सनकादि मुनि द्वारा भगवान् वाराह की स्तुती
जनेश्वरोंके भी परमेश्वर केशव ! आप सबके प्रभु हैं । गदा, शंख, उत्तम खङ्ग, और चक्र धारण करने वाले आप हैं । सृष्टि पालन और संहारके कारण तथा ईश्वर भी आप है । जिसे परम पद कहते हैं, वह भी आपसे भिन्न नहीं है ।
प्रभो ! आपका प्रभाव अतुलनीय है । पृथ्वी और आकाशके बीच जितना अंतर है, वह सब आपकी ही शरीरसे व्याप्त है । इतना ही नहीं, यह सम्पूर्ण जगत भी आपसे व्याप्त है ।
भगवन ! आप इस विश्वका हित-साधन कीजिये । जगदीश्वर ! एक मात्र आप ही परमात्मा हैं, आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है । आपकी ही महिमा है, जिससे यह चराचर जगत व्याप्त हो रहा है । यह सारा जगत ज्ञानस्वरूप है, तो भी अज्ञानी मनुष्य इसे पदार्थरूप देखते हैं; इसलिए उन्हें संसार-समुद्रमें भटकना पड़ता है । परन्तु परमेश्वर ! जो लोग विज्ञानवेत्ता हैं, जिनका अंतःकरण शुद्ध है, वे समस्त संसारको ज्ञानमय ही देखते हैं, आपका स्वरूप ही समझते हैं । सर्वभूत स्वरूप परमात्मन ! आप प्रसन्न होइए । आपका सवरूप अप्रमेय है । प्रभो ! भगवन ! आप सबके उद्भवके लिए इस पृथ्वीका उद्धार एवं सम्पूर्ण जगतका कल्याण कीजिये ।
प्रभु ! यह स्तुति सनकादि मुनियों द्वारा जनलोकसे की गयी थी जब त्रिलोकी एकार्णव जल में डूबी हुई थी उस समय आप वराहा रूप में जलके भीतर से पृथ्वी को अपनी दाढ़ों पर लेकर ऊपर आये थे । उस समय आपके नेत्र खिले हुए कमलके सामान शोभा पा रहे थे तथा शरीर कमलके पत्तेके सामान श्याम रंगका था । उस समय आपके मुखसे निकली हुयी सांसके आघातसे उछले हुए उस प्रलयकालीन जलने जनलोकमें रहने वाले सनन्दन आदि मुनियोंको भिगोकर निष्पाप कर दिया था । भगवान् महावराह ! उस समय आपका उदर जलसे भीगा हुआ था । जिस समय आप अपने वेदमय शरीरको कंपाते हुए पृथ्वीको लेकर उठने लगे, उस समय आकाशमें स्थित महर्षिगण यह स्तुति किया था । वही स्तुति आपके लिये पुनः वैवस्तव मन्वंतर के 28वें चतुर्युगके कलियुग में महाराज पुष्पमित्रके राज्यकाल समय में आपके लिये निवेदित किया है इसे स्वीकार कीजिये प्रभु।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय – 3