Shree Naval Kishori

कंडूमुनि द्वारा भगवान विष्णुकी स्तुति

नारायण ! हरे ! श्रीकृष्ण ! श्रीवत्सांग ! जगत्पते ! जगदबीज ! जगद्धाम ! जगत्साक्षीन ! आपको नमस्कार हैं । अव्यक्त विष्णो ! आप ही सबकी उत्पत्ति के कारण हैं । प्रकृति और पुरुष दोनों से उत्तम होने के कारण आपको पुरुषोत्तम कहते हैं । कमलनयन गोविन्द ! जगन्नाथ ! आपको नमस्कार हैं । आप हिरण्यगर्भ, लक्ष्मीपति, पद्मनाभ और सनातन पुरुष हैं । यह पृथ्वी आपके गर्भ में हैं । आप ध्रुव और ईश्वर हैं । हर्षीकेश ! आपको नमस्कार हैं । आप अनादि, अनंत और अजेय हैं । विजयी पुरषों में श्रेष्ठ ! आपकी जय हो । श्रीकृष्ण ! आप अजित और अखंड हैं । श्रीनिवास ! आपको नमस्कार हैं । आप ही बादल और धूम – वर्षा और गर्मी करनेवाले हैं । आपका पार पाना कठिन है । आप बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं । दुःख और पीडाओं का नाश करनेवाले हरे ! जलमें शयन करनेवाले नारायण ! आपको नमस्कार हैं । अव्यक्त परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण भूतों के पालक और ईश्वर हैं । भौतिक तत्त्वों से आप कभी क्षुब्ध होनेवाले नहीं हैं । सम्पूर्ण प्राणी आप में ही निवास करते हैं । आप सब भूतों के आत्मा हैं । सम्पूर्ण भुत आपके गर्भ में स्थित हैं । आपको नमस्कार हैं । आप यज्ञ, यज्वा, यज्ञधर, यज्ञधाता और अभय देनेवाले हैं । यज्ञ आपके गर्भ में स्थित हैं । आपका श्रीअंग सुवर्ण के समान कान्तिमान हैं । पृश्रीगर्भ ! आपको नमस्कार हैं । आप क्षेत्रज्ञ, क्षेत्रपालक, क्षेत्री, क्षेत्रहन्ता, क्षेत्रकर्ता, जितेन्द्रिय, क्षेत्रात्मा, क्षेत्ररहित और क्षेत्र के स्त्रष्टा हैं । आपको नमस्कार हैं । गुणालय, गुणावास, गुणाश्रय, गुणभोक्ता, गुणाराम और गुणत्यागी – ये सब आपके ही नाम हैं । आपको नमस्कार हैं । आप ही श्रीविष्णु हैं । आप ही श्रीहरि और चक्री कहलाते हैं । आप ही श्रीविष्णु और आप ही जनार्दन हैं । आप ही वषटकार कहे गये हैं । भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रभु भी आप ही हैं । आप भूतों के उत्पादक और अव्यक्त हैं ।सबकी उत्पत्ति के कारण होने से आप ‘भव’ कहलाते हैं । आप सम्पूर्ण प्राणियों के भरण-पोषण करनेवाले हैं । आप ही भूतभावन देवता हैं । आपको अजन्मा और ईश्वर कहते हैं ।

आप विश्वकर्मा हैं, श्रीविष्णु हैं, शम्भु है और वृषभ की आकृति धारण करनेवाले हैं । आप ही शंकर, शुक्राचार्य, सत्य, तप और जनलोक हैं । आप विश्वविजेता, कल्याणमय, शरणागतपालक, अविनाशी, शम्भु, स्वयम्भू, ज्येष्ठ और परायण (परम आश्रय) हैं । आदित्य, ओंकार, प्राण, अन्धकारनाशक सूर्य, मेघ, सर्वत विख्यात तथा देवताओं के स्वामी ब्रह्मा भी आप ही है । ऋक, यजु: और साम भी आप ही है । आप ही सबके आत्मा, अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी है । स्त्रष्टा, भोक्ता, होता, हविष्य, यज्ञ, प्रभु, विभु, श्रेष्ठ, लोकपति और अच्युत भी आप ही हैं । आप सबके द्रष्टा, ल्क्स्मिवान, दमन करनेवाले और शत्रुओं के नाशक है । आप ही दिन, रात्रि, विद्वान पुरुष आपको ही वर्ष कहते हैं । आप ही काल है । कला, काष्ठा, मुहूर्त, क्षण और लव – सब आपके ही स्वरूप ही है । आप ही बालक, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक हैं । आप ही सबके नेत्र और विश्व की उत्पत्ति के स्थान हैं । आप ही स्थाणु (स्थिर रहनेवाले) और शुचिश्रवा (पवित्र यशवाले) हैं । आप सनातन पुरुष है, आपको कोई जीत नहीं सकता । आप इंद्र के छोटे भाई उपेन्द्र और सबसे उत्तम हैं । सम्पूर्ण विश्वको सुख देनेवाले, वेदों के अंग भी आप ही है । आप अविनाशी, वेदों के भी वेद (ज्ञेय तत्त्व), धाता, विधाता और समाहित रहनेवाले है । आप धाता और वसु ही है । आप वैद्य, धृतात्मा,इन्द्रियातितं सबसे आगे चलनेवाले और गाँव के नेता है । आप ही गरुड और आदिमान, संग्रह (लघु) और परम महान हैं । अपने मनको वशमें रखनेवाले और महिमा से कभी च्युत न होनेवाले भी आप ही है । आप यम और नियम हैं । आप प्रांशु (उन्नत शरीरवाले ), चतुर्भुज, अन्न, अंतरात्मा और परमात्मा भी आप ही कहलाते हैं । आप गुरु, गुरुतम, वाम और दक्षिण हैं । आप ही पीपल एवं अन्य वृक्ष हैं । व्यक्त जगत, प्रजापति भी आप ही है । आपकी नाभि से सुवर्णमय कमल प्रकट हुआ है । आप दिव्य शक्ति से सम्पन्न हैं । आप ही यम और आप ही दैत्यों के नाशक श्रीविष्णु हैं । आप तीनों गुणों से रहित हैं ।

आप जेष्ठ, वरिष्ठ, सहिष्णु, लक्ष्मी के पति हैं । आपके सहस्रों मस्तक हैं, अव्यक्त देवता हैं । आपके सहस्त्रो नेत्र और चरण हैं । विराट और देवताओं के स्वामी हैं । देवदेव ! तथापि आप दस अंगुल के होकर रहते हैं । जो भुत है, वह आपका ही स्वरूप बताया गया है । आप ही अन्तर्यामी पुरुष, इंद्र, उत्तम देवता, भविष्य, ईशान, अमृत, मर्त्य हैं । यह सम्पूर्ण संसार आपसे ही अंकुरित होता हैं, अत: आप परम महान और सबसे उत्तम हैं । देव ! आप सबसे जेष्ठ है, पुरुष है और दस प्राणवायुओं के रूप में स्थित हैं । आप विश्वरूप होकर चार भागों में स्थित हैं । अमृतस्वरुप होकर नौ भागों के साथ द्युलोक में रहते हैं और नौ भागोंसहित सनातन पौरुषेय रूप धारण करके अन्तरिक्ष में निवास करते हैं । आपके दो भाग पृथ्वी में स्थित हैं और चार भाग भी यहाँ हैं । आपसे यज्ञों की उत्पत्ति होती हैं, जो जगत में वृष्टि करनेवाले हैं । आपसे ही विराट की उत्पत्ति हुई, जो सम्पूर्ण जगत के ह्रदय में अन्तर्यामी पुरुषरूप से विराजमान हैं । वह विराट पुरुष अपने तेज, यश और ऐश्वर्य के कारण सम्पूर्ण भूतों से विशिष्ठ हैं । आपसे ही देवताओं का आहारभूत हवनीय घृत उत्पन्न हुआ । ग्राम्य और जंगली ओषधियाँ तथा पशु एवं मृग आदि भी आपसे ही प्रकट हुए है । देवदेव ! आप ध्येय और ध्यान से परे है । आप ही सात मुखोंवाले देदीप्यमान विग्रह से युक्त काल है । यह स्थावर और जंगम तथा चर और अचर सम्पूर्ण जगत आपसे ही प्रकट हुआ है और आपमें ही स्थित हैं । आप अनिरुद्ध, वासुदेव, प्रद्युम्र तथा दैत्यनाशक संकर्षण हैं । देव ! आप सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ और समस्त विश्व के परम आश्रय हैं । कमलनयन ! मेरी रक्षा कीजिये । नारायण ! आपको नमस्कार है । भगवान ! विष्णो ! पुरुषोत्तम ! सर्वलोकेश्वर ! कमलालय ! गुणालय ! गुणाकार ! वासुदेव ! सुरोत्तम ! जनार्दन ! सनातन आपको नमस्कार हैं ।

योगिगम्य परमेश्वर ! योग के आश्रयस्थान ! गोपते ! श्रीपते ! मरुत्पते ! श्रीविष्णो ! जगत्पते ! आप जगत को उत्पन्न करनेवाले और ज्ञानियों के स्वामी हैं, आपको नमस्कार हैं । दिव्यस्पते ! महीपते ! पुण्डरीकाक्ष ! आप मधु दैत्य का वध करनेवाले हैं , आपको नमस्कार हैं, नमस्कार हैं । कैटभ को मारनेवाले नारायण ! सुब्रह्मण्य ! पीठपर वेदों को धारण करनेवाले महामत्स्यरूप अच्युत ! आपको नमस्कार हैं । आप समुद्र के जल को मथ डालनेवाले और लक्ष्मी को आनंद देनेवाले हैं, आपको नमस्कार हैं । विशाल नासिकवाले अश्वमुख भगवान हयग्रीव ! महापुरुषविग्रह ! आप मधु और कैटभ का नाश करनेवाले है, आपको नमस्कार है । प्रभो ! आप पृथ्वी को ऊपर उठाने के लिये विशाल कच्छप का शरीर धारण करनेवाले है, अपनी पीठपर मंदराचल को धारण किया था । महाकुर्मस्वरुप आप भगवान को नमस्कार है । पृथ्वी का उद्धार करनेवाले महावराह को नमस्कार हैं । भगवान आपने ही पहले-फल वराहरूप धारण किया था, अत: आप आदिवराह कहलाते हैं । आप विश्वरूप और विधाता है, आपको नमस्कार है । आप अनंत, सूक्ष्म, मुख्य, श्रेष्ठ, परमाणुस्वरुप तथा योगिगम्य हैं । आपको नमस्कार हैं । जो परम कारण (प्रकृति) के भी कारण हैं, योगीश्वर मंडल के आश्रयस्थान हैं, जिनके स्वरूप का ज्ञान होना अत्यंत कठिन हैं, जो क्षीरसागर के भीतर निवास करनेवाले महान सर्प-शेषनाग की सुंदर शय्यापर शयन करते हैं तथा जिनके कानों में सुवर्ण एवं रत्नों के बने हुए दिव्य कुंडल झिलमिलाते रहते हैं, उन आप भगवान विष्णु को नमस्कार हैं ।

 

 

कंडू मुनि द्वारा भगवान विष्णुकी स्तुति ##2

जगन्नाथ ! यह संसार अत्यंत दुस्तर और रोमांचकारी है । इसमें दु:खों की ही अधिकता हैं । यह अनित्य और केले के पत्ते की भांति सारहीन है । इसमें न कहीं आश्रय हैं, न अवलम्ब । यह जल के बुलबुलों की भांति चंचल हैं । इसमें सब प्रकार के उपद्रव भरे हुए हैं । यह दुस्तर होने के साथ ही अत्यंत भयानक हैं । मैं आपकी मायासे मोहित होकर चिरकाल से इस संसार में भटक रहा हूँ, किन्तु कहीं भी शान्ति नहीं पाता । मेरा मन विषयों में आसक्त है । देवेश ! इस संसार के भय से पीड़ित होकर आज मैं आपकी शरण में आया हूँ । श्रीकृष्ण ! आप इस भवसागर से मेरा उद्धार कीजिये । सुरेश्वर ! मैं आपकी कृपा से आपके ही सनातन परम पद को प्राप्त करना चाहता हूँ, जहाँ जाने से फिर इस संसार में नहीं आना पड़ता ।

 

 

कंडूमुनि द्वारा भगवान विष्णुकी स्तुति ##3

भगवान विष्णु सबके परम पार हैं; वे अपार भवसागर से पार उतारनेवाले, पर-शब्द-वाच्य, आकाश आदि पंचमहाभूतों से परे और परमात्मस्वरुप हैं । वेदों की भी पहुँच से परे होनेके कारण उन्हें ब्रह्मपार कहते हैं । वे दूसरों के लिये पारस्वरुप हैं – उन्हें पाकर सब प्राणी सदा के लिये पार हो जाते हैं । वे पर के भी पर – इन्द्रिय, मन आदिके भी अगोचर हैं । सब के पालक और सबकी कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । वे कारण में स्थित होते हुए भी स्वयं ही कारणरूप हैं । कारण के भी कारण हैं । परम कारणभूत प्रकृति के कारण भी वे ही है । कार्यों में भी उन्हीं की स्थिति हैं । इसप्रकार कर्म और कर्ता आदि अनेक रूप धारण करके वे सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करते हैं । ब्रह्म ही प्रभु हैं, ब्रह्म ही सर्वस्वरुप हैं, ब्रह्म ही प्रजापति तथा अपनी महिमा से कभी च्युत न होनेवाला है । वह ब्रह्म अविनाशी, नित्य और अजन्मा हैं । वही क्षय आदि सम्पूर्ण विकारों के सम्पर्क से रहित भगवान विष्णु है । वे भगवान पुरुषोत्तम ही अविनाशी, अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं । उनके प्रभाव से मेरे राग आदि समस्त दोष नष्ट हो जायँ ।