Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-12 भूगोलाध्यायः (ब्रह्माण्ड एवं भूगोल सृजन के आयाम)

अथार्कांशसमुद्भूतं प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ।
भक्त्या परमयाभ्यर्च्य पप्रच्छेदं मयासुरः ॥

तदन्तर सुर्यांश पुरुष को करबद्ध प्रणाम कर अत्यन्त भक्ति भाव से अर्चन कर मायासुर ने ये प्रश्न पूछे ॥ १ ॥

१भगवन् किम्प्रमाणा भूः किमाकारा किमाश्रया ।
किंविभागा कथं चात्र सप्तपातालभूमयः ॥

हे भगवन् ! इस पृथ्वी का परिणाम क्या है ? इसका स्वरुप कैसा है ? पृथ्वी का आश्रय (आधार) क्या है ? इसके कितने विभाग है तथा कौन-कौन सी सात पाताल भूमि है ? ॥ २ ॥

अहोरात्रव्यवस्थां च विदधाति कथं रविः ।
कथं पर्येति वसुधां भुवनानि विभावयन् ॥

सूर्य अहोरात्र (दिन-रात्री) की व्यवस्था कैसे करते है तथा भुवनों को प्रकाशित करते हुये पृथ्वी की परिक्रमा किस प्रकार करते है ॥ ३ ॥

देवासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ।
किमथ तत्कथं वा स्याद्भानोर्भगणपूरणात् ॥

देवताओं और असुरों की अहोरात्र व्यवस्था एक-दुसरे से विपरीत क्यों और कैसे होती है तथा सूर्य की भगण पूर्ति के साथ इनका अहोरात्र कैसे होता है ? ॥ ४ ॥

पित्र्यं मासेन भवति नाडीषष्ट्या तु मानुषम् ।
तदेव किल सर्वत्र न भवेत्केन हेतुना ॥

पितरों का अहोरात्र एक चन्द्र मास के तुल्य तथा मनुष्यों का अहोरात्र ६० घटी के तुल्य होता है। यही अहोरात्र सवर्त्र क्यों नहीं होता इसमें क्या हेतु है ? ॥ ५ ॥

दिनाब्दमासहोराणामधिपा न समाः कुतः ।
कथं पर्येति भगणः सग्रहो +अयं किमाश्रयः ॥

दिन, वर्ष, मास और होरा के स्वामी समान क्यों नहीं होते । नक्षत्र, मण्डल, ग्रहों के साथ-साथ कैसे भ्रमण करते है तथा इनका आधार क्या है ? ।। ६ ।।

भूमेरुपर्युपर्यूर्ध्वाः किमुत्सेधाः किमन्तराः ।
ग्रहर्क्षकक्षाः किंमात्राः स्थिताः केन क्रमेण ताः ॥

भूमि के ऊपर उर्ध्वोर्ध्व क्रम से कितनी उचाई पर ग्रहों एवं नक्षत्रों की कक्षायें है तथा उसमें परस्पर कितना अंतराल है ? उनकी मात्रा तथा उनका क्रम क्या है ? ।। ७ ।।

ग्रीष्मे तीव्रकरो भानुर्न हेमन्ते तथाविधः ।
कियती तत्करप्राप्तिर्मानानि कति किं च तैः ॥

ग्रीष्मऋतू में सूर्य की रश्मियाँ अति तीक्ष्ण होती है किन्तु हेमंत ऋतू में उस प्रकार नहीं होती । कितनी दूरी तक सूर्य की रश्मियाँ प्राप्त होती है ? उनके आधार पर कालमान कितने है ? तथा उनका प्रयोजन क्या है ? ।। ८ ।।

एवं मे संशयं छिन्धि भगवन् भूतभावन् ।
अन्यो न त्वामृते छेत्ता विद्यते सर्वदर्शिवान् ॥

हे भूत भावन भगवान् ! मेरे इन संशयों को दूर करें, आप सर्वद्रष्टा है । अतः आपके अतिरिक्त अन्य कोइ भी मेरे इन संशयों को दूर करने में समर्थ नहीं है ।। ९ ।।

इति भक्त्योदितं श्रुत्वा मयोक्तं वाक्यमस्य हि ।
रहस्यं परमध्यायं ततः प्राह पुनः स तम् ॥

इस प्रकार भक्ति पूर्वक मय द्वारा कहे गए वचनों को सुनकर सुर्यांशावातार पुरुष ने पूर्वोक्त ग्रह चरितन के अनन्तर अत्यन्त रहस्यमय उत्कृष्ट ज्ञानयुक्त उत्तरवर्ती ज्योतिष शास्त्र रूपी अध्यायों को पुनः कहा ।। १० ।।

शृणुष्वैकमना भूत्वा गुह्यमध्यात्म संज्ञितम् ।
प्रवक्ष्याम्यतिभक्तानां नादेयं विद्यते मम् ।।

सुर्यांश पुरुष ने मय को संबोधित करते हुये कहा – “एकाग्रचित होकर सुनों ! मैं अत्यन्त गुह्य अध्यात्म सज्ञक शास्त्र को कह रहा हूँ । मेरे पास अतिभक्तों के लिय कुछ भी अदेय नहीं है ।। ११ ।।

वासुदेवः परं ब्रह्म तन्मूर्तिः पुरुषः परः ।
अव्यक्तो निर्गुणः शान्तः पञ्चविंशात्परो +अव्ययः ॥

वासुदेव परं ब्रह्म है । इन्हीं की मूर्ती परम पुरुष है, ये अव्यक्त, निर्गुण, शान्त और २५ तत्वों से परे है तथा अव्यय है, अर्थात निर्विकार है ।। १२ ।।

प्रकृत्यन्तर्गतो देवो बहिरन्तश्च सर्वगः ।
सङ्कर्षणो +अपः सृष्ट्वादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥

सर्वत्र अनुभव योग्य संकर्षण देव ने इसी प्रकृति के अन्तर्गत प्रविष्ट होकर सर्वप्रथम जल की रचना की । अनन्तर उस जल में बीज स्वरुप अपने तेज को स्थापित किया ।।१३ ।।

तदण्डमभवद्धैमं सर्वत्र तमसावृतम् ।
तत्रानिरुद्धः प्रथमं व्यक्तीभूतः सनातनः ॥

वह बीज स्वरुप तेज स्वर्ण अंड का रूप धारण कर लिया । वह चारों तरफ से अन्धकार से घिरा हुआ था । वहाँ सर्वप्रथम सनातन भगवान अनिरुद्ध प्रकट हुये ।। १४ ।।

हिरण्यगर्भो भगवानेष छन्दसि पठ्यत् ।
आदित्यो ह्यादिभूतत्वात्प्रसूत्या सूर्य उच्यत् ।।

यही भगवान् का हिरण्य गर्भ है जिनका वेदों में उल्लेख है । सर्वप्रथम उतपन्न होने से इन्हें आदित्य तथा अंड से प्रसृत होने के कारण सूर्य कहा गया ।। १५ ।।

परं ज्योतिस्तमः पारे सूर्यो +अयं सवितेति च् ।
पर्येति भुवनानेष भावयन् भूतभावनः ॥

परम ज्योतिसम्पन्न होने के कारण इन्हें सूर्य तथा अन्धकार से परे होने से सविता कहते है । ये भगवान भूतभावन समस्त भुवनों को प्रकाशित करते हुये परिभ्रमण कर रहे है ।। १६ ।।

प्रकाशात्मा तमोहन्ता महानित्येष विश्रुतः ।
ऋचो +अस्य मण्डलं सामान्युस्त्रामूर्तिर्यजूंषि च् ।।
त्रयीमहो +अयं भगवाण्कालात्मा कालकृद्विभुः ।
सर्वात्मा सर्वगः सूक्ष्मः सर्वमस्मिन् प्रतिष्ठितम् ॥

यहीं भगवन् प्रकाश की आत्मा है, यहीं अन्धकार का नाश करने वाले है, ये ही महत् तत्व के रूप में विख्यात है । ऋचाये इनका मण्डल है । सामवेद इनकी रश्मियाँ है तथा यजुर्वेद इनकी मूर्त्ति है ।। १७ ।।
यहीं भगवान वेदत्रयो के रूप में भी है ये ही काल की आत्मा है, काल के कर्ता है और स्वयं प्रकाश है । सभी प्राणियों की आत्मा है सवर्त्रव्यापी एवं सूक्ष्म है तथा सब कुछ इन्ही में प्रतिष्ठित है ।। १८ ।।

रथे विश्वमये चक्रं कृत्वा संवत्सरात्मकम् ।
छन्दांस्यश्वाः सप्त युक्ताः पर्यटत्येष सर्वदा ॥

विश्वरूपी रथ में संवत्सर का चक्र लगाकर तथा छन्द-रूपी अश्वो को युक्त कर भगवान सूर्य सदैव पर्यटन करते रहते है ।। १९ ।।

त्रिपादममृतं गुह्यं पादो +अयं प्रकटो +अभवत् ।
सो +अहङ्कारं जगत्सृष्ट्यै ब्रह्माणमसृजत्प्रभुः ॥

भगवान सूर्य के तीन पाद अमृत है, अर्थात कभी नष्ट न होने वाले है, इसलिए वे अगम्य है । एक चतुर्थ पाद से ही प्रकट है । उसी भगवान ने अहंकार स्वरुप ब्रह्मा को संसार की सृष्टी के लिए उत्पन्न किया ।। २० ।।

तस्मै वेदान् वरान् दत्त्वा सर्वलोकपितामहम् ।
प्रतिष्ठाप्याण्डमध्ये +अथ स्वयं पर्येति भावयन् ॥

उस समस्त लोको के पितामह को श्रेष्ठ वेदों को प्रदान कर तथा उन्हें अंड के मध्य में स्थापित कर स्वयं भगवान् समस्त विश्व को प्रकाशित करते हुये परिभ्रमण करने लगे ।। २१ ।।

अथ सृष्ट्यां मनश्चक्रे ब्रह्माहङ्कारमूर्तिभृत् ।
मनसश्चन्द्रमा जज्ञे सूर्यो +अक्ष्णोस्तेजसां निधिः ॥

तदन्तर अहंकार मूर्ति रूपी ब्रह्मा ने सृष्टी रचना का मन में विचार किया । ब्रह्मा के मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई तथा नेत्रों से प्रकाशात्मा सूर्य की उत्पत्ति हुई ।। २२ ।।

मनसः खं ततो वायुरग्निरापो धरा क्रमात् ।
गुणैकवृद्ध्या पञ्चैव महाभूतानि जज्ञिर् ।।

ब्रह्मा के मन से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की क्रमशः उत्पत्ति हुई । एक-एक गुणों की वृद्धि से ये पाँचों पञ्च महाभूत कहे गए है ।। २३ ।।

अग्नीषोमौ भानुचन्द्रौ ततस्त्वङ्गारकादयः ।
तेजोभूखाम्बुवातेभ्यः क्रमशः पञ्च जज्ञिर् ।।

अग्नि सोमात्मक सूर्य और चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई । अर्थात् अग्नि स्वरुप सूर्य की तथा सोम स्वरुप चन्द्रकी उत्पत्ति हुई । तदन्तर क्रमशः तेज, महाभूत से मंगल, भू से बुध, आकाश से बृहस्पति, जल से शुक्र तथा वायु से शनि की उत्पत्ति हुई ।। २४ ।।

पुनर्द्वादशधात्मानं व्यभजद्राशिसञ्ज्ञकम् ।
नक्षत्ररूपिणं भूयः सप्तविंशात्मकं वशी ॥

इस प्रकार ब्रह्मा जिनके वशीभूत समस्त सृष्टी है उन्होंने अपने आप को द्वादश भागों में विभक्त कर दिया जो राशि संज्ञक हुये । तथा पुनः उस ब्रह्माण्ड को सत्ताइस भागों में विभक्त किया तो वे नक्षत्र संज्ञक हुये ।। २५ ।।

ततश्चराचरं विश्वं निर्ममे देवपूर्वकम् ।
ऊर्ध्वमध्याधरेभ्यो +अथ स्रोतोभ्यः प्रकृतीः सृजन् ॥

तत्पश्चात ब्रह्मा ने उत्तम, मध्यम, अधम स्रोत्रों से सत्व-राज-तम स्वरुप त्रिगुणात्मक प्रकृति की रचना कर देव आदि चर-अचर विश्व की रचना की ।। २६ ।।

गुणकर्मविभागेन सृष्ट्वा प्राग्वदनुक्रमात् ।
विभागं कल्पयामास यथास्वं वेददर्शनात् ॥
ग्रहनक्षत्रतारानां भूमेर्विश्वस्य वा विभुः ।
देवासुरमनुष्याणां सिद्धानां च यथाक्रमम् ॥
ब्रह्माण्डमेतत्सुषिरं तत्रेदं भूर्भुवादिकम् ।
कटाहद्वितयस्येव सम्पुटं गोलकाकृति ॥

तत्पश्चात गुण-कर्म विभागानुसार पूर्वकल्पोक्त विधि से सृष्टी की रचनाकर वेदों में बताये गए मार्गानुसार ग्रह-नक्षत्र-तारा तथा भूमि विश्व देव-असुर मनुष्य एवं सिद्ध आदि का ब्रह्मा ने विभाजन किया । यह ब्रह्माण्ड अंड के मध्य का अत्यन्त विस्तृत छिद्र है । अर्थात दो अंड कटाहों के मध्य का विशाल रिक्त स्थान अनन्त आकाश संज्ञक है । दो अंड कटाहों द्वारा सम्पुट होने से यह गोल-आकृति वाला है । इसी के मध्य में भूर्भुवादि लोक अवस्थित है ।। २७-२९ ।।

ब्रह्माण्डमध्ये परिधिर्व्योमकक्षाभिधीयत् ।
तन्मध्ये भ्रमणं भानामधो +अधः क्रमशस्तथा ॥
मन्दामरेज्यभूपुत्रसूर्यशुक्रेन्दुजेन्दवः ।
परिभ्रमन्त्यधो+अधःस्थाः सिद्ध्हविद्याधरा घनाः ॥

ब्रह्माण्ड की भीतरी परिधि खकक्षा या आकाश कक्षा कही गई है । उसके मध्य में अधोध: क्रम से नक्षत्रादि भ्रमण करते है । नक्षत्रों के निचे क्रमशः शनि, बृहस्पति, भौम, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्रमा की कक्षायें है जिनमें वे भ्रमण करते है । ग्रहों के नीचे क्रमशः सिद्ध, विधाधर और घन है ।। ३०-३१ ।।

मध्ये समन्तादण्डस्य भूगोलो व्योम्नि तिष्ठति ।
बिभ्रानः परमां शक्तिं ब्रह्मणो धारणात्मकाम् ॥

ब्रह्माण्ड के चारों ओर से मध्य भाग में यह भूगोल ब्रह्मा की धाराणात्मिका परमशक्ति से आकाश में अवस्थित है ।। ३२ ।।

तदन्तरपुटाः सप्त नागासुरसमाश्रयाः ।
दिव्यौषधिरसोपेता रम्याः पातालभूमयः ॥

पृथ्वी के आन्तारिक भाग में नाग और असुरों के आश्रय रूप में तथा दिव्य औषधियों एवं रसों से युक्त अतिसुन्दर सात पाताल भूमी है ।। ३३ ।।

अनेकरत्ननिचयो जाम्बूनदमयो गिरिः ।
भूगोलमध्यगो मेरुरुभयत्र विनिर्गतः ॥

अनेक रत्नों के समूह से परिपूर्ण जाम्बूनद से युक्त भूगोल के मध्य में गया हुआ तथा पृथ्वी के दोनों भाग में निकला हुआ पर्वत है ।। ३४ ।।

उपरिष्टात्स्थितास्तस्य सेन्द्रा देवा महर्षयः ।
अधस्तादसुरास्तद्वद्द्विषन्तो +अन्योन्यमाश्रिताः ॥

मेरु पर्वत के उपरी भाग में इन्द्रादि देवता और महर्षिगण रहते है। इसी प्रकार अघोभाग में असुर लोग रहते है जो परस्पर द्वेष भाव रखते है ।।३५ ।।

ततः समन्तात्परिधिः क्रमेणायं महार्णवः ।
मेखलेव स्थितो धात्र्या देवासुरविभागकृत् ॥

सुमेरु पर्वत के दोनों भागो के मध्य में परिधि की तरह यह महासमुन्द्र में पृथ्वी मेखला की तरह स्थित है । यह समुद्र देवों और असुरों की सीमा का विभाग भी करता है ।। ३६ ।।

समन्तान्मेरुमध्यात्तु तुल्यभागेषु तोयधेः ।
द्वीपिषु दिक्षु पूर्वादिनगर्यो देवनिर्मिताः ॥
भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता ।
भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा ॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन्महापुरी ।
पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता ॥
उदक्सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता ।
तस्यां सिद्धा महात्मानो निवसन्ति गतव्यथाः ॥
भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिताः ।
ताभ्यश्चोत्तरगो मेरुस्तावानेव सुराश्रयः ॥

समेरु पर्वतों के मध्य भाग में तुल्य दूरी पर पूर्वादि दिशाओं में चार द्वीपों पर देवों द्वारा निर्मित किये गए चार नगर है ।। ३७ ।।
पृथ्वी के चतुर्थांश भाग पर पूर्व दिशा में भद्राश्व वर्ष में यमकोटी नामक विख्यात नगर है जिसमे स्वर्णमयी दीवाले तथा स्वर्णमय द्वार है ।। ३८ ।।
दक्षिणदिशा में भारतवर्ष में उसी प्रकार की लंका नामक महानगरी है । पश्चिम दिशा में केतुमाल वर्ष में रोमक नामक नगर कहा गया है ।। ३९ ।।
उत्तरदिशा में कुरु वर्ष में सिद्ध पुरी नामक नगरी है । उस नगरी में पीडाओं से रहित सिद्ध महात्मा निवास करते है ।। ४० ।।
पृथ्वी की परिधि के चतुर्थाश भाग के अन्तर पर यह चारों नगर स्थित है । इन चारों नगरों से उतनी ही दूरी पर उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है जहाँ देवताओं का निवास है ।। ४१ ।।

तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः ।
न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यत् ।।

नाडी वृत्त में स्थित सूर्य उन चारों नगरों के ऊपर होता हुआ भ्रमण करता है । उन नगरों में विषुवच्छाया नहीं होती तथा अक्ष की उन्नति भी नहीं होती, अर्थात आंक्षाश भी शून्य होता है ।। ४२ ।।

मेरोरुभयतो मध्ये ध्रुवतारे नभः स्थित् ।
निरक्षदेशसंस्थानामुभये क्षितिजाश्रय् ।।
अतो नाक्षत्रोच्छ्रयस्तासु ध्रुवयोः क्षितिजस्थयोः ।
नवतिर्लम्बकांशास्तु मेरावक्षांशकास्तथा ।।

मेरु पर्वत के दोनों भागों अर्थात सुमेरु तथा कुमेरु में ध्रुव तारा की स्थिति मध्य आकाश में होती है । उत्तर में उत्तर ध्रुव खमध्यगत में दक्षिण ध्रुव खमध्यगत होता है । जो निरक्षदेश में स्थित है उनके लिए दोनों भागों में ध्रुव तारा क्षितिज में स्थित होता है । अतः क्षितिजस्थ दोनों ध्रुव तारों की क्षितिज पर ऊँचाई न होने से उन प्रदेशों में अंक्षाश शून्य तथा लम्बांश ९० डीग्री होता है । इसके विपरीत दोनों मेरु प्रदेशों में अंक्षाश ९० डीग्री तथा लम्बांश ० शून्य होता है ।। ४३-44 ।।

मेषादौ देवभागस्थे देवानां याति दर्शनम् ।
असुराणां तुलादौ तु सूर्यस्तद्भागसञ्चरः ॥

मेषादि छः राशियों में स्थित रहने पर सूर्य का दर्शन देव भाग में तथा तुलादि छः राशियों में स्थित रहने पर सूर्य का दर्शन असुरों के भाग में होता है । मेषादि से कन्यान्त पर्यन्त छः राशियों में भ्रमण करता हुआ सूर्य विषुवत वृत्त से उत्तर में ही रहता है अतः लगभग ६ मास पर्यन्त सूर्य का दर्शन उत्तर गोल में होता है । इसी प्राकर तुलादि से मीनान्त पर्यन्त ६ राशियों में सूर्य विषुवत वृत से दक्षिण में रहता है अतः ६ मास पर्यन्त सूर्य का दर्शन दक्षिण गोल में ही होता है ।। ४५ ।।

अत्यासन्नतया तेन ग्रीष्मे तीव्रकरा रवेः ।
देवभागे सुराणां तु हेमन्ते मन्दतान्यथा ॥

उक्त कारणों से सूर्य के देवभाग में क्षितिज से ऊपर तथा खमध्य के आसन्न रहने से उत्तर गोल में सूर्य की रश्मियाँ तीव्र होती है जिनसे ग्रीष्म ऋतु में उत्तरगोल में गर्मी होती है । इसी प्रकार तुलादि छः राशियों में दक्षिण गोल में सूर्य के रहने से हेमन्त ऋतू में गर्मी होती है । इस से विपरीत स्थिति अर्थात उत्तरगोल में हेमन्त ऋतु में शीत तथा दक्षिण में ग्रीष्म ऋतु में शीत होती है ।। ४६ ।।

देवासुरा विषुवति क्षितिजस्थं दिवाकरम् ।
पश्यन्त्यन्योन्यमेतेषां वामसव्ये दिनक्षप् ।।
मेषादावुदितः सूर्यस्त्रीन् राशीनुदगुत्तरम् ।
सञ्चरन् प्रागहर्मध्यं पूरयेन्मेरुवासिनाम् ॥
*कर्क्यादीन् सञ्चरंश्तद्वदह्नः पश्चार्धमेव सः ।
तुलादींस्त्रीन्मृगादींश्च तद्वदेव सुरद्विषाम् ॥
अतो दिनक्षपे तेषामन्योन्यं हि विपर्ययात् ।
अहोरात्रप्रमाणं च भानोर्भगणपूरणात् ॥

विषुवों में सूर्य के रहने पर देवता और असुर दोनों सूर्य को क्षितिज पर देखते है । इनके दिन और रात एक दुसरे से विपरीत होते है । दोनों मेरु स्थान से ९० डीग्री पर होने से विषुवत वृत्त ही ध्रुवो का क्षितिज होता है । विषुवस्थ सूर्य नाड़ी वृत्त के ही धरातल में होता है । अतः देवता और असुर सूर्य को क्षितिज वृत्त में ही देखते है । सावन मेषादि विन्दु देवो के लिए सूर्योदय काल होता है तथा सावन तुलादि बिंदु असुरों का सूर्योदय काल होता है । मेषादि में सूर्य उदित होकर उत्तरोत्तर तीन राशियों में भ्रमण करता हुआ मेरुवासी देवो के दिन पूर्वाध पूर्ण करता है तथा कर्क आदि तीन राशियों में भ्रमण करता हुआ दिन के उत्तरार्ध को पूर्ण करता है । इसी प्रकार तुलादि से धनु्रन्त तक असुरों का पूर्वार्ध तथा मकरादि से मीनान्त तक दिन का उत्तरार्ध होता है । इसलिए दोनों के दिन और रात एक दुसरे से विपरीत होते है । सूर्य का एक भ्रमण पूर्ण होने पर देवताओं एवं असुरों का एक अहोरात्र होता है ।। ४६-५० ।।

दिनक्षपार्धमेतेषामयनान्ते विपर्ययात् ।
उपर्यात्मानमन्योन्यं कल्पयन्ति सुरासुराः ॥

देवताओं एवं असुरों का दिनार्ध एवं रात्र्यर्ध अयनों के अन्त में एक दुसरे के विपरीत होते है । अर्थात उत्तरायण के अन्त में सूर्य के रहने पर देवों का मध्याह्न और असुरों का मध्यरात्री तथा धनुरन्तमें असुरों का मध्याहन और देवों की मध्यरात्री होती है । देवता और असुर एक दुसरे की अपेक्षा अपने को ऊपर स्थित मानते है तथा दुसरे को अपने से नीचे की ओर मानते है ।। ५१ ।।

अन्ये +अपि समसूत्रस्था मन्यन्ते +अधः परस्परम् ।
भद्राश्वकेतुमालस्था लङ्कासिद्धपुराश्रिताः ॥

सम सूत्र में स्थित अन्य लोग भी अपने से दूसरों को नीचे स्थित समझते है । भद्राश्व वर्ष और केतुमाल वर्ष में स्थित लोग एक दुसरे को अपने से निचे मानते है । इसी प्रकार लंका निवासी सिद्धपुर के निवासियों को अपने से नीचे समझते है ।। ५२ ।।

सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपरि स्थितम् ।
मन्यन्ते खे यतो गोलस्तस्य क्वोर्धवं क्व वाधः ॥

पृथ्वी पर सर्वत्र अपना स्थान ही प्रतीत होता है । वस्तुत: अनन्त आकाश में स्थित गोल का न कही ऊर्ध्व है तथा ना कहीं अधः है ? अर्थात सर्वत्र समान रूप से पृथ्वी पर ऊपरी भाग में ही स्थिति ज्ञात होती है ।। ५३ ।।

अल्पकायतया लोकाः स्वस्थानात्सर्वतो मुखम् ।
पश्यन्ति वृत्तामप्येतां चक्राकारां वसुन्धराम् ॥

पृथ्वी की अपेक्षा मनुष्य अत्यल्पकाय है । अतः अपने स्थान से चारों ओर गोलाकार होते हुये भी पृथ्वी को चक्राकार देखता है ।। ५४ ।।

सव्यं भ्रमति देवानामपसव्यं सुरद्विषाम् ।
उपरिष्टाद्भगोलो +अयं व्यक्षे पश्चान्मुखः सदा ॥

यह भगोल देवताओं के क्षेत्र सुमेरु के आसन्न बायें से दाहिने ओर तथा दैत्यों के क्षेत्र कुमेरु के आसन्न दक्षिण से बाम भाग में भ्रमण करता है । निरक्ष प्रदेशों में नक्षत्र चक्र सदैव ऊपरी भाग में पूर्व से पश्चिम की ओर भ्रमण करता हुआ दृश्य होता है ।। ५५ ।।

अतस्तत्र दिनं त्रिंशन्नाडिकं शर्वदी तथा ।
हानिवृद्धी सदा वामं सुरासुरविभागयोः ॥

अतः निरक्षदेशीय प्रदेशों में ३० घटी का दिन तथा ३० घटी की रात्री होती है तथा सुर और असुरों के भाग में संदैव एक दुसरे के विपरीत स्थिति में दिन और रात्री में ह्रास-वृद्धि होती है ।। ५६ ।।

मेषादौ तु सदा वृद्धिरुदगुत्तरतो +अधिका ।
देवांशे च क्षपाहानिर्विपरीतं तथासुर् ।।
तुलादौ द्युनिशोर्वामं क्षयवृद्धी तयोरुभ् ।
देशक्रान्तिवशान्नित्यं तद्विज्ञानं पुरोदितम् ॥

मेषादि ६ राशियों में निरक्षदेश में उत्तरोत्तर क्रमसे देवभाग में दिन मान की वृद्धि होती है तथा रात्री मान का ह्रास होता है । इससे विपरीत असुर भाग में दिन का ह्रास तथा रात्री की वृद्धि होती जायेगी । तुलादि ६ राशियों में उक्त क्रम से विपरीत दिन-रात्रि की क्षय वृद्धि देवों एवं असुरों के भागों में होती है । इस प्रकार ह्रास-वृद्धि के क्रम को में देश और सूर्य क्रांति द्वारा ज्ञात करने की विधि बतलाई गई है ।। ५७-५८ ।।

भूवृत्तं क्रान्तिभागघ्नं भगणांशविभाजितम् ।
अवाप्तयोजनैरर्को व्यक्षाद्यात्युपरिस्थितः ॥

योजनात्मक मध्य भूपरिधि मान को अभीष्ट दिन की सूर्य क्रान्ति से गुणाकर भागाणांश से भाग देने पर जो योजनात्मक लब्धि प्राप्त हो, निरक्ष देश से उतने योजन की दूरी पर सूर्य के क्रान्ति की दिशा वाले देशों में मध्मध्याह्न काल में सूर्य खमध्यगत होता हुआ भ्रमण करता है ।। ५९ ।।

परमापक्रमादेवं योजनानि विशोधयेत् ।
भूवृत्तपादाच्छेषाणि यानि स्युर्योजनानि तैः ॥
अयनान्ते विलोमेन देवासुरविभागयोः ।
नाडीषष्ट्या सकृदहर्निशाप्यस्मिन् सकृत्तथा ॥

सूर्य के परमक्रान्ति से पूर्वोक्त विधि से प्राप्त योजन मान को भूवृत्तपाद से घटाकर शेष तुल्य योजन की दूरी पर निरक्ष देश से देव एवं असुर दोनों के विभागों में एक दुसरे से विपरीत एक दिन ६० घटी और रात्री ६० घटी की होती है । मिथुनान्त में उत्तर गोल में ६० घटी का दिन तथा दक्षिण गोल में ६० घटी की रात्री इसी प्रकार धनुरन्त में दक्षिण गोल में ६० घटी का दिन तथा उत्तर गोल में ६० घटी की रात्री होती है ।। ६०-६१ ।।

तदन्तरे +अपि षष्ट्यन्ते क्षयवृद्धी अहर्निशोः ।
परतो विपरीतो +अयं भगोलः परिवर्तत् ।।

निरक्ष देश में पूर्वोक्त विधि से प्राप्त योजनामान तक ही ६० घटी के अन्दर दिन और रात्री को क्षयवृद्धि होती है तथा अहोरात्र का मान ६० घटी होता है । इससे अधिक अक्षांश होने पर दिन रात्री व्यवस्था भिन्न हो जाती है क्योकी उन स्थानों में यह भगोल विपरीत भ्रमण कारता है ।। ६२ ।।

ऊने भूवृत्तपादे तु द्विज्यापक्रमयोजनैः ।
धनुर्मृगस्थः सविता देवभागे न दृश्यत् ।।
तथा चासुरभागे तु मिथुने कर्कटे स्थितः ।
नष्टच्छाया महीवृत्तपादे दर्शनमादिशेत् ॥

द्विज्या की क्रान्ति से प्राप्त योजन मान को भूवृत्तपाद से घटाने पर जो शेष योजन हो, निरक्ष देश से उतने योजन पर देव भाग में धनु और मकर राशि स्थित सूर्य दृश्य नहीं होते । इसी प्रकार मिथुन और कर्क राशिगत सूर्य असुर भाग में दृश्य नहीं होते । जहां पर मध्याहन कालिक छाया नष्ट हो उस स्थान से भूपरिधि के चतुर्थांश पर्यन्त सूर्य का दर्शन होता है । ऐसा समझना चाहिये ।। ६३-६४ ।।

एकज्यापक्रमानीतैर्योजनैः परिवर्जित् ।
भूमिकक्षाचतुर्थांशे व्यक्षाच्छेषैस्तु योजनैः ॥
धनुर्मृगालिकुम्भेषु संस्थितो +अर्को न दृश्यत् ।
देवभागे +असुराणां तु वृषाद्ये भचतुष्टय् ।।

एकज्या की क्रान्ति से सम्बन्धित योजन को भूपरिधि के चतुर्थांश से घटाकर शेष योजन तुल्य निरक्षदेश से दूरी पर स्थित देवभाग के प्रदेशों में वृश्चिक, धनु, मकर और कुम्भ राशियों के सूर्य दृश्य नहीं होते तथा निरक्ष देश से उतनी ही दूरी पर असुरभाग में वृष से चार राशि पर्यन्त पर स्थित सूर्य दृश्य नहीं होते ।। ६५-६६ ।।

मेरौ *मेषादिचक्रार्धे देवाः पश्यन्ति भास्करम् ।
सकृदेवोदितं तद्वदसुराश्च तुलादिगम् ॥

मेरु पर्वत वासी देवता मेषादि छः राशियों में एक बार उदित सूर्य को ही देखते है । इसीप्रकार असुर लोग तुलादि छः राशियों में ६ मास तक सूर्य को उदित ही देखते है ।। ६७ ।।

भूमण्डलात्पञ्चदशे भागे देवे +अथ वासुर् ।
उपरिष्टाद्व्रजत्यर्कः सौम्ययाम्यायनान्तगः ॥
तदन्तरालयोश्च्छाया याम्योदक्सम्भवत्यपि`।
मेरोरभिमुखं याति परतः स्वविभागयोः ॥

भूमण्डल के १५ वें भाग पर देवताओं एवं असुरों के भागों में २४* उत्तर एवं २४*दक्षिण के अन्तिम बिन्दु मिथुन के अन्त अहोरात्र वृत तथा धनु के अन्त अहोरात्र वृत्त में सूर्य खमध्य में होता हुआ भ्रमण करता है । इन दोनों बिन्दुओं या अहोरात्र वृत्तों के मध्यगत प्रदेशों में ही मध्याहनकालिक शंकुछाया उत्तराभिमुख या दक्षिणाभिमुख हो सकती है ।इससे भिन्न प्रदेशों में अपने अपने ध्रुवों की तरफ छाया जाती है । उत्तर गोल में उत्तराभिमुख दक्षिण गोल में दक्षिणाभिमुख छाया पड़ती है ।। ६८-६९ ।।

भद्राश्वोपरिगः कुर्याद्भारते तूदयं रविः ।
रात्र्यर्धं केतुमाले तु कुरावस्तमयं तदा ॥
भारतादिषु वर्षेषु तद्वदेव परिभ्रमन् ।
मध्योदयार्धरात्र्यस्तकालान् कुर्यात्प्रदक्षिणम् ॥

जब भद्राश्व वर्ष में यमकोटि नगर के खमध्य में सूर्य होता है उस समय भारतवर्ष में लंका के क्षितिज पर सूर्योदय होता है । उस समय केतुमाल वर्ष में मध्यरात्री तथा कुरुवर्ष में सूर्यास्त होता है । इसी प्रकार भारत आदि वर्षो में दिनार्ध, उदय, अर्ध-रात्रिकाल एवं अस्तकाल करते हुये सूर्य परिभ्रमण करते है ।। ७०-७१ ।।

ध्रुवोन्नतिर्भचक्रस्य नतिर्मेरुं प्रयास्यतः ।
निरक्षाभिमुखं यातुर्विपरीते नतोन्नत् ।।

ध्रुवाभिमुख गमन करने से क्रमशः ध्रुव को क्षितिज से उन्नति बढ़ती जाती है तथा नक्षत्र चक्र खमध्य से नीचे की ओर क्रमशः जाता है । इसी प्रकार निरक्ष देश प्रदेशों की ओर बढ़ने से क्रमशः नक्षत्र चक्र की उन्नति बढ़ती जाती है तथा ध्रुव तारा की उन्नति घटती जाती है ।। ७२ ।।

भचक्रं ध्रुवयोर्बद्धमाक्षिप्तं प्रवहानिलैः ।
पर्येत्यजस्रं तन्नद्धा ग्रहकक्षा यथाक्रमम् ॥

नक्षत्र चक्र ध्रुवों से आबद्ध होकर प्रवाह वायु के वेग से प्रेरित होकर निरन्तर भ्रमण करता रहता है तथा नक्षत्र चक्र से आबद्ध ग्रह कक्षायें भी क्रमानुसार भ्रमण करती है ।। 73 ।।

सकृदुद्गतमब्दार्धं पश्यन्त्यर्कं सुरासुराः ।
पितरः शशिगाः पक्षं स्वदिनं च नरा भुवि ॥

देवता और असुर दोनों ही एक बार सूर्योदय होने पर उसे आधे वर्ष तक देखते रहते है । चन्द्रमा के पृष्ठ भाग में रहने वाले पितृगण १५ दिन तक सूर्य का दर्शन करते है । जबकि भूपृष्ठ वाले मनुष्य गण अपने अपने स्थानीय दिनमान के अनुसार सूर्य का अवलोकन करते है ।। ७४ ।।

*उपरिष्टस्य महती कक्षाल्पाधःस्थितस्य च् ।
महत्या कक्षया भागा महान्तो +अल्पास्तथाल्पया ॥
कालेनाल्पेन भगणं भुङ्क्ते +अल्पभ्रमणाश्रितः ।
ग्रहः कालेन महता मण्डले महति भ्रमन् ॥
स्वल्पयातो बहून् भुङ्क्ते भगणान् शीतदीधितिः ।
महत्या कक्षया गच्छन् ततः स्वल्पं शनैश्चरः ॥

जिन ग्रहों की कक्षा ऊपर है उनका परिमाण बृहत है तथा जो ग्रहकक्षा नीचे है उनका परिमाण अल्प है । बृहत कक्षाओं के अंश प्रमाण बड़े तथा छोटी कक्षाओं के अंश प्रमाण छोटे होते है ।
अल्प कक्षाश्रित ग्रह अल्पकाल में भगण पूर्ति करते है । बृहत् कक्षाश्रित ग्रह अधिक काल में भगण पूर्ति करते है । अल्प कक्षाश्रित चन्द्रमा समान काल में अधिक भगण पूर्ण करता है जबकी बृहत् कक्षाश्रित होने से शनि स्वल्प भगण ही पूर्ण कर पाता है ।। ७५-७७ ।।

मन्दादधः क्रमेण स्युश्चतुर्था दिवसाधिपाः ।
वर्षाधिपतयस्तद्वत्तृतीयाश्च प्रकीर्तिताः ॥
ऊर्ध्वक्रमेण शशिनो *मासानामधिपाः स्मृताः ।
होरेशाः सूर्यतनयादधो+अधः क्रमशस्तथा ॥

शनि से निचे के चौथे-चौथे ग्रह क्रमशः वासरों के अधिपति तथा क्रमशः तीसरे-तीसरे ग्रह वर्षाधिपति कहे गए है । चन्द्रमा के ऊर्ध्वक्रम में क्रमशः मासों के स्वामी तथा शनि से अधोध: क्रम से होरेश ग्रह कहे गए है ।। ७८-७९ ।।

भवेद्भकक्षा तीक्ष्णांशोर्भ्रमणं षष्टिताडितम् ।
सर्वोपरिष्टाद्भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम् ॥

सूर्य के भ्रमण मार्ग को ६० से गुणा करने पर नक्षत्र कक्षा का मान होता है । उन्ही योजन प्रमाणों से सभी ग्रहों के ऊपर भमण्डल भ्रमण करता है ।। ८० ।।

कल्पोक्तचन्द्रभगणा गुणिताः शशिकक्षया ।
आकाशकक्षा सा ज्ञेया करव्याप्तिस्तथा रवेः ॥

कल्पचन्द्र भगण की संख्यां को चन्द्र की कक्षा से गुणा करने पर जो गुणनफल होता है उसे ख कक्षा जानना चाहिये तथा उसी सीमा तक सूर्य की किरणें व्याप्त रहती है ।। ८१ ।।

सैव यत्कल्पभगणैर्भक्ता तद्भ्रमणं भवेत् ।
कुवासरैर्विभज्याह्नः सर्वेषां प्राग्गतिः स्मृता ॥

उक्त खकक्षा मान को जिस ग्रह की कल्प भगण संख्या से भाग दिया जायेगा भागफल उस ग्रह की कक्षा का योजनात्मक मान होगा । कल्प सावन दिवसों से आकाश कक्षामें भाग देने पर सभी ग्रहों की पूर्वाभिमुख योजनात्मक गति ज्ञात होगी ।। ८२ ।।

भुक्तियोजनजा सङ्ख्या सेन्दोर्भ्रमणसङ्गुणा ।
स्वकक्षाप्ता तु सा तस्य तिथ्याप्ता गतिलिप्तिका ॥

ग्रहों की योजनात्मिका गति को चन्द्र कक्षा योजन से गुणाकर स्व स्व कक्षा योजनों से भाग देकर लब्धि को पुनः १५ से भाग देने पर तत्तद ग्रहों की गति का कलात्मक मान होता है ।। ८३ ।।

कक्षा भूकर्णगुणिता महीमण्डलभाजिता ।
तत्कर्णा भूमिकर्णोना ग्रहोच्च्यं स्वं दलीकृताः ॥

ग्रह कक्षा को भू-व्यास से गुणाकर भू-परिधि से भाग देने पर लब्धि ग्रह कक्षा का व्यास होता है । कक्षा व्यास में भू-व्यास को घटाकर आधा करने से भू-पृष्ट से ग्रह की ऊँचाई होती है ।। ८४ ।।

खत्रयाब्धिद्विदहनाः कक्षा तु हिमदीधितेः ।
ज्ञशीघ्रस्याङ्कखद्वित्रित्कृतशून्येन्दवस्तथा ॥
शुक्रशीघ्रस्य सप्ताग्निरसाब्धिरसषड्यमाः ।
ततो +अर्कबुधशुक्राणां खखार्थैकसुरार्णवाः ॥
कुजस्याप्यङ्कशून्याङ्कषड्वेदैकभुजङ्गमाः ।
चन्द्रोच्चस्य कृताष्टाब्धिवसुद्वित्र्यष्टवह्नयः ॥
कृतर्तुमुनिपञ्चाद्रिगुणेन्दुविषया गुरोः ।
स्वर्भानोर्वेदतर्काष्टद्विशैलार्थखकुञ्जराः ॥
पञ्चवाणाक्षिनागर्तुरसाद्र्यर्काः शनेस्ततः ।
भानां रविखशून्याङ्कवसुरन्ध्रशराश्विनः ॥

पूर्वोक्तरीती से साधित ग्रहों की कक्षाओं का पृथक-पृथक योजनात्मक मान इस प्रकार है –
चन्द्रकक्षा योजन – 324000 बुध शीघ्रकेन्द्र कक्षा योजन – 1043209 शुक्र शीध्रकेन्द्र कक्षा योजन – 2664637 सूर्य बुध शुक्र का कक्षा योजन – 4331500 भौम की कक्षा का योजन – 8146909 चन्द्रोच्च का कक्षा योजन 38328484 गुरु का कक्षा योजन 51375764 राहू कक्षा योजन 80572864 शनि कक्षा योजन 127668255 नक्षत्र कक्षा योजन 259890000

खव्योमखत्रयखसाग्रषट्कनागव्योमाष्टशून्ययमरूपनगाष्टचन्द्राः ।
ब्रह्माण्डसम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरे दिनकरस्य करप्रसारः ॥

इस ब्रह्माण्ड की भीतरी परिधि के अन्दर चारों तरफ सूर्य की किरणों का विस्तार है । ख कक्षा का मान 18712080864000000 योजन है ।। ९० ।।