- अध्याय-1 वैवस्वतमनु के वंश का विवरण
- अध्याय-2 इक्ष्वाकुके वंशका वर्णन तथा सौभरिचरित्र
- अध्याय-3 मान्धाताकी सन्तति, त्रिशंकुका स्वर्गारोहण तथा सगरकी उतपत्ति और विजय
- अध्याय-4 सगर, सौदास, खट्वांग और भगवान राम के चरित्र का वर्णन
- अध्याय-5 निमि – चरित्र और निमिवंश का वर्णन
- अध्याय-6 सोमवंशका वर्णन; चन्द्रमा, बुध और पुरुरवा का चरित्र
- अध्याय-7 जह्रुका गंगापान तथा जमदग्नि और विश्वामित्र की उत्पत्ति
- अध्याय-8 काश्यपवंश का वर्णन
- अध्याय-9 महाराज रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र
- अध्याय-10 ययातिका चरित्र
- अध्याय-11 यदुवंशका वर्णन और सहस्त्रार्जुनका चरित्र
- अध्याय-12 यदुपुत्र क्रोष्टुका वंश
- अध्याय-13 सत्वतकी सन्तति का वर्णन और स्यमन्तकमणि की कथा
- अध्याय-14 अनमित्र और अंधक के वंश का वर्णन
- अध्याय-15 शिशुपाल के पूर्व-जन्मान्तरों का तथा वसुदेवजी की सन्तति का वर्णन
- अध्याय-16 तुर्वसु के वंश का वर्णन
- अध्याय-17 द्रुह्यू वंश
- अध्याय-18 अनुवंश
- अध्याय-19 पुरुवंश
- अध्याय-20 कुरुके वंशका वर्णन
- अध्याय-21 भविष्यमें होनेवाले राजाओंका वर्णन
- अध्याय-22 भविष्यमें होनेवाले इक्ष्वाकुवंशीय राजाओंका वर्णन
- अध्याय-23 मगध वंशका वर्णन
- अध्याय-24 कलियुगी राजाओं और कलिधर्मो का वर्णन तथा राजवंश – वर्णन का उपसंहार
- अध्याय-25
श्रीविष्णुपुराण चतुर्थअंश

अध्याय-1 वैवस्वतमनु के वंश का विवरण
श्रीमैत्रेयजी बोले – हे भगवन ! सत्कर्म ने प्रवृत्त रहनेवाले पुरुषों को जो करने चाहिये उन सम्पूर्ण नित्य-नैमित्तिक कर्मों का आपने वर्णन कर दिया ॥ १ ॥ हे गुरो ! आपने वर्ण-धर्म और आश्रम-धर्मों की व्याख्या भी कर दी । अब मुझे राजवंशों का विवरण सुनने की इच्छा है, अत: उनका वर्णन कीजिये ॥ २ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे मैत्रेय ! अब तुम अनेकों यज्ञकर्ता, शूरवीर और धैर्यशाली भूपालों से सुशोभित इस मनुवंश का वर्णन सुनो जिसके आदिपुरुष श्रीब्रह्माजी है ॥ ३ ॥ हे मैत्रेय ! अपने वंश के सम्पूर्ण पापों को नष्ट करने के लिये इस वंश-परम्परा की कथाका क्रमश: श्रवण करो ॥ ४ ॥
उसका विवरण इसप्रकार है – सकल संसार के आदिकारण भगवान विष्णु हैं । वे अनादि तथा ऋक – साम – यजु: स्वरुप हैं । उन ब्रह्मस्वरूप भगवान विष्णु के मूर्त्तरूप ब्रह्माण्डमय हिरण्यगर्भ भगवान ब्रह्माजी सबसे पहले प्रकट हुए ॥ ५ ॥ ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से दक्षप्रजापति हुए, दक्ष से अदिति हुई तथा अदिति से विवस्वान और विवस्वान से मनुका जन्म हुआ ॥ ६ ॥ मनु के इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिश्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करूप, और पृषध्र दस पुत्र हुए ॥ ७ ॥
मनुने पुत्र की इच्छा से मित्रावरुण नामक दो देवताओं के यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ ८ ॥ किन्तु होता हे विपरीत संकल्प यज्ञ में विपर्यय हो जाने से उनके ‘इला’ नामकी कन्या हुई ॥ ९ ॥ हे मैत्रेय ! मित्रावरुण की कृपासे वह इला ही मनुका ‘सुद्युम्र’ नामक पुत्र हुई ॥ १० ॥ फिर महादेवजी के कोप (कोपप्रयुक्त शाप) से वह स्त्री होकर चन्द्रमा के पुत्र बुध के आश्रम के निकट घूमने लगी ॥ ११ ॥
बुध ने अनुरक्त होकर उस स्त्री से पुरुरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ १२ ॥ पुरुरवा के जन्म के अनन्तर भी परमर्षिगण ने सुद्युम्र को पुरुषत्वलाभ की आकांक्षासे क्रतुमय ऋग्यजु:सामाथर्वमय, सर्ववेदमय, मनोमय, ज्ञानमय, अन्नमय और परमार्थतः अकिचिन्मय भगवान यज्ञपुरुष यथावत यजन किया । तब उनकी कृपासे इला फिर भी सुद्युम्र हो गयी ॥ १३ ॥ उस (सुद्युम्र) के भी उत्कल, गय और विनत नामक तीन पुत्र हुए ॥ १४ ॥ पहले स्त्री होने के कारण सुद्युम्र को राज्याधिकार प्राप्त नहीं हुआ ॥ १५ ॥ वसिष्ठजी के कहने से उनके पिताने उन्हें प्रतिष्ठान नामक नगर दे दिया था, वही उन्होंने पुरुरवा को दिया ॥ १६ ॥
पुरुरवा की सन्तान सम्पूर्ण दिशाओं में फैले हुए क्षत्रियगण हुए । मनुका पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौ का वध करने के कारण शुद्र हो गया ॥ १७ ॥ मनुका पुत्र करुष था । करुष से कारुष नामक महाबली और पराक्रमी क्षत्रियगण उत्पन्न हुए ॥ १८ ॥ दिष्ट का पुत्र नाभाग वैश्य हो गया था, उससे बलन्धन नामका पुत्र हुआ ॥ १९ ॥ बलन्धन से महान कीर्तिमान वत्सप्रीति, वत्सप्रीति से प्रांशु और प्रांशु से प्रजापति नामक इकलौता पुत्र हुआ ॥ २० – २२ ॥ प्रजापति से खनित्र, खनित्र से चाक्षुष तथा चाक्षुष से अति बल-पराक्रम- सम्पन्न विंश हुआ ॥ २३ – २५ ॥ विंश से विविंशक, विविंशक से खनिनेत्र, खनिनेत्र से अतिविभूति और अतिविभूतिसे अति बलवान और शूरवीर करन्धम नामक पुत्र हुआ ॥ २६ – २९ ॥ करन्धम से अविक्षित हुआ और अविक्षितके मरुत्त नामक अति बल-पराक्रमयुक्त पुत्र हुआ, जिसके विषय में आजकल भी ये दो श्लोक गाये जाते हैं ॥ ३० – ३१ ॥
‘मरुत्त का जैसा यज्ञ हुआ था वैसा इस पृथ्वीपर और किसका हुआ है, जिसकी सभी याज्ञिक वस्तुएँ सुवर्णमय और अति सुंदर थीं ॥ ३२ ॥ उस यज्ञ में इंद्र सोमरस से और ब्राह्मणगण दक्षिणा से परीतृत्प हो गये थे, तथा उसमें मरुद्रण परोसनेवाले और देवगण सदस्य थे’ ॥ ३३ ॥
उस चक्रवर्ती मरुत्त के नरिश्यंत नामक पुत्र हुआ तथा नरिश्यंत के दम और दम के राजवर्धन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ३४ – ३६ ॥ राजवर्धन से सुवृद्धि, सुवृद्धि से केवल और केवल से सुधृति का जन्म हुआ ॥ ३७ – ३९ ॥ सुधृति से नर, नर से चन्द्र और चन्द्र से केवल हुआ ॥ ४० – ४२ ॥ केवल से बन्धुमान, बन्धुमान से वेगवान, वेगवान से बुध, बुध से तृणबिंदु तथा तृणबिंदु से पहले तो इलविला नामकी एक कन्या हुई थी, किन्तु पीछे अलम्बुसा नामकी एक सुन्दरी अप्सरा उसपर अनुरक्त हो गयी । उससे तृणबिंदु के विशाल नामक पुत्र हुआ, जिसने विशाला नामक पूरी बसायी ॥ ४३ – ४९ ॥
विशाल का पुत्र हेमचन्द्र हुआ, हेमचन्द्र का चन्द्र, चन्द्रका धूम्राक्षका सृज्जय सहदेव और सहदेव का पुत्र कृशाश्व हुआ ॥ ५० – ५५ ॥ कृशाश्व के सोमदत्त नामक पुत्र हुआ, जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे । उससे जनमेजय हुआ उअर जनमेजय से सुमति का जन्म हुआ । ये सब विशालवंशीय राजा हुए । इनके विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥ ५६ – ६० ॥ तृणबिंदु के प्रसाद से विशालवंशीय समस्त राजालोग दीर्घायु, महात्मा, वीर्यवान और अति धर्मपरायण हुए ॥ ६१ ॥
मनुपुत्र शर्याति के सुकन्या नामवाली एक कन्या हुई, जिसका विवाह च्यवन ऋषि के साथ हुआ ॥ ६२ ॥ शर्याति के आनर्त्त नामक एक परम धार्मिक पुत्र हुआ । आनर्त्त के रेवत नामका पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामकी पूरी में रहकर आनर्त्तदेश का राज्यभोग किया ॥ ६३- ६४ ॥
रेवत का भी रैवत ककुद्यी नामक एक अति धर्मात्मा पुत्र था, जो अपने सौ भाइयों में सबसे बड़ा था ॥ ६५ ॥ उसके रेवती नामकी एक कन्या हुई ॥ ६६ ॥ महाराज रैवत उसे अपने साथ लेकर ब्रह्माजी से यह पूछनेके लिये कि ‘यह कन्या किस वर के योग्य है’ ब्रह्मलोक को गये ॥ ६७ ॥ उस समय ब्रह्माजी के समीप हाहा और हूहू नामक दो गन्धर्व अतितान नामक दिव्य गान गा रहे थे ॥ ६८ ॥ वहाँ गान-सम्बन्धी चित्रा, दक्षिणा और धात्री नामक त्रिमार्ग के परिवर्तन के साथ उनका विलक्षण गान सुनते हुए अनेकों युगों के परिवर्तन-कालतक ठहरनेपर भी रैवतजी को केवल एक मुहूर्त ही बीता-सा मालुम हुआ ॥ ६९ ॥
गान समाप्त हो जानेपर रैवत ने भगवान कमलयोनि को प्रणाम कर उनसे अपनी कन्याके योग्य वर पूछा ॥ ७० ॥ भगवान ब्रह्माने कहा – “तुम्हे जो वर अभिमत हों उन्हें बताओं” ॥ ७१ ॥ तब उन्होंने भगवान ब्रह्माजी को पुन: प्रणाम कर अपने समस्त अभिमत वरों का वर्णन किया और पूछा कि ‘इनमें से आपको कौन वर पसन्द है जिसे मैं यह कन्या दूँ ?’ ॥ ७२ ॥
इसपर भगवान कमलयोनि कुछ सिर झुकाकर मुसकाते हुए बोले ॥ ७३ ॥ तुमको जो-जो वर अभिमत हैं उनमें से तो अब पृथ्वीपर किसी के पुत्र-पौत्रादि की सन्तान भी नहीं हैं ॥ ७४ ॥ क्योंकि यहाँ गन्धर्वों का गान सुनते हुए तुम्हे कई चतुर्युग बीत चुके हैं ॥ ७५ ॥ इस समय पृथ्वीतलपर अट्ठाईस वे मनुका चतुर्युग प्राय: समाप्त हो चूका है ॥ ७६ ॥ तथा कलियुग का प्रारम्भ होनेवाला है ॥ ७७ ॥ अब तुम अकेले ही रह गये हो, अत: यह कन्या-रत्न किसी और योग्य वर को दो । इतने समय में तुम्हारे पुत्र, मित्र, कलत्र, मंत्रिवर्ग, भूत्यगण, बन्धुगण, सेना और कोशादिका भी सर्वथा अभाव हो चूका है” ॥ ७८-७९ ॥ तब तो राजा रैवत ने अत्यंत भयभीत हो भगवान ब्रह्माजी को पुन: प्रणाम कर पूछा ॥ ८० ॥ ‘भगवन ! ऐसी बात है, तो अब मैं इसे किसको दूँ ?’ ॥ ८१ ॥ तब सर्वलोकगुरु भगवान कमलयोनि कुछ सिर झुकाए हाथ जोडकर बोले ॥ ८२ ॥
श्रीब्रह्माजीने कहा – जिस अजन्मा, सर्वमय, विधाता परमेश्वर का आदि, मध्य, अंत, स्वरूप, स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते ॥ ८३ ॥ कलामुहुर्त्तादिमय काल भी जिसकी विभूति के परिणाम का कारण नहीं हो सकता, जिसका जन्म और मरण नहीं होता, जो सनातन और सर्वदा एकरूप हैं तथा नाम और रूपसे रहित है ॥ ८४ ॥ जिस अच्युत की कृपासे मैं प्रजाका उत्पत्तिकर्ता हूँ, जिसके क्रोध से उत्पन्न हुआ रूद्र सृष्टि का अंतकर्त्ता है तथा जिस परमात्मासे मध्य में जगत्स्थितिकारी विष्णुरूप पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ८५ ॥ जो अजन्मा मेरा रूप धारणकर संसार की रचना करता हैं, स्थिति के समय जो पुरुषरूप हैं तथा जो रुद्ररूप से सम्पूर्ण विश्व का ग्रास कर जाता हैं एवं अनंतरूप से सम्पूर्ण जगत को धारण करता हैं ॥ ८६ ॥ जो अव्ययात्मा पाक के लिये अग्निरूप हो जाता हैं, पृथ्वीरूप से सम्पूर्ण लोकों को धारण करता हैं, इन्द्रादिरूप से विश्वका पालन करता हैं और सूर्य तथा चन्द्ररूप होकर सम्पूर्ण अन्धकार का नाश करता हैं ॥ ८७ ॥ जो श्वास-प्रश्वासरूप से जीवों में चेष्टा करता हैं, जल और अन्नरूप से लोक की तृप्ति करता है, तथा विश्वकी स्थिति में संलग्न रहकर जो आकाशरूप से सबको अवकाश देता है ॥ ८८ ॥ जो सृष्टिकर्ता होकर भी विश्वरूप से आप ही अपनी रचना करता है, जगत का पालन करनेवाला होकर भी आप ही पालित होता है तथा संहारकारी होकर भी स्वयं ही संहृत होता है और जो इन तीनों से पृथक इनका अविनाशी आत्मा है ॥ ८९ ॥ जिसमें यह जगत स्थित है, जो आदिपुरुष जगत-स्वरूप है और इस जगत के ही आश्रित तथा स्वयम्भू हैं, हे नृपते ! सम्पूर्ण भूतों का उद्भवस्थान वह विष्णु धरातल में अपने अंश से अवतीर्ण हुआ है ॥ ९० ॥
हे राजन ! पूर्वकाल में तुम्हारी जो अमरावती के समान कुशस्थली नामकी पुरी थी वह अब द्वारकापुरी हो गयी है । वहीँ वे बलदेव नामक भगवान विष्णु के अंश विराजमान हैं ॥ ९१ ॥ हे नरेन्द्र ! तुम यह कन्या उन मायामानव श्रीबलदेवजी को पत्नीरूप से दो । ये बलदेवजी संसार में अति प्रशंसनीय है और तुम्हारी कन्या भी स्त्रियों में रत्नस्वरूपा है, अत: इनका योग सर्वथा उपयुक्त है ॥ ९२ ॥
श्रीपराशरजी बोले – भगवान ब्रह्माजी के ऐसा कहनेपर प्रजापति रैवत पृथ्वीतलपर आये तो देखा कि सभी मनुष्य छोटे – छोटे, कुरूप, अल्प-तेजोमय, अल्पवीर्य तथा विवेकहीन हो गये हैं ॥ ९३ ॥ अतुलबुद्धि महाराज रैवत ने अपनी कुशस्थली नामकी पुरी और ही प्रकार की देखी तथा स्फटिक पर्वत के समान जिनका वक्ष:स्थल है उन भगवान् हलायुधको अपनी कन्या दे दी ॥ ९४ ॥ भगवान बलदेवजी ने उसे बहुत ऊँची देखकर अपने हलके अग्रभाग से दबाकर नीची कर ली । तब रेवती भी तत्कालीन अन्य स्त्रियों के समान हो गयी ॥ ९५ ॥ तदनन्तर बलरामजी ने महाराज रैवत की कन्या रेवती से विधिपूर्वक विवाह किया तथा राजा भी कन्यादान करने के अनन्तर एकाग्रचित्त से तपस्या करने एक लिये हिमालयपर चले गये ॥ ९६ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे प्रथमोऽध्यायः
अध्याय-2 इक्ष्वाकुके वंशका वर्णन तथा सौभरिचरित्र
श्रीपराशरजी बोले- जिस समय रैवत ककुद्मी ब्रह्मलोकसे लौटकर नहीं आये थे उसी समय पुण्यजन नामक राक्षसोंने उनकी पुरी कुशस्थलीका ध्वंस कर दिया॥१॥ उनके सौ भाई पुण्यजन राक्षसोंके भयसे दसों दिशाओंमें भाग गये॥२॥ उन्हींके वंशमें उत्पन्न हुए क्षत्रियगण समस्त दिशाओंमें फैले ॥३॥ धृष्टके वंशमें धाटक नामक क्षत्रिय हुए॥४॥ नाभागके नाभाग नामक पुत्र हुआ, नाभागका अम्बरीष और अम्बरीषका पुत्र विरूप हुआ। विरूपसे पृषदश्वका जन्म हुआ तथा उससे रथीतर हुआ॥५–९॥ रथीतरके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है-‘रथीतरके वंशज क्षत्रिय सन्तान होते हुए भी आंगिरस कहलाये; अत: वे क्षत्रोपेत ब्राह्मण हुए’ ॥१०॥
छींकनेके समय मनुकी घ्राणेन्द्रियसे इक्ष्वाकु नामक पुत्रका जन्म हुआ॥११॥ उनके सौ पुत्रोंमेंसे विकुक्षि, निमि और दण्ड नामक तीन पुत्र प्रधान हुए तथा उनके शकुनि आदि पचास पुत्र उत्तरापथके और शेष अड़तालीस दक्षिणापथके शासक हुए ॥ १२–१४॥ । इक्ष्वाकुने अष्टकाश्राद्धका आरम्भ कर अपने पुत्र विकुक्षिको आज्ञा दी कि श्राद्धके योग्य मांस लाओ॥१५॥ उसने ‘बहुत अच्छा’ कह उनकी आज्ञाको शिरोधार्य किया और धनुष-बाण लेकर वनमें आ अनेकों मृगोंका वध किया, किन्तु अति थका-माँदा और अत्यन्त भूखा होनेके कारण विकुक्षिने उनमेंसे एक शशक (खरगोश) खा लिया और बचा हुआ मांस लाकर अपने पिताको निवेदन किया॥१६॥
उस मांसका प्रोक्षण करनेके लिये प्रार्थना किये जानेपर इक्ष्वाकुके कुल-पुरोहित वसिष्ठजीने कहा- “इस अपवित्र मांसकी क्या आवश्यकता है? तुम्हारे दुरात्मा पुत्रने इसे भ्रष्ट कर दिया है, क्योंकि उसने इसमेंसे एक शशक खा लिया है” ॥ १७॥ गुरुके ऐसा कहनेपर, तभीसे विकुक्षिका नाम शशाद पड़ा और पिताने उसको त्याग दिया॥ १८॥ पिताके मरनेके अनन्तर उसने इस पृथिवीका धर्मानुसार शासन किया॥१९॥ उस शशादके पुरंजय नामक पुत्र हुआ ॥२०॥ पुरंजयका भी यह एक दूसरा नाम पड़ा- ॥२१॥ पूर्वकालमें त्रेतायुगमें एक बार अति भीषण देवासुरसंग्राम हुआ॥ २२ ॥ उसमें महाबलवान् दैत्यगणसे पराजित हुए देवताओंने भगवान् विष्णुकी आराधना की॥ २३ ॥ तब आदि-अन्त-शून्य, अशेष जगत्प्रतिपालक, श्रीनारायणने देवताओंसे प्रसन्न होकर कहा- ॥२४॥”आपलोगोंका जो कुछ अभीष्ट है वह मैंने जान लिया है। उसके विषयमें यह बात सुनिये- ॥ २५ ॥
राजर्षि शशादका जो पुरंजय नामक पुत्र है उस क्षत्रियश्रेष्ठके शरीरमें मैं अंशमात्रसे स्वयं अवतीर्ण होकर उन सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करूँगा। अतः तुमलोग पुरंजयको दैत्योंके वधके लिये तैयार करो”॥२६॥
यह सुनकर देवताओंने विष्णुभगवानको प्रणाम किया और पुरंजयके पास आकर उससे कहा- ॥ २७॥ “हे क्षत्रिय श्रेष्ठ ! हमलोग चाहते हैं कि अपने शत्रुओंके वधमें प्रवृत्त हमलोगोंकी आप सहायता करें। हम अभ्यागत जनोंका आप मानभंग न करें।” यह सुनकर पुरंजयने कहा- ॥२८॥”ये जो त्रैलोक्यनाथ शतक्रतु आपलोगोंके इन्द्र हैं यदि मैं इनके कन्धेपर चढ़कर आपके शत्रुओंसे युद्ध कर सकूँ तो आपलोगोंका सहायक हो सकता हूँ” ॥२९॥
यह सुनकर समस्त दवगण और इन्द्रन ‘बहुत अच्छा’-ऐसा कहकर उनका कथन स्वीकार कर लिया॥३०॥ फिर वृषभ-रूपधारी इन्द्रकी पीठपर चढ़कर चराचरगुरु भगवान् अच्युतके तेजसे परिपूर्ण होकर राजा पुरंजयने रोषपूर्वक सभी दैत्योंको मार डाला॥३१॥ उस राजाने बैलके ककुद् (कन्धे)-पर बैठकर दैत्यसेनाका वध किया था, अतः उसका नाम ककुत्स्थ पड़ा॥ ३२॥ ककुत्स्थके अनेना नामक पुत्र हुआ॥३३॥ अनेनाके पृथु, पृथुके विष्टराश्व, उनके चान्द्र युवनाश्व तथा उस चान्द्र युवनाश्वके शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने शावस्ती पुरी बसायी थी॥ ३४-३७॥
शावस्तके बृहदश्व तथा बृहदश्वके’ कुवलयाश्वका जन्म हुआ, जिसने वैष्णवतेजसे पूर्णता लाभ कर अपने इक्कीस सहस्र पुत्रोंके साथ मिलकर महर्षि उदकके अपकारी धुन्धु नामक दैत्यको मारा था; अतः उनका नाम धुन्धुमार हुआ॥३८–४०॥ उनके सभी पुत्र धुन्धुके मुखसे निकले हुए नि:श्वासाग्निसे जलकर मर गये॥४१॥ उनमेंसे केवल दृढाश्व, चन्द्राश्व और कपिलाश्व-ये तीन ही बचे थे॥४२॥ दृढाश्वसे हर्यश्व, हर्यश्वसे निकुम्भ, निकुम्भसे अमिताश्व, अमिताश्वसे कृशाश्व, कृशाश्वसे प्रसेनजित् और प्रसेनजित्से युवनाश्वका जन्म हुआ॥ ४३-४८॥ युवनाश्व नि:सन्तान होनेके कारण खिन्न चित्तसे मुनीश्वरोंके आश्रमोंमें रहा करता था; उसके दुःखसे द्रवीभूत होकर दयालु मुनिजनोंने उसके पुत्र उत्पन्न होनेके लिये यज्ञानुष्ठान किया॥४९॥ आधी रातके समय उस यज्ञके समाप्त होनेपर मुनिजन मन्त्रपूत जलका कलश वेदीमें रखकर सो गये॥ ५० ॥ उनके सो जानेपर अत्यन्त पिपासाकुल होकर राजाने उस स्थानमें प्रवेश किया और सोये होनेके कारण उन ऋषियोंको उन्होंने नहीं जगाया॥५१-५२॥ तथा उस अपरिमित माहात्म्यशाली कलशके मन्त्रपूत जलको पी लिया॥५३॥ जागनेपर ऋषियोंने पूछा-‘इस मन्त्रपूत जलको किसने पिया है? ॥ ५४॥ इसका पान करनेपर ही युवनाश्वकी पत्नी महाबलविक्रमशील पुत्र उत्पन्न करेगी।’ यह सुनकर राजाने कहा-“मैंने ही बिना जाने यह जल पी लिया है” ॥५५॥ अतः युवनाश्वर्क उदरमें गर्भ स्थापित हो गया और क्रमशः बढ़ने लगा॥५६॥ यथासमय बालक राजाकी दायीं कोख फाड़कर निकल आया॥५७॥ किन्तु इससे राजाकी मृत्यु नहीं हुई ॥५८॥
उसके जन्म लेनेपर मुनियोंने कहा- “यह बालक क्या पान करके जीवित रहेगा?” ॥ ५९॥ उसी समय देवराज इन्द्रने आकर कहा-“यह मेरे आश्रय-जीवित रहेगा’ ॥६०॥ अत: उसका नाम मान्धाता हुआ। देवेन्द्रने उसके मुख में अपनी तर्जनी (अँगूठेके पासकी) अँगुली दे दी और वह उसे पीने लगा। उस अमृतमयी अँगुलीका आस्वादन करनेसे वह एक ही दिनमें बढ़ गया॥६१-६२ ॥ तभीसे चक्रवर्ती मान्धाता सप्तद्वीपा पृथिवीका राज्य भोगने लगा॥६३ ॥
इसके विषयमें यह श्लोक कहा जाता है॥६४॥ ‘जहाँसे सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होता है वह सभी क्षेत्र युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका है॥६५॥
मान्धाताने शतबिन्दुकी पुत्री बिन्दुमतीसे विवाह किया और उससे पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये तथा उसी (बिन्दुमती)से उनके पचास कन्याएँ हुईं ॥६६-६८॥ उसी समय बढच सौभरि नामक महर्षिने बारह वर्षतक जलमें निवास किया॥६९॥ उस जलमें सम्मद नामक एक बहुत-सी सन्तानोंवाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था॥ ७० ॥ उसके पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदि उसके आगे-पीछे तथा इधर-उधर पक्ष, पुच्छ और सिरके ऊपर घूमते हुए अति आनन्दित होकर रात-दिन उसीके साथ क्रीडा करते रहते थे॥७१॥ तथा वह भी अपनी सन्तानके सुकोमल स्पर्शसे अत्यन्त हर्षयुक्त होकर उन मुनिश्वरके देखते-देखते अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अहर्निश क्रीडा करता रहता था॥७२॥ इस प्रकार जलमें स्थित सौभरि ऋषिने एकाग्रतारूप समाधिको छोड़कर रात-दिन उस मत्स्यराजकी अपने पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ अति रमणीय क्रीडाओंको देखकर विचार किया- ॥७३॥ ‘अहो! यह धन्य है, जो ऐसी अनिष्ट योनिमें उत्पन्न होकर भी अपने इन पुत्र, पौत्र और दौहित्र आदिके साथ निरन्तर रमण करता हुआ हमारे हृदयमें डाह उत्पन्न करता है। ७४॥ हम भी इसी प्रकार अपने पुत्रादिके साथ अति ललित क्रीडाएँ करेंगे।’ ऐसी अभिलाषा करते हुए वे उस जलके भीतरसे निकल आये और सन्तानार्थ गृहस्थाश्रममें प्रवेश करनेकी कामनासे कन्या ग्रहण करनेके लिये राजा मान्धाताके पास आये ॥ ७५ ॥
मुनिवरका आगमन सुन राजाने उठकर अर्घ्यदानादिसे उनका भली प्रकार पूजन किया। तदनन्तर सौभरि मुनिने आसन ग्रहण करके राजासे कहा ॥ ७६॥
सौभरिजी बोले-हे राजन्! मैं कन्या-परिग्रहका अभिलाषी हूँ, अतः तुम मुझे एक कन्या दो; मेरा प्रणय भंग मत करो। ककुत्स्थवंशमें कार्यवश आया हुआ कोई भी प्रार्थी पुरुष कभी खाली हाथ नहीं लौटता ॥७७॥ हे मान्धाता! पृथिवीतलमें और भी अनेक राजालोग हैं और उनके भी कन्याएँ उत्पन्न हुई हैं; किंतु याचकोंको माँगी हुई वस्तु दान देनेके नियममें दृढप्रतिज्ञ तो यह तुम्हारा प्रशंसनीय कुल ही है॥७८॥ हे राजन्! तुम्हारे पचास कन्याएँ हैं, उनमेंसे तुम मुझे केवल एक ही दे दो। हे नृपश्रेष्ठ! मैं इस समय प्रार्थनाभंगकी आशंकासे उत्पन्न अतिशय दुःखसे भयभीत हो रहा हूँ॥७९॥
श्रीपराशरजी बोले-ऋषिके ऐसे वचन सुनकर राजा उनके जराजीर्ण देहको देखकर शापके भयसे अस्वीकार करनेमें कातर हो उनसे डरते हुए कुछ नीचेको मुख करके मनही-मन चिन्ता करने लगे। ८०॥
सौभरिजी बोले-हे नरेन्द्र! तुम चिन्तित क्यों होते हो? मैंने इसमें कोई असह्य बात तो कही नहीं है; जो कन्या एक दिन तुम्हें अवश्य देनी ही है उससे ही यदि हम कृतार्थ हो सकें तो तुम क्या नहीं प्राप्त कर सकते हो? ॥ ८१॥
श्रीपराशरजी बोले-तब भगवान् सौभरिके शापसे भयभीत हो राजा मान्धाताने नम्रतापूर्वक उनसे कहा ॥ ८२॥
राजा बोले- भगवन्! हमारे कुलकी यह रीति है कि जिस सत्कुलोत्पन्न वरको कन्या पसन्द करती है वह उसीको दी जाती है। आपकी प्रार्थना तो हमारे मनोरथोंसे भी परे है। न जाने, किस प्रकार यह उत्पन्न हुई है? ऐसी अवस्थामें मैं नहीं जानता कि क्या करूँ? बस, मुझे यही चिन्ता है।
महाराज मान्धाताके ऐसा कहनेपर मुनिवर सौभरिने विचार किया— ॥८३॥ ‘मुझको टाल देनेका यह एक और ही उपाय है। ‘यह बूढ़ा है, प्रौढ़ा स्त्रियाँ भी इसे पसन्द नहीं कर सकतीं, फिर कन्याओंकी तो बात ही क्या है?’ ऐसा सोचकर ही राजाने यह बात कही है। अच्छा, ऐसा ही सही, मैं भी ऐसा ही उपाय करूँगा।’ यह सब सोचकर उन्होंने मान्धातासे कहा- ॥८४॥ “यदि ऐसी बात है तो कन्याओंके अन्त:पुर-रक्षक नपुंसकको वहाँ मेरा प्रवेश करानेके लिये आज्ञा दो। यदि कोई कन्या ही मेरी इच्छा करेगी तो ही मैं स्त्री-ग्रहण करूँगा नहीं तो इस ढलती अवस्थामें मुझे इस व्यर्थ उद्योगका कोई प्रयोजन नहीं है।” ऐसा कहकर वे मौन हो गये॥ ८५ ॥
तब मुनिके शापकी आशंकासे मान्धाताने कन्याओंके अन्तःपुर-रक्षकको आज्ञा दे दी॥८६॥ उसके साथ अन्तःपुरमें प्रवेश करते हुए भगवान् सौभरिने अपना रूप सकल सिद्ध और गन्धर्वगणसे भी अतिशय मनोहर बना लिया॥ ८७॥ उन ऋषिवरको अन्तःपुरमें ले जाकर अन्तःपुररक्षकने उन कन्याओंसे कहा- ॥८८॥
“तुम्हारे पिता महाराज मान्धाताकी आज्ञा है कि ये ब्रह्मर्षि हमारे पास एक कन्याके लिये पधारे हैं और मैंने इनसे प्रतिज्ञा की है कि मेरी जो कोई कन्या श्रीमानको वरण करेगी उसकी स्वच्छन्दतामें मैं किसी प्रकारकी बाधा नहीं डालूँगा।” यह सुनकर उन सभी कन्याओंने यूथपति गजराजका वरण करनेवाली हथिनियोंके समान अनुराग और आनन्दपूर्वक ‘अकेली मैं ही-अकेली मैं ही वरण करती हूँ’ ऐसा कहते हुए उन्हें वरण कर लिया। वे परस्पर कहने लगीं- ॥८९-९१ ॥’अरी बहिनो! व्यर्थ चेष्टा क्यों करती हो? मैं इनका वरण करती हूँ, ये तुम्हारे अनुरूप हैं भी नहीं। विधाताने ही इन्हें मेरा भर्त्ता और मुझे इनकी भार्या बनाया है। अतः तुम शान्त हो जाओ॥९२॥ अन्तःपुरमें आते ही सबसे पहले मैंने ही इन्हें वरण किया था, तुम क्यों मरी जाती हो?’ इस प्रकार ‘मैंने वरण किया है-पहले मैंने वरण किया है’ ऐसा कह-कहकर उन राजकन्याओंमें उनके लिये बड़ा कलह मच गया॥९३॥
जब उन समस्त कन्याओंने अतिशय अनुरागवश उन अनिन्द्यकीर्ति मुनिवरको वरण कर लिया तो कन्यारक्षकने नम्रतापूर्वक राजासे सम्पूर्ण वृत्तान्त ज्यों-कात्यों कह सुनाया॥ ९४॥
श्रीपराशरजी बोले- यह जानकर राजाने ‘यह क्या कहता है?”यह कैसे हुआ?’ ‘मैं क्या करूँ?’ ‘मैंने क्यों उन्हें [अन्दर जानेके लिये] कहा था?’ इस प्रकार सोचते हुए अत्यन्त व्याकुल चित्तसे इच्छा न होते हुए भी जैसेतैसे अपने वचनका पालन किया और अपने अनुरूप विवाह-संस्कारके समाप्त होनेपर महर्षि सौभरि उन समस्त कन्याओंको अपने आश्रमपर ले गये॥९५-९६ ॥
वहाँ आकर उन्होंने दूसरे विधाताके समान अशेष-शिल्प-कल्प-प्रणेता विश्वकर्माको बुलाकर कहा कि इन समस्त कन्याओंमेंसे प्रत्येकके लिये पृथक्-पृथक् महल बनाओ, जिनमें खिले हुए कमल और कूजते हुए सुन्दर हंस तथा कारण्डव आदि जल-पक्षियोंसे सुशोभित जलाशय हों, सुन्दर उपधान (मसनद), शय्या और परिच्छद (ओढ़नेके वस्त्र) हों तथा पर्याप्त खुला हुआ स्थान हो ॥ ९७ ॥
तब सम्पूर्ण शिल्प-विद्याके विशेष आचार्य विश्वकर्माने भी उनकी आज्ञानुसार सब कुछ तैयार करके उन्हें दिखलाया॥९८॥ तदनन्तर महर्षि सौभरिकी आज्ञासे उन महलोंमें अनिवार्यानन्द नामकी महानिधि निवास करने लगी॥९९॥ तब तो उन सम्पूर्ण महलोंमें नाना प्रकारके भक्ष्य, भोज्य और लेह्य आदि सामग्रियोंसे वे राजकन्याएँ आये हुए अतिथियों और अपने अनुगत भृत्यवर्गोंको तृप्त करने लगीं ॥ १० ॥
एक दिन पुत्रियोंके स्नेहसे आकर्षित होकर राजा मान्धाता यह देखनेके लिये कि वे अत्यन्त दु:खी हैं या सुखी? महर्षि सौभरिके आश्रमके निकट आये, तो उन्होंने वहाँ अति रमणीय उपवन और जलाशयोंसे युक्त स्फटिकशिलाके महलोंकी पंक्ति देखी जो फैलती हुई मयूखमालाओंसे अत्यन्त मनोहर मालूम पड़ती थी॥ १०१॥ तदनन्तर वे एक महलमें जाकर अपनी कन्याका स्नेहपूर्वक आलिंगन कर आसनपर बैठे और फिर बढ़ते हुए प्रेमके कारण नयनोंमें जल भरकर बोले- ॥ १०२॥”बेटी ! तुमलोग यहाँ सुखपूर्वक हो न? तुम्हें किसी प्रकारका कष्ट तो नहीं है? महर्षि सौभरि तुमसे स्नेह करते हैं या नहीं? क्या तुम्हें हमारे घरकी भी याद आती है?” पिताके ऐसा कहनेपर उस राजपुत्रीने कहा- ॥ १०३ ॥
“पिताजी! यह महल अति रमणीय है, ये उपवनादि भी अतिशय मनोहर हैं, खिले हुए कमलोंसे – युक्त इन जलाशयोंमें जलपक्षिगण सुन्दर बोली बोलते रहते हैं, भक्ष्य, भोज्य आदि खाद्य पदार्थ, उबटन और वस्त्राभूषण आदि भोग तथा सुकोमल शय्यासनादि सभी मनके अनुकूल हैं; इस प्रकार हमारा गार्हस्थ्य यद्यपि सर्वसम्पत्तिसम्पन्न है॥ १०४॥ तथापि अपनी जन्मभूमिकी याद भला किसको नहीं आती? ॥ १०५ ॥ आपकी कृपासे यद्यपि सब कुछ मंगलमय है॥१०६॥ तथापि मुझे एक बड़ा दुःख है कि हमारे पति ये महर्षि मेरे घरसे बाहर कभी नहीं जाते। अत्यन्त प्रीतिके कारण ये केवल मेरे ही पास रहते हैं, मेरी अन्य बहिनोंके पास ये जाते ही नहीं हैं॥ १०७॥ इस कारणसे मेरी बहिनें अति दुःखी होंगी। यही मेरे अति दुःखका कारण है।” उसके ऐसा कहनेपर राजाने दूसरे महलमें आकर अपनी कन्याका आलिंगन किया और आसनपर बैठनेके अनन्तर उससे भी इसी प्रकार पूछा॥ १०८॥ उसने भी उसी प्रकार महल आदि सम्पूर्ण उपभोगोंके सुखका वर्णन किया और कहा कि अतिशय प्रीतिके कारण महर्षि केवल मेरे ही पास रहते हैं और किसी बहिनके पास नहीं जाते। इस प्रकार पूर्ववत् सुनकर राजा एक-एक करके प्रत्येक महलमें गये और प्रत्येक कन्यासे इसी प्रकार पूछा ॥ १०९ ॥ और उन सबने भी वैसा ही उत्तर दिया। अन्तमें आनन्द और विस्मयके भारसे विवशचित्त होकर उन्होंने एकान्तमें स्थित भगवान् सौभरिकी पूजा करनेके अनन्तर उनसे कहा- ॥११०॥”भगवन् ! आपकी ही योगसिद्धिका यह महान् प्रभाव देखा है। इस प्रकारके महान् वैभवके साथ और किसीको भी विलास करते हुए हमने नहीं देखा; सो यह सब आपकी तपस्याका ही फल है।” इस प्रकार उनका अभिवादन कर वे कुछ कालतक उन मुनिवरके साथ ही अभिमत भोग भोगते रहे और अन्तमें अपने नगरको चले आये॥ १११॥
कालक्रमसे उन राजकन्याओंसे सौभरि मुनिके डेढ़ सौ पुत्र हुए ॥ ११२॥ इस प्रकार दिन-दिन स्नेहका प्रसार होनेसे उनका हृदय अतिशय ममतामय हो गया॥११३॥ वे सोचने लगे- क्या मेरे ये पुत्र मधुर बोलीसे बोलेंगे? अपने पाँवोंसे चलेंगे? क्या ये युवावस्थाको प्राप्त होंगे? उस समय क्या मैं इन्हें सपत्नीक देख सकूँगा? फिर क्या इनके पुत्र होंगे और मैं इन्हें अपने पुत्र-पौत्रोंसे युक्त देखूगा?’ इस प्रकार कालक्रमसे दिनानुदिन बढ़ते हुए इन मनोरथोंकी उपेक्षा कर वे सोचने लगे- ॥११४॥ । ‘अहो! मेरे मोहका कैसा विस्तार है॥ ११५॥ । इन मनोरथोंकी तो हजारों-लाखों वर्षों में भी समाप्ति नहीं हो सकती। उनमेंसे यदि कुछ पूर्ण भी हो जाते हैं तो उनके स्थानपर अन्य नये मनोरथोंकी उत्पत्ति हो जाती है॥११६॥ मेरे पुत्र पैरोंसे चलने लगे, फिर वे युवा हुए, उनका विवाह हुआ तथा उनके सन्तानें हुईं-यह सब तो मैं देख चुका; किन्तु अब मेरा चित्त उन पौत्रोंके पुत्र-जन्मको भी देखना चाहता है! ॥ ११७॥ यदि उनका जन्म भी मैंने देख लिया तो फिर मेरे चित्तमें दूसरा मनोरथ उठेगा और यदि वह भी पूरा हो गया तो अन्य मनोरथकी उत्पत्तिको ही कौन रोक सकता है? ॥ ११८॥
मैंने अब भली प्रकार समझ लिया है कि मृत्युपर्यन्त मनोरथोंका अन्त तो होना नहीं है और जिस चित्तमें मनोरथोंकी आसक्ति होती है वह कभी परमार्थमें लग नहीं सकता॥ ११९॥ अहो! मेरी वह समाधि जलवासके साथी मत्स्यके संगसे अकस्मात् नष्ट हो गयी और उस संगके कारण ही मैंने स्त्री और धन आदिका परिग्रह किया तथा परिग्रहके कारण ही अब मेरी तृष्णा बढ़ गयी है॥ १२० ॥ एक शरीरका ग्रहण करना ही महान् दुःख है और मैंने तो इन राजकन्याओंका परिग्रह करके उसे पचास गुना कर दिया है। तथा अनेक पुत्रोंके कारण अब वह बहुत ही बढ़ गया है॥ १२१॥ अब आगे भी पुत्रोंके पुत्र तथा उनके पुत्रोंसे और उनका पुन:-पुनः विवाहसम्बन्ध करनेसे वह और भी बढ़ेगा। यह ममतारूप विवाहसम्बन्ध अवश्य बड़े ही दुःखका कारण है॥ १२२॥ जलाशयमें रहकर मैंने जो तपस्या की थी उसकी फलस्वरूपा यह सम्पत्ति तपस्याकी बाधक है। मत्स्यके संगसे मेरे चित्तमें जो पुत्र आदिका राग उत्पन्न हुआ था उसीने मुझे ठग लिया॥१२३॥ नि:संगता ही यतियोंको मुक्ति देनेवाली है, सम्पूर्ण दोष संगसे ही उत्पन्न होते हैं। संगके कारण तो योगारूढ यति भी पतित हो जाते हैं, फिर मन्दमति मनुष्योंकी तो बात ही क्या है? ॥१२४॥ । परिग्रहरूपी ग्राहने मेरी बुद्धिको पकड़ा हुआ है। इस समय मैं ऐसा उपाय करूँगा जिससे दोषोंसे मुक्त होकर फिर अपने कुटुम्बियोंके दुःखसे दुःखी न होऊँ॥ १२५ ॥ अब मैं सबके विधाता, अचिन्त्यरूप, अणुसे भी अणु और सबसे महान् सत्त्व एवं तमःस्वरूप तथा ईश्वरोंके भी ईश्वर भगवान् विष्णुकी तपस्या करके आराधना करूँगा॥ १२६॥ उन सम्पूर्ण तेजोमय, सर्वस्वरूप, अव्यक्त, विस्पष्टशरीर, अनन्त श्रीविष्णुभगवान्में मेरा दोषरहित चित्त सदा निश्चल रहे जिससे मुझे फिर जन्म न लेना पड़े॥ १२७॥ जिस सर्वरूप, अमल, अनन्त, सर्वेश्वर और आदि-मध्यशून्यसे पृथक् और कुछ भी नहीं है उस गुरुजनोंके भी परम गुरु भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ’॥ १२८॥
श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार मन-ही-मन सोचकर सौभरि मुनि पुत्र, गृह, आसन, परिच्छद आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको छोड़कर अपनी समस्त स्त्रियोंके सहित वनमें चले गये ॥ १२९॥ वहाँ वानप्रस्थोंके योग्य समस्त क्रियाकलापका अनुष्ठान करते हुए सम्पूर्ण पापोंका क्षय हो जानेपर तथा मनोवृत्तिके राग-द्वेषहीन हो जानेपर, आहवनीयादि अग्नियोंको अपने में स्थापित कर संन्यासी हो गये॥१३०॥ फिर भगवानमें आसक्त हो सम्पूर्ण कर्मकलापका त्याग कर परमात्मपरायण पुरुषोंके अच्युतपद (मोक्ष)-को प्राप्त किया, जो अजन्मा, अनादि, अविनाशी, विकार और मरणादि धर्मोंसे रहित, इन्द्रियादिसे अतीत तथा अनन्त है॥१३१॥
इस प्रकार मान्धाताकी कन्याओंके सम्बन्धमें मैंने इस चरित्रका वर्णन किया है। जो कोई इस सौभरि-चरित्रका स्मरण करता है, अथवा पढ़तापढ़ाता, सुनता-सुनाता, धारण करता-कराता, लिखता-लिखवाता तथा सीखता-सिखाता अथवा उपदेश करता है उसके छ: जन्मोंतक दुःसन्तति, असद्धर्म और वाणी अथवा मनकी कुमार्गमें प्रवृत्ति तथा किसी भी पदार्थमें ममता नहीं होती॥ १३२-१३३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वितीयोऽध्यायः
अध्याय-3 मान्धाताकी सन्तति, त्रिशंकुका स्वर्गारोहण तथा सगरकी उतपत्ति और विजय
अब हम मान्धाताके पुत्रोंकी सन्तानका वर्णन करते हैं॥१॥ मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनाश्व नामक पुत्र हुआ॥२॥ उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा-गोत्रीय हारीतगण हुए॥३॥ पूर्वकालमें रसातलमें मौनेय नामक छ: करोड़ गन्धर्व रहते थे। उन्होंने समस्त नागकुलोंके प्रधान-प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे॥४॥ गन्धर्वोके पराक्रमसे अपमानित उन नागेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जानेपर उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसदृश आँखें खुल गयी हैं निद्राके अन्तमें जगे हुए उन जलशायी भगवान् सर्वदेवेश्वरको प्रणाम कर उनसे नागगणने कहा- “भगवन्! इन गन्धर्वोसे उत्पन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा?” ॥५॥ तब आदि-अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा—’युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका जो यह पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैं उन सम्पूर्ण दुष्ट गन्धर्वोका नाश कर दूंगा’॥६॥ यह सुनकर भगवान् जलशायीको प्रणाम कर समस्त नागाधिपतिगण नागलोकमें लौट आये और पुरुकुत्सको लानेके लिये [अपनी बहिन एवं पुरुकुत्सकी भार्या] नर्मदाको प्रेरित किया॥७॥ तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्सको रसातलमें ले आयी॥८॥ रसातलमें पहुँचनेपर पुरुकुत्सने भगवानके तेजसे अपने शरीरका बल बढ़ जानेसे सम्पूर्ण गन्धर्वोको मार डाला और फिर अपने नगरमें लौट आया॥९-१०॥ उस समय समस्त नागराजोंने नर्मदाको यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसको सर्प-विषसे कोई भय न होगा॥११॥
इस विषयमें यह श्लोक भी है— ॥१२॥ ‘नर्मदाको प्रात:काल नमस्कार है और रात्रिकालमें भी नर्मदाको नमस्कार है। हे नर्मदे! तुमको बारम्बार नमस्कार है, तुम मेरी विष और सर्पसे रक्षा करो’॥ १३ ॥ इसका उच्चारण करते हुए दिन अथवा रात्रिमें किसी समय भी अन्धकारमें जानेसे सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करनेवालेका खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता ॥ १४॥
पुरुकुत्सको नागपतियोंने यह वर दिया कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा॥ १५॥ पुरुकुत्सने नर्मदासे त्रसद्दस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया॥१६॥ त्रसदस्युसे अनरण्य हुआ, जिसे दिग्विजयके समय रावणने मारा था॥ १७॥ अनरण्यके पृषदश्व, पृषदश्वके हर्यश्व, हर्यश्वके हस्त, हस्तके सुमना, सुमनाके त्रिधन्वा, त्रिधन्वाके त्रय्यारुणि और त्रय्यारुणिके सत्यव्रत नामक पुत्र हुआ, जो पीछे त्रिशंकु कहलाया॥ १८-२१॥ वह त्रिशंकु चाण्डाल हो गया था॥ २२॥ एक बार बारह वर्षतक अनावृष्टि रही। उस समय विश्वामित्र मुनिके स्त्री और बाल-बच्चोंके पोषणार्थ तथा अपनी चाण्डालताको छुड़ानेके लिये वह गंगाजीके तटपर एक वटके वृक्षपर प्रतिदिन मृगका मांस बाँध आता था॥ २३॥ इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्रजीने उसे सदेह स्वर्ग भेज दिया॥ २४॥
त्रिशंकुसे हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्रसे रोहिताश्व, रोहिताश्वसे हरित, हरितसे चंचु, चंचुसे विजय और वसुदेव, विजयसे रुरुक और रुरुकसे वृकका जन्म हुआ॥ २५ ॥ वृकके बाहु नामक पुत्र हुआ जो हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंसे पराजित होकर अपनी गर्भवती पटरानीके सहित वनमें चला गया था॥ २६ ॥ पटरानीकी सौतने उसका गर्भ रोकनेकी इच्छासे उसे विष खिला दिया॥ २७॥ उसके प्रभावसे उसका गर्भ सात वर्षतक गर्भाशयहीमें रहा ॥ २८ ॥ अन्तमें, बाहु वृद्धावस्थाके कारण और्व मुनिके आश्रमके समीप मर गया ॥ २९॥ तब उसकी पटरानीने चिता बनाकर उसपर पतिका शव स्थापित कर उसके साथ सती होनेका निश्चय किया॥३०॥उसी समय भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालके जाननेवाले भगवान् और्वने अपने आश्रमसे निकलकर उससे कहा- ॥३१॥ अयि साध्वि! इस व्यर्थ दुराग्रहको छोड़। तेरे उदरमें सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी, अत्यन्त बल-पराक्रमशील, अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवर्ती राजा है॥३२॥ तू ऐसे दुस्साहसका उद्योग न कर।’ ऐसा कहे जानेपर वह अनुमरण (सती होने)-के आग्रहसे विरत हो गयी॥३३॥ और भगवान् और्व उसे अपने आश्रमपर ले आये ॥ ३४॥ वहाँ कुछ ही दिनोंमें, उसके उस गर (विष)-के साथ ही एक अति तेजस्वी बालकने जन्म लिया॥ ३५ ॥भगवान् और्वने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम ‘सगर’ रखा तथा उसका उपनयनसंस्कार होनेपर और्वने ही उसे वेद, शास्त्र एवं भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रोंकी शिक्षा दी॥ ३६-३७॥ बुद्धिका विकास होनेपर उस बालकने अपनी मातासे कहा- ॥३८॥”माँ! यह तो बता, इस तपोवनमें हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं?” इसी प्रकारके और भी प्रश्न पूछनेपर माताने उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त कह दिया॥ ३९॥
तब तो पिताके राज्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण उसने हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंको मार डालनेकी प्रतिज्ञा की और प्रायः सभी हैहय एवं तालजंघवंशीय राजाओंको नष्ट कर दिया॥ ४०-४१॥ उनके पश्चात् शक, यवन, काम्बोज, पारद और पह्लवगण भी हताहत होकर सगरके कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये॥४२॥
वसिष्ठजीने उन्हें जीवन्मृत (जीते हुए ही मरेके समान) करके सगरसे कहा। “बेटा! इन जीते-जी मरे हुओंका पीछा करनेसे क्या लाभ है?॥४४॥ देख, तेरी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये मैंने ही इन्हें स्वधर्म और द्विजातियोंके संसर्गसे वंचित कर दिया है”॥४५॥ राजाने ‘जो आज्ञा’ कहकर गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया और उनके वेष बदलवा दिये॥४६॥
उसने यवनोंके सिर मुड़वा दिये, शकोंको अर्द्धमुण्डित कर दिया, पारदोंके लम्बे-लम्बे केश रखवा दिये, पह्लवोंके मूंछ-दाढ़ी रखवा दी तथा इनको और इनके समान अन्यान्य क्षत्रियोंको भी स्वाध्याय और वषट्कारादिसे बहिष्कृत कर दिया॥४७॥ अपने धर्मको छोड़ देनेके कारण ब्राह्मणोंने भी इनका परित्याग कर दिया; अतः ये म्लेच्छ हो गये॥४८॥
तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानीमें आकर अप्रतिहत सैन्यसे युक्त हो इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपवती पृथिवीका शासन करने लगे॥ ४९ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे तृतीयोंऽध्यायः
अध्याय-4 सगर, सौदास, खट्वांग और भगवान राम के चरित्र का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले – काश्यपसुता सुमति और विदर्भराज – कन्या केशिनी ये राजा सगर की दो स्त्रियाँ थीं ॥ १ ॥ उनसे संतानोत्पत्तिके लिये परम समाधिद्वारा आराधना किये जानेपर भगवान और्व ने यह वर दिया ॥ २ ॥ एकसे वंश की वृद्धि करनेवाला एक पुत्र तथा दूसरी से साठ हजार पुत्र उत्पन्न होंगे, इसमें से जिसको जो अभीष्ट हो वह इच्छापूर्वक उसी को ग्रहण कर सकती है । उनके ऐसा कहनेपर केशिनीने एक तथा सुमति ने साठ हजार पुत्रों का वर माँगा ॥ ३ – ४ ॥
महर्षि के ‘तथास्तु’ कहनेपर कुछ ही दिनों में केशिनी ने वंश को बढ़ानेवाले असमजंस नामक एक पुत्र को जन्म दिया और काश्यपकुमारी सुमति से साठ सहस्त्र पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५ – ६ ॥ राजकुमार असमजंस के अंशुमान नामक पुत्र हुआ ॥ ७ ॥ यह असमजंस बाल्यावस्था से ही बड़ा दुराचारी था ॥ ८ ॥ पिताने सोचा कि बाल्यावस्था के बीत जानेपर यह बहुत समझदार होगा ॥ ९ ॥ किन्तु यौवन के बीत जानेपर भी जब उसका आचारण न सुधरा तो पिताने उसे त्याग दिया ॥ १० ॥ उनके साथ हजार पुत्रों ने भी असमजंस के चरित्र का ही अनुकरण किया ॥ ११ ॥
तब असमजंस के चरित्र का अनुकरण करनेवाले उन सगरपुत्रोंद्वारा संसार में यज्ञादि सन्मार्ग का उच्छेद हो जानेपर सकल-विदयानिधान , अशेषदोषहीन, भगवान पुरुषोत्तम के अंशभूत श्रीकपिलदेव से देवताओं ने प्रणाम करने के अनन्तर उनके विषय में कहा ॥ १२ ॥ भगवन ! राजा सगर के ये सभी पुत्र असमजंस के चरित्र का ही अनुसरण कर रहे है ॥ १३ ॥ इन सबके असन्मार्ग में प्रवृत्त रहने से संसार की क्या दशा होगी ? ॥ १४ ॥ प्रभो ! संसार में दीनजनों की रक्षा के लिये ही आपने यह शरीर ग्रहण किया है । यह सुनकर भगवान कपिल ने कहा, ‘ये सब थोड़े ही दिनों में नष्ट हो जायेंगे ‘ ॥ १५ ॥
इसी समय सगर ने अश्वमेध यज्ञ आरम्भ किया ॥ १६ ॥ उसमें उसके पुत्रोंद्वारा सुरक्षित घोड़े को कोई व्यक्ति चुराकर पृथ्वी में घुस गया ॥ १७ ॥ तब उस घोड़े के खुरों के चिन्हों का अनुसरण करते हुए उनके पुत्रों में से प्रत्येक ने एक – एक योजन पृथ्वी खोद डाली ॥ १८ ॥ तथा पाताल में पहुँचकर उन राजकुमारों ने अपने घोड़े को फिरता हुआ देखा ॥ १९ ॥ पासही में मेघावरणहीन शरत्काल के सूर्य के समान अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए घोड़े को चुरानेवाले परामर्षि कपिल को सिर झुकाये बैठे देखा ॥ २० ॥
तब तो वे दुरात्मा अपने अस्त्र-शस्त्रों को उठाकर यही हमारा अपकारी और यज्ञ में विघ्न डालनेवाला है, इस घोड़े को चुरानेवाले को मारो, मारो ऐसा चिल्लाते हुए उनकी ओर दौड़े ॥ २१ ॥ तब भगवान कपिलदेव के कुछ आँख बदलकर देखते ही वे सब अपने ही शरीर से उत्पन्न हुए अग्नि में जलकर नष्ट हो गये ॥ २२ ॥
महाराज सगर को जब मालुम हुआ कि घोड़े का अनुसरण करनेवाले उसके समस्त पुत्र महर्षि कपिल के तेजसे दग्ध हो गये है तो उन्होंने असमजंस के पुत्र अंशुमान को घोडा ले आनेके लिये नियुक्त किया ॥ २३ ॥ वह सगर-पुत्रोंद्वारा खोदे हुए मार्गसे कपिलजी के पास पहुँचा और भक्तिविनम्र होकर उनकी स्तुति की ॥ २४ ॥ तब भगवान कपिल ने उससे कहा, ‘बेटा ! जा, इस घोड़े को ले जाकर अपने दादा को दे और तेरी जो इच्छा हो वही वर माँग ले । तेरा पौत्र गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वीपर लायेगा ॥ २५ – २६ ॥ इसपर अंशुमान ने यही कहा कि मुझे ऐसा वर दीजिये जो ब्रह्मदंड से आहत होकर मरे हुए मेरे अस्वर्ग्य पितृगण को स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला हो ॥ २७ ॥ यह सुनकर भगवान ने कहा, ‘मैं तुझसे पहले ही कह चूका हूँ कि तेरा पौत्र गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वीपर लायेगा ॥ २८ ॥ उनके जलसे इनकी अस्थियों की भस्म का स्पर्श होते ही ये सब स्वर्ग को चले जायेंगे ॥ २९ ॥ भगवान विष्णु के चरणनख से निकले हुए उस जल का ऐसा माहात्म्य है कि वह कामनापूर्वक केवल स्नानादि कार्यों में ही उपयोगी हो – सो नहीं, अपितु, बिना कामना के मृतक पुरुष के अस्थि, चर्म, स्नायु अथवा केश आदि का स्पर्श हो जाने से या उसके शरीर का कोई अंग गिरने से भी वह देहधारी को तुरंत स्वर्ग में ले जाता है ।’ भगवान कपिल के ऐसा कहनेपर वह उन्हें प्रणाम कर घोड़े को लेकर अपने पितामह की यज्ञशाला में आया ॥ ३०-३१ ॥ राजा सगर ने भी घोड़े के मिल जानेपर अपना यज्ञ समाप्त किया और सागर को ही अपत्य-स्नेह से अपना पुत्र माना ॥ ३२-३३ ॥ उस अंशुमान के दिलीप नामक पुत्र हुआ और दिलीप के भगीरथ हुआ जिसने गंगाजी को स्वर्ग से पृथ्वीपर लाकर उनका नाम भागीरथी कर दिया ॥ ३४ – ३५ ॥
भगीरथ से सुहोत्र, सुहोत्र से श्रुति, श्रुति से नाभाग, नाभाग से अम्बरीष, अम्बरीष से सिन्धुद्वीप, सिन्धुद्वीप से अतुतायु और अतुतायु से ऋतूपर्ण नामक पुत्र हुआ जो राजा नल का सहायक और द्युतक्रीडा का पारदर्शी था ॥ ३६ – ३७ ॥
राजा सौदास की कथा
ऋतूपर्ण का पुत्र सर्वकाम था, उसका सुदास और सुदास का पुत्र सौदास मित्रसह हुआ ॥ ३८ – ४० ॥ एक दिन मृगया के लिये वनमें घूमते-घूमते उसने दो व्याघ्र देखे ॥ ४१ ॥ इन्होने सम्पूर्ण वन को मृगहीन कर दिया है – ऐसा समझकर उसने उनमें से एक को बाण से मार डाला ॥ ४२ ॥ मरते समय वह अति भयंकररूप क्रूर-वदन राक्षस हो गया ॥ ४३ ॥ तथा दूसरा भी ‘मैं इसका बदला लूँगा’ ऐसा कह्रकर अन्तर्धान हो गया ॥ ४४ ॥
कालान्तर में सौदास ने एक यज्ञ किया ॥ ४५ ॥ यज्ञ समाप्त हो जानेपर जब आचार्य वसिष्ठ बाहर चले गये तब वह राक्षस वसिष्ठजी का रूप बनाकर बोला, ‘यज्ञ के पूर्ण होनेपर मुझे नर-मांसयुक्त भोजन कराना चाहिये, अत: तुम ऐसा अन्न तैयार कराओ, मैं अभी आता हूँ’ ऐसा कहकर वह बाहर चला गया ॥ ४६ ॥ फिर रसोइये का वेष बनाकर राजाकी आज्ञासे उसने मनुष्य का मांस पकाकर उसे निवेदन किया ॥ ४७ ॥ राजा भी उसे सुवर्णपात्र में रखकर वशिष्ठजी के आनेकी प्रतीक्षा करने लगा और उनके आते ही वह मांस निवेदन कर दिया ॥ ४८-४९ ॥
वसिष्ठजी ने सोचा, ‘अहो ! इस राजाकी कुटिलता तो देखों जो यह जान-बुझकर भी मुझे खाने के लिये यह मांस देता है ।’ फिर यह जानने के लिये कि यह किसका है वे ध्यानस्थ हो गये ॥ ५० ॥ ध्यानावस्था में उन्होंने देखा कि वह तो नरमांस है ॥ ५१ ॥ तब तो क्रोधके कारण क्षुब्धाचित्त होकर उन्होंने राजाको यह शाप दिया ॥ ५२ ॥ क्योंकि तूने जान-बुझकर भी हमारे – जैसे तपस्वियों के लिये अत्यंत अभक्ष्य यह नरमांस मुझे खाने को दिया है इसलिये तेरी इसीमें लोलुपता होगी (अर्थात तू राक्षस हो जायगा ) ॥ ५३ ॥
तदनन्तर राजाके यह कहनेपर कि ‘भगवन आपही ने ऐसी आज्ञा की थी,’ वसिष्ठजी यह कहते हुए कि ‘क्या मैंने ही ऐसा कहा था ?’ फिर समाधिस्थ हो गये ॥ ५४ ॥ समाधिद्वारा यथार्थ बात जानकर उन्होंने राजापर अनुग्रह करते हुए कहा, ‘तू अधिक दिन नरमांस भोजन न करेगा, केवल बारह वर्ष ही तुझे ऐसा करना होगा’ ॥ ५५ ॥ वसिष्ठजी के ऐसा कहनेपर राजा सौदास भी अपनी अंजलि से जल लेकर मुनीश्वर को शाप देने के लिये उद्यत हुआ । किन्तु अपनी पत्नी मदयन्तिद्वारा ‘भगवन ! ये हमारे कुलगुरु हैं, इन कुलदेवरूप आचार्य को शाप देना उचित नहीं हैं’ – ऐसा कहे जाने से शांत हो गया तथा अन्न और मेघ की रक्षा के कारण उस शाप – जल को पृथ्वी या आकाश में नहीं फेंकर, बल्कि उससे अपने पैरों को ही भिगो लिया ॥ ५६ ॥ उस क्रोधयुक्त जल से उसके पैर झुलसकर कल्माषवर्ण (चितकबरे) हो गये । तभी से उनका नाम कल्माषपाद हुआ ॥ ५७ ॥ तथा वशिष्ठजी के शाप के प्रभाव से छठे काल में अर्थात तीसरे दिन के अंतिम भाग में वह राक्षस – स्वभाव धारणकर वन में घूमते हुए अनेकों मनुष्यों को खाने लगा ॥ ५८ ॥
एक दिन उसने एक मुनीश्वर को ऋतुकाल के समय अपनी भार्यासे संभोग करते देखा ॥ ५९ ॥ उस अति भीषण राक्षस-रूप को देखकर भय से भागते हुए उन दम्पतियों में से उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया ॥ ६० ॥ तब ब्राह्मणी ने उससे नाना प्रकार से प्रार्थना की और कहा – ‘हे राजन ! प्रसन्न होइये । आप राक्षस नहीं हैं बल्कि इक्ष्वाकुकुलतिलक महाराज मित्रसह हैं ॥ ६१ – ६२ ॥ आप स्त्री-संयोग के सुखको जाननेवाले है; मैं अतुप्त हूँ, मेरे पति को मारना आपको उचित नहीं हैं ।’ इसप्रकार उसके नाना प्रकार से विलाप करने पर भी उसने उस ब्राह्मण को इसप्रकार भषण कर लिया जैसे बाघ अपने अभिमत पशुको वन में पकडकर खा जाता है ॥ ६३ ॥
तब ब्राह्मणी ने अत्यंत क्रोधित होकर राजा को शाप दिया ॥ ६४ ॥ ‘अरे ! तूने मेरे अतृप्त रहते हुए भी इस प्रकार मेरे पतिको खा लिया. इसलिये कामोपभोग में प्रवृत्त होते ही तेरा अंत हो जायगा’ ॥ ६५ ॥ इसप्रकार शाप देकर वह अग्नि में प्रविष्ट हो गयी ॥ ६६ ॥
तदनन्तर बारह वर्ष के अंत में शापमुक्त हो जानेपर एक दिन विषय कामना में प्रवृत्त होनेपर रानी मदयन्ति ने उसे ब्राह्मणी के शापका स्मरण कर दिया ॥ ६७ ॥
तभी से राजाने स्त्री-सम्भोग त्याग दिया ॥ ६८ ॥ पीछे पुत्रहीन राजा के प्रार्थना करने पर वसिष्ठजी ने मदयन्ति के गर्भाधान किया ॥ ६९ ॥ जब उस गर्भ ने सात वर्ष व्यतीत होनेपर भी जन्म न लिया तो देवी मदयन्ति ने उसपर पत्थर से प्रहार किया ॥ ७० ॥ इससे उसी समय पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम अश्मक हुआ ॥ ७१-७२ ॥ अश्मक के मूलक नामक पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ जब परशुरामजीद्वारा यह पृथ्वीतल क्षत्रियहीन किया जा रहा था उस समय उस मूलक की रक्षा वस्त्रहीना स्त्रियों ने घेरकर की थी, इससे उसे नारीकवच भी कहते हैं ॥ ७४ ॥
मूलक के दशरथ, दशरथ के इलिविल, इलिविल के विश्वसह और विश्वसह के खट्वांग नामक पुत्र हुआ, जिसने देवासुर संग्राम में देवताओं के प्रार्थना करनेपर दैत्यों का वध किया था ॥ ७५ – ७६ ॥ इस प्रकार स्वर्ग में देवताओं का प्रिय करने से उनके द्वारा वर माँगने के लिये प्रेरित किये जानेपर उसने कहा ॥ ७७ ॥ ‘यदि मुझे वर ग्रहण करना ही पड़ेगा तो आपलोग मेरी आयु बतलाइये ‘ ॥ ७८ ॥ तब देवताओं के यह कहनेपर कि तुम्हारी आयु केवल एक मुहूर्त और रही है वह एक अनवरुद्धगति विमानपर बैठकर बड़ी शीघ्रता से मर्त्यलोक में आया और कहने लगा ॥ ७९ ॥ ‘ यदि मुझे ब्राह्मणों को अपेक्षा कभी अपना आत्मा भी प्रियतर नहीं हुआ , यदि मैंने कभी स्वधर्म का उल्लंघन नहीं किया और सम्पूर्ण देव, मनुष्य, पशु, पक्षी और वृक्षादि में श्रीअच्युत के अतिरिक्त मेरी अन्य दृष्टि नहीं हुई तो मैं निर्विघ्रतापूर्वक उन मुनिजनवन्दित प्रभुको प्राप्त होऊँ ।’ ऐसा कहते हुए राजा खट्वांग ने सम्पूर्ण देवताओं के गुरु, अकधनीयस्वरूप, सत्तामात्रशरीर, परमात्मा भगवान वासुदेव में अपना चित्त लगा दिया और उन्ही में लीन हो गये ॥ ८० ॥
इस विषय में भी पूर्वकाल में सप्तर्षियोंद्वारा कहा हुआ श्लोक सुना जाता है । –
अत्रापि श्रूयते श्लोको गीतस्सप्तर्षिभि: पूरा ।
खट्वांगेन समो नान्य: कश्चिदुर्व्या भविष्यति ॥
यें स्वर्गादिहागम्य मुहूर्त्त प्राप्य जीवितम् ।
त्रयोऽभिसंहिता लोक बुद्धया सत्येन चैव हि ॥
‘खट्वांग के समान पृथ्वीतल में अन्य कोई भी राजा नहीं होगा, जिसने एक मुहूर्तमात्र जीवन के रहते ही स्वर्गलोक से भूमण्डल में आकर अपनी बुद्धिद्वारा तीनों लोकों को सत्यस्वरूप भगवान वासुदेवमय देखा’ ॥ ८१ – ८२ ॥
खट्वांग से दीर्घबाहू नामक पुत्र हुआ । दीर्घबाहु से रघु, रघुसे अज और अज से दशरथ ने जन्म लिया ॥ ८३ – ८६ ॥ दशरथजी के भगवान कमलनाथ जगत की स्थिति के लिये अपने अंशों से राम, लक्ष्मण, भारत और शत्रुघ्न इन चार रूपों से पुत्र-भाव को प्राप्त हुए ॥ ८७ ॥
रामजी ने बाल्यावस्था में ही विश्वामित्रजी की यज्ञरक्षा के लिये जाए हुए मार्ग में ही ताटका राक्षसी को मारा, फिर यज्ञशाला में पहुँचकर मारीच को बाणरूपी वायु से आहत कर समुद्र में फेंक दिया और सुबाहु आदि राक्षसों को नष्ट कर डाला ॥ ८८ – ९० ॥ उन्होंने अपने दर्शनमात्र से अहल्या को निष्पाप किया, जनकजी के राजभवन में बिना श्रम ही महादेवजी का धनुष तोड़ा और पुरुषार्थ से ही प्राप्त होनेवाली अयोनिजा जनकराजनन्दिनी श्रीसीताजी को पत्नीरूप से प्राप्त किया ॥ ९१ – ९३ ॥ और तदनन्तर सम्पूर्ण क्षत्रियों को नष्ट करनेवाले, समस्त हैहयकुल के लिये अग्निस्वरूप परशुरामजी के बल-वीर्य का गर्व नष्ट किया ॥ ९४ ॥
फिर पिता के वचन से राज्यलक्ष्मी को कुछ भी न गिनकर भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता के सहित वनमें चले गये ॥ ९५ ॥ वहाँ विराध, खर, दूषण आदि राक्षस तथा कबन्ध और वाली का वध किया और समुद्र का पुल बाँधकर सम्पूर्ण राक्षसकुल का विध्वंस किया तथा रावणद्वारा हरी हुई और उसके वध से कलंकहीना होनेपर भी अग्नि प्रवेश से शुद्ध हुई समस्त देवगणों से प्रशंसित स्वभाववाली अपनी भार्या जनकराजकन्या सीता को अयोध्या में ले आये ॥ ९६ – ९७ ॥ हे मैत्रेय ! उससमय उनके राज्याभिषेक – जैसा मंगल हुआ उसका तो सौ वर्ष में भी वर्णन नहीं किया जा सकता; तथापि संक्षेप से सुनो ॥ ९८ ॥
दशरथ – नन्दन श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नवदन लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव, अंगद, जाम्बवान और हनुमान आदि से छत्र-चामरादि सेवित हो, ब्रह्मा, इंद्र, अग्नि, यम, निऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशान आदि सम्पूर्ण देवगण, वसिष्ठ, वामदेव, वाल्मीकि, मार्कण्डेय, विश्वामित्र, भरद्वाज और अगस्त्य आदि मुनिजन तथा ऋक, यजु:, साम और अथर्ववेदों से स्तुति किये जाते हुए, तथा नृत्य, गीत, वाद्य आदि सम्पूर्ण मंगलसामग्रियोंसहित वीणा, वेणु, मृदंग, भेरी, पटह, शंख, काहल और गोमुख आदि बाजों के घोष के साथ समस्त राजाओं के मध्यमें सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये विधिपूर्वक अभिषिक्त हुए । इसप्रकार दशरथकुमार कौसल्याधिपति, रघुकुलतिलक, जानकीवल्लभ, तीनों भ्राताओं के प्रिय श्रीरामचन्द्रजी ने सिंहासनारुढ़ होकर ग्यारह हजार वर्ष राज्य-शासन किया ॥ ९९ ॥
भरतजी ने भी गन्धर्वलोक को जीतने के लिये जाकर युद्ध में तीन करोड़ गन्धर्वो का वध किया और शत्रुघ्नजी ने भी अतुलित बलशाली महापराक्रमी मधुपुत्र लवण राक्षस का संहार किया और मथुरा नामक नगर की स्थापना की ॥ १०० – १०१ ॥ इसप्रकार अपने अतिशय बल-पराक्रम से महान दुष्टों को नष्ट करनेवाले भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सम्पूर्ण जगत की यथोचित व्यवस्था करने के अनन्तर फिर स्वर्गलोक को पधारे ॥ १०२ ॥ उनके साथ ही जो अयोध्यानिवासी उन भगवदंशस्वरूपों के अतिशय अनुरागी थे उन्होंने भी तन्मय होने के कारण सालोक्य-मुक्ति प्राप्त की ॥ १०३ ॥
दुष्ट-दलन भगवान राम के कुश और लव नामक दो पुत्र हुए । इसीप्रकार लक्ष्मणजी के अंगद और चन्द्रकेतु, भरतजी के तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्नजी के सुबाहु और शूरसेन नामक पुत्र हुए ॥ १०४ ॥ कुश के अतिथि, अतिथि के निषध, निषध के अनल, अनल के नभ, नभ के पुण्डरीक, पुण्डरीक के क्षेमधन्वा, क्षेमधन्वा के देवानीक, देवानीक के अहिनक, अहिनक के रुरु, रुरु के पारियात्रक, पारियात्रक के देवल, देवल के वच्चल, वच्चल के उत्क, उत्क के वज्रनाभ, वज्रनाभ के शंखण, शंखण के युषिताश्व और युषिताश्व के विश्वसह नामक पुत्र हुआ ॥ १०५ – १०६ ॥ विश्वसह के हिरण्यनाभ नामक पुत्र हुआ जिसने जैमिनि के शिष्य महायोगीश्वर याज्ञवल्क्यजी से योगविद्या प्राप्त की थी ॥ १०७ ॥ हिरण्यनाभ का पुत्र पुष्य था, उसका ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धि का सुदर्शन, सुदर्शन का अग्निवर्ण, अग्निवर्ण का शीघ्रग तथा शीघ्रग का पुत्र मरु हुआ जी इस समय भी योगाभ्यास में तत्पर हुआ कलापग्राम में स्थित है ॥ १०८ – १०९ ॥ आगामी युग में यह सूर्यवंशीय क्षत्रियों का प्रवर्तक होगा ॥ ११० ॥ मरुका पुत्र प्रसुश्रुत, प्रसुश्रुत का सुसन्धि, सुसन्धि का अमर्ष, अमर्ष का सहस्वान, सहस्वान का विश्वभव तथा विश्वभव का पुत्र बृहद्वल हुआ जिसको भारतीय युद्ध में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने मारा था ॥ १११ – ११२ ॥
इसप्रकार मैंने यह इक्ष्वाकुकुल के प्रधान – प्रधान राजाओं का वर्णन किया । इनका चरित्र सुनने से मनुष्य सकल पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ११३ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वितीयोऽध्यायः से चतुर्थोऽध्यायः
अध्याय-5 निमि – चरित्र और निमिवंश का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले – इक्ष्वाकुका जो निमि नामक पुत्र था उसने एक सहस्त्रवर्ष में समाप्त होनेवाले यज्ञका आरम्भ किया ॥ १ ॥ उस यज्ञ में उसने वसिष्ठजी को होता वरण किया ॥ २ ॥ वसिष्ठजी ने उससे कहा कि पाँच सौ वर्ष के यज्ञ के लिये इंद्र ने मुझे पहले ही वरण कर लिया है ॥ ३ ॥ अत: इतने समय तुम ठहर जाओ, वहाँसे आनेपर मैं तुम्हारा भी ऋत्विक हो जाऊँगा । उनके ऐसा कहनेपर राजाने उन्हें कुछ भी उत्तर नहीं दिया ॥ ४ ॥
वसिष्ठजी ने यह समझकर कि राजाने उनका कथन स्वीकार कर लिया है इंद्र का यज्ञ आरम्भ कर दिया ॥ ५ ॥ किन्तु राजा निमि भी उसी समय गौतमादि अन्य होताओंद्वारा अपना यज्ञ करने लगे ॥ ६ ॥
देवराज इंद्र का यज्ञ समाप्त होते ही ‘ मुझे निमिका यज्ञ कराना है’ इस विचार से वसिष्ठजी भी तुरंत ही आ गये ॥ ७ ॥ उस यज्ञ में अपना [ होताका] कर्म गौतम को करते देख उन्होंने सोते हुए राजा निमि को यह शाप दिया कि ‘इसने मेरी अवज्ञा करके सम्पूर्ण कर्म का भार गौतम को सौंपा है इसलिये यह देहहीन हो जायगा’ ॥ ८ ॥ सोकर उठनेपर राजा निमि ने भी कहा – ॥ ९ ॥ “इस दुष्ट गुरु ने मुझमें बिना बातचीत किये अज्ञानतापूर्वक मुझ सोये हुए को शाप दिया है, इसलिये इसका देह भी नष्ट हो जायगा ।” इसप्रकार शाप देकर राजाने अपना शरीर छोड़ दिया ॥ १० ॥
राजा मिनी के शाप से वशिष्ठजी का लिंगदेह मित्रावरुण के वीर्य में प्रविष्ट हुआ ॥ ११ ॥ और उर्वशी के देखने से उसका वीर्य स्खलित होनेपर उसीसे उन्होंने दूसरा देह धारण किया ॥ १२ ॥ निमिका शरीर भी अति मनोहर गंध और तैल आदिसे सुरक्षित रहने के कारण गला – सडा नहीं, बल्कि तत्काल मरे हुए देह के समान ही रहा ॥ १३ ॥
यज्ञ समाप्त होनेपर जब देवगण अपना भाग ग्रहण करने के लिये आये तो उनसे ऋत्विग्गण बोले कि – “यजमान वर दीजिये “ ॥ १४ ॥ देवताओंद्वारा प्रेरणा कुए जानेपर राजा निमि ने उनसे कहा – ॥ १५ ॥ “भगवन ! आपलोग सम्पूर्ण संसार – दुःख को दूर करनेवाले हैं ॥ १६ ॥ मेरे विचार में शरीर और आत्मा के वियोग होने में जैसा दुःख होता है वैसा और कोई दुःख नहीं है ॥ १७ ॥ इसलिये मैं अब फिर शरीर ग्रहण करना नहीं चाहता, समस्त लोगों के नेत्रों में ही वास करना चाहता हूँ ।” राजाके ऐसा कहनेपर देवताओं ने उनको समस्त जीवों के नेत्रों में अवस्थित कर दिया ॥ १८ ॥ तभी से प्राणी निमेषोंन्मेष ( पलक खोलना –मूँदना ) करने लगे हैं ॥ १९ ॥
तदनंतर अराजकता के भय से मुनिजनों ने उस पुत्रहीन राजा के शरीर को अरणि ( शमीदंड) से मैथा ॥ २० ॥ उससे एक कुमार उत्पन्न हुआ जो जन्म लेने के कारण ‘जनक’ कहलाया ॥ २१-२२ ॥ इसके पिता विदेह थे इसलिये यह ‘वैदेह’ कहलाता है, और मंथन से उत्पन्न होने के कारण ‘मिथि’ भी कहा जाता है ॥ २३ ॥ उसके उदावसु नामक पुत्र हुआ ॥ २४ ॥ उदावसु के नन्दिवर्द्धन, नन्दिवर्द्धन के सुकेतु, सुकेतु के देवरात, देवरात के बृहदुक्थ, बृहदुक्थ के महावीर्य, महावीर्य के सुधृति, सुधृति के धृष्टकेतु, धृष्टकेतु के हर्यश्व, हर्यश्वके मनु, मनु के प्रतिक, प्रतिक के कृतरध, कृतरध के देवमीढ, देवमीढ के विबुध, विबुध के महाधृति, महाधृति के कृतरात, कृतरात के महारोमा, महारोमा के सुवर्णरोमा, सुवर्णरोमा के ह्रस्वरोमा और ह्रस्वरोमा के सीरध्वज नामक पुत्र हुआ ॥ २५ – २७ ॥ वह पुत्रकी कामना से यज्ञभूमि को जोत रहा था । इसी समय हलके अग्र भाग में उसके सीता नामकी कन्या उत्पन्न हुई ॥ २८ ॥
सीरध्वज का भाई सांकाश्यनरेश कुशध्वज था ॥ २९ ॥ सीरध्वज के भानुमान नामक पुत्र हुआ । भानुमान के शतद्युम्र, शतद्युम्र के शुचि, शुचि के ऊर्जनामा, ऊर्जनामा के शतध्वज, शतध्वज के कृति, कृति के अंजन, अंजन के कुरुजित, कुरुजित के अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि के श्रुतायु, श्रुतायु के सुपार्श्व, सुपार्श्व के सृज्जय, सृज्जय के क्षेमावी, क्षेमावी के अनेना, अनेना के भौम्ररथ, भौमरथ के सत्यरथ, सत्यरथ के उपगु, उपगु के उपगुप्त, उपगुप्त के स्वागत, स्वागत के स्वानंद, स्वानंद के सुवर्चा, सुवर्चा के सुपार्श्व, सुपार्श्व के सुभाष, सुभाष के सुश्रुत, सुश्रुत के जय, जय के विजय, विजय के ऋत, ऋत के सुनय, सुनय के वीतहव्य, वीतहव्य के धृति, धृति के बहुलाक्ष और बहुलाक्ष के कृति नामक पुत्र हुआ ॥ ३० – ३१ ॥ कृति में ही इस जनकवंश की समाप्ति हो जाती है ॥ ३२ ॥ ये ही मैथिलभूपालगण है ॥ ३३ ॥ प्राय: ये सभी राजालोग आत्मविद्या को आश्रय देनेवाले होते है ॥ ३४ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे पंचमोऽध्यायः
अध्याय-6 सोमवंशका वर्णन; चन्द्रमा, बुध और पुरुरवा का चरित्र
मैत्रेयजी बोले – भगवन ! सूर्यवंशीय राजाओं का वर्णन तो कर दिया, अब मैं सम्पूर्ण चन्द्रवंशीय भूपतियों का वृतांत भी सुनना चाहता हूँ । जिन स्थिरकीर्ति महाराजों की सन्तति का सुयश आज भी गान किया जाता है, हे ब्रह्मन ! प्रसन्न-मुख से आप उन्हीं का वर्णन मुझसे कीजिये ॥ १- २ ॥
श्रीपराशरजी बोले – हे मुनिशार्दुल ! परम तेजस्वी चन्द्रमा के वंश का क्रमश: श्रवण करो जिसमें अनेकों विख्यात राजालोग हुए हैं ॥ ३ ॥
यह वंश नहुष, ययाति, कार्तवीर्य और अर्जुन आदि अनेकों अति बल-पराक्रमशील, कान्तिमान, क्रियावान और सद्गुणसम्पन्न राजाओं से अलंकृत हुआ है । सुनो, मैं उसका वर्णन करता हूँ ॥ ४ ॥
सम्पूर्ण जगत के रचयिता भगवान नारायण के नाभिकमल से उत्पन्न हुए भगवान ब्रह्माजी के पुत्र अत्रि प्रजापति थे ॥ ५ ॥ इन अत्रि के पुत्र चंद्रमा हुए ॥ ६ ॥ कमलयोनि भगवान ब्रह्माजी ने उन्हें सम्पूर्ण ओषधि, द्विजजन और नक्षत्रगण के आधिपत्यपर अभिषिक्त कर दिया था ॥ ७ ॥ चंद्रमा ने राजसूय-यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ ८ ॥ अपने प्रभाव और अति उत्कृष्ट आधिपत्य के अधिकारी होनेसे चंद्रमापर राजमद सवार हुआ ॥ ९ ॥ तब मदोंन्मत्त हो जाने के कारण उसने समस्त देवताओं के गुरु भगवान बृहस्पतिजी की भार्या तारा को हरण कर लिया ॥ १० ॥ तथा बृहस्पतिजी की प्रेरणा से भगवान ब्रह्माजी के बहुत कुछ कहने-सुनने और देवर्षियों के माँगने पर भी उसे न छोड़ा ॥ ११ ॥
बृहस्पतिजी से द्वेष करने के कारण शुक्रजी भी चन्द्रमा के सहायक हो गये और अंगिरा से विद्या-लाभ करने के कारण भगवान रूद्र ने बृहस्पति की सहायता की [क्योंकि बृहस्पतिजी अंगिरा के पुत्र हैं ।] ॥ १२-१३ ॥
जिस पक्ष में शुक्रजी थे उस ओर से जम्भ और कुम्भ आदि समस्त दैत्य-दानवादि ने भी सहायता देने में बड़ा उद्योग किया ॥ १४ ॥ तथा सफल देव-सेना के सहित इंद्र बृहस्पति के सहायक हुए ॥ १५ ॥ इसप्रकार तारा के लिये उनमें तारकामय नामक अत्यंत घिर युद्ध छिड़ गया ॥ १६ ॥ तब रूद्र आदि देवगण दानवों के प्रति और दानवगण देवताओं के प्रति नाना प्रकार के शस्त्र छोड़ने लगे ॥ १७ ॥ इसप्रकार देवासुर-संग्रामसे क्षुब्ध-चित्त हो सम्पूर्ण संसार ने ब्रह्माजी की शरण ली ॥ १८ ॥ तब भगवान कमल-योनि ने भी शुक्र, रूद्र, दानव और देवगण को युद्ध से निवृत्त कर बृहस्पतिजी को तारा दिलवा दी ॥ १९ ॥ उसे गर्भिणी देखकर बृहस्पतिजी ने कहा – ॥ २० ॥ “मेरे क्षेत्र में तुझको दूसरे का पुत्र धारण करना उचित नहीं है, इसे दूर कर, अधिक धृष्टता करना ठीक नहीं “ ॥ २१ ॥
बृहस्पतिजी के ऐसा कहनेपर उस पतिव्रताने पति के वचनानुसार वह गर्भ इषीकास्तम्ब (सींककी झाड़ी) में छोड़ दिया ॥ २२ ॥ उस छोड़े हुए गर्भ ने अपने तेजसे समस्त देवताओं के तेजको मलिन कर दिया ॥ २३ ॥ तदनन्तर उस बालककी सुन्दरता के कारण बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों को उसे लेने के लिये उत्सुक देख देवताओं ने संदेह हो, जाने के कारण तारासे पूछा ॥ २४ ॥ ‘हे सुभगे ! तू हमको सच-सच बता, यह पुत्र बृहस्पति का है या चन्द्रमाका ?’ ॥ २५ ॥ उनके ऐसा कहनेपर ताराने लज्जावश कुछ भी न कहा ॥ २६ ॥ जब बहुत कुछ कहनेपर भी वह देवताओं से न बोली तो वह बालक उसे शाप देने के लिये उद्यत होकर बोला ॥ २७ ॥ ‘अरी दुष्टा माँ ! तू मेरे पिताका नाम क्यों नहीं बतलाती ? तुझ व्यर्थ लज्जावती की मैं अभी ऐसी गति करूँगा जिससे तू आजसे ही इस प्रकार अत्यंत धीरे-धीरे बोलना भूल जायगी’ ॥ २८ – ३० ॥
तदनन्तर पितामह श्रीब्रह्माजीने उस बालक को रोककर तारा से स्वयं ही पूछा ॥ ३१ ॥ ‘बेटी ! ठीक – ठीक बता यह पुत्र किसका है – बृहस्पतिका या चन्द्रमाका ?’ इसपर उसने लज्जापूर्वक कहा, ‘चन्द्रमाका’ ॥ ३२ ॥ तब तो नक्षत्रपति भगवान चन्द्र ने उस बालकको ह्रदय से लगाकर कहा – ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक, बेटा ! तुम बड़े बुद्धिमान हो;’ और उनका नाम ‘बुध’ रख दिया । इस समय उनके निर्मल कपोलोंकी कान्ति उच्छ्वसित और देदीप्यमान हो रही थी ॥ ३३ ॥
बुध ने जिसप्रकार इलासे अपने पुत्र पुरुरवाको उत्पन्न किया था उसका वर्णन पहले ही कर चुके हैं ॥ ३४ ॥ पुरुरवा अति दानशील, अति याज्ञिक और अति तेजस्वी था । ‘मित्रावरुण के शापसे मुझे मर्त्यलोक में रहना पड़ेगा’ ऐसा विचार करते हुए उर्वशी अप्सरा की दृष्टि उस अति सत्यवादी, रूपके धनी और मतिमान राजा पुरुरवापर पड़ी ॥ ३५ ॥ देखते ही वह सम्पूर्ण मान तथा स्वर्ग-सुख की इच्छा को छोडकर तन्मयभाव से उसीके पास आयी ॥ ३६ ॥ राजा पुरुरवाका चित्त भी उसे संसार की समस्त स्त्रियों में विशिष्ट तथा कान्ति-सुकुमारता, सुन्दरता, गतिविलास और मुसकान आदि गुणों से युक्त देखकर उसके वशीभूत हो गया ॥ ३७ ॥ इसप्रकार वे दोनों ही परस्पर तन्मय और अनन्यचित्त होकर और सब कामों को भूल गये ॥ ३८ ॥
निदान राजाने नि:संकोच होकर कहा ॥ ३९ ॥ ‘हे सुभ्रु ! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ, तुम प्रसन्न होकर मुझे प्रेम-दान दो ।’ राजाके ऐसा कहनेपर उर्वशी ने भी लज्जावश स्खलित स्वरू में कहा ।\ ४० ॥ ‘यदि आप मेरी प्रतिज्ञा को निभा सकें तो अवश्य ऐसा ही हो सकता है ।’ यह सुनकर राजाने कहा ॥ ४१ ॥ अच्छा, तुम अपनी प्रतिज्ञा मुझसे कहो ॥ ४२ । इसप्रकार पूछनेपर वह फिर बोली ॥ ४३ ॥ ‘मेरे पुत्ररूप इन दो मेषों (भेड़ों) को आप कभी मेरी शय्या से दूर न कर सकेंगे ॥ ४४ ॥ मैं कभी आपको नग्न न देखने पाऊँ ॥ ४५ ॥ और केवल घृत ही मेरा आहार होगा’ ॥ ४६ ॥ तब राजाने कहा – ‘ऐसा ही होगा’ ॥ ४७ ॥
तदनन्तर राजा पुरुरवाने दिन – दिन बढ़ते हुए आनंद के साथ कभी अलकापुरी के अंतर्गत चैत्ररथ आदि वनों में और कभी सुंदर पद्मखंडों से युक्त अति रमणीय मानस आदि सरोवरों में विहार करते हुए साथ हजार वर्ष बीता दिये ॥ ४८ ॥ उसके उपभोगसुख से प्रतिदिन अनुराग के बढ़ते रहने से उर्वशी को भी देवलोक में रहने की इच्छा नहीं रही ॥ ४९ ॥
इधर, उर्वशी के बिना अप्सराओं, सिद्धों और गन्धर्वों को स्वर्गलोक अत्यंत रमणीय नहीं मालुम होता था ॥ ५० ॥ अत: उर्वशी और पुरुरवा की प्रतिज्ञा के जाननेवाले विश्वावसुने एक दिन रात्रि के समय गन्धर्वों के साथ जाकर उसके शयनागार के पाससे एक मेष का हरण कर लिया ॥ ५१ ॥ उसे आकाश में ले जाते समय उर्वशीने उसका शब्द सुना ॥ ५२ ॥ तब वह बोली – ‘मुझ अनाथा के पुत्र को कौन लिये जाता है, अब मैं किसकी शरण जाऊँ?’ ॥ ५३ ॥ किन्तु यह सुनकर भी इस भयसे कि रानी मुझे नंगा देख लेगी, राजा नहीं उठा ॥ ५४ ॥ तदनंतर गन्धर्वगण दूसरा भी मेष लेकर चल दिये ॥ ५५ ॥ उसे ले जाते समय उसका शब्द सुनकर भी उर्वशी ‘हाय ! मैं अनाथा और भर्तुहीना हूँ तथा एक कायर के अधीन हो गयी हूँ ।’ इसप्रकार कहती हुई वह आर्तस्वर से विलाप करने लगी ॥ ५६ ॥
तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार है [ अत: रानी मुझे नग्न न देख सकेगी ], क्रोधपूर्वक ‘अरे दुष्ट ! तू मारा गया’ यह कहते हुए तलवार लेकर पीछे दौड़ा ॥ ५७ ॥ इसी समय गन्धर्वों ने अति उज्ज्वल विद्युत् प्रकट कर दी ॥ ५८ ॥ उसके प्रकाश में राजाको वस्त्रहीन देखकर प्रतिज्ञा टूट जानेसे उर्वशी तुरंत ही वहाँ से चली गयी ॥ ५९ ॥ गन्धर्वगण भी उन मेषों को वहीँ छोडकर स्वर्गलोक में चले गये ॥ ६० ॥ किन्तु जब राजा उन मेषों को लिये हुए अति प्रसन्नचित्त से अपने शयनागार में आया तो वहाँ उसने उर्वशी को न देखा ॥ ६१ ॥ उसे न देखने से वह उस वस्त्रहीन अवस्था में ही पागल के समान घुमने लगा ॥ ६२ ॥ घूमते-घूमते उसने एक दिन कुरुक्षेत्र के कमल-सरोवर में अन्य चार अप्सराओं के सहित उर्वशी को देखा ॥ ६३ ॥ उसे देखकर वह उन्मत्त के समान ;हे जाये ! ठहर, अशी ह्रदय की निष्ठुरे ! खड़ी हो जा, अरी कपट रखनेवाली ! वार्तालाप के लिये तनिक ठहर जा’ – ऐसे अनेक वचन कहने लगा ॥ ६४ ॥
उर्वशी बोली – ‘महाराज ! इन अज्ञानियोंकी-सी चेष्टाओं से कोई लाभ नहीं ॥ ६५-६६ ॥ इससमय मैं गर्भवती हूँ । एक वर्ष उपरान्त आप यही आ जावें, उस समय आपके एक पुत्र होगा और एक रात मैं भी आपके साथ रहूँगी ।’ उर्वशी के ऐसा कहनेपर राजा पुरुरवा प्रसन्न-चित्तसे अपने नगरको चला गया ॥ ६७ ॥
तदनन्तर उर्वशी ने अन्य अप्सराओं से कहा ॥ ६८ ॥ ‘ये वही पुरुषश्रेष्ठ हैं जिनके साथ मैं इतने दिनोंतक प्रेमाकृष्ट-चित्त से भूमंडलमें रही थी ॥ ६९ ॥ इसपर अन्य अप्सराओं ने कहा ॥ ७० ॥ ‘वाह ! वाह ! सचमुच इनका रूप बड़ा ही मनोहर है, उसके साथ तो सर्वदा हमारा भी सहवास हो’ ॥ ७१ ॥
वर्ष समाप्त होनेपर राजा पुरुरवा वहाँ आये ॥ ७२ ॥ उससमय उर्वशी ने उन्हें ‘आयु’ नामक एक बालक दिया ॥ ७३ ॥ तथा उनके साथ एक रात रहकर पाँच पुत्र उत्पन्न करने के लिये गर्भ धारण किया ॥ ७४ ॥ और कहा – ‘हमारे पारस्परिक स्नेह के कारण सकल गन्धर्वगण महाराज को वरदान देना चाहते हैं अत: आप अभीष्ट वर माँगिये ॥ ७५ ॥
राजा बोले – ‘मैंने समस्त शत्रुओं को जीत लिया हैं, मेरी इन्द्रियों की सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई है, मैं बन्धुजन, असंख्य सेना और कोशसे भी सम्पन्न हूँ, इससमय उर्वशी के सहवास के अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है । अत: मैं इस उर्वशी के साथ ही काल-यापन करना चाहता हूँ ।’ राजा के ऐसा कहनेपर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्नियुक्त पात्र) दी और कहा ‘ इस अग्नि के वैदिक विधि से गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्निरूप तीन भाग करके इसमें उर्वशी के सहवास की कामना से भलिभाँति यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्राप्त कर लोगे ।’ गन्धर्वों के ऐसा कहनेपर राजा उस अग्निस्थाली को लेकर चल दिये ॥ ७६ – ७८ ॥
वनके अंदर उन्होंने सोचा – ‘अहो ! मैं कैसा मुर्ख हूँ ? मैंने यह क्या किया जो इस अग्निस्थाली को तो ले आया और उर्वशी को नही लाया’ ॥ ७९ – ८० ॥ ऐसा सोचकर उस अग्निस्थाली को वनमें ही छोडकर वे अपने नगर में चले आये ॥ ८१ ॥ आधीरात बीत जाने के बाद निद्रा टूटनेपर राजाने सोचा ॥ ८२ ॥ ‘उर्वशीकी सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वो ने मुझे वह अग्निस्थाली दी थी और मैंने उसे वनमें ही छोड़ दिया ॥ ८३ ॥ अत: अब मुझे उसे लाने के लिये जाना चाहिये’ ऐसा सोच उठकर वे वहाँ गये, किन्तु उन्होंने उस स्थाली को वहाँ न देखा ॥ ८४ ॥ अग्निस्थाली के स्थानपर राजा पुरुरवाने एक शमीगर्भ पीपल के वृक्ष को देखकर सोचा ॥ ८५ ॥ मैंने यही तो वह अग्निस्थाली फेंकी थी । वह स्थाली ही शमीगर्भ पीपल हो गयी है ॥ ८६ ॥ अत: इस अग्निरूप अश्वस्थ को ही अपने नगर में ले जाकर इसकी अरणि बनाकर उससे उत्पन्न हुए अग्नि की ही उपासना करूँ ॥ ८७ ॥
ऐसा सोचकर राजा उस अश्वस्थ को लेकर अपने नगर में आये और उसकी अरणि बनायी ॥ ८८ ॥ तदनन्तर उन्होंने उस काष्ठ को एक – एक अंगुल करके गायत्री मन्त्र का पाठ किया ॥ ८९ ॥
उसके पाठसे गायत्री की अक्षर-संख्या के बराबर एक-एक अंगुल की अरणियाँ हो गयी ॥ ९० ॥ उनके मंथन से तीनों प्रकार के अग्नियों को उत्पन्न कर उनमें वैदिक विधिसे हवन किया ॥ ९१ ॥ तथा उर्वशी के सहवासरूप फल की इच्छा की ॥ ९२ ॥ तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकार के यज्ञों का यजन करते हुए उन्होंने गन्धर्व लोक प्राप्त किया और फिर उर्वशी से उनका वियोग न हुआ ॥ ९३ ॥ पूर्वकाल में एक ही अग्नि था, उस एकही से इस मन्वन्तर में तीन प्रकार के अग्नियों का प्रचार हुआ ॥ ९४ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे षष्ठोऽध्यायः
अध्याय-7 जह्रुका गंगापान तथा जमदग्नि और विश्वामित्र की उत्पत्ति
श्रीपराशरजी बोले – राजा पुरुरवा के परम बुद्धिमान आयु, अमावसु, विश्रावसु, श्रुतायु, शतायु और अयुतायु नामक छ: पुत्र हुए ॥ १ ॥ अमावसु के भीम, भीम के कांचन, कांचन के सुहोत्र और सुहोत्र के जह्रु नामक पुत्र हुआ जिसने अपनी सम्पूर्ण यज्ञशाला को गंगाजल से आल्पावित देख क्रोध से रक्तनयन हो भगवान यज्ञपुरुष को परम समाधि के द्वारा अपने में स्थापित कर सम्पूर्ण गंगाजी को पी लिया था ॥ २ – ४ ॥ तब देवर्षियों ने इन्हें प्रसन्न किया और गंगाजी को इनकी पुत्रीरूप से पाकर ले गये ॥ ५ – ६ ॥
जह्रु जे सुमन्तु नामक पुत्र हुआ ॥ ७ ॥ सुमन्तु के अजक,अजक के कुशाम्ब, कुशनाभ, अधूर्तरजा और वसु नामक चार पुत्र हुए ॥ ८ ॥ उनमेंसे कुशाम्ब ने इस इच्छा से कि मेरे इंद्र के समान पुत्र हो, तपस्या की ॥ ९ ॥ उसके उग्र तपको देखकर ‘बल में कोई अन्य मेरे समान न हो जाय’ इस भयसे इंद्र स्वयं ही इनका पुत्र हो गया ॥ १० ॥ वह गाधि नामक पुत्र कौशिक कहलाया ॥ ११ ॥
गाधि ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ॥ १२ ॥ उसे भृगुपुत्र ऋचीक ने वरण किया ॥ १३ ॥ गाधि ने अति क्रोधी और अति वृद्ध ब्राह्मण को कन्या न देने की इच्छा से ऋचीक से कन्या के मूल्य में जो चन्द्रमा के समान कान्तिमान और पवन के तुल्य वेगवान हों, ऐसे एक सहस्त्र श्यामकर्ण घोड़े माँगे ॥ १४ ॥ किन्तु महर्षि ऋचीकने अश्वतीर्थ से उत्पन्न हुए वैसे एक सहस्त्र घोड़े उन्हें वरुण से लेकर दे दिये ॥ १५ ॥
तब ऋचीक ने उस कन्यासे विवाह किया ॥ १६ ॥ उन्होंने सन्तान की कामना से सत्यवती के लिये चरु (यज्ञीय खीर) तैयार किया ॥ १७ ॥ और उसीके द्वारा प्रसन्न किये जानेपर एक क्षत्रियश्रेष्ठ पुत्र की उत्पत्ति के लिये एक और चरु उसकी माता के लिये भी बनाया ॥ १८ ॥ और ‘यह चरु तुम्हारे लिये है तथा यह तुम्हारी माता के लिये – इनका तुम यथोचित उपयोग करना’ – ऐसा कहकर वे वनको चले गये ॥ १९ ॥
उनका उपयोग करते समय सत्यवती की माताने उससे कहा ॥ २० ॥ “बेटी ! सभी लोग अपने ही लिये सबसे अधिक गुणवान पुत्र चाहते हैं, अपनी पत्नी के भाईके गुणों में किसीकी भी विशेष रूचि नहीं होती ॥ २१ ॥ अत: तू अपना चरु तो मुझे दे दे और मेरा तू ले ले; क्योंकि मेरे पुत्रको तो सम्पूर्ण भूमंडलका पालन करना होगा और ब्राह्मणकुमार को तो बल, वीर्य तथा सम्पत्ति आदिसे लेना ही क्या है ।” ऐसा कहनेपर सत्यवती ने अपना चरु अपनी माताको दे दिया ॥ २२ – २३ ॥
वनसे लौटनेपर ऋषि ने सत्यवती को देखकर कहा – “अरी पापिनि ! तूने ऐसा क्या अकार्य किया है जिससे तेरा शरीर ऐसा भयानक प्रतीत होता है ॥ २४ – २५ ॥ अवश्य ही तूने अपनी माताके लिये तैयार किये चरु का उपयोग किया है, सो ठीक नहीं हैं ॥ २६ ॥ मैंने उसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य, पराक्रम, शूरता और बल की सम्पत्तिका आरोपण किया था तथा तेरेमें शान्ति, ज्ञान, तितिक्षा आदि सम्पूर्ण ब्राह्मणोंचित गुणों का समावेश किया था ॥ २७ ॥ उनका विपरीत उपयोग करने से तेरे अति भयानक अस्त्र=शस्त्रधारी पालन-कर्म में तत्पर क्षत्रिय के समान आचरणवाला पुत्र होगा और उसके शान्तिप्रिय ब्राह्मणाचारयुक्त पुत्र होगा ।” यह सुनते ही सत्यवती ने उनके चरण पकड़ लिये और प्रणाम करके कहा ॥ २८-२९ ॥ “भगवन ! अज्ञानसे ही मैंने ऐसा किया है, अत: प्रसन्न होइये और ऐसा कीजिये जिससे मेरा पुत्र ऐसा न हो, भले ही पौत्र ऐसा हो जाय !” इसपर मुनिने कहा – ‘ऐसा ही हो ।’ ॥ ३०- ३१ ॥
तदनंतर उसने जमदग्नि को जन्म दिया और उसकी माताने विश्वामित्र को उत्पन्न किया तथा सत्यवती कौशिकी नामकी नदी हो गयी ॥ ३२ – ३४ ॥
जमदग्नि ने इक्ष्वाकुकुलोद्भव रेणुकी कन्या रेणुका से विवाह किया ॥ ३५ ॥ उससे जमदग्नि के सम्पूर्ण क्षत्रियों का ध्वंस करनेवाले भगवान परशुरामजी उत्पन्न हुए जो सकल लोक-गुरु भगवान नारायण के अंश थे ॥ ३६ ॥ देवताओं ने विश्वामित्रजी को भृगुवंशीय शुन:शेष पुत्ररूप से दिया था । उसके पीछे उनके देवरात नामक एक पुत्र हुआ और फिर मधुच्छन्द, धनंजय, कृतदेव, अष्टक, कच्छप एवं हारीतक नामक और भी पुत्र हुए ॥ ३७ – ३८ ॥ उनसे अन्यान्य ऋषिवंशों में विवाह ने योग्य बहुत-से कौशिक-गोत्रीय पुत्र-पौत्रादि हुए ॥ ३९ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे सप्तमोऽध्यायः
अध्याय-8 काश्यपवंश का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले – आयु नामक जो पुरुरवा का जेष्ठ पुत्र था उसने राहू की कन्यासे विवाह किया ॥ १ ॥ उससे उसके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः नहुष, क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि और अनेना थे ॥ २ – ३ ॥ क्षत्रवृद्ध के सुहोत्र नामक पुत्र हुआ और सुहोत्र के काश्य, काश तथा गृत्समद नामक तीन पुत्र हुए । गृत्समद का पुत्र शौनक चातुर्वर्ण्य का प्रवर्तक हुआ ॥ ४ – ६ ॥
काश्यका पुत्र काशिराज काशेय हुआ । उसके राष्ट्र, राष्ट्र के दीर्घतपा और दीर्घतपा के धन्वन्तरि नामक पुत्र हुआ ॥ ७ – ८ ॥ इस धन्वन्तरि के शरीर और इन्द्रियाँ जरा आदि विकारों से रहित थी – तथा सभी जन्मों में यह सम्पूर्ण शास्त्रों का जाननेवाला था । पूर्वजन्म में भगवान नारायण ने उसे यह वर दिया था कि ‘काशिराज के वंश में उत्पन्न होकर तुम सम्पूर्ण आयुर्वेद को आठ भागों में विभक्त करोगे और यज्ञ – भाग के भोक्ता होंगे’ ॥ ९ – १० ॥
धन्वन्तरि का पुत्र केतुमान, केतुमान का भीमरथ, भीमरथ का दिवोदास तथा दिवोदास का पुत्र प्रतर्दन हुआ ॥ ११ ॥ उसने मद्रश्रेण्यवंश का नाश करके समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी, इसलिये उसका नाम ‘शत्रुजित’ हुआ ॥ १२ ॥ दिवोदास ने अपने इस पुत्र (प्रतर्दन) से अत्यंत प्रेमवश ‘वत्स, वत्स’ कहा था, इसलिये इसका नाम ‘वत्स’ हुआ ॥ १३ ॥ अत्यंत सत्यपरावण होनेके कारण इसका नाम ‘ऋतध्वज’ हुआ ॥ १४ ॥ तदनन्तर इसने कुवलय नामक अपूर्व अश्व प्राप्त किया । इसलिये यह इस पृथ्वीतलपर ‘कुवलयाश्व’ नामसे विख्यात हुआ ॥ १५ ॥ इस वत्स के अलर्क नामक पुत्र हुआ जिसके विषय में यह श्लोक आजतक गाया जाता है ॥ १६ ॥
‘पूर्वकाल में अलर्क के अतिरिक्त और किसीने भी छाछठ सहस्त्र वर्षतक युवावस्था में रहकर पृथ्वीका भोग नहीं किया’ ॥ १७ ॥
उस अलर्क के भी सत्रति नामक पुत्र हुआ, सत्रति के सुनीथ, सुनीथ के सुकेतु, सुकेतु के धर्मकेतु, धर्मकेतु के सत्यकेतु, सत्यकेतु के विभु, विभु के सुविभु, सुविभु के सुकुमार, सुकुमार के धृष्टकेतु, धृष्टकेतु के वीतिहोत्र, वीतिहोत्र के भार्ग और भार्ग के भार्गभूमि नामक पुत्र हुआ; भार्गभूमि से चातुर्वर्ण्य का प्रचार हुआ । इस प्रकार काश्यवंश के राजाओं का वर्णन हो चूका ॥ १८ – २१ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे अष्टमोऽध्यायः
अध्याय-9 महाराज रजि और उनके पुत्रोंका चरित्र
श्रीपराशरजी बोले-रजिके अतुलित बलपराक्रमशाली पाँच सौ पुत्र थे॥१॥ एक बार देवासुर-संग्रामके आरम्भमें एक-दूसरेको मारनेकी इच्छावाले देवता और दैत्योंने ब्रह्माजीके पास जाकर पूछा-“भगवन्! हम दोनोंके पारस्परिक कलहमें कौन-सा पक्ष जीतेगा?” ॥२-३॥ तब भगवान् ब्रह्माजी बोले-“जिस पक्षकी ओरसे राजा रजि शस्त्र धारणकर युद्ध करेगा उसी पक्षकी विजय होगी”॥४-५॥
तब दैत्योंने जाकर रजिसे अपनी सहायताके लिये प्रार्थना की, इसपर रजि बोले- ॥६॥ “यदि देवताओंको जीतनेपर मैं आपलोगोंका इन्द्र हो सकूँ तो आपके पक्षमें लड़ सकता हूँ॥७॥ यह सुनकर दैत्योंने कहा-“हमलोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध दूसरी तरहका आचरण नहीं करते। हमारे इन्द्र तो प्रह्लादजी हैं और उन्हींके लिये हमारा यह सम्पूर्ण उद्योग है”, ऐसा कहकर जब दैत्यगण चले गये तो देवताओंने भी आकर राजासे उसी प्रकार प्रार्थना की और उनसे भी उसने वही बात कही। तब देवताओंने यह कहकर कि ‘आप ही हमारे इन्द्र होंगे’ उसकी बात स्वीकार कर ली॥८॥
अत: रजिने देव-सेनाकी सहायता करते हुए अनेक महान् अस्त्रोंसे दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी॥९॥ तदनन्तर शत्रु-पक्षको जीत चुकनेपर देवराज इन्द्रने रजिके दोनों चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर कहा- ॥१०॥ । ‘भयसे रक्षा करने और अन्न-दान देनेके कारण आप हमारे पिता हैं, आप सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वोत्तम हैं; क्योंकि मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ’॥११॥ इसपर राजाने हँसकर कहा-‘अच्छा, ऐसा ही सही। शत्रुपक्षकी भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त अनुनय-विनयका अतिक्रमण करना उचित नहीं होता । [फिर स्वपक्षकी तो बात ही क्या है] ।’ ऐसा कहकर । वे अपनी राजधानीको चले गये॥१२-१३ ॥ इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र-पदपर स्थित हुआ। पीछे, रजिके स्वर्गवासी होनेपर देवर्षि नारदजीकी प्रेरणासे रजिके पुत्रोंने अपने पिताके पुत्रभावको प्राप्त हुए शतक्रतुसे व्यवहारके अनुसार अपने पिताका राज्य माँगा॥१४-१५॥ किन्तु जब उसने न दिया, तो उन महाबलवान् रजि-पुत्रोंने इन्द्रको जीतकर स्वयं ही इन्द्र पदका भोग किया॥१६॥
फिर बहुत-सा समय बीत जानेपर एक दिन बृहस्पतिजीको एकान्तमें बैठे देख त्रिलोकीके यज्ञभागसे वंचित हुए शतक्रतुने उनसे कहा- ॥१७॥ क्या ‘आप मेरी तृप्तिके लिये एक बेरके बराबर भी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं?’ उनके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिजी बोले- ॥१८॥ ‘यदि ऐसा है, तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा? तुम्हारे लिये भला मैं क्या नहीं कर सकता? अच्छा, अब थोड़े ही दिनोंमें मैं तुम्हें अपने पदपर स्थित कर दूंगा।’ ऐसा कह बृहस्पतिजी । रजि-पुत्रोंकी बुद्धिको मोहित करनेके लिये अभिचार और इन्द्रकी तेजोवृद्धिके लिये हवन करने लगे॥१९॥ बुद्धिको मोहित करनेवाले उस अभिचार-कर्मसे अभिभूत हो जानेके कारण रजि-पुत्र ब्राह्मण-विरोधी, धर्म-त्यागी और वेद-विमुख हो गये ॥ २०॥ तब धर्माचारहीन हो जानेसे इन्द्रने उन्हें मार डाला ॥ २१॥ और पुरोहितजीके द्वारा तेजोवृद्ध होकर स्वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया॥२२॥ इस प्रकार इन्द्रके अपने पदसे गिरकर उसपर फिर आरूढ़ होनेके इस प्रसंगको सुननेसे पुरुष अपने पदसे पतित नहीं होता और उसमें कभी दुष्टता नहीं आती ॥ २३॥
[आयुका दूसरा पुत्र] रम्भ सन्तानहीन हुआ॥ २४॥ क्षत्रवृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र हुआ, प्रतिक्षत्रका संजय, संजयका जय, जयका विजय, विजयका कृत, कृतका हर्यधन, हर्यधनका सहदेव, सहदेवका अदीन, अदीनका जयत्सेन, जयत्सेनका संस्कृति और संस्कृतिका पुत्र क्षत्रधर्मा हुआ। ये सब क्षत्रवृद्धके वंशज हुए॥ २५-२७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे नममोऽध्यायः
अध्याय-10 ययातिका चरित्र
श्रीपराशरजी बोले-नहुषके यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति नामक छ: महाबल विक्रमशाली पुत्र हुए॥१॥ यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की, इसलिये ययाति ही राजा हुआ॥२-३॥ ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था॥४॥ उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥५॥
‘देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा । वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुह्यु, अनु और पूरुको उत्पन्न किया ॥६॥
ययातिको शक्राचार्यजीके शापसे असमय ही वृद्धावस्थाने घेर लिया था॥७॥ पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा- ॥८॥ ‘वत्स! । तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धावस्थाने घेर लिया है, अब उन्हींकी कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ॥९॥ मैं अभी विषय-भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ, इसलिये एक सहस्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ॥१०॥ इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारकी आनाकानी नहीं करनी चाहिये। किन्तु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धावस्थाको ग्रहण करना न चाहा॥११॥ तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य-पदके योग्य न होगी॥१२॥
फिर राजा ययातिने तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहा; तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया॥१३-१४॥ अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा—’यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है।’ ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया॥ १५–१७॥
राजा ययातिने पूरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहकेअनसार धर्मपुर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया॥ १८-१९॥ फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए मैं कामनाओंका अन्त कर दूंगा’-ऐसे सोचते-सोचते वे प्रतिदिन [भोगोंके लिये] उत्कण्ठित रहने लगे॥२०॥ और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे; तदुपरान्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्गार प्रकट किया॥२१-२२॥
भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती, बल्किघृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है॥२३॥ सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य, यव, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं वे सब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ २४॥ जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता, उस समय उस समदर्शीके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥ २५ ॥ दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्थामें भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है॥ २६ ॥अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होती॥ २७॥विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्र वर्ष बीत गये, फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है॥२८॥ अतः अब मैं इसे छोड़कर और अपने चित्तको भगवानमें ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर [वनमें] मृगोंके साथ विचरूँगा॥२९॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य-पदपर अभिषिक्त कर वनको चले गये॥३०॥ उन्होंने दक्षिणपूर्व दिशामें तुर्वसुको, पश्चिममें द्रुह्युको, दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त किया; तथा पूरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले गये॥ ३१-३२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे दशमोऽध्यायः
अध्याय-11 यदुवंशका वर्णन और सहस्त्रार्जुनका चरित्र
श्रीपराशरजी बोले- अब मैं ययातिके प्रथम पुत्र यदुके वंशका वर्णन करता हूँ, जिसमें कि मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, गुह्यक, किंपुरुष, अप्सरा, सर्प, पक्षी, दैत्य, दानव, आदित्य, रुद्र, वसु, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, देवर्षि, मुमुक्षु तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके अभिलाषी पुरुषोंद्वारा सर्वदा स्तुति किये जानेवाले, अखिललोक-विश्राम आद्यन्तहीन भगवान् विष्णुने अपने अपरिमित महत्त्वशाली अंशसे अवतार लिया था। इस विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥१-३॥
‘जिसमें श्रीकृष्ण नामक निराकार परब्रह्मने अवतार लिया था, उस यदुवंशका श्रवण करनेसे मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है’ ॥४॥
यदुके सहस्रजित् , क्रोष्टु, नल और नहुष नामक चार पुत्र हुए। सहस्रजितके शतजित् और शतजित्के हैहय, हेहय तथा वेणुहय नामक तीन पुत्र हुए॥५-७॥ । हैहयका पुत्र धर्म, धर्मका धर्मनेत्र, धर्मनेत्रका कुन्ति, कुन्तिका सहजित् तथा सहजितका पुत्र महिष्मान् हुआ, जिसने माहिष्मतीपुरीको बसाया॥८-९॥ महिष्मानके भद्रश्रेण्य, भद्रश्रेण्यके दुर्दम, दुर्दमके धनक तथा धनकके कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतधर्म और कृतौजा नामक चार पुत्र हुए॥१०॥
कृतवीर्यके सहस्र भुजाओंवाले सप्तद्वीपाधिपति अर्जुनका जन्म हुआ॥११॥ सहस्रार्जुनने अत्रिकुलमें उत्पन्न भगवदंशरूप श्रीदत्तात्रेयजीकी उपासना कर’सहस्र भुजाएँ, अधर्माचरणका निवारण, स्वधर्मका सेवन, युद्धके द्वारा सम्पूर्ण पृथिवीमण्डलका विजय, धर्मानुसार प्रजा-पालन, शत्रुओंसे अपराजय तथा त्रिलोकप्रसिद्ध पुरुषसे मृत्यु’ ऐसे कई वर माँगे और प्राप्त किये थे॥ १२ ॥ अर्जुनने इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपवती पृथिवीका पालन तथा दस हजार यज्ञोंका अनुष्ठान किया था॥ १३-१४॥ उसके विषयमें यह श्लोक आजतक कहा जाता है— ॥१५॥
‘यज्ञ, दान, तप, विनय और विद्यामें कार्तवीर्यसहस्रार्जुनकी समता कोई भी राजा नहीं कर सकता’ ॥ १६॥
उसके राज्यमें कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता था॥ १७॥ इस प्रकार उसने बल, पराक्रम, आरोग्य और सम्पत्तिको सर्वथा सुरक्षित रखते हुए पचासी हजार वर्ष राज्य किया॥१८॥ एक दिन जब वह अतिशय मद्यपानसे व्याकुल हुआ नर्मदा नदीमें जल-क्रीडा कर रहा था, उसकी राजधानी माहिष्मतीपुरीपर दिग्विजयके लिये आये हुए सम्पूर्ण देव, दानव, गन्धर्व और राजाओंके विजयमदसे उन्मत्त रावणने आक्रमण किया, उस समय उसने अनायास ही रावणको पशुके समान बाँधकर अपने नगरके एक निर्जन स्थानमें रख दिया॥१९॥ इस सहस्रार्जुनका पचासी हजार वर्ष व्यतीत होनेपर भगवान् नारायणके अंशावतार परशुरामजीने वध किया था॥२०॥
इसके सौ पुत्रोंमेंसे शूर, शूरसेन, वृषसेन, मधु और जयध्वज-ये पाँच प्रधान थे॥२१॥ जयध्वजका पुत्र तालजंघ हुआ और तालजंघके तालजंघ नामक सौ पुत्र हुए इनमें सबसे बड़ा वीतिहोत्र तथा दूसरा भरत था॥ २२-२४॥ । भरतके वृष, वृषके मधु और मधुके वृष्णि आदि सौ पुत्र हुए ॥ २५–२७॥ वृष्णिके कारण यह वंश वृष्णि कहलाया॥२८॥ मधुके कारण इसकी मधु-संज्ञा हुई ॥२९॥ और यदुके नामानुसार इस वंशके लोग यादव कहलाये ॥३०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे एकादशोऽध्यायः
अध्याय-12 यदुपुत्र क्रोष्टुका वंश
श्रीपराशरजी बोले-यदुपुत्र क्रोष्टुके ध्वजिनीवान् नामक पुत्र हुआ॥१॥ उसके स्वाति, स्वातिके रुशंकु, रुशंकुके चित्ररथ और चित्ररथके शशिबिन्दु नामक पुत्र हुआ जो चौदहों महारत्नोंका* स्वामी तथा चक्रवर्ती सम्राट था॥२-३॥ शशिबिन्दुके एक लाख स्त्रियाँ और दस लाख पुत्र थे॥४-५॥ उनमें पृथुश्रवा, पृथुकर्मा, पृथुकीर्ति, पृथुयशा, पृथुजय और पृथुदान-ये छः पुत्र प्रधान थे॥६॥ पृथुश्रवाका पुत्र पृथुतम और उसका पुत्र उशना हुआ जिसने सौ अश्वमेध-यज्ञ किया था॥७-८॥ उशनाके शितपु नामक पुत्र हुआ॥९॥ शितपुके रुक्मकवच, रुक्मकवचके परावृत् तथा परावृत्के रुक्मेषु, पृथु, ज्यामघ, वलित और हरित नामक पाँच पुत्र हुए ॥१०-११॥ इनमेंसे ज्यामघके विषयमें अब भी यह श्लोक गाया जाता है— ॥१२॥
संसारमें स्त्रीके वशीभूत जो-जो लोग होंगे और जो-जो पहले हो चुके हैं उनमें शैव्याका पति राजा ज्यामघ ही सर्वश्रेष्ठ है॥१३॥ उसकी स्त्री शैव्या यद्यपि नि:सन्तान थी तथापि सन्तानकी इच्छा रहते हुए भी उसने उसके भयसे दूसरी स्त्रीसे विवाह नहीं किया॥१४॥
एक दिन बहुत-से रथ, घोड़े और हाथियों के संघट्टसे अत्यन्त भयानक महायुद्धमें लड़ते हुए उसने अपने समस्त शत्रुओंको जीत लिया॥१५॥ उस समय वे समस्त शत्रुगण पुत्र, मित्र, स्त्री, सेना और कोशादिसे हीन होकर अपने-अपने स्थानोंको छोड़कर दिशा-विदिशाओंमें भाग गये॥१६॥ उनके भाग जानेपर उसने एक राजकन्याको देखा जो अत्यन्त भयसे कातर हुई विशाल आँखोंसे [देखती हुई] ‘हे तात, हे मातः, हे भ्रातः ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो’ इस प्रकार व्याकुलतापूर्वक विलाप कर रही थी॥ १७॥ उसको देखते ही उसमें अनुरक्तचित्त हो जानेसे राजाने विचार किया॥१८॥’यह अच्छा ही हुआ; मैं पुत्रहीन और वन्ध्याका पति हूँ ; ऐसा मालूम होता है कि सन्तानकी कारणरूपा इस कन्यारत्नको विधाताने ही इस समय यहाँ भेजा है॥ १९॥ तो फिर मुझे इससे विवाह कर लेना चाहिये॥२०॥ अथवा इसे अपने रथपर बैठाकर अपने निवासस्थानको लिये चलता हूँ , वहाँ देवी शैव्याकी आज्ञा लेकर ही इससे विवाह कर लूँगा’ ॥ २१-२२॥
तदनन्तर वे उसे रथपर चढ़ाकर अपने नगरको ले चले ॥ २३॥ वहाँ विजयी राजाके दर्शनके लिये सम्पूर्ण पुरवासी, सेवक, कुटुम्बीजन और मन्त्रिवर्गके सहित महारानी शैव्या नगरके द्वारपर आयी हुई थी॥ २४॥ उसने राजाके वामभागमें बैठी हुई राजकन्याको देखकर क्रोधके कारण कुछ काँपते हुए होठोंसे कहा- ॥२५॥”हे अति चपलचित्त ! तुमने रथमें यह किसे बैठा रखी है?” ॥ २६॥ राजाको भी जब कोई उत्तर न सूझा तो अत्यन्त डरते-डरते कहा”यह मेरी पुत्रवधू है।”॥ २७॥ तब शैव्या बोली- ॥२८॥
“मेरे तो कोई पुत्र हुआ नहीं है और आपके दूसरी कोई स्त्री भी नहीं है, फिर किस पुत्रके कारण आपका इससे पुत्रवधूका सम्बन्ध हुआ?” ॥ २९॥
श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार शैव्याके ईर्ष्या और क्रोध-कलुषित वचनोंसे विवेकहीन होकर भयके कारण कही हुई असंबद्ध बातके सन्देहको दूर करनेके लिये राजाने कहा- ॥ ३० ॥ “तुम्हारे जो पुत्र होनेवाला है उस भावी शिशुकी मैंने यह पहलेसे ही भार्या निश्चित कर दी है।” यह सुनकर रानीने मधुर मुसकानके साथ कहा ‘अच्छा, ऐसा ही हो’ और राजाके साथ नगरमें प्रवेश किया॥३१-३२॥
तदनन्तर पुत्र-लाभके गुणोंसे युक्त उस अति विशुद्ध लग्न होरांशक अवयवके समय हुए पुत्रजन्मविषयक वार्तालापके प्रभावसे गर्भधारणके योग्य अवस्था न रहनेपर भी थोड़े ही दिनोंमें शैव्याके गर्भ रह गया और यथासमय एक पुत्र उत्पन्न हुआ॥३३-३४॥ पिताने उसका नाम विदर्भ रखा ॥ ३५ ॥ और उसीके साथ उस पुत्रवधूका पाणिग्रहण हुआ॥३६॥ उससे विदर्भने क्रथ और कैशिक नामक दो पुत्र उत्पन्न किये॥ ३७॥ फिर रोमपाद नामक एक तीसरे पुत्रको जन्म दिया जो नारदजीके उपदेशसे ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न हो गया था॥ ३८॥ रोमपादके बभ्रु, बभ्रुके धृति, धृतिके कैशिक और कैशिकके चेदि नामक पुत्र हुआ जिसकी सन्ततिमें चैद्य राजाओंने जन्म लिया॥३९॥
ज्यामघकी पुत्रवधूके पुत्र क्रथके कुन्ति नामक पुत्र हुआ॥ ४० ॥ कुन्तिके धृष्टि, धृष्टिके निधृति, निधृतिके दशाह, दशार्हके व्योमा, व्योमाके जीमूत, जीमूतके विकृति, विकृतिके भीमरथ, भीमरथके नवरथ, नवरथके दशरथ, दशरथके शकुनि, शकुनिके करम्भि, करम्भिके देवरात, देवरातके देवक्षत्र, देवक्षत्रके मधु, मधुके कुमारवंश, कुमारवंशके अनु, अनुके राजा पुरुमित्र, पुरुमित्रके अंशु और अंशुके सत्वत नामक पुत्र हुआ तथा सत्वतसे सात्वतवंशका प्रादुर्भाव हुआ॥ ४१-४४॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार ज्यामघकी सन्तानका श्रद्धापूर्वक भली प्रकार श्रवण करनेसे मनुष्य अपने समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है॥ ४५ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वादशोऽध्यायः
अध्याय-13 सत्वतकी सन्तति का वर्णन और स्यमन्तकमणि की कथा
श्रीपराशरजी बोले – सत्वत के भजन, भजमान, दिव्य, अंधक, देवावृध महाभोज और वृष्णि नामक पुत्र हुए ॥ १ ॥ भजमान के निमि, कृकण और वृष्णि तथा इनके तीन सौतेले भाई शतजित, सहस्त्रजित और अयुतजित – ये छ: पुत्र हुए ॥ २ ॥ देवावृध के बभ्रु नामक पुत्र हुआ ॥ ३ ॥ इन दोनों (पिता-पुत्रों ) के विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥ ४ ॥
जैसा हमने दूरसे सुना था वैसा ही पास जाकर भी देखा; वास्तव में बभ्रु और देवावृध से क्रमश: छ: हजार चौहत्तर मनुष्यों ने अमरपद प्राप्त किया था ॥ ६ ॥
महाभोज बड़ा धर्मात्मा था, उसकी सन्तान में भोजवंशी तथा मृत्तिकावरपुर निवासी मार्तिकावर नृपतिगण हुए ॥ ७ ॥ वृष्णि के दो पुत्र सुमित्र और युधाजित हुए, उनमें से सुमित्र के अनमित्र, अनमित्र के निघ्र तथा निघ्रसे प्रसेन और सत्राजित का जन्म हुआ ॥ ८ – १० ॥
स्यमन्तकमणि की कथा
उस सत्राजित के मित्र भगवान आदित्य हुए ॥ ११ ॥ एक दिन समुद्र – तटपर बैठे हुए सत्राजित ने सूर्यभगवान् की स्तुति की । उसके तन्मय होकर स्तुति करने से भगवान भास्कर उसके सम्मुख प्रकट हुए ॥ १२ ॥ उस समय उनको अस्पष्ट मूर्ति धारण किये हुए देखकर सत्राजित ने सूर्य से कहा ॥ १३ ॥ आकाश में अग्निपिण्ड के समान आपको जैसे मैंने देखा है वैसा ही सम्मुख आनेपर भी देख रहा हूँ । यहाँ आपकी प्रसादस्वरूप कुछ विशेषता मुझे नहीं दीखती । सत्राजित ने ऐसा कहनेपर भगवान सूर्य ने अपने गले से स्यमन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर अलग रख दी ॥ १४ ॥
तब सत्राजित ने भगवान सूर्य को देखा – उनका शरीर किंचित ताम्रवर्ण, अति उज्ज्वल और लघु था तथा उनके नेत्र कुछ पिंगलवर्ण थे ॥ १५ ॥ तदनन्तर सत्राजित ने प्रणाम तथा स्तुति आदि कर चुकनेपर सह्स्त्रांशु भगवान आदित्य ने उससे कहा – तुम अपना अभीष्ट वर माँगो ॥ १६ ॥ सत्राजित ने उस स्यमन्तकमणि को ही माँगा ॥ १७ ॥ तब भगवान सूर्य उसे वह मणि देकर अन्तरिक्ष में अपने स्थान को चले गये ॥ १८ ॥
फिर सत्राजित ने उस निर्मल मणिरत्न से अपना कंठ सुशोभित होने के कारण तेजसे सूर्य के समान समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हुए द्वारका में प्रवेश किया ॥ १९ ॥ द्वारकावासी लोगोंने उसे आते देख, पृथ्वीका भार उतारने के लिये अंशरूप से अवतीर्ण हुए मनुष्यरूपधारी आदिपुरुष भगवान पुरुषोत्तम से प्रणाम करके कहा ॥ २० ॥ ‘भगवन ! आपके दर्शनों के लिये निश्चय ही ये भगवान सूर्यदेव आ रहे हैं “ उनके ऐसा कहनेपर भगवान ने उनसे कहा ॥ २१ ॥ “ ये भगवान सूर्य नहीं हैं, सत्राजित है । यह सूर्यभगवान से प्राप्त हुई स्यमन्तक नामकी महामणि को धारणकर यहाँ आ रहा है ॥ २२ ॥ तुमलोग अब विश्वस्त होकर इसे देखो ।” भगवान के ऐसा कहनेपर द्वारकावासी उसे उसी प्रकार देखने लगे ॥ २३ ॥
सत्राजित ने वह स्यमन्तकमणि अपने घर में रख दी ॥ २४ ॥ वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी ॥ २५ ॥ उसके प्रभाव से सम्पूर्ण राष्ट्र में रोग, अनावृष्टि तथा सर्प, अग्नि, चोर या दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं रहता था ॥ २६ ॥
भगवान अच्युत को भी ऐसी इच्छा हुई कि यह दिव्य रत्न तो राजा उग्रसेन के योग्य है ॥ २७ ॥ किन्तु जातीय विद्रोह के भय से समर्थ होते हुए भी उन्होंने उसे छीना नहीं ॥ २८ ॥
सत्राजित को जब यह मालुम हुआ कि भगवान मुझसे यह रत्न माँगनेवाले हैं तो उसने लोभवश उसे अपने भाई प्रसेन को दे दिया ॥ २९ ॥ किन्तु इस बात को न जानते हुए कि पवित्रापूर्वक धारण करने से तो यह मणि सुवर्ण – दान आदि अनेक गुण प्रकट करती है और अशुद्धावस्था में धारण करने से घातक हो जाती है, प्रसेन उसे अपने गले में बाँधे हुए घोडेपर चढकर मृगया के लिये वन को चला गया ॥ ३० ॥ वहाँ उसे एक सिंह ने मार डाला ॥ ३१ ॥ जब वह सिंह घोड़े के सहित उसे मारकर उस निर्मल मणि को अपने मुँह में लेकर चलने को तैयार हुआ तो उसी समय ऋक्षराज जाम्बवान ने उसे देखकर मार डाला ॥ ३२ ॥ तदनन्तर उस निर्मल मणिरत्न को लेकर जाम्बवान अपनी गुफा में आया ॥ ३३ ॥ और उसे सुकुमार नामक अपने बालक के लिये खिलौना बना लिया ॥ ३४ ॥
प्रसेन के न लौटनेपर सब यादवों में आपस में यह कानाफूंसी होने लगी कि “कृष्ण इस मनिरत्न को लेना चाहते थे, अवश्य ही इन्हींने उसे ले लिया है – निश्चय यह इन्हीं का काम है” ॥ ३५ ॥
इस लोकापवाद का पता लगनेपर सम्पूर्ण यादवसेना के सहित भगवान ने प्रसेन के घोड़े के चरण चिन्हों का अनुसरण किया और आगे जाकर देखा कि प्रसेन को घोड़ेसहित सिंह ने मार डाला है ॥ ३६ – ३७ ॥ फिर सब लोगों ने बीच सिंह के चरण-चिन्ह देख लिये जाने से अपनी सफाई हो जानेपर भी भगवान ने उन चिन्हों का अनुसरण किया और थोड़ी ही दूरीपर ऋक्षराजद्वारा मारे हुए सिंह को देखा; किन्तु उस रत्न के महत्त्व के कारण उन्होंने जाम्बुवान के पद-चिन्हों का भी अनुसरण किया ॥ ३८ – ३९ ॥ और सम्पूर्ण यादव सेना को पर्वत के तटपर छोडकर ऋक्षराज के चरणों का अनुसरण करते हुए स्वयं उनकी गुफा में घुस गये ॥ ४० ॥
भीतर जानेपर भगवान ने सुकुमार को बहलाती हुई धात्री की यह वाणी सुनी ॥ ४१ ॥ सिंहने प्रसेन को मारा और सिंह को जाम्बवान ने; हे सुकुमार ! तू रो मत यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है ॥ ४२ ॥
यह सुननेसे स्यमन्तकका पता लगनेपर भगवान ने भीतर जाकर देखा कि सुकुमार के लिये खिलौना बनी हुई स्यमन्तकमणि धात्री के हाथपर अपने तेजसे देदीप्यमान हो रही है ॥ ४३ ॥ स्यमन्तकमणि की ओर अभिलाषापूर्ण दृष्टि से देखते हुए एक विलक्षण पुरुष को वहाँ आया देख धात्री ‘त्राहि – त्राहि’ करके चिल्लाने लगी ॥ ४४ ॥
उसकी आर्त-वाणी को सुनकर जाम्बवान क्रोधपूर्ण ह्रदयसे वहाँ आया । फिर परस्पर रोष बढ़ जानेसे उन दोनों का इक्कीस दिनतक घोर युद्ध हुआ ॥ ४६ ॥ पर्वत के पास भगवान की प्रतीक्षा करनेवाले यादव-सैनिक सात-आठ दिनतक उनके गुफासे बाहर आनेकी बाट देखते रहे ॥ ४७ ॥ किन्तु जब इतने दिनोंतक वे उसमें से न निकले तो उन्होंने समझा कि ‘अवश्य ही श्रीमधुसूदन इस गुफामें मारे गये नहीं तो जीवित रहनेपर शत्रुके जीतने में उन्हें इतने दिन क्यों लगते ?’ ऐसा निश्चय कर वे द्वारका में चले आये और वहाँ कह दिया कि श्रीकृष्ण मारे गये ॥ ४८ ॥ उनके बन्धुओं ने यह सुनकर समयोचित सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक कर्म कर दिये ॥ ४९ ॥
इधर, अति श्रद्धापूर्वक दिये हुए विशिष्ट पात्रोंसहित इनके अन्न और जलसे युद्ध करते समय श्रीकृष्णचन्द्र के बल और प्राण की पुष्टि हो गयी ॥ ५० ॥ तथा अति महान पुरुष के द्वारा मर्दित होते हुए उनके अत्यंत निष्ठुर प्रहरों के आघात से पीड़ित शरीरवाले जाम्बवान का बल निराहार रहने से क्षीण हो गया ॥ ५१ ॥ अंत में भगवान से पराजित होकर जाम्बवान ने उन्हें प्रणाम करके कहा ॥ ५२ ॥ “भगवन ! आपको तो देवता, असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस आदि कोई भी नहीं जीत सकते, फिर पृथ्वीतलपर रहनेवाले अल्पवीर्य मनुष्य अथवा मनुष्यों के अवयवभूत हम-जैसे तिर्यक-योनिगत जीवों की तो बात ही क्या है ? अवश्य ही आप हमारे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के समान सकल लोक-प्रतिपालक भगवान नारायण के ही अंश से प्रकट हुए है ।” जाम्बवान के ऐसा कहनेपर भगवान ने पृथ्वीका भार उतारने के लिये अपने अवतार लेने का सम्पूर्ण वृतांत उससे कह दिया और उसे प्रीतिपूर्वक अपने हाथसे छूकर युद्ध के श्रम से रहित कर दिया ॥ ५३- ५४ ॥
तदनन्तर जाम्बवान ने पुन: प्रणाम करके उन्हें प्रसन्न किया और घरपर आये हुए भगवान के लिये अर्घ्यस्वरूप अपनी जाम्बवती नामकी कन्या दे दी तथा उन्हें प्रणाम करके मणिरत्न स्यमन्तक भी दे दिया ॥ ५५- ५६ ॥ भगवान अच्युत ने भी उस अति विनीतसे लेने योग्य न होनेपर भी अपने कलंक-शोधन के लिये वह मणिरत्न ले लिया और जाम्बवती के सहित द्वारका में आये ॥ ५७ – ५८ ॥
उससमय भगवान कृष्णचन्द्र के आगमन से जिनके हर्ष का वेग अत्यंत बढ़ गया है उन द्वाकवासियों में से बहुत ढली हुई अवस्थावालों में भी उनके दर्शन के प्रभाव से तत्काल ही मानो नवयौवन का संचार हो गया ॥ ५९ ॥ तथा सम्पूर्ण यादवगण और उनकी स्त्रियाँ ‘अहोभाग्य ! अहोभाग्य !!’ ऐसा कहकर उनका अभिवादन करने लगी ॥ ६० ॥ भगवान ने भी जो – जो बात जैसे – जैसे हुई थी वह ज्यों – की – त्यों यादव समाज में सूना दी और सत्राजित को स्यमन्तकमणि देकर मिथ्या कलंक से छुटकारा पा लिया । फिर जाम्बवती को अपने अंत:पुर में पहुँचा दिया ॥ ६१ – ६३ ॥
सत्राजित ने भी यह सोचकर कि मैंने ही कृष्णचन्द्र को मिथ्या कलंक लगाया था, डरते – डरते उन्हें पत्नीरूप से अपनी कन्या सत्यभामा विवाह दी ॥ ६४ ॥ उस कन्या को अक्रूर, कृतवर्मा और शतधन्वा आदि यादवों ने पहले वरण किया था ॥ ६५ ॥ अत: श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उसे विवाह देने से उन्होंने अपना अपमान समझकर सत्राजित से वैर बाँध लिया ॥ ६६ ॥
तदनन्तर अक्रूर और कृतवर्मा आदिने शतधन्वा से कहा ॥ ६७ ॥ ‘यह सत्राजित बड़ा ही दुष्ट है, देखो, इसने हमारे और आपके माँगनेपर भी हमलोगों को कुछ भी न समझकर अपनी कन्या कृष्णचन्द्र को दे दी ॥ ६८ ॥ अत: अब इसके जीवन का प्रयोजन ही क्या है; इसको मारकर आप स्यमन्तक महामणि क्यों नहीं ले लेते हैं ? पीछे, यदि अच्युत आपसे किसी प्रकार का विरोध करेंगे तो हमलोग भी आपका साथ देंगे ।’ उनके ऐसा कहनेपर शतधन्वा ने कहा – ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही करेंगे’ ॥ ६९ ॥
इसी समय पांडवों के लाक्षागृह में जलनेपर, यथार्थ बात को जानते हुए भी भगवान कृष्णचन्द्र दुर्योधन के प्रयन्त को शिथिल करने के उद्देश्य से कुलोचित कर्म करने के लिये वारणावत नगर को गये ॥ ७० ॥
उनके चले जानेपर शतधन्वा ने सोते हुए सत्राजित को मारकर वह मणिरत्न ले लिया ॥ ७१ ॥ पिता के वध से क्रोधित हुई सत्यभामा तुरंत ही रथपर चढकर वारणावत नगर में पहुँची और भगवान कृष्ण से बोली, “भगवन ! पिताजी ने मुझे आपके करकमलों में सौंप दिया – इस बात को सहन न कर सकने के कारण शतधन्वा ने मेरे पिताजी को मार दिया है और उस स्यमन्तक नामक मणिरत्न को ले लिया है जिसके प्रकाश से सम्पूर्ण त्रिलोकी भी अन्धकारशून्य हो जायगी ॥ ७२ ॥ इसमें आपही की हँसी हैं इसलिये सब बातों का विचार करके जैसा उचित समझें, करें” ॥ ७३ ॥
सत्यभामा के ऐसा कहनेपर भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन प्रसन्न होनेपर भी उनसे क्रोध से आँखें लाल करके कहा ॥ ७४ ॥ सत्ये ! अवश्य इसमें मेरी ही हँसी हैं, उस दुरात्मा के इस कुकर्म को मैं सहन नहीं कर सकता, क्योंकि यदि ऊँचे वृक्ष का उल्लंघन न किया जा सके तो उसपर घोंसला बनाकर रहनेवाले पक्षियों को नहीं मार दिया जाता [ अर्थात बड़े आदमियों से पार न पानेप्र उनके आश्रितों को नहीं दबाना चाहिये । ] इसलिये अब तुम्हे हमारे सामने इन शोक-प्रेरित वाक्यों के कहने की और आवश्यकता नहीं है । सत्यभामा से इसप्रकार कह भगवान् वासुदेव ने द्वारका में आकर श्रीबलदेवजी से एकांत में कहा ॥ ७५ – ७६ ॥ ‘वन में आखेटके लिये गये हुए प्रसेन को तो सिंह ने मार दिया था ॥ ७७ ॥ अब शतधन्वा ने सत्राजित को भी मार दिया है ॥ ७८ ॥ इसप्रकार उन दोनों के मारे जानेपर मणिरत्न स्यमन्तकपर हम दोनों का समान अधिकार होगा ॥ ७९ ॥ इसलिये उठिये और रथपर चढकर शतधन्वा के मारने का प्रयत्न कीजिये । कृष्णचन्द्र के ऐसा कहनेपर बलदेवजी ने भी ‘बहुत अच्छा’ कह उसे स्वीकार किया ॥ ८० ॥
कृष्ण और बलदेव को उद्यत जान शतधन्वा ने कृतवर्मा के पास जाकर सहायता के लिये प्रार्थना की ॥ ८१ ॥ तब कृतवर्मा ने इससे कहा ॥ ८२ ॥ मैं बलदेव और वासुदेव से विरोध करने में समर्थ नहीं हूँ । उसके ऐसा कहनेपर शतधन्वा ने अक्रूर से सहायता माँगी, तो अक्रूर ने भी कहा – ॥ ८३ – ८४ ॥ जो अपने पाद – प्रहर से त्रिलोकी को कम्पायमान कर देते हैं, देवशत्रु असुरगण की स्त्रियों को वैधव्यदान देते हैं तथा अति प्रबल शत्रु – सेनासे भी जिनका चक्र अप्रतिहत रहता है उन चक्रधारी भगवान वासुदेव से तथा जो अपने मदोन्मटत नयनों की चितवन से सबका दमन करनेवाले और भयंकर शत्रुसमूहरूप हाथियों को खींचने के लिये अखंड महिमाशाली प्रचंड हल धारण करनेवाले हैं उन श्रीहलधर से युद्ध करने में तो निखिल – लोक – वन्दनीय देवगण में भी कोई समर्थ नहीं हैं फिर मेरी तो बात ही क्या हैं ? ॥ ८५ ॥ इसलिये तुम दूसरे की शरण लो, अक्रूर के ऐसा कहनेपर शतधन्वा ने कहा ॥ ८६ ॥ ‘अच्छा, यदि मेरी रक्षा करने में आप अपने को सर्वथा असमर्थ समझते हैं तो मैं आपको यह मणि देता हूँ इसे लेकर इसीकी रक्षा कीजिये ॥ ८७ ॥ इसपर अक्रूर ने कहा ॥ ८८ ॥ ‘मैं इसे तभी ले सकता हूँ जब कि अन्तकाल उपस्थित होनेपर भी तुम किसीसे भी यह बात न कहो’ ॥ ८९ ॥ शतधन्वा ने कहा – ऐसा ही होगा । इसपर अक्रूर ने वह मणिरत्न अपने पास रख लिया ॥ ९० ॥
तदनन्तर शतधन्वा सौ योजनतक जानेवाली एक अत्यंत वेगवती घोड़ीपर चढकर भागा ॥ ९१ ॥ और शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प तथा बलाहक नामक चार घोड़ोंवाले रथपर चढकर बलदेव और वासुदेव ने भी उसका पीछा किया ॥ ९२ ॥ सौ योजन मार्ग पर कर जानेपर पुन: आगे ले जाने से उस घोड़ी ने मिथिला देश के वन में प्राण छोड़ दिये ॥ ९३ ॥ तब शतधन्वा उसे छोडकर पैदल ही भागा ॥ ९४ ॥ उससमय श्रीकृष्णचन्द्र ने बलभद्रजी से कहा ॥ ९५ ॥ आप अभी रथ में ही रहिये मैं इस पैदल दौड़ते हुए दुराचारी को पैदल जाकर ही मारे डालता हूँ । यहाँ दोषों को देखने से घोड़े भयभीत हो रहे हैं, इसलिये आप इन्हें और आगे न बढाइयेगा ॥ ९६ ॥ तब बलदेवजी ‘अच्छा’ ऐसा कहकर रथ में ही बैठे रहे ॥ ९७ ॥
श्रीकृष्णचन्द्र ने केवल दो ही कोसतक पीछाकर अपना चक्र फेंक दूर होनेपर भी शतधन्वा का सिर काट डाला ॥ ९८ ॥ किन्तु उसके शरीर और वस्त्र आदि में बहुत कुछ ढूँढनेपर भी जब स्यमन्तकमणि को न पाया तो बलभद्राजी के पास जाकर उनसे कहा ॥ ९९ ॥ हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा, क्योंकि उसके पास सम्पूर्ण संसार की सारभूत स्यमन्तकमणि तो मिली ही नहीं । यह सुनकर बलदेवजी ने [यह समझकर कि श्रीकृष्णचन्द्र उस मणि को छिपाने के लिये ही ऐसी बातें बना रहे हैं ] क्रोधपूर्वक भगवान वासुदेव से कहा ॥ १०० ॥ “तुमको धिक्कार हैं, तुम बड़े ही अर्थलोलुप हो; भाई होने के कारण ही मैं तुम्हे क्षमा किये देता हूँ । तुम्हारा मार्ग खुला हुआ है, तुम ख़ुशी से जा सकते हो । अब मुझे तो द्वारका से, तुमसे अथवा और सब सगे – सम्बन्धियों से कोई काम नहीं है । बस, मेरे आगे इन थोथी शपथों का अब कोई प्रयोजन नहीं ।” इसप्रकार उनकी बातको काटकर बहुत कुछ मनानेपर भी वे वहाँ न रुके और विदेहनगर को चले गये ॥ १०१ – १०२ ॥
विदेहनगर में पहुँचनेपर राजा जनक उन्हें अर्घ्य देकर अपने घर ले आये और वे वहीँ रहने लगे ॥ १०३ – १०४ ॥ इधर, भगवान वासुदेव द्वारका में चले आये ॥ १०५ ॥ जितने दिनोंतक बलदेवजी राजा जनक के यहाँ रहे उतने दिनतक घृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन उनसे गदायुद्ध सीखता रहा ॥ १०६ ॥ अनन्तर, बभ्रु और उग्रसेन आदि यादवों के, जिन्हें यह ठीक मालुम था कि ‘कृष्ण एन स्यमन्तकमणि नहीं ली है’, विदेहनगर में जाकर शपथपूर्वक विश्वास दिलानेपर बलदेवजी तीन वर्ष पश्चात द्वारका में चले आये ॥ १०७ ॥
अक्रूरजी भी भगवद्धयान – परायण रहते हुए उस मणिरत्न से प्राप्त सुवर्ण के द्वारा निरंतर यज्ञानुष्ठान करने लगे ॥ १०८ ॥ यज्ञ-दीक्षित क्षत्रिय और वैश्यों के मारने से ब्रह्महत्या होती है, इसलिये अक्रूरजी सदा यज्ञदीक्षारूप कवच धारण ही किये रहते थे ॥ १०९ ॥ उस मणि के प्रभाव से बासष्ठ वर्षतक द्वारकामें रोग, दुर्भिक्ष, महामारी या मृत्यु आदि नहीं हुए ॥ ११० ॥ फिर अक्रूर-पक्षीय भोज-वंशियोद्वारा सात्वतके प्रपौत्र शत्रुघ्न के मारे जानेपर भोजों के साथ अक्रूर भी द्वारका को छोडकर चले गये ॥ १११ ॥ उनके जाते ही, उसी दिनसे द्वारका में रोग, दुर्भिक्ष, सर्प, अनावृष्टि और मरी आदि उपद्रव होने लगे ॥ ११२ ॥
तब गरुडध्वज भगवान कृष्ण बलभद्र और उग्रसेन आदि यदुवंशियोंके साथ मिलकर सलाह करने लगे ॥ ११३ ॥ इसका क्या कारण हैं जो एक साथ ही इतने उपद्रवों का आगमन हुआ, इसपर विचार करना चाहिये । उनके ऐसा कहनेपर अंधक नामक एक वृद्ध यादव ने कहा ॥ ११४ ॥ ‘अक्रूर के पिता श्वफल्क जहाँ – जहाँ रहते थे वहाँ – वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी और अनावृष्टि आदि उपद्रव कभी नहीं होते थे ॥ ११५ ॥ एक बार काशिराज के देशमें अनावृष्टि हुई थी । तब श्वफल्क को वहाँ ले जाते ही तत्काल वर्षा होने लगी ॥ ११६ ॥
उससमय काशिराज की रानी के गर्भ में एक कन्यारत्न थी ॥ ११७ ॥ वह कन्या प्रसूतिकाल के समाप्त होनेपर भी गर्भ से बाहर न आयी ॥ ११८ ॥ इसप्रकार उस गर्भ को प्रसव हुए बिना बारह वर्ष व्यतीत हो गये ॥ ११९ ॥ तब काशिराज ने अपनी उस गर्भस्थिता पुत्रीसे कहा ॥ १२० ॥ बेटी ! तू उत्पन्न क्यों नहीं होती ? बाहर आ, मैं तेरा मुख देखना चाहता हूँ ॥ १२१ ॥ अपनी इस माता को तू इतने दिनों से क्यों कष्ट दे रही है ? राजा के ऐसा कहनेपर उसने गर्भ से रहते हुए ही कहा – ‘पिताजी ! यदि आप प्रतिदिन एक गौ ब्राह्मण को दान देंगे तो अगले तीन वर्ष बीतनेपर मैं अवश्य गर्भ से बाहर आ जाऊँगी ।’ इस बातको सुनकर राजा प्रतिदिन ब्राह्मण को एक गौ देने लगे ॥ १२२ ॥ तब उतने समय (तीन वर्ष) बीतनेपर वह उत्पन्न हुई ॥ १२३ ॥
पिताने उसका नाम गान्दिनी रखा ॥ १२४ ॥ और उसे अपने उपकारक श्वफल्क को, घर आनेपर अर्घ्यरूप से दे दिया ॥ १२५ ॥ उसीसे श्वफल्क के द्वारा इन अक्रूरजी का जन्म हुआ है ॥ १२६ ॥ इनकी ऐसी गुणवान माता-पितासे उत्पत्ति हैं तो फिर उनके चले जानेसे यहाँ दुर्भिक्ष और महामारी आदि उपद्रव क्यों न होंगे ? ॥ १२७ – १२८ ॥ अत: उनको यहाँ ले आना चाहिये, अति गुणवान के अपराध की अधिक जाँच – परताल करना ठीक नहीं है । यादववृद्ध अन्धकार के ऐसे वचन सुनकर कृष्ण, उग्रसेन और बलभद्र आदि यादव श्वफल्कपुत्र अक्रूर के अपराध को भुलाकर उन्हें अभयदान देकर अपने नगर में ले आये ॥ १२९ ॥ उनके वहाँ आते ही स्यमन्तकमणि के प्रभाव से अनावृष्टि, महामारी, दुर्भिक्ष और सर्पभय आदि सभी उपद्रव शांत हो गये ॥ १३० ॥
तब श्रीकृष्णचन्द्र ने विचार किया ॥ १३१ ॥ अक्रूर का जन्म गान्दिनी से श्वफल्क के द्वारा हुआ है यह तो बहुत सामान्य कारण है ॥ १३२ ॥ किन्तु अनावृष्टि, दुर्भिक्ष, महामारी आदि उपद्रवों को शांत कर देनेवाला इसका प्रभाव तो अति महान है ॥ १३३ ॥ अवश्य ही इसके पास वह स्यमन्तक नामक महामणि हैं ॥ १३४ ॥ उसीका ऐसा प्रभाव सुना जाता है ॥ १३५ ॥ इसे भी हम देखते हैं कि एक यज्ञ के पीछे दूसरा और दूसरे के पीछे तीसरा इस प्रकार निरंतर अखंड यज्ञानुष्ठान करता रहता हैं ॥ १३६ ॥ और इसके पास यज्ञ के साधन [ धन आदि] भी बहुत कम हैं; इसलिये इसमें संदेह नहीं कि इसके पास स्यमन्तकमणि अवश्य है । ऐसा निश्चयकर किसी और प्रयोजन के उद्देश्यसे उन्होंने सम्पूर्ण यादवों को अपने महल में एकत्रित किया ॥ १३७ ॥
समस्त यदुवंशियों के वहाँ आकर बैठ जाने के बाद प्रथम प्रयोजन बताकर उसका उपसंहार होनेपर प्रसंगान्तर से अक्रूर के साथ परिहास करते हुए भगवान कृष्ण ने उनसे कहा ॥ १३८ ॥ हे दानपते ! जिस प्रकार शतधन्वा ने तुम्हे सम्पूर्ण संसार की सारभूत वह स्यमन्तक नामकी महामणि सौंपी थी वह हमें सब मालुम है । वह सम्पूर्ण राष्ट्र का उपकार करती हुई तुम्हारे पास हैं तो रहे, उसके प्रभाव का फल तो हम सभी भोगते हैं, किन्तु ये बलभद्रजी हमारे ऊपर संदेह करते थे, इसलिये हमारी प्रसन्नता के लिये आप एक बार उसे दिखला दीजिये । भगवान वासुदेव के ऐसा कहकर चुप हो जानेपर रत्न साथ ही लिये रहने के कारण अक्रूरजी सोचने लगे ॥ १३९ ॥ अब मुझे क्या करना चाहिये, यदि और किसी प्रकार कहता हूँ तो केवल वस्त्रों के ओटमे टटोलनेपर ये उसे देख ही लेंगे और इनसे अत्यंत विरोध करनेमें हमारा कुशल नहीं है । ऐसा सोचकर निखिल संसार के कारणस्वरूप श्रीनारायणसे अक्रूरजी बोले ॥ १४० ॥ ‘भगवन ! शतधन्वाने मुझे वह मणि सौंप दी थी । उसके मर जानेपर मैंने यह सोचते हए बड़ी ही कठिनता से इसे इतने दिन अपने पास रखा है कि भगवान आज, कल या परसों इसे माँगेगे ॥ १४१ ॥ इसकी चौकसी के क्लेश से सम्पूर्ण भोगों में अनासक्तचित्त होनेके कारण मुझे सुख का लेशमात्र भी नहीं मिला ॥ १४२ ॥ भगवान ये विचार करते कि, यह सम्पूर्ण राष्ट्र के उपकारक इतने-से भार को भी नहीं उठा सकता, इसलिये स्वयं मैंने आपसे कहा नहीं ॥ १४३ ॥ अब, लीजिये आपकी वह स्यमन्तकमणि यह रही, आपकी जिसे इच्छा हो उसे ही इसे दे दीजिये ॥ १४४ ॥
तब अक्रूरजी ने अपने कटि – वस्त्र में छिपाई हुई एक छोटी-सी सोने की पिटारी में स्थित वह स्यमन्तकमणि प्रकट की और उस पिटारी से निकालकर यादवसमाज में रख दि ॥ १४५ – १४६ ॥ उसके रखते ही वह सम्पूर्ण स्थान उसकी तीव्र कान्ति से देदीप्यमान होने लगा ॥ १४७ ॥ तब अक्रूरजी ने कहा, ‘मुझे यह मणि शतधन्वाने दी थी, यह जिसकी हो वह ले ले ॥ १४८ ॥
उसको देखनेपर सभी यादवों का विस्मयपूर्वक ‘साधु , साधु’ यह वचन सुना गया ॥ १४९ ॥ उसे देखकर बलभद्रजी ने ‘अच्युत के ही समान इसपर मेरा भी अधिकार हैं’ इसप्रकार अपनी अधिक स्पृहा दिखलाई ॥ १५० ॥ तथा ‘यह मेरी ही पैतृक सम्पत्ति है’ इस तरह सत्यभामा ने भी उसके लिये अपनी उत्कट की ॥ १५१ ॥ बलभद्र और सत्यभामा को देखकर कृष्णचन्द्र ने अपने को बैल और पहिये के बीच में पड़े हुए जीवके समान दोनों ओरसे संकटग्रस्त देखा ॥ १५२ ॥ और समस्त यादवों के सामने वे अक्रूरजी से बोले ॥ १५३ ॥ ‘इस मणिरत्न को मैंने अपनी सफाई देने के लिये ही इन यादवों को दिखवाया था । इस मणिपर मेरा और बलभद्रजी का तो समान अधिकार हैं और सत्यभामा की यह पैतृक सम्पत्ति हैं; और किसीका इसपर कोई अधिकार नहीं हैं ॥ १५४ ॥ वह मणि सदा शुद्ध और ब्रह्मचर्य आदि गुणयुक्त रहकर धारण करनेसे सम्पूर्ण राष्ट्र का हित करती है और अशुद्धावस्था में धारण करने से अपने आश्रयदाता को भी मार डालती है ॥ १५५ ॥ मेरे सोलह हजार स्रियाँ हैं, इसलिये मैं इसके धारण करने एम् समर्थ नहीं हूँ, इसीलिये सत्यभामा भी इसको कैसे धारण कर सकती है ? ॥ १५६ ॥ आर्य बलभद्रको भी इसके कारण से मदिरापान आदि सम्पूर्ण भोगों को त्यागना पड़ेगा ॥ १५७ ॥ इसलिये हे दानपते ! ये यादवगण, बलभद्रजी, मैं और सत्यभामा सब मिलकर आपसे प्रार्थना करते हैं कि इसे धारण करने में आप ही समर्थ हैं ॥ १५८ – १५९ ॥ आपके धारण करने से यह सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करेगी, इसलिये सम्पूर्ण राष्ट्र के मगंल के लिये आप ही इसे पूर्ववत धारण कीजिये; इस विषय में आप और कुछ भी न कहें । भगवान के ऐसा कहनेपर दानपति अक्रूरने ‘जो आज्ञा’ कह वह महारत्न ले लिया । तबसे अक्रूरजी सबके सामने उस अति देदीप्यमान मणि को अपने गले में धारणकर सूर्य के समान किरण – जाल से युक्त होकर विचरने लगे ॥ १६० – १६१ ॥
भगवान के मिथ्या – कलंक – शोधनरूप इस प्रसंग का जो कोई स्मरण करेगा उसे कभी थोडा-सा भी मिथ्या कलंक न लगेगा, उसकी समस्त इन्द्रियाँ समर्थ रहेगी तथा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा ॥ १६२ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे त्रयोदशोऽध्यायः
अध्याय-14 अनमित्र और अंधक के वंश का वर्णन
श्रीपराशरजी बोले – अनमित्र के शिनि नामक पुत्र हुआ; शिनि के सत्यक और सत्यक से सात्यकि का जन्म हुआ जिसका दूसरा नाम युयुधान था ॥ १ – २ ॥ तदनंतर सात्यकि के संजय, संजय के कुणि और कुणि से युगंधर का जन्म हुआ । वे सब शैनेय नामसे विख्यात हुए ॥ ३ – ४ ॥
अनमित्र के वंश में ही पृश्रिका जन्म हुआ और पृश्रिसे श्वफल्क की उत्पत्ति हुई जिसका प्रभाव पहले वर्णन कर चुके हैं । श्वफल्क का चित्रक नामक एक छोटा भाई और था ॥ ५ – ६ ॥ श्वफल्क के गान्दिनी से अक्रूर का जन्म हुआ ॥ ७ ॥ तथा उपमद्रू, मृदामृद, विश्वारि, मेजय, गिरिक्षत्र, उपक्षत्र, शतघ्न, अरिमर्दन, धर्मदृक, दृष्टधर्म, गंधमोज, वाह और प्रतिवाह नामक पुत्र तथा सुतारानाम्री कन्याका जन्म हुआ ॥ ८ – ९ ॥ देववाण और उपदेव ये दो अक्रूर के पुत्र थे ॥ १० ॥ तथा चित्रक के पृथु, विपृथु आदि अनेक पुत्र थे ॥ ११ ॥
कुकुर, भजमान, शुचिकम्बल और बर्हिष ये चार अंधक के पुत्र हुए ॥ १२ ॥ इनमें से कुकुर से धृष्ट, धृष्ट से कपोतरोमा, कपोतरोमासे विलोमा तथा विलोमा से तुम्बुरु के मित्र अनुका जन्म हुआ ॥ १३ ॥ अनुसे आनकदुन्दुभि, उससे अभिजित, अभिजित से पुनर्वसु और पुनर्वसु से आहुक नामक पुत्र और आहुकीनाम्री कन्या का जन्म हुआ ॥ १४ – १५ ॥ आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए ॥ १६ ॥ उनमें से देवक के देववान उपदेव, सहदेव और देवरक्षित नामक चार पुत्र हुए ॥ १७ ॥ इन चारों की वृकदेवा, उपदेवा, देवरक्षिता, श्रीदेवा, शान्तिदेवा, सहदेवा और देवकी ये सात भगिनियों थीं ॥ १८ ॥ ये सब वसुदेवजी को विवाही गयी थी ॥ १९ ॥ उग्रसेन के भी कंस, न्ययोध, सुनाम, आनकाह्र, शंकु, सुभूमि, राष्ट्रपाल, युद्धतुष्टि और सुतुष्टिमान नामक पुत्र तथा कंसा, कंसवती, सुतनु और राष्ट्रपालिका नामकी कन्याएँ हुई ॥ २० – २१ ॥
भजमान का पुत्र विदूरथ हुआ; विदूरथ के शूर, शूर के शमी, शमी के प्रतिक्षत्र, प्रतिक्षत्र के स्वयंभोज, स्वयंभोज के ह्र्दिक तथा ह्र्दिक के कृतवर्मा, शतधन्वा, देवार्ह और देवगर्भ आदि पुत्र हुए । देवगर्भ के पुत्र शूरसेन थे ॥ २२ – २५ ॥ शूरसेन की मारिषा नामकी पत्नी थी । उससे उन्होंने वसुदेव आदि दस पुत्र उत्पन्न किये ॥ २६ – २७ ॥ वसुदेव के जन्म लेते ही देवताओं ने अपनी अव्याहत दृष्टि से यह देखकर कि इनके घर में भगवान अंशावतार लेंगे, आनक और दुन्दुभि आदि बाजे बजाये थे ॥ २८ ॥ इसीलिये इनका नाम आनकदुन्दुभि भी हुआ ॥ २९ ॥ इनके देवभाग, देवश्रवा, अष्टक, कुकुचंक, वत्सधारक, सृजय, श्याम, शमिक और गंडूष नामक नौ भाई थे ॥ ३० ॥ तथा इन वसुदेव आदि दस भाइयों की पृथा, श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी ये पाँच बहिने थी ॥ ३१ ॥
शूरसेन के कुन्ति नामक एक मित्र थे ॥ ३२ ॥ वे नि:सन्तान थे, अत: शूरसेन से दत्तक-विधिसे उन्हें अपनी पृथा नामकी कन्या दे दी थी ॥ ३३ ॥ उसका राजा पांडू के साथ विवाह हुआ ॥ ३४ ॥ उसके धर्म, वायु और इंद्र के द्वारा क्रमशल युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन नामक तीन पुत्र हुए ॥ ३५ ॥ इनके पहले इसके अविवाहितावस्था में ही भगवान् सूर्य के द्वारा कर्ण नामक एक कानीन पुत्र [ अविवाहिता कन्या के गर्भ से हुए पुत्र को कानीन कहते हैं ।] और हुआ था ॥ ३६ ॥ इसकी माद्री नामकी एक सपत्नी थी ॥ ३७ ॥ उसके अश्विनीकुमारोंद्वारा नकुल और सहदेव नामक पांडू के दो पुत्र हुए ॥ ३८ ॥
शूरसेन की दूसरी कन्या श्रुतदेवा का कारुश – नरेश वृद्धधर्मा से विवाह हुआ था ॥ ३९ ॥ उससे दन्तवक्र नामक महादैत्य उप्तन्न हुआ ॥ ४० ॥ श्रुतकीर्ति को केकयराज ने विवाहा था ॥ ४१ ॥ उससे केकय – नरेश के संतर्दंन आदि पाँच पुत्र हुए ॥ ४२ ॥ राजाधिदेवी से अवन्तिदेशीय विन्द और अनुविन्द का जन्म हुआ ॥ ४३ ॥ श्रुतश्रवा का भी चेदिराज दमघोष ने पानिग्रहण किया ॥ ४४ ॥ उससे शिशुपाल का जन्म हुआ ॥ ४५ ॥ पूर्वजन्म में यह अतिशय पराक्रमी हिरण्यकशिपु नामक दैत्यों का मूल पुरुष हुआ था जिसे सकल लोकगुरु भगवान नृसिंह ने मारा था ॥ ४६ – ४७ ॥ तदनन्तर यह अक्षय, वीर्य, शौर्य, सम्पत्ति और पराक्रम आदि गुणों से सम्पन्न तथा समस्त त्रिभुवन के स्वामी इंद्र के भी प्रभाव को द्वानेवाला दशानन हुआ ॥ ४८ ॥ स्वयं भगवान के हाथसे ही मारे जाने के पुण्य से प्राप्त हुए नाना भोगों को वह बहुत समयतक भोगते हुए अंत में राघवरूपधारी भगवान के ही द्वारा मारा गया ॥ ४९ ॥ उसके पीछे यह चेदिराज दमघोष का पुत्र शिशुपाल हुआ ॥ ५० ॥ शिशुपाल होनेपर भी वह भू-भार-हरण के लिये अवतीर्ण हुए भगवदंशस्वरुप भगवान पुण्डरीकाक्ष में अत्यंत द्वेषबुद्धि करने लगा ॥ ५१ ॥ अंत में भगवान के हाथ से ही मारे जानेपर उन परमात्मा में ही मन लगे रहने के कारण सायुज्य – मोक्ष प्राप्त किया ॥ भगवान यदि प्रसन्न होते है तब जिसप्रकार यथेच्छ फल देते है, उसी प्रकार अप्रसन्न होकर मारनेपर भी वे अनुपम दिव्यलोक की प्राप्ति कराते हैं ॥ ५३ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्दशोऽध्यायः
अध्याय-15 शिशुपाल के पूर्व-जन्मान्तरों का तथा वसुदेवजी की सन्तति का वर्णन
श्रीमैत्रेयजी बोले – भगवन ! पूर्वजन्मों में हिरण्यकशिपु और रावण होनेपर इस शिशुपाल ने भगवान विष्णु के द्वारा मारे जानेसे देव-दुर्लभ भोगों को तो प्राप्त किया, किन्तु यह उनमें लीन नहीं हुआ; फिर इस जन्म में ही उनके द्वारा मारे जानेपर इसने सनातन पुरुष श्रीहरि में सायुज्य मोक्ष कैसे प्राप्त किया ? ॥ १ – २ ॥ हे समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ मुनिवर ! यह बात सुनने की मुझे बड़ी ही इच्छा हैं । मैंने अत्यंत कुतुहलवश होकर आपसे यह प्रश्न किया है, कृपया इसका निरूपण कीजिये ॥ ३ ॥
श्रीपराशयजी बोले – प्रथम जन्म में दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करने के लिये सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और नाश करनेवाले भगवान ने शरीर ग्रहण करते समय नृसिंहरूप प्रकट किया था ॥ ४ ॥ उससमय हिरण्यकशिपु के चित्त में यह भाव नहीं हुआ था कि वे विष्णुभगवान् हैं ॥ ५ ॥ केवल इतना ही विचार हुआ कि यह कोई निरतिशय पुण्य-समूह से उत्पन्न हुआ प्राणी है ॥ ६ ॥ रजोगुण के उत्कर्षसे प्रेरित हो उसकी मति दृढ़ हो गयी । अत: उसके भीतर ईश्वरीय भावनाका योग न होनेसे भगवान के द्वारा मारे जानेके कारण ही रावण का जन्म लेनेपर उसने सम्पूर्ण त्रिलोकी में सर्वाधिक भोग-सम्पत्ति प्राप्त की ॥ ७ ॥ उन अनादि – निधन, परब्रह्मस्वरूप, निराधार भगवान में चित्त न लगाने के कारण वह उन्हीं में लीन नहीं हुआ ॥ ८ ॥
इसीप्रकार रावण होनेपर भी कामवश जानकीजी में चित्त लग जानेसे भगवान् दशरथनन्दन राम के द्वारा मारे जानेपर केवल उनके रूपका ही दर्शन हुआ था; ‘ये अच्युत है’ ऐसी आसक्ति नहीं हुई, बल्कि मरते समय इसके अंत:करण में केवल मनुष्यबुद्धि ही रही ॥ ९ ॥
फिर श्रीअच्युत के द्वारा मारे जानेके फलस्वरूप इसने सम्पूर्ण भूमंडल में प्रशंसित चेदिराज के कुल में शिशुपालरूप से जन्म लेकर भी अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त किया ॥ १० ॥ उस जन्म में वह भगवान के प्रत्येक नामों में तुच्छता की भावना करने लगा ॥ ११ ॥ उसका ह्रदय अनेक जन्म के द्वेशानुबंधसे युक्त था, अत: वह उनकी निंदा और तिरस्कार आदि करते हुए भगवान के सम्पूर्ण समयानुसार लीलाकृत नामों का निरंतर उच्चारण करता था ॥ १२ ॥ खिले हुए कमलदल के समान जिसकी निर्मल आँखे हैं, जो उज्ज्वल पीताम्बर तथा निर्मल किरीट, केयूर, हार और कटकादि धारण किये हुए है तथा जिसकी लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं और जो शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए है, भगवान का वह दिव्य रूप अत्यंत वैरानुबंध के कारण भ्रमण, भोजन, स्नान, आसन और शबन आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में कभी उसके चित्त से दूर न होता था ॥ १३ ॥ फिर गाली देते समय उन्हीं का नामोच्चारण करते हुए और हद्रय में भी उन्हीं का ध्यान धरते हुए जिस समय वह अपने वध के लिये हाथ में धारण किये चक्र के उज्ज्वल किरणजाल से सुशोभित, अक्षय तेजस्वरूप द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोसे रहित ब्रह्मभूत भगवान को देख रहा था ॥ १४ ॥ उसी समय तुरंत भगवचक्र से मारा गया; भगवत्स्मरण के कारण सम्पूर्ण पापराशि के दग्ध हो जानेसे भगवान के द्वारा उसका अंत हुआ और वह उन्हीं में लीन हो गया ॥ १५ ॥
इसप्रकार इस सम्पूर्ण रह्स्यका मैंने तुमसे वर्णन किया ॥ १६ ॥ अहो ! वे भगवान तो द्वेशानुबंध के कारण भी कीर्तन और स्मरण करने से सम्पूर्ण देवता और असुरों को दुर्लभ परमफल देते हैं, फिर सम्यक भक्तिसम्पन्न पुरुषों की तो बात ही क्या है ? ॥ १७ ॥
आनकदुन्दुभि वसुदेवजी के पौरवी, रोहिणी, मदिरा, भद्रा और देवकी आदि बहुत-सी स्रियाँ थीं ॥ १८ ॥ उनमें रोहिणी से वसुदेवजी ने बलभद्र, शठ, सारण और दुर्मद आदि कई पुत्र उत्पन्न किये ॥ १९ ॥ तथा बलभद्रजी के रेवती से विशठ और उल्मुक नामक दो पुत्र हुए ॥ २० ॥ सार्ष्टि, मार्ष्टि, सत्य और धृति आदि सारण के पुत्र थे ॥ २१ ॥ इनके अतिरिक्त भद्राश्व, भद्रबाहू, दुर्दम और भूत आदि भी रोहिणीही की सन्तान में थे ॥ २२ ॥ नन्द, उपनन्द और कृतक आदि मदिरा के तथा उपनिधि और गद आदि भद्रा के पुत्र थे ॥ २३ – २४ ॥ वैशाली के गर्भ से कौशिक नामक केवल एक ही पुत्र हुआ ॥ २५ ॥
आनकदुन्दुभि के देवकी से कीर्तिमान, सुषेण, उदायु, भद्रसेन, ऋजुदास तथा भद्रदेव नामक छ: पुत्र हुए ॥ २६ ॥ इन सबको कंस ने मार डाला था ॥ २७ ॥ पीछे भगवान की प्रेरणा से योगमायाने देवकी के सातवे गर्भ को आधी रात के समय खींचकर रोहिणी की कुक्षि में स्थापित कर दिया ॥ २८ ॥ आकर्षण करने से इस गर्भ का नाम संकर्षण हुआ ॥ २९ ॥ तदनंतर सम्पूर्ण संसाररूप महावृक्ष के मूलस्वरूप भूत, भविष्यत और वर्तमानकालीन सम्पूर्ण देव, असुर और मुनिजन की बुद्धि के अगम्य तथा ब्रह्मा और अग्नि आदि देवताओंद्वारा प्रणाम करके भूभारहरण के लिये प्रसन्न किये गये आदि मध्य और अंतहीन भगवान वासुदेव ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया तथा उन्हीं की कृपा से बढ़ी हुई महिमावाली योगनिष्ठा भी नन्दगोप की पत्नी यशोदा के गर्भ में स्थित हुई ॥ ३० – ३१ ॥
उन कमलनयन भगवान के प्रकट होनेपर यह सम्पूर्ण जगत प्रसन्न हुए सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों से सम्पन्न सर्पादिके भय से शून्य, अधर्मादिसे रहित तथा स्वस्थचित्त हो गया ॥ ३२ ॥ उन्होंने प्रकट होकर इस सम्पूर्ण संसार को सन्मार्गावलम्बी कर दिया ॥ ३३ ॥
इस मर्त्यलोक में अवतीर्ण हुए भगवान की सोलह हजार एक सौ एक रानियाँ थीं ॥ ३४ ॥ उनमे रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती और चारुहासिनी आदि आठ मुख्य थी ॥ ३५ ॥ अनादि भगवान अखिलमुर्तिने उनसे एक लाख अस्सी हजार पुत्र उत्पन्न किये ॥ ३६ ॥ उनमें से प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और साम्ब आदि तेरह पुत्र प्रधान थे ॥ ३७ ॥ प्रद्युम्न ने भी रुक्मीकी पुत्री रुक्मवती से विवाह किया था ॥ ३८ ॥ उससे अनिरुद्ध का जन्म हुआ ॥ ३९ ॥ अनिरुद्ध ने भी रुक्मीकी पौत्री सुभद्रा से विवाह किया था ॥ ४० ॥ उससे वज्र उत्पन्न हुआ ॥ ४१ ॥ वज्र का पुत्र प्रतिबाहू तथा प्रतिबाहू का सुचारू था ॥ ४२ ॥ इसप्रकार सैकड़ों हजार पुरुषों की संख्यावाले यदुकुल की संतानों की गणना सौ वर्ष में भी नहीं की जा सकती ॥ ४३ ॥ क्योंकि इस विषय में ये दो श्लोक चरितार्थ हैं ॥ ४४ ॥
तिस्त्र: कोट्यस्सहस्त्राणामष्टाशीतिशतानि च ।
कुमाराणां गृहाचार्याश्वाप्योगेषु ये रताः ॥
संख्यानं यादवानां क: करिष्यति महात्मनाम ।
यत्रायुतानामयुतलक्षेणास्ते सदाहुक: ॥
अर्थात : जो गृहाचार्य यादवकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा देने में तत्पर रहते थे उनकी संख्या तीन करोड़ अठ्ठासी लाख थी, फिर उन महात्मा यादवों की गणना तो कर ही कौन सकता है ? जहाँ हजारों और लाखों की संख्या में सर्वदा यदुराज उग्रसेन रहते थे ॥ ४५ – ४६ ॥
देवासुर-संग्राम में जो महाबली दैत्यगण मारे गये थे वे मनुष्यलोक में उपद्रव करनेवाले राजालोग होकर उत्पन्न हुए ॥ ४७ ॥ उनका नाश करने के लिये देवताओं ने यदुवंश में जन्म लिया जिसमें कि एक सौ एक कुल थे ॥ ४८ ॥ उनका नियन्त्रण और स्वामित्व भगवान विष्णु ने ही किया । वे समस्त यादवगण उनकी आज्ञानुसार ही वृद्धि को प्राप्त हुए ॥ ४९ ॥
इसप्रकार जो पुरुष इस वृष्णिवंश की उत्पत्ति के विवरण को सुनता है वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त कर लेता हैं ॥ ५० ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे पंचदशोऽध्यायः
अध्याय-16 तुर्वसु के वंश का वर्णन
श्रीपराशयजी बोले – इसप्रकार मैंने तुमसे संक्षेप से यदु के वंश का वर्णन किया ॥ १ ॥ अब तुर्वसु के वंशका वर्णन सुनो ॥ २ ॥ तुर्वसु का पुत्र वह्री था, वह्री का भार्ग, भार्ग का भानु, भानुका त्रयीसानु, त्रयीसानु का करंदम और करंदम का पुत्र मरुत्त था ॥ ३ ॥ मरुत्त निस्संतान था ॥ ४ ॥ इसलिये उसने पुरुवंशीय दुष्यंत को पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया ॥ ५ ॥ इसप्रकार ययाति के शाप से तुर्वसु के वंश ने पुरुवंश का ही आश्रय लिया ॥ ६ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे षोडशोऽध्यायः
अध्याय-17 द्रुह्यू वंश
श्रीपराशरजी बोले – द्रुह्यू का पुत्र बभ्रु था, बभ्रु का सेतु, सेतुका आरब्ध, आरब्धका गांधार, गांधार का धर्म, धर्म का घृत, घृत का दुर्दम, दुर्दम का प्रचेता तथा प्रचेता का पुत्र शतधर्म था । इसने उत्तरवर्ती बहुत-से म्लेच्छों का आधिपत्य लिया ॥ ७ – ११ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे सप्तदशोऽध्यायः
अध्याय-18 अनुवंश
श्रीपराशयजी बोले – ययाति के चौथे पुत्र अनुके सभानल, चक्षु और परमेषु नामक तीन पुत्र थे । सभानल का पुत्र कालानल हुआ तथा कालानल के सृज्जय, सृज्जय के पुरुज्जय, पुरुज्जय क जनमेजय, जनमेजय के महाशाल, महाशाल के महामना और महामना के उशीनर तथा तितिक्षु नामक दो पुत्र हुए ॥ १२- १९ ॥
उशीनर के शिबि, मृग, नर, कृमि और वर्म नामक पाँच पुत्र हुए ॥ २० ॥ उनमें से शिबि के पृषदर्भ, सुवीर,केकय और मद्रक – ये चार पुत्र थे ॥ २१ ॥ तितीक्ष का पुत्र रुशद्र्थ हुआ । उसके हेम, हेम के सुतपा तथा सुतपा के बलि नामक पुत्र हुआ ॥ २२ – २३ ॥ इस बलि के क्षेत्र में दीर्घतमा नामक मुनिने अंग, वंग, कलिंग, सुहा और पौण्ड्र नामक पाँच वालेय क्षत्रिय उत्पन्न किये ॥ २४ ॥ इन बलिपुत्रों की सन्तति के नामानुसार पाँच देशों के भी ये ही नाम पड़े ॥ २५ ॥ इनमे से अंग से अनपान, अनपान से दिविरथ, दिविरथ से धर्मरथ और धर्मरथ से चित्ररथ का जन्म हुआ जिसका दूसरा नाम रोमपाद था । इस रोमपाद के मित्र दशरथ थे, अज के पुत्र दशरथजी ने रोमपाद को सन्तानहीन देखकर उन्हें पुत्रीरूप से अपनी शांता नामकी कन्या गोद दे दी थी ॥ २६ – २९ ॥
रोमपाद का पुत्र चतुरंग था । चतुरंग के पृथुलाक्ष तथा पृथुलाक्ष के चम्प नामक पुत्र हुआ जिसने चम्पा नामकी पुरी बसायी थी ॥ ३० – ३१ ॥ चम्प के हर्यंग नामक पुत्र हुआ, हर्यंग से भद्र्र्थ, भद्र्र्थ से बृहद्र्थ, बृहद्र्थ से बृहत्कर्मा, बृहत्कर्मासे बृहभ्दानु, बृहभ्दानु से बृहन्मना, बृहन्मना से जयद्रथ का जन्म हुआ ॥ ३२ – ३३ ॥ जयद्रथ की ब्राह्मण और क्षत्रिय के संसर्ग से उत्पन्न हुई पत्नी के गर्भ से विजय नामक पुत्र का जन्म हुआ ॥ ३४ ॥ विजय के धृति नामक पुत्र हुआ, धृति के धृतव्रत, धृतव्रत के सत्यकर्मा और सत्यकर्मा के अतिरथका जन्म हुआ जिसने कि गंगाजी में स्नान के लिये जानेपर पिटारी में रखकर पृथाद्वारा बहाये हुए कर्ण को पुत्ररूप से पाया था । इस कर्ण का पुत्र वृषसेन था । बस, अंगवंश इतना ही हैं ॥ ३५ – ४० ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे अष्टादशोऽध्यायः
अध्याय-19 पुरुवंश
श्रीपराशरजी बोले-पुरुका पुत्र जनमेजय था। जनमेजयका प्रचिन्वान् , प्रचिन्वान्का प्रवीर, प्रवीरका मनस्यु, मनस्युका अभयद, अभयदका सुधु, सुधुका बहुगत, बहुगतका संयाति, संयातिका अहंयाति तथा अहंयातिका पुत्र रौद्राश्व था॥१॥ रौद्राश्वके ऋतेषु, कक्षेषु, स्थण्डिलेषु, कृतेषु, जलेषु, धर्मेषु, धृतेषु, स्थलेषु, सन्नतेषु और वनेषु नामक दस पुत्र थे॥२॥ ऋतेषुका पुत्र अन्तिनार हुआ तथा अन्तिनारके सुमति, अप्रतिरथ और ध्रुव नामक तीन पुत्रोंने जन्म लिया॥३-४॥ इनमेंसे अप्रतिरथका पुत्र कण्व और कण्वका मेधातिथि हुआ जिसकी सन्तान काण्वायन ब्राह्मण हए॥५-७॥ अप्रतिरथका दूसरा पुत्र ऐलीन था॥८॥ इस ऐलीनके दुष्यन्त आदि चार पुत्र हुए॥९॥ दुष्यन्तके यहाँ चक्रवर्ती सम्राट भरतका जन्म हुआ जिसके नामके विषयमें देवगणने इस श्लोकका गान किया था-॥१०-११॥
“माता तो केवल चमड़ेकी धौंकनीके समान है, पुत्रपर अधिकार तो पिताका ही है, पुत्र जिसके द्वारा जन्म ग्रहण करता है उसीका स्वरूप होता है। हे दुष्यन्त ! तू इस पुत्रका पालन-पोषण कर, शकुन्तलाका अपमान न कर। हे नरदेव! अपने ही वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र अपने पिताको यमलोकसे [उद्धार कर स्वर्गलोकको] ले जाता है। इस पुत्रके आधान करनेवाले तुम्हीं हो ‘शकुन्तलाने यह बात ठीक ही कही है’ ॥१२-१३॥
भरतके तीन स्त्रियाँ थीं जिनसे उनके नौ पुत्र हुए॥ १४॥ भरतके यह कहनेपर कि ‘ये मेरे अनुरूप नहीं हैं, उनकी माताओंने इस भयसे कि राजा हमको त्याग न दें, उन पुत्रोंको मार डाला॥ १५ ॥ इस प्रकार पुत्र-जन्मके विफल हो जानेसे भरतने पुत्रकी कामनासे मरुत्सोम नामक यज्ञ किया। उस यज्ञके अन्तमें मरुद्गणने उन्हें भरद्वाज नामक एक बालक पुत्ररूपसे दिया जो उतथ्यपत्नी ममताके गर्भमें स्थित दीर्घतमा मुनिके पाद-प्रहारसे स्खलित हुए बृहस्पतिजीके वीर्यसे उत्पन्न हुआ था॥१६॥ उसके नामकरणके विषयमें भी यह श्लोक कहा जाता है— ॥१७॥
“पुत्रोत्पत्तिके अनन्तर बृहस्पतिने ममतासे कहा’हे मूढ़े! यह पुत्र द्वाज (हम दोनोंसे उत्पन्न हुआ) है तू इसका भरण कर।’ तब ममताने भी कहा’हे बृहस्पते! यह पुत्र द्वाज (हम दोनोंसे उत्पन्न हुआ) है अतः तुम इसका भरण करो।’ इस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए उसके माता-पिता चले गये, इसलिये उसका नाम ‘भरद्वाज’ पड़ा” ॥ १८॥
पुत्र-जन्म वितथ (विफल) होनेपर मरुद्गणने राजा भरतको भरद्वाज दिया था, इसलिये उसका नाम ‘वितथ’ भी हुआ॥ १९॥ वितथका पुत्र मन्यु हुआ और मन्युके बृहत्क्षत्र, महावीर्य, नर और गर्ग आदि कई पुत्र हुए ॥ २०-२१॥ नरका पुत्र संकृति और संकृतिके गुरुप्रीति एवं रन्तिदेव नामक दो पुत्र हुए॥ २२ ॥ गर्गसे शिनिका जन्म हुआ जिससे कि गार्ग्य और शैन्य नामसे विख्यात क्षत्रोपेत ब्राह्मण उत्पन्न हुए ॥ २३ ॥ महावीर्यका पुत्र दुरुक्षय हुआ॥ २४॥ उसके त्रय्यारुणि, पुष्करिण्य और कपि नामक तीन पुत्र हुए॥ २५ ॥ ये तीनों पुत्र पीछे ब्राह्मण हो गये थे॥ २६॥ बृहत्क्षत्रका पुत्र सुहोत्र, सुहोत्रका पुत्र हस्ती था । जिसने यह हस्तिनापुर नामक नगर बसाया था॥ २७-२८॥
हस्तीके तीन पुत्र अजमीढ, द्विजमीढ और पुरुमीढ थे। अजमीढके कण्व और कण्वके मेधातिथि नामक पुत्र हुआ जिससे कि काण्वायन ब्राह्मण उत्पन्न हुए॥ २९-३२॥अजमीढका दूसरा पुत्र बृहदिषु था॥३३॥ बृहदिषुके बृहद्धनु, बृहद्धनुके बृहत्कर्मा, बृहत्कर्माके जयद्रथ, जयद्रथके विश्वजित् तथा विश्वजित्के सेनजित्का जन्म हुआ। सेनजित्के रुचिराश्व, काश्य, दृढहनु और वत्सहनु नामक चार पुत्र हुए ॥ ३४-३६॥ रुचिराश्वके पृथुसेन, पृथुसेनके पार और पारके नीलका जन्म हुआ। इस नीलके सौ पुत्र थे, जिनमें काम्पिल्यनरेश समर प्रधान था॥३७–४० ॥ समरके पार, सुपार और सदश्व नामक तीन पुत्र थे॥४१॥ सुपारके पृथु, पृथुके सुकृति, सुकृतिके विभ्राज और विभ्राजके अणुह नामक पुत्र हुआ, जिसने शुककन्या कीर्तिसे विवाह किया था॥ ४२-४४॥ अणुहसे ब्रह्मदत्तका जन्म हुआ। ब्रह्मदत्तसे विष्वक्सेन, विष्वक्सेनसे उदक्सेन तथा उदक्सेनसे भल्लाभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ॥ ४५-४७॥
द्विजमीढका पुत्र यवीनर था॥४८॥ उसका धृतिमान्, धृतिमान्का सत्यधृति, सत्यधृतिका दृढनेमि, दृढनेमिका सुपार्श्व, सुपार्श्वका सुमति, सुमतिका सन्नतिमान् तथा सन्नतिमान्का पुत्र कृत हुआ जिसे हिरण्यनाभने योगविद्याकी शिक्षा दी थी तथा जिसने प्राच्य सामग श्रुतियोंकी चौबीस संहिताएँ रची थीं॥४९-५२॥ कृतका पुत्र उग्रायुध था जिसने अनेकों नीपवंशीय क्षत्रियोंका नाश किया॥५३-५४॥ उग्रायुधके क्षेम्य, क्षेम्यके सुधीर, सुधीरके रिपुंजय और रिपुंजयसे बहुरथने जन्म लिया। ये सब पुरुवंशीय राजागण हुए॥५५॥
अजमीढकी नलिनीनाम्नी, एक भार्या थी। उसके नील नामक एक पुत्र हुआ॥५६॥ नीलके शान्ति, शान्तिके सुशान्ति, सुशान्तिके पुरंजय, पुरंजयके ऋक्ष और ऋक्षके हर्यश्व नामक पुत्र हुआ॥५७-५८॥ हर्यश्वके मुद्गल, संजय, बृहदिषु, यवीनर और काम्पिल्य नामक पाँच पुत्र हुए। पिताने कहा था कि मेरे ये पुत्र मेरे आश्रित पाँचों देशोंकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं, इसलिये वे पांचाल कहलाये ॥ ५९॥
मुद्गलसे मौद्गल्य नामक क्षत्रोपेत ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति हुई॥६० ॥ मुद्गलसे बृहदश्व और बृहदश्वसे दिवोदास नामक पुत्र एवं अहल्या नामकी एक कन्याका जन्म हुआ॥६१-६२॥ अहल्यासे महर्षि गौतमके द्वारा शतानन्दका जन्म हुआ॥६३॥ शतानन्दसे धनुर्वेदका पारदर्शी सत्यधृति उत्पन्न हुआ॥६४॥ एक बार अप्सराओंमें श्रेष्ठ उर्वशीको देखनेसे सत्यधृतिका वीर्य स्खलित होकर शरस्तम्ब (सरकण्डे)-पर पड़ा ॥६५॥ उससे दो भागोंमें बँट जानेके कारण पुत्र और पुत्रीरूप दो सन्तानें उत्पन्न हुईं॥६६॥ उन्हें मृगयाके लिये गये हुए राजा शान्तनु कृपावश ले आये॥६७॥ तदनन्तर पुत्रका नाम कृप हुआ और कन्या अश्वत्थामाकी माता द्रोणाचार्यकी पत्नी कृपी हुई ॥६८॥
दिवोदासका पुत्र मित्रायु हुआ॥६९॥ मित्रायुका पुत्र च्यवन नामक राजा हुआ, च्यवनका सुदास, सुदासका सौदास, सौदासका सहदेव, सहदेवका सोमक और सोमकके सौ पुत्र हुए जिनमें जन्तु सबसे बड़ा और पृषत सबसे छोटा था। पृषतका पुत्र द्रुपद, द्रुपदका धृष्टद्युम्न और धृष्टद्युम्नका पुत्र धृष्टकेतु था॥७०–७३ ॥
अजमीढका ऋक्ष नामक एक पुत्र और था॥७४॥ उसका पुत्र संवरण हुआ तथा संवरणका पुत्र कुरु था जिसने कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्रकी स्थापना की॥७५-७७॥ कुरुके पुत्र सुधनु, जलु और परीक्षित् आदि हुए ॥ ७८ ॥ सुधनुका पुत्र सुहोत्र था, सुहोत्रका च्यवन, च्यवनका कृतक और कृतकका पुत्र उपरिचर वसु हुआ॥७९-८० ॥ वसुके बृहद्रथ, प्रत्यग्र, कुशाम्बु, कुचेल और मात्स्य आदि सात पुत्र थे॥८१॥ इनमेंसे बृहद्रथके कुशाग्र, कुशाग्रके वृषभ, वृषभके पुष्पवान् , पुष्पवान्के सत्यहित, सत्यहितके सुधन्वा और सुधन्वाके जतुका जन्म हुआ॥८२॥ बृहद्रथके दो खण्डोंमें विभक्त एक पुत्र और हुआ था जो कि जराके द्वारा जोड़ दिये जाने पर जरासन्ध कहलाया। ८३॥ उससे सहदेवका जन्म हुआ तथा सहदेवसे सोमप और सोमपसे श्रुतिश्रवाकी उत्पत्ति हुई॥८४॥ इस प्रकार मैंने तुमसे यह मागध भूपालोंका वर्णन कर दिया है। ८५ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे एकोनविंशोऽध्यायः
अध्याय-20 कुरुके वंशका वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- [कुरुपुत्र] परीक्षितके जनमेजय, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन नामक चार पुत्र हुए, तथा जलुके सुरथ नामक एक पुत्र हुआ॥१-२॥ सुरथके विदूरथका जन्म हुआ। विदूरथके सार्वभौम, सार्वभौमके जयत्सेन, जयत्सेनके आराधित, आराधितके अयुतायु, अयुतायुके अक्रोधन, अक्रोधनके देवातिथि तथा देवातिथिके [अजमीढके पुत्र ऋक्षसे भिन्न] दूसरे ऋक्षका जन्म हुआ॥३-६॥ ऋक्षसे भीमसेन, भीमसेनसे दिलीप और दिलीपसे प्रतीप नामक पुत्र हुआ॥७-८॥ प्रतीपके देवापि, शान्तनु और बाह्लीक नामक तीन पुत्र हुए॥९॥ इनमेंसे देवापि बाल्यावस्थामें ही वनमें चला गया था अतः शान्तनु ही राजा हुआ॥१०-११॥ उसके विषयमें पृथिवीतलपर यह श्लोक कहा जाता है- ॥ १२ ॥
“[राजा शान्तनु] जिसको-जिसको अपने हाथसे स्पर्श कर देते थे वे वृद्ध पुरुष भी युवावस्था प्राप्त कर लेते थे तथा उनके स्पर्शसे सम्पूर्ण जीव अत्युत्तम शान्तिलाभ करते थे, इसलिये वे शान्तनु कहलाते थे” ॥१३॥
एक बार महाराज शान्तनुके राज्यमें बारह वर्षतक वर्षा न हुई॥१४॥ उस समय सम्पूर्ण देशको नष्ट होता देखकर राजाने ब्राह्मणोंसे पूछा-‘हमारे राज्यमें वर्षा क्यों नहीं हुई? इसमें मेरा क्या अपराध है?’ ॥१५॥
तब ब्राह्मणोंने उससे कहा—’यह राज्य तुम्हारे बड़े भाईका है किन्तु इसे तुम भोग रहे हो; इसलिये तुम परिवेत्ता हो।’ उनके ऐसा कहनेपर राजा शान्तनुने उनसे फिर पूछा-‘तो इस सम्बन्धमें मुझे अब क्या करना चाहिये?’॥ १६-१८॥ इसपर वे ब्राह्मण फिर बोले-‘जबतक तुम्हारा बड़ा भाई देवापि किसी प्रकार पतित न हो तबतक यह राज्य उसीके योग्य है॥१९-२० ॥अतः तुम इसे उसीको दे डालो, तुम्हारा इससे कोई प्रयोजन नहीं।’
ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर शान्तनुके मन्त्री अश्मसारीने वेदवादके विरुद्ध बोलनेवाले तपस्वियोंको वनमें नियुक्त किया॥ २१॥ उन्होंने अतिशय सरलमति राजकुमार देवापिकी बुद्धिको वेदवादके विरुद्ध मार्गमें प्रवृत्त कर दिया॥२२॥
उधर राजा शान्तनु ब्राह्मणोंके कथनानुसार दु:ख और शोकयुक्त होकर ब्राह्मणोंको आगे कर अपने बड़े भाईको राज्य देनेके लिये वनमें गये॥ २३॥ वनमें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणगण परम विनीत राजकुमार देवापिके आश्रमपर उपस्थित हुए; और उससे ‘ज्येष्ठ भ्राताको ही राज्य करना चाहिये’-इस अर्थके समर्थक अनेक वेदानुकूल वाक्य कहने लगे॥ २४-२५ ॥ किन्तु उस समय देवापिने वेदवादके विरुद्ध नाना प्रकारकी युक्तियोंसे दूषित बातें कीं ॥ २६॥ तब उन ब्राह्मणोंने शान्तनुसे कहा- ॥ २७॥”हे राजन् ! चलो, अब यहाँ अधिक आग्रह करनेकी आवश्यकता नहीं। अब अनावृष्टिका दोष शान्त हो गया। अनादिकालसे पूजित वेदवाक्योंमें दोष बतलानेके कारण देवापि पतित हो गया है॥ २८॥ ज्येष्ठ भ्राताके पतित हो जानेसे अब तुम परिवेत्ता नहीं रहे।”उनके ऐसा कहनेपर शान्तनु अपनी राजधानीको चले आये और राज्यशासन करने लगे॥२९॥ वेदवादके विरुद्ध वचन बोलनेके कारण देवापिके पतित हो जानेसे, बड़े भाईके रहते हुए भी सम्पूर्ण धान्योंकी उत्पत्तिके लिये पर्जन्यदेव (मेघ) बरसने लगे ॥३०॥
बाह्रीकके सोमदत्त नामक पुत्र हुआ तथा सोमदत्तके भूरि, भूरिश्रवा और शल्य नामक तीन पुत्र हुए॥ ३१-३२॥ शान्तनुके गंगाजीसे अतिशय कीर्तिमान् तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंका जाननेवाला भीष्म नामक पुत्र हुआ॥३३॥ शान्तनुने सत्यवतीसे चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र और भी उत्पन्न किये ॥३४॥ उनमेंसे चित्रांगदको तो बाल्यावस्थामें ही चित्रांगद नामक गन्धर्वने युद्धमें मार डाला ॥ ३५॥ विचित्रवीर्यने काशिराजकी पुत्री अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया॥ ३६॥ उनमें अत्यन्त भोगासक्त रहनेके कारण अतिशय खिन्न रहनेसे वह यक्ष्माके वशीभत होकर अकालहीमें मर गया॥३७॥ तदनन्तर मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायनने सत्यवतीके नियुक्त करनेसे माताका वचन टालना उचित न जान विचित्रवीर्यकी पत्नियोंसे धृतराष्ट्र और पाण्डु नामक दो पुत्र उत्पन्न किये और उनकी भेजी हुई दासीसे विदुर नामक एक पत्र उत्पन्न किया॥३८॥
धृतराष्ट्रने भी गान्धारीसे दुर्योधन और दुःशासन आदि सौ पुत्रोंको जन्म दिया॥३९॥ पाण्डु वनमें आखेट करते समय ऋषिके शापसे सन्तानोत्पादनमें असमर्थ हो गये थे अतः उनकी स्त्री कुन्तीसे धर्म, वायु और इन्द्रने क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक तीन पुत्र तथा माद्रीसे दोनों अश्विनीकुमारोंने नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। इस प्रकार उनके पाँच पुत्र हुए॥४०॥ उन पाँचोंके द्रौपदीसे पाँच ही पुत्र हुए॥४१॥ उनमेंसे युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे श्रुतसेन, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे श्रुतानीक तथा सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ था॥ ४२ ॥
इनके अतिरिक्त पाण्डवोंके और भी कई पुत्र हुए ॥ ४३ ॥ जैसे-युधिष्ठिरसे यौधेयीके देवक नामक पुत्र हुआ, भीमसेनसे हिडिम्बाके घटोत्कच और काशीसे सर्वग नामक पुत्र हुआ, सहदेवसे विजयाके सुहोत्रका जन्म हुआ, नकुलने रेणुमतीसे निरमित्रको उत्पन्न किया॥४४-४८॥ अर्जुनके नागकन्या उलूपीसे इरावान् नामक पुत्र हुआ॥४९॥ मणिपुर नरेशकी पुत्रीसे अर्जुनने पुत्रिका-धर्मानुसार बभ्रुवाहन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया॥५०॥ तथा उसके सुभद्रासे अभिमन्युका जन्म हुआ जो कि बाल्यावस्थामें ही बड़ा बल-पराक्रमसम्पन्न तथा अपने सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतनेवाला था॥५१॥
तदनन्तर कुरुकुलके क्षीण हो जानेपर जो अश्वत्थामाके प्रहार किये हुए ब्रह्मास्त्रद्वारा गर्भमें ही भस्मीभूत हो चुका था किन्तु फिर, जिन्होंने अपनी इच्छासे ही माया-मानव-देह धारण किया है उन सकल सुरासुरवन्दितचरणारविन्द श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावसे पुनः जीवित हो गया; उस परीक्षितने अभिमन्युके द्वारा उत्तराके गर्भसे जन्म लिया जो कि इस समय इस प्रकार धर्मपूर्वक सम्पूर्ण भूमण्डलका शासन कर रहा है कि जिससे भविष्यमें भी उसकी सम्पत्ति क्षीण न हो ॥५२-५३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे विंशोऽध्यायः
अध्याय-21 भविष्यमें होनेवाले राजाओंका वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- अब मैं भविष्यमें होनेवाले राजाओंका वर्णन करता हूँ॥१॥ इस समय जो परीक्षित् नामक महाराज हैं इनके जनमेजय, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन नामक चार पुत्र होंगे॥२॥ जनमेजयका पुत्र शतानीक होगा जो याज्ञवल्क्यसे वेदाध्ययनकर, कृपसे शस्त्रविद्या प्राप्तकर विषम विषयोंसे विरक्तचित्त हो महर्षि शौनकके उपदेशसे आत्मज्ञानमें निपुण होकर परमनिर्वाण-पद प्राप्त करेगा॥३-४॥ शतानीकका पुत्र अश्वमेधदत्त होगा॥५॥ उसके अधिसीमकृष्ण तथा अधिसीमकृष्णके निचक्नु नामक पुत्र होगा जो कि गंगाजीद्वारा हस्तिनापुरके बहा ले जानेपर कौशाम्बीपुरीमें निवास करेगा॥६-८॥
निचक्नुका पुत्र उष्ण होगा, उष्णका विचित्ररथ, विचित्ररथका शुचिरथ, शुचिरथका वृष्णिमान्, वृष्णिमान्का सुषेण, सुषेणका सुनीथ, सुनीथका नृप, नृपका चक्षु, चक्षुका सुखावल, सुखावलका पारिप्लव, पारिप्लवका सुनय, सुनयका मेधावी, मेधावीका रिपुंजय, रिपुंजयका मृदु, मृदुका तिग्म, तिग्मका बृहद्रथ, बृहद्रथका वसुदान, वसुदानका दूसरा शतानीक, शतानीकका उदयन, उदयनका अहीनर, अहीनरका दण्डपाणि, दण्डपाणिका निरमित्र तथा निरमित्रका पुत्र क्षेमक होगा। इस विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥९-१७॥
‘जो वंश ब्राह्मण और क्षत्रियोंकी उत्पत्तिका कारणरूप तथा नाना राजर्षियोंसे सभाजित है वह कलियुगमें राजा क्षेमके उत्पन्न होनेपर समाप्त हो जायगा’ ॥ १८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे एकविंशोऽध्यायः
अध्याय-22 भविष्यमें होनेवाले इक्ष्वाकुवंशीय राजाओंका वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- अब मैं भविष्यमें होनेवाले इक्ष्वाकुवंशीय राजाओंका वर्णन करता हूँ॥१॥ बृहद्बलका पुत्र बृहत्क्षण होगा, उसका उरुक्षय, उरुक्षयका वत्सव्यूह, वत्सव्यूहका प्रतिव्योम, प्रतिव्योमका दिवाकर, दिवाकरका सहदेव, सहदेवका बृहदश्व, बृहदश्वका भानुरथ, भानुरथका प्रतीताश्व, प्रतीताश्वका सुप्रतीक, सुप्रतीकका मरुदेव, मरुदेवका सुनक्षत्र, सुनक्षत्रका किन्नर, किन्नरका अन्तरिक्ष, अन्तरिक्षका सुपर्ण, सुपर्णका अमित्रजित् , अमित्रजित्का बृहद्राज, बृहद्राजका धर्मी, धर्मीका कृतंजय, कृतंजयका रणंजय, रणंजयका संजय, संजयका शाक्य, शाक्यका शुद्धोदन, शुद्धोदनका राहुल, राहुलका प्रसेनजित्, प्रसेनजित्का क्षुद्रक, क्षुद्रकका कुण्डक, कुण्डकका सुरथ और सुरथका सुमित्र नामक पुत्र होगा। ये सब इक्ष्वाकुके वंशमें बृहद्बलकी सन्तान होंगे॥२-११॥ इस वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ॥१२॥
‘यह इक्ष्वाकुवंश राजा सुमित्रतक रहेगा, क्योंकि कलियुगमें राजा सुमित्रके होनेपर फिर यह समाप्त हो जायगा’ ॥ १३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे द्वाविंशोऽध्यायः
अध्याय-23 मगध वंशका वर्णन
श्रीपराशरजी बोले- अब मैं मगधदेशीय बृहद्रथकी भावी सन्तानका अनुक्रमसे वर्णन करूँगा॥१॥ इस वंशमें महाबलवान् और पराक्रमी जरासन्ध आदि राजागण प्रधान थे॥२॥ जरासन्धका पुत्र सहदेव है॥३॥ सहदेवके सोमापि नामक पुत्र होगा, सोमापिके श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवाके अयुतायु, अयुतायुके निरमित्र, निरमित्रके सुनेत्र, सुनेत्रके बृहत्कर्मा, बृहत्कर्माके सेनजित् , सेनजित्के श्रुतंजय, श्रुतंजयके विप्र तथा विपके शुचि नामक एक पुत्र होगा ॥४-५॥ शुचिके क्षेम्य, क्षेम्यके सुव्रत, सुव्रतके धर्म, धर्मके सुश्रवा, सुश्रवाके दृढसेन, दृढसेनके सुबल, सुबलके सुनीत, सुनीतके सत्यजित्, सत्यजित्के विश्वजित् और विश्वजित्के रिपुंजयका जन्म होगा॥६-१२॥ इस प्रकारसे बृहद्रथवंशीय राजागण एक सहस्र वर्षपर्यन्त मगधमें शासन करेंगे॥१३॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः
अध्याय-24 कलियुगी राजाओं और कलिधर्मो का वर्णन तथा राजवंश – वर्णन का उपसंहार
श्रीपराशयजी बोले – बृहद्र्थवंश का रिपुज्जय नामक जो अंतिम राजा होगा उसका सुनिक नामक एक मंत्री होगा । वह अपने स्वामी रिपुज्जय को मारकर अपने पुत्र प्रद्योत का राज्याभिषेक करेगा । उसका पुत्र बलाक होगा, बलाक का विशाखयूम, विशाखयूप का जनक, जनक का नंदीवर्द्धन तथा नंदीवर्द्धन का पुत्र नंदी होगा । ये पाँच प्रद्योतवंशीय नृपतिगण एक सौ अड़तीस वर्ष पृथ्वीका पालन करेंगे ॥ १ – ८ ॥
नंदी का पुत्र शिशुनाभ होगा, शिशुनाभ का काकवर्ण, काकवर्ण का क्षेमधर्मा, क्षेमधर्मा का क्षतौजा, क्षतौजा का विधिसार, विधिसारका अजातशत्रु, अजातशत्रु का अर्भक, अर्भक का उदयन, उदयन का नंदीवर्द्धन और नंदीवर्द्धन का पुत्र महानंदी होगा । ये शिशुनाभवंशीय नृपतिगण तीन सौ बासष्ठ वर्ष पृथ्वीका शासन करेंगे ॥ ९ – १९ ॥
महानंदी के शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न महापद्म नामक नन्द दूसरे परशुराम के समान सम्पूर्ण क्षत्रियों का नाश करनेवाला होगा । तबसे शूद्रजातीय राजा राज्य करेंगे । राजा माहापद्म सम्पूर्ण पृथ्वी का एकछत्र और अनुल्लन्गित राज्यशासन करेगा । उसके सुमाली आदि आठ पुत्र होंगे जो महापद्म के पीछे पृथ्वीका राज्य भोगेंगे ॥ २० – २४ ॥ महापद्म और उसके पुत्र सौ वर्षतक पृथ्वीका शासन करेंगे । तदनन्तर इस नवों नन्दों को कौटिल्यनामक एक ब्राह्मण नष्ट करेगा, उनका अंत होनेपर मौर्य नृपतिगण पृथ्वी को भोगेंगे । कौटिल्य ही मुरा नामकी दासीसे नन्दद्वारा उत्पन्न हुए चन्द्रगुप्त को राज्याभिषित करेंगा ॥ २५- २८ ॥
चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार, बिन्दुसार का अशोकवर्द्धन, अशोकवर्द्धन का सुयशा, सुयशा का दशरथ, दशरथ का संयुत, संयुत का शालिशूक, शालिशूकका सोमशर्मा, सोमशर्मा का शतधन्वा तथा शतधन्वा का पुत्र बृहद्र्थ होगा । इसप्रकार एक सौ तिहत्तर वर्षतक ये दस मौर्यवंशी राजा राज्य करेंगे ॥ २९ – ३२ ॥ इनके अनन्तर पृथ्वी में दस शुद्रवंशीय राजागण होंगे ॥ ३३ ॥ उनमे पहला पुष्यमित्र नामक सेनापति अपने स्वामी को मारकर स्वयं राज्य करेगा, उसका पुत्र अग्निमित्र होगा ॥ ३४ ॥ अग्निमित्र का पुत्र सुज्येष्ठ, सुज्येष्ठ का वसुमित्र, वसुमित्र का उदंक, उदंक का पुलिन्दक, पुलिन्दक का घोषवसु, घोषवसु का वज्रमित्र, वज्रमित्र का भागवत और भागवत का पुत्र देवभूत होगा ॥ ३५ – ३६ ॥ ये शुंगनरेश एक सौ बारह वर्ष पृथ्वी का भोग करेंगे ॥ ३७ ॥
इसके अनन्तर यह पृथ्वी कण्व भूपालों के अधिकार में चली जायगी ॥ ३८ ॥ शुंगवंशीय अति व्यसनशील राजा देवभूति को कण्ववंशीय वसुदेव नामक उसका मंत्री मारकर स्वयं राज्य भोगेगा ॥ ३९ ॥ उसका पुत्र भूमित्र, भूमित्र का नारायण तथा नारायण का पुत्र सुशर्मा होगा ॥ ४० – ४१ ॥ ये चार काण्व भूपतिगण पैंतालिस वर्ष पृथ्वी के अधिपति रहेंगे ॥ ४२ ॥
कण्ववंशीय सुशर्मा को उसका बलिपुच्छक नामवाला आंध्रजातीय सेवक मारकर स्वयं पृथ्वी का भोग करेगा ॥ ४३ ॥ उसके पीछे उसका भाई कृष्ण पृथ्वी का स्वामी होगा ॥ ४४ ॥ उसका पुत्र शांतकर्णि होगा । शांतकर्णिका पुत्र पूर्णोत्संग, पूर्णोत्संग का शातकर्णि, शातकर्णिका लम्बोदर, लम्बोदर का पिलक, पिलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का पटुमान, पटुमान का अरिष्टकर्मा, अरिष्टकर्मा का हालाहल, हालाहल पललक, पललक का पुलिंदसेन, पुलिंदसेन का सुंदर, सुंदर का शातकर्णि( दूसरा) शातकर्णिका शिवस्वाति, शिवस्वाति का गोमतिपुत्र, गोमतिपुत्र का अलिमान, अलिमान का शांतकर्णि (दूसरा) शांतकर्णिका शिवश्रित, शिवश्रित का शिवस्कन्ध, शिवस्कन्ध का यज्ञश्री, यज्ञश्री का द्वियज्ञ, द्वियज्ञ का चन्द्रश्री तथा चन्द्रश्री का पुत्र पुलोमाचि होगा ॥ ४५ – ४९ ॥ इसप्रकार ये तीस आंध्रभृत्य राजागण चार सौ छप्पन वर्ष पृथ्वी को भोगेंगे ॥ ५० ॥ इनके पीछे सात आभीर और दस गर्दभिल राजा होंगे ॥ ५१ ॥ फिर सोलह शक राजा होंगे ॥ ५२ ॥ उनके पीछे आठ यवन, चौदह तुर्क, तेरह मुंड और ग्यारह मौनवातीय राजालोग एक हजार नब्बे वर्ष पृथ्वी का शासन करेंगे ॥ ५३ ॥
इनमें से भी ग्यारह मौन राजा पृथ्वी को तीन सौ वर्षतक भोगेंगे ॥ ५४ ॥ इनके उच्छिन्न होनेपर कैंकिल नामक यवनजातीय अभिषेकरहित राजा होंगे ॥ ५५ ॥ उनका वंशधर विन्ध्यशक्ति होगा । विन्ध्यशक्ति का पुत्र पुरंजय होगा । पुरंजय का रामचन्द्र, रामचन्द्र का धर्मवर्मा, धर्मवर्मा का बंग, बंगका नंदन तथा नंदन का पुत्र सुनन्दी होगा । सुनन्दी के नंदीयशा, शुक्र और प्रवीर ये तीन भाई होंगे । ये सब एक सौ छ: वर्ष राज्य करेंगे ॥ ५६ ॥ इसके पीछे तेरह इनके वंश के और तीन बाह्यिक राजा होगे ॥ ५७ ॥ उनके बाद तेरह पुष्पमित्र और पटुमित्र आदि तथा सात आंध्र मांगलिक भूपतिगण होंगे ॥ ५८ ॥ तथा नौ राजा क्रमश: कोसलदेश में राज्य करेंगे ॥ ५९ ॥ निषधदेश के स्वामी भी ये ही होंगे ॥ ६० ॥
मगधदेश में विश्वस्फटिक नामक राजा अन्य वर्णों को प्रवृत्त करेगा ॥ ६१ ॥ वह कैवर्त्त, वटु, पुलिंद और ब्राह्मणों को राज्य में नियुक्त करेगा ॥ ६२ ॥ सम्पूर्ण क्षत्रिय-जाति को उच्छिन्न कर पद्मावतीपूरी में नागगण तथा गंगा के निकटवर्ती प्रयाग और गया में मागध और गुप्त राजालोग राज्य भोग करेंगे ॥ ६३ ॥ कोसल, आंध्र, पुंड्र, ताम्रलिप्त और समुद्रतटवर्तिनी पूरी की देवरक्षित नामक एक राजा रक्षा करेगा ॥ ६४ ॥ कलिंग, माहिष, महेंद्र और भौम आदि देशों को गुह नरेश भोगेंगे ॥ ६५ ॥ नैषध, नैमिषक और कालकोशक आदि जनपदों को मणिधान्यक-वंशीय राजा भोगेगे ॥ ६६ ॥ त्रैराज्य और मूषिक देशोंपर कनक नामक आभीर तथा नर्मदा-तटवर्ती मरुभूमिपर व्रात्य द्विज, आभीर और शुद्र आदिका आधिपत्य होगा ॥ ६८ ॥ समुद्रतट, दाविकोर्वी, चन्द्रभागा और काश्मीर आदि देशों का व्रात्य, म्लेच्छ और शुद्र आदि राजागण भोग करेंगे ॥ ६९ ॥
ये सम्पूर्ण राजालोग पृथ्वी में एक ही समय में होंगे ॥ ७० ॥ ये थोड़ी प्रसन्नतावाले, अत्यंत क्रोधी, सर्वदा अधर्म और मिथ्या भाषण में रूचि रखनेवाले, स्त्री-बालक और गौओं की हत्या करनेवाले, पर-धन-हरण में रूचि रखनेवाले, अल्पशक्ति, तम:प्रधान उत्थान के साथ ही पतनशील, अल्पायु, महती कामनावाले, अल्पपुण्य और अत्यंत लोभी होंगे ॥ ७१ ॥ ये सम्पूर्ण देशों को परस्पर मिला देंगे तथा उन राजाओं के आश्रय से ही बलवान और उन्हीं के स्वभाव का अनुकरण करनेवाले म्लेच्छ तथा आर्यविपरीत आचरण करते हुए सारी प्रजाको नष्ट- भ्रष्ट कर देंगे ॥ ७२ ॥
तब दिन – दिन धर्म और अर्थ का थोडा – थोडा ह्रास तथा क्षय होने के कारण संसार का क्षय हो जायगा ॥ ७३ ॥ उससमय अर्थ ही कुलीनता का हेतु होगा; बल ही सम्पूर्ण धर्म का हेतु होगा; पारस्परिक रूचि ही दाम्पत्य-सम्बन्ध की हेतु होगी, स्त्रीत्व ही उपभोग का हेतु होगा; मिथ्या भाषण ही व्यवहार में सफलता प्राप्त करने का हेतु होगा; जल की सुलभता और सुगमता ही पृथ्वी की स्वीकृति का हेतु होगा ; यज्ञोपवीत ही ब्राह्मणत्व का हेतु होगा; रत्नादि धारण करना ही प्रशंसाका हेतु होगा; बाह्य चिन्ह ही आश्रमों के हेतु होंगे; अन्याय ही आजीविका का हेतु होगा; दुर्बलता ही बेकारी का हेतु होगा; निर्भयतापूर्वक धृष्टता के साथ बोलना ही पांडित्य का हेतु होगा, निर्धनता ही साधुत्व का हेतु होगी; स्नान ही साधनका हेतु होगा, दान ही धर्म का हेतु होगा, स्वीकार कर लेना ही विवाह का हेतु होगा; भली प्रकार बन-ठनकर रहनेवाला ही सुपात्र समझा जायगा; दूरदेश का जल ही तीर्थोदकत्वका हेतु होगा तथा छद्मवेश धारण ही गौरव का कारण होगा ॥ ७४ – ९२ ॥ इसप्रकार पृथ्वीमंडल में विविध दोषों के फ़ैल जाने से सभी वर्णों में जो – जो बलवान होगा वही- वही राजा बन बैठेगा ॥ ९३ ॥
इसप्रकार अतिलोलुप राजाओं के कर-भार को सहन न कर सकने के कारण प्रजा पर्वत-कन्दराओं का आश्रय लेगी तथा मधु, शाक, मूल, फल, पत्र और पुष्प आदि खाकर दिन काटेगी ॥ ९४ – ९५ ॥ वृक्षों के पत्र और वल्कल ही उनके पहनने तथा ओढने के कपड़े होंगे । अधिक संताने होगी । सब लोक शीत, वायु, घाम और वर्षा आदि के कष्ट सहेंगे ॥ ९६ ॥ कोई भी तेईस वर्षतक जीवित न रह सकेगा । इसप्रकार कलियुग में यह सम्पूर्ण जनसमुदाय निरंतर क्षीण होता रहेगा ॥ ९७ ॥ इसप्रकार श्रौत और स्मार्तधर्म का अत्यंत ह्रास हो जाने तथा कलियुग के प्राय: बीत जानेपर शम्बल ग्रामनिवासी ब्राह्मणश्रेष्ठ विष्णुयशा के घर सम्पूर्ण संसार के रचयिता, चराचर गुरु, आदि मध्यांतशून्य, ब्रह्ममय, आत्मस्वरूप भगवान वासुदेव अपने अंश से अष्टैश्वर्ययुक्त कल्किरूप से संसार में अवतार लेकर असीम शक्ति और माहात्म्य से सम्पन्न हो सकल म्लेच्छ, दस्यु, दुष्टाचारी तथा दुष्ट चित्तों का क्षय करेंगे और समस्त प्रजाको अपने – अपने धर्म में नियुक्त करेंगे ॥ ९८ ॥ इसके पश्चात समस्त कलियुग के समाप्त हो जानेपर रात्रि के अंत में जागे हुओंके समान तत्कालीन लोगों की बुद्धि स्वच्छ, स्फटिकमणि के समान निर्मल हो जायगी ॥ ९९ ॥ उन बीजभुत समस्त मनुष्योंसे उनकी अधिक अवरधा होनेपर भी उस समय सन्तान उत्पन्न हो सकेगी ॥ १०० ॥ उनकी वे संताने सत्ययुग के ही धमों का अनुसरण करनेवाली होंगी ॥ १०१ ॥
इस विषय में ऐसा कहा जाता है कि – जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति पुष्यनक्षत्र में स्थित होकर एक राशिपर एक साथ आवेंगे उसी समय सत्ययुग का आरम्भ हो जायगा ॥ १०२ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! तुमसे मैंने यह समस्त वंशों के भूत, भविष्यत और वर्तमान सम्पूर्ण राजाओं का वर्णन कर दिया ॥ १०३ ॥ परीक्षित के जन्म से नन्द के अभिषेकतक एक हजार पचास वर्ष का समय जानना चाहिये ॥ १०४ ॥ सप्तर्षियों में से जो [ पुलस्त्य और क्रतु ] दो नक्षत्र आकाश में पहले दिखायी देते है, उनके बीच में रात्रि के समय जो [ दक्षिणोत्तर रेखापर ] समदेश में स्थित [ अश्विनी आदि] नक्षत्र है, उनमें से प्रत्येक नक्षत्रपर सप्तर्षिगण एक – एक सौ वर्ष रहते हैं । हे द्विजोत्तम ! परीक्षित के समय में वे सप्तर्षिगण मघानक्षत्रपर थे । उसीसमय बारह सौ वर्ष प्रमाणवाला कलियुग आरम्भ हुआ था ॥ १०५ – १०७ ॥ हे द्विज ! जिस समय भगवान विष्णु के अंशावतार भगवान वासुदेव निजधाम को पधारे थे उसी समय पृथ्वीपर कलियुग का आगमन हुआ था ॥ १०८ ॥
जबतक भगवान अपने चरणकमलों से इस पृथ्वी का स्पर्श करते रहे तबतक पृथ्वी से संसर्ग करने की कलियुग की हिम्मत न पड़ी ॥ १०९ ॥
सनातन पुरुष भगवान विष्णु के अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्र के स्वर्गलोग पधारनेपर भाइयों के सहित धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिर अपने राज्य को छोड़ दिया ॥ ११० ॥ कृष्णचन्द्र के अन्तर्धान हो जानेपर विपरीत लक्षणों को देखकर पांडवों ने परीक्षित को राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ १११ ॥ जिस समय ये सप्तर्षिगण पूर्वाषाढ़ानक्षत्रपर जायँगे उसी समय राजा नन्द के समय से कलियुग का प्रभाव बढ़ेगा ॥ ११२ ॥ जिस दिन भगवान कृष्णचन्द्र परमधाम को गये थे उसी दिन कलियुग उपस्थित हो गया था । अब तुम कलियुग की वर्ष-संख्या सुनो ॥ ११३ ॥
हे द्विज ! मानवी वर्षगणना के अनुसार कलियुग तीन लाख साथ हजार वर्ष रहेगा ॥ ११४ ॥ इसके पश्चात बारह सौ दिव्य वर्षपर्यन्त कृतयुग रहेगा ॥ ११५ ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! प्रत्येक युग में हजारों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र माहात्मागण हो गये है ॥ ११६ ॥ उनके बहुत अधिक संख्या में होने से तथा समानता होने के कारण कुलों में पुनरुक्ति हो जानेके भय से मैंने उन सबके नाम नहीं बतलाये हैं ॥ ११७ ॥
पुरुवंशीय राजा देवापि तथा इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न राजा पुरु – ये दोनों अत्यंत योगबलसम्पन्न हैं और कलापग्राम में रहते हैं ॥ ११८ ॥ सत्ययुग का आरम्भ होनेपर ये पुन: मर्त्यलोक में आकर क्षत्रिय कुल के प्रवर्तक होंगे । वे आगामी मनुवंश के बीजरूप है ॥ ११९ ॥ सत्ययुग, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगों में इसी क्रमसे मनुपुत्र पृथ्वी का भोग करते हैं ॥ १२० ॥ फिर कलियुग में उन्हीं में से कोई-कोई आगामी मनुसन्तान के बीजरूप से स्थित रहते हैं जिस प्रकार कि आजकल देवापि और पुरु हैं ॥ १२१ ॥
इसप्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण राजवंशों का यह संक्षिप्त वर्णन कर दिया है, इनका पूर्णतया वर्णन तो सौ वर्ष में भी नहीं किया जा सकता ॥ १२२ ॥ इस हेय शरीर के मोह से अंधे हुए ये तथा और भी ऐसे अनेक भूपतिगण हो गये हैं जिन्होंने इस पृथ्वीमंडल को अपना-अपना माना हैं ॥ १२३ ॥ यह पृथ्वी किस प्रकार अचलभावसे मेरी, मेरे पुत्र की अथवा मेरे वंश की होगी ? इसी चिंता में व्याकुल हुए इन सभी राजाओं का अंत हो गया ॥ १२४ ॥ इसी चिंता में डूबे रहकर इन सम्पूर्ण राजाओ के पूर्व-पूर्वतरवर्ती राजालोग चले गये और इसी में मग्न रहकर आगामी भूपतिगण भी मृत्यु-मुख में चले जायँगे ॥ १२५ ॥ इसप्रकार अपने को जीतने के लिये राजाओं को अथक उद्योग करते देखकर वसुंधरा शरत्कालीन पुष्पों के रूप में मानो हँस रही है ॥ १२६ ॥
हे मैत्रेय ! अब तुम पृथ्वी के कहे हुए कुछ श्लोकों को सुनो । पूर्वकाल में इन्हें असित मुनिने धर्मध्वजी राजा जनक को सुनाया था ॥ १२७ ॥
पृथ्वी कहती है – अहो ! बुद्धिमान होते हुए भी इन राजाओं को यह कैसा मोह हो रहा है जिसके कारण ये बुलबुले के समान क्षणस्थायी होते हुए भी अपनी स्थिरता में इतना विश्वास रखते हैं ॥ १२८ ॥ ये लोग प्रथम अपने को जीतते हैं और फिर अपने मंत्रियों को तथा इसके अनन्तर ये क्रमश: अपने भृत्य, पुरवासी एवं शत्रुओं को जीतना चाहते हैं ॥ १२९ ॥ ‘इसी क्रमसे हम समुद्रपर्यन्त इस सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लेंगे’ ऐसी बुद्धि से मोहित हुए ये लोग अपनी निकटवर्तिनी मृत्यु को नहीं देखते ॥ १३० ॥ यदि समुद्र से घिरा हुआ यह सम्पूर्ण भूमंडल अपने वश में हो ही जाय तो भी मनोजय की अपेक्षा इसका मूल्य ही क्या है ? तो मनोजय से ही प्राप्त होता है ॥ १३१ ॥ जिसे छोडकर इनके पूर्वज चले गये तथा जिसे अपने साथ लेकर पिता भी नहीं गये उसी मुझको अत्यंत मुर्खता के कारण ये राजालोग जीतना चाहते हैं ॥ १३२ ॥ जिनका चित्त ममतामय है उन पिता-पुत्र और भाइयों में अत्यंत मोह के कारण मेरे ही लिये परस्पर कलह होता है ॥ १३३ ॥ जो – जो राजालोग यहाँ हो चुके हैं उन सभी को ऐसी कुबुद्धि रही है कि यह सम्पूर्ण पृथ्वी मेरी ही है और मेरे पीछे यह सदा मेरी सन्तान की ही रहेगी ॥ १३४ ॥ इसप्रकार मेरे में ममता करनेवाले एक राजाको मुझे छोडकर मृत्यु के मुख में जाते हुए देखकर भी न जाने कैसे उसका उत्तराधिकारी अपने ह्रदय में मेरे लिये ममता को स्थान देता हैं ? ॥ १३५ ॥ जो राजालोग दूतों के द्वारा अपने शत्रुओं से इसप्रकार कहलाते हैं कि ‘यह पृथ्वी मेरी है तुमलोग इसे तुरंत छोडकर चले जाओ’ उनपर मुझे बड़ी हँसी आती है और फिर उन मूढोपर मुझे दया भी आ जाती है ॥ १३६ ॥
श्रीपराशयजी बोले – हे मैत्रेय ! पृथ्वीके कहे हुए इन श्लोकों को जो पुरुष सुनेगा उसकी ममता इसीप्रकार लीन हो जायगी जैसे सूर्य के तपसे समय बर्फ पिघल जाता है ॥ १३७ ॥ इसप्रकार मैंने तुमसे भली प्रकार मनु के वंश का वर्णन कर दिया जिस वंश के राजागण स्थितिकारक भगवान विष्णु के अंश – के – अंश थे ॥ १३८ ॥ जो पुरुष इस मनुवंश का क्रमश: श्रवण करता है उस शुद्धात्माके सम्पूर्ण पाप नष्ट ही जाते है ॥ १३९ ॥
जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर सूर्य और चन्द्रमा के इन प्रशंसनीय वंशों का सम्पूर्ण वर्णन सुनता है, वह अतुलित धन-धान्य और सम्पत्ति प्राप्त करता है ॥ १४० ॥ महाबलवान, महावीर्यशाली, अनंत धन संचय करनेवाले तथा परम निष्ठावान इक्ष्वाकु, जह्रु, मान्धाता, सगर, अविक्षित, रघुवंशीय राजागण तथा नहुष और ययाति आदि के चरित्रों को सुनकर, जिन्हें कि कालने आज कथामात्र ही शेष रखा है, प्रज्ञावान मनुष्य पुत्र, स्त्री, गृह, क्षेत्र और धन आदि में ममता न करेगा ॥ १४१ – १४३ ॥
जिन पुरुषश्रेष्ठों ने ऊर्ध्वबाहू होकर अनेक वर्षपर्यन्त कठिन तपस्या की थी तथा विविध प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान किया था, आज उन अति बलवान और वीर्यशाली राजाओं की कालने केवल कथामात्र ही छोड़ दी हैं ॥ १४४ ॥ जी पृथु अपने शत्रुसमूह को जीतकर स्वच्छंद-गति से समस्त लोकों में विचरता था आज वही काल-वायु की प्रेरणा से अग्नि में फेंके हुए सेमर की रुई के ढेर के समान नष्ट – भ्रष्ट हो गया है ॥ १४५ ॥ जो कार्तवीर्य अपने शत्रु-मंडल का संहारकर समस्त द्वीपों को वशीभूतकर उन्हें भोगता था वही आज कथा-प्रसंग से वर्णन करते समय उलटा संकल्प-विकल्पका हेतु होता है ॥ १४६ ॥ समस्त दिशाओं को देदीप्यमान करनेवाले रावण, अविक्षित और रामचन्द्र आदि के ऐश्वर्य को धिक्कार है । अन्यथा काल के क्षणिक कटाक्षपात के कारण आज उसका भस्ममात्र भी क्यों नहीं बच सका ? ॥ १४७ ॥ जो मान्धाता सम्पूर्ण भूमंडल का चक्रवर्ती सम्राट था आज उसका केवल कथा में ही पता चलता है । ऐसा कौन मंदबुद्धि होगा जो यह सुनकर अपने शरीर में भी ममता करेगा ? ॥ १४८ ॥ भगीरथ, सगर, ककुत्स्थ, रावण, रामचन्द्र, लक्ष्मण और युधिष्ठिर आदि पहले हो गये है यह बात सर्वथा सत्य है, किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है; किन्तु अब वे कहाँ है इसका हमें पता नहीं ॥ १४९ ॥
हे विप्रवर ! वर्तमान और भविष्यत्कालीन जिन-जिन महावीर्यशाली राजाओं का मैंने वर्णन किया है ये तथा अन्य लोग भी पूर्वोक्त राजाओं की भान्ति कथामात्र शेष रहेंगे ॥ १५० ॥ ऐसा जानकर पुत्र, पुत्री और क्षेत्र आदि तथा अन्य प्राणी तो अलग रहें, बुद्धिमान मनुष्य को अपने शरीर में भी ममता नहीं करनी चाहिये ॥ १५१ ॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्विशोऽध्याय:
॥ इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे चतुर्थोऽश: समाप्त: ॥