गौतम ऋषि द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
भोग की अभिलाषा रखनेवाले जीवों को मनोवांछित भोग प्रदान करने के लिये पार्वतीसहित भगवान शंकर उत्तम गुणों से युक्त आठ विराट स्वरूप धारण करते हैं । इसप्रकार विद्वान पुरुष प्रतिदिन भगवान महादेवजी की स्तुति किया करते हैं । महेश्वर का जो पृथ्वीमय शरीर है, वह अपने विषयोंद्वारा सुख पहुँचाने, समस्त चराचर जगत का भरण-पोषण करने, उसकी सम्पत्ति बढाने तथा सबका अभ्युदय करने के लिये है । शांतिमय शरीरवाले भगवान् शिवने जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने के लिये पृथ्वीके आधारभूत जल का स्वरुप धारण किया है । उनका वह लोक-प्रतिष्ठित रूप सब लोगों को सुख पहुँचाने तथा धर्म की सिद्धि करने का भी हेतु है । महेश्वर ! आपने समय की व्यवस्था करने, अमृत का स्त्रोत बहाने, जीवों की सृष्टि, पालन और संहार करने तथा प्रजा को मोह, सुख एवं उन्नति का अवसर देने के लिये सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि का शरीर धारण किया है । ईश ! आपने जो वायु का रूप ग्रहण किया है, उसमें भी एक रहस्य है । सब लोग प्रतिदिन बढ़े, चलें, फिरें, शक्ति का उपार्जन करें, अक्षरों का उच्चारण कर सकें, जीवन कायम रहे और अनेक प्रकार के आमोद-प्रमोद की सृष्टि हो, इसीलिये आपका वह रूप है । भगवान ! इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि अपने-आपको आप ही ठीक-ठीक जानते हैं । भेद (अवकाश) के बिना न कोई क्रिया हो सकती है न धर्म हो सकता हैं, न अपने या पराये का बोध होगा न दिशा, अन्तरिक्ष, द्युलोक, पृथ्वी तथा भोग और मोक्ष का ही अंतर जान पड़ेगा; अत: महेश्वर ! आपने यह आकाशरूप ग्रहण किया है । धर्म की व्यवस्था करने का निश्चय करके आपने ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, उनकी शाखाओं और शास्त्रों का विभाग किया है तथा लोक में भी इसी उद्देश्य से गाथाओं, स्मृतियों और पुराणों का प्रसार किया है । ये सब शब्दस्वरूप ही है । शम्भो ! यजमान, यज्ञ, यज्ञों के साधन, ऋत्विक यज्ञका स्थान, फल, देश और काल – ये सब आप ही हैं । आप ही परमार्थतत्व हैं । विद्वान पुरुष आपके शरीर को यज्ञांगमय बतलाते हैं । केवल वाग्विलास करने से क्या लाभ-कर्ता, दाता, प्रतिनिधि, दान, सर्वज्ञ, साक्षी, परम पुरुष, सबका अंतरात्मा तथा परमार्थस्वरुप सब कुछ आप ही है । भगवन ! वेद, शास्त्र और गुरु भी आपके तत्त्व का भलीभांति उपदेश नहीं कर सके हैं । निश्चय ही आपतक बुद्धि आदि की भी पहुँच नहीं है । आप आजन्मा, अप्रमेय और शिव-शब्द से वाच्य है, आप ही सत्य हैं । आपको नमस्कार है ! किसी समय भगवान् शिव ने अपनी प्रकृतिको इस भाव से देखा कि यह मेरी सम्पत्ति है; उसी समय वे एक से अनेक हो गये, विश्वरूप में प्रकट हो गये । वास्तव में उनका प्रभाव अतर्क्य और अचिन्त्य है । भगवान शिवकी प्रिया शिवा देवी भी नित्य हैं । भव (भगवान शंकर) में उनका भाव (हार्दिक अनुराग) पूर्णरूप से बढ़ा हुआ है; वे इस भव (संसार) की उत्पत्ति में स्वयं कारण हैं तथा सर्वकारण महेश्वर के आश्रित हैं । शिवा समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा विश्वविधाता शिव की विलक्षण शक्ति है । संसार की उत्पत्ति, स्थिति, अन्न की वृद्धि तथा लय – ये सनातन भाव जहाँ होते रहते हैं, वह एकमात्र पार्वतीदेवी का ही स्वरुप है । वे भगवान् शंकर की प्राणवल्लभा हैं । उनके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है । समस्त जीव जिनके लिये अन्नदान देते और तपस्या करते हैं, वे जगज्जननी माता पार्वती ही है । उनकी उत्तम कीर्ति बहुत बड़ी है । वे शिवकी प्रियतमा हैं । इंद्र भी जिनकी कृपादृष्टि चाहते हैं, जिनका नाम लेनेसे मंगल की प्राप्ति होती है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो इसे निर्मल बनाती है, वे भगवती उमा ही हैं । उनका रूप सदा चन्द्रमा के समान ही मनोरम हैं । जिनके प्रसाद्से ब्रह्मा आदि चराचर जीवों की बुद्धि, नेत्र, चेतना और मन में सदा सुख की प्राप्ति होती है, वे जगद्गुरु शिव की सुन्दरी शक्ति शिवा वाणी की अधीश्वरी हैं । आज ब्रह्माजी का भी मन मलिन हो रहा है, फिर अन्य जीवों की तो बात ही क्या – यह सोचकर जगन्माता उमाने अनेक उपायों से सम्पूर्ण जगत को पवित्र करने के लिये गंगा का अवतार धारण किया है । श्रुतियों को देखकर तथा सब प्रमाणों से भगवान शंकर की प्रभुतापर विश्वास करके लोग जो धर्मों का अनुष्ठान करते और उनके फलस्वरूप जो उत्तम भोग भोगते हैं, यह भगवान् सदाशिव की ही विभूति हैं । वैदिक अथवा लौकिक कार्य, क्रिया, कारक और साधनों का जो सबसे उत्तम एवं प्रिय साध्य है, वह अनादि कर्त्ता शिव की प्राप्ति ही है } जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म, परप्रधान, सारभूत और उपासना के योग्य है, जिसका ध्यान तथा जिसकी प्राप्ति करके श्रेष्ठ योगी पुरुष मुक्त हो जाते- पुन: संसार में जन्म नहीं लेते, वे भगवान् उमापति ही मोक्ष हैं । माता पार्वती ! भगवान शंकर जगत का कल्याण करने के लिये जैसे-जैसे अपार मायामय रूप धारण करती हो । इसप्रकार तुम में पातिव्रत्य जाग्रत रहता है ।