर यथाशक्ति यज्ञकी रक्षा करुँगा ।’ राजाकी बात सुनकर मुनि उनसे बोले – ‘ नरपाल ! राम भी उन सब राक्षसोंका नाश कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं है । सच तो यह है कि रामके द्वारा ही वे राक्षस मारे जा सकते हैं, तुम्हारे द्वारा नहीं; अतः राजन् ! तुम्हें रामको ही मुझे दे देना चाहिये और किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ‘ ॥५१ – ५४॥

 

बुद्धिमान् विश्वामित्रमुनिके द्वारा यों कहे जानेपर राजा क्षणभरके लिये चुप हो गये और फिर उन मुनीश्वरसे बोले – ‘ मुनिश्रेष्ठ ! मैं जो कह रहा हूँ, उसे आप प्रसन्नतापूर्वक सुनें । मैं कमललोचन रामको लक्ष्मणके सहित आपको दे तो दूँगा, परंतु ब्रह्मन् ! इनकी माता इन्हें देखे बिना मर जायगी । इसलिये मुने ! मेरा ऐसा विचार है कि मैं स्वयं ही चतुरङ्गिणी सेनाके साथ चलकर सब राक्षसोंका वध करुँ ‘ ॥५५ – ५७ १/२॥

 

विश्रामित्रजी यह सुनकर उन अमित-तेजस्वी राजासे पुनः बोले – ‘ नृपश्रेष्ठ ! रामचन्द्र अबोध नहीं हैं; वे सर्वज्ञ, समदर्शी और परम समर्थ हैं । इसमें संशय नहीं कि तुम्हारे ये दोनों पुत्र राम और लक्ष्मण साक्षात् नारायण एवं शेषनाग हैं ।

 

नराधिप ! दुष्टोंको दण्ड देने और सत्पुरुषोंकी रक्षा करनेके लिये ही ये दोनो आपके घरमें अवतीर्ण हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है ।

 

राजन् ! इनकी माता तथा आपको इस विषयमें थोड़ी-सी भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । महाराज ! ये मेरे पास धरोहरके तौरपर रहेंगे । यज्ञ पूर्ण हो जानेपर मैं इन दोनोंको आपके हाथमें दे दूँगा ‘ ॥५८ – ६१॥

 

बुद्धिमान् विश्वामित्रजीके यों कहनेपर दशरथजी मन-ही-मन उनके शापसे डरते हुए बोले- ‘ अच्छा, इन्हें ले जाइये ।’ राजन् ! पिताके द्वारा बड़ी कठिनाईसे छोड़े गये श्रीराम और लक्ष्मणको साथ ले विश्वामित्र मुनि तब अपने सिद्धाश्रमकी ओर प्रस्थित हुए । उन्हें जाते देख उस समय राजा दशरथ कुछ दूर पीछे-पीछे गये और तब मुनिसे इस प्रकार बोले – ‘ साधुश्रेष्ठ ! ब्रह्मन् ! मैं पहले दीर्घकालतक पुत्रहीन रहा; मुनियोंकी कृपासे अनेक सकाम यज्ञकर्मोंका अनुष्ठान करके अब पुत्रवान् हो सका हूँ । अतः मुने ! मैं मनसे भी इन पुत्रोंका अधिक कालतक वियोग नहीं सह सकूँगा, यह बात आप ही जानते हैं; अतः इन्हें ले जाकर फिर यथासम्भव शीघ्र मेरे पास पहुँचा दीजियेगा ‘ ॥६२ – ६६॥

 

उनके यों कहनेपर विश्वामित्रजीने पुनः राजासे कहा – ‘ अपना यज्ञ समाप्त हो जानेपर मैं पुनः श्रीराम और लक्ष्मण – को यहाँ ले आऊँगा तथा अपने वचनको सत्य करते हुए इन्हें वापस कर दूँगा, आप चिन्ता न करें ‘ ॥६७ १/२॥

 

विश्वामित्रजीके इस प्रकार आश्वासन देनेपर राजाने उनके शापकी आशङ्कासे भयभीत हो, इच्छा न रहते हुए भी, श्रीराम और लक्ष्मणको उनके साथ भेज दिया । विश्वामित्रजी उन दोनों भाइयोंको साथ ले धीरे – धीरे अयोध्यासे बाहर निकले ॥६८ – ६९॥

 

राजेन्द्र ! सरयूके तटपर पहुँचकर महामति विश्वामित्रजीने चलते-चलते ही श्रीराम और लक्ष्मणको प्रेमवश पहले ‘ बला ‘ और ‘ अतिबला ‘ नामकी दो विद्याएँ प्रदान कीं, जो क्षुधा और पिपासाको दूर करनेवाली हैं । मुनिने उन विद्याओंको मन्त्र और संग्रह ( उपसंहार ) पूर्वक सिखाया । फिर उसी समय उन्हें सम्पूर्ण अस्त्र-समुदायकी शिक्षा देकर वे साधुश्रेष्ठ मुनि श्रीराम और लक्ष्मणको अनेक आत्मज्ञानी मुनीश्वरोंके दिव्य आश्रम दिखाते और पवित्र तीर्थस्थानोंमें निवास करते हुए गङ्गा नदीको पारकर शोणभद्रके पश्चिम तटपर जा पहुँचे ॥७० – ७३॥

 

मार्गमें मुनियों, धर्मात्मामों और सिद्धोंका दर्शन करते हुए तथा ऋषियोंसे वर प्राप्तकर, राजकुमार श्रीराम और लक्ष्मण विश्वामित्रजीके द्वारा उस ताड़कावनमें ले जाये गये, जो यमराजके दूसरे मुखके समान भयंकर था ।

 

नृपश्रेष्ठ ! वहाँ पहुँचकर महातपस्वी विश्वामित्रने अनायास ही महान् कर्म करनेवाले रामसे कहा – ‘ महाबाहो राम ! इस महान् वनमें रावणकी आज्ञासे ‘ ताड़का ‘ नामकी एक राक्षसी रहती है । उसने बहुत – से मनुष्यों, मुनिपुत्रों और मृगोंको मारकर अपना आहार बना लिया है; अतः सत्तम ! तुम उसका वध करो ‘ ॥७४ – ७७ १/२॥

 

मुनिवर विश्वामित्रके इस प्रकार कहनेपर रामने उनसे कहा – ‘ महामुने ! आज मैं स्त्रीका वध कैसे करुँ ? क्योंकि बुद्धिमान् लोग स्त्रीवधमें महान् पाप बतलाते हैं ।’ श्रीरामकी यह बात सुनकर विश्वामित्रने उनसे कहा – ‘ राम ! उस ताड़काको मारनेसे सभी मनुष्य सदाके लिये निर्भय हो जायँगे, इसलिये उसका वध करना तो पुण्यदायक है ‘ ॥७८ – ८० १/२॥

 

मुनिवर विश्वामित्र इस प्रकार कह ही रहे थे कि वह महाघोर राक्षसी ताड़का मुँह फैलाये वहाँ आ पहुँची । तब मुनिकी प्रेरणासे रामने उसकी ओर देखा । वह मुँह बाये आ रही थी । उसकी छड़ी-सरीखी एक बाँह ऊपरकी ओर उठी थी । कटिप्रदेशमें मेखला ( करधनी ) – की जगह लिपटी हुई मनुष्यकी अँतड़ी लटक रही थी । इस रुपमें आती हुई मनुष्यकी उस निशाचरीको देखकर श्रीरामने स्त्रीवधके प्रति होनेवाली घृणा और बाणको एक साथ ही छोड़ दिया ।

 

राजन् ! उन्होंने धनुषपर बाण रखकर उसे बड़े वेगसे छोड़ा । उस बाणने ताड़काकी छातीके दो टुकड़े कर दिये । फिर तो वह धरतीपर गिरी और मर गयी ॥८१ – ८४॥

 

इस प्रकार ताड़काका वध करवाकर मुनि श्रीराम और लक्ष्मण दोनोंको अपने उस दिव्य सिद्धाश्रमपर ले आये, जो बहुत-से मुनियोंद्वारा सेवित था । वह आश्रम विन्ध्य पर्वतकी मध्यवर्तिनी उपत्यकामें विद्यमान था । वहाँ नाना प्रकारके वृक्ष और लतासमूह फैले हुए थे और भाँति-भाँतिके पुष्प उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । वह आश्रम अनेकानेक झरनोंके जलसे सुशोभित तथा शाक एवं मूल-फलादिसे सम्पन्न था । वहाँ उन दोनों राजकुमारोंको विशेषरुपसे शिक्षा देकर मुनिने उनको यज्ञकी रक्षाके लिये नियुक्त कर दिया । तदनन्तर महान् तपस्वी विश्वामित्रने यज्ञ आरम्भ किया ॥८५ – ८७ १/२॥

 

महात्मा विश्वामित्र ज्यों-ही यज्ञकी दीक्षामें प्रविष्ट हुए, उस यज्ञका कार्य चालू हो गया । उसमें ऋत्विजगण अपना-अपना कार्य करने लगे । तब रावणके द्वारा नियुक्त मारीच, सुबाहु तथा अन्य बहुत-से राक्षसगण यज्ञ नष्ट करनेके लिये वहाँ आये । उन सबको वहाँ आया जान कमलनयन श्रीरामने बाण मारकर ‘ सुबाहु ‘ नामक राक्षसको तो धराशायी कर दिया । वह अपने शरीरसे रक्तकी वर्षासी करने लगा । इसके बाद ‘ भल्ल ‘ नामक बाणका प्रहार करके श्रीरामने मारीचको उसी तरह समुद्रके तटपर फेंक दिया, जैसे वायु पत्तेको उड़ाकर दूर फेंक दे । तदनन्तर श्रीराम और लक्ष्मण दोनोंने मिलकर शेष सभी राक्षसोंका वध कर डाला ॥८८ – ९२॥

 

इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा यज्ञकी रक्षा होती रहनेसे महायशस्वी विश्वामित्रने उस यज्ञको विधिवत् पूर्ण करके ऋत्विजोंका दक्षिणादिसे पूजन किया ।

 

शत्रुदमन ! उस यज्ञके सदस्योंका भी यथोचित समादर करके विश्वामित्रजीने श्रीराम और लक्ष्मणकी भी भक्तिपूर्वक पूजा एवं प्रशंसा की ।

 

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाराज ! तदनन्तर उस यज्ञमें मिले हुए भागोंसे सन्तुष्ट देवताओंने भगवान् रामके मस्तकपर पुष्पोंकी वर्षा की ॥९३ – ९५॥

 

इस प्रकार भाई लक्ष्मणके साथ विनयशील श्रीरामचन्द्रजी राक्षसोंसे प्राप्त भयका निवारण करके, विश्वामित्रका यज्ञ पूर्ण कराकर, नाना प्रकारकी पावन कथाएँ सुनते हुए मुनिके द्वारा उस स्थानपर लाये गये, जहाँ शिला बनी हुई अहल्या थी ।

 

राजेन्द्र ! पूर्वकालमें इन्द्रके साथ व्यभिचार करनेसे अपने पति गौतमका शाप प्राप्तकर अहल्या पत्थर हो गयी थी । उस समय रामका दर्शन पाते ही वह शापसे मुक्त हो पुनः अपने पति गौतमके पास चली गयी ॥९६ – ९८॥

 

तदनन्दर विश्वामित्रजीने वहाँ क्षणभर विचार किया कि मुझे कमललोचन रामचन्द्रजीक विवाह करके इन्हें अयोध्या ले चलना चाहिये । यह सोचकर अनेक शिष्योंसे धिरे हुए महातपस्वी विश्वामित्रजी श्रीराम और लक्ष्मणकी साथ ले मिथिलाकी ओर चल दिये ॥९९ – १००॥

 

इनके जानेसे पूर्व ही वहाँ सीतासे विवाह करनेकी इच्छावाले अनेक महान् पराक्रमी राजकुमार नाना देशोंसे जनकके यहाँ पधारे थे । उन सबको आया देख राजा जनकने उनका यथोचित सत्कार किया तथा जो सीताके स्वयंवरके लिये ही प्रकट हुआ था, उस महान् माहेश्वर धनुषका चन्दन और पुष्प आदिसे पूजन करके उसे रमणीय शोभासे सम्पन्न सुविस्तृत रङ्गमञ्चपर लाकर रखवाया ॥१०१ – १०३॥

 

तब राजा जनकने वहाँ पधारे हुए उन समस्त राजाओंके प्रति उच्च स्वरसे कहा – ‘ राजकुमारो ! जिसके खींचनेसे यह धनुष टूट जायगा, यह सर्वाङ्गसुन्दरी सीता उसीकी धर्मपत्नी हो सकती है ।’ महात्मा जनकके द्वारा ऐसी बात सुनायी जानेपर वे नरेशगण क्रमशः उस धनुषको लेलेकर चढ़ानेका प्रयत्न करने लगे; परंतु बारी-बारीसे उस धनुषद्वारा ही झटके खाकर काँपते हुए वे दूर गिर जाते थे ।

 

राजन् ! इससे उन सभी भूपालोंको वहाँ बड़ी लज्जा हुई ।

 

नरेश्वर ! उन सबके निराश हो जानेपर वीर राजा जनक उस शिव-धनुषको यथास्थान रखवाकर श्रीरामके आगमनकी प्रतीक्षामें वहाँ ही ठहरे रहे । इतनेमें विश्वामित्रजी मिथिलानरेशके राजभवनमें आ पहुँचे ॥१०४ – १०८॥

 

जनकने श्रीराम, लक्ष्मण तथा शिष्योंसे युक्त विश्वामित्रजीको अपने भवनमें आया देख उस समय उनकी विधिवत् पूजा की । फिर ब्राह्मणका अनुसरण करनेवाले तथा लावण्य आदि गुणोंसे लक्षित रघुवंशनाथ बुद्धिमान् श्रीराम एवं शील-सदाचारादि गुणोंसे युक्त महामति लक्ष्मणका भी यथायोग्य पूजन करके जनकजी मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए । तत्पश्चात् सोनेके सिंहासनपर सुखपूर्वक बैठकर छोटे-बड़े शिष्योंसे घिरे हुए मुनिवर विश्वामित्रसे वे बोले – ‘ भगवान् ! अब मुझे क्या करना चाहिये ‘॥१०९ – ११२॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – राजा जनककी यह बात सुनकर मुनिने उनसे कहा – ‘ महाराज ! ये राजा राम साक्षात् भगवान् विष्णु हैं । ( तीनों ) लोकोंकी रक्षाके लिये ये दशरथके पुत्ररुपसे प्रकट हुए हैं; अतः देवकन्याके समान सुशोभित होनेवाली सीताका ब्याह तुम इन्होंके धनुष तोड़नेकी शर्त रखी है; अतः अब उस शिवधनुषको लाकर यहाँ उसकी अर्चना करो ‘ ॥११३ – ११५॥

 

तब ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर राजाने अनेक भूपालोंका मान भङ्ग करनेवाले उस अद्भुत शिवधनुषको पूर्ववत् वहाँ रखवाया । तत्पश्चात् कमललोचन दशरथनन्दन राम विश्वामित्रजीके आज्ञा देनेपर राजाओंके बीचसे उठे और ब्राह्मणों तथा देवताओंको प्रणाम करके उन्होंने वह धनुष उठा लिया । फिर उन महाबाहुने धनुषकी डोरी चढ़ाकर उसकी टंकार की । रामके द्वारा बलपूर्वक खींचे जानेसे वह महान् धनुष सहसा टूट गया । तब सीताजी सुन्दर माला लेकर आयीं और उन सम्पूर्ण क्षत्रियोंके निकट भगवान रामके गलेमें वह माला डालकर उन्होंने उनका विधिपूर्वक पतिरुपसे वरण किया । इससे वहाँ आये हुए सभी महाबली क्षत्रिय कुपित हो गये और श्रीरामचन्द्रजीपर सब ओरसे आक्रमण एवं गर्जना करते हुए उनपर बाण बरसाने लगे । उन्हें यों करते देख श्रीरामने भी वेगपूर्वक हाथमें धनुष ले प्रत्यञ्चाकी टंकारसे उन सभी नरेशोंको कम्पित कर दिया और अपने अस्त्रोंसे उन सबके बाण तथा रथ काट डाले । इतना ही नहीं, श्रीरामने लीलापूर्वक ही उनके धनुष तथा पताकाएँ भी काट डाली । तदनन्तर मिथिलानरेश भी अपनी सारी सेना तैयार करके उस संग्राममें जामाता श्रीरामकी रक्षा करते हुए उनके पृष्ठपोषक हो गये । इधर, महावीर लक्ष्मणने भी युद्धमें उन राजाओंको मार भगाया तथा उनके हाथी, घोड़े और बहुत-से रथ अपने अधिकारमें कर लिये । अपने वाहन छोड़कर भागे जाते हुए उन राजाओंको मार डालनेके लिये लक्ष्मण उनके पीछे दौड़े । तब उन्हें मिथिलानरेश जनक और विश्वामित्रने मना कर दिया ॥११६ – १२६॥

 

राजाओंकी सेनापर विजय पाये हुए महावीर श्रीरामको लक्ष्मणसहित साथ ले राजा जनकने अपने सुन्दर भवनमें प्रवेश किया । उसी समय उन्होंने राजा दशरथके पास एक दूत भेजा । दूतके मुखसे सारी बातें सुनकर राजाको सब वृतान्त ज्ञात हुआ । तब श्रीमान् राजा दशरथ अपनी रानियों और पुत्रोंको साथ ले, हाथी, घोड़े और रथ आदि वाहनोंसे सम्पन्न हो, सेनाके साथ तुरन्त ही मिथिलामें पधारे ।

 

राजन् ! जनकने भी राजा दशरथका भलीभाँति सत्कार किया । फिर विधिपूर्वक जिसके पाणिग्रहणकी शर्त पूरी की जा चुकी थी, उस अपनी कन्या सीताको रामके हाथमें दे दिया । तत्पश्चात् अपनी अन्य तीन कन्याओंको भी, जो परमसुन्दरी और आभूषणोंसे अलङ्कृत थीं, लक्ष्मण आदि तीन भाइयोंके साथ विधिपूर्वक ब्याह दिया ॥१२७ – १३१॥

 

इस प्रकार विवाह कर लेनेके पश्चात् कमललोचन श्रीराम अपने भ्राताओं, माताओं और बलवान् पिताके साथ कुछ दिनोंतक नाना प्रकारके भोजनादिसे सत्कृत हो मिथिलापुरीमें रहे । फिर महाराज दशरथको अपने पुत्रोंके साथ अयोध्या जानेके लिये उत्कण्ठित देख राजा जनकने सीताके लिये बहुत-सा धन और दिव्य रत्न देकर श्रीरामके लिये अत्यन्त सुन्दर वस्त्र, क्रियाकुशल हाथी, घोड़े और दास दिये एवं दासीके रुपमें बहुत – सी सुन्दरी स्त्रियाँ भी अर्पित कीं । उन बलवान् भूपालने बहुत-से रत्नमय आभूषणोंद्वारा विभूषित सुन्दरी साध्वी पुत्री सीताको रथपर चढ़ाकर वेदध्वनि तथा अन्य माङ्लिक शब्दोंके साथ विदा किया । अपनी दिव्य कन्या सीताको विदा कर राजा जनक दशरथजी तथा विश्वामित्र [ एवं वसिष्ठ ] मुनिको प्रणाम करके लौट आये । तब जनककी अत सौभाग्यशालिनी रानियाँ भी अपनी कन्याओंको यह शिक्षा देकर कि ‘ शुभे ! तुम पतिकी भक्ति तथा सास-ससुरकी सेवा करना ‘ उन्हें उनकी सासुओंको सौंप, नगरमें लौट आयीं ॥१३२ – १३७ १/२॥

 

कहते हैं, तदनन्तर यह सुनकर कि ‘ राम अपनी प्रबल सेनाके साथ अयोध्यापुरीको लौट रहे हैं ‘, परशुरामने उनका मार्ग रोक लिया । उन्हें देखकर सभी राजपुरुषोंका हदय कातर हो गया ।

नरेश्वर ! परशुरामके भयसे राजा दशरथ भी अपनी स्त्री तथा परिवारके साथ दुःखी और शोकमग्न हो गये । तब उत्कृष्ट तपस्वी ब्रह्मचारी महामुनि वसिष्ठजी दुःखी राजा दशरथ तथा अन्य सब लोगोंसे बोले ॥१३८ – १४१॥

 

वसिष्ठजीने कहा – तुम लोगोंको यहाँ श्रीरामके लिये तनिक भी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । पिता, माता, भाई अथवा अन्य भृत्यजन थोड़ा-सा भी खेद न करें ।

 

नरपाल ! ये श्रीरामचन्द्रजी साक्षात् भगवान् विष्णु हैं । समस्त जगतकी रक्षाके लिये ही इन्होंने तुम्हारे घरमें अवतार लिया है, इसमें संदेह नहीं है । जिनके नाममात्रका कीर्तन करनेसे संसाररुपी भय निवृत हो जाता है, वे परमेश्वर ही जहाँ साक्षात् मूर्तिमान् होकर विराजमान हैं, वहाँ भय आदिकी चर्चा भी कैसे की जा सकती है,

 

प्रभो ! जहाँ श्रीरामचन्द्रजीकी कथामात्रका भी कीर्तन होता है, वहाँ मनुष्योंके लिये संक्रामक बीमारी और अकालमृत्युका भय नहीं होता ॥१४२ – १४५ १/२॥

 

वसिष्ठजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि भृगुवंशी परशुरामजीने सामने खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीसे कहा – ” राम ! तुम अपना यह ‘ राम ‘ नाम त्याग दो, अथवा मेरे साथ युद्ध करो ।” उनके यों कहनेपर रघुकुलनन्दन श्रीरामने मार्गमें खड़े हुए उन परशुरामजीसे कहा – ” मैं ‘ राम ‘ नाम कैसे छोड़ सकता हूँ ? तुम्हारे साथ युद्ध ही करुँगा, सँभल जाओ ।” उनसे इस प्रकार कहकर कमललोचन श्रीराम अलग खड़े हो गये और उन वीरवरने उस समय वीर परशुरामके सामने ही धनुषकी प्रत्यज्चाकी टंकार की । तब परशुरामजीके शरीरसे वैष्णव तेज निकलकर सब प्राणीयोंके देखते-देखते श्रीरामके मुखमें समा गया । उस समय भृगुवंशी परशुरामने श्रीरामकी ओर देख प्रसन्नमुख होकर कहा – ” महाबाहु श्रीराम ! आप ही ‘ राम ‘ हैं, अब इस विषयमें मुझे संदेह नहीं है ।

 

प्रभो ! आज मैंने आपको पहचाना; आप साक्षात् विष्णु ही इस रुपमें अवतीर्ण हुए हैं ।

 

वीर ! अब आप अपने इच्छानुसार जाइये, देवताओंका कार्य सिद्ध कीजिये ।

 

श्रीराम ! अब आप स्वेच्छानुसार चले जाइये; मैं भी तपोवनको जाता हूँ ” ॥१४६ – १५२ १/२॥

 

यों कहकर परशुरामजी उन दशरथ आदिके द्वारा मुनिभावसे पूजित हुए और तपस्याके लिये मनमें निश्चय करके महेन्द्राचलको चले गये । तब समस्त बरातियों तथा महाराज दशरथको महान् हर्ष प्राप्त हुआ और वे ( वहाँसे चलकर ) श्रीरामचन्द्रजीके साथ अयोध्यापुरीके निकट पहुँचे । उधर सम्पूर्ण पुरवासी मङ्गलमयी अयोध्या नगरीको सब ओर दुन्दुभि आदि गाजे-बाजेके साथ उनकी अगवानीके लिये निकले । नगरके बाहर आकर वे रणमें अजेय श्रीरामजीको पत्नीसहित नगरमें प्रवेश करते हुए देखकर आनन्दमग्न हो गये और उन्हींके साथ अयोध्यामें प्रविष्ट हुए ॥१५३ – १५६ १/२॥

 

तत्पश्चात् मुनिवर विश्वामित्रने श्रीराम और लक्ष्मण-दोनों भाइयोंको अपने निकट आया हुआ देखकर उन्हें उनके पिता दशरथ तथा विशेषरुपसे उनकी माताओंको समर्पित कर दिया । तब राजा दशरथद्वारा पूजित होकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र सहसा लौट जानेके लिये उद्यत हुए । इस प्रकार महामति मुनि विश्वामित्रजीने छोटे भाई लक्ष्मण तथा भार्या सीताके साथ श्रीरामजीको, जो अपने पिताको एकान्त प्रिय थे, समर्पित कर दिया और उनके समक्ष बारम्बार उनका गुणगान करके हँसते हुए वे अपने श्रेष्ठ सिद्धाश्रमको चले गये ॥१५७ – १५९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ रामावतारविषयक ‘ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४७॥

अध्याय - ४८ श्रीराम-वनवास; राजा दशरथका निधन तथा वनमें राम-भरतकी भेंट

मार्कण्डेयजी कहते हैं – विवाह करनेके पश्चात् महातेजस्वी कमललोचन श्रीराम अयोध्यावासियोंका आनन्द बढ़ाते हुए सब प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न हो, पिताके संतोषके लिये अयोध्यामें ही रहने लगे । नरेश्वर ! जब रघुकुलनायक श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक अयोध्यामें सानन्द निवास करने लगे, तब उनके भाई भरत शत्रुघ्नको साथ लेकर अपने मामाके यहाँ चले गये । तदनन्तर राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको अप्रतिम सुन्दर, बलिष्ठ, नवयुवक, विद्वान् और राजा बनाये जानेके योग्य समझकर सोचा कि ‘ अब श्रीराम को राजपदपर अभिषिक्त करके राज्यका भार इन्हें सौंप दूँ और स्वयं भगवान् विष्णुके धामको प्राप्त करनेके लिये महान् यत्न करुँ ॥१ – ४ १/२॥

 

यह सोचकर राजा इस कार्यमें तत्पर हो गये और समस्त दिशाओंमें रहनेवाले बुद्धिमान् भृत्यों, अधीनस्थ राजाओं तथा मन्त्रियोंको तुरन्त आज्ञा दी – ‘ भृत्यगण ! श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकके लिये जो-जो सामान मुनियोंने बताये हैं, वे सब एकत्र करके शीघ्र ही आओ ।

 

दूतो और मन्त्रियो ! तुम लोग भी मेरी आज्ञासे सब दिशाओंके राजाओंको बुलाकर, उन्हें साथ ले, शीघ्र यहाँ आ जाओ ।

 

पुरवासी जनो ! तुम इस अयोध्यानगरीको उत्तम रीतिसे सजाकर सर्वथा शोभा-सम्पन्न बना दो तथा सर्वत्र नृत्य-गीत आदि उत्सवका ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे यह नगर समस्त पुरवासियोंको आनन्ददेनेवाला हो जाय और सम्पूर्ण देशके निवासियोंको मनोहर प्रतीत होने लगे । तुम सब लोग यह जान लो कि कल बड़े समारोहके साथ श्रीरामचन्द्रजीका राज्याभिषेक होगा ‘ ॥५ – ९ १/२॥

 

यह सुनकर मन्त्रियोंने राजाको प्रणाम करके उनसे कहा – ‘ राजन् ! आपने हमारे समक्ष अपना जो यह विचार व्यक्त किया है, बहुत ही उत्तम है । श्रीरामका अभिषेक हम सभीके लिये प्रियकारक है ‘ ॥१० – ११॥

 

उनके यों कहनेपर राजा पुनः उन सब लोगोंसे बोले – ‘ अच्छा, अब मेरी आज्ञासे अभिषेकके सभी सामान शीघ्र लाये जायँ और समस्त वसुधाकी सारभूता इस अयोध्यापुरीको भी आज ही सब ओरसे सुसज्जित कर देना चाहिये । साथ ही एक यज्ञमण्डपकी रचना भी परम आवश्यक है ‘ ॥१२ – १३॥

 

राजाके यों कहने और बार-बार प्रेरणा करनेपर उन सब शीघ्रकारी मन्त्रियोंने उनके कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिये । राजा इस शुभ दिनकी प्रतीक्षा करते हुए बड़े ही आनन्दित हुए । कौशल्या, सुमित्रा, लक्ष्मण तथा अन्य पुरवासी श्रीरामचन्द्रजीके राज्याभिषेकका शुभ समाचार सुनकर आनन्दके मारे फूले नहीं समाये । सास-ससुरकी सेवामें भलीभाँति लगी रहनेवाली सीता भी अपने पतिके लिये इस शुभ संवादको सुनकर बहुत ही प्रसन्न हुई ॥१४ – १६ १/२॥

 

आत्मतत्त्वके ज्ञाता अथवा सबके मनकी बात जाननेवाले भगवान् श्रीरामका अभिषेक दूसरे ही दिन होनेवाला था । इसी बीचमें कैकेयीकी कुबड़ी दासी मन्थराने अपनी स्वामिनी कैकेयीके पास जाकर यह बात कही – ‘ बड़भागिनी रानी ! मैं एक बहुत अच्छी बात सुनाती हूँ, सुनो । तुम्हारे पति महाराज दशरथ अब तुम्हारा नाश करनेपर तुले हुए हैं ।

 

शुभे ! वे जो कौशल्या-पुत्र राम हैं, कल ही राजा होंगे । धन, वाहन और कोश आदिके साथ यह सारा राज्य अब रामका हो जायगा; भरतका कुछ भी नहीं रहेगा । देखो, भाग्यकी बात; इस अवसरपर भरत भी बहुत दूर-अपने मामाके घर चले गये हैं ।

 

हाय ! यह सब कितने कष्टकी बात है ! तुम मन्दभागिनी हो । अब तुम्हें सौतकी ओरसे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ेगा ‘ ॥१७ – २१ १/२॥

 

ऐसी बात सुनकर कैकेयीने कुब्जासे कहा – ‘ बुद्धिमति कुब्जे ! तू मेरी दक्षता तो देख-आज ही मैं ऐसा यत्न करती हूँ, जिससे यह सारा राज्य भरतका हो जाय और रामका वनवास हो ‘ ॥२२ – २३ १/२॥

 

मन्थरासे यों कहकर कैकेयीने अपने अङ्गोंके आभूषण उतार दिये । सुन्दर वस्त्र और फूलोंके हार भी उतार फेंके और मोटा वस्त्र पहन लिया । फिर निर्माल्य ( पूजासे उतरे हुए ) पुष्पोंको धारण किया, देहमें राख और धूल लपेट ली और कुरुप वेष बनाकर वह शरीरमें कष्ट और मूर्च्छाका अनुभव करने लगी । वह भामिनी ललाटमें श्वेत वस्त्र बाँध, संध्याके समय दीपक बुझा, अँधेंरमें ही राख और धूलसे भरे भूभागमें अत्यन्त दुःखित हो लेट गयी ॥२४ – २६ १/२॥

 

इधर मन्त्रियोंके साथ सारे कार्योंके विषयमें मन्त्रणा करके, वसिष्ठ आदि ऋषियोंद्वारा पुण्याहवाचन, स्वस्तिवाचन और मङ्गलपाठादि करवाकर, श्रीरामको यज्ञ-सामग्रीसे युक्त मण्डपमें बिठाया और वृद्धि ( नान्दीश्राद्ध ) एवं जागरण-सम्बन्धी कृत्यके लिये उपयुक्त तथा सब ओर शहनाई एवं शङ्ख, काहल आदिके शब्दोंसे निनादित एवं गान और नृत्यके कार्यक्रमोंसे पूर्ण उस मण्डपमें थोड़ी देरतक स्वयं भी ठहरकर राजा दशरथ वहाँसे लौट आये । राजा कैकेयीसे श्रीरामचन्द्रजीके अभिषेकका शुभ समाचार सुनानेकी इच्छासे कैकेयीके भवनके दरवाजेपर पहुँचे, जहाँ बूढ़े सिपाही पहरा देते थे । कैकेयीके घरको अन्धकारयुक्त देख राजाने कहा ॥२७ – ३१॥

 

‘ प्रिये ! आज तुम्हारे मन्दिरमें अन्धकार क्यों है ? आज तो इस नगरके चाण्डालोंने भी श्रीरामचन्द्रके अभिषेकको आनन्दजनक माना है । सभी लोग अपने घरको सुन्दर ढंगसे सजा रहे हैं । तुमने अपने भवनको क्यों नहीं सुसज्जित किया ?’ – यों कहकर राजाने घरमें दीप प्रज्वलित कराये; फिर उसके भीतर प्रवेश किया । वहाँ कैकेयी धरतीपर पड़ी सो रही थी । उसका प्रत्येक अङ्ग अशोभन जान पड़ता था । उसे इस अवस्थामें देख राजाने उठाकर हदयसे लगाया और उसको प्रिय लगनेवाले ये वचन कहे – ‘

 

प्रिये ! मेरी उत्तम बात सुनो । सुन्दरि ! जो तुम्हारे प्रति अपनी मातासे भी अधिक प्रेम रखते हैं, उन्हीं श्रीरामचन्द्रका कल राज्याभिषेक होगा ‘ ॥३२ – ३६॥

 

राजाके इस प्रकार कहनेपर वह सुन्दरी कुछ भी न बोली । बारम्बार क्रोधपूर्वक केवल लम्बी-लम्बी गरम साँसें छोड़ती रही । राजा अपनी भुजाओंसे उसका आलिङ्गन करके बैठ गये और उस रुठी हुई कैकेयीसे बोले – ‘ सुन्दरी कैकेयि ! बताओ, तुम्हारे दुःखका क्या कारण है ?

शुभे ! वस्त्र, आभूषण और रत्न आदि जिन-जिन वस्तुओंकी तुम्हें इच्छा हो, उन सबको बिना किसी आशङ्काके भण्डारघरसे ले लो; परंतु प्रसन्न हो जाओ ।

 

कल्याणि ! कल जब श्रीरामका राज्याभिषेक सम्पन्न हो जायगा, उस समय उस भाण्डारसे मेरे मनोरथकी सिद्धि हो जायगी । इस समय तो मैंने भण्डारघरका द्वार उन्मुक्त कर रखा है । श्रीरामके राज्य-शासन करते समय वह फिर पूर्ण हो जायगा ।

 

प्रिये ! महात्मा श्रीरामके राज्याभिषेकको तुम इस समय अधिक महत्त्व और सम्मान दो ‘ ॥३७ – ४१ १/२॥

 

महाराज दशरथके इस प्रकार कहनेपर कुब्जाके द्वारा पढ़ायी गयी पापिनी, दुर्बुद्धि, दयाहीना और दुष्टा कैकेयीने अपने पति महाराज दशरथसे अत्यन्त क्रूरतापूर्वक निष्ठुर वचन कहा – ‘ महाराज ! इसमें संदेह नहीं कि आपके जो रत्न आदि हैं, वे सब मेरे ही हैं; किंतु पूर्वकालमें देवासुर-संग्रामके अवसरपर आपने प्रसन्न हो मुझे जो दो वर दिये थे, उन्हें ही इस समय दीजिये ‘ ॥४२ – ४४ १/२॥

 

यह सुनकर राजाने उस अशुभा कैकेयीसे कहा – ‘ शुभे ! और किसीकी बात तो मैं नहीं कहता, परंतु तुम्हारे लिये तो जिसे नहीं देनेको कहा है, वह वस्तु भी दे दूँगा । फिर जिसको देनेके लिये मैंने पहले प्रतिज्ञा कर ली है, वह वस्तु तो दी हुई ही समझो ।

 

कल्याणि ! अब सुन्दर वेष धारण करो और यह व्यर्थका कोप छोड़ दो । उठो, श्रीरामके राज्याभिषेकके आनन्दोत्सवमें भाग लो और सुखी हो जाओ ‘ ॥४५ – ४७॥

 

नृपश्रेष्ठ दशरथके यों कहनेपर कलहप्रिया कैकेयीने ऐसी कठोर बात कही, जो आगे चलकर राजाकी मृत्युका कारण बन गयी । उसने कहा – ‘ प्रभो ! यदि आप पहलेके दिये हुए दोनों वर मुझे देना चाहते हों तो ( पहला वर मैं यही माँगती हूँ कि ) ये कौशल्यानन्दन श्रीराम कल सबेरा होते ही वनको चले जायँ और आपकी आज्ञासे ये बारह वर्षोंतक दण्डकारण्यमें निवास करें तथा मेरा दूसरा अभीष्ट वर यह है कि अब राज्य और राज्याभिषेक भरतका होगा ‘ ॥४८ – ५०॥

 

कैकेयीके इस घोर अप्रिय वचनको सुनकर राजा दशरथ मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़े और कैकेयीने ( प्रसन्नतापूर्वक ) अपने आपको सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित कर लिया । शेष रात बिताकर प्रातः काल कैकेयीने आनन्दित हो राजदूत सुमन्त्रसे कहा – ‘ श्रीरामको यहाँ बुलाकर लाया जाय ।’ उस समय राम ब्राह्मणोंद्वारा पुण्याहवाचन और स्वस्तिवाचन कराकर, शङ्ख और तूर्य आदि वाद्योंका शब्द सुनते हुए यज्ञमण्डपमें विराजमान थे ॥५१ – ५३॥

 

दूत सुमन्त्र उस समय श्रीरामचन्द्रजीके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके सामने खड़े हो गये और बोले – ‘ राम ! महाबाहु श्रीराम ! तुम्हारे पिताजीका आदेश है, जल्दी उठो और जहाँ तुम्हारे पिता विद्यमान हैं, वहाँ चलो ।’ दूतके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजी शीघ्र ही उठे और ब्राह्मणोंसे आज्ञा ले कैकेयीके भवनमें जा पहुँचे ॥५४ – ५५ १/२॥

 

श्रीरामको अपने भवनमें प्रवेश करते देख दयाहीना कैकेयीने कहा – ‘ वत्स ! तुम्हारे पिताका यह विचार मैं तुम्हें बता रही हूँ । महाबाहो ! तुम बारह वर्षोंतक वनमें जाकर रहो । वीर ! वहाँ तपस्या करनेका निश्चय मनमें लिये तुम आज ही चले जाओ । बेटा ! तुम्हें अपने मनमें कोई अन्यथा विचार नही करना चाहिये । मेरे वचनका आदरपूर्वक पालन करो ‘ ॥५६ – ५८॥

 

कैकेयीके मुखसे पिताका यह वचन सुनकर कमललोचन श्रीरामने ‘ तथास्तु ‘ कहकर पिताकी आज्ञा शिरोधार्य की और उन दोनों-माता-पिताको प्रणाम करके उनके भवनसे निकलकर उन्होंने अपना धनुष सँभाला । फिर कौशल्या और सुमित्राको प्रणाम करके वे घरसे जानेको तैयार हो गये ॥५९ – ६०॥

 

यह समाचार सुनते ही समस्त पुरवासीजन दुःख शोकमें डूब गये और बड़ी व्यथाका अनुभव करने लगे इधर सुमित्राकुमार लक्ष्मण कैकेयीके प्रति कुपित हो उठे । परम बुद्धिमान धर्मज्ञ श्रीरामने लक्ष्मणको क्रोधसे लाल आँखे किये देख धर्मयुक्त वचनोंद्वारा उन्हें शान्त किया । तत्पश्चात् वहाँ जो बड़े-बूढ़े उपस्थित थे, उनको तथा मुनियोंको प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी वनकी यात्राके लिये रथपर आरुढ़ हुए । उस रथका सारथि बहुत दुःखी था । उस समय राजकुमार श्रीरामने अपने पासके समस्त द्रव्य और नाना प्रकारके वस्त्र अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणोंको दान कर दिये ॥६१ – ६४॥

 

तदनन्तर सीताजी भी अपनी तीनों सासुओंसे तथा नेत्रोंसे शोकाश्रुकी धारा बहाते हुए संज्ञाशून्य श्वशुर महाराज दशरथसे आज्ञा ले सब ओर देखती हुई रथपर आरुढ़ हुईं । सीताके साथ श्रीरामचन्द्रको रथपर चढ़कर वनमें जाते देख सुमित्रा अत्यन्त दुःखित हो लक्ष्मणसे बोलीं – ‘ सदुगुणोंकी खान बेटा लक्ष्मण ! तुम आजसे श्रीरामको ही पिता दशरथ समझो, सीताको ही मेरा स्वरुप मानो तथा वनको ही अयोध्या जानो । उन दोनोंके साथ ही सेवाके लिये तुम भी जाओ ‘ ॥६५ – ६७ १/२॥

 

स्नेहवश जिनके स्तनोंसे दूध बहकर समस्त शरीरको भिगो रहा था, उन माता सुमित्राके इस प्रकार कहनेपर लक्ष्मण उन्हें प्रणाम करके स्वयं भी उस सुन्दर रथपर जा बैठे ।

 

महामते ! इस प्रकार नगरसे बनमें जाते हुए श्रीरामचन्द्रजीके पीछे धीर-वीर भ्राता लक्ष्मण तथा सुस्थिर हदया पतिव्रता सीता-दोनों ही चले ॥६८ – ६९ १/२॥

 

दुर्दैवने जिनके राज्याभिषेकको बीचमें ही छिन्नभिन्न कर दिया था, वे कमलनयन श्रीराम जब अयोध्यापुरीसे निकले, उस समय पुरोहित, मन्त्री और प्रधान-प्रधान पुरवासी भी बहुत दुःखी होकर उनके पीछे-पीछे चले तथा वनकी ओर जाते हुए श्रीरामके निकट पहुँचकर उनसे यों बोले – ‘ राम ! राम ! महाबाहो ! तुम्हें वनमें नहीं जाना चाहिये । शोभाशाली नरेश्वर ! नगरको लौट चलो; हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हो ?’ ॥७० – ७२ १/२॥

 

उनके यों कहनेपर दृढ़प्रतिज्ञ श्रीराम उनसे बोले – ‘ मन्त्रियो ! पुरवासियो ! और पुरोहितगण ! आप लोग लौट जायँ । मुझे अपने पिताजीकी आज्ञाका पालन करना है, इसलिये मैं वनमें अवश्य जाऊँगा । वहाँ दण्डकारण्यमें बारह वर्षोंतक वनवासके नियमको पूर्ण करनेके पश्चात् मैं पिता और माताओंके चरण – कमलोंको दर्शन करनेके लिये शीघ्र ही यहाँ लौट आऊँगा ‘ ॥७३ – ७५॥

 

नगर-निवासियोंसे यों कहकर सत्यपरायण श्रीराम आगे बढ़ गये । उन्हें जाते देख पुनः सब लोग दुःखी हो उनके पीछे-पीछे चलने लगे । तब ककुत्स्थनन्दन श्रीरामने फिर कहा – महाभागगण ! आपलोग इस अयोध्यापुरीको लौट जाइये और मेरे पिता-माताओंकी, भरत-शत्रुघ्नकी, इस अयोध्यानगरीकी, यहाँके समस्त प्रजाजनोंकी तथा इस राज्यकी भी रक्षा कीजिये । मैं वनमें तपस्याके लिये जाता हूँ ‘ ॥७६ – ७८॥

 

तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने उस समय लक्ष्मणसे यह बात कही – ‘ लक्ष्मण ! तुम सीताको ले जाकर मिथिलापति राजा जनकको सौंप आओ और स्वयं पिता-माताके अधीन रहो । लौट जाओ, लक्ष्मण ! मैं वनको अकेला ही जाऊँगा ।’ उनके यों कहनेपर भ्रातृवत्सल धर्मात्मा लक्ष्मणने कहा – ‘

 

प्रभो ! करुणानिधान ! आप मुझे ऐसी कठोर आज्ञा न दीजिये । आप जहाँ भी जाना चाहते हैं, वहाँ मैं अवश्य चलूँगा ।’ लक्ष्मणके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने सीतासे कहा – ‘ शोभने सीते ! तुम मेरी आज्ञासे अपने पिताके यहाँ चली जाओ अथवा माता कौशल्या और सुमित्राके भवनमें जाकर रहो । सुन्दरि ! तुम तबतकके लिये वहाँ लौट जाओ, जबतक कि मैं वनसे फिर यहाँ आ न जाऊँ ‘ ॥७९ – ८३॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके इस प्रकार आदेश देनेपर सीता भी हाथ जोड़कर बोली – ‘ महाबाहो ! हे शत्रुदमन ! आप वनमें जहाँ जाकर निवास करेंगे, वहाँ चलकर मैं भी आपके ही साथ रहूँगी । राजन् ! सत्यव्रतका पालन करनेवाले आप पतिदेवका वियोग मैं क्षणभरके लिये भी नहीं सह सकती; इसलिये प्रभो ! मैं प्रार्थना करती हूँ, मुझपर दया करें । प्राणनाथ ! आप जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ मैं भी अवश्य ही चलूँगी ‘ ॥८४ – ८६॥

 

इसके बाद श्रीरामचन्द्रजीने देखा कि मेरे पीछे बहुतसे पुरुष नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़कर आ गये हैं तथा झुंड-की-झुंड स्त्रियाँ भी आ गयी हैं; तब धर्मवेता श्रीरामने उन सबको साथ चलनेसे मना किया और कहा – ‘ पुरुषो ! और स्त्रियो ! आप सब लोग लौटकर अयोध्यामें स्वच्छन्दतापूर्वक रहें । मैं तपस्याके लिये चित्त एकाग्र करके दण्डकारण्यको जा रहा हूँ । वहाँ कुछ ही वर्षोंतक रहनेके बाद मैं अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मणके साथ यहाँ लौट आऊँगा, यह मैंने सच्ची बात बतायी है । इसे अन्यथा नहीं मानना चाहिये ‘ ॥८७ – ८९॥

 

इस प्रकार अयोध्यावासी लोगोंको लौटाकर श्रीरामने गुहके आश्रमपर पदार्पण किया । गुह स्वभावसे ही वैष्णव तथा श्रीरामचन्द्रजीका परम भक्त था । भगवान रामको देखते ही वह उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बोला – ‘ भगवान ! मैं क्या सेवा करुँ ‘ ॥९० १/२॥

 

[ यों कहकर गुहने सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका सादर पूजन एवं सत्कार किया । इसके बाद सबेरे सारथि और रथको लौटाकर वे गङ्गाजीके तटपर गये और पुनः कहने लगे – ] राजन् ! जिन्हें आपके पूर्वज महाराज भगीरथ पूर्वकालमें बड़ी तपस्या करके पृथ्वीपर ले आये थे, जो समस्त पापहारिणी और कल्याणकारिणी हैं, अनेकानेक मुनिजन जिनका सेवन करते हैं, जिनमें कूर्म और मत्स्य आदि जल-जन्तु भरे रहते हैं, जो ऊँची-ऊँची लहरोंसे सम्पन्न एवं स्फटिकमणिके समान स्वच्छ जल बहानेवाली है, उन पुण्यसलिला गङ्गाजीको गुहके द्वारा लायी हुई नावसे पार करके महान् कान्तिमान् भगवान् श्रीराम भरद्वाज मुनिके शुभ आश्रमपर गये ॥९१ – ९३ १/२॥

 

वह आश्रम प्रयागमें था । श्रीरामचन्द्रजीने सीता तथा भाई लक्ष्मणके साथ उस प्रयागतीर्थमें विधिवत् स्नन करके, वहीं भरद्वाज ऋषिके आश्रममें उनसे सम्मान प्राप्तकर रात्रिमें विश्राम किया । फिर निर्मल प्रभातकाल होनेपर श्रीराम तपस्वीवेष धारणकर, भरद्वाज मुनिसे आज्ञा ले, उन्हींके बताये हुए मार्गसे गङ्गाके पार हो धीरे-धीरे नाना प्रकारके वृक्ष और लताओंसे आच्छन्न परम उत्तम पावन तीर्थ चित्रकूटको गये ॥९४ – ९७॥

 

राजन् ! इधर सीता-लक्ष्मण और सारथिके सहित रामचन्द्रजीके चले जानेपर अयोध्यावासीजन बहुत दुःखी होकर शोभाशून्य अयोध्यानगरीमें रहने लगे । राजा दशरथ तो कैकेयीके मुखस्से निर्गत श्रीरामको वनवास देनेवाले अप्रिय वचनको सुनते ही मूर्च्छित हो गये थे । कुछ देर बाद जब राजाको होश हुआ, तब वे उच्चस्वरसे ‘ राम ! राम ! ‘ पुकारने लगे । तब कैकेयीने भूपालसे कहा – ‘ राम ! तो सीता और लक्ष्मणके साथ वनमें चले गये; अब आप भरतका राज्याभिषेक कीजिये ।’ यह सुनते ही राजा दशरथ पुत्रशोकसे संतप्त हो, दुःखके मारे शरीर त्यागकर देवलोकको चले गये ॥९८ – १०१ १/२॥

 

शत्रुदमन ! तब उनकी महानगरी अयोध्यामें रहनेवाले सभी स्त्री – पुरुष दुःख और शोकसे पीड़ित हो विलाप करने लगे । कौशल्या, सुमित्रा तथा कष्टकारिणी कैकेयी भी अपने मृत पतिको चारों ओरसे घेरकर रोने लगीं ॥१०२ – १०३ १/२॥

 

तब सब धर्मोंको जाननेवाले पुरोहित वसिष्ठजीने वहाँ आकर सबको शान्त किया और राजाके मृत शरीरको तेलसे भरी हुई नौकामें रखवाकर, मन्त्रिगणोंके साथ विचार करके, भरत-शत्रुघ्नको बुलानेके लिये दूत भेजा । वह दूत जहाँ शत्रुघ्नके साथ भरतजी थे, वहाँ गया और जितना उसे बताया गया था, उतना ही संदेश सुनाकर, उन दोनों राजकुमारोंको वहाँसे लौटाकर, उन्हें साथ ले, शीघ्र ही अयोध्यामें लौट आया । राजा भरत मार्गमें घोर अपशकुन देख मन-ही-मन यह जान गये कि ‘ अयोध्यामें कोई विपरीत घटना घटित हुई है । ‘ फिर जो कैकेयीरुपी अग्निसे दग्ध होकर शोभाहीन, निस्तेज और दुःख-शोकसे परिपूर्ण हो गयी थी, उस अयोध्यापुरीमें भरतजीने प्रवेश किया । उस समय भरत और शत्रुघ्नको देख सभी लोग दुःखी हो ‘ हा तात ! हा राम ! हा सीते ! हा लक्ष्मण ! ‘ इस प्रकार बारम्बार पुकारते हुए बहुत विलाप करने लगे । यह देख भरत और शत्रुघ्न भी दुःखी होकर रोने लगे ॥१०४ – ११०॥

 

उस समय कैकेयीके मुखसे तत्कल सारा वृत्तान्त सुनकर भरतजी उसके ऊपर बहुत ही कुपित हुए और बोले – ‘ अरी ! तू तो बड़ी दुष्टा है । तेरे चित्तमें दुष्टतापूर्ण विचार भरा हुआ है । हाय ! जिसने श्रीरामको वनवास दे दिया, जिसके कारण भाई लक्ष्मण और देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको वनमें जानेको विवश होना पड़ा, उससे बढ़कर दुष्टा कौन स्त्री होगी ? अरी दुष्टे ! ओ मन्दभागिनी ! तूने तत्काल ऐसा दुस्साहस कैसे किया ? तूने सोचा होगा कि महात्मा लक्ष्मण और साध्वी सीताके साथ रामको घरसे निकालकर महाराजा दशरथ मेरे ही पुत्रको राजा बना देंगे । ( धिक्कार है तेरी इस कुबुद्धिको ! ) आह ! मैं कितना भाग्यहीन हूँ, जो तुझ-जैसी अभागिनी दुष्टा स्त्रीका पुत्र हुआ । किंतु तू निश्चय जान, मैं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामसे अलग रहकर राज्य नहीं करुँगा । जहाँ मनुष्योममें श्रेष्ठ, धर्मज्ञ, सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता, बुद्धिमान् तथा भाइयोंपर स्त्रेह रखनेवाले पूज्य भ्राता कमलदललोचन करनेवाली, समस्त शुभलक्षणोमसे युक्त, अत्यन्त सौभाग्यशालिनी पतिव्रता विदेहराजकुमारी सीताजी विद्यमान हैं और जहाँ भाईमें रखनेवाले, सदगुणसम्पन्न, महान् पराक्रमी लक्ष्मणजी गये हैं, वहीं मैं भी जाऊँगा । कैकेयि ! तूने रामको वनवास देकर महान् पाप किया है । दुष्टहदये ! बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी ही मेरे ज्येष्ठ भ्राता है, वे ही राजा होनेके अधिकारी हैं । मैं तो सदा उनका दास हूँ ‘ ॥१११ – ११८॥

 

मातासे यों कहकर भरतजी अत्यन्त दुःखी हो, वहाँ फूट-फूटकर रोने लगे और विलाप करने लगे – ‘ हा राजन् ! हा वसुधाप्रतिपालक ! हा तात ! मुझ अत्यन्त दुःखी बालकको छोड़कर आप कहाँ चले गये ? बताइये, मैं अब यहाँ क्या करुँ ? पिताके तुल्य दया करनेवाले मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्रीराम कहाँ हैं ? माताके समान पूजनीया सीता कहाँ हैं और मेरा प्यारा भाई लक्ष्मण कहाँ चला गया ? ‘ ॥११९ – १२० १/२॥

 

भरतको इस प्रकार विलाप करते देख काल और कर्मके विभागको जाननेवाले भगवान् वसिष्ठजी मन्त्रियोंके साथ वहाँ आकर बोले – ‘ बेटा ! उठो, उठो; तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये । भद्र ! काल और कर्मके वशीभूत होकर ही तुम्हारे पिता स्वर्गवासी हुए हैं; अब तुम उनके अन्त्येष्टिसंस्कार आदि कर्म करो । भगवान् श्रीराम साक्षात् लक्ष्मीपति नारायण हैं । वे जगदीश्वर दुष्टोंका नाश और साधुपुरुषोंका पालन करनेके लिये ही अपने अंशसे इस पृथ्वीपर अवतीर्ण हुए हैं । वनमें श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा बहुत-से कार्य होनेवाले हैं । वहाँ वीरवर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजी उन्हीं कर्तव्यकर्मोंसे प्रेरित होकर रहेंगे और उन्हें पूर्ण करके यहाँ लौट आयेंगे ‘ ॥१२१ – १२५ १/२॥

 

उन महात्मा वसिष्ठजीके यों कहनेपर भरतजीने शास्त्रोक्त विधिके अनुसार पिताका और्ध्वदैहिक संस्कार शवका विधिपूर्वक दाह किया । फिर सरयूके जलमे स्त्रान करके श्रीमान् भरतने भाई शत्रुघ्न, सब माताओं तथा अन्य बन्धुजनोंके साथ परलोकगत पिताके लिये तिलसहित जलकी अञ्जलि दी ॥१२६ – १२८॥

 

इस प्रकार पिताका और्ध्वदैहिक संस्कार करके मन्त्रियोंके अधिपति साधुश्रेष्ठ महाबुद्धिमान् भरतजी अपने मन्त्रियों तथा हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल, सेनाओंके साथ ( माताओं तथा बन्धुजनोंको भी साथ ले ) श्रीरामचन्द्रजीका अन्वेषण करनेके लिये जिसे मार्गसे वे गये थे, उसी मार्गसे चले । उस समय भरत ( और शत्रुघ्न ) – को इतनी बड़ी सेनाके साथ आते देख, उन्हें श्रीरामचन्द्रजीका विरोधी शत्रु समझकर रामभक्त गुहने युद्धके लिये सुसज्जित हो, अपनी सेना गोलाकार खड़ी की और कवच धारणकर, रथारुढ़ हो, उस विशाल सेनासे घिरे हुए उसने मार्गमें भरतको रोक दिया । उसने कहा – ‘ दुष्ट ! दुरात्मन् ! दुर्बुद्धे ! तूने मेरे श्रेष्ठ स्वामी श्रीरामको भाई और पत्नीसहित वनमें तो भिजवा ही दिया; क्या अब उन्हें मारना भी चाहते हो, जो ( इतनी बड़ी ) सेनाके साथ वहाँ जा रहे हो ? ‘ ॥१२९ – १३३ १/२॥

 

गुहके यों कहनेपर राजकुमार भरत श्रीरामके उद्देश्यसे हाथ जोड़कर विनययुक्त होकर उससे बोले – ‘ गुह ! जैसे तुम श्रीरामचन्द्रजीके भक्त हो, वैसे ही मैं भी उनमें भक्ति रखता हूँ । महामते ! मैं नगरसे बाहर ( मामाके घर ) चला गया था, उस समय कैकेयीने यह अनर्थ कर डाला । महाबुद्धे ! आज मैं श्रीरामचन्द्रजीको लौट लानेके लिये जा रहा हूँ । तुमसे यह सत्य बात बताकर वहाँ जाना चाहता हूँ । तुम मुझे मार्ग दे दो’ ॥१३४ – १३६ १/२॥

 

इस प्रकार विश्वास दिलानेपर गुह उन्हें गङ्गातटपर ले आया और झुंड-की-झुंड नौकाएँ मँगाकर उनके द्वारा उन सबको पार कर दिया । फिर गङ्गाजीके जलमें स्नान करके भरतजी भरद्वाजमुनिके आश्रमपर पहुँचे और उन महामुनिके चरणोंमें मस्तक झुका, प्रणाम करके उन्होंने उनसे अपना यथार्थ वृत्तान्त कह सुनाया ॥१३७ – १३८ १/२॥

 

भरद्वाजजीने भी उनसे कहा – ‘ भरत ! कालके ही प्रभावसे ऐसा काण्ड घटित हुआ है । अब तुम्हें श्रीरामके लिये भी खेद नहीं करना चाहिये । सत्यपराक्रमी वे श्रीरामचन्द्रजी इस समय चित्रकूटमें हैं । वहाँ तुम्हारे जानेपर भी वे प्रायः नहीं आ सकेंगे; तथापि तुम वहाँ जाओ और जैसे वे कहें, वैसे ही करो । श्रीरामचन्द्रजी सीताके साथ एक सुन्दर वनखण्डीमें निवास करते हैं और महान् पराक्रमी लक्ष्मण दुष्ट जीवोंपर दृष्टि रखते हैं – उनकी रक्षामें तत्पर रहते हैं ‘ ॥१३९ – १४२॥

 

बुद्धिमान् भरद्वाजजीके यों कहनेपर भरतजी यमुना पार करके महान् पर्वत चित्रकूटपर गये । वहाँ खड़े हुए लक्ष्मणजीने दूरसे उत्तर दिशामें धूल उड़ती देख श्रीरामचन्द्रजीको सूचित किया । फिर उनकी आज्ञासे वृक्षपर चढ़कर बुद्धिमान् लक्ष्मणजी प्रयत्नपूर्वक उधर देखने लगे । तब उन्हें वहाँ बहुत बड़ी सेना आती दिखायी दी, जो हर्ष एवं उत्साहसे भरी जान पड़ती थी । हाथी, घोड़े और रथोसे युक्त उस सेनाको देखकर लक्ष्मणजी श्रीरामसे बोले – ‘ भैया ! तुम सीताके पास स्थिरतापूर्वक बैठे रहो । महाबाहो ! कोई महाबली राजा हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सैनिकोंसे युक्त चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आ रहा है ‘ ॥१४३ – १४६ १/२॥

 

महात्मा लक्ष्मणके ऐसे वचन सुनकर सत्यपराक्रमी वीरवर श्रीराम अपने उस वीर भ्रतासे बोले – ‘ लक्ष्मण ! मुझे तो प्रायः यही जान पड़ता है कि भरत ही हम लोगोंसे मिलनेके लिये आ रहे हैं । ‘ विदितात्मा भगवान् श्रीराम जिस समय यों कह रहे थे, उसी समय विनयशील भरतजी वहाँ पहुँचे और सेनाको कुछ दूरीपर ठहराकर स्वयं ब्राह्मणों और मन्त्रियोंके साथ निकट आ , सीता और लक्ष्मणसहित भगवान् श्रीरामके चरणोंपर रोते हुए गिर पड़े । फिर मन्त्री, माताएँ, स्नेही बन्धु तथा मित्रगण श्रीरामको चारों ओरसे घेरकर शोकमग्न हो रोने लगे ॥१४७ – १५१॥

 

तदनन्तर महामति श्रीरामने अपने पिताके स्वर्गगामी होनेका समाचार पाकर भ्राता लक्ष्मण और जानकीके साथ वहाँके पापनाशक तीर्थमें स्नान करके जलाञ्जलि दी ।

 

राजन् ! फिर माता आदि गुरुजनोंको प्रणाम करके रामचन्द्रजी दुःखी हो अत्यन्त खेदमें पड़े हुए भरतसे बोले – ‘ महामते भरत ! तुम अब यहाँसे शीघ्र अयोध्याको चले जाओ और राजासे हीन हुई उस अनाथ नगरीका पालन करो । ‘ उनके यों कहनेपर भरतने कमललोचन रामसे कहा – ‘ पुरुषश्रेष्ठ ! यह निश्चय है कि मैं आपको साथ लिये बिना यहाँसे नहीं जाऊँगा । जहाँ आप जायँगे, वहीं सीता – लक्ष्मणकी भाँति मैं भी चलूँगा ‘ ॥१५२ – १५६॥

 

यह सुनकर श्रीरामने अपने सामने खड़े हुए भरतसे पुनः कहा – ‘ साधुश्रेष्ठ भरत ! अपने धर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंके लिये ज्येष्ठ भ्राता पिताके समान पूज्य है । जिस प्रकार मुझे पिताके मुखसे निकले हुए वचनका उल्लघ्न नहीं करना चाहिये, वैसे ही तुम्हें भी मेरे वचनोंका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये । अब तुम यहाँ मेरे निकटसे जाकर प्रजाजनका पालन करो । पिताके मुखसे कहा हुआ जो यह बारह वर्षोंके वनवासका व्रत मैंने स्वीकार किया है, उसका वनमें पालन करके मैं पुनः तुम्हारे पास आ जाऊँगा । जाओ, मेरी आज्ञाके पालनमें लग जाओ; तुम्हें खेद नहीं करना चाहिये ‘ ॥१५७ – १६०॥

 

उनके यों कहनेपर भरतने आँखोंमें आँसू भरकर कहा – ‘ भैया ! इसके सम्बन्धमें मुझे कोई विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है कि मेरे लिये जैसे पिताजी थे, वैसे ही आप हैं । अब मैं आपके आदेशके अनुसार ही कार्य करुँगा; किंतु आप अपनी दोनों चरणपादुकाएँ मुझे दे दें । मैं इन्हीं पादुकाओंका आश्रय ले नन्दिग्राममें निवास करुँगा और आपकी ही भाँति बारह वर्षोंतक व्रतका पालन करुँगा और आपकी ही भाँति बराह वर्षोंतक व्रतका पालन करुँगा । अब आपके वेषके समान ही मेरा वेष होगा और आपका जो व्रत है, वही मेरा भी महान् व्रत होगा । साधुशिरोमणे ! यदि आप बारह वर्षोंके व्रतका पालन करनेके बाद तुरंत नहीं पधारेंगे तो मैं अग्निमें हविष्यकी भाँति अपने शरीरको होम दूँगा ।’ अत्यन्त दुःखी भरतजीने इस प्रकार शपथ करके भगवान् रामकी अनेक बार प्रदक्षिणा की, बारंबार उन्हें प्रणाम किया और उनकी चरणपादुकाएँ अपने सिरपर रखकर वे वहाँसे धीरे-धीरे चल दिये ॥१६१ – १६५॥

 

भरतजी अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके, शाक और मूल-फलादिका नियमित आहार करते हुए, तपोनिष्ठ हो, भ्राताके आदेशका पालन करते हुए नन्दिग्राममें रहने धारण किये और अङ्गोंमे वल्कल पहने, वन्य फलोंका ही आहार करते थे । वे मन-ही-मन श्रीरामचन्द्रजीके वचनोंमें श्रद्धा रखनेके कारण अपने ऊपर पड़े पृथ्वीके शासनका भार ढोने लगे ॥१६६ – १६७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें श्रीरामावतारविषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४८॥

अध्याय - ४९ श्रीरामका जयन्तको दण्ड देना; शरभङ्ग, सुतीक्ष्ण और अगस्त्यसे मिलना; शूर्पणखाका अनादर सीताहरण; जटायुवध और शबरीको दर्शन देना

मार्कण्डेयजी कहते हैं – भरतजीके अयोध्या लौट जानेपर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजी अपनी भार्या सीता और भाई लक्ष्मणके साथ शाक और मूल-फल आदिके आहारासे ही जीवन-निर्वाह करते हुए उस महान् वनमें विचरने लगे । एक दिन परम प्रतापी भगवान् राम लक्ष्मणको साथ न ले जाकर चित्रकूट पर्वतके वनमें सीताजीकी गोदमें कुछ देरतक सोये रहे । इतनेमें ही एक दुष्ट कौएने सीताके सम्मुख आ उनके स्तनोंके बीच चोंच मारकर घाव कर दिया । घाव करके वह अधम काक वृक्षपर जा बैठा ॥१ – ४॥

 

तदनन्तर जब कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीकी नींद खुली, तब उन्होंने देखा, सीताके स्तनोंसे रक्त बह रहा है और वे शोकमें डूबी हुई हैं । यह देख उन्होंने सीतासे पूछा – ‘ कल्याणि ! बताओ, तुम्हारे स्तनोंके बीचसे रक्त बहनेका क्या कारण है ?’ उनके यों कहनेपर सीताने अपने स्वामीसे विनयपूर्वक कहा – ‘ राजेन्द्र ! महामते ! वृक्षकी शाखापर बैठे हुए इस दुष्ट कौएको देखिये; आपके सो जानेपर इसीने यह दुस्साहसपूर्ण कार्य किया है ‘ ॥५ – ७॥

 

रामचन्द्रजीने भी उस कौएको देखा और उसपर बहुत ही क्रोध दिया । फिर सींकका बाण बनाकर उसे ब्रह्मास्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित किया और उस कौएको लक्ष्य करके चला दिया । यह देख वह भयभीत होकर भागा ।

 

राजन् ! कहते हैं, ह काक वास्तवमें इन्द्रका पुत्र जयन्त था, अतः भागकर इन्द्रलोकमें घुस गया । उसके साथ ही श्रीरामचन्द्रजीके उस प्रज्वलित एवं देदीप्यमान बाणने भी उसका पीछा करते हुए इन्द्रलोकमें प्रवेश किया । यह सब वृतान्त जान, देवराज इन्द्रने इन्द्रलोकमें प्रवेश किया । यह सब वृतान्त जान, देवराज इन्द्रने देवताओंके साथ मिलकर विचार किया तथा श्रीरामचन्द्रजीका अपराध करनेवाले उस दुष्ट पुत्रको वहाँसे निकाल दिया । जब सब देवताओंने उसे देवलोकसे बाहर कर दिया, तब वह पुनः राजा श्रीरामचन्द्रजीकी ही शरणमें आया और बोला – ‘ महाबाहो श्रीराम ! मैंने अज्ञानवश अपराध किया है, मुझे बचाइये ‘ ॥८ – १२॥

 

इस प्रकार कहते हुए जयन्तसे कमललोचन श्रीरामने कहा – ‘ अरे दुष्ट ! मेरा अस्त्र अमोघ है, अतः इसके लिये अपना कोई एक अङ्ग दे दे; तभी तू जीवित रह सकता है; क्योंकि तूने बहुत बड़ा अपराध किया है ।’ उनके यों कहनेपर उसने श्रीरामके उस बाणके लिये अपना एक नेत्र दे दिया । उसके एक नेत्रको भस्म करके वह अस्त्र लौट आया । उसी समयसे सभी कौए एक नेत्रवाले हो गये । राजन् ! इसी कारण वे एक आँखसे ही देखते हैं ॥१३ – १४५ १/२॥

 

श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई और पत्नीके साथ चिरकालतक चित्रकूटपर निवास करनेके अनन्तर वहाँसे अनेक मुनिजनोंद्वारा सेवित दण्डकारण्यको चल दिये । उस समय वे तपस्वी वेषमें थे, उनके हाथमें धनुष और बाण थे तथा पीठपर तरकस बँधा था । वहाँ जानेपर महाबलवान् श्रीरामने उस वनमें रहनेवाले बड़े-बड़े मुनियोंका दर्शन किया, जिनमेंसे कई लोग केवल जलका आहार करनेवाले थे । कितने ही दन्तहीन होनेसे पत्थरपर कूट-पीसकर आहार ग्रहण करते, इसलिये ‘ अश्मकुट्ट ‘ कहलाते थे । कुछ तपस्वी दाँतोंसे ही ओखलीका काम लेनेवाले होनेसे ‘ दन्तोलूखली ‘ कहे जाते थे । कुछ पाँच अग्नियोंके बीचमें बैठकर तप करते थे और कुछ महात्मा इससे भी उग्र तपस्यामें तत्पर थे । उनका दर्शन करके श्रीरामने उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और उन्होंने भी उनका अभिनन्दन किया ॥१६ – १९ १/२॥

 

तत्पश्चात् साक्षात् विष्णुस्वरुप महामति भगवान् श्रीराम वहाँके समस्त वनका अवलोकन करके अपनी भार्या और भाईके साथ आगे बढ़े । वे सीताजीको फूलोंसे सुशोभित तथा नाना आश्चर्योंसे युक्त सुन्दर वन दिखाते हुए जिसे समय धीरे-धीरे जा रहे थे, उसी समय उन्होंने सामने एक राक्षस देखा, जिसका शरीर काला और नेत्र लाल थे । वह पर्वतके समान स्थूल था । उसकी दाढ़ें चमकीली, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और केश संध्याकालिक मेघके समान लाल थे । वह घनघोर गर्जना करता हुआ सदा दूसरोंका अपकार किया करता था । उसे देखते ही लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीने धनुषपर बाण चढ़ाया तथा उस घोर राक्षसको, जो दूसरोंसे नहीं मारा जा सकता था, बींधकर मार डाला । इस प्रकार उसका वध करके उन्होंने उस महाकाय राक्षसकी लाशको पर्वतके खङ्डेमें डाल दिया और शिलाओंसे ढँककर वे वहाँसे शरभङ्गमुनिके आश्रमपर गये । वहाँ उन मुनिको प्रणाम करके उनके आश्रमपर कुछ देरतक विश्राम किया और उनके साथ कथा-वार्ता करके वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए ॥२० – २५॥

 

वहाँसे सुतीक्ष्णमुनिके आश्रमपर जाकर श्रीरामने उन महर्षिका दर्शन किया और कहते हैं, उन्हींके बताये हुए मार्गसे जाकर वे अगस्त्यमुनिसे मिले । वहाँ श्रीरघुनाथजीने उनसे एक निर्मल खङ्ग तथा वैष्णव धनुष प्राप्त किये और जिसमें रखा हुआ बाण कभी समाप्त न हो – ऐसा तरकस भी उपलब्ध किया । तत्पश्चात् सीता और लक्ष्मणके साथ वे अगस्त्य-आश्रमसे आगे जाकर गोदावरीके निकट पञ्चवटीमें रहने लगे । वहाँ जानेपर कमललोचन श्रीरामचन्द्रजीके पास गृध्रराज जटायु आये और उनसे अपने कुलका परिचय देकर खड़े हो गये । उन्हें वहाँ उपस्थित देख श्रीरामने भी अपना सारा वृतान्त विशेषरुपसे जनाया और कहा – ‘ महामते ! तुम सीताकी रक्षा करते रहो ‘ ॥२६ – ३०॥

 

श्रीरामके यों कहनेपर जटायुने आदरपूर्वक उनका आलिङ्गन किया और कहा – ‘ श्रीराम ! जब कभी कार्यवश अपने भाई लक्ष्मणके साथ आप किसी दूसरे वनमें चले जायँ, उस समय मैं ही आपकी भार्याकी रक्षा करुँगा; अतः सुन्दर ! आप निश्चित होकर यहाँ रहिये ।’ श्रीरामसे यों कहकर गृध्रराज पास ही दक्षिण भागमें स्थित अपने आश्रमपर चले आये, जो नाना पक्षियोंद्वारा सेवित था ॥३१ – ३२ १/२॥

 

एक बार यह सुनकर कि कामदेवके समान सुन्दर श्रीरामचन्द्रजी नाना प्रकारकी महत्त्वपूर्ण कथाएँ कहते हुए अपनी भार्या सीताके साथ पञ्चवटीमें निवास कर रहे हैं, रावणकी छोटी बहिन राक्षसी शूर्पणखा मन-ही-मन कामसे पीड़ित हो गयी और लावण्य आदि गुणोंसे युक्त मायामय सुन्दर रुप बनाकर, मधुर स्वरमें गीत गाती हुई धीरे-धीरे वहाँ आयी । उसने वनमें सीताजीके साथ बैठे हुए श्रीरामचन्द्रजीको देखा । तब मायामय सुन्दर रुप धारण करनेवाली भयंकर राक्षसी दुष्टहदया शूर्पणखाने निडर होकर श्रीरामसे कहा – ‘ प्रियतम् ! मैं आपको चाहनेवाली सुन्दरी दासी हुँ । आप मुझ सेविकाको स्वीकार करें । जो पुरुष सेवामें उपस्थित हुई रमणीका त्याग करता है, उसे बड़ा दोष लगता है ‘ ॥३३ – ३७ १/२॥

 

शूर्पणखाके यों कहनेपर पृथ्वीपति श्रीरामचन्द्रजीने उससे कहा – ‘ बाले ! मेरे तो स्त्री है । तुम मेरे छोटे भाईके पास जाओ ।’ उनकी राक्षसीने कहा – ‘ राघव ! मैं रति-कर्ममें बहुत निपुण हूँ और यह सीता अनभिज्ञ है; अतः इसे त्यागकर मुझ सुन्दरीको ही स्वीकार करें ‘ ॥३८ – ४०॥

 

उसकी यह बात सुनकर धर्मपरायण श्रीरामने कहा – ‘ मै परायी स्त्रीके साथ कोई सम्पर्क नहीं रखता । तुम यहाँसे लक्ष्मणके निकट जाओ । यहाँ वनमें उसकी स्त्री नहीं है; अतः शायद वह तुम्हेम स्वीकार कर लेगा ।’ उनके यों कहनेपर शूर्पणखा पुनः कमलनयन श्रीरामसे बोली – ‘ अच्छा, आप एक ऐसा पत्र लिखकर दें, जिससे लक्ष्मण मेरा भर्ता ( भरण – पोषणका भार लेनेवाला ) हो सके ।’ तब बुद्धिमान् कमलनयन महाराज श्रीरामने ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर एक पत्र लिखा और उसे दे दिया । उसमें लिखा था – ‘ लक्ष्मण ! तुम इसकी नाक काट लो; निस्संदेह ऐसा ही करना । यों ही न छोड़ना ‘ ॥४१ – ४४॥

 

शूर्पणखा वह पत्र लेकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे गयी । जाकर उसने महात्मा लक्ष्मणको उसी रुपमें वह पत्र दे दिया । उस कामरुपिणी राक्षसीको देखकर लक्ष्मणने उससे कहा – कलङ्किनी ! ठहर, मैं श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं कर सकता ।’ यों कहकर बुद्धिमान् लक्ष्मणने उसे पकड़ लिया और एक चमचमाती हुई तलवार उठाकर तिलवृक्षके काण्ड ( पोखो ) – के समान उसकी नाक और कान काट लिये ॥४५ – ४७॥

 

नाक कट जानेपर वह बहुत दुःखी हो रोने तथा विलाप करने लगी – ‘ हा ! समस्त देवताओंका मानमर्दन करनेवाले मेरे भाई रावण ! आज मुझपर महान् कष्ट आ गया । हा भाई कुम्भकर्ण ! मुझपर बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी । हा गुणनिधे महामते विभीषण ! मुझे महान् दुःख देखना पड़ा ‘ ॥४८ – ४९॥

 

इस प्रकार आर्तभावसे रोदन करती हुई वह खर-दूषण और त्रिशिराके पास गयी तथा उनसे अपने अपमानकी बात निवेदन करके बोली ‘ महाबली श्रीराम इस समय जनस्थानमें अपने भाई लक्ष्मणके साथ रहते है ।’ श्रीरामका पता पाकर वे तीनों बहुत ही कुपित हुए और उनके साथ युद्धके लिये उन्होंने चौदह हजार प्रतापी एवं बलवान् राक्षसोंको भेजा तथा वे तीनों निशाचर-नायक स्वयं भी उस सेनाके साथ आगे-आगे चले । उन महाबलवान् राक्षसोंको रावणने वहाँ पहलेसे ही नियुक्त कर रखा था । वे बहुत बड़ी सेनाके साथ जनस्थानमें आये । रावणकी बहिन शूर्पणखा नाक कट जानेसे बहुत रो रही थी । उसके सारे अङ्ग आँसुओंसे भीग गये थे । उसकी वह दुर्दशा देख वे खर-दूषण आदि राक्षस अत्यन्त कुपित हो उठे थे ॥५० – ५४॥

 

श्रीरामने भी बलवान् राक्षसोंकी उस सेनाको देख लक्ष्मणको सीताकी रक्षामें उसी स्थानमें रोक दिया और अपने साथ युद्धके लिये वहाँ भेजे गये उन बलाभिमानी राक्षसोंके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया । अग्निकी ज्वालाके समान दीप्तिमान् बाणोंद्वारा उन्होंने चौदह हजार राक्षसोंकी प्रबल सेनाको क्षणभरमें मार गिराया । साथ ही खर और महाबली दूषणका भी वध किया । इसी प्रकार त्रिशिरको श्रीरामने अत्यन्त रोषपूर्वक रणक्षेत्रमें मार गिराया । इस तरह उन सभी दुष्ट राक्षसोंका वध करके श्रीरामचन्द्रजी अपने आश्रममें लौट आये ॥५५ – ५८॥

 

तब शूर्पणखा रोती हुई रावणके पास आयी । दुर्बुद्धि रावणने अपनी बहिनकी नाक कटी देख सीताको हर लानेके उद्देश्यसे मारीचसे कहा – ‘

 

मामा ! हम और तुम पुष्पक विमानसे चलकर जनस्थानके पास ठहरें । वहाँसे तुम मेरी आज्ञाके अनुसार सोनेके मृगका वेष धारणकर धीरे-धीरे मेरा कार्य सिद्ध करनेके लिये उस स्थानपर जाना, जहाँ सीता रहती है ।

 

मामा ! वह जब तुम्हें सुवर्णमय मृगशावकके रुपमें देखेगी, तब तुम्हें लेनेकी इच्छा करेगी और श्रीरामको तुम्हें बाँध लानेके लिये भेजेगी । जब सीताकी बात मानकर वे तुम्हें बाँधने चलें, तब तुम उनके सामनेसे बात मानकर वे तुम्हें बाँधने चलें, तब तुम उनके सामनेसे गहन वनमें भाग जाना । फिर लक्ष्मणको भी उधर ही खींचनेके लिये उच्चस्वरसे [ हा भाई लक्ष्मण ! इस प्रकार ] कातर वचन बोलना । तत्पश्चात् मैं भी मायामय वेष बनाकर, पुष्पक विमानपर आरुढ हो, उस असहाया सीताको हर लाऊँगा; क्योंकि मेरा मन उसमें आसक्त हो गया है । फिर भद्र ! तुम भी स्वेच्छानुसार चले आना ‘ ॥५९ – ६५॥

 

रावणके यों समझानेपर मारीचने कहा – ‘ अरे पापिष्ठ ! तुम्हीं जाओ, मैं वहाँ नहीं जाऊँगा । मैं तो विश्वामित्रमुनिके यज्ञमें पहले ही श्रीरामके हाथों भारी कष्ट उठा चुका हूँ ।’ मारीचके यों कहनेपर रावण क्रोधसे मूर्च्छित हो उसे मार डालनेको उद्यत हो गया । तब मारीचने उससे कहा – ‘ वीर ! तुम्हारे हाथसे वध हो, इसकी अपेक्षा तो श्रीरामके हाथसे ही मरना अच्छा है । तुम मुझे जहाँ ले चलना चाहते हो, वहाँ अब मैं अवश्य चलूँगा ‘ ॥६६ – ६८ १/२॥

 

यह सुनकर वह पुष्पक विमानपर आरुढ हो उसके साथ जनस्थानके निकट आया । वहाँ पहुँचकर मारीच सुवर्णमय मृगका रुप धारणकर, जहाँ जनकनन्दिनी सीता विद्यमान थीं, वहाँ उनके सामने गया । उस सुवर्णमय मृगकिशोरको देखकर यशस्विनी सीता भावी कर्मके वशीभूत हो अपने पति भगवान् श्रीरामसे बोलीं – ‘ राजपुत्र ! आप उस सुवर्णमय मृगशावकको पकड़कर मेरे लिये ला दीजिये । यह अयोध्यामें मेरे महलके भीतर क्रीड़ा-विनोदके लिये रहेगा ‘ ॥६९ – ७२॥

 

सीताके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने उनकी रक्षाके लिये लक्ष्मणको वहाँ रख दिया और स्वयं उस मृगके पीछे चले । श्रीरामके पीछा करनेपर उस मृगशावकको बाणसे बींध डाला । मारीच ‘ हा ! लक्ष्मण ! ‘ – यों कहकर पर्वताकार शरीरसे पृथ्वीपर गिरा और प्राणहीन हो गया । रोते हुए मारीचके उस आर्तनादको सुनक सीताने लक्ष्मणसे कहा – ‘ वत्स लक्ष्मण ! जहाँसे यह आवाज आयी है, वहीं तुम भी जाओ । निश्चय ही तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राताके रोदनका शब्द कानोंमें आ रहा है, मुझे प्रायः महात्मा श्रीरामका जीवन संशयमें पड़ा दिखायी देता है ‘ ॥७३ – ७७॥

 

सीताकी यह बात सुनकर उन अनिन्दिता देवीसे लक्ष्मणने कहा – ‘ देवि ! श्रीरामके लिये कोई संदेहकी बात नहीं है, उन्हें कहीं भी भय नहीं है ।’ यों कहते हुए लक्ष्मणसे उस समय विदेहकुमारी सीताने कुछ विरुद्ध वचन कहा, जो भवितव्यताकी प्रेरणासे उनके मुखसे सहसा निकल पड़ा था । वे बोलीं – ‘ मैं जानती हूँ, तुम श्रीरामके मर जानेपर मुझे अपनी बनाना चाहते हो; इसीसे इस समय वहाँ नहीं जा रहे हो ।’ सीताके यों कहनेपर विनयशील राजकुमार लक्ष्मण उस अप्रिय वचनको न सह सके और तत्काल ही श्रीरामचन्द्रजीकी खोजमें चल पड़े ॥७८ – ८० १/२॥

 

इसी समय दुरात्मा रावण भी संन्यासीका वेष बनाकर सीताके पास आया और यों बोला – ‘ देवि ! अयोध्यासे महाबुद्धिमान् भरतजी आये हैं । वे श्रीरामचन्द्रजीके साथ बातचीत करके वहीं काननमें ठहरे हुए हैं । श्रीरामचन्द्रजीने मुझे तुम्हें बुलानेके लिये यहां भेजा है । तुम इस विमानपर चढ़ चलो । भरतजीने मनाकर श्रीरामको अयोध्या चलनेके लिये राजी कर लिया है, अतः वे अयोध्या चलनेके लिये राजी कर लिया है, अतः वे अयोध्या जा रहे हैं । वैदेहि ! तुम्हारी क्रीडा-विनोदके लिये उन्होंने उस मृग-शावकको भी पकड़ लिया है । अहो ! तुमने इस विशाल वनमें बहुत दिनोंतक ऐसा महान् कष्ट उठाया है । अब तुम्हारे स्वामी सुन्दर मुखवाले श्रीरामचन्द्रजी तथा उनके विनयशील भाई लक्ष्मण भी राज्यग्रहण कर चुके हैं । अतः तुम उनके पास चलनेके लिये इस विमानपर चढ़ जाओ ‘ ॥८१ – ८५ १/२॥

 

उसके यों कहनेपर उसकी कपटपूर्ण बातोंसे प्रेरित हो सती वह सब सत्य मानकर उस तथाकथित महात्माके साथ विमानके निकट गयीं और उसपर आरुढ हो गयीं । तब वह विमान शीघ्रतापूर्वक दक्षिण दिशाज्की ओर चल पड़ा । यह देख सीता अत्यन्त शोकसे पीड़ित हो, अत्यन्त दुःखसे विलाप करने लगीं । यद्यपि सीता आकाशमें उसके अपने ही विमानपर बैठी थीं, तथापि रावणने वहाँ रोती हुई सीताका स्पर्श नहीं किया । अब रावण अपने असली रुपमें आ गया । उसका शरीर बहुत बड़ा हो गया । दस मस्तकवाले उस विशालकाय राक्षसपर दृष्टि पड़ते ही सीता अत्यन्त दुःखमें डूब गयीं और विलाप करने लगीं – ‘ हाय राम ! किसी कपटवेषधारी भयानक राक्षसने आज मुझे धोखा दिया है, मैं भयसे पीड़ित हो रही हूँ; मुझे बचाओ । हे महाबाहु लक्ष्मण ! मुझे दुष्ट राक्षस हरकर लिये जा रहा है । मैं भयसे व्याकुल हूँ, तुम जल्दी आकर मुझ असहायाकी रक्षा करो ‘ ॥८६ – ९१॥

 

इस प्रकार उच्चस्वरसे विलाप करती हुई सीताके उस महान् आर्तनादको सुनकर गृध्रराज जटायु वहाँ आ पहुँचे ( और बोले – ) ‘ अरे दुष्टात्मा रावण ! ठहर जा; तू सीताको छोड़ दे, छोड़ दे ।’ यह कहकर पराक्रमी जटायु उसके साथ युद्ध करने लगे । उन्होंने अपने दोनों पंखोंसे रावणकी छातीमें चोट की । उनको इस प्रकार प्रहार करते देख रावणने समझ लिया कि ‘ यह पक्षी बड़ा बलवान् है ।’ जब जटायुके मुख और चोंचकी मारसे वह बहुत पीड़ित हो गया, तब उस दुष्टने बड़े वेगसे ‘ चन्द्रहास ‘ नामक विशाल खङ्ग उठाया और उससे धर्मात्मा जटायुपर घातक प्रहार किया । इससे उनकी चेतना क्षीण हो गयी और वे पृथ्वीपर गिर पड़े ॥९२ – ९६॥

 

उस समय उन्होंने रावणसे कहा – ‘ अरे दुष्टात्मन् ! ओ नीच राक्षस ! मुझे तूने नहीं मारा है । मैं तो तेरे ‘ चन्द्रहास ‘ नामक खङ्गके प्रभावसे मारा गया हूँ । अरे मूर्ख ! तेरे सिवा दूसरा कौन शस्त्रधारी योद्धा होगा, जो किसी निहत्थेपर हथियार चलायेगा ? अरे दुष्ट राक्षस ! तू यह जान ले कि सीताका हर ले जाना तेरी मौत है । दुष्टात्मा रावण ! निस्संदेह श्रीरामचन्द्रजी तेरा वध कर डालेंगे ‘ ॥९७ – ९८ १/२॥

 

जटायुके मारे जानेसे अत्यन्त दुःख और शोकसे पीड़ित हुई मिथिलेशकुमारी सीता उनसे रोकर बोलीं – ‘ हे पक्षिराज ! तुमने मेरे लिये मृत्युका वरण किया है, इसलिये तुम श्रीरामचन्द्रजीके कृपासे विष्णुलोकको प्राप्त होओगे । खगश्रेष्ठ ! जबतक श्रीरामचन्द्रजीसे तुम्हारी भेंट न हो, तबतक तुम्हारे प्राण शरीरमें ही रहें ।’ उन पक्षिराजसे यों कहकर अत्यन्त दुःखिनी सीताने अपने शरीरसे धारण किये हुए समस्त आभूषणोंको उतार और शीघ्रतापूर्वक वस्त्रमें बाँधकर कहा – ‘ तुम सब-के-सब श्रीरामके हाथमें पहुँच जाओगे ।’ और तब उन्हें भूमिपर गिरा दिया ॥९९ – १०२ १/२॥

 

इस प्रकार सीताको हटकर तथा जटायुको धराशायी करके वह दुष्ट निशाचर पुष्पक विमानद्वारा शीघ्र ही लङ्कामें जा पहुँचा । वहाँ मिथिलेशकुमारी सीताको अशोक – वाटिकामें रखकर राक्षसियोंसे बोला – ‘ भयंकर मुखवाली निशाचारियो ! तुम लोग यहीं सीताकी रखवाली करो ।’ यह आदेश दे वह राक्षसराज रावण अपने भवनमें चला गया । उस समय लङ्कनिवासी एकान्तमें परस्पर मिलकर बातें करने लगे – ‘ दुरात्मा रावणने इस नगरीका विनाश करनेके लिये ही सीताको यहाँ ला रखा है ‘ ॥१०३ – १०६

 

विकट आकारवाली राक्षसियोंद्वारा सब ओरसे सुरक्षित हुई सीता वहाँ दुःखमग्न हो केवल श्रीरामचन्द्रजीका ही चिन्तन करती हुई रहने लगीं । वे सदा अत्यन्त शोकार्त्त हो बड़े दुःखके साथ बहुत रोदन किया करती थीं । रावणके वशमें पड़ी हुई सीता ज्ञानको अपनेतक ही सीमित रखनेवाले कृपणके अधीन हुई हंसवाहिनी सरस्वतीके समान वहाँ शोभा नहीं पाती थी ॥१०७ – १०८॥

 

सीताने वस्त्रमें बँधे हुए अपने जिन आभूषणोंको नीचे गिरा दिया था, उन्हें अकस्मात् घूमनेके लिये आये हुए चार वानरोंने, जो वानरराज सुग्रीवके सेवक थे, पाया और शीघ्रतापूर्वक ले जाकर अपने स्वामी महात्मा सुग्रीवको अर्पित करके यह समाचार भी सुनाया कि ‘ आज वनके भीतर जटायु और रावणमें बड़ा भारी युद्ध हुआ था ।’ इधर, जब श्रीरामचन्द्रजी मायामय वेष बनाकर आये हुए उस मारीचको मारकर लौट पड़े, तब मार्गमें लक्ष्मणको देखकर उनके साथ अपने आश्रमपर आये; किंतु वहाँ सीताको न देखकर वे दुःखसे व्यथित हो फूट-फूटकर रोने लगे । महातेजस्वी लक्ष्मण भी अत्यन्त दुःखी होकर रोदन करने लगे । उस समय श्रीरामचन्द्रजीको सर्वथा अस्वस्थ होकर रोते और पृथ्वीपर गिरा देख बुद्धिमान् लक्ष्मणने उन्हें उठाकर धीरज बँधाया ॥१०९ – ११३॥

 

राजन् ! उस समय लक्ष्मणने उनसे जो समयोचित बात कही थी, वह तुम मुझसे सुनो । ( लक्ष्मण बले – ) ‘ महाराज ! आप अधिक शोक न करें । प्रभो ! अब सीताकी खोज करनेके लिये आप शीघ्रतापूर्वक उठिये, उठिये ।’ इत्यादि बातें कहते हुए दुःखी महात्मा लक्ष्मणने अपने शोकग्रस्त भाई राजा रामचन्द्रजीको उठाया और उनके साथ स्वयं सीताकी खोज करनेके लिये वनमें चले ॥११४ – ११६॥

 

उस समय श्रीरामचन्द्रजीने सारे वनोंको छान डाला, समस्त पर्वतों तथा उनकी चोटियोंपर जानेवाले मार्गोंका भी निरीक्षण कर लिया । इसी प्रकार उन्होंने मुनियोंके बहुत-से आश्रम भी देखे; तृण एवं लताओंसे आच्छादित वनस्थलियों तथा खुले मैदानोंमें, नदीके किनारे, गङ्कोंमें और कन्दराओंमें देखनेपर भी जब उन महानुभावको अपनी प्रिया सीताका पता नहीं लगा, तब वे बहुत दुःखी हुए । उसी समय राजा रामचन्द्रजीने रावणद्वारा मारे गये जटायुको देखा और कहा – ‘ अहो ! आपको किसने मारा ? आह ! आप ऐसी दुर्दशा को पहुँच चुके है ? पता नहीं, जीवित हैं तथा मर गये । पत्नीके वियोगवश आपके समान ही दुःखी होकर यहाँ आये हुए मुझ रामके लिये आजकल आप ही सब कुछ थे ‘ ॥११७ – ११९॥

 

भगवान् रामके इतना कहते ही वह पक्षी उस समय बड़े कष्टसे मधुर वाणीमें बोला – ‘ राजन् ! इस समय मैंने जो कुछ देखा है और तत्कल ही उसके लिये जो कुछ किया है, वह मेरा सारा वृत्तात आप सुनें । दशमुख रावणने मायासे सीताका अपहरण करके उसे उत्तम विमानपर चढ़ा लिया और चल दिया । उस समय माता सीता बड़े दुःखके साथ विलाप कर रही थीं । रघुनन्दन ! सीताकी आवाज सुनकर मैंने उन्हें अपने ही बलसे छुड़ानेके लिये रावणके साथ महान् युद्ध छेड़ दिया । फिर उस राक्षसने अपनी तलवारके बलसे मुझे मार डाला । विदेहकुमारी सीताके ही आशीर्वादसे मैं अभीतक जीवित था, अब यहाँसे स्वर्गलोकको जाऊँगा । पृथ्वीपालक राम ! आप शोक कीजिये, अब तो उस दुष्ट राक्षसको उसके गणोंसहित मार ही डालिये ‘ ॥१२० – १२३॥

 

जटायुके यों कहनेपर श्रीरामने पुनः शोकपूर्वक उनसे कहा – ‘ पक्षिराज ! आपका कल्याण हो और आपको उत्तम गति मिले ।’ तदनन्तर जटायु अपना शरीर त्यागकर एक सुन्दर विमानपर आरुढ़ हुए और अप्सरागणोंसे सेवित हो स्वर्गलोकको चले गये । श्रीरामचन्द्रजीने भी उनके शरीरका दाह-संस्कार करके स्नानके पश्चात् उनके निमित्त जलाञ्जलि दी । फिर सीताके लिये दुःखी हो भाई लक्ष्मणके साथ आगे जाने लगे । इतनेमें ही उन्हें रास्तेपर एक राक्षसी खड़ी दिखायी दी । वह मुँहसे बड़ी भारी उल्काके समान आगकी ज्वाला उगल रही थी । उसका मुँह फैला हुआ था । वह बड़ी डरावनी थी और पास आये हुए अनेकानेक जीवोंका संहार कर रही थी । श्रीरामने उसे रोषपूर्वक मार गिराया । फिर वे आगे बढ़ गये । जब श्रीराम दूसरे वनमें जाने लगे, तब उन्होंने कबन्धको देखा, जो बहुत ही कुरुप था । उसका मुख उसके पेटमें ही था, बाँहे बड़ी – बड़ी थीं और स्तन घने थे । श्रीरामने उसे अपना मार्ग रोकते देख उसे काठ-कबाड़द्वारा धीरे-धीरे जला दिया । जल जानेपर वह दिव्यरुप धारण करके प्रकट हुआ और आकाशमें स्थित होकर श्रीरामसे बोला – ॥१२४ – १२९॥

 

 महाबाहु श्रीराम् ! महामते वीरवर ! एक मुनिके शापवश चिरकालसे प्राप्त हुई मेरी कुरुपताको आपने नष्ट कर दिया; अब मैं स्वर्गलोकको जा रहा हूँ । इसमें संदेह नहीं कि आ ज मैं आपकी कृपासे धन्य हो गया । रघुनन्दन ! आप सीताकी प्राप्तिके लिये सूर्यकुमार वानरराज सुग्रीवके साथ मित्रता कीजिये । उनके यहाँ जाकर सुग्रीवसे सारा वृतान्त निवेदन कर देनेपर आपका कार्य सिद्ध हो जायगा । अतः नृपश्रेष्ठ ! आप यहाँसे ऋष्यमूक पर्वतपर जाइये ‘ ॥१३० – १३२॥

 

यह कहकर कबन्ध स्वर्गको चला गया । कहते हैं, तब लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीने एक ऐसे आश्रममें प्रवेश किया, जो सिद्धों और मुनियोंसे शून्य था । उसमें उन्होंने एक ‘ शबरी ‘ नामकी तपस्विनी देखी, जो बड़े – बड़े मुनियोंकी सेवा – पूजा करनेसे निष्पाप हो गयी थी । उसके साथ वार्तालाप करके वे वहाँ ठहर गये । शबरीने बेर आदि फलोंके द्वारा भगवान् रामका भलीभाँति सत्कार किया । आवभगतके पश्चात् उनसे अपनी अवस्था निवेदन की और यह कहकर कि ‘ आप सीताको प्राप्त कर लेंगे ‘ वह शबरी भी उनके सामने ही अग्निमें प्रवेश करके स्वर्गको चली गयी । उसे भी स्वर्गलोकमें पहुँचाकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अन्यत्र चले गये ॥१३३ – १३६॥

 

तदनन्तर विनयशील और गुणी भाई लक्ष्मणके साथ जगदीश्वर भगवान् राम प्रियाके वियोगसे अत्यन्त दुःखी हो वहाँसे दक्षिणकी ओर चल दिये ॥१३७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीरामावतारविषयक ‘ उन्वासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥४९॥

अध्याय - ५० सुग्रीवसे मैत्री; वालिवध; सुग्रीवका प्रमाद और उसकी भर्त्सना; सीताकी खोज और हनुमानका लङ्कागमन

मार्कण्डेयजी बोले – वालीसे वैर हो जानेके कारण उसके लिये दुर्गम स्थानमें रहनेवाले वानरराज सुग्रीवने दूरसे ही श्रीराम और लक्ष्मणको आते देखा और देखकर पवनकुमार हनुमानजीसे कहा – ‘ ये दोनों किसके पुत्र हैं, जो हाथमेंख सुन्दर धनुष लिये, चीर एवं वल्कल-वस्त्र धारण किये, कमलों एवं उत्पलोंसे आच्छन्न इस दिव्य सरोवरको देख रहे हैं ।’ जान पड़ता है, ये दोनों वालीके भेजे हुए बहुविधरुपाधारी दूत हैं, जो इस समय तपस्वीका वेष धारण किये यहाँ आ पहुँचे हैं । यह निश्चय करके सूर्यकुमार सुग्रीव भयभीत हो गये और समस्त वानरोंके साथ ऋष्यमूक पर्वतके कूदकर दूसरे वनमें स्थित अगस्त्यमुनिके उत्तम आश्रमपर चले गये ॥१ – ४॥

 

वहाँ स्थित होकर सुग्रीवने पुनः पवनकुमारसे कहा – ‘ हनुमन् ! तुम भी तपस्वीका वेष धारण करके शीघ्र जाओ और पूछो कि ‘ वे कौन हैं ? किसके पुत्र हैं ? और किस लिये वहाँ ठहरे हुए हैं ? ‘ महाबुद्धिमान् वायुनन्दन ! ये सब बातें सच – सच जानकर मुझसे बताओ ‘ ॥५ – ६॥

 

उनके इस प्रकार कहनेपर हनुमानजी संन्यासीके रुपमें पम्पासरके उत्तम तटपर गये और भाई लक्ष्मणके साथ विद्यमान श्रीरामचन्द्रजीसे बोले – ‘ महामते ! आप कौन हैं ? यहाँ कैसे आये हैं ? इस जनशून्य घोर वनमें आप कहाँसे आ गये ? यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है ? – ये सब बातें मेरे समक्ष ठीक-ठीक बताइये ‘ ॥७ – ८॥

 

इस प्रकार पूछते हुए हनुमानजीसे अपने भाईकी आज्ञा पाकर लक्ष्मण बोले – ‘ मैं श्रीरामचन्द्रजीका वृत्तान्त आदिसे ही वर्णन करता हूँ, सुनो । इस पृथ्वीपर दशरथ नामके राजा बहुत प्रसिद्ध थे । महाबुद्धे ! ये मेरे बड़े भाई श्रीराम उन्हीं महाराजके ज्येष्ठ पुत्र हैं । इनका राज्याभिषेक होने जा रहा था, किंतु ( मेरी छोटी सौतेली माता ) कैकेयीने उसे रोक दिया । फिर, पिताकी आज्ञाका पालन करते हुए ये मेरे बड़े भ्राता श्रीराम मेरे तथा अपनी धर्मपत्नी सीताके साथ घरसे निकल आये । वनमें आकर इन्होंने अनेकों मुनियोंसे युक्त दण्डकारण्यमें प्रवेश किया । वहाँ जनस्थानमें निवास करते हुए इन महात्मा श्रीरामचन्द्रजीकी धर्मपत्नी सीताको वनमें किसी पापीने हर लिया । उन सीताजीकी ही खोज करते हुए ये वीरवर कमलनयन श्रीराम यहाँ आये हैं जिससे तुम्हें यहाँ इनका दर्शन हुआ है । बस, यही हमारा वृत्तान्त है, जो तुमसे बता दिया ‘ ॥९ – १४॥

 

महात्मा लक्ष्मणके वचन सुनकर उनपर विश्वास हो आनेके कारण वायुनन्दन हनूमानने अपने स्वरुपको प्रकट नहीं किया और रघुकुलनायक रामचन्द्रसे यह कहकर कि ‘ आप मेरे स्वामी हैं ‘ – उन्हें सान्त्वना देते हुए अपने साथ सुग्रीवके पास ले आकर उन दोनों भाइयोंकी सुग्रीवसे मित्रता करा दी । पीर श्रीरामचन्द्रजीके स्वरुपका परिचय प्राप्त हो जानेके कारण उनके चरण – कमलोंकी सिरपर धारणकर वानरराज सुग्रीवने मधुर वाणीमें कहा – ‘ राजेन्द्र ! इसमें संदेह नहीं कि आजसे आप हमारे स्वामी हुए और प्रभो ! मैं समस्त वानरोंके साथ आपका सेवक हुआ । रघुनन्दन ! आपका जो शत्रु है, वह आजसे मेरा भी शत्रु है और जो आपका मित्र है, वह मेरा भी श्रेष्ठ मित्र है; इतना ही नहीं, आपका जो दुःख है, वह मेरा भी हे तथा आपकी प्रसन्नता ही मेरी भी प्रसन्नता है ‘ यों कहकर सुग्रीवने पुनः श्रीरामचन्द्रजीसे कहा ॥१५ – १९ १/२॥

 

‘ प्रभो ! ‘ वाली ‘ नामक मेरा ज्येष्ठ भाई है, जो महाबलवान् और बड़ा ही पराक्रमी है; किंतु वह हदयका अत्यन्त दुष्ट है । उसने कामासक्त होकर मेरी भार्याका अपहरण कर लिया है । पुरुषश्रेष्ठ ! इस समय आपके सिवा दूसरा कोई वालीको मारनेवाला नहीं है । राजकुमार ! पुराणवेत्ताओंने कहा है कि जो ताड़के इन सात वृक्षोंको एक साथ ही काट डालेगा, वही वालीका वध कर सकेगा ‘ ॥२० – २२॥

 

[ यह सुनकर ] श्रीमान् रामचन्द्रजीने भी सुग्रीवका प्रिय करनेके लिये आधे खींचे हुए बाणसे ही उन सात महावृक्षोंको एक ही साथ काट डाला । उन महावृक्षोंका भेदन करके श्रीरामने राजा सुग्रीवसे कहा – ‘ सूर्यनन्दन सुग्रीव ! मेरे पहचाननेके लिये अपने शरीरमें कोई चिह्न धारण करके तुम जाओ और वालीके साथ युद्ध करो ।’ उनके यों कहनेपर सुग्रीवने चिह्न धारणकर वालीके साथ युद्ध किया और श्रीरामने भी वहाँ जाकर एक ही बाणसे वालीको बीध दिया । इससे पराक्रमी वाली पृथ्वीपर गिरा और मर गया । तब श्रीरामचन्द्रजीने अत्यन्त डरे हुए वालिकुमार अङ्गदको , जो बहुत ही विनयी और संग्राममें कुशल था , युवराजपदपर अभिषिक्त करके ताराको सुग्रीवकी सेवामें अर्पित कर दिया । तत्पश्चात् कमलनयन धर्मात्मा श्रीराम सुग्रीवसे बोले – ‘ तुम वानरोंके राज्यकी देख – भाल कर लो, फिर मेरे पास आना और कपीश्वर ! सीताकी खोज करानेका शीघ्र ही यत्न करना ‘ ॥२३ – २८ १/२॥

 

उनके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर सुग्रीवने लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीसे कहा – ‘ रघुनन्दन ! इस समय महान् वर्षाकाल आ पहुँचा है; इन्द्रके वर्षा करते रहनेपर इस वनमें वानरोंका चलना – फिरना न हो सकेगा । राजेन्द्र ! वर्षा बीतने और शरत्काल आ जानेपर मैं समस्त दिशाओंमें अपने वानर दूतोंको भेजूँगा ।’ यह कहकर वानरराज सुग्रीवने श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया और पम्पापुरमें प्रवेश करके वे ताराके साथ रमण करने लगे ॥२९ – ३२॥

 

इधर महामति श्रीरामचन्द्रजी भी अपने भाई लक्ष्मणके साथ उस महावनमें ‘ नीलकण्ठ ‘ नामक पर्वतकी चोटीपर विधिपूर्वक रहने लगे । ( सीताके वियोगमें ) उनका वर्षाकाल बड़ी कठिनाईसे बीता । जब शरत्काल उपस्थित हुआ तब श्रीरामचन्द्रजीने सीताके वियोगसे व्यथित हो सुमित्रानन्दन लक्ष्मणसे इस विषयमेम वार्तालाप किया । उस समयतक वहाँ न आकर सुग्रीवने अपनी पूर्व प्रतिज्ञाका उल्लङ्हन किया था । इसलिये भ्रातृवत्सल ककुत्स्थनन्दन श्रीरामने लक्ष्मणसे क्रोधपूर्वक कहा ‘ लक्ष्मण ! तुम पम्पापुरमें जाओ । देखो, क्या कारण है कि वह दुष्ट वानरराज अभीतक नहीं आया । पहले तो वह यही कहकर गया था कि ‘ वर्षाकाल बीतनेपर मैं अनेक वानरोंके साथ आपके पास आऊँगा ।’ अब तुम जहाँ वह वानरराज रहता है, वहाँ शीघ्रतापूर्वक जाओ । ताराके साथ रमण करनेवाले उस दुष्ट वानरको आगे करके समस्त वानरसेनाके सहित मेरे पास शीघ्र ले आओ । यदि ऐश्वर्य प्राप्त कर लेनेके कारण मदमें चूर हो सुग्रीव यहाँ न आये तुम उस असत्यवादीसे यों कहना – ‘ अरे दुष्ट ! श्रीरामने कहा है कि जिससे वलिका वध किया गया था, वह बाण आज भी मेरे हाथमें मौजूद है; अतः वानर ! इस बातको याद करके तू श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाका पालन कर; इसीमें तेरा भला है ‘ ॥३३ – ४०॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके ऐसी आज्ञा देनेपर लक्ष्मणने ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर उसे शिरोधार्य किया और उनको नमस्कार करके वे पम्पापुरमें गये, जहाँ सुग्रीव रहता था । वहाँ उन्होंने वानरराज सुग्रीवको देखकर कहा – ” अरे ! तू श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसे मुँह मोड़कर यहाँ ताराके साथ भोग – विलासमें फँसा हुआ है ? रे दुर्बुद्धे ! तूने श्रीरामके सामने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘ जहाँ – कहीं भी हो, सीताको ढूँढ़कर मैं आपको अर्पित करुँगा ‘ उसे क्या भूल गया ? अरे पापात्मा वानराज ! जिन्होंने वालिको मारकर पहले ही तुम्हें राज्य दे दिया, ऐसे परोपकारी मित्रका तेरे सिवा कौन अनादर कर सकता है ? तूने देवता, अग्नि और जलके निकट श्रीरामसे यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘ राजन् ! मैं पत्नीसे वियुक्त हुए आपकी सहायता करुँगा । राजन् ! जो – जो आपके शत्रु हैं, वे – वे मेरे भी सदा ही मित्र हैं ।

 

राजन् ! मैं बहुत-से वानरोंके साथ सीताकी खोज करानेके लिये अवश्य ही आपके पास आऊँगा ।’ भगवान् श्रीरामके निकट यों कहकर तुझ-जैसे दुष्ट पापीके सिवा दुसरा कौन है, जो इसके विपरीत आचरण करता । अरे दुष्ट वानर ! इस प्रकार तूने अपना काम तो उनसे करा लिया और उनका कार्य करना तू भूल गया ! इस समय ऋषियोंकी यह यथार्थ बात कि ‘ अपना काम सिद्ध हो जानेपर सभीकी बुद्धि बदल जाती है, जैसे बछड़ा माताके थनोंमें दूधकी कमी देखकर उसे छोड़ देता है [ फिर माताकी परवा नहीं करता ]’ मुझे तुझमें ही ठीक – ठीक घटती – सी दीख रही है । संसारमें जो मनुष्योचित सदव्यवहारका ज्ञान रखनेवाले हैं, उन सर्वज्ञ महात्माओंमेंसे मैं किसीको भी ऐसा नहीं देखता, जो लोकमें दूसरोंके द्वारा किये हुए उपकारको न मानता हो । शास्त्रोंमें महापातकी पुरुषोंमें भी उद्धारका उपाय ( प्रायश्चित्त ) देखा गया है, किंतु दुष्ट वानर ! कृतघ्न पुरुषके उद्धारका उपाय मैंने पहले कभी नहीं देखा है । इसलिये तुझे कभी कृतघ्नता नहीं करनी चाहिये । अपनी की हुई प्रतिज्ञाको याद कर । अब आ, तेरे हितकी रक्षा करनेवाले ककुत्स्थकुलनन्दन भगवान् श्रीरामकी शरणमें चल । वानर ! यदि तू नहीं आना चाहता तो यह श्रीरामका वचन सुन । [ उन्होंने कहा है – ] ‘ मैं वालिकी ही भाँति सुग्रीवको भी यमपुर भेज दूँगा । जिससे वानरराज वालि मारा गया है, वह बाण अब भी मेरे पास मौजूद है ” ॥४१ – ५३ १/२॥

 

लक्ष्मणके इस प्रकार कहनेपर कपिराज सुग्रीव मन्त्रीकी प्रेरणासे बाहर निकले । उन्होंने लक्ष्मणको प्रणाम किया और उन महात्मासे कहा – ‘ महाभाग ! हमारे अज्ञानवश किये हुए अपराधोंको आप क्षमा करें । मैंने उस समय अमिततेजस्वी राजा रामचन्द्रके साथ जो प्रतिज्ञा की थी, उसका अब भी उल्लङ्घन नहीं करुँगा । महावीर राजकुमार ! मैं अब समस्त वानरोंको साथ लेकर आपके साथ श्रीरामके पास चलूँगा । मुझे वहाँ देखकर श्रीराचन्द्रजी मुझसे जो कुछ भी कहेंगे, उसे मैं शिरोधार्य करके निस्संदेह पूर्ण करुँगा । राजन् ! मेरे यहाँ बड़े – बड़े वीर वानर हैं । उन सबको मैं सीताजीकी खोज करनेके लिये समस्त दिशाओंमें भेजूँगा ‘ ॥५४ – ५९ १/२॥

 

वानरराज सुग्रीवके यों कहनेपर लक्ष्मणने कहा – ‘ आओ ! अब यहाँसे शीघ्र ही श्रीरामके पास चलें । वीर ! महामते ! वानरों और भालुओंकी सेना भी बुला लो, जिसे देखकर श्रीरामचन्द्रजी तुमपर प्रसन्न हों ।’ लक्ष्मणद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परम पराक्रमी सुग्रीवने पास ही खड़े हुए युवराज अङ्गदसे इशारेमें कुछ कहा । अङ्गदने भी जाकर सेनाका संचालन करनेवाले सेनपतिको प्रेरित किया । सेनापतिके बुलानेसे पर्वत, कन्दरा और वृक्षोंपर रहनेवाले करोड़ों वानर आये । पर्वतोंके समान आकारवाले उन भयंकर पराक्रमी वानरोंके साथ सुग्रीवने उस समय शीघ्रतापूर्वक पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम किया । साथ ली लक्ष्मणजीने भी अपने भाईको प्रणाम करके कहा – ‘ राजन् ! इन विनयशील सुग्रीवपर अब आप कृपा करें ‘ ॥६० – ६६॥

 

भाई लक्ष्मणके इस प्रकार अनुरोध करनेपर श्रीरामचन्द्रजीने सुग्रीवसे कहा – ‘ महावीर सुग्रीव ! यहाँ आओ । कहो, कुशल तो है न ? ‘ श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा कथन सुनकर और उन नरेशको प्रसन्न जानकर सुग्रीवने सिरपर अञ्जलि जोड़ उनसे कहा – ‘ राजन् ! प्रभो ! मेरी कुशल तो तभी होगी, जब मैं सीतादेवीको ढूँढ़कर आपको अर्पित कर दूँ; नहीं तो नहीं ‘ ॥६७ – ६९॥

 

सुग्रीवने जब यह बात कही, तब पवनकुमार हनूमानजी श्रीरामको नमस्कार करके कपिराज सुग्रीवसे बोले – ‘ सुग्रीव ! आप मेरी बात सुनें । ये राजा श्रीरामचन्द्रजी सीताके वियोगसे सदा ही बहुत दुःखी रहते हैं, इसलिये फल आदिका भी आहार नहीं करते । इन्हींके दुःखसे ये लक्ष्मण भी सदा दुःखित रहा करते हैं । इन दोनोंकी यहाँ जो अवस्था है, उसे सुनकर इनके छोटे भाई भरत भी दुःखी पड़े रहते हैं । राजन् ! चूँकि ऐसी स्थिति है, अतः आप बहुत शीघ्र सीताकी खोज कराइये ‘ ॥७० – ७३॥

 

बुद्धिमान् वायुनन्दनके यों कहनेपर अत्यन्त तेजस्वी जाम्बवान् श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके सामने खड़े हो गये । वे नीतिज्ञ थे, अतः कपिराज सुग्रीवसे नीतियुक्त वचन बोले – ‘ सुग्रीव ! हनुमानजीने जो कहा है, उसे आप ठीक ही समझें । श्रीरामचन्द्रजीकी यशस्विनी भार्या विदेहकुलनन्दिनी जनककुमारी महाभागा पतिव्रता सीता जहाँ – कहीं भी होंगी, आज भी सदाचारसे सम्पन्न होंगी – यह विचार मेने मनमें निश्चितरुपसे जमा हुआ है । सुग्रीव ! सदा कल्याणस्वरुप श्रीरामचन्द्रजीमें ही मन लगाये रहनेवाली सीताजीका इस पृथ्वीपर किसीके द्वारा भी पराभव नहीं हो सकता । इसलिये आप अभी वानरोंको भेजें ‘ ॥७४ – ७७ १/२॥

 

जाम्बवानके इस प्रकार कहनेपर महान् बल और पराक्रमसे युक्त कपिराज सुग्रीवने प्रसन्न हो सीताकी खोजके लिये बहुत – से वानरोंको पश्चिम दिशामें भेजा तथा उन धर्मात्माने उत्तर दिशामें भी सीताको ढूँढ़नेके निमित्त एक लाख वानरोंको उसी समय भेज दिया । इसी प्रकार प्रतापी वानरराजने पूर्व दिशामें भी रामकी श्रेष्ठ भार्या सीताका अन्वेषण करनेके लिये बहुत – से वानर भेजे । बुद्धिमान् वानरराज सुग्रीवने इस प्रकार वानरोंकी भेज लेनेके बाद वालिकुमार अङ्गदसे कहा – ‘ अङ्गद ! तुम सीताकी खोज करनेके लिये दक्षिण दिशामें जाओ । तुम सीताकी खोज करनेके लिये दक्षिण दिशामें जाओ । मेरी आज्ञासे आज तुम्हारे चलते समय तुम्हारे साथ जाम्बवान् हनुमान, मैन्द, द्विविद और नील आदि महाबली एवं महापराक्रमी वानर जायँगे । बेटा ! तुम सभी लोग बहुत शीघ्र जाकर यशस्विनी सीताका दर्शन करो और यह भी पता लगाओ, ‘ वे कैसे स्थानमें हैं, किस रुपमें हैं ? विशेषतः उनका आचरण कैसा है ? कौन उन्हें ले गया है ? तथा उसने उन्हें कहाँ रखा है ?’ – यह सब जानकर शीघ्र लौट आओ ” ॥७८ – ८५ १/२॥

 

अपने चाचा महात्मा सुग्रीवके इस प्रकार आदेश देनेपर अङ्गदने तुरंत उठकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की । सुग्रीवकी पूर्वोक्त आज्ञा सुनकर नीतिज्ञ जाम्बवानने सब वानरोंको कुछ दूर खड़ा कर दिया और श्रीराम, लक्ष्मण, सुग्रीव तथा हनुमानजीको एक जगह करके उनसे यह नीतियुक्त बात कही – ‘ नृपनन्दन श्रीरामचन्द्रजी ! सीताका अन्वेषण करनेके विषयमें इस समय आप मेरी एक बात सुनें और सुननेके बाद यदि वह अच्छी लगे तो उसे स्वीकार करें । जटायुने तपस्विनी सीताको जनस्थानसे रावणद्वारा ले जायी जाती हुई देखा था तथा उन्होंने उसके साथ यथाशक्ति युद्ध भी किया था । साथ ही, सीताजीने उस समय अपने आभूषण उतार फेंके थे, जिनको जटायुने और हम लोगोंने भी देखा था । उन आभूषणोंको हमने सुग्रीवको अर्पित कर दिया है । इस कारण राजेन्द्र ! जटायुके कथनानुसार आप इस बातको सत्य समझें कि सीताजीको वही दुष्ट राक्षस रावण ले गया है और महाबाहो ! वे इस समय लङ्कामें ही हैं । वहाँ रहकर भी वे आपके ही दुःखसे अत्यन्त दुःखी हो निरन्तर आपका ही स्मरण किया करती हैं । जनकनन्दिनी सीता लङ्कामें रहकर भी अपने सदाचारकी यत्नपूर्वक रक्षा कर रही हैं । वे सुमुखी सीतादेवी आपके ही ध्यानसे अपने प्राणोंको धारण करती हुई प्रायः आपके ही वियोग – दुःखमें डूबी रहती हैं । इसलिये राजन् ! इस समय आपके हितकी ही बात बता रहा हूँ, आप इस कार्यके लिये वायुपुत्र हनुमानजीको आज्ञा दें; क्योंकि ये ही समुद्र लाँघनेमें समर्थ हैं और सुग्रीव ! आपको भी चाहिये कि पवनकुमार हनुमानजीको ही वहाँ भेजें; क्योंकि वानरोंमें उनके अतिरिक्त कोई भी ऐसा नहीं है, जो समुद्रके पार जा सके तथा हे वीर ! इनके बराबर किसीका बल भी नहीं है । बस, मेरे मनमें यही विचार है । मेरे कधनका शीघ्र पालन किया जाय; क्योंकि यह हमारे लिये सदा ही हितकर और लाभकारी होगा ‘ ॥८६ – ९७ १/२॥

 

जाम्बवानके इस प्रकार थोड़े अक्षरोंमें नीतियुक्त वचन कहनेपर वानरराज सुग्रीव शीघ्र ही अपने आसनसे उठे और वायुनन्दन हनुमानजीके निकट जाकर उनसे बोले – ॥९८ – ९९॥

 

” पवनकुमार वीर हनुमानजी ! तुम मेरी बातु सुनो । ये प्रतापी राजा श्रीरामचन्द्रजी इक्ष्वाकु वंशके भूषण हैं । ये अपने पिताकी आज्ञा मानकर भाई और पत्नीके सहित दण्डकारण्यमें चले आये थे । सदैव धर्ममें तत्पर रहनेवाले ये श्रीराम समस्त लोकोंके ईश्वर और सबके आत्मा साक्षात् भगवान् विष्णु ही हैं । इस समय मनुष्यरुपमें अवतीर्ण हुए हैं । इनकी धर्मपत्नी सीताको दुष्ट दुरात्मा रावणेने हर लिया है । ये प्रतापी वीर राजा उन्हींके वियोगजन्य दुःखसे पीड़ित हो वन – वनमें उन्हींकी खोज करते हुए आ रहे थे, जबकि तुमने इन्हें पहले – पहल देखा था । इनके साथ मिलकर हमने प्रतिज्ञा भी की थी । इन्होंने मेरे शत्रु महाबली वालिका वध किया तथा कपे ! इन्हींकी मेरे शत्रु महाबली वालिका वध किया तथा कपे ! इन्हींकी कृपासे मैंने इस समय अपना राज्य प्राप्त किया है और मैंने भी इनकी सहायताके लिये प्रतिज्ञा की है । पवननन्दन ! मैं अपनी उस प्रतिज्ञाको तुम्हारे ही बलपर पूर्ण करना चाहता हूँ । वीर ! समुद्रके पार जा पतिव्रता सीताको देखकर पुनः समुद्रके इस पार लौट आनेकी सामर्थ्य तुम्हारे सिवा वानरोंमेंसे किसीमें भी नहीं है । अतः महामते ! तुम्हीं अपने स्वामीके कार्यको ठीक – ठीक जान सकते हो; क्योंकि तुम बलवान् नीतिज्ञ और दूतकर्ममें दक्ष हो ” ॥१०० – १०७ १/२॥

 

महात्मा सुग्रीवके यों कहनेपर हनुमानजी बोले – ‘ आप ऐसी बात क्यों कहते हैं ? भला, अपने स्वामी भगवान् श्रीरामका कार्य क्या मैं नहीं करुँगा ? वायुनन्दनके इस प्रकार उत्तर देनेपर शत्रुविजयी महाबाहु राम सीताकी यादसे अत्यन्त दुःखी हो, आँखोंमें आँसू भरकर, सामने बैठे हुए हनुमानजीसे समयोचित वचन बोले – ‘ महामते ! मैं समुद्रके पार जाने आदिका भार तुम्हारे ही ऊपर रखकर सुग्रीवको अपने साथ रखता हूँ । हनुमत् ! तुम मेरी, इन वानर – बन्धुओंकी और विशेषतः सुग्रीव की प्रसन्नताके लिये दृढ़ निश्चय करके वहाँ ( लङ्कामें ) जाओ । महावीर ! प्रायः यही जान पड़ता है कि रावण नामक राक्षस ही सीताको ले गया है; अतः जहाँ सीता रखी गयी हो, वहाँ जाना । यदि वे पूछें कि ‘ तुम जिनके पाससे आते हो, उन श्रीराम और लक्ष्मणका स्वरुप कैसा है ?’ तो इसका उत्तर देनेके लिये तुम मेरे शरीरको तथा मेरे छोटे भाई लक्ष्मणको भी अच्छी तरह देख लो । हम दोनोंके शरीरका प्रत्येक चिह्न देखकर उनसे बताना । नहीं तो सीता तुमपर विश्वास नहीं कर सकतीं – यह मेरे मनका दृढ़ विचार है ‘ ॥१०८ – ११५॥

 

भगवान् श्रीरामके यों कहनेपर महाबली वायुनन्दन हनुमान् उठकर उनके सामने खड़े हो गये और हाथ जोड़कर उनसे बोले – ‘ मैं आप दोनोंके सब लक्षण विशेषरुपसे जानता हूँ; अब मैं वानरोंके साथ जा रहा हूँ, आप खेद न करें । कमललोचन राजन् ! इसके अतिरिक्त आप मुझे कोई पहचानकी वस्तु दीजिये, जिससे आपकी महारानी सीताका मुझपर विश्वास हो ॥११६ – ११८॥

 

वायुनन्दन हनुमानके इस प्रकार अनुरोध करनेपर कमलनयन श्रीरामने अपनी अँगूठी निकालकर दे दी, जिसपर ‘ राम ‘ नाम खुदा हुआ था । उसे लेकर पवनकुमार हनुमानने भी श्रीराम, लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीवकी परिक्रमा की । फिर उन्हें प्रणामकर वे अञ्जनीनन्दन हनुमान वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चले । तब सुग्रीव भी अपने आज्ञाकारी एवं बलाभिमानी वानरोंके विषयमें यह जानकर कि वे जानेके लिये उद्यत हैं, उन्हें आदेश देते हुए बोले – ‘ सभी वानर इस समय मेरी आज्ञाअ सुन लें – तुम पर्वतों और वनोंमें विलम मत जाना । शीघ्र जाकर महाभागा रामपत्नी पतिव्रता सीताका पता लगाकर लौट आना; मैं श्रीरामचन्द्रजीके पास ठहरता हूँ । यदि तुम मेरी आज्ञाके विपरीत चलोगे तो मैं तुम्हारी नाक और कान काट लूँगा ‘ ॥११९ – १२४॥

 

कपिराज सुग्रीवने इस प्रकार आज्ञापूर्वक उन्हें भेजा और वे वानर पश्चिम आदि दिशाओंमें चल पड़े । समस्त पर्वतोंके सानुओं ( उपत्यकाओं ) और शिखरोंपर, सारी नदियोंके तटोंपर, मुनियोंके आश्रमोंमें, खड्डोंमें, सब प्रकारके वनों और उपवनोंमें, वृक्षों और झाड़ियोंमें, कन्दराओं तथा शिलाओंमें, सह्यपर्वतके आस-पास, विन्ध्याचल और समुद्रके निकट, हिमालय पर्वतपर किम्पुरुष आदि देशोंमें, समस्त मानवीय प्रदेशोंमें, सातों पातालोंमें, सम्पूर्ण मध्यप्रदेशोंमें, कश्मीरमें, पूर्वदिशाके सारे देशोंमें, कामरुप ( आसाम ) और कोशल ( अवध ) – में, सम्पूर्ण तीर्थ-स्थानोंमें तथा सातों कोङ्कण देशोंमें भी जहाँ-तहाँ सर्वत्र सीताकी खोज करते हुए वे महाबली वानर उन्हें न पाकर लौट आये । आकर उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मणके चरणोंमें तथा विशेषतः सुग्रीवको प्रणाम किया और यह कहकर कि ‘ हमने कमललोचना महाभागा सीताको कहीं नहीं देखा ‘, वहाँ खड़े हो गये ॥१२५ – १३२॥

 

तब दुःखित हुए भगवान् रामसे कपिराज सुग्रीवने कहा – ‘ राजन् ! सीताजी दक्षिण दिशामें ही वनमें स्थित हैं; उन्हें वानरश्रेष्ठ बुद्धिमान् पवनकुमार ही देख सकते हैं । इसमें संदेह नहीं कि हनुमानजी सीताको देखकर ही आयेंगे । महाबाहु श्रीराम ! आप धैर्य धारण करें, मेरा यह कथन बिलकुल सत्य हैं ।’ तब लक्ष्मणने भी शकुन देखकर यह बात कही – ‘ हनुमान् सर्वथा सीताको देखकर ही आयेंगे ।’ इस प्रकार सुग्रीव और लक्ष्मण भगवान् श्रीरामको सान्त्वना देते हुए उनके पास रहने लगे ॥१३३ – १३६॥

 

इधर जो-जो श्रेष्ठ वानर अङ्गदजीको आगे करके यशस्विनी श्रीसीताजीकी यत्नपूर्वक खोज करनेके लिये गये थे, वे वनमें कहीं भी सीताजीका पता न पाकर बहुत थक गये तथा कष्टमें पड़ गये । यही नहीं, कुछ भोजन न मिलनेके कारण वे भूखसे भी बहुत पीड़ित हो गये । गहन वनमें घूमते हुए उन्होंने एक परम कान्तिमयी और उत्तम गुणोंवाली ऋषिपत्नी देखी, जो कन्दरामें निवास करनेवाली और सिद्धा थी । उसने उन वानरोंको अपने आश्रपर आया देख पूछा – ‘ आप लोग किसके दूत हैं ? कहाँसे आये हैं ? और यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है ?’ ॥१३७ – १४०॥

 

उसकी बात सुनकर महामति जाम्बवानने उस सिद्धा तपस्विनीसे कहा – ‘ शोभने ! पापहीने ! हम सुग्रीवके भृत्य हैं, श्रीरामचन्द्रजीकी भार्या सीताकी खोज करनेके लिये यहाँ आये हैं । हम किस दिशाको जायँ, इसका ज्ञान हमें नहीं रह गया है । सीताजीका पता न पानेके कारण अभीतक हमने कुछ भोजन भी नहीं किया है ‘ ॥१४१ – १४२॥

 

जाम्बवानके यों कहनेपर उस कल्याणी तपस्विनीने पुनः उन वानरोंसे कहा – ‘ मैं श्रीराम, लक्ष्मण, सीता और कपिराज सुग्रीवको भी जानती हूँ । वानरेन्द्रगण ! आप लोग यहाँ मेरा दिया हुआ आहार ग्रहण करें । आप लोग श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसे यहाँ आये हैं, अतः हमारे लिये श्रीरामचन्द्रजीके समान ही आदरणीय हैं ।’ यों कहकर उस तपस्विनीने अपने योगबलसे उन वानरोंको अमृतमय मधुर पदार्थ अर्पित किया तथा यथेष्ट भोजन कराकर पुनः उनसे कहा – ‘ सीताका स्थान पक्षिराज सम्पातिको ज्ञात है । वे इसी वनमें महेन्द्रपर्वतपर रहते हैं । वानरगण ! आप लोग इसी मार्गसे वहाँ पहुँच जायँगे । सम्पाति बहुत दूरतक देखनेवाले हैं, अतः वे सीताका पता बता देंगे । उनके बताये हुए मार्गसे आप लोग पुनः आगे जाइयेगा । जनकनन्दिनी सीताको ये पवनकुमार हनुमानजी अवश्य देख लेंगे ‘ ॥१४३ – १४८॥

 

उसके इस प्रकार कहनेपर वानरगण बहुत ही प्रसन्न हुए; उन्हें बड़ा उत्साह मिला । फिर वे उस तपस्विनीको प्रणाम करके वहाँसे प्रस्थित हुए । सम्पातिको देखनेकी इच्छासे वे वीर कपीश्वर महेन्द्रपर्वतपर गये तथा वहाँ बैठे हुए सम्पातिको उन्होंने देखा । तब पक्षिराज सम्पातिने वहाँ आये हुए वानरोंसे कहा – ‘ आप लोग कौन हैं ? किसके दूत हैं ? कहाँसे आये हैं ? शीघ्र बतायें ‘ ॥१४९ – १५१॥

 

सम्पातिके यों पूछनेपर वानरोंने सारा समाचार यथार्थरुपसे क्रमशः बताना आरम्भ किया – ‘ पक्षिराज ! हम सब श्रीरामचन्द्रजीके दूत हैं । कपिराज महात्मा सुग्रीवने हमें सीताजीकी खोजके लिये भेजा है ।

 

पक्षिवर ! एक सिद्धाके कहनेसे हम आपका दर्शन करनेके लिये यहाँ आये हैं ।

 

महामते ! महाभाग ! सीताके स्थानका पता आप हमें बता दें ।’ वानरोंके इस तरह अनुरोध करनेपर गृध्र सम्पातिने अपनी दृष्टि दक्षिण दिशाकी ओर दौड़ायी और पतिव्रता सीताको देखकर बताया – ‘ सीताजी लङ्कामें अशोकवनके भीतर ठहरी हुई हैं ।’ तब वानरोंने कहा – ‘ आपके भ्राता जटायुने सीताजीकी रक्षाके लिये ही प्राणत्याग किया है ।’ यह सुनकर महामति सम्पातिने स्नान करके जटायुको जलाञ्जलि दी और योगधारणाका आश्रय ले अपने शरीरको त्याग दिया ॥१५२ – १५६॥

 

तदनन्तर वानरोंने सम्पातिके शवका दाह-संस्कार किया और उन्हें जलाञ्जलि दे, महेन्द्रपर्वतपर जाकर तथा उसके शिखरपर आरुढ़ हो, क्षणभर खड़े रहे । फिर समुद्रकी ओर देख वे सभी परस्पर कहने लगे -‘ रावणने ही भगवान् श्रीरामकी भार्या सीताका अपहरण किया है, यह बात निश्चित हो गयी । सम्पातिके वचनसे आज सब बातें ठीक-ठीक ज्ञात हो गयीं ।

 

शोभाशाली वानरो ! अब आप सब लोग सोचकर बतायें कि यहाँ वानरोंमे कौन ऐसा वीर है, जो इस क्षार समुद्रके पार जा लङ्कामें घुसे और परम यशस्विनी श्रीरामपत्नी सीताजीका दर्शन करके पुनः समुद्रके पार लौट आनेमें समर्थ हो सके ‘ ॥१५७ – १६०॥

 

वानरोंकी यह बात सुनकर जाम्बवानने कहा – ‘ समुद्रको पार करनेमें तो सभी वानर समर्थ हैं, परंतु यह कार्य एक अन्यतम वानरसे ही सिद्ध होगा । मेरे विचारमें तो यह आता है कि इस कार्यको सिद्ध करनेमें केवल हनुमानजी ही समर्थ हैं । अब समय नहीं खोना चाहिये । हमारे लौटनेकी जो नियत अवधि थी । उससे पंद्रह दिन अधिक बीत गये हैं ।

 

वानरेन्द्रगण ! यदि हमलोग सीताको देखे बिना ही लौट जायँगे तो कपिराज सुग्रीव हमारी नाक और कान काट लेंगे । इसलिये मेरी राय यह है कि हम सब लोग इस कार्यके लिये वायुनन्दन हनुमानजीसे ही प्रार्थना करें ‘ ॥१६१ – १६३ १/२॥

 

यह सुनकर उन वानरोंने वृद्ध जाम्बवानजीसे कहा, ‘ अच्छा, ऐसा ही हो ।’ तत्पश्चात् वे सभी वानर कार्यसाधनमें विशेष कुशल महाबुद्धिमान् पवनन्दन हनुमानजीसे प्रार्थना करने लगे – ‘ अञ्जनीनन्दन ! आप श्रीरामचन्द्रजीके प्रिय सेवक हैं । आप ही रावणको भय देनेके लिये लङ्कामें जायँ और हमारे वानरवृन्दकी रक्षा करें ।’ वानरोंके यों कहनेपर पवनकुमार हनुमानजीने ‘ तथास्तु ‘ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की । एक तो श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञा थी, फिर अपने स्वामी सुग्रीवने भी आदेश दिया था, इसके बाद महेन्द्रपर्वतपर उन वानरोंने भी उन्हें प्रेरित किया, अतः अञ्जनीकुमार हनुमानजीने समुद्र लाँघकर निशाचरपुरी लङ्कामें जानेका निश्चय कर लिया ॥१६४ – १६७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीरामावतारकी कथाविषयक ‘ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५०॥

अध्याय - ५१ हनुमान्जीका समुद्र पार करके लङ्कामें जाना, सीतासे भेंट और लङ्काका दहन करके श्रीरामको समाचार देना

मार्कण्डेयजी बोले – हनुमानजीने रावणद्वारा हरी गयी सीताकी खोज करने तथा उनके स्थानका पता लगानेके लिये चारणोंके मार्ग ( आकाश )- से जानेकी इच्छा की । पूर्वाभिमुख हो, हाथ जोड़कर उन्होंने देवगणोंसहित आत्मयोनि ब्रह्माजीको मन-ही-मन प्रणाम किया तथा श्रीराम और महारथी लक्ष्मणको भी मनसे ही प्रणाम करके सागर तथा सरिताओंको मस्तक नवाया । फिर अपने वानर-बन्धुओंको गले लगाकर उन सबकी प्रदक्षिणा की । तब अन्य सब वानरोंने यह सबकी प्रदक्षिणा की । तब अन्य सब वानरोंने यह आशीर्वाद दिया – ‘ वीर ! तुम ( सकुशल ) लौट आनेके लिये पवित्र वायुसे सेवित मार्गपर बिना विघ्न – बाधाके जाओ ।’ यों कहकर उन्होंने हनुमानजीका सम्मान किया । फिर पराक्रमी पवनकुमार अपनी सहज शक्तिको प्राप्त हुए – उनमें वायुके सदृश बलका आवेश हो गया । दूरतकके मार्गका अवलोकन करते हुए उन्होंने ऊपर दृष्टि डाली । अपने-आपमें षडविध ऐश्वर्यकी पूर्णताका-सा अनुभव करते हुए वे महाबली हनुमान् महेन्द्र पर्वतको पैरोंसे दबाकर उसके शिखरसे आकाशकी ओर उछले ॥१ – ६॥

 

बुद्धिमान् वायुपुत्र हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीके कार्यसाधनमें तत्पर हो जब अपने पिता वायुके मार्गसे चले जा रहे थे, उस समय उनको थोड़ी देरतक विश्राम देनेके लिये, समुद्रद्वारा प्रेरित हो, मैनाक पर्वत पानीसे बाहर ऊपरकी ओर उठ गया । उसे देख उन्होंने वहाँ थोड़ासा रुककर उससे आदरपूर्वक बातचीत की और फिर उसे अपने वेगसे दबाकर उछलते हुए वे दूर चले गये । मार्गमें सिंहिका नामकी राक्षसी थी । उसने जलमें मुँह फैला रखा था । महाकपि हनुमानजी उसके भीतर घुसकर पुनः बाहर निकल आये । इस प्रकार सिंहिकाके मुखसे निकलवर प्रतापी पवनकुमार उस समुद्र-प्रदेशको लाँघते हुए त्रिकूट पर्वतके सुरम्य शिखरपर एक महान् वृक्षके ऊपर जा उतरे । उसी उत्तम पर्वतपर दिन बिताकर हनुमानजीने वहीं सायंकालकी संध्योपासना की । फिर रातमें धीरे-धीरे वे लङ्काकी ओर चले । मार्गमें मिली हुई ‘ लङ्का ‘ नामकी नगर-देवताको जीतकर उन्होंने नाना रत्नोंसे सम्पन्न और अनेक प्रकारके आश्चर्योंसे युक्त लङ्कापुरीमें प्रवेश किया ॥७ – १२ १/२॥

 

तदनन्तर जब सब राक्षस गहरी नींदमें सो गये, तब नीतिज्ञ हनुमानजीने रावणके समृद्धिशाली भवनमें प्रवेश किया । वहाँ रावण एक बहुत बड़े पलंगपर सो रहा था । हनुमानजीने देखा-साँस छोड़नेवाले बीस भयंकर नासिकाछिद्रोंसे युक्त उसके दसों मुखोंमें बड़ी भयानक दाढ़ें थीं । नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रावण हजारों स्त्रियोंके साथ वहाँ सोया था । किंतु रावणके उस सुन्दर भवनमें सीताजी कहीं नहीं दिखायी दीं । वह राक्षसराज अपने घरके भीतर गाढ़ निद्रामें सो रहा था । सीताजीका दर्शन न होनेसे वायुनन्दन हनुमानजी बहुत दुःखी हुए । फिर सम्पातिके कथनको याद करके वे अशोकवाटिकामें आये, जो विविध प्रकारके पुष्पोंसे सुशोभित और अत्यन्त सुगान्धित मलयज-चन्दनसे व्याप्त थी ॥१३ – १८॥

 

वाटिकामें प्रवेश करके हनुमानजीने अशोकवृक्षके नीचे बैठी हुई जनकनन्दिनी श्रीरामपत्नी सीताको देखा, जो राक्षसियोंसे सुरक्षित थीं । वह अशोकवृक्ष सुन्दर मृदुल पल्लवोंसे विलसित और पुष्पोंसे सुशोभित था । कपिवर हनुमानजी उस वृक्षपर चढ़ गये और ‘ ये ही सीता हैं ‘ – यह सोचते हुए वहीं बैठ गये । सीताजीका दर्शन करके वे पवनकुमार ज्यों ही वृक्षके शिखरपर बैठे, त्यों ही रावण बहुत-सी स्त्रियोंसे घिरा हुआ वहाँ आया । आकर उसने सीतासे कहा – ‘ प्रिये ! मैं कामपीड़ित हूँ, मुझे स्वीकार करो । वैदेहि ! अब श्रृङ्गार धारण करो और श्रीरामकी ओरसे मन हटा लो ।’ इस प्रकार कहते हुए रावणसे भयवश काँपती हुई सीताजी बीचमें तिनकेकी ओट रखकर धीरे-धीरे बोलीं – ‘ परस्त्रीसेवी दुष्ट रावण ! तू चला जा । मैं शाप देती हूँ – भगवान् श्रीरामके बाण शीघ्र ही रणभूमिमें तुम्हारा रक्त पीये ‘ ॥१९ – २४॥

 

सीताजीका यह उत्तर और फटकार पाकर राक्षसराज रावणने राक्षसियोंसे कहा – ‘ तुम लोग इस मानव – कन्याको दो महीनेके भीतर समझाकर मेरे वशीभूत कर दो । यदि इतने दिनोंतक इसका मन मेरी ओर न झुके तो इस मानुषीको तुम खा डालना ।’ यों कहकर दुष्ट रावण अपने महलमें चला गया । तब रावणके डरसे डरी हुई राक्षसियोंने जनकनन्दिनी सीतासे कहा – ‘ कल्याणि ! रावण बहुत धनी है, इसे स्वीकार कर लो और सुखसे रहो ।’ राक्षसियोंके यों कहनेपर सीताने उनसे कहा – ‘ महापराक्रमी भगवान् श्रीराम युद्धमें रावणको उसके सेवकगणोंसहित मारकर मुझे ले जायँगे । मैं रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके सिवा दूसरेकी भार्या नहीं हो सकती । वे ही आकर रावणको मारकर मेरी रक्षा करेंगे ‘ ॥२५ – २९॥

 

सीताकी यह बात सुनकर राक्षसियोंने उन्हें भय दिखाते हुए कहा – ‘ अरी ! इसे मार डालो, मार डालो; खा जाओ, खा जाओ ।’ उन राक्षसियोंमें एकका नाम त्रिजटा था । वह उत्तम विचार रखनेवाली-साध्वी स्त्री थी । उसने उन सभी राक्षसियोंको स्वप्नमें देखी हुई बात बतायी । वह बोली – ‘

 

अरी दुष्टा राक्षसियो ! सुनो; मैंने एक शुभ स्वप्न देखा है, जो रावणके लिये विनाशकारी है, समस्त राक्षसोंके साथ रावणको मौतके मुँहमें डालनेवाला है, भ्राता लक्ष्मणके साथ श्रीरामचन्द्रजीकी विजयका सूचक है और सीताको पतिसे मिलानेवाला है ।’ त्रिजटाकी बात सुनकर वे सभी राक्षसियाँ सीताके पाससे हटकर दूर चली गयीं । तब अञ्जनीनन्दन हनुमानजीने अपनेको सीताके सामने प्रकट किया और ‘ श्रीराम – नाम ‘ का कीर्तन करते हुए उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीकी अँगूठी दी । फिर उनसे श्रीराम और लक्ष्मणके शरीरके लक्षण बताये और कहा – ‘

 

सुमुखि ! वानरोंके राजा सुग्रीव बहुत बड़ी सेनाके स्वामी हैं । उन्हींके साथ आपके पतिदेव भगवान् श्रीरामचन्द्रजी तथा आपके देवर महावीर लक्ष्मणजी यहाँ पधारेंगे और रावणको सेनासहित मारकर आपको यहाँसें ले जायँगे ‘ ॥३० – ३७॥

 

हनुमानजीके यह कहनेपर सीताजीका उनपर विश्वास हो गया । वे बोलीं – ‘ वीर ! तुम किस तरह महासागरको पार करके यहाँ चले आये ? ‘ उनका यह वचन सुनकर हनुमानजीने पुनः उनसे कहा – ‘ वरानने ! मैं इस समुद्रको उसी प्रकार लाँघ गया, जैसे कोई गौके खुरसे बने हुए गङ्गेको लाँघ जाय । जो ‘ राम-राम ‘ का जप करता है, उसके लिये समुद्र गौके खुरके चिह्नके समान हो जाता है ।

 

शुभानने वैदेहि ! आप दुःखमग्ना दिखायी देती हैं, अब धैर्य धारण कीजिये । मैं आपसे सत्य-सत्य कह रहा हूँ, आप बहुत शीघ्र श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करेंगी ।’ इस प्रकार दुःखमें डूबी हुई पतिव्रता जनकनन्दिनी सीताको आश्वासन दे, उनसे पहचानके लिये चूड़ामणि पाकर और श्रीरामके प्रभावसे काकरुपी जयन्तके पराभवकी कथा सुनकर, वहाँसे चल देनेका विचार करके हनुमानजीने सीताको नमस्कर करनेके पश्चात् प्रस्थान किया ॥३८ – ४२॥

 

तत्पश्चात् कुछ सोचकर पराक्रमी हनुमानजीने रावणके उस सम्पूर्ण क्रीडावन ( अशोकवाटिका ) – को नष्ट- भ्रष्ट कर डाला और वनके द्वारपर स्थित हो, उच्चस्वरसे सिंहनाद करते हुए बोले – ‘ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो !’ फिर तो युद्धके लिये सामने आये हुए अनेक राक्षसोंको मारकर सेना और सेनापतियोंका संहार किया । इसके बाद रावणके सेनापति अक्षकुमारको अश्व तथा सारथिसहित यमलोक पहुँचा दिया । इसपर रावणपुत्र इन्द्रजितने वरके प्रभावसे उन्हें बंदी बना लिया । इसके बाद वे रावणके सेनापति अक्षकुमारको अश्व तथा सारथिसहित यमलोक पहुँचा दिया । इसपर रावणपुत्र इन्द्रजितने वरके प्रभावसे उन्हें बंदी बना लिया । इसके बाद वे रावणके सम्मुख उपस्थित किये गये । वहाँसे छूटकर उन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण और महाबली सुग्रीवके यशका कीर्तन करते हुए सम्पूर्ण लङ्कापुरीको जलाकर भस्म कर दिया । तदनन्तर दुष्टात्मा रावणको डॉट बताकर पुनः सीताजीके दर्शनका समाचार सुनाकर सबसे सम्मानित हुए ॥४३ – ४७॥

 

तत्पश्चात् हनुमानजी सभी वानरोंके साथ मधुवनमें आये । उसके रखवालोंको मारकर उन्होंने वहाँ सब साथियोंको मधु – पान कराया और स्वयं भी पीया । इस कार्यमें बाधा देनेवाले दधिमुख नामके वानरको सबने धरतीपर दे मारा । इसके बाद हनुमानजी सब वानरोंके साथ आनन्दित हो, आकाशमें उछलते हुए श्रीराम और लक्ष्मणके निकट जा पहुँचे । वहाँ उन दोनोंके चरणोंमें प्रणाम कर, विशेषतः सुग्रीवको मस्तक झुकाकर उन्होंने समुद्र लाँघनेसे लेकर सारा समाचार आद्योपान्त सुनाया और यह भी कहा कि ‘ मैंने अशोक – वाटिकाके भीतर सीतादेवीका दर्शन किया । उन्हें राक्षसियाँ घेरे हुए थीं और वे बहुत दुःखी होकर निरन्तर आपका ही स्मरण कर रही थीं । उनके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी और वे बड़ी दीन अवस्थामें थीं । रघुनन्दन ! आपकी धर्मपत्नी सुमुखी सीता वहाँ भी शील और सदाचारसे सम्पन्न हैं । मैंने सब जगह ढूँढ़ते हुए पतिव्रता जानकीको अशोकवनमें पाया, उनसे वार्तालाप किया और उन्होंने भी मेरा विश्वास किया । प्रभो ! उन्होंने आपको देनेके लिये अपना श्रेष्ठ मणिमय अलङ्कार भेजा है ‘ ॥४८ – ५४॥

 

यह कहकर हनुमानजीने भगवान् श्रीरामको वह उत्तम चूड़ामणि दे दी और कहा – ‘ प्रभो ! आपकी धर्मपत्नी श्रीसीताजीने यह संदेश भी कहला भेजा है, सुनिये – ‘ महान् व्रतका पालन करनेवाले महाराज ! चित्रकूट पर्वतपर जब आप मेरी गोदमें [ सिर रखकर ]

सो गये थे, उस समय काकवेषधारी जयत्नका जो आपने मानमर्दन किया था, उसे स्मरण करें ।

 

राजेन्द्र ! प्रभो ! उस कौएके थोड़ेसे ही अपराधपर उसे दण्ड देनेके लिये आपने जो अद्भुत कर्म किया था ,उसे देवता और असुर भी नहीं कर सकते । उस समय तो आपने ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया था ? क्या इस समय इस रावणको पराजित नहीं करेंगे ?’ इस प्रकार बहुत-सी बातें कहकर सीताजी रोने लगी थीं । यह है दुःखिनी सीताका वृत्तान्त ! आप उन्हें उस दुःखसे मुक्त करनेका प्रयत्न कीजिये ।’ पवनकुमार हनुमानजीके इस प्रकार कहनेपर सीताजीका वह संदेश सुन और उनके उस सुन्दर आभूषणको देख, भगवान् श्रीराम उन कपिवर हनुमानजीको गलेसे लगाकर रोने लगे और धीरे-धीरे वहाँसे प्रस्थित हुए ॥५५ – ५९॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीरामावतारकी कथाविषयक ‘ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५१॥

अध्याय - ५२ श्रीराम आदिका समुद्रतटपर जाना; विभीषणकी शरणागति और उन्हें लङ्काके राज्यकी प्राप्ति; समुद्रका श्रीरामको मार्ग देना; पुलद्वारा समुद्र पार करके वानरसेनासहित श्रीरामका सुवेल पर्वतपर पड़ाव डालना; अङ्गदका प्रभाव लक्ष्मणकी प्रेरणासे श्रीरामका अङ्गदकी प्रशंसा करना; अङ्गदके वीरोचित उदार और दौत्यकर्म; वानर वीरोंद्वारा राक्षसोंका संहार; रावणका श्रीरामके द्वारा युद्धमें पराजित होना, कुम्भकर्णका वध; अतिकाय आदि राक्षस वीरोंका मारा जाना; मेघनादका पराक्रम और वध रावणकी शक्तिसे मूर्चित लक्ष्मणका हनुमान्जीके द्वारा पुनर्जीवन; राम-रावण-युद्ध रावण-बध; देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति; सीताके साथ अयोध्यामें आनेपर श्रीरामका राज्याभिषेक और अन्तमें पुरवासियोसहित उनका परमधामगमन

मार्कण्डेयजी बोले – वायुनन्दन हनुमानजीके द्वारा कथित प्रिया जानकीका वृत्तान्त सुन लेनेके पश्चात श्रीरामचन्द्रजी विशाल वानरसेनाके साथ समुद्रके निकट गये । साथ ही सुग्रीव और जाम्बवान् भी तालवनसे सुशोभित सागरके सुरम्य तटपर जा पहुँचे । अत्यन्त हर्ष और उत्साहसे पूर्ण उन असंख्य वानरोंसे धिरे हुए श्रीमान् भगवान् राम नक्षत्रोंसे धिरे हुए चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे । अपने धीर – वीर अनुज लक्ष्मणजीके साथ समुद्रकी विशालताका अवलोकन करते हुए वे उसके तटपर ठहर गये । इधर लङ्कामें रावणने [ राक्षसकुलके हितके लिये ] अच्छी बात कहनेपर भी अपने छोटे भाई महाबुद्धिमान् विभीषणको बहुत फटकारा । तब वे अपने शास्त्रज्ञ मन्त्रियोंके साथ महान् देवता भक्तवत्सल लक्ष्मीपतिके अवतार नरश्रेष्ठ श्रीराममें अविचल भक्ति रखते हुए उनके निकट आये और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले उन भगवान् श्रीरामसे हाथ जोड़ विनयपूर्वक यों बोले – ‘

 

महाबाहो श्रीराम ! देवदेव जनार्दन ! मैं [ रावणका भाई ] विभीषण हूँ, आपकी शरणमें आया हूँ; मेरी रक्षा कीजिये ‘ – यों कहकर हाथ जोड़े हुए वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें गिर पड़े । उनका अभिप्राय जानकर भगवान् श्रीरामने उन महाबुद्धिमान् वीर विभीषणको उठाया और समुद्रके जलसे उनका राज्याभिषेक करके कहा – ‘ अब लङ्काका राज्य तुम्हारा ही होगा ।’ श्रीरामके यों कहनेपर विभीषण उनके साथ बातचीत करके वहीं खड़े रहे ॥१ – ८ १/२॥

 

तब विभीषणने कहा – ‘ प्रभो ! आप जगत्पति भगवान् विष्णु हैं । देव ! ऐसी चेष्टा करें कि समुद्र ही आपको जानेका मार्ग दे दे । हम सब लोग उससे प्रार्थना करें ।’ उनके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजी वानरोंके साथ समुद्रके तटपर धरना देते हुए लेट गये । अपार कान्तिमान् भगवान् श्रीरामको वहाँ लेटे – लेटे तीन रातें बीत गयीं; तब कमलनयन जगदीश्वर श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा ही क्रोध हुआ और उन्होंने समुद्रके जलको सुखा डालनेके लिये हाथमे अग्निबाण धारण किया । यह देख लक्ष्मणजी तत्काल उठे और कुद्ध हुए भगवान् रामसे यों बोले – ॥९ – १२॥

 

‘ महामते ! आपका क्रोध तो समस्त ब्रह्माण्डका प्रलय करनेवाला है, इस समय इस कोपको दबा दें; क्योंकि आपने प्राणियोंकी रक्षाके लिये अवतार धारण किया है । देवदेव ! आप क्षमा करें ‘, – यों कहकर उन्होंने श्रीरामके उस बाणको पकड़ लिया । इधर तीन रात बीत जानेपर श्रीरामचन्द्रजीको कुपित देख, उनके अग्निबाणसे भयभीत हो, समुद्र मनुष्यरुप धारणकर उनके निकट आया और महान् देवता भगवान् श्रीरामसे बोला – ‘ भगवान् ! मुझ अपराधीकी रक्षा कीजिये ।

 

रघुनन्दन ! अब मैंने आपको जानेका मार्ग दे दिया । आपकी सेनामें वीरवर नल पुल बनानेमें निपुण कहे गये हैं । उनके द्वारा आपको जितना बड़ा अभीष्ट हो, उतने ही बड़े उत्तम पुलका निर्माण करा लीजिये ‘ ॥१३ – १६ १/२॥

 

तब भगवान् रामने नल आदि अन्य अमित-तेजस्वी वानरोंद्वारा बहुत बड़ा पुल बनवाया और उसीके द्वारा समुद्रके पार जा, सुवेल नामक पर्वतपर पहुँचकर वहीं वानरोंके साथ डेरा डाल दिया । वहाँसे अङ्गदने देखा – ‘ दुष्ट रावण महलकी अट्टालिकापर बैठा हुआ है ।’ उसे देखते ही वे भगवान् श्रीरामकी आज्ञा ले, दूत – कार्यमें संलग्न हो, उछलकर रावणके मस्तकपर लात मारी । उस समय देवताओंने महान् पराक्रमी अङ्गदजीकी ओर बड़े विस्मयके साथ देखा । इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके वे पुनः सुवेल पर्वतपर चले आये । तदनन्तर प्रतापी भगवान् श्रीरामने असंख्य वानर-सेनाओंके द्वारा रावणकी पुरी लङ्काको चारों ओरसें घेर लिया ॥१७ – २१ १/२॥

 

तब श्रीरामने चारों ओर देख लक्ष्मणको पास बुलाकर कहा – ‘ भाई ! हम लोगोंने समुद्र तो पार कर लिया तथा कपिराज सुग्रीवके सैनिकोंने राक्षसोंकी राजधानी लङ्काको आनन-फाननमें अपना ग्रास-सा बना लिया है , वह भाग्य अथवा इस धनुषके अधीन है ‘ ॥२२ – २३॥

 

लक्ष्मण बोले – ‘ भाई ! कातर पुरुषोंके हदयको अवलम्बन देनेवाले भाग्य या दैवसे क्या होनेवाला है ? जबतक हमारी भ्रुकुटि रोषसे तनकर ललाटके ऊपरतक नहीं जाती और जबतक प्रत्यञ्चा धनुषके अग्रभागपर नहीं चढ़ती, तभीतक निशाचराज रावणका दर्प त्रिभुवनका मूलोच्छेदन करनेवाली उसकी भुजाओंके भरोसे बढ़ता रहे ‘ ॥२४॥

 

ऐसा विचार प्रकट करके लक्ष्मणने उसी समय भगवान् श्रीरामके कानमें मुँह लगाकर कहा – ‘ अब इस समय इस बातकी परीक्षा तथा जानकारीके लिये कि यह अङ्गद अपने पिता वालीके वैरजनित वधका स्मरण करके भी आपमें कितनी भक्ति रखता है, इसमें कितना पराक्रम है तथा इसके अब कैसे लक्ष्मण ( रंग – ढंग ) है, आप अङ्गदको पुनः दूतकर्म करनेका आदेश दीजिये ।’ श्रीरामचन्द्रजी ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर अङ्गदकी ओर बड़े आदरसे देखकर उन्हें आदेश देने लगे – ‘

 

अङ्गद ! तुम्हारे पिता वालीने दशकण्ठ रावणके प्रति जो पुरुषार्थ किया था, उसका हम भी वर्णन नहीं कर सकते । उसकी याद आते ही हर्षके कारण हमारे शरीरमें रोमाञ्च हो आता है । वही वाली आज तुम्हारे रुपमें प्रकट है । तुम पुत्ररुपमें उत्पन्न हो, अपने पुरुषार्थसे पिताको भी पीछे छोड़ रहे हो; अतः तुम्हारे विषयमें क्या कहना है । तुम पुत्र – पदवीको मस्तकका तिलक बना रहे हो ‘ ॥२५ – २६॥

 

अङ्गदने अपने मस्तकपर दोनों हाथ जोड़ भगवानको प्रणाम करके कहा – ‘ जैसी आज्ञा; भगवान् इधर ध्यान दें ।

 

रघुपते ! क्या मैं चहारदीवारी, विहार – स्थल और नगरद्वारसहित लङ्कापुरीको यहीं उठा लाऊँ ? या अपनी सारी सेनाको ही उस पुरीमें आक्रमणके लिये पहुँचा दूँ ? अथवा इस अत्यन्त तुच्छ सागरको अविरल कुलाचलोंद्वारा पाट दूँ ?

 

भगवन् ! आज्ञा दीजिये, क्या करुँ ? मेरे भुजदण्डोंद्वार सब कुछ सिद्ध हो सकता है ‘ ॥२७ – २८॥

 

भगवान् रामने अङ्गदके कथनसे ही उनकी भक्ति और शक्तिका अनुमान लगाकर कहा – ‘ वीर ! तुम दशमुख रावणके पास जाकर कहो – ‘ रावण ! तुम अज्ञानसे या प्रभुत्वके अभिमानमें आकर हम लोगोंके पीठ-पीछे चोरकी भाँति जिस सीताको ले गये हो, उसे छोड़ दो; नही तो लक्ष्मणके छोड़े हुए बाणोद्वारा बेधे जाकर छलकते हुए रक्तकी धाराओंसे छत्रकी भाँति दिगन्तको आच्छादित करके तुम अपने पुत्रोंके साथ ही यमपुरीको प्रस्थान करोगे ‘ ॥२९ -३०॥

 

अङ्गदने कहा – ‘ देव ! मुझ दूतके रहते हुए रावण संधि करे या विग्रह, दोनों ही अवस्थाओंमें उसके दसों मस्तक पृथ्वीतलपर गिरकर लोटेंगे । हाँ, इतना अन्तर अवश्य होगा कि संधि कर लेनेपर उसके मस्तक बिना कटे ही ( आपके सामने प्रणामके लिये ) गिरेंगे और विग्रह करनेपर कटकर गिरेंगे ।’ तब श्रीरामचन्द्रजीने अङ्गदकी प्रशंसा करके उन्हें भेजा और वे भी वहाँ जा, वाद – प्रतिवादकी चातुरीसे शत्रुको हराकर लौट आये ॥३१ – ३३॥

 

दशानन रावणने भी अपने गुप्तचरोंद्वारा श्रीराचन्द्रजीका, उनके भाई लक्ष्मणका और वानरोंका बल जानकर भयभीत होनेपर भी निडरकी भाँति लङ्कापुरीकी रक्षाके लिये राक्षसोंको आज्ञा दी । सम्पूर्ण दिशाओंमें राक्षसोंको जानेकी आज्ञा दे उसने अपने पुत्रोंसे और धूम्राक्ष तथा धूम्रपानसे भी कहा – ‘

 

राक्षसो ! तुम लोग नगरमें जाओ और उन दोनों मनुष्य – कुमारोंको पाशसे बाँध लाओ । शत्रुओंके लिये यमराजके समान पराक्रमी मेरा भाई कुम्भकर्ण भी इस समय वाद्योंके शब्दसे जगा लिया गया है ॥३४ – ३६॥

 

इतना ही नहीं, रावणने बड़े बलवान्-बलवान् राक्षसोंको युद्धके लिये आदेश दिया और वे भी उसकी आज्ञा शिरोधार्य कर वानरोंके साथ जूझने लगे । अपनी शक्तिभर युद्ध करते हुए करोड़ों राक्षस वानरोंके हाथ मारे गये । और-तो-और, दशमुख रावणने जिन दूसरे-दूसरे अपार-तेजस्वी राक्षसोंको पूर्वद्वारपर युद्धके लिये आदेश किया था, वे सब भी नील आदि वानरोंसे युद्ध करते हुए मृत्युको प्राप्त हुए । इसके बाद रावणने दक्षिण दिशामें लड़नेके लिये जिन राक्षसोंको नियुक्त किया था, वे भी श्रेष्ठ वानरोंद्वारा अपने अङ्गोंके विदीर्ण कर दिये जानेपर यमलोकको चले गये । फिर पश्चिम द्वारपर जो पर्वताकार राक्षस थे, वे भी अत्यन्त गर्वीले अङ्गदादि वानर वीरोंद्वारा यमपुरीको पहुँचा दिये गये । फिर उत्तर द्वारपर रावणके द्वारा ठहराये हुए क्रूर राक्षस मैन्द आदि वानरोंके हाथ मारे जाकर धराशायी हो गये । तदनन्तर वानरगण लङ्काकी ऊँची चहारदीवारी फाँदकर उसके भीतर रहनेवाले बलाभिमानी राक्षसोंका भी संहार करके पुनः शीघ्रतापूर्वक अपनी सेनामें लौट आये ॥३७ – ४३ १/२॥

 

इस प्रकार सब राक्षसोंके मारे जानेपर उनकी स्त्रियोंको रोदन करते देख दशानन रावण क्रोधसे मूर्च्छित होकर निकला । वह प्रतापी वीर हाथमें धनुष ले बहुसंख्यक राक्षसोंके घिरा हुआ पश्चिम द्वारपर आया और बोला – ‘ कहाँ है वह राम ‘ तथा रथपर बैठे – बैठे वानरोंपर बाणोंकी वर्षा करने लगा । उसके बाणोंसे अङ्ग छिन्न – भिन्न हो जानेके कारण वानर इधर – उधर भागने लगे । उस समय वानरोंको भागते देख श्रीरामने पूछा – ‘ वानरोंमें क्यों भगदड़ पड़ गयी है ? इनपर कौन – सा भय आ पहुँचा ?’ ॥४४ – ४९॥

 

विभीषणके यों कहनेपर श्रीरामचन्द्रजीने कुपित होकर धनुष उठाया और प्रत्यञ्चाकी टंकारसे समस्त दिशाओं तथा आकाशको गुँजा दिया । तत्पश्चात् कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी रावणसे युद्ध करने लगे और सुग्रीव, जाम्बवान्, हनुमान, अङ्गद, विभीषण, पराक्रमी लक्ष्मण तथा अन्यान्य महाबली वानर पहुँचकर हाथी, घोड़े और रथोंसे युक्त रावणकी चतुरङ्गिणी सेनाको, जो सब प्रकारके बाणोंकी वर्षा कर रही थी, मारने लगे । वहाँ भी श्रीराम और रावणका युद्ध बड़ा ही भयकंर हुआ । रावण जिन-जिन अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग करता था , उन सबका बाणोंद्वारा छेदन करके महाबली श्रीरामचन्द्रजीने एक बाणसे सारथिको तथा दस बाणोंसे उसके बड़े-बड़े घोड़ोंको धराशायी करके एक भल्ल नामक बाणद्वारा रावणके धनुषको भी काट डाला । फिर महान् पराक्रमी रामने पंद्रह बाणोंसे उसके मुकुट बेधकर सुवर्णकी पाँखवाले दस बाणोंसे उसके मस्तकोंको भी बेध दिया । उस समय देवताओंका मान-मर्दन करनेवाला रावण श्रीरामके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित हो गया और मन्त्रियोंद्वारा ले जाया जाकर वह अपनी पुरी लङ्काको लौट गया ॥५० – ५७॥

 

तदनन्तर वाद्योंके घोषसे जगाया गया कुम्भकर्ण लङ्काके परकोटेको लाँघकर धीरे-धीरे गजसमूहकी-सी मन्द गतिसे बाहर निकला । उसका शरीर बहुत ही ऊँचा और मोटा था, आँखें बड़ी ही भयानक थीं । वह महाबली दुष्ट राक्षस भूखसे व्याकुल हो वानरोंको अपना आहार बनाता हुआ रणभूमिमें विचरने लगा । उसे देख सुग्रीवने उछलकर उसकी छातीमें शूलसे प्रहार किया तथा अपने दोनों हाथोंसे उसके दोनों कानोंको और मुखसे उसकी नासिकाको काट लिया ॥५८ – ६०॥

 

तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने रणमें सब ओर युद्ध करते हुए बहुसंख्यक राक्षसाधिपतियोंको चारों ओरसे वानरोंद्वारा मरवाकर अपने तीखे बाणोंसे कुम्भकर्णका भी गला काट लिया । फिर वहाँ आये हुए साक्षात् गरुडके द्वारा इन्द्रजितको भी जीतकर वानरोंसे घिरे हुए श्रीरामचन्द्रजी लक्ष्मणसहित बड़ी शोभा पाने लगे । इन्द्रजितका उद्योग व्यर्थ होने और कुम्भकर्णके मारे जानेपर लङ्कापति रावणने क्रुद्ध हो अपने पुत्र त्रिशिरा, अतिकाय, महाकाय, देवान्तक और नरान्तकसे कहा – ‘ पुत्रवरो ! तुम उन दोनो मनुष्यों-राम और महापार्श्व नामक राक्षसोंसे कहा – ‘ तुम दोनों इस संग्राममें शत्रुओंका वध करनेके लिये उद्यत ही बहुत बड़ी सेनाओंको साथ जाओ ‘ ॥६१ – ६६॥

 

रणभूमिमें उपर्युक्त शत्रुओंको आकर युद्ध करते देख लक्ष्मणने छः तीखे बाणोंसे मारकर उन्हें यमलोक भेज दिया । इसके बाद वानरगणने शेष राक्षसोंको मार डाला । सुग्रीवने बलाभिमानी कुम्भ नामक राक्षसको मारा, हनुमानजीने देवताओंके लिये कण्टकरुप निकुम्भका वध किया । युद्ध करते हुए विरुपाक्षको विभीषणने गदासे मार डाला । वानरश्रेष्ठ भीम और मैन्दने श्वपतिका दूसरे निशाचरोंका संहार किया । नरेश्वर ! युद्धमें लगे हुए श्रीरामचन्द्रजीने भी संग्रामभूमिमें बाणोंकी वर्षा करनेवाले महालक्ष और महाचल नामक राक्षसोंको मौतके घाट उतार दिया ॥६७ – ७१॥

 

तत्पश्चात इन्द्रजित् मन्त्रशक्तिसे प्राप्त हुए रथपर आरुढ़ हो समस्त वानरोंपर बाण-वृष्टि करने लगा । रात्रिके समय समस्त वानर-सेना तथा श्रीरामचन्द्रजीको मेघनादके बाणोंसे विद्ध हो सर्वथा तथा श्रीरामचन्द्रजीको मेघनादके बाणोंसे विद्ध हो सर्वथा निश्चेष्ट पड़े देख पवनकुमार हनुमानजी जाम्बवानके द्वारा प्रेरित हो अपने पराक्रमसे औषध ले आये । उन्होंने उस औषधके प्रभावसे भूमिपर पड़े हुए श्रीरामचन्द्रजी तथा वानरगणोंको उठाया और प्रज्वलित उल्का हाथमें लिये उन्हीं वानरोंके साथ रातमें जाकर हाथी, रथ और घोड़ोंसे युक्त राक्षसोंकी लङ्कामें आग लगा दी । तदनन्तर भगवान् रामने बादलके समान समस्त दिशाओंमें बाणोंकी वर्षा करते हुए मेघनादका अपने भाई लक्ष्मणके द्वारा वध करा दिया ॥७२ – ७६॥

 

इस प्रकार जब पुत्र – मित्रादि समस्त राक्षस-बन्धु मारे गये तथा होम-जप आदि अभिचार-कर्मोंमें वानरोंद्वारा विघ्न डाल दिया गया, तब कुपित हो दशाशीश रावण वेगशाली सुशिक्षित अश्वोंसे युक्त विचित्र रथमें बैठकर लङ्काके द्वारपर निकल आया और कहने लगा- ‘ तपस्वीका वेष बनाये वह मनुष्य राम कहाँ है, जो वानरोंके बलपर योद्धा बना हुआ है ?’ राक्षसराज रावणने यह बात बड़े जोरोंसे कही । यह सुन भगवान् रामने दशानन रावणको आते देख उससे कहा – ‘ दुष्टात्मा रावण ! मैं ही राम हूँ और यहाँ खड़ा हूँ, तू मेरी ओर चला आ ‘ ॥७७ – ८०॥

 

उनके यों कहनेपर लक्ष्मणने कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीसे कहा – ‘ महाबल ! आप अभी ठहरें, मैं इस राक्षसके साथ युद्ध करुँगा ।’ तदनन्तर लक्ष्मणने आगे बढ़कर बाणोंकी वृष्टिसे रावणको ढक दिया । फिर दशग्रीव रावणने भी अपनी बीस भुजाओंद्वारा छोड़े हुए शस्त्रास्त्रोंसे लक्ष्मणको संग्राममें आच्छादित कर दिया । इस प्रकार उन दोनोंमें महान् युद्ध हुआ । विमानपर आरुढ़ देवतागण इस महान संग्रामको देख [ कौतुहलवश ] आकाशमें स्थित हो गये ॥८१ – ८३॥

 

तत्पश्चात् लक्ष्मणने अपने अपने तीखे बाणोंद्वारा रावणके अस्त्र-शस्त्र काटकर उसके सारथिको मार डाला और भल्ल नामक बाणोंसे उसके घोड़ोंको भी नष्ट कर दिया । फिर तीखे बाणोंसे रावणका धनुष और उसकी ध्वजा काटकर शत्रु-वीरोंका नाश करनेवाले महान् पराक्रमी लक्ष्मणजीने उसके वक्षः स्थलको बेध दिया । तब राक्षसराज रावण रथसे नीचे गिर पड़ा । किंतु शीघ्र ही उठकर कुपित हो उसने हाथमें शक्ति उठायी, जो सैकड़ों घड़ियालोके समान आवाज करनेवाली थी । उसकी धार अग्निकी ज्वालाके समान प्रज्वलित थी तथा उसकी कान्ति महती उल्काके समान प्रेतीत होती थी । उसने दृढ़तापूर्वक मुट्ठी बाँधकर उस शक्तिको लक्ष्मणकी छातीपर फेंका । वह शक्ति उनकी छाती छेदकर भीतर घुस गयी । इससे आकाशमें स्थित देवतागण भयभीत हो गये । लक्ष्मणको गिरा देख रोते हुए वानराधिपतियोंके साथ दुःखी हो भगवान् श्रीराम शीघ्र ही उनके पास आये और कहने लगे – ‘ मेरे मित्र पवनकुमार हनुमान् कहाँ चले गये ? पृथ्वीपर पड़ा हुआ मेरा भाई लक्ष्मण जिस-किसी प्रकार भी जीवित हो सके, वह उपाय होना चाहिये ‘ ॥८४ – ८९ १/२॥

 

राजन् उनके इस प्रकार कहनेपर, विख्यात पराक्रमी वीर हनुमानजी हाथ जोड़कर बोले – ‘ देव ! आज्ञा दें, मैं सेवामें उपस्थित हूँ ‘ ॥९० १/२॥

 

श्रीरामने कहा – ‘ महावीर ! मुझे ‘ विशल्यकरणी ‘ ओषधि चाहिये । महाबली ! उसे लाकर मेरे भाईको शीघ्र ही नीरोग करो ॥९१ १/२॥

 

तब हनुमानजी बड़े वेगसे उछले और द्रोणगिरिपर जाकर शीघ्र ही वहाँसे दवा बाँधकर ले आये और उसका प्रयोग करके देवदेवेश्वरों तथा रामचन्द्रजीके देखते-देखते क्षणभरमें लक्ष्मणको नीरोग कर दिया ॥९२ – ९३॥

 

तदनन्तर जगदीश्वर कमलनयन श्रीराम बहुत ही कुपित हुए और रावणकी बची हुई सेनाको हाथी, घोड़े, रथ तथा राक्षसोंसहित क्षणभरमें मार गिराया । उन्होंने तीखे बाणोंसे रावणका शरीर जर्जर कर दिया और रणभूमिमें वानरोंसे धिरे हुए खड़े रहे । रावण निश्चेष्ट होकर गिर पड़ा । फिर धीरे – धीरे होशमें आनेपर वह उठकर कुपित हो सिंहनाद करने लगा । उसकी गर्जना सुनकर आकाशवर्ती देवतालोग दहल गये ॥९४ – ९६ १/२॥

 

इसी समय रावणके प्रति वैर बाँधे महामुनि अगस्त्य श्रीरामचन्द्रजीके पास आये और शत्रुओंपर विजय दिलानेवालें ‘ आदित्यहदय ‘ नामक स्तोत्र-मन्त्रका उपदेश किया । महाबली श्रीरामचन्द्रजीने भी अगस्त्यमुनिके बताये हुए उस विजयदायक मन्त्रका जप करके उनके द्वारा अर्पित किये गये उत्तम डोरीवाले, सुदृढ़ एवं अनुपम वैष्णव-धनुषको सादर ग्रहण किया और उसपर प्रत्यञ्चा चढ़ायी । फिर प्रतापी रघुनाथजी शत्रुओंका मर्म-भेदन करनेमें समर्थ सोनेकी पाँखवाले तीक्ष्ण बाणोंद्वारा राक्षसराज रावणके साथ युद्ध करने लगे ॥९७ – १०० १/२॥

 

महामते ! नृपश्रेष्ठ ! उन दोनों भयंकर शक्तिवाले श्रीराम और रावणके परस्पर युद्ध करते समय एक – दूसरेपर छोड़ी हुई अग्निकी ज्वाला उठ-उठकर वहाँ आकाशमें फैलने लगी । इस वर्तमान संग्राममें अवर्णनीय पराक्रमवाले वीर दशरथनन्दन श्रीराम पैदल ही युद्ध कर रहे थे । यह देख देवराज इन्द्रने अपने सारथि मातालिसहित एक महान् लोकविख्यात दिव्य रथ भेजा, जिसमें एक हजार घोड़े जुते थे । प्रतापी श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवोंद्वारा प्रशंसित होकर उस रथपर आरुढ़ हुए और मातालिके उपदेशसे उस दुष्ट दशाननका, जिसे ब्रह्माजीने वरदान दिया था, ब्रह्मास्त्रद्वारा वध किया । इस प्रकार प्रतापी भगवान्‍ श्रीरामने अपने क्रूर वैरी रावणका संहार किया ॥१०१ – १०६॥

 

श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा शत्रु रावणका उसके गणोंसहित वध हो जानेपर इन्द्र आदि सभी देवता परस्पर कहने लगे – ” साक्षात भगवान् विष्णुने ही श्रीरामवतार लेकर हमारे वैरी रावणका, जो दूसरोंके लिये अवध्य था, युद्धमें वध किया है । इसलिये हम लोग आकाशसे उतरकर इन अनन्त पराक्रमी तथा किसीसे भी पराजित न होनेवाले ‘ श्रीराम ‘ नामक परमेश्वरकी पूजा करें ।” ऐसी सम्मति करके वे रुद्र, इन्द्र, वसु और चन्द्र आदि देवतागण अनेक कान्तिमान् विमानोंद्वारा पृथ्वीपर उतरे । वे जगतके रचयिता, विश्वमूर्ति, सनातन पुरुष, विजयशील भगवान् विष्णुके स्वरुपभूत अविनाशी परमात्मा श्रीरामका लक्ष्मणसहित विधिवत् पूजन करके उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़े हो गये ॥१०७ – १११॥

 

सब देवता परस्पर कहने लगे – ‘ देवगण ! देखो – ये श्रीरामचन्द्रजी हैं, ये लक्ष्मणजी खड़े हैं, ये सूर्यनन्दन सुग्रीव हैं, ये वायुनन्दन हनुमानजी खड़े हैं और ये अङ्गद आदि सभी वानर वीर विराजमान हैं ।’ तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणके मस्तकपर देवाङ्गनाओंके हाथसे छोड़े गये फूलोंकी वर्षा हुई । उस समय वहाँकी सब दिशाएँ उन दिव्य पुष्पोंकी सुगन्धसे सुवासित हो रही थीं और उन पुष्पोंपर भ्रमरगण मँड़रा रहे थे ॥११२ – ११४॥

 

तदनन्तर ब्रह्माजी हंसकी सवारीसे वहाँ आये और ‘ अमोघ ‘ नामक स्तोत्रसे भगवान् श्रीरामकी स्तुति करके तब उनसे बोले ॥११५॥

 

ब्रह्माजीने कहा – आप समस्त प्रणियोंके आदिकारण, अविनाशी, ज्ञानदृष्टि भगवान् विष्णु हैं; आप ही वेदान्त – विख्यात सनातन परब्रह्म हैं । आपने आज जो सम्पूर्ण लोकोंको रुलानेवाले रावणका वध किया है, इससे समस्त लोकों तथा देवताओंका भी कार्य सद्यः सिद्ध हो गया ॥११६ – ११७॥

 

ब्रह्माजीके इस प्रकार कहनेके पश्चात् भगवान् शङ्करने भी पहले श्रीरामचन्द्रजीको प्रेमपूर्वक प्रणाम किया । फिर उन्हें राजा दशरथका दर्शन कराया । उसके बाद यह कहकर कि ‘ श्रीसीताजी निष्कलङ्ग और शुद्ध चरित्रवाली हैं ‘ – भगवान् शंकर चले गये ॥११८ १/२॥

 

तदनन्तर पवित्रात्मा सीताजीको अपने बाहुबलसे प्राप्त सुन्दर पुष्पक – विमानपर चढ़ाकर भगवानने हनुमानजी को चलनेका आदेश दिया । तब समस्त वानरेन्द्रोंद्वारा वन्दित शोकरहित जानकीदेवीको आभूषणॊंसे विभूषितकर महाबली रामचन्द्रजी समुद्रके पुलपर महादेवजीकी स्थापना की और शङ्करजीकी कृपासे उन्होंने उन शिवजीमें परमभक्ति प्राप्त की । वहाँ स्थापित हुए पिनाकधारी महादेवजी ‘ रामेश्वर ‘ नामसे विख्यात हुए । उनके दर्शनमात्रसे शिवजी सब प्रकारके हत्यादि दोषोंको दूर कर देते हैं ॥११९ – १२२ १/२॥

 

इस प्रकार प्रतिज्ञा पूर्ण करके श्रीरामचन्द्रजी अपना चित्त भरतजीकी ओर लगा रहनेके कारण वहाँसे दिव्यपुरी अयोध्याको गये । फिर भरतजीके मनानेपर श्रीरामचन्द्रजीने वसिष्ठ आदि उत्तम ब्राह्मणोंके द्वारा अपना राज्याभिषेक कराया । तत्पश्चात् प्रतापी भगवान् श्रीरामने चिरकालतक धर्मपर्वक राज्य किया तथा राजोचित यागादि कर्मोंका अनुष्ठान करके वे पुरवासीजनोंके साथ ही स्वर्गलोक ( साकेतधाम ) – को चले गये । राजन् ! पृथ्वीपर महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके किये हुए चरित्रोंका मैंने तुमसे संक्षेपतः वर्णन किया । जो लोग इसको भक्तिपूर्वक पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें जगत्पति भगवान् श्रीराम अपना धाम प्रदान करते हैं ॥१२३ – १२५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें श्रीरामावतारकी कथाविषयक बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५२॥

अध्याय - ५३ बलराम-श्रीकृष्ण-अवतारके चरित्र

मार्कण्डेयजी कहते हैं – अब मैं तीसरे राम ( बलराम ) और श्रीकृष्णके युगल अवतारोंका संक्षेपमें वर्णन करुँगा ।

 

नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालकी बात है, पृथ्वी दैत्योंके भारसे पीडित हो देवताओंके मध्यमे विराजमान कमलासन ब्रह्माजीके पास गयी और इस प्रकार बोली ॥१ – २।

 

‘ कमलोद्भव ! देवासुर-संग्राममें जो-जो दैत्य और दानव भगवान् विष्णुके हाथसे मारे गये थे, वे सभी कंस आदि क्षत्रियोंके रुपमें उत्पन्न हुए हैं ।

 

चतुरानन ! उनके भारी बोझसे दबकर मैं बहुत दुःखी हो गयी हूँ । देव ! मेरा वह भार जैसे भी दूर हो, वह उपाय आप करें ‘ ॥३ – ४॥

 

पृथ्वीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना को जानेपर, कहते हैं, ब्रह्माजी समस्त देवताओंके साथ क्षीरसागरके उत्तर तटपर भगवान् विष्णुके निकट गये । उन्होंने भगवानको अपनी भक्तिके प्रभावसे सोतेसे जगाया था । वहाँ पहुँचकर जगतकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ नरसिंहस्वरुप महान् देवता भगवान् जनार्दनकी गन्ध-पुष्पादिके द्वारा क्रमशः भक्तिपूर्वक पूजा की । फिर वाक्पुष्पसे भी उन गोविन्द-केशवका पूजन किया । राजेन्द्र ! इससे वे जगदीश्वर भगवान् विष्णु उनपर बहुत संतुष्ट हुए ॥५ – ७॥

 

राजा बोले – ब्रह्मन् ! ब्रह्माजीने भगवान् विष्णुकी वाक्पुष्पसे किस प्रकार पूजा की ? विप्रेन्द्र ! ब्रह्माजीद्वारा कहे हुए उस उत्तम स्तोत्र ( वाक्पुष्प ) – को आप मुझे सुनाइये ॥८॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! मैं ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए उस उत्तम स्तोत्रको कहता हूँ, सुनो ! वह स्तोत्र समस्त पापोंको हरनेवाला, पवित्र तथा भगवान् विष्णुको अत्यन्त संतुष्ट करनेवाला है । राजन् ! ब्रह्माजीने पूर्वोक्त रुपसे भगवान् जगन्नाथकी पूजा करके एकाग्रचित्त हो इसस स्तोत्रका पाठ किया ॥९ – १०॥

 

ब्रह्माजी बोले – मैं सम्पूर्ण जीवोंके स्वामी भगवान् अच्युतको, सनातन लोकगुरु भगवान् नारायणको नमस्कार करता हूँ । जो अनादि, अव्यक्त, अचिन्त्य और अविनाशी हैं, उन वेदान्तवेद्य पुरुषोत्तम श्रीहरिको प्रणाम करता हूँ । जो परमानन्दस्वरुप, परात्पर, ज्ञानमय एवं ज्ञानियोंके परम आश्रय हैं तथा जो सर्वमय, सर्वव्यापक, अद्वितीय और सबके ध्येयरुप हैं, उन भगवान् लक्ष्मीपतिको मैं प्रणाम करता हूँ । जो भक्तोंके प्रेमी, अत्यन्त कमनीय और दोषोंसे रहित हैं, जो समस्त देवताओंके स्वामी हैं, विद्वान् पुरुष जिनकी श्यामल कान्ति है, जो हाथमें चक्र धारण किये रहते हैं, उन परमेश्वर केशवको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके हाथोंमें गदा, तलवार, शङ्ख और कमल सुशोभित हैं, जो लक्ष्मीजीके पति हैं, सदा ही कल्याण करनेवाले हैं, जो शाङ्ग धनुष धारण किये रहते हैं, जिनकी सूर्यके समान कान्ति है, जो पीतवस्त्र धारण किये रहते हैं, जिनका उदरभाग हारसे विभूषित है तथा जिनके मस्तकपर मुकुट शोभा पा रहा है, उस भगवान् विष्णुको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । जिनके कपोलोंपर सुन्दर रक्तवर्ण कुण्डल शोभा पा रहे हैं, जो अपने कान्तिसे सम्पूर्ण दिशाओंको प्रकाशित कर रहे हैं, गन्धर्व और सिद्धगण जिनका सुयश गाते रहते हैं तथा जिनका वैदिक ऋचाओंद्वारा यशोगान किया जाता है, उन भूतनाथ भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । जो भगवान् प्रत्येक युगमें पृथ्वीपर अवतार ले, देवद्रोही दानवोंकी हत्या करके अपने धर्ममें स्थित देवताओंकी रक्षा करते हैं तथा जो इस जगतकी सृष्टि एवं संहार करते है, उन सर्वान्तर्यामी भगवान् केशवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥११ – १६॥

 

जिन्होंने युद्धमें मधु और कैटभ – इन दोनों दैत्योंको मारा तथा मत्स्यरुप धारण करके रसातलमें पहुँचे हुए वेदोंको लाकर मुझे दिया था, उन वेदवेद्य परमेश्वरको मैं सदा ही प्रणाम करता हँ । पूर्वकालमें जिन्होंने देवता और असुरोंद्वारा क्षीरसमुद्रमें डाले हुए महान् मन्दराचलको सबका हित करनेके लिये कूर्मरुपसे पीठपर धारण किया था, उन प्रकाश देनेवाले आदिदेव भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन सनातन भगवानने वराहरुप धारण करके इस सम्पूर्ण वसुंधरका जलसे उद्धार किया और उसी समय अत्यन्त अभिमानी दैत्य हिरण्याक्षको मार गिराया था, उन वेदमूर्ति सूकररुपधारी भगवानको प्रणाम करता हूँ । जिन सनातन भगवान् श्रीहरिने त्रिलोकीका हित करनेके लिये स्वयं ही श्रेष्ठ नृसिंहरुप धारण करके अपने तीखे नखोंद्वारा दिति – नन्दन हिरण्यकशिपुका वध किया था, उन परम पुरुष भगवान् नरसिंहको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन वामनरुपधारी भगवान् जनार्दनने बलिको बाँधा था और अपने बढ़े हुए तीन पगोंसे त्रिभुवनको नापकर उसे इन्द्रको दे दिया था, उन आदिदेव वामनको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने कोपवश राजा कार्तवीर्यको मार डाला तथा इक्वीस बार क्षत्रियोंका संहार किया, पृथ्वीका भार दूर करनेवाले परशुरामरुपधारी उन पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुको मैं सदा नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने समुद्रमें बहुत बड़ा पुल बाँधा और लङ्कामें पहुँचकर त्रिलोकीकी रक्षाके लिये रावणको उसके गणोंसहित मार डाला था, उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीरामको मैं सदा प्रणाम करता हूँ । भगवन् ! विष्णो ! जिस प्रकार [ पूर्वकालमें ] वाराह – नृसिंह आदि रुपोंसे आपने देवताओंका हित किया है, उसी प्रकार आज भी प्रसन्न होकर पृथ्वीका भार दुर करें । देव ! आपको सादर नमस्कार है ॥१७ – २४॥

 

श्रीमार्कण्डेयजी कहते हैं – ब्रह्माजीके इस प्रकार स्तुति करनेपर जगत्पति भगवान् लक्ष्मीधर हाथमें शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये वहाँ प्रकट हुए तथा वे भगवान् हषीकेश ब्रह्माजी और देवताओंसे बोले – ‘

 

पितामह ! देवताओ ! मैं तुम्हारी इस स्तुतिसे बहुत ही प्रसन्न हूँ ।

 

देवगण ! यह स्तोत्र इसका पाठ करनेवालोंके सारे पाप नष्ट करनेमें समर्थ हैं । यद्यपि मैं श्रीहरिके रुपमें भक्तिमान् पुरुषोंको भी कठिनतासे ही प्राप्त होता हूँ, तथापि इस स्तोत्रके प्रभावसे मैं प्रत्यक्ष प्रकट हो गया हूँ ।

 

ब्रह्माजी ! आज रुद्र और इन्द्रसहित समस्त देवताओं तथा पृथिवीने मेरी प्रार्थना की है, अतः तुम लोग अपना मनोरथ कहो; उसे सुनकर पूर्ण करुँगा ‘ ॥२५ – २८॥

 

भगवान् विष्णुके यों कहनेपर लोकपितामह ब्रह्माजी बोले – ‘

पुरुषोत्तम् ! यह पृथ्वी दैत्योंके गुरुतर भारसे अत्यन्त पीडित हो रही है । अतः मै आपके द्वारा इस वसुधाके भारको उतरवानेके लिये यहाँ देवताओंके साथ आया हूँ । मेरे आनेका दूसरा कोई कारण नहीं हैं ‘ ॥२९ – ३०॥

 

यह सुनकर भगवानने कहा – ‘ देवगण ! तुम लोग निश्चिन्त होकर अपने-अपने स्थानको लौट जाओ । ब्रह्माजी भी चले जायँ । मेरी गौर और कृष्ण-दो शक्तियाँ पृथ्वीपर वसुदेवजीके वीर्य एवं देवकीके गर्भसे अवतार लेकर कंस आदि असुरोंका वध करेंगी ‘ ॥३१ – ३२॥

 

भगवानका यह वचन सुनकर सभी देवता उनको प्रणाम करके चले गये ।

 

राजन् ! देवताओंके चले जानेपर देवदेव जनार्दनने सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंका संहार करनेके लिये अपनी वे गौर-कृष्ण-दो शक्तियाँ भेजीं । उनमेंसे गौर शक्ति वसुदेवद्वारा रोहिणीके गर्भसे प्रकट हुई तथा कृष्ण शक्तिने वसुदेवके अंश एवं देवकीके गर्भसे अवतार लिया । पुण्यात्मा महापुरुष रोहिणीनन्दनने ‘ राम ‘ नाम धारण किया और देवकीनन्दनका ‘ श्रीकृष्ण ‘ नाम रखा गया । नरेश्वर ! तुम उन दोनोंके कर्म मुझसे सुनो ॥३३ – ३६॥

 

राजन् ! गोकुलमें रामने बाल्यकालमें ही रात्रिके समय एक पक्षीरुपधारिणी राक्षसीको मारा था और श्रीकृष्णने ‘ पूतना ‘ का संहार किया था । रामने तालवनमें ‘ धेनुक ‘ नामक राक्षसको उसके गणोंसहित मारा था और श्रीकृष्णने भी शकट उलट दिया तथा ‘ यमलार्जुन ‘ नामक दो वृक्षोंको उखाड़ दिया था । रामने ‘ प्रलम्ब ‘ तामक राक्षसको मुक्केसे मारकर मौतके घाट उतारा तथा श्रीकृष्णने यमुनाके जलमें रहनेवाले विषैले सर्प ‘ कालिय ‘ का दमन किया और इन्द्रके वर्षा करते समय वे सात दिनोंतक हाथपर गोवर्धनपर्वत धारण किये खड़े रहे । इतना ही नहीं, श्रीकृष्णने गोकुलकी रक्षा करते हुए अरिष्टासुरका भी वध किया था । फिर दुष्ट घोड़ेका रुप धारण करनेवाले महान् असुर केशीका उन्होंने संहार किया; इसके बाद महात्मा अक्रूरजी [ कंसकी आज्ञासे ] आये तथा राम और कृष्ण-दोनों बन्धुओंको मथुरा ले गये ।

 

महामते ! मार्गमें अक्रूरजीने यमुनामें डुबकी लगाते समय जलके भीतर राम और कृष्ण-दोनोंको देखा । उन दोनों बन्धुओंने अक्रूरजीकी अपने-अपने ऐश्वर्यदायक स्वरुपका दर्शन कराया ।

 

नृपनन्दन ! उन दोनोंके अनुपम स्वरुपको देख और जानकर अक्रूरजीके साथ ही समस्त यादवगण बहुत ही प्रसन्न हुए ॥३७ – ४३॥

 

तत्पश्चात् [ मथुरामें भ्रमण करते समय ] कटुवचन कहनेवाले कंसके एक धोबीको कृष्ण और रामने मार डाला तथा उसके वस्त्र ब्राह्मणोंको बाँट दिये । फिर मार्गमें एक मालीने फूलोंसे भक्तिपूर्वक उनकी पूजा की । तब राम और श्रीकृष्णने उसे दुर्लभ वर दिये । उसके बाद जब वे सड़कपर घूम रहे थे, उसी समय ‘ कुब्जा ‘ दासीने आकर उनका आदर-सत्कार किया । तब श्रीकृष्णने उसकी भद्दी लगनेवाली कुब्जताको दूर कर दिया । तदनन्तर [ यज्ञशालामें रखे गये ] कंसके धनुषको महाबली श्रीकृष्णने [ बलपूर्वक ] खींचा और तत्काल ही तोड़ डाला । उस समय वहाँके अनेकों दुष्ट रक्षकोंको बलरामजीने मार डाला । फिर बलराम और श्रीकृष्ण-दोनोंने मिलकर ‘ कुवलयापीड ‘ नामक हाथीको भी मार गिराया ॥४४ – ४७॥

तदनन्तर उन दोनों वसुदेवकुमारोंने हाथीके दाँत उखाड़कर हाथमें ले लिये और उसके मदसे सने हुए ही रङ्गभूमिमें प्रवेश किया । वहाँ अविनाशी बलरामजीने पर्वताकार ‘ मुष्टिक ‘ नामक पहलवानको कुश्तीमें मार डाला और श्रीकृष्णचन्द्रने भी कंसके ‘ चाणूर ‘ नामक पहलवानका, जो अपने बल और पराक्रमके कारण बहुत ही प्रसिद्ध था, कचूमर निकाल दिया । भगवान् श्रीकृष्णने उस जन-समाजमें दैत्य मल्ल चाणूरके साथ देरतक युद्ध करनेके बाद उसका वध किया था । फिर वीरवर बलरामजीने युद्धके लिये उत्साहपूर्वक उठे हुए पुष्करको, जो ‘ मृत मुष्टिक ‘ नामक मल्लका मित्र था, मुक्केसे ही मार डाला । इसके बाद श्रीकृष्णने वहाँ उपस्थित समस्त दैत्योंका संहार करके कंसको पकड़ लिया और उसे मञ्चके नीचे भूमिपर पटककर वे स्वयं भी उसके शरीरपर कूत पड़े । इस प्रकार कंसका वध करके श्रीकृष्णने उसके मृत देहको भूमिपर घसीटा । श्रीकृष्णद्वारा कंसके मारे जानेपर उसका बलवान् एवं पराक्रमी भ्राता सुनाभ अत्यन्त क्रोधपूर्वक युद्धके लिये उठा; किंतु उसे भी बलरामजीने तुरंत ही मारकर यमलोक भेज दिया ॥४८ – ५२॥

 

तदनन्तर समस्त यदुवंशियोंसे घिरे हुए उन दोनों भाइयोंने अत्यन्त प्रसन्न हुए माता-पिताकी वन्दना करके श्रीउग्रसेनको ही यदुवंशियोंका राजा बनाया और उन्हें इन्द्रकी ‘ सुधर्मा ‘ नामक दिव्य सभा प्रदान की ॥५३॥

 

यद्यपि बलराम और श्रीकृष्ण सर्वज्ञ थे, तो भी उन्होंने सांदीपनिसे अस्त्र-विद्याकी शिक्षा पायी । फिर गुरुको दक्षिणा देनेके लिये उद्यत हो, ‘ पञ्चजन ‘ दैत्यको मारा और यमराजको जीतकर वे दीर्घकालके मरे हुए गुरुपुत्रको वहाँसे ले आये । वही पुत्र उन्होंने गुरुजीको दक्षिणाके रुपमें अर्पित किया ॥५४॥

 

फिर बलरामजीने अपने ऊपर अनेको बर चढ़ाई करनेवाले मगधराज जरासंधके समस्त सैनिकोंको दिव्यास्त्रोंकी वर्षा करके मार डाला । इसके बाद उन दोनों देवेश्वरोंने समुद्रके भीतर एक सुन्दर पुरी द्वारकाका निर्माण कराया । उसमें मथुरावासी कुटुम्बीजनोंको बसाकर अविनाशी भगवान् श्रीकृष्णने राजा श्रृगालका वध किया । फिर एक उपाय करके महान् योद्धा यवनराजको भस्म कर, राजा मुचुकुन्दको वरदान दे, वे द्वारकामें लौट गये ॥५५ – ५६॥

 

तत्पश्चात् सारा बखेड़ा समाप्त हो जानेपर बलरामजी एक बार फिर नन्दके गोकुल ( नन्दगाँव ) – में गये और वहाँ वृन्दावनमें गोपजनोंसे भलीभाँति प्रेमालाप आदिके द्वारा सम्मानित हुए । वहाँ उन्होंने अपने हलसे यमुनाजीका आकर्षण किया था । तदनन्तर द्वारकामें ‘ रेवती ‘ नामकी भार्याको पाकर बलरामजी उनके साथ सुखपूर्वक रहने लगे और पुराण-पुरुष श्रीकृष्णचन्द्र भी क्षत्रियधर्मके अनुसार ‘ रुक्मिणी ‘ नामक भार्याको हस्तगत करके उसके साथ सानन्द विहार करने लगे । तदनन्तर एक बार जूआ खेलते समय हलधरने कलिङ्गराजके दाँतोंको उखाड़ लिया और असत्यका आश्रय लेनेवाले रुक्मीको भी पापेसे ही मार गिराया । इसी प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रने भी प्राग्ज्योतिषपुरके हयग्रीव आदि बहुत-से दैत्योंको यमलोक पहुँचाया तथा नरकसुरका भी संहार करके वे उसके यहाँसे बहुत धन ले आये । वहाँसे श्रीकृष्ण इन्द्रलोकमें गये । वहाँ उन्होंने अदितिको उनके वे दोनों दिव्य कुण्डल दिये, जो नरकासुरने हड़प लिये थे । फिर देवताओंसहित इन्द्रको जीतकर पारिजात वृक्ष साथ ले, वे अपनी उपरी द्वारकाको लौट आये ॥५७ – ६१॥

 

तदनन्तर महाबली एवं महापराक्रमी बलरामजीने अकेले ही हस्तिनापुरमें जा कौरवोंको भय दिखाया और उनके द्वारा बंदी बनाये गये [ श्रीकृष्णपुत्र ] साम्बको छुड़ाया । फिर बुद्धिमान् श्रीकृष्णचन्द्रने युद्धमें बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला और बलरामजीने उसके करोड़ों सैनिकोंका क्षणभरमें ही संहार कर दिया । इसके बाद बलरामजीने देववैरी ‘ द्विविद ‘ नामक महान् वानरका वध किया । इसी तरह भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनकी सहायता करके उनके द्वारा समस्त दुष्ट क्षत्रियोका वध कराया और पृथ्वीका सारा भार उतार दिया । उन दिनों बलरामजी लोकहितके लिये तीर्थयात्रा कर रहे थे ॥६२ – ६५॥

 

राजन् ! बलराम और श्रीकृष्णचन्द्रने जितने दुष्टोंका वध किया था, उनकी गणना हम नहीं कर सकते । इस प्रकार दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्णने दुष्टोंका संहार करके भूमिका भार दूर किया । फिर वे स्वेच्छानुसार वैकुण्ठधामको पधार गये । इस तरह राम और श्रीकृष्णके इन दिव्य अवतारोंको मैंने तुम्हें संक्षेपसे कह सुनाया ।

 

अब मुझसे ‘ कल्कि – अवतार ‘ का वर्णन सुनो । नरेश्वर ! इस प्रकार अनन्त भगवान् विष्णुकी वे दोनोम महाबलवती गौर और कृष्ण शक्तियाँ पृथ्वीका भार उतारकर पुनः अपने विष्णुस्वरुपमें लीन हो गयीं ॥६६ – ६८॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ श्रीकृष्णका प्रादुर्भाव ‘ नामक तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५३॥

अध्याय - ५४ कल्कि-चरित्र और कलि-धर्म

मार्कण्डेयजी बोले – राजन् ! इसके बाद मैं तुमसे भगवान् विष्णुके ‘ कल्कि ‘ नामक पावन अवतारका वर्णन करता हूँ, जो समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला हैं; तुम सावधान होकर सुनो ।

 

राजेन्द्र ! जब कलिकालद्वारा पृथ्वीपर धर्मका नाश हो जायगा, पाप बढ़ जायगा और सभी लोग नाना प्रकारके रोगोंसे पीड़ित होने लगेंगे, तब देवतालोग क्षीरसागरके तटपर जाकर वहाँ भगवान् विष्णुकी स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना करेंगे । तदन्तर भगवान् ‘ साम्भल ‘ नामक महान् ग्राममें, जो बहुसंख्यक मनुष्योमसे परिपूर्ण होगा, विष्णुयशाके पुत्ररुपसे अवतार ले, ‘ कल्कि ‘ नामसे विख्यात राजा होंगे । फिर वे घोड़ेपर चढ़कर, हाथमें तलवार ले, म्लेच्छोंका नाश करेंगे । इस प्रकार भगवान् विष्णुके अंशभूत ‘ कल्कि ‘ भूमण्डलका ध्वंस करनेवाले समस्त म्लेच्छोंका संहार कर, ‘ बहुकाञ्चन ‘ नामक यज्ञ करके, धर्मकी स्थापना कर स्वर्गारुढ हो जायँगे ।

 

राजेन्द्र ! पापोंका नाश करनेवाले भगवान् विष्णुके इन दस अवतारोंका मैंने वर्णन किया । जो भगवद्भक्त पुरुष इन अवतार – चरित्रोंका नित्य श्रवण करता है, वह भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है ॥१ – ६॥

 

राजा बोले – विप्रेन्द्र ! आपके प्रसादसे मैंने भगवान् नारायणके अवतारोंका, जो श्रोताओंके पापोंका नाश करनेवाले हैं, श्रवण कर लिया ।

 

मुनिसत्तम ! अब आप कलिका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि आप सर्वज्ञ महात्माओंमें सबसे श्रेष्ठ हैं । कृपया बताइये कि कलियुगमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कैसे आहार और आचरणवाले होंगे ॥७ – ८ १/२॥

 

सूतजी बोले – भरद्वाजसहित आप सभी ऋषिगण सुनें । राजाके यों प्रेरणा करनेपर मार्कण्डेयजीने कलिधर्मका इस प्रकार निरुपण किया । भगवान् कृष्णचन्द्रके परमधाम पधार जानेपर उनके अन्तर्धानके फलस्वरुप समस्त पापोंका साधक महाघोर कलियुग प्रकट होगा; उस समय सभी धर्म नष्ट हो जायँगे । घोर कलियुग प्राप्त होनेपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी लोग धर्म, ब्राह्मण तथा देवताओंसे विमुख हो जायँगे । सभी किसी-न-किसी व्याजसे ( स्वार्थसिद्धिके लिये ) ही धर्ममें प्रवृत्त होंगे; दम्भ-ढोंगका आचरण करेंगे । एक-दूसरेमें दोष ढूँढ़नेवाले और व्यर्थ अभिमानसे दूषित विचारवाले होंगे । पाण्डित्यका गर्व रखनेवाले सभी मनुष्य सत्यका अपलाप करेंगे और सब लोग यही कहेंगे कि ‘ मैं ही सबसे बड़ा हूँ ।’ कलियुगमें सभी अधर्मलोलुप तथा दूसरोंकी निन्दा करनेवाले होंगे, अतः सबकी आयु बहुत थोड़ी होगी ।

 

द्विजगण ! मनुष्योंकी आयु अल्प होनेसे ब्राह्मणलोग अधिक विद्याध्ययन नहीं कर सकेंगे । विद्याध्ययनसे शून्य होनेके कारण उनके द्वारा पुनः अधर्मकी ही प्रवृत्ति होगी ॥९ – १५॥

 

ब्राह्मण आदि वणोंमें परस्पर संकरता आ जायगी । वे कामी, क्रोधी, मूर्ख और व्यर्थ संतापसे पीड़ित होंगे । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आपसमें वैर बाँधकर एक-दूसरेका वध कर देनेकी इच्छावालोए होंगे । वे सभी अपने-अपने धर्मसे विमुख होंगे । तप एवं सत्यभाषणादिसे रहित होकर शूद्रके समान हो जायँगे । उत्तम वर्णवाले नीचे गिरेंगे और नीच वर्णवाले उत्तम बनेंगे । राजालोग लोभी तथा केवल धनोपार्जनमें ही प्रवृत्त रहेंगे । वे धर्मका चोला पहनकर उसीकी ओटमें धर्मका विध्वंस करनेवाले होंगे । समस्त अधर्मोंस्से युक्त घोर कलियुगके आ जानेपर जो-जो घोड़े, रथ और हाथीसे सम्पन्न होंगे, वे-वे ही राजा कहे जायँगे । पुत्र अपने पितासे काम करायेंगे और बहुएँ साससे काम लेंगी । स्त्रियाँ पति और पुत्रको धोखा देकर अन्य पुरुषोंके पास जाया करेंगी ॥१६ – २१॥

 

पुरुषोंकी संख्या कम और स्त्रियोंकी अधिक होगी । कुत्तोंकी अधिकता होगी और गौओंका ह्वास । सबके मनमें धनका ही महत्त्व रहेगा । सत्पुरुषोंके सदाचारका सम्मान नहीं होगा । मेघ कहीं वर्षा करेंगे, कहीं नहीं करेंगे । समस्त मार्ग चोरोंसे धिरे रहेंगे । गुरुजनोंकी सेवामें रहे बिना ही सभी लोग सब कुछ जाननेका अभिमान करेंगे । कोई भी ऐसा न होगा जो अपनेको कवि न मानता हो । शराब पीनेवाले लोग ब्रह्मज्ञानका उपदेश करेंगे । ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य शूद्रोंके सेवक होंगे । घोर कलिकाल आनेपर पुत्र पितासे, शिष्य गुरुसे और स्त्रियाँ अपने पतियोंसे द्वेष करेंगी । सबका चित्त लोभसे आक्रान्त होगा, अतएव सभी लोग दुष्कर्मोंमें प्रवृत्त होंगे । ब्राह्मण सदा दूसरोंके ही अन्नके लोभी होंगे । सभी परस्त्रीसेवी और परधनका अपहरण करनेवाले होंगे । घोर कलियुग आ जानेपर दूसरोंमें दोषदृष्टि रखनेवाले सभी लोग धर्मपरायण पुरुषोंका उपहास करेंगे । ब्राह्मणलोग वेदकी निन्दामें प्रवृत्त होकर व्रतोंका आचरण नहीं करेगे । तर्कवादसे कुत्सित विचार हो जानेके कारण वे न तो यज्ञ करेंगे और न हवनमें ही प्रवृत्त होंगे । द्विजलोग दम्भके लिये ही पितृयज्ञ आदि क्रियाएँ करेंगे । मनुष्य प्रायः सत्पात्रको दान नहीं देंगे । लोग दूध आदिके लिये ही गौओंमें प्रेम रखेंगे । राजाके सिपाही धनके लिये ब्राह्मणोंको ही बाँधेंगे । द्विजलोग दान, यज्ञ और जप आदिका फल प्रायः बेचा करेंगे । ब्राह्मणलोग चण्डाल आदि अस्पृश्य जातियोंसे भी दान लेंगे । कलियुगके प्रथम चरणमें भी लोग भगवानकी निन्दा करनेवाले हो जायँगे ॥२२ – ३१॥

 

कलियुगके अन्तिम समयमें तो कोई भगवानके नामका स्मरणतक न करेगा । कलियुगके द्विज शूद्रोंकी स्त्रियोंके साथ सहवस करेंगे और विधवा-संगमके लिये लालायित रहेंगे तथा वे शूद्रोंका भी अन्न भक्षण करनेवाले होंगे । उस समय अधम शूद्र संन्यासका चिह्न धारणकर न तो द्विजातियोंकी सेवा करेंगे और न उनकी स्वधर्ममें ही प्रवृत्ति होगी । वे अपने खाक-भभूत लपेटे फिरेंगे ।

 

विप्रवरो ! कूटबुद्धिमें निपुण शूद्रगण धर्मका उपदेश करेंगे । ऊपर कहे अनुसार तथा और भी तरहके बहुत-से पाखण्डी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कलियुगमें उत्पन्न होंगे । कलियुग आनेपर विप्रगण वेदके स्वाध्याय विमुख हो गाने-बजानेमें मन लगायेंगे और शूद्रों मार्गका अनुसरण करेंगे । कलियुगमें लोग थोड़े धनवाद झूठा वेष धारण करनेवाले और मिथ्याभिमानसे दूषित होंगे । वे दूसरोंका धन हरण कर लेंगे, पर अपनी किसीको नहीं देंगे । उस समय अच्छे पथपर चलनेवाले ब्राह्मण सदा दान लेते फिरेंगे । सभी लोग आत्मप्रशंसक और दूसरोंकी निन्दा करनेवाली होंगे । देवता, वेद और ब्राह्मणोंपरसे सबका विश्वास उठ जायगा ॥३२ – ३९॥

 

सब लोग वेदविरुद्ध वचन बोलनेवाले और ब्राह्मणोंके द्वेषी होंगे । सभी स्वधर्मके त्यागने वाले, कृतघ्न और अपने वर्णधर्मके विरुद्ध वृत्तिसे आजीविका चलानेवाले होंगे । कलियुगमें लोग भिखमंगे, चुगलखोर, दूसरोंकी निन्दा करनेवाले और अपनी ही प्रशंसामें तत्पर होंगे । मनुष्य सदा दूसरोंके धनका अपहरण करनेके उपायको ही सोचते रहेंगे । यदि उन्हें दूसरोंके घरमें भोजन करनेका अवसर मिल जाय तो वे बड़े ही आनन्दित होंगे और प्रायः उसी दिन वे दूसरोंको दिखानेके लिये देवताकी पूजामें प्रवृत्त होंगे । दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहनेवाले वे ब्राह्मण वहाँ ही सबके साथ एक आसनपर बैठकर भोजन करेंगे ॥४० – ४३॥

 

उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-सभी जातियोंके लोग अत्यन्त कामी होंगे और एक-दूसरेसे सम्पर्क स्थापित करके वर्ण-संकर हो जायँगे । वर्ण-संकरताकी दशामें गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र और पति-पत्नीका विचार नहीं रहेगा । नरकभोगी ब्राह्मणादि वर्ण प्रायः शूद्रवृत्तिसे ही जीविका चलायेंगे और नरकभोगी होंगे । लोगोंको प्रायः सदा अनावृष्टिका भय बन रहेगा और वे सदा आकाशकी ओर दृष्टि लगाये वृष्टिकी ही प्रतीक्षा करते रहगें । उस समयके सभी लोग सदा भूखकी पीड़ासे कातर रहेंगे । संन्यासी लोग अन्न-प्राप्तिके उद्देश्यसे ही लोगोंको शिष्य बनाते फिरेंगे । स्तेरियाँ दोनो उद्देश्यसे ही लोगोंको शिष्य बनात फिरेंगे । स्त्रियाँ दोनों ही हाथोसे सिर खुजलाती हुई पने पति तथा गुरुजनोंकी हितभरी आज्ञाओंका तिरस्कार करेंगी । द्विजातिलोग ज्यों-ज्यों यज्ञ और व्हवन आदि कर्म छोड़ते जायँगे, त्यों-ही-त्यों बुद्धिमानोंको कलियुगकी वृद्धिका अनुमान करना चाहिये । उस समय सम्पूर्ण धर्मोंके नष्ट हो जानेसे यह सारा जगत श्रीहीन हो जायगा ॥४४ – ४९ १/२॥

 

सूतजी कहते हैं – विप्रवरो ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे कलियुगके स्वरुपका वर्णन किया ।

 

द्विजगण ! जो लोग भगवानके भजनमें तत्पर रहेंगे, उन्हींको कलियुग बाधा नहीं दे सकतासत्ययुगमें तपस्या प्रधान है और त्रेतामें ध्यान । द्वापरमें यज्ञको महान् बताया गया है और कलियुगमें एकमात्र दानको । सत्ययुगमें दस वर्षोतक तप आदिके लिये प्रयत्न करनेसे जो फल मिलता है, वही त्रेतायुगमें एक ही वर्षके प्रयत्नसे सिद्ध होता है, द्वापरमें एक ही मासकी साधनासे सुलभ होता है और कलियुगमें केवल एक दिन-रात यत्न करनेसे प्राप्त हो जाता है ।

 

सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञोंद्वारा यजन और द्वापरमें पूजन करनेसे, जो फल मिलता है, उसे ही कलियुगमें केवल भगवानका कीर्तन करनेसे मनुष्य प्राप्त कर लेता है । घोर कलियुग प्राप्त होनेपर समस्त जगतके आधारभूत परमार्थस्वरुप भगवान् विष्णुका ध्यान करनेवाले मनुष्यको कलिसे बाधा नहीं पहुँचती ।

 

अहो ! जिन्होंने एक बार भी भगवान् विष्णुका पूजन किया है, वे बड़े सौभाग्यशाली हैं ॥५० – ५५॥

 

सम्पूर्ण कर्मोंका बहिष्कार करनेवाले कलियुगके प्राप्त होनेपर किये जानेवाले वेदोक्त कर्मोंमे न्यूनता या अधिकताका दोष नहीं होता । उसमें भगवानका स्मरण ही पूर्ण फलदायक होता है । जो लोग हरे, केशव, गोविन्द, वासुदेव, जगन्मय, जनार्दन, जगद्धाम, पीताम्बरधर, अच्युत इत्यादि नामोंका उच्चारण करते रहते हैं, उन्हें कलियुग कभी बाधा नहीं पहुँचाता ।

 

अहो ! सबको भय देनेवाले इस कलिकालमें जो लोग भगवान् विष्णुकी आराधनामें लगे रहते हैं, अथवा जो उनके आराधकोंका संग ही करते हैं, वे महात्माजन बड़े ही भाग्यशाली हैं । जो हरिनामका जप करते हैं, हरिकीर्तनमें लगे रहते हैं और सदा हरिकी पूजा ही किया करते हैं, वे मनुष्य कृतकृत्य हो गये हैं – इसमें संदेह नहीं है । इस प्रकार यह कलिका वृतान्त मैंने तुमसे कहा । कलियुगमें भगवान् विष्णुका नामकीर्तन समस्त दुःखोंको दूर करनेवाला और सम्पूर्ण पुण्यफलोंको देनेवाला है ॥५६ – ६१॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ कलियुगके लक्षणोंका वर्णन ‘ नामक चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५४॥

अध्याय - ५५ शुक्राचार्यको भगवान्की स्तुतिसे पुनः नेत्रकी प्राप्ति

राजा बोले – मार्कण्डेयजी ! पूर्वकालमें राजा बलिके यज्ञमें भगवान् वामनने जो दैत्यगुरु शुक्राचार्यकी आँख छेद डाली थी, उसे उन्होंने पुनः भगवानकी स्तुतिद्वारा किस प्रकार प्राप्त किया ? ॥१॥

 

मार्कण्डेयजी बोले – वामनजीके द्वारा जब आँख छेद दी गयी, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्यजीने बहुत तीर्थोंमें भ्रमण किया । फिर एक जगह गङ्गाजीके जलमें खड़े हो भगवान् वामनकी पूजा की और अपनी बाँह ऊपर उठाकर शङ्ख – चक्र – गदाधारी सनातन देवेश्वर भगवान् नरसिंहका मन-ही-मन ध्यान करते हुए वे उनकी स्तुति करने लगे ॥२ – ३॥

 

शुक्राचार्यजी बोले – मैं सम्पूर्ण विश्वके स्वामी और श्रीविष्णुके अवतार उन देवदेव वामनजीको नमस्कार करता हूँ, जो बलिका अभिमान चूर्ण करनेवाले, परम शान्त, सनातन पुरुषोत्तम हैं । जो धीर हैं, शूर हैं, सबसे बड़े देवता हैं, शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले हैं, उन विशुद्ध एवं ज्ञानसम्पन्न भगवान् अच्युतको मैं नमस्कार करता हूँ । जो सर्वशक्तिमान् ,सर्वव्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, उन जरारहित, अनादिदेव भगवान् गरुडध्वजको मैं प्रणाम करता हूँ । देवता और असुर सदा ही जिन नारायणकी भक्तिपूर्वक स्तुति किया करते हैं, उन सर्वपूजित जगदगुरु भगवान् हषीकेशको मैं नमस्कार करता हूँ । यतिजन अपने अन्तः करणमें भावनाद्वारा स्थापित करके जिनके स्वरुपका सदा ध्यान करते रहते हैं, उन अतुलनीय एवं ज्योतिर्मय भगवान् नृसिंहको मैं प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा आदि देवतागण जिनके परमार्थ स्वरुपको भलीभाँति नहीं जानते, अतः जिनके अवताररुपोंका ही वे सदा पूजन किया करते हैं, उन भगवनको मैं नमस्कार करता हूँ । जिन्होंने दुष्टोंका वध करके इसकी रक्षा की है तथा जिनमें ही यह सारा जगत् लीन हो जाता है, उन भगवान् जनार्दनको मैं प्रणाम करता हूँ । भक्तजन जिनका सदा अर्चन करते हैं तथा जो भक्तोंके प्रेमी हैं, उन परम निर्मल, दिव्य कान्तिमय जगदीश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ । जो प्रसन्न होनेपर अपने भक्तोंको दुर्लभ वस्तु भी प्रदान करते हैं, उन सर्वसाक्षी सनातन विष्णुभगवानको मैं प्रणाम करता हूँ ॥४ – १२॥

 

श्रीमार्कण्डेयजी कहते हैं – राजन् ! पूर्वकालमें शुक्राचार्यजीके द्वारा इस प्रकर स्तुति की जानेपर शङ्ख-चक्र-गदाधारी भगवान् जगन्नाथ उनके समक्ष प्रकट हो गये । उस समय भगवान् नारायणने एक आँखवाले शुक्राचार्यजीसे कहा – ‘ ब्रह्मन् ! तुमने गङ्गातटपर किसलिये मेरा स्तवन किया है ? यह मुझसे बताओ ‘ ॥१३ – १४॥

 

शुक्राचार्यजी बोले – देवदेव ! मैंने पहले ( बलिके यज्ञमें ) आपका बहुत बड़ा अपराध किया है; उसी दोषको दूर करनेके लिये इस समय आपका स्तवन किया है ॥१५॥

 

श्रीभगवान् बोले – मुने ! मेरे प्रति किये गये अपराधसे ही तुम्हारा एक नेत्र नष्ट हो गया था । शुक्र ! इस समय तुम्हारे इस स्तवनसे मैं तुमपर संतुष्ट हूँ ॥१६॥

 

यह कहकर देवदेवेश्वर जनार्दनने हँसते हुए-से अपने पाञ्चजन्य शङ्खसे शुक्राचार्यके फूटे हुए नेत्रका स्पर्श किया ।

 

नृपश्रेष्ठ ! शाङ्गधन्वा देवदेव विष्णुके द्वारा शङ्खका स्पर्श कराये जाते ही शुक्राचार्यका वह नेत्र पहलेकी भाँति ही निर्मल हो गया । इस प्रकार शुक्राचार्यको नेत्र देकर और उनसे पूजित होकर भगवान् लक्ष्मीपति तुरंत अन्तर्धान हो गये और पूर्वकालमें मुनिवर महात्मा शुक्राचार्यने देवेश्वर भगवान् विष्णुकी कृपासे अपना नेत्र प्राप्त कर लिया – यह प्रसङ्ग तुम्हारे प्रश्नानुसार मैंने सुना दिया । अब तुम्हें मैं और क्या सुनाऊँ ? तुम्हारे मनमें और भी यदि कुछ पूछनेकी इच्छा हो तो मुझसे प्रश्न करो ॥१७ – २०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ शुक्राचार्यको वरप्रदान ‘ नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५५॥

अध्याय - ५६ विष्णुमूर्तिके स्थापनकी विधि

राजा बोले – ब्रह्मन् ! अब मैं शार्ङ्गधनुषधारी देवदेव नरसिंहके स्थापनकी समस्त उत्तम विधिको सुनना चाहता हूँ ॥१॥

 

श्रीमार्कण्डेयजी बोले – भूपाल ! देवदेवेश्वर चक्रपाणि भगवान् विष्णुके स्थापनकी पुण्यदायिनी विधि सुनो; मैं शास्त्रके अनुसार उसका वर्णन कर रहा हूँ ।

 

पृथिवीपते ! जो भी इस लोकमें भगवान् विष्णुकी स्थापना करना चाहे, उसको चाहिये कि वह पहले स्थिर-संज्ञक नक्षत्रोंमे भूमिशोधनका कार्य प्रारम्भ करे । एक पुरुषके बराबर अर्थात् साढ़े तीन हाथ अथवा दो हाथ नीचेतक नींव खोदकर उसमें जलसे भीगी हुई कंकड़ और बालूसहित शुद्ध मिट्टी भर दे ।

 

राजन् ! फिर उसे ही आधार समझकर उसके ऊपर अपनी शक्तिके अनुसार पत्थर, ईंट अथवा मिट्टीसे गृहनिर्माण-विद्यामें कुशल कारीगरोंके द्वारा मन्दिर तैयार कराये । वह मन्दिर चारों ओरसे बराबर और चौकोर हो । उसकी दीवार पत्थरकी हो तो बहुत उत्तम; पत्थर न मिलनेपर ईंटोंकी ही दीवार बनवा ले । यदि ईंटे भी न मिल सकें तो मिट्टीकी ही भींत उठा ले । मन्दिर बहुत ही सुन्दर हो और उसका दरवाजा पूर्वकी ओर होना चाहिये । उस मन्दिरमें अच्छी जातिवाले काठके कंभे लगे हों और उनमें चित्रकला जाननेवाले शिल्पियोंके द्वारा फलयुक्त वृक्ष, कुमुद तथा कमलदल चित्रित कराने चाहिये ॥२ – ७ १/२॥

 

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार जिसमें सुन्दर किवाड़ लगे हों और जिसका द्वार पूर्व दिशाकी ओर हो – ऐसा बेल-बूटोंसे भलीभाँति चित्रित भगवानका परम सुहावना मन्दिर बनवाकर बुद्धिमान् एवं हष्टपुष्ट शरीरवाले पुरुषके द्वारा विश्वकर्मकी बतायी हुई पद्धतिके अनुसार पुराणोक्त दिव्य प्रतिमाका निर्माण कराये । जो कारीगर अत्यन्त बूढ़ा या बालक अथवा कोढ़ आदि रोगोंसे दूषित या पुराना रोगी हो, उससे भगवत्प्रतिमाका निर्माण नहीं कराना चाहिये । प्रतिमाका मुख सौम्य ( प्रसन्न ) तथा कान, नाक और नेत्र आदि अङ्ग सुढार होने चाहिये । उसकी दृष्टि न तो बहुत नीची हो, न बहुत ऊँची हो और न तिरछी ही हो ।

 

विद्वान् पुरुष ऐसी प्रतिमा बनवाये, जिसकी दृष्टि सम हो और जिसके नेत्र कमलदलके समान विशाल हों । भौंहे, ललाट और कपोल सुन्दर हों, उसका समस्त विग्रह सुडौल और सौम्य हो । उसके दोनों ओठ लाल हों, ठोढ़ी ( अधरके नीचेका भाग ) मनोहर तथा कण्ठ सुन्दर हो । प्रतिमाकी भुजाएँ चार होनी चाहिये – दो भुजाएँ और दो उपभुजाएँ । उनमेंसे दाहिनी उपभुजाके हाथमें सूर्यके समान आकारवाला चक्र धारण कराना चाहिये । चक्रकी नाभिके चारों ओर दिव्य अरे हों और उनके भी ऊपर सब ओरसे नेमि ( हाल ) लगी हो । बायीं उपभुजाके हाथमें चन्द्रमाके समान श्वेत कान्तिमय पाञ्चजन्य नामक शंख देना चाहिये, जो दैत्योंके मदको चूर्ण करनेवाला और कल्याणप्रद है ॥८ – १५॥

 

उस दिव्य भगवत्प्रतिमाके कण्ठमें सुन्दर हार पहनाया गया हो, गलेमें त्रिवली-चिह्न हो, स्तनभाग सुन्दर, वक्षः स्थल रुचिर और उदर मनोहर होना चाहिये । सम्पूर्ण अङ्ग बराबर और सुन्दर हों । वह प्रतिमा अपना बायाँ हाथ कमरपर रखे हो और दाहिनेमें कमल धारण किये हो । बाहुओंमें एवं दिव्यं जान पड़ती हो । उसका कटिभाग ( निताम्ब ), जाँघें और पिडंलियाँ मनोहर हों, वह क्रमसे मेखला और पीतवस्त्रसे विभूषित हो ।

 

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार भगवत्प्रितामाका निर्मण कराकर उसके बनानेवाले शिल्पियोंको सुवर्ण-दान एवं वत्र- दानके द्वारा सम्मानित क्लरके विद्वान पुरुषं पूर्व पक्षमें शुभ समयपर उस प्रतिमाको स्थपना कओ ॥१६ – १९॥

 

मन्दिरके सामने एक यज्ञमण्डप बनवाये । उसमें चारों ओर एक-एकके क्रमसे चार दरवाजे हों और सारा मण्डप चार तोरणों ( बड़े – बड़े फाटकों ) – से धिरा हो । उसमें सप्तधान्यके अङ्कुर उगे हों तथा शंख और भेरी आदि बाजे बजते हों ।

 

विद्वानोंके द्वारा छत्तीस घड़े जलसे उस प्रतिमाका अभीषेक कराकर उसके साथ वेदोंके पारगामी ब्राह्मणोंको साथमे लिये उक्त मण्डपमें प्रवेश करे और फिर पञ्चगव्योंसे पृथक-पृथक स्त्रान कराये । इसी प्रकार गर्म जलसे नहलाकर फिर ठंडे जलसे स्त्रान कराये । तत्पश्चात्, हल्दी और कुङ्कुम आदिका तथा चन्दनोंका उसपर लेप करे, फिर फूलोंकी मालाओंसे विभूषितकर उसे वस्त्र धारण करा दे और पुण्याहवाचन करके वैदिक ऋचाओंसे उच्चारणपूर्वक जलसे प्रोक्षित कर भक्त ब्राह्मणोद्वारा उस भगवद्विग्रहको नहलाये । तत्पश्चात् शंख, भेरी आदि बाजे बजाते हुए उसे नदी जलमें रखकर सात या तीन दिनोंतक उसे वहाँ रहनेल ए अथवा किसी निर्मल जलाशय या शुद्ध सरोवरमें रखकर उसकी रक्षा करे ।

 

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार भवान् जलाधिवास कराके ब्राह्मणोंद्वारा उनको उठवाये ओरे पालकी आदिम्कें चढ़ाकर पूर्ववत् उन्हें माला आदिसे विभूषित करे । तदनन्यार नगरोंकी ध्वनि और वेदमन्त्रोंके गम्भीर घोषके साथ भगवानको गम्भीर घोषके साथ भगवानको वहाँसे ले आये और कमलाकार बने हुए शुद्ध मण्डपमें रखे । वहाँ पुनः स्त्रान कराके विष्णुभक्तोंद्वारा उसका श्रृङ्गार कराये ॥२० – २८॥

 

इसके बाद सोलह ऋत्विज ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक भोजन कराये । उनमेंसे चार ब्राह्मणोंको तो वहाँ वेद – पुराणादिका स्वाध्याय ( पाठ ) करना चाहिये, चार विप्रोंको उस भगवद्विग्रहकी रक्षामें संलग्न रहना चाहिये तथा चार विद्वानोंको यज्ञमण्डपके भीतर चारों दिशाओंमें हवन करना चाहिये ।

 

राजन् ! फिर एक ब्राह्मणके द्वारा फूल, अक्षत और अन्नसे समस्त दिशाओंमें बलि अर्पित कराये । यह बलि इन्द्रादि देवताओंकी प्रसन्नताके लिये होती है । प्रत्येक दिशाके अधिपतिको ‘ इन्द्रः प्रीयताम् ‘ इत्यादि रुपसे उसके नामोच्चारणपूर्वक ही बलि दे । सायंकाल, आधी रात, उषः काल तथा सूर्योदयके समय प्रत्येक दिक्पालको बलि अर्पित करनी चाहिये । इसके बाद मातृकागणोंको बलि और ब्राह्मणोंको उपहार दे ।

 

राजन् ! इसके पश्चात यजमानको चाहिये कि भगवान् विष्णुके मन्दिरमें एक ओर बैठकर एकाग्रचित्तसे बार-बार पुरुषसूक्तका जप करे । फिर पूरे एक दिन-रात उपवास करके शुभ लग्नमें वह बुद्धिमान् पुरुष ब्राह्मणोंको साथ ले मण्डपमें, जहाँ प्रतिमा रखी गयी हो, उस द्वारसे मण्डपके भीतर प्रवेश करे और ब्राह्मणोंके साथ देवसूक्तका पाठ करते हुए भगवत्प्रतिमाका उपस्थान करके उसे मन्दिरमें लाये और विष्णुसूक्त अथवा पवमानसूक्तका पाठ करते हुए उसे वहाँ दृढ़तापूर्वक स्थापित करे । तत्पश्चात् आचार्य कुशयुक्त जलसे उन देवदेवेश्वर भगवानका अभिषेक करे ॥२९ – ३५॥

 

फिर भगवानके सम्मुख अग्निस्थापन करे । अग्निके चारों ओर यत्नपूर्वक कुशास्तरण करके गायत्री और विष्णुमन्त्रोंद्वारा जातकर्मादि संस्कारकी सिद्धिके निमित्त हवन करे । आचार्यको चाहिये कि प्रत्येक क्रियामें चार-चार बार घीकी आहुति दे तथा अस्त्रमन्त्र ( अस्त्राय फट् ) बोलकर दिग्बन्ध कराये । ‘ ॐ त्रातारमिन्द्रम् ० ‘ इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० २० / ५० ) – से अग्निवेदीपर पूर्वकी और घीकी आहुति दे । ‘ परो दिवा० ‘ इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० १७ / २९ ) – से दक्षिण दिशामें और ‘ निषसाद० ‘ इत्यादि मन्त्र ( शु० यजु० १० / २७ ) – से पश्चिममें घृतका हवन करे ।

 

हे नृप ! ‘ या ते रुद्र० ‘ ( शु० यजु० १६ / २ ) – इस मन्त्रसे उत्तर दिशामें और ‘ परो मात्रया० ‘ ( ऋग्वेद ७ / ६ / ९९ ) इत्यादि दो सूक्तोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंमें घीकी आहुति दे । इस प्रकार विधिवत् हवन करके ‘ यदस्या० ‘ ( शु० यजु० २३ / २८ ) इस मन्त्रका जप करे घीसे ‘ स्विष्टकृत् ‘ संज्ञक होम करे । तदनन्तर ऋत्विजोंको उनके सम्मानके अनुकूल सादर दक्षिणा दे । इसके बाद यजमान आचार्यको दो वस्त्र, दो सुवर्णमय कुण्डल और सोनेकी अंगूठी दे तथा यदि सामर्थ्य हो तो इसके अतिरिक्त भी सुवर्णदान करे ॥३६ – ४१॥

 

फिर विद्वान् पुरुष यथासम्भव एक हजार आठ या एक सौ आठ अथवा इक्वीस घड़े जलसे भगवानको स्नान कराये । उस समय शंख और दुन्दुभि आदि बाजे बजते रहें, वेदमन्त्रोंका घोष और मङ्गलपाठ होता रहे । अपनी शक्तिके अनुसार जिनपर जौ आदिके अङ्कुर निकले हों, ऐसे जौ और व्रीहि ( चावल ) – से भरे पात्रोंद्वारा तथा दीप, यष्टि ( छड़ी ), पताका, छत्र, चँवर, तोरण आदि सामग्रियोंके साथ स्नान – विधि पूर्ण कराके वहाँ भी ब्राह्मणोंको यथाशक्ति दक्षिणा दे ।

 

राजन् ! इस प्रकार जो भगवान् विष्णुकी प्रतिष्ठा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और मृत्युके पश्चात् अपनेसहित इक्वीस पीढ़ीके पितरोंको साथ ले, सब प्रकारके आभूषणोंसे भूषित एवं विचित्र विमानपर आरुढ हो, क्रमशः इन्द्रादि लोकोंमें विशेष सम्मान प्राप्त करता है तथा अपने बन्धुजनोंको उन लोकोंमें रखकर स्वयं विष्णुलोकमें जाकर प्रतिष्ठित होता है । फिर वहाँ ही भगवत्तत्त्वका ज्ञान प्राप्तकर वह विष्णुस्वरुपमें लीन हो जाता है ॥४२ – ४७ १/२॥

 

राजन् ! इस प्रकार तुमसे मैंने यह प्रतिष्ठा – विधि बतायी । इसका पाठ और श्रवण करनेवाले लोगोंके सब पाप दूर हो जाते हैं ।

 

नरनाथ ! जब मनुष्य इस पूर्वोक्त विधिसे पृथ्वीपर भगवान् नृसिंहकी स्थापना कर लेता है तब मृत्युके बाद वह भगवान विष्णुके उस नित्यधामको प्राप्त होता है, जहाँ रहकर वह पुनः संसारमें नहीं लौटता ॥४८ – ५०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ प्रतिष्ठाविधि ‘ नामक छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५६॥

अध्याय - ५७ भक्तके लक्षण; हारीत-स्मृतिका आरम्भ ब्राह्मणधर्मका वर्णन

राजा बोले – ब्रह्मन् ! आप मुझसे भगवान्‍ नृसिंहके भक्तोंका लक्षण बतलाइये, जिनका सङ्ग करनेमात्रसे विष्णुलोक दूर नहीं रह जाता ॥१॥

 

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा – राजन् ! भगवान् विष्णुके भक्त उनकी पूजा-अर्चा करनेमें महान् उत्साह रखते हैं । वे अपने मन और इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए धर्ममें तत्पर रहकर सारे मनोरथोंको सिद्ध कर लेते हैं । भगवद्भक्त जन सदा परोपकार और गुरु-सेवामें लगे रहते हैं, सबसे मीठे वचन बोलते और अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके सदाचारोंका पालन करते हैं । वे वेद और वेदार्थका तत्त्व जाननेवाले होते हैं, उनमें क्रोध और कामनाओंका अभाव होता है । वे सदा शान्त रहते हैं, उनके मुखपर सौम्यभाव लक्षित होता है तथा वे निरन्तर धर्माचरणमें लगे रहते हैं । थोड़ा किंतु हितकारी वचन बोलते हैं, समयपर अपनी शक्तिके अनुसार सदा अतिथिकी सेवा करनेमें उनका प्रेम बना रहता है । वे दम्भ, कपट, काम और क्रोधसे रहित होते हैं । जो मनुष्य इन पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त एवं धीर हैं, बहुश्रुत और क्षमावान् हैं तथा विष्णुभगवानके नामोंका कीर्तन अथवा श्रवण करते समय हर्षसे रोमाञ्चित हो जाते हैं, इसी तरह जो विष्णुपूजनमें तत्पर और भगवत्कथामें आदर रखनेवाले हैं, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् विष्णुके भक्त कहे गये हैं ॥२ – ७॥

 

राजा बोले – विद्वन् भृगुवर्य ! मेरे गुरुदेव ! आपने अभी कहा है कि जो अपने वर्ण और आश्रमके धर्ममें लगे रहते हैं, वे भगवान् विष्णुके भक्त हैं; अतः आप कृपा करके वर्णो और आश्रमोंके धर्म बताइये, जिनके पालन करनेसे सनातन भगवान् नृसिंह संतुष्ट होते हैं ॥८ – ९॥

 

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा – इस विषयमें मुनियोंके साथ महात्मा हारीत ऋषिका संवाद हुआ था; उसी प्राचीन एवं उत्तम इतिहासका आज मैं तुम्हारे समक्ष वर्णन करुँगा ॥१०॥

 

एक समयकी बात है, धर्मका तत्त्व जाननेकी इच्छावाले समस्त मुनियोंने एक जगह आसनपर आसीन, धर्म – तत्त्ववेत्ता एवं बहुपाठी महात्मा हारीत ऋषिके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया और कहा – ‘ भगवन् ! आप समस्त धर्मोंके ज्ञाता और प्रवर्तक हैं; अतः आप हमलोगोंसे वर्ण और आश्रमोंसे सम्बन्ध रखनेवाले सनातन धर्मका वर्णन कीजिये ‘ ॥११ – १२॥

 

श्रीहरीतजी बोले – पूर्वकालमें जगत्स्रष्टा भगवान् नारायण जलके ऊपर शेषनागकी शय्यापर श्रीलक्ष्मीजीके साथ शयन करते थे । कहते हैं, शयन-कालमें ही उन भगवानकी नाभिसे एक दिव्य कमल प्रकट हुआ और उस कमल-कोषमेंसे वेद-वेदाङ्गोंके ज`जानसे विभूषित श्रीब्रह्माजी प्रकट हुए । उन ब्रह्माजीने सृष्टिके लिये भगवान् नारायणकी आज्ञा होनेपर सर्वप्रथम ब्राह्मणोंको अपने मुखसे प्रकट किया । फिर क्षत्रियोंको बाहुओंसे और वैश्योंको जाँघोंसे उत्पन्न किया । अन्तमें उन्होंने चरणोंसे शूद्रोंकी सृष्टि की । फिर कमलोद्भव ब्रह्माजीने क्रमशः उन्हीं ब्राह्मणादि वर्णोंके धर्मका उपदेश करनेवाले शास्त्र और वर्णोंकी मर्यादाका वर्णन किया ।

 

द्विजवरो ! ब्रह्माजीने जो कुछ उपदेश किया, वह सब मैं आप लोगोंसे कह रहा हूँ; आप सुनें । यह धर्मशास्त्र धन, यश और आयु\को बढ़ानेवाला तथा स्वर्ग और मोक्षरुपी फलको देनेवाला है ॥१३ – १७॥

 

जो ब्राह्मण-कुलमें उत्पन्न हुई स्त्रीके गर्भ और ब्राह्मणके ही वीर्यसे उत्पन्न हुआ है, वह ‘ ब्राह्मण ‘ कहा गया है । अब मैं ब्राह्मणके धर्म और निवास-योग्य देशको बता रहा हूँ । ब्रह्माजीने ब्राह्मणको उत्पन्न करके उनसे कहा – ‘

 

ब्राह्मणश्रेष्ठ ! जिस देशमें कृष्णासार मृग स्वभावतः निवास करता हो, उसी देशमें रहकर तुम धर्मका पालन करो ।’ मनीषियोंने जो ब्राह्मणके छः कर्म बतलाये हैं, उन्हींके अनुसार जो सदा व्यवहार करता है, वह सुखपूर्वक अभ्युदयशील होता है । अध्ययन ( पढ़ना ), अध्यापन ( पढ़ाना ), यजन ( यज्ञ करना ), याजन ( यज्ञ कराना ), दान करना और दान लेना – ये ही ब्राह्मणके छः कर्म कहे जाते हैं । इनमेसे अध्ययन तीन प्रकारका बताया जाता है – पहला धर्मके लिये, दूसरा ध्यनके लिये और तीसरा अपनी सेवा करानेके लिये होता है । ब्राह्मणको चाहिये कि योग्य शिष्योंको पढ़ाये, योग्य यजमानोंका यज्ञ कराये और गृहस्थधर्मकी सिद्धि ( जीविका चलाने आदि ) – के लिये विधिपूर्वक दूसरेका दान भी ग्रहण करे । शुभ स्थानपर रहकर, एकाग्रचित हो, प्रतिदिन वेदका ही अभ्यास करे तथा यत्नपूर्वक नित्य, नैमित्तिक और काम्य कर्मोंका अनुष्ठान करे । श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि आलस्य त्यागकर उचित – रुपसे गुरुजनोंकी सेवा करे ओर प्रतिदिन प्रातः काल तथा सायंकाल विधिपूर्वक अग्निकी सेवा किया करे ॥१८ – २५॥

 

गृहस्थ ब्राह्मण स्नान आदिके बाद प्रतिदिन बलिवैश्वदेव करे और घरपर आये हुए अतिथिका अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक सम्मान करे । एक अतिथिके आ जानेपर यदि दूसरे भी आ जायँ तो उन्हें भी देखकर विरोध न माने, उनका भी यथाशक्ति सम्मान करे । सदा अपनी ही स्त्रीमें अनुराग रखे, दूसरेकी स्त्रीके सम्पर्कसे सदा दूर रहे । सदा सत्य बोले, क्रोध न करे, अपने धर्मका पालन करता रहे । अपने नैत्यिक आदि कर्मका समय प्राप्त होनेपर प्रमाद न करे । जिससे परलोक न बिगड़े-ऐसी सत्य, प्रिय और हितकारिणी वाणी बोले । इस प्रकार मैंने ब्राह्मण – धर्मका संक्षेपसे वर्णन किया । जो ब्राह्मण इस प्रकार अपने धर्मका पालन करता है, वह नित्य ब्रह्मधाम ( सत्यलोक ) – को प्राप्त होता है ।

 

विप्रगण ! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे यह ब्राह्मण-धर्म कहा है, यह समस्त पापोंको दूर करनेवाला है ।

 

विप्रवरो ! अब क्षत्रियादि जातियोंका पृथक् – पृथक् धर्म बताता हूँ, आप लोग सुनें ॥२६ – ३०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ ब्राह्मणधर्मका वर्णन ‘ नामक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५७॥

अध्याय - ५८ क्षत्रियादिवोंके धर्म और ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थाश्रमके धर्मोंका वर्णन

श्रीहारीत मुनि बोले – अब मैं क्रमशः क्षत्रियादि वर्णोंके लिये विहित नियमोंका यथावत् वर्णन करुँगा, जिनके अनुसार क्षत्रियादिको अपना व्यवहार निभाना चाहिये । राजपदपर स्थित क्षत्रियको उचित है कि वह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करे । उसे भलीभाँति वेदाध्ययन और विधिपूर्वक यज्ञ भी करने चाहिये । धर्मबुद्धिसे युक्त हो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दे, सदा अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहकर परस्त्रीका त्याग करे, नीतिशास्त्रका अर्थ समझनेमें निपुण हो, संधि और विग्रहका तत्त्व समझे । देवताओं और ब्राह्मणोंमें भक्ति रखे, पितरोंका पूजन – श्राद्धादि कर्म करे । धर्मपूर्वक ही विजयकी इच्छा करे, अधर्मको भलीभाँति त्याग दे । इस प्रकार आचरण करनेवाला क्षत्रिय उत्तम गतिको प्राप्त होता है ॥१ – ५॥

 

वैश्यको चाहिये कि वह विधिपूर्वक गोरक्षा, कृषि और व्यापार करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार दानधर्म और गुरुसेवा भी करे । लोभ और दम्भस्से सर्वथा दूर रहे, सत्यवादी हो, किसीके दोष न देखे, मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर परस्त्रीका त्याग करे और अपनी ही स्त्रीमें अनुरक्त रहे । यज्ञ – कालमें शीघ्रतापूर्वक ब्राह्मणोंका धनसे सम्मान करे तथा आलस्य छोड़कर प्रतिदिन यज्ञ, अध्ययन और दान करता रहे । श्राद्ध – काल प्राप्त होनेपर पितृ श्राद्ध अवश्य करे और नित्यप्रति भगवान् श्रीनृसिंहदेवका पूजन करे । अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्यके लिये यही कर्तव्य कर्म बतलाया गया है । पूर्वोक्त कर्मका पालन करनेवाला वैश्य निः संदेह स्वर्गलोकका अधिकारी होता है ॥६ – ९ १/२॥

 

शूद्रको चाहिये कि वह यत्नपूर्वक इन तीनों वर्णोंकी सेवा करे और ब्राह्मणोंकी तो दासकी भाँति विशेषरुपसे शुश्रूषा करे । किसीसे माँगकर नहीं, अपनी ही कमाईका दान करे । जीविकाके लिये कृषि-कर्म करे । प्रत्येक मासमें न्याय और धर्मके अनुसार ग्रहोंका पूजन करे, पुराना वस्त्र धरण करे । ब्राह्मणका जूठा बर्तन माँजे । अपनी स्त्रीमें अनुराग रखे । परस्त्रियोंको दूरसे ही त्याग दे । ब्राह्मणके मुखसे पुराणकथा श्रवण करे, भगवान् नरसिंहका पूजन करे । इसी प्रकार ब्राह्मणोंको श्रद्धापूर्वक नमस्कार करे । राग – द्वेष त्याग दे और सत्यभाषण करे । इस प्रकर मन, वाणी, शरीर और कर्मसे आचरण करनेवाला शूद्र पापरहित हो पुण्यका भागी होता है और मृत्युके पश्चात् इन्द्रलोकको प्राप्त होता है ॥१० – १५॥

 

मुनीन्द्रगण ! वर्णोंके ये नाना प्रकारके धर्म मैंने आप लोगोंसे क्रमशः कहे हैं । इन्हें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने बतलाया है । अब मैं क्रमसे प्रथम ब्रह्मचर्य – आश्रमके धर्म बता रहा हूँ, आप लोग सुनें ॥१६॥

 

श्रीहारीत मुनि बोले – उपनयन – संस्कर हो जानेके बाद ब्रह्मचारी बालक सदा गुरुकुलमें निवास करे । उसको चाहिये कि मन, वाणी और कर्मसे गुरुका प्रिय और हित करे । वह ब्रह्मचर्यका पालन, भूमिपर शयन और अग्निकी उपासना करे । गुरुके लिये जलका घड़ा भरकर लाये और हवनके निमित समिधा ले आये । इस प्रकार सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य-आश्रममें रहकर विधिपूर्वक अध्ययन करना चाहिये । जो विधिका त्याग करके अध्ययन करता है, उसे उस अध्ययनका फल नहीं प्राप्त होता ( उसकी विद्या सफल नहीं होती ) । विधिकी अवहेलना करके वह जो कुछ भी कर्म करता है, विधिभ्रष्ट एवं नास्तिक होनेके कारण उसे उसका फल नहीं मिलता । इसलिये गुरुकुलमें रहकर अपने अध्ययनकी सफलताके लिये उपर्युक्त व्रतोंका आचरण करना चाहिये और गुरुके निकट समस्त शौचाचारोंको सीखना चाहिये । ब्रह्मचारी सावधान और एकाग्रचित्त रहकर मृगचर्म, पलाशदण्ड, मेखला और उपवीत ( जनेऊ ) धारण करे । अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर सायंकाल और प्रातः काल भिक्षासे मिला हुआ अन्न भोजन करे । गुरुके कुलमें और उनके कुटुम्बी बन्धु-बान्धवोंके घरमें भिक्षा ले सकता है; किंतु यथासाध्य पूर्व-पूर्व गृहोंका त्याग करे । अर्थात् पहले कहे हुए गुरुगृह या गुरुकुलका त्यागकर अन्यत्र भिक्षा ले । नित्य आचमन करके शुद्धचित्त होकर गुरुकी आज्ञा से भोजन करे । रात्रि बीतनेपर गुरुसे पहले ही अपने आसनसे उठ जाय और गुरुके लिये कुश, मिट्टी, दाँतुन और वस्त्र आदि अन्य सामान एकत्र करके उनको दे । गुरुजीके स्त्रान कर लेनेपर स्वयं यत्नपूर्वक स्त्रान करे । ब्रह्मचारी सदा व्रत रखे और काठ आदिसे दन्तधावन न करे ॥१७ – २६॥

 

छाता, जूता, उबटन, गन्धयुक्त इत्र आदि और फूल-माता आदिको त्याग दे । विशेषतः नाच, गान और ग्राम्य कथा-वार्ता एवं मैथुनका सर्वथा त्याग करे । मधु, मांस और रसास्वाद ( जिह्वाके स्वाद ) – को त्याग दे । स्त्रियोमसे अलग रहे । काम, क्रोध, लोभ तथा दूसरे मनुष्योंके अपवाद ( निन्दा ) – का परित्याग करे । स्त्रियोंकी ओर देखने, उनका स्पर्श करने और दूसरे जीवोंकी हिंसा करने आदिसे बचकर रहे । सब जगह अकेले ही शयन करे, कभी कहीं भी वीर्यपात न करे । यदि कामभाव न होनेपर भी स्वप्नमें वीर्य-स्खलन हो जाय तो ब्रह्मचारी द्विजको चाहिये, वह स्नान क के सूर्य और अग्निकी आराधना करे तथा ‘ पुनर्मामेत्विन्द्रियम् ‘ इस ऋचाका जप करे । ईश्वर और परलोकके अस्तित्वपर विश्वास करता हुआ, ब्रह्मचारियोंके लिये उचित व्रतके पालनमें तत्पर रहकर, जितेन्द्रिय हो, प्रतिदिन न्यायतः प्राप्त त्रिकालसंध्याकी उपासना करे । संध्या-कर्म समाप्त होनेपर गुरुके चरणोंमें प्रणाम करे और यदि सुयोग प्राप्त हो तो माता-पिताके चरणोंमें भी भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । इन तीनोंके संतुष्ट होनेपर सम्पूर्ण देवता प्रसन्न रहते हैं; इसलिये ब्रह्मचारीको चाहिये कि डाह छोड़कर इन तीनोंके शासनमें रहे । यथासम्भव चार, दो अथवा एक ही वेदका अध्ययन पूर्ण करके गुरुको दक्षिणा दे । फिर अपने इच्छानुसार कहीं भी निवास करे । यदि वह विद्वान् ब्रह्मचारी विरक्त हो, तब तो संन्यासी हो जाय; किंतु यदि उसका विषय-भोगोंके प्रति अनुराग हो तो गृहस्थाश्रममें प्रवेश करे।

 

द्विजो ! रागी पुरुष यदि संन्यासी हो जाय तो वह निश्चय ही नरकमें जाता है । जिसकी जिह्वा, उपस्थ ( जननेन्द्रिय ), उदर और वाणी शुद्ध हों, अर्थात् जो स्वाद, काम और बुभुक्षाको जीत चुका हो और सत्यवादी या मौन रहता हो, वह पुरुष यदि ब्रह्मचर्यवान् ब्राह्मण हो तो वह विवाह न करके संन्यास ले सकता है ॥२७ – ३६॥

 

इस प्रकार जो आलस्य त्यागकर विधिका पालन करते हुए ही समय-यापन करता है, वह ब्रह्मचारी अधिकाधिक दृढ़ व्रतवाला होता है । जो ब्रह्मचारी पूर्वोक्त विधिका सहारा लेकर गुरु-सेवापरायण हो पृथ्वीपर भ्रमण करता है, वह दुर्लभ विद्याको भी सीखकर उसके सम्पूर्ण फलोकों प्राप्त कर लेता है ॥३७ – ३८॥

 

श्रीहरित मुनि कहते हैं – पूर्वोक्त रीतिसे वेदाध्ययन समाप्तकर श्रुति तथा अन्यान्य शास्त्रोंके अर्थ एवं तत्वका ज्ञान रखनेवाल ब्रह्मचारी विद्वान् गुरुसे आशीर्वाद प्राप्तकर विधिपूर्वक समावर्तन-संस्कार आरम्भ करे । फिर, जिसके नाम और गोत्र अपनेसे भिन्न हो, जिसके भाई भी हो, जो सुन्दरी एक शुभ लक्षणोंवाली हो, जिसके शरीरके सभी अवयव अविकल हों और जिसका आचरण उत्तम हो, ऐसी कन्याके साथ विवाह करे । जिसके शरीरका रंग कपिल हो, जो अधिकाङ्गी या रोगिणी हो, बहुत बोलनेवाली और अधिक रोमवाली हो, जिसका कोई अङ्ग विकृत या हीन हो और जिसकी सूरत डरावनी हो, ऐसी कन्यासे विवाह न करे । जिसका नाम नक्षत्र, वृक्ष या नदीके नामपर रखा गया हो, अथवा जिसके नामके अन्तमें पर्वतवाचक शब्द हो, अथवा जो पक्षी, साँप और दास आदि अर्थवाले नामोंसे युक्त हो, या जिसका भयंकर नाम हो, ऐसी कन्यासे भी विवाह न करे । जिसके शरीरके सभी अवयव सुडौल हों, नाम कोमल और मधुर हो, जो हंस या गजराजके समान मन्द एवं लीलायुक्त गतिसे चलनेवाली हो, जिसके अधर, दाँत और केश पतले हों एवं जिसका शरीर कोमल हो, ऐसी कन्यासे विवाह करे । श्रेष्ठ द्विजातिको चाहिये कि यथासम्भव सर्वोतम ब्राह्मविधिसे विवाह करे । इस प्रकार वर्णधर्मके अनुसार विवाह-संस्कार पूर्ण करना चाहिये ॥३९ – ४४॥

 

इसके बाद विद्वान् द्विजको चाहिये कि प्रतिदिन सूर्योदयसे पूर्व उठकर शौचादिके अनन्तर दन्तधावन करके तुरंत स्नान कर ले । प्रतिदिन रातमें सोकर उठानेके बाद मुख पर्युषित होनेके कारण मनुष्य अपवित्र रहता है, अतः शुद्धिके लिये सूखा या गीला दन्तधावन अवश्य चबाना चाहिये । दाँतुनके लिये खदिर, कदम्ब, करञ्ज, वट, अपामार्ग, बिल्व, मदार और गूलर-ये वृक्ष उत्तम माने गये है । दन्तधावनके लिये उपयुक्त काष्ठ और उसकी उत्तमताका लक्षण बता रहा हूँ ॥४५ – ४८॥

 

जितने काँटेवाले वृक्ष हैं, वे सभी पवित्र हैं । जितने दूधवाले वृक्ष हैं, वे सभी यश देनेवाले हैं । दाँतुनकी लकड़ीकी लम्बाई आठ अंगुलकी बतायी जाती है । अथवा बित्तमात्र उसकी लम्बाई होनी चाहिये । ऐसी दाँतुनसे दाँतोको स्वच्छ करना चाहिये । परंतु

 

साधुशिरोमणियो । प्रतिपदा, अमावस्या, षष्ठी और नवमीको काठकी दाँतुन नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उक्त तिथियोंको यदि दाँतसे काठका संयोग हो जाय तो वह सात पीढ़्दीतकके कुलको दग्ध कर डालता है । जिस दिन दाँतुन न मिले या जिस दिन दाँतुन करना निषिद्ध है, उस दिन बारह बार जलका कुल्ला करके मुखकी शुद्धि कर लेनेकी विधि है ॥४९ – ५१ १/२॥

 

दाँतुनके बाद स्नान करे । फिर मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके पुनः आचमन करना चाहिये । मन्त्रपाठपूर्वक अपने ऊपर भी जल छिड़के और सूर्यके लिये अर्घ्यके तौरपर जलाञ्जलि भरकर उछाले । अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीके वरदानसे प्रबल हुए ‘ मन्देह ‘ नामक राक्षस प्रतिदिन प्रातःकाल आकर सूर्यके साथ युद्ध करते हैं; किंतु जब गायत्रीसे अभिमन्त्रित जलाञ्जलि सूर्यदेवके सामने उछाली जाती है, तब वह उन समस्त सूर्य-वैरी मन्देह नामके राक्षसोंको मार भगाती है ।

 

तत्पश्चात् महाभाग मरीचि आदि ब्राह्मणों और सनकादिक योगियोंद्वारा रक्षित हो, भगवान् सूर्यदेव आकाशमें आगे बढ़ते हैं । इसलिये द्विजको चाहिये कि सायं और प्रातः कालकी संध्याका कभी उल्लङ्घन न करे । जो मोहवश संध्याका उल्लङ्घन करता है, वह अवश्य ही नरकमें पड़ता है । यदि सायंकालमें मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके अपने ऊपर जल छिड़ककर फिर भगवान् सूर्यको जलाञ्जलि अर्पित की जाय और उनकी परिक्रमा करके अपने ऊपर जल छिड़ककर फिर भगवान् सूर्यको जलाञ्जलि अर्पित की जाय और उनकी परिक्रमा करके पुनः जलका स्पर्श किया जाय तो वह द्विज शुद्ध हो जाता है । प्रातः कालकी संध्या तारोंके रहते-रहते विधिपूर्वक आरम्भः करे और जबतक तारोंका दर्शन हो, तबतक गायत्रीका जप करता रहे । तत्पश्चात् घरमें आकर विद्वान् पुरुषको स्वयं हवन करना चाहिये । फिर जो भृत्य-पालनीय कुटुम्बीजन तथा दास आदि हों, उनके भरण-पोषणके लिये विद्वान् गृहस्थ चिन्ता ( आवश्यक प्रबन्ध ) करे । उसके बाद शिष्योंके हितके लिये कुछ देरतक स्वाध्याय करे । उत्तम द्विजको चाहिये कि अपनी रक्षाके लिये ईश्वरका सहारा ले । फिर दू जाकर पूजाके लिये कुश, फूल और हवनके लिये समिधा आदि ले आये और पवित्र स्थानमें एकाग्रचित्तसे बैठकर मध्याह्नकालिक क्रिया ( संध्योपासना आदि ) करे ॥५२ – ६१ १/२॥

 

अब हम थोड़ेमें स्नानकी विधि बतला रहे हैं जो समस्त पापोंको नष्ट करनेवाली हौइ । उस विधिसे स्नान करके मनुष्य तत्काल पापोंसे मुक्त हो जाता है । बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि स्नानके लिये कुश और तिलोंके साथ शुद्ध मिट्टी ले ले तथा प्रसन्नचित्त होकर शुद्ध और मनोहर नदीके तटपर जाय । नदीके होते हुए छोटे जलाशयोंमें स्नान न करे । वहाँ पवित्र स्थानपर उसे छिड़ककर कुश और मृत्तिका आदि रख दे । फीर विद्वान पुरुष मिट्टी और जलसे अपने शरीरको यत्नपूर्वक लिप्त करके, शुद्ध स्नानाके द्वारा उसे धोकर पुनः आचमन करे । तदनन्तर स्वच्छ जलमें प्रवेश करके जलेश वरुणको नमस्कार करे । फिर मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण करते हुए जहाँ कुछ अधिक जल हो, वहाँ डुबकी लगाये । इसके बाद स्नान समाप्तकर, मन्त्रपाठपूर्वक आचमन करके, वरुणसम्बन्धी पवमान-मन्त्रोंद्वारा वरुणदेवका अभिषेक करे । फिर कुशके अग्रभागपर स्थित जलसे अपना यत्नपूर्वक मार्जन करे और ‘ इदं विष्णुर्विचक्रमे ‘ इस मन्त्रका पाठ करते हुए अपने शरीरके तीन भागोंमें क्रमशः मृत्तिकाका लेप करे । तत्पश्चात् भगवान् नारायणका स्मरण करते हुए जलमें प्रवेश करे । जलके भीतर भली प्रकार डुबकी लगाकर तीन बार अघमर्षण पाठ करे । इस प्रकार स्नान करके कुश और तिलोंद्वारा देवताओं, ऋषियों और पितरोंका तर्पण करे । इसके बाद समाहितचित हो, जलसे बाहर निकल, तटपर आकर धुले हुए दो श्वेत वस्त्रोंको धारण करे । इस प्रकार धोती और उत्तरीय धारणकर अपने केशोंको न फटकारे । अत्याधिक लाल और नील वस्त्र धारण करना भी उत्तम नहीं माना गया है । विद्वान् पुरुषको चाहिये कि जिस वस्त्रमें मल या दाग लगा हो, अथवा जिसमें किनारी न हो, उसका भी त्याग करे ॥६२ – ७२ १/२॥

 

इसके पश्चात् विज्ञ पुरुष मिट्टी और जलसे अपने चरणोंको धोये । फिर खूब देख-भालकर शुद्ध जलसे तीन बार आचमन करे । दो बार जल लेकर मुँह धोये । पैर और सिरपर जल छिड़के । फिर तीन बार आचमन करके क्रमशः अङ्गोंका स्पर्श करे । अँगूठे और तर्जनीसे नासिकाका स्पर्श करे । अङ्गुष्ठ और कनिष्ठिकासे नाभिका स्पर्श करे । हदयका करतलसे स्पर्श करे । तदनन्तर समस्त अँगुलियोंसे पहले सिरका, फिर बाहुओंका स्पर्श करे । इस प्रकार आचमन करके ब्राह्मण शुद्धहदय हो, हाथमें कुश ले, पूर्वकी ओर मुख करके एकाग्रतापूर्वक कुशासनपर बैठ जाय और आलस्यको त्यागकर शास्त्रोक्त विधिसे – तीन बार प्राणायाम करे ॥७३ – ७७॥

 

तत्पश्चात् वेदमाता गायत्रीका जप करते हुए जपयज्ञ करे । जपयज्ञ तीन प्रकारका होता है; उसका भेद बताते हैं, आप लोग सुनें । वाचिक, उपांशु और मानस – तीन प्रकारका जप कहा गया है । इन तीनों जपयज्ञोंमें उत्तरोत्तर जप श्रेष्ठ है, अर्थात् वाचिक जपकी अपेक्षा उपांशु और उसकी अपेक्षा मानस जप श्रेष्ठ है । अब इनके लक्षण बताते हैं । जप करनेवाला पुरुष आवश्यकतानुसार ऊँचे, नीचे और समान स्वरोंमें बोले जानेवाले स्पष्ट शब्दयुक्त अक्षरोंद्वारा जो वाणीसे सुस्पष्ट शब्दोच्चारण करता है, वह ‘ वाचिक जप ‘ कहलाता है । इसी प्रकार जो तनिक-सा ओठोंको हिलाकर धीरे-धीरे मन्त्रका उच्चारण करता है और मन्त्रको स्वयं ही कुछ-कुछ सुनता या समझता है, उसका वह जप ‘ उपांशु ‘ कहलाता है बुद्धिके द्वारा मन्त्राक्षरसमूहके प्रत्येक वर्ण, प्रत्येक पद और शब्दार्थका जो चिन्तन एवं ध्यान किया जाता है, वह ‘ मानस जप ‘ कहा गया है । जपके द्वारा प्रतिदिन जिसका स्तवन किया जाता है, वह देवता प्रसन्न होता है और प्रसन्न होनेपर वह विपुल भोग तथा नित्य मोक्ष-सुखको भी देता है । यक्ष- राक्षस-पिशाच आदि और सूर्यादि देवताओंको दूषित करनेवाले अन्य ( राहु – केतु आदि ) ग्रह भी जप करनेवाले पुरुषके निकट नहीं जाते, दूरसे ही भाग जाते हैं ॥७८ – ८४॥

 

द्विजको चाहिये कि वह आलस्यका त्याग करके प्रतिदिन तारोंको देखकर अर्थात् तारोंके रहते – रहते स्नान करके, गायत्रीके अर्थमें मन लगा गायत्री-मन्त्रका जप करे । जो द्विज अधिक-से-अधिक एक हजार, साधारणतया एक सौ अथवा कम-से-कम दस बार प्रतिदिन गायत्रीका जप करता है, वह पापोंसे लिप्त नहीं होता ॥८५ – ८६॥

 

इसके बाद सूर्यदेवको पुष्पाञ्जलि अर्पित करके अपणी भुजाएँ ऊपर उठाकर ‘ ॐ उदुत्यं जातवेदसम् ………..’ तथा ‘ ॐ तच्चक्षुर्देवहितम् ……….’ इन मन्त्रोंका जप करे । फिर प्रदक्षिणा करके सूर्यदेवको प्रणाम करे । तत्पश्चात् विद्वान् पुरुष प्रतिदिन देवतीर्थसे ( उँगलियोंद्वारा ) देवताओंका तर्पण करे । विज्ञ पुरुषको देवताओं और उनके गणोंका ऋषियों और उनके गणोंका तथा पितरों और पितृगणोंकी प्रतिदिन तर्पण करना चाहिये । तदनन्तर स्नानके बाद उतारे हुए वस्त्रको निचोड़कर पुनः आचमन करे । फिर हाथमें कुश लेकर कुशासनपर बैठ जाय और ब्रह्मयज्ञकी विधिके अनुसार पूर्वाभिमुख हो बुद्धिपूर्वक ब्रह्मयज्ञ ( वेदका स्वाध्याय ) करे । तदनन्तर खड़ा होकर तिल, फूल और जलेसे युक्त अर्घ्यपात्रको अपने मस्तकतक ऊँचे उठा ‘ हंस शुचिषत् ……..’ इस ऋचाका पाठ करते हुए सूर्यदेवके लिये अर्घ्य दे । फिर जलमें स्थित वरुणदेवको नमस्कार कर पुनः घरपर आ जाय और वहाँ पुरुषसूक्तसे भगवान् विष्णुका विधिवत् पूजन करे । तदनन्तर विधिपूर्वक बलिवैश्वदेव कर्म करे ॥८७ – ९३॥

 

इसके बाद जितनी देरमें गौ दुही जाती है, उतनी देरतक द्वारपर अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करे । यदि कई अतिथि आ जायँ तो उनमेंसे जिसे पहले कभी न देखा हो, उसका सम्मान सबसे पहले करना चाहिये । द्वारपर आकर अतिथिको खड़े होकर भलीभाँति अगवानी करनेसे गृहस्थके ऊपर दक्षिण, गार्हपत्य और आहवनीय-तीनों अग्नि प्रसन्न होते हैं; आसन देनेसे देवराज इन्द्रको प्रसन्नता होती है, अन्न आदि भोज्य पदार्थ अर्पण करनेसे प्रजापति प्रसन्न होते हैं । इसलिये गृहस्थ पुरुषको चाहिये कि वह अतिथिका पूजन करे ॥९४ – ९७॥

 

इसके पश्चात् भक्तिमान् पुरुष प्रतिदिन भगवान् विष्णुकी भक्तिपूर्वक पूजा करके उनका चिन्तन करे । फिर संन्यासी, विरक्त एवं ब्रह्मचारीको भिक्षा दे । सब प्रकारसे तैयार किये हुए अन्नमेंसे समस्त व्यञ्जनोंसे युक्त कुछ अन्न निकालकर प्रतिदिन यत्नपूर्वक भिक्षु ( संन्यासी ) – को देना चाहिये । बलिवैश्वदेव करनेके पहले भी यदि भिक्षु भिक्षाके लिये आ जाय तो उसे अवश्य भिक्षा देनी चाहिये; क्योंकि यह दान स्वर्गमें जानेके लिये सीढ़ीका काम देता है । विश्वेदेवसम्बन्धी अन्नमेंसे लेकर भिक्षुको भिक्षा देकर उसे विदा करे । वैश्वदेव कर्म न करनेके दोषको वह भिक्षु दूर कर सकता है । फिर सुवासिनी ( सुहागिन ) और कुमारी कन्याओं तथा रोगी व्यक्तियोंको और बालकों एवं वृद्धोंको पहले भोजन कराके उनसे बचे हुए अन्नको गृहस्थ पुरुष स्वयं भोजन करे ॥९८ – १०२॥

 

भोजन करते समय पूर्व या उत्तरकी ओर मुँह करके बैठे और मौन रहे अथवा कम बोले । भोजनसे पहले प्रसन्नचित्तसे अन्नको नमस्कार करके पृथक् – पृथक् पाँच प्राणवायुओंके नाम – मन्त्रसे अर्थात् ‘ ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा ‘ – इस प्रकार उच्चारण करते हुए पाँच बार प्राणाग्रिहोत्र करे । इसके बाद एकाग्रचित्त होकर उस स्वदिष्ट अन्नको स्वयं भोजन करे भोजनके बाद मुँह-हाथ धो, आचमन ( कुल्ला ) करके, अपने उदरका स्पर्श करते हुए इष्टदेवका स्मरण करे । फिर विद्वान् पुरुष इतिहास-पुराणोंके अध्ययनमें कुछ समय व्यतीत करे । तदनन्तर सायंकाल आनेपर बाहर ( नदी या जलाशयके तटपर ) जाकर विधिपूर्वक संध्योपासन करे । पुनः रात्रिकालमें हवन करके अतिथि-सत्कारके पश्चात् भोजन करे । द्विजातियोंके लिये प्राप्तः और सायं-दो ही समय भोजन करना वेदविहित हैं; इसके बीचमें भोजन नहीं करना चाहिये ।

 

जैसे अग्निहोत्र प्रातः और सायं-दो ही समय भोजन करना वेदविहित है; इसके बीचमें भोजन नहीं करना चाहिये । जैसे अग्निहोत्र प्रातः और सायंकालमें किया जाता है, वैसे ही दो ही समय भोजनकी भी विधि है ॥१०३ – १०७॥

 

इसके अतिरिक्त विद्वान् द्विजको चाहिये कि वह प्रतिदिन शिष्योंको पढ़ाये, परंतु अध्ययनके लिये वर्जित समयका त्याग करे । स्मृतिमें अनध्याय-कालको त्याग दे । महानवमी ( आश्विन शुक्ला नवमी ) और द्वादशी तिथि, भरणी नक्षत्र और अक्षयतृतीयामें विद्वान पुरुष शिष्योंको न पढ़ाये । माघ मासकी सप्तमीको अध्ययन न करे, सड़कपर चलते समय और उबटन लगाकर स्नान करते समय भी अध्ययनका त्याग करे ॥१०८ – ११०॥

 

अपना हित चाहनेवाले गृहस्थको चाहिये कि विधिपूर्वक दान करे । विशेषतः सुवर्णदान, गोदान और भूमिदान करे । जो द्विजश्रेष्ठ सुवर्ण आदि पूर्वोक्त वस्तुएँ श्रोत्रिय ब्राह्मणोंको दानमें देता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है । जो गृहस्थ शुभाचरणोंसे युक्त, पवित्र और श्रद्धालु रहकर श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है । वह भगवान् नरसिंहकी कृपासे जातिमें उत्कर्ष प्राप्त करता है और सत्तमो ! ब्रह्माजीके साथ ही वह मुक्त हो जाता है ।

 

विप्रगण ! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे यह सनातन धर्मसमूहका संक्षेपसे वर्णन किया । जो पुरुष सदगृहस्थके उक्त धर्मका भलीभाँति प्रयत्नपूर्वक पालन करता है, वह मुक्त होकर भगवान्‍ श्रीहरिको प्राप्त करता है ॥१११ – ११५॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ गृहस्थधर्म ‘ नामक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५८॥

अध्याय - ५९ वानप्रस्थ-धर्म

श्रीहारीत मुनि बोले – महाभागगण ! इसके बाद मैं वानप्रस्थका लक्षण और श्रेष्ठ धर्म बताऊँगा; आप लोग मेरे द्वारा बताये जानेवाले उस धर्मको सुनें ॥१॥

 

गृहस्थ पुरुष जब यह देख ले कि मेरे पुत्र-पौत्र हो गये हैं तथा बाल भी पक गये हैं, तब वह अपनी भार्याको पुत्रोंकी देख-रेखमें सौंपकर स्वयं अपने शिष्योंके साथ वनमें प्रवेश करे । जटा, चीर ( वल्कल ) वस्त्र, नख, लोम आदि धारण किये हुए ही यज्ञोक्त विधिसे अग्निमें हवन करे ।

 

विद्वान् पुरुषको चाहिये कि पतोंवाले साग आदिसे या धरतीसे स्वयं उत्पन्न हुए नीवार आदिसे अथवा कंद-मूल-फल आदिसे प्रतिदिन आहारक्रियाका निर्वाह करे । प्रातः, मध्याह्न और सायं-तीनों कालोंमें स्नान करके सदा कठोर तपस्या करे । ‘ पराक ‘ आदि व्रतोंका पालन करता हुआ वानप्रस्थ पुरुष एक पक्ष या एक मासके बाद भोजन करे अथवा दिन-रातके चौथे या आठवें भागमें एक बार भोजन करे । अथवा छठे दिन कुछ भोजन करे या वायु पीकर ही रहे ॥२ – ६॥

 

ग्रीष्म-कालमें पञ्चाग्निके मध्य बैठे, वर्षाकालमें धारावृष्टि होनेपर बाहर आकाशके ही नीचे समय व्यतीत करे और हेमन्त – ऋतुमें तप करते हुए वह जलमें खड़ा रहकर समय बिताये । इस प्रकार कर्मभोगद्वारा आत्मशुद्धि करके, अग्निको भावनाद्वारा अन्तः करणमें स्थापितकर उत्तरदिशाको चला जाय । वह तपस्वी देहपात होनेतक वनमें मौन रहकर इन्द्रियातीत ब्रह्मका स्मरण करता हुआ देह त्यागकर ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । जो द्विजश्रेष्ठ वनवासी ( वानप्रस्थ ) होकर महान् सत्त्वगुण और समाधिसे युक्त हो तपका अनुष्ठान करता है, वह पापरहित और प्रशान्तचित होकर विष्णुधामको प्राप्त होता है ॥७ १०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ वानप्रस्थधर्म ‘ नामक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥५९॥

अध्याय - ६० यतिधर्म

श्रीहारीत मुनि कहते हैं – इसके बाद अब मैं संन्यासियोंका सर्वोत्तम धर्म बताऊँगा, जिसका श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान करके संन्यासी भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

 

द्विजको चाहिये कि पूर्वोक्त रीतिसे वानप्रस्थ-आश्रममें रहते हुए तपस्याद्वारा पापोंको रीतिसे वानप्रस्थ- आश्रममें रहते हुए तपस्याद्वारा पापोंको भस्म करके, विधिपूर्वक संन्यास ले चौथे आश्रममें प्रवेश करे । पहले यत्नपूर्वक देवताओं, ऋषियों और अपने पितरोंके लिये दिव्य श्राद्ध-सामग्रीका दान करे; इसी प्रकार ऋषियों, मनुष्यों तथा अपने लिये भी श्राद्धीय वस्तुका दान करे । फीर वैश्वानर अथवा प्राजापत्य याग करके, मन्त्रपाठपूर्वक अपने अन्तः करणमें अग्निस्थापन करके संन्यासी हो, वहाँसे चला जाय । उस दिनसे पुत्र आदिके प्रति आसक्तिको और सुख-लोभ आदिको त्याग दे । पृथ्वीपर समस्त प्राणियोंको अभय देनेके निमित्त जलकी अञ्जलि दे । वेणु ( बाँस ) – का बना हुआ त्रिदण्ड धारण करे ,जो सुन्दर और त्वचायुक्त हो, उसके पोर बराबर हों, काली गौके बालोंकी रस्सीसे वह चार अमगुलतक लपेटा गया हो । अथवा वह दण्ड तीन गाँठोंसे युक्त हो, उसे जलसे पवित्र करके धारण करे । मन्त्रवेत्ता पुरुषको चाहिये कि वह मन्त्रपाठपूर्वक ही उस दण्डको दायें हाथमें ग्रहण करे ॥१ – ७॥

 

कौपीन ( लँगोटी ), चादर, जाड़ा दूर करनेवाली एक गुदड़ी तथा खड़ाऊँ-इन्हीं वस्तुओंको अपने पास रखे, अन्य वस्तुओंका संग्रह न करे । संन्यासीके ये ही चिह्न बताये गये हैं । इन वस्तुओंका धर्मतः संग्रह करके संन्यासी पुरुष उत्तम तीर्थमें जा, स्नान करके विधिवत् आचमन करे । स्त्रानके बाद भीगे वस्त्रके जलसे सूर्यदेवका मन्त्रपाठपूर्वक तर्पण करके उन्हें प्रणाम करे । फिर पूर्वाभिमुख बैठकर, मौन हो, तीन प्राणायाम-पूरक, कुम्भक और रेचक करे तथा यथाशक्ति गायत्रीका जप्त करके परब्रह्मका ध्यान करे । शरीरकी स्थिति ( रक्षा ) – के लिये प्रतिदिन भिक्षाटन करे । यतिको चाहिये कि संध्याके समय ब्राह्मणोंके घरोंपर भिक्षाके लिये भ्रमण करे ॥८ – १२॥

 

जितने अन्नकी उसे उस समय आवश्यकता हो, उतनी ही भिक्षा माँगे । फिर लौटकर उस भिक्षापात्रपर जलके छीटे देकर संयमी यति स्वयं भी आचमन करे । इसके बाद उस अन्नपर भी जलके छीटे देकर, उसे सूर्य आदि देवताओंको निवेदन कर, पत्तेके दोने या पत्तलमें रखकर, वह संन्यासी पुरुष मौनभावसे भोजन करे । वट, पीपल, जलकुम्भी और तिन्दुकके पत्तोंपर तथा कोविदार और करंजके पत्तोंपर भी कभी भोजन न करे । भोजन समाप्त करके मुँह-हाथ धो, आचमन करके, प्राणवायुको रोक, सूर्यदेवको प्रणाम करे । नैत्यिक नियमोंके बाद जितना दिन शेष रहे, उसे संन्यासी पुरुष जप, ध्यान और इतिहास-पाठ आदिके द्वारा व्यतीत करे । काँसेके पात्रमें भोजन करनेवाले सभी यति ‘ पलाश ‘ कहलाते हैं । यदि संन्यासी काँसेका पात्र रखे तो वह गृहस्थके ही समान हैं; क्योंकि गृहस्थका भी तो वैसा ही पात्र होता है । काँसेके पात्रमें भोजन करनेवाला यति समस्त पापोंका भागी होता है । यति जिस काष्ठ या मिट्टी आदिके पात्रमें एक बार भोजन कर चुका है, उसे धोकर पुनः उसमें मन्त्रपाठपूर्वक भोजन कर सकता है; उसका वह पात्र यज्ञ-पात्रोंके समान कभी दूषित नहीं होता । इसके बाद यथासमय संध्याकलिक नियमोंका पालन करके देवमन्दिर आदिमें रात्रि व्यतीत करे और अपने हदय-कमलके आसनपर भगवान् नारायणका ध्यान करे । यों करनेसे वह यति उस परमपदको प्राप्त होता है, जहाँ जाकर पुनः लौटना नहीं पड़ता ॥१३ – १७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ यतिधर्मका वर्णन ‘ नामक साठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६०॥

अध्याय - ६१ योगसार

श्रीहारीत मुनि कहते हैं – मुनियों ! मैंने चारों वर्णो और चारों आश्रमोंके धर्मका स्वरुप बतलाया, जिसके पालनसे उपर्युक्त ब्राह्मणादि वर्णके लोग स्वर्ग और मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं ।

 

अब मैं संक्षेपमें योगशास्त्रका उत्तम सारांश वर्णन करुँगा, जिसके अभ्याससे मुमुक्षु पुरुष इसी जन्ममें मोक्षको प्राप्त हो जाते हैं ॥१ – २॥

 

योगाभ्यासपरायण पुरुषके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, अतः कर्यव्य कर्मसे अवकाश मिलनेपर प्रतिदिन योगनिष्ठ होकर ध्यान करना चाहिये । पहले प्राणायामके द्वारा वाणीको, प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको और धारणाके द्वारा दुर्धर्ष मनको वशमें करे । तत्पश्चात् जो सबके एकमात्र कारण, ज्ञानानन्दस्वरुप, अनामय और सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म तत्त्व हैं, उन जगदाधार अच्युतका ध्यान करे । एकान्त स्थानमें अकेले बैठकर अपने हदयमें कमलके आसनपर विराजमान, तपाये हुए सुवर्णके समान कान्तिमान् अपने आत्मस्वरुप भगवानका चिन्तन करे । जो सबके प्राणों और चित्तकी चेष्टाओंको जानता है, सभीके हदयमें विराजमान है तथा समस्त प्राणियोंद्वारा जाननेयोग्य है – वह परमात्मा मैं ही हूँ, ऐसी भावना करे । जबतक आत्मसाक्षात्कारजन्य सुखकी प्रतीति हो, तभीतक ध्यान करना आवश्यक बताया गया है । उसके उपरान्त श्रौत और स्मार्त कर्मोंका आचरण सुचारुरुपसे करे ॥३ – ८॥

 

जैसे रथके बिना घोड़े और घोड़ोंके बिना रथ उपयोगी नहीं हो सकते, उसी प्रकार तपस्वीके तप और विद्याकी सिद्धि भी एक-दूसरेके आश्रित हैं । जिस प्रकार अन्न मधु ( चीनी आदि )-से युक्त होनेपर मीठा होता है और मधु भी अन्नके साथ ही सुस्वादु प्रतीत होता है, उसी प्रकार तप और विद्या-दोनों साथ रहकर ही भवरोगके महान् औषध होते हैं । जिस प्रकार पक्षी दोनों पंखोंसे ही उड़ सकते हैं, उसी प्रकार ज्ञान और कर्म-दोनोंसे ही सनातन ब्रह्मकी प्राप्ति हो सकती है । विद्या और तपसे सम्पन्न योगतत्पर ब्राह्मण दैहिक द्वन्द्वोंको शीघ्र ही त्यागकर भवबन्धनसे मुक्त हो जाता है । जबतक देवयानमार्गसे जाकर जीवको परमपदकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक लिङ्गशरीरका विनाश कभी हो नहीं सकता ।

 

द्विजवरो ! इस प्रकार वर्णों और आश्रमोंके विभागपूर्वक मैंने उन आश्रमोंके सम्पूर्ण सनातन धर्मका संक्षेपसे वर्णन कर दिया ॥९ – १४॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – इस प्रकार हारीत मुनिके मुखसे स्वर्ग और मोक्षरुप फलको देनेवाले धर्मका वर्णन सुनकर वे ऋषिगण उन मुनीश्वरको प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थानको चले गये । जो भी हारीत मुनिके मुखसे निर्गत इस धर्मशास्त्रका श्रवण करके इसके अनुसार आचरण करता है वह परमगतिको प्राप्त होता है ।

 

नरेश्वर ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके जो-जो कर्म बताये गये हैं, उन-उन अपने-अपने वर्णोचित कर्मोंका पालन करनेवाले ब्राह्मण आदि सद्गतिको प्राप्त होते हैं; इसके विपरीत आचरण करनेवाला पुरुष तत्काल नीचे गिर जाता है । जिसके लिये जो धर्म बताये गये हैं, वह पुरुष उन्हीं धर्मोंसे प्रतिष्ठित होता है । इसलिये आपत्तिकालके अतिरिक्त सदा ही अपने धर्मका पालन करना चाहिये ।

 

राजेन्द्र ! चार ही वर्ण और चार ही आश्रम हैं । जो लोग अपने वर्ण एवं आश्रमके उचित धर्मका पूर्णतया पालन करते हैं, वे परम गतिको प्राप्त होते हैं । भगवान् नरसिंह जिस प्रकार स्वधर्मका आचरण करनेसे मनुष्यपर प्रसन्न होते हैं, वैसे दूसरे प्रकारसे नहीं; इसलिये वर्णधर्मके अनुसार भगवान् नरसिंहका पूजन करना चाहिये । जो पुरुष स्वकर्ममें तत्पर रहकर उत्पन्न हुए वैराग्यके बलसे योगाभ्यासपूर्वक सदा सच्चिदानन्दस्वरुप अनादि ब्रह्मका ध्यान करता है, वह देह त्यागकर साक्षात् श्रीविष्णुपदको प्राप्त होता है ॥१५ – २२॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ योगाध्याय ‘ नामक इकसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६१॥

अध्याय - ६२ श्रीविष्णुपूजनके वैदिक मन्त्र और स्थान

श्रीमार्कण्डेयजी कहते हैं – राजन् ! मैंने तुम्हें वर्णों और आश्रमोंका स्वरुप बताया । राजेन्द्र ! अब कहो, तुम्हारे मनमें क्या सुननेकी इच्छा है ॥१॥

 

सहस्त्रानीक बोले – विप्रेन्द्र ! आपने बताया कि प्रतिदिन स्नान करके अपने घरमें भगवान् अच्युतका पूजन करना चाहिये । अतः वह पूजन किस प्रकार होना चाहिये ?

 

महामुने ! जिन मन्त्रोंद्वारा और जिन आधारोंमें भगवान् विष्णुकी पूजा होती है, वे आधार और वे मन्त्र आप मुझे बताइये ॥२ – ३॥

 

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा – अच्छा, मैं अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुके पूजनकी विधि बता रहा हूँ, जिसके अनुसार पूजन करके सभी मुनिगण परम निर्वाण ( मोक्ष ) पदको प्राप्त हुए हैं । अग्निमें हवन करनेवालेके लिये भगवानका वास अग्निमें है । ज्ञानियों और योगियोंके लिये अपने-अपने हदयमें ही भगवानकी स्थिति है तथा जो थोड़ी बुद्धिवाले हैं, उनके लिये प्रतिमामें भगवानका निवास है । इसलिये अग्नि, सूर्य, हदय, स्थण्डिल ( वेदी ) और प्रतिमा – इन सभी आधारोंमें भगवानका विधिपूर्वक पूजन मुनियोंद्वारा बताया गया है । भगवान् सर्वमय हैं, अतः स्थण्डिल और प्रतिमाओंमें भी भगवत्पूजन उत्तम है ॥४ – ६ १/२॥

 

अब पूजनका मन्त्र बताते हैं ।

 

शुक्ल यजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायीमें जो पुरुषसूक्त है, उसका उच्चारण करते हुए भगवानका पूजन करना चाहिये । पुरुषसूक्तका अनुष्टुप छन्द है, जगतके कारणभूत परम पुरुष भगवान् विष्णु देवता हैं, नारायण ऋषि हैं और भगवत्पूजनमें उसका विनियोग है । जो पुरुषसूक्तसे भगवानको फूल और जल अर्पण करता है, उसके द्वरा सम्पूर्ण चराचर जगत् पूजित हो जाता है । पुरुषसूक्तकी पहली ऋचासे भगवान् पुरुषोत्तमका आवाहन करना चाहिये । दूसरी ऋचासे आसन और तीसरीसे पाद्य अर्पण करे । चौथी ऋचासे अर्घ्य और पाँचवींसे आचमनीय निवेदित करे । छठी ऋचासे स्नान कराये और सातवींसे वस्त्र अर्पण करे । आठवींसे यज्ञोपवीत और नवमी ऋचासे गन्ध निवेदन करे । दसवींचे फूल चढ़ाये और ग्यारहवीं ऋचासे धूप दे । बारहवींसे दीप और तेरहवीं ऋचासे नैवेद्य, फल, दक्षिणा अदि अन्य पूजन – सामग्री निवेदित करे । चौदहवीं ऋचासे स्तुति करके पंद्रहवींसे प्रदक्षिणा करे । अन्तमें सोलहवीं ऋचासे विसर्जन करे । पूजनके बाद शेष कर्म पहले बताये अनुसार ही पूर्ण करे । भगवानके लिये स्नान, वस्त्र, नैवेद्य और आचमनीय आदि निवेदन करे इस प्रकार देवदेव परमात्माका पूजन करनेवाला पुरुष छः महीनेमें सिद्धि प्राप्त कर लेता है । इसी क्रमसे यदि एक वर्षतक पूजन करे तो वह भक्त सायुज्य मोक्षका अधिकारी हो जाता है ॥७ – १४ १/२॥

 

विद्वान् पुरुष अग्निमें आहुतिके द्वारा, जलमें पुष्पके द्वारा, हदयमें ध्यानद्वारा और सूर्यमण्डलमें जपके द्वारा भगवान् विष्णुका पूजन करते हैं । वे भक्तजन सूर्यमण्डलमें दिव्य, अनामय, देवदेव शङ्ख-चक्र-गदाधारी भगवान् विष्णुका ध्यान करते हुए उनकी उपासना करते हैं । जो केयूर, मकराकृतिकुण्डल, किरीट, हार आदि आभूषणोंसे भूषित हो, हाथमें शङ्ख-चक्र धारण किये कमलासनपर विराजमान हैं तथा जिनके शरीरकी कान्ति सुवर्णके समान देदीप्यमान है, सूर्यमण्डलके मध्यमें विराजमान उन भगवान् नारायणका सदा ध्यान करे । जो प्रतिदिन बुद्धिमें भगवान् विष्णुकी भावना करके केवल इस ‘ ध्येयः सदा…….’ इत्यादि सूक्तका पाठमात्र ही कर लेता है, वह भगवान् विष्णुको संतुष्ट करनेवाला पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुधामको पहुँच जाता है । बिना मूल्यके ही मिलनेवाले पूजनोपचार-पत्र, पुष्प, फल और जलके सदा रहते हुए तथा एक मात्र भक्तिसे ही सुलभ होनेवाले भगवान् पुराण-पुरुषके होते हुए मनुष्यद्वारा मुक्तिके लिये प्रयत्न क्यों नहीं किया जाता ? अर्थात् उक्त सुलभ उपचारोंसे भगवानका पूजन करके लोग मोक्ष पानेके लिये यत्न क्यों नहीं करते ? ॥१५ – १९॥

 

नृपवर ! इस प्रकार यह परमपुरुष भगवान् विष्णुकी पूजा-विधि आज मैंने तुम्हें बतायी है । यदि तुम्हें वैष्णवपद प्राप्त करनेकी इच्छा हो तो इस विधिके द्वारा सदा भगवान विष्णुकी पूजा करो ॥२०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ भगवान् विष्णुकी पूजा – विधि ‘ नामक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६२॥

अध्याय - ६३ अष्टाक्षर-मन्त्र के प्रभावसे इन्द्रका स्वीयोनिसे उद्धार

सहस्त्रानीक बोले – ब्रह्मन् ! इस समय आपने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुके पूजनकी यह उत्तम वैदिक विधि बतायी, वह बिलकुल ठीक है; परंतु

 

ब्रह्मन् ! इस विधिसे तो केवल वेदज्ञ पुरुष ही मधुसूदनकी पूजा कर सकते हैं, दूसरे लोग नहीं; इसलिये आप ऐसी कोई विधि बताइये, जो सबके लिये उपयोगी हो ॥१ – २॥

 

श्रीमार्कण्डेयजी बोले – मनुष्यको चाहिये कि वह अष्टाक्षर मन्त्रसे निरामय देवेश्वर भगवान् नरसिंहका गन्ध पुष्प आदि उपचारोंद्वारा प्रतिदिन पूजन करे ।

 

राजन् ! यह अष्टाक्षर मन्त्र समस्त पापोंको हर लेनेवाला, समस्त यज्ञोंका फल देनेवाला, सब प्रकारकी शान्ति प्रदान करनेवाला एवं परम शुभ है । मन्त्र यों हैं – ‘ ॐ नमो नारायणाय ।’ इसी मन्त्रसे गन्ध आदि समस्त सामग्रियोंको अर्पित करे । इस मन्त्रसे पूजा करनेपर भगवान् विष्णु तत्काल प्रसन्न होते हैं । मनुष्यके लिये अन्य बहुत-से मन्त्रों और व्रतोंकी क्या आवश्यकता है । केवल ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – यह मन्त्र ही समस्त मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है । जो स्त्रानादिसे पवित्र होकर एकाग्रचितसे इस मन्त्रका जप करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके सायुज्यको प्राप्त होता है ॥३ – ७॥

 

नरेश्वर ! शान्तभावसे भगवान् विष्णुका पूजन करना ही सब तीर्थों और यज्ञोंका फल हैं तथा सम्पूर्ण तीर्थोंसे बढ़कर पवित्र है । अतः

 

नरेश्वर ! तुम प्रतिमा आदिमें विधिपूर्वक भगवानका पूजन करो और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको दान दो ।

 

नृपश्रेष्ठ ! यों करनेसे भक्त पुरुष उस तेजोमय वैष्णवधामको प्राप्त होते है, जिसकी मुमुक्षुलोग सदा अभिलाषा किया करते हैं ।

 

राजन् ! पूर्वकालमें इन्द्र धर्मके विपरीत आच रण करके तृणबिन्दु मुनिके शापसे स्त्री-योनिको प्राप्त हो गये थे; परंतु इस अष्टाधर मन्त्रका जप करनेसे वे पुनः उस योनिसे मुक्त हो गये ॥८ – १०॥

 

सहस्त्रानीक बोले – भूमिदेव ! देवराज इन्द्रको जो पाप एवं शापसे छुटकारा मिला, उस प्रसङ्गका वर्णन कीजिये । उन्होंने कौन-सा अधर्म किया था और किस कारण स्त्रीयोनिको प्राप्त हुए – वह भी बताइये ॥११॥

 

श्रीमार्कण्डेयजीने कहा – राजेन्द्र ! सुनो, यह उपाख्यात बहुत बड़ा तथा कौतूहलसे भरा हुआ है । जो लोग इसे सुनते और पढ़ते हैं उनके हदयमें यह आख्यान विष्णुभक्ति उत्पन्न करता है ॥१२॥

 

पूर्वकालकी बात है, एक समय देवलोकका राज्य भोगते हुए इन्द्रके लिये उनका वह राज्य ही ब्राह्म वस्तुओंमें वैराग्यका कारण बन गया । उस समय इन्द्रका स्वभाव राज्य-कार्यो और भोगोंके प्रति विषम ( वैराग्यपूर्ण ) हो गया । वै सोचने लगे-‘ यह निश्चित हैं कि विरक्त हदयवाले पुरुषोंकी दृष्टिमें स्वर्गका राज्य कुछ भी महत्त्व नहीं रखता । राज्यका सार है-विषयोंका भोग तथा भोगके अन्तमें कुछ भी नहीं रह जाता । यही सोचकर मुनिगण सदा ही मोक्षघिकारके विषयमें ही विचार करते हैं । लोगोंकी सदा भोगके लिये ही तपमें प्रवृत्ति हुआ करती है और भोगके अन्तमें तप नष्ट हो जाता है । परंतु जो लोग मैत्री आदिके द्वरा विषय-सम्पर्कसे विमुख हो गये हैं, उन मोक्षभागी पुरुषोंको न तपकी आवश्यकता होती है न योगकी ।’ इन सब बातोंका विचार करके देवराज इन्द्र क्षुद्रघण्टिकाओंकी ध्वनिसे युक्त विमानपर आरुढ़ हो भगवान् शंकरही आराधनाके लिये कैलासपर्वतपर चले आये । उस समय उनके मनमें एकमात्र मोक्षकी कामना रह गयी थी ॥१३ – १७॥

 

कैलासपर रहते समय इन्द्र एक दिन घूमते हुए मानससरोवरके तटपर आये । वहाँ उन्होंने पार्वतीजिके युगलचरणारविन्दोंका पूजन करती हुई यक्षराज कुबेरकी प्राणवल्लभा चित्रसेनाको देखा । जो कामदेवके महान् रथकी ध्वजा-सी जान पड़ती थी । उत्तम ‘ जाम्बूनद ‘ नामक सुवर्णके समान उसके अङ्गोंकी दिव्य कान्ति थी । आँखें बड़ी-बड़ी और मनोहर थीं, जो कानके पासतक पहुँच गयी थीं । महीन साड़ीके भीतरसे उसके मनोहर अङ्ग इस प्रकार झलक रहे थे, मानो कुहासेके भीतरसे चन्द्रलेखा दृष्टिगोचर हो रही हो । अपने हजार नेत्रोंसे उस देवीको इच्छानुसार निहारते ही इन्द्रका हदय कामसे मोहित हो गया । उस समय वे दूरके रास्तेपर स्थित अपने आश्रमपर नहीं गये और सम्पूर्ण मनोरथोंको मनमें लिये देवराज इन्द्र विषयाभिलाषी हो खड़े हो गये । वे सोचने लगे- ‘ पहले तो उत्तम कुलमें जन्म पा जाना ही बहुत बड़ी बात है, उसके बाद सर्वाङ्ग-सौन्दर्य और उसपर भी धन तो सर्वथा ही दुर्लभ है । इन सबके बाद धनाधिप ( कुबेर ) होना तो पुण्यसे ही सम्भव हैं । मैंने इन सबसे बड़े स्वर्गके आधिपत्यको प्राप्त किया है, फिर भी मेरे भाग्यमें भोग भोगना नहीं बदा है । मेरे चित्तन्में ऐसी दुर्बुद्धि आ गयी है कि मैं स्वर्गका सुखभोग छोड़कर यहाँ मुक्तीकी इच्छासे आ पड़ा हूँ । मोक्ष – सुख तो इस राज्य-भोगद्वारा मोह लिया जा सकता है, परंतु क्या मोक्ष भी राज्य-प्राप्तिका कारण हो सकता है ? भला, अपने द्वारपर पके अन्नसे युक्त खेतको छोड़कर कोई जंगलमें खेती करने क्यों जायगा जो सांसारिक दुःखसे मारे-मारे फिरते हैं और कुछ भी करनेकी शक्ति नहीं रखते, वे ही अकर्मण्य, भाग्यहीन एवं मूढजन मोक्षमार्गकी इच्छा करते हैं ‘ ॥१८ – २४॥

 

इन सब बातोंपर बारंबार विचार करके देवेश्वरोंके चक्रवर्ती सम्राट बुद्धिमान् वीरवर इन्द्र कुबेरपत्नी चित्रसेनाके रुपपर मोहित हो गये । समस्त मानसिक वेदनाओंसे व्याकुल हो, धैर्य खोकर वे कामदेवका स्मरण करने लगे । इन्द्रके स्मरण करनेपर अत्यन्त कामनाओंसे व्याप्त चित्तवृत्तिवाला कामदेव बहुत धीरे – धीरे डरता हुआ वहाँ आया; क्योंकि वही पूर्वकालमें शंकरजीने उसके शरीरको जलाकर भस्म कर दिया था । क्यों न हो, प्राणसंकटके स्थानपर धीरतापूर्वक और निर्भय होकर कौन जा सकता है ? कामदेवने आकर कहा – ‘ नाथ ! मुझसे जो कार्य लेना हो, आज्ञा कीजिये; बताइये तो सही, इस समय कौन आपका शत्रु बना हुआ है ? शीघ्र बताइये, विलम्ब न कीजिये; मैं अभी उसे आपत्तिमें डालता हूँ ‘ ॥२५ – २७॥

 

उस समय कामदेवके उस मनोभिराम वचनको सुनकर मन-ही-मन उसपर विचार करके इन्द्र बहुत संतुष्ट हुए । अपने मनोरथको सहसा सिद्ध होते जान वीरवर इन्द्रने हँसकर कहा – ‘ कामदेव ! अनङ्ग बन जानेपर भी तुमने जब शंकरजीको भी आधे शरीरका बना दिया, तब संसारमें दूसरा कौन तुम्हारे उस शराघातकी सह सकता है ?

 

अनङ्ग ! जो गिरिजापूजनमें एकाग्रचित्त होनेपर भी मेरे मनको निश्चय ही मोहे लेती है, उस विशाल नयनोंवाली सुन्दरीको तुम एकमात्र मेरे अङ्ग-सङ्गकी सरस भावनासे युक्त कर दो ‘ ॥२८ – ३०॥

 

अपने कार्यको अधिक महत्त्व देनेवाले सुरराज इन्द्रके यों कहनेपर उत्तम बुद्धिवाले कामदेवने भी अपने पुष्पमय धनुषपर बाण रखकर मोहन-मन्त्रका स्मरण किया । तब कामदेवद्वारा पुष्पबाणसे मोहित की हुई वह बाला अपने सम्पूर्ण अङ्गमें मदके उद्रेकसे विह्वल हो गयी और पूजा छोड़ इन्द्रकी ओर देखकर मुस्काने लगी । भला, कामदेवके धनुषकी टंकार कौन सह सकता है ॥३१ – ३२॥

 

इन्द्र उसको अपनी ओर निहारते देखकर यह वचन बोले – ‘ चञ्चल नेत्रोंवाली बाले ! तुम कौन हो, जो पुरुषोंके मनको इस प्रकार मोहे लेती हो ? बताओ तो, तुम किस पुण्यात्माकी पत्नी हो ? ‘ इन्द्रके इस प्रकार पूछनेपर उसके अङ्ग मदसे विह्वल हो उठे । शरीरमें रोमाञ्च, स्वेद और कम्प होने लगे । वह कामबाणसे व्याकुल हो गदगदकण्ठसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोली – ‘

 

नाथ ! मैं धनाधिप कुबेरकी पत्नी एक यक्षकन्या हूँ । पार्वतीजीके चरणोंकी पूजा करनेके लिये यहाँ आयी थी । आप अपना कार्य बताइये; आप कौन हैं ? जो साक्षात् कामदेवके समान रुप धारण किये यहाँ खड़े हैं ?’ ॥३३ – ३५॥

 

इन्द्र बोले – प्रिये ! मैं स्वर्गका राजा इन्द्र हूँ । तुम मेरे पास आओ और मुझे अपनाओ तथा चिरकालतक मेरे अङ्ग-सङ्गके लिये शीघ्र ही उत्सुकता धारण करो । देखो, तुम्हारे बिना मेरा यह जीवन और स्वर्गका विशाल राज्य भी व्यर्थ हो जायगा ॥३६॥

 

इन्द्रने मधुर वाणीमें जब इस प्रकार कहा, तब उसका सुन्दर शरीर कामवेदनासे पीड़ित होने लगा और वह फहराती हुई पताकाओंसे सुशोभित विमानपर आरुढ हो देवराजके कण्ठसे लग गयी । तब स्वर्गके राजा इन्द्र शीघ्र ही उसके साथ मन्दराचलकी उन कन्दराओंमें चले गये, जहाँका मार्ग देवता और असुर-दोनोंकी ही दृष्टिमें नहीं आया था और जो विचित्र रत्नोंकी प्रभासे प्रकाशित थीं । आश्चर्य है कि देवताओंके राज्यके प्रति आदर न रखते हुए भी वे उदारपराक्रमी इन्द्र उस सुन्दरी यक्ष-बालाके साथ वहाँ रमण करने लगे तथा कामके वशीभूत हो परम चतुर इन्द्रने अपने हाथों चित्रसेनाके लिये शीघ्रतापूर्वक छोटीसी पुष्पशय्या तैयार की । कामोपभोगमें परम चतुर देवराज इन्द्र चित्रसेनाके समागमसे कृतार्थताका अनुभव करने लगे । स्त्रेहरससे अत्यन्त मधुर प्रतीत होनेवाला वह परस्त्रीके आलिङ्गन और समागमका सुख उन्हें मोक्षसे भी बढ़कर जान पड़ा ॥३७ – ४०॥

 

इधर, इन्द्र जब चित्रसेनाको लेकर मन्दराचलपर चले आये, तब उसकी सङ्गिनी स्त्रियाँ उसे साथ लिये बिना ही यक्षराज कुबेरके समीप वेगपूर्वक आयीं । वे दुस्साहससे अनभिज्ञ थीं, अतः घबराहटके कारण उनके सारे शरीरमें व्यथा हो रही थी । वे गद्गद कण्ठसे बोलीं – ‘

 

यक्षपते ! निश्चय ही आप हमारी यह बात सुनें – आपकी भार्या चित्रसेनाको किसी अज्ञात पुरुषने पकड़कर विमानपर बिठा लिया और चारों ओर सशङ्कदृष्टिसे देखता हुआ वह चोर बड़े वेगसे कहीं चला गया हैं ॥४१ – ४२॥

 

विषके समान दुस्सह प्रतीत होनेवाली इस बातको सुननेसे धनाधिप कुबेरका मुँह काला पड़ गया । वे अग्निसे जले हुए वृक्षके समान हो गये । उस समय उनके मुखसे कोई बात नहीं निकली । इसी समय चित्रसेनाकी सहचरी श्रेष्ठ यक्ष-कन्याओंसे यह समाचार जानकर कुबेरका मन्त्री कण्ठकुब्ज भी अपने स्वामीका मोह दूर करनेके विचारसे वहाँ आया । उसका आगमन सुन राजराज कुबेरने आँखें खोलकर उसकी ओर देखा और लंबी साँस खींचते हुए अपने चित्तको यथासम्भव शीघ्र सँभालकर वे दीनभावसे बोले । उस समय उनका शरीर अत्यन्त कम्पित हो रहा था ॥४३ – ४५॥

 

वे कहने लगे – ‘ वही यौवन सफल है, जिससे युवतीका मनोरञ्जन हो सके; धन भी वही सार्थक है, जो आत्मीय जनोंके उपयोगमें आ सके । जीवन वह सफल है, जिससे सद्धर्म किया जाय और प्रभुत्व वही सार्थक है, जिसमें युद्ध और कलहके मूल नष्ट हो गये हों । इस समय मेरे इस विपुल धनको, गुह्यकोंके इस विशाल राज्यको और मेरे इस जीवनको भी धिक्कार है ! अभीतक मेरे इस अपमानको कोई नहीं जानता; अतः इसी समय अग्निमें जल मरुँगा । पीछे यदि इस समाचारको लोग जान भी लें ते क्या ? मृत पुरुषोंका क्या अपमान होगा ? हा ! वह मानससरोवरके तटपर गिरिजा-पूजनके लिये गयी थी । यहाँ निकट ही था और जीवित भी रहा; तो भी किसीने उसे हर लिया । हम नहीं जानते वह कौन है । मैं समझता हूँ, अवश्य हे उस दुष्टको मृत्युका भय नही हैं ‘ ॥४६ – ४८॥

 

स्वामीकी यह बात सुनकर उनका मोह दूर करनेके लिये कुबेरके उस मन्त्री कण्ठकुब्जने यह वचन कहा – ‘ नाथ ! सुनिये, स्त्रीके वियोगमें शरीर-त्याग करना आपके लिये उचित नहीं है । पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी एकमात्र पत्नी सीताको भी निशाचर रावणने हर लिया था, परंतु श्रीरामचन्द्रजीने प्राण नहीं त्यागा । आपके यहाँ तो अनेक स्त्रियाँ हैं, फिर आप मनमें यह कैसा विषाद ला रहे हैं ?

 

यक्षराज ! शोक त्यागकर पराक्रममें मन लगाइये; धैर्य धारण कीजिये । साधु पुरुष बहुत बातें नहीं बनाते और न बैठकर रोते ही हैं; वे दूसरोंके द्वारा परोक्षमें किये हुए अपने अपमानको उस समय चुपचाप सह लेते हैं ।

 

वित्तपते ! महापुरुष समय आनेपर महान् कार्य कर दिखाते हैं । आपके तो अनेक सहायक हैं, आप क्यों कातर हो रहे हैं ? इस समय तो आपके छोटे भाई विभीषण स्वयं ही आपकी सहायता कर रहे हैं ॥४९ – ५२॥

 

कुबेर बोले – विभीषण तो मेरे विपक्षी ही बने हुए हैं, वे अब भी मेरे साथ कौटुम्बिक विरोधका त्याग नहीं करते । यह निश्चित बात है कि दुर्जन पुरुष उपकार करनेपर भी प्रसन्न नहीं होते, वे इन्द्रके वज्रके सदृश कठोर होते हैं । सगोत्रका मन उपकारोंसे, गुणोंसे अथवा मैत्रीसे भी प्रायः प्रसन्न नहीं होता ॥५३ १/२॥

 

यह सुनकर कण्ठकुब्जने कहा – ‘ धनाधिनाथ ! आपने ठीक कहा है । विरोध होनेपर सगोत्र पुरुष अवश्य ही परस्पर घात-प्रतिघात करते हैं, तथापि लोकमें उनका पराभव नहीं देखा जाता; क्योंकि कुटुम्बीजन दूसरेके द्वारा किये हुए अपने बन्धुजनके अपमानको नहीं सह सकते । जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे तप्त हुआ जल अपने भीतरके तृणोंको नहीं जलाता, उसी प्रकार दूसरोंसे अपमानित कुटुम्बी जन अपने पार्श्ववती बन्धुओंको नहीं सताते । इसलिये

 

धनाधिप ! आप बहुत शीघ्र विभीषणके पास चलिये । जो लोग अपने बाहुबलसे उपार्जित धनका उपभोग करते हैं, उन्हें भाई-बन्धुओंके साथ क्या विरोध हो सकता है ‘ ॥५४ – ५६॥

 

अपने मन्त्री कण्ठकुब्जके इस प्रकार कहनेपर कुबेर मन-ही-मन उसपर विचार करते हुए शीघ्र ही विभीषणके पास गये । लङ्कापति विभीषणने जब अपने ज्येष्ठ भ्राताका आगमन सुना, तब उन्होंने बड़ी विनयके साथ उनकी अगवानी की ।

 

राजन् ! फिर विभीषणने अपने भाईको जब दीनदशामें देखा, तब उन्होंने मन-ही-मन दुःखी होकर उनसे यह महत्त्वपूर्ण बात कही ॥५७ – ५९॥

 

विभीषण बोले – ‘ यक्षराज ! आप दीन क्यों हो रहे हैं ? आपके मनमें क्या कष्ट है ? इस समय आप उस कष्टको मुझे बताइये । मैं निश्चय ही उसका मार्जन करुँगा ‘ तब कुबेरने एकान्तमें जाकर विभीषणसे अपनी मनोवेदना बतलायी ॥६० १/२॥

 

कुबेर बोले – भाई ! कुछ दिनोंसे मैं अपनी मनोरमा भार्या चित्रसेनाको नहीं देख रहा हूँ । न जाने उसे किसीने पकड़ लिया वह स्वयं किसीके साथ चली गयी अथवा किसी शत्रुने उसे मार डाला । बन्धो ! मुझे अपनी स्त्रीके वियोगका महान् कष्ट हो रहा है । यदि वह प्राणवल्लभा न मिली तो मैं अपने प्राण त्याग दूँगा ॥६१ – ६२ १/२॥

 

विभीषण बोले – ‘ प्रभो ! आपकी भार्या जहाँ कहीं भी होगी, मैं उसे ला दूँगा ।

 

नाथ ! इस समय संसारमें किसकी सामर्थ्य है जो हमारा तृण भी चुरा सके ।’ यह कहकर विभीषणने नाना प्रकारकी मायाके ज्ञानमें बढ़ी-चढ़ी ‘ नाडीजङ्घा ‘ नामकी निशाचरीसे बहुत कुछ कहा और बताया – ” कुबेरकी जो ‘ चित्रसेना ‘ नामकी पत्नी है, वह एक दिन जब मानससरोवरके तटपर थी, तभी वहाँसे किसीने उसे हर लिया । तुम इन्द्र आदि लोकपालोंके भवनोंमें देखकर उसका पता लगाओ ” ॥६३ – ६६॥

 

भूप ! तब वह निशाचरी मायामय शरीर धारणकर इन्द्रादि देवताओंके भवनोंमें खोज करनेके लिये शीघ्र ही स्वर्गलोकमें गयी । उस निशाचरीने ऐसा सुन्दर रुप बनाया था, जिसकी एक ही दृष्टि पड़नेसे पत्थर भी मोहित हो सकता था । अवश्य ही उस समय वैसा मोहन रुप चराचर जगतमें कहीं नहीं था ।

 

भूपते ! इसी समय देवराज इन्द्र भी चित्रसेनाके भेजनेसे उतावलीके साथ नन्दनवनके दिव्य पुष्प लेनेके लिये मन्दराचलसे स्वर्गलोकमें आये थे । वहाँ अपने स्थानपर आयी हुई देख देवराज भी कामके वशीभूत हो गये । तब देवे न्द्रने उसे जैसे भी हो, अपने अन्तः पुरमें बुला लानेके लिये देववैद्य अश्विनीकुमारोंको उसके पास भेजा । दोनों अश्विनीकुमार उसके सामने जाकर खड़े हुए और कहने लगे – ” कृशाङ्गि ! आओ, देवराज इन्द्रके निकट चलो ।” उन दोनोंके द्वारा यों कही जानेपर उस सुन्दरीने मधुर वाणीमें उत्तर दिया ॥६७ – ७३ १/२॥

 

नाडीजङ्घा बोली – यदि देवराज इन्द्र स्वयं ही मेरे पास आयेंगे तो मैं उनकी बात मान सकती हूँ; अन्यथा बिलकुल नहीं ॥७४ १/२॥

 

तब अश्विनीकुमारोंने इन्द्रके पास जाकर उसका शुभ संदेश कहा ॥७५॥

तब इन्द्र स्वयं आकर बोले – कृशाङ्गि ! आज्ञा दो, मैं इस समय तुम्हारा कौन-सा कार्य करुँ ? मैं सदाके लिये तुम्हारा दास हो गया हूँ; तुम जो कुछ माँगोगी, वह सब दूँगा ॥७६॥

 

कृशाङ्गीने कहा – नाथ ! यदि आप मेरी माँगी हुई वस्तु अवश्य दे देंगे, तो निः संदेह मैं आपकी वशवर्तिनी हो जाऊँगी । आज आप अपनी समस्त भार्याओंको मुझे दिखाइये; देखूँ आपकी कोई भी स्त्री मेरे रुपके सदृश है या नहीं ? ॥७७ – ७८॥

 

उसके यों कहनेपर इन्द्रने पुनः कहा – ” देवि ! चलो, मैं तुम्हें अपनी समस्त भार्याओंको दिखाऊँगा ।” यह कहकर इन्द्रने उसी समय उसे अपना सारा अन्तः पुर दिखाया । तब उस सुन्दरीने पुनः कहा – ‘ अभी मुझसे कुछ छिपाया गया है । केवल एक युवतीको छोड़कर और सब कुछ आपने दिखा दिया ‘ ॥७९ – ८० १/२॥

 

इन्द्रने कहा – ” वह रमणी मन्दराचलपर है । देवता और असुर-किसीको भी उसका पता नहीं है । मैं उसे भी तुम्हें दिखा दूँगा, परंतु यह रहस्य किसीपर प्रकट न करना ।”

 

भूपाल ! यह कहकर देवराज इन्द्र इन्द्र उसके साथ आकाशमार्गसे मन्दराचलकी ओर चले । जिस समय वे सूर्यके समान कान्तिमान् विमानसे चले जा रहे थे, उसी समय उन्हें आकाशमें देवर्षि नारदका दर्शन हुआ । नारदजीको देखकर वीरवर इन्द्र यद्यपि लज्जित हुए, तथापि उन्हें नमस्कार करके पूछा – ‘

 

महामुने ! आप कहाँ जायँगे ?’ ॥८१ – ८४ १/२॥

 

तब मुनिवर नारदजीने आशीर्वाद देते हुए स्वर्गाधिपति इन्द्रसे कहा – ‘ देवराज ! आप सुखी हों, मैं इस समय मानससरोवरपर स्त्रान करने जा रहा हूँ ।’ [ फिर उन्होंने नाडीजङ्घाको पहचानकर कहा – ] ‘

 

नाडीजङ्घे ! कहो तो महात्मा राक्षसोंका कुशल तो है न ? तुम्हारे भाई विभीषण तो सुखपूर्वक हैं न ?’ नारदजीकी यह बात सुनते ही उसका मुख भयसे काला पड़ गया । देवराज इन्द्र भी बहुत आश्चर्यमें पड़े और मन-ही-मन कहने लगे – ‘ इस दुष्टाने मुझे छल लिया ।’ नारदजी भी वहाँसे कैलास पर्वतके निकट मानससरोवरमें स्त्रान करनेके लिये चले गये । तब इन्द्र भी उस राक्षसीका वध करनेके लिये मन्दराचलपर, जहाँ महात्मा तृणबिन्दुका आश्रम था, आये और वहाँ थोड़ी देरतक विश्राम करके वे उस नाडीजङ्घा राक्षसीके केश पकड़कर उसे मारना ही चाहते थे कि इतनेमें महात्मा तृणबिन्दु अपने आश्रमसे निकलकर वहाँ आ गये ॥८५ – ९० १/२॥

 

राजन् ! इधर इन्द्रके द्वारा पकड़ी जानेपर वह राक्षसी भी करुण विलाप करने लगी – ‘ हा ! मैं मारी जा रही हूँ; इस समय कोई भी पुण्यात्मा पुरुष मुझ दीनाको नहीं बचा रहा हैं ‘ ॥९१ १/२॥

 

उसी समय महातपस्वी तृणबिन्दु मुनि वहाँ आ पहुँचे और इन्द्रके सामने खड़े हो बोले – ‘ हमारे तपोवनमें इस महिलाको न मारो, छोड़ दो ‘ ॥९२ १/२॥

 

भूप ! तृणबिन्दु मुनि यों कह ही रहे थे कि महेन्द्रने क्रुद्ध होकर वज्रसे उस राक्षसीको मार ही तो डाला । तब वे मुनिवर इन्द्रकी ओर बार-बार देखते हुए बहुत ही कुपित हुए और बोले – ‘ रे दुष्ट ! तूने मेरे तपोवनमें इस युवतीका वध किया है, इसलिये तू मेरे शापसे निश्चय ही स्त्री हो जायगा ‘ ॥९३ – ९५॥

 

इन्द्र बोले – नाथ ! मैं देवताओंका स्वामी इन्द्र हूँ और यह स्त्री महादुष्टा राक्षसी थी; इसलिये मैंने इसका वध किया है । आप इस समय मुझे शाप न दें ॥९६॥

 

मुनि बोले – अवश्य ही मेरे तपोवनमें भी दुष्ट और साधु पुरुष भी रहते हैं, परंतु वे मेरी तपस्याके प्रभावसे परस्पर किसीका वध नहीं करते । ( तूने मेरे तपोवनकी मर्यादा भङ्ग की है, अतः तू शापके ही योग्य है । ) ॥९७॥

 

भूप ! मुनिके यों कहनेपर इन्द्र निःसंदेह स्त्रीयोनिको प्राप्त हो गये और पराक्रम तथा शक्ति खोकर स्वर्गको लौट आये उन्होंने सदा ही लज्जा और दुःखसे खिन्न रहनेके कारण देवताओंकी सभामें बैठना ही छोड़ दिया । इधर देवता भी इन्द्रको स्त्रीके रुपमें परिवर्तित हुआ देखकर बहुत दुःखी हुए । तत्पशात् सभी देवता और दीना शची इन्द्रको साथ लेकर ब्रह्माजीके धामको गये । तबतक ब्रह्माजी समाधिसे विरत हुए, तबतक वे सभी वहीं ठहरे रहे और इन्द्रके साथ ही सब देवता ब्रह्माजीसे बोले ॥९८ – १०१॥

 

‘ ब्रह्मन् ! सुरराज इन्द्र तृणबिन्दु मुनिके शापसे स्त्रींयोनिको प्राप्त हो गये हैं; वे मुनि बड़े क्रोधी हैं, किसी प्रकार अनुग्रह नहीं करते ‘ ॥१०२॥

 

ब्रह्माजी बोले – इसमें उन महात्मा तृणबिन्दु मुनिका कोई अपराध नहीं है । इन्द्र स्त्रीवधरुपी अपने ही कर्मसे स्त्रीभावको प्राप्त हुए हैं ।

 

देवताओ ! देवराज इन्द्रने भी महमत्त होकर बड़ा ही अन्याय किया है, जो कुबेरकी पत्नी चित्रसेनाका गुप्तरुपसे अपहरण कर लिया । यही नहीं, इन्होंने तृणबिन्दुके तपोवनमें एक युवतीका वध ही ये इन्द्र स्त्रीभावको प्राप्त हुए हैं ॥१०३ – १०५॥

 

देवगण बोले – नाथ इन्होंने दुर्बुद्धिसे प्रेरित होकर जो शंकरप्रिय कुबेरका अपमान किया है, उसके लिये हम सब लोग शचीके साथ कुबेरको प्रसन्न करनेका यत्न करेंगे । विभो ! कुबेरकी पत्नी चित्रसेना मन्दराचलपर गुप्तरुपसे रहती हैं, हम सभी लोग सम्मति करके उसे कुबेरको अर्पित कर देंगे । देवराज इन्द्र भी प्राति त्रयो दशी और राक्षसोंकी पूजा करेंगे ॥१०६ – १०८॥

 

तत्पश्चात् शची अपने प्रियमतको कष्टमें डालनेवाली चित्रसेनाको गुप्तरुपसे ले जाकर यक्षराज कुबेरके भवनमें छोड़ आयीं । इसी समय कुबेरका दूत असमयमें ही लङ्कामें पहुँचा ओर कुबेरसे चित्रसेनाके लौट आनेका समाचार सुनाया – ‘

 

हे धनाधिप ! आपकी प्रिय पत्नी चित्रसेना शचीके साथ घर लौट आयी है । वह शची-जैसी अनुपम सखीको पाकर कृतार्थ हो चुकी है । ‘ तब कुबेर भी कृतकृत्य होकर अपने घरको लौट आये । इसके बाद देवगण पुनः ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीसे प्रार्थना करने लगे ॥१०९ – १११ १/२॥

 

देवगण बोले – ब्रह्मन् ! आपकी कृपासे यह सारा काम तो हो गया- इसमें संदेह नहीं । परंतु अब जैसे पतिके बिना नारी, सेनापतिके बिना सेना और श्रीकृष्णके बिना व्रजकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार इन्द्रके बिना अमरावती सुशोभित नहीं होती ।

 

प्रभो ! अब इन्द्रके लिये कोई जप, क्रिया, तप, दान, ज्ञान और तीर्थ – सेवन आदि उपाय बताइये, जिससे स्त्रीभावसे इनका उद्धार हो सके ॥११२ – ११४॥

 

ब्रह्माजी बोले – उस मुनिके शापको अन्यथा करनेमें न तो मैं समर्थ हूँ और न भगवान् शङ्कर ही । इसके लिये एकमात्र भगवान् विष्णुके पूजनको छोड़कर दूसरा कोई उपाय भी सफल नहीं दीख पड़ता । बस, इन्द्र अष्टाक्षरमन्त्रके द्वारा भगवान् विष्णुका विधिपूर्वक पूजन करें और उस मन्त्रका जप करते रहें; इससे वे स्त्रीभावसे मुक्त हो सकते हैं ।

 

इन्द्र ! स्त्रान करके, श्रद्धायुक्त हो, आत्मशुद्धिके लिये एकाग्रचित्तसे ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – इस मन्त्रका जप करो ।

 

देवेन्द्र ! इस मन्त्रका दो लाख जप हो जानेपर तुम स्त्री-योनिसे मुक्त हो सकते हो । यह सुनकर इन्द्रने ब्रह्माजीकी आज्ञाका यथावत् पालन किया, तब वे भगवान् विष्णुकी कृपासे स्त्रीभावसे छुटकारा पा गये ॥११५ – ११८॥

 

मार्कण्डेयजी कहते हैं – राजन् ! इस प्रकार मैंने भृगुजीकी आज्ञासे तुम्हारे समक्ष परम उत्तम भगवान् विष्णुके माहात्म्यको पूर्णरुपसे सुना दिया । अब तुम आलस्य त्यागकर भगवान् विष्णुकी आराधना करो । जो लोग अखिल जगतके कारणभूत भगवान् विष्णुके पराक्रमसे सम्बन्ध रखनेवाली उनकी कथाको सुनते हैं, वे यदि परस्त्रीगामी रहे हों तो भी पापहीन एवं कल्मषरहित होकर निश्चय ही भगवान् विष्णुके परमपदको प्राप्त करते हैं ॥११९ – १२०॥

 

सूतजी कहते हैं – मुनिवर मार्कण्डेयजीके द्वारा इस तरह सम्यक् प्रकारसे उपदिष्ट होकर राजा सहस्त्रानीक भगवान् नृसिंहकी आराधना करके विष्णुके अविनाशी पदको प्राप्त हो गये । भरद्वाज मुने ! इस प्रकार मैंने आपको यह सम्पूर्ण सहस्त्रानीक – चरित्र सुनाया; इसके बाद आपसे और क्या कहूँ ? ॥१२१ – १२२॥

 

जो मानव सब प्रकारसे मोक्ष देनेवाली इस प्राचीन कथाका श्रवण करता है, वह अत्यन्त निर्मल ज्ञान प्राप्त करके उसीके द्वारा भगवान् विष्णुको प्राप्त कर लेता है ॥१२३॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणके अन्तर्गत सहस्त्रानीक – चरित्रके अन्तर्गत ‘ अष्टाक्षर – मन्त्रकी महिमाका कथन ‘ नामक तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६३॥

अध्याय - ६४ भगवद्धजनकी श्रेष्ठता और भक्त पुण्डरीकका उपाख्यान

श्रीभरद्वाजजी बोले – सूतजी ! कुछ लोग ‘ सत्य ‘ को ही पुरुषार्थका साधक बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं, दूसरे लोग ‘ तपस्या ‘ और ‘ पवित्रता ‘ को उत्तम बताते हैं । कुछ लोग ‘ सांख्य ‘ और कुछ लोग ‘ योग ‘ की प्रशंसा करते हैं । ढेले, पत्थर और सोनेको समान समझनेवाले कुछ अन्य लोग ‘ ज्ञान ‘ को ही पुरुषार्थ-साधनके लिये उत्तम मानते हैं । कुछ लोग ‘ क्षमा ‘ की प्रशंसा करते हैं तो कुछ लोग ‘ दया ‘ को उत्तम बताते हैं, कुछ लोग और ही किसी उपायको शुभ कहते हैं । दूसरे लोग ‘ सम्यगज्ञान ‘ को उत्तम मानते हैं । सांख्यतत्त्वका मर्म जाननेवाले कुछ लोग ‘ आत्माके ध्यान ‘ को श्रेष्ठ मानते हैं । इस प्रकार यहाँ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरुप चारों पुरुषार्थोंका उपाय ही नाम-भेदसे नाना प्रकारका बताया जाता है । ऐसी स्थितिमें जगतमें पापकर्मसे विमुक्त पुरुष भी कर्तव्याकर्तव्यके विषयमें कुछ निश्चय न हो सकनेके कारण मोहमें ही पड़े रहते हैं ।

 

सर्वज्ञ ! इन उपर्युक्त ‘ सत्य ‘ आदि उपायोंमें जो सबसे उत्तम उपाय हो और महात्माओंद्वारा अवश्यकर्तव्य हो, सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले उस उपायका आप हमसे वर्णन करें ॥१ – ७॥

 

सूतजी कहते हैं – संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाले इस अत्यन्त गूढ उपायको लोग सुनें । इस विषयमें महात्माजन देवर्षि नारद और भक्तवर पुण्डरीकके संवादरुप इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया करते हैम ॥८ १/२॥

 

महामती पुण्डरीकजी एक विद्वान् ब्राह्मण थे । वे सदा गुरुजनोंके वशमें रहते हुए ब्रह्मचर्य आश्रमके नियमोंका पालन करते थे । उन्होंने अपनी इन्द्रियों और क्रोधको जीत लिया था तथा वे नियमानुसार संध्योपासन किया करते थे । वेद और वेदाङ्गोंमें वे निष्णात थे तथा अन्य शास्त्रोंके भी पण्डित थे । वे प्रतिदिन समिधा एकत्रकर सायं और प्रातः काल अत्यन्त यत्नपूर्वक अग्निकी उपासना किया करते थे । साक्षात् ब्रह्मपुत्र नारदजीके समान वे सर्वव्यापी यज्ञपति भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक आराधना करते हुए स्वाध्यायमें ही लगे रहते थे । जल, ईंधन और फूल आदि आवश्यक सामान लाकर वे सदा ही गुरुजनोंको संतुष्ट रखते और उनकी अपने माता-पिताके समान शुश्रूषा किया करते थे । भिक्षा माँगकर भोजन करते थे और अपने सद्व्यवहारोंके कारण लोगोंके परम प्रिय हो गये थे । वे सदा ब्रह्मविद्याका अध्ययन और प्राणायामका अभ्यास करते रहते थे ।

 

महाराज ! समस्त पदार्थोंको वे अपना स्वरुप ही समझते थे; अतः संसारके विषयोंमें उनकी बुद्धि अत्यन्त निः स्पृह हो भवसागरसे पार उतारनेवाली हो गयी थी ॥९ – १४ १/२॥

 

भरद्वाजजी ! उनका वैराग्य यहाँतक बढ़ गया कि वे महान् उदार पुण्डरीकजी पिता, माता, भाई, पितामह, चाचा, मामा, मित्र, सम्बन्धी तथा बान्धवजनोंको तृणके समान त्यागकर, शाक और मूल-फलादिका आहार करते हुए इस पृथ्वीपर आनन्दपूर्वक विचरने लगे । उन्होंने यौवन, रुप, आयु और धन-संग्रहकी अनित्यताका विचार करते समस्त त्रिभुवनको मिट्टीके ढेलेके समान तुच्छ समझ लिया था और अपने मनमें यह निश्चय करके कि ‘ मैं पुराणोक्त मार्गसे यथासमय सभी तीर्थोंकी यात्रा करुँगा ‘, वे महाबाहु महातेजस्वी और महाव्रती पुण्डरीकजी गङ्गा, यमुना, गोमती, गण्डकी, शतद्रू, पयोष्णी, सरयू और सरस्वतीके तटपर, प्रयागमें, नर्मदा आदि हिमालयके तीर्थोंमें एवं इनके अतिरिक्त अन्यान्य तीर्थोंमें भी यथासमय विधिपूर्वक भ्रमण करते रहे । इसी तरह घूमते हुए, पुण्यकर्मोंके अधीन हो वे तपस्वी वीर महाभाग पुण्डरीक शालग्रामक्षेत्रमें जा पहुँचे ॥१५ – २२ १/२॥

 

वह तीर्थ तत्त्वज्ञानी तपस्वी ऋषियोंद्वारा सेवित था । वहाँ मुनियोंके सुरम्य आश्रम थे, जो पुराणोंमें प्रसिद्ध हैं । वह तीर्थ चक्रनदीसे भूषित है और वहाँके शिलाखण्ड भगवानके चक्रसे चिह्नित हैं । वह तीर्थ जितना ही सुरम्य था, उतना ही एकान्त । उसका विस्तार बड़ा था और वहाँ चित्त स्वतः प्रसन्न रहता था । वहाँपर कुछ चक्रसे चिह्नित प्राणी रहते थे, जिनका दर्शन बहुत ही पावन था । वहाँ पुण्यतीर्थके यात्री यथेष्ट विचरते रहते थे । उस महापवित्र शालग्रामक्षेत्रमें महामति पुण्डरीकजी प्रसन्नचित्त हो तीर्थ-सेवन करने लगे । वे नियमपूर्वक वहाँ देवहद तीर्थमें, पूर्वजन्मकी स्मृति दिलानेवाली सरस्वतीके जलमें, चक्र-कुण्डमें और चक्रनदी ( नारायणी )- के जलमें भी स्त्रान करके उसी क्षेत्रके अन्तर्गत अन्यान्य तीर्थोंमें भ्रमण करते रहते थे ॥२३ – २८॥

 

तदनन्तर उस क्षेत्रके प्रभावसे और वहाँके तीर्थोंके तेजसे उन महात्माका चित्त वहाँ बहुत ही शुद्ध एवं प्रसन्न हो गया । इस प्रकार शुद्धचित्त एवं ध्यानयोगमें तत्पर हो, वहाँ ही सिद्धिकी इच्छासे परमभक्तियुक्त हो, वे शास्त्रोक्त विधिसे जगत्पति भगवान् विष्णुकी आराधना करने लगे । अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके निर्दृद्वं रहते हुए उन्होंने अकेले ही बहुत दिनोंतक वहाँ निवास किया । वे शाक और मूलफलादिका आहार करते और सदा संतुष्ट रहते थे । उनकी सर्वत्र समान दृष्टि थी । वे यम, नियम, आसन – बन्ध, तीव्र, प्राणायाम, निरन्तर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधिके द्वारा निरालस्यभावसे भलीभाँति योगाभ्यास करते रहे इस प्रकार समस्तु पुरुषार्थोंके ज्ञाता निष्पाप महामना पुण्डरीकजीने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुमें चित्त लगाकर उनकी आराधना की और उन्हींमें मन लगाये हुए वे उनके परम अनुग्रहकी आकाङ्क्षासे भजन करने लगे ॥२९ – ३५॥

 

राजेन्द्र ! महात्मा पुण्डरीकको उस शालग्रामक्षेत्रमें निवास करते बहुत समय बीत गया । तब एक दिन साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, वैष्णवहितकारी, परमार्थवेत्ता एवं विष्णुभक्तिपरायण देवर्षि नारदजी तपोनिधि पुण्डरीक मुनिको देखनेकी इच्छासे उक्त क्षेत्रमें गये । समस्त आगमोंके ज्ञाता, महाबुद्धिमान्, महाप्राज्ञ, पूर्णतेजस्वी एवं प्रभापुञ्जसे उपलक्षित नारदजीको वहाँ आया देख पुण्डरीकके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई । उन्होंनें विनीतभावसे हाथ जोड़कर उन्हें अर्घ्य निवेदन किया, फीर यथोचित्तरुपमे उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया । तत्पश्चात् परम कान्तिमान् विप्रवर पुण्डरीकजी मन-ही-मन यह सोचने लगे कि ‘ ये अद्भुत दिव्य शरीरवाले, मनोरमवेषधारी, तेजस्वी महापुरुष कौन हैं ? अहो ! इनका मुखमण्डल कितना प्रसन्न है ! इनके मस्तकपर जटा – जूट सुशोभित हो रहा है । इन्होंने हाथमें वीणा ले रखी हैं । इस रुपमें ये साक्षात् सूर्य ही तो नहीं है ? अथवा अग्निदेव, इन्द्र और वरुणमेंसे तो कोई नहीं हैं ?’ यों सोचते हुए किसी निश्चयपर न पहुँचनेके कारण उन्होंने पूछा ॥३६ – ४२॥

 

पुण्डरीकजी बोले – परम कान्तिमान् दिव्य पुरुष ! आप कौन है और कहाँसे पधारे हैं ? इस पृथ्वीपर जिन्होंने कभी पुण्य नहीं किया है, ऐसे लोगोंके लिये आपका दर्शन प्रायः दुर्लभ ही है ॥४३॥

 

नारदजी बोले – पुण्डरीक ! मैं नारद हूँ । तुम्हारे दर्शनकी उत्कण्ठासे ही यहाँ आया हूँ । तुम-जैसा निरन्तर भगवद्भक्तिपरायण पुरुष दुर्लभ है ।

 

द्विजोत्तम ! भगवद्भक्त पुरुष यदि जातिका चण्डाल हो तो भी वह स्मरणमात्रसे, वार्तालापसे अथवा सम्मानित होकर, अथवा स्वेच्छासे ही लोगोंको पवित्र कर देता हैं; फिर तुम्हारे-जैसे भक्त ब्राह्मणके सत्सङ्गकी पावनताके विषयमें तो कहना ही क्या है ।

 

द्विज ! मैं शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले देवदेव भगवान् वासुदेवका दास हूँ ॥४४ – ४५ १/२॥

 

नारदजीके इस प्रकार अपना परिचय देनेपर उनके दर्शनसे अत्यन्त विस्मित हुए विप्रवर पुण्डरीकजी प्रेमभक्तीसे विह्वलचित्त होकर मधुर वाणीमें बोले ॥४६ १/२॥

 

पुण्डरीकजीने कहा – आज मैं समस्त देहधारियोंमें धन्य हूँ, देवताओंद्वारा भी सम्माननीय हूँ । आज मेरे पितर कृतार्थ हो गये । मेरा जन्म सफल हो गया ।

 

देवर्षे ! मैं आपका भक्त हूँ; आप मुझपर अब विशेषरुपसे अनुग्रह करें ।

 

विद्वन् ! मैं अपने पूर्वजन्मकृत कर्मोंसे प्रेरित हो संसारमें भटक रहा हूँ । बताइये, इससे छुटकारा पानेके लिये मैं क्या – क्या करुँ ? मेरे लिये जो परम कर्तव्य हो, वह गोपनीय हो तो भी आप मुझे उसका उपदेश कीजिये । मुने ! यों तो आप समस्त लोकोंको ही सहारा देनेवाले हैं, परंतु वैष्णवोंके लिये तो आप विशेषरुपसे शरणदाता हैं ॥४७ – ४९ १/२॥

 

नारदजी बोले – द्विज ! इस जगतमें अनेक शास्त्र और अनेक प्रकारके कर्म हैं । इसी तरह यहाँ अनेको प्राणी हैं और उनके लिये धर्मके मार्ग भी बहुत हैं ।

 

द्विजोत्तम ! इसीसे इस जगतमें विचित्रता दिखायी देती हैं ॥५० – ५१॥

 

कुछ लोगोंका मत है कि यह सम्पूर्ण जगत् सर्वथा अव्यक्तसे उत्पन्न होता है और समय आनेपर उसीसें लीन भी हो जाता है ।

 

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ ! कुछ अन्य तत्त्वदर्शी पुरुष आत्माको अनेक, नित्य एवं सर्वत्र व्यापक मानते हैं ।

 

अनघ ! ब्रह्मन् ! इन सब बातोंपर विचार करके नाना मतोंका ज्ञान रखनेवाले समस्त ऋषिगण अपनी बुद्धि और विद्याके अनुसार जिस सिद्धान्तका प्रतिपादन करते हैं, उसे सावधान होकर सुनो; वह सब मैं तुमसे बतलाता हूँ । यह बताया जानेवाला गोप्य परमार्थतत्त्व इस घोरतर संसारसे मुक्ति दिलानेवाला है । मनुष्योंकी दृष्टि प्रायः वर्तमान विषयोंको ही निश्चितरुपसे ग्रहण करती हैं; वह सुदूरवर्ती भूत और भविष्यको नहीं ग्रहण कर सकती । उत्तम व्रतके पालक एवं पापशून्य तात पुण्डरीक ! इस विषयमें श्रीब्रह्माजीने पहले मेरे प्रश्न करनेपर मुझसे जो कुछ कहा था, वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ; तुम ध्यान देकर सुनो । एक समयकी बात है, ब्रह्मलोकमें विराजमान अविनाशी कमलयोनि ब्रह्माजीको प्रणाम करके मैंने उनसे यथोचितरुपसे प्रश्न किया ॥५२ – ५८॥

 

नारदजी बोले – देव ! लोकपितामह ! सबसे उत्तम ज्ञान और सबसे उत्कृष्ट योग कौन-सा है ? इस विषयमें सारी बातें आप मुझे ठीक-ठीक बतायें ॥५९॥

ब्रह्माजी बोले – जो तेईस विकारोंके कारणभूत चौबीसवें तत्त्व प्रकृतिसे भिन्न पचीसवाँ तत्त्व है, वही सम्पूर्ण प्राणिशरीरोंमें ‘ नर ‘ ( पुरुष या आत्मा ) कहलाता है । सम्पूर्ण तत्त्व नरसे उत्पन्न हैं, इसलिये ‘ नार ‘ कहलाते हैं । ये नार जिनके अयन ( आश्रय ) हैं, अर्थात् जो इनमें व्यापक हैं, वे भगवान् ‘ नारायण ‘ कहे जाते हैं । सृष्टिकालमें सम्पूर्ण जगत् नारायणसे ही प्रकट होता है और प्रलयके समय फिर उन्हींमें लीन हो जाता है । नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तत्त्व हैं, नारायण ही परमज्योति और नारायण ही परम आत्मा हैं ।

 

मुने ! वे भगवान् नारायण परसे भी पर हैं । उनसे बढ़कर या उनसे भिन्न कुछ भी नहीं है । इस जगतमें जो कुछ देखा या सुना जाता है, सबको बाहर और भीतरसे व्याप्त करके भगवान् नारायण स्थित हैं । इस प्रकार उन्हें साकार वस्तुओंमें व्यापक जानकर ही देवताओंने बार-बार उनको ‘ साकार ‘ कहा है तथा ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – इस मन्त्रका ध्यान ( मानसिक जप ) करते हुए अनन्यभावसे उनमें मन लगाया है । जो अनन्यचित्त हो सदा भगवान् नारायणका ध्यान करता है, उसको दान, तीर्थसेवन, तपस्या और यज्ञोंसे क्या काम है ? भगवान् नारायणका ध्यान ही सर्वोत्तम ज्ञान है तथा इससे बढ़कर दुसरा कोई योग भी नहीं है । परस्परविरुद्ध अर्थको व्यक्त करनेवाले दूसरे-दूसरे शास्त्रोंके विस्तारसे क्या लाभ ? जिस प्रकार एक ही बड़े नगरमें बहुत-से मार्गोंका प्रवेश होता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न शास्त्रोंके सम्पूर्ण ज्ञान उन परमेश्वर नारायणामें प्रवेश करते हैं ॥६० – ६८ १/२॥

 

वे भगवान् विष्णु अव्यक्तरुपसे सर्वत्र व्याप्त हैं, सूक्ष्म तत्त्व हैं, सदा रहनेवाले सनातन पुरुष हैं, सम्पूर्ण जगतके आदिकारण हैं; परंतु उनका न तो आदि है न अन्त ही । स्वयं वे किसी दूसरेसे उत्पन्न नहीं हैं, अतएव ‘ स्वयम्भू ‘ हैं, किंतु इस सम्पूर्ण भूतप्राणियोंको स्वयं ही प्रकट करते हैं । वे विभु, अचिन्त्य, नित्य और कार्य-कारणस्वरुप हैं । सम्पूर्ण जगतका उनमें ही निवास है, इसलिये वे ‘ वासुदेव ‘ कहे गये हैं ।

 

वे पुराणपुरुष, त्रिकालदर्शी और अविकारी हैं । यह सम्पूर्ण चराचरमय त्रिभुवन उन्हीं भगवानके द्वारा व्याप्त होनेसे स्थित है, इसलिये वे ‘ विष्णु ‘ कहलाते हैं । अथवा युगका क्षय होनेपर महत्तत्व आदि समस्त भूतोंका उन्हीं सृष्टिके आश्रयभूत परमात्मामें निवास होता है, इसलिये वे ‘ वासुदेव ‘ कहे गये हैं । कुछ लोग उनको पुरुष ( आत्मा ) कहते हैं और कुछ लोग अविनाशी ईश्वर बताते हैं । कुछ अन्य लोग उन्हें केवल ‘ विज्ञानस्वरुप ‘ मानते हैं, कितने ही उन्हें परब्रह्म कहते हैं । कुछ मनुष्य उनको ‘ सनातन जीव ‘ मानते हैं । कुछ लोग ‘ परमात्मा ‘ कहते हैं, कुछ उन्हें एक ‘ निरामय तत्त्व ‘ मानते हैं, कुछ विद्वान् उन्हें ‘ क्षेत्रज्ञ ‘ कहते हैं और कुछ उन्हें तेईस विकारोंके कारण चौबीसवें तत्त्व प्रकृति और पचीसवें तत्त्वरुप पुरुषसे भिन्न ‘ छब्बीसवाँ तत्त्व ‘ ( पुरुषोत्तम ) मानते हैं । कुछ लोग आत्माको अँगूठेके बराबर बताते हैं और कुछ विद्वान् कमल – पुष्पकी धूलिके एक कणके बराबर ‘ अणु ‘ मानते हैं ।

 

ऊपर भगवान् विष्णुके जिन नामोंका उल्लेख किया गया है, ये तथा अन्य भी बहुत-सेभिन्न-भिन्न नाम मुनियोंद्वारा शास्त्रोंमें कहे गये हैं, जो साधारण लोगोंमें भेद – भ्रमका उत्पादन कर उन्हें मोहमें डालनेवाले हैं ।

 

यदि एक ही शास्त्र होता तो सबको संदेहरित निश्चयात्मक ज्ञान होता । किंतु यहाँ तो बहुतेरे शास्त्र हैं और सबका अलग-अलग सिद्धान्त हैं; अतः ज्ञानका तत्त्व बड़ा ही दुर्जेय हो गया है । परंतु मैंने सम्पूर्ण शास्त्रोंका मथन करके विचार किया तो एक यही बात सब सिद्धान्तोंके साररुपसे ज्ञात हुई कि सदा ‘ भगवान् नारायणका ध्यान करता चाहिये ।’ इसलिये मोहमें डालनेवाले सम्पूर्ण शास्त्र-विस्तारोंका त्याग करके एकचित्त होकर उत्साहपूर्वक भगवान् नारायणका ध्यान करो ।

 

इस प्रकार सतत चिन्तनके द्वारा उन अविनाशी देवदेव नारायणका तत्त्व जानकर तुम शीघ्र ही उनमें सायुज्यमुक्ति प्राप्त कर लोगे, इसमें संदेह नहीं है ॥६९ – ८० १/२॥

 

विप्रेन्द्र ! इस प्रकार ब्रह्माजीके कहे हुए इस परम दुर्लभ ज्ञानयोगको सुनकर मैं तभीसे भगवान् नारायणकी परिचर्यामें लग गया । जो लोग ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – इस सनातन ब्रह्मस्वरुप मन्त्रको जानते हैं, वे अन्तकालमें इसका जप करते हुए विष्णुके परमधामको प्राप्त कर लेते हैं । अतः

 

तात ! तत्त्व-विचार करनेवाले पुरुषोंको सदा ही सनातन परमात्मा नारायणका अनन्यचित्तसे ध्यान करना चाहिये । भगवान् नारायणका अनन्यचित्तसे ध्यान करना चाहिये । भगवान नारायण जगदव्यापी सनातन परमेश्वर हैं । ये भिन्न-भिन्न रुपसे सम्पूर्ण लोकोंके सृष्टि, पालन तथा संहार-कार्यमें लगे रहते हैं । इनके नाम, गुण एवं लीलाओंका श्रवण और कीर्तन हुए उनके ध्यानमें संलग्न हो उनकी आराधना करनी चाहिये ।

 

ब्रह्मन् ! अपना हित चाहनेवाले पुरुषके लिये सर्वथा भगवान् नारायणकी आराधना ही कर्तव्य है ।

 

विप्रवर ! जो लोग निः स्पृह, नित्य – संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय और ममता-अहंता, राग-द्वेष आदि विकारोंसे रहित हैं तथा जो पक्षपातशून्य, शान्त एवं सब प्रकारके संकल्पोंसे वर्जित हैं, वे भगवानके ध्यानयोगमें तत्पर हो उन जगदीश्वरका साक्षात्कार कर लेते हैं । जो महात्मा त्रिभुवनसे नाता तोड़कर जगदगुरु जगन्नाथ भगवान् वासुदेवका कीर्तन करते हैं, वे उन जगत्पतिका दर्शन पा जाते हैं । इसलिये

 

विप्रवर ! तुम भी भगवान् नारायणकी समाराधनामें तत्पर हो जाओ ॥८१ – ८९॥

 

द्विज ! जो अवहेलनापूर्वक नाम लेनेपर भी भक्तको अपना परमधाम दे देते हैं, उन भगवान् नारायणके सिवा दूसरा कौन ऐसा महान् उदार है, जो माँगी हुई वस्तुको देनेमें समर्थ हो ? तुम्हे जप अथवा स्वाध्याय-जो कुछ भी करना हो, उसे उन देवेश्वर भगवान् नारायणके उद्देश्यसे ही सदा आलस्य त्यागकर करते रहो । बहुतसे मन्त्र और व्रतोंसे क्या काम ? ‘ ॐ नमो नारायणाय ‘ – यह मन्त्र ही सब मनोरथोंको सिद्ध करनेवाला है ।

 

द्विजश्रेष्ठ ! कोई चीर वस्त्र पहननेवाला, जटा धारण करनेवाला, त्रिदण्डी, सदा माथा मुँड़ाये रहनेवाला अथवा तरह-तरहके उपकरणोंसे विभूषित ही क्यों न हो, उसके ये बाह्य चिह्न धर्मके कारण नहीं हो सकते; किंतु जो मनुष्य भगवान् नारायणकी शरणमें जा चुके हैं, वे पहले निर्दयी, दुष्ट और सदा पापरत रहे हों तो बी भगवाबके परमधामको पधारते हैं । हजारों जन्मोंमें भी जिसकी ऐसी बुद्धि हो जाय कि ‘ मैं देवदेव, शाङ्गधनुषधारी भगवान् वासुदेवका दास हूँ ‘ , वह मनुष्य निःसंदेह भगवान् विष्णुके सालोक्यको प्राप्त होता है; फिर जो पुरुष जितेन्द्रिय होकर सदा भगवानमें ही अपने प्राणोंको लगाये रहता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है ॥९० – ९६॥

 

सूतजी कहते हैं – सदा दूसर्रोंके ही उपकारमें लगे रहनेवाले त्रिभुवनभूषण देवर्षि नारदजी उपर्युक्त बातें बताकर वहीपर अन्तर्धान हो गये ।

 

अब धर्मात्मा पुण्डरीक भी एकमात्र भगवान् नारायणके भजनमें तत्पर हो बार-बार इस प्रकार उच्चारण करने लगे – ‘ भगवान् केशवको नमस्कर है; हे महायोगिन् ! आप मुझपर प्रसन्न हों ।’ निरन्तर यों कहते हुए पुरुषार्थ – साधनमें कुशल वे तपस्वी पुण्डरीकजी अपने हदय कमलके आसनपर जनार्दन भगवान् गोविन्दको स्थापितकर तपस्याकी सिद्धि करनेवाले उस ‘ शालग्राम ‘ नामक तपोवनमें बहुत कालतक अकेले ही रहे । महातपस्वी पुण्डरीक स्वप्नमें भी भगवान् केशवके सिवा दूसरा कुछ नहीं देखते थे । उनकी नींद भी उन्हें पुरुषार्थ-साधनमें बाधा नहीं देती थी । उन पापरहित द्विजवर पुण्डरीकने तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे और जन्म-जन्मान्तरोंकी साधनासे सुदृढ हुए भगवद्भक्तिसाधक संस्कारसे सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र साक्षी देवदेव भगवान् विष्णुकी कृपाद्वारा परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली । उनके निकट सिंह, व्याघ्र तथा दूसरे-दुसरे हिंस क जीव आपसके स्वाभाविक वैर-विरोधको त्याग एक साथ मिलकर रहते थे ।

 

द्विजवर भरद्वाजजी ! उनके समीप उन हिंसक जन्तुओंकी इन्द्रियवृत्तियाँ अत्यन्त शान्त रहती थीं ॥९७ – १०४॥

 

तत्पश्चात् एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकजीके समक्ष जगदीश्वर भगवान् नारायण प्रकट हुए । उनके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे । उनके हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा सुशोभित थी । उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा था । दिव्य पुष्पोंकी माला उनकी शोभा बढ़ा रही थी । उनके वक्षः स्थलमें श्रीवत्स-चिह्न और लक्ष्मीका निवास था । वे कौस्तुभमणिसे विभूषित थे । कज्जलगिरिके समान श्यामवर्ण एवं पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु सुनहली कान्तिवाले गरुडपर आरुढ़ हो इस प्रकार सुशोभित होते थे, मानो मेरुगिरिके शिखरपर बिजलीकी कान्तिसे युक्त श्याममेघ शोभा पा रहा हो । भगवानके ऊपर रजतमय श्वेत छत्र तना था, जिसमें मोतियोंकी झालरें लगी थीं । उस समय उस छत्रसे तथा चँवर-व्यजन आदिसे उन देवेश्वरकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥१०५ – १०८॥

 

उन देवदेवेश्वर भगवान् नारायणका प्रत्यक्ष दर्शन पाकर पुण्डरीकने दोनों हाथ जोड़ लिये । आदरमिश्रित भयसे उनका मस्तक झुक गया । उन्होंने धरतीपर माथा टेक दिया-साष्टाङ्ग प्रणाम किया । वे विह्वल होकर उन भगवान् हषीकेशकी ओर आँखें फाड़-फाड़कर इस प्रकार देखने लगे, मानो उन्हें पी जायँगे । जिनके दर्शनके लिये वे चिरकालसे प्रार्थना कर रहे थे, उन भगवानको आज सामने पाकर उन्हींकी ओर निर्निमेष नयनोंसे देखते हुए पापरहित धीरचित पुण्डरीकजीको आज बड़ी ही तृप्ति हुई । तब तीन पगोंसे त्रिलोकीको नाप लेनेवाले भगवान् पद्मनाभने पुण्डरीकसे कहा – ॥१०९ – १११॥

 

‘ वत्स पुण्डरीक ! तुम्हारा कल्याण हो । महामते ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा हो, उसीको वरके रुपमें माँग लो; उसे मैं अवश्य दूँगा ‘ ॥११२॥

 

सूतजी कहते हैं – देवदेव नारायणके कहे हुए इस वचनको सुनकर महामति पुण्डरीकने उनसे यों निवेदन किया ॥११३॥

 

पुण्डरीक बोले – देवेश्वर ! कहाँ मुझ – जैसा अत्यन्त दुर्बुद्धि पुरुष और कहाँ अपने वास्तविक हितको देखनेका कार्य ? अतः माधव ! मेरे लिये जो हितकर हो, उसके लिये आप ही कृपापूर्वक आज्ञा करें ॥११४॥

 

उनके यों कहनेपर भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए और अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए महाभाग पुण्डरीकसे बोले ॥११५॥

 

श्रीभगवानने कहा – सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम मेरे साथ ही आ जाओ और मेरे ही समान रुप धारणकर मेरे नित्य – पार्षद हो जाओ ॥११६॥

 

सूतजी कहते हैं – भक्तवत्सल भगवान् श्रीधरके प्रेमपूर्वक यों कहनेपर देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उथीं और वहाँ आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी । उस समय इन्द्र आदि सभी देवता और सिद्धगण ‘ यह बहुत अच्छा हुआ, बहुत अच्छा हुआ ‘ – इस प्रकार कहकर साधुवाद देने लगे । सिद्ध, गन्धर्व और किंनरगण विशेषरुपसे यशोगान करने लगे । इधर सर्वदेववन्दित जगदीश्वर भगवान् वासुदेव पुण्डरीकको साथ ले, गरुडपर आरुढ़ हो, वैकुण्ठधामको चले गये । इसलिये

 

विप्रवर भरद्वाज ! आप भी विष्णुभक्तिसे युक्त हो, अपने मन और प्राणोंको भगवानमें ही लगाकर उनके भक्तोंके हित – साधनमें तत्पर रहिये और यथाशक्ति सदा सुनते रहिये ।

 

विप्रवर ! अधिक क्या कहें, सर्वेश्वरेश्वर विश्वात्मा भगवान् विष्णु जिस उपायसे प्रसन्न हों, उसीको आप विस्तारपूर्वक करे । भगवान् नारायणसे विमुख हुए पुरुष हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय करनेसे भी पावन गतिको नहीं प्राप्त कर सकते ॥११७ – १२३॥

 

( भगवानसे इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये ) ‘ भगवान् विष्णो ! आप अजर, अमर, अद्वितीय, सबके ध्यान करनेयोग्य, आदि – अन्तसे रहित, सगुण – निर्गुण, स्थूलसूक्ष्म और अनुपम होकर भी उपमेय हैं । योगियोंको ज्ञानके द्वारा आपके स्वरुपका अनुभव होता है तथा आप इस त्रिभुवनके गुरु और परमेश्वर हैं; अतः मैं आपकी शरणमें आया हूँ ‘ ॥१२४॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ पुण्डरीक – नारद – संवाद ‘ विषयक चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६४॥

अध्याय - ६५ भगवत्सम्बन्धी तीर्थ और उन तीर्थोंसे सम्बन्ध रखनेवाले भगवान्के नाम

भरद्वाजजी बोले – सूतजी ! अब मैं आपसे भगवान् विष्णुके गुप्त तीर्थोका और उन तीर्थोंसे सम्बन्ध रखनेवाले भगवानके गुप्त नामोंका वर्णन सुनना चाहता हूँ; कृपया आप उन पापनाशक नामोंका मेरे समक्ष वर्णन कीजिये ॥१॥

 

सूतजी बोले – एक समय मन्दराचलपर विराजमान शंख-चक्र-गदाधारी देवदेव भगवान् विष्णुसे श्रीब्रह्माजीने पूछा ॥२॥

 

ब्रह्माजी बोले – सुरश्रेष्ठ ! हरे ! मुझे तथा मुक्ति चाहनेवाले अन्यान्य भक्तोंको किन-किन क्षेत्रोंमें जाकर आपका विशेषरुपस्से दर्शन करना चाहिये । जगत्पते ! कमललोचन ! आपके जो – जो गुप्त तीर्थ और नाम हैं, उन्हें मैं आपके ही मुखसे सुनना चाहता हूँ । सुरेश्वर ! मनुष्य आलस्य त्यागकर प्रतिदिन किसका जप करनेसे सद्गतिको प्राप्त हो सकता है ? अपने भक्तोंका हित – साधन करनेके लिये यह बात आप हमें बताइये ॥३ – ५॥

 

श्रीभगवान् बोले – ब्रह्मन् ! तुम सावधान होकर सुनो; मेरे जो गुह्य नाम और क्षेत्र हैं, उन्हें मैं ठीकठीक बता रहा हूँ ॥६॥

 

कोकामुख-क्षेत्रमें मेरे वाराहस्वरुपका, मन्दराचलपर मधुसूदनका, कपिलद्वीपमें अनन्तका, प्रभासक्षेत्रमें सूर्यनन्दनका, माल्योदपानतीर्थमें भगवान् वैकुण्ठका, महेन्द्रपर्वतपर राजकुमारका, ऋषभतीर्थमें महाविष्णुका, द्वारकामें भूपाल श्रीकृष्णका, पाण्डुसह्य पर्वतपर देवेशका, वसुरुढतीर्थमें जगत्पतिका, वल्लीवटमें महायोगका, चित्रकूटमें राजा रामका, नैमिषारण्यमें पीताम्बरका, गौओंके विचरनेके स्थान व्रजमें हरिका, शालग्रामतीर्थमें तपोवासका, गन्धमादन पर्वतपर अचिन्त्य परमेश्वरका, कुब्जागारमें हषीकेशका, गन्धद्वारमें पयोधरका, सकलतीर्थमें गरुडध्वजका, सायकमें गोविन्दका, वृन्दावनमें गोपालका, वाराणसी ( काशी ) – में केशवका, पुष्करतीर्थमें पुष्कराक्षका, धृष्टद्युम्न – क्षेत्रमें जयध्वजका, तृणबिन्दु वनमें वीरका, सिन्धुसागरमें अशोकका, कसेरटमें महाबाहुका, तैजस वनमें भगवान् अमृतका, विश्वासयूप ( या विशाखयूप ) – क्षेत्रमें विश्वेशका, महावनमें नरसिंहका, हलाङ्गरमें रिपुहरका, देवशालामें भगवान् त्रिविक्रमका, दशपुरमें पुरुषोत्तमका , कुब्जकतीर्थमें वामनका, वितस्तामें विद्याधरका, वाराह – तीर्थमें धरणीधरका, देवदारुवनमें गुह्यका, कावेरीतटपर नागशायीका, प्रयागमें योगमूर्तिका, पयोष्णीतटपर सुदर्शनका, कुमारतीर्थमें कौमारका, लोहितमें हयग्रीवका, उज्जयिनीमें त्रिविक्रमका, लिङ्गकूटपर चतुर्भुजका और भद्राके तटपर भगवान्‍ हरिहरका दर्शन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥७ – १८॥

 

इसी प्रकार कुरुक्षेत्रमें विश्वरुपका, मणिकुण्डमें हलायुधका, अयोध्यामें लोकनाथका, कुण्डिनपुरमें कुण्डिनेश्वरका, भाण्डारमें वासुदेवका, चक्रतीर्थमें सुदर्शनका, आढ्यतीर्थमें विष्णुपदका, शूकरक्षेत्रमें भगवान् शूकरका, मानसीर्थमें ब्रह्मेशका, दण्डकतीर्थमें श्यामलका, त्रिकूटपर्वतपर नागमोक्षका, मेरुके शिखरपर भास्करका, पुष्पभद्राके तटपर विरजका, केरलतीर्थमें बालरुप भगवानका, विपाशाके तटपर भगवान् यशस्करका, माहिष्मतीपुरीमें हुताशनका, क्षीरसागरमें भगवान् पद्मनाभका, विमलतीर्थमें सनातनका, शिवनदीके तटपर भगवान् शिवका, गयामें गदाधरका और सर्वत्र ही परमात्माका जो दर्शन करता है, वह मुक्त हो जाता है ॥१९ – २३ १/२॥

 

ब्रह्माजी ! ये अडसठ नाम हमने तुम्हें बताये तथा विशेषतः गुप्त तीर्थोंका भी वर्णन किया ।

 

प्रजापते ! जो पुरुष प्रतिदिन प्रातः काल उठकर मेरे इन गुह्यनामोंका पाठ या श्रवण करेगा, वह नित्य एक लाख गोदानका फल पायेगा । नित्यप्रति पवित्र होकर जो इन नामोंका पाठ करता है, उसको मेरी कृपासे कभी दुःस्वप्नका दर्शन नहीं होता, इसमें संदेह नहीं है । जो पुरुष इन अड़सठ नामोंका प्रतिदिन तीनों काल, अर्थात् प्रात; मध्याह्न और सायंकालमें पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकमें पाठ करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर मेरे लोकमें आनन्द भोगता है । सभी मनुष्यों और विशेषतः वैष्णवोंकी चाहिये कि यथाशक्ति पूर्वोक्त तीर्थोंका दर्शन करें । जो लोग ऐसा करते हैं, उन्हें मैं मुक्ति देता हूँ ॥२४ – २९॥

 

सूतजी कहते हैं – जो पुरुष सदा और विशेषतः हरिवासर ( एकादशी या द्वादशीको ) भगवान् विष्णुकी पूजा करके उनके सामने खड़ा हो भगवत्समरणपूर्वक इस स्तोत्रका पाठ करता है, वह विष्णुके अमृतपादको प्राप्त कर लेता है ॥३०॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ आदि धर्मार्थमोक्षदायक विष्णुवल्लभस्तोत्र ‘ विषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६५॥

अध्याय - ६६ अन्यान्य तीर्थों तथा सह्याद्रि और आमलक ग्रामके तीर्थोका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं – भगवान् विष्णु पुनः बोले ब्रह्मन् ! उपर्युक्त अड़सठ नामोंसे भगवान् विष्णुकी पावन स्तुतिका वर्णन किया गया । अब जो दूसरे – दूसरे पावन तीर्थ और नाम हैं, उनका वर्णन मुझसे सुनिये ॥१॥

 

सर्वप्रथम गङ्गा पवित्र हैं; फिर यमुना, गोमती, सरयु, सरस्वती, चन्द्रभागा और चर्मण्वती – ये नदियाँ पावन हैं । इसी प्रकार कुरुक्षेत्र, गया, तीनों पुष्कर और अर्बुद – क्षेत्र तथा परम पावन नर्मदा नदी – ये उत्तरमें परम पावन तीर्थ हैं । तापी, पयोष्णी – ये दो पावन नदियाँ हैं । इनके संगमसे एक बहुत उत्तम तीर्थ हो गया है तथा ब्रह्मागिरिकी मेखलाओंसे मिले हुए भी बहुत – से उत्तम तीर्थ हैं । विरज तीर्थ भी समस्त पापोंको क्षीण करनेवाला है तथा

 

चतुरानन ! गोदावरी नदी सर्वत्र परमपान हैं । कमलोद्भव ! तुङ्गभद्रा नदी भी अत्यन्त पवित्र करनेवाली है, जिसके तटपर मैं मुनियोंद्वारा पूजित हो भगवान् शङ्करके साथ स्वयं निवास करता हूँ । दक्षिण गङ्गा, कृष्णा और विशेषतः कावेरीये पुण्य नदियाँ हैं । इनके अतिरिक्त,

 

कमलोद्भव ! मैं सह्यपर्वतपर आमलक ग्राममें स्वयं निवास करता हूँ । वहाँ ‘ देवदेव ‘ नामसे प्रसिद्ध मेरे श्रीविग्रहका तुम स्वयं ही सदा पूजन करते हो । वहाँ समस्त पापोंको हर लेनेवाले अनेक तीर्थ हैं, जिनमें स्नान और आचमन करके मनुष्य पापसे मुक्त हो जाता है ॥२ – ८॥

 

सूतजी कहते हैं – भरद्वाज ! ब्रह्माजीसे इन तीर्थोंका वर्णन करके भगवान् मधुसूदन अपने धामको चले गये और ब्रह्मा भी ब्रह्मलोक सिधारे ॥९॥

 

भरद्वाजजी बोले – धर्मज्ञ ! उस आमलक ग्राममें जो – जो पुण्यतीर्थ हैं, उनका आप विस्तारके साथ यथार्थरुपमें वर्णन करें । जहाँ देवदेवेश्वर भगवान् विष्णु स्वयं ब्रह्माजीके द्वारा पूजित होते हैं, उस क्षेत्रकी उत्पत्ति कथा, माहात्म्य और यात्रापर्वका विस्तृत विवरण प्रस्तुत कीजिये ॥१० – ११॥

 

सूतजी कहते हैं – विप्र ! महामुने ! सह्यपर्वतपर स्थित ‘ आमलक ‘ तीर्थके आविर्भाव आदिकी पवित्र एवं पापनाशक कथा मैं आपसे कह रहा हूँ, सुनें ॥१२॥

 

ब्रह्मन् ! पूर्वकालमें सह्यपर्वतके वनमें एक बहुत बड़ा आँवलेका वृक्ष था । उसे बुद्धिमान् लोगोंने ‘ महोग्र ‘ नाम दे रखा था ।

 

महामुने ! उस वृक्षके फल बड़े रसीले, दर्शनीय, दिव्य एवं दुर्लभ होते थे । समस्त उत्तम ब्राह्मणोंमें उत्कृष्ट श्रीब्रह्माजीने पूर्वकालमें महान् फलोंसे युक्त उस महावृक्षको देखा था ।

 

विप्रेन्द्र ! उसे देखकर, यह क्या है – यह जाननेके लिये ब्रह्माजी ध्यानमग्न हो गये । उन्होंने ध्यानमें उस स्थानपर महान् आँवलेके वृक्षको देखा और उसके ऊपर शङ्ख, चक्र एवं गदा धरण करने वाले देवेश्वर भगवान् विष्णुको विराजमान देखा । फिर उन्होंने जब ध्यानसे निवृत्त हो खड़े होकर दृष्टिपात किया, तब वहाँ वृक्षके स्थानमें केवल भगवान् विष्णुकी एक प्रतिमा दिखायी दी । उसका आधारभूत वह दिव्य महावृक्ष भूतलमें धँस गया ! तब लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी गन्ध-पुष्प आदिसे नित्य ही उन अविनाशी देवदेवेश्वरकी आराधना करने लगे । उस समय उनके द्वारा बारह और सात बार भगवानकी पूजा सम्पन्न हुई ॥१३ – १९॥

 

मुनिश्रेष्ठ ! उस आमलकक्षेत्रमें विराजमान भगवानके माहात्म्यका कौन वर्णन कर सकता है । श्रीसह्यपर्वतस्थ आमल क ग्राममें इस प्रकार अविनाशी देवेश्वर भगवानकी आराधना करनेके पश्चात ब्रह्माजीको वहाँ बारह तीर्थ और प्राप्त हुए । भगवानके चरणके नीचे पश्चिमाभिमुख एक तीर्थ प्रकट हुआ । वह पावन तीर्थ पापोंको नष्ट करनेवाला है । मनुष्य चक्रतीर्थमें स्नान करके सब पापोंसे मुक्त हो जाता है और हजारों वर्षांतक ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । इसके बाद ‘ शङ्खतीर्थ ‘ है । उसमें स्नान करनेसे मनुष्यको वाजपेय यज्ञका फल मिलता है ।

 

मुने ! पौष मासमें जब सूर्य पुष्य नक्षत्रपर स्थित हों, उसी समय सह्यपर्वतपर गङ्गाजलसे भरा हुआ ब्रह्माजीका कमण्डलु गिर पड़ा था, तबसे वह स्थान ‘ कुण्डिका ‘ तीर्थके नामसे विख्यात हुआ । वह तीर्थ सारे अशुभोंको हर लेता है । वहाँ एक शिलामय गृह भी है । उस तीर्थमें स्नान करके मनुष्य तत्काल सिद्धि प्राप्त कर लेता है । जो मनुष्य उस तीर्थमें तीन राततक उपवास करके स्नान करता है, वह सब पापोंसे सर्वथा मुक्त हो ब्रह्मलोकमें पूजित होता है । कुण्डिकातीर्थसे उत्तर और ‘ पिण्डस्थान ‘ नामक तीर्थसे दक्षिण ‘ ऋणमोचन ‘ नामक तीर्थ हैं, जो सब तीर्थोंमे उत्तम और गुह्य है ।

 

ब्रह्मन् ! वहाँ तीन तीन राततक निवास करके जो स्नान करता है, वह निस्संदेह तीनों ऋणोंसे मुक्त हो जाता है । जो मनुष्य पिण्डस्थानमें श्राद्ध करके वहाँ पितरोंके उद्देश्यसे विधिपूर्वक पिण्डदान करेगा, उसके पितर पूर्ण तृप्त होकर अवश्य ही पितृलोकको प्राप्त होंगे ॥२० – ३०॥

 

इसके बाद ‘ पाप – मोचन ‘ तीर्थ है । उस तीर्थमें पाँच राततक निवास करते हुए जो नित्य स्नान करता है, वह अपने सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करके विष्णुलोकमें आनन्दका भागी होता है । वहीं एक बहुत बड़ी धारा बहती है । उसके जलको जो अपने सिरपर धारण करता है, वह समस्त यज्ञोमके फलको प्राप्त करके स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥३१ – ३२॥

 

इसके बाद ‘ धनुः पात ‘ नामक एक महान् तीर्थ है । उसमें जो भक्तिपूर्वक स्नान करता है, वह पूर्ण आयुका भोग करके अन्तमें स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है । ‘ शरबिन्दु ‘ तीर्थमें स्नान करनेसे मनुष्य मृत्युके बाद इन्द्रपुरीमें जाता है तथा जो सह्यपर्वतपर ‘ वाराहतीर्थ ‘ में स्नान करता और वहाँ एक दिन – रात निवास करता है, वह विष्णुलोकमें पूजित होता है । इसके बाद सह्यके शिखरपर ‘ आकाशगङ्गा ‘ नामक एक उत्तम तीर्थ है । वहाँकी शिलाओंके नीचेसे सफेद मिट्टी निकलती है ।

 

विप्रवर ! उसमें जो भक्तिपूर्वक स्नान करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्राप्तकर विष्णुलोकमें पूजित होता है ॥३३ – ३६ १/२॥

 

ब्रह्मन् ! उस निर्मल सह्यगिरिसे जहाँ – जहाँ जलके झरने गिरते हैं, वहाँ – वहाँ सब जगह तीर्थ समझना चाहिये । उसमें स्नान करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है । जो नित्य ही सह्यपर्वतकी यात्रा करके वहाँ स्नान करता है, वह निष्पाप हो जाता है ।

द्विजेन्द्र ! जो मनुष्य सह्यपर्वतके इन पावन तीर्थोंमें स्नान करके भक्तिपूर्वक भगवान् विष्णुको पुष्प चढ़ाता है, वह पापोंसे रहित हो भगवान् विष्णुमें ही लीन हो जाता है । अन्य सभी तीर्थोंके पर्वतोंसे बहनेवाले जलमें यथासम्भव एक बार स्नान कर लेना चाहिये, परंतु गङ्गामें बार-बार स्नान करे; क्योंकि गङ्गामें सम्पूर्ण तीर्थ हैं, भगवान् विष्णुमें सभी देवता वर्तमान हैं, गीता सर्वशास्त्रमयी है और सभी धर्मोंमें जीवदया श्रेष्ठ है ॥३७ – ४० १/२॥

 

विप्र ! इस प्रकार मैंने आपसे इस क्षेत्रके उत्तम माहात्म्यका वर्णन किया । साथ ही सह्य और आमलक ग्रामके तीर्थोंमें स्नान करनेके फल भी बताये ।

 

द्विजश्रेष्ठ ! वही उत्तम तीर्थ है, जो तीर्थोंका भी तीर्थ हो । यह आमलकग्राम तीर्थ देवदेव भगवान् विष्णके चरण तलसे प्रकट हुआ है, अतः यह सर्वोत्तम तीर्थ है । यहाँपर जो जल है, उसमें स्नान करना हजार अश्वमेध यज्ञ करनेके बराबर है । उसीको वेदवेत्ता पुरुष ‘ चक्रतीर्थ ‘ कहते हैं । वहाँ स्नान करके भगवान् मधुसूदनके चरणोंमें मस्तक झुकानेसे मनुष्यका इस संसारमें पुनर्जन्म नहीं होता ।

 

गङ्गा, प्रयाग, नैमिषारण्य, पुष्कर, कुरुजाङ्गलप्रदेश और यमुना – तटवर्ती तीर्थ – ये सभी पुण्यतीर्थ हैं । इन तीर्थोंके जलमें स्नान करनेपर वे कुछ समयके बाद पवित्र करते हैं; किंतु भगवान् विष्णुका चरणोदकरुप यह ‘ चक्रतीर्थ ‘ तत्काल पवित्र कर देता है ॥४१ – ४४॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ‘ तीर्थप्रशंसा ‘ विषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६६॥

अध्याय - ६७ मानसतीर्थ, व्रत तथा नरसिंहपुराणका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं – द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक मैंने भूतलके प्रसिद्ध तीर्थोंका वर्णन किया; किंतु इन तीर्थोंकी अपेक्षा मानसतीर्थ विशेष फल देनेवाले हैं । वास्तवमें राग – द्वेषादिसे रहित मनकी स्वच्छता ही उत्तम तीर्थ है । सत्य, दया, इन्द्रियनिग्रह, गुरुसेवा, मातापिताकी सेवा, स्वधर्मपालन और अग्निकी उपासना – ये परम उत्तम तीर्थ हैं । यह तो पावन तीर्थोंका वर्णन हुआ, अब व्रतोंका वर्णन सुनिये ॥१ – ३ १/२॥

 

मुने ! दिन-रातमें एक बार भोजन करके रहना और विशेषतः रातमें भोजन न करना – यह व्रत हैं ।

 

पूर्णिमा और अमावास्याको एक ही बार भोजन करके रहना चाहिये । इन तिथियोंमें एक बार भोजन करके रहनेवाला मनुष्य पावन गतिको प्राप्त करता है ।

 

जो चतुर्थी, चतुर्दशी, सप्तमी, अष्टमी और त्रयोदशीको रातमें उपवस करता है, उसे मनोवाञ्छित वस्तुकी प्राप्ति होती है ॥४ – ६॥

 

मुनिश्रेष्ठ ! एकादशीको दिन-रात उपवास करनेका विधान है । उस दिन भगवान् विष्णुका पूजन करके मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है ।

 

यदि हस्त नक्षत्रसे युक्त रविवार हो तो उस दिन रात में उपवास करके सौरनक्त-व्रतका पालन करना चाहिये । उस दिन स्नानके पश्चात् सूर्यमण्डलमें भगवान् विष्णुका ध्यान करके मनुष्य रोगमुक्त हो जाता है ।

 

जब सूर्य अपनी दुगुनी छायामें स्थित हों, उस दिन और नक्तव्रतका समय है । उस समयसे लेकर राततक भोजन न करे ॥७ – ९॥

 

जो पुरुष बृहस्पतिवारको त्रयोदशी तिथि होनेपर अपराह्णकालमें जलमें स्नान करके तिल और तण्डुलोंद्वारा देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करता है तथा भगवान् नरसिंहका पूजन करके उपवास करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥१० – ११॥

 

महामुने ! जब अगस्त्य तारेका उदय हो, उस समयसे लगातार सात रात्रियोंतक अगस्त्यमुनिकी पूजा करके उन्हें अर्घ्य देना चाहिये । शङ्खमें श्वेत पुष्प और अक्षतसहित जल रखकर श्वेत पुष्प आदिसे पूजित हुए अगस्त्यजीके प्रति निम्नाङ्कित मन्त्र – वाक्य पढ़कर अर्घ्य निवेदन करे – ‘ अग्नि और वायु देवतासे प्रकट हुए अगस्त्यजी ! काश पुष्पके समान उज्ज्वल वर्णवाले कुम्भज मुने ! मित्र और वरुणके पुत्र भगवान् कुम्भयोने ! आपको नमस्कार है । जिन्होंने महान् असुर आतापी और वातापीको भक्षण कर लिया और समुद्रको भी सोख डाला, वे अगस्त्यजी मुझपर प्रसन्न हों । ‘ इस प्रकार कहकर जो पुरुष अगस्त्यकी दिशा ( दक्षिण ) – के प्रति अर्घ्य अर्पण करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो, दुस्तर मोहान्धकारसे पार हो जाता है ॥१२ – १६॥

 

महामुने ! भरद्वाजजी ! इस प्रकार मैंने मुनियोंके निकट यह पूरा ‘ नरसिंहपुराण ‘ आपको सुनाया ।

 

इसमें मैंने सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरितसभीका वर्णन किया है ।

 

मुने ! इस पुराणको सर्वप्रथम ब्रह्माजीने मरीचि आदि मुनियोंके प्रति कहा था । उन मुनियोंमेंसे भृगुजीने मार्कण्डेयजीके प्रति इसे कहा और मार्कण्डेयजीने नागकुलोत्पन्न राजा सहस्त्रानीकको इसका श्रवण कराया । फिर भगवान् नरसिंहकी कृपासे इस पुराणको बुद्धिमान् श्रीव्यासजीने प्राप्त किया । उनकी अनुकम्पासे मैंने इस सर्वपापनाशक पवित्र पुराणका ज्ञान प्राप्त किया और इस समय मैंने यह नरसिंहपुराण इन मुनियोंके निकट आपसे कहा । अब आपका कल्याण हो, मैं जा रहा हूँ ॥१७ – २१ १/२॥

 

जो मनुष्य पवित्र होकर इस उत्तम पुराणका श्रवण करता है, वह माघ मासमें प्रयागतीर्थमें स्नान करनेका फल प्राप्त करता है ।

 

जो मनुष्य इस नरसिंहपुराणको भगवानके भक्तोंके प्रति नित्य सुनाता है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंके सेवनका फल प्राप्त करके विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥२२ – २३ १/२॥

 

इस प्रकार स्त्रातकोंके साथ इस पुराणको सुन महामति भरद्वाजजीने सूतजी का पूजन – सत्कार किया और स्वयं वहीं रह गये । अन्य सब मुनि अपने – अपने स्थानको चले गये ॥२४ १/२॥

 

यह नरसिंहपुराण समस्त पापोंको हर लेनेवाला और पुण्यमय है । जो इसको पढ़ते और सुनते हैं, उन मनुष्योंपर भगवान् नरसिंह प्रसन्न होते हैं । देवदेवेश्वर नरसिंहके प्रसन्न होनेपर सम्पूर्ण पापोका नाश हो जाता है और जिनके पाप बन्धन सर्वथा नष्ट हो गये हैं, वे मानव मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥२५ – २७॥

 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणे ‘ मानसतीर्थ – व्रत ‘ नामक सड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६७॥

अध्याय - ६८ नरसिंहपुराणके पठन और श्रवणका फल

सूतजी कहते हैं – इस प्रकार मैंने यह सम्पूर्ण नरसिंहपुराण कह सुनाया । यह सब पापोंको हरनेवाला और सम्पूर्ण दुःखोंको दूर करनेवाला है । समस्त पुण्यों तथा सभी यज्ञोंका फल देनेवाला है । जो लोग इसके एक श्लोक या आधे श्लोकका श्रवण अथवा पाठ करते हैं, उन्हें कभी भी पापोंसे बन्धन नहीं प्राप्त होता । भगवान् विष्णुको अर्पण किया हुआ यह पावन पुराण समस्त कामनाओंकी पूर्ति करनेवाला है ।

भरद्वाजजी ! जो लोग भक्तिपूर्वक इस पुराणका पाठ अथवा श्रवण करते हैं, उनको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन सुनिये । वे सौ जन्मोंके पापसे तत्काल ही मुक्त हो जाते हैं तथा अपनी सहस्त्र पीढ़ियोंके साथ ही परमपदको प्राप्त होते हैं । जो प्रतिदिन एकाग्रचित्तसे गोविन्दगुणगान सुनते रहते हैं, उनको अनेक बार तीर्थ – सेवन, गोदान, तपस्या और यज्ञ नुष्ठान करनेसे क्या लेना है । जो प्रतिदिन सबेरे उठकर इस पुराणके बीस श्लोकोंका पाठ करता है, वह ज्योतिष्टोम यज्ञका फल प्राप्तकर विष्णुलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥१ – ६ १/२॥

यह पुराण परम पवित्र और आदरणीय है । इसे अजितेन्द्रिय पुरुषोंको तो कभी नहीं सुनाना चाहिये, परंतु विष्णुभक्त द्विजोंको निस्संदेह इसका श्रवण कराना चाहिये । इस पुराणका श्रवण इस लोक और परलोकमें भी सुख देनेवाला है । यह वक्ताओं और श्रोताओंके पापको तत्काल नष्ट कर देता है ।

मुनीश्वरगण ! इस विषयमें बहुत कहनेकी क्या आवश्यकता है । श्रद्धासे हो या अश्रद्धासे, इस उत्तम पुराणका श्रवण करना ही चाहिये । इस पुराणको सुनकर भरद्वाज आदि द्विजश्रेष्ठगण कृतार्थ हो गये । उन्होंने हर्षपूर्वक सूतजीका समादर किया । फिर सब लोग अपने – अपने आश्रमको चले गये ॥७ – ११॥

इस प्रकार सूत – भरद्वाजादि – संवादरुप श्रीनरसिंहपुराणमें इसके ‘ सर्वदुःखहारी माहात्म्यका वर्णन ‘ नामक अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥६८॥