Shree Naval Kishori

सूर्य-सिद्धांत अध्याय-11 पाताधिकारः (सूर्य और चंद्रमा के एकई अहितकर पक्ष)

एकायनगतौ स्यातां सूर्यचन्द्रमसौ यदा ।
तद्युतौ मण्डले क्रान्त्योस्तुल्यत्वे वैधृताभिधः ॥

यदि सूर्य और चन्द्र एक ही अयन में गए हो, दोनों का योग १२ राशि हो, तथा इनकी स्पष्ट क्रान्ति समान हो तो वैधृतसंज्ञक पात होता है ।। १ ।।

विपरीतायनगतौ चन्द्रार्कौ क्रान्तिलिप्तिका ।
समास्तदा व्यतीपातो भगणार्धे तयोर्युतौ ॥

जब सुर्य और चन्द्र का अयन परस्पर विपरीत हो, दोनों का योग ६ राशि हो तथा दोनों की क्रान्ति समान हो तो व्यतीपात संज्ञक पात होता है ।। २ ।।

तुल्यांशुजालसम्पर्कात्तयोस्तु प्रवहाहतः ।
तद्दृक्क्रोधभवो वह्निर्लोकाभावाय जायत् ।।

क्रान्तिसाम्य कालिक सूर्य और चन्द्र के किरणों के सम्पर्क से तथा परस्पर दृष्टियों के क्रोध से उत्पन्न अग्नि, जो प्रवहवायु के वेग से आहात होकर प्रज्वलित होती है, वह लोक के लिए अशुभ फलदायक होती है ।। ३ ।।

विनाशयति पातो +अस्मिन् लोकानामसकृद्यतः ।
व्यतीपातः प्रसिद्धो +अयं सञ्ज्ञाभेदेन वैधृतः ॥

क्रान्तिसाम्यकालिक यह पातरूप अग्नि बार-बार लोक के मंगलों का नाश करती है इसलिये यह व्यतीपातसंज्ञक पात प्रसिद्ध है । यही व्यतीपातसंज्ञक अग्नि नाम भेद से वैधृतिपात संज्ञक होती है ।। ४ ।।

स कृष्णो दारुणवपुर्लोहिताक्षो महोदरः ।
सर्वानिष्टकरो रौद्रो भूयो भूयः प्रजायत् ।।

कृष्णवर्ण वाला, कठोर एवं भयंकर शरीरवाला, लाल नेत्रों से युक्त, विशाल उदरवाला, सबका अनिष्ट करने वाला भयानक वह बार-बार उत्पन्न होता है ।। ५ ।।

भास्करेन्द्वोर्भचक्रान्तश्चक्रार्धावधिसंस्थयोः ।
दृक्तुल्यसाधितांशादियुक्तयोः स्वावपक्रमौ ॥

दृकतुल्य से संस्कृत सूर्य और चन्द्र का योग १२ राशि या ६ राशि के तुल्य होने पर उनकी क्रान्ति का साधन करना चाहिये ।। ६ ।।

अथौजपदगस्येन्दोः क्रान्तिर्विक्षेपसंस्कृता ।
यदि स्यादधिका भानोः क्रान्तेः पातो गतस्तदा ॥
ऊना चेत्स्यात्तदा भावी वामं युग्मपदस्य च् ।
पदान्यत्वं विधोः क्रान्तिविक्षेपाच्चेद्विशुध्यति ॥

विषमपद में स्थित चन्द्र की शरसंस्कृत क्रान्ति यदि सूर्य की क्रान्ति से अधिक हो तो गत पात तथा उन हो तो गम्य पात होता है । समपद में चन्द्रमा हो तो इससे विपरीत अर्थात सूर्य की क्रान्ति से चन्द्र की क्रान्ति यदि न्यून हो तो गत, पात, अधिक हो तो गम्यपात होता है । भिन्न दिशा के शर में चन्द्रकान्ति घट जाने पर चन्द्रमा का पद भिन्न होताहै ।। ७-८ ।।

क्रान्त्योर्ज्ये त्रिज्ययाभ्यस्ते परक्रान्तिज्ययोद्धृत् ।
तच्चापान्तरमर्धं वा योज्यं भाविनि शीतगौ ॥
शोध्यं चन्द्राद्गते पाते तत्सूर्यगतिताडितम् ।
चन्द्रभुक्त्या हृतं भानौ लिप्तादि शशिवत्फलम् ॥
तद्वच्छशाङ्कपातस्य फलं देयं विपर्ययात् ।
कर्मैतदसकृत्तावद्यावद्क्रान्ती समे तायोः ।।

सूर्य और चंद्रमा की क्रांतिज्या को पृथक पृथक त्रिज्या से गुणा कर दोनों के परमक्रांतिज्या का भाग देने से जो लब्धि प्राप्त हो उनके चापों के अंतर को अथवा अंतर के आधे को गत-गम्य पातों के अनुसार चन्द्रमा में हीन युत करने से अभीष्ट चन्द्रमा होता है । इस चन्द्र सम्बन्धिफल को सूर्य की गति से गुणाकर चन्द्र की गति का भाग देने से प्राप्त लब्धि को सूर्य में चन्द्रमा की तरह युत हीन करने से सूर्य होता है । ऐसे ही चन्द्र सम्बन्धी फल को चन्द्रपात की गति से गुणाकर चन्द्रगति का भाग देने से जो फल आवे उसका पाते में विलोम संस्कार करने से चन्द्रपात होता है । इस प्रकार से साधन किये हुए सूर्य की क्रान्ति और पात संस्कृत चन्द्र की, स्पष्टान्ति, अतुल्य हों तो फिर पूर्ववत् साधन किये हुए चापान्तर से संस्कृत सूर्य और चन्द्र की क्रान्ति का साधन करना चाहिए । फिर भी यदि क्रान्ति अतुल्य हों तो जबतक क्रान्ति समान न हो जाय तब तक असकृत करनी चाहिए । इस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा की क्रान्ति समान होगी ॥ ९-११ ॥

क्रान्त्योः समत्वे पातो +अथ प्रक्षिप्तांशोनिते विधौ ।
हीने +अर्धरात्रिकाद्यातो भावी तात्कालिके +अधिक् ।।

सूर्य और चन्द्र की स्पष्टक्रान्ति समान होने पर स्पष्टपात अर्थात् पात का मध्यकाल स्पष्ट होता है । स्पष्टपात सम्बन्धि चन्द्रमा अपने आसन्न अर्द्धरात्रकालिक चन्द्रमा से हीन हो तो उस अर्धरात्रिकाल से पातकाल गत तथा अधिक हो तो पातकाल गम्य होता है II १२ II

स्थिरीकृतार्धरात्रेन्द्वोर्द्वयोर्विवरलिप्तिकाः ।
षष्टिघ्न्यश्चन्द्रभुक्त्याप्ताः पातकालस्य नाडिकाः ॥

स्थिरीकृतचन्द्र अर्थात् स्पष्टक्रान्तिसाम्यकालिक चन्द्र और अर्धरात्रकालिकचट की अन्तरकला को ६० से गुणा कर गुणनफल में अर्धरात्रकालिक चन्द्रगति का भाग देने से प्राप्त लब्धितुल्य घटिका अर्धरात्रिकाल से पातकाल की गत घटिका होती हैं ॥ १३ ।

रवीन्दुमानयोगार्धं षष्ट्या सङ्गुण्य भाजयेत् ।
तयोर्भुक्त्यन्तरेणाप्तं स्थित्यर्धं नाडिकादि तत् ॥

सूर्य और चन्द्र की बिम्बमान कला का साधन कर दोनों के योग के आधे को ६० से गुणाकर गुणनफल में सूर्य और चन्द्र की गत्यन्तर का भाग देने से लब्धि स्थित्यर्थ घटिका होती हैं ॥ १४ ।।

पातकालः स्फुटो मध्यः सो +अपि स्थित्यर्धवर्जितः ।
तस्य सम्भवकालः स्यात्तत्संयुक्तो +अन्त्यसांज्ञितः ॥

पूर्वोक्त प्रकार से साधित स्पष्टपातकाल हीं पात का मध्यकाल कहा गया है । इसमें स्थित्यर्ध घटिका घटाने से पात का आरम्भ काल तथा जोड़ने से पात का अन्तकाल होता है ॥ १५ ।।

आद्यन्तकालयोर्मध्यः कालो ज्ञेयो +अतिदारुणः ।
प्रज्वलज्ज्वलनाकारः सर्वकर्मसु गर्हितः ॥
एकायनगतं यावदर्केन्द्वोर्मण्डलान्तरम् ।
सम्भवस्तावदेवास्य सर्वकर्मविनाशकृत् ॥

पात के आरंभ और अंत के मध्य का काल , अत्यंत दारुण काल होता है । यह काल अत्यन्त कठिन और सम्पूर्ण कार्यों में निन्दित है । इसका स्वरूप देदीप्यमान॑ अग्नि के तुल्य है । इसलिये इसमें किये हुए सम्पूर्ण कर्म जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं । अतः इस काल में कोई शुभ कर्म नहीं करना चाहिए । सूर्य और चन्द्र के बिम्बों के किसी एक प्रदेश की क्रान्ति जितने काल शक तुल्य रहती है उतने काल तक संपूर्ण शुभ कर्मों के नाश करने वाले पात कि स्थिति रहती हैं ।। १६-१७ ।।

स्नानदानजपश्राद्धव्रतहोमादिकर्मभिः ।
प्राप्यत सुमहच्छ्रेयस्तत्कालज्ञानतस्तथा ॥

उस काल में स्नान, दान, जप, श्राद्ध एवं अभीष्ट देवता की आराधना और होम आदि धर्म क्रिया करने से अत्यन्त पुण्य प्राप्त होता है । उस काल के जानने वाले को स्नान, दान आदि के तुल्य पुण्य स्वत: ही प्राप्त हो जाता है ।। १८ ॥।

रवीन्द्वोस्तुल्यता क्रान्त्योर्विषुवत्सन्निधौ यदा ।
द्विर्भवेद्धि तदा पातः स्यादभावो विपर्ययात् ॥

विषुद्वृत्त की सन्निधि में सूर्य और चढ़ की क्रान्ति समान हो तो व्यतीपात-वैधृति भेदद्वयात्मक पात दो बार होगा । चन्द्र की अयन सन्धि के निकट यदि सूर्य की क्रान्ति से चन्द्र की क्रान्ति न्यून हो तो पात का अभाव होता है ॥ १९ ।।

शसाङ्कार्कयुतेर्लिप्ता भभोगेन विभाजिताः ।
लब्धं सप्तदशान्तो +अन्यो व्यतीपातस्तृतीयकः ॥

अयनांश संस्कृत सूर्य और चन्द्रमा के योग की कला में ८०० का भाग
देने से लब्धि सप्तदशान्त हो तो एक अन्य तीसरा व्यतिपात होती है । यह भी सम्पूर्ण शुभ कर्मों में निषिद्ध है । २६ वें योग से आगे २७ वाँ वैधृति नामक योग भी सम्पूर्ण शुभ कर्मों में निषिद्ध है । यह भी पञ्चांगस्थ वैधृति योग एवं पूर्वोक्त वैधृत से भिन्न है ।। २०।।

सार्पेन्द्रपौष्ण्यधिष्ण्यानामन्त्याः पादा भसन्धयः ।
तदग्रभेष्वाद्यपादो गण्डान्तं नाम कीर्त्यत् ।।

आश्लेषा , ज्येष्ठा तथा रेवती नक्षत्र के चतुर्थ चरण को भसंधि कहते है । इनसे अग्रिम नक्षत्र माघ, मूल और अश्विनी, नक्षत्रों के प्रथम चरण को गंडांत कहते है ।।२१।।

व्यतीपातत्रयं घोरं गण्डान्तत्रितयं तथा ।
एतद्भसन्धित्रितयं सर्वकर्मसु वर्जयेत् ॥

व्यतीपातत्रय, वैधृति त्रय, गंडांत त्रय, भसंधि त्रय ये सब घोर है । अतः ये चारो घोर संज्ञक संपूर्ण शूभ कर्मों में वर्जित है ।।२२।।

इत्येतत्परमं पुण्यं ज्योतिषां चरितं हितम् ।
र्हस्यं महदाख्यातं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥

हे मयासुर ! यह सब कुछ परम पवित्र , ग्रह नक्षत्रादिकों का रहस्यमय महान चरित्र तुम्हारे लिए मैंने कहा, अब इससे अतिरिक्त और क्या सुनना चाहते हो ।।२३।।