Shree Naval Kishori

राजा इन्द्रद्युम्र के द्वारा भगवान् श्रीविष्णु की स्तुति

वासुदेव ! आपको नमस्कार है । आप मोक्ष के कारण है । आपको मेरा नमस्कार है । सम्पूर्ण लोकों के स्वामी परमेश्वर ! आप इस जन्म-मृत्युरूपी संसार-सागर से मेरा उद्धार कीजिये । पुरुषोत्तम ! आपका स्वरुप निर्मल आकाश के समान है । आपको नमस्कार है । 

सबको अपनी ओर खीचने वाले संकर्षण ! आपको प्रणाम है | धरणीधर ! आप मेरी रक्षा कीजिये | हेमगर्भकी सी आभावाले प्रभो ! आपको नमस्कार है | मकरध्वज ! आपको प्रणाम है | रतिकान्त ! आपको नमस्कार है | शम्बरासुर संहार करने वाले प्रधुम्न ! आप मेरी रक्षा कीजिये | भगवान् ! आपका श्रीअंग अज्जन के समान श्याम है | भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है ! अनिरुद्ध ! आपको प्रणाम है | आप मेरी रक्षा करे और वरदायक बने | सम्पूर्ण देवताओं के निवासस्थान ! आपको नमस्कार है | देवप्रिये ! आपको प्रणाम है | नारायण ! आपको नमस्कार है | आप मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये | बलवानोंमें श्रेष्ठ बलराम ! आपको प्रणाम है | हलायुध ! आपको नमस्कार है | चतुर्मुख ! जगद्धाम  ! प्रपितामह ! मेरी रक्षा कीजिये | नील मेधके समान आभावाले घनश्याम ! आपको नमस्कार है | देवपूजित  परमेश्वर ! आपको प्रणाम है | सर्वावापी जगन्नाथ ! मैं भाव सागर में डूबा हुआ हूँ, मेरा उद्धार कीजिये | प्रलायाग्नीके समान तेजस्वी तथा दहकते हुए नेत्रोंवाले महापराक्रमी दैत्यशत्रु नृसिंह ! आपको नमस्कार है | आप मेरी रक्षा कीजिये | पूर्वकालमें महावाराहरूप धारणकर आपने जिस प्रकार इस पृथ्वीका रसातलसे उद्धार किया था, उसी प्रकार मेरा भी दुःखके समुन्द्र से उद्धार कीजिये | कृष्ण ! आपके इन वरदायक स्वरूपोंका मैंने स्तवन किया है | ये बलदेव आदि, जो पृथक रूपसे स्थित दिखायी देते है, आपके ही अंग है | देवेश ! प्रभो ! अच्युत ! गरुड़ आदि पार्षद, आयुधोंसहित दिक्पाल तथा केशव आदि जो आपके अन्य भेद मनीषियों द्वारा बतलाये गए  है, उन सबका मैंने पूजन किया है | प्रसन्न तथा विशाल नेत्रोंवाले जगन्नाथ ! देवेश्वर ! पूर्वोक्त सब स्वरूपोंके साथ मैंने आपका स्तवन और वन्दन किया है | आप मुझे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष देनेवाला वर प्रदान करें | हरे ! संकर्षण आदि जो आपके भेद बताये गए है, वे सब आपकी पूजा के लिए ही प्रकट हुए हैं; अतः वे आपके ही आश्रित हैं | देवेश ! वस्तुतः आपमें कोइ भेद नहीं है | आपके जो अनेक प्रकारके रूप बताये जाते है, वे सब उपचार से ही कहे गये है; आप तो अद्वैत है | फिर कोई भी मनुष्य आपको द्वैतरूप कैसे कह सकता है | हरे ! आप एकमात्र व्यापक, चित्स्वभाव तथा निरंज्जन है | आपका जो परम स्वरुप है, वह भाव और अभाव से रहित, निर्लेप, निर्गुण, श्रेष्ठ, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, समस्त उपाधियोंसे निर्मुक्त और सत्तामात्र रूपसे स्थित है | प्रभो ! उसे देवता भी नहीं जानते, फिर मैं उसे कैसे जान सकता हूँ | इसके सिवा जो आपका अपर स्वरुप है, वह पीताम्बरधारी और चार भुजाओंवाला है | उसके हाथमें शंख, चक्र, और गदा सुशोभित है | वह मुकुट और अंगद धारण करता है | उसका वक्षस्थल श्रीवत्सचिन्हसे युक्त है तथा वह वनमाला से विभूषित रहता है | उसीकी देवता तथा आपके अन्यान्य शरणागत भक्त पूजा करते है | देवदेव ! आप सब देवताओंमें श्रेष्ठ एवं भक्तोंको अभय देने वाले है | कमलनयन ! मैं विषयोंके समुन्द्रमें डूबा हुआ हूँ | आप मेरी रक्षा कीजिये | लोकेश ! मैं आपके सिवा और किसी को नहीं देखता, जिसकी शरणमें जाऊं | कमलाकान्त ! मधुसुदन ! मुझ पर प्रसन्न होइये | मैं बुढ़ापे और सैकड़ों व्याधियों से युक्त हो भाँती-भाँतीके दु:खों से पीड़ित हूँ तथा अपने कर्मपाशमें बंधकर हर्ष-शोकमें मग्न हो विवेकशून्य हो गया हूँ | अत्यन्त भयंकर घोर संसार-समुन्द्रमें गिरा हुआ हूँ | यह विषयरूपी जलराशिके कारण दुस्तर हैं | इसमें राग-द्वेषरूपी मत्स्य भरे पड़े है | इन्द्रियरूपी भँवरोंसे यह बहूत गहरा प्रतीत होता है |इसमें तृष्णा और शोकरुपी लहरें व्याप्त है | यँहा न कोई आश्रय हैं, न कोई अवलम्ब | यह सारहीन एवं अत्यंत चंचल है | प्रभो ! मैं माया से मोहित होकर इसके भीतर चिरकालसे भटक रहा हूँ | हजारों भिन्न-भिन्न योनियों में बारम्बार जन्म लेता हूँ |  जनार्दन ! मैंने इस संसार में नाना प्रकारके हजारों जन्म धारण किये हैं | अंगोंसहित वेद, नाना प्रकारके शास्त्र, इतिहास-पुराण तथा अनेक शिल्पोंका अध्ययन किया है | यहाँ मुझे कभी असंतोष मिला है, कभी संतोष | कभी धन का संग्रह किया है, कभी हानि उठायी है और कभी बहूत खर्च किये हैं | जगन्नाथ ! इस प्रकार मैंने ह्रास-वृद्धि, उदय-अस्त अनेक बार देखे है; स्त्री, शत्रु, मित्र तथा बंधू-बांधवोंके संयोग और वियोग भी देखनेको मिले है | मैंने अनेक पिता देखे है और अनेक माताओंका दर्शन किया है | अनेक प्रकार जो दुःख और सुख है, उनके अनुभवका भी मुझे अवसर मिला है | भाई, बंधू, पुत्र और कुटुम्बी भी प्राप्त हुए है | विष्ठा और मूत्रकी कीचसे भरे हुए स्त्रियोंके गर्भाशयमें भी मैंने निवास किया है | प्रभो ! गर्भासमें जो महान दुःख होता है, उनसे भी मैं वंचित नहीं रहा | मृत्युके समय, यमलोकके मार्गमें तथा यमराजके घरमें जो दुःख प्राप्त होते है, उनको तथा नरकोंमें होनेवाली यातनाओंको भी मैंने भोगा हैं | कृमि, कीट, वृक्ष, हाथी, घोड़े, मृग, पक्षी, भैसे, ऊँट, गाय तथा अन्य वनवासी जंतुओंकी योनीमें मुझे जन्म लेना पडा है | समस्त द्विजातियों और शूद्रोंके यहाँ भी मेरा जन्म हुआ है | देव ! धनी क्षत्रियों, दरिद्र तपस्वियों, राजाओं, राजाके सेवकों तथा अन्य देहधारियोंके घरोंमें भी मैं अनेक बार उत्पन्न हो चुका हूँ | नाथ ! मुझे अनेकों बार ऐसे मनुष्योंका दास होना पडा है, जो स्वयं दूसरों के दास है | मैं दरिद्र, धनी और स्वामी भी रह चुका हूँ | मुझे दूसरोंने मारा और मेरे हाथसे दुसरे मारे गये | मुझे दूसरोंने मरवाया और मैंने भी दूसरोंकी ह्त्या करवायी | मुझे दूसरोंने और मैंने दूसरोंको अनेकों बार दान दिए है | जनार्दन ! माता, पिता, सुह्रद, भाई और पत्नीके लिये मैंने लज्जा छोड़कर धनियों, श्रोतियों, दरिद्रों और तपस्वियोंके सामने दीनतासे भड़ी बातें भी की हैं | प्रभो ! देवता, पशु-पंक्षी, मनुष्य तथा अन्य स्थावर-जंगम भूतोंमें ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां मेरा जाना ज हुआ हो | जगत्पते ! कभी नरक में और कभी स्वर्ग में मेरा निवास रहा है । कभी मनुष्यलोक में और कभी तिर्यग्योनियों में जन्म लेना पड़ा है । सुरश्रेष्ठ ! जैसे रहट में रस्सी से बंधी हुई घंटी कभी ऊपर जाती, कभी नीचे आती और कभी बीच में ठहरी रहती है, उसी प्रकार मैं कर्मरूपी रज्जू में बंधकर दैवयोग से ऊपर, नीचे तथा मध्यवर्ती लोक में भटकता रहता हूँ । इस प्रकार यह संसार – चक्र बड़ा ही भयानक एवं रोमांचकारी हैं | मैं इसमे दीर्धकालसे घूम रहा हूँ, किन्तु कभी इसका अन्त  नहीं दिखायी देता | समझमें नहीं आता, अब क्या करूँ | हरे ! हमारी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी है | मैं शोक और तृष्णासे आक्रान्त होकर अब कहाँ जाऊँ | मेरी चेतना लुप्त हो रही है | देव ! इस समय व्याकुल होकर मैं आपकी शरणमें आया हूँ | कृष्ण ! मैं संसार-समुन्द्रमें डूबकर दुःख भोगता हूँ | मुझे बचाइये | जगन्नाथ ! यदि आप मुझे अपना भक्त मानते है तो मुझपर कृपा कीजिये | आपके सिवा दूसरा कोई ऐसा बंधू नहीं है, जो मेरी चिन्ता करेगा | प्रभो ! आपजैसे स्वामीकी शरणमें आकर अब मुझे जीवन, मरण अथवा योगक्षेमके लिये कही भी भय नहीं होता | देव ! जो नराधम आपकी विधिपूर्वक पूजा नहीं करते, उनकी इस संसार-बन्धनसे मुक्ति  एवं सदगति कैसे हो सकती है | जगदाधार भगवान केशवमें जिनकी भक्ति नहीं होती, उनके कुल, शील,विद्या और जीवनसे क्या लाभ हैं | जो असुरी प्रकृतिका आश्रय ले विवेकशून्य हो आपकी निन्दा करते है, वे बारम्बार जन्म लेकर घोर नरकमें पड़ते है तथा उस नरक-समुन्द्रसे उनका कभी उद्धार नहीं होता | देव ! जो दुराचारी नीच पुरुष आपपर दोषारोपण करते है, वे कभी नरकसे छुटकारा नहीं पाते | हरे ! अपने कर्मोंमें बंधे रहनेके कारण मेरा जहाँ कही भी जन्म हो, वहाँ सर्वदा आपमें मेरी दृढ भक्ति बनी रहे | देव ! आपकी अराधना करके देवता, दैत्य मनुष्य तथा अन्य संयमी पुरुषोंने परम सिद्धि प्राप्त की हैं; फिर कौन आपकी पूजा न करेगा | भगवान् ! ब्रह्मा आदि देवता भी आपकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हैं, फिर मानव-बुद्धि लेकर मैं आपकी स्तुति कैसे कर सकता हूँ; क्योकि आप प्राकृतिसे परे परमेश्वर हैं | प्रभो ! मैनें अज्ञानके भावसे आपकी स्तुति की है | यदि आपकी मुझपर दया हो तो मेरे इस अपराधको क्षमा करें | हरे ! साधू पुरुष अपराधीपर भी क्षमाभाव ही रखते है, अतः देवेश्वर ! आप भक्तस्नेहके वशीभूत होकर मुझपर प्रसन्न होइये | देव ! मैंने भक्तिभावित चित्तसे आपकी जो स्तुति की है; वह सांगोपांग सफल हो | वासुदेव ! आपको नमस्कार है |

 

 

राजा इन्द्रधुम्न द्वारा भगवान हरि की स्तुति

लक्ष्मीकान्त ! आपको नमस्कार है। श्रीपते ! आपके दिव्य विग्रहपर पीत वस्त्र शोभा पाता है। आप लक्ष्मी प्रदान करनेवाले और लक्ष्मीके स्वामी हैं। श्रीनिवास! आप लक्ष्मीके धाम हैं, आपको नमस्कार है। आप आदिपुरुष, ईशान, सबके ईश्वर, सव ओर मुखवाले, निष्कल एवं सनातन परम देव हैं; आपको मेरा प्रणाम है। आप शब्द और गुणोंसे अतीत, भाय और अभावसे रहित, निर्लेप, निर्गुण, सूक्ष्म, सर्वज्ञ तथा सबके रक्षक हैं। आपका स्वरूप वषांकालके मैघके समान श्याम हैं। आप गौ तथा ब्राह्मणोंके हितमें संलग्न रहते हैं। सबकी रक्षा करते हैं। सर्वत्र व्यापक और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं। आप शङ्ख, चक्र, गदा और मूसल धारण करनेवाले देवता हैं। आपके श्रीअङ्गोंकी सुषमा नील कमलदलके समान श्याम है। आप क्षीरसागरके भौतर शेषनागको शव्यापर शयन करनेवाले हैं। इन्द्रियोंके नियन्ता, सर्वपापहारी श्रीहरि हैं। आपको नमस्कार करता हैं। आप देवदेवेश्वर, वरदाता, व्यापक, सर्वलोकेश्वर, मोदके साधक तथा अविनाशी भगवान् विष्णु हैं; आपको पुनः मेरा प्रणाम है।