सूर्य-सिद्धांत अध्याय-1 मध्यमाधिकार: (ग्रहों की चाल)
अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मन् ।
समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥
अचिन्त्य, अनिर्वचनीय एवं अव्यक्त स्वरुप वाले, सत्व, रज, तम, गुणत्रय से रहित स्वरुप, समस्त सृष्टी के आधारभूत सृष्टी स्थिति विनाशरूप मूर्तित्रयात्मक उस परब्रह्रा को नमस्कार है ।। १ ।।
अल्पावशिष्टे तु कृते *मयो नाम महासुरः ।
रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम् ॥
वेदाङ्गमग्र्यमखिलं ज्योतिषां गतिकारणम् ।
आराधयन् विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुश्चरम् ॥
सत्ययुग के स्वल्पकाल शेष रह जाने पर मय नामक महान असुर ने समस्त वेदांगों में श्रेष्ठ ज्योतिष पिण्डों के गति के कारणभूत परम पवित्र एवं गूढ़ ज्योतिष शास्त्र के ऊतम ज्ञान के प्रति जिज्ञासु होकर भगवान सूर्य की आराधना करते हुये घोर तपस्या किया ।। २-३ ।।
तोषितस्तपसा तेन प्रीतस्तस्मै वरार्थिन्प ।
ग्रहाणां चरितं प्रादान्मयाय सविता स्वयम् ॥
अनन्तर उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर ज्योतिष शास्त्र के ज्ञान रूपी वरदान की अभिलाषा रखने वाले मय दानव को अत्यन्त प्रसन्नता के साथ भगवान् सूर्य ने स्वयं ग्रहों के चरित्र को प्रदान किया ।। ४ ।।
विदितस्ते *मया भावस्तोषितस्तपसा ह्यहम् ।
दद्यां कालाश्रयं ज्ञानं ग्रहाणां चरितं महत् ॥
श्री सूर्य ने कहा – मैंने तुम्हारे भाव को समझ लिया है । तुम्हारी तपस्या से मैं संतुष्ट हूँ । अतः मैं काल के आश्रयभूत एवं ग्रहों के महान चरित्र से परिपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के दिव्य ज्ञान को तुम्हें प्रदान करूँगा ।। ५ ।।
न मे तेजः सहः कश्चिदाख्यातुं नास्ति मे क्षणः ।
मदंशः पुरुषो +अयं ते निःशेषं कथयिष्यति ॥
मेरे तेज को सहन करने की शक्ति किसी प्राणी में नहीं है तथा मेरे पास इतना समय भी नहीं है कि मैं ज्योतिष शास्त्र का व्याख्यान कर सकूँ ।अतः मेरा यह अंशावतार पुरुष ही तुम्हे समग्र ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान करायेगा ।। ६ ।।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः समादिश्यांशमात्मनः ।
स पुमान्मयमाहेदं प्रणतं प्राञ्जलिस्थितम् ॥
इस प्रकार कहकर तथा अंशावतार पुरुष को भली भाँती आदेश देकर भगवान सूर्य अंतर्ध्यान हो गये । अनन्तर उस अंशावतार पुरुष ने अत्यन्त विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर खड़े हुये मय दानव से यह कहा ।। ७ ।।
शृणुष्वैकमनाः पूर्वं यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् ।
युगे युगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता ॥
पहले प्रत्येक युग में स्वयं भगवान सूर्य ने महर्षियों को जिस उत्तमज्ञान को बतलाया है उसे एकाग्रचित होकर सुनों ।। ८ ।।
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्वं प्राह भास्करः ।
युगानां परिवर्तेन कालभेदो +अत्र *केवलः ॥
आदि शास्त्र वही है जो पहले भगवान् भास्कर ने बतलाया था । केवल योगों के परिवर्तन से इस शास्त्र में काल-भेद उत्पन्न हो गए है ।। ९ ।।
लोकानामन्तकृत्कालः कालो +अन्यः कलनात्मकः ।
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्चामूर्त उच्यते ।।
एक काल प्राणियों का संहार करने वाला तथा दूसरा गणना करने वाला होता है । कलानात्मक काल दो तरह का होता है । पहला स्थूल होने से मूर्त संज्ञक और दूसरा सूक्ष्म होने से अमूर्त संज्ञक कहा जाता है ।। १० ।।
प्राणादिः कथितो मूर्तस्त्रुट्याद्यो +अमूर्तसंज्ञकः ।
षड्भिः प्राणैर्विनाडी स्यात्तत्षष्ट्या नाडिका स्मृता ॥
नाडीषष्ट्या तु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम् ।
तत्त्रिंशता भवेन्मासः सावनो +अर्कोदयैस्तथा ॥
प्राण आदि मूर्त संज्ञक और त्रुटि आदि अमूर्त संज्ञक कहे गये है । ६ प्राण की एक विनाडी, ६० विनाडी की १ नाडी, ६० नाडी का एक नक्षत्र अहोरात्र कहा गया है । ३० अहोरात्र का एक मास होता है । दो सूर्योदय के मध्य का काल सावन दिन होता है ।। ११-१२ ।।
ऐन्दवस्तिथिभिस्तद्वत्संक्रान्त्या सौर उच्यते ।
मासैर्द्वादशभिर्वर्षं दिव्यं तदह उच्यते ।।
उसी प्रकार तीस तिथियों का एक चन्द्र मास, एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति पर्यन्त एक सौर मास कहा गया है । बारह मासों का एक वर्ष तथा एक वर्ष का १ दिव्य दिन होता है ।। १३ ।।
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ।
तत्षष्टिः षड्गुणा दिव्यं वर्षमासुरमेव च् ।।
देवताओं और असुरों का अहोरात्र एक दुसरे से विपरीत क्रम से होता है । छः से गुणित उन साठ अहोरात्रों के तुल्य देवों का तथा दैत्यों का एक वर्ष होता है ।। १४ ।।
तद्द्वादशसहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम् ।
सूर्याब्दसंख्यया द्वित्रिसागरैरयुताहतैः ॥
सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम् ।
कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया ॥
देवताओं और असुरों के वर्ष प्रमाण से १२ हजार वर्षों का एक चतुर्युग होता है । सौर मान से दश हजार गुणित ४३२ वर्षों का एक महायुग होता है ।। १५ ।।
कृतयुगादि प्रत्येक युगों के सन्ध्या-संध्यांशों से युक्त चतुर्युग का मान कहा गया है । कृत-त्रेता-द्वापर-कलियुगों की पाद व्यवस्था धर्मपाद के अनुरूप ही है ।। १६ ।।
युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रिद्व्येकसङ्गुणः ।
क्रमात्कृतयुगादीनां षष्ठांशः सन्ध्ययोः स्वकः ॥
महायुग के मान के दशमांश को क्रम से ४,३,२, और १ से गुणा करने पर क्रम से कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग का मान होता है । अपने अपने युगमान के षष्टांश तुल्य दोनों सन्धियाँ होती है ।। १७ ।।
युगानां सप्ततिः सैका मन्वन्तरमिहोच्यते ।
*कृताब्दसंख्यास्तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्तो जलप्लवः ॥
मूर्त काल प्रमाण में ७१ चतुर्युगों का एक मन्वन्तर कहा गया है । एक मनु के अन्त में कृतयुग तुल्य मनु की सन्धि होती है । सन्धिकाल जलप्लव कहलाता है ।। १८ ।।
ससन्धयस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश ।
कृतप्रमाणः कल्पादौ सन्धिः पञ्चदशः स्मृतः ॥
एक कल्प में सन्धि सहित पूर्वोक्त १४ मनु होते है । कल्प के आदि में कृतयुग के तुल्य सन्धि होती है । इस प्रकार १ कल्प में सत्ययुग के समान १५ सन्धियाँ होती है ।। १९ ।।
इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः ।
कल्पो ब्राह्ममहः प्रोक्तं शर्वरी तस्य तावती ॥
इस प्रकार एक हजार महायुग का सृष्टी संहारकारक १ कल्प ब्रह्मा का एक दिन कहा गया है । इतनी ही ब्रह्रा की रात्री भी होती है ।। 20 ।।
परमायुः शतं तस्य तयाहोरात्रसंख्यया ।
आयुषो +अर्धमितं तस्य शेषकल्पो +अयमादिमः ॥
पूर्वोक्त ब्रह्रा के अहोरात्र प्रमाण से सौ वर्ष ब्रह्मा की परमायु होती है । ब्रह्रा की आयु का आधा भाग बीत चुका है । शेष आयु का यह प्रथम कल्प है ।। २१ ।।
कल्पादस्माच्च मनवः षड्व्यतीताः ससन्धयः ।
वैवस्वतस्य च *मनोर्युगानां त्रिघनो गतः ॥
अष्टाविंशाद्युगादस्माद्यातमेतम्कृतं युगम् ।
अतः कालं प्रसंख्याय संख्यामेकत्र पिण्डयेत् ॥
इस वर्तमान कल्प में सन्धियों सहित ६ मनु बीत चुका है ।सप्तम वैवस्वत नामक मनु के भी २७ चतुर्युग बीत चुका है । वर्तमान अठ्ठाईसवे चतुर्युग में कृतयुग बीत चुका है । अतः कालमानों को एकत्र कर उनका योग कर लेना चाहिये ।। २२-२३ ।।
ग्रहर्क्षदेवदैत्यादि सृजतो +अस्य चराचरम् ।
कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना वेधसो गताः ॥
ग्रह, नक्षत्र, देव, दैत्य आदि चर-अचर की रचना करने में ब्रह्मा को कल्पारम्भ से शत गुणित ४७४ दिव्य वर्ष बीत गए है ।। २४ ।।
पश्चाद्व्रजन्तो +अतिजवान्नक्षत्रैः सततं ग्रहाः ।
जीयमानास्तु लम्बन्ते तुल्यमेव स्वमार्गगाः ॥
प्राग्गतित्वमतस्तेषां भगणैः प्रत्यहं गतिः ।
परिणाहवशाद्भिन्ना तद्वशाद्भानि भुञ्जते ।।
प्रवह नामक वायु से प्रेरित होकर ग्रह निरन्तर अत्यन्त वेग से पश्चिम दिशा में जाते हुये दिखलाई पड़ते है । परन्तु नक्षत्रों से पराभृत होते हुये अपनी-अपनी कक्षा में सभी ग्रह समान योजन पूर्व दिशा में चलते है । अतः इन ग्रहों का पूर्वाभिमुख गमन ही प्रमाणित होता है ।अपनी-अपनी कक्षा के अनुसार इनकी दैनिक गति भिन्न-भिन्न होती है तथा उसी गति के अनुसार ग्रह राशिचक्र का भोग करते हुये भगण पूर्ण करते है ।। २५-२६ ।।
शीघ्रगस्तान्यथाल्पेन कालेन महताल्पगः ।
तेषां तु परिवर्तेन पौष्णान्ते भगणः स्मृतः ॥
शीघ्र गति वाले ग्रह अल्प काल में तथा मन्द गति वाले ग्रह अधिक काल में उन २७ नक्षत्रों का भोग करते है । इस प्रकार भ्रमण करते हुये रेवती नक्षत्र के अन्त में ग्रहों का भगण पूर्ण होता है ।। २७ ।।
विकलानां कला षष्ट्या तत्षष्ट्या भाग उच्यते ।
तत्त्रिंशता भवेद्राशिर्भगणो द्वादशैव ते ।।
६० विकला की एक कला, ६० कला का १ अंश, ३० अंश की १ राशि तथा १२ राशियों का एक भगण होता है ।। २८ ।।
युगे सूर्यज्ञशुक्राणां खचतुष्करदार्णवाः ।
कुजार्किगुरुशीघ्राणां भगणाः पूर्वयायिनाम् ॥
पूर्वाभिमुख गमन करने वाले सूर्य-बुध और शुक्र की तथा मंगल-शनि और गुरु की शीघ्रोच्चों की भगण संख्याँ ४३२०००० होती है ।। २९ ।।
इन्दो रसाग्नित्रित्रीषुसप्तभूधरमार्गणाः ।
दस्रत्र्यष्टरसाङ्काक्षिलोचनानि कुजस्य तु ॥
बुधशीघ्रस्य शून्यर्तुखाद्रित्र्यङ्कनगेन्दवः ।
बृहस्पतेः खदस्राक्षिवेदषड्वह्नयस्तथा ॥
सितशीघ्रस्य षट्सप्तत्रियमाश्विखभूधराः ।
शनेर्भुजङ्गषट्पञ्चरसवेदनिशाकराः ॥
चन्द्रोच्चस्याग्निशून्याश्विवसुसर्पार्णवा युग् ।
वामं पातस्य वस्वग्नियमाश्विशिखिदस्रकाः ॥
एक महायुग में चन्द्रमा की भगणसंख्या 57753336, मंगल की 2296832, बुध शीध्रोच्च की 17937060, गुरु की 364220, शुक्र शीघ्रोच्च की 7022376, शनि की 146568, चंद्रोच्च की 488203 तथा पात की विपरीत गति से भगणो की संख्यां 232238 होती है ॥ ३०-३३ ॥
भानामष्टाक्षिवस्वद्रित्रिद्विद्व्यष्टशरेन्दवः ।
भोदया भगणैः स्वैः स्वैरूनाः स्वस्वोदया युगे ॥
एक महायुग में प्रवहवायु वश नक्षत्रों की भगण संख्यां 1582237828 होती है | नक्षत्र उदयकाल में से ग्रहों के अपने-अपने भगण घटाने पर शेष तत्तद ग्रहों के सावन दिन होते है ॥ ३४ ॥
भवन्ति शशिनो मासाः सूर्येन्दुभगणान्तरम् ।
रविमासोनितास्ते तु शेषाः स्युरधिमासकाः ॥
एक महायुग में सूर्य और चन्द्रमा के भगणों के अन्तर तुल्य चान्द्र मास होते है । युगचान्द्र मास से युग सौर मास घटाने से अधिमास होते है ।। ३५ ।।
सावनाहानि चान्द्रेभ्यो द्युभ्यः प्रोज्झ्य तिथिक्षयाः ।
उदयादुदयं भानोर्भूमिसावनवासरः ॥
चान्द्र दिवसों से सावन दिवसों को घटाने से शेष तिथि क्षय होता है । सूर्य के एक उदय काल से दुसरे उदय काल पर्यन्त, भूमि का सावन दिन होता है ।। ३६ ।।
वसुद्व्यष्टाद्रिरूपाङ्कसप्ताद्रितिथयो युग् ।
चान्द्राः खाष्टखखव्योमखाग्निखर्तुनिशाकराः ॥
षड्वह्नित्रिहुताशाङ्कतिथयश्चाधिमासकाः ।
तिथिक्षया यमार्थाश्विद्व्यष्टव्योमशराश्विनः ॥
खचतुष्कसमुद्राष्टकुपञ्च रविमासकाः ।
भवन्ति भोदया भानुभगणैरूनिताः क्वहाः ॥
एक महायुग में १५७७९१७८२८ सावन दिन, १६०३००००८० चान्द्र दिन, १५९३३३६ अधिमास, २५०८२२५२ तिथिक्षय तथा ५१८४०००० सौरमास होते है । नक्षत्रों के उदय से सौरभगण घटाने से शेष भूमि सावन दिन होते है ।। ३७-३९ ।।
अधिमासोनरात्र्यार्क्षचान्द्रसावनवासराः ।
एते सहस्रगुणिताः कल्पे स्युर्भगणादयः ॥
पूर्वोक्त अधिमास, दिनक्षय, नाक्षत्र-चान्द्र-सावन दिनों की संख्या तथा ग्रहों की भगण संख्या को एक सहस्र से गुणा करने पर एक कल्प में अधिमासादि की संख्याँ हो जाती है ।। ४० ।।
प्राग्गतेः सूर्यमन्दस्य कल्पे सप्ताष्टवह्नयः ।
कौजस्य वेदखयमा बौधस्याष्टर्तुवह्नयः ॥
खखरन्ध्राणि जैवस्य शौक्रस्यार्थगुणेषवः ।
गो +अग्नयः शनिमन्दस्य पातानामथ वामतः ॥
मनुदस्रास्तु कौजस्य बौधस्याष्टाष्टसागराः ।
कृताद्रिचन्द्रा जैवस्य त्रिखाङ्काश्च तथा भृगोस् ॥
शनिपातस्य भगणाः कल्पे यमरसर्तवः ।
भगणाः पूर्वमेवात्र प्रोक्ताश्चन्द्रोच्चपातयोः ॥
पूर्वाभिमुख गमन करते हुये एक कल्प में सूर्य का मन्दोच्च ३८७ भगण, मंगल का मन्दोच्च २०४ भगण, बुध का मन्दोच्च ३६८, गुरु का मन्दोच्च ९०० भगण, शुक्र का मन्दोच्च ५३५ तथा शनि का मन्दोच्च ३९ भगण पूर्ण करता है । पात (छाया) विपरीत दिशा में भ्रमण करता है । एक कल्प में मंगल का पात २१४, बुध का पात ४८८, गुरु का पात १७४, शुक्र का पात ९०३, एवं शनि का पात ६६२ भगण पूर्ण करता है । चन्द्रोच्च और चन्द्रमा के पात का भगण पहले ही कहा जा चुका है ।। ४१-४४ ।।
षण्मनूनां तु सम्पीड्य कालं तत्सन्धिभिः सह् ।
कल्पादिसन्धिना सार्धं वैवस्वतमनोस्तथा ॥
युगानां त्रिघनं यातं तथा कृतयुगं त्विदम् ।
प्रोज्झ्य सृष्टेस्ततः कालं पूर्वोक्तं दिव्यसंख्यया ॥
सूर्याब्दसंख्यया ज्ञेयाः कृतस्यान्ते गता अमी ।
खचतुष्कयमाद्र्यग्निशररन्ध्रनिशाकराः ॥
सन्धियों सहित ६ मनुओं के काल में कल्प के आदि की सन्धि जोड़कर वैवस्वत मनु के २७ चतुर्युगों एवं २८वें चतुर्युग के सत्ययुग के वर्ष मान को जोड़कर योगफल से सृष्टिप्रारम्भ काल को घटाने से शेष सत्ययुग के अन्त में सृष्टिआरम्भ से गतसौरवर्ष संख्याँ होगी । जिसका प्रमाण १९५३७२०००० सौर वर्ष है ।। ४५-४७ ।।
अत ऊर्ध्वममी युक्ता गतकालाब्दसंख्यया ।
मासीकृता युता मासैर्मधुशुक्लादिभिर्गतैः ॥
पृथक्ष्थास्ते +अधिमासघ्नाः सूर्यमासविभाजिताः ।
लब्धाधिमासकैर्युक्ता दिनीकृत्य दिनान्विताः ॥
द्विष्ठास्तिथिक्षयाभ्यस्ताश्चान्द्रवासरभाजिताः ।
लब्धोनरात्रिरहिता लङ्कायामार्धरात्रिकः ॥
सावनो द्युगणः सूर्याद्दिनमासाब्दपास्ततः ।
सप्तभिः क्षयितः शेषः सूर्याद्यो वासरेश्वरः ॥
इसके अनन्तर गत वर्षों की संख्याँ को जोड़कर योग को १२ से गुणाकर मास बना ले तथा अभीष्ट समय तक के चैत्र शुक्लादि गत मासों की संख्याँ को जोड़कर दो स्थानों में रखे । एक स्थान पर मास संख्याँ को युगाधिमास से गुणाकर युग सौर मासों की संख्याँ से भाग दे । लब्धि सृष्टीदि से गत मासों में अधिमास संख्याँ होगी । अधिमास को दुसरे स्थान में स्थित मास में जोड़ने से चान्द्र मास होंगे । इसमें ३० का गुणा कर दिनात्मक बना ले तथा उसमें गत तिथि जोड़ कर योगफल को दो स्थानों में रखे । एक स्थान पर दिन संख्याँ को युगक्षय तिथियों की संख्याँ से गुणा कर युगचान्द्र दिनों से भाग देने पर लब्धि क्षय तिथियों की संख्याँ होगी । उसे द्वितीय स्थान में स्थित दिन संख्याँ से घटाने पर शेष सावन दिन संख्याँ होगी । सावन दिन संख्याँ में १ रात्री घटाने से लंका में अर्द्ध रात्री कालिक सावन अहर्गण होता है ।। ४८-५० ।।
उक्त अहर्गण द्वारा सूर्य से आरम्भ कर सूर्यादि ग्रह क्रम से दिन, मास और वर्ष के स्वामी होते है । अहर्गण को ७ से भाग देने पर शेष संख्याँ तुल्य सूर्यादि ग्रह दिवा स्वामी होता है ।। ५१ ।।
मासाब्ददिनसंख्याप्तं द्वित्रिघ्नं रूपसंयुतम् ।
सप्तोद्धृतावशेषौ तु विज्ञेयौ मासवर्षौ ॥
अहर्गण के दो स्थानों में रखकर एक स्थान में मास दिन संख्याँ तथा दुसरे स्थान पर वर्ष दिन से भाग देने पर जो लब्धि हो उसमें क्रम से २ और ३ से गुणाकर १-१ जोड़ने से जो संख्याँ हो उसे पृथक-पृथक ७ से भाग देने पर क्रम से शेष तुल्य रव्यादि ग्रह मासेश और वर्षेश होते है ।। ५२ ।।
यथा स्वभगनाभ्यस्तो दिनराशिः कुवासरैः ।
विभाजितो मध्यगत्या भगणादिर्ग्रहो भवेत् ॥
अहर्गण को अपने-अपने युग भगण से गुणा कर युग सावन दिवसों से भाग देने पर भगणादि मध्यम ग्रह होते है ।। ५३ ।।
एवं स्वशीघ्रमन्दोच्चा ये प्रोक्ताः पूर्वयायिनः ।
विलोमगतयः पातास्तद्वच्चक्राद्विशोधिताः ॥
पूर्वोक्त रीति से अनुपात द्वारा अपने-अपने शीघ्रोच्च एवं मन्दोच्च, जिनकी गति पूर्वाभिमुख बतलाई गई है, उनका भी आनयन किया जा सकता है । तथा विलोम गति वाले पातों का भी साधन होता है । परन्तु साधित राश्यादि मान को चक्र में घटाने पर ही मेषादि राशियों के अनुसार पात ग्रह होता है ।। ५४ ।।
द्वादशघ्ना गुरोर्याता भगणा वर्तमानकैः ।
राशिभिः सहिताः शुद्धाः षष्ट्या स्युर्विजयादयः ॥
बृहस्पति के गत भगणों की संख्याँ को १२ से गुणा कर उसमें वर्तमान भगण की राशि संख्याँ को जोड़कर ६० से भाग देने पर शेष संख्याँ तुल्य विजयादि क्रम से संवत्सर होते है ।। ५५ ।।
विस्तरेणैतदुदितं संक्षेपाद्व्यावहारिकम् ।
मध्यमानयनं कार्यं ग्रहाणामिष्टतो युगात् ॥
यह सब मैंने विस्तार पूर्वक कहा । अब युग आरम्भ से सभी ग्रहों के मध्यम मान अनयन की संक्षिप्त एवं व्यावहारिक विधि बतला रहा हूँ ।। ५६ ।।
अस्मिन् कृतयुगस्यान्ते सर्वे मध्यगता ग्रहाः ।
*विना तु पातमन्दोच्चान्मेषादौ तुल्यतामिताः ॥
मकरादौ शशाङ्कोच्चं तत्पातस्तु तुलादिगः ।
निरंशत्वं गताश्चान्ये नोक्तास्ते मन्दचारिणः ॥
इस कृत युग के अन्त में पात एवं मन्दोच्चों को छोड़कर सभी ग्रहों के मध्यम मान समानता को प्राप्त कर मेष राशि के आरम्भ बिन्दु पर थे । चन्द्रमा के उच्च मकर राशि के आरम्भ बिन्दु पर तथा चन्द्रमा का पात तुलाराशि के आरम्भ बिन्दु पर था । मन्द गति के कारण अन्य ग्रहों के पात पूर्णरूप से अंशों का उपभोग नहीं कर पाये थे, इसलिय उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा गया ।। ५७-५८ ।।
योजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानि तु ।
तद्वर्गतो दशगुणात्पदं भूपरिधिर्भवेत् ॥
आठ सौ योजन का द्विगुणित मान पृथ्वी का कर्ण होता है । उस के वर्ग को दश से गुणा कर गुणनफल का वर्गमूल लेने से भूपरिधि होती है ।। ५९ ।।
लम्बज्याघ्नस्त्रिजीवाप्तः स्फुटो भूपरिधिः स्वकः ।
तेन देशान्तराभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ॥
कलादि तत्फलं प्राच्यां ग्रहेभ्यः परिशोधयेत् ।
रेखाप्रतीचीसंस्थाने प्रक्षिपेत्स्युः स्वदेशजा ॥
भूपरिधि को स्वदेशीय लम्बज्या से गुणाकर त्रिज्या से भाग देने पर लब्धि स्वदेशीय भूपरिधि होती है । इष्टस्थान से देशान्तर योजन को ग्रहगति कला से गुणाकर स्वदेशीय भूपरिधि से भाग देने पर लब्ध कलादि फल को, रेखादेश से पूर्व में गणितागत ग्रह में घटाने तथा पश्चिम में जोड़ने से स्वदेशीय मध्यमग्रह होते है ।। ६०-६१ ।।
राक्षसालयदेवौकःशैलयोर्मध्यसूत्रगाः ।
रोहीतकमवन्ती च यथा सन्निहितं सरः ॥
राक्षसों के आवास लंका, देवताओं के स्थान सुमेरु पर्वत के मध्यगत सूत्र पर स्थित रोहीतक, अवन्ती, सन्निहित सरोवर नामक स्थान रेखा देश कहे जाते है ।। ६२ ।।
अतीत्योन्मीलनादिन्दोः पश्चात्तद्गणितागतात् ।
यदा भवेत्तदा प्राच्यां स्वस्थानं मध्यतो भवेत् ॥
अप्राप्य च भवेत्पश्चादेवं वापि निमीलनात् ।
तयोरन्तरनाडीभिर्हन्याद्भूपरिधिं स्फुटम् ॥
षष्ट्या विभज्य लब्धैस्तु योजनैः प्रागथापरैः ।
स्वदेशः परिधौ ज्ञेयः कुर्याद्देशान्तरं हि तैः ॥
पूर्णग्रस्त चन्द्रमा जब भूमि की छाया से बाहर निकलने लगता है तो उसे उन्मीलन काल कहा जाता है । यदि गणितागत उन्मीलन काल के बाद वेधसिद्ध उन्मीलन काल हो तो स्वस्थान मध्य रेखा देश से पूर्व में स्थित समझना चाहिये । यदि गणितागत काल से पहले ही उन्मीलन दृश्य हो तो स्वस्थान रेखा देश से पश्चिम में समझना चाहिए । इस उन्मीलन कालसे भी इष्ट स्थान का पूर्वापर ज्ञान किया जा सकता है । गणितागत एवं दृक्सिद्ध समयान्तर को स्पष्ट भूपरिधि से गुणाकर ६० से भाग देने से लब्धि देशान्तर योजन होती है । लब्धि तुल्य योजन स्वदेशीय परिधि में मध्यरेखा से पूर्व या पश्चिम में स्वस्थान होता है ।। ६३-६५ ।।
वारप्रवृत्तिः प्राग्देशे क्षपार्धे +अभ्यधिके भवेत् ।
तद्देशान्तरनाडीभिः पश्चादूने विनिर्दिशेत् ॥
रेखादेश से पूर्ववर्ती देशों में रेखादेशीय मध्यरात्री काल से देशान्तर नाडी तुल्य अधिककाल में वारप्रवृति होती है । इसी प्रकार पश्चिमस्थदेशों में देशान्तर घटी तुल्य पहले वार प्रवृति होती है ।। ६६ ।।
इष्टनाडीगुणा भुक्तिः षष्ट्या भक्ता कलादिकम् ।
गते शोध्यं युतं गम्ये कृत्वा तात्कालिको भवेत् ॥
ग्रह की मध्यम गति कला को इष्ट घटी से गुणा कर ६० का भाग देने से जो कलादि लब्धि हो उसे गत इष्ट घटी होने पर मध्यरात्रि कालिक ग्रह में घटाने तथा गम्य इष्टघटी हो तो मध्यरात्री कालिक ग्रह में जोड़ने से इष्टकालिक ग्रह होता है ।। ६७ ।।
भचक्रलिप्ताशीत्यंशं परमं दक्षिणोत्तरम् ।
विक्षिप्यते स्वपातेन स्वक्रान्त्यन्तादनुष्णगुः ॥
तन्नवांशं द्विगुणितं जीवस्त्रिगुणितं कुजः ।
बुधशुक्रार्कजाः पातैर्विक्षिप्यन्ते चतुर्गुणम् ॥
एवं त्रिघनरन्ध्रार्करसार्कार्का दशाहताः ।
चन्द्रादीनां क्रमादुक्ता मध्यविकेषेपलिप्तिकाः ॥
चन्द्रमा अपने पात स्थान के प्रभाव से क्रान्ति वृत्तीय अपने मध्य स्थान से भचक्रकला के ८०वें भाग तुल्य दूरी तक उत्तर और दक्षिण में विक्षिप्त होते है । चन्द्रमा के विक्षेप के द्विगुणित नवमांश तुल्य गुरु उत्तर एवं दक्षिण तक आकृष्ट होता है । चन्द्र विक्षेप के त्रिगुणित नवमांश तुल्य स्वस्थान से मंगल उत्तर एवं दक्षिण अपकृष्ट होता है । इसी प्रकार बुध, शुक्र और शनि चन्द्र विक्षेप के चतुर्गुणित नवमांश तुल्य स्वक्रान्ति स्थान से उत्तर और दक्षिण अपने-अपने पातों द्वारा हटा दिए जाते है । इस प्रकार ३ का घन को दश से गुणा करने पर क्रम से चन्द्रादि ग्रहों की विक्षेप कला सिद्ध होती है ।। ६८-७० ।।
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